SHANDILYA
ATHATO BHAKTI JIGYASA 17
Seventeenth Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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सूत्र
युक्तौ च सम्परायात्।। 41।।
शक्तित्वान्नानृतं वेद्यम्।। 42।।
तत्परिशुद्धिश्च गम्यालोकवल्लिंगेभ्यः।। 43।।
सम्मान बहुमान प्रीति विरहेतर विचिकित्सा
महिमख्याति तदर्थ प्राण स्थान तदीयता सर्व तद्भावा
प्रातिकूल्यादीनिच स्मरणेभ्यो बाहुल्यात्।। 44।।
द्वेषादयस्तु नैवम्।। 45।।
पूर्व सूत्र--
चैत्याचितोर्नत्रितीयम्।
‘चैत्य और चित्त, ज्ञेय और ज्ञान, दृश्य और द्रष्टा से भिन्न कोई तीसरा पदार्थ जगत में नहीं है।’
जगत को दो में बांटा जा सकता है--जानने वाले में और जो जाना जाता है; मैं और तू में। यह अंतिम विभाजन है। इसके भी भीतर गए तो विभाजन समाप्त हो जाते हैं, भेद गिर जाते हैं। यहां तक भेद की सीमा है, यहां तक भेद का लोक है। फिर द्रष्टा में और गहरे गए, या दृश्य में गहरे गए तो दोनों के भीतर एक का ही आविर्भाव होता है।
ज्ञान यहीं तक जाता है, भक्ति इससे आगे जाती है। ज्ञान यहां रुक जाता है--ज्ञाता और ज्ञेय के भेद पर। इसलिए ज्ञान वस्तुतः अद्वैतवादी नहीं होता। हो नहीं सकता। ज्ञान तो द्वैतवादी होगा ही। अनिवार्यतः होगा। उसमें अंतर्निहित अनिवार्यता है द्वैत की।
इसलिए बड़े से बड़े ज्ञानी भी, चाहे लाख कहें कि संसार मिथ्या है, माया है, पर संसार को मानते हैं। संसार को बिना माने नहीं चलता। ज्ञान की घटना ही नहीं घटती अगर ज्ञाता और ज्ञेय का भेद न हो। ईश्वर को जानोगे कैसे, अगर जानने वाला ईश्वर से भिन्न न हो? अभिन्न हो तो जानना समाप्त हो गया। तुम वृक्ष को जानते हो, क्योंकि वृक्ष से भिन्न हो। अगर तुम वृक्ष हो गए, तो फिर वृक्ष को कैसे जानोगे? फिर जानने वाला नहीं बचा।
ज्ञानी अनंत-अनंत भेदों से उठते-उठते उस दशा में आ जाता है जहां दो बचते हैं। दो के पार ज्ञान की यात्रा नहीं है। वहां ज्ञान थक जाता है। फिर अगर ज्ञानी कहे भी कि एक है, तो वह एक उसके द्वैत पर ही आधारित होता है। फिर वह ब्रह्म और माया कहेगा द्वैत को, कोई नाम देगा, पुरुष और प्रकृति कहेगा, इससे भेद नहीं पड़ता, दो तो कायम रहते हैं।
भक्ति इससे आगे छलांग लेती है, आगे उड़ान लेती है, जहां दो वस्तुतः समाप्त हो जाते हैं। क्योंकि भक्ति का आग्रह जानने में नहीं है, होने में है। भक्ति के आग्रह को ठीक से समझ लो।
भक्ति की बुनियादी धारणा है कि बिना एक हुए कोई उपाय जानने का भी नहीं है। ज्ञान की धारणा है--दो हों तो ही जाना जा सकता है। भक्ति की धारणा है--एक सधे तो ही ज्ञान है। उसे भक्ति ज्ञान भी नहीं कहती इसीलिए, क्योंकि ज्ञान में दो की भाषा आ जाती है; उसे प्रेम कहती है।
एक जानना है बाहर-बाहर से और एक जानना है भीतर से। प्रेमी भी एक-दूसरे को जानते हैं, लेकिन वह जानना वैज्ञानिक के जानने से भिन्न है। तुम एक डाक्टर के पास गए, तुम्हारे सिर में दर्द है, तुमने अपने सिरदर्द की कहानी कही। डाक्टर जानता है सिरदर्द को, सिरदर्द के संबंध में पढ़ा है, लिखा है, खुद भी कभी अनुभव किया है, दवा भी जानता है, तुम्हें सिरदर्द से छुटकारा दिलाने का उपाय भी करेगा। लेकिन उसका जानना बाहर से है। तुम्हारी प्रेयसी, या तुम्हारी मां, या तुम्हारा पति, या तुम्हारा मित्र, जब तुम उससे कहोगे कि सिरदर्द है, वह भी जानता है, यद्यपि उसने शास्त्र नहीं पढ़े हैं और सिरदर्द क्या है इसका विश्लेषण न कर सकेगा। लेकिन उसका जानना एक और आयाम का जानना है--सहानुभूति का, समानुभूति का। जब तुम्हारे प्रिय के सिर में दर्द होता है, तो तुम्हारे सिर में भी दर्द हो जाता है। जब बेटा परेशान होता है, तो मां परेशान हो जाती है। यह परेशानी बाहर-बाहर नहीं रहती, यह भीतर छू जाती है। प्रेमी एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड हो गए होते हैं।
इसलिए जब कोई प्रियपात्र मरता है तो प्रियपात्र ही नहीं मरता, तुम्हारा एक बड़ा हिस्सा मर जाता है। तुमने जिससे प्रेम किया था, वह मर गया। उस दिन तुम जानोगे कि तुम्हारा एक बड़ा हिस्सा मर गया, तुम्हारी आत्मा का एक खंड समाप्त हो गया। तुम अब उतने ही नहीं हो जितने तब थे जब तुम्हारा प्रेमी जिंदा था। अब तुम खाली-खाली हो, अधूरे-अधूरे हो। तुम्हारे भवन का एक खंड गिर गया, अब तुम खंडहर हो। जब प्रियपात्र के मर जाने पर कोई रोता है, चीखता-चिल्लाता है, तो वह सिर्फ इसलिए नहीं रो रहा है, चिल्ला रहा है कि प्रियपात्र मर गया। उसकी मृत्यु में उसकी भी मृत्यु घट गई है, वह भी अब आधा है, अपंग है, उसके भी पैर टूट गए हैं। अब वह कभी पूरा न हो सकेगा। अब यह खालीपन रहेगा और अखरेगा। जितना बड़ा प्रेम होगा, जितना गहन प्रेम होगा, उतनी ही बड़ी मृत्यु घटित होगी। और अगर प्रेम परिपूर्ण हो तो प्रियपात्र के मरते ही तुम भी मर जाओगे। एक श्वास ज्यादा न ले सकोगे।
सती की प्रथा ऐसे ही शुरू हुई थी। फिर पीछे विकृत हुई--सभी चीजें विकृत हो जाती हैं--लेकिन ऐसे ही शुरू हुई थी। कभी कोई प्रेमी मरा था और उसकी प्रेयसी फिर सांस न ले सकी थी। फिर सांस लेने में कोई अर्थ ही न रह गया था। चिता पर चढ़ने भी जाना नहीं पड़ा था--चिता पर चढ़ने लायक था ही कौन अब? प्रिय की मृत्यु में ही स्वयं की भी मृत्यु हो गई थी।
इतना तादात्म्य हो तो एक तरह का ज्ञान होगा। उसे ज्ञान कहना ठीक नहीं, क्योंकि ज्ञान से हम समझते हैं भेद, दूरी, फासला। वह ज्ञान अनूठे ढंग का ज्ञान होगा, वहां फासला न होगा, दुई न होगी, द्वैत न होगा। उसी को शांडिल्य प्रीति कहते हैं।
एक ऐसे जानने का ढंग भी है जो हार्दिक है। एक जानने का ढंग है जो बौद्धिक है। बौद्धिक ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का फर्क होता है, चैत्य और चित्त का फर्क होता है, दृश्य और द्रष्टा का फर्क होता है। हार्दिक ज्ञान में, भाविक ज्ञान में सब भेद समाप्त हो जाते हैं। शांडिल्य कहते हैं: तभी असली ज्ञान है। क्योंकि जब तक दूरी है, तब तक कैसा ज्ञान!
रामकृष्ण के जीवन में एक उल्लेख है। ऐसे बहुत संतों के जीवन में उल्लेख हैं। पर रामकृष्ण का उल्लेख ताजा है। वे गंगा पार कर रहे थे दक्षिणेश्वर में, नाव में बैठे, उनके भक्त भजन गा रहे हैं। अचानक बीच भजन में वे चिल्लाए--मुझे मारते क्यों हो? मुझे मारते क्यों हो? जो भजन गा रहे थे वे तो एकदम ठिठक कर रह गए, कौन रामकृष्ण को मार रहा है? कौन मारेगा? किसलिए? उन्होंने कहा, आप कहते क्या हैं, परमहंसदेव? कोई आपको मार नहीं रहा, आपको हुआ क्या है? और उन्होंने अपनी चादर उघाड़ी और अपनी पीठ दिखाई--और पीठ पर कोड़ों के निशान हैं और खून बह रहा है! भक्त तो किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। उन्होंने कहा, यह हमारी समझ के बाहर है, यह हुआ कैसे? रामकृष्ण ने कहा, उस तरफ देखो! बीच गंगा में नाव है, उस किनारे पर कुछ लोग मिल कर एक मल्लाह को पीट रहे हैं।
जब नाव किनारे जाकर लगी, भक्तों ने उस आदमी को जाकर देखा जिसको पीटा गया था, उसकी कमीज उघाड़ी, उसकी पीठ पर ठीक वैसे ही कोड़े के चिह्न थे जैसे रामकृष्ण के--ठीक वैसे ही। अब बात और अबूझ हो गई। उन्होंने रामकृष्ण को पूछा, यह हुआ कैसे? उन्होंने कहा, उस क्षण में तादात्म्य हो गया। उसे लोग मार रहे थे, तुम तो भजन में लीन थे, मेरी आंखें उस तरफ लगी थीं। जब वे उसे मार रहे थे तब एक क्षण को मैं उसके साथ एक हो गया।
इस स्थिति का नाम है समानुभूति। यह सहानुभूति से आगे का कदम है। लोगों में तो सहानुभूति ही नहीं है, तो समानुभूति तो कहां से होगी! सहानुभूति का अर्थ है: दया। तुम्हें पीड़ा हो रही है, मुझे दया आती है। समानुभूति का अर्थ है: तुम्हारी पीड़ा मेरी पीड़ा हो गई। उधर तुम रोते हो, इधर मैं रोता हूं।
वैज्ञानिक बहुत से प्रयोग कर रहे हैं इस संबंध में और समानुभूति पर बड़ी खोज पिछले बीस वर्षों में हुई है--विशेषकर रूस में बड़ी खोज हुई है। खास करके मां और उसके बच्चों के बीच। अभी परीक्षण पशुओं में चल रहा है। एक खरगोश को दूर पानी में ले जाकर, मील भर गहरे पानी में ले जाकर मारा गया। और उसकी मां ऊपर घाट पर खेल रही है। जब उसे मारा गया, तब खरगोश की मां को जैसे बिजली के धक्के लगे--यंत्र लगाए गए थे जो परीक्षण कर रहे थे, धक्के लगे। जैसे भीतर कोई गहरी चोट लगी। फिर इस प्रयोग को बहुत तरह से दोहराया गया। जब भी बच्चे को मारा गया, तभी मां को चोट पहुंची। हजार मील की दूरी पर भी चोट पहुंची। क्योंकि मां और बेटे का संबंध बड़ा गहरा है। बेटा मां के पेट में नौ महीने रहा है। बेटा मां के पेट में नौ महीने इस तरह रहा है कि मां होकर रहा है। इस तरह का गहरा संबंध फिर किसी का कभी नहीं होगा, क्योंकि कौन किसके पेट में नौ महीने रहेगा? तो मां और बेटे के हृदय के तार गहराई में जुड़े हैं, प्राण संयुक्त हैं।
ठीक ऐसी घटना जुड़वां बच्चों में भी घटती है। एक जुड़वां बच्चा बीमार हो भारत में और उसका भाई चीन में बीमार हो जाएगा। समानुभूति! एक ही अंडे में दोनों बड़े हुए थे, एक ही साथ धड़के थे, उनके हृदय की धड़कन एक ही लय जानती है। जो बीमारी एक को पकड़ेगी वह दूसरे को पकड़ जाएगी, हजारों मील का फासला हो तो भी पकड़ जाएगी। ये समानुभूति के लक्षण हैं, यह एक अनूठे ढंग का जानना है, जहां हृदय जुड़े होते हैं।
इस जोड़ का नाम भक्ति है। जिस दिन तुम्हारा हृदय विराट से ज़ुड जाता है, जिस दिन तुम्हारा प्रेमी और कोई नहीं, स्वयं परमात्मा होता है, जिस दिन सारे अस्तित्व के साथ तुम एकता में लयबद्ध हो जाते हो, तुम्हारी भिन्न तान नहीं रहती, तुम एकतान हो जाते हो, तुम इस विराट संगीत में एक स्वर हो जाते हो, तुम इस विराट संगीत के विपरीत नहीं बहते, तुम इस धारा के साथ एक हो जाते हो, यह धारा जहां जाती है वहीं जाते हो, तुम्हारे भीतर विपरीतता समाप्त हो जाती है, भक्ति का जन्म होता है।
आज के सूत्र की शुरुआत है--
युक्तौ च सम्परायात्।
‘वियोग के पूर्व में दोनों एक ही हैं।’
जैसे जन्म के पहले मां और बच्चा एक हैं। भेद बाद में आता है। इसलिए भेद गौण है। भेद ऊपर-ऊपर है। ऐसे ही हम इस अस्तित्व से एक हैं। जब तुम पैदा नहीं हुए थे तब तुम कहां थे? मां के गर्भ में भी नहीं आए थे, तब तुम किस गर्भ में थे? तब तुम इस विराट के गर्भ में थे। इस विराट से तुम अलग हुए, ऐसी बस मान्यता है तुम्हारी। इस विराट से अलग हो कैसे सकोगे? इस विराट के बिना जी कैसे सकोगे? इस विराट से टूट कर श्वास भी नहीं चलेगी। यह विराट ही हममें जीता है। हम अभी भी गर्भ में हैं। हमें सिर्फ भ्रांति हो गई है। मछली अभी भी सागर में है, मगर सागर को भूल गई है। ऐसे ही हम भी भूल गए हैं। नहीं तो परमात्मा ने तुम्हें सब तरफ से घेरा है। तुम्हारे खून में वही बहता है और तुम्हारे हड्डी-मांस-मज्जा में वही बैठा है; तुम्हारी श्वास में वही चलता, तुम्हारे हृदय में वही धड़कता। तुम वही हो। उसी के पुंजीभूत रूप। उसका ही एक आकार। उसकी ही एक लहर। उसकी ही एक तरंग हो तुम। उससे रंचमात्र भिन्न नहीं।
शांडिल्य का सूत्र बड़ा प्यारा है: युक्तौ च सम्परायात्।
सोचो तो जरा, जब तुम नहीं थे तब तुम कहां थे? और जब तुम फिर नहीं हो जाओगे तब तुम कहां होओगे? ऐसा समझो, सागर शांत है, हवाएं नहीं बहतीं, कोई लहर नहीं उठती। फिर आई हवा की एक लहर, आया बड़ा एक झोंका, उठी एक बड़ी लहर सागर में। सागर में लहर जब नहीं उठी थी तब कहां थी? सागर ही थी तब, अब उठी। फिर थोड़ी देर में सागर में गिर जाएगी, तब कहां होगी? सागर में ही होगी तब। ऐसा सोचो, जब नहीं उठी थी लहर तब सागर में थी। जब उठी तब भी सागर में ही है, सिर्फ एक नया रंग, एक नया रूप, एक नया आकार उठा--नाम-रूप। यह संसार बस नाम-रूप है। फिर जल्दी ही नाम-रूप गिर जाएगा, फिर लहर सागर की सागर में हो जाएगी। ऐसे उठेगी कई बार, गिरेगी कई बार। ऐसे तुम कई बार जन्मे और कई बार मरे। अभी फिर जन्मे हो, अभी फिर मरोगे। जो व्यक्ति यह पहचान ले कि जन्म के पहले भी मैं उसी में था, मृत्यु के बाद भी उसी में होऊंगा, और निश्चित ही जब आगे भी उसी में था, पीछे भी उसी में होऊंगा, तो बीच में भी उसी में ही हो सकता हूं--और कहां होऊंगा? अगर मेरा अतीत भी उसमें, मेरा भविष्य भी उसमें, तो मेरा वर्तमान भी उसमें ही होगा। जो जाग जाता है इस भाव में कि मैं परमात्मा में हूं और हम क्षण भर को भिन्न नहीं हुए, वही भक्त।
युक्तौ च सम्परायात्।
‘वियोग के पूर्व दोनों एक ही हैं।’
और ऐसी ही दशा परम विश्लेषण की है। वह जो द्रष्टा और दृश्य का भेद है, वह भी एक लहर मात्र है। नहीं तो देखने वाला और देखा जाने वाला एक ही है। वही देखता है, वही देखा जाता है। ऐसा समझो न, रात तुम सपना देखते हो, तब देखने वाला और जो दिखाई पड़ता है, उसमें कुछ भेद होता है? सपने में तुम्हीं सब होते हो। वह जो सपने की कहानी चलती है, वह जो सपने की फिल्म दोहरती है, उसमें सभी तुम होते हो--निर्देशक भी तुम, कथा-लेखक भी तुम, गायक भी तुम, नायक भी तुम, पर्दा भी तुम और दर्शक भी तुम। तुम्हीं सब होते हो। इसी गहन अनुभव के कारण, संसार को स्वप्न कहा है जानने वालों ने। स्वप्न का अर्थ यह होता है: सब एक है और फिर भी भेद मालूम पड़ता है। सुबह जागोगे जब तुम, तब कहां है सपना तुम्हारा? तब तुम्हीं में लीन हो गया। लहर उठी थी, तुम्हीं में वापस खो गई। दृश्य द्रष्टा से ही उठता है और द्रष्टा में ही लीन हो जाता है।
दोनों वियोग के पूर्व एक हैं। और संयोग के बाद फिर एक हैं। बीच में क्या भिन्न हैं? बस बीच में भिन्न भासते हैं, आभास होता है। उस आभास का नाम माया है। वे अनादि काल से दोनों एक हैं। एक ही है जो दोनों में प्रकट हो रहा है। एक ने ही अपने को विभाजित कर लिया है--खेल के लिए, लीला के लिए। शास्त्र कहते हैं: वह अकेला था। ऊब गया अकेले-अकेले। उसने अपने को विभाजित किया। फिर अपने से ही छिया-छी, फिर अपने से ही खेल शुरू किया। यही तो तुम रोज सपने में करते हो। जो तुम सपने में करते हो, वही विराट अर्थ में सारे जगत में हो रहा है। इस जगत को परमात्मा का सपना समझो। इस जगत को परमात्मा का सपना समझा, तो तुम्हारे जीवन में क्रांति हो जाएगी। फिर तुम क्षण भर को भी अपने को भिन्न नहीं मान पाओगे। और जब कोई अपने को भिन्न नहीं मानता, तो अहंकार गया, संघर्ष गया, संकल्प गया, जद्दोजहद गई; तब विश्राम है।
उस विश्राम को शांडिल्य कहते हैं भक्ति। उसी विश्राम को मैं संन्यास कहता हूं। सब तरफ से जिसने अपने को छोड़ दिया धारा के साथ।
शक्तित्वान्नानृतं वेद्यम्।
‘शक्ति ही की क्रिया है, इस कारण यह जगत मिथ्या नहीं।’
और एक बहुत अदभुत वचन। तुम रोज सुनते हो तुम्हारे तथाकथित ज्ञानियों को यह कहते हुए कि जगत मिथ्या है, झूठा है। शांडिल्य बड़ा बहुमूल्य भेद करते हैं। वे कहते हैं, जगत माया तो है, लेकिन मिथ्या नहीं। मिथ्या और माया शब्दों को समझ लेना चाहिए।
मिथ्या का अर्थ होता है: जो है ही नहीं। माया का अर्थ होता है: जो है तो नहीं, लेकिन है जैसा भासता है। इन दोनों में फर्क है। ये पर्यायवाची नहीं हैं। मिथ्या का अर्थ होता है: अनृत, असत्य। जिसका कोई अस्तित्व नहीं है। माया का अर्थ होता है: अस्तित्व है तो नहीं, लेकिन प्रतीत होता है।
