SHANDILYA

ATHATO BHAKTI JIGYASA 29

TwentyNinth Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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सूत्र

सुकृतजत्वात्‌ परहेतुभावाश्च क्रियासु श्रेयस्यः।। 71।।
गौणं त्रैविध्यमितरेण स्तुत्यर्थत्वात्‌ साहचर्यम्‌।। 72।।
बहिरन्तरस्थमुभयमवेष्टि सर्ववत्‌।। 73।।
भूयसामननुष्ठितिरिति चेदाप्रयाणमुपसंहारान्महत्स्वपि।। 74।।
स्मृतिकीर्त्योः कथादेश्चार्तौं प्रायश्चित्तभावात्‌।। 75।।
शांडिल्य ने भक्ति को दो खंडों में बांटा। एक साधनरूप भक्ति, एक साध्यरूप भक्ति। साधनरूप भक्ति को उन्होंने गौणी-भक्ति कहा और साध्यरूप भक्ति को पराभक्ति। उस विभाजन की ही गहराई और विस्तार में आज के सूत्र हैं।
अक्सर यह भूल हो जाती है कि साधन साध्य समझ लिए जाते हैं। तब साधन ही बाधक हो जाता है। जो नाव तुम्हें उस पार ले जाती है, अगर उस नाव को ही पकड़ लिया, तो उस पार तुम कभी न पहुंच पाओगे। उस पार पहुंचना है, तो इस पार तो नाव पकड़नी होगी, उस पार पहुंच कर नाव छोड़ देनी होगी। नाव अगर छोड़ी नहीं, सोचा कि जो नाव इस पार ले आई है, जिसका इतना आभार है, उसे पकड़ कर बैठ गए, तो वही नाव बाधा हो जाएगी।
श्री अरविंद ने कहा है: प्रारंभ में जो साधक है वही अंत में बाधक हो जाता है। और यह बिलकुल स्वाभाविक है कि जिससे हमें इतना सहारा मिला हो, जिसके आधार से हमें इतने आनंद की उपलब्धि हुई हो, जिसके कारण हमारी प्यास तृप्ति के करीब आई हो, उससे हम बंध जाएं, उससे मोह पैदा हो जाए, उससे आसक्ति बन जाए। संसार की ही आसक्ति बाधा नहीं है, आसक्ति कहीं भी हो तो बाधा है। इसलिए इस विवेचन में जाना अत्यंत आवश्यक है।
कीर्तन है, भजन है, श्रवण है, सत्संग है--सब गौणी-भक्ति है। सत्संग ही करते रहे और सत्संग में ही डूबे रहे और कभी उसके पार न गए तो सत्संग का सार न हुआ। तो फिर तुम सत्संग की आसक्ति में पड़ गए। वह भी एक लत हो गई। और आदत अच्छी हो कि बुरी, आदत बुरी ही होती है। अच्छी-बुरी आदतें नहीं होतीं, आदत बुरी होती है। कोई आदमी शराब पीने की आदत से भरा है, तो हम कहते हैं, बुरी आदत है। और कोई आदमी रोज उठ कर प्रार्थना करता है, तो हम कहते हैं, अच्छी आदत है। अच्छी आदतें होतीं ही नहीं। अगर सुबह रोज उठ कर प्रार्थना करने वाला आदमी जिंदगी भर यही करता रहे और ऐसी घड़ी न आ पाए उसके जीवन में जब वह प्रार्थना से मुक्त हो जाए तो समझना कि यह एक और तरह की शराब हुई। कुछ बहुत फर्क न हुआ।
एक दिन तुम प्रार्थना नहीं करते हो तो दिन भर बेचैनी मालूम होती है। प्रार्थना नहीं करते हो तो लगता है कुछ चूक गया, कुछ खो गया, कुछ कमी-कमी, कुछ रिक्त-रिक्त, कुछ अभाव। यही तो शराबी को होता है। यही धूम्रपान करने वाले को होता है। यही चाय-कॉफी पीने वाले को होता है। फर्क तुममें और उसमें क्या हुआ? दोनों ही आदत के गुलाम हो गए। उसकी आदत शरीर को नुकसान पहुंचाती है, तुम्हारी आदत और भी खतरनाक है, तुम्हारी आत्मा को नुकसान पहुंचा रही है। जिनको तुम बुरी आदतें कहते हो उनकी सीमा तो शरीर है, और जिनको तुम अच्छी आदतें कहते हो वे तुम्हारी आत्मा को भी विकृत कर जाती हैं।
ध्यान रखना है साधक को, उस अवस्था में पहुंचना है जहां सब आदतें चली जाएंगी। जहां सब आदतें चली जाती हैं वहां स्वभाव का आविर्भाव होता है। जब तक आदत है, स्वभाव दबा रहता है। आदत स्वभाव का धोखा देती रहती है। झूठा सिक्का असली सिक्के को दबाए बैठा रहता है। तुमने देखा, अर्थशास्त्र का नियम है कि झूठे सिक्के असली सिक्कों को चलन के बाहर कर देते हैं। तुम्हारे खीसे में अगर एक दस का नोट है असली और एक दस का नोट है नकली, तो तुम पहले नकली को चलाओगे। स्वाभाविक। असली को बचाओगे। असली तो कभी भी चल जाएगा। नकली निकल जाए! इसलिए असली सिक्के चलन के बाहर हो जाते हैं। तिजोड़ियों में बंद हो जाते हैं। नकली सिक्के बाजार में चलते रहते हैं। तुमने किसी पान वाले को चला दिया, पान वाले को जैसे ही समझ आएगी कि नकली है, वह जल्दी से चलाने की कोशिश में लग जाएगा। नकली चलता है, असली रुक जाता है।
और यही जीवन की अवस्था है। यह अर्थशास्त्र का ही नियम नहीं है, यह तुम्हारे आत्यंतिक अध्यात्म का भी नियम है। अगर आदत तुम्हें पकड़ गई, तो स्वभाव का चलन बंद हो जाता है, आदत चलती रहती है। और आदत झूठी है, कृत्रिम है, ऊपर से आरोपित है, सीखी है। किसी ने किसी के साथ रह कर सिगरेट पीना सीख लिया है, तुमने किसी के साथ रह कर प्रार्थना करनी सीख ली है। सिगरेट पीना भी बाहर से आया, प्रार्थना करनी भी बाहर से आई। तुम्हारे भीतर को कब अवसर दोगे? तुम्हारे भीतर जो पड़ा है, कब उमगेगा? कब उसे अंकुरित होने दोगे?
इसलिए साधन को खयाल रखना साधन ही है। उसे छाती से मत लगा लेना। उसी पर मत अटक जाना। साधन कितना ही प्यारा हो!
ऐसा समझो कि तुम बीमार थे, और बड़े रुग्ण थे, मरण-शय्या पर पड़े थे, और किसी औषधि ने तुम्हारे प्राण बचा लिए। अब क्या इस औषधि को जीवन भर पीते ही रहोगे? बीमारी चली गई, औषधि भी जानी चाहिए। जब व्याधि ही चली गई, तो औषधि भी जानी चाहिए।
अगर तुम कहो कि जिस व्याधि से छुड़ाया इस औषधि ने, इतनी महाव्याधि से छुड़ाया इस औषधि ने, इसको अब मैं छोड़ने वाला नहीं! ऐसी कल्याणकारी औषधि को मैं कैसे छोड़ सकता हूं! अब तो इसे छाती से लगा कर रखूंगा। अब तो इसकी पूजा करूंगा। अब तो सुबह-शाम इसका सेवन करूंगा; न खुद ही करूंगा बल्कि औरों को भी कराऊंगा। ऐसी महाकल्याणकारी रामबाण औषधि! अब तुम उपद्रव में पड़े। तुमने औषधि को भी व्याधि बना लिया।
साधन से छूटना है। तभी साध्य उपलब्ध होगा। गौणी-भक्ति पराभक्ति के लिए साधन मात्र है, सीढ़ी मात्र है। उपयोग कर लो, फिर भूल जाओ। जिस क्षण भूल सकोगे, उसी क्षण गीत गाने की बेला आएगी।
बादल घिर आए, गीत की बेला आई।

आज गगन की सूनी छाती
भावों से भर आई,
चपला के पांवों की आहट
आज पवन ने पाई,
डोल रहे हैं बोल न जिनके
मुख में विधि ने डाले,
बादल घिर आए, गीत की बेला आई।

बिजली की अलकों ने अंबर
के कंधों को घेरा,
मन बरबस यह पूछ उठा है
कौन, कहां पर मेरा?
आज धरणि के आंसू सावन
के मोती बन बहुरे,
घन छाए, मन के मीत की बेला आई।
बादल घिर आए, गीत की बेला आई।

चातक ने जल की बूंदों में
स्वाद अमृत का पाया,
आकाशी शिखरों से किसने
सुख का राग सुनाया,
आज करुण सबसे पृथ्वी के
आंगन में एकाकी,
बादल घिर आए, प्रीति की बेला आई।
बादल घिर आए, गीत की बेला आई।

