SHANDILYA
ATHATO BHAKTI JIGYASA 20
Twentieth Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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पहला प्रश्न:
कल आपने कहा--भक्ति सहज है, इसलिए वैज्ञानिक है। सहज को वैज्ञानिक कहने का आपका आशय क्या है? कृपा करके कहिए।
विज्ञान के बहुत अर्थ हैं। जो सर्वाधिक आधारभूत अर्थ है, वह है स्वभाव की खोज; सहज की खोज। जीवन के भीतर जो छिपा हुआ ऋत, ताओ, महानियम है, उसकी खोज। अंततः पदार्थ में ही जो छिपा है, उसकी खोज नहीं; अंततः उसकी भी खोज जो चेतना में छिपा है। पदार्थ पर विज्ञान का प्रारंभ है, अंत नहीं। और जिस विज्ञान का अंत पदार्थ पर हो जाए, वह अधूरा विज्ञान। और अधूरे सत्य असत्यों से भी ज्यादा खतरनाक होते हैं। क्योंकि वे सत्य जैसे प्रतीत होते हैं और सत्य नहीं होते।
असत्य को तो पहचाना जा सकता है, आज नहीं कल समझ में आ जाएगा असत्य है, और समझ में आते ही छुटकारा हो जाएगा। आधा सत्य बड़ा खतरनाक होता है। उसमें सत्य की भ्रांति बनी ही रहती है, बनी ही रहती है। और आधा सत्य सत्य होता नहीं, क्योंकि सत्य को खंडों में नहीं बांटा जा सकता। सत्य अविभाज्य है, अखंड है। होगा तो पूरा होगा, नहीं होगा तो बिलकुल नहीं होगा।
विज्ञान पदार्थ से शुरू होता है, लेकिन पदार्थ पर समाप्त नहीं हो सकता, नहीं होना चाहिए। जब पदार्थ के आधारभूत नियम जान लिए जाएंगे, तो उसी जानने से चेतना की तरफ यात्रा अपने आप होती है। इसलिए विज्ञान का जो सर्वाधिक नया कदम है, वह मनोविज्ञान है। सबसे पुराना कदम है भौतिकशास्त्र, सबसे नया कदम है मनोविज्ञान।
इसका अर्थ समझो। शुरू हुआ भूत से, पदार्थ से, अब यात्रा मन की हो गई शुरू। मन मध्य है, अंत नहीं। जिस दिन विज्ञान आत्मा की भी खोज में तल्लीन हो जाएगा, उस दिन विज्ञान ने अपना शिखर छुआ, अपनी मंजिल पाई। अंततः पृथ्वी पर धर्म और विज्ञान जैसी दो चीजें नहीं रहेंगी, नहीं रहनी चाहिए। धर्म भी अधूरा है। धर्म की देह नहीं है। धर्म प्रेत है, आत्मा-आत्मा। आत्मा कहीं देखी है? आत्मा कहीं अलग होती है? और कहीं आत्मा अलग मिल जाए तो प्राण कंप जाएंगे, भूत का अनुभव होगा, प्रेत का अनुभव होगा। धर्म चूंकि आधा है, इसलिए प्रेत जैसा है। रक्त-मांस-मज्जा की देह नहीं है। और विज्ञान भी आधा है, वह मरी हुई लाश जैसा है, उसमें आत्मा नहीं है। एक तरफ मरी हुई लाश है, एक तरफ प्रेतात्मा है। इन दोनों का जिस दिन मिलन होगा, उस दिन जीवन फलेगा।
अंतिम रूप से दुनिया में विज्ञान ही होगा, या उसे धर्म कहो, फिर तो नाम का ही भेद रह जाता है। विज्ञान शब्द भी बुरा नहीं है। ज्ञान से ही बनता है। विशेष ज्ञान अर्थात विज्ञान। जब ज्ञान गहराई ले लेता है तो विज्ञान हो जाता है। जब ज्ञान असली गहराई लेगा तो आत्मा और पदार्थ, प्रकृति और पुरुष, देह और आत्मा, दोनों का संस्पर्श होगा। इसलिए मैं विज्ञान की परिभाषा करता हूं--स्वभाव की खोज, सहज की खोज, आधारभूत ऋत, नियम की खोज।
इसी अर्थ में मैंने कहा: भक्ति सहज है, इसलिए वैज्ञानिक है।
जिसको तुम वैराग्य कहते हो, इतना सहज नहीं है। क्योंकि वैराग्य में संसार का विरोध है। भक्ति में अविरोध है। जहां विरोध है, वहां जटिलता होगी। जहां विरोध है, वहां द्वेष होगा। जहां द्वेष है, वहां अड़चन है, वहां संघर्ष है, वहां सरलता नहीं हो सकती; वहां सतत भीतर युद्ध छिड़ा रहेगा, वहां शांति नहीं हो सकती। विरागी, त्यागी शांत होने की चेष्टा करता है, हो नहीं पाएगा। क्योंकि जिनसे वह लड़ रहा है, जिन तत्वों को समाहित नहीं कर रहा है, वे तत्व उससे बदला लेंगे। वे तत्व उसे ऐसे ही छोड़ नहीं देंगे, वे उसका पीछा करेंगे। भागो गुफाओं में--जिनसे तुम भागे हो, उन्हें तुम गुफाओं में मौजूद पाओगे। जिससे भागोगे, वह तुम्हारा पीछा करेगा। जिससे बचोगे, बार-बार सामने आ जाएगा।
क्रोध से भागो, और तुम्हारी पूरी जीवन-ऊर्जा क्रोध से विकृत हो जाएगी। काम से भागो, और तुम काम ही काम से भर जाओगे। तुम्हारा चित्त काम की ही मवाद से भर जाएगा। भागो मत, जागो। भागो मत, जीओ। संसार को उसकी समग्रता में जीओ।
भक्ति भगोड़ापन नहीं सिखाती। भक्ति कहती है: यह परमात्मा का संसार है, भागना क्यों? इसी में कहीं छिपा होगा, छिया-छी खेल रहा है; जरा पर्दे उठाओ, यहीं कहीं उसे छिपा पाओगे। छिपा है वृक्षों में, पहाड़ों में, पर्वतों में, लोगों में--हर पर्दे के पीछे वही है। पर्दा उठाना आना चाहिए। प्रेम पर्दे को उठाने की कला है। जबर्दस्ती की जरूरत नहीं है। तुम्हारा किसी से प्रेम होता है, उसका घूंघट तुम उठा सकते हो--जबर्दस्ती की जरूरत नहीं है। प्रेम न हो तो घूंघट उठाना हिंसा होगी। प्रेम हो तो सम्मान होगा।
जो लोग अस्तित्व को बिना प्रेम किए इसका घूंघट उठाना चाहते हैं, वे बलात्कार करना चाहते हैं। इसलिए मैंने बहुत बार कहा है कि तुम्हारा तथाकथित वैज्ञानिक अधूरा है और बलात्कारी है। वह प्रकृति को जबर्दस्ती जानना चाहता है। वह प्रकृति के रहस्यों को संगीन की धार पर खोल लेना चाहता है।
भक्त भी खोलता है रहस्यों को, तलवार लेकर नहीं हाथ में, वीणा लेकर। भक्त के लिए भी प्रकृति अपना पर्दा उठाती है, लेकिन उसके नृत्य के कारण, उसके गीत के कारण, उसकी प्रीति के कारण।
विज्ञान अधूरा रहेगा, अगर तर्क ही उसका एकमात्र शास्त्र होगा। जिस दिन प्रीति भी उसके शास्त्र का अंग होगी, उसी दिन विज्ञान पूर्ण होगा। उस दिन दुनिया के जीवन में बड़ा सूर्योदय होगा। उस दिन पूरब-पश्चिम मिलेंगे। अभी नहीं मिल सकते। अभी पूरब आधे सत्य को पकड़े बैठा है--धर्म; पश्चिम आधे सत्य को पकड़े बैठा है--विज्ञान। अभी पूरब और पश्चिम का मिलन नहीं हो सकता। पूरब और पश्चिम उसी दिन मिलेंगे, जिस दिन ये आधे सत्य हाथ से हट जाएंगे और पूरे सत्य को अंगीकार करने की क्षमता हममें होगी।
पूरे सत्य को अंगीकार करने के लिए बड़ा दुस्साहस चाहिए। क्यों? आधा सत्य ज्यादा साहस नहीं मांगता। क्यों? क्योंकि पूरा सत्य विरोधाभासी होता है। वहीं अड़चन है। परमात्मा दिन भी है और रात भी, बस यहीं अड़चन है। और परमात्मा संसार भी है और निर्वाण भी, यहीं अड़चन है।
जो कायर हैं, उनमें से कुछ कहते हैं--परमात्मा संसार ही है, और कोई परमात्मा नहीं। यही तो नास्तिक कहता है, कम्युनिस्ट कहता है। उसका कहना क्या है? वह कहता है, बस यही जीवन सब कुछ है, और कोई जीवन नहीं। तुम्हारा तथाकथित विरागी और ज्ञानी क्या कहता है? वह कहता है, यह संसार माया है, झूठा है, परमात्मा सच है। नास्तिक कहता है, परमात्मा झूठा है, संसार सच है। आस्तिक कहता है, संसार झूठा है, परमात्मा सच है। दोनों की छाती बड़ी नहीं है। यह कहने की दोनों हिम्मत नहीं जुटा पाते कि दोनों सच हैं। सच तो यह है कि दोनों एक ही सत्य के दो पहलू हैं।
इसके लिए विशाल हृदय चाहिए, जो विरोधाभास को समा ले। छोटी-छोटी बुद्धियां इसे नहीं समा सकतीं। छोटी बुद्धि कह सकती है--संभोग सच है, कि समाधि सच है। विराट हृदय ही कह सकता है--संभोग, समाधि, दोनों सच हैं। वासना, करुणा, दोनों सच हैं। काम और राम, दोनों सच हैं। एक ही सीढ़ी के पहलू हैं। काम की ही यात्रा राम तक होती है। पदार्थ ही शुद्ध होते-होते, होते-होते परमात्मा हो जाता है। परमात्मा ही अशुद्ध होते-होते, होते-होते पदार्थ हो जाता है। संसार परमात्मा का अशुद्ध रूप है, बस। परमात्मा संसार का शुद्ध रूप है, बस।
लेकिन परमात्मा जीवन है, यह स्वीकार करना आसान मालूम पड़ता है। जब तुम कहते हो, परमात्मा जीवन और मृत्यु दोनों है, तो बड़ी अड़चन होती है। तर्क कहता है: जीवन और मृत्यु, दोनों? दोनों कैसे होगा? दोनों नहीं हो सकता। तर्क की भाषा है--यह या वह। तर्क हमेशा बांटता है। तर्क कहता है: परमात्मा या तो पुरुष होगा, या स्त्री होगा। जो परमात्मा को पुरुष मानते हैं, वे उसको स्त्री नहीं मान सकते। जो उसको स्त्री मानते हैं, वे पुरुष नहीं मान सकते। क्योंकि तर्क कहता है: दोनों कैसे होगा?
तुमने अर्द्धनारीश्वर की प्रतिमा देखी? वह भक्तों ने खोजी। वह प्रेमियों ने खोजी। जिन्होंने कहा परमात्मा दोनों है--आधा स्त्री, आधा पुरुष। तुमने प्रतिमा देखी भी हो तो भी तुमने अंगीकार नहीं की है। भीतर से तो होता ही रहता है--यह कैसे होगा? आधा पुरुष, आधा स्त्री! एक अंग स्त्री का, एक अंग पुरुष का! यह कैसे होगा? यह तो बड़ी बेबूझ मालूम पड़ती है बात, यह तो पहेली हो गई। या तो पुरुष, या तो स्त्री। ईदर-ऑर तर्क की भाषा है। यह या वह। चुन लो। चुनाव तर्क की भाषा है।
प्रीति की भाषा अचुनाव है। उस अचुनाव को ही मैं परम विज्ञान कहता हूं।
दूसरा प्रश्न:
शांडिल्य कहते हैं--प्रीति, भक्ति अद्वैत है। तो अद्वैत के नाम पर जो कहा जाता रहा है, वह क्या है?
अधिकतर शब्द ही हैं वे। क्योंकि जिसने प्रीति नहीं जानी, वह अद्वैत नहीं जानेगा। अद्वैत प्रीति की परम दशा है। जिसने प्रीति नहीं जानी, उसका अद्वैत तार्किक निष्पत्ति है। गणित उसने हल किया है! उसके अद्वैत में प्राण नहीं हैं। उसका अद्वैत रूखा-सूखा, निष्प्राण है। उसके अद्वैत में फूल नहीं लगेंगे। और उसके अद्वैत में कोई स्वर पैदा नहीं होगा। उसका अद्वैत मरघट का अद्वैत है। जिसने प्रीति जानी, उसने ही असली अद्वैत जाना।
असली अद्वैत का क्या अर्थ?
असली अद्वैत का अर्थ होता है: दो में से एक को छोड़ नहीं देना है, फिर तो अद्वैत हुआ ही नहीं। तुम्हारा अद्वैतवादी कहता है: संसार माया है, झूठ है, है ही नहीं। यह क्या अद्वैत हुआ? एक को काट दिया। फिर तो मार्क्सवादी भी अद्वैतवादी है। वह कहता है: कोई परमात्मा नहीं, कोई आत्मा नहीं, बस जड़ है, पदार्थ है, कोई चेतना नहीं। यह भी अद्वैत है। आस्तिक, नास्तिक दोनों अद्वैतवादी हैं। और मैं मानता हूं कि दोनों केवल तर्क से चल रहे हैं, अनुभव नहीं है। भक्त को अनुभव है। भक्त कहता है: अद्वैत है, और ऐसा अद्वैत है कि दोनों उसमें समाए हैं, और दोनों उसमें जी सकते हैं।
यह अनुभूति प्रेम में ही होती है। प्रेम बड़ी विचित्र अनुभूति है। प्रेमी और प्रेमिका दो होते हैं और फिर भी अनुभव करते हैं कि एक हैं। उनका अनुभव बड़ा समृद्ध अनुभव है। अगर प्रेमी अपनी हत्या कर ले और कहे कि बस प्रेयसी है, मैं नहीं हूं, तो प्रेम समाप्त हो जाएगा। या प्रेयसी की हत्या कर दे और कहे कि मैं ही हूं, प्रेयसी कहां है, तो भी प्रेम समाप्त हो जाएगा। दो के बीच एक जीए, तो ही श्वास लेता है, नहीं तो श्वास नहीं ले सकेगा।
और यही प्रेमी करते हैं जीवन भर। तुम्हारे तथाकथित प्रेमी इसी कोशिश में लगे रहते हैं। पति कोशिश में रहता है कि पत्नी मिट जाए; पत्नी की कोई आवाज न हो, उसका कोई स्वर न हो, वह मेरी अनुगामिनी हो, मेरी छाया हो, मैं जहां जाऊं वहां छाया की तरह मेरे पीछे जाए। पति चाहता है कि पत्नी की कोई स्वतंत्रता न हो, पत्नी दासी हो; मैं स्वामी, पत्नी दासी। यह प्रेम की हत्या शुरू हो गई। प्रेम तो दोनों के जीते-जी ही हो सकता है--दोनों परिपूर्ण स्वतंत्रता में हों और फिर भी दोनों के हृदय अनुभव करते हों कि हम एक हैं। एकता अनुभव हो।
पत्नी भी यही कोशिश करती है कि पति को मिटा डाले। दोनों की कोशिश अलग-अलग ढंग की होती हैं, क्योंकि दोनों के मनोविज्ञान अलग होते हैं। पति के ढंग जरा स्थूल होते हैं, मार-पीट कर देगा। पत्नी के ढंग जरा सूक्ष्म होते हैं, जरूरत पड़ेगी तो अपने को ही मार-पीट लेगी। मगर चेष्टा दोनों की एक ही है। पत्नी जरा परोक्ष ढंग से पति को अपने कब्जे में लेना चाहती है। अक्सर यह होता है कि तुमने विवाह किया कि पत्नी तो नहीं मिलती, एक गुरु मिल गया, जो तुम्हें सुधारने में लग जाता है कि अब सिगरेट न पीओ, अब पान न खाओ, अब दस बजे के बाद जगो मत, अब ब्रह्ममुहूर्त में उठो, और अब ऐसा करो और अब वैसा करो। पत्नियां अक्सर अपना जीवन इसी में नष्ट करती हैं कि पति को कैसे सुधार लें। लेकिन सुधारने के पीछे जो आकांक्षा है, वह मालकियत की है। सुधारना तो बहाना है। सुधारने का तो केवल मतलब इतना है कि शुभ के मार्ग से मैं मालकियत सिद्ध करती हूं।
और मजा यह है कि न पति सुधरता, न पत्नी सुधार पाती। क्योंकि पत्नी जब सुधारने की कोशिश करती है--और यह उसका ढंग होता है मालकियत का--तो पति भी पूरी चेष्टा करता है अपनी स्वतंत्रता बचाने की, चाहे गलत ढंग से ही सही। अब सिगरेट पीना कोई बड़ी स्वतंत्रता नहीं है, मूढ़तापूर्ण है बात, मगर अगर पत्नी पीछे पड़ी है कि सिगरेट मत पीओ, तो पति फिर सिगरेट नहीं छोड़ सकेगा। उसे पीना ही पड़ेगा। पीते ही रहना पड़ेगा। क्यों? क्योंकि अब यही उसका एकमात्र मार्ग है घोषणा करने का कि मेरी भी आत्मा है, मैं स्वतंत्र हूं, मैं गुलाम नहीं हूं।
पति-पत्नी एक-दूसरे को मिटाने में लग जाते हैं। इसलिए पति-पत्नी का जीवन एक दुखद जीवन हो गया है। दोनों अद्वैतवादी हैं। दोनों की चेष्टा यह है--एक बचे। दूसरे को नकार कर दो; छाया कर दो, माया कर दो। दूसरे का होना न-होने के बराबर कर दो। दूसरे का मूल्य शून्य कर दो।
यही ज्ञानी कर रहा है, वह कहता है: ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या। यही तुम्हारा अनीश्वरवादी कर रहा है, वह कहता है: जगत सत्य, ब्रह्म मिथ्या। एक को बचाएंगे, दूसरे को नष्ट कर देंगे।
भक्त की कीमिया बड़ी अदभुत है। भक्त यह कहता है: दोनों को मिटाने की जरूरत ही नहीं है। दोनों जुड़ जाएं, आलिंगन में बंध जाएं, दोनों के हृदय एक साथ धड़क सकते हैं, मालकियत का सवाल क्या है? दोनों की धड़कन इतनी एक साथ हो सकती है कि एक का अनुभव होने लगे, दो के बीच में एक का अनुभव होने लगे। दोनों की स्वतंत्रता अछूती रहे और फिर भी दोनों एक में जुड़ जाएं, एक सेतु से जुड़ जाएं। नदी के दो किनारे एक सेतु से जैसे जुड़ जाते हैं, ऐसे ही असली प्रेमी दो रहते हैं, फिर भी जुड़ जाते हैं; अलग-अलग रहते हैं, और फिर भी एक हो जाते हैं।
इसलिए भक्ति में वैविध्य है और भक्ति में समृद्धि है। एक को मार कर जो एकता बचती है, वह एकता कुछ बड़ी एकता नहीं, क्योंकि वह दूसरे से डरी हुई एकता है। दूसरे की मौजूदगी में नहीं हो सकती थी। भक्त कहता है: संसार भी सत्य है, परमात्मा भी सत्य है; स्रष्टा भी सत्य, उसकी सृष्टि भी सत्य, दोनों सत्य हैं। यही शांडिल्य ने कहा: मिथ्या मत कहो संसार को। उस परम सत्य से मिथ्या का आविर्भाव कैसे होगा? उस सत्य से जो जन्मा है, वह भी सत्य ही होगा। सागर से जो लहर जन्मती है, वह उतनी ही सत्य है जितना सागर। सागर की ही लहर है, असत्य कैसे होगी?
भक्त की छाती बड़ी है। भक्त कहता है: दोनों को सम्हालेंगे; दोनों में से किसी को मिटाने की जरूरत नहीं। मिटाते ही जीवन एकरस हो जाएगा।
इसलिए तुम तथाकथित अद्वैतवादी और ज्ञानी के चेहरे पर आनंद का भाव नहीं देखोगे। भक्त के चेहरे पर एक कोमल्य, एक प्रसाद, एक आनंद, एक अनुग्रह का भाव मिलेगा। भक्त नाचता मिलेगा। ज्ञानी सिकुड़ा हुआ, भक्त फैला हुआ मिलेगा। भक्त को कोई अड़चन ही नहीं है। भक्त को सर्व स्वीकार है। भक्त ज्ञान की बातचीत में नहीं पड़ता, अनुभव में उतरता है।
इस भेद को ठीक से समझ लेना।
तुम बैठ कर विचार करो, तर्क करो, कुछ निष्पत्तियां ले लो, दर्शनशास्त्र निर्मित कर लो, यह एक बात। और तुम जीवन में उतरो, छलांग लगाओ, डुबकी मारो और वहां जानो। कबीर ने कहा है: ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय। यह अलग ही पाठशाला है। यह जीवन की, अस्तित्व की असली पाठशाला है।
डूबा हुआ हूं सर से कदम तक बहार में
न छेड़ उनके तसव्वुर में ऐ बहार मुझे
कि बू-ए-गुल भी इस वक्त नागवार मुझे
जो डूब जाता है उसके आनंद में उसके चारों तरफ बहार ही बहार हो जाती है, वसंत ही वसंत हो जाता है, पतझड़ में भी उसे वसंत दिखाई पड़ता है।
डूबा हुआ हूं सर से कदम तक बहार में
न छेड़ उनके तसव्वुर में ऐ बहार मुझे
बहार की भी चिंता नहीं है अब। बहार आए कि न आए, बहार बाहर न भी आए तो चलेगा, बहार भीतर आ गई है, अब तो भक्त जहां रहता है वहां बहार है। तुमने सुना होगा कि भक्त स्वर्ग जाता है। गलत सुना। भक्त जहां जाता है वहां स्वर्ग होता है। नरक में फेंक दो भक्त को, तुम उसे नरक नहीं पहुंचा पाओगे। तुम भेजोगे नरक, वह पहुंच जाएगा स्वर्ग। नरक में भी स्वर्ग बसा लेगा।
ज्ञानी को तुम स्वर्ग भी भेज दो तो शायद ही स्वर्ग पहुंचे। सुना नहीं कभी कि कोई पंडित, कोई ज्ञानी स्वर्ग पहुंचा हो! वह जहां जाएगा, वहीं अपना तर्कजाल ले जाएगा। वह जहां जाएगा, वहीं अपने शब्दों से दबा हुआ पहुंचेगा। वह जहां जाएगा, अपनी पोथियां ले जाएगा। उसके पास वही शब्दों की मुर्दा दुनिया बसी रहेगी। पापी भी पहुंच जाते हैं, पंडित नहीं पहुंचते। पापी विनम्र होते हैं, पंडित अहंकारी होते हैं। अगर पंडित और पापी में चुनना हो, तो पापी हो जाना बेहतर है; पंडित तो भूल कर मत होना। क्योंकि पंडित का मतलब है, जिसने नहीं जाना और जो सोचता है--मैंने जान लिया। जानता तो प्रेमी है; पंडित कैसे जानेगा?
प्रेमी होना; तो ही अनुभव करोगे: अद्वैत क्या है। धन्य हो जाओगे--अनुभव से। विचार से कोई धन्य नहीं होता। तुम जानते हो जीवन के सामान्य क्रम में, कितना ही सोचो: मिष्ठान्न, सुस्वादु भोजन, उससे पेट नहीं भरता। प्यास लगी हो और तुम्हें जल का पूरा शास्त्र आता हो, तुम्हें जल का पूरा विज्ञान आता हो, तुम्हें मालूम हो कि जल यानी एच टू ओ, कि आक्सीजन और उदजन से मिल कर बनता है, कि उदजन के दो हिस्से और आक्सीजन का एक हिस्सा और जल बनता है, लिखते रहो किताबों पर...
