SHANDILYA
ATHATO BHAKTI JIGYASA 14
Fourteenth Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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पहला प्रश्न:
भगवान, हसीद फकीरों ने मैं-तू भाव से; सूफियों एवं भक्तों ने तू-भाव से; वेदांत, उपनिषद एवं जैन परंपरा ने मैं-भाव से; बुद्ध एवं झेन परंपरा ने न मैं, न तू भाव से और शांडिल्य ऋषि ने उभयपरां--स्याद् भाव--से ईश्वर को अभिव्यक्त किया। पर आप तो पिछले सभी उपायों से अभिव्यक्ति दे रहे हैं!
मनुष्य प्रौढ़ हुआ है। और प्रौढ़ता का सबसे महत्वपूर्ण लक्षण है--विरोधाभास का अंगीकार। तर्क अप्रौढ़ता का सूचक है। तर्क मनुष्य की चेतना की अंतिम ऊंचाई नहीं है, सीढ़ी का प्रारंभ है। तर्क एकांगी होता है। तर्क की छाती बड़ी नहीं; तर्क का हृदय उदार नहीं, संकीर्ण है। अगर परमात्मा प्रकाश है, तो तर्क कहता है: अंधेरा फिर परमात्मा कभी नहीं हो सकता। तर्क कहता है: अ अ है, ब ब है; अ ब नहीं हो सकता। तर्क का दायरा बड़ा छोटा है, आंगन बड़ा छोटा है! अतर्क का दायरा बड़ा है, आकाश जैसा विराट है। परमात्मा प्रकाश भी हो सकता है और अंधेरा भी। परमात्मा जीवन भी है और मृत्यु भी।
परमात्मा जीवन है तो फिर मृत्यु कौन होगा? मृत्यु का फल जीवन में ही तो लगता है। मृत्यु जीवन का ही तो चरम उत्कर्ष है, मृत्यु जीवन की ही तो समाप्ति है! मृत्यु का फूल जीवन के बाहर नहीं है, जीवन के भीतर है। जीवन की ही रसधार उसमें बहती है। यदि परमात्मा जीवन है तो फिर मृत्यु भी उसे होना पड़ेगा। लेकिन तर्क के सामने अड़चन खड़ी होती है। तर्क कहता है, जो जीवन है, वह मृत्यु कैसे हो सकता है? तर्क कहता है, जो जीवन है, वह मृत्यु के विपरीत होना चाहिए। परमात्मा शुभ है, तो अशुभ के लिए शैतान खोजना पड़ता है--वह तर्क के कारण, क्योंकि परमात्मा कैसे अशुभ होगा? जीवन परमात्मा ने दिया, मृत्यु शैतान ने दी।
शैतान की ईजाद तुम्हारी तर्क की कमजोरी के कारण है। जितना कमजोर तर्क होगा, उतना ही जगत में द्वंद्व होगा; क्योंकि एक के मानने से काम नहीं चलेगा। एक में तुम दोनों को न समा सकोगे। तो तुम्हें दूसरी इकाई माननी पड़ेगी। परमात्मा खुशियां दे रहा है और शैतान दुख ला रहा है। परमात्मा स्वर्ग बना रहा है और शैतान नरक बना रहा है।
लेकिन शैतान कहां से आता है? तर्क को थोड़ा और आगे ले चलो तो अतर्क की समझ आने लगेगी। शैतान कहां से आता है? शैतान भी परमात्मा से ही आएगा; क्योंकि सभी उससे आता है। फूल भी उससे और कांटे भी उससे; स्वर्ग भी उससे और नरक भी उससे। मगर बड़ी छाती चाहिए कि परमात्मा से दुख भी आता है, यह तुम स्वीकार कर सको। उसके लिए बड़ी प्रौढ़ता चाहिए।
तर्क बचकाना है। तर्क एक सीमा खींच देता है, एक लक्ष्मण-रेखा खींच देता है। कहता है, इसके भीतर जो है वह ठीक, इसके बाहर जो है वह ठीक नहीं। लेकिन बाहर और भीतर जुड़े हैं। जो श्वास भीतर गई, वही तो बाहर आती है। और जो श्वास बाहर गई, वही तो भीतर आती है। तर्क कहता है, एक कुछ भी करो, श्वास भीतर लो तो फिर भीतर ही भीतर लेना। श्वास बाहर लो तो फिर बाहर ही बाहर लेना। मगर तर्क तुम्हें मार डालेगा। इसलिए तर्क में जो उलझ जाता है, उसके गले में फांसी लग जाती है। तर्क कहता है, जिससे प्रेम किया, प्रेम ही करना। जीवन ज्यादा विराट है। जिससे प्रेम किया है, उसी से घृणा होती है। जिससे मित्रता बांधी, उसी से झगड़ा हो जाता है। करुणा और क्रोध अलग-अलग नहीं हैं, एक ही ऊर्जा की तरंगें हैं। और जो बनाना चाहता है, उसे मिटाना पड़ेगा। कोई भी स्रष्टा बिना विध्वंस के स्रष्टा नहीं होता।
समझो। तुम एक चित्र बना रहे हो। कैनवास खाली है। जब तुमने चित्र बनाया तो तुमने कैनवास का खालीपन नष्ट कर दिया। बिना कैनवास का खालीपन नष्ट किए चित्र न बनेगा। तुमने एक नया मकान बनाया, तो पुराने को गिराना पड़ा। और तुमने एक बच्चे को जीवन दिया, तो कहीं कोई बूढ़ा मरा। जहां सृजन है, वहां कहीं पीछे विध्वंस होगा। विध्वंस के बिना कोई सृजन नहीं है।
हिंदू ज्यादा प्रौढ़ हैं ईसाइयों-मुसलमानों से। इसलिए हिंदुओं को शैतान को मानने की जरूरत नहीं पड़ी। उन्होंने परमात्मा के ही तीन चेहरे बना दिए, एक के तीन चेहरे, त्रिमूर्ति बना दी। ब्रह्मा निर्माता है और विष्णु सम्हालने वाले और शिव विध्वंस करने वाले--मगर एक ही परमात्मा के तीन चेहरे हैं। इन तीनों को एक परमात्मा में डाल दिया। तर्क कहेगा कि जो बनाता है, वह मिटाएगा क्यों? अतर्क कहता है कि जो बनाता है, उसे मिटाना ही पड़ेगा, नहीं तो बना कैसे सकेगा? तुम चाहते हो जन्म तो परमात्मा ने दिया और मृत्यु कोई और कहीं से आती है, दुश्मन से आती है। जिससे जन्म आता, उसी से मृत्यु आती है। जो तुम्हें भेजता, वही एक दिन तुम्हें बिदा कर लेता। सब उसका है। लेकिन जब सब उसका है, तो अड़चनें खड़ी होंगी, क्योंकि तब चीजें साफ-सुथरी न रह जाएंगी।
तर्क की दुनिया में चीजें साफ-सुथरी होती हैं। तर्क की दुनिया ऐसी है जैसे तुम्हारे आंगन में लगा बगीचा--सब साफ-सुथरा है। अतर्क की दुनिया ऐसी है जैसे जंगल--वहां कुछ भी साफ-सुथरा नहीं है, सब उलझन है। तुम यह जान कर चकित होओगे कि जो बात बिलकुल साफ-सुथरी मालूम पड़े, समझ लेना आदमी की बनाई हुई है। जो बात बिलकुल साफ-सुथरी मालूम पड़े, समझ लेना सत्य नहीं हो सकती। साफ-सुथरापन और सत्य साथ-साथ नहीं जाते। साफ-सुथरापन चाहिए हो तो सत्य को सूली चढ़ा देनी होती है। सत्य की कीमत पर साफ-सुथरापन होता है। और अगर सत्य चाहिए हो, तो सत्य तो रहस्य है, साफ-सुथरा नहीं है। सत्य तो बड़ा जटिल है और उलझा हुआ है। गुत्थी है, जो सुलझाए नहीं सुलझी और सुलझाए नहीं सुलझेगी। जो कभी नहीं सुलझेगी। जिसका होना ही रहस्यपूर्ण है। हम कभी उसे जान न पाएंगे। और हम कभी ठीक-ठीक अपने कठघरों में सत्य को बिठा न पाएंगे। हमारी कोटियों में हम सत्य को बांट न पाएंगे।
परमात्मा को जो अतीत में अलग-अलग ढंगों से कहा गया, वे तर्क की सरणियां हैं। एक तर्क पकड़ो, तो परमात्मा के लिए एक तरह की अभिव्यक्ति देनी जरूरी हो जाएगी। दूसरा तर्क पकड़ो, तो परमात्मा को दूसरी तरह की अभिव्यक्ति देनी जरूरी हो जाएगी। मैं अतर्क्य हूं। मैंने कोई तर्क की लकीर नहीं पकड़ी है। परमात्मा जैसा है, अनंत रहस्यपूर्ण, उसे अनंत मार्गों से कह रहा हूं। और आज यह संभव है। यह कल संभव नहीं था। मनुष्य-जाति प्रौढ़ हुई है, चेतना विकसित हुई है। लेकिन तुम्हारे मन में एक धारणा बिठाई गई है कि सतयुग पहले था और अब कलियुग है। और मैं तुमसे उलटा करने को कह रहा हूं, मैं कह रहा हूं, कलियुग पहले कभी रहा होगा, अब सतयुग है। बेचैनी मालूम होती है। क्योंकि बड़ी रूढ़ धारणा है कि स्वर्णयुग बीत चुका है।
दुनिया में तीन तरह के लोग हैं। एक, जिनका स्वर्णयुग बीत चुका है। तथाकथित धार्मिक लोग; हिंदू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी, जैन, बौद्ध, इनका स्वर्णयुग बीत चुका है, दुनिया उतार पर है, पतन हो रहा है। इसलिए ईसाइयत को डार्विन का विकासवाद जंचा नहीं। क्योंकि डार्विन का विकासवाद कहता है, विकास हो रहा है। और ईसाइयत कहती है, पतन हो रहा है। आदम का पतन हुआ तो तब से पतन जारी है। दुनिया के किसी धर्म ने डार्विन के विकासवाद को अंगीकार नहीं किया। क्योंकि दुनिया के सभी धर्म मानते हैं, उनका अतीत सुंदर था। स्वर्णकलश चमकते हुए अतीत में उन्हें दिखाई पड़ते हैं। कल्पना का जाल है वह अतीत, वैसा अतीत कभी था नहीं। तुम पुरानी से पुरानी किताब देखोगे तो तुम्हें समझ में आ जाएगा। पुरानी से पुरानी किताबें यह कहती हैं कि स्वर्णयुग पहले था। एक किताब नहीं है मनुष्य के पास, जो कहती हो स्वर्णयुग अभी है। वेद भी कहते हैं, स्वर्णयुग पहले था। लाओत्सु की किताब भी कहती है--ताओ-तेह-किंग--कि स्वर्णयुग पहले था। धन्य थे वे प्राचीन पुरुष। जो सबसे पुराना शिलालेख मिला है बेबीलोन में, छह हजार साल पुराना, वह भी कहता है: धन्य थे वे पुराने लोग।
तो ये पुराने लोग कब थे? एक भी प्रमाण नहीं है जब कोई कहता हो कि ये पुराने लोग अभी हैं, यह स्वर्णयुग अभी है। नहीं, इसके पीछे कुछ मनोवैज्ञानिक भ्रांति है। इसके पीछे वैसी ही मनोवैज्ञानिक भ्रांति है जैसे तुम अपने पिता से बात करो तो पिता कहेंगे, अरे, वे दिन जो हमने देखे, तुम क्या खाक देखोगे! और तुम पिता के पिता से पूछो, वे भी यही कहते हैं कि अरे, इसने क्या देखा? यह मेरे बेटे ने क्या देखा? स्वर्णदिन हमने देखे! और तुम पूछते चले जाओ, और हर बाप यह कहेगा कि स्वर्णदिन हमने देखे, अतीत में। दिन गए, असली मजे के दिन तो गए। अब तो दुख के दिन हैं।
इसके पीछे मनोविज्ञान है। मनोवैज्ञानिक इसके विश्लेषण में जाता है, तो तथ्य पकड़ में आता है। तथ्य यह है कि हर आदमी को ऐसा खयाल है कि बचपन सुंदर था। और बचपन बीत गया है। कविताएं हैं, कहानियां हैं बचपन के सौंदर्य और बचपन की स्तुति में लिखी गई कि वे प्यारे दिन! हर आदमी को यह खयाल है कि बचपन बड़ा सुंदर था। इस खयाल में पीछे कुछ कारण है। एक तो यह, कोई उत्तरदायित्व नहीं था, कोई चिंता नहीं थी, कोई फिक्र-फांटा नहीं था; न काम था, न धाम था, जिंदगी मौज ही मौज थी, विश्राम ही विश्राम था। जिंदगी एक खेल थी, क्रीड़ा थी। फिर जिंदगी में अड़चनें आनी शुरू हुईं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, स्कूल जाना पड़ा। स्कूल से किसी तरह छूटे तो बाजार, घर-गृहस्थी। जाल बढ़ता गया। चिंता का बोझ गहन होता गया। सिर भारी होता गया। फिर वे बचपन के दिन जब तितलियों के पीछे दौड़ते थे, तुलना में बड़े सुंदर मालूम होने लगे। वे बचपन के दिन जब सागर के तट पर शंख-सीप बीन कर प्रसन्न हो लेते थे, बड़े स्वर्णिम मालूम होने लगे।
फिर बच्चे का मन काल्पनिक होता है। बच्चे को सपने में और सत्य में फर्क नहीं होता। उसका सत्य और सपना मिश्रित होता है। इसलिए तुम जिस बचपन की याद करते हो, वह जरूरी नहीं कि हुआ हो। उसमें बहुत कुछ तो तुम्हारा सपना मिला हुआ है। बहुत कुछ तो तुम्हारा निर्मित किया हुआ है, बनाया हुआ है। और जितना तुम्हारे जीवन में दुख बढ़ता है, चिंता बढ़ती है, उतना ही तुम उसका संतुलन बनाने के लिए बचपन में और थोड़ा सौंदर्य बढ़ा देते हो। तुम बचपन को लीपते-पोतते चले जाते हो, रंगते चले जाते हो। आखिर आदमी को कहीं तो सहारा चाहिए। आज तो दुख है, इस दुख से शरण पाने के लिए कहीं कोई शरण-स्थल चाहिए। तो सारे दुनिया के धर्मों ने अतीत में स्वर्णयुग रखा है।
फिर एक दूसरे तरह के लोग हैं, कम्युनिस्ट हैं, फासिस्ट हैं--राजनैतिक धर्म--उनका स्वर्णयुग भविष्य में है। वे कहते हैं, उटोपिया आने को है। आएगा! अभी आया नहीं है। अभी मेहनत करनी है, अभी संघर्ष करना है, अभी जद्दोजहद करनी है, अभी बड़ी कठिनाई है। लेकिन अंधेरी रात कटेगी, सुबह आने वाली है। किसी की सुबह जा चुकी है, किसी की सुबह आने वाली है। ये दो तरह के लोगों की भीड़ है दुनिया में। और इन दोनों की वजह से सुबह नहीं आ पाती। क्योंकि एक कहता है, आएगी कल। कल कभी आता है? और एक कहता है, गई कल। अब जो गई, गई। जो आया नहीं, वह आएगा नहीं। कल सदा कल है। एक कहता है, अतीत के गुणगान गाओ, पुरखों की स्तुति करो, वेदों और बाइबिल की पूजा करो। और दूसरा कहता है, दास कैपिटल, मार्क्स और लेनिन और एंजिल्स और माओ, इनकी सुनो, इनके द्वारा स्वर्णयुग आने वाला है। और उस स्वर्णयुग के लिए जो भी कुर्बानी करनी है, करो। एक कहता है, पुरखों के लिए मर जाओ। एक कहता है, आने वाले बच्चों के लिए मर जाओ। लेकिन तुमसे कोई नहीं कहता कि अपने लिए जीओ।
मैं तुमसे वही कहना चाहता हूं कि अपने लिए जीओ। मैं तीसरे तरह का आदमी हूं, जो तुमसे कहता है कि स्वर्णयुग अभी है! और अभी है, तो ही कभी हो सकता है। अगर अभी नहीं है, तो कभी नहीं होगा। क्योंकि संसार में समय का एक ही ढंग है--अभी। अतीत नहीं हो चुका, भविष्य अभी हुआ नहीं, जो है हमारे हाथ में संपदा वह वर्तमान की है। और वर्तमान की संपदा ही सदा होती है। तुम्हारे पुरखों के हाथ में भी जो समय था, वह वर्तमान था। तुम्हारे बच्चों के हाथ में भी जो समय होगा, वह भी वर्तमान होगा। समयके घटने का ढंग वर्तमान है। अतीत स्मृति है, भविष्य कल्पना है।
तुम किताबों में लिखा देखते हो कि समय के तीन रूप हैं--अतीत, वर्तमान, भविष्य। वह बात गलत है। वह दृष्टि गलत है। समय का तो एक ही ढंग है--वर्तमान। स्मृति में अतीत है और कल्पना में भविष्य है, वे समय के हिस्से नहीं हैं। इन वृक्षों से पूछो, कोई अतीत है? कोई अतीत नहीं है। कोई भविष्य है? कोई भविष्य नहीं है। फूल अभी खिले हैं और सदा अभी खिलते हैं। वृक्ष अभी हरे हैं और सदा अभी हरे होते हैं। अगर आदमी जमीन से बिदा हो जाए, तो कोई अतीत होगा? कोई इतिहास होगा? या कि कोई उटोपिया होगा? दोनों विदा हो जाएंगे। आदमी के मन के खेल थे। अस्तित्व एक ही घड़ी को जानता है, वह वर्तमान की घड़ी है।
मैं चाहता हूं कि तुम इस बात को समझो कि न तो पीछे अपने स्वर्णयुग को रखो, न आगे अपने स्वर्णयुग को रखो। दोनों हालत में तुम दुखी रहोगे और दुख में ही मरोगे। स्वर्णयुग अभी है। और अगर जीने की कला आती हो, तो अभी आनंद बरसेगा।
मनुष्य प्रौढ़ है, इतना प्रौढ़ जितना कभी भी नहीं था। मनुष्य पतित नहीं हो रहा है। डार्विन सच है, मनुष्य विकसित हो रहा है। यह गंगा सागर के करीब पहुंच रही है। गंगोत्री में गंगा की धारा बड़ी क्षीण है। फिर रोज-रोज बड़ी होती जाती है, क्योंकि रोज-रोज नये नाले, नये नद, नये जलस्रोत मिलते जाते हैं। आज से पांच हजार साल पहले जिनके पास वेद था उनके पास सिर्फ वेद था, उनके पास बाइबिल नहीं थी। और जिनके पास बाइबिल थी, उनके पास सिर्फ बाइबिल थी, वेद नहीं था। आज तुम धन्यभागी हो, तुम्हारे पास वेद भी है, कुरान भी है, बाइबिल भी है, धम्मपद भी है। आज बहुत सी धाराएं आकर चेतना की गंगा में मिल गई हैं। आज की दुनिया में जो कहता है: मैं सिर्फ मुसलमान हूं, उसे अजायबघर में रख दो। आज की दुनिया में जो कहता है: मैं सिर्फ हिंदू हूं, वह आदमी जिंदा नहीं है। आज की दुनिया में जो हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, सब एक साथ नहीं है, वह आदमी ही नहीं है। आज तो सारी मनुष्य-जाति की वसीयत हमारी है। आज कुरान मेरा उतना ही है, जितना धम्मपद। और गीता मेरी उतनी ही है, जितना ताओ-तेह-किंग।
पृथ्वी एक हुई है। आदमी इकट्ठा हुआ है। सारी चेतना की अलग-अलग विकसित होती धाराएं एक गंगा में सम्मिलित हुई हैं। इसलिए आज यह संभव है कि हम सारी अभिव्यक्तियों का उपयोग कर लें और कोई अड़चन न आए। इसलिए तो मैं जीसस पर बोलता हूं, कोई अड़चन नहीं है; महावीर पर बोलता हूं, कोई अड़चन नहीं है; बुद्ध पर बोलता हूं, कोई अड़चन नहीं है। कोई अड़चन का कारण नहीं है। अड़चन खड़ी होगी तर्कवादी को। वह कहेगा, जीसस ने ऐसा कहा और महावीर ने वैसा कहा। उसका सत्य बड़ा छोटा है। अगर जीसस का सत्य सत्य है, तो फिर महावीर असत्य हो जाते हैं।
मेरा सत्य बहुत बड़ा है। उसमें जीसस ने जो कहा वह एक पहलू है, महावीर ने जो कहा वह दूसरा पहलू है। वे दोनों पहलू आपस में विपरीत हों, मगर वे एक ही सत्य के पहलू हैं। तुम्हारी पीठ और तुम्हारा चेहरा एक ही आदमी के हिस्से हैं, हालांकि एक-दूसरे के विपरीत हैं--तुम्हारी पीठ और तरफ, तुम्हारा चेहरा और तरफ। तुम्हारा बायां हाथ और तुम्हारा दायां हाथ एक-दूसरे के विपरीत हैं, और चाहो तो दोनों को लड़ा भी सकते हो। या कि नहीं लड़ा सकते? बाएं-दाएं हाथ को लड़ा सकते हो, इतने विपरीत हैं। और बाएं-दाएं हाथ का एक ही काम में सहयोग भी ले सकते हो। तुम पर निर्भर है। बाइबिल और कुरान लड़ेंगे या साथ-साथ खड़े होंगे, तुम्हारा बायां और दायां हाथ लड़ेगा कि संयुक्त सहयोग करेगा, यह तुम पर निर्भर है।
जितना प्रौढ़ आदमी होगा, उतना ही मनुष्य-जाति की सारी संपदा को अपनी मानेगा। यह सब तुम्हारा है। इसमें कुछ भी छोड़ने जैसा नहीं है। और कहीं अगर तुम्हें अड़चन मालूम होती हो, तो उस तर्क को छोड़ देना जिसके कारण अड़चन मालूम होती हो। मगर इस विराट में भेद मत करना। सब ठीक कहते हैं। सबके ठीक उनके समय के ठीक हैं। उनके समय में जो बात कही जा सकती थी, उन्होंने कही। मेरे समय में जो बात कही जा सकती है, वह मैं तुमसे कह रहा हूं।
यहां मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं: अदभुत बात है! यहां हिंदू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं, सब तरह के लोग हैं। आपने बड़ा समन्वय किया!