आज अधर की मधु-मदिरा में
डूब अधर जो पाते,
इन रसहीन पदों को क्योंकर
वे फिर-फिर दुहराते
मैं न जहां पहुंचूंगा, मेरे
शब्द पहुंच जाएंगे,
घन छाए, मन की जीत की बेला आई।
बादल घिर आए, गीत की बेला आई।
गीत तुम्हारे भीतर पड़ा है--तुम्हारे स्वभाव का गीत। और जब तक तुम गा न लोगे, तब तक तुम छूटोगे नहीं। मुक्ति का अर्थ क्या होता है? मुक्ति का अर्थ होता है: तुमने अपनी नियति पा ली। तुम जो होने को पैदा हुए थे, हो गए। तभी मुक्ति है। मुक्ति कोई निष्क्रिय अवस्था नहीं है, जैसा कि अनेक लोगों ने तुम्हें समझाया है। मुक्ति का अर्थ यह नहीं है कि तुम पंगु और काहिल होकर और अपने हाथ से अपने जीवन को पक्षाघात लगा कर किसी पहाड़ की गुफा में बैठ गए। वह आत्मघात है, मुक्ति नहीं। मुक्ति का मौलिक अर्थ होता है: तुम्हारे भीतर जो गीत पड़ा था, जिसे गाने को तुम आए थे, उसे तुमने गा लिया। मुक्ति सृजनात्मक है, निष्क्रिय नहीं। और जब तक कोई सृजनात्मक रूप से प्रकट न हो जाए, तब तक आनंद नहीं उपजता।
स्मरण रखना, जैसे प्रत्येक बीज अपनी छाती में फूलों को छिपाए है और जब तक पौधा न बने और वृक्ष बड़ा न हो और फूल न खिलें, तब तक बीज उदास रहेगा। तब तक बीज बेचैन रहेगा। तब तक बीज को विश्राम कहां?
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, चित्त बड़ा बेचैन है, शांति का उपाय बता दें।
चित्त बेचैन है क्योंकि तुम्हारा बीज अभी फूटा नहीं। और अगर तुम्हें शांति का कोई उपाय बता रहा हो तो वह तुम्हारा दुश्मन है। तुम्हें उपाय बताया जाना चाहिए सृजन का, शांति का नहीं। शांति तो सृजन की छाया है। लेकिन तुम्हें सदियों से यही सिखाया गया है। तुम्हारे तथाकथित महात्माओं ने तुम्हें यही बताया है--मुड़ जाओ जिंदगी से। बीजों को मंत्र सिखा दिए हैं ताकि वे बीज ही रहने में शांत रहें। बैठ जाओ जाकर पत्थर बन कर। आंख बंद कर लो। विस्मरण कर दो सब।
लेकिन ध्यान रखो, तुम लौट-लौट कर आओगे। परमात्मा तुम्हें तब तक नहीं छोड़ेगा जब तक तुम अपना गीत न गा लो। जब तक तुम्हारे भीतर पड़े हुए फूल, छिपे हुए फूल प्रकट न हो जाएं। जब तक तुम सुगंध न बिखेरो। जब तक तुम्हारे रंग आकाश में आकर खुल न जाएं। जब तक तुम आकाश के साथ नाच न लो। तुम्हारे भीतर जो दबा पड़ा है, उसके पूर्ण प्रकट हो जाने पर मुक्ति है। जब बीज वृक्ष बन जाता है और वृक्ष में फूल लग जाते हैं, बीज मुक्त हो गया। अब कोई बेचैनी न रही। अब सब तरफ शांति छा जाती है।
तुमने भी इसे अनुभव किया है, लेकिन तुमने इस पर विचार नहीं किया। जब भी तुम कुछ सृजनात्मक करते हो तब एक अपूर्व आनंद का भाव उठता है। तुमने एक मूर्ति बना ली, या तुमने एक चित्र रंग डाला, या कुछ और--हजार काम हैं दुनिया में--तुमने कोई काम कर लिया जो तुम करना चाहते थे, तब उसके पीछे एक शांति अपने आप चली आती है। जब कृत्य का तूफान चला जाता है, तो पीछे से शांति छा जाती है। लेकिन कृत्य का तूफान उठना ही चाहिए। इसलिए मैं पक्ष में नहीं हूं कि कोई संन्यासी संसार छोड़ कर भाग जाए। संसार है अवसर अभिव्यक्ति का। उसे छोड़ कर भाग गए तो तुम वही बीज हो जो जमीन छोड़ कर भाग गया। बैठ जाएगा बीज किसी गुफा में, लेकिन पत्थरों में बीज नहीं ऊगा करते। भूमि चाहिए, नर्म भूमि चाहिए। अवसर चाहिए। जहां वसंत आता हो, जहां भूमि कोमल हो, वहां गिरो, वहां टूटो, वहां उमगो। मुक्ति है सृजनात्मक।
मनुष्य-जाति के धर्मों ने सृजन को बहुत मूल्य नहीं दिया, इसलिए पृथ्वी धार्मिक नहीं हो पाई। सृजन का जितना मूल्य बढ़ेगा, उतनी पृथ्वी ज्यादा धार्मिक हो पाएगी। इसलिए जितने सृजनात्मक लोग हैं, आमतौर से मंदिरों और मस्जिदों में नहीं जाते। वहां काहिलों और सुस्तों की भीड़ इकट्ठी हो गई है। जिन्हें कुछ करना है, वे वहां नहीं जाते। जिन्हें जीवन में कुछ होना है, वे वहां नहीं जाते। और जब काहिल और सुस्त इकट्ठे हो जाते हैं, लंगड़े, लूले, अंधे इकट्ठे हो जाते हैं, मुर्दों की भीड़ लग जाती है, तो जाने-अनजाने हमारे मंदिर-मस्जिद और गिरजे मरघट हो गए हैं। वहां जिंदगी खिलती नहीं, वहां जिंदगी नाचती नहीं, वहां जिंदगी प्रकट नहीं होती। ध्यान रखना।
बादल घिर आए, गीत की बेला आई।
घन छाए, मन के मीत की बेला आई।
बादल घिर आए, प्रीति की बेला आई।
घन छाए, मन की जीत की बेला आई।
बादल घिर आए, गीत की बेला आई।
गीत की बेला कब आएगी? जब तुम्हारा स्वभाव प्रकट होगा। स्वभाव दबा पड़ा है बहुत से कूड़े-कर्कट में। उस कूड़े-कर्कट को छांटना है।
इस छांटने में दो खतरे हैं। एक खतरा है कि साधन, जिससे तुम इस कूड़ा-कर्कट को छांटोगे, कहीं साध्य न हो जाए। दूसरा खतरा है, इस डर से कि कहीं साधन साध्य न हो जाए, तुम साधन का उपयोग ही न करो। तो कूड़ा-कर्कट न छंटेगा।
और इन दो ही खतरों में लोग बंट गए हैं। कुछ हैं जो साधन से डरते हैं; जो कहते हैं, साधन के उपयोग में खतरा है, नाव में बैठना ही मत, क्योंकि जो बैठ गए वे फिर उतरते नहीं। और एक हैं जो कहते हैं, नाव में बिना बैठे तो हम पार कैसे जाएंगे? नाव ही हमें इस पार ले आई। अब हम उतरें कैसे! अब हम उतरेंगे नहीं। कुछ हैं जो साधन से बचते हैं--वे इसी किनारे रह जाते हैं। कुछ हैं जो साधन का उपयोग करते हैं, लेकिन नाव में ही अटक जाते हैं--उस पार वे भी नहीं पहुंच पाते। दोनों ही नहीं पहुंच पाते।
उस पार कौन पहुंचता है?
जो साधन का साधन की तरह उपयोग कर लेता है। और जब जरूरत पूरी हो जाती है तो चुपचाप उतर कर चल पड़ता है। पीछे लौट कर भी नहीं देखता। बीमार होता है तो औषधि का प्रयोग करता है, बीमारी गई तो औषधि को विदा कर देता है। फिर औषधि को नहीं पकड़ लेता।
ऐसा ही समझो कि तुम्हारे पैर में एक कांटा लगा है, उसे निकालने को तुम दूसरे कांटे का उपयोग कर लेते हो। लेकिन जब दोनों कांटे आ गए हाथ में--गड़ा हुआ कांटा भी निकल आया--तो फिर तुम, जिस कांटे ने गड़े हुए कांटे को निकाला, उसे बचा थोड़े ही लेते हो! उसे घाव में थोड़े ही रख देते हो कि इसकी बड़ी कृपा है, अब इसको रख लें अपने पैर में। तुम दोनों को फेंक देते हो।
साधन भी फेंका जाना है। इसीलिए उसे गौण कहा है। और जब साधन चला जाएगा, तभी साध्य का आविर्भाव है।
इन सूत्रों को खयाल से समझना।
सुकृतजत्वात्‌ परहेतुभावात्‌ च क्रियासु श्रेयस्यः।
‘यह सब कार्य पराभक्ति में पहुंचने के हेतुरूप हैं, एवं सब प्रकार के पुण्य कार्यों में श्रेष्ठ हैं।’
‘पराभक्ति में पहुंचने के हेतुरूप!’
पराभक्ति का अर्थ है: वैसी चित्त की दशा जहां भक्त और भगवान में कोई भेद न रह जाएगा। पराभक्ति का अर्थ है: जहां भगवान और भक्त पिघल कर एक हो जाएंगे। जैसे बर्फ की चट्टान पिघल कर जल से एक हो जाए, ऐसे हमारा अहंकार जहां पिघल कर भगवत्ता में लीन हो जाएगा, जहां हम न बचेंगे, जहां हमारी कोई धारणा न बचेगी; हम, जैसे बीज जमीन में टूट जाता है, ऐसे ही टूट जाएंगे और बिखर जाएंगे, तभी जो छिपा है हमारे भीतर, प्रकट होगा। तभी सृजनात्मकता अपने शिखर पर पहुंचती है। पराभक्ति का अर्थ है: जहां भक्त विलीन हो जाता है।
और ध्यान रखना, जहां भक्त विलीन होता है वहां भगवान भी विलीन हो जाता है। भगवान भी भगवान की तरह तभी तक मालूम होता है जब तक भक्त है। वह भक्त की धारणा है। जब भक्त ही न रहा तो उसकी धारणा कहां रहेगी? जब गंगा सागर में गिर जाती है तो गंगा ही विलीन नहीं हो जाती, सागर भी गंगा में विलीन हो जाता है। भक्त भगवान में गिर कर नुकसान में नहीं पड़ता--क्षुद्र खोता है और विराट अपना हो जाता है। द्वैत समाप्त जहां हो जाता है, उस स्थिति का नाम है--पराभक्ति।
उस पराभक्ति के लिए ये साधन हैं--श्रवण, मनन, निदिध्यासन, सत्संग, भजन, कीर्तन, नर्तन इत्यादि। इन सब साधनों का उपयोग कर लेना। ये सभी साधन उपयोगी हैं। मगर सतत जागरूकता रखना, कोई साधन ऐसा न पकड़ जाए कि फिर छूटे न। तुम मालिक रहना। साधनों को मालिक मत बन जाने देना।
चीन में एक बड़ी प्रसिद्ध कथा है। एक फकीर के संबंध में खबर उड़ी कि वह परमज्ञान को उपलब्ध हो गया है। तो एक दूसरा फकीर उससे मिलने गया। यह दूसरा फकीर जब पहुंचा तो पहला फकीर अपनी गुफा के द्वार पर एक चट्टान पर बैठा था। बड़ी भयंकर जगह थी। सिंह दहाड़ रहे थे। यह पहला फकीर जाकर पहुंचा वहां और अचानक एक सिंह दहाड़ा। तो उसकी छाती कंप गई, उसके हाथ-पैर कंप गए। उस गुफा में रहने वाले फकीर ने कहा, तो अभी तुम्हारा भय गया नहीं? आगंतुक फकीर ने कहा, मुझे बड़ी प्यास लगी है; लंबी यात्रा से पहाड़ चढ़ कर आ रहा हूं; पानी मिल सकेगा? तो उस गुफा में रहने वाला फकीर गुफा के भीतर पानी लेने गया। जब तक वह पानी लेने गया, इस आगंतुक फकीर ने जिस जगह यह फकीर बैठा था--पहला फकीर बैठा था--उस जगह ‘नमो बुद्धाय’, बौद्धों का मंत्र लिख दिया। बुद्ध को नमस्कार! एक पत्थर उठा कर पत्थर पर लकीर खींच दी, लिख दिया--‘नमो बुद्धाय।’ गुफा में रहने वाला फकीर आया और जब वह बैठने को था तब उसकी नजर पड़ी। उसका पैर ‘नमो बुद्धाय’ पर पड़ गया। वह एकदम कंप गया। आगंतुक फकीर हंसने लगा और उसने कहा, भय तो तुम्हारा भी अभी नहीं गया। मेरा भय तो स्वाभाविक भय है, तुम्हारा भय बड़ा अस्वाभाविक है। और कहते हैं कि यह कहते ही, अतिथि के द्वारा यह कहे जाते ही आखिरी बात टूट गई, वह गुफा में रहने वाला फकीर हंसा और बैठ गया ‘नमो बुद्धाय’ पर। और उसने कहा, बस आखिरी बंधन रह गया था, तुम भले आए, तुमने वह भी तोड़ दिया। अब उसका भी भय नहीं है।
स्वाभाविक। ‘नमो बुद्धाय’ जप-जप कर उसे बड़ी शांति मिली थी, बड़ा आनंद हुआ था। ‘नमो बुद्धाय’ उसकी भित्ति थी, उसका मंत्र था, उसके ही आधार पर सारा भवन खड़ा किया था। स्वाभाविक है कि भय लगे कि कहीं बुद्ध के ऊपर पैर न पड़ जाए। तुम्हारा भी पैर अगर गीता में लग जाता है तो जल्दी से छूकर नमस्कार कर लेते हो न गीता को! मंदिर की मूर्ति से अगर धक्का लग जाए तो एकदम गिर पड़ते हो साष्टांग कि क्षमा करना! एकदम घबड़ाहट हो जाती है। तो साधन मालिक हो गया। मालिक गुलाम हो गया और गुलाम मालिक हो गया।
मूर्ति का उपयोग कर लो, लेकिन गुलाम मत हो जाना। मूर्ति आखिर मूर्ति है; और किताब आखिर किताब है; और मंत्र आखिर मंत्र है। मंत्र में जो बल है वह मंत्र में नहीं है, मंत्र में जो बल है वह तुम ही डालते हो। वह तुम्हारा ही बल है जो मंत्र में प्रतिफलित होता है। असल में यह आदमी ‘नमो बुद्धाय’ कह-कह कर शांत नहीं हुआ है; क्योंकि दूसरे लोग हैं जो और कुछ कह कर शांत हो गए हैं।
अंग्रेजी के महाकवि टेनिसन ने लिखा है कि मुझे तो दूसरा कोई मंत्र कभी जमा ही नहीं। मैं तो अपना ही नाम दोहराता हूं और बड़ी शांति मिलती है--टेनिसन, टेनिसन, टेनिसन। उसे बचपन से यह पकड़ गया। जंगल से निकलता था, घबड़ाहट लगी, अकेला था, कुछ और सूझा नहीं कि क्या करूं, तो जोर-जोर से टेनिसन, टेनिसन--अपने को जगाने लगा कि मत घबड़ा टेनिसन! याद कर अपनी! क्यों डरता है? टेनिसन, टेनिसन, टेनिसन। और उसे बड़ी शांति मिली। सूत्र हाथ लग गया। फिर जब भी उसे बेचैनी होती, वह बैठ कर अपना नाम दोहरा लेता। रात नींद न आती, अपना नाम दोहरा लेता। और नींद आ जाती। और बेचैनी होती तो बेचैनी शांत हो जाती। फिर तो हाथ लग गई कला। फिर तो वह बूढ़ा भी हो गया तो भी इसे दोहराता रहा।
