SHANDILYA
ATHATO BHAKTI JIGYASA 32
ThirtySecond Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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पहला प्रश्न:
भगवान, धर्म क्या है? और आप कैसा धर्म पृथ्वी पर लाना चाहते हैं?
धर्म का अर्थ है: स्वभाव की स्फुरणा। जो छिपा है, उसका प्रकट हो जाना। जो गीत तुम्हारे हृदय में पड़ा है, वह गाया जा सके। जो तुम्हारी नियति है, वह पूरी हो सके।
और प्रत्येक की नियति थोड़ी-थोड़ी भिन्न है। इसलिए ऊपर से आरोपित कोई भी आचरण धर्म नहीं हो पाता। धर्म की आधारशिला यही है--अंतःस्फूर्त हो। और यही भूल हो गई है। और इसी भूल को मैं सुधारना चाहता हूं।
बहुत बार धार्मिक चेतना का जन्म हुआ है, लेकिन ज्योति खो-खो गई। बुद्ध में जला दीया और बुझ गया। महावीर में जला और बुझ गया। कृष्ण में और क्राइस्ट में, जरथुस्त्र और मोहम्मद में जला और बुझ गया। दीया जलता रहा है, बार-बार जलता रहा है। परमात्मा मनुष्य से हारा नहीं। मनुष्य हारता गया और परमात्मा की आशा नहीं टूटी है। परमात्मा ने फिर-फिर कोशिश की है--मनुष्य तक पहुंचने की, मनुष्य को खोज लेने की। मनुष्य कितने ही गहन अंधकार में हो, उसकी किरण आती रही है, उसका इशारा आता रहा है। उसके पैगंबर आते रहे हैं, उसका पैगाम आता रहा है। लेकिन कहीं कोई एक बुनियादी भूल होती रही। उस भूल को समझोगे, तो मैं क्या करना चाहता हूं, वह तुम्हें स्पष्ट हो जाएगा। उस भूल को सुधारने की ही तरफ सारा आयोजन है।
भूल ऐसी हुई--सहज है, होनी ही चाहिए थी, बचा नहीं जा सकता था; इसलिए जिनसे हुई उन्हें दोषी नहीं दे रहा हूं करार। होनी ही थी; अपरिहार्य थी। महावीर को ध्यान उपलब्ध हुआ। स्वभावतः ध्यान व्यक्ति के आचरण को बदल देता है। बदलेगा ही। अगर ध्यान आचरण को न बदलेगा तो कौन बदलेगा? सब बदल जाता है। ध्यान के साथ ही उठना-बैठना, सोना-जागना, सब बदल जाता है। लेकिन हमें ध्यान तो दिखाई पड़ता नहीं, वह तो अंतर्तम में घटता है, वैसी तो आंख हमारे पास नहीं, वैसी गहरी तो परख हमारे पास नहीं। हमें दिखाई पड़ता है आचरण। आचरण बाहर है। आचरण ध्यान का बहिर-अंग है। ध्यान के साथ आचरण रूपांतरित होता है, लेकिन हमें दिखाई पड़ता है आचरण रूपांतरित होता हुआ। स्वाभाविक, हमारे अहंकार की भाषा में, जहां हम कर्ता बने बैठे हैं, यह प्रतिध्वनि उठती है कि हम भी ऐसा ही आचरण बना लें। हम भी महावीर जैसे हो जाएं। बस वहीं भूल हो जाती है।
महावीर की अहिंसा स्वतःस्फूर्त, तुम्हारी अहिंसा ऊपर से आरोपित। दोनों में जमीन-आसमान का भेद हो गया। महावीर की अहिंसा पैदा हो रही है भीतर जन्मे प्रेम के कारण। तुम्हारी अहिंसा पैदा हो रही है नरक के भय के कारण, स्वर्ग के लोभ के कारण। महावीर में न तो नरक का भय है, न स्वर्ग का लोभ है। महावीर में कैसा नरक का भय? कैसा स्वर्ग का लोभ? नरक का भय और स्वर्ग का लोभ ही तो संसार की दशा है, सांसारिक चित्त की आकांक्षा है। कष्ट न हो, सुख हो, यही तो नरक और स्वर्ग। दुख से बचूं और सुख को पा लूं; दुख कभी न आए और सुख ऐसा आए कि कभी न जाए, यही तो सांसारिक मन की मनोकांक्षा है, यही तो महत्वाकांक्षा है। कहो इसे वासना, तृष्णा, या और कोई नाम दो।
महावीर में कोई न तो नरक का भय है, न स्वर्ग की कोई आकांक्षा है। चित्त शांत हो गया, चित्त मौन हो गया, तरंगें उठतीं नहीं अब, समाधि फलित हुई है, वहां केवल साक्षीभाव रह गया है, वहां केवल द्रष्टा विराजमान है। इस द्रष्टा में कोई तरंग नहीं है--कोई विचार नहीं, कोई भाव नहीं, कोई वासना नहीं, कोई तृष्णा नहीं। न कहीं जाना है, न कुछ होना है। कोई भविष्य नहीं, कोई अतीत नहीं। सब ठहर गया है। संसार ठहर गया है।
इस ठहरेपन का नाम कृष्ण ने कहा--स्थितप्रज्ञ, जिसकी प्रज्ञा थिर हो गई है। स्थिर धीः, जिसकी धी स्थिर हो गई है। जैसे कोई दीया जलता हो ऐसे स्थान में जहां वायु का कोई झोंका न आए, निर्वात भवन में दीया जलता हो, कोई कंप न उठता हो; लहर न उठती हो, ज्योति अकंप हो।
इस अकंप ज्योति का परिणाम यह है कि महावीर के जीवन में अहिंसा है। यह प्रेम का प्रतिफल है। यह भीतर जो बोध हुआ है, यह जो अनुभव हुआ है जीवन का, इस जीवन के अनुभव के साथ ही सारा जीवन सम्मानित हो गया है। यह मेरा ही जीवन है। इसमें कहीं भेद नहीं है। जब भी तुम किसी को मारते हो, अपने को ही मारते हो। और जब भी किसी को दुख देते हो, अपने को ही दुख देते हो। ऐसा महावीर को दिखाई पड़ा है। क्योंकि मैं ही मैं हूं। पत्थर में, पहाड़ में, चांद-तारों में एक का ही विस्तार है। ऐसी प्रतीति का परिणाम है अहिंसा।
लेकिन बाहर से जिन्होंने देखा, उन्हें तो यह प्रतीति दिखाई नहीं पड़ी कि प्रेम का आविर्भाव हुआ है, कि एकात्म-बोध हुआ है, कि परमात्मा की अनुभूति हुई है, कि समाधि फली है--यह तो कुछ भी न दिखा। उन्हें दिखा कि महावीर पैर फूंक-फूंक कर रखते हैं, चींटी भी न मर जाए। पानी छान कर पीते हैं। कच्चा फल नहीं खाते। पका फल जो वृक्ष से अपने से गिर जाए। कच्चे फल को तोड़ो तो पीड़ा तो होगी। कच्चा है, अभी जुड़ा है, अभी टूटने का क्षण नहीं आया है। इसलिए महावीर पके फल का ही भोजन लेते हैं।
यह तो महावीर के भीतर की अंतर्दशा का बहिर्प्रतिफलन है। हम जो बाहर से देखते हैं, उनको लगता है कि यह आदमी पैर फूंक-फूंक कर रखता है, रात करवट भी नहीं लेता है कि कहीं कोई कीड़ा-मकोड़ा न दब जाए, गीली भूमि में नहीं चलता क्योंकि गीली भूमि में कीटाणु होते हैं, पानी छान कर पीता है, रात भोजन नहीं करता, हमें ये बातें दिखाई पड़ीं। हमने इस पर सारा धर्म खड़ा कर लिया। बस धर्म झूठा हो गया। महावीर का धर्म पैदा हुआ था समाधि से, ध्यान से। हमारा धर्म पैदा हुआ है महावीर को बाहर से देखने से। हमने सोचा, चींटी पर पैर न पड़े, पानी छान कर पीओ, रात भोजन न करो, हिंसा मत करो, मांसाहार मत करो--बस, हम भी उसी अवस्था को उपलब्ध हो जाएंगे जिसको महावीर हुए हैं।
तुम इस तरह उपलब्ध न हो सकोगे।
ध्यान रहे यह सूत्र: भीतर के अनुसार बाहर को चलना पड़ता है; बाहर के अनुसार भीतर नहीं चलता। भीतर मालिक बैठा है, बाहर तो सब छाया है।
ऐसा समझो, मैं जहां जाता हूं, मेरी छाया भी मेरे पीछे आती है। लेकिन इससे उलटा नहीं हो सकता कि मेरी छाया जहां जाए, उसके पीछे मैं जाऊं। छाया तो जाएगी कहां? छाया छाया है। तुम मेरी छाया को कहीं ले जाओगे, उससे तुम मुझे न ले जा सकोगे। लेकिन अगर तुम मुझे ले जाओ तो छाया भी चली जाएगी। छाया को जाना ही होगा। महावीर के भीतर तो समाधि फली, आचरण में छाया झलकी। हमने छाया पकड़ी। वहीं धर्म झूठा हो गया।
फिर तुम महावीर जैसे नहीं हो। कोई महावीर जैसा नहीं है। इसलिए तुम्हारे ऊपर आचरण जबर्दस्ती हो गया। उससे तुम्हारे भीतर तालमेल भी नहीं बैठा। जबर्दस्ती होने के कारण तुम दुखी और उदास हो गए। दुखी-उदास होने के कारण धर्म का उत्सव समाप्त हो गया। धर्म रुग्णचित्त लोगों की बात हो गई। धर्म ऐसे लोगों की बात हो गई जो अपने को सताने में रस लेते हैं; या फिर ऐसे लोगों की बात हो गई जो अपने को सता कर तुम्हारा सम्मान लेते हैं।
तुम्हारे मंदिर, गिरजों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में बैठे हुए लोग--जो तुम्हारे सम्मान के पात्र हो गए हैं--तुम खयाल रखना, वे सम्मान के पात्र होने के लिए ही सारा आयोजन किए हैं, और कुछ भी नहीं है। तुम चाहते हो, उपवास वाले को हम सम्मान देंगे--क्योंकि तुम्हारी धारणा है, जो उपवास करेगा वह महावीर जैसा हो जाएगा। निश्चित महावीर ने उपवास किए थे। लेकिन किए थे, यह कहना महावीर के संदर्भ में ठीक नहीं, उपवास हुए थे। मुनि कर रहा है। बस वहीं फर्क हो गया। होने और करने में जमीन-आसमान का फर्क है। भीतर ऐसी तल्लीनता बंध गई थी कि कभी-कभी उपवास हो गया था। याद ही न आई थी। मुझसे भी हुए हैं, इसलिए तुमसे कहता हूं। मैंने कभी उपवास नहीं किया, लेकिन हुए जरूर। कभी ऐसी बंध गई लौ भीतर कि याद ही न आई बाहर भोजन करने की। मन ऐसा मुग्ध हुआ भीतर कि बाहर के सारे द्वार-दरवाजे अपने से बंद हो गए! उपवास हुआ। पता भी नहीं चला कब हो गया। जब टूटा तभी पता चला। जब भीतर की चेतना फिर बाहर लौटी, तब याद आया कि दो दिन निकल गए हैं, भोजन नहीं हुआ।
फिर उपवास करने वाले लोग हैं। वे थोप लेते हैं उपवास को। वे जबर्दस्ती शरीर को सता लेते हैं। फिर उनके सताने में एक ही रस हो सकता है--भीतर का तो कोई रस नहीं है--अब उनके सताने में एक ही रस हो सकता है: उनके अहंकार को बाहर से आदर मिले, सम्मान मिले। कोई कहे कि तपस्वी हैं, कोई घोषणा करे कि महात्मा हैं।
तो धर्म, जो स्वभाव है, वह धीरे-धीरे आचरण का रूप ले लेता है। वह नीति बन जाता है। धर्म का पतन है नीति। नीति धर्म नहीं है। और ध्यान रहे, धार्मिक व्यक्ति नैतिक होता है, लेकिन नैतिक व्यक्ति धार्मिक नहीं होता। अंतस के पीछे आचरण चलता है, आचरण के पीछे अंतस नहीं चलता।
तो धर्म का अर्थ है स्वभाव। और प्रत्येक में थोड़ा-थोड़ा भेद है। इसलिए प्रत्येक की धर्म की यात्रा थोड़ी-थोड़ी भिन्न होगी। व्यक्ति को ध्यान में रखना। लेकिन जब बाहर से आचरण के नियम बनाए जाते हैं, तो फिर कोई ध्यान में नहीं रखा जाता। बाहर से जो नियम बनाए जाते हैं, वे तो सभी के लिए एक से होंगे। उनमें फिर किसी का ध्यान न रखा जाएगा। वे व्यक्ति के अनुकूल नहीं होते, व्यक्ति को ध्यान में रख कर नहीं होते, सार्वजनीन होते हैं। सभी सार्वजनीन नियम घातक होते हैं।
इसलिए मैं यहां किसी को कोई नियम नहीं दे रहा हूं, सिर्फ बोध दे रहा हूं। आंख दे रहा हूं, आचरण नहीं दे रहा हूं। इशारे दे रहा हूं, जड़ मंतव्य, वक्तव्य नहीं दे रहा हूं। उपदेश दे रहा हूं, आदेश नहीं दे रहा हूं। समझने की क्षमता दे रहा हूं, फिर जीना तुम अपने ढंग से। चंपा चंपा के ढंग से खिलेगी और कमल कमल के ढंग से खिलेगा। कमल पानी में खिलेगा और चंपा को पानी में खिलाना चाहोगे--मार डालोगे, सड़ा डालोगे। और कमल को चंपा की जगह खिलाना चाहोगे--कैसे खिलेगा?
इतने ही भेद हैं व्यक्तियों में। खिलना सबको है। खिलने का अर्थ एक ही है। परम अवस्था में जो खिलाव होता है, वह तो एक ही है; लेकिन उस तक पहुंचने की जो यात्राएं हैं, वे बड़ी भिन्न हैं।
और फूलों के रंग अलग होंगे, फूलों के ढंग अलग होंगे, फूलों की गंध अलग होगी--खिलाव एक होगा। उस खिलाव का नाम परमात्मा है। लेकिन और सब अलग होगा।
जो लोग बाहर से नियम और आचरण बनाते हैं, उन्हें यह बात याद ही नहीं रह जाती। फिर आचरण के नियम इतने महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि हर एक को उन नियमों के अनुसार होना चाहिए।
ऐसा समझो कि दर्जी ने कपड़े पहले बना लिए। उसने एक हिसाब से कपड़े बना लिए। उसने पता लगा लिया कि पूना में औसत लंबाई कितनी है। सब आदमियों की लंबाई नाप ली गई, औसत लंबाई पा ली उसने; औसत मोटाई पा ली उसने। अब इस औसत में बड़ा धोखा है। इसमें छोटे बच्चे भी हैं, इसमें बड़े-बूढ़े भी हैं; इसमें लंबे आदमी भी हैं, इसमें ठिगने आदमी हैं; इसमें मोटे आदमी हैं, इसमें दुबले आदमी हैं--इसमें सब तरह के आदमी हैं। इन सबका हिसाब लगा लिया, सबका जोड़ लिया; सबकी लंबाई जोड़ ली, फिर सबका भाग दे दिया; सबकी मोटाई जोड़ ली और सबका भाग दे दिया; फिर औसत आदमी के कपड़े बना लिए।
अब औसत आदमी कहीं होता नहीं, खयाल रखना। औसत आदमी सिर्फ गणित में होता है, जीवन में नहीं होता। अब औसत आदमी आ गया। इस औसत आदमी की ऊंचाई चार फीट छह इंच। उसने कपड़े तैयार कर लिए। इस औसत आदमी की एक मोटाई है, उसने कपड़े तैयार कर लिए। अब तुम गए; तुम औसत आदमी नहीं हो। तुम छह फीट के लंबे आदमी हो। चार फीट छह इंच के कपड़े हैं। वह कहता है: तुम गलत हो। तुम औसत से भिन्न! तुम नियम के विपरीत! आओ तुम्हें मैं छांट दूं।
या हो सकता है, तुम चार ही फीट के हो, ठिगने हो बहुत; तो वह कहता है: आओ तुम्हें जरा खींचतान कर बड़ा कर दूं। कपड़े महत्वपूर्ण हो गए, आदमी का कोई ध्यान न रहा।
मेरे लिए व्यक्ति का मूल्य है। मेरा मन व्यक्ति के प्रति परम सम्मान से भरा है। मैं तुम्हारे लिए कोई कपड़े नहीं बनाता। तुम्हें बिना सिला कपड़ा दे रहा हूं। तुम अपने कपड़े बना लेना। वह बिना सिला कपड़ा समझ है। फिर समझ के अनुसार तुम अपने कपड़े बना लेना। कपड़े तुम्हीं बनाना! किसी और के आधार पर बनाए गए कपड़े कभी तुम्हें ठीक न आएंगे--या तो ढीले होंगे, या चुस्त होंगे, या लंबे होंगे, या छोटे होंगे, कुछ न कुछ गड़बड़ रहेगी; और तुम हमेशा बेचैनी अनुभव करोगे।
इसलिए तुम्हारे तथाकथित धार्मिक आदमी बेचैन मालूम होते हैं। महावीर का कपड़ा पहने हुए हैं। महावीर जैसा व्यक्तित्व नहीं है। बैठे हैं आंख बंद किए, आंख बंद नहीं होती। खड़े हैं नग्न, और सकुचा रहे हैं, और भीतर बड़ी ग्लानि हो रही है, और बड़ी घबड़ाहट भी हो रही है कि यह मैं क्या कर रहा हूं! कोई देख न ले! कोई क्या कहेगा? पागल न समझे! या तुम मंदिर में पूजा कर रहे हो, प्रार्थना कर रहे हो--और प्रार्थना में तुम्हारा हृदय नहीं है। लेकिन कर रहे हो; तुम्हारे परिवार में होती रही है। तुम सिर्फ औपचारिकता निभा रहे हो। धर्म झूठा हो जाता है औपचारिकता में।
धर्म होना चाहिए तुम्हारे अंतःकरण से निष्पन्न। तुम अपना धर्म खोजो। न तो हिंदू धर्म तुम्हारा धर्म है, न ईसाई धर्म तुम्हारा धर्म है। ईसाई धर्म है जीसस के आधार से बनाए गए कपड़े। और हिंदू धर्म है कृष्ण के या राम के आधार से बनाए गए कपड़े। और जैन धर्म है महावीर के आधार से बनाए गए कपड़े। इसीलिए तुम इतने बेहूदे और बेढंगे मालूम हो रहे हो। इसीलिए पृथ्वी धर्म-शून्य हो गई है। सब कपड़े पहने हैं, लेकिन सब गलत कपड़े पहने हुए हैं।
तुम अपने कपड़े बनाओ! समझ तुम्हें देता हूं, दृष्टि तुम्हें देता हूं, ध्यान तुम्हें देता हूं, भक्ति, प्रेम तुम्हें देता हूं--फिर तुम अपने जीवन का आचरण खुद ही निर्मित करो। और तब तुम्हारे भीतर एक उत्फुल्लता होगी। नहीं तो बड़ी छोटी-छोटी बातें बड़ा कष्ट देती हैं।
एक सज्जन मेरे पास आए। वे कहते हैं कि मुझसे क्या होगा? मैं बड़ा पापी हूं, अपराधी हूं!
मैंने कहा, तुम्हारा अपराध क्या? पाप क्या? आदमी भले मालूम पड़ते हो। तुम्हारी आंखें देखता हूं तो ऐसी कोई पापी की आंखें नहीं मालूम पड़तीं। तुम्हारे चेहरे पर पाप का कोई निशान भी नहीं मालूम पड़ता।
उन्होंने कहा, नहीं आपको साहब पता नहीं! आठ बजे सोकर उठता हूं।
अब इस व्यक्ति ने किताबें पढ़ ली हैं, जिनमें लिखा है कि ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए; ब्रह्ममुहूर्त में उठना पुण्य है। अब आठ बजे सोकर उठता है, इसलिए ग्लानि से भरा है। पांच बजे सोकर उठने में कोई ऐसी धार्मिकता नहीं है। क्या धार्मिकता होगी? सब समय समान है। अब इसकी अड़चन यह है कि इसको दो बजे रात तक तो नींद ही नहीं आती। अब जो आदमी दो बजे तक सो न सके, वह अगर आठ बजे तक सोए तो कुछ हैरानी तो नहीं है। जिन गुरुओं के पास जाता रहा होगा, वे कहते हैं कि नौ बजे सो जाओ। वह कहता है, मैंने कोशिश भी कर ली, मैं पड़ भी जाता हूं बिस्तर पर, मगर नींद जब आती है तब आती है। और वह दो बजे आती है नींद, और वह नौ बजे से लेकर दो बजे तक पड़े रहना और भी कष्टपूर्ण हो जाता है। करवटें बदलता हूं, परेशान होता हूं--और ग्लानि भरती है कि मुझ जैसा पापी कौन! नींद भी नहीं आती समय पर! सुबह उठता हूं तो आठ बजे, नौ बजे। तब चित्त प्रसन्न रहता है। अगर जल्दी उठ आता हूं तो दिन भर उदासी और तनाव और मस्तिष्क में बोझ बना रहता है।
अब इसको पापी करार दे दिया। वह शिवानंद का शिष्य था। शिवानंद के पास गया। उन्होंने कहा, यह तो नहीं चलेगा। ब्रह्ममुहूर्त में तो उठना ही चाहिए।
अब कुछ लोग ऐसे हैं जिनको तीन बजे के बाद नींद नहीं आती। जिनको दो बजे के पहले नींद नहीं आती, उनको तुम पापी बना देते हो; और जिनको तीन बजे के बाद नींद नहीं आती, उनको तुम पुण्यात्मा बना देते हो! ऐसे लोग हैं जो तीन बजे के बाद तड़फते हैं उठने के लिए। उन्हें कोई बहाना मिल जाए तो वे जल्दी से उठ आएं। उनकी नींद पूरी हो गई है।
मेरे हिसाब में कोई पापी नहीं, कोई पुण्यात्मा नहीं। यह भी कोई बात है! आठ बजे उठे तो आठ बजे उठे। जो सुगम मालूम होता है, जो शरीर को स्वाभाविक मालूम होता है, जो तुम्हारी प्रकृति को अनुकूल आता है, वही धर्म है। और यही हर चीज के संबंध में मैं तुमसे कहना चाहता हूं। जीवन में किसी भी चीज से अकारण पाप इत्यादि की धारणाएं मत पकड़ लेना। क्षुद्र बातों में मत उलझ जाना। यहां बड़ा विराट कुछ करने को तुम्हारा होना हुआ है। तुम छोटी-छोटी बातों में मत उलझ जाना।
दुनिया के सारे धर्म छोटी-छोटी बातों के विस्तार में उलझ गए हैं। विस्तार इतना हो गया है कि मूल खो गया है। मुझे जैन मुनियों ने कहा कि हमें फुर्सत ही नहीं ध्यान करने की। क्योंकि और सब नियम का पालन करते-करते समय कहां बचता है?
यह तो हद हो गई! ध्यान करने को आदमी मुनि होता है। मुनि का अर्थ होता है: जो मौन सीखने गया, जो मौन होने गया। वह ध्यानी का ही एक रूप है। लेकिन ध्यानी होने गए थे, और दूसरी चीजों में उलझ गए। गए थे राम भजन को, ओटन लगे कपास। और वे कहते हैं: फुर्सत नहीं मिलती! यही तो दुकानदार कहता है कि फुर्सत नहीं मिलती। और यही अगर मुनि कहे कि फुर्सत नहीं मिलती ध्यान को...! क्योंकि और नियम ऐसे हैं। उन नियमों में ही झंझट खड़ी हो जाती है। उन नियमों में ही सारा समय चला जाता है। थोड़ा-बहुत समय बचता है, वह उपदेश में लगाना पड़ता है।
खुद पाया नहीं है, उपदेश क्या दे रहे हो? किसको दे रहे हो? खुद भटके हो, औरों को भटकाओगे? यह तो सुनिश्चित पाप है। यह बड़े से बड़ा पाप है कि तुमने न जाना हो और किसी को तुम उपदेश दो। इससे बड़ा पाप और क्या होगा? एकाध दिन अगर रात पानी पी लो, तो मैं नहीं समझता इतना बड़ा पाप है; कि एकाध दिन भूख लग आए और रात एकाध फल खा लो, तो कोई इतना बड़ा पाप है! मगर बिना जाने, बिना अनुभव किए तुम सैकड़ों लोगों को समझा रहे हो, मार्ग दे रहे हो, चला रहे हो--जिन मार्गों पर तुम कभी चले नहीं--इससे बड़ा पाप क्या होगा?
