SHANDILYA

ATHATO BHAKTI JIGYASA 21

TwentyFirst Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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सूत्र

द्यूतराजसेवयोः प्रतिषेधाच्च।। 51।।
वासुदेवेऽपीति चेन्नाकारमात्रत्वात्‌।। 52।।
प्रत्यभिज्ञान्नाच्च।। 53।।
वृष्णिषु श्रेष्ठत्वमेतत्‌।। 54।।
एवं प्रसिद्धेषु च।। 55।।
अथातोभक्तिजिज्ञासा!
अब भक्ति की जिज्ञासा।
भक्ति की क्यों? भगवान की क्यों नहीं?
साधारणतः लोग भगवान की खोज में निकलते हैं। और चूंकि भगवान की खोज में निकलते हैं इसलिए ही भगवान को कभी उपलब्ध नहीं हो पाते। भगवान की खोज ऐसी ही है जैसे अंधा आदमी प्रकाश की खोज में निकले। अंधे को आंख खोजनी चाहिए, प्रकाश नहीं। आंख का उपचार खोजना चाहिए, प्रकाश नहीं। प्रकाश तो है, उसकी खोज की जरूरत भी नहीं है; आंख नहीं है। इसलिए जो व्यक्ति भगवान की खोज में निकला, वह भटका। जो व्यक्ति भक्ति की खोज में निकलता है, वह पहुंचता है।
भक्ति यानी आंख। भक्ति यानी कुछ अपने भीतर रूपांतरित करना है। भक्ति का अर्थ हुआ, एक क्रांति से गुजरना है।
अथातोभक्तिजिज्ञासा!
साधारणतः कोई विचार करेगा तो लगेगा सूत्र शुरू होना चाहिए था--अब भगवान की जिज्ञासा। लेकिन सूत्र बड़ा बहुमूल्य है। सूत्र भगवान की बात ही नहीं उठाता। भगवान से तुम्हारा संबंध ही कैसे होगा? भगवान से संबंधित होने वाला हृदय अभी नहीं, अभी वह तरंग नहीं उठती भीतर जो जोड़ दे तुम्हें। अभी आंखें अंधी हैं, अभी कान बहरे हैं। इसलिए भगवान को छोड़ो। उस चिंता में न पड़ो। भक्ति को जगा लो! इधर भक्ति जगी, उधर भगवान मिला। इधर आंख खुली, उधर सूरज के दर्शन हुए। इधर कानों का बहरापन मिटा कि नाद ही नाद है, ओंकार ही ओंकार छाया हुआ है। सारा जगत अनाहत की ही अभिव्यक्ति है। इधर हृदय में तरंगें उठीं कि जो नहीं दिखाई पड़ता, वह दिखाई पड़ा।
एक तो बुद्धि है, जो विचार करती है; और एक हृदय है, जो अनुभव करता है। हमारे अनुभव की ग्रंथि बंद रह गई है। खुली नहीं; गांठ बनी रह गई है। हमारे अनुभव करने की क्षमता फूल नहीं बनी। इसलिए प्रश्न उठता है--भगवान है या नहीं? लेकिन प्रश्न अगर जरा ही गलत हुआ तो उत्तर कभी सही नहीं हो पाएगा। भक्ति की जिज्ञासा करो!
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, भगवान कहां है?
मैं उनसे पूछता हूं, भक्ति कहां है? भक्ति पहले होनी चाहिए।
लेकिन उनके प्रश्न की भी बात विचारणीय है। वे कहते हैं, जब तक हमें भगवान का पता न हो, तब तक भक्ति कैसे हो? किसकी भक्ति करें? कैसे करें? कहां जाएं? किसके चरणों में झुकें? भगवान का भरोसा तो पहले होना चाहिए। तभी तो हम झुक सकेंगे।
चूंकि भगवान की खोज की उन्होंने गलत जिज्ञासा उठा ली है, अब इस गलत जिज्ञासा के कारण बहुत से गलत समाधान उठते रहेंगे। भक्ति के लिए भगवान की कोई जरूरत ही नहीं है। आंख के उपचार के लिए सूरज की क्या जरूरत है? भक्ति के लिए सिर्फ तुम्हारे प्रेम के, भाव के बढ़ने की जरूरत है, भगवान की कोई जरूरत नहीं है। प्रेम को इतना बढ़ाओ कि अहंकार उसमें डूब जाए, लीन हो जाए। जहां प्रेम निर-अहंकार को उपलब्ध हो जाता है, वहीं भक्ति बन जाता है।
भक्ति का भगवान से कुछ भी संबंध नहीं है। भक्ति तो प्रेम का ऊर्ध्वगमन है। प्रेम को मुक्त करो क्षुद्र से। प्रेम को बड़ा करो। प्रेम की बूंद को सागर बनाओ। जिससे भी प्रेम करते हो, गहनता से करो। जहां भी प्रेम हो, वहीं अपने को पूरा उंडेल दो। कंजूसी न करो। अगर प्रेम कृपण हो, तो काम हो जाता है; और प्रेम अगर अकृपण हो, तो भक्ति हो जाता है। प्रेम अगर मांगता हो, तो वासना हो जाता है; और प्रेम अगर देना ही जानता हो, तो भक्ति हो जाता है।
लुटाओ प्रेम। उसी लुटने में तुम भक्त हो जाओगे। और जहां तुम भक्त हुए, वहीं भगवान का दर्शन है।
तुमसे कहा गया है बार-बार कि भगवान पर भरोसा करो ताकि भक्ति हो सके। मैं तुमसे कहना चाहता हूं, भक्ति को जगाओ ताकि भगवान पर भरोसा हो सके। और शांडिल्य के सूत्र मेरे पक्ष में खड़े हैं।
शांडिल्य कहते हैं: अथातोभक्तिजिज्ञासा! अब भक्ति की जिज्ञासा करें।
और जिसने भक्ति की जिज्ञासा नहीं की, वह आया तो संसार में, आ नहीं पाया; जीया और जी नहीं पाया; हुआ और हो नहीं पाया। उसकी कथा दुर्दिनों की कथा है और दुर्घटनाओं की। अवसर मिले, लेकिन कोई भी अवसर फला नहीं। जो भक्ति के बिना जी लिया, जो भगवान को बिना जाने जी लिया, उसके जीवन को क्या खाक जीवन कहें!
श्री अरविंद ने कहा है: जब मैं जागा तब मैंने जाना कि जीवन क्या है। उसके पहले तो जो जाना था, वह मृत्यु ही थी। उसे भ्रांति से जीवन समझ बैठा था। जब आंख खुली तब पहचाना रोशनी क्या है। उसके पहले जिसे रोशनी समझी थी, वह तो अंधेरा निकला। जब हृदय खुला तो अमृत की पहचान हुई। उसके पहले तो मृत्यु को ही अमृत समझ बैठे थे।
अंधा आदमी पत्थर को हीरा समझ ले, आश्चर्य क्या? अंधे को परख भी कैसे हो पत्थर की और हीरे की? अंधे को दोनों पत्थर हैं। आंख फर्क लाती है। आंख में जौहरी छिपा है।
तो खयाल रखना, अगर भक्ति की जिज्ञासा नहीं उठी है तो समझना कि अभी तुम जन्मे ही नहीं। अभी तुम गर्भ में ही पड़े हो। अभी तुम बीज ही हो। अभी अंकुरण नहीं हुआ। अभी जीवन की जो परम संपदा है, उसकी भनक भी तुम्हारे कानों में नहीं पड़ी।
दिल में सोजे-गम की इक दुनिया लिए जाता हूं मैं
आह तेरे मैकदे से बेपिए जाता हूं मैं
जो बिना भक्ति के चला गया है, वह इस मधुशाला में आया और बिना पीए चला गया।
आह तेरे मैकदे से बेपिए जाता हूं मैं
इस जगत को पीने की कला है भक्ति। और जगत को जब तुम पीते हो तो कंठ में जो स्वाद आता है, उसी का नाम भगवान है। इस जगत को पचा लेने की कला है भक्ति। और जब जगत पच जाता है तुम्हारे भीतर और उस पचे हुए जगत से रस का आविर्भाव होता है--रसो वै सः। उस रस को जगा लेने की कीमिया है भक्ति।
शांडिल्य ने ठीक ही किया जो भगवान की जिज्ञासा से शुरू नहीं की बात। भगवान की जिज्ञासा दार्शनिक करते हैं। दार्शनिक कभी भगवान तक पहुंचते नहीं; विचार करते हैं भगवान का। जैसे अंधा विचार करे प्रकाश का। बस ऐसे ही उनके विचार हैं--अंधे की कल्पनाएं, अनुमान। उन अनुमानों में कोई भी निष्कर्ष कभी नहीं। निष्कर्ष तो अनुभव से आता है।
शांडिल्य के सूत्र दर्शनशास्त्र के सूत्र नहीं हैं, प्रेमशास्त्र के सूत्र हैं। इसलिए पहले सूत्र में ही शांडिल्य ने अपनी यात्रा का सारा संकेत दे दिया--मैं किस तरफ जा रहा हूं।
इसके पहले कि मौत तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे--और मौत दस्तक देगी ही--तुम भक्ति की जिज्ञासा करो। मौत आए, उसके पहले भक्ति आ जाए, ऐसे जीवन का नियोजन करो। इसी को मैं संन्यास कहता हूं। जीवन का ऐसा नियोजन कि मौत के पहले भक्ति आ जाए, तो तुम कुशलता से जीए, तो तुम होशियार थे, तो तुम्हारे भीतर बुद्धिमत्ता थी।
वक्त की सईए-मुसलसल कारगर होती गई
जिंदगी लहजा-ब-लहजा मुख्तसर होती गई
सांस के परदों में बजता ही रहा साजे-हयात
मौत के कदमों की आहट तेजतर होती गई
सुन रहे हो? यह सांस की वीणा बजती ही रहेगी और मौत करीब आती जा रही है।
सांस के परदों में बजता ही रहा साजे-हयात
यह जिंदगी का गीत सांस के बाजे पर बजता ही रहेगा। इसी में मत भटके रहना।
सांस के परदों में बजता ही रहा साजे-हयात
मौत के कदमों की आहट तेजतर होती गई
जरा गौर से सुनो, मौत के कदम रोज-रोज करीब आते जा रहे हैं। मौत फासला कम कर रही है। जिस दिन से तुम पैदा हुए हो, उसी दिन से मौत फासला कम करने में लग गई है, तुम रोज मर रहे हो। सांसों में बहुत भटके मत रहना। इनका बहुत भरोसा नहीं। अभी आ रही है सांस, अभी न आएगी तो कुछ भी न कर सकोगे। अवश पड़े रह जाओगे। तब बहुत पछताओगे।
आह तेरे मैकदे से बेपिए जाता हूं मैं
रोओगे फिर, लेकिन तब बहुत देर हो चुकी। कहते हैं: सुबह का भूला सांझ भी घर आ जाए तो भूला नहीं कहाता। लेकिन सांझ भी आ जाए तो! अगर मौत आ गई तो सांझ भी आई और गई। फिर लौटने का उपाय न रहा, समय न रहा।