खयाल रखना, राम में कुछ भी नहीं है। न कृष्ण के नाम में कुछ है, न बुद्ध के नाम में कुछ है। नाम में तो तुम डालते हो। तुम जो डालते हो वही तुम्हें मिल जाता है। इसलिए मोहम्मद का नाम लेकर भी लोग पहुंच जाते हैं, महावीर का नाम लेकर भी पहुंच जाते हैं। अब यह मजा देखो! यह टेनिसन को अपना ही नाम लेकर पहुंचना हो गया। तुम जरा किसी एकांत में बैठ कर कभी अपना ही नाम दोहराना, बड़ी शांति मिलेगी। तब तुम चकित होओगे कि महर्षि महेश योगी से मंत्र लेने की कोई जरूरत नहीं है। कोई भी शब्द। शब्द का मूल्य नहीं है। जब एक शब्द पर तुम आरूढ़ हो जाते हो, उस आरूढ़ता का मूल्य है। शब्द कौन है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। शब्द का तुम्हें अर्थ भी पता न हो तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। एक ही शब्द रह जाता है, एक ही शब्द घूमता है, और सारे शब्दों को हटा देता है। एक ही शब्द पर सारे प्राण केंद्रित हो जाते हैं, एकाग्र हो जाते हैं। उस एकाग्र हो जाने से शांति का अनुभव होता है। उसी एकाग्रता में धीरे-धीरे एक अपूर्व नई केंद्रित चेतना पैदा होने लगती है। एक समग्र चेतना का आविर्भाव होने लगता है। लेकिन खेल सब तुम्हारा है।
इसलिए ऐसा हो जाता है कि तुम्हारी मूर्ति को अगर तुम पूजते हो, जरा पैर लग जाता है तो तुम दिन भर डरे रहते हो कि भूल-चूक हो गई, अब क्या होगा, क्या नहीं होगा। उसी मूर्ति को आकर कोई तोड़ जाता है, जिसको मूर्ति में भरोसा नहीं, उसको कुछ भी नहीं होता। मूर्ति में कुछ भी नहीं है, तुम्हारे भाव में सब कुछ है।
भक्ति अर्थात मौलिक रूप से भाव। तुम जितना डालते हो उतना पाते हो। यही तो भ्रांति हो गई।
सोमनाथ पर हमला हुआ। गजनवी आया। बारह सौ पुजारी थे, बड़ा मंदिर था। कहते हैं पृथ्वी का सबसे बड़ा मंदिर था। और सबसे धनी मंदिर था उस समय का। आस-पास के राजपूतों ने खबर भेजी मंदिर के महापुजारी को कि हम आ सकते हैं और लड़ सकते हैं। लेकिन पुजारी ने कहा, तुम्हारे लड़ने की जरूरत क्या? जो भगवान सबकी रक्षा करता है, उसको तुम्हारी रक्षा की जरूरत है? पुजारियों के तर्क में भी बल तो था। राजपूतों को भी लगा कि बात तो ठीक है। सबका रक्षक अगर अपनी रक्षा न कर सके, तो फिर हमारी रक्षा क्या करेगा? हम उसकी रक्षा करने जाएं, यह बात ही बेहूदी है।
इसलिए गजनवी को कोई अवरोध नहीं हुआ। गजनवी से कोई लड़ा नहीं। गजनवी सीधा मंदिर में प्रवेश कर गया। लेकिन पुजारियों से एक भूल हो गई। वह भगवान तुम्हारे लिए भगवान था, तुमने उसमें भाव की प्रतिष्ठा की थी। गजनवी को तो नहीं था। उसने उठाई गदा और भगवान को टुकड़े-टुकड़े कर दिया। भगवान चारों खाने चित्त पड़े! पुजारी चौंके कि यह भगवान को क्या हो गया? और उन्होंने भगवान की मूर्ति में छिपा रखे थे बहुमूल्य हीरे-जवाहरात, वे सब बिखर गए।
खयाल रखना, अगर पुजारी का धक्का भी लग जाता भगवान को, पैर भी लग जाता, तो शायद उसे बड़ा कष्ट होता। कष्ट होता, प्रायश्चित्त होता; बीमार हो सकता था--कोढ़ निकल सकता था। और सब उसके ही मन का खेल होता। मर भी सकता था, कि मुझसे ऐसी भूल हो गई! भूल इतनी गहरी उतर सकती थी, भीतर पश्चात्ताप इतना सघन हो सकता था कि मौत भी हो जाती। गजनवी का कुछ बाल बांका न हुआ, सिर में दर्द भी न हुआ। गजनवी को वहां भगवान था ही नहीं।
इसको बहुत खयाल से समझ लेना। हम प्रतिष्ठा करते हैं साधन में। और जो प्रतिष्ठा करता है, उसके लिए साधन कारगर है। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि जिन्होंने प्रतिष्ठा की, उन्होंने गलती की। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि प्रतिष्ठा मत करना। अभी प्रतिष्ठा करनी पड़ेगी तो ही ऊपर उठोगे। लेकिन इतना ध्यान रखना कि एक दिन सारी मूर्तियों से मुक्त हो जाना उचित है।
इस्लाम ठीक कहता है कि मूर्ति से मुक्त हो जाना उचित है। और इस्लाम गलत कहता है कि मंदिर में मूर्ति मत रखो। तुम थोड़े चौंकोगे मेरे इन दो वक्तव्यों से। इस्लाम ठीक कहता है कि मूर्ति से मुक्त होना चाहिए। लेकिन यह साधन की अंतिम अवस्था है। कोई कभी पहुंचता है। और जो पहुंच जाता है वह मंदिरों में पूजा करने नहीं जाता। उसको क्या जरूरत है जाने की? लेकिन जो नहीं पहुंचे हैं, वे सोचते हैं कि मंदिर में मूर्ति की कोई जरूरत नहीं। वे सदा भटकते रहेंगे। वे कभी नहीं पहुंचेंगे। तो इस्लाम ठीक कहता है और इस्लाम गलत कहता है। और हिंदू भी ठीक कहते हैं और हिंदू भी गलत कहते हैं। हिंदू ठीक कहते हैं कि मूर्ति की जरूरत है, मूर्ति के बिना सहारे नहीं हो सकेगा। लेकिन गलती फिर होती है जब मूर्ति छूटती ही नहीं। मूर्ति इतनी मूल्यवान हो जाती है कि छोड़ी ही नहीं जाती। पकड़ जाती है। घबड़ाहट लगती है--मूर्ति को कैसे छोड़ दें?
मूर्ति में स्थापित करो भाव को, लेकिन एक दिन भाव को मुक्त भी कर लेना। भजन में डूबो, लेकिन एक दिन भजन को भी जाने देना। क्योंकि है तो भजन भी शोरगुल। तुम्हें बुरा लगे, भला लगे, मगर है तो भजन भी शोरगुल। है तो भजन भी बाजार। अंतिम अवस्था तो निर्विचार की है। वहां कहां भजन, कहां कीर्तन! वहां तो सब शांत हो जाता है, वहां तो तरंगें ही लीन हो जाती हैं।
शांडिल्य बहुत वैज्ञानिक हैं। वे कहते हैं: ध्यान रखना, इन सबका लाभ है। श्रवण का लाभ है, मनन का लाभ है, अध्ययन का लाभ है; निदिध्यासन, सत्संग का लाभ है; भजन, कीर्तन, नर्तन का लाभ है, सबका लाभ है, लेकिन परम लाभ इनमें नहीं है। इनका उपयोग सीढ़ियों की भांति कर लेना।
यह सब कार्य पराभक्ति में पहुंचने के हेतुरूप हैं। और यह भी कहते हैं कि सब प्रकार के पुण्यों में श्रेष्ठ हैं।
तुमने किसी को दान दिया, तुमने मंदिर बनवाया, तुमने एक धर्मशाला खुलवा दी; ग्रीष्म के दिन आए और तुमने पानी पिलाने की मुफ्त व्यवस्था करवा दी; सब ठीक है, लेकिन कीर्तन के बराबर इसका कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि तुम जो भी करोगे, उसमें कहीं न कहीं तुम्हारा अहंकार परिपुष्ट होगा। मैंने धर्मशाला बनवा दी! मैंने मंदिर बनवा दिया! मैंने इतने लोगों को भोजन करवा दिया! कहीं सूक्ष्म में मैं मजबूत होगा।
तुम देखते नहीं, अक्सर ऐसा हो जाता है कि तुम्हारा पापी तो विनम्र होता है, तुम्हारा पुण्यात्मा बहुत अहंकारी होता है। अब जिसने मंदिर बनवाया वह अकड़ कर न चले तो कौन चले? जिसने दान दिया वह अकड़ कर न चले तो कौन चले? उसकी अकड़ में तर्क मालूम पड़ता है, कारण मालूम पड़ता है। उससे तुम कह भी नहीं सकते कि अकड़ कर क्यों चल रहे हो? पापी तो विनम्र हो जाता है और पुण्यात्मा अहंकारी हो जाता है। और वहीं चूक हो गई।
इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि पापी तो कभी-कभी परमात्मा तक पहुंच जाता है, पुण्यात्मा नहीं पहुंच पाता। क्योंकि पापी की विनम्रता ही द्वार बन जाती है। वह कहता है, मैं ना-चीज, मैं ना-कुछ; सिवाय बुरे के मुझसे कभी कुछ अच्छा नहीं हुआ। चोरी हुई मुझसे, हत्या हुई मुझसे, बेईमानी हुई मुझसे। मुझसे अंधेरा ही अंधेरा फैला है। तो उसका अहंकार खड़ा कैसे हो? उसके अहंकार के खड़े होने के लिए जगह नहीं है। उसको कारण ही नहीं मिलता कि मैं घोषणा कर सकूं कि मैं कुछ खास हूं। वह तो जानता है कि मैं तो दलित से भी दलित, पापी से भी पापी! मुझे तो होना ही नहीं चाहिए। वह तो झुका हुआ है।
लेकिन पुण्यात्मा? वह फेहरिस्त तैयार रखता है। अगर उसको परमात्मा भी मिल जाए कहीं भूल-चूक से--परमात्मा मिलता नहीं पुण्यात्मा को, डरता है परमात्मा पुण्यात्मा से, क्योंकि वह अपनी पूरी बही खोल देगा, वह कहेगा: इतना किया, इतना किया, इतना किया। इस सबका फल कहां है? हमने तो सुना था कि देर है, अंधेर नहीं। लेकिन अंधेर हो रहा है। फल कहां है? मुझे फल चाहिए। पापी तो गिर पड़ेगा, वह कहेगा: क्षमा चाहिए मुझे। पुण्यात्मा कहेगा: फल चाहिए मुझे।
फर्क समझ लेना।
पापी को परमात्मा मिल जाए तो वह गिर पड़ेगा पैर में और वह कहेगा: मुझे क्षमा कर दो, मुझे माफ करो। मैंने बुरा ही बुरा किया है। मैं सिर भी उठाऊं तुम्हारे सामने, इस योग्य नहीं। मैं आंख भी उठा कर तुम्हें देखूं, इस योग्य नहीं हूं। सिर्फ पापों की गठरी है मेरे ऊपर। मेरा तो एक ही भरोसा है कि तुम करुणावान हो। और कोई भरोसा नहीं है। मुझमें भरोसा नहीं है भीतर, तुममें भरोसा है, तुम्हारी करुणा अपार है। तुम चाहोगे तो मुझ पापी को भी उबार लोगे। मगर तुम चाहोगे तो ही उबार सकोगे। अपने से तो मैं डूबने ही वाला हूं। अपने से तो मैं डूब ही गया हूं। मेरे किए कुछ होने वाला नहीं है। और इसी में उबरना है। यही विनम्रता परमात्मा से जोड़ देती है।
पुण्यात्मा सोचता है, मेरा अपना किया हुआ है। अपनी बनाई सीढ़ियां हैं। इन्हीं से चढ़-चढ़ कर पहुंच जाऊंगा मोक्ष तक। यही अहंकार उसे नरक ले जाता है।
इसलिए शांडिल्य कहते हैं कि ये भजन, कीर्तन, नर्तन, सत्संग सभी पुण्यों से श्रेष्ठ हैं। क्यों? क्योंकि भजन की मौलिक शर्त यही है कि तुम करने वाले नहीं होने चाहिए। भजन हो, किया न जाए, यह उसकी मौलिक शर्त है। तुम डोलो, मगर अपने को डुलाना मत। डुलाया कि चूक गए। डुलाया कि तुमने कृत्रिम कर लिया, अभिनय कर लिया। फिर तुम अभिनेता हो। तुम अच्छी तरह से डोल सकते हो, अच्छी तरह से आंसू भी बहा सकते हो, मगर वह सब अभिनय है। भजन की मौलिक शर्त है--होने देना, भाव से उमगने देना, तुम्हारे भीतर से बहने देना। कर्ता मत बनना उसके। सहज हो, स्वाभाविक हो, स्वस्फूर्त हो, तो भजन।
पुण्य करना पड़ता है। अगर भजन भी करना पड़े, और ऐसा हो जाता है, तो फिर चूक हो गई। वह भजन ही नहीं है। तुमने देखा, कभी तुम मंदिर गए, अगर कोई देखने वाला नहीं तो तुम पूजा-पत्री जल्दी से कर लेते हो। कोई देखने ही वाला नहीं तो सार भी क्या! दो-दो सीढ़ियां एक साथ चढ़ जाते हो। कुछ लकीरें यहां-वहां छोड़ कर जल्दी आगा-पीछा किया, देख रहे हो कि कोई देखने वाला ही नहीं तो फायदा भी क्या! लेकिन अगर सारा गांव इकट्ठा हो...
मैं छोटा था तो अपने गांव के मंदिर जाता था। वहां मैं यही देखने जाता था कि वहां किस-किस ढंग की प्रार्थना होती है। जब कभी मंदिर में कोई उत्सव होता और भीड़ होती तो मैं उन्हीं लोगों को प्रार्थना करते देखता जिनको मैंने अकेले में भी प्रार्थना करते देखा है--लेकिन वे देखते कि एक छोकरा बैठा है, इससे क्या लेना-देना! मैं बैठा रहता। और वे देखते कि यह तो अक्सर बैठा रहता है आकर, इसका क्या लेना-देना! लेकिन जब भीड़ होती, उत्सव होता गांव में, मंदिर में सारे लोग इकट्ठे होते, तब उनका भाव देखते बनता था! तब मैं सोचता कि यह बात क्या है? उत्सव के दिन भगवान होता है? जब उत्सव नहीं होता, गांव के लोग इकट्ठे नहीं होते, तब भगवान नहीं होता? तब वह उनकी आंखों से आंसू गिरते। वे हाथ में थालियां लेकर पूजा की और नाचते, और ऐसे मस्त हो जाते जैसे सब भूल गए संसार! और इनको ही मैंने उस समय भी प्रार्थना करते देखा है जब कोई नहीं होता, मैं ही अकेला वहां बैठा होता। तो ये जल्दी से, देर न लगती इनको, जल्दी से निपटा कर वे गए! और जब भीड़-भाड़ होती तब घंटों लग जाते! गिर-गिर पड़ते! समाधि अवस्था लग जाती।
मुझे छोटे से ही जिज्ञासा रही। तो जब भी किसी की समाधि लगती थी तो मैं सुई इत्यादि लेकर वहां मौजूद--जांच के लिए। एक सज्जन को मेरे गांव में अक्सर समाधि लग जाती थी। वे मुझे देखते ही से डरते थे। वे कहते थे, तुम सुई वगैरह मत लाना। क्योंकि जब मैं समाधि में होता हूं, तुम सुई चुभाते हो। और भीड़ में कौन देखता है! भीड़ लगी रहती, मैं उनको सुई चुभाता। मैं देखता कि अब ये...और वे हिलने-डुलने लगते, सुई से परेशान होने लगते। वह समाधि वगैरह सब दिखावा था। मुसलमानों के वली उठते, मैं उनके पीछे सुई लेकर चला जाता।
मुझसे गांव में लोग डरने लगे--वली, समाधि इत्यादि करने वाले लोग! तुम चकित होओगे, मुझे एक वली मिठाई देते थे। जब उनका वली उठता था, उसके एक दिन पहले वे मुझे मिठाई दे जाते कि भैया, तू सुई मत चुभाना। क्योंकि बड़ा दर्द होता है।