तुम देखते हो, जिस आदमी के पास डाक्टर का प्रमाणपत्र नहीं है और वह दवाइयां बांटता हो, तो खतरनाक है। मगर उसकी दवाइयां तो ज्यादा से ज्यादा शरीर को नुकसान पहुंचा सकती हैं। लेकिन जिन्होंने ध्यान नहीं जाना है, ये मार्गदर्शन दे रहे हैं। इनकी औषधियां जन्मों-जन्मों तक तुम्हें भटका सकती हैं। भटका रही हैं। और इन्हें ग्लानि भी नहीं पकड़ती, इन्हें अपराध का भाव भी नहीं पकड़ता, क्योंकि ये सिर्फ नियम का पालन कर रहे हैं। साधु को कहा गया है कि उसे इतना उपदेश तो देना ही चाहिए; उसे इतने नियम तो पालन करने ही चाहिए; उसे इतने बजे उठ आना चाहिए; उसे इतने बजे मलमूत्र विसर्जन को जाना चाहिए; उसे इतना अध्ययन करना चाहिए; उसे इतना शास्त्र का पाठ करना चाहिए। इसी सबमें उलझा डाला है।
मैं तुम्हें कोई आचरण नहीं देना चाहता। मैं तुम्हें कोई अनुशासन नहीं देना चाहता। मैं तुम्हें स्वतंत्रता देना चाहता हूं। मैं तुम्हें समस्त सिद्धांतों से स्वतंत्रता देना चाहता हूं। मैं तुम्हें उत्तरदायी बनाना चाहता हूं। तुम मेरी बात समझना।
स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं होता कि मैं तुम्हें उच्छृंखल बनाना चाहता हूं। मैं तुम्हें उत्तरदायी बनाना चाहता हूं। मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि तुम्हारा जीवन मूल्यवान है। इसको ऐसे मत गंवा देना। इसे हर किसी की बात मान कर मत गंवा देना। इसे हर किसी के कपड़े पहन कर मत गंवा देना। तुम्हारा जीवन कीमती है। परमात्मा तुमसे पूछेगा: क्या किया जीवन का? तो तुम उत्तरदायी होओगे, तुम्हारे मुनि महाराज नहीं; और न तुम्हारे साधु, और न तुम्हारे महात्मा; कोई उत्तर नहीं देगा, तुम्हें उत्तर देना पड़ेगा। तुम्हारे लिए तुम्हीं जी रहे हो, तुम्हारे लिए तुम्हीं मरोगे, और तुम्हारे लिए तुम्हीं उत्तरदायी हो। इसलिए अपने जीवन को इस ढंग से जीना कि तुम उत्तर दे सको।
और कौन निर्णय करेगा कि तुम कैसे जीओ? तुम कब उठो, क्या खाओ, क्या पीओ--कौन निर्णय करेगा? किसी को हक भी नहीं है। यह गुलामी छूटनी चाहिए।
मेरे लिए धर्म है स्वभाव और स्वभाव की परम स्वतंत्रता। तुम अपना छंद स्वयं बनो। मुक्ति पहले कदम से शुरू हो जानी चाहिए। यह पहला कदम है। और यही मुक्ति बढ़ते-बढ़ते मोक्ष बन जाएगी।
फिर, जो अब तक दुनिया में धर्म के नाम पर समझा गया, पकड़ा गया, वह अनिवार्यरूपेण जीवन-विरोधी था। हो ही गया जीवन-विरोधी। महावीर नहीं थे जीवन-विरोधी, न बुद्ध थे जीवन-विरोधी। कोई ज्ञानी कभी जीवन-विरोधी नहीं हो सकता। क्योंकि इसी जीवन से तो परम जीवन पाया जाता है। यह जीवन तो परम जीवन का द्वार है। इस संसार से ही तो हम सत्य की तरफ जाते हैं। इस संसार में अगर कांटे भी गड़ते हैं तो वे कांटे भी तुम्हारे मित्र हैं; अगर न गड़ते तो तुम कभी सत्य की तरफ न जाते। इस संसार के दुख भी ऐसे हैं कि तुम उनके प्रति जिस दिन जागोगे, उस दिन आभार प्रकट करोगे। क्योंकि उन्हीं के द्वारा तो तुम परमात्मा तक पहुंचे। उन्हीं के द्वारा तो तुम समाधि तक पहुंचे।
जरा थोड़ा सोचो! इस जगत में कोई दुख न हो, कोई पीड़ा न हो, कोई परेशानी न हो--तुम सोचोगे समाधि की बात? समाधि की तुम्हें याद कौन दिलाएगा? ये कांटे जो चारों तरफ से चुभते हैं, तुम्हें सजग रखते हैं। ये तुम्हें समाधि की तरफ ले जाते हैं। इन कांटों का प्रयोजन है। इस जगत के दुख सिर्फ दुख नहीं हैं, उन दुखों के भीतर बड़ा आयोजन है, उन दुखों में बड़े इशारे छिपे हैं। वे दुख तुम्हें याददाश्त दिलाने के लिए हैं। वे दुख अभिशाप नहीं, वरदान हैं।
इसलिए मैं एक ऐसा धर्म पृथ्वी पर देखना चाहता हूं, जो जीवन-विरोधी न हो। क्योंकि इस लोक में ही परलोक छिपा है। इन्हीं वृक्षों, पौधों, पत्थरों, पहाड़ों में परमात्मा छिपा है। इन्हीं लोगों में, जो तुम्हारे पास बैठे हैं, परमात्मा का आवास है। पड़ोसी में परमात्मा छिपा है। तुम्हारे भीतर परमात्मा छिपा है। तुम्हारी पत्नी में, तुम्हारे पति में, तुम्हारे बेटे में, तुम्हारे पिता में परमात्मा छिपा है। तुम ऊपर-ऊपर से देखते हो, इसलिए चूक जाते हो। लेकिन ऊपर-ऊपर से देखने के कारण चूक जाओ, तो इस फल को फेंक मत देना, क्योंकि इस फल के भीतर रस छिपा है, जो तुम्हें तृप्त कर सकता था।
लेकिन अड़चन इसलिए आ गई, महावीर समाधि को उपलब्ध हुए, बुद्ध समाधि को--लोगों ने आचरण पकड़ा, लोग आचरण के अनुसार चले। उन्हें भीतर का तो कुछ पता न चला, थोथे हो गए। बाह्य क्रियाकांड में उलझ गए। यतन में उलझ गए, भजन का पता नहीं चला। उसी क्रियाकांड में डूब गए। उससे अहंकार और बढ़ा। उससे अहंकार और सूक्ष्म हुआ। और उस अहंकार के कारण उन्हें कुछ भी दिखाई न पड़ा, सब अंधापन छा गया; और अंधेरा हो गया।
मेरे देखे, संसारी इतने अंधे नहीं हैं जितने तुम्हारे तथाकथित संन्यासी। और न संसारी इतने दंभी हैं, जितने तुम्हारे महात्मा। जीवन का एक अपूर्व अवसर है। इस अपूर्व अवसर का उपयोग करो--चुनौती की तरह। इससे भागना नहीं है। इस अग्नि में खड़े होना है। यही अग्नि तुम्हें निखारेगी। इसी अग्नि में निखर कर तुम कुंदन बनोगे। तुम्हारा कचरा भर जलेगा, और कुछ जलने वाला नहीं है। इसलिए भागो मत, भागे तो कचरा बच जाएगा।
पूछा तुमने: ‘कैसा धर्म इस पृथ्वी पर आप लाना चाहते हैं?’
जीवन-स्वीकार का धर्म। परम स्वीकार का धर्म। चूंकि जीवन-अस्वीकार की बातें बहुत प्रचलित रही हैं, इसलिए स्वभावतः लोग देह के
विपरीत हो गए। अपने शरीर को ही सताने में संलग्न हो गए। और यह देह परमात्मा का मंदिर है। मैं इस देह की प्रतिष्ठा करना चाहता हूं। और चूंकि लोग संसार के विपरीत हो गए, देह के विपरीत हो गए, इसलिए देह के सारे संबंधों के विपरीत हो गए। भूल हो गई।
देह के ऐसे संबंध हैं, जिनसे मुक्त होना है। और देह के ऐसे संबंध हैं, जिनमें और गहरे जाना है। प्रेम ऐसा ही संबंध है। प्रेम में गहराई बढ़नी चाहिए। घृणा में गहराई घटनी चाहिए। घृणा से तुम मुक्त हो सको तो सौभाग्य। लेकिन अगर प्रेम से मुक्त हो गए तो दुर्भाग्य।
और मजा यह है कि अगर तुम्हें घृणा से मुक्त होना हो तो सरल रास्ता यह है कि प्रेम से भी मुक्त हो जाओ। और तुम्हारे अब तक के साधु-संन्यासियों ने सरल रास्ता पकड़ लिया। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी! लेकिन बांस और बांसुरी में बड़ा फर्क है। बांसुरी बजनी चाहिए। बांस से बांसुरी बनती है, लेकिन बांसुरी बड़ा रूपांतरण है। बांसुरी सिर्फ बांस नहीं है। बांसुरी में क्रांति घट गई। तुम अभी बांस जैसे हो, बांसुरी बन सकते हो।
घृणा से भयभीत हो गए लोग। क्रोध से भयभीत हो गए। भाग गए जंगलों में। जब कोई रहेगा ही नहीं पास, तो न घृणा होगी, न क्रोध होगा। यह तो ठीक, लेकिन प्रेम का क्या होगा? प्रेम भी नहीं होगा। इसलिए तुम्हारे तथाकथित महात्मा प्रेम-शून्य हो गए, प्रेम-रिक्त हो गए। उनके प्रेम की रसधार सूख गई। वे मरुस्थल की भांति हो गए। और वहीं चूक हो गई। परमात्मा तो मिला नहीं, संसार जरूर खो गया। सत्य तो मिला नहीं, इतना ही हुआ कि जहां सत्य मिल सकता था, जहां सत्य को खोजा जा सकता था, जहां चुनौती थी पाने की, उस चुनौती से बच गए। एक तरह की शांति मिली--लेकिन वह मुर्दा, मरघट की। एक और शांति है--उत्सव की, जीवंत, उपवन की। मैं उसी शांति के धर्म को लाना चाहता हूं।
तुम जीवन को अंगीकार करो, देह को अंगीकार करो। परमात्मा ने जो दिया है, सब अंगीकार करो। उसने दिया है तो कुछ उसमें राज छिपा होगा ही! इस वीणा को फेंक मत देना, इसमें संगीत छिपा है। इसे बांस मत समझ लेना, इसमें बांसुरी बनने की क्षमता है। जल्दी छोड़-छाड़ कर भाग मत जाना। तलाश करना। हालांकि तलाश कठिन है। होनी ही चाहिए। क्योंकि तलाश के लिए कीमत चुकानी पड़ती है। जो खोजेगा, वह पाएगा। इसी जीवन में खोजना है।
परमात्मा ने संसार बनाया कभी, ऐसा मत सोचो। परमात्मा संसार रोज बना रहा है, प्रतिपल बना रहा है। ऐसा कोई बना दिया एक दफा और खत्म हो गया काम! तो फिर नये पत्ते कैसे आ रहे हैं? फिर नये फूल कैसे खिल रहे हैं? फिर चांद-तारे कैसे चल रहे हैं? फिर नये बच्चे कैसे पैदा हो रहे हैं? रोज नये का जन्म हो रहा है।
तो यह धारणा तुम्हारी गलत है कि परमात्मा ने सृष्टि की। परमात्मा सृष्टि कर रहा है। और अगर तुम मेरी बात और भी ठीक से पकड़ना चाहो, तो मैं कहता हूं: परमात्मा सृष्टि की प्रक्रिया है। परमात्मा कोई अलग व्यक्ति नहीं है कि बैठा है और बना रहा है चीजों को। कुम्हार नहीं है कि घड़े बना रहा है। नर्तक है--नाच रहा है। उसका नाच उसका अंग है। इन सब फूलों में, पत्तों में, सागरों में, सरोवरों में उसका नाच है। तुममें, मुझमें, बुद्ध-महावीर में उसका नाच है। उसकी भाव-भंगिमाएं हैं। उसकी अलग-अलग मुद्राएं हैं। इनमें पहचानो!
तो मैं भगोड़े धर्म से छुटकारा दिलाना चाहता हूं। देह स्वीकृत हो, देह मंदिर बने। प्रेम स्वीकृत हो, प्रेम पूजा बने। संसार का सम्मान हो, क्योंकि उसमें स्रष्टा छिपा है। अभी भी उसके हाथ काम कर रहे हैं। अगर तुम जरा संसार में गहरा प्रवेश करोगे तो उसके हाथ का स्पर्श तुम्हें मिल जाएगा, उसका हाथ तुम्हारे हाथ में आ जाएगा। किसी फूल में कभी उतरे हो गहरे? तुम्हें उसका हाथ पकड़ में आ जाएगा। किसी आंख में उतरे हो गहरे? तुम्हें उसकी झलक पकड़ में आ जाएगी। किसी हृदय में गए हो गहरे? तुम्हें उसका घर मिल जाएगा वह कहां छिपा है।
तो मूल्यों का एक पुनर्मूल्यांकन करना है। सारे मूल्यों का पुनर्मूल्यांकन करना है। और पृथ्वी आज तैयार हो गई है इस घटना के लिए। क्योंकि पांच हजार साल के दमनकारी धर्मों ने, पलायनवादी धर्मों ने मनुष्य को काफी सजग कर दिया है। मनुष्य तैयार है अब कि कुछ नया आविर्भाव होना चाहिए। लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं, लोग आतुरता से राह देख रहे हैं, कि परमात्मा का कोई नया अवतरण होना चाहिए। कोई नई भाषा मिलनी चाहिए धर्म को। और चूंकि ऐसी भाषा नहीं मिल पा रही है, और ऐसा नया अवतरण नहीं हो पा रहा है, और लोगों को दिखाई नहीं पड़ रहा है कि कैसे धार्मिक हों, तो गलत धर्म पैदा हो रहे हैं। वे भी खोज की वजह से पैदा हो रहे हैं।
आदमी और धर्म के बीच कोई सांयोगिक संबंध नहीं है, जैसा कि मार्क्स और कम्युनिस्ट सोचते हैं। अनिवार्य संबंध है। आदमी बिना धर्म के हो ही नहीं सकता। आदमी और धार्मिक न हो, यह असंभव है! फिर एक ही उपाय बचता है: ठीक ढंग से धार्मिक हो कि गलत ढंग से धार्मिक हो। तुम चकित होओगे जान कर कि रूस में, जहां कि क्रांति कम्युनिस्टों के हाथ से घटी और मंदिर-मस्जिद और गिरजे करीब-करीब समाप्त कर दिए गए, वहां भी लोग धर्म से मुक्त नहीं हो गए हैं। धर्म की आकांक्षा इतनी प्रबल है कि अगर असली धर्म न मिलेगा तो लोग नकली से चलाएंगे। वे जाकर लेनिन की कब्र पर ही फूल चढ़ाने लगे। लेनिन ही अवतार मालूम होने लगे। क्रेमलिन मंदिर बन गया। मार्क्स की किताब दास कैपिटल उनकी कुरान, उनकी बाइबिल बन गई। उनकी नई त्रिमूर्ति पैदा हो गई--मार्क्स, एंजिल्स, लेनिन। ब्रह्मा, विष्णु, महेश गए, मगर ये नये...!
जर्मनी में हिटलर करीब-करीब लोगों के लिए ऐसा हो गया जैसे वही पूजनीय है।
लोग पूजा का कोई स्थल चाहते हैं। अगर तुम सब स्थल छीन लोगे , तो वे अपने ही स्थल बना लेंगे--कुछ भी बना लेंगे, कुछ भी खड़ा कर लेंगे, जो मिल जाएगा उसी की पूजा करेंगे। लेकिन पूजा, प्रार्थना, प्रेम मनुष्य के भीतर छिपी हुई कोई अनिवार्य आवश्यकता है।
मेरे पास पत्र आते हैं। कल ही एक पत्र आया रूस से एक महिला का, कि वह आना चाहती है, लेकिन सरकार आज्ञा नहीं देती। तो उसने लिखा है, यहां से मैं निमंत्रण दिलवाऊं। कोई यहां से गारंटी लेने को हो तीन महीने के लिए, तो शायद स्वीकृति मिल जाए। लेकिन उसका पत्र इतना प्यारा है कि लक्ष्मी डरी! किसी से स्वीकृति तो दिलवा दे, लेकिन वह फिर न जाए तो क्या करें? उसके पत्र से ऐसा लगता है कि फिर वह जाने वाली नहीं। तो जो स्वीकृति लेगा, वह झंझट में पड़ जाएगा; जो निमंत्रण देगा, वह झंझट में पड़ जाएगा। उसके पत्र से लगता नहीं कि एक दफा वह आ गई रूस के बाहर, तो फिर भीतर जाएगी।
आदमी के भीतर अनिवार्य तड़प है। और तड़प गहरी हो गई है। क्योंकि सब पुराने धर्म फीके पड़ गए हैं। और सब नये तथाकथित कम्युनिस्ट और फासिस्ट धर्म झूठे हैं, थोथे हैं, उनसे आत्मा तृप्त नहीं होती। तो मनुष्य बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा कर रहा है: कोई नई किरण उतरे।
इसलिए मैंने कहा कि यह गैरिक आग फैलती जाए सारी दुनिया में तो नई किरण उतर सकती है। और इस तरह का संन्यास ही अब भविष्य का संन्यास हो सकता है। भगोड़ा संन्यास नहीं हो सकता। जीवन को अंगीकार करने वाला संन्यास ही भविष्य में स्वीकृत हो सकता है।
और मैं कोई कारण नहीं देखता हूं कि कहीं भाग कर जाने की जरूरत है। तुम जहां हो, वहीं अगर तुमने हृदयपूर्वक पुकारा तो परमात्मा आता है। असली बात हृदयपूर्वक पुकारने की है। असली बात न तो पवित्रता की है, न शुद्धता की है, न योग की है, न त्याग की है, असली बात इतनी ही है कि तुम परिपूर्ण असहाय होकर, निर-अहंकार होकर, उसके चरणों में गिर जाओ। तुम थोड़े भी बचे, तो रुकावट रहेगी। तुम बिलकुल चले गए, उसी क्षण रुकावट टूट जाती है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, तेरे ही इशारे पर मैंने अपना पूरा प्यार उंडेल दिया और जब तेरी तस्वीर के सामने होती हूं तो तुझमें उसी को देखती हूं। और उसके पास होती हूं तो तेरा ही रूप उसमें झलकता है। तो क्या ये मेरी आंखें धोखा खा रही हैं? ओशो बताने की कृपा करें।
नहीं चेतना, आंखें खुल रही हैं, धोखा नहीं खा रही हैं। आंखें पहली बार उपलब्ध हो रही हैं। धीरे-धीरे ये आंखें और गहराएंगी, इनकी धुंध और कटेगी। तब चित्र की भी जरूरत न रह जाएगी। तब वृक्ष में भी और पत्थर में भी, सब तरफ वही दिखाई पड़ने लगेगा। यह शुरुआत है।
जो गुरु में दिखाई पड़ता है, उसे एक दिन सारे संसार पर फैला देना है। गुरु तो सिर्फ द्वार है। इसलिए नानक ने बिलकुल ठीक मंदिर को नाम दिया--गुरुद्वारा। वह मुझे पसंद है। गुरु द्वार है। उससे तो सिर्फ विराट आकाश की तरफ यात्रा शुरू होती है।
शुभ हो रहा है। ऐसी ही आंखें चाहिए। ऐसी ही आंखों को दर्शन होता है। ऐसी ही आंखों को दृष्टि उपलब्ध होती है।
मैंने सुना है, एक झेन कहानी--
ए मांक सेड, आई एम टोल्ड दैट आल बुद्धाज एंड आल दि बुद्धा-धर्माज ईस्यु फ्रॉम वन सूत्रा। व्हाट कुड दिस सूत्रा बी?
दि मास्टर रिप्लाइड, रिवाल्विंग ऑन फॉरएवर; नो चेकिंग इट; एंड नो आर्ग्युइंग, नो टाकिंग कैन कैच इट।
हाउ शैल देन आई रिसीव एंड होल्ड इट?
दि मास्टर लाफ्ड एंड सेड, इफ यू विश टु रिसीव एंड होल्ड इट, यू शैल हियर इट विद योर आईज।
एक भिक्षु ने पूछा अपने गुरु को, मैंने सुना है कि समस्त बुद्ध और समस्त बुद्धों के धर्म, एक ही संक्षिप्त सूत्र से पैदा हुए हैं। वह सूत्र क्या है?
सदगुरु ने कहा, सदा घूमता रहता वह, सदा प्रवाहमान! उसे पकड़ा नहीं जा सकता। वह ठहरता ही नहीं। वह सदा गतिमान। उसे रोका नहीं जा सकता। और कोई तर्कों के द्वारा भी उसको पकड़ा नहीं जा सकता। और कोई शब्द उसे प्रकट करने में समर्थ भी नहीं हैं।
स्वभावतः भिक्षु ने पूछा, तब मैं उसे किस तरह ग्रहण करूं? और किस तरह आत्मसात करूं? और किस तरह अपने भीतर सम्हालूं? कैसे उसे अपनी आत्मा में वास करने को पुकारूं?
सदगुरु हंसा और उसने कहा, यदि तुम चाहते हो उसे स्वीकार करना, ग्रहण करना और अपने भीतर बसा लेना, तो तुम्हें एक कला सीखनी होगी। कानों से सुनना तुम जानते हो, अब तुम्हें आंखों से सुनना सीखना पड़ेगा।
आंखों से सुनना! चेतना, वही तुझे हो रहा है।
एक दृष्टि, एक नई दृष्टि का जब जन्म होता है, तो बेचैनी भी होती है, परेशानी भी होती है। क्योंकि सब पुराना अस्तव्यस्त हो जाता है। फिर पुराने से कोई समायोजन नहीं रह जाता। नई दृष्टि का आविर्भाव एक अराजकता पैदा करता है। नई दृष्टि के साथ नये जीवन की शुरुआत है--नई आत्मा की।
शुभ हो रहा है। भयभीत न होना। और सोचना भी मत कि क्या मैं धोखा खा रही हूं।
मेरा तुम्हारे पास होना और तुम्हारा मेरे पास होना इसीलिए है कि मैं तुम्हें धोखा न खाने दूं। और बहुत बार तुम्हें ऐसा लगेगा कि जब तुम धोखा खाओगे तब तो लगेगा कि सच हो रहा है--क्योंकि तुम्हारी आंखें धोखा खाने की जन्मों-जन्मों से आदी हैं। उन्होंने धोखा ही खाया है। इसलिए धोखा तो सच लगेगा। और बहुत बार इससे उलटा भी होगा, जब सच होने लगेगा तो तुम्हारा मन कहेगा--कहीं धोखा तो नहीं हो रहा है? इसलिए सदगुरु की जरूरत है, कि कोई तुम्हें कह सके कि यह धोखा है और यह धोखा नहीं है।
एक बात खयाल रखना, जो तुम्हारे पुराने अतीत से समायोजन पाता हो, उसमें धोखा हो सकता है। जिससे तुम्हारा मन राजी हो सकता है, उसमें धोखा है। जिससे तुम्हारा मन राजी न हो, बेचैन होने लगे, जिसे तुम्हारा मन आत्मसात न कर सके और जिसके साथ मन सोचने लगे--क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है? मैं पागल तो नहीं हो रहा? कोई भ्रम तो नहीं खा रहा? तब तुम समझ लेना, बहुत संभावना इस बात की है कि सत्य करीब आ रहा है। मन असत्य से इतना रच-पच गया है कि जब सत्य करीब आता है तो उसे धोखे जैसा मालूम होता है।
पूछा तुमने: ‘तेरे इशारे पर मैंने अपना पूरा प्यार उंडेल दिया।’
यह सच है। चेतना को मैं देख रहा हूं। थोड़े ही दिनों में उसका पौधा खूब हरा हुआ है। सब भांति उसने अपने को उंडेलना शुरू किया है। कृपण नहीं है। अपने को रोकने की कोई आकांक्षा भी नहीं है।
यहां वैसे भी लोग हैं, जो पाना सब चाहते हैं, लेकिन खोना बिलकुल नहीं चाहते। ऐसे भी लोग हैं, जो बड़ी छोटी-छोटी बातों में भी मुझसे धोखा कर जाते हैं। यहां आते हैं तो गैरिक वस्त्र पहन लेते हैं, और यहां आते हैं तो बड़े रोते हैं और आंखों से आंसू गिराते हैं। और वे सब आंसू बेकार हैं, क्योंकि घर जाकर वे गैरिक वस्त्र भी छोड़ देते हैं। वे आंसू सब दिखावा हैं। वे सोचते हैं कि इन आंसुओं से मुझे धोखा हो जाएगा!