मैं उनसे कहता हूं, समन्वय की बात ही नासमझी की है। समन्वय का तो मतलब यह होता है कि हमने विरोध मान ही लिया। समन्वय का अर्थ होता है: विरोध था, हमने तालमेल जुड़ा दिया। मैं कहता हूं, विरोध है ही नहीं; समन्वय की बात बकवास है।
महात्मा गांधी दोहराते थे अपने आश्रम में: अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान। उनको थोड़ा-बहुत शक रहा होगा। नहीं तो दोनों नाम उसके हैं, इसको रोज-रोज दोहराने की कोई जरूरत नहीं थी। हैं ही, इसको दोहराना क्या? तुम रोज-रोज यह तो नहीं कहते कि यह दीवाल दीवाल है। तुम रोज-रोज यह तो नहीं कहते कि मैं पुरुष हूं, मैं स्त्री हूं। कोई जरूरत नहीं है। और जब महात्मा गांधी को गोली लगी तब पता चल गया कि मुंह से हे राम निकला! अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम खो गए। भीतर पड़ा हिंदू--गहरे में पड़ा हिंदू प्रकट हुआ।
गांधी ने कुरान की कुछ आयतों की प्रशंसा की है। लेकिन उस प्रशंसा में बेईमानी है। वे आयतें वे ही हैं जो गीता से मेल खाती हैं। वह गीता की ही परोक्ष रूप से प्रशंसा है। जो आयतें गीता के विपरीत हैं, गांधी ने उनकी बात ही नहीं उठाई। यह कोई बात हुई? गीता में जो-जो है, वह ठीक है; अगर कुरान में भी है तो ठीक होना ही चाहिए, क्योंकि गीता ही जब कह रही है। और गीता सत्य का मापदंड है। यह कोई समन्वय हुआ? यह ऊपर की लीपा-पोती हुई। यह राजनीति है। इस राजनीति का कोई मूल्य नहीं है।
इसलिए गांधी जिन्ना को धोखा न दे पाए। गांधी हिंदू थे तो जिन्ना मुसलमान था। और जितना ही मैंने इस पर सोचा है, मैंने पाया है, अगर गांधी न होते तो शायद हिंदुस्तान-पाकिस्तान न बंटता। क्योंकि गांधी की थोथी समन्वय की बात जिन्ना को कभी जमी नहीं। वह समन्वय थोथा था, ऊपर-ऊपर था; भीतर गहरे में हिंदू धारणा थी। हर चीज में हिंदू धारणा थी। हां, इतनी कुशलता थी कि हिंदू धारणा जहां-जहां किसी और से मेल खाती हो, उसको भी ठीक कहते थे। मगर उसको ठीक कहने का कोई प्रयोजन ही नहीं रहा। दूसरे को ठीक कहने का अर्थ तभी है, जब तुम्हारे विपरीत धारणा जाती हो। लेकिन तब समन्वय की बात नहीं उठती। तब तो सत्य एक है, उसके अनेक पहलू हैं। सब पहलू अपने ढंग से सही हैं, और कोई पहलू पूरे सत्य का प्रतिपादक नहीं है। और कोई पहलू पूरे सत्य का दावा नहीं कर सकता--न गीता, न कुरान, न बाइबिल; न मैं, न तुम, कोई कभी पूरे सत्य का दावा नहीं कर सकता। सत्य इतना विराट है कि उसके नये-नये पहलू रोज-रोज उघड़ते रहेंगे। मेरे बाद लोग होंगे और वे सत्य के और-और नये पहलू खोजेंगे। आदमी विकसित होता रहेगा, सत्य की नई-नई भूमियां टूटती रहेंगी। सत्य के नये-नये लोक खोजे जाते रहेंगे। और इसका कोई अंत नहीं है। यह यात्रा अनंत है। इसलिए कहीं सत्य समाप्त नहीं होता। जितना हमने जाना, उतना सत्य है, उसके पार भी सत्य है जो दूसरे जानेंगे, जो कभी जाना जाएगा।
समन्वय की बात नहीं है, विराट पर दृष्टि रखने की बात है। अनंत पर दृष्टि रखने की बात है।
इसलिए मैं इन सारी अभिव्यक्तियों का उपयोग करता हूं। ऐसी अभिव्यक्तियां जो कि बिलकुल ही विरोधी हैं, फिर भी मुझे विरोध नहीं दिखाई पड़ता। क्योंकि मैं दोनों के भीतर छिपे हुए एक ही परमात्मा को देखता हूं।
जैसे समझो, इतनी विरोधी बात है! महावीर ने कहा: आत्मा ही एकमात्र ज्ञान है; जिसने आत्मा को जाना, उसने सब जाना। और बुद्ध ने कहा: आत्मा ही एकमात्र अज्ञान है; और जिसने आत्मा को माना, उससे बड़ा कोई अज्ञानी नहीं है। अब इससे विपरीत और क्या दो बातें खोजोगे? लेकिन फिर भी मैं तुमसे कहता हूं: ये दोनों पहलू एक ही सत्य के हैं। महावीर जब कहते हैं आत्मा, तो एक पहलू प्रकट करते हैं। क्योंकि सत्य की परम अनुभूति में ही पता चलता है कि मैं हूं। मेरा होना तब तक तो रेत पर बना है, जब तक मुझे सत्य की अनुभूति नहीं हुई। तब तक तुम्हारे होने का क्या अर्थ है?
तुमसे कोई पूछे कि तुम कौन हो, तो तुम क्या उत्तर दोगे? नाम बताओगे। लेकिन नाम तो सब झूठे हैं, रखे हुए हैं। जब तुम पैदा हुए थे, राम रख लेते तो चल जाता, रहीम रख लेते तो भी चल जाता। कुछ भी नाम रख देते तो चल जाता। सब नाम रखे हुए हैं। नाम आज बदल सकते हो। जितनी दफे जिंदगी में नाम बदलना चाहो, बदल सकते हो। नाम का कोई भी मूल्य नहीं है। तुमसे कोई पूछता है, आप कौन हैं? तो तुम नाम बता सकते हो। बहुत से बहुत अपनी तस्वीर बताओगे कि यह मैं हूं। पासपोर्ट पर यही तो होता है--नाम होता है और तस्वीर होती है। मगर तुम्हारी तस्वीर तुम हो? तुम्हारी तस्वीर भी तो कितनी बार बदल चुकी! जब तुम छोटे थे, तुम्हारी एक तस्वीर थी; जब तुम जवान हुए, दूसरी तस्वीर हो गई; अब तुम बूढ़े हो, तीसरी तस्वीर हो गई; रोज-रोज तस्वीरें बदलती गई हैं। तुम तस्वीरों की एक धारा हो। सब बह रहा है। कौन सी तस्वीर तुम हो?
थोड़ा समझो। पहले दिन जब तुम्हारे मां और पिता के वीर्याणु गर्भ में मिले, उसकी तस्वीर खींची जाती, वह भी तुम्हारी तस्वीर थी। उसको देखने के लिए खुर्दबीन की जरूरत पड़ती, उसको ऐसे देखा भी नहीं जा सकता। और कुछ खास दिखाई भी न पड़ता। पहला अणु--उस अणु में न नाक थी, न कान था, न चेहरा था, न रंग था, न रूप था। वह अणु तुम थे, वह तुम्हारी तस्वीर थी। आज तुम्हें कोई वह तस्वीर बताए, तो तुम मानने को राजी नहीं होओगे कि यह मैं कभी था।
फिर तुम मां के पेट में बढ़ते रहे। वैज्ञानिक कहते हैं कि तुमने वे सारी सीढ़ियां पार कीं, जो मनुष्य ने अपने विकास के अनंत काल में पार की हैं। सबसे पहले तुम मछली जैसे थे मां के पेट में, और आखिर-आखिर तक तुम बंदर जैसे हो गए। वे सब तस्वीरें तुम्हारी थीं। जिस दिन तुम पहले दिन पैदा हुए थे, आज अगर वह तस्वीर तुम्हें बताई जाए, क्या तुम पहचान सकोगे कि यह तस्वीर मेरी है? मगर तुम्हारी थी। और ऐसे ही जिस तस्वीर को तुम आज अपनी कह रहे हो, यह भी कल तुम्हारी न रह जाएगी।
तुम कौन हो? तुम्हारा नाम? तुम्हारा रूप? तुम कौन हो? तुम्हारा धन? तुम्हारा बैंक बैलेंस? तुम्हारी तिजोड़ी? तुम्हारी दुकान? तुम्हारा काम? तुम्हारा व्यवसाय? तुम कौन हो? ये सब बातें तुम्हारे कौन को प्रकट नहीं करतीं।
महावीर कहते हैं: जब सत्य जाना जाता है, जब कोई अपने अंतर्तम में प्रविष्ट हो जाता है, तब पहली बार जानता है कि मैं कौन हूं। वह उत्तर ही आत्मा है।
बुद्ध कहते हैं: जब कोई पहली दफा उस जगह पहुंचता है जहां पता चलता है कि क्या है, तो वहां एक बात पता चलती है कि हूं तो जरूर, लेकिन मैं कोई भी नहीं, मैं जैसा कोई भाव नहीं उठता वहां; सिर्फ शुद्ध अस्तित्व का बोध होता है। अहंकार की वहां कोई धारणा नहीं होती। चूंकि अहंकार की कोई धारणा नहीं होती, इसलिए बुद्ध कहते हैं, वहां आत्मा नहीं होती।
दोनों सही कहते हैं।
महावीर कहते हैं: वहां पहली दफा आत्मा होती है; उसके पहले सब झूठ। और बुद्ध कहते हैं: उसके पहले तो सब झूठ था ही, यह आत्मा शब्द भी उसके पहले ही पकड़ा गया है, यह भी वहां नहीं होता। वहां निराकार होता है, निर्गुण होता है, शून्य-भाव होता है। दोनों ठीक कहते हैं। अगर दोनों को एक साथ कहो तो विरोधाभासी वक्तव्य हो जाएगा।
जीसस ने यही कहा है। जीसस ने कहा है: जो अपने को खोएगा, वह पाएगा। जो अपने को मिटाएगा, हो जाएगा। जो अपने को बचाएगा, खो देगा। अग
र अपने को पाना हो, तो अपने को मिटा दो।
जीसस के वक्तव्य में बुद्ध और महावीर की, दोनों की बातें आ गईं। बीज अपने को मिटाता है तो वृक्ष हो जाता है। बूंद अपने को मिटाती है तो सागर हो जाती है। मिटना और होना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। महावीर ने एक पहलू पर जोर दिया, बुद्ध ने दूसरे पहलू पर जोर दिया। और दोनों के जोर देने के अपने-अपने कारण थे, अपना-अपना प्रयोजन था। और दोनों के जोर देने को हम गलत नहीं कह सकते। दोनों बातें सच हैं। दोनों बातें एक साथ सच हैं।
जब सारे शास्त्र एक साथ सच हो जाते हैं, तब तुम समझना कि तुम्हारे जीवन में छोटी-छोटी सीमाएं टूटीं, छोटे-छोटे आंगन मिटे, तुम आकाश बने। जिस दिन तुम एक ही साथ बाइबिल, कुरान और वेद के लिए गवाही दे सको, उस दिन समझना कि तुम प्रौढ़ हुए, उस दिन बचपन गया।
आज मनुष्य प्रौढ़ है। इसलिए यह संभव है कि जो मैं कह रहा हूं वह कहा जा सके। मेरी बातों में तुम्हें बहुत विरोधाभास मिलेंगे। अनिवार्य हैं। अगर सत्य कहना हो तो विरोधाभासी होगा, पैराडाक्सिकल होगा। अगर असत्य कहना हो तो विरोधाभासी नहीं होता, कोई जरूरत नहीं है असत्य के विरोधाभासी होने की। असत्य साफ-सुथरा होता है। सत्य रहस्यपूर्ण है।
मगर यही तो मजा है सत्य का कि वह रहस्यपूर्ण है। मैं चाहूंगा कि तुम भी इस रहस्य में उठो। तर्क के साफ-सुथरेपन को छोड़ो, तर्क की बनाई हुई बगिया को छोड़ो, सत्य के जंगल में प्रवेश करो। वहीं आनंद है, क्योंकि वहां परमात्मा के हाथ की छाप है। तुम्हारे बगीचे में सब कृत्रिम है।
मेरे इस बगीचे में लोग आते हैं, वे कहते हैं, यह कैसा जंगल जैसा है!
जान कर यह जंगल जैसा है। मैं भी जंगल जैसा हूं।
तुमने पश्चिम के बगीचे देखे? पश्चिम के बगीचे बिलकुल कटे-छंटे होते हैं। इसी अर्थ में कुरूप होते हैं। सिमिट्रिकल होते हैं। एक तरफ एक वृक्ष लगाया, तो ठीक वैसा वृक्ष दूसरी तरफ लगाया; दोनों को एक जैसा काटा। जंगल में कहीं तुम दो वृक्ष एक जैसे पा सकते हो--एक जैसे कटे? एक जैसे लगे? जंगल की खूबी क्या है? जंगल की खूबी यह है कि वहां सिमिट्री नहीं है। झेन बगीचा होता है जापान में, उसमें सिमिट्री नहीं होती। वह जंगल के करीब होता है। और वहां तुम ज्यादा सौंदर्य पाओगे, क्योंकि सौंदर्य की जब भी सीमा बनाई जाती है तभी सौंदर्य सिकुड़ जाता है। सौंदर्य जीता ही असीम में है।
एक पक्षी को पिंजड़े में बंद करके रख दिया है, यह भी पक्षी है माना, मगर क्या बहुत पक्षी है? ज्यादा पक्षी नहीं है। क्योंकि पक्षी उतना ही होता है जितना खुला आकाश उसे उपलब्ध होता है। पक्षी का सौंदर्य तब है, जब वह अपने पंखों पर उड़ा होता है। जब सारा आकाश उसे उपलब्ध होता है, और जहां जाना हो वहां जाने की स्वतंत्रता होती है। और जैसा होना हो वैसे होने की स्वतंत्रता होती है। उड़े तो उड़े, न उड़े तो न उड़े, लेकिन सब उसके ऊपर निर्भर होता है, सब उसकी अंतरात्मा पर निर्भर होता है।
इस पक्षी को तुमने सोने के पिंजड़े में बिठा दिया। पिंजड़ा तुमने बहुत कारीगरी से बनाया, साफ-सुथरा भी रखते हो--ऐसा साफ-सुथरा यह पक्षी अपने नीड़ को नहीं रख सकता था--लेकिन फिर भी क्या तुम्हारे साफ-सुथरे पिंजड़े में पक्षी रहने को राजी होगा? चाहेगा उड़ जाए आकाश में।
तर्क पिंजड़े जैसा है। साफ-सुथरा, सोने का बना, हीरा जड़ा। अतर्क खुले आकाश जैसा है। तर्क के साथ सुरक्षा मालूम होती है, क्योंकि तर्क तुम्हारी मुट्ठी में होता है। सत्य के साथ असुरक्षा मालूम होती है, क्योंकि तुम सत्य की मुट्ठी में होते हो। इसलिए लोग तर्क को पकड़ लेते हैं। तर्क है अंधे आदमी की लकड़ी, लंगड़े आदमी की बैसाखी। फेंको बैसाखियां! खतरा मोल लो! क्योंकि बिना खतरा मोल लिए कोई सत्य तक नहीं पहुंचता है।
मैं तुम्हें सब पहलुओं से कह रहा हूं, एक बात याद दिलाने को कि तुम्हारे मन में यह बात साफ हो जाए कि किसी एक पहलू को पकड़ना संकीर्ण होना है। सारे पहलुओं को साथ आने दो। आने दो सब लहरों को, आने दो सब दिशाओं से परमात्मा को, आने दो सब रूपों में। और तुम उसे हर रूप में पहचानने में सफल हो जाओ, यह मेरी चेष्टा है। जिस दिन तुम उसे हर रूप में पहचानने में सफल हो जाओगे, तुम उसे सब जगह पाओगे--क्योंकि सब रूप उसके हैं। वृक्षों में भी वही, पहाड़ों में भी वही, चांद-तारों में भी वही, लोगों में भी वही। तुम्हारी पत्नी और तुम्हारे पति और तुम्हारे मित्र और तुम्हारे शत्रु में भी वही, जरा तुम्हारी आंख पहचानना शुरू कर दे।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, आपने कहा कि नेति-नेति ज्ञान का उदघोष है और इति-इति भक्ति का। भक्ति के इस उदघोष में तो अंधेरा, कल्मष और पाप, सब आ जाते हैं। क्या परमात्मा सब है?
तुम्हारा मन हिम्मत ही नहीं कर पाता। तुम परमात्मा पर सीमा लगाने को बड़े आतुर हो। परमात्मा असीम हो, इससे तुम्हें भय लगता है--कि कहीं असीम के साथ दोस्ती की, तो खो न जाएं। तुम चाहते हो कि साफ-सुथरा हो जाए परमात्मा के संबंध में सब। हम उसे भी, जैसे हम कबूतरों को उनके दड़बों में बंद कर देते हैं, ऐसे परमात्मा को भी एक दड़बे में रख दें। कैटेगरी, एक कोटि बना दें उसकी, कि यह रहा परमात्मा, और यह रही पहचान, और सम्हालो अपना पासपोर्ट--यह तुम्हारा नाम है, और यह तुम्हारी शक्ल है, और भूल मत जाना, और यहां-वहां पासपोर्ट गंवा मत देना--तो हम निश्चिंत हो जाएं।
तुम देखते हो, तुम्हें राह में कोई आदमी मिल जाता है तो तुम उससे क्या पूछते हो? तुम निश्चिंत होने के लिए पूछते हो। ट्रेन में कोई आदमी मिल जाता है, अजनबी आदमी, तुम जल्दी से निश्चिंत होना चाहते हो कि कौन है--आपका नाम? कहां से आ रहे हैं? जाति? कौन सा धंधा करते हैं?
तुम क्या कर रहे हो? तुम यह कर रहे हो कि यह आदमी पड़ोस में बैठा है, पक्का तो हो जाए--डाकू है, कि चोर है, कि और भी खतरनाक राजनीतिज्ञ है, कि व्यवसायी है, कौन है? निश्चिंत हो जाएं इसके बाबत। यह बगल में ही बैठा है, जेब भी इसके पास ही है हमारी, कब हाथ डाल दे! गर्दन भी पास है, रात सोना भी पड़ेगा, यह आदमी यहां बैठा है।
मैं एक दफा एक ट्रेन में सवार हुआ। बंबई के स्टेशन पर मित्र मुझे छोड़ने आए थे। उस डिब्बे में एक सज्जन और थे, वे देख रहे थे--ये सारे लोग, फूलमालाएं, लोग चरण छू रहे। वे प्रतीक्षा कर रहे थे कि जैसे ही मैं अंदर आऊं और गाड़ी चले। जैसे ही मैं अंदर आया और गाड़ी चली, वह एकदम साष्टांग उन्होंने दंडवत की कि महात्माजी, बड़ी ईश्वर की कृपा कि आपका सत्संग मिल गया। मैंने कहा, आप बड़ी भूल में हैं। मैं हिंदू महात्मा नहीं हूं; मैं मुसलमान फकीर हूं। उनका चेहरा देखने लायक था। मुसलमान के पैर छू लिए! बोले, नहीं-नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है? जैसे कि मेरे मुसलमान होने में कोई अड़चन है--ऐसा कैसे हो सकता है? नहीं-नहीं, आप मजाक कर रहे हैं। अब वे अपने को समझाने लगे कि आप मजाक कर रहे हैं। मैंने कहा, मजाक क्यों करूंगा? सच्ची बात आपसे कह दी। वैसे आपकी मर्जी। हिंदू मानना हो, हिंदू मान लो। अब उनको बड़ी बेचैनी हो गई। पैर छू लिए! मैंने कहा, आपको ज्यादा बेचैनी हो तो मैं आपके पैर छू लूं; तो उधार खतम। नहीं-नहीं, उन्होंने कहा, ऐसी कोई बात नहीं है। मगर आप लगते तो हिंदू हैं। मैंने कहा, बड़ी मुश्किल है। मैं कहता हूं कि मैं मुसलमान हूं, आप कहते हैं कि आप लगते हिंदू हैं। आपको सिर्फ अपना बचाव करना है, क्योंकि वह जो पैर छू लिए।
फिर वे अपना अखबार पढ़ने लगते। फिर बार-बार देखते, कोशिश करते कि आदमी हिंदू है कि मुसलमान है। मैंने उनसे कहा, नाहक न परेशान हों, मैं हिंदू ही हूं, ऐसे ही मजाक कर रहा था। फिर उन्होंने दंडवत किया। उन्होंने कहा कि वह मैं जानता ही था। आप बिलकुल हिंदू मालूम पड़ते हैं। जो लोग छोड़ने आए थे, वे भी हिंदू थे। आपने भी खूब मजाक किया! उन्होंने फिर जब पैर छू लिए, मैंने कहा, अब यह और झंझट हो गई। मैं मजाक अब कर रहा था। तब जरा बात ज्यादा हो गई। तब तो वे थोड़े भयभीत हो गए कि पता नहीं यह आदमी पागल है! जैसे ही टिकट कलेक्टर आया, वे बाहर गए और उससे बोले कि मुझे दूसरे कमरे में जाना है। टिकट कलेक्टर ने पूछा, क्या तकलीफ है आपको? कहा, तकलीफ की मत पूछो, मैं इसमें सो न सकूंगा।
तुम निश्चिंत होना चाहते हो। अगर हिंदू है तो फिर तुम पूछते हो, ब्राह्मण हो कि क्षत्रिय कि वैश्य? तुम कोशिश कर रहे हो कि इस आदमी को ठीक से एक हिसाब में बिठा लें। तुमने हिसाब बना रखे हैं। अगर तुम हिंदू हो तो तुम सोचते हो--मुसलमान खतरनाक! अगर तुम मुसलमान हो तो तुम सोचते हो--हिंदू बेईमान, चालबाज, धूर्त! अगर तुम हिंदू हो और ईसाई है, तो तुम सोचते हो--म्लेच्छ, अपवित्र! अगर तुम ईसाई हो और दूसरा हिंदू है, तो तुम सोचते हो--भ्रष्ट, अधार्मिक, भटका हुआ, काफिर! तुमने कोटियां बना रखी हैं। जब भी एक नया आदमी मिलता है, तुम उसको कोटि में बिठा देते हो। कोटि में बिठाने से तुम्हें निश्चिंतता हो जाती है। अब तुम जानते हो इस आदमी के साथ कैसा व्यवहार करना, और इससे क्या अपेक्षा रखनी। और मजा यह है कि सब कोटियां झूठी हैं। यह आदमी तुम्हें पहली बार मिला है, और ऐसा आदमी तुम्हें कभी नहीं मिला, और दो आदमी दुनिया में एक जैसे नहीं होते, इसलिए सब कोटियां फिजूल हैं। दो आदमी एक जैसे होते ही नहीं। परमात्मा डुप्लीकेट बनाता ही नहीं। परमात्मा के उस विराट से आदमी ऐसे नहीं आते जैसे फोर्ड के कारखाने से कारें निकलती हैं--कतार बंधी एक सी कारें। प्रत्येक आदमी अनूठा है, विशिष्ट है। कोटियां व्यर्थ हैं।
आदमी पर कोटि नहीं लगती, लेकिन तुम परमात्मा पर भी कोटि लगाना चाहते हो। तुम अपनी धारणाएं अपने पर तो थोपे ही हुए हो, तुम परमात्मा पर भी थोपना चाहते हो। तुम कहते हो, जिसको मैं शुभ मानता हूं, वह तो परमात्मा में हो तो मैं आज्ञा दूंगा; लेकिन जिसको मैं अशुभ मानता हूं, उसको कैसे परमात्मा में मानूं?
