SHANDILYA

ATHATO BHAKTI JIGYASA 27

TwentySeventh Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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सूत्र

तद्यजिः पूजायामितरेषां नैवम्‌।। 66।।
पादोदकं तु पाद्यमव्याप्तेः।। 67।।
स्वयमर्पितं ग्राह्यमविशेषात्‌।। 68।।
निमित्तगुणानपेक्षणादपराधेषु व्यवस्था।। 69।।
पत्रोदेर्दानमन्यथा हि वैशिष्ट्यम्‌।। 70।।
कहां सबल तुम, कहां निर्बल मैं, प्यारे, मैं दोनों का ज्ञाता।

तप, संयम, साधन करने का
मुझको कम अभ्यास नहीं है,
पर इनकी सर्वत्र सफलता
पर मुझको विश्वास नहीं है,
धन्य पराजय मेरी जिसने
बचा लिया दंभी होने से,
कहां सबल तुम, कहां निर्बल मैं, प्यारे, मैं दोनों का ज्ञाता।

जो न कहीं भी जीते, ऐसों
में भी मेरा नाम नहीं है,
मुझे उड़ा ले जाना नभ के
हर झोंके का काम नहीं है,
पर तुम अपनी मुस्कानों में
सौ तूफान लिए आते हो,
कहीं, किधर को भी ले जाओ, सहसा मेरा पर खुल जाता।
कहां सबल तुम, कहां निर्बल मैं, प्यारे, मैं दोनों का ज्ञाता।
वज्र बनाई छाती मैंने
चोट करे घन तो शरमाए,
भीतर-भीतर जान रहा हूं
जहां कुसुम लेकर तुम आए,
और दिया रख उसके ऊपर
टूक-टूक हो बिखर पड़ेगी,
प्रात पवन के छूने पर ज्यों फूल खिला भू पर झड़ जाता।
कहां सबल तुम, कहां निर्बल मैं, प्यारे, मैं दोनों का ज्ञाता।
भक्ति का आविर्भाव है मनुष्य की निर्बलता में। भक्ति का आविर्भाव है मनुष्य की असहाय अवस्था में, मनुष्य की दीनता में। मनुष्य एक छोटा सा अंश है इस विराट का। संघर्ष करके जीतना भी चाहो तो न जीत सकोगे। जिससे संघर्ष करना है, वह विराट है। जो संघर्ष करने चला है, बूंद से ज्यादा उसकी सामर्थ्य नहीं। हार सुनिश्चित है। जो जीतने चलेगा, हारेगा। भक्ति का शास्त्र इस सूत्र को गहराई से पकड़ लेता है--जो जीतने चलेगा, वह हारेगा। और इसे रूपांतरित कर देता है। भक्ति कहती है: हारने चलो और जीतोगे। क्योंकि देखा हमने--जो जीतने चला, हारा। तुम गणित को उलटा कर दो। जो हारा, सो जीता। जो झुका, वही बचा। जो मिटा, वही बचा।
धन्य पराजय मेरी जिसने
बचा लिया दंभी होने से,
मनुष्य लड़ना चाहता है। अगर कोई और न मिले लड़ने को तो अपने से ही लड़ने लगता है, लेकिन बिना लड़े मनुष्य को चैन नहीं। और जब तक तुम लड़ोगे, तब तक भक्त न हो सकोगे। जब तक तुम लड़ोगे, तब तक तुम विभक्त रहोगे, विभाजित रहोगे, खंडों में बंटे रहोगे।
अखंड के साथ एक छंद में बंध जाना है। विराट में लीन हो जाना है। विराट से मैत्री है भक्ति, विराट से प्रेम है भक्ति। लड़ने के बहुत उपाय हैं--सीधे स्थूल उपाय हैं, सूक्ष्म बारीक उपाय हैं। विज्ञान सीधे ही लड़ने चल पड़ता है। विज्ञान की भाषा सीधी-साफ है, लड़ाई की भाषा है। प्रकृति पर विजय पानी है। जैसे कि हम प्रकृति से अलग हैं! हम ही तो प्रकृति हैं। विजय कौन पाएगा? किस पर पाएगा? यहां विजित होने को, विजेता होने को दो कहां हैं? यहां एक का ही विस्तार है। यहां बाहर भी वही है, भीतर भी वही है। लेकिन विज्ञान स्थूल भाषा बोलता है। कम से कम ईमानदार भाषा बोलता है।
धार्मिक कर्मकांड और भी ज्यादा चालाक हैं। वे लड़ते भी हैं और दिखलाते हैं ऊपर-ऊपर से जैसे लड़ते नहीं। तुम यज्ञ करते, हवन करते, तप करते, व्रत करते--कोई नहीं कहेगा कि तुम लड़ रहे हो। लेकिन गौर से देखो, तुम लड़ रहे हो। जब तुम व्रत करते हो तब तुम क्या कह रहे हो? तुम यह कह रहे हो--सिद्ध कर दूंगा कि मैं तुझे पाने के योग्य हूं! कि अपने अधिकार की घोषणा कर रहा हूं! कि देखो मैंने कितने उपवास किए, कितने व्रत किए, कितना प्राणायाम, कितना योग, कितने आसन साधे! कितनी कृच्छ साधना की मैंने! अब और क्या चाहिए? मूल्य तो सब मैंने चुका दिया है। अब और क्या पात्रता की कमी है?
लेकिन यज्ञ हो, व्रत हो, हवन हो, पूजा-पाठ हो, अगर तुम्हारी वृत्ति अपने को सिद्ध करने की है, तो चूकोगे। अगर तुम दावेदार हो, तो चूकोगे। तुम जो कर रहे हो, अगर मिटने की कला हो, तो जरूर पा लोगे। लेकिन अगर पाने चले हो, तो तुम्हारी चूक सुनिश्चित है। इसे प्रथम चरण में ही साफ-साफ समझ लेना--यह चरण किसलिए उठाया है? जीतने चले हो परमात्मा को, प्रकृति को? या परमात्मा और प्रकृति से हारने चले हो?
आज के सूत्र बहुमूल्य हैं। पहला सूत्र--
तद्यजिः पूजायाम्‌ इतरेषां न एवम्‌।
‘भगवत्‌-पूजा के बिना और प्रकार के अनुष्ठान को यजन कहा है।’
उसे भजन नहीं कहा है। यजन का अर्थ है: यत्न, प्रयत्न, प्रयास। भजन का अर्थ है: प्रसाद। यजन का अर्थ है: छीना-झपटी। तुम परमात्मा से छीनने चले हो। तुमने आयोजन किया है। तुम कहते हो: देखें, कैसे तू बचेगा? तुम कहते हो: हमने धन भी पा लिया, हमने पद भी पा लिया, अब हम तुझे भी पाकर रहेंगे। तुम परमात्मा को भी मुट्ठी में करने चले हो तो यजन। यजन सुंदर शब्द नहीं है। भजन अदभुत शब्द है। यजन भजन के ठीक विपरीत शब्द है। यजन का अर्थ है: विधि-विधान, पद्धतियां, जिनके द्वारा हम परमात्मा को अपनी मुट्ठी में कर लेंगे। भजन का अर्थ है: विश्राम; जिसके द्वारा हम परमात्मा की मुट्ठी में हो जाएंगे। इस भेद को खूब समझ लेना, क्योंकि इस भेद पर सारी यात्रा निर्भर है।
शांडिल्य ठीक कहते हैं: ‘भगवत्‌-पूजा के बिना और सब यजन है।’
स्वर्ग पाना चाहते हो, तो तुम जो कर रहे हो वह यजन है। परलोक में सुख पाना चाहते हो, तो तुम जो कर रहे हो वह यजन है। तुम जब तक कुछ पाना चाहते हो, तब तक तुम जो कर रहे हो वह यजन है। यजन निंदा का शब्द है भक्तों की दुनिया में। तुम जिस दिन अकाम होकर प्रेम में तल्लीन हुए हो, निष्काम होकर रस में डूबे हो, कुछ पाने को नहीं है, कहीं जाने को नहीं है, कोई गंतव्य नहीं है, तुम हलके हो, निर्भार हो, शांत और आनंदित हो, जैसा परमात्मा ने तुम्हें बनाया है, इस क्षण तुम जैसे हो उससे राजी हो, परम संतुष्ट हो, उस संतोष से जो राग उठता है, उस संतोष से जो गंध उठती है, वह भजन है। तुम डोलने लगते आनंद में, जितना दिया है परमात्मा ने वह इतना ज्यादा है कि पहले उसका अनुग्रह तो कर लो।
मांगने वाला कहता है: जो दिया है वह काफी नहीं है। मांगने वाले के मन में शिकायत है। मांगने वाला नाराज है। मांगने वाला कह रहा है कि मेरे साथ अन्याय हुआ है। मांगने वाला परमात्मा को दोषी करार दे रहा है, कि तूने यह कैसी दुनिया बनाई? कि तूने यह मुझे कैसा बनाया? ऐसा होना था, ऐसा होना था, और तूने यह क्या कर दिया! इतने दुख, इतने कांटे, इतना अंधेरा, इतना भटकाव! तू दयावान नहीं है। और तूने हमें बिना तैयारी के जगत में भेज दिया, पाथेय भी नहीं दिया। रास्ते का इंतजाम भी नहीं जुटाया। कलेवे तक का आयोजन नहीं किया है। दे दिया है धक्का अंधेरे में। तू कैसा पिता है? चाहे तुम साफ कहो या न कहो, लेकिन जब भी तुम मांगते हो, तब तुम अनुग्रह के विपरीत जा रहे हो।
अनुग्रह का अर्थ होता है: जो तूने दिया है वह इतना ज्यादा है! मेरी कोई पात्रता नहीं थी और तूने इतना दिया! जीवन दिया, आंखें दीं, जगत का सौंदर्य दिया, सूरज-चांद-तारे दिए, इतने प्यारे लोग दिए, इतना रसविमुग्ध लोक दिया। मैं नहीं था, मुझे है किया। मैं शून्य था, मुझमें प्राण फूंके; मुझमें सांसें डालीं, मेरे हृदय में धड़कन दी। और हृदय में धड़कन ही न दी, प्रेम के अपूर्व स्रोत दिए। चैतन्य दिया। जागृति की क्षमता दी; ध्यान का बीज डाला; समाधि का उपाय किया। और क्या चाहिए? सब जो चाहिए, मिला है, ऐसे भाव से जो उठता है, भजन। जो मिला है वह कम है और मेरी पात्रता उससे ज्यादा है, ऐसे भाव से जो किया जाता है, वह यजन। यजन से बचना। यजन में प्रेम नहीं है। भजन प्रेम है, शुद्ध प्रेम है।
खुशी जो आरजी शै है न मैं कभी लूंगी
जो हो सका तो बस एक सोजे-दायमी लूंगी
जिगर में दर्द, रगों में टीस, आंखों में अश्क
तेरी खुशी है तो मैं इस तरह भी जी लूंगी
निहां है खूने-जिगर में ही गर हयाते-दवाम
तो मुस्कुरा के मैं खूने-जिगर भी पी लूंगी
रमूजे-दिल को छिपाने के वास्ते ऐ दोस्त!
तेरी कसम है कि मैं अपने ओंठ सी लूंगी
दलीले-राहे-मोहब्बत खिरद तो बन न सकी
जुनूने-शौक से अब दर्से-रहबरी लूंगी
समझना!
