SHANDILYA
ATHATO BHAKTI JIGYASA 19
Nineteenth Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
सूत्र
तद्वाक्यशेषात् प्रादुर्भावेष्वपि सा।। 46।।
जन्मकर्म्मविदश्चाजन्मशब्दात्।। 47।।
तच्च दिव्यं स्वशक्तिमात्रोद्भवात्।। 48।।
मुख्यं तस्य हि कारुण्यम्।। 49।।
प्राणित्वान्न विभूतिषु।। 50।।
युक्तौ च सम्परायात्।
प्रकृति और पुरुष दो नहीं हैं। आत्मा और परमात्मा दो नहीं हैं। दृश्य और द्रष्टा दो नहीं हैं। भक्ति की यह आधारशिला है कि एक होने का उपाय है। एक होने का उपाय तभी हो सकता है, जब वस्तुतः हम एक हों ही। यथार्थ से अन्यथा नहीं हो सकता। भक्त भगवान से मिल सकता है तभी, जब मिला ही हुआ हो। जब पूर्व से ही मिला हो, जब प्रथम से ही विरह न हुआ हो, बिछुड़न न हुई हो।
यह थोड़ी जटिल बात है, इसे खयाल में लेना।
आम का बीज बोते हैं, आम पैदा होता है। आम इसलिए पैदा होता है कि आम छिपा था, आम था ही। नहीं तो कंकड़ बोते तो आम पैदा हो जाता। जो छिपा है, वह प्रकट होता है। इस जगत में वही मिलता है जो मिला ही हुआ है। भेद इतना ही पड़ता है कि छिपा था, अब प्रकट हुआ। तुम भगवान हो, लेकिन अभी बीज की नाईं; जब वृक्ष की नाईं होओगे, तब जानोगे, तब पहचानोगे।
शांडिल्य कहते हैं: दोनों प्रथम से ही एक हैं।
युक्तौ च सम्परायात्।
कभी अलग हुए नहीं। अलग होना भ्रांति है। अलग होना हमारे मन का भ्रम है। और यह भ्रम हमने इसलिए पैदा किया है कि इसी अलग होने के भ्रम के आधार पर अहंकार पाला-पोसा जा सकता है। यदि तुम परमात्मा हो तो तुम रहे ही नहीं, परमात्मा रहा। बूंद डरती है सागर होने से। बूंद सागर हो जाएगी तो बूंद नहीं रह जाएगी, सागर ही रहेगा। विराट के साथ मिलने में भय लगता है। आकाश के साथ जुड़ना दुस्साहस की बात है।
इसलिए भक्त को दुस्साहसी होना ही होगा। बूंद अपने को खोने चली है। छोटी सी बूंद इतने विराट सागर में! फिर न पता लगेगा, न ओर-छोर मिलेगा; फिर अपने से शायद कभी मिलना भी न हो। इतनी खोने की जिसकी हिम्मत है, वही भक्त हो सकता है। और जो भक्त हो सकता है, वही भगवान हो सकता है। भक्त होने का अर्थ है: बीज ने अपने को तोड़ने का निर्णय लिया। तुम जमीन में बीज को बोते हो; जब तक बीज टूटे नहीं, वृक्ष नहीं होता; जब तक बीज मिटे नहीं, तब तक अंकुरण नहीं होता; बीज की मृत्यु ही वृक्ष का जन्म है। तुम्हारी मृत्यु ही भगवान का आविर्भाव है। भक्त जहां मरता है, वहीं भगवत्ता उपलब्ध होती है। इसीलिए तो लोगों ने झूठी भक्ति की व्यवस्थाएं खोज रखी हैं, ताकि अपने को मिटने से बचा सकें। मंदिर जाते हैं, प्रार्थना करते हैं, पूजा करते हैं, यज्ञ-हवन करते हैं, अपने को बचाए रखते हैं। आग में घी डालते हैं, अपने को नहीं डालते। आग में गेहूं डालते हैं, अपने को नहीं डालते। वृक्षों से तोड़ कर फूल परमात्मा के चरणों में चढ़ा आते हैं, अपने को नहीं चढ़ाते। और जिसने अपने को नहीं चढ़ाया, उसने पूजा जानी ही नहीं; वह बीज टूटा ही नहीं, अंकुरण से उसकी कोई मुलाकात ही न हुई।
बिना मिटे इस जगत में होने का कोई उपाय नहीं। छोटे तल पर मिटो तो बड़े तल पर प्रकट होते हो। जितने ज्यादा मिटो, उतने प्रकट होते हो। जब परिपूर्ण रूप से मिटते हो, तब भगवत्ता उपलब्ध होती है, क्योंकि भगवत्ता पूर्णता है, उसके पार फिर कुछ और नहीं।
लेकिन यह हो सकता है इसीलिए, क्योंकि यह हुआ ही हुआ है। इस उदघोषणा को जगह दो अपने हृदय में। तुम भगवान हो सकते हो, क्योंकि तुम भगवान हो। भगवान ने तुम्हें एक क्षण को नहीं छोड़ा है, तुम भला पीठ करके खड़े हो गए हो। तुमने भला आंखें बंद कर ली हैं। सूरज निकला है और चारों तरफ जगत रोशन है। तुम अंधेरे में खड़े हो, यह तुम्हारा निर्णय है। अंधेरा है नहीं, अंधेरा बनाया हुआ है, कृत्रिम है। इस कृत्रिम बनाए हुए अंधेरे का नाम माया है, जो आदमी खुद बना लेता है।
तुमने एक आश्चर्य से भरने वाली बात देखी कि लोग दुख को बड़ी मुश्किल से छोड़ते हैं! बात एकदम से कहो तो बेबूझ लगती है। मनस्विदों से पूछो। सिग्मंड फ्रायड से पूछो। सिग्मंड फ्रायड खुद भी तीस वर्षों तक इस पहेली से परेशान रहा। सैकड़ों लोगों का मनोविश्लेषण करने के बाद एक बात बार-बार उभर कर सामने आई कि लोग दुख को छोड़ने को राजी नहीं हैं। कहते हैं, मानते भी हैं शायद कि हम दुख छोड़ना चाहते हैं, लेकिन छोड़ने को राजी नहीं हैं। फ्रायड बड़ा किंकर्तव्यविमूढ़ था। क्योंकि हम तो सदा से यही सुनते रहे हैं कि आदमी सुख चाहता है। यह बात तो इतनी प्रचारित की गई है कि हमने मान लिया है कि आदमी सुखवादी है, सभी सुख चाहते हैं। लेकिन जरा आदमी को गौर से देखो। आदमी दुख को पकड़ता है, दुख को छोड़ता नहीं। आदमी दुखवादी है।
तीस साल के मनोविश्लेषण का परिणाम था कि फ्रायड ने एक नये सत्य का आविर्भाव किया, जो कि फ्रायड के पहले किसी दूसरे मनुष्य ने इस तरह से स्पष्ट रूप से घोषित नहीं किया था। उसने स्वदुखवाद की धारणा को पकड़ा--मैसोचिज्म। आदमी अपने को सताता है। जिसको तुम तपश्चर्या कहते हो, वह अक्सर मैसोचिज्म होता है। गर्मी है, धूप पड़ रही है आग जैसी, और कोई धूनी रमाए बैठा है। तुम कहते हो--महात्यागी। जो जानते हैं, उनसे पूछो। यह महात्यागी नहीं है। यह महादुखवादी है। सर्दी पड़ रही है, पानी जम कर बर्फ हुआ जा रहा है, और कोई नग्न खड़ा है आकाश के नीचे। तुम कहते हो तपस्वी। यह तपस्वी नहीं है, यह रुग्णचित्त है। यह दुख को पकड़ रहा है। यह अपनी छाती में घाव कर रहा है। यह सुख से नहीं जीना चाहता। इसने दुख के उपाय कर रखे हैं।
तुम अपने ही भीतर देखोगे तो तुम हैरान होओगे, तुम जानते हो भलीभांति कि दुख के उपाय हैं। जैसे क्रोध सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं लाता, लेकिन तुम छोड़ते क्यों नहीं? अहंकार सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं लाता, फिर तुम छोड़ते क्यों नहीं? तो तुम्हारी जो सदियों से दोहराई गई बकवास है कि आदमी सुखवादी है, उस पर शक पैदा होता है। तुम जानते हो कि इस जगत में जो जितनी वासना से चलता है, उतने ही विषाद से भरता है। तुम भी वासना के रास्ते पर चले हो और कांटों के सिवाय कभी कुछ मिला नहीं। फूल खिले कब? हर बार हारे हो। जीत की आकांक्षा ने बहुत बुरी तरह हराया है। लेकिन जीत की आकांक्षा नहीं छोड़ते। उसे जोर से पकड़े हुए हो। जरूर उसमें कुछ न्यस्त स्वार्थ है।
क्या न्यस्त स्वार्थ है?
एक ही न्यस्त स्वार्थ दिखाई पड़ता है कि जब तुम दुख में होते हो, तब तुम होते हो। और जब तुम सुख में होते हो, तब तुम नहीं होते। और यही भय है। सुख से लोग भयाक्रांत हैं। कोई सुखी नहीं होना चाहता। क्योंकि सुख के लिए एक कीमत चुकानी पड़ती है, वह है मैं का टूट जाना। दुख में मैं साबित रहता है। साबित ही नहीं रहता, बड़ा बलिष्ठ और स्वस्थ रहता है। दुख पोषण है मैं के लिए, अहंकार के लिए, अस्मिता के लिए। इसीलिए तो तुम अपने दुख को बढ़ा-चढ़ा कर कहते हो। जांचना अपने को ही। जब तुम अपने दुख की बात करते हो, तो तुम कितना बढ़ा-चढ़ा कर कह रहे हो।
इधर मैं देखता हूं रोज, ऐसा आदमी कभी मुझे दिखाई नहीं पड़ता जो अपने दुख पर शक करता हो, जो कभी मुझसे आकर कहे कि मैं बहुत दुखी हूं, मैं बहुत परेशान हूं, कहीं यह दुख मेरे मन की कल्पना ही तो नहीं है? नहीं, एक आदमी नहीं कहता। लेकिन जब यहां लोग ध्यान में धीरे-धीरे उतरना शुरू करते हैं और सुख की थोड़ी झलकें आती हैं, सुख के थोड़े झोंके आते हैं, कुछ भीतर की कारा टूटती है, कुछ झरोखे खुलते हैं, थोड़ी रोशनी भीतर पड़ती है, कहीं-कहीं कोने में कोई फूल खिलता है और सुगंध से प्राण व्याप्त होते हैं, भागे मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि बड़ा सुख हो रहा है, यह कहीं मन की कल्पना तो नहीं है? यह वही आदमी, जो जन्मों से दुखी था, कभी शक न उठाया दुख पर, सुख पर शक उठाता है।
अगर तुम दुखी हो तो कोई तुमसे नहीं कहेगा कि कुछ गड़बड़ है। अगर तुम सुखी हो, लोग कहेंगे कि तुम आत्म-सम्मोहित हो गए, आटो-हिप्नोटाइज्ड हो गए। अगर तुम हंसो, नाचो सड़क पर, तो लोग कहेंगे--पागल हो गए हो। अगर तुम मुर्दे की तरह चलो, लाश की तरह अपने को ढोओ, लोग कहेंगे--बिलकुल स्वस्थ-सामान्य आदमी है।
मुस्कुराहट स्वीकार नहीं है। इसीलिए तो लोग इतने उदास दिखाई पड़ते हैं, इतने थके-हारे दिखाई पड़ते हैं, इतना बोझ ढोते दिखाई पड़ते हैं। पहाड़ उनकी छाती पर रखे हैं, उनके सिर पर इतना सदियों का बोझ है कि चल भी नहीं सकते, लेकिन घसिट रहे हैं। बोझ को उतार कर भी नहीं रखते, क्योंकि बोझ को उतार कर रखो तो तुम्हें खुद भी शक होता है कि मैं बचा? क्योंकि तुम्हारा बोझ ही तुम हो। और तुम बोझ को उतारो तो दूसरों को शक पैदा होता है, दूसरे कहते हैं--क्या हुआ है तुम्हें? आज बड़े हंस रहे हो, कुछ भांग-गांजा तो नहीं पीने लगे? आज बड़े प्रसन्न मालूम पड़ते हो, किसी धोखे में तो नहीं आ गए? और यही नहीं कि दूसरों को शक होता है, तुम्हें भी भीतर शक होता है कि यह आज मेरे भीतर ताजगी-ताजगी, बात क्या है? कुछ गड़बड़ हुई जाती है, जैसा होना चाहिए वैसा नहीं हो रहा है। एक दिन सुबह उठ कर अगर तुम अचानक अपने को समाधिस्थ पाओ, विश्वास करोगे?
यहां कभी-कभी ऐसा हो जाता है। कभी-कभी आकस्मिक, समाधि की एक बाढ़ आ जाती है किसी को। रोआं-रोआं कंप जाता है भय से, क्योंकि उस समाधि की बाढ़ में अगर कोई चीज बह जाती है तो वह तुम हो। तुम खड़े नहीं रह सकते उस सुख के अंधड़ में। उस आंधी में तुम नहीं बचोगे। जड़-मूल उखाड़ कर ले जाएगी। इसलिए आदमी ने निर्णय कर लिया है कि दुख में रहूंगा, लेकिन कम से कम रहूंगा; मैं मिटना नहीं चाहता; अगर दुख की कीमत पर ही बच सकता हूं तो इसी कीमत पर सही, लेकिन मैं मिटना नहीं चाहता। और इसलिए तुम उन्हीं बातों को रोज-रोज करते हो जिनसे दुख पैदा होता है। यह बात तुम्हें दिखाई पड़नी शुरू हो जाए तो शायद क्रांति घटे। सुख पर भरोसा करो, दुख पर संदेह करो। यह कैसी बुद्धिमत्ता है कि तुम सुख पर संदेह करते हो और दुख पर भरोसा करते हो?
अब यह बड़े मजे की बात है। तुम महात्माओं के पास जाओ। तुम्हारे महात्मा तुमसे बहुत ज्यादा भिन्न नहीं हैं। तुम्हारी ही आकांक्षाओं, तुम्हारी ही मूढ़ताओं, तुम्हारी ही धारणाओं के प्रतिफलन हैं। तुम अपने महात्मा के पास जाओ, वे तुमसे कहेंगे, संसार में दुख ही दुख है। अगर तुम उनसे कहो संसार में सुख है, वे कहते हैं--सुख सब भ्रम है। और दुख? दुख बिलकुल सच।
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि महात्मा कहे चले जाते हैं कि संसार में सुख तो सब धोखा है, दुख बिलकुल सच्चा है! दुख को इशारा कर-कर के बताते हैं--यहां दुख, यहां दुख, यहां दुख। तुम अपने शास्त्र पढ़ो! वे शास्त्र कहते हैं कि स्त्री में है क्या? कौन सा सुख? कौन सा सौंदर्य?
अब जरा उनका तर्क समझना।
स्त्री में कोई सौंदर्य नहीं है, ऐसा वे कहते हैं; क्योंकि उसको उघाड़ कर देखो, उसको भीतर देखो, मलमूत्र भरा हुआ है। मलमूत्र सत्य है, सौंदर्य असत्य है!
अगर सौंदर्य असत्य है, तो उसी के साथ कुरूपता भी असत्य हो गई, क्योंकि कुरूपता फिर सत्य नहीं हो सकती। जब सौंदर्य ही नहीं है जगत में, तो कुरूपता कैसे हो सकती है? लेकिन कुरूपता तो बिलकुल सच है, उसे तो खोद-खोद कर जाहिर करने में रस लेते हैं, इस तरह के वर्णन करते हैं कि तुम्हें मतली आने लगे। मतली सच है, वह जो कै उठने लगे तुम्हारे भीतर, वह सच है; लेकिन वह जो किन्हीं आंखों में तुम्हें सौंदर्य की झलक मिली, वह झूठ है। जगत में मृत्यु सत्य है, जीवन झूठ है। स्वास्थ्य झूठ है, बीमारी सच है। तुम्हारा महात्मा रस लेता है दुखों की फेहरिस्त बनाने में। बड़ा कुशल है। जैसे तुम सुबह लांड्री की लिस्ट बनाते हो, वह रोज सुबह उठ कर दुखों की लिस्ट बनाता है। वह फेहरिस्त को बड़ी करता चला जाता है। मामला क्या है? क्यों दुख में इतनी उत्सुकता है?
तुम्हारा महात्मा भी दुख पर जीता है, तुम भी दुख पर जीते हो। तुम्हारा महात्मा तुमसे थोड़ा आगे चला गया है, इसलिए तुम उसे महात्मा कहते हो। वह तुमसे ज्यादा दुखवादी है, तुमसे ज्यादा मैसोचिस्ट है। फ्रायड को कोई महात्मा अध्ययन करने को नहीं मिला, मुझे महात्मा अध्ययन करने को मिले। फ्रायड ने तो केवल साधारण आदमियों के अध्ययन पर यह कहा कि आदमी दुखवादी है, मैं सैकड़ों महात्माओं को देख कर तुमसे यह कहता हूं कि आदमी तो कुछ भी नहीं है, अगर असली दुखवादी देखना है तो महात्मा! तुम उनकी पूजा भी इसलिए करते हो, क्योंकि तुम्हारा तर्क और उनका तर्क मेल खाता है, तुम्हारे गणित समान हैं। तुम जरा छोटा-मोटा धंधा कर रहे हो, वे बड़े व्यापारी हैं। तुम फुटकर काम करते हो, वे थोक करते हैं। तुम्हारी छोटी परचून की दुकान है, उनका बड़ा विस्तार है, बड़ी फैक्टरी है। तुम छोटे दुख पैदा करते हो, वे बड़े दुख पैदा करते हैं। मात्रा का भेद है, गुण का भेद नहीं है।
इस जगत में अगर तुम दुख ही तलाश करने निकलोगे, तो निश्चित दुख पाओगे। जो आदमी कांटे ही खोजने निकला है, वह कांटे ही खोज लेगा। जगत में कांटे नहीं हैं, ऐसा मैं नहीं कह रहा; कांटे हैं। मगर फूल भी हैं। तुम पर चुनाव है। जो कांटे ही कांटे चुनेगा, धीरे-धीरे उसे फूल दिखाई पड़ने बंद हो जाते हैं। हो ही जाएंगे। उसकी आंखें कांटों के साथ संगति बिठा लेती हैं। तुम जो देखते हो, देखते हो, देखते रहते हो, फिर धीरे-धीरे वही देख पाते हो। जो फूलों से संबंध बनाता है, फूलों से मैत्री बनाता है, उसे धीरे-धीरे कांटों में भी फूल दिखाई पड़ने लगते हैं।
भक्ति दुखवाद नहीं है। भक्ति महासुखवाद है। इसलिए भक्त में और तुम्हारे त्यागी में फर्क को खयाल रखना। भक्त जीवन में रस लेता है, भक्त जीवन में मग्न है। हालांकि खाने-पीने के रस पर ही नहीं रुक जाता, क्योंकि जीवन में और बड़े रस हैं। मगर जिसने खाने-पीने का रस भी न लिया, वह और बड़े रस कैसे लेगा? भक्त आगे बढ़ता है। धीरे-धीरे संसार को पीते, संसार को अनुभव करते, उसे परमात्मा का स्वाद भी आने लगता है।
इसलिए शांडिल्य कहते हैं: ‘युक्तौ च सम्परायात्।’
यह संसार परमात्मा से पृथक नहीं है, युक्त है, एक है, दोनों जुड़े हैं, मिलन कभी टूटा नहीं है, आलिंगन कभी टूटा नहीं है, आलिंगन में खड़े हैं। जैसे दो प्रेमी आलिंगन में खड़े हों, ऐसे ये प्रकृति और पुरुष आलिंगन में हैं। तुम सुख को खोजोगे तो सुख के परमस्रोत परमात्मा को खोज लोगे। सुख को खोजोगे तो स्वर्ग खोज लोगे।
मगर मजा है कि तुम सुख के नाम पर भी दुख खोजते हो, कहते हो कि सुख खोज रहे हैं। एक आदमी कहता है--मैं सुख ही तो खोज रहा हूं, इसीलिए तो धन इकट्ठा कर रहा हूं। धन इकट्ठा करने से क्या सुख का संबंध हो सकता है? मैं यह नहीं कह रहा हूं कि धनी आदमी को अनिवार्य रूप से दुखी होना चाहिए। हालांकि धनी आदमी अनिवार्य रूप से दुखी होता है। तुम जितना दुखी धनी को पाओगे, उतना गरीब को नहीं पाओगे। आज अमरीका की मुसीबत क्या है? यही कि धन है। तुम जो खोज रहे हो, वह अमरीका ने पा लिया, और सब तरफ दुख व्याप्त हो गया है। अमरीका नरक बन गया है। अब कुछ समझ में नहीं आता--अब क्या करें?
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि जो लोग धन खोज रहे थे अमरीका में, सुख खोज रहे थे, सोचते थे, लेकिन मिला तो दुख। तुमने सोचा था कि आम बो रहे हो, बो दी थी नीम। फल सिद्ध करेगा कि क्या बोया था। तुम जरा अमीर आदमियों को देखो, तुम उनकी आंखों में जीवन का आह्लाद पाते हो? और उनके हृदय में प्रेम का गीत उठता है? और उनके पैरों में कोई नृत्य है? अनुग्रह है? परमात्मा के प्रति कोई धन्यवाद है?
नहीं, विषाद है, शिकायत है। बिलकुल हारे-थके खड़े हैं। उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि अब क्या करें? अब तक सोचते थे--धन मिलने से सुख मिलेगा। धन मिल गया और सुख का तो कुछ पता नहीं है, और जीवन हाथ से गया। अब धन का ढेर लगा है और जीवन हाथ से खो गया है--वह जीवन जो दुबारा वापस नहीं मिल सकता, वह समय जिसे लौटाने का कोई उपाय नहीं। यह ठीकरे का ढेर लग गया है। किस कीमत पर?
सिकंदर एक फकीर से मिला और उसने फकीर से पूछा कि मैं संसार को जीतने निकला हूं, मुझे आशीर्वाद दो।
उस फकीर ने कहा, आशीर्वाद दूंगा, उसके पहले एक प्रश्न है! तुम संसार को जीत लिए, मानो; मान लो कि संसार जीत लिए। और एक महा रेगिस्तान में अकेले पड़ गए हो, प्यास लगी है भयंकर, और एक गिलास पानी मिल जाए, इसके लिए तड़प रहे हो; मर जाओगे। और मैं एक गिलास पानी लेकर वहां मौजूद होता हूं। लेकिन ऐसे ही मुफ्त नहीं दे दूंगा एक गिलास पानी। तुम कितना मूल्य चुकाने को राजी होओगे?
सिकंदर ने कहा, जो मांगोगे।
फकीर ने कहा, आधा राज्य।
सिकंदर थोड़ा झिझका--हालांकि अभी देने-लेने की कोई बात नहीं थी, यह केवल कल्पना का सवाल था, लेकिन फिर भी झिझका--आधा राज्य! एक गिलास पानी के लिए! लेकिन फिर पूरी परिस्थिति सोची। भयंकर रेगिस्तान, भरी दोपहरी आग बरसती, कहीं कोई रास्ते का पता नहीं, दूर-दूर तक गांव की कोई खबर नहीं; कब पहुंच पाऊंगा इस रेगिस्तान के बाहर, कोई संभावना नहीं; प्यास से मरा जा रहा है। तो अब आधा राज्य भी अगर देना पड़े एक गिलास पानी के लिए, सिकंदर ने थोड़े संकोच से कहा कि ठीक, अगर ऐसी परिस्थिति होगी और मृत्यु सामने खड़ी होगी, तो फिर आधा राज्य भी दूंगा।
फकीर ने कहा, मैं भी कुछ इतनी जल्दी पानी बेच नहीं दूंगा, पूरा राज्य चाहिए।
सिकंदर ने कहा, बात क्या करते हो? कुछ सीमा होती है किसी बात के मूल्य की! एक गिलास पानी!