जैसे, सपना। सपने को क्या कहोगे, माया कहोगे या मिथ्या कहोगे? अगर मिथ्या कहो तो सपना है ही नहीं। लेकिन यह तो तुम नहीं कह सकते कि सपना था ही नहीं। तुम्हें पूरी तरह याद है, सुबह भी याद है कि सपना था। तुमने देखा है, अपनी ही आंखों से देखा है। नहीं होता तो दिखाई कैसे पड़ता? एक बात। नहीं होता तो दिखाई नहीं पड़ता।
कई रातें ऐसी होती हैं जब सपना नहीं होता, तब तो तुम सुबह नहीं कहते कि सपना देखा, हालांकि दिखाई नहीं पड़ा, हालांकि था नहीं, मगर देखा। जब सपना नहीं होता तब रात खाली होती है। तो स्वप्नशून्य निद्रा में और स्वप्नसहित निद्रा में कुछ भेद तो है। स्वप्नशून्य निद्रा में कोई तरंग नहीं होती, स्वप्न से भरी निद्रा में तरंगें होती हैं। सुबह जाग कर पता चलता है कि वे तरंगें सत्य नहीं थीं। मगर क्या उनको बिलकुल एकांतिक रूप में असत्य कह सकोगे? सत्य तो नहीं थीं, क्योंकि सुबह हाथ में कुछ लगता नहीं--हाथ खाली के खाली। रात सोने के महल थे, बड़ा साम्राज्य था, और सुबह हाथ खाली हैं, कुछ भी हाथ में नहीं है। सच तो नहीं था सपना, लेकिन क्या तुम इतने ही जोर से कह सकोगे कि झूठ था? झूठ भी नहीं कह सकोगे। क्योंकि झूठ होता तो देखा कैसे? तो कुछ ऐसा था कि सच और झूठ के बीच में था।
ये तीन शब्द समझ लो--सत्य, जो है और सदा रहेगा। झूठ, जो नहीं है और कभी नहीं हो सकेगा। और मिथ्या, जो दोनों के मध्य में है; थोड़ा है, थोड़ा नहीं है; कभी है, कभी नहीं है; आज है, कल नहीं होगा; कल था, आज नहीं है; क्षण भर को होता है, फिर विलीन हो जाता है; तरंग है, लहर है। मिथ्या नहीं कह सकोगे इसे, इसे माया कहेंगे। जैसे जादूगर खेल दिखाता, वह माया है। है तो नहीं सच में, मगर बिलकुल झूठ भी नहीं है। अंग्रेजी का शब्द मैजिक संस्कृत के माया शब्द से ही बना है।
शांडिल्य कहते हैं: यह जगत माया है, सच, लेकिन मिथ्या नहीं है। मिथ्या क्यों नहीं है? नहीं हो सकता। क्योंकि सच्चे सागर में अगर लहर उठी है, तो लहर की भांति भला झूठ हो, लेकिन है तो सच्चे सागर का ही अंग। सत्य के सागर में झूठी लहर कैसे उठ सकती है? और अगर सत्य के सागर में झूठी लहर उठ सकती है तो सागर ही झूठ हो गया। सत्य में झूठ कैसे उठ सकता है? एक बहुत बहुमूल्य प्रश्न उन्होंने उठाया है।
शक्तित्वान्नानृतं वेद्यम्।
यह जगत उसकी ही शक्ति है। तो झूठ तो नहीं हो सकता। यह खेल उसका है--खेल सही--लेकिन झूठ नहीं है। सत्य भी नहीं है, क्योंकि क्षणभंगुर है। सत्य के साथ अर्थ होता है जो शाश्वत है और झूठ के साथ अर्थ होता है जो कभी नहीं है, और सत्य जो सदा है। मगर यह कुछ बीच की दशा है--अभी लगता है, है; अभी नहीं हो जाता है।
जवान थे और जवानी के सपने देखे थे। फिर बूढ़े हो गए, वे सपने सब फिजूल हो गए, तब हंसता है आदमी, बूढ़ा होकर हंसता है, उसे भरोसा नहीं आता कि मैं ऐसी नासमझियां कर सका। मैं ऐसी मूढ़ताएं कर सका। मैं सौंदर्य के पीछे ऐसा दीवाना होकर भाग सका। मैं स्त्री-पुरुषों में इतना तल्लीन हो सका। भरोसा नहीं आता कि यह कैसे हुआ! लेकिन कभी हुआ था। आज स्वप्न भंग हो गया है, लेकिन जब स्वप्न था तो बड़ा बलशाली था। जब स्वप्न था तो उसने खूब नचाया था। जब स्वप्न था तो बड़े झंझावात आए थे, उसने खूब दौड़ाया था, जी-जान की बाजी लगवा दी थी। तब वही सूझता था। तब लगता था--सब खो जाए मगर यह सपना पूरा हो।
जो आदमी धन के पीछे ही दौड़ता रहा, दौड़ता रहा, और एक दिन जाग कर पाता है कि सब धन पानी का बबूला है, रोता नहीं होगा? भीतर मन में पश्चात्ताप नहीं होता होगा कि मैं इतना मूढ़ था! तुम्हें नहीं हुआ है? किसी न किसी जगह तुम्हें भी हुआ होगा। किसी ने कुछ कह दिया था, दो कड़वे शब्द कह दिए थे और तुम आगबबूला हो गए थे, मरने-मारने को तैयार हो गए थे। फिर पीछे पछताए हो और सोचा कि यह भी क्या हुआ? ऐसी तो कुछ खास बात न थी! इतना क्रुद्ध हो जाने का तो कोई कारण न था! अकारण मैं विक्षिप्त हुआ। अकारण मैंने संघर्ष सिर लिया। अकारण मैंने चोट पहुंचाई। अब तुम ज़ार-ज़ार रोते हो और तुम सोचते हो: यह हुआ कैसे? मेरे बावजूद हो गया? मैं तो चाहता भी नहीं था कि यह हो। मगर जब इस तूफान ने तुम्हें पकड़ा था तब तुम्हें जरा भी होश नहीं था। काश तुम्हें उसी समय होश आ जाता, तो यह उसी वक्त झूठ हो जाता। होश पीछे आया। अगर रात सपने में तुम जाग जाओ तो उसी वक्त सपना समाप्त हो जाएगा। भरी जवानी में भी सपने टूट गए हैं। आखिर बुद्ध का टूटा, आखिर महावीर का टूटा। राजमहलों में सपने टूट गए हैं। भर्तृहरि का टूटा, सब कुछ था और अचानक सपना टूट गया है। जब कि सपना बड़ी गर्मी में था, जब कि सपना बड़ा जवानी में था, जब कि सपना पूरा होने के करीब लग रहा था, तब सपने टूट गए हैं। और टूटते ही सब व्यर्थ हो गया।
बुद्ध ने जब घर छोड़ा और जब वे अपने रथ से गांव के दूर जंगल में निकल गए और जब उन्होंने सारथी को वापस भेजा, तो सारथी ने कहा, आप यह कर क्या रहे हैं? आप जा कहां रहे हैं? इस राजमहल को छोड़ कर जाते हैं! इस सोने जैसे महल को छोड़ कर जाते हैं! दुनिया इसी के लिए तड़फती है। और अपनी उस प्यारी पत्नी की तो याद करो! और अपने नये पैदा हुए बच्चे की तो याद करो! अभी-अभी पैदा हुआ है। उसे छोड़ कर कहां जाते हो?
वह बूढ़ा सारथी बुद्ध को याद दिला रहा है कि तुम जो छोड़ कर जा रहे हो वह बड़ा प्यारा है, बड़ा बहुमूल्य है। बुद्ध हंसने लगे, उन्होंने कहा, मैं पीछे लौट कर देखता हूं, न तो मुझे कोई राजमहल दिखाई पड़ता है, न कोई पत्नी दिखाई पड़ती है, न कोई बेटा दिखाई पड़ता है; मुझे सिर्फ दिखाई पड़ती हैं लपटें और लपटें, वहां सब जल रहा है, इसलिए मैं भाग रहा हूं।
सारथी को समझ में नहीं आता, वह कहता है, कहां की लपटें? किन लपटों की बातें कर रहे हैं आप? किस सपने की बात कर रहे हैं? जागो! कहां की लपटें? सुंदर महल है, पत्नी है, पिता है, राज्य है; सब सुविधा है, जाते कहां हो? मुझे तो कोई लपटें नहीं दिखाई पड़तीं।
वह भी ठीक कह रहा है। हालांकि बूढ़ा हो गया है, लेकिन अभी उसका सपना नहीं टूटा है। बुद्ध भी ठीक कह रहे हैं। यद्यपि अभी जवान हैं, अभी सपने देखने के दिन थे, मगर सपना टूट गया है। जितनी मेधा होती है, उतनी जल्दी सपना टूट जाता है। जितनी प्रतिभा होती है, उतनी जल्दी सपना टूट जाता है। प्रतिभा की कसौटी क्या है?
पश्चिम में प्रतिभा की जो कसौटी है, वह पूरब में नहीं है। पूरब की अपनी कसौटी है। और पूरब की कसौटी बड़ी बहुमूल्य है।
पश्चिम में प्रतिभा की कसौटी है--तुम्हारा आई क्यू कितना? इंटेलिजेंस कोसिएंट कितना? परीक्षा में तुम कितने अंक पाते हो? अगर सौ के इस तरफ है तो साधारण, अगर सौ के उस तरफ है तो विशेष, अगर डेढ़ सौ के आगे गया तो बहुत विशेष, अगर दो सौ के करीब पहुंच गया तो तुम महाप्रतिभावान; और इधर पचास के नीचे गिर गया तो बुद्धू, और तीस के नीचे गिर गया तो बिलकुल जड़। बुद्धि मापी जाती है आंकड़ों में। कितने प्रश्न हल कर सकते हो?
पूरब की परीक्षा कुछ और है। पूरब कहता है: कितने जागे हो? कितने प्रश्न हल कर सकते हो, यह सवाल नहीं है। कितना जागरण? जागरण की मात्रा कितनी है? अवेयरनेस कोसिएंट, ए क्यू, कितना होश है? चीजें जैसी हैं उनको वैसा ही देख पाते हो कि अभी भी सपने का प्रक्षेपण चलता है?
बुद्ध को हम प्रतिभाशाली कहते हैं। आइंस्टीन को हम प्रतिभाशाली न कह सकेंगे। यद्यपि मरने के कुछ दिन पहले उसे थोड़ा-थोड़ा जागरण आना शुरू हुआ था, थोड़ी करवटें उसने बदलनी शुरू की थीं। आइंस्टीन बुद्धिमान तो था, मेधावी नहीं था। मेधा तो वही, जो जगत के सारे सपनों को उखाड़ दे और जगत के सत्य को दिखला दे। लहरें विदा हो जाएं और सागर दिखाई पड़ जाए। नाम-रूप खो जाए और यथार्थ दिखाई पड़ जाए। यथाभूतम्। वह जो सब भूतों का अंतर्तम है, वह जो सब अस्तित्व के भीतर छिपा हुआ महा अस्तित्व है, वह दिखाई पड़ जाए; परमात्मा अनुभव में आ जाए तो हम कहते हैं--प्रतिभा, मेधा; तो हम कहते हैं--प्रज्ञा, बुद्धत्व।
शक्तित्वान्नानृतं वेद्यम्।
यह जो सब तरफ फैला हुआ दिखाई पड़ रहा है जगत, यह उसी की ऊर्जा की तरंग है। इसलिए मिथ्या तो नहीं है; माया जरूर है। मिथ्या कहो तो इसे छोड़ कर भागना पड़ेगा। माया कहो तो जाग कर जी लो, बस काफी है। इसलिए भक्त छोड़ कर नहीं भागता। ज्ञानी भगोड़ा हो जाता है। ज्ञानी डरता है।
अब यह बड़े मजे की बात है! ज्ञानी कहता है मिथ्या और फिर डरता है। जब है ही नहीं तो डरना क्या? होना तो यह चाहिए कि ज्ञानी डरे ही नहीं, ज्ञानी तो बाजार में रहे, घर-गृहस्थी में रहे। भागना कहां है? जब है ही नहीं--कहता तो है मिथ्या--मगर वह मिथ्या भी शायद अपने को समझाने के लिए कहता है। वह मिथ्या कहना भी संसार से लड़ने की ही उसकी एक तर्ज है, संसार से लड़ने की ही एक विधि है। मिथ्या कह कर अपने को समझाता है कि मिथ्या है, झूठ है, इसमें रखा क्या है?
एक जैन मुनि से मेरा मिलना हुआ, उन्होंने अपनी एक कविता सुनाई। कविता थी, कविता की दृष्टि से बड़ी अच्छी थी, मगर मुनि के मुंह से ठीक नहीं थी। हालांकि उनके भक्तों ने बड़े सिर हिलाए। क्योंकि साधारणतः कोई भी कहता कि बात बिलकुल गजब की है, ठीक है, यही तो कहा जाता रहा है सदियों से।
मुनि ने अपनी कविता में कहा था कि तुम रहो अपने राजमहलों में, मेरे लिए तो तुम्हारे राजमहल मिथ्या हैं। तुम मजा कर लो संसार में, मेरे लिए संसार तो मिथ्या है। तुम बैठो सिंहासनों पर अपने, मैं तो अपनी धूल में ही मस्त हूं।
बिलकुल ठीक। साधारणतः यही कहा जाता है, सारे महात्मा यही कहते हैं, इसमें कुछ नया भी नहीं था। भक्तों ने सिर हिलाया।
मैंने उनसे कहा, अगर यह बात सच ही है कि राजसिंहासन मिथ्या हैं, तो उनका उल्लेख क्यों? उनकी चर्चा क्यों? अगर राजमहल हैं ही नहीं, तो किसकी बातें कर रहे हो? कौन राजमहल में रहता है फिर? और मजा यह है कि राजाओं ने कभी नहीं लिखीं ये कविताएं। उन्होंने कभी नहीं कहा कि तुम मजा करो अपनी धूल में, हम तो अपने राजमहल में ही ठीक! तुम कर लो मजा, धूल में रखा क्या है, सब मिथ्या है, हम तो अपने राजमहल में ही ठीक! तुम कर लो मजा अपनी फकीरी में, सब मिथ्या है, हम तो अपने सिंहासन पर ही ठीक! ऐसा किसी राजा ने कभी नहीं कहा। लेकिन मुनि सदा से कहते रहे हैं। लगता है मुनि के मन में कहीं छिपी ईर्ष्या है। मुनि के मन में कहीं छिपी लिप्सा है, वासना है। दिखता तो उसे भी है कि सोने का महल रहने योग्य है, मजा तो वहां है, लेकिन अब अपने को झुठला रहा है, अपने को समझा रहा है, लीपा-पोती कर रहा है, कह रहा है कि क्या रखा है वहां। यह कविता किसी और को समझाने के लिए नहीं है, यह कविता अपने को ही समझाने के लिए है कि वहां कुछ नहीं है, सब मिट्टी है, सब पानी के बबूले हैं। अगर पानी के ही बबूले हैं तो इतना भी श्रम क्या करते हो? यह कविता भी किसलिए लिखी? पानी के बबूलों के निवेदन में यह कविता लिखी जाती है? जरूरत क्या है? बात खतम हो गई।
कहते हैं संसार माया है। और अगर संसार को माया, मिथ्या कहने वाले व्यक्ति को अगर कोई स्त्री छू ले, तो वह एकदम घबड़ा जाता है! यह घबड़ाहट क्या? जो है ही नहीं, उसके छूने से इतने क्या घबड़ा गए? इतनी क्या परेशानी हो गई?
मैं एक सभा में निमंत्रित था, वहां एक जैन मुनि भी निमंत्रित थे। वे आकर द्वार पर ठिठक कर खड़े हो गए। बिछी हुई दरी हटानी पड़ी। मैंने पूछा, मामला क्या है?
उन्होंने कहा कि वे दरी पर नहीं चल सकते, क्योंकि दरी पर स्त्रियां बैठी हुई हैं।
दरी पर स्त्रियां बैठी हुई हैं, दरी तक स्त्री हो गई! अब वे दरी पर कैसे चलें? दरी में तक खतरा है। और मैं जानता हूं कि खतरा हो सकता है। दबाया होगा स्त्री के प्रति मन को बहुत, तो अब वह दरी से भी रस ले सकता है।
तुम्हारे दमन से भरे अनेक शास्त्र कहते हैं--जिस जगह स्त्री बैठी हो, कितनी देर तक उस जगह फिर मुनि को नहीं बैठना चाहिए। क्योंकि काफी देर तक स्त्री की तरंगें उस जगह को घेरे रहती हैं। स्त्री झूठ है, झूठ जा चुका, झूठ की तरंगें अभी बैठी हैं! उस जगह पर बैठना मत। ये कौन लोग हैं? ये रुग्ण-चित्त की दशाएं मालूम होती हैं, इन्हें चिकित्सा की आवश्यकता है। ये विक्षिप्त लोग मालूम होते हैं।
भक्ति ज्यादा स्वस्थ है।
शांडिल्य कहते हैं: मिथ्या मत कहो, क्योंकि है तो। लेकिन माया कहा जा सकता है। माया का अर्थ कि जब तक तुम नशे में हो तब तक मालूम होता है सच, जब तुम्हारा नशा टूटता है तब मालूम होता है झूठ। असली सवाल नशा तोड़ने का है। एक झूठ से दूसरे झूठ को तोड़ने से क्या होगा?
मैंने सुना है, एक आदमी सिर पर एक टोकरी लिए चला आता था। उस टोकरी में छेद थे कई। साथ चलते हुए एक राहगीर को जिज्ञासा उठी, उसने कहा, इस टोकरी में आप क्या लिए हैं? इसमें बड़े छेद हैं! उसने कहा, इसमें मैं नेवला ला रहा हूं। नेवला! छेद किसलिए किए हैं? तो उसने कहा, छेद इसलिए किए हैं कि वह श्वास ले सके। नेवला किसलिए ला रहे हो? उस आदमी ने पूछा, नेवले की क्या जरूरत? नेवले का क्या उपयोग? उसने कहा, बात यह है कि मुझे जरा शराब पीने की आदत है। और जब मैं ज्यादा पी लेता हूं तो मुझे सांप दिखाई पड़ते हैं। उन सांपों के लिए नेवला ला रहा हूं, क्योंकि कहते हैं नेवला सांपों को खा जाता है या टुकड़े-टुकड़े कर देता है। उस आदमी ने कहा, मेरे भाई, लेकिन अभी तो तुम होश में हो। वे जो सांप तुम्हें जब तुम शराब पीते हो दिखाई पड़ते हैं, सच्चे नहीं होते। तो उसने कहा, यह नेवला ही कौन सच्चा है? खाली डिब्बा है! मगर अपने को भरमाने के लिए। इसको रखेंगे पास, जब नकली सांप हमला करेंगे, नकली नेवला छोड़ देंगे।
संसार मिथ्या है। फिर ये योग, जप-तप, ये सब झूठे नेवले हैं। अगर संसार है ही नहीं, तो ये विधि-विधान संसार से छूटने के, इनका क्या अर्थ है? बीमारी ही नहीं है, तो यह औषधि किसलिए ढो रहे हो? मगर बीमारी झूठ है, और तुम जानते हो औषधि भी झूठ है।
शांडिल्य ज्यादा ठीक बात कहते हैं। वे कहते हैं, बीमारी झूठ है, ऐसा मत कहो; बीमारी है तो। मिथ्या है। जब तक चढ़ी है सिर पर, तब तक है। जब तक होश नहीं है, तब तक है। जब तक ध्यान नहीं है, तब तक है। जब तक जागरण नहीं घटा है, तब तक है। और जब जागरण घटेगा, तब तुम पाओगे कि लहर असत्य नहीं थी। लहर को ही देखा था, इसलिए भूल हो गई थी। लहर के पीछे छिपा सागर है। नाम के पीछे छिपा अनाम है। रूप के पीछे छिपा अरूप है। दृश्य के पीछे छिपा अदृश्य है। भूल हमारी थी कि हम ऊपर ही ऊपर रुक गए, सतह पर रुक गए और गहरे में न गए।
यह जो भी दिखाई पड़ता है, उसी परमात्मा की ऊर्जा है; इसलिए मिथ्या नहीं हो सकता। इस जगत में मिथ्या कुछ भी नहीं है। माया है। माया का अर्थ झूठ नहीं होता, माया का अर्थ होता है--सपना। जब तक नींद है, तब तक सच है। इस दृष्टि से देखने पर संसार से भागने की कोई जरूरत नहीं रह जाती; जागने की जरूरत रह जाती है, भागने की जरूरत नहीं रह जाती। भगोड़े मत बनना। जगोड़े बनो। जागो।
तत्परिशुद्धिश्च गम्यालोकवल्लिंगेभ्यः।
‘उसकी भक्ति की शुद्धता मनुष्यों के चिह्न से अनुभव होगी।’
और कैसे जानोगे कि कोई जाग गया? कैसे पहचानोगे कि किसी में भक्ति का उदय हुआ? कैसे जानोगे कि किसी की चेतना शुद्ध हुई? कैसे जानोगे कि कोई प्रभु से जुड़ा? तो तुम्हारे लिए कुछ लक्षण देते हैं--भक्त को कैसे पहचानोगे? और तुम्हारे भीतर भक्ति उमग रही है, इसको कैसे पहचानोगे? तुम्हारे भीतर वस्तुतः यात्रा शुरू हो गई परमात्मा की तरफ, इसकी पहचान क्या होगी? कसौटी क्या होगी?
