SHANDILYA
ATHATO BHAKTI JIGYASA 28
TwentyEighth Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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पहला प्रश्न:
भगवान, मैं आपको सुनता हूं तो अपने जीवन की व्यर्थता देख कर बहुत उदास हो जाता हूं। मुझे उबारें! मुझे बचाएं!
जीवन जैसा है उसकी व्यर्थता समझ में आ जाए, तो जीवन जैसा होना चाहिए उसकी खोज शुरू होती है। जब तक व्यर्थ को सार्थक समझा है, तब तक सार्थक से वंचित रहोगे। जिस दिन व्यर्थ व्यर्थ की तरह दिखाई पड़ जाएगा, आधी यात्रा पूरी हो गई। व्यर्थ का व्यर्थ की भांति दिखाई पड़ जाना, सार्थक का सार्थक की भांति दिखाई पड़ने के लिए पहला कदम है। उदास न होओ।
उदासी आती है, स्वाभाविक है। क्योंकि हम एक ढंग से जी रहे हैं। उसी ढंग से हमने अपना अब तक का जीवन बिताया; अपना समय लगाया, अपनी ऊर्जा लगाई। जीवन बहुमूल्य है, उसे हमने एक दांव पर लगाया। आज अचानक पता लगे कि वह दांव व्यर्थ था, वहां हारने के सिवाय जीतने की कोई सुविधा नहीं थी, हम धोखे में थे, तो उदासी आनी स्वाभाविक है। लेकिन जितनी जल्दी यह उदासी आ जाए, उतना शुभ। सुबह का भूला सांझ भी घर आ जाए तो भूला नहीं कहाता। मरने के एक क्षण पहले भी अगर यह दिखाई पड़ जाए कि जो जीवन हमने जीया वह व्यर्थ था, तो उस शेष एक क्षण में भी परमात्मा उपलब्ध हो सकता है। परमात्मा को पाने के लिए समय की थोड़े ही जरूरत है; दृष्टि के बदलाहट की जरूरत है। जो दृष्टि बाहर देख रही थी, वह भीतर देख ले, बस।
बाहर का व्यर्थ होगा तभी तो तुम भीतर देखोगे। जब तक बाहर तुम्हें सार्थक मालूम हो रहा है, तब तक भीतर तुम जाओगे क्यों? कंकड़-पत्थरों में हीरे मालूम हो रहे हैं तो तुम कंकड़-पत्थर बीनोगे। अगर बाहर सब कंकड़-पत्थर है, फिर क्या करोगे? फिर भीतर जाना ही होगा! और जब जाना ही होता है, तभी लोग जाते हैं। जब सब तरफ से हार जाते हैं, तभी लोग जाते हैं। पराजय पूरी होनी चाहिए। उदासी समग्र होनी चाहिए। इसी उदासी से आनंद का जन्म होता है।
यहां सब व्यर्थ हो जाता है। तुमने धन कमाया, वह भी एक दिन व्यर्थ हो जाएगा। जितनी जल्दी समझ में आ जाए, उतना अच्छा। तुमने यहां प्रेम किया, वह भी उखड़ जाएगा, वह भी टूट जाएगा। जिनसे तुमने प्रेम किया वे भी मरणधर्मा हैं। तुम भी मरणधर्मा हो। यहां के नाते नदी-नाव-संयोग हैं। क्षणभंगुर के हैं। थोड़ी देर टिकते हैं, पानी के बबूले हैं। पानी केरा बुदबुदा! कितनी देर टिकेगा? जब तक है तब तक हो सकता है सूरज की रोशनी में चमके, इंद्रधनुष दिखाई पड़े पानी के बुलबुले में, लेकिन कितनी देर? टूटने को ही है। टूटना सुनिश्चित है। उसके होने में ही टूटना छिपा है। यहां बड़े सपने तुमने देखे हैं--प्रेम के, पद के, प्रतिष्ठा के--वे सब उखड़ जाएंगे।
मेरी बातें सुन कर उदासी आए, यह शुभ लक्षण है। इसके बाद दूसरी घटना भी घटेगी--अगर पहली घटना घट जाने दी तो दूसरी घटना भी घटेगी--आनंद का आविर्भाव भी होगा।
जख्म दिल के छुपाके देख लिया
गम से आंखें चुराके देख लिया
लज्जते-दर्द मैं निसार तेरे
तुझसे दामन बचाके देख लिया
दिल का हर जख्म मुस्कुरा उट्ठा
नग्माए-ऐश गाके देख लिया
जिंदगी का सुकून खो बैठे
गम की दौलत लुटाके देख लिया
बिजलियां सैकड़ों चमक उट्ठीं
फिर नशेमन बनाके देख लिया
कैसी उल्फत, कहां की रस्मे-वफा
सबको अपना बनाके देख लिया
हमनवा कौन? हमनफस कैसा?
नौहाए-गम सुनाके देख लिया
जिंदगी एक सराब है ‘जेबा’
खंदाए-गुल को जाके देख लिया
जरा फूल को पास से जाकर देखना।
खंदाए-गुल को जाके देख लिया
मुस्कुराते फूल को सुबह जरा पास से जाकर देख लेना।
जिंदगी एक सराब है ‘जेबा’
और तुम्हें समझ में आ जाएगा कि जिंदगी एक मृग-मरीचिका है।
जिंदगी एक सराब है ‘जेबा’
खंदाए-गुल को जाके देख लिया
दूर-दूर से मुस्कुराते फूलों को देखते रहोगे तो धोखा खाते रहोगे। पास से, निकट से देख लेना। इसलिए मैं जीवन से भाग जाने को नहीं कहता हूं। क्योंकि भाग जाओगे तो जागोगे कैसे? हिमालय की गुफाओं में बैठ जाओगे तो जागोगे कैसे? यह जीवन इतना दुखपूर्ण है, इतना व्यर्थ है, इतना असार है कि अगर इसके बीच रहे, तो आज नहीं कल जागोगे ही। सोओगे कैसे? बीच बाजार में सो रहे हो, नींद टूट ही जाएगी। हां, गुफा में बैठ गए हिमालय की तो शायद नींद लगी भी रह जाए।
इसलिए मैं कहता हूं, छोड़ कर मत जाना। इसलिए नानक ने नहीं कहा कि छोड़ कर जाओ। इसलिए मोहम्मद ने नहीं कहा कि छोड़ कर जाओ। कहा, रहो। जहां हो, वहीं रहो। जैसे हो, वैसे ही रहो--दुकान में, बाजार में, परिवार में। क्योंकि यह जो शोरगुल है चारों तरफ, यही तुम्हें जगाएगा। इसकी व्यर्थता तुम्हें जगाएगी। इससे दूर हट गए तो इसकी व्यर्थता का कांटा चुभेगा नहीं। फिर तुम सपनों में खो जा सकते हो। हिमालय की गुफाओं में बैठे लोग अक्सर भ्रांतियों में पड़ जाते हैं। मन की कल्पनाओं में खो जाते हैं। मन की कल्पनाएं--फिर तुम जो चाहो कर लो। कृष्ण को बांसुरी बजाता हुआ देखना हो तो कृष्ण को बांसुरी बजाते देखो। और राम को धनुषबाण लिए देखना हो तो राम को धनुषबाण लिए देखो। फिर तुम मुक्त हो। तुम्हारी कल्पना मुक्त है। तुम जो लड्डू खाना चाहो कल्पना के, खा लो।
लेकिन असली सत्य यहां घटता है, जगत में घटता है। चोट यहां है, व्यर्थ यहां है, तो सार्थक भी यहीं छिपेगा, यहीं मिलेगा, यहीं खोजना होगा।
और एक न एक दिन तो उदास होओगे ही। यहां कौन अपना है?
हमनवा कौन?
यहां कौन एक-दूसरे की भाषा समझता है?
हमनवा कौन? हमनफस कैसा?
यहां कौन किसका संगी है? कौन किसका साथी है? मन भरमाने की बातें हैं कि पति है, कि पत्नी है, कि मित्र है, कि बेटा है, कि बाप है, कि मां है। यहां कौन किसका संगी? कौन किसका साथी? यहां कौन तुम्हारी भाषा समझता है? तुम किसकी भाषा समझते हो? कुछ का कुछ समझ लेते हो।
एक मित्र ने सवाल भेजा है कि
आप पंजाबियों के दुश्मन क्यों?
मैं और पंजाबियों का दुश्मन! मैं पंजाबी हूं। तुम्हें मुझमें पंजाबी होने में कुछ कमी दिखाई पड़ती है? साफा भर बांधने की बात है। वह गुरुदयाल बैठे हुए हैं, गुरुदयाल से पूछ लेना; वह एक दफा साफा ले आए थे और साफा बंधवा कर मेरा चित्र निकाल लिया। मुझे बिलकुल पंजाबी बना दिया।
मैं पंजाबियों का दुश्मन! तुम समझ ही नहीं पाते। यहां कोई किसी की भाषा नहीं समझ पाता।
उन सज्जन ने लिखा है कि हम पंजाबी आपके झांसे में आने वाले नहीं।
कुछ कहा जाता है, कुछ समझ लिया जाता है। तुम मजाक भी नहीं समझ सकते! तुम पंजाबियों से भी गए-बीते हो गए! कम से कम मजाक तो समझो। तुम मेरा प्रेम भी नहीं समझ सकते! प्रेम है, इसीलिए चोट करता हूं। तुम चोट से तिलमिला जाते हो। जगाना चाहता हूं, इसलिए चोट करता हूं। तुम जागने की बजाय नाराज हो जाते हो, गालियां बकने लगते हो।
हमनवा कौन? हमनफस कैसा?
नौहाए-गम सुनाके देख लिया
सबको अपना दुखड़ा सुना कर देख लिया। न कोई समझता है, न कोई संगी है, न कोई साथी है। इस जिंदगी में तुमने सब करके देख लिया। क्या बचा है? अक्सर करने को ज्यादा है भी नहीं। थोड़ी सी बातें हैं, लोग उन्हीं को दोहराए चले जाते हैं। बार-बार वही क्रोध, वही प्रेम, वही घृणा। कोल्हू के बैल जैसी जीवन की गति है। तुमने सब करके देख लिया और बहुत बार करके देख लिया; किस आशा के सहारे बैठे हो अब? किस भविष्य की प्रतीक्षा कर रहे हो? तोड़ दो सब आशाएं, हो जाओ निराश। छोड़ दो सारा भविष्य, हो जाओ उदास। उसी उदासी से तुम्हारे जीवन का फूल खिलेगा जो शाश्वत है।
अभी मुस्कुराएगी यह फजा, अभी रोशनी नजर आएगी
यह जो जुल्मते-शबे-यास है, यह नवेदे-सुबह भी लाएगी
इस उदासी से घबड़ा मत जाना। इस उदासी को मिटाने की चेष्टा में मत लग जाना। यह उदासी मंदिर है। इसी में परमात्मा का आरोपण होगा। यह उदासी ही तो वैराग्य का सूत्र है। इसी से तो परमात्मा का राग जगेगा। संसार से राग टूटे, तो परमात्मा से राग जुड़े।
जब तक संसार से राग है, परमात्मा से विराग है। जब तक संसार में रस है, तब तक परमात्मा से तुम विरस रहोगे। जब तक आंखें संसार पर लगी हैं, तुम संसार को सन्मुख किए हो, परमात्मा से विमुख रहोगे। जैसे ही मुड़े संसार से, फिर और कोई बचता नहीं, यहां दो ही तो हैं--एक बाहर है और एक भीतर है; एक चैतन्य है और एक पदार्थ है। एक व्यर्थ है और एक सार है। व्यर्थ से मुड़े कि सार से जुड़े। संसार से विमुख हुए कि परमात्मा के सन्मुख हुए।
अभी मुस्कुराएगी यह फजा...
जरा ठहरो। उदासी से घबड़ा मत जाना। इसको दबा मत देना। इसको लीप-पोत कर मिटा मत देना। जल्दी से फिर अपनी मरी हुए आशाओं में सांस मत फूंक देना। मर गई आशाओं को फिर से पानी मत दे देना।
अभी मुस्कुराएगी यह फजा...
ये जो उदास आंखें हो गई हैं, ये मुस्कुराएंगी, जरा रुको।
...अभी रोशनी नजर आएगी
अभी सब अंधेरा हो गया है, घबड़ाओ मत, इसी अंधेरे से आदमी रोशनी की तरफ पहुंचता है।
झूठे दीये बुझ गए तो अंधेरा हो जाता है। लेकिन इसी अंधेरे में अगर तुम बैठे रहे, बैठे रहे, तो सच्चे दीये जलेंगे। निश्चित जलते हैं। सच्चे दीये जल ही रहे हैं, लेकिन तुम्हारी आंखों की आदत झूठे दीयों को पहचानने की हो गई है, इसलिए थोड़ी देर लगती है। तुमने देखा नहीं, बाहर रोशनी में से आते हो घर लौट कर तो घर में अंधेरा मालूम होता है! थोड़ी देर बैठे कि फिर अंधेरा नहीं मालूम होता। बाहर की रोशनी के आदी हो गए, घर लौटे तो आंखों को नया समायोजन करना पड़ता है। आंखों को बदलाहट करनी पड़ती है। थोड़ा समय लगता है। बैठ गए, थोड़े सुस्ता लिए, आराम किए, फिर घर में रोशनी दिखाई पड़ने लगती है।
ऐसे ही तुम जन्मों-जन्मों तक बाहर रहे हो, अपने घर के बाहर रहे हो, आंखें बाहर के लिए बिलकुल ही राजी हो गई हैं, परिचित हो गई हैं, भीतर तुम गए नहीं जन्मों-जन्मों से, घर तुम लौटे नहीं जन्मों-जन्मों से, जब पहली दफा लौटोगे, सब अंधेरा हो जाएगा। घबड़ाना मत। इस अंधेरे में ही गुरु की सहायता की जरूरत है कि वह तुम्हें सम्हाले रखे। तुम्हारा तो मन कहेगा, बाहर चलो, वहां रोशनी तो थी कम से कम। कुछ आशा थी, कुछ भविष्य था, कुछ रस था, जीने का कोई बहाना और उपाय था। यहां तो कोई जीने का बहाना भी नहीं और उपाय भी नहीं। यहां करना क्या है? उठो, बाहर चलो। मन तो कहेगा, दौड़ो फिर, फिर जगा लो अपने पुराने सपने, फिर फैला दो सपनों का वितान।
अभी मुस्कुराएगी यह फजा, अभी रोशनी नजर आएगी
यह जो जुल्मते-शबे-यास है, यह नवेदे-सुबह भी लाएगी
घबड़ाओ मत, इस रात के बाद ही सवेरा है।
जो तड़प गई तो यह बर्क है, जो मचल गई तो यह मौज है
यह तेरी नजर कि है शोबिदा, कोई ताजा गुल ही खिलाएगी
यह उदासी कुछ ताजा गुल खिलाने की तैयारी है।
यह हवाए-यास बजा मगर तपिशे-उम्मीद पे रख नजर
वह जो इक चिराग बुझाएगी तो यह सौ चिराग जलाएगी
घबड़ाओ मत। झूठे दीये बुझ गए तो अच्छा।
वह जो इक चिराग बुझाएगी तो यह सौ चिराग जलाएगी
गर दिलो-दिमाग पे छा गई हैं गमे-हयात की तल्खियां
तेरी याद फिर तेरी याद है, तेरी याद दिल से न जाएगी
संसार से उदास हो जाओगे, इतना ही मत देखो, यह आधी कहानी है। इसी के पीछे उठ रहा है दूसरा हिस्सा कहानी का कि परमात्मा की आशा जगेगी; संसार की आशा गिरेगी, परमात्मा की आशा जगेगी।
तेरी याद फिर तेरी याद है, तेरी याद दिल से न जाएगी
और एक बार संसार की याद दिल से चली गई तो फिर परमात्मा को भुलाने का उपाय नहीं। फिर कैसे भूलोगे? फिर उसके सिवाय कुछ बचता नहीं--जागो तो उसमें जागोगे, सोओ तो उसमें सोओगे, उठो तो उसमें उठोगे, बैठो तो उसमें बैठोगे, जीओ तो उसमें जीओगे, मरो तो उसमें मरोगे, फिर सब तरफ से वही है। एक बार संसार से हमारा याद का रिश्ता टूट जाए।
यह नसीम नर्म अभी चली है, अभी से इसका गिला न कर
जो बहार बनके यह छा गई तो कली-कली को हंसाएगी
थोड़ी प्रतीक्षा। थोड़ा धैर्य।
तुम नये-नये आए होओगे, तुम मुझे सुन कर उदास हो गए हो। तुम यहां और लोगों को भी देखते हो जो सुन कर मुझे आनंदित हो रहे हैं? जब वे भी पहली-पहली बार आए थे, तो वे भी उदास हुए थे। जब पहली-पहली बार वे भी आए थे, तो वे भी नाराज हुए थे। जब पहली-पहली बार वे भी आए थे, तो उनको भी चोटें लगी थीं, जख्म हुए थे। अब वे ही जख्म फूल बन गए हैं। अब वे ही चोटें जागरण बन गई हैं। अब उदासी नहीं है, अब चित्त उनका मगन है। उनका चित्त बड़े आनंद में है।
इस दूसरे प्रश्न से तुम्हें समझ में आ सकेगा--
दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं आपको पाकर पा रहा हूं कि सब पा गया हूं। हालांकि लोग कहते हैं कि मैं पागल हो गया हूं। यह मुझे क्या हो गया है?
लोग ठीक ही कहते हैं। तुम पागल हो गए हो। प्रेम पागलपन है। पर जिसने प्रेम जाना, उसके लिए सिर्फ प्रेम ही समझदारी रह जाती है। जिन्होंने प्रेम नहीं जाना, उनके लिए प्रेम पागलपन है। उन्होंने स्वाद ही नहीं चखा उस बात का। उन्हें धन पागलपन नहीं है, पद पागलपन नहीं है, प्रेम पागलपन है। जिन्होंने प्रेम चखा, उनके लिए धन पागलपन है, पद पागलपन है, उन्हें सब पागलपन है, सिर्फ प्रेम ही एकमात्र बुद्धिमानी है।
लेकिन लोग भी ठीक ही कहते हैं। लोग अपने ही हिसाब से तो कहेंगे न! लोग तुम्हारे हिसाब से कैसे कहें? लोगों को लगता है कि तुम कुछ डगमगा गए। क्योंकि लोगों को लगता है, जैसे वे चल रहे हैं, तुम अब वैसे नहीं चल रहे। तुमने लोगों से अपना ढंग अलग कर लिया। तुम्हें आनंद आ रहा है। तुम मगन हो रहे हो। मगर लोगों को लग रहा है कि तुम बेढंग पर जा रहे हो।
भीड़ चाहती है कि सदा तुम भीड़ के साथ राजी रहो। भीड़ तुम्हें स्वतंत्रता नहीं देना चाहती। भीड़ व्यक्ति को बरदाश्त नहीं करती। भीड़ व्यक्ति की हत्या करती है, व्यक्ति को बिलकुल मिटा देना चाहती है। भीड़ गुलाम चाहती है। फिर वे गुलाम हिंदू हों कि मुसलमान, कि सिक्ख, कि ईसाई, कि जैन, कुछ फर्क नहीं पड़ता। भीड़ की एक ही कला है कि तुम्हें पोंछ दे, मिटा दे। तुम तुम्हारी तरह न रहो, तुम्हारे भीतर भीड़ प्रवेश कर जाए। तुम भीड़ की भाषा बोलो, भीड़ के सिद्धांत मानो, भीड़ का शास्त्र दोहराओ, भीड़ जो कहे वैसा करो, भीड़ जैसा चलाए वैसा चलो। भीड़ मंदिर जाए तो तुम मंदिर जाओ, भीड़ मस्जिद जाए तो तुम मस्जिद जाओ। भीड़ मस्जिद में आग लगाए तो तुम मस्जिद में आग लगाओ, भीड़ मंदिर की मूर्ति तोड़े तो तुम मूर्ति तोड़ो। भीड़ जो करे वही करो।
लोग भीड़ में सम्मिलित हो जाने के लिए उत्सुक भी होते हैं। कारण हैं कई। एक तो जितना तुम भीड़ के साथ हो जाते हो, उतनी ही तुम्हारी चिंता कम हो जाती है। तुम्हारा जिम्मेवारी का भाव, तुम्हारा उत्तरदायित्व का भाव कम हो जाता है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो पाप भीड़ करती है, वह व्यक्ति कभी नहीं कर सकता। और अगर किसी भीड़ ने कोई पाप भी किया हो--समझो कि किसी भीड़ ने जाकर मंदिर तोड़ डाला हो, कि गुरुद्वारे में आग लगा दी हो, कि मस्जिद जला दी हो--अगर इस भीड़ के एक-एक आदमी से तुम अलग-अलग जाकर पूछो, तो वह कहेगा कि मैं कैसे कर पाया, कह नहीं सकता। हो गया। अगर तुम उससे पूछो कि क्या तुम अकेले यह कर सकते थे? तो वह हिचकिचाएगा। अकेले वह नहीं कर सकता था। अकेले में आदमी के पास थोड़ा सा उत्तरदायित्व का भाव होता है। भीड़ में सब उत्तरदायित्व खो जाता है। भीड़ का नशा पकड़ लेता है। इतने लोग कर रहे हैं, तो ठीक ही कर रहे होंगे। फिर इतने लोग कर रहे हैं, तो मेरी कोई जिम्मेवारी भी नहीं है। अगर मंदिर जलेगा, तो मैं कोई अकेला जिम्मेवार नहीं हूं। मैंने जलाया, ऐसा सवाल ही नहीं। मैं तो सिर्फ भीड़ में था, जलाने वाले तो और ही लोग थे। और भीड़ में हर एक आदमी यही सोच रहा है जैसा तुम सोच रहे हो कि जलाने वाली तो भीड़ है, मैं तो भीड़ में हूं सिर्फ।
भीड़ ने जितने बड़े अपराध किए हैं, कभी व्यक्तियों ने नहीं किए। व्यक्तियों के नाम बड़े छोटे-मोटे अपराध हैं। असली अपराध भीड़ के नाम हैं।
तो व्यक्ति को आसानी भी मिलती है भीड़ के साथ जुड़ जाने में। तुम्हारी अपराध की वृत्ति को भी सुविधा मिलती है। क्योंकि भीड़ के सहयोग के कारण अपराध पुण्य जैसा मालूम होता है। पाप पुण्य बन जाता है। तुम अकेले करो तो मन कचोटेगा, अंतःकरण पर चोट लगेगी, कांटा गड़ेगा। भीड़ के साथ करो, तुम्हें अंतःकरण की कोई चिंता ही नहीं। अंतःकरण को एक तरफ रख दिया जा सकता है। तुम्हारे भीतर छिपी हुई पशुता को सुविधा से प्रकट होने का मौका मिल जाता है।
भीड़ में तुम परमात्मा से दूर हो जाते हो और पशु के करीब हो जाते हो। अकेले में जितने तुम व्यक्ति होते हो उतने ही तुम परमात्मा के करीब होते हो। क्योंकि उतना ही अंतःकरण, उतना ही विचार, उतना ही ध्यान सजग होता है। तुम एक-एक कदम सोच कर उठाते हो कि मैं जिम्मेवार हूं, यह मंदिर जलाऊं? इस दूध पीते बच्चे को मारूं? इसने क्या बिगाड़ा है? इसे कुछ पता भी नहीं है। यह हिंदू है कि मुसलमान है, इसका भी पता नहीं है, इसे मैं मारूं? अकेले तुम पाप करने चलोगे, कुछ सोचना ही पड़ेगा। बड़े से बड़ा पापी भी विचार करता है। लेकिन भीड़ के साथ पाप पुण्य हो जाता है। मजे से कर सकते हो और रात आकर निश्चिंत सो सकते हो। उत्तरदायित्व से मुक्ति मिल जाती है भीड़ में।
जिस आदमी ने हिरोशिमा पर एटमबम गिराया और एक लाख आदमियों को पांच मिनट के भीतर राख कर दिया, वह आदमी रात लौट कर निश्चिंतता से सोया। थोड़ा सोचो! एक लाख आदमी तुमने मार डाले हों और तुम निश्चिंतता से सो सकोगे? वह आदमी कैसे सो सका? यह मत सोचना कि वह कोई बड़ा भारी दानव था। तुम्हारे जैसा आदमी था, ठीक तुम्हारे जैसा, साधारण आदमी था। उसकी पत्नी थी, उसका बच्चा था, उसके मां-बाप थे, किसी ने कभी उसे ऐसा नहीं जाना कि इतना महाहत्यारा है वह। लेकिन सुबह जब पत्रकारों ने पूछा कि इतने लोगों के मरने के बाद तुझे कैसा लगा? उसने कहा, कोई सवाल ही नहीं, मैंने आज्ञा का पालन किया! ऊपर से आज्ञा आई थी। मैं आकर निश्चिंत सो गया। आज्ञा पूरी कर दी, मेरा काम पूरा हो गया, मैं निश्चिंत सो गया।
अब सवाल यह है, आज्ञा किसने दी? इसके लिए कौन जिम्मेवार था? ट्रूमैन प्रेसीडेंट था अमरीका का जब यह एटमबम गिरा। जब ट्रूमैन से पूछा गया तो उसने कहा कि मैं क्या कर सकता हूं? मेरे जनरलों ने सलाह दी थी। ट्रूमैन भी मजे से सोया, क्योंकि उस पर कोई जिम्मेवारी नहीं। और जब जनरलों से पूछा गया, उन्होंने कहा, हम क्या कर सकते हैं, राष्ट्रपति की आज्ञा थी!