मौत का अर्थ क्या होता है? इतना ही कि जितना समय तुम्हें दिया था, चुक गया। मौत का अर्थ होता है: जितना अवसर तुम्हें दिया था, तुमने गंवा दिया। मौत का अर्थ होता है: अब और समय नहीं बचा। अब करने का कोई उपाय नहीं। एक आह भी न भर सकोगे। एक प्रार्थना भी न कर सकोगे। राम का नाम भी न ले सकोगे। सांस ही न लौटी तो राम का नाम अब कैसे ले सकोगे? एक नाम लेने की भी सुविधा नहीं बचती है। और मौत रोज करीब आ रही है। और तुम जिंदगी की सांसों में उलझे पड़े रहते हो।
अथातोभक्तिजिज्ञासा! अब भक्ति की जिज्ञासा करो।
इसके पहले कि हम आज के सूत्रों में उतरें, कुछ पिछले सूत्रों का थोड़ा सा स्वाद ले लेना जरूरी है।
पूर्व-सूत्र:
सूर्य को देखने के दो उपाय हो सकते हैं। एक तो सीधा सूरज को देखो और एक दर्पण में सूरज को देखो। हालांकि दर्पण में जो दिखाई पड़ता है वह प्रतिबिंब ही है, असली सूरज नहीं। प्रतिबिंब तो प्रतिबिंब ही है, असली कैसे होगा? वह असली का धोखा है। वह असली की छाया है। इसलिए सूरज को देखने के दो ढंग हैं, यह कहना भी शायद ठीक नहीं, ढंग तो एक ही है--सीधा देखो। दूसरा ढंग कमजोरों के लिए है, कायरों के लिए है।
जो लोग शास्त्र में सत्य को खोजते हैं, वे कायर हैं। वे दर्पण में सूरज को देखने की कोशिश कर रहे हैं। दर्पण में सूरज दिख भी जाएगा तो भी किसी काम का नहीं। छाया मात्र है। दर्पण के सूरज को तुम पकड़ न पाओगे। शास्त्र में जो सत्य की झलक मालूम होती है, झलक ही है। लेकिन लोगों ने शास्त्र सिर पर रख लिए हैं। कोई गीता, कोई कुरान, कोई बाइबिल। लोग शास्त्रों की पूजा में लगे हैं। यह दर्पण की पूजा चल रही है; सूरज को तो भूल ही गए। और दर्पणों पर इतने फूल चढ़ा दिए हैं पूजा के कि अब उनमें प्रतिबिंब भी नहीं बनता। उन पर व्याख्याओं की इतनी धूल जमा दी है, सिद्धांतों का इतना जाल फैला दिया है कि अब शास्त्रों से कोई खबर नहीं आती सत्य की।
सत्य को देखना हो, सीधा ही देखा जा सकता है। इसलिए शांडिल्य कहते हैं: भक्ति की जिज्ञासा करें हम। शांडिल्य के पहले भक्त हो चुके थे, बहुत हो चुके थे, ज्ञानी हो चुके थे, शास्त्र निर्मित हो चुके थे। शांडिल्य ने नहीं कहा कि चलो अब शास्त्र में चलें और सत्य को खोजें, चलो अब शास्त्र में चलें और भगवान की छवि को तलाशें। नहीं, शांडिल्य ने कहा, हम अपने हृदय को साफ करें। भगवान मिलेगा तो वहां मिलेगा। शब्दों में नहीं, परायों के शब्दों में नहीं, अपने अनुभव में मिलेगा।
अनुभूति पर यह जोर ठीक-ठीक पकड़ लेना।
परमात्मा की झलक तो सब तरफ मौजूद है। और अगर तुम्हें वृक्षों में उसकी झलक नहीं दिखाई पड़ती तो तुम्हें शास्त्रों में उसकी झलक कभी भी दिखाई नहीं पड़ेगी। क्योंकि शास्त्र में तो मुर्दा शब्द हैं। न तो बढ़ते, न घटते; न उनमें नये पत्ते लगते, न नई शाखें उमगतीं, न पक्षी बसेरा लेते। शास्त्रों में तो थोथे शब्द हैं। वहां फूल कहां खिलते हैं? वहां सुगंध कहां उठती है? शास्त्र तो कागज पर खींची गई लकीरें हैं। मगर खूब धोखा आदमी ने खाया है। उन्हीं लकीरों की पूजा करता रहता है। या तो यह धोखा है, या यह चालबाजी है। चालबाजी यह है कि इस तरह भगवान से बचता रहता है। कहता है, देखो तो तुम्हारे शास्त्रों को पूजते हैं।
कभी-कभी भगवान को और-और झलकों में भी पकड़ने की कोशिश करता है। पुराने दिनों में राजाओं को, महाराजाओं को भगवान मान लिया जाता था। पद को परमपद समझ लिया जाता था। तो लोग राजाओं की पूजा करते रहे; पद की प्रतिष्ठा करते रहे। बात अब भी समाप्त नहीं हो गई है। राजा तो अब नहीं के बराबर रहे, न के बराबर रहे। कहते हैं अंत में दुनिया में केवल पांच ही राजा रह जाएंगे, एक इंग्लैंड का राजा और चार ताश के पत्तों के राजे; बाकी सब तो चले जाएंगे। इंग्लैंड का राजा भी ताश का पत्ता ही है, इसलिए बचेगा। और तो कोई बच सकता नहीं। लेकिन राजनीति का अब भी बल है। अब भी राजपद का बल है। राजा न रहे हों, लेकिन राजनेता है। तुम उसी की पूजा में लग जाते हो। देखते हो, राजनेता के आस-पास लोग कैसी पूंछ हिलाते हैं? किस तरह गजरे पहनाते हैं? किस तरह फूल बरसाते हैं?
धन की पूजा में लग जाते हो। जिसके पास धन है, वहां पूजा में लग जाते हो। या तो कुछ लोग शास्त्रों के मुर्दा शब्दों को पूजते रहते हैं, या मंदिरों में रखी हुई पत्थर की मूर्तियों को पूजते रहते हैं, या पंडित-पुजारी को पूजते रहते हैं, जिन्हें खुद भी परमात्मा की कोई झलक नहीं मिली, जो तुम्हारे नौकर-चाकर हैं, जिन्हें तुमने नियुक्त कर रखा है, जो पूजा के नाम पर केवल आजीविका कमा रहे हैं। या लोग पद में देख लेते हैं परमात्मा को और पद की पूजा में लग जाते हैं, या धन में।
मगर ये सब मुर्दा हैं खेल। अगर परमात्मा को देखना हो तो सीधा देखो। परमात्मा सीधा उपलब्ध है--इन पक्षियों के गीत में, इन वृक्षों की हरियाली में, आकाश के चांद-तारों में, मनुष्यों की आंखों में। और जहां भी तुम प्रेम की कुदाल से खोदोगे, वहीं तुम पाओगे कि परमात्मा का झरना मिलना शुरू हो गया। झलकों में मत भटको।
इसलिए पूर्व-सूत्रों ने कहा कि विभूतियों में मत उलझ जाना। विभूतियां तो झलकें मात्र हैं प्रतिभा की। कोई आदमी बड़ा गणितज्ञ है, यह प्रतिभा है। और कोई आदमी बड़ा संगीतज्ञ है, यह प्रतिभा है। और कोई आदमी बड़ा होशियार है और धन इकट्ठा कर लिया है, कोई आदमी बड़ा चालबाज है और राजपद पर पहुंच गया है, ये सब प्रतिभाएं हैं। इनका कोई धार्मिक मूल्य नहीं है। इनके होने से कोई धर्म का संबंध नहीं है। इसलिए पूर्व-सूत्रों में कहा गया कि प्रतिभा, विभूति, इनमें मत उलझ जाना।
इनका प्रभाव पड़ता है। कोई आदमी अच्छा बोलता है, इससे मत उलझ जाना, क्योंकि अच्छे बोलने से सत्य का कोई संबंध नहीं है। हो सकता है अच्छा बोलता हो, लेकिन झूठ ही बोलता हो। और इतने अच्छे ढंग से बोलता हो कि झूठ भी सच जैसा मालूम पड़ता हो। यह भी हो सकता है, कोई आदमी सुंदर गीत गा सकता है--ऐसे सुंदर कि आकाश की उड़ान लें, ऐसे सुंदर कि लगे सत्य के लोक से उतरा है यह आदमी। मगर इससे उलझ मत जाना। यह सिर्फ हो सकता है गीत की कला हो, यह मात्रा बिठाने की कुशलता हो, यह आदमी कवि हो।
बहुत तरह की विभूतियां हैं। विभूतियां श्रम से अर्जित हैं, चाहे इस जन्म की हों, चाहे पिछले जन्म की हों। विभूति श्रम से उत्पन्न होती है।
किसी ने पश्चिम के बहुत बड़े संगीतज्ञ मोझर्ट से पूछा। मोझर्ट अदभुत प्रतिभा का धनी था। कहते हैं जब सात साल का था तभी से संगीत में उसकी कुशलता ऐसी थी कि बड़े-बड़े संगीत के पंडित उस छोटे से बच्चे से हार गए थे। सारे जगत में उसकी ख्याति थी। किसी ने पूछा कि तुम्हारी प्रतिभा का राज क्या है? तो उसने कहा, श्रम। उसने जो शब्द उपयोग किए...पूछने वाले ने उससे पूछा था, तुम्हारी प्रतिभा की प्रेरणा क्या है? तुम्हारी प्रतिभा का इंस्पाइरेशन क्या है? मोझर्ट हंसा और उसने कहा, इंस्पाइरेशन तो बहुत थोड़ा है, पर्सपाइरेशन बहुत ज्यादा है। पसीना बहुत है, श्रम बहुत है। प्रतिभा कहां? प्रेरणा कहां?
पूछने वाला चौंका। उसने कहा, मैं समझा नहीं।
मोझर्ट ने कहा कि अगर मैं एक दिन भी अभ्यास न करूं तो मुझे समझ में आता है कि फर्क पड़ गया। और अगर दो दिन अभ्यास न करूं तो मेरे जो आलोचक हैं उनको समझ में आ जाता है कि फर्क पड़ गया। और तीन दिन अगर अभ्यास न करूं तो सभी को समझ में आ जाता है कि फर्क पड़ गया। आठ-दस घंटे श्रम करता हूं, उसका फल है।
फिर चाहे यह फल इस जन्म का हो, या पिछले जन्म का हो, या जन्मों-जन्मों का हो। प्रतिभा तुम्हारे प्रयास का फल है।
तो शांडिल्य ने पूर्व-सूत्रों में कहा: प्रतिभा को या विभूति को परमात्मा मत समझ लेना।
फिर उन्होंने एक फर्क किया जो बड़ा बहुमूल्य है, जिसे खयाल में ले लोगे तो ही आज के सूत्र समझ में आ सकेंगे। उन्होंने यह कहा फिर: लेकिन कृष्ण प्रतिभावान हैं, इतना ही नहीं; या राम प्रतिभावान हैं, इतना ही नहीं; राम या कृष्ण या बुद्ध या क्राइस्ट या महावीर या जरथुस्त्र, ये प्रतिभाएं ही नहीं हैं, ये अवतार हैं। क्या फर्क है अवतार और प्रतिभा का?