भक्ति की परिशुद्धि का ज्ञान लौकिक प्रीति की भांति ही होता है। प्रीति तो प्रीति है, लौकिक हो कि अलौकिक हो, उसके लक्षण तो एक जैसे हैं। गहराई बढ़ जाती है। कोई अपनी पत्नी के लिए रो रहा है। निश्चित ही रोना है, मगर आंसू बहुत गहरे नहीं हो सकते। आंसुओं में पैसिफिक सागर की गहराई नहीं हो सकती। आंसू ऐसे ही होंगे जैसे वर्षा में डबरे बन जाते हैं सड़क के किनारे। कोई परमात्मा के लिए रो रहा है। उसके आंसुओं में पैसिफिक सागर की गहराई होगी, अनंत गहराई होगी। आंसुओं में उतनी ही गहराई होती है, जितनी प्रीति की गहराई होती है। प्रीति की गहराई साधारण लोगों में तुम कितनी कर सकते हो? साधारण लोगों में ही गहराई नहीं है। अब तुम एक बहुत बड़ा जहाज ले आओ और वर्षा में बन गए डबरे में चलाओ, तो चले कहां? जहाज के लिए सागर चाहिए। जितना बड़ा सागर हो उतना बड़ा जहाज चल सकता है। डबरे में तो कागज की नाव ही चल सकती है। डबरे में असली नाव नहीं चल सकती; खिलौनों की नाव, प्लास्टिक की नाव चल सकती है। नाव नाममात्र को होगी, उसमें तुम बैठ नहीं सकते।
साधारण जीवन में जो प्रीति देखी जाती है, वह डबरों की प्रीति है। मगर लक्षण तो वही हैं। डबरे में भी पानी तो वही है जो सागर में है। और डबरे के पानी का भी विश्लेषण करो तो एक बूंद के विश्लेषण में भी वही एच टू ओ, वही उदजन और आक्सीजन मिल जाएगी जो सारे सागरों में भरी पड़ी है। उस अर्थ में भेद नहीं है। और इसीलिए भक्ति में एक अपूर्व विज्ञान है कि वह लोक को अलोक से जोड़ती है। ज्ञान लोक को अलोक से तोड़ता है, वह दुश्मनी पैदा करवाता है। वह कहता है, यह संसार परमात्मा के विपरीत है। भक्ति कहती है, यह संसार परमात्मा का है, विपरीत कैसे हो सकता है? उथला है जरूर, मगर इस उथले में तैरना सीख लो ताकि गहरे में जा सको। गहरे में कोई सीधा नहीं जा सकता, उथले में तैरना सीखना होता है। यह संसार उथला परमात्मा है, इसमें तैरना सीख लो।
कभी तैरना सीखने गए हो? तो जब तैरना सिखाने कोई बैठता है तुम्हें, तो पहले उथले में सिखाएगा, नदी के किनारे-किनारे, गले-गले तक ले जाएगा। एक बार तैरना सीख लिया तो फिर तुम कितनी ही गहराइयों में जाओ, फिर कोई भेद नहीं पड़ता, फिर कुछ अंतर नहीं पड़ता, उथला पानी हो कि गहरा, सब बराबर है, तैरने वाले को सब बराबर है। लेकिन गैर-तैरने वाले को सब बराबर नहीं है, गहरे में जान संकट में आ जाएगी। उथले में तुम अपने को सम्हाल रख सकते हो।
संसार उथला परमात्मा है। छोटे-छोटे डबरों में भरा परमात्मा है। छोटी-छोटी देहों में भरा परमात्मा है। यहां तैरना सीख लो। यहां प्रेम करना सीख लो। यहां प्रेम की कला से अभिज्ञ हो जाओ। फिर दूर तक यात्रा हो सकती है। फिर तुम डुबकी मार सकते हो। लक्षण वही हैं।
शांडिल्य कहते हैं: भक्ति की परिशुद्धि का ज्ञान लौकिक प्रीति की भांति बाह्य चिह्नों से ही होता है। जैसे लोक में प्रीतम की चर्चा से प्रिया के पुलक अश्रुपात होते हैं, या गदगद भाव पैदा होता है, या चेहरे पर एक आभा छा जाती है।
तुमने देखा, किसी से उसके प्रेमी की बात करो, उसकी आंखों में रौनक आ जाती है। जो आंखें अभी-अभी मंदिम-मंदिम मालूम होती थीं, फीकी-फीकी मालूम पड़ती थीं, जिन पर धूल जमी थी, अचानक आंखों में एक तेज आ जाता है। किसी से किसी के प्रेमी की बात करो, उसका चेहरा जो फीका-फीका, बुझा-बुझा था, उस पर कोई ज्योति जल उठती है। उसका जीवन जो उदास-उदास और हारा-हारा था, जरा उससे प्रेमी की बात करो, स्फूर्ति का जन्म हो जाता है। जैसे किसी ने प्राणदायक औषधि दे दी। सिर्फ स्मरण पर्याप्त होता है। अभी जो घसिट-घसिट कर चल रहा था, वह नाचने को तत्पर हो जाता है। किसी से किसी के प्रेमी की बात करो, उसकी आंखों से आंसुओं की धार लग जाती है। आंसू गीत हैं, आंसू संगीत हैं; आंसू हृदय का भाव हैं।
शांडिल्य कहते हैं: जैसे लोक में प्रीति के लक्षण होते हैं, ऐसे ही लक्षण भक्ति के भी होते हैं। भगवत-कथा सुन कर, कि श्रवण सुन कर, कि नाम संकीर्तन सुन कर, कि कहीं चार भक्त बैठे हों मस्ती में प्रभु की महिमा का बखान करते हों, गदगद भाव का जन्म होता है, आंख से आंसू बहने लगते हैं। रोमांच हो आता है। व्यक्ति इस जगत का हिस्सा नहीं रह जाता, किसी और लोक में प्रवेश कर जाता है। इस अपूर्व अवसर का नाम सत्संग है। जहां बैठ कर तुम गदगद हो जाओ, जहां बैठ कर तुम्हारी आंखें आंसुओं से भर जाएं, जहां बैठ कर तुम्हारे हृदय में नई पुलक, नई उमंग उठे, जहां बैठ कर तुम्हें प्रभु का स्मरण आने लगे, जहां बैठ कर तुम्हें याद आए कि अरे, मैं अपने जीवन के साथ क्या करता रहा हूं? कूड़ा-कर्कट ही बीनने में बिता दूंगा सब? और हीरे-जवाहरातों की खदान पास ही है। और मैं डबरों में ही तैरता रहूंगा? और सागर इतने निकट है। विराट इतने पास है।
उफक के दरीचों से किरणों ने झांका
फजा तन गई, रास्ते मुस्कुराए
सिमटने लगी नर्म कुहरे की चादर
जवां शाखसारों ने घूंघट उठाए
परिंदों की आवाज से खेत चौंके
पुर-असरार लय में रहट गुनगुनाए
हसीं शबनम-आलूद पगडंडियों से
लिपटने लगे सब्ज पेड़ों के साए
वो दूर एक टीले पे आंचल सा झलका
तसव्वुर में लाखों दीये झिलमिलाए
तुम अगर अपने प्रेमी की राह देख रहे हो, तुम अगर अपनी प्रेयसी की प्रतीक्षा कर रहे हो, जरा दूर एक आंचल सा झिलमिला जाए, लाख दीये जल जाते हैं हृदय में। जरा किसी की पगध्वनि सुनाई पड़ जाए, सरगम छिड़ जाता है हृदय में। जरा कोई हवा का धक्का ही सही द्वार पर चोट कर जाए, तुम भागे, शायद जिसकी प्रतीक्षा थी वह आ गया। देखते हो उस क्षण तुम्हारे भीतर क्या घटता है? उसको ही अनंतगुना कर लो, तो तुम्हें भक्त के लक्षण का पता चलेगा।
उसकी भक्ति की शुद्धता मनुष्यों के चिह्न से अनुभव होगी।
और ये चिह्न, खयाल रखना, दूसरों की कसौटी और परीक्षा के लिए नहीं शांडिल्य ने दिए हैं। शांडिल्य पर बहुत सी टीकाएं लिखी गई हैं और बहुत से अनुवाद किए गए हैं, लेकिन सभी टीकाओं में और सभी अनुवादों में एक बात मुझे दिखाई पड़ी कि उन सबने यह मान लिया है कि शांडिल्य ये लक्षण दूसरों की पहचान के लिए दे रहे हैं--कि कैसे भक्तों को पहचानोगे?
शांडिल्य ये लक्षण दूसरों की पहचान के लिए नहीं दे रहे हैं। दूसरों से क्या लेन-देन है? ये तुम्हारे भीतर पहचानने के लिए लक्षण हैं। ये तुम्हारी अंतर्यात्रा के लिए सुगम उपाय हैं।
और फिर दूसरा तो धोखा भी दे सकता है। आखिर फिल्म-अभिनेता को तुम देखते ही हो न, उसे कोई प्रेम नहीं है और प्रेम प्रकट कर रहा है। और कभी-कभी तो ऐसा होता है कि प्रेमी भी उतना प्रेम प्रकट नहीं कर सकते जैसा अभिनेता करता है। और अभिनेता जानते हैं कि जब आंसू नहीं भी आ रहे हैं तब भी कैसे बुला लिए जाएं--और आंसू टपकने लगते हैं, बड़ी-बड़ी बूंदें प्रकट होती हैं। जब नहीं हंसना है तब अभिनेता हंसता है, जब नहीं रोना है तब रोता है। जहां प्रेम नहीं है वहां प्रेम प्रकट करता है। जहां क्रोध नहीं है वहां क्रोध की लपट आती है। अभिनय का अर्थ ही यही है कि जो वस्तुतः नहीं हो रहा है वह ऐसा मालूम पड़े कि वस्तुतः हो रहा है।
तो तुम खयाल रखना, ये लक्षण दूसरों के लिए नहीं हैं। दूसरे तो हो सकता है अभिनेता हों। और ऐसा अक्सर है। तुम लोगों को बैठे देखोगे रामकथा सुनते और डोलते, उनमें से सौ में निन्यानबे अभिनेता हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि डोलना चाहिए, इसलिए डोल रहे हैं। क्योंकि डोलने से दूसरे समझेंगे कि वे धार्मिक हैं। रोना चाहिए, इसलिए रो रहे हैं। चाहिए के कारण। घटना घट नहीं रही है, वस्तुतः नहीं घट रही है। सब ऊपर-ऊपर हो रहा है। सब औपचारिक है। तुम भी तो मुस्कुराते हो जब नहीं मुस्कुराना। तुम भी तो हंसते हो जब हंसी नहीं आती। भीतर कुछ और है, बाहर कुछ और।
नहीं, तुम्हें दूसरे की पहचान के लिए सूत्र नहीं देंगे शांडिल्य। असल में धार्मिक व्यक्ति दूसरे की पहचान करने की झंझट में पड़ता ही नहीं। जरूरत क्या है? लेना-देना क्या है? कौन भक्त है, कौन नहीं है, इसकी तुम्हें क्या चिंता है? तुम्हें एक ही चिंता होनी चाहिए कि मेरे जीवन में अभी वह परम घटना शुरू हुई या नहीं? मेरे भीतर भक्ति का आविर्भाव हुआ या नहीं? तुम्हारे भीतर हृदय गदगद होता है या नहीं? तुम्हारे भीतर हृदय में एक सरसरी दौड़ जाती है या नहीं? तुम्हारे भीतर धड़कनें कुछ तेज हो जाती हैं या नहीं? तुम्हारे शरीर में रोमांच होता है या नहीं? उस पर ध्यान रखना।
वे लक्षण होंगे कि प्रीति की पहली-पहल घटना घटनी शुरू हुई, अंकुरण हुआ प्रीति का। आषाढ़ के पहले मेघ घिरे। जल्दी ही खूब बरसा होगी। और जब प्रीति के लक्षण तुम्हें पकड़ में आ जाएं अपने भीतर तो डरना मत। क्योंकि वे प्रीति के लक्षण दूसरों को तो समझ में आएंगे कि तुम शायद पागल हो गए हो। यह भी क्या बात हुई!
रामकृष्ण के साथ ऐसा रोज हो जाता था। उनको कहीं ले जाना मुश्किल होता था। क्योंकि किसी ने रास्ते में जयरामजी कर ली, वे वहीं भाव-विह्वल हो जाते। जिसने की थी उसने तो सिर्फ औपचारिक जयरामजी की थी, नमस्कार की बात थी, उसमें रामजी से तो कुछ लेना भी नहीं था उसे। लेकिन रामकृष्ण को तो राम का नाम ही सुना कि बेखुदी आ जाती, मस्ती आ जाती। राम का नाम क्या था शराब था! वे वहीं खड़े हो जाते चौरस्ते पर, आंखें आकाश की तरफ उठ जातीं, शरीर जड़ हो जाता, या गिर जाते रास्ते पर, आंख से आंसू बहने लगते, शरीर में रोमांच हो जाता, भीड़ इकट्ठी हो जाती। उन्हें कहीं ले जाना मुश्किल था! निश्चित ही लोग पागल समझते थे। निश्चित ही चिकित्सक मानते थे कि यह कुछ हिस्टीरिया जैसी चीज है, कुछ मिरगी जैसी बीमारी है।
मगर मैं तुमसे कहता हूं: चाहे चिकित्सक सही ही क्यों न हों, रामकृष्ण पागल ही रहे हों और उन्हें मिरगी की बीमारी के दौरे ही पड़ते रहे हों, तो भी मैं तुमसे कहूंगा, चिकित्सकों से और उनके स्वास्थ्य से रामकृष्ण का पागलपन बेहतर है। क्योंकि रामकृष्ण परम आनंद में जीए।
तुम जब अपने भीतर भक्ति के इन लक्षणों को देखोगे तो रोकना मत। तुम्हारा मन यही कहेगा: रोक लो! लोग क्या कहेंगे, लोग क्या समझेंगे! लोग पागल मानेंगे, सम्हाल लो अपने को! ये लक्षण शांडिल्य इसीलिए गिना रहे हैं ताकि जब ये घटें तो तुम सम्हालना मत, होने देना, प्रकट होने देना। इनमें दूर जाना है, इनमें डूब जाना है। इन्हीं के सहारे यात्रा होनी है। यही वाहन है।
और जहां बन सके, जितना बन सके, जिस प्रकार से बन सके, उतना समय भगवत-कथा में लगाना। जहां चर्चा होती हो भगवान की, वहां बैठ जाना, लाख काम छोड़ कर बैठ जाना। जहां कोई राम-भजन होता हो, जहां संकीर्तन होता हो, जहां कोई मस्ती में नाचता हो, हजार काम छोड़ देना, नाच लेना उसके साथ। न नाच सको तो कम से कम उसके पास बैठ लेना, कम से कम उसकी नाचती हुई ऊर्जा की थोड़ी वर्षा तुम पर हो जाए, थोड़े छींटे तुम पर पड़ जाएं, थोड़ी संभावना तुम्हारे भीतर भी प्रकट होने लगे, एकाध बीज शायद तुम्हारे हृदय में चला जाए; कौन जाने कब, किस शुभ क्षण में, किस मुहूर्त में, तुम्हारा भाव-द्वार खुला हो और प्रभु-स्मरण पकड़ जाए! पकड़ जाए तो यात्रा शुरू हो जाए। जब तुम्हारे हृदय में एकाध बीज पड़ जाता है, फिर तुम्हारे बस के बाहर हो जाएगी बात। फिर तुम्हें खोज करनी ही होगी, फिर तुम्हें तलाश पर जाना ही होगा।
ये बाह्य लक्षण हैं, आंतरिक लक्षण भी पैदा होंगे।
सम्मान बहुमान प्रीति विरहेतर विचिकित्सा
महिमख्याति तदर्थ प्राण स्थान
तदीयता सर्व तद्भावा
प्रातिकूल्यादीनिच स्मरणेभ्यो बाहुल्यात्।
‘सम्मान, बहुमान, प्रीति, विरह, इतर विचिकित्सा, महिमा कीर्तन, प्रीतम के अर्थ जीना, तदीयता, तद्भाव, अप्रातिकूल्य इत्यादि प्रेम के आंतरिक लक्षण प्रकट होंगे।’
‘सम्मान।’
जो व्यक्ति जरा सी भी प्रभु की खोज से भर जाएगा, इस जगत के प्रति, इस अस्तित्व के प्रति उसमें महा सम्मान पैदा होगा। छोटी-छोटी बातों के प्रति सम्मान पैदा होगा--फूलों के प्रति, चांद-तारों के प्रति, सूरज के प्रति, नदी-पहाड़ों के प्रति। क्योंकि यह सब उसी विराट की लीला है। इन सबमें वही अनेक-अनेक रूपों में आया है। तब तुम वृक्ष को ऐसा नहीं देखोगे कि सिर्फ वृक्ष, तब वृक्ष में तुम उसी की महिमा देखोगे--वही हरा होकर प्रकट हुआ, वही लाल होकर फूल बना है। तब तारों में तुम इतना ही नहीं देखोगे कि सिर्फ तारे हैं--जैसा वैज्ञानिक देखता है--तब तुम्हें तारों में उसी की रोशनी, उसी का रूप, उसी का सौंदर्य झलकता हुआ दिखाई पड़ेगा। सम्मान पैदा होगा। रेवरेंस।
पश्चिम के बड़े विचारक श्वीत्जर ने रेवरेंस फॉर लाइफ, जीवन के प्रति सम्मान को धार्मिक व्यक्ति का आधारभूत गुण माना है। शांडिल्य उसी की चर्चा कर रहे हैं। ऐसा व्यक्ति किसी भी चीज को तोड़ नहीं सकता। जोड़ सके तो जोड़ेगा, तोड़ नहीं सकेगा। एक पत्ते को भी नहीं तोड़ सकेगा वृक्ष से; एक फूल को नहीं तोड़ सकेगा। इतना सम्मान होगा उसके भीतर। क्योंकि कुछ भी तोड़ो, परमात्मा ही तोड़ा जाता है। कुछ भी मिटाओ, परमात्मा ही मिटता है। विध्वंस उसके जीवन से समाप्त हो जाएगा। उसके जीवन में सृजनात्मकता होगी। उसके जीवन में सृष्टि के प्रति सम्मान के साथ ही साथ सृजन का आविर्भाव होगा।
दूसरा: ‘बहुमान।’
शांडिल्य तृप्त नहीं हुए सिर्फ सम्मान से। सम्मान साधारण है। बहुमान भी पैदा होगा। जितना करेगा उतना ही थोड़ा लगेगा। सब उड़ेल देगा, फिर भी लगेगा कि पूरा धन्यवाद नहीं कर पाया। इतना दिया है परमात्मा ने, इतना दिए जाता है। कैसे उऋण हो सकता हूं? बहुमान पैदा होगा। अपार कृतज्ञता का भाव पैदा होगा।
भक्त सब जगह झुका होगा। देखा न, जैसे वृक्ष जब फलों से लद जाते हैं तो झुक जाते हैं। भक्त फलवान हो गया। झुक जाएगा। सब तरफ झुका होगा। वृक्षों के चरण छू लेगा। नदियों की पूजा कर लेगा। पर्वतों की श्रद्धा करेगा। सूरज को नमस्कार करेगा। सारा जगत देवी-देवताओं में परिवर्तित हो जाएगा। यही हुआ था। जो लोग इस सत्य को नहीं जानते हैं, नहीं पहचानते हैं, उन्हें बहुत हैरानी होती है कि क्यूं इस देश में लोग सूरज को पूजते हैं? सूरज भी कोई पूजने की बात है! सूरज कोई देवता है! चांद को पूजते हैं! चांद में क्या रखा है? अब तो आदमी भी उस पर चल लिया!