लोग देखते हैं--देखने वाले आए हैं या नहीं? यह सब अभिनय है। यह न तो भजन है, न यह कीर्तन है, न यह समाधि है। इस सब उपद्रव में मत पड़ना। यहां कर्ता आ गया। यहां अहंकार प्रविष्ट हो गया। और जहां अहंकार है, वहां परमात्मा नहीं। सहज भाव से होने देना। सरलता से होने देना। इसमें कोई प्रयोजन न हो। यह तुम्हारा सहज आनंद हो। फिर अकेले में भी हो, कि भीड़ में हो, कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। कोई देखने वाला हो कि कोई देखने वाला न हो, कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। देखने वाले के लिए थोड़े ही तुम प्रार्थना कर रहे हो! वह जो सदा देख रहा है उसके लिए प्रार्थना कर रहे हो। उस पर ही नजर रखो। और किसी पर नजर नहीं होनी चाहिए।
मैंने सुना है, इंग्लैंड की महारानी एक बार लंदन के एक बड़े चर्च में गई। बड़ी भीड़ थी। रानी बहुत चकित हुई। उसने पादरी को पूछा कि मैं तो सोचती थी लोगों का धर्म में विश्वास उठा जा रहा है। यहां इतनी भीड़ देख कर मुझे संदेह होता है उस बात में। इतने लोग, इतने भाव से चर्च में आए हुए हैं!
उस पादरी ने कहा, आप कभी बिना खबर किए आएं। यहां कोई नहीं आता है। ये सब आपके लिए आए हैं, ये परमात्मा के लिए नहीं आए हैं। आपके आने के पहले हम परेशान हो गए हैं, दो दिन से फोन ही फोन आ रहे हैं, कि रानी निश्चित आ रही हैं? और मैं फोन पर लोगों को समझा रहा हूं कि रानी का तो पक्का नहीं, लेकिन परमात्मा निश्चित रहेंगे। मगर परमात्मा में किसी की उत्सुकता ही नहीं है। वे कहते हैं, परमात्मा ठीक, हम पूछते हैं कि रानी आ रही हैं कि नहीं?
परमात्मा से किसको लेना-देना है? लेकिन रानी अगर आ रही हो तो लोग वहां मौजूद होना चाहते हैं। पहली पंक्ति में होना चाहते हैं। रानी को देख कर एकदम समाधि लगने लगेगी उन्हें! और तुम समझोगे कि भगवान के लिए बड़ा भाव पैदा हो रहा है। सावधान रहना! दूसरों से ही नहीं, अपने से भी सावधान रहना! अपने भीतर परख करते रहना।
सबसे श्रेष्ठ बात तो वही है, सबसे बड़ा पुण्य तो वही है, जब तुम्हारा अहंकार गलता है। और उस गलित अहंकार में से असहाय अवस्था की आह उठनी शुरू होती है। वही आह भजन है। आंसू टपकने शुरू होते हैं। नहीं कि तुम उन्हें गिराते हो। तुम सम्हालना भी चाहो तो नहीं सम्हाल पाते हो।
हम क्या करें न तेरी अगर आरजू करें
दुनिया में और कोई भी, तेरे सिवा है क्या
भक्त करे क्या? भजन करना नहीं होता, भजन होता है।
हम क्या करें न तेरी अगर आरजू करें
दुनिया में और कोई भी, तेरे सिवा है क्या
भक्त असहाय होता है। कृत्य की तरह प्रार्थना नहीं निकलती। उसकी असहाय अवस्था की आह है! भक्त भगवान से बातें करता है, वही भजन है। भक्त बिलकुल पागल है, वही पागलपन भजन है।
आप ही कहिए कि फिर आप पे क्या गुजरेगी
जुल्म ऐसा ही अगर आप पे ढाया जाए
भक्त भगवान से बातें करता है—
आप ही कहिए कि फिर आप पे क्या गुजरेगी
जुल्म ऐसा ही अगर आप पे ढाया जाए
जैसा तुम मुझे छोड़ दिए हो अंधेरे में, जैसा तुम मुझे छोड़ दिए हो इस अंधेरी गर्त में, ऐसा ही तुम्हारे साथ किया जाए तो आप पर क्या गुजरेगी? ये बातें, यह गुफ्तगू, यह वार्तालाप पागल ही कर सकता है। होश वाला आदमी तो कहेगा, किससे मैं बातें कर रहा हूं? कोई दिखाई तो पड़ता नहीं! इससे तो जाकर अपनी दुकान ही चलाओ, उसमें कुछ लाभ है। यहां बैठा किसके लिए रो रहा हूं? यह मैं जो पुकारता हूं, यह सब सूने आकाश में खो जाएगा।
भक्त के लिए अस्तित्व सूना नहीं है। यहां सब तरफ जीवंत कुछ छिपा है, जो शायद चमड़े की आंखों से दिखाई न भी पड़े, शायद बाहर के हाथों से स्पर्श जिसका हो भी न सके। लेकिन जब भाव खुलता है, तो तत्क्षण संबंध जुड़ जाता है।
मालूम थीं मुझे तेरी मजबूरियां मगर
तेरे बगैर नींद न आई तमाम रात
उम्मीद तो बंध जाती, तस्कीन तो हो जाती
वादा न वफा करते, वादा तो किया होता
ऐसी बातें करता है। बाहर से कोई देखेगा भक्त को तो निश्चित समझेगा कि विक्षिप्त हो गया है। बाहर से देखने का कोई उपाय ही नहीं है। भक्त को तो भीतर से ही जाना जा सकता है। कुछ बातें हैं जो भीतर से ही जानी जा सकती हैं। बाहर से जानीं कि गलत ही जानोगे। प्रेमी भी इसीलिए पागल मालूम पड़ता है। अब तुम अगर मजनू को देखोगे लैला से बातें करते, तो पागल ही समझोगे। तुमने भी कभी किसी से प्रेम किया है, याद भी करोगे लौट कर अब तो तुम खुद अपने को पागल समझोगे। तुम कहोगे, वह जवानी थी, वे पागलपन के दिन थे। बूढ़े होकर सभी लोग होशियार हो जाते हैं। बूढ़े होकर सोचने लगते हैं--वह जवानी थी, वह पागलपन था। वह न तो पागलपन था, न जवानी थी। वह तुम्हारे भाव में अभी जीवंतता थी, उसका परिणाम था।
रामानुज के पास एक आदमी आया और उसने कहा कि मुझे परमात्मा से मिला दें।
रामानुज ने कहा, परमात्मा की बात पीछे करेंगे, मैं तुझसे यह पूछता हूं--तूने कभी किसी से मोहब्बत की? कभी किसी से प्रेम किया?
उस आदमी ने कहा, मैं इस झंझट में कभी पड़ा ही नहीं; मुझे तो परमात्मा से मिलना है।
रामानुज ने कहा, फिर-फिर कहा, कि तू मुझे बता, सोच कर बता--किसी से कभी, मित्र से, मां से, भाई से, पिता से, पत्नी से, किसी स्त्री से, किसी से तो प्रेम किया होगा?
उस आदमी ने कहा कि नहीं, मैं इस सांसारिक झंझट में पड़ा ही नहीं।
तो रामानुज ने कहा कि मैं असहाय हूं। क्योंकि अगर तूने प्रेम जाना ही नहीं, तो भक्ति तू कैसे जानेगा? क्योंकि भक्ति तो प्रेम का ही विस्तार है। वह उसकी पराकाष्ठा है।
प्रेमी तो छोटा-मोटा पागल है। कम से कम जिससे वह बातें कर रहा है वह मौजूद तो है! भक्त बिलकुल पागल है! इसलिए केवल जो पागल होने का साहस रखते हैं, वे ही केवल भक्ति में प्रवेश कर सकते हैं। दीवानों का काम है, मस्तों का काम है! समझदारी से दुनिया मिलती है, समझदारी से परमात्मा नहीं मिलता। मैं तुम्हें याद रखने को कहना चाहता हूं--समझदारी से दुनिया मिलती है, नासमझी से परमात्मा मिलता है। जितने दानां हो जाओगे उतनी दुनिया पा लोगे, लेकिन जितने नादान हो जाओगे उतने परमात्मा को पा लोगे। जितने निर्दोष हो जाओगे, जितने सरल चित्त, छोटे बच्चे की भांति हो जाओगे।
सबसे बड़ा पुण्य कहा शांडिल्य ने--भजन, कीर्तन, नर्तन। लेकिन ध्यान रखना, ये सब गौण हैं। ये सब यात्रा के उपाय हैं। मंजिल पर पहुंच कर ये सब चले जाने चाहिए। इनको पकड़ मत लेना। इनका अभ्यास मत कर लेना। इनसे गुजर जाना, इनसे अटक मत जाना।
गौणं त्रैविध्यम्‌ इतरेण स्तुत्यर्थत्वात्‌ साहचर्यम्‌।
‘गौणी-भक्ति तीन प्रकार की होती है--आर्त, जिज्ञासु और अर्थार्थी। उनके साथ ज्ञानी-भक्ति का नाम मर्यादा बढ़ाने के अर्थ में ही आया है।’
इस सूत्र में कृष्ण के वक्तव्य का उल्लेख है। कृष्ण ने भगवद्गीता में कहा है: भक्ति चार प्रकार की होती है। शांडिल्य अपना भेद जाहिर करते हैं। और भेद मूल्यवान है। कृष्ण ने कहा है: भक्ति चार प्रकार की होती है--आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी। शांडिल्य कहते हैं: तीन तो गौण हैं, तीन तो साधनरूप हैं, चौथी साध्य है। इन चारों को साथ नहीं गिनाना चाहिए। भक्ति तो गौण तीन ही हैं--आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी। और जो ज्ञानी-भक्ति है, वह तो उपलब्धि है, वह तो सारतत्व है, वह तो साध्य है।
फिर कृष्ण ने इनकी गणना इस तरह क्यों की होगी? तो शांडिल्य कहते हैं: गौणी-भक्ति तीन ही प्रकार की होती है--आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी, लेकिन उनके साथ ज्ञानी-भक्ति का नाम सिर्फ मर्यादा बढ़ाने के अर्थ में कृष्ण ने उपयोग किया है, ताकि उनको मर्यादा मिले। साथ जोड़ दिया है अंत में, ताकि खयाल रहे। इन तीन से जाना है, चौथे पर पहुंचना है। लेकिन चौथी बात ही अलग है! जहां तीन का अंत हो जाता है, वहां चौथी का प्रारंभ है।
अब यह बड़े मजे की बात है, इसे समझना। हमारे पास एक शब्द है--वेदांत। वेदांत बड़ा अनूठा शब्द है। इसके दो अर्थ होते हैं। एक अर्थ तो होता है: वेद का अंतिम शिखर, वेद की अंतिम मंजिल, जहां वेद अपनी पूर्णता को पाते हैं--वेदांत। और एक अर्थ होता है: जहां वेद समाप्त हो गए, जहां वेद का अंत हो गया, जहां वेद अब व्यर्थ हो गए। वेदांत के दो अर्थ हुए। एक, जहां वेद पूर्ण हो गए; और एक, जहां वेद व्यर्थ हो गए। और दोनों ही अर्थ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहां वेद व्यर्थ हो जाते हैं वहीं वेद पूर्ण होते हैं। पूर्णता और व्यर्थता एक ही साथ घटती है।
ये जो तीन साधन हैं, ये जब पूर्ण हो जाएंगे, तो वह वही घड़ी होगी जहां ये व्यर्थ हो जाएंगे। इनका अब कोई उपयोग न रहा। इनका काम पूरा हो गया। ये जो चाहते थे वह घटना घट गई। अब इनको विदा हो जाना है। इन तीनों भक्तियों का अर्थ तुम ठीक से खयाल में ले लेना।
आर्त का अर्थ होता है: आंसुओं से भरी भक्ति, रुदन करती हुई भक्ति। जीवन के दुख से आर्त-भक्ति का जन्म होता है। जीवन दुख से भरा है। दुख ही दुख है यहां। बुद्ध ने कहा है: जन्म दुख है, जवानी दुख है, बुढ़ापा दुख है, मृत्यु दुख है--सब दुख ही दुख है। यहां अगर कोई गौर से देखेगा, तो सुख तो सिर्फ आशा है, मिलता कभी नहीं। जो मिलता है वह दुख है। जो मिलने की आकांक्षा रहती है वह सुख है। मगर आकांक्षा कभी पूरी नहीं होती।
तुमने खयाल किया? जरा पीछे लौट कर देखो, तुम्हें कभी सुख मिला? और ईमानदारी से देखना। किसी को धोखा देने का उपाय नहीं है। किसको धोखा देना है? कभी अपने पीछे लौट कर बैठ कर देखना कि चालीस साल जी लिए, कि पचास साल जी लिए, सुख मिला? मन तत्क्षण कहेगा--अभी तो नहीं मिला, लेकिन आगे मिलेगा। चले चलो! जूझे रहो!
बर्नार्ड शॉ को एक मित्र ने अपना एक नाटक दिखाने के लिए निमंत्रित किया। नाटक के दो ही दृश्य हुए थे और बर्नार्ड शॉ उठ कर खड़ा हो गया। और उसने कहा, मैं चला भाई, नमस्कार!
उस मित्र ने कहा, अभी चले? अभी नाटक पूरा नहीं हुआ।
बर्नार्ड शॉ ने कहा कि दो दृश्य देख कर समझ गया। जिसने दो लिखे हैं उसी ने तो आगे के भी लिखे होंगे न! बात खतम हो गई! इन दो से काफी स्वाद आ गया।
इस बात का नाम ही मेधा है।
पचास साल हो गए, सुख नहीं मिला, लेकिन जिसने पचास साल जीया है वही तो आगे भी जीएगा न! और जिस ढंग से पचास साल जीए हैं उसी ढंग से तुम आगे जीओगे। वही जो तुमने पचास साल में किया, आगे भी दोहराओगे--करोगे क्या और? वही क्रोध, वही प्रेम, वही लोभ, वही मोह, वही घर, वही दुकान, वही हार, वही जीत, वही सफलता-असफलता, यश-अपयश, वही तो करोगे न! कोल्हू के बैल की तरह वहीं तो चलोगे। वही वर्तुल में घूमते रहोगे। पचास साल घूम कर तुम्हें यह खयाल नहीं आया कि सुख केवल एक भ्रांति है। मिलता कभी नहीं, बस मिलने का आश्वासन रहता है। जैसे क्षितिज है, दूर आकाश जमीन को छूता हुआ मालूम पड़ता है, छूता कहीं नहीं है। लगता है कि अगर दौडूं तो घंटे, दो घंटे में पहुंच जाऊंगा जहां छू रहा है आकाश पृथ्वी को, लेकिन तुम कभी पहुंचोगे नहीं। जितना तुम क्षितिज के करीब पहुंचोगे, क्षितिज पीछे हटता जाएगा। तुम्हारे और क्षितिज के बीच दूरी सदा उतनी ही रहेगी। उसमें कभी कमी नहीं होती। इंच भर कमी नहीं होती। मनुष्य और सुख के बीच दूरी सदा उतनी ही रहती है। जन्म के वक्त जितनी थी, मृत्यु के वक्त भी उतनी ही रहती है। सुख कभी मिलता नहीं।
जिसे जीवन का यह दुख दिखाई पड़ जाता है, वह क्या करे अब? रोए न तो और क्या करे? उसके भीतर आर्त-भक्ति पैदा होती है। जीवन के दुख-अनुभव से आंसुओं का जन्म होता है, रुदन पैदा होता है। असहाय अवस्था मुखर होती है।
तो भक्ति का एक रूप है--आर्त। कुछ लोग इस तरह से जाएंगे।
बहार बनके तू आ जा कि जा चुकी है बहार
गुलों को ओस से नहलाके जा चुकी है बहार