भीड़ में जब कोई बात होती है तो कोई जिम्मेवार नहीं होता। हर आदमी अपनी जिम्मेवारी दूसरे पर टाल देता है। जिम्मेवारी के लिए कोई राजी नहीं होता कि मैं जिम्मेवार हूं। जिन्होंने एटमबम बनाया, उन्होंने भी जिम्मेवारी अनुभव नहीं की। उन्होंने कहा, हम तो सिर्फ विज्ञान की खोज कर रहे हैं। हमने इसलिए थोड़े ही बनाया था कि तुम लोगों को मारो। हमने तो बड़ी भारी खोज की है। उन्होंने भी अनुभव नहीं किया कि हमारी कोई जिम्मेवारी है।
फिर जिम्मेवार कौन था? एक लाख आदमी मरे, यह निश्चित। बम गिराया गया, यह निश्चित। बम बनाया गया, यह निश्चित। किसी की आज्ञा से गिरा, यह भी निश्चित। लेकिन इतनी भीड़ संयुक्त है उसमें कि सब एक-दूसरे पर टाल दे सकते हैं। कोई जिम्मेवार नहीं मालूम होता।
भीड़ में लोग सम्मिलित होना चाहते हैं, क्योंकि आत्मा को खोने का सबसे सुगम उपाय है। और भीड़ भी चाहती है कि तुम भीड़ में रहो, क्योंकि भीड़ का बल उसकी संख्या में है। जब तुम अकेले-अकेले चलने लगोगे, जब तुम व्यक्ति बनोगे--और वही संन्यास का अर्थ है, कि तुम अब अपने अंतःकरण से जीओगे; अब तुम्हें जो ठीक लगता है वह तुम करोगे, नहीं कि भीड़ कहती है कि ठीक है; अब तुम अपना निर्णय स्वयं लोगे; अपने पाप-पुण्य के लिए स्वयं जिम्मेवार होओगे; अब तुम किसी पर टालोगे नहीं--तो निश्चित ही लोग कहेंगे कि तुम पागल हो रहे हो।
फिर, अनेक बार तुम्हारे और भीड़ के बीच बड़ा फासला हो जाएगा। भीड़ यजन करेगी, तुम भजन करोगे। बड़ा फर्क हो जाएगा। भीड़ कहेगी, सत्यनारायण की कथा हो रही है, आओ! तुम कहोगे, इस कथा में क्या रखा है? क्योंकि जो कथा कर रहा है, उसे कुछ पता नहीं है। और इस कथा में सत्यनारायण की बात कहीं आती ही नहीं। यह कथा बड़ी मजेदार है। इससे सत्य का कोई लेना-देना ही नहीं। तुम शायद मंदिर न जाओ। क्योंकि तुम देखोगे वहां एक पेशेवर पुजारी पूजा कर रहा है। पेशेवर कैसे पूजा करेगा? तुम शायद मस्जिद न जाओ। क्योंकि तुम कहो: मस्जिद में भी कोई नहीं है--कोई प्रतिमा तो है नहीं, कोई आधार-आलंबन तो है नहीं--तो जहां सिर झुका कर बैठ जाऊंगा वहीं मस्जिद हो गई, मस्जिद जाने की क्या जरूरत है?
एक सूफी फकीर जिंदगी भर मस्जिद जाता रहा। इतने नियम से मस्जिद गया पांचों बार दिन में नमाज पढ़ने, कि लोग यह सोचना ही भूल गए थे कि कभी ऐसा भी होगा कि वह मस्जिद न आएगा। कभी एकाध-दो बार ऐसा हुआ था, जब कि वह बहुत बीमार था और उठ न सका, तो ही। कभी गांव छोड़ कर नहीं गया, कि दूसरे गांव जाए और वहां मस्जिद न हो! लेकिन एक दिन सुबह लोगों ने पाया कि वह नहीं आया। कल शाम तक तो आया था, बिलकुल ठीक था, तो बीमार भी नहीं हो सकता। एक ही शक हुआ कि बूढ़ा आदमी, मर न गया हो! मस्जिद के बाद लोग सीधे उसके घर पहुंचे। वह अपने घर के सामने, झोपड़े के सामने एक वृक्ष के नीचे बैठा ढपली बजा रहा था और गीत गा रहा था। उन्होंने कहा, बुढ़ापे में नास्तिक हो गए? बुढ़ापे में कुफ्र सूझा? काफिर हो गए? मस्जिद क्यों नहीं आए?
वह फकीर हंसा और उसने कहा कि जब तक अज्ञानी थे, तब तक आए। जब तक पता नहीं था कि परमात्मा सब जगह है, तब तक मस्जिद आए। अब तो पता है कि सब जगह है, यहां भी है, वहां भी है, कहां आना, कहां जाना! अब तो जहां हैं वहीं गीत गाएंगे। अब तो हर गीत नमाज है।
मगर भीड़ इससे राजी नहीं हुई। भीड़ ने कहा कि बुढ़ापे में सठिया गया।
तो भीड़ तुमसे कहेगी कि तुम पागल हो गए हो। तुम्हारा रंग-ढंग समझ में न आएगा। भीड़ ठीक ही कहती है। मगर यह पागलपन इस जगत में सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता है। बुद्ध को भी भीड़ ने कहा था: पागल हो गए! कबीर को भी भीड़ ने कहा था: पागल हो गए! क्राइस्ट को भी भीड़ ने कहा था: पागल हो गए! भीड़ सदा से यही कहती रही है। तुम सौभाग्यशाली हो कि भीड़ तुमको भी पागल कह रही है। इस पागलपन को कष्ट मत समझना। इसे भीड़ की तरफ से तुम्हारे व्यक्तित्व का सम्मान समझना।
पूछते हो तुम: ‘मैं आपको पाकर पाता हूं कि सब पा गया हूं। हालांकि लोग कहते हैं कि मैं पागल हो गया हूं।’
तुम भी ठीक हो और लोग भी ठीक हैं। अपनी-अपनी दृष्टि! अपने-अपने देखने का ढंग! उन्हें तो कैसे पता चले कि तुम कुछ पा गए हो? उन्हें तो तुम्हारे अंतस्तल में प्रवेश का कोई उपाय नहीं है। वे तो कैसे तुम्हारे भीतर झांकें? वहां तो अकेले तुम हो। वहां तो तुम देख सकते हो, या मैं देख सकता हूं तुम्हारे भीतर। तुम ठीक कह रहे हो। संपत्ति तुम्हें मिलनी शुरू हो गई है। तुम संपदा के मार्ग पर हो। तुम्हें अंतर का राज्य धीरे-धीरे उपलब्ध हुआ जा रहा है। पहले कदम उठ चुके हैं, बीज बो दिए गए हैं, फसल भी समय पर आ जाएगी। तुम ठीक दिशा में यात्रा कर रहे हो। लेकिन भीड़ से तुम दूर जा रहे हो। भीड़ पागल कहेगी। इससे तुम चिंता मत लेना। अन्यथा चिंता के कारण तुम्हारी अंतर्यात्रा में बाधा पड़ जाएगी। इसे तुम निंदा भी न समझना। भीड़ को कहने देना। तुम इसका उत्तर देने में भी मत पड़ना। तुम हंसना। जब भीड़ पागल ही मानती है तो अब तुम काहे को फिकर कर रहे हो? भीड़ कुछ कहे, तुम हंसना। तुम धन्यवाद देना। अब जब पागल ही हो गए हो तो पूरे ही पागल हो जाना उचित है। अब तुम समझदारी सिद्ध करने की कोशिश मत करना। क्योंकि उससे भीड़ तो राजी नहीं होगी, तुम्हारी अंतर्यात्रा में अड़चनें आ जाएंगी। तुम अब बुद्धिमानी छोड़ो। तुम्हें बुद्धिमानी से ज्यादा बड़ी बुद्धिमानी हाथ लग गई है। तुम्हें प्रेम का रास्ता पकड़ में आ गया है।
फिर किसी ने नजर चुराई है
जज्बाए-दिल तेरी दुहाई है
जिस तरह बाग में बहार आए
दिल में यूं तेरी याद आई है
लुत्फे-सय्याद जिसमें शामिल हो
वह असीरी नहीं, रिहाई है
इश्क जब तक न साजगार हुआ
जिंदगी किसको रास आई है
न तसव्वुर कोई, न कोई खयाल
दिल में तेरी ही धुन समाई है
ऐ सबा दे खबर असीरों को
फिर चमन में बहार आई है
बुलबुलें चुप हैं, गुल खमोश-खमोश
इक उदासी चमन पे छाई है
जब मिली है तेरी नजर से नजर
जिंदगी जैसे मुस्कुराई है
जामे-लबरेज देख कर ‘इशरत’
चश्मे-मखमूर याद आई है
तुम्हारी जिंदगी में परमात्मा की शराब की पहली झलक आने लगी। लोग कहने लगे कि तुम लड़खड़ा कर चल रहे हो। लोग कहने लगे कि अब तुम्हारा पुराना ढंग न रहा। लोग कहने लगे कि तुम पागल हो गए हो।
फिर किसी ने नजर चुराई है
तुम्हारी नजरें कहीं और जा रही हैं। जहां संसार की नजरें लगी हैं वहां तुम अब नहीं देख रहे हो, इसलिए लोग कह रहे हैं कि तुम पागल हो गए हो।
फिर किसी ने नजर चुराई है
परमात्मा तुम्हारे हृदय को चुराने में लग गया है।
तुम्हें खयाल है, इस देश के पास एक शब्द है परमात्मा के लिए जो दुनिया की किसी भाषा में नहीं है--हरि। हरि का अर्थ होता है: चोर। हर ले जो, चुरा ले जाए जो। परमात्मा सबसे बड़ा चोर है।
अब तुम नाराज मत हो जाना कि मैंने परमात्मा को चोर कह दिया! अब तुम सोचने मत लगना कि इस आदमी के झांसे में नहीं आना है! यह तो हद्द हो गई, परमात्मा और चोर!
लेकिन परमात्मा चोर है, मैं क्या करूं? सच को तो कहना ही होगा। तुम झांसे में आओ कि न आओ, मगर सच को तो सच जैसा है वैसा कहना होगा। परमात्मा चुराता है इस ढंग से जिस ढंग से कोई नहीं चुराता। पैरों की आहट भी नहीं मिलती और कब हृदय चुरा लिया जाता है, पता नहीं चलता। किस अंधेरी रात में, कब परमात्मा तुम्हारे द्वार-दरवाजे को तोड़ कर भीतर आ जाता है, कुछ कहा नहीं जा सकता। तुम सोए ही रहते हो और चोरी चले जाते हो।
फिर किसी ने नजर चुराई है
जज्बाए-दिल तेरी दुहाई है
तुम, लोग क्या कहते हैं, इसकी फिकर छोड़ो। तुम तो अपने दिल को, अपनी भावना को धन्यवाद दो।
जज्बाए-दिल तेरी दुहाई है
हे हृदय के भाव, तेरा धन्यवाद! तुझे परमात्मा ने इस योग्य समझा कि तेरी नजर चुरा ले, कि तेरा हृदय चुरा ले।
जिस तरह बाग में बहार आए
दिल में यूं तेरी याद आई है
रेगिस्तान में, जहां सब तरफ मरुस्थल होता है, कहीं छोटे-मोटे मरूद्यान होते हैं। सारा मरुस्थल मरूद्यान को पागल समझता होगा। क्योंकि भीड़ तो मरुस्थल की है, विस्तार तो मरुस्थल का है, उसमें कहीं एक छोटा सा पानी का चश्मा है, दो-चार वृक्ष ऊग आए हैं, थोड़ी हरी घास भी लगती है, मरुस्थल कहता होगा कि यह स्थान पागल हो गया। स्वाभाविक है मरुस्थल का यह कहना। यह मरुस्थल को कहना ही पड़ेगा, नहीं तो मरुस्थल को बड़ी आत्मग्लानि होगी। अगर मरुस्थल यह माने कि यही सही होने का ढंग है--हरा होना, फूल से भरा होना, नाचते हुए होना, मस्त होना, प्रभु के प्रेम में डूबा हुआ होना--अगर यही होने का ठीक-ठीक ढंग है, तो फिर मैं क्या कर रहा हूं? तो मेरा होने का ढंग गलत है।
अगर तुम अंधों की दुनिया में पहुंच जाओ तो अपनी आंखों की घोषणा मत करना, अन्यथा वे तुम्हारी आंखें निकाल लेंगे। क्योंकि अंधे बर्दाश्त न कर सकेंगे कि तुम आंख वाले हो। तुम्हारी आंखें उनको उनके अंधेपन की याद दिलाएंगी।
इसीलिए तो जीसस को सूली लगानी पड़ी और मंसूर को मार डालना पड़ा, सुकरात को जहर पिलाना पड़ा। इसीलिए तो महावीर के कानों में कीले ठोंके गए। इसीलिए तो बुद्ध पर पत्थर पड़े। उनके कारण हमें याद आती है कि हम चूक गए। उनका साम्राज्य देख कर हमें याद आती है कि हम भिखमंगे के भिखमंगे रह गए। और हमारी भीड़ है। हमें बर्दाश्त के बाहर हो जाती है यह बात। हम ऐसे आदमी को हटा देना चाहते हैं जिसके कारण हमें कष्ट हो रहा है, जिसके कारण हमें अपनी दीनता का बोध हो रहा है। तुम उस आदमी को बर्दाश्त नहीं करते जिसके कारण तुम्हें लगता है कि तुम व्यर्थ हो गए हो। न होता यह आदमी, न व्यर्थता का पता चलता।
अगर कुरूप आदमियों का बस चले तो सौंदर्य को वे नष्ट कर दें। कुरूप आदमियों को मौका मिले तो सुंदरों को वे मार डालें। क्योंकि इन्हीं की वजह से वे कुरूप हैं, अन्यथा क्यों? अगर सभी कुरूप होते तो अड़चन ही क्या थी? अगर झूठों का बस हो तो सच को जीने न दें, फांसी पर लटका दें। लटकाते हैं। क्योंकि सच मिट जाए, पूरी तरह मिट जाए, तो फिर झूठ सच जैसा मालूम होता है।
ऐसा ही समझो कि झूठे सिक्के बाजार में चलते हैं। अगर सच्चे सिक्के बिलकुल ही विदा हो जाएं, तो फिर झूठे सिक्के झूठे नहीं रहेंगे। सिक्के अकेले वही रह गए, अब झूठा क्या, सच क्या! सच्चे सिक्के की मौजूदगी झूठे सिक्के को कष्ट का कारण है। और झूठ की भीड़ है!
जिस तरह बाग में बहार आए
दिल में यूं तेरी याद आई है
यह जो जीवन का वसंत है, यह जो परमात्मा का वसंत है, यह एक साथ नहीं आता--किसी के हृदय में आ जाता है, और बाकी सबके हृदय पतझड़ में होते हैं। किसी का फूल खिल जाता है, और सब तरफ कांटे ही कांटे होते हैं। कांटे नाराज हो जाते हैं। कांटे बदला लेते हैं। कांटे ईर्ष्या से भर जाते हैं।
लोग पागल कहते हैं, वे अपनी आत्मरक्षा में कहते हैं। उनकी तुम चिंता मत करना। वे यह कह रहे हैं कि हम पागल नहीं हैं। जब वे तुमसे कहते हैं कि तुम पागल हो, तो वे इतना ही कहना चाह रहे हैं कि हम पागल नहीं हैं। इतने लोग पागल नहीं हो सकते।
जार्ज बर्नार्ड शॉ के पास एक दिन एक आदमी गया। जार्ज बर्नार्ड शॉ ने कुछ कह दिया था जो उस आदमी को बड़ी चोट कर गया। उसने जाकर बर्नार्ड शॉ को कहा कि आप जो कहते हैं, कहने वाले आप अकेले हैं। मैं जो मानता हूं, सारी दुनिया मानती है। सारी दुनिया के करोड़ों लोग गलत नहीं हो सकते।
पता है बर्नार्ड शॉ ने क्या कहा? बर्नार्ड शॉ हंसा और उसने कहा, इतने लोग जिस बात को मानते हैं, वह बात सही हो ही नहीं सकती। सत्य तो कभी-कभार मिलता है। वह किरण तो कभी-कभी उतरती है। वह तो दुर्लभ है। झूठ तो सब अपना ईजाद कर सकते हैं। सत्य तो तुम ईजाद नहीं कर सकते। सत्य तो तब आता है जब तुम विदा हो जाते हो। उतनी हिम्मत बहुत कम लोगों की है। जो अपने को समाप्त कर देता है, सत्य उसे मिलता है।
लेकिन दूसरे लोगों और तुम्हारे बीच खाई पड़ जाएगी। तुम न तो नाराज होना, न चिंता करना। न जवाब देने जाना। तुम अपनी मस्ती में रहना। यह समय खराब करना ही मत। उत्तर देने की भी कोई जरूरत नहीं है, तर्क करने की भी कोई जरूरत नहीं है।
जिस तरह बाग में बहार आए
दिल में यूं तेरी याद आई है
लुत्फे-सय्याद जिसमें शामिल हो
अहेरी का आनंद भी जिसमें सम्मिलित हो। यह तुम्हारे आनंद में परमात्मा का आनंद भी सम्मिलित है।
लुत्फे-सय्याद जिसमें शामिल हो
वह असीरी नहीं, रिहाई है
वह गुलामी नहीं है, मुक्ति है। यह जो तुम्हारे भीतर घट रहा है, यह मुक्ति का पहला आकाश खुल रहा है।
इश्क जब तक न साजगार हुआ
जिंदगी किसको रास आई है
तब तक जिंदगी रूखी-सूखी है, तब तक जिंदगी मरुस्थल है, जब तक प्रेम का झरना न फूटे। इन रूखे-सूखे लोगों के बीच जब तुम्हारे पल्लव फूटेंगे, तुम हरे होओगे, तो इनकी नाराजगी समझ लेना। कबीर ने तो इसीलिए कहा है कि अपने पत्तों को छिपा लेना। हीरा मिल्यो गांठ गठियायो, वाको बार-बार क्यों खोले? बताना ही मत किसी को, नहीं तो लोग एकदम नाराज हो जाएंगे। किसी को कहना ही मत कि मुझे मिल गया है।
सूफी फकीर कहते हैं: प्रार्थना भी रात के अंधेरे में करना, जब कोई देखे नहीं। नहीं तो लोग कहेंगे, तुम पागल हो। चुपचाप कर लेना रात के अंधेरे में, चुपचाप बुला लेना परमात्मा को। चुपचाप उससे बात कर लेना, चुपचाप डूब जाना। किसी को कानोंकान खबर मत होने देना। लोग पागल हैं। जब तुम्हारा पागलपन पहली दफे मिटेगा, वे तुम्हें बर्दाश्त न कर सकेंगे। उन्होंने कभी किसी को बर्दाश्त नहीं किया है।
न तसव्वुर कोई, न कोई खयाल
दिल में तेरी ही धुन समाई है
सब कल्पनाएं चली जाती हैं, सब स्वप्न चले जाते हैं, सब विचार चले जाते हैं, बस एक धुन गूंजती रह जाती है। उस धुन का नाम भजन है। उस धुन के अतिरिक्त जो भी किया जाता है, सब यजन है, उसका कोई मूल्य नहीं है।
ऐ सबा दे खबर असीरों को
ऐ हवा! जा और बंदियों को भी खबर पहुंचा दे!
फिर चमन में बहार आई है
स्वाभाविक है वह भाव भी। जब तुम्हें मिलता है, स्वाभाविक मन उठता है, जिन्हें तुम प्रेम करते हो उन्हें भी बांट दो। मगर बहुत सम्हल कर कदम उठाना। क्योंकि यहां कोई किसी की भाषा नहीं समझता।
कोई हमनवा नहीं, कोई हमनफस नहीं। न कोई संगी है, न साथी है। जो तुम्हारी बात समझ सके, बस उससे ही कह देना। उतना ही कहना जितना समझ सके। ज्यादा मत उंडेल देना। जितना पचा सके उतना ही कहना। फिर और पचा सके तो और कहना। धीरे-धीरे कहना। धीरे-धीरे अपने आनंद को बताना।
ऐ सबा दे खबर असीरों को
कैदियों को खबर कर दे, ऐ हवा!
फिर चमन में बहार आई है
बुलबुलें चुप हैं, गुल खमोश-खमोश
इक उदासी चमन पे छाई है
जब मिली है तेरी नजर से नजर
जिंदगी जैसे मुस्कुराई है
इसके पहले सब उदास था।
बुलबुलें चुप हैं, गुल खमोश-खमोश
इक उदासी चमन पे छाई है
ऐसा था कि न तो बुलबुल बोलती थी, न कोयल गीत गाती थी, न पपीहा पुकारता था। फूल ही नहीं थे, तितलियां नहीं उड़ती थीं; न कोई सुगंध थी, न कोई शीतलता थी। सब उदास था, सब जड़ और मुर्दा था। लेकिन अब बात बदल गई है।
जब मिली है तेरी नजर से नजर
जिंदगी जैसे मुस्कुराई है
जामे-लबरेज देख कर ‘इशरत’
भरे प्याले को देख कर--
चश्मे-मखमूर याद आई है
इस भरे हुए हृदय में, इस आनंद से भरे हुए प्याले को देख कर वह नशीली आंख याद आनी शुरू हो गई है। जब तुम्हारे भीतर प्रेम का प्याला भरेगा, तो उस प्रेम के प्याले में ही परमात्मा की आंखें पहली दफा झलकेंगी। यह भी होगा। अभी तुम उदास हुए हो, घबड़ाओ मत। जल्दी यह घड़ी भी आएगी जब तुम भी यह प्रश्न पूछ सकोगे कि मुझे क्या हो गया है? क्या मैं पागल हो गया हूं? लोग कहते हैं मैं पागल हो गया हूं। हालांकि मुझे लगता है कि मुझे सब मिल गया है।
जैसा प्रेम में घटता है, साधारण लौकिक प्रेम में घटता है, उससे अनंत गुना, अनंत-अनंत गुना पारलौकिक प्रेम में घटता है।
बेखुदी के साज पर गाने का मौसम आ गया
आएगा मौसम। प्रतीक्षा चाहिए। बस प्रतीक्षा और प्रार्थना।
बेखुदी के साज पर गाने का मौसम आ गया
लेकिन याद रखना, यह साज बेखुदी का है। यहां तुम मिटोगे तो ही साज मिलेगा। तुम शून्य हो जाओगे तो ही साज मिलेगा। तुम्हारी शून्यता में ही यह संगीत उठने वाला है।
बेखुदी के साज पर गाने का मौसम आ गया
आ गया पीकर बहक जाने का मौसम आ गया
अभी उदास हुए हो, यह पहली बात हुई। चमन उदास-उदास, बुलबुलें खमोश-खमोश। सब ठहरा हुआ। एक दुनिया उजड़ गई जो तुमने बसाई थी। वे नावें जो तुमने चलाई थीं, कागज की हैं। ऐसा मैंने कहा, ऐसा तुम्हें दिखाई पड़ गया, तुम धन्यभागी हो! जो मकान तुमने बनाए थे वे मकान नहीं थे, केवल ताश के पत्तों के घर थे। मैंने कहा और तुम्हारी समझ में आ गया, तुम धन्यभागी हो! तुम्हें मेरी भाषा पकड़ में आ गई। इसीलिए तुम उदास हुए हो। अगर भाषा समझ में न आती तो तुम नाराज होते, उदास नहीं।
फर्क समझ लेना। दो ही तरह के लोग हैं यहां मेरे पास आने वाले। या तो वे जो उदास हो जाते हैं, या वे जो नाराज हो जाते हैं। जो नाराज हो गए वे चूक गए। फिर दुबारा उनके आने का कोई कारण न रहा। न केवल वे दुबारा नहीं आएंगे, और कोई आता होगा तो उसको भी रोकेंगे। जो उदास हो गया वह तो आएगा। उसे तो आना ही पड़ेगा। अब उसकी उदासी कहीं और न मिट सकेगी। अब तो वह मेरा बीमार हो गया। अब तो मेरे पास ही उसका उपचार है। अब तो वह तलाशेगा। जैसे भी बन सकेगा, वैसे करीब आएगा। और तब दूसरी घटना निश्चित घटती है।
बेखुदी के साज पर गाने का मौसम आ गया
आ गया पीकर बहक जाने का मौसम आ गया
फिर पयामे-आमदे-जानां सकूने-शाम है
सेज पर कलियों के खिल जाने का मौसम आ गया
प्यारा आने को है, प्रीतम आने को है। प्रीतम के आने का संदेश आ गया।
फिर पयामे-आमदे-जानां सकूने-शाम है
और संध्या की प्रतीक्षा!