पर फकीर ने कहा, परिस्थिति सोच लो, वही एक गिलास पानी तुम्हारा जीवन है, पूरा राज्य दोगे तो ही दे सकूंगा।
सिकंदर ने थोड़ा सोचा और कहा, अच्छा, अगर ऐसी स्थिति होगी तो पूरा राज्य भी दूंगा, क्योंकि जीवन बड़ी चीज है।
फकीर हंसने लगा। उसने कहा, बस, इसको तुम याद रखना, आशीर्वाद क्या मांगते हो! जीवन बड़ी चीज है। तुम जीवन को गंवा दोगे, राज्य पा लोगे--और राज्य की इतनी कीमत है कि जरूरत पड़ जाए तो एक गिलास पानी में बिक जाए। इसका मूल्य कितना है?
तुम धनी आदमी से जरा गौर से पूछो, जांचो। जो पद पर पहुंच गए हैं, उनको जरा परखो, पहचानो। वे सभी यह सोचते थे कि सुख की तलाश में चले हैं; नरक में पहुंच गए हैं। मानने से थोड़े ही कोई स्वर्ग पहुंचता है। तुम्हारी दिशा कहां है? तो दुनिया में जिनको तुम संसारी कहते हो, वे भी दुख ही खोज रहे हैं। सिर्फ अपने को भरमाने के लिए उन्होंने दुख के डिब्बों पर सुख के लेबल लगा रखे हैं। और जिसको तुम धार्मिक कहते हो, वह भी दुख खोज रहा है। उसने अपने दुख के डिब्बों पर पुण्य के लेबल लगा रखे हैं। इतना ही भेद है। लेबल का भेद है। दोनों दुख खोज रहे हैं। इस जगत में अगर कोई आदमी सुख खोजता मिल जाए, तो वही भक्त है।
फिर सुख का क्या मतलब होगा? फिर सुख का एक ही मतलब हो सकता है कि दुख मेरे मैं को पुष्ट करता है; सुख की खोज का एक ही अर्थ हो सकता है कि मैं इस मैं को छोड़ दूं जो दुख पर जीता है, जिसके लिए दुख अनिवार्य है, मैं इस दुख को छोड़ दूं। दुख का त्याग इस जगत में सबसे बड़ा त्याग है।
मैं अपने संन्यासी से वही कहता हूं--दुख का त्याग। तुम्हारे त्यागी कहते हैं--त्याग के नाम पर दुख का वरण। मैं तुमसे कहता हूं--त्याग एक ही है, दुख का त्याग। तुम्हें थोड़ी यह बात अजीब लगेगी, स्वभावतः, क्योंकि दुख तो तुम कहते हो सभी छोड़ना चाहते हैं। मैं तुमसे फिर दोहराता हूं कि कोई नहीं छोड़ना चाहता। दुख को लोग पकड़ते हैं। जहां से दुख आता है, उसी दिशा में दौड़ने लगते हैं।
तुमने कभी देखा, कोई पक्षी कमरे में आ जाता है और फिर बंद खिड़की के कांच से सिर टकराने लगता है। तुम्हें भी कभी लगा होगा कि पक्षी भी कैसे मूढ़ होते हैं! जिस दरवाजे से आया है वह अब भी खुला है, इस बंद खिड़की के कांच से सिर टकराने की जरूरत क्या है? इस पक्षी को इतना होश नहीं है कि जहां से आया हूं वहीं से वापस चला जाऊं? लेकिन पक्षी सिर टकराता है। कभी तो लहूलुहान कर लेता है अपने को, पंख टूट जाते हैं। लेकिन जो खुला दरवाजा है, उस तरफ नहीं जाता, बंद दरवाजे की तरफ दौड़ता है।
सुख का दरवाजा खुला दरवाजा है। परमात्मा ने दरवाजा बंद नहीं किया, उसका मंदिर का दरवाजा खुला है। शायद इसीलिए तुम उस तरफ नहीं जाते। खुले दरवाजे में क्या रस? आदमी बंद दरवाजों में उत्सुक होता है। आदमी के इस मनोविज्ञान को समझना।
अगर किसी चीज को आकर्षक बनाना हो, उसे छिपाओ। इसलिए एक बुर्के में जाती मुसलमान औरत जितनी खूबसूरत होती है, उतनी खूबसूरत दूसरी औरत नहीं होती। बुर्का! राह चलता हर आदमी रुक कर देखना चाहता है कि बुर्के में क्या है?
बर्ट्रेंड रसेल ने लिखा है कि जब वह बच्चा था--विक्टोरिया का जमाना था--तब स्त्री के पैर का अंगूठा भी दिख जाता था तो लोग कामोत्तेजित हो जाते थे। घाघरे पहने जाते थे जो कि जमीन को छुएं, जिससे पैर भी स्त्री का, अंगूठा भी दिखाई न पड़े। सौ साल में दुनिया बदल गई है, पश्चिम में तो निश्चित बदल गई है, स्त्रियां नग्न समुद्रतटों पर लेटी हैं, कोई कामोत्तेजित नहीं हो रहा है।
छिपाओ, आकर्षण पैदा होता है। निषेध करो, निमंत्रण मिलता है लोगों को। किसी दरवाजे पर तख्ती टांग दो कि यहां झांकना मना है। बस, फिर वहां से बिना झांके कोई निकल ही न सकेगा। मेरे गांव में एक वकील हैं, उन्होंने अपनी दीवाल पर लिख छोड़ा है कि यहां पेशाब करना मना है! सारा गांव वहां पेशाब करता है। वे मुझसे बोले कि बात क्या है? मैंने कहा, तुम दीवाल से ये अक्षर हटा दो। इनको पढ़ कर, जिसको नहीं पेशाब लगी है उसको भी लग आती है। जो आदमी अपने काम से चला जा रहा था, जिसे अभी खयाल भी नहीं था, जब वह एकदम से देखता है बड़े-बड़े अक्षर--यहां पेशाब करना मना है! उसे तत्क्षण खयाल आता है, कि अरे चलो! और उसे यह भी खयाल आता है कि यह दीवाल योग्य होगी, तभी तो लिखा गया है! नहीं तो कोई हर कहीं थोड़े ही लिखता है।
जैसे ही तुम निषेध करते हो, वैसे ही कुछ आकर्षण पैदा होता है। फिर तुम बात को समझना। जहां निषेध है, वहां अहंकार को रस होता है, क्योंकि अहंकार को चुनौती मिलती है। अहंकार बड़े काम करना चाहता है। जो काम सरल है, अहंकार करना ही नहीं चाहता। अहंकार कठिन काम करना चाहता है। क्योंकि कठिन से ही सिद्ध होगा कि मैं कुछ हूं। सरल से कैसे सिद्ध होगा? जैसे तुम कहो कि मैं सांस लेता हूं। इससे क्या फायदा? लोग कहेंगे--सांस तो सभी लेते हैं। पशु-पक्षी भी लेते हैं, जानवर भी लेते हैं, वृक्ष भी लेते हैं। तुम सांस लेते हो इसमें कौन सी खूबी है? इसमें क्यों अकड़े जा रहे हो? राष्ट्रपति होकर दिखाओ! तुम कहते हो--रात में सो जाते हैं। लोग कहेंगे--तुम भी खूब हो, इसमें खूबी की बात क्या है? सो गए तो ठीक है, सभी सो जाते हैं, कुत्ते-बिल्ली भी सो जाते हैं। धनपति होकर दिखाओ! जो कठिन हो वह करके दिखाओ, सरल से क्या लेना-देना है?
तुमने सुना न, झेन फकीर रिंझाई का वचन। किसी ने पूछा कि तुम करते क्या हो? तुम्हारी साधना क्या है? उसने कहा, जब भूख लगती है तब खाना, जब नींद आए तब सो जाना। पर उस आदमी ने कहा, इसमें खूबी की बात क्या है? रिंझाई ने कहा, यही तो खूबी की बात है कि हम सरल से जीते हैं।
दरवाजा खुला है, लेकिन पक्षी भी दरवाजे से नहीं जाता, बंद खिड़की पर सिर मारता है। बंद खिड़की को तोड़ने में चुनौती है, एक मजा है, सिद्ध करने का एक मौका है कि मैं कुछ हूं। जहां-जहां कठिनाई है, वहां-वहां तुम्हें रस है। लेकिन जहां-जहां कठिनाई है, वहीं-वहीं दुख है। पंख टूट जाएंगे, पक्षी लहूलुहान हो जाएगा। और अगर किसी तरह कांच को तोड़ने में भी सफल हो जाए तो और भी महंगा पड़ जाएगा सौदा। तब कांच भी छिद जाएगा।
दरवाजा प्रतिपल खुला है। दरवाजा खुला ही था। नहीं तो पक्षी भीतर ही कैसे आता? तुम इस संसार में जिस दरवाजे से आए हो, वह दरवाजा अभी भी खुला है, उसी दरवाजे से बाहर हुआ जा सकता है। लेकिन तुम उससे बाहर नहीं होना चाहते। तुम कुछ सिद्ध करके जाना चाहते हो। तुम नाम छोड़ जाना चाहते हो। तुम यश, प्रतिष्ठा, अस्मिता के लिए दीवाने हो रहे हो। और इन सबसे दुख आता है।
परमात्मा सरलतम है, इसीलिए लोग चूकते हैं। मैं दोहराऊं, क्योंकि परमात्मा ने तुम्हें चारों तरफ से घेरा हुआ है और परमात्मा इतना मुफ्त मिला हुआ है, इसीलिए कोई उसमें उत्सुक नहीं है।
मुझसे कभी-कभी कोई आकर पूछता है कि परमात्मा मिलता क्यों नहीं
? मैं उसको कहता हूं: क्योंकि वह मिला हुआ है, इसलिए तुम खोजते नहीं।
तुम अपने जीवन को परखोगे तो यह बात समझ में आ जाएगी। जो चीज मिल जाती है, उसी में रस खो जाता है। पति को पत्नी में रस नहीं रह जाता, पत्नी को पति में रस नहीं रह जाता। दूसरे की पत्नी में, दूसरे के पति में रस होता है। तुम्हें अपनी कार में रस नहीं होता, पड़ोसी की कार में रस होता है। तुम्हें अपने मकान में रस नहीं होता, पड़ोसी के मकान में रस होता है। कहते हैं न कि पड़ोसी का लॉन ज्यादा हरा मालूम होता है। दूर के ढोल सुहावने होते हैं।
क्यों तुम्हें अपने में रस नहीं है? क्योंकि जो अपना ही है, वह तो है ही, अब अहंकार को सिद्ध करने का वहां कोई उपाय नहीं है। बात खतम हो गई। सुंदरतम स्त्री भी साधारण हो जाती है मिलते ही। और कुरूप स्त्री भी असाधारण होती है, अगर न मिले। जितनी कीमत तुम्हें चुकानी पड़े उसे पाने को, उतनी ही असाधारण मालूम होती है। जितना मुश्किल हो पाना, जितना एवरेस्ट की चढ़ाई करनी पड़े, उतने ही तुम उद्विग्न हो जाते हो, उतने ही ज्वरग्रस्त हो जाते हो, उतनी ही वासना प्रबल वेग की तरह उठती है।
जो सुगम है, सरल है, उसमें रस नहीं। और परमात्मा सुगमतम है।
युक्तौ च सम्परायात्।
तुम कभी उससे अलग नहीं हुए हो। प्रकृति और पुरुष एक। द्वैत भ्रांति है। द्वैत मन के कारण है, अहंकार के कारण है। अद्वैत सत्य है। और मन के हटते ही अद्वैत साफ हो जाता है। मन यानी अस्मिता, अहंकार, मैं का भाव। यह अद्वैत-अनुभव भक्ति है; न भक्त बचता वहां, न भगवान बचता वहां, बचती है भगवत्ता, बचती है एक ऊर्जा जिसका नाम भक्ति, बचती है एक सुवास जिसका नाम प्रीति। और इसकी प्रतीति भक्त में अनेक ढंगों से होती है। उन अनेक लक्षणों की बात पिछले सूत्रों में शांडिल्य ने कही। उसके आगे के ही अब सूत्र हैं।
तत् वाक्य शेषात् प्रादुर्भावेषु अपि सा।
शांडिल्य कहते हैं: ‘जो मैंने कहा, यही बात और जानने वालों ने, और जीने वालों ने भी कही है।’
तत् वाक्य शेषात् प्रादुर्भावेषु अपि सा।
‘यह वाक्य, यह वचन, यह सूत्र अनंत काल से लेकर अवतार आदियों ने भी बार-बार कहा है।’
समझना। भक्त के अंतर में क्या हुआ, यह तो भक्त ही जानता है, वह तो ऐसी अनुभूति है कि बाहर से कोई न जान सकेगा। लेकिन फिर भी बाहर कुछ किरणें तो पड़ेंगी। जब घर में दीया जलेगा, तो राह चलते लोगों को भी घर की खिड़की से रोशनी दिखाई पड़ेगी, रंध्रों से रोशनी दिखाई पड़ेगी, खपड़े के छेदों से रोशनी दिखाई पड़ेगी। जब किसी के घर में धूप जलेगी, तो पड़ोसियों के नासापुटों तक भी गंध की कुछ खबरें हवा उड़ा कर ले जाएगी। जब किसी के जीवन में भगवत्ता का अवतरण होता है, तो उसके आस-पास भी गंध उड़ती है, रोशनी फैलती है; उसके आस-पास की हवा में एक शीतलता, उसके आस-पास सुख की भनक, उसके पास एक शांति का वातावरण। उसी वातावरण को पीने तो सत्संग के लिए लोग जाते हैं। उसी हवा को अपनी छाती में भर लेने के लिए सत्संग के लिए लोग जाते हैं।
पश्चिम में सत्संग को प्रकट करने वाला कोई शब्द नहीं है पश्चिम की भाषाओं में, क्योंकि सत्संग की कला ही विकसित नहीं हुई। पूरब ने कुछ अनूठी बातें दुनिया को दी हैं, उनमें एक सत्संग भी है। सत्संग बड़ी अनूठी प्रक्रिया है। यह इस बात की प्रक्रिया है कि जिसको मिला है, उसके पास बैठेंगे। कुछ कहेगा तो सुन लेंगे, नहीं कहेगा तो भी गुनेंगे, उसके पास बैठेंगे, उसकी हवा में सांस लेंगे, कुछ न होगा उसका चरण ही छू लेंगे, उसके सामने सिर झुकाएंगे, झोली फैलाएंगे, उससे आशीष मांगेंगे, चुप सन्नाटे में उसके पास बैठेंगे। उसके भीतर कोई झरना बह रहा है, शायद कुछ बूंदें हमें भी उपलब्ध हो जाएं; उसके भीतर परमात्मा का फूल खिला है, शायद हमारे कानों में भी, बहरे कानों में थोड़ी भनक पड़ जाए; हमारी अंधी आंखों में शायद एकाध किरण प्रवेश कर जाए। और एक किरण काफी है, फिर सूरज की खोज शुरू हो जाती है। शायद उसके पास बैठे-बैठे परमात्मा की प्राप्ति तो न हो, लेकिन परमात्मा की प्यास जग जाए, वह भी क्या कम है!
तो जिन्होंने जाना है, जिन्होंने जीया है, उन्होंने कुछ लक्षण कहे हैं जो भक्त में प्रकट होंगे। महाभारत में कहा है--
न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो न शुभा मतिः,
भवन्ति कृतपुण्यानाम् भक्तानाम् पुरुषोत्तमे।
वहां क्रोध नहीं होगा; वहां क्रोध की जगह करुणा होगी। वहां लोभ नहीं होगा, वहां लोभ की जगह दान होगा।
भेद समझना। जिसको परमात्मा मिला है, उसे अब तुम कुछ दे भी तो नहीं सकते। अब उसके पास लेने का कोई स्थान भी नहीं बचा है, सारी जगह परमात्मा घेर लेता है। अब तो तुम उससे कुछ ले सकते हो, उसे दे नहीं सकते। उसके सामने झोली फैला सकते हो।
एक धनपति ने एक झेन फकीर के पास जाकर हजार स्वर्णमुद्राओं से भरी हुई थैली जोर से पटकी। जोर से पटकी ताकि बैठे हुए सत्संगी भी आवाज सुन लें--सोने की आवाज! कौन नहीं पहचानता? जिनके पास नहीं है वे भी पहचानते हैं। चौंक गए सारे लोग। जो सो गए थे और झपकी खा रहे थे--अक्सर लोग धर्मसभाओं में वही करते हैं--उन्होंने भी आंखें खोल दीं; सोने की आवाज! लेकिन फकीर ने झोली को बगल में सरका दिया और कहा, कुछ कहना तो नहीं है?
वह आदमी तो जैसे सात आसमानों से गिर गया। वह आया है हजार स्वर्णमुद्राएं--पुराने जमाने की कहानी है, जब बड़ा मूल्य था स्वर्णमुद्राओं का--जिंदगी भर की कमाई, और यह आदमी ऐसे सरका दिया, और पूछता है: कुछ कहना तो नहीं है? इसने धन्यवाद भी नहीं दिया। इसके चेहरे पर कोई भाव भी नहीं आया। उस धनपति ने कहा, हजार स्वर्णमुद्राएं कम नहीं होतीं, जीवन भर की कमाई है!
फकीर ने कहा, तो क्या तुम चाहते हो मैं धन्यवाद दूं?
सकुचाया होगा वह धनपति। उसने कहा कि नहीं, धन्यवाद चाहे न भी दें, मगर इतनी उपेक्षा भी न दिखाएं।
उस फकीर ने कहा, तुम जो देने आए हो, देने के भाव में ही भ्रांति हो गई है। मुझे मिल गया परमधन। अब उसके आगे और कोई धन नहीं है। इसलिए जो यहां देने आता है, वह गलत दृष्टि से आया। यहां आओ तो लेने आओ। यहां आओ तो झोली फैला कर आओ। धन्यवाद तुम मुझे दो कि मैंने तुम्हारा यह कचरा बगल में सरका कर रख दिया कि ठीक है, चलो ले आए, कोई बात नहीं--क्षमा करता हूं। धन्यवाद तुम मुझे दो! मैं तुम्हें धन्यवाद दूं?
भक्त के जीवन में, महाभारत कहती है: क्रोध की जगह करुणा, लोभ की जगह दान...उसके पुण्य के फल पकेंगे, उसके पुण्य की बास फैलेगी, उसके कुछ स्थूल लक्षण पकड़े जा सकते हैं। कृष्ण ने पूरी सूची दी है लक्षणों की--
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शांतिर्पैशुनम्
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत
‘हे भारत!’--अर्जुन को कृष्ण ने कहा है--‘हे भारत, अभय, चित्तशुद्धि, योगानुराग, दान, संयम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सरलता, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति, अलोभ, अहंकार-शून्यता, ह्री अर्थात असत कार्यों में सहज संकोच, अचंचलता, तेज, क्षमा, धृति अर्थात सुख-दुख में अविचल-भाव, अद्रोह, ये सब दिव्यपुरुष के लक्षण हैं।’ ये उस भक्त में प्रकट होते हैं।
शांडिल्य कहते हैं: भीतर की जो घटना है, वह तो भक्त जानेगा; लेकिन जो भीतर है, वह भी बाहर से तो जुड़ा ही है। यहां कोई भी चीज असंयुक्त नहीं है। तुमने श्वास ली, भीतर गई, फिर वही श्वास बाहर गई--बाहर और भीतर प्रतिक्षण लेन-देन चल रहा है। बाहर और भीतर अलग-थलग नहीं हैं। बाहर और भीतर एक ही ऊर्जा के दो छोर हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए घटना तो भीतर घटेगी, लेकिन घटना की ध्वनियां बाहर भी सुनाई पड़ेंगी। कुछ बातें सहजता से प्रकट होंगी।
फर्क खयाल में लेना! यही तत्व, जिसको तुम महात्मा कहते हो, त्यागी कहते हो, वह भी इन्हीं तत्वों की प्रशंसा करता है। जैसे अहिंसा, दया, त्याग, निर-अहंकारिता--उदाहरण के लिए चार ले लें। महात्मा, त्यागी, विरागी भी इनकी महत्ता बताता है, लेकिन भक्त और उसकी महत्ता बताने में क्या भेद है? बड़ा भेद है। शांडिल्य कहते हैं: भगवान के मिलने से ये गुण अपने आप प्रकट होते हैं। तुम्हारा तथाकथित तपस्वी कहता है: ये गुण प्रकट हों तो भगवान मिलता है।
इस भेद को खयाल में ले लेना। शांडिल्य कहते हैं: ये लक्षण हैं भक्त के, साधना नहीं। ये तो जो भक्त भगवान में लीन होने लगा, उसमें सहज उठी हुई तरंगें हैं। इनके कारण भगवान नहीं मिलता, भगवान के कारण ये तत्व घटित होते हैं। यह बड़ा क्रांतिकारी भेद है।
इसको ऐसा समझें। तुम्हारे घर में अंधेरा है और मैं तुमसे कहूं कि दीया जलाओ, दीये के जलते ही अंधेरा चला जाता है। तुम तार्किक आदमी हो, तुम सोच-विचार वाले आदमी हो, दार्शनिक हो, तुम इसका गणित बिठाओ--तुम कहो कि ठीक है, कहा गया कि जब प्रकाश होता है तो अंधेरा नहीं होता; अर्थात जब अंधेरा नहीं होता तब प्रकाश होता है। तर्क में तो यह बात ठीक है। अगर तुम इसको जीवन-व्यवहार में लाने की कोशिश करोगे तो मुश्किल में पड़ जाओगे। तार्किक रूप से यह बात सच है कि जहां अंधेरा है, वहां प्रकाश नहीं है। जहां अंधेरा नहीं है, वहां प्रकाश। अगर तुम अंधेरे को हटाने में लग जाओ, पोटलियां बांध कर अंधेरे को फेंकने जाओ गड्ढों में, या धक्के देकर अंधेरे को निकालना चाहो, या तलवारें ले आओ और अंधेरे को काट-पीट करके घर से बाहर कर देना चाहो, तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। अंधेरा ऐसे नहीं निकलता। प्रकाश आ जाए तो निकलता है। अंधेरा निकाल कर प्रकाश नहीं आता, प्रकाश के आने से अंधेरा निकलता है।
यही भक्त की उदघोषणा है। भक्त कहता है: जीवन में बहुत सी बुराइयां हैं; लेकिन परमात्मा के आ जाने पर ही निकलती हैं। तुम चाहते हो कि बुराइयां पहले निकाल दें, फिर परमात्मा आए; तो तुम अंधेरा निकालने में लगे हो। परमात्मा है रोशनी। भक्त कहता है: मैं जैसा बुरा-भला हूं, रो तो सकता हूं उसके लिए, पुकार तो सकता हूं उसके लिए। अपात्र हूं, यह मुझे पता है। लेकिन उसके बिना आए पात्र होऊंगा भी कैसे? उसका ही संस्पर्श मिलेगा तो यह लोहा सोना बनेगा। वही पारस आएगा और छुएगा तो यह अंधकार रोशनी में बदलेगा। इसलिए भक्त कहता है: भगवान को मैं पुकारूंगा; अपनी अपात्रता, अपनी दीनता को समझूंगा और भगवान को पुकारूंगा। मेरी अपात्रता मेरी प्रार्थना में बाधा नहीं बनेगी। अपात्र हूं इसीलिए तो प्रार्थना कर रहा हूं।
इसलिए देखते हो, जो पात्र हो जाता है वह प्रार्थना क्यों करेगा? वह दावेदार होता है, प्रार्थना क्यों? वह कहता है: इतने उपवास किए, इतने तप किए, घर-द्वार छोड़ा, धन छोड़ा, पद छोड़ा, पहाड़ पर बैठा रहा इतने वर्षों तक, अब प्रार्थना क्या? अब मिलना चाहिए! अब यह मेरा हक है, यह मेरा अधिकार है! अगर कहीं कोई अदालत हो तो वह परमात्मा पर मुकदमा चलाने के लिए आतुर है। वह कहता है: अभी तक मिले क्यों नहीं? प्रार्थना का सवाल ही क्या है?