प्रतिभा मिलती है प्रयास से, श्रम से, अर्जित करनी होती है; और अवतरण होता है प्रसाद से, तुम्हारे प्रयास से नहीं। तुम मिट जाते हो तो परमात्मा का अवतरण होता है। प्रतिभा तो अहंकार की ही खोज है। परमात्मा का अवतरण निर-अहंकार की दशा में फलता है। तुम जब शून्य मात्र हो जाते हो तब परमात्मा तुममें उतरता है।
इसलिए तुम प्रतिभाशाली आदमी को बड़ा अहंकारी पाओगे। चित्रकार, मूर्तिकार, संगीतज्ञ, कवि, कलाकार अहंकारी होते हैं, अति अहंकारी होते हैं। कलह ही चलती रहती है उनमें। उनमें कभी तुम सामंजस्य न पाओगे। एक-दूसरे की गर्दन घोंटने में लगे रहते हैं। आमतौर से प्रतिभाशाली आदमी स्थूल या सूक्ष्म अर्थों में अहंकारी होता है। उसकी सारी प्रतिभा का खेल अस्मिता का खेल है। मैं महत्वपूर्ण हूं, यह सिद्ध करने की चेष्टा में लगा रहता है। मुझसे ज्यादा महत्वपूर्ण कोई भी नहीं, यही उसके जीवन की पूरी तलाश है। मैं विशिष्ट हूं, यही उसकी दौड़ है, यही उसका लक्ष्य है।
अवतार का अर्थ होता है: जिसने अपने अहंकार को जाने दिया। जिसने कहा, मैं तो हूं ही नहीं, प्रभु तू है। जो बांस की पोंगरी बन गया। जिसने परमात्मा को पूरी जगह दे दी, सारा स्थान खाली कर दिया। जो इस तरह से मेजबान बन सकता है, इस तरह से आतिथ्य कर सकता है परमात्मा का, कि स्वयं को बिलकुल पोंछ डाले, मिटा डाले, जरा भी जगह न घेरे, बांस की पोंगरी हो जाए, परमात्मा के स्वर को पुकारे और प्रतीक्षा करे, और जब परमात्मा का स्वर उतरे तो स्वभावतः...यह व्यक्ति और प्रतिभाशाली व्यक्ति में फर्क कर लेना, यह फर्क सूक्ष्म है...अगर तुम्हें अवतार के पास होने का मौका मिल जाए, तो तुम दर्पण में नहीं देख रहे हो परमात्मा को, तुम परमात्मा को ही देख रहे हो--झरोखे से।
फर्क समझ लेना। अवतार है--झरोखा, खिड़की। उससे तुम जो देख रहे हो वह परमात्मा ही है, झरोखे से देख रहे हो। शायद परमात्मा को सीधा देखने के योग्य तुम्हारी क्षमता भी न हो, शायद उतना बड़ा सत्य तुम सम्हाल भी न पाओ, सह भी न पाओ; शायद उतनी अग्नि से तुम गुजर भी न पाओ। सूरज को सीधा देखना कठिन भी तो है। थोड़ी आड़ हो तो सुविधा मिल जाती है। थोड़ा झीना सा पर्दा हो तो सुविधा मिल जाती है। आंख पर काला चश्मा हो तो थोड़ी सुविधा मिल जाती है, थोड़ी सुरक्षा हो जाती है। आंख कोमल है। अवतार परमात्मा में झरोखा है, छोटा सा झरोखा। विराट आकाश में खुलता है, लेकिन झरोखा छोटा है।
पंडित, ज्ञानी, विद्वान झरोखा नहीं हैं, दर्पण हैं। और हो सकता है दर्पण में सीधा सूर्य का बिंब न ही बन रहा हो, यह दर्पण और दर्पणों का प्रतिबिंब बना रहा हो--दर्पण, दर्पण, दर्पण। पंडित और पंडितों की छाया बन जाते हैं। वे किसी और पंडित की छाया थे। और ऐसे सदियों-सदियों तक छाया से छाया, छाया से छाया पैदा होती है। धीरे-धीरे सत्य तो खो ही जाता है, छाया ही रह जाती है।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन के घर एक मित्र आया और साथ में एक बतख लाया। गांव से आया था। मुल्ला बहुत प्रसन्न हुआ। उसने बतख मुल्ला को भेंट की। बतख का शोरबा बनाया गया। मुल्ला ने उसका खूब आथित्य-सत्कार किया।
कुछ दिनों बाद एक दूसरा आदमी गांव से आया। उसने पूछा, आप कौन हैं? मैंने कभी देखा नहीं, मुल्ला ने पूछा। उसने कहा, मैं उसका मित्र हूं जो बतख लाया था। उसका भी स्वागत-सत्कार किया गया।
एक दिन एक तीसरा आदमी आया, उसने कहा कि मैं उस मित्र का मित्र हूं।
ऐसे लोग आते ही चले गए। फिर तो हिसाब रखना ही मुश्किल हो गया। मुल्ला भी थक गया स्वागत करते-करते। यह बतख महंगी पड़ गई। एक दिन एक आदमी आया। मुल्ला ने कहा, आप कौन हैं? उसने कहा, आप मुझे नहीं पहचानेंगे। जो मेरे पहले आया था, मैं उसका मित्र हूं। अब तो बात बहुत लंबी हो गई थी। मुल्ला ने सिर्फ गर्म पानी उसे पीने को दिया। उसने गर्म पानी पीया, उसने कहा, यह किस तरह का शोरबा है? मैं तो शोरबे की तारीफ सुन कर आया था। उसने कहा, यह बतख के शोरबे के शोरबे के शोरबे का शोरबा है। अब तो यह कुनकुना पानी ही बचा है।
ऐसा ही हुआ है। वेद में, किसी ने जाना था, उसने कहा। फिर वेद पर टीकाएं हैं, टीकाओं पर टीकाएं हैं, टीकाओं पर टीकाएं हैं--शोरबे के शोरबे के शोरबे का शोरबा। फिर पांच-दस हजार साल के बाद कोई पंडित उस गरम पानी को लिए बैठा है। उसमें बतख तलाश रहा है। वह बतख मिलती नहीं। लेकिन बतख होनी तो चाहिए, क्योंकि पहले ज्ञानी कह गए हैं। इसलिए बतख को कल्पित करता है। होनी तो चाहिए ही, नहीं तो सारी परंपरा गलत होती है। और सारे लोग गलत नहीं हो सकते। इतने लोग गलत कैसे हो सकेंगे? इतने पूज्यों की परंपरा पीछे खड़ी है, इतने जाने-माने प्रसिद्ध लोग पीछे खड़े हैं--कतार है हजारों साल की--तो गलत तो नहीं हो सकता। तो यही हो सकता है कि मेरी ही कुशलता नहीं है। इसलिए अनुमान करता है, भरोसा करता है, कल्पना करता है; जो नहीं मिलता है, उसको बना लेता है कि है, उसको दोहराए चला जाता है। यह तो दर्पण भी नहीं है।
प्रतिभा कितनी ही महत्वपूर्ण हो, चूंकि अहंकार से भरी होती है, इसलिए परमात्मा का दर्पण उसमें नहीं बन पाता।
शांडिल्य ने कहा कि विभूतियों में परमात्मा को मत देखना, अन्यथा उलझ जाओगे। या तो परमात्मा को सीधा देखना, और अगर सीधे देखने की आंख न हो, या आंख कमजोर हो, या भय लगता हो--जो बिलकुल स्वाभाविक है--तो फिर किसी ऐसे आदमी के पास से देखना जिसने देखा हो, जो यह न कहता हो कि वेद कहते हैं इसलिए परमात्मा है; जो कहता हो, मैं कहता हूं इसलिए परमात्मा है; जिसने देखा हो, जिसने पहचाना हो, जिसने अनुभव किया हो। उसके उठना पास, बैठना पास, उसका सत्संग करना, उसकी आंखों में झांकना, उसकी तरंगों में डूबना। क्योंकि बहुत बार तो कहने वाले लोग भी झूठ होते हैं। पहचान कैसे करोगे कि जो कह रहा है वह सच ही कह रहा है कि मैंने जाना है, मैंने देखा है?
पहचान इस तरह होगी कि उसके पास बैठ कर अगर तुम्हारा चित्त रूपांतरित होने लगे, तो समझना कि उसने जाना है। उसके पास बैठ कर अगर तुम्हारा मन शांत होने लगे, तुम्हारे बिना कुछ किए शांत होने लगे, उसके पास बैठते-बैठते ही तुम्हारे भीतर कुछ धुन बजने लगे, कुछ नये द्वार खुलने लगें, कुछ नये संगीत का अनुभव होने लगे, कुछ नये तार छिड़ने लगें, कुछ नये रंग तुम्हारे भीतर बिखरने लगें, उसकी मौजूदगी तुम्हारे भीतर रूपांतरकारी होने लगे, तो समझना।
अवतार से संबंध जोड़ लेना। और ऐसा मत सोचना कि अवतार कृष्ण और बुद्ध और राम में समाप्त हो गए हैं। जब भी कोई व्यक्ति परमात्मा के प्रति शून्य-भाव से खड़ा हो जाता है, परमात्मा अवतरित होता है। हालांकि हर व्यक्ति में अवतरण भिन्न तरह का होता है। होगा ही। कृष्ण में उतरेंगे तो एक ढंग से उतरना होगा। और बुद्ध में उतरना होगा तो दूसरे ढंग से उतरना होगा।
अवतार शब्द को समझ लेना। अवतार का अर्थ होता है: उतरना, अवतरण; ऊपर से आता है कोई। तुम जगह खाली करो, कोई रोशनी उतरती है, कोई बाढ़ आती है, सब कूड़ा-कर्कट बहा ले जाती है। फिर पीछे जो शेष रह जाता है वही भगवत्ता की अनुभूति है।
तो अभी भक्ति की जिज्ञासा का क्या अर्थ होगा? अभी परमात्मा को तो जाना नहीं, इसलिए भक्ति परमात्मा का प्रेम तो अभी हो नहीं सकती।
चार प्रेम की सीढ़ियां कही हैं शांडिल्य ने। एक है, स्नेह। अपने से छोटे के प्रति--बेटे के प्रति, बेटी के प्रति, शिष्य के प्रति, विद्यार्थी के प्रति--अपने से छोटे के प्रति। फिर दूसरे को प्रेम कहा है। अपने से समान के प्रति--मित्र के प्रति, पत्नी के प्रति, पति के प्रति। फिर तीसरे को श्रद्धा कहा है। अपने से श्रेष्ठ के प्रति--पिता के प्रति, मां के प्रति, गुरु के प्रति। और चौथे को भक्ति कहा है। परम के प्रति।
तो उठो! स्नेह से उठो प्रेम में, प्रेम से उठो श्रद्धा में। श्रद्धा तक जाना बिलकुल सुगम है। अधिक लोग प्रेम पर ही अटक गए हैं, उनके जीवन में श्रद्धा का सूत्र नहीं है। और जिनके जीवन में श्रद्धा का सूत्र नहीं है, उनके जीवन में भक्ति का जन्म न हो सकेगा। यह सब श्रृंखलाबद्ध प्रक्रिया है। श्रद्धा के बाद भक्ति है। इसलिए गुरु की इतनी महिमा शास्त्रों ने कही है। गुरु का अर्थ है: जिसके पास श्रद्धा जन्मे। गुरु का अर्थ है: जिसके पास जाकर झुकने का सहज मन हो। झुकना पड़े तो बात गलत हो गई। परंपरागत रूप से झुकना पड़े तो बात व्यर्थ हो गई। औपचारिक रूप से झुकना पड़े तो बात व्यर्थ हो गई। दूसरे लोग झुक रहे हैं इसलिए झुकना पड़े तो भी बात व्यर्थ हो गई। जब तुम्हारे भीतर सहज झुकाव आ जाए, किसी व्यक्ति के प्रति तुम्हारे मन में सहज ही झुकाव आ जाए, तुम अपने को रोक ही न पाओ और झुक जाओ, झुक जाओ तब पाओ कि अरे मैं झुक गया हूं, तो समझना कि गुरु मिला।
गुरु के पास बैठ कर श्रद्धा को उमगने देना। इसी श्रद्धा की सघनता में भक्ति का पहला अंकुर उठता है। इसलिए शास्त्रों ने, ज्ञानियों ने गुरु को परमात्मा का प्रतीक कहा है--सिर्फ इस अर्थ में कि उसके पास श्रद्धा उमगती है, श्रद्धा की सघनता ही भक्ति बनती है।
भक्ति की जिज्ञासा करें, तो इसका अर्थ हुआ, गुरु की तलाश करें। परमात्मा का तो पता नहीं है। सूरज का तो पता नहीं है। आंखें अंधी हैं। इसलिए वैद्य की तलाश करें; जो उपचार करेगा, जो आंख पर जमे जाले को काटेगा, जो औषधि देगा।
बुद्ध ने अपने को वैद्य कहा है। नानक ने भी अपने को वैद्य कहा है। ठीक कहा है, वे वैद्य ही हैं। गुरु उपचार करता है; उपदेश नहीं, उपचार। अगर उपदेश भी करता है तो उपचार के निमित्त। बोलने में उसका रस नहीं है, जगाने में उसका रस है। बोलने में उसका रस नहीं है, खोलने में उसका रस है।
तो इस सूत्र को खयाल में रखना। प्रतिभा अर्जित की जाती है, प्रतिभा अहंकार का उपाय है। अवतरण निर-अहंकार समाधि में फलित होता है; जब मैं मिट जाता है, तब परमात्मा उतरता है।
आज के सूत्र—
द्यूतराजसेवयोः प्रतिषेधात्‌ च।
‘धर्मशास्त्रों में जुआ और राजा की सेवा का निषेध है।’
इसके पहले के सूत्र में शांडिल्य ने कहा था, राजा में भगवान मत देखना; पद में परमपद मत देखना; धन में ध्यान मत देखना। अब वे इसकी व्याख्या कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि धर्मशास्त्रों ने जुआ और राजा की सेवा का निषेध किया है। इसलिए राजा में भगवान तो कैसे हो सकता है!
