SHANDILYA
ATHATO BHAKTI JIGYASA 33
ThirtyThird Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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सूत्र
उत्क्रांतिस्मृतिवाक्यशेषाच्च।। 81।।
महापातकिनां त्वार्तौ।। 82।।
सैकान्तभावो गीतार्थप्रत्यभिज्ञानात्।। 83।
परां कृत्वैव सर्वेषां तथाह्याह।। 84।।
भजनीयेनाद्वितीयमिदं कृत्स्नस्य तत्स्वरूपत्वात्।। 85।।
जुस्तजू-ए-राह बाकी है न मंजिल की तलाश
मुझको खुद है अब मेरे खोए हुए दिल की तलाश
रोक ऐ हमदम! न मेरी अश्क-अफशानी को तू
महफिले-हस्ती को है इक शाम-ए-महफिल की तलाश
अब नजर आए जहां अपने सिवा कोई न हो
दिल को राहे-शौक में है ऐसी मंजिल की तलाश
दीदाए-जाहिर से कब तक देखिए अंदाजे-दोस्त
कीजिए ऐ ‘शमअ’! अब इक दीदाए-दिल की तलाश
एक तो आंख है हमारे पास जो बाहर देखती है। और एक आंख हमारे पास और भी है जो भीतर देखती है। उस भीतर की आंख का हमें कुछ अनुमान नहीं है। उस भीतर की आंख को खोज लेने का नाम ही धर्म है। और जो आंख भीतर की है वह भीतर ही नहीं देखती है, वह बाहर के पीछे छिपा जो भीतर है उसे भी देखती है।
संसार और परमात्मा दो नहीं हैं। संसार का अर्थ है: परमात्मा अभी केवल बाहर की आंख से देखा गया है। परमात्मा अभी बाहर-बाहर से देखा गया है, तो संसार। जिस दिन संसार को हम भीतर की आंख से देख लेते हैं, उसी दिन संसार विलीन हो जाता है, परमात्मा ही शेष रह जाता है। परमात्मा संसार की अंतरंग भूमिका है। परमात्मा संसार की आत्मा है।
परमात्मा और संसार दो नहीं हैं, हमारे देखने के दो ढंग हैं।
दीदाए-जाहिर से कब तक देखिए अंदाजे-दोस्त
बाहर की आंख से कब तक उस प्यारे को देखने की कोशिश करोगे?
दीदाए-जाहिर से कब तक देखिए अंदाजे-दोस्त
कीजिए ऐ ‘शमअ’! अब इक दीदाए-दिल की तलाश
अब एक ऐसी आंख चाहिए जो दिल में ऊगे। एक हृदय की आंख चाहिए। उस हृदय की आंख से ही परमात्मा देखा जा सकता है। लोग पूछते हैं: परमात्मा कहां है? उन्हें पूछना चाहिए: मेरा हृदय कहां है? मेरा हृदय कैसे खुले? उन्हें पूछना चाहिए कि मैं भीतर देखने में समर्थ कैसे हो पाऊं? जो अपने भीतर देख लेगा वह समस्त के भीतर भी देख लेता है, ध्यान रखना। बाहर से हम अपने को भी देखते हैं, संसार को भी देखते हैं। न हमारी अपने से सीधी पहचान है, न संसार से सीधी पहचान है।
भक्ति उस भीतर की आंख को खोलने का सुगमतम उपाय है। योग भी खोलता है उस आंख को, पर लंबी प्रक्रियाएं हैं। बड़ा यतन है, बड़ी चेष्टा है, जबर्दस्ती है। भक्ति भी खोलती है उस आंख को; पर न चेष्टा है, न जबर्दस्ती है। यतन नहीं है, भजन है। भक्त सिर्फ परमात्मा के हाथों में अपने को छोड़ देता है--खोलो मेरी भीतर की आंख!
फिर जिसने जीवन दिया है, जिससे अस्तित्व उमगा है, उससे सब हो सकता है--सब असंभव संभव है। तुम इस छोटी सी बात को ठीक से समझ लेना। जिस ऊर्जा से सारा जगत चलता है, जिस ऊर्जा से चांद-तारे बनते हैं, जिस ऊर्जा से तुम जन्मे हो, वृक्ष जन्मे हैं, पहाड़-पर्वत जन्मे हैं, उस ऊर्जा से तुम्हारी भीतर की आंख न खुल सकेगी? अगर तुम संसार को भी ठीक से देखो, तो एक बात साफ हो जाती है--इतना विराट विस्तार इतनी सुगमता से चल रहा है, तो क्या इतनी विराट ऊर्जा के बस में यह बात न होगी कि तुम्हारे हृदय की कली खुल जाए? सूरज निकलता है, करोड़ों-करोड़ों कलियां खिल जाती हैं।
भक्ति का यही भरोसा है, कि हमारे किए नहीं होता है, हमारे किए बाधा पड़ती है, हमारे करने से ही बाधा पड़ जाती है; सहजता से होता है, उस पर भरोसे से होता है, श्रद्धा से होता है।
आज के सूत्र बड़े बहुमूल्य हैं। पहला सूत्र--
उत्क्रांतिः स्मृतिवाक्यशेषात् च।
‘क्योंकि श्री भगवान ने कहा है कि उनके भक्तगण सब कर्मों का उल्लंघन करके एक ही बार में सिद्धिलाभ करने में समर्थ होते हैं।’
एक-एक शब्द समझने जैसा है।
उत्क्रांतिः स्मृतिवाक्यशेषात् च।
स्मरण करो उन भगवान के वचनों का। वे वचन बिखरे पड़े हैं। वेदों में, उपनिषदों में, गीता में, कुरान में, बाइबिल में, सारे जगत के शास्त्रों में वे वचन बिखरे पड़े हैं। भगवान बहुत बार बोला है। जब भी किसी भक्त ने पुकारा है तो भगवान बोला है। गीता बोली गई अर्जुन की प्यास के कारण। न अर्जुन प्यासा होता, न गीता का जन्म होता। जब भी कोई भक्त प्यासा हुआ है, तो उसका मेघ बरसा है। खूब बरसा है। वचन बिखरे पड़े हैं। मनुष्य-जाति की चेतना के इतिहास में जगह-जगह मील के पत्थर हैं। भगवान बहुत बार बोला है। तुम भी पुकारोगे, तुमसे भी बोलेगा। तुमसे नहीं बोला है तो सिर्फ इसीलिए कि तुमने पुकारा ही नहीं। तुमने प्यास ही जाहिर नहीं की। तुमने प्रार्थना ही निवेदन नहीं की। तुमने पाती ही नहीं लिखी। और तुम नाहक शिकायत कर रहे हो कि मुझसे कभी नहीं बोला। मुझे कैसे भरोसा आए? बोला होगा अर्जुन से, अर्जुन जाने, मुझे कैसे भरोसा आए?
अर्जुन की भांति तुमने पुकारा है? निवेदन किया है? तुम निवेदन करोगे और तत्क्षण तुम पाओगे--उतरने लगे उसके वचन, किरणें आने लगीं, कली खिलने लगी।
उत्क्रांतिः स्मृतिवाक्यशेषात् च।
यह उत्क्रांति शब्द भी समझ लेने जैसा है। तीन शब्द समझोगे तो उत्क्रांति शब्द समझ में आएगा।
एक शब्द है, विकास। विकास का अर्थ होता है: जो अपने आप हो रहा है। करना नहीं पड़ता। बच्चा जवान हो जाता है, जवान बूढ़ा हो जाता है। बीज पौधा हो जाता है, पौधा वृक्ष बन जाता है, वृक्ष में फूल आ जाते हैं। यह विकास। इसे कोई कर नहीं रहा है। यह हो रहा है। विकास को ठीक से समझो। भक्त की आस्था इसी विकास में है, इसी विकास के परम रूप में है। अब वृक्ष को खींच-खींच कर थोड़े ही बीज से निकालना पड़ता है। और निकालोगे तो क्या निकाल पाओगे! बीज का नाश हो जाएगा। कली को पकड़ कर खोलना थोड़े ही पड़ता है! खोलोगे, तुम्हारे खोलने में ही मुर्झा जाएगी, कभी फूल न बन पाएगी। बच्चे को खींच-खींच कर थोड़े ही जवान करना पड़ता है। सौभाग्य है कि लोग खींच-खींच कर बच्चों को जवान नहीं करते। नहीं तो बच्चे कभी के समाप्त हो गए होते। सब अपने से हो रहा है। इतना विराट अपने से हो रहा है! इस अपने से होने पर भरोसा करो।
विकास का अर्थ होता है: जो अपने से हो रहा है। क्रांति का अर्थ होता है: जो करनी पड़ती है। जोर-जबर्दस्ती, हिंसा। इसीलिए क्रांति में तो मौलिक रूप से हिंसा छिपी हुई है। अहिंसक क्रांति होती ही नहीं। क्रांति का अर्थ ही जोर-जबर्दस्ती है। फिर तुमने जोर-जबर्दस्ती कैसे की, इससे फर्क नहीं पड़ता। किसी की छाती पर छुरा रख कर कर दी, कि उपवास रख कर कर दी, मगर जोर-जबर्दस्ती है। अपने को मारने की धमकी दी, कि दूसरे को मारने की धमकी दी, इससे भेद नहीं पड़ता। क्रांति का अर्थ ही होता है: तुमने भरोसा खो दिया विकास पर, तुम जल्दबाजी में पड़ गए। क्रांति में अश्रद्धा है।
इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि क्रांतिकारी अक्सर नास्तिक होते हैं। यह आकस्मिक नहीं है कि क्रांतिकारी अधार्मिक हो जाते हैं। यह आकस्मिक नहीं है। इसके पीछे तारतम्य है। क्रांति का अर्थ ही होता है: किसी व्यक्ति ने अब भरोसा खो दिया विकास पर। अब वह कहता है, हमारे बिना किए नहीं होगा। कुछ करेंगे तो होगा। ऐसे तो चलता ही रहा है, कभी कुछ नहीं होता। क्रांति का अर्थ होता है: जोर-जबर्दस्ती से लाया गया उलट-फेर। उसमें खून के धब्बे तो रहते ही हैं। दाग तो छूट जाते हैं, जो फिर मिटाए नहीं मिटते।
उत्क्रांति का क्या अर्थ है?
उत्क्रांति बड़ा अनूठा शब्द है। उत्क्रांति में कुछ तो क्रांति का हिस्सा है, इसलिए उसको उत्क्रांति कहते हैं; और कुछ विकास का हिस्सा है, इसलिए उसको क्रांति मात्र नहीं कहते, उत्क्रांति कहते हैं।
विकास अपने से हो रहा है। बड़ी धीमी आहिस्ता गति है। तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ता। तुम सोते रहो, बैठे रहो, तुम जवान होते रहोगे। तुम सोते रहो, बैठे रहो, तुम बूढ़े होते रहोगे। कुछ करो, न करो, बुढ़ापा आता रहेगा। अपने से हो रहा है। उसके विपरीत करना कुछ संभव नहीं है। जल्दबाजी भी क्या करोगे? जल्दबाजी भी कुछ हो नहीं सकती। अवश हो। तुम्हारी प्यास की भी जरूरत नहीं है, तुम्हारी प्रार्थना की भी जरूरत नहीं है। तो विकास।
और क्रांति का अर्थ है: तुम्हारे पूरे अहंकार की जरूरत है। तुम अपने अहंकार के हाथ में सब ले लो, सारी व्यवस्था ले लो, जगत के नियम अपने हाथ में ले लो, तोड़-मरोड़ करो, जबर्दस्ती करो, अपनी मंशा पूरी करने की चेष्टा करो।
उत्क्रांति का अर्थ है: इतना तुम करो--प्रार्थना, प्यास--और शेष परमात्मा को करने दो। प्रार्थना तुम्हें करनी होगी, इसलिए थोड़ी क्रांति उसमें है। क्योंकि इतनी तो तुम्हें चेष्टा करनी होगी--प्रार्थना की, प्यास की, पुकार की। लेकिन फिर शेष अपने आप होता है; बाकी सब विकास है। इसलिए उत्क्रांति बड़ा अदभुत शब्द है। उसमें विकास और क्रांति का समन्वय है। उसमें जो भी शुभ है विकास में, वह सब ले लिया गया है; और जो अशुभ है, वह छोड़ दिया गया है। क्या शुभ है विकास में? शुभ है कि सब अपने से होता है। अशुभ है कि लोग काहिल और सुस्त हो जाते हैं। मुर्दा हो जाते हैं। जो क्रांति में शुभ है, वह भी ले लिया है; और जो अशुभ है, वह छोड़ दिया है। शुभ क्या है क्रांति में? कि लोग मुर्दा नहीं होते। सजग होते हैं, सचेत होते हैं। अशुभ क्या है? हिंसक हो जाते हैं, अहंकारी हो जाते हैं। उत्क्रांति ने दोनों में जो सुगंध थी, इकट्ठी कर ली है; दोनों में जो दुर्गंध थी, वह छोड़ दी है। प्रार्थना तुम करना, भजन तुम करना, कीर्तन तुम करना, पुकारना तुम, आंसू तुम बहाना, मगर शेष उसे करने देना। बस पुकार तुम्हारी तरफ से पूरी हो जाए, फिर सब कुछ प्रसाद उसकी तरफ से बरसेगा। उत्क्रांति में मनुष्य और परमात्मा का मिलन है। विकास में अकेला परमात्मा है, क्रांति में अकेला मनुष्य है, उत्क्रांति में मनुष्य और परमात्मा का मिलन है। संग-साथ हो लिए, हाथ में हाथ हो गया।
उत्क्रांति बड़ा प्यारा शब्द है। शांडिल्य ने इस शब्द का उपयोग करके गजब किया।
शांडिल्य कहते हैं: ‘उत्क्रांतिः स्मृतिवाक्यशेषात् च।’
याद करो परमात्मा ने कितनी बार कहा है--उत्क्रांति से होगा।
‘श्री भगवान ने कहा है: उनके भक्तगण सब कर्मों का उल्लंघन कर एक बार ही सिद्धिलाभ करने में समर्थ होते हैं।’
सब कर्मों का उल्लंघन कर! यह बात गणित को पकड़ में नहीं आती। सोच-विचारशील आदमी इससे बड़ी बेचैनी में पड़ जाता है। सोच-विचारशील आदमी सोचता है कि जितने हमने पापकर्म किए हैं, उतने हमें पुण्यकर्म करने पड़ेंगे, तब तराजू बराबर, पलड़े दोनों एक वजन के होंगे। बुरा किया, अच्छा करना होगा। चोट किसी को पहुंचाई, तो सेवा करनी होगी। किसी को लूट लिया, तो दान देना होगा। यह बात बिलकुल गणित की है। यह बात बिलकुल न्याययुक्त मालूम होती है कि बुरे को साफ करना होगा। फिर बुरा करने में जनम-जनम लगे हैं, तो साफ करने में भी जनम-जनम लगेंगे। उत्क्रांति कैसे हो जाएगी? एक क्षण में कैसे हो जाएगा? तत्क्षण कैसे हो जाएगा?
लेकिन भक्त जानता है कि तत्क्षण भी हो जाता है। तत्क्षण होने की कला है, कीमिया है।
क्या कीमिया है? पहली बात, तुमसे बुरा कभी हुआ है, वह इसीलिए हुआ है कि तुम सजग न थे, सचेत न थे। तुमसे बुरा अगर कभी हुआ है, तो तुमने जान कर बुरा नहीं किया है। तुम ऐसा आदमी नहीं खोज सकोगे जो जान कर बुरा करता है। बुरे से बुरा करने वाला भी अनजाने करता है। या सोच कर करता है कि ठीक ही कर रहा हूं। या सोचता है कि इससे कुछ न कुछ ठीक होगा। और बुरा से बुरा आदमी भी पछताता है कि ऐसा मैंने क्यों किया? एकांत क्षण में, अपनी निर्जनता में, अपने मौन में सोच-विचार करता है, प्रायश्चित्त करता है। नहीं करना था। हो गया। अब न करूंगा। अब दुबारा नहीं होने दूंगा।
तुम बुरे मन की स्थिति समझो। बुरा मन, बुरा है, ऐसा सोच कर नहीं करता, पहली बात। अगर लगता भी है कि बुरा होगा तो यह अपने को समझा लेता है कि इससे कुछ भला होने वाला है, इसलिए कर रहा हूं। करने के बाद कभी भी इसको अंगीकार नहीं कर पाता कि मैंने क्यों किया। प्रसन्नता से, प्रफुल्लता से स्वीकार नहीं कर पाता। पछताता है। चाहे औरों के सामने न भी कहे, अकड़ और अहंकार की वजह से रक्षा भी करे, लेकिन एकांत में जानता है कि भूल हुई है और नहीं होनी थी। अपनी ही आंखों के सामने पतित हो जाता है। अपनी ही आंखों में श्रद्धा खो जाती है, अपने ही प्रति। और सोचता है कि अब नहीं करूंगा, अब कभी नहीं करूंगा। सबके जीवन में ऐसी घटना घटती है, छोटे पाप हों कि बड़े पाप हों।
भक्ति की उदघोषणा यह है कि आदमी से पाप इसलिए हो रहा है--बहुत पाप हों कि कम, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता--हो इसलिए रहा है कि आदमी अभी सचेत नहीं है। और उसके सचेत होने में बाधा क्या है? उसके सचेत होने में अहंकार बाधा है। मैं हूं, यही उसकी मूर्च्छा है। भक्ति का शास्त्र एक ही मूर्च्छा मानता है--मैं। और जब तक मैं है तब तक बुरा होता ही रहेगा। तुम चाहे पुण्य करो, तो भी पाप होगा। तुम भला करो, तो भी बुरा होगा। जिस दिन मैं चला जाएगा उस दिन तुम बुरा करना भी चाहोगे तो नहीं कर पाओगे। क्योंकि मैं के बिना बुरा नहीं होता। और जहां मैं जाता है, वहां परमात्मा तुम्हारे भीतर से सक्रिय हो जाता है। मैं के कारण परमात्मा सक्रिय नहीं हो पाता।
इसलिए सवाल यह नहीं है कि हम एक-एक कर्म को शुद्ध करें, सवाल यह है कि कर्मों का जो मूल है, अहंकार, उसको समर्पित कर दें। जड़ को काट दें। फिर पत्ते अपने आप ऊगने बंद हो जाते हैं।
आमतौर से लोग पत्ते काटते रहते हैं और वृक्ष बढ़ता रहता है। जड़ को पानी सींचते रहते हैं। तुम्हें यह बात लगेगी कठिन, लेकिन तुम अगर परीक्षा करोगे चारों तरफ, अवलोकन करोगे--अपना, औरों का--तो बात साफ हो जाएगी। लोग जड़ को तो पानी देते रहते हैं और पत्ते काटते रहते हैं। एक आदमी सोचता है कि मंदिर बनवा दूं--पुण्य का कृत्य! मंदिर तो बनवा देता है, लेकिन मंदिर बना कर अकड़ से भर जाता है कि मैंने मंदिर बनवाया।
भगवान का मंदिर आदमी कैसे बनाएगा? और आदमी का बनाया हुआ मंदिर भगवान का मंदिर कैसे होगा? कम से कम मंदिर बनाते वक्त तो यह स्मरण रखना चाहिए था कि वही बना रहा है; शायद मैं उपकरण हूं--निमित्त मात्र। उसके अपने हाथ नहीं हैं, मेरे हाथों का उपयोग कर रहा है। मेरे सहारे बना रहा है। मेरे द्वारा बना रहा है। मुझसे उसकी ऊर्जा बह रही है।
लेकिन मैं बना रहा हूं! मंदिरों पर भी पत्थर लग जाते हैं कि बनाने वाला कौन है--दानवीर, महादानवीर। अकड़ आ गई। अहंकार आ गया। तो अहंकार तो जड़ है, उसको तो पानी सींच रहे हो, और सोचते हो कि तुम पुण्य कर रहे हो।
बोधिधर्म चीन गया। सम्राट ने पूछा चीन के उससे कि मैंने बहुत बुद्ध के मंदिर बनवाए, और हजारों प्रतिमाएं प्रतिष्ठित करवाई हैं, और न मालूम कितने विहार और आश्रम बनवाए हैं, और लाखों भिक्षु राजमहल से रोज भोजन पाते हैं, इस सबका पुण्य क्या है?
बोधिधर्म ने कहा, कुछ भी नहीं। और अगर जल्दी न चेते तो महानरक में पड़ोगे।
सम्राट वू तो नाराज हो गया। स्वाभाविक। उसके पहले और भी बौद्ध भिक्षु आए थे, बड़े बौद्ध भिक्षु आए थे, सबने कहा था--आप धन्यभागी, आप महापुण्यात्मा, आपने इतना अपूर्व किया है कि कोई सम्राट अब तक नहीं कर पाया।
सम्राट वू ने चीन को बौद्ध बनाया। तो काम तो उसने बहुत बड़ा किया था। इस देश से बौद्ध धर्म उखड़ गया था, चीन में जमा दिया उसको। करोड़ों लोग बौद्ध हुए सम्राट वू के कारण। तो स्वभावतः बौद्ध भिक्षु उसके गुणगान में स्तुतियां लिखते थे, पत्थर खोदे गए थे, ताम्रपत्र पर उसका नाम लिखा गया था, पहाड़ों पर उसकी स्तुति गाई गई थी।
फिर बोधिधर्म आया। बोधिधर्म अदभुत प्रज्ञापुरुष था। बुद्ध की प्रतिभा का पुरुष था। बाकी जो आए थे, साधु-संन्यासी थे। बोधिधर्म ज्ञानी था। अनुभव से उपलब्ध द्रष्टा था। भगवत्ता को उपलब्ध था। सम्राट वू ने सोचा था कि बोधिधर्म भी मेरी प्रशंसा करेगा। लेकिन बोधिधर्म ने कहा, कुछ भी नहीं पुण्य; और अगर जल्दी यह सब भूल न गए तो महानरक में पड़ोगे।
सुन कर चोट लगती है। लेकिन बोधिधर्म क्या कह रहा है? बोधिधर्म यही कह रहा है, तुमने जो सब किया सो ठीक, मगर मैंने किया है, यह अकड़ को अब पानी मत दो, नहीं तो नरक का रास्ता तय कर रहे हो। अच्छा करके नरक जाओगे।
कर्ता नरक जाता है। न तो अच्छा नरक ले जाता, न बुरा, कर्ता का भाव नरक ले जाता है। भक्ति का शास्त्र कहता है: सिर्फ कर्ता-भाव चला जाए। वही कृष्ण ने अर्जुन से गीता में कहा है, कि तू निमित्त मात्र हो जा। यह गांडीव तू उठा, लेकिन उठाने दे उसे; युद्ध में तू लड़, लेकिन लड़ने दे उसे; तू बीच से हट जा; वह तेरा जो काम लेना चाहे, ले लेने दे; तू निमित्त मात्र है। और इस चिंता में भी मत पड़ कि तू लोगों को मार रहा है। तू क्या मारेगा? जिसे उसे मारना है, वह मार रहा है; जिसे मारना है, वह मार ही चुका है। मैं तुझसे कहता हूं, अर्जुन, कि मैं देखता हूं यहां अनेक मुर्दे खड़े हैं, जिनको सिर्फ धक्के की जरूरत है, वे गिर जाएंगे। धक्का कोई और दे देगा, तू न देगा तो। इसलिए तू चिंता में मत पड़। तू निश्चिंत हो जा। हे कौंतेय! तू निश्चिंत होकर युद्ध में उतर जा। न कोई पाप है, न कोई पुण्य है। एक ही पाप है कि मैं करने वाला हूं, और एक ही पुण्य है कि परमात्मा करने वाला है।
इसलिए उत्क्रांति संभव है। बस इतनी ही बात बदल जानी चाहिए। और यही कठिन मालूम पड़ता है। अच्छे काम करने को हम राजी हैं, लेकिन यह अहंकार छोड़ने को हम राजी नहीं हैं।
‘श्री भगवान ने कहा है कि उनके भक्तगण सब कर्मों का उल्लंघन कर एक ही बार में सिद्धिलाभ करने में समर्थ होते हैं।’
‘हे कौंतेय!’ कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ‘जो अनन्यचित्त होकर आराधना करते हैं, वे यदि अत्यंत दुराचारी भी हों तो भी उन्हें साधु जानना, क्योंकि पापीजन भी यदि मेरी भक्ति करें तो शीघ्र ही शांति की उपलब्धि कर लेते हैं। भगवान की कृपा से भक्तगण सब अवस्था में कल्याण को प्राप्त करते हैं, इसमें कोई भी संदेह नहीं है।’
जब पहली बार इस तरह के वचनों का पश्चिम की भाषाओं में अनुवाद हुआ, तो विद्वज्जन चौंक गए थे। ये कैसे वचन हैं?