सेज पर कलियों के खिल जाने का मौसम आ गया
जैसा साधारण प्रेम में घटता है, उससे अनंत-अनंत गुना इस प्रेम में घटता है। जैसे साधारण प्रेम में लोग पागल समझे जाते हैं, इस प्रेम में तो बहुत बड़े पागल समझे जाते हैं।
यह तड़प, यह दर्द, यह रग-रग में हलकी सी कसक
यह शबाब आया कि मर जाने का मौसम आ गया
तोड़ कर हमदम! हर इक रस्मो-रहे-कौनीन को
लगजिशों पर लगजिशें खाने का मौसम आ गया
अब लड़खड़ाओ! अब डगमगाओ! अब पीओ! और बेखुदी हो तो ही पी पाओगे। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि यहां अगर मेरे निकट तुम्हें होना है, अगर सच में ही सत्संग करना है, तो अपने को पोंछो। हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिक्ख, जैन की तरह मत आओ यहां! अन्यथा तुम आओ ही मत। आने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि तुम्हारी वे धारणाएं, तुम्हारे वे खयाल तुम्हें वंचित कर देंगे। और मैं तुम्हें याद दिला दूं कि मैं वही कह रहा हूं जो महावीर ने कहा था और बुद्ध ने कहा था, नानक-कबीर ने कहा था, मोहम्मद ने कहा था। मैं वही कह रहा हूं। और उन्होंने भी यही कहा था तुमसे कि जब आओ तो सब छोड़ कर आना। सब बाहर रख आओ। यहां खाली होकर आओ, बेखुद होकर आओ। थोड़े निर-अहंकार भाव से आओ। तो वह जादू हो सकता है।
बेखुदी के साज पर गाने का मौसम आ गया
आ गया पीकर बहक जाने का मौसम आ गया
फिर पयामे-आमदे-जानां सकूने-शाम है
सेज पर कलियों के खिल जाने का मौसम आ गया
वह दूसरी घटना भी सुनिश्चित घटती है। औरों को घटी है, तुमको भी घटेगी।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, कल आपने बताया कि भगवान को पाने के लिए मूल्य चुकाना होगा। और उसी समय आपने यह भी बताया कि शरीर को कष्ट देकर परमात्मा पाया नहीं जा सकता। कृपया समझाएं कि फिर मूल्य किस तरह चुकाना होगा? क्या सक्रिय ध्यान शरीर को कष्ट देना नहीं है?
सुभाष ने पूछा है! सुभाष के लिए है। और जिसके लिए शरीर को कष्ट देना हो, वह सक्रिय ध्यान न करे। कष्ट से परमात्मा का कोई संबंध नहीं है। सुख का भाव चाहिए। तुम अपने को सता कर परमात्मा से जुड़ोगे नहीं, टूट जाओगे।
लेकिन खयाल रखना, जो बात एक के लिए कष्ट हो सकती है, दूसरे के लिए आनंद हो सकती है। तुम्हारे लिए दौड़ने में कष्ट हो, किसी दौड़ाक को आनंद है। और जो दौड़ने का आनंद जानता है वह भरोसा ही नहीं कर सकेगा कि दौड़ने में कष्ट कैसा! दौड़ने के क्षणों में ही, सुबह की रोशनी में, सागर के तट पर उसने जीवन के सबसे सुखद क्षण जाने हैं। जिसे तैरने में सुख है, वह समझ ही नहीं पाएगा कि तुम कहते हो तैरने में कष्ट है! लोग अलग-अलग हैं। किसी को ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाने में आनंद है--जरूर उठे। लेकिन किसी को कष्टपूर्ण है--जरा भी न उठे। अपने स्वभाव को परखो, पहचानो।
सुख-दुख का अर्थ क्या होता है? इतना ही अर्थ होता है--सुख का अर्थ होता है: तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल पड़ रहा है। और क्या अर्थ होता है? दुख का अर्थ होता है: स्वभाव के प्रतिकूल पड़ रहा है। जो स्वभाव के प्रतिकूल है, वह परमात्मा से कैसे जोड़ेगा? क्योंकि परमात्मा का अर्थ ही स्वभाव है।
इसलिए मेरी बात को खूब खयाल से समझ लेना।
तुम्हारे भीतर अपने को दुख देने की वृत्ति है। क्योंकि सदियों से तुम्हें यह सिखाया गया है कि उसको पाने के लिए तपश्चर्या करनी है। मैं कह रहा हूं, उसे पाने के लिए आनंदमग्न होना है। तुम्हारी पुरानी धारणा इतनी गहरी बैठी है कि तुम मेरी बात भी सुन लोगे, फिर भी शायद ही समझ पाओ। तुम्हें कहा गया है कि अपने को कष्ट दो। यह किसने कहा है? यह जानने वालों ने नहीं कहा। जानने वाला यह कह ही नहीं सकता। महावीर कैसे कह सकते हैं कि अपने को कष्ट दो! क्योंकि महावीर तो कहते हैं--स्वभाव धर्म है। महावीर कैसे कह सकते हैं कि कष्ट दो! लेकिन फिर कैसे यह कष्ट की कहानी पैदा हो गई? फिर जैन मुनि क्यों कहता है कि कष्ट दो?
कहानी पैदा होने का राज समझो।
महावीर नग्न हो गए। महावीर के लिए नग्न होना आनंद था। महावीर को वस्त्र से मुक्त होकर सारी सीमाओं से मुक्ति मिली। उनके पीछे जो आया, उसने देखा कि महावीर नग्न हो गए। नग्न होने से यह ज्ञान को उपलब्ध हुए। मैं भी नग्न हो जाऊं, तो मैं भी ज्ञान को उपलब्ध हो जाऊंगा। यह गणित सीधा मालूम होता है। वह भी नग्न हो गया। लेकिन नग्न होने के लिए उसे बड़ा अभ्यास करना पड़ा है। सर्दी थी, धूप थी, फिर लोग थे, लोकलाज थी, उसने सब तरह से अपना अभ्यास किया, कर-कर के किसी तरह अपने को नंगा खड़ा कर लिया। फिर जब नग्न खड़ा किया, और अगर यह स्वभाव के अनुकूल न हो, तो कष्ट तो होगा ही। तो उसने समझा कि कष्ट दिए बिना परमात्मा को नहीं पाया जा सकता, यह कीमत चुकानी है। और अगर कष्ट देने ही से परमात्मा को पाया जा सकता है, तो उसने अपने को कष्ट देने के और नये-नये तरीके ईजाद किए। घास पर सोएगा, कांस पर सोएगा, बिस्तर पर नहीं सोएगा; धूप में खड़ा रहेगा; भयंकर धूप जल रही होगी और वह धूनी रमा कर बैठेगा; बर्फ पड़ रही होगी, कि बर्फ जम रही होगी, तब वह जल में जाकर खड़ा हो जाएगा। उसको यह खयाल में आ गया--अपने को कष्ट देना है।
महावीर ने महीनों तक उपवास किए। लेकिन उन उपवासों में कष्ट नहीं था। तुम महावीर की प्रतिमा देख कर भी इसका प्रमाण पा सकते हो कि उनमें कष्ट नहीं था। क्योंकि महावीर की देह तो बड़ी बलिष्ठ मालूम होती है। अगर महीनों उपवास किया था तो या तो कहानी गलत है महीनों उपवास की, और अगर कहानी सच है तो महावीर को बिलकुल रास आया होगा, महावीर के शरीर को बिलकुल जमा होगा। ऐसे लोग हैं जिन्हें उपवास रास आ सकता है। जिनको भोजन ही ले जाना भीतर कष्टपूर्ण हो जाता है। जो कम से कम भोजन पर जीने में ज्यादा सुगमता पाते हैं। स्वभाव का भेद है।
तुम यहां भी देख सकते हो चारों तरफ। कुछ लोग हैं जो थोड़ा सा भोजन लेते हैं, फिर भी चंगे हैं, मस्त हैं! कुछ जो कितना ही खाए चले जाते हैं, फिर भी रूखे-सूखे हैं। फिर भी जीवन में कोई जीवन-धारा नहीं मालूम पड़ती, कोई ऊर्जा नहीं मालूम पड़ती, कोई चमक नहीं मालूम पड़ती। जैसे भोजन काम ही नहीं आ रहा है। कुछ लोग जैसे रूखे-सूखे पर जी लेते हैं। और रूखे-सूखे से भी खूब हरे-भरे होते हैं।
महावीर ने महीनों उपवास किया, यह सच है। लेकिन महावीर का उपवास तुम्हारे जैन मुनि वाला उपवास नहीं था। मैं महावीर के बिलकुल पक्ष में हूं, जैन मुनि के जरा भी पक्ष में नहीं हूं। जैन मुनि रुग्ण चित्त से भरा है। महावीर के उपवास का अर्थ था: महावीर इतने आनंदित थे, इतने ध्यान में मग्न थे कि जब कभी दस-पांच दिन में भोजन की याद आती थी तो भीख मांगने चले जाते थे; जब याद नहीं आती थी तो मस्त अपनी मस्ती में रहते थे। जैसे वायु ही काफी थी। और मस्ती ऐसी थी कि जब याद आए भोजन की, तो ही। भीतर रमे थे। यह सुख की अवस्था थी, यह दुख की अवस्था नहीं थी। उपवास शब्द का अर्थ भी यही होता है--अपने भीतर वास, अपने निकट वास। परमात्मा के निकट होने का नाम उपवास है।
उपवास और अनशन में भेद है। अनशन कष्टपूर्ण है, उपवास आनंदपूर्ण है। अनशन का मतलब होता है: मार रहे भूखा अपने को! जब कोई राजनैतिक नेता अनशन पर चला जाता है, वह अनशन है। उसको उपवास भूल कर मत कहना। वह भूखा अपने को मार रहा है। वह दबाव डाल रहा है। वह अपने को सता कर दबाव डाल रहा है लोगों पर कि मेरी बात मान लो, नहीं तो मैं मर जाऊंगा। वह धमकी दे रहा है आत्महत्या की, और कुछ नहीं है। उस पर असल में मुकदमा चलना चाहिए, वह आत्महत्या की धमकी दे रहा है। वह यह कह रहा है--मैं मर जाऊंगा, तुम मेरी बात मानो। फिर मेरी गलत हो या सही, यह बात का मौका ही नहीं दे रहा है वह। विचार का मौका नहीं देता। वह तो ऐसे ही है जैसे एक आदमी छुरी लेकर अपनी छाती पर खड़ा हो जाए और कहे कि मैं छुरी मार लूंगा, मेरी बात मानो। इसमें और उसमें कुछ भेद नहीं है। यह हिंसक वृत्ति है।
इसलिए महात्मा गांधी के उपवास को मैं उपवास नहीं कहता, अनशन कहता हूं। उसमें हिंसा की वृत्ति है। और जब महात्मा गांधी के उपवास को अनशन कहता हूं, तो तुम समझ सकते हो कि मोरारजी देसाई के उपवास को तो मैं अनशन भी नहीं कह सकता। वह तो उससे भी गई-बीती बात है। इसमें सब दबाव है, जबर्दस्ती है। इसमें दूसरे को बेचैन करने का उपाय है। दूसरा आदमी सोचने लगता है कि अब इतना मामला ही क्या है! कि भई ठीक है, चलो वोट ले लेना, और क्या करोगे! तुम्हीं को वोट दे देंगे। मगर उपवास तो तोड़ो। चलो यह मौसंबी का रस पी लो! जान न गंवाओ! इतनी सी बात के लिए मरते नहीं हैं!
महावीर ने अनशन नहीं किया। भूख-हड़ताल भी नहीं थी वह। उपवास था। उपवास बड़ा आह्लादपूर्ण शब्द है। अपने भीतर रमे थे। इतने रमे थे ध्यान में कि याद ही न आया कि भोजन करना है। कभी-कभी तुम्हारे जीवन में भी ऐसी घटना घटती है, अगर पहचानोगे। कभी कोई प्रियजन तुम्हारे घर आ गया है--स्त्रियों को अक्सर घट जाती है। सोहन का मुझे पता है, उसे घट जाती थी। उसके घर जब मैं मेहमान होता था, वह भूल ही जाएगी भोजन करना। इतने आनंद में मग्न हो जाएगी कि अब कहां फुर्सत भोजन इत्यादि की! भूख ही न लगेगी। तुमने खयाल किया कभी? जब प्रेम से चित्त भरा होता है, भूख नहीं लगती।
मैं एक घर में मेहमान था। उस घर की महिला ने मुझे कहा कि एक सवाल मुझे पूछना है, मैं किसी से पूछ नहीं सकी। जैन परिवार था। और अपने मुनियों से तो मैं पूछ ही नहीं सकती, क्योंकि वे तो बहुत नाराज हो जाएंगे--बात ही ऐसी है! आपसे पूछ सकती हूं। उसने अपने पति से भी क्षमा मांगी कि आप मुझे क्षमा करें, यह प्रश्न मुझे जिंदगी भर से सता रहा है, यह मुझे पूछना ही है। आप बुरा न मानना। पति ने कहा, मैं क्यों बुरा मानूंगा! तू पूछ, क्या सवाल है? उसने कहा, सवाल यह है कि जब मेरी सास मरी तो घर में किसी ने खाना नहीं खाया और मुझे बहुत भूख लगी। मुझे इतनी भूख कभी लगी ही नहीं थी। उस बात को मैं छोड़ नहीं पाती कि वह क्या हुआ? घर में सब रो रहे हैं और मुझे भूख लगी है! नई-नई बहू की तरह आई थी। और उसने कहा कि बात यहीं तक रुक गई होती तो ठीक थी। उस दिन किसी ने भोजन किया ही नहीं, करने की सुविधा ही नहीं थी, शाम के वक्त मरी थी सास तो ‘अंथऊ’ का समय बीत गया। शाम का भोजन तो जैन कर लेते हैं, फिर सूरज डूब गया, फिर तो भोजन हो नहीं सकता। तो मरने में लगे थे, मृत्यु द्वार पर खड़ी थी, मरघट ले जाना था, बात ही खतम हो गई। और उसको इतनी भूख लगी है! उसने कहा कि मैं इतनी परेशान हो गई कि रात मैंने चोरी से जाकर चौके में भोजन किया। मैंने जिंदगी में बस एक ही चोरी की है। और वह भी ऐसी चोरी कि मुझे ऐसा लगे कि मैं कैसा पाप कर रही हूं! सारा घर तो दुखी है और मुझे भूख की पड़ी है! और फिर अपने ही मकान में चोरी करके रात जो कुछ मिला वह खा-पी लिया। मगर जब ठीक से खा-पी लिया, तब मैं सो पाई। क्या हुआ मुझे?
मैंने उससे कहा, इसमें चिंता की जरा भी बात नहीं है। सचाई यह है कि दुख में भूख लगती है, सुख में भूख खो जाती है। दुख में शरीर की याद आती है, सुख में शरीर की याद खो जाती है। यह इतना सीधा सा सूत्र है। तुम जब सुखी होते हो, तुम्हें शरीर की याद नहीं आती। बिना सिरदर्द के कभी तुम्हें सिर की याद आई है? सिरदर्द होता है तो ही सिर की याद आती है। और पेट में दर्द होता है तो पेट की याद आती है। पैर में कांटा चुभता है तो पैर की याद आती है। अगर शरीर समग्ररूप से सुख में हो तो याद ही नहीं आती। शरीर विस्मृत हो जाता है सुख में, दुख में याद आता है।
वह स्त्री तो मेरे पैर पर गिर पड़ी। उसने कहा, आपने मुझे मुक्त कर दिया। मैं तो मरी जा रही थी कि मैंने कुछ पाप किया है।
मैंने कहा, तू फिकर मत कर। तेरे पति से पूछ, ईमानदारी से वे कहें।
वे पति बोले कि अब आप जब पूछते ही हैं और जब बात ही खुल गई, तो सच तो यह है कि मुझे भी भूख लगी थी। हालांकि मैंने चुराया नहीं, मेरी मां मर गई, रात भर मैं भूख में तड़फता रहा। मगर वह सहना था; क्योंकि मां मर गई, यह कोई बात है! लेकिन भूख मुझे भी लगी थी।
दुख में शरीर की याद आएगी, भूख की याद आएगी, सुख में खो जाएगी याद। महावीर महासुख में थे। ध्यान के सुख में थे। भोजन की याद कभी-कभार आती थी। जब शरीर की बिलकुल जरूरत हो जाती थी तब याद आती थी। तब वे चले जाते थे, गांव में भोजन मांग लेते थे।
जैन मुनि जबर्दस्ती भूख-हड़ताल कर रहा है। जबर्दस्ती अनशन कर रहा है। यह कष्ट देना है।
पीछे तर्क क्या है? तर्क इतना ही है, महावीर को ध्यान फला, ध्यान के पीछे-पीछे उपवास फला। उपवास आया छाया की भांति। उपवास के कारण ध्यान नहीं आया था, ध्यान रखना, ध्यान के कारण उपवास आया था। लेकिन बाहर से जब तुम देखोगे तो ध्यान का तो कुछ पता नहीं चलता कि हुआ है या नहीं हुआ, पहले तो उपवास का पता चलता है--बाह्य बातें पहले पता चलती हैं। तो तुम्हारे बाहर से देखने के कारण अड़चन खड़ी होती है। तुम्हें उपवास पहले दिखाई पड़ता है कि महावीर उपवास कर रहे हैं। और फिर तुम सोचते हो कि इतने शांत चित्त हो गए हैं तो ध्यान भी हुआ होगा, समाधि भी लगी होगी। तो उपवास करने से समाधि लगी है। यहीं भूल हो गई। समाधि लगने से उपवास होता है। महावीर नग्न हो गए, इस कारण समाधि नहीं लगी; महावीर को समाधि लगी--वस्त्र छूट गए।
फिर ऐसा भी नहीं है कि सभी को समाधि एक जैसी लगेगी। नहीं तो कृष्ण के भी छूट जाते, बुद्ध के भी छूट जाते, राम के भी छूट जाते। प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है। और जब भी तुम किसीकी नकल करोगे, कष्ट में पड़ जाओगे। अपनी तरफ ध्यान रखो, अपने स्वभाव का ध्यान रखो।
तो सुभाष के लिए तो मैं कहता हूं: सक्रिय ध्यान करना मत। सुभाष को तो बाबा मलूकदास पर ध्यान करना चाहिए।
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
सुभाष जो है, एक तरह के दास मलूका। अपना स्वभाव खोजो! अपने स्वभाव का अनुसरण करो! भूल कर किसी की नकल में मत पड़ जाना, अन्यथा तुम कष्ट पाओगे--और कष्ट पाने से परमात्मा से दूर हो जाओगे, निकट नहीं आओगे। मैं तुम्हें आनंद का मार्ग दे रहा हूं। मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि तुम जितने सुखी, जितने शांत, जितने आनंदित, उतने ही प्रभु के स्मरण से भरोगे। क्योंकि तभी तो अनुग्रह करने को कुछ होगा तुम्हारे पास, प्रार्थना करने को कुछ होगा। अभी है क्या? जीवन की थोड़ी सी रसधार बहे तो तुम परमात्मा के चरणों में झुक कर कह सको--धन्यवाद! अभी है क्या? अभी धन्यवाद उठे कहां से? अभी धन्यवाद का कोई कारण दिखाई नहीं पड़ता, अभी शिकायत उठती है, धन्यवाद नहीं उठता। और शिकायत से यजन पैदा होता है। और धन्यवाद से भजन पैदा होता है।
तुमने पूछा है: ‘आपने कहा कि भगवान को पाने के लिए मूल्य चुकाना होगा।’
यही मूल्य है। सुखी होना होगा। अब तुम बड़े हैरान होओगे। तुम कहोगे, यह भी कोई मूल्य है? लेकिन मैं तुमसे कहता हूं: यही कठिन बात है। दुखी होना बिलकुल सरल बात है। सारी दुनिया दुखी है। दुखी होने के लिए कोई बुद्धिमत्ता चाहिए? बुद्धू भी दुखी हैं। दुखी होने के लिए कोई कुशलता चाहिए? कोई गणित चाहिए? गंवार से गंवार आदमी भी दुखी है। सुखी होने के लिए गुण चाहिए, कुशलता चाहिए, कला चाहिए।
तुम्हें मेरी बात बड़ी उलटी लगेगी। इसीलिए मैं कहता हूं कि समझोगे तो ही समझ पाओगे। जरा सहानुभूति रखी तो शायद थोड़ी समझ में आ जाए। मैं तुमसे कहता हूं: सुखी होकर मूल्य चुका दो। नाच कर मूल्य चुका दो। गीत गाकर मूल्य चुका दो। आनंद भाव से मूल्य चुका दो। लेकिन तुम्हें लगता है कि दुख हो तो मूल्य चुकाया। तुम दुख से ऐसे जकड़ गए हो कि तुमने दुख को सिक्के मान लिया है। तुमने क्या समझा है? परमात्मा कोई दुष्ट, कोई अनाचारी, कोई दुखवादी, कोई सैडिस्ट है? कि तुम दुखी होओगे तो वह बड़ा प्रसन्न होगा, कि देखो बेटा कितना भूख-हड़ताल कर रहा है! अब आ जा, पास आ जा! तूने काफी भूख-हड़ताल कर ली; ले, मौसंबी का रस पी! तुमने परमात्मा को समझा क्या है? कोई एडोल्फ हिटलर? कि तुम अपने को सताओगे तो वह बड़ा आनंदित होगा? तुम कांटों की सेज पर लेटोगे तो वह बड़ा प्रसन्न होगा कि अहा! कैसी तपश्चर्या कर रहे हो!! परमात्मा तुम्हारा दुश्मन तो नहीं है। तुम्हारा प्यारा है, तुम्हारा प्रीतम है। क्या तुम सोचते हो, छोटा बेटा धूप में खड़ा रहेगा तो मां बड़ी प्रसन्न होगी? कि छोटा बेटा कांटों में लेटा रहेगा तो मां बड़ी प्रसन्न होगी?
तुम फूल की शय्या बनाओ। कांटों की शय्या बना-बना कर तुमने सिर्फ अपने साथ मूढ़ता की है। तुम सुख में पगो। तुम सुख का राग जन्मने दो। तुम सुख की वीणा बजाओ। तुम्हारी मस्ती तुम्हें उसके पास ले जाएगी। इसीलिए तो तुम्हारे साधु-संन्यासी नाचते हुए, प्रसन्न नहीं दिखाई पड़ते। लेकिन असली साधु-संन्यासी ऐसे नहीं थे। नानक को देखा? साथ ही लिए रहते थे एक शिष्य को कि जब भी उनको गीत गाने की मौज आ जाए तो वह वाद्य बजाने को मौजूद रहे। कबीर को देखा? वे मस्ती के गीत! मीरा को देखा? वह नृत्य! ये साधु हैं। साधु तो सुखी आदमी है। सुख की ही परम अवस्था साधुता है। दुखी रुग्ण है, विक्षिप्त है। उसकी चिकित्सा होनी चाहिए।
मैं दुनिया से चाहता हूं दुखवादी धर्म विदा हो जाएं, क्योंकि दुखवादी धर्म दुखवादियों ने ईजाद किए हैं। इनका धर्म-संस्थापकों से कोई संबंध नहीं है। ये तुम्हारी मूढ़ता से पैदा हुए हैं। तुमने देखा कि महावीर नग्न खड़े हैं, मैं भी नग्न खड़ा हो जाऊं। तुमने देखा कि क्राइस्ट सूली पर चढ़े हैं, मैं भी सूली पर चढ़ जाऊं। तुमने जीवन को नाटक बना लिया है, उसमें से असलियत खो गई है, अभिनय बना लिया है। तुम नकली हो गए हो, तुम कार्बनकापी हो गए हो। और कार्बनकापियां परमात्मा को बिलकुल पसंद नहीं हैं। परमात्मा चाहता है तुम अपने मूल रूप में प्रकट होओ। तुम्हारा मूल रूप में प्रकट हो जाना ही तो परमात्मा को पा लेना है। और क्या है परमात्मा को पा लेना? सुख अर्थात स्वभाव के अनुकूल जो हो, दुख अर्थात स्वभाव के प्रतिकूल जो हो। सुख से चुकाओ कीमत।
‘कल आपने बताया कि भगवान को पाने के लिए मूल्य चुकाना होगा।’
निश्चित चुकाना होगा।
‘और उसी समय आपने यह भी बताया कि शरीर को कष्ट देकर परमात्मा नहीं पाया जा सकता।’
तुम्हारे मन में सवाल उठा होगा कि मूल्य तो कष्ट से चुकाया जाता है!
कष्ट से मूल्य नहीं चुकाया जाता। कभी नहीं चुकाया गया है। धन्यभाग से मूल्य चुकाया जाएगा, महासुख से मूल्य चुकाया जाएगा।
इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है, लोग प्रश्न पूछते हैं, एक मित्र ने प्रश्न पूछा है--और ऐसे अक्सर प्रश्न आते हैं--कि हम आपकी किताबें पढ़े तो बहुत प्रभावित हो गए। लेकिन फिर हम यहां आए और यहां जो हमने देखा, उससे हमारा मन बड़ा उदास हो गया है। लोग नाच रहे हैं! लोग गा रहे हैं! लोग मजा-मौज कर रहे हैं!