मुझे तो खून के आंसू रुला चुकी है बहार
मेरी तो दुनिया मिटा कर ही जा चुकी है बहार
फकत मुझे यही नग्मा लिखा चुकी है बहार
बहार बनके तू आ जा कि जा चुकी है बहार

इन अंदलीबों के नग्मों की लोरियों की कसम
नसीमे-सुबह की उन मीठी थपकियों की कसम
वो तेरी याद की दिलदोज हिचकियों की कसम
तुझे गुलिस्तां की रंगीन तितलियों की कसम
बहार बनके तू आ जा कि जा चुकी है बहार
इन पंक्तियों को लिखा तो है किसी ने सांसारिक प्रेम के लिए, लेकिन भक्त की भी यही प्रार्थना है कि मैंने देख ली यह बहार! यह बहार सिर्फ बहार का धोखा है। मैंने देख लिया यह सब, दूर से लुभावना है--दूर के ढोल सुहावने। मैंने देख लिए सब रंग-ढंग, मृग-मरीचिका है। इंद्रधनुष कैसा प्यारा लगता है आकाश में खिंचा हुआ! वहां है कुछ भी नहीं। हवा में लटके हुए जलकणों पर सूरज की किरणों की माया का जादू--और कुछ भी नहीं है वहां। तुम पकड़ने जाओगे तो हाथ में कुछ भी न आएगा। लगता बहुत प्यारा है। सतरंगा है! अदभुत है! सारे फूलों के रंग हैं! लेकिन हाथ में तो कुछ भी न आएगा, मुट्ठी खाली रह जाएगी। ऐसा है जगत, इंद्रधनुष जैसा! पानी केरा बुदबुदा। और कब टूट जाएगा बुदबुदा, कुछ पता नहीं। अभी है, अभी मिट जाए; कोई भरोसा भी नहीं।
बहार बनके तू आ जा कि जा चुकी है बहार
इस जगत की बहार तो जा चुकी, देख लिया। अब तू आ जाए तो ही बाहर आए।
गुलों को ओस से नहलाके जा चुकी है बहार
मुझे तो खून के आंसू रुला चुकी है बहार
जरा गौर से देखना, सबकी आंखें खून के आंसुओं से भरी हैं। शायद इसीलिए हम कभी शांत बैठ कर अपने जीवन पर विचार भी नहीं करते हैं। विचार से घबड़ाहट लगती है। छाती धड़कने लगती है। क्योंकि लगता है--सब असार है! पैर के नीचे जमीन ही नहीं है, जीए चले जा रहे हैं। जीने का कोई सहारा नहीं, कोई कारण नहीं।
मेरी तो दुनिया मिटा कर ही जा चुकी है बहार
फकत मुझे यही नग्मा लिखा चुकी है बहार
तुम्हारी जिंदगी का सारा सार-निचोड़ इतना है--
फकत मुझे यही नग्मा लिखा चुकी है बहार
बहार बनके तू आ जा कि जा चुकी है बहार
आर्त-भक्ति पैदा होती है कि हे परमात्मा, तू आए तो ही कुछ हो। जिंदगी तेरे बिना सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं है। सुख होगा तो तुझमें। तेरे बिना दुख है। तेरी मौजूदगी सुख होगी। तेरी गैर-मौजूदगी दुख है। मैं अपने से जीकर देख लिया, अकेले-अकेले जीकर देख लिया, अब तू मेरे भीतर आ जा। तो यह तो आर्त-भक्ति का पहला रूप है।
बीन, आ छेडूं तुझे, मन में उदासी छा रही है।
लग रहा जैसे कि मुझसे
आज सब संसार रूठा,
लग रहा जैसे कि सबकी
प्रीति झूठी, प्यार झूठा,
और मुझ सा दीन, मुझ सा
हीन कोई भी नहीं है,
बीन, आ छेडूं तुझे, मन में उदासी छा रही है।
आर्त-भक्ति जीवन की सारी उदासी का अनुभव है, निचोड़ है। इसलिए आंसू, इसलिए रुदन। आर्त-भक्त अपने भजन में रोता है। और जल्दी ही रोने में रूपांतरण हो जाता है। अगर कोई हृदयपूर्वक रोएगा, आंसू आंखों को शुद्ध कर जाते हैं। और आंखों में एक नई चमक आ जाती है। और ठीक से अगर कोई रो लिया है जीवन के दुख को देख कर, तो सुख की पहली खबर, पहली किरण उतरने लगती है।
था तुझे छूना कि तूने
भर दिया झंकार से घर
और मेरी सांस को भी
सात स्वर के लग चले पर
आ अवनि छू लूं, गगन छू लूं
कि सातों स्वर्ग छू लूं,
सब मुझे आसान मेरे साथ तू जो गा रही है।
बीन, आ छेडूं तुझे, मन में उदासी छा रही है।
तुम्हें भक्तों के हाथ में जो इकतारा दिखाई पड़ा है, अकारण नहीं। इकतारा बड़ा उदास स्वर पैदा करता है। एक ही तार है उसमें। उसका स्वर उदासी का स्वर है। और इकतारा मनुष्य के एकाकी होने का सबूत है--कि हम अकेले हैं; कि उसके बिना हमारा कोई संगी-साथी नहीं है। यह अनुभव जितना प्रगाढ़ तुम्हारे भीतर हो, उतना ही गौणी-भक्ति का पहला रूप जन्म सकता है--आर्त-भक्ति।
खयाल रखना, सभी के लिए जरूरी नहीं कि वे आर्त-भक्त हों। दुनिया में तीन तरह के लोग हैं, इसलिए शांडिल्य ने तीन तरह की भक्ति कही है। दुनिया के लोगों को अनेक-अनेक ढंगों से बांटा जा सकता है। पांच कोटियों में बांटा जा सकता है, सात कोटियों में बांटा जा सकता है। और अनेक ढंगों से बांटा जा सकता है। खयाल रखना, इससे तुम दुविधा में मत पड़ना। कल ही मैंने तुमसे कहा था कि दुनिया में पांच तरह के लोग हैं, इसलिए पांच तरह के ध्यान हमने यहां व्यवस्थित किए हैं। अब तुम सोचोगे कि आज मैं कहता हूं--शांडिल्य कहते हैं, दुनिया में तीन तरह के लोग हैं! यह विभाजन बहुत तरह से हो सकता है।
ऐसा ही समझो, कोई आदमी यहां आए और खड़े होकर तुमको देखे। वह कह सकता है, यहां दो तरह के लोग हैं: कुछ स्त्रियां हैं, कुछ पुरुष हैं। वह यह भी कह सकता है कि यहां दो तरह के लोग हैं: कुछ गैरिक वस्त्रों में हैं, कुछ गैरिक वस्त्रों में नहीं हैं। वह और तरह के विभाजन भी कर सकता है। वह कह सकता है, यहां तीन तरह के लोग हैं: कुछ बूढ़े हैं, कुछ जवान हैं, कुछ बच्चे हैं। यह विभाजन बहुत तरह से हो सकता है। वह कह सकता है: यहां कुछ जर्मन हैं, कुछ जापानी हैं, कुछ हिंदुस्तानी, कुछ चीनी। यह विभाजन बहुत तरह से हो सकता है। इसलिए दुनिया में बहुत तरह के विभाजन किए गए हैं। सब उपयोगी हैं और उनमें कोई विवाद नहीं है। हम बहुत तरह से बांट सकते हैं।
शांडिल्य ने तीन तरह से बांटा। एक, जिनके जीवन में दुख का अनुभव बहुत प्रगाढ़ हो सकता है। जिनको दुख का साक्षात्कार हो सकता है। दूसरा, शांडिल्य कहते हैं: जिज्ञासु-भक्ति। सत्य की जिज्ञासा से। पहला व्यक्ति दुख की जिज्ञासा से चलता है। दूसरे तरह का व्यक्ति, जीवन में उसे सत्य क्या है यह दिखाई नहीं पड़ता, जीवन में सब असत्य दिखाई पड़ता है, भ्रम दिखाई पड़ता है, माया दिखाई पड़ती है, ऊपर-ऊपर से कुछ, भीतर-भीतर कुछ और है, ऐसा उसे मालूम होता है। भीतर क्या है? सचाई क्या है? असलियत क्या है? हकीकत क्या है? यथार्थ क्या है? यह उसकी जिज्ञासा है। उसे दुख उतना नहीं परेशान कर रहा है। उसकी परेशानी यह है कि जीवन का सत्य क्या है? मैं जीवन के सत्य को कैसे पा लूं? क्योंकि सत्य को पा लूं तो शाश्वत को पा लूं। सत्य मिल जाए तो सनातन मिल जाए। वह कहता है, दुख भी अगर हो रहा है तो इसीलिए हो रहा है कि हमने क्षणभंगुर को पकड़ा है। अगर शाश्वत मिल जाए तो दुख अपने आप खो जाएगा। यह एक दूसरे तरह की जिज्ञासा है। यह एक दूसरे तरह की यात्रा है। जिसके जीवन में ऐसा प्रश्न प्रगाढ़ होकर उठता हो...
मेरे पास लोग आते हैं, कोई पूछता है कि मैं कौन हूं, यह जानना चाहता हूं। बहुत लोग हैं जो यह नहीं पूछते कि मैं कौन हूं, यह जानना चाहता हूं। बहुत लोग पूछते हैं कि बड़ा दुख है, क्रोध है, उदासी है, इससे कैसे छुटकारा हो? चिंता है, बेचैनी है, परेशानी है, संताप है, इससे कैसे मुक्ति हो? उन्हें कोई सवाल नहीं है कि मैं कौन हूं। अगर उनसे कहो कि पहले यह सोचो कि मैं कौन हूं, तो वे कहते हैं, इससे क्या होगा? इससे सार क्या है? और ध्यान रखना, जो आदमी पूछ रहा है कि चिंता है, बेचैनी है, परेशानी है, अगर उसकी सारी चिंता, बेचैनी, परेशानी छूट जाए, तो वह जान लेगा कि वह कौन है। और जो आदमी कह रहा है--मैं कौन हूं, अगर वह यह जान ले, तो उसकी सारी चिंता, परेशानी मिट जाएगी। अंतिम परिणाम एक है। लेकिन यात्रा-पथ अलग-अलग हैं।
‘मैं कहां जाऊं?’ यह आवाज किधर से आई?