‘हे कौंतेय, जो अनन्यचित्त होकर मेरी आराधना करते हैं, वे यदि अत्यंत दुराचारी भी हों तो भी उन्हें साधु जानना।’
ये कैसे वचन हैं? जिन्होंने इनके अनुवाद किए थे उनको भरोसा नहीं होता था कि वे अनुवाद ठीक कर रहे हैं; क्योंकि धर्मशास्त्र ऐसा कहेगा! उन्होंने तो मूसा की दस आज्ञाएं पढ़ी थीं--ऐसा मत करना, ऐसा मत करना, ऐसा मत करना; ऐसा करना, ऐसा करना, ऐसा करना। उन्होंने तो करना और न करना ही सुना था। उन्हें इस अपूर्व बात का कुछ पता ही न था कि जड़ भी काटी जा सकती है। करना न करना तो पत्तों की बातें हैं। जड़ काटी जा सकती है।
जड़ कैसे कटती है?
अनन्यचित्त होकर। जो मेरे साथ एक भाव हो जाता है, अनन्यचित्त हो जाता है, कृष्ण कहते हैं, जो अपनी दूरी समाप्त कर देता है, जो मेरे और अपने बीच किसी तरह का व्यवधान नहीं रखता, जो सब भांति मेरी तरंग में तरंग बन जाता है; फिर वह पापी भी हो तो उसको साधु जानना।
इससे उलटा भी सच है। जो मेरे साथ अनन्यचित्त न हो--यह गीता में कहा नहीं है, लेकिन मैं तुमसे कहता हूं--वह अगर पुण्यात्मा भी हो तो उसे साधु मत जानना। वह तो सीधा तर्क है। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। क्यों साधु मत जानना? क्योंकि जहां अहंकार है, वहां साधुता नहीं है। साधुता का जन्म ही निर-अहंकार भाव में होता है। वह निर-अहंकारिता की सुवास है। वह निर-अहंकार का फूल जब खिलता है तो जो सुवास उठती है, उसी का नाम साधुता है।
अनन्यभाव बहुमूल्य शब्द है। अन्य नहीं हो तुम, सो अनन्य। अलग नहीं हो तुम, भिन्न नहीं हो तुम--अभिन्न। हम हैं ही नहीं भिन्न, हम सब संयुक्त हैं, एक ही प्राण हममें प्रवाहित है, हम एक ही धारा की तरंगें हैं। बस मान बैठे हैं कि हम अलग हैं, हर लहर सोच बैठी है कि हम अलग हैं, वहीं अड़चन हो गई है। उस अलग होने के खयाल में ही तुम्हारे जीवन का सारा संकट है। जिस दिन तुम समझ लोगे कि अलग नहीं हो, उसी दिन सारे संकट विलीन हो जाएंगे। एक क्षण में विलीन हो जाएंगे, इसीलिए उत्क्रांति। सब कर्मों का उल्लंघन कर एक ही बार में सिद्धिलाभ करने में समर्थ हो जाता है भक्त।
आरजूएं एक ही मरकज पे रह कर मिट गईं
मैं जिसे आगाज समझा था वही अंजाम है
जिसे भक्त प्रारंभ समझता है, अंत में पाता है कि वही अंत है।
मैं जिसे आगाज समझा था वही अंजाम है
जिसे समझा था कि यात्रा की शुरुआत है...समर्पण मैं तुमसे कहता हूं यात्रा की शुरुआत है। लेकिन समर्पण ही यात्रा का अंत भी है। जब तक तुमने समर्पण नहीं किया है तब तक यात्रा की शुरुआत है, जिस दिन किया, उसी दिन यात्रा की पूर्णता हो गई। फिर उसके पार जाने को बचा कौन? जाने वाला ही न बचा। यात्री ही खो गया तो यात्रा कैसे बचेगी? समर्पण का अर्थ होता है: यात्री समाप्त हो गया। यात्री ने अपने हथियार डाल दिए। अपने को डाल दिया।
थोड़ा सोचो, इस महिमापूर्ण भाव को थोड़ा विचारो, इसे थोड़ा भीतर गुनगुन होने दो--अगर तुम नहीं हो, कौन जाएगा? कहां जाएगा? फिर कैसी अतृप्ति? फिर कैसा पाना? कैसा खोना? कैसा निर्वाण? कैसा मोक्ष? किसका मोक्ष? किसका निर्वाण? फिर तुम इसी क्षण पहुंच गए। सब हो गया।
इस एक छोटे से अहंकार को गिरा देने से सब हो जाता है। इस अहंकार के कारण तुम अन्य मालूम हो रहे हो परमात्मा से। अन्य होने के कारण तुम तड़प रहे हो, परेशान हो रहे हो। अन्य होने के कारण मछली सागर के बाहर पड़ गई है। अनन्य हो जाओ, फिर सागर में डुबकी लगा लो, फिर कोई पीड़ा नहीं है। फिर कोई संताप नहीं, कोई चिंता नहीं। फिर तुम घर लौट आए। फिर यह अस्तित्व तुम्हारा शत्रु नहीं है। फिर यह अस्तित्व तुम्हारा मित्र है। पहले कदम पर मंजिल पूरी हो जाती है। और अगर पहले ही कदम पर मंजिल पूरी हो जाती है, तो ही समझना तुम भक्त हो। दूसरा कदम उठाने को बचे, तो उसका मतलब समर्पण अभी पूरा नहीं हुआ था। और समर्पण आधा-आधा होता ही नहीं। या तो होता है तो पूरा होता है, या नहीं होता है। ये समर्पण जैसी महत्वपूर्ण चीजें बांटी नहीं जा सकतीं, काटी नहीं जा सकतीं; कि थोड़ा सा अभी किया, फिर थोड़ा सा कल करेंगे, फिर थोड़ा सा परसों करेंगे। बड़ी हिम्मत चाहिए एक कदम में छलांग लगा लेने की। बड़ा पागलपन चाहिए।
मुझसे पहले कोई शायद इतना दीवाना न था
गौर से तकता है हर इक जर्राए-सेहरा मुझे
और जब भक्त पहली छलांग लगाता है, तो सारी दुनिया उसे गौर से देखती है कि यह पागल हुआ! कहीं ऐसे होना है? धीरे-धीरे चलो। नियम पालन करो, व्रत साधो, मंदिर जाओ, पूजा करो, प्रार्थना करो। ऐसे कहीं होना है?
मुझसे लोग कहते हैं कि आप हर किसी को संन्यास दे देते हैं!
मैं कहता हूं, हर किसी को? यह बात ही अपमानजनक है। यहां किसी को भी ‘हर किसी’ मत कहना। यहां परमात्मा के सिवाय कोई भी नहीं है। हर किसी को? उनका मतलब, ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरों को। यहां ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा कोई भी नहीं है। हुआ ही नहीं कभी। हां, किसी ने अपने को खुद ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा मान लिया हो, यह उसकी भ्रांति है, मगर यहां कोई है नहीं। यहां उसके सिवाय कोई भी नहीं है। इसलिए किसी को भी संन्यास दे देता हूं। अनन्यभाव। अन्य तुम हो नहीं। परमात्मा से भिन्न तुम हो नहीं। किसी और पात्रता की जरूरत नहीं है।
लोग मुझसे पूछते हैं: आप पात्रता नहीं पूछते?
एक पुराने ढब के संन्यासी कुछ दिन पहले आ गए थे, काफी उम्र है, कोई होंगे पैंसठ-सत्तर साल के, बीस साल से संन्यासी हैं, पूछते थे कि आप हर किसी को संन्यास दे देते हैं? पात्रता?
मैंने उनसे पूछा, बीस साल के संन्यास के बाद भी अभी यह खयाल तुम्हें नहीं आया कि यहां सब एक ही परमात्मा का वास है? परमात्मा से पात्रता और क्या मांगनी है? रोज पढ़ते हो--तत्त्वमसि। तू वही है। वह तू ही है। रोज उपनिषद दोहराते हो। रोज गीता भी दोहराते हो। यह वचन भी कई बार पढ़ा होगा कि हे कौंतेय! जो अनन्यचित्त होकर मेरी आराधना करता है, वह दुराचारी भी हो तो भी साधु हो गया। नहीं कि नहीं पढ़ा होगा। बीस साल से संन्यासी हैं, गीता और उपनिषद और वेद ही पढ़ रहे हैं। उनके ज्ञाता हैं। लेकिन बात कहीं उतरती नहीं हृदय में, ऐसा मालूम होता है। पढ़ भी लेते, सुन भी लेते, कंठस्थ भी कर लेते--तोतों की तरह। बात कहीं भीतर उतरती नहीं, उसका जीवन में कोई प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता।
अगर यह बात सच है कि हम सब एक ही परमात्मा के हिस्से हैं, तो फिर कौन पात्र, कौन अपात्र? फिर कौन रावण, कौन राम? फिर कौन बुरा, कौन भला? जो जागा, उसे न कोई बुरा है, न कोई भला है। हां, ये सब सोए के भेद हैं। सोए में एक आदमी सपना देख रहा है कि मैं साधु हो गया और एक आदमी सपना देख रहा है कि मैं चोर हो गया, मगर ये सब सोए के भेद हैं। जाग कर दोनों पाएंगे--न तो कोई साधु था, न कोई चोर था। न किसी ने हत्या की थी और न किसी ने दान दिया था। जाग कर पता चलेगा--सब सपने थे।
इस जगत में लोग अलग-अलग तरह के सपने देख रहे हैं। अस्तित्व सबका एक है, सपने अलग-अलग हैं। सपने प्राइवेट हैं। सत्ता सार्वलौकिक है, सार्वभौम है। इस भेद को खूब गहरे बैठ जाने दो। और अगर तुम सपने पर विचार करोगे तो तुम्हें समझ में आ जाएगा कि सपना बिलकुल निजी होता है, बहुत प्राइवेट बात है। तुम किसी मित्र को भी निमंत्रण नहीं कर सकते अपने सपने में, इतना निजी है। तुम्हारे बिस्तर पर ही तुम्हारे साथ सोई हो पत्नी, वह अपना सपना देखेगी, तुम अपना देखोगे। ऐसा नहीं है कि दोनों एक ही सपना देख रहे हैं। इतना निजी है। देह से देह छू रही है, लेकिन मन अपने-अपने सपने देख रहे हैं। तुम लाख उपाय करो, किसी मित्र को कहो कि बहुत ऊंचा सपना देखा रात...।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने एक मित्र से बात कर रहा था। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि कल तो बड़ा मजा किया। सपने में पेरिस गया था। और पेरिस की रातें--रंगीन रातें! और पेरिस के जुआघर और शराबघर! बड़ा मजा आया। मित्र ने कहा, यह कुछ भी नहीं। मैंने भी कल सपना देखा। हेमामालिनी को लेकर मैं कश्मीर चला गया। मुल्ला एकदम नाराज हो गया। मुल्ला ने कहा, तो फिर मुझे क्यों नहीं बुलाया? यह कैसी दोस्ती! उस मित्र ने कहा, बुलाया था, मैं तो तुम्हारे घर गया, लेकिन तुम्हारी पत्नी ने कहा कि मुल्ला तो पेरिस गया है। ये सपने में हो रही हैं बातें!
सपने में तुम किसी को सहयोगी नहीं कर सकते हो। न निमंत्रण कर सकते हो। सपना बिलकुल निजी है। दूसरा तो क्या होगा सपने में, तुम स्वयं भी नहीं होते। अगर गौर से देखोगे तो सपने में तुम नहीं होते। सपना होता है, तुम कहां? सुबह तुम होते हो, तब सपना टूट जाता है। क्योंकि जागने में ही तुम हो सकते हो, सपने में तुम कैसे हो सकते हो? सपने में अगर तुम्हें याद भी आ जाए कि मैं कौन हूं, तो उसी वक्त सपना टूट जाएगा।
गुरजिएफ अपने शिष्यों को कहता था, अगर तुम अपना नाम भी याद रख सको सपने में तो सपना टूट जाएगा। और तुम कोशिश करना, गुरजिएफ का प्रयोग सफल प्रयोग है, छह महीने लगेंगे कम से कम। तुम अपना नाम ही याद रखने की कोशिश करना कि मेरा नाम अ ब स--जो भी नाम हो--बस यह सपने में मुझे याद रहे, कि मेरा नाम रामदुलारे है, कि मेरा नाम कृष्णमुरारी है, याद रहे। रोज सोते वक्त यही खयाल करके सोना कि मेरा नाम कृष्णमुरारी, कृष्णमुरारी। सोचते रहना, सोचते रहना, मेरा नाम कृष्णमुरारी, भूलूं नहीं। तीन से लेकर छह महीने लग जाएंगे, एक रात यह घटना घट जाएगी कि तुम्हें ठीक बीच सपने में याद आ जाएगा--मेरा नाम कृष्णमुरारी। उसी वक्त सपना विदा हो जाएगा। एक सेकेंड नहीं लगेगा, आंख खुल जाएगी। इतनी सी कुंजी सपने को तोड़ देगी।
तुम आए कि सपना टूट जाता है, दूसरे को बुलाना तो बहुत मुश्किल मामला है। सपना निजी है।
इस जगत में हमारे सपने भर अलग-अलग हैं, हमारी सत्ता अलग-अलग नहीं है। सपनों से जाग कर जिसने सत्ता जानी है, उसके लिए न तो कोई बुरा है, न कोई भला है; न साधु, न असाधु; उसके लिए एक का ही विस्तार है, एक का ही नर्तन चल रहा है। वही वृक्ष में, वही पशुओं में, वही पक्षियों में, वही मनुष्यों में। अनेक-अनेक रूपों में उस एक की ही लीला है।
महापातकिनां तुआर्त्तौ।
‘महापातकियों की भक्ति को आर्त-भक्ति में समझना चाहिए।’
बड़े से बड़ा पापी भी भक्ति को उपलब्ध हो सकता है। भक्ति में कोई दरवाजों पर पात्रता पूछी नहीं जाती। भक्ति तो औषधि है, पात्रता क्या पूछनी है? अपात्र हो, इसीलिए भक्ति की जरूरत है। सब अंगीकार हैं। महापातकी भी।
लेकिन महापातकी की भक्ति आर्त-भक्ति होगी। आर्त-भक्ति का अर्थ होता है: दुख से जन्मी, जीवन के कटु अनुभव से जन्मी, कांटों की पीड़ा से जन्मी।
पाप का क्या अर्थ होता है? पाप का अर्थ होता है: दुख-स्वप्न। पाप का अर्थ होता है: ऐसा सपना तुम देख रहे हो जिसमें बड़ा दुख उठा रहे हो। है सपना। नरक का सपना देख रहे हो।
अधिक लोग जीवन में दुख ही पा रहे हैं। वह उनका ही निर्मित दुख है। किसी आदमी के पास पांच हजार रुपये हैं। वह कहता है, दस हजार होने चाहिए। जब तक दस हजार न हों, मैं सुखी नहीं हो सकता। अब यह शर्त उसने ही लगा दी अपने सुख पर। अब वह कहता है, हम सुखी हो ही नहीं सकते जब तक दस हजार न हों।
तुमने खयाल किया, लोगों ने सुख पर तो शर्त लगा दी है, दुख पर शर्त नहीं लगाई है। कोई नहीं कहता कि मैं तब तक दुखी न होऊंगा जब तक एक लाख रुपये न हों। तुमने सुना कभी किसी को कहते, कि जब तक एक लाख रुपये नहीं होंगे, मैं दुखी होने वाला नहीं! और ऐसे आदमी को तुम दुखी कर सकोगे? इतने हिम्मतवर आदमी को जो कहे कि एक लाख होंगे तभी दुखी होऊंगा। अभी क्या दुख? अभी हैसियत ही नहीं दुखी होने की।
नहीं, लोग दुख पर शर्त नहीं लगाते, इसीलिए दुखी हैं। और सुख पर शर्त लगाते हैं, इसलिए सुखी नहीं हो पाते। खयाल करना, यह तुम्हारा ही आयोजन है। तुम कहते हो: यह स्त्री मिलेगी तो सुख होगा। छोड़ो इसको! कहो कि यह स्त्री जब तक नहीं मिलती तब तक दुखी क्यों हों? यह मिलेगी तभी दुखी होंगे। जब तक यह स्त्री न मिले, यह कार न मिले, यह मकान न मिले, यह धन न मिले, यह पद न मिले, तब तक हम दुखी होने वाले नहीं हैं। तब तक तो मौज कर लें। फिर तो यह सब मिलने वाला है! कोशिश करोगे तो मिल ही जाएगा।
लेकिन जिस आदमी ने दुख पर शर्तें लगा दीं, उसे तुम दुखी नहीं कर सकते। कैसे करोगे?
हमने सुख पर शर्तें लगाई हैं। लोग कहते हैं, पहले इतनी चीजें हो जानी चाहिए तब हम सुखी होंगे। एक तो वे, उतनी चीजें कभी हो नहीं पातीं, इसलिए दुखी रहते हैं। फिर अगर कभी हो भी जाएं, तो शर्तें आगे सरक जाती हैं। शर्तों का कोई भरोसा है! तुम कहते थे, दस हजार जब होंगे तब सुखी होंगे। जब तक तुम दस हजार पर पहुंचते हो, तब तक तुम्हारी शर्त भी आगे सरक जाती है। वह कहती है, अब दस हजार में क्या होता है! चीजों के दाम भी बढ़ गए, हालतें भी सब बदल गईं। अब तो पचास हजार से कम में सुख हो ही नहीं सकता। और तुम यह मत सोचना कि पचास हजार मिल जाने से तुम सुखी हो जाओगे। हो सकता है एकाध क्षण को तुम्हें भ्रांति हो सुख की, बस भ्रांति ही होगी। क्योंकि तुम दुख का अभ्यास कर रहे हो। एक आदमी पचास हजार रुपये कमाते-कमाते-कमाते-कमाते इतना दुख का अभ्यास कर लिया है कि जब उसे पचास हजार मिलेंगे तो उसकी समझ में ही नहीं आएगा कि अब सुखी कैसे हों? दुख का अभ्यास जड़बद्ध हो गया। दुखी होने में वह कुशल हो गया।
इसीलिए अक्सर तुम पाओगे, धनी आदमी गरीब से भी ज्यादा दुखी हो जाते हैं। गरीब और अमीर में इतना ही फर्क है कि गरीब आदमी ज्यादा दुख नहीं खरीद सकता। उसकी खरीदने की सीमा है। अमीर आदमी ज्यादा दुख खरीद सकता है, उसकी सीमा बड़ी है। इसलिए अगर अमरीका में लोग ज्यादा दुखी हैं तो तुम हैरान मत होना, उसका कुल कारण इतना है--उनके दुख खरीदने की सीमा काफी बड़ी हो गई है। वे एक ही गांव में रह कर दुखी नहीं होते, वे सारी दुनिया में जाकर दुखी होते हैं। चक्कर मारते हैं दुनिया का! इस राजधानी से उस राजधानी में दुखी होते हैं। वे एक स्त्री के साथ दुखी नहीं होते। एक स्त्री से अब क्या दुखी होना! वह पुराना ढब हो गया। एक आदमी आठ-दस स्त्रियों के साथ जिंदगी में दुखी होता है। एक ही धंधे में दुखी नहीं होते, धंधे बदल-बदल कर दुखी होते हैं। अमरीका में प्रत्येक आदमी के औसत धंधे की सीमा तीन साल है। तीन साल से ज्यादा कोई टिकता नहीं। वही विवाह की भी औसत उम्र है। तीन साल से ज्यादा विवाह भी नहीं टिकता। अब लोग दुखी होने के लिए खूब उपाय...उनके पास सुविधा है। गरीब आदमी की वही तकलीफ है।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन का बाप जब मरा तो उसने मुल्ला को बुला कर कहा कि देख बेटा, एक मेरे जीवन का अनुभव है कि जितना धन बढ़ता है, उतनी चिंताएं, बेचैनियां, परेशानियां बढ़ती हैं। यह मैं तुझे अपने सार-अनुभव की बात कह रहा हूं। कम में संतुष्ट होना ठीक है। शांति रहती है। ज्यादा में अशांति बढ़ जाती है।
मुल्ला ने जल्दी से उसके पैर पकड़ लिए और कहा कि यह सब समझ गया, मगर आशीर्वाद दो, अशांति बढ़े तो अशांति बढ़े, मगर ज्यादा हो।
बाप ने कहा कि मैं यह समझा रहा हूं तुझे और तू यह कह रहा है--आशीर्वाद दो!
मुल्ला ने कहा, माना मैंने कि कम होता है तो आदमी संतुष्ट होता है; क्योंकि असंतुष्ट होने की क्षमता नहीं होती। संतुष्ट होना पड़ता है। करोगे क्या संतोष नहीं करोगे तो? और उपाय क्या है? स्वतंत्रता मर जाती है। मुझे तो आप ऐसा आशीर्वाद दें कि दुखी तो होना ही है संसार में, मगर दुख के चुनाव की तो सुविधा रहे, कि जो भी चुनना हो वह दुख हम चुन सकें। इस स्त्री के साथ दुखी होना हो तो इसी के साथ हो सकें। इस मकान में होना हो तो इसमें हो सकें। स्वतंत्रता तो हो पास। मुझे आशीर्वाद दो जाते वक्त कि मैं अपने दुख चुनाव कर सकूं। दुखी तो होना ही है!