मैं उनकी तकलीफ जानता हूं। वे किताबें इत्यादि पढ़ कर सोचे होंगे कि मुझे पाएंगे बैठा हुआ किसी झोपड़े में, कांटों की शय्या पर लेटा हुआ, उदास, भूखा-प्यासा। उनका चित्त बड़ा शांत होता अगर वे मुझे ऐसा देख लेते। उनके चित्त को बड़ी राहत मिलती कि हां, साधु हो तो ऐसा।
तुम आए थे यहां दुखियों को देखने। यहां हिसाब और है, यहां गणित और है। दुख में मेरा भरोसा नहीं। मैं सुखवादी हूं। मैं चार्वाक से ज्यादा सुखवादी हूं। चार्वाक का सुख तो इसी संसार में समाप्त हो जाता है, मेरा सुख उस संसार तक जाता है। मुझमें आस्तिकता और नास्तिकता मिल रही हैं। नास्तिकता थोड़ी दूर तक सुख की बातें करती है, मैं अंत तक सुख की बातें करता हूं। मेरे लिए परमात्मा सुख की परम अवस्था है। इसलिए तो ज्ञानियों ने उसे सच्चिदानंद कहा है। आनंद, अंतिम अवस्था।
लेकिन तुम आए होओगे उपवास करते हुए किसी फकीर को देखने। और फिर तुम्हें लगा कि यहां तो कोई उपवास नहीं है, यहां तो कोई फकीर नहीं है, यहां तो लोग आनंदित हैं, लोग मस्त हैं, लोग एक-दूसरे के प्रेम में हैं। यहां तुमने जोड़े चलते देखे होंगे। स्त्री-पुरुषों को हाथ पकड़े देखा होगा, नाचते साथ देखा होगा। तुमने कहा: हद हो गई, भ्रष्ट हो गया सब! सब धर्म भ्रष्ट कर डाला। हम कहां फंस गए आकर! यह धर्म है? यह तो सांसारिकता है।
मेरा धर्म संसार के विपरीत नहीं है। यद्यपि मेरा धर्म संसार के पार जाता है। मेरा धर्म ऐसे है जैसे कमल कीचड़ से उगता है। कीचड़ में उगता है, लेकिन कीचड़ के पार जाता है। संसार में ही उगेगा धर्म। मंदिर तो यहीं बनाना होगा, जमीन पर ही बनाना होगा, देह में ही परमात्मा को पुकारना होगा। और तुम्हारी देह अगर सुख में हो, स्वभाव के अनुकूल हो, तो ही परमात्मा आ सकेगा। दुखी चित्त परमात्मा को अपने भीतर प्रवेश न दे पाएगा। दुखी चित्त में जगह कहां प्रवेश के लिए? सुखी चित्त में अवकाश होता है। सुखी चित्त आकाश जैसा होता है।
तो मैं तुम्हारी तकलीफ समझता हूं। तुम धारणाएं लेकर आते हो। तुम्हारी धारणाएं बड़ी जड़बद्ध हैं। और तुम्हारी धारणाओं के पीछे तुम्हें काफी प्रमाण हैं, क्योंकि सौ में निन्यानबे साधु तो दुखवादी हैं। वे साधु ही नहीं हैं। उन्हें साधुता का कुछ पता नहीं है। सौ में एकाध कभी सुखवादी होता है। लेकिन वह तो कभी-कभार होता है। और जब भी होता है तभी तुम्हें अड़चन होती है। महावीर को देख कर तुम्हें अड़चन हुई थी, जैन मुनि को देख कर अड़चन नहीं होती। बुद्ध को देख कर तुम्हें अड़चन हुई थी, बौद्ध भिक्षु देख कर अड़चन नहीं होती। नानक को देख कर तुम्हें अड़चन हुई थी, ग्रंथी महाराज को देख कर तुम्हें अड़चन नहीं होती। उनसे क्या अड़चन है? वे तुम्हारे जैसे ही हैं। तुम जैसे दुख में, वैसे दुख में वे। मीरा को नाचते देख कर कितने लोगों को अड़चन नहीं हो गई थी, याद है? कितने लोग कष्ट में नहीं पड़ गए थे? मीरा के परिवार के लोग इतने कष्ट में पड़ गए थे कि मीरा मर जाए, इसके लिए जहर का प्याला भिजवाया था। क्योंकि परिवार को बड़ी बेचैनी हो रही थी। मीरा तो पागल समझी ही जा रही थी, उसके साथ-साथ परिवार बदनाम हो रहा था। राजघराने की महिला थी और नाचने लगी सड़कों पर! और राजस्थान में, जहां घूंघट उठाना मुश्किल था! वहां कपड़े इत्यादि की भी फिकर छोड़ दी। अब नाचने में कहीं फिकर रखनी होती है कि पल्लू ठीक है कि नहीं है! पल्लू की फिकर रखो तो परमात्मा छूटता है, परमात्मा की फिकर करो तो पल्लू गिरता है। मीरा ने सोचा कि पल्लू जाने दो। उसने कहा, लोकलाज खोई। नाचने लगी रास्तों पर। घर के लोग--राजघर के लोग परेशान हुए। उन्होंने कुछ दुष्टता के कारण जहर नहीं भेजा था, सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा बचाने को। जगह-जगह से मीरा को खदेड़ा गया।
कहते हैं, काशी में एक बहुत बड़ा सम्मेलन हुआ पंडितों का। उसमें कबीर को भी बुलाया। बड़ी सोच-विचार से बुलाया। बहुत दिन विवाद हुआ कि कबीर को बुलाना कि नहीं, इस जुलाहे को बुलाना कि नहीं। लेकिन फिर अंततः इस जुलाहे की बातों में कुछ था तो, बुला लिया। लेकिन कबीर ने आकर और एक अजीब शर्त रख दी। कबीर ने कहा, मीरा को भी बुलाओ।
यह जरा जरूरत से ज्यादा था। कबीर कम से कम पुरुष तो थे। अब मीरा! देखते हो, बाबा तुलसीदास क्या कह गए हैं? शूद्र गंवार ढोल पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी!
अब मीरा की तो शूद्रों के साथ गिनती है। पुरुष कबीर--माना कि जुलाहे सही, चलो, मगर कम से कम पुरुष तो हैं। मगर कबीर ने एक अजीब शर्त रख दी कि तुम मीरा को बुलाओ तो ही मैं आऊंगा, नहीं तो मैं नहीं आऊंगा। क्यों कबीर ने यह शर्त रखी होगी कि मीरा को बुलाओ? इसलिए यह शर्त रखी कि इन मूढ़ पंडितों को यह बात साफ हो जानी चाहिए कि परमात्मा को पाने के लिए न तो पुरुष होना जरूरी है, न स्त्री होने से कोई बाधा पड़ती है। परमात्मा को पाने में अगर कोई बाधा है तो सिर्फ अहंकार है। परमात्मा को पाने में अगर कोई बाधा है तो तुम्हारी दुख की ग्रंथियां हैं। मीरा को बुलाओ, क्योंकि उससे ज्यादा नाचता हुआ परमात्मा और कहां मिलेगा?
मीरा आई तो कबीर आए। और मीरा आई तो मीरा ने क्या किया? मीरा नाची। पंडितों ने नाक-भौं सिकोड़ी। उन्होंने कहा, यह सब क्या तमाशा हो रहा है? कहां वेद की बातें होनी चाहिए, वहां यह मीरा नाच रही है! मगर नाच वेद है। लेकिन पंडित तो अंधे होते हैं। वे सोचते थे कि मीरा कुछ संस्कृत के रटे-रटाए सूत्र दोहराए। मीरा ने जीवंत वेद दिखाया--वह नाची। लेकिन पंडितों को तो मन में बड़ा बुरा लगा। पल्लू फिर गिर गया होगा। यह कोई बात हुई! स्त्री को घर में छिपा होना चाहिए। स्त्री को लाज होनी चाहिए।
आनंद की हमारे मन में प्रतिष्ठा नहीं है। इसलिए तुम जब यहां आते हो और यहां एक और ही तरह का जगत पाते हो, तो तुम्हें अड़चन होती है। तुम बेचैनी में पड़ जाते हो। तुम्हें लगता है, यह किस तरह का धर्म?
सम्यक धर्म सदा ही इस तरह का रहा है। मगर वह कभी-कभी होता है।
मेरे जाते ही दुखवादी आ जाएगा। वह सुभाष से भी सक्रिय ध्यान करवाएगा। वह कहेगा--करो! अगर सक्रिय ध्यान नहीं किया, तो परमात्मा कभी नहीं मिलेगा। इसलिए सुभाष, जब तक मैं हूं, तुम विश्राम कर लो। विश्रामपूर्वक ध्यान कर लो। सुख से मूल्य चुका लो। मेरे जाने के बाद तो लोग फिर दुख से मूल्य चुकवाएंगे--यहीं! इसी जगह! क्योंकि पीछे कठिनाई यह खड़ी हो जाती है कि फिर जड़ नियम हाथ में रह जाते हैं। इस तरह किया जाता था, इसी तरह किया जाना चाहिए। इससे अन्यथा नहीं होना चाहिए। फिर किसी को मेल खाता है कि नहीं मेल खाता, इसकी चिंता कौन करे? और इसका निर्णय भी कौन करे? आज तो मैं तुम्हें देखता हूं, तुम्हारे भीतर क्या ठीक है उसके अनुकूल तुमसे कहता हूं। इसलिए मेरी बातों में बहुत विरोधाभास भी हो जाता है। किसी को कुछ कहता हूं, किसी को कुछ कहता हूं। क्योंकि मेरे पास कोई बंधा सिद्धांत नहीं है। तुम मेरे लिए महत्वपूर्ण हो, सिद्धांत नहीं। तुम्हारे हिसाब से मैं सिद्धांत को काटता हूं, तुमको नहीं काटता।
अक्सर तो यह हो जाता है कि तथाकथित धर्मों के पंडित, पुरोहित--धर्म के वस्त्र तो पहले से तैयार हैं, अगर तुम थोड़े लंबे हो, तो वे तुमको छांट देते हैं; अगर तुम जरा छोटे हो, तुमको खींचतान कर, मालिश करके लंबा कर देते हैं। इसकी फिकर ही नहीं करते कि यह आदमी मर जाएगा, बचेगा, कि क्या होगा? वे वस्त्र कीमती हैं। सिद्धांत कीमती हैं, तुम्हारा कोई मूल्य नहीं है।
मेरे लिए सिद्धांत दो कौड़ी के हैं। तुम्हारा मूल्य चरम है। प्रत्येक व्यक्ति का मूल्य चरम है। कोई सिद्धांत इतना मूल्यवान नहीं है। सिद्धांत तुम्हारी सेवा करने को हैं। शास्त्र तुम्हारे सेवक हैं। तुम्हारे स्वभाव के जो अनुकूल पड़ता हो, वही करना। अगर तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल नाच पड़ता हो तो नाचना। तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल बांसुरी बजाना पड़ता हो तो बांसुरी बजाना। तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल योग पड़े तो योग करना। तुम्हें जो अनुकूल पड़े! मगर अनुकूल की परीक्षा, अनुकूल की कसौटी एक ही है कि तुम्हें जिससे सुख मिले।
सुख से मूल्य चुकाओ। और ध्यान रखना, यह दुखवादी भ्रांति में न रहे कि हमने दो-चार उपवास कर लिए, कि शरीर को थोड़ा सता लिया, कि थोड़ी आंच दे दी, कि थोड़े नंगे बैठ लिए, तो पहुंच जाएंगे। इतना सस्ता नहीं है मामला।
हुआ है चार तिनकों पर यह दावा जाहिदो तुमको
खुदा ने क्या तुम्हारे हाथ जन्नत बेच डाली है
चार तिनके। जाहिदों के, तपस्वियों के।
हुआ है चार तिनकों पर यह दावा जाहिदो तुमको
खुदा ने क्या तुम्हारे हाथ जन्नत बेच डाली है
परमात्मा प्रत्येक को उसके ही ढंग से आता है। परमात्मा तुम्हारा सम्मान करता है, तुम्हारा अपमान नहीं। तुम जिस मौज में होते हो, उसी मौज में आता है। तुम्हें जो ढंग रास पड़ता है, उसी ढंग में आता है। इसलिए यहां मैंने इतने ध्यानों की प्रक्रियाएं शुरू की हैं, कि कोई तुम्हें रास पड़ जाए। बस एक चुन लो।
लेकिन कष्टवादी कई तरह के हैं। एक मित्र कुछ दिन पहले आए, वे कहने लगे कि यह तो ध्यान से बड़ी मुश्किल हो गई है। नींद भी खो गई, काम-धंधा भी नहीं कर पाता, पत्नी नाराज है, बच्चे नाराज हैं, घर के लोगों ने भेजा है कि आपसे समझ कर आऊं, और मैं पागल हुआ जा रहा हूं।
मैंने कहा कि ध्यान से तो शांति आनी थी।
उन्होंने कहा, कहां की शांति! अशांति ही अशांति हो गई है।
मैं थोड़ा हैरान हुआ। मैंने कहा कि कौन सा ध्यान करते हैं? क्या करते हैं?
तो उन्होंने कहा, कौन सा क्या? सुबह से रात तक ध्यान ही ध्यान, पूरे पांच ध्यान करता हूं! नौकरी की फुर्सत ही नहीं। नौकरी करने कहां जाऊं? तो पत्नी जान खाए जा रही है, बेटे-बच्चे मुश्किल में पड़ गए हैं--और मुझे तो ध्यान करना है।
तुमसे पांच करने को कहा किसने? पांच ध्यान करोगे तो निश्चित जीवन कष्ट में पड़ जाएगा। ये पांच ध्यान यहां शिविर में किए जाते हैं ताकि तुम पांच को करके अपने अनुकूल को खोज लो। दुनिया में पांच प्रकार के लोग हैं। जैसे पांच इंद्रियां हैं, ऐसे पांच प्रकार के लोग हैं। उन पांचों को ध्यान में रख कर पांच ध्यान की विधियां विकसित की गई हैं। एक कोई तुम्हें जम जाए, बस पर्याप्त है। बाकी चार को जाने दो। अब तुम ध्यान ही करते रहोगे तो अशांति तो हो ही जाएगी। और अशांति, फिर घर में बैठे चौबीस घंटे तुम ध्यान में लगे हो, पत्नी कब तक बर्दाश्त करेगी? बच्चे कब तक बर्दाश्त करेंगे?
लेकिन यह कष्टवादी चित्त! इसने ध्यान में से ही तरकीब निकाल ली सताने की अपने को। अपने को और औरों को भी।
इस बात को खयाल में रखना। मैं तुम्हें जो भी कह रहा हूं, न तो अपने को सताना उससे, न किसी और को सताना उससे। और उन लोगों से सावधान रहना जिन्होंने कुछ जाना नहीं है। अब यहां ऐसे बहुत से लोग हैं इस जमीन पर, जो ध्यान के संबंध में लिखते हैं, जिन्हें ध्यान का कुछ पता नहीं है।
मैंने एक किताब पढ़ी, एक जैन साध्वी ने किताब लिखी थी, हेमचंद्र आचार्य के सूत्रों पर ध्यान की किताब थी। किताब तो मुझे ठीक लगी। कुछ जगह मुझे लगा कि साध्वी शास्त्र की तो ज्ञाता है निश्चित, भाषा की जानकार है निश्चित, लिखने में कुशल है निश्चित, लेकिन ध्यान नहीं किया है। क्योंकि कुछ जगह ऐसी बात आ ही गई--वह आएगी, आने ही वाली है, तुम बचाओगे कहां से? जिसने प्रेम का अनुभव नहीं किया, वह प्रेम पर किताब लिखेगा, कहीं न कहीं भूल-चूक हो जाएगी, कहीं न कहीं कुछ बात आ जाएगी जो बता देगी कि यह प्रेम को जानने वाले का वचन नहीं हो सकता।
संयोग की बात, कोई पांच-सात साल बाद मैं ब्यावर में था, राजस्थान में, तो वह साध्वी मुझे मिलने आई। मैं तो भूल भी चुका था उसका नाम भी, उसकी किताब भी। उसने मुझे पूछा कि ध्यान कैसे करूं? तो मैंने उसे ध्यान के संबंध में समझाया। फिर उसने अपनी किताब निकाली, उसने कहा, मैंने एक किताब भी ध्यान पर लिखी है, वह आपके लिए भेंट करने लाई हूं। तब मुझे खयाल आया। तो मैंने उससे पूछा, तूने कभी ध्यान किया?
उसने कहा, मैंने कभी नहीं किया।
फिर किताब क्यों लिखी?
उसने कहा, शास्त्रों के अध्ययन से, मनन-चिंतन से।
मनन-चिंतन और अध्ययन से ध्यान का क्या लेना-देना है? ध्यान अनुभव है। उसे खुद भी पता नहीं है, वह पूछने आई है कि ध्यान कैसे करूं और ध्यान पर किताब लिखी है! और उसकी किताब के आधार पर कई लोग ध्यान करते होंगे! ऐसा उपद्रव चल रहा है।
तुम जरा सोच-समझ कर किसी से सलाह लेना। सलाह देने वाले लोग हैं बहुत, एक ढूंढ़ो हजार मिलते हैं। सलाह देने वाले तैयार ही हैं। ढूंढ़ो भी मत तो भी मिल जाते हैं। खोजो भी मत तो तुम्हारे घर ही आ जाते हैं कि भाई, सलाह तो नहीं चाहिए? सलाह देने में लोग इतना रस लेते हैं। क्योंकि सलाह देने में ज्ञानी होने का मजा है। और दूसरे को अज्ञानी सिद्ध करने का मजा है। इसलिए सलाह देने का मौका कोई चूकता नहीं। लेकिन सलाह सोच-समझ कर लेना। जिसके जीवन में ध्यान की कोई गरिमा हो, जिसके जीवन में प्रेम की कोई सुवास हो--बैठना, उठना, समझना, सोचना, पीना किसी व्यक्ति को, और जब तुम्हें लगे कि हां, कुछ अस्तित्वगत घटा है, तो ही ग्रहण करना, अन्यथा बचना।
वो राह सुझाते हैं हमें हजरते रहबर
जिस राह पर उनको कभी चलते नहीं देखा
तो सुभाष, अपने स्वभाव, अपने अनुकूल, स्वयं को जो प्रीतिकर लगे वह चुनो। वही कीमत है जो चुकानी है। मैं तुमसे कहता हूं: दुख छोड़ दो, यही त्याग है। मैं तुमसे सुख छोड़ने को नहीं कहता। मैं तुमसे कहता हूं: दुख छोड़ दो! सुख तो तुम्हारे पास हैं ही कहां जो तुम छोड़ोगे? दुख छोड़ दो!
दुख को लोग पकड़े हैं। छाती से पकड़े बैठे हुए हैं। दुख नहीं छोड़ना चाहते, दुख उनकी संपदा है। तुम चौंकोगे यह बात जान कर, बहुत मुश्किल से हिम्मतवर आदमी होता है जो दुख छोड़ने को राजी होता है। दुख छोड़ने को लोग राजी ही नहीं होते।
कुछ ही दिन पहले एक युवक और युवती मेरे पास आए। दोनों दुखी हैं। सात साल से साथ रहते हैं। और सात साल में नरक के सिवाय कुछ नहीं भोगा है। मैंने कहा, अलग क्यों नहीं हो जाते? अलग नहीं होना चाहते। मैंने पूछा, साथ होने में कुछ सुख मिल रहा है? उन्होंने कहा, साथ होने में सुख तो कुछ भी नहीं मिल रहा है; मगर प्रेम है। प्रेम किस बात से है? दुख से? यह नरक से? न उस युवक को कुछ रस है, न युवती को कोई रस है, मगर साथ नहीं छोड़ सकते। साथ कैसे छोड़ दें! वे कहने लगे, हम तो इसलिए आपके पास आए थे कि आप हमें समझा-बुझा कर ठीक-ठाक कर देंगे।
समझाने-बुझाने से क्या ठीक-ठाक होगा? सात साल साथ रह कर तुमने एक-दूसरे को कष्ट ही दिया। लेकिन ऐसा हो जाता है कि कष्ट की भी तलब हो जाती है। तुम घर आओ और पत्नी अंट-शंट न बोले, या तुम घर आओ और तुम पत्नी के लिए बाजार से फूल ले आओ, तो अड़चन हो जाती है।
एक मनोवैज्ञानिक ने एक आदमी को यह सलाह दी। उस आदमी ने कहा कि मैं जब भी घर जाता हूं, मेरी पत्नी बड़ा तैयार ही रहती है बस। मैं डरता हूं दफ्तर से जाने में। लोग तो दफ्तर धीरे-धीरे आते हैं, मैं घर की तरफ बहुत धीरे-धीरे जाता हूं। लोग दफ्तर से, घड़ी देखते रहते हैं कि कब निकल जाएं, और मैं डरा रहता हूं कि कहीं पांच न बज जाएं! पांच बज जाते हैं तो भी फाइलें उलटाता रहता हूं; कुछ काम भी नहीं होता तो भी बैठा--जब दफ्तर बंद ही होने लगता है और चपरासी कहता है कि अब महाराज जाइए, तब मैं जाता हूं। फिर भी रास्ते में कोई मिल जाए तो रुक जाता हूं, बातचीत करते-करते...डर लगा रहता है कि घर गया कि वह पत्नी!
उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, ऐसा करो, थोड़ा प्रेम पत्नी के प्रति दिखलाओ। तुमने कुछ प्रेम नहीं दिखलाया है। उसने कहा, मैं क्या करूं? आप जो कहो वह मैं करूं। उसने कहा, तुम आज ऐसा करो, फूल ले जाओ पत्नी के लिए। मिठाइयां ले जाओ। मिठाइयां देना, फूल देना, एकदम गले लगा लेना। उसको मौका ही मत देना कि वह कुछ बक सके या कुछ कह सके, एकदम गले लगा लेना।
उसने कहा, अब आप कहते हैं तो करेंगे। वैसे अपनी पत्नी को कौन गले लगाता है? मगर अब आप कहते हैं तो यह भी करेंगे। ठीक है, फूल भी ले जाएंगे। अपनी पत्नी के लिए कौन फूल ले जाता है? मिठाई, उसने कहा, चलो ठीक है, एक दफे करके देख लें। और क्या करना है?
और पत्नी के साथ हाथ बंटाना। बर्तन मांज रही हो तो तुम भी बर्तन धोने लगना। टेबल साफ कर देना। बच्चे की नाक बह रही हो, पोंछ देना। कुछ हाथ बंटाना।
उसने कहा, चलो, यह भी करेंगे। किसी तरह शांति हो जाए।
वह घर पहुंचा। बड़ा प्रसन्न था कि चलो आज कुछ तरकीब हाथ लगी है। फूल देख कर पत्नी को तो भरोसा ही नहीं आया। और मिठाई, और जब उसने गले लगाया--तो किस पत्नी को भरोसा आ सकता है कि अपना पति और गले लगाएगा! वह तो बड़ी घबड़ा गई। इन्हें हो क्या गया है? मगर एकदम कुछ कह भी न सकी, एकदम सकते में आ गई। और जल्दी से पति छलांग लगाया और टेबल साफ करने लगा और बर्तन मांजने लगा। उस पत्नी ने एकदम बाल फैला कर और छाती पीट ली और चिल्लाने लगी कि मर गई! मर गई! मोहल्ले के लोग इकट्ठे हो गए। वह पति भी बोला कि क्या हो गया तुझे?
उसने कहा, तुम आज पीकर आए हो या क्या बात है? तुम होश में हो? क्या कर रहे हो? सुबह से नौकरानी नहीं आई, बच्चे के दांत टूट गए हैं, लड़की अभी तक लौटी नहीं, और अब तुम आए हो! तुम नशा करके आए हो या क्या करके आए हो? तुम होश में हो?
लोग दुख की अपेक्षा करने लगते हैं। अपेक्षित दुख न आए, तो मुश्किल हो जाती है। लोग दुखों को भी सम्हाल कर रखते हैं। वही उनकी संपदा है।
मैं तुमसे कहता हूं: दुख छोड़ो। दुख के साथ क्षण भी रहने की जरूरत नहीं है, दुख छोड़ो। तुमने क्रोध से बहुत बार दुख पाया है। और तुम्हारे ज्ञानियों ने तुमसे कहा है: क्रोध मत करो, इससे दूसरे को दुख होता है। मैं तुमसे कहता हूं: क्रोध मत करो, इससे तुमको दुख होता है। भाड़ में जाने दो दूसरे को, तुम अपने को तो बचाओ! तुम बच गए तो दूसरा भी बच जाएगा। ज्ञानियों ने कहा है: हिंसा मत करो, इससे दूसरे को चोट पहुंचती है। मैं कहता हूं: दूसरे को तो बाद में पहुंचेगी, जो हिंसा करता है, पहले खुद को चोट पहुंचा लेता है। बुरा मत करो, ज्ञानियों ने कहा है कि इससे पाप लगेगा, अगले जन्म में नरक में पड़ोगे। मैं तुमसे कहता हूं: ये सब तो फिजूल की बातें हैं, तुम जब बुरा करने की सोचते हो, तभी नरक पैदा हो जाता है, तभी तुम दुख भोग लेते हो।
तुम अगर एक ही बात कसौटी की तरह सम्हाल लो कि जिस चीज से दुख मिलता है उसका त्याग कर देंगे, तुम अचानक पाओगे, तुम्हारी ऊर्जा धीरे-धीरे सुख की तरफ प्रवाहित होने लगी।
सुख बड़े महलों से नहीं मिलता। सुख बहुत सुस्वादु भोजन से नहीं मिलता। सुख जीवन को जीने की कला है। रूखे-सूखे से मिल सकता है। झोपड़े में भी मिल सकता है। गरीबी में भी मिल सकता है। और प्रमाण के लिए इतना काफी है कि अमीरों को भी नहीं मिल रहा है, तो गरीब को भी मिल सकता है। जब अमीर को नहीं मिल रहा है, तो अमीरी से मिलता है, यह कोई सवाल न रहा।
मेरी देशना एक ही है: दुख का त्याग करो, सुख का वरण करो। इतनी कीमत तुम चुका दो, परमात्मा नाचता हुआ तुम्हारी तरफ चला आएगा। जल्दी ही वह घड़ी आ जाएगी।
बेखुदी के साज पर गाने का मौसम आ गया
आ गया पीकर बहक जाने का मौसम आ गया
फिर पयामे-आमदे-जानां सकूने-शाम है
सेज पर कलियों के खिल जाने का मौसम आ गया
यह तड़प, यह दर्द, यह रग-रग में हलकी सी कसक
यह शबाब आया कि मर जाने का मौसम आ गया
तोड़ कर हमदम! हर इक रस्मो-रहे-कौनीन को
संसार के सब रीति-रिवाजों को तोड़ दो!
तोड़ कर हमदम! हर इक रस्मो-रहे-कौनीन को
लगजिशों पर लगजिशें खाने का मौसम आ गया
बेखुदी के साज पर गाने का मौसम आ गया
आ गया पीकर बहक जाने का मौसम आ गया
बहको! पीओ! वसंत को ऊगने दो तुम्हारे भीतर! और तुम परमात्मा को रोज-रोज करीब आते पाओगे। सुख परमात्मा से जोड़ता है, दुख तोड़ता है।
आज इतना ही।
भगवान, मैं आपको सुनता हूं तो अपने जीवन की व्यर्थता देख कर बहुत उदास हो जाता हूं। मुझे उबारें! मुझे बचाएं!
