SHANDILYA
ATHATO BHAKTI JIGYASA 18
Eighteenth Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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पहला प्रश्न:
भगवान, कल आपने कहा कि जो सहज है वही भक्त है, वही भक्ति है। पर हमारे जीवन में तो सोना-खाना, काम-क्रोध, लोभ-मोह, मनोरंजन आदि ही सहज हैं। कृपा करके कहिए कि ये सब किस भांति भक्ति कहे जा सकते हैं?
बीज भी सहज है, फूल भी सहज है। बीज की यात्रा फूल तक, वह भी सहज है। लेकिन बीज अगर बीज होने पर ही रुक जाए, तो वह रुक जाना सहज नहीं है। जहां अवरोध है, जहां रुकावट है, जहां यात्रा टूट गई, जहां मार्ग मंजिल से नहीं जुड़ता, वहीं असहज हो गया कुछ। बीज बढ़ता रहे। बीज में कुछ बुराई नहीं है। बीज में ही छिपा है फूल। बीज में ही छुपी है सुगंध। बीज में ही छुपा है सौंदर्य। लेकिन छुपा ही न रह जाए, प्रकट हो, अभिव्यक्त हो, नाचे।
मनुष्य जिन चीजों को साधारणतः जीता है, वे सब सहज हैं--खाना-पीना, काम-क्रोध, लोभ-मोह--मगर बीज की भांति। वहीं रुक गए तो अड़चन हो जाएगी। वहीं रुक गए तो भक्ति खो गई। भक्ति है भगवान तक यात्रा। वहां से चले; उसे पड़ाव समझो, मंजिल मत बनाओ। थोड़ी देर रुकना भी पड़े तो रुक जाओ, मगर सदा के लिए न रुक जाओ। बढ़ते रहो, आगे बढ़ते रहो।
और तुम चकित होओगे जान कर कि अगर रुक गए, तो आदमी जीने लगता है खाने-पीने के लिए। और अगर बढ़ते रहे, तो आदमी खाता-पीता है जीने के लिए। और दोनों में जमीन-आसमान का फर्क हो गया। अगर रुक गए तो काम काम ही रह जाता है। अगर बढ़ते रहे तो काम से ही राम का जन्म होता है। काम बीज है राम का। अगर रुक गए तो क्रोध क्रोध रह गया, और तुम्हें सड़ा डालेगा। बीज रुकेगा तो सड़ेगा। बीज रुकेगा तो बीज भी नहीं रह सकेगा। आज नहीं कल राख रह जाएगी। बीज बढ़े तो ही बच सकता है। बीज बड़ा हो, फैले, विराट बने; फूल आएं, फल आएं, एक बीज में हजार बीज आएं, तो बीज बचेगा।
क्रोध बीज है। अगर रुक जाए, तो सड़ जाओगे, नरक बन जाएगा। अगर आगे बढ़ जाए, तो क्रोध से ही करुणा का जन्म है। क्रोध तुम्हारी ऊर्जा है। राह नहीं पाती तो भटक जाती है। तुम्हारे भीतर ही भीतर घूमती है। द्वार नहीं पाती तो तुम्हें तोड़ डालती है। द्वार मिल जाए, सम्यक मार्ग मिल जाए, तो क्रोध ही करुणा बन जाएगी।
जीवन जहां है अभी, निश्चित ही सहज है। मैं तुमसे यह अधिकारपूर्वक कहना चाहता हूं कि खाना-पीना सहज है, सोना-उठना-बैठना सहज है, काम-क्रोध सहज है, मनोरंजन सहज है, बस यहां रुक मत जाना। मनोरंजन पर रुक गए तो खिलौनों से ही खेलते रहे, असली बात शुरू ही न हुई।
मनोरंजन में क्या रस है? यही न कि थोड़ी देर को मन भूल जाता है। किस बात को मनोरंजन कहते हो? फिल्म देखी, कि नाच देखा, कि गीत सुना, कि थोड़ी देर को उलझ गए, तल्लीन हो गए, थोड़ी देर को मन विस्मृत हो गया, इसी को मनोरंजन कहते हो। यही आगे बढ़े तो एक दिन तुम ऐसी जगह पहुंच जाओगे जहां मन सदा के लिए विस्मृत हो जाता है। मनोभंजन हो जाता है। उस दिन परम आनंद है। उसी मनातीत अवस्था का नाम भक्ति है; या ध्यान है; या समाधि है।
मनोरंजन पर रुकना मत। मनोरंजन को समझो, पहचानो, सार-सूत्र गहो। उसमें से निचोड़ लो कि बात क्या है? मनोरंजन में मैं क्यूं इतना डूब जाता हूं? किसलिए यह आकांक्षा? किसलिए बार-बार चाहता हूं कुछ हो जिसमें तल्लीन हो जाऊं? अपने से ऊब गए हो, इसलिए कहीं डूबना चाहते हो। मगर जहां डूबते हो, चुल्लू भर पानी में, वहां डूब पाओगे? फिल्म कितनी देर डुबाएगी? और नाच कितनी देर भुलाएगा? और शराब कितनी देर मस्ती रखेगी? जल्दी ही मस्ती टूट जाएगी। जल्दी ही सिनेमागृह के बाहर निकल आओगे। ज्यादा देर संगीत भरमाएगा नहीं। फिर अपनी जगह वापस, पहले से भी बदतर हालत में। क्योंकि यह थोड़ी देर को जो मन भूल गया था, इसने सुख की एक झलक भी दे दी, अब दुख और बड़ा होकर दिखेगा, तुलना में और कठिन होकर दिखेगा।
देखा नहीं, कभी राह से गुजरते हो रात, अंधेरी रात, और एक तेज कार पास से गुजर जाती है पूरे प्रकाश को आंखों में डालते हुए, फिर उसके बाद रास्ता और अंधेरा हो जाता है। पहले कुछ सूझता भी था, अब कुछ भी नहीं सूझता। थोड़ी देर को तो तुम बिलकुल अंधे हो जाते हो।
जीवन में दुख है, शराब पी ली, थोड़ी देर के लिए दुख विस्मृत हुआ। लेकिन कब तक डूबोगे? थोड़ी देर बाद वापस लौटना ही होगा। शराब शाश्वत हो जाए तो परमात्मा मिल गया। शाश्वत शराब का नाम ही परमात्मा है, कि जिसमें डूबे तो डूबे, फिर लौटे नहीं। चुल्लू भर पानी में न डूब सकोगे। कुल्हड़ों में नहीं डूब सकोगे, सागर चाहिए।
समझदार व्यक्ति अपने जीवन की सामान्यता में से खोज करता है, जांच करता है, परख करता है, सूत्र पकड़ता है--कि मनोरंजन में राज क्या है? फिर मनोरंजन का राज समझ में आ गया तो वह सोचता है कि अब मैं कैसे उस दशा को खोजूं जहां मन सदा के लिए खो जाए। एकबारगी छुटकारा हो इससे, फिर लौट कर मिलन न हो।
लेकिन अभी तुम जैसे जीते हो वह एक अंधी आदत है। उसमें होश नहीं है, उसमें विचार नहीं है, उसमें विवेक नहीं है, उसमें बोध नहीं है।
सांस लेना भी कैसी आदत है
जीए जाना भी क्या रवायत है
कोई आहट नहीं बदन में कहीं
कोई साया नहीं है आंखों में
पांव बेहिस हैं, चलते जाते हैं
इक सफर है जो बहता रहता है
कितने वर्षों से कितनी सदियों से
जीए जाते हैं, जीए जाते हैं
आदतें भी अजीब होती हैं
आदत से ऊपर उठना धर्म है। यांत्रिकता से ऊपर उठना विकास है। खाओ-पीओ जरूर, बस खाने-पीने में समाप्त मत हो जाना। नाचो और गाओ भी जरूर, मगर उस परम नृत्य को मत भूल जाना। उसे याद रखना। और यह हर नाच उसी परम नृत्य की याद दिलाता रहे, तो फिर कोई अड़चन नहीं है।
संगीत सुनो, संगीत से मेरा विरोध नहीं है, लेकिन यह तुम्हारे भीतर तीर बन कर बैठ जाए और परम संगीत की खोज शुरू हो। प्रेम करो, जरूर करो; रूप से, रंग से लगाव बनाओ; लेकिन यह लगाव तुम्हें अरूप की याद दिलाए, यह लगाव क्षुद्र पर समाप्त न हो, यह तुम्हें अंकुश बन जाए, यह तुम्हें परमात्मा की तरफ ले चलने लगे।
जब एक स्त्री में इतना सौंदर्य हो सकता है, एक पुरुष में इतना सौंदर्य हो सकता है, जब एक फूल में इतना सौंदर्य हो सकता है और आकाश में भटकते एक बादल में इतना सौंदर्य हो सकता है, तो उस परम में, जो सबके भीतर छिपा है, जो राजों का राज है, उसमें कितना सौंदर्य न होगा! जब उसकी ये छोटी-छोटी भाव-भंगिमाएं इतना मन को आंदोलित कर जाती हैं, तो जब उससे ही मिलन हो जाएगा...नौकर-चाकरों से मिलते रहे हो; जब नौकर-चाकरों से मिल कर ऐसा सुख मिल रहा है, तो मालिक से मिल कर क्या न होगा!
सूफी फकीर चिल्लाते हैं--याऽऽमालिक! उनका मंत्र है--याऽऽमालिक!! खोज एक है--मालिक कैसे मिल जाए? द्वारपालों की वेशभूषा में मत उलझ जाओ। द्वारपाल भी बड़ी वेशभूषा वाले होते हैं। रंगीन वस्त्र होते उनके, सोने की बटनें होतीं उनकी, उन्हीं में मत उलझ जाना, मालिक की तलाश करनी है। मालिक कहीं महल के भीतर है। तुम महल के बाहर ही मत सोच लेना कि महल आ गया। बस इतनी याद रहे, तो सब सहज है; खाना-पीना, काम-क्रोध, मोह-लोभ, सब सहज है। पर आगे बढ़ते रहो। यात्रा जारी रहे। धीरे-धीरे जैसे-जैसे आगे बढ़ोगे, जरा क्रोध से आगे बढ़ोगे, करुणा की झलक मिलेगी; जरा रूप के आगे जाओगे, अरूप की तरंग आ जाएगी; जरा संगीत में गहरे उतरोगे, तो नाद सुनाई पड़ेगा, ओंकार सुनाई पड़ेगा।
तुमको देखा
अलस्सुबह
गीली मिट्टी से अंकुर फूटे
सहज-सहज
हिलती फसल
बालियां
नजियायीं भारी--
पके आम चुए बागों में
लूटे
उड़ कर गई
जहां से
वह नन्हीं सी
नीली चिड़िया
हरी हो गई डाली
फुनगी
अंग कसे बंधन
टूटे
दिखा गांव चौमास, भुरारा
रितु का चढ़ा हुआ रंग
पेड़ों पर
परस तुम्हारा
हवा कंपाती
जल-तल
कौरे, नाचे, भीत भितौने
टूटे-फूटे
तुमको देखा
एक सांझ
सूर्य अस्त था
पेड़ों में बिंध कर
लाली फैली
दूर-दूर तक
फूले कांसों पर
सजल आंख से
अंजन छूटे
तुमको देखा
अलस्सुबह
गीली मिट्टी से अंकुर फूटे
दिखा गांव चौमास, भुरारा
रितु का चढ़ा हुआ रंग
पेड़ों पर
परस तुम्हारा
मैं प्रेम-विरोधी नहीं हूं। यही मेरी देशना है। यही मेरा मौलिक संदेश है। मैं संसार-विरोधी नहीं हूं। मैं संसार के अति प्रेम में हूं। मैं तुम्हें वैराग्य नहीं सिखाता, मैं तुम्हें राग को गहरा करने की कला सिखाता हूं। मैं तुम्हें निषेध नहीं सिखाता कि तुम भागो और छोड़ो और जंगलों में चले जाओ। मैं तो उस भगोड़ेपन को मूढ़ता कहता हूं। मैं तो कहता हूं, इस संसार में थोड़े गहरे उतरो, ऊपर-ऊपर नहीं--याऽऽमालिक! इस संसार में संसार का मालिक भी छिपा है, तुम जरा खोदो। तुम महल में प्रवेश ही नहीं करते। तुम महल की चारदीवारी के चारों तरफ चक्कर काटते रहे जन्मों-जन्मों से। महल तुम्हारी प्रतीक्षा करता है, मालिक तुम्हारी प्रतीक्षा करता है। सब सहज है।
असहज कब घटता है? जब कोई चीज रुक जाती है। बच्चा जवान हो, सहज है। बच्चा बच्चा ही रह जाए, तो असहज है। बूढ़ा बूढ़ा ही रह जाए, मरे न, तो असहज है। मृत्यु सहज है। जवान ब़ूढा हो, यह सहज है। चीजें बहें, धारा चलती रहे, डबरा न बन जाए। जहां गत्यावरोध होता है, जहां धारा डबरा बन जाती है, वहीं कुछ असहज हो जाता है। बस इतनी याद रहे। संन्यास यानी प्रवाह। अनंत प्रवाह। जहां हो, वहीं से आगे जाना है। आगे जाते ही रहना है; जब तक कि अंतिम न मिल जाए।
और अंतिम का क्या अर्थ होता है?
अंतिम का अर्थ होता है: जहां नदी सागर में खो जाती है। फिर और यात्रा-पथ नहीं रह जाता। नदी बचती ही नहीं। यात्री ही खो जाए, तभी समझना कि यात्रा का अंत आ गया है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, लोग आंख बंद करके प्रवचन सुनते हैं। और मैं डरती हूं कि कहीं एक पल के लिए भी आंख न बंद हो। मैं चाहती हूं कि आपको देखती रहूं, देखती ही रहूं। आपकी आंखों की रोशनी जब मेरी आंखों में आती है तो जो दिव्य अनुभव होता है, उसका वर्णन नहीं कर सकती। इस अनुभव में मैं आधा प्रवचन ही सुन पाती हूं। यह कैसी प्यास है? क्या यह पूरी हो सकती है?
पूछा है शांता ने। दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक, जो कान से जीते हैं; और एक, जो आंख से जीते हैं। दुनिया में हर चीज दो में बंटी है। एक ही दो में बंटा है, मगर दो में बंटे बिना दुनिया नहीं बनती। कुछ लोग आंख से जीते हैं। कुछ लोग कान से जीते हैं। जो कान से जीते हैं, वे मुझे आंख बंद करके सुनना पसंद करेंगे। उनका रस, उनका मुझसे संबंध कान से जुड़ेगा। जो आंख से जीते हैं, वे आंख बंद न कर पाएंगे। आंख बंद करेंगे तो उन्हें लगेगा कुछ खोया। कान उनके लिए पर्याप्त नहीं होगा। वे आंख से ही पीएंगे, वे आंख से ही सुनेंगे; आंख ही उनका द्वार है।
जो तुम्हें सहज हो, वैसा ही करना। अगर आंख खोले रखने में ही रस आता हो, तो फिकर छोड़ो प्रवचन की। आधा सुना, कि नहीं सुना, चिंता न करो। आधे से ज्यादा, जो चूक गया है, उससे ज्यादा तुम्हें आंख से मिलेगा। अपनी प्रकृति को समझो। दूसरे आंख बंद करके सुन रहे हैं, इसकी नकल में मत पड़ना। नकल अक्सर भ्रांति में डाल देती है, हानि में पहुंचा देती है। कभी किसी की भूल कर नकल मत करना। जो आंख बंद करके सुन रहा है, उसे उसी में रस होगा। उससे मेरा संबंध ध्वनि का है। उसके हृदय का द्वार उसके कान से जुड़ा है। तुम्हारे हृदय का द्वार तुम्हारी आंख से जुड़ा है।
कान निष्क्रिय तत्व है, आंख सक्रिय तत्व है। जो व्यक्ति बहुत सक्रिय होते हैं, उनकी आंख केंद्र होती है जीवन की। सक्रिय व्यक्ति आंख से जुड़ेगा। फर्क समझ रहे हो? जब तुम कान से सुनते हो तो कान कुछ भी नहीं करता। मैं बोलूंगा तो तुम्हारे कान तक पहुंचेगा, कान ग्राहक होगा। कान सुनने मेरे ओंठों तक नहीं आ सकता। कान प्रतीक्षा करेगा अपनी जगह। कान कोई यात्रा नहीं कर सकता। कान सिर्फ ग्राहक यंत्र है। आंख यात्रा करती है। जब तुम मुझे देख रहे हो तो तुम्हारी आंख वहीं नहीं बैठी है, प्रतीक्षा नहीं कर रही है मेरे आने की। तुम्हारी आंख मेरे पास आ गई है, तुम्हारी आंख ने मुझे छू लिया है। आंख सक्रिय तत्व है। जो भी व्यक्ति सक्रिय है, वह आंख से बहेगा।
सदा अपने स्वभाव को सुनो, अपने स्वभाव की सुनो और उसके अनुसार चलो।
शांता का जीवन आंख में होगा। तुमने देखा, अंधे आदमी संगीत में बड़े कुशल हो जाते हैं। क्यों? उनकी आंख से बहती सारी ऊर्जा आंख से तो बह नहीं सकती, इसलिए कान में ही समाविष्ट हो जाती है। उनकी आंख और कान संयुक्त हो जाते हैं कान में। इसलिए ध्वनि का उनका अनुभव गहरा हो जाता है। अंधा आदमी जिस प्रगाढ़ता से सुनता है, आंख वाला कभी सुनता ही नहीं, सुन ही नहीं सकता, क्योंकि उसकी ऊर्जा कुछ तो बंटी ही रहती है--कुछ आंख में, कुछ कान में। शांता की भी वही गति होगी, इसलिए आधा प्रवचन चूक जाता है--आधी आंख, आधा कान। कान जिसका प्रगाढ़ होता है, वह संगीत में लीन हो पाता है। आंख जिसकी प्रगाढ़ होती है, वह चित्रकला या मूर्तिकला जैसी बातों में प्रवीण हो पाता है। दोनों में फर्क होता है। एक चित्रकार आंख से जीता है, एक संगीतज्ञ कान से जीता है।
आंख से ही मुझे आने दो। जहां से भी द्वार संभव हो सके वहां से मुझे आने दो। और तुम इसकी फिकर मत करो कि दूसरे आंख बंद करके सुन रहे हैं, तो ज्यादा पा रहे होंगे। वे कान से पा रहे हैं, तुम आंख से पाओगी।
अपने ही अनुसार जीओ। सदा अपने अनुसार जीओ और कभी हानि नहीं होगी। भूल कर भी अनुकरण मत करना। अनुकरण गड्ढे में ले जाएगा।
पूछा है: ‘लोग आंख बंद करके प्रवचन सुनते हैं। और मैं डरती हूं कि कहीं एक पल के लिए भी आंख बंद न हो जाए। मैं चाहती हूं कि आपको देखती रहूं, देखती ही रहूं। आपकी आंखों की रोशनी जब मेरी आंखों में आती है तो जो दिव्य अनुभव होता है, उसका वर्णन नहीं कर सकती।’
हर बात के लिए कुछ कीमत तो चुकानी पड़ती है। अगर आंख से तुम्हें कुछ अनुभव हो रहा है, तो फिर कान का अनुभव तुम्हें खोना पड़ेगा। दोनों हाथ लड्डू संभव नहीं हैं। मगर वह कीमत चुकाने जैसी है। शब्द कुछ छूट जाएंगे स्वभावतः, जब आंख गहराई में उतरेगी तो शब्द कुछ डगमगा जाएंगे--कान सुनेगा भी और नहीं भी सुनेगा, सुनेगा भी और पकड़ नहीं पाएगा, पकड़ भी लेगा तो हृदय तक नहीं पहुंचा पाएगा, क्योंकि हृदय उस समय आंख से जुड़ा होगा।
यह तुमने देखा? तुम रास्ते पर हो, किसी ने कह दिया कि तुम्हारे घर में आग लगी है, फिर तुम भागे। फिर रास्ते पर कोई मिलता है, नमस्कार करता है, मगर तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। कहीं रेडियो लगा है, कोई सुंदर गीत चल रहा है, मगर तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता। नहीं कि सुनाई नहीं पड़ता--कान हैं तो सुनाई तो पड़ेगा ही; और राह पर कोई नमस्कार करेगा तो आंख है तो दिखाई तो पड़ेगा ही--लेकिन नहीं, अब तुम्हारा हृदय यहां नहीं है। तुम्हारा हृदय तो घर में आग लगी है, वहां चला गया। तुम्हारी इंद्रियों से तुम्हारे हृदय का संबंध टूट गया।
यही फर्क है सुनने और सुनने में। सुनते सभी हैं; लेकिन वे ही लोग सुन पाते हैं जिनका हृदय कान से जुड़ा हो, जिनका हृदय कान के पीछे खड़ा हो। देखते सभी हैं, लेकिन देखने-देखने में फर्क है। वही देख पाते हैं, जिनकी आंख के पीछे हृदय खड़ा हो। छूते सभी हैं, छूने-छूने में फर्क है। वही छू पाते हैं, जिनके छूने में हृदय पीछे खड़ा हो। जिस इंद्रिय से हृदय जुड़ जाता है, वही इंद्रिय अनुभव लाती है।
तो जो सहज हो रहा है, होने दो। आंख से ही चलो।
‘इस अनुभव में मैं आधा ही प्रवचन सुन पाती हूं।’
पूरा भी जाए तो जाने दो। शब्द से तुम्हारी संपदा नहीं बढ़ेगी। तुम्हारी संपदा आंख के अनुभव से बढ़ेगी। तुम्हारी संपदा दर्शन से बढ़ेगी।
‘यह कैसी प्यास है? क्या यह पूरी हो सकती है?’