खयाल रखना, लोगों ने यह मान ही लिया है कि दुखी तो होना ही है। तो अमीर ही होकर दुखी हो लें, फिर गरीब होकर क्या दुखी होना? तो प्रसिद्ध होकर दुखी हो लें, फिर गैर-प्रसिद्ध होकर क्या दुखी होना? फिर महलों में दुखी हो लें, झोपड़ों में क्या दुखी होना? दुखी तो होना ही है।
नहीं लेकिन, यह बात सच नहीं है कि दुखी होना ही है। दुख तुम्हारा सृजन है। और सुख भी तुम्हारा सृजन है। तुम्हारी दृष्टि के विस्तार हैं। दुख भी तुम्हारा सपना है, सुख भी तुम्हारा सपना है। सपने के तुम मालिक हो। लेकिन तुम यह भरोसा नहीं कर पाओगे।
एक दूसरा प्रयोग भी गुरजिएफ अपने शिष्यों को करवाता था। वह था अपनी स्वेच्छा से स्वप्न पैदा करने की प्रक्रिया। वह भी कीमती प्रयोग है। तुमने अब तक सपने देखे जो हुए। तुमने कोई सपना अपनी मौज से देखा? देखना चाहिए मौज से सपना। सपने में भी गुलामी! अब जिस फिल्म में बिठा दिया, बैठे हैं रात भर। यह भी बड़ी परतंत्रता हो गई। कम से कम सपने में तो स्वतंत्रता रखो।
गुरजिएफ अपने शिष्यों को यह प्रयोग करवाता था, यह प्रयोग कीमती है, क्योंकि इस प्रयोग से जीवन के संबंध में दिशा सूचित हो जाती है। कोई साल भर लगता है--कभी दो साल भी लग सकते हैं, लंबा प्रयोग है, क्योंकि बड़ी गहरी पकड़ है सपने की--लेकिन तुम अपने मन का सपना देख सकते हो। रोज-रोज वही सपना सोच कर सोओ। सोते वक्त जब तुम्हारी चेतना खो रही है और नींद उतरने लगी है, तब तुम वही सपने का प्लाट रचते रहो। वही सपना। रोज-रोज। रोज बदल मत लेना, नहीं तो उसकी कोई छाप ही न पड़ेगी। रोज वही सपना। एक सपना तय कर लो, बस उसी को रोज सोचते हुए सो जाओ। रोज-रोज, दिन-रात, महीनों, वर्षों बीत जाएं; एक दिन तुम अचानक पाओगे वह सपना तुम्हारे सपने में आ गया। वह दृश्य सामने खड़ा हो गया। उसी दिन तुम्हें एक अपूर्व अनुभव हो जाएगा कि अब तक जो सपने देखे, वे भी तुम्हारी भ्रांति थी कि अपने आप हो रहे हैं, अनजाने अचेतन मन से तुम उन्हें पैदा कर रहे थे। तुमने उन्हें पैदा किया था। होश में नहीं थे। अब तुमने होश से एक सपना पैदा करके देख लिया। उस दिन के बाद तुम जो सपने देखना चाहो, देख सकते हो।
और उसके बाद का प्रयोग है, फिर तुम सपने न देखना चाहो तो मत देखो। पहले तो सपने पर स्वतंत्रता चाहिए कि जो तुम देखना चाहो देख सको। फिर दूसरा कदम यह है कि फिर तुम रात यह तय करके सो जाओ कि अब सपना नहीं देखना है आज, आज नहीं जाएंगे किसी फिल्म में, तो तुम निश्चिंत होकर रात भर सो सकोगे। और अगर रात में यह संभव हो जाए, तो दिन में भी संभव हो जाएगा, क्योंकि रात और दिन में कुछ भेद नहीं है।
तुम अपने मन के मालिक हो। मगर मालकियत की तुमने घोषणा नहीं की है। तुम घिसटे चले जा रहे हो। तुम्हारा मन जो तुम्हें दिखाता है, तुम देखे चले जा रहे हो।
तुम कभी इस तरह के छोटे-छोटे प्रयोग करो।
तुम क्रोध में बैठे हो। कोशिश करो क्रोध को बदलने की। पहले तो बहुत मुश्किल लगेगा। पहले तो लगेगा, यह कोई आसान बात है क्रोध को बदल लेना! अब क्रोध है तो इसको बदलो कैसे? तुम जरा कोशिश करना। एकांत में बैठ कर हंसना, उछलना-कूदना, जरा क्रोध को बदलने की कोशिश करना। पांच-सात मिनट में तुम पाओगे कि क्रोध गया, तुम हंस रहे हो--शायद इस पर ही हंसने लगो कि मैं भी क्या बुद्धूपन कर रहा हूं! ऐसे उछलने-कूदने से क्या होगा? लेकिन तुम पाओगे कि भीतर क्रोध बदल गया। अब क्रोध की वही प्रगाढ़ता नहीं रह गई।
तुम उदास बैठे हो, इसे बदलने की कोशिश करना। कभी तुम प्रसन्न बैठे हो, इसको उदास करने की कोशिश करना। कभी तुम आनंदित बैठे हो, इसको क्रोध में ले जाने की कोशिश करना। इस तरह के प्रयोग अगर तुम करोगे, तो तुम्हें एक बात दिखाई पड़नी शुरू हो जाएगी कि सब तुम्हारे हाथ में है। क्रोध को आनंद में बदला जा सकता है, आनंद को उदासी में बदला जा सकता है, उदासी को हंसी में बदला जा सकता है, हंसी को आंसुओं में बदला जा सकता है। और जब तुम यह बदलने की कीमिया सीख लोगे, जैसे कि तुम रेडियो स्टेशन बदलते हो, इस तरह ही बदला जा सकता है।
पश्चिम में यंत्र पैदा किए जा रहे हैं--बायो फीडबैक। उन यंत्रों का बड़ा बहुमूल्य उपयोग होने वाला है भविष्य में। उनके माध्यम से बड़ी अनूठी बातें प्रतीत हुई हैं--कि आदमी अपनी भावदशाएं बदल सकता है। भावदशाएं बदल सकता है, अपने रक्तचाप की गति बदल सकता है। यंत्र से जोड़ दिया जाता है। जैसे हृदय को यंत्र से जोड़ दिया, हृदय की धक-धक यंत्र पर आने लगी, यंत्र बता रहा है कि इतनी धक-धक है प्रति सेकेंड, या प्रति मिनट। अब आदमी को कहा जाता है कि तुम कोशिश करो कि कम हो जाए। अब तुम कहोगे--कैसे कोशिश करें कम हो जाए? हृदय पर तुमने कभी कोशिश तो की नहीं। मगर प्रयास तुम करते हो, और तुम चकित हो जाते हो--सामने अंक गिरने लगते हैं। इधर तुम कोशिश करते हो, वहां अंक गिरने लगे। जब दो-चार अंक गिर जाते हैं, तुम्हें भरोसा आ जाता है कि अरे, एक कुंजी हाथ लग गई! हालांकि तुम किसी को बता नहीं सकोगे कि कैसे तुम कर रहे हो भीतर, मगर तुम कर लेते हो। तुम गिरा सकते हो। रक्तचाप कम-ज्यादा हो जाता है।
और अभी तो बड़ा चमत्कार हुआ, जब कुछ मरीजों ने इन यंत्रों के साथ जुड़ कर अपने खून में बहने वाली शक्कर को भी कम कर लिया। बता नहीं सकते वे कि कैसे किया, क्योंकि कैसे का तो बड़ा कठिन मामला है--कैसे किया? मस्तिष्क में कई तरह की तरंगें होती हैं, उन तरंगों को बदलने में लोग सफल हो जाते हैं यंत्र के सामने बैठ कर। कह नहीं सकते कि कैसे।
तुम भी कैसे कह सकते हो? तुमने बायां हाथ ऊपर उठाया, तुम बता सकते हो कैसे उठाया? क्या घटना भीतर घटी? कैसे तुमने बायां हाथ ऊपर उठाया? रोज कर रहे हो यह, लेकिन बायां हाथ तुम ऊपर कैसे उठाते हो? किसको आज्ञा देते हो पहले? कहां से आज्ञा शुरू होती है? कुछ तुम्हें पता नहीं है। मगर तुम इसके मालिक हो, अचेतन में मालिक हो।
बायो फीडबैक यंत्रों के द्वारा एक बात प्रमाणित हो गई कि मनुष्य अपने भीतर की सारी भावदशाएं बदल सकता है। और यही सारसूत्र है सदा से ज्ञानियों का कि सब तुम्हारे हाथ में है। दुख तुम निर्मित करते हो। मत चिल्लाओ, मत चीखो, मत कहो कि दुनिया तुम्हें सता रही है। तुम अपने को सता रहे हो। अपनी मालकियत की घोषणा करो। अपना उत्तरदायित्व अपने हाथ में ले लो। और इसे थोड़ा बदलने की कोशिश करो। और तुम चकित हो जाओगे कि तुम बदल सकते हो। और जिस दिन यह कुंजी हाथ लगती है कि मैं बदल सकता हूं अपनी जीवन की भावदशाओं को, उस दिन तुम इतने आनंद से भर जाओगे, जिसकी आज तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। तुम मुक्त हो गए!
और जिस दिन तुम यह अनुभव कर लेते हो कि क्रोध प्रेम में बदला जा सकता है, प्रेम उदासी में बदला जा सकता है, उदासी हंसी में बदली जा सकती है--जैसे कि रेडियो पर तुम स्टेशन लगा रहे हो--उस दिन एक बात साफ हो गई कि तुम इन सबसे अलग हो, तुम सिर्फ साक्षी मात्र हो। तुम रेडियो स्टेशन नहीं हो, न तुम रेडियो हो, तुम बाहर बैठे हुए व्यक्ति हो जो कि रेडियो स्टेशंस लगा रहा है, जो चाभी घुमा रहा है। तुम अलग हो, तुम पृथक हो तुम्हारी सारी भावदशाओं से। जिस दिन आदमी जानता है कि मैं अपनी सारी भावदशाओं से पृथक हूं, उसी दिन अहंकार विलीन हो जाता है। और उस दिन पता चलता है कि मैं परमात्मा से अनन्य हूं, एक हूं।
तुमने अपने को क्षुद्र सीमाओं में बांध रखा है, इसलिए तुम विराट से टूटे हुए मालूम पड़ते हो। तुम्हारी आंखें छोटी-छोटी बातों में उलझ गई हैं। तुम सोचते हो, यही मैं हूं--मेरा धन, मेरी देह, मेरी पत्नी, मेरा पति, मेरे बच्चे, मेरा मकान। तुमने बड़ी छोटी बातों में अपने को संकुचित कर लिया है। जैसे-जैसे यह मैं-भाव गिरेगा, वैसे-वैसे तुम पाओगे--आकाश भी तुम्हारी सीमा नहीं है। तुम विराट हो।
जीवन के दुख से महापातकी को आर्त-भक्ति पैदा होती है।
और कौन है ऐसा जो जीवन में दुखी नहीं है? सुखी आदमी मिलते कहां हैं? दुखियों का संसार है। और इन दुखियों के संसार में सुखी बच्चे पैदा भी होते हैं तो जल्दी ही दुख का अभ्यास सीख जाते हैं। क्योंकि बाप दुखी, मां दुखी, भाई दुखी, बहन दुखी, शिक्षक दुखी, सब तरफ दुखी ही दुखी लोग हैं, बच्चे को हंसने में भी लज्जा आने लगती है। बच्चा आनंदित होना चाहता है, क्योंकि सब परमात्मा के घर से आते हैं। वहां की खबर लेकर आते हैं। वहां का नाच लेकर आते हैं। उन्हें कुछ पता नहीं होता। लेकिन यहां सबको दुखी देखते हैं, उदास देखते हैं, यहां सब परेशान हैं, बच्चे भी धीरे-धीरे इस परेशानी में संक्रमित हो जाते हैं। यह परेशानी उन पर भी थुप जाती है। फिर उतारे नहीं उतरती। इसी को फिर से उतार कर रख देने का नाम पुनर्जन्म है। द्विज हो गए तुम।
जीवन में दुख है, जीवन में पाप है, जीवन में भ्रांति है, लेकिन सब सपने जैसी है।
तुमको छोड़ कहीं जाने को आज हृदय स्वच्छंद नहीं है।
रोमराजि पहले गिन डालूं
तब तन के बंधन बतलाऊं
नाम दूसरा मन का बंधन
कैसे दोनों को अलगाऊं,
नित्य वचन की गांठ जोड़ती
मेरी रसना--मेरी रचना,
तुमको छोड़ कहीं जाने को आज हृदय स्वच्छंद नहीं है।
मेरी दुर्बलता के पल को
याद तुम्हीं करुणाकर आते,
अपनी करुणा के क्षण में तुम
मेरी दुर्बलता बिसराते,
बुद्धि बिचारी गुमसुम हारी,
साफ बोलता पर चित मेरा--
मेरे पाप तुम्हारी करुणा में कोई संबंध नहीं है।
तुमको छोड़ कहीं जाने को आज हृदय स्वच्छंद नहीं है।
इसकी फिकर छोड़ दो कि तुम्हारे पाप इतने बड़े हैं कि तुम परमात्मा को कैसे पा सकोगे! तुम्हारे पापों में और उसकी करुणा में कोई संबंध नहीं है। तुम्हारे पाप थोड़े हैं कि ज्यादा, बड़े हैं कि छोटे, ऐसे हैं कि वैसे, कुछ फर्क नहीं पड़ता; तुम पापी हो कि पुण्यात्मा, कुछ फर्क नहीं पड़ता; उसकी करुणा तो बरस ही रही है। उसकी करुणा तुम्हारे पापों के अनुसार नहीं बरसती, न तुम्हारे कृत्यों के अनुसार बरसती है।
देखते नहीं तुम, जब बादल घना होता है आकाश में, आषाढ़ के मेघ आते हैं, तो फिकर थोड़े ही करते हैं कि पापी के खेत में न बरसें, कि पुण्यात्मा के खेत में बरसें; फिकर थोड़े ही करते हैं कि चोर के खेत में न बरसें और दानी के खेत में बरसें। ऐसे ही उसके करुणा के मेघ भी कोई चिंता नहीं करते।
मेरे पाप तुम्हारी करुणा में कोई संबंध नहीं है।
तुमको छोड़ कहीं जाने को आज हृदय स्वच्छंद नहीं है।
जिस दिन तुम यह सत्य समझ लोगे, तब तुम यह फिकर भी छोड़ दोगे कि अच्छा करके पहुंचूंगा; बुरा करके कैसे पहुंच पाऊंगा? तुम पहुंचे ही हुए हो। उसकी करुणा चिंता ही नहीं करती इसकी। करुणा बेशर्त होती है। करुणा में शर्त हो तो करुणा ही नहीं। सशर्त करुणा करुणा कैसे कही जाएगी? अगर वह कहे कि हां, तुमने इतने पाप किए तो इतनी करुणा मिलेगी; तुमने इतना पुण्य किया तो तुमको इतनी ज्यादा मिलेगी; तो करुणा में शर्त हो गई। फिर उसकी जरूरत ही क्या है?
इसीलिए तो जिन विचार-पंथों ने कर्म के सिद्धांत को जोर से पकड़ा, उन्हें अंततः परमात्मा को इनकार कर देना पड़ा। जैनों-बौद्धों ने परमात्मा को इनकार किया। उसका कारण नास्तिकता नहीं है। उसका कारण कर्म का सिद्धांत और गणित है। जैनों का तर्क यह है कि अगर हमारे ही कर्म के अनुसार हमें अच्छा और बुरा मिलता है, तो फिर परमात्मा को और होने की जरूरत क्या है? मैं बुरा करूंगा तो बुरा पाऊंगा, और अच्छा करूंगा तो अच्छा पाऊंगा, फिर परमात्मा की और बीच में होने की जरूरत क्या है? यह नियम पर्याप्त है। यह नियम ही परमात्मा है।
कर्म का सिद्धांत अगर सच में पूरी तरह पकड़ा जाए तो परमात्मा के होने की कोई जगह नहीं रह जाती। बल्कि उसके होने से अड़चन होगी, बाधा होगी। एक आदमी ने पाप किया, उसको दंड मिलता है। एक आदमी ने पुण्य किया, उसको पुरस्कार मिलता है। यह नियम से ही हो जाता है। अब अगर इसके पीछे हम किसी एक जीवंत शक्ति को स्वीकार करें, तो खतरा है। क्योंकि हो सकता है कभी पापी पर दया आ जाए, तो फिर अन्याय होगा। और कभी ऐसा हो सकता है कि पुण्यात्मा पर क्रोध आ जाए, तो अन्याय हो जाएगा। फिर परमात्मा की मौजूदगी खतरनाक हो जाएगी। कोई जरूरत नहीं, जैन कहते हैं, परमात्मा की, कर्म का सिद्धांत पर्याप्त है।
मेरे हिसाब में यह बात है कि जो लोग कर्म का सिद्धांत जोर से मानेंगे, उनको परमात्मा को इनकार करना ही होगा। वह तार्किक निष्पत्ति है। और जो लोग परमात्मा को मानेंगे, उनको कर्म के सिद्धांत को एक तरफ हटा कर रखना होगा। वह भी तार्किक निष्पत्ति है।
इसीलिए कृष्ण गीता में कर्म के सिद्धांत को हटा कर रख देते हैं। कहते हैं: हे कौंतेय! जो अनन्यचित्त होकर मेरी आराधना करता है, वह अत्यंत दुराचारी भी हो तो भी साधु है।
जैन शास्त्र इसके लिए स्वीकृति नहीं देंगे। यह तो हद्द हो गई। फिर तो दुराचारी सब आराधना करके पहुंच जाएंगे, फिर सदाचार का उपयोग क्या है? फिर कोई सदाचारी होने के लिए कष्ट क्यों झेले? इसलिए जैनों ने अगर कृष्ण को नरक में डाल दिया अपने शास्त्रों में तो इन्हीं वक्तव्यों के कारण, क्योंकि ये वक्तव्य कर्म के सिद्धांत के विपरीत जाते हैं। मगर ये वक्तव्य बड़े अनूठे हैं।
कर्म का सिद्धांत बुद्धि का सिद्धांत है, गणित का सिद्धांत है। उसमें करुणा की कोई जगह नहीं है। इसलिए जैन मुनि कठोर हो जाता है। उसमें करुणा की जगह नहीं बचती। रूखा-सूखा हो जाता है। उसमें दया भाव नहीं बचता। हालांकि बातें वह दया की करता है और अहिंसा की। मगर उसकी अहिंसा भी रूखी-सूखी हो जाती है।
तुमने फर्क देखा? जैन करुणा शब्द का उपयोग नहीं करते, अहिंसा शब्द का उपयोग करते हैं। नकारात्मक शब्द। अहिंसा का कुल इतना मतलब होता है: दूसरे को चोट न पहुंचाना। बस इतना। लेकिन किसी को चोट लगी हो, उसमें मलहम-पट्टी करना कि नहीं, वह अहिंसा में नहीं आता। अहिंसा का मतलब इतना होता है--चोट नहीं पहुंचाना। लेकिन चोट लगी हो किसी को, फिर? अहिंसा उस संबंध में चुप है। करुणा कहती है: किसी को चोट लगी हो तो मलहम-पट्टी करना। करुणा विधायक है, अहिंसा नकारात्मक है। अहिंसा केवल तुम्हें बचाती है बुरे काम करने से! करुणा तुम्हें भले की तरफ प्रेरित करती है।
जैनों के हिसाब से, जगत में अहिंसा हो जाए तो पर्याप्त है। कृष्ण के हिसाब से, जब तक जगत में करुणा न बरसे, तब तक पर्याप्त नहीं है। लोग एक-दूसरे को चोट न भी पहुंचाएं तो भी क्या होगा? एक-एक आदमी बैठ कर, मुनि बन कर बैठ जाए अपनी-अपनी जगह, कोई किसी को चोट नहीं पहुंचाता, कोई किसी से झगड़ा-झांसा नहीं करता, सब बैठे हैं गुमसुम, कि बोले तो कोई झंझट न हो जाए, किसी की निंदा न हो जाए, कोई शब्द किसी को चोट न कर दे, सब बैठे हैं अपनी-अपनी कब्रों में बंद। अस्तित्व बड़ा उदास हो जाएगा। कृष्ण से उनकी नाराजगी ठीक है। क्योंकि कृष्ण ने कर्म के सिद्धांत को तोड़ दिया, कहा--जो मेरी आराधना करते हैं, वे अगर पापी भी हों तो साधु जानना। और मैं और जोड़ रहा हूं उसमें, कि जो मेरी आराधना नहीं करते, अगर वे पुण्यात्मा भी हों तो उनको पापी जानना।
कर्म और करुणा का, कर्म के सिद्धांत और करुणा का कोई तालमेल नहीं बैठ सकता। करुणा का अर्थ यह होता है कि बेटे ने कितना ही बुरा किया हो, जब वह मां के पास आता है तो मां उसे छाती से लगा लेती है। वह यह नहीं कहती कि इसे मैं कैसे छाती से लगाऊं? तू चोर था, तूने बेईमानी की, तू शराब पीकर आ रहा है। सच तो यह है कि जो शराब पीकर आ रहा है, और जुआ खेल कर आ रहा है, मां उसे और जोर से हृदय से लगा लेती है। उस पर और दया आती है। यह बेचारा! इसको बोध कब आएगा? इसको समझ कब होगी? करुणा का अर्थ होता है: यह जगत तुम्हारे प्रति मां जैसा हृदय रखता है। तुम क्षमा किए जाओगे।
इसका यह मतलब मत ले लेना कि तुम्हें बुरा करना है, करो मजे से। इसका यह मतलब नहीं है। वहीं भ्रांतियां हो जाती हैं। इसका मतलब यह मत ले लेना कि अब क्या फिकर पड़ी है, फिर मजे से करो बुरा, जितना बुरा करना हो करो। इसका कुल मतलब इतना है कि बुरा तो तुम कर ही चुके हो, काफी कर चुके हो, जितना करना है उतना कर ही चुके हो, अब और करने की जरूरत नहीं है, अब जीवन-ऊर्जा को आराधना बनने दो।
सा एकान्तभावः गीतार्थ प्रत्यभिज्ञानात्।
‘पराभक्ति का नाम ही एकांत भाव है, क्योंकि गीता में भी ऐसा लेख है।’
शांडिल्य गीता का उल्लेख अक्सर कर रहे हैं। क्योंकि गीता में निश्चित ही कर्म से मुक्ति के और भक्ति के अनूठे वचन उपलब्ध हैं। वैसे वचन न तो कुरान में हैं, न बाइबिल में हैं। गीता इस अर्थ में अनूठी है। उसमें करुणा पूरी तरह प्रकट हुई है परमात्मा की। मनुष्य की क्षुद्रताओं का हिसाब नहीं रखा गया है। तुम्हारे पाप भी तो दो कौड़ी के हैं, उनका क्या हिसाब रखना है? किसी ने किसी की जेब से दो पैसे चुरा लिए! क्या फर्क पड़ता है? इस जेब से उस जेब में रख दिए। सब जेबें उसकी हैं। और सब हाथ उसके हैं। अब इसको ज्यादा शोरगुल मत मचाओ कि बड़ा भारी पाप हो गया। कि तुम किसी सुंदर स्त्री को देखे और तुम्हारे मन में कामना जग गई। मगर उस सुंदर स्त्री में भी वही बैठा है। और तुम्हारी कामना में भी वही जग रहा है। अब इसको इतना परेशान मत हो जाओ। इसको इतना तूल मत दो!
लोग तिल का ताड़ बना रहे हैं। और खासकर साधु-महात्मा तो बड़े ही कुशल हैं तिल का ताड़ बनाने में। उसको इतना बढ़ा-चढ़ा कर बता देते हैं कि तुम्हारी छाती पर हिमालय रख देते हैं, फिर तुम सरक ही नहीं पाते। अब अगर तुम अपने चौबीस घंटे में हिसाब रखोगे कि तुमने कितने पाप किए, तो मर ही जाओगे, दब ही जाओगे! कुछ किए, कुछ सोचे, कुछ नहीं कर पाए तो रात सपने में किए, अगर इन सब पापों का तुम हिसाब रखोगे--और वही तुम्हारे महात्मा कह रहे हैं कि हिसाब करो! उनको बड़ी बेचैनी हो रही है कि हिसाब करो! अपने पापों का हिसाब रखो!
एक सज्जन मेरे पास आए। बड़े उदास थे! बड़े परेशान थे! जैसे बड़ा बोझ ढो रहे हों। मैंने कहा, मामला क्या है? उन्होंने कहा, मैं बड़ा पापी हूं, यह मेरी डायरी देखिए--डायरी ले आए थे साथ--इसमें सब लिखता हूं। मैंने उनकी डायरी देखी। मैंने कहा, तुम्हारी डायरी पढ़ कर मैं उदास हुआ जा रहा हूं! इसको काहे के लिए लिख रहे हो? कि नहीं, मेरे गुरु ने कहा है कि अपने सब पाप का हिसाब रखना चाहिए।
तुम परमात्मा की करुणा का हिसाब रखो! एक कोरी डायरी अपने पास रखो, उसमें कुछ मत लिखो, और जब भी कुछ पाप-माप हो, अपनी डायरी खोल कर देखी उसकी करुणा--कोरी करुणा! तुम्हारे हिसाब-किताब से कुछ लेना-देना नहीं। तुम इसमें हिसाब क्या कर रहे हो? दुकानदारी लगा रखी है। उसमें दो-दो पैसे का हिसाब लिखा हुआ है--कि मैंने फलां आदमी को दो पैसे का धोखा दे दिया; कि फलां आदमी से मैंने यह कह दिया, नहीं कहना था; यह बुराई हो गई, वह बुराई हो गई; उपवास किया था और भोजन की याद आ गई। भोजन किया नहीं, मगर याद आ गई! अब भोजन की याद उपवास में न आएगी तो कब आएगी? आदमी हो कि पत्थर हो? उपवास करोगे, भोजन की याद आने ही वाली है! यह बिलकुल स्वाभाविक है। अब इसको भी पाप बना रहे हो! कि किसी ने गाली दे दी और चिंता पैदा हो गई। कि किसी ने गाली दी और उसका जवाब दे दिया। यह सब स्वाभाविक है, इसको इतना तूल मत दो। और इसको अगर तुम बांधते जाओगे, गठरी में रखते जाओगे, रखते जाओगे, इसी के साथ डूबोगे।
उसकी करुणा पर भरोसा करो। राम रहीम है, रहमान है, करुणावान है। तुम उसके प्रेम पर भरोसा करो। तुम अपने पाप पर इतना भरोसा मत करो। तुम्हारा पाप ऐसे बह जाएगा जैसे बाढ़ में तिनके बह जाते हैं। उसकी करुणा की बाढ़!
शांडिल्य के सूत्रों का सार है: उसकी करुणा पर भरोसा करो। उसकी करुणा पर भरोसा आ जाए, तुम्हारी जिंदगी में निखार आने लगेगा। तुम्हारे पैरों में नाच आने लगेगा। तुम्हारी वाणी में फिर गुनगुनाहट आ जाएगी। फिर तुम पक्षियों की तरह...यह कोयल को सुनते हो? इसको पाप इत्यादि का कुछ पता नहीं है। इसका महात्माओं से मिलना नहीं हुआ। नहीं तो यह गा नहीं सकती थी, याद रखना, अभी तक मर गई होती, फांसी लगा ली होती। उपवास कर रही होती, व्रत कर रही होती, और डायरी लिख रही होती। यह कुहू-कुहू! महात्मा तो कहेंगे कि बंद करो यह कुहू-कुहू! इसमें कामवासना छिपी है। यह कुहू-कुहू में यह अपने प्रेमी को बुला रही है। यह निमंत्रण भेज रही है। यह कह रही है--कहां हो? आओ! यह प्रतीक्षा कर रही है। यह धन्यभागी है, इसको कोई महात्मा नहीं मिले!