उन्हें पता नहीं है कि भक्त सब तरफ भगवान को देखता है। प्रत्येक चीज दिव्य हो जाती है, देवता हो जाती है, क्योंकि प्रत्येक चीज में परमात्मा का प्रतिफलन होने लगता है। प्रत्येक चीज दर्पण हो जाती है, उसी का रूप झलकता है।
‘प्रीति।’
गहन प्रीति पैदा होगी। उस व्यक्ति के जीवन में प्रीति ही प्रीति की तरंगें होंगी। उठेगा, बैठेगा, चलेगा, सोएगा, और तुम पाओगे उसके चारों तरफ प्रीति का एक सागर लहराता। तुम उसके पास भी आ जाओगे तो उसकी प्रीति से भर जाओगे। तुम उसके पास आ जाओगे, तुम्हारी हृदय-वीणा झंकार करने लगेगी।
‘इतर विचिकित्सा।’
परमात्मा के अतिरिक्त उसे और सब चीजों में अरुचि हो जाएगी--स्वाभाविक अरुचि। विराग नहीं, अरुचि। चेष्टा नहीं होगी उसकी, लेकिन उसे और किसी चीज में रुचि नहीं रह जाएगी। कहीं लोग बैठ कर धन की बात करते हैं, तो वह बैठा रहे वहां, लेकिन उसे रुचि नहीं होगी। कहीं कोई किसी की बात करते हैं कि हत्या हो गई, वह बैठा भी रहे वहां तो उसे रुचि नहीं होगी। हां, कहीं कोई प्रभु का गुणगान करता हो तो वह एकदम सजग हो जाएगा, एकदम लपट आ जाएगी उसके जीवन में।
विरह पैदा होगा। और जितना-जितना भगवान की पहचान होगी, उतने ही विरह की भाव-दशा बनेगी। जितनी पहचान होगी, उतनी ही पाने की आकांक्षा जगेगी। जितने करीब आएगा, उतनी ही दूरी मालूम होगी। विरह का मतलब होता है: जितने करीब आएगा, उतनी ही दूरी मालूम होगी। जब पता ही नहीं था तब तो दूरी भी नहीं थी। तब तो खोजते ही नहीं थे तो दूरी कैसे होती? अब जैसे-जैसे करीब आएगा, जैसे-जैसे झलक मिलेगी, वैसे-वैसे लगेगा--कितनी दूरी है! जैसे साधारण प्रेमी में विरह होता है, वही विरह विराट होकर भक्त में प्रकट होगा।
चांद मद्धम है, आस्मां चुप है
नींद की गोद में जहां चुप है
दूर वादी में दूधिया बादल
झुक के पर्वत को प्यार करते हैं
दिल में नाकाम हसरतें लेकर
हम तेरा इंतजार करते हैं
इन बहारों के साए में आ जा
फिर मोहब्बत जवां रहे न रहे
जिंदगी तेरे नामुरादों पर
कल तक मेहरबां रहे न रहे
रोज की तरह आज भी तारे
सुबह की गर्द में न खो जाएं
आ तेरे गम में जागती आंखें
कम से कम एक रात सो जाएं
चांद मद्धम है, आस्मां चुप है
नींद की गोद में जहां चुप है
जैसे प्रेमी चौबीस घंटे हर चीज से अपनी प्रेयसी की ही स्मृति से भर जाता है--आकाश में चांद है तो उसे प्रेयसी का चेहरा दिखाई पड़ता है; बगिया में गुलाब खिला तो उसे प्रेयसी की याद आती है; कोयल ने कुहू-कुहू की कि उसकी प्रेयसी ने ही जैसे उसे पुकारा--हर चीज निमित्त बन जाती है, बहाना बन जाती है। यह तो साधारण डबरों का प्रेम। लेकिन जब तुम विराट सागर के प्रेम में पड़ोगे तब तो निश्चित ही हर चीज, निश्चित ही हर चीज विरह को जगाएगी। हर चीज उसी की याद लेकर आएगी। तीर पर तीर तुम्हारे हृदय में चुभे जाएंगे।
आज फिर चांद की पेशानी से उठता है धुआं
आज फिर महकी हुई रात में जलना होगा
आज फिर सीने में उलझी हुई वजनी सांसें
फट के बस टूट ही जाएंगी, बिखर जाएंगी
आज फिर जागते गुजरेगी तेरे ख्वाब में रात
आज फिर चांद की पेशानी से उठता है धुआं
प्रतिपल भक्त एक धधकता हुआ अंगारा हो जाता है। प्रतिपल भक्त के भीतर बस एक ही अभीप्सा है, एक ही आकांक्षा, एक ही प्यास, एक ही भूख होती है--कैसे प्रभु से मिलन हो जाए? जितनी यह भूख बढ़ती, उतना ही परमात्मा करीब आता। जिस दिन प्यास पूर्ण हो जाती, उसी दिन प्रार्थना भी पूर्ण हो जाती। प्यास ही प्रार्थना है। और प्यास की परिपूर्णता ही परमात्मा का मिलन बन जाती है। कुछ और नहीं चाहिए, कोई और विधि-विधान काम का नहीं है। तुम्हारा रोआं-रोआं उसे पुकार सके, तुम्हारा कण-कण उसकी प्यास से भर सके, एक ऐसी घड़ी आ जाए कि तुम्हारे भीतर उसकी प्यास के अतिरिक्त कुछ भी न बचे, ऐसी त्वरा हो, ऐसी तीव्रता हो, बस उसी तीव्रता में, उसी त्वरा में घटना घट जाती है। कुछ टूट जाता है। कुछ यानी तुम्हारा अहंकार। और जहां तुम्हारा अहंकार टूटा कि तुम चकित होकर पाते हो--परमात्मा सदा से मौजूद था, तुम्हारी आंखों पर अहंकार का धुंध था, वह टूट गया है। परमात्मा कभी खोया नहीं था--मिला भी नहीं है, सिर्फ बीच में तुम सो गए थे, अहंकार की नींद में खो गए थे, नींद टूट गई है, संसार का सपना विदा हो गया है। तब भी यही वृक्ष होंगे, तब भी यही लोग होंगे, सब ऐसा ही होगा, और फिर भी सब नया हो जाएगा, क्योंकि तुम नये हो गए। फिर पत्थर में वही सोया मालूम होगा। फिर तुम्हारी पत्नी में भी वही है और पति में भी वही है; और बेटे में भी वही है और पिता में भी वही है। भक्त के लिए सारा अस्तित्व मंदिर हो जाता है।
‘महिमा कीर्तन।’
भक्त को बड़ा आनंद आता है प्रभु की महिमा गाने में। क्योंकि जब भी वह उसकी महिमा का गुणगान करता है तभी अपने को भूल जाता है। उसकी महिमा का गुणगान अपने अहंकार से मुक्त होने का उपाय है।
तुमने देखा, लोग अपनी ही महिमा का गुणगान करते हैं। लोगों की बातें सुनो। जरा गौर करो, उनकी सारी बातों का निचोड़ क्या है? वे यही कह रहे हैं कि मेरे जैसा आदमी दुनिया में कोई दूसरा नहीं; सारी बातों का निचोड़ यही है। कोई कह रहा है, मैं जंगल शिकार करने गया, ऐसा शेर मारा कि किसी ने क्या मारा होगा! कोई मछली पकड़ लाया है तो उसका वजन बढ़ा-चढ़ा कर बता रहा है कि उसका वजन इतना है। कोई चुनाव जीत लिया है, कोई ताश के पत्तों में जीत लिया है। लोग सारे खेल कर रहे हैं, बात सिर्फ एक है कि मेरे जैसा कोई भी नहीं। मैं विशिष्ट हूं, मैं असाधारण हूं। सब दूसरों को छोटा करने में लगे हैं, अपने को बड़ा करने में लगे हैं। आदमी की सामान्य स्थिति क्या है? वह आत्म-स्तुति में लगा है।
भक्त भगवान की स्तुति में लगता है। उस स्तुति में ही लगते-लगते भगवान हो जाता है। अपनी स्तुति में जो लगेगा, वह भगवान से छिटकता जाएगा; और जो भगवान की स्तुति में लग जाएगा, एक दिन भगवान हो जाएगा। वह जो विशिष्ट होने की आकांक्षा थी, उसी दिन पूरी होती है जब कोई बिलकुल सामान्य हो जाता है।
‘महिमा कीर्तन, प्रीतम के अर्थ जीना।’
भक्त फिर अपने लिए नहीं जीता। इसलिए जीता है कि थोड़ी देर और परमात्मा का गुणगान कर ले, थोड़ी देर और गीत गा ले, थोड़ी देर और प्रार्थना कर ले। उसके जीवन का एक ही लक्ष्य रह जाता है।
यही तोहफा है, यही नजराना
मैं जो आवारा-नजर लाया हूं
रंग में तेरे मिलाने के लिए
कतरा-ए-खूने-जिगर लाया हूं
पहले कब आया हूं कुछ याद नहीं
लेकिन आया था कसम खाता हूं
फूल तो फूल हैं, कांटों पे तेरे
अपने ओंठों के निशां पाता हूं
फूल के बाद नये फूल खिलें
कभी खाली न हो दामन तेरा
रोशनी-रोशनी तेरी राहें
चांदनी-चांदनी आंगन तेरा
यही तोहफा है, यही नजराना
मैं जो आवारा-नजर लाया हूं
भक्त कहता है: मेरे पास और क्या है, एक भटकती हुई आंख है--आवारा-नजर।
यही तोहफा है, यही नजराना
मैं जो आवारा-नजर लाया हूं
रंग में तेरे मिलाने के लिए
कतरा-ए-खूने-जिगर लाया हूं
जिगर के खून की एक बूंद, हृदय को चढ़ाने को लाया हूं, जीवन को चढ़ाने को लाया हूं।
आदमी ने बड़ी धोखे की ईजादें कर ली हैं। तुम जाते हो, फूल तोड़ कर मंदिर में भगवान पर चढ़ा आते हो। तुम समझते हो तुमने कुछ चढ़ाया। जब तक जिगर की बूंद न चढ़ाओगे तब तक कुछ नहीं चढ़ाया। अपना फूल चढ़ाओ। तुम गए और नारियल तोड़ आते हो! यह खोपड़ी जब तक न टूटे।
लोगों ने तरकीबें खोज ली हैं--नारियल जरा खोपड़ी जैसा मालूम पड़ता है। उसमें दो आंखें भी होती हैं, दाढ़ी-मूंछ भी होती है, और उसके भीतर जो है उसको हम खोपड़ा भी कहते हैं। लोगों ने सिर चढ़ाने की जगह नारियल चढ़ाना शुरू कर दिया! लोगों ने अपने जिगर का कतरा चढ़ाने की जगह सिंदूर चढ़ाना शुरू कर दिया! वह खून का प्रतीक है सिर्फ। लोगों ने अपने जीवन का फूल चढ़ाने की जगह वृक्षों के फूल चढ़ाने शुरू कर दिए। वे तो चढ़े ही हुए हैं! वे तो वृक्षों पर ही चढ़े ही थे! उन्हें तोड़ कर तुमने कुछ बढ़ोतरी नहीं की, कुछ घटाया ही।
आदमी अपने को चढ़ाए। प्रीतम के अर्थ जीए, प्रीतम के अर्थ मरे।
‘तदीयता।’
वह ही है, मैं नहीं हूं, ऐसी भक्त की भाव-दशा होती है।
‘तद्भाव।’
वही सबमें है, सबमें वही है, ऐसी उसकी प्रतीति होती है। इन्हीं तरंगों में वह रंगता जाता अपने को, इन्हीं भावों से भरता जाता अपने को।
‘अप्रातिकूल्य।’
और भगवान के प्रतिकूल आचरण का उसमें अभाव होता है। वह कुछ भी नहीं कर सकता जो भगवान के प्रतिकूल हो, विपरीत हो। ऐसी कोई बात उससे नहीं हो सकती जो इस विराट अस्तित्व के विपरीत जाती हो। होगी भी कैसे? तदीयता पैदा हो गई--तू ही है, मैं नहीं हूं। तद्भाव पैदा हो गया--सबमें तू ही है।
कांटे का रंग
और कांटे की ताजगी
पांव से निकले हुए
खून में है
भीतर की बेचैनी और खुशी
आंख से टपकी
बूंद में है
मगर
न इसे कोई देखता है
न उसे कोई समझता है!
भक्त के पास सिर्फ भाव है चढ़ाने को। तदीयता का भाव। तद्भाव। भक्त अपने को मिटाता है और भगवान को आमंत्रित करता है। रो-रो कर भक्त अपने अहंकार को गलाता है, अपने को विदा देता है। जिस दिन अपने से खाली हो जाता है, उसी दिन से परमात्मा से भरने की संभावना शुरू हो जाती है। तुम मिटो तो परमात्मा हो। जब तक तुम हो, तब तक परमात्मा नहीं हो सकता है। ये उसके अंतर-लक्षण हैं।
द्वेषादयस्तु नैवम्।
‘द्वेष बुद्धि आदि से ऐसा नहीं होता।’
भक्त संसार के प्रति कोई द्वेष बुद्धि से नहीं जीता। जैसा तथाकथित तपस्वी जीता है। तपस्वी के मन में संसार के प्रति बड़ा द्वेष है। तपस्वी सिर के बल खड़ा हो गया संसारी है। तुम्हारे भोगी में और तुम्हारे योगी में बहुत फर्क नहीं होता। तुम्हारे योगी और भोगी की भाषा एक ही होती है। भोगी धन पकड़ता है, त्यागी धन से भागता है--मगर दोनों ही धन से आलिप्त होते हैं। भोगी कहता है: और धन हो जाए। त्यागी कहता है: मैं धन से डरता हूं, धन छूटे। मगर दोनों धन से आतंकित हैं। एक मोह से भरा है, एक भय से; मगर आतंक दोनों में है। भोगी कहता है: सुंदर स्त्री, और सुंदर स्त्री। और योगी डरा हुआ है। सुंदर क्या असुंदर स्त्री से भी डरा हुआ है। स्त्री से कहीं मिलना न हो जाए, वह भाग रहा है जंगलों की तरफ कि दूर स्त्री से निकल जाए। भोगी तलाश करता जाता है कि चलो पेरिस चलें। योगी भागता है हिमालय की गुफाओं में। मगर दोनों स्त्री से आतंकित हैं। दोनों में कुछ भेद नहीं है, भाषा एक ही है। एक-दूसरे की तरफ पीठ किए खड़े हैं, लेकिन भाषा में कुछ भेद नहीं है। दोनों का तर्क एक है।
भक्त का तर्क भिन्न है। भक्त कहता है: संसार से द्वेष करके तुम परमात्मा से प्रेम न कर सकोगे। प्रेमी द्वेष करना जानता ही नहीं। संसार से भी प्रेम करता है--इतना प्रेम करता है, इतना गहरा प्रेम करता है कि संसार के घूंघट उठ जाते हैं उस प्रेम में और संसार में ही छिपे हुए परमात्मा की झलक मिलनी शुरू हो जाती है।
द्वेषादयस्तु नैवम्।
‘द्वेष बुद्धि आदि से ऐसा नहीं हो सकता।’
यह जो भक्त की परम दशा है, यह प्रीति से ही हो सकती है, निरंतर प्रीति से, गहरी होती प्रीति से हो सकती है। इसे द्वेष से लाने का उपाय बुनियादी रूप से गलत है। संसार और परमात्मा में विरोध नहीं है, तुम्हारे महात्माओं ने तुमसे कुछ भी कहा हो! तुम्हारे महात्मा गलत होंगे। संसार और परमात्मा में विरोध नहीं है। संसार परमात्मा का है, विरोध हो नहीं सकता। यहां हर चीज पर उसी का हस्ताक्षर है, उसी का चिह्न है, विरोध हो नहीं सकता। अगर तुम्हें विरोध दिखता है, तो तुम्हारी कहीं भ्रांति है। तुमने विरोध खड़ा कर लिया है। खोजो, टटोलो, और तुम उसे यहीं पाओगे छिपा हुआ। हर पत्थर को तोड़ो और तुम उसी को छिपा पाओगे धड़कते। हर पत्ते में तुम उसे हरा पाओगे। हर झरने में तुम उसे कलकल करता हुआ पाओगे। हर दीये में वही रोशन है और हर दिल में वही धड़कन है और हर श्वास में वही श्वास है।
द्वेष से नहीं, प्रेम से भरो। और यही भक्ति की निर्मलता है; और भक्ति की सरलता, सहजता, स्वाभाविकता है। भक्ति तुम्हें अस्वाभाविक होने को नहीं कहती। भक्ति कहती है: तुम्हें प्रेम तो मिला ही है, जन्म से ही लेकर आए हो, इसी प्रेम की सीढ़ी बना लो।
त्यागी उलटे कामों में लग जाता है, जो उसे जन्म से नहीं मिला है। कोई बच्चा जन्म से त्याग लेकर नहीं आता। त्याग सीखी भाषा है। लेकिन हर बच्चा प्रेम लेकर आता है। प्रेम सीखी भाषा नहीं है, निसर्ग की भाषा है। त्याग आदमी की ईजाद है, प्रेम परमात्मा का निर्माण है। परमात्मा पर भरोसा करो।
तुमने देखा, छोटा बच्चा पैदा हुआ और प्रेम से गदगद रहता है। अभी सीखने का तो मौका ही नहीं मिला। छोटे बच्चे की आंखों में झांका? कैसी सरल प्रीति! अभी किसी ने कुछ सिखाया भी नहीं। सच तो यह है, जैसे ही लोग सिखाएंगे वैसे ही प्रीति कम होती चली जाएगी। वैसे ही चालबाजियां बढ़ेंगी, द्वेष बढ़ेगा, बेईमानियां बढ़ेंगी; वैसे ही बच्चा राजनीति सीखेगा, कूटनीति सीखेगा, धोखाधड़ी सीखेगा; ढोंग सीखेगा, पाखंड सीखेगा; जवान होते-होते प्रीति के तो प्राण निकल जाएंगे, गर्दन घुट जाएगी; बूढ़ा होते-होते तो सब रेगिस्तान हो जाएगा, प्रीति का झरना खोजे से न मिलेगा कहां खो गया। लेकिन हर बच्चा प्रेम की बड़ी शुद्ध क्षमता लेकर आता है।
भक्ति कहती है: इसी शुद्ध क्षमता को निखारो, परिशुद्ध करो, फैलाओ, बड़ा करो। इसी के सहारे तुम परमात्मा तक पहुंच जाओगे। परमात्मा ने तुम्हें इस जगत में भेजा तो जरूर तुम्हारे भीतर कुछ रख दिया है पाथेय, कलेवा, जिससे रास्ता कट जाएगा। और कोई दीया तुम्हारे भीतर रख दिया है कि जब तुम्हें जरूरत होगी तो तुम जला लोगे और वापस घर लौट आओगे। कोई नक्शा तुम्हारे भीतर छोड़ दिया है कि कहीं तुम भटक ही न जाओ। कुछ सूत्र तुम्हारे भीतर रखा है कि जिस दिन भी तुम होश से अपने को समझोगे, तुम्हें धागा मिल जाएगा। उस धागे को पकड़ कर तुम यात्रा कर लोगे।
प्रेम तुम्हारे भीतर सूत्र है। प्रेम सूत्रों का सूत्र है। प्रेम स्वर्ण-सूत्र है। भक्त उसी पर भरोसा करता है, उसी को निखारता है--स्नेह से प्रीति बनाता है, प्रीति से श्रद्धा बनाता है, श्रद्धा को भक्ति में रूपांतरित करता है। एक-एक सोपान चढ़ते-चढ़ते एक दिन तुम पाते हो कि तुम्हारा प्रेम अपने पूरे आकाश को पा लिया, पूरा खिल गया।
इस प्रेम की पूरी खिलावट में, इस प्रेम के पूरे कमल के खिल जाने में उपलब्धि है--उसकी जिसे वस्तुतः कभी खोया नहीं, लेकिन हम किसी सपने में खो गए हैं, और जो है वह दिखाई नहीं पड़ रहा है, और जो नहीं है वह दिखाई पड़ने लगा है।
संसार माया है, उस परमात्मा की ही लीला, उसकी ही ऊर्जा। और संसार तुम्हारे लिए एक शिक्षण का अवसर है। सीखो। संसार प्रेम को निखारने की प्रक्रिया है। इसलिए तुम्हें प्रेम इतने जोर से पकड़ता है। प्रेम से बड़ी कोई शक्ति है इस जगत में? आदमी प्रेम के लिए जीवन भी दे देता है। कभी-कभी झूठे और सिखाए प्रेम के लिए भी जीवन दे देता है। जैसे मातृभूमि के प्रेम में कोई मर जाता है। वह सिखाया हुआ है और झूठा है। वह राजनैतिक चालबाजी है। नहीं तो कौन सा देश किसका है? सारी पृथ्वी सबकी है। लेकिन उसमें भी आदमी मर जाता है। कभी कुल के प्रेम में, परिवार के प्रेम में जान दे देता है। वह बड़ा क्षुद्र है, दो कौड़ी का है, लेकिन प्रेम ही इतना बहुमूल्य है कि कृत्रिम प्रेम भी कभी-कभी जीवन देने योग्य मालूम पड़ता है। तो असली प्रेम की तो बात ही हम क्या कहें! जिस दिन असली प्रेम पैदा होगा, उस दिन तुम चुपचाप अपनी जीवन-ऊर्जा को परमात्मा के चरणों में रख दोगे, तुम कहोगे--सब समर्पित है। उस समर्पण में ही क्रांति घट जाती है।