जीवन जैसा है उसकी व्यर्थता समझ में आ जाए, तो जीवन जैसा होना चाहिए उसकी खोज शुरू होती है। जब तक व्यर्थ को सार्थक समझा है, तब तक सार्थक से वंचित रहोगे। जिस दिन व्यर्थ व्यर्थ की तरह दिखाई पड़ जाएगा, आधी यात्रा पूरी हो गई। व्यर्थ का व्यर्थ की भांति दिखाई पड़ जाना, सार्थक का सार्थक की भांति दिखाई पड़ने के लिए पहला कदम है। उदास न होओ।
उदासी आती है, स्वाभाविक है। क्योंकि हम एक ढंग से जी रहे हैं। उसी ढंग से हमने अपना अब तक का जीवन बिताया; अपना समय लगाया, अपनी ऊर्जा लगाई। जीवन बहुमूल्य है, उसे हमने एक दांव पर लगाया। आज अचानक पता लगे कि वह दांव व्यर्थ था, वहां हारने के सिवाय जीतने की कोई सुविधा नहीं थी, हम धोखे में थे, तो उदासी आनी स्वाभाविक है। लेकिन जितनी जल्दी यह उदासी आ जाए, उतना शुभ। सुबह का भूला सांझ भी घर आ जाए तो भूला नहीं कहाता। मरने के एक क्षण पहले भी अगर यह दिखाई पड़ जाए कि जो जीवन हमने जीया वह व्यर्थ था, तो उस शेष एक क्षण में भी परमात्मा उपलब्ध हो सकता है। परमात्मा को पाने के लिए समय की थोड़े ही जरूरत है; दृष्टि के बदलाहट की जरूरत है। जो दृष्टि बाहर देख रही थी, वह भीतर देख ले, बस।
बाहर का व्यर्थ होगा तभी तो तुम भीतर देखोगे। जब तक बाहर तुम्हें सार्थक मालूम हो रहा है, तब तक भीतर तुम जाओगे क्यों? कंकड़-पत्थरों में हीरे मालूम हो रहे हैं तो तुम कंकड़-पत्थर बीनोगे। अगर बाहर सब कंकड़-पत्थर है, फिर क्या करोगे? फिर भीतर जाना ही होगा! और जब जाना ही होता है, तभी लोग जाते हैं। जब सब तरफ से हार जाते हैं, तभी लोग जाते हैं। पराजय पूरी होनी चाहिए। उदासी समग्र होनी चाहिए। इसी उदासी से आनंद का जन्म होता है।
यहां सब व्यर्थ हो जाता है। तुमने धन कमाया, वह भी एक दिन व्यर्थ हो जाएगा। जितनी जल्दी समझ में आ जाए, उतना अच्छा। तुमने यहां प्रेम किया, वह भी उखड़ जाएगा, वह भी टूट जाएगा। जिनसे तुमने प्रेम किया वे भी मरणधर्मा हैं। तुम भी मरणधर्मा हो। यहां के नाते नदी-नाव-संयोग हैं। क्षणभंगुर के हैं। थोड़ी देर टिकते हैं, पानी के बबूले हैं। पानी केरा बुदबुदा! कितनी देर टिकेगा? जब तक है तब तक हो सकता है सूरज की रोशनी में चमके, इंद्रधनुष दिखाई पड़े पानी के बुलबुले में, लेकिन कितनी देर? टूटने को ही है। टूटना सुनिश्चित है। उसके होने में ही टूटना छिपा है। यहां बड़े सपने तुमने देखे हैं--प्रेम के, पद के, प्रतिष्ठा के--वे सब उखड़ जाएंगे।
मेरी बातें सुन कर उदासी आए, यह शुभ लक्षण है। इसके बाद दूसरी घटना भी घटेगी--अगर पहली घटना घट जाने दी तो दूसरी घटना भी घटेगी--आनंद का आविर्भाव भी होगा।
जख्म दिल के छुपाके देख लिया
गम से आंखें चुराके देख लिया
लज्जते-दर्द मैं निसार तेरे
तुझसे दामन बचाके देख लिया
दिल का हर जख्म मुस्कुरा उट्ठा
नग्माए-ऐश गाके देख लिया
जिंदगी का सुकून खो बैठे
गम की दौलत लुटाके देख लिया
बिजलियां सैकड़ों चमक उट्ठीं
फिर नशेमन बनाके देख लिया
कैसी उल्फत, कहां की रस्मे-वफा
सबको अपना बनाके देख लिया
हमनवा कौन? हमनफस कैसा?
नौहाए-गम सुनाके देख लिया
जिंदगी एक सराब है ‘जेबा’
खंदाए-गुल को जाके देख लिया
जरा फूल को पास से जाकर देखना।
खंदाए-गुल को जाके देख लिया
मुस्कुराते फूल को सुबह जरा पास से जाकर देख लेना।
जिंदगी एक सराब है ‘जेबा’
और तुम्हें समझ में आ जाएगा कि जिंदगी एक मृग-मरीचिका है।
जिंदगी एक सराब है ‘जेबा’
खंदाए-गुल को जाके देख लिया
दूर-दूर से मुस्कुराते फूलों को देखते रहोगे तो धोखा खाते रहोगे। पास से, निकट से देख लेना। इसलिए मैं जीवन से भाग जाने को नहीं कहता हूं। क्योंकि भाग जाओगे तो जागोगे कैसे? हिमालय की गुफाओं में बैठ जाओगे तो जागोगे कैसे? यह जीवन इतना दुखपूर्ण है, इतना व्यर्थ है, इतना असार है कि अगर इसके बीच रहे, तो आज नहीं कल जागोगे ही। सोओगे कैसे? बीच बाजार में सो रहे हो, नींद टूट ही जाएगी। हां, गुफा में बैठ गए हिमालय की तो शायद नींद लगी भी रह जाए।
इसलिए मैं कहता हूं, छोड़ कर मत जाना। इसलिए नानक ने नहीं कहा कि छोड़ कर जाओ। इसलिए मोहम्मद ने नहीं कहा कि छोड़ कर जाओ। कहा, रहो। जहां हो, वहीं रहो। जैसे हो, वैसे ही रहो--दुकान में, बाजार में, परिवार में। क्योंकि यह जो शोरगुल है चारों तरफ, यही तुम्हें जगाएगा। इसकी व्यर्थता तुम्हें जगाएगी। इससे दूर हट गए तो इसकी व्यर्थता का कांटा चुभेगा नहीं। फिर तुम सपनों में खो जा सकते हो। हिमालय की गुफाओं में बैठे लोग अक्सर भ्रांतियों में पड़ जाते हैं। मन की कल्पनाओं में खो जाते हैं। मन की कल्पनाएं--फिर तुम जो चाहो कर लो। कृष्ण को बांसुरी बजाता हुआ देखना हो तो कृष्ण को बांसुरी बजाते देखो। और राम को धनुषबाण लिए देखना हो तो राम को धनुषबाण लिए देखो। फिर तुम मुक्त हो। तुम्हारी कल्पना मुक्त है। तुम जो लड्डू खाना चाहो कल्पना के, खा लो।
लेकिन असली सत्य यहां घटता है, जगत में घटता है। चोट यहां है, व्यर्थ यहां है, तो सार्थक भी यहीं छिपेगा, यहीं मिलेगा, यहीं खोजना होगा।
और एक न एक दिन तो उदास होओगे ही। यहां कौन अपना है?
हमनवा कौन?
यहां कौन एक-दूसरे की भाषा समझता है?
हमनवा कौन? हमनफस कैसा?
यहां कौन किसका संगी है? कौन किसका साथी है? मन भरमाने की बातें हैं कि पति है, कि पत्नी है, कि मित्र है, कि बेटा है, कि बाप है, कि मां है। यहां कौन किसका संगी? कौन किसका साथी? यहां कौन तुम्हारी भाषा समझता है? तुम किसकी भाषा समझते हो? कुछ का कुछ समझ लेते हो।
एक मित्र ने सवाल भेजा है कि
आप पंजाबियों के दुश्मन क्यों?
मैं और पंजाबियों का दुश्मन! मैं पंजाबी हूं। तुम्हें मुझमें पंजाबी होने में कुछ कमी दिखाई पड़ती है? साफा भर बांधने की बात है। वह गुरुदयाल बैठे हुए हैं, गुरुदयाल से पूछ लेना; वह एक दफा साफा ले आए थे और साफा बंधवा कर मेरा चित्र निकाल लिया। मुझे बिलकुल पंजाबी बना दिया।
मैं पंजाबियों का दुश्मन! तुम समझ ही नहीं पाते। यहां कोई किसी की भाषा नहीं समझ पाता।
उन सज्जन ने लिखा है कि हम पंजाबी आपके झांसे में आने वाले नहीं।
कुछ कहा जाता है, कुछ समझ लिया जाता है। तुम मजाक भी नहीं समझ सकते! तुम पंजाबियों से भी गए-बीते हो गए! कम से कम मजाक तो समझो। तुम मेरा प्रेम भी नहीं समझ सकते! प्रेम है, इसीलिए चोट करता हूं। तुम चोट से तिलमिला जाते हो। जगाना चाहता हूं, इसलिए चोट करता हूं। तुम जागने की बजाय नाराज हो जाते हो, गालियां बकने लगते हो।
हमनवा कौन? हमनफस कैसा?
नौहाए-गम सुनाके देख लिया
सबको अपना दुखड़ा सुना कर देख लिया। न कोई समझता है, न कोई संगी है, न कोई साथी है। इस जिंदगी में तुमने सब करके देख लिया। क्या बचा है? अक्सर करने को ज्यादा है भी नहीं। थोड़ी सी बातें हैं, लोग उन्हीं को दोहराए चले जाते हैं। बार-बार वही क्रोध, वही प्रेम, वही घृणा। कोल्हू के बैल जैसी जीवन की गति है। तुमने सब करके देख लिया और बहुत बार करके देख लिया; किस आशा के सहारे बैठे हो अब? किस भविष्य की प्रतीक्षा कर रहे हो? तोड़ दो सब आशाएं, हो जाओ निराश। छोड़ दो सारा भविष्य, हो जाओ उदास। उसी उदासी से तुम्हारे जीवन का फूल खिलेगा जो शाश्वत है।
अभी मुस्कुराएगी यह फजा, अभी रोशनी नजर आएगी
यह जो जुल्मते-शबे-यास है, यह नवेदे-सुबह भी लाएगी
इस उदासी से घबड़ा मत जाना। इस उदासी को मिटाने की चेष्टा में मत लग जाना। यह उदासी मंदिर है। इसी में परमात्मा का आरोपण होगा। यह उदासी ही तो वैराग्य का सूत्र है। इसी से तो परमात्मा का राग जगेगा। संसार से राग टूटे, तो परमात्मा से राग जुड़े।
जब तक संसार से राग है, परमात्मा से विराग है। जब तक संसार में रस है, तब तक परमात्मा से तुम विरस रहोगे। जब तक आंखें संसार पर लगी हैं, तुम संसार को सन्मुख किए हो, परमात्मा से विमुख रहोगे। जैसे ही मुड़े संसार से, फिर और कोई बचता नहीं, यहां दो ही तो हैं--एक बाहर है और एक भीतर है; एक चैतन्य है और एक पदार्थ है। एक व्यर्थ है और एक सार है। व्यर्थ से मुड़े कि सार से जुड़े। संसार से विमुख हुए कि परमात्मा के सन्मुख हुए।
अभी मुस्कुराएगी यह फजा...
जरा ठहरो। उदासी से घबड़ा मत जाना। इसको दबा मत देना। इसको लीप-पोत कर मिटा मत देना। जल्दी से फिर अपनी मरी हुए आशाओं में सांस मत फूंक देना। मर गई आशाओं को फिर से पानी मत दे देना।
अभी मुस्कुराएगी यह फजा...
ये जो उदास आंखें हो गई हैं, ये मुस्कुराएंगी, जरा रुको।
...अभी रोशनी नजर आएगी
अभी सब अंधेरा हो गया है, घबड़ाओ मत, इसी अंधेरे से आदमी रोशनी की तरफ पहुंचता है।
झूठे दीये बुझ गए तो अंधेरा हो जाता है। लेकिन इसी अंधेरे में अगर तुम बैठे रहे, बैठे रहे, तो सच्चे दीये जलेंगे। निश्चित जलते हैं। सच्चे दीये जल ही रहे हैं, लेकिन तुम्हारी आंखों की आदत झूठे दीयों को पहचानने की हो गई है, इसलिए थोड़ी देर लगती है। तुमने देखा नहीं, बाहर रोशनी में से आते हो घर लौट कर तो घर में अंधेरा मालूम होता है! थोड़ी देर बैठे कि फिर अंधेरा नहीं मालूम होता। बाहर की रोशनी के आदी हो गए, घर लौटे तो आंखों को नया समायोजन करना पड़ता है। आंखों को बदलाहट करनी पड़ती है। थोड़ा समय लगता है। बैठ गए, थोड़े सुस्ता लिए, आराम किए, फिर घर में रोशनी दिखाई पड़ने लगती है।
ऐसे ही तुम जन्मों-जन्मों तक बाहर रहे हो, अपने घर के बाहर रहे हो, आंखें बाहर के लिए बिलकुल ही राजी हो गई हैं, परिचित हो गई हैं, भीतर तुम गए नहीं जन्मों-जन्मों से, घर तुम लौटे नहीं जन्मों-जन्मों से, जब पहली दफा लौटोगे, सब अंधेरा हो जाएगा। घबड़ाना मत। इस अंधेरे में ही गुरु की सहायता की जरूरत है कि वह तुम्हें सम्हाले रखे। तुम्हारा तो मन कहेगा, बाहर चलो, वहां रोशनी तो थी कम से कम। कुछ आशा थी, कुछ भविष्य था, कुछ रस था, जीने का कोई बहाना और उपाय था। यहां तो कोई जीने का बहाना भी नहीं और उपाय भी नहीं। यहां करना क्या है? उठो, बाहर चलो। मन तो कहेगा, दौड़ो फिर, फिर जगा लो अपने पुराने सपने, फिर फैला दो सपनों का वितान।
अभी मुस्कुराएगी यह फजा, अभी रोशनी नजर आएगी
यह जो जुल्मते-शबे-यास है, यह नवेदे-सुबह भी लाएगी
घबड़ाओ मत, इस रात के बाद ही सवेरा है।
जो तड़प गई तो यह बर्क है, जो मचल गई तो यह मौज है
यह तेरी नजर कि है शोबिदा, कोई ताजा गुल ही खिलाएगी
यह उदासी कुछ ताजा गुल खिलाने की तैयारी है।
यह हवाए-यास बजा मगर तपिशे-उम्मीद पे रख नजर
वह जो इक चिराग बुझाएगी तो यह सौ चिराग जलाएगी
घबड़ाओ मत। झूठे दीये बुझ गए तो अच्छा।
वह जो इक चिराग बुझाएगी तो यह सौ चिराग जलाएगी
गर दिलो-दिमाग पे छा गई हैं गमे-हयात की तल्खियां
तेरी याद फिर तेरी याद है, तेरी याद दिल से न जाएगी
संसार से उदास हो जाओगे, इतना ही मत देखो, यह आधी कहानी है। इसी के पीछे उठ रहा है दूसरा हिस्सा कहानी का कि परमात्मा की आशा जगेगी; संसार की आशा गिरेगी, परमात्मा की आशा जगेगी।
तेरी याद फिर तेरी याद है, तेरी याद दिल से न जाएगी
और एक बार संसार की याद दिल से चली गई तो फिर परमात्मा को भुलाने का उपाय नहीं। फिर कैसे भूलोगे? फिर उसके सिवाय कुछ बचता नहीं--जागो तो उसमें जागोगे, सोओ तो उसमें सोओगे, उठो तो उसमें उठोगे, बैठो तो उसमें बैठोगे, जीओ तो उसमें जीओगे, मरो तो उसमें मरोगे, फिर सब तरफ से वही है। एक बार संसार से हमारा याद का रिश्ता टूट जाए।
यह नसीम नर्म अभी चली है, अभी से इसका गिला न कर
जो बहार बनके यह छा गई तो कली-कली को हंसाएगी
थोड़ी प्रतीक्षा। थोड़ा धैर्य।
तुम नये-नये आए होओगे, तुम मुझे सुन कर उदास हो गए हो। तुम यहां और लोगों को भी देखते हो जो सुन कर मुझे आनंदित हो रहे हैं? जब वे भी पहली-पहली बार आए थे, तो वे भी उदास हुए थे। जब पहली-पहली बार वे भी आए थे, तो वे भी नाराज हुए थे। जब पहली-पहली बार वे भी आए थे, तो उनको भी चोटें लगी थीं, जख्म हुए थे। अब वे ही जख्म फूल बन गए हैं। अब वे ही चोटें जागरण बन गई हैं। अब उदासी नहीं है, अब चित्त उनका मगन है। उनका चित्त बड़े आनंद में है।
इस दूसरे प्रश्न से तुम्हें समझ में आ सकेगा--
दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं आपको पाकर पा रहा हूं कि सब पा गया हूं। हालांकि लोग कहते हैं कि मैं पागल हो गया हूं। यह मुझे क्या हो गया है?
लोग ठीक ही कहते हैं। तुम पागल हो गए हो। प्रेम पागलपन है। पर जिसने प्रेम जाना, उसके लिए सिर्फ प्रेम ही समझदारी रह जाती है। जिन्होंने प्रेम नहीं जाना, उनके लिए प्रेम पागलपन है। उन्होंने स्वाद ही नहीं चखा उस बात का। उन्हें धन पागलपन नहीं है, पद पागलपन नहीं है, प्रेम पागलपन है। जिन्होंने प्रेम चखा, उनके लिए धन पागलपन है, पद पागलपन है, उन्हें सब पागलपन है, सिर्फ प्रेम ही एकमात्र बुद्धिमानी है।
लेकिन लोग भी ठीक ही कहते हैं। लोग अपने ही हिसाब से तो कहेंगे न! लोग तुम्हारे हिसाब से कैसे कहें? लोगों को लगता है कि तुम कुछ डगमगा गए। क्योंकि लोगों को लगता है, जैसे वे चल रहे हैं, तुम अब वैसे नहीं चल रहे। तुमने लोगों से अपना ढंग अलग कर लिया। तुम्हें आनंद आ रहा है। तुम मगन हो रहे हो। मगर लोगों को लग रहा है कि तुम बेढंग पर जा रहे हो।
भीड़ चाहती है कि सदा तुम भीड़ के साथ राजी रहो। भीड़ तुम्हें स्वतंत्रता नहीं देना चाहती। भीड़ व्यक्ति को बरदाश्त नहीं करती। भीड़ व्यक्ति की हत्या करती है, व्यक्ति को बिलकुल मिटा देना चाहती है। भीड़ गुलाम चाहती है। फिर वे गुलाम हिंदू हों कि मुसलमान, कि सिक्ख, कि ईसाई, कि जैन, कुछ फर्क नहीं पड़ता। भीड़ की एक ही कला है कि तुम्हें पोंछ दे, मिटा दे। तुम तुम्हारी तरह न रहो, तुम्हारे भीतर भीड़ प्रवेश कर जाए। तुम भीड़ की भाषा बोलो, भीड़ के सिद्धांत मानो, भीड़ का शास्त्र दोहराओ, भीड़ जो कहे वैसा करो, भीड़ जैसा चलाए वैसा चलो। भीड़ मंदिर जाए तो तुम मंदिर जाओ, भीड़ मस्जिद जाए तो तुम मस्जिद जाओ। भीड़ मस्जिद में आग लगाए तो तुम मस्जिद में आग लगाओ, भीड़ मंदिर की मूर्ति तोड़े तो तुम मूर्ति तोड़ो। भीड़ जो करे वही करो।
लोग भीड़ में सम्मिलित हो जाने के लिए उत्सुक भी होते हैं। कारण हैं कई। एक तो जितना तुम भीड़ के साथ हो जाते हो, उतनी ही तुम्हारी चिंता कम हो जाती है। तुम्हारा जिम्मेवारी का भाव, तुम्हारा उत्तरदायित्व का भाव कम हो जाता है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो पाप भीड़ करती है, वह व्यक्ति कभी नहीं कर सकता। और अगर किसी भीड़ ने कोई पाप भी किया हो--समझो कि किसी भीड़ ने जाकर मंदिर तोड़ डाला हो, कि गुरुद्वारे में आग लगा दी हो, कि मस्जिद जला दी हो--अगर इस भीड़ के एक-एक आदमी से तुम अलग-अलग जाकर पूछो, तो वह कहेगा कि मैं कैसे कर पाया, कह नहीं सकता। हो गया। अगर तुम उससे पूछो कि क्या तुम अकेले यह कर सकते थे? तो वह हिचकिचाएगा। अकेले वह नहीं कर सकता था। अकेले में आदमी के पास थोड़ा सा उत्तरदायित्व का भाव होता है। भीड़ में सब उत्तरदायित्व खो जाता है। भीड़ का नशा पकड़ लेता है। इतने लोग कर रहे हैं, तो ठीक ही कर रहे होंगे। फिर इतने लोग कर रहे हैं, तो मेरी कोई जिम्मेवारी भी नहीं है। अगर मंदिर जलेगा, तो मैं कोई अकेला जिम्मेवार नहीं हूं। मैंने जलाया, ऐसा सवाल ही नहीं। मैं तो सिर्फ भीड़ में था, जलाने वाले तो और ही लोग थे। और भीड़ में हर एक आदमी यही सोच रहा है जैसा तुम सोच रहे हो कि जलाने वाली तो भीड़ है, मैं तो भीड़ में हूं सिर्फ।
भीड़ ने जितने बड़े अपराध किए हैं, कभी व्यक्तियों ने नहीं किए। व्यक्तियों के नाम बड़े छोटे-मोटे अपराध हैं। असली अपराध भीड़ के नाम हैं।
तो व्यक्ति को आसानी भी मिलती है भीड़ के साथ जुड़ जाने में। तुम्हारी अपराध की वृत्ति को भी सुविधा मिलती है। क्योंकि भीड़ के सहयोग के कारण अपराध पुण्य जैसा मालूम होता है। पाप पुण्य बन जाता है। तुम अकेले करो तो मन कचोटेगा, अंतःकरण पर चोट लगेगी, कांटा गड़ेगा। भीड़ के साथ करो, तुम्हें अंतःकरण की कोई चिंता ही नहीं। अंतःकरण को एक तरफ रख दिया जा सकता है। तुम्हारे भीतर छिपी हुई पशुता को सुविधा से प्रकट होने का मौका मिल जाता है।
भीड़ में तुम परमात्मा से दूर हो जाते हो और पशु के करीब हो जाते हो। अकेले में जितने तुम व्यक्ति होते हो उतने ही तुम परमात्मा के करीब होते हो। क्योंकि उतना ही अंतःकरण, उतना ही विचार, उतना ही ध्यान सजग होता है। तुम एक-एक कदम सोच कर उठाते हो कि मैं जिम्मेवार हूं, यह मंदिर जलाऊं? इस दूध पीते बच्चे को मारूं? इसने क्या बिगाड़ा है? इसे कुछ पता भी नहीं है। यह हिंदू है कि मुसलमान है, इसका भी पता नहीं है, इसे मैं मारूं? अकेले तुम पाप करने चलोगे, कुछ सोचना ही पड़ेगा। बड़े से बड़ा पापी भी विचार करता है। लेकिन भीड़ के साथ पाप पुण्य हो जाता है। मजे से कर सकते हो और रात आकर निश्चिंत सो सकते हो। उत्तरदायित्व से मुक्ति मिल जाती है भीड़ में।
जिस आदमी ने हिरोशिमा पर एटमबम गिराया और एक लाख आदमियों को पांच मिनट के भीतर राख कर दिया, वह आदमी रात लौट कर निश्चिंतता से सोया। थोड़ा सोचो! एक लाख आदमी तुमने मार डाले हों और तुम निश्चिंतता से सो सकोगे? वह आदमी कैसे सो सका? यह मत सोचना कि वह कोई बड़ा भारी दानव था। तुम्हारे जैसा आदमी था, ठीक तुम्हारे जैसा, साधारण आदमी था। उसकी पत्नी थी, उसका बच्चा था, उसके मां-बाप थे, किसी ने कभी उसे ऐसा नहीं जाना कि इतना महाहत्यारा है वह। लेकिन सुबह जब पत्रकारों ने पूछा कि इतने लोगों के मरने के बाद तुझे कैसा लगा? उसने कहा, कोई सवाल ही नहीं, मैंने आज्ञा का पालन किया! ऊपर से आज्ञा आई थी। मैं आकर निश्चिंत सो गया। आज्ञा पूरी कर दी, मेरा काम पूरा हो गया, मैं निश्चिंत सो गया।
अब सवाल यह है, आज्ञा किसने दी? इसके लिए कौन जिम्मेवार था? ट्रूमैन प्रेसीडेंट था अमरीका का जब यह एटमबम गिरा। जब ट्रूमैन से पूछा गया तो उसने कहा कि मैं क्या कर सकता हूं? मेरे जनरलों ने सलाह दी थी। ट्रूमैन भी मजे से सोया, क्योंकि उस पर कोई जिम्मेवारी नहीं। और जब जनरलों से पूछा गया, उन्होंने कहा, हम क्या कर सकते हैं, राष्ट्रपति की आज्ञा थी!