तुम्हारे शुभ-अशुभ की धारणा का मूल्य कितना है? क्या शुभ है? क्या अशुभ है? किस बात को तुम शुभ कहते हो? तुमने जाना कैसे कि शुभ क्या है? किस बात को तुमने अशुभ तय कर लिया है? कैसे तय कर लिया है? कोई आदमी मर गया तो अशुभ है? इससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि तुम्हारी जीवेषणा प्रबल है, और कुछ नहीं। तुम सदा जीना चाहते हो, इसलिए मौत को अशुभ मानते हो। इससे मौत अशुभ नहीं होती, इससे सिर्फ तुम्हारी जीवन की प्रबल वासना सिद्ध होती है। तुम सदा जीना चाहते हो। हालांकि तुम्हारे जीवन में कुछ भी नहीं, मगर अपने को घसीटे रखना चाहते हो। किसी भी तरह जीना है। किसी भी कीमत पर जीना है। जीना तो है ही, चाहे नालियों में सड़ना पड़े, चाहे भूखों मरना पड़े, चाहे कैंसर से दबा रहना पड़े, जीना तो है ही। जीना शुभ है, जीवन शुभ है और मृत्यु अशुभ है।
तो सवाल उठता है कि परमात्मा कैसे मृत्यु का देने वाला हो सकता है? नहीं-नहीं, मृत्यु कहीं और से आती होगी। कोई शैतान होगा स्रोत मृत्यु का।
तुम कहते हो, फूल तो सुंदर हैं, कांटे सुंदर नहीं हैं। मगर यह तुम्हारी धारणा है। तुम्हारी धारणा परमात्मा मानने को मजबूर नहीं है। अच्छा तो यह हो कि तुम भी उसी तरह निर्धारणा में हो जाओ जैसे परमात्मा है। फूल भी सुंदर हैं और कांटे भी सुंदर हैं।
तुमने कांटे का सौंदर्य नहीं देखा? छोटी सी बात से तुम अटक गए हो कि कभी-कभी कांटा तुम्हारे हाथ में चुभ जाता है, हाथ से लहू निकल आता है। लेकिन लहू का रंग और फूल का रंग एक है। जैसे तुम्हारे हाथ से लहू निकला है, ऐसे ही इस कांटों से भरी झाड़ी में गुलाब निकला है। ये कांटे उस गुलाब की रक्षा कर रहे हैं। ये उस गुलाब के दुश्मन नहीं हैं, ये उसके पहरेदार हैं, ये उसके बॉडीगार्ड हैं, अंगरक्षक हैं। ये कांटे भी सुंदर हैं।
फिर तुम देखते हो, सौंदर्य की भी तो धारणाएं बदलती रहती हैं। जमाने गए जब गुलाब सुंदर हुआ करता था, अब कैक्टस सुंदर हो गया है। अब जो पढ़े-लिखे लोग हैं, सुसंस्कृत लोग हैं, उनके घर से गुलाब विदा हो गया--गुलाब यानी बुर्जुआ। गुलाब यानी मध्यमवर्गीय। गुलाब यानी रूढ़िग्रस्त, परंपरागत लोग। अब जो आधुनिक कवि हैं, वे गुलाब के गीत नहीं गाते। गुलाब के गीत कौन गाएगा? कैक्टस! उसके सुंदर कांटों, तिरछे-इरछे कांटों के गीत गाते हैं। कैक्टस को घर में सजाते हैं--बैठकखाने में। कैक्टस पहले भी लोग लगाते थे, खेत वगैरह की बागुड़ पर लगा देते थे कि जंगली जानवर भीतर प्रवेश न कर जाएं, कोई चोर न घुस जाए। अब कैक्टस बैठकखाने में आ गया। गुलाब जा चुका, गुलाब प्रतीक हो गया अरिस्ट्रोक्रेसी का, आभिजात्य का। कैक्टस--सर्वहारा, प्रोलिटेरिएट, गरीब, दरिद्रनारायण। भाषाएं बदल जाती हैं। पहले अगर परमात्मा गुलाब का फूल था, तो अब कैक्टस का पौधा है।
परमात्मा के ऊपर कोई धारणा नहीं लगती। धारणाएं तुम बनाते हो। फिर तुम थक जाते हो एक धारणा से, तो धारणा बदल लेते हो; ऊब जाते हो, तो धारणा बदल लेते हो। फिर नई धारणा कर लेते हो। उससे भी ऊब जाओगे।
जो व्यक्ति सभी धारणाओं से ऊब गया, वही धार्मिक है। जो कहता है, कोई धारणा न बिठाऊंगा। मैं हूं कौन? मेरा इस अस्तित्व पर बस क्या है? मैं अपने ढांचे में क्यों बिठालना चाहूं जगत को? मैं क्यों कहूं यह कुरूप, वह सुंदर? और परमात्मा सुंदर ही होना चाहिए, कुरूप नहीं? परमात्मा न तो सुंदर है और न कुरूप है। सुंदर और कुरूप की धारणाएं मनुष्य की ईजादें हैं।
तुम जरा सोचो। तीसरा महायुद्ध हो गया और सारे आदमी समाप्त हो गए। पृथ्वी पर कुछ सुंदर होगा, कुछ असुंदर होगा? गुलाब भी होंगे, कैक्टस भी होंगे, तुम न होओगे। लेकिन तब गुलाब और कैक्टस में फर्क करने वाला कोई न होगा। तब दोनों होंगे--न सुंदर, न असुंदर। रात भी आएगी और कोई डरेगा नहीं। और दिन भी आएगा और कोई सूरज की प्रार्थना और स्तुति नहीं करेगा। जिंदगी भी चलेगी, पौधे होंगे, पक्षी होंगे और मौत भी आएगी। लेकिन न तो जिंदगी का कोई स्वागत करने वाला होगा, न मौत का कोई इनकार करने वाला होगा। आदमी गया कि सब धारणाएं गईं। आदमी गया कि द्वंद्व गया।
तीसरे महायुद्ध की प्रतीक्षा मत करो। द्वंद्व को तुम गिरा दो अपने भीतर अभी। और तुम अचानक पाओगे कि द्वंद्व के गिरते ही न तो कुछ शुभ है, न कुछ अशुभ है। न कुछ नीति है, न कुछ अनीति है। और मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि तुम जाकर मनुष्यों के साथ ऐसा-तैसा कैसा भी व्यवहार शुरू कर दो। क्योंकि मनुष्य परमात्मा नहीं हैं, वे बर्दाश्त नहीं करेंगे। तुम यह मत कहना कि जब कुछ नीति नहीं, कुछ अनीति नहीं, तो बाएं क्यों चलूं? मैं दाएं चलूंगा, या बीच रास्ते में चलूंगा, जहां मौज होगी वैसे चलूंगा। वह जो पुलिसवाला खड़ा है, वह कोई परमहंस नहीं है, वह थाने ले जाएगा पकड़ कर, उस पर भी ध्यान रखना। बाएं ही चलना। लेकिन इतनी बात जान लेना कि बाएं चलो कि दाएं चलो, सब व्यावहारिक है, पारमार्थिक नहीं है। इनका मूल्य व्यावहारिक है।
अमरीका में लोग दाएं चलते हैं। इससे कुछ नुकसान नहीं हुआ जा रहा। हिंदुस्तान में बाएं चलते हैं, क्योंकि अंग्रेज बाएं चलने की आदत छोड़ गए। बाएं चलो कि दाएं चलो, लेकिन एक बात तय है कि जहां भीड़-भाड़ है, वहां कुछ नियम बनाना होगा। नियम सिर्फ व्यावहारिक है। अगर भीड़-भाड़ न हो तो नियम की कोई जरूरत नहीं होती। इसलिए छोटे देहात में बाएं चलो कि दाएं चलो, कौन फिक्र करता है? जहां मर्जी हो वहां चलो। कोई रोकने वाला भी नहीं है, कोई चिंता लेने वाला भी नहीं है। जैसे-जैसे नगर बड़ा होगा, वैसे-वैसे व्यवस्था आनी शुरू होगी। जितनी महानगरी होगी, उतने नियम आ जाएंगे। जितनी भीड़ होगी, उतने नियम लाने ही पड़ेंगे। अकेला आदमी बिना नियम के जी सकता है। जब तुम दूसरे से जुड़ते हो तो नियम अनिवार्य हो जाता है। लेकिन ध्यान रखना, नियम अनिवार्य है, फिर भी व्यावहारिक है, पारमार्थिक नहीं है। उसकी कोई अंततोगत्वा सत्ता नहीं है, वह कोई सत्य नहीं है।
परमात्मा न तो सुंदर है, न असुंदर। तुमने परमात्मा की सुंदर मूर्तियां बनाई हैं, वह तुम्हारे सौंदर्य की धारणा तुमने परमात्मा पर बिठा दी। इसलिए तुम देखो, दुनिया के अलग-अलग लोग परमात्मा की अलग-अलग ढंग की मूर्तियां बनाते हैं। क्योंकि उनकी सौंदर्य की धारणा अलग-अलग है। चीनी जब बनाएगा तो चपटी नाक बनाएगा। परमात्मा की सही, लेकिन चपटी ही नाक बनेगी। जब हिंदू बनाएगा, तो कश्मीरी नाक खोदेगा। जब नीग्रो, अफ्रीकी बनाएगा, तो मोटे ओंठ बनाएगा। क्योंकि अफ्रीकी मानता है, मोटे ओंठ सुंदर। ओंठों को मोटा करने के लिए अफ्रीकी औरतें और अफ्रीकी पुरुष बड़े उपाय करते हैं। पत्थर बांध-बांध कर लटकाते हैं। सौंदर्य का प्रसाधन है वह। जिसके ओंठ जितने चौड़े, उतना ही उसका चुंबन गहरा और जकड़ गहरी और पकड़ गहरी होती है। पतला ओंठ भी क्या खाक चूमेगा? पता ही नहीं चलेगा। उनकी धारणा में भी कुछ तो बात है।
लेकिन मोटा ओंठ हमें बेहूदा लगता है। जितनी भी आर्य जातियां हैं, उनके ओंठ पतले होते हैं, इसलिए पतला ओंठ सुंदर। उनकी नाक लंबी होती है, इसलिए लंबी नाक सुंदर। जितनी आर्य जातियां हैं, उनका स्वाभाविक रंग गोरा है, इसलिए गोरा रंग सुंदर। राक्षसों को तुम काला बनाते हो, गोरा नहीं। हालांकि गोरों में भी बड़े राक्षस होते हैं, और कालों में भी देवता पुरुष मिल जाते हैं। काले और गोरे से देवता और राक्षस का क्या लेना-देना? लेकिन तुम्हारी काले की धारणा।
हेराडोटस ने कहा है: अगर गधे और घोड़े अपना भगवान बनाएं तो आदमी की शक्ल में नहीं बनाएंगे। स्वाभाविक। तुम अपनी धारणाएं परमात्मा पर आरोपित करते हो। अपनी धारणाओं को विदा कर लो। तुम्हारी धारणाएं अड़ंगे हैं, बाधाएं हैं।
क्या कल्मष है?
तुम कहते हो कि परमात्मा अगर सब है, तो फिर अंधेरा, कल्मष और पाप, वह भी सब उसी में होगा?
कौन सी चीज पाप है? अर्जुन ने कृष्ण से कहा कि मैं नहीं काटूंगा इनको। ये मेरे सगे-संबंधी, ये मेरे मित्र हैं, ये मेरे साथ पढ़े सहपाठी हैं, ये मेरे परिवार से जुड़े हैं, चचेरे भाई हैं, ममेरे भाई हैं, हम सब साथ बड़े हुए हैं, यह सब मेरा ही परिवार बंट कर खड़ा है--आधा इस तरफ, आधा उस तरफ--इनको मैं नहीं काटूंगा।
उसकी पाप की एक धारणा है, कि अपनों को नहीं मारना। अगर ये अपने न होते, तो बेधड़क काटता। मगर अपने हैं, यह अड़चन है। अर्जुन को काटने में अड़चन नहीं है, आज तक नहीं आई थी अड़चन, महाभारत के पहले भी उसने बहुत लोग काटे थे, जिंदगी भर से ही योद्धा था। लड़ना-मारना उसकी जीवन-पद्धति थी, जीवन-शैली थी, लेकिन यह प्रश्न कभी नहीं उठा था। आज यह प्रश्न क्यों उठा? अपने को मारना, इसमें अड़चन है। अपने को कैसे मारें? अपने को मारने में पाप है।
कृष्ण ने पूरी गीता में एक ही बात समझाने की कोशिश की है कि तू कौन है पाप और पुण्य का निर्णायक? कौन अपना, कौन पराया? यहां न तो कोई अपना है, न कोई पराया है। और तू कैसे मारेगा? जब तक परमात्मा ने निर्णय न ले लिया हो कि किसी को विदा कर लेना है, तू नहीं मार सकेगा। मैं देखता हूं कि ये मर चुके हैं, सिर्फ तू एक निमित्त होगा। तू निमित्त नहीं होगा, तो कोई और निमित्त होगा। तू कर्ता बनने की धारणा छोड़।
लेकिन अर्जुन की बात बड़ी नैतिक है। वह बार-बार यही दोहराता है कि आप मारना, हिंसा, हत्या, इसको शुभ कह रहे हैं? ये अशुभ हैं।
लेकिन जगत में यह अशुभ घट रहा है विराट पैमाने पर। एक पक्षी आता है, सरकते हुए पतिंगे को खा जाता है; ऊपर से एक बाज झपट्टा मारता है, पक्षी को खा जाता है। छोटी मछली बड़ी मछली के द्वारा खाई जा रही है। सारे जगत में हर चीज एक-दूसरे का भोजन है। अगर हिंसा पाप है तो यह सारा अस्तित्व पाप से भरा है। मगर हिंसा पाप है, यह हमारी धारणा है। हिंसा क्यों पाप है? क्योंकि हम नहीं चाहते हैं कि कोई हमें मारे। वह भय भीतर कि कोई हमें मारे न, प्रकट में, हिंसा पाप है, ऐसा सिद्धांत बन जाता है।
इसलिए तुमने देखा, जितने कमजोर और कायर लोग होते हैं, अहिंसा परमो धर्मः के सिद्धांत को जल्दी से मान लेते हैं। और अहिंसा परमो धर्मः के सिद्धांत ने लोगों को कायर भी बनाया। इस देश में जो हजार साल तक गुलामी चली, वह न चली होती--अहिंसा परमो धर्मः! लेकिन यह बड़े मजे की बात है कि जो कहता है अहिंसा परमो धर्मः, उसमें तो इतनी हिम्मत होनी चाहिए कि मारे न, ठीक है, लेकिन मरने को तो तैयार हो। लेकिन जैन मरने को भी तैयार नहीं हैं।
असल में बात ही छिपाई जा रही है। मरने का भय है, इसको सीधे-सीधे नहीं कह सकते कि हमें मारो मत, इसको ढंग से कहना होता है कि हिंसा में पाप है। मारोगे तो पाप लगेगा, नरक में सड़ोगे। और देखो, हम भी नहीं मारते। देखो, हम पैर फूंक-फूंक कर रखते हैं।
लेकिन हिंसा से मुक्ति नहीं होती, सिर्फ हिंसा नये और सूक्ष्म रूप ले लेती है। जैनों ने खेती-बाड़ी बंद कर दी, क्योंकि लगा कि इसमें हिंसा होती है। पौधे में जान है, फिर पौधे को उखाड़ना पड़ेगा, फसल काटनी पड़ेगी, तो जैनों ने खेती-बाड़ी बंद कर दी। वे सब दुकानदार हो गए, उन्होंने सबने दुकानें खोल लीं। लेकिन कभी नहीं सोचा कि वे जो दुकान पर ब्याज ले रहे हैं, वे जो दुकान पर जो लाभ ले रहे हैं, वह भी शोषण है और हिंसा है। वृक्ष काटने बंद कर दिए, आदमी काटने शुरू कर दिए। मगर काटना सूक्ष्म हो गया, ऊपर-ऊपर दिखाई नहीं पड़ता।
प्रूधो ने कहा है: सब धन चोरी है। क्योंकि सब धन में छीना-झपटी है। धन ऐसे ही है जैसे खून। जैसे खून के बिना आदमी नहीं जी सकता है, वैसे धन के बिना मुश्किल हो जाता है। खून पीना बंद कर दिया, धन पीना शुरू कर दिया। तुम ऐसा समझो कि एक आदमी को तुमने गुलाम बनाया और रात भर उससे पैर दबवाए, यह हिंसा है। और तुमने हजार रुपये कमा लिए। हजार रुपये से तुम चाहो तो हजार आदमियों से रात भर पैर दबवाओ। हजार रुपये से तुम चाहो तो हजार तरह के काम ले लो। हजार रुपये में कई चीजें छिपी हैं। एक गुलाम में तो एक ही गुलाम था, हजार रुपये में हजार काम छिपे हैं। तुम्हारी जेब में एक रुपया पड़ा है--किसी से पैर दबवाओ, एक गिलास दूध पी लो, कि सिर की चंपी करवाओ, कि किसी से नाक रगड़वाओ, कहो कि तीन दफे नाक रगड़ो, रुपया दूंगा--या जो भी चाहो, एक बोझ ढुलवाओ, किसी की गर्दन पर बैठ जाओ, किसी से रिक्शा चलवाओ, तुम्हारा एक रुपया कई चीजें लिए बैठा है। रुपये की बिसात बड़ी है। एक आदमी को तुम गुलाम बना लो, उससे कोई ज्यादा काम नहीं ले सकते, सीमा है। मगर एक रुपये की सीमा बड़ी है।
इसीलिए आदमी से भी ज्यादा मूल्यवान रुपया हो गया। सब चीजों से मूल्यवान रुपया हो गया। क्योंकि रुपये के विकल्प बहुत छिपे हैं, एक रुपये में न मालूम कितनी बातें छिपी हैं। जरा हुक्म दो और चीजें हाजिर हो जाएंगी--चाय चाहिए, चाय; शरबत चाहिए, शरबत; ठंडा तो ठंडा, गर्म तो गर्म, आदमी तो आदमी, औरत तो औरत, जो चाहिए! वह एक रुपया तुम्हारी जेब में क्या पड़ा है, तुम सारी दुनिया को अपनी जेब में रखे हुए हो। एक दफा यह बात समझ में आ गई, कौन खेती-बाड़ी करे फिर! फिर आदमी की खेती-बाड़ी शुरू हुई। फिर आदमी की लोग फसलें काटने लगे। और नारा जारी रहा--अहिंसा परमो धर्मः। और नारे के नीचे हिंसा ने नये रूप ले लिए।
कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं: अगर परमात्मा को हिंसा स्वीकार है, तो तू परमात्मा से ऊपर उठने की कोशिश मत कर। अगर उसकी इस जीवन-व्यवस्था में हिंसा अनिवार्य है, तो ठीक ही होगी। हम कौन हैं निर्णायक? कौन सी चीज पाप है? कैसे तुम तय करते हो कि यह पाप? एक ही पाप है मेरे देखे, और वह है--अज्ञान में जीना। फिर उससे सारे पाप निकलते हैं। परमात्मा--जैसे ही तुम ज्ञान में जीना शुरू करते हो, ध्यान में जीना शुरू करते हो, प्रीति में जीना शुरू करते हो, दिखाई पड़ता है। और जब परमात्मा दिखाई पड़ता है, तो सारे द्वंद्व लीन हो जाते हैं। फिर न कुछ पाप है, न पुण्य; न कुछ शुभ, न कुछ अशुभ।
और इसका यह मतलब नहीं है कि तुम पाप करने लगोगे। यह बात खयाल रखना, मैं फिर दोहरा दूं: इसका यह मतलब कतई नहीं है कि तुम पाप करने लगोगे। पाप बचता ही नहीं, तुम्हीं नहीं बचते। जब परमात्मा का बोध होता है, तब तुम्हें यह बात साफ हो जाती है कि जो वह करवाए, करवाए; मैं उसका उपकरण होकर रहूंगा, माध्यम होकर रहूंगा; उसका निमित्त होकर रहूंगा। मैं साधन मात्र हूं। युद्ध में लड़वाए, तो युद्ध में लडूंगा। और अस्पताल में सेवा करवाए, तो अस्पताल में सेवा करूंगा। जो उसकी मर्जी, वही मेरी मर्जी।
और निश्चित ही, जगत द्वंद्व से बना है। द्वंद्व के बिना जगत बन ही नहीं सकता। अगर यहां अहिंसा ही अहिंसा हो, तो जगत बन ही नहीं सकता। यहां हिंसा और अहिंसा दोनों की ईंटें होनी चाहिए। यहां क्रोध ही क्रोध हो, तो जगत नहीं बनता। और करुणा ही करुणा हो, तो भी जगत नहीं बनता। यहां एक ईंट क्रोध की और एक ईंट करुणा की, तो यह महल खड़ा होता है। यह द्वंद्व की ईंटों से बनता है। यहां एक रात और एक दिन, इस तरह ईंटें चाहिए।
तुम जरा सोचो, एक आदमी ऐसा पैदा हो कि उसे बचपन से ही क्रोध न हो। वह जी ही नहीं सकेगा। उसमें रीढ़ ही नहीं होगी, उसमें बल नहीं होगा। कोई उसे एक धक्का देगा और वह वहीं गिर रहेगा। उसमें प्राण ही नहीं होंगे। और जिसमें क्रोध नहीं है, उसमें कभी करुणा पैदा नहीं होगी। क्योंकि क्रोध का ही आत्यंतिक रूपांतरण करुणा है।