जैसे सागर कोई खुनके, कोई शीशा टूटे
जैसे शर्मीले मुगन्नी का इरादा टूटे
जैसे सहराओं की तनहाई में नै की आवाज
जैसे लहरों पे हवाओं की थिरकता हुआ साज
‘मैं कहां जाऊं?’ यह आवाज किधर से आई?

मैं हूं मगमूम कि ये साज भी मगमूम-से हैं?
ये मेरे अश्क हकीकत हैं कि मौहूम-से हैं?
जैसे तनहाई में इक साज बजाता हो कोई
जैसे खामोश सितारों को रुलाता हो कोई
‘मैं कहां जाऊं?’ यह आवाज कहां से आई?

कौन गुमनाम खलाओं में बुलाता है मुझे?
कौन मानूस-सा इक राग सुनाता है मुझे?
जैसे गुजरे हुए लम्हों को पुकारे कोई
जैसे डूबी हुई किश्ती को उभारे कोई
और यह आवाज, यह आवाज किधर से आई?
एक जिज्ञासा: मैं कौन हूं? यह जगत क्या है? इस जगत को बनाने वाला कौन है? हम कहां से आते हैं? हम क्यों आते हैं? हम क्यों हैं? हम कहां जाते हैं? ऐसी जिज्ञासा जिसके मन में हो, उसके लिए जिज्ञासु-भक्ति। जिज्ञासु-भक्ति में क्या करना होगा?
आर्त तो रोएगा, चीखेगा, पुकारेगा, उसकी भक्ति आह से भरी होगी। जिज्ञासु सत्संग करेगा, श्रद्धा करेगा, ध्यान करेगा, गुरु के पास बैठेगा, जिसको मिल गया होगा उसकी तलाश करेगा। आर्त बिना गुरु के भी चल सकता है, लेकिन जिज्ञासु बिना गुरु के नहीं चल सकता। किससे पूछे? जिसने जाना, जो गया हो, जिसने जाना हो, उससे ही पूछा जा सकता है। जिसने अनुभव किया हो, उसी से पूछा जा सकता है। आर्त बिना गुरु के भी चल सकता है। उसको अगर गुरु की जरूरत भी पड़ेगी तो अंत में पड़ेगी, जब भजन छुड़ाने का सवाल आएगा। लेकिन जिज्ञासु को जरूरत शुरू में ही पड़ जाती है। उसके लिए सत्संग के बिना कोई सहारा नहीं है।
जिज्ञासु सदगुरु को खोजता है। फिर बैठता उसकी छाया में, सुनता उसे, गुनता उसे, उसके साथ धीरे-धीरे अपनी तरंगों को एक करता, उसके साथ लवलीन होता और धीरे-धीरे उसकी चेतना के साथ उसके संबंध जुड़ने शुरू होते। शायद आंसू उसे कभी न आएं, इससे कोई चिंता मत लेना।
अक्सर ऐसा हो जाता है कि लोग एक-दूसरे की नकल में पड़ जाते हैं। तुम्हारे पड़ोस में बैठा कोई रो रहा है। तुम सोचते हो कि मैं क्या पत्थर हूं? या तो यह उपाय है कि तुम सोचो--क्या मैं पत्थर हूं? क्या मेरा हृदय पाषाण है?
मेरे पास प्रश्न आते हैं बहुत से, कि हमें क्यों नहीं हो रहे हैं इस तरह के भावों के आविर्भाव? हमारे भीतर आंसू क्यों नहीं फूटते? हम रोते क्यों नहीं हैं? लोग तो रो रहे हैं और हम बैठे हैं! हमारी क्या कठिनाई है?
या तो यह भाव, और या फिर वह सोचता है कि यह आदमी जो रो रहा है, पागल है। मैं ठीक हूं, यह पागल है। यह रोना भी कोई बात है! यह आदमी कमजोर होगा। यह आदमी स्त्रैण है। स्त्रियां रो रही हों तो तुम माफ भी कर देते हो कि चलो ठीक है, स्त्रियां हैं, रोने दो। मगर कोई पुरुष रोता है तो तुम्हें बड़ी बेचैनी होती है। तुम सोचते हो, मामला क्या है? यह आदमी प्रौढ़ नहीं हो पाया, बचकाना रह गया है!
नहीं, दोनों तरह की बातें मत सोचना। न तो सोचना कि तुम पत्थर-हृदय हो और न सोचना कि दूसरा पागल है, या स्त्रैण है। ध्यान रखना, न तो दूसरे से नकल करना है और न अपने को दूसरे पर आरोपित करना है। हम यही करते रहते हैं। दो ही तरह के उपाय हम करते रहते हैं, या तो दूसरे पर हम अपने को आरोपित करते हैं कि मैं रोता हूं तो तुम भी रोओ। नहीं तो तुम पाषाण-हृदय हो। और या, देखो मैं नहीं रो रहा हूं, तुम मत रोओ! नहीं तो इसका मतलब सिर्फ इतना ही है कि तुम कमजोर-हृदय हो। तुम मजबूत नहीं हो। तुम में बल नहीं है। तुम निर्बल हो। ऐसे कहीं जिंदगी चलेगी? या तो यह, और या फिर यह होता है कि दूसरा रो रहा है तो मैं भी रोऊं। असली आंसू नहीं आ रहे, तो चलो, नकली आंसू बहाऊं। लेकिन ऐसा तो न हो, अपनी भद्द तो न करवाऊं, लोग क्या कहेंगे? दूसरे लोग शांत बैठे हैं मूर्ति की तरह, तुम भी बैठ जाते हो मूर्ति की तरह शांत होकर।
आदमी एक-दूसरे की नकल करता है, इससे मैं डार्विन से सहमत होता हूं कि वह जरूर बंदर से आता होगा। और मुझे कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता आदमी के बंदर से पैदा होने का, लेकिन एक बात जरूर दिखाई पड़ती है कि आदमी नकलची है।
एक सौदागर टोपियां बेचने एक मेले में गया। जब वह लौटता था मेले से टोपियां बेच कर--कुछ बच गई थीं टोपियां--एक वृक्ष के, बरगद के नीचे उसने विश्राम किया। दोपहर थी घनी, विश्राम करने लेट गया। जब आंख खुली दो घंटे बाद, तो टोकरी खाली पड़ी थी। सारी टोपियां नदारद! उसने देखा, कहां गईं टोपियां? ऊपर नजर की, तो बंदर बैठे थे। सब टोपियां लगाए बैठे थे। सब बिलकुल नेताजी बने बैठे थे! गांधीवादी टोपी, गांधी टोपी! और बड़ा मजा ले रहे थे। सारी दिल्ली वहां मौजूद थी। वह आदमी बड़ा मुश्किल में पड़ा, अब करना क्या है? और बंदर बड़े जंच रहे थे! उसे एक ही खयाल आया कि बंदर नकलची होते हैं। सिर्फ एक टोपी उसके अपने सिर पर रह गई थी। उसने वह टोपी फेंक दी निकाल कर। उसका फेंकना था कि सब बंदरों ने टोपी फेंक दी निकाल कर। उसने सब टोपियां इकट्ठी कीं, अपनी टोकरी भरी और घर आ गया।
कई सालों बाद फिर यह घटना घटी। उसका बेटा मेला गया। अब बाप बूढ़ा हो गया था और बेटे को जाना पड़ा। बाप ने कहा कि सुन, एक बात खयाल रखना, एक तो उस बरगद के नीचे विश्राम मत करना। उस बरगद पर बंदर रहते हैं। और अगर कहीं विश्राम करना ही पड़े तुझे, थक जाए और रुकना पड़े और विश्राम करना पड़े--क्योंकि रास्ते पर वही छाया वाला वृक्ष है--तो एक बात खयाल रखना, अगर बंदर तेरी टोपी चुरा लें, तो ऐसा मेरे अनुभव से हुआ था, अपनी टोपी फेंक देना, वे सब फेंक देंगे। बंदर नकलची होते हैं।
बेटा गया और उसने कहा कि जब अपने पास सूत्र है तो डरना क्या! लौटा बाजार से, बरगद का झाड़ देख कर उसका दिल भी छोड़ने को न हुआ--बड़ी छाया थी, और बड़ी दुपहरी और थका-मांदा! और उसने कहा सूत्र अपने पास है, डरना क्या! लेट गया, सो गया। और जो होना था वही हुआ! जब आंख खुली, टोकरी खाली पड़ी थी। लेकिन बेटा घबड़ाया नहीं, उसने कहा अपने पास सूत्र है। सब बंदर बैठे थे टोपी लगा कर। उसने अपनी टोपी निकाल कर फेंक दी। एक बंदर नीचे उतरा और वह टोपी भी लेकर चला गया।
तब तक बंदर भी सीख चुके थे। शायद ये बंदर भी वे न होंगे, उनके बेटे होंगे। बंदर मरते वक्त कह गए होंगे: बेटे, खयाल रखना, कभी कोई सौदागर यहां ठहरे और टोपी फेंके, तो भूल कर टोपी मत फेंकना, वह भी उठा लाना।
बंदर ही नकलची होते तो ठीक था, आदमी बड़ा नकलची है। नकल से सावधान! कभी भूल कर किसी दूसरे के आचरण को अपना आचरण मत बनाना, अन्यथा तुम नकली हो जाओगे। और यही हुआ है। लोग जो कर रहे हैं, वही तुम करने लगते हो। भीड़ के साथ चलने लगते हो। अपने जीवन को अपनी समझ से जीओ। अपने जीवन को अपने स्वभाव से जीओ।
तो जो जिज्ञासु है, उसकी आंख में आंसू नहीं आएंगे। और जो आर्त है, उसकी आंखों में आंसू आएंगे।
तीसरा रूप है: अर्थार्थी। शास्त्रों में तो अर्थार्थी का अर्थ किया गया है--जो कुछ मांगे, जिसकी कोई वासना हो, कामना हो--कि बेटा मिल जाए, कि बेटी मिल जाए, कि धन मिल जाए, कि नौकरी लग जाए, कि बीमार पत्नी ठीक हो जाए। मैं वैसा अर्थ नहीं करता हूं। वह अर्थ ओछा है। उससे कहीं भक्ति होती है? वह तो भक्ति गौणी भी नहीं है! वह तो भक्ति का धोखा है। जहां मांग है वहां भक्ति कैसी? इसलिए मैं वैसा अर्थ नहीं कर सकता हूं। अर्थार्थी का मैं अर्थ करता हूं: जिसे जीवन में अर्थहीनता मालूम होती है, व्यर्थता मालूम होती है।
इन भेदों को समझ लेना। पहले व्यक्ति को जीवन में दुख मालूम पड़ता है। स्पष्ट उसे अनुभव होता है--दुख है। दूसरे व्यक्ति को सिर्फ प्रश्न उठते हैं, विस्मय मालूम होता है, आश्चर्य मालूम होता है। तीसरे व्यक्ति को जीवन में अर्थहीनता मालूम होती है। दुख मालूम नहीं होता और न प्रश्न उठते हैं विस्मय के, सिर्फ इतना मालूम होता है कि यहां कुछ अर्थ नहीं है। किए जाओ, कुछ सार नहीं है। न यहां के दुख में कुछ सार है, न यहां के सुख में कुछ सार है। सपने जैसा है।
रात तुमने सपना देखा, सपने में तुम साधु हो गए। सुबह उठ कर पाया, वही के वही! या सपना देखा, रात तुमने किसी की हत्या कर दी। सुबह देखा कि वहीं के वहीं। क्या तुम फर्क करोगे इन दोनों सपनों में--हत्या करने वाला सपना और साधु बन जाने वाला सपना! क्या एक अच्छा और एक बुरा? सपना सपना है। दोनों व्यर्थ हैं। क्योंकि कुछ घटा नहीं है, सिर्फ घटने की भ्रांति हुई है। यथार्थ वैसा का वैसा है, कुछ घटा नहीं है।
जिस व्यक्ति को ऐसा अनुभव होने लगता है कि यहां कुछ घट नहीं रहा है, चीजें वैसी की वैसी हैं, सिर्फ हम सपने देख रहे हैं। कुछ लोग अच्छे सपने देख रहे हैं, कुछ लोग बुरे सपने देख रहे हैं। कुछ लोग रंगीन सपने देख रहे हैं, कुछ लोग गैर-रंगीन सपने देख रहे हैं।
तुम्हें पता है, कुछ लोग रंगीन सपने भी देखते हैं? थोड़े ही लोग देखते हैं। अधिक लोग तो ब्लैक-व्हाइट देखते हैं। वे पुराने ढंग के लोग हैं। पुरानी फिल्में जब रंगीन नहीं होती थीं। वे अभी भी वही पुराने सपने देखे चले जा रहे हैं! कुछ लोग, सौ में से कुछ दो-तीन प्रतिशत लोग रंगीन सपने देखते हैं। ये जो रंगीन सपने देखते हैं, ये भीतर ही रंगीन सपने नहीं देखते रात में, ये बाहर भी रंगीन सपने देखते हैं। इन्हीं में से कवि पैदा होते हैं, चित्रकार पैदा होते हैं, मूर्तिकार पैदा होते हैं, संगीतज्ञ पैदा होते हैं। ये सब रंगीन सपने देखने वाले लोग होते हैं। और वे जो ब्लैक-व्हाइट देखते हैं, वही दुकानदार बन जाते हैं; क्लर्क बन गए, स्टेशन मास्टर बन गए, प्रोफेसर बन गए। वह ब्लैक-व्हाइट का मामला है उनका। या तो ऐसा, या वैसा। वहां ज्यादा रंग इत्यादि नहीं हैं, सीधा-साफ गणित है। ऐसे लोग गणितज्ञ बन जाते हैं। ऐसे लोग हिसाब-किताब रखने में बड़े कुशल होते हैं।
वह जो रंगीन सपना देखता है, उससे हिसाब-किताब मत रखवाना! वह हिसाब-किताब रख ही नहीं सकता। उसके रंगीन सपने उसे बहुत आह्लादित कर देते हैं, बहुत भर देते हैं। और जब सपना रंगीन होता है, मधुर होता है, तो आदमी भरोसा कर लेना चाहता है।
एक सूफी कहानी है। तीन फकीर यात्रा को निकले। एक गांव में उन्हें सम्राट के महल से अत्यंत सुस्वादु हलुआ भेंट में मिल गया। मगर वह इतना नहीं था कि तीनों का पेट भर जाए। तीनों उस पर कब्जा करना चाहते थे। मगर एक का ही पेट भर सकता उससे, इतना ही था। और कोई उसे छोड़ना नहीं चाहता था। तीनों दावेदार थे। तीनों में बड़ा विवाद होने लगा। फकीर थे। विवादी तो थे ही! तर्क तो कर ही सकते थे। पहले फकीर ने कहा कि देखो, यह हलुआ साधारण नहीं है! हम तीनों में जो सर्वश्रेष्ठ है, उसको मिलना चाहिए। मुझे पूरी कुरान याद है; तुम्हें याद है?
दूसरे ने कहा, कुरान से क्या होगा? असली बात चरित्र की है। तुममें चरित्र नाममात्र को नहीं है। कुरान तो याद है, लेकिन सुबह उस स्त्री को देख कर तुम एकदम दीवाने हुए जा रहे थे। भूल गए? असली निर्णय चरित्र से होता है। मैं चरित्रवान हूं।
तीसरे व्यक्ति ने कहा, चरित्र इत्यादि में क्या रखा है? ये सब सांसारिक बातें हैं, यह सब सपना है। न ज्ञान से कुछ होता है, न चरित्र से, असली चीज तो प्रार्थना है। तुमने कभी प्रार्थना की? तुम चरित्र की अकड़ में पड़े हुए हो, अहंकार में पड़े हुए हो कि मैं चरित्रवान हूं। पड़े रह जाओगे इसी अकड़ में! मुझ दीन को देखो!
विवाद इतना बढ़ गया, रात हो गई। विवाद का अंत न हो तो हलुआ खाए कौन? आखिर एक ने सुझाया कि ऐसा करो, आज हम तीनों सो जाएं। और रात जो सबसे श्रेष्ठ सपना देखे, वही सुबह हलुआ खाए। उन्होंने कहा, चलो ठीक, यही ठीक। यही ठीक, दूसरा खाए इससे यही बेहतर है कि सुबह तक टालो, देखेंगे सुबह फिर। और फिर रात एक मौका और है--सपना देखेंगे श्रेष्ठ।
सुबह उठे, पहले ने अपना सपना सुनाया। उसने कहा कि मैं जब सोया, तो हजरत मोहम्मद प्रकट हुए और उन्होंने कहा कि तू ही मेरा असली पैगंबर है, मेरे बाद तू ही मेरा वंशधर है। अब इससे और ऊंचा सपना क्या हो सकता है?
दूसरे ने कहा, यह कुछ भी नहीं है। मैं जब सोया, तो खुद परमात्मा प्रकट हुआ, मोहम्मद से क्या होगा! मोहम्मद खुद ही संदेशवाहक हैं! खुद परमात्मा प्रकट हुआ और उसने कहा कि मैं तुझे सीधा संदेश दे रहा हूं, तू मेरी खबर लोगों तक पहुंचा।
तीसरे से पूछा--तुम्हें क्या हुआ? उसने कहा कि भई मुझे कुछ पता नहीं, एक आवाज भीतर से आई कि पड़ा-पड़ा क्या कर रहा है मूरख, उठ हलुआ खा! सो मैं तो हलुआ खा चुका! अब हलुआ बचा ही नहीं है। किसकी आवाज थी, मुझे पता नहीं, मगर बड़ी जोरदार आवाज थी!
सपने हैं। उनमें कुछ बड़े जोरदार सपने होते हैं, बड़े रंगीन सपने होते हैं, और बड़ा प्रभावित कर जाते हैं। लेकिन सपने फिर सपने हैं। जिस व्यक्ति को यह दिखाई पड़ता है कि यहां जगत में सब सपना है, अर्थहीनता मालूम होने लगती है। मीनिंगलेसनेस उसे अनुभव होती है। यह भिन्न है, जिसको दुख अनुभव होता है उससे यह भिन्न दशा है। दुख वाले को तो कम से कम दुख अनुभव हो रहा है। कुछ तो सार पकड़ में आया है! जिसको अर्थहीनता मालूम होती है, उसे कुछ भी अनुभव नहीं होता। सुख भी अनुभव नहीं होता, दुख भी अनुभव नहीं होता। उसे अनुभव ही कुछ नहीं होता। वह कहता है, सब चीजें पानी पर खींची लकीर की तरह बीती जा रही हैं, कुछ बनता नहीं यहां। यह सब मजाक है। यह सब किसी परमात्मा का व्यंग्य है।
ऐसे व्यक्ति को मैं कहता हूं--अर्थार्थी। उसे जीवन में अर्थ की तलाश पैदा होती है। वह रिक्तता से भरा हुआ, अर्थहीनता से भरा हुआ, अर्थ की खोज में निकलता है। वह परमात्मा से कहता है: मुझे अर्थ दो। जीवन को ऐसा बनाओ कि मुझे लगे कि यह सपना ही नहीं है, इसमें कुछ यथार्थ है। पानी पर मत खींचो लकीरें, पत्थर पर खींचो लकीरें कि टिक सकें। कुछ स्थायित्व दो, कुछ शाश्वत की प्रतीति दो।
तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है।
देखी मैंने बहुत दिनों तक
दुनिया की रंगीनी,
किंतु रही कोरी की कोरी
मेरी चादर झीनी,
तन के तार छुए बहुतों ने
मन का तार न भीगा,
तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है।