इस तरह नहीं चलेगा। तुम मुझे धोखा नहीं दे सकोगे--न तुम्हारे आंसुओं से, न तुम्हारे नाच-गान से, न तुम्हारे भजन-कीर्तन से। तुम अगर मेरे साथ हो, तो मेरे साथ होने से जो तकलीफ होती है, उसे भोगना होगा। मेरे साथ होने से जो अड़चन आती है, वह भी झेलनी होगी। तुम्हारे गांव में लोग हंसेंगे, तो वह भी स्वीकार करना होगा। लोग पागल समझेंगे, तो वह कीमत चुकानी है। मेरे साथ अगर पागल होने को राजी नहीं हो, तो यह दृष्टि तुम्हें कभी उपलब्ध न हो सकेगी। तुम अपनी होशियारी से मेरे पास अगर हो, तो खो दोगे, चूकोगे अवसर।
अपनी होशियारी छोड़ ही दो। संन्यास का वही अर्थ है; तुम घोषणा करते हो कि अब मैंने अपनी होशियारी छोड़ी। लेकिन तुम बड़े चालबाज हो। तुम ऐसी-ऐसी तरकीबें निकाल लेते हो कि तुम्हें शायद खुद भी पता न चलता हो। ऐसा नहीं कि तुम मुझे ही धोखा देते हो, तुम्हारी चालबाजियां ऐसी हैं कि तुम अपने को भी धोखा देते हो।
एक मित्र ने पूछा है कि
हम बड़े प्रेम में कभी-कभी आपको गालियां भी देते हैं। आपका इस संबंध में क्या कहना है?
इतना ही कहना है कि इतना प्रेम मैं नहीं सोचता कि अभी तुम्हारे पास होगा। गालियां जरूर देते होओगे, लेकिन प्रेम का तुम धोखा खा रहे हो। प्रेम का तुम अपने को धोखा दे रहे हो। तुम अपने को समझा रहे हो कि प्रेम में दे रहे हैं। जरा गौर से देखना, देने के कारण दूसरे होंगे। देने का मौलिक कारण तो यही होगा कि तुम्हें मेरे साथ झुकना पड़ा है। उसका तुम बदला ले रहे होओगे। और बदला लेने का यही उपाय है। प्रेम से दे रहे हो तो बड़ा अच्छा है। लेकिन प्रेम में देने को सिर्फ तुम्हारे पास गालियां हैं, कुछ और है? फिर अगर प्रेम से दे रहे हो, और तुम्हारे पास सिर्फ गालियां हैं, तो मुझे स्वीकार हैं। लेकिन प्रेम में गाली बचती नहीं। गाली में कहीं न कहीं विरोध है। विरोध को तुम लीप-पोत लेना चाहते हो। मगर तुम्हारे भीतर गाली तो है ही कहीं, तो ही आ रही है।
एक फकीर एक गांव में गया। और उस गांव के लोगों को उससे बड़ा विरोध था। तो उन्होंने एक जूतों की माला बना कर उसको पहना दी। वह फकीर खूब हंसने लगा। गांव के लोग बड़े हतप्रभ हुए। उन्होंने पूछा, मामला क्या है? आप हंस क्यों रहे हैं? उसने कहा कि हंस इसलिए रहा हूं कि आज पता चला कि अभी तक मैं सिर्फ मालियों के गांव जाता रहा, चमारों के गांव पहली दफे आया। यही तो मैं सोचता था कि बात क्या है! जिस गांव में जाता हूं, लोग फूल की माला चढ़ा देते हैं! क्या माली ही माली रहते हैं? आज अच्छा हुआ आ गया। मेरे जूते भी फट गए हैं। तो तुम सब चमार हो? उस फकीर ने कहा, नहीं तो जूते की माला बनाने की सोचते भी कैसे? यह तुम्हें विचार कैसे आया?
अब तुम कहो कि हम जूते की माला बड़े प्रेम में चढ़ा रहे हैं। माला तो प्रेम में ही चढ़ाई जाती है, सो सच है। लेकिन जूते की माला! तो कहीं तुम्हारा चमारपन प्रकट हो रहा है।
गाली मिली तुम्हें देने को प्रेम में? लेकिन होगा कहीं विरोध! और विरोध भी स्वाभाविक है। जिसके सामने झुकना पड़ता है, उससे भीतर एक विरोध हो जाता है, बदला लेने की आकांक्षा हो जाती है।
यह कुछ आकस्मिक थोड़े ही है कि यहूदा ने--उनके प्रमुख शिष्य ने--जीसस को धोखा दिया और सूली पर चढ़वाया। यह बदला था। झुकना पड़ा था इस आदमी के सामने। इस बात को वह कभी माफ नहीं कर सका। पढ़ा-लिखा आदमी था। जीसस के शिष्यों में सबसे ज्यादा पढ़ा-लिखा आदमी वही था। बर्दाश्त नहीं कर पाया। जीसस से ज्यादा पढ़ा-लिखा था और जीसस से ज्यादा संभ्रांत था, ज्यादा सुसंस्कृत था। झुक तो गया, किसी क्षण में झुक गया होगा--चुंबक के क्षण होते हैं, कभी किसी प्रभाव में, जीसस की किसी आभा में, किसी मुख-मुद्रा में, जीसस की आंख की किसी पुकार में झुक गया होगा। लेकिन पीछे पछताने लगा होगा, कि मैं और झुक गया एक आदमी के सामने, जो सिर्फ बढ़ई का बेटा है! कहीं भीतर बात सुलगती रही। वह जीसस की कई घटनाओं में भूलें निकालता रहा।
और तुम अगर उन भूलों को सोचोगे, तो तुम भी यहूदा से राजी होओगे। जैसे एक स्त्री आई और उसने बड़ा बहुमूल्य इत्र जीसस के पैरों पर डाला। वह इतना बहुमूल्य इत्र था कि हजारों रुपये उसकी कीमत थी, उन दिनों भी! जीसस बैठे रहे। उस स्त्री ने अपने बालों से उनके पैर पोंछे। इत्र से पैर धोए, बालों से पोंछे। और उसकी आंखों से आंसू गिर रहे हैं। और यहूदा ने कहा कि यह व्यर्थ की खर्चीली बात है। आपने रोका क्यों नहीं? इतने पैसे से तो न मालूम कितने गरीबों के पेट भर जाते।
अब तुम किससे राजी होओगे? जीसस से या यहूदा से? तुम्हारी बुद्धि भी कहेगी कि बात तो यहूदा ही ठीक कह रहा है। तर्कयुक्त है। लेकिन जीसस ने क्या कहा? जीसस ने कहा: मेरे जाने के बाद भी गरीब रहेंगे, तुम उनकी सेवा पीछे कर लेना। अभी दूल्हा घर में है, उत्सव होने दो।
यह बात किसी और तल की है: अभी दूल्हा घर में है, उत्सव होने दो। गरीब तो सदा से हैं और सदा रहेंगे, सेवा तुम पीछे कर लेना, मेरे बाद कर लेना--मैं ज्यादा दिन यहां नहीं रहूंगा।
और जीसस ज्यादा दिन रहे भी नहीं। इस बात के कहने के तीन महीने बाद ही सूली लग गई। जीसस ने कहा: ज्यादा दिन मैं यहां रहूंगा भी नहीं। जल्दी ही मेरा विदा का क्षण आ जाएगा। हो सकता है इस स्त्री को वह विदा का क्षण दिखाई पड़ रहा था। क्योंकि जीसस को जब सूली से उतारा गया, तो यही स्त्री सूली से उतारते वक्त मौजूद थी, बाकी सब शिष्य भाग गए थे। यहूदा ने तो जीसस को तीस चांदी के टुकड़ों में बेच दिया और बाकी शिष्य भाग गए डर से, कि कहीं अब हमको भी न पकड़ा जाए। जो स्त्री जीसस को सूली से उतारते वक्त मौजूद थी, जो नहीं भागी, वह वही स्त्री थी। वह एक वेश्या थी--मैरी मेग्दलीन--जिसने वह हजारों रुपये का कीमती इत्र जीसस के पैरों में डाला था।
फिर जीसस ने कहा: उसका प्रेम देखते हो, कि तुम सिर्फ इत्र ही देखते हो? और उसे रोकना उसके हृदय को तोड़ना हो जाएगा।
यहूदा भूलें निकालता रहा। आगे-पीछे जीसस के खिलाफ भी बोलता रहा होगा। क्योंकि कोई अचानक एक दिन जाकर और सूली पर नहीं लटकवा देता अपने गुरु को। अचानक! यह भीतर पकती रही होगी बात। भीतर इकट्ठा होता रहा होगा मसाला।
तुम्हारे भीतर भी गालियां हो सकती हैं। और तुम अनेक तरकीबों से उन गालियों को निकालने का उपाय भी खोज लेते हो। फिर अपने को बचाने के लिए तुम सोचते होओगे कि यह तो मैं प्रेम में दे रहा हूं। काश तुम्हारे पास प्रेम होता! तो गालियां खो गई होतीं, पिघल गई होतीं। प्रेमपूर्ण हृदय को गालियां देने का उपाय कहां रहेगा? तुम मुझे भी धोखा देते हो, अपने को भी धोखा देते हो। तुम्हारा धोखा गहरा है।
लेकिन चेतना के संबंध में यह बात कही जा सकती है: न तो वह खुद को धोखा दे रही है, न मुझे धोखा दे रही है। उसने अपने को उंडेला है।
पूछा है: ‘जब तेरी तस्वीर के सामने होती हूं तो तुझमें उसी को देखती हूं।’
उसी को देखना है। जब तक तुम्हें मुझमें मैं ही दिखाई पड़ता रहूं, तब तक तुमने मुझे नहीं देखा। जिस दिन तुम्हें मुझमें वह दिखाई पड़ने लगे, उसी दिन तुमने मुझे देखा।
इस विरोधाभास को खयाल में रखना। जब तक मैं तुम्हें मैं ही दिखाई पडूं, तब तक तुमने मुझे नहीं देखा। जब तक मैं में तुम्हें वह न दिखाई पड़े, तब तक तुमने मुझे नहीं देखा। मैं द्वार बन जाऊं और वह विराट आकाश तुम्हें मुझमें से दिखाई पड़े। और धीरे-धीरे तुम मुझे भूल जाओ और उस विराट आकाश में लीन हो जाओ--तो ही तुम मेरे पास आए!
मेरे पास आने का मतलब है, मुझसे गुजर जाओ। मेरे पास आने का अर्थ है, मेरी सीढ़ी का उपयोग कर लो। यह द्वार खुला है। इस द्वार से अगर तुम झांके, तो तुम परमात्मा को देख पाओगे।
ठीक हो रहा है, चेतना! यह धोखा नहीं है। लेकिन इतनी बड़ी बात घटनी जब शुरू होती है, तो शंकाएं शुरू होती हैं कि पता नहीं क्या हो रहा है? कोई कल्पना तो नहीं? कोई भ्रमजाल तो नहीं? कोई सपना तो नहीं?
नहीं, आंखें धोखा नहीं खा रहीं, आंखें पैदा हो रही हैं, पहली बार आंखें पैदा हो रही हैं। दृष्टि का जन्म हो रहा है।
उनकी याद, उनकी तमन्ना, उनका गम
कट रही है जिंदगी आराम से
शिष्य जैसे-जैसे गुरु के निकट होता है, वैसे-वैसे पीड़ा भी होती है विरह की, मिलन का सुख भी होता है। हंसी भी आती है, आंसू भी गिरते हैं। जिंदगी एक नया पर ले लेती है, नये पंख ले लेती है। अब उदासी में भी एक रौनक होती है। अब विरह में भी मिलन की आभा होती है।
सब्र पर दिल को आमादा किया है लेकिन
होश उड़ जाते हैं अब भी आवाज के साथ
आवाज सुनाई पड़नी शुरू होगी। आंख से सुनी जाती है वह आवाज, खयाल रखना!
क्यों इस झेन फकीर ने कहा कि आंख से सुनोगे तब सुनाई पड़ेगा! बात बड़ी बेबूझ है। सुनता आदमी कान से है, आंख से तो नहीं।
एक और फकीर से किसी ने पूछा, बाबा फरीद से किसी ने पूछा कि सत्य और झूठ में कितना अंतर है? उसने कहा, चार इंच का। उस पूछने वाले ने पूछा, सिर्फ चार इंच का? तो फरीद ने कहा, कान और आंख में जितना अंतर है, बस उतना ही।
कान से सदा दूसरे की बात सुनाई पड़ती है, सदा उधार होती है। और कान से सुनी बात पर भरोसा मत कर लेना। उसी के कारण तो लोग शास्त्रों में उलझ गए हैं, शब्दों में उलझ गए हैं। वह कान ने सुनी गई बात है। आंख पर भरोसा करना। देखे पर भरोसा करना। सुने पर भरोसा मत करना। सुने का कोई प्रमाण नहीं है कि ठीक हो कि न ठीक हो। सुना सुना है।
इसलिए झेन फकीर ने ठीक कहा कि जब तू आंख से देखने लगेगा, तब। तब देख पाएगा उस परमसूत्र को, जिससे सारे बुद्ध पैदा होते हैं, सारे बुद्धों के धर्म पैदा होते हैं!
बस इतनी आरजू है, बादे-फना जनाजा
निकले मेरे मकां से, ठहरे तेरी गली तक
बस भक्त की इतनी ही आरजू है--
बस इतनी आरजू है, बादे-फना जनाजा
निकले मेरे मकां से, ठहरे तेरी गली तक
इस आरजू को चेतना की आंखों में मैंने देखा है। तुम सबकी आंखों में देखना चाहता हूं।
उनकी तस्वीर जब आंखों में उतर आई है
मैंने तारीक फजाओं में जिया पाई है
बस एक तस्वीर उतर आए आंखों में, फिर अंधेरी रातों में रोशनी हो जाती है।
उनकी तस्वीर जब आंखों में उतर आई है
मैंने तारीक फजाओं में जिया पाई है
हुस्न जब होने लगा माइले-इल्ताफो-करम
इश्क की जान पे कुछ और भी बन आई है
आज तक मेरी निगाहों को मयस्सर न हुई
लोग कहते हैं कि गुलशन में बहार आई है
अब जमाने की खबर है न खुद अपना ही पता
मेरी वहशत मुझे क्या जाने कहां लाई है
ऐ निगाहे-गलतअंदाज तेरी उम्र दराज
जिंदगी अब गम-ओ-आलाम की शैदाई है
अब तो आ जा गमे-हस्ती को मिटाने वाले
बस तेरी याद है, मैं हूं, शबे-तन्हाई है
शिष्य की इतनी ही पुकार है, भक्त की इतनी ही पुकार है। भक्त और शिष्य में कुछ भेद नहीं है। जो शिष्य नहीं, वह भक्त नहीं। भक्ति के पाठ गुरु के पास ही सीखे जाते हैं। भक्ति का चरम फल परमात्मा है, लेकिन भक्ति के पाठ गुरु के पास सीखे जाते हैं। गुरु पाठशाला है। उस पाठशाला से उत्तीर्ण हुए बिना कोई परमात्मा को उपलब्ध नहीं होता।
क्या आकांक्षा है शिष्य की? क्या आकांक्षा है भक्त की? बस एक ही कि यह जो उदास रात है, अब टूटे। सुबह हो, किरण फूटे। यह आकांक्षा तो है, यह अभीप्सा तो है, लेकिन कोई अधीरता नहीं है, प्रतीक्षा है। प्रार्थना उसी दिन पूरी होगी, जिस दिन अभीप्सा भी पूर्ण हो और प्रतीक्षा भी पूर्ण हो। जिस दिन मांग भी हो और मांग एक अर्थ में न भी हो। एक तरफ भक्त पुकारता है कि आओ, अब और नहीं सहा जाता। और दूसरी तरफ भक्त कहता है, जब भी आओगे, तब तक प्रतीक्षा करने की मेरी तैयारी है। अनंतकाल में भी आओगे, तो भी मैं प्रतीक्षा करता रहूंगा। तब उसी क्षण घटना घट जाती है।
शुभ हुआ है। पहली दफा आंख खुलनी शुरू हुई है। इस आंख पर भरोसा करो। इस आंख को पूरा बल दो। इस आंख में पूरी ऊर्जा डाल दो। यही आंख दर्शन है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, मैं यह जान कर अत्यंत दुखित हूं कि मेरे एक मित्र जो आगरा से ‘रजनीश-प्रेम’ नाम का अखबार निकालते हैं, उन्हें आश्रम की ओर से अखबार बंद करने के लिए कहा जा रहा है। क्या आश्रम की आप पर मालकियत है? मेरे मित्र तो आपके प्रेम में ही अखबार निकालते हैं। उनकी इच्छा तो बस आपके विचार-प्रसार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। हमने तय किया है कि हम आश्रम के विरुद्ध संघर्ष करेंगे और अखबार निकालना जारी रखेंगे।
कुछ बातें समझ लेना उपयोगी होंगी। और-और संदर्भों में भी उनका काम आएगा।
पहली तो बात खयाल रखना कि मेरे अतिरिक्त यहां कोई आश्रम इत्यादि नहीं है। लड़ोगे तो मुझसे। यह आश्रम का बहाना भी सिर्फ तुम्हारी लड़ने की वृत्ति के कारण है। यहां मेरे अतिरिक्त कोई भी नहीं है। यह आश्रम मेरी देह है। यहां जो भी हो रहा है, वह मेरे इशारे से हो रहा है। अच्छा हो, बुरा हो--सबकी जिम्मेवारी मेरी है। सोए लोगों की जिम्मेवारी हो भी क्या सकती है! जो काम में लगे हैं आश्रम में, वे सोए हुए लोग हैं। वे केवल मेरे इशारे पर चल रहे हैं।
इसलिए खयाल रहे, लड़ना हो तो मजे से लड़ना, लेकिन सब लड़ाई तुम मुझसे ही कर रहे होओगे। और अपने को यह धोखा मत देना कि तुम आश्रम से लड़ रहे हो। तुम मुझे आश्रम से अलग करना ही मत। और आश्रम अलग नहीं है, तो मुझ पर आश्रम का कब्जा क्या होगा? आश्रम मेरा खेल है!
रही बात अखबार निकालने की, तो तुम समझो ठीक से: क्यों रोका जा रहा है?
मैं जो कहता हूं, उसे ठीक प्रामाणिक रूप से लोगों तक पहुंचना चाहिए। संदर्भ के बाहर टुकड़े निकाल-निकाल कर तुम कुछ छाप देते हो, उनका अर्थ बदल जाता है, उनका प्रयोजन बदल जाता है। उनका प्रयोजन उन टुकड़ों को चुनने वाले का प्रयोजन होता है, मेरा प्रयोजन नहीं होता।
इसलिए मैं नहीं चाहता हूं कि कहीं भी देश में कोई प्रकाशन हो, जो मेरी देख-रेख में नहीं हुआ है; अन्यथा वह गलत होगा। उससे नुकसान होगा। उसके परिणाम घातक पहले हुए हैं, अब भी होंगे। पहले तो रोका नहीं जा सकता था, अब रोका जा सकता है, इसलिए रोका जाना चाहिए।
महावीर के पीछे इतना उपद्रव क्यों खड़ा हुआ? क्योंकि दो तरह के लोगों ने शास्त्र लिख लिए थे। बुद्ध के मरते ही छत्तीस संप्रदाय हो गए बुद्ध के, क्योंकि छत्तीस तरह के शास्त्र उपलब्ध थे। बुद्ध ने तो एक ही बात कही थी, लेकिन लिखने वाले अपने-अपने मन से लिख लिए थे। किसी ने कुछ छोड़ दिया था, किसी ने कुछ जोड़ दिया था। किसी को कोई बात महत्वपूर्ण पड़ी थी मालूम, उसने लिख ली थी। किसी को वह बात महत्वपूर्ण नहीं मालूम पड़ी, उसने नहीं लिखी थी। किसी ने कोई अंश लिख लिया था--जो महत्वपूर्ण उसे मालूम पड़ा था--शेष छोड़ दिया था।
बुद्ध के बाद छत्तीस संप्रदाय खड़े हुए, जिनमें संघर्ष चलता रहा; जिनके संघर्ष में बुद्ध धर्म के प्राण निकल गए। बौद्धों का हिंदुस्तान से मर जाना और मिट जाना, हिंदुओं के कारण नहीं हुआ; उनके ही आपसी छत्तीस उपद्रवों के कारण हो गया।
मैं नहीं चाहता कि इस आश्रम के अतिरिक्त कहीं भी कोई और प्रकाशन हो। पहले प्रकाशन यहां होना चाहिए। जो मैं कहता हूं, वह ठीक वैसा ही जाना चाहिए जैसा मैंने कहा है, जितना मैंने कहा है, जिस संदर्भ में कहा है। इसलिए रोका जा रहा है, कोई और कारण नहीं है।
और तुम कहते हो कि मेरे मित्र तो आपको प्रेम करते हैं, इसलिए अखबार निकालते हैं।
अगर मुझको प्रेम करते हैं, तो मेरी सुनेंगे। ‘रजनीश-प्रेम’ अखबार का नाम रख लेने से कोई रजनीश से प्रेम नहीं हो जाता। फिर अगर वे चाहते हैं कि मेरे विचार और प्रसार का काम करें, जरूर करें। इतना साहित्य आश्रम प्रकाशित कर रहा है, उसे लोगों तक पहुंचाएं। और अलग साहित्य की कोई जरूरत नहीं है। मैंने उनका अखबार भी देखा है। वह एकदम गलत-सलत है। उसमें कुछ का कुछ लिखा जा रहा है। टुकड़े कहीं-कहीं से निकाल कर रख देते हैं।
स्मरण रहे, मैं जो भी कह रहा हूं, उसका एक संदर्भ है, एक प्रसंग है। उस प्रसंग के बाहर उसका अर्थ कुछ और हो जाएगा, अनर्थ हो जाएगा। इसलिए इस तरह की कोई प्रवृत्ति नहीं चलने दी जाएगी।
और यह सदा के लिए खयाल रख लो कि यहां जो भी हो रहा है, आगे जो भी होगा, जब तक मैं हूं, तब तक सब मेरे इशारे से हो रहा है। तुम्हें कई बार लगता है कि ऐसा क्यों होगा? तुम्हें कई बार लगता है कि भगवान ऐसा क्यों करेंगे? तुम्हारा लगना और मेरी दृष्टि मेल न खाए, तो तुम यह मत समझना कि कुछ गलत हो रहा है।
उदाहरण के लिए--एक मित्र ने लिखा है पत्र कि मैं आया था बड़ी आशाओं से, कि आपके चरणों में बैठूंगा, सेवा करूंगा। और यहां आकर आपसे मिलने भी नहीं दिया जाता है। आपको क्या बंदी बना लिया गया है?
ऐसा अनेक मित्रों को लगता है। मैं किसी का बंदी नहीं हूं। सिर्फ तुम मेरे चरण न दबा सको ज्यादा--तुमसे मुझे छुटकारा दिलवाया गया है, और कुछ भी नहीं है। सिर्फ तुमसे मुझे स्वतंत्र किया गया है। लेकिन तुम समझते हो, मैं बंदी बना लिया गया हूं। मैं काफी परेशान आ गया हूं पैर दबाने वालों से। क्योंकि वे न समय देखते, न सुविधा देखते। काफी अनुभव के बाद यह इंतजाम करना पड़ा।
वे जो पहरेदार खड़े हैं द्वार पर, वे मुझे बंदी बनाने को नहीं खड़े हैं--मुझे तो जब बाहर जाना होता है तो कोई रोकने को नहीं है--वे सिर्फ तुम्हें नहीं भीतर घुसने देते। लेकिन तुम्हें घुसने दिया नहीं जाना चाहिए। जब जरूरत हो तब तुम्हें जरूर अवसर है। और अवसर की प्रतीक्षा करनी सीखनी चाहिए। नहीं तो मैं बहुत परेशान हो लिया हूं। मैं ज्यादा काम कर सकूं, इसलिए यह व्यवस्था की गई है।
मैं एक दफे ट्रेन में था। रात दो बजे एक आदमी भीतर आ गया। मैं तो सोया था। शिविर से लौटता था उदयपुर से, तो सोया था। कोई बारह बजे तो वहां से ट्रेन चली, तो बस सोया था; कोई दो ही घंटे सो पाया होऊंगा कि देखा कि कोई मेरे पैर दाब रहा है, तो नींद खुली। मैंने पूछा, भई क्या कर रहे हो? उन्होंने कहा कि चरण-सेवा कर रहा हूं।
मगर मेरे चरण हैं, कम से कम मुझसे पूछ तो लेना चाहिए। मुझे इस समय चरण-सेवा करवानी या नहीं करवानी?
वे मुझसे बोले, आप सोइए! अब मुझे कोई नहीं रोक सकता। मैं वहां भी गया था, उदयपुर शिविर में भी, मगर मुझे घुसने ही नहीं दिया। आज की रात है, मैं हूं, आप हैं!