मैं एक घर में मेहमान था। पूरा घर पोथियों से भरा था। मैंने पूछा, बड़ी लाइब्रेरी है, क्या-क्या इस लाइब्रेरी में है? घर के मालिक ने कहा, यह लाइब्रेरी नहीं है, इसमें कापियों पर राम-राम, राम-राम लिखता हूं। जिंदगी भर हो गई लिखते, मेरे पिता भी यही करते थे, बड़े धार्मिक पुरुष थे, तो घर में सारी किताबें इकट्ठी हो गई हैं, बस काम ही यही है, राम-राम लिखते रहते। मैंने कहा, यह ऐसे ही फिजूल है जैसे किसी को प्यास लगी हो और वह किताब पर लिखे--एच टू ओ, एच टू ओ, एच टू ओ, जल का सूत्र लिखता रहे, लिखता रहे, लिखता रहे, इससे प्यास नहीं बुझेगी। न तुम्हारे पिता धार्मिक थे, न तुम धार्मिक हो। धर्म का किताब में राम-राम लिखने से क्या संबंध होगा? हृदय में अनुगूंज होनी चाहिए। प्राणों के प्राण में उसकी आभा प्रकट होनी चाहिए। मैंने उनसे पूछा, तुम्हें राम का अनुभव हुआ? उन्होंने कहा, अनुभव ही हो जाता तो मैं ये पोथियां क्यों लिखता? अनुभव करने के लिए लिख रहा हूं। मैंने कहा, इसके लिखने से कैसे अनुभव होगा? इतना समय गंवाया, अब और न गंवाओ, इन पोथियों को आग लगाओ। इतना लिख चुके, इससे नहीं हुआ, इतना ही और लिख डालोगे तब भी नहीं होगा। लिखने से क्या संबंध हो सकता है? जीवन में अनुभव होते हैं अनुभव से।
भक्त धन्य हो जाता है। वह घड़ी जल्दी आ जाती है भक्त के जीवन में जब वह कहता है, गुंजार करता है--धन्योऽहं! मैं धन्य हूं! बहार ही बहार उसे घेर लेती है।
परसों राधा मुझे मिलने आई। उससे मैंने पूछा, कैसी है राधा? वह कहती है, बहार ही बहार है! अच्छा लगा मुझे उसका वचन। प्रेम जगे तो बहार ही बहार है।
तीसरा प्रश्न:
आपने भक्ति-साधना के प्रसंग में अवतारी पुरुषों की चर्चा की। उस प्रसंग में आपने भगवान बुद्ध का वचन उद्धृत किया कि मुझे भी राह से हटा कर आगे जाना। लेकिन शायद इसी प्रसंग में कहा गया भगवान कृष्ण का प्रसिद्ध वचन है--सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। सब धर्म इत्यादि छोड़ कर मेरी शरण आ। क्या इन परस्पर विरोधी वचनों पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करेंगे?
जरा भी विरोध नहीं है। कृष्ण जो कह रहे हैं, वह यात्रा की शुरुआत है। बुद्ध जो कह रहे हैं, वह यात्रा का अंत है। कृष्ण जो कह रहे हैं, वह अर्जुन से कह रहे हैं जो नाव पर बैठा नहीं, जो झिझक रहा है नाव पर बैठने में। कृष्ण कहते हैं: तू फिकर छोड़, यह नाव तेरे पास आकर लगी; सर्वधर्मान् परित्यज्य, छोड़-छाड़ सब बातचीत, सब बकवास, आ बैठ, मेरी शरण आ; मैं तेरा मांझी, मैं तेरा सारथी, मैं तुझे उस पार ले चलूं, यह नाव तुझे ले जाएगी। सब छोड़ कर निर्भय होकर इस नाव में बैठ।
जब बुद्ध ने कहा है कि अगर मैं भी तुम्हारी राह में आ जाऊं, तो मेरी गर्दन काट देना, यह उस किनारे की बात है जब नाव दूसरी तरफ लग गई। और अर्जुन कहने लगा कि अब मैं उतरूंगा नहीं नाव से! इस नाव ने कितनी कृपा की है, मुझे संसार के सागर से ले आई परमात्मा के किनारे तक! नहीं, इसे अब मैं छोडूंगा नहीं। और कृष्ण के पैर पकड़ ले और कहे कि तुमने ही तो कहा था--मामेकं शरणं व्रज। अब कहां जाते हैं? अब नहीं छोडूंगा, अब चाहे प्राण रहें कि जाएं, तुम्हारे चरण पकड़े ही रहूंगा। तब उस दूसरी घड़ी में कृष्ण को भी कहना पड़ेगा, जो बुद्ध ने कहा, कि पागल, अब नदी से उतर आया, अब नाव छोड़। अब मुझे भी छोड़। अब तो दूसरा किनारा आ गया, अब तो परमात्मा आ गया! नाव का उपयोग था--संसार से परमात्मा तक, शरीर से आत्मा तक, अंधकार से प्रकाश तक, मृत्यु से जीवन तक। लेकिन अब तो परमात्मा के द्वार पर आकर खड़ा हो गया है, अब इसे भी छोड़। अब इस नाव को थोड़े ही ढोएगा!
बुद्ध बार-बार कहते थे कि जब उतर जाओ दूसरे किनारे, तो नाव को सिर पर मत रख लेना। वह मूढ़ता होगी, अनुग्रह और कृतज्ञता नहीं। नाव को धन्यवाद देकर आगे बढ़ जाना।
कृष्ण का वचन पाठशाला में भर्ती होने के दिन विद्यार्थी को दिया गया सूत्र है। बुद्ध का वचन, दीक्षांत समारोह समाप्त हो गया, विश्वविद्यालय से लौटते हुए विद्यार्थी को दिया गया अंतिम संबोधन है। विरोध जरा भी नहीं है। चूंकि दोनों अलग-अलग समय में दिए गए और अलग-अलग लोगों को दिए गए, इसलिए तुम्हें चिंता हो सकती है। कृष्ण ने कहा था अर्जुन से, जो एक सामान्य व्यक्ति है। बुद्ध ने कहा था बोधिसत्वों से, जो आखिरी घड़ी में पहुंच गए हैं।
बुद्ध मर रहे हैं, आखिरी घड़ी आ गई। उनके बोधिसत्व उन्हीं घेरे हुए हैं, उनके परम शिष्य उन्हें घेरे हुए हैं। आनंद रोने लगता है। बुद्ध आंख खोलते हैं, पूछते हैं, क्यों रोता है? तो आनंद कहता है, आप चले, अब हमारा क्या होगा? तब बुद्ध ने कहा है: अप्प दीपो भव! अपने दीये बनो! मेरे साथ जहां तक आ सकते थे, आ गए।
बुद्ध का वचन और कृष्ण का वचन एक ही यात्रा के दो छोर हैं। विरोध जरा भी नहीं। जैसे तुम सीढ़ी चढ़ते हो और मैं तुमसे कहूं--बिना सीढ़ी पर चढ़े तुम छत तक न पहुंचोगे। और फिर तुम सीढ़ी के अंतिम सोपान पर जाकर अटक जाओ और तुम कहो--अब मैं सीढ़ी नहीं छोडूंगा, क्योंकि इसी सीढ़ी ने मुझे इस ऊंचाई तक लाया। तो मैं तुमसे कहूंगा कि अब सीढ़ी छोड़ो, नहीं तो छत पर न पहुंच सकोगे। क्या मेरी बातों में विरोध होगा? दोनों में कुछ विरोधाभास है? सीढ़ी चढ़ाने के लिए कहा था--चढ़ो, छत पर नहीं पहुंचोगे; अब कहता हूं--सीढ़ी छोड़ो, नहीं तो छत पर नहीं पहुंचोगे।
विधियां पकड़नी होती हैं, एक दिन छोड़ देनी होती हैं। रास्तों पर चलना होता है, एक दिन रास्तों को नमस्कार कर लेनी होती है। परमात्मा में प्रवेश के पहले तुमने जो भी किया था, जो भी सोचा था, जो भी साधन, विधि-विधान, अनुशासन अपने जीवन में आरोपित किए थे, सबको तिलांजलि दे देनी होती है। परमात्मा में प्रवेश के क्षण में न तो कोई विधि पास होनी चाहिए, न कोई मंत्र, न कोई तंत्र, परमात्मा में प्रवेश के समय सारी सीढ़ियां समाप्त हो जानी चाहिए। सारी नाव विदा हो जानी चाहिए। तो ही तुम प्रवेश कर सकोगे।
वचनों में भेद है, क्योंकि अर्जुन और आनंद में भेद है। अर्जुन अभी चलने को ही तैयार नहीं है, अभी वह ठिठक ही रहा है। आनंद चल चुका है अंत तक, आखिरी घड़ी आ गई...और तुम्हें पता है, बुद्ध के मरने के चौबीस घंटे के भीतर आनंद परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया था। तो आखिरी घड़ी में था, बिलकुल आखिरी घड़ी में था, उतनी सी बाधा बची थी, बस थोड़ी सी बाधा बची थी, कि बुद्ध से जो लगाव था, जो आसक्ति थी, वही अटका रही थी। सब आसक्तियां टूट गई थीं--न धन से कुछ रस था, न पद से कुछ रस था, न मित्रों में कोई रस था, सारे रस जा चुके थे, सारे रसों में एक ही रस व्याप्त हो गया था, यह सदगुरु का रस, यह सदगुरु के चरणों को पकड़ लेने की आसक्ति गहन हो गई थी। यह मोह प्रबल हो गया था। बुद्ध ने आनंद को कहा है: तू मुझे भी छोड़, तू अपना दीपक अब खुद बन। अब तू इस योग्य है, अपने पैर पर खड़ा हो सकेगा। मेरे कंधे पर कब तक बैठ कर चलेगा? अब जरूरत भी नहीं है।
मां चलाती है बच्चे को हाथ पकड़ कर, एक दिन हाथ पकड़ कर चलाना होता है। फिर अगर बच्चा सदा के लिए यह हाथ पकड़ ले तो मां हाथ छुड़ाएगी, एक दिन हाथ छुड़ाना भी होता है। नहीं तो बच्चा जवान कब होगा? प्रौढ़ कब होगा? अगर मां अपने बीस साल के जवान लड़के को भी हाथ पकड़ कर चलाए, तो तुम भी कहोगे कि मां भी पागल है और यह लड़का भी पागल है। और अगर मां पहले से ही अपने आठ महीने के बच्चे को भी हाथ का सहारा न दे, तो भी तुम पागल कहोगे। विरोधाभास कहां है?
अर्जुन छोटा सा बच्चा है, दुधमुंहा। आनंद युवा हो गया है, लेकिन अब भी मां का आंचल छोड़ना नहीं चाहता। अभी भी चाहता है मां को पकड़े रखे। ये दोनों वचन सत्य हैं, और दोनों वचन तुम्हारे लिए भी सत्य हैं--पहले दिन कृष्ण का वचन, अंतिम दिन बुद्ध का वचन। इसमें विरोधाभास मत देखना।
अक्सर धार्मिक महावचन विरोधाभासी दिखाई पड़ सकते हैं; क्योंकि धर्म एक बड़ा रहस्यपूर्ण जगत है--तर्कातीत।
उलटी ही चाल चलते हैं दीवानगाने-इश्क
करते हैं बंद आंखों को दीदार के लिए
जब देखना हो परमात्मा को तो आंख बंद करनी होती है। तुम कहोगे, यह क्या उलटी बात? आदमी आंख खोल कर देखता है। आंख बंद करके देखने का क्या मतलब? मगर यही है हाल। असली को देखना हो तो आंख बंद करनी पड़ती है। क्षुद्र को ही देखते रहना हो तो आंख खुले भी चल जाता है। आंख खोल कर भी देखा जाता है और आंख बंद करके भी देखा जाता है। जो खुली आंख से दिखता है, वह सपना है; और जो बंद आंख से दिखता है, वही सत्य है।
कबीर का प्रसिद्ध वचन है:
भला हुआ हरि बिसरियो, सर से टली बलाय।
जैसे थे वैसे भए, अब कछु कहा न जाय।।
बड़ा अदभुत वचन है। ठीक बुद्ध का वचन है।
भला हुआ हरि बिसरियो...
झंझट मिटी, यह हरि भी मिटे और भूले, यह झंझट भी मिटी।
भला हुआ हरि बिसरियो, सर से टली बलाय।
तुम चौंकोगे थोड़ा कि हरि और सर की बलाय! शांडिल्य तो कह रहे हैं कि भजो, हरिनाम संकीर्तन, डूबो; और कबीर का दिमाग खराब हुआ है कि कहते हैं--भला हुआ हरि बिसरियो, सर से टली बलाय। बलाय! हरि का नाम! यही तो, हरि का नाम ही तो साधन है; इसको बला कहते हो!
एक दिन बला हो जाती है। जो विधि एक दिन सहयोगी होती है, वही विधि एक दिन बाधक हो जाती है। तुम बीमार हो, तुम्हें औषधि देते हैं। फिर बीमारी चली गई, फिर औषधि लेते रहोगे तो बलाय हो जाएगी। जिस दिन बीमारी गई, उसी दिन बोतल फेंक देना, और नहीं तो लायंस क्लब में जाकर भेंट कर आना, मगर छुटकारा पा लेना उससे। फिर बोतल को लिए मत घूमना। और यह मत कहना कि इससे इतना लाभ हुआ, अब कैसे छोडूं? ऐसा कृतघ्न कैसे हो जाऊं? इसी बोतल ने तो सब दिया, स्वास्थ्य दिया, बीमारी गई, अब तो पीता ही रहूंगा, अब छोड़ने वाला नहीं हूं। अब तो इस पर मेरी श्रद्धा बड़ी सघन हो गई।
शांडिल्य कह रहे हैं: डूबो हरि भक्ति में; यह कृष्ण की शुरुआत। और कबीर बुद्ध के तल से कह रहे हैं:
भला हुआ हरि बिसरियो, सर से टली बलाय।
जैसे थे वैसे भए, अब कछु कहा न जाए।।
अब क्या कहना है? कैसा राम-भजन? किसका भजन कौन करे? किसलिए करे? अब शब्द का कोई संबंध न रहा। अब तो मौन है, सन्नाटा है।
हद टप्पै सो औलिया, बेहद टप्पै सो पीर।
हद बेहद दोनों टप्पै, ताका नाम फकीर।।
हद टप्पै सो औलिया...
जो हद के बाहर चला जाए उसको कहते हैं--औलिया।
...बेहद टप्पै सो पीर।
जो बेहद के भी आगे चला जाए--सीमा के पार जाए, औलिया; असीम के भी पार चला जाए, उसका नाम पीर।
हद बेहद दोनों टप्पै, ताका नाम फकीर।।
और जो सीमा, असीमा दोनों को छोड़ दे, द्वंद्व को छोड़ दे, सबके पार चला जाए, वही फकीर है। उसे ही मैं संन्यासी कहता हूं।
पकड़ना, छोड़ने के लिए। विधियों का उपयोग कर लेना, ले लेना जितना रस उनमें हो, फिर जब रस उनका पी चुके तो उस थोथी विधि को ढोते मत रहना, फिर वह बला हो जाएगी।
गुरु के सहारे दूसरे किनारे तक पहुंच जाओगे, फिर गुरु को भी विदा दे देनी होगी। संसार से गुरु छुड़ा लेता, फिर गुरु अपने से छुड़ाता है, तभी परमात्मा का मिलन है।
चौथा प्रश्न:
पिछले कुछ दिनों से रोज प्रवचन के बाद जब आपको जाते हुए देखती हूं तो भीतर से एक निःश्वास निकल जाता है और लगता है कि एक दिन और व्यर्थ गया। और फिर एक गहरा भाव रह जाता है कि एक दिन यह दिव्यपुरुष ऐसे ही आंखों से ओझल हो जाएगा और मैं खड़ी-खड़ी ऐसे ही देखती रह जाऊंगी।
पूछा है मुक्ति ने।
दृष्टि की बात है। मुक्ति के मन में कहीं भारी लोभ होगा। उस लोभ से ही सारा उपद्रव पैदा हो रहा है। आध्यात्मिक लोभ को हम साधारणतः लोभ नहीं कहते, है तो वह लोभ ही।
तुम मुझे सुनते हो, दो ढंग से सुन सकते हो। एक तो सुनने का मजा सुनने में। जैसे कोई संगीत को सुनता है। कोई संगीत को सुनने से धन की वर्षा नहीं हो जाएगी। संगीत को सुन कर घर जाकर अचानक तुम धनी नहीं हो जाओगे। संगीत को सुनने में ही संगीत का धन है। संगीत के सुनने में ही छिपा हुआ आनंद है। लेकिन अगर कोई संगीत सुनने गया इस हिसाब से कि इससे कुछ लाभ होगा, तो बेचैनी होगी। जब संगीत बंद होगा और आखिरी ध्वनि प्रध्वनित होकर विदा हो जाएगी, तब तुम्हें लगेगा कि आज का दिन और व्यर्थ गया; आज भी नहीं हुआ; आज भी जो धन मिलना था, नहीं मिला। लेकिन जो संगीत के ही आनंद के लिए संगीत को सुन रहा है, उसे मिल गया। उसके पार पाने को कुछ था भी नहीं।
यहां मुझे सुनने वाले भी दो तरह के लोग हैं। एक, जिन्हें यहां होने में रस है। जो मेरे पास बैठे, यह थोड़ी गुफ्तगू चली जिनसे, थोड़ी बातचीत हुई, थोड़ा लेन-देन हुआ, थोड़ा आदान-प्रदान हुआ। यह सत्संग रहा, यह संगीत जमा, मेरे-उनके बीच ऊर्जा नाची, मेरे-उनके बीच तरंगें बहीं, मेरे-उनके हृदय थोड़ी देर के लिए साथ-साथ धड़के, मेरी श्वास उनकी श्वास से मिली, उनकी श्वास मेरी श्वास से मिली। उन्होंने थोड़ी देर मुझे पीया, मेरा रस पीया। उन्होंने थोड़ी देर मुझे अपने हृदय में जगह दी, अपनी आत्मा में समाया। बस यह उनका आनंद है। उनके मन में यह भाव होगा--तो आज फिर घटा। वे धन्यभाव से भर कर जाएंगे।
दूसरा व्यक्ति है जो यहां बैठा है, सोच रहा है कि कब समाधि लग जाए, कब परमात्मा मिल जाए, कब मोक्ष मिल जाए। वह सुन नहीं रहा है, उसकी नजर मोक्ष पर अटकी है। वह सोच रहा है: समाधि आती है कि नहीं। इधर-उधर देख रहा है कि अभी तक आई नहीं, मेरी समाधि नहीं आई; ये दूसरे आदमी की आंख से आंसू बह रहे हैं, शायद इसकी आ गई, मेरी अभी नहीं आई। वह बार-बार टटोल रहा है कि कब आती, कब आती, कहीं कोई पगध्वनि नहीं सुनाई पड़ती! और इस समाधि की चिंता में वह मुझे चूका जा रहा है। इस लोभ में, वह ध्यानस्थ हो सकता था मेरे साथ, वह अवसर चूका जा रहा है। तो जब मैं उठूंगा और चला जाऊंगा, तो स्वभावतः लगेगा कि आज का दिन और बेकार गया।
तुम पर निर्भर है, मुझ पर निर्भर नहीं है। चाहो तो आज के दिन को सार्थक जाने दो, चाहो तो व्यर्थ।
लोभ छोड़ो। लोभ की दृष्टि सदा उपद्रव ले आती है। लोभ के कारण तुम्हारी जो व्याख्या होती है, वह व्याख्या दुख से भर जाती है। और हमारी व्याख्याएं बड़ी महत्वपूर्ण हैं।
एक कम्युनिस्ट कवि का मैं गीत पढ़ रहा था कल। उसका मित्र उसे ताजमहल देखने ले गया है। पूर्णिमा की, शरद पूर्णिमा की रात होगी। लेकिन ताजमहल देख कर कम्युनिस्ट कवि को जो विचार उठे, वे सुनने जैसे हैं--
दोस्त, मैं देख चुका ताजमहल, वापस चल!
मरमरीं-मरमरीं फूलों से उबरता हीरा
चांद की आंच में दहके हुए सीमीं मीनार
जेहने शायर से यह करता हुआ चश्मक पैहम
एक मलिका का जियापोशो-फजाताब मजार
खुद-बखुद फिर गए नजरों में ब-अंदाजे-सवाल
वो जो रस्तों पे पड़े रहते हैं लाशों की तरह
खुश्क होकर जो सिमट जाते हैं बे-रस आसाब
धूप में खोपड़ियां बजती हैं ताशों की तरह
दोस्त, मैं देख चुका ताजमहल, वापस चल!
यह धड़कता हुआ गुंबद में दिले-शाहजहां
यह दरो-बाम पे हंसता हुआ मलिका का शबाब
जगमगाता है हर इक तह से मजाके-तफरीक
और तारीख उढ़ाती है मोहब्बत की नकाब
चांदनी और यह महल आलमे-हैरत की कसम
दूध की नहर में जैसे उबाल आ जाए
ऐसे सैयाह की नजरों में छुपे क्या यह समां
जिसको फरहाद की किस्मत का खयाल आ जाए
दोस्त, मैं देख चुका ताजमहल, वापस चल!
यह दमकती हुई चौखट यह तिलापोश कलस
इन्हीं जल्वों ने दिया कब्र-परस्ती को रिवाज
माहो-अंजुम भी हुए जाते हैं मजबूरे-सजूद
वाह आरामगहे-मालिकए-माबूद मिजाज
दीदनी कस्त नहीं, दीदनी तक्सीन है यह
रूए-हस्ती पे धुआं, कब्र पे रक्से-अनवार
फैल जाए इसी रौजे का जो सिमटा दामन
कितने जानदार जनाजों को भी मिल जाए मजार
दोस्त, मैं देख चुका ताजमहल, वापस चल!
ताजमहल भी देखोगे तो उतना ही देख पाओगे जितनी तुम्हारी व्याख्या होगी।
गुरजिएफ का शिष्य ऑस्पेंस्की ताजमहल देखने आया और उसने जो वचन लिखे उस रात अपनी डायरी में, वे अदभुत हैं। उसने लिखा कि ताजमहल ऐसे है जैसे पत्थर में उपनिषद। ऐसा सौंदर्य इसके पहले न उतारा गया था कभी और न फिर उतारा जा सका। और कभी उतारा जा सकेगा, इसमें भी संदेह है। ताजमहल में उसे उपनिषद के सूत्रों का सौंदर्य दिखाई पड़ा। जैसे ताजमहल कुछ है जो आकाश से उतारी गई घटना है इस पृथ्वी पर। कुछ है जो अरूप की तरफ इशारा करती है।
ताजमहल बनाया सूफियों ने। बनवाया शाहजहां ने, बनाया सूफियों ने। ताजमहल सूफी कृति है। जैसे अजंता-एलोरा बौद्ध भिक्षुओं की कृतियां हैं, और जैसे खजुराहो और कोणार्क तांत्रिकों की कृतियां हैं, वैसे ताजमहल सूफियों की कृति है। लेकिन गुरजिएफ का शिष्य था ऑस्पेंस्की, इसलिए देख सका सूफियों का यह कृत्य। गुरजिएफ खुद सूफी था, सूफी संतों से ही उसने सब सीखा था। इसलिए ऑस्पेंस्की को दिखाई पड़ सका कि ताजमहल में क्या खोदा गया है। ताजमहल तुम्हें याद दिलाता है तुम्हारे परम सौंदर्य की--देह में ही समाप्त मत हो जाना, पत्थर में भी इतना सौंदर्य छिपा है तो तुममें तो कितना छिपा होगा! उघाड़ने की बात है। नक्काशी की बात है। प्रकट करने की बात है।
ऑस्पेंस्की को सूफी मत की सारी सार-अभिव्यक्ति ताजमहल में मिली। एक कम्युनिस्ट कवि को दिखाई पड़ता है कि ताजमहल ठीक, मगर रास्तों पर लोग पड़े हैं भूखे, उनका क्या? यह ताजमहल उनका मजाक है। लोगों को भोजन नहीं है और यहां एक मरी-मराई मलिका के लिए इतना धन खर्च किया गया है। लोगों को दवा नहीं है, उनके बच्चों को दूध नहीं है, रहने के लिए छप्पर नहीं है--जिंदों को छप्पर नहीं है और मुर्दों के लिए इतनी सुंदर कब्र! यह अति अन्याय है। यह कम्युनिस्ट की परिभाषा है।
सब तुम पर निर्भर है। अगर तुम मौज में हो, तो ताजमहल में तुम्हें बड़ा आनंद दिखाई पड़ेगा, नाच होता हुआ दिखाई पड़ेगा, ताजमहल रक्स में मिलेगा। अगर तुम उदास गए हो, तुम्हारी प्रेयसी खो गई है, कि तुम्हारी मां मर गई है, कि तुम्हारा मित्र चल बसा है, और तुम ताजमहल देखोगे तो ताजमहल बड़ा उदास मालूम होगा। तुम्हारी आंखें जो लेकर जाती हैं, वही देख लेंगी।
तुम यहां सुनते किस तरह से हो मुझे, इस पर निर्भर है बहुत कुछ। कोई यहां हिंदू की तरह सुनने आता है, कोई यहां मुसलमान की तरह सुनते आता है, कोई ईसाई की तरह, वह मुझसे वंचित रह जाएगा। जो यहां न हिंदू, न मुसलमान, न ईसाई, जो सिर्फ मनुष्य की तरह सुनने आता है, वही मुझसे संबंध जोड़ पाएगा। कोई यहां बड़े लोभ से भर कर आता है--पारलौकिक लोभ, मगर लोभ लोभ है, कहीं पारलौकिक कोई लोभ होता है, लोभ ही तो संसार है!