दलीले-राहे-मोहब्बत खिरद तो बन न सकी
जो बुद्धि है, यह तो मार्गदर्शक नहीं बन सकी। बुद्धि मार्गदर्शक बन ही नहीं सकती। बुद्धि से जो पैदा होता है वह यजन है। विधि-विधान, मंत्र-यंत्र, यज्ञ-हवन, व्यवस्था, जिसके द्वारा हम परमात्मा को फांस लेंगे। व्यवस्था, जैसे कि कोई मछली को फांसने के लिए जाल बनाता है। जैसे मछुआ जाल फेंकता है, ऐसा यजन है। बुद्धि यजन कर सकती है। बुद्धि कहती है, ऐसा करो, ऐसा करो, ऐसा करो। बुद्धि गणित दे सकती है। गणित में परमात्मा नहीं आता। विचार में परमात्मा नहीं आता। विचार का जाल उसे न पकड़ पाएगा। उसे तो सिर्फ प्रेम का जाल ही पकड़ पाता है। और मजा यह है कि प्रेम का जाल पकड़ना ही नहीं चाहता। प्रेम का जाल पकड़ा जाना चाहता है। यह ऐसा खेल है, मछुआ तो जाल फेंकता है मछली पकड़ने को, भक्त परमात्मा को पुकारता है कि जाल फेंको और मुझे फांस लो। मैं फंसने को राजी हूं। मैं प्रतीक्षा में हूं कि कब तुम्हारा जाल आए और मुझे फांस ले।
दलीले-राहे-मोहब्बत खिरद तो बन न सकी
प्रेम के रास्ते पर, भक्ति के रास्ते पर बुद्धि तो मार्गदर्शक हो नहीं सकती, न हो सकी कभी।
जुनूने-शौक से अब दर्से-रहबरी लूंगी
अब तो पागलपन से--जुनूने-शौक से--मार्गदर्शन पूछना होगा।
यजन बड़ा बुद्धिपूर्वक है। भजन पागलपन है। पंडित यजन में पड़ जाता है, प्रेमी भजन करता है। ये जो देश भर में यज्ञ होते रहते हैं, ये सब यजन हैं। ये सब आदमी की बुद्धिमानी से निकल रहे हैं। ये आदमी के हृदय से आविर्भूत नहीं हैं।
शांडिल्य कहते हैं: एक ही बात खयाल रखना, भगवत्‌-पूजा। पूजायाम्‌ इतरेषां। एक ही बात याद रखना, भगवत्‌-प्रेम।
और प्रेम के अपने अनूठे मार्ग हैं। प्रेम व्यवस्था से नहीं चलता। प्रेम स्वस्फुरणा से चलता है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक स्त्री के प्रेम में था। और उसने बहुत पत्र लिखे, जैसे प्रेमी लिखते हैं। और बड़े सुंदर पत्र लिखे। उन पत्रों में बड़ा काव्य था, बड़ा संगीत था, बड़ा सौंदर्य था। फिर प्रेम टूट गया। तो वह प्रेमिका के पास गया और उसने कहा कि कम से कम मेरे पत्र तो लौटा दो।
उसकी प्रेमिका ने कहा, यह भी हद हो गई! पत्रों का तुम क्या करोगे?
मुल्ला ने कहा, अब तुमसे क्या छिपाना! एक पंडित से लिखवाए थे, पैसे देने पड़े हैं। और फिर अभी मेरी जिंदगी और बाकी है, फिर किसी के प्रेम में पडूंगा ही न, पत्र काम आ जाएंगे। तुम इनको रख कर भी क्या करोगी?
बुद्धि ऐसे ही उपाय खोज लेती है। तुम जब किसी पंडित को बुला कर कहते हो, तनख्वाह दे देंगे, हमारे घर पूजा कर जाना, तो तुम क्या कर रहे हो? तुम प्रेम-पत्र किसी और से लिखवा रहे हो। तुम परमात्मा को भी प्रेम-पत्र अपना नहीं लिख सकते! टूटी-फूटी भाषा सही, भाव होने चाहिए। इस पंडित को कैसे भाव हो सकते हैं? जिस आदमी ने मुल्ला नसरुद्दीन के लिए प्रेम-पत्र लिखे, इसके प्रेम-पत्र कैसे होंगे? न इसने इसकी प्रेयसी देखी, न इसकी प्रेयसी से इसे कोई प्रेम है, न कुछ लेना-देना है। ये कोरे होंगे, इनके भीतर हृदय कहीं भी नाचेगा नहीं। शब्दों का जमाव होगा, शब्द ही शब्द होंगे, राख की तरह, इनके भीतर अंगारा होगा ही नहीं। हृदय हो तो अंगारा दहकता है।
लेकिन तुम जब पुजारी को रख लेते हो अपने घर में पूजा के लिए और वह आकर रोज घंटी बजा कर घड़ी भर को पूजा कर जाता है, अपनी नौकरी निबटा जाता है--उसे क्या मतलब है परमात्मा से? उसे नौकरी से प्रयोजन है। कल अगर उसे कोई ज्यादा पैसे देने को तैयार होगा तो वह वहां नौकरी करने चला जाएगा। तुम जिस दिन उसे तनख्वाह न दोगे उसी दिन पूजा बंद कर देगा। उसे परमात्मा से कुछ लेना-देना नहीं है। और तुम्हें भी क्या परमात्मा से लेना-देना है? अन्यथा तुम बीच में इस बिचवइए को लेते! तब तुम रो लेते, अपनी टूटी-फूटी भाषा बोल लेते। कुछ वेद दोहराने की जरूरत नहीं है, न ही उपनिषद कंठस्थ होने चाहिए, न कुरान याद करने की कोई जरूरत है। तुम्हें जबान दी है, तुम्हें हृदय दिया है, तुम्हें भाव दिए हैं, अपना गीत खुद बना लो, अपनी प्रार्थना खुद रच लो।
रचने की भी क्या जरूरत है? क्योंकि परमात्मा तुम्हारे भाव पहचानता है, तुम्हारी भाषा से कुछ लेना-देना नहीं है। उस तक भाषा पहुंचती ही नहीं। नहीं तो भाषाएं तो कितनी हैं! जमीन पर कोई पांच हजार भाषाएं हैं। और यह जमीन कोई अकेली जमीन है, ऐसा नहीं। वैज्ञानिक कहते हैं, कम से कम पचास हजार जमीनों पर जीवन है। वह भी कम से कम। इतने पर तो होना ही चाहिए। ज्यादा पर भी हो सकता है। इस छोटी सी जमीन पर पांच हजार भाषाएं हैं। पचास हजार जमीनों पर कितनी भाषाएं होंगी? तुम्हारी सबकी भाषाएं समझते-समझते परमात्मा पागल नहीं हो जाएगा?
भाव समझा जाता है, भाषा नहीं समझी जाती।
मैं एक बार अपने एक मित्र के साथ बाजार गया। ऐसे बाजार जाने में मुझे कभी रस नहीं रहा। कभी कुछ खरीदने बाजार नहीं गया। वे मित्र जा रहे थे, उन्होंने कहा, कभी तो चलो, तो मैं उनके साथ हो लिया, उनके घर मेहमान था। वे सब्जियां खरीदने लगे। छोटा गांव, तो दुकानदारों से पूछने लगे--इसका भाव क्या है? भाव शब्द सुन कर मुझे बहुत रस आया। मैंने उनसे पूछा कि गजब की बात पूछ रहे हो! दाम पूछने चाहिए, तुम भाव पूछ रहे हो! उन्होंने कहा कि इसमें फर्क है कुछ? मैंने कहा, फर्क तो भारी हो गया। भाव ही पूछा जाना चाहिए असल में। दाम तो ऊपर-ऊपर है, कीमत तो ऊपर-ऊपर है, भाव भीतर है।
परमात्मा तुमसे यह नहीं पूछेगा--तुमने कैसे प्रार्थना की? कितनी कीमती प्रार्थना की? कितने कीमती शब्दों का उपयोग किया? यही पूछेगा--क्या भाव? तुम्हारा भाव क्या है? लेकिन तुमने शायद भाव वाली प्रार्थना की ही नहीं कभी। तुम जब गए, मांगने गए हो। तुम्हारी सारी प्रार्थनाएं सकाम हैं। कभी कहते हो, बेटा नहीं पैदा हुआ तो बेटा पैदा हो जाए; कभी कहते हो, बेटा पैदा हो गया तो उसकी नौकरी नहीं लगी, नौकरी लग जाए; कभी कहते हो, पत्नी बीमार है; कभी कहते हो कुछ, कभी कुछ। तुम जब जाते हो तब क्षुद्र की मांग लेकर जाते हो। उस विराट के सामने तुम क्षुद्र की मांग लेकर खड़े होते हो। अपमानजनक है यह। ऐसे यजन छोड़ो। उसके सामने तो आंसुओं से भरी हुई आंखें ले जाओ। उसके सामने तो झुक जाओ भाव में। उसके सामने तो चुप हो जाओ तो चलेगा, बोलने की इतनी कोई आवश्यकता नहीं है। बोल अपने से आता हो तो ठीक, मगर उधार न हो।
मैं तुम्हें ऐसी ही प्रार्थना सिखाना चाहता हूं जो तुम्हारे भीतर जन्मती हो, जो तुम्हारा फूल हो। झुक जाना, अगर कोई भाव उठे तो कह देना, मगर पहले से सोच कर भी मत जाना, अन्यथा झूठ हो जाएगा। परमात्मा के सामने तुम अभिनय मत करना। अभिनय का रिहर्सल होता है, पहले से आदमी तैयारी करता है--क्या कहूंगा, क्या नहीं कहूंगा, सब बिठा लेता है, जमा लेता है। उसी में तो सब झूठ हो जाता है। तुम सब तय करके गए कि ऐसा-ऐसा कहूंगा, फिर तुमने वही-वही कह दिया। यह तो झूठ हो गया। उस क्षण की भाव-अभिव्यंजना न रही। बासा हो गया। तुम पहले ही इसे कह चुके थे अपने सामने। अब जाकर इसे तुमने दोहराया। यह तो ग्रामोफोन का रेकार्ड हो गया। तुम्हारी स्मृति ने दोहरा-दोहरा कर भर लिया था अपने भीतर, जाकर उगल दिया। यह तो एक तरह का वमन हुआ। परमात्मा के सामने झुको, और कोई भाव उठता हो तो उठने दो, न उठता हो तो न उठने दो--उठाने की कोई जरूरत नहीं है। वह तुम्हारे मौन को समझेगा। टूटे-फूटे शब्द आते हों, आने दो, शब्दों के पीछे छिपे हुए तुम्हारे हृदय की धड़कन को समझेगा। वही समझा जाता है, भाव ही समझा जाता है।
मैंने उन मित्र से लौट कर कहा कि आप साग-सब्जी ले आए, मैं भी कुछ ले आया हूं। मुझे यह भाव शब्द बहुत रुच गया। तुम जो पूछने लगे दुकानदारों से--क्या भाव है? न तुम्हें खयाल था, न दुकानदार को खयाल था कि तुम क्या पूछ रहे हो, लेकिन यह शब्द प्यारा है।
तुम मंदिर जाते हो, क्या भाव है? कुछ मांगने जा रहे हो तो यजन। कुछ चढ़ाने जा रहे हो तो भजन। कुछ देने जा रहे हो तो भजन, कुछ लेने जा रहे हो तो यजन। जहां तुम लेने जाते हो वह बाजार और जहां तुम देने जाते हो वह मंदिर।
‘भगवत्‌-पूजा के बिना और प्रकार के अनुष्ठान को यजन कहते हैं।’
केवल भगवत्‌-पूजा ही मुक्ति का उपाय है, शांडिल्य कहते हैं। उसके सिवाय जो नाना प्रकार के यज्ञ, व्रत और सकाम पूजा आदि हैं, वे सब बंधन के कारण हैं। फिर बंधन स्वर्ण के भी हों तो क्या? लोहे की जंजीरें हों कि सोने की जंजीरें, सब बराबर हैं। तुमने जंजीरें बाजार में ढालीं कि मंदिर में ढालीं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। इच्छा मात्र जंजीर बन जाती है। वासना मात्र बंधन बन जाती है। तुमने कुछ भी मांगा--वैकुंठ मांगा, स्वर्ग मांगा, और भूल हो गई।
प्रेमी कुछ मांगता नहीं। प्रेमी कहता है, मुझे स्वीकार कर लो, मुझे ले लो, मुझे अपना कर लो, मुझे अपना लो, मुझे मिटा दो मेरी तरह, तुम ही तुम फैल जाओ मेरे ऊपर, तुम्हारा ही रंग मेरा रंग हो।
एक मित्र ने कल प्रश्न पूछा था कि संन्यास का क्या अर्थ है? और संन्यास में गैरिक वस्त्र पहनने क्यों अनिवार्य हैं?