प्यास होती ही इसलिए है कि पूरी हो। प्यास के पहले प्यास की पूर्ति का साधन है।
देखते नहीं, मां के पेट में बच्चा आता है, बच्चा पैदा हुआ कि मां की छाती दूध से भर जाती है। अभी बच्चा पैदा ही हुआ है, अभी बच्चे ने मांग भी नहीं की है कि मुझे भूख लगी है। बच्चे के आगमन के पहले दूध आ गया है।
चिड़ियां, देखते हो, घोंसला बनाती हैं। अभी अंडे रखे नहीं हैं, अभी अंडे आने वाले हैं। चिड़ियों को कुछ पता भी नहीं हो सकता, चिड़ियां कुछ बहुत सोच-विचार नहीं करतीं। और वैज्ञानिक बहुत चकित हुए हैं यह जान कर, देख कर, निरीक्षण करके कि बहुत से ऐसे पक्षी हैं जिनको जन्म के बाद मां-बाप का साथ ही नहीं मिलता, तो शिक्षण तो हो ही नहीं सकता। किसी ने उनको बताया नहीं है कि जब अंडे तुम्हारे भीतर पकने लगें तो कैसे घोंसला बनाना; कोई बताने वाला नहीं, कोई विद्यालय नहीं, कोई उनके पास सर्टिफिकेट नहीं। लेकिन जब मादा अनुभव करती है कि गर्भवती है, जल्दी से घोंसला बनाने लगती है। बच्चों के लिए इंतजाम करना होगा। कुछ विचार से नहीं हो रहा है यह, स्वभावतः हो रहा है। यह पक्षी नहीं कर रहा है, परमात्मा कर रहा है।
इस तत्व को समझ लेने का नाम आस्था है। इस तत्व में निमज्जित हो जाने का नाम आस्था है कि जब प्यास है, तो जलस्रोत कहीं मौजूद होगा, तभी प्यास है; प्यास सबूत है इस बात का कि जलस्रोत होगा। नहीं तो प्यास होती ही नहीं। इस जगत में कोई भी बात असंगत नहीं है। यहां एक बड़ी गहरी संगति है। तुम्हें दिखे, न दिखे; तुम समझ पाओ, न समझ पाओ; यह दूसरी बात। लेकिन इस जगत में एक बड़ी गहरी संगति है। सब जुड़ा है।
यह प्यास है तो जरूर पूरी होगी। जलस्रोत की दिशा में चलो। सच तो यह है कि प्यास परिपूर्ण हो जाए तो उसकी परिपूर्णता में ही तृप्ति हो जाती है। प्यास का पूर्ण हो जाना ही जलस्रोत का आगमन है।
आग में जल, पर धुआं बन कर न लौ पर छा
प्यार है ज्वाला--इसे जी से लगाए जा
बेकली को कल समझ, अभिशाप को वरदान
है यही उत्सर्ग-व्याकुल प्राण की पहचान
जग समझ पाया न हंसमुख पत्थरों का मोल
किंतु फिर भी तू न अंतस की मिटन को खोल
दाह वह कैसा न जो परितृप्त कर दे प्राण
वह तृषा कैसी न जिसमें सूख जाएं गान
प्यार कर लेकिन प्रणय की रागिनी मत गा
आग में जल, पर धुआं बन कर न लौ पर छा
प्यास पूर्ण हो जाए तो वही परितोष है, वही परितृप्ति है।
दाह वह कैसा न जो परितृप्त कर दे प्राण
इस प्यास में और आहुति डालो। इस प्यास में प्राणों को और समर्पित करो। यह प्यास तुम्हारे रोएं-रोएं को पकड़ ले। जिस दिन यह प्यास रोएं-रोएं को पकड़ लेगी और कण-कण में व्याप्त हो जाएगी, जिस दिन तुम प्यास की एक लपट हो जाओगे, उसी क्षण तृप्ति हो जाएगी। प्यास है तो तृप्ति निश्चित है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, यह मन-पंछी बहुत ऊंची उड़ानें भरता है, लेकिन पहुंचता कहीं नहीं है। मैं अपने को वहीं पाता हूं जहां हूं। प्रभु, इस पर कुछ कहने की अनुकंपा करें।
मन यानी कल्पना। मन का सत्य से कभी कोई संबंध नहीं होता। इसलिए मन उड़े कितना ही, पहुंचेगा कहीं नहीं। तुम आंख बंद करके उड़ान भरो, कलकत्ता पहुंचो, कि वाशिंगटन, कि मास्को, कि पेकिंग, मगर रहोगे तुम पूना में। जब भी आंख खोलोगे, पाओगे पूना में। तब चौंकना मत कि मैंने कितने मन से उड़ान भरी कि कलकत्ते पहुंच जाऊं, और पहुंच भी गया था, और कलकत्ते के रास्तों पर भी चलता था, और कलकत्ते के लोग चारों तरफ थे, और कलकत्ते की बास थी, और यह हुआ क्या? इधर आंख खोलता हूं तो पाता हूं जहां का तहां हूं!
रात तुम सपने देखते हो, कहां-कहां नहीं पहुंच जाते हो! मन पंछी कितनी उड़ान नहीं भरता! पाताल से लेकर स्वर्ग तक की यात्राएं करते हो! लेकिन सुबह अपनी खाट पर। मन की उड़ानें कहीं ले जा नहीं सकतीं। मन पर भरोसा छोड़ो। मन के भरोसे ने ही भटकाया है। और मजा यह है कि अगर मन की उड़ानें छूट जाएं, अगर मन बिलकुल छूट जाए, मन से श्रद्धा टूट जाए--कि यह कहीं ले जाता नहीं, यह सिर्फ आश्वासन देता है, लेकिन कोई आश्वासन कभी पूरे नहीं करता--कौन से आश्वासन मन ने पूरे किए हैं? हर बार धोखा दिया है। लेकिन अजीब है तुम्हारा भरोसा इस मन में, धोखे पर धोखे दिए जाता है, फिर भी तुम भरोसा किए चले जाते हो! मन बड़ा कुशल है तुम्हें राजी कर लेने में। मन कहता है, कल नहीं हो पाया, लेकिन आने वाले कल होगा। आज तक नहीं कर पाया, कोई बात नहीं, एक मौका और। और तुम आशा से भरे एक मौका और देते हो। ऐसे ही तुम मौके दिए चले जाते हो। और मन-पंछी काफी उड़ानें भरता है। और इन्हीं उड़ानों में तुम्हारी जीवन-ऊर्जा व्यर्थ जा रही है।
ध्यान रखना, जब तुम स्वप्न देखते हो तब भी तुम्हारी जीवन-ऊर्जा व्यर्थ जा रही है। स्वप्न में भी जीवन-ऊर्जा नष्ट होती है। विचारों की तरंगों में भी जीवन-ऊर्जा नष्ट होती है। यही जीवन-ऊर्जा अगर कहीं न जाए, मन और विचार के छिद्रों से बाहर न जाए, तुम इस ऊर्जा को अपने भीतर ही सम्हाल लो--उस सम्हालने का नाम संयम है। जैसे कोई मटकी छेद वाली हो और पानी बाहर बहता रहे, रिसता रहे और खाली हो जाए, ऐसी तुम्हारी दशा है। यह मन छेद और छेद, सारे छेदों का नाम है। तुम्हारा भीतर का तत्व इससे रिसता रहता है, तुम खाली के खाली रह जाते हो।
ये मन के छिद्रों को बंद कर दो, अछिद्र हो जाओ, और तब तुम पाओगे, जिसे तुम पाने चले थे वह तुम्हारे भीतर है। खोओ भर मत परमात्मा को--परमात्मा को पाना नहीं है, खोओ भर मत, परमात्मा मिला हुआ है। और तब तुम चकित होओगे कि जहां मैं हूं, वहीं होना है; कहीं और जाना ही नहीं है। जिस आकाश को तुम खोजते थे, वहीं तुम हो। मन ने तुम्हें भरमाया और भटकाया। मन तुम्हें अपने से दूर ले गया। मन तुम्हें स्वयं की सत्ता से तोड़ता रहा।
मन का मतलब ही यह होता है--जहां तुम हो, वहां नहीं होने देता। समझो तुम यहां बैठे मुझे सुन रहे हो, लेकिन मन हो सकता है बाजार में पहुंच गया हो, दुकान पर बैठ गया हो, काम-धंधा शुरू कर दिया हो। तुम यहां बैठे हो और मन यहां नहीं है। तुम जहां होते हो मन वहां से भाग जाता है। यही मन की जो सतत भ्रमणा है, यही भ्रमणा छूट जाए, तुम जहां हो वहीं पूरे के पूरे हो जाओ समग्रता में, तो क्या पाने को है? तुम परमात्मा में विराजमान हो। तुम कभी वहां से क्षण भर को भी हटे नहीं हो। इंच भर को भी तुम्हारे बीच और परमात्मा के बीच कभी फासला नहीं हुआ, सिर्फ मन तुम्हें दूर-दूर भटकाया है, दूर-दूर दौड़ाया है। और मजा यह है कि दौड़ाता है, पहुंचाता कहीं भी नहीं।
तुम कहते हो: ‘यह मन-पंछी बहुत ऊंची उड़ानें भरता है।’
ऊंची भरे कि नीची, इसकी उड़ान में कुछ भी सार नहीं है, सब कल्पना-जाल है।
‘लेकिन पहुंचता कहीं नहीं है।’
ठीक समझ में आई बात तुम्हें। तो अब इस मन-पंछी को और ज्यादा सहायता मत दो, अब और न उड़ाओ ये पतंगें, ये कागज की नावें और न चलाओ, ये झूठे दीये और न जलाओ, ये ताश के घर और न बनाओ। अब मन को विदा दे दो, अलविदा दे दो, हाथ जोड़ कर नमस्कार कर लो, आखिरी जयरामजी कर लो, और जैसे हो वैसे ही रह जाओ। अन्यथा होने की कोई जरूरत भी नहीं है; जो हो, वही ठीक है; जहां हो, वहीं ठीक हो।
जैसे ही तुम राजी हो जाओगे, जो हो, उससे; जैसे हो, उससे; जहां हो, उससे; तुम्हारे जीवन में संतोष की वर्षा हो जाएगी। मेघ बरस जाएंगे आनंद के!
चौथा प्रश्न:
भगवान, मैं समाधि चाहता हूं, और शीघ्र। यह शीघ्रता भयंकर तनाव बनी जा रही है। मैं क्या करूं?
एक तो समाधि या संबोधि चाही नहीं जा सकती। जो चाहा जा सकता है, वह संसार है। जो नहीं चाहा जा सकता, वही परमात्मा है, वही समाधि है। चाह और समाधि का कोई संबंध कभी नहीं होता, उनका मिलन कभी नहीं होता। चाह का मतलब ही है कि तुम जो नहीं हो, वह। और समाधि का अर्थ है, तुम जो हो, वह।
जो हो, उसको क्या चाहोगे? कैसे चाहोगे? कोई स्त्री पुरुष होना चाह सकती है, लेकिन कोई स्त्री स्त्री कैसे होना चाहेगी? है ही। तुम जो हो, उसे कैसे चाहोगे? चाहने का प्रयोजन क्या है? चाहना सदा उसका होता है जो तुम नहीं हो। और जो तुम नहीं हो, वह तुम कभी नहीं हो सकते।
इसलिए चाहना दुख में ले जाता है, असफलता में ले जाता है, विषाद में ले जाता है। हर चाह टूटती है, खंडित होती है। हर चाह के बाद तुम मुंह के बल जमीन पर गिरते हो, धूल भरी रह जाती है तुम्हारे मुंह में। हर चाह विफलता लाती है; हर चाह हताशा लाती है। चाह से कभी कोई उपलब्धि नहीं होती। हो नहीं सकती। क्योंकि चाह का मौलिक अर्थ है: वही होने की कोशिश जो तुम नहीं हो। वह तुम हो नहीं सकते। आम आम होगा, नीम नीम होगी।
अब चाह का अर्थ होता है, नीम आम होना चाहे। नीम इस तरह की भूल करती नहीं, इसलिए नीम परेशान नहीं है। नहीं तो नीम की भी नींद खो जाए, और नीम भी विक्षिप्त हो और पागलखाने में पड़ी हो, और घबड़ाहट में जहर पी ले, आत्मघात कर ले। लेकिन कोई नीम इस चिंता में ही नहीं है। नीम पूरे मजे में है। अपनी निबौरियों के साथ पूरी राजी है। न आम को फिक्र है कुछ और होने की। न गुलाब कमल होना चाहता है, न कमल गुलाब होना चाहता है। घास का फूल भी फिक्र नहीं करता, दो कौड़ी फिक्र नहीं करता गुलाब होने की। घास का फूल सिर्फ घास होना चाहता है। आदमी को छोड़ कर इस सारी प्रकृति में किसी को कुछ और होने की चिंता नहीं है। इसलिए प्रकृति में ऐसी शांति है। ऐसा अपूर्व सुख छाया है।
हिमालय पर जाते हो, तुम्हें जो शांति दिखाई पड़ती है, वह किस बात की शांति है? वह इसी बात की शांति है कि वहां कोई चाह नहीं। पहाड़ पहाड़ हैं, वृक्ष वृक्ष हैं, झरने झरने हैं, नदियां नदियां हैं, वहां कोई चाह नहीं, अचाह व्याप्त है। उसी अचाह के कारण तुम भी थोड़ी देर के लिए बड़े सन्नाटे में भर जाते हो। बंबई जाते हो, चारों तरफ शोरगुल है चाह का, तन जाते हो, खिंच जाते हो, परेशान हो जाते हो; दिन भर के बाद बंबई से घर लौटते हो, राहत मिलती है। चाह का बाजार है।
जहां-जहां आदमी की दुनिया है, वहां-वहां चाह का शोरगुल है। जहां-जहां परमात्मा की दुनिया है, वहां-वहां अचाह का संगीत है। वृक्षों के पास बैठो, वृक्षों से कुछ सीखो। एक ही बात समझ में आएगी वृक्षों के पास कि हर वृक्ष जैसा है वैसा होने से राजी है। उसमें कभी भी प्रतिस्पर्धा नहीं है। यही सूत्र है।
समाधि तो फल सकती है, अभी, इसी क्षण, मगर तुम्हीं बाधा हो।
तुम कह रहे हो: मैं संबोधि, समाधि चाहता हूं, और शीघ्र।
एक तो चाह में ही भूल हो गई, चाह में ही जहर घोल दिया तुमने अपने प्राणों में; और फिर दूसरा जहर और ला रहे हो--शीघ्र। धीरज भी नहीं है, धैर्य भी नहीं है। यह करेला हुआ नीम चढ़ा। ऐसे ही कड़वा था और नीम पर चढ़ा दिया। यह दोहरी बात हो गई। यह बीमारी व्यर्थ तुमने बढ़ा ली। शीघ्रता से कभी कोई संबोधि को या समाधि को उपलब्ध हुआ है? वहां तो वे ही पहुंचते हैं जो अनंत प्रतीक्षा करने को राजी हैं। जो कहते हैं, आज तो आज, कल तो कल, परसों तो परसों, इस जन्म में तो इस जन्म में, अगले जन्म में तो अगले जन्म में--और अगर कभी नहीं तो कभी नहीं। जो इतनी हिम्मत रखते हैं कि कभी नहीं तो कभी नहीं। ऐसी जिनकी विश्रांति है, ऐसे जो तनावरहित हैं, ऐसा जहां धैर्य का झरना बह रहा है, वहां समाधि अभी है और यहीं, इसी वक्त घट जाएगी। तुम्हें मेरी बात समझ में न आती हो तो करके देख लो। मगर खयाल रखना, भूल में मत पड़ना, यह मत सोचना कि चलो, अगर तेजी से इस ढंग से घटती है, अगर यह ढंग है तेजी से घटाने का, तो यही कर लेंगे। तो चूक जाओगे; क्योंकि यह ढंग नहीं है। यह तेजी से घटाने का ढंग नहीं है। तेजी से तो घटाने की बात ही बाधा है।
तो एक तो चाह और शीघ्र, स्वभावतः शीघ्रता तनाव बनी जा रही है। बन ही जाएगी, पागल कर देगी तुम्हें। अगर यही पागलपन चाहिए तो धन के पीछे दौड़ो, ध्यान के पीछे नहीं। क्योंकि धन और पागलपन का थोड़ा संबंध है। पागलपन से दौड़ोगे तो मिल जाएगा। अगर बिलकुल सिर देकर पड़ ही गए पीछे, तो मिल जाएगा। दूसरे पागल भी लगे हैं, अगर तुम्हारा पागलपन उनसे ज्यादा हुआ, तो मिल ही जाएगा। दूसरे भी दौड़ रहे हैं, लेकिन अगर तुम धुआंधार पीछे पड़ गए, तो धन मिल जाएगा। हालांकि धन से कुछ मिलता नहीं, लेकिन इतनी तो राहत होगी कि जिसको चाहा था उसको पा लिया।
सिकंदर जरूर बड़ा पागल रहा होगा, नहीं तो दुनिया जीतना मुश्किल मामला है! तुम्हारी राजधानियों में पागलों का जमाव है। जो पागल हैं, वे सब वहां पहुंच जाते हैं। मेरा वश चले तो सब राजधानियों पर बड़ी दीवाल उठवा कर, जो उनके भीतर हैं उनको बाहर निकलने का मौका न दूं, उनको भीतर ही रखूं--दुनिया में शांति हो जाए। एक बार जो एम.पी. हो जाए, एक बार जो मिनिस्टर हो जाए, उसे फिर राजधानी से बाहर न निकलने दूं। फिर चाहे वह भूतपूर्व हो, या कुछ भी हो, राजधानी से बाहर न निकलने दूं। उस पर रुकावट डाल दूं। ये जहर लेकर फिर सारे देश में घूमते हैं, सारी दुनिया में घूमते हैं, ये दूसरों में भी जहर पैदा करवाते हैं। ये पागल लोग हैं, यह पागलों की जमात है।
मगर अगर तुम्हें शीघ्रता चाहिए और चाह का रस है, तो धन और पद के पीछे दौड़ो; क्योंकि उनसे चाह का तर्क तालमेल खाता है। तुम ध्यान के पीछे दौड़ रहे हो! ध्यान तो उनको मिलता है जो बैठ जाते हैं, दौड़ते नहीं। ध्यान कोई दिल्ली थोड़े ही है, दिल्ली चलो! ध्यान के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है, यहीं आंख बंद करो, यहीं हलके-फुलके होकर बैठ जाओ, यहीं राजी हो जाओ अपने से, यहीं स्वीकार कर लो जैसा है, जो है, इंच भर भी विरोध न रखो, सहज भाव से जीने लगो, अपने आप घट जाएगी समाधि। तुम्हें उसका हिसाब रखने की भी जरूरत नहीं है। अपने आप दिन निकल आएगा; अपने आप रात कट जाएगी।
फिर तुम करोगे भी क्या? जब सूरज निकलेगा तभी निकलेगा न! तुम्हारे शोरगुल मचाने से, दंड-बैठक लगाने से, प्राणायाम साधने से सूरज निकलने वाला नहीं है। सूरज जब निकलेगा तब निकलेगा। तुम मजे से सो रहो, जितनी देर नहीं निकला है इतनी देर विश्राम कर लो, जब निकलेगा तो फिर काम-धाम के दिन आएंगे।
तुम कहते हो: समाधि चाहिए।
जिनको समाधि मिल गई उनसे तो पूछो! जब समाधि मिल जाती है तो फिर बांटो उसे! जाग गए, अब जगाओ औरों को! हजार झंझटें आती हैं। मेरी मानो! जब तक नहीं मिली तब तक शांति से विश्राम कर लो थोड़ी देर और, भगवान को धन्यवाद दो।
दिन निकलने दे
जरा सा दिन निकलने दे!
रास्ते आधे-अधूरे से
दिख रहे जो तानपूरे से
तार में सरगम सम्हलने दे
थम, जरा सा दिन निकलने दे!
राग जब आकार पाएगा
स्याह घेरा टूट जाएगा
खून, स्याही में उबलने दे
थम, जरा सा दिन निकलने दे!
अंगुलियां खुद तार को छूकर
व्योम को ले आएंगी भू पर
घाटियों को आंख मलने दे
थम, जरा सा दिन निकलने दे!
जल्दी न करो, दिन अपने से करीब आ रहा है। सुबह अपने से होती है। आदमी के किए कुछ भी नहीं होता। करने वाला कर रहा है। जब रात हो तो सो रहो, और जब दिन हो तो काम में लग जाओ। जब समाधि मिलेगी, तो बांटना पड़ेगा--बड़ा काम आ जाएगा सिर पर! जब तक समाधि नहीं मिली, तब तक भगवान को धन्यवाद दो, चादर ओढ़ कर सो रहो; विश्राम कर लो, समाधि के लिए तैयार कर लो अपने को, समाधि के लिए शक्ति जुटा लो कि जब मिले समाधि, तो तुम बांट सको।
अब यह मजा है। जिनको समाधि नहीं मिली, वे भी दौड़ते हैं--वे दौड़ते हैं पाने के लिए। और जिनको समाधि मिली, वे भी दौड़ते हैं--वे दौड़ते हैं बांटने के लिए। महावीर को समाधि मिली, फिर बयालीस साल तक दौड़ते रहे एक गांव से दूसरे गांव। बुद्ध को समाधि मिली, फिर चालीस साल तक सुबह से सांझ तक समझाते रहे लोगों को। जगत का क्रिया-कलाप चलता ही रहता है। अज्ञानी भी क्रिया में होता है, ज्ञानी भी क्रिया में होता है। फर्क इतना ही होता है: अज्ञानी पाने की क्रिया में होता है, ज्ञानी देने की क्रिया में होता है। फर्क बड़ा है।
लेकिन ज्ञान की घटना तभी घटती है जब तुम उसकी अपेक्षा भी नहीं कर रहे थे। जब तुम सोच भी नहीं रहे थे कि अब घटेगी। आकस्मिक घटती है। अनायास घटती है। एक दिन अचानक तुम पाते हो कि तुम्हें किसी ताजी हवा ने घेर लिया, कोई सूरज उगा, कोई किरण उतरी, कोई गीत बजने लगा, कोई तार छिड़ गया।
अंगुलियां खुद तार को छूकर
व्योम को ले आएंगी भू पर
घाटियों को आंख मलने दे
थम, जरा सा दिन निकलने दे!
संबोधि को चाहो मत, समाधि को चाहो मत। चाह बाधा है। फिर शीघ्रता तो भूल कर मत करना। समाधि कोई मौसमी फूल का पौधा नहीं है कि अभी बोया और दो-चार-आठ दिन में अंकुर निकल आए और दो-तीन सप्ताह में फूल आ गए--मगर पांच-छह सप्ताह में गए भी! आए भी और गए भी; पीछे कुछ न बचा। समाधि तो विराट वृक्ष है। समय लेगा, धीरज मांगेगा, प्रतीक्षा चाहेगा, धीरे-धीरे बढ़ेगा; तभी तो चांद-तारों से बात हो सकेगी, तभी तो हवाओं से मुलाकात हो सकेगी, तभी तो आकाश में फैल कर खड़ा हो सकेगा। समाधि है पृथ्वी का आकाश से मिलन। यह बड़ी घटना है। इससे बड़ी और कोई घटना नहीं है। यह घटना इतनी बड़ी है कि तुम्हारी छोटी सी चाह में नहीं समा सकती। चाह तो चम्मच जैसी है और यह घटना सागर जैसी है।
मैंने सुना है, अरस्तू एक दिन सागर के किनारे टहलने गया और उसने देखा कि एक पागल आदमी--पागल ही होगा, अन्यथा ऐसा काम क्यों करता--एक गड्ढा खोद लिया है रेत में और एक चम्मच लिए हुए है; दौड़ कर जाता है, सागर से चम्मच भरता है, आकर गड्ढे में डालता है, फिर भागता है, फिर चम्मच भरता है, फिर गड्ढे में डालता है। अरस्तू घूमता रहा, घूमता रहा, फिर उसकी जिज्ञासा बढ़ी, फिर उसे अपने को रोकना संभव नहीं हुआ। सज्जन आदमी था, एकदम से किसी के काम में बाधा नहीं डालना चाहता था, किसी से पूछना भी तो ठीक नहीं, अपरिचित आदमी से, यह भी तो एक तरह का दूसरे की सीमा का अतिक्रमण है। मगर फिर बात बहुत बढ़ गई, उसकी भागदौड़, इतनी जिज्ञासा भर गई कि यह मामला क्या है? यह कर क्या रहा है? पूछा कि मेरे भाई, करते क्या हो? उसने कहा, क्या करता हूं, सागर को उलीच कर रहूंगा! इस गड्ढे में न भर दिया तो मेरा नाम नहीं! अरस्तू ने कहा कि मैं तो कोई बीच में आने वाला नहीं हूं, मैं कौन हूं जो बीच में कुछ कहूं, लेकिन यह बात बड़े पागलपन की है, यह चम्मच से तू इतना बड़ा विराट सागर खाली कर लेगा! जन्म-जन्म लग जाएंगे, फिर भी न होगा। सदियां बीत जाएंगी, फिर भी न होगा! और इस छोटे से गड्ढे में भर लेगा? और वह आदमी खिलखिला कर हंसने लगा, और उसने कहा कि तुम क्या सोचते हो, तुम कुछ अन्य कर रहे हो? तुम कुछ भिन्न कर रहे हो? तुम इस छोटी सी खोपड़ी में परमात्मा को समाना चाहते हो? अरस्तू बड़ा विचारक था। तुम इस छोटी सी खोपड़ी में अगर परमात्मा को समा लोगे, तो मेरा यह गड्ढा तुम्हारी खोपड़ी से बड़ा है और सागर परमात्मा से छोटा है; पागल कौन है?