अब यह मुक्ति के मन में बड़ा लोभ है। यह चाहती है जल्दी से निर्वाण उपलब्ध हो, समाधि उपलब्ध हो, आज का दिन और बेकार गया। जैसे कि मुझे सुन कर तुम्हें समाधि उपलब्ध हो सकती है। और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सुनते-सुनते नहीं उपलब्ध हो सकती। मगर सुन कर उपलब्ध नहीं हो सकती। सुनते-सुनते उपलब्ध हो सकती है। उपलब्ध करने की आकांक्षा हो तो नहीं उपलब्ध होगी। क्योंकि तब तुम सुन ही न पाओगे।
उपलब्धि इत्यादि की व्यर्थ बातें छोड़ो। जितनी देर मेरे साथ हो, मेरे साथ हो लो--तल्लीनता से, परिपूर्णता से। इस थोड़ी देर के लिए तो लोभ इत्यादि को फेंक दो। लोभ के कारण संबंध नहीं जुड़ पाते। लोभ बीच में बाधा बन जाता है। लोभ और प्रेम विपरीत चीजें हैं। जहां प्रेम है, वहां लोभ नहीं; और जहां लोभ है, वहां प्रेम नहीं। और यह सत्संग तो उनके लिए है जिनके हृदय में प्रेम है।
तो संबंध नहीं जुड़ पाता। मुक्ति बैठी-बैठी सोचती रहती होगी कि आधा घंटा गया, घंटा गया, ये नब्बे मिनट पूरे हो गए, आज भी नहीं हुआ, एक दिन और गया। ऐसे रोज-रोज दिन जाते हैं, फिर धीरे-धीरे हताशा गहन हो जाएगी कि ऐसे तो कितने दिन चले गए, ऐसे ही और दिन भी जाएंगे। और यहां रोज संभावना थी। यहां प्रतिपल संभावना थी। मैं यदि समाधि हूं, तो मुझे सुनते, मुझे देखते, मेरे पास बैठते समाधि फलित हो सकती है। समाधि का मतलब क्या होता है? समाधान। समाधि का मतलब क्या होता है? कुछ आकाश से कुछ उतरेगा तुम्हारे भीतर? नहीं, जब तुम्हारी जीवन-चेतना संगीतपूर्ण हो जाती है, तभी समाधि। जहां तुम तल्लीन हो गए, वहीं समाधि। लेकिन लोभ तल्लीन न होने देगा। लोभ भविष्य में भटकाए रखता है। लोभ कहता है, होने वाला है, होने वाला है। जब कि यहां हो रहा है। तुम्हारा मन वर्तमान में नहीं रहता, तो चूक होगी। तुम्हारा मन भविष्य में भटकेगा--तो मुक्ति ठीक ही कहती है--ऐसा रोज ही रोज होता रहेगा। यह तुम पर निर्भर है।
इस प्रश्न को गौर से समझना, क्योंकि यह मुक्ति का ही नहीं, औरों का भी होगा। मुक्ति को मैंने नाम ही मुक्ति इसीलिए दिया है कि उसके भीतर मोक्ष की बड़ी भयंकर अभीप्सा है। और वही अभीप्सा बाधा बन रही है।
‘पिछले कुछ दिनों से रोज प्रवचन के बाद जब आपको जाते हुए देखती हूं तो भीतर से एक निःश्वास निकल जाता है।’
यह निःश्वास आनंद का भी हो सकता है कि एक दिन और साथ रहने मिला, कि एक दिन और साथ जुड़ा, कि एक दिन और आनंद बरसा, कि एक दिन और शांति घनी हुई, यह निःश्वास आनंद का भी हो सकता है--धन्योऽहं! यह निःश्वास विषाद का भी हो सकता है कि अरे, आज फिर नहीं हुआ!
ऐसा समझो कि कोई तुमसे कहता है कि मैं नदी पर तैरने जाता हूं...
मुझे तैरने का शौक था। दो-चार घंटे अगर रोज मैं नदी में न जाऊं तो मुझे चैन नहीं पड़ती थी। मुझे नदी ने इतना आनंद दिया कि जो मुझे मिल जाता, उसी को मैं कहता कि आओ! लोग मुझे इतने प्रफुल्लित, इतने आनंदित देखते तो वे भी लोभ में चले जाते कि शायद कुछ न कुछ होता होगा! मेरी बातों में आकर चार बजे सुबह उठ आते, कि चलो देखें, एक दफा तो देखें! लेकिन वहां उन्हें कुछ भी न मिलता। और नींद हराम हुई सो अलग। सुबह मजे से सोते, वह भी गया, और तैरने में क्या रखा है! और ठंडी सुबह और नदी का ठंडा जल, और वे ठिठुरते, और वे कहते कि आनंद तो कुछ मालूम नहीं पड़ रहा है, और आप कहते थे कि बड़ा आनंद मिलता है! तब धीरे-धीरे मुझे समझ में आया कि भूल कहां हो रही है। मुझे आनंद मिलता है, क्योंकि मैं आनंद की तलाश नहीं कर रहा हूं। वे आ गए हैं सिर्फ इसी आशा में कि आनंद मिलेगा। अब ठंडे पानी में उतर रहे हैं, दिखाई तो यह पड़ रहा है कि ठंड लग रही है और सोच वे यह रहे हैं कि अभी तक आनंद नहीं मिला! उदास हुए जा रहे हैं कि अब तक नहीं आया! कब आएगा? कहां से आएगा? दो-चार दिन मेरे साथ जाते, फिर वे कहते कि भई, हमें नहीं आना है! दिन भर नींद आती है, और आनंद मिलता नहीं। मैं बहुत हैरान होता था कि तैरने जैसी घटना और इन्हें आनंद नहीं मिलता!
जल के साथ घड़ी, दो घड़ी रह लेना परम जीवनदायी है, क्योंकि अस्सी प्रतिशत तुम्हारे भीतर जल है। और जैसे तुम्हारे भीतर अस्सी प्रतिशत जल है, जब जल के साथ तुम्हारे भीतर का जल मिलता है तो बड़ी तरंगें उठती हैं। मगर मिलना चाहिए, मिलन होना चाहिए। तो तैरना ध्यान बन सकता है, अगर तुम परिपूर्ण डूब गए तैरने में। अगर कोई धूप में लेट गया है जाकर सागर के तट पर और धूप की वर्षा में डूब सकता है, तो वहां ध्यान। कोई नाचने में डूब सकता है, वहां ध्यान। तुम जिसमें डूब जाओ, वहां ध्यान। यहां मैं जो तुमसे बोल रहा हूं रोज-रोज, वह किन्हीं सिद्धांतों को समझाने के लिए नहीं। सिद्धांतों में रखा क्या है! दो कौड़ी के हैं। सिद्धांत तो बहाने हैं, प्रयोजन कुछ और है। प्रयोजन यह है कि तुम मेरे साथ थोड़ी देर को डूब जाओ। मगर अगर भीतर तुम्हारे यह आकांक्षा बैठी है कि कुछ मिलना चाहिए, तो बड़ी कठिनाई हो जाएगी।
शायद तुमने सुना हो, यूक्लिड बहुत बड़ा गणितज्ञ हुआ, ज्यामिति का आविष्कारक। उसके पास एक धनपति ने अपने बेटे को ज्यामिति सीखने भेजा। धनपति का बेटा था, धन उसकी एकमात्र भाषा थी। यूक्लिड ने उसे समझाना शुरू किया कि रेखा क्या है, बिंदु क्या है, त्रिकोण क्या है। उसने थोड़ी देर सुना और उसने कहा, इससे मिलेगा क्या? इससे फायदा क्या? बिंदु क्या है, रेखा क्या है, इससे फायदा क्या? इससे लाभ क्या होगा? धनपति का बेटा था! यूक्लिड ने उसकी तरफ देखा और अपनी पत्नी को कहा कि ऐसा कर, रोज ज्यामिति पढ़ने के बाद जब यह युवक जाने लगे तो इसे पांच सिक्के दे दिया कर। युवक बड़ा खुश हुआ कि यह तो बड़ा मजा है! बिंदु क्या, रेखा क्या, इसको पढ़ने-सीखने में पांच सिक्के भी मिलते हैं। लेकिन उसने इस बात को न देखा कि भयंकर मजाक किया है यूक्लिड ने। जब उसके बाप को, धनपति को पता चला तो उसने सिर ठोंक लिया। उसने अपने बेटे को कहा, नासमझ, यूक्लिड जैसा गणितज्ञ समझाने को मिला हो और तू उससे गणित तो नहीं समझ रहा है और उलटे पांच रुपये उससे लेकर घर आ जाता है! तू मूढ़ है।
लाभ की भाषा मूढ़ता की भाषा है। लेकिन तुम्हारा कसूर नहीं है। तुम्हारे तथाकथित महात्मा, पंडित, पुजारी यही तुम्हें समझा रहे हैं कि संसार में भी लाभ होता है, यह भी लाभ है, और परमात्मा में भी लाभ होता है--ध्यान-लाभ करो, पुण्य-लाभ करो, मोक्ष-लाभ करो। मगर लाभ की भाषा नहीं छूटती।
मैं तुमसे कह दूं इस बात को फिर से कि जब तक लाभ की भाषा है, तब तक समाधि अनुभव नहीं होगी। लाभ ही तनाव है। जहां लाभ गया, लोभ गया, उसी चित्त-दशा का नाम समाधि है। जब लाभ-लोभ उड़ गए और तुम्हारे भीतर कोई लाभ-लोभ की भाषा न रह गई, तुम इसी क्षण में परम तल्लीन हो गए, वही समाधि है। समाधि यानी तल्लीनता। समाधि यानी तन्मयता।
तो मुक्ति कहती है: ‘...निःश्वास निकल जाता है और लगता है कि एक दिन और व्यर्थ गया। और फिर एक गहरा भाव रह जाता है कि एक दिन यह दिव्यपुरुष ऐसे ही आंखों से ओझल हो जाएगा और मैं खड़ी-खड़ी ऐसे ही देखती रह जाऊंगी।’
अगर लाभ रहा, लोभ रहा, तो यह होने वाला है! आज नहीं कल, मुझे विदा लेनी ही होगी। और तब तुम सोचोगे कि जिंदगी व्यर्थ गई। पूरा जीवन व्यर्थ गया। जब कि हर पल समाधि घट सकती थी। और शायद तुम्हारा लोभ से भरा हुआ मन मुझ पर नाराजगी जाहिर भी करेगा कि शायद मैंने ही तुम्हें समाधि नहीं दी। क्योंकि तुम इस आशा में बैठे हो कि मैं तुम्हें समाधि दूंगा।
समाधि ली जाती है, दी नहीं जाती। मैं देना भी चाहूं तो नहीं दे सकता। हां, तुम लेना चाहो तो ले सकते हो। और तुम लेना चाहो तो मुझसे ही नहीं, वृक्षों से भी ले सकते हो, पहाड़ों से भी ले सकते हो, चांद-तारों से भी ले सकते हो। समाधि का अर्थ यही होता है कि हम किसी क्षण में परिपूर्ण रूप से डूब जाएं। न कोई भविष्य रहे, न कोई अतीत, यही क्षण सब तरफ से घेर ले, यही क्षण सारा समय बन जाए, यही क्षण अनंत हो जाए।
तो यहां मैं देखता हूं। पश्चिम से जो लोग आते हैं, उन्हें ध्यान ज्यादा सरलता से घटता है। पूर्वीय को ज्यादा मुश्किल से घटता है। होना चाहिए उलटा--पूर्वीय व्यक्ति को, कम से कम भारतीयों को ध्यान जल्दी घटना चाहिए, हजारों साल से ध्यान की चर्चा यहां चलती रही है। लेकिन उसी से अड़चन हो रही है। पश्चिम से जो आदमी आता है, उसे ध्यान के संबंध में कुछ हिसाब-किताब नहीं है; उसे पता ही नहीं है कि ध्यान क्या है। इसलिए लोभ भी नहीं है, पाने की कोई प्रबल आकांक्षा भी नहीं है। अगर मैं उससे नाचने को कहता हूं तो वह नाचने में डूब जाता है, क्योंकि आंख के किनारे से देखता नहीं रहता कि अभी ध्यान घटा कि नहीं घटा। भारतीय आता है, वह कहता है--दो दिन हो गए नाचते, अभी तक ध्यान नहीं घटा। तीन दिन हो गए ध्यान करते, अभी तक ध्यान नहीं घटा। पश्चिम से आया व्यक्ति नाचने में रस लेने लगता है, वह मुझसे आकर कहने लगता है, नाचने में बड़ा मजा आ रहा है--ध्यान इत्यादि का उसे पता भी नहीं है कि घटना है कि नहीं घटना है--नाचने में बड़ा मजा आ रहा है! एक दिन अचानक ध्यान घट जाता है। ध्यान अनायास घटता है।
भारत का मन बहुत लोभग्रस्त हो गया है। तुमने बुद्धों से बस इतना ही लाभ लिया। तुमने बुद्धों से बस यह लोभ सीखा। तुम सरल नहीं रह गए चित्त में, तुम जटिल हो गए। धर्म तुम्हारे लिए एक तरह का हिसाब-किताब हो गया--इतना पुण्य करेंगे तो इतना लाभ मिलेगा। यहां इतना देंगे तो वहां उतना मिलेगा। तुमने हर चीज में गणित फैला दिया। तुम भाव की दशाओं से वंचित होने शुरू हो गए। इसलिए बड़ी आश्चर्य की बात है, मगर यह हो रहा है। नहीं होना चाहिए, मगर हो रहा है। तुम सजग होओ तो शायद होना बंद हो जाए।
पहले तो भारतीय ध्यान में उतरना नहीं चाहता, क्योंकि उसे यह खयाल है कि वह जानता ही है ध्यान क्या है। दूसरा अगर उतरने को भी राजी होता है, तो दिन, दो दिन में ही आकर खड़ा हो जाता है कि अभी तक नहीं हुआ। और उसे बेचैनी होती है कि पश्चिम से आए लोगों को हो रहा है मालूम होता है, क्योंकि वे इतने प्रसन्न और इतने आनंदित! उनके प्रसन्न और आनंदित होने का कारण है कि उनके मन में लोभ नहीं है ध्यान का। धन का लोभ था, धन पा लिया पश्चिम ने, और वह लोभ टूट गया और देख लिया कि उस लोभ में कोई सार नहीं था। अभी ध्यान का लोभ पैदा नहीं हुआ है। जल्दी पैदा हो जाएगा, भारतीय साधु-संत सारे अमरीका और पश्चिम में तैर रहे हैं, यहां से लेकर वहां तक; वे जल्दी ही लोभ पैदा करवा देंगे। क्योंकि उनकी भाषा लोभ की है। महर्षि महेश योगी लोगों से कहते हैं: ध्यान करने से पारलौकिक लाभ तो होता ही है, सांसारिक लाभ भी होता है। धन भी बढ़ेगा, पद भी बढ़ेगा, परमात्मा भी मिलेगा।
एक बहुत आश्चर्यजनक घटना है। विवेकानंद ने भारतीय साधु-संतों के लिए अमरीका का दरवाजा खोला। विवेकानंद से लेकर अब तक, सिर्फ कृष्णमूर्ति को छोड़ कर, जितने लोग भारत से अमरीका गए हैं, उन्होंने अमरीका को नहीं बदला, अमरीका ने उन्हें बदल दिया। वे अमरीका की ही भाषा बोलने लगते हैं। क्योंकि उन्हें दिखाई पड़ता है कि अगर अमरीकन लोगों को प्रभावित करना है, तो वही भाषा बोलो जो वे समझते हैं। अमरीका धन की भाषा समझता है। अमरीका पूछता है: धन इससे कैसे मिलेगा? तो भारतीय तुम्हारा महात्मा भी धन की भाषा बोलने लगता है। वह कहता है: ध्यान करने से मन की शक्ति बढ़ेगी, सिद्धि मिलेगी। ध्यान करने से क्या नहीं हो सकता! फिर तुम जो चाहोगे वही पा सकोगे, तुम्हारे विचार इतने शक्तिशाली हो जाएंगे।
मैंने ऐसी किताबें देखी हैं जो कहती हैं कि अगर तुमने ठीक से ध्यान किया और कहा कि केडिलक कार मिलनी चाहिए, तो मिलेगी। ध्यान की किताबें! केडिलक कार मिलनी चाहिए, इसको अगर ध्यानपूर्वक सोचा, तो जरूर मिलेगी! और तुमने कहा कि यह जो स्त्री जा रही है, यह मुझे मिलनी चाहिए, अगर तुमने पूरे संकल्प से, पूरी एकाग्रता से विचार किया, तो यह घटना घट कर रहेगी। क्योंकि विचार में शक्ति है। और एकाग्र विचार में बड़ी शक्ति है।
अगर तुम्हारे ऋषि-मुनि कब्रों से निकल आएं, तो सिर ठोंक लें, कि ये हमारे महात्मा अमरीका में जाकर क्या समझा रहे हैं! मगर अमरीका को समझाना हो तो अमरीका की भाषा बोलनी पड़ती है। उसी भाषा के बोलने में सब व्यर्थ हो जाता है। इसलिए मैंने तय किया कि मैं पश्चिम नहीं जाऊंगा; जिसको आना है, यहां आए। मैं अपनी भाषा बोलूंगा, जिसको समझ पड़नी हो, समझ सकता हो, वह मेरी भाषा समझे और यहां आए, मुझे कहीं जाना नहीं है। मैं कोई समझौते के लिए राजी नहीं हूं।
भारतीय मन सदियों से सुनते-सुनते ध्यान की बात, लोभी हो गया है। धन का जो लोभ है, उसी लोभ को भारतीय मन ने आत्मा के लोभ पर निरूपित कर दिया, आरोपित कर दिया। पद का जो लोभ है, वही उसने धार्मिक दिशा में संक्रमित कर दिया है, भेद नहीं है। कोई यहां पद पाना चाहता है, वह वहां पद पाना चाहता है। फिर अड़चन होगी। फिर तुम मुझे न समझ पाओगे। और फिर, मुक्ति, खड़ी ही खड़ी रह जाओगी। यह तुम्हारे हाथ में है। यह समय चूक भी सकती हो। चूकने का मतलब सिर्फ इतना ही कि इस समय में डूबो नहीं तो चूक जाओगी। मैं रोज यहां मौजूद हूं, मेरे द्वार खुले हैं, तुम डुबकी लो; तो मेरे जाने के पहले घटना घट जाएगी। आज घट सकती है, कल का भी कोई सवाल नहीं है, कभी भी घट सकती है, क्योंकि परमात्मा सदा मौजूद है। जिस क्षण तुम्हारा लोभ-लाभ गया, उसी क्षण मिलन हो जाता है।
किसे यह होश सुराही कहां है जाम कहां
निगाहे-पीरे-मुगां से बरस रही है शराब
जब चारों तरफ से शराब बरस रही हो, तो तुम सुराही खोज रही हो! जाम खोज रही हो! नहाओ इसमें! सुराही में भर कर क्या करना है? पी लो इसे! शराब में डूब कर शराब हो जाओ।
किसे यह होश सुराही कहां है जाम कहां
निगाहे-पीरे-मुगां से बरस रही है शराब
तुम डूबो। मीरा ने कहा है: मीरा पी गई बिन तौले। मीरा मगन भई अब क्या बोले? बिना तौले पी जाओ, लाभ-लोभ छोड़ो। वह लाभ-लोभ सब तौलना है। तराजू लिए बैठी है मुक्ति, वह अपना तौल रही है--कितना मिला, कितना नहीं मिला। इसलिए उदास है। दुर्भाग्य की बात है, लेकिन इस आश्रम में जितने भारतीय हैं, अधिकतम उदास हैं। जो गैर-भारतीय हैं, वे प्रसन्न हैं, आनंदित हैं।
तेरा मैखार तेरी मस्त निगाहों की कसम
साकिए बिन पिए मसरूर हुआ जाता है
यह ऐसी शराब है कि बिना पीए नशा चढ़ सकता है। सिर्फ द्वार तुम्हारा खुला हो। खिड़की-दरवाजे खोलो!
शकील दूरिए-मंजिल से नाउम्मीद न हो
अब आई जाती है मंजिल अब आई जाती है
उदास होने की कोई भी जरूरत नहीं है। न निराश होने की कोई जरूरत है। मैं तुमसे यह कह ही नहीं रहा हूं कि मंजिल असंभव है, या बहुत दुर्गम है। मंजिल बहुत सुगम है और सरल है और सहज है। यही तो भक्ति का सारा सार-निचोड़ है। प्रेम भर चाहिए। लोभ के कारण प्रेम नहीं हो पाता और मंजिल दूर से दूर हो जाती है।
लोभ को जाने दो। लोभ की जगह प्रेम का आह्लाद-भाव। फिर हुआ ही है। फिर हो ही गया। फिर क्षण भर की देर नहीं है।
पांचवां प्रश्न:
मैं अपना प्रेम कभी प्रकट नहीं कर पाया। साधारण लौकिक प्रेम ही नहीं, आपके प्रति भी जो प्रेम है वह भी छिपाए बैठा हूं। न मालूम कौन सा भय है जिसने मुझे पंगु बना रखा है! यह अविकसित प्रेम कैसे भक्ति बनेगा?
मनुष्य का दुर्भाग्य है कि अब तक जो संस्कृति और जो सभ्यता पनपी है पृथ्वी पर वह प्रेम-विरोधी है। वह युद्ध की पक्षपाती है और प्रेम की विरोधी है। यह सभ्यता बहुत सभ्यता नहीं है, बहुत आदिम है। यह युद्ध पर जीती है, प्रेम पर नहीं जीती। यह प्रेम की दुश्मन है। यह प्रेम से बहुत भयभीत है।
तुम देखते हो, प्रेम को प्रकट करने में हजार तरह की बाधाएं खड़ी की जाती हैं। प्रेम हो न जाए, इसके बीच हजार तरह की दीवालें खड़ी की जाती हैं। प्रेम न घटे, इसलिए सदियों तक बाल-विवाह चलता रहा। वह सिर्फ प्रेम से बचने का उपाय था। इसके पहले कि प्रेम की तरंग उठे, विवाह कर दो। न उठेगी प्रेम की तरंग, न होगी कोई झंझट।
स्त्री-पुरुषों को दूर रखा जाता है, उनके बीच में बड़े फासले खड़े किए जाते हैं। लड़कियों और लड़कों को एक साथ कालेज या स्कूल में पढ़ने नहीं दिया जाता। अगर पढ़ने भी दिया जाता है तो उनके बैठने के स्थान अलग-अलग होते हैं। सब तरह से बाधाएं खड़ी की जाती हैं। और सब तरह से डराया जाता है कि प्रेम में कुछ खतरा है, प्रेम पाप है। यह बात इतनी गहरी बैठ जाती है प्राणों में कि प्रेम पाप है, कि जब कभी तुम्हारे जीवन में प्रेम का उदय भी होता है, तो भी साहस पैदा नहीं होता। तुम अपने को खींच-खींच लेते हो। तुम रुक-रुक जाते हो। यह सभ्यता संगीनों की सभ्यता है, प्रेम की नहीं। इसका पूरा आयोजन यही है कि कैसे हम मरें और मारें। यह सभ्यता सैनिक बनाती है, प्रेमी नहीं बनाती।
इसलिए तुम चमत्कार की बात देखोगे, अगर फिल्म में कोई किसी की छाती में छुरा भोंक दे, तो इस पर सरकार कोई रोक नहीं लगाती। लेकिन चुंबन पर रोक है। यह बड़े मजे की बात है। कल मैं पढ़ रहा था, मद्रास में तो मुख्यमंत्री फिल्म अभिनेता है, लेकिन फिल्म अभिनेता मुख्यमंत्री भी वक्तव्य देता है कि फिल्मों में चुंबन नहीं होना चाहिए, क्योंकि इससे भारतीय संस्कृति का बड़ा ह्रास हो जाएगा।
चुंबन से भारतीय संस्कृति का ह्रास हो जाएगा! खजुराहो की मूर्तियां किसने बनाई थीं? कोई पश्चिम से लोग आए थे बनाने? पश्चिम में एक भी मंदिर नहीं है खजुराहो के मुकाबले। चुंबन से ह्रास हो जाएगा भारतीय संस्कृति का! हां, छाती में छुरे भोंको, जेबें काटो, हत्याएं करो फिल्म में, चोरियां करो, जलाओ लोगों को, मारो, सब चलेगा, इससे संस्कृति का ह्रास नहीं होता! इससे संस्कृति बढ़ती है, इससे विकसित होती है। एक चुंबन बड़ा खतरनाक है! चुंबन जैसी कोमल चीज मार डालेगी इनकी संस्कृति को!