भीड़ में जब कोई बात होती है तो कोई जिम्मेवार नहीं होता। हर आदमी अपनी जिम्मेवारी दूसरे पर टाल देता है। जिम्मेवारी के लिए कोई राजी नहीं होता कि मैं जिम्मेवार हूं। जिन्होंने एटमबम बनाया, उन्होंने भी जिम्मेवारी अनुभव नहीं की। उन्होंने कहा, हम तो सिर्फ विज्ञान की खोज कर रहे हैं। हमने इसलिए थोड़े ही बनाया था कि तुम लोगों को मारो। हमने तो बड़ी भारी खोज की है। उन्होंने भी अनुभव नहीं किया कि हमारी कोई जिम्मेवारी है।
फिर जिम्मेवार कौन था? एक लाख आदमी मरे, यह निश्चित। बम गिराया गया, यह निश्चित। बम बनाया गया, यह निश्चित। किसी की आज्ञा से गिरा, यह भी निश्चित। लेकिन इतनी भीड़ संयुक्त है उसमें कि सब एक-दूसरे पर टाल दे सकते हैं। कोई जिम्मेवार नहीं मालूम होता।
भीड़ में लोग सम्मिलित होना चाहते हैं, क्योंकि आत्मा को खोने का सबसे सुगम उपाय है। और भीड़ भी चाहती है कि तुम भीड़ में रहो, क्योंकि भीड़ का बल उसकी संख्या में है। जब तुम अकेले-अकेले चलने लगोगे, जब तुम व्यक्ति बनोगे--और वही संन्यास का अर्थ है, कि तुम अब अपने अंतःकरण से जीओगे; अब तुम्हें जो ठीक लगता है वह तुम करोगे, नहीं कि भीड़ कहती है कि ठीक है; अब तुम अपना निर्णय स्वयं लोगे; अपने पाप-पुण्य के लिए स्वयं जिम्मेवार होओगे; अब तुम किसी पर टालोगे नहीं--तो निश्चित ही लोग कहेंगे कि तुम पागल हो रहे हो।
फिर, अनेक बार तुम्हारे और भीड़ के बीच बड़ा फासला हो जाएगा। भीड़ यजन करेगी, तुम भजन करोगे। बड़ा फर्क हो जाएगा। भीड़ कहेगी, सत्यनारायण की कथा हो रही है, आओ! तुम कहोगे, इस कथा में क्या रखा है? क्योंकि जो कथा कर रहा है, उसे कुछ पता नहीं है। और इस कथा में सत्यनारायण की बात कहीं आती ही नहीं। यह कथा बड़ी मजेदार है। इससे सत्य का कोई लेना-देना ही नहीं। तुम शायद मंदिर न जाओ। क्योंकि तुम देखोगे वहां एक पेशेवर पुजारी पूजा कर रहा है। पेशेवर कैसे पूजा करेगा? तुम शायद मस्जिद न जाओ। क्योंकि तुम कहो: मस्जिद में भी कोई नहीं है--कोई प्रतिमा तो है नहीं, कोई आधार-आलंबन तो है नहीं--तो जहां सिर झुका कर बैठ जाऊंगा वहीं मस्जिद हो गई, मस्जिद जाने की क्या जरूरत है?
एक सूफी फकीर जिंदगी भर मस्जिद जाता रहा। इतने नियम से मस्जिद गया पांचों बार दिन में नमाज पढ़ने, कि लोग यह सोचना ही भूल गए थे कि कभी ऐसा भी होगा कि वह मस्जिद न आएगा। कभी एकाध-दो बार ऐसा हुआ था, जब कि वह बहुत बीमार था और उठ न सका, तो ही। कभी गांव छोड़ कर नहीं गया, कि दूसरे गांव जाए और वहां मस्जिद न हो! लेकिन एक दिन सुबह लोगों ने पाया कि वह नहीं आया। कल शाम तक तो आया था, बिलकुल ठीक था, तो बीमार भी नहीं हो सकता। एक ही शक हुआ कि बूढ़ा आदमी, मर न गया हो! मस्जिद के बाद लोग सीधे उसके घर पहुंचे। वह अपने घर के सामने, झोपड़े के सामने एक वृक्ष के नीचे बैठा ढपली बजा रहा था और गीत गा रहा था। उन्होंने कहा, बुढ़ापे में नास्तिक हो गए? बुढ़ापे में कुफ्र सूझा? काफिर हो गए? मस्जिद क्यों नहीं आए?
वह फकीर हंसा और उसने कहा कि जब तक अज्ञानी थे, तब तक आए। जब तक पता नहीं था कि परमात्मा सब जगह है, तब तक मस्जिद आए। अब तो पता है कि सब जगह है, यहां भी है, वहां भी है, कहां आना, कहां जाना! अब तो जहां हैं वहीं गीत गाएंगे। अब तो हर गीत नमाज है।
मगर भीड़ इससे राजी नहीं हुई। भीड़ ने कहा कि बुढ़ापे में सठिया गया।
तो भीड़ तुमसे कहेगी कि तुम पागल हो गए हो। तुम्हारा रंग-ढंग समझ में न आएगा। भीड़ ठीक ही कहती है। मगर यह पागलपन इस जगत में सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता है। बुद्ध को भी भीड़ ने कहा था: पागल हो गए! कबीर को भी भीड़ ने कहा था: पागल हो गए! क्राइस्ट को भी भीड़ ने कहा था: पागल हो गए! भीड़ सदा से यही कहती रही है। तुम सौभाग्यशाली हो कि भीड़ तुमको भी पागल कह रही है। इस पागलपन को कष्ट मत समझना। इसे भीड़ की तरफ से तुम्हारे व्यक्तित्व का सम्मान समझना।
पूछते हो तुम: ‘मैं आपको पाकर पाता हूं कि सब पा गया हूं। हालांकि लोग कहते हैं कि मैं पागल हो गया हूं।’
तुम भी ठीक हो और लोग भी ठीक हैं। अपनी-अपनी दृष्टि! अपने-अपने देखने का ढंग! उन्हें तो कैसे पता चले कि तुम कुछ पा गए हो? उन्हें तो तुम्हारे अंतस्तल में प्रवेश का कोई उपाय नहीं है। वे तो कैसे तुम्हारे भीतर झांकें? वहां तो अकेले तुम हो। वहां तो तुम देख सकते हो, या मैं देख सकता हूं तुम्हारे भीतर। तुम ठीक कह रहे हो। संपत्ति तुम्हें मिलनी शुरू हो गई है। तुम संपदा के मार्ग पर हो। तुम्हें अंतर का राज्य धीरे-धीरे उपलब्ध हुआ जा रहा है। पहले कदम उठ चुके हैं, बीज बो दिए गए हैं, फसल भी समय पर आ जाएगी। तुम ठीक दिशा में यात्रा कर रहे हो। लेकिन भीड़ से तुम दूर जा रहे हो। भीड़ पागल कहेगी। इससे तुम चिंता मत लेना। अन्यथा चिंता के कारण तुम्हारी अंतर्यात्रा में बाधा पड़ जाएगी। इसे तुम निंदा भी न समझना। भीड़ को कहने देना। तुम इसका उत्तर देने में भी मत पड़ना। तुम हंसना। जब भीड़ पागल ही मानती है तो अब तुम काहे को फिकर कर रहे हो? भीड़ कुछ कहे, तुम हंसना। तुम धन्यवाद देना। अब जब पागल ही हो गए हो तो पूरे ही पागल हो जाना उचित है। अब तुम समझदारी सिद्ध करने की कोशिश मत करना। क्योंकि उससे भीड़ तो राजी नहीं होगी, तुम्हारी अंतर्यात्रा में अड़चनें आ जाएंगी। तुम अब बुद्धिमानी छोड़ो। तुम्हें बुद्धिमानी से ज्यादा बड़ी बुद्धिमानी हाथ लग गई है। तुम्हें प्रेम का रास्ता पकड़ में आ गया है।
फिर किसी ने नजर चुराई है
जज्बाए-दिल तेरी दुहाई है
जिस तरह बाग में बहार आए
दिल में यूं तेरी याद आई है
लुत्फे-सय्याद जिसमें शामिल हो
वह असीरी नहीं, रिहाई है
इश्क जब तक न साजगार हुआ
जिंदगी किसको रास आई है
न तसव्वुर कोई, न कोई खयाल
दिल में तेरी ही धुन समाई है
ऐ सबा दे खबर असीरों को
फिर चमन में बहार आई है
बुलबुलें चुप हैं, गुल खमोश-खमोश
इक उदासी चमन पे छाई है
जब मिली है तेरी नजर से नजर
जिंदगी जैसे मुस्कुराई है
जामे-लबरेज देख कर ‘इशरत’
चश्मे-मखमूर याद आई है
तुम्हारी जिंदगी में परमात्मा की शराब की पहली झलक आने लगी। लोग कहने लगे कि तुम लड़खड़ा कर चल रहे हो। लोग कहने लगे कि अब तुम्हारा पुराना ढंग न रहा। लोग कहने लगे कि तुम पागल हो गए हो।
फिर किसी ने नजर चुराई है
तुम्हारी नजरें कहीं और जा रही हैं। जहां संसार की नजरें लगी हैं वहां तुम अब नहीं देख रहे हो, इसलिए लोग कह रहे हैं कि तुम पागल हो गए हो।
फिर किसी ने नजर चुराई है
परमात्मा तुम्हारे हृदय को चुराने में लग गया है।
तुम्हें खयाल है, इस देश के पास एक शब्द है परमात्मा के लिए जो दुनिया की किसी भाषा में नहीं है--हरि। हरि का अर्थ होता है: चोर। हर ले जो, चुरा ले जाए जो। परमात्मा सबसे बड़ा चोर है।
अब तुम नाराज मत हो जाना कि मैंने परमात्मा को चोर कह दिया! अब तुम सोचने मत लगना कि इस आदमी के झांसे में नहीं आना है! यह तो हद्द हो गई, परमात्मा और चोर!
लेकिन परमात्मा चोर है, मैं क्या करूं? सच को तो कहना ही होगा। तुम झांसे में आओ कि न आओ, मगर सच को तो सच जैसा है वैसा कहना होगा। परमात्मा चुराता है इस ढंग से जिस ढंग से कोई नहीं चुराता। पैरों की आहट भी नहीं मिलती और कब हृदय चुरा लिया जाता है, पता नहीं चलता। किस अंधेरी रात में, कब परमात्मा तुम्हारे द्वार-दरवाजे को तोड़ कर भीतर आ जाता है, कुछ कहा नहीं जा सकता। तुम सोए ही रहते हो और चोरी चले जाते हो।
फिर किसी ने नजर चुराई है
जज्बाए-दिल तेरी दुहाई है
तुम, लोग क्या कहते हैं, इसकी फिकर छोड़ो। तुम तो अपने दिल को, अपनी भावना को धन्यवाद दो।
जज्बाए-दिल तेरी दुहाई है
हे हृदय के भाव, तेरा धन्यवाद! तुझे परमात्मा ने इस योग्य समझा कि तेरी नजर चुरा ले, कि तेरा हृदय चुरा ले।
जिस तरह बाग में बहार आए
दिल में यूं तेरी याद आई है
रेगिस्तान में, जहां सब तरफ मरुस्थल होता है, कहीं छोटे-मोटे मरूद्यान होते हैं। सारा मरुस्थल मरूद्यान को पागल समझता होगा। क्योंकि भीड़ तो मरुस्थल की है, विस्तार तो मरुस्थल का है, उसमें कहीं एक छोटा सा पानी का चश्मा है, दो-चार वृक्ष ऊग आए हैं, थोड़ी हरी घास भी लगती है, मरुस्थल कहता होगा कि यह स्थान पागल हो गया। स्वाभाविक है मरुस्थल का यह कहना। यह मरुस्थल को कहना ही पड़ेगा, नहीं तो मरुस्थल को बड़ी आत्मग्लानि होगी। अगर मरुस्थल यह माने कि यही सही होने का ढंग है--हरा होना, फूल से भरा होना, नाचते हुए होना, मस्त होना, प्रभु के प्रेम में डूबा हुआ होना--अगर यही होने का ठीक-ठीक ढंग है, तो फिर मैं क्या कर रहा हूं? तो मेरा होने का ढंग गलत है।
अगर तुम अंधों की दुनिया में पहुंच जाओ तो अपनी आंखों की घोषणा मत करना, अन्यथा वे तुम्हारी आंखें निकाल लेंगे। क्योंकि अंधे बर्दाश्त न कर सकेंगे कि तुम आंख वाले हो। तुम्हारी आंखें उनको उनके अंधेपन की याद दिलाएंगी।
इसीलिए तो जीसस को सूली लगानी पड़ी और मंसूर को मार डालना पड़ा, सुकरात को जहर पिलाना पड़ा। इसीलिए तो महावीर के कानों में कीले ठोंके गए। इसीलिए तो बुद्ध पर पत्थर पड़े। उनके कारण हमें याद आती है कि हम चूक गए। उनका साम्राज्य देख कर हमें याद आती है कि हम भिखमंगे के भिखमंगे रह गए। और हमारी भीड़ है। हमें बर्दाश्त के बाहर हो जाती है यह बात। हम ऐसे आदमी को हटा देना चाहते हैं जिसके कारण हमें कष्ट हो रहा है, जिसके कारण हमें अपनी दीनता का बोध हो रहा है। तुम उस आदमी को बर्दाश्त नहीं करते जिसके कारण तुम्हें लगता है कि तुम व्यर्थ हो गए हो। न होता यह आदमी, न व्यर्थता का पता चलता।
अगर कुरूप आदमियों का बस चले तो सौंदर्य को वे नष्ट कर दें। कुरूप आदमियों को मौका मिले तो सुंदरों को वे मार डालें। क्योंकि इन्हीं की वजह से वे कुरूप हैं, अन्यथा क्यों? अगर सभी कुरूप होते तो अड़चन ही क्या थी? अगर झूठों का बस हो तो सच को जीने न दें, फांसी पर लटका दें। लटकाते हैं। क्योंकि सच मिट जाए, पूरी तरह मिट जाए, तो फिर झूठ सच जैसा मालूम होता है।
ऐसा ही समझो कि झूठे सिक्के बाजार में चलते हैं। अगर सच्चे सिक्के बिलकुल ही विदा हो जाएं, तो फिर झूठे सिक्के झूठे नहीं रहेंगे। सिक्के अकेले वही रह गए, अब झूठा क्या, सच क्या! सच्चे सिक्के की मौजूदगी झूठे सिक्के को कष्ट का कारण है। और झूठ की भीड़ है!
जिस तरह बाग में बहार आए
दिल में यूं तेरी याद आई है
यह जो जीवन का वसंत है, यह जो परमात्मा का वसंत है, यह एक साथ नहीं आता--किसी के हृदय में आ जाता है, और बाकी सबके हृदय पतझड़ में होते हैं। किसी का फूल खिल जाता है, और सब तरफ कांटे ही कांटे होते हैं। कांटे नाराज हो जाते हैं। कांटे बदला लेते हैं। कांटे ईर्ष्या से भर जाते हैं।
लोग पागल कहते हैं, वे अपनी आत्मरक्षा में कहते हैं। उनकी तुम चिंता मत करना। वे यह कह रहे हैं कि हम पागल नहीं हैं। जब वे तुमसे कहते हैं कि तुम पागल हो, तो वे इतना ही कहना चाह रहे हैं कि हम पागल नहीं हैं। इतने लोग पागल नहीं हो सकते।
जार्ज बर्नार्ड शॉ के पास एक दिन एक आदमी गया। जार्ज बर्नार्ड शॉ ने कुछ कह दिया था जो उस आदमी को बड़ी चोट कर गया। उसने जाकर बर्नार्ड शॉ को कहा कि आप जो कहते हैं, कहने वाले आप अकेले हैं। मैं जो मानता हूं, सारी दुनिया मानती है। सारी दुनिया के करोड़ों लोग गलत नहीं हो सकते।
पता है बर्नार्ड शॉ ने क्या कहा? बर्नार्ड शॉ हंसा और उसने कहा, इतने लोग जिस बात को मानते हैं, वह बात सही हो ही नहीं सकती। सत्य तो कभी-कभार मिलता है। वह किरण तो कभी-कभी उतरती है। वह तो दुर्लभ है। झूठ तो सब अपना ईजाद कर सकते हैं। सत्य तो तुम ईजाद नहीं कर सकते। सत्य तो तब आता है जब तुम विदा हो जाते हो। उतनी हिम्मत बहुत कम लोगों की है। जो अपने को समाप्त कर देता है, सत्य उसे मिलता है।
लेकिन दूसरे लोगों और तुम्हारे बीच खाई पड़ जाएगी। तुम न तो नाराज होना, न चिंता करना। न जवाब देने जाना। तुम अपनी मस्ती में रहना। यह समय खराब करना ही मत। उत्तर देने की भी कोई जरूरत नहीं है, तर्क करने की भी कोई जरूरत नहीं है।
जिस तरह बाग में बहार आए
दिल में यूं तेरी याद आई है
लुत्फे-सय्याद जिसमें शामिल हो
अहेरी का आनंद भी जिसमें सम्मिलित हो। यह तुम्हारे आनंद में परमात्मा का आनंद भी सम्मिलित है।
लुत्फे-सय्याद जिसमें शामिल हो
वह असीरी नहीं, रिहाई है
वह गुलामी नहीं है, मुक्ति है। यह जो तुम्हारे भीतर घट रहा है, यह मुक्ति का पहला आकाश खुल रहा है।
इश्क जब तक न साजगार हुआ
जिंदगी किसको रास आई है
तब तक जिंदगी रूखी-सूखी है, तब तक जिंदगी मरुस्थल है, जब तक प्रेम का झरना न फूटे। इन रूखे-सूखे लोगों के बीच जब तुम्हारे पल्लव फूटेंगे, तुम हरे होओगे, तो इनकी नाराजगी समझ लेना। कबीर ने तो इसीलिए कहा है कि अपने पत्तों को छिपा लेना। हीरा मिल्यो गांठ गठियायो, वाको बार-बार क्यों खोले? बताना ही मत किसी को, नहीं तो लोग एकदम नाराज हो जाएंगे। किसी को कहना ही मत कि मुझे मिल गया है।
सूफी फकीर कहते हैं: प्रार्थना भी रात के अंधेरे में करना, जब कोई देखे नहीं। नहीं तो लोग कहेंगे, तुम पागल हो। चुपचाप कर लेना रात के अंधेरे में, चुपचाप बुला लेना परमात्मा को। चुपचाप उससे बात कर लेना, चुपचाप डूब जाना। किसी को कानोंकान खबर मत होने देना। लोग पागल हैं। जब तुम्हारा पागलपन पहली दफे मिटेगा, वे तुम्हें बर्दाश्त न कर सकेंगे। उन्होंने कभी किसी को बर्दाश्त नहीं किया है।
न तसव्वुर कोई, न कोई खयाल
दिल में तेरी ही धुन समाई है
सब कल्पनाएं चली जाती हैं, सब स्वप्न चले जाते हैं, सब विचार चले जाते हैं, बस एक धुन गूंजती रह जाती है। उस धुन का नाम भजन है। उस धुन के अतिरिक्त जो भी किया जाता है, सब यजन है, उसका कोई मूल्य नहीं है।
ऐ सबा दे खबर असीरों को
ऐ हवा! जा और बंदियों को भी खबर पहुंचा दे!
फिर चमन में बहार आई है
स्वाभाविक है वह भाव भी। जब तुम्हें मिलता है, स्वाभाविक मन उठता है, जिन्हें तुम प्रेम करते हो उन्हें भी बांट दो। मगर बहुत सम्हल कर कदम उठाना। क्योंकि यहां कोई किसी की भाषा नहीं समझता।
कोई हमनवा नहीं, कोई हमनफस नहीं। न कोई संगी है, न साथी है। जो तुम्हारी बात समझ सके, बस उससे ही कह देना। उतना ही कहना जितना समझ सके। ज्यादा मत उंडेल देना। जितना पचा सके उतना ही कहना। फिर और पचा सके तो और कहना। धीरे-धीरे कहना। धीरे-धीरे अपने आनंद को बताना।
ऐ सबा दे खबर असीरों को
कैदियों को खबर कर दे, ऐ हवा!
फिर चमन में बहार आई है
बुलबुलें चुप हैं, गुल खमोश-खमोश
इक उदासी चमन पे छाई है
जब मिली है तेरी नजर से नजर
जिंदगी जैसे मुस्कुराई है
इसके पहले सब उदास था।
बुलबुलें चुप हैं, गुल खमोश-खमोश
इक उदासी चमन पे छाई है
ऐसा था कि न तो बुलबुल बोलती थी, न कोयल गीत गाती थी, न पपीहा पुकारता था। फूल ही नहीं थे, तितलियां नहीं उड़ती थीं; न कोई सुगंध थी, न कोई शीतलता थी। सब उदास था, सब जड़ और मुर्दा था। लेकिन अब बात बदल गई है।
जब मिली है तेरी नजर से नजर
जिंदगी जैसे मुस्कुराई है
जामे-लबरेज देख कर ‘इशरत’
भरे प्याले को देख कर--
चश्मे-मखमूर याद आई है
इस भरे हुए हृदय में, इस आनंद से भरे हुए प्याले को देख कर वह नशीली आंख याद आनी शुरू हो गई है। जब तुम्हारे भीतर प्रेम का प्याला भरेगा, तो उस प्रेम के प्याले में ही परमात्मा की आंखें पहली दफा झलकेंगी। यह भी होगा। अभी तुम उदास हुए हो, घबड़ाओ मत। जल्दी यह घड़ी भी आएगी जब तुम भी यह प्रश्न पूछ सकोगे कि मुझे क्या हो गया है? क्या मैं पागल हो गया हूं? लोग कहते हैं मैं पागल हो गया हूं। हालांकि मुझे लगता है कि मुझे सब मिल गया है।
जैसा प्रेम में घटता है, साधारण लौकिक प्रेम में घटता है, उससे अनंत गुना, अनंत-अनंत गुना पारलौकिक प्रेम में घटता है।
बेखुदी के साज पर गाने का मौसम आ गया
आएगा मौसम। प्रतीक्षा चाहिए। बस प्रतीक्षा और प्रार्थना।
बेखुदी के साज पर गाने का मौसम आ गया
लेकिन याद रखना, यह साज बेखुदी का है। यहां तुम मिटोगे तो ही साज मिलेगा। तुम शून्य हो जाओगे तो ही साज मिलेगा। तुम्हारी शून्यता में ही यह संगीत उठने वाला है।
बेखुदी के साज पर गाने का मौसम आ गया
आ गया पीकर बहक जाने का मौसम आ गया
अभी उदास हुए हो, यह पहली बात हुई। चमन उदास-उदास, बुलबुलें खमोश-खमोश। सब ठहरा हुआ। एक दुनिया उजड़ गई जो तुमने बसाई थी। वे नावें जो तुमने चलाई थीं, कागज की हैं। ऐसा मैंने कहा, ऐसा तुम्हें दिखाई पड़ गया, तुम धन्यभागी हो! जो मकान तुमने बनाए थे वे मकान नहीं थे, केवल ताश के पत्तों के घर थे। मैंने कहा और तुम्हारी समझ में आ गया, तुम धन्यभागी हो! तुम्हें मेरी भाषा पकड़ में आ गई। इसीलिए तुम उदास हुए हो। अगर भाषा समझ में न आती तो तुम नाराज होते, उदास नहीं।
फर्क समझ लेना। दो ही तरह के लोग हैं यहां मेरे पास आने वाले। या तो वे जो उदास हो जाते हैं, या वे जो नाराज हो जाते हैं। जो नाराज हो गए वे चूक गए। फिर दुबारा उनके आने का कोई कारण न रहा। न केवल वे दुबारा नहीं आएंगे, और कोई आता होगा तो उसको भी रोकेंगे। जो उदास हो गया वह तो आएगा। उसे तो आना ही पड़ेगा। अब उसकी उदासी कहीं और न मिट सकेगी। अब तो वह मेरा बीमार हो गया। अब तो मेरे पास ही उसका उपचार है। अब तो वह तलाशेगा। जैसे भी बन सकेगा, वैसे करीब आएगा। और तब दूसरी घटना निश्चित घटती है।
बेखुदी के साज पर गाने का मौसम आ गया
आ गया पीकर बहक जाने का मौसम आ गया
फिर पयामे-आमदे-जानां सकूने-शाम है
सेज पर कलियों के खिल जाने का मौसम आ गया
प्यारा आने को है, प्रीतम आने को है। प्रीतम के आने का संदेश आ गया।
फिर पयामे-आमदे-जानां सकूने-शाम है
और संध्या की प्रतीक्षा!