अरस्तू ने इस घटना का उल्लेख किया है और उसने लिखा है कि उस दिन मुझे पता चला कि पागल मैं ही हूं। उस पागल ने मुझ पर बड़ी कृपा की।
वह कौन आदमी रहा होगा? वह आदमी जरूर एक पहुंचा हुआ फकीर रहा होगा, समाधिस्थ रहा होगा। वह सिर्फ अरस्तू को जगाने के लिए, अरस्तू को चेताने के लिए उस उपक्रम को किया था।
नहीं, तुम्हारी चाह तो छोटी है--चाय की चम्मच--इस चाह से तुम समाधि को नहीं पा सकोगे। चाह को जाने दो। और फिर जल्दबाजी मचा रहे हो! जल्दबाजी में तो चम्मच में थोड़ा-बहुत पानी आया, वह भी गिर जाएगा--अगर ज्यादा भागदौड़ की तो, और ज्यादा जल्दबाजी की। तुमने देखा न, कभी-कभी जल्दबाजी में यह हो जाता है, ऊपर की बटन नीचे लग जाती है, नीचे की बटन ऊपर लग जाती है; सूटकेस में सामान रखना था, वह बाहर ही रह जाता है, सूटकेस बंद कर दिया। फिर उसको खोला तो चाबी नहीं चलती, कि चाबी अटक जाती है। तुमने जल्दबाजी में देखा, स्टेशन पहुंच गए और टिकट घर ही रह गई। और बड़ी जल्दी की!
जितनी जल्दबाजी करते हो, उतने ही अशांत हो जाते हो। जितने अशांत हो जाते हो, उतनी संभावना कम है समाधि की। शांत हो रहो। और शांत होने की कला है अचाह से भर जाना। चाहो ही मत, मांगो ही मत; कहो कि जो जब होना है, होगा, हम प्रतीक्षा करेंगे। जल्दी भी क्या है? समय अनंत है।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, आप कहते हैं कि दो ही मार्ग हैं--भक्ति और ज्ञान। लेकिन आप न तो भक्ति सिखाते हैं और न ज्ञान, आप तो ध्यान सिखाते हैं। तो क्या ध्यान भक्ति और ज्ञान से भी परे है?
ध्यान ज्ञान और भक्ति का सार है। ध्यान निचोड़ है दोनों का। जिसको भक्त प्रीति कहता है, जिसको ज्ञानी बोध कहता है, ध्यान बोध और प्रीति का निचोड़ है। ऐसा समझो कि कुछ फूल भक्ति के और कुछ फूल ज्ञान के और दोनों को निचोड़ कर तुमने एक इत्र बनाया, वही है ध्यान। ध्यान भक्त की भक्ति है, ज्ञानी का बोध है। ध्यान का एक पंख भक्ति है और एक पंख ज्ञान है।
ध्यान सार है। भक्ति से पाओ तो भी ध्यान मिलेगा और ज्ञान से पाओ तो भी ध्यान मिलेगा। अंतिम अर्थों में जो संपदा तुम्हारे हाथ में लगेगी, उसका नाम ध्यान है।
समझो।
भक्ति का अर्थ होता है: भक्त खो जाता है, भगवान बचता है। ज्ञान का अर्थ होता है: भगवान खो जाता है, ज्ञानी बचता है, आत्मा बचती है। इसलिए महावीर और बुद्ध, जो ज्ञान के परम शिखर हैं, उन्होंने परमात्मा को स्वीकार नहीं किया। कह दिया कि परमात्मा नहीं है। यह ज्ञान की उदघोषणा है। दूसरा नहीं बचता, एक आत्मभाव बचता है, आत्मा बचती है। शांडिल्य और नारद दूसरी ही घोषणा करते हैं, वे कहते हैं, भगवान बचता है, भक्त नहीं बचता; भक्त तो भगवान में लीन हो जाता है। यह भक्त के कहने का ढंग है। भक्त अपने को समाप्त कर देता है। लेकिन अगर दोनों पर गौर करो तो दोनों की सार बात एक है कि दो नहीं बचते, एक बचता है--वही ध्यान है। फिर जो एक बचता है, उसको भगवान कहो, कि आत्मा कहो, कि निर्वाण कहो, क्या फर्क पड़ता है? ये सब कामचलाऊ नाम हैं। तुम्हारी जो मर्जी, तुम्हारा जो लगाव, जैसी तुम्हारी रुचि, वही कहो।
भक्त की रुचि है कि वह कहता है--भगवान बचता है; अब मैं कहां, तू ही है। और ज्ञानी की रुचि है कि अब तू कहां, मैं ही हूं--अहं ब्रह्मास्मि, अनलहक। ये कहने के ढंग हैं। दोनों एक ही बात कह रहे हैं कि दो नहीं रहे अब, एक बचा है। अब एक को कैसे कहें? हमारी भाषा में हर चीज दो है, तो दो में से कोई एक चुनना पड़ेगा। कहने के लिए एक शब्द का उपयोग करना पड़ेगा, एक शब्द छोड़ना पड़ेगा। अपनी-अपनी मौज। कोई मैं को छोड़ देता है, कोई तू को छोड़ देता है।
इसलिए मैं ध्यान सिखाता हूं। ध्यान का अर्थ है: मैं तुम्हें सार सिखाता हूं। सारे धर्मों का सार ध्यान है। सारे धर्म ध्यान को कहने के अलग-अलग ढंग हैं। सारे धर्म ध्यान को पाने के अलग-अलग मार्ग हैं। भक्ति की यात्रा अलग है और ज्ञानी की यात्रा अलग है, लेकिन मंजिल एक है, वही मंजिल ध्यान है।
ध्यान का क्या अर्थ हुआ?
ध्यान का अर्थ हुआ: न तो भक्त बचा, न भगवान; न मैं, न तू; सिर्फ बोध बचा, सिर्फ प्रीति बची, गुण बचा, भगवत्ता बची--न भगवान, न भक्त। इसलिए मैं ध्यान सिखाता हूं। फिर जो ध्यान सीधा नहीं सीख पाते, उनको या तो मैं भक्ति सिखाता हूं, या ज्ञान सिखाता हूं। मेरे मंदिर में सारे धर्मों के द्वार हैं। यह मंदिर किसी एक धर्म का मंदिर नहीं है। यह धर्म का मंदिर है, किसी धर्म का नहीं। इसमें तुम जिस हैसियत से आना चाहो, स्वीकार हो। तुम जिस मार्ग से इसे पाना चाहो, स्वीकार हो। तुम जिस भाषा का उपयोग करना चाहो, स्वीकार हो। और अगर तुम्हारे पास इतनी प्रतिभा है कि तुम सारे मार्गों का निचोड़ इत्र पकड़ सकते हो सीधा-सीधा, तो ध्यान पकड़ लो। अगर ध्यान दूर की बात मालूम पड़े, तुम्हारी पकड़ में न आती हो, तो फिर भक्ति या ज्ञान।
छठवां प्रश्न:
भगवान, मैं संन्यास लेना चाहता हूं। क्या मैं पात्र हूं और क्या वह शुभ मुहूर्त आ गया है?
संन्यास लेना मत चाहो। तुम्हारा लिया संन्यास बहुत दूर तक नहीं जाएगा। संन्यास को घटने दो, घटाओ मत। अगर संन्यास के भाव ने तुम्हें पकड़ लिया है, तो चल पड़ो, अब सोचो मत। सोच कर निर्णय मत लो संन्यास का। सोच-विचार कर तुम संन्यास लोगे, वह तुम्हारी बुद्धि की निष्पत्ति होगी। और फिर तुम्हारी बुद्धि के पार न ले जाएगी, और पार ही जाना है। पागल की तरह चल पड़ो, प्रेमी की तरह चल पड़ो। हिसाब-किताब न बिठाओ। अब क्या तुम भी पूछते हो! क्या शुभ मुहूर्त आ गया है? क्या किसी ज्योतिषी से पूछोगे जाकर? किसी हस्तरेखाविद को हाथ दिखाओगे?
ऐसा हो जाता है। एक दफा माउंट आबू में एक सज्जन मेरे पास आए, हाथ मेरे आगे कर दिया और कहा, आप देख कर तो बताइए कि संन्यास है भी मेरे हाथ में कि नहीं? हो तो मैं ले लूं।
हाथ पर तुम्हें भरोसा है, हृदय की फिकर नहीं है! हाथ की लकीरों में क्या रखा है? युद्ध के मैदान पर हजारों लोग एक दिन में मर जाते हैं, क्या तुम सोचते हो सबकी लकीरें उसी दिन मृत्यु की सूचना देती थीं? हवाई जहाज गिरता है और डेढ़ सौ आदमी एक साथ मर जाते हैं, उनके हाथ तो देखो! सबके अलग-अलग।
हाथ की रेखाएं! तुम होश में हो? लेकिन आदमी इसी तरह के जाल में पड़ा रहा है। प्रेम की न सुनेगा, ज्योतिषी से पूछेगा कि इस स्त्री से विवाह करूं कि नहीं। यह ज्योतिषी कौन है? और ज्योतिष के आधार पर कहीं प्रेम घटा है? यह तो बड़ी अजीब बात हुई! लेकिन हम इसी तरह जीवन जी रहे हैं। हम अंतर की आवाज नहीं सुनते। हम बाहर से प्रमाण चाहते हैं।
तुम पूछते हो: ‘मैं संन्यास लेना चाहता हूं।’
फिर रुको क्यों? फिर कौन रोक रहा है? फिर कौन तुम्हें पकड़ कर पीछे खींच रहा है? तुम्हारी बुद्धि कह रही है: पहले सोच-विचार तो कर लो; अभी शुभ मुहूर्त आ गया? पीछे झंझट में तो न पड़ोगे? पात्र भी हो कि नहीं? पहले सुपात्र तो हो जाओ।
बुद्धि बड़ी चालबाज है। बुद्धि ऐसे-ऐसे तर्क देती है कि जो बिलकुल ठीक मालूम पड़ते हैं। अब यह तर्क, बुद्धि कहेगी--पहले सुपात्र तो हो जाओ। अब बड़ी मुसीबत हो गई। सुपात्र का मतलब क्या होगा? सुपात्र का मतलब, पहले बुद्ध हो जाओ, महावीर हो जाओ। फिर संन्यास लोगे? फिर संन्यास किसलिए लोगे? और जब तक बुद्ध नहीं हुए, तब तक सुपात्र कहां?
यह तो ऐसा ही हुआ कि किसी चिकित्सक के पास गए और उसने कहा कि हट, भाग यहां से! पहले बीमारी तो ठीक करके आ! फिर हम औषधि देंगे। ऐसे हम कुपात्र में औषधि नहीं डालते; न मालूम कितनी बीमारियां लिए चला आ रहा है! रक्त-चाप बढ़ा हुआ है, हृदय की चाल गड़बड़ है, नब्ज ठिकाने नहीं है, पेट खराब है, खून विषाक्त है, ऐसे आदमी में हम अपनी शुद्ध दवा नहीं डालते। तू पहले यह सब ठीक करके आ। लेकिन फिर तुम आओगे किसलिए?
संन्यास औषधि है। संन्यास चिकित्सा है। मैं वैद्य हूं। तुम स्वस्थ हो जाओगे तो फिर तो दवा की कोई जरूरत न रहेगी। तुम अपात्र हो, इसीलिए तो जरूरत है। अब बुद्धि बड़े हिसाब की बातें करती है और ऐसी बातें करती है जो कि जंचती भी हैं। बुद्धि कहती है--पहले पात्र तो हो जाओ! अब यह मामला इतना बड़ा है कि पात्र होने में अगर लगे, तो जन्म-जन्म बीत जाएंगे और तुम पात्र न हो पाओगे। कुछ न कुछ कमी रह जाएगी। आदमी की सीमाएं हैं।
किसी मित्र को दो दिन पहले ध्यान करते समय अपूर्व अनुभव हुआ, आनंदमग्न हो गए। मगर फिर घबड़ा गए। फिर मुझे पत्र लिखा। और पत्र में लिखा कि पहले यह तो बताइए कि मुझ अपात्र को इतना बड़ा अनुभव हो ही कैसे सकता है? सिगरेट मैं पीता, पान मैं खाता, सिनेमा मैं जाता, कामिनी-कांचन में मेरा लगाव है, मुझ अपात्र को यह हो ही कैसे सकता है?
अब हो गया तो भी मानते नहीं हैं। अब बुद्धि यह तर्क निकाल रही है कि अपात्र को हो ही कैसे सकता है? जैसे कि परमात्मा तुम्हारी सिगरेट से डरेगा, कि यह आदमी सिगरेट पीता है, इसके पास नहीं आना है। तुम परमात्मा को डराने चले हो छोटी-मोटी बातों से? कि तुम सिनेमा जाते हो।
परमात्मा कब आ जाता है अकारण, कब तुम्हें भर देता है, कुछ कहा नहीं जा सकता। इसीलिए शांडिल्य कहते हैं: प्रसाद! अपात्र से अपात्र में उतर आता है। बस एक ही बात चाहिए कि अपात्र स्वीकार करने को राजी हो, बस उतनी बात चाहिए। द्वार-दरवाजे बंद मत कर लेना! जब सूरज की किरण सुबह आती है और तुम्हारे दरवाजे से प्रवेश करती है, तो वह यह नहीं कहती--पहले घर साफ बुहारो, शुद्ध करो, पानी छिड़को। इस धूल भरे घर में मैं नहीं आऊंगा; कपड़े-लत्ते धोओ, स्नान करो, फिर मैं निकलूंगा तुम्हारे लिए; अभी मैं उनके लिए निकला हूं जो स्नान कर चुके हैं; ब्रह्ममुहूर्त में उठे थे; तुम अपात्र अभी बिस्तर में पड़े हो। लेकिन तुम कभी बिस्तर में भी पड़े होते हो कंबल ओढ़े और सूरज की किरण आकर तुम्हें जगाने लगती है तुम्हारे कमरे में; ऐसा ही परमात्मा आता है।
तुम्हारी अपात्रता और तुम्हारी पात्रता, सब दो कौड़ी की हैं। तुम्हारी अपात्रता भी दो कौड़ी की है, तुम्हारी पात्रता भी दो कौड़ी की है। पात्रता में भी क्या करोगे? कोई आदमी धन के पीछे दीवाना है तो कहता है--मैं अपात्र। और वह धन छोड़ कर चला जाएगा जंगल में तो सोचेगा--पात्र। और धन में था ही क्या? तुम सोचते हो परमात्मा तुम्हारे सरकारी नोटों में भरोसा करता है? तुम भी नहीं करते, परमात्मा क्या खाक करेगा? तुम्हारे सरकारी नोटों का भरोसा क्या है? कब कैंसिल हो जाएं! कब कागज के टुकड़े हो जाएं! तुम सोचते हो तुम्हारे रिजर्व बैंक के गवर्नर के द्वारा जो प्रॉमिसरी नोट दिए जाते हैं, वह परमात्मा उनमें भरोसा करता है? कि तुम्हारे पास दस लाख रुपये थे, तो तुम अपात्र; अब तुमने दस लाख के नोट छोड़ दिए, जंगल में जाकर बैठ गए, तो तुम पात्र! तुमने छोड़ा क्या? पकड़ा क्या? कागज के नोट थे। कागज के नोटों से न तो कोई अपात्र होता है, न कोई पात्र होता है।
फिर आदमी की पात्रता मेरी दृष्टि में क्या है? एक ही कि आदमी अपना द्वार खोलने को राजी हो। आदमी विनम्र हो। और ध्यान रखना, इसे मैं दोहरा कर तुमसे कहना चाहता हूं कि जिनको तुम पात्र कहते हो, वे विनम्र नहीं होते, और वही उनकी गहरी से गहरी अपात्रता है। किसी ने उपवास कर लिया, वह पात्र हो जाता है। वह अकड़ कर बैठ जाता है। किसी ने गरीब पत्नी को छोड़ दिया। अब पत्नी भूखों मरती है, परेशान होती है। कोई अपने बच्चों को छोड़ कर चला गया। अब बच्चे अनाथ हो गए और भीख मांगने लगे। मगर यह अकड़ कर बैठा है मंदिर में कि मैं मुनि हो गया! कि मैं त्यागी हूं! कि मैं व्रती हूं! कि देखो मैंने कितनी पात्रता अर्जित की है!
यह अपराधी है, पात्र इत्यादि कुछ भी नहीं। इसने बच्चों को अनाथ कर दिया, इसने पत्नी को बाजार में खड़ा कर दिया, यह अपने छोटे-मोटे कर्तव्य भी नहीं निभा सका, इसको तुम पात्र कह रहे हो? यह सिर इत्यादि घुटा कर यहां बैठ गया है, इससे तुम सोचते हो कि परमात्मा इससे बड़े प्रसन्न हैं। कोई सिर घुटा लेने से परमात्मा का खास लगाव तुममें हो जाएगा?
यह क्या पात्रता है! लेकिन यह पात्रता का भाव पैदा हो गया, तो अहंकार मजबूत हो गया--यह और अपात्र हो गया। इससे तो तभी बेहतर था जब यह कहता था कि मैं अपात्र हूं, कभी-कभी शराब भी पी लेता हूं, और कभी-कभी किसी स्त्री के मोह में भी पड़ जाता हूं, और कभी-कभी मन में क्रोध भी आ जाता है, मैं अपात्र हूं; मुझे कैसे परमात्मा मिलेगा, मैं अपात्र हूं। जिस दिन इसका ऐसा भाव था, मेरी दृष्टि में उस दिन यह ज्यादा पात्र था, कम से कम निर-अहंकारिता थी; दंभ नहीं था, अकड़ नहीं थी, यह झुक सकता था।
एक ही पात्रता है मेरी दृष्टि में--झुकने की क्षमता, ग्रहण करने की क्षमता, द्वार खोलने के लिए राजीपन। तुम अगर द्वार खोलने को तैयार हो हृदय के, तो आ गया मुहूर्त, आ गया शुभ दिन। अब सोचते मत रहो। अब पूछना किससे है? जिस बुद्धि से तुम पूछ रहे हो, वह बुद्धि तो बाधाएं खड़ी करेगी। बुद्धि तो कहेगी: कहां की झंझट में पड़ते हो! संन्यास ले लोगे, मुसीबतें आएंगी; दफ्तर में लोग हंसेंगे, गांव के लोग पागल समझेंगे।
एक जैन महिला ने मुझे आकर कहा कि मेरे पति आपका संन्यास ले लिए हैं। अगर उनको संन्यासी ही होना है, तो वे असली संन्यासी हो जाएं।
असली! मैंने कहा, तेरा मतलब?
उसने कहा, तो जैन मुनि हो जाएं। हम भूखे मर लेंगे, मगर कम से कम कोई उनको पागल तो न समझेगा। अभी तो लोग उन्हें पागल समझने लगे हैं। हमारे बच्चे स्कूल जाते हैं तो लोग कहते हैं--तुम्हारे पिताजी को क्या हो गया? मैं स्त्रियों से मिलने में डरने लगी हूं, उनकी पत्नी ने कहा, क्योंकि जो मुझे देखते हैं, वे कहते हैं--तुम्हारे पति को क्या हो गया? ये गैरिक वस्त्र क्यों पहन लिए हैं? यह माला क्यों लटका ली है? यह कैसा संन्यास?
पत्नी मुझसे कह रही थी कि अगर वे जैन मुनि हो जाएं--हमें मुसीबतें होंगी, बहुत क्योंकि वे छोड़ कर चले जाएंगे--लेकिन हम सम्हाल लेंगे, मैं बच्चों की देखभाल कर लूंगी, मगर वे कम से कम ऐसा संन्यास तो लें कि कोई हंसे न, कोई पागल न समझे।
और जिस संन्यास में लोग हंसेंगे नहीं, पागल नहीं समझेंगे, समझ लेना वह तुम्हारी समाज-व्यवस्था का अंग है, इसलिए लोग नहीं हंसते। महावीर पर लोग हंसे थे, जैन मुनि पर नहीं हंसते। महावीर संन्यासी थे और जैन मुनि संन्यासी नहीं है। बुद्ध पर लोग हंसे थे, जिस गांव में जाते थे उसी गांव में कोई आकर समझाता था कि आप भी यह क्या किए? इतनी धन-दौलत, घर, आपका दिमाग खराब हो गया? अपना राज्य छोड़ कर भाग गए, इस डर से कि इस राज्य के भीतर कहीं रुकूंगा तो पिता के आदमी आकर परेशान करेंगे, पड़ोस के राज्य में चले गए। पड़ोस के राजा को पता चला तो वह उनकी गुफा में दर्शन करने आया। उसने कहा कि तुम फिकर मत करो, अगर तुम्हारी पिता से नहीं बनती, या कोई झंझट हो गई है, तो मुझे तुम अपना पिता समझो। तुम्हारे पिता मेरे बचपन के मित्र हैं, हम साथ-साथ पढ़े और बड़े हुए। तुम मेरे घर आ जाओ, मेरी बेटी से मैं तुम्हारा विवाह कर देता हूं, मेरी एक ही बेटी है, यह राज्य तुम्हारा। मगर यह क्या ढोंग रचा हुआ है?