यह आश्चर्यजनक नहीं है कि इस देश के सबसे बड़े अहिंसक क्षत्रिय घरों से आए थे। जैनों के चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय थे, बुद्ध भी क्षत्रिय थे। बुद्ध के जो चौबीस अवतारों की बात है पहले, वे भी सब क्षत्रिय थे। क्षत्रिय घरों से अहिंसा का उदघोष आया, इससे कुछ अर्थ समझो। और जब से जैन वणिक हुए, तब से एक तीर्थंकर पैदा नहीं हुआ। कुछ गड़बड़ हो गई। क्रोध ही न रहा। बल न रहा, ऊर्जा न रही; एक तरह की नपुंसकता छा गई। महावीर हो सके अहिंसक, पहले हिंसक तो होना ही पड़े, तो ही कोई अहिंसक हो सकता है। पहली सीढ़ी हिंसा, दूसरी सीढ़ी अहिंसा। पहली सीढ़ी क्रोध, दूसरी सीढ़ी करुणा। पहली सीढ़ी नास्तिकता, दूसरी सीढ़ी आस्तिकता। पहली सीढ़ी संसार, दूसरी सीढ़ी निर्वाण। और जो पहली सीढ़ी को इनकार कर दे, दूसरी सीढ़ी का तो सवाल ही नहीं उठता।
और तुम सब जगह इसी तरह पाओगे।
जरा सोचो एक ऐसी दुनिया जहां पुरुष ही पुरुष हों और स्त्रियां समाप्त हो गई हों, वह कितनी देर जिंदगी चलेगी? वहां से द्वंद्व समाप्त हो गया। या ऐसी दुनिया जहां स्त्रियां ही स्त्रियां हों और पुरुष न हों। वहां से द्वंद्व समाप्त हो गया, मृत्यु घट जाएगी। वैज्ञानिक कहते हैं कि विद्युत भी चलती है तो ऋण और धन छोरों के कारण, पाजिटिव और निगेटिव के कारण। जगत में चुंबक चलता है, चुंबकीय क्षेत्र चलते हैं, तो निगेटिव और पाजिटिव के कारण। और वैज्ञानिकों ने जो अंतिम खोज की है परमाणु के भीतर, वहां भी वही भेद है। वहां भी एक कण विधायक है और एक कण नकारात्मक है। वहां भी स्त्री-पुरुष का भेद है। उसके बिना विद्युत भी निर्मित नहीं होती। उसके बिना जगत में पदार्थ भी निर्मित नहीं होता।
यह द्वंद्व समझने जैसा है। पाप और पुण्य का द्वंद्व अनिवार्य है। और परमात्मा दोनों को घेरे है। दोनों बाजुएं परमात्मा की हैं, दोनों पंख परमात्मा के हैं। और जब दोनों बराबर होते हैं, तो एक-दूसरे को काट देते हैं और अतिक्रमण हो जाता है। वह भी खयाल में ले लेना। परमात्मा में पाप भी है, पुण्य भी है; दिन भी है, रात भी है; जीवन भी, मृत्यु भी। लेकिन दोनों बराबर मात्रा में हैं, इसलिए एक-दूसरे को काट देते हैं। और परमात्मा अतिक्रमण कर जाता है, दोनों के पार हो जाता है।
तुमने देखा, इस देश में, अकेले इस देश में हमने अर्धनारीश्वर की प्रतिमा बनाई है। परमात्मा आधा पुरुष, आधी स्त्री। वह महत्वपूर्ण है, बड़ी वैज्ञानिक है। दुनिया में वैसी प्रतिमा कहीं नहीं है। उतनी गहरी सूझ नहीं हुई, उतने गहरे लोग गए नहीं कि परमात्मा स्त्री-पुरुष दोनों होना चाहिए। इसलिए तुम यह जान कर भी चकित होओगे कि सं
स्कृत में ब्रह्म शब्द नपुंसक लिंग है। क्योंकि जब स्त्री-पुरुष दोनों मिल जाएंगे, एक-दूसरे को काट देंगे, फिर जो शेष बचेगा वह अतिक्रमण कर गया--वह न तो पुरुष है, न स्त्री है, वह दोनों के पार हो गया। लेकिन दोनों की मौजूदगी के कारण पार हुआ।
‘आपने कहा कि नेति-नेति ज्ञान का उदघोष है, न यह, न वह। और इति-इति भक्ति का, यह भी, वह भी। भक्ति के इस उदघोष में तो अंधेरा, कल्मष और पाप, सब आ जाते हैं।’
निश्चित आ जाते हैं। भक्त की छाती बड़ी है। भक्त अतर्क है। ज्ञानी की छाती छोटी है। ज्ञानी तर्क है। परमात्मा में सब आना ही चाहिए। उसके बाहर कुछ हो ही नहीं सकता। नरक भी होगा तो उसके भीतर ही होगा। स्वर्ग भी होगा तो उसके भीतर ही होगा। इसलिए तुमसे कहता हूं: अगर नरक में भी हो, तो भी स्मरण रखो कि परमात्मा में हो। दुख में हो, तो भी स्मरण रखो कि परमात्मा में हो। और जब कांटा चुभ रहा है, तब भी स्मरण रखो, परमात्मा तुम्हें उतना ही छू रहा है जितना तब जब फूल तुम अपने गाल से लगाते हो। चिंता के क्षणों में भी तुम परमात्मा के उतने ही निकट हो, जितने ध्यान के क्षणों में होते हो। परमात्मा से दूर होने का उपाय नहीं है। परमात्मा के विपरीत जाने की जगह नहीं है। परमात्मा से बाहर जाने का कोई द्वार नहीं है। कहां जाओगे? सब वही है। परमात्मा वस्तुतः सबका नाम है, सर्व का नाम है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, समग्रता की एक संज्ञा है। और इसीलिए परमात्मा को समझना कठिन हो जाता है। समझ बने तो कैसे बने? शुभ ही शुभ होता तो समझ जाते। अशुभ ही अशुभ होता तो भी समझ जाते। समझ एकदम ठिठक कर खड़ी रह जाती है। जहां समझ ठिठक जाती है, वहीं प्रीति काम आती है।
शिगुफ्तगी का, लताफत का शाहकार हो तुम
फकत बहार नहीं, हासिले-बहार हो तुम
जो एक फूल में है कैद वह गुलिस्तां हो
जो एक कली में है पिन्हां वह लालाजार हो तुम
हलावतों की तमन्ना, मलाहतों की मुराद
गुरूर कलियों का, फूलों का इनकिसार हो तुम
जिसे तरंग में फितरत ने गुनगुनाया है
वह भैरवी हो, वह दीपक हो, वह मल्हार हो तुम
तुम्हारे जिस्म में ख्वाबीदा हैं हजारों राग
निगाह छेड़ती है जिसको वह सितार हो तुम
जिसे उठा न सकी जुस्तजू वह मोती हो
जिसे गूंथ न सकी आरजू वह हार हो तुम
जिसे बूझ न सका इश्क वह पहेली हो
जिसे समझ न सका प्यार भी वह प्यार हो तुम
समझ परमात्मा की संभव नहीं; प्रीति संभव है। प्रीति भी समझ नहीं पाएगी। लेकिन प्रीति अनुभव कर लेगी। प्रीति समझ की चिंता ही नहीं करती, प्रीति स्वाद ले लेती है। फिक्र क्या है कि मिठास को समझे या न समझे? मिठास का स्वाद आ गया, मिठास तुम्हारे रग-रेशे में फैल गई, मिठास में तुम डूब गए। फिक्र क्या है समझे कि नहीं समझे? हो गए मिठास। प्रीति परमात्मा बन जाती है। भक्त भगवत्ता में लीन हो जाता है। समझ तो वह भी नहीं पाता। समझ तो समझदार भी नहीं पाते, भक्त भी नहीं पाता--समझ संभव ही नहीं है। क्योंकि समझ के लिए एक अनिवार्य शर्त है कि विरोधाभास न हो, पैराडॉक्स न हो। और सत्य विरोधाभासी है। इसलिए समझ तो थक कर गिर जाती है। समझ तो अवाक होकर रह जाती है। समझ तो कह देती है--इसके आगे और मेरी गति नहीं।
इसलिए जो समझपूर्वक जाते हैं, वे कभी धार्मिक नहीं हो पाते। समझदार धार्मिक नहीं हो पाते। और इसलिए उनकी समझदारी दुनिया की सबसे बड़ी नासमझी सिद्ध होती है। धार्मिक होने के लिए नासमझी चाहिए, पागलपन चाहिए, हिम्मत चाहिए कि समझ को भी सिकोड़ कर एक तरफ रख दो कि ठीक है, तू आगे नहीं जाती, हम जाते हैं, तू यहीं रह।
इस घटना का नाम ही संन्यास है--समझ को एक तरफ छोड़ कर आगे बढ़ जाना और कहना: समझ जहां तक ला सकती थी, ले आई, धन्यवाद! अब आगे हम अकेले जाएंगे। प्रीति ले जाती है अंततः। स्वाद, अनुभव, अनुभूति। फिर कौन फिकर करता है समझने की!
तीसरा प्रश्न:
भगवान, तथ्य और सत्य में क्या अंतर है?
तथ्य है सामयिक सत्य और सत्य है शाश्वत तथ्य। ऐसा समझो कि तथ्य है सागर में उठी लहर और सत्य है सागर। लहरें आती हैं, जाती हैं। लहरें क्षणभंगुर होती हैं, सागर शाश्वत होता है। तथ्य सत्य की लहर है। तथ्य का अर्थ है: अभी है। सत्य का अर्थ है: सदा है। तथ्य का अर्थ है: अभी है, अभी नहीं हो जाएगा।
जैसे समझो, तुम्हारी देह तथ्य है। एक दिन नहीं थी, आज से चालीस साल, पचास साल पहले तुम्हारी देह नहीं थी। और आज से चालीस साल, पचास साल बाद फिर नहीं हो जाएगी। एक तथ्य था, पानी में उठी एक लहर थी, जो सत्तर-अस्सी साल या सौ साल रही। सौ साल का कोई ज्यादा मूल्य मत समझ लेना। संसार के बड़े पैमाने को देखते हुए सौ साल कुछ भी नहीं है, क्षणभंगुर भी नहीं है।
तो देह तथ्य है। है तो जरूर, लेकिन नहीं हो जाएगी। इसके होने में नहीं-होना छिपा है। इसके होने में नहीं-होना बड़ा हो रहा है। तुम एक दिन अचानक थोड़े ही मर जाते हो, जिस दिन पैदा होते हो उसी दिन से मरना शुरू हो जाते हो। फिर रोज-रोज धीरे-धीरे मरते-मरते एक दिन मृत्यु पूरी हो जाती है। पहले दिन का बच्चा, एक दिन की उम्र का बच्चा भी एक दिन मर चुका, चौबीस घंटे मर चुका--चौबीस घंटे उम्र कम हो गई। तुम जिनको जन्म-दिन कहते हो, अच्छा हो कि उनको मृत्यु-दिन कहो; उनका जन्म-दिन से कोई संबंध नहीं है। एक साल बीता, तुम कहते हो जन्म-दिन आया! एक साल और कम हो गई उम्र, मौत एक साल करीब आ गई, तुम कहते हो जन्म-दिन आया! कि मौत करीब आ गई? मौत निकट हो गई?
तथ्य का अर्थ है: जिसके भीतर नहीं-होना छिपा है और बड़ा हो रहा है--पानी का बबूला, जैसे-जैसे बड़ा हो रहा है, फूटने के करीब आ रहा है। सत्य का अर्थ है: तुम्हारे भीतर वह जो साक्षी है, जो इस देह में रहे, उस देह में रहे, अनंत देहों में रहा है, अनंत देहों में रहेगा, फिर भी सदा है। वह जो साक्षीभाव, वह जो ध्यान है, वह जो जागरूकता है भीतर, चैतन्य है, वह सदा है। ऐसा ही समझो, पानी का एक बबूला उठा। बबूला क्षणभंगुर है, जल्दी ही फूट जाएगा। लेकिन बबूले के भीतर जो हवा थी, वह बचेगी; और बबूले में जो पानी था, वह भी बचेगा। बबूला संयोग था--बना और टूटा।
इस जगत में जो संयोग बनते हैं, उनका नाम तथ्य। और इस जगत में जो संयोग से नहीं बनता वरन शाश्वतता से है, जो सब संयोगों में होता है, लेकिन स्वयं संयोग नहीं है, उसका नाम सत्य। उसे परमात्मा कहो या जो भी नाम देना चाहो। एक तो जरूर यहां कुछ है, जो सदा है। जो आता नहीं, जाता नहीं; जो सदा मौजूद है। जिसका कोई अतीत नहीं होता और जिसका कोई भविष्य भी नहीं होता, जो सदा वर्तमान है। वही सत्य है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, मैं असंतुष्ट हूं, हर बात से असंतुष्ट। और कभी-कभी सोचता हूं कि शायद आनंद मेरे भाग्य में ही नहीं।
ऐसा आदमी ही कभी नहीं हुआ कि आनंद जिसके भाग्य में न हो। हालांकि ऐसे आदमी करोड़ों हैं जो आनंद को अनुभव नहीं कर पाते। लेकिन भाग्य को दोष मत देना। यह अपना दोष भाग्य के कंधों पर मत फेंको। यह तरकीब मत करो। दोषी तुम हो, भाग्य नहीं। तुम्हारे भाग्य के तुम ही निर्माता हो।
तुम असंतुष्ट हो तो अपने असंतोष को समझने की कोशिश करो--कि क्यों असंतुष्ट हूं? तुम कारण खोज लोगे। उन कारणों को मत दोहराओ, असंतोष खो जाएगा।
लेकिन कारण तुम खोजना नहीं चाहते। क्योंकि हो सकता है कारण तुम्हीं होओ, तुम्हारा होना ही कारण हो; यह तुम्हारा मैं जो संतुष्ट होना चाहता है, यही कारण हो। तो तुम उस खतरे को मोल नहीं लेना चाहते। तुम चाहते हो किसी पर दोष टाल दो।
आदमी सदियों से दोष टालता रहा है। बहाने बदल लेता है, लेकिन दोष टालता है। पहले कहता था--भाग्य। तुम पुराने ढंग के आदमी मालूम होते हो--भाग्य, भगवान! फिर लोग बदले, लेकिन कुछ ज्यादा नहीं बदले। मार्क्स ने कहा कि अगर तुम दुखी हो, तो समाज जिम्मेवार है।
अब यह समाज भी वैसे ही थोथा शब्द है जैसे भाग्य, कुछ फर्क नहीं पड़ा। मार्क्स में मैं कोई बड़ी क्रांति नहीं देखता। क्योंकि असली क्रांति एक ही है कि तुम टालो मत, तुम दूसरे पर मत फेंको, दूसरे के कंधे पर बंदूक रख कर मत चलाओ, बहाने मत खोजो, साक्षात करो सीधे-सीधे, अपने जीवन के रोग का ठीक-ठीक विश्लेषण करो, डायग्नोसिस करो, निदान करो, तो चिकित्सा भी हो सके, उपचार भी हो सके। लेकिन तुम बीमार हो और तुम कहते हो भाग्य। तो डाक्टर के पास जाने की कोई जरूरत नहीं, दवा लेने की कोई जरूरत नहीं। भाग्य की कोई दवा तो होती नहीं। या तुम कहते हो समाज। अब समाज जब बदलेगा तब बदलेगा, तब तक तुम न बचोगे।
फिर फ्रायड आया और फ्रायड ने कहा कि न समाज, न भाग्य, बल्कि तुम्हारा बचपन; तुम्हारी मां, तुम्हारे पिता; उन्होंने तुम्हें ऐसे गलत संस्कार दिए, उन्होंने तुम्हें इस तरह से दमित किया, इसलिए तुम उलझे हो। अब यह तो जब दुबारा मां-बाप मिलें और बेहतर मां-बाप मिलें! तो यह तो भूल हो चुकी, अब इसमें कोई उपाय नहीं।
फ्रायड ने कहा है--आदमी कभी सुखी नहीं हो सकता है। कैसे होगा? तुमने जो विधि बताई, वह ऐसी है जो कि हो ही चुकी। तुमने पहली भूल कर ही दी कि अपने मां-बाप को चुना। ढंग के मां-बाप चुनने थे। मगर तुम चुनते कैसे ढंग के मां-बाप? तुम थे कहां? तुमने चुने कब? यह तो घटना घटी। अब तो घट गई, अब पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं। अब तो किसी तरह अपने को राजी कर लो, समझा-बुझा लो और चला लो, गुजार लो।
न तो फ्रायड ने कोई क्रांति की है, न मार्क्स ने कोई क्रांति की है। क्रांति तो की है बुद्ध ने। क्रांति तो की है महावीर ने। क्रांति तो की है कृष्ण ने, पतंजलि ने, जीसस ने। क्या क्रांति की? उन्होंने कहा कि तुम्हारा हाथ है तुम्हारे असंतोष में। समझो। क्यों तुम असंतुष्ट हो? क्यों हर चीज तुम्हें असंतुष्ट करती है?
पहली तो बात, तुम्हारी मांगें असंभव होंगी। जैसे एक सज्जन मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि मुझे किसी स्त्री में रस नहीं आता, मैं एक परम सुंदरी स्त्री चाहता हूं, एक पूर्ण स्त्री चाहता हूं।
मैंने उनसे कहा कि मैंने एक कहानी सुनी है एक आदमी की, वह भी पूर्ण स्त्री खोजना चाहता था। जिंदगी भर खोजता रहा, नहीं मिली। तो मित्रों ने पूछा कि तुमने जिंदगी भर खोजी और नहीं मिली? उसने कहा, ऐसा नहीं है कि नहीं मिली, मिली, एक बार मिली। तो फिर क्या हुआ? तो उसने कहा कि दुर्भाग्य मेरा कि वह पूर्ण पुरुष खोज रही थी।
अब तुम पूर्ण स्त्री खोजने चले हो, इसकी बिना फिक्र किए कि तुम पूर्ण पुरुष हो या नहीं। पूर्ण पुरुष हो जाओ तो शायद पूर्ण स्त्री मिल जाए--शायद तुम्हारे पड़ोस में ही रहती हो। पूर्ण को पूर्ण दिखाई पड़ता है। अपूर्ण को तो पूर्ण दिखाई भी नहीं पड़ सकता, दिखाई भी पड़ जाए तो पहचान में नहीं आ सकता।
अब तुम अगर पूर्ण स्त्री खोजने चले, तो दुख में रहोगे। तुम्हारी मांगें असंभव हैं, तो असंतोष होगा। मांगों को सीमा में लाओ आदमी की। तुम मांगते ही चले जाते हो। तुम इसकी फिकर ही नहीं करते कि मैं क्या मांग रहा हूं, यह मिल भी सकेगा कि नहीं! तुम शाश्वत जीवन मांगते हो। यह देह सदा रहनी चाहिए। फिर मौत आती है तो असंतोष होता है। तुम कहते हो, यश मुझे ऐसा मिले जो सदा रहे। मगर हवा बदल जाती है। तुम्हारी लहर कभी चली, फिर किसी और की लहर चलने लगती है। आखिर किसी और की भी लहर चलने दोगे कि नहीं चलने दोगे? तुम्हारी ही तुम्हारी चलती रहे तो बाकी लोग असंतुष्ट रह जाएंगे। और जब तुम्हारी चली थी तो किसी की रुक गई थी, वह तुम भूल गए? वह असंतुष्ट हो गया था। यश तो क्षणभंगुर होगा। यह तो पानी की लहर है--आई और गई। अब तुम चाहो कि यह शाश्वत हो जाए; तुम चाहो कि गुलाब का फूल जो सुबह खिला, अब कभी मुर्झाए न, तो फिर तुम प्लास्टिक के फूल खरीदो, तुम असली गुलाब न चाहो। लेकिन प्लास्टिक का फूल नकली मालूम पड़ता है, उससे दिल भरता नहीं। अब तुम एक असंभव मांग कर रहे हो। असली फूल से नकली फूल जैसे होने की मांग कर रहे हो। यह हो नहीं सकता, तो असंतोष होगा।
तुम अपनी मांगों में तलाशो, भाग्य में मत! कोई भाग्य नहीं है। तुम्हारी मांगें कुछ ऐसी होंगी, तुमने अपने ऊपर कुछ ऐसी मांगें बिठा रखी होंगी, कुछ ऐसे आदर्श बिठा रखे होंगे, जो पूरे नहीं होते। पूरे नहीं होते तो पीड़ा होती है। मैं तुम्हें राज बताता हूं, संतुष्ट होने का राज है: मांगो ही मत, जीओ। जो है, उसको जीओ। असंभव मांगें मत करो। जीवन की सामान्यता को स्वीकार करो।
परसों एक युवती पश्चिम से आई। रोने लगी, कहने लगी कि जब मैं वहां से चली थी तो बड़ी आशाएं लेकर चली थी। यहां आई हूं तो मैं अपने को बहुत साधारण पाती हूं। तो दुखी हो रही हूं।
उसकी हालत समझो, वही तुम्हारी हालत होगी। चली होगी अपने घर से तो सोचा होगा कि जब आश्रम में पहुंचेगी, तो बैंडबाजा बजेगा, कोई हाथी वगैरह पर बिठाल कर जुलूस निकाला जाएगा, कोई स्वागत किया जाएगा। सभी के मन में ऐसी धारणाएं होती हैं। सभी ऐसी कल्पनाओं में जीते हैं। फिर ये कल्पनाएं पूरी नहीं होतीं। न कोई जुलूस निकालता, न कोई हाथी-घोड़े पर बिठाता, न कोई बैंडबाजे बजाता--एकदम से लगता है, अरे, मैं साधारण!