तुम भी ऐसे ही कुहू-कुहू कर पाओगे जिस दिन तुम परमात्मा की करुणा की स्मृति करोगे, अपने पापों का बोझ छोड़ोगे। तुम भी गुलाब के फूल की तरह खिल पाओगे। गुलाब का फूल भी नहीं खिल सकता, अगर महात्मा का उपदेश सुन ले। वह भी सकुचाएगा कि क्या खिलना? खिलने में नरक। जीवन पाप। और खिलने में कई तरह की झंझटें हैं, बंद ही रहना ठीक है। और वह भी सोचेगा कि हे प्रभु, आवागमन से कैसे मुक्त हों! मुक्ति, आवागमन से मुक्ति चाहिए मुझे!
इस जगत में आदमी को छोड़ कर तुम्हें कहीं उदासी दिखाई पड़ती है? क्या कारण है? इस जगत को महात्माओं के उपदेश नहीं मिले, सिवाय तुमको। तुमको मिले हैं उपदेश। तुम्हारे महात्माओं से तुम्हारा छुटकारा हो जाए तो तुम परमात्मा से मिल सकोगे। यह बात इतनी कठिन है तुम्हें समझनी, तुम मेरी बात सुन कर इसीलिए अक्सर नाराज भी हो जाते हो। मैं तुमसे कहता हूं, जब तक तुम अपने महात्माओं से न छूटोगे तब तक तुम्हारा परमात्मा से मिलना नहीं हो सकता। यह कोयल अभी भी परमात्मा में कुहू-कुहू कर रही है। यह आवाज परमात्मा से ही उठ रही है। इसको कुछ पता नहीं है, कल का कुछ हिसाब नहीं है, कल क्या किया था, किससे कुछ कह दिया था, किससे कुछ सुन लिया था, कल क्या हुआ, कल का कल गया। कल की आने वाले की भी कोई चिंता नहीं है। न नरक की कोई फिकर है, न स्वर्ग की कोई फिकर है। मनुष्य अगर परमात्मा की करुणा में आश्वस्त हो जाए, तो फिर गीत उठेगा, फिर नाच उठेगा।
इक निगाहे-तबस्सुम असर मिल गई
रोशनीए-बहारे-सहर मिल गई
फिर मुस्कुराहट पैदा होगी। फिर सुबह की रोशनी मिल जाएगी।
इक निगाहे-तबस्सुम असर मिल गई
रोशनीए-बहारे-सहर मिल गई
जब चमक दर्द की कुछ सिवा हो गई
अपने ही दिल से उनकी खबर मिल गई
वो समुंदर की वुसअत को समझें भी क्या
जिनको मौजे-सदफ सतह पर मिल गई
जब फरोजां हुए अपने दागे-जिगर
शामे-गम को नवेदे-सहर मिल गई
मरहबा! अज्मे-नौ-रहरवे-शौक को
जिंदगी की नई रहगुजर मिल गई
नग्माए-जांफिजा छेड़ ऐ मुतरिबा!
आज ‘शबनम’ की गुल से नजर मिल गई
फिर गा गीत।
नग्माए-जाफिजा छेड़ ऐ मुतरिबा!
फिर छेड़ प्राणदायक संगीत।
आज ‘शबनम’ की गुल से नजर मिल गई
जिस दिन तुम्हारी परमात्मा की करुणा की तरफ जरा सी भी दृष्टि चली जाएगी, एक क्षण को भी तुम्हें उसकी महाकरुणा का स्मरण आ जाएगा, उसी क्षण गए सब पाप। उसी पल उत्क्रांति हो जाती है। एक क्षण में हो जाती है। एक क्षण भी ज्यादा है। क्षण के किसी अंश में ही हो जाती है। यहीं बैठे-बैठे हो सकती है। याद करो उसकी करुणा को! उसकी क्षमा अपार है, और बेशर्त है। वह तुमसे नहीं पूछेगा कि तुमने क्या किया और क्या नहीं किया।
मेरे हिसाब में तो, अगर वह तुमसे पूछेगा तो यही कि नाचे कि नहीं नाचे? गाए कि नहीं गाए? मुस्कुराए कि नहीं मुस्कुराए? भेजा था तुम्हें संसार में, जीए कि नहीं जीए? एक ही पाप है, इस जगत में मुर्दे की भांति जीना। और एक ही पुण्य है, इस जगत में नृत्य-गीत-आनंद को उपलब्ध होना, उत्सव को उपलब्ध होना।
‘पराभक्ति का नाम ही एकांतभाव है।’
जब तुम्हारे और परमात्मा के बीच एकांतभाव आ जाए, एक का ही अनुभव होने लगे, मैं वह, वह मैं, भक्त और भगवान दो न रह जाएं, यह लक्ष्य है।
‘पराभक्ति का नाम ही एकांतभाव है।’
पराभक्ति की तरफ ही ये सारे इशारे चल रहे हैं। ये गौणी-भक्तियां पराभक्ति की तरफ इशारे हैं। अनन्यभाव, एकात्मभाव, भक्त और भगवान के बीच सारी दूरी का अंत--पराभक्ति।
कृष्ण ने कहा है: यो मां पश्यति सर्वत्र। जो मुझे सब जगह देखने लगे, जिसे मैं सब जगह दिखाई पड़ने लगूं। जब भक्त को भगवान के अतिरिक्त और कुछ भी दिखाई न दे--न बाहर, न भीतर--तब अनन्यभाव, तब पराभक्ति।
गौणी-भक्ति में भेद रहता है। भगवान होता है आराध्य, भक्त होता है आराधक। उधर दूर भगवान, इधर भक्त। इधर भक्त रोता हुआ, प्रार्थना करता हुआ, वहां भगवान करुणा बरसाता हुआ। मगर फासला होता है, दूरी होती है, विरह होता है। पराभक्ति का अर्थ है: भक्त भगवान में डूब गया, भगवान भक्त में डूब गए; अब न कोई आराधक है, न कोई आराधना। अब सब शांत हो गया। अब एक का आविर्भाव हो गया। गए द्वंद्व। गई दुई।
परां कृत्वा एव सर्वेषां तथा हि आह।
‘गीता के वाक्य पराभक्ति के साधन के अर्थ ही हैं।’
और गौणी-भक्ति, भजन-कीर्तन आदि से मुक्ति नहीं मिलती। मुक्ति तो पराभक्ति से मिलती है। फिर गौणी-भक्ति से क्या मिलता है? गौणी-भक्ति से पराभक्ति मिलती है। भजन-कीर्तन इत्यादि से पराभक्ति का रस धीरे-धीरे बढ़ता है। जिस दिन पराभक्ति मिल जाती है, उस दिन गौणी-भक्ति विदा हो गई। और पराभक्ति से मोक्ष का आविर्भाव होता है।
परमात्मा से अलग होने में हमारा बंधन है। और परमात्मा के साथ एक हो जाने में हमारी मुक्ति है। हम हम की तरह रहेंगे, तो बंधन में रहेंगे, जंजीरों में रहेंगे। मैं कारागृह है। और हम हम की तरह न रहे, मैं विदा हो गया, कारागृह गिर गया। फिर सारा खुला आकाश है स्वातंत्र्य का। फिर स्वच्छंदता है। उस परम आनंद की तलाश ही चल रही है। और जब तक उसे न पा लोगे तब तक तृप्ति नहीं होगी; और कुछ भी पा लो, तृप्ति नहीं होगी। सारा संसार तुम्हारा हो जाए, तृप्ति नहीं होगी।
और अंतिम वचन तो अदभुत है।
भजनीयेन अद्वितीयम् इदं कृत्स्नस्य तत् स्वरूपत्वात्।
‘यह सभी भगवान का स्वरूप है, इस कारण सेवन (भजन) करने के योग्य है।’
यह सारा जगत परमात्मा का स्वरूप है। तुमने सुना है, शास्त्र कहते हैं: जगत मिथ्या, माया। शांडिल्य नहीं कहते। शांडिल्य कहते हैं: जगत कैसे माया? कैसे असत्य? सत्य से कहीं असत्य का आविर्भाव हो सकता है? अगर परमात्मा सत्य है, तो उससे असत्य का कैसे आविर्भाव होगा? अगर परमात्मा सत्य है, तो संसार माया कैसे होगा? एक बहुमूल्य सवाल उठाते हैं। बुनियादी सवाल उठाते हैं। वे कहते हैं: सत्य से सत्य का ही आविर्भाव हो सकता है। लहर भी सत्य है, क्योंकि सागर सत्य है। लहर अलग होकर सत्य नहीं है--वहां भ्रांति शुरू होती है--मगर लहर की तरह तो सत्य है ही। लहर में सागर ही तो लहरा रहा है। लहर को तुम सागर से अलग नहीं ले जा सकोगे, कि लहर को अपने घर ले चलें, लहर मिट जाएगी। लहर सागर में ही हो सकती है।
जगत की भ्रांति इसलिए पैदा नहीं हो रही है कि जगत भांति है। जगत की भ्रांति इसलिए पैदा हो रही है कि तुमने अपने को अलग मान लिया; तुमने लहर को अलग मान लिया; तुमने लहर को केंद्र दे दिया है, जो कि झूठ है। तुम अपने केंद्र बन गए हो, जो कि झूठ है। केंद्र तो एक ही है इस सारे अस्तित्व का। इस सारे अस्तित्व का प्राण एक है। इस सारे अस्तित्व का सूर्य एक है। किरणें हम अनेक हैं। मगर सारी किरणें उसी सूर्य से जुड़ी हैं, उसी सूर्य का विस्तार हैं।
शांडिल्य कहते हैं: संसार असत्य नहीं है वरन सच्चिदानंद भगवान का ही विस्तार है। इसलिए सेवन करने योग्य है, भोगने योग्य है। और भजन करने योग्य भी।
यह क्रांतिकारी वचन है।
दो बातें कह रहे हैं। भजनीय का दोहरा अर्थ है: भोगनीय और भजन करने योग्य, आदरणीय। भोग्य और आराध्य। यह बड़ा गहरा इशारा है। वे यह कह रहे हैं--भागो मत; भोगो। यह परमात्मा ही है। जब तुम भोजन कर रहे हो, तो तुम परमात्मा को ही अपने में आत्मसात कर रहे हो। इसलिए उपनिषद कहते हैं--अन्नं ब्रह्म। इसलिए इस देश में हम आदर से पहले प्रणाम करते हैं, भगवान का स्मरण करते हैं, फिर भोजन लेते हैं। समादरपूर्वक। भोजन के रूप में भगवान ही हैं। वह जो फल की तरह आया है वृक्ष से, उसमें उसी की जीवनधारा है, उसी का रस है। वह जल जो तुम पी रहे हो और जो तुम्हारी तृषा को मिटाएगा, तुम्हारे कंठ को ठंडा करेगा, तृप्त करेगा, उसमें उसी का ही रूप है। तुम्हारी पत्नी में भी वही बैठा है। तुम्हारे बेटे में भी वही बैठा है। जब तुम पत्नी को गले लगा रहे हो, तो घबड़ाना मत!
तुम्हारे महात्मा बीच में खड़े हो जाएंगे और वे तुम्हें घबड़ाने की पूरी कोशिश करेंगे कि यह क्या कर रहे हो? पाप कर रहे हो? बचो! फिर भटकोगे, फिर नरक में सड़ोगे।
छोड़ो सारी बकवास, उस पत्नी में भी उसी को देखो। जरा भी भयभीत न होओ। जीवन तुम्हारा है। और जीवन परमात्मा का है। और तुम और परमात्मा अंततः एक हैं। यह सारा विस्तार उसका है। यह सारा संगीत उसका है। इसे सुनो। इसे गुनो। यह सारा रस उसका है, रसमग्न हो जाओ।
तो एक तो सेवन करो। जगत से भागना मत! और दूसरा, सेवन करते समय भी स्मरण रखना, इसे साधन मत समझ लेना; इसके प्रति आराधना का भाव रहे, क्योंकि भगवान है।
दुनिया में दो तरह के लोग हैं। शांडिल्य चाहते हैं तुम तीसरे तरह के आदमी बनो। मैं भी चाहता हूं तुम तीसरे तरह के आदमी बनो।
एक तो दुनिया में वे लोग हैं जो कहते हैं, यहां सिर्फ भोग है, और कुछ भी नहीं। हर चीज को भोगो और फेंक दो। भौतिकवादी। एक स्त्री को भोग लेता है, फिर फेंक देता है। वह कहता है, अब क्या है! अब मैं दूसरी स्त्री खोजूंगा। उसके मन में कोई आदर नहीं है, कोई आराधना नहीं है। वह व्यक्तियों का उपयोग वस्तुओं की तरह करता है। वहां असम्मान है। वह व्यक्तियों का उपयोग साधन की तरह करता है। जब कि प्रत्येक व्यक्ति साध्य है।
तुमने कभी अपनी पत्नी के चरण छुए? अगर नहीं छुए, तो तुम भौतिकवादी हो। तुमने कभी अपने बेटे के चरण छुए? अगर नहीं छुए, तो तुम भौतिकवादी हो। तुमने कभी अपने नौकर को सम्मान दिया? अगर नहीं दिया, तो तुम्हारी सब बकवास है परमात्मा इत्यादि को मानना। उसमें कोई मूल्य नहीं है।
एक तो भौतिकवादी है, जो चीजों का भोग करता है, जो कहता है कि मैं भोगने के लिए बना हूं, और हर चीज मेरे भोग के लिए बनी है। तो वह जाकर जंगल में शिकार कर लाता है। न मालूम कितने जीवन को पोंछ डालता है, सिर्फ इसलिए कि स्वाद थोड़ा सा मिले। उसे कोई चिंता नहीं है। उसे बोध ही नहीं है कि वह क्या कर रहा है! वह सारी दुनिया को मिटा सकता है, बस उसे अपना भोग ही एकमात्र लक्ष्य है। उसके मन में अस्तित्व का कोई सम्मान नहीं है। रेवरेंस फॉर लाइफ उसके भीतर नहीं है। वह हिंसक होगा, दुष्ट होगा, कठोर होगा। वह येन-केन-प्रकारेण, किसी भी तरह शोषण कर लो, चूस लो। उसका सारा अस्तित्व शोषक का अस्तित्व है। उसके मन में न दया होगी, न प्रेम होगा, न करुणा होगी।
एक तो भौतिकवादी है। वह कहता है, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत। अगर ऋण लेकर भी घी पीना पड़े तो लेकर पी लो। वह कहता है, फिकर क्या है? धोखा देना पड़े, धोखा दे दो। बेईमानी, चोरी, कुछ भी करना पड़े, करते रहो। बस अपना भोग सब कुछ है। किसका छिनता है, किसका जाता है, कोई चिंता नहीं। लोगों के सिर पर पैर रख कर चढ़ने का मौका मिले, दिल्ली पहुंचने का, तो पहुंच जाओ। लोगों की सीढ़ियां बना लो। जब सीढ़ियां बनाओ तब हाथ जोड़ कर खड़े हो जाना।
सब नेतागण हाथ जोड़ कर खड़े हो जाते हैं जब तुम्हें सीढ़ियां बनाना चाहते हैं। और जब सीढ़ी बन गए तुम, फिर उन्हें तुम्हारी याद नहीं आती। फिर वे तुम्हारे सिर पर पैर रख कर निकल गए। वे पहुंच गए जहां उन्हें पहुंचना था। उन्होंने तुम्हारा उपयोग कर लिया। बस उपयोग तक तुम्हारी कीमत थी। तुम्हारी कोई निजी कीमत नहीं है, तुम्हारा कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारा इतना ही मूल्य है जितना तुम उनके काम आ जाओ। तुम्हारे प्रति कोई सम्मान नहीं, समादर नहीं है। यह भौतिकवादी है।
एक दूसरे तरह का आदमी है, जो इतने सम्मान से भर गया है कि वह कहता है कि मैं कैसे भोजन करूं? उपवास करूंगा! मैं कैसे अपने बेटे को प्रेम करूं? मैं तो जंगल जा रहा हूं। मैं यहां रुक नहीं सकता। इस भोग की दुनिया में मैं कैसे रुक सकता हूं? यहां तो सब भोग ही है। यहां सब शोषण चल रहा है। यहां सब एक-दूसरे की गर्दन काटने में लगे हैं। मैं यहां नहीं रुक सकता। मैं तो जाऊंगा, पहाड़ पर बैठूंगा, मैं तो एकांत में बैठूंगा। यह अध्यात्मवादी है।
ये भौतिकवादी और अध्यात्मवादी दुनिया में सदा से पाए गए हैं। तीसरे आदमी की जरूरत है, जो संसार में हो और आध्यात्मिक हो। जो भोगे और भजे। जो भागे नहीं। जो जीवन का पूरा सम्मान भी करे और जीवन का पूरा रस भी ले। जो डर कर भाग न जाए।
जो डर कर भाग रहा है, वह भौतिकवादी का ही उलटा रूप है। वह डरा इसीलिए है कि वह जानता है कि अगर वह पत्नी के पास रहा, तो वह पत्नी का शोषण करेगा। इसलिए भाग गया है। उसे यह भरोसा नहीं है अपने पर कि मैं पत्नी का शोषण करने से बच सकूंगा अगर पत्नी के पास रहा। वह डरा है कि अगर मैं दुकान पर बैठा तो मैं ग्राहक की जेब काट ही लूंगा। इसलिए पहाड़ जा रहा हूं। न रहेगा ग्राहक, न झंझट होगी। अगर ग्राहक सामने रहा, फिर मैं नहीं रुक सकता। फिर तो मैं जेब काट ही लूंगा। वह भगोड़ा जो है, वह डरा हुआ भोगी है। वह जानता है कि संसार में तो वह भौतिकवादी हो ही जाएगा। उसके बचने का एक ही उपाय वह सोचता है कि दूर, इतनी दूर चला जाऊं, न कोई होगा शोषण करने को, तो मैं कैसे शोषण करूंगा? शोषण करने को ही कोई नहीं होगा!
मगर यह कोई क्रांति हुई? यह कोई बदलाहट हुई? जंगल में बैठ जाएगा, क्योंकि वहां कोई है ही नहीं जिससे झूठ बोलना है। सच बोलना हुआ यह?
जहां झूठ बोलने की सुविधा न रही, वहां सच बोलने की सुविधा भी न रही। दोनों सुविधाएं समाप्त हो गईं। सच और झूठ दोनों के लिए कोई और चाहिए। अकेले में न तो सच होता, न झूठ होता। सच और झूठ तो संबंध में होता है। जंगल में बैठ गए, घृणा नहीं करते किसी से--प्रेम भी नहीं है। दोनों साथ ही समाप्त हो गए। घृणा और प्रेम के लिए दूसरे की मौजूदगी चाहिए। आराधना, सम्मान-असम्मान, दोनों के लिए किसी की मौजूदगी चाहिए।
भौतिकवादी एक तरह की गलती है, अध्यात्मवादी दूसरे तरह की गलती है। भोगवाद एक भूल, त्यागवाद दूसरी भूल। शांडिल्य जैसे महाज्ञानी तीसरी तरह की बात कहते हैं। वे कहते हैं: त्यागपूर्ण भोग, भोगपूर्ण त्याग। उपनिषदों का वचन तुम्हें याद है? तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः। जिन्होंने त्यागा, वे वही हैं जिन्होंने भोगा। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः। जिन्होंने भोगा, वे वही हैं जिन्होंने त्यागा। त्याग और भोग अलग-अलग नहीं हैं। त्याग भोगपूर्ण हो, भोग त्यागपूर्ण हो, तब क्रांति घटती है। तब उत्क्रांति घटती है। तब जीवन में महोत्सव आता है। इस बात की तरफ इशारा है इस वचन में--
भजनीयेन अद्वितीयं इदं कृत्स्नस्य तत् स्वरूपत्वात्।
‘यह सभी भगवान का स्वरूप है, इस कारण सेवन और भजन करने के योग्य है।’
इस पर खूब मनन करना इस वचन पर। दोनों के योग्य है। भगवान ने अवसर दिया है, पुरस्कार दिया है, भोगो भी। फूल दिए हैं, नासापुटों में जाने दो उनकी गंध। और हाथ जोड़ कर फूल के सामने झुको भी। धन्यवाद भी दो। जो व्यक्ति जगत का भोग भी कर सके और जगत का समादर भी कर सके, वही भक्त है। भक्त में अपूर्व घटना घटती है। त्याग और भोग का मिलन हो जाता है। भक्त भगोड़ा नहीं होता। न ही मात्र भोगी होता है। भक्त सम्मानपूर्वक सब तरफ परमात्मा को देखता है, सब तरफ उसका सिर झुका होता है। लेकिन परमात्मा जो भी देता है, उसे अंगीकार करता है। उसे प्रसादरूप स्वीकार करता है। इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं: कहीं जाना मत, छोड़ कर कहीं मत जाना, परमात्मा यहां है। तुम्हारे होने का ढंग बदलना चाहिए। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः। भगोड़े वंचित हो जाते हैं।
ले ली जीवन ने अग्निपरीक्षा मेरी।
मैं आया था जग में बन कर
लहरों का दीवाना,
यहां कठिन था दो बूंदों से
भी तो नेह लगाना,
पानी का है वह अधिकारी
जो अंगार चबाए,
ले ली जीवन ने अग्निपरीक्षा मेरी।
सुनते हो?
पानी का है वह अधिकारी
जो अंगार चबाए,
अंतरतम के शोलों को था
खुद मैंने दहकाया,
अनुभवहीन दिनों में मुझको
था किसने बहकाया,
भीतर की तृष्णा जब चीखी
सागर, बादल, पानी,
बाहर की दुनिया थी लपटों ने घेरी।
ले ली जीवन ने अग्निपरीक्षा मेरी।
जीवन अग्निपरीक्षा है। और कहीं जाने की जरूरत नहीं है, यहीं निखार है। यहीं तुम्हारा स्वर्ण आग से गुजर कर कुंदन बनेगा।
काठ कोयला जल कर बनता
और कोयला, राखी,
छिपा कहीं मेरी छाती में
था स्वर्गों का साखी,
दो आगों के बीच बना कर
नीड़ रहा जो गाता,
ज्वाला के दिन में, निशि में धूम्र-अंधेरी।
ले ली जीवन ने अग्निपरीक्षा मेरी।
जीवन की अग्निपरीक्षा से भागो मत। यहीं कुछ घटने को है। घटने को है, इसीलिए जीवन दिया गया है।
काठ कोयला जल कर बनता
और कोयला, राखी,
छिपा कहीं मेरी छाती में
था स्वर्गों का साखी,
वह जो स्वर्ग का साक्षी है, वह तुम्हारे भीतर छिपा है। त्याग को भी देखो और भोग को भी देखो, साक्षी बनो। न त्याग को चुनो, न भोग को चुनो, दोनों को नाचने दो तुम्हारे चारों तरफ। तुम साक्षी रहो। तुम तीसरे रहो। सुख भी देखो, दुख भी देखो; दिन भी देखो, रात भी देखो; मगर किसी से तादात्म्य मत करो।
छिपा कहीं मेरी छाती में
था स्वर्गों का साखी,
दो आगों के बीच बना कर
नीड़ रहा जो गाता,
ज्वाला के दिन में, निशि में धूम्र-अंधेरी।
ले ली जीवन ने अग्निपरीक्षा मेरी।
पीड़ा को मधुमय, क्रंदन को
छंदों की मृदुवाणी,
अशुचि अमंगल को मैं मंगल
करने का अभिमानी
स्वप्न चिता की भस्म जहां
थी फैली, उस पर मैंने
बिखरा दी अपने कलि-कुसुमों की ढेरी।
ले ली जीवन ने अग्निपरीक्षा मेरी।
इस अग्नि का रंग ही गैरिक रंग है। इस अग्निपरीक्षा से गुजरना ही गैरिक वस्त्रों का अर्थ है। तुम्हारा संन्यास तुम्हें जगत का सेवन और जगत का भजन सिखाए, तो तुम्हारा संन्यास भक्ति की महिमा बन जाएगा, भक्ति की गरिमा बन जाएगा। तुम्हारे संन्यास से गीत उठना चाहिए। तुम्हारे संन्यास से नृत्य जगना चाहिए। तुम्हारा संन्यास महोत्सव हो। तभी जानना कि तुमने, प्रभु ने जो अवसर दिया था, उसका पूरा-पूरा उपयोग किया है और तुम उत्तीर्ण हो गए हो।
आज इतना ही।
उत्क्रांतिस्मृतिवाक्यशेषाच्च।। 81।।
महापातकिनां त्वार्तौ।। 82।।
सैकान्तभावो गीतार्थप्रत्यभिज्ञानात्।। 83।
परां कृत्वैव सर्वेषां तथाह्याह।। 84।।
भजनीयेनाद्वितीयमिदं कृत्स्नस्य तत्स्वरूपत्वात्।। 85।।
जुस्तजू-ए-राह बाकी है न मंजिल की तलाश
मुझको खुद है अब मेरे खोए हुए दिल की तलाश
रोक ऐ हमदम! न मेरी अश्क-अफशानी को तू
महफिले-हस्ती को है इक शाम-ए-महफिल की तलाश
अब नजर आए जहां अपने सिवा कोई न हो
दिल को राहे-शौक में है ऐसी मंजिल की तलाश
दीदाए-जाहिर से कब तक देखिए अंदाजे-दोस्त
कीजिए ऐ ‘शमअ’! अब इक दीदाए-दिल की तलाश
एक तो आंख है हमारे पास जो बाहर देखती है। और एक आंख हमारे पास और भी है जो भीतर देखती है। उस भीतर की आंख का हमें कुछ अनुमान नहीं है। उस भीतर की आंख को खोज लेने का नाम ही धर्म है। और जो आंख भीतर की है वह भीतर ही नहीं देखती है, वह बाहर के पीछे छिपा जो भीतर है उसे भी देखती है।
संसार और परमात्मा दो नहीं हैं। संसार का अर्थ है: परमात्मा अभी केवल बाहर की आंख से देखा गया है। परमात्मा अभी बाहर-बाहर से देखा गया है, तो संसार। जिस दिन संसार को हम भीतर की आंख से देख लेते हैं, उसी दिन संसार विलीन हो जाता है, परमात्मा ही शेष रह जाता है। परमात्मा संसार की अंतरंग भूमिका है। परमात्मा संसार की आत्मा है।
परमात्मा और संसार दो नहीं हैं, हमारे देखने के दो ढंग हैं।
दीदाए-जाहिर से कब तक देखिए अंदाजे-दोस्त
बाहर की आंख से कब तक उस प्यारे को देखने की कोशिश करोगे?