बुद्ध को भी लोग यही कहने गए थे--यह क्या ढोंग रचा हुआ है? दिमाग तुम्हारा ठीक है? चलो बाप से नहीं बनती, हो सकता है, मेरे घर आ जाओ; यह राज्य भी तुम्हारा ही है, यह तुम्हारे राज्य से छोटा भी नहीं है, बड़ा है। तुम इसको सम्हाल लो, कोई चिंता न करो, मैं तुम्हारे पिता को सम्हाल लूंगा।
जब बुद्ध बुद्ध हो गए, ज्ञान को उपलब्ध हो गए और घर वापस आए, तो भी बाप ने यही कहा कि तूने मुझे धोखा दिया! तू मेरे बुढ़ापे का एकमात्र बेटा, इकलौता बेटा, तू ही मेरे हाथ की लकड़ी, ये सब मैंने जिंदगी भर तेरे लिए किया, और तू छोड़ कर भाग गया! बाप की आंखों में क्रोध की चिनगारी थी। बूढ़े बाप में बड़ा क्रोध था। और उन्होंने कहा कि मैं तुझे अभी भी माफ कर दूंगा, यह बाप का हृदय है। तूने ठीक नहीं किया, बहुत घाव पहुंचाया, बारह वर्ष तेरी प्रतीक्षा की है। चल तू लौट आया, कोई बात नहीं, भूल जाऊंगा बारह वर्ष तूने जो मेरे साथ किया और जो दुख दिए। मगर लौट आ, घर के भीतर चल, यह भिक्षा का पात्र फेंक। हमारे कुल में कभी कोई भिखारी नहीं हुआ। तू सम्राट का बेटा है! यह क्या तू हमारी मजाक उड़वा रहा है? लोग आते हैं और लोग कहते हैं--तुम्हारा बेटा भीख मांगता है। तू सोचता है मुझ पर क्या बीतती है? बारह साल से मैं सोया नहीं हूं। तूने मेरी उम्र कम कर दी है, मैं समय के पहले जीर्ण-जर्जर हो गया हूं।
बुद्ध सामने खड़े हैं और बाप यह कह रहे हैं! लेकिन अब बौद्ध भिक्षु को कोई यह नहीं कहता। अब बौद्ध भिक्षु परंपरा का हिस्सा हो गया है।
तुमसे मैं कहता हूं: यह जो संन्यास का द्वार मैंने खोला है, जब तक लोग इसे पागलपन समझेंगे तभी तक यह सार्थक है। जल्दी ही यह भी स्वीकृत हो जाएगा। जब यह स्वीकृत हो जाएगा, तब यह व्यर्थ हो जाएगा। तब तुम संन्यास मत लेना, तब कोई फायदा नहीं होगा। तब तुम फिर किसी जीवित पागल को खोजना, जो तुम्हें फिर पागलपन में डाल दे। अभी मौका है। अभी लोग हंसेंगे, अभी लोग पागल समझेंगे, यही तो कसौटी है।
और फिर चूंकि मैं तुमसे घर छोड़ने को नहीं कहता, इसलिए मुसीबत और है। महावीर ने इतनी मुसीबत नहीं दी थी अपने लोगों को, जितनी मैं तुम्हें दे रहा हूं। बुद्ध ने इतनी मुसीबत नहीं दी थी। मैं तुम्हें एक बहुत ही बिगूचन की व्यवस्था में डाल रहा हूं। संन्यासी बना रहा हूं और घर से अलग नहीं कर रहा हूं। दुकान पर बैठोगे, गैरिक वस्त्रों में, बड़ी अड़चन होगी। गैरिक वस्त्रों में जंगल में बैठा जाता है, तब कोई अड़चन नहीं होती। और दुकान पर बैठना हो तो गैरिक वस्त्रों में नहीं बैठा जाता है, तब कोई अड़चन नहीं होती। मैं तुम्हारे जीवन में एक विरोधाभास पैदा कर रहा हूं। मैं तुमसे कह रहा हूं: जल में रहना और कमल की तरह रहना। गुलाब को इतनी अड़चन नहीं होती, वह जल में नहीं रहता। कमल को अड़चन होती है--पानी में और पानी न छुए। बाजार में रहना और बाजार न छुए। घर में रहना और घर न छुए। जमीन पर चलना और जमीन पर पैर न पड़ें। ऐसी कठिन कठिनाई तुम्हारे सामने खड़ी कर रहा हूं। लेकिन जितनी बड़ी चुनौती होती है, उतना ही बड़ा फल होता है।
तुम कहते: ‘मैं संन्यास लेना चाहता हूं।’
फिर सोचो मत, फिर विचारो मत; कौन जाने हिम्मत का यह क्षण जो आज तुम्हारे द्वार आ गया है, कल रहे, न रहे; कल तुम कमजोर हो जाओ, कल आते-आते कायर हो जाओ; कल की कौन जानता है? और मुहूर्त ज्योतिषियों से नहीं पूछे जाते। मुहूर्त हृदय से पूछे जाते हैं।
पत्थर शब्दों में गढ़ मूरत
जिसमें दीखे जग की सूरत
सूरत जो तनाव वाली हो
चेतन हो, अलाव वाली हो
शुभ के लिए सजग है तो फिर
कागज में मत देख महूरत
तम से लड़ता हुआ सवेरा
‘मैं’ का खंडहर ‘हम’ का घेरा
तहखानों के राज खोलती
शैली जिसकी आज जरूरत
पत्थर शब्दों में गढ़ मूरत
कागज में मत देख महूरत
कागजी मुहूर्त काम न आएंगे। ज्योतिषियों से पूछी गई बातें काम न आएंगी। तुम्हारा ज्योतिषी तुम्हारे भीतर, अंतसचेतन से पूछो, वहीं से जहां से यह लहर आई तुम्हारी भीतर कि अब संन्यास लूं। अथातो भक्ति जिज्ञासा! अब भक्ति की जिज्ञासा करूं, अब खोजूं भगवान को। संसार बहुत खोजा, अब उसके लिए भी टटोलूं, तलाशूं, मौत करीब आती है, इसके पहले कुछ तो संपदा पास हो।
शुभ के लिए सजग है तो फिर
कागज में मत देख महूरत
और जब भी शुभ भाव उठे, तो देर मत करना। मुहूर्त देखने में भी देर हो जाएगी। तब तक हो सकता है शुभ की घड़ी आई और गई। जब अशुभ भाव आए, तो जितनी देर बन सके उतनी देर टालना। इसको तुम जीवन का सूत्र समझो। क्रोध उठे, तो कहना--कल करेंगे, चौबीस घंटा सोचेंगे। जल्दी क्या है? क्रोध ही है, ऐसी कोई बड़ी बहुमूल्य चीज चूक नहीं जाएगी, चौबीस घंटे सोच कर करेंगे। और जब प्रेम आए तो अभी कर लेना, कल पर मत छोड़ना। दान देना हो तो अभी दे देना, चोरी करनी हो तो चौबीस घंटे सोच लेना। और तुम चकित होओगे, जिस चीज को सोचोगे चौबीस घंटे, वही नहीं होगी, और जिसको अभी कर लोगे, वही होगी। क्रोध लोग अभी कर रहे हैं, इसलिए क्रोध तो दुनिया में चलता है; और प्रेम कल पर टालते हैं, इसलिए प्रेम नहीं चलता। चोरी अभी करते हैं, दान कल पर छोड़ते हैं, इसलिए चोरी दुनिया में है और दान दुनिया में नहीं है। जो तुम अभी करते हो, वही होता है। जो तुम कहते हो कभी करेंगे, वह कभी नहीं होता। या तो अभी, या कभी नहीं।
शुभ के लिए सजग है तो फिर
कागज में मत देख महूरत
और जिंदगी ऐसे ही बही जाती है, संन्यास ही जिंदगी में रंग लाता है। जिंदगी ऐसे ही बही जाती है, संन्यास ही जीवन में अर्थ लाता है। जिंदगी ऐसी वीणा है जिसको तुमने छेड़ा नहीं। संन्यास वीणा को छेड़ता है, संगीत को जन्माता है। जीवन ऐसा अनगढ़ पत्थर है जिस पर तुमने छेनी नहीं उठाई, मूर्ति प्रकटे तो कैसे प्रकटे? संन्यास इस पत्थर के साथ संघर्ष है। इस पत्थर में जो-जो व्यर्थ है वह छांट कर अलग कर देना है, और जो-जो सार्थक है उसे प्रकट होने देना है। पत्थर ही तो मूर्ति बन जाता है, अनगढ़ पत्थर मूर्ति बन जाता है।
माइकलएंजलो एक पत्थर वाले की दुकान के पास से गुजरता था। उसने दुकान के बाहर दूसरी तरफ, राह के दूसरी तरफ एक बड़ी संगमरमर की अनगढ़ चट्टान पड़ी देखी। वह अंदर गया और दुकान के मालिक से उसने कहा कि वह चट्टान मैं खरीद लेना चाहता हूं। मालिक ने कहा, वह चट्टान बेचने का सवाल ही नहीं है, तुम ऐसे ही ले जाओ। क्योंकि वर्षों हो गए, वह बिकती नहीं है। हमने उसे इसीलिए सड़क के उस तरफ डाल दिया है कि जिसकी मर्जी हो, ले जाए। दुकान में जगह भी नहीं है। वह चट्टान बड़ी अनगढ़ है, उसका तुम करोगे क्या? माइकलएंजलो ने कहा, वह मैं फिर समझ लूंगा, हम ले जाते हैं। दुकानदार ने कहा, धन्यवाद तुम्हारा, क्योंकि वह चट्टान नाहक जगह घेरे है, उसकी जगह हम कुछ और सामान रख सकेंगे।
वर्षों बाद माइकलएंजलो ने उस दुकानदार को अपने घर निमंत्रण दिया, भोजन पर बुलाया और कहा कि एक मूर्ति मेरी बन कर तैयार हुई है, देख लो। वह उस मूर्ति को देखने गया। ऐसी मूर्ति उसने देखी नहीं थी। ऐसी मूर्ति पृथ्वी पर दूसरी है भी नहीं। मरियम की गोद में सूली से उतारे गए जीसस की मूर्ति है। अभी-अभी सूली से उतरे हैं, अभी-अभी खून टपकता है, अभी खून गर्म है, जीसस की लाश उनकी मां मरियम के हाथों में है। इस मूर्ति को उसने खोदा है।
अवाक खड़ा रह गया दुकानदार। उसने बहुत मूर्तियां देखी थीं बनते, जीवन भर संगमरमर का ही काम किया था, ऐसी मूर्ति नहीं देखी थी! उसने कहा, यह पत्थर तुमने कहां से पाया? यह पत्थर बहुमूल्य है। ऐसा पत्थर मैंने नहीं देखा। माइकलएंजलो हंसा, उसने कहा, यह वही पत्थर है जो तुमने सड़क के दूसरी तरफ फेंक दिया था और जिसे मैं मुफ्त उठा लाया था।
दुकानदार तो मान ही न सका कि यह वही पत्थर है! इससे ऐसी मूर्ति प्रकटी! तुम कैसे कल्पना कर सके उस अनगढ़ बेहूदे पत्थर को देख कर कि यह मूर्ति इसमें से निकल सकेगी? माइकलएंजलो ने कहा, मैंने नहीं देखा, मैं तो रास्ते से गुजरता था, क्राइस्ट ने इस पत्थर के भीतर से मुझे आवाज दी कि भई सुन, मुझे इससे मुक्त कर, मुझे इस पत्थर में से निकाल, इसमें रहे मुझे बहुत दिन हो गए। वही पुकार सुन कर मैं यह पत्थर ले आया था। इसमें जो-जो व्यर्थ था वह अलग कर दिया है, जो-जो सार्थक है वह प्रकट हो गया। मैंने मूर्ति बनाई नहीं, सिर्फ व्यर्थ को छांट कर अलग किया है।
जीवन भी ऐसा ही है। मूर्ति तो तुम्हारे भीतर परमात्मा की है ही, पुकार ही रही है, वही मूर्ति पुकारी है कि अब संन्यास ले लो। लेकिन कुछ अनगढ़ पत्थर में कुछ कोने हैं, व्यर्थ का कचरा-कूड़ा है, वह सब छांटना है। पात्र होने की प्रतीक्षा मत करो। संन्यास तुम्हें पात्र बनाएगा, संन्यास तुम में पात्रता की पहले से अपेक्षा नहीं करता है।
बैठ मत बेकार
पत्थरों पर पत्थरों को मार...
चिनगारी उठेगी
एक चिनगी
एक क्षण को, प्रण बनाएगी
नींद में डूबी हुई
बस्ती जगाएगी
जागरण: खिड़की, झरोखा, द्वार...
बैठ मत बेकार
पत्थरों पर पत्थरों को मार
चिनगारी उठेगी
द्वार जिनके बंद हैं
जिंदे नहीं हैं वे
हाय, बंदों के लिए
बंदे नहीं हैं वे
मांगती है आदमीयत धार...
बैठ मत बेकार
पत्थरों पर पत्थरों को मार
चिनगारी उठेगी
संन्यास उसी का निमंत्रण है।
पत्थरों पर पत्थरों को मार...
चिनगारी उठेगी
संन्यास एक संघर्ष है। एक संकल्प भी और एक समर्पण भी। संकल्प कि अब तक मैं जैसा था उससे अन्यथा होने का क्षण आ गया, और समर्पण कि अब मैं परमात्मा के हाथों में अपने को छोड़ता हूं। अब वह जो चाहे हो जाए; और जो चाहे न हो, वह न हो; अब उसकी मर्जी मेरी मर्जी होगी। तो संन्यास एक संकल्प है और फिर एक समर्पण भी। संन्यास बड़ा विरोधाभासी है। उसके विरोधाभास में ही उसका सत्य है, उसके विरोधाभास में ही उसकी क्रांतिपूर्ण प्रक्रिया है। वह तुम्हें मारेगा भी और तुम्हें जिलाएगा भी। वह तुम्हें सूली भी देगा और सिंहासन भी।
जब हृदय कहे, तभी मुहूर्त आ गया है। अब कागजों में मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं है। और ज्यादा प्रतीक्षा मत करना, अन्यथा मुहूर्त निकल भी जा सकता है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, विरह क्या है?
भक्ति के मार्ग पर विरह आधी यात्रा है, और मिलन शेष आधी। दो ही कदम हैं भक्ति के--विरह और मिलन। पहले विरह, फिर मिलन। जो विरही है, वही मिलेगा। विरह का अर्थ है कि मुझे पता नहीं कि मैं कौन हूं। विरह का अर्थ है कि मुझे पता नहीं परमात्मा कहां है, कहां छिपा है। विरह का अर्थ है कि मुझे मेरे जीवन का अर्थ नहीं मिलता। विरह का अर्थ है, आंसू और आंसू मेरी आत्मा पर फैले हैं, मैं रो रहा हूं, मैं पुकार रहा हूं; राह नहीं सूझती, अंधेरा है, मैं टटोल रहा हूं, मैं भटक रहा हूं, मैं गिर रहा हूं, मैं उठ रहा हूं। विरह प्यास है। विरह अभीप्सा है। कुछ है जो प्रकट नहीं हो रहा है, और जो प्रकट हो जाए तो जीवन का अर्थ मिल जाए, जीवन में संगति आ जाए, संगीत आ जाए। कुछ है जो अनुभव में आता है भीतर कि पास ही है, फिर भी चूक-चूक जाता है। कुछ है जिसकी अचेतन में ध्वनि सुनाई पड़ती है, लेकिन चेतन तक नहीं आ पाती।
विरह का अर्थ है: परमात्मा है और मुझे नहीं मिल पा रहा है। तो मैं रोऊं, तो मैं पुकारूं, तो मैं गिरूं उसके अज्ञात चरणों में, तो मैं उस अज्ञात के लिए दीये जलाऊं, आरती सजाऊं, फूलमालाएं गूंथूं। मैं खाली हूं और मेहमान आ नहीं रहा है। मेहमान है निश्चित, इसकी प्रतीति होनी शुरू होती है भक्त को कि परमात्मा है निश्चित, हर तरफ उसकी छाया सरकती मालूम पड़ती है, फूलों में उसका रूप दिखाई पड़ता है, पक्षियों में उसकी उड़ान मालूम होती है, झरनों में उसका कलकल नाद मालूम होता है, अस्पष्ट सी अनुभूति होती है, पगध्वनि सुनाई पड़ती है कभी-कभी किन्हीं क्षणों में और किसी-किसी झरोखे से वह झांक जाता है, किसी सपने में उसकी छाया पड़ती है, प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है दूर की, एहसास होने लगता है कि है तो जरूर, लेकिन कब छाती से छाती मिले, कब आलिंगन हो!
विरह का अर्थ है: ऐसी चित्त की दशा जिसे एहसास तो होना शुरू हुआ, लेकिन एहसास अभी अनुभूति नहीं बना है। जिसे परमात्मा की प्रतीति अनुभव में तो आने लगी, लेकिन आमना-सामना नहीं हुआ, दरस-परस नहीं हुआ है। ध्वनि सुनी है कहीं से, लेकिन कहां से आती है, स्रोत नहीं मिल रहा है। ध्वनि सुन कर ही भक्त मस्त हो गया है। जैसे मदारी ने अपनी तुरही बजाई हो और सांप अपनी पोल में छिपा हुआ तड़फने लगे, ऐसा विरह है। सरकने लगे ध्वनि के स्रोत की तरफ, मस्त होने लगे, मदमस्त होने लगे।
इस विरह को शांडिल्य ने कहा--बड़ा उपयोगी है। जब दो विरही मिल जाते हैं, रोते हैं और एक-दूसरे को रुलाते हैं और प्रभु की महिमा का बखान करते हैं, प्रभु की उपस्थिति की चर्चा करते हैं, प्रभु की झलकें एक-दूसरे से आदान-प्रदान करते हैं, तब सत्संग होता है। उसी सत्संग में धीरे-धीरे अनुभव निखरते हैं, साफ होते हैं। सोना विरह की अग्नि से गुजर-गुजर कर खालिस कुंदन बनता है। और एक दफा मजा आने लगता है आंसुओं का--क्योंकि ये आंसू परमात्मा के लिए हैं, ये दुख के आंसू नहीं हैं, ये बड़े अहोभाव के आंसू हैं। इतना भी क्या कम है कि हमें उसका एहसास होने लगा! हम धन्यभागी हैं कि हमें उसका एहसास होने लगा। अभागे हैं बहुत जिन्हें यह पता ही नहीं है कि परमात्मा जैसी कोई बात होती है, जिन्होंने कभी इस शब्द पर दो क्षण विचार नहीं किया है, जिन्हें प्रार्थना का कोई अर्थ नहीं मालूम।
आओ फिर नज्म कहें
फिर किसी दर्द को सहला के सुजा लें आंखें
फिर किसी दुखती हुई रग से छुआ दें नश्तर
या किसी भूली हुई राह पे मुड़ कर इक बार
नाम लेकर किसी हमनाम को आवाज ही दे लें
फिर कोई नज्म कहें
आओ फिर कोई नज्म कहें
जब दो विरही मिलते हैं--और विरहियों का मिलन सत्संग है। जब दो प्रेमी मिल जाते हैं, या चार प्रेमी मिल बैठते हैं, तो करते क्या हैं? रोते हैं और रुलाते हैं। रोमांचित होते हैं, एक-दूसरे की भाव-दशा को पीते हैं, एक-दूसरे की भाव-दशा से आंदोलित होते हैं, एक-दूसरे से संक्रामित होते हैं।
आओ फिर नज्म कहें
फिर किसी दर्द को सहला के सुजा ले आंखें
फिर किसी दुखती हुई रग से छुआ दें नश्तर
या किसी भूली हुई राह पे मुड़ कर इक बार
नाम लेकर किसी हमनाम को आवाज ही दे लें
फिर कोई नज्म कहें
इन घड़ियों में परमात्मा और थोड़े करीब आ जाता है। जितने तुम्हारे आंसू गहन होते हैं, उतना परमात्मा करीब आ जाता है। आंसू भरी आंखें ही उसे देखने में समर्थ हो पाती हैं। आंसू से भरी आंखें पात्र हो जाती हैं। लबालब। आंसू से भरी आंखें तुम्हारी प्रार्थना से भरी आंखें हैं, झलक उसकी गहराने लगती है। जितनी झलक गहराती है, उतनी तड़प भी गहराने लगती है।
मगर निठुर न तुम रुके, मगर निठुर न तुम रुके!
पुकारता रहा हृदय, पुकारते रहे नयन
पुकारती रही सुहाग-दीप की किरन-किरन
निशा-दिशा, मिलन-विरह विदग्ध टेरते रहे
कराहती रही सलज्ज सेज की शिकन-शिकन
असंख्य श्वास बन समीर पथ बुहारते रहे
मगर निठुर न तुम रुके, मगर निठुर न तुम रुके!
आता परमात्मा बहुत बार और चला जाता। आता हवा के झोंके से--यह आया और यह गया! और पीछे बड़ा विदग्ध भाव छोड़ जाता। विरह घना होने लगता है। विरह एक ऐसी घड़ी में आ जाता है, जब विरह भक्त की मृत्यु बन जाता है, जब भक्त अपने को बिलकुल ही गंवा देता है, जब विरही और विरह दो नहीं रह जाते, जब विरही और विरह एक ही हो जाते हैं, जब भक्त का रोआं-रोआं रोता है, श्वास-श्वास रोती है, धड़कन-धड़कन रोती है, उसी घड़ी क्रांति घटती है, उसी घड़ी विरह की रात्रि पूरी हुई, मिलन की सुबह आई।
विरह को सौभाग्य समझना। विरह द्वार पर दस्तक दे, टालना मत। विरह पुकारे, उसके पीछे जाना। विरह बहुत सताएगा, क्योंकि सताए बिना निखार नहीं है। विरह बहुत जलाएगा, क्योंकि बिना जलाए कोई परिशुद्धि नहीं है। विरह को मित्र मानना, तो एक दिन विरह तुम्हें इस योग्य बना देगा कि मिलन घट सके।
विरह तुम्हारे हाथ में है, मिलन तुम्हारे हाथ में नहीं। इसलिए विरह को जितना प्रगाढ़ कर सको उतना प्रगाढ़ करो। रोओ, रोमांचित होओ, नाचो, पुकारो। यही पुकार, यही रुदन, यही नृत्य, यही तुम्हारे हृदय से उठती हुई कराह तुम्हें धीरे-धीरे परमात्मा की तरफ खींचती ले जाएगी। यही तुम्हें ठीक दिशा देगी, और इसी दिशा से एक दिन परमात्मा चला आता है। जिस दिन तुम्हारा विरह सचमुच परिपूर्ण हो जाता है, उस दिन तुम परमात्मा को पाने के हकदार हो गए, उस दिन तुम पात्र बने।
संन्यास के लिए पात्रता की जरूरत नहीं है, परमात्मा के लिए पात्रता की जरूरत आएगी। लेकिन वह पात्रता भी ध्यान रखना, तुम्हारे उपवास की पात्रता नहीं है, और न तुम्हारे त्याग की पात्रता है, क्योंकि उससे तो अहंकार भरता है। वह पात्रता तुम्हारे आंसुओं की पात्रता है, क्योंकि आंसुओं से ही तुम गलते हो, पिघलते हो; आंसुओं में ही एक दिन धीरे-धीरे गल-गल कर अहंकार समाप्त हो जाता है।
जहां अहंकार की समाप्ति है, वहीं परमात्मा से मिलन है।
आज इतना ही।
भगवान, कल आपने कहा कि जो सहज है वही भक्त है, वही भक्ति है। पर हमारे जीवन में तो सोना-खाना, काम-क्रोध, लोभ-मोह, मनोरंजन आदि ही सहज हैं। कृपा करके कहिए कि ये सब किस भांति भक्ति कहे जा सकते हैं?