जब चली होगी तो अपने गांव में अकेली संन्यासिनी थी। यहां आई तो देखा कि यहां एक हजार संन्यासी। स्वभावतः एक संन्यासी हो एक गांव में तो सबकी नजर उस पर पड़ेगी। जहां एक हजार संन्यासी हों, कौन देखता है? एक हजार संन्यासियों में चेहरा ही खो जाएगा। सब गैरिक वस्त्रधारी एक जैसे मालूम होते हैं। साधारण मालूम होने लगी होगी। अब पीड़ित हो रही है। लेकिन पीड़ा किस कारण हो रही है? असाधारण होने की आकांक्षा की थी। विशिष्ट होने की आकांक्षा की थी। उसी आकांक्षा ने यह कष्ट पैदा किया है। इसको न समझोगे तो कष्ट जारी रहेगा।
अपनी साधारणता को स्वीकार करो। सुना नहीं तुमने शांडिल्य ने कहा कि परमात्मा विशिष्ट नहीं है, साधारण है, अविशिष्ट है। ऐसे ही तुम भी साधारण हो जाओ। झेन फकीर लिंची से किसी ने पूछा कि तुम्हारी साधना क्या है? उसने कहा, जब भूख लगती है तो खाना खा लेता, और जब प्यास लगती तो पानी पी लेता, और जब नींद आती तो सो जाता। तो पूछने वाले ने कहा, लेकिन यह तो सभी साधारण लोग करते हैं! तो लिंची ने कहा, मैं कौन असाधारण हूं? मैं साधारणों में भी साधारण हूं। उस आदमी ने पूछा, फिर फायदा क्या है? लिंची ने कहा, फायदा बहुत है, संतुष्ट हूं। और क्या फायदा!
तुम अगर जीवन की छोटी-छोटी चीजों में रस लेने लगो, तो संतुष्ट हो जाओगे।
मुझे आज फिर तुमसे मिल के नाउम्मीदी हुई है
वही तर्जे-गुफ्तार, चेहरे पे उदासी का आलम
जमाने की बेदाद, हालात की कजअदाई का शिकवा
तग-ओ-ताज, तकदीर की नारसाई का मातम
तही-दामनी पर पशेमान होने की मासूम कोशिश
जवां खूबसूरत महकते हुए रोज-ओ-शब का तसव्वुर
निशात-आफरीं महफिलों में कभी बारियावी का अरमां
गुलाबों की मानिंद खिलते हुए जिस्म छूने की ख्वाहिश
मुझे कब से हसरत है इक शब कभी तुम
मेरी महफिले-नाज में यूं भी आते
मुझे जिस्म-ओ-जां की सभी राहतें सौंप देने में
कोई तकल्लुफ न होता
यह कोई प्रेयसी कह रही है अपने प्रेमी से—
मुझे आज फिर तुमसे मिल के नाउम्मीदी हुई है
वही तर्जे-गुफ्तार, चेहरे पे उदासी का आलम
वही तुम्हारी पुरानी बातचीत, वही पुरानी आदत, वही ढर्रा, चेहरे पर बड़ी उदास स्थिति।
जमाने की बेदाद, हालात की कजअदाई का शिकवा
और जमाने भर के अत्याचार, दुर्घटनाएं, टेढ़ेपन की चर्चा कि दुनिया बड़ी बुरी है, कि दुनिया में बड़ा अत्याचार हो रहा है, कि दुनिया में बड़ा शोषण है, कि दुनिया में कहीं शांति नहीं है, बड़े युद्ध हो रहे हैं। शिकायत, और शिकायत, और शिकायत।
तग-ओ-ताज, तकदीर की नारसाई का मातम
जिंदगी की भागदौड़, आपाधापी की शिकायत, भाग्य की शिकायत, वही रोना, वही पुराना रोना।
तही-दामनी पर पशेमान होने की मासूम कोशिश
और अपने आप पर निरंतर दुखी होने की, अपने आप पर दया करने की चेष्टा।
जवां खूबसूरत महकते हुए रोज-ओ-शब का तसव्वुर
और बड़ी कल्पनाएं कि ऐसा होना चाहिए। जो है, गलत, और जो होना चाहिए वह होता नहीं है। और ऐसा होना चाहिए।
जवां खूबसूरत महकते हुए रोज-ओ-शब का तसव्वुर
निशात-आफरीं महफिलों में कभी बारियावी का अरमां
और बड़े आनंद के सपने।
गुलाबों की मानिंद खिलते हुए जिस्म छूने की ख्वाहिश
और गुलाबों की तरह शरीर हों, उनको छूने की ख्वाहिश। वह प्रेयसी कह रही है--
मुझे कब से हसरत है इक शब कभी तुम
मेरी महफिले-नाज में यूं भी आते
मुझे जिस्म-ओ-जां की सभी राहतें सौंप देने में
कोई तकल्लुफ न होता
और मैं कब से राह देख रही हूं कि कभी तो तुम आते, मुझ साधारण स्त्री को अंगीकार करते, गुलाब के फूलों जैसे जिस्मों की आकांक्षा न करते। कभी तुम आते और दुनिया की शिकायत बाहर छोड़ आते। कभी तुम आते अनुग्रह से भरे, शिकायत और शिकवे से भरे नहीं।
मुझे कब से हसरत है इक शब कभी तुम
मेरी महफिले-नाज में यूं भी आते
मुझे जिस्म-ओ-जां की सभी राहतें सौंप देने में
कोई तकल्लुफ न होता
लेकिन वह मौका ही नहीं है। मेरे पास जो है, मैं तुम्हें सौंप ही नहीं पाती, क्योंकि तुम तो खोए हो अपनी उदासी में, अपनी शिकायतों में। दुनिया भर के उपद्रव, दुनिया भर की चिंताएं तुम लिए चले आते हो।
जिंदगी छोटी-छोटी बातों में है। और जिंदगी का राज छोटी-छोटी बातों में है। जिंदगी बड़ी छोटी-छोटी बातों से मिल कर बनती है। छोटी-छोटी ईंटें, और जिंदगी का मंदिर बनता है। तुम्हारी आकांक्षाएं बड़ी-बड़ी होंगी। तुम फिजूल की बातों में पड़ गए होओगे। तुम्हारी कल्पनाएं बड़ी-बड़ी होंगी। तुम चाहते हो, ऐसा होना चाहिए। जैसा होता है, वैसा होता है, तुम्हारे चाहने से कुछ होने वाला नहीं है। तुम्हारी चाह सिर्फ तुम्हें असंतुष्ट रखेगी, तुम्हें दुखी रखेगी, तुम्हें पीड़ित रखेगी। यह आदत छोड़ो। भाग्य नहीं, यह सिर्फ आदत है। यह आदत छोड़ो, अनुग्रह से जीना शुरू करो। जो दिया है, वह बहुत है। और ज्यादा मत मांगो। पहले इसे तो भोगो। तुम अगर इसे भोगने में समर्थ हो जाओ, तो तुम्हें और दिया जाएगा।
जीसस का एक बहुत अदभुत वचन है कि जिनके पास है उन्हें और दिया जाएगा, और जिनके पास नहीं है उनसे वह भी छीन लिया जाएगा जो उनके पास है।
यह बड़ा चमत्कारी वचन है। दुनिया भर के शास्त्रों में खोज कर भी ऐसा वचन मुझे दुबारा नहीं मिला। यह बड़ा अदभुत है। जिनके पास है उन्हें और भी दिया जाएगा। मतलब? यह तो बड़ा अन्याय मालूम पड़ता है कि जिनके पास है उन्हें और भी दिया जाएगा। यह तो अमीर को और अमीर, गरीब को और गरीब बनाने की कोशिश, यह तो बड़ी पूंजीवादी बात है।
लेकिन जीसस को समझना, जल्दी मत कर लेना। जीसस ठीक कहते हैं। तुम्हें जो मिला है, अगर तुम उसे आनंद से भोगो, तो उसी आनंद के भोग के कारण तुम्हें और दिया जाएगा। तुम पात्र बन जाओगे। तुम्हें जो रूखी-सूखी मिली है, उसे स्वाद से खाओ; मिष्ठान्न आते होंगे। तुम्हें जो जिंदगी मिली है, उसे ऐसे भोगो जैसे यह स्वर्ग है, तो स्वर्ग भी आता होगा। तुम्हें जो मिला है पहले उसका धन्यवाद तो करो, तो देने वाले की हिम्मत बढ़े, तो देने वाले का मन फैले, तो देने वाला और तुम पर बरसे। लेकिन तुम शिकायत ही शिकायत से भरे हो।
तुम कहते: ‘मैं असंतुष्ट हूं, हर बात से असंतुष्ट। और कभी-कभी सोचता हूं कि शायद आनंद मेरे भाग्य में ही नहीं है।’
ऐसा कोई आदमी ही कभी नहीं हुआ। आनंद सबकी नियति है। आनंद सब के भाग्य में है। आनंद लिख कर ही भगवान प्रत्येक को भेजता है। आनंद से ही हम निर्मित हुए हैं, आनंद हमारा स्वभाव है। दुख में अगर तुम हो, तो तुमने पैदा किया होगा। दुख आदमी पैदा कर लेता है। दुख आदमी की कुशलता है। दुख आदमी की कला है। आनंद भगवान का दान है, उसकी भेंट है, उसका प्रसाद है।
इसलिए शांडिल्य ने कहा है: भक्त प्रसाद में भरोसा करता है, प्रयास में नहीं। प्रयास से तो सिर्फ दुख ही दुख पैदा होता है। प्रयास से संसार, प्रसाद से निर्वाण।
तुम जरा एक बार अपनी जिंदगी पर फिर से पुनर्विचार करो। अपने ढंग, अपने रवैयों को परखो, पहचानो। असंतोष तुम पैदा कर रहे हो।
मैं एक घर में मेहमान हुआ। एयरपोर्ट से ले जाते वक्त मैंने देखा कि जो मेरे मेजबान हैं, बड़े उदास हैं। मैंने उनकी पत्नी से पूछा कि बहुत उदास दिखते हैं तुम्हारे पति, बात क्या है? जब मैं आता हूं, सदा उन्हें प्रसन्न पाता हूं। उनकी पत्नी ने कहा कि जरा मामला है। मामला ऐसा है कि वे कहते हैं, उन्हें बहुत हानि हो गई है। मैंने पति से पूछा कि बात क्या है? उन्होंने कहा, पांच लाख का नुकसान हो गया। पत्नी ने कहा, लेकिन आप इनकी बात पर भरोसा मत करना; मैं कहती हूं कि पांच लाख का लाभ हुआ है; ये कहते हैं, पांच लाख का नुकसान हुआ है; मैं खुश हूं और ये परेशान हैं। पति ने कहा कि हानि हुई है, क्योंकि दस लाख का लाभ होना चाहिए था और सिर्फ पांच का हुआ है।
अब तुम असंतुष्ट न होओगे तो क्या होओगे?
जीवन के देखने के ढंग को बदलो। अपनी आदत बदलो। उस आदत की बदलाहट में ही संतोष है, शांति है। और जहां संतोष है, शांति है, वहां आज नहीं कल सत्य निश्चित ही आ जाता है।
आज इतना ही।
भगवान, हसीद फकीरों ने मैं-तू भाव से; सूफियों एवं भक्तों ने तू-भाव से; वेदांत, उपनिषद एवं जैन परंपरा ने मैं-भाव से; बुद्ध एवं झेन परंपरा ने न मैं, न तू भाव से और शांडिल्य ऋषि ने उभयपरां--स्याद् भाव--से ईश्वर को अभिव्यक्त किया। पर आप तो पिछले सभी उपायों से अभिव्यक्ति दे रहे हैं!
मनुष्य प्रौढ़ हुआ है। और प्रौढ़ता का सबसे महत्वपूर्ण लक्षण है--विरोधाभास का अंगीकार। तर्क अप्रौढ़ता का सूचक है। तर्क मनुष्य की चेतना की अंतिम ऊंचाई नहीं है, सीढ़ी का प्रारंभ है। तर्क एकांगी होता है। तर्क की छाती बड़ी नहीं; तर्क का हृदय उदार नहीं, संकीर्ण है। अगर परमात्मा प्रकाश है, तो तर्क कहता है: अंधेरा फिर परमात्मा कभी नहीं हो सकता। तर्क कहता है: अ अ है, ब ब है; अ ब नहीं हो सकता। तर्क का दायरा बड़ा छोटा है, आंगन बड़ा छोटा है! अतर्क का दायरा बड़ा है, आकाश जैसा विराट है। परमात्मा प्रकाश भी हो सकता है और अंधेरा भी। परमात्मा जीवन भी है और मृत्यु भी।
परमात्मा जीवन है तो फिर मृत्यु कौन होगा? मृत्यु का फल जीवन में ही तो लगता है। मृत्यु जीवन का ही तो चरम उत्कर्ष है, मृत्यु जीवन की ही तो समाप्ति है! मृत्यु का फूल जीवन के बाहर नहीं है, जीवन के भीतर है। जीवन की ही रसधार उसमें बहती है। यदि परमात्मा जीवन है तो फिर मृत्यु भी उसे होना पड़ेगा। लेकिन तर्क के सामने अड़चन खड़ी होती है। तर्क कहता है, जो जीवन है, वह मृत्यु कैसे हो सकता है? तर्क कहता है, जो जीवन है, वह मृत्यु के विपरीत होना चाहिए। परमात्मा शुभ है, तो अशुभ के लिए शैतान खोजना पड़ता है--वह तर्क के कारण, क्योंकि परमात्मा कैसे अशुभ होगा? जीवन परमात्मा ने दिया, मृत्यु शैतान ने दी।
शैतान की ईजाद तुम्हारी तर्क की कमजोरी के कारण है। जितना कमजोर तर्क होगा, उतना ही जगत में द्वंद्व होगा; क्योंकि एक के मानने से काम नहीं चलेगा। एक में तुम दोनों को न समा सकोगे। तो तुम्हें दूसरी इकाई माननी पड़ेगी। परमात्मा खुशियां दे रहा है और शैतान दुख ला रहा है। परमात्मा स्वर्ग बना रहा है और शैतान नरक बना रहा है।
लेकिन शैतान कहां से आता है? तर्क को थोड़ा और आगे ले चलो तो अतर्क की समझ आने लगेगी। शैतान कहां से आता है? शैतान भी परमात्मा से ही आएगा; क्योंकि सभी उससे आता है। फूल भी उससे और कांटे भी उससे; स्वर्ग भी उससे और नरक भी उससे। मगर बड़ी छाती चाहिए कि परमात्मा से दुख भी आता है, यह तुम स्वीकार कर सको। उसके लिए बड़ी प्रौढ़ता चाहिए।
तर्क बचकाना है। तर्क एक सीमा खींच देता है, एक लक्ष्मण-रेखा खींच देता है। कहता है, इसके भीतर जो है वह ठीक, इसके बाहर जो है वह ठीक नहीं। लेकिन बाहर और भीतर जुड़े हैं। जो श्वास भीतर गई, वही तो बाहर आती है। और जो श्वास बाहर गई, वही तो भीतर आती है। तर्क कहता है, एक कुछ भी करो, श्वास भीतर लो तो फिर भीतर ही भीतर लेना। श्वास बाहर लो तो फिर बाहर ही बाहर लेना। मगर तर्क तुम्हें मार डालेगा। इसलिए तर्क में जो उलझ जाता है, उसके गले में फांसी लग जाती है। तर्क कहता है, जिससे प्रेम किया, प्रेम ही करना। जीवन ज्यादा विराट है। जिससे प्रेम किया है, उसी से घृणा होती है। जिससे मित्रता बांधी, उसी से झगड़ा हो जाता है। करुणा और क्रोध अलग-अलग नहीं हैं, एक ही ऊर्जा की तरंगें हैं। और जो बनाना चाहता है, उसे मिटाना पड़ेगा। कोई भी स्रष्टा बिना विध्वंस के स्रष्टा नहीं होता।
समझो। तुम एक चित्र बना रहे हो। कैनवास खाली है। जब तुमने चित्र बनाया तो तुमने कैनवास का खालीपन नष्ट कर दिया। बिना कैनवास का खालीपन नष्ट किए चित्र न बनेगा। तुमने एक नया मकान बनाया, तो पुराने को गिराना पड़ा। और तुमने एक बच्चे को जीवन दिया, तो कहीं कोई बूढ़ा मरा। जहां सृजन है, वहां कहीं पीछे विध्वंस होगा। विध्वंस के बिना कोई सृजन नहीं है।
हिंदू ज्यादा प्रौढ़ हैं ईसाइयों-मुसलमानों से। इसलिए हिंदुओं को शैतान को मानने की जरूरत नहीं पड़ी। उन्होंने परमात्मा के ही तीन चेहरे बना दिए, एक के तीन चेहरे, त्रिमूर्ति बना दी। ब्रह्मा निर्माता है और विष्णु सम्हालने वाले और शिव विध्वंस करने वाले--मगर एक ही परमात्मा के तीन चेहरे हैं। इन तीनों को एक परमात्मा में डाल दिया। तर्क कहेगा कि जो बनाता है, वह मिटाएगा क्यों? अतर्क कहता है कि जो बनाता है, उसे मिटाना ही पड़ेगा, नहीं तो बना कैसे सकेगा? तुम चाहते हो जन्म तो परमात्मा ने दिया और मृत्यु कोई और कहीं से आती है, दुश्मन से आती है। जिससे जन्म आता, उसी से मृत्यु आती है। जो तुम्हें भेजता, वही एक दिन तुम्हें बिदा कर लेता। सब उसका है। लेकिन जब सब उसका है, तो अड़चनें खड़ी होंगी, क्योंकि तब चीजें साफ-सुथरी न रह जाएंगी।
तर्क की दुनिया में चीजें साफ-सुथरी होती हैं। तर्क की दुनिया ऐसी है जैसे तुम्हारे आंगन में लगा बगीचा--सब साफ-सुथरा है। अतर्क की दुनिया ऐसी है जैसे जंगल--वहां कुछ भी साफ-सुथरा नहीं है, सब उलझन है। तुम यह जान कर चकित होओगे कि जो बात बिलकुल साफ-सुथरी मालूम पड़े, समझ लेना आदमी की बनाई हुई है। जो बात बिलकुल साफ-सुथरी मालूम पड़े, समझ लेना सत्य नहीं हो सकती। साफ-सुथरापन और सत्य साथ-साथ नहीं जाते। साफ-सुथरापन चाहिए हो तो सत्य को सूली चढ़ा देनी होती है। सत्य की कीमत पर साफ-सुथरापन होता है। और अगर सत्य चाहिए हो, तो सत्य तो रहस्य है, साफ-सुथरा नहीं है। सत्य तो बड़ा जटिल है और उलझा हुआ है। गुत्थी है, जो सुलझाए नहीं सुलझी और सुलझाए नहीं सुलझेगी। जो कभी नहीं सुलझेगी। जिसका होना ही रहस्यपूर्ण है। हम कभी उसे जान न पाएंगे। और हम कभी ठीक-ठीक अपने कठघरों में सत्य को बिठा न पाएंगे। हमारी कोटियों में हम सत्य को बांट न पाएंगे।
परमात्मा को जो अतीत में अलग-अलग ढंगों से कहा गया, वे तर्क की सरणियां हैं। एक तर्क पकड़ो, तो परमात्मा के लिए एक तरह की अभिव्यक्ति देनी जरूरी हो जाएगी। दूसरा तर्क पकड़ो, तो परमात्मा को दूसरी तरह की अभिव्यक्ति देनी जरूरी हो जाएगी। मैं अतर्क्य हूं। मैंने कोई तर्क की लकीर नहीं पकड़ी है। परमात्मा जैसा है, अनंत रहस्यपूर्ण, उसे अनंत मार्गों से कह रहा हूं। और आज यह संभव है। यह कल संभव नहीं था। मनुष्य-जाति प्रौढ़ हुई है, चेतना विकसित हुई है। लेकिन तुम्हारे मन में एक धारणा बिठाई गई है कि सतयुग पहले था और अब कलियुग है। और मैं तुमसे उलटा करने को कह रहा हूं, मैं कह रहा हूं, कलियुग पहले कभी रहा होगा, अब सतयुग है। बेचैनी मालूम होती है। क्योंकि बड़ी रूढ़ धारणा है कि स्वर्णयुग बीत चुका है।