प्रेम से दुश्मनी है। अगर दो व्यक्ति प्रेम में आलिंगन कर लें तो अश्लील है, और एक-दूसरे की छाती में छुरा भोंक दें तो अश्लील नहीं है। अश्लील शब्द का हिंसा से संबंध ही नहीं जोड़ते लोग। अश्लील शब्द का सिर्फ हिंसा से ही संबंध होना चाहिए। प्रेम से क्या संबंध होगा अश्लील का?
तो तुम्हारा प्रश्न तुम्हारा ही प्रश्न नहीं है, सारी मनुष्य-जाति का प्रश्न है। प्रेम के प्रति तुम्हें अपराध-भाव से भर दिया गया है। और जब तक प्रेम विकसित न हो, तब तक भक्ति का जन्म नहीं हो सकता। जिसने लौकिक प्रेम नहीं किया, वह अलौकिक प्रेम तो कैसे करेगा? क्योंकि लौकिक प्रेम की ही हिम्मत जिसमें नहीं थी, उसमें अलौकिक प्रेम की हिम्मत तो पैदा ही नहीं हो सकती। अलौकिक प्रेम तो दुस्साहस है। कल मैं एक गीत पढ़ रहा था--
तुम मोहब्बत को छिपाती क्यों हो?
हाय! यह हीर की सूरत जीना
मुंह बिगाड़े हुए अमृत पीना
कांपती रूह, धड़कता सीना
जुर्म फितरत को बताती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छिपाती क्यों हो?
हां, वो हंसते हैं जो इंसान नहीं
जिनको कुछ इश्क का इरफान नहीं
संगजदों जरा जान नहीं
आंख ऐसों की बचाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छिपाती क्यों हो?
जुर्म तुमने कोई ढाया तो नहीं
इब्ने-आदम को सताया तो नहीं
खूं गरीबों का बहाया तो नहीं
यों पसीने में नहाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छिपाती क्यों हो?
झेंपते तो नहीं मंदिर के मकीं
झेंपते तो नहीं मेहराबनशीं
मक्र पर उनकी चमकती है जबीं
सिद्क पर सर को झुकाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छिपाती क्यों हो?
पर्दा है दाग छुपाने के लिए
शर्म है किज्ब पे छाने के लिए
इश्क इक गीत है गाने के लिए
इसको ओंठों में दबाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छिपाती क्यों हो?
लेकिन सभी मोहब्बत को छिपा रहे हैं--पुरुष और स्त्रियां, प्रेमी और प्रेमिकाएं, पति और पत्नियां, भाई और बहन, बाप और बेटे, मां और बेटियां--सब मोहब्बत को छिपा रहे हैं, सब प्रेम को छिपा रहे हैं। तुम्हें याद है, तुम कब से अपने बाप की छाती नहीं लगे? कब से? या शायद कभी नहीं। तुम्हें याद है, कब से तुम्हारी मां ने तुम्हें अपनी गोद में नहीं लिया? भूल ही गई है बात! दो मित्र भी तो हाथ में हाथ डाल कर नहीं चलते, कि कहीं कोई कुछ गलत न समझ ले।
प्रेम के संबंध में इतना छिपाव, इतना दुराव! क्यों? क्योंकि प्रेम में कुछ बगावत है, विद्रोह है। अगर लोगों को प्रेम की पूरी छूट दी जाए, तो दुनिया दूसरे ढंग की होगी। उस दुनिया में राजनीति नहीं होगी, युद्ध नहीं होंगे। अगर प्रेम की पूरी छूट हो तो कौन युद्ध के स्थल पर मरने जाना चाहेगा? कौन? कौन मां अपने बेटे को भेजेगी युद्ध पर? कौन पत्नी अपने पति को भेजेगी? कौन बहन अपने भाई को भेजेगी युद्ध पर? अगर दुनिया में प्रेम हो तो लड़ने की इतनी आतुरता ही नहीं होगी। लोग कहेंगे--क्या फिजूल की बात है! लड़ना किसलिए? यह जमीन सबकी है, हम सब भोगें, हम सब आनंद से रहें, लड़ने का क्या सवाल?
लेकिन मामला कुछ और है। मामला ऐसा है कि तुम्हें प्रेम का मौका नहीं मिला, तो तुम्हारी जो प्रेम की ऊर्जा है वह सघन हो गई है भीतर और घृणा बन गई है। प्रेम सड़ गया है तुम्हारा। वह इस दुनिया से बदला लेना चाहता है। वह किसी की छाती में छुरा भोंक देना चाहता है। तुम्हारा प्रेम सड़ गया है, घाव बन गया है, नासूर हो गया है, कैंसर हो गया है। इसलिए हर दस साल में एक महायुद्ध चाहिए। तब कहीं थोड़ी छाती हलकी होती है, थोड़ी मवाद बह जाती है। और छोटी-मोटी लड़ाई तो चलती ही रहनी चाहिए, कभी वियतनाम में, कभी इजरायल में, कभी कहीं--कश्मीर में, कभी बंगलादेश में, छोटी-मोटी लड़ाई तो चलती ही रहनी चाहिए।
तुमने एक मजे की बात देखी, कि जब भी लड़ाई चलती है, लोगों के चेहरों पर रौनक आ जाती है, धूल झड़ जाती है। लोग बड़े ताजे मालूम होने लगते हैं, जैसे कुछ हो रहा है! जिंदगी में कुछ और तो होता ही नहीं, जिंदगी में और तो कुछ है ही नहीं, खाली-खाली है; जब जिंदगी में कुछ होता लगता है, माने युद्ध--समाचार का मतलब यह होता है कि कोई खराब समाचार; कि है भाई आज कुछ समाचार? सुबह ही से उठ कर लोग पूछते हैं। उनका मतलब है--हुई कुछ गड़बड़? कुछ उपद्रव हुआ? लोग कहते हैं, आज तो कुछ नहीं, वही का वही अखबार में सब पुराना ही है। फिर धूल जम गई। फिर वह शांत हो गए कि चलो ठीक है, कुछ नहीं हुआ आज, तो आज का दिन फिर बेकार गया।
युद्ध हो जाए, लोग कटने-मरने लगें, तो तुमने एक और मजे की बात देखी है, लोग छोटे-छोटे झगड़े भूल जाते हैं जब बड़ा युद्ध होता है। जैसे हिंदुस्तान-पाकिस्तान लड़े, तो फिर गुजराती-मराठी नहीं लड़ते। फिर क्या मतलब? फायदा क्या? अब जब बड़ी लड़ाई चल रही है, तो छोटी की कौन झंझट करे! फिर हिंदी और गैर-हिंदी नहीं लड़ते। मजा ही आ रहा है, अब करने की क्या जरूरत? छोटे-छोटे दंगल गांव-गांव में क्या करना, बड़ा दंगल हो रहा है। राजधानी-दंगल हो रहा है, तो बस अब उसका ही मजा लेंगे। जब राजधानी का दंगल बंद हो जाता है, हिंदुस्तान-पाकिस्तान नहीं लड़ते, तो चैन नहीं पड़ती। तो फिर गुजराती और मराठी लड़ते हैं। फिर हिंदू और मुसलमान लड़ते हैं। फिर कोई न कोई रास्ता खोजते हैं लोग। शिया-सुन्नी लड़ते हैं। ब्राह्मण-हरिजन लड़ते हैं।
लोग सोचते थे कि हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंट जाएंगे तो फिर यहां कोई झगड़ा नहीं होगा। झगड़े बढ़ गए! कम नहीं हुए। क्योंकि तब हिंदू-मुसलमान लड़ लेते थे, अब हिंदू-मुसलमान लड़ने का ज्यादा उपाय नहीं रहा--मुसलमान उधर हो गए, हिंदू इधर हो गए--तो हिंदू आपस में लड़ते हैं। उधर मुसलमान लड़ रहे हैं। यह मत सोचना कि वे नहीं लड़ रहे हैं। वहां भी वही है!
तुमने देखा, तुम्हारे परिवार में और पड़ोसी के परिवार में झगड़ा हो जाए तो तुम्हारे घर के आपसी झगड़े समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि अब बड़ा झगड़ा सामने आ गया, अब ये छोटे-मोटे झगड़े भूलने पड़ते हैं। जब पड़ोसी से झगड़ा समाप्त हो गया--बाप बेटे से लड़ रहा है, पत्नी पति से लड़ रही है, भाई भाई से लड़ रहा है--छोटे-छोटे झगड़े शुरू हुए।
बिना झगड़े के आदमी रह नहीं सकता क्या? क्या झगड़ा अनिवार्य है? यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए, बार-बार पूछा जाना चाहिए।
झगड़ा कतई अनिवार्य नहीं है। लेकिन प्रेम को मौका नहीं दिया गया। प्रेम की जो अनंत ऊर्जा है, उस ऊर्जा को जब तक मौका न मिले, वही ऊर्जा विध्वंस बन जाती है। या तो सृजन, या विध्वंस। ठीक मार्ग मिले तो सृजनात्मक हो जाती है। तब गीत पैदा होते हैं, तब नृत्य जगता है, तब संगीत पैदा होता है। जब तुम प्रेम से भरे होते हो, तो तुम्हारे हाथ वीणा को छूना चाहते हैं। या नहीं? जब तुम प्रेम से भरे होते हो, तो तुम अपनी बगिया में गुलाब उगाना चाहते हो। या नहीं? जब तुम प्रेम से भरे होते हो, तो गीतों में तुम्हें रस आता, नृत्य में तुम्हें अर्थ मालूम होता है।
जब तुम प्रेम से बिलकुल खाली हो जाते हो, मौका ही नहीं प्रेम का, घृणा ही घृणा हो जाती है, तब तुम तलवारों पर धार धरने लगते हो, तब तुम बंदूकें साफ करने लगते हो, तब तुम प्रतीक्षा करने लगते हो कि कहीं कुछ मौका मिल जाए तो कूद पडूं और जूझ जाऊं; मर लूं या मार लूं। जिंदगी इतनी व्यर्थ मालूम हो रही है कि मौत ही सार्थक मालूम होती है।
तो यह प्रश्न तुम्हारा ही नहीं है, यह प्रश्न सभी का है। ऐसी दशा है। इस दशा से बाहर आने के लिए तुम्हें चेष्टा करनी होगी। और समाज तुम्हें साथ नहीं देगा। तुम्हें अपने ही बल से धीरे-धीरे बाहर आना होगा। तुम अपने जीवन को प्रेमपूर्ण बनाओ। तुमसे जितना प्रेम बन सके, दो। और जितना प्रेम ले सको, लो। सब दिशाओं से प्रेमपूर्ण बनाओ--भाई को प्रेम करो, बहन को करो, पत्नी को करो, मां को करो, पड़ोसियों को करो, मित्रों को करो, प्रेम की एक बाढ़ बन जाओ। छोटी सी जिंदगी है, इस छोटी सी जिंदगी में प्रेम का दीया जलाओ। और तुम अपूर्व आनंद अनुभव करोगे। और तुम पाओगे कि वही लपट जो यहां प्रेम कहलाती है, जब और जरा ऊपर उठती है, देहों के पार जाती है, पदार्थ के ऊपर उठती है, तो भक्ति बन जाती है। भक्ति प्रीति की ही अंतिम छलांग है। लेकिन प्रीति ही सिकुड़ी-सिकुड़ी पड़ी है, तो भक्ति कैसे होगी? भक्ति तो प्रेम की ही अंतिम उड़ान है। और पक्षी घोंसला ही नहीं छोड़ रहा है, अंतिम उड़ान क्या खाक भरेगा!
शांडिल्य के सूत्र इसीलिए महत्वपूर्ण हैं। शांडिल्य कहते हैं: प्रीति जीवन का असली तत्व है। जिससे अस्तित्व बना है, वह तत्व है प्रीति। उस प्रीति के चार रूप हैं।
अपने से छोटों के प्रति हो तो स्नेह।
अपने समान के प्रति हो तो प्रेम।
अपने से बड़ों के प्रति हो तो श्रद्धा।
और समस्त के प्रति हो, सर्वात्मा के प्रति हो तो भक्ति।
एक ही प्रीति के ये चार अलग-अलग रूप हैं। कहो चार सीढ़ियां हैं। लेकिन तीन सीढ़ियां पार करनी होंगी तभी तुम चौथी में उठ सकोगे।
‘मैं अपना प्रेम कभी प्रकट नहीं कर पाया।’
जाने दो जो नहीं हुआ कल, आज तो करो। अब कल के लिए बैठे-बैठे क्या रोना! कल तो गया, अब दुबारा लौटेगा भी नहीं, अब कल के लिए बैठे-बैठे क्या समय खराब करना! आज तो हाथ में है न, आज कुछ करो। आज नाचो, आज गाओ। आज हृदय से मिलो।
कहते हैं: ‘मैं अपना प्रेम कभी प्रकट नहीं कर पाया। साधारण लौकिक प्रेम ही नहीं, आपके प्रति भी जो प्रेम है वह भी छिपाए बैठा हूं।’
उसे तो छिपाने की कोई भी जरूरत नहीं है। क्योंकि यहां तो मैं एक ही बात सिखा रहा हूं, अगर कुछ सिखा रहा हूं तो--प्रेम को अभिव्यक्ति दो। क्योंकि प्रेम की अभिव्यक्ति में ही तुम्हारी आत्मा का विकास है। निःसंकोच अपने प्रेम को प्रकट होने दो। तुम्हारे प्रेम की अभिव्यक्ति में ही तुम पाओगे कि तुम्हारा असली जीवन शुरू हुआ। जागरण उसी से आता है। नहीं तो तुम सोए-सोए जी रहे हो।
‘न मालूम कौन सा भय है मुझे, जिसने मुझे पंगु बना रखा है।’
संस्कार का भय है। सदा सिखाया गया है प्रेम के संबंध में, सावधान! प्रेम खतरनाक है! प्रेम में जाना ही मत! प्रेम पागलपन है! यह सिखाया गया है, इसलिए तुम रुके हुए हो।
मैं तुमसे कहता हूं, प्रेम पागलपन सही तो पागलपन सही, लेकिन प्रेमरहित होकर बुद्धिमान होने से प्रेमपूर्ण होकर बुद्धिहीन होना बेहतर है। क्योंकि जो प्रेम में पड़ता है वह कभी न कभी परमात्मा तक पहुंच ही जाता है। प्रेम यानी नाव को छोड़ दिया, पाल खोल दिए।
ठीक ही कहते हैं लोग, कहते हैं कि प्रेम पागलपन है। है ही पागलपन। क्योंकि तर्क उसका साथ नहीं देता। गणित में आता नहीं, हिसाब-किताब में बैठता नहीं, फायदा क्या है? गणित पूछता है: फायदा क्या है? क्या मिलेगा प्रेम करने से? और झंझट ही होगी, काम में बाधा पड़ेगी। अभी तो चुनाव आ रहा है, चुनाव लड़ो, प्रेम में कहां पड़ते हो? अब जिसको चुनाव लड़ना है, वह प्रेम कर भी नहीं सकता। जो प्रेम करेगा, वह चुनाव में लड़ने की ऊर्जा नहीं पाएगा। चुनाव में लड़ने के लिए वही युद्ध की दशा चाहिए। अभी तो धन कमाना है, अभी प्रेम में मत पड़ो। अगर प्रेम में पड़ गए, तो धन न कमा पाओगे।
तुमने देखा, प्रेमी अक्सर धनी नहीं हो पाते। हो ही नहीं सकते। क्योंकि धन इकट्ठा करने के लिए बड़े अप्रेम की क्षमता चाहिए। धन इकट्ठा ही अप्रेमी करते हैं। अगर पद पर पहुंचना हो, प्रधानमंत्री बनना हो या राष्ट्रपति बनना हो, तो प्रेम मत करना। क्योंकि प्रेम किया तो कौन फिकर करता है प्रधानमंत्री बनने की? किसलिए? प्रेम करते ही तुम बादशाह हो गए। तुम्हारी छोटी सी जिंदगी में सुवास आ गई। अब कौन फिकर करता है दिल्ली जाने की? प्रेम न हो जीवन में तो आदमी दिल्ली जाने की कोशिश करता है। प्रेम न हो तो आदमी इस कोशिश में रहता है कि लोगों का ध्यान तो मेरी तरफ आकर्षित हो। प्रेम की कमी ध्यान से पूरी करवा लेना चाहता है--दूसरों का ध्यान आकर्षित हो जाए।
जब कोई तुम्हें प्रेम से भर कर देखता है--एक व्यक्ति भी अगर तुम्हें प्रेम से भर कर देख लेता है, प्राण तृप्त हो जाते हैं। जब यह तृप्ति नहीं होती, तब तुम चाहते हो कि मंच पर खड़ा हो जाऊं, हजारों लोगों की भीड़, लोग ताली बजाएं, फूलमालाएं फेंकें। ये उसी प्रेम की जो दो आंख तुम्हें नहीं मिल पाईं, उसी की पूर्ति तुम कर रहे हो। और करोड़ लोग भी तुम्हारे ऊपर फूल फेंकें तो भी पूर्ति नहीं होती। क्योंकि वे फूल फेंकने वाले प्रेम के कारण फूल नहीं फेंक रहे हैं, वे तुम पर फूल फेंक ही नहीं रहे हैं, वे सिर्फ तुम्हारे पद और प्रतिष्ठा के लिए फूल फेंक रहे हैं, वे भय के कारण फूल फेंक रहे हैं। यही लोग कल तुम पर जूते फेंकेंगे, जरा पद से नीचे उतरो।
एक महिला के संबंध में मुझे पता है, इंदिरा पर किताब लिख रही थी, उनकी प्रशंसा में किताब लिख रही थी। फिर सब पासा पलट गया। तो अब उसने किताब भी बदल दी। अब उसने किताब लिखी है इंदिरा के खिलाफ। शुरू की थी पक्ष में, किताब करीब-करीब पूरी होने को आ गई थी, बस आखिरी हिस्सा पूरा करना था, लेकिन तभी तक मामला बदल गया। किताब का नाम है--टू फेसेज ऑफ इंदिरा गांधी। तब मैं बड़ा हैरान हुआ। ये दो चेहरे इंदिरा गांधी के, कि दो चेहरे लेखिका के? ये दो चेहरे लेखिका के हैं। जो फूलमालाएं पहना रहे थे, वे ही गालियां दे रहे हैं। बदला ले रहे हैं अब।
खयाल रखना, अगर राजनीति में जाना हो तो प्रेम में पड़ना मत। अगर धन कमाना हो तो प्रेम में पड़ना मत। अगर इतिहास में नाम छोड़ना हो तो प्रेम करना मत। क्योंकि प्रेम करने वालों को जरा भी फिक्र नहीं होती कि इतिहास में नाम हो कि न हो। और जरा भी फिक्र नहीं होती कि पद मिले या न मिले, धन कमाया जाए या न कमाया जाए। प्रेम इतनी परितृप्ति देता है कि सब मिल गया--पद भी, धन भी, यश भी। प्रेम चूक जाए तो ये सब चीजों की दौड़ पैदा होती है।
इसलिए समाज चाहता है कि तुम्हारा प्रेम चूक जाए। तुम प्रेम में पड़े तो सब गड़बड़ हो जाती है। तुम्हारे पिता चाहते हैं कि धन कमाओ, और तुम पड़ गए प्रेम में; गए काम से! पिता सिर ठोंक लेते हैं कि बस खराब हो गई बात। अब क्या कमाएगा यह! पिता चाहते हैं कि बेटा प्रधानमंत्री हो जाए, तुम प्रेम में पड़ गए। पिता निराश हो जाते हैं कि अब यह क्या प्रधानमंत्री होगा! प्रधानमंत्री होना हो तो ब्रह्मचर्य की कसम ले लो। मोरारजी भाई से पूछो! तब तुम्हारी सारी ऊर्जा कुंठित होती है भीतर, लड़ने-झगड़ने की वृत्ति पैदा होती है। कहीं भी जूझ जाओ, किसी से भी भिड़ जाओ, वही भाव रहता है। फिर तुम जिस दिशा में भी सिर डाल दोगे, उसी दिशा में पहुंच जाओगे; धक्के-मुक्के करते, किसी न किसी दिन, जो तुम्हारी मंशा है, पूरी हो सकती है। महत्वाकांक्षा सिखाता है समाज, और महत्वाकांक्षा अप्रेमी हृदय में ही हो सकती है।
इस कारण तुम्हारे मन में एक तरह की पंगुता है। समझो और उस पंगुता को तोड़ दो। उस पंगुता को तोड़ना कठिन नहीं है, समझने भर की जरूरत है। समझ आते ही तोड़ी जा सकती है। और अगर तुम इस जगत के लोगों को प्रेम कर सको, तो वही प्रेम का आनंद तुम्हें प्रार्थना सिखाएगा। उसी प्रेम के आनंद से तुम एक दिन परमात्मा की तलाश में निकलोगे। तुम सोचोगे कि जब साधारण लोगों को प्रेम करने से इतना आनंद मिला, तो उस परम प्यारे की खोज से कितना आनंद न मिलेगा!
आखिरी प्रश्न:
अब हम करें क्या?
अथातो भक्ति जिज्ञासा! अब भक्ति की जिज्ञासा करो! अब प्रेम की खोज करो! अब अपने झूठे चेहरों को हटाओ, मुखौटे तोड़ो! अब अपने असली प्राण की ज्योति को प्रज्वलित होने दो।
ऊपर से छूने पर तो मखमल हैं चेहरे,
अंदर से कुंठाओं के मरुथल हैं चेहरे,
दर्पण में खुद को पहचान नहीं पाते हैं,
आत्म-अपरिचय के ऐसे जंगल हैं चेहरे,
सदा झनकते रहे दूसरों के पांवों में,
औरों के पग बंधी हुई पायल हैं चेहरे,
पांव रखो तो धंसते हुए चले जाते हैं,
रिश्तों की मीलों लंबी दलदल हैं चेहरे
भटक रहे हैं सपनों के रेगिस्तानों में,
बेचारे, प्यासे मृग से पागल हैं चेहरे
अब चेहरे छोड़ो, मुखौटे छोड़ो। अब ढोंग मिटाओ, अब पाखंड गिराओ, अब आवरणों से मुक्त हो जाओ! अब उसकी तलाश करो जो तुम हो, वस्तुतः तुम हो। जो जन्म के पहले तुम थे और जो मृत्यु के बाद तुम फिर हो जाओगे। अहंकार छोड़ो, तभी भक्ति की जिज्ञासा हो सकेगी। क्योंकि जो स्वयं को खोता है, वही परमात्मा को पाता है।
खयाल, सांस, नजर, सोच, खोल कर दे दो
लबों से बोल उतारो, जुबां से आवाजें
हथेलियों से लकीरें उतार कर दे दो
हां दे दो अपनी खुशी भी कि खुद नहीं हो तुम
उतारो रूह से यह जिस्म का हसीं गहना
उठो दुआ से तो आमीन कहके रूह भी दे दो
तुम पूछते हो: ‘अब हम क्या करें?’
अब अपने को दो। अब तक अपने को बचाया। यही तो प्रेम का राज है--देना। अब तक बचाया। बचाया कि सड़ गए, दो कि खिल जाओगे।
जीसस ने कहा है: जो देगा, वह पाएगा; और जो बचाएगा, वह नष्ट हो जाएगा।
प्रेम की कीमिया यही है। अब अपने को समर्पित करो। उतारो ये ढोंग जो तुमने ओढ़ रखे हैं--हिंदू का, मुसलमान का, ईसाई का; आस्तिक का, नास्तिक का; सिद्धांतों का, शास्त्रों का; उतारो ये सब चेहरे। ये सब खोलें अलग करो। अब अपने नग्न अस्तित्व को पहचानो कि मैं कौन हूं।
और तुम चकित होओगे, जैसे-जैसे भीतर जाओगे, तुम एक ही आवाज पाओगे कि मैं प्रेम हूं। इसीलिए तो प्रेम की इतनी प्रबल आकांक्षा है, इतनी अभीप्सा है। प्रेम ही तुम्हारा अस्तित्व का मूल स्वर है। तुम प्रेम से ही बने हो, तुम प्रेम के ही संघट हो।
नई-नई किरन
नई धरा, नया गगन
केंचुली उतारो रे! केंचुली उतारो!
पोखर की माटी से सिंहासन
जब तक बन जाए नहीं, हीरामन!
जोर से पुकारो रे! केंचुली उतारो!
रेखाएं खींच मत इकाई की
सुबह-शाम पाट उमर खाई की
कालिमा बुहारो रे! केंचुली उतारो!
धरती का गीत है पसीने में
मुट्ठी भर धूल है नगीने में
भूमि के सितारो रे! केंचुली उतारो!
सब केंचुलियां उतार दो। जैसे सांप अपनी पुरानी केंचुली को छोड़ कर निकल जाता है, ऐसे तुम अपने तथाकथित व्यक्तित्व को छोड़ कर निकल जाओ।
तुम पूछते हो: ‘अब हम क्या करें?’
अथातो भक्ति जिज्ञासा!