शांडिल्य को खूब हृदयपूर्वक समझना। शांडिल्य बड़ा स्वाभाविक सहज-योग प्रस्तावित कर रहे हैं। जो सहज है, वही सत्य है। जो असहज हो, उससे सावधान रहना। असहज में उलझे, तो जटिलताएं पैदा कर लोगे। सहज से चले, तो बिना अड़चन के पहुंच जाओगे।
आज इतना ही।
युक्तौ च सम्परायात्।। 41।।
शक्तित्वान्नानृतं वेद्यम्।। 42।।
तत्परिशुद्धिश्च गम्यालोकवल्लिंगेभ्यः।। 43।।
सम्मान बहुमान प्रीति विरहेतर विचिकित्सा
महिमख्याति तदर्थ प्राण स्थान तदीयता सर्व तद्भावा
प्रातिकूल्यादीनिच स्मरणेभ्यो बाहुल्यात्।। 44।।
द्वेषादयस्तु नैवम्।। 45।।
पूर्व सूत्र--
चैत्याचितोर्नत्रितीयम्।
‘चैत्य और चित्त, ज्ञेय और ज्ञान, दृश्य और द्रष्टा से भिन्न कोई तीसरा पदार्थ जगत में नहीं है।’
जगत को दो में बांटा जा सकता है--जानने वाले में और जो जाना जाता है; मैं और तू में। यह अंतिम विभाजन है। इसके भी भीतर गए तो विभाजन समाप्त हो जाते हैं, भेद गिर जाते हैं। यहां तक भेद की सीमा है, यहां तक भेद का लोक है। फिर द्रष्टा में और गहरे गए, या दृश्य में गहरे गए तो दोनों के भीतर एक का ही आविर्भाव होता है।
ज्ञान यहीं तक जाता है, भक्ति इससे आगे जाती है। ज्ञान यहां रुक जाता है--ज्ञाता और ज्ञेय के भेद पर। इसलिए ज्ञान वस्तुतः अद्वैतवादी नहीं होता। हो नहीं सकता। ज्ञान तो द्वैतवादी होगा ही। अनिवार्यतः होगा। उसमें अंतर्निहित अनिवार्यता है द्वैत की।
इसलिए बड़े से बड़े ज्ञानी भी, चाहे लाख कहें कि संसार मिथ्या है, माया है, पर संसार को मानते हैं। संसार को बिना माने नहीं चलता। ज्ञान की घटना ही नहीं घटती अगर ज्ञाता और ज्ञेय का भेद न हो। ईश्वर को जानोगे कैसे, अगर जानने वाला ईश्वर से भिन्न न हो? अभिन्न हो तो जानना समाप्त हो गया। तुम वृक्ष को जानते हो, क्योंकि वृक्ष से भिन्न हो। अगर तुम वृक्ष हो गए, तो फिर वृक्ष को कैसे जानोगे? फिर जानने वाला नहीं बचा।
ज्ञानी अनंत-अनंत भेदों से उठते-उठते उस दशा में आ जाता है जहां दो बचते हैं। दो के पार ज्ञान की यात्रा नहीं है। वहां ज्ञान थक जाता है। फिर अगर ज्ञानी कहे भी कि एक है, तो वह एक उसके द्वैत पर ही आधारित होता है। फिर वह ब्रह्म और माया कहेगा द्वैत को, कोई नाम देगा, पुरुष और प्रकृति कहेगा, इससे भेद नहीं पड़ता, दो तो कायम रहते हैं।
भक्ति इससे आगे छलांग लेती है, आगे उड़ान लेती है, जहां दो वस्तुतः समाप्त हो जाते हैं। क्योंकि भक्ति का आग्रह जानने में नहीं है, होने में है। भक्ति के आग्रह को ठीक से समझ लो।
भक्ति की बुनियादी धारणा है कि बिना एक हुए कोई उपाय जानने का भी नहीं है। ज्ञान की धारणा है--दो हों तो ही जाना जा सकता है। भक्ति की धारणा है--एक सधे तो ही ज्ञान है। उसे भक्ति ज्ञान भी नहीं कहती इसीलिए, क्योंकि ज्ञान में दो की भाषा आ जाती है; उसे प्रेम कहती है।
एक जानना है बाहर-बाहर से और एक जानना है भीतर से। प्रेमी भी एक-दूसरे को जानते हैं, लेकिन वह जानना वैज्ञानिक के जानने से भिन्न है। तुम एक डाक्टर के पास गए, तुम्हारे सिर में दर्द है, तुमने अपने सिरदर्द की कहानी कही। डाक्टर जानता है सिरदर्द को, सिरदर्द के संबंध में पढ़ा है, लिखा है, खुद भी कभी अनुभव किया है, दवा भी जानता है, तुम्हें सिरदर्द से छुटकारा दिलाने का उपाय भी करेगा। लेकिन उसका जानना बाहर से है। तुम्हारी प्रेयसी, या तुम्हारी मां, या तुम्हारा पति, या तुम्हारा मित्र, जब तुम उससे कहोगे कि सिरदर्द है, वह भी जानता है, यद्यपि उसने शास्त्र नहीं पढ़े हैं और सिरदर्द क्या है इसका विश्लेषण न कर सकेगा। लेकिन उसका जानना एक और आयाम का जानना है--सहानुभूति का, समानुभूति का। जब तुम्हारे प्रिय के सिर में दर्द होता है, तो तुम्हारे सिर में भी दर्द हो जाता है। जब बेटा परेशान होता है, तो मां परेशान हो जाती है। यह परेशानी बाहर-बाहर नहीं रहती, यह भीतर छू जाती है। प्रेमी एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड हो गए होते हैं।
इसलिए जब कोई प्रियपात्र मरता है तो प्रियपात्र ही नहीं मरता, तुम्हारा एक बड़ा हिस्सा मर जाता है। तुमने जिससे प्रेम किया था, वह मर गया। उस दिन तुम जानोगे कि तुम्हारा एक बड़ा हिस्सा मर गया, तुम्हारी आत्मा का एक खंड समाप्त हो गया। तुम अब उतने ही नहीं हो जितने तब थे जब तुम्हारा प्रेमी जिंदा था। अब तुम खाली-खाली हो, अधूरे-अधूरे हो। तुम्हारे भवन का एक खंड गिर गया, अब तुम खंडहर हो। जब प्रियपात्र के मर जाने पर कोई रोता है, चीखता-चिल्लाता है, तो वह सिर्फ इसलिए नहीं रो रहा है, चिल्ला रहा है कि प्रियपात्र मर गया। उसकी मृत्यु में उसकी भी मृत्यु घट गई है, वह भी अब आधा है, अपंग है, उसके भी पैर टूट गए हैं। अब वह कभी पूरा न हो सकेगा। अब यह खालीपन रहेगा और अखरेगा। जितना बड़ा प्रेम होगा, जितना गहन प्रेम होगा, उतनी ही बड़ी मृत्यु घटित होगी। और अगर प्रेम परिपूर्ण हो तो प्रियपात्र के मरते ही तुम भी मर जाओगे। एक श्वास ज्यादा न ले सकोगे।
सती की प्रथा ऐसे ही शुरू हुई थी। फिर पीछे विकृत हुई--सभी चीजें विकृत हो जाती हैं--लेकिन ऐसे ही शुरू हुई थी। कभी कोई प्रेमी मरा था और उसकी प्रेयसी फिर सांस न ले सकी थी। फिर सांस लेने में कोई अर्थ ही न रह गया था। चिता पर चढ़ने भी जाना नहीं पड़ा था--चिता पर चढ़ने लायक था ही कौन अब? प्रिय की मृत्यु में ही स्वयं की भी मृत्यु हो गई थी।
इतना तादात्म्य हो तो एक तरह का ज्ञान होगा। उसे ज्ञान कहना ठीक नहीं, क्योंकि ज्ञान से हम समझते हैं भेद, दूरी, फासला। वह ज्ञान अनूठे ढंग का ज्ञान होगा, वहां फासला न होगा, दुई न होगी, द्वैत न होगा। उसी को शांडिल्य प्रीति कहते हैं।
एक ऐसे जानने का ढंग भी है जो हार्दिक है। एक जानने का ढंग है जो बौद्धिक है। बौद्धिक ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का फर्क होता है, चैत्य और चित्त का फर्क होता है, दृश्य और द्रष्टा का फर्क होता है। हार्दिक ज्ञान में, भाविक ज्ञान में सब भेद समाप्त हो जाते हैं। शांडिल्य कहते हैं: तभी असली ज्ञान है। क्योंकि जब तक दूरी है, तब तक कैसा ज्ञान!
रामकृष्ण के जीवन में एक उल्लेख है। ऐसे बहुत संतों के जीवन में उल्लेख हैं। पर रामकृष्ण का उल्लेख ताजा है। वे गंगा पार कर रहे थे दक्षिणेश्वर में, नाव में बैठे, उनके भक्त भजन गा रहे हैं। अचानक बीच भजन में वे चिल्लाए--मुझे मारते क्यों हो? मुझे मारते क्यों हो? जो भजन गा रहे थे वे तो एकदम ठिठक कर रह गए, कौन रामकृष्ण को मार रहा है? कौन मारेगा? किसलिए? उन्होंने कहा, आप कहते क्या हैं, परमहंसदेव? कोई आपको मार नहीं रहा, आपको हुआ क्या है? और उन्होंने अपनी चादर उघाड़ी और अपनी पीठ दिखाई--और पीठ पर कोड़ों के निशान हैं और खून बह रहा है! भक्त तो किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। उन्होंने कहा, यह हमारी समझ के बाहर है, यह हुआ कैसे? रामकृष्ण ने कहा, उस तरफ देखो! बीच गंगा में नाव है, उस किनारे पर कुछ लोग मिल कर एक मल्लाह को पीट रहे हैं।
जब नाव किनारे जाकर लगी, भक्तों ने उस आदमी को जाकर देखा जिसको पीटा गया था, उसकी कमीज उघाड़ी, उसकी पीठ पर ठीक वैसे ही कोड़े के चिह्न थे जैसे रामकृष्ण के--ठीक वैसे ही। अब बात और अबूझ हो गई। उन्होंने रामकृष्ण को पूछा, यह हुआ कैसे? उन्होंने कहा, उस क्षण में तादात्म्य हो गया। उसे लोग मार रहे थे, तुम तो भजन में लीन थे, मेरी आंखें उस तरफ लगी थीं। जब वे उसे मार रहे थे तब एक क्षण को मैं उसके साथ एक हो गया।
इस स्थिति का नाम है समानुभूति। यह सहानुभूति से आगे का कदम है। लोगों में तो सहानुभूति ही नहीं है, तो समानुभूति तो कहां से होगी! सहानुभूति का अर्थ है: दया। तुम्हें पीड़ा हो रही है, मुझे दया आती है। समानुभूति का अर्थ है: तुम्हारी पीड़ा मेरी पीड़ा हो गई। उधर तुम रोते हो, इधर मैं रोता हूं।
वैज्ञानिक बहुत से प्रयोग कर रहे हैं इस संबंध में और समानुभूति पर बड़ी खोज पिछले बीस वर्षों में हुई है--विशेषकर रूस में बड़ी खोज हुई है। खास करके मां और उसके बच्चों के बीच। अभी परीक्षण पशुओं में चल रहा है। एक खरगोश को दूर पानी में ले जाकर, मील भर गहरे पानी में ले जाकर मारा गया। और उसकी मां ऊपर घाट पर खेल रही है। जब उसे मारा गया, तब खरगोश की मां को जैसे बिजली के धक्के लगे--यंत्र लगाए गए थे जो परीक्षण कर रहे थे, धक्के लगे। जैसे भीतर कोई गहरी चोट लगी। फिर इस प्रयोग को बहुत तरह से दोहराया गया। जब भी बच्चे को मारा गया, तभी मां को चोट पहुंची। हजार मील की दूरी पर भी चोट पहुंची। क्योंकि मां और बेटे का संबंध बड़ा गहरा है। बेटा मां के पेट में नौ महीने रहा है। बेटा मां के पेट में नौ महीने इस तरह रहा है कि मां होकर रहा है। इस तरह का गहरा संबंध फिर किसी का कभी नहीं होगा, क्योंकि कौन किसके पेट में नौ महीने रहेगा? तो मां और बेटे के हृदय के तार गहराई में जुड़े हैं, प्राण संयुक्त हैं।
ठीक ऐसी घटना जुड़वां बच्चों में भी घटती है। एक जुड़वां बच्चा बीमार हो भारत में और उसका भाई चीन में बीमार हो जाएगा। समानुभूति! एक ही अंडे में दोनों बड़े हुए थे, एक ही साथ धड़के थे, उनके हृदय की धड़कन एक ही लय जानती है। जो बीमारी एक को पकड़ेगी वह दूसरे को पकड़ जाएगी, हजारों मील का फासला हो तो भी पकड़ जाएगी। ये समानुभूति के लक्षण हैं, यह एक अनूठे ढंग का जानना है, जहां हृदय जुड़े होते हैं।
इस जोड़ का नाम भक्ति है। जिस दिन तुम्हारा हृदय विराट से ज़ुड जाता है, जिस दिन तुम्हारा प्रेमी और कोई नहीं, स्वयं परमात्मा होता है, जिस दिन सारे अस्तित्व के साथ तुम एकता में लयबद्ध हो जाते हो, तुम्हारी भिन्न तान नहीं रहती, तुम एकतान हो जाते हो, तुम इस विराट संगीत में एक स्वर हो जाते हो, तुम इस विराट संगीत के विपरीत नहीं बहते, तुम इस धारा के साथ एक हो जाते हो, यह धारा जहां जाती है वहीं जाते हो, तुम्हारे भीतर विपरीतता समाप्त हो जाती है, भक्ति का जन्म होता है।
आज के सूत्र की शुरुआत है--
युक्तौ च सम्परायात्।
‘वियोग के पूर्व में दोनों एक ही हैं।’
जैसे जन्म के पहले मां और बच्चा एक हैं। भेद बाद में आता है। इसलिए भेद गौण है। भेद ऊपर-ऊपर है। ऐसे ही हम इस अस्तित्व से एक हैं। जब तुम पैदा नहीं हुए थे तब तुम कहां थे? मां के गर्भ में भी नहीं आए थे, तब तुम किस गर्भ में थे? तब तुम इस विराट के गर्भ में थे। इस विराट से तुम अलग हुए, ऐसी बस मान्यता है तुम्हारी। इस विराट से अलग हो कैसे सकोगे? इस विराट के बिना जी कैसे सकोगे? इस विराट से टूट कर श्वास भी नहीं चलेगी। यह विराट ही हममें जीता है। हम अभी भी गर्भ में हैं। हमें सिर्फ भ्रांति हो गई है। मछली अभी भी सागर में है, मगर सागर को भूल गई है। ऐसे ही हम भी भूल गए हैं। नहीं तो परमात्मा ने तुम्हें सब तरफ से घेरा है। तुम्हारे खून में वही बहता है और तुम्हारे हड्डी-मांस-मज्जा में वही बैठा है; तुम्हारी श्वास में वही चलता, तुम्हारे हृदय में वही धड़कता। तुम वही हो। उसी के पुंजीभूत रूप। उसका ही एक आकार। उसकी ही एक लहर। उसकी ही एक तरंग हो तुम। उससे रंचमात्र भिन्न नहीं।
शांडिल्य का सूत्र बड़ा प्यारा है: युक्तौ च सम्परायात्।
सोचो तो जरा, जब तुम नहीं थे तब तुम कहां थे? और जब तुम फिर नहीं हो जाओगे तब तुम कहां होओगे? ऐसा समझो, सागर शांत है, हवाएं नहीं बहतीं, कोई लहर नहीं उठती। फिर आई हवा की एक लहर, आया बड़ा एक झोंका, उठी एक बड़ी लहर सागर में। सागर में लहर जब नहीं उठी थी तब कहां थी? सागर ही थी तब, अब उठी। फिर थोड़ी देर में सागर में गिर जाएगी, तब कहां होगी? सागर में ही होगी तब। ऐसा सोचो, जब नहीं उठी थी लहर तब सागर में थी। जब उठी तब भी सागर में ही है, सिर्फ एक नया रंग, एक नया रूप, एक नया आकार उठा--नाम-रूप। यह संसार बस नाम-रूप है। फिर जल्दी ही नाम-रूप गिर जाएगा, फिर लहर सागर की सागर में हो जाएगी। ऐसे उठेगी कई बार, गिरेगी कई बार। ऐसे तुम कई बार जन्मे और कई बार मरे। अभी फिर जन्मे हो, अभी फिर मरोगे। जो व्यक्ति यह पहचान ले कि जन्म के पहले भी मैं उसी में था, मृत्यु के बाद भी उसी में होऊंगा, और निश्चित ही जब आगे भी उसी में था, पीछे भी उसी में होऊंगा, तो बीच में भी उसी में ही हो सकता हूं--और कहां होऊंगा? अगर मेरा अतीत भी उसमें, मेरा भविष्य भी उसमें, तो मेरा वर्तमान भी उसमें ही होगा। जो जाग जाता है इस भाव में कि मैं परमात्मा में हूं और हम क्षण भर को भिन्न नहीं हुए, वही भक्त।
युक्तौ च सम्परायात्।
‘वियोग के पूर्व दोनों एक ही हैं।’
और ऐसी ही दशा परम विश्लेषण की है। वह जो द्रष्टा और दृश्य का भेद है, वह भी एक लहर मात्र है। नहीं तो देखने वाला और देखा जाने वाला एक ही है। वही देखता है, वही देखा जाता है। ऐसा समझो न, रात तुम सपना देखते हो, तब देखने वाला और जो दिखाई पड़ता है, उसमें कुछ भेद होता है? सपने में तुम्हीं सब होते हो। वह जो सपने की कहानी चलती है, वह जो सपने की फिल्म दोहरती है, उसमें सभी तुम होते हो--निर्देशक भी तुम, कथा-लेखक भी तुम, गायक भी तुम, नायक भी तुम, पर्दा भी तुम और दर्शक भी तुम। तुम्हीं सब होते हो। इसी गहन अनुभव के कारण, संसार को स्वप्न कहा है जानने वालों ने। स्वप्न का अर्थ यह होता है: सब एक है और फिर भी भेद मालूम पड़ता है। सुबह जागोगे जब तुम, तब कहां है सपना तुम्हारा? तब तुम्हीं में लीन हो गया। लहर उठी थी, तुम्हीं में वापस खो गई। दृश्य द्रष्टा से ही उठता है और द्रष्टा में ही लीन हो जाता है।
दोनों वियोग के पूर्व एक हैं। और संयोग के बाद फिर एक हैं। बीच में क्या भिन्न हैं? बस बीच में भिन्न भासते हैं, आभास होता है। उस आभास का नाम माया है। वे अनादि काल से दोनों एक हैं। एक ही है जो दोनों में प्रकट हो रहा है। एक ने ही अपने को विभाजित कर लिया है--खेल के लिए, लीला के लिए। शास्त्र कहते हैं: वह अकेला था। ऊब गया अकेले-अकेले। उसने अपने को विभाजित किया। फिर अपने से ही छिया-छी, फिर अपने से ही खेल शुरू किया। यही तो तुम रोज सपने में करते हो। जो तुम सपने में करते हो, वही विराट अर्थ में सारे जगत में हो रहा है। इस जगत को परमात्मा का सपना समझो। इस जगत को परमात्मा का सपना समझा, तो तुम्हारे जीवन में क्रांति हो जाएगी। फिर तुम क्षण भर को भी अपने को भिन्न नहीं मान पाओगे। और जब कोई अपने को भिन्न नहीं मानता, तो अहंकार गया, संघर्ष गया, संकल्प गया, जद्दोजहद गई; तब विश्राम है।
उस विश्राम को शांडिल्य कहते हैं भक्ति। उसी विश्राम को मैं संन्यास कहता हूं। सब तरफ से जिसने अपने को छोड़ दिया धारा के साथ।
शक्तित्वान्नानृतं वेद्यम्।
‘शक्ति ही की क्रिया है, इस कारण यह जगत मिथ्या नहीं।’
और एक बहुत अदभुत वचन। तुम रोज सुनते हो तुम्हारे तथाकथित ज्ञानियों को यह कहते हुए कि जगत मिथ्या है, झूठा है। शांडिल्य बड़ा बहुमूल्य भेद करते हैं। वे कहते हैं, जगत माया तो है, लेकिन मिथ्या नहीं। मिथ्या और माया शब्दों को समझ लेना चाहिए।
मिथ्या का अर्थ होता है: जो है ही नहीं। माया का अर्थ होता है: जो है तो नहीं, लेकिन है जैसा भासता है। इन दोनों में फर्क है। ये पर्यायवाची नहीं हैं। मिथ्या का अर्थ होता है: अनृत, असत्य। जिसका कोई अस्तित्व नहीं है। माया का अर्थ होता है: अस्तित्व है तो नहीं, लेकिन प्रतीत होता है।