तुम अपने रंग में रंग लो
तो मैं बीती बात भुलाऊं
प्रेम, रूप, जीवन, यौवन का
सबको गीत सुनाऊं,
अंतर में वह पैठ सकेगा
जो अंतर से निकला,
मेरी तो मेरे मानस की बोली है।
तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है।
अर्थार्थी कहता है: हे प्रभु, मुझे अपने रंग में रंग लो। मुझे सत्य नहीं चाहिए, मुझे आनंद नहीं चाहिए, तुम मुझे अपने रंग में रंग लो। थोड़ी सी भगवत्ता मुझमें उतार दो। मैं तुम्हारे रंग में रंग जाऊं।
तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है।
देखी मैंने बहुत दिनों तक
दुनिया की रंगीनी,
किंतु रही कोरी की कोरी
मेरी चादर झीनी,
तन के तार छुए बहुतों ने
मन का तार न भीगा,
तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है।
ये तीन उपाय हैं गौणी-भक्ति के। इन तीनों बिंदुओं से चल कर जहां आदमी पहुंचता है, उसका नाम--पराभक्ति। उसको कृष्ण ने ज्ञानी-भक्ति कहा है।
बहिरन्तरस्थम्‌ उभयम्‌ अवेष्टि सर्ववत्‌।
‘यज्ञ का अवेष्टी और सबकी भांति भीतर और बाहर दोनों में समझा जाता है।’
शांडिल्य कहते हैं: लेकिन कौन अंतरंग है, कौन बहिरंग, यह कहना मुश्किल है। यह निर्भर करता है भक्त पर। अगर भजन पूरे प्राण से किया गया हो, तो अंतरंग हो जाता है। और ऐसे ही उपचार से किया गया हो, तो बहिरंग रह जाता है। इसलिए भजन बहिरंग है कि अंतरंग, निर्णय करना मुश्किल है। भक्त पर निर्भर है। मूर्ति बहिरंग है कि अंतरंग, भक्त पर निर्भर है। अगर भक्त पूरे भाव से डूब जाता है तो मूर्ति भक्त के भीतर प्रवेश कर जाती है, भक्त मूर्ति में प्रवेश कर जाता है। क्योंकि यहां पत्थर में भी भगवान छिपा है, पाषाण में भी परमात्मा छिपा है। देखने वाली आंख चाहिए, उतरने वाला हृदय चाहिए।
तो ऊपर से निर्णय नहीं होता, कौन सी बात बहिरंग, कौन सी बात अंतरंग। वही बात किसी के लिए अंतरंग हो सकती है, वही बात किसी के लिए बहिरंग हो सकती है। इसलिए तुम दूसरे की निंदा में मत पड़ना। इतना सम्मान रखना सदा। कोई आदमी अगर मंदिर की मूर्ति के सामने झुक रहा हो, तो भूल कर भी यह मत कह देना कि यह तू क्या कर रहा है? यह तो पत्थर है! तुम्हारे लिए पत्थर होगा, तो तुम्हारे लिए पत्थर है! मगर दूसरे के लिए पत्थर हो, यह जरूरी नहीं है। दूसरे के लिए प्राण हो सकते हैं। उस पत्थर में प्राण की प्रतिष्ठा उसने की हो, तो उस पत्थर में उसके लिए सब कुछ है।
ये जो जीवन की आंतरिक दशाएं हैं, इनके संबंध में थोथे नियमों से काम नहीं चलता। और इनके लिए कोई कसौटियां नहीं हैं, और न तराजू हैं।
लेकिन अक्सर हम इस तरह की गलतियां कर बैठते हैं। कोई आदमी भजन गा रहा है, हम कहते हैं, इससे क्या होगा? भजन से क्या होगा? और यह भी हो सकता है, भजन करने वाला भी जवाब न दे सके--अक्सर तो नहीं दे सकेगा। क्योंकि अगर जवाब देने वाला होता, तो भजन नहीं करता, जिज्ञासा करता। इस भेद को खयाल में लेना। अगर वह जवाब देने वाला आदमी होता, तो वह भजन करता ही नहीं। वह भजन की तरफ गया ही इसलिए है कि भाव-प्रवण है, बुद्धि-प्रवण नहीं है। उसके भीतर विचार इतनी महत्ता की बात नहीं है, जितनी भावना। उसके पास कोई उत्तर नहीं है। वह शायद अवाक खड़ा रह जाएगा। तो तुम यह मत सोचना कि तुम जीत गए, क्योंकि तुम्हें उत्तर नहीं दिया जा सका। सभी चीजों के उत्तर होते भी कहां हैं? और यही तो जीवन में रहस्यपूर्ण है कि यहां कुछ चीजें हैं जिनका कोई उत्तर नहीं है।
तो कौन बहिरंग है, कौन अंतरंग है, प्रत्येक पर निर्भर है। जो आर्त को बहिरंग है, वह जिज्ञासु को अंतरंग है। जो जिज्ञासु को बहिरंग है, वह आर्त को अंतरंग है। जिज्ञासु कहेगा: सत्संग करो गुरु का! भजन-कीर्तन से क्या होगा? यह रामधुन क्यों लगा रखी है? यह शोरगुल क्यों मचा रखा है? और आर्त कहेगा: गुरु के पास बैठे ही रहे पत्थर की मूर्ति की तरह, उससे क्या होगा? गुनगुनाओ, गाओ, नाचो, प्रभु को पुकारो, रोओ, चिल्लाओ, चीखो! और दोनों ही अपनी-अपनी तरफ से ठीक कह रहे हैं।
अभी तक मनुष्य-जाति में इतना सदभाव पैदा नहीं हुआ कि हम दूसरे की विशिष्टता का सम्मान कर सकें। यह मनुष्यता की कमी है। इसलिए मुसलमान हिंदू का मंदिर तोड़ देता है, हिंदू मुसलमान की मस्जिद जला देता है। यह बड़ी मूढ़तापूर्ण बात है। दूसरे का सम्मान होना चाहिए। हम दूसरे के नियंता नहीं हैं। दूसरा अपना मालिक है। उसे जिससे सुख मिले, जिससे सार मिले, उस दिशा से जाए। उसे रोको मत। उसे बाधा मत दो। सारे लोग तुम्हारे अनुसार चलें, यह बात ही फिजूल है। यह बात ही अमानवीय है। मगर यही कोशिश रही है। ईसाई चाहते हैं सारी दुनिया ईसाई हो जाए। हिंदू चाहते हैं सारी दुनिया हिंदू हो जाए। मुसलमान चाहते हैं सारी दुनिया मुसलमान हो जाए।
यह आकांक्षा गलत है। जगत में वैविध्य रहने दो। अच्छा है कि यहां बहुत फूल खिलते हैं--कमल भी और गुलाब भी, और चंपा और जूही और चमेली भी। यहां गुलाब ही गुलाब खिलेंगे तो गुलाब बड़ा उबाने वाला हो जाएगा। वैविध्य परमात्मा के प्रकट होने का ढंग है। यहां बहुत सुगंधें हैं, और यहां बहुत रंग हैं, और यहां बहुत ढंग हैं, और यहां बहुत तरह के लोग हैं। इसलिए कौन अंतरंग, कौन बहिरंग, इस बात पर निर्भर होगा कि व्यक्ति किस ढंग से चीज को ले रहा है।
‘अवेष्टी--यज्ञ का द्रव्यविशेष--कभी-कभी यज्ञ का अंतरंग और कभी-कभी बहिरंग समझा जाता है।’
तुम पर निर्भर है।
अब जैसे समझो, कोई मेरे पास आता है और वह कहता है: गैरिक वस्त्र क्यों? क्या संन्यास के लिए गैरिक वस्त्र अनिवार्य है? क्या गैरिक वस्त्रों के बिना संन्यास नहीं हो सकता?
उसकी बात में बल मालूम होता है। क्योंकि वस्त्र से क्या संबंध संन्यास का? वह संन्यास को अंतरंग बात मान रहा है, वस्त्र को बहिरंग। लेकिन यही आदमी और जगह जाकर यही प्रश्न खड़े नहीं करता! तुमने फर्क किया है? तुमने खयाल किया है? पुलिसवाला अगर अपनी ड्रेस में खड़ा हो तो तुम्हारा व्यवहार और होता है। और वह अगर सफेद वर्दी में खड़ा हो तो तुम्हारा व्यवहार और होता है। मजिस्ट्रेट अपने वस्त्रों में बैठा हो तो तुम और ढंग से व्यवहार करते हो। और मजिस्ट्रेट अपने वस्त्रों में न हो तो कौन फिकर करता है? कौन चिंता लेता है? तुमने खयाल किया, तुम वस्त्रों को भला कितना ही कहो कि वे बहिरंग हैं, लेकिन तुम्हारे बहुत अंतस्तल में बैठे हुए हैं।
गालिब को निमंत्रण दिया था बहादुरशाह जफर ने। गालिब गरीब आदमी, ठीक-ठाक वस्त्र भी न थे। मित्रों ने कहा भी कि मियां, ऐसे मत जाओ। हम ला देते हैं मांग कर वस्त्र, अच्छे वस्त्र पहन कर जाओ। गालिब ने कहा, लेकिन मैं जैसा हूं, हूं। उधार वस्त्र क्यों मांगूं? कवि की अकड़! गालिब ऐसे ही चले गए, अपने उन्हीं पुराने, फटे-पुराने वस्त्रों में, थेगड़े लगे। जूते भी फटे-पुराने। पहरेदार ने भीतर प्रवेश ही नहीं करने दिया। न केवल इतना बल्कि पहरेदार ने धक्का देकर निकाल दिया। उन्होंने अपना निमंत्रण-पत्र भी दिखलाया। उसने कहा कि भाग, किसी का चुरा लाया होगा! अपने रास्ते पर लग!
गालिब लौटे। मित्रों की बात ठीक लगी। उधार वस्त्र पहने, शान से पहुंचे। वही पहरेदार झुका। भीतर गए। सम्राट ने अपने पास बिठाया। और भी मेहमान थे, लेकिन उन्हें अपने पास बिठाया। गालिब की कद्र थी बहादुरशाह के मन में, बहादुरशाह भी थोड़ा कवि-हृदय सम्राट था। लेकिन जब भोजन शुरू हुआ तो सम्राट थोड़ा हैरान हुआ। उसने सुना तो था कि कवि झक्की होते हैं, मगर इतने झक्की होते हैं यह नहीं सोचा था। क्योंकि गालिब उठा-उठा कर बर्फियां और लड्डू पहले अपने कपड़ों को लगाए, कि ले बेटा, खा ले! पगड़ी को लगाए, कि तू भी चख ले! जूते को छुलाए! बहादुरशाह थोड़ी देर तो चुप रहा, यह सब देखा उसने, कहा, आप यह कर क्या रहे हैं? कपड़े, जूते, पगड़ी--इनको भोजन करवा रहे हैं? गालिब ने कहा, मैं तो आया ही नहीं, मैं तो धक्का देकर निकाल दिया गया। इस बार तो कपड़े ही आए हैं। मैं तो पहले आया था, लेकिन तब प्रवेश नहीं हो सका।
तुम भला कितना ही कहो कि कपड़े से क्या होगा, लेकिन तुम कपड़े से जीते हो। कपड़े से बहुत कुछ तुम्हारे जीवन का संबंध है। तुम्हारे कपड़े बदल लेने से सब कुछ बदल जाता है।
एडोल्फ हिटलर ने हजारों लोगों की हत्याएं कीं। और जब उसके कारागृह में लोग लाए जाते थे, तो वह एक काम निश्चित करता था। सबको नग्न कर देता, सबके सिर घोंट देता, मूंछें बना देता, दाढ़ी मिटा देता, सबको एक जैसे कपड़े पहना देता। एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक फ्रैंकल को भी यही किया गया। फ्रैंकल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जब हम सबके वस्त्र उतार दिए गए और हम सबके सिर घोंट दिए गए, मूंछें बना दी गईं, हमारी घड़ियां, हमारे सामान ले लिए गए और हमें एक जैसे कपड़े पहना दिए गए, तो हम सब एक ही नगर के लोग थे--कोई डाक्टर था, कोई इंजीनियर था, कोई मजिस्ट्रेट था, कोई प्रोफेसर था, कोई लेखक था, कोई कवि था, कोई चित्रकार था--लेकिन सब खो गए! एक-दूसरे की शक्ल पहचानी न मालूम पड़े। फ्रैंकल ने लिखा है, मैं खुद आईने के सामने खड़ा हुआ तो अपने को नहीं पहचान सका कि मैं वही हूं। हमारा व्यक्तित्व पोंछ डाला।