बीज भी सहज है, फूल भी सहज है। बीज की यात्रा फूल तक, वह भी सहज है। लेकिन बीज अगर बीज होने पर ही रुक जाए, तो वह रुक जाना सहज नहीं है। जहां अवरोध है, जहां रुकावट है, जहां यात्रा टूट गई, जहां मार्ग मंजिल से नहीं जुड़ता, वहीं असहज हो गया कुछ। बीज बढ़ता रहे। बीज में कुछ बुराई नहीं है। बीज में ही छिपा है फूल। बीज में ही छुपी है सुगंध। बीज में ही छुपा है सौंदर्य। लेकिन छुपा ही न रह जाए, प्रकट हो, अभिव्यक्त हो, नाचे।
मनुष्य जिन चीजों को साधारणतः जीता है, वे सब सहज हैं--खाना-पीना, काम-क्रोध, लोभ-मोह--मगर बीज की भांति। वहीं रुक गए तो अड़चन हो जाएगी। वहीं रुक गए तो भक्ति खो गई। भक्ति है भगवान तक यात्रा। वहां से चले; उसे पड़ाव समझो, मंजिल मत बनाओ। थोड़ी देर रुकना भी पड़े तो रुक जाओ, मगर सदा के लिए न रुक जाओ। बढ़ते रहो, आगे बढ़ते रहो।
और तुम चकित होओगे जान कर कि अगर रुक गए, तो आदमी जीने लगता है खाने-पीने के लिए। और अगर बढ़ते रहे, तो आदमी खाता-पीता है जीने के लिए। और दोनों में जमीन-आसमान का फर्क हो गया। अगर रुक गए तो काम काम ही रह जाता है। अगर बढ़ते रहे तो काम से ही राम का जन्म होता है। काम बीज है राम का। अगर रुक गए तो क्रोध क्रोध रह गया, और तुम्हें सड़ा डालेगा। बीज रुकेगा तो सड़ेगा। बीज रुकेगा तो बीज भी नहीं रह सकेगा। आज नहीं कल राख रह जाएगी। बीज बढ़े तो ही बच सकता है। बीज बड़ा हो, फैले, विराट बने; फूल आएं, फल आएं, एक बीज में हजार बीज आएं, तो बीज बचेगा।
क्रोध बीज है। अगर रुक जाए, तो सड़ जाओगे, नरक बन जाएगा। अगर आगे बढ़ जाए, तो क्रोध से ही करुणा का जन्म है। क्रोध तुम्हारी ऊर्जा है। राह नहीं पाती तो भटक जाती है। तुम्हारे भीतर ही भीतर घूमती है। द्वार नहीं पाती तो तुम्हें तोड़ डालती है। द्वार मिल जाए, सम्यक मार्ग मिल जाए, तो क्रोध ही करुणा बन जाएगी।
जीवन जहां है अभी, निश्चित ही सहज है। मैं तुमसे यह अधिकारपूर्वक कहना चाहता हूं कि खाना-पीना सहज है, सोना-उठना-बैठना सहज है, काम-क्रोध सहज है, मनोरंजन सहज है, बस यहां रुक मत जाना। मनोरंजन पर रुक गए तो खिलौनों से ही खेलते रहे, असली बात शुरू ही न हुई।
मनोरंजन में क्या रस है? यही न कि थोड़ी देर को मन भूल जाता है। किस बात को मनोरंजन कहते हो? फिल्म देखी, कि नाच देखा, कि गीत सुना, कि थोड़ी देर को उलझ गए, तल्लीन हो गए, थोड़ी देर को मन विस्मृत हो गया, इसी को मनोरंजन कहते हो। यही आगे बढ़े तो एक दिन तुम ऐसी जगह पहुंच जाओगे जहां मन सदा के लिए विस्मृत हो जाता है। मनोभंजन हो जाता है। उस दिन परम आनंद है। उसी मनातीत अवस्था का नाम भक्ति है; या ध्यान है; या समाधि है।
मनोरंजन पर रुकना मत। मनोरंजन को समझो, पहचानो, सार-सूत्र गहो। उसमें से निचोड़ लो कि बात क्या है? मनोरंजन में मैं क्यूं इतना डूब जाता हूं? किसलिए यह आकांक्षा? किसलिए बार-बार चाहता हूं कुछ हो जिसमें तल्लीन हो जाऊं? अपने से ऊब गए हो, इसलिए कहीं डूबना चाहते हो। मगर जहां डूबते हो, चुल्लू भर पानी में, वहां डूब पाओगे? फिल्म कितनी देर डुबाएगी? और नाच कितनी देर भुलाएगा? और शराब कितनी देर मस्ती रखेगी? जल्दी ही मस्ती टूट जाएगी। जल्दी ही सिनेमागृह के बाहर निकल आओगे। ज्यादा देर संगीत भरमाएगा नहीं। फिर अपनी जगह वापस, पहले से भी बदतर हालत में। क्योंकि यह थोड़ी देर को जो मन भूल गया था, इसने सुख की एक झलक भी दे दी, अब दुख और बड़ा होकर दिखेगा, तुलना में और कठिन होकर दिखेगा।
देखा नहीं, कभी राह से गुजरते हो रात, अंधेरी रात, और एक तेज कार पास से गुजर जाती है पूरे प्रकाश को आंखों में डालते हुए, फिर उसके बाद रास्ता और अंधेरा हो जाता है। पहले कुछ सूझता भी था, अब कुछ भी नहीं सूझता। थोड़ी देर को तो तुम बिलकुल अंधे हो जाते हो।
जीवन में दुख है, शराब पी ली, थोड़ी देर के लिए दुख विस्मृत हुआ। लेकिन कब तक डूबोगे? थोड़ी देर बाद वापस लौटना ही होगा। शराब शाश्वत हो जाए तो परमात्मा मिल गया। शाश्वत शराब का नाम ही परमात्मा है, कि जिसमें डूबे तो डूबे, फिर लौटे नहीं। चुल्लू भर पानी में न डूब सकोगे। कुल्हड़ों में नहीं डूब सकोगे, सागर चाहिए।
समझदार व्यक्ति अपने जीवन की सामान्यता में से खोज करता है, जांच करता है, परख करता है, सूत्र पकड़ता है--कि मनोरंजन में राज क्या है? फिर मनोरंजन का राज समझ में आ गया तो वह सोचता है कि अब मैं कैसे उस दशा को खोजूं जहां मन सदा के लिए खो जाए। एकबारगी छुटकारा हो इससे, फिर लौट कर मिलन न हो।
लेकिन अभी तुम जैसे जीते हो वह एक अंधी आदत है। उसमें होश नहीं है, उसमें विचार नहीं है, उसमें विवेक नहीं है, उसमें बोध नहीं है।
सांस लेना भी कैसी आदत है
जीए जाना भी क्या रवायत है
कोई आहट नहीं बदन में कहीं
कोई साया नहीं है आंखों में
पांव बेहिस हैं, चलते जाते हैं
इक सफर है जो बहता रहता है
कितने वर्षों से कितनी सदियों से
जीए जाते हैं, जीए जाते हैं
आदतें भी अजीब होती हैं
आदत से ऊपर उठना धर्म है। यांत्रिकता से ऊपर उठना विकास है। खाओ-पीओ जरूर, बस खाने-पीने में समाप्त मत हो जाना। नाचो और गाओ भी जरूर, मगर उस परम नृत्य को मत भूल जाना। उसे याद रखना। और यह हर नाच उसी परम नृत्य की याद दिलाता रहे, तो फिर कोई अड़चन नहीं है।
संगीत सुनो, संगीत से मेरा विरोध नहीं है, लेकिन यह तुम्हारे भीतर तीर बन कर बैठ जाए और परम संगीत की खोज शुरू हो। प्रेम करो, जरूर करो; रूप से, रंग से लगाव बनाओ; लेकिन यह लगाव तुम्हें अरूप की याद दिलाए, यह लगाव क्षुद्र पर समाप्त न हो, यह तुम्हें अंकुश बन जाए, यह तुम्हें परमात्मा की तरफ ले चलने लगे।
जब एक स्त्री में इतना सौंदर्य हो सकता है, एक पुरुष में इतना सौंदर्य हो सकता है, जब एक फूल में इतना सौंदर्य हो सकता है और आकाश में भटकते एक बादल में इतना सौंदर्य हो सकता है, तो उस परम में, जो सबके भीतर छिपा है, जो राजों का राज है, उसमें कितना सौंदर्य न होगा! जब उसकी ये छोटी-छोटी भाव-भंगिमाएं इतना मन को आंदोलित कर जाती हैं, तो जब उससे ही मिलन हो जाएगा...नौकर-चाकरों से मिलते रहे हो; जब नौकर-चाकरों से मिल कर ऐसा सुख मिल रहा है, तो मालिक से मिल कर क्या न होगा!
सूफी फकीर चिल्लाते हैं--याऽऽमालिक! उनका मंत्र है--याऽऽमालिक!! खोज एक है--मालिक कैसे मिल जाए? द्वारपालों की वेशभूषा में मत उलझ जाओ। द्वारपाल भी बड़ी वेशभूषा वाले होते हैं। रंगीन वस्त्र होते उनके, सोने की बटनें होतीं उनकी, उन्हीं में मत उलझ जाना, मालिक की तलाश करनी है। मालिक कहीं महल के भीतर है। तुम महल के बाहर ही मत सोच लेना कि महल आ गया। बस इतनी याद रहे, तो सब सहज है; खाना-पीना, काम-क्रोध, मोह-लोभ, सब सहज है। पर आगे बढ़ते रहो। यात्रा जारी रहे। धीरे-धीरे जैसे-जैसे आगे बढ़ोगे, जरा क्रोध से आगे बढ़ोगे, करुणा की झलक मिलेगी; जरा रूप के आगे जाओगे, अरूप की तरंग आ जाएगी; जरा संगीत में गहरे उतरोगे, तो नाद सुनाई पड़ेगा, ओंकार सुनाई पड़ेगा।
तुमको देखा
अलस्सुबह
गीली मिट्टी से अंकुर फूटे
सहज-सहज
हिलती फसल
बालियां
नजियायीं भारी--
पके आम चुए बागों में
लूटे
उड़ कर गई
जहां से
वह नन्हीं सी
नीली चिड़िया
हरी हो गई डाली
फुनगी
अंग कसे बंधन
टूटे
दिखा गांव चौमास, भुरारा
रितु का चढ़ा हुआ रंग
पेड़ों पर
परस तुम्हारा
हवा कंपाती
जल-तल
कौरे, नाचे, भीत भितौने
टूटे-फूटे
तुमको देखा
एक सांझ
सूर्य अस्त था
पेड़ों में बिंध कर
लाली फैली
दूर-दूर तक
फूले कांसों पर
सजल आंख से
अंजन छूटे
तुमको देखा
अलस्सुबह
गीली मिट्टी से अंकुर फूटे
दिखा गांव चौमास, भुरारा
रितु का चढ़ा हुआ रंग
पेड़ों पर
परस तुम्हारा
मैं प्रेम-विरोधी नहीं हूं। यही मेरी देशना है। यही मेरा मौलिक संदेश है। मैं संसार-विरोधी नहीं हूं। मैं संसार के अति प्रेम में हूं। मैं तुम्हें वैराग्य नहीं सिखाता, मैं तुम्हें राग को गहरा करने की कला सिखाता हूं। मैं तुम्हें निषेध नहीं सिखाता कि तुम भागो और छोड़ो और जंगलों में चले जाओ। मैं तो उस भगोड़ेपन को मूढ़ता कहता हूं। मैं तो कहता हूं, इस संसार में थोड़े गहरे उतरो, ऊपर-ऊपर नहीं--याऽऽमालिक! इस संसार में संसार का मालिक भी छिपा है, तुम जरा खोदो। तुम महल में प्रवेश ही नहीं करते। तुम महल की चारदीवारी के चारों तरफ चक्कर काटते रहे जन्मों-जन्मों से। महल तुम्हारी प्रतीक्षा करता है, मालिक तुम्हारी प्रतीक्षा करता है। सब सहज है।
असहज कब घटता है? जब कोई चीज रुक जाती है। बच्चा जवान हो, सहज है। बच्चा बच्चा ही रह जाए, तो असहज है। बूढ़ा बूढ़ा ही रह जाए, मरे न, तो असहज है। मृत्यु सहज है। जवान ब़ूढा हो, यह सहज है। चीजें बहें, धारा चलती रहे, डबरा न बन जाए। जहां गत्यावरोध होता है, जहां धारा डबरा बन जाती है, वहीं कुछ असहज हो जाता है। बस इतनी याद रहे। संन्यास यानी प्रवाह। अनंत प्रवाह। जहां हो, वहीं से आगे जाना है। आगे जाते ही रहना है; जब तक कि अंतिम न मिल जाए।
और अंतिम का क्या अर्थ होता है?
अंतिम का अर्थ होता है: जहां नदी सागर में खो जाती है। फिर और यात्रा-पथ नहीं रह जाता। नदी बचती ही नहीं। यात्री ही खो जाए, तभी समझना कि यात्रा का अंत आ गया है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, लोग आंख बंद करके प्रवचन सुनते हैं। और मैं डरती हूं कि कहीं एक पल के लिए भी आंख न बंद हो। मैं चाहती हूं कि आपको देखती रहूं, देखती ही रहूं। आपकी आंखों की रोशनी जब मेरी आंखों में आती है तो जो दिव्य अनुभव होता है, उसका वर्णन नहीं कर सकती। इस अनुभव में मैं आधा प्रवचन ही सुन पाती हूं। यह कैसी प्यास है? क्या यह पूरी हो सकती है?
पूछा है शांता ने। दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक, जो कान से जीते हैं; और एक, जो आंख से जीते हैं। दुनिया में हर चीज दो में बंटी है। एक ही दो में बंटा है, मगर दो में बंटे बिना दुनिया नहीं बनती। कुछ लोग आंख से जीते हैं। कुछ लोग कान से जीते हैं। जो कान से जीते हैं, वे मुझे आंख बंद करके सुनना पसंद करेंगे। उनका रस, उनका मुझसे संबंध कान से जुड़ेगा। जो आंख से जीते हैं, वे आंख बंद न कर पाएंगे। आंख बंद करेंगे तो उन्हें लगेगा कुछ खोया। कान उनके लिए पर्याप्त नहीं होगा। वे आंख से ही पीएंगे, वे आंख से ही सुनेंगे; आंख ही उनका द्वार है।
जो तुम्हें सहज हो, वैसा ही करना। अगर आंख खोले रखने में ही रस आता हो, तो फिकर छोड़ो प्रवचन की। आधा सुना, कि नहीं सुना, चिंता न करो। आधे से ज्यादा, जो चूक गया है, उससे ज्यादा तुम्हें आंख से मिलेगा। अपनी प्रकृति को समझो। दूसरे आंख बंद करके सुन रहे हैं, इसकी नकल में मत पड़ना। नकल अक्सर भ्रांति में डाल देती है, हानि में पहुंचा देती है। कभी किसी की भूल कर नकल मत करना। जो आंख बंद करके सुन रहा है, उसे उसी में रस होगा। उससे मेरा संबंध ध्वनि का है। उसके हृदय का द्वार उसके कान से जुड़ा है। तुम्हारे हृदय का द्वार तुम्हारी आंख से जुड़ा है।
कान निष्क्रिय तत्व है, आंख सक्रिय तत्व है। जो व्यक्ति बहुत सक्रिय होते हैं, उनकी आंख केंद्र होती है जीवन की। सक्रिय व्यक्ति आंख से जुड़ेगा। फर्क समझ रहे हो? जब तुम कान से सुनते हो तो कान कुछ भी नहीं करता। मैं बोलूंगा तो तुम्हारे कान तक पहुंचेगा, कान ग्राहक होगा। कान सुनने मेरे ओंठों तक नहीं आ सकता। कान प्रतीक्षा करेगा अपनी जगह। कान कोई यात्रा नहीं कर सकता। कान सिर्फ ग्राहक यंत्र है। आंख यात्रा करती है। जब तुम मुझे देख रहे हो तो तुम्हारी आंख वहीं नहीं बैठी है, प्रतीक्षा नहीं कर रही है मेरे आने की। तुम्हारी आंख मेरे पास आ गई है, तुम्हारी आंख ने मुझे छू लिया है। आंख सक्रिय तत्व है। जो भी व्यक्ति सक्रिय है, वह आंख से बहेगा।
सदा अपने स्वभाव को सुनो, अपने स्वभाव की सुनो और उसके अनुसार चलो।
शांता का जीवन आंख में होगा। तुमने देखा, अंधे आदमी संगीत में बड़े कुशल हो जाते हैं। क्यों? उनकी आंख से बहती सारी ऊर्जा आंख से तो बह नहीं सकती, इसलिए कान में ही समाविष्ट हो जाती है। उनकी आंख और कान संयुक्त हो जाते हैं कान में। इसलिए ध्वनि का उनका अनुभव गहरा हो जाता है। अंधा आदमी जिस प्रगाढ़ता से सुनता है, आंख वाला कभी सुनता ही नहीं, सुन ही नहीं सकता, क्योंकि उसकी ऊर्जा कुछ तो बंटी ही रहती है--कुछ आंख में, कुछ कान में। शांता की भी वही गति होगी, इसलिए आधा प्रवचन चूक जाता है--आधी आंख, आधा कान। कान जिसका प्रगाढ़ होता है, वह संगीत में लीन हो पाता है। आंख जिसकी प्रगाढ़ होती है, वह चित्रकला या मूर्तिकला जैसी बातों में प्रवीण हो पाता है। दोनों में फर्क होता है। एक चित्रकार आंख से जीता है, एक संगीतज्ञ कान से जीता है।
आंख से ही मुझे आने दो। जहां से भी द्वार संभव हो सके वहां से मुझे आने दो। और तुम इसकी फिकर मत करो कि दूसरे आंख बंद करके सुन रहे हैं, तो ज्यादा पा रहे होंगे। वे कान से पा रहे हैं, तुम आंख से पाओगी।
अपने ही अनुसार जीओ। सदा अपने अनुसार जीओ और कभी हानि नहीं होगी। भूल कर भी अनुकरण मत करना। अनुकरण गड्ढे में ले जाएगा।
पूछा है: ‘लोग आंख बंद करके प्रवचन सुनते हैं। और मैं डरती हूं कि कहीं एक पल के लिए भी आंख बंद न हो जाए। मैं चाहती हूं कि आपको देखती रहूं, देखती ही रहूं। आपकी आंखों की रोशनी जब मेरी आंखों में आती है तो जो दिव्य अनुभव होता है, उसका वर्णन नहीं कर सकती।’
हर बात के लिए कुछ कीमत तो चुकानी पड़ती है। अगर आंख से तुम्हें कुछ अनुभव हो रहा है, तो फिर कान का अनुभव तुम्हें खोना पड़ेगा। दोनों हाथ लड्डू संभव नहीं हैं। मगर वह कीमत चुकाने जैसी है। शब्द कुछ छूट जाएंगे स्वभावतः, जब आंख गहराई में उतरेगी तो शब्द कुछ डगमगा जाएंगे--कान सुनेगा भी और नहीं भी सुनेगा, सुनेगा भी और पकड़ नहीं पाएगा, पकड़ भी लेगा तो हृदय तक नहीं पहुंचा पाएगा, क्योंकि हृदय उस समय आंख से जुड़ा होगा।
यह तुमने देखा? तुम रास्ते पर हो, किसी ने कह दिया कि तुम्हारे घर में आग लगी है, फिर तुम भागे। फिर रास्ते पर कोई मिलता है, नमस्कार करता है, मगर तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता। कहीं रेडियो लगा है, कोई सुंदर गीत चल रहा है, मगर तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता। नहीं कि सुनाई नहीं पड़ता--कान हैं तो सुनाई तो पड़ेगा ही; और राह पर कोई नमस्कार करेगा तो आंख है तो दिखाई तो पड़ेगा ही--लेकिन नहीं, अब तुम्हारा हृदय यहां नहीं है। तुम्हारा हृदय तो घर में आग लगी है, वहां चला गया। तुम्हारी इंद्रियों से तुम्हारे हृदय का संबंध टूट गया।
यही फर्क है सुनने और सुनने में। सुनते सभी हैं; लेकिन वे ही लोग सुन पाते हैं जिनका हृदय कान से जुड़ा हो, जिनका हृदय कान के पीछे खड़ा हो। देखते सभी हैं, लेकिन देखने-देखने में फर्क है। वही देख पाते हैं, जिनकी आंख के पीछे हृदय खड़ा हो। छूते सभी हैं, छूने-छूने में फर्क है। वही छू पाते हैं, जिनके छूने में हृदय पीछे खड़ा हो। जिस इंद्रिय से हृदय जुड़ जाता है, वही इंद्रिय अनुभव लाती है।
तो जो सहज हो रहा है, होने दो। आंख से ही चलो।
‘इस अनुभव में मैं आधा ही प्रवचन सुन पाती हूं।’
पूरा भी जाए तो जाने दो। शब्द से तुम्हारी संपदा नहीं बढ़ेगी। तुम्हारी संपदा आंख के अनुभव से बढ़ेगी। तुम्हारी संपदा दर्शन से बढ़ेगी।
‘यह कैसी प्यास है? क्या यह पूरी हो सकती है?’