बड़े हिम्मतवर धर्मशास्त्र रहे होंगे, जिन्होंने राजा की सेवा को जुए के साथ गिना है। राजनीति है ही जुआ। चालबाजों, धोखेबाजों, पाखंडियों के लिए ही वहां उपाय है। राजनीति सबसे बड़ा जुआ है। अगर जुआरी देखने हों तो दिल्ली में! सब तरह के पागल और सब तरह के जुआरी और सब तरह के शराबी। हालांकि कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि ये शराबी शराब के खिलाफ होते हैं; नशाबंदी के पक्ष में होते हैं। मगर धर्मशास्त्र कहते हैं, पद का नशा सबसे बड़ा नशा है और सबसे घातक।
अब मोरारजी देसाई कहते हैं, नशाबंदी होनी चाहिए। और मोरारजी देसाई से ज्यादा नशे में डूबा हुआ आदमी पाओगे? मौत करीब आने लगी, आखिरी दिन करीब आ रहे हैं, लेकिन नशे की दौड़ है।
पद की दौड़ को मद कहा है शास्त्रों ने। लेकिन अक्सर ऐसा हो जाता है कि जिसको पद का नशा चढ़ गया, उसे फिर और नशे की जरूरत नहीं रहती। उसने सबसे कीमती और सबसे पुरानी और महंगी शराब पा ली। अब उसको क्या जरूरत है? वह नशाबंदी के पक्ष में हो सकता है।
ये जो राजनीति की दौड़ में दौड़ने वाले पागलों की जमात है, इनको चिकित्सा की जरूरत है; इनको मानसिक व्याधियां हैं। सच तो यह है, जो आदमी पद की तलाश में निकलता है वह किसी हीनग्रंथि के कारण ही निकलता है, इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स से ही निकलता है। जिस व्यक्ति के भीतर हीनता की ग्रंथि नहीं होती, वह पद की तलाश में नहीं निकलता। पद की तलाश अपनी हीनता की ग्रंथि को छिपाने का उपाय है। पद पर पहुंच कर आदमी अपने सामने यह सिद्ध कर लेना चाहता है कि कौन कहता है कि मैं ना-कुछ हूं! सिद्ध कर दिया मैंने कि मैं कुछ हूं। लेकिन जरूर इसके भीतर कहीं डर रहा होगा कि अगर मेरे पास पद न हो, धन न हो, तो दुनिया कहेगी कि तुम ना-कुछ हो, और मैं भी जानता हूं कि ना-कुछ तो हूं। इसको भर कर दिखला देना है; दुनिया को समझा देना है कि मैं कुछ हूं।
मगर दुनिया को समझाने से तुम कुछ होते नहीं। दुनिया समझ भी ले तो भी कुछ फल हाथ नहीं आता। कितना ही धन इकट्ठा कर लो, भीतर तुम निर्धन ही रह जाते हो। क्योंकि भीतर का धन तो और ही है। और कितने ही ऊंचे पद पर बैठ जाओ, तुम पदहीन रह जाते हो। क्योंकि भीतर का पद तो और ही है। उसके लिए बाहर की यात्रा नहीं करनी पड़ती। उसके लिए राजधानियों की ओर नहीं जाना पड़ता। उसके लिए तो अंतर्धानी खोजनी पड़ती है, भीतर की यात्रा करनी पड़ती है। उसके लिए दूसरों पर जीत करने की कोई जरूरत नहीं है, अपने को जीतना होता है, आत्मविजय करनी होती है।
धर्मशास्त्र कहते हैं: ‘जुआ और राजा की सेवा का निषेध है।’
राजा बनने की तो बात ही छोड़ो, धर्मशास्त्र कहते हैं, राजा की सेवा का भी निषेध है। उसकी सेवा से भी बचना। क्योंकि जुआरियों, पागलों, नशे में डूबे हुए लोगों से जितने दूर रहो उतना ही अच्छा है। दुष्ट-संग से बचना चाहिए। सत्संग करना चाहिए। राजा की सेवा स्वभावतः तुम्हें बदलेगी, तुम्हें निकृष्ट करेगी। राजा की सेवा में तुम और-और झूठ में निष्णात होते जाओगे। राजा की सेवा में तुम्हारी अंतरात्मा तो मर ही जाएगी।
बड़ी प्रसिद्ध कथा है। चीन का एक महाज्ञानी--भारत की भाषा में कहें तो अवतार--च्वांगत्सु, एक नदी के किनारे बैठा मस्ती से नदी में उठती लहरों को देख रहा था। सुबह का सूरज निकला था, फूल खिले थे, पक्षी गीत गा रहे थे। मछलियां सुबह की ताजी रोशनी में छलांगें भर रही थीं। तभी सम्राट के दो वजीर च्वांगत्सु को खोजते हुए आए और उन्होंने च्वांगत्सु से आकर प्रार्थना की कि सम्राट ने आपकी प्रतिभा की बड़ी खबरें सुनी हैं और सम्राट उत्सुक है और वह चाहता है कि आप उसके प्रधान वजीर बन जाएं। च्वांगत्सु खूब हंसा। वे वजीर थोड़े हतप्रभ भी हुए, उन्होंने पूछा कि आप इस तरह हंस रहे हैं, मामला क्या है? आप हां कहें, यह तो बड़े सौभाग्य का क्षण है। लोग तो दीवाने होते हैं, जिंदगी भर मेहनत करते हैं तब भी नहीं हो पाते हैं। हम भी मेहनत करते-करते थक गए हैं और अभी तक प्रधान वजीर नहीं हो पाए, आपके लिए सौभाग्य अपने आप आया है; यह तो वरदान है। आपकी हंसी से हमें शक होता है।
च्वांगत्सु ने कहा, एक बात का मुझे उत्तर दो। देखते हो, वह पास एक कीचड़ के गड्ढे में एक कछुआ मस्ती से अपनी पूंछ हिला रहा है, कीचड़ में मजा ले रहा है। पूछा च्वांगत्सु ने, देखते हो इस कछुए को कीचड़ में मस्त होते? मैंने सुना है कि सम्राट के महल में एक कछुआ है।
उन वजीरों ने कहा, निश्चित है, अति प्राचीन है, तीन हजार साल पुराना है। सोने के संदूक में बंद है, हीरे-जवाहरात जड़े हैं, उसकी पूजा की जाती है वर्ष में एक दिन। वह बड़ा पवित्र कछुआ है, वह धरोहर है। जब पहली दफा सम्राट के पूर्वज सम्राट बने थे तब से वह चला आया है।
च्वांगत्सु ने पूछा कि मैं तुमसे यह पूछता हूं, अगर इस कछुए से, जो कीचड़ में मजा ले रहा है, तुम पूछो कि तुम सोने की पेटी में बंद होना चाहोगे? हीरे-जवाहरात जड़ी होगी और वर्ष में एक दिन तुम्हारी पूजा भी होगी, तो यह सोने की पेटी में बंद होने के लिए राजी होगा? या इसी कीचड़ में मजे से पूंछ हिलाना पसंद करेगा?