उस आदमी ने रात भर मुझे जगाए रखा। वह सुबह छह बजे तक मेरे पैर दबाता रहा। उसे कई बार समझाया कि भई, तू थक गया होगा। उसने कहा, आप बिलकुल बेफिकर रहिए। आज तो मन भर कर सेवा करूंगा।
अब तुम जानते हो मेरे पचास हजार संन्यासी हैं, अगर ऐसे सब मेरी सेवा करने को उत्सुक हो जाएं, तो बड़ी अड़चन हो जाएगी। और ऐसी अड़चन बहुत बार हो चुकी है।
एक नगर में शिविर ले रहा था। दोपहर को सोया, दिन भर का थका-मांदा, दोपहर को सोया, देखा कि कोई आदमी ऊपर से खप्पड़ उठा लिया है, वह वहां से झांक रहा है। पूछा, भई, क्या कर रहे हो? कहा, दर्शन कर रहे हैं!...यह स्वतंत्रता थी मेरी! अब मैं कैदी हूं! अब वे सज्जन यहां भी आते हैं, वे यहां बड़ी तकलीफ पाते हैं! वे कहते हैं कि यह क्या है? और वे कोई गैर-पढ़े-लिखे गंवार नहीं, वकील हैं।...कि नहीं, मैं तो दर्शन कर रहा हूं! मैंने कहा, दर्शन तुम कभी और कर लेते। उन्होंने कहा, मुझे तो जब आप सोते हैं तब दर्शन करने हैं। सोते में दर्शन करने हैं।
मैं कोई बंदी नहीं हूं। कौन मुझे बंदी बनाएगा? कैसे मुझे बंदी बनाएगा? मुझे कोई कारागृह में भी डाल दे तो भी अब मैं बंदी नहीं हो सकता हूं। अब मैंने उसे जान लिया है जो बंदी होता ही नहीं है। इसलिए तुम इस विचार में मत पड़ जाना कि कोई मुझे रोक रहा है। तुम्हें रोक रहा है--सच। तुम यह मत सोचना कि मुझे कोई रोक रहा है। और तुम्हें जो रोका जा रहा है, वह मेरे ही इशारे से रोका जा रहा है।
यहां इतने लोग हैं, अगर तुम सबको पूरे समय सुविधा रहे, जब तुम्हें आना हो आ जाओ, तो फिर किसी को भी आने का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। ऐसी ही हालत थी। सौ-पचास आदमी मुझे घेरे ही रहते थे। किसी को कुछ पूछना है, पूछ ही नहीं सकता था। एक बोलता, दूसरा बोल देता, तीसरा जवाब भी दे देता! कोई डांटने लगता कि तुम चुप रहो जी, तुम्हें कुछ पता नहीं; पहले कुछ सोचो-समझो, क्या पूछ रहे हो! या कोई उत्तर देता कि कृष्ण ने गीता में ऐसा कहा है। मुझे अवसर ही नहीं था। यह सत्संग कहते थे लोग इसको।
उस सबको मुझे तोड़ना पड़ा। उसकी वजह से मुझे यात्रा भी बंद करनी पड़ी। क्योंकि कोई उपाय न था। जिनके घर मैं ठहरता, वे मुझे परेशान कर देते। दिन भर के बाद मैं घर आया हूं, अब उनकी पत्नी को सत्संग करना है, कि उनकी मां को सत्संग करना है, कि उनके पिता को सत्संग करना है। अब उनका परिवार मेरे पास बैठा है। वे मुझे सोने नहीं देंगे। या उन्होंने पड़ोस के लोगों को इकट्ठा कर लिया है। उनके लिए विशेष आयोजन है। क्योंकि हमारे घर रुके हुए हैं, ये हमारे रिश्तेदार हैं, इन सबसे आपको मिलना होगा। यह सब फिजूल समय खराब करना है, शक्ति व्यय करना है।
यहां सब मेरे इशारे से हो रहा है। अगर तुम्हें मुझसे मिलना होता है, और तीन दिन रोका जाता है, तो उसका भी प्रयोजन है। यह मेरे अनुभव में आया, कि तुम जब मिलना चाहो, तभी तो तुम्हें मिलने ही नहीं देना। क्योंकि अक्सर तुम्हारे प्रश्न इतने फिजूल होते हैं कि दो-तीन दिन टिकते ही नहीं; अपने आप चले जाते हैं; उनके जवाब की कोई जरूरत ही नहीं थी। तीन दिन बाद जब तुम मुझसे मिलने आते हो, मैं पूछता हूं कि कहो, क्या कहना है? तो तुम कहते हो, वह तो मामला खत्म ही हो गया। उसमें कुछ सार नहीं है। अब तो पूछना भी व्यर्थ मालूम होता है। तो जिसको पूछना तीन दिन में ही व्यर्थ हो गया, तीन दिन पहले तुम मेरा समय ही खराब करते। वह उस दिन भी व्यर्थ था। अगर तीन दिन पहले सार्थक था, और सच में सार्थक था, तो तीन जन्मों तक भी सार्थक रहेगा; तीन दिन में व्यर्थ कैसे हो जाएगा?
लेकिन कुछ भी ऊलजलूल तुम्हारे दिमाग में उठा, पहुंच गए! तो तुम्हारे दिमाग की खुजलाहट मिटाने के लिए मैं यहां नहीं हूं। कि तुम्हें जरा सी खुजलाहट उठी कि तुम गए सत्संग करने। थोड़ा धैर्य, थोड़ी प्रतीक्षा!
स्मरण रहे, यहां जो भी हो रहा है, मेरे इशारे से हो रहा है। और कभी भी अगर तुम्हें ऐसा लगे कि तुम्हारी मंशा के विपरीत हो रहा है, तो तुम यही सोचना कि तुम्हारी मंशा ठीक नहीं होगी। और यहां तुम आए हो मेरी मंशा से राजी होने, न कि मुझे तुम्हारी मंशा से राजी करवाने। यहां तुम आए हो मेरे साथ चलने और मेरे साथ बहने, न कि मुझे अपने साथ चलाने। तुम्हारे साथ मैं चलूंगा तो तुम्हें रस बहुत आएगा, आनंद बहुत आएगा, लेकिन मैं तुम्हारे किसी काम न आ सकूंगा; तुम्हारे जीवन में निर्वाण की कोई किरण न उतार सकूंगा। तुम अगर मेरे साथ चलोगे तो शायद उतना रस न भी आए, शायद अड़चन भी मालूम पड़े; चढ़ाई का रास्ता होगा; लेकिन तुम कहीं पहुंचोगे।
मेरी नजर तुम्हारी क्षुद्र आकांक्षाएं पूरी करने की नहीं है। मेरी नजर तुम्हारी विराट अभीप्सा को पूरा करने की है। इन दोनों में चुनना पड़ा है। तुम्हारी क्षुद्र आकांक्षाएं बड़ी फिजूल हैं--कि मेरे घर चलिए, हमारे घर भोजन स्वीकार करिए। तुम्हारी ये फिजूल की आकांक्षाएं हैं। इससे सिर्फ तुम्हारे अहंकार को रस मिलता है, और कुछ भी नहीं, कि मेरे घर भोजन करने आए।
मैं तकलीफ में पड़ गया था। सुबह किसी के घर चाय पीनी पड़ती, दोपहर किसी के घर भोजन करना पड़ता, शाम को फिर किसी के घर चाय पीनी पड़ती, रात फिर किसी के घर भोजन करने जाना पड़ता। और सब जगह भीड़-भाड़! भोजन से किसी को प्रयोजन नहीं। चाय पीना भी दुश्वार! मैं चाय पी रहा हूं, तुम सत्संग कर रहे हो। भीड़ इकट्ठी है! मैंने देखा कि इससे तुम्हें मजा तो खूब आ रहा है, लेकिन लाभ कुछ भी नहीं हो रहा है। मनोरंजन हो रहा है, मनोभंजन नहीं हो रहा है।
मनोरंजन से मुझे क्या लेना-देना है? मनोरंजन के तो बहुत उपाय हैं तुम्हारे लिए। मैं तुम्हारा मनोभंजन करना चाहता हूं। तुम्हारा मन टूट जाए, मिट जाए--ऐसी कीमिया तुम्हें देना चाहता हूं। वह कीमिया देने के लिए सारा विशेष आयोजन किया गया है।
तुमने बुद्ध और महावीर का पूरा उपयोग नहीं उठाया। तुम उठा नहीं सकते थे, क्योंकि तुम इन्हीं फिजूल बातों में उनका समय भी खराब करते रहे। तुम चाहो तो मेरा पूरा उपयोग उठा सकते हो। एक ही आकांक्षा मैं तुम्हारी पूरी करना चाहता हूं कि तुम परमात्मा को जान लो, कि तुम समाधिस्थ हो जाओ; बाकी सब गौण है, बाकी सब फिजूल है। बाकी का कोई मूल्य नहीं है। बाकी तुम्हारे क्षुद्र प्रश्न इत्यादि किसी सार के नहीं हैं। उठते हैं, चले जाते हैं। हवा के झोंके हैं--आएंगे, चले जाएंगे। उनमें इतने परेशान मत हो जाओ, न उनमें इतने चिंतित हो जाओ।
यह आश्रम मेरी काया है। ये मेरे हाथ हैं। यहां जो लोग काम में लगे हैं, उनकी अपनी कोई मर्जी नहीं है, इसीलिए उन्हें काम के लिए चुना है। उनसे बेहतर लोग मौजूद हैं, लेकिन उनकी अपनी मर्जी है, इसलिए उन्हें मैं नहीं चुन सकता।
यह भी तुम खयाल में रखना।
जिनको मैंने काम के लिए चुना है, जरूरी नहीं है कि उनसे बेहतर लोग मौजूद नहीं हैं, उनसे बेहतर लोग हैं, लेकिन उनकी एक ही खराबी है कि उनकी अपनी मर्जी है। उनको चुनो तो वे मेरी मर्जी से कम, अपनी मर्जी से ज्यादा चलेंगे। होशियार हैं, कुशल हैं, जानकार हैं।
अब तुम सोचते हो, लक्ष्मी को बिठाना काम के लिए--जहां धन-पैसे का उपद्रव है; जहां बाजार, राज्य की हजार तरह की झंझटें हैं, लक्ष्मी को क्या पता है इन सबका? मेरे पास बेहतर लोग हैं, व्यवसाय में कुशल लोग हैं, लखपती लोग हैं, जो सब कलाएं जानते हैं, सब तरह से होशियार हैं, कुशल हैं; जिंदगी भर का जिनके पास अनुभव है। लक्ष्मी बिलकुल गैर-अनुभवी, उसको बिठाया है। कुछ कारण होगा। अनुभवियों को नहीं बिठाया है। अनुभवी को बिठाते ही से यह मुझे अनुभव हुआ हमेशा कि वह अपनी चलाता है। वह इतना अनुभवी है कि वह कहता है कि आपको कुछ पता नहीं। वह मुझसे ही आकर कहता है कि आपको कुछ पता नहीं! यह काम ऐसे ही होता है। इसमें रिश्वत देनी पड़ेगी। यह बिना रिश्वत के होगा नहीं। अगर रिश्वत न दी गई तो यह चूक जाएगा। और मैं जानता हूं, वह ठीक कह रहा है। जहां तक संसार का अनुभव है, वह ठीक ही कह रहा है। लेकिन उसे मेरे साथ पूरा तादात्म्य नहीं है। वह इतना नहीं कर सकता कि वह मेरी सुन कर चले। मैं कहता हूं, ठीक है, डूबेगा डूबेगा; रिश्वत मत देना। तब वह ऐसी कोशिश करेगा कि मुझे पता ही न चले और रिश्वत दे दे। उसकी भली ही आकांक्षा है। वह कुछ मेरे खिलाफ नहीं है, मेरे पक्ष में ही करने की सोच रहा है, लेकिन फिर भी कहीं मुझसे उसका तालमेल नहीं बैठ रहा है। उसका समर्पण पूरा नहीं है। उसकी समझदारी इतनी है कि समर्पण में बाधा बन रही है। उसे मैं जो भी कहूंगा, उसमें वह अपनी समझ डाल ही लेगा।
इसलिए बहुत मेरे पास संन्यासी हैं, जो ज्यादा काम के हैं; लेकिन एक अड़चन उनके साथ है--उनका अनुभव ही बाधा बन जाता है। इसलिए मुझे ऐसे लोग चुनने पड़े हैं जिनका कोई अनुभव नहीं है। जिन्होंने न कभी व्यवसाय किया है, न राजकीय काम-धंधा किया है। जिन्होंने कुछ किया ही नहीं है इस तरह का। उनको चुनने का कारण है। कारण यही है कि उनके लिए मेरे अतिरिक्त कोई और समझ नहीं है। मैं उनकी समझ हूं। मैं गलत करने को कहूंगा तो वे गलत करने को राजी हैं, सही करने को कहूंगा तो सही करने को राजी हैं। मैं उनको कुएं में कूदने को कहूंगा तो कुएं में कूदने को राजी हैं। उनका राजीपन!
तुम्हें बहुत बार लगेगा कि वे तुम्हारे जीवन में बाधा डाल रहे हैं। और तुम्हें बहुत बार लगेगा कि तुम उनसे कोई काम ज्यादा ठीक से कर सकते हो। मगर तुम एक बात खयाल रखना कि वे सब बांस की पोंगरी की तरह हैं; उन्होंने छोड़ दिया है। स्वर मेरे हैं; बहते उनसे होंगे। इसलिए तुम उन पर नाराज भी मत होना। उनके साथ व्यर्थ के संघर्ष में भी मत पड़ जाना। क्योंकि उनके साथ संघर्ष करने में तुम मुझसे टूट जाओगे, तुम मुझसे अलग हो जाओगे। और यह काम अब बड़ा होने को है। अब यह काम विराट होने को है। अब यह काम छोटा नहीं है। अब जल्दी ही हजारों और लाखों लोग आने वाले हैं। और मैं चाहता हूं कि यह सारी व्यवस्था ऐसी हो कि इसमें जो भी हो, वह मेरे इशारे से हो। नहीं तो जितनी यह बड़ी व्यवस्था हो जाएगी और इसमें अगर बहुत समझदार लोग जगहों पर बैठ गए और जिन्होंने कहा कि इस तरह होना चाहिए, इस तरह होना चाहिए और मैं सिर्फ एक पूजा का पात्र हो गया, तो नुकसान हो जाएगा। तो तुम्हारी सारी कुशलता इस सारे अवसर को नष्ट कर देगी।
इसलिए तुम अपनी कुशलताएं लेकर मत आओ। जिन्हें मेरे उपकरण बनना हो, वे अपना सारा अनुभव, सारी कुशलता छोड़ दें। उन्हें बिलकुल दिखाई पड़ता हो कि यह ठीक है, यही किया जाना चाहिए, तो भी अगर मैं कहूं तो न करें। क्योंकि मुझे कुछ और दिखाई पड़ता है, जो तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। तुम्हें संसार का अनुभव है, मुझे संसार से पार का अनुभव है। तुम्हें इस दुनिया का अनुभव है, मुझे उस दुनिया का अनुभव है। मुझे उस दुनिया की तरफ तुम्हें ले चलना है। तुम्हारा अनुभव बाधा बन जाएगा।
तो अगर तुम चाहते हो कि मेरे विचार-प्रसार में सहयोगी बनो, तो मेरे अनुकूल बनना पड़ेगा। मेरे प्रतिकूल कोई उपाय नहीं है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, सोचता हूं संन्यास लूं, लेकिन निर्णय नहीं कर पाता हूं। आप ऐसा समझाएं कि इस बार बिना संन्यास लिए न जा सकूं। आपका आकर्षण प्रबल है और बार-बार यहां खिंचा चला आता हूं। पर फिर बुद्धि सक्रिय हो जाती है और वैसा का वैसा लौट जाता हूं।
सोचने से किसी ने कभी संन्यास लिया है? सोचने वाले संन्यास कैसे ले सकते हैं? संन्यास और सोचने में विरोध है। संन्यास सोचने की निष्पत्ति नहीं है। संन्यास सोचने का त्याग है। वही अर्थ है संन्यास शब्द का: सम्यक न्यास।
पुराना संन्यास कहता था: संसार को छोड़ना संन्यास है। मैं तुमसे कहता हूं: विचार को छोड़ना संन्यास है; क्योंकि विचार ही संसार है। तुम सोच-सोच कर तो कभी न ले पाओगे। यह तो पागलों का काम है। इसमें सोचना इत्यादि कहां? सोच-सोच कर तो तुम बार-बार आओगे और लौट जाओगे।
राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है।
बीत गया युग एक तुम्हारे
मंदिर की ड्योढ़ी पर गाते,
पर अंतर के तार बहुत से
शब्द नहीं झंकृत कर पाते,
एक गीत का अंत,
दूसरे का आरंभ हुआ करता है,
राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है।
भाषा के उपहार करेंगे
व्यक्त न मेरी आश-निराशा,
सोच बहुत दिन तक मैं बैठा
मन को मारे, मौन बना-सा,
लेकिन तब थी हालत मेरी
उस पगलाई सी बदली की
बिन बरसे-बरसाए नभ में जो उमड़ी ही रह जाती है।
राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है।
चुप न हुआ जाता है मुझसे
और न मुझसे गाया जाता,
धोखे में रख कर अपने को
और नहीं बहलाया जाता,
शूल निकलने-सा सुख होता
गान गुंजाता जब अंबर में,
लेकिन दिल के अंदर कोई फांस गड़ी ही रह जाती है।
राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है।
तुम्हारी बीन चढ़ी ही रह जाएगी, राग बार-बार उतर जाएगा। विचार से राग चढ़ता ही नहीं। विचार से संगीत कहां? विचार से सत्य का अनुभव कहां?
और तुम पूछते हो कि सोचता हूं संन्यास लूं।
अब सोचना छोड़ो। संन्यास लो या न लो, मगर सोचना छोड़ो। सोचना छूटते ही संन्यास घटित होगा। और तब संन्यास की महिमा अपार है। अगर तुमने सोच-सोच कर किसी दिन ले भी लिया तो वह दो कौड़ी का संन्यास होगा। सोच-सोच कर लिए गए संन्यास का कोई मूल्य हो सकता है? उससे क्रांति नहीं होगी। तुम वैसे के वैसे रह जाओगे। फिर तुम सोचने लगोगे: क्या फायदा हुआ? संन्यास ले लिया, कुछ तो नहीं हुआ। फिर तुम नाराज होओगे कि संन्यास से कुछ सार नहीं है, क्योंकि मैंने संन्यास ले लिया और कुछ नहीं हुआ।
संन्यास में सार नहीं है। संन्यास से गहरा सार विचार के त्याग में है। जो विचार छोड़ कर संन्यास लेता है, जो प्रेम में पागल होकर संन्यास लेता है--तो सार है।
‘सोचता हूं संन्यास लूं।’
सोचो मत। संन्यास मैं तुम्हें दूंगा। संन्यास होगा। मगर तुम सोचो मत।
और रही बात, तुम कहते हो: ‘आप ऐसा समझाएं कि इस बार बिना संन्यास लिए न जा सकूं।’
मैं तुम्हें समझाऊंगा नहीं। संन्यास लेने के लिए मैं समझाता नहीं। और हजार बातें समझाता हूं, संन्यास लेने के लिए नहीं समझाता। उन सारी बातों के साररूप में संन्यास की छलांग घटनी चाहिए। और सब समझाता हूं, सिर्फ संन्यास को छोड़ देता हूं। क्योंकि अगर संन्यास को मैंने समझाया, तो मैं वकालत कर सकता हूं संन्यास की, उसमें कुछ अड़चन नहीं है। वकालत करनी मुझे आती है। असल में, मेरे परिवार के लोग बचपन से ही मुझे वकील बनाना चाहते थे, क्योंकि मैं विवादी बचपन से ही था। सारा गांव मुझसे परेशान था--विवाद के कारण। गांव में कोई सभा नहीं हो पाती थी जहां मैं खड़ा न हो जाऊं, और जहां विवाद खड़ा न कर दूं। गांव में कोई महात्मा आता था, तो महात्मा को लाने वाले मेरे पिता को आकर समझा जाते थे--इसको मत छोड़ देना आज घर से! नहीं तो वहां उपद्रव हो जाता है! मुझे भी रिश्वत दे देते थे, मिठाई दे देते थे--आज महात्माजी आए हैं, तुम उस तरफ मत आना और किसी को लेकर मत आना। क्योंकि मैं अकेला नहीं जाता था, दस-पांच को साथ ले जाता था। मैं उपद्रव करता अगर, विवाद खड़ा करता, तो दस-पांच ताली बजाने वाले भी चाहिए न! और फिर जब दस-पांच ताली बजाते हों, तो वे जो और लोग बैठे हैं, वे भी बजाने लगते कि भई, कुछ, जब इतने लोग साथ हैं तो कुछ मामला होगा।
वकालत मुझे आती है। तर्क भी मुझे आता है। मैं तर्क का ही अध्यापक था। इसलिए उसमें कुछ बहुत अड़चन नहीं है। तुम्हें समझा दे सकता हूं। समझा-बुझा कर तुम्हें संन्यास पकड़ा भी दे सकता हूं। मगर वह दो कौड़ी का होगा। उसका कोई मूल्य नहीं है। यह तो प्रेम की छलांग है। यह तो पागलपन की अभिव्यक्ति है।
कहते हो: ‘आपका आकर्षण प्रबल है और बार-बार यहां खिंचा चला आता हूं।’
तो उसी आकर्षण को और प्रबल होने दो। यहां खिंचे चले आते हो, धीरे-धीरे और पास आओगे, और पास आओगे। बैठते-बैठते मेरे पास, यह शराब रंग लाएगी। यह मधुशाला है, यहां इतने पियक्कड़ बैठे हैं। तुम कब तक, तुम कब तक ऐसे बिना पीए चले जाओगे? यहां इतनी ढल रही है, लुंढ रही है! इधर लोग मस्त हो रहे हैं! तुम कब तक ऐसे सिकुड़े-सिकुड़े बैठे रहोगे? एक न एक दिन तुम प्याली हाथ में ले लोगे। झिझकोगे, सोचोगे, विचारोगे--मगर पी जाओगे।
संन्यास शराब जैसा है। फिर लग गई लत तो लग गई। संक्रामक है। इन गैरिक व्यक्तियों के बीच बैठते रहो, उठते रहो, आते रहो, जाते रहो। जल्दी कुछ भी नहीं है। पकने दो।
यह घटना ऐसी घटनी चाहिए जैसी प्रेम में घटती है। देखा एक स्त्री को--पहली नजर का प्रेम कहते हैं न! देखा कि बस हो गया! देखा एक पुरुष को कि हो गया! पूछा नहीं नाम, पूछा नहीं पता, पूछा नहीं गांव, पूछा नहीं ठांव--बस कुछ हो गया! ऐसी ही कुछ बात मेरे-तुम्हारे बीच हो तो गई है--नहीं तो खिंचे कैसे चले आते? मगर ज्यादा बुद्धिमान मालूम होते हो। आते हो, बुद्धि की आड़ लेकर आते हो। बैठते भी होओगे दूर-दूर, वहां जहां मुझे दिखाई न पड़ो। अब मैं तुमको देख रहा हूं, कहां बैठे हो! ऐसे बच न सकोगे। अब नाम तुम्हारा नहीं लूंगा, नहीं तो ये लोग बहुत हंसेंगे और तुम्हें पकड़ेंगे। हालांकि मैं जहां देख रहा हूं, वे लोग भी देख लेंगे कि कौन है।
धार थी तुममें कि उसको आंकते ही, हो गया बलिहार था मैं।
शौक खतरों-जोखिमों से खेल करने का नहीं मेरा नया था,
किंतु चुंबक से खिंचा जैसा
तुम्हारे पास क्यों आ गया था,
कुछ समझने, खयाल करने का
कहां था तब समय, अब सोचता हूं,
धार थी तुममें कि उसको आंकते ही, हो गया बलिहार था मैं।
आग उसकी है, उसे जो बांह में ले
दाह झेले, गीत गाए,
धार उसकी, जो बुझाए प्यास
उसकी रक्त से औ’ मुस्कुराए
वक्त बातों में नहीं आता, परीक्षा
सख्त लेता हर किसी की,
और उसके वास्ते तो जिंदगी में सर्वदा तैयार था मैं।
धार थी तुममें कि उसको आंकते ही, हो गया बलिहार था मैं।
धार तो है यहां। बिजली सा यह जो मैं कौंध रहा हूं तुम्हारे सामने, तुम कब तक आंखें चुराओगे? तुम कब तक भागे-भागे रहोगे? कब तक आंख बंद रखोगे?
आते रहो, जाते रहो! यह घटना घटने वाली है। इसकी मैं भविष्यवाणी किए देता हूं। संन्यास मेरी तरफ से तो हो ही गया है, इसीलिए तो तुम आते हो। मैंने तुम्हें चुन ही लिया है, इसीलिए तो तुम आते हो। तुम्हारी तरफ से देर हो रही है, मेरी तरफ से देर नहीं है।
आज इतना ही।
भगवान, धर्म क्या है? और आप कैसा धर्म पृथ्वी पर लाना चाहते हैं?