प्यास होती ही इसलिए है कि पूरी हो। प्यास के पहले प्यास की पूर्ति का साधन है।
देखते नहीं, मां के पेट में बच्चा आता है, बच्चा पैदा हुआ कि मां की छाती दूध से भर जाती है। अभी बच्चा पैदा ही हुआ है, अभी बच्चे ने मांग भी नहीं की है कि मुझे भूख लगी है। बच्चे के आगमन के पहले दूध आ गया है।
चिड़ियां, देखते हो, घोंसला बनाती हैं। अभी अंडे रखे नहीं हैं, अभी अंडे आने वाले हैं। चिड़ियों को कुछ पता भी नहीं हो सकता, चिड़ियां कुछ बहुत सोच-विचार नहीं करतीं। और वैज्ञानिक बहुत चकित हुए हैं यह जान कर, देख कर, निरीक्षण करके कि बहुत से ऐसे पक्षी हैं जिनको जन्म के बाद मां-बाप का साथ ही नहीं मिलता, तो शिक्षण तो हो ही नहीं सकता। किसी ने उनको बताया नहीं है कि जब अंडे तुम्हारे भीतर पकने लगें तो कैसे घोंसला बनाना; कोई बताने वाला नहीं, कोई विद्यालय नहीं, कोई उनके पास सर्टिफिकेट नहीं। लेकिन जब मादा अनुभव करती है कि गर्भवती है, जल्दी से घोंसला बनाने लगती है। बच्चों के लिए इंतजाम करना होगा। कुछ विचार से नहीं हो रहा है यह, स्वभावतः हो रहा है। यह पक्षी नहीं कर रहा है, परमात्मा कर रहा है।
इस तत्व को समझ लेने का नाम आस्था है। इस तत्व में निमज्जित हो जाने का नाम आस्था है कि जब प्यास है, तो जलस्रोत कहीं मौजूद होगा, तभी प्यास है; प्यास सबूत है इस बात का कि जलस्रोत होगा। नहीं तो प्यास होती ही नहीं। इस जगत में कोई भी बात असंगत नहीं है। यहां एक बड़ी गहरी संगति है। तुम्हें दिखे, न दिखे; तुम समझ पाओ, न समझ पाओ; यह दूसरी बात। लेकिन इस जगत में एक बड़ी गहरी संगति है। सब जुड़ा है।
यह प्यास है तो जरूर पूरी होगी। जलस्रोत की दिशा में चलो। सच तो यह है कि प्यास परिपूर्ण हो जाए तो उसकी परिपूर्णता में ही तृप्ति हो जाती है। प्यास का पूर्ण हो जाना ही जलस्रोत का आगमन है।
आग में जल, पर धुआं बन कर न लौ पर छा
प्यार है ज्वाला--इसे जी से लगाए जा
बेकली को कल समझ, अभिशाप को वरदान
है यही उत्सर्ग-व्याकुल प्राण की पहचान
जग समझ पाया न हंसमुख पत्थरों का मोल
किंतु फिर भी तू न अंतस की मिटन को खोल
दाह वह कैसा न जो परितृप्त कर दे प्राण
वह तृषा कैसी न जिसमें सूख जाएं गान
प्यार कर लेकिन प्रणय की रागिनी मत गा
आग में जल, पर धुआं बन कर न लौ पर छा
प्यास पूर्ण हो जाए तो वही परितोष है, वही परितृप्ति है।
दाह वह कैसा न जो परितृप्त कर दे प्राण
इस प्यास में और आहुति डालो। इस प्यास में प्राणों को और समर्पित करो। यह प्यास तुम्हारे रोएं-रोएं को पकड़ ले। जिस दिन यह प्यास रोएं-रोएं को पकड़ लेगी और कण-कण में व्याप्त हो जाएगी, जिस दिन तुम प्यास की एक लपट हो जाओगे, उसी क्षण तृप्ति हो जाएगी। प्यास है तो तृप्ति निश्चित है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, यह मन-पंछी बहुत ऊंची उड़ानें भरता है, लेकिन पहुंचता कहीं नहीं है। मैं अपने को वहीं पाता हूं जहां हूं। प्रभु, इस पर कुछ कहने की अनुकंपा करें।
मन यानी कल्पना। मन का सत्य से कभी कोई संबंध नहीं होता। इसलिए मन उड़े कितना ही, पहुंचेगा कहीं नहीं। तुम आंख बंद करके उड़ान भरो, कलकत्ता पहुंचो, कि वाशिंगटन, कि मास्को, कि पेकिंग, मगर रहोगे तुम पूना में। जब भी आंख खोलोगे, पाओगे पूना में। तब चौंकना मत कि मैंने कितने मन से उड़ान भरी कि कलकत्ते पहुंच जाऊं, और पहुंच भी गया था, और कलकत्ते के रास्तों पर भी चलता था, और कलकत्ते के लोग चारों तरफ थे, और कलकत्ते की बास थी, और यह हुआ क्या? इधर आंख खोलता हूं तो पाता हूं जहां का तहां हूं!
रात तुम सपने देखते हो, कहां-कहां नहीं पहुंच जाते हो! मन पंछी कितनी उड़ान नहीं भरता! पाताल से लेकर स्वर्ग तक की यात्राएं करते हो! लेकिन सुबह अपनी खाट पर। मन की उड़ानें कहीं ले जा नहीं सकतीं। मन पर भरोसा छोड़ो। मन के भरोसे ने ही भटकाया है। और मजा यह है कि अगर मन की उड़ानें छूट जाएं, अगर मन बिलकुल छूट जाए, मन से श्रद्धा टूट जाए--कि यह कहीं ले जाता नहीं, यह सिर्फ आश्वासन देता है, लेकिन कोई आश्वासन कभी पूरे नहीं करता--कौन से आश्वासन मन ने पूरे किए हैं? हर बार धोखा दिया है। लेकिन अजीब है तुम्हारा भरोसा इस मन में, धोखे पर धोखे दिए जाता है, फिर भी तुम भरोसा किए चले जाते हो! मन बड़ा कुशल है तुम्हें राजी कर लेने में। मन कहता है, कल नहीं हो पाया, लेकिन आने वाले कल होगा। आज तक नहीं कर पाया, कोई बात नहीं, एक मौका और। और तुम आशा से भरे एक मौका और देते हो। ऐसे ही तुम मौके दिए चले जाते हो। और मन-पंछी काफी उड़ानें भरता है। और इन्हीं उड़ानों में तुम्हारी जीवन-ऊर्जा व्यर्थ जा रही है।
ध्यान रखना, जब तुम स्वप्न देखते हो तब भी तुम्हारी जीवन-ऊर्जा व्यर्थ जा रही है। स्वप्न में भी जीवन-ऊर्जा नष्ट होती है। विचारों की तरंगों में भी जीवन-ऊर्जा नष्ट होती है। यही जीवन-ऊर्जा अगर कहीं न जाए, मन और विचार के छिद्रों से बाहर न जाए, तुम इस ऊर्जा को अपने भीतर ही सम्हाल लो--उस सम्हालने का नाम संयम है। जैसे कोई मटकी छेद वाली हो और पानी बाहर बहता रहे, रिसता रहे और खाली हो जाए, ऐसी तुम्हारी दशा है। यह मन छेद और छेद, सारे छेदों का नाम है। तुम्हारा भीतर का तत्व इससे रिसता रहता है, तुम खाली के खाली रह जाते हो।
ये मन के छिद्रों को बंद कर दो, अछिद्र हो जाओ, और तब तुम पाओगे, जिसे तुम पाने चले थे वह तुम्हारे भीतर है। खोओ भर मत परमात्मा को--परमात्मा को पाना नहीं है, खोओ भर मत, परमात्मा मिला हुआ है। और तब तुम चकित होओगे कि जहां मैं हूं, वहीं होना है; कहीं और जाना ही नहीं है। जिस आकाश को तुम खोजते थे, वहीं तुम हो। मन ने तुम्हें भरमाया और भटकाया। मन तुम्हें अपने से दूर ले गया। मन तुम्हें स्वयं की सत्ता से तोड़ता रहा।
मन का मतलब ही यह होता है--जहां तुम हो, वहां नहीं होने देता। समझो तुम यहां बैठे मुझे सुन रहे हो, लेकिन मन हो सकता है बाजार में पहुंच गया हो, दुकान पर बैठ गया हो, काम-धंधा शुरू कर दिया हो। तुम यहां बैठे हो और मन यहां नहीं है। तुम जहां होते हो मन वहां से भाग जाता है। यही मन की जो सतत भ्रमणा है, यही भ्रमणा छूट जाए, तुम जहां हो वहीं पूरे के पूरे हो जाओ समग्रता में, तो क्या पाने को है? तुम परमात्मा में विराजमान हो। तुम कभी वहां से क्षण भर को भी हटे नहीं हो। इंच भर को भी तुम्हारे बीच और परमात्मा के बीच कभी फासला नहीं हुआ, सिर्फ मन तुम्हें दूर-दूर भटकाया है, दूर-दूर दौड़ाया है। और मजा यह है कि दौड़ाता है, पहुंचाता कहीं भी नहीं।
तुम कहते हो: ‘यह मन-पंछी बहुत ऊंची उड़ानें भरता है।’
ऊंची भरे कि नीची, इसकी उड़ान में कुछ भी सार नहीं है, सब कल्पना-जाल है।
‘लेकिन पहुंचता कहीं नहीं है।’
ठीक समझ में आई बात तुम्हें। तो अब इस मन-पंछी को और ज्यादा सहायता मत दो, अब और न उड़ाओ ये पतंगें, ये कागज की नावें और न चलाओ, ये झूठे दीये और न जलाओ, ये ताश के घर और न बनाओ। अब मन को विदा दे दो, अलविदा दे दो, हाथ जोड़ कर नमस्कार कर लो, आखिरी जयरामजी कर लो, और जैसे हो वैसे ही रह जाओ। अन्यथा होने की कोई जरूरत भी नहीं है; जो हो, वही ठीक है; जहां हो, वहीं ठीक हो।
जैसे ही तुम राजी हो जाओगे, जो हो, उससे; जैसे हो, उससे; जहां हो, उससे; तुम्हारे जीवन में संतोष की वर्षा हो जाएगी। मेघ बरस जाएंगे आनंद के!
चौथा प्रश्न:
भगवान, मैं समाधि चाहता हूं, और शीघ्र। यह शीघ्रता भयंकर तनाव बनी जा रही है। मैं क्या करूं?
एक तो समाधि या संबोधि चाही नहीं जा सकती। जो चाहा जा सकता है, वह संसार है। जो नहीं चाहा जा सकता, वही परमात्मा है, वही समाधि है। चाह और समाधि का कोई संबंध कभी नहीं होता, उनका मिलन कभी नहीं होता। चाह का मतलब ही है कि तुम जो नहीं हो, वह। और समाधि का अर्थ है, तुम जो हो, वह।
जो हो, उसको क्या चाहोगे? कैसे चाहोगे? कोई स्त्री पुरुष होना चाह सकती है, लेकिन कोई स्त्री स्त्री कैसे होना चाहेगी? है ही। तुम जो हो, उसे कैसे चाहोगे? चाहने का प्रयोजन क्या है? चाहना सदा उसका होता है जो तुम नहीं हो। और जो तुम नहीं हो, वह तुम कभी नहीं हो सकते।
इसलिए चाहना दुख में ले जाता है, असफलता में ले जाता है, विषाद में ले जाता है। हर चाह टूटती है, खंडित होती है। हर चाह के बाद तुम मुंह के बल जमीन पर गिरते हो, धूल भरी रह जाती है तुम्हारे मुंह में। हर चाह विफलता लाती है; हर चाह हताशा लाती है। चाह से कभी कोई उपलब्धि नहीं होती। हो नहीं सकती। क्योंकि चाह का मौलिक अर्थ है: वही होने की कोशिश जो तुम नहीं हो। वह तुम हो नहीं सकते। आम आम होगा, नीम नीम होगी।
अब चाह का अर्थ होता है, नीम आम होना चाहे। नीम इस तरह की भूल करती नहीं, इसलिए नीम परेशान नहीं है। नहीं तो नीम की भी नींद खो जाए, और नीम भी विक्षिप्त हो और पागलखाने में पड़ी हो, और घबड़ाहट में जहर पी ले, आत्मघात कर ले। लेकिन कोई नीम इस चिंता में ही नहीं है। नीम पूरे मजे में है। अपनी निबौरियों के साथ पूरी राजी है। न आम को फिक्र है कुछ और होने की। न गुलाब कमल होना चाहता है, न कमल गुलाब होना चाहता है। घास का फूल भी फिक्र नहीं करता, दो कौड़ी फिक्र नहीं करता गुलाब होने की। घास का फूल सिर्फ घास होना चाहता है। आदमी को छोड़ कर इस सारी प्रकृति में किसी को कुछ और होने की चिंता नहीं है। इसलिए प्रकृति में ऐसी शांति है। ऐसा अपूर्व सुख छाया है।
हिमालय पर जाते हो, तुम्हें जो शांति दिखाई पड़ती है, वह किस बात की शांति है? वह इसी बात की शांति है कि वहां कोई चाह नहीं। पहाड़ पहाड़ हैं, वृक्ष वृक्ष हैं, झरने झरने हैं, नदियां नदियां हैं, वहां कोई चाह नहीं, अचाह व्याप्त है। उसी अचाह के कारण तुम भी थोड़ी देर के लिए बड़े सन्नाटे में भर जाते हो। बंबई जाते हो, चारों तरफ शोरगुल है चाह का, तन जाते हो, खिंच जाते हो, परेशान हो जाते हो; दिन भर के बाद बंबई से घर लौटते हो, राहत मिलती है। चाह का बाजार है।
जहां-जहां आदमी की दुनिया है, वहां-वहां चाह का शोरगुल है। जहां-जहां परमात्मा की दुनिया है, वहां-वहां अचाह का संगीत है। वृक्षों के पास बैठो, वृक्षों से कुछ सीखो। एक ही बात समझ में आएगी वृक्षों के पास कि हर वृक्ष जैसा है वैसा होने से राजी है। उसमें कभी भी प्रतिस्पर्धा नहीं है। यही सूत्र है।
समाधि तो फल सकती है, अभी, इसी क्षण, मगर तुम्हीं बाधा हो।
तुम कह रहे हो: मैं संबोधि, समाधि चाहता हूं, और शीघ्र।
एक तो चाह में ही भूल हो गई, चाह में ही जहर घोल दिया तुमने अपने प्राणों में; और फिर दूसरा जहर और ला रहे हो--शीघ्र। धीरज भी नहीं है, धैर्य भी नहीं है। यह करेला हुआ नीम चढ़ा। ऐसे ही कड़वा था और नीम पर चढ़ा दिया। यह दोहरी बात हो गई। यह बीमारी व्यर्थ तुमने बढ़ा ली। शीघ्रता से कभी कोई संबोधि को या समाधि को उपलब्ध हुआ है? वहां तो वे ही पहुंचते हैं जो अनंत प्रतीक्षा करने को राजी हैं। जो कहते हैं, आज तो आज, कल तो कल, परसों तो परसों, इस जन्म में तो इस जन्म में, अगले जन्म में तो अगले जन्म में--और अगर कभी नहीं तो कभी नहीं। जो इतनी हिम्मत रखते हैं कि कभी नहीं तो कभी नहीं। ऐसी जिनकी विश्रांति है, ऐसे जो तनावरहित हैं, ऐसा जहां धैर्य का झरना बह रहा है, वहां समाधि अभी है और यहीं, इसी वक्त घट जाएगी। तुम्हें मेरी बात समझ में न आती हो तो करके देख लो। मगर खयाल रखना, भूल में मत पड़ना, यह मत सोचना कि चलो, अगर तेजी से इस ढंग से घटती है, अगर यह ढंग है तेजी से घटाने का, तो यही कर लेंगे। तो चूक जाओगे; क्योंकि यह ढंग नहीं है। यह तेजी से घटाने का ढंग नहीं है। तेजी से तो घटाने की बात ही बाधा है।
तो एक तो चाह और शीघ्र, स्वभावतः शीघ्रता तनाव बनी जा रही है। बन ही जाएगी, पागल कर देगी तुम्हें। अगर यही पागलपन चाहिए तो धन के पीछे दौड़ो, ध्यान के पीछे नहीं। क्योंकि धन और पागलपन का थोड़ा संबंध है। पागलपन से दौड़ोगे तो मिल जाएगा। अगर बिलकुल सिर देकर पड़ ही गए पीछे, तो मिल जाएगा। दूसरे पागल भी लगे हैं, अगर तुम्हारा पागलपन उनसे ज्यादा हुआ, तो मिल ही जाएगा। दूसरे भी दौड़ रहे हैं, लेकिन अगर तुम धुआंधार पीछे पड़ गए, तो धन मिल जाएगा। हालांकि धन से कुछ मिलता नहीं, लेकिन इतनी तो राहत होगी कि जिसको चाहा था उसको पा लिया।
सिकंदर जरूर बड़ा पागल रहा होगा, नहीं तो दुनिया जीतना मुश्किल मामला है! तुम्हारी राजधानियों में पागलों का जमाव है। जो पागल हैं, वे सब वहां पहुंच जाते हैं। मेरा वश चले तो सब राजधानियों पर बड़ी दीवाल उठवा कर, जो उनके भीतर हैं उनको बाहर निकलने का मौका न दूं, उनको भीतर ही रखूं--दुनिया में शांति हो जाए। एक बार जो एम.पी. हो जाए, एक बार जो मिनिस्टर हो जाए, उसे फिर राजधानी से बाहर न निकलने दूं। फिर चाहे वह भूतपूर्व हो, या कुछ भी हो, राजधानी से बाहर न निकलने दूं। उस पर रुकावट डाल दूं। ये जहर लेकर फिर सारे देश में घूमते हैं, सारी दुनिया में घूमते हैं, ये दूसरों में भी जहर पैदा करवाते हैं। ये पागल लोग हैं, यह पागलों की जमात है।
मगर अगर तुम्हें शीघ्रता चाहिए और चाह का रस है, तो धन और पद के पीछे दौड़ो; क्योंकि उनसे चाह का तर्क तालमेल खाता है। तुम ध्यान के पीछे दौड़ रहे हो! ध्यान तो उनको मिलता है जो बैठ जाते हैं, दौड़ते नहीं। ध्यान कोई दिल्ली थोड़े ही है, दिल्ली चलो! ध्यान के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है, यहीं आंख बंद करो, यहीं हलके-फुलके होकर बैठ जाओ, यहीं राजी हो जाओ अपने से, यहीं स्वीकार कर लो जैसा है, जो है, इंच भर भी विरोध न रखो, सहज भाव से जीने लगो, अपने आप घट जाएगी समाधि। तुम्हें उसका हिसाब रखने की भी जरूरत नहीं है। अपने आप दिन निकल आएगा; अपने आप रात कट जाएगी।
फिर तुम करोगे भी क्या? जब सूरज निकलेगा तभी निकलेगा न! तुम्हारे शोरगुल मचाने से, दंड-बैठक लगाने से, प्राणायाम साधने से सूरज निकलने वाला नहीं है। सूरज जब निकलेगा तब निकलेगा। तुम मजे से सो रहो, जितनी देर नहीं निकला है इतनी देर विश्राम कर लो, जब निकलेगा तो फिर काम-धाम के दिन आएंगे।
तुम कहते हो: समाधि चाहिए।
जिनको समाधि मिल गई उनसे तो पूछो! जब समाधि मिल जाती है तो फिर बांटो उसे! जाग गए, अब जगाओ औरों को! हजार झंझटें आती हैं। मेरी मानो! जब तक नहीं मिली तब तक शांति से विश्राम कर लो थोड़ी देर और, भगवान को धन्यवाद दो।
दिन निकलने दे
जरा सा दिन निकलने दे!
रास्ते आधे-अधूरे से
दिख रहे जो तानपूरे से
तार में सरगम सम्हलने दे
थम, जरा सा दिन निकलने दे!
राग जब आकार पाएगा
स्याह घेरा टूट जाएगा
खून, स्याही में उबलने दे
थम, जरा सा दिन निकलने दे!
अंगुलियां खुद तार को छूकर
व्योम को ले आएंगी भू पर
घाटियों को आंख मलने दे
थम, जरा सा दिन निकलने दे!
जल्दी न करो, दिन अपने से करीब आ रहा है। सुबह अपने से होती है। आदमी के किए कुछ भी नहीं होता। करने वाला कर रहा है। जब रात हो तो सो रहो, और जब दिन हो तो काम में लग जाओ। जब समाधि मिलेगी, तो बांटना पड़ेगा--बड़ा काम आ जाएगा सिर पर! जब तक समाधि नहीं मिली, तब तक भगवान को धन्यवाद दो, चादर ओढ़ कर सो रहो; विश्राम कर लो, समाधि के लिए तैयार कर लो अपने को, समाधि के लिए शक्ति जुटा लो कि जब मिले समाधि, तो तुम बांट सको।
अब यह मजा है। जिनको समाधि नहीं मिली, वे भी दौड़ते हैं--वे दौड़ते हैं पाने के लिए। और जिनको समाधि मिली, वे भी दौड़ते हैं--वे दौड़ते हैं बांटने के लिए। महावीर को समाधि मिली, फिर बयालीस साल तक दौड़ते रहे एक गांव से दूसरे गांव। बुद्ध को समाधि मिली, फिर चालीस साल तक सुबह से सांझ तक समझाते रहे लोगों को। जगत का क्रिया-कलाप चलता ही रहता है। अज्ञानी भी क्रिया में होता है, ज्ञानी भी क्रिया में होता है। फर्क इतना ही होता है: अज्ञानी पाने की क्रिया में होता है, ज्ञानी देने की क्रिया में होता है। फर्क बड़ा है।
लेकिन ज्ञान की घटना तभी घटती है जब तुम उसकी अपेक्षा भी नहीं कर रहे थे। जब तुम सोच भी नहीं रहे थे कि अब घटेगी। आकस्मिक घटती है। अनायास घटती है। एक दिन अचानक तुम पाते हो कि तुम्हें किसी ताजी हवा ने घेर लिया, कोई सूरज उगा, कोई किरण उतरी, कोई गीत बजने लगा, कोई तार छिड़ गया।
अंगुलियां खुद तार को छूकर
व्योम को ले आएंगी भू पर
घाटियों को आंख मलने दे
थम, जरा सा दिन निकलने दे!
संबोधि को चाहो मत, समाधि को चाहो मत। चाह बाधा है। फिर शीघ्रता तो भूल कर मत करना। समाधि कोई मौसमी फूल का पौधा नहीं है कि अभी बोया और दो-चार-आठ दिन में अंकुर निकल आए और दो-तीन सप्ताह में फूल आ गए--मगर पांच-छह सप्ताह में गए भी! आए भी और गए भी; पीछे कुछ न बचा। समाधि तो विराट वृक्ष है। समय लेगा, धीरज मांगेगा, प्रतीक्षा चाहेगा, धीरे-धीरे बढ़ेगा; तभी तो चांद-तारों से बात हो सकेगी, तभी तो हवाओं से मुलाकात हो सकेगी, तभी तो आकाश में फैल कर खड़ा हो सकेगा। समाधि है पृथ्वी का आकाश से मिलन। यह बड़ी घटना है। इससे बड़ी और कोई घटना नहीं है। यह घटना इतनी बड़ी है कि तुम्हारी छोटी सी चाह में नहीं समा सकती। चाह तो चम्मच जैसी है और यह घटना सागर जैसी है।
मैंने सुना है, अरस्तू एक दिन सागर के किनारे टहलने गया और उसने देखा कि एक पागल आदमी--पागल ही होगा, अन्यथा ऐसा काम क्यों करता--एक गड्ढा खोद लिया है रेत में और एक चम्मच लिए हुए है; दौड़ कर जाता है, सागर से चम्मच भरता है, आकर गड्ढे में डालता है, फिर भागता है, फिर चम्मच भरता है, फिर गड्ढे में डालता है। अरस्तू घूमता रहा, घूमता रहा, फिर उसकी जिज्ञासा बढ़ी, फिर उसे अपने को रोकना संभव नहीं हुआ। सज्जन आदमी था, एकदम से किसी के काम में बाधा नहीं डालना चाहता था, किसी से पूछना भी तो ठीक नहीं, अपरिचित आदमी से, यह भी तो एक तरह का दूसरे की सीमा का अतिक्रमण है। मगर फिर बात बहुत बढ़ गई, उसकी भागदौड़, इतनी जिज्ञासा भर गई कि यह मामला क्या है? यह कर क्या रहा है? पूछा कि मेरे भाई, करते क्या हो? उसने कहा, क्या करता हूं, सागर को उलीच कर रहूंगा! इस गड्ढे में न भर दिया तो मेरा नाम नहीं! अरस्तू ने कहा कि मैं तो कोई बीच में आने वाला नहीं हूं, मैं कौन हूं जो बीच में कुछ कहूं, लेकिन यह बात बड़े पागलपन की है, यह चम्मच से तू इतना बड़ा विराट सागर खाली कर लेगा! जन्म-जन्म लग जाएंगे, फिर भी न होगा। सदियां बीत जाएंगी, फिर भी न होगा! और इस छोटे से गड्ढे में भर लेगा? और वह आदमी खिलखिला कर हंसने लगा, और उसने कहा कि तुम क्या सोचते हो, तुम कुछ अन्य कर रहे हो? तुम कुछ भिन्न कर रहे हो? तुम इस छोटी सी खोपड़ी में परमात्मा को समाना चाहते हो? अरस्तू बड़ा विचारक था। तुम इस छोटी सी खोपड़ी में अगर परमात्मा को समा लोगे, तो मेरा यह गड्ढा तुम्हारी खोपड़ी से बड़ा है और सागर परमात्मा से छोटा है; पागल कौन है?