सेज पर कलियों के खिल जाने का मौसम आ गया
जैसा साधारण प्रेम में घटता है, उससे अनंत-अनंत गुना इस प्रेम में घटता है। जैसे साधारण प्रेम में लोग पागल समझे जाते हैं, इस प्रेम में तो बहुत बड़े पागल समझे जाते हैं।
यह तड़प, यह दर्द, यह रग-रग में हलकी सी कसक
यह शबाब आया कि मर जाने का मौसम आ गया
तोड़ कर हमदम! हर इक रस्मो-रहे-कौनीन को
लगजिशों पर लगजिशें खाने का मौसम आ गया
अब लड़खड़ाओ! अब डगमगाओ! अब पीओ! और बेखुदी हो तो ही पी पाओगे। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं कि यहां अगर मेरे निकट तुम्हें होना है, अगर सच में ही सत्संग करना है, तो अपने को पोंछो। हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिक्ख, जैन की तरह मत आओ यहां! अन्यथा तुम आओ ही मत। आने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि तुम्हारी वे धारणाएं, तुम्हारे वे खयाल तुम्हें वंचित कर देंगे। और मैं तुम्हें याद दिला दूं कि मैं वही कह रहा हूं जो महावीर ने कहा था और बुद्ध ने कहा था, नानक-कबीर ने कहा था, मोहम्मद ने कहा था। मैं वही कह रहा हूं। और उन्होंने भी यही कहा था तुमसे कि जब आओ तो सब छोड़ कर आना। सब बाहर रख आओ। यहां खाली होकर आओ, बेखुद होकर आओ। थोड़े निर-अहंकार भाव से आओ। तो वह जादू हो सकता है।
बेखुदी के साज पर गाने का मौसम आ गया
आ गया पीकर बहक जाने का मौसम आ गया
फिर पयामे-आमदे-जानां सकूने-शाम है
सेज पर कलियों के खिल जाने का मौसम आ गया
वह दूसरी घटना भी सुनिश्चित घटती है। औरों को घटी है, तुमको भी घटेगी।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, कल आपने बताया कि भगवान को पाने के लिए मूल्य चुकाना होगा। और उसी समय आपने यह भी बताया कि शरीर को कष्ट देकर परमात्मा पाया नहीं जा सकता। कृपया समझाएं कि फिर मूल्य किस तरह चुकाना होगा? क्या सक्रिय ध्यान शरीर को कष्ट देना नहीं है?
सुभाष ने पूछा है! सुभाष के लिए है। और जिसके लिए शरीर को कष्ट देना हो, वह सक्रिय ध्यान न करे। कष्ट से परमात्मा का कोई संबंध नहीं है। सुख का भाव चाहिए। तुम अपने को सता कर परमात्मा से जुड़ोगे नहीं, टूट जाओगे।
लेकिन खयाल रखना, जो बात एक के लिए कष्ट हो सकती है, दूसरे के लिए आनंद हो सकती है। तुम्हारे लिए दौड़ने में कष्ट हो, किसी दौड़ाक को आनंद है। और जो दौड़ने का आनंद जानता है वह भरोसा ही नहीं कर सकेगा कि दौड़ने में कष्ट कैसा! दौड़ने के क्षणों में ही, सुबह की रोशनी में, सागर के तट पर उसने जीवन के सबसे सुखद क्षण जाने हैं। जिसे तैरने में सुख है, वह समझ ही नहीं पाएगा कि तुम कहते हो तैरने में कष्ट है! लोग अलग-अलग हैं। किसी को ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाने में आनंद है--जरूर उठे। लेकिन किसी को कष्टपूर्ण है--जरा भी न उठे। अपने स्वभाव को परखो, पहचानो।
सुख-दुख का अर्थ क्या होता है? इतना ही अर्थ होता है--सुख का अर्थ होता है: तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल पड़ रहा है। और क्या अर्थ होता है? दुख का अर्थ होता है: स्वभाव के प्रतिकूल पड़ रहा है। जो स्वभाव के प्रतिकूल है, वह परमात्मा से कैसे जोड़ेगा? क्योंकि परमात्मा का अर्थ ही स्वभाव है।
इसलिए मेरी बात को खूब खयाल से समझ लेना।
तुम्हारे भीतर अपने को दुख देने की वृत्ति है। क्योंकि सदियों से तुम्हें यह सिखाया गया है कि उसको पाने के लिए तपश्चर्या करनी है। मैं कह रहा हूं, उसे पाने के लिए आनंदमग्न होना है। तुम्हारी पुरानी धारणा इतनी गहरी बैठी है कि तुम मेरी बात भी सुन लोगे, फिर भी शायद ही समझ पाओ। तुम्हें कहा गया है कि अपने को कष्ट दो। यह किसने कहा है? यह जानने वालों ने नहीं कहा। जानने वाला यह कह ही नहीं सकता। महावीर कैसे कह सकते हैं कि अपने को कष्ट दो! क्योंकि महावीर तो कहते हैं--स्वभाव धर्म है। महावीर कैसे कह सकते हैं कि कष्ट दो! लेकिन फिर कैसे यह कष्ट की कहानी पैदा हो गई? फिर जैन मुनि क्यों कहता है कि कष्ट दो?
कहानी पैदा होने का राज समझो।
महावीर नग्न हो गए। महावीर के लिए नग्न होना आनंद था। महावीर को वस्त्र से मुक्त होकर सारी सीमाओं से मुक्ति मिली। उनके पीछे जो आया, उसने देखा कि महावीर नग्न हो गए। नग्न होने से यह ज्ञान को उपलब्ध हुए। मैं भी नग्न हो जाऊं, तो मैं भी ज्ञान को उपलब्ध हो जाऊंगा। यह गणित सीधा मालूम होता है। वह भी नग्न हो गया। लेकिन नग्न होने के लिए उसे बड़ा अभ्यास करना पड़ा है। सर्दी थी, धूप थी, फिर लोग थे, लोकलाज थी, उसने सब तरह से अपना अभ्यास किया, कर-कर के किसी तरह अपने को नंगा खड़ा कर लिया। फिर जब नग्न खड़ा किया, और अगर यह स्वभाव के अनुकूल न हो, तो कष्ट तो होगा ही। तो उसने समझा कि कष्ट दिए बिना परमात्मा को नहीं पाया जा सकता, यह कीमत चुकानी है। और अगर कष्ट देने ही से परमात्मा को पाया जा सकता है, तो उसने अपने को कष्ट देने के और नये-नये तरीके ईजाद किए। घास पर सोएगा, कांस पर सोएगा, बिस्तर पर नहीं सोएगा; धूप में खड़ा रहेगा; भयंकर धूप जल रही होगी और वह धूनी रमा कर बैठेगा; बर्फ पड़ रही होगी, कि बर्फ जम रही होगी, तब वह जल में जाकर खड़ा हो जाएगा। उसको यह खयाल में आ गया--अपने को कष्ट देना है।
महावीर ने महीनों तक उपवास किए। लेकिन उन उपवासों में कष्ट नहीं था। तुम महावीर की प्रतिमा देख कर भी इसका प्रमाण पा सकते हो कि उनमें कष्ट नहीं था। क्योंकि महावीर की देह तो बड़ी बलिष्ठ मालूम होती है। अगर महीनों उपवास किया था तो या तो कहानी गलत है महीनों उपवास की, और अगर कहानी सच है तो महावीर को बिलकुल रास आया होगा, महावीर के शरीर को बिलकुल जमा होगा। ऐसे लोग हैं जिन्हें उपवास रास आ सकता है। जिनको भोजन ही ले जाना भीतर कष्टपूर्ण हो जाता है। जो कम से कम भोजन पर जीने में ज्यादा सुगमता पाते हैं। स्वभाव का भेद है।
तुम यहां भी देख सकते हो चारों तरफ। कुछ लोग हैं जो थोड़ा सा भोजन लेते हैं, फिर भी चंगे हैं, मस्त हैं! कुछ जो कितना ही खाए चले जाते हैं, फिर भी रूखे-सूखे हैं। फिर भी जीवन में कोई जीवन-धारा नहीं मालूम पड़ती, कोई ऊर्जा नहीं मालूम पड़ती, कोई चमक नहीं मालूम पड़ती। जैसे भोजन काम ही नहीं आ रहा है। कुछ लोग जैसे रूखे-सूखे पर जी लेते हैं। और रूखे-सूखे से भी खूब हरे-भरे होते हैं।
महावीर ने महीनों उपवास किया, यह सच है। लेकिन महावीर का उपवास तुम्हारे जैन मुनि वाला उपवास नहीं था। मैं महावीर के बिलकुल पक्ष में हूं, जैन मुनि के जरा भी पक्ष में नहीं हूं। जैन मुनि रुग्ण चित्त से भरा है। महावीर के उपवास का अर्थ था: महावीर इतने आनंदित थे, इतने ध्यान में मग्न थे कि जब कभी दस-पांच दिन में भोजन की याद आती थी तो भीख मांगने चले जाते थे; जब याद नहीं आती थी तो मस्त अपनी मस्ती में रहते थे। जैसे वायु ही काफी थी। और मस्ती ऐसी थी कि जब याद आए भोजन की, तो ही। भीतर रमे थे। यह सुख की अवस्था थी, यह दुख की अवस्था नहीं थी। उपवास शब्द का अर्थ भी यही होता है--अपने भीतर वास, अपने निकट वास। परमात्मा के निकट होने का नाम उपवास है।
उपवास और अनशन में भेद है। अनशन कष्टपूर्ण है, उपवास आनंदपूर्ण है। अनशन का मतलब होता है: मार रहे भूखा अपने को! जब कोई राजनैतिक नेता अनशन पर चला जाता है, वह अनशन है। उसको उपवास भूल कर मत कहना। वह भूखा अपने को मार रहा है। वह दबाव डाल रहा है। वह अपने को सता कर दबाव डाल रहा है लोगों पर कि मेरी बात मान लो, नहीं तो मैं मर जाऊंगा। वह धमकी दे रहा है आत्महत्या की, और कुछ नहीं है। उस पर असल में मुकदमा चलना चाहिए, वह आत्महत्या की धमकी दे रहा है। वह यह कह रहा है--मैं मर जाऊंगा, तुम मेरी बात मानो। फिर मेरी गलत हो या सही, यह बात का मौका ही नहीं दे रहा है वह। विचार का मौका नहीं देता। वह तो ऐसे ही है जैसे एक आदमी छुरी लेकर अपनी छाती पर खड़ा हो जाए और कहे कि मैं छुरी मार लूंगा, मेरी बात मानो। इसमें और उसमें कुछ भेद नहीं है। यह हिंसक वृत्ति है।
इसलिए महात्मा गांधी के उपवास को मैं उपवास नहीं कहता, अनशन कहता हूं। उसमें हिंसा की वृत्ति है। और जब महात्मा गांधी के उपवास को अनशन कहता हूं, तो तुम समझ सकते हो कि मोरारजी देसाई के उपवास को तो मैं अनशन भी नहीं कह सकता। वह तो उससे भी गई-बीती बात है। इसमें सब दबाव है, जबर्दस्ती है। इसमें दूसरे को बेचैन करने का उपाय है। दूसरा आदमी सोचने लगता है कि अब इतना मामला ही क्या है! कि भई ठीक है, चलो वोट ले लेना, और क्या करोगे! तुम्हीं को वोट दे देंगे। मगर उपवास तो तोड़ो। चलो यह मौसंबी का रस पी लो! जान न गंवाओ! इतनी सी बात के लिए मरते नहीं हैं!
महावीर ने अनशन नहीं किया। भूख-हड़ताल भी नहीं थी वह। उपवास था। उपवास बड़ा आह्लादपूर्ण शब्द है। अपने भीतर रमे थे। इतने रमे थे ध्यान में कि याद ही न आया कि भोजन करना है। कभी-कभी तुम्हारे जीवन में भी ऐसी घटना घटती है, अगर पहचानोगे। कभी कोई प्रियजन तुम्हारे घर आ गया है--स्त्रियों को अक्सर घट जाती है। सोहन का मुझे पता है, उसे घट जाती थी। उसके घर जब मैं मेहमान होता था, वह भूल ही जाएगी भोजन करना। इतने आनंद में मग्न हो जाएगी कि अब कहां फुर्सत भोजन इत्यादि की! भूख ही न लगेगी। तुमने खयाल किया कभी? जब प्रेम से चित्त भरा होता है, भूख नहीं लगती।
मैं एक घर में मेहमान था। उस घर की महिला ने मुझे कहा कि एक सवाल मुझे पूछना है, मैं किसी से पूछ नहीं सकी। जैन परिवार था। और अपने मुनियों से तो मैं पूछ ही नहीं सकती, क्योंकि वे तो बहुत नाराज हो जाएंगे--बात ही ऐसी है! आपसे पूछ सकती हूं। उसने अपने पति से भी क्षमा मांगी कि आप मुझे क्षमा करें, यह प्रश्न मुझे जिंदगी भर से सता रहा है, यह मुझे पूछना ही है। आप बुरा न मानना। पति ने कहा, मैं क्यों बुरा मानूंगा! तू पूछ, क्या सवाल है? उसने कहा, सवाल यह है कि जब मेरी सास मरी तो घर में किसी ने खाना नहीं खाया और मुझे बहुत भूख लगी। मुझे इतनी भूख कभी लगी ही नहीं थी। उस बात को मैं छोड़ नहीं पाती कि वह क्या हुआ? घर में सब रो रहे हैं और मुझे भूख लगी है! नई-नई बहू की तरह आई थी। और उसने कहा कि बात यहीं तक रुक गई होती तो ठीक थी। उस दिन किसी ने भोजन किया ही नहीं, करने की सुविधा ही नहीं थी, शाम के वक्त मरी थी सास तो ‘अंथऊ’ का समय बीत गया। शाम का भोजन तो जैन कर लेते हैं, फिर सूरज डूब गया, फिर तो भोजन हो नहीं सकता। तो मरने में लगे थे, मृत्यु द्वार पर खड़ी थी, मरघट ले जाना था, बात ही खतम हो गई। और उसको इतनी भूख लगी है! उसने कहा कि मैं इतनी परेशान हो गई कि रात मैंने चोरी से जाकर चौके में भोजन किया। मैंने जिंदगी में बस एक ही चोरी की है। और वह भी ऐसी चोरी कि मुझे ऐसा लगे कि मैं कैसा पाप कर रही हूं! सारा घर तो दुखी है और मुझे भूख की पड़ी है! और फिर अपने ही मकान में चोरी करके रात जो कुछ मिला वह खा-पी लिया। मगर जब ठीक से खा-पी लिया, तब मैं सो पाई। क्या हुआ मुझे?
मैंने उससे कहा, इसमें चिंता की जरा भी बात नहीं है। सचाई यह है कि दुख में भूख लगती है, सुख में भूख खो जाती है। दुख में शरीर की याद आती है, सुख में शरीर की याद खो जाती है। यह इतना सीधा सा सूत्र है। तुम जब सुखी होते हो, तुम्हें शरीर की याद नहीं आती। बिना सिरदर्द के कभी तुम्हें सिर की याद आई है? सिरदर्द होता है तो ही सिर की याद आती है। और पेट में दर्द होता है तो पेट की याद आती है। पैर में कांटा चुभता है तो पैर की याद आती है। अगर शरीर समग्ररूप से सुख में हो तो याद ही नहीं आती। शरीर विस्मृत हो जाता है सुख में, दुख में याद आता है।
वह स्त्री तो मेरे पैर पर गिर पड़ी। उसने कहा, आपने मुझे मुक्त कर दिया। मैं तो मरी जा रही थी कि मैंने कुछ पाप किया है।
मैंने कहा, तू फिकर मत कर। तेरे पति से पूछ, ईमानदारी से वे कहें।
वे पति बोले कि अब आप जब पूछते ही हैं और जब बात ही खुल गई, तो सच तो यह है कि मुझे भी भूख लगी थी। हालांकि मैंने चुराया नहीं, मेरी मां मर गई, रात भर मैं भूख में तड़फता रहा। मगर वह सहना था; क्योंकि मां मर गई, यह कोई बात है! लेकिन भूख मुझे भी लगी थी।
दुख में शरीर की याद आएगी, भूख की याद आएगी, सुख में खो जाएगी याद। महावीर महासुख में थे। ध्यान के सुख में थे। भोजन की याद कभी-कभार आती थी। जब शरीर की बिलकुल जरूरत हो जाती थी तब याद आती थी। तब वे चले जाते थे, गांव में भोजन मांग लेते थे।
जैन मुनि जबर्दस्ती भूख-हड़ताल कर रहा है। जबर्दस्ती अनशन कर रहा है। यह कष्ट देना है।
पीछे तर्क क्या है? तर्क इतना ही है, महावीर को ध्यान फला, ध्यान के पीछे-पीछे उपवास फला। उपवास आया छाया की भांति। उपवास के कारण ध्यान नहीं आया था, ध्यान रखना, ध्यान के कारण उपवास आया था। लेकिन बाहर से जब तुम देखोगे तो ध्यान का तो कुछ पता नहीं चलता कि हुआ है या नहीं हुआ, पहले तो उपवास का पता चलता है--बाह्य बातें पहले पता चलती हैं। तो तुम्हारे बाहर से देखने के कारण अड़चन खड़ी होती है। तुम्हें उपवास पहले दिखाई पड़ता है कि महावीर उपवास कर रहे हैं। और फिर तुम सोचते हो कि इतने शांत चित्त हो गए हैं तो ध्यान भी हुआ होगा, समाधि भी लगी होगी। तो उपवास करने से समाधि लगी है। यहीं भूल हो गई। समाधि लगने से उपवास होता है। महावीर नग्न हो गए, इस कारण समाधि नहीं लगी; महावीर को समाधि लगी--वस्त्र छूट गए।
फिर ऐसा भी नहीं है कि सभी को समाधि एक जैसी लगेगी। नहीं तो कृष्ण के भी छूट जाते, बुद्ध के भी छूट जाते, राम के भी छूट जाते। प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है। और जब भी तुम किसीकी नकल करोगे, कष्ट में पड़ जाओगे। अपनी तरफ ध्यान रखो, अपने स्वभाव का ध्यान रखो।
तो सुभाष के लिए तो मैं कहता हूं: सक्रिय ध्यान करना मत। सुभाष को तो बाबा मलूकदास पर ध्यान करना चाहिए।
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।
सुभाष जो है, एक तरह के दास मलूका। अपना स्वभाव खोजो! अपने स्वभाव का अनुसरण करो! भूल कर किसी की नकल में मत पड़ जाना, अन्यथा तुम कष्ट पाओगे--और कष्ट पाने से परमात्मा से दूर हो जाओगे, निकट नहीं आओगे। मैं तुम्हें आनंद का मार्ग दे रहा हूं। मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि तुम जितने सुखी, जितने शांत, जितने आनंदित, उतने ही प्रभु के स्मरण से भरोगे। क्योंकि तभी तो अनुग्रह करने को कुछ होगा तुम्हारे पास, प्रार्थना करने को कुछ होगा। अभी है क्या? जीवन की थोड़ी सी रसधार बहे तो तुम परमात्मा के चरणों में झुक कर कह सको--धन्यवाद! अभी है क्या? अभी धन्यवाद उठे कहां से? अभी धन्यवाद का कोई कारण दिखाई नहीं पड़ता, अभी शिकायत उठती है, धन्यवाद नहीं उठता। और शिकायत से यजन पैदा होता है। और धन्यवाद से भजन पैदा होता है।
तुमने पूछा है: ‘आपने कहा कि भगवान को पाने के लिए मूल्य चुकाना होगा।’
यही मूल्य है। सुखी होना होगा। अब तुम बड़े हैरान होओगे। तुम कहोगे, यह भी कोई मूल्य है? लेकिन मैं तुमसे कहता हूं: यही कठिन बात है। दुखी होना बिलकुल सरल बात है। सारी दुनिया दुखी है। दुखी होने के लिए कोई बुद्धिमत्ता चाहिए? बुद्धू भी दुखी हैं। दुखी होने के लिए कोई कुशलता चाहिए? कोई गणित चाहिए? गंवार से गंवार आदमी भी दुखी है। सुखी होने के लिए गुण चाहिए, कुशलता चाहिए, कला चाहिए।
तुम्हें मेरी बात बड़ी उलटी लगेगी। इसीलिए मैं कहता हूं कि समझोगे तो ही समझ पाओगे। जरा सहानुभूति रखी तो शायद थोड़ी समझ में आ जाए। मैं तुमसे कहता हूं: सुखी होकर मूल्य चुका दो। नाच कर मूल्य चुका दो। गीत गाकर मूल्य चुका दो। आनंद भाव से मूल्य चुका दो। लेकिन तुम्हें लगता है कि दुख हो तो मूल्य चुकाया। तुम दुख से ऐसे जकड़ गए हो कि तुमने दुख को सिक्के मान लिया है। तुमने क्या समझा है? परमात्मा कोई दुष्ट, कोई अनाचारी, कोई दुखवादी, कोई सैडिस्ट है? कि तुम दुखी होओगे तो वह बड़ा प्रसन्न होगा, कि देखो बेटा कितना भूख-हड़ताल कर रहा है! अब आ जा, पास आ जा! तूने काफी भूख-हड़ताल कर ली; ले, मौसंबी का रस पी! तुमने परमात्मा को समझा क्या है? कोई एडोल्फ हिटलर? कि तुम अपने को सताओगे तो वह बड़ा आनंदित होगा? तुम कांटों की सेज पर लेटोगे तो वह बड़ा प्रसन्न होगा कि अहा! कैसी तपश्चर्या कर रहे हो!! परमात्मा तुम्हारा दुश्मन तो नहीं है। तुम्हारा प्यारा है, तुम्हारा प्रीतम है। क्या तुम सोचते हो, छोटा बेटा धूप में खड़ा रहेगा तो मां बड़ी प्रसन्न होगी? कि छोटा बेटा कांटों में लेटा रहेगा तो मां बड़ी प्रसन्न होगी?
तुम फूल की शय्या बनाओ। कांटों की शय्या बना-बना कर तुमने सिर्फ अपने साथ मूढ़ता की है। तुम सुख में पगो। तुम सुख का राग जन्मने दो। तुम सुख की वीणा बजाओ। तुम्हारी मस्ती तुम्हें उसके पास ले जाएगी। इसीलिए तो तुम्हारे साधु-संन्यासी नाचते हुए, प्रसन्न नहीं दिखाई पड़ते। लेकिन असली साधु-संन्यासी ऐसे नहीं थे। नानक को देखा? साथ ही लिए रहते थे एक शिष्य को कि जब भी उनको गीत गाने की मौज आ जाए तो वह वाद्य बजाने को मौजूद रहे। कबीर को देखा? वे मस्ती के गीत! मीरा को देखा? वह नृत्य! ये साधु हैं। साधु तो सुखी आदमी है। सुख की ही परम अवस्था साधुता है। दुखी रुग्ण है, विक्षिप्त है। उसकी चिकित्सा होनी चाहिए।
मैं दुनिया से चाहता हूं दुखवादी धर्म विदा हो जाएं, क्योंकि दुखवादी धर्म दुखवादियों ने ईजाद किए हैं। इनका धर्म-संस्थापकों से कोई संबंध नहीं है। ये तुम्हारी मूढ़ता से पैदा हुए हैं। तुमने देखा कि महावीर नग्न खड़े हैं, मैं भी नग्न खड़ा हो जाऊं। तुमने देखा कि क्राइस्ट सूली पर चढ़े हैं, मैं भी सूली पर चढ़ जाऊं। तुमने जीवन को नाटक बना लिया है, उसमें से असलियत खो गई है, अभिनय बना लिया है। तुम नकली हो गए हो, तुम कार्बनकापी हो गए हो। और कार्बनकापियां परमात्मा को बिलकुल पसंद नहीं हैं। परमात्मा चाहता है तुम अपने मूल रूप में प्रकट होओ। तुम्हारा मूल रूप में प्रकट हो जाना ही तो परमात्मा को पा लेना है। और क्या है परमात्मा को पा लेना? सुख अर्थात स्वभाव के अनुकूल जो हो, दुख अर्थात स्वभाव के प्रतिकूल जो हो। सुख से चुकाओ कीमत।
‘कल आपने बताया कि भगवान को पाने के लिए मूल्य चुकाना होगा।’
निश्चित चुकाना होगा।
‘और उसी समय आपने यह भी बताया कि शरीर को कष्ट देकर परमात्मा नहीं पाया जा सकता।’
तुम्हारे मन में सवाल उठा होगा कि मूल्य तो कष्ट से चुकाया जाता है!
कष्ट से मूल्य नहीं चुकाया जाता। कभी नहीं चुकाया गया है। धन्यभाग से मूल्य चुकाया जाएगा, महासुख से मूल्य चुकाया जाएगा।
इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है, लोग प्रश्न पूछते हैं, एक मित्र ने प्रश्न पूछा है--और ऐसे अक्सर प्रश्न आते हैं--कि हम आपकी किताबें पढ़े तो बहुत प्रभावित हो गए। लेकिन फिर हम यहां आए और यहां जो हमने देखा, उससे हमारा मन बड़ा उदास हो गया है। लोग नाच रहे हैं! लोग गा रहे हैं! लोग मजा-मौज कर रहे हैं!