वजीरों ने कहा कि कछुए की बात करते हो तो कछुआ तो कीचड़ में ही पूंछ हिलाना पसंद करेगा, कछुआ जाना पसंद नहीं करेगा सोने के महल में और सोने की पेटी में।
च्वांगत्सु ने कहा, तुम मुझे कछुआ से ज्यादा मूढ़ समझते हो? तुम मुझे कछुआ से ज्यादा बुद्धू समझते हो? भाग जाओ! और दुबारा कभी इस तरफ मत आना। मैं अपनी कीचड़ में मस्त हूं, मुझे राजमहल नहीं चाहिए।
कहते हैं च्वांगत्सु ने वह गांव छोड़ दिया, वह राज्य छोड़ दिया, क्योंकि राजा उसके फिर-फिर पीछे पड़ा।
राजनीति विषाक्त करती है। एक्टन का प्रसिद्ध वचन है: पावर करप्ट्‌स एंड करप्ट्‌स एब्सोल्यूटली। सत्ता विकृत करती है और समग्र रूप से विकृत करती है।
यह चमत्कार तुम रोज देखते हो, फिर भी तुम देख नहीं पाते। तुम जब भी चुनते हो, अच्छे से अच्छे आदमी को चुन कर भेजते हो। लेकिन पद पर पहुंचते से ही वह आदमी वही नहीं रह जाता। पद पर पहुंचते ही सब बदल जाता है। जिसको भेजा था वह बड़ा विनम्र था, झुक-झुक कर नमस्कार करता था। शायद इसीलिए झुक-झुक कर नमस्कार करता था, शायद इसीलिए विनम्रता का आरोपण किए हुए था कि तुम उसे भेजो। पहुंचते से ही सब आरोपण समाप्त हो जाते हैं, सत्ता अपनी नग्न स्थिति में प्रकट होनी शुरू होती है, सब आश्वासन झूठे सिद्ध होते हैं। लेकिन तुम सदा यह आशा रखते हो कि इसने धोखा दे दिया तो कल किसी और को चुनेंगे, परसों किसी और को चुनेंगे। और ऐसा सदियों से तुम लोग चुनते रहे। सदियों से तुम क्रांतियां करते रहे। और हर क्रांति में तुमने बड़ी आशा मानी। और कोई क्रांति कभी पूरी नहीं हुई। और किसी ने कभी कोई आशा पूरी नहीं की।
जो पद पर जाता है वह तुम्हारी आशा पूरी करने को जाता ही नहीं। वह तो तुम्हारी आशा पूरी करने की बात करता है, क्योंकि उसके बिना तुम उसे भेजोगे नहीं। और एक दफे पद पर पहुंच जाता है तो उसकी फिर एक ही चेष्टा होती है--कैसे पद पर बना रहे। क्योंकि अब पद से उतरना बड़ा महंगा सौदा है। क्योंकि जो लोग फूलमालाएं पहना रहे हैं, ये ही कल जूते फेंकेंगे।
जो आदमी पद पर बैठ गया उसकी तकलीफ यह है कि अब वह उतर नहीं सकता। उसने रस ले लिया अहंकार का, अब वहां से पद से उतरने में सारा अहंकार खो जाता है। लोग नमस्कार सिंहासन को कर रहे थे, लेकिन उसने समझा कि मुझे कर रहे हैं। अब वह उतर नहीं सकता। क्योंकि उतरा तो लोग फिर नमस्कार नहीं करते। तुमने देखा, जो लोग पद से खो जाते हैं, जिनके हाथ से पद चले जाते हैं, उनकी हालत क्या रह जाती है? लोग उनसे बदला लेने लगते हैं। लोग कहते हैं कि खूब नमस्कार करवाई थी, खूब चरण दबवाए थे, खूब आदर-सम्मान लिया था हमसे, अब उसका बदला भी लेना होगा। ये ही लोग पत्थर फेंकते हैं, जूतों की माला पहनाते हैं। और ये ही लोग उपेक्षा करने लगते हैं। जो कल एकदम आकाश में था, वह कहां भीड़ में खो जाता है, कुछ पता नहीं चलता।
जो व्यक्ति पद पर पहुंचा, उसको पद को पकड़ रखने की आकांक्षा होती है। फिर वह सब उपाय करता है, सब कुटिलताएं करता है--किसी तरह पद पर बना रहे। उसके पास जो लोग होंगे, उन्हें भी उसकी कुटिलताओं में भागीदार होना पड़ेगा। उसे उसके षड्‌यंत्रों में हिस्सा बंटाना पड़ेगा।
शास्त्र कहते हैं: ‘जुआ और राजा की सेवा का निषेध है।’
द्यूतराजसेवयोः प्रतिषेधात्‌ च।
इसलिए राजा को भगवान तो कहा ही कैसे जा सकता है? अगर राजा भगवान होता, तो शास्त्र कभी यह न कहते कि उसकी सेवा बुरी है। शास्त्र तो कहते हैं: साधु की सेवा करो। सेवा का अर्थ है: उसके पास होने के बहाने खोजो। कभी पैर दबाने के बहाने उसके पास हो लिए। कभी भोजन कराने के बहाने उसके पास हो लिए। बहाने खोजो। क्योंकि जितनी देर तुम उसके पास हो लो, उतना तुम्हारा सौभाग्य है! जितनी वे किरणें तुम्हारे ऊपर पड़ जाएं, उतनी ही तुम्हारी आंखों के खुलने की संभावना बढ़ती है; उतना ही तुम्हारा हृदय विकसित होगा।
इसलिए राजा पराभक्ति का आश्रय नहीं है।
वासुदेवः अपि इति चेत्‌ न आकारमात्रत्वात्‌।
लेकिन फिर सवाल उठता है, वासुदेव अर्थात श्रीकृष्ण में विभूति की आशंका करनी चाहिए या नहीं करनी चाहिए? क्योंकि कई शास्त्र कहते हैं कि कृष्ण विभूतिसंपन्न हैं।
शांडिल्य कहते हैं: ‘वासुदेव में विभूति की आशंका नहीं करनी चाहिए, वे आकार मात्र से ही मनुष्य हैं।’
यह सूत्र बहुमूल्य है।
विभूतियां तो अहंकार से भरे हुए लोग हैं। कुशल हैं, प्रतिभाशाली हैं, मेधावी हैं, कुछ करने की कला जानते हैं, लेकिन अहंकार से भरे हुए लोग हैं। कृष्ण को विभूति नहीं कहा जा सकता। और अगर शास्त्रों ने कहा है तो उपचार मात्र से कहा है। कृष्ण तो अवतार हैं, विभूति नहीं।
शांडिल्य कहते हैं: ‘वे आकार मात्र से ही मनुष्य हैं।’
तुममें और कृष्ण में फर्क क्या है? आकार तो दोनों का एक जैसा है। उसी हड्डी-मांस-मज्जा से तुम बने हो, जिससे कृष्ण बने हैं। भेद क्या है? भेद इतना ही है कि तुम हो और कृष्ण नहीं हैं। तुम आकार के भीतर अहंकार भी हो और कृष्ण सिर्फ आकार मात्र हैं, अहंकार नहीं। वहां भीतर कोई विराजमान नहीं है। वहां भीतर सन्नाटा है, शून्य है। उस शून्य के कारण ही परमात्मा उतर पाता है। उस शून्य में ही उतर पाता है। कृष्ण आकार से तो तुम्हारे जैसे हैं, लेकिन अगर आकार को छोड़ कर जरा भीतर जाओगे तो निराकार को पाओगे। और जहां, जिस आकार में निराकार मिल जाए, वहीं सदगुरु है।
शास्त्रों में मत भटकना, सदगुरु तलाशना। जहां मिल जाए। फिर इसकी फिकर न करना कि वह हिंदू है, कि मुसलमान है, कि ईसाई है, कि बौद्ध है। इसकी फिकर ही मत करना, क्योंकि ये सब आकार की दुनिया की बातें हैं। अगर तुम्हें कभी सौभाग्य से ऐसा आदमी कहीं मिल जाए जिसमें तुम्हें दिखे कि आकार के भीतर निराकार विराजमान है, जिसकी आंखों में तुम झांको और अहंकार न पाओ, तो छोड़ना मत संग-साथ, फिर सब दांव पर लगा देना, फिर मौका देना कि उसका शून्य तुम्हारा शून्य भी बन जाए। शून्य संक्रामक है।
ध्यान रखना, जिस तरह बीमारियां संक्रामक होती हैं, वैसे ही स्वास्थ्य भी संक्रामक होता है। और जिस तरह दुख संक्रामक होता है, उसी तरह आनंद भी संक्रामक होता है। दुखी आदमी के पास बैठ कर तुमने अनुभव किया ही होगा, अचानक तुम उदास हो जाते हो। चार लोग दुखी बैठे हों, तुम हंसते हुए आए थे और उनके पास बैठ कर तुम्हें अचानक लगता है तुम भी उनके दुख में डूब गए। वहां दुख की तरंग थी, उसने तुम्हारे भीतर भी दुख का साज छेड़ दिया। वहां दुख की हवा थी, उसमें तुमने श्वास ली कि तुम भी दुख पी गए। कभी तुमने यह भी अनुभव किया होगा कि तुम दुखी थे और चार हंसते हुए लोगों में जा बैठे, और तुम भूल ही गए कि दुख कहां था, कहां गया! तुम हंसने लगे। तुम उनके साथ गीत गुनगुनाने लगे। बाद में तुम्हें याद आएगा कि अरे, मैं इतना दुखी गया था, मेरे दुख का क्या हुआ? तुम एक नई तरंग में पड़ गए।
प्रत्येक व्यक्ति की तरंग है। और हम सब अनुभव से जानते हैं यह, कि किसी व्यक्ति के पास जाओ तो लौट कर ऐसा लगता है कि उसने चूस लिया। और किसी व्यक्ति के पास जाओ तो लौट कर ऐसा लगता है कि उसने जीवन दिया। किसी व्यक्ति के पास बैठ कर ऐसा लगता है, और बैठे रहें, और बैठे रहें। और कोई व्यक्ति आ जाता है तो ऐसा लगता है कि महानुभाव कब जाएं, कैसे इनसे छुटकारा हो! ये तुम्हारे सामान्य अनुभव हैं, लेकिन तुमने इन अनुभवों पर बहुत विचार नहीं किया है। अगर इन अनुभवों को तुम थोड़ा सजग होकर समझो तो तुम्हें सदगुरु खोजना कठिन नहीं होगा। जिसके पास बैठ कर सुख-दुख दोनों भूल जाएं, शांति का अनुभव हो...शांति का अर्थ होता है: जहां न सुख है न दुख है।
ध्यान रखना इस भेद को। किसी के पास बैठ कर तुम उदास हो जाते हो, किसी के पास बैठ कर प्रसन्न हो जाते हो, ये दोनों ही संसार की अवस्थाएं हैं। सदगुरु कौन? जिसके पास बैठ कर तुम दुख भी भूल जाते हो, सुख भी भूल जाते हो। तुम अपने को ही भूल जाते हो--कहां सुख, कहां दुख! जिसके पास बैठ कर एक परम शांति की झंकार सुनाई पड़ने लगती है, एक सन्नाटा छा जाता है; जिसके पास बैठ कर शून्य होने लगते हो; जिसके पास बैठ कर निराकार फैलने लगता है तुम्हारे प्राणों में।
लोग शांति शब्द का प्रयोग करते हैं, लेकिन अर्थ भी नहीं जानते। लोग शांति से यही अर्थ लेते हैं--सुख। शांति का अर्थ सुख नहीं होता। सुख भी एक उपद्रव है, जैसे दुख एक उपद्रव है। दुख प्रीतिकर उपद्रव नहीं है, सुख प्रीतिकर उपद्रव है। दुख का भी तनाव होता है, सुख का भी तनाव होता है। एक तनाव को तुम पसंद करते हो इसलिए सुख कहते हो, एक तनाव को तुम नापसंद करते हो इसलिए दुख कहते हो, मगर दोनों तनाव हैं। और दोनों विक्षुब्ध चित्त की अवस्थाएं हैं। दोनों थकाते हैं।
तुमने खयाल किया, सुख से भी तुम थक जाते हो। रोज ही रोज तमाशा चलता रहे! एकाध दिन मिल जाए तुम्हें लाटरी तो ठीक है, मगर रोज मिलने लगे तो तुम थक जाओगे। और तुमने सोचा है कभी कि कभी-कभी दुख भी इतना नहीं तोड़ता जितना सुख तोड़ देता है! कभी-कभी लोग सुख के कारण मर जाते हैं; इतने सुख में इतने उद्विग्न हो जाते हैं। राह चलते तुम्हें अचानक एक लाख रुपये की थैली मिल जाए, भले-चंगे चले जा रहे थे, कोई बीमारी न थी, कुछ न था, एकदम हार्ट अटैक हो जाए, वहीं गिर पड़ो थैली के साथ, इतना सुख एकदम से न झेल पाओ। कहते हैं, किसी को सुख की खबर भी देनी हो तो धीरे-धीरे देनी चाहिए ।
मैंने सुना है, ऐसा हुआ, एक आदमी को पांच लाख की लाटरी मिल गई। वह घर नहीं था। उसकी पत्नी बहुत घबड़ाई। क्योंकि वह आदमी तीस साल से लाटरी की टिकटें खरीद रहा था। धीरे-धीरे तो भूल ही गया था कि लाटरी मिलेगी भी। लेकिन आदतवश हर महीने खरीद लेता था। पत्नी बहुत घबड़ा गई। घर में कभी पांच सौ रुपये भी इकट्ठे नहीं आए थे। पांच लाख! पत्नी समझदार थी, उसने कहा, ये पांच लाख तो जान ले लेंगे मेरे पति की। वह भागी हुई पड़ोस में गई। एक पादरी पास में ही रहता था। उसने पादरी से कहा, आप ही कुछ उपाय करें। अब मैं क्या करूं? यह पांच लाख की लाटरी मिल गई है, वे दफ्तर से आते ही होंगे; पांच लाख की खबर मिल कर उन्हें क्या हो जाए!
पादरी ने कहा, घबड़ाओ मत, मैं आता हूं।
पादरी आया, उसने कहा, मैं धीरे-धीरे खबर दूंगा। पति लौटा। पादरी ने कहा, सुनते हो, तुम्हें एक लाख रुपया लाटरी में मिला। पांच हिस्से करके, उसने सोचा कि जब यह एक लाख सम्हाल लेगा, इसकी धकधक वापस सामान्य हो जाएगी, तो फिर कहूंगा कि एक लाख नहीं, दो लाख मिला है। लेकिन मामला बड़ा गड़बड़ हो गया। उस आदमी ने कहा, एक लाख! सच कह रहे हो?