संन्यास का अर्थ होता है: तुमने अपना रंग छोड़ा; गुरु जो रंग पकड़ा दे, पकड़ा। यह तो प्रतीक है, गैरिक तो प्रतीक है। गैरिक रंग में कुछ नहीं रखा है, असली भीतर एक भाव छिपा है, वह यह कि अब गुरु जो रंग देगा उसी रंग में रहूंगा। यह तो शुरुआत है, कपड़े रंगने से तो शुरुआत है। आत्मा को रंगना है। अगर तुम कपड़ा रंगने से ही डर गए और कपड़ा रंगने की भी हिम्मत न दिखाई, तो और आगे कैसे बढ़ोगे? कपड़ा रंगने से कुछ होने वाला नहीं है। लेकिन कपड़ा रंगना तो केवल सूचक है, प्रतीक है, तुम्हारी तरफ से एक इशारा है कि मैं राजी हूं, रंगो मुझे। उंडेल दो अपना रंग मेरे ऊपर, मैं झेलूंगा। मैं भागूंगा नहीं, मैं तुम्हारे प्रति खुला हूं।
फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन सा रंग गुरु दे दे। बुद्ध ने पीला रंग दिया अपने भिक्षुओं को, चलेगा। जैनों ने सफेद रंग पसंद किया, चलेगा। सूफी हरा रंग पसंद करते हैं, चलेगा। रंग का इतना बड़ा सवाल नहीं है, सब रंग उसके हैं। मगर शिष्य यह कहता है कि अब मैं तुम्हारे रंग में रंगने को राजी हूं, तुम्हारी जो मर्जी हो। तुम मुझे पागल होने को कहोगे तो मैं पागल होने को राजी हूं।
तुमने पूछा है: क्या कपड़े का रंगना अनिवार्य है?
कपड़ा है ही नहीं वहां। न रंग का सवाल है, न कपड़े का सवाल है। लेकिन तुम्हारी तरफ से यह इशारा जरूरी है, अनिवार्य है--नहीं तो शिष्य कोई कैसे होगा? यह इशारा जरूरी है कि अब जो मर्जी!
इब्राहिम सम्राट था, अपने गुरु के पास गया। और गुरु ने ऐसी मांग की जो उसने कभी अपने किसी और शिष्य से न की थी। इब्राहिम झुका तो गुरु ने कहा कि सच में झुक रहे हो? इब्राहिम ने कहा कि नहीं झुकना होता तो आता ही नहीं। कोई मुझे लाया नहीं है, अपने से आया हूं; झुक रहा हूं। तो इब्राहिम से पूछा उसके गुरु ने, प्रमाण दे सकोगे? इब्राहिम हाथ फैला कर खड़ा हो गया और उसने कहा, आज्ञा दें! और बड़ी अजीब आज्ञा दी गुरु ने। गुरु ने कहा, कपड़े फेंक दो, नग्न हो जाओ। इब्राहिम ने एक क्षण भी सोचा नहीं, कपड़े फेंक दिए और नग्न हो गया। सम्राट था! और गुरु भी अदभुत था! गुरु ने कहा, उठा लो वह जूता जो पड़ा है, निकल जाओ बाजार में, मारते जाओ अपने सिर पर जूता, इकट्ठी होने दो भीड़, पूरे गांव का चक्कर लगा कर आ जाओ। और इब्राहिम चला गया--अपनी ही राजधानी में! नंगा! सिर पर जूता मारता!
जो गुरु के पुराने शिष्य थे उन्होंने कहा, यह जरा ज्यादती है। ऐसा आपने हमसे तो कभी नहीं कहा था। और सम्राट के साथ तो थोड़ा सदय होना था, बिचारा आया झुकने को, यही क्या कम था?
गुरु ने कहा, मुझसे मत पूछो, इब्राहिम से ही पूछ लेना।
और इब्राहिम जब लौटा कोई घंटे भर अपनी ही राजधानी में जूता मारते हुए--हजारों की भीड़ इकट्ठी है, लोग पागल चिल्ला रहे हैं, लोग पत्थर फेंक रहे हैं। लोग कह रहे हैं, यह हो क्या गया? लोग मजाक कर रहे हैं, सारा गांव हंस रहा है। बच्चे, बूढ़े, स्त्रियां, सब इकट्ठे हो गए हैं। जुलूस चल रहा है उसके पीछे और इब्राहिम हंस रहा है, आनंदित हो रहा है और जूते मार रहा है और नग्न घूम रहा है। लौट आया। जब इब्राहिम लौट कर आया तो वह आदमी ही दूसरा था। गुरु ने अपने शिष्यों को कहा, इब्राहिम से पूछ लो। इब्राहिम ने कहा कि इस एक घड़ी में जो जानने को मिल गया, वह जन्मों-जन्मों में नहीं जाना था। और जो मैं पाने आया था, वह मुझे मिल ही गया। मेरा अहंकार गिर गया। यही बाधा थी। वह गुरु के चरणों में गिर पड़ा और उसने कहा, तुम्हारी कृपा! एक क्षण में मिटा दिया! एक घड़ी भर में मिटा दिया! मैं तो सोचता था कि वर्षों तपश्चर्या करनी पड़ेगी। सम्राट हूं, अकड़ा हुआ, अहंकार से भरा हुआ, अहंकार में ही जीया हूं, कैसे छूटेगा यह अहंकार--मैं तो यही सोचते-सोचते आया था, कैसे छूटेगा? और तुमने क्षण भर में छुड़ा दिया। और जरा से उपाय से छुड़ा दिया।
अब तुम यह मत सोचना कि जूते मारने से कोई अहंकार छूट जाता है। नहीं तो एकांत में खड़े होकर नग्न, तुम अपने को जूते मार लो, कि जब विधि काम करती है तो अपने कमरे में बंद हो गए, जूता लिया, नंगे हो गए और मार लिया जूता। घड़ी भर नहीं, दो घड़ी मारते रहे, तो भी कुछ न होगा। न नग्न होने से कुछ होगा। बात समझो। भाव समझो। यह तो सिर्फ उपाय था। लेकिन इब्राहिम ने एक इशारा दे दिया कि अब जो कहोगे! यह बिलकुल पागलपन की बात है। इब्राहिम को कहना चाहिए था कि यह क्या पागलपन करवा रहे हैं? नंगे होने से क्या होगा? यही मित्र ने पूछा है: नंगे होने से क्या होगा? गैरिक वस्त्र पहनने से क्या होगा?
उन्होंने यह भी पूछा है कि क्या आप मुझे बिना गैरिक वस्त्रों के संन्यास नहीं दे सकते?
कल तुम मुझसे कहोगे--ध्यान से क्या होगा? क्या आप मुझे ध्यान के बिना संन्यास नहीं दे सकते? प्रार्थना से क्या होगा? क्या मैं बिना प्रार्थना के संन्यासी नहीं हो सकता?
यह तो सिर्फ इशारा है, यह तो इस बात का इशारा है कि आप जो भी कहें! यह पागलपन तो यह पागलपन सही।
भक्त अपने को देने जाता है। इसलिए देने वाला शर्तें नहीं रख सकता। भक्त समर्पित होता है, समर्पण बेशर्त ही हो सकता है।
कल मैंने धर्मयुग में मेरी एक संन्यासिनी प्रीति पर एक लेख देखा। उसमें एक शब्द मुझे पसंद आया। जिसने रिपोर्ट लिखी है प्रीति के ऊपर धर्मयुग में, उसने शब्द उपयोग किया है--रंग रजनीशी। वह मुझे जंचा। वह गैरिक नहीं है, रंग रजनीशी! उसकी तैयारी हो तो ही संन्यास संभव है। उतना छोड़ने के लिए मन राजी हो, तो ही।
और बहुत कुछ छोड़ना पड़ेगा, यह तो शुरुआत है। यह तो ऐसा समझो कि सम्राट से उसके गुरु ने कहा होता, पहले टोपी छोड़ो। और वह कहता, टोपी छोड़ने से क्या होगा? क्या बिना टोपी छोड़े ज्ञान नहीं हो सकता? वह टोपी छुड़वाना तो सिर्फ शुरुआत थी। फिर वह कहता--अचकन गिराओ, कमीज गिराओ, कोट गिराओ, अब पायजामा भी गिर जाने दो, अब अंडरवियर भी छोड़ दो, ऐसा धीरे-धीरे! मैं जानता हूं कि तुम इकट्ठे नग्न न हो सकोगे। तुम्हारी इतनी हिम्मत नहीं है। तुमसे कहता हूं, टोपी उतारो। चलो जी टोपी ही सही, उतारो तो! कुछ तो उतारो, थोड़ा तो भार हलका हो!
गुरु के रंग में रंग जाना शिष्यत्व है। और उसी रंग में रंगने से तुम्हें परमात्मा के रंग में रंगने की कला आएगी।
सकाम न हो प्रार्थना। सकाम न हो पूजा। कोई वासना न हो पाने की। आह्लाद से हो, आकांक्षा से नहीं। आनंद से हो, अनुग्रह से हो, अपेक्षा से नहीं। बस, वहीं सारा भेद है। तुम सत्यनारायण की कथा करवा लेते हो, कभी हवन भी करवा लेते हो, कभी यज्ञ करवा लेते हो। और बड़ा आश्चर्य है, करोड़ों रुपये यज्ञ पर फूंके जाते हैं, और यज्ञ धार्मिक अनुष्ठान ही नहीं है! यजन है, भजन नहीं है। घी डालो, गेहूं डालो, जो तुम्हें डालना हो डालते रहो, सब आग खा जाएगी। तुम जब तक अपने को न डालोगे, तब तक कोई यज्ञ पूरा नहीं होता। जिस दिन तुम यह गेहूं और घी इत्यादि डालने का पागलपन छोड़ोगे, अपने को डाल दोगे आग में, तुम जिस दिन कहोगे कि मैं जलने को तैयार हूं, उस दिन क्रांति घटती है, उस दिन भक्त का जन्म होता है।
अरबाबे-मोहब्बत ने तराशे हैं सनम और
बुतखानाए-फितरत का न खुल जाए भरम और
करता रहे सैराबे-गमे-दिल कोई ऐ काश!
और मैं यह कहे जाऊं ‘दिए जा मुझे गम और’
कुछ कम नहीं तो भी, मगर ऐ गर्दिशे-दौरां!