धर्म का अर्थ है: स्वभाव की स्फुरणा। जो छिपा है, उसका प्रकट हो जाना। जो गीत तुम्हारे हृदय में पड़ा है, वह गाया जा सके। जो तुम्हारी नियति है, वह पूरी हो सके।
और प्रत्येक की नियति थोड़ी-थोड़ी भिन्न है। इसलिए ऊपर से आरोपित कोई भी आचरण धर्म नहीं हो पाता। धर्म की आधारशिला यही है--अंतःस्फूर्त हो। और यही भूल हो गई है। और इसी भूल को मैं सुधारना चाहता हूं।
बहुत बार धार्मिक चेतना का जन्म हुआ है, लेकिन ज्योति खो-खो गई। बुद्ध में जला दीया और बुझ गया। महावीर में जला और बुझ गया। कृष्ण में और क्राइस्ट में, जरथुस्त्र और मोहम्मद में जला और बुझ गया। दीया जलता रहा है, बार-बार जलता रहा है। परमात्मा मनुष्य से हारा नहीं। मनुष्य हारता गया और परमात्मा की आशा नहीं टूटी है। परमात्मा ने फिर-फिर कोशिश की है--मनुष्य तक पहुंचने की, मनुष्य को खोज लेने की। मनुष्य कितने ही गहन अंधकार में हो, उसकी किरण आती रही है, उसका इशारा आता रहा है। उसके पैगंबर आते रहे हैं, उसका पैगाम आता रहा है। लेकिन कहीं कोई एक बुनियादी भूल होती रही। उस भूल को समझोगे, तो मैं क्या करना चाहता हूं, वह तुम्हें स्पष्ट हो जाएगा। उस भूल को सुधारने की ही तरफ सारा आयोजन है।
भूल ऐसी हुई--सहज है, होनी ही चाहिए थी, बचा नहीं जा सकता था; इसलिए जिनसे हुई उन्हें दोषी नहीं दे रहा हूं करार। होनी ही थी; अपरिहार्य थी। महावीर को ध्यान उपलब्ध हुआ। स्वभावतः ध्यान व्यक्ति के आचरण को बदल देता है। बदलेगा ही। अगर ध्यान आचरण को न बदलेगा तो कौन बदलेगा? सब बदल जाता है। ध्यान के साथ ही उठना-बैठना, सोना-जागना, सब बदल जाता है। लेकिन हमें ध्यान तो दिखाई पड़ता नहीं, वह तो अंतर्तम में घटता है, वैसी तो आंख हमारे पास नहीं, वैसी गहरी तो परख हमारे पास नहीं। हमें दिखाई पड़ता है आचरण। आचरण बाहर है। आचरण ध्यान का बहिर-अंग है। ध्यान के साथ आचरण रूपांतरित होता है, लेकिन हमें दिखाई पड़ता है आचरण रूपांतरित होता हुआ। स्वाभाविक, हमारे अहंकार की भाषा में, जहां हम कर्ता बने बैठे हैं, यह प्रतिध्वनि उठती है कि हम भी ऐसा ही आचरण बना लें। हम भी महावीर जैसे हो जाएं। बस वहीं भूल हो जाती है।
महावीर की अहिंसा स्वतःस्फूर्त, तुम्हारी अहिंसा ऊपर से आरोपित। दोनों में जमीन-आसमान का भेद हो गया। महावीर की अहिंसा पैदा हो रही है भीतर जन्मे प्रेम के कारण। तुम्हारी अहिंसा पैदा हो रही है नरक के भय के कारण, स्वर्ग के लोभ के कारण। महावीर में न तो नरक का भय है, न स्वर्ग का लोभ है। महावीर में कैसा नरक का भय? कैसा स्वर्ग का लोभ? नरक का भय और स्वर्ग का लोभ ही तो संसार की दशा है, सांसारिक चित्त की आकांक्षा है। कष्ट न हो, सुख हो, यही तो नरक और स्वर्ग। दुख से बचूं और सुख को पा लूं; दुख कभी न आए और सुख ऐसा आए कि कभी न जाए, यही तो सांसारिक मन की मनोकांक्षा है, यही तो महत्वाकांक्षा है। कहो इसे वासना, तृष्णा, या और कोई नाम दो।
महावीर में कोई न तो नरक का भय है, न स्वर्ग की कोई आकांक्षा है। चित्त शांत हो गया, चित्त मौन हो गया, तरंगें उठतीं नहीं अब, समाधि फलित हुई है, वहां केवल साक्षीभाव रह गया है, वहां केवल द्रष्टा विराजमान है। इस द्रष्टा में कोई तरंग नहीं है--कोई विचार नहीं, कोई भाव नहीं, कोई वासना नहीं, कोई तृष्णा नहीं। न कहीं जाना है, न कुछ होना है। कोई भविष्य नहीं, कोई अतीत नहीं। सब ठहर गया है। संसार ठहर गया है।
इस ठहरेपन का नाम कृष्ण ने कहा--स्थितप्रज्ञ, जिसकी प्रज्ञा थिर हो गई है। स्थिर धीः, जिसकी धी स्थिर हो गई है। जैसे कोई दीया जलता हो ऐसे स्थान में जहां वायु का कोई झोंका न आए, निर्वात भवन में दीया जलता हो, कोई कंप न उठता हो; लहर न उठती हो, ज्योति अकंप हो।
इस अकंप ज्योति का परिणाम यह है कि महावीर के जीवन में अहिंसा है। यह प्रेम का प्रतिफल है। यह भीतर जो बोध हुआ है, यह जो अनुभव हुआ है जीवन का, इस जीवन के अनुभव के साथ ही सारा जीवन सम्मानित हो गया है। यह मेरा ही जीवन है। इसमें कहीं भेद नहीं है। जब भी तुम किसी को मारते हो, अपने को ही मारते हो। और जब भी किसी को दुख देते हो, अपने को ही दुख देते हो। ऐसा महावीर को दिखाई पड़ा है। क्योंकि मैं ही मैं हूं। पत्थर में, पहाड़ में, चांद-तारों में एक का ही विस्तार है। ऐसी प्रतीति का परिणाम है अहिंसा।
लेकिन बाहर से जिन्होंने देखा, उन्हें तो यह प्रतीति दिखाई नहीं पड़ी कि प्रेम का आविर्भाव हुआ है, कि एकात्म-बोध हुआ है, कि परमात्मा की अनुभूति हुई है, कि समाधि फली है--यह तो कुछ भी न दिखा। उन्हें दिखा कि महावीर पैर फूंक-फूंक कर रखते हैं, चींटी भी न मर जाए। पानी छान कर पीते हैं। कच्चा फल नहीं खाते। पका फल जो वृक्ष से अपने से गिर जाए। कच्चे फल को तोड़ो तो पीड़ा तो होगी। कच्चा है, अभी जुड़ा है, अभी टूटने का क्षण नहीं आया है। इसलिए महावीर पके फल का ही भोजन लेते हैं।
यह तो महावीर के भीतर की अंतर्दशा का बहिर्प्रतिफलन है। हम जो बाहर से देखते हैं, उनको लगता है कि यह आदमी पैर फूंक-फूंक कर रखता है, रात करवट भी नहीं लेता है कि कहीं कोई कीड़ा-मकोड़ा न दब जाए, गीली भूमि में नहीं चलता क्योंकि गीली भूमि में कीटाणु होते हैं, पानी छान कर पीता है, रात भोजन नहीं करता, हमें ये बातें दिखाई पड़ीं। हमने इस पर सारा धर्म खड़ा कर लिया। बस धर्म झूठा हो गया। महावीर का धर्म पैदा हुआ था समाधि से, ध्यान से। हमारा धर्म पैदा हुआ है महावीर को बाहर से देखने से। हमने सोचा, चींटी पर पैर न पड़े, पानी छान कर पीओ, रात भोजन न करो, हिंसा मत करो, मांसाहार मत करो--बस, हम भी उसी अवस्था को उपलब्ध हो जाएंगे जिसको महावीर हुए हैं।
तुम इस तरह उपलब्ध न हो सकोगे।
ध्यान रहे यह सूत्र: भीतर के अनुसार बाहर को चलना पड़ता है; बाहर के अनुसार भीतर नहीं चलता। भीतर मालिक बैठा है, बाहर तो सब छाया है।
ऐसा समझो, मैं जहां जाता हूं, मेरी छाया भी मेरे पीछे आती है। लेकिन इससे उलटा नहीं हो सकता कि मेरी छाया जहां जाए, उसके पीछे मैं जाऊं। छाया तो जाएगी कहां? छाया छाया है। तुम मेरी छाया को कहीं ले जाओगे, उससे तुम मुझे न ले जा सकोगे। लेकिन अगर तुम मुझे ले जाओ तो छाया भी चली जाएगी। छाया को जाना ही होगा। महावीर के भीतर तो समाधि फली, आचरण में छाया झलकी। हमने छाया पकड़ी। वहीं धर्म झूठा हो गया।
फिर तुम महावीर जैसे नहीं हो। कोई महावीर जैसा नहीं है। इसलिए तुम्हारे ऊपर आचरण जबर्दस्ती हो गया। उससे तुम्हारे भीतर तालमेल भी नहीं बैठा। जबर्दस्ती होने के कारण तुम दुखी और उदास हो गए। दुखी-उदास होने के कारण धर्म का उत्सव समाप्त हो गया। धर्म रुग्णचित्त लोगों की बात हो गई। धर्म ऐसे लोगों की बात हो गई जो अपने को सताने में रस लेते हैं; या फिर ऐसे लोगों की बात हो गई जो अपने को सता कर तुम्हारा सम्मान लेते हैं।
तुम्हारे मंदिर, गिरजों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में बैठे हुए लोग--जो तुम्हारे सम्मान के पात्र हो गए हैं--तुम खयाल रखना, वे सम्मान के पात्र होने के लिए ही सारा आयोजन किए हैं, और कुछ भी नहीं है। तुम चाहते हो, उपवास वाले को हम सम्मान देंगे--क्योंकि तुम्हारी धारणा है, जो उपवास करेगा वह महावीर जैसा हो जाएगा। निश्चित महावीर ने उपवास किए थे। लेकिन किए थे, यह कहना महावीर के संदर्भ में ठीक नहीं, उपवास हुए थे। मुनि कर रहा है। बस वहीं फर्क हो गया। होने और करने में जमीन-आसमान का फर्क है। भीतर ऐसी तल्लीनता बंध गई थी कि कभी-कभी उपवास हो गया था। याद ही न आई थी। मुझसे भी हुए हैं, इसलिए तुमसे कहता हूं। मैंने कभी उपवास नहीं किया, लेकिन हुए जरूर। कभी ऐसी बंध गई लौ भीतर कि याद ही न आई बाहर भोजन करने की। मन ऐसा मुग्ध हुआ भीतर कि बाहर के सारे द्वार-दरवाजे अपने से बंद हो गए! उपवास हुआ। पता भी नहीं चला कब हो गया। जब टूटा तभी पता चला। जब भीतर की चेतना फिर बाहर लौटी, तब याद आया कि दो दिन निकल गए हैं, भोजन नहीं हुआ।
फिर उपवास करने वाले लोग हैं। वे थोप लेते हैं उपवास को। वे जबर्दस्ती शरीर को सता लेते हैं। फिर उनके सताने में एक ही रस हो सकता है--भीतर का तो कोई रस नहीं है--अब उनके सताने में एक ही रस हो सकता है: उनके अहंकार को बाहर से आदर मिले, सम्मान मिले। कोई कहे कि तपस्वी हैं, कोई घोषणा करे कि महात्मा हैं।
तो धर्म, जो स्वभाव है, वह धीरे-धीरे आचरण का रूप ले लेता है। वह नीति बन जाता है। धर्म का पतन है नीति। नीति धर्म नहीं है। और ध्यान रहे, धार्मिक व्यक्ति नैतिक होता है, लेकिन नैतिक व्यक्ति धार्मिक नहीं होता। अंतस के पीछे आचरण चलता है, आचरण के पीछे अंतस नहीं चलता।
तो धर्म का अर्थ है स्वभाव। और प्रत्येक में थोड़ा-थोड़ा भेद है। इसलिए प्रत्येक की धर्म की यात्रा थोड़ी-थोड़ी भिन्न होगी। व्यक्ति को ध्यान में रखना। लेकिन जब बाहर से आचरण के नियम बनाए जाते हैं, तो फिर कोई ध्यान में नहीं रखा जाता। बाहर से जो नियम बनाए जाते हैं, वे तो सभी के लिए एक से होंगे। उनमें फिर किसी का ध्यान न रखा जाएगा। वे व्यक्ति के अनुकूल नहीं होते, व्यक्ति को ध्यान में रख कर नहीं होते, सार्वजनीन होते हैं। सभी सार्वजनीन नियम घातक होते हैं।
इसलिए मैं यहां किसी को कोई नियम नहीं दे रहा हूं, सिर्फ बोध दे रहा हूं। आंख दे रहा हूं, आचरण नहीं दे रहा हूं। इशारे दे रहा हूं, जड़ मंतव्य, वक्तव्य नहीं दे रहा हूं। उपदेश दे रहा हूं, आदेश नहीं दे रहा हूं। समझने की क्षमता दे रहा हूं, फिर जीना तुम अपने ढंग से। चंपा चंपा के ढंग से खिलेगी और कमल कमल के ढंग से खिलेगा। कमल पानी में खिलेगा और चंपा को पानी में खिलाना चाहोगे--मार डालोगे, सड़ा डालोगे। और कमल को चंपा की जगह खिलाना चाहोगे--कैसे खिलेगा?
इतने ही भेद हैं व्यक्तियों में। खिलना सबको है। खिलने का अर्थ एक ही है। परम अवस्था में जो खिलाव होता है, वह तो एक ही है; लेकिन उस तक पहुंचने की जो यात्राएं हैं, वे बड़ी भिन्न हैं।
और फूलों के रंग अलग होंगे, फूलों के ढंग अलग होंगे, फूलों की गंध अलग होगी--खिलाव एक होगा। उस खिलाव का नाम परमात्मा है। लेकिन और सब अलग होगा।
जो लोग बाहर से नियम और आचरण बनाते हैं, उन्हें यह बात याद ही नहीं रह जाती। फिर आचरण के नियम इतने महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि हर एक को उन नियमों के अनुसार होना चाहिए।
ऐसा समझो कि दर्जी ने कपड़े पहले बना लिए। उसने एक हिसाब से कपड़े बना लिए। उसने पता लगा लिया कि पूना में औसत लंबाई कितनी है। सब आदमियों की लंबाई नाप ली गई, औसत लंबाई पा ली उसने; औसत मोटाई पा ली उसने। अब इस औसत में बड़ा धोखा है। इसमें छोटे बच्चे भी हैं, इसमें बड़े-बूढ़े भी हैं; इसमें लंबे आदमी भी हैं, इसमें ठिगने आदमी हैं; इसमें मोटे आदमी हैं, इसमें दुबले आदमी हैं--इसमें सब तरह के आदमी हैं। इन सबका हिसाब लगा लिया, सबका जोड़ लिया; सबकी लंबाई जोड़ ली, फिर सबका भाग दे दिया; सबकी मोटाई जोड़ ली और सबका भाग दे दिया; फिर औसत आदमी के कपड़े बना लिए।
अब औसत आदमी कहीं होता नहीं, खयाल रखना। औसत आदमी सिर्फ गणित में होता है, जीवन में नहीं होता। अब औसत आदमी आ गया। इस औसत आदमी की ऊंचाई चार फीट छह इंच। उसने कपड़े तैयार कर लिए। इस औसत आदमी की एक मोटाई है, उसने कपड़े तैयार कर लिए। अब तुम गए; तुम औसत आदमी नहीं हो। तुम छह फीट के लंबे आदमी हो। चार फीट छह इंच के कपड़े हैं। वह कहता है: तुम गलत हो। तुम औसत से भिन्न! तुम नियम के विपरीत! आओ तुम्हें मैं छांट दूं।
या हो सकता है, तुम चार ही फीट के हो, ठिगने हो बहुत; तो वह कहता है: आओ तुम्हें जरा खींचतान कर बड़ा कर दूं। कपड़े महत्वपूर्ण हो गए, आदमी का कोई ध्यान न रहा।
मेरे लिए व्यक्ति का मूल्य है। मेरा मन व्यक्ति के प्रति परम सम्मान से भरा है। मैं तुम्हारे लिए कोई कपड़े नहीं बनाता। तुम्हें बिना सिला कपड़ा दे रहा हूं। तुम अपने कपड़े बना लेना। वह बिना सिला कपड़ा समझ है। फिर समझ के अनुसार तुम अपने कपड़े बना लेना। कपड़े तुम्हीं बनाना! किसी और के आधार पर बनाए गए कपड़े कभी तुम्हें ठीक न आएंगे--या तो ढीले होंगे, या चुस्त होंगे, या लंबे होंगे, या छोटे होंगे, कुछ न कुछ गड़बड़ रहेगी; और तुम हमेशा बेचैनी अनुभव करोगे।
इसलिए तुम्हारे तथाकथित धार्मिक आदमी बेचैन मालूम होते हैं। महावीर का कपड़ा पहने हुए हैं। महावीर जैसा व्यक्तित्व नहीं है। बैठे हैं आंख बंद किए, आंख बंद नहीं होती। खड़े हैं नग्न, और सकुचा रहे हैं, और भीतर बड़ी ग्लानि हो रही है, और बड़ी घबड़ाहट भी हो रही है कि यह मैं क्या कर रहा हूं! कोई देख न ले! कोई क्या कहेगा? पागल न समझे! या तुम मंदिर में पूजा कर रहे हो, प्रार्थना कर रहे हो--और प्रार्थना में तुम्हारा हृदय नहीं है। लेकिन कर रहे हो; तुम्हारे परिवार में होती रही है। तुम सिर्फ औपचारिकता निभा रहे हो। धर्म झूठा हो जाता है औपचारिकता में।
धर्म होना चाहिए तुम्हारे अंतःकरण से निष्पन्न। तुम अपना धर्म खोजो। न तो हिंदू धर्म तुम्हारा धर्म है, न ईसाई धर्म तुम्हारा धर्म है। ईसाई धर्म है जीसस के आधार से बनाए गए कपड़े। और हिंदू धर्म है कृष्ण के या राम के आधार से बनाए गए कपड़े। और जैन धर्म है महावीर के आधार से बनाए गए कपड़े। इसीलिए तुम इतने बेहूदे और बेढंगे मालूम हो रहे हो। इसीलिए पृथ्वी धर्म-शून्य हो गई है। सब कपड़े पहने हैं, लेकिन सब गलत कपड़े पहने हुए हैं।
तुम अपने कपड़े बनाओ! समझ तुम्हें देता हूं, दृष्टि तुम्हें देता हूं, ध्यान तुम्हें देता हूं, भक्ति, प्रेम तुम्हें देता हूं--फिर तुम अपने जीवन का आचरण खुद ही निर्मित करो। और तब तुम्हारे भीतर एक उत्फुल्लता होगी। नहीं तो बड़ी छोटी-छोटी बातें बड़ा कष्ट देती हैं।
एक सज्जन मेरे पास आए। वे कहते हैं कि मुझसे क्या होगा? मैं बड़ा पापी हूं, अपराधी हूं!
मैंने कहा, तुम्हारा अपराध क्या? पाप क्या? आदमी भले मालूम पड़ते हो। तुम्हारी आंखें देखता हूं तो ऐसी कोई पापी की आंखें नहीं मालूम पड़तीं। तुम्हारे चेहरे पर पाप का कोई निशान भी नहीं मालूम पड़ता।
उन्होंने कहा, नहीं आपको साहब पता नहीं! आठ बजे सोकर उठता हूं।
अब इस व्यक्ति ने किताबें पढ़ ली हैं, जिनमें लिखा है कि ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए; ब्रह्ममुहूर्त में उठना पुण्य है। अब आठ बजे सोकर उठता है, इसलिए ग्लानि से भरा है। पांच बजे सोकर उठने में कोई ऐसी धार्मिकता नहीं है। क्या धार्मिकता होगी? सब समय समान है। अब इसकी अड़चन यह है कि इसको दो बजे रात तक तो नींद ही नहीं आती। अब जो आदमी दो बजे तक सो न सके, वह अगर आठ बजे तक सोए तो कुछ हैरानी तो नहीं है। जिन गुरुओं के पास जाता रहा होगा, वे कहते हैं कि नौ बजे सो जाओ। वह कहता है, मैंने कोशिश भी कर ली, मैं पड़ भी जाता हूं बिस्तर पर, मगर नींद जब आती है तब आती है। और वह दो बजे आती है नींद, और वह नौ बजे से लेकर दो बजे तक पड़े रहना और भी कष्टपूर्ण हो जाता है। करवटें बदलता हूं, परेशान होता हूं--और ग्लानि भरती है कि मुझ जैसा पापी कौन! नींद भी नहीं आती समय पर! सुबह उठता हूं तो आठ बजे, नौ बजे। तब चित्त प्रसन्न रहता है। अगर जल्दी उठ आता हूं तो दिन भर उदासी और तनाव और मस्तिष्क में बोझ बना रहता है।
अब इसको पापी करार दे दिया। वह शिवानंद का शिष्य था। शिवानंद के पास गया। उन्होंने कहा, यह तो नहीं चलेगा। ब्रह्ममुहूर्त में तो उठना ही चाहिए।
अब कुछ लोग ऐसे हैं जिनको तीन बजे के बाद नींद नहीं आती। जिनको दो बजे के पहले नींद नहीं आती, उनको तुम पापी बना देते हो; और जिनको तीन बजे के बाद नींद नहीं आती, उनको तुम पुण्यात्मा बना देते हो! ऐसे लोग हैं जो तीन बजे के बाद तड़फते हैं उठने के लिए। उन्हें कोई बहाना मिल जाए तो वे जल्दी से उठ आएं। उनकी नींद पूरी हो गई है।
मेरे हिसाब में कोई पापी नहीं, कोई पुण्यात्मा नहीं। यह भी कोई बात है! आठ बजे उठे तो आठ बजे उठे। जो सुगम मालूम होता है, जो शरीर को स्वाभाविक मालूम होता है, जो तुम्हारी प्रकृति को अनुकूल आता है, वही धर्म है। और यही हर चीज के संबंध में मैं तुमसे कहना चाहता हूं। जीवन में किसी भी चीज से अकारण पाप इत्यादि की धारणाएं मत पकड़ लेना। क्षुद्र बातों में मत उलझ जाना। यहां बड़ा विराट कुछ करने को तुम्हारा होना हुआ है। तुम छोटी-छोटी बातों में मत उलझ जाना।
दुनिया के सारे धर्म छोटी-छोटी बातों के विस्तार में उलझ गए हैं। विस्तार इतना हो गया है कि मूल खो गया है। मुझे जैन मुनियों ने कहा कि हमें फुर्सत ही नहीं ध्यान करने की। क्योंकि और सब नियम का पालन करते-करते समय कहां बचता है?
यह तो हद हो गई! ध्यान करने को आदमी मुनि होता है। मुनि का अर्थ होता है: जो मौन सीखने गया, जो मौन होने गया। वह ध्यानी का ही एक रूप है। लेकिन ध्यानी होने गए थे, और दूसरी चीजों में उलझ गए। गए थे राम भजन को, ओटन लगे कपास। और वे कहते हैं: फुर्सत नहीं मिलती! यही तो दुकानदार कहता है कि फुर्सत नहीं मिलती। और यही अगर मुनि कहे कि फुर्सत नहीं मिलती ध्यान को...! क्योंकि और नियम ऐसे हैं। उन नियमों में ही झंझट खड़ी हो जाती है। उन नियमों में ही सारा समय चला जाता है। थोड़ा-बहुत समय बचता है, वह उपदेश में लगाना पड़ता है।
खुद पाया नहीं है, उपदेश क्या दे रहे हो? किसको दे रहे हो? खुद भटके हो, औरों को भटकाओगे? यह तो सुनिश्चित पाप है। यह बड़े से बड़ा पाप है कि तुमने न जाना हो और किसी को तुम उपदेश दो। इससे बड़ा पाप और क्या होगा? एकाध दिन अगर रात पानी पी लो, तो मैं नहीं समझता इतना बड़ा पाप है; कि एकाध दिन भूख लग आए और रात एकाध फल खा लो, तो कोई इतना बड़ा पाप है! मगर बिना जाने, बिना अनुभव किए तुम सैकड़ों लोगों को समझा रहे हो, मार्ग दे रहे हो, चला रहे हो--जिन मार्गों पर तुम कभी चले नहीं--इससे बड़ा पाप क्या होगा?