दुनिया में तीन तरह के लोग हैं। एक, जिनका स्वर्णयुग बीत चुका है। तथाकथित धार्मिक लोग; हिंदू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी, जैन, बौद्ध, इनका स्वर्णयुग बीत चुका है, दुनिया उतार पर है, पतन हो रहा है। इसलिए ईसाइयत को डार्विन का विकासवाद जंचा नहीं। क्योंकि डार्विन का विकासवाद कहता है, विकास हो रहा है। और ईसाइयत कहती है, पतन हो रहा है। आदम का पतन हुआ तो तब से पतन जारी है। दुनिया के किसी धर्म ने डार्विन के विकासवाद को अंगीकार नहीं किया। क्योंकि दुनिया के सभी धर्म मानते हैं, उनका अतीत सुंदर था। स्वर्णकलश चमकते हुए अतीत में उन्हें दिखाई पड़ते हैं। कल्पना का जाल है वह अतीत, वैसा अतीत कभी था नहीं। तुम पुरानी से पुरानी किताब देखोगे तो तुम्हें समझ में आ जाएगा। पुरानी से पुरानी किताबें यह कहती हैं कि स्वर्णयुग पहले था। एक किताब नहीं है मनुष्य के पास, जो कहती हो स्वर्णयुग अभी है। वेद भी कहते हैं, स्वर्णयुग पहले था। लाओत्सु की किताब भी कहती है--ताओ-तेह-किंग--कि स्वर्णयुग पहले था। धन्य थे वे प्राचीन पुरुष। जो सबसे पुराना शिलालेख मिला है बेबीलोन में, छह हजार साल पुराना, वह भी कहता है: धन्य थे वे पुराने लोग।
तो ये पुराने लोग कब थे? एक भी प्रमाण नहीं है जब कोई कहता हो कि ये पुराने लोग अभी हैं, यह स्वर्णयुग अभी है। नहीं, इसके पीछे कुछ मनोवैज्ञानिक भ्रांति है। इसके पीछे वैसी ही मनोवैज्ञानिक भ्रांति है जैसे तुम अपने पिता से बात करो तो पिता कहेंगे, अरे, वे दिन जो हमने देखे, तुम क्या खाक देखोगे! और तुम पिता के पिता से पूछो, वे भी यही कहते हैं कि अरे, इसने क्या देखा? यह मेरे बेटे ने क्या देखा? स्वर्णदिन हमने देखे! और तुम पूछते चले जाओ, और हर बाप यह कहेगा कि स्वर्णदिन हमने देखे, अतीत में। दिन गए, असली मजे के दिन तो गए। अब तो दुख के दिन हैं।
इसके पीछे मनोविज्ञान है। मनोवैज्ञानिक इसके विश्लेषण में जाता है, तो तथ्य पकड़ में आता है। तथ्य यह है कि हर आदमी को ऐसा खयाल है कि बचपन सुंदर था। और बचपन बीत गया है। कविताएं हैं, कहानियां हैं बचपन के सौंदर्य और बचपन की स्तुति में लिखी गई कि वे प्यारे दिन! हर आदमी को यह खयाल है कि बचपन बड़ा सुंदर था। इस खयाल में पीछे कुछ कारण है। एक तो यह, कोई उत्तरदायित्व नहीं था, कोई चिंता नहीं थी, कोई फिक्र-फांटा नहीं था; न काम था, न धाम था, जिंदगी मौज ही मौज थी, विश्राम ही विश्राम था। जिंदगी एक खेल थी, क्रीड़ा थी। फिर जिंदगी में अड़चनें आनी शुरू हुईं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, स्कूल जाना पड़ा। स्कूल से किसी तरह छूटे तो बाजार, घर-गृहस्थी। जाल बढ़ता गया। चिंता का बोझ गहन होता गया। सिर भारी होता गया। फिर वे बचपन के दिन जब तितलियों के पीछे दौड़ते थे, तुलना में बड़े सुंदर मालूम होने लगे। वे बचपन के दिन जब सागर के तट पर शंख-सीप बीन कर प्रसन्न हो लेते थे, बड़े स्वर्णिम मालूम होने लगे।
फिर बच्चे का मन काल्पनिक होता है। बच्चे को सपने में और सत्य में फर्क नहीं होता। उसका सत्य और सपना मिश्रित होता है। इसलिए तुम जिस बचपन की याद करते हो, वह जरूरी नहीं कि हुआ हो। उसमें बहुत कुछ तो तुम्हारा सपना मिला हुआ है। बहुत कुछ तो तुम्हारा निर्मित किया हुआ है, बनाया हुआ है। और जितना तुम्हारे जीवन में दुख बढ़ता है, चिंता बढ़ती है, उतना ही तुम उसका संतुलन बनाने के लिए बचपन में और थोड़ा सौंदर्य बढ़ा देते हो। तुम बचपन को लीपते-पोतते चले जाते हो, रंगते चले जाते हो। आखिर आदमी को कहीं तो सहारा चाहिए। आज तो दुख है, इस दुख से शरण पाने के लिए कहीं कोई शरण-स्थल चाहिए। तो सारे दुनिया के धर्मों ने अतीत में स्वर्णयुग रखा है।
फिर एक दूसरे तरह के लोग हैं, कम्युनिस्ट हैं, फासिस्ट हैं--राजनैतिक धर्म--उनका स्वर्णयुग भविष्य में है। वे कहते हैं, उटोपिया आने को है। आएगा! अभी आया नहीं है। अभी मेहनत करनी है, अभी संघर्ष करना है, अभी जद्दोजहद करनी है, अभी बड़ी कठिनाई है। लेकिन अंधेरी रात कटेगी, सुबह आने वाली है। किसी की सुबह जा चुकी है, किसी की सुबह आने वाली है। ये दो तरह के लोगों की भीड़ है दुनिया में। और इन दोनों की वजह से सुबह नहीं आ पाती। क्योंकि एक कहता है, आएगी कल। कल कभी आता है? और एक कहता है, गई कल। अब जो गई, गई। जो आया नहीं, वह आएगा नहीं। कल सदा कल है। एक कहता है, अतीत के गुणगान गाओ, पुरखों की स्तुति करो, वेदों और बाइबिल की पूजा करो। और दूसरा कहता है, दास कैपिटल, मार्क्स और लेनिन और एंजिल्स और माओ, इनकी सुनो, इनके द्वारा स्वर्णयुग आने वाला है। और उस स्वर्णयुग के लिए जो भी कुर्बानी करनी है, करो। एक कहता है, पुरखों के लिए मर जाओ। एक कहता है, आने वाले बच्चों के लिए मर जाओ। लेकिन तुमसे कोई नहीं कहता कि अपने लिए जीओ।
मैं तुमसे वही कहना चाहता हूं कि अपने लिए जीओ। मैं तीसरे तरह का आदमी हूं, जो तुमसे कहता है कि स्वर्णयुग अभी है! और अभी है, तो ही कभी हो सकता है। अगर अभी नहीं है, तो कभी नहीं होगा। क्योंकि संसार में समय का एक ही ढंग है--अभी। अतीत नहीं हो चुका, भविष्य अभी हुआ नहीं, जो है हमारे हाथ में संपदा वह वर्तमान की है। और वर्तमान की संपदा ही सदा होती है। तुम्हारे पुरखों के हाथ में भी जो समय था, वह वर्तमान था। तुम्हारे बच्चों के हाथ में भी जो समय होगा, वह भी वर्तमान होगा। समयके घटने का ढंग वर्तमान है। अतीत स्मृति है, भविष्य कल्पना है।
तुम किताबों में लिखा देखते हो कि समय के तीन रूप हैं--अतीत, वर्तमान, भविष्य। वह बात गलत है। वह दृष्टि गलत है। समय का तो एक ही ढंग है--वर्तमान। स्मृति में अतीत है और कल्पना में भविष्य है, वे समय के हिस्से नहीं हैं। इन वृक्षों से पूछो, कोई अतीत है? कोई अतीत नहीं है। कोई भविष्य है? कोई भविष्य नहीं है। फूल अभी खिले हैं और सदा अभी खिलते हैं। वृक्ष अभी हरे हैं और सदा अभी हरे होते हैं। अगर आदमी जमीन से बिदा हो जाए, तो कोई अतीत होगा? कोई इतिहास होगा? या कि कोई उटोपिया होगा? दोनों विदा हो जाएंगे। आदमी के मन के खेल थे। अस्तित्व एक ही घड़ी को जानता है, वह वर्तमान की घड़ी है।
मैं चाहता हूं कि तुम इस बात को समझो कि न तो पीछे अपने स्वर्णयुग को रखो, न आगे अपने स्वर्णयुग को रखो। दोनों हालत में तुम दुखी रहोगे और दुख में ही मरोगे। स्वर्णयुग अभी है। और अगर जीने की कला आती हो, तो अभी आनंद बरसेगा।
मनुष्य प्रौढ़ है, इतना प्रौढ़ जितना कभी भी नहीं था। मनुष्य पतित नहीं हो रहा है। डार्विन सच है, मनुष्य विकसित हो रहा है। यह गंगा सागर के करीब पहुंच रही है। गंगोत्री में गंगा की धारा बड़ी क्षीण है। फिर रोज-रोज बड़ी होती जाती है, क्योंकि रोज-रोज नये नाले, नये नद, नये जलस्रोत मिलते जाते हैं। आज से पांच हजार साल पहले जिनके पास वेद था उनके पास सिर्फ वेद था, उनके पास बाइबिल नहीं थी। और जिनके पास बाइबिल थी, उनके पास सिर्फ बाइबिल थी, वेद नहीं था। आज तुम धन्यभागी हो, तुम्हारे पास वेद भी है, कुरान भी है, बाइबिल भी है, धम्मपद भी है। आज बहुत सी धाराएं आकर चेतना की गंगा में मिल गई हैं। आज की दुनिया में जो कहता है: मैं सिर्फ मुसलमान हूं, उसे अजायबघर में रख दो। आज की दुनिया में जो कहता है: मैं सिर्फ हिंदू हूं, वह आदमी जिंदा नहीं है। आज की दुनिया में जो हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, सब एक साथ नहीं है, वह आदमी ही नहीं है। आज तो सारी मनुष्य-जाति की वसीयत हमारी है। आज कुरान मेरा उतना ही है, जितना धम्मपद। और गीता मेरी उतनी ही है, जितना ताओ-तेह-किंग।
पृथ्वी एक हुई है। आदमी इकट्ठा हुआ है। सारी चेतना की अलग-अलग विकसित होती धाराएं एक गंगा में सम्मिलित हुई हैं। इसलिए आज यह संभव है कि हम सारी अभिव्यक्तियों का उपयोग कर लें और कोई अड़चन न आए। इसलिए तो मैं जीसस पर बोलता हूं, कोई अड़चन नहीं है; महावीर पर बोलता हूं, कोई अड़चन नहीं है; बुद्ध पर बोलता हूं, कोई अड़चन नहीं है। कोई अड़चन का कारण नहीं है। अड़चन खड़ी होगी तर्कवादी को। वह कहेगा, जीसस ने ऐसा कहा और महावीर ने वैसा कहा। उसका सत्य बड़ा छोटा है। अगर जीसस का सत्य सत्य है, तो फिर महावीर असत्य हो जाते हैं।
मेरा सत्य बहुत बड़ा है। उसमें जीसस ने जो कहा वह एक पहलू है, महावीर ने जो कहा वह दूसरा पहलू है। वे दोनों पहलू आपस में विपरीत हों, मगर वे एक ही सत्य के पहलू हैं। तुम्हारी पीठ और तुम्हारा चेहरा एक ही आदमी के हिस्से हैं, हालांकि एक-दूसरे के विपरीत हैं--तुम्हारी पीठ और तरफ, तुम्हारा चेहरा और तरफ। तुम्हारा बायां हाथ और तुम्हारा दायां हाथ एक-दूसरे के विपरीत हैं, और चाहो तो दोनों को लड़ा भी सकते हो। या कि नहीं लड़ा सकते? बाएं-दाएं हाथ को लड़ा सकते हो, इतने विपरीत हैं। और बाएं-दाएं हाथ का एक ही काम में सहयोग भी ले सकते हो। तुम पर निर्भर है। बाइबिल और कुरान लड़ेंगे या साथ-साथ खड़े होंगे, तुम्हारा बायां और दायां हाथ लड़ेगा कि संयुक्त सहयोग करेगा, यह तुम पर निर्भर है।
जितना प्रौढ़ आदमी होगा, उतना ही मनुष्य-जाति की सारी संपदा को अपनी मानेगा। यह सब तुम्हारा है। इसमें कुछ भी छोड़ने जैसा नहीं है। और कहीं अगर तुम्हें अड़चन मालूम होती हो, तो उस तर्क को छोड़ देना जिसके कारण अड़चन मालूम होती हो। मगर इस विराट में भेद मत करना। सब ठीक कहते हैं। सबके ठीक उनके समय के ठीक हैं। उनके समय में जो बात कही जा सकती थी, उन्होंने कही। मेरे समय में जो बात कही जा सकती है, वह मैं तुमसे कह रहा हूं।
यहां मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं: अदभुत बात है! यहां हिंदू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं, जैन हैं, बौद्ध हैं, सब तरह के लोग हैं। आपने बड़ा समन्वय किया!
मैं उनसे कहता हूं, समन्वय की बात ही नासमझी की है। समन्वय का तो मतलब यह होता है कि हमने विरोध मान ही लिया। समन्वय का अर्थ होता है: विरोध था, हमने तालमेल जुड़ा दिया। मैं कहता हूं, विरोध है ही नहीं; समन्वय की बात बकवास है।
महात्मा गांधी दोहराते थे अपने आश्रम में: अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान। उनको थोड़ा-बहुत शक रहा होगा। नहीं तो दोनों नाम उसके हैं, इसको रोज-रोज दोहराने की कोई जरूरत नहीं थी। हैं ही, इसको दोहराना क्या? तुम रोज-रोज यह तो नहीं कहते कि यह दीवाल दीवाल है। तुम रोज-रोज यह तो नहीं कहते कि मैं पुरुष हूं, मैं स्त्री हूं। कोई जरूरत नहीं है। और जब महात्मा गांधी को गोली लगी तब पता चल गया कि मुंह से हे राम निकला! अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम खो गए। भीतर पड़ा हिंदू--गहरे में पड़ा हिंदू प्रकट हुआ।
गांधी ने कुरान की कुछ आयतों की प्रशंसा की है। लेकिन उस प्रशंसा में बेईमानी है। वे आयतें वे ही हैं जो गीता से मेल खाती हैं। वह गीता की ही परोक्ष रूप से प्रशंसा है। जो आयतें गीता के विपरीत हैं, गांधी ने उनकी बात ही नहीं उठाई। यह कोई बात हुई? गीता में जो-जो है, वह ठीक है; अगर कुरान में भी है तो ठीक होना ही चाहिए, क्योंकि गीता ही जब कह रही है। और गीता सत्य का मापदंड है। यह कोई समन्वय हुआ? यह ऊपर की लीपा-पोती हुई। यह राजनीति है। इस राजनीति का कोई मूल्य नहीं है।
इसलिए गांधी जिन्ना को धोखा न दे पाए। गांधी हिंदू थे तो जिन्ना मुसलमान था। और जितना ही मैंने इस पर सोचा है, मैंने पाया है, अगर गांधी न होते तो शायद हिंदुस्तान-पाकिस्तान न बंटता। क्योंकि गांधी की थोथी समन्वय की बात जिन्ना को कभी जमी नहीं। वह समन्वय थोथा था, ऊपर-ऊपर था; भीतर गहरे में हिंदू धारणा थी। हर चीज में हिंदू धारणा थी। हां, इतनी कुशलता थी कि हिंदू धारणा जहां-जहां किसी और से मेल खाती हो, उसको भी ठीक कहते थे। मगर उसको ठीक कहने का कोई प्रयोजन ही नहीं रहा। दूसरे को ठीक कहने का अर्थ तभी है, जब तुम्हारे विपरीत धारणा जाती हो। लेकिन तब समन्वय की बात नहीं उठती। तब तो सत्य एक है, उसके अनेक पहलू हैं। सब पहलू अपने ढंग से सही हैं, और कोई पहलू पूरे सत्य का प्रतिपादक नहीं है। और कोई पहलू पूरे सत्य का दावा नहीं कर सकता--न गीता, न कुरान, न बाइबिल; न मैं, न तुम, कोई कभी पूरे सत्य का दावा नहीं कर सकता। सत्य इतना विराट है कि उसके नये-नये पहलू रोज-रोज उघड़ते रहेंगे। मेरे बाद लोग होंगे और वे सत्य के और-और नये पहलू खोजेंगे। आदमी विकसित होता रहेगा, सत्य की नई-नई भूमियां टूटती रहेंगी। सत्य के नये-नये लोक खोजे जाते रहेंगे। और इसका कोई अंत नहीं है। यह यात्रा अनंत है। इसलिए कहीं सत्य समाप्त नहीं होता। जितना हमने जाना, उतना सत्य है, उसके पार भी सत्य है जो दूसरे जानेंगे, जो कभी जाना जाएगा।
समन्वय की बात नहीं है, विराट पर दृष्टि रखने की बात है। अनंत पर दृष्टि रखने की बात है।
इसलिए मैं इन सारी अभिव्यक्तियों का उपयोग करता हूं। ऐसी अभिव्यक्तियां जो कि बिलकुल ही विरोधी हैं, फिर भी मुझे विरोध नहीं दिखाई पड़ता। क्योंकि मैं दोनों के भीतर छिपे हुए एक ही परमात्मा को देखता हूं।
जैसे समझो, इतनी विरोधी बात है! महावीर ने कहा: आत्मा ही एकमात्र ज्ञान है; जिसने आत्मा को जाना, उसने सब जाना। और बुद्ध ने कहा: आत्मा ही एकमात्र अज्ञान है; और जिसने आत्मा को माना, उससे बड़ा कोई अज्ञानी नहीं है। अब इससे विपरीत और क्या दो बातें खोजोगे? लेकिन फिर भी मैं तुमसे कहता हूं: ये दोनों पहलू एक ही सत्य के हैं। महावीर जब कहते हैं आत्मा, तो एक पहलू प्रकट करते हैं। क्योंकि सत्य की परम अनुभूति में ही पता चलता है कि मैं हूं। मेरा होना तब तक तो रेत पर बना है, जब तक मुझे सत्य की अनुभूति नहीं हुई। तब तक तुम्हारे होने का क्या अर्थ है?
तुमसे कोई पूछे कि तुम कौन हो, तो तुम क्या उत्तर दोगे? नाम बताओगे। लेकिन नाम तो सब झूठे हैं, रखे हुए हैं। जब तुम पैदा हुए थे, राम रख लेते तो चल जाता, रहीम रख लेते तो भी चल जाता। कुछ भी नाम रख देते तो चल जाता। सब नाम रखे हुए हैं। नाम आज बदल सकते हो। जितनी दफे जिंदगी में नाम बदलना चाहो, बदल सकते हो। नाम का कोई भी मूल्य नहीं है। तुमसे कोई पूछता है, आप कौन हैं? तो तुम नाम बता सकते हो। बहुत से बहुत अपनी तस्वीर बताओगे कि यह मैं हूं। पासपोर्ट पर यही तो होता है--नाम होता है और तस्वीर होती है। मगर तुम्हारी तस्वीर तुम हो? तुम्हारी तस्वीर भी तो कितनी बार बदल चुकी! जब तुम छोटे थे, तुम्हारी एक तस्वीर थी; जब तुम जवान हुए, दूसरी तस्वीर हो गई; अब तुम बूढ़े हो, तीसरी तस्वीर हो गई; रोज-रोज तस्वीरें बदलती गई हैं। तुम तस्वीरों की एक धारा हो। सब बह रहा है। कौन सी तस्वीर तुम हो?