हम क्या कहें उस बुत का है अंदाजे-सितम और
इस राज से वाकिफ नहीं काफिर हो कि मोमिन
दुनियाए-मोहब्बत के हैं दैर और हरम और
जितना कोई मिटता है रहे-इश्क में ‘नाहीद’
उनकी निगाहे-नाज का होता है करम और
प्रेम के मंदिर और प्रेम की मस्जिदें अलग ही हैं। तुम्हारे मंदिर और मस्जिदों से उनका कुछ लेना-देना नहीं।
इस राज से वाकिफ नहीं काफिर हो कि मोमिन
न तो तुम्हारा पंडित परिचित है, न तुम्हारा मौलवी परिचित है इस रहस्य से।
इस राज से वाकिफ नहीं काफिर हो कि मोमिन
दुनियाए-मोहब्बत के हैं दैर और हरम और
वह जो प्रेम की दुनिया है, उसके मंदिर और, उसकी मस्जिदें और; उसके यज्ञ और, उसके हवन और, उसके विधि-विधान और। परमात्मा से मांगने नहीं जाता भक्त, देने जाता है, अपने को लुटाने जाता है। जितना कोई मिटता रहे, उतना ही होता चलता है। इधर मिटता है, उधर जन्मता है।
जितना कोई मिटता है रहे-इश्क में ‘नाहीद’
यह जो प्रेम का रास्ता है, भक्ति, इस पर जो जितना मिटता है--
जितना कोई मिटता है रहे-इश्क में ‘नाहीद’
उनकी निगाहे-नाज का होता है करम और
परमात्मा की अनुकंपा उसे उतनी ही ज्यादा मिलती है।
उनकी निगाहे-नाज का होता है करम और
और दया बरसती है, और कृपा बरसती है। जिस दिन तुम पूरे मिट जाते हो, उस दिन तुम्हारे भीतर परमात्मा का आविर्भाव होता है। उस दिन भक्त भगवान हो जाता है।
इसलिए शांडिल्य प्रारंभ से ही इस सूत्र में क्रियाकांड को इनकार कर देते हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि शांडिल्य कह रहे हैं--तुम पूजा भी मत करना। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि वे कह रहे हैं कि तुम्हें अगर मूर्ति प्रिय हो तो तुम मूर्ति के सामने बैठ कर गुफ्तगू न करना। वे यह भी नहीं कह रहे हैं कि तुम्हें अगर गीत प्यारा हो और तुम गाना चाहो परमात्मा को तो मत गाना। वे इतना ही कह रहे हैं कि यह सब सहज हो और आकांक्षा-शून्य हो। इस प्रार्थना-पूजा का आनंद प्रार्थना और पूजा में ही हो, किसी और लक्ष्य को पाने में नहीं।
तुम किसी के प्रेम में हो और कोई पूछे कि तुम क्यों प्रेम में हो? किसलिए प्रेम में हो? क्या पाना चाहते हो? अगर तुम उत्तर दे सको, तो तुम्हारा प्रेम गलत। अगर तुम कह सको कि इस स्त्री के बाप के पास बहुत धन है, अकेली बेटी है, इसलिए प्रेम में हैं, तो तुम प्रेम में हो ही नहीं। तुम अगर प्रेम में हो तो तुम कहोगे, बस, प्रेम के कारण प्रेम में हूं। प्रेम की वजह से प्रेम में हूं। इसके पीछे और कोई लक्ष्य नहीं। प्रेम अपने आप में इतना बड़ा पुरस्कार है, और क्या मांगना है?
इसलिए खयाल रखना, शांडिल्य यह नहीं कह रहे हैं कि तुम पूजा मत करना। लेकिन पंडित को बीच में मत लाना। यह भी नहीं कह रहे हैं कि तुम प्रार्थना मत करना। लेकिन प्रार्थना रटी-रटाई तोते की भांति न हो। और यह भी नहीं कह रहे हैं कि तुम झुकना मत मंदिर में, या मस्जिद में, या जहां तुम्हारी मर्जी हो। क्योंकि उन्होंने कहा, जहां तुम्हारी आंखें भर जाएं, वहीं झुक जाना। और जिससे तुम्हारे नेत्र तृप्त हों, वहीं झुक जाना। जिससे तुम्हें सुख की झलक मिले, वहीं झुक जाना। जहां शांति का आकाश खुले, वहीं झुक जाना। सिर्फ कह यह रहे हैं कि इस झुकने को अभ्यास मत बनाना। यह झुकना सहज हो, अनायास हो, अप्रयास से हो, इसके पीछे यत्न न हो। तुम झुकने का निरंतर अभ्यास कर-कर के अगर झुकोगे, झुकना झूठा हो जाएगा। जिसका भी अभ्यास किया जाता है, वही चीज झूठी हो जाती है।
तुम किसी मित्र से मिलने जा रहे हो और तुम रास्ते भर सोचते गए--क्या कहूंगा, क्या कहूंगा, क्या कहूंगा; अभ्यास कर लिया बिलकुल कि कहूंगा कि बड़ा आनंद हुआ, वर्षों के बाद मिले, आंखें ठंडी हो गईं, कितना तड़पा, कितना रोया; इसको खूब दोहरा-दोहरा कर तैयार करके पहुंच गए। और फिर तुमने यह सब दोहरा दिया।
कुछ बात चूक गई। शब्द आ गए, भाव नहीं रहा। अगर भाव था तो शब्दों की आयोजना करने की जरूरत न थी। जब भाव होते हैं, तो उनके योग्य शब्द अपने आप पैदा हो जाते हैं। जब प्रेम होता है, तो प्रेम को कैसे निवेदन करना, यह प्रेम जानता है। इसके लिए अभ्यास नहीं करना होता। स्मरण रखना, जब तुम्हारे भीतर कोई चीज प्रकट होने को पक जाती है तो निश्चित प्रकट होती है। जब फूल खिलने के योग्य हो जाता है, जरूर खिलता है और सुगंध को लुटा देता है। इसके लिए किसी अभ्यास, आयोजन की आवश्यकता नहीं है।
दूसरा सूत्र: ‘पादोदकं तु पाद्यम्‌ अव्याप्तेः।’
‘भागवत मूर्ति के स्नानजल को ही पादोदक समझना चाहिए।’
जरूरत नहीं है कि कोई गंगा जाए, यमुना की तलाश करे, कि गंगोत्री खोजे पवित्र जल के लिए। नहीं, अगर तुमने प्रेम से, आनंद से अहोभाव से अपने घर में रखी पत्थर की मूर्ति पर भी अपनी प्रार्थना की वर्षा कर दी, प्रेम और आनंद से अपनी मूर्ति को नहला दिया, तो उन चरणों से जो जल गिर रहा है वह गंगा से ज्यादा पवित्र हो गया। लेकिन खयाल रखना, वह गंगा से ज्यादा पवित्र मूर्ति के कारण नहीं हो रहा है। मूर्ति तो पत्थर है! वह गंगा से ज्यादा पवित्र किसलिए हो रहा है? तुम्हारे भाव के कारण हो रहा है। तुमने उस मूर्ति में भगवान का आविष्कार कर लिया है। तुम्हारे लिए वह मूर्ति मूर्ति नहीं है। तुम्हारे लिए वह मूर्ति भगवान का प्रतीक हो गई है।
ऐसा समझो कि किसी प्रेयसी ने तुम्हें एक रूमाल भेंट कर दिया। चार आना उसकी कीमत है। अगर तुम बाजार में जाओगे और लोगों को दिखाओगे कि इसकी कितनी कीमत है, तो कोई शायद चार आने में भी लेने को तैयार न हो। क्योंकि चार आने में तो नया मिल जाता है, इस पुराने रूमाल को कौन लेगा? लेकिन तुमसे अगर कोई कहे कि हम हजार रुपये देते हैं, इस रूमाल को हमें दे दो, तो तुम देने को राजी न होओगे। इस रूमाल में कुछ है, जो किसी और को दिखाई नहीं पड़ता। इस रूमाल में कुछ है, जिसे तुम ही जानते हो। तुम्हारे भाव का प्रतिष्ठापन हो गया है। यह याददाश्त है। इसमें किसी की स्मृति छिपी है। इसमें प्रेम के कोई स्मरण छिपे हैं। इसमें प्रेम की कोई अपूर्व घटना छिपी है। मगर उसका अनुभव सिर्फ तुम्हें है। उसे सिर्फ तुम जानते हो। वस्तुतः वह रूमाल में नहीं है, तुम्हारे हृदय में है। रूमाल पर्दे का काम करता है। रूमाल को देख कर हृदय में जो है वह जग जाता है।
इसको खयाल से समझ लेना।
इसलिए जब मुसलमान हिंदू की मूर्ति तोड़ देता है तो वह भगवान की मूर्ति नहीं तोड़ रहा है। भगवान की होती तो तोड़ता कैसे? वह सिर्फ मूर्ति तोड़ रहा है। वह पत्थर तोड़ रहा है। वह नाहक मेहनत कर रहा है। और जब हिंदू उस मूर्ति की पूजा करता है तो वह पत्थर की पूजा नहीं कर रहा है। पत्थर होता तो वह पूजा ही क्यों करता? और अगर पत्थर की ही कर रहा है तो उसमें और मूर्ति तोड़ देने वाले में कोई भेद नहीं है। जहां भाव आरोपित हो जाता है वहां मूर्ति मूर्ति नहीं रह गई, जीवंत हो उठी। मूर्ति पर्दा है।
इसे ऐसा समझो कि तुम फिल्म देखने जाते हो। फिल्म पर्दे पर नहीं होती, पर्दा तो खाली है। पर्दा बिलकुल खाली ही होना चाहिए। अगर पर्दे पर कुछ हो तो फिल्म के होने में बाधा हो जाएगी। इसलिए पर्दा बिलकुल शुभ्र होता है, सफेद होता है, उसमें एक रेखा भी नहीं होती। कभी अगर पर्दे पर एक दाग होता है तो वह बाधा बन जाता है। एक रेखा होती है तो वह दिखाई पड़ती है हर चित्र के साथ। पर्दा बिलकुल शून्य होना चाहिए--शुभ्र, रिक्त। फिल्म तो पीछे प्रोजेक्टर में छिपी होती है। पर्दा तो सिर्फ उस फिल्म को झेलने का उपाय करता है और झेल कर तुम्हारी आंखों तक लौटा देता है। अगर पर्दा न हो तो भी प्रोजेक्टर चलता रहेगा, लेकिन तुम्हारी आंख तक लौटेगी नहीं फिल्म। चली जाएगी जगत में, चलती जाएगी, चलती जाएगी, तुम तक कभी लौट कर नहीं आएगी। तुम देख न सकोगे। पर्दा करता क्या है? पर्दा बीच में बाधा बन जाता है, वह जो फिल्म जा रही है, चित्र जा रहे हैं रोशनी पर चढ़ कर, उनको रुकावट डाल देता है, आगे नहीं जाने देता। रुकावट पड़ जाती है, वे धक्का खाकर लौट पड़ते हैं, लौट कर तुम्हारी आंख पर पड़ जाते हैं, तुम्हें दिखाई पड़ जाते हैं।
मूर्ति पर्दा है। तुम्हारे हृदय में छिपा है भाव, प्रोजेक्टर वहां है। मूर्ति तो सिर्फ उस भाव को अनंत में नहीं खो जाने देती। मूर्ति पर से लौट कर भाव तुम्हारी आंख में फिर आ जाता है। मूर्ति तो ऐसे है जैसे दर्पण। तुम दर्पण के सामने खड़े हो गए। तुम जब दीवाल के सामने खड़े होते हो, तुम्हें कुछ नहीं दिखाई पड़ता। क्यों? क्योंकि दीवाल लौटाती नहीं। दीवाल पर भी तुम्हारी तस्वीर पड़ती है, तुम्हारी तस्वीर तो पड़ेगी ही, तुम खड़े हो तो तस्वीर तुम्हारी दीवाल पर भी पड़ रही है, लेकिन दीवाल लौटाती नहीं, पी जाती है। दर्पण की कला इतनी है, वह इतना चिकना है कि पी नहीं पाता। तुम्हारी तस्वीर सरक जाती है, वापस लौट जाती है, वापस लौट कर तुम्हारी आंखों में पड़ जाती है। तुम अपने को देखने में समर्थ हो जाते हो।
मूर्ति दर्पण है। तुम्हारे भाव, जिन्हें तुम अभी नहीं पकड़ पाते सीधा-सीधा, मूर्ति से लौट कर स्थूल हो जाते हैं, दिखाई पड़ने योग्य हो जाते हैं। जो तुम्हारे भीतर अदृश्य में छिपा है, वह दृश्य बन जाता है।
अब यह ऐसा ही समझो, जो मूर्ति को तोड़ देता है वह वैसा ही नासमझ है कि जैसे समझो तुमने कोई फिल्म देखी और तुम्हें बड़ा गुस्सा आ गया--कोई ऐसा दृश्य दिखाई पड़ रहा है जिसको तुम देखने को राजी नहीं हो, और तुमने उठाई छुरी और जाकर पर्दे को काट दिया। तुम्हें लोग पागल कहेंगे। पर्दे को काटने से क्या होगा? पर्दे को काटने से फिल्म नहीं कटती।
मैं एक गांव में मेहमान था। गांव के मंदिर की मूर्ति किसी ने तोड़ दी। गांव बड़ा पागल था। एकदम पागलपन फैला हुआ था। मुसलमान थोड़े ही थे गांव में, हिंदू ज्यादा थे। और शक यही था कि मुसलमानों ने तोड़ी। यह शक स्वाभाविक हो जाता है। मेरे पास गांव के लोग आए और उन्होंने कहा कि हम क्या करें? हम आग में उबल रहे हैं! हम जला देंगे इन मुसलमानों को!