प्रार्थना तो भक्त करता है। भक्त कहता है: मेरी योग्यता तो कुछ भी नहीं। तुम मिलो, ऐसा दावा तो मेरा कुछ भी नहीं। तुम न मिलो, यह बिलकुल समझ में आता है, मैं इस योग्य ही नहीं हूं कि तुम मुझे मिलो। इसलिए इसमें शिकायत जरा भी नहीं है, शिकवा जरा भी नहीं है। तुम नहीं मिल रहे हो, यह बिलकुल तर्कसंगत है, क्योंकि मैं पात्र ही नहीं हूं। तुम मिलोगे, वही विस्मय-विमुग्ध करेगा मुझे, उस पर ही भरोसा करना मुश्किल हो जाएगा कि मुझ अपात्र को मिले!
जब भी परमात्मा किसी के जीवन में उतरा है, तब उसने ऐसा ही अनुभव किया है--मुझ अपात्र को मिले! किस करुणावश? प्रसाद रूप। प्रयास के फल की तरह नहीं। परमात्मा एक भेंट की तरह मिलता है। जब तुम किसी को भेंट देते हो तो पात्रता थोड़े ही सोचते हो। भेंट में पात्रता नहीं सोची जाती। भेंट तो प्रेम है।
यही गुण तथाकथित त्यागी ने भी पकड़ रखे हैं, मगर उसकी पकड़ उलटी है। वह सोचता है: अहिंसा पहले; सरलता पहले; अलोभ पहले; अभय पहले। भक्त पूरी प्रक्रिया को उलटा देता है। शांडिल्य कहते हैं: ये पहले नहीं, ये लक्षण हैं। जब आ जाएगा प्रभु तुम्हारे भीतर, जब तुम्हारे भीतर का दीया जलाएगा, तब दूसरों को अनेक लक्षण दिखाई पड़ने शुरू होंगे। उनको इस तरह बांटा जा सकता है। जिसके भीतर परमात्मा बैठा है, उसे पाने को कुछ नहीं रहा, इसलिए अलोभ। उसके पास देने को इतना है कि जितना दे दे और चुकेगा नहीं, इसलिए दान। परमात्मा बिना प्रयास के मिला है, इसलिए सरलता। परमात्मा बाढ़ की तरह आया है और सब बहा कर ले गया, सब कूड़ा-कर्कट गया, इसलिए शांति। ये सब स्वाभाविक परिणतियां हैं। भक्ति का मार्ग सहज मार्ग है। और इसी अर्थ में वैज्ञानिक भी है।
तत् वाक्य शेषात् प्रादुर्भावेषु अपि सा।
जन्म कर्म विदः च अजन्म शब्दात्।
‘भगवान के जन्म-कर्म का रहस्य जानने वाले पुरुष का भी फिर जन्म नहीं होता।’
यह भक्त की परम गति, कि जिसने जान लिया, परमात्मा को पहचान लिया, छिपा जिसके सामने प्रकट हो गया, रहस्य ने जिसके सामने घूंघट उठा दिए, फिर उसका दुबारा जन्म नहीं होता। जन्म का कोई कारण नहीं रह जाता, क्योंकि खोजने को ही कुछ नहीं बचता। अंतिम घड़ी आ गई।
संसार विद्यापीठ है। जिसने परमात्मा को पा लिया, वह उत्तीर्ण हो गया। जिसने परमात्मा को न पाया, उसे बार-बार आना पड़ेगा। उसे आते ही जाना पड़ेगा। जब तक तुम उत्तीर्ण न हो जाओ, वापस हर वर्ष लौट आना पड़ेगा विश्वविद्यालय में। कोई बिना उत्तीर्ण हुए जगत से पार नहीं जा सकता।
उत्तीर्ण होने का क्या लक्षण होगा?
जिसने भगवान के जन्म-कर्म का रहस्य जान लिया।
क्या रहस्य है भगवान के जन्म और कर्म का?
दो रहस्य। एक, कि भगवान अजन्मा है। और तुम भी अजन्मा हो। भगवान अज है और तुम भी अज हो। प्रारंभ कभी हुआ ही नहीं। प्रारंभ में कोई प्रारंभ था ही नहीं। न कोई अंत है। अस्तित्व अनादि और अनंत है। सब सदा से है, और सब सदा रहेगा। रूप बदलते हैं, आकृतियां बदलती हैं, मगर ऊर्जा वही है। तुम न मालूम कितनी देहों में पहले आए और न मालूम कितनी देहों में और आओगे। लेकिन जो आता रहा, जाता रहा, वह एक ही है। तुम्हारा पक्षी न मालूम कितने-कितने पिंजड़ों में बंद हुआ, और न मालूम कितने आकाशों में उड़ा, और न मालूम कितने रूप धरे, लेकिन जो अंतर्तम था, वह वही है। इस जगत में जो भेद हैं, वे केवल नाम और रूप के भेद हैं।
परमात्मा के जन्म का जो रहस्य समझ लेगा, उसका अर्थ हुआ, उसने समग्र के जन्म का रहस्य समझ लिया। इस समग्र का कभी कोई जन्म नहीं हुआ है। तुम इस समग्र के हिस्से हो, तुम्हारा भी कोई जन्म नहीं हुआ है। और तभी तुम्हें एक बात खयाल में आ जाएगी: जब जन्म नहीं हुआ तो मृत्यु भी नहीं हो सकती।
बुद्ध मर रहे थे, आखिरी घड़ी आ गई थी, शिष्य रो रहे थे, उन्होंने आंख खोली और आनंद से कहा कि तू रोता क्यों है?
आनंद ने कहा, इसलिए रोता हूं कि आप जा रहे हैं।
बुद्ध ने कहा, मैंने जीवन भर एक ही बात समझाई कि न मैं कभी आया और न कभी जाता हूं; न मेरा कोई जन्म है, न मेरी कोई मृत्यु है; और जिसका जन्म है और जिसकी मृत्यु है, वह मैं नहीं हूं, वह केवल रूप मात्र है, स्वप्न मात्र। स्वप्न ही बनते और बिखरते हैं, सत्य वैसा का वैसा, जस का तस, ज्यों का त्यों।
कृष्ण का वचन है--
जन्म कर्म च मे दिव्यमेव यो वेत्ति तत्त्वतः
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन
‘हे अर्जुन, मैं सत, चित, आनंद रूप हूं, मैं अज और नित्य होने पर भी लोक उपकारार्थ देह धारण करता हूं।’
परमात्मा अज है, अजन्मा है और अमृत है। अज ही अमृत हो सकता है। जो जन्मा है, वह तो मरेगा। जो नहीं जन्मा है, वही नहीं मरेगा। परमात्मा से अर्थ समझ लेना, समग्र का नाम है परमात्मा, कोई व्यक्ति का नाम नहीं है। सारे जोड़ का नाम परमात्मा है--वृक्ष और पहाड़, और स्त्रियां और पुरुष, और नदियां, और चांद-तारे, सबका जोड़। उस जोड़ का कोई जन्म नहीं है। उस जोड़ में मैं भी हूं, तुम भी हो। हमारा भी कोई जन्म नहीं। इसलिए भक्त मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। जन्म ही नहीं तो मृत्यु कैसे होगी? तुमने मान लिया है कि तुम्हारा जन्म है, इसीलिए तुम मृत्यु से परेशान हो। तुमने एक घड़ी दिन तय कर रखा है कि उस दिन मैं जन्मा था, तो फिर पक्का हो गया कि एक घड़ी दिन तुम्हें मरना होगा। फिर चिंता है। फिर तुम कंपे जा रहे हो, फिर तुम भयभीत हो। उसी भय के कारण धन इकट्ठा करते हो, मकान बनाते हो, पत्नी, बच्चे--किसी तरह से अपने को बचा लें! मिट न जाऊं! जहां से जरा सा मिटने का डर आता है, वहीं सुरक्षा का इंतजाम करते हो।
लेकिन तुम्हारी कोई मृत्यु नहीं है। तुम सदा से हो, तुम सदा रहोगे।
भगवान के जन्म का रहस्य जान कर ही व्यक्ति अपने भी जन्म और जीवन का रहस्य जान लेता है। वही मुक्ति है। फिर लौटना नहीं होगा। और भगवान के कर्म का रहस्य। वहां कोई कर्ता नहीं है; फिर भी सब हो रहा है। भगवान बैठ कर यहां एक-एक चीज का हिसाब नहीं कर रहा है कि अब इस झाड़ को पानी चाहिए, और अब इस आदमी को रोटी चाहिए, और अब यह पत्ता पीला पड़ गया है, इसको गिराना चाहिए, और अब वसंत आया जा रहा है तो बीज डालने चाहिए, और यह चांद कहीं तिरछा न चला जाए, कहीं रास्ते से न चूक जाए, तो सब बैलगाड़ी को ठीक-ठीक हांकते रहना चाहिए, ऐसा कोई भगवान नहीं है जो व्यवस्था कर रहा है। यह व्यवस्था बड़ी स्वाभाविक है, कोई करने वाला नहीं है। यहां कोई बैठा हुआ बीच में इस सारे आयोजन को सम्हाल नहीं रहा है।
लोगों की भगवान के प्रति धारणाएं इसी तरह की हैं, वे यही सोच रहे हैं कि कोई सत्ताधारी आज्ञा दे रहा है, जगह-जगह फरमान निकाल रहा होगा कि अब ऐसा होने दो! अब ऐसा होने दो! अब रात हो जाने दो, अब दिन हो जाने दो! अब देर हुई जा रही है, अब जल्दी से सुबह करो, सूरज को निकालो।
कोई कहीं कर्ता नहीं है, सब हो रहा है। वैसी ही दशा तुम्हारी भी है, तुम्हारे भीतर भी सब हो रहा है, कर्ता कोई भी नहीं है। छोटे पैमाने पर तुम इस बड़े विराट का छोटा सा लक्षण हो। तुम अपने भीतर ही खोज कर देखो! भूख लगती है तब कोई भूख लगाता है? जब तुम श्वास भीतर लेते हो तो कोई श्वास भीतर लेता है? जब नींद आती है तो कोई नींद लगाता है? कब तुम बच्चे से जवान हो गए और कब जवान से बूढ़े हो गए, कोई कर रहा है? सब हो रहा है।
इस सूत्र को हृदय में सम्हाल कर रखना--सब हो रहा है। जैसे ही तुम्हें यह बात समझ में आ जाए कि सब हो रहा है, सारी चिंताएं समाप्त हो जाती हैं। चिंता यही है कि कहीं ऐसा न हो कि मैं कुछ चूक जाऊं, कुछ कर न पाऊं, कहीं वैसा न हो जाए! चिंता कर्ता की छाया है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम चिंता से कैसे मुक्त हों?
मैं उनसे कहता हूं: तुम प्रश्न ही गलत पूछते हो। पूछो, कर्ता से कैसे मुक्त हों? कर्ता रहेगा तो चिंता रहेगी। और अब तुम एक नई चिंता ले रहे हो सिर पर मोल कि चिंता से कैसे मुक्त हों? अब यह भी तुम्हें करके दिखाना है। अब यह और एक नया कर्ता पैदा होगा कि चिंता से मुक्त होना है।
समझो! कर्ता कोई भी नहीं है। यह सारा का सारा जो हो रहा है, स्वाभाविक है, सहज है, अपने से है, स्वयंभू है। जैसे ही यह बात समझ में आती है, एक विश्राम आ जाता है। फिर कोई चिंता नहीं; फिर जो होता है, ठीक ही होता है; जो होगा, ठीक ही होगा; जो हुआ, ठीक ही हुआ। इसलिए भक्त कोई पश्चात्ताप नहीं करता और न भविष्य की चिंता करता है, न योजना बनाता है। और भक्त के मन में कभी यह द्वंद्व नहीं उठता कि ऐसा कर लेते तो अच्छा होता। वैसा क्यों कह दिया? वैसा क्यों कर लिया? न, भक्त ने तो छोड़ दिया है अपने को विराट के साथ, अब जहां ले जाओ, जो करवाओ--जैसी उसकी मर्जी।
और ध्यान रखना, यह सब भाषा की बात है, जब मैं कहता हूं जैसी उसकी मर्जी। वहां कोई है नहीं जिसकी मर्जी है। मर्जी हो तो वह चिंता से मर जाए। कब का भगवान मर गया होता! जरा सोचो, तुम एक छोटा सा घर सम्हालते हो, मरे जा रहे हो, आत्महत्या का विचार कई दफे उठने लगता है। घर तुम्हारा बड़ा छोटा सा है, कुछ खास सम्हालना भी नहीं है; एक पत्नी है, दो बच्चे हैं, इन्हीं को सम्हालना है, ये ही तुम्हें काफी सताए डाल रहे हैं! आदमी साठ-पैंसठ के पार होते-होते सोचने लगता है--हे प्रभु, अब उठा लो, अब बहुत हो गया, अब नहीं सहा जाता।
यूरोप और अमरीका में, जहां उम्र लंबी हो रही है, क्योंकि चिकित्सकों ने नई-नई औषधियां उपलब्ध कर दीं, लोग अस्सी-नब्बे और सौ तक सहज जी रहे हैं, सौ के पार भी जा रहे हैं, वहां एक नया आंदोलन चल रहा है। वह आंदोलन है--आत्महत्या का अधिकार। तुमने सुना कभी--आत्महत्या का अधिकार! खैर, इस देश में तो नहीं चल सकता, यहां तो अभी जीवन का ही अधिकार नहीं, आत्महत्या के अधिकार का तो सवाल ही दूसरा है! यहां किसी तरह जीवन तो जुट जाए! लेकिन अमरीका में आत्महत्या के अधिकार पर बड़ा विचार चलता है। और दस-पंद्रह साल के भीतर अमरीका के विधान में आत्महत्या का मूलभूत अधिकार जुड़ कर रहेगा। जोड़ना ही पड़ेगा। क्योंकि जो आदमी एक सौ बीस साल का हो गया और मरना चाहता है--क्या करे? नहीं जीना चाहता अब! बहुत हो गया! हर चीज की सीमा होती है। किसी भी चीज को सीमा के आगे खींच दो, अड़चन शुरू हो जाती है। अब न उसे रस है, जीवन के सब सपने देख लिए, सब व्यर्थ हो गए; जीवन के सब खेल खेल लिए और कुछ पाया नहीं; अब खाट पर पड़े-पड़े सड़ने का क्या प्रयोजन है? और चिकित्सक उसे लटकाए रख सकते हैं। आक्सीजन का सिलिंडर लगाया हुआ है, टांग बांधी हुई है, हाथ अटकाया हुआ है, ग्लूकोज लटकाया हुआ है, वह पड़ा है, वे उसको रख सकते हैं इसी हालत में। यह कोई जिंदगी है? वह पूछता है कि इसको जिंदगी कहने का क्या अर्थ है? मैं विदा होना चाहता हूं। लेकिन चिकित्सक को अधिकार नहीं है कि वह आक्सीजन बंद कर दे। क्योंकि चिकित्सक का जो नियम है वह पुरानी दुनिया से बना है, जब जीना ही मुश्किल था। नियम तब बना था। और अब जीने से ज्यादा जीना संभव हो गया है; तो नियम बदल देने होंगे।
हर आदमी एक सीमा पर अनुभव करने लगता है--मर ही जाऊं! तुम जरा परमात्मा की तो सोचो! कभी का या तो पागल हो गया होगा, या कभी की आत्महत्या कर ली होगी, या भाग गया होगा, संन्यासी हो गया होगा, दूर निकल गया होगा संसार से कि अब नहीं लौटना है कभी, सब त्याग करके चला गया होगा।
नहीं, वहां कोई भी नहीं है। वहां सन्नाटा है। और जिस दिन तुम इस सत्य को समझ लेते हो कि इतना विराट जगत बिना कर्ता के चल रहा है, उस दिन अपनी इस छोटी सी जिंदगी में क्यों यह कर्ता को बनाना, यह भी चलने दो, यह भी होने दो!
इन दो बातों को समझ कर--कि इस संसार का न कोई प्रारंभ है, न अंत; और इस संसार को न कोई चलाने वाला है, न कोई नियोजन करने वाला है; यह विराट अपनी ही ऊर्जा से बहा जाता है, यह स्वयंभू है--भक्त भी मुक्त हो जाता है।
जन्म कर्म विदः च अजन्म शब्दात्।
इन दो शब्दों का अर्थ समझ में आ जाए, जन्म और कर्म, कि सब समझ में आ गया।
तत् च दिव्यं स्व शक्ति मात्र उद्भवात्।
‘उनका जन्म-कर्म आदि सभी दिव्य और असाधारण है; उनकी ही शक्ति से वे नाना रूप दिखाई पड़ते हैं।’
लेकिन हमें उस परमात्मा का तो कुछ पता नहीं है, वह परमात्मा तो बहुत दूर है, शायद हमारे पास उसे पकड़ने की आंख भी नहीं है, हाथ भी नहीं है, समझने की बुद्धि और प्रतिभा भी नहीं है। इसलिए शांडिल्य कहते हैं: भगवान के अवतारों को समझने की कोशिश करो। भगवान तो पकड़ में नहीं आता, लेकिन राम पकड़ में आ जाते हैं, कृष्ण पकड़ में आ जाते हैं, बुद्ध पकड़ में आ जाते हैं, मोहम्मद पकड़ में आ जाते हैं, इनको पकड़ो, इनको समझो। बुद्ध के होने का क्या प्रयोजन है? बुद्ध को कौन चला रहा है? बुद्ध के भीतर ऐसा कोई भाव उठता है कि मैं अब ऐसा करूं, या जो होता है, होता है? इसमें बीच-बीच में बुद्ध कुछ बाधा डालते हैं, या निर्बाध इस जीवन की धारा को बहने देते हैं?
परमात्मा दूर है, उसका अवतार निकट है। जिन्होंने परमात्मा को जान लिया है, उनका जीवन समझो। तो वहां भी तुम यही पाओगे कि समर्पण है, परम समर्पण है। जैसे वृक्ष में पत्ते लगते हैं और वृक्ष में फूल आते हैं, ऐसा कवि गीत को गाता है, बस ऐसे ही; ऐसे ही कृष्ण चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं; ऐसे ही बुद्ध बोलते हैं, समझाते हैं; ऐसे ही बुद्ध जीते हैं और विदा हो जाते हैं; इसमें कहीं भी कोई अहंकार बैठ कर आयोजन-नियोजन नहीं कर रहा है।
‘उनका जन्म-कर्म आदि सभी दिव्य और असाधारण है।’
अवतारों को देखो तो बड़ी असाधारणता पाओगे। क्या असाधारणता है? क्या दिव्यता है? करने वाला कोई नहीं और विराट घटता है। करने वाला कोई भी नहीं। वही तो कृष्ण अर्जुन को बार-बार गीता में समझा रहे हैं कि तू करने वाला मत बन, तू होने दे; जो हो रहा है, होने दे; तू उपकरण रह, निमित्त मात्र। तेरी कोई जिम्मेवारी नहीं है, तू अपने को बीच में मत ला, तू शुभ-अशुभ का निर्णय मत कर। तू कौन? तू अपने को विदा कर दे और फिर जो हो, जो परिस्थिति करवाए, कर, वही शुभ है। फल की भी आकांक्षा मत कर। क्योंकि फल की आकांक्षा में कर्ता आ जाता है। कर्ता जीता ही फल की आकांक्षा से है। मैं ऐसा करूं तो ऐसा होगा, मैं ऐसा करूं तो ऐसा मुझे मिलेगा, ऐसा करूं तो यह फल हाथ में आएगा। फल की आकांक्षा छोड़ दे। फल की आकांक्षा छोड़ते ही कर्ता का भाव चला जाता है। फिर प्रयोजन क्या है? जब फल की ही कोई आकांक्षा नहीं है तो जो भी होगा ठीक ही है। होगा तो ठीक है, नहीं होगा तो ठीक है।
इधर मैं तुम्हें रोज समझाता हूं। तुम समझे तो ठीक है, तुम नहीं समझे तो ठीक है। तुम सोचते हो मैं इसका हिसाब रखता हूं कि तुमने समझा कि नहीं समझा? इससे कोई प्रयोजन नहीं है। जैसे वृक्ष में फूल लग जाते हैं, ऐसे ये शब्द मुझमें लग जाते हैं। अगर तुम भी इस तरह जीओ तो तुम्हारे जीवन में असाधारण दिव्यता आ जाए। थोड़ा इस तत्व का रस लेना शुरू करो। उठो, बैठो, मगर न कोई उठने वाला हो, न कोई बैठने वाला हो। काम भी करो, दुकान पर भी जाओ, बाजार में भी, दफ्तर में भी, मगर न कोई करने वाला हो, न कोई जाने वाला हो। घर की देख-रेख भी करो; जो भी दायित्व है सिर पर, पूरा भी करो; लेकिन कोई करने वाला न हो।
दुनिया में दो उपाय हैं बोझ से मुक्त होने के। एक तो यह है कि दायित्व छोड़ दो। भगोड़ा संन्यासी वही करता है। वह दायित्व ही छोड़ देता है; वह कहता है कि न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी; बात खतम; पत्नी-बच्चों को छोड़ कर भाग गए जंगल! वह दायित्व छोड़ देता है। यह कोई असली संन्यास न हुआ। असली संन्यास है: दायित्व तो होने दो, कर्ता छोड़ दो। तो भी बोझ चला जाता है। वही असली क्रांति है। यह कोई असली क्रांति न हुई, तुम अगर घर-बच्चे छोड़ कर भाग गए, ज्यादा देर न लगेगी, पहाड़ की गुफा में भी बच्चे और पत्नी आ जाएंगे। किसी पहाड़ी स्त्री से लगाव बन जाएगा। तुम अपने से कहां जाओगे? शिष्य इकट्ठे हो जाएंगे, उन्हीं से तुम्हारा भाव हो जाएगा, वही जो तुम्हारा अपने बच्चों से था। उन्हीं से मोह लग जाएगा। कल तुम्हारा शिष्य मर जाएगा तो तुम उसी तरह रोओगे जिस तरह तुम्हारे बेटे के मरने से रोते। तो फर्क क्या हुआ? मकान छोड़ कर चले गए, गुफा में बैठ गए, कल भूकंप आ जाए और गुफा टूट जाए, तो तुम उसी तरह दुखी होओगे जैसे मकान के आग लग जाने से हो जाते। भेद क्या पड़ा? तुमने स्थिति बदल ली, मनःस्थिति तो वही की वही है। सब छोड़ कर चले गए, एक भिक्षापात्र ले गए, और रात किसी ने गुफा से चुरा लिया, तो तुम्हारे सुबह मन में वही होगा, वही भाव उठेंगे, जो किसी ने तुम्हारी तिजोड़ी खोल कर सारा धन निकाल लिया होता तब उठते। कुछ भेद नहीं पड़ेगा।
असली संन्यास कर्ता का त्याग है, दायित्व का नहीं। वही गीता का अपूर्व संदेश है। गीता ने जगत को ठीक संन्यास की पहली परिभाषा दी। गलत संन्यास बहुत पुराना था, गीता ने एक अनूठे संन्यास की परिभाषा दी। गीता ने कहा--रहो यहीं, जीओ यहीं, और फिर भी भीतर से सब शून्य हो जाए। अर्जुन से वे कह रहे हैं--तू लड़ और भीतर से शून्य भाव से लड़। तू परमात्मा के हाथ में अपने को सौंप दे--परमात्मा यानी समग्र के हाथ में अपने को सौंप दे, फिर उसे जो करवाना हो, करवा ले। जीत होगी कि हार, यह भी विचारणीय नहीं है। तू है ही नहीं करने वाला, तो फिर फल विचारणीय नहीं हो सकता।
अगर परमात्मा का जन्म और कर्म बहुत दूर की बात मालूम पड़े, बहुत एब्सट्रैक्ट, हवाई बात मालूम पड़े, तो इस पृथ्वी पर जो कभी-कभी परमात्मा की थोड़ी सी झलक मिलती है, उनमें पहचानने की कोशिश करना। उनमें भी तुम वही पाओगे। वही शून्य-भाव। भीतर कोई भी नहीं। कर्म का विराट जाल और कर्ता का अभाव।
मुख्यं तस्य हि कारुण्यम्।
‘उनकी करुणा ही उनके जन्म आदि का प्रधान कारण है।’
बुद्ध क्यों बोले? इसलिए नहीं कि बोलने से प्रसिद्ध होना है, इसलिए नहीं कि बोलने से शिष्यों की भीड़ इकट्ठी करनी है, इसलिए नहीं कि बोलने से कुछ लाभ है, इसलिए बोले कि बोलने से किसी को शायद लाभ हो जाए। इसलिए बोले कि जो मुझे मिल गया है, वह बंटे, शायद किसी के भीतर पड़ा हुआ बीज मेरे शब्दों की चोट से उमग आए, शायद किसी के भीतर पड़ा हुआ तार, जिसे कभी छेड़ा नहीं गया, जग जाए--करुणा!