दीदाए-जाहिर से कब तक देखिए अंदाजे-दोस्त
कीजिए ऐ ‘शमअ’! अब इक दीदाए-दिल की तलाश
अब एक ऐसी आंख चाहिए जो दिल में ऊगे। एक हृदय की आंख चाहिए। उस हृदय की आंख से ही परमात्मा देखा जा सकता है। लोग पूछते हैं: परमात्मा कहां है? उन्हें पूछना चाहिए: मेरा हृदय कहां है? मेरा हृदय कैसे खुले? उन्हें पूछना चाहिए कि मैं भीतर देखने में समर्थ कैसे हो पाऊं? जो अपने भीतर देख लेगा वह समस्त के भीतर भी देख लेता है, ध्यान रखना। बाहर से हम अपने को भी देखते हैं, संसार को भी देखते हैं। न हमारी अपने से सीधी पहचान है, न संसार से सीधी पहचान है।
भक्ति उस भीतर की आंख को खोलने का सुगमतम उपाय है। योग भी खोलता है उस आंख को, पर लंबी प्रक्रियाएं हैं। बड़ा यतन है, बड़ी चेष्टा है, जबर्दस्ती है। भक्ति भी खोलती है उस आंख को; पर न चेष्टा है, न जबर्दस्ती है। यतन नहीं है, भजन है। भक्त सिर्फ परमात्मा के हाथों में अपने को छोड़ देता है--खोलो मेरी भीतर की आंख!
फिर जिसने जीवन दिया है, जिससे अस्तित्व उमगा है, उससे सब हो सकता है--सब असंभव संभव है। तुम इस छोटी सी बात को ठीक से समझ लेना। जिस ऊर्जा से सारा जगत चलता है, जिस ऊर्जा से चांद-तारे बनते हैं, जिस ऊर्जा से तुम जन्मे हो, वृक्ष जन्मे हैं, पहाड़-पर्वत जन्मे हैं, उस ऊर्जा से तुम्हारी भीतर की आंख न खुल सकेगी? अगर तुम संसार को भी ठीक से देखो, तो एक बात साफ हो जाती है--इतना विराट विस्तार इतनी सुगमता से चल रहा है, तो क्या इतनी विराट ऊर्जा के बस में यह बात न होगी कि तुम्हारे हृदय की कली खुल जाए? सूरज निकलता है, करोड़ों-करोड़ों कलियां खिल जाती हैं।
भक्ति का यही भरोसा है, कि हमारे किए नहीं होता है, हमारे किए बाधा पड़ती है, हमारे करने से ही बाधा पड़ जाती है; सहजता से होता है, उस पर भरोसे से होता है, श्रद्धा से होता है।
आज के सूत्र बड़े बहुमूल्य हैं। पहला सूत्र--
उत्क्रांतिः स्मृतिवाक्यशेषात् च।
‘क्योंकि श्री भगवान ने कहा है कि उनके भक्तगण सब कर्मों का उल्लंघन करके एक ही बार में सिद्धिलाभ करने में समर्थ होते हैं।’
एक-एक शब्द समझने जैसा है।
उत्क्रांतिः स्मृतिवाक्यशेषात् च।
स्मरण करो उन भगवान के वचनों का। वे वचन बिखरे पड़े हैं। वेदों में, उपनिषदों में, गीता में, कुरान में, बाइबिल में, सारे जगत के शास्त्रों में वे वचन बिखरे पड़े हैं। भगवान बहुत बार बोला है। जब भी किसी भक्त ने पुकारा है तो भगवान बोला है। गीता बोली गई अर्जुन की प्यास के कारण। न अर्जुन प्यासा होता, न गीता का जन्म होता। जब भी कोई भक्त प्यासा हुआ है, तो उसका मेघ बरसा है। खूब बरसा है। वचन बिखरे पड़े हैं। मनुष्य-जाति की चेतना के इतिहास में जगह-जगह मील के पत्थर हैं। भगवान बहुत बार बोला है। तुम भी पुकारोगे, तुमसे भी बोलेगा। तुमसे नहीं बोला है तो सिर्फ इसीलिए कि तुमने पुकारा ही नहीं। तुमने प्यास ही जाहिर नहीं की। तुमने प्रार्थना ही निवेदन नहीं की। तुमने पाती ही नहीं लिखी। और तुम नाहक शिकायत कर रहे हो कि मुझसे कभी नहीं बोला। मुझे कैसे भरोसा आए? बोला होगा अर्जुन से, अर्जुन जाने, मुझे कैसे भरोसा आए?
अर्जुन की भांति तुमने पुकारा है? निवेदन किया है? तुम निवेदन करोगे और तत्क्षण तुम पाओगे--उतरने लगे उसके वचन, किरणें आने लगीं, कली खिलने लगी।
उत्क्रांतिः स्मृतिवाक्यशेषात् च।
यह उत्क्रांति शब्द भी समझ लेने जैसा है। तीन शब्द समझोगे तो उत्क्रांति शब्द समझ में आएगा।
एक शब्द है, विकास। विकास का अर्थ होता है: जो अपने आप हो रहा है। करना नहीं पड़ता। बच्चा जवान हो जाता है, जवान बूढ़ा हो जाता है। बीज पौधा हो जाता है, पौधा वृक्ष बन जाता है, वृक्ष में फूल आ जाते हैं। यह विकास। इसे कोई कर नहीं रहा है। यह हो रहा है। विकास को ठीक से समझो। भक्त की आस्था इसी विकास में है, इसी विकास के परम रूप में है। अब वृक्ष को खींच-खींच कर थोड़े ही बीज से निकालना पड़ता है। और निकालोगे तो क्या निकाल पाओगे! बीज का नाश हो जाएगा। कली को पकड़ कर खोलना थोड़े ही पड़ता है! खोलोगे, तुम्हारे खोलने में ही मुर्झा जाएगी, कभी फूल न बन पाएगी। बच्चे को खींच-खींच कर थोड़े ही जवान करना पड़ता है। सौभाग्य है कि लोग खींच-खींच कर बच्चों को जवान नहीं करते। नहीं तो बच्चे कभी के समाप्त हो गए होते। सब अपने से हो रहा है। इतना विराट अपने से हो रहा है! इस अपने से होने पर भरोसा करो।
विकास का अर्थ होता है: जो अपने से हो रहा है। क्रांति का अर्थ होता है: जो करनी पड़ती है। जोर-जबर्दस्ती, हिंसा। इसीलिए क्रांति में तो मौलिक रूप से हिंसा छिपी हुई है। अहिंसक क्रांति होती ही नहीं। क्रांति का अर्थ ही जोर-जबर्दस्ती है। फिर तुमने जोर-जबर्दस्ती कैसे की, इससे फर्क नहीं पड़ता। किसी की छाती पर छुरा रख कर कर दी, कि उपवास रख कर कर दी, मगर जोर-जबर्दस्ती है। अपने को मारने की धमकी दी, कि दूसरे को मारने की धमकी दी, इससे भेद नहीं पड़ता। क्रांति का अर्थ ही होता है: तुमने भरोसा खो दिया विकास पर, तुम जल्दबाजी में पड़ गए। क्रांति में अश्रद्धा है।
इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि क्रांतिकारी अक्सर नास्तिक होते हैं। यह आकस्मिक नहीं है कि क्रांतिकारी अधार्मिक हो जाते हैं। यह आकस्मिक नहीं है। इसके पीछे तारतम्य है। क्रांति का अर्थ ही होता है: किसी व्यक्ति ने अब भरोसा खो दिया विकास पर। अब वह कहता है, हमारे बिना किए नहीं होगा। कुछ करेंगे तो होगा। ऐसे तो चलता ही रहा है, कभी कुछ नहीं होता। क्रांति का अर्थ होता है: जोर-जबर्दस्ती से लाया गया उलट-फेर। उसमें खून के धब्बे तो रहते ही हैं। दाग तो छूट जाते हैं, जो फिर मिटाए नहीं मिटते।
उत्क्रांति का क्या अर्थ है?
उत्क्रांति बड़ा अनूठा शब्द है। उत्क्रांति में कुछ तो क्रांति का हिस्सा है, इसलिए उसको उत्क्रांति कहते हैं; और कुछ विकास का हिस्सा है, इसलिए उसको क्रांति मात्र नहीं कहते, उत्क्रांति कहते हैं।
विकास अपने से हो रहा है। बड़ी धीमी आहिस्ता गति है। तुम्हें कुछ करना नहीं पड़ता। तुम सोते रहो, बैठे रहो, तुम जवान होते रहोगे। तुम सोते रहो, बैठे रहो, तुम बूढ़े होते रहोगे। कुछ करो, न करो, बुढ़ापा आता रहेगा। अपने से हो रहा है। उसके विपरीत करना कुछ संभव नहीं है। जल्दबाजी भी क्या करोगे? जल्दबाजी भी कुछ हो नहीं सकती। अवश हो। तुम्हारी प्यास की भी जरूरत नहीं है, तुम्हारी प्रार्थना की भी जरूरत नहीं है। तो विकास।
और क्रांति का अर्थ है: तुम्हारे पूरे अहंकार की जरूरत है। तुम अपने अहंकार के हाथ में सब ले लो, सारी व्यवस्था ले लो, जगत के नियम अपने हाथ में ले लो, तोड़-मरोड़ करो, जबर्दस्ती करो, अपनी मंशा पूरी करने की चेष्टा करो।
उत्क्रांति का अर्थ है: इतना तुम करो--प्रार्थना, प्यास--और शेष परमात्मा को करने दो। प्रार्थना तुम्हें करनी होगी, इसलिए थोड़ी क्रांति उसमें है। क्योंकि इतनी तो तुम्हें चेष्टा करनी होगी--प्रार्थना की, प्यास की, पुकार की। लेकिन फिर शेष अपने आप होता है; बाकी सब विकास है। इसलिए उत्क्रांति बड़ा अदभुत शब्द है। उसमें विकास और क्रांति का समन्वय है। उसमें जो भी शुभ है विकास में, वह सब ले लिया गया है; और जो अशुभ है, वह छोड़ दिया गया है। क्या शुभ है विकास में? शुभ है कि सब अपने से होता है। अशुभ है कि लोग काहिल और सुस्त हो जाते हैं। मुर्दा हो जाते हैं। जो क्रांति में शुभ है, वह भी ले लिया है; और जो अशुभ है, वह छोड़ दिया है। शुभ क्या है क्रांति में? कि लोग मुर्दा नहीं होते। सजग होते हैं, सचेत होते हैं। अशुभ क्या है? हिंसक हो जाते हैं, अहंकारी हो जाते हैं। उत्क्रांति ने दोनों में जो सुगंध थी, इकट्ठी कर ली है; दोनों में जो दुर्गंध थी, वह छोड़ दी है। प्रार्थना तुम करना, भजन तुम करना, कीर्तन तुम करना, पुकारना तुम, आंसू तुम बहाना, मगर शेष उसे करने देना। बस पुकार तुम्हारी तरफ से पूरी हो जाए, फिर सब कुछ प्रसाद उसकी तरफ से बरसेगा। उत्क्रांति में मनुष्य और परमात्मा का मिलन है। विकास में अकेला परमात्मा है, क्रांति में अकेला मनुष्य है, उत्क्रांति में मनुष्य और परमात्मा का मिलन है। संग-साथ हो लिए, हाथ में हाथ हो गया।
उत्क्रांति बड़ा प्यारा शब्द है। शांडिल्य ने इस शब्द का उपयोग करके गजब किया।
शांडिल्य कहते हैं: ‘उत्क्रांतिः स्मृतिवाक्यशेषात् च।’
याद करो परमात्मा ने कितनी बार कहा है--उत्क्रांति से होगा।
‘श्री भगवान ने कहा है: उनके भक्तगण सब कर्मों का उल्लंघन कर एक बार ही सिद्धिलाभ करने में समर्थ होते हैं।’
सब कर्मों का उल्लंघन कर! यह बात गणित को पकड़ में नहीं आती। सोच-विचारशील आदमी इससे बड़ी बेचैनी में पड़ जाता है। सोच-विचारशील आदमी सोचता है कि जितने हमने पापकर्म किए हैं, उतने हमें पुण्यकर्म करने पड़ेंगे, तब तराजू बराबर, पलड़े दोनों एक वजन के होंगे। बुरा किया, अच्छा करना होगा। चोट किसी को पहुंचाई, तो सेवा करनी होगी। किसी को लूट लिया, तो दान देना होगा। यह बात बिलकुल गणित की है। यह बात बिलकुल न्याययुक्त मालूम होती है कि बुरे को साफ करना होगा। फिर बुरा करने में जनम-जनम लगे हैं, तो साफ करने में भी जनम-जनम लगेंगे। उत्क्रांति कैसे हो जाएगी? एक क्षण में कैसे हो जाएगा? तत्क्षण कैसे हो जाएगा?
लेकिन भक्त जानता है कि तत्क्षण भी हो जाता है। तत्क्षण होने की कला है, कीमिया है।
क्या कीमिया है? पहली बात, तुमसे बुरा कभी हुआ है, वह इसीलिए हुआ है कि तुम सजग न थे, सचेत न थे। तुमसे बुरा अगर कभी हुआ है, तो तुमने जान कर बुरा नहीं किया है। तुम ऐसा आदमी नहीं खोज सकोगे जो जान कर बुरा करता है। बुरे से बुरा करने वाला भी अनजाने करता है। या सोच कर करता है कि ठीक ही कर रहा हूं। या सोचता है कि इससे कुछ न कुछ ठीक होगा। और बुरा से बुरा आदमी भी पछताता है कि ऐसा मैंने क्यों किया? एकांत क्षण में, अपनी निर्जनता में, अपने मौन में सोच-विचार करता है, प्रायश्चित्त करता है। नहीं करना था। हो गया। अब न करूंगा। अब दुबारा नहीं होने दूंगा।
तुम बुरे मन की स्थिति समझो। बुरा मन, बुरा है, ऐसा सोच कर नहीं करता, पहली बात। अगर लगता भी है कि बुरा होगा तो यह अपने को समझा लेता है कि इससे कुछ भला होने वाला है, इसलिए कर रहा हूं। करने के बाद कभी भी इसको अंगीकार नहीं कर पाता कि मैंने क्यों किया। प्रसन्नता से, प्रफुल्लता से स्वीकार नहीं कर पाता। पछताता है। चाहे औरों के सामने न भी कहे, अकड़ और अहंकार की वजह से रक्षा भी करे, लेकिन एकांत में जानता है कि भूल हुई है और नहीं होनी थी। अपनी ही आंखों के सामने पतित हो जाता है। अपनी ही आंखों में श्रद्धा खो जाती है, अपने ही प्रति। और सोचता है कि अब नहीं करूंगा, अब कभी नहीं करूंगा। सबके जीवन में ऐसी घटना घटती है, छोटे पाप हों कि बड़े पाप हों।
भक्ति की उदघोषणा यह है कि आदमी से पाप इसलिए हो रहा है--बहुत पाप हों कि कम, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता--हो इसलिए रहा है कि आदमी अभी सचेत नहीं है। और उसके सचेत होने में बाधा क्या है? उसके सचेत होने में अहंकार बाधा है। मैं हूं, यही उसकी मूर्च्छा है। भक्ति का शास्त्र एक ही मूर्च्छा मानता है--मैं। और जब तक मैं है तब तक बुरा होता ही रहेगा। तुम चाहे पुण्य करो, तो भी पाप होगा। तुम भला करो, तो भी बुरा होगा। जिस दिन मैं चला जाएगा उस दिन तुम बुरा करना भी चाहोगे तो नहीं कर पाओगे। क्योंकि मैं के बिना बुरा नहीं होता। और जहां मैं जाता है, वहां परमात्मा तुम्हारे भीतर से सक्रिय हो जाता है। मैं के कारण परमात्मा सक्रिय नहीं हो पाता।
इसलिए सवाल यह नहीं है कि हम एक-एक कर्म को शुद्ध करें, सवाल यह है कि कर्मों का जो मूल है, अहंकार, उसको समर्पित कर दें। जड़ को काट दें। फिर पत्ते अपने आप ऊगने बंद हो जाते हैं।
आमतौर से लोग पत्ते काटते रहते हैं और वृक्ष बढ़ता रहता है। जड़ को पानी सींचते रहते हैं। तुम्हें यह बात लगेगी कठिन, लेकिन तुम अगर परीक्षा करोगे चारों तरफ, अवलोकन करोगे--अपना, औरों का--तो बात साफ हो जाएगी। लोग जड़ को तो पानी देते रहते हैं और पत्ते काटते रहते हैं। एक आदमी सोचता है कि मंदिर बनवा दूं--पुण्य का कृत्य! मंदिर तो बनवा देता है, लेकिन मंदिर बना कर अकड़ से भर जाता है कि मैंने मंदिर बनवाया।
भगवान का मंदिर आदमी कैसे बनाएगा? और आदमी का बनाया हुआ मंदिर भगवान का मंदिर कैसे होगा? कम से कम मंदिर बनाते वक्त तो यह स्मरण रखना चाहिए था कि वही बना रहा है; शायद मैं उपकरण हूं--निमित्त मात्र। उसके अपने हाथ नहीं हैं, मेरे हाथों का उपयोग कर रहा है। मेरे सहारे बना रहा है। मेरे द्वारा बना रहा है। मुझसे उसकी ऊर्जा बह रही है।
लेकिन मैं बना रहा हूं! मंदिरों पर भी पत्थर लग जाते हैं कि बनाने वाला कौन है--दानवीर, महादानवीर। अकड़ आ गई। अहंकार आ गया। तो अहंकार तो जड़ है, उसको तो पानी सींच रहे हो, और सोचते हो कि तुम पुण्य कर रहे हो।
बोधिधर्म चीन गया। सम्राट ने पूछा चीन के उससे कि मैंने बहुत बुद्ध के मंदिर बनवाए, और हजारों प्रतिमाएं प्रतिष्ठित करवाई हैं, और न मालूम कितने विहार और आश्रम बनवाए हैं, और लाखों भिक्षु राजमहल से रोज भोजन पाते हैं, इस सबका पुण्य क्या है?
बोधिधर्म ने कहा, कुछ भी नहीं। और अगर जल्दी न चेते तो महानरक में पड़ोगे।
सम्राट वू तो नाराज हो गया। स्वाभाविक। उसके पहले और भी बौद्ध भिक्षु आए थे, बड़े बौद्ध भिक्षु आए थे, सबने कहा था--आप धन्यभागी, आप महापुण्यात्मा, आपने इतना अपूर्व किया है कि कोई सम्राट अब तक नहीं कर पाया।
सम्राट वू ने चीन को बौद्ध बनाया। तो काम तो उसने बहुत बड़ा किया था। इस देश से बौद्ध धर्म उखड़ गया था, चीन में जमा दिया उसको। करोड़ों लोग बौद्ध हुए सम्राट वू के कारण। तो स्वभावतः बौद्ध भिक्षु उसके गुणगान में स्तुतियां लिखते थे, पत्थर खोदे गए थे, ताम्रपत्र पर उसका नाम लिखा गया था, पहाड़ों पर उसकी स्तुति गाई गई थी।
फिर बोधिधर्म आया। बोधिधर्म अदभुत प्रज्ञापुरुष था। बुद्ध की प्रतिभा का पुरुष था। बाकी जो आए थे, साधु-संन्यासी थे। बोधिधर्म ज्ञानी था। अनुभव से उपलब्ध द्रष्टा था। भगवत्ता को उपलब्ध था। सम्राट वू ने सोचा था कि बोधिधर्म भी मेरी प्रशंसा करेगा। लेकिन बोधिधर्म ने कहा, कुछ भी नहीं पुण्य; और अगर जल्दी यह सब भूल न गए तो महानरक में पड़ोगे।
सुन कर चोट लगती है। लेकिन बोधिधर्म क्या कह रहा है? बोधिधर्म यही कह रहा है, तुमने जो सब किया सो ठीक, मगर मैंने किया है, यह अकड़ को अब पानी मत दो, नहीं तो नरक का रास्ता तय कर रहे हो। अच्छा करके नरक जाओगे।
कर्ता नरक जाता है। न तो अच्छा नरक ले जाता, न बुरा, कर्ता का भाव नरक ले जाता है। भक्ति का शास्त्र कहता है: सिर्फ कर्ता-भाव चला जाए। वही कृष्ण ने अर्जुन से गीता में कहा है, कि तू निमित्त मात्र हो जा। यह गांडीव तू उठा, लेकिन उठाने दे उसे; युद्ध में तू लड़, लेकिन लड़ने दे उसे; तू बीच से हट जा; वह तेरा जो काम लेना चाहे, ले लेने दे; तू निमित्त मात्र है। और इस चिंता में भी मत पड़ कि तू लोगों को मार रहा है। तू क्या मारेगा? जिसे उसे मारना है, वह मार रहा है; जिसे मारना है, वह मार ही चुका है। मैं तुझसे कहता हूं, अर्जुन, कि मैं देखता हूं यहां अनेक मुर्दे खड़े हैं, जिनको सिर्फ धक्के की जरूरत है, वे गिर जाएंगे। धक्का कोई और दे देगा, तू न देगा तो। इसलिए तू चिंता में मत पड़। तू निश्चिंत हो जा। हे कौंतेय! तू निश्चिंत होकर युद्ध में उतर जा। न कोई पाप है, न कोई पुण्य है। एक ही पाप है कि मैं करने वाला हूं, और एक ही पुण्य है कि परमात्मा करने वाला है।
इसलिए उत्क्रांति संभव है। बस इतनी ही बात बदल जानी चाहिए। और यही कठिन मालूम पड़ता है। अच्छे काम करने को हम राजी हैं, लेकिन यह अहंकार छोड़ने को हम राजी नहीं हैं।
‘श्री भगवान ने कहा है कि उनके भक्तगण सब कर्मों का उल्लंघन कर एक ही बार में सिद्धिलाभ करने में समर्थ होते हैं।’
‘हे कौंतेय!’ कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ‘जो अनन्यचित्त होकर आराधना करते हैं, वे यदि अत्यंत दुराचारी भी हों तो भी उन्हें साधु जानना, क्योंकि पापीजन भी यदि मेरी भक्ति करें तो शीघ्र ही शांति की उपलब्धि कर लेते हैं। भगवान की कृपा से भक्तगण सब अवस्था में कल्याण को प्राप्त करते हैं, इसमें कोई भी संदेह नहीं है।’
जब पहली बार इस तरह के वचनों का पश्चिम की भाषाओं में अनुवाद हुआ, तो विद्वज्जन चौंक गए थे। ये कैसे वचन हैं?