तुम देखते हो, जिस आदमी के पास डाक्टर का प्रमाणपत्र नहीं है और वह दवाइयां बांटता हो, तो खतरनाक है। मगर उसकी दवाइयां तो ज्यादा से ज्यादा शरीर को नुकसान पहुंचा सकती हैं। लेकिन जिन्होंने ध्यान नहीं जाना है, ये मार्गदर्शन दे रहे हैं। इनकी औषधियां जन्मों-जन्मों तक तुम्हें भटका सकती हैं। भटका रही हैं। और इन्हें ग्लानि भी नहीं पकड़ती, इन्हें अपराध का भाव भी नहीं पकड़ता, क्योंकि ये सिर्फ नियम का पालन कर रहे हैं। साधु को कहा गया है कि उसे इतना उपदेश तो देना ही चाहिए; उसे इतने नियम तो पालन करने ही चाहिए; उसे इतने बजे उठ आना चाहिए; उसे इतने बजे मलमूत्र विसर्जन को जाना चाहिए; उसे इतना अध्ययन करना चाहिए; उसे इतना शास्त्र का पाठ करना चाहिए। इसी सबमें उलझा डाला है।
मैं तुम्हें कोई आचरण नहीं देना चाहता। मैं तुम्हें कोई अनुशासन नहीं देना चाहता। मैं तुम्हें स्वतंत्रता देना चाहता हूं। मैं तुम्हें समस्त सिद्धांतों से स्वतंत्रता देना चाहता हूं। मैं तुम्हें उत्तरदायी बनाना चाहता हूं। तुम मेरी बात समझना।
स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं होता कि मैं तुम्हें उच्छृंखल बनाना चाहता हूं। मैं तुम्हें उत्तरदायी बनाना चाहता हूं। मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि तुम्हारा जीवन मूल्यवान है। इसको ऐसे मत गंवा देना। इसे हर किसी की बात मान कर मत गंवा देना। इसे हर किसी के कपड़े पहन कर मत गंवा देना। तुम्हारा जीवन कीमती है। परमात्मा तुमसे पूछेगा: क्या किया जीवन का? तो तुम उत्तरदायी होओगे, तुम्हारे मुनि महाराज नहीं; और न तुम्हारे साधु, और न तुम्हारे महात्मा; कोई उत्तर नहीं देगा, तुम्हें उत्तर देना पड़ेगा। तुम्हारे लिए तुम्हीं जी रहे हो, तुम्हारे लिए तुम्हीं मरोगे, और तुम्हारे लिए तुम्हीं उत्तरदायी हो। इसलिए अपने जीवन को इस ढंग से जीना कि तुम उत्तर दे सको।
और कौन निर्णय करेगा कि तुम कैसे जीओ? तुम कब उठो, क्या खाओ, क्या पीओ--कौन निर्णय करेगा? किसी को हक भी नहीं है। यह गुलामी छूटनी चाहिए।
मेरे लिए धर्म है स्वभाव और स्वभाव की परम स्वतंत्रता। तुम अपना छंद स्वयं बनो। मुक्ति पहले कदम से शुरू हो जानी चाहिए। यह पहला कदम है। और यही मुक्ति बढ़ते-बढ़ते मोक्ष बन जाएगी।
फिर, जो अब तक दुनिया में धर्म के नाम पर समझा गया, पकड़ा गया, वह अनिवार्यरूपेण जीवन-विरोधी था। हो ही गया जीवन-विरोधी। महावीर नहीं थे जीवन-विरोधी, न बुद्ध थे जीवन-विरोधी। कोई ज्ञानी कभी जीवन-विरोधी नहीं हो सकता। क्योंकि इसी जीवन से तो परम जीवन पाया जाता है। यह जीवन तो परम जीवन का द्वार है। इस संसार से ही तो हम सत्य की तरफ जाते हैं। इस संसार में अगर कांटे भी गड़ते हैं तो वे कांटे भी तुम्हारे मित्र हैं; अगर न गड़ते तो तुम कभी सत्य की तरफ न जाते। इस संसार के दुख भी ऐसे हैं कि तुम उनके प्रति जिस दिन जागोगे, उस दिन आभार प्रकट करोगे। क्योंकि उन्हीं के द्वारा तो तुम परमात्मा तक पहुंचे। उन्हीं के द्वारा तो तुम समाधि तक पहुंचे।
जरा थोड़ा सोचो! इस जगत में कोई दुख न हो, कोई पीड़ा न हो, कोई परेशानी न हो--तुम सोचोगे समाधि की बात? समाधि की तुम्हें याद कौन दिलाएगा? ये कांटे जो चारों तरफ से चुभते हैं, तुम्हें सजग रखते हैं। ये तुम्हें समाधि की तरफ ले जाते हैं। इन कांटों का प्रयोजन है। इस जगत के दुख सिर्फ दुख नहीं हैं, उन दुखों के भीतर बड़ा आयोजन है, उन दुखों में बड़े इशारे छिपे हैं। वे दुख तुम्हें याददाश्त दिलाने के लिए हैं। वे दुख अभिशाप नहीं, वरदान हैं।
इसलिए मैं एक ऐसा धर्म पृथ्वी पर देखना चाहता हूं, जो जीवन-विरोधी न हो। क्योंकि इस लोक में ही परलोक छिपा है। इन्हीं वृक्षों, पौधों, पत्थरों, पहाड़ों में परमात्मा छिपा है। इन्हीं लोगों में, जो तुम्हारे पास बैठे हैं, परमात्मा का आवास है। पड़ोसी में परमात्मा छिपा है। तुम्हारे भीतर परमात्मा छिपा है। तुम्हारी पत्नी में, तुम्हारे पति में, तुम्हारे बेटे में, तुम्हारे पिता में परमात्मा छिपा है। तुम ऊपर-ऊपर से देखते हो, इसलिए चूक जाते हो। लेकिन ऊपर-ऊपर से देखने के कारण चूक जाओ, तो इस फल को फेंक मत देना, क्योंकि इस फल के भीतर रस छिपा है, जो तुम्हें तृप्त कर सकता था।
लेकिन अड़चन इसलिए आ गई, महावीर समाधि को उपलब्ध हुए, बुद्ध समाधि को--लोगों ने आचरण पकड़ा, लोग आचरण के अनुसार चले। उन्हें भीतर का तो कुछ पता न चला, थोथे हो गए। बाह्य क्रियाकांड में उलझ गए। यतन में उलझ गए, भजन का पता नहीं चला। उसी क्रियाकांड में डूब गए। उससे अहंकार और बढ़ा। उससे अहंकार और सूक्ष्म हुआ। और उस अहंकार के कारण उन्हें कुछ भी दिखाई न पड़ा, सब अंधापन छा गया; और अंधेरा हो गया।
मेरे देखे, संसारी इतने अंधे नहीं हैं जितने तुम्हारे तथाकथित संन्यासी। और न संसारी इतने दंभी हैं, जितने तुम्हारे महात्मा। जीवन का एक अपूर्व अवसर है। इस अपूर्व अवसर का उपयोग करो--चुनौती की तरह। इससे भागना नहीं है। इस अग्नि में खड़े होना है। यही अग्नि तुम्हें निखारेगी। इसी अग्नि में निखर कर तुम कुंदन बनोगे। तुम्हारा कचरा भर जलेगा, और कुछ जलने वाला नहीं है। इसलिए भागो मत, भागे तो कचरा बच जाएगा।
पूछा तुमने: ‘कैसा धर्म इस पृथ्वी पर आप लाना चाहते हैं?’
जीवन-स्वीकार का धर्म। परम स्वीकार का धर्म। चूंकि जीवन-अस्वीकार की बातें बहुत प्रचलित रही हैं, इसलिए स्वभावतः लोग देह के
विपरीत हो गए। अपने शरीर को ही सताने में संलग्न हो गए। और यह देह परमात्मा का मंदिर है। मैं इस देह की प्रतिष्ठा करना चाहता हूं। और चूंकि लोग संसार के विपरीत हो गए, देह के विपरीत हो गए, इसलिए देह के सारे संबंधों के विपरीत हो गए। भूल हो गई।
देह के ऐसे संबंध हैं, जिनसे मुक्त होना है। और देह के ऐसे संबंध हैं, जिनमें और गहरे जाना है। प्रेम ऐसा ही संबंध है। प्रेम में गहराई बढ़नी चाहिए। घृणा में गहराई घटनी चाहिए। घृणा से तुम मुक्त हो सको तो सौभाग्य। लेकिन अगर प्रेम से मुक्त हो गए तो दुर्भाग्य।
और मजा यह है कि अगर तुम्हें घृणा से मुक्त होना हो तो सरल रास्ता यह है कि प्रेम से भी मुक्त हो जाओ। और तुम्हारे अब तक के साधु-संन्यासियों ने सरल रास्ता पकड़ लिया। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी! लेकिन बांस और बांसुरी में बड़ा फर्क है। बांसुरी बजनी चाहिए। बांस से बांसुरी बनती है, लेकिन बांसुरी बड़ा रूपांतरण है। बांसुरी सिर्फ बांस नहीं है। बांसुरी में क्रांति घट गई। तुम अभी बांस जैसे हो, बांसुरी बन सकते हो।
घृणा से भयभीत हो गए लोग। क्रोध से भयभीत हो गए। भाग गए जंगलों में। जब कोई रहेगा ही नहीं पास, तो न घृणा होगी, न क्रोध होगा। यह तो ठीक, लेकिन प्रेम का क्या होगा? प्रेम भी नहीं होगा। इसलिए तुम्हारे तथाकथित महात्मा प्रेम-शून्य हो गए, प्रेम-रिक्त हो गए। उनके प्रेम की रसधार सूख गई। वे मरुस्थल की भांति हो गए। और वहीं चूक हो गई। परमात्मा तो मिला नहीं, संसार जरूर खो गया। सत्य तो मिला नहीं, इतना ही हुआ कि जहां सत्य मिल सकता था, जहां सत्य को खोजा जा सकता था, जहां चुनौती थी पाने की, उस चुनौती से बच गए। एक तरह की शांति मिली--लेकिन वह मुर्दा, मरघट की। एक और शांति है--उत्सव की, जीवंत, उपवन की। मैं उसी शांति के धर्म को लाना चाहता हूं।
तुम जीवन को अंगीकार करो, देह को अंगीकार करो। परमात्मा ने जो दिया है, सब अंगीकार करो। उसने दिया है तो कुछ उसमें राज छिपा होगा ही! इस वीणा को फेंक मत देना, इसमें संगीत छिपा है। इसे बांस मत समझ लेना, इसमें बांसुरी बनने की क्षमता है। जल्दी छोड़-छाड़ कर भाग मत जाना। तलाश करना। हालांकि तलाश कठिन है। होनी ही चाहिए। क्योंकि तलाश के लिए कीमत चुकानी पड़ती है। जो खोजेगा, वह पाएगा। इसी जीवन में खोजना है।
परमात्मा ने संसार बनाया कभी, ऐसा मत सोचो। परमात्मा संसार रोज बना रहा है, प्रतिपल बना रहा है। ऐसा कोई बना दिया एक दफा और खत्म हो गया काम! तो फिर नये पत्ते कैसे आ रहे हैं? फिर नये फूल कैसे खिल रहे हैं? फिर चांद-तारे कैसे चल रहे हैं? फिर नये बच्चे कैसे पैदा हो रहे हैं? रोज नये का जन्म हो रहा है।
तो यह धारणा तुम्हारी गलत है कि परमात्मा ने सृष्टि की। परमात्मा सृष्टि कर रहा है। और अगर तुम मेरी बात और भी ठीक से पकड़ना चाहो, तो मैं कहता हूं: परमात्मा सृष्टि की प्रक्रिया है। परमात्मा कोई अलग व्यक्ति नहीं है कि बैठा है और बना रहा है चीजों को। कुम्हार नहीं है कि घड़े बना रहा है। नर्तक है--नाच रहा है। उसका नाच उसका अंग है। इन सब फूलों में, पत्तों में, सागरों में, सरोवरों में उसका नाच है। तुममें, मुझमें, बुद्ध-महावीर में उसका नाच है। उसकी भाव-भंगिमाएं हैं। उसकी अलग-अलग मुद्राएं हैं। इनमें पहचानो!
तो मैं भगोड़े धर्म से छुटकारा दिलाना चाहता हूं। देह स्वीकृत हो, देह मंदिर बने। प्रेम स्वीकृत हो, प्रेम पूजा बने। संसार का सम्मान हो, क्योंकि उसमें स्रष्टा छिपा है। अभी भी उसके हाथ काम कर रहे हैं। अगर तुम जरा संसार में गहरा प्रवेश करोगे तो उसके हाथ का स्पर्श तुम्हें मिल जाएगा, उसका हाथ तुम्हारे हाथ में आ जाएगा। किसी फूल में कभी उतरे हो गहरे? तुम्हें उसका हाथ पकड़ में आ जाएगा। किसी आंख में उतरे हो गहरे? तुम्हें उसकी झलक पकड़ में आ जाएगी। किसी हृदय में गए हो गहरे? तुम्हें उसका घर मिल जाएगा वह कहां छिपा है।
तो मूल्यों का एक पुनर्मूल्यांकन करना है। सारे मूल्यों का पुनर्मूल्यांकन करना है। और पृथ्वी आज तैयार हो गई है इस घटना के लिए। क्योंकि पांच हजार साल के दमनकारी धर्मों ने, पलायनवादी धर्मों ने मनुष्य को काफी सजग कर दिया है। मनुष्य तैयार है अब कि कुछ नया आविर्भाव होना चाहिए। लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं, लोग आतुरता से राह देख रहे हैं, कि परमात्मा का कोई नया अवतरण होना चाहिए। कोई नई भाषा मिलनी चाहिए धर्म को। और चूंकि ऐसी भाषा नहीं मिल पा रही है, और ऐसा नया अवतरण नहीं हो पा रहा है, और लोगों को दिखाई नहीं पड़ रहा है कि कैसे धार्मिक हों, तो गलत धर्म पैदा हो रहे हैं। वे भी खोज की वजह से पैदा हो रहे हैं।
आदमी और धर्म के बीच कोई सांयोगिक संबंध नहीं है, जैसा कि मार्क्स और कम्युनिस्ट सोचते हैं। अनिवार्य संबंध है। आदमी बिना धर्म के हो ही नहीं सकता। आदमी और धार्मिक न हो, यह असंभव है! फिर एक ही उपाय बचता है: ठीक ढंग से धार्मिक हो कि गलत ढंग से धार्मिक हो। तुम चकित होओगे जान कर कि रूस में, जहां कि क्रांति कम्युनिस्टों के हाथ से घटी और मंदिर-मस्जिद और गिरजे करीब-करीब समाप्त कर दिए गए, वहां भी लोग धर्म से मुक्त नहीं हो गए हैं। धर्म की आकांक्षा इतनी प्रबल है कि अगर असली धर्म न मिलेगा तो लोग नकली से चलाएंगे। वे जाकर लेनिन की कब्र पर ही फूल चढ़ाने लगे। लेनिन ही अवतार मालूम होने लगे। क्रेमलिन मंदिर बन गया। मार्क्स की किताब दास कैपिटल उनकी कुरान, उनकी बाइबिल बन गई। उनकी नई त्रिमूर्ति पैदा हो गई--मार्क्स, एंजिल्स, लेनिन। ब्रह्मा, विष्णु, महेश गए, मगर ये नये...!
जर्मनी में हिटलर करीब-करीब लोगों के लिए ऐसा हो गया जैसे वही पूजनीय है।
लोग पूजा का कोई स्थल चाहते हैं। अगर तुम सब स्थल छीन लोगे , तो वे अपने ही स्थल बना लेंगे--कुछ भी बना लेंगे, कुछ भी खड़ा कर लेंगे, जो मिल जाएगा उसी की पूजा करेंगे। लेकिन पूजा, प्रार्थना, प्रेम मनुष्य के भीतर छिपी हुई कोई अनिवार्य आवश्यकता है।
मेरे पास पत्र आते हैं। कल ही एक पत्र आया रूस से एक महिला का, कि वह आना चाहती है, लेकिन सरकार आज्ञा नहीं देती। तो उसने लिखा है, यहां से मैं निमंत्रण दिलवाऊं। कोई यहां से गारंटी लेने को हो तीन महीने के लिए, तो शायद स्वीकृति मिल जाए। लेकिन उसका पत्र इतना प्यारा है कि लक्ष्मी डरी! किसी से स्वीकृति तो दिलवा दे, लेकिन वह फिर न जाए तो क्या करें? उसके पत्र से ऐसा लगता है कि फिर वह जाने वाली नहीं। तो जो स्वीकृति लेगा, वह झंझट में पड़ जाएगा; जो निमंत्रण देगा, वह झंझट में पड़ जाएगा। उसके पत्र से लगता नहीं कि एक दफा वह आ गई रूस के बाहर, तो फिर भीतर जाएगी।
आदमी के भीतर अनिवार्य तड़प है। और तड़प गहरी हो गई है। क्योंकि सब पुराने धर्म फीके पड़ गए हैं। और सब नये तथाकथित कम्युनिस्ट और फासिस्ट धर्म झूठे हैं, थोथे हैं, उनसे आत्मा तृप्त नहीं होती। तो मनुष्य बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा कर रहा है: कोई नई किरण उतरे।
इसलिए मैंने कहा कि यह गैरिक आग फैलती जाए सारी दुनिया में तो नई किरण उतर सकती है। और इस तरह का संन्यास ही अब भविष्य का संन्यास हो सकता है। भगोड़ा संन्यास नहीं हो सकता। जीवन को अंगीकार करने वाला संन्यास ही भविष्य में स्वीकृत हो सकता है।
और मैं कोई कारण नहीं देखता हूं कि कहीं भाग कर जाने की जरूरत है। तुम जहां हो, वहीं अगर तुमने हृदयपूर्वक पुकारा तो परमात्मा आता है। असली बात हृदयपूर्वक पुकारने की है। असली बात न तो पवित्रता की है, न शुद्धता की है, न योग की है, न त्याग की है, असली बात इतनी ही है कि तुम परिपूर्ण असहाय होकर, निर-अहंकार होकर, उसके चरणों में गिर जाओ। तुम थोड़े भी बचे, तो रुकावट रहेगी। तुम बिलकुल चले गए, उसी क्षण रुकावट टूट जाती है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, तेरे ही इशारे पर मैंने अपना पूरा प्यार उंडेल दिया और जब तेरी तस्वीर के सामने होती हूं तो तुझमें उसी को देखती हूं। और उसके पास होती हूं तो तेरा ही रूप उसमें झलकता है। तो क्या ये मेरी आंखें धोखा खा रही हैं? ओशो बताने की कृपा करें।
नहीं चेतना, आंखें खुल रही हैं, धोखा नहीं खा रही हैं। आंखें पहली बार उपलब्ध हो रही हैं। धीरे-धीरे ये आंखें और गहराएंगी, इनकी धुंध और कटेगी। तब चित्र की भी जरूरत न रह जाएगी। तब वृक्ष में भी और पत्थर में भी, सब तरफ वही दिखाई पड़ने लगेगा। यह शुरुआत है।
जो गुरु में दिखाई पड़ता है, उसे एक दिन सारे संसार पर फैला देना है। गुरु तो सिर्फ द्वार है। इसलिए नानक ने बिलकुल ठीक मंदिर को नाम दिया--गुरुद्वारा। वह मुझे पसंद है। गुरु द्वार है। उससे तो सिर्फ विराट आकाश की तरफ यात्रा शुरू होती है।
शुभ हो रहा है। ऐसी ही आंखें चाहिए। ऐसी ही आंखों को दर्शन होता है। ऐसी ही आंखों को दृष्टि उपलब्ध होती है।
मैंने सुना है, एक झेन कहानी--
ए मांक सेड, आई एम टोल्ड दैट आल बुद्धाज एंड आल दि बुद्धा-धर्माज ईस्यु फ्रॉम वन सूत्रा। व्हाट कुड दिस सूत्रा बी?
दि मास्टर रिप्लाइड, रिवाल्विंग ऑन फॉरएवर; नो चेकिंग इट; एंड नो आर्ग्युइंग, नो टाकिंग कैन कैच इट।
हाउ शैल देन आई रिसीव एंड होल्ड इट?
दि मास्टर लाफ्ड एंड सेड, इफ यू विश टु रिसीव एंड होल्ड इट, यू शैल हियर इट विद योर आईज।
एक भिक्षु ने पूछा अपने गुरु को, मैंने सुना है कि समस्त बुद्ध और समस्त बुद्धों के धर्म, एक ही संक्षिप्त सूत्र से पैदा हुए हैं। वह सूत्र क्या है?
सदगुरु ने कहा, सदा घूमता रहता वह, सदा प्रवाहमान! उसे पकड़ा नहीं जा सकता। वह ठहरता ही नहीं। वह सदा गतिमान। उसे रोका नहीं जा सकता। और कोई तर्कों के द्वारा भी उसको पकड़ा नहीं जा सकता। और कोई शब्द उसे प्रकट करने में समर्थ भी नहीं हैं।
स्वभावतः भिक्षु ने पूछा, तब मैं उसे किस तरह ग्रहण करूं? और किस तरह आत्मसात करूं? और किस तरह अपने भीतर सम्हालूं? कैसे उसे अपनी आत्मा में वास करने को पुकारूं?
सदगुरु हंसा और उसने कहा, यदि तुम चाहते हो उसे स्वीकार करना, ग्रहण करना और अपने भीतर बसा लेना, तो तुम्हें एक कला सीखनी होगी। कानों से सुनना तुम जानते हो, अब तुम्हें आंखों से सुनना सीखना पड़ेगा।
आंखों से सुनना! चेतना, वही तुझे हो रहा है।
एक दृष्टि, एक नई दृष्टि का जब जन्म होता है, तो बेचैनी भी होती है, परेशानी भी होती है। क्योंकि सब पुराना अस्तव्यस्त हो जाता है। फिर पुराने से कोई समायोजन नहीं रह जाता। नई दृष्टि का आविर्भाव एक अराजकता पैदा करता है। नई दृष्टि के साथ नये जीवन की शुरुआत है--नई आत्मा की।
शुभ हो रहा है। भयभीत न होना। और सोचना भी मत कि क्या मैं धोखा खा रही हूं।
मेरा तुम्हारे पास होना और तुम्हारा मेरे पास होना इसीलिए है कि मैं तुम्हें धोखा न खाने दूं। और बहुत बार तुम्हें ऐसा लगेगा कि जब तुम धोखा खाओगे तब तो लगेगा कि सच हो रहा है--क्योंकि तुम्हारी आंखें धोखा खाने की जन्मों-जन्मों से आदी हैं। उन्होंने धोखा ही खाया है। इसलिए धोखा तो सच लगेगा। और बहुत बार इससे उलटा भी होगा, जब सच होने लगेगा तो तुम्हारा मन कहेगा--कहीं धोखा तो नहीं हो रहा है? इसलिए सदगुरु की जरूरत है, कि कोई तुम्हें कह सके कि यह धोखा है और यह धोखा नहीं है।
एक बात खयाल रखना, जो तुम्हारे पुराने अतीत से समायोजन पाता हो, उसमें धोखा हो सकता है। जिससे तुम्हारा मन राजी हो सकता है, उसमें धोखा है। जिससे तुम्हारा मन राजी न हो, बेचैन होने लगे, जिसे तुम्हारा मन आत्मसात न कर सके और जिसके साथ मन सोचने लगे--क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है? मैं पागल तो नहीं हो रहा? कोई भ्रम तो नहीं खा रहा? तब तुम समझ लेना, बहुत संभावना इस बात की है कि सत्य करीब आ रहा है। मन असत्य से इतना रच-पच गया है कि जब सत्य करीब आता है तो उसे धोखे जैसा मालूम होता है।
पूछा तुमने: ‘तेरे इशारे पर मैंने अपना पूरा प्यार उंडेल दिया।’
यह सच है। चेतना को मैं देख रहा हूं। थोड़े ही दिनों में उसका पौधा खूब हरा हुआ है। सब भांति उसने अपने को उंडेलना शुरू किया है। कृपण नहीं है। अपने को रोकने की कोई आकांक्षा भी नहीं है।
यहां वैसे भी लोग हैं, जो पाना सब चाहते हैं, लेकिन खोना बिलकुल नहीं चाहते। ऐसे भी लोग हैं, जो बड़ी छोटी-छोटी बातों में भी मुझसे धोखा कर जाते हैं। यहां आते हैं तो गैरिक वस्त्र पहन लेते हैं, और यहां आते हैं तो बड़े रोते हैं और आंखों से आंसू गिराते हैं। और वे सब आंसू बेकार हैं, क्योंकि घर जाकर वे गैरिक वस्त्र भी छोड़ देते हैं। वे आंसू सब दिखावा हैं। वे सोचते हैं कि इन आंसुओं से मुझे धोखा हो जाएगा!