जीवन के दो सूत्र हैं: एक वासना और एक करुणा। अज्ञानी वासना से जीता है, ज्ञानी करुणा से। और पृथ्वी और आसमान का फर्क हो जाता है दोनों में। वासना का अर्थ होता है: मैं यह कर रहा हूं ताकि मुझे वह मिले। करुणा का अर्थ होता है: यह मैं कर रहा हूं ताकि यह मैं दे सकूं। करुणा यानी दान। वासना भिखारी बनाती है, करुणा सम्राट।
मुख्यं तस्य हि कारुण्यम्।
उनकी करुणा ही उनकी जीवन-क्रिया-कलाप का आधार है।
प्राणित्वात् न विभूतिषु।
‘विभूतियों के प्रति की हुई भक्ति पराभक्ति नहीं है, क्योंकि वे प्राणधारी जीव हैं।’
शांडिल्य कहते हैं: लेकिन एक बात खयाल रखना, किसी भी विभूति-संपन्न व्यक्ति को तुम कितना ही आदर दो, भक्ति दो, वह श्रद्धा तक जाएगी, पराभक्ति नहीं हो पाएगी।
मैंने तुम्हें शुरुआत में कहा, प्रीति-तत्व के चार रूप हैं। स्नेह; अपने से छोटे के प्रति, बच्चे के प्रति, शिष्य के प्रति। प्रेम; अपने से समान के प्रति, पति के प्रति, पत्नी के प्रति, मित्र के प्रति, भाई-बंधु के प्रति, पड़ोसी के प्रति। श्रद्धा; अपने से श्रेष्ठ के प्रति, मां के प्रति, पिता के प्रति, गुरु के प्रति। और भक्ति; परमात्मा के प्रति, समग्र के प्रति।
विभूतियों के प्रति तुम्हारा जो भाव है, वह श्रद्धा है। शांडिल्य इस बात को इसलिए कह देना चाहते हैं कि अक्सर यह हो जाता है कि अवतारों से तुम इतने अभिभूत हो जाते हो कि तुम भूल ही जाते हो कि अभी एक कदम और लेना है। गुरु से तुम इतने आक्रांत हो जाते हो कि तुम भूल ही जाते हो कि अभी एक कदम और लेना है। गुरु पर रुकना नहीं है, गुरु पर शुरुआत है। गुरु संसार और परमात्मा के बीच की कड़ी है। गुरु सेतु है। मगर सेतु पर घर नहीं बनाना होता, सेतु से आगे जाना है। सेतु का यही प्रयोजन है। इसलिए सदगुरु तुम्हें रुकने भी नहीं देगा। सदगुरु तुम्हें धक्के देगा। बुद्ध ने कहा है: अगर मैं रास्ते में मिल जाऊं, तो तलवार उठा कर मेरे दो टुकड़े कर देना। अगर मैं भी बाधा आऊं परमात्मा और तुम्हारे मिलने में, बीच में खड़ा हो जाऊं, तो मुझे हटा देना।
रामकृष्ण के गुरु तोतापुरी ने रामकृष्ण से कहा कि एक ही चीज बाधा बन रही है तेरे अनुभव में, तेरी काली। रामकृष्ण तो बहुत रोने लगे, ज़ार-ज़ार होकर रोने लगे, काली को छोड़ने की तो बात ही समझ में नहीं आती, काली यानी परमात्मा! लेकिन तोतापुरी कहता है कि काली ठीक है सेतु की तरह; लेकिन अभी एक कदम और लेना है। और रामकृष्ण के मन में तो काली के प्रति ऐसा प्रेम था कि मजनू का लैला के प्रति नहीं रहा होगा, कि शीरी का फरिहाद के प्रति नहीं रहा होगा, अपूर्व प्रेम था। शायद किसी बेटे ने कभी किसी मां को इतना नहीं चाहा होगा, जैसा रामकृष्ण ने काली को चाहा था। सारी श्रद्धा समर्पित कर दी थी। और उसी को भक्ति मान लिया था। यह इसी बात को शांडिल्य समझाने के लिए, सचेत करने के लिए ये सूत्र दे रहे हैं।
तोतापुरी ने कहा, तुझे यह तो छोड़ना ही पड़ेगा, तू आंख बंद कर...वह जो बुद्ध ने कहा कि मैं राह में मिल जाऊं तो तलवार उठा कर दो टुकड़े कर देना...तोतापुरी ने कहा कि तू आंख बंद कर और उठा कर तलवार काली के दो टुकड़े कर।
रामकृष्ण कहने लगे, तलवार वहां कहां से लाऊं?
तोतापुरी हंसे और उन्होंने कहा, तू काली को कहां से लाया?
मैंने सुना है, एक आदमी नाविक होना चाहता था, नौसेना में भर्ती होना चाहता था। उसका परीक्षण चल रहा था। सेनापति ने उससे पूछा कि तुम जहाज पर हो और मान लो तूफान आ जाए, तो क्या करोगे? तो उसने कहा, एक लंगर लटकाऊंगा। सेनापति ने कहा, अगर दूसरा तूफान आ जाए? तो उसने कहा, और एक लंगर लटकाऊंगा। और तीसरा तूफान आ जाए, और चौथा आ जाए, और पांचवां, और छठवां, और सातवां...। और वह आदमी कहता गया, एक लंगर और लटकाऊंगा। उसके सेनापति ने कहा, इतने लंगर लाएगा कहां से? तो उसने कहा, और ये तूफान कहां से लाए जा रहे हैं? जहां से तूफान लाए जा रहे हैं, वहीं से लंगर भी ले आऊंगा। ये तूफान चले आ रहे हैं इतने बड़े-बड़े!
रामकृष्ण ने कहा कि तलवार कहां से लाऊं?
तोतापुरी ने कहा कि काली को कहां से लाया? जिस कल्पना से काली को आरोपित किया है भीतर, जिस भावना से काली को आरोपित किया है भीतर...
रामकृष्ण तो आंख बंद करते कि सामने काली खड़ी हो जाती! वह मधुर रूप, वह लावण्य, वह ऊर्जा, वह ज्योति, वे तो अभिभूत हो जाते, आंसुओं की धार बहने लगती। बहुत दिन तोतापुरी ने बिठाया, लेकिन रामकृष्ण भीतर जाते, भूल ही जाते; घंटा, आधा घंटे बाद जब लौटते तो तोतापुरी कहता, किया? वे कहते, मैं तो भूल ही गया। इतनी सुंदर है मां कि कैसे काटूं? आप बात क्या करते हैं! आपकी बात मान भी लेता हूं तो भी मेरा मन तो राजी नहीं होता।
तोतापुरी ने कहा, तो फिर मैं जाता हूं--तोतापुरी आदमी अदभुत था, पहुंचे हुए परमहंसों में एक था--फिर मैं जाता हूं, फिर तू अटका रह। रामकृष्ण समझते तो थे यह बात, यह बात कहीं समझ में भी आती थी कि यह कल्पना तो मेरी ही है। अभी मैंने उसे नहीं जाना है जो है, अभी तो मैंने उसे जाना है जिसे माना है। अभी परमात्मा का रूप मेरे सामने प्रकट नहीं हुआ, अभी तो आकृति है यह, अभी अरूप और निराकार का अनुभव नहीं हुआ है। तोतापुरी चला गया तो यह आखिरी संभावना गई। तो रामकृष्ण ने पैर पकड़ लिए कि नहीं, जाएं न, आखिरी मौका दें!
तोतापुरी ने कहा, बस यह आखिरी है और मैं भी आखिरी उपाय करता हूं। वह बाहर गया और बोतल का एक टूटा हुआ टुकड़ा ले आया और उसने कहा कि जब तुम आंख बंद करोगे और जब मैं देखूंगा कि आंसू बहने लगे और काली आ गई, तो मैं तुम्हारे माथे पर जहां तीसरा नेत्र होता है वहां इस कांच के टुकड़े से काटूंगा, लहू की धार बह जाएगी बाहर, तुम्हें भीतर पीड़ा होगी। जैसे ही तुम्हें पीड़ा अनुभव हो, तो याद रखना कि यह आखिरी उपाय है, फिर मैं चला जाऊंगा, जैसे ही भीतर तुम्हें अनुभव में हो कि तोतापुरी मेरा माथा काट रहा है, तब चूकना मत, उठा कर तलवार और दो टुकड़े कर देना; जैसे मैं तुम्हारा माथा काटूं, ऐसे ही तुम काली को भी काट देना।
काली की प्रतिमा खड़ी भी वहीं तीसरे नेत्र में होती है। तुम जो भी कल्पना करते हो, वह तीसरे नेत्र में ही होती है। तीसरे नेत्र को योग ने आज्ञाचक्र कहा है। वहां तुम जो आज्ञा करोगे, वही हो जाएगा। वहां कल्पनाएं साकार हो जाती हैं। वहां हर कल्पना साकार हो जाती है। वहीं तुम रात सपना देखते हो, तीसरे नेत्र में। ये दो नेत्र तो बंद होते हैं, सपना तीसरे नेत्र में देखा जाता है; और इसीलिए चूंकि आज्ञाचक्र में सपना देखा जाता है, सपने पर तुम्हें भरोसा आ जाता है। रात सपने को देखते हो तब तुम मानते हो कि सपना सच है। सपने में याद ही नहीं पड़ता कि सपना झूठ है। आज्ञाचक्र इसीलिए उस चक्र को कहा है कि वहां तुमने जो देखा वही सत्य हो जाता है, वहां तुम्हारी आज्ञा काम करती है। कल्पनाजीवी लोग वहीं कल्पना के रूप-प्रतिबिंब देखते हैं। वहीं चित्रकार अपने चित्र देखता है, कवि अपनी कविताएं देखता है, वहीं संगीतज्ञ संगीत के नये भाव, अर्थ, भंगिमाएं देखता है, वहीं वैज्ञानिक अपने आविष्कार करता है। वहीं रामकृष्ण अपने प्रतिमा को खड़ा करते थे।
तोतापुरी ने ठीक जगह चुनी। तीसरे नेत्र को काटा। उस पीड़ा में रामकृष्ण ने भी हिम्मत की और तलवार उठा कर काली के दो टुकड़े कर दिए। काली के दो टुकड़े होकर गिरना कि विराट खुल गया। आज्ञाचक्र से छलांग लग गई। आज्ञाचक्र कट गया। काली नहीं कटी, आज्ञाचक्र दो टुकड़ों में कट गया, आज्ञाचक्र से ऊपर छलांग लग गई, सातवें चक्र में छलांग लग गई--सहस्रार में। वहां खिल गया कमल सहस्रदल। छह दिन तक रामकृष्ण बेहोश रहे। सहस्रार से उतारना मुश्किल हुआ। अनुभव इतना आनंद का है कि कौन उतरना चाहे! फिर लौटना कौन चाहे! जब लौटे तो जो पहला शब्द उनके मुंह से निकला वह धन्यवाद का था तोतापुरी के लिए। चरणों में गिर पड़े और कहा, मेरी आखिरी बाधा तुमने छीन ली। आखिरी बाधा!
गुरु आखिरी बाधा है, अगर रुको तो; नहीं तो आखिरी साधन है, बढ़ो तो। तुम पर निर्भर है। अगर बढ़ो, तो गुरु आखिरी साधन है, आखिरी सीढ़ी, आखिरी सोपान, उसके बाद परमात्मा है। इसलिए तो गुरु को ब्रह्मा कहा है--गुरुर्ब्रह्मा, बिलकुल आखिरी है, बस उसके बाद एक कदम और कि परमात्मा है; गुरु और ब्रह्मा, बस पास-पास खड़े हैं, पड़ोसी हैं। लेकिन गुरु पर मत रुक जाना, नहीं तो ऐसा न हो जाए कि गुरु ब्रह्म को आड़ में दे दे, आड़ में कर दे।
असदगुरु वही है जो तुम्हारे और तुम्हारे परमात्मा के बीच में खड़ा हो जाए और रुकावट डालने लगे। सदगुरु वही है जो ले जाए आज्ञाचक्र तक और फिर हट जाए। काली तो स्वयं नहीं हट सकती थी, क्योंकि काली तो सिर्फ रामकृष्ण की कल्पना थी। लेकिन सदगुरु स्वयं हट सकता है। फिर भी सदगुरु अपने आप नहीं हट सकता है, जब तक शिष्य साथ न दे। अगर शिष्य जिद करे कि मैं पकड़े ही रहूंगा, तो सदगुरु के भी बाहर है बात। इसलिए सदगुरु प्रारंभ से ही शिष्य को इस भांति तैयार करता है--एक तरफ लगाव भी लगाता है, एक तरफ प्रेम भी करता है, एक तरफ पास भी बुलाता है, दूसरे हाथ से हटाता भी है। दोनों तरह से तैयार रखता है कि जब आखिरी घड़ी आए तो ऐसा न हो कि एकदम हटाने में कठिनाई हो जाए, तुम हटने को राजी न होओ; तुम कहो--अब तक इतने प्रेम से बुलाया है, इतने प्रेम से सम्हाला, आज अचानक इनकार करने लगे। वह भाषा ही समझ में न आए!
इसलिए सदगुरु एक हाथ से निमंत्रण देता है, एक हाथ से चोट करता है। कबीर ने कहा है: जैसे कि कुम्हार घड़े को बनाता है, भीतर से सम्हालता है, बाहर से थपकी मारता है; एक तरफ से सम्हालता है कि भाग न जाओ, दूसरी तरफ से चोट भी करता है। और जैसे-जैसे तुम करीब आने लगते हो, वैसे-वैसे गहरी चोटें करता है, क्योंकि आखिरी चोट का दिन भी करीब आएगा जल्दी ही, जब उसे बिलकुल हट जाना होगा। उसके हटने में ही द्वार खुलेगा। इसलिए--
प्राणित्वात् न विभूतिषु।
विभूतियों से, उस परमात्मा की विभूतियों से इतने मत जुड़ जाना, ऐसा मत समझ लेना कि यही पराभक्ति है। श्रद्धा है। लेकिन अभी एक कदम और उठाना है, श्रद्धा के भी पार जाना है। और तुम पार जा सकते हो, क्योंकि तुम पार हो। सिर्फ याद, सिर्फ स्मृति दिलानी है तुम्हें।
मैं शोला था--मगर यों राख के तूदे ने सर कुचला
कि इक सीले-से पेचो-खम में ढल जाना पड़ा मुझको
मैं बिजली था--मगर वह बर्फ-आगीं बदलियां छाईं
कि दब कर उन चट्टानों में पिघल जाना पड़ा मुझको
मैं तूफां था--मगर क्या कहिए उस तिश्ना समंदर को
कि सर टकरा के साहिल ही से रुक जाना पड़ा मुझको
मैं आंधी था--मगर वह ख्वाब-आलूदा फजा पाई
कि खुद अपनी ही ठोकर खाकर झुक जाना पड़ा मुझको
मगर अब इसका रोना क्या है, क्या था देखिए क्या हूं
मैं इक ठहरा हुआ शोला हूं, इक सिकुड़ी हुई बिजली
असर नश्वो-नुमा पर डाल ही देता है गहवारा
मैं एक सिमटा हुआ तूफां हूं, इक सहमी हुई आंधी
मगर माबूदे-बेदारी! कहीं फितरत बदलती है
धुएं को गर्म होने दे, भड़कना अब भी आता है
मेरी जानिब से इतमीनान रख, आतिशनवा रहबर
जरा बादल तो टकराएं, कड़कना अब भी आता है
थपेड़े, हां, यूं ही पैहम थपेड़े, मौजे-आजादी
बहा दूंगा मताए-किश्ते-महकूमी, बहा दूंगा
झकोले, हां, यही बरहम झकोले, सरसरे-हस्ती
हिला दूंगा तजाहे-जीस्त की चूलें, हिला दूंगा
मैं शोला था--मगर यों राख के तूदे ने सर कुचला
मैं तो एक अंगारा था, लेकिन राख का ढेर इस तरह मेरे ऊपर सवार हो गया कि मैं भूल ही गया कि मैं कौन हूं। ऐसी तुम्हारी दशा है।
मैं शोला था--मगर यों राख के तूदे ने सर कुचला
कि इक सीले-से पेचो-खम में ढल जाना पड़ा मुझको
मैं बिजली था--मगर वह बर्फ-आगीं बदलियां छाईं
ये बर्फीली बदलियां आ गईं, मैं तो बिजली था।
...मगर वह बर्फ-आगीं बदलियां छाईं
कि दब कर उन चट्टानों में पिघल जाना पड़ा मुझको
मैं तूफां था--मगर क्या कहिए उस तिश्ना समंदर को
प्यासे समंदर को क्या कहें!
मैं तूफां था--मगर क्या कहिए उस तिश्ना समंदर को
कि सर टकरा के साहिल ही से रुक जाना पड़ा मुझको
मैं आंधी था--मगर वह ख्वाब-आलूदा फजा पाई
ऐसी गहरी नींद आ गई , ऐसी गहरी नींद की संभावना पाई थी।
मैं आंधी था--मगर वह ख्वाब-आलूदा फजा पाई
कि खुद अपनी ही ठोकर खाकर झुक जाना पड़ा मुझको
मगर अब इसका रोना क्या है, क्या था देखिए क्या हूं
मैं इक ठहरा हुआ शोला हूं, इक सिकुड़ी हुई बिजली
असर नश्वो-नुमा पर डाल ही देता है गहवारा
मैं इक सिमटा हुआ तूफां हूं, इक सहमी हुई आंधी
यही तुम हो, यही सब हैं।
मैं इक सिमटा हुआ तूफां हूं, इक सहमी हुई आंधी
मगर माबूदे-बेदारी!...
मगर हे परमात्मा!
...कहीं फितरत बदलती है
कहीं स्वभाव बदलता है!
मगर माबूदे-बेदारी! कहीं फितरत बदलती है
तूफान तूफान रहता है, कितना ही सिकुड़ जाए। और अंगारा अंगारा रहता है, कितना ही राख में दब जाए। और आंधी आंधी रहती है, कितनी ही नींद में खो जाए।
मगर माबूदे-बेदारी! कहीं फितरत बदलती है
धुएं को गर्म होने दे, भड़कना अब भी आता है
मेरी जानिब से इतमीनान रख, आतिशनवा रहबर
जरा बादल तो टकराएं, कड़कना अब भी आता है
जरा मौके की तलाश है, ठीक समय, ठीक अवसर, ठीक भूमि मिल जाए, ठीक सत्संग मिल जाए, तो अभी राख गिर जाए और अंगारा फिर प्रकट हो जाए। ठीक साथ मिल जाए, ठीक हाथ मिल जाए, तो जो बिलकुल भूल गया है, जो बिलकुल विस्मृत हो गया है, वह पुनः याद आ जाए; फिर दीया जल जाए।
मेरी जानिब से इतमीनान रख, आतिशनवा रहबर
जरा बादल तो टकराएं, कड़कना अब भी आता है
मगर माबूदे-बेदारी! कहीं फितरत बदलती है
धुएं को गर्म होने दे, भड़कना अब भी आता है
थपेड़े, हां, यूं ही पैहम थपेड़े, मौजे-आजादी
थपेड़े आते रहें, आने दे; स्वतंत्रता की लहरें आती रहें, आने दे!