मैंने उनसे कहा, मूर्ति ही तोड़ी है न, तुम्हारा भाव तो नहीं तोड़ा! कि तुम्हारा भाव भी टूट गया? तुम दूसरी मूर्ति रख लो! और फिर यह क्या पक्का है कि इन्होंने मुसलमानों ने तोड़ी है? मैं तो नहीं देखता कि ये तोड़ सकते हैं, क्योंकि इनकी संख्या इतनी छोटी है कि ये तोड़ कर और मुसीबत में पड़ेंगे। ये नहीं तोड़ सकते। बहुत संभावना तो यह है कि किसी हिंदू ने ही तोड़ी है, मुसलमानों को मारने के लिए, मुसलमानों को जलवाने के लिए।
और यही बात सच निकली। तोड़ी थी हिंदुओं ने ही। हिंदुओं को भड़काने के लिए। लेकिन जब मैंने उनसे कहा--गांव के सीधे-सादे लोग थे--जब मैंने उनसे कहा कि मूर्ति टूटने से तुम्हारा भाव टूट गया? तो उन्होंने कहा, नहीं, भाव तो हमारा नहीं टूटा।
मैंने कहा, यह मूर्ति तो पत्थर ही थी न, कभी बाजार से खरीद कर लाए थे न, अब दूसरी खरीद लाओ। मैं तुम्हें पैसे दे दूंगा। तुम दूसरी रख लो--दूसरा पर्दा लगा लो, उस पर अपने भाव को आरोपित कर दो। और तुम भूल गए हो कि इस देश में तो हमने कितनी सुविधा से मूर्तियां बनाई थीं। गांव के किनारे एक पत्थर पड़ा रहता है, किसी का दिल आ गया, उसी पर जाकर और सिंदूर पोत दिया, दो फूल चढ़ा दिए, मूर्ति हो गई। यह देश अदभुत है! हर चीज को हम पर्दा बनाना जानते हैं। कोई मूर्ति कीमती ही होनी चाहिए, ऐसा थोड़े ही है।
तुम जान कर चकित होओगे, जब पहली दफा अंग्रेजों ने मील के पत्थर लगाए तो बड़ी मुश्किल में पड़ गए वे। क्योंकि गांव के पास से मील का पत्थर लगाया, दूसरे दिन आए तो वहां उन्होंने सिंदूर पोत कर फूल चढ़ा दिए हैं, वे पूजा करने लगे हैं। उन्होंने कहा, हनुमान जी हैं। हनुमान जी प्रकट हो गए। अंग्रेज बड़े परेशान थे, वे समझा-समझा कर हैरान थे कि यह मील का पत्थर है! मगर हम तो पत्थरों को मूर्ति बनाना जानते हैं, हम तो कहीं भी अपने भाव को आरोपित करना जानते हैं।
प्रसिद्ध कहानी है झेन फकीर इक्कू की। एक रात एक मंदिर में ठहरा। आधी रात को मंदिर के पुजारी ने देखा कि आग जल रही है बीच मंदिर में! तो वह भागा आया कि मामला क्या है? देखा तो और हैरान हो गया। इस इक्कू को ठहरा लिया था, क्योंकि यह प्रसिद्ध फकीर था। शक तो था पुजारी को, क्योंकि पुजारियों को सदा ही जानकारों पर शक रहा है, क्योंकि जानकार और पुजारी का मेल नहीं होता। मगर ठहरा लिया था कि इतना प्रसिद्ध आदमी है, क्या हर्जा है, रात रुकेगा, सुबह चला जाएगा। मगर उपद्रव हो गया। उसने बुद्ध की मूर्ति जला दी। लकड़ी की मूर्तियां थी मंदिर में। जापान में लोग लकड़ी की मूर्तियां बनाते हैं। वह बुद्ध की मूर्ति जला कर आंच ताप रहा था। उस पुजारी ने सिर ठोंक लिया, उसने कहा, तुम यह कर क्या रहे हो? तुम होश में हो कि तुम्हारा दिमाग खराब है?
इक्कू ने बड़ी शांति से पूछा कि यह क्या मामला है? इतने उद्विग्न क्यों हो रहे हो? बात क्या है?
उसने कहा, तुमने बुद्ध को जला दिया और पूछते हो, उद्विग्न हो रहे हो!
पास में पड़े एक लकड़ी के टुकड़े को उठा कर उसने राख में कुरेदा।
अब पूछने का मौका था पुजारी को, उसने कहा, अब तुम यह क्या कर रहे हो?
उसने कहा, मैं बुद्ध की अस्थियां खोज रहा हूं।
पुजारी ने कहा, तुम निश्चित पागल हो। इसमें अस्थियां कहां? यह लकड़ी है।
तो इक्कू हंसने लगा, उसने कहा कि जब तुम्हें पता है कि यह लकड़ी है, तो क्यों इतने उद्विग्न हो रहे हो? और एक-दो मूर्तियां मंदिर में हैं, उठा लाओ। अभी रात बाकी है और बहुत सर्द है। और तुम भी तापो, मैं तो ताप ही रहा हूं। तुम क्यों उद्विग्न हुए जा रहे हो?
इस आदमी को ठहरा रखना खतरनाक था। पुजारी ने उसे रात ही बाहर निकाल दिया मंदिर के। सर्द रात थी। बर्फ पड़ रही थी। लेकिन उसने कहा, अब मैं तुम्हें मंदिर में नहीं टिकने दे सकता। या तो मुझे बैठ कर रात भर तुम्हारे सामने देखना पड़ेगा, तुम कहीं दूसरी मूर्ति न जला दो। अब जो हो गया हो गया।
सुबह उसने देखा कि वह मंदिर के सामने, वह मील के पत्थर के पास बैठा है, फूल चढ़ा कर प्रार्थना कर रहा है इक्कू। पुजारी ने पूछा, अब यह और क्या कर रहे हो?
उसने कहा, पूजा कर रहा हूं। रोज सुबह भगवान की स्मृति करता हूं, तो कर रहा हूं।
मगर उसने कहा, यह मील का पत्थर है!
उसने कहा, अगर लकड़ी भगवान की मूर्ति हो सकती है तो मील का पत्थर क्यों नहीं? यह तो भाव की बात है, इक्कू ने कहा। जब जरूरत होती है लकड़ी की तो हम भाव हटा लेते हैं; जब जरूरत होती है भगवान की, हम भाव आरोपित कर देते हैं। अब सुबह पूजा का वक्त है, अब कहां जाएं? किस मंदिर में खोजें? यहीं हमने भगवान का आविर्भाव कर लिया। झुकने की बात है! यहीं झुक गए हैं। यहीं दो बातें प्रेम की उससे कह लीं, बात पूरी हो गई। रात सर्द बहुत थी, तब हमने भाव हटा लिया था। तब हमने लकड़ी को कह दिया था, तू लकड़ी ही है, अब तू भगवान नहीं है।
जिनके पास समझ है, दृष्टि है, उनके जीवन में यही होगा।
शांडिल्य कहते हैं: ‘पादोदकं तु पाद्यम्‌ अव्याप्तेः।’
‘भागवत मूर्ति के स्नान के जल को ही पादोदक समझना चाहिए।’
तुमने जहां भगवान का आरोपण कर लिया है, फिर उनको स्नान करवाया है, वह जो जल बह रहा है, वही गंगाजल है। वही अमृत है। कहीं और जाने की जरूरत नहीं है। तीर्थ अपना तुम बना ले सकते हो। सब तुम्हारे हाथ में है।
मेरे इश्क का ही यह एहसान है
तुम्हें देखिए क्या से क्या कर दिया
हमीं से दैरो-हरम ने फरोग पाया है
न हम सरों को झुकाते न आस्तां होता
हमने ही बनाए हैं मंदिर और मस्जिद।
हमीं से दैरो-हरम ने फरोग पाया है
उनके स्रष्टा हम हैं।
न हम सरों को झुकाते न आस्तां होता
अगर तुम सर न झुकाते तो मंदिर कहां होता? तुम सर न झुकाते तो मूर्ति कहां होती? तुम्हारे सर झुकाने में सारा राज है। जिसको सर झुकाना आ गया उसके लिए सारा जगत परमात्मा हो जाता है, सारा जगत पर्दा हो जाता है। जिसे सर झुकाना न आया, वह लाख पूजा करे, लाख यज्ञ-हवन करे, उसके यज्ञ-हवन, उसकी पूजाएं, उसकी अकड़ को और अहंकार को और बढ़ाए चले जाते हैं, कम नहीं करते। ध्यान रखना, जो तुम्हें मिटाता हो, वह धर्म। जो तुम्हें मजबूत करता हो, वह अधर्म। यह मेरी परिभाषा है।
भावना से भगवान का आविर्भाव। स्व-स्फूर्ति से भगवान का आविर्भाव।
समर्पण में, निर-अहंकारिता में, झुक जाने में भगवान का आविर्भाव।
स्वयम्‌ अर्पितं ग्राह्यम्‌ अविशेषात्‌।
‘अपनी समर्पण की हुई वस्तु ग्रहण करना उचित है, क्योंकि उसमें कोई भी विशेषता नहीं है।’
एक सवाल उठता है, उसका जवाब दिया है। सवाल उठता है कि तुमने परमात्मा को समर्पित किया कुछ, अपना जीवन समर्पित कर दिया समझो। भक्त को करना ही पड़ेगा; इससे कम में काम भी नहीं चलेगा। अपना जीवन समर्पित कर दिया भगवान को, फिर इस जीवन का हम उपयोग कैसे करें? जब उसे दे दिया, तो अब हम इसका उपयोग कैसे करें? इस बात को ही याद दिलाने के लिए एक प्रक्रिया सदियों से चलती रही है--वे सारी प्रक्रियाएं याद दिलाने के लिए हैं, सूचनामात्र हैं। तुम जाकर भगवान को भोग लगा देते हो, फिर वही भोग प्रसाद बन जाता है, फिर तुम उसको ले लेते हो, फिर उसे तुम स्वीकार कर लेते हो। उसमें एक सार का सूत्र छिपा है। भगवान को सब दे दो, सब लौट आता है, ज्यादा होकर लौट आता है। जब तुमने चढ़ाया तब उसे भोग का नाम दिया था और जब लौटता है तो उसका नाम प्रसाद हो जाता है। जो तुम देते हो वह तुम्हीं पर वापस आ जाता है। लेकिन फर्क बहुत है अब। अब तुम लेने वाले हो। अब तुम स्वीकार करने वाले हो। अब तुम ग्राहक हो।
और जब एक बार तुमने चढ़ा दिया, तो चढ़ाते से ही तुम्हारा तो रहा नहीं, इसलिए अब तुम्हें यह चिंता नहीं होनी चाहिए कि अपनी ही चढ़ाई हुई चीज कैसे वापस लूं? तुमने तो चढ़ा दिया, तब से तुम्हारी न रही। अब परमात्मा की मर्जी, वह वापस देना चाहता है तो तुम क्या करोगे?