आज इतना ही।
कल आपने कहा--भक्ति सहज है, इसलिए वैज्ञानिक है। सहज को वैज्ञानिक कहने का आपका आशय क्या है? कृपा करके कहिए।
विज्ञान के बहुत अर्थ हैं। जो सर्वाधिक आधारभूत अर्थ है, वह है स्वभाव की खोज; सहज की खोज। जीवन के भीतर जो छिपा हुआ ऋत, ताओ, महानियम है, उसकी खोज। अंततः पदार्थ में ही जो छिपा है, उसकी खोज नहीं; अंततः उसकी भी खोज जो चेतना में छिपा है। पदार्थ पर विज्ञान का प्रारंभ है, अंत नहीं। और जिस विज्ञान का अंत पदार्थ पर हो जाए, वह अधूरा विज्ञान। और अधूरे सत्य असत्यों से भी ज्यादा खतरनाक होते हैं। क्योंकि वे सत्य जैसे प्रतीत होते हैं और सत्य नहीं होते।
असत्य को तो पहचाना जा सकता है, आज नहीं कल समझ में आ जाएगा असत्य है, और समझ में आते ही छुटकारा हो जाएगा। आधा सत्य बड़ा खतरनाक होता है। उसमें सत्य की भ्रांति बनी ही रहती है, बनी ही रहती है। और आधा सत्य सत्य होता नहीं, क्योंकि सत्य को खंडों में नहीं बांटा जा सकता। सत्य अविभाज्य है, अखंड है। होगा तो पूरा होगा, नहीं होगा तो बिलकुल नहीं होगा।
विज्ञान पदार्थ से शुरू होता है, लेकिन पदार्थ पर समाप्त नहीं हो सकता, नहीं होना चाहिए। जब पदार्थ के आधारभूत नियम जान लिए जाएंगे, तो उसी जानने से चेतना की तरफ यात्रा अपने आप होती है। इसलिए विज्ञान का जो सर्वाधिक नया कदम है, वह मनोविज्ञान है। सबसे पुराना कदम है भौतिकशास्त्र, सबसे नया कदम है मनोविज्ञान।
इसका अर्थ समझो। शुरू हुआ भूत से, पदार्थ से, अब यात्रा मन की हो गई शुरू। मन मध्य है, अंत नहीं। जिस दिन विज्ञान आत्मा की भी खोज में तल्लीन हो जाएगा, उस दिन विज्ञान ने अपना शिखर छुआ, अपनी मंजिल पाई। अंततः पृथ्वी पर धर्म और विज्ञान जैसी दो चीजें नहीं रहेंगी, नहीं रहनी चाहिए। धर्म भी अधूरा है। धर्म की देह नहीं है। धर्म प्रेत है, आत्मा-आत्मा। आत्मा कहीं देखी है? आत्मा कहीं अलग होती है? और कहीं आत्मा अलग मिल जाए तो प्राण कंप जाएंगे, भूत का अनुभव होगा, प्रेत का अनुभव होगा। धर्म चूंकि आधा है, इसलिए प्रेत जैसा है। रक्त-मांस-मज्जा की देह नहीं है। और विज्ञान भी आधा है, वह मरी हुई लाश जैसा है, उसमें आत्मा नहीं है। एक तरफ मरी हुई लाश है, एक तरफ प्रेतात्मा है। इन दोनों का जिस दिन मिलन होगा, उस दिन जीवन फलेगा।
अंतिम रूप से दुनिया में विज्ञान ही होगा, या उसे धर्म कहो, फिर तो नाम का ही भेद रह जाता है। विज्ञान शब्द भी बुरा नहीं है। ज्ञान से ही बनता है। विशेष ज्ञान अर्थात विज्ञान। जब ज्ञान गहराई ले लेता है तो विज्ञान हो जाता है। जब ज्ञान असली गहराई लेगा तो आत्मा और पदार्थ, प्रकृति और पुरुष, देह और आत्मा, दोनों का संस्पर्श होगा। इसलिए मैं विज्ञान की परिभाषा करता हूं--स्वभाव की खोज, सहज की खोज, आधारभूत ऋत, नियम की खोज।
इसी अर्थ में मैंने कहा: भक्ति सहज है, इसलिए वैज्ञानिक है।
जिसको तुम वैराग्य कहते हो, इतना सहज नहीं है। क्योंकि वैराग्य में संसार का विरोध है। भक्ति में अविरोध है। जहां विरोध है, वहां जटिलता होगी। जहां विरोध है, वहां द्वेष होगा। जहां द्वेष है, वहां अड़चन है, वहां संघर्ष है, वहां सरलता नहीं हो सकती; वहां सतत भीतर युद्ध छिड़ा रहेगा, वहां शांति नहीं हो सकती। विरागी, त्यागी शांत होने की चेष्टा करता है, हो नहीं पाएगा। क्योंकि जिनसे वह लड़ रहा है, जिन तत्वों को समाहित नहीं कर रहा है, वे तत्व उससे बदला लेंगे। वे तत्व उसे ऐसे ही छोड़ नहीं देंगे, वे उसका पीछा करेंगे। भागो गुफाओं में--जिनसे तुम भागे हो, उन्हें तुम गुफाओं में मौजूद पाओगे। जिससे भागोगे, वह तुम्हारा पीछा करेगा। जिससे बचोगे, बार-बार सामने आ जाएगा।
क्रोध से भागो, और तुम्हारी पूरी जीवन-ऊर्जा क्रोध से विकृत हो जाएगी। काम से भागो, और तुम काम ही काम से भर जाओगे। तुम्हारा चित्त काम की ही मवाद से भर जाएगा। भागो मत, जागो। भागो मत, जीओ। संसार को उसकी समग्रता में जीओ।
भक्ति भगोड़ापन नहीं सिखाती। भक्ति कहती है: यह परमात्मा का संसार है, भागना क्यों? इसी में कहीं छिपा होगा, छिया-छी खेल रहा है; जरा पर्दे उठाओ, यहीं कहीं उसे छिपा पाओगे। छिपा है वृक्षों में, पहाड़ों में, पर्वतों में, लोगों में--हर पर्दे के पीछे वही है। पर्दा उठाना आना चाहिए। प्रेम पर्दे को उठाने की कला है। जबर्दस्ती की जरूरत नहीं है। तुम्हारा किसी से प्रेम होता है, उसका घूंघट तुम उठा सकते हो--जबर्दस्ती की जरूरत नहीं है। प्रेम न हो तो घूंघट उठाना हिंसा होगी। प्रेम हो तो सम्मान होगा।
जो लोग अस्तित्व को बिना प्रेम किए इसका घूंघट उठाना चाहते हैं, वे बलात्कार करना चाहते हैं। इसलिए मैंने बहुत बार कहा है कि तुम्हारा तथाकथित वैज्ञानिक अधूरा है और बलात्कारी है। वह प्रकृति को जबर्दस्ती जानना चाहता है। वह प्रकृति के रहस्यों को संगीन की धार पर खोल लेना चाहता है।
भक्त भी खोलता है रहस्यों को, तलवार लेकर नहीं हाथ में, वीणा लेकर। भक्त के लिए भी प्रकृति अपना पर्दा उठाती है, लेकिन उसके नृत्य के कारण, उसके गीत के कारण, उसकी प्रीति के कारण।
विज्ञान अधूरा रहेगा, अगर तर्क ही उसका एकमात्र शास्त्र होगा। जिस दिन प्रीति भी उसके शास्त्र का अंग होगी, उसी दिन विज्ञान पूर्ण होगा। उस दिन दुनिया के जीवन में बड़ा सूर्योदय होगा। उस दिन पूरब-पश्चिम मिलेंगे। अभी नहीं मिल सकते। अभी पूरब आधे सत्य को पकड़े बैठा है--धर्म; पश्चिम आधे सत्य को पकड़े बैठा है--विज्ञान। अभी पूरब और पश्चिम का मिलन नहीं हो सकता। पूरब और पश्चिम उसी दिन मिलेंगे, जिस दिन ये आधे सत्य हाथ से हट जाएंगे और पूरे सत्य को अंगीकार करने की क्षमता हममें होगी।
पूरे सत्य को अंगीकार करने के लिए बड़ा दुस्साहस चाहिए। क्यों? आधा सत्य ज्यादा साहस नहीं मांगता। क्यों? क्योंकि पूरा सत्य विरोधाभासी होता है। वहीं अड़चन है। परमात्मा दिन भी है और रात भी, बस यहीं अड़चन है। और परमात्मा संसार भी है और निर्वाण भी, यहीं अड़चन है।
जो कायर हैं, उनमें से कुछ कहते हैं--परमात्मा संसार ही है, और कोई परमात्मा नहीं। यही तो नास्तिक कहता है, कम्युनिस्ट कहता है। उसका कहना क्या है? वह कहता है, बस यही जीवन सब कुछ है, और कोई जीवन नहीं। तुम्हारा तथाकथित विरागी और ज्ञानी क्या कहता है? वह कहता है, यह संसार माया है, झूठा है, परमात्मा सच है। नास्तिक कहता है, परमात्मा झूठा है, संसार सच है। आस्तिक कहता है, संसार झूठा है, परमात्मा सच है। दोनों की छाती बड़ी नहीं है। यह कहने की दोनों हिम्मत नहीं जुटा पाते कि दोनों सच हैं। सच तो यह है कि दोनों एक ही सत्य के दो पहलू हैं।
इसके लिए विशाल हृदय चाहिए, जो विरोधाभास को समा ले। छोटी-छोटी बुद्धियां इसे नहीं समा सकतीं। छोटी बुद्धि कह सकती है--संभोग सच है, कि समाधि सच है। विराट हृदय ही कह सकता है--संभोग, समाधि, दोनों सच हैं। वासना, करुणा, दोनों सच हैं। काम और राम, दोनों सच हैं। एक ही सीढ़ी के पहलू हैं। काम की ही यात्रा राम तक होती है। पदार्थ ही शुद्ध होते-होते, होते-होते परमात्मा हो जाता है। परमात्मा ही अशुद्ध होते-होते, होते-होते पदार्थ हो जाता है। संसार परमात्मा का अशुद्ध रूप है, बस। परमात्मा संसार का शुद्ध रूप है, बस।
लेकिन परमात्मा जीवन है, यह स्वीकार करना आसान मालूम पड़ता है। जब तुम कहते हो, परमात्मा जीवन और मृत्यु दोनों है, तो बड़ी अड़चन होती है। तर्क कहता है: जीवन और मृत्यु, दोनों? दोनों कैसे होगा? दोनों नहीं हो सकता। तर्क की भाषा है--यह या वह। तर्क हमेशा बांटता है। तर्क कहता है: परमात्मा या तो पुरुष होगा, या स्त्री होगा। जो परमात्मा को पुरुष मानते हैं, वे उसको स्त्री नहीं मान सकते। जो उसको स्त्री मानते हैं, वे पुरुष नहीं मान सकते। क्योंकि तर्क कहता है: दोनों कैसे होगा?
तुमने अर्द्धनारीश्वर की प्रतिमा देखी? वह भक्तों ने खोजी। वह प्रेमियों ने खोजी। जिन्होंने कहा परमात्मा दोनों है--आधा स्त्री, आधा पुरुष। तुमने प्रतिमा देखी भी हो तो भी तुमने अंगीकार नहीं की है। भीतर से तो होता ही रहता है--यह कैसे होगा? आधा पुरुष, आधा स्त्री! एक अंग स्त्री का, एक अंग पुरुष का! यह कैसे होगा? यह तो बड़ी बेबूझ मालूम पड़ती है बात, यह तो पहेली हो गई। या तो पुरुष, या तो स्त्री। ईदर-ऑर तर्क की भाषा है। यह या वह। चुन लो। चुनाव तर्क की भाषा है।
प्रीति की भाषा अचुनाव है। उस अचुनाव को ही मैं परम विज्ञान कहता हूं।
दूसरा प्रश्न:
शांडिल्य कहते हैं--प्रीति, भक्ति अद्वैत है। तो अद्वैत के नाम पर जो कहा जाता रहा है, वह क्या है?
अधिकतर शब्द ही हैं वे। क्योंकि जिसने प्रीति नहीं जानी, वह अद्वैत नहीं जानेगा। अद्वैत प्रीति की परम दशा है। जिसने प्रीति नहीं जानी, उसका अद्वैत तार्किक निष्पत्ति है। गणित उसने हल किया है! उसके अद्वैत में प्राण नहीं हैं। उसका अद्वैत रूखा-सूखा, निष्प्राण है। उसके अद्वैत में फूल नहीं लगेंगे। और उसके अद्वैत में कोई स्वर पैदा नहीं होगा। उसका अद्वैत मरघट का अद्वैत है। जिसने प्रीति जानी, उसने ही असली अद्वैत जाना।
असली अद्वैत का क्या अर्थ?
असली अद्वैत का अर्थ होता है: दो में से एक को छोड़ नहीं देना है, फिर तो अद्वैत हुआ ही नहीं। तुम्हारा अद्वैतवादी कहता है: संसार माया है, झूठ है, है ही नहीं। यह क्या अद्वैत हुआ? एक को काट दिया। फिर तो मार्क्सवादी भी अद्वैतवादी है। वह कहता है: कोई परमात्मा नहीं, कोई आत्मा नहीं, बस जड़ है, पदार्थ है, कोई चेतना नहीं। यह भी अद्वैत है। आस्तिक, नास्तिक दोनों अद्वैतवादी हैं। और मैं मानता हूं कि दोनों केवल तर्क से चल रहे हैं, अनुभव नहीं है। भक्त को अनुभव है। भक्त कहता है: अद्वैत है, और ऐसा अद्वैत है कि दोनों उसमें समाए हैं, और दोनों उसमें जी सकते हैं।
यह अनुभूति प्रेम में ही होती है। प्रेम बड़ी विचित्र अनुभूति है। प्रेमी और प्रेमिका दो होते हैं और फिर भी अनुभव करते हैं कि एक हैं। उनका अनुभव बड़ा समृद्ध अनुभव है। अगर प्रेमी अपनी हत्या कर ले और कहे कि बस प्रेयसी है, मैं नहीं हूं, तो प्रेम समाप्त हो जाएगा। या प्रेयसी की हत्या कर दे और कहे कि मैं ही हूं, प्रेयसी कहां है, तो भी प्रेम समाप्त हो जाएगा। दो के बीच एक जीए, तो ही श्वास लेता है, नहीं तो श्वास नहीं ले सकेगा।
और यही प्रेमी करते हैं जीवन भर। तुम्हारे तथाकथित प्रेमी इसी कोशिश में लगे रहते हैं। पति कोशिश में रहता है कि पत्नी मिट जाए; पत्नी की कोई आवाज न हो, उसका कोई स्वर न हो, वह मेरी अनुगामिनी हो, मेरी छाया हो, मैं जहां जाऊं वहां छाया की तरह मेरे पीछे जाए। पति चाहता है कि पत्नी की कोई स्वतंत्रता न हो, पत्नी दासी हो; मैं स्वामी, पत्नी दासी। यह प्रेम की हत्या शुरू हो गई। प्रेम तो दोनों के जीते-जी ही हो सकता है--दोनों परिपूर्ण स्वतंत्रता में हों और फिर भी दोनों के हृदय अनुभव करते हों कि हम एक हैं। एकता अनुभव हो।
पत्नी भी यही कोशिश करती है कि पति को मिटा डाले। दोनों की कोशिश अलग-अलग ढंग की होती हैं, क्योंकि दोनों के मनोविज्ञान अलग होते हैं। पति के ढंग जरा स्थूल होते हैं, मार-पीट कर देगा। पत्नी के ढंग जरा सूक्ष्म होते हैं, जरूरत पड़ेगी तो अपने को ही मार-पीट लेगी। मगर चेष्टा दोनों की एक ही है। पत्नी जरा परोक्ष ढंग से पति को अपने कब्जे में लेना चाहती है। अक्सर यह होता है कि तुमने विवाह किया कि पत्नी तो नहीं मिलती, एक गुरु मिल गया, जो तुम्हें सुधारने में लग जाता है कि अब सिगरेट न पीओ, अब पान न खाओ, अब दस बजे के बाद जगो मत, अब ब्रह्ममुहूर्त में उठो, और अब ऐसा करो और अब वैसा करो। पत्नियां अक्सर अपना जीवन इसी में नष्ट करती हैं कि पति को कैसे सुधार लें। लेकिन सुधारने के पीछे जो आकांक्षा है, वह मालकियत की है। सुधारना तो बहाना है। सुधारने का तो केवल मतलब इतना है कि शुभ के मार्ग से मैं मालकियत सिद्ध करती हूं।
और मजा यह है कि न पति सुधरता, न पत्नी सुधार पाती। क्योंकि पत्नी जब सुधारने की कोशिश करती है--और यह उसका ढंग होता है मालकियत का--तो पति भी पूरी चेष्टा करता है अपनी स्वतंत्रता बचाने की, चाहे गलत ढंग से ही सही। अब सिगरेट पीना कोई बड़ी स्वतंत्रता नहीं है, मूढ़तापूर्ण है बात, मगर अगर पत्नी पीछे पड़ी है कि सिगरेट मत पीओ, तो पति फिर सिगरेट नहीं छोड़ सकेगा। उसे पीना ही पड़ेगा। पीते ही रहना पड़ेगा। क्यों? क्योंकि अब यही उसका एकमात्र मार्ग है घोषणा करने का कि मेरी भी आत्मा है, मैं स्वतंत्र हूं, मैं गुलाम नहीं हूं।
पति-पत्नी एक-दूसरे को मिटाने में लग जाते हैं। इसलिए पति-पत्नी का जीवन एक दुखद जीवन हो गया है। दोनों अद्वैतवादी हैं। दोनों की चेष्टा यह है--एक बचे। दूसरे को नकार कर दो; छाया कर दो, माया कर दो। दूसरे का होना न-होने के बराबर कर दो। दूसरे का मूल्य शून्य कर दो।
यही ज्ञानी कर रहा है, वह कहता है: ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या। यही तुम्हारा अनीश्वरवादी कर रहा है, वह कहता है: जगत सत्य, ब्रह्म मिथ्या। एक को बचाएंगे, दूसरे को नष्ट कर देंगे।
भक्त की कीमिया बड़ी अदभुत है। भक्त यह कहता है: दोनों को मिटाने की जरूरत ही नहीं है। दोनों जुड़ जाएं, आलिंगन में बंध जाएं, दोनों के हृदय एक साथ धड़क सकते हैं, मालकियत का सवाल क्या है? दोनों की धड़कन इतनी एक साथ हो सकती है कि एक का अनुभव होने लगे, दो के बीच में एक का अनुभव होने लगे। दोनों की स्वतंत्रता अछूती रहे और फिर भी दोनों एक में जुड़ जाएं, एक सेतु से जुड़ जाएं। नदी के दो किनारे एक सेतु से जैसे जुड़ जाते हैं, ऐसे ही असली प्रेमी दो रहते हैं, फिर भी जुड़ जाते हैं; अलग-अलग रहते हैं, और फिर भी एक हो जाते हैं।
इसलिए भक्ति में वैविध्य है और भक्ति में समृद्धि है। एक को मार कर जो एकता बचती है, वह एकता कुछ बड़ी एकता नहीं, क्योंकि वह दूसरे से डरी हुई एकता है। दूसरे की मौजूदगी में नहीं हो सकती थी। भक्त कहता है: संसार भी सत्य है, परमात्मा भी सत्य है; स्रष्टा भी सत्य, उसकी सृष्टि भी सत्य, दोनों सत्य हैं। यही शांडिल्य ने कहा: मिथ्या मत कहो संसार को। उस परम सत्य से मिथ्या का आविर्भाव कैसे होगा? उस सत्य से जो जन्मा है, वह भी सत्य ही होगा। सागर से जो लहर जन्मती है, वह उतनी ही सत्य है जितना सागर। सागर की ही लहर है, असत्य कैसे होगी?
भक्त की छाती बड़ी है। भक्त कहता है: दोनों को सम्हालेंगे; दोनों में से किसी को मिटाने की जरूरत नहीं। मिटाते ही जीवन एकरस हो जाएगा।
इसलिए तुम तथाकथित अद्वैतवादी और ज्ञानी के चेहरे पर आनंद का भाव नहीं देखोगे। भक्त के चेहरे पर एक कोमल्य, एक प्रसाद, एक आनंद, एक अनुग्रह का भाव मिलेगा। भक्त नाचता मिलेगा। ज्ञानी सिकुड़ा हुआ, भक्त फैला हुआ मिलेगा। भक्त को कोई अड़चन ही नहीं है। भक्त को सर्व स्वीकार है। भक्त ज्ञान की बातचीत में नहीं पड़ता, अनुभव में उतरता है।
इस भेद को ठीक से समझ लेना।
तुम बैठ कर विचार करो, तर्क करो, कुछ निष्पत्तियां ले लो, दर्शनशास्त्र निर्मित कर लो, यह एक बात। और तुम जीवन में उतरो, छलांग लगाओ, डुबकी मारो और वहां जानो। कबीर ने कहा है: ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय। यह अलग ही पाठशाला है। यह जीवन की, अस्तित्व की असली पाठशाला है।
डूबा हुआ हूं सर से कदम तक बहार में
न छेड़ उनके तसव्वुर में ऐ बहार मुझे
कि बू-ए-गुल भी इस वक्त नागवार मुझे
जो डूब जाता है उसके आनंद में उसके चारों तरफ बहार ही बहार हो जाती है, वसंत ही वसंत हो जाता है, पतझड़ में भी उसे वसंत दिखाई पड़ता है।
डूबा हुआ हूं सर से कदम तक बहार में
न छेड़ उनके तसव्वुर में ऐ बहार मुझे
बहार की भी चिंता नहीं है अब। बहार आए कि न आए, बहार बाहर न भी आए तो चलेगा, बहार भीतर आ गई है, अब तो भक्त जहां रहता है वहां बहार है। तुमने सुना होगा कि भक्त स्वर्ग जाता है। गलत सुना। भक्त जहां जाता है वहां स्वर्ग होता है। नरक में फेंक दो भक्त को, तुम उसे नरक नहीं पहुंचा पाओगे। तुम भेजोगे नरक, वह पहुंच जाएगा स्वर्ग। नरक में भी स्वर्ग बसा लेगा।
ज्ञानी को तुम स्वर्ग भी भेज दो तो शायद ही स्वर्ग पहुंचे। सुना नहीं कभी कि कोई पंडित, कोई ज्ञानी स्वर्ग पहुंचा हो! वह जहां जाएगा, वहीं अपना तर्कजाल ले जाएगा। वह जहां जाएगा, वहीं अपने शब्दों से दबा हुआ पहुंचेगा। वह जहां जाएगा, अपनी पोथियां ले जाएगा। उसके पास वही शब्दों की मुर्दा दुनिया बसी रहेगी। पापी भी पहुंच जाते हैं, पंडित नहीं पहुंचते। पापी विनम्र होते हैं, पंडित अहंकारी होते हैं। अगर पंडित और पापी में चुनना हो, तो पापी हो जाना बेहतर है; पंडित तो भूल कर मत होना। क्योंकि पंडित का मतलब है, जिसने नहीं जाना और जो सोचता है--मैंने जान लिया। जानता तो प्रेमी है; पंडित कैसे जानेगा?
प्रेमी होना; तो ही अनुभव करोगे: अद्वैत क्या है। धन्य हो जाओगे--अनुभव से। विचार से कोई धन्य नहीं होता। तुम जानते हो जीवन के सामान्य क्रम में, कितना ही सोचो: मिष्ठान्न, सुस्वादु भोजन, उससे पेट नहीं भरता। प्यास लगी हो और तुम्हें जल का पूरा शास्त्र आता हो, तुम्हें जल का पूरा विज्ञान आता हो, तुम्हें मालूम हो कि जल यानी एच टू ओ, कि आक्सीजन और उदजन से मिल कर बनता है, कि उदजन के दो हिस्से और आक्सीजन का एक हिस्सा और जल बनता है, लिखते रहो किताबों पर...