इसीलिए तो मिलिटरी में एक सा कपड़ा पहना देते हैं। आदमी का व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है।
ये गैरिक वस्त्र भी तुम्हारी अस्मिता, तुम्हारे व्यक्तित्व को पोंछ डालने का उपाय हैं। अगर समझपूर्वक लोगे, तो अंतरंग हो जाएंगे। अगर नासमझीपूर्वक लिया, तो ऊपर की वर्दी रह गई। फिर उसका कोई मूल्य नहीं है। यह तुम्हारी तरफ से सूचना है कि मैं मिटने को तैयार हूं। कि अब मैं अपने होने की घोषणा वापस लेता हूं। कि अब मैं विशिष्ट होने का दावा छोड़ता हूं। विशिष्ट होने का दावा करके देख लिया, दुख पाया। अब मैं इस विराट में एक बूंद की तरह खो जाना चाहता हूं।
सब निर्भर करता है तुम्हारी दृष्टि पर।
भूयसाम्‌ अननुष्ठितिः इति चेत्‌ आप्रयाणम्‌ उपसंहारात्‌ महत्सु अपि।
‘भक्त लोग अधिक कर्म नहीं करते, ऐसा नहीं है। भेद इतना ही है कि वे सब इस नियम के अधीन हो जाते हैं।’
भक्त अधिक कर्म नहीं करता, ऐसा मत सोचना। लेकिन भक्त कर्ता का भाव छोड़ देता है। भक्त से भी कर्म होते हैं। वस्तुतः और भी ज्यादा होते हैं, भक्त की सक्रियता और भी खिल कर प्रकट होती है, भक्त की सृजनात्मकता अपना शिखर छूती है। लेकिन एक फर्क पड़ जाता है--अब भगवान कर्ता है, भक्त कर्ता नहीं है। भक्त केवल बांस की पोंगरी है। भगवान जो गीत गाता है, अपने में से बह जाने देता है। भक्त इस नियम के अंतर्गत समाविष्ट हो गया है। उसने अपना समर्पण कर दिया है।
अधिक लोग सोचते हैं कि भक्त का अर्थ है, अब तुम कुछ मत करो। तुम भक्त हो गए, अब क्या करना है? अब दुकान नहीं करनी, अब बाजार नहीं करना, अब बच्चों की फिकर नहीं करनी, अब पत्नी की देखभाल नहीं करनी। तुम भक्त हो गए, अब क्या करना है? भक्ति को लोगों ने काहिली का बचाव समझ रखा है।
सुस्ती, काहिली, अकर्मण्यता भक्ति नहीं है। भक्ति का अर्थ है: अकर्ता भाव; अकर्मण्यता नहीं! कर्म तो जारी रहेगा। कर्म तो जीवन है। लेकिन अब हम करने वाले नहीं रह गए। अब हम निमित्त हो गए। अब परमात्मा जो कराए।
स्मृतिकीर्त्योः कथादेः च आर्तौं प्रायश्चित्तभावात्‌।
‘स्मरण और कीर्तन, कथा-श्रवण आर्त-भक्ति में प्रायश्चित्त रूप कहे गए हैं।’
और कुछ नहीं करना है, असहाय और निरालंब होकर पुकारना है। उस पुकार में ही चित्त निर्मल हो जाता है। प्रायश्चित्त घटित हो जाता है। लोग पूछते हैं: सिर्फ रोने से क्या होगा? प्रायश्चित्त के लिए कुछ शुभ कर्म करने होंगे। कुछ यज्ञ-हवन इत्यादि करने होंगे। कुछ कर्मकांड करना होगा। लेकिन भक्त कहते हैं, रोने से ही सब हो जाएगा। अगर तुम हृदयपूर्वक रोए, अगर तुम्हारा रोना तुम्हारी समग्रता से आया, तो वही तुम्हें निर्मल कर जाएगा। ये आंसू तुम्हारी बाहर की आंख को ही साफ नहीं करते हैं, तुम्हारी भीतर की दृष्टि को भी स्वच्छ कर जाते हैं। प्रायश्चित्त हो गया। या अगर तुम जिज्ञासु हो, तो गुरु के चरणों में झुक गए, प्रायश्चित्त हो गया। या अगर तुम अर्थार्थी हो और तुम जीवन में अर्थ की तलाश कर रहे हो, तो तुमने शांत होकर, ध्यानपूर्वक बैठ कर परमात्मा को पुकारा कि मुझे अपने रंग में रंग लो! मेरे तारों को तुम छेड़ो। मैं तो छेड़ता हूं तो अर्थ नहीं निकलता, व्यर्थ का शोरगुल होता है। तुम छेड़ो तो संगीत उठे। तुम छेड़ो तो छंद बने। मेरे किए तो केवल उपद्रव होता है, अराजकता फैलती है। तुम छेड़ो मेरा संगीत। यह रही मेरे हृदय की वीणा। तुम उठाओ, तुम जगाओ स्वर। तो प्रायश्चित्त हो गया।
यह सवाल विचारणीय रहा है सदियों से कि आदमी ने अतीत में बहुत से बुरे कर्म किए हैं, उनका क्या होगा? मुझसे लोग आकर पूछते हैं कि जन्मों-जन्मों से हमने पाप किए हैं, उन पापों के फल का क्या होगा? समझा जाता है कि जितने तुमने पाप किए हैं उतने पुण्य करके जब काटोगे, तब मुक्ति होगी।
फिर तो मुक्ति कभी होने वाली नहीं है। फिर तो तुम मुक्ति का खयाल ही छोड़ दो। तुमने इतने पाप किए हैं कि अगर एक-एक पाप के लिए पुण्य करना पड़ा तो अनंत जन्म लग जाएंगे, एक बात। और इतने पुण्य करने के लिए तुम्हें अनंत जन्मों तक बहुत से पाप फिर से करने पड़ेंगे। नहीं तो पुण्य कहां से करोगे? समझो कि एक मंदिर बनाना है, तो पहले ब्लैक मार्केट करनी पड़ेगी! ब्राह्मणों को भोजन कराना है, तो भोजन के लिए कुछ तो जेब काटोगे! तभी तो भोजन होगा! दान देना है, चोरी करोगे तभी तो दान दे सकोगे! चोर हुए बिना दानी तो नहीं हो सकते! इसलिए जब कोई सोचता है कि वह महादानी है, उसे पता नहीं वह क्या कह रहा है! वह यह कह रहा है कि पहले हम चोर थे। असल में ऐसा होता है कि तुम करोड़ की चोरी कर लेते हो, लाख दान कर देते हो। और लाख दान करके फिर तुम करोड़ की चोरी करने के लिए योग्य हो जाते हो। क्योंकि फिर अकड़ आ जाती है कि अब फिर कर सकते हैं। और फिर हर्ज क्या है, फिर लाख का दान कर देंगे। तुम्हारा दान और तुम्हारी चोरी संयुक्त है।
तो अगर अनंत जन्म लगेंगे तुम्हारे अनंत जन्मों के कर्मों को सुधारने में, तो इस बीच तुम गलत कर्म करते ही चले जाओगे, उनको फिर सुधारना पड़ेगा। और फिर गलत होंगे, फिर सुधारना पड़ेगा। इस दुष्टचक्र का कोई अंत नहीं हो सकता। इसलिए जो लोग कर्म के गणित से चलते हैं, उन्हें मुक्ति की आशा छोड़ देनी चाहिए।
भक्त कहता है: तुमने जो किया है, वह स्वप्न जैसा है, उसको मिटाने के लिए कुछ नहीं करना है, सिर्फ जागना काफी है। तुम रात सोए हो और तुमने हत्या कर दी सपने में और चोरी कर ली सपने में, अब सुबह उठ कर तुम यह थोड़े ही कि दान करोगे तब चोरी कटेगी। कि अब किसी आदमी को जिलाओगे तब रात की हत्या कटेगी। सुबह जागते ही पता चलता है कि सब सपने में हुआ था, कुछ किया नहीं है। किया ही नहीं है कुछ! हुआ ही नहीं है कुछ! एक नींद थी, नींद टूट गई है। भक्त जब रो लेता है तो नींद टूट जाती है। भक्त जब गा लेता है तो नींद टूट जाती है। भक्त जब नाच लेता है तो नींद टूट जाती है।
या आर्त बनो, या जिज्ञासु, या अर्थार्थी, लेकिन हर हालत में नींद टूटती है। कर्मों को नष्ट नहीं करना पड़ता है, नींद के टूटते ही जीवन-दृष्टि बदल जाती है। और जीवन-दृष्टि बदली तो सब बदला। जाग कर जीवन जीने लगे तो शुभ हो जाता है। संक्षिप्त में कहें तो ऐसा: सोए-सोए जीओ तो पाप, जागे-जागे जीओ तो पुण्य। जाग कर जो किया जाए वह पुण्य, सोकर जो किया जाए वह पाप।
जागने के ये तीन उपाय शांडिल्य ने कहे। या तो आर्त बन जाओ--कि तुम्हारा रोना इतना सघन हो कि तुम जाग जाओ। तुम्हें याद है? कभी सपने में ऐसा हो जाता है कि एक सिंह तुम्हारा पीछा कर रहा है और तुम भागे जा रहे हो और मरे जा रहे हो और घबड़ा रहे हो, और तभी एक जोर की पुकार निकल जाती है कि मर गया! उसी पुकार में नींद खुल जाती है। शेर भी गया, नींद भी गई, तुम जग गए। या कभी तुम देखते हो कि तुम्हारी छाती पर कोई चढ़ा बैठा है और छुरा भोंक रहा है। जैसे ही छुरा भोंका जाता है, एक आह निकल जाती है। उसी आह में नींद टूट जाती है।
आर्त का यही अर्थ है। जीवन का दुख इतना है कि उस दुख के कारण ही तुम्हारे भीतर से आह निकल गई। आह में नींद टूट गई।
या तुमने सोचा-विचारा, कोई उत्तर नहीं मिलता कि सत्य क्या है? और तुम किसी सदगुरु के पास बैठ गए। सदगुरु के पास बैठने का अर्थ यह है कि तुमने किसी अलार्म से दोस्ती कर ली। वह तुम्हें जगाता रहेगा। वह तुम्हें चेताता रहेगा। वह तुम्हें उठाता रहेगा।
और या अर्थार्थी। न तुमने दुख के कारण आह निकाली, न तुमने सत्य की जिज्ञासा से सत्संग किया, बल्कि तुमने पाया कि जीवन में कोई अर्थ नहीं है। तुम एकदम नकार और निषेध और शून्यता से, रिक्तता से भर गए। उसी रिक्तता की चोट में तुम्हारे भीतर से पुकार उठी कि हे प्रभु, अगर तू अपने रंग में रंग ले, तो सब ठीक हो जाए।
तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है।
देखी मैंने बहुत दिनों तक
दुनिया की रंगीनी,
किंतु रही कोरी की कोरी
मेरी चादर झीनी,
तन के तार छुए बहुतों ने
मन का तार न भीगा,
तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है।
लेकिन ये तीनों साधन गौण हैं। पराभक्ति के लिए नाव-रूप हैं। और जैसे-जैसे पराभक्ति आने लगे, नाव से उतर जाना है। नाव छोड़ देनी है। साधन से मुक्त हो जाना है।
जिस दिन साधन की कोई जरूरत न रहे उस दिन भूल कर एक क्षण भी साधन को पकड़े मत रखना, नहीं तो साधन जकड़ लेगा, फिर तुम संसार में फेंक दिए जाओगे। संसार से मुक्त होने के लिए साधन उपाय है। फिर साधन से मुक्त हो जाना है। जिस दिन संसार और साधन, दोनों से मुक्ति हो गई--संसार से मुक्ति हो गई, धर्मों से मुक्ति हो गई; हिंदू न रहे, मुसलमान न रहे, ईसाई न रहे, वे सब साधन हैं--उस दिन तुम वस्तुतः धार्मिक हुए। जिस दिन वेद का अंत हो गया उस दिन वेदांत। जिस दिन वेद पूरे हो गए उस दिन वेदांत।
पराभक्ति तुम्हारा और परमात्मा का अंतिम मिलन है, आत्यंतिक मिलन है।

आज इतना है।

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