यह सूत्र कहता है: ‘अपनी समर्पण की हुई वस्तु ग्रहण करना उचित है’--कोई चिंता मत लेना--‘क्योंकि उसमें कोई भी विशेषता नहीं है।’
तुम्हारी रही ही नहीं, विशेषता की बात ही क्या है? तुमने तो दे दी थी, परमात्मा ने लौटा दी है। अगर परमात्मा ने लौटा दी तो अनुग्रह से उसे स्वीकार कर लेना, प्रसाद मान कर स्वीकार कर लेना।
ऐसा समझो, जैसा मैंने कल या परसों तुमसे कहा, संसार छोड़ कर नहीं भागना है, संसार परमात्मा पर छोड़ देना है। सारा संसार समेट कर उसके चरणों में रख देना है कि यह रहा तेरे पास। अगर उसे ले लेना होगा तो वापस नहीं लौटेगा। वह तुम्हें उत्प्रेरणा देगा कि चले जाओ जंगल। मैं ऐसा नहीं कहता हूं कि कोई भी जंगल न जाए। परमात्मा जिसे भेजे वह जाए। अपने से कोई न जाए।
बारीक भेद है। तुमने सब चढ़ा दिया परमात्मा पर, अब तुम प्रतीक्षा करो। अगर तुम्हारे मन में भीतर याद आ जाए बच्चे की और पत्नी की, तो मतलब साफ है कि परमात्मा कह रहा है--घर वापस जाओ। अब तुम यह मत कहना कि यह बात तो मेरे गंदे मन से आ रही है। यहां गंदा कुछ भी नहीं है। सब उसका है, कैसे गंदा हो सकता है? और तुमने सब चढ़ा दिया। अब परमात्मा तुम्हारे ही मन से तो बोलेगा! और कहां से बोलेगा? तुम्हारी आंख से ही तो देखेगा! तुम्हारे विचार से ही सोचेगा। परमात्मा के पास अपने हाथ नहीं हैं, अपने पैर नहीं हैं। तुम्हारे हाथ ही उसके हाथ हैं, तुम्हारे पैर ही उसके पैर हैं।
इंग्लैंड में ऐसा हुआ पिछले महायुद्ध में। एक नगर के चौराहे पर जीसस की मूर्ति थी। जर्मनों के बम गिरे। वह मूर्ति खंड-खंड होकर टूट गई। टुकड़े-टुकड़े होकर गिर गई। युद्ध के बाद लोगों ने सारे टुकड़े इकट्ठे कर लिए, और उन सारे टुकड़ों को मिला कर मूर्ति बनानी चाही। मूर्ति तो बन गई, सिर्फ दो हाथ के टुकड़े नहीं मिले। जो कलाकार उस मूर्ति को जोड़ रहा था, उसने बड़ी खोज की, मगर वे दो हाथ नहीं मिले सो नहीं मिले। उसने एक अदभुत काम किया। उसने मूर्ति के नीचे एक पत्थर लगा दिया--मूर्ति अब भी खड़ी है। उसने एक पत्थर लगा दिया। वह पत्थर बड़ा प्यारा है, वह हाथ से भी ज्यादा काम का पत्थर हो गया। उसने पत्थर पर लिख दिया है कि मेरे हाथ तुम हो, मेरे पास और कोई हाथ नहीं हैं।
परमात्मा के हाथ तुम हो। इसलिए तो इस देश में हमने परमात्मा को सहस्रबाहु कहा है--हजारों हाथ वाला। सब हाथ उसके हैं। सब मन उसके हैं। सब देहें उसकी हैं। एक बार तुमने सब समर्पण कर दिया, फिर परमात्मा जो इशारा करता हो उसी इशारे से चल पड़ना। अगर कहे, जंगल, तो जंगल। अगर कहे, बाजार, तो बाजार। फिर तुम रहे ही नहीं। अब इसे प्रसादपूर्वक स्वीकार करना। अब तुम अपनी पत्नी के पास नहीं जा रहे हो, परमात्मा भेज रहा है तो जा रहे हो। अब तुम अपने बेटे के पास नहीं जा रहे हो, यह परमात्मा का ही बेटा है, जिसकी रक्षा के लिए तुम्हें भेज रहा है तो तुम जा रहे हो।
अगर कोई व्यक्ति इतने मौन और शांति से जीवन को जीए कि जैसा परमात्मा जिलाए वैसा ही जीता चला जाए, तो यह जगत ही मुक्ति हो जाता है। जीवन-मुक्ति इसी का नाम है। तुम चढ़ा दो, फिर परमात्मा जो लौटा दे उसे प्रसाद रूप ग्रहण कर लो। अपनी मर्जी बीच में मत लाओ। निर्णायक तुम मत बनो। कर्ता तुम मत बनो। निमित्त मात्र रह जाओ।
निमित्तगुणानपेक्षणात्‌ अपराधेषु व्यवस्था।
‘निमित्त, गुण और अनपेक्षा के अनुसार अपराध की व्यवस्था है।’
तीन भूलें भक्त से हो सकती हैं, उन तीन भूलों से बचना। ये तीन अपराध शांडिल्य ने कहे हैं।
पहला अपराध: ‘निमित्त।’
निमित्त उस अपराध को कहते हैं, जो अनिच्छा से हो जाए। तुम चाहते भी नहीं थे, तुमने सोचा भी नहीं था, विचारा भी नहीं था, और हो गया। आकस्मिक हो जाए। बिना पूर्व-योजना के हो जाए। दुर्घटना की तरह हो जाए। यह सबसे छोटा अपराध है। ऐसी बहुत सी भूलें हमसे हो जाती हैं। जो हम चाहते भी नहीं थे कि हों, हमने सोची भी नहीं थीं कि हों। हमने उनको बल भी नहीं दिया था, बस हो गईं।
दूसरा अपराध: ‘गुण।’
साधक के स्वभाव से हो, आदत से हो। और बार-बार हो। पहली तरह की भूल कभी-कभार होती है, उसे क्षमा किया जा सकता है, वह कोई बड़ी भूल नहीं है। छोटी से छोटी भूल है, उसकी पुनरुक्ति नहीं होती। दूसरी भूल की पुनरुक्ति होती है। वह रोज-रोज दोहरती है।
तुमने कल भी क्रोध किया था, आज भी क्रोध किया, परसों भी क्रोध किया था और क्रोध तुम्हारी आदत बन गई है। अब तुम आदत के कारण क्रोध करते हो। अब अगर तुम्हें क्रोध का मौका न मिले तो तुम तलाश करते हो, क्योंकि उसकी तलब उठती है। अगर मौका बिलकुल भी न मिले तो तुम मौका ईजाद करते हो। कोई न कोई बहाना खोज कर तुम क्रोध कर लेते हो। मगर तुम क्रोध करोगे। यह ज्यादा बड़ा अपराध है।
पहला अपराध तो दुर्घटना मात्र है। तुम राह पर चलते थे, किसी को धक्का लग गया, जल्दी में थे, धक्का लग गया किसी को, तुमने धक्का मारा नहीं है। भीड़ में चलते थे, किसी के पैर पर पैर पड़ गया। इसलिए क्षमायाचना कर लेने से ही बात समाप्त हो जाती है। कोई पाप का, अपराध का कोई भार नहीं तुम्हारे ऊपर पड़ता। तुमने कहा कि माफ करें! इतने में बात खत्म हो गई। तुम जब कहते हो, माफ करें, तो उसका मतलब यह होता है, जान कर नहीं किया है, चेष्टा से नहीं किया है।
मैंने सुना है, एक ग्रामीण आदमी शहर आया। शहर में कोई जलसा हो रहा था, उस जलसे में गया। किसी का पैर उसके पैर पर पड़ गया, उस आदमी ने कहा, सॉरी। उस ग्रामीण ने कहा कि हद हो गई, पता नहीं क्या कह रहा है? एक तो पैर पर पैर मार दिया और ऊपर से गाली दे रहा है या क्या कर रहा है! खैर, उसने कहा कोई बात नहीं; अजनबी जगह है। फिर किसी आदमी का धक्का उसको लग गया। उस आदमी ने भी कहा, सॉरी। उसने कहा, यह तो हद हो गई। यह भी खूब तरकीब निकाली है इन लोगों ने। धक्का दिए जाओ, मारे जाओ, पैर पर पैर रखे जाओ और गाली भी दो। फिर कोई तीसरे आदमी से वही बात हो गई। भीड़-भाड़ थी भारी। उसने निकाला जूता और जो उसके सामने था उसके सिर पर दे मारा और कहा, सॉरी। कि हद हो गई, जो देखो वही मार रहा है! और यह भी तरकीब अच्छी है, पीछे से सॉरी कह दिया और चल दिए!
क्षमा मांग लेने का इतना ही अर्थ होता है कि मैंने जान कर नहीं किया है। अगर जान कर किया है तो क्षमा मांग लेने का कोई भी अर्थ नहीं होता।
दूसरा अपराध जान कर किया जाता है, आदत के वश होता है, आकस्मिक नहीं है। पहला अपराध क्षम्य है, दूसरा अपराध क्षम्य नहीं है। तुम अपने भीतर जांच-पड़ताल करना। अगर कोई भूल कभी हो जाती है, उसकी चिंता मत लेना बहुत। जीवन है, स्वाभाविक है। लेकिन कोई भूल रोज-रोज होती है, नियम से होती है, आदत का हिस्सा हो गई है, तुम्हारा स्वभाव बन गई है। उससे सावधान होना। उससे बचना, उससे जागना। वही तुम्हें डुबाएगी।
और तीसरा: ‘अनपेक्षा।’
पहले से दूसरा पाप ज्यादा घातक है और दूसरे से तीसरा ज्यादा घातक है। अनपेक्षा का मतलब होता है: जो साधक की मूर्च्छा से हो। एक तो अपराध हो रहा है सिर्फ आकस्मिक, एक हो रहा है आदत से, और एक हो रहा है मूर्च्छा से।
मूर्च्छा हमें जकड़े हुए है। जैसे तुम जीवन में क्या कर रहे हो यहां? कोई धन कमाने में लगा है। उससे पूछो, क्या करोगे धन का? उसने कभी सोचा नहीं। तुम उससे ज्यादा पूछो, जिद करो, तो वह तुम पर नाराज भी होगा कि यह कहां की फिजूल बात लगा रखी है? अध्यात्म इत्यादि में मुझे कोई रस नहीं है। मुझे धन कमाने दो। धन ही तो है यहां सार, और क्या है?
इस आदमी ने कभी जाग कर सोचा भी नहीं एक क्षण को कि धन कैसे सार हो सकता है? धन की भला उपयोगिता हो, लेकिन धन जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता। धन कमा कर भी क्या करोगे अगर खुद को गंवा दिया? लेकिन वह दौड़ता रहेगा, दौड़ता रहेगा। दौड़ते-दौड़ते गिर जाएगा एक दिन और जीवन भर धन ही इकट्ठा करता रहेगा और मौत आकर उसे उठा ले जाएगी, धन सब पड़ा रह जाएगा। यह मूर्च्छा है। यह कभी-कभी की भूल नहीं है, और न आदत की भूल है, यह बेहोशी की भूल है। यह ध्यान का अभाव है। यह जागरूकता की कमी के कारण हो रहा है।
कोई आदमी पद के लिए दौड़ में लगा है; वह यह पूछता भी नहीं कि पहुंच कर भी क्या करूंगा? पहुंच भी गया तो क्या होगा? मैं बन भी गया दुनिया का सम्राट तो उससे सार क्या है? ऊंचे से ऊंचे सिंहासन पर बैठ गया, फिर? फिर होगा क्या? मैं तो मैं ही रहूंगा। कोई सिंहासन तुम्हें ऊंचा नहीं कर सकता, ऊंचा होने का भ्रम दे सकता है। तुम जैसे हो वैसे ही रहोगे। ऊंचाइयां भीतर होती हैं, बाहर सिंहासनों पर नहीं होतीं। और धन भी भीतर घटता है, बाहर तिजोरियों में इकट्ठा नहीं होता। इसलिए कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि बुद्ध और महावीर जैसा भिक्षु, नग्न खड़ा, ऐसा धनी होता है कि समृद्ध से समृद्ध आदमी फीके पड़ जाते हैं। और तुम धनियों को देखते हो, उनके चेहरे पर मक्खियां उड़ रही हैं। उन्होंने पाया क्या है? मिला क्या है? एक मूर्च्छा है। और सारे लोग दौड़ रहे हैं, वे भी दौड़ रहे हैं। तुमने कभी खड़े होकर सोचा नहीं रास्ते के किनारे कि जरा भीड़ से हट कर सोच भी तो लूं--मैं कहां जा रहा हूं? इतना समय कहां, इतनी फुर्सत कहां, क्योंकि इतनी देर में दूसरे लोग आगे निकल जाएंगे।
सोचने का समय ही नहीं मिलता, दौड़ ऐसी चल रही है। और जहां सब दौड़े जा रहे हैं वहां शिथिल होकर चलना, या किनारे होकर खड़े होना--लोग समझते हैं: पागल हो गए हो क्या? क्या कर रहे हो यहां?