थपेड़े, हां, यूं ही पैहम थपेड़े, मौजे-आजादी
बहा दूंगा मताए-किश्ते-महकूमी, बहा दूंगा
आने दे स्वतंत्रता की लहरों को, इन थपेड़ों को आते रहने दे लगातार, तो यह जो दासता की संपदा है, यह जो कूड़ा-कर्कट गुलामी का इकट्ठा हो गया है--
बहा दूंगा मताए-किश्ते-महकूमी, बहा दूंगा
झकोले, हां, यही बरहम झकोले, सरसरे-हस्ती
जीवन की यह गर्म हवा आने दे।
हिला दूंगा तजाहे-जीस्त की चूलें, हिला दूंगा
जीवन की असंगतियों की जो बुनियाद है, उसे हिला दूंगा।
हिला दूंगा तजाहे-जीस्त की चूलें, हिला दूंगा
कुछ बदला नहीं है; एक सपने में भला खो गए हो, लेकिन सत्य से वंचित नहीं हो गए हो। नींद भला आ गई है, आंख खुल सकती है। नशा भला छा गया है, नशा टूट सकता है। राख घिर गई है, राख उड़ सकती है। सत्संग चाहिए; किसी अंगारे का साथ चाहिए जिसकी राख उड़ गई हो।
इसलिए शांडिल्य ने सत्संग की बड़ी महिमा गाई है। जहां चार प्रेमी इकट्ठे होते हों और परमात्मा की बात करते हों, सब छोड़ कर वहां बैठ जाना। जहां चार आदमी परमात्मा की प्रशंसा के गीत गाते हों, अपने अनुभव की बात करते हों, रोते हों, रोमांचित होते हों, वहां दूर-दूर खड़े मत रह जाना, वहां दर्शक बन कर मत बैठे रह जाना, वहां डुबकी लगा लेना, वहां उनके साथ जुड़ जाना, नाचना, गाना, रोमांचित होना। तुम्हारे भीतर जो छिपा है, वह भी प्रकट हो सकता है।
आज इतना ही।
तद्वाक्यशेषात् प्रादुर्भावेष्वपि सा।। 46।।
जन्मकर्म्मविदश्चाजन्मशब्दात्।। 47।।
तच्च दिव्यं स्वशक्तिमात्रोद्भवात्।। 48।।
मुख्यं तस्य हि कारुण्यम्।। 49।।
प्राणित्वान्न विभूतिषु।। 50।।
युक्तौ च सम्परायात्।
प्रकृति और पुरुष दो नहीं हैं। आत्मा और परमात्मा दो नहीं हैं। दृश्य और द्रष्टा दो नहीं हैं। भक्ति की यह आधारशिला है कि एक होने का उपाय है। एक होने का उपाय तभी हो सकता है, जब वस्तुतः हम एक हों ही। यथार्थ से अन्यथा नहीं हो सकता। भक्त भगवान से मिल सकता है तभी, जब मिला ही हुआ हो। जब पूर्व से ही मिला हो, जब प्रथम से ही विरह न हुआ हो, बिछुड़न न हुई हो।
यह थोड़ी जटिल बात है, इसे खयाल में लेना।
आम का बीज बोते हैं, आम पैदा होता है। आम इसलिए पैदा होता है कि आम छिपा था, आम था ही। नहीं तो कंकड़ बोते तो आम पैदा हो जाता। जो छिपा है, वह प्रकट होता है। इस जगत में वही मिलता है जो मिला ही हुआ है। भेद इतना ही पड़ता है कि छिपा था, अब प्रकट हुआ। तुम भगवान हो, लेकिन अभी बीज की नाईं; जब वृक्ष की नाईं होओगे, तब जानोगे, तब पहचानोगे।
शांडिल्य कहते हैं: दोनों प्रथम से ही एक हैं।
युक्तौ च सम्परायात्।
कभी अलग हुए नहीं। अलग होना भ्रांति है। अलग होना हमारे मन का भ्रम है। और यह भ्रम हमने इसलिए पैदा किया है कि इसी अलग होने के भ्रम के आधार पर अहंकार पाला-पोसा जा सकता है। यदि तुम परमात्मा हो तो तुम रहे ही नहीं, परमात्मा रहा। बूंद डरती है सागर होने से। बूंद सागर हो जाएगी तो बूंद नहीं रह जाएगी, सागर ही रहेगा। विराट के साथ मिलने में भय लगता है। आकाश के साथ जुड़ना दुस्साहस की बात है।
इसलिए भक्त को दुस्साहसी होना ही होगा। बूंद अपने को खोने चली है। छोटी सी बूंद इतने विराट सागर में! फिर न पता लगेगा, न ओर-छोर मिलेगा; फिर अपने से शायद कभी मिलना भी न हो। इतनी खोने की जिसकी हिम्मत है, वही भक्त हो सकता है। और जो भक्त हो सकता है, वही भगवान हो सकता है। भक्त होने का अर्थ है: बीज ने अपने को तोड़ने का निर्णय लिया। तुम जमीन में बीज को बोते हो; जब तक बीज टूटे नहीं, वृक्ष नहीं होता; जब तक बीज मिटे नहीं, तब तक अंकुरण नहीं होता; बीज की मृत्यु ही वृक्ष का जन्म है। तुम्हारी मृत्यु ही भगवान का आविर्भाव है। भक्त जहां मरता है, वहीं भगवत्ता उपलब्ध होती है। इसीलिए तो लोगों ने झूठी भक्ति की व्यवस्थाएं खोज रखी हैं, ताकि अपने को मिटने से बचा सकें। मंदिर जाते हैं, प्रार्थना करते हैं, पूजा करते हैं, यज्ञ-हवन करते हैं, अपने को बचाए रखते हैं। आग में घी डालते हैं, अपने को नहीं डालते। आग में गेहूं डालते हैं, अपने को नहीं डालते। वृक्षों से तोड़ कर फूल परमात्मा के चरणों में चढ़ा आते हैं, अपने को नहीं चढ़ाते। और जिसने अपने को नहीं चढ़ाया, उसने पूजा जानी ही नहीं; वह बीज टूटा ही नहीं, अंकुरण से उसकी कोई मुलाकात ही न हुई।
बिना मिटे इस जगत में होने का कोई उपाय नहीं। छोटे तल पर मिटो तो बड़े तल पर प्रकट होते हो। जितने ज्यादा मिटो, उतने प्रकट होते हो। जब परिपूर्ण रूप से मिटते हो, तब भगवत्ता उपलब्ध होती है, क्योंकि भगवत्ता पूर्णता है, उसके पार फिर कुछ और नहीं।
लेकिन यह हो सकता है इसीलिए, क्योंकि यह हुआ ही हुआ है। इस उदघोषणा को जगह दो अपने हृदय में। तुम भगवान हो सकते हो, क्योंकि तुम भगवान हो। भगवान ने तुम्हें एक क्षण को नहीं छोड़ा है, तुम भला पीठ करके खड़े हो गए हो। तुमने भला आंखें बंद कर ली हैं। सूरज निकला है और चारों तरफ जगत रोशन है। तुम अंधेरे में खड़े हो, यह तुम्हारा निर्णय है। अंधेरा है नहीं, अंधेरा बनाया हुआ है, कृत्रिम है। इस कृत्रिम बनाए हुए अंधेरे का नाम माया है, जो आदमी खुद बना लेता है।
तुमने एक आश्चर्य से भरने वाली बात देखी कि लोग दुख को बड़ी मुश्किल से छोड़ते हैं! बात एकदम से कहो तो बेबूझ लगती है। मनस्विदों से पूछो। सिग्मंड फ्रायड से पूछो। सिग्मंड फ्रायड खुद भी तीस वर्षों तक इस पहेली से परेशान रहा। सैकड़ों लोगों का मनोविश्लेषण करने के बाद एक बात बार-बार उभर कर सामने आई कि लोग दुख को छोड़ने को राजी नहीं हैं। कहते हैं, मानते भी हैं शायद कि हम दुख छोड़ना चाहते हैं, लेकिन छोड़ने को राजी नहीं हैं। फ्रायड बड़ा किंकर्तव्यविमूढ़ था। क्योंकि हम तो सदा से यही सुनते रहे हैं कि आदमी सुख चाहता है। यह बात तो इतनी प्रचारित की गई है कि हमने मान लिया है कि आदमी सुखवादी है, सभी सुख चाहते हैं। लेकिन जरा आदमी को गौर से देखो। आदमी दुख को पकड़ता है, दुख को छोड़ता नहीं। आदमी दुखवादी है।
तीस साल के मनोविश्लेषण का परिणाम था कि फ्रायड ने एक नये सत्य का आविर्भाव किया, जो कि फ्रायड के पहले किसी दूसरे मनुष्य ने इस तरह से स्पष्ट रूप से घोषित नहीं किया था। उसने स्वदुखवाद की धारणा को पकड़ा--मैसोचिज्म। आदमी अपने को सताता है। जिसको तुम तपश्चर्या कहते हो, वह अक्सर मैसोचिज्म होता है। गर्मी है, धूप पड़ रही है आग जैसी, और कोई धूनी रमाए बैठा है। तुम कहते हो--महात्यागी। जो जानते हैं, उनसे पूछो। यह महात्यागी नहीं है। यह महादुखवादी है। सर्दी पड़ रही है, पानी जम कर बर्फ हुआ जा रहा है, और कोई नग्न खड़ा है आकाश के नीचे। तुम कहते हो तपस्वी। यह तपस्वी नहीं है, यह रुग्णचित्त है। यह दुख को पकड़ रहा है। यह अपनी छाती में घाव कर रहा है। यह सुख से नहीं जीना चाहता। इसने दुख के उपाय कर रखे हैं।
तुम अपने ही भीतर देखोगे तो तुम हैरान होओगे, तुम जानते हो भलीभांति कि दुख के उपाय हैं। जैसे क्रोध सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं लाता, लेकिन तुम छोड़ते क्यों नहीं? अहंकार सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं लाता, फिर तुम छोड़ते क्यों नहीं? तो तुम्हारी जो सदियों से दोहराई गई बकवास है कि आदमी सुखवादी है, उस पर शक पैदा होता है। तुम जानते हो कि इस जगत में जो जितनी वासना से चलता है, उतने ही विषाद से भरता है। तुम भी वासना के रास्ते पर चले हो और कांटों के सिवाय कभी कुछ मिला नहीं। फूल खिले कब? हर बार हारे हो। जीत की आकांक्षा ने बहुत बुरी तरह हराया है। लेकिन जीत की आकांक्षा नहीं छोड़ते। उसे जोर से पकड़े हुए हो। जरूर उसमें कुछ न्यस्त स्वार्थ है।
क्या न्यस्त स्वार्थ है?
एक ही न्यस्त स्वार्थ दिखाई पड़ता है कि जब तुम दुख में होते हो, तब तुम होते हो। और जब तुम सुख में होते हो, तब तुम नहीं होते। और यही भय है। सुख से लोग भयाक्रांत हैं। कोई सुखी नहीं होना चाहता। क्योंकि सुख के लिए एक कीमत चुकानी पड़ती है, वह है मैं का टूट जाना। दुख में मैं साबित रहता है। साबित ही नहीं रहता, बड़ा बलिष्ठ और स्वस्थ रहता है। दुख पोषण है मैं के लिए, अहंकार के लिए, अस्मिता के लिए। इसीलिए तो तुम अपने दुख को बढ़ा-चढ़ा कर कहते हो। जांचना अपने को ही। जब तुम अपने दुख की बात करते हो, तो तुम कितना बढ़ा-चढ़ा कर कह रहे हो।
इधर मैं देखता हूं रोज, ऐसा आदमी कभी मुझे दिखाई नहीं पड़ता जो अपने दुख पर शक करता हो, जो कभी मुझसे आकर कहे कि मैं बहुत दुखी हूं, मैं बहुत परेशान हूं, कहीं यह दुख मेरे मन की कल्पना ही तो नहीं है? नहीं, एक आदमी नहीं कहता। लेकिन जब यहां लोग ध्यान में धीरे-धीरे उतरना शुरू करते हैं और सुख की थोड़ी झलकें आती हैं, सुख के थोड़े झोंके आते हैं, कुछ भीतर की कारा टूटती है, कुछ झरोखे खुलते हैं, थोड़ी रोशनी भीतर पड़ती है, कहीं-कहीं कोने में कोई फूल खिलता है और सुगंध से प्राण व्याप्त होते हैं, भागे मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि बड़ा सुख हो रहा है, यह कहीं मन की कल्पना तो नहीं है? यह वही आदमी, जो जन्मों से दुखी था, कभी शक न उठाया दुख पर, सुख पर शक उठाता है।
अगर तुम दुखी हो तो कोई तुमसे नहीं कहेगा कि कुछ गड़बड़ है। अगर तुम सुखी हो, लोग कहेंगे कि तुम आत्म-सम्मोहित हो गए, आटो-हिप्नोटाइज्ड हो गए। अगर तुम हंसो, नाचो सड़क पर, तो लोग कहेंगे--पागल हो गए हो। अगर तुम मुर्दे की तरह चलो, लाश की तरह अपने को ढोओ, लोग कहेंगे--बिलकुल स्वस्थ-सामान्य आदमी है।
मुस्कुराहट स्वीकार नहीं है। इसीलिए तो लोग इतने उदास दिखाई पड़ते हैं, इतने थके-हारे दिखाई पड़ते हैं, इतना बोझ ढोते दिखाई पड़ते हैं। पहाड़ उनकी छाती पर रखे हैं, उनके सिर पर इतना सदियों का बोझ है कि चल भी नहीं सकते, लेकिन घसिट रहे हैं। बोझ को उतार कर भी नहीं रखते, क्योंकि बोझ को उतार कर रखो तो तुम्हें खुद भी शक होता है कि मैं बचा? क्योंकि तुम्हारा बोझ ही तुम हो। और तुम बोझ को उतारो तो दूसरों को शक पैदा होता है, दूसरे कहते हैं--क्या हुआ है तुम्हें? आज बड़े हंस रहे हो, कुछ भांग-गांजा तो नहीं पीने लगे? आज बड़े प्रसन्न मालूम पड़ते हो, किसी धोखे में तो नहीं आ गए? और यही नहीं कि दूसरों को शक होता है, तुम्हें भी भीतर शक होता है कि यह आज मेरे भीतर ताजगी-ताजगी, बात क्या है? कुछ गड़बड़ हुई जाती है, जैसा होना चाहिए वैसा नहीं हो रहा है। एक दिन सुबह उठ कर अगर तुम अचानक अपने को समाधिस्थ पाओ, विश्वास करोगे?
यहां कभी-कभी ऐसा हो जाता है। कभी-कभी आकस्मिक, समाधि की एक बाढ़ आ जाती है किसी को। रोआं-रोआं कंप जाता है भय से, क्योंकि उस समाधि की बाढ़ में अगर कोई चीज बह जाती है तो वह तुम हो। तुम खड़े नहीं रह सकते उस सुख के अंधड़ में। उस आंधी में तुम नहीं बचोगे। जड़-मूल उखाड़ कर ले जाएगी। इसलिए आदमी ने निर्णय कर लिया है कि दुख में रहूंगा, लेकिन कम से कम रहूंगा; मैं मिटना नहीं चाहता; अगर दुख की कीमत पर ही बच सकता हूं तो इसी कीमत पर सही, लेकिन मैं मिटना नहीं चाहता। और इसलिए तुम उन्हीं बातों को रोज-रोज करते हो जिनसे दुख पैदा होता है। यह बात तुम्हें दिखाई पड़नी शुरू हो जाए तो शायद क्रांति घटे। सुख पर भरोसा करो, दुख पर संदेह करो। यह कैसी बुद्धिमत्ता है कि तुम सुख पर संदेह करते हो और दुख पर भरोसा करते हो?
अब यह बड़े मजे की बात है। तुम महात्माओं के पास जाओ। तुम्हारे महात्मा तुमसे बहुत ज्यादा भिन्न नहीं हैं। तुम्हारी ही आकांक्षाओं, तुम्हारी ही मूढ़ताओं, तुम्हारी ही धारणाओं के प्रतिफलन हैं। तुम अपने महात्मा के पास जाओ, वे तुमसे कहेंगे, संसार में दुख ही दुख है। अगर तुम उनसे कहो संसार में सुख है, वे कहते हैं--सुख सब भ्रम है। और दुख? दुख बिलकुल सच।
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि महात्मा कहे चले जाते हैं कि संसार में सुख तो सब धोखा है, दुख बिलकुल सच्चा है! दुख को इशारा कर-कर के बताते हैं--यहां दुख, यहां दुख, यहां दुख। तुम अपने शास्त्र पढ़ो! वे शास्त्र कहते हैं कि स्त्री में है क्या? कौन सा सुख? कौन सा सौंदर्य?
अब जरा उनका तर्क समझना।
स्त्री में कोई सौंदर्य नहीं है, ऐसा वे कहते हैं; क्योंकि उसको उघाड़ कर देखो, उसको भीतर देखो, मलमूत्र भरा हुआ है। मलमूत्र सत्य है, सौंदर्य असत्य है!
अगर सौंदर्य असत्य है, तो उसी के साथ कुरूपता भी असत्य हो गई, क्योंकि कुरूपता फिर सत्य नहीं हो सकती। जब सौंदर्य ही नहीं है जगत में, तो कुरूपता कैसे हो सकती है? लेकिन कुरूपता तो बिलकुल सच है, उसे तो खोद-खोद कर जाहिर करने में रस लेते हैं, इस तरह के वर्णन करते हैं कि तुम्हें मतली आने लगे। मतली सच है, वह जो कै उठने लगे तुम्हारे भीतर, वह सच है; लेकिन वह जो किन्हीं आंखों में तुम्हें सौंदर्य की झलक मिली, वह झूठ है। जगत में मृत्यु सत्य है, जीवन झूठ है। स्वास्थ्य झूठ है, बीमारी सच है। तुम्हारा महात्मा रस लेता है दुखों की फेहरिस्त बनाने में। बड़ा कुशल है। जैसे तुम सुबह लांड्री की लिस्ट बनाते हो, वह रोज सुबह उठ कर दुखों की लिस्ट बनाता है। वह फेहरिस्त को बड़ी करता चला जाता है। मामला क्या है? क्यों दुख में इतनी उत्सुकता है?
तुम्हारा महात्मा भी दुख पर जीता है, तुम भी दुख पर जीते हो। तुम्हारा महात्मा तुमसे थोड़ा आगे चला गया है, इसलिए तुम उसे महात्मा कहते हो। वह तुमसे ज्यादा दुखवादी है, तुमसे ज्यादा मैसोचिस्ट है। फ्रायड को कोई महात्मा अध्ययन करने को नहीं मिला, मुझे महात्मा अध्ययन करने को मिले। फ्रायड ने तो केवल साधारण आदमियों के अध्ययन पर यह कहा कि आदमी दुखवादी है, मैं सैकड़ों महात्माओं को देख कर तुमसे यह कहता हूं कि आदमी तो कुछ भी नहीं है, अगर असली दुखवादी देखना है तो महात्मा! तुम उनकी पूजा भी इसलिए करते हो, क्योंकि तुम्हारा तर्क और उनका तर्क मेल खाता है, तुम्हारे गणित समान हैं। तुम जरा छोटा-मोटा धंधा कर रहे हो, वे बड़े व्यापारी हैं। तुम फुटकर काम करते हो, वे थोक करते हैं। तुम्हारी छोटी परचून की दुकान है, उनका बड़ा विस्तार है, बड़ी फैक्टरी है। तुम छोटे दुख पैदा करते हो, वे बड़े दुख पैदा करते हैं। मात्रा का भेद है, गुण का भेद नहीं है।
इस जगत में अगर तुम दुख ही तलाश करने निकलोगे, तो निश्चित दुख पाओगे। जो आदमी कांटे ही खोजने निकला है, वह कांटे ही खोज लेगा। जगत में कांटे नहीं हैं, ऐसा मैं नहीं कह रहा; कांटे हैं। मगर फूल भी हैं। तुम पर चुनाव है। जो कांटे ही कांटे चुनेगा, धीरे-धीरे उसे फूल दिखाई पड़ने बंद हो जाते हैं। हो ही जाएंगे। उसकी आंखें कांटों के साथ संगति बिठा लेती हैं। तुम जो देखते हो, देखते हो, देखते रहते हो, फिर धीरे-धीरे वही देख पाते हो। जो फूलों से संबंध बनाता है, फूलों से मैत्री बनाता है, उसे धीरे-धीरे कांटों में भी फूल दिखाई पड़ने लगते हैं।
भक्ति दुखवाद नहीं है। भक्ति महासुखवाद है। इसलिए भक्त में और तुम्हारे त्यागी में फर्क को खयाल रखना। भक्त जीवन में रस लेता है, भक्त जीवन में मग्न है। हालांकि खाने-पीने के रस पर ही नहीं रुक जाता, क्योंकि जीवन में और बड़े रस हैं। मगर जिसने खाने-पीने का रस भी न लिया, वह और बड़े रस कैसे लेगा? भक्त आगे बढ़ता है। धीरे-धीरे संसार को पीते, संसार को अनुभव करते, उसे परमात्मा का स्वाद भी आने लगता है।
इसलिए शांडिल्य कहते हैं: ‘युक्तौ च सम्परायात्।’
यह संसार परमात्मा से पृथक नहीं है, युक्त है, एक है, दोनों जुड़े हैं, मिलन कभी टूटा नहीं है, आलिंगन कभी टूटा नहीं है, आलिंगन में खड़े हैं। जैसे दो प्रेमी आलिंगन में खड़े हों, ऐसे ये प्रकृति और पुरुष आलिंगन में हैं। तुम सुख को खोजोगे तो सुख के परमस्रोत परमात्मा को खोज लोगे। सुख को खोजोगे तो स्वर्ग खोज लोगे।
मगर मजा है कि तुम सुख के नाम पर भी दुख खोजते हो, कहते हो कि सुख खोज रहे हैं। एक आदमी कहता है--मैं सुख ही तो खोज रहा हूं, इसीलिए तो धन इकट्ठा कर रहा हूं। धन इकट्ठा करने से क्या सुख का संबंध हो सकता है? मैं यह नहीं कह रहा हूं कि धनी आदमी को अनिवार्य रूप से दुखी होना चाहिए। हालांकि धनी आदमी अनिवार्य रूप से दुखी होता है। तुम जितना दुखी धनी को पाओगे, उतना गरीब को नहीं पाओगे। आज अमरीका की मुसीबत क्या है? यही कि धन है। तुम जो खोज रहे हो, वह अमरीका ने पा लिया, और सब तरफ दुख व्याप्त हो गया है। अमरीका नरक बन गया है। अब कुछ समझ में नहीं आता--अब क्या करें?
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि जो लोग धन खोज रहे थे अमरीका में, सुख खोज रहे थे, सोचते थे, लेकिन मिला तो दुख। तुमने सोचा था कि आम बो रहे हो, बो दी थी नीम। फल सिद्ध करेगा कि क्या बोया था। तुम जरा अमीर आदमियों को देखो, तुम उनकी आंखों में जीवन का आह्लाद पाते हो? और उनके हृदय में प्रेम का गीत उठता है? और उनके पैरों में कोई नृत्य है? अनुग्रह है? परमात्मा के प्रति कोई धन्यवाद है?
नहीं, विषाद है, शिकायत है। बिलकुल हारे-थके खड़े हैं। उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि अब क्या करें? अब तक सोचते थे--धन मिलने से सुख मिलेगा। धन मिल गया और सुख का तो कुछ पता नहीं है, और जीवन हाथ से गया। अब धन का ढेर लगा है और जीवन हाथ से खो गया है--वह जीवन जो दुबारा वापस नहीं मिल सकता, वह समय जिसे लौटाने का कोई उपाय नहीं। यह ठीकरे का ढेर लग गया है। किस कीमत पर?
सिकंदर एक फकीर से मिला और उसने फकीर से पूछा कि मैं संसार को जीतने निकला हूं, मुझे आशीर्वाद दो।
उस फकीर ने कहा, आशीर्वाद दूंगा, उसके पहले एक प्रश्न है! तुम संसार को जीत लिए, मानो; मान लो कि संसार जीत लिए। और एक महा रेगिस्तान में अकेले पड़ गए हो, प्यास लगी है भयंकर, और एक गिलास पानी मिल जाए, इसके लिए तड़प रहे हो; मर जाओगे। और मैं एक गिलास पानी लेकर वहां मौजूद होता हूं। लेकिन ऐसे ही मुफ्त नहीं दे दूंगा एक गिलास पानी। तुम कितना मूल्य चुकाने को राजी होओगे?
सिकंदर ने कहा, जो मांगोगे।
फकीर ने कहा, आधा राज्य।
सिकंदर थोड़ा झिझका--हालांकि अभी देने-लेने की कोई बात नहीं थी, यह केवल कल्पना का सवाल था, लेकिन फिर भी झिझका--आधा राज्य! एक गिलास पानी के लिए! लेकिन फिर पूरी परिस्थिति सोची। भयंकर रेगिस्तान, भरी दोपहरी आग बरसती, कहीं कोई रास्ते का पता नहीं, दूर-दूर तक गांव की कोई खबर नहीं; कब पहुंच पाऊंगा इस रेगिस्तान के बाहर, कोई संभावना नहीं; प्यास से मरा जा रहा है। तो अब आधा राज्य भी अगर देना पड़े एक गिलास पानी के लिए, सिकंदर ने थोड़े संकोच से कहा कि ठीक, अगर ऐसी परिस्थिति होगी और मृत्यु सामने खड़ी होगी, तो फिर आधा राज्य भी दूंगा।
फकीर ने कहा, मैं भी कुछ इतनी जल्दी पानी बेच नहीं दूंगा, पूरा राज्य चाहिए।
सिकंदर ने कहा, बात क्या करते हो? कुछ सीमा होती है किसी बात के मूल्य की! एक गिलास पानी!