जैसे, सपना। सपने को क्या कहोगे, माया कहोगे या मिथ्या कहोगे? अगर मिथ्या कहो तो सपना है ही नहीं। लेकिन यह तो तुम नहीं कह सकते कि सपना था ही नहीं। तुम्हें पूरी तरह याद है, सुबह भी याद है कि सपना था। तुमने देखा है, अपनी ही आंखों से देखा है। नहीं होता तो दिखाई कैसे पड़ता? एक बात। नहीं होता तो दिखाई नहीं पड़ता।
कई रातें ऐसी होती हैं जब सपना नहीं होता, तब तो तुम सुबह नहीं कहते कि सपना देखा, हालांकि दिखाई नहीं पड़ा, हालांकि था नहीं, मगर देखा। जब सपना नहीं होता तब रात खाली होती है। तो स्वप्नशून्य निद्रा में और स्वप्नसहित निद्रा में कुछ भेद तो है। स्वप्नशून्य निद्रा में कोई तरंग नहीं होती, स्वप्न से भरी निद्रा में तरंगें होती हैं। सुबह जाग कर पता चलता है कि वे तरंगें सत्य नहीं थीं। मगर क्या उनको बिलकुल एकांतिक रूप में असत्य कह सकोगे? सत्य तो नहीं थीं, क्योंकि सुबह हाथ में कुछ लगता नहीं--हाथ खाली के खाली। रात सोने के महल थे, बड़ा साम्राज्य था, और सुबह हाथ खाली हैं, कुछ भी हाथ में नहीं है। सच तो नहीं था सपना, लेकिन क्या तुम इतने ही जोर से कह सकोगे कि झूठ था? झूठ भी नहीं कह सकोगे। क्योंकि झूठ होता तो देखा कैसे? तो कुछ ऐसा था कि सच और झूठ के बीच में था।
ये तीन शब्द समझ लो--सत्य, जो है और सदा रहेगा। झूठ, जो नहीं है और कभी नहीं हो सकेगा। और मिथ्या, जो दोनों के मध्य में है; थोड़ा है, थोड़ा नहीं है; कभी है, कभी नहीं है; आज है, कल नहीं होगा; कल था, आज नहीं है; क्षण भर को होता है, फिर विलीन हो जाता है; तरंग है, लहर है। मिथ्या नहीं कह सकोगे इसे, इसे माया कहेंगे। जैसे जादूगर खेल दिखाता, वह माया है। है तो नहीं सच में, मगर बिलकुल झूठ भी नहीं है। अंग्रेजी का शब्द मैजिक संस्कृत के माया शब्द से ही बना है।
शांडिल्य कहते हैं: यह जगत माया है, सच, लेकिन मिथ्या नहीं है। मिथ्या क्यों नहीं है? नहीं हो सकता। क्योंकि सच्चे सागर में अगर लहर उठी है, तो लहर की भांति भला झूठ हो, लेकिन है तो सच्चे सागर का ही अंग। सत्य के सागर में झूठी लहर कैसे उठ सकती है? और अगर सत्य के सागर में झूठी लहर उठ सकती है तो सागर ही झूठ हो गया। सत्य में झूठ कैसे उठ सकता है? एक बहुत बहुमूल्य प्रश्न उन्होंने उठाया है।
शक्तित्वान्नानृतं वेद्यम्।
यह जगत उसकी ही शक्ति है। तो झूठ तो नहीं हो सकता। यह खेल उसका है--खेल सही--लेकिन झूठ नहीं है। सत्य भी नहीं है, क्योंकि क्षणभंगुर है। सत्य के साथ अर्थ होता है जो शाश्वत है और झूठ के साथ अर्थ होता है जो कभी नहीं है, और सत्य जो सदा है। मगर यह कुछ बीच की दशा है--अभी लगता है, है; अभी नहीं हो जाता है।
जवान थे और जवानी के सपने देखे थे। फिर बूढ़े हो गए, वे सपने सब फिजूल हो गए, तब हंसता है आदमी, बूढ़ा होकर हंसता है, उसे भरोसा नहीं आता कि मैं ऐसी नासमझियां कर सका। मैं ऐसी मूढ़ताएं कर सका। मैं सौंदर्य के पीछे ऐसा दीवाना होकर भाग सका। मैं स्त्री-पुरुषों में इतना तल्लीन हो सका। भरोसा नहीं आता कि यह कैसे हुआ! लेकिन कभी हुआ था। आज स्वप्न भंग हो गया है, लेकिन जब स्वप्न था तो बड़ा बलशाली था। जब स्वप्न था तो उसने खूब नचाया था। जब स्वप्न था तो बड़े झंझावात आए थे, उसने खूब दौड़ाया था, जी-जान की बाजी लगवा दी थी। तब वही सूझता था। तब लगता था--सब खो जाए मगर यह सपना पूरा हो।
जो आदमी धन के पीछे ही दौड़ता रहा, दौड़ता रहा, और एक दिन जाग कर पाता है कि सब धन पानी का बबूला है, रोता नहीं होगा? भीतर मन में पश्चात्ताप नहीं होता होगा कि मैं इतना मूढ़ था! तुम्हें नहीं हुआ है? किसी न किसी जगह तुम्हें भी हुआ होगा। किसी ने कुछ कह दिया था, दो कड़वे शब्द कह दिए थे और तुम आगबबूला हो गए थे, मरने-मारने को तैयार हो गए थे। फिर पीछे पछताए हो और सोचा कि यह भी क्या हुआ? ऐसी तो कुछ खास बात न थी! इतना क्रुद्ध हो जाने का तो कोई कारण न था! अकारण मैं विक्षिप्त हुआ। अकारण मैंने संघर्ष सिर लिया। अकारण मैंने चोट पहुंचाई। अब तुम ज़ार-ज़ार रोते हो और तुम सोचते हो: यह हुआ कैसे? मेरे बावजूद हो गया? मैं तो चाहता भी नहीं था कि यह हो। मगर जब इस तूफान ने तुम्हें पकड़ा था तब तुम्हें जरा भी होश नहीं था। काश तुम्हें उसी समय होश आ जाता, तो यह उसी वक्त झूठ हो जाता। होश पीछे आया। अगर रात सपने में तुम जाग जाओ तो उसी वक्त सपना समाप्त हो जाएगा। भरी जवानी में भी सपने टूट गए हैं। आखिर बुद्ध का टूटा, आखिर महावीर का टूटा। राजमहलों में सपने टूट गए हैं। भर्तृहरि का टूटा, सब कुछ था और अचानक सपना टूट गया है। जब कि सपना बड़ी गर्मी में था, जब कि सपना बड़ा जवानी में था, जब कि सपना पूरा होने के करीब लग रहा था, तब सपने टूट गए हैं। और टूटते ही सब व्यर्थ हो गया।
बुद्ध ने जब घर छोड़ा और जब वे अपने रथ से गांव के दूर जंगल में निकल गए और जब उन्होंने सारथी को वापस भेजा, तो सारथी ने कहा, आप यह कर क्या रहे हैं? आप जा कहां रहे हैं? इस राजमहल को छोड़ कर जाते हैं! इस सोने जैसे महल को छोड़ कर जाते हैं! दुनिया इसी के लिए तड़फती है। और अपनी उस प्यारी पत्नी की तो याद करो! और अपने नये पैदा हुए बच्चे की तो याद करो! अभी-अभी पैदा हुआ है। उसे छोड़ कर कहां जाते हो?
वह बूढ़ा सारथी बुद्ध को याद दिला रहा है कि तुम जो छोड़ कर जा रहे हो वह बड़ा प्यारा है, बड़ा बहुमूल्य है। बुद्ध हंसने लगे, उन्होंने कहा, मैं पीछे लौट कर देखता हूं, न तो मुझे कोई राजमहल दिखाई पड़ता है, न कोई पत्नी दिखाई पड़ती है, न कोई बेटा दिखाई पड़ता है; मुझे सिर्फ दिखाई पड़ती हैं लपटें और लपटें, वहां सब जल रहा है, इसलिए मैं भाग रहा हूं।
सारथी को समझ में नहीं आता, वह कहता है, कहां की लपटें? किन लपटों की बातें कर रहे हैं आप? किस सपने की बात कर रहे हैं? जागो! कहां की लपटें? सुंदर महल है, पत्नी है, पिता है, राज्य है; सब सुविधा है, जाते कहां हो? मुझे तो कोई लपटें नहीं दिखाई पड़तीं।
वह भी ठीक कह रहा है। हालांकि बूढ़ा हो गया है, लेकिन अभी उसका सपना नहीं टूटा है। बुद्ध भी ठीक कह रहे हैं। यद्यपि अभी जवान हैं, अभी सपने देखने के दिन थे, मगर सपना टूट गया है। जितनी मेधा होती है, उतनी जल्दी सपना टूट जाता है। जितनी प्रतिभा होती है, उतनी जल्दी सपना टूट जाता है। प्रतिभा की कसौटी क्या है?
पश्चिम में प्रतिभा की जो कसौटी है, वह पूरब में नहीं है। पूरब की अपनी कसौटी है। और पूरब की कसौटी बड़ी बहुमूल्य है।
पश्चिम में प्रतिभा की कसौटी है--तुम्हारा आई क्यू कितना? इंटेलिजेंस कोसिएंट कितना? परीक्षा में तुम कितने अंक पाते हो? अगर सौ के इस तरफ है तो साधारण, अगर सौ के उस तरफ है तो विशेष, अगर डेढ़ सौ के आगे गया तो बहुत विशेष, अगर दो सौ के करीब पहुंच गया तो तुम महाप्रतिभावान; और इधर पचास के नीचे गिर गया तो बुद्धू, और तीस के नीचे गिर गया तो बिलकुल जड़। बुद्धि मापी जाती है आंकड़ों में। कितने प्रश्न हल कर सकते हो?
पूरब की परीक्षा कुछ और है। पूरब कहता है: कितने जागे हो? कितने प्रश्न हल कर सकते हो, यह सवाल नहीं है। कितना जागरण? जागरण की मात्रा कितनी है? अवेयरनेस कोसिएंट, ए क्यू, कितना होश है? चीजें जैसी हैं उनको वैसा ही देख पाते हो कि अभी भी सपने का प्रक्षेपण चलता है?
बुद्ध को हम प्रतिभाशाली कहते हैं। आइंस्टीन को हम प्रतिभाशाली न कह सकेंगे। यद्यपि मरने के कुछ दिन पहले उसे थोड़ा-थोड़ा जागरण आना शुरू हुआ था, थोड़ी करवटें उसने बदलनी शुरू की थीं। आइंस्टीन बुद्धिमान तो था, मेधावी नहीं था। मेधा तो वही, जो जगत के सारे सपनों को उखाड़ दे और जगत के सत्य को दिखला दे। लहरें विदा हो जाएं और सागर दिखाई पड़ जाए। नाम-रूप खो जाए और यथार्थ दिखाई पड़ जाए। यथाभूतम्। वह जो सब भूतों का अंतर्तम है, वह जो सब अस्तित्व के भीतर छिपा हुआ महा अस्तित्व है, वह दिखाई पड़ जाए; परमात्मा अनुभव में आ जाए तो हम कहते हैं--प्रतिभा, मेधा; तो हम कहते हैं--प्रज्ञा, बुद्धत्व।
शक्तित्वान्नानृतं वेद्यम्।
यह जो सब तरफ फैला हुआ दिखाई पड़ रहा है जगत, यह उसी की ऊर्जा की तरंग है। इसलिए मिथ्या तो नहीं है; माया जरूर है। मिथ्या कहो तो इसे छोड़ कर भागना पड़ेगा। माया कहो तो जाग कर जी लो, बस काफी है। इसलिए भक्त छोड़ कर नहीं भागता। ज्ञानी भगोड़ा हो जाता है। ज्ञानी डरता है।
अब यह बड़े मजे की बात है! ज्ञानी कहता है मिथ्या और फिर डरता है। जब है ही नहीं तो डरना क्या? होना तो यह चाहिए कि ज्ञानी डरे ही नहीं, ज्ञानी तो बाजार में रहे, घर-गृहस्थी में रहे। भागना कहां है? जब है ही नहीं--कहता तो है मिथ्या--मगर वह मिथ्या भी शायद अपने को समझाने के लिए कहता है। वह मिथ्या कहना भी संसार से लड़ने की ही उसकी एक तर्ज है, संसार से लड़ने की ही एक विधि है। मिथ्या कह कर अपने को समझाता है कि मिथ्या है, झूठ है, इसमें रखा क्या है?
एक जैन मुनि से मेरा मिलना हुआ, उन्होंने अपनी एक कविता सुनाई। कविता थी, कविता की दृष्टि से बड़ी अच्छी थी, मगर मुनि के मुंह से ठीक नहीं थी। हालांकि उनके भक्तों ने बड़े सिर हिलाए। क्योंकि साधारणतः कोई भी कहता कि बात बिलकुल गजब की है, ठीक है, यही तो कहा जाता रहा है सदियों से।
मुनि ने अपनी कविता में कहा था कि तुम रहो अपने राजमहलों में, मेरे लिए तो तुम्हारे राजमहल मिथ्या हैं। तुम मजा कर लो संसार में, मेरे लिए संसार तो मिथ्या है। तुम बैठो सिंहासनों पर अपने, मैं तो अपनी धूल में ही मस्त हूं।
बिलकुल ठीक। साधारणतः यही कहा जाता है, सारे महात्मा यही कहते हैं, इसमें कुछ नया भी नहीं था। भक्तों ने सिर हिलाया।
मैंने उनसे कहा, अगर यह बात सच ही है कि राजसिंहासन मिथ्या हैं, तो उनका उल्लेख क्यों? उनकी चर्चा क्यों? अगर राजमहल हैं ही नहीं, तो किसकी बातें कर रहे हो? कौन राजमहल में रहता है फिर? और मजा यह है कि राजाओं ने कभी नहीं लिखीं ये कविताएं। उन्होंने कभी नहीं कहा कि तुम मजा करो अपनी धूल में, हम तो अपने राजमहल में ही ठीक! तुम कर लो मजा, धूल में रखा क्या है, सब मिथ्या है, हम तो अपने राजमहल में ही ठीक! तुम कर लो मजा अपनी फकीरी में, सब मिथ्या है, हम तो अपने सिंहासन पर ही ठीक! ऐसा किसी राजा ने कभी नहीं कहा। लेकिन मुनि सदा से कहते रहे हैं। लगता है मुनि के मन में कहीं छिपी ईर्ष्या है। मुनि के मन में कहीं छिपी लिप्सा है, वासना है। दिखता तो उसे भी है कि सोने का महल रहने योग्य है, मजा तो वहां है, लेकिन अब अपने को झुठला रहा है, अपने को समझा रहा है, लीपा-पोती कर रहा है, कह रहा है कि क्या रखा है वहां। यह कविता किसी और को समझाने के लिए नहीं है, यह कविता अपने को ही समझाने के लिए है कि वहां कुछ नहीं है, सब मिट्टी है, सब पानी के बबूले हैं। अगर पानी के ही बबूले हैं तो इतना भी श्रम क्या करते हो? यह कविता भी किसलिए लिखी? पानी के बबूलों के निवेदन में यह कविता लिखी जाती है? जरूरत क्या है? बात खतम हो गई।
कहते हैं संसार माया है। और अगर संसार को माया, मिथ्या कहने वाले व्यक्ति को अगर कोई स्त्री छू ले, तो वह एकदम घबड़ा जाता है! यह घबड़ाहट क्या? जो है ही नहीं, उसके छूने से इतने क्या घबड़ा गए? इतनी क्या परेशानी हो गई?
मैं एक सभा में निमंत्रित था, वहां एक जैन मुनि भी निमंत्रित थे। वे आकर द्वार पर ठिठक कर खड़े हो गए। बिछी हुई दरी हटानी पड़ी। मैंने पूछा, मामला क्या है?
उन्होंने कहा कि वे दरी पर नहीं चल सकते, क्योंकि दरी पर स्त्रियां बैठी हुई हैं।
दरी पर स्त्रियां बैठी हुई हैं, दरी तक स्त्री हो गई! अब वे दरी पर कैसे चलें? दरी में तक खतरा है। और मैं जानता हूं कि खतरा हो सकता है। दबाया होगा स्त्री के प्रति मन को बहुत, तो अब वह दरी से भी रस ले सकता है।
तुम्हारे दमन से भरे अनेक शास्त्र कहते हैं--जिस जगह स्त्री बैठी हो, कितनी देर तक उस जगह फिर मुनि को नहीं बैठना चाहिए। क्योंकि काफी देर तक स्त्री की तरंगें उस जगह को घेरे रहती हैं। स्त्री झूठ है, झूठ जा चुका, झूठ की तरंगें अभी बैठी हैं! उस जगह पर बैठना मत। ये कौन लोग हैं? ये रुग्ण-चित्त की दशाएं मालूम होती हैं, इन्हें चिकित्सा की आवश्यकता है। ये विक्षिप्त लोग मालूम होते हैं।
भक्ति ज्यादा स्वस्थ है।
शांडिल्य कहते हैं: मिथ्या मत कहो, क्योंकि है तो। लेकिन माया कहा जा सकता है। माया का अर्थ कि जब तक तुम नशे में हो तब तक मालूम होता है सच, जब तुम्हारा नशा टूटता है तब मालूम होता है झूठ। असली सवाल नशा तोड़ने का है। एक झूठ से दूसरे झूठ को तोड़ने से क्या होगा?
मैंने सुना है, एक आदमी सिर पर एक टोकरी लिए चला आता था। उस टोकरी में छेद थे कई। साथ चलते हुए एक राहगीर को जिज्ञासा उठी, उसने कहा, इस टोकरी में आप क्या लिए हैं? इसमें बड़े छेद हैं! उसने कहा, इसमें मैं नेवला ला रहा हूं। नेवला! छेद किसलिए किए हैं? तो उसने कहा, छेद इसलिए किए हैं कि वह श्वास ले सके। नेवला किसलिए ला रहे हो? उस आदमी ने पूछा, नेवले की क्या जरूरत? नेवले का क्या उपयोग? उसने कहा, बात यह है कि मुझे जरा शराब पीने की आदत है। और जब मैं ज्यादा पी लेता हूं तो मुझे सांप दिखाई पड़ते हैं। उन सांपों के लिए नेवला ला रहा हूं, क्योंकि कहते हैं नेवला सांपों को खा जाता है या टुकड़े-टुकड़े कर देता है। उस आदमी ने कहा, मेरे भाई, लेकिन अभी तो तुम होश में हो। वे जो सांप तुम्हें जब तुम शराब पीते हो दिखाई पड़ते हैं, सच्चे नहीं होते। तो उसने कहा, यह नेवला ही कौन सच्चा है? खाली डिब्बा है! मगर अपने को भरमाने के लिए। इसको रखेंगे पास, जब नकली सांप हमला करेंगे, नकली नेवला छोड़ देंगे।
संसार मिथ्या है। फिर ये योग, जप-तप, ये सब झूठे नेवले हैं। अगर संसार है ही नहीं, तो ये विधि-विधान संसार से छूटने के, इनका क्या अर्थ है? बीमारी ही नहीं है, तो यह औषधि किसलिए ढो रहे हो? मगर बीमारी झूठ है, और तुम जानते हो औषधि भी झूठ है।
शांडिल्य ज्यादा ठीक बात कहते हैं। वे कहते हैं, बीमारी झूठ है, ऐसा मत कहो; बीमारी है तो। मिथ्या है। जब तक चढ़ी है सिर पर, तब तक है। जब तक होश नहीं है, तब तक है। जब तक ध्यान नहीं है, तब तक है। जब तक जागरण नहीं घटा है, तब तक है। और जब जागरण घटेगा, तब तुम पाओगे कि लहर असत्य नहीं थी। लहर को ही देखा था, इसलिए भूल हो गई थी। लहर के पीछे छिपा सागर है। नाम के पीछे छिपा अनाम है। रूप के पीछे छिपा अरूप है। दृश्य के पीछे छिपा अदृश्य है। भूल हमारी थी कि हम ऊपर ही ऊपर रुक गए, सतह पर रुक गए और गहरे में न गए।
यह जो भी दिखाई पड़ता है, उसी परमात्मा की ऊर्जा है; इसलिए मिथ्या नहीं हो सकता। इस जगत में मिथ्या कुछ भी नहीं है। माया है। माया का अर्थ झूठ नहीं होता, माया का अर्थ होता है--सपना। जब तक नींद है, तब तक सच है। इस दृष्टि से देखने पर संसार से भागने की कोई जरूरत नहीं रह जाती; जागने की जरूरत रह जाती है, भागने की जरूरत नहीं रह जाती। भगोड़े मत बनना। जगोड़े बनो। जागो।
तत्परिशुद्धिश्च गम्यालोकवल्लिंगेभ्यः।
‘उसकी भक्ति की शुद्धता मनुष्यों के चिह्न से अनुभव होगी।’
और कैसे जानोगे कि कोई जाग गया? कैसे पहचानोगे कि किसी में भक्ति का उदय हुआ? कैसे जानोगे कि किसी की चेतना शुद्ध हुई? कैसे जानोगे कि कोई प्रभु से जुड़ा? तो तुम्हारे लिए कुछ लक्षण देते हैं--भक्त को कैसे पहचानोगे? और तुम्हारे भीतर भक्ति उमग रही है, इसको कैसे पहचानोगे? तुम्हारे भीतर वस्तुतः यात्रा शुरू हो गई परमात्मा की तरफ, इसकी पहचान क्या होगी? कसौटी क्या होगी?