इस तरह नहीं चलेगा। तुम मुझे धोखा नहीं दे सकोगे--न तुम्हारे आंसुओं से, न तुम्हारे नाच-गान से, न तुम्हारे भजन-कीर्तन से। तुम अगर मेरे साथ हो, तो मेरे साथ होने से जो तकलीफ होती है, उसे भोगना होगा। मेरे साथ होने से जो अड़चन आती है, वह भी झेलनी होगी। तुम्हारे गांव में लोग हंसेंगे, तो वह भी स्वीकार करना होगा। लोग पागल समझेंगे, तो वह कीमत चुकानी है। मेरे साथ अगर पागल होने को राजी नहीं हो, तो यह दृष्टि तुम्हें कभी उपलब्ध न हो सकेगी। तुम अपनी होशियारी से मेरे पास अगर हो, तो खो दोगे, चूकोगे अवसर।
अपनी होशियारी छोड़ ही दो। संन्यास का वही अर्थ है; तुम घोषणा करते हो कि अब मैंने अपनी होशियारी छोड़ी। लेकिन तुम बड़े चालबाज हो। तुम ऐसी-ऐसी तरकीबें निकाल लेते हो कि तुम्हें शायद खुद भी पता न चलता हो। ऐसा नहीं कि तुम मुझे ही धोखा देते हो, तुम्हारी चालबाजियां ऐसी हैं कि तुम अपने को भी धोखा देते हो।
एक मित्र ने पूछा है कि
हम बड़े प्रेम में कभी-कभी आपको गालियां भी देते हैं। आपका इस संबंध में क्या कहना है?
इतना ही कहना है कि इतना प्रेम मैं नहीं सोचता कि अभी तुम्हारे पास होगा। गालियां जरूर देते होओगे, लेकिन प्रेम का तुम धोखा खा रहे हो। प्रेम का तुम अपने को धोखा दे रहे हो। तुम अपने को समझा रहे हो कि प्रेम में दे रहे हैं। जरा गौर से देखना, देने के कारण दूसरे होंगे। देने का मौलिक कारण तो यही होगा कि तुम्हें मेरे साथ झुकना पड़ा है। उसका तुम बदला ले रहे होओगे। और बदला लेने का यही उपाय है। प्रेम से दे रहे हो तो बड़ा अच्छा है। लेकिन प्रेम में देने को सिर्फ तुम्हारे पास गालियां हैं, कुछ और है? फिर अगर प्रेम से दे रहे हो, और तुम्हारे पास सिर्फ गालियां हैं, तो मुझे स्वीकार हैं। लेकिन प्रेम में गाली बचती नहीं। गाली में कहीं न कहीं विरोध है। विरोध को तुम लीप-पोत लेना चाहते हो। मगर तुम्हारे भीतर गाली तो है ही कहीं, तो ही आ रही है।
एक फकीर एक गांव में गया। और उस गांव के लोगों को उससे बड़ा विरोध था। तो उन्होंने एक जूतों की माला बना कर उसको पहना दी। वह फकीर खूब हंसने लगा। गांव के लोग बड़े हतप्रभ हुए। उन्होंने पूछा, मामला क्या है? आप हंस क्यों रहे हैं? उसने कहा कि हंस इसलिए रहा हूं कि आज पता चला कि अभी तक मैं सिर्फ मालियों के गांव जाता रहा, चमारों के गांव पहली दफे आया। यही तो मैं सोचता था कि बात क्या है! जिस गांव में जाता हूं, लोग फूल की माला चढ़ा देते हैं! क्या माली ही माली रहते हैं? आज अच्छा हुआ आ गया। मेरे जूते भी फट गए हैं। तो तुम सब चमार हो? उस फकीर ने कहा, नहीं तो जूते की माला बनाने की सोचते भी कैसे? यह तुम्हें विचार कैसे आया?
अब तुम कहो कि हम जूते की माला बड़े प्रेम में चढ़ा रहे हैं। माला तो प्रेम में ही चढ़ाई जाती है, सो सच है। लेकिन जूते की माला! तो कहीं तुम्हारा चमारपन प्रकट हो रहा है।
गाली मिली तुम्हें देने को प्रेम में? लेकिन होगा कहीं विरोध! और विरोध भी स्वाभाविक है। जिसके सामने झुकना पड़ता है, उससे भीतर एक विरोध हो जाता है, बदला लेने की आकांक्षा हो जाती है।
यह कुछ आकस्मिक थोड़े ही है कि यहूदा ने--उनके प्रमुख शिष्य ने--जीसस को धोखा दिया और सूली पर चढ़वाया। यह बदला था। झुकना पड़ा था इस आदमी के सामने। इस बात को वह कभी माफ नहीं कर सका। पढ़ा-लिखा आदमी था। जीसस के शिष्यों में सबसे ज्यादा पढ़ा-लिखा आदमी वही था। बर्दाश्त नहीं कर पाया। जीसस से ज्यादा पढ़ा-लिखा था और जीसस से ज्यादा संभ्रांत था, ज्यादा सुसंस्कृत था। झुक तो गया, किसी क्षण में झुक गया होगा--चुंबक के क्षण होते हैं, कभी किसी प्रभाव में, जीसस की किसी आभा में, किसी मुख-मुद्रा में, जीसस की आंख की किसी पुकार में झुक गया होगा। लेकिन पीछे पछताने लगा होगा, कि मैं और झुक गया एक आदमी के सामने, जो सिर्फ बढ़ई का बेटा है! कहीं भीतर बात सुलगती रही। वह जीसस की कई घटनाओं में भूलें निकालता रहा।
और तुम अगर उन भूलों को सोचोगे, तो तुम भी यहूदा से राजी होओगे। जैसे एक स्त्री आई और उसने बड़ा बहुमूल्य इत्र जीसस के पैरों पर डाला। वह इतना बहुमूल्य इत्र था कि हजारों रुपये उसकी कीमत थी, उन दिनों भी! जीसस बैठे रहे। उस स्त्री ने अपने बालों से उनके पैर पोंछे। इत्र से पैर धोए, बालों से पोंछे। और उसकी आंखों से आंसू गिर रहे हैं। और यहूदा ने कहा कि यह व्यर्थ की खर्चीली बात है। आपने रोका क्यों नहीं? इतने पैसे से तो न मालूम कितने गरीबों के पेट भर जाते।
अब तुम किससे राजी होओगे? जीसस से या यहूदा से? तुम्हारी बुद्धि भी कहेगी कि बात तो यहूदा ही ठीक कह रहा है। तर्कयुक्त है। लेकिन जीसस ने क्या कहा? जीसस ने कहा: मेरे जाने के बाद भी गरीब रहेंगे, तुम उनकी सेवा पीछे कर लेना। अभी दूल्हा घर में है, उत्सव होने दो।
यह बात किसी और तल की है: अभी दूल्हा घर में है, उत्सव होने दो। गरीब तो सदा से हैं और सदा रहेंगे, सेवा तुम पीछे कर लेना, मेरे बाद कर लेना--मैं ज्यादा दिन यहां नहीं रहूंगा।
और जीसस ज्यादा दिन रहे भी नहीं। इस बात के कहने के तीन महीने बाद ही सूली लग गई। जीसस ने कहा: ज्यादा दिन मैं यहां रहूंगा भी नहीं। जल्दी ही मेरा विदा का क्षण आ जाएगा। हो सकता है इस स्त्री को वह विदा का क्षण दिखाई पड़ रहा था। क्योंकि जीसस को जब सूली से उतारा गया, तो यही स्त्री सूली से उतारते वक्त मौजूद थी, बाकी सब शिष्य भाग गए थे। यहूदा ने तो जीसस को तीस चांदी के टुकड़ों में बेच दिया और बाकी शिष्य भाग गए डर से, कि कहीं अब हमको भी न पकड़ा जाए। जो स्त्री जीसस को सूली से उतारते वक्त मौजूद थी, जो नहीं भागी, वह वही स्त्री थी। वह एक वेश्या थी--मैरी मेग्दलीन--जिसने वह हजारों रुपये का कीमती इत्र जीसस के पैरों में डाला था।
फिर जीसस ने कहा: उसका प्रेम देखते हो, कि तुम सिर्फ इत्र ही देखते हो? और उसे रोकना उसके हृदय को तोड़ना हो जाएगा।
यहूदा भूलें निकालता रहा। आगे-पीछे जीसस के खिलाफ भी बोलता रहा होगा। क्योंकि कोई अचानक एक दिन जाकर और सूली पर नहीं लटकवा देता अपने गुरु को। अचानक! यह भीतर पकती रही होगी बात। भीतर इकट्ठा होता रहा होगा मसाला।
तुम्हारे भीतर भी गालियां हो सकती हैं। और तुम अनेक तरकीबों से उन गालियों को निकालने का उपाय भी खोज लेते हो। फिर अपने को बचाने के लिए तुम सोचते होओगे कि यह तो मैं प्रेम में दे रहा हूं। काश तुम्हारे पास प्रेम होता! तो गालियां खो गई होतीं, पिघल गई होतीं। प्रेमपूर्ण हृदय को गालियां देने का उपाय कहां रहेगा? तुम मुझे भी धोखा देते हो, अपने को भी धोखा देते हो। तुम्हारा धोखा गहरा है।
लेकिन चेतना के संबंध में यह बात कही जा सकती है: न तो वह खुद को धोखा दे रही है, न मुझे धोखा दे रही है। उसने अपने को उंडेला है।
पूछा है: ‘जब तेरी तस्वीर के सामने होती हूं तो तुझमें उसी को देखती हूं।’
उसी को देखना है। जब तक तुम्हें मुझमें मैं ही दिखाई पड़ता रहूं, तब तक तुमने मुझे नहीं देखा। जिस दिन तुम्हें मुझमें वह दिखाई पड़ने लगे, उसी दिन तुमने मुझे देखा।
इस विरोधाभास को खयाल में रखना। जब तक मैं तुम्हें मैं ही दिखाई पडूं, तब तक तुमने मुझे नहीं देखा। जब तक मैं में तुम्हें वह न दिखाई पड़े, तब तक तुमने मुझे नहीं देखा। मैं द्वार बन जाऊं और वह विराट आकाश तुम्हें मुझमें से दिखाई पड़े। और धीरे-धीरे तुम मुझे भूल जाओ और उस विराट आकाश में लीन हो जाओ--तो ही तुम मेरे पास आए!
मेरे पास आने का मतलब है, मुझसे गुजर जाओ। मेरे पास आने का अर्थ है, मेरी सीढ़ी का उपयोग कर लो। यह द्वार खुला है। इस द्वार से अगर तुम झांके, तो तुम परमात्मा को देख पाओगे।
ठीक हो रहा है, चेतना! यह धोखा नहीं है। लेकिन इतनी बड़ी बात घटनी जब शुरू होती है, तो शंकाएं शुरू होती हैं कि पता नहीं क्या हो रहा है? कोई कल्पना तो नहीं? कोई भ्रमजाल तो नहीं? कोई सपना तो नहीं?
नहीं, आंखें धोखा नहीं खा रहीं, आंखें पैदा हो रही हैं, पहली बार आंखें पैदा हो रही हैं। दृष्टि का जन्म हो रहा है।
उनकी याद, उनकी तमन्ना, उनका गम
कट रही है जिंदगी आराम से
शिष्य जैसे-जैसे गुरु के निकट होता है, वैसे-वैसे पीड़ा भी होती है विरह की, मिलन का सुख भी होता है। हंसी भी आती है, आंसू भी गिरते हैं। जिंदगी एक नया पर ले लेती है, नये पंख ले लेती है। अब उदासी में भी एक रौनक होती है। अब विरह में भी मिलन की आभा होती है।
सब्र पर दिल को आमादा किया है लेकिन
होश उड़ जाते हैं अब भी आवाज के साथ
आवाज सुनाई पड़नी शुरू होगी। आंख से सुनी जाती है वह आवाज, खयाल रखना!
क्यों इस झेन फकीर ने कहा कि आंख से सुनोगे तब सुनाई पड़ेगा! बात बड़ी बेबूझ है। सुनता आदमी कान से है, आंख से तो नहीं।
एक और फकीर से किसी ने पूछा, बाबा फरीद से किसी ने पूछा कि सत्य और झूठ में कितना अंतर है? उसने कहा, चार इंच का। उस पूछने वाले ने पूछा, सिर्फ चार इंच का? तो फरीद ने कहा, कान और आंख में जितना अंतर है, बस उतना ही।
कान से सदा दूसरे की बात सुनाई पड़ती है, सदा उधार होती है। और कान से सुनी बात पर भरोसा मत कर लेना। उसी के कारण तो लोग शास्त्रों में उलझ गए हैं, शब्दों में उलझ गए हैं। वह कान ने सुनी गई बात है। आंख पर भरोसा करना। देखे पर भरोसा करना। सुने पर भरोसा मत करना। सुने का कोई प्रमाण नहीं है कि ठीक हो कि न ठीक हो। सुना सुना है।
इसलिए झेन फकीर ने ठीक कहा कि जब तू आंख से देखने लगेगा, तब। तब देख पाएगा उस परमसूत्र को, जिससे सारे बुद्ध पैदा होते हैं, सारे बुद्धों के धर्म पैदा होते हैं!
बस इतनी आरजू है, बादे-फना जनाजा
निकले मेरे मकां से, ठहरे तेरी गली तक
बस भक्त की इतनी ही आरजू है--
बस इतनी आरजू है, बादे-फना जनाजा
निकले मेरे मकां से, ठहरे तेरी गली तक
इस आरजू को चेतना की आंखों में मैंने देखा है। तुम सबकी आंखों में देखना चाहता हूं।
उनकी तस्वीर जब आंखों में उतर आई है
मैंने तारीक फजाओं में जिया पाई है
बस एक तस्वीर उतर आए आंखों में, फिर अंधेरी रातों में रोशनी हो जाती है।
उनकी तस्वीर जब आंखों में उतर आई है
मैंने तारीक फजाओं में जिया पाई है
हुस्न जब होने लगा माइले-इल्ताफो-करम
इश्क की जान पे कुछ और भी बन आई है
आज तक मेरी निगाहों को मयस्सर न हुई
लोग कहते हैं कि गुलशन में बहार आई है
अब जमाने की खबर है न खुद अपना ही पता
मेरी वहशत मुझे क्या जाने कहां लाई है
ऐ निगाहे-गलतअंदाज तेरी उम्र दराज
जिंदगी अब गम-ओ-आलाम की शैदाई है
अब तो आ जा गमे-हस्ती को मिटाने वाले
बस तेरी याद है, मैं हूं, शबे-तन्हाई है
शिष्य की इतनी ही पुकार है, भक्त की इतनी ही पुकार है। भक्त और शिष्य में कुछ भेद नहीं है। जो शिष्य नहीं, वह भक्त नहीं। भक्ति के पाठ गुरु के पास ही सीखे जाते हैं। भक्ति का चरम फल परमात्मा है, लेकिन भक्ति के पाठ गुरु के पास सीखे जाते हैं। गुरु पाठशाला है। उस पाठशाला से उत्तीर्ण हुए बिना कोई परमात्मा को उपलब्ध नहीं होता।
क्या आकांक्षा है शिष्य की? क्या आकांक्षा है भक्त की? बस एक ही कि यह जो उदास रात है, अब टूटे। सुबह हो, किरण फूटे। यह आकांक्षा तो है, यह अभीप्सा तो है, लेकिन कोई अधीरता नहीं है, प्रतीक्षा है। प्रार्थना उसी दिन पूरी होगी, जिस दिन अभीप्सा भी पूर्ण हो और प्रतीक्षा भी पूर्ण हो। जिस दिन मांग भी हो और मांग एक अर्थ में न भी हो। एक तरफ भक्त पुकारता है कि आओ, अब और नहीं सहा जाता। और दूसरी तरफ भक्त कहता है, जब भी आओगे, तब तक प्रतीक्षा करने की मेरी तैयारी है। अनंतकाल में भी आओगे, तो भी मैं प्रतीक्षा करता रहूंगा। तब उसी क्षण घटना घट जाती है।
शुभ हुआ है। पहली दफा आंख खुलनी शुरू हुई है। इस आंख पर भरोसा करो। इस आंख को पूरा बल दो। इस आंख में पूरी ऊर्जा डाल दो। यही आंख दर्शन है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, मैं यह जान कर अत्यंत दुखित हूं कि मेरे एक मित्र जो आगरा से ‘रजनीश-प्रेम’ नाम का अखबार निकालते हैं, उन्हें आश्रम की ओर से अखबार बंद करने के लिए कहा जा रहा है। क्या आश्रम की आप पर मालकियत है? मेरे मित्र तो आपके प्रेम में ही अखबार निकालते हैं। उनकी इच्छा तो बस आपके विचार-प्रसार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। हमने तय किया है कि हम आश्रम के विरुद्ध संघर्ष करेंगे और अखबार निकालना जारी रखेंगे।
कुछ बातें समझ लेना उपयोगी होंगी। और-और संदर्भों में भी उनका काम आएगा।
पहली तो बात खयाल रखना कि मेरे अतिरिक्त यहां कोई आश्रम इत्यादि नहीं है। लड़ोगे तो मुझसे। यह आश्रम का बहाना भी सिर्फ तुम्हारी लड़ने की वृत्ति के कारण है। यहां मेरे अतिरिक्त कोई भी नहीं है। यह आश्रम मेरी देह है। यहां जो भी हो रहा है, वह मेरे इशारे से हो रहा है। अच्छा हो, बुरा हो--सबकी जिम्मेवारी मेरी है। सोए लोगों की जिम्मेवारी हो भी क्या सकती है! जो काम में लगे हैं आश्रम में, वे सोए हुए लोग हैं। वे केवल मेरे इशारे पर चल रहे हैं।
इसलिए खयाल रहे, लड़ना हो तो मजे से लड़ना, लेकिन सब लड़ाई तुम मुझसे ही कर रहे होओगे। और अपने को यह धोखा मत देना कि तुम आश्रम से लड़ रहे हो। तुम मुझे आश्रम से अलग करना ही मत। और आश्रम अलग नहीं है, तो मुझ पर आश्रम का कब्जा क्या होगा? आश्रम मेरा खेल है!
रही बात अखबार निकालने की, तो तुम समझो ठीक से: क्यों रोका जा रहा है?
मैं जो कहता हूं, उसे ठीक प्रामाणिक रूप से लोगों तक पहुंचना चाहिए। संदर्भ के बाहर टुकड़े निकाल-निकाल कर तुम कुछ छाप देते हो, उनका अर्थ बदल जाता है, उनका प्रयोजन बदल जाता है। उनका प्रयोजन उन टुकड़ों को चुनने वाले का प्रयोजन होता है, मेरा प्रयोजन नहीं होता।
इसलिए मैं नहीं चाहता हूं कि कहीं भी देश में कोई प्रकाशन हो, जो मेरी देख-रेख में नहीं हुआ है; अन्यथा वह गलत होगा। उससे नुकसान होगा। उसके परिणाम घातक पहले हुए हैं, अब भी होंगे। पहले तो रोका नहीं जा सकता था, अब रोका जा सकता है, इसलिए रोका जाना चाहिए।
महावीर के पीछे इतना उपद्रव क्यों खड़ा हुआ? क्योंकि दो तरह के लोगों ने शास्त्र लिख लिए थे। बुद्ध के मरते ही छत्तीस संप्रदाय हो गए बुद्ध के, क्योंकि छत्तीस तरह के शास्त्र उपलब्ध थे। बुद्ध ने तो एक ही बात कही थी, लेकिन लिखने वाले अपने-अपने मन से लिख लिए थे। किसी ने कुछ छोड़ दिया था, किसी ने कुछ जोड़ दिया था। किसी को कोई बात महत्वपूर्ण पड़ी थी मालूम, उसने लिख ली थी। किसी को वह बात महत्वपूर्ण नहीं मालूम पड़ी, उसने नहीं लिखी थी। किसी ने कोई अंश लिख लिया था--जो महत्वपूर्ण उसे मालूम पड़ा था--शेष छोड़ दिया था।
बुद्ध के बाद छत्तीस संप्रदाय खड़े हुए, जिनमें संघर्ष चलता रहा; जिनके संघर्ष में बुद्ध धर्म के प्राण निकल गए। बौद्धों का हिंदुस्तान से मर जाना और मिट जाना, हिंदुओं के कारण नहीं हुआ; उनके ही आपसी छत्तीस उपद्रवों के कारण हो गया।
मैं नहीं चाहता कि इस आश्रम के अतिरिक्त कहीं भी कोई और प्रकाशन हो। पहले प्रकाशन यहां होना चाहिए। जो मैं कहता हूं, वह ठीक वैसा ही जाना चाहिए जैसा मैंने कहा है, जितना मैंने कहा है, जिस संदर्भ में कहा है। इसलिए रोका जा रहा है, कोई और कारण नहीं है।
और तुम कहते हो कि मेरे मित्र तो आपको प्रेम करते हैं, इसलिए अखबार निकालते हैं।
अगर मुझको प्रेम करते हैं, तो मेरी सुनेंगे। ‘रजनीश-प्रेम’ अखबार का नाम रख लेने से कोई रजनीश से प्रेम नहीं हो जाता। फिर अगर वे चाहते हैं कि मेरे विचार और प्रसार का काम करें, जरूर करें। इतना साहित्य आश्रम प्रकाशित कर रहा है, उसे लोगों तक पहुंचाएं। और अलग साहित्य की कोई जरूरत नहीं है। मैंने उनका अखबार भी देखा है। वह एकदम गलत-सलत है। उसमें कुछ का कुछ लिखा जा रहा है। टुकड़े कहीं-कहीं से निकाल कर रख देते हैं।
स्मरण रहे, मैं जो भी कह रहा हूं, उसका एक संदर्भ है, एक प्रसंग है। उस प्रसंग के बाहर उसका अर्थ कुछ और हो जाएगा, अनर्थ हो जाएगा। इसलिए इस तरह की कोई प्रवृत्ति नहीं चलने दी जाएगी।
और यह सदा के लिए खयाल रख लो कि यहां जो भी हो रहा है, आगे जो भी होगा, जब तक मैं हूं, तब तक सब मेरे इशारे से हो रहा है। तुम्हें कई बार लगता है कि ऐसा क्यों होगा? तुम्हें कई बार लगता है कि भगवान ऐसा क्यों करेंगे? तुम्हारा लगना और मेरी दृष्टि मेल न खाए, तो तुम यह मत समझना कि कुछ गलत हो रहा है।
उदाहरण के लिए--एक मित्र ने लिखा है पत्र कि मैं आया था बड़ी आशाओं से, कि आपके चरणों में बैठूंगा, सेवा करूंगा। और यहां आकर आपसे मिलने भी नहीं दिया जाता है। आपको क्या बंदी बना लिया गया है?
ऐसा अनेक मित्रों को लगता है। मैं किसी का बंदी नहीं हूं। सिर्फ तुम मेरे चरण न दबा सको ज्यादा--तुमसे मुझे छुटकारा दिलवाया गया है, और कुछ भी नहीं है। सिर्फ तुमसे मुझे स्वतंत्र किया गया है। लेकिन तुम समझते हो, मैं बंदी बना लिया गया हूं। मैं काफी परेशान आ गया हूं पैर दबाने वालों से। क्योंकि वे न समय देखते, न सुविधा देखते। काफी अनुभव के बाद यह इंतजाम करना पड़ा।
वे जो पहरेदार खड़े हैं द्वार पर, वे मुझे बंदी बनाने को नहीं खड़े हैं--मुझे तो जब बाहर जाना होता है तो कोई रोकने को नहीं है--वे सिर्फ तुम्हें नहीं भीतर घुसने देते। लेकिन तुम्हें घुसने दिया नहीं जाना चाहिए। जब जरूरत हो तब तुम्हें जरूर अवसर है। और अवसर की प्रतीक्षा करनी सीखनी चाहिए। नहीं तो मैं बहुत परेशान हो लिया हूं। मैं ज्यादा काम कर सकूं, इसलिए यह व्यवस्था की गई है।
मैं एक दफे ट्रेन में था। रात दो बजे एक आदमी भीतर आ गया। मैं तो सोया था। शिविर से लौटता था उदयपुर से, तो सोया था। कोई बारह बजे तो वहां से ट्रेन चली, तो बस सोया था; कोई दो ही घंटे सो पाया होऊंगा कि देखा कि कोई मेरे पैर दाब रहा है, तो नींद खुली। मैंने पूछा, भई क्या कर रहे हो? उन्होंने कहा कि चरण-सेवा कर रहा हूं।
मगर मेरे चरण हैं, कम से कम मुझसे पूछ तो लेना चाहिए। मुझे इस समय चरण-सेवा करवानी या नहीं करवानी?
वे मुझसे बोले, आप सोइए! अब मुझे कोई नहीं रोक सकता। मैं वहां भी गया था, उदयपुर शिविर में भी, मगर मुझे घुसने ही नहीं दिया। आज की रात है, मैं हूं, आप हैं!