थोड़ा समझो। पहले दिन जब तुम्हारे मां और पिता के वीर्याणु गर्भ में मिले, उसकी तस्वीर खींची जाती, वह भी तुम्हारी तस्वीर थी। उसको देखने के लिए खुर्दबीन की जरूरत पड़ती, उसको ऐसे देखा भी नहीं जा सकता। और कुछ खास दिखाई भी न पड़ता। पहला अणु--उस अणु में न नाक थी, न कान था, न चेहरा था, न रंग था, न रूप था। वह अणु तुम थे, वह तुम्हारी तस्वीर थी। आज तुम्हें कोई वह तस्वीर बताए, तो तुम मानने को राजी नहीं होओगे कि यह मैं कभी था।
फिर तुम मां के पेट में बढ़ते रहे। वैज्ञानिक कहते हैं कि तुमने वे सारी सीढ़ियां पार कीं, जो मनुष्य ने अपने विकास के अनंत काल में पार की हैं। सबसे पहले तुम मछली जैसे थे मां के पेट में, और आखिर-आखिर तक तुम बंदर जैसे हो गए। वे सब तस्वीरें तुम्हारी थीं। जिस दिन तुम पहले दिन पैदा हुए थे, आज अगर वह तस्वीर तुम्हें बताई जाए, क्या तुम पहचान सकोगे कि यह तस्वीर मेरी है? मगर तुम्हारी थी। और ऐसे ही जिस तस्वीर को तुम आज अपनी कह रहे हो, यह भी कल तुम्हारी न रह जाएगी।
तुम कौन हो? तुम्हारा नाम? तुम्हारा रूप? तुम कौन हो? तुम्हारा धन? तुम्हारा बैंक बैलेंस? तुम्हारी तिजोड़ी? तुम्हारी दुकान? तुम्हारा काम? तुम्हारा व्यवसाय? तुम कौन हो? ये सब बातें तुम्हारे कौन को प्रकट नहीं करतीं।
महावीर कहते हैं: जब सत्य जाना जाता है, जब कोई अपने अंतर्तम में प्रविष्ट हो जाता है, तब पहली बार जानता है कि मैं कौन हूं। वह उत्तर ही आत्मा है।
बुद्ध कहते हैं: जब कोई पहली दफा उस जगह पहुंचता है जहां पता चलता है कि क्या है, तो वहां एक बात पता चलती है कि हूं तो जरूर, लेकिन मैं कोई भी नहीं, मैं जैसा कोई भाव नहीं उठता वहां; सिर्फ शुद्ध अस्तित्व का बोध होता है। अहंकार की वहां कोई धारणा नहीं होती। चूंकि अहंकार की कोई धारणा नहीं होती, इसलिए बुद्ध कहते हैं, वहां आत्मा नहीं होती।
दोनों सही कहते हैं।
महावीर कहते हैं: वहां पहली दफा आत्मा होती है; उसके पहले सब झूठ। और बुद्ध कहते हैं: उसके पहले तो सब झूठ था ही, यह आत्मा शब्द भी उसके पहले ही पकड़ा गया है, यह भी वहां नहीं होता। वहां निराकार होता है, निर्गुण होता है, शून्य-भाव होता है। दोनों ठीक कहते हैं। अगर दोनों को एक साथ कहो तो विरोधाभासी वक्तव्य हो जाएगा।
जीसस ने यही कहा है। जीसस ने कहा है: जो अपने को खोएगा, वह पाएगा। जो अपने को मिटाएगा, हो जाएगा। जो अपने को बचाएगा, खो देगा। अग
र अपने को पाना हो, तो अपने को मिटा दो।
जीसस के वक्तव्य में बुद्ध और महावीर की, दोनों की बातें आ गईं। बीज अपने को मिटाता है तो वृक्ष हो जाता है। बूंद अपने को मिटाती है तो सागर हो जाती है। मिटना और होना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। महावीर ने एक पहलू पर जोर दिया, बुद्ध ने दूसरे पहलू पर जोर दिया। और दोनों के जोर देने के अपने-अपने कारण थे, अपना-अपना प्रयोजन था। और दोनों के जोर देने को हम गलत नहीं कह सकते। दोनों बातें सच हैं। दोनों बातें एक साथ सच हैं।
जब सारे शास्त्र एक साथ सच हो जाते हैं, तब तुम समझना कि तुम्हारे जीवन में छोटी-छोटी सीमाएं टूटीं, छोटे-छोटे आंगन मिटे, तुम आकाश बने। जिस दिन तुम एक ही साथ बाइबिल, कुरान और वेद के लिए गवाही दे सको, उस दिन समझना कि तुम प्रौढ़ हुए, उस दिन बचपन गया।
आज मनुष्य प्रौढ़ है। इसलिए यह संभव है कि जो मैं कह रहा हूं वह कहा जा सके। मेरी बातों में तुम्हें बहुत विरोधाभास मिलेंगे। अनिवार्य हैं। अगर सत्य कहना हो तो विरोधाभासी होगा, पैराडाक्सिकल होगा। अगर असत्य कहना हो तो विरोधाभासी नहीं होता, कोई जरूरत नहीं है असत्य के विरोधाभासी होने की। असत्य साफ-सुथरा होता है। सत्य रहस्यपूर्ण है।
मगर यही तो मजा है सत्य का कि वह रहस्यपूर्ण है। मैं चाहूंगा कि तुम भी इस रहस्य में उठो। तर्क के साफ-सुथरेपन को छोड़ो, तर्क की बनाई हुई बगिया को छोड़ो, सत्य के जंगल में प्रवेश करो। वहीं आनंद है, क्योंकि वहां परमात्मा के हाथ की छाप है। तुम्हारे बगीचे में सब कृत्रिम है।
मेरे इस बगीचे में लोग आते हैं, वे कहते हैं, यह कैसा जंगल जैसा है!
जान कर यह जंगल जैसा है। मैं भी जंगल जैसा हूं।
तुमने पश्चिम के बगीचे देखे? पश्चिम के बगीचे बिलकुल कटे-छंटे होते हैं। इसी अर्थ में कुरूप होते हैं। सिमिट्रिकल होते हैं। एक तरफ एक वृक्ष लगाया, तो ठीक वैसा वृक्ष दूसरी तरफ लगाया; दोनों को एक जैसा काटा। जंगल में कहीं तुम दो वृक्ष एक जैसे पा सकते हो--एक जैसे कटे? एक जैसे लगे? जंगल की खूबी क्या है? जंगल की खूबी यह है कि वहां सिमिट्री नहीं है। झेन बगीचा होता है जापान में, उसमें सिमिट्री नहीं होती। वह जंगल के करीब होता है। और वहां तुम ज्यादा सौंदर्य पाओगे, क्योंकि सौंदर्य की जब भी सीमा बनाई जाती है तभी सौंदर्य सिकुड़ जाता है। सौंदर्य जीता ही असीम में है।
एक पक्षी को पिंजड़े में बंद करके रख दिया है, यह भी पक्षी है माना, मगर क्या बहुत पक्षी है? ज्यादा पक्षी नहीं है। क्योंकि पक्षी उतना ही होता है जितना खुला आकाश उसे उपलब्ध होता है। पक्षी का सौंदर्य तब है, जब वह अपने पंखों पर उड़ा होता है। जब सारा आकाश उसे उपलब्ध होता है, और जहां जाना हो वहां जाने की स्वतंत्रता होती है। और जैसा होना हो वैसे होने की स्वतंत्रता होती है। उड़े तो उड़े, न उड़े तो न उड़े, लेकिन सब उसके ऊपर निर्भर होता है, सब उसकी अंतरात्मा पर निर्भर होता है।
इस पक्षी को तुमने सोने के पिंजड़े में बिठा दिया। पिंजड़ा तुमने बहुत कारीगरी से बनाया, साफ-सुथरा भी रखते हो--ऐसा साफ-सुथरा यह पक्षी अपने नीड़ को नहीं रख सकता था--लेकिन फिर भी क्या तुम्हारे साफ-सुथरे पिंजड़े में पक्षी रहने को राजी होगा? चाहेगा उड़ जाए आकाश में।
तर्क पिंजड़े जैसा है। साफ-सुथरा, सोने का बना, हीरा जड़ा। अतर्क खुले आकाश जैसा है। तर्क के साथ सुरक्षा मालूम होती है, क्योंकि तर्क तुम्हारी मुट्ठी में होता है। सत्य के साथ असुरक्षा मालूम होती है, क्योंकि तुम सत्य की मुट्ठी में होते हो। इसलिए लोग तर्क को पकड़ लेते हैं। तर्क है अंधे आदमी की लकड़ी, लंगड़े आदमी की बैसाखी। फेंको बैसाखियां! खतरा मोल लो! क्योंकि बिना खतरा मोल लिए कोई सत्य तक नहीं पहुंचता है।
मैं तुम्हें सब पहलुओं से कह रहा हूं, एक बात याद दिलाने को कि तुम्हारे मन में यह बात साफ हो जाए कि किसी एक पहलू को पकड़ना संकीर्ण होना है। सारे पहलुओं को साथ आने दो। आने दो सब लहरों को, आने दो सब दिशाओं से परमात्मा को, आने दो सब रूपों में। और तुम उसे हर रूप में पहचानने में सफल हो जाओ, यह मेरी चेष्टा है। जिस दिन तुम उसे हर रूप में पहचानने में सफल हो जाओगे, तुम उसे सब जगह पाओगे--क्योंकि सब रूप उसके हैं। वृक्षों में भी वही, पहाड़ों में भी वही, चांद-तारों में भी वही, लोगों में भी वही। तुम्हारी पत्नी और तुम्हारे पति और तुम्हारे मित्र और तुम्हारे शत्रु में भी वही, जरा तुम्हारी आंख पहचानना शुरू कर दे।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, आपने कहा कि नेति-नेति ज्ञान का उदघोष है और इति-इति भक्ति का। भक्ति के इस उदघोष में तो अंधेरा, कल्मष और पाप, सब आ जाते हैं। क्या परमात्मा सब है?
तुम्हारा मन हिम्मत ही नहीं कर पाता। तुम परमात्मा पर सीमा लगाने को बड़े आतुर हो। परमात्मा असीम हो, इससे तुम्हें भय लगता है--कि कहीं असीम के साथ दोस्ती की, तो खो न जाएं। तुम चाहते हो कि साफ-सुथरा हो जाए परमात्मा के संबंध में सब। हम उसे भी, जैसे हम कबूतरों को उनके दड़बों में बंद कर देते हैं, ऐसे परमात्मा को भी एक दड़बे में रख दें। कैटेगरी, एक कोटि बना दें उसकी, कि यह रहा परमात्मा, और यह रही पहचान, और सम्हालो अपना पासपोर्ट--यह तुम्हारा नाम है, और यह तुम्हारी शक्ल है, और भूल मत जाना, और यहां-वहां पासपोर्ट गंवा मत देना--तो हम निश्चिंत हो जाएं।
तुम देखते हो, तुम्हें राह में कोई आदमी मिल जाता है तो तुम उससे क्या पूछते हो? तुम निश्चिंत होने के लिए पूछते हो। ट्रेन में कोई आदमी मिल जाता है, अजनबी आदमी, तुम जल्दी से निश्चिंत होना चाहते हो कि कौन है--आपका नाम? कहां से आ रहे हैं? जाति? कौन सा धंधा करते हैं?
तुम क्या कर रहे हो? तुम यह कर रहे हो कि यह आदमी पड़ोस में बैठा है, पक्का तो हो जाए--डाकू है, कि चोर है, कि और भी खतरनाक राजनीतिज्ञ है, कि व्यवसायी है, कौन है? निश्चिंत हो जाएं इसके बाबत। यह बगल में ही बैठा है, जेब भी इसके पास ही है हमारी, कब हाथ डाल दे! गर्दन भी पास है, रात सोना भी पड़ेगा, यह आदमी यहां बैठा है।
मैं एक दफा एक ट्रेन में सवार हुआ। बंबई के स्टेशन पर मित्र मुझे छोड़ने आए थे। उस डिब्बे में एक सज्जन और थे, वे देख रहे थे--ये सारे लोग, फूलमालाएं, लोग चरण छू रहे। वे प्रतीक्षा कर रहे थे कि जैसे ही मैं अंदर आऊं और गाड़ी चले। जैसे ही मैं अंदर आया और गाड़ी चली, वह एकदम साष्टांग उन्होंने दंडवत की कि महात्माजी, बड़ी ईश्वर की कृपा कि आपका सत्संग मिल गया। मैंने कहा, आप बड़ी भूल में हैं। मैं हिंदू महात्मा नहीं हूं; मैं मुसलमान फकीर हूं। उनका चेहरा देखने लायक था। मुसलमान के पैर छू लिए! बोले, नहीं-नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है? जैसे कि मेरे मुसलमान होने में कोई अड़चन है--ऐसा कैसे हो सकता है? नहीं-नहीं, आप मजाक कर रहे हैं। अब वे अपने को समझाने लगे कि आप मजाक कर रहे हैं। मैंने कहा, मजाक क्यों करूंगा? सच्ची बात आपसे कह दी। वैसे आपकी मर्जी। हिंदू मानना हो, हिंदू मान लो। अब उनको बड़ी बेचैनी हो गई। पैर छू लिए! मैंने कहा, आपको ज्यादा बेचैनी हो तो मैं आपके पैर छू लूं; तो उधार खतम। नहीं-नहीं, उन्होंने कहा, ऐसी कोई बात नहीं है। मगर आप लगते तो हिंदू हैं। मैंने कहा, बड़ी मुश्किल है। मैं कहता हूं कि मैं मुसलमान हूं, आप कहते हैं कि आप लगते हिंदू हैं। आपको सिर्फ अपना बचाव करना है, क्योंकि वह जो पैर छू लिए।
फिर वे अपना अखबार पढ़ने लगते। फिर बार-बार देखते, कोशिश करते कि आदमी हिंदू है कि मुसलमान है। मैंने उनसे कहा, नाहक न परेशान हों, मैं हिंदू ही हूं, ऐसे ही मजाक कर रहा था। फिर उन्होंने दंडवत किया। उन्होंने कहा कि वह मैं जानता ही था। आप बिलकुल हिंदू मालूम पड़ते हैं। जो लोग छोड़ने आए थे, वे भी हिंदू थे। आपने भी खूब मजाक किया! उन्होंने फिर जब पैर छू लिए, मैंने कहा, अब यह और झंझट हो गई। मैं मजाक अब कर रहा था। तब जरा बात ज्यादा हो गई। तब तो वे थोड़े भयभीत हो गए कि पता नहीं यह आदमी पागल है! जैसे ही टिकट कलेक्टर आया, वे बाहर गए और उससे बोले कि मुझे दूसरे कमरे में जाना है। टिकट कलेक्टर ने पूछा, क्या तकलीफ है आपको? कहा, तकलीफ की मत पूछो, मैं इसमें सो न सकूंगा।
तुम निश्चिंत होना चाहते हो। अगर हिंदू है तो फिर तुम पूछते हो, ब्राह्मण हो कि क्षत्रिय कि वैश्य? तुम कोशिश कर रहे हो कि इस आदमी को ठीक से एक हिसाब में बिठा लें। तुमने हिसाब बना रखे हैं। अगर तुम हिंदू हो तो तुम सोचते हो--मुसलमान खतरनाक! अगर तुम मुसलमान हो तो तुम सोचते हो--हिंदू बेईमान, चालबाज, धूर्त! अगर तुम हिंदू हो और ईसाई है, तो तुम सोचते हो--म्लेच्छ, अपवित्र! अगर तुम ईसाई हो और दूसरा हिंदू है, तो तुम सोचते हो--भ्रष्ट, अधार्मिक, भटका हुआ, काफिर! तुमने कोटियां बना रखी हैं। जब भी एक नया आदमी मिलता है, तुम उसको कोटि में बिठा देते हो। कोटि में बिठाने से तुम्हें निश्चिंतता हो जाती है। अब तुम जानते हो इस आदमी के साथ कैसा व्यवहार करना, और इससे क्या अपेक्षा रखनी। और मजा यह है कि सब कोटियां झूठी हैं। यह आदमी तुम्हें पहली बार मिला है, और ऐसा आदमी तुम्हें कभी नहीं मिला, और दो आदमी दुनिया में एक जैसे नहीं होते, इसलिए सब कोटियां फिजूल हैं। दो आदमी एक जैसे होते ही नहीं। परमात्मा डुप्लीकेट बनाता ही नहीं। परमात्मा के उस विराट से आदमी ऐसे नहीं आते जैसे फोर्ड के कारखाने से कारें निकलती हैं--कतार बंधी एक सी कारें। प्रत्येक आदमी अनूठा है, विशिष्ट है। कोटियां व्यर्थ हैं।
आदमी पर कोटि नहीं लगती, लेकिन तुम परमात्मा पर भी कोटि लगाना चाहते हो। तुम अपनी धारणाएं अपने पर तो थोपे ही हुए हो, तुम परमात्मा पर भी थोपना चाहते हो। तुम कहते हो, जिसको मैं शुभ मानता हूं, वह तो परमात्मा में हो तो मैं आज्ञा दूंगा; लेकिन जिसको मैं अशुभ मानता हूं, उसको कैसे परमात्मा में मानूं?
तुम्हारे शुभ-अशुभ की धारणा का मूल्य कितना है? क्या शुभ है? क्या अशुभ है? किस बात को तुम शुभ कहते हो? तुमने जाना कैसे कि शुभ क्या है? किस बात को तुमने अशुभ तय कर लिया है? कैसे तय कर लिया है? कोई आदमी मर गया तो अशुभ है? इससे सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि तुम्हारी जीवेषणा प्रबल है, और कुछ नहीं। तुम सदा जीना चाहते हो, इसलिए मौत को अशुभ मानते हो। इससे मौत अशुभ नहीं होती, इससे सिर्फ तुम्हारी जीवन की प्रबल वासना सिद्ध होती है। तुम सदा जीना चाहते हो। हालांकि तुम्हारे जीवन में कुछ भी नहीं, मगर अपने को घसीटे रखना चाहते हो। किसी भी तरह जीना है। किसी भी कीमत पर जीना है। जीना तो है ही, चाहे नालियों में सड़ना पड़े, चाहे भूखों मरना पड़े, चाहे कैंसर से दबा रहना पड़े, जीना तो है ही। जीना शुभ है, जीवन शुभ है और मृत्यु अशुभ है।
तो सवाल उठता है कि परमात्मा कैसे मृत्यु का देने वाला हो सकता है? नहीं-नहीं, मृत्यु कहीं और से आती होगी। कोई शैतान होगा स्रोत मृत्यु का।
तुम कहते हो, फूल तो सुंदर हैं, कांटे सुंदर नहीं हैं। मगर यह तुम्हारी धारणा है। तुम्हारी धारणा परमात्मा मानने को मजबूर नहीं है। अच्छा तो यह हो कि तुम भी उसी तरह निर्धारणा में हो जाओ जैसे परमात्मा है। फूल भी सुंदर हैं और कांटे भी सुंदर हैं।
तुमने कांटे का सौंदर्य नहीं देखा? छोटी सी बात से तुम अटक गए हो कि कभी-कभी कांटा तुम्हारे हाथ में चुभ जाता है, हाथ से लहू निकल आता है। लेकिन लहू का रंग और फूल का रंग एक है। जैसे तुम्हारे हाथ से लहू निकला है, ऐसे ही इस कांटों से भरी झाड़ी में गुलाब निकला है। ये कांटे उस गुलाब की रक्षा कर रहे हैं। ये उस गुलाब के दुश्मन नहीं हैं, ये उसके पहरेदार हैं, ये उसके बॉडीगार्ड हैं, अंगरक्षक हैं। ये कांटे भी सुंदर हैं।
फिर तुम देखते हो, सौंदर्य की भी तो धारणाएं बदलती रहती हैं। जमाने गए जब गुलाब सुंदर हुआ करता था, अब कैक्टस सुंदर हो गया है। अब जो पढ़े-लिखे लोग हैं, सुसंस्कृत लोग हैं, उनके घर से गुलाब विदा हो गया--गुलाब यानी बुर्जुआ। गुलाब यानी मध्यमवर्गीय। गुलाब यानी रूढ़िग्रस्त, परंपरागत लोग। अब जो आधुनिक कवि हैं, वे गुलाब के गीत नहीं गाते। गुलाब के गीत कौन गाएगा? कैक्टस! उसके सुंदर कांटों, तिरछे-इरछे कांटों के गीत गाते हैं। कैक्टस को घर में सजाते हैं--बैठकखाने में। कैक्टस पहले भी लोग लगाते थे, खेत वगैरह की बागुड़ पर लगा देते थे कि जंगली जानवर भीतर प्रवेश न कर जाएं, कोई चोर न घुस जाए। अब कैक्टस बैठकखाने में आ गया। गुलाब जा चुका, गुलाब प्रतीक हो गया अरिस्ट्रोक्रेसी का, आभिजात्य का। कैक्टस--सर्वहारा, प्रोलिटेरिएट, गरीब, दरिद्रनारायण। भाषाएं बदल जाती हैं। पहले अगर परमात्मा गुलाब का फूल था, तो अब कैक्टस का पौधा है।
परमात्मा के ऊपर कोई धारणा नहीं लगती। धारणाएं तुम बनाते हो। फिर तुम थक जाते हो एक धारणा से, तो धारणा बदल लेते हो; ऊब जाते हो, तो धारणा बदल लेते हो। फिर नई धारणा कर लेते हो। उससे भी ऊब जाओगे।
जो व्यक्ति सभी धारणाओं से ऊब गया, वही धार्मिक है। जो कहता है, कोई धारणा न बिठाऊंगा। मैं हूं कौन? मेरा इस अस्तित्व पर बस क्या है? मैं अपने ढांचे में क्यों बिठालना चाहूं जगत को? मैं क्यों कहूं यह कुरूप, वह सुंदर? और परमात्मा सुंदर ही होना चाहिए, कुरूप नहीं? परमात्मा न तो सुंदर है और न कुरूप है। सुंदर और कुरूप की धारणाएं मनुष्य की ईजादें हैं।
तुम जरा सोचो। तीसरा महायुद्ध हो गया और सारे आदमी समाप्त हो गए। पृथ्वी पर कुछ सुंदर होगा, कुछ असुंदर होगा? गुलाब भी होंगे, कैक्टस भी होंगे, तुम न होओगे। लेकिन तब गुलाब और कैक्टस में फर्क करने वाला कोई न होगा। तब दोनों होंगे--न सुंदर, न असुंदर। रात भी आएगी और कोई डरेगा नहीं। और दिन भी आएगा और कोई सूरज की प्रार्थना और स्तुति नहीं करेगा। जिंदगी भी चलेगी, पौधे होंगे, पक्षी होंगे और मौत भी आएगी। लेकिन न तो जिंदगी का कोई स्वागत करने वाला होगा, न मौत का कोई इनकार करने वाला होगा। आदमी गया कि सब धारणाएं गईं। आदमी गया कि द्वंद्व गया।
तीसरे महायुद्ध की प्रतीक्षा मत करो। द्वंद्व को तुम गिरा दो अपने भीतर अभी। और तुम अचानक पाओगे कि द्वंद्व के गिरते ही न तो कुछ शुभ है, न कुछ अशुभ है। न कुछ नीति है, न कुछ अनीति है। और मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि तुम जाकर मनुष्यों के साथ ऐसा-तैसा कैसा भी व्यवहार शुरू कर दो। क्योंकि मनुष्य परमात्मा नहीं हैं, वे बर्दाश्त नहीं करेंगे। तुम यह मत कहना कि जब कुछ नीति नहीं, कुछ अनीति नहीं, तो बाएं क्यों चलूं? मैं दाएं चलूंगा, या बीच रास्ते में चलूंगा, जहां मौज होगी वैसे चलूंगा। वह जो पुलिसवाला खड़ा है, वह कोई परमहंस नहीं है, वह थाने ले जाएगा पकड़ कर, उस पर भी ध्यान रखना। बाएं ही चलना। लेकिन इतनी बात जान लेना कि बाएं चलो कि दाएं चलो, सब व्यावहारिक है, पारमार्थिक नहीं है। इनका मूल्य व्यावहारिक है।
अमरीका में लोग दाएं चलते हैं। इससे कुछ नुकसान नहीं हुआ जा रहा। हिंदुस्तान में बाएं चलते हैं, क्योंकि अंग्रेज बाएं चलने की आदत छोड़ गए। बाएं चलो कि दाएं चलो, लेकिन एक बात तय है कि जहां भीड़-भाड़ है, वहां कुछ नियम बनाना होगा। नियम सिर्फ व्यावहारिक है। अगर भीड़-भाड़ न हो तो नियम की कोई जरूरत नहीं होती। इसलिए छोटे देहात में बाएं चलो कि दाएं चलो, कौन फिक्र करता है? जहां मर्जी हो वहां चलो। कोई रोकने वाला भी नहीं है, कोई चिंता लेने वाला भी नहीं है। जैसे-जैसे नगर बड़ा होगा, वैसे-वैसे व्यवस्था आनी शुरू होगी। जितनी महानगरी होगी, उतने नियम आ जाएंगे। जितनी भीड़ होगी, उतने नियम लाने ही पड़ेंगे। अकेला आदमी बिना नियम के जी सकता है। जब तुम दूसरे से जुड़ते हो तो नियम अनिवार्य हो जाता है। लेकिन ध्यान रखना, नियम अनिवार्य है, फिर भी व्यावहारिक है, पारमार्थिक नहीं है। उसकी कोई अंततोगत्वा सत्ता नहीं है, वह कोई सत्य नहीं है।
परमात्मा न तो सुंदर है, न असुंदर। तुमने परमात्मा की सुंदर मूर्तियां बनाई हैं, वह तुम्हारे सौंदर्य की धारणा तुमने परमात्मा पर बिठा दी। इसलिए तुम देखो, दुनिया के अलग-अलग लोग परमात्मा की अलग-अलग ढंग की मूर्तियां बनाते हैं। क्योंकि उनकी सौंदर्य की धारणा अलग-अलग है। चीनी जब बनाएगा तो चपटी नाक बनाएगा। परमात्मा की सही, लेकिन चपटी ही नाक बनेगी। जब हिंदू बनाएगा, तो कश्मीरी नाक खोदेगा। जब नीग्रो, अफ्रीकी बनाएगा, तो मोटे ओंठ बनाएगा। क्योंकि अफ्रीकी मानता है, मोटे ओंठ सुंदर। ओंठों को मोटा करने के लिए अफ्रीकी औरतें और अफ्रीकी पुरुष बड़े उपाय करते हैं। पत्थर बांध-बांध कर लटकाते हैं। सौंदर्य का प्रसाधन है वह। जिसके ओंठ जितने चौड़े, उतना ही उसका चुंबन गहरा और जकड़ गहरी और पकड़ गहरी होती है। पतला ओंठ भी क्या खाक चूमेगा? पता ही नहीं चलेगा। उनकी धारणा में भी कुछ तो बात है।
लेकिन मोटा ओंठ हमें बेहूदा लगता है। जितनी भी आर्य जातियां हैं, उनके ओंठ पतले होते हैं, इसलिए पतला ओंठ सुंदर। उनकी नाक लंबी होती है, इसलिए लंबी नाक सुंदर। जितनी आर्य जातियां हैं, उनका स्वाभाविक रंग गोरा है, इसलिए गोरा रंग सुंदर। राक्षसों को तुम काला बनाते हो, गोरा नहीं। हालांकि गोरों में भी बड़े राक्षस होते हैं, और कालों में भी देवता पुरुष मिल जाते हैं। काले और गोरे से देवता और राक्षस का क्या लेना-देना? लेकिन तुम्हारी काले की धारणा।
हेराडोटस ने कहा है: अगर गधे और घोड़े अपना भगवान बनाएं तो आदमी की शक्ल में नहीं बनाएंगे। स्वाभाविक। तुम अपनी धारणाएं परमात्मा पर आरोपित करते हो। अपनी धारणाओं को विदा कर लो। तुम्हारी धारणाएं अड़ंगे हैं, बाधाएं हैं।
क्या कल्मष है?