उस पादरी ने कहा, बिलकुल सच कह रहा हूं, एक लाख।
तो उसने कहा, अगर एक लाख मिला होगा तो पचास हजार तुमको देता हूं।
वह पादरी वहीं मर गया। उसने सोचा ही नहीं था, पचास हजार एकदम से! वह तो सहायता करने आया था।
सुख की भी अपनी उत्तेजना है, जैसे दुख की उत्तेजना है। और शांति शब्द को लोग समझते नहीं। शांति का अर्थ है: जहां न सुख, न दुख।
मैंने सुना है, एक पति महोदय चारों धाम की यात्रा पर निकल पड़े। जाते-जाते पत्नी से बोले, मैं शांति की खोज में जा रहा हूं। कर्कशा पत्नी ने छाती पीट ली और बोली, रुक! अब किस मरी शांति के पीछे जा रहे हो? दस शांतियां दफ्तर में बैठी हैं, एक मैं घर में पड़ी हूं!
प्रत्येक व्यक्ति की अपनी समझ का तल है।
शांति का अर्थ होता है: एक निर्विकार चित्त की दशा, जहां कोई उत्तेजना नहीं है। सब चुप है। बिलकुल चुप है। न इस तरफ, न उस तरफ। सब मध्य में ठहर गया है। सब संतुलन है। संतुलन का नाम शांति।
जिस व्यक्ति के पास तुम्हें धीरे-धीरे शांति का स्वाद मिले, समझ लेना कि वह द्वार आ गया जहां झुक जाना है। श्रद्धा का मंदिर आ गया। झरोखा यहां से खुलेगा भक्ति का।
‘वासुदेव श्रीकृष्ण में विभूति की आशंका नहीं करनी चाहिए।’
वे केवल विभूतिसंपन्न ही नहीं हैं। ऐसा तुम सोचोगे तो गलती करोगे। फिर तुम चूक ही जाओगे।
‘वे आकार मात्र से ही तुम जैसे हैं, मनुष्य हैं।’
जो व्यक्ति आकार से तुम जैसा और आत्मा से परमात्मा जैसा है, उसका नाम सदगुरु। कृष्ण या बुद्ध, जरथुस्त्र या मोहम्मद, जीसस या महावीर, आकार से ही तुम जैसे हैं। उनके भीतर जो उतरेगा, जरा सीढ़ियां पार करेगा, महावीर के कुएं में जाएगा गहरा, या मूसा के कुएं में जाएगा गहरा, अचानक पाएगा--आकार तो पीछे रह जाता है, निराकार खुल जाता है। द्वार में आकार होता है, लेकिन द्वार से तुम निकले कि आकाश, निराकार मिल जाता है। गुरु तो द्वार है। इसलिए नानक ने ठीक ही कहा, मंदिर को नाम दिया--गुरुद्वारा। वह द्वार ही मात्र है। और नानक का बहुत जोर था गुरु पर। समस्त ज्ञानियों का रहा है।
प्रत्यभिज्ञानात्‌ च।
‘इस विषय में प्रत्यभिज्ञा भी उपलब्ध है।’
शांडिल्य कहते हैं: ऐसा मैं कहता हूं इसलिए मत मान लेना। इस विषय में तुम स्वयं का अनुभव भी कर सकते हो, प्रत्यभिज्ञा भी हो सकती है। तुम खुद इस प्रतीति में जा सकते हो। ये सूत्र किसी विचारक के द्वारा कहे गए सूत्र नहीं हैं। ये किसी अनुभव के वचन हैं, अनुभवी के जीवन का सार हैं।
शांडिल्य कहते हैं: ‘प्रत्यभिज्ञानात्‌ च।’
और मैं तुमसे इतना ही नहीं कहता कि ऐसा है, मैं तुमसे कहता हूं, ऐसे अनुभव को तुम भी पा सकते हो। तुम भी ऐसे व्यक्ति को खोज सकते हो जो सिर्फ विभूति नहीं है वरन अवतार है। जो अपने प्रयास से, अपनी अस्मिता से, अपनी खोज से कुछ विशिष्ट नहीं हो गया है, बल्कि अपने को मिटा दिया है और विशिष्ट हो गया है। जिसने अपने को पोंछ डाला है और परमात्मा को जगह दे दी है।
कुफ्र क्या, तस्लीस क्या, इल्हाद क्या, इस्लाम क्या,
तू ब-हरसूरत किसी जंजीर में जकड़ा हुआ
तोड़ सकता हो तो पहले तोड़ दे यह कैदो-बंद
बेड़ियों के साज पर नग्माते-आजादी न गा
सबसे बड़ी चीज यही है कि किसी तरह तुम अपनी बेड़ियों को तोड़ दो। लेकिन लोग बेड़ियों को पकड़े बैठे हैं। लोगों ने बेड़ियों को आभूषण समझा है। हिंदू हूं, मुसलमान हूं, ईसाई हूं, जैन हूं, बौद्ध हूं--बेड़ियां हैं। जब तक तुम्हें सदगुरु नहीं मिला, तब तक तुम सिर्फ एक कैदी हो, और कुछ भी नहीं। न हिंदू, न मुसलमान, न ईसाई, न बौद्ध; तब तक यह सब बातचीत है। सदगुरु मिले तो कुछ हो। तो प्रत्यभिज्ञा हो।
तोड़ सकता हो तो पहले तोड़ दे यह कैदो-बंद
बेड़ियों के साज पर नग्माते-आजादी न गा
लेकिन तुम अपनी बेड़ियों को ही बजा कर स्वतंत्रता का गीत गा रहे हो। तुम बेड़ियों पर ताल बजा रहे हो, स्वतंत्रता का गीत गा रहे हो। स्वतंत्रता ऐसे नहीं फलती। मोक्ष ऐसे नहीं मिलता। भगवत्ता ऐसे उपलब्ध नहीं होती। कुछ दांव पर लगाना पड़ेगा। और मजा यह है कि सिर्फ बेड़ियों के अतिरिक्त और तुम्हारे पास है भी क्या दांव पर लगाने को? लेकिन लोग बेड़ियां भी दांव पर नहीं लगाते। मार्क्स का प्रसिद्ध वचन है किसी और संदर्भ में कि दुनिया के मजदूरो, एक हो जाओ, तुम्हारे पास खोने को है क्या सिवाय बेड़ियों के! यह किसी और संदर्भ में कही गई बात है, लेकिन आध्यात्मिक अर्थों में बड़ी बहुमूल्य हो सकती है। मैं तुमसे कहता हूं: इकट्ठे हो जाओ, एकजुट हो जाओ, आत्मकेंद्रित हो जाओ और एक बार दांव पर लगा ही दो! तुम्हारे पास है भी क्या दांव पर लगाने को, सिवाय तुम्हारी बेड़ियों के! और बेड़ियों को दांव पर लगाने से जो मिलती है, वह है आजादी।
प्रत्यभिज्ञा हो सकती है। पहचान हो सकती है। आंख में आंख डाल कर मुलाकात हो सकती है। आमने-सामने हो सकती है बात। अनुभव हो सकता है।
शांडिल्य कहते हैं: ‘मेरी मान मत लेना, प्रत्यभिज्ञा करो।’
प्रत्यभिज्ञानात्‌ च।
तुम ऐसे व्यक्ति को सदा पा सकते हो। यह पृथ्वी कभी भी अवतार से खाली नहीं है। लेकिन तुम्हें अवतार मिलता नहीं, उसका भी कारण है। तुम किसी पुराने अवतार को खोज रहे हो जो कि अब नहीं है। कोई कृष्ण को खोज रहा है, कृष्ण अब नहीं हैं। कोई क्राइस्ट को खोज रहा है, क्राइस्ट अब नहीं हैं। और मजा यह है कि जब क्राइस्ट थे तब तुम किसी और को खोज रहे थे। तब तुम मूसा को खोज रहे थे। तब मूसा जा चुके थे। जब बुद्ध थे, तब तुम राम को खोज रहे थे। तब राम जा चुके थे। और जब राम थे, तब तुम्हें राम से कुछ लेना-देना नहीं था। तब तुम किसी और को खोज रहे थे, किसी और प्राचीन पुरुष को, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तुम कुछ और खोज रहे थे।
तुम सदा अतीत को खोजते हो, इसलिए चूकते हो। अन्यथा पृथ्वी पर जैसे रोज सूरज आता है, ऐसे ही रोज परमात्मा भी आता है। लेकिन तुमने एक धारणा बना रखी है कि जब तक तुम मोरमुकुटधारी, हाथ में बांसुरी लेकर कृष्ण की तरह न आओगे, मैं तुम्हें स्वीकार करने वाला नहीं। और परमात्मा तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी करे, इसकी कोई जरूरत नहीं है। पुनरुक्ति होती ही नहीं इस जगत में। कृष्ण बस एक बार आते हैं, दुबारा नहीं। हालांकि कृष्ण ने कहा है कि जब संकट होगा तब मैं आऊंगा। लेकिन ध्यान रखना, कृष्ण की शक्ल में नहीं, वहीं भूल हो रही है। नहीं तो संकट तो काफी है, कृष्ण को आ जाना चाहिए। अब और क्या संकट ज्यादा होगा? और क्या अधर्म ज्यादा होगा? और नास्तिकता क्या ज्यादा होगी? या तो कृष्ण ने झूठा वचन दिया था, कि अब आते नहीं, कि भूल-भाल गए, कि वचन ऐसे ही था जैसे राजनीतिज्ञ देते हैं, बहलावा था, भटकावा था, धोखा था, या फिर कुछ बात और है।
बात यह है कि जो एक दफा व्यक्ति पैदा हुआ, दुबारा वैसा व्यक्ति पैदा नहीं होता। परमात्मा रोज नये व्यक्ति गढ़ता है। नये ढंग से गढ़ता है। जरूरतें बदल जाती हैं। तो वही अवतार काम नहीं आते। नई देहों में उतरता है, नये शब्दों में बोलता है, क्योंकि भाषा बदल जाती है, लोग बदल जाते हैं, रीति-रिवाज बदल जाते हैं। अब कृष्ण अगर अचानक प्रकट हो जाएं एम.जी.रोड पर तो पुलिस उनको ले जाएगी पकड़ कर कि आप यहां क्या कर रहे हैं? मोरमुकुट क्यों बांधा? समझेगी कोई हिप्पी है। और बांसुरी किसलिए लटकाए हुए हो? जो कृष्ण की पूजा करते हैं वे भी नहीं पहचानेंगे। वे भी कहेंगे कि कोई चालबाज है। यह कोई बात है! यह कोई ढंग है एम.जी.रोड पर खड़े होने का! और अगर गोपियां भी नाच रही हों पास, तब तो तुम सभी खिलाफ हो जाओगे। वह तो तुम कहानी में पढ़ लेते हो, एक बात है। स्त्रियां नहा रही हों और कृष्ण उनके कपड़े लेकर झाड़ पर चढ़ जाएं, तो तुम क्या व्यवहार करोगे उनसे?