‘हे कौंतेय, जो अनन्यचित्त होकर मेरी आराधना करते हैं, वे यदि अत्यंत दुराचारी भी हों तो भी उन्हें साधु जानना।’
ये कैसे वचन हैं? जिन्होंने इनके अनुवाद किए थे उनको भरोसा नहीं होता था कि वे अनुवाद ठीक कर रहे हैं; क्योंकि धर्मशास्त्र ऐसा कहेगा! उन्होंने तो मूसा की दस आज्ञाएं पढ़ी थीं--ऐसा मत करना, ऐसा मत करना, ऐसा मत करना; ऐसा करना, ऐसा करना, ऐसा करना। उन्होंने तो करना और न करना ही सुना था। उन्हें इस अपूर्व बात का कुछ पता ही न था कि जड़ भी काटी जा सकती है। करना न करना तो पत्तों की बातें हैं। जड़ काटी जा सकती है।
जड़ कैसे कटती है?
अनन्यचित्त होकर। जो मेरे साथ एक भाव हो जाता है, अनन्यचित्त हो जाता है, कृष्ण कहते हैं, जो अपनी दूरी समाप्त कर देता है, जो मेरे और अपने बीच किसी तरह का व्यवधान नहीं रखता, जो सब भांति मेरी तरंग में तरंग बन जाता है; फिर वह पापी भी हो तो उसको साधु जानना।
इससे उलटा भी सच है। जो मेरे साथ अनन्यचित्त न हो--यह गीता में कहा नहीं है, लेकिन मैं तुमसे कहता हूं--वह अगर पुण्यात्मा भी हो तो उसे साधु मत जानना। वह तो सीधा तर्क है। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। क्यों साधु मत जानना? क्योंकि जहां अहंकार है, वहां साधुता नहीं है। साधुता का जन्म ही निर-अहंकार भाव में होता है। वह निर-अहंकारिता की सुवास है। वह निर-अहंकार का फूल जब खिलता है तो जो सुवास उठती है, उसी का नाम साधुता है।
अनन्यभाव बहुमूल्य शब्द है। अन्य नहीं हो तुम, सो अनन्य। अलग नहीं हो तुम, भिन्न नहीं हो तुम--अभिन्न। हम हैं ही नहीं भिन्न, हम सब संयुक्त हैं, एक ही प्राण हममें प्रवाहित है, हम एक ही धारा की तरंगें हैं। बस मान बैठे हैं कि हम अलग हैं, हर लहर सोच बैठी है कि हम अलग हैं, वहीं अड़चन हो गई है। उस अलग होने के खयाल में ही तुम्हारे जीवन का सारा संकट है। जिस दिन तुम समझ लोगे कि अलग नहीं हो, उसी दिन सारे संकट विलीन हो जाएंगे। एक क्षण में विलीन हो जाएंगे, इसीलिए उत्क्रांति। सब कर्मों का उल्लंघन कर एक ही बार में सिद्धिलाभ करने में समर्थ हो जाता है भक्त।
आरजूएं एक ही मरकज पे रह कर मिट गईं
मैं जिसे आगाज समझा था वही अंजाम है
जिसे भक्त प्रारंभ समझता है, अंत में पाता है कि वही अंत है।
मैं जिसे आगाज समझा था वही अंजाम है
जिसे समझा था कि यात्रा की शुरुआत है...समर्पण मैं तुमसे कहता हूं यात्रा की शुरुआत है। लेकिन समर्पण ही यात्रा का अंत भी है। जब तक तुमने समर्पण नहीं किया है तब तक यात्रा की शुरुआत है, जिस दिन किया, उसी दिन यात्रा की पूर्णता हो गई। फिर उसके पार जाने को बचा कौन? जाने वाला ही न बचा। यात्री ही खो गया तो यात्रा कैसे बचेगी? समर्पण का अर्थ होता है: यात्री समाप्त हो गया। यात्री ने अपने हथियार डाल दिए। अपने को डाल दिया।
थोड़ा सोचो, इस महिमापूर्ण भाव को थोड़ा विचारो, इसे थोड़ा भीतर गुनगुन होने दो--अगर तुम नहीं हो, कौन जाएगा? कहां जाएगा? फिर कैसी अतृप्ति? फिर कैसा पाना? कैसा खोना? कैसा निर्वाण? कैसा मोक्ष? किसका मोक्ष? किसका निर्वाण? फिर तुम इसी क्षण पहुंच गए। सब हो गया।
इस एक छोटे से अहंकार को गिरा देने से सब हो जाता है। इस अहंकार के कारण तुम अन्य मालूम हो रहे हो परमात्मा से। अन्य होने के कारण तुम तड़प रहे हो, परेशान हो रहे हो। अन्य होने के कारण मछली सागर के बाहर पड़ गई है। अनन्य हो जाओ, फिर सागर में डुबकी लगा लो, फिर कोई पीड़ा नहीं है। फिर कोई संताप नहीं, कोई चिंता नहीं। फिर तुम घर लौट आए। फिर यह अस्तित्व तुम्हारा शत्रु नहीं है। फिर यह अस्तित्व तुम्हारा मित्र है। पहले कदम पर मंजिल पूरी हो जाती है। और अगर पहले ही कदम पर मंजिल पूरी हो जाती है, तो ही समझना तुम भक्त हो। दूसरा कदम उठाने को बचे, तो उसका मतलब समर्पण अभी पूरा नहीं हुआ था। और समर्पण आधा-आधा होता ही नहीं। या तो होता है तो पूरा होता है, या नहीं होता है। ये समर्पण जैसी महत्वपूर्ण चीजें बांटी नहीं जा सकतीं, काटी नहीं जा सकतीं; कि थोड़ा सा अभी किया, फिर थोड़ा सा कल करेंगे, फिर थोड़ा सा परसों करेंगे। बड़ी हिम्मत चाहिए एक कदम में छलांग लगा लेने की। बड़ा पागलपन चाहिए।
मुझसे पहले कोई शायद इतना दीवाना न था
गौर से तकता है हर इक जर्राए-सेहरा मुझे
और जब भक्त पहली छलांग लगाता है, तो सारी दुनिया उसे गौर से देखती है कि यह पागल हुआ! कहीं ऐसे होना है? धीरे-धीरे चलो। नियम पालन करो, व्रत साधो, मंदिर जाओ, पूजा करो, प्रार्थना करो। ऐसे कहीं होना है?
मुझसे लोग कहते हैं कि आप हर किसी को संन्यास दे देते हैं!
मैं कहता हूं, हर किसी को? यह बात ही अपमानजनक है। यहां किसी को भी ‘हर किसी’ मत कहना। यहां परमात्मा के सिवाय कोई भी नहीं है। हर किसी को? उनका मतलब, ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरों को। यहां ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा कोई भी नहीं है। हुआ ही नहीं कभी। हां, किसी ने अपने को खुद ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा मान लिया हो, यह उसकी भ्रांति है, मगर यहां कोई है नहीं। यहां उसके सिवाय कोई भी नहीं है। इसलिए किसी को भी संन्यास दे देता हूं। अनन्यभाव। अन्य तुम हो नहीं। परमात्मा से भिन्न तुम हो नहीं। किसी और पात्रता की जरूरत नहीं है।
लोग मुझसे पूछते हैं: आप पात्रता नहीं पूछते?
एक पुराने ढब के संन्यासी कुछ दिन पहले आ गए थे, काफी उम्र है, कोई होंगे पैंसठ-सत्तर साल के, बीस साल से संन्यासी हैं, पूछते थे कि आप हर किसी को संन्यास दे देते हैं? पात्रता?
मैंने उनसे पूछा, बीस साल के संन्यास के बाद भी अभी यह खयाल तुम्हें नहीं आया कि यहां सब एक ही परमात्मा का वास है? परमात्मा से पात्रता और क्या मांगनी है? रोज पढ़ते हो--तत्त्वमसि। तू वही है। वह तू ही है। रोज उपनिषद दोहराते हो। रोज गीता भी दोहराते हो। यह वचन भी कई बार पढ़ा होगा कि हे कौंतेय! जो अनन्यचित्त होकर मेरी आराधना करता है, वह दुराचारी भी हो तो भी साधु हो गया। नहीं कि नहीं पढ़ा होगा। बीस साल से संन्यासी हैं, गीता और उपनिषद और वेद ही पढ़ रहे हैं। उनके ज्ञाता हैं। लेकिन बात कहीं उतरती नहीं हृदय में, ऐसा मालूम होता है। पढ़ भी लेते, सुन भी लेते, कंठस्थ भी कर लेते--तोतों की तरह। बात कहीं भीतर उतरती नहीं, उसका जीवन में कोई प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता।
अगर यह बात सच है कि हम सब एक ही परमात्मा के हिस्से हैं, तो फिर कौन पात्र, कौन अपात्र? फिर कौन रावण, कौन राम? फिर कौन बुरा, कौन भला? जो जागा, उसे न कोई बुरा है, न कोई भला है। हां, ये सब सोए के भेद हैं। सोए में एक आदमी सपना देख रहा है कि मैं साधु हो गया और एक आदमी सपना देख रहा है कि मैं चोर हो गया, मगर ये सब सोए के भेद हैं। जाग कर दोनों पाएंगे--न तो कोई साधु था, न कोई चोर था। न किसी ने हत्या की थी और न किसी ने दान दिया था। जाग कर पता चलेगा--सब सपने थे।
इस जगत में लोग अलग-अलग तरह के सपने देख रहे हैं। अस्तित्व सबका एक है, सपने अलग-अलग हैं। सपने प्राइवेट हैं। सत्ता सार्वलौकिक है, सार्वभौम है। इस भेद को खूब गहरे बैठ जाने दो। और अगर तुम सपने पर विचार करोगे तो तुम्हें समझ में आ जाएगा कि सपना बिलकुल निजी होता है, बहुत प्राइवेट बात है। तुम किसी मित्र को भी निमंत्रण नहीं कर सकते अपने सपने में, इतना निजी है। तुम्हारे बिस्तर पर ही तुम्हारे साथ सोई हो पत्नी, वह अपना सपना देखेगी, तुम अपना देखोगे। ऐसा नहीं है कि दोनों एक ही सपना देख रहे हैं। इतना निजी है। देह से देह छू रही है, लेकिन मन अपने-अपने सपने देख रहे हैं। तुम लाख उपाय करो, किसी मित्र को कहो कि बहुत ऊंचा सपना देखा रात...।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने एक मित्र से बात कर रहा था। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि कल तो बड़ा मजा किया। सपने में पेरिस गया था। और पेरिस की रातें--रंगीन रातें! और पेरिस के जुआघर और शराबघर! बड़ा मजा आया। मित्र ने कहा, यह कुछ भी नहीं। मैंने भी कल सपना देखा। हेमामालिनी को लेकर मैं कश्मीर चला गया। मुल्ला एकदम नाराज हो गया। मुल्ला ने कहा, तो फिर मुझे क्यों नहीं बुलाया? यह कैसी दोस्ती! उस मित्र ने कहा, बुलाया था, मैं तो तुम्हारे घर गया, लेकिन तुम्हारी पत्नी ने कहा कि मुल्ला तो पेरिस गया है। ये सपने में हो रही हैं बातें!
सपने में तुम किसी को सहयोगी नहीं कर सकते हो। न निमंत्रण कर सकते हो। सपना बिलकुल निजी है। दूसरा तो क्या होगा सपने में, तुम स्वयं भी नहीं होते। अगर गौर से देखोगे तो सपने में तुम नहीं होते। सपना होता है, तुम कहां? सुबह तुम होते हो, तब सपना टूट जाता है। क्योंकि जागने में ही तुम हो सकते हो, सपने में तुम कैसे हो सकते हो? सपने में अगर तुम्हें याद भी आ जाए कि मैं कौन हूं, तो उसी वक्त सपना टूट जाएगा।
गुरजिएफ अपने शिष्यों को कहता था, अगर तुम अपना नाम भी याद रख सको सपने में तो सपना टूट जाएगा। और तुम कोशिश करना, गुरजिएफ का प्रयोग सफल प्रयोग है, छह महीने लगेंगे कम से कम। तुम अपना नाम ही याद रखने की कोशिश करना कि मेरा नाम अ ब स--जो भी नाम हो--बस यह सपने में मुझे याद रहे, कि मेरा नाम रामदुलारे है, कि मेरा नाम कृष्णमुरारी है, याद रहे। रोज सोते वक्त यही खयाल करके सोना कि मेरा नाम कृष्णमुरारी, कृष्णमुरारी। सोचते रहना, सोचते रहना, मेरा नाम कृष्णमुरारी, भूलूं नहीं। तीन से लेकर छह महीने लग जाएंगे, एक रात यह घटना घट जाएगी कि तुम्हें ठीक बीच सपने में याद आ जाएगा--मेरा नाम कृष्णमुरारी। उसी वक्त सपना विदा हो जाएगा। एक सेकेंड नहीं लगेगा, आंख खुल जाएगी। इतनी सी कुंजी सपने को तोड़ देगी।
तुम आए कि सपना टूट जाता है, दूसरे को बुलाना तो बहुत मुश्किल मामला है। सपना निजी है।
इस जगत में हमारे सपने भर अलग-अलग हैं, हमारी सत्ता अलग-अलग नहीं है। सपनों से जाग कर जिसने सत्ता जानी है, उसके लिए न तो कोई बुरा है, न कोई भला है; न साधु, न असाधु; उसके लिए एक का ही विस्तार है, एक का ही नर्तन चल रहा है। वही वृक्ष में, वही पशुओं में, वही पक्षियों में, वही मनुष्यों में। अनेक-अनेक रूपों में उस एक की ही लीला है।
महापातकिनां तुआर्त्तौ।
‘महापातकियों की भक्ति को आर्त-भक्ति में समझना चाहिए।’
बड़े से बड़ा पापी भी भक्ति को उपलब्ध हो सकता है। भक्ति में कोई दरवाजों पर पात्रता पूछी नहीं जाती। भक्ति तो औषधि है, पात्रता क्या पूछनी है? अपात्र हो, इसीलिए भक्ति की जरूरत है। सब अंगीकार हैं। महापातकी भी।
लेकिन महापातकी की भक्ति आर्त-भक्ति होगी। आर्त-भक्ति का अर्थ होता है: दुख से जन्मी, जीवन के कटु अनुभव से जन्मी, कांटों की पीड़ा से जन्मी।
पाप का क्या अर्थ होता है? पाप का अर्थ होता है: दुख-स्वप्न। पाप का अर्थ होता है: ऐसा सपना तुम देख रहे हो जिसमें बड़ा दुख उठा रहे हो। है सपना। नरक का सपना देख रहे हो।
अधिक लोग जीवन में दुख ही पा रहे हैं। वह उनका ही निर्मित दुख है। किसी आदमी के पास पांच हजार रुपये हैं। वह कहता है, दस हजार होने चाहिए। जब तक दस हजार न हों, मैं सुखी नहीं हो सकता। अब यह शर्त उसने ही लगा दी अपने सुख पर। अब वह कहता है, हम सुखी हो ही नहीं सकते जब तक दस हजार न हों।
तुमने खयाल किया, लोगों ने सुख पर तो शर्त लगा दी है, दुख पर शर्त नहीं लगाई है। कोई नहीं कहता कि मैं तब तक दुखी न होऊंगा जब तक एक लाख रुपये न हों। तुमने सुना कभी किसी को कहते, कि जब तक एक लाख रुपये नहीं होंगे, मैं दुखी होने वाला नहीं! और ऐसे आदमी को तुम दुखी कर सकोगे? इतने हिम्मतवर आदमी को जो कहे कि एक लाख होंगे तभी दुखी होऊंगा। अभी क्या दुख? अभी हैसियत ही नहीं दुखी होने की।
नहीं, लोग दुख पर शर्त नहीं लगाते, इसीलिए दुखी हैं। और सुख पर शर्त लगाते हैं, इसलिए सुखी नहीं हो पाते। खयाल करना, यह तुम्हारा ही आयोजन है। तुम कहते हो: यह स्त्री मिलेगी तो सुख होगा। छोड़ो इसको! कहो कि यह स्त्री जब तक नहीं मिलती तब तक दुखी क्यों हों? यह मिलेगी तभी दुखी होंगे। जब तक यह स्त्री न मिले, यह कार न मिले, यह मकान न मिले, यह धन न मिले, यह पद न मिले, तब तक हम दुखी होने वाले नहीं हैं। तब तक तो मौज कर लें। फिर तो यह सब मिलने वाला है! कोशिश करोगे तो मिल ही जाएगा।
लेकिन जिस आदमी ने दुख पर शर्तें लगा दीं, उसे तुम दुखी नहीं कर सकते। कैसे करोगे?
हमने सुख पर शर्तें लगाई हैं। लोग कहते हैं, पहले इतनी चीजें हो जानी चाहिए तब हम सुखी होंगे। एक तो वे, उतनी चीजें कभी हो नहीं पातीं, इसलिए दुखी रहते हैं। फिर अगर कभी हो भी जाएं, तो शर्तें आगे सरक जाती हैं। शर्तों का कोई भरोसा है! तुम कहते थे, दस हजार जब होंगे तब सुखी होंगे। जब तक तुम दस हजार पर पहुंचते हो, तब तक तुम्हारी शर्त भी आगे सरक जाती है। वह कहती है, अब दस हजार में क्या होता है! चीजों के दाम भी बढ़ गए, हालतें भी सब बदल गईं। अब तो पचास हजार से कम में सुख हो ही नहीं सकता। और तुम यह मत सोचना कि पचास हजार मिल जाने से तुम सुखी हो जाओगे। हो सकता है एकाध क्षण को तुम्हें भ्रांति हो सुख की, बस भ्रांति ही होगी। क्योंकि तुम दुख का अभ्यास कर रहे हो। एक आदमी पचास हजार रुपये कमाते-कमाते-कमाते-कमाते इतना दुख का अभ्यास कर लिया है कि जब उसे पचास हजार मिलेंगे तो उसकी समझ में ही नहीं आएगा कि अब सुखी कैसे हों? दुख का अभ्यास जड़बद्ध हो गया। दुखी होने में वह कुशल हो गया।
इसीलिए अक्सर तुम पाओगे, धनी आदमी गरीब से भी ज्यादा दुखी हो जाते हैं। गरीब और अमीर में इतना ही फर्क है कि गरीब आदमी ज्यादा दुख नहीं खरीद सकता। उसकी खरीदने की सीमा है। अमीर आदमी ज्यादा दुख खरीद सकता है, उसकी सीमा बड़ी है। इसलिए अगर अमरीका में लोग ज्यादा दुखी हैं तो तुम हैरान मत होना, उसका कुल कारण इतना है--उनके दुख खरीदने की सीमा काफी बड़ी हो गई है। वे एक ही गांव में रह कर दुखी नहीं होते, वे सारी दुनिया में जाकर दुखी होते हैं। चक्कर मारते हैं दुनिया का! इस राजधानी से उस राजधानी में दुखी होते हैं। वे एक स्त्री के साथ दुखी नहीं होते। एक स्त्री से अब क्या दुखी होना! वह पुराना ढब हो गया। एक आदमी आठ-दस स्त्रियों के साथ जिंदगी में दुखी होता है। एक ही धंधे में दुखी नहीं होते, धंधे बदल-बदल कर दुखी होते हैं। अमरीका में प्रत्येक आदमी के औसत धंधे की सीमा तीन साल है। तीन साल से ज्यादा कोई टिकता नहीं। वही विवाह की भी औसत उम्र है। तीन साल से ज्यादा विवाह भी नहीं टिकता। अब लोग दुखी होने के लिए खूब उपाय...उनके पास सुविधा है। गरीब आदमी की वही तकलीफ है।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन का बाप जब मरा तो उसने मुल्ला को बुला कर कहा कि देख बेटा, एक मेरे जीवन का अनुभव है कि जितना धन बढ़ता है, उतनी चिंताएं, बेचैनियां, परेशानियां बढ़ती हैं। यह मैं तुझे अपने सार-अनुभव की बात कह रहा हूं। कम में संतुष्ट होना ठीक है। शांति रहती है। ज्यादा में अशांति बढ़ जाती है।
मुल्ला ने जल्दी से उसके पैर पकड़ लिए और कहा कि यह सब समझ गया, मगर आशीर्वाद दो, अशांति बढ़े तो अशांति बढ़े, मगर ज्यादा हो।
बाप ने कहा कि मैं यह समझा रहा हूं तुझे और तू यह कह रहा है--आशीर्वाद दो!
मुल्ला ने कहा, माना मैंने कि कम होता है तो आदमी संतुष्ट होता है; क्योंकि असंतुष्ट होने की क्षमता नहीं होती। संतुष्ट होना पड़ता है। करोगे क्या संतोष नहीं करोगे तो? और उपाय क्या है? स्वतंत्रता मर जाती है। मुझे तो आप ऐसा आशीर्वाद दें कि दुखी तो होना ही है संसार में, मगर दुख के चुनाव की तो सुविधा रहे, कि जो भी चुनना हो वह दुख हम चुन सकें। इस स्त्री के साथ दुखी होना हो तो इसी के साथ हो सकें। इस मकान में होना हो तो इसमें हो सकें। स्वतंत्रता तो हो पास। मुझे आशीर्वाद दो जाते वक्त कि मैं अपने दुख चुनाव कर सकूं। दुखी तो होना ही है!