अरस्तू ने इस घटना का उल्लेख किया है और उसने लिखा है कि उस दिन मुझे पता चला कि पागल मैं ही हूं। उस पागल ने मुझ पर बड़ी कृपा की।
वह कौन आदमी रहा होगा? वह आदमी जरूर एक पहुंचा हुआ फकीर रहा होगा, समाधिस्थ रहा होगा। वह सिर्फ अरस्तू को जगाने के लिए, अरस्तू को चेताने के लिए उस उपक्रम को किया था।
नहीं, तुम्हारी चाह तो छोटी है--चाय की चम्मच--इस चाह से तुम समाधि को नहीं पा सकोगे। चाह को जाने दो। और फिर जल्दबाजी मचा रहे हो! जल्दबाजी में तो चम्मच में थोड़ा-बहुत पानी आया, वह भी गिर जाएगा--अगर ज्यादा भागदौड़ की तो, और ज्यादा जल्दबाजी की। तुमने देखा न, कभी-कभी जल्दबाजी में यह हो जाता है, ऊपर की बटन नीचे लग जाती है, नीचे की बटन ऊपर लग जाती है; सूटकेस में सामान रखना था, वह बाहर ही रह जाता है, सूटकेस बंद कर दिया। फिर उसको खोला तो चाबी नहीं चलती, कि चाबी अटक जाती है। तुमने जल्दबाजी में देखा, स्टेशन पहुंच गए और टिकट घर ही रह गई। और बड़ी जल्दी की!
जितनी जल्दबाजी करते हो, उतने ही अशांत हो जाते हो। जितने अशांत हो जाते हो, उतनी संभावना कम है समाधि की। शांत हो रहो। और शांत होने की कला है अचाह से भर जाना। चाहो ही मत, मांगो ही मत; कहो कि जो जब होना है, होगा, हम प्रतीक्षा करेंगे। जल्दी भी क्या है? समय अनंत है।
पांचवां प्रश्न:
भगवान, आप कहते हैं कि दो ही मार्ग हैं--भक्ति और ज्ञान। लेकिन आप न तो भक्ति सिखाते हैं और न ज्ञान, आप तो ध्यान सिखाते हैं। तो क्या ध्यान भक्ति और ज्ञान से भी परे है?
ध्यान ज्ञान और भक्ति का सार है। ध्यान निचोड़ है दोनों का। जिसको भक्त प्रीति कहता है, जिसको ज्ञानी बोध कहता है, ध्यान बोध और प्रीति का निचोड़ है। ऐसा समझो कि कुछ फूल भक्ति के और कुछ फूल ज्ञान के और दोनों को निचोड़ कर तुमने एक इत्र बनाया, वही है ध्यान। ध्यान भक्त की भक्ति है, ज्ञानी का बोध है। ध्यान का एक पंख भक्ति है और एक पंख ज्ञान है।
ध्यान सार है। भक्ति से पाओ तो भी ध्यान मिलेगा और ज्ञान से पाओ तो भी ध्यान मिलेगा। अंतिम अर्थों में जो संपदा तुम्हारे हाथ में लगेगी, उसका नाम ध्यान है।
समझो।
भक्ति का अर्थ होता है: भक्त खो जाता है, भगवान बचता है। ज्ञान का अर्थ होता है: भगवान खो जाता है, ज्ञानी बचता है, आत्मा बचती है। इसलिए महावीर और बुद्ध, जो ज्ञान के परम शिखर हैं, उन्होंने परमात्मा को स्वीकार नहीं किया। कह दिया कि परमात्मा नहीं है। यह ज्ञान की उदघोषणा है। दूसरा नहीं बचता, एक आत्मभाव बचता है, आत्मा बचती है। शांडिल्य और नारद दूसरी ही घोषणा करते हैं, वे कहते हैं, भगवान बचता है, भक्त नहीं बचता; भक्त तो भगवान में लीन हो जाता है। यह भक्त के कहने का ढंग है। भक्त अपने को समाप्त कर देता है। लेकिन अगर दोनों पर गौर करो तो दोनों की सार बात एक है कि दो नहीं बचते, एक बचता है--वही ध्यान है। फिर जो एक बचता है, उसको भगवान कहो, कि आत्मा कहो, कि निर्वाण कहो, क्या फर्क पड़ता है? ये सब कामचलाऊ नाम हैं। तुम्हारी जो मर्जी, तुम्हारा जो लगाव, जैसी तुम्हारी रुचि, वही कहो।
भक्त की रुचि है कि वह कहता है--भगवान बचता है; अब मैं कहां, तू ही है। और ज्ञानी की रुचि है कि अब तू कहां, मैं ही हूं--अहं ब्रह्मास्मि, अनलहक। ये कहने के ढंग हैं। दोनों एक ही बात कह रहे हैं कि दो नहीं रहे अब, एक बचा है। अब एक को कैसे कहें? हमारी भाषा में हर चीज दो है, तो दो में से कोई एक चुनना पड़ेगा। कहने के लिए एक शब्द का उपयोग करना पड़ेगा, एक शब्द छोड़ना पड़ेगा। अपनी-अपनी मौज। कोई मैं को छोड़ देता है, कोई तू को छोड़ देता है।
इसलिए मैं ध्यान सिखाता हूं। ध्यान का अर्थ है: मैं तुम्हें सार सिखाता हूं। सारे धर्मों का सार ध्यान है। सारे धर्म ध्यान को कहने के अलग-अलग ढंग हैं। सारे धर्म ध्यान को पाने के अलग-अलग मार्ग हैं। भक्ति की यात्रा अलग है और ज्ञानी की यात्रा अलग है, लेकिन मंजिल एक है, वही मंजिल ध्यान है।
ध्यान का क्या अर्थ हुआ?
ध्यान का अर्थ हुआ: न तो भक्त बचा, न भगवान; न मैं, न तू; सिर्फ बोध बचा, सिर्फ प्रीति बची, गुण बचा, भगवत्ता बची--न भगवान, न भक्त। इसलिए मैं ध्यान सिखाता हूं। फिर जो ध्यान सीधा नहीं सीख पाते, उनको या तो मैं भक्ति सिखाता हूं, या ज्ञान सिखाता हूं। मेरे मंदिर में सारे धर्मों के द्वार हैं। यह मंदिर किसी एक धर्म का मंदिर नहीं है। यह धर्म का मंदिर है, किसी धर्म का नहीं। इसमें तुम जिस हैसियत से आना चाहो, स्वीकार हो। तुम जिस मार्ग से इसे पाना चाहो, स्वीकार हो। तुम जिस भाषा का उपयोग करना चाहो, स्वीकार हो। और अगर तुम्हारे पास इतनी प्रतिभा है कि तुम सारे मार्गों का निचोड़ इत्र पकड़ सकते हो सीधा-सीधा, तो ध्यान पकड़ लो। अगर ध्यान दूर की बात मालूम पड़े, तुम्हारी पकड़ में न आती हो, तो फिर भक्ति या ज्ञान।
छठवां प्रश्न:
भगवान, मैं संन्यास लेना चाहता हूं। क्या मैं पात्र हूं और क्या वह शुभ मुहूर्त आ गया है?
संन्यास लेना मत चाहो। तुम्हारा लिया संन्यास बहुत दूर तक नहीं जाएगा। संन्यास को घटने दो, घटाओ मत। अगर संन्यास के भाव ने तुम्हें पकड़ लिया है, तो चल पड़ो, अब सोचो मत। सोच कर निर्णय मत लो संन्यास का। सोच-विचार कर तुम संन्यास लोगे, वह तुम्हारी बुद्धि की निष्पत्ति होगी। और फिर तुम्हारी बुद्धि के पार न ले जाएगी, और पार ही जाना है। पागल की तरह चल पड़ो, प्रेमी की तरह चल पड़ो। हिसाब-किताब न बिठाओ। अब क्या तुम भी पूछते हो! क्या शुभ मुहूर्त आ गया है? क्या किसी ज्योतिषी से पूछोगे जाकर? किसी हस्तरेखाविद को हाथ दिखाओगे?
ऐसा हो जाता है। एक दफा माउंट आबू में एक सज्जन मेरे पास आए, हाथ मेरे आगे कर दिया और कहा, आप देख कर तो बताइए कि संन्यास है भी मेरे हाथ में कि नहीं? हो तो मैं ले लूं।
हाथ पर तुम्हें भरोसा है, हृदय की फिकर नहीं है! हाथ की लकीरों में क्या रखा है? युद्ध के मैदान पर हजारों लोग एक दिन में मर जाते हैं, क्या तुम सोचते हो सबकी लकीरें उसी दिन मृत्यु की सूचना देती थीं? हवाई जहाज गिरता है और डेढ़ सौ आदमी एक साथ मर जाते हैं, उनके हाथ तो देखो! सबके अलग-अलग।
हाथ की रेखाएं! तुम होश में हो? लेकिन आदमी इसी तरह के जाल में पड़ा रहा है। प्रेम की न सुनेगा, ज्योतिषी से पूछेगा कि इस स्त्री से विवाह करूं कि नहीं। यह ज्योतिषी कौन है? और ज्योतिष के आधार पर कहीं प्रेम घटा है? यह तो बड़ी अजीब बात हुई! लेकिन हम इसी तरह जीवन जी रहे हैं। हम अंतर की आवाज नहीं सुनते। हम बाहर से प्रमाण चाहते हैं।
तुम पूछते हो: ‘मैं संन्यास लेना चाहता हूं।’
फिर रुको क्यों? फिर कौन रोक रहा है? फिर कौन तुम्हें पकड़ कर पीछे खींच रहा है? तुम्हारी बुद्धि कह रही है: पहले सोच-विचार तो कर लो; अभी शुभ मुहूर्त आ गया? पीछे झंझट में तो न पड़ोगे? पात्र भी हो कि नहीं? पहले सुपात्र तो हो जाओ।
बुद्धि बड़ी चालबाज है। बुद्धि ऐसे-ऐसे तर्क देती है कि जो बिलकुल ठीक मालूम पड़ते हैं। अब यह तर्क, बुद्धि कहेगी--पहले सुपात्र तो हो जाओ। अब बड़ी मुसीबत हो गई। सुपात्र का मतलब क्या होगा? सुपात्र का मतलब, पहले बुद्ध हो जाओ, महावीर हो जाओ। फिर संन्यास लोगे? फिर संन्यास किसलिए लोगे? और जब तक बुद्ध नहीं हुए, तब तक सुपात्र कहां?
यह तो ऐसा ही हुआ कि किसी चिकित्सक के पास गए और उसने कहा कि हट, भाग यहां से! पहले बीमारी तो ठीक करके आ! फिर हम औषधि देंगे। ऐसे हम कुपात्र में औषधि नहीं डालते; न मालूम कितनी बीमारियां लिए चला आ रहा है! रक्त-चाप बढ़ा हुआ है, हृदय की चाल गड़बड़ है, नब्ज ठिकाने नहीं है, पेट खराब है, खून विषाक्त है, ऐसे आदमी में हम अपनी शुद्ध दवा नहीं डालते। तू पहले यह सब ठीक करके आ। लेकिन फिर तुम आओगे किसलिए?
संन्यास औषधि है। संन्यास चिकित्सा है। मैं वैद्य हूं। तुम स्वस्थ हो जाओगे तो फिर तो दवा की कोई जरूरत न रहेगी। तुम अपात्र हो, इसीलिए तो जरूरत है। अब बुद्धि बड़े हिसाब की बातें करती है और ऐसी बातें करती है जो कि जंचती भी हैं। बुद्धि कहती है--पहले पात्र तो हो जाओ! अब यह मामला इतना बड़ा है कि पात्र होने में अगर लगे, तो जन्म-जन्म बीत जाएंगे और तुम पात्र न हो पाओगे। कुछ न कुछ कमी रह जाएगी। आदमी की सीमाएं हैं।
किसी मित्र को दो दिन पहले ध्यान करते समय अपूर्व अनुभव हुआ, आनंदमग्न हो गए। मगर फिर घबड़ा गए। फिर मुझे पत्र लिखा। और पत्र में लिखा कि पहले यह तो बताइए कि मुझ अपात्र को इतना बड़ा अनुभव हो ही कैसे सकता है? सिगरेट मैं पीता, पान मैं खाता, सिनेमा मैं जाता, कामिनी-कांचन में मेरा लगाव है, मुझ अपात्र को यह हो ही कैसे सकता है?
अब हो गया तो भी मानते नहीं हैं। अब बुद्धि यह तर्क निकाल रही है कि अपात्र को हो ही कैसे सकता है? जैसे कि परमात्मा तुम्हारी सिगरेट से डरेगा, कि यह आदमी सिगरेट पीता है, इसके पास नहीं आना है। तुम परमात्मा को डराने चले हो छोटी-मोटी बातों से? कि तुम सिनेमा जाते हो।
परमात्मा कब आ जाता है अकारण, कब तुम्हें भर देता है, कुछ कहा नहीं जा सकता। इसीलिए शांडिल्य कहते हैं: प्रसाद! अपात्र से अपात्र में उतर आता है। बस एक ही बात चाहिए कि अपात्र स्वीकार करने को राजी हो, बस उतनी बात चाहिए। द्वार-दरवाजे बंद मत कर लेना! जब सूरज की किरण सुबह आती है और तुम्हारे दरवाजे से प्रवेश करती है, तो वह यह नहीं कहती--पहले घर साफ बुहारो, शुद्ध करो, पानी छिड़को। इस धूल भरे घर में मैं नहीं आऊंगा; कपड़े-लत्ते धोओ, स्नान करो, फिर मैं निकलूंगा तुम्हारे लिए; अभी मैं उनके लिए निकला हूं जो स्नान कर चुके हैं; ब्रह्ममुहूर्त में उठे थे; तुम अपात्र अभी बिस्तर में पड़े हो। लेकिन तुम कभी बिस्तर में भी पड़े होते हो कंबल ओढ़े और सूरज की किरण आकर तुम्हें जगाने लगती है तुम्हारे कमरे में; ऐसा ही परमात्मा आता है।
तुम्हारी अपात्रता और तुम्हारी पात्रता, सब दो कौड़ी की हैं। तुम्हारी अपात्रता भी दो कौड़ी की है, तुम्हारी पात्रता भी दो कौड़ी की है। पात्रता में भी क्या करोगे? कोई आदमी धन के पीछे दीवाना है तो कहता है--मैं अपात्र। और वह धन छोड़ कर चला जाएगा जंगल में तो सोचेगा--पात्र। और धन में था ही क्या? तुम सोचते हो परमात्मा तुम्हारे सरकारी नोटों में भरोसा करता है? तुम भी नहीं करते, परमात्मा क्या खाक करेगा? तुम्हारे सरकारी नोटों का भरोसा क्या है? कब कैंसिल हो जाएं! कब कागज के टुकड़े हो जाएं! तुम सोचते हो तुम्हारे रिजर्व बैंक के गवर्नर के द्वारा जो प्रॉमिसरी नोट दिए जाते हैं, वह परमात्मा उनमें भरोसा करता है? कि तुम्हारे पास दस लाख रुपये थे, तो तुम अपात्र; अब तुमने दस लाख के नोट छोड़ दिए, जंगल में जाकर बैठ गए, तो तुम पात्र! तुमने छोड़ा क्या? पकड़ा क्या? कागज के नोट थे। कागज के नोटों से न तो कोई अपात्र होता है, न कोई पात्र होता है।
फिर आदमी की पात्रता मेरी दृष्टि में क्या है? एक ही कि आदमी अपना द्वार खोलने को राजी हो। आदमी विनम्र हो। और ध्यान रखना, इसे मैं दोहरा कर तुमसे कहना चाहता हूं कि जिनको तुम पात्र कहते हो, वे विनम्र नहीं होते, और वही उनकी गहरी से गहरी अपात्रता है। किसी ने उपवास कर लिया, वह पात्र हो जाता है। वह अकड़ कर बैठ जाता है। किसी ने गरीब पत्नी को छोड़ दिया। अब पत्नी भूखों मरती है, परेशान होती है। कोई अपने बच्चों को छोड़ कर चला गया। अब बच्चे अनाथ हो गए और भीख मांगने लगे। मगर यह अकड़ कर बैठा है मंदिर में कि मैं मुनि हो गया! कि मैं त्यागी हूं! कि मैं व्रती हूं! कि देखो मैंने कितनी पात्रता अर्जित की है!
यह अपराधी है, पात्र इत्यादि कुछ भी नहीं। इसने बच्चों को अनाथ कर दिया, इसने पत्नी को बाजार में खड़ा कर दिया, यह अपने छोटे-मोटे कर्तव्य भी नहीं निभा सका, इसको तुम पात्र कह रहे हो? यह सिर इत्यादि घुटा कर यहां बैठ गया है, इससे तुम सोचते हो कि परमात्मा इससे बड़े प्रसन्न हैं। कोई सिर घुटा लेने से परमात्मा का खास लगाव तुममें हो जाएगा?
यह क्या पात्रता है! लेकिन यह पात्रता का भाव पैदा हो गया, तो अहंकार मजबूत हो गया--यह और अपात्र हो गया। इससे तो तभी बेहतर था जब यह कहता था कि मैं अपात्र हूं, कभी-कभी शराब भी पी लेता हूं, और कभी-कभी किसी स्त्री के मोह में भी पड़ जाता हूं, और कभी-कभी मन में क्रोध भी आ जाता है, मैं अपात्र हूं; मुझे कैसे परमात्मा मिलेगा, मैं अपात्र हूं। जिस दिन इसका ऐसा भाव था, मेरी दृष्टि में उस दिन यह ज्यादा पात्र था, कम से कम निर-अहंकारिता थी; दंभ नहीं था, अकड़ नहीं थी, यह झुक सकता था।
एक ही पात्रता है मेरी दृष्टि में--झुकने की क्षमता, ग्रहण करने की क्षमता, द्वार खोलने के लिए राजीपन। तुम अगर द्वार खोलने को तैयार हो हृदय के, तो आ गया मुहूर्त, आ गया शुभ दिन। अब सोचते मत रहो। अब पूछना किससे है? जिस बुद्धि से तुम पूछ रहे हो, वह बुद्धि तो बाधाएं खड़ी करेगी। बुद्धि तो कहेगी: कहां की झंझट में पड़ते हो! संन्यास ले लोगे, मुसीबतें आएंगी; दफ्तर में लोग हंसेंगे, गांव के लोग पागल समझेंगे।
एक जैन महिला ने मुझे आकर कहा कि मेरे पति आपका संन्यास ले लिए हैं। अगर उनको संन्यासी ही होना है, तो वे असली संन्यासी हो जाएं।
असली! मैंने कहा, तेरा मतलब?
उसने कहा, तो जैन मुनि हो जाएं। हम भूखे मर लेंगे, मगर कम से कम कोई उनको पागल तो न समझेगा। अभी तो लोग उन्हें पागल समझने लगे हैं। हमारे बच्चे स्कूल जाते हैं तो लोग कहते हैं--तुम्हारे पिताजी को क्या हो गया? मैं स्त्रियों से मिलने में डरने लगी हूं, उनकी पत्नी ने कहा, क्योंकि जो मुझे देखते हैं, वे कहते हैं--तुम्हारे पति को क्या हो गया? ये गैरिक वस्त्र क्यों पहन लिए हैं? यह माला क्यों लटका ली है? यह कैसा संन्यास?
पत्नी मुझसे कह रही थी कि अगर वे जैन मुनि हो जाएं--हमें मुसीबतें होंगी, बहुत क्योंकि वे छोड़ कर चले जाएंगे--लेकिन हम सम्हाल लेंगे, मैं बच्चों की देखभाल कर लूंगी, मगर वे कम से कम ऐसा संन्यास तो लें कि कोई हंसे न, कोई पागल न समझे।
और जिस संन्यास में लोग हंसेंगे नहीं, पागल नहीं समझेंगे, समझ लेना वह तुम्हारी समाज-व्यवस्था का अंग है, इसलिए लोग नहीं हंसते। महावीर पर लोग हंसे थे, जैन मुनि पर नहीं हंसते। महावीर संन्यासी थे और जैन मुनि संन्यासी नहीं है। बुद्ध पर लोग हंसे थे, जिस गांव में जाते थे उसी गांव में कोई आकर समझाता था कि आप भी यह क्या किए? इतनी धन-दौलत, घर, आपका दिमाग खराब हो गया? अपना राज्य छोड़ कर भाग गए, इस डर से कि इस राज्य के भीतर कहीं रुकूंगा तो पिता के आदमी आकर परेशान करेंगे, पड़ोस के राज्य में चले गए। पड़ोस के राजा को पता चला तो वह उनकी गुफा में दर्शन करने आया। उसने कहा कि तुम फिकर मत करो, अगर तुम्हारी पिता से नहीं बनती, या कोई झंझट हो गई है, तो मुझे तुम अपना पिता समझो। तुम्हारे पिता मेरे बचपन के मित्र हैं, हम साथ-साथ पढ़े और बड़े हुए। तुम मेरे घर आ जाओ, मेरी बेटी से मैं तुम्हारा विवाह कर देता हूं, मेरी एक ही बेटी है, यह राज्य तुम्हारा। मगर यह क्या ढोंग रचा हुआ है?