मैं उनकी तकलीफ जानता हूं। वे किताबें इत्यादि पढ़ कर सोचे होंगे कि मुझे पाएंगे बैठा हुआ किसी झोपड़े में, कांटों की शय्या पर लेटा हुआ, उदास, भूखा-प्यासा। उनका चित्त बड़ा शांत होता अगर वे मुझे ऐसा देख लेते। उनके चित्त को बड़ी राहत मिलती कि हां, साधु हो तो ऐसा।
तुम आए थे यहां दुखियों को देखने। यहां हिसाब और है, यहां गणित और है। दुख में मेरा भरोसा नहीं। मैं सुखवादी हूं। मैं चार्वाक से ज्यादा सुखवादी हूं। चार्वाक का सुख तो इसी संसार में समाप्त हो जाता है, मेरा सुख उस संसार तक जाता है। मुझमें आस्तिकता और नास्तिकता मिल रही हैं। नास्तिकता थोड़ी दूर तक सुख की बातें करती है, मैं अंत तक सुख की बातें करता हूं। मेरे लिए परमात्मा सुख की परम अवस्था है। इसलिए तो ज्ञानियों ने उसे सच्चिदानंद कहा है। आनंद, अंतिम अवस्था।
लेकिन तुम आए होओगे उपवास करते हुए किसी फकीर को देखने। और फिर तुम्हें लगा कि यहां तो कोई उपवास नहीं है, यहां तो कोई फकीर नहीं है, यहां तो लोग आनंदित हैं, लोग मस्त हैं, लोग एक-दूसरे के प्रेम में हैं। यहां तुमने जोड़े चलते देखे होंगे। स्त्री-पुरुषों को हाथ पकड़े देखा होगा, नाचते साथ देखा होगा। तुमने कहा: हद हो गई, भ्रष्ट हो गया सब! सब धर्म भ्रष्ट कर डाला। हम कहां फंस गए आकर! यह धर्म है? यह तो सांसारिकता है।
मेरा धर्म संसार के विपरीत नहीं है। यद्यपि मेरा धर्म संसार के पार जाता है। मेरा धर्म ऐसे है जैसे कमल कीचड़ से उगता है। कीचड़ में उगता है, लेकिन कीचड़ के पार जाता है। संसार में ही उगेगा धर्म। मंदिर तो यहीं बनाना होगा, जमीन पर ही बनाना होगा, देह में ही परमात्मा को पुकारना होगा। और तुम्हारी देह अगर सुख में हो, स्वभाव के अनुकूल हो, तो ही परमात्मा आ सकेगा। दुखी चित्त परमात्मा को अपने भीतर प्रवेश न दे पाएगा। दुखी चित्त में जगह कहां प्रवेश के लिए? सुखी चित्त में अवकाश होता है। सुखी चित्त आकाश जैसा होता है।
तो मैं तुम्हारी तकलीफ समझता हूं। तुम धारणाएं लेकर आते हो। तुम्हारी धारणाएं बड़ी जड़बद्ध हैं। और तुम्हारी धारणाओं के पीछे तुम्हें काफी प्रमाण हैं, क्योंकि सौ में निन्यानबे साधु तो दुखवादी हैं। वे साधु ही नहीं हैं। उन्हें साधुता का कुछ पता नहीं है। सौ में एकाध कभी सुखवादी होता है। लेकिन वह तो कभी-कभार होता है। और जब भी होता है तभी तुम्हें अड़चन होती है। महावीर को देख कर तुम्हें अड़चन हुई थी, जैन मुनि को देख कर अड़चन नहीं होती। बुद्ध को देख कर तुम्हें अड़चन हुई थी, बौद्ध भिक्षु देख कर अड़चन नहीं होती। नानक को देख कर तुम्हें अड़चन हुई थी, ग्रंथी महाराज को देख कर तुम्हें अड़चन नहीं होती। उनसे क्या अड़चन है? वे तुम्हारे जैसे ही हैं। तुम जैसे दुख में, वैसे दुख में वे। मीरा को नाचते देख कर कितने लोगों को अड़चन नहीं हो गई थी, याद है? कितने लोग कष्ट में नहीं पड़ गए थे? मीरा के परिवार के लोग इतने कष्ट में पड़ गए थे कि मीरा मर जाए, इसके लिए जहर का प्याला भिजवाया था। क्योंकि परिवार को बड़ी बेचैनी हो रही थी। मीरा तो पागल समझी ही जा रही थी, उसके साथ-साथ परिवार बदनाम हो रहा था। राजघराने की महिला थी और नाचने लगी सड़कों पर! और राजस्थान में, जहां घूंघट उठाना मुश्किल था! वहां कपड़े इत्यादि की भी फिकर छोड़ दी। अब नाचने में कहीं फिकर रखनी होती है कि पल्लू ठीक है कि नहीं है! पल्लू की फिकर रखो तो परमात्मा छूटता है, परमात्मा की फिकर करो तो पल्लू गिरता है। मीरा ने सोचा कि पल्लू जाने दो। उसने कहा, लोकलाज खोई। नाचने लगी रास्तों पर। घर के लोग--राजघर के लोग परेशान हुए। उन्होंने कुछ दुष्टता के कारण जहर नहीं भेजा था, सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा बचाने को। जगह-जगह से मीरा को खदेड़ा गया।
कहते हैं, काशी में एक बहुत बड़ा सम्मेलन हुआ पंडितों का। उसमें कबीर को भी बुलाया। बड़ी सोच-विचार से बुलाया। बहुत दिन विवाद हुआ कि कबीर को बुलाना कि नहीं, इस जुलाहे को बुलाना कि नहीं। लेकिन फिर अंततः इस जुलाहे की बातों में कुछ था तो, बुला लिया। लेकिन कबीर ने आकर और एक अजीब शर्त रख दी। कबीर ने कहा, मीरा को भी बुलाओ।
यह जरा जरूरत से ज्यादा था। कबीर कम से कम पुरुष तो थे। अब मीरा! देखते हो, बाबा तुलसीदास क्या कह गए हैं? शूद्र गंवार ढोल पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी!
अब मीरा की तो शूद्रों के साथ गिनती है। पुरुष कबीर--माना कि जुलाहे सही, चलो, मगर कम से कम पुरुष तो हैं। मगर कबीर ने एक अजीब शर्त रख दी कि तुम मीरा को बुलाओ तो ही मैं आऊंगा, नहीं तो मैं नहीं आऊंगा। क्यों कबीर ने यह शर्त रखी होगी कि मीरा को बुलाओ? इसलिए यह शर्त रखी कि इन मूढ़ पंडितों को यह बात साफ हो जानी चाहिए कि परमात्मा को पाने के लिए न तो पुरुष होना जरूरी है, न स्त्री होने से कोई बाधा पड़ती है। परमात्मा को पाने में अगर कोई बाधा है तो सिर्फ अहंकार है। परमात्मा को पाने में अगर कोई बाधा है तो तुम्हारी दुख की ग्रंथियां हैं। मीरा को बुलाओ, क्योंकि उससे ज्यादा नाचता हुआ परमात्मा और कहां मिलेगा?
मीरा आई तो कबीर आए। और मीरा आई तो मीरा ने क्या किया? मीरा नाची। पंडितों ने नाक-भौं सिकोड़ी। उन्होंने कहा, यह सब क्या तमाशा हो रहा है? कहां वेद की बातें होनी चाहिए, वहां यह मीरा नाच रही है! मगर नाच वेद है। लेकिन पंडित तो अंधे होते हैं। वे सोचते थे कि मीरा कुछ संस्कृत के रटे-रटाए सूत्र दोहराए। मीरा ने जीवंत वेद दिखाया--वह नाची। लेकिन पंडितों को तो मन में बड़ा बुरा लगा। पल्लू फिर गिर गया होगा। यह कोई बात हुई! स्त्री को घर में छिपा होना चाहिए। स्त्री को लाज होनी चाहिए।
आनंद की हमारे मन में प्रतिष्ठा नहीं है। इसलिए तुम जब यहां आते हो और यहां एक और ही तरह का जगत पाते हो, तो तुम्हें अड़चन होती है। तुम बेचैनी में पड़ जाते हो। तुम्हें लगता है, यह किस तरह का धर्म?
सम्यक धर्म सदा ही इस तरह का रहा है। मगर वह कभी-कभी होता है।
मेरे जाते ही दुखवादी आ जाएगा। वह सुभाष से भी सक्रिय ध्यान करवाएगा। वह कहेगा--करो! अगर सक्रिय ध्यान नहीं किया, तो परमात्मा कभी नहीं मिलेगा। इसलिए सुभाष, जब तक मैं हूं, तुम विश्राम कर लो। विश्रामपूर्वक ध्यान कर लो। सुख से मूल्य चुका लो। मेरे जाने के बाद तो लोग फिर दुख से मूल्य चुकवाएंगे--यहीं! इसी जगह! क्योंकि पीछे कठिनाई यह खड़ी हो जाती है कि फिर जड़ नियम हाथ में रह जाते हैं। इस तरह किया जाता था, इसी तरह किया जाना चाहिए। इससे अन्यथा नहीं होना चाहिए। फिर किसी को मेल खाता है कि नहीं मेल खाता, इसकी चिंता कौन करे? और इसका निर्णय भी कौन करे? आज तो मैं तुम्हें देखता हूं, तुम्हारे भीतर क्या ठीक है उसके अनुकूल तुमसे कहता हूं। इसलिए मेरी बातों में बहुत विरोधाभास भी हो जाता है। किसी को कुछ कहता हूं, किसी को कुछ कहता हूं। क्योंकि मेरे पास कोई बंधा सिद्धांत नहीं है। तुम मेरे लिए महत्वपूर्ण हो, सिद्धांत नहीं। तुम्हारे हिसाब से मैं सिद्धांत को काटता हूं, तुमको नहीं काटता।
अक्सर तो यह हो जाता है कि तथाकथित धर्मों के पंडित, पुरोहित--धर्म के वस्त्र तो पहले से तैयार हैं, अगर तुम थोड़े लंबे हो, तो वे तुमको छांट देते हैं; अगर तुम जरा छोटे हो, तुमको खींचतान कर, मालिश करके लंबा कर देते हैं। इसकी फिकर ही नहीं करते कि यह आदमी मर जाएगा, बचेगा, कि क्या होगा? वे वस्त्र कीमती हैं। सिद्धांत कीमती हैं, तुम्हारा कोई मूल्य नहीं है।
मेरे लिए सिद्धांत दो कौड़ी के हैं। तुम्हारा मूल्य चरम है। प्रत्येक व्यक्ति का मूल्य चरम है। कोई सिद्धांत इतना मूल्यवान नहीं है। सिद्धांत तुम्हारी सेवा करने को हैं। शास्त्र तुम्हारे सेवक हैं। तुम्हारे स्वभाव के जो अनुकूल पड़ता हो, वही करना। अगर तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल नाच पड़ता हो तो नाचना। तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल बांसुरी बजाना पड़ता हो तो बांसुरी बजाना। तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल योग पड़े तो योग करना। तुम्हें जो अनुकूल पड़े! मगर अनुकूल की परीक्षा, अनुकूल की कसौटी एक ही है कि तुम्हें जिससे सुख मिले।
सुख से मूल्य चुकाओ। और ध्यान रखना, यह दुखवादी भ्रांति में न रहे कि हमने दो-चार उपवास कर लिए, कि शरीर को थोड़ा सता लिया, कि थोड़ी आंच दे दी, कि थोड़े नंगे बैठ लिए, तो पहुंच जाएंगे। इतना सस्ता नहीं है मामला।
हुआ है चार तिनकों पर यह दावा जाहिदो तुमको
खुदा ने क्या तुम्हारे हाथ जन्नत बेच डाली है
चार तिनके। जाहिदों के, तपस्वियों के।
हुआ है चार तिनकों पर यह दावा जाहिदो तुमको
खुदा ने क्या तुम्हारे हाथ जन्नत बेच डाली है
परमात्मा प्रत्येक को उसके ही ढंग से आता है। परमात्मा तुम्हारा सम्मान करता है, तुम्हारा अपमान नहीं। तुम जिस मौज में होते हो, उसी मौज में आता है। तुम्हें जो ढंग रास पड़ता है, उसी ढंग में आता है। इसलिए यहां मैंने इतने ध्यानों की प्रक्रियाएं शुरू की हैं, कि कोई तुम्हें रास पड़ जाए। बस एक चुन लो।
लेकिन कष्टवादी कई तरह के हैं। एक मित्र कुछ दिन पहले आए, वे कहने लगे कि यह तो ध्यान से बड़ी मुश्किल हो गई है। नींद भी खो गई, काम-धंधा भी नहीं कर पाता, पत्नी नाराज है, बच्चे नाराज हैं, घर के लोगों ने भेजा है कि आपसे समझ कर आऊं, और मैं पागल हुआ जा रहा हूं।
मैंने कहा कि ध्यान से तो शांति आनी थी।
उन्होंने कहा, कहां की शांति! अशांति ही अशांति हो गई है।
मैं थोड़ा हैरान हुआ। मैंने कहा कि कौन सा ध्यान करते हैं? क्या करते हैं?
तो उन्होंने कहा, कौन सा क्या? सुबह से रात तक ध्यान ही ध्यान, पूरे पांच ध्यान करता हूं! नौकरी की फुर्सत ही नहीं। नौकरी करने कहां जाऊं? तो पत्नी जान खाए जा रही है, बेटे-बच्चे मुश्किल में पड़ गए हैं--और मुझे तो ध्यान करना है।
तुमसे पांच करने को कहा किसने? पांच ध्यान करोगे तो निश्चित जीवन कष्ट में पड़ जाएगा। ये पांच ध्यान यहां शिविर में किए जाते हैं ताकि तुम पांच को करके अपने अनुकूल को खोज लो। दुनिया में पांच प्रकार के लोग हैं। जैसे पांच इंद्रियां हैं, ऐसे पांच प्रकार के लोग हैं। उन पांचों को ध्यान में रख कर पांच ध्यान की विधियां विकसित की गई हैं। एक कोई तुम्हें जम जाए, बस पर्याप्त है। बाकी चार को जाने दो। अब तुम ध्यान ही करते रहोगे तो अशांति तो हो ही जाएगी। और अशांति, फिर घर में बैठे चौबीस घंटे तुम ध्यान में लगे हो, पत्नी कब तक बर्दाश्त करेगी? बच्चे कब तक बर्दाश्त करेंगे?
लेकिन यह कष्टवादी चित्त! इसने ध्यान में से ही तरकीब निकाल ली सताने की अपने को। अपने को और औरों को भी।
इस बात को खयाल में रखना। मैं तुम्हें जो भी कह रहा हूं, न तो अपने को सताना उससे, न किसी और को सताना उससे। और उन लोगों से सावधान रहना जिन्होंने कुछ जाना नहीं है। अब यहां ऐसे बहुत से लोग हैं इस जमीन पर, जो ध्यान के संबंध में लिखते हैं, जिन्हें ध्यान का कुछ पता नहीं है।
मैंने एक किताब पढ़ी, एक जैन साध्वी ने किताब लिखी थी, हेमचंद्र आचार्य के सूत्रों पर ध्यान की किताब थी। किताब तो मुझे ठीक लगी। कुछ जगह मुझे लगा कि साध्वी शास्त्र की तो ज्ञाता है निश्चित, भाषा की जानकार है निश्चित, लिखने में कुशल है निश्चित, लेकिन ध्यान नहीं किया है। क्योंकि कुछ जगह ऐसी बात आ ही गई--वह आएगी, आने ही वाली है, तुम बचाओगे कहां से? जिसने प्रेम का अनुभव नहीं किया, वह प्रेम पर किताब लिखेगा, कहीं न कहीं भूल-चूक हो जाएगी, कहीं न कहीं कुछ बात आ जाएगी जो बता देगी कि यह प्रेम को जानने वाले का वचन नहीं हो सकता।
संयोग की बात, कोई पांच-सात साल बाद मैं ब्यावर में था, राजस्थान में, तो वह साध्वी मुझे मिलने आई। मैं तो भूल भी चुका था उसका नाम भी, उसकी किताब भी। उसने मुझे पूछा कि ध्यान कैसे करूं? तो मैंने उसे ध्यान के संबंध में समझाया। फिर उसने अपनी किताब निकाली, उसने कहा, मैंने एक किताब भी ध्यान पर लिखी है, वह आपके लिए भेंट करने लाई हूं। तब मुझे खयाल आया। तो मैंने उससे पूछा, तूने कभी ध्यान किया?
उसने कहा, मैंने कभी नहीं किया।
फिर किताब क्यों लिखी?
उसने कहा, शास्त्रों के अध्ययन से, मनन-चिंतन से।
मनन-चिंतन और अध्ययन से ध्यान का क्या लेना-देना है? ध्यान अनुभव है। उसे खुद भी पता नहीं है, वह पूछने आई है कि ध्यान कैसे करूं और ध्यान पर किताब लिखी है! और उसकी किताब के आधार पर कई लोग ध्यान करते होंगे! ऐसा उपद्रव चल रहा है।
तुम जरा सोच-समझ कर किसी से सलाह लेना। सलाह देने वाले लोग हैं बहुत, एक ढूंढ़ो हजार मिलते हैं। सलाह देने वाले तैयार ही हैं। ढूंढ़ो भी मत तो भी मिल जाते हैं। खोजो भी मत तो तुम्हारे घर ही आ जाते हैं कि भाई, सलाह तो नहीं चाहिए? सलाह देने में लोग इतना रस लेते हैं। क्योंकि सलाह देने में ज्ञानी होने का मजा है। और दूसरे को अज्ञानी सिद्ध करने का मजा है। इसलिए सलाह देने का मौका कोई चूकता नहीं। लेकिन सलाह सोच-समझ कर लेना। जिसके जीवन में ध्यान की कोई गरिमा हो, जिसके जीवन में प्रेम की कोई सुवास हो--बैठना, उठना, समझना, सोचना, पीना किसी व्यक्ति को, और जब तुम्हें लगे कि हां, कुछ अस्तित्वगत घटा है, तो ही ग्रहण करना, अन्यथा बचना।
वो राह सुझाते हैं हमें हजरते रहबर
जिस राह पर उनको कभी चलते नहीं देखा
तो सुभाष, अपने स्वभाव, अपने अनुकूल, स्वयं को जो प्रीतिकर लगे वह चुनो। वही कीमत है जो चुकानी है। मैं तुमसे कहता हूं: दुख छोड़ दो, यही त्याग है। मैं तुमसे सुख छोड़ने को नहीं कहता। मैं तुमसे कहता हूं: दुख छोड़ दो! सुख तो तुम्हारे पास हैं ही कहां जो तुम छोड़ोगे? दुख छोड़ दो!
दुख को लोग पकड़े हैं। छाती से पकड़े बैठे हुए हैं। दुख नहीं छोड़ना चाहते, दुख उनकी संपदा है। तुम चौंकोगे यह बात जान कर, बहुत मुश्किल से हिम्मतवर आदमी होता है जो दुख छोड़ने को राजी होता है। दुख छोड़ने को लोग राजी ही नहीं होते।
कुछ ही दिन पहले एक युवक और युवती मेरे पास आए। दोनों दुखी हैं। सात साल से साथ रहते हैं। और सात साल में नरक के सिवाय कुछ नहीं भोगा है। मैंने कहा, अलग क्यों नहीं हो जाते? अलग नहीं होना चाहते। मैंने पूछा, साथ होने में कुछ सुख मिल रहा है? उन्होंने कहा, साथ होने में सुख तो कुछ भी नहीं मिल रहा है; मगर प्रेम है। प्रेम किस बात से है? दुख से? यह नरक से? न उस युवक को कुछ रस है, न युवती को कोई रस है, मगर साथ नहीं छोड़ सकते। साथ कैसे छोड़ दें! वे कहने लगे, हम तो इसलिए आपके पास आए थे कि आप हमें समझा-बुझा कर ठीक-ठाक कर देंगे।
समझाने-बुझाने से क्या ठीक-ठाक होगा? सात साल साथ रह कर तुमने एक-दूसरे को कष्ट ही दिया। लेकिन ऐसा हो जाता है कि कष्ट की भी तलब हो जाती है। तुम घर आओ और पत्नी अंट-शंट न बोले, या तुम घर आओ और तुम पत्नी के लिए बाजार से फूल ले आओ, तो अड़चन हो जाती है।
एक मनोवैज्ञानिक ने एक आदमी को यह सलाह दी। उस आदमी ने कहा कि मैं जब भी घर जाता हूं, मेरी पत्नी बड़ा तैयार ही रहती है बस। मैं डरता हूं दफ्तर से जाने में। लोग तो दफ्तर धीरे-धीरे आते हैं, मैं घर की तरफ बहुत धीरे-धीरे जाता हूं। लोग दफ्तर से, घड़ी देखते रहते हैं कि कब निकल जाएं, और मैं डरा रहता हूं कि कहीं पांच न बज जाएं! पांच बज जाते हैं तो भी फाइलें उलटाता रहता हूं; कुछ काम भी नहीं होता तो भी बैठा--जब दफ्तर बंद ही होने लगता है और चपरासी कहता है कि अब महाराज जाइए, तब मैं जाता हूं। फिर भी रास्ते में कोई मिल जाए तो रुक जाता हूं, बातचीत करते-करते...डर लगा रहता है कि घर गया कि वह पत्नी!
उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, ऐसा करो, थोड़ा प्रेम पत्नी के प्रति दिखलाओ। तुमने कुछ प्रेम नहीं दिखलाया है। उसने कहा, मैं क्या करूं? आप जो कहो वह मैं करूं। उसने कहा, तुम आज ऐसा करो, फूल ले जाओ पत्नी के लिए। मिठाइयां ले जाओ। मिठाइयां देना, फूल देना, एकदम गले लगा लेना। उसको मौका ही मत देना कि वह कुछ बक सके या कुछ कह सके, एकदम गले लगा लेना।
उसने कहा, अब आप कहते हैं तो करेंगे। वैसे अपनी पत्नी को कौन गले लगाता है? मगर अब आप कहते हैं तो यह भी करेंगे। ठीक है, फूल भी ले जाएंगे। अपनी पत्नी के लिए कौन फूल ले जाता है? मिठाई, उसने कहा, चलो ठीक है, एक दफे करके देख लें। और क्या करना है?
और पत्नी के साथ हाथ बंटाना। बर्तन मांज रही हो तो तुम भी बर्तन धोने लगना। टेबल साफ कर देना। बच्चे की नाक बह रही हो, पोंछ देना। कुछ हाथ बंटाना।
उसने कहा, चलो, यह भी करेंगे। किसी तरह शांति हो जाए।
वह घर पहुंचा। बड़ा प्रसन्न था कि चलो आज कुछ तरकीब हाथ लगी है। फूल देख कर पत्नी को तो भरोसा ही नहीं आया। और मिठाई, और जब उसने गले लगाया--तो किस पत्नी को भरोसा आ सकता है कि अपना पति और गले लगाएगा! वह तो बड़ी घबड़ा गई। इन्हें हो क्या गया है? मगर एकदम कुछ कह भी न सकी, एकदम सकते में आ गई। और जल्दी से पति छलांग लगाया और टेबल साफ करने लगा और बर्तन मांजने लगा। उस पत्नी ने एकदम बाल फैला कर और छाती पीट ली और चिल्लाने लगी कि मर गई! मर गई! मोहल्ले के लोग इकट्ठे हो गए। वह पति भी बोला कि क्या हो गया तुझे?
उसने कहा, तुम आज पीकर आए हो या क्या बात है? तुम होश में हो? क्या कर रहे हो? सुबह से नौकरानी नहीं आई, बच्चे के दांत टूट गए हैं, लड़की अभी तक लौटी नहीं, और अब तुम आए हो! तुम नशा करके आए हो या क्या करके आए हो? तुम होश में हो?
लोग दुख की अपेक्षा करने लगते हैं। अपेक्षित दुख न आए, तो मुश्किल हो जाती है। लोग दुखों को भी सम्हाल कर रखते हैं। वही उनकी संपदा है।
मैं तुमसे कहता हूं: दुख छोड़ो। दुख के साथ क्षण भी रहने की जरूरत नहीं है, दुख छोड़ो। तुमने क्रोध से बहुत बार दुख पाया है। और तुम्हारे ज्ञानियों ने तुमसे कहा है: क्रोध मत करो, इससे दूसरे को दुख होता है। मैं तुमसे कहता हूं: क्रोध मत करो, इससे तुमको दुख होता है। भाड़ में जाने दो दूसरे को, तुम अपने को तो बचाओ! तुम बच गए तो दूसरा भी बच जाएगा। ज्ञानियों ने कहा है: हिंसा मत करो, इससे दूसरे को चोट पहुंचती है। मैं कहता हूं: दूसरे को तो बाद में पहुंचेगी, जो हिंसा करता है, पहले खुद को चोट पहुंचा लेता है। बुरा मत करो, ज्ञानियों ने कहा है कि इससे पाप लगेगा, अगले जन्म में नरक में पड़ोगे। मैं तुमसे कहता हूं: ये सब तो फिजूल की बातें हैं, तुम जब बुरा करने की सोचते हो, तभी नरक पैदा हो जाता है, तभी तुम दुख भोग लेते हो।
तुम अगर एक ही बात कसौटी की तरह सम्हाल लो कि जिस चीज से दुख मिलता है उसका त्याग कर देंगे, तुम अचानक पाओगे, तुम्हारी ऊर्जा धीरे-धीरे सुख की तरफ प्रवाहित होने लगी।
सुख बड़े महलों से नहीं मिलता। सुख बहुत सुस्वादु भोजन से नहीं मिलता। सुख जीवन को जीने की कला है। रूखे-सूखे से मिल सकता है। झोपड़े में भी मिल सकता है। गरीबी में भी मिल सकता है। और प्रमाण के लिए इतना काफी है कि अमीरों को भी नहीं मिल रहा है, तो गरीब को भी मिल सकता है। जब अमीर को नहीं मिल रहा है, तो अमीरी से मिलता है, यह कोई सवाल न रहा।
मेरी देशना एक ही है: दुख का त्याग करो, सुख का वरण करो। इतनी कीमत तुम चुका दो, परमात्मा नाचता हुआ तुम्हारी तरफ चला आएगा। जल्दी ही वह घड़ी आ जाएगी।
बेखुदी के साज पर गाने का मौसम आ गया
आ गया पीकर बहक जाने का मौसम आ गया
फिर पयामे-आमदे-जानां सकूने-शाम है
सेज पर कलियों के खिल जाने का मौसम आ गया
यह तड़प, यह दर्द, यह रग-रग में हलकी सी कसक
यह शबाब आया कि मर जाने का मौसम आ गया
तोड़ कर हमदम! हर इक रस्मो-रहे-कौनीन को
संसार के सब रीति-रिवाजों को तोड़ दो!
तोड़ कर हमदम! हर इक रस्मो-रहे-कौनीन को
लगजिशों पर लगजिशें खाने का मौसम आ गया
बेखुदी के साज पर गाने का मौसम आ गया
आ गया पीकर बहक जाने का मौसम आ गया
बहको! पीओ! वसंत को ऊगने दो तुम्हारे भीतर! और तुम परमात्मा को रोज-रोज करीब आते पाओगे। सुख परमात्मा से जोड़ता है, दुख तोड़ता है।
आज इतना ही।