भक्ति की परिशुद्धि का ज्ञान लौकिक प्रीति की भांति ही होता है। प्रीति तो प्रीति है, लौकिक हो कि अलौकिक हो, उसके लक्षण तो एक जैसे हैं। गहराई बढ़ जाती है। कोई अपनी पत्नी के लिए रो रहा है। निश्चित ही रोना है, मगर आंसू बहुत गहरे नहीं हो सकते। आंसुओं में पैसिफिक सागर की गहराई नहीं हो सकती। आंसू ऐसे ही होंगे जैसे वर्षा में डबरे बन जाते हैं सड़क के किनारे। कोई परमात्मा के लिए रो रहा है। उसके आंसुओं में पैसिफिक सागर की गहराई होगी, अनंत गहराई होगी। आंसुओं में उतनी ही गहराई होती है, जितनी प्रीति की गहराई होती है। प्रीति की गहराई साधारण लोगों में तुम कितनी कर सकते हो? साधारण लोगों में ही गहराई नहीं है। अब तुम एक बहुत बड़ा जहाज ले आओ और वर्षा में बन गए डबरे में चलाओ, तो चले कहां? जहाज के लिए सागर चाहिए। जितना बड़ा सागर हो उतना बड़ा जहाज चल सकता है। डबरे में तो कागज की नाव ही चल सकती है। डबरे में असली नाव नहीं चल सकती; खिलौनों की नाव, प्लास्टिक की नाव चल सकती है। नाव नाममात्र को होगी, उसमें तुम बैठ नहीं सकते।
साधारण जीवन में जो प्रीति देखी जाती है, वह डबरों की प्रीति है। मगर लक्षण तो वही हैं। डबरे में भी पानी तो वही है जो सागर में है। और डबरे के पानी का भी विश्लेषण करो तो एक बूंद के विश्लेषण में भी वही एच टू ओ, वही उदजन और आक्सीजन मिल जाएगी जो सारे सागरों में भरी पड़ी है। उस अर्थ में भेद नहीं है। और इसीलिए भक्ति में एक अपूर्व विज्ञान है कि वह लोक को अलोक से जोड़ती है। ज्ञान लोक को अलोक से तोड़ता है, वह दुश्मनी पैदा करवाता है। वह कहता है, यह संसार परमात्मा के विपरीत है। भक्ति कहती है, यह संसार परमात्मा का है, विपरीत कैसे हो सकता है? उथला है जरूर, मगर इस उथले में तैरना सीख लो ताकि गहरे में जा सको। गहरे में कोई सीधा नहीं जा सकता, उथले में तैरना सीखना होता है। यह संसार उथला परमात्मा है, इसमें तैरना सीख लो।
कभी तैरना सीखने गए हो? तो जब तैरना सिखाने कोई बैठता है तुम्हें, तो पहले उथले में सिखाएगा, नदी के किनारे-किनारे, गले-गले तक ले जाएगा। एक बार तैरना सीख लिया तो फिर तुम कितनी ही गहराइयों में जाओ, फिर कोई भेद नहीं पड़ता, फिर कुछ अंतर नहीं पड़ता, उथला पानी हो कि गहरा, सब बराबर है, तैरने वाले को सब बराबर है। लेकिन गैर-तैरने वाले को सब बराबर नहीं है, गहरे में जान संकट में आ जाएगी। उथले में तुम अपने को सम्हाल रख सकते हो।
संसार उथला परमात्मा है। छोटे-छोटे डबरों में भरा परमात्मा है। छोटी-छोटी देहों में भरा परमात्मा है। यहां तैरना सीख लो। यहां प्रेम करना सीख लो। यहां प्रेम की कला से अभिज्ञ हो जाओ। फिर दूर तक यात्रा हो सकती है। फिर तुम डुबकी मार सकते हो। लक्षण वही हैं।
शांडिल्य कहते हैं: भक्ति की परिशुद्धि का ज्ञान लौकिक प्रीति की भांति बाह्य चिह्नों से ही होता है। जैसे लोक में प्रीतम की चर्चा से प्रिया के पुलक अश्रुपात होते हैं, या गदगद भाव पैदा होता है, या चेहरे पर एक आभा छा जाती है।
तुमने देखा, किसी से उसके प्रेमी की बात करो, उसकी आंखों में रौनक आ जाती है। जो आंखें अभी-अभी मंदिम-मंदिम मालूम होती थीं, फीकी-फीकी मालूम पड़ती थीं, जिन पर धूल जमी थी, अचानक आंखों में एक तेज आ जाता है। किसी से किसी के प्रेमी की बात करो, उसका चेहरा जो फीका-फीका, बुझा-बुझा था, उस पर कोई ज्योति जल उठती है। उसका जीवन जो उदास-उदास और हारा-हारा था, जरा उससे प्रेमी की बात करो, स्फूर्ति का जन्म हो जाता है। जैसे किसी ने प्राणदायक औषधि दे दी। सिर्फ स्मरण पर्याप्त होता है। अभी जो घसिट-घसिट कर चल रहा था, वह नाचने को तत्पर हो जाता है। किसी से किसी के प्रेमी की बात करो, उसकी आंखों से आंसुओं की धार लग जाती है। आंसू गीत हैं, आंसू संगीत हैं; आंसू हृदय का भाव हैं।
शांडिल्य कहते हैं: जैसे लोक में प्रीति के लक्षण होते हैं, ऐसे ही लक्षण भक्ति के भी होते हैं। भगवत-कथा सुन कर, कि श्रवण सुन कर, कि नाम संकीर्तन सुन कर, कि कहीं चार भक्त बैठे हों मस्ती में प्रभु की महिमा का बखान करते हों, गदगद भाव का जन्म होता है, आंख से आंसू बहने लगते हैं। रोमांच हो आता है। व्यक्ति इस जगत का हिस्सा नहीं रह जाता, किसी और लोक में प्रवेश कर जाता है। इस अपूर्व अवसर का नाम सत्संग है। जहां बैठ कर तुम गदगद हो जाओ, जहां बैठ कर तुम्हारी आंखें आंसुओं से भर जाएं, जहां बैठ कर तुम्हारे हृदय में नई पुलक, नई उमंग उठे, जहां बैठ कर तुम्हें प्रभु का स्मरण आने लगे, जहां बैठ कर तुम्हें याद आए कि अरे, मैं अपने जीवन के साथ क्या करता रहा हूं? कूड़ा-कर्कट ही बीनने में बिता दूंगा सब? और हीरे-जवाहरातों की खदान पास ही है। और मैं डबरों में ही तैरता रहूंगा? और सागर इतने निकट है। विराट इतने पास है।
उफक के दरीचों से किरणों ने झांका
फजा तन गई, रास्ते मुस्कुराए
सिमटने लगी नर्म कुहरे की चादर
जवां शाखसारों ने घूंघट उठाए
परिंदों की आवाज से खेत चौंके
पुर-असरार लय में रहट गुनगुनाए
हसीं शबनम-आलूद पगडंडियों से
लिपटने लगे सब्ज पेड़ों के साए
वो दूर एक टीले पे आंचल सा झलका
तसव्वुर में लाखों दीये झिलमिलाए
तुम अगर अपने प्रेमी की राह देख रहे हो, तुम अगर अपनी प्रेयसी की प्रतीक्षा कर रहे हो, जरा दूर एक आंचल सा झिलमिला जाए, लाख दीये जल जाते हैं हृदय में। जरा किसी की पगध्वनि सुनाई पड़ जाए, सरगम छिड़ जाता है हृदय में। जरा कोई हवा का धक्का ही सही द्वार पर चोट कर जाए, तुम भागे, शायद जिसकी प्रतीक्षा थी वह आ गया। देखते हो उस क्षण तुम्हारे भीतर क्या घटता है? उसको ही अनंतगुना कर लो, तो तुम्हें भक्त के लक्षण का पता चलेगा।
उसकी भक्ति की शुद्धता मनुष्यों के चिह्न से अनुभव होगी।
और ये चिह्न, खयाल रखना, दूसरों की कसौटी और परीक्षा के लिए नहीं शांडिल्य ने दिए हैं। शांडिल्य पर बहुत सी टीकाएं लिखी गई हैं और बहुत से अनुवाद किए गए हैं, लेकिन सभी टीकाओं में और सभी अनुवादों में एक बात मुझे दिखाई पड़ी कि उन सबने यह मान लिया है कि शांडिल्य ये लक्षण दूसरों की पहचान के लिए दे रहे हैं--कि कैसे भक्तों को पहचानोगे?
शांडिल्य ये लक्षण दूसरों की पहचान के लिए नहीं दे रहे हैं। दूसरों से क्या लेन-देन है? ये तुम्हारे भीतर पहचानने के लिए लक्षण हैं। ये तुम्हारी अंतर्यात्रा के लिए सुगम उपाय हैं।
और फिर दूसरा तो धोखा भी दे सकता है। आखिर फिल्म-अभिनेता को तुम देखते ही हो न, उसे कोई प्रेम नहीं है और प्रेम प्रकट कर रहा है। और कभी-कभी तो ऐसा होता है कि प्रेमी भी उतना प्रेम प्रकट नहीं कर सकते जैसा अभिनेता करता है। और अभिनेता जानते हैं कि जब आंसू नहीं भी आ रहे हैं तब भी कैसे बुला लिए जाएं--और आंसू टपकने लगते हैं, बड़ी-बड़ी बूंदें प्रकट होती हैं। जब नहीं हंसना है तब अभिनेता हंसता है, जब नहीं रोना है तब रोता है। जहां प्रेम नहीं है वहां प्रेम प्रकट करता है। जहां क्रोध नहीं है वहां क्रोध की लपट आती है। अभिनय का अर्थ ही यही है कि जो वस्तुतः नहीं हो रहा है वह ऐसा मालूम पड़े कि वस्तुतः हो रहा है।
तो तुम खयाल रखना, ये लक्षण दूसरों के लिए नहीं हैं। दूसरे तो हो सकता है अभिनेता हों। और ऐसा अक्सर है। तुम लोगों को बैठे देखोगे रामकथा सुनते और डोलते, उनमें से सौ में निन्यानबे अभिनेता हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि डोलना चाहिए, इसलिए डोल रहे हैं। क्योंकि डोलने से दूसरे समझेंगे कि वे धार्मिक हैं। रोना चाहिए, इसलिए रो रहे हैं। चाहिए के कारण। घटना घट नहीं रही है, वस्तुतः नहीं घट रही है। सब ऊपर-ऊपर हो रहा है। सब औपचारिक है। तुम भी तो मुस्कुराते हो जब नहीं मुस्कुराना। तुम भी तो हंसते हो जब हंसी नहीं आती। भीतर कुछ और है, बाहर कुछ और।
नहीं, तुम्हें दूसरे की पहचान के लिए सूत्र नहीं देंगे शांडिल्य। असल में धार्मिक व्यक्ति दूसरे की पहचान करने की झंझट में पड़ता ही नहीं। जरूरत क्या है? लेना-देना क्या है? कौन भक्त है, कौन नहीं है, इसकी तुम्हें क्या चिंता है? तुम्हें एक ही चिंता होनी चाहिए कि मेरे जीवन में अभी वह परम घटना शुरू हुई या नहीं? मेरे भीतर भक्ति का आविर्भाव हुआ या नहीं? तुम्हारे भीतर हृदय गदगद होता है या नहीं? तुम्हारे भीतर हृदय में एक सरसरी दौड़ जाती है या नहीं? तुम्हारे भीतर धड़कनें कुछ तेज हो जाती हैं या नहीं? तुम्हारे शरीर में रोमांच होता है या नहीं? उस पर ध्यान रखना।
वे लक्षण होंगे कि प्रीति की पहली-पहल घटना घटनी शुरू हुई, अंकुरण हुआ प्रीति का। आषाढ़ के पहले मेघ घिरे। जल्दी ही खूब बरसा होगी। और जब प्रीति के लक्षण तुम्हें पकड़ में आ जाएं अपने भीतर तो डरना मत। क्योंकि वे प्रीति के लक्षण दूसरों को तो समझ में आएंगे कि तुम शायद पागल हो गए हो। यह भी क्या बात हुई!
रामकृष्ण के साथ ऐसा रोज हो जाता था। उनको कहीं ले जाना मुश्किल होता था। क्योंकि किसी ने रास्ते में जयरामजी कर ली, वे वहीं भाव-विह्वल हो जाते। जिसने की थी उसने तो सिर्फ औपचारिक जयरामजी की थी, नमस्कार की बात थी, उसमें रामजी से तो कुछ लेना भी नहीं था उसे। लेकिन रामकृष्ण को तो राम का नाम ही सुना कि बेखुदी आ जाती, मस्ती आ जाती। राम का नाम क्या था शराब था! वे वहीं खड़े हो जाते चौरस्ते पर, आंखें आकाश की तरफ उठ जातीं, शरीर जड़ हो जाता, या गिर जाते रास्ते पर, आंख से आंसू बहने लगते, शरीर में रोमांच हो जाता, भीड़ इकट्ठी हो जाती। उन्हें कहीं ले जाना मुश्किल था! निश्चित ही लोग पागल समझते थे। निश्चित ही चिकित्सक मानते थे कि यह कुछ हिस्टीरिया जैसी चीज है, कुछ मिरगी जैसी बीमारी है।
मगर मैं तुमसे कहता हूं: चाहे चिकित्सक सही ही क्यों न हों, रामकृष्ण पागल ही रहे हों और उन्हें मिरगी की बीमारी के दौरे ही पड़ते रहे हों, तो भी मैं तुमसे कहूंगा, चिकित्सकों से और उनके स्वास्थ्य से रामकृष्ण का पागलपन बेहतर है। क्योंकि रामकृष्ण परम आनंद में जीए।
तुम जब अपने भीतर भक्ति के इन लक्षणों को देखोगे तो रोकना मत। तुम्हारा मन यही कहेगा: रोक लो! लोग क्या कहेंगे, लोग क्या समझेंगे! लोग पागल मानेंगे, सम्हाल लो अपने को! ये लक्षण शांडिल्य इसीलिए गिना रहे हैं ताकि जब ये घटें तो तुम सम्हालना मत, होने देना, प्रकट होने देना। इनमें दूर जाना है, इनमें डूब जाना है। इन्हीं के सहारे यात्रा होनी है। यही वाहन है।
और जहां बन सके, जितना बन सके, जिस प्रकार से बन सके, उतना समय भगवत-कथा में लगाना। जहां चर्चा होती हो भगवान की, वहां बैठ जाना, लाख काम छोड़ कर बैठ जाना। जहां कोई राम-भजन होता हो, जहां संकीर्तन होता हो, जहां कोई मस्ती में नाचता हो, हजार काम छोड़ देना, नाच लेना उसके साथ। न नाच सको तो कम से कम उसके पास बैठ लेना, कम से कम उसकी नाचती हुई ऊर्जा की थोड़ी वर्षा तुम पर हो जाए, थोड़े छींटे तुम पर पड़ जाएं, थोड़ी संभावना तुम्हारे भीतर भी प्रकट होने लगे, एकाध बीज शायद तुम्हारे हृदय में चला जाए; कौन जाने कब, किस शुभ क्षण में, किस मुहूर्त में, तुम्हारा भाव-द्वार खुला हो और प्रभु-स्मरण पकड़ जाए! पकड़ जाए तो यात्रा शुरू हो जाए। जब तुम्हारे हृदय में एकाध बीज पड़ जाता है, फिर तुम्हारे बस के बाहर हो जाएगी बात। फिर तुम्हें खोज करनी ही होगी, फिर तुम्हें तलाश पर जाना ही होगा।
ये बाह्य लक्षण हैं, आंतरिक लक्षण भी पैदा होंगे।
सम्मान बहुमान प्रीति विरहेतर विचिकित्सा
महिमख्याति तदर्थ प्राण स्थान
तदीयता सर्व तद्भावा
प्रातिकूल्यादीनिच स्मरणेभ्यो बाहुल्यात्।
‘सम्मान, बहुमान, प्रीति, विरह, इतर विचिकित्सा, महिमा कीर्तन, प्रीतम के अर्थ जीना, तदीयता, तद्भाव, अप्रातिकूल्य इत्यादि प्रेम के आंतरिक लक्षण प्रकट होंगे।’
‘सम्मान।’
जो व्यक्ति जरा सी भी प्रभु की खोज से भर जाएगा, इस जगत के प्रति, इस अस्तित्व के प्रति उसमें महा सम्मान पैदा होगा। छोटी-छोटी बातों के प्रति सम्मान पैदा होगा--फूलों के प्रति, चांद-तारों के प्रति, सूरज के प्रति, नदी-पहाड़ों के प्रति। क्योंकि यह सब उसी विराट की लीला है। इन सबमें वही अनेक-अनेक रूपों में आया है। तब तुम वृक्ष को ऐसा नहीं देखोगे कि सिर्फ वृक्ष, तब वृक्ष में तुम उसी की महिमा देखोगे--वही हरा होकर प्रकट हुआ, वही लाल होकर फूल बना है। तब तारों में तुम इतना ही नहीं देखोगे कि सिर्फ तारे हैं--जैसा वैज्ञानिक देखता है--तब तुम्हें तारों में उसी की रोशनी, उसी का रूप, उसी का सौंदर्य झलकता हुआ दिखाई पड़ेगा। सम्मान पैदा होगा। रेवरेंस।
पश्चिम के बड़े विचारक श्वीत्जर ने रेवरेंस फॉर लाइफ, जीवन के प्रति सम्मान को धार्मिक व्यक्ति का आधारभूत गुण माना है। शांडिल्य उसी की चर्चा कर रहे हैं। ऐसा व्यक्ति किसी भी चीज को तोड़ नहीं सकता। जोड़ सके तो जोड़ेगा, तोड़ नहीं सकेगा। एक पत्ते को भी नहीं तोड़ सकेगा वृक्ष से; एक फूल को नहीं तोड़ सकेगा। इतना सम्मान होगा उसके भीतर। क्योंकि कुछ भी तोड़ो, परमात्मा ही तोड़ा जाता है। कुछ भी मिटाओ, परमात्मा ही मिटता है। विध्वंस उसके जीवन से समाप्त हो जाएगा। उसके जीवन में सृजनात्मकता होगी। उसके जीवन में सृष्टि के प्रति सम्मान के साथ ही साथ सृजन का आविर्भाव होगा।
दूसरा: ‘बहुमान।’
शांडिल्य तृप्त नहीं हुए सिर्फ सम्मान से। सम्मान साधारण है। बहुमान भी पैदा होगा। जितना करेगा उतना ही थोड़ा लगेगा। सब उड़ेल देगा, फिर भी लगेगा कि पूरा धन्यवाद नहीं कर पाया। इतना दिया है परमात्मा ने, इतना दिए जाता है। कैसे उऋण हो सकता हूं? बहुमान पैदा होगा। अपार कृतज्ञता का भाव पैदा होगा।
भक्त सब जगह झुका होगा। देखा न, जैसे वृक्ष जब फलों से लद जाते हैं तो झुक जाते हैं। भक्त फलवान हो गया। झुक जाएगा। सब तरफ झुका होगा। वृक्षों के चरण छू लेगा। नदियों की पूजा कर लेगा। पर्वतों की श्रद्धा करेगा। सूरज को नमस्कार करेगा। सारा जगत देवी-देवताओं में परिवर्तित हो जाएगा। यही हुआ था। जो लोग इस सत्य को नहीं जानते हैं, नहीं पहचानते हैं, उन्हें बहुत हैरानी होती है कि क्यूं इस देश में लोग सूरज को पूजते हैं? सूरज भी कोई पूजने की बात है! सूरज कोई देवता है! चांद को पूजते हैं! चांद में क्या रखा है? अब तो आदमी भी उस पर चल लिया!