उस आदमी ने रात भर मुझे जगाए रखा। वह सुबह छह बजे तक मेरे पैर दबाता रहा। उसे कई बार समझाया कि भई, तू थक गया होगा। उसने कहा, आप बिलकुल बेफिकर रहिए। आज तो मन भर कर सेवा करूंगा।
अब तुम जानते हो मेरे पचास हजार संन्यासी हैं, अगर ऐसे सब मेरी सेवा करने को उत्सुक हो जाएं, तो बड़ी अड़चन हो जाएगी। और ऐसी अड़चन बहुत बार हो चुकी है।
एक नगर में शिविर ले रहा था। दोपहर को सोया, दिन भर का थका-मांदा, दोपहर को सोया, देखा कि कोई आदमी ऊपर से खप्पड़ उठा लिया है, वह वहां से झांक रहा है। पूछा, भई, क्या कर रहे हो? कहा, दर्शन कर रहे हैं!...यह स्वतंत्रता थी मेरी! अब मैं कैदी हूं! अब वे सज्जन यहां भी आते हैं, वे यहां बड़ी तकलीफ पाते हैं! वे कहते हैं कि यह क्या है? और वे कोई गैर-पढ़े-लिखे गंवार नहीं, वकील हैं।...कि नहीं, मैं तो दर्शन कर रहा हूं! मैंने कहा, दर्शन तुम कभी और कर लेते। उन्होंने कहा, मुझे तो जब आप सोते हैं तब दर्शन करने हैं। सोते में दर्शन करने हैं।
मैं कोई बंदी नहीं हूं। कौन मुझे बंदी बनाएगा? कैसे मुझे बंदी बनाएगा? मुझे कोई कारागृह में भी डाल दे तो भी अब मैं बंदी नहीं हो सकता हूं। अब मैंने उसे जान लिया है जो बंदी होता ही नहीं है। इसलिए तुम इस विचार में मत पड़ जाना कि कोई मुझे रोक रहा है। तुम्हें रोक रहा है--सच। तुम यह मत सोचना कि मुझे कोई रोक रहा है। और तुम्हें जो रोका जा रहा है, वह मेरे ही इशारे से रोका जा रहा है।
यहां इतने लोग हैं, अगर तुम सबको पूरे समय सुविधा रहे, जब तुम्हें आना हो आ जाओ, तो फिर किसी को भी आने का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। ऐसी ही हालत थी। सौ-पचास आदमी मुझे घेरे ही रहते थे। किसी को कुछ पूछना है, पूछ ही नहीं सकता था। एक बोलता, दूसरा बोल देता, तीसरा जवाब भी दे देता! कोई डांटने लगता कि तुम चुप रहो जी, तुम्हें कुछ पता नहीं; पहले कुछ सोचो-समझो, क्या पूछ रहे हो! या कोई उत्तर देता कि कृष्ण ने गीता में ऐसा कहा है। मुझे अवसर ही नहीं था। यह सत्संग कहते थे लोग इसको।
उस सबको मुझे तोड़ना पड़ा। उसकी वजह से मुझे यात्रा भी बंद करनी पड़ी। क्योंकि कोई उपाय न था। जिनके घर मैं ठहरता, वे मुझे परेशान कर देते। दिन भर के बाद मैं घर आया हूं, अब उनकी पत्नी को सत्संग करना है, कि उनकी मां को सत्संग करना है, कि उनके पिता को सत्संग करना है। अब उनका परिवार मेरे पास बैठा है। वे मुझे सोने नहीं देंगे। या उन्होंने पड़ोस के लोगों को इकट्ठा कर लिया है। उनके लिए विशेष आयोजन है। क्योंकि हमारे घर रुके हुए हैं, ये हमारे रिश्तेदार हैं, इन सबसे आपको मिलना होगा। यह सब फिजूल समय खराब करना है, शक्ति व्यय करना है।
यहां सब मेरे इशारे से हो रहा है। अगर तुम्हें मुझसे मिलना होता है, और तीन दिन रोका जाता है, तो उसका भी प्रयोजन है। यह मेरे अनुभव में आया, कि तुम जब मिलना चाहो, तभी तो तुम्हें मिलने ही नहीं देना। क्योंकि अक्सर तुम्हारे प्रश्न इतने फिजूल होते हैं कि दो-तीन दिन टिकते ही नहीं; अपने आप चले जाते हैं; उनके जवाब की कोई जरूरत ही नहीं थी। तीन दिन बाद जब तुम मुझसे मिलने आते हो, मैं पूछता हूं कि कहो, क्या कहना है? तो तुम कहते हो, वह तो मामला खत्म ही हो गया। उसमें कुछ सार नहीं है। अब तो पूछना भी व्यर्थ मालूम होता है। तो जिसको पूछना तीन दिन में ही व्यर्थ हो गया, तीन दिन पहले तुम मेरा समय ही खराब करते। वह उस दिन भी व्यर्थ था। अगर तीन दिन पहले सार्थक था, और सच में सार्थक था, तो तीन जन्मों तक भी सार्थक रहेगा; तीन दिन में व्यर्थ कैसे हो जाएगा?
लेकिन कुछ भी ऊलजलूल तुम्हारे दिमाग में उठा, पहुंच गए! तो तुम्हारे दिमाग की खुजलाहट मिटाने के लिए मैं यहां नहीं हूं। कि तुम्हें जरा सी खुजलाहट उठी कि तुम गए सत्संग करने। थोड़ा धैर्य, थोड़ी प्रतीक्षा!
स्मरण रहे, यहां जो भी हो रहा है, मेरे इशारे से हो रहा है। और कभी भी अगर तुम्हें ऐसा लगे कि तुम्हारी मंशा के विपरीत हो रहा है, तो तुम यही सोचना कि तुम्हारी मंशा ठीक नहीं होगी। और यहां तुम आए हो मेरी मंशा से राजी होने, न कि मुझे तुम्हारी मंशा से राजी करवाने। यहां तुम आए हो मेरे साथ चलने और मेरे साथ बहने, न कि मुझे अपने साथ चलाने। तुम्हारे साथ मैं चलूंगा तो तुम्हें रस बहुत आएगा, आनंद बहुत आएगा, लेकिन मैं तुम्हारे किसी काम न आ सकूंगा; तुम्हारे जीवन में निर्वाण की कोई किरण न उतार सकूंगा। तुम अगर मेरे साथ चलोगे तो शायद उतना रस न भी आए, शायद अड़चन भी मालूम पड़े; चढ़ाई का रास्ता होगा; लेकिन तुम कहीं पहुंचोगे।
मेरी नजर तुम्हारी क्षुद्र आकांक्षाएं पूरी करने की नहीं है। मेरी नजर तुम्हारी विराट अभीप्सा को पूरा करने की है। इन दोनों में चुनना पड़ा है। तुम्हारी क्षुद्र आकांक्षाएं बड़ी फिजूल हैं--कि मेरे घर चलिए, हमारे घर भोजन स्वीकार करिए। तुम्हारी ये फिजूल की आकांक्षाएं हैं। इससे सिर्फ तुम्हारे अहंकार को रस मिलता है, और कुछ भी नहीं, कि मेरे घर भोजन करने आए।
मैं तकलीफ में पड़ गया था। सुबह किसी के घर चाय पीनी पड़ती, दोपहर किसी के घर भोजन करना पड़ता, शाम को फिर किसी के घर चाय पीनी पड़ती, रात फिर किसी के घर भोजन करने जाना पड़ता। और सब जगह भीड़-भाड़! भोजन से किसी को प्रयोजन नहीं। चाय पीना भी दुश्वार! मैं चाय पी रहा हूं, तुम सत्संग कर रहे हो। भीड़ इकट्ठी है! मैंने देखा कि इससे तुम्हें मजा तो खूब आ रहा है, लेकिन लाभ कुछ भी नहीं हो रहा है। मनोरंजन हो रहा है, मनोभंजन नहीं हो रहा है।
मनोरंजन से मुझे क्या लेना-देना है? मनोरंजन के तो बहुत उपाय हैं तुम्हारे लिए। मैं तुम्हारा मनोभंजन करना चाहता हूं। तुम्हारा मन टूट जाए, मिट जाए--ऐसी कीमिया तुम्हें देना चाहता हूं। वह कीमिया देने के लिए सारा विशेष आयोजन किया गया है।
तुमने बुद्ध और महावीर का पूरा उपयोग नहीं उठाया। तुम उठा नहीं सकते थे, क्योंकि तुम इन्हीं फिजूल बातों में उनका समय भी खराब करते रहे। तुम चाहो तो मेरा पूरा उपयोग उठा सकते हो। एक ही आकांक्षा मैं तुम्हारी पूरी करना चाहता हूं कि तुम परमात्मा को जान लो, कि तुम समाधिस्थ हो जाओ; बाकी सब गौण है, बाकी सब फिजूल है। बाकी का कोई मूल्य नहीं है। बाकी तुम्हारे क्षुद्र प्रश्न इत्यादि किसी सार के नहीं हैं। उठते हैं, चले जाते हैं। हवा के झोंके हैं--आएंगे, चले जाएंगे। उनमें इतने परेशान मत हो जाओ, न उनमें इतने चिंतित हो जाओ।
यह आश्रम मेरी काया है। ये मेरे हाथ हैं। यहां जो लोग काम में लगे हैं, उनकी अपनी कोई मर्जी नहीं है, इसीलिए उन्हें काम के लिए चुना है। उनसे बेहतर लोग मौजूद हैं, लेकिन उनकी अपनी मर्जी है, इसलिए उन्हें मैं नहीं चुन सकता।
यह भी तुम खयाल में रखना।
जिनको मैंने काम के लिए चुना है, जरूरी नहीं है कि उनसे बेहतर लोग मौजूद नहीं हैं, उनसे बेहतर लोग हैं, लेकिन उनकी एक ही खराबी है कि उनकी अपनी मर्जी है। उनको चुनो तो वे मेरी मर्जी से कम, अपनी मर्जी से ज्यादा चलेंगे। होशियार हैं, कुशल हैं, जानकार हैं।
अब तुम सोचते हो, लक्ष्मी को बिठाना काम के लिए--जहां धन-पैसे का उपद्रव है; जहां बाजार, राज्य की हजार तरह की झंझटें हैं, लक्ष्मी को क्या पता है इन सबका? मेरे पास बेहतर लोग हैं, व्यवसाय में कुशल लोग हैं, लखपती लोग हैं, जो सब कलाएं जानते हैं, सब तरह से होशियार हैं, कुशल हैं; जिंदगी भर का जिनके पास अनुभव है। लक्ष्मी बिलकुल गैर-अनुभवी, उसको बिठाया है। कुछ कारण होगा। अनुभवियों को नहीं बिठाया है। अनुभवी को बिठाते ही से यह मुझे अनुभव हुआ हमेशा कि वह अपनी चलाता है। वह इतना अनुभवी है कि वह कहता है कि आपको कुछ पता नहीं। वह मुझसे ही आकर कहता है कि आपको कुछ पता नहीं! यह काम ऐसे ही होता है। इसमें रिश्वत देनी पड़ेगी। यह बिना रिश्वत के होगा नहीं। अगर रिश्वत न दी गई तो यह चूक जाएगा। और मैं जानता हूं, वह ठीक कह रहा है। जहां तक संसार का अनुभव है, वह ठीक ही कह रहा है। लेकिन उसे मेरे साथ पूरा तादात्म्य नहीं है। वह इतना नहीं कर सकता कि वह मेरी सुन कर चले। मैं कहता हूं, ठीक है, डूबेगा डूबेगा; रिश्वत मत देना। तब वह ऐसी कोशिश करेगा कि मुझे पता ही न चले और रिश्वत दे दे। उसकी भली ही आकांक्षा है। वह कुछ मेरे खिलाफ नहीं है, मेरे पक्ष में ही करने की सोच रहा है, लेकिन फिर भी कहीं मुझसे उसका तालमेल नहीं बैठ रहा है। उसका समर्पण पूरा नहीं है। उसकी समझदारी इतनी है कि समर्पण में बाधा बन रही है। उसे मैं जो भी कहूंगा, उसमें वह अपनी समझ डाल ही लेगा।
इसलिए बहुत मेरे पास संन्यासी हैं, जो ज्यादा काम के हैं; लेकिन एक अड़चन उनके साथ है--उनका अनुभव ही बाधा बन जाता है। इसलिए मुझे ऐसे लोग चुनने पड़े हैं जिनका कोई अनुभव नहीं है। जिन्होंने न कभी व्यवसाय किया है, न राजकीय काम-धंधा किया है। जिन्होंने कुछ किया ही नहीं है इस तरह का। उनको चुनने का कारण है। कारण यही है कि उनके लिए मेरे अतिरिक्त कोई और समझ नहीं है। मैं उनकी समझ हूं। मैं गलत करने को कहूंगा तो वे गलत करने को राजी हैं, सही करने को कहूंगा तो सही करने को राजी हैं। मैं उनको कुएं में कूदने को कहूंगा तो कुएं में कूदने को राजी हैं। उनका राजीपन!
तुम्हें बहुत बार लगेगा कि वे तुम्हारे जीवन में बाधा डाल रहे हैं। और तुम्हें बहुत बार लगेगा कि तुम उनसे कोई काम ज्यादा ठीक से कर सकते हो। मगर तुम एक बात खयाल रखना कि वे सब बांस की पोंगरी की तरह हैं; उन्होंने छोड़ दिया है। स्वर मेरे हैं; बहते उनसे होंगे। इसलिए तुम उन पर नाराज भी मत होना। उनके साथ व्यर्थ के संघर्ष में भी मत पड़ जाना। क्योंकि उनके साथ संघर्ष करने में तुम मुझसे टूट जाओगे, तुम मुझसे अलग हो जाओगे। और यह काम अब बड़ा होने को है। अब यह काम विराट होने को है। अब यह काम छोटा नहीं है। अब जल्दी ही हजारों और लाखों लोग आने वाले हैं। और मैं चाहता हूं कि यह सारी व्यवस्था ऐसी हो कि इसमें जो भी हो, वह मेरे इशारे से हो। नहीं तो जितनी यह बड़ी व्यवस्था हो जाएगी और इसमें अगर बहुत समझदार लोग जगहों पर बैठ गए और जिन्होंने कहा कि इस तरह होना चाहिए, इस तरह होना चाहिए और मैं सिर्फ एक पूजा का पात्र हो गया, तो नुकसान हो जाएगा। तो तुम्हारी सारी कुशलता इस सारे अवसर को नष्ट कर देगी।
इसलिए तुम अपनी कुशलताएं लेकर मत आओ। जिन्हें मेरे उपकरण बनना हो, वे अपना सारा अनुभव, सारी कुशलता छोड़ दें। उन्हें बिलकुल दिखाई पड़ता हो कि यह ठीक है, यही किया जाना चाहिए, तो भी अगर मैं कहूं तो न करें। क्योंकि मुझे कुछ और दिखाई पड़ता है, जो तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। तुम्हें संसार का अनुभव है, मुझे संसार से पार का अनुभव है। तुम्हें इस दुनिया का अनुभव है, मुझे उस दुनिया का अनुभव है। मुझे उस दुनिया की तरफ तुम्हें ले चलना है। तुम्हारा अनुभव बाधा बन जाएगा।
तो अगर तुम चाहते हो कि मेरे विचार-प्रसार में सहयोगी बनो, तो मेरे अनुकूल बनना पड़ेगा। मेरे प्रतिकूल कोई उपाय नहीं है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, सोचता हूं संन्यास लूं, लेकिन निर्णय नहीं कर पाता हूं। आप ऐसा समझाएं कि इस बार बिना संन्यास लिए न जा सकूं। आपका आकर्षण प्रबल है और बार-बार यहां खिंचा चला आता हूं। पर फिर बुद्धि सक्रिय हो जाती है और वैसा का वैसा लौट जाता हूं।
सोचने से किसी ने कभी संन्यास लिया है? सोचने वाले संन्यास कैसे ले सकते हैं? संन्यास और सोचने में विरोध है। संन्यास सोचने की निष्पत्ति नहीं है। संन्यास सोचने का त्याग है। वही अर्थ है संन्यास शब्द का: सम्यक न्यास।
पुराना संन्यास कहता था: संसार को छोड़ना संन्यास है। मैं तुमसे कहता हूं: विचार को छोड़ना संन्यास है; क्योंकि विचार ही संसार है। तुम सोच-सोच कर तो कभी न ले पाओगे। यह तो पागलों का काम है। इसमें सोचना इत्यादि कहां? सोच-सोच कर तो तुम बार-बार आओगे और लौट जाओगे।
राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है।
बीत गया युग एक तुम्हारे
मंदिर की ड्योढ़ी पर गाते,
पर अंतर के तार बहुत से
शब्द नहीं झंकृत कर पाते,
एक गीत का अंत,
दूसरे का आरंभ हुआ करता है,
राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है।
भाषा के उपहार करेंगे
व्यक्त न मेरी आश-निराशा,
सोच बहुत दिन तक मैं बैठा
मन को मारे, मौन बना-सा,
लेकिन तब थी हालत मेरी
उस पगलाई सी बदली की
बिन बरसे-बरसाए नभ में जो उमड़ी ही रह जाती है।
राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है।
चुप न हुआ जाता है मुझसे
और न मुझसे गाया जाता,
धोखे में रख कर अपने को
और नहीं बहलाया जाता,
शूल निकलने-सा सुख होता
गान गुंजाता जब अंबर में,
लेकिन दिल के अंदर कोई फांस गड़ी ही रह जाती है।
राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है।
तुम्हारी बीन चढ़ी ही रह जाएगी, राग बार-बार उतर जाएगा। विचार से राग चढ़ता ही नहीं। विचार से संगीत कहां? विचार से सत्य का अनुभव कहां?
और तुम पूछते हो कि सोचता हूं संन्यास लूं।
अब सोचना छोड़ो। संन्यास लो या न लो, मगर सोचना छोड़ो। सोचना छूटते ही संन्यास घटित होगा। और तब संन्यास की महिमा अपार है। अगर तुमने सोच-सोच कर किसी दिन ले भी लिया तो वह दो कौड़ी का संन्यास होगा। सोच-सोच कर लिए गए संन्यास का कोई मूल्य हो सकता है? उससे क्रांति नहीं होगी। तुम वैसे के वैसे रह जाओगे। फिर तुम सोचने लगोगे: क्या फायदा हुआ? संन्यास ले लिया, कुछ तो नहीं हुआ। फिर तुम नाराज होओगे कि संन्यास से कुछ सार नहीं है, क्योंकि मैंने संन्यास ले लिया और कुछ नहीं हुआ।
संन्यास में सार नहीं है। संन्यास से गहरा सार विचार के त्याग में है। जो विचार छोड़ कर संन्यास लेता है, जो प्रेम में पागल होकर संन्यास लेता है--तो सार है।
‘सोचता हूं संन्यास लूं।’
सोचो मत। संन्यास मैं तुम्हें दूंगा। संन्यास होगा। मगर तुम सोचो मत।
और रही बात, तुम कहते हो: ‘आप ऐसा समझाएं कि इस बार बिना संन्यास लिए न जा सकूं।’
मैं तुम्हें समझाऊंगा नहीं। संन्यास लेने के लिए मैं समझाता नहीं। और हजार बातें समझाता हूं, संन्यास लेने के लिए नहीं समझाता। उन सारी बातों के साररूप में संन्यास की छलांग घटनी चाहिए। और सब समझाता हूं, सिर्फ संन्यास को छोड़ देता हूं। क्योंकि अगर संन्यास को मैंने समझाया, तो मैं वकालत कर सकता हूं संन्यास की, उसमें कुछ अड़चन नहीं है। वकालत करनी मुझे आती है। असल में, मेरे परिवार के लोग बचपन से ही मुझे वकील बनाना चाहते थे, क्योंकि मैं विवादी बचपन से ही था। सारा गांव मुझसे परेशान था--विवाद के कारण। गांव में कोई सभा नहीं हो पाती थी जहां मैं खड़ा न हो जाऊं, और जहां विवाद खड़ा न कर दूं। गांव में कोई महात्मा आता था, तो महात्मा को लाने वाले मेरे पिता को आकर समझा जाते थे--इसको मत छोड़ देना आज घर से! नहीं तो वहां उपद्रव हो जाता है! मुझे भी रिश्वत दे देते थे, मिठाई दे देते थे--आज महात्माजी आए हैं, तुम उस तरफ मत आना और किसी को लेकर मत आना। क्योंकि मैं अकेला नहीं जाता था, दस-पांच को साथ ले जाता था। मैं उपद्रव करता अगर, विवाद खड़ा करता, तो दस-पांच ताली बजाने वाले भी चाहिए न! और फिर जब दस-पांच ताली बजाते हों, तो वे जो और लोग बैठे हैं, वे भी बजाने लगते कि भई, कुछ, जब इतने लोग साथ हैं तो कुछ मामला होगा।
वकालत मुझे आती है। तर्क भी मुझे आता है। मैं तर्क का ही अध्यापक था। इसलिए उसमें कुछ बहुत अड़चन नहीं है। तुम्हें समझा दे सकता हूं। समझा-बुझा कर तुम्हें संन्यास पकड़ा भी दे सकता हूं। मगर वह दो कौड़ी का होगा। उसका कोई मूल्य नहीं है। यह तो प्रेम की छलांग है। यह तो पागलपन की अभिव्यक्ति है।
कहते हो: ‘आपका आकर्षण प्रबल है और बार-बार यहां खिंचा चला आता हूं।’
तो उसी आकर्षण को और प्रबल होने दो। यहां खिंचे चले आते हो, धीरे-धीरे और पास आओगे, और पास आओगे। बैठते-बैठते मेरे पास, यह शराब रंग लाएगी। यह मधुशाला है, यहां इतने पियक्कड़ बैठे हैं। तुम कब तक, तुम कब तक ऐसे बिना पीए चले जाओगे? यहां इतनी ढल रही है, लुंढ रही है! इधर लोग मस्त हो रहे हैं! तुम कब तक ऐसे सिकुड़े-सिकुड़े बैठे रहोगे? एक न एक दिन तुम प्याली हाथ में ले लोगे। झिझकोगे, सोचोगे, विचारोगे--मगर पी जाओगे।
संन्यास शराब जैसा है। फिर लग गई लत तो लग गई। संक्रामक है। इन गैरिक व्यक्तियों के बीच बैठते रहो, उठते रहो, आते रहो, जाते रहो। जल्दी कुछ भी नहीं है। पकने दो।
यह घटना ऐसी घटनी चाहिए जैसी प्रेम में घटती है। देखा एक स्त्री को--पहली नजर का प्रेम कहते हैं न! देखा कि बस हो गया! देखा एक पुरुष को कि हो गया! पूछा नहीं नाम, पूछा नहीं पता, पूछा नहीं गांव, पूछा नहीं ठांव--बस कुछ हो गया! ऐसी ही कुछ बात मेरे-तुम्हारे बीच हो तो गई है--नहीं तो खिंचे कैसे चले आते? मगर ज्यादा बुद्धिमान मालूम होते हो। आते हो, बुद्धि की आड़ लेकर आते हो। बैठते भी होओगे दूर-दूर, वहां जहां मुझे दिखाई न पड़ो। अब मैं तुमको देख रहा हूं, कहां बैठे हो! ऐसे बच न सकोगे। अब नाम तुम्हारा नहीं लूंगा, नहीं तो ये लोग बहुत हंसेंगे और तुम्हें पकड़ेंगे। हालांकि मैं जहां देख रहा हूं, वे लोग भी देख लेंगे कि कौन है।
धार थी तुममें कि उसको आंकते ही, हो गया बलिहार था मैं।
शौक खतरों-जोखिमों से खेल करने का नहीं मेरा नया था,
किंतु चुंबक से खिंचा जैसा
तुम्हारे पास क्यों आ गया था,
कुछ समझने, खयाल करने का
कहां था तब समय, अब सोचता हूं,
धार थी तुममें कि उसको आंकते ही, हो गया बलिहार था मैं।
आग उसकी है, उसे जो बांह में ले
दाह झेले, गीत गाए,
धार उसकी, जो बुझाए प्यास
उसकी रक्त से औ’ मुस्कुराए
वक्त बातों में नहीं आता, परीक्षा
सख्त लेता हर किसी की,
और उसके वास्ते तो जिंदगी में सर्वदा तैयार था मैं।
धार थी तुममें कि उसको आंकते ही, हो गया बलिहार था मैं।
धार तो है यहां। बिजली सा यह जो मैं कौंध रहा हूं तुम्हारे सामने, तुम कब तक आंखें चुराओगे? तुम कब तक भागे-भागे रहोगे? कब तक आंख बंद रखोगे?
आते रहो, जाते रहो! यह घटना घटने वाली है। इसकी मैं भविष्यवाणी किए देता हूं। संन्यास मेरी तरफ से तो हो ही गया है, इसीलिए तो तुम आते हो। मैंने तुम्हें चुन ही लिया है, इसीलिए तो तुम आते हो। तुम्हारी तरफ से देर हो रही है, मेरी तरफ से देर नहीं है।
आज इतना ही।