बुद्ध को भी लोग यही कहने गए थे--यह क्या ढोंग रचा हुआ है? दिमाग तुम्हारा ठीक है? चलो बाप से नहीं बनती, हो सकता है, मेरे घर आ जाओ; यह राज्य भी तुम्हारा ही है, यह तुम्हारे राज्य से छोटा भी नहीं है, बड़ा है। तुम इसको सम्हाल लो, कोई चिंता न करो, मैं तुम्हारे पिता को सम्हाल लूंगा।
जब बुद्ध बुद्ध हो गए, ज्ञान को उपलब्ध हो गए और घर वापस आए, तो भी बाप ने यही कहा कि तूने मुझे धोखा दिया! तू मेरे बुढ़ापे का एकमात्र बेटा, इकलौता बेटा, तू ही मेरे हाथ की लकड़ी, ये सब मैंने जिंदगी भर तेरे लिए किया, और तू छोड़ कर भाग गया! बाप की आंखों में क्रोध की चिनगारी थी। बूढ़े बाप में बड़ा क्रोध था। और उन्होंने कहा कि मैं तुझे अभी भी माफ कर दूंगा, यह बाप का हृदय है। तूने ठीक नहीं किया, बहुत घाव पहुंचाया, बारह वर्ष तेरी प्रतीक्षा की है। चल तू लौट आया, कोई बात नहीं, भूल जाऊंगा बारह वर्ष तूने जो मेरे साथ किया और जो दुख दिए। मगर लौट आ, घर के भीतर चल, यह भिक्षा का पात्र फेंक। हमारे कुल में कभी कोई भिखारी नहीं हुआ। तू सम्राट का बेटा है! यह क्या तू हमारी मजाक उड़वा रहा है? लोग आते हैं और लोग कहते हैं--तुम्हारा बेटा भीख मांगता है। तू सोचता है मुझ पर क्या बीतती है? बारह साल से मैं सोया नहीं हूं। तूने मेरी उम्र कम कर दी है, मैं समय के पहले जीर्ण-जर्जर हो गया हूं।
बुद्ध सामने खड़े हैं और बाप यह कह रहे हैं! लेकिन अब बौद्ध भिक्षु को कोई यह नहीं कहता। अब बौद्ध भिक्षु परंपरा का हिस्सा हो गया है।
तुमसे मैं कहता हूं: यह जो संन्यास का द्वार मैंने खोला है, जब तक लोग इसे पागलपन समझेंगे तभी तक यह सार्थक है। जल्दी ही यह भी स्वीकृत हो जाएगा। जब यह स्वीकृत हो जाएगा, तब यह व्यर्थ हो जाएगा। तब तुम संन्यास मत लेना, तब कोई फायदा नहीं होगा। तब तुम फिर किसी जीवित पागल को खोजना, जो तुम्हें फिर पागलपन में डाल दे। अभी मौका है। अभी लोग हंसेंगे, अभी लोग पागल समझेंगे, यही तो कसौटी है।
और फिर चूंकि मैं तुमसे घर छोड़ने को नहीं कहता, इसलिए मुसीबत और है। महावीर ने इतनी मुसीबत नहीं दी थी अपने लोगों को, जितनी मैं तुम्हें दे रहा हूं। बुद्ध ने इतनी मुसीबत नहीं दी थी। मैं तुम्हें एक बहुत ही बिगूचन की व्यवस्था में डाल रहा हूं। संन्यासी बना रहा हूं और घर से अलग नहीं कर रहा हूं। दुकान पर बैठोगे, गैरिक वस्त्रों में, बड़ी अड़चन होगी। गैरिक वस्त्रों में जंगल में बैठा जाता है, तब कोई अड़चन नहीं होती। और दुकान पर बैठना हो तो गैरिक वस्त्रों में नहीं बैठा जाता है, तब कोई अड़चन नहीं होती। मैं तुम्हारे जीवन में एक विरोधाभास पैदा कर रहा हूं। मैं तुमसे कह रहा हूं: जल में रहना और कमल की तरह रहना। गुलाब को इतनी अड़चन नहीं होती, वह जल में नहीं रहता। कमल को अड़चन होती है--पानी में और पानी न छुए। बाजार में रहना और बाजार न छुए। घर में रहना और घर न छुए। जमीन पर चलना और जमीन पर पैर न पड़ें। ऐसी कठिन कठिनाई तुम्हारे सामने खड़ी कर रहा हूं। लेकिन जितनी बड़ी चुनौती होती है, उतना ही बड़ा फल होता है।
तुम कहते: ‘मैं संन्यास लेना चाहता हूं।’
फिर सोचो मत, फिर विचारो मत; कौन जाने हिम्मत का यह क्षण जो आज तुम्हारे द्वार आ गया है, कल रहे, न रहे; कल तुम कमजोर हो जाओ, कल आते-आते कायर हो जाओ; कल की कौन जानता है? और मुहूर्त ज्योतिषियों से नहीं पूछे जाते। मुहूर्त हृदय से पूछे जाते हैं।
पत्थर शब्दों में गढ़ मूरत
जिसमें दीखे जग की सूरत
सूरत जो तनाव वाली हो
चेतन हो, अलाव वाली हो
शुभ के लिए सजग है तो फिर
कागज में मत देख महूरत
तम से लड़ता हुआ सवेरा
‘मैं’ का खंडहर ‘हम’ का घेरा
तहखानों के राज खोलती
शैली जिसकी आज जरूरत
पत्थर शब्दों में गढ़ मूरत
कागज में मत देख महूरत
कागजी मुहूर्त काम न आएंगे। ज्योतिषियों से पूछी गई बातें काम न आएंगी। तुम्हारा ज्योतिषी तुम्हारे भीतर, अंतसचेतन से पूछो, वहीं से जहां से यह लहर आई तुम्हारी भीतर कि अब संन्यास लूं। अथातो भक्ति जिज्ञासा! अब भक्ति की जिज्ञासा करूं, अब खोजूं भगवान को। संसार बहुत खोजा, अब उसके लिए भी टटोलूं, तलाशूं, मौत करीब आती है, इसके पहले कुछ तो संपदा पास हो।
शुभ के लिए सजग है तो फिर
कागज में मत देख महूरत
और जब भी शुभ भाव उठे, तो देर मत करना। मुहूर्त देखने में भी देर हो जाएगी। तब तक हो सकता है शुभ की घड़ी आई और गई। जब अशुभ भाव आए, तो जितनी देर बन सके उतनी देर टालना। इसको तुम जीवन का सूत्र समझो। क्रोध उठे, तो कहना--कल करेंगे, चौबीस घंटा सोचेंगे। जल्दी क्या है? क्रोध ही है, ऐसी कोई बड़ी बहुमूल्य चीज चूक नहीं जाएगी, चौबीस घंटे सोच कर करेंगे। और जब प्रेम आए तो अभी कर लेना, कल पर मत छोड़ना। दान देना हो तो अभी दे देना, चोरी करनी हो तो चौबीस घंटे सोच लेना। और तुम चकित होओगे, जिस चीज को सोचोगे चौबीस घंटे, वही नहीं होगी, और जिसको अभी कर लोगे, वही होगी। क्रोध लोग अभी कर रहे हैं, इसलिए क्रोध तो दुनिया में चलता है; और प्रेम कल पर टालते हैं, इसलिए प्रेम नहीं चलता। चोरी अभी करते हैं, दान कल पर छोड़ते हैं, इसलिए चोरी दुनिया में है और दान दुनिया में नहीं है। जो तुम अभी करते हो, वही होता है। जो तुम कहते हो कभी करेंगे, वह कभी नहीं होता। या तो अभी, या कभी नहीं।
शुभ के लिए सजग है तो फिर
कागज में मत देख महूरत
और जिंदगी ऐसे ही बही जाती है, संन्यास ही जिंदगी में रंग लाता है। जिंदगी ऐसे ही बही जाती है, संन्यास ही जीवन में अर्थ लाता है। जिंदगी ऐसी वीणा है जिसको तुमने छेड़ा नहीं। संन्यास वीणा को छेड़ता है, संगीत को जन्माता है। जीवन ऐसा अनगढ़ पत्थर है जिस पर तुमने छेनी नहीं उठाई, मूर्ति प्रकटे तो कैसे प्रकटे? संन्यास इस पत्थर के साथ संघर्ष है। इस पत्थर में जो-जो व्यर्थ है वह छांट कर अलग कर देना है, और जो-जो सार्थक है उसे प्रकट होने देना है। पत्थर ही तो मूर्ति बन जाता है, अनगढ़ पत्थर मूर्ति बन जाता है।
माइकलएंजलो एक पत्थर वाले की दुकान के पास से गुजरता था। उसने दुकान के बाहर दूसरी तरफ, राह के दूसरी तरफ एक बड़ी संगमरमर की अनगढ़ चट्टान पड़ी देखी। वह अंदर गया और दुकान के मालिक से उसने कहा कि वह चट्टान मैं खरीद लेना चाहता हूं। मालिक ने कहा, वह चट्टान बेचने का सवाल ही नहीं है, तुम ऐसे ही ले जाओ। क्योंकि वर्षों हो गए, वह बिकती नहीं है। हमने उसे इसीलिए सड़क के उस तरफ डाल दिया है कि जिसकी मर्जी हो, ले जाए। दुकान में जगह भी नहीं है। वह चट्टान बड़ी अनगढ़ है, उसका तुम करोगे क्या? माइकलएंजलो ने कहा, वह मैं फिर समझ लूंगा, हम ले जाते हैं। दुकानदार ने कहा, धन्यवाद तुम्हारा, क्योंकि वह चट्टान नाहक जगह घेरे है, उसकी जगह हम कुछ और सामान रख सकेंगे।
वर्षों बाद माइकलएंजलो ने उस दुकानदार को अपने घर निमंत्रण दिया, भोजन पर बुलाया और कहा कि एक मूर्ति मेरी बन कर तैयार हुई है, देख लो। वह उस मूर्ति को देखने गया। ऐसी मूर्ति उसने देखी नहीं थी। ऐसी मूर्ति पृथ्वी पर दूसरी है भी नहीं। मरियम की गोद में सूली से उतारे गए जीसस की मूर्ति है। अभी-अभी सूली से उतरे हैं, अभी-अभी खून टपकता है, अभी खून गर्म है, जीसस की लाश उनकी मां मरियम के हाथों में है। इस मूर्ति को उसने खोदा है।
अवाक खड़ा रह गया दुकानदार। उसने बहुत मूर्तियां देखी थीं बनते, जीवन भर संगमरमर का ही काम किया था, ऐसी मूर्ति नहीं देखी थी! उसने कहा, यह पत्थर तुमने कहां से पाया? यह पत्थर बहुमूल्य है। ऐसा पत्थर मैंने नहीं देखा। माइकलएंजलो हंसा, उसने कहा, यह वही पत्थर है जो तुमने सड़क के दूसरी तरफ फेंक दिया था और जिसे मैं मुफ्त उठा लाया था।
दुकानदार तो मान ही न सका कि यह वही पत्थर है! इससे ऐसी मूर्ति प्रकटी! तुम कैसे कल्पना कर सके उस अनगढ़ बेहूदे पत्थर को देख कर कि यह मूर्ति इसमें से निकल सकेगी? माइकलएंजलो ने कहा, मैंने नहीं देखा, मैं तो रास्ते से गुजरता था, क्राइस्ट ने इस पत्थर के भीतर से मुझे आवाज दी कि भई सुन, मुझे इससे मुक्त कर, मुझे इस पत्थर में से निकाल, इसमें रहे मुझे बहुत दिन हो गए। वही पुकार सुन कर मैं यह पत्थर ले आया था। इसमें जो-जो व्यर्थ था वह अलग कर दिया है, जो-जो सार्थक है वह प्रकट हो गया। मैंने मूर्ति बनाई नहीं, सिर्फ व्यर्थ को छांट कर अलग किया है।
जीवन भी ऐसा ही है। मूर्ति तो तुम्हारे भीतर परमात्मा की है ही, पुकार ही रही है, वही मूर्ति पुकारी है कि अब संन्यास ले लो। लेकिन कुछ अनगढ़ पत्थर में कुछ कोने हैं, व्यर्थ का कचरा-कूड़ा है, वह सब छांटना है। पात्र होने की प्रतीक्षा मत करो। संन्यास तुम्हें पात्र बनाएगा, संन्यास तुम में पात्रता की पहले से अपेक्षा नहीं करता है।
बैठ मत बेकार
पत्थरों पर पत्थरों को मार...
चिनगारी उठेगी
एक चिनगी
एक क्षण को, प्रण बनाएगी
नींद में डूबी हुई
बस्ती जगाएगी
जागरण: खिड़की, झरोखा, द्वार...
बैठ मत बेकार
पत्थरों पर पत्थरों को मार
चिनगारी उठेगी
द्वार जिनके बंद हैं
जिंदे नहीं हैं वे
हाय, बंदों के लिए
बंदे नहीं हैं वे
मांगती है आदमीयत धार...
बैठ मत बेकार
पत्थरों पर पत्थरों को मार
चिनगारी उठेगी
संन्यास उसी का निमंत्रण है।
पत्थरों पर पत्थरों को मार...
चिनगारी उठेगी
संन्यास एक संघर्ष है। एक संकल्प भी और एक समर्पण भी। संकल्प कि अब तक मैं जैसा था उससे अन्यथा होने का क्षण आ गया, और समर्पण कि अब मैं परमात्मा के हाथों में अपने को छोड़ता हूं। अब वह जो चाहे हो जाए; और जो चाहे न हो, वह न हो; अब उसकी मर्जी मेरी मर्जी होगी। तो संन्यास एक संकल्प है और फिर एक समर्पण भी। संन्यास बड़ा विरोधाभासी है। उसके विरोधाभास में ही उसका सत्य है, उसके विरोधाभास में ही उसकी क्रांतिपूर्ण प्रक्रिया है। वह तुम्हें मारेगा भी और तुम्हें जिलाएगा भी। वह तुम्हें सूली भी देगा और सिंहासन भी।
जब हृदय कहे, तभी मुहूर्त आ गया है। अब कागजों में मुहूर्त देखने की जरूरत नहीं है। और ज्यादा प्रतीक्षा मत करना, अन्यथा मुहूर्त निकल भी जा सकता है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, विरह क्या है?
भक्ति के मार्ग पर विरह आधी यात्रा है, और मिलन शेष आधी। दो ही कदम हैं भक्ति के--विरह और मिलन। पहले विरह, फिर मिलन। जो विरही है, वही मिलेगा। विरह का अर्थ है कि मुझे पता नहीं कि मैं कौन हूं। विरह का अर्थ है कि मुझे पता नहीं परमात्मा कहां है, कहां छिपा है। विरह का अर्थ है कि मुझे मेरे जीवन का अर्थ नहीं मिलता। विरह का अर्थ है, आंसू और आंसू मेरी आत्मा पर फैले हैं, मैं रो रहा हूं, मैं पुकार रहा हूं; राह नहीं सूझती, अंधेरा है, मैं टटोल रहा हूं, मैं भटक रहा हूं, मैं गिर रहा हूं, मैं उठ रहा हूं। विरह प्यास है। विरह अभीप्सा है। कुछ है जो प्रकट नहीं हो रहा है, और जो प्रकट हो जाए तो जीवन का अर्थ मिल जाए, जीवन में संगति आ जाए, संगीत आ जाए। कुछ है जो अनुभव में आता है भीतर कि पास ही है, फिर भी चूक-चूक जाता है। कुछ है जिसकी अचेतन में ध्वनि सुनाई पड़ती है, लेकिन चेतन तक नहीं आ पाती।
विरह का अर्थ है: परमात्मा है और मुझे नहीं मिल पा रहा है। तो मैं रोऊं, तो मैं पुकारूं, तो मैं गिरूं उसके अज्ञात चरणों में, तो मैं उस अज्ञात के लिए दीये जलाऊं, आरती सजाऊं, फूलमालाएं गूंथूं। मैं खाली हूं और मेहमान आ नहीं रहा है। मेहमान है निश्चित, इसकी प्रतीति होनी शुरू होती है भक्त को कि परमात्मा है निश्चित, हर तरफ उसकी छाया सरकती मालूम पड़ती है, फूलों में उसका रूप दिखाई पड़ता है, पक्षियों में उसकी उड़ान मालूम होती है, झरनों में उसका कलकल नाद मालूम होता है, अस्पष्ट सी अनुभूति होती है, पगध्वनि सुनाई पड़ती है कभी-कभी किन्हीं क्षणों में और किसी-किसी झरोखे से वह झांक जाता है, किसी सपने में उसकी छाया पड़ती है, प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है दूर की, एहसास होने लगता है कि है तो जरूर, लेकिन कब छाती से छाती मिले, कब आलिंगन हो!
विरह का अर्थ है: ऐसी चित्त की दशा जिसे एहसास तो होना शुरू हुआ, लेकिन एहसास अभी अनुभूति नहीं बना है। जिसे परमात्मा की प्रतीति अनुभव में तो आने लगी, लेकिन आमना-सामना नहीं हुआ, दरस-परस नहीं हुआ है। ध्वनि सुनी है कहीं से, लेकिन कहां से आती है, स्रोत नहीं मिल रहा है। ध्वनि सुन कर ही भक्त मस्त हो गया है। जैसे मदारी ने अपनी तुरही बजाई हो और सांप अपनी पोल में छिपा हुआ तड़फने लगे, ऐसा विरह है। सरकने लगे ध्वनि के स्रोत की तरफ, मस्त होने लगे, मदमस्त होने लगे।
इस विरह को शांडिल्य ने कहा--बड़ा उपयोगी है। जब दो विरही मिल जाते हैं, रोते हैं और एक-दूसरे को रुलाते हैं और प्रभु की महिमा का बखान करते हैं, प्रभु की उपस्थिति की चर्चा करते हैं, प्रभु की झलकें एक-दूसरे से आदान-प्रदान करते हैं, तब सत्संग होता है। उसी सत्संग में धीरे-धीरे अनुभव निखरते हैं, साफ होते हैं। सोना विरह की अग्नि से गुजर-गुजर कर खालिस कुंदन बनता है। और एक दफा मजा आने लगता है आंसुओं का--क्योंकि ये आंसू परमात्मा के लिए हैं, ये दुख के आंसू नहीं हैं, ये बड़े अहोभाव के आंसू हैं। इतना भी क्या कम है कि हमें उसका एहसास होने लगा! हम धन्यभागी हैं कि हमें उसका एहसास होने लगा। अभागे हैं बहुत जिन्हें यह पता ही नहीं है कि परमात्मा जैसी कोई बात होती है, जिन्होंने कभी इस शब्द पर दो क्षण विचार नहीं किया है, जिन्हें प्रार्थना का कोई अर्थ नहीं मालूम।
आओ फिर नज्म कहें
फिर किसी दर्द को सहला के सुजा लें आंखें
फिर किसी दुखती हुई रग से छुआ दें नश्तर
या किसी भूली हुई राह पे मुड़ कर इक बार
नाम लेकर किसी हमनाम को आवाज ही दे लें
फिर कोई नज्म कहें
आओ फिर कोई नज्म कहें
जब दो विरही मिलते हैं--और विरहियों का मिलन सत्संग है। जब दो प्रेमी मिल जाते हैं, या चार प्रेमी मिल बैठते हैं, तो करते क्या हैं? रोते हैं और रुलाते हैं। रोमांचित होते हैं, एक-दूसरे की भाव-दशा को पीते हैं, एक-दूसरे की भाव-दशा से आंदोलित होते हैं, एक-दूसरे से संक्रामित होते हैं।
आओ फिर नज्म कहें
फिर किसी दर्द को सहला के सुजा ले आंखें
फिर किसी दुखती हुई रग से छुआ दें नश्तर
या किसी भूली हुई राह पे मुड़ कर इक बार
नाम लेकर किसी हमनाम को आवाज ही दे लें
फिर कोई नज्म कहें
इन घड़ियों में परमात्मा और थोड़े करीब आ जाता है। जितने तुम्हारे आंसू गहन होते हैं, उतना परमात्मा करीब आ जाता है। आंसू भरी आंखें ही उसे देखने में समर्थ हो पाती हैं। आंसू से भरी आंखें पात्र हो जाती हैं। लबालब। आंसू से भरी आंखें तुम्हारी प्रार्थना से भरी आंखें हैं, झलक उसकी गहराने लगती है। जितनी झलक गहराती है, उतनी तड़प भी गहराने लगती है।
मगर निठुर न तुम रुके, मगर निठुर न तुम रुके!
पुकारता रहा हृदय, पुकारते रहे नयन
पुकारती रही सुहाग-दीप की किरन-किरन
निशा-दिशा, मिलन-विरह विदग्ध टेरते रहे
कराहती रही सलज्ज सेज की शिकन-शिकन
असंख्य श्वास बन समीर पथ बुहारते रहे
मगर निठुर न तुम रुके, मगर निठुर न तुम रुके!
आता परमात्मा बहुत बार और चला जाता। आता हवा के झोंके से--यह आया और यह गया! और पीछे बड़ा विदग्ध भाव छोड़ जाता। विरह घना होने लगता है। विरह एक ऐसी घड़ी में आ जाता है, जब विरह भक्त की मृत्यु बन जाता है, जब भक्त अपने को बिलकुल ही गंवा देता है, जब विरही और विरह दो नहीं रह जाते, जब विरही और विरह एक ही हो जाते हैं, जब भक्त का रोआं-रोआं रोता है, श्वास-श्वास रोती है, धड़कन-धड़कन रोती है, उसी घड़ी क्रांति घटती है, उसी घड़ी विरह की रात्रि पूरी हुई, मिलन की सुबह आई।
विरह को सौभाग्य समझना। विरह द्वार पर दस्तक दे, टालना मत। विरह पुकारे, उसके पीछे जाना। विरह बहुत सताएगा, क्योंकि सताए बिना निखार नहीं है। विरह बहुत जलाएगा, क्योंकि बिना जलाए कोई परिशुद्धि नहीं है। विरह को मित्र मानना, तो एक दिन विरह तुम्हें इस योग्य बना देगा कि मिलन घट सके।
विरह तुम्हारे हाथ में है, मिलन तुम्हारे हाथ में नहीं। इसलिए विरह को जितना प्रगाढ़ कर सको उतना प्रगाढ़ करो। रोओ, रोमांचित होओ, नाचो, पुकारो। यही पुकार, यही रुदन, यही नृत्य, यही तुम्हारे हृदय से उठती हुई कराह तुम्हें धीरे-धीरे परमात्मा की तरफ खींचती ले जाएगी। यही तुम्हें ठीक दिशा देगी, और इसी दिशा से एक दिन परमात्मा चला आता है। जिस दिन तुम्हारा विरह सचमुच परिपूर्ण हो जाता है, उस दिन तुम परमात्मा को पाने के हकदार हो गए, उस दिन तुम पात्र बने।
संन्यास के लिए पात्रता की जरूरत नहीं है, परमात्मा के लिए पात्रता की जरूरत आएगी। लेकिन वह पात्रता भी ध्यान रखना, तुम्हारे उपवास की पात्रता नहीं है, और न तुम्हारे त्याग की पात्रता है, क्योंकि उससे तो अहंकार भरता है। वह पात्रता तुम्हारे आंसुओं की पात्रता है, क्योंकि आंसुओं से ही तुम गलते हो, पिघलते हो; आंसुओं में ही एक दिन धीरे-धीरे गल-गल कर अहंकार समाप्त हो जाता है।
जहां अहंकार की समाप्ति है, वहीं परमात्मा से मिलन है।
आज इतना ही।