परिस्थिति बदल जाती है, संदर्भ बदल जाता है, अर्थ बदल जाते हैं। फिर वही कहानियां दोहराने का कोई अर्थ नहीं है। अब रामचंद्रजी आ जाएं लिए धनुषबाण, तो लगेंगे कोई भील इत्यादि। शायद गणतंत्र-दिवस पर दिल्ली जा रहे हैं, प्रदर्शन करेंगे वहां कुछ। तुम पहचान न पाओगे।
परमात्मा उस रूप में उतरता है जिस रूप में तुम हो। और तुम्हारी अड़चन यह है कि तुम्हारा अपने प्रति कोई सम्मान नहीं है। इसलिए अगर परमात्मा को तुम अपनी ही शक्ल में पाते हो तो तुम अंगीकार नहीं कर पाते। तुम कहते हो कि यह व्यक्ति तो हमारे जैसा ही है। और तुम्हारा अपने प्रति बड़ा अपमान है। तुम अपने को परमात्मा मान ही नहीं सकते। और जब तक तुम यह न स्वीकार करो कि तुम्हारे भीतर भी परमात्मा की संभावना है, तब तक तुम अवतार को न पहचान पाओगे। कम से कम संभावना तो स्वीकार करो। संभावना से समझ का द्वार खुलता है।
प्रत्यभिज्ञा हो सकती है, पहचान हो सकती है, लेकिन तलाशो आस-पास; तलाशो यहां, अभी; तलाशो इस जगत में जो वर्तमान है। जरूर तुम पा लोगे। पृथ्वी कभी खाली नहीं है। किसी न किसी घट में परमात्मा का अमृत भरता ही रहता है। क्योंकि कोई न कोई कहीं न कहीं शून्य होता ही रहता है।
और ध्यान रखना, व्यर्थ की बातों में मत पड़ना कि यह कलियुग है। व्यर्थ की चिंताओं में मत पड़ जाना कि कलियुग में कहां भगवान! कि भगवान सतयुग में होते थे! समय में कोई भेद नहीं है। परमात्मा के लिए समय एक जैसा है, एक ही वर्तुलाकार है। जो व्यक्ति भी सरल हो जाता है उसका सतयुग में प्रवेश हो जाता है। सतयुग और कलियुग समय के नाम नहीं हैं, व्यक्तियों की चित्तदशाओं के नाम हैं। तुम्हारे पड़ोस में बैठा हुआ आदमी सतयुग में हो सकता है, तुम कलियुग में हो सकते हो। सतयुग का अर्थ इतना ही होता है--श्रद्धावान, सत्य की खोज में लगा; सत्य पर जिसका भरोसा है। सभी बच्चे सतयुगी होते हैं और सभी बूढ़े कलियुगी हो जाते हैं। कलियुग बुढ़ापे का नाम है, वह चौथी अवस्था है। लेकिन जरूरी नहीं है कि सभी बूढ़े कलियुगी हो जाएं। अगर कोई चाहे तो बुढ़ापे तक सतयुगी रह सकता है, बच्चे जैसा निर्दोष रह सकता है। मत दो तर्क को जगह, मत दो संदेह को जगह, भरोसे पर भरोसा करो। तुम भी भरोसा करते हो, लेकिन तुम भरोसा संदेह पर करते हो। तुम्हारा भी भरोसा है, लेकिन तुम्हारा भरोसा गलत पर है, नकार पर है; तुम भरोसा कांटों पर करते हो, फूलों पर नहीं करते। इसलिए अगर फूल तुम्हारे लिए खो गए हैं तो कुछ आश्चर्य नहीं है। और अगर तुम्हें कांटे ही कांटे मिलते हैं तो भी कुछ आश्चर्य नहीं है, क्योंकि जिस पर तुम्हें भरोसा है, वही तुम्हें मिलेगा। तुम्हारा भरोसा ही तुम्हारा जीवन बन जाता है। तुम्हारा भरोसा ही तुम्हारी नियति हो जाता है। तुम्हारा भरोसा ही तुम्हारा भाग्य है। इसलिए सोच-समझ कर भरोसा करना। गलत पर भरोसा किया, गलत हो जाओगे। और अधिक लोग गलत पर भरोसा किए बैठे हैं।
मेरे पास एक व्यक्ति आया। उसने कहा, मैं तो नास्तिक हूं, मैं तो संदेह को मानता हूं। अगर आप कुछ प्रत्यक्ष प्रमाण दे सकें ईश्वर के तो मैं भरोसा कर सकता हूं।
मैंने उस व्यक्ति को पूछा, संदेह से कभी किसी को कुछ मिला है, इसका तुम प्रमाण दे सकते हो? अगर प्रमाण नहीं दे सकते कि संदेह से कभी किसी को कुछ मिला है, तो तुम संदेह पर भरोसा क्यों करते हो? संदेह पर तुम्हारा भरोसा कहां से आया? तुमने जीवन में संदेह से कुछ पाया है?
उसने कहा, मिला तो कुछ भी नहीं।
तो फिर मैंने कहा, यह कैसा भरोसा? श्रद्धा पर भरोसा करने के लिए प्रमाण मांगते हो, संदेह पर भरोसा करने के लिए प्रमाण नहीं मांगते। यह तो बड़ी ज्यादती हो गई। गलत पर भरोसे के लिए इतनी तत्परता, सही पर भरोसे के लिए इतना विरोध! तुमने तय ही कर रखा है गलत में जीने के लिए? अगर तुमने तय कर रखा है, तो तुम्हें कोई भी नहीं बदल सकता।
परमात्मा मौजूद है, अनेक-अनेक रंगों, अनेक-अनेक रूपों में। हर पड़ोस में मौजूद है, देखने वाली आंख चाहिए। और देखने वाली आंख श्रद्धा से उत्पन्न होती है, समर्पण से उत्पन्न होती है, थोड़ा अहंकार गलाने से उत्पन्न होती है।
खिरमने-दिल जला रहा हूं मैं
नक्शे-हस्ती मिटा रहा हूं मैं
तू न मग्मूम हो मगर ऐ दोस्त!
तेरी ही सिम्त आ रहा हूं मैं
तुम इधर मिटते हो कि उधर तुम परमात्मा के करीब पहुंचने लगते हो। उस आखिरी मित्र के करीब पहुंचने लगते हो। जितने मिटोगे, उतने उसके पास हो जाओगे। जितने तुम रहोगे, उतना वह दूर रहेगा। परमात्मा और तुम्हारे बीच की दूरी तुम्हारे होने की सघनता पर निर्भर है। अगर कोई व्यक्ति कहता है कि मुझे परमात्मा नहीं दिखाई पड़ता, तो उसका केवल इतना ही मतलब है कि वह इतना सघन हो गया है कि बिलकुल पत्थर हो गया है। परमात्मा तरलता में मिलता है। बिखरो, पिघलो, मिटो।
प्रत्यभिज्ञानात्‌ च।
शांडिल्य कहते हैं: चाहो तो तुम्हें प्रत्यभिज्ञा हो सकती है। ऐसा आदमी मिल सकता है जो आकार मात्र से आदमी हो और भीतर निराकार हो और भीतर परमात्मा हो। ऐसी अपूर्व घटना घटती है। उस अपूर्व घटना का नाम ही अवतार है।
कृष्ण को फिर क्यों विभूति कहा है?
वृष्णिषु श्रेष्ठत्वम्‌ एतत्‌।
यह वृष्णि वंश की मर्यादा बढ़ाने के अर्थ में कहा है। यह साहित्यिक उक्ति है, अस्तित्वगत नहीं। अस्तित्व को ध्यान में रखें तो कृष्ण परमात्मा हैं। उनके निराकार को ध्यान में रखें तो कृष्ण परमात्मा हैं। अगर उनके आकार को ध्यान में रखें तो विभूति हैं। अपूर्व हैं। जिन्होंने उनकी देह भी देखी, जिन्होंने उन्हें ऊपर-ऊपर से देखा, जो उनके भीतर नहीं भी गए, उन्हें भी तो उनका थोड़ा सौंदर्य अनुभव हुआ, उन्होंने उन्हें विभूति कहा है। जिन्होंने बुद्ध को बाहर से देखा, कभी बुद्ध के शिष्य नहीं बने--और ध्यान रखना, शिष्य बने बिना भीतर से देखने का कोई उपाय नहीं है; सिर्फ शिष्य ही अंतरंग में प्रवेश करता है--जो बुद्ध के पास बाहर से देख कर लौट गए, उन्हें भी लगा कि अपूर्व विभूति हैं। वह शांति, वह शून्य, वह प्रसाद, वे प्यारे वचन, उनका उठना-बैठना, वह सब अपूर्व है। जो बाहर से आए, वे सोच कर गए विभूति हैं। जिन्होंने भीतर झांका, उन्होंने जाना कि भगवान हैं।
एवं प्रसिद्धेषु च।
‘और-और प्रसिद्ध अवतारों में भी ऐसा ही है।’
फिर शांडिल्य कहते हैं कि यह कृष्ण के संबंध में ही सच नहीं है, जितने भी अवतार हुए हैं, और जितने भी अवतार पहचाने गए हैं, उन सबमें ऐसा ही है। बहुत से अवतार पहचाने नहीं गए। जो नहीं पहचाने गए, उन्हें लोगों ने केवल विभूति जाना। जो पहचाने गए, जो प्रसिद्ध हो गए, जिनके अंतरंग में कुछ लोग उतर गए, उन्होंने ये दोनों बातें देखीं।
यहूदियों ने जीसस को सूली पर चढ़ाया सिर्फ इस वजह से कि जीसस ने घोषणा की अवतार होने की। यहूदियों में ऐसी कोई धारणा न थी अवतार होने की। पैगंबर हो सकता था कोई, अवतार नहीं। जीसस के पहले पैगंबर हुए थे, प्रोफेट। पैगंबर का अर्थ होता है, जो केवल संदेश लाता है। है तो मनुष्य ही, भगवान नहीं है। अवतार की यह अपूर्व धारणा भारत में ही जन्मी। क्योंकि भारत ने जितनी खोज की है इस अंतर्लोक में, किसी और देश ने नहीं की। तो यहूदियों में तो पैगंबर होता था। लेकिन जीसस ने बड़ी अड़चन खड़ी कर दी। और जीसस को यह अड़चन भारत से ही मिली।
इस बात के अब काफी प्रमाण इकट्ठे हो गए हैं कि जीसस अठारह वर्ष तक भारत में रहे। बाइबिल में केवल बारह वर्ष की उम्र तक का उल्लेख मिलता है और फिर तीस साल के बाद का उल्लेख मिलता है, अठारह साल बिलकुल नदारद हैं। बाइबिल में कोई खबर नहीं है--उन अठारह सालों में जीसस का क्या हुआ? यह लंबा अंतराल है। इस संबंध में एक भी घटना का उल्लेख न होना सिर्फ इस बात की सूचना है कि जीसस यहूदियों के बीच नहीं थे। और इसके बहुत प्रमाण हैं अब उपलब्ध कि जीसस भारत में थे। ये अठारह वर्ष जीसस का भारत में रहना, यहां उन्होंने बहुत सी बातें सीखीं, उनमें एक बात थी अवतार की धारणा। न केवल धारणा सीखी बल्कि उस धारणा का अनुभव भी किया। वे अवतार बन गए। उन्होंने अपने को पोंछ डाला, मिटा डाला। उन्होंने परमात्मा को अपने भीतर उतरता देखा।
जीसस का यहूदियों द्वारा सूली पर लटकाया जाना सिर्फ इस बात का सबूत है कि जीसस ने कुछ ऐसी बातें कहीं जो यहूदी परंपरा में बिलकुल ही नहीं थीं। इतनी विजातीय बातें कहीं कि परंपरा उनको लेने को राजी नहीं हुई। परंपरा ने कहा, यह तो हद की बात हो गई। परंपरागत पुरोहितों ने, पंडितों ने कहा कि यह तो हो ही नहीं सकता। कोई व्यक्ति परमात्मा होने का दावा करे!