खयाल रखना, लोगों ने यह मान ही लिया है कि दुखी तो होना ही है। तो अमीर ही होकर दुखी हो लें, फिर गरीब होकर क्या दुखी होना? तो प्रसिद्ध होकर दुखी हो लें, फिर गैर-प्रसिद्ध होकर क्या दुखी होना? फिर महलों में दुखी हो लें, झोपड़ों में क्या दुखी होना? दुखी तो होना ही है।
नहीं लेकिन, यह बात सच नहीं है कि दुखी होना ही है। दुख तुम्हारा सृजन है। और सुख भी तुम्हारा सृजन है। तुम्हारी दृष्टि के विस्तार हैं। दुख भी तुम्हारा सपना है, सुख भी तुम्हारा सपना है। सपने के तुम मालिक हो। लेकिन तुम यह भरोसा नहीं कर पाओगे।
एक दूसरा प्रयोग भी गुरजिएफ अपने शिष्यों को करवाता था। वह था अपनी स्वेच्छा से स्वप्न पैदा करने की प्रक्रिया। वह भी कीमती प्रयोग है। तुमने अब तक सपने देखे जो हुए। तुमने कोई सपना अपनी मौज से देखा? देखना चाहिए मौज से सपना। सपने में भी गुलामी! अब जिस फिल्म में बिठा दिया, बैठे हैं रात भर। यह भी बड़ी परतंत्रता हो गई। कम से कम सपने में तो स्वतंत्रता रखो।
गुरजिएफ अपने शिष्यों को यह प्रयोग करवाता था, यह प्रयोग कीमती है, क्योंकि इस प्रयोग से जीवन के संबंध में दिशा सूचित हो जाती है। कोई साल भर लगता है--कभी दो साल भी लग सकते हैं, लंबा प्रयोग है, क्योंकि बड़ी गहरी पकड़ है सपने की--लेकिन तुम अपने मन का सपना देख सकते हो। रोज-रोज वही सपना सोच कर सोओ। सोते वक्त जब तुम्हारी चेतना खो रही है और नींद उतरने लगी है, तब तुम वही सपने का प्लाट रचते रहो। वही सपना। रोज-रोज। रोज बदल मत लेना, नहीं तो उसकी कोई छाप ही न पड़ेगी। रोज वही सपना। एक सपना तय कर लो, बस उसी को रोज सोचते हुए सो जाओ। रोज-रोज, दिन-रात, महीनों, वर्षों बीत जाएं; एक दिन तुम अचानक पाओगे वह सपना तुम्हारे सपने में आ गया। वह दृश्य सामने खड़ा हो गया। उसी दिन तुम्हें एक अपूर्व अनुभव हो जाएगा कि अब तक जो सपने देखे, वे भी तुम्हारी भ्रांति थी कि अपने आप हो रहे हैं, अनजाने अचेतन मन से तुम उन्हें पैदा कर रहे थे। तुमने उन्हें पैदा किया था। होश में नहीं थे। अब तुमने होश से एक सपना पैदा करके देख लिया। उस दिन के बाद तुम जो सपने देखना चाहो, देख सकते हो।
और उसके बाद का प्रयोग है, फिर तुम सपने न देखना चाहो तो मत देखो। पहले तो सपने पर स्वतंत्रता चाहिए कि जो तुम देखना चाहो देख सको। फिर दूसरा कदम यह है कि फिर तुम रात यह तय करके सो जाओ कि अब सपना नहीं देखना है आज, आज नहीं जाएंगे किसी फिल्म में, तो तुम निश्चिंत होकर रात भर सो सकोगे। और अगर रात में यह संभव हो जाए, तो दिन में भी संभव हो जाएगा, क्योंकि रात और दिन में कुछ भेद नहीं है।
तुम अपने मन के मालिक हो। मगर मालकियत की तुमने घोषणा नहीं की है। तुम घिसटे चले जा रहे हो। तुम्हारा मन जो तुम्हें दिखाता है, तुम देखे चले जा रहे हो।
तुम कभी इस तरह के छोटे-छोटे प्रयोग करो।
तुम क्रोध में बैठे हो। कोशिश करो क्रोध को बदलने की। पहले तो बहुत मुश्किल लगेगा। पहले तो लगेगा, यह कोई आसान बात है क्रोध को बदल लेना! अब क्रोध है तो इसको बदलो कैसे? तुम जरा कोशिश करना। एकांत में बैठ कर हंसना, उछलना-कूदना, जरा क्रोध को बदलने की कोशिश करना। पांच-सात मिनट में तुम पाओगे कि क्रोध गया, तुम हंस रहे हो--शायद इस पर ही हंसने लगो कि मैं भी क्या बुद्धूपन कर रहा हूं! ऐसे उछलने-कूदने से क्या होगा? लेकिन तुम पाओगे कि भीतर क्रोध बदल गया। अब क्रोध की वही प्रगाढ़ता नहीं रह गई।
तुम उदास बैठे हो, इसे बदलने की कोशिश करना। कभी तुम प्रसन्न बैठे हो, इसको उदास करने की कोशिश करना। कभी तुम आनंदित बैठे हो, इसको क्रोध में ले जाने की कोशिश करना। इस तरह के प्रयोग अगर तुम करोगे, तो तुम्हें एक बात दिखाई पड़नी शुरू हो जाएगी कि सब तुम्हारे हाथ में है। क्रोध को आनंद में बदला जा सकता है, आनंद को उदासी में बदला जा सकता है, उदासी को हंसी में बदला जा सकता है, हंसी को आंसुओं में बदला जा सकता है। और जब तुम यह बदलने की कीमिया सीख लोगे, जैसे कि तुम रेडियो स्टेशन बदलते हो, इस तरह ही बदला जा सकता है।
पश्चिम में यंत्र पैदा किए जा रहे हैं--बायो फीडबैक। उन यंत्रों का बड़ा बहुमूल्य उपयोग होने वाला है भविष्य में। उनके माध्यम से बड़ी अनूठी बातें प्रतीत हुई हैं--कि आदमी अपनी भावदशाएं बदल सकता है। भावदशाएं बदल सकता है, अपने रक्तचाप की गति बदल सकता है। यंत्र से जोड़ दिया जाता है। जैसे हृदय को यंत्र से जोड़ दिया, हृदय की धक-धक यंत्र पर आने लगी, यंत्र बता रहा है कि इतनी धक-धक है प्रति सेकेंड, या प्रति मिनट। अब आदमी को कहा जाता है कि तुम कोशिश करो कि कम हो जाए। अब तुम कहोगे--कैसे कोशिश करें कम हो जाए? हृदय पर तुमने कभी कोशिश तो की नहीं। मगर प्रयास तुम करते हो, और तुम चकित हो जाते हो--सामने अंक गिरने लगते हैं। इधर तुम कोशिश करते हो, वहां अंक गिरने लगे। जब दो-चार अंक गिर जाते हैं, तुम्हें भरोसा आ जाता है कि अरे, एक कुंजी हाथ लग गई! हालांकि तुम किसी को बता नहीं सकोगे कि कैसे तुम कर रहे हो भीतर, मगर तुम कर लेते हो। तुम गिरा सकते हो। रक्तचाप कम-ज्यादा हो जाता है।
और अभी तो बड़ा चमत्कार हुआ, जब कुछ मरीजों ने इन यंत्रों के साथ जुड़ कर अपने खून में बहने वाली शक्कर को भी कम कर लिया। बता नहीं सकते वे कि कैसे किया, क्योंकि कैसे का तो बड़ा कठिन मामला है--कैसे किया? मस्तिष्क में कई तरह की तरंगें होती हैं, उन तरंगों को बदलने में लोग सफल हो जाते हैं यंत्र के सामने बैठ कर। कह नहीं सकते कि कैसे।
तुम भी कैसे कह सकते हो? तुमने बायां हाथ ऊपर उठाया, तुम बता सकते हो कैसे उठाया? क्या घटना भीतर घटी? कैसे तुमने बायां हाथ ऊपर उठाया? रोज कर रहे हो यह, लेकिन बायां हाथ तुम ऊपर कैसे उठाते हो? किसको आज्ञा देते हो पहले? कहां से आज्ञा शुरू होती है? कुछ तुम्हें पता नहीं है। मगर तुम इसके मालिक हो, अचेतन में मालिक हो।
बायो फीडबैक यंत्रों के द्वारा एक बात प्रमाणित हो गई कि मनुष्य अपने भीतर की सारी भावदशाएं बदल सकता है। और यही सारसूत्र है सदा से ज्ञानियों का कि सब तुम्हारे हाथ में है। दुख तुम निर्मित करते हो। मत चिल्लाओ, मत चीखो, मत कहो कि दुनिया तुम्हें सता रही है। तुम अपने को सता रहे हो। अपनी मालकियत की घोषणा करो। अपना उत्तरदायित्व अपने हाथ में ले लो। और इसे थोड़ा बदलने की कोशिश करो। और तुम चकित हो जाओगे कि तुम बदल सकते हो। और जिस दिन यह कुंजी हाथ लगती है कि मैं बदल सकता हूं अपनी जीवन की भावदशाओं को, उस दिन तुम इतने आनंद से भर जाओगे, जिसकी आज तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। तुम मुक्त हो गए!
और जिस दिन तुम यह अनुभव कर लेते हो कि क्रोध प्रेम में बदला जा सकता है, प्रेम उदासी में बदला जा सकता है, उदासी हंसी में बदली जा सकती है--जैसे कि रेडियो पर तुम स्टेशन लगा रहे हो--उस दिन एक बात साफ हो गई कि तुम इन सबसे अलग हो, तुम सिर्फ साक्षी मात्र हो। तुम रेडियो स्टेशन नहीं हो, न तुम रेडियो हो, तुम बाहर बैठे हुए व्यक्ति हो जो कि रेडियो स्टेशंस लगा रहा है, जो चाभी घुमा रहा है। तुम अलग हो, तुम पृथक हो तुम्हारी सारी भावदशाओं से। जिस दिन आदमी जानता है कि मैं अपनी सारी भावदशाओं से पृथक हूं, उसी दिन अहंकार विलीन हो जाता है। और उस दिन पता चलता है कि मैं परमात्मा से अनन्य हूं, एक हूं।
तुमने अपने को क्षुद्र सीमाओं में बांध रखा है, इसलिए तुम विराट से टूटे हुए मालूम पड़ते हो। तुम्हारी आंखें छोटी-छोटी बातों में उलझ गई हैं। तुम सोचते हो, यही मैं हूं--मेरा धन, मेरी देह, मेरी पत्नी, मेरा पति, मेरे बच्चे, मेरा मकान। तुमने बड़ी छोटी बातों में अपने को संकुचित कर लिया है। जैसे-जैसे यह मैं-भाव गिरेगा, वैसे-वैसे तुम पाओगे--आकाश भी तुम्हारी सीमा नहीं है। तुम विराट हो।
जीवन के दुख से महापातकी को आर्त-भक्ति पैदा होती है।
और कौन है ऐसा जो जीवन में दुखी नहीं है? सुखी आदमी मिलते कहां हैं? दुखियों का संसार है। और इन दुखियों के संसार में सुखी बच्चे पैदा भी होते हैं तो जल्दी ही दुख का अभ्यास सीख जाते हैं। क्योंकि बाप दुखी, मां दुखी, भाई दुखी, बहन दुखी, शिक्षक दुखी, सब तरफ दुखी ही दुखी लोग हैं, बच्चे को हंसने में भी लज्जा आने लगती है। बच्चा आनंदित होना चाहता है, क्योंकि सब परमात्मा के घर से आते हैं। वहां की खबर लेकर आते हैं। वहां का नाच लेकर आते हैं। उन्हें कुछ पता नहीं होता। लेकिन यहां सबको दुखी देखते हैं, उदास देखते हैं, यहां सब परेशान हैं, बच्चे भी धीरे-धीरे इस परेशानी में संक्रमित हो जाते हैं। यह परेशानी उन पर भी थुप जाती है। फिर उतारे नहीं उतरती। इसी को फिर से उतार कर रख देने का नाम पुनर्जन्म है। द्विज हो गए तुम।
जीवन में दुख है, जीवन में पाप है, जीवन में भ्रांति है, लेकिन सब सपने जैसी है।
तुमको छोड़ कहीं जाने को आज हृदय स्वच्छंद नहीं है।
रोमराजि पहले गिन डालूं
तब तन के बंधन बतलाऊं
नाम दूसरा मन का बंधन
कैसे दोनों को अलगाऊं,
नित्य वचन की गांठ जोड़ती
मेरी रसना--मेरी रचना,
तुमको छोड़ कहीं जाने को आज हृदय स्वच्छंद नहीं है।
मेरी दुर्बलता के पल को
याद तुम्हीं करुणाकर आते,
अपनी करुणा के क्षण में तुम
मेरी दुर्बलता बिसराते,
बुद्धि बिचारी गुमसुम हारी,
साफ बोलता पर चित मेरा--
मेरे पाप तुम्हारी करुणा में कोई संबंध नहीं है।
तुमको छोड़ कहीं जाने को आज हृदय स्वच्छंद नहीं है।
इसकी फिकर छोड़ दो कि तुम्हारे पाप इतने बड़े हैं कि तुम परमात्मा को कैसे पा सकोगे! तुम्हारे पापों में और उसकी करुणा में कोई संबंध नहीं है। तुम्हारे पाप थोड़े हैं कि ज्यादा, बड़े हैं कि छोटे, ऐसे हैं कि वैसे, कुछ फर्क नहीं पड़ता; तुम पापी हो कि पुण्यात्मा, कुछ फर्क नहीं पड़ता; उसकी करुणा तो बरस ही रही है। उसकी करुणा तुम्हारे पापों के अनुसार नहीं बरसती, न तुम्हारे कृत्यों के अनुसार बरसती है।
देखते नहीं तुम, जब बादल घना होता है आकाश में, आषाढ़ के मेघ आते हैं, तो फिकर थोड़े ही करते हैं कि पापी के खेत में न बरसें, कि पुण्यात्मा के खेत में बरसें; फिकर थोड़े ही करते हैं कि चोर के खेत में न बरसें और दानी के खेत में बरसें। ऐसे ही उसके करुणा के मेघ भी कोई चिंता नहीं करते।
मेरे पाप तुम्हारी करुणा में कोई संबंध नहीं है।
तुमको छोड़ कहीं जाने को आज हृदय स्वच्छंद नहीं है।
जिस दिन तुम यह सत्य समझ लोगे, तब तुम यह फिकर भी छोड़ दोगे कि अच्छा करके पहुंचूंगा; बुरा करके कैसे पहुंच पाऊंगा? तुम पहुंचे ही हुए हो। उसकी करुणा चिंता ही नहीं करती इसकी। करुणा बेशर्त होती है। करुणा में शर्त हो तो करुणा ही नहीं। सशर्त करुणा करुणा कैसे कही जाएगी? अगर वह कहे कि हां, तुमने इतने पाप किए तो इतनी करुणा मिलेगी; तुमने इतना पुण्य किया तो तुमको इतनी ज्यादा मिलेगी; तो करुणा में शर्त हो गई। फिर उसकी जरूरत ही क्या है?
इसीलिए तो जिन विचार-पंथों ने कर्म के सिद्धांत को जोर से पकड़ा, उन्हें अंततः परमात्मा को इनकार कर देना पड़ा। जैनों-बौद्धों ने परमात्मा को इनकार किया। उसका कारण नास्तिकता नहीं है। उसका कारण कर्म का सिद्धांत और गणित है। जैनों का तर्क यह है कि अगर हमारे ही कर्म के अनुसार हमें अच्छा और बुरा मिलता है, तो फिर परमात्मा को और होने की जरूरत क्या है? मैं बुरा करूंगा तो बुरा पाऊंगा, और अच्छा करूंगा तो अच्छा पाऊंगा, फिर परमात्मा की और बीच में होने की जरूरत क्या है? यह नियम पर्याप्त है। यह नियम ही परमात्मा है।
कर्म का सिद्धांत अगर सच में पूरी तरह पकड़ा जाए तो परमात्मा के होने की कोई जगह नहीं रह जाती। बल्कि उसके होने से अड़चन होगी, बाधा होगी। एक आदमी ने पाप किया, उसको दंड मिलता है। एक आदमी ने पुण्य किया, उसको पुरस्कार मिलता है। यह नियम से ही हो जाता है। अब अगर इसके पीछे हम किसी एक जीवंत शक्ति को स्वीकार करें, तो खतरा है। क्योंकि हो सकता है कभी पापी पर दया आ जाए, तो फिर अन्याय होगा। और कभी ऐसा हो सकता है कि पुण्यात्मा पर क्रोध आ जाए, तो अन्याय हो जाएगा। फिर परमात्मा की मौजूदगी खतरनाक हो जाएगी। कोई जरूरत नहीं, जैन कहते हैं, परमात्मा की, कर्म का सिद्धांत पर्याप्त है।
मेरे हिसाब में यह बात है कि जो लोग कर्म का सिद्धांत जोर से मानेंगे, उनको परमात्मा को इनकार करना ही होगा। वह तार्किक निष्पत्ति है। और जो लोग परमात्मा को मानेंगे, उनको कर्म के सिद्धांत को एक तरफ हटा कर रखना होगा। वह भी तार्किक निष्पत्ति है।
इसीलिए कृष्ण गीता में कर्म के सिद्धांत को हटा कर रख देते हैं। कहते हैं: हे कौंतेय! जो अनन्यचित्त होकर मेरी आराधना करता है, वह अत्यंत दुराचारी भी हो तो भी साधु है।
जैन शास्त्र इसके लिए स्वीकृति नहीं देंगे। यह तो हद्द हो गई। फिर तो दुराचारी सब आराधना करके पहुंच जाएंगे, फिर सदाचार का उपयोग क्या है? फिर कोई सदाचारी होने के लिए कष्ट क्यों झेले? इसलिए जैनों ने अगर कृष्ण को नरक में डाल दिया अपने शास्त्रों में तो इन्हीं वक्तव्यों के कारण, क्योंकि ये वक्तव्य कर्म के सिद्धांत के विपरीत जाते हैं। मगर ये वक्तव्य बड़े अनूठे हैं।
कर्म का सिद्धांत बुद्धि का सिद्धांत है, गणित का सिद्धांत है। उसमें करुणा की कोई जगह नहीं है। इसलिए जैन मुनि कठोर हो जाता है। उसमें करुणा की जगह नहीं बचती। रूखा-सूखा हो जाता है। उसमें दया भाव नहीं बचता। हालांकि बातें वह दया की करता है और अहिंसा की। मगर उसकी अहिंसा भी रूखी-सूखी हो जाती है।
तुमने फर्क देखा? जैन करुणा शब्द का उपयोग नहीं करते, अहिंसा शब्द का उपयोग करते हैं। नकारात्मक शब्द। अहिंसा का कुल इतना मतलब होता है: दूसरे को चोट न पहुंचाना। बस इतना। लेकिन किसी को चोट लगी हो, उसमें मलहम-पट्टी करना कि नहीं, वह अहिंसा में नहीं आता। अहिंसा का मतलब इतना होता है--चोट नहीं पहुंचाना। लेकिन चोट लगी हो किसी को, फिर? अहिंसा उस संबंध में चुप है। करुणा कहती है: किसी को चोट लगी हो तो मलहम-पट्टी करना। करुणा विधायक है, अहिंसा नकारात्मक है। अहिंसा केवल तुम्हें बचाती है बुरे काम करने से! करुणा तुम्हें भले की तरफ प्रेरित करती है।
जैनों के हिसाब से, जगत में अहिंसा हो जाए तो पर्याप्त है। कृष्ण के हिसाब से, जब तक जगत में करुणा न बरसे, तब तक पर्याप्त नहीं है। लोग एक-दूसरे को चोट न भी पहुंचाएं तो भी क्या होगा? एक-एक आदमी बैठ कर, मुनि बन कर बैठ जाए अपनी-अपनी जगह, कोई किसी को चोट नहीं पहुंचाता, कोई किसी से झगड़ा-झांसा नहीं करता, सब बैठे हैं गुमसुम, कि बोले तो कोई झंझट न हो जाए, किसी की निंदा न हो जाए, कोई शब्द किसी को चोट न कर दे, सब बैठे हैं अपनी-अपनी कब्रों में बंद। अस्तित्व बड़ा उदास हो जाएगा। कृष्ण से उनकी नाराजगी ठीक है। क्योंकि कृष्ण ने कर्म के सिद्धांत को तोड़ दिया, कहा--जो मेरी आराधना करते हैं, वे अगर पापी भी हों तो साधु जानना। और मैं और जोड़ रहा हूं उसमें, कि जो मेरी आराधना नहीं करते, अगर वे पुण्यात्मा भी हों तो उनको पापी जानना।
कर्म और करुणा का, कर्म के सिद्धांत और करुणा का कोई तालमेल नहीं बैठ सकता। करुणा का अर्थ यह होता है कि बेटे ने कितना ही बुरा किया हो, जब वह मां के पास आता है तो मां उसे छाती से लगा लेती है। वह यह नहीं कहती कि इसे मैं कैसे छाती से लगाऊं? तू चोर था, तूने बेईमानी की, तू शराब पीकर आ रहा है। सच तो यह है कि जो शराब पीकर आ रहा है, और जुआ खेल कर आ रहा है, मां उसे और जोर से हृदय से लगा लेती है। उस पर और दया आती है। यह बेचारा! इसको बोध कब आएगा? इसको समझ कब होगी? करुणा का अर्थ होता है: यह जगत तुम्हारे प्रति मां जैसा हृदय रखता है। तुम क्षमा किए जाओगे।
इसका यह मतलब मत ले लेना कि तुम्हें बुरा करना है, करो मजे से। इसका यह मतलब नहीं है। वहीं भ्रांतियां हो जाती हैं। इसका मतलब यह मत ले लेना कि अब क्या फिकर पड़ी है, फिर मजे से करो बुरा, जितना बुरा करना हो करो। इसका कुल मतलब इतना है कि बुरा तो तुम कर ही चुके हो, काफी कर चुके हो, जितना करना है उतना कर ही चुके हो, अब और करने की जरूरत नहीं है, अब जीवन-ऊर्जा को आराधना बनने दो।
सा एकान्तभावः गीतार्थ प्रत्यभिज्ञानात्।
‘पराभक्ति का नाम ही एकांत भाव है, क्योंकि गीता में भी ऐसा लेख है।’
शांडिल्य गीता का उल्लेख अक्सर कर रहे हैं। क्योंकि गीता में निश्चित ही कर्म से मुक्ति के और भक्ति के अनूठे वचन उपलब्ध हैं। वैसे वचन न तो कुरान में हैं, न बाइबिल में हैं। गीता इस अर्थ में अनूठी है। उसमें करुणा पूरी तरह प्रकट हुई है परमात्मा की। मनुष्य की क्षुद्रताओं का हिसाब नहीं रखा गया है। तुम्हारे पाप भी तो दो कौड़ी के हैं, उनका क्या हिसाब रखना है? किसी ने किसी की जेब से दो पैसे चुरा लिए! क्या फर्क पड़ता है? इस जेब से उस जेब में रख दिए। सब जेबें उसकी हैं। और सब हाथ उसके हैं। अब इसको ज्यादा शोरगुल मत मचाओ कि बड़ा भारी पाप हो गया। कि तुम किसी सुंदर स्त्री को देखे और तुम्हारे मन में कामना जग गई। मगर उस सुंदर स्त्री में भी वही बैठा है। और तुम्हारी कामना में भी वही जग रहा है। अब इसको इतना परेशान मत हो जाओ। इसको इतना तूल मत दो!
लोग तिल का ताड़ बना रहे हैं। और खासकर साधु-महात्मा तो बड़े ही कुशल हैं तिल का ताड़ बनाने में। उसको इतना बढ़ा-चढ़ा कर बता देते हैं कि तुम्हारी छाती पर हिमालय रख देते हैं, फिर तुम सरक ही नहीं पाते। अब अगर तुम अपने चौबीस घंटे में हिसाब रखोगे कि तुमने कितने पाप किए, तो मर ही जाओगे, दब ही जाओगे! कुछ किए, कुछ सोचे, कुछ नहीं कर पाए तो रात सपने में किए, अगर इन सब पापों का तुम हिसाब रखोगे--और वही तुम्हारे महात्मा कह रहे हैं कि हिसाब करो! उनको बड़ी बेचैनी हो रही है कि हिसाब करो! अपने पापों का हिसाब रखो!
एक सज्जन मेरे पास आए। बड़े उदास थे! बड़े परेशान थे! जैसे बड़ा बोझ ढो रहे हों। मैंने कहा, मामला क्या है? उन्होंने कहा, मैं बड़ा पापी हूं, यह मेरी डायरी देखिए--डायरी ले आए थे साथ--इसमें सब लिखता हूं। मैंने उनकी डायरी देखी। मैंने कहा, तुम्हारी डायरी पढ़ कर मैं उदास हुआ जा रहा हूं! इसको काहे के लिए लिख रहे हो? कि नहीं, मेरे गुरु ने कहा है कि अपने सब पाप का हिसाब रखना चाहिए।
तुम परमात्मा की करुणा का हिसाब रखो! एक कोरी डायरी अपने पास रखो, उसमें कुछ मत लिखो, और जब भी कुछ पाप-माप हो, अपनी डायरी खोल कर देखी उसकी करुणा--कोरी करुणा! तुम्हारे हिसाब-किताब से कुछ लेना-देना नहीं। तुम इसमें हिसाब क्या कर रहे हो? दुकानदारी लगा रखी है। उसमें दो-दो पैसे का हिसाब लिखा हुआ है--कि मैंने फलां आदमी को दो पैसे का धोखा दे दिया; कि फलां आदमी से मैंने यह कह दिया, नहीं कहना था; यह बुराई हो गई, वह बुराई हो गई; उपवास किया था और भोजन की याद आ गई। भोजन किया नहीं, मगर याद आ गई! अब भोजन की याद उपवास में न आएगी तो कब आएगी? आदमी हो कि पत्थर हो? उपवास करोगे, भोजन की याद आने ही वाली है! यह बिलकुल स्वाभाविक है। अब इसको भी पाप बना रहे हो! कि किसी ने गाली दे दी और चिंता पैदा हो गई। कि किसी ने गाली दी और उसका जवाब दे दिया। यह सब स्वाभाविक है, इसको इतना तूल मत दो। और इसको अगर तुम बांधते जाओगे, गठरी में रखते जाओगे, रखते जाओगे, इसी के साथ डूबोगे।
उसकी करुणा पर भरोसा करो। राम रहीम है, रहमान है, करुणावान है। तुम उसके प्रेम पर भरोसा करो। तुम अपने पाप पर इतना भरोसा मत करो। तुम्हारा पाप ऐसे बह जाएगा जैसे बाढ़ में तिनके बह जाते हैं। उसकी करुणा की बाढ़!
शांडिल्य के सूत्रों का सार है: उसकी करुणा पर भरोसा करो। उसकी करुणा पर भरोसा आ जाए, तुम्हारी जिंदगी में निखार आने लगेगा। तुम्हारे पैरों में नाच आने लगेगा। तुम्हारी वाणी में फिर गुनगुनाहट आ जाएगी। फिर तुम पक्षियों की तरह...यह कोयल को सुनते हो? इसको पाप इत्यादि का कुछ पता नहीं है। इसका महात्माओं से मिलना नहीं हुआ। नहीं तो यह गा नहीं सकती थी, याद रखना, अभी तक मर गई होती, फांसी लगा ली होती। उपवास कर रही होती, व्रत कर रही होती, और डायरी लिख रही होती। यह कुहू-कुहू! महात्मा तो कहेंगे कि बंद करो यह कुहू-कुहू! इसमें कामवासना छिपी है। यह कुहू-कुहू में यह अपने प्रेमी को बुला रही है। यह निमंत्रण भेज रही है। यह कह रही है--कहां हो? आओ! यह प्रतीक्षा कर रही है। यह धन्यभागी है, इसको कोई महात्मा नहीं मिले!