ध्यान का इतना ही अर्थ होता है कि दौड़ती भीड़ में से थोड़ी देर को हट जाओ, राह के किनारे बैठ जाओ, थोड़ी देर शांत होकर जीवन को देख तो लो--तुम क्या कर रहे हो? किसलिए कर रहे हो? इससे होगा क्या? हारे तो भी हारोगे, जीते तो भी हारोगे, तो करने का प्रयोजन क्या है? सफल हुए तो भी असफल हो जाने वाले हो, असफल हुए तब तो असफल हो ही। यहां विषाद ही अंत में हाथ लगने वाला है। जिस व्यक्ति ने थोड़ा सा राह के किनारे हट कर एकांत में बैठ कर सोचा है, समझा है, विमर्श किया है, वह फिर इस दौड़ में सम्मिलित न हो सकेगा। उसे धन और पद की दौड़ मूढ़तापूर्ण मालूम होगी। अज्ञान की दौड़ मालूम होगी। और जिस दिन यह मूर्च्छा टूट जाती है, उस दिन व्यक्ति भीतर की यात्रा पर निकलता है, अंतर्यात्रा पर निकलता है।
तो तीसरा अपराध है मूर्च्छा का। शांडिल्य कहते हैं: इन तीन अपराधों में पहला अपराध तो नाममात्र को अपराध है, उसकी बहुत चिंता मत लेना। दूसरा अपराध बड़ा अपराध है, आदतें बहुत जोर से पकड़े हुए हैं। कोई शराब पी रहा है, वह आदत है। कोई सिगरेट पी रहा है, वह आदत है। कोई जुआ खेल रहा है, वह आदत है। कोई चोरी कर रहा है, वह आदत है।
मैंने सुना है कि महाराष्ट्र के एक संत एकनाथ यात्रा पर जाते थे, तो गांव के बहुत लोग उनके साथ जा रहे थे। उन दिनों यही रिवाज था कि अगर तीर्थयात्रा पर भी जाना हो तो किसी संत के साथ जाना। क्योंकि संत के साथ जाओगे तो ही तीर्थ पहुंचोगे। अकेले चले जाओगे, तीर्थ आ भी जाएगा, मगर तुम पहुंचोगे नहीं, क्योंकि तुम्हें तीर्थ का कुछ पता ही नहीं है। जो पहुंच गया हो तीर्थ, उसके साथ तीर्थयात्रा पर लोग जाते थे। तो गांव के बहुत लोग एकनाथ के साथ हो लिए। गांव का एक चोर भी--जाहिर चोर; छोटे गांव जब थे दुनिया में तो सभी चीजें जाहिर थीं कि कौन चोर है, कौन जुआरी है, कौन शराबी है; छोटे गांव में बचे क्या? छिपे क्या?
मैं एक बहुत छोटे से गांव में पैदा हुआ--बचपन में अपने नाना के घर रहा। इतना छोटा गांव था कि मुश्किल से कोई ढाई सौ, तीन सौ आदमी थे। सब परिचित थे। एक रात एक चोर घुस आया। मुझे भलीभांति याद है। मेरे नाना को आदत थी दिन-रात पान चबाने की। छोटा सा घर। उन्होंने मुझे भी उठा लिया, और मुझसे बात करने लगे; मेरी नानी को भी उठा लिया; और पान लगा-लगा कर, वे चबा-चबा कर थूकने लगे। वह चोर बैठा है एक कोने में, वे उसी पर थूक रहे हैं। जब वह चोर, बरदाश्त के उसके बाहर हो गया, तो भाग गया। दूसरे दिन सुबह वह आया दुकान पर उनकी और कहा कि खूब किया, सारी कमीज खराब कर दी! छोटा गांव, चोर भी जानता है, साहूकार भी जानते हैं--कौन कहां है? कौन क्या कर रहा है? और वह कह भी गया आकर कि हद कर दी, चोरी का तो मौका ही कहां दोगे, रात भर तुम जागते ही रहे, और मेरी कमीज भी खराब कर दी! तो मेरे नाना ने उससे कहा, कोई फिकर न करो, कमीज तुम यहां से दूसरी ले जाना। मगर सोच-समझ कर आया करो! कहां आ गए? थोड़ा खयाल रखा करो। कमीज तुम ले जाना दूसरी, तुम्हारी कमीज खराब हो गई।
वह चोर भी एकनाथ के साथ जाना चाहता था, उसने कहा कि मैं भी चलूंगा।
एकनाथ ने कहा कि भाई, तेरी आदत पुरानी है--वह दूसरे नंबर का अपराधी था--तू चूकेगा नहीं अपनी आदत से। हम तुझे भलीभांति जानते हैं। क्योंकि मौके आए होंगे कि वह एकनाथ तक की चीजें चुरा ले गया होगा। कि तू भाई, न ही जा तो अच्छा। क्योंकि कई लोग जत्थे में होंगे, और तू चीजें-वीजें चुराएगा और परेशानी खड़ी होगी। तू बाज न आएगा, लंबी यात्रा है, फिर तुझे बीच से भेज भी न सकेंगे, लोग शिकायत भी करेंगे।
पर उस चोर ने कहा, मैं कसम खाता हूं, अब आपके सामने क्या, कसम खाता हूं कि चोरी नहीं करूंगा। जिस दिन से यात्रा शुरू होगी उस दिन से लेकर जिस दिन यात्रा अंत होगी, तब तक चोरी नहीं करूंगा। आगे की मैं नहीं कहता। मगर यात्रा में नहीं करूंगा, यह तो आप वचन मेरा स्वीकार करो।
एकनाथ ने कहा, ठीक है।
दिन अच्छे थे वे। अब तो तुम साहूकार के वचन का भी भरोसा नहीं कर सकते, तब चोर के वचन का भी भरोसा किया जा सकता था। तब डाकुओं में भी एक भलापन होता था, अब भले आदमियों में भी डाकू हैं। चोर ने कहा तो एकनाथ ने मान लिया कि ठीक है। और चोर ने अपने वचन का पालन किया। महीनों लगे यात्रा में, लेकिन उसने चोरी न की।
लेकिन एक उपद्रव शुरू हुआ। उपद्रव यह हुआ कि एक आदमी के बिस्तर की चीजें दूसरे आदमी के बिस्तर में मिलें। किसी के संदूक की चीजें किसी और के संदूक में मिलें। मिल तो जाएं, लेकिन चीजें गड़बड़ होने लगीं। एकनाथ को शक हुआ। उन्होंने पूछा उसको कि भई, तू कुछ कर तो नहीं रहा है?
उसने कहा कि देखिए, आपसे मैंने कहा कि चोरी नहीं करूंगा, सो मैं नहीं कर रहा हूं। लेकिन मेरा अभ्यास तो मुझे जारी रखना पड़ेगा। रात मुझे नींद ही नहीं आती। तो मैं चुरा तो नहीं रहा हूं, एक चीज मैंने नहीं चुराई है, मगर इसके खीसे से निकाल कर उसके खीसे में कर देता हूं तो मुझे राहत मिलती है। फिर मैं निश्चिंत हूं, जब दो-तीन बजे रात को कुछ काम कर लिया, फिर सो जाता हूं। अब इसमें आप बाधा न दो। चीजें मिल ही जाएंगी उनको, सभी यहीं हैं, कोई कहीं जाता नहीं है। मगर आप जानते ही हो, लौट कर फिर मुझे काम तो अपना चोरी का करना ही पड़ेगा, तो अभ्यास। ऐसे अभ्यास चूक जाए! उस चोर ने कहा, देखो, आप भी रोज भगवान की प्रार्थना करते कि नहीं? ऐसे मेरा यह काम है।
तो एक अभ्यास, आदत से काम हो रहे हैं। वे ज्यादा घातक हैं पहले से। उनसे भी ज्यादा घातक तीसरे हैं। जो अभ्यास से भी ज्यादा गहरे हैं, आदत से भी ज्यादा गहरे हैं। क्योंकि किसी को सिगरेट पीनी हो, शराब पीनी हो, तो सीखनी पड़ती है; लेकिन लोभ अनसीखा है, क्रोध अनसीखा है। किसी को जुआ खेलना हो, तो सीखना पड़ता है। सीखोगे तो ही सीख पाओगे। जुआरियों का सत्संग मिलेगा तो सीख पाओगे। चोरों के साथ रहोगे तो चोरी सीख लोगे। लेकिन लोभ, क्रोध, काम, मोह, उनको सीखना नहीं पड़ता। उनको हम जन्म के साथ लेकर आए हैं। वह हमारे जन्मों-जन्मों की मूर्च्छा है।
शांडिल्य ने ठीक विभाजन किया, ये तीन अपराध हैं। तीसरा अपराध सबसे ज्यादा खतरनाक है, उसे तोड़ो। और जब तीसरा टूट जाता है तो दूसरे के टूटने में बड़ी आसानी हो जाती है। जो स्वभाव को बदल ले, उसको आदत बदलने में कितनी देर लगेगी? आदत तो ऊपर-ऊपर है। और जिसका दूसरा समाप्त हो जाता है, उसका पहला भी समाप्त होने लगता है। क्योंकि जितना जागरूक होता है व्यक्ति, उतनी ही आकस्मिक घटनाएं घटनी बंद हो जाती हैं। वह सम्हल कर चलता है, किसी के पैर पर पैर नहीं पड़ता। वह होशपूर्वक जीता है। फिर भी पहले तरह की घटनाएं शायद कभी घट सकती हैं। उनका कोई बहुत मूल्य नहीं है। क्षमा मांग लेने से उनकी क्षमा हो जाती है। मगर दूसरे और तीसरे पर ध्यान रखना। सबसे ज्यादा तीसरे पर ध्यान रखना।
‘निमित्त, गुण और अनपेक्षा के अनुसार अपराध की व्यवस्था है।’
पत्रादेः दानम्‌ अन्यथा हि वैशिष्ट्यम्‌।
‘पत्र, पुष्प आदि दान में एक ही फल है।’
जागरूक होकर जीओ, फिर परमात्मा को तुम कुछ भी चढ़ा दो, फल एक है। यह बड़ा अदभुत सूत्र है। तुम जाकर कोहिनूर हीरा चढ़ा दो, या बेलपत्री चढ़ा दो; सोने के ढेर लगा दो, या एक फूल चढ़ा दो, या फूल की पंखुड़ी ही सही, फल एक है। जागरूक व्यक्ति के द्वारा कुछ भी चढ़ाया जाए परमात्मा को, फल एक है। परमात्मा के सामने न तो सोने का ज्यादा मूल्य है, और न फूल का कम मूल्य है। तुमने लाखों चढ़ाए कि दो-चार कौड़ियां चढ़ाईं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुमने चढ़ाया, इससे फर्क पड़ता है।
स्मृतिकारों ने कहा है: देवताः भक्तिमिच्छन्ति।
‘अर्थात फल उतना ही होगा जितनी भक्ति है।’
क्या दिया, यह नहीं; वरन कैसे दिया, किस भाव से दिया, किस हृदय से दिया।
देवताः भक्तिमिच्छन्ति।