मैं एक घर में मेहमान था। पूरा घर पोथियों से भरा था। मैंने पूछा, बड़ी लाइब्रेरी है, क्या-क्या इस लाइब्रेरी में है? घर के मालिक ने कहा, यह लाइब्रेरी नहीं है, इसमें कापियों पर राम-राम, राम-राम लिखता हूं। जिंदगी भर हो गई लिखते, मेरे पिता भी यही करते थे, बड़े धार्मिक पुरुष थे, तो घर में सारी किताबें इकट्ठी हो गई हैं, बस काम ही यही है, राम-राम लिखते रहते। मैंने कहा, यह ऐसे ही फिजूल है जैसे किसी को प्यास लगी हो और वह किताब पर लिखे--एच टू ओ, एच टू ओ, एच टू ओ, जल का सूत्र लिखता रहे, लिखता रहे, लिखता रहे, इससे प्यास नहीं बुझेगी। न तुम्हारे पिता धार्मिक थे, न तुम धार्मिक हो। धर्म का किताब में राम-राम लिखने से क्या संबंध होगा? हृदय में अनुगूंज होनी चाहिए। प्राणों के प्राण में उसकी आभा प्रकट होनी चाहिए। मैंने उनसे पूछा, तुम्हें राम का अनुभव हुआ? उन्होंने कहा, अनुभव ही हो जाता तो मैं ये पोथियां क्यों लिखता? अनुभव करने के लिए लिख रहा हूं। मैंने कहा, इसके लिखने से कैसे अनुभव होगा? इतना समय गंवाया, अब और न गंवाओ, इन पोथियों को आग लगाओ। इतना लिख चुके, इससे नहीं हुआ, इतना ही और लिख डालोगे तब भी नहीं होगा। लिखने से क्या संबंध हो सकता है? जीवन में अनुभव होते हैं अनुभव से।
भक्त धन्य हो जाता है। वह घड़ी जल्दी आ जाती है भक्त के जीवन में जब वह कहता है, गुंजार करता है--धन्योऽहं! मैं धन्य हूं! बहार ही बहार उसे घेर लेती है।
परसों राधा मुझे मिलने आई। उससे मैंने पूछा, कैसी है राधा? वह कहती है, बहार ही बहार है! अच्छा लगा मुझे उसका वचन। प्रेम जगे तो बहार ही बहार है।
तीसरा प्रश्न:
आपने भक्ति-साधना के प्रसंग में अवतारी पुरुषों की चर्चा की। उस प्रसंग में आपने भगवान बुद्ध का वचन उद्धृत किया कि मुझे भी राह से हटा कर आगे जाना। लेकिन शायद इसी प्रसंग में कहा गया भगवान कृष्ण का प्रसिद्ध वचन है--सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। सब धर्म इत्यादि छोड़ कर मेरी शरण आ। क्या इन परस्पर विरोधी वचनों पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करेंगे?
जरा भी विरोध नहीं है। कृष्ण जो कह रहे हैं, वह यात्रा की शुरुआत है। बुद्ध जो कह रहे हैं, वह यात्रा का अंत है। कृष्ण जो कह रहे हैं, वह अर्जुन से कह रहे हैं जो नाव पर बैठा नहीं, जो झिझक रहा है नाव पर बैठने में। कृष्ण कहते हैं: तू फिकर छोड़, यह नाव तेरे पास आकर लगी; सर्वधर्मान् परित्यज्य, छोड़-छाड़ सब बातचीत, सब बकवास, आ बैठ, मेरी शरण आ; मैं तेरा मांझी, मैं तेरा सारथी, मैं तुझे उस पार ले चलूं, यह नाव तुझे ले जाएगी। सब छोड़ कर निर्भय होकर इस नाव में बैठ।
जब बुद्ध ने कहा है कि अगर मैं भी तुम्हारी राह में आ जाऊं, तो मेरी गर्दन काट देना, यह उस किनारे की बात है जब नाव दूसरी तरफ लग गई। और अर्जुन कहने लगा कि अब मैं उतरूंगा नहीं नाव से! इस नाव ने कितनी कृपा की है, मुझे संसार के सागर से ले आई परमात्मा के किनारे तक! नहीं, इसे अब मैं छोडूंगा नहीं। और कृष्ण के पैर पकड़ ले और कहे कि तुमने ही तो कहा था--मामेकं शरणं व्रज। अब कहां जाते हैं? अब नहीं छोडूंगा, अब चाहे प्राण रहें कि जाएं, तुम्हारे चरण पकड़े ही रहूंगा। तब उस दूसरी घड़ी में कृष्ण को भी कहना पड़ेगा, जो बुद्ध ने कहा, कि पागल, अब नदी से उतर आया, अब नाव छोड़। अब मुझे भी छोड़। अब तो दूसरा किनारा आ गया, अब तो परमात्मा आ गया! नाव का उपयोग था--संसार से परमात्मा तक, शरीर से आत्मा तक, अंधकार से प्रकाश तक, मृत्यु से जीवन तक। लेकिन अब तो परमात्मा के द्वार पर आकर खड़ा हो गया है, अब इसे भी छोड़। अब इस नाव को थोड़े ही ढोएगा!
बुद्ध बार-बार कहते थे कि जब उतर जाओ दूसरे किनारे, तो नाव को सिर पर मत रख लेना। वह मूढ़ता होगी, अनुग्रह और कृतज्ञता नहीं। नाव को धन्यवाद देकर आगे बढ़ जाना।
कृष्ण का वचन पाठशाला में भर्ती होने के दिन विद्यार्थी को दिया गया सूत्र है। बुद्ध का वचन, दीक्षांत समारोह समाप्त हो गया, विश्वविद्यालय से लौटते हुए विद्यार्थी को दिया गया अंतिम संबोधन है। विरोध जरा भी नहीं है। चूंकि दोनों अलग-अलग समय में दिए गए और अलग-अलग लोगों को दिए गए, इसलिए तुम्हें चिंता हो सकती है। कृष्ण ने कहा था अर्जुन से, जो एक सामान्य व्यक्ति है। बुद्ध ने कहा था बोधिसत्वों से, जो आखिरी घड़ी में पहुंच गए हैं।
बुद्ध मर रहे हैं, आखिरी घड़ी आ गई। उनके बोधिसत्व उन्हीं घेरे हुए हैं, उनके परम शिष्य उन्हें घेरे हुए हैं। आनंद रोने लगता है। बुद्ध आंख खोलते हैं, पूछते हैं, क्यों रोता है? तो आनंद कहता है, आप चले, अब हमारा क्या होगा? तब बुद्ध ने कहा है: अप्प दीपो भव! अपने दीये बनो! मेरे साथ जहां तक आ सकते थे, आ गए।
बुद्ध का वचन और कृष्ण का वचन एक ही यात्रा के दो छोर हैं। विरोध जरा भी नहीं। जैसे तुम सीढ़ी चढ़ते हो और मैं तुमसे कहूं--बिना सीढ़ी पर चढ़े तुम छत तक न पहुंचोगे। और फिर तुम सीढ़ी के अंतिम सोपान पर जाकर अटक जाओ और तुम कहो--अब मैं सीढ़ी नहीं छोडूंगा, क्योंकि इसी सीढ़ी ने मुझे इस ऊंचाई तक लाया। तो मैं तुमसे कहूंगा कि अब सीढ़ी छोड़ो, नहीं तो छत पर न पहुंच सकोगे। क्या मेरी बातों में विरोध होगा? दोनों में कुछ विरोधाभास है? सीढ़ी चढ़ाने के लिए कहा था--चढ़ो, छत पर नहीं पहुंचोगे; अब कहता हूं--सीढ़ी छोड़ो, नहीं तो छत पर नहीं पहुंचोगे।
विधियां पकड़नी होती हैं, एक दिन छोड़ देनी होती हैं। रास्तों पर चलना होता है, एक दिन रास्तों को नमस्कार कर लेनी होती है। परमात्मा में प्रवेश के पहले तुमने जो भी किया था, जो भी सोचा था, जो भी साधन, विधि-विधान, अनुशासन अपने जीवन में आरोपित किए थे, सबको तिलांजलि दे देनी होती है। परमात्मा में प्रवेश के क्षण में न तो कोई विधि पास होनी चाहिए, न कोई मंत्र, न कोई तंत्र, परमात्मा में प्रवेश के समय सारी सीढ़ियां समाप्त हो जानी चाहिए। सारी नाव विदा हो जानी चाहिए। तो ही तुम प्रवेश कर सकोगे।
वचनों में भेद है, क्योंकि अर्जुन और आनंद में भेद है। अर्जुन अभी चलने को ही तैयार नहीं है, अभी वह ठिठक ही रहा है। आनंद चल चुका है अंत तक, आखिरी घड़ी आ गई...और तुम्हें पता है, बुद्ध के मरने के चौबीस घंटे के भीतर आनंद परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया था। तो आखिरी घड़ी में था, बिलकुल आखिरी घड़ी में था, उतनी सी बाधा बची थी, बस थोड़ी सी बाधा बची थी, कि बुद्ध से जो लगाव था, जो आसक्ति थी, वही अटका रही थी। सब आसक्तियां टूट गई थीं--न धन से कुछ रस था, न पद से कुछ रस था, न मित्रों में कोई रस था, सारे रस जा चुके थे, सारे रसों में एक ही रस व्याप्त हो गया था, यह सदगुरु का रस, यह सदगुरु के चरणों को पकड़ लेने की आसक्ति गहन हो गई थी। यह मोह प्रबल हो गया था। बुद्ध ने आनंद को कहा है: तू मुझे भी छोड़, तू अपना दीपक अब खुद बन। अब तू इस योग्य है, अपने पैर पर खड़ा हो सकेगा। मेरे कंधे पर कब तक बैठ कर चलेगा? अब जरूरत भी नहीं है।
मां चलाती है बच्चे को हाथ पकड़ कर, एक दिन हाथ पकड़ कर चलाना होता है। फिर अगर बच्चा सदा के लिए यह हाथ पकड़ ले तो मां हाथ छुड़ाएगी, एक दिन हाथ छुड़ाना भी होता है। नहीं तो बच्चा जवान कब होगा? प्रौढ़ कब होगा? अगर मां अपने बीस साल के जवान लड़के को भी हाथ पकड़ कर चलाए, तो तुम भी कहोगे कि मां भी पागल है और यह लड़का भी पागल है। और अगर मां पहले से ही अपने आठ महीने के बच्चे को भी हाथ का सहारा न दे, तो भी तुम पागल कहोगे। विरोधाभास कहां है?
अर्जुन छोटा सा बच्चा है, दुधमुंहा। आनंद युवा हो गया है, लेकिन अब भी मां का आंचल छोड़ना नहीं चाहता। अभी भी चाहता है मां को पकड़े रखे। ये दोनों वचन सत्य हैं, और दोनों वचन तुम्हारे लिए भी सत्य हैं--पहले दिन कृष्ण का वचन, अंतिम दिन बुद्ध का वचन। इसमें विरोधाभास मत देखना।
अक्सर धार्मिक महावचन विरोधाभासी दिखाई पड़ सकते हैं; क्योंकि धर्म एक बड़ा रहस्यपूर्ण जगत है--तर्कातीत।
उलटी ही चाल चलते हैं दीवानगाने-इश्क
करते हैं बंद आंखों को दीदार के लिए
जब देखना हो परमात्मा को तो आंख बंद करनी होती है। तुम कहोगे, यह क्या उलटी बात? आदमी आंख खोल कर देखता है। आंख बंद करके देखने का क्या मतलब? मगर यही है हाल। असली को देखना हो तो आंख बंद करनी पड़ती है। क्षुद्र को ही देखते रहना हो तो आंख खुले भी चल जाता है। आंख खोल कर भी देखा जाता है और आंख बंद करके भी देखा जाता है। जो खुली आंख से दिखता है, वह सपना है; और जो बंद आंख से दिखता है, वही सत्य है।
कबीर का प्रसिद्ध वचन है:
भला हुआ हरि बिसरियो, सर से टली बलाय।
जैसे थे वैसे भए, अब कछु कहा न जाय।।
बड़ा अदभुत वचन है। ठीक बुद्ध का वचन है।
भला हुआ हरि बिसरियो...
झंझट मिटी, यह हरि भी मिटे और भूले, यह झंझट भी मिटी।
भला हुआ हरि बिसरियो, सर से टली बलाय।
तुम चौंकोगे थोड़ा कि हरि और सर की बलाय! शांडिल्य तो कह रहे हैं कि भजो, हरिनाम संकीर्तन, डूबो; और कबीर का दिमाग खराब हुआ है कि कहते हैं--भला हुआ हरि बिसरियो, सर से टली बलाय। बलाय! हरि का नाम! यही तो, हरि का नाम ही तो साधन है; इसको बला कहते हो!
एक दिन बला हो जाती है। जो विधि एक दिन सहयोगी होती है, वही विधि एक दिन बाधक हो जाती है। तुम बीमार हो, तुम्हें औषधि देते हैं। फिर बीमारी चली गई, फिर औषधि लेते रहोगे तो बलाय हो जाएगी। जिस दिन बीमारी गई, उसी दिन बोतल फेंक देना, और नहीं तो लायंस क्लब में जाकर भेंट कर आना, मगर छुटकारा पा लेना उससे। फिर बोतल को लिए मत घूमना। और यह मत कहना कि इससे इतना लाभ हुआ, अब कैसे छोडूं? ऐसा कृतघ्न कैसे हो जाऊं? इसी बोतल ने तो सब दिया, स्वास्थ्य दिया, बीमारी गई, अब तो पीता ही रहूंगा, अब छोड़ने वाला नहीं हूं। अब तो इस पर मेरी श्रद्धा बड़ी सघन हो गई।
शांडिल्य कह रहे हैं: डूबो हरि भक्ति में; यह कृष्ण की शुरुआत। और कबीर बुद्ध के तल से कह रहे हैं:
भला हुआ हरि बिसरियो, सर से टली बलाय।
जैसे थे वैसे भए, अब कछु कहा न जाए।।
अब क्या कहना है? कैसा राम-भजन? किसका भजन कौन करे? किसलिए करे? अब शब्द का कोई संबंध न रहा। अब तो मौन है, सन्नाटा है।
हद टप्पै सो औलिया, बेहद टप्पै सो पीर।
हद बेहद दोनों टप्पै, ताका नाम फकीर।।
हद टप्पै सो औलिया...
जो हद के बाहर चला जाए उसको कहते हैं--औलिया।
...बेहद टप्पै सो पीर।
जो बेहद के भी आगे चला जाए--सीमा के पार जाए, औलिया; असीम के भी पार चला जाए, उसका नाम पीर।
हद बेहद दोनों टप्पै, ताका नाम फकीर।।
और जो सीमा, असीमा दोनों को छोड़ दे, द्वंद्व को छोड़ दे, सबके पार चला जाए, वही फकीर है। उसे ही मैं संन्यासी कहता हूं।
पकड़ना, छोड़ने के लिए। विधियों का उपयोग कर लेना, ले लेना जितना रस उनमें हो, फिर जब रस उनका पी चुके तो उस थोथी विधि को ढोते मत रहना, फिर वह बला हो जाएगी।
गुरु के सहारे दूसरे किनारे तक पहुंच जाओगे, फिर गुरु को भी विदा दे देनी होगी। संसार से गुरु छुड़ा लेता, फिर गुरु अपने से छुड़ाता है, तभी परमात्मा का मिलन है।
चौथा प्रश्न:
पिछले कुछ दिनों से रोज प्रवचन के बाद जब आपको जाते हुए देखती हूं तो भीतर से एक निःश्वास निकल जाता है और लगता है कि एक दिन और व्यर्थ गया। और फिर एक गहरा भाव रह जाता है कि एक दिन यह दिव्यपुरुष ऐसे ही आंखों से ओझल हो जाएगा और मैं खड़ी-खड़ी ऐसे ही देखती रह जाऊंगी।
पूछा है मुक्ति ने।
दृष्टि की बात है। मुक्ति के मन में कहीं भारी लोभ होगा। उस लोभ से ही सारा उपद्रव पैदा हो रहा है। आध्यात्मिक लोभ को हम साधारणतः लोभ नहीं कहते, है तो वह लोभ ही।
तुम मुझे सुनते हो, दो ढंग से सुन सकते हो। एक तो सुनने का मजा सुनने में। जैसे कोई संगीत को सुनता है। कोई संगीत को सुनने से धन की वर्षा नहीं हो जाएगी। संगीत को सुन कर घर जाकर अचानक तुम धनी नहीं हो जाओगे। संगीत को सुनने में ही संगीत का धन है। संगीत के सुनने में ही छिपा हुआ आनंद है। लेकिन अगर कोई संगीत सुनने गया इस हिसाब से कि इससे कुछ लाभ होगा, तो बेचैनी होगी। जब संगीत बंद होगा और आखिरी ध्वनि प्रध्वनित होकर विदा हो जाएगी, तब तुम्हें लगेगा कि आज का दिन और व्यर्थ गया; आज भी नहीं हुआ; आज भी जो धन मिलना था, नहीं मिला। लेकिन जो संगीत के ही आनंद के लिए संगीत को सुन रहा है, उसे मिल गया। उसके पार पाने को कुछ था भी नहीं।
यहां मुझे सुनने वाले भी दो तरह के लोग हैं। एक, जिन्हें यहां होने में रस है। जो मेरे पास बैठे, यह थोड़ी गुफ्तगू चली जिनसे, थोड़ी बातचीत हुई, थोड़ा लेन-देन हुआ, थोड़ा आदान-प्रदान हुआ। यह सत्संग रहा, यह संगीत जमा, मेरे-उनके बीच ऊर्जा नाची, मेरे-उनके बीच तरंगें बहीं, मेरे-उनके हृदय थोड़ी देर के लिए साथ-साथ धड़के, मेरी श्वास उनकी श्वास से मिली, उनकी श्वास मेरी श्वास से मिली। उन्होंने थोड़ी देर मुझे पीया, मेरा रस पीया। उन्होंने थोड़ी देर मुझे अपने हृदय में जगह दी, अपनी आत्मा में समाया। बस यह उनका आनंद है। उनके मन में यह भाव होगा--तो आज फिर घटा। वे धन्यभाव से भर कर जाएंगे।
दूसरा व्यक्ति है जो यहां बैठा है, सोच रहा है कि कब समाधि लग जाए, कब परमात्मा मिल जाए, कब मोक्ष मिल जाए। वह सुन नहीं रहा है, उसकी नजर मोक्ष पर अटकी है। वह सोच रहा है: समाधि आती है कि नहीं। इधर-उधर देख रहा है कि अभी तक आई नहीं, मेरी समाधि नहीं आई; ये दूसरे आदमी की आंख से आंसू बह रहे हैं, शायद इसकी आ गई, मेरी अभी नहीं आई। वह बार-बार टटोल रहा है कि कब आती, कब आती, कहीं कोई पगध्वनि नहीं सुनाई पड़ती! और इस समाधि की चिंता में वह मुझे चूका जा रहा है। इस लोभ में, वह ध्यानस्थ हो सकता था मेरे साथ, वह अवसर चूका जा रहा है। तो जब मैं उठूंगा और चला जाऊंगा, तो स्वभावतः लगेगा कि आज का दिन और बेकार गया।
तुम पर निर्भर है, मुझ पर निर्भर नहीं है। चाहो तो आज के दिन को सार्थक जाने दो, चाहो तो व्यर्थ।
लोभ छोड़ो। लोभ की दृष्टि सदा उपद्रव ले आती है। लोभ के कारण तुम्हारी जो व्याख्या होती है, वह व्याख्या दुख से भर जाती है। और हमारी व्याख्याएं बड़ी महत्वपूर्ण हैं।
एक कम्युनिस्ट कवि का मैं गीत पढ़ रहा था कल। उसका मित्र उसे ताजमहल देखने ले गया है। पूर्णिमा की, शरद पूर्णिमा की रात होगी। लेकिन ताजमहल देख कर कम्युनिस्ट कवि को जो विचार उठे, वे सुनने जैसे हैं--
दोस्त, मैं देख चुका ताजमहल, वापस चल!
मरमरीं-मरमरीं फूलों से उबरता हीरा
चांद की आंच में दहके हुए सीमीं मीनार
जेहने शायर से यह करता हुआ चश्मक पैहम
एक मलिका का जियापोशो-फजाताब मजार
खुद-बखुद फिर गए नजरों में ब-अंदाजे-सवाल
वो जो रस्तों पे पड़े रहते हैं लाशों की तरह
खुश्क होकर जो सिमट जाते हैं बे-रस आसाब
धूप में खोपड़ियां बजती हैं ताशों की तरह
दोस्त, मैं देख चुका ताजमहल, वापस चल!
यह धड़कता हुआ गुंबद में दिले-शाहजहां
यह दरो-बाम पे हंसता हुआ मलिका का शबाब
जगमगाता है हर इक तह से मजाके-तफरीक
और तारीख उढ़ाती है मोहब्बत की नकाब
चांदनी और यह महल आलमे-हैरत की कसम
दूध की नहर में जैसे उबाल आ जाए
ऐसे सैयाह की नजरों में छुपे क्या यह समां
जिसको फरहाद की किस्मत का खयाल आ जाए
दोस्त, मैं देख चुका ताजमहल, वापस चल!
यह दमकती हुई चौखट यह तिलापोश कलस
इन्हीं जल्वों ने दिया कब्र-परस्ती को रिवाज
माहो-अंजुम भी हुए जाते हैं मजबूरे-सजूद
वाह आरामगहे-मालिकए-माबूद मिजाज
दीदनी कस्त नहीं, दीदनी तक्सीन है यह
रूए-हस्ती पे धुआं, कब्र पे रक्से-अनवार
फैल जाए इसी रौजे का जो सिमटा दामन
कितने जानदार जनाजों को भी मिल जाए मजार
दोस्त, मैं देख चुका ताजमहल, वापस चल!
ताजमहल भी देखोगे तो उतना ही देख पाओगे जितनी तुम्हारी व्याख्या होगी।
गुरजिएफ का शिष्य ऑस्पेंस्की ताजमहल देखने आया और उसने जो वचन लिखे उस रात अपनी डायरी में, वे अदभुत हैं। उसने लिखा कि ताजमहल ऐसे है जैसे पत्थर में उपनिषद। ऐसा सौंदर्य इसके पहले न उतारा गया था कभी और न फिर उतारा जा सका। और कभी उतारा जा सकेगा, इसमें भी संदेह है। ताजमहल में उसे उपनिषद के सूत्रों का सौंदर्य दिखाई पड़ा। जैसे ताजमहल कुछ है जो आकाश से उतारी गई घटना है इस पृथ्वी पर। कुछ है जो अरूप की तरफ इशारा करती है।
ताजमहल बनाया सूफियों ने। बनवाया शाहजहां ने, बनाया सूफियों ने। ताजमहल सूफी कृति है। जैसे अजंता-एलोरा बौद्ध भिक्षुओं की कृतियां हैं, और जैसे खजुराहो और कोणार्क तांत्रिकों की कृतियां हैं, वैसे ताजमहल सूफियों की कृति है। लेकिन गुरजिएफ का शिष्य था ऑस्पेंस्की, इसलिए देख सका सूफियों का यह कृत्य। गुरजिएफ खुद सूफी था, सूफी संतों से ही उसने सब सीखा था। इसलिए ऑस्पेंस्की को दिखाई पड़ सका कि ताजमहल में क्या खोदा गया है। ताजमहल तुम्हें याद दिलाता है तुम्हारे परम सौंदर्य की--देह में ही समाप्त मत हो जाना, पत्थर में भी इतना सौंदर्य छिपा है तो तुममें तो कितना छिपा होगा! उघाड़ने की बात है। नक्काशी की बात है। प्रकट करने की बात है।
ऑस्पेंस्की को सूफी मत की सारी सार-अभिव्यक्ति ताजमहल में मिली। एक कम्युनिस्ट कवि को दिखाई पड़ता है कि ताजमहल ठीक, मगर रास्तों पर लोग पड़े हैं भूखे, उनका क्या? यह ताजमहल उनका मजाक है। लोगों को भोजन नहीं है और यहां एक मरी-मराई मलिका के लिए इतना धन खर्च किया गया है। लोगों को दवा नहीं है, उनके बच्चों को दूध नहीं है, रहने के लिए छप्पर नहीं है--जिंदों को छप्पर नहीं है और मुर्दों के लिए इतनी सुंदर कब्र! यह अति अन्याय है। यह कम्युनिस्ट की परिभाषा है।
सब तुम पर निर्भर है। अगर तुम मौज में हो, तो ताजमहल में तुम्हें बड़ा आनंद दिखाई पड़ेगा, नाच होता हुआ दिखाई पड़ेगा, ताजमहल रक्स में मिलेगा। अगर तुम उदास गए हो, तुम्हारी प्रेयसी खो गई है, कि तुम्हारी मां मर गई है, कि तुम्हारा मित्र चल बसा है, और तुम ताजमहल देखोगे तो ताजमहल बड़ा उदास मालूम होगा। तुम्हारी आंखें जो लेकर जाती हैं, वही देख लेंगी।
तुम यहां सुनते किस तरह से हो मुझे, इस पर निर्भर है बहुत कुछ। कोई यहां हिंदू की तरह सुनने आता है, कोई यहां मुसलमान की तरह सुनते आता है, कोई ईसाई की तरह, वह मुझसे वंचित रह जाएगा। जो यहां न हिंदू, न मुसलमान, न ईसाई, जो सिर्फ मनुष्य की तरह सुनने आता है, वही मुझसे संबंध जोड़ पाएगा। कोई यहां बड़े लोभ से भर कर आता है--पारलौकिक लोभ, मगर लोभ लोभ है, कहीं पारलौकिक कोई लोभ होता है, लोभ ही तो संसार है!