तुम भी ऐसे ही कुहू-कुहू कर पाओगे जिस दिन तुम परमात्मा की करुणा की स्मृति करोगे, अपने पापों का बोझ छोड़ोगे। तुम भी गुलाब के फूल की तरह खिल पाओगे। गुलाब का फूल भी नहीं खिल सकता, अगर महात्मा का उपदेश सुन ले। वह भी सकुचाएगा कि क्या खिलना? खिलने में नरक। जीवन पाप। और खिलने में कई तरह की झंझटें हैं, बंद ही रहना ठीक है। और वह भी सोचेगा कि हे प्रभु, आवागमन से कैसे मुक्त हों! मुक्ति, आवागमन से मुक्ति चाहिए मुझे!
इस जगत में आदमी को छोड़ कर तुम्हें कहीं उदासी दिखाई पड़ती है? क्या कारण है? इस जगत को महात्माओं के उपदेश नहीं मिले, सिवाय तुमको। तुमको मिले हैं उपदेश। तुम्हारे महात्माओं से तुम्हारा छुटकारा हो जाए तो तुम परमात्मा से मिल सकोगे। यह बात इतनी कठिन है तुम्हें समझनी, तुम मेरी बात सुन कर इसीलिए अक्सर नाराज भी हो जाते हो। मैं तुमसे कहता हूं, जब तक तुम अपने महात्माओं से न छूटोगे तब तक तुम्हारा परमात्मा से मिलना नहीं हो सकता। यह कोयल अभी भी परमात्मा में कुहू-कुहू कर रही है। यह आवाज परमात्मा से ही उठ रही है। इसको कुछ पता नहीं है, कल का कुछ हिसाब नहीं है, कल क्या किया था, किससे कुछ कह दिया था, किससे कुछ सुन लिया था, कल क्या हुआ, कल का कल गया। कल की आने वाले की भी कोई चिंता नहीं है। न नरक की कोई फिकर है, न स्वर्ग की कोई फिकर है। मनुष्य अगर परमात्मा की करुणा में आश्वस्त हो जाए, तो फिर गीत उठेगा, फिर नाच उठेगा।
इक निगाहे-तबस्सुम असर मिल गई
रोशनीए-बहारे-सहर मिल गई
फिर मुस्कुराहट पैदा होगी। फिर सुबह की रोशनी मिल जाएगी।
इक निगाहे-तबस्सुम असर मिल गई
रोशनीए-बहारे-सहर मिल गई
जब चमक दर्द की कुछ सिवा हो गई
अपने ही दिल से उनकी खबर मिल गई
वो समुंदर की वुसअत को समझें भी क्या
जिनको मौजे-सदफ सतह पर मिल गई
जब फरोजां हुए अपने दागे-जिगर
शामे-गम को नवेदे-सहर मिल गई
मरहबा! अज्मे-नौ-रहरवे-शौक को
जिंदगी की नई रहगुजर मिल गई
नग्माए-जांफिजा छेड़ ऐ मुतरिबा!
आज ‘शबनम’ की गुल से नजर मिल गई
फिर गा गीत।
नग्माए-जाफिजा छेड़ ऐ मुतरिबा!
फिर छेड़ प्राणदायक संगीत।
आज ‘शबनम’ की गुल से नजर मिल गई
जिस दिन तुम्हारी परमात्मा की करुणा की तरफ जरा सी भी दृष्टि चली जाएगी, एक क्षण को भी तुम्हें उसकी महाकरुणा का स्मरण आ जाएगा, उसी क्षण गए सब पाप। उसी पल उत्क्रांति हो जाती है। एक क्षण में हो जाती है। एक क्षण भी ज्यादा है। क्षण के किसी अंश में ही हो जाती है। यहीं बैठे-बैठे हो सकती है। याद करो उसकी करुणा को! उसकी क्षमा अपार है, और बेशर्त है। वह तुमसे नहीं पूछेगा कि तुमने क्या किया और क्या नहीं किया।
मेरे हिसाब में तो, अगर वह तुमसे पूछेगा तो यही कि नाचे कि नहीं नाचे? गाए कि नहीं गाए? मुस्कुराए कि नहीं मुस्कुराए? भेजा था तुम्हें संसार में, जीए कि नहीं जीए? एक ही पाप है, इस जगत में मुर्दे की भांति जीना। और एक ही पुण्य है, इस जगत में नृत्य-गीत-आनंद को उपलब्ध होना, उत्सव को उपलब्ध होना।
‘पराभक्ति का नाम ही एकांतभाव है।’
जब तुम्हारे और परमात्मा के बीच एकांतभाव आ जाए, एक का ही अनुभव होने लगे, मैं वह, वह मैं, भक्त और भगवान दो न रह जाएं, यह लक्ष्य है।
‘पराभक्ति का नाम ही एकांतभाव है।’
पराभक्ति की तरफ ही ये सारे इशारे चल रहे हैं। ये गौणी-भक्तियां पराभक्ति की तरफ इशारे हैं। अनन्यभाव, एकात्मभाव, भक्त और भगवान के बीच सारी दूरी का अंत--पराभक्ति।
कृष्ण ने कहा है: यो मां पश्यति सर्वत्र। जो मुझे सब जगह देखने लगे, जिसे मैं सब जगह दिखाई पड़ने लगूं। जब भक्त को भगवान के अतिरिक्त और कुछ भी दिखाई न दे--न बाहर, न भीतर--तब अनन्यभाव, तब पराभक्ति।
गौणी-भक्ति में भेद रहता है। भगवान होता है आराध्य, भक्त होता है आराधक। उधर दूर भगवान, इधर भक्त। इधर भक्त रोता हुआ, प्रार्थना करता हुआ, वहां भगवान करुणा बरसाता हुआ। मगर फासला होता है, दूरी होती है, विरह होता है। पराभक्ति का अर्थ है: भक्त भगवान में डूब गया, भगवान भक्त में डूब गए; अब न कोई आराधक है, न कोई आराधना। अब सब शांत हो गया। अब एक का आविर्भाव हो गया। गए द्वंद्व। गई दुई।
परां कृत्वा एव सर्वेषां तथा हि आह।
‘गीता के वाक्य पराभक्ति के साधन के अर्थ ही हैं।’
और गौणी-भक्ति, भजन-कीर्तन आदि से मुक्ति नहीं मिलती। मुक्ति तो पराभक्ति से मिलती है। फिर गौणी-भक्ति से क्या मिलता है? गौणी-भक्ति से पराभक्ति मिलती है। भजन-कीर्तन इत्यादि से पराभक्ति का रस धीरे-धीरे बढ़ता है। जिस दिन पराभक्ति मिल जाती है, उस दिन गौणी-भक्ति विदा हो गई। और पराभक्ति से मोक्ष का आविर्भाव होता है।
परमात्मा से अलग होने में हमारा बंधन है। और परमात्मा के साथ एक हो जाने में हमारी मुक्ति है। हम हम की तरह रहेंगे, तो बंधन में रहेंगे, जंजीरों में रहेंगे। मैं कारागृह है। और हम हम की तरह न रहे, मैं विदा हो गया, कारागृह गिर गया। फिर सारा खुला आकाश है स्वातंत्र्य का। फिर स्वच्छंदता है। उस परम आनंद की तलाश ही चल रही है। और जब तक उसे न पा लोगे तब तक तृप्ति नहीं होगी; और कुछ भी पा लो, तृप्ति नहीं होगी। सारा संसार तुम्हारा हो जाए, तृप्ति नहीं होगी।
और अंतिम वचन तो अदभुत है।
भजनीयेन अद्वितीयम् इदं कृत्स्नस्य तत् स्वरूपत्वात्।
‘यह सभी भगवान का स्वरूप है, इस कारण सेवन (भजन) करने के योग्य है।’
यह सारा जगत परमात्मा का स्वरूप है। तुमने सुना है, शास्त्र कहते हैं: जगत मिथ्या, माया। शांडिल्य नहीं कहते। शांडिल्य कहते हैं: जगत कैसे माया? कैसे असत्य? सत्य से कहीं असत्य का आविर्भाव हो सकता है? अगर परमात्मा सत्य है, तो उससे असत्य का कैसे आविर्भाव होगा? अगर परमात्मा सत्य है, तो संसार माया कैसे होगा? एक बहुमूल्य सवाल उठाते हैं। बुनियादी सवाल उठाते हैं। वे कहते हैं: सत्य से सत्य का ही आविर्भाव हो सकता है। लहर भी सत्य है, क्योंकि सागर सत्य है। लहर अलग होकर सत्य नहीं है--वहां भ्रांति शुरू होती है--मगर लहर की तरह तो सत्य है ही। लहर में सागर ही तो लहरा रहा है। लहर को तुम सागर से अलग नहीं ले जा सकोगे, कि लहर को अपने घर ले चलें, लहर मिट जाएगी। लहर सागर में ही हो सकती है।
जगत की भ्रांति इसलिए पैदा नहीं हो रही है कि जगत भांति है। जगत की भ्रांति इसलिए पैदा हो रही है कि तुमने अपने को अलग मान लिया; तुमने लहर को अलग मान लिया; तुमने लहर को केंद्र दे दिया है, जो कि झूठ है। तुम अपने केंद्र बन गए हो, जो कि झूठ है। केंद्र तो एक ही है इस सारे अस्तित्व का। इस सारे अस्तित्व का प्राण एक है। इस सारे अस्तित्व का सूर्य एक है। किरणें हम अनेक हैं। मगर सारी किरणें उसी सूर्य से जुड़ी हैं, उसी सूर्य का विस्तार हैं।
शांडिल्य कहते हैं: संसार असत्य नहीं है वरन सच्चिदानंद भगवान का ही विस्तार है। इसलिए सेवन करने योग्य है, भोगने योग्य है। और भजन करने योग्य भी।
यह क्रांतिकारी वचन है।
दो बातें कह रहे हैं। भजनीय का दोहरा अर्थ है: भोगनीय और भजन करने योग्य, आदरणीय। भोग्य और आराध्य। यह बड़ा गहरा इशारा है। वे यह कह रहे हैं--भागो मत; भोगो। यह परमात्मा ही है। जब तुम भोजन कर रहे हो, तो तुम परमात्मा को ही अपने में आत्मसात कर रहे हो। इसलिए उपनिषद कहते हैं--अन्नं ब्रह्म। इसलिए इस देश में हम आदर से पहले प्रणाम करते हैं, भगवान का स्मरण करते हैं, फिर भोजन लेते हैं। समादरपूर्वक। भोजन के रूप में भगवान ही हैं। वह जो फल की तरह आया है वृक्ष से, उसमें उसी की जीवनधारा है, उसी का रस है। वह जल जो तुम पी रहे हो और जो तुम्हारी तृषा को मिटाएगा, तुम्हारे कंठ को ठंडा करेगा, तृप्त करेगा, उसमें उसी का ही रूप है। तुम्हारी पत्नी में भी वही बैठा है। तुम्हारे बेटे में भी वही बैठा है। जब तुम पत्नी को गले लगा रहे हो, तो घबड़ाना मत!
तुम्हारे महात्मा बीच में खड़े हो जाएंगे और वे तुम्हें घबड़ाने की पूरी कोशिश करेंगे कि यह क्या कर रहे हो? पाप कर रहे हो? बचो! फिर भटकोगे, फिर नरक में सड़ोगे।
छोड़ो सारी बकवास, उस पत्नी में भी उसी को देखो। जरा भी भयभीत न होओ। जीवन तुम्हारा है। और जीवन परमात्मा का है। और तुम और परमात्मा अंततः एक हैं। यह सारा विस्तार उसका है। यह सारा संगीत उसका है। इसे सुनो। इसे गुनो। यह सारा रस उसका है, रसमग्न हो जाओ।
तो एक तो सेवन करो। जगत से भागना मत! और दूसरा, सेवन करते समय भी स्मरण रखना, इसे साधन मत समझ लेना; इसके प्रति आराधना का भाव रहे, क्योंकि भगवान है।
दुनिया में दो तरह के लोग हैं। शांडिल्य चाहते हैं तुम तीसरे तरह के आदमी बनो। मैं भी चाहता हूं तुम तीसरे तरह के आदमी बनो।
एक तो दुनिया में वे लोग हैं जो कहते हैं, यहां सिर्फ भोग है, और कुछ भी नहीं। हर चीज को भोगो और फेंक दो। भौतिकवादी। एक स्त्री को भोग लेता है, फिर फेंक देता है। वह कहता है, अब क्या है! अब मैं दूसरी स्त्री खोजूंगा। उसके मन में कोई आदर नहीं है, कोई आराधना नहीं है। वह व्यक्तियों का उपयोग वस्तुओं की तरह करता है। वहां असम्मान है। वह व्यक्तियों का उपयोग साधन की तरह करता है। जब कि प्रत्येक व्यक्ति साध्य है।
तुमने कभी अपनी पत्नी के चरण छुए? अगर नहीं छुए, तो तुम भौतिकवादी हो। तुमने कभी अपने बेटे के चरण छुए? अगर नहीं छुए, तो तुम भौतिकवादी हो। तुमने कभी अपने नौकर को सम्मान दिया? अगर नहीं दिया, तो तुम्हारी सब बकवास है परमात्मा इत्यादि को मानना। उसमें कोई मूल्य नहीं है।
एक तो भौतिकवादी है, जो चीजों का भोग करता है, जो कहता है कि मैं भोगने के लिए बना हूं, और हर चीज मेरे भोग के लिए बनी है। तो वह जाकर जंगल में शिकार कर लाता है। न मालूम कितने जीवन को पोंछ डालता है, सिर्फ इसलिए कि स्वाद थोड़ा सा मिले। उसे कोई चिंता नहीं है। उसे बोध ही नहीं है कि वह क्या कर रहा है! वह सारी दुनिया को मिटा सकता है, बस उसे अपना भोग ही एकमात्र लक्ष्य है। उसके मन में अस्तित्व का कोई सम्मान नहीं है। रेवरेंस फॉर लाइफ उसके भीतर नहीं है। वह हिंसक होगा, दुष्ट होगा, कठोर होगा। वह येन-केन-प्रकारेण, किसी भी तरह शोषण कर लो, चूस लो। उसका सारा अस्तित्व शोषक का अस्तित्व है। उसके मन में न दया होगी, न प्रेम होगा, न करुणा होगी।
एक तो भौतिकवादी है। वह कहता है, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत। अगर ऋण लेकर भी घी पीना पड़े तो लेकर पी लो। वह कहता है, फिकर क्या है? धोखा देना पड़े, धोखा दे दो। बेईमानी, चोरी, कुछ भी करना पड़े, करते रहो। बस अपना भोग सब कुछ है। किसका छिनता है, किसका जाता है, कोई चिंता नहीं। लोगों के सिर पर पैर रख कर चढ़ने का मौका मिले, दिल्ली पहुंचने का, तो पहुंच जाओ। लोगों की सीढ़ियां बना लो। जब सीढ़ियां बनाओ तब हाथ जोड़ कर खड़े हो जाना।
सब नेतागण हाथ जोड़ कर खड़े हो जाते हैं जब तुम्हें सीढ़ियां बनाना चाहते हैं। और जब सीढ़ी बन गए तुम, फिर उन्हें तुम्हारी याद नहीं आती। फिर वे तुम्हारे सिर पर पैर रख कर निकल गए। वे पहुंच गए जहां उन्हें पहुंचना था। उन्होंने तुम्हारा उपयोग कर लिया। बस उपयोग तक तुम्हारी कीमत थी। तुम्हारी कोई निजी कीमत नहीं है, तुम्हारा कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारा इतना ही मूल्य है जितना तुम उनके काम आ जाओ। तुम्हारे प्रति कोई सम्मान नहीं, समादर नहीं है। यह भौतिकवादी है।
एक दूसरे तरह का आदमी है, जो इतने सम्मान से भर गया है कि वह कहता है कि मैं कैसे भोजन करूं? उपवास करूंगा! मैं कैसे अपने बेटे को प्रेम करूं? मैं तो जंगल जा रहा हूं। मैं यहां रुक नहीं सकता। इस भोग की दुनिया में मैं कैसे रुक सकता हूं? यहां तो सब भोग ही है। यहां सब शोषण चल रहा है। यहां सब एक-दूसरे की गर्दन काटने में लगे हैं। मैं यहां नहीं रुक सकता। मैं तो जाऊंगा, पहाड़ पर बैठूंगा, मैं तो एकांत में बैठूंगा। यह अध्यात्मवादी है।
ये भौतिकवादी और अध्यात्मवादी दुनिया में सदा से पाए गए हैं। तीसरे आदमी की जरूरत है, जो संसार में हो और आध्यात्मिक हो। जो भोगे और भजे। जो भागे नहीं। जो जीवन का पूरा सम्मान भी करे और जीवन का पूरा रस भी ले। जो डर कर भाग न जाए।
जो डर कर भाग रहा है, वह भौतिकवादी का ही उलटा रूप है। वह डरा इसीलिए है कि वह जानता है कि अगर वह पत्नी के पास रहा, तो वह पत्नी का शोषण करेगा। इसलिए भाग गया है। उसे यह भरोसा नहीं है अपने पर कि मैं पत्नी का शोषण करने से बच सकूंगा अगर पत्नी के पास रहा। वह डरा है कि अगर मैं दुकान पर बैठा तो मैं ग्राहक की जेब काट ही लूंगा। इसलिए पहाड़ जा रहा हूं। न रहेगा ग्राहक, न झंझट होगी। अगर ग्राहक सामने रहा, फिर मैं नहीं रुक सकता। फिर तो मैं जेब काट ही लूंगा। वह भगोड़ा जो है, वह डरा हुआ भोगी है। वह जानता है कि संसार में तो वह भौतिकवादी हो ही जाएगा। उसके बचने का एक ही उपाय वह सोचता है कि दूर, इतनी दूर चला जाऊं, न कोई होगा शोषण करने को, तो मैं कैसे शोषण करूंगा? शोषण करने को ही कोई नहीं होगा!
मगर यह कोई क्रांति हुई? यह कोई बदलाहट हुई? जंगल में बैठ जाएगा, क्योंकि वहां कोई है ही नहीं जिससे झूठ बोलना है। सच बोलना हुआ यह?
जहां झूठ बोलने की सुविधा न रही, वहां सच बोलने की सुविधा भी न रही। दोनों सुविधाएं समाप्त हो गईं। सच और झूठ दोनों के लिए कोई और चाहिए। अकेले में न तो सच होता, न झूठ होता। सच और झूठ तो संबंध में होता है। जंगल में बैठ गए, घृणा नहीं करते किसी से--प्रेम भी नहीं है। दोनों साथ ही समाप्त हो गए। घृणा और प्रेम के लिए दूसरे की मौजूदगी चाहिए। आराधना, सम्मान-असम्मान, दोनों के लिए किसी की मौजूदगी चाहिए।
भौतिकवादी एक तरह की गलती है, अध्यात्मवादी दूसरे तरह की गलती है। भोगवाद एक भूल, त्यागवाद दूसरी भूल। शांडिल्य जैसे महाज्ञानी तीसरी तरह की बात कहते हैं। वे कहते हैं: त्यागपूर्ण भोग, भोगपूर्ण त्याग। उपनिषदों का वचन तुम्हें याद है? तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः। जिन्होंने त्यागा, वे वही हैं जिन्होंने भोगा। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः। जिन्होंने भोगा, वे वही हैं जिन्होंने त्यागा। त्याग और भोग अलग-अलग नहीं हैं। त्याग भोगपूर्ण हो, भोग त्यागपूर्ण हो, तब क्रांति घटती है। तब उत्क्रांति घटती है। तब जीवन में महोत्सव आता है। इस बात की तरफ इशारा है इस वचन में--
भजनीयेन अद्वितीयं इदं कृत्स्नस्य तत् स्वरूपत्वात्।
‘यह सभी भगवान का स्वरूप है, इस कारण सेवन और भजन करने के योग्य है।’
इस पर खूब मनन करना इस वचन पर। दोनों के योग्य है। भगवान ने अवसर दिया है, पुरस्कार दिया है, भोगो भी। फूल दिए हैं, नासापुटों में जाने दो उनकी गंध। और हाथ जोड़ कर फूल के सामने झुको भी। धन्यवाद भी दो। जो व्यक्ति जगत का भोग भी कर सके और जगत का समादर भी कर सके, वही भक्त है। भक्त में अपूर्व घटना घटती है। त्याग और भोग का मिलन हो जाता है। भक्त भगोड़ा नहीं होता। न ही मात्र भोगी होता है। भक्त सम्मानपूर्वक सब तरफ परमात्मा को देखता है, सब तरफ उसका सिर झुका होता है। लेकिन परमात्मा जो भी देता है, उसे अंगीकार करता है। उसे प्रसादरूप स्वीकार करता है। इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं: कहीं जाना मत, छोड़ कर कहीं मत जाना, परमात्मा यहां है। तुम्हारे होने का ढंग बदलना चाहिए। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः। भगोड़े वंचित हो जाते हैं।
ले ली जीवन ने अग्निपरीक्षा मेरी।
मैं आया था जग में बन कर
लहरों का दीवाना,
यहां कठिन था दो बूंदों से
भी तो नेह लगाना,
पानी का है वह अधिकारी
जो अंगार चबाए,
ले ली जीवन ने अग्निपरीक्षा मेरी।
सुनते हो?
पानी का है वह अधिकारी
जो अंगार चबाए,
अंतरतम के शोलों को था
खुद मैंने दहकाया,
अनुभवहीन दिनों में मुझको
था किसने बहकाया,
भीतर की तृष्णा जब चीखी
सागर, बादल, पानी,
बाहर की दुनिया थी लपटों ने घेरी।
ले ली जीवन ने अग्निपरीक्षा मेरी।
जीवन अग्निपरीक्षा है। और कहीं जाने की जरूरत नहीं है, यहीं निखार है। यहीं तुम्हारा स्वर्ण आग से गुजर कर कुंदन बनेगा।
काठ कोयला जल कर बनता
और कोयला, राखी,
छिपा कहीं मेरी छाती में
था स्वर्गों का साखी,
दो आगों के बीच बना कर
नीड़ रहा जो गाता,
ज्वाला के दिन में, निशि में धूम्र-अंधेरी।
ले ली जीवन ने अग्निपरीक्षा मेरी।
जीवन की अग्निपरीक्षा से भागो मत। यहीं कुछ घटने को है। घटने को है, इसीलिए जीवन दिया गया है।
काठ कोयला जल कर बनता
और कोयला, राखी,
छिपा कहीं मेरी छाती में
था स्वर्गों का साखी,
वह जो स्वर्ग का साक्षी है, वह तुम्हारे भीतर छिपा है। त्याग को भी देखो और भोग को भी देखो, साक्षी बनो। न त्याग को चुनो, न भोग को चुनो, दोनों को नाचने दो तुम्हारे चारों तरफ। तुम साक्षी रहो। तुम तीसरे रहो। सुख भी देखो, दुख भी देखो; दिन भी देखो, रात भी देखो; मगर किसी से तादात्म्य मत करो।
छिपा कहीं मेरी छाती में
था स्वर्गों का साखी,
दो आगों के बीच बना कर
नीड़ रहा जो गाता,
ज्वाला के दिन में, निशि में धूम्र-अंधेरी।
ले ली जीवन ने अग्निपरीक्षा मेरी।
पीड़ा को मधुमय, क्रंदन को
छंदों की मृदुवाणी,
अशुचि अमंगल को मैं मंगल
करने का अभिमानी
स्वप्न चिता की भस्म जहां
थी फैली, उस पर मैंने
बिखरा दी अपने कलि-कुसुमों की ढेरी।
ले ली जीवन ने अग्निपरीक्षा मेरी।
इस अग्नि का रंग ही गैरिक रंग है। इस अग्निपरीक्षा से गुजरना ही गैरिक वस्त्रों का अर्थ है। तुम्हारा संन्यास तुम्हें जगत का सेवन और जगत का भजन सिखाए, तो तुम्हारा संन्यास भक्ति की महिमा बन जाएगा, भक्ति की गरिमा बन जाएगा। तुम्हारे संन्यास से गीत उठना चाहिए। तुम्हारे संन्यास से नृत्य जगना चाहिए। तुम्हारा संन्यास महोत्सव हो। तभी जानना कि तुमने, प्रभु ने जो अवसर दिया था, उसका पूरा-पूरा उपयोग किया है और तुम उत्तीर्ण हो गए हो।
आज इतना ही।