पर फकीर ने कहा, परिस्थिति सोच लो, वही एक गिलास पानी तुम्हारा जीवन है, पूरा राज्य दोगे तो ही दे सकूंगा।
सिकंदर ने थोड़ा सोचा और कहा, अच्छा, अगर ऐसी स्थिति होगी तो पूरा राज्य भी दूंगा, क्योंकि जीवन बड़ी चीज है।
फकीर हंसने लगा। उसने कहा, बस, इसको तुम याद रखना, आशीर्वाद क्या मांगते हो! जीवन बड़ी चीज है। तुम जीवन को गंवा दोगे, राज्य पा लोगे--और राज्य की इतनी कीमत है कि जरूरत पड़ जाए तो एक गिलास पानी में बिक जाए। इसका मूल्य कितना है?
तुम धनी आदमी से जरा गौर से पूछो, जांचो। जो पद पर पहुंच गए हैं, उनको जरा परखो, पहचानो। वे सभी यह सोचते थे कि सुख की तलाश में चले हैं; नरक में पहुंच गए हैं। मानने से थोड़े ही कोई स्वर्ग पहुंचता है। तुम्हारी दिशा कहां है? तो दुनिया में जिनको तुम संसारी कहते हो, वे भी दुख ही खोज रहे हैं। सिर्फ अपने को भरमाने के लिए उन्होंने दुख के डिब्बों पर सुख के लेबल लगा रखे हैं। और जिसको तुम धार्मिक कहते हो, वह भी दुख खोज रहा है। उसने अपने दुख के डिब्बों पर पुण्य के लेबल लगा रखे हैं। इतना ही भेद है। लेबल का भेद है। दोनों दुख खोज रहे हैं। इस जगत में अगर कोई आदमी सुख खोजता मिल जाए, तो वही भक्त है।
फिर सुख का क्या मतलब होगा? फिर सुख का एक ही मतलब हो सकता है कि दुख मेरे मैं को पुष्ट करता है; सुख की खोज का एक ही अर्थ हो सकता है कि मैं इस मैं को छोड़ दूं जो दुख पर जीता है, जिसके लिए दुख अनिवार्य है, मैं इस दुख को छोड़ दूं। दुख का त्याग इस जगत में सबसे बड़ा त्याग है।
मैं अपने संन्यासी से वही कहता हूं--दुख का त्याग। तुम्हारे त्यागी कहते हैं--त्याग के नाम पर दुख का वरण। मैं तुमसे कहता हूं--त्याग एक ही है, दुख का त्याग। तुम्हें थोड़ी यह बात अजीब लगेगी, स्वभावतः, क्योंकि दुख तो तुम कहते हो सभी छोड़ना चाहते हैं। मैं तुमसे फिर दोहराता हूं कि कोई नहीं छोड़ना चाहता। दुख को लोग पकड़ते हैं। जहां से दुख आता है, उसी दिशा में दौड़ने लगते हैं।
तुमने कभी देखा, कोई पक्षी कमरे में आ जाता है और फिर बंद खिड़की के कांच से सिर टकराने लगता है। तुम्हें भी कभी लगा होगा कि पक्षी भी कैसे मूढ़ होते हैं! जिस दरवाजे से आया है वह अब भी खुला है, इस बंद खिड़की के कांच से सिर टकराने की जरूरत क्या है? इस पक्षी को इतना होश नहीं है कि जहां से आया हूं वहीं से वापस चला जाऊं? लेकिन पक्षी सिर टकराता है। कभी तो लहूलुहान कर लेता है अपने को, पंख टूट जाते हैं। लेकिन जो खुला दरवाजा है, उस तरफ नहीं जाता, बंद दरवाजे की तरफ दौड़ता है।
सुख का दरवाजा खुला दरवाजा है। परमात्मा ने दरवाजा बंद नहीं किया, उसका मंदिर का दरवाजा खुला है। शायद इसीलिए तुम उस तरफ नहीं जाते। खुले दरवाजे में क्या रस? आदमी बंद दरवाजों में उत्सुक होता है। आदमी के इस मनोविज्ञान को समझना।
अगर किसी चीज को आकर्षक बनाना हो, उसे छिपाओ। इसलिए एक बुर्के में जाती मुसलमान औरत जितनी खूबसूरत होती है, उतनी खूबसूरत दूसरी औरत नहीं होती। बुर्का! राह चलता हर आदमी रुक कर देखना चाहता है कि बुर्के में क्या है?
बर्ट्रेंड रसेल ने लिखा है कि जब वह बच्चा था--विक्टोरिया का जमाना था--तब स्त्री के पैर का अंगूठा भी दिख जाता था तो लोग कामोत्तेजित हो जाते थे। घाघरे पहने जाते थे जो कि जमीन को छुएं, जिससे पैर भी स्त्री का, अंगूठा भी दिखाई न पड़े। सौ साल में दुनिया बदल गई है, पश्चिम में तो निश्चित बदल गई है, स्त्रियां नग्न समुद्रतटों पर लेटी हैं, कोई कामोत्तेजित नहीं हो रहा है।
छिपाओ, आकर्षण पैदा होता है। निषेध करो, निमंत्रण मिलता है लोगों को। किसी दरवाजे पर तख्ती टांग दो कि यहां झांकना मना है। बस, फिर वहां से बिना झांके कोई निकल ही न सकेगा। मेरे गांव में एक वकील हैं, उन्होंने अपनी दीवाल पर लिख छोड़ा है कि यहां पेशाब करना मना है! सारा गांव वहां पेशाब करता है। वे मुझसे बोले कि बात क्या है? मैंने कहा, तुम दीवाल से ये अक्षर हटा दो। इनको पढ़ कर, जिसको नहीं पेशाब लगी है उसको भी लग आती है। जो आदमी अपने काम से चला जा रहा था, जिसे अभी खयाल भी नहीं था, जब वह एकदम से देखता है बड़े-बड़े अक्षर--यहां पेशाब करना मना है! उसे तत्क्षण खयाल आता है, कि अरे चलो! और उसे यह भी खयाल आता है कि यह दीवाल योग्य होगी, तभी तो लिखा गया है! नहीं तो कोई हर कहीं थोड़े ही लिखता है।
जैसे ही तुम निषेध करते हो, वैसे ही कुछ आकर्षण पैदा होता है। फिर तुम बात को समझना। जहां निषेध है, वहां अहंकार को रस होता है, क्योंकि अहंकार को चुनौती मिलती है। अहंकार बड़े काम करना चाहता है। जो काम सरल है, अहंकार करना ही नहीं चाहता। अहंकार कठिन काम करना चाहता है। क्योंकि कठिन से ही सिद्ध होगा कि मैं कुछ हूं। सरल से कैसे सिद्ध होगा? जैसे तुम कहो कि मैं सांस लेता हूं। इससे क्या फायदा? लोग कहेंगे--सांस तो सभी लेते हैं। पशु-पक्षी भी लेते हैं, जानवर भी लेते हैं, वृक्ष भी लेते हैं। तुम सांस लेते हो इसमें कौन सी खूबी है? इसमें क्यों अकड़े जा रहे हो? राष्ट्रपति होकर दिखाओ! तुम कहते हो--रात में सो जाते हैं। लोग कहेंगे--तुम भी खूब हो, इसमें खूबी की बात क्या है? सो गए तो ठीक है, सभी सो जाते हैं, कुत्ते-बिल्ली भी सो जाते हैं। धनपति होकर दिखाओ! जो कठिन हो वह करके दिखाओ, सरल से क्या लेना-देना है?
तुमने सुना न, झेन फकीर रिंझाई का वचन। किसी ने पूछा कि तुम करते क्या हो? तुम्हारी साधना क्या है? उसने कहा, जब भूख लगती है तब खाना, जब नींद आए तब सो जाना। पर उस आदमी ने कहा, इसमें खूबी की बात क्या है? रिंझाई ने कहा, यही तो खूबी की बात है कि हम सरल से जीते हैं।
दरवाजा खुला है, लेकिन पक्षी भी दरवाजे से नहीं जाता, बंद खिड़की पर सिर मारता है। बंद खिड़की को तोड़ने में चुनौती है, एक मजा है, सिद्ध करने का एक मौका है कि मैं कुछ हूं। जहां-जहां कठिनाई है, वहां-वहां तुम्हें रस है। लेकिन जहां-जहां कठिनाई है, वहीं-वहीं दुख है। पंख टूट जाएंगे, पक्षी लहूलुहान हो जाएगा। और अगर किसी तरह कांच को तोड़ने में भी सफल हो जाए तो और भी महंगा पड़ जाएगा सौदा। तब कांच भी छिद जाएगा।
दरवाजा प्रतिपल खुला है। दरवाजा खुला ही था। नहीं तो पक्षी भीतर ही कैसे आता? तुम इस संसार में जिस दरवाजे से आए हो, वह दरवाजा अभी भी खुला है, उसी दरवाजे से बाहर हुआ जा सकता है। लेकिन तुम उससे बाहर नहीं होना चाहते। तुम कुछ सिद्ध करके जाना चाहते हो। तुम नाम छोड़ जाना चाहते हो। तुम यश, प्रतिष्ठा, अस्मिता के लिए दीवाने हो रहे हो। और इन सबसे दुख आता है।
परमात्मा सरलतम है, इसीलिए लोग चूकते हैं। मैं दोहराऊं, क्योंकि परमात्मा ने तुम्हें चारों तरफ से घेरा हुआ है और परमात्मा इतना मुफ्त मिला हुआ है, इसीलिए कोई उसमें उत्सुक नहीं है।
मुझसे कभी-कभी कोई आकर पूछता है कि परमात्मा मिलता क्यों नहीं
? मैं उसको कहता हूं: क्योंकि वह मिला हुआ है, इसलिए तुम खोजते नहीं।
तुम अपने जीवन को परखोगे तो यह बात समझ में आ जाएगी। जो चीज मिल जाती है, उसी में रस खो जाता है। पति को पत्नी में रस नहीं रह जाता, पत्नी को पति में रस नहीं रह जाता। दूसरे की पत्नी में, दूसरे के पति में रस होता है। तुम्हें अपनी कार में रस नहीं होता, पड़ोसी की कार में रस होता है। तुम्हें अपने मकान में रस नहीं होता, पड़ोसी के मकान में रस होता है। कहते हैं न कि पड़ोसी का लॉन ज्यादा हरा मालूम होता है। दूर के ढोल सुहावने होते हैं।
क्यों तुम्हें अपने में रस नहीं है? क्योंकि जो अपना ही है, वह तो है ही, अब अहंकार को सिद्ध करने का वहां कोई उपाय नहीं है। बात खतम हो गई। सुंदरतम स्त्री भी साधारण हो जाती है मिलते ही। और कुरूप स्त्री भी असाधारण होती है, अगर न मिले। जितनी कीमत तुम्हें चुकानी पड़े उसे पाने को, उतनी ही असाधारण मालूम होती है। जितना मुश्किल हो पाना, जितना एवरेस्ट की चढ़ाई करनी पड़े, उतने ही तुम उद्विग्न हो जाते हो, उतने ही ज्वरग्रस्त हो जाते हो, उतनी ही वासना प्रबल वेग की तरह उठती है।
जो सुगम है, सरल है, उसमें रस नहीं। और परमात्मा सुगमतम है।
युक्तौ च सम्परायात्।
तुम कभी उससे अलग नहीं हुए हो। प्रकृति और पुरुष एक। द्वैत भ्रांति है। द्वैत मन के कारण है, अहंकार के कारण है। अद्वैत सत्य है। और मन के हटते ही अद्वैत साफ हो जाता है। मन यानी अस्मिता, अहंकार, मैं का भाव। यह अद्वैत-अनुभव भक्ति है; न भक्त बचता वहां, न भगवान बचता वहां, बचती है भगवत्ता, बचती है एक ऊर्जा जिसका नाम भक्ति, बचती है एक सुवास जिसका नाम प्रीति। और इसकी प्रतीति भक्त में अनेक ढंगों से होती है। उन अनेक लक्षणों की बात पिछले सूत्रों में शांडिल्य ने कही। उसके आगे के ही अब सूत्र हैं।
तत् वाक्य शेषात् प्रादुर्भावेषु अपि सा।
शांडिल्य कहते हैं: ‘जो मैंने कहा, यही बात और जानने वालों ने, और जीने वालों ने भी कही है।’
तत् वाक्य शेषात् प्रादुर्भावेषु अपि सा।
‘यह वाक्य, यह वचन, यह सूत्र अनंत काल से लेकर अवतार आदियों ने भी बार-बार कहा है।’
समझना। भक्त के अंतर में क्या हुआ, यह तो भक्त ही जानता है, वह तो ऐसी अनुभूति है कि बाहर से कोई न जान सकेगा। लेकिन फिर भी बाहर कुछ किरणें तो पड़ेंगी। जब घर में दीया जलेगा, तो राह चलते लोगों को भी घर की खिड़की से रोशनी दिखाई पड़ेगी, रंध्रों से रोशनी दिखाई पड़ेगी, खपड़े के छेदों से रोशनी दिखाई पड़ेगी। जब किसी के घर में धूप जलेगी, तो पड़ोसियों के नासापुटों तक भी गंध की कुछ खबरें हवा उड़ा कर ले जाएगी। जब किसी के जीवन में भगवत्ता का अवतरण होता है, तो उसके आस-पास भी गंध उड़ती है, रोशनी फैलती है; उसके आस-पास की हवा में एक शीतलता, उसके आस-पास सुख की भनक, उसके पास एक शांति का वातावरण। उसी वातावरण को पीने तो सत्संग के लिए लोग जाते हैं। उसी हवा को अपनी छाती में भर लेने के लिए सत्संग के लिए लोग जाते हैं।
पश्चिम में सत्संग को प्रकट करने वाला कोई शब्द नहीं है पश्चिम की भाषाओं में, क्योंकि सत्संग की कला ही विकसित नहीं हुई। पूरब ने कुछ अनूठी बातें दुनिया को दी हैं, उनमें एक सत्संग भी है। सत्संग बड़ी अनूठी प्रक्रिया है। यह इस बात की प्रक्रिया है कि जिसको मिला है, उसके पास बैठेंगे। कुछ कहेगा तो सुन लेंगे, नहीं कहेगा तो भी गुनेंगे, उसके पास बैठेंगे, उसकी हवा में सांस लेंगे, कुछ न होगा उसका चरण ही छू लेंगे, उसके सामने सिर झुकाएंगे, झोली फैलाएंगे, उससे आशीष मांगेंगे, चुप सन्नाटे में उसके पास बैठेंगे। उसके भीतर कोई झरना बह रहा है, शायद कुछ बूंदें हमें भी उपलब्ध हो जाएं; उसके भीतर परमात्मा का फूल खिला है, शायद हमारे कानों में भी, बहरे कानों में थोड़ी भनक पड़ जाए; हमारी अंधी आंखों में शायद एकाध किरण प्रवेश कर जाए। और एक किरण काफी है, फिर सूरज की खोज शुरू हो जाती है। शायद उसके पास बैठे-बैठे परमात्मा की प्राप्ति तो न हो, लेकिन परमात्मा की प्यास जग जाए, वह भी क्या कम है!
तो जिन्होंने जाना है, जिन्होंने जीया है, उन्होंने कुछ लक्षण कहे हैं जो भक्त में प्रकट होंगे। महाभारत में कहा है--
न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो न शुभा मतिः,
भवन्ति कृतपुण्यानाम् भक्तानाम् पुरुषोत्तमे।
वहां क्रोध नहीं होगा; वहां क्रोध की जगह करुणा होगी। वहां लोभ नहीं होगा, वहां लोभ की जगह दान होगा।
भेद समझना। जिसको परमात्मा मिला है, उसे अब तुम कुछ दे भी तो नहीं सकते। अब उसके पास लेने का कोई स्थान भी नहीं बचा है, सारी जगह परमात्मा घेर लेता है। अब तो तुम उससे कुछ ले सकते हो, उसे दे नहीं सकते। उसके सामने झोली फैला सकते हो।
एक धनपति ने एक झेन फकीर के पास जाकर हजार स्वर्णमुद्राओं से भरी हुई थैली जोर से पटकी। जोर से पटकी ताकि बैठे हुए सत्संगी भी आवाज सुन लें--सोने की आवाज! कौन नहीं पहचानता? जिनके पास नहीं है वे भी पहचानते हैं। चौंक गए सारे लोग। जो सो गए थे और झपकी खा रहे थे--अक्सर लोग धर्मसभाओं में वही करते हैं--उन्होंने भी आंखें खोल दीं; सोने की आवाज! लेकिन फकीर ने झोली को बगल में सरका दिया और कहा, कुछ कहना तो नहीं है?
वह आदमी तो जैसे सात आसमानों से गिर गया। वह आया है हजार स्वर्णमुद्राएं--पुराने जमाने की कहानी है, जब बड़ा मूल्य था स्वर्णमुद्राओं का--जिंदगी भर की कमाई, और यह आदमी ऐसे सरका दिया, और पूछता है: कुछ कहना तो नहीं है? इसने धन्यवाद भी नहीं दिया। इसके चेहरे पर कोई भाव भी नहीं आया। उस धनपति ने कहा, हजार स्वर्णमुद्राएं कम नहीं होतीं, जीवन भर की कमाई है!
फकीर ने कहा, तो क्या तुम चाहते हो मैं धन्यवाद दूं?
सकुचाया होगा वह धनपति। उसने कहा कि नहीं, धन्यवाद चाहे न भी दें, मगर इतनी उपेक्षा भी न दिखाएं।
उस फकीर ने कहा, तुम जो देने आए हो, देने के भाव में ही भ्रांति हो गई है। मुझे मिल गया परमधन। अब उसके आगे और कोई धन नहीं है। इसलिए जो यहां देने आता है, वह गलत दृष्टि से आया। यहां आओ तो लेने आओ। यहां आओ तो झोली फैला कर आओ। धन्यवाद तुम मुझे दो कि मैंने तुम्हारा यह कचरा बगल में सरका कर रख दिया कि ठीक है, चलो ले आए, कोई बात नहीं--क्षमा करता हूं। धन्यवाद तुम मुझे दो! मैं तुम्हें धन्यवाद दूं?
भक्त के जीवन में, महाभारत कहती है: क्रोध की जगह करुणा, लोभ की जगह दान...उसके पुण्य के फल पकेंगे, उसके पुण्य की बास फैलेगी, उसके कुछ स्थूल लक्षण पकड़े जा सकते हैं। कृष्ण ने पूरी सूची दी है लक्षणों की--
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शांतिर्पैशुनम्
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत
‘हे भारत!’--अर्जुन को कृष्ण ने कहा है--‘हे भारत, अभय, चित्तशुद्धि, योगानुराग, दान, संयम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सरलता, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति, अलोभ, अहंकार-शून्यता, ह्री अर्थात असत कार्यों में सहज संकोच, अचंचलता, तेज, क्षमा, धृति अर्थात सुख-दुख में अविचल-भाव, अद्रोह, ये सब दिव्यपुरुष के लक्षण हैं।’ ये उस भक्त में प्रकट होते हैं।
शांडिल्य कहते हैं: भीतर की जो घटना है, वह तो भक्त जानेगा; लेकिन जो भीतर है, वह भी बाहर से तो जुड़ा ही है। यहां कोई भी चीज असंयुक्त नहीं है। तुमने श्वास ली, भीतर गई, फिर वही श्वास बाहर गई--बाहर और भीतर प्रतिक्षण लेन-देन चल रहा है। बाहर और भीतर अलग-थलग नहीं हैं। बाहर और भीतर एक ही ऊर्जा के दो छोर हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए घटना तो भीतर घटेगी, लेकिन घटना की ध्वनियां बाहर भी सुनाई पड़ेंगी। कुछ बातें सहजता से प्रकट होंगी।
फर्क खयाल में लेना! यही तत्व, जिसको तुम महात्मा कहते हो, त्यागी कहते हो, वह भी इन्हीं तत्वों की प्रशंसा करता है। जैसे अहिंसा, दया, त्याग, निर-अहंकारिता--उदाहरण के लिए चार ले लें। महात्मा, त्यागी, विरागी भी इनकी महत्ता बताता है, लेकिन भक्त और उसकी महत्ता बताने में क्या भेद है? बड़ा भेद है। शांडिल्य कहते हैं: भगवान के मिलने से ये गुण अपने आप प्रकट होते हैं। तुम्हारा तथाकथित तपस्वी कहता है: ये गुण प्रकट हों तो भगवान मिलता है।
इस भेद को खयाल में ले लेना। शांडिल्य कहते हैं: ये लक्षण हैं भक्त के, साधना नहीं। ये तो जो भक्त भगवान में लीन होने लगा, उसमें सहज उठी हुई तरंगें हैं। इनके कारण भगवान नहीं मिलता, भगवान के कारण ये तत्व घटित होते हैं। यह बड़ा क्रांतिकारी भेद है।
इसको ऐसा समझें। तुम्हारे घर में अंधेरा है और मैं तुमसे कहूं कि दीया जलाओ, दीये के जलते ही अंधेरा चला जाता है। तुम तार्किक आदमी हो, तुम सोच-विचार वाले आदमी हो, दार्शनिक हो, तुम इसका गणित बिठाओ--तुम कहो कि ठीक है, कहा गया कि जब प्रकाश होता है तो अंधेरा नहीं होता; अर्थात जब अंधेरा नहीं होता तब प्रकाश होता है। तर्क में तो यह बात ठीक है। अगर तुम इसको जीवन-व्यवहार में लाने की कोशिश करोगे तो मुश्किल में पड़ जाओगे। तार्किक रूप से यह बात सच है कि जहां अंधेरा है, वहां प्रकाश नहीं है। जहां अंधेरा नहीं है, वहां प्रकाश। अगर तुम अंधेरे को हटाने में लग जाओ, पोटलियां बांध कर अंधेरे को फेंकने जाओ गड्ढों में, या धक्के देकर अंधेरे को निकालना चाहो, या तलवारें ले आओ और अंधेरे को काट-पीट करके घर से बाहर कर देना चाहो, तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। अंधेरा ऐसे नहीं निकलता। प्रकाश आ जाए तो निकलता है। अंधेरा निकाल कर प्रकाश नहीं आता, प्रकाश के आने से अंधेरा निकलता है।
यही भक्त की उदघोषणा है। भक्त कहता है: जीवन में बहुत सी बुराइयां हैं; लेकिन परमात्मा के आ जाने पर ही निकलती हैं। तुम चाहते हो कि बुराइयां पहले निकाल दें, फिर परमात्मा आए; तो तुम अंधेरा निकालने में लगे हो। परमात्मा है रोशनी। भक्त कहता है: मैं जैसा बुरा-भला हूं, रो तो सकता हूं उसके लिए, पुकार तो सकता हूं उसके लिए। अपात्र हूं, यह मुझे पता है। लेकिन उसके बिना आए पात्र होऊंगा भी कैसे? उसका ही संस्पर्श मिलेगा तो यह लोहा सोना बनेगा। वही पारस आएगा और छुएगा तो यह अंधकार रोशनी में बदलेगा। इसलिए भक्त कहता है: भगवान को मैं पुकारूंगा; अपनी अपात्रता, अपनी दीनता को समझूंगा और भगवान को पुकारूंगा। मेरी अपात्रता मेरी प्रार्थना में बाधा नहीं बनेगी। अपात्र हूं इसीलिए तो प्रार्थना कर रहा हूं।
इसलिए देखते हो, जो पात्र हो जाता है वह प्रार्थना क्यों करेगा? वह दावेदार होता है, प्रार्थना क्यों? वह कहता है: इतने उपवास किए, इतने तप किए, घर-द्वार छोड़ा, धन छोड़ा, पद छोड़ा, पहाड़ पर बैठा रहा इतने वर्षों तक, अब प्रार्थना क्या? अब मिलना चाहिए! अब यह मेरा हक है, यह मेरा अधिकार है! अगर कहीं कोई अदालत हो तो वह परमात्मा पर मुकदमा चलाने के लिए आतुर है। वह कहता है: अभी तक मिले क्यों नहीं? प्रार्थना का सवाल ही क्या है?