अब यह मुक्ति के मन में बड़ा लोभ है। यह चाहती है जल्दी से निर्वाण उपलब्ध हो, समाधि उपलब्ध हो, आज का दिन और बेकार गया। जैसे कि मुझे सुन कर तुम्हें समाधि उपलब्ध हो सकती है। और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सुनते-सुनते नहीं उपलब्ध हो सकती। मगर सुन कर उपलब्ध नहीं हो सकती। सुनते-सुनते उपलब्ध हो सकती है। उपलब्ध करने की आकांक्षा हो तो नहीं उपलब्ध होगी। क्योंकि तब तुम सुन ही न पाओगे।
उपलब्धि इत्यादि की व्यर्थ बातें छोड़ो। जितनी देर मेरे साथ हो, मेरे साथ हो लो--तल्लीनता से, परिपूर्णता से। इस थोड़ी देर के लिए तो लोभ इत्यादि को फेंक दो। लोभ के कारण संबंध नहीं जुड़ पाते। लोभ बीच में बाधा बन जाता है। लोभ और प्रेम विपरीत चीजें हैं। जहां प्रेम है, वहां लोभ नहीं; और जहां लोभ है, वहां प्रेम नहीं। और यह सत्संग तो उनके लिए है जिनके हृदय में प्रेम है।
तो संबंध नहीं जुड़ पाता। मुक्ति बैठी-बैठी सोचती रहती होगी कि आधा घंटा गया, घंटा गया, ये नब्बे मिनट पूरे हो गए, आज भी नहीं हुआ, एक दिन और गया। ऐसे रोज-रोज दिन जाते हैं, फिर धीरे-धीरे हताशा गहन हो जाएगी कि ऐसे तो कितने दिन चले गए, ऐसे ही और दिन भी जाएंगे। और यहां रोज संभावना थी। यहां प्रतिपल संभावना थी। मैं यदि समाधि हूं, तो मुझे सुनते, मुझे देखते, मेरे पास बैठते समाधि फलित हो सकती है। समाधि का मतलब क्या होता है? समाधान। समाधि का मतलब क्या होता है? कुछ आकाश से कुछ उतरेगा तुम्हारे भीतर? नहीं, जब तुम्हारी जीवन-चेतना संगीतपूर्ण हो जाती है, तभी समाधि। जहां तुम तल्लीन हो गए, वहीं समाधि। लेकिन लोभ तल्लीन न होने देगा। लोभ भविष्य में भटकाए रखता है। लोभ कहता है, होने वाला है, होने वाला है। जब कि यहां हो रहा है। तुम्हारा मन वर्तमान में नहीं रहता, तो चूक होगी। तुम्हारा मन भविष्य में भटकेगा--तो मुक्ति ठीक ही कहती है--ऐसा रोज ही रोज होता रहेगा। यह तुम पर निर्भर है।
इस प्रश्न को गौर से समझना, क्योंकि यह मुक्ति का ही नहीं, औरों का भी होगा। मुक्ति को मैंने नाम ही मुक्ति इसीलिए दिया है कि उसके भीतर मोक्ष की बड़ी भयंकर अभीप्सा है। और वही अभीप्सा बाधा बन रही है।
‘पिछले कुछ दिनों से रोज प्रवचन के बाद जब आपको जाते हुए देखती हूं तो भीतर से एक निःश्वास निकल जाता है।’
यह निःश्वास आनंद का भी हो सकता है कि एक दिन और साथ रहने मिला, कि एक दिन और साथ जुड़ा, कि एक दिन और आनंद बरसा, कि एक दिन और शांति घनी हुई, यह निःश्वास आनंद का भी हो सकता है--धन्योऽहं! यह निःश्वास विषाद का भी हो सकता है कि अरे, आज फिर नहीं हुआ!
ऐसा समझो कि कोई तुमसे कहता है कि मैं नदी पर तैरने जाता हूं...
मुझे तैरने का शौक था। दो-चार घंटे अगर रोज मैं नदी में न जाऊं तो मुझे चैन नहीं पड़ती थी। मुझे नदी ने इतना आनंद दिया कि जो मुझे मिल जाता, उसी को मैं कहता कि आओ! लोग मुझे इतने प्रफुल्लित, इतने आनंदित देखते तो वे भी लोभ में चले जाते कि शायद कुछ न कुछ होता होगा! मेरी बातों में आकर चार बजे सुबह उठ आते, कि चलो देखें, एक दफा तो देखें! लेकिन वहां उन्हें कुछ भी न मिलता। और नींद हराम हुई सो अलग। सुबह मजे से सोते, वह भी गया, और तैरने में क्या रखा है! और ठंडी सुबह और नदी का ठंडा जल, और वे ठिठुरते, और वे कहते कि आनंद तो कुछ मालूम नहीं पड़ रहा है, और आप कहते थे कि बड़ा आनंद मिलता है! तब धीरे-धीरे मुझे समझ में आया कि भूल कहां हो रही है। मुझे आनंद मिलता है, क्योंकि मैं आनंद की तलाश नहीं कर रहा हूं। वे आ गए हैं सिर्फ इसी आशा में कि आनंद मिलेगा। अब ठंडे पानी में उतर रहे हैं, दिखाई तो यह पड़ रहा है कि ठंड लग रही है और सोच वे यह रहे हैं कि अभी तक आनंद नहीं मिला! उदास हुए जा रहे हैं कि अब तक नहीं आया! कब आएगा? कहां से आएगा? दो-चार दिन मेरे साथ जाते, फिर वे कहते कि भई, हमें नहीं आना है! दिन भर नींद आती है, और आनंद मिलता नहीं। मैं बहुत हैरान होता था कि तैरने जैसी घटना और इन्हें आनंद नहीं मिलता!
जल के साथ घड़ी, दो घड़ी रह लेना परम जीवनदायी है, क्योंकि अस्सी प्रतिशत तुम्हारे भीतर जल है। और जैसे तुम्हारे भीतर अस्सी प्रतिशत जल है, जब जल के साथ तुम्हारे भीतर का जल मिलता है तो बड़ी तरंगें उठती हैं। मगर मिलना चाहिए, मिलन होना चाहिए। तो तैरना ध्यान बन सकता है, अगर तुम परिपूर्ण डूब गए तैरने में। अगर कोई धूप में लेट गया है जाकर सागर के तट पर और धूप की वर्षा में डूब सकता है, तो वहां ध्यान। कोई नाचने में डूब सकता है, वहां ध्यान। तुम जिसमें डूब जाओ, वहां ध्यान। यहां मैं जो तुमसे बोल रहा हूं रोज-रोज, वह किन्हीं सिद्धांतों को समझाने के लिए नहीं। सिद्धांतों में रखा क्या है! दो कौड़ी के हैं। सिद्धांत तो बहाने हैं, प्रयोजन कुछ और है। प्रयोजन यह है कि तुम मेरे साथ थोड़ी देर को डूब जाओ। मगर अगर भीतर तुम्हारे यह आकांक्षा बैठी है कि कुछ मिलना चाहिए, तो बड़ी कठिनाई हो जाएगी।
शायद तुमने सुना हो, यूक्लिड बहुत बड़ा गणितज्ञ हुआ, ज्यामिति का आविष्कारक। उसके पास एक धनपति ने अपने बेटे को ज्यामिति सीखने भेजा। धनपति का बेटा था, धन उसकी एकमात्र भाषा थी। यूक्लिड ने उसे समझाना शुरू किया कि रेखा क्या है, बिंदु क्या है, त्रिकोण क्या है। उसने थोड़ी देर सुना और उसने कहा, इससे मिलेगा क्या? इससे फायदा क्या? बिंदु क्या है, रेखा क्या है, इससे फायदा क्या? इससे लाभ क्या होगा? धनपति का बेटा था! यूक्लिड ने उसकी तरफ देखा और अपनी पत्नी को कहा कि ऐसा कर, रोज ज्यामिति पढ़ने के बाद जब यह युवक जाने लगे तो इसे पांच सिक्के दे दिया कर। युवक बड़ा खुश हुआ कि यह तो बड़ा मजा है! बिंदु क्या, रेखा क्या, इसको पढ़ने-सीखने में पांच सिक्के भी मिलते हैं। लेकिन उसने इस बात को न देखा कि भयंकर मजाक किया है यूक्लिड ने। जब उसके बाप को, धनपति को पता चला तो उसने सिर ठोंक लिया। उसने अपने बेटे को कहा, नासमझ, यूक्लिड जैसा गणितज्ञ समझाने को मिला हो और तू उससे गणित तो नहीं समझ रहा है और उलटे पांच रुपये उससे लेकर घर आ जाता है! तू मूढ़ है।
लाभ की भाषा मूढ़ता की भाषा है। लेकिन तुम्हारा कसूर नहीं है। तुम्हारे तथाकथित महात्मा, पंडित, पुजारी यही तुम्हें समझा रहे हैं कि संसार में भी लाभ होता है, यह भी लाभ है, और परमात्मा में भी लाभ होता है--ध्यान-लाभ करो, पुण्य-लाभ करो, मोक्ष-लाभ करो। मगर लाभ की भाषा नहीं छूटती।
मैं तुमसे कह दूं इस बात को फिर से कि जब तक लाभ की भाषा है, तब तक समाधि अनुभव नहीं होगी। लाभ ही तनाव है। जहां लाभ गया, लोभ गया, उसी चित्त-दशा का नाम समाधि है। जब लाभ-लोभ उड़ गए और तुम्हारे भीतर कोई लाभ-लोभ की भाषा न रह गई, तुम इसी क्षण में परम तल्लीन हो गए, वही समाधि है। समाधि यानी तल्लीनता। समाधि यानी तन्मयता।
तो मुक्ति कहती है: ‘...निःश्वास निकल जाता है और लगता है कि एक दिन और व्यर्थ गया। और फिर एक गहरा भाव रह जाता है कि एक दिन यह दिव्यपुरुष ऐसे ही आंखों से ओझल हो जाएगा और मैं खड़ी-खड़ी ऐसे ही देखती रह जाऊंगी।’
अगर लाभ रहा, लोभ रहा, तो यह होने वाला है! आज नहीं कल, मुझे विदा लेनी ही होगी। और तब तुम सोचोगे कि जिंदगी व्यर्थ गई। पूरा जीवन व्यर्थ गया। जब कि हर पल समाधि घट सकती थी। और शायद तुम्हारा लोभ से भरा हुआ मन मुझ पर नाराजगी जाहिर भी करेगा कि शायद मैंने ही तुम्हें समाधि नहीं दी। क्योंकि तुम इस आशा में बैठे हो कि मैं तुम्हें समाधि दूंगा।
समाधि ली जाती है, दी नहीं जाती। मैं देना भी चाहूं तो नहीं दे सकता। हां, तुम लेना चाहो तो ले सकते हो। और तुम लेना चाहो तो मुझसे ही नहीं, वृक्षों से भी ले सकते हो, पहाड़ों से भी ले सकते हो, चांद-तारों से भी ले सकते हो। समाधि का अर्थ यही होता है कि हम किसी क्षण में परिपूर्ण रूप से डूब जाएं। न कोई भविष्य रहे, न कोई अतीत, यही क्षण सब तरफ से घेर ले, यही क्षण सारा समय बन जाए, यही क्षण अनंत हो जाए।
तो यहां मैं देखता हूं। पश्चिम से जो लोग आते हैं, उन्हें ध्यान ज्यादा सरलता से घटता है। पूर्वीय को ज्यादा मुश्किल से घटता है। होना चाहिए उलटा--पूर्वीय व्यक्ति को, कम से कम भारतीयों को ध्यान जल्दी घटना चाहिए, हजारों साल से ध्यान की चर्चा यहां चलती रही है। लेकिन उसी से अड़चन हो रही है। पश्चिम से जो आदमी आता है, उसे ध्यान के संबंध में कुछ हिसाब-किताब नहीं है; उसे पता ही नहीं है कि ध्यान क्या है। इसलिए लोभ भी नहीं है, पाने की कोई प्रबल आकांक्षा भी नहीं है। अगर मैं उससे नाचने को कहता हूं तो वह नाचने में डूब जाता है, क्योंकि आंख के किनारे से देखता नहीं रहता कि अभी ध्यान घटा कि नहीं घटा। भारतीय आता है, वह कहता है--दो दिन हो गए नाचते, अभी तक ध्यान नहीं घटा। तीन दिन हो गए ध्यान करते, अभी तक ध्यान नहीं घटा। पश्चिम से आया व्यक्ति नाचने में रस लेने लगता है, वह मुझसे आकर कहने लगता है, नाचने में बड़ा मजा आ रहा है--ध्यान इत्यादि का उसे पता भी नहीं है कि घटना है कि नहीं घटना है--नाचने में बड़ा मजा आ रहा है! एक दिन अचानक ध्यान घट जाता है। ध्यान अनायास घटता है।
भारत का मन बहुत लोभग्रस्त हो गया है। तुमने बुद्धों से बस इतना ही लाभ लिया। तुमने बुद्धों से बस यह लोभ सीखा। तुम सरल नहीं रह गए चित्त में, तुम जटिल हो गए। धर्म तुम्हारे लिए एक तरह का हिसाब-किताब हो गया--इतना पुण्य करेंगे तो इतना लाभ मिलेगा। यहां इतना देंगे तो वहां उतना मिलेगा। तुमने हर चीज में गणित फैला दिया। तुम भाव की दशाओं से वंचित होने शुरू हो गए। इसलिए बड़ी आश्चर्य की बात है, मगर यह हो रहा है। नहीं होना चाहिए, मगर हो रहा है। तुम सजग होओ तो शायद होना बंद हो जाए।
पहले तो भारतीय ध्यान में उतरना नहीं चाहता, क्योंकि उसे यह खयाल है कि वह जानता ही है ध्यान क्या है। दूसरा अगर उतरने को भी राजी होता है, तो दिन, दो दिन में ही आकर खड़ा हो जाता है कि अभी तक नहीं हुआ। और उसे बेचैनी होती है कि पश्चिम से आए लोगों को हो रहा है मालूम होता है, क्योंकि वे इतने प्रसन्न और इतने आनंदित! उनके प्रसन्न और आनंदित होने का कारण है कि उनके मन में लोभ नहीं है ध्यान का। धन का लोभ था, धन पा लिया पश्चिम ने, और वह लोभ टूट गया और देख लिया कि उस लोभ में कोई सार नहीं था। अभी ध्यान का लोभ पैदा नहीं हुआ है। जल्दी पैदा हो जाएगा, भारतीय साधु-संत सारे अमरीका और पश्चिम में तैर रहे हैं, यहां से लेकर वहां तक; वे जल्दी ही लोभ पैदा करवा देंगे। क्योंकि उनकी भाषा लोभ की है। महर्षि महेश योगी लोगों से कहते हैं: ध्यान करने से पारलौकिक लाभ तो होता ही है, सांसारिक लाभ भी होता है। धन भी बढ़ेगा, पद भी बढ़ेगा, परमात्मा भी मिलेगा।
एक बहुत आश्चर्यजनक घटना है। विवेकानंद ने भारतीय साधु-संतों के लिए अमरीका का दरवाजा खोला। विवेकानंद से लेकर अब तक, सिर्फ कृष्णमूर्ति को छोड़ कर, जितने लोग भारत से अमरीका गए हैं, उन्होंने अमरीका को नहीं बदला, अमरीका ने उन्हें बदल दिया। वे अमरीका की ही भाषा बोलने लगते हैं। क्योंकि उन्हें दिखाई पड़ता है कि अगर अमरीकन लोगों को प्रभावित करना है, तो वही भाषा बोलो जो वे समझते हैं। अमरीका धन की भाषा समझता है। अमरीका पूछता है: धन इससे कैसे मिलेगा? तो भारतीय तुम्हारा महात्मा भी धन की भाषा बोलने लगता है। वह कहता है: ध्यान करने से मन की शक्ति बढ़ेगी, सिद्धि मिलेगी। ध्यान करने से क्या नहीं हो सकता! फिर तुम जो चाहोगे वही पा सकोगे, तुम्हारे विचार इतने शक्तिशाली हो जाएंगे।
मैंने ऐसी किताबें देखी हैं जो कहती हैं कि अगर तुमने ठीक से ध्यान किया और कहा कि केडिलक कार मिलनी चाहिए, तो मिलेगी। ध्यान की किताबें! केडिलक कार मिलनी चाहिए, इसको अगर ध्यानपूर्वक सोचा, तो जरूर मिलेगी! और तुमने कहा कि यह जो स्त्री जा रही है, यह मुझे मिलनी चाहिए, अगर तुमने पूरे संकल्प से, पूरी एकाग्रता से विचार किया, तो यह घटना घट कर रहेगी। क्योंकि विचार में शक्ति है। और एकाग्र विचार में बड़ी शक्ति है।
अगर तुम्हारे ऋषि-मुनि कब्रों से निकल आएं, तो सिर ठोंक लें, कि ये हमारे महात्मा अमरीका में जाकर क्या समझा रहे हैं! मगर अमरीका को समझाना हो तो अमरीका की भाषा बोलनी पड़ती है। उसी भाषा के बोलने में सब व्यर्थ हो जाता है। इसलिए मैंने तय किया कि मैं पश्चिम नहीं जाऊंगा; जिसको आना है, यहां आए। मैं अपनी भाषा बोलूंगा, जिसको समझ पड़नी हो, समझ सकता हो, वह मेरी भाषा समझे और यहां आए, मुझे कहीं जाना नहीं है। मैं कोई समझौते के लिए राजी नहीं हूं।
भारतीय मन सदियों से सुनते-सुनते ध्यान की बात, लोभी हो गया है। धन का जो लोभ है, उसी लोभ को भारतीय मन ने आत्मा के लोभ पर निरूपित कर दिया, आरोपित कर दिया। पद का जो लोभ है, वही उसने धार्मिक दिशा में संक्रमित कर दिया है, भेद नहीं है। कोई यहां पद पाना चाहता है, वह वहां पद पाना चाहता है। फिर अड़चन होगी। फिर तुम मुझे न समझ पाओगे। और फिर, मुक्ति, खड़ी ही खड़ी रह जाओगी। यह तुम्हारे हाथ में है। यह समय चूक भी सकती हो। चूकने का मतलब सिर्फ इतना ही कि इस समय में डूबो नहीं तो चूक जाओगी। मैं रोज यहां मौजूद हूं, मेरे द्वार खुले हैं, तुम डुबकी लो; तो मेरे जाने के पहले घटना घट जाएगी। आज घट सकती है, कल का भी कोई सवाल नहीं है, कभी भी घट सकती है, क्योंकि परमात्मा सदा मौजूद है। जिस क्षण तुम्हारा लोभ-लाभ गया, उसी क्षण मिलन हो जाता है।
किसे यह होश सुराही कहां है जाम कहां
निगाहे-पीरे-मुगां से बरस रही है शराब
जब चारों तरफ से शराब बरस रही हो, तो तुम सुराही खोज रही हो! जाम खोज रही हो! नहाओ इसमें! सुराही में भर कर क्या करना है? पी लो इसे! शराब में डूब कर शराब हो जाओ।
किसे यह होश सुराही कहां है जाम कहां
निगाहे-पीरे-मुगां से बरस रही है शराब
तुम डूबो। मीरा ने कहा है: मीरा पी गई बिन तौले। मीरा मगन भई अब क्या बोले? बिना तौले पी जाओ, लाभ-लोभ छोड़ो। वह लाभ-लोभ सब तौलना है। तराजू लिए बैठी है मुक्ति, वह अपना तौल रही है--कितना मिला, कितना नहीं मिला। इसलिए उदास है। दुर्भाग्य की बात है, लेकिन इस आश्रम में जितने भारतीय हैं, अधिकतम उदास हैं। जो गैर-भारतीय हैं, वे प्रसन्न हैं, आनंदित हैं।
तेरा मैखार तेरी मस्त निगाहों की कसम
साकिए बिन पिए मसरूर हुआ जाता है
यह ऐसी शराब है कि बिना पीए नशा चढ़ सकता है। सिर्फ द्वार तुम्हारा खुला हो। खिड़की-दरवाजे खोलो!
शकील दूरिए-मंजिल से नाउम्मीद न हो
अब आई जाती है मंजिल अब आई जाती है
उदास होने की कोई भी जरूरत नहीं है। न निराश होने की कोई जरूरत है। मैं तुमसे यह कह ही नहीं रहा हूं कि मंजिल असंभव है, या बहुत दुर्गम है। मंजिल बहुत सुगम है और सरल है और सहज है। यही तो भक्ति का सारा सार-निचोड़ है। प्रेम भर चाहिए। लोभ के कारण प्रेम नहीं हो पाता और मंजिल दूर से दूर हो जाती है।
लोभ को जाने दो। लोभ की जगह प्रेम का आह्लाद-भाव। फिर हुआ ही है। फिर हो ही गया। फिर क्षण भर की देर नहीं है।
पांचवां प्रश्न:
मैं अपना प्रेम कभी प्रकट नहीं कर पाया। साधारण लौकिक प्रेम ही नहीं, आपके प्रति भी जो प्रेम है वह भी छिपाए बैठा हूं। न मालूम कौन सा भय है जिसने मुझे पंगु बना रखा है! यह अविकसित प्रेम कैसे भक्ति बनेगा?
मनुष्य का दुर्भाग्य है कि अब तक जो संस्कृति और जो सभ्यता पनपी है पृथ्वी पर वह प्रेम-विरोधी है। वह युद्ध की पक्षपाती है और प्रेम की विरोधी है। यह सभ्यता बहुत सभ्यता नहीं है, बहुत आदिम है। यह युद्ध पर जीती है, प्रेम पर नहीं जीती। यह प्रेम की दुश्मन है। यह प्रेम से बहुत भयभीत है।
तुम देखते हो, प्रेम को प्रकट करने में हजार तरह की बाधाएं खड़ी की जाती हैं। प्रेम हो न जाए, इसके बीच हजार तरह की दीवालें खड़ी की जाती हैं। प्रेम न घटे, इसलिए सदियों तक बाल-विवाह चलता रहा। वह सिर्फ प्रेम से बचने का उपाय था। इसके पहले कि प्रेम की तरंग उठे, विवाह कर दो। न उठेगी प्रेम की तरंग, न होगी कोई झंझट।
स्त्री-पुरुषों को दूर रखा जाता है, उनके बीच में बड़े फासले खड़े किए जाते हैं। लड़कियों और लड़कों को एक साथ कालेज या स्कूल में पढ़ने नहीं दिया जाता। अगर पढ़ने भी दिया जाता है तो उनके बैठने के स्थान अलग-अलग होते हैं। सब तरह से बाधाएं खड़ी की जाती हैं। और सब तरह से डराया जाता है कि प्रेम में कुछ खतरा है, प्रेम पाप है। यह बात इतनी गहरी बैठ जाती है प्राणों में कि प्रेम पाप है, कि जब कभी तुम्हारे जीवन में प्रेम का उदय भी होता है, तो भी साहस पैदा नहीं होता। तुम अपने को खींच-खींच लेते हो। तुम रुक-रुक जाते हो। यह सभ्यता संगीनों की सभ्यता है, प्रेम की नहीं। इसका पूरा आयोजन यही है कि कैसे हम मरें और मारें। यह सभ्यता सैनिक बनाती है, प्रेमी नहीं बनाती।
इसलिए तुम चमत्कार की बात देखोगे, अगर फिल्म में कोई किसी की छाती में छुरा भोंक दे, तो इस पर सरकार कोई रोक नहीं लगाती। लेकिन चुंबन पर रोक है। यह बड़े मजे की बात है। कल मैं पढ़ रहा था, मद्रास में तो मुख्यमंत्री फिल्म अभिनेता है, लेकिन फिल्म अभिनेता मुख्यमंत्री भी वक्तव्य देता है कि फिल्मों में चुंबन नहीं होना चाहिए, क्योंकि इससे भारतीय संस्कृति का बड़ा ह्रास हो जाएगा।
चुंबन से भारतीय संस्कृति का ह्रास हो जाएगा! खजुराहो की मूर्तियां किसने बनाई थीं? कोई पश्चिम से लोग आए थे बनाने? पश्चिम में एक भी मंदिर नहीं है खजुराहो के मुकाबले। चुंबन से ह्रास हो जाएगा भारतीय संस्कृति का! हां, छाती में छुरे भोंको, जेबें काटो, हत्याएं करो फिल्म में, चोरियां करो, जलाओ लोगों को, मारो, सब चलेगा, इससे संस्कृति का ह्रास नहीं होता! इससे संस्कृति बढ़ती है, इससे विकसित होती है। एक चुंबन बड़ा खतरनाक है! चुंबन जैसी कोमल चीज मार डालेगी इनकी संस्कृति को!