उन्हें पता नहीं है कि भक्त सब तरफ भगवान को देखता है। प्रत्येक चीज दिव्य हो जाती है, देवता हो जाती है, क्योंकि प्रत्येक चीज में परमात्मा का प्रतिफलन होने लगता है। प्रत्येक चीज दर्पण हो जाती है, उसी का रूप झलकता है।
‘प्रीति।’
गहन प्रीति पैदा होगी। उस व्यक्ति के जीवन में प्रीति ही प्रीति की तरंगें होंगी। उठेगा, बैठेगा, चलेगा, सोएगा, और तुम पाओगे उसके चारों तरफ प्रीति का एक सागर लहराता। तुम उसके पास भी आ जाओगे तो उसकी प्रीति से भर जाओगे। तुम उसके पास आ जाओगे, तुम्हारी हृदय-वीणा झंकार करने लगेगी।
‘इतर विचिकित्सा।’
परमात्मा के अतिरिक्त उसे और सब चीजों में अरुचि हो जाएगी--स्वाभाविक अरुचि। विराग नहीं, अरुचि। चेष्टा नहीं होगी उसकी, लेकिन उसे और किसी चीज में रुचि नहीं रह जाएगी। कहीं लोग बैठ कर धन की बात करते हैं, तो वह बैठा रहे वहां, लेकिन उसे रुचि नहीं होगी। कहीं कोई किसी की बात करते हैं कि हत्या हो गई, वह बैठा भी रहे वहां तो उसे रुचि नहीं होगी। हां, कहीं कोई प्रभु का गुणगान करता हो तो वह एकदम सजग हो जाएगा, एकदम लपट आ जाएगी उसके जीवन में।
विरह पैदा होगा। और जितना-जितना भगवान की पहचान होगी, उतने ही विरह की भाव-दशा बनेगी। जितनी पहचान होगी, उतनी ही पाने की आकांक्षा जगेगी। जितने करीब आएगा, उतनी ही दूरी मालूम होगी। विरह का मतलब होता है: जितने करीब आएगा, उतनी ही दूरी मालूम होगी। जब पता ही नहीं था तब तो दूरी भी नहीं थी। तब तो खोजते ही नहीं थे तो दूरी कैसे होती? अब जैसे-जैसे करीब आएगा, जैसे-जैसे झलक मिलेगी, वैसे-वैसे लगेगा--कितनी दूरी है! जैसे साधारण प्रेमी में विरह होता है, वही विरह विराट होकर भक्त में प्रकट होगा।
चांद मद्धम है, आस्मां चुप है
नींद की गोद में जहां चुप है
दूर वादी में दूधिया बादल
झुक के पर्वत को प्यार करते हैं
दिल में नाकाम हसरतें लेकर
हम तेरा इंतजार करते हैं
इन बहारों के साए में आ जा
फिर मोहब्बत जवां रहे न रहे
जिंदगी तेरे नामुरादों पर
कल तक मेहरबां रहे न रहे
रोज की तरह आज भी तारे
सुबह की गर्द में न खो जाएं
आ तेरे गम में जागती आंखें
कम से कम एक रात सो जाएं
चांद मद्धम है, आस्मां चुप है
नींद की गोद में जहां चुप है
जैसे प्रेमी चौबीस घंटे हर चीज से अपनी प्रेयसी की ही स्मृति से भर जाता है--आकाश में चांद है तो उसे प्रेयसी का चेहरा दिखाई पड़ता है; बगिया में गुलाब खिला तो उसे प्रेयसी की याद आती है; कोयल ने कुहू-कुहू की कि उसकी प्रेयसी ने ही जैसे उसे पुकारा--हर चीज निमित्त बन जाती है, बहाना बन जाती है। यह तो साधारण डबरों का प्रेम। लेकिन जब तुम विराट सागर के प्रेम में पड़ोगे तब तो निश्चित ही हर चीज, निश्चित ही हर चीज विरह को जगाएगी। हर चीज उसी की याद लेकर आएगी। तीर पर तीर तुम्हारे हृदय में चुभे जाएंगे।
आज फिर चांद की पेशानी से उठता है धुआं
आज फिर महकी हुई रात में जलना होगा
आज फिर सीने में उलझी हुई वजनी सांसें
फट के बस टूट ही जाएंगी, बिखर जाएंगी
आज फिर जागते गुजरेगी तेरे ख्वाब में रात
आज फिर चांद की पेशानी से उठता है धुआं
प्रतिपल भक्त एक धधकता हुआ अंगारा हो जाता है। प्रतिपल भक्त के भीतर बस एक ही अभीप्सा है, एक ही आकांक्षा, एक ही प्यास, एक ही भूख होती है--कैसे प्रभु से मिलन हो जाए? जितनी यह भूख बढ़ती, उतना ही परमात्मा करीब आता। जिस दिन प्यास पूर्ण हो जाती, उसी दिन प्रार्थना भी पूर्ण हो जाती। प्यास ही प्रार्थना है। और प्यास की परिपूर्णता ही परमात्मा का मिलन बन जाती है। कुछ और नहीं चाहिए, कोई और विधि-विधान काम का नहीं है। तुम्हारा रोआं-रोआं उसे पुकार सके, तुम्हारा कण-कण उसकी प्यास से भर सके, एक ऐसी घड़ी आ जाए कि तुम्हारे भीतर उसकी प्यास के अतिरिक्त कुछ भी न बचे, ऐसी त्वरा हो, ऐसी तीव्रता हो, बस उसी तीव्रता में, उसी त्वरा में घटना घट जाती है। कुछ टूट जाता है। कुछ यानी तुम्हारा अहंकार। और जहां तुम्हारा अहंकार टूटा कि तुम चकित होकर पाते हो--परमात्मा सदा से मौजूद था, तुम्हारी आंखों पर अहंकार का धुंध था, वह टूट गया है। परमात्मा कभी खोया नहीं था--मिला भी नहीं है, सिर्फ बीच में तुम सो गए थे, अहंकार की नींद में खो गए थे, नींद टूट गई है, संसार का सपना विदा हो गया है। तब भी यही वृक्ष होंगे, तब भी यही लोग होंगे, सब ऐसा ही होगा, और फिर भी सब नया हो जाएगा, क्योंकि तुम नये हो गए। फिर पत्थर में वही सोया मालूम होगा। फिर तुम्हारी पत्नी में भी वही है और पति में भी वही है; और बेटे में भी वही है और पिता में भी वही है। भक्त के लिए सारा अस्तित्व मंदिर हो जाता है।
‘महिमा कीर्तन।’
भक्त को बड़ा आनंद आता है प्रभु की महिमा गाने में। क्योंकि जब भी वह उसकी महिमा का गुणगान करता है तभी अपने को भूल जाता है। उसकी महिमा का गुणगान अपने अहंकार से मुक्त होने का उपाय है।
तुमने देखा, लोग अपनी ही महिमा का गुणगान करते हैं। लोगों की बातें सुनो। जरा गौर करो, उनकी सारी बातों का निचोड़ क्या है? वे यही कह रहे हैं कि मेरे जैसा आदमी दुनिया में कोई दूसरा नहीं; सारी बातों का निचोड़ यही है। कोई कह रहा है, मैं जंगल शिकार करने गया, ऐसा शेर मारा कि किसी ने क्या मारा होगा! कोई मछली पकड़ लाया है तो उसका वजन बढ़ा-चढ़ा कर बता रहा है कि उसका वजन इतना है। कोई चुनाव जीत लिया है, कोई ताश के पत्तों में जीत लिया है। लोग सारे खेल कर रहे हैं, बात सिर्फ एक है कि मेरे जैसा कोई भी नहीं। मैं विशिष्ट हूं, मैं असाधारण हूं। सब दूसरों को छोटा करने में लगे हैं, अपने को बड़ा करने में लगे हैं। आदमी की सामान्य स्थिति क्या है? वह आत्म-स्तुति में लगा है।
भक्त भगवान की स्तुति में लगता है। उस स्तुति में ही लगते-लगते भगवान हो जाता है। अपनी स्तुति में जो लगेगा, वह भगवान से छिटकता जाएगा; और जो भगवान की स्तुति में लग जाएगा, एक दिन भगवान हो जाएगा। वह जो विशिष्ट होने की आकांक्षा थी, उसी दिन पूरी होती है जब कोई बिलकुल सामान्य हो जाता है।
‘महिमा कीर्तन, प्रीतम के अर्थ जीना।’
भक्त फिर अपने लिए नहीं जीता। इसलिए जीता है कि थोड़ी देर और परमात्मा का गुणगान कर ले, थोड़ी देर और गीत गा ले, थोड़ी देर और प्रार्थना कर ले। उसके जीवन का एक ही लक्ष्य रह जाता है।
यही तोहफा है, यही नजराना
मैं जो आवारा-नजर लाया हूं
रंग में तेरे मिलाने के लिए
कतरा-ए-खूने-जिगर लाया हूं
पहले कब आया हूं कुछ याद नहीं
लेकिन आया था कसम खाता हूं
फूल तो फूल हैं, कांटों पे तेरे
अपने ओंठों के निशां पाता हूं
फूल के बाद नये फूल खिलें
कभी खाली न हो दामन तेरा
रोशनी-रोशनी तेरी राहें
चांदनी-चांदनी आंगन तेरा
यही तोहफा है, यही नजराना
मैं जो आवारा-नजर लाया हूं
भक्त कहता है: मेरे पास और क्या है, एक भटकती हुई आंख है--आवारा-नजर।
यही तोहफा है, यही नजराना
मैं जो आवारा-नजर लाया हूं
रंग में तेरे मिलाने के लिए
कतरा-ए-खूने-जिगर लाया हूं
जिगर के खून की एक बूंद, हृदय को चढ़ाने को लाया हूं, जीवन को चढ़ाने को लाया हूं।
आदमी ने बड़ी धोखे की ईजादें कर ली हैं। तुम जाते हो, फूल तोड़ कर मंदिर में भगवान पर चढ़ा आते हो। तुम समझते हो तुमने कुछ चढ़ाया। जब तक जिगर की बूंद न चढ़ाओगे तब तक कुछ नहीं चढ़ाया। अपना फूल चढ़ाओ। तुम गए और नारियल तोड़ आते हो! यह खोपड़ी जब तक न टूटे।
लोगों ने तरकीबें खोज ली हैं--नारियल जरा खोपड़ी जैसा मालूम पड़ता है। उसमें दो आंखें भी होती हैं, दाढ़ी-मूंछ भी होती है, और उसके भीतर जो है उसको हम खोपड़ा भी कहते हैं। लोगों ने सिर चढ़ाने की जगह नारियल चढ़ाना शुरू कर दिया! लोगों ने अपने जिगर का कतरा चढ़ाने की जगह सिंदूर चढ़ाना शुरू कर दिया! वह खून का प्रतीक है सिर्फ। लोगों ने अपने जीवन का फूल चढ़ाने की जगह वृक्षों के फूल चढ़ाने शुरू कर दिए। वे तो चढ़े ही हुए हैं! वे तो वृक्षों पर ही चढ़े ही थे! उन्हें तोड़ कर तुमने कुछ बढ़ोतरी नहीं की, कुछ घटाया ही।
आदमी अपने को चढ़ाए। प्रीतम के अर्थ जीए, प्रीतम के अर्थ मरे।
‘तदीयता।’
वह ही है, मैं नहीं हूं, ऐसी भक्त की भाव-दशा होती है।
‘तद्भाव।’
वही सबमें है, सबमें वही है, ऐसी उसकी प्रतीति होती है। इन्हीं तरंगों में वह रंगता जाता अपने को, इन्हीं भावों से भरता जाता अपने को।
‘अप्रातिकूल्य।’
और भगवान के प्रतिकूल आचरण का उसमें अभाव होता है। वह कुछ भी नहीं कर सकता जो भगवान के प्रतिकूल हो, विपरीत हो। ऐसी कोई बात उससे नहीं हो सकती जो इस विराट अस्तित्व के विपरीत जाती हो। होगी भी कैसे? तदीयता पैदा हो गई--तू ही है, मैं नहीं हूं। तद्भाव पैदा हो गया--सबमें तू ही है।
कांटे का रंग
और कांटे की ताजगी
पांव से निकले हुए
खून में है
भीतर की बेचैनी और खुशी
आंख से टपकी
बूंद में है
मगर
न इसे कोई देखता है
न उसे कोई समझता है!
भक्त के पास सिर्फ भाव है चढ़ाने को। तदीयता का भाव। तद्भाव। भक्त अपने को मिटाता है और भगवान को आमंत्रित करता है। रो-रो कर भक्त अपने अहंकार को गलाता है, अपने को विदा देता है। जिस दिन अपने से खाली हो जाता है, उसी दिन से परमात्मा से भरने की संभावना शुरू हो जाती है। तुम मिटो तो परमात्मा हो। जब तक तुम हो, तब तक परमात्मा नहीं हो सकता है। ये उसके अंतर-लक्षण हैं।
द्वेषादयस्तु नैवम्।
‘द्वेष बुद्धि आदि से ऐसा नहीं होता।’
भक्त संसार के प्रति कोई द्वेष बुद्धि से नहीं जीता। जैसा तथाकथित तपस्वी जीता है। तपस्वी के मन में संसार के प्रति बड़ा द्वेष है। तपस्वी सिर के बल खड़ा हो गया संसारी है। तुम्हारे भोगी में और तुम्हारे योगी में बहुत फर्क नहीं होता। तुम्हारे योगी और भोगी की भाषा एक ही होती है। भोगी धन पकड़ता है, त्यागी धन से भागता है--मगर दोनों ही धन से आलिप्त होते हैं। भोगी कहता है: और धन हो जाए। त्यागी कहता है: मैं धन से डरता हूं, धन छूटे। मगर दोनों धन से आतंकित हैं। एक मोह से भरा है, एक भय से; मगर आतंक दोनों में है। भोगी कहता है: सुंदर स्त्री, और सुंदर स्त्री। और योगी डरा हुआ है। सुंदर क्या असुंदर स्त्री से भी डरा हुआ है। स्त्री से कहीं मिलना न हो जाए, वह भाग रहा है जंगलों की तरफ कि दूर स्त्री से निकल जाए। भोगी तलाश करता जाता है कि चलो पेरिस चलें। योगी भागता है हिमालय की गुफाओं में। मगर दोनों स्त्री से आतंकित हैं। दोनों में कुछ भेद नहीं है, भाषा एक ही है। एक-दूसरे की तरफ पीठ किए खड़े हैं, लेकिन भाषा में कुछ भेद नहीं है। दोनों का तर्क एक है।
भक्त का तर्क भिन्न है। भक्त कहता है: संसार से द्वेष करके तुम परमात्मा से प्रेम न कर सकोगे। प्रेमी द्वेष करना जानता ही नहीं। संसार से भी प्रेम करता है--इतना प्रेम करता है, इतना गहरा प्रेम करता है कि संसार के घूंघट उठ जाते हैं उस प्रेम में और संसार में ही छिपे हुए परमात्मा की झलक मिलनी शुरू हो जाती है।
द्वेषादयस्तु नैवम्।
‘द्वेष बुद्धि आदि से ऐसा नहीं हो सकता।’
यह जो भक्त की परम दशा है, यह प्रीति से ही हो सकती है, निरंतर प्रीति से, गहरी होती प्रीति से हो सकती है। इसे द्वेष से लाने का उपाय बुनियादी रूप से गलत है। संसार और परमात्मा में विरोध नहीं है, तुम्हारे महात्माओं ने तुमसे कुछ भी कहा हो! तुम्हारे महात्मा गलत होंगे। संसार और परमात्मा में विरोध नहीं है। संसार परमात्मा का है, विरोध हो नहीं सकता। यहां हर चीज पर उसी का हस्ताक्षर है, उसी का चिह्न है, विरोध हो नहीं सकता। अगर तुम्हें विरोध दिखता है, तो तुम्हारी कहीं भ्रांति है। तुमने विरोध खड़ा कर लिया है। खोजो, टटोलो, और तुम उसे यहीं पाओगे छिपा हुआ। हर पत्थर को तोड़ो और तुम उसी को छिपा पाओगे धड़कते। हर पत्ते में तुम उसे हरा पाओगे। हर झरने में तुम उसे कलकल करता हुआ पाओगे। हर दीये में वही रोशन है और हर दिल में वही धड़कन है और हर श्वास में वही श्वास है।
द्वेष से नहीं, प्रेम से भरो। और यही भक्ति की निर्मलता है; और भक्ति की सरलता, सहजता, स्वाभाविकता है। भक्ति तुम्हें अस्वाभाविक होने को नहीं कहती। भक्ति कहती है: तुम्हें प्रेम तो मिला ही है, जन्म से ही लेकर आए हो, इसी प्रेम की सीढ़ी बना लो।
त्यागी उलटे कामों में लग जाता है, जो उसे जन्म से नहीं मिला है। कोई बच्चा जन्म से त्याग लेकर नहीं आता। त्याग सीखी भाषा है। लेकिन हर बच्चा प्रेम लेकर आता है। प्रेम सीखी भाषा नहीं है, निसर्ग की भाषा है। त्याग आदमी की ईजाद है, प्रेम परमात्मा का निर्माण है। परमात्मा पर भरोसा करो।
तुमने देखा, छोटा बच्चा पैदा हुआ और प्रेम से गदगद रहता है। अभी सीखने का तो मौका ही नहीं मिला। छोटे बच्चे की आंखों में झांका? कैसी सरल प्रीति! अभी किसी ने कुछ सिखाया भी नहीं। सच तो यह है, जैसे ही लोग सिखाएंगे वैसे ही प्रीति कम होती चली जाएगी। वैसे ही चालबाजियां बढ़ेंगी, द्वेष बढ़ेगा, बेईमानियां बढ़ेंगी; वैसे ही बच्चा राजनीति सीखेगा, कूटनीति सीखेगा, धोखाधड़ी सीखेगा; ढोंग सीखेगा, पाखंड सीखेगा; जवान होते-होते प्रीति के तो प्राण निकल जाएंगे, गर्दन घुट जाएगी; बूढ़ा होते-होते तो सब रेगिस्तान हो जाएगा, प्रीति का झरना खोजे से न मिलेगा कहां खो गया। लेकिन हर बच्चा प्रेम की बड़ी शुद्ध क्षमता लेकर आता है।
भक्ति कहती है: इसी शुद्ध क्षमता को निखारो, परिशुद्ध करो, फैलाओ, बड़ा करो। इसी के सहारे तुम परमात्मा तक पहुंच जाओगे। परमात्मा ने तुम्हें इस जगत में भेजा तो जरूर तुम्हारे भीतर कुछ रख दिया है पाथेय, कलेवा, जिससे रास्ता कट जाएगा। और कोई दीया तुम्हारे भीतर रख दिया है कि जब तुम्हें जरूरत होगी तो तुम जला लोगे और वापस घर लौट आओगे। कोई नक्शा तुम्हारे भीतर छोड़ दिया है कि कहीं तुम भटक ही न जाओ। कुछ सूत्र तुम्हारे भीतर रखा है कि जिस दिन भी तुम होश से अपने को समझोगे, तुम्हें धागा मिल जाएगा। उस धागे को पकड़ कर तुम यात्रा कर लोगे।
प्रेम तुम्हारे भीतर सूत्र है। प्रेम सूत्रों का सूत्र है। प्रेम स्वर्ण-सूत्र है। भक्त उसी पर भरोसा करता है, उसी को निखारता है--स्नेह से प्रीति बनाता है, प्रीति से श्रद्धा बनाता है, श्रद्धा को भक्ति में रूपांतरित करता है। एक-एक सोपान चढ़ते-चढ़ते एक दिन तुम पाते हो कि तुम्हारा प्रेम अपने पूरे आकाश को पा लिया, पूरा खिल गया।
इस प्रेम की पूरी खिलावट में, इस प्रेम के पूरे कमल के खिल जाने में उपलब्धि है--उसकी जिसे वस्तुतः कभी खोया नहीं, लेकिन हम किसी सपने में खो गए हैं, और जो है वह दिखाई नहीं पड़ रहा है, और जो नहीं है वह दिखाई पड़ने लगा है।
संसार माया है, उस परमात्मा की ही लीला, उसकी ही ऊर्जा। और संसार तुम्हारे लिए एक शिक्षण का अवसर है। सीखो। संसार प्रेम को निखारने की प्रक्रिया है। इसलिए तुम्हें प्रेम इतने जोर से पकड़ता है। प्रेम से बड़ी कोई शक्ति है इस जगत में? आदमी प्रेम के लिए जीवन भी दे देता है। कभी-कभी झूठे और सिखाए प्रेम के लिए भी जीवन दे देता है। जैसे मातृभूमि के प्रेम में कोई मर जाता है। वह सिखाया हुआ है और झूठा है। वह राजनैतिक चालबाजी है। नहीं तो कौन सा देश किसका है? सारी पृथ्वी सबकी है। लेकिन उसमें भी आदमी मर जाता है। कभी कुल के प्रेम में, परिवार के प्रेम में जान दे देता है। वह बड़ा क्षुद्र है, दो कौड़ी का है, लेकिन प्रेम ही इतना बहुमूल्य है कि कृत्रिम प्रेम भी कभी-कभी जीवन देने योग्य मालूम पड़ता है। तो असली प्रेम की तो बात ही हम क्या कहें! जिस दिन असली प्रेम पैदा होगा, उस दिन तुम चुपचाप अपनी जीवन-ऊर्जा को परमात्मा के चरणों में रख दोगे, तुम कहोगे--सब समर्पित है। उस समर्पण में ही क्रांति घट जाती है।
शांडिल्य को खूब हृदयपूर्वक समझना। शांडिल्य बड़ा स्वाभाविक सहज-योग प्रस्तावित कर रहे हैं। जो सहज है, वही सत्य है। जो असहज हो, उससे सावधान रहना। असहज में उलझे, तो जटिलताएं पैदा कर लोगे। सहज से चले, तो बिना अड़चन के पहुंच जाओगे।
आज इतना ही।