देवता तुम्हारा भाव देखते हैं, तुम्हारी भक्ति देखते हैं। तो कभी-कभी ऐसा हो जाता है, एक धनी आदमी हजार रुपये भी दे देता है जाकर मंदिर में, मगर भाव बिलकुल नहीं होता। उसे हजार से कुछ फर्क ही नहीं पड़ता, दिए न दिए। और कभी कोई आदमी जाकर दो पैसे चढ़ा देता है; लेकिन तब भी फर्क पड़ता है। हो सकता है जिसने दो पैसे चढ़ाए उसके पास बस दो पैसे ही थे। उसने अपना सर्वस्व चढ़ा दिया। जिसने हजार रुपये चढ़ाए उसके पास करोड़ों थे, उसने कुछ भी नहीं चढ़ाया। परम अर्थों में गुण का मूल्य है, मात्रा का नहीं।
देवताः भक्तिमिच्छन्ति।
इस छोटे से गीत को सुनो। कवि यात्रा पर जा रहा है, मित्र उसे विदा करने आए हैं।
पुष्प-गुच्छ माला दी सबने, तुमने अपने अश्रु छिपाए
एक चला नक्षत्र गगन में
और विदा की आई बेला,
और बढ़ा अनजान सफर पर
लेकर मैं सामान अकेला,
और तुम्हारा सबसे न्यारा--
पन मैंने उस दिन पहचाना
पुष्प-गुच्छ माला दी सबने, तुमने अपने अश्रु छिपाए

रस्म सदा से जो चल आई
अदा उसे करना मुश्किल क्या,
किसको इसका भेद मिला है
मुंह क्या बोल रहा है, दिल क्या
पिघले मन के साथ मगर था
जारी यह संघर्ष तुम्हारा,
शकुन समय अशकुन का आंसू पलक-पुटों से ढलक न जाए
पुष्प-गुच्छ माला दी सबने, तुमने अपने अश्रु छिपाए

पहली ही मंजिल पर सारे
फूल और कलियां कुम्हलाईं,
मुरझाए कुसुमों पर किसने
आज तलक ममता दिखलाई,
कलक बहुत हो उनकी, फिर भी
अलग उन्हें करना पड़ता है,
सुधि के अंग बने वे जलकण जो कि तुम्हारे दृग में आए
पुष्प-गुच्छ माला दी सबने, तुमने अपने अश्रु छिपाए
दिया भी नहीं कुछ, सिर्फ आंसू आ न जाएं आंखों में, इन्हें छिपाया। क्योंकि शकुन के क्षण में आंसू कहीं अपशकुन न मालूम पड़ें। लेकिन सब दिए गए पुष्प-गुच्छ व्यर्थ हो गए, जल्दी ही सूख गए, कुम्हला गए।
सुधि के अंग बने वे जलकण जो कि तुम्हारे दृग में आए
पुष्प-गुच्छ माला दी सबने, तुमने अपने अश्रु छिपाए
जो छिपाया और दिया भी नहीं, वही पहुंचा। भाव परखे जाते हैं। अंतिम कसौटी भाव की है।
किसको इसका भेद मिला है
मुंह क्या बोल रहा है, दिल क्या
तुम मुंह से क्या बोलते हो, वह नहीं है प्रार्थना। तुम्हारा दिल क्या बोलता है, वही है प्रार्थना।
‘पत्र, पुष्प आदि दान में एक ही फल है।’
इसलिए यह चिंता मत करना कि मुझ गरीब के पास क्या है? मैं क्या चढ़ाऊं? भाव की दृष्टि से तुम सभी सम्राट हो। भाव की दृष्टि से भगवान ने सभी को समान बनाया है। वह काव्य भाव का सभी को बराबर दिया है। तुम्हारे पास धन न हो, फिकर मत करना; तुम्हारे पास पद न हो, फिकर मत करना; तुम अपने को तो चढ़ा ही सकते हो। तुम्हीं वास्तविक धन हो। तुम अपने भावों को तो चढ़ा ही सकते हो। फिर दो पत्ते भी पर्याप्त हैं।
दो नैन कमल!
घूंघट में घनेरी रात लिए
आंचल में भरी बरसात लिए
कुछ पाए हुए, कुछ खोए भी
कुछ जागे भी, कुछ सोए भी
चंचल ऊषा के बान लिए
गंभीर घटा का मान लिए
सावन के सजल संगीत भरे
कुछ हार भरे, कुछ जीत भरे
कुछ बीते दिनों की करवट-सी
कुछ आते दिनों की आहट-सी
किन गलियों दीप जलाए सखी!
ये भंवरे कित मंडलाए सखी!
सपनों से बोझल-बोझल
दो नैन कमल!

कुछ घबराए, कुछ शर्माए
कुछ शर्मा-शर्मा इतराए
सखी! भेदी भेद न पा जाए
कुछ उलझी-सुलझी आशाएं
कुछ बूझी-बूझी भाषाएं
कुछ बिखरे-बिखरे राग लिए
कुछ मीठी-मीठी आग लिए
अनुराग लिए, वैराग लिए
कुछ बीते दिनों की करवट-सी
कुछ आते दिनों की आहट-सी
किन गलियों दीप जलाए सखी!
ये भंवरे कित मंडलाए सखी!
नैनों से ओझल-ओझल
दो नैन कमल!
कुछ न भी चढ़ाया, आंखें गीली हो आईं।
दो नैन कमल!
पर्याप्त है। प्रार्थना पूरी हो गई। हृदय भर आया, पर्याप्त है, प्रार्थना पूरी हो गई। तुम झुक गए। देह झुकी या न झुकी, गौण है। प्राण झुक गए। प्रार्थना पूरी हो गई।
पुकारो--आंसुओं से, भाव से, प्राणों से। चढ़ाओ अपनी निजता, कुछ और चढ़ाने का प्रयोजन नहीं। तुम्हारा धन परमात्मा के सामने धन नहीं है। परमात्मा के सामने सिर्फ तुम्हारा जीवन ही धन है।
गमे-फिराक में दिल अश्कबार रहता है
न दिन को चैन न शब को करार रहता है
हर-एक लम्हा मुझे इंतजार रहता है
अब इंतजार की घड़ियां मेरी बिता जाओ
मेरे रफीक! मेरे दिल-नवाज आ जाओ
पुकारो!
मेरे रफीक! मेरे दिल-नवाज आ जाओ
मेरे मित्र, मुझे ढाढ़स बंधाने वाले। पुकारो!
मेरे रफीक! मेरे दिल-नवाज आ जाओ
तसव्वुरात पर दिन-रात छाए रहते हो
खयाल-ओ-ख्वाब की दुनिया बसाए रहते हो
अगर्चे रूह के अंदर समाए रहते हो
मगर जो आग है दिल में उसे बुझा जाओ
मेरे रफीक! मेरे दिल-नवाज आ जाओ

निगाहें ढूंढ़ती हैं तुमको लालाजारों में
तलाश करता है दिल तुमको चांद-तारों में
खयाल रहता है हर वक्त कोहसारों में
भटक रही हूं, निशां अपना कुछ बता जाओ
मेरे रफीक! मेरे दिल-नवाज आ जाओ

तुम्हारी याद को दिल से लगाऊंगी कब तक
गमे-फिराक के सदमे उठाऊंगी कब तक
उम्मीदो-दीन की दुनिया बसाऊंगी कब तक
मैं जान हार रही हूं, मुझे जिता जाओ
मेरे रफीक! मेरे दिल-नवाज आ जाओ
पुकारो उस परम मित्र को, उस परम प्यारे को। तुम्हारी पुकार तुम्हारा पूरा हृदय हो। तुम्हारी पुकार में तुम्हारे सारे प्राण समा जाएं। तुम्हारी पुकार तुम्हारी समग्रता से उठे। बस वही भक्ति है। और सब आयोजन व्यर्थ हैं। और सब विधि-विधान दो कौड़ी के हैं। शांडिल्य ने उन्हें यजन कहा है, भजन नहीं। बुद्धि से जो होता है, यजन; भाव से जो होता, भजन। भजन से मिलता है भगवान। यजन से शायद संसार मिलता है। यत्न करोगे, धन कमा लोगे, पद कमा लोगे। लेकिन भगवान न तो यत्न से मिलता है, न प्रयास से। भगवान मिलता है जब तुम झुक जाते, परम हार में झुक जाते। जब तुम कहते हो, मेरे किए कुछ भी न होगा। जब तुम यह भ्रम ही तोड़ डालते हो कि मैं कुछ कर लूंगा, जब तुम्हारी असहाय अवस्था चरम शिखर पर पहुंचती है। बस उसी क्षण--उसी क्षण प्यारा आ जाता है।
अगर नहीं आया है प्यारा, तो तुमने पुकारा नहीं, इतना ही स्मरण रखना। या तुमने पुकारा तो तुम्हारी पुकार झूठी थी। या तुमने पुकारा तो तुम्हारी पुकार हार्दिक न थी। या तुमने पुकारा तो तुमने शास्त्र की भाषा बोली, अपने प्राणों की भाषा नहीं बोली।
तुम्हारी प्रार्थना को तुम्हारे भीतर ही जन्मना है। जैसे फूल अपने पौधे पर जन्मता है, वैसे हर एक की प्रार्थना हर एक के जीवन में जन्मती है। और किसी की प्रार्थना तुम्हारी प्रार्थना नहीं बनेगी। मेरी प्रार्थना मेरी प्रार्थना है, तुम्हारी प्रार्थना तुम्हारी प्रार्थना है। मेरी प्रार्थना को तोड़ कर तुम पर लगा दूंगा, वह फूल तुमसे जुड़ेगा नहीं। वह उधार होगा। उससे तुम चाहे सज जाओ थोड़ी देर को, दुनिया को धोखा हो जाए, लेकिन उससे तुम्हारी रसधार न जुड़ेगी। वह जल्दी ही कुम्हला जाएगा, जल्दी ही गिर जाएगा। वह झूठा है। झूठे से बचो।
आज के सूत्रों का सार है इतना ही कि तुम पराए से बचो, अपने को तलाशो। अपनी निजता से एक इंच भी चलो तो बहुत है और किसी और के कंधे पर चढ़ कर हजार मील भी चले तो तुम चक्कर ही काटते रहोगे कोल्हू के बैल की तरह, कहीं पहुंचोगे नहीं। और ऐसा नहीं है कि तुमने प्रार्थना नहीं की है, कि तुम मंदिर नहीं गए, मस्जिद नहीं गए, गुरुद्वारे नहीं गए, तुम गए हो, मगर पहुंचे कहां? जरूर तुम कोल्हू के बैल की तरह चल रहे हो।
जागो! जाग कर अपनी जीवन-दशा को ठीक से पहचानो। उस जागरण में, उस समझ में एक बात तुम्हें स्पष्ट दिखाई पड़ जाएगी--उधार से काम चलने वाला नहीं है। परमात्मा सिर्फ तुम्हें स्वीकार करेगा। तुम किसी और के चेहरे लगा कर गए तो तुम चूकते जाओगे। तुम्हें अपना ही चेहरा खोजना पड़ेगा। और वह चेहरा अभी उपलब्ध है, जरा मुखौटे हटाने पड़ेंगे--हिंदू का मुखौटा, मुसलमान का मुखौटा, ईसाई का मुखौटा, जैन का मुखौटा, शब्दों के मुखौटे। हटा दो सब। नग्न होकर पुकारो उसे, और मिलन सुनिश्चित है।

आज इतना ही।

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