प्रेम से दुश्मनी है। अगर दो व्यक्ति प्रेम में आलिंगन कर लें तो अश्लील है, और एक-दूसरे की छाती में छुरा भोंक दें तो अश्लील नहीं है। अश्लील शब्द का हिंसा से संबंध ही नहीं जोड़ते लोग। अश्लील शब्द का सिर्फ हिंसा से ही संबंध होना चाहिए। प्रेम से क्या संबंध होगा अश्लील का?
तो तुम्हारा प्रश्न तुम्हारा ही प्रश्न नहीं है, सारी मनुष्य-जाति का प्रश्न है। प्रेम के प्रति तुम्हें अपराध-भाव से भर दिया गया है। और जब तक प्रेम विकसित न हो, तब तक भक्ति का जन्म नहीं हो सकता। जिसने लौकिक प्रेम नहीं किया, वह अलौकिक प्रेम तो कैसे करेगा? क्योंकि लौकिक प्रेम की ही हिम्मत जिसमें नहीं थी, उसमें अलौकिक प्रेम की हिम्मत तो पैदा ही नहीं हो सकती। अलौकिक प्रेम तो दुस्साहस है। कल मैं एक गीत पढ़ रहा था--
तुम मोहब्बत को छिपाती क्यों हो?
हाय! यह हीर की सूरत जीना
मुंह बिगाड़े हुए अमृत पीना
कांपती रूह, धड़कता सीना
जुर्म फितरत को बताती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छिपाती क्यों हो?
हां, वो हंसते हैं जो इंसान नहीं
जिनको कुछ इश्क का इरफान नहीं
संगजदों जरा जान नहीं
आंख ऐसों की बचाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छिपाती क्यों हो?
जुर्म तुमने कोई ढाया तो नहीं
इब्ने-आदम को सताया तो नहीं
खूं गरीबों का बहाया तो नहीं
यों पसीने में नहाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छिपाती क्यों हो?
झेंपते तो नहीं मंदिर के मकीं
झेंपते तो नहीं मेहराबनशीं
मक्र पर उनकी चमकती है जबीं
सिद्क पर सर को झुकाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छिपाती क्यों हो?
पर्दा है दाग छुपाने के लिए
शर्म है किज्ब पे छाने के लिए
इश्क इक गीत है गाने के लिए
इसको ओंठों में दबाती क्यों हो?
तुम मोहब्बत को छिपाती क्यों हो?
लेकिन सभी मोहब्बत को छिपा रहे हैं--पुरुष और स्त्रियां, प्रेमी और प्रेमिकाएं, पति और पत्नियां, भाई और बहन, बाप और बेटे, मां और बेटियां--सब मोहब्बत को छिपा रहे हैं, सब प्रेम को छिपा रहे हैं। तुम्हें याद है, तुम कब से अपने बाप की छाती नहीं लगे? कब से? या शायद कभी नहीं। तुम्हें याद है, कब से तुम्हारी मां ने तुम्हें अपनी गोद में नहीं लिया? भूल ही गई है बात! दो मित्र भी तो हाथ में हाथ डाल कर नहीं चलते, कि कहीं कोई कुछ गलत न समझ ले।
प्रेम के संबंध में इतना छिपाव, इतना दुराव! क्यों? क्योंकि प्रेम में कुछ बगावत है, विद्रोह है। अगर लोगों को प्रेम की पूरी छूट दी जाए, तो दुनिया दूसरे ढंग की होगी। उस दुनिया में राजनीति नहीं होगी, युद्ध नहीं होंगे। अगर प्रेम की पूरी छूट हो तो कौन युद्ध के स्थल पर मरने जाना चाहेगा? कौन? कौन मां अपने बेटे को भेजेगी युद्ध पर? कौन पत्नी अपने पति को भेजेगी? कौन बहन अपने भाई को भेजेगी युद्ध पर? अगर दुनिया में प्रेम हो तो लड़ने की इतनी आतुरता ही नहीं होगी। लोग कहेंगे--क्या फिजूल की बात है! लड़ना किसलिए? यह जमीन सबकी है, हम सब भोगें, हम सब आनंद से रहें, लड़ने का क्या सवाल?
लेकिन मामला कुछ और है। मामला ऐसा है कि तुम्हें प्रेम का मौका नहीं मिला, तो तुम्हारी जो प्रेम की ऊर्जा है वह सघन हो गई है भीतर और घृणा बन गई है। प्रेम सड़ गया है तुम्हारा। वह इस दुनिया से बदला लेना चाहता है। वह किसी की छाती में छुरा भोंक देना चाहता है। तुम्हारा प्रेम सड़ गया है, घाव बन गया है, नासूर हो गया है, कैंसर हो गया है। इसलिए हर दस साल में एक महायुद्ध चाहिए। तब कहीं थोड़ी छाती हलकी होती है, थोड़ी मवाद बह जाती है। और छोटी-मोटी लड़ाई तो चलती ही रहनी चाहिए, कभी वियतनाम में, कभी इजरायल में, कभी कहीं--कश्मीर में, कभी बंगलादेश में, छोटी-मोटी लड़ाई तो चलती ही रहनी चाहिए।
तुमने एक मजे की बात देखी, कि जब भी लड़ाई चलती है, लोगों के चेहरों पर रौनक आ जाती है, धूल झड़ जाती है। लोग बड़े ताजे मालूम होने लगते हैं, जैसे कुछ हो रहा है! जिंदगी में कुछ और तो होता ही नहीं, जिंदगी में और तो कुछ है ही नहीं, खाली-खाली है; जब जिंदगी में कुछ होता लगता है, माने युद्ध--समाचार का मतलब यह होता है कि कोई खराब समाचार; कि है भाई आज कुछ समाचार? सुबह ही से उठ कर लोग पूछते हैं। उनका मतलब है--हुई कुछ गड़बड़? कुछ उपद्रव हुआ? लोग कहते हैं, आज तो कुछ नहीं, वही का वही अखबार में सब पुराना ही है। फिर धूल जम गई। फिर वह शांत हो गए कि चलो ठीक है, कुछ नहीं हुआ आज, तो आज का दिन फिर बेकार गया।
युद्ध हो जाए, लोग कटने-मरने लगें, तो तुमने एक और मजे की बात देखी है, लोग छोटे-छोटे झगड़े भूल जाते हैं जब बड़ा युद्ध होता है। जैसे हिंदुस्तान-पाकिस्तान लड़े, तो फिर गुजराती-मराठी नहीं लड़ते। फिर क्या मतलब? फायदा क्या? अब जब बड़ी लड़ाई चल रही है, तो छोटी की कौन झंझट करे! फिर हिंदी और गैर-हिंदी नहीं लड़ते। मजा ही आ रहा है, अब करने की क्या जरूरत? छोटे-छोटे दंगल गांव-गांव में क्या करना, बड़ा दंगल हो रहा है। राजधानी-दंगल हो रहा है, तो बस अब उसका ही मजा लेंगे। जब राजधानी का दंगल बंद हो जाता है, हिंदुस्तान-पाकिस्तान नहीं लड़ते, तो चैन नहीं पड़ती। तो फिर गुजराती और मराठी लड़ते हैं। फिर हिंदू और मुसलमान लड़ते हैं। फिर कोई न कोई रास्ता खोजते हैं लोग। शिया-सुन्नी लड़ते हैं। ब्राह्मण-हरिजन लड़ते हैं।
लोग सोचते थे कि हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंट जाएंगे तो फिर यहां कोई झगड़ा नहीं होगा। झगड़े बढ़ गए! कम नहीं हुए। क्योंकि तब हिंदू-मुसलमान लड़ लेते थे, अब हिंदू-मुसलमान लड़ने का ज्यादा उपाय नहीं रहा--मुसलमान उधर हो गए, हिंदू इधर हो गए--तो हिंदू आपस में लड़ते हैं। उधर मुसलमान लड़ रहे हैं। यह मत सोचना कि वे नहीं लड़ रहे हैं। वहां भी वही है!
तुमने देखा, तुम्हारे परिवार में और पड़ोसी के परिवार में झगड़ा हो जाए तो तुम्हारे घर के आपसी झगड़े समाप्त हो जाते हैं, क्योंकि अब बड़ा झगड़ा सामने आ गया, अब ये छोटे-मोटे झगड़े भूलने पड़ते हैं। जब पड़ोसी से झगड़ा समाप्त हो गया--बाप बेटे से लड़ रहा है, पत्नी पति से लड़ रही है, भाई भाई से लड़ रहा है--छोटे-छोटे झगड़े शुरू हुए।
बिना झगड़े के आदमी रह नहीं सकता क्या? क्या झगड़ा अनिवार्य है? यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए, बार-बार पूछा जाना चाहिए।
झगड़ा कतई अनिवार्य नहीं है। लेकिन प्रेम को मौका नहीं दिया गया। प्रेम की जो अनंत ऊर्जा है, उस ऊर्जा को जब तक मौका न मिले, वही ऊर्जा विध्वंस बन जाती है। या तो सृजन, या विध्वंस। ठीक मार्ग मिले तो सृजनात्मक हो जाती है। तब गीत पैदा होते हैं, तब नृत्य जगता है, तब संगीत पैदा होता है। जब तुम प्रेम से भरे होते हो, तो तुम्हारे हाथ वीणा को छूना चाहते हैं। या नहीं? जब तुम प्रेम से भरे होते हो, तो तुम अपनी बगिया में गुलाब उगाना चाहते हो। या नहीं? जब तुम प्रेम से भरे होते हो, तो गीतों में तुम्हें रस आता, नृत्य में तुम्हें अर्थ मालूम होता है।
जब तुम प्रेम से बिलकुल खाली हो जाते हो, मौका ही नहीं प्रेम का, घृणा ही घृणा हो जाती है, तब तुम तलवारों पर धार धरने लगते हो, तब तुम बंदूकें साफ करने लगते हो, तब तुम प्रतीक्षा करने लगते हो कि कहीं कुछ मौका मिल जाए तो कूद पडूं और जूझ जाऊं; मर लूं या मार लूं। जिंदगी इतनी व्यर्थ मालूम हो रही है कि मौत ही सार्थक मालूम होती है।
तो यह प्रश्न तुम्हारा ही नहीं है, यह प्रश्न सभी का है। ऐसी दशा है। इस दशा से बाहर आने के लिए तुम्हें चेष्टा करनी होगी। और समाज तुम्हें साथ नहीं देगा। तुम्हें अपने ही बल से धीरे-धीरे बाहर आना होगा। तुम अपने जीवन को प्रेमपूर्ण बनाओ। तुमसे जितना प्रेम बन सके, दो। और जितना प्रेम ले सको, लो। सब दिशाओं से प्रेमपूर्ण बनाओ--भाई को प्रेम करो, बहन को करो, पत्नी को करो, मां को करो, पड़ोसियों को करो, मित्रों को करो, प्रेम की एक बाढ़ बन जाओ। छोटी सी जिंदगी है, इस छोटी सी जिंदगी में प्रेम का दीया जलाओ। और तुम अपूर्व आनंद अनुभव करोगे। और तुम पाओगे कि वही लपट जो यहां प्रेम कहलाती है, जब और जरा ऊपर उठती है, देहों के पार जाती है, पदार्थ के ऊपर उठती है, तो भक्ति बन जाती है। भक्ति प्रीति की ही अंतिम छलांग है। लेकिन प्रीति ही सिकुड़ी-सिकुड़ी पड़ी है, तो भक्ति कैसे होगी? भक्ति तो प्रेम की ही अंतिम उड़ान है। और पक्षी घोंसला ही नहीं छोड़ रहा है, अंतिम उड़ान क्या खाक भरेगा!
शांडिल्य के सूत्र इसीलिए महत्वपूर्ण हैं। शांडिल्य कहते हैं: प्रीति जीवन का असली तत्व है। जिससे अस्तित्व बना है, वह तत्व है प्रीति। उस प्रीति के चार रूप हैं।
अपने से छोटों के प्रति हो तो स्नेह।
अपने समान के प्रति हो तो प्रेम।
अपने से बड़ों के प्रति हो तो श्रद्धा।
और समस्त के प्रति हो, सर्वात्मा के प्रति हो तो भक्ति।
एक ही प्रीति के ये चार अलग-अलग रूप हैं। कहो चार सीढ़ियां हैं। लेकिन तीन सीढ़ियां पार करनी होंगी तभी तुम चौथी में उठ सकोगे।
‘मैं अपना प्रेम कभी प्रकट नहीं कर पाया।’
जाने दो जो नहीं हुआ कल, आज तो करो। अब कल के लिए बैठे-बैठे क्या रोना! कल तो गया, अब दुबारा लौटेगा भी नहीं, अब कल के लिए बैठे-बैठे क्या समय खराब करना! आज तो हाथ में है न, आज कुछ करो। आज नाचो, आज गाओ। आज हृदय से मिलो।
कहते हैं: ‘मैं अपना प्रेम कभी प्रकट नहीं कर पाया। साधारण लौकिक प्रेम ही नहीं, आपके प्रति भी जो प्रेम है वह भी छिपाए बैठा हूं।’
उसे तो छिपाने की कोई भी जरूरत नहीं है। क्योंकि यहां तो मैं एक ही बात सिखा रहा हूं, अगर कुछ सिखा रहा हूं तो--प्रेम को अभिव्यक्ति दो। क्योंकि प्रेम की अभिव्यक्ति में ही तुम्हारी आत्मा का विकास है। निःसंकोच अपने प्रेम को प्रकट होने दो। तुम्हारे प्रेम की अभिव्यक्ति में ही तुम पाओगे कि तुम्हारा असली जीवन शुरू हुआ। जागरण उसी से आता है। नहीं तो तुम सोए-सोए जी रहे हो।
‘न मालूम कौन सा भय है मुझे, जिसने मुझे पंगु बना रखा है।’
संस्कार का भय है। सदा सिखाया गया है प्रेम के संबंध में, सावधान! प्रेम खतरनाक है! प्रेम में जाना ही मत! प्रेम पागलपन है! यह सिखाया गया है, इसलिए तुम रुके हुए हो।
मैं तुमसे कहता हूं, प्रेम पागलपन सही तो पागलपन सही, लेकिन प्रेमरहित होकर बुद्धिमान होने से प्रेमपूर्ण होकर बुद्धिहीन होना बेहतर है। क्योंकि जो प्रेम में पड़ता है वह कभी न कभी परमात्मा तक पहुंच ही जाता है। प्रेम यानी नाव को छोड़ दिया, पाल खोल दिए।
ठीक ही कहते हैं लोग, कहते हैं कि प्रेम पागलपन है। है ही पागलपन। क्योंकि तर्क उसका साथ नहीं देता। गणित में आता नहीं, हिसाब-किताब में बैठता नहीं, फायदा क्या है? गणित पूछता है: फायदा क्या है? क्या मिलेगा प्रेम करने से? और झंझट ही होगी, काम में बाधा पड़ेगी। अभी तो चुनाव आ रहा है, चुनाव लड़ो, प्रेम में कहां पड़ते हो? अब जिसको चुनाव लड़ना है, वह प्रेम कर भी नहीं सकता। जो प्रेम करेगा, वह चुनाव में लड़ने की ऊर्जा नहीं पाएगा। चुनाव में लड़ने के लिए वही युद्ध की दशा चाहिए। अभी तो धन कमाना है, अभी प्रेम में मत पड़ो। अगर प्रेम में पड़ गए, तो धन न कमा पाओगे।
तुमने देखा, प्रेमी अक्सर धनी नहीं हो पाते। हो ही नहीं सकते। क्योंकि धन इकट्ठा करने के लिए बड़े अप्रेम की क्षमता चाहिए। धन इकट्ठा ही अप्रेमी करते हैं। अगर पद पर पहुंचना हो, प्रधानमंत्री बनना हो या राष्ट्रपति बनना हो, तो प्रेम मत करना। क्योंकि प्रेम किया तो कौन फिकर करता है प्रधानमंत्री बनने की? किसलिए? प्रेम करते ही तुम बादशाह हो गए। तुम्हारी छोटी सी जिंदगी में सुवास आ गई। अब कौन फिकर करता है दिल्ली जाने की? प्रेम न हो जीवन में तो आदमी दिल्ली जाने की कोशिश करता है। प्रेम न हो तो आदमी इस कोशिश में रहता है कि लोगों का ध्यान तो मेरी तरफ आकर्षित हो। प्रेम की कमी ध्यान से पूरी करवा लेना चाहता है--दूसरों का ध्यान आकर्षित हो जाए।
जब कोई तुम्हें प्रेम से भर कर देखता है--एक व्यक्ति भी अगर तुम्हें प्रेम से भर कर देख लेता है, प्राण तृप्त हो जाते हैं। जब यह तृप्ति नहीं होती, तब तुम चाहते हो कि मंच पर खड़ा हो जाऊं, हजारों लोगों की भीड़, लोग ताली बजाएं, फूलमालाएं फेंकें। ये उसी प्रेम की जो दो आंख तुम्हें नहीं मिल पाईं, उसी की पूर्ति तुम कर रहे हो। और करोड़ लोग भी तुम्हारे ऊपर फूल फेंकें तो भी पूर्ति नहीं होती। क्योंकि वे फूल फेंकने वाले प्रेम के कारण फूल नहीं फेंक रहे हैं, वे तुम पर फूल फेंक ही नहीं रहे हैं, वे सिर्फ तुम्हारे पद और प्रतिष्ठा के लिए फूल फेंक रहे हैं, वे भय के कारण फूल फेंक रहे हैं। यही लोग कल तुम पर जूते फेंकेंगे, जरा पद से नीचे उतरो।
एक महिला के संबंध में मुझे पता है, इंदिरा पर किताब लिख रही थी, उनकी प्रशंसा में किताब लिख रही थी। फिर सब पासा पलट गया। तो अब उसने किताब भी बदल दी। अब उसने किताब लिखी है इंदिरा के खिलाफ। शुरू की थी पक्ष में, किताब करीब-करीब पूरी होने को आ गई थी, बस आखिरी हिस्सा पूरा करना था, लेकिन तभी तक मामला बदल गया। किताब का नाम है--टू फेसेज ऑफ इंदिरा गांधी। तब मैं बड़ा हैरान हुआ। ये दो चेहरे इंदिरा गांधी के, कि दो चेहरे लेखिका के? ये दो चेहरे लेखिका के हैं। जो फूलमालाएं पहना रहे थे, वे ही गालियां दे रहे हैं। बदला ले रहे हैं अब।
खयाल रखना, अगर राजनीति में जाना हो तो प्रेम में पड़ना मत। अगर धन कमाना हो तो प्रेम में पड़ना मत। अगर इतिहास में नाम छोड़ना हो तो प्रेम करना मत। क्योंकि प्रेम करने वालों को जरा भी फिक्र नहीं होती कि इतिहास में नाम हो कि न हो। और जरा भी फिक्र नहीं होती कि पद मिले या न मिले, धन कमाया जाए या न कमाया जाए। प्रेम इतनी परितृप्ति देता है कि सब मिल गया--पद भी, धन भी, यश भी। प्रेम चूक जाए तो ये सब चीजों की दौड़ पैदा होती है।
इसलिए समाज चाहता है कि तुम्हारा प्रेम चूक जाए। तुम प्रेम में पड़े तो सब गड़बड़ हो जाती है। तुम्हारे पिता चाहते हैं कि धन कमाओ, और तुम पड़ गए प्रेम में; गए काम से! पिता सिर ठोंक लेते हैं कि बस खराब हो गई बात। अब क्या कमाएगा यह! पिता चाहते हैं कि बेटा प्रधानमंत्री हो जाए, तुम प्रेम में पड़ गए। पिता निराश हो जाते हैं कि अब यह क्या प्रधानमंत्री होगा! प्रधानमंत्री होना हो तो ब्रह्मचर्य की कसम ले लो। मोरारजी भाई से पूछो! तब तुम्हारी सारी ऊर्जा कुंठित होती है भीतर, लड़ने-झगड़ने की वृत्ति पैदा होती है। कहीं भी जूझ जाओ, किसी से भी भिड़ जाओ, वही भाव रहता है। फिर तुम जिस दिशा में भी सिर डाल दोगे, उसी दिशा में पहुंच जाओगे; धक्के-मुक्के करते, किसी न किसी दिन, जो तुम्हारी मंशा है, पूरी हो सकती है। महत्वाकांक्षा सिखाता है समाज, और महत्वाकांक्षा अप्रेमी हृदय में ही हो सकती है।
इस कारण तुम्हारे मन में एक तरह की पंगुता है। समझो और उस पंगुता को तोड़ दो। उस पंगुता को तोड़ना कठिन नहीं है, समझने भर की जरूरत है। समझ आते ही तोड़ी जा सकती है। और अगर तुम इस जगत के लोगों को प्रेम कर सको, तो वही प्रेम का आनंद तुम्हें प्रार्थना सिखाएगा। उसी प्रेम के आनंद से तुम एक दिन परमात्मा की तलाश में निकलोगे। तुम सोचोगे कि जब साधारण लोगों को प्रेम करने से इतना आनंद मिला, तो उस परम प्यारे की खोज से कितना आनंद न मिलेगा!
आखिरी प्रश्न:
अब हम करें क्या?
अथातो भक्ति जिज्ञासा! अब भक्ति की जिज्ञासा करो! अब प्रेम की खोज करो! अब अपने झूठे चेहरों को हटाओ, मुखौटे तोड़ो! अब अपने असली प्राण की ज्योति को प्रज्वलित होने दो।
ऊपर से छूने पर तो मखमल हैं चेहरे,
अंदर से कुंठाओं के मरुथल हैं चेहरे,
दर्पण में खुद को पहचान नहीं पाते हैं,
आत्म-अपरिचय के ऐसे जंगल हैं चेहरे,
सदा झनकते रहे दूसरों के पांवों में,
औरों के पग बंधी हुई पायल हैं चेहरे,
पांव रखो तो धंसते हुए चले जाते हैं,
रिश्तों की मीलों लंबी दलदल हैं चेहरे
भटक रहे हैं सपनों के रेगिस्तानों में,
बेचारे, प्यासे मृग से पागल हैं चेहरे
अब चेहरे छोड़ो, मुखौटे छोड़ो। अब ढोंग मिटाओ, अब पाखंड गिराओ, अब आवरणों से मुक्त हो जाओ! अब उसकी तलाश करो जो तुम हो, वस्तुतः तुम हो। जो जन्म के पहले तुम थे और जो मृत्यु के बाद तुम फिर हो जाओगे। अहंकार छोड़ो, तभी भक्ति की जिज्ञासा हो सकेगी। क्योंकि जो स्वयं को खोता है, वही परमात्मा को पाता है।
खयाल, सांस, नजर, सोच, खोल कर दे दो
लबों से बोल उतारो, जुबां से आवाजें
हथेलियों से लकीरें उतार कर दे दो
हां दे दो अपनी खुशी भी कि खुद नहीं हो तुम
उतारो रूह से यह जिस्म का हसीं गहना
उठो दुआ से तो आमीन कहके रूह भी दे दो
तुम पूछते हो: ‘अब हम क्या करें?’
अब अपने को दो। अब तक अपने को बचाया। यही तो प्रेम का राज है--देना। अब तक बचाया। बचाया कि सड़ गए, दो कि खिल जाओगे।
जीसस ने कहा है: जो देगा, वह पाएगा; और जो बचाएगा, वह नष्ट हो जाएगा।
प्रेम की कीमिया यही है। अब अपने को समर्पित करो। उतारो ये ढोंग जो तुमने ओढ़ रखे हैं--हिंदू का, मुसलमान का, ईसाई का; आस्तिक का, नास्तिक का; सिद्धांतों का, शास्त्रों का; उतारो ये सब चेहरे। ये सब खोलें अलग करो। अब अपने नग्न अस्तित्व को पहचानो कि मैं कौन हूं।
और तुम चकित होओगे, जैसे-जैसे भीतर जाओगे, तुम एक ही आवाज पाओगे कि मैं प्रेम हूं। इसीलिए तो प्रेम की इतनी प्रबल आकांक्षा है, इतनी अभीप्सा है। प्रेम ही तुम्हारा अस्तित्व का मूल स्वर है। तुम प्रेम से ही बने हो, तुम प्रेम के ही संघट हो।
नई-नई किरन
नई धरा, नया गगन
केंचुली उतारो रे! केंचुली उतारो!
पोखर की माटी से सिंहासन
जब तक बन जाए नहीं, हीरामन!
जोर से पुकारो रे! केंचुली उतारो!
रेखाएं खींच मत इकाई की
सुबह-शाम पाट उमर खाई की
कालिमा बुहारो रे! केंचुली उतारो!
धरती का गीत है पसीने में
मुट्ठी भर धूल है नगीने में
भूमि के सितारो रे! केंचुली उतारो!
सब केंचुलियां उतार दो। जैसे सांप अपनी पुरानी केंचुली को छोड़ कर निकल जाता है, ऐसे तुम अपने तथाकथित व्यक्तित्व को छोड़ कर निकल जाओ।
तुम पूछते हो: ‘अब हम क्या करें?’
अथातो भक्ति जिज्ञासा!
आज इतना ही।