प्रार्थना तो भक्त करता है। भक्त कहता है: मेरी योग्यता तो कुछ भी नहीं। तुम मिलो, ऐसा दावा तो मेरा कुछ भी नहीं। तुम न मिलो, यह बिलकुल समझ में आता है, मैं इस योग्य ही नहीं हूं कि तुम मुझे मिलो। इसलिए इसमें शिकायत जरा भी नहीं है, शिकवा जरा भी नहीं है। तुम नहीं मिल रहे हो, यह बिलकुल तर्कसंगत है, क्योंकि मैं पात्र ही नहीं हूं। तुम मिलोगे, वही विस्मय-विमुग्ध करेगा मुझे, उस पर ही भरोसा करना मुश्किल हो जाएगा कि मुझ अपात्र को मिले!
जब भी परमात्मा किसी के जीवन में उतरा है, तब उसने ऐसा ही अनुभव किया है--मुझ अपात्र को मिले! किस करुणावश? प्रसाद रूप। प्रयास के फल की तरह नहीं। परमात्मा एक भेंट की तरह मिलता है। जब तुम किसी को भेंट देते हो तो पात्रता थोड़े ही सोचते हो। भेंट में पात्रता नहीं सोची जाती। भेंट तो प्रेम है।
यही गुण तथाकथित त्यागी ने भी पकड़ रखे हैं, मगर उसकी पकड़ उलटी है। वह सोचता है: अहिंसा पहले; सरलता पहले; अलोभ पहले; अभय पहले। भक्त पूरी प्रक्रिया को उलटा देता है। शांडिल्य कहते हैं: ये पहले नहीं, ये लक्षण हैं। जब आ जाएगा प्रभु तुम्हारे भीतर, जब तुम्हारे भीतर का दीया जलाएगा, तब दूसरों को अनेक लक्षण दिखाई पड़ने शुरू होंगे। उनको इस तरह बांटा जा सकता है। जिसके भीतर परमात्मा बैठा है, उसे पाने को कुछ नहीं रहा, इसलिए अलोभ। उसके पास देने को इतना है कि जितना दे दे और चुकेगा नहीं, इसलिए दान। परमात्मा बिना प्रयास के मिला है, इसलिए सरलता। परमात्मा बाढ़ की तरह आया है और सब बहा कर ले गया, सब कूड़ा-कर्कट गया, इसलिए शांति। ये सब स्वाभाविक परिणतियां हैं। भक्ति का मार्ग सहज मार्ग है। और इसी अर्थ में वैज्ञानिक भी है।
तत् वाक्य शेषात् प्रादुर्भावेषु अपि सा।
जन्म कर्म विदः च अजन्म शब्दात्।
‘भगवान के जन्म-कर्म का रहस्य जानने वाले पुरुष का भी फिर जन्म नहीं होता।’
यह भक्त की परम गति, कि जिसने जान लिया, परमात्मा को पहचान लिया, छिपा जिसके सामने प्रकट हो गया, रहस्य ने जिसके सामने घूंघट उठा दिए, फिर उसका दुबारा जन्म नहीं होता। जन्म का कोई कारण नहीं रह जाता, क्योंकि खोजने को ही कुछ नहीं बचता। अंतिम घड़ी आ गई।
संसार विद्यापीठ है। जिसने परमात्मा को पा लिया, वह उत्तीर्ण हो गया। जिसने परमात्मा को न पाया, उसे बार-बार आना पड़ेगा। उसे आते ही जाना पड़ेगा। जब तक तुम उत्तीर्ण न हो जाओ, वापस हर वर्ष लौट आना पड़ेगा विश्वविद्यालय में। कोई बिना उत्तीर्ण हुए जगत से पार नहीं जा सकता।
उत्तीर्ण होने का क्या लक्षण होगा?
जिसने भगवान के जन्म-कर्म का रहस्य जान लिया।
क्या रहस्य है भगवान के जन्म और कर्म का?
दो रहस्य। एक, कि भगवान अजन्मा है। और तुम भी अजन्मा हो। भगवान अज है और तुम भी अज हो। प्रारंभ कभी हुआ ही नहीं। प्रारंभ में कोई प्रारंभ था ही नहीं। न कोई अंत है। अस्तित्व अनादि और अनंत है। सब सदा से है, और सब सदा रहेगा। रूप बदलते हैं, आकृतियां बदलती हैं, मगर ऊर्जा वही है। तुम न मालूम कितनी देहों में पहले आए और न मालूम कितनी देहों में और आओगे। लेकिन जो आता रहा, जाता रहा, वह एक ही है। तुम्हारा पक्षी न मालूम कितने-कितने पिंजड़ों में बंद हुआ, और न मालूम कितने आकाशों में उड़ा, और न मालूम कितने रूप धरे, लेकिन जो अंतर्तम था, वह वही है। इस जगत में जो भेद हैं, वे केवल नाम और रूप के भेद हैं।
परमात्मा के जन्म का जो रहस्य समझ लेगा, उसका अर्थ हुआ, उसने समग्र के जन्म का रहस्य समझ लिया। इस समग्र का कभी कोई जन्म नहीं हुआ है। तुम इस समग्र के हिस्से हो, तुम्हारा भी कोई जन्म नहीं हुआ है। और तभी तुम्हें एक बात खयाल में आ जाएगी: जब जन्म नहीं हुआ तो मृत्यु भी नहीं हो सकती।
बुद्ध मर रहे थे, आखिरी घड़ी आ गई थी, शिष्य रो रहे थे, उन्होंने आंख खोली और आनंद से कहा कि तू रोता क्यों है?
आनंद ने कहा, इसलिए रोता हूं कि आप जा रहे हैं।
बुद्ध ने कहा, मैंने जीवन भर एक ही बात समझाई कि न मैं कभी आया और न कभी जाता हूं; न मेरा कोई जन्म है, न मेरी कोई मृत्यु है; और जिसका जन्म है और जिसकी मृत्यु है, वह मैं नहीं हूं, वह केवल रूप मात्र है, स्वप्न मात्र। स्वप्न ही बनते और बिखरते हैं, सत्य वैसा का वैसा, जस का तस, ज्यों का त्यों।
कृष्ण का वचन है--
जन्म कर्म च मे दिव्यमेव यो वेत्ति तत्त्वतः
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन
‘हे अर्जुन, मैं सत, चित, आनंद रूप हूं, मैं अज और नित्य होने पर भी लोक उपकारार्थ देह धारण करता हूं।’
परमात्मा अज है, अजन्मा है और अमृत है। अज ही अमृत हो सकता है। जो जन्मा है, वह तो मरेगा। जो नहीं जन्मा है, वही नहीं मरेगा। परमात्मा से अर्थ समझ लेना, समग्र का नाम है परमात्मा, कोई व्यक्ति का नाम नहीं है। सारे जोड़ का नाम परमात्मा है--वृक्ष और पहाड़, और स्त्रियां और पुरुष, और नदियां, और चांद-तारे, सबका जोड़। उस जोड़ का कोई जन्म नहीं है। उस जोड़ में मैं भी हूं, तुम भी हो। हमारा भी कोई जन्म नहीं। इसलिए भक्त मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। जन्म ही नहीं तो मृत्यु कैसे होगी? तुमने मान लिया है कि तुम्हारा जन्म है, इसीलिए तुम मृत्यु से परेशान हो। तुमने एक घड़ी दिन तय कर रखा है कि उस दिन मैं जन्मा था, तो फिर पक्का हो गया कि एक घड़ी दिन तुम्हें मरना होगा। फिर चिंता है। फिर तुम कंपे जा रहे हो, फिर तुम भयभीत हो। उसी भय के कारण धन इकट्ठा करते हो, मकान बनाते हो, पत्नी, बच्चे--किसी तरह से अपने को बचा लें! मिट न जाऊं! जहां से जरा सा मिटने का डर आता है, वहीं सुरक्षा का इंतजाम करते हो।
लेकिन तुम्हारी कोई मृत्यु नहीं है। तुम सदा से हो, तुम सदा रहोगे।
भगवान के जन्म का रहस्य जान कर ही व्यक्ति अपने भी जन्म और जीवन का रहस्य जान लेता है। वही मुक्ति है। फिर लौटना नहीं होगा। और भगवान के कर्म का रहस्य। वहां कोई कर्ता नहीं है; फिर भी सब हो रहा है। भगवान बैठ कर यहां एक-एक चीज का हिसाब नहीं कर रहा है कि अब इस झाड़ को पानी चाहिए, और अब इस आदमी को रोटी चाहिए, और अब यह पत्ता पीला पड़ गया है, इसको गिराना चाहिए, और अब वसंत आया जा रहा है तो बीज डालने चाहिए, और यह चांद कहीं तिरछा न चला जाए, कहीं रास्ते से न चूक जाए, तो सब बैलगाड़ी को ठीक-ठीक हांकते रहना चाहिए, ऐसा कोई भगवान नहीं है जो व्यवस्था कर रहा है। यह व्यवस्था बड़ी स्वाभाविक है, कोई करने वाला नहीं है। यहां कोई बैठा हुआ बीच में इस सारे आयोजन को सम्हाल नहीं रहा है।
लोगों की भगवान के प्रति धारणाएं इसी तरह की हैं, वे यही सोच रहे हैं कि कोई सत्ताधारी आज्ञा दे रहा है, जगह-जगह फरमान निकाल रहा होगा कि अब ऐसा होने दो! अब ऐसा होने दो! अब रात हो जाने दो, अब दिन हो जाने दो! अब देर हुई जा रही है, अब जल्दी से सुबह करो, सूरज को निकालो।
कोई कहीं कर्ता नहीं है, सब हो रहा है। वैसी ही दशा तुम्हारी भी है, तुम्हारे भीतर भी सब हो रहा है, कर्ता कोई भी नहीं है। छोटे पैमाने पर तुम इस बड़े विराट का छोटा सा लक्षण हो। तुम अपने भीतर ही खोज कर देखो! भूख लगती है तब कोई भूख लगाता है? जब तुम श्वास भीतर लेते हो तो कोई श्वास भीतर लेता है? जब नींद आती है तो कोई नींद लगाता है? कब तुम बच्चे से जवान हो गए और कब जवान से बूढ़े हो गए, कोई कर रहा है? सब हो रहा है।
इस सूत्र को हृदय में सम्हाल कर रखना--सब हो रहा है। जैसे ही तुम्हें यह बात समझ में आ जाए कि सब हो रहा है, सारी चिंताएं समाप्त हो जाती हैं। चिंता यही है कि कहीं ऐसा न हो कि मैं कुछ चूक जाऊं, कुछ कर न पाऊं, कहीं वैसा न हो जाए! चिंता कर्ता की छाया है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम चिंता से कैसे मुक्त हों?
मैं उनसे कहता हूं: तुम प्रश्न ही गलत पूछते हो। पूछो, कर्ता से कैसे मुक्त हों? कर्ता रहेगा तो चिंता रहेगी। और अब तुम एक नई चिंता ले रहे हो सिर पर मोल कि चिंता से कैसे मुक्त हों? अब यह भी तुम्हें करके दिखाना है। अब यह और एक नया कर्ता पैदा होगा कि चिंता से मुक्त होना है।
समझो! कर्ता कोई भी नहीं है। यह सारा का सारा जो हो रहा है, स्वाभाविक है, सहज है, अपने से है, स्वयंभू है। जैसे ही यह बात समझ में आती है, एक विश्राम आ जाता है। फिर कोई चिंता नहीं; फिर जो होता है, ठीक ही होता है; जो होगा, ठीक ही होगा; जो हुआ, ठीक ही हुआ। इसलिए भक्त कोई पश्चात्ताप नहीं करता और न भविष्य की चिंता करता है, न योजना बनाता है। और भक्त के मन में कभी यह द्वंद्व नहीं उठता कि ऐसा कर लेते तो अच्छा होता। वैसा क्यों कह दिया? वैसा क्यों कर लिया? न, भक्त ने तो छोड़ दिया है अपने को विराट के साथ, अब जहां ले जाओ, जो करवाओ--जैसी उसकी मर्जी।
और ध्यान रखना, यह सब भाषा की बात है, जब मैं कहता हूं जैसी उसकी मर्जी। वहां कोई है नहीं जिसकी मर्जी है। मर्जी हो तो वह चिंता से मर जाए। कब का भगवान मर गया होता! जरा सोचो, तुम एक छोटा सा घर सम्हालते हो, मरे जा रहे हो, आत्महत्या का विचार कई दफे उठने लगता है। घर तुम्हारा बड़ा छोटा सा है, कुछ खास सम्हालना भी नहीं है; एक पत्नी है, दो बच्चे हैं, इन्हीं को सम्हालना है, ये ही तुम्हें काफी सताए डाल रहे हैं! आदमी साठ-पैंसठ के पार होते-होते सोचने लगता है--हे प्रभु, अब उठा लो, अब बहुत हो गया, अब नहीं सहा जाता।
यूरोप और अमरीका में, जहां उम्र लंबी हो रही है, क्योंकि चिकित्सकों ने नई-नई औषधियां उपलब्ध कर दीं, लोग अस्सी-नब्बे और सौ तक सहज जी रहे हैं, सौ के पार भी जा रहे हैं, वहां एक नया आंदोलन चल रहा है। वह आंदोलन है--आत्महत्या का अधिकार। तुमने सुना कभी--आत्महत्या का अधिकार! खैर, इस देश में तो नहीं चल सकता, यहां तो अभी जीवन का ही अधिकार नहीं, आत्महत्या के अधिकार का तो सवाल ही दूसरा है! यहां किसी तरह जीवन तो जुट जाए! लेकिन अमरीका में आत्महत्या के अधिकार पर बड़ा विचार चलता है। और दस-पंद्रह साल के भीतर अमरीका के विधान में आत्महत्या का मूलभूत अधिकार जुड़ कर रहेगा। जोड़ना ही पड़ेगा। क्योंकि जो आदमी एक सौ बीस साल का हो गया और मरना चाहता है--क्या करे? नहीं जीना चाहता अब! बहुत हो गया! हर चीज की सीमा होती है। किसी भी चीज को सीमा के आगे खींच दो, अड़चन शुरू हो जाती है। अब न उसे रस है, जीवन के सब सपने देख लिए, सब व्यर्थ हो गए; जीवन के सब खेल खेल लिए और कुछ पाया नहीं; अब खाट पर पड़े-पड़े सड़ने का क्या प्रयोजन है? और चिकित्सक उसे लटकाए रख सकते हैं। आक्सीजन का सिलिंडर लगाया हुआ है, टांग बांधी हुई है, हाथ अटकाया हुआ है, ग्लूकोज लटकाया हुआ है, वह पड़ा है, वे उसको रख सकते हैं इसी हालत में। यह कोई जिंदगी है? वह पूछता है कि इसको जिंदगी कहने का क्या अर्थ है? मैं विदा होना चाहता हूं। लेकिन चिकित्सक को अधिकार नहीं है कि वह आक्सीजन बंद कर दे। क्योंकि चिकित्सक का जो नियम है वह पुरानी दुनिया से बना है, जब जीना ही मुश्किल था। नियम तब बना था। और अब जीने से ज्यादा जीना संभव हो गया है; तो नियम बदल देने होंगे।
हर आदमी एक सीमा पर अनुभव करने लगता है--मर ही जाऊं! तुम जरा परमात्मा की तो सोचो! कभी का या तो पागल हो गया होगा, या कभी की आत्महत्या कर ली होगी, या भाग गया होगा, संन्यासी हो गया होगा, दूर निकल गया होगा संसार से कि अब नहीं लौटना है कभी, सब त्याग करके चला गया होगा।
नहीं, वहां कोई भी नहीं है। वहां सन्नाटा है। और जिस दिन तुम इस सत्य को समझ लेते हो कि इतना विराट जगत बिना कर्ता के चल रहा है, उस दिन अपनी इस छोटी सी जिंदगी में क्यों यह कर्ता को बनाना, यह भी चलने दो, यह भी होने दो!
इन दो बातों को समझ कर--कि इस संसार का न कोई प्रारंभ है, न अंत; और इस संसार को न कोई चलाने वाला है, न कोई नियोजन करने वाला है; यह विराट अपनी ही ऊर्जा से बहा जाता है, यह स्वयंभू है--भक्त भी मुक्त हो जाता है।
जन्म कर्म विदः च अजन्म शब्दात्।
इन दो शब्दों का अर्थ समझ में आ जाए, जन्म और कर्म, कि सब समझ में आ गया।
तत् च दिव्यं स्व शक्ति मात्र उद्भवात्।
‘उनका जन्म-कर्म आदि सभी दिव्य और असाधारण है; उनकी ही शक्ति से वे नाना रूप दिखाई पड़ते हैं।’
लेकिन हमें उस परमात्मा का तो कुछ पता नहीं है, वह परमात्मा तो बहुत दूर है, शायद हमारे पास उसे पकड़ने की आंख भी नहीं है, हाथ भी नहीं है, समझने की बुद्धि और प्रतिभा भी नहीं है। इसलिए शांडिल्य कहते हैं: भगवान के अवतारों को समझने की कोशिश करो। भगवान तो पकड़ में नहीं आता, लेकिन राम पकड़ में आ जाते हैं, कृष्ण पकड़ में आ जाते हैं, बुद्ध पकड़ में आ जाते हैं, मोहम्मद पकड़ में आ जाते हैं, इनको पकड़ो, इनको समझो। बुद्ध के होने का क्या प्रयोजन है? बुद्ध को कौन चला रहा है? बुद्ध के भीतर ऐसा कोई भाव उठता है कि मैं अब ऐसा करूं, या जो होता है, होता है? इसमें बीच-बीच में बुद्ध कुछ बाधा डालते हैं, या निर्बाध इस जीवन की धारा को बहने देते हैं?
परमात्मा दूर है, उसका अवतार निकट है। जिन्होंने परमात्मा को जान लिया है, उनका जीवन समझो। तो वहां भी तुम यही पाओगे कि समर्पण है, परम समर्पण है। जैसे वृक्ष में पत्ते लगते हैं और वृक्ष में फूल आते हैं, ऐसा कवि गीत को गाता है, बस ऐसे ही; ऐसे ही कृष्ण चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं; ऐसे ही बुद्ध बोलते हैं, समझाते हैं; ऐसे ही बुद्ध जीते हैं और विदा हो जाते हैं; इसमें कहीं भी कोई अहंकार बैठ कर आयोजन-नियोजन नहीं कर रहा है।
‘उनका जन्म-कर्म आदि सभी दिव्य और असाधारण है।’
अवतारों को देखो तो बड़ी असाधारणता पाओगे। क्या असाधारणता है? क्या दिव्यता है? करने वाला कोई नहीं और विराट घटता है। करने वाला कोई भी नहीं। वही तो कृष्ण अर्जुन को बार-बार गीता में समझा रहे हैं कि तू करने वाला मत बन, तू होने दे; जो हो रहा है, होने दे; तू उपकरण रह, निमित्त मात्र। तेरी कोई जिम्मेवारी नहीं है, तू अपने को बीच में मत ला, तू शुभ-अशुभ का निर्णय मत कर। तू कौन? तू अपने को विदा कर दे और फिर जो हो, जो परिस्थिति करवाए, कर, वही शुभ है। फल की भी आकांक्षा मत कर। क्योंकि फल की आकांक्षा में कर्ता आ जाता है। कर्ता जीता ही फल की आकांक्षा से है। मैं ऐसा करूं तो ऐसा होगा, मैं ऐसा करूं तो ऐसा मुझे मिलेगा, ऐसा करूं तो यह फल हाथ में आएगा। फल की आकांक्षा छोड़ दे। फल की आकांक्षा छोड़ते ही कर्ता का भाव चला जाता है। फिर प्रयोजन क्या है? जब फल की ही कोई आकांक्षा नहीं है तो जो भी होगा ठीक ही है। होगा तो ठीक है, नहीं होगा तो ठीक है।
इधर मैं तुम्हें रोज समझाता हूं। तुम समझे तो ठीक है, तुम नहीं समझे तो ठीक है। तुम सोचते हो मैं इसका हिसाब रखता हूं कि तुमने समझा कि नहीं समझा? इससे कोई प्रयोजन नहीं है। जैसे वृक्ष में फूल लग जाते हैं, ऐसे ये शब्द मुझमें लग जाते हैं। अगर तुम भी इस तरह जीओ तो तुम्हारे जीवन में असाधारण दिव्यता आ जाए। थोड़ा इस तत्व का रस लेना शुरू करो। उठो, बैठो, मगर न कोई उठने वाला हो, न कोई बैठने वाला हो। काम भी करो, दुकान पर भी जाओ, बाजार में भी, दफ्तर में भी, मगर न कोई करने वाला हो, न कोई जाने वाला हो। घर की देख-रेख भी करो; जो भी दायित्व है सिर पर, पूरा भी करो; लेकिन कोई करने वाला न हो।
दुनिया में दो उपाय हैं बोझ से मुक्त होने के। एक तो यह है कि दायित्व छोड़ दो। भगोड़ा संन्यासी वही करता है। वह दायित्व ही छोड़ देता है; वह कहता है कि न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी; बात खतम; पत्नी-बच्चों को छोड़ कर भाग गए जंगल! वह दायित्व छोड़ देता है। यह कोई असली संन्यास न हुआ। असली संन्यास है: दायित्व तो होने दो, कर्ता छोड़ दो। तो भी बोझ चला जाता है। वही असली क्रांति है। यह कोई असली क्रांति न हुई, तुम अगर घर-बच्चे छोड़ कर भाग गए, ज्यादा देर न लगेगी, पहाड़ की गुफा में भी बच्चे और पत्नी आ जाएंगे। किसी पहाड़ी स्त्री से लगाव बन जाएगा। तुम अपने से कहां जाओगे? शिष्य इकट्ठे हो जाएंगे, उन्हीं से तुम्हारा भाव हो जाएगा, वही जो तुम्हारा अपने बच्चों से था। उन्हीं से मोह लग जाएगा। कल तुम्हारा शिष्य मर जाएगा तो तुम उसी तरह रोओगे जिस तरह तुम्हारे बेटे के मरने से रोते। तो फर्क क्या हुआ? मकान छोड़ कर चले गए, गुफा में बैठ गए, कल भूकंप आ जाए और गुफा टूट जाए, तो तुम उसी तरह दुखी होओगे जैसे मकान के आग लग जाने से हो जाते। भेद क्या पड़ा? तुमने स्थिति बदल ली, मनःस्थिति तो वही की वही है। सब छोड़ कर चले गए, एक भिक्षापात्र ले गए, और रात किसी ने गुफा से चुरा लिया, तो तुम्हारे सुबह मन में वही होगा, वही भाव उठेंगे, जो किसी ने तुम्हारी तिजोड़ी खोल कर सारा धन निकाल लिया होता तब उठते। कुछ भेद नहीं पड़ेगा।
असली संन्यास कर्ता का त्याग है, दायित्व का नहीं। वही गीता का अपूर्व संदेश है। गीता ने जगत को ठीक संन्यास की पहली परिभाषा दी। गलत संन्यास बहुत पुराना था, गीता ने एक अनूठे संन्यास की परिभाषा दी। गीता ने कहा--रहो यहीं, जीओ यहीं, और फिर भी भीतर से सब शून्य हो जाए। अर्जुन से वे कह रहे हैं--तू लड़ और भीतर से शून्य भाव से लड़। तू परमात्मा के हाथ में अपने को सौंप दे--परमात्मा यानी समग्र के हाथ में अपने को सौंप दे, फिर उसे जो करवाना हो, करवा ले। जीत होगी कि हार, यह भी विचारणीय नहीं है। तू है ही नहीं करने वाला, तो फिर फल विचारणीय नहीं हो सकता।
अगर परमात्मा का जन्म और कर्म बहुत दूर की बात मालूम पड़े, बहुत एब्सट्रैक्ट, हवाई बात मालूम पड़े, तो इस पृथ्वी पर जो कभी-कभी परमात्मा की थोड़ी सी झलक मिलती है, उनमें पहचानने की कोशिश करना। उनमें भी तुम वही पाओगे। वही शून्य-भाव। भीतर कोई भी नहीं। कर्म का विराट जाल और कर्ता का अभाव।
मुख्यं तस्य हि कारुण्यम्।
‘उनकी करुणा ही उनके जन्म आदि का प्रधान कारण है।’
बुद्ध क्यों बोले? इसलिए नहीं कि बोलने से प्रसिद्ध होना है, इसलिए नहीं कि बोलने से शिष्यों की भीड़ इकट्ठी करनी है, इसलिए नहीं कि बोलने से कुछ लाभ है, इसलिए बोले कि बोलने से किसी को शायद लाभ हो जाए। इसलिए बोले कि जो मुझे मिल गया है, वह बंटे, शायद किसी के भीतर पड़ा हुआ बीज मेरे शब्दों की चोट से उमग आए, शायद किसी के भीतर पड़ा हुआ तार, जिसे कभी छेड़ा नहीं गया, जग जाए--करुणा!