अब यह बड़े मजे की बात है कि कई बार कैसे उलटे अर्थ हो जाते हैं। परमात्मा का दावा जीसस इसीलिए कर रहे हैं कि अब अहंकार नहीं रहा है, लेकिन दूसरों को ऐसा समझ में आता है कि यह तो महाअहंकार की बात हो गई कि कोई व्यक्ति परमात्मा का दावा करे। यह दावा जीसस नहीं कर रहे हैं, यह दावा परमात्मा ही कर रहा है जीसस के भीतर। जीसस ने तो अपना गीत बंद कर दिया। अब तो वे बांसुरी मात्र हैं, जो भी गीत गाया जा रहा है वह परमात्मा का है। लेकिन बाहर से तो यही दिखाई पड़ेगा कि यह आदमी बड़ा अहंकारी है। इससे बड़ा अहंकार और क्या होगा, यह आदमी कहता है: मैं भगवान! मैं ईश्वर!
भारत में जीसस रहे होते तो हमने सूली न लगाई होती। हमने किसी को सूली नहीं लगाई। हम इस सत्य के ज्ञाता रहे हैं। हमें इसकी प्रत्यभिज्ञा है। हमने इसे हजारों-हजारों तरह से पहचाना है। हमने कृष्ण में देखा, बुद्ध में देखा, महावीर में देखा, पार्श्व में देखा, नेमि में देखा, जैनों के चौबीस तीर्थंकरों में देखा, हिंदुओं के अवतारों में देखा, हमने न मालूम कितने लोगों में देखा इस घटना को घटते, यह घटना अनहोनी नहीं है, यह घटना नई नहीं है। हमने जीसस को भी आत्मसात कर लिया होता। हमने उन्हें स्वीकार कर लिया होता। वे हमारे एक अवतार हो गए होते। हमारी छाती बड़ी है। हम अंगीकार करना जानते हैं। और फिर हमें इस बात की प्रत्यभिज्ञा है, इसे हम झुठला नहीं सकते।
लेकिन यहूदी बरदाश्त नहीं कर सके, जीसस को सूली लगी। मंसूर को सूली लगी, मुसलमान बरदाश्त नहीं कर सके। क्योंकि मुसलमान भी यहूदी विचारधारा की ही धारा हैं, उसी की प्रशाखा हैं। मुसलमान-ईसाई, दोनों ही यहूदी धर्म से ही पैदा हुई शाखाएं हैं। मुसलमानों में भी पैगंबर की धारणा है। मोहम्मद को भी वे अवतार नहीं कह सकते हैं। मोहम्मद भी संदेशवाहक हैं--खबरें लाने, ले जाने वाले, चिट्ठीरसा, इससे ज्यादा मूल्य नहीं है। तो मंसूर ने जब घोषणा की--अनलहक! मैं परमात्मा हूं! तो मुसलमान बरदाश्त नहीं कर सके। और मंसूर ठीक ही कह रहा था। और ऐसा नहीं है कि मोहम्मद को यह अनुभव नहीं हुआ था। मोहम्मद को भी यह अनुभव हुआ था, लेकिन मोहम्मद ने कभी यह कहा नहीं। मोहम्मद ज्यादा व्यावहारिक व्यक्ति हैं, मंसूर पागल है, व्यावहारिक नहीं है।
मंसूर के गुरु ने, जुन्नैद ने मंसूर से कहा था, देख, यह बात मत कह! मुझे भी मालूम है, मुझे भी इसकी प्रत्यभिज्ञा है, मैं भी जानता हूं कि मैं परमात्मा हूं, मगर तू यह बात कह मत, जैसे मैं चुप हूं, ऐसे ही तू भी चुप रह। क्योंकि तू देखता है, आस-पास जो भीड़ है, अज्ञानियों की है। वे मार डालेंगे तुझे। जुन्नैद चुप ही रहा। और जब मंसूर नहीं माना--मंसूर की भी मजबूरी थी, वह जब अपनी मस्ती में आ जाता, अपनी समाधि में आ जाता, तो बस घोषणा कर देता--अनलहक! अहं ब्रह्मास्मि! मैं ईश्वर हूं! जब होश में लौटता तो वह माफी भी मांगता जुन्नैद से कि क्षमा करो, आपकी आज्ञा का उल्लंघन हो गया, आपने मना किया था, आप मेरे गुरु हैं। मगर मैं भी क्या करूं? वह मेरे भीतर से बोलता है। और जब बोलता है, तब मैं रोक नहीं सकता। जुन्नैद ने कहा कि देख, अगर तू रुका नहीं तो तू अपने हाथ से अपनी सूली निश्चित करवा रहा है। यह देश तुझे स्वीकार न करेगा। ये लोग तुझे स्वीकार न करेंगे। इनकी ऐसी प्रत्यभिज्ञा नहीं है। ये तेरा आकार ही देखते हैं; ये तेरे भीतर जो निराकार फल रहा है, नहीं देखते। मैं देखता हूं, लेकिन ये तुझे नहीं पहचानेंगे, ये तुझे मार डालेंगे।
और यही हुआ। जुन्नैद की बात सही हुई, मंसूर मारा गया। लाखों लोगों की भीड़ इकट्ठी हुई थी उस घटना को देखने के लिए जब मंसूर को काटा गया। और उसे बड़ी बेरहमी से मारा गया, जीसस को भी इस बेरहमी से नहीं मारा गया था। पहले उसके पैर काट दिए, फिर उसके हाथ काट दिए, फिर उसकी जबान काटी, एक-एक टुकड़े कर-कर के उसको मारा--और वह अभी जिंदा है, और उसके एक-एक टुकड़े किए जा रहे हैं। लेकिन वह हंसता रहा, वह प्रसन्न रहा, वह अनलहक की घोषणा करता रहा। लोग पत्थर फेंक रहे हैं। जुन्नैद भी आया था उस भीड़ में। लोग जब पत्थर फेंक रहे थे तब जुन्नैद ने एक गुलाब का फूल उसकी तरफ फेंका।
यह बड़ी प्यारी घटना है। मंसूर हंस रहा था। लोग पत्थर फेंक रहे थे, सिर से खून बह रहा था, पैर काट डाले गए थे, हाथ काटे जा रहे थे, और हंस रहा था, पत्थरों को ऐसे झेल रहा था जैसे फूल हों। लेकिन जब जुन्नैद ने एक फूल फेंका गुलाब का, तो रोने लगा। किसी ने, पास खड़े भक्त ने पूछा, यह मामला क्या है? इतने लोग पत्थर फेंक रहे हैं और तुम नहीं रोए और जुन्नैद ने एक फूल फेंका और तुम रोए!
मंसूर ने कहा, क्योंकि ये लोग तो जानते नहीं कि मैं कौन हूं और जुन्नैद जानता है। इसलिए उसका फूल भी मुझे पत्थर जैसा लग रहा है। जुन्नैद पहचानता है, उसको प्रत्यभिज्ञा है कि मैं जो कह रहा हूं ठीक कह रहा हूं। ये लोग तो नासमझ हैं, ये पत्थर भी फेंक रहे हैं तो क्षमा योग्य हैं; लेकिन जुन्नैद का फूल भी कष्टदायी है। जुन्नैद तो जानता है।
लेकिन जुन्नैद व्यावहारिक आदमी था। ऐसे ही मोहम्मद व्यावहारिक व्यक्ति थे, बात को छिपा गए। जीसस मंसूर जैसे ही अव्यावहारिक व्यक्ति थे। और मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं, मूसा को भी पता था; और जो पैगंबर यहूदियों में हुए, उनको भी पता था; लेकिन उन्होंने यह बात कही नहीं। इसको पचा गए। इसको छुपा गए। कबीर ने अपने भक्तों से कहा है कि जब हीरा मिल जाए तो जल्दी से गांठ गठिया कर चुपचाप अपने भीतर छिपा लेना, बताना मत, किसी को कहना मत, क्योंकि लोग नासमझ हैं।
लेकिन इस देश में हजारों साल की बहुमूल्य परंपरा है कि हमने आकार में निराकार देखा है। और जो एक बार हुआ है, वह बार-बार हो सकता है। जो एक व्यक्ति में हुआ है, वह सभी में हो सकता है। जो एक में घटा है, वह सभी की नियति है। जो एक बीज खिला है और फूल बना है, तो सभी बीज खिल सकते हैं और फूल बन सकते हैं। इस स्वीकृति से ही तो बीज की हिम्मत बढ़ेगी।
तो मैं तुमसे कहता हूं: स्वीकार करना, इसकी प्रत्यभिज्ञा करना, खोजना।
एवं प्रसिद्धेषु च।
शांडिल्य कहते हैं: ‘और-और प्रसिद्ध अवतारों में भी ऐसा ही है।’
फिर वे अवतार कोई भी हों, किसी भी परंपरा के हों। हर मनुष्य की यह स्वभावसिद्ध क्षमता है कि वह अपने आकार के भीतर निराकार को आमंत्रित कर सकता है। तुम आतिथेय बन सकते हो, अतिथि को बुला सकते हो। इस आतिथेय बनने और अतिथि को बुलाने का नाम भक्ति है। अथातो भक्ति जिज्ञासा।
चाहे पाहन की हो, चाहे पनघट की
असली पूजा तो विश्वासी मन की है
फिर चाहे पत्थर की ही क्यों न हो।
चाहे पाहन की हो, चाहे पनघट की
असली पूजा तो विश्वासी मन की है

अक्सर ऐसा होता है सभ्य आवरण में
खो जाते हैं भाव शब्द की बन-ठन में
चाहे मधुबन में हो, चाहे मरुथल में
भाषा उर को छू लेती चितवन की है
आंख चाहिए, हरी-भरी आंख चाहिए। आंख में भाव चाहिए, भक्ति चाहिए।
चाहे मधुबन में हो, चाहे मरुथल में
भाषा उर को छू लेती चितवन की है

पावन पल जब जग में प्यार मिले
ज्यों कोहरे के बीच धूप का फूल खिले
चाहे बस्ती में हो, चाहे निर्जन में
उस क्षण की आरती धूप-चंदन की है

सुख का नहीं ठहरता चंचल मौसम है
जीवन की सरगम में केवल सम कम है
चाहे हो निर्धन, चाहे धनवान कोई
कभी नहीं घटती जागीर सपन की है

आयु बिता देते कुछ यों ही उलझन में
बिना छिद्र की वंशी के अन्वेषण में
पाप-पुण्य क्या, निर्णय का अधिकार किसे
जब कि बात अपने-अपने दर्पण की है
ध्यान रखना, परमात्मा तो मौजूद है, दर्पण चाहिए। तुम कोरे होओ तो झलक बने। तुम झील की तरह शांत होओ तो प्रतिबिंब बने चंद्रमा का।
पाप-पुण्य क्या, निर्णय का अधिकार किसे
जब कि बात अपने-अपने दर्पण की है

बीती बाढ़ वक्त की रेत बची केवल
मिट जाते माटी में कल के विंध्याचल
काहे की खिड़की फिर कैसे दरवाजे
सिर्फ जरूरत मुक्त खुले आंगन की है

चाहे पाहन की हो, चाहे पनघट की
असली पूजा तो विश्वासी मन की है
श्रद्धायुक्त, भाव से भरा हुआ हृदय--बस सब पूरा हो जाता है। भगवान को मत खोजो, भक्ति को खोजो। भक्ति मिली, भगवान अपने से मिल जाता है। जो भगवान को खोजने निकला बिना भक्ति को खोजे, खोजे कितना ही, पहुंचेगा कभी नहीं, पाएगा कभी नहीं। प्रेम हो तो प्रेमी मिल जाता है। भक्ति हो तो भगवान मिल जाता है। आंख हो तो सूरज सदा मौजूद है।
अथातोभक्तिजिज्ञासा!

आज इतना ही।

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