जीवन के दो सूत्र हैं: एक वासना और एक करुणा। अज्ञानी वासना से जीता है, ज्ञानी करुणा से। और पृथ्वी और आसमान का फर्क हो जाता है दोनों में। वासना का अर्थ होता है: मैं यह कर रहा हूं ताकि मुझे वह मिले। करुणा का अर्थ होता है: यह मैं कर रहा हूं ताकि यह मैं दे सकूं। करुणा यानी दान। वासना भिखारी बनाती है, करुणा सम्राट।
मुख्यं तस्य हि कारुण्यम्।
उनकी करुणा ही उनकी जीवन-क्रिया-कलाप का आधार है।
प्राणित्वात् न विभूतिषु।
‘विभूतियों के प्रति की हुई भक्ति पराभक्ति नहीं है, क्योंकि वे प्राणधारी जीव हैं।’
शांडिल्य कहते हैं: लेकिन एक बात खयाल रखना, किसी भी विभूति-संपन्न व्यक्ति को तुम कितना ही आदर दो, भक्ति दो, वह श्रद्धा तक जाएगी, पराभक्ति नहीं हो पाएगी।
मैंने तुम्हें शुरुआत में कहा, प्रीति-तत्व के चार रूप हैं। स्नेह; अपने से छोटे के प्रति, बच्चे के प्रति, शिष्य के प्रति। प्रेम; अपने से समान के प्रति, पति के प्रति, पत्नी के प्रति, मित्र के प्रति, भाई-बंधु के प्रति, पड़ोसी के प्रति। श्रद्धा; अपने से श्रेष्ठ के प्रति, मां के प्रति, पिता के प्रति, गुरु के प्रति। और भक्ति; परमात्मा के प्रति, समग्र के प्रति।
विभूतियों के प्रति तुम्हारा जो भाव है, वह श्रद्धा है। शांडिल्य इस बात को इसलिए कह देना चाहते हैं कि अक्सर यह हो जाता है कि अवतारों से तुम इतने अभिभूत हो जाते हो कि तुम भूल ही जाते हो कि अभी एक कदम और लेना है। गुरु से तुम इतने आक्रांत हो जाते हो कि तुम भूल ही जाते हो कि अभी एक कदम और लेना है। गुरु पर रुकना नहीं है, गुरु पर शुरुआत है। गुरु संसार और परमात्मा के बीच की कड़ी है। गुरु सेतु है। मगर सेतु पर घर नहीं बनाना होता, सेतु से आगे जाना है। सेतु का यही प्रयोजन है। इसलिए सदगुरु तुम्हें रुकने भी नहीं देगा। सदगुरु तुम्हें धक्के देगा। बुद्ध ने कहा है: अगर मैं रास्ते में मिल जाऊं, तो तलवार उठा कर मेरे दो टुकड़े कर देना। अगर मैं भी बाधा आऊं परमात्मा और तुम्हारे मिलने में, बीच में खड़ा हो जाऊं, तो मुझे हटा देना।
रामकृष्ण के गुरु तोतापुरी ने रामकृष्ण से कहा कि एक ही चीज बाधा बन रही है तेरे अनुभव में, तेरी काली। रामकृष्ण तो बहुत रोने लगे, ज़ार-ज़ार होकर रोने लगे, काली को छोड़ने की तो बात ही समझ में नहीं आती, काली यानी परमात्मा! लेकिन तोतापुरी कहता है कि काली ठीक है सेतु की तरह; लेकिन अभी एक कदम और लेना है। और रामकृष्ण के मन में तो काली के प्रति ऐसा प्रेम था कि मजनू का लैला के प्रति नहीं रहा होगा, कि शीरी का फरिहाद के प्रति नहीं रहा होगा, अपूर्व प्रेम था। शायद किसी बेटे ने कभी किसी मां को इतना नहीं चाहा होगा, जैसा रामकृष्ण ने काली को चाहा था। सारी श्रद्धा समर्पित कर दी थी। और उसी को भक्ति मान लिया था। यह इसी बात को शांडिल्य समझाने के लिए, सचेत करने के लिए ये सूत्र दे रहे हैं।
तोतापुरी ने कहा, तुझे यह तो छोड़ना ही पड़ेगा, तू आंख बंद कर...वह जो बुद्ध ने कहा कि मैं राह में मिल जाऊं तो तलवार उठा कर दो टुकड़े कर देना...तोतापुरी ने कहा कि तू आंख बंद कर और उठा कर तलवार काली के दो टुकड़े कर।
रामकृष्ण कहने लगे, तलवार वहां कहां से लाऊं?
तोतापुरी हंसे और उन्होंने कहा, तू काली को कहां से लाया?
मैंने सुना है, एक आदमी नाविक होना चाहता था, नौसेना में भर्ती होना चाहता था। उसका परीक्षण चल रहा था। सेनापति ने उससे पूछा कि तुम जहाज पर हो और मान लो तूफान आ जाए, तो क्या करोगे? तो उसने कहा, एक लंगर लटकाऊंगा। सेनापति ने कहा, अगर दूसरा तूफान आ जाए? तो उसने कहा, और एक लंगर लटकाऊंगा। और तीसरा तूफान आ जाए, और चौथा आ जाए, और पांचवां, और छठवां, और सातवां...। और वह आदमी कहता गया, एक लंगर और लटकाऊंगा। उसके सेनापति ने कहा, इतने लंगर लाएगा कहां से? तो उसने कहा, और ये तूफान कहां से लाए जा रहे हैं? जहां से तूफान लाए जा रहे हैं, वहीं से लंगर भी ले आऊंगा। ये तूफान चले आ रहे हैं इतने बड़े-बड़े!
रामकृष्ण ने कहा कि तलवार कहां से लाऊं?
तोतापुरी ने कहा कि काली को कहां से लाया? जिस कल्पना से काली को आरोपित किया है भीतर, जिस भावना से काली को आरोपित किया है भीतर...
रामकृष्ण तो आंख बंद करते कि सामने काली खड़ी हो जाती! वह मधुर रूप, वह लावण्य, वह ऊर्जा, वह ज्योति, वे तो अभिभूत हो जाते, आंसुओं की धार बहने लगती। बहुत दिन तोतापुरी ने बिठाया, लेकिन रामकृष्ण भीतर जाते, भूल ही जाते; घंटा, आधा घंटे बाद जब लौटते तो तोतापुरी कहता, किया? वे कहते, मैं तो भूल ही गया। इतनी सुंदर है मां कि कैसे काटूं? आप बात क्या करते हैं! आपकी बात मान भी लेता हूं तो भी मेरा मन तो राजी नहीं होता।
तोतापुरी ने कहा, तो फिर मैं जाता हूं--तोतापुरी आदमी अदभुत था, पहुंचे हुए परमहंसों में एक था--फिर मैं जाता हूं, फिर तू अटका रह। रामकृष्ण समझते तो थे यह बात, यह बात कहीं समझ में भी आती थी कि यह कल्पना तो मेरी ही है। अभी मैंने उसे नहीं जाना है जो है, अभी तो मैंने उसे जाना है जिसे माना है। अभी परमात्मा का रूप मेरे सामने प्रकट नहीं हुआ, अभी तो आकृति है यह, अभी अरूप और निराकार का अनुभव नहीं हुआ है। तोतापुरी चला गया तो यह आखिरी संभावना गई। तो रामकृष्ण ने पैर पकड़ लिए कि नहीं, जाएं न, आखिरी मौका दें!
तोतापुरी ने कहा, बस यह आखिरी है और मैं भी आखिरी उपाय करता हूं। वह बाहर गया और बोतल का एक टूटा हुआ टुकड़ा ले आया और उसने कहा कि जब तुम आंख बंद करोगे और जब मैं देखूंगा कि आंसू बहने लगे और काली आ गई, तो मैं तुम्हारे माथे पर जहां तीसरा नेत्र होता है वहां इस कांच के टुकड़े से काटूंगा, लहू की धार बह जाएगी बाहर, तुम्हें भीतर पीड़ा होगी। जैसे ही तुम्हें पीड़ा अनुभव हो, तो याद रखना कि यह आखिरी उपाय है, फिर मैं चला जाऊंगा, जैसे ही भीतर तुम्हें अनुभव में हो कि तोतापुरी मेरा माथा काट रहा है, तब चूकना मत, उठा कर तलवार और दो टुकड़े कर देना; जैसे मैं तुम्हारा माथा काटूं, ऐसे ही तुम काली को भी काट देना।
काली की प्रतिमा खड़ी भी वहीं तीसरे नेत्र में होती है। तुम जो भी कल्पना करते हो, वह तीसरे नेत्र में ही होती है। तीसरे नेत्र को योग ने आज्ञाचक्र कहा है। वहां तुम जो आज्ञा करोगे, वही हो जाएगा। वहां कल्पनाएं साकार हो जाती हैं। वहां हर कल्पना साकार हो जाती है। वहीं तुम रात सपना देखते हो, तीसरे नेत्र में। ये दो नेत्र तो बंद होते हैं, सपना तीसरे नेत्र में देखा जाता है; और इसीलिए चूंकि आज्ञाचक्र में सपना देखा जाता है, सपने पर तुम्हें भरोसा आ जाता है। रात सपने को देखते हो तब तुम मानते हो कि सपना सच है। सपने में याद ही नहीं पड़ता कि सपना झूठ है। आज्ञाचक्र इसीलिए उस चक्र को कहा है कि वहां तुमने जो देखा वही सत्य हो जाता है, वहां तुम्हारी आज्ञा काम करती है। कल्पनाजीवी लोग वहीं कल्पना के रूप-प्रतिबिंब देखते हैं। वहीं चित्रकार अपने चित्र देखता है, कवि अपनी कविताएं देखता है, वहीं संगीतज्ञ संगीत के नये भाव, अर्थ, भंगिमाएं देखता है, वहीं वैज्ञानिक अपने आविष्कार करता है। वहीं रामकृष्ण अपने प्रतिमा को खड़ा करते थे।
तोतापुरी ने ठीक जगह चुनी। तीसरे नेत्र को काटा। उस पीड़ा में रामकृष्ण ने भी हिम्मत की और तलवार उठा कर काली के दो टुकड़े कर दिए। काली के दो टुकड़े होकर गिरना कि विराट खुल गया। आज्ञाचक्र से छलांग लग गई। आज्ञाचक्र कट गया। काली नहीं कटी, आज्ञाचक्र दो टुकड़ों में कट गया, आज्ञाचक्र से ऊपर छलांग लग गई, सातवें चक्र में छलांग लग गई--सहस्रार में। वहां खिल गया कमल सहस्रदल। छह दिन तक रामकृष्ण बेहोश रहे। सहस्रार से उतारना मुश्किल हुआ। अनुभव इतना आनंद का है कि कौन उतरना चाहे! फिर लौटना कौन चाहे! जब लौटे तो जो पहला शब्द उनके मुंह से निकला वह धन्यवाद का था तोतापुरी के लिए। चरणों में गिर पड़े और कहा, मेरी आखिरी बाधा तुमने छीन ली। आखिरी बाधा!
गुरु आखिरी बाधा है, अगर रुको तो; नहीं तो आखिरी साधन है, बढ़ो तो। तुम पर निर्भर है। अगर बढ़ो, तो गुरु आखिरी साधन है, आखिरी सीढ़ी, आखिरी सोपान, उसके बाद परमात्मा है। इसलिए तो गुरु को ब्रह्मा कहा है--गुरुर्ब्रह्मा, बिलकुल आखिरी है, बस उसके बाद एक कदम और कि परमात्मा है; गुरु और ब्रह्मा, बस पास-पास खड़े हैं, पड़ोसी हैं। लेकिन गुरु पर मत रुक जाना, नहीं तो ऐसा न हो जाए कि गुरु ब्रह्म को आड़ में दे दे, आड़ में कर दे।
असदगुरु वही है जो तुम्हारे और तुम्हारे परमात्मा के बीच में खड़ा हो जाए और रुकावट डालने लगे। सदगुरु वही है जो ले जाए आज्ञाचक्र तक और फिर हट जाए। काली तो स्वयं नहीं हट सकती थी, क्योंकि काली तो सिर्फ रामकृष्ण की कल्पना थी। लेकिन सदगुरु स्वयं हट सकता है। फिर भी सदगुरु अपने आप नहीं हट सकता है, जब तक शिष्य साथ न दे। अगर शिष्य जिद करे कि मैं पकड़े ही रहूंगा, तो सदगुरु के भी बाहर है बात। इसलिए सदगुरु प्रारंभ से ही शिष्य को इस भांति तैयार करता है--एक तरफ लगाव भी लगाता है, एक तरफ प्रेम भी करता है, एक तरफ पास भी बुलाता है, दूसरे हाथ से हटाता भी है। दोनों तरह से तैयार रखता है कि जब आखिरी घड़ी आए तो ऐसा न हो कि एकदम हटाने में कठिनाई हो जाए, तुम हटने को राजी न होओ; तुम कहो--अब तक इतने प्रेम से बुलाया है, इतने प्रेम से सम्हाला, आज अचानक इनकार करने लगे। वह भाषा ही समझ में न आए!
इसलिए सदगुरु एक हाथ से निमंत्रण देता है, एक हाथ से चोट करता है। कबीर ने कहा है: जैसे कि कुम्हार घड़े को बनाता है, भीतर से सम्हालता है, बाहर से थपकी मारता है; एक तरफ से सम्हालता है कि भाग न जाओ, दूसरी तरफ से चोट भी करता है। और जैसे-जैसे तुम करीब आने लगते हो, वैसे-वैसे गहरी चोटें करता है, क्योंकि आखिरी चोट का दिन भी करीब आएगा जल्दी ही, जब उसे बिलकुल हट जाना होगा। उसके हटने में ही द्वार खुलेगा। इसलिए--
प्राणित्वात् न विभूतिषु।
विभूतियों से, उस परमात्मा की विभूतियों से इतने मत जुड़ जाना, ऐसा मत समझ लेना कि यही पराभक्ति है। श्रद्धा है। लेकिन अभी एक कदम और उठाना है, श्रद्धा के भी पार जाना है। और तुम पार जा सकते हो, क्योंकि तुम पार हो। सिर्फ याद, सिर्फ स्मृति दिलानी है तुम्हें।
मैं शोला था--मगर यों राख के तूदे ने सर कुचला
कि इक सीले-से पेचो-खम में ढल जाना पड़ा मुझको
मैं बिजली था--मगर वह बर्फ-आगीं बदलियां छाईं
कि दब कर उन चट्टानों में पिघल जाना पड़ा मुझको
मैं तूफां था--मगर क्या कहिए उस तिश्ना समंदर को
कि सर टकरा के साहिल ही से रुक जाना पड़ा मुझको
मैं आंधी था--मगर वह ख्वाब-आलूदा फजा पाई
कि खुद अपनी ही ठोकर खाकर झुक जाना पड़ा मुझको
मगर अब इसका रोना क्या है, क्या था देखिए क्या हूं
मैं इक ठहरा हुआ शोला हूं, इक सिकुड़ी हुई बिजली
असर नश्वो-नुमा पर डाल ही देता है गहवारा
मैं एक सिमटा हुआ तूफां हूं, इक सहमी हुई आंधी
मगर माबूदे-बेदारी! कहीं फितरत बदलती है
धुएं को गर्म होने दे, भड़कना अब भी आता है
मेरी जानिब से इतमीनान रख, आतिशनवा रहबर
जरा बादल तो टकराएं, कड़कना अब भी आता है
थपेड़े, हां, यूं ही पैहम थपेड़े, मौजे-आजादी
बहा दूंगा मताए-किश्ते-महकूमी, बहा दूंगा
झकोले, हां, यही बरहम झकोले, सरसरे-हस्ती
हिला दूंगा तजाहे-जीस्त की चूलें, हिला दूंगा
मैं शोला था--मगर यों राख के तूदे ने सर कुचला
मैं तो एक अंगारा था, लेकिन राख का ढेर इस तरह मेरे ऊपर सवार हो गया कि मैं भूल ही गया कि मैं कौन हूं। ऐसी तुम्हारी दशा है।
मैं शोला था--मगर यों राख के तूदे ने सर कुचला
कि इक सीले-से पेचो-खम में ढल जाना पड़ा मुझको
मैं बिजली था--मगर वह बर्फ-आगीं बदलियां छाईं
ये बर्फीली बदलियां आ गईं, मैं तो बिजली था।
...मगर वह बर्फ-आगीं बदलियां छाईं
कि दब कर उन चट्टानों में पिघल जाना पड़ा मुझको
मैं तूफां था--मगर क्या कहिए उस तिश्ना समंदर को
प्यासे समंदर को क्या कहें!
मैं तूफां था--मगर क्या कहिए उस तिश्ना समंदर को
कि सर टकरा के साहिल ही से रुक जाना पड़ा मुझको
मैं आंधी था--मगर वह ख्वाब-आलूदा फजा पाई
ऐसी गहरी नींद आ गई , ऐसी गहरी नींद की संभावना पाई थी।
मैं आंधी था--मगर वह ख्वाब-आलूदा फजा पाई
कि खुद अपनी ही ठोकर खाकर झुक जाना पड़ा मुझको
मगर अब इसका रोना क्या है, क्या था देखिए क्या हूं
मैं इक ठहरा हुआ शोला हूं, इक सिकुड़ी हुई बिजली
असर नश्वो-नुमा पर डाल ही देता है गहवारा
मैं इक सिमटा हुआ तूफां हूं, इक सहमी हुई आंधी
यही तुम हो, यही सब हैं।
मैं इक सिमटा हुआ तूफां हूं, इक सहमी हुई आंधी
मगर माबूदे-बेदारी!...
मगर हे परमात्मा!
...कहीं फितरत बदलती है
कहीं स्वभाव बदलता है!
मगर माबूदे-बेदारी! कहीं फितरत बदलती है
तूफान तूफान रहता है, कितना ही सिकुड़ जाए। और अंगारा अंगारा रहता है, कितना ही राख में दब जाए। और आंधी आंधी रहती है, कितनी ही नींद में खो जाए।
मगर माबूदे-बेदारी! कहीं फितरत बदलती है
धुएं को गर्म होने दे, भड़कना अब भी आता है
मेरी जानिब से इतमीनान रख, आतिशनवा रहबर
जरा बादल तो टकराएं, कड़कना अब भी आता है
जरा मौके की तलाश है, ठीक समय, ठीक अवसर, ठीक भूमि मिल जाए, ठीक सत्संग मिल जाए, तो अभी राख गिर जाए और अंगारा फिर प्रकट हो जाए। ठीक साथ मिल जाए, ठीक हाथ मिल जाए, तो जो बिलकुल भूल गया है, जो बिलकुल विस्मृत हो गया है, वह पुनः याद आ जाए; फिर दीया जल जाए।
मेरी जानिब से इतमीनान रख, आतिशनवा रहबर
जरा बादल तो टकराएं, कड़कना अब भी आता है
मगर माबूदे-बेदारी! कहीं फितरत बदलती है
धुएं को गर्म होने दे, भड़कना अब भी आता है
थपेड़े, हां, यूं ही पैहम थपेड़े, मौजे-आजादी
थपेड़े आते रहें, आने दे; स्वतंत्रता की लहरें आती रहें, आने दे!
थपेड़े, हां, यूं ही पैहम थपेड़े, मौजे-आजादी
बहा दूंगा मताए-किश्ते-महकूमी, बहा दूंगा
आने दे स्वतंत्रता की लहरों को, इन थपेड़ों को आते रहने दे लगातार, तो यह जो दासता की संपदा है, यह जो कूड़ा-कर्कट गुलामी का इकट्ठा हो गया है--
बहा दूंगा मताए-किश्ते-महकूमी, बहा दूंगा
झकोले, हां, यही बरहम झकोले, सरसरे-हस्ती
जीवन की यह गर्म हवा आने दे।
हिला दूंगा तजाहे-जीस्त की चूलें, हिला दूंगा
जीवन की असंगतियों की जो बुनियाद है, उसे हिला दूंगा।
हिला दूंगा तजाहे-जीस्त की चूलें, हिला दूंगा
कुछ बदला नहीं है; एक सपने में भला खो गए हो, लेकिन सत्य से वंचित नहीं हो गए हो। नींद भला आ गई है, आंख खुल सकती है। नशा भला छा गया है, नशा टूट सकता है। राख घिर गई है, राख उड़ सकती है। सत्संग चाहिए; किसी अंगारे का साथ चाहिए जिसकी राख उड़ गई हो।
इसलिए शांडिल्य ने सत्संग की बड़ी महिमा गाई है। जहां चार प्रेमी इकट्ठे होते हों और परमात्मा की बात करते हों, सब छोड़ कर वहां बैठ जाना। जहां चार आदमी परमात्मा की प्रशंसा के गीत गाते हों, अपने अनुभव की बात करते हों, रोते हों, रोमांचित होते हों, वहां दूर-दूर खड़े मत रह जाना, वहां दर्शक बन कर मत बैठे रह जाना, वहां डुबकी लगा लेना, वहां उनके साथ जुड़ जाना, नाचना, गाना, रोमांचित होना। तुम्हारे भीतर जो छिपा है, वह भी प्रकट हो सकता है।
आज इतना ही।