तुम कहते हो कि परमात्मा अगर सब है, तो फिर अंधेरा, कल्मष और पाप, वह भी सब उसी में होगा?
कौन सी चीज पाप है? अर्जुन ने कृष्ण से कहा कि मैं नहीं काटूंगा इनको। ये मेरे सगे-संबंधी, ये मेरे मित्र हैं, ये मेरे साथ पढ़े सहपाठी हैं, ये मेरे परिवार से जुड़े हैं, चचेरे भाई हैं, ममेरे भाई हैं, हम सब साथ बड़े हुए हैं, यह सब मेरा ही परिवार बंट कर खड़ा है--आधा इस तरफ, आधा उस तरफ--इनको मैं नहीं काटूंगा।
उसकी पाप की एक धारणा है, कि अपनों को नहीं मारना। अगर ये अपने न होते, तो बेधड़क काटता। मगर अपने हैं, यह अड़चन है। अर्जुन को काटने में अड़चन नहीं है, आज तक नहीं आई थी अड़चन, महाभारत के पहले भी उसने बहुत लोग काटे थे, जिंदगी भर से ही योद्धा था। लड़ना-मारना उसकी जीवन-पद्धति थी, जीवन-शैली थी, लेकिन यह प्रश्न कभी नहीं उठा था। आज यह प्रश्न क्यों उठा? अपने को मारना, इसमें अड़चन है। अपने को कैसे मारें? अपने को मारने में पाप है।
कृष्ण ने पूरी गीता में एक ही बात समझाने की कोशिश की है कि तू कौन है पाप और पुण्य का निर्णायक? कौन अपना, कौन पराया? यहां न तो कोई अपना है, न कोई पराया है। और तू कैसे मारेगा? जब तक परमात्मा ने निर्णय न ले लिया हो कि किसी को विदा कर लेना है, तू नहीं मार सकेगा। मैं देखता हूं कि ये मर चुके हैं, सिर्फ तू एक निमित्त होगा। तू निमित्त नहीं होगा, तो कोई और निमित्त होगा। तू कर्ता बनने की धारणा छोड़।
लेकिन अर्जुन की बात बड़ी नैतिक है। वह बार-बार यही दोहराता है कि आप मारना, हिंसा, हत्या, इसको शुभ कह रहे हैं? ये अशुभ हैं।
लेकिन जगत में यह अशुभ घट रहा है विराट पैमाने पर। एक पक्षी आता है, सरकते हुए पतिंगे को खा जाता है; ऊपर से एक बाज झपट्टा मारता है, पक्षी को खा जाता है। छोटी मछली बड़ी मछली के द्वारा खाई जा रही है। सारे जगत में हर चीज एक-दूसरे का भोजन है। अगर हिंसा पाप है तो यह सारा अस्तित्व पाप से भरा है। मगर हिंसा पाप है, यह हमारी धारणा है। हिंसा क्यों पाप है? क्योंकि हम नहीं चाहते हैं कि कोई हमें मारे। वह भय भीतर कि कोई हमें मारे न, प्रकट में, हिंसा पाप है, ऐसा सिद्धांत बन जाता है।
इसलिए तुमने देखा, जितने कमजोर और कायर लोग होते हैं, अहिंसा परमो धर्मः के सिद्धांत को जल्दी से मान लेते हैं। और अहिंसा परमो धर्मः के सिद्धांत ने लोगों को कायर भी बनाया। इस देश में जो हजार साल तक गुलामी चली, वह न चली होती--अहिंसा परमो धर्मः! लेकिन यह बड़े मजे की बात है कि जो कहता है अहिंसा परमो धर्मः, उसमें तो इतनी हिम्मत होनी चाहिए कि मारे न, ठीक है, लेकिन मरने को तो तैयार हो। लेकिन जैन मरने को भी तैयार नहीं हैं।
असल में बात ही छिपाई जा रही है। मरने का भय है, इसको सीधे-सीधे नहीं कह सकते कि हमें मारो मत, इसको ढंग से कहना होता है कि हिंसा में पाप है। मारोगे तो पाप लगेगा, नरक में सड़ोगे। और देखो, हम भी नहीं मारते। देखो, हम पैर फूंक-फूंक कर रखते हैं।
लेकिन हिंसा से मुक्ति नहीं होती, सिर्फ हिंसा नये और सूक्ष्म रूप ले लेती है। जैनों ने खेती-बाड़ी बंद कर दी, क्योंकि लगा कि इसमें हिंसा होती है। पौधे में जान है, फिर पौधे को उखाड़ना पड़ेगा, फसल काटनी पड़ेगी, तो जैनों ने खेती-बाड़ी बंद कर दी। वे सब दुकानदार हो गए, उन्होंने सबने दुकानें खोल लीं। लेकिन कभी नहीं सोचा कि वे जो दुकान पर ब्याज ले रहे हैं, वे जो दुकान पर जो लाभ ले रहे हैं, वह भी शोषण है और हिंसा है। वृक्ष काटने बंद कर दिए, आदमी काटने शुरू कर दिए। मगर काटना सूक्ष्म हो गया, ऊपर-ऊपर दिखाई नहीं पड़ता।
प्रूधो ने कहा है: सब धन चोरी है। क्योंकि सब धन में छीना-झपटी है। धन ऐसे ही है जैसे खून। जैसे खून के बिना आदमी नहीं जी सकता है, वैसे धन के बिना मुश्किल हो जाता है। खून पीना बंद कर दिया, धन पीना शुरू कर दिया। तुम ऐसा समझो कि एक आदमी को तुमने गुलाम बनाया और रात भर उससे पैर दबवाए, यह हिंसा है। और तुमने हजार रुपये कमा लिए। हजार रुपये से तुम चाहो तो हजार आदमियों से रात भर पैर दबवाओ। हजार रुपये से तुम चाहो तो हजार तरह के काम ले लो। हजार रुपये में कई चीजें छिपी हैं। एक गुलाम में तो एक ही गुलाम था, हजार रुपये में हजार काम छिपे हैं। तुम्हारी जेब में एक रुपया पड़ा है--किसी से पैर दबवाओ, एक गिलास दूध पी लो, कि सिर की चंपी करवाओ, कि किसी से नाक रगड़वाओ, कहो कि तीन दफे नाक रगड़ो, रुपया दूंगा--या जो भी चाहो, एक बोझ ढुलवाओ, किसी की गर्दन पर बैठ जाओ, किसी से रिक्शा चलवाओ, तुम्हारा एक रुपया कई चीजें लिए बैठा है। रुपये की बिसात बड़ी है। एक आदमी को तुम गुलाम बना लो, उससे कोई ज्यादा काम नहीं ले सकते, सीमा है। मगर एक रुपये की सीमा बड़ी है।
इसीलिए आदमी से भी ज्यादा मूल्यवान रुपया हो गया। सब चीजों से मूल्यवान रुपया हो गया। क्योंकि रुपये के विकल्प बहुत छिपे हैं, एक रुपये में न मालूम कितनी बातें छिपी हैं। जरा हुक्म दो और चीजें हाजिर हो जाएंगी--चाय चाहिए, चाय; शरबत चाहिए, शरबत; ठंडा तो ठंडा, गर्म तो गर्म, आदमी तो आदमी, औरत तो औरत, जो चाहिए! वह एक रुपया तुम्हारी जेब में क्या पड़ा है, तुम सारी दुनिया को अपनी जेब में रखे हुए हो। एक दफा यह बात समझ में आ गई, कौन खेती-बाड़ी करे फिर! फिर आदमी की खेती-बाड़ी शुरू हुई। फिर आदमी की लोग फसलें काटने लगे। और नारा जारी रहा--अहिंसा परमो धर्मः। और नारे के नीचे हिंसा ने नये रूप ले लिए।
कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं: अगर परमात्मा को हिंसा स्वीकार है, तो तू परमात्मा से ऊपर उठने की कोशिश मत कर। अगर उसकी इस जीवन-व्यवस्था में हिंसा अनिवार्य है, तो ठीक ही होगी। हम कौन हैं निर्णायक? कौन सी चीज पाप है? कैसे तुम तय करते हो कि यह पाप? एक ही पाप है मेरे देखे, और वह है--अज्ञान में जीना। फिर उससे सारे पाप निकलते हैं। परमात्मा--जैसे ही तुम ज्ञान में जीना शुरू करते हो, ध्यान में जीना शुरू करते हो, प्रीति में जीना शुरू करते हो, दिखाई पड़ता है। और जब परमात्मा दिखाई पड़ता है, तो सारे द्वंद्व लीन हो जाते हैं। फिर न कुछ पाप है, न पुण्य; न कुछ शुभ, न कुछ अशुभ।
और इसका यह मतलब नहीं है कि तुम पाप करने लगोगे। यह बात खयाल रखना, मैं फिर दोहरा दूं: इसका यह मतलब कतई नहीं है कि तुम पाप करने लगोगे। पाप बचता ही नहीं, तुम्हीं नहीं बचते। जब परमात्मा का बोध होता है, तब तुम्हें यह बात साफ हो जाती है कि जो वह करवाए, करवाए; मैं उसका उपकरण होकर रहूंगा, माध्यम होकर रहूंगा; उसका निमित्त होकर रहूंगा। मैं साधन मात्र हूं। युद्ध में लड़वाए, तो युद्ध में लडूंगा। और अस्पताल में सेवा करवाए, तो अस्पताल में सेवा करूंगा। जो उसकी मर्जी, वही मेरी मर्जी।
और निश्चित ही, जगत द्वंद्व से बना है। द्वंद्व के बिना जगत बन ही नहीं सकता। अगर यहां अहिंसा ही अहिंसा हो, तो जगत बन ही नहीं सकता। यहां हिंसा और अहिंसा दोनों की ईंटें होनी चाहिए। यहां क्रोध ही क्रोध हो, तो जगत नहीं बनता। और करुणा ही करुणा हो, तो भी जगत नहीं बनता। यहां एक ईंट क्रोध की और एक ईंट करुणा की, तो यह महल खड़ा होता है। यह द्वंद्व की ईंटों से बनता है। यहां एक रात और एक दिन, इस तरह ईंटें चाहिए।
तुम जरा सोचो, एक आदमी ऐसा पैदा हो कि उसे बचपन से ही क्रोध न हो। वह जी ही नहीं सकेगा। उसमें रीढ़ ही नहीं होगी, उसमें बल नहीं होगा। कोई उसे एक धक्का देगा और वह वहीं गिर रहेगा। उसमें प्राण ही नहीं होंगे। और जिसमें क्रोध नहीं है, उसमें कभी करुणा पैदा नहीं होगी। क्योंकि क्रोध का ही आत्यंतिक रूपांतरण करुणा है।
यह आश्चर्यजनक नहीं है कि इस देश के सबसे बड़े अहिंसक क्षत्रिय घरों से आए थे। जैनों के चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय थे, बुद्ध भी क्षत्रिय थे। बुद्ध के जो चौबीस अवतारों की बात है पहले, वे भी सब क्षत्रिय थे। क्षत्रिय घरों से अहिंसा का उदघोष आया, इससे कुछ अर्थ समझो। और जब से जैन वणिक हुए, तब से एक तीर्थंकर पैदा नहीं हुआ। कुछ गड़बड़ हो गई। क्रोध ही न रहा। बल न रहा, ऊर्जा न रही; एक तरह की नपुंसकता छा गई। महावीर हो सके अहिंसक, पहले हिंसक तो होना ही पड़े, तो ही कोई अहिंसक हो सकता है। पहली सीढ़ी हिंसा, दूसरी सीढ़ी अहिंसा। पहली सीढ़ी क्रोध, दूसरी सीढ़ी करुणा। पहली सीढ़ी नास्तिकता, दूसरी सीढ़ी आस्तिकता। पहली सीढ़ी संसार, दूसरी सीढ़ी निर्वाण। और जो पहली सीढ़ी को इनकार कर दे, दूसरी सीढ़ी का तो सवाल ही नहीं उठता।
और तुम सब जगह इसी तरह पाओगे।
जरा सोचो एक ऐसी दुनिया जहां पुरुष ही पुरुष हों और स्त्रियां समाप्त हो गई हों, वह कितनी देर जिंदगी चलेगी? वहां से द्वंद्व समाप्त हो गया। या ऐसी दुनिया जहां स्त्रियां ही स्त्रियां हों और पुरुष न हों। वहां से द्वंद्व समाप्त हो गया, मृत्यु घट जाएगी। वैज्ञानिक कहते हैं कि विद्युत भी चलती है तो ऋण और धन छोरों के कारण, पाजिटिव और निगेटिव के कारण। जगत में चुंबक चलता है, चुंबकीय क्षेत्र चलते हैं, तो निगेटिव और पाजिटिव के कारण। और वैज्ञानिकों ने जो अंतिम खोज की है परमाणु के भीतर, वहां भी वही भेद है। वहां भी एक कण विधायक है और एक कण नकारात्मक है। वहां भी स्त्री-पुरुष का भेद है। उसके बिना विद्युत भी निर्मित नहीं होती। उसके बिना जगत में पदार्थ भी निर्मित नहीं होता।
यह द्वंद्व समझने जैसा है। पाप और पुण्य का द्वंद्व अनिवार्य है। और परमात्मा दोनों को घेरे है। दोनों बाजुएं परमात्मा की हैं, दोनों पंख परमात्मा के हैं। और जब दोनों बराबर होते हैं, तो एक-दूसरे को काट देते हैं और अतिक्रमण हो जाता है। वह भी खयाल में ले लेना। परमात्मा में पाप भी है, पुण्य भी है; दिन भी है, रात भी है; जीवन भी, मृत्यु भी। लेकिन दोनों बराबर मात्रा में हैं, इसलिए एक-दूसरे को काट देते हैं। और परमात्मा अतिक्रमण कर जाता है, दोनों के पार हो जाता है।
तुमने देखा, इस देश में, अकेले इस देश में हमने अर्धनारीश्वर की प्रतिमा बनाई है। परमात्मा आधा पुरुष, आधी स्त्री। वह महत्वपूर्ण है, बड़ी वैज्ञानिक है। दुनिया में वैसी प्रतिमा कहीं नहीं है। उतनी गहरी सूझ नहीं हुई, उतने गहरे लोग गए नहीं कि परमात्मा स्त्री-पुरुष दोनों होना चाहिए। इसलिए तुम यह जान कर भी चकित होओगे कि सं
स्कृत में ब्रह्म शब्द नपुंसक लिंग है। क्योंकि जब स्त्री-पुरुष दोनों मिल जाएंगे, एक-दूसरे को काट देंगे, फिर जो शेष बचेगा वह अतिक्रमण कर गया--वह न तो पुरुष है, न स्त्री है, वह दोनों के पार हो गया। लेकिन दोनों की मौजूदगी के कारण पार हुआ।
‘आपने कहा कि नेति-नेति ज्ञान का उदघोष है, न यह, न वह। और इति-इति भक्ति का, यह भी, वह भी। भक्ति के इस उदघोष में तो अंधेरा, कल्मष और पाप, सब आ जाते हैं।’
निश्चित आ जाते हैं। भक्त की छाती बड़ी है। भक्त अतर्क है। ज्ञानी की छाती छोटी है। ज्ञानी तर्क है। परमात्मा में सब आना ही चाहिए। उसके बाहर कुछ हो ही नहीं सकता। नरक भी होगा तो उसके भीतर ही होगा। स्वर्ग भी होगा तो उसके भीतर ही होगा। इसलिए तुमसे कहता हूं: अगर नरक में भी हो, तो भी स्मरण रखो कि परमात्मा में हो। दुख में हो, तो भी स्मरण रखो कि परमात्मा में हो। और जब कांटा चुभ रहा है, तब भी स्मरण रखो, परमात्मा तुम्हें उतना ही छू रहा है जितना तब जब फूल तुम अपने गाल से लगाते हो। चिंता के क्षणों में भी तुम परमात्मा के उतने ही निकट हो, जितने ध्यान के क्षणों में होते हो। परमात्मा से दूर होने का उपाय नहीं है। परमात्मा के विपरीत जाने की जगह नहीं है। परमात्मा से बाहर जाने का कोई द्वार नहीं है। कहां जाओगे? सब वही है। परमात्मा वस्तुतः सबका नाम है, सर्व का नाम है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, समग्रता की एक संज्ञा है। और इसीलिए परमात्मा को समझना कठिन हो जाता है। समझ बने तो कैसे बने? शुभ ही शुभ होता तो समझ जाते। अशुभ ही अशुभ होता तो भी समझ जाते। समझ एकदम ठिठक कर खड़ी रह जाती है। जहां समझ ठिठक जाती है, वहीं प्रीति काम आती है।
शिगुफ्तगी का, लताफत का शाहकार हो तुम
फकत बहार नहीं, हासिले-बहार हो तुम
जो एक फूल में है कैद वह गुलिस्तां हो
जो एक कली में है पिन्हां वह लालाजार हो तुम
हलावतों की तमन्ना, मलाहतों की मुराद
गुरूर कलियों का, फूलों का इनकिसार हो तुम
जिसे तरंग में फितरत ने गुनगुनाया है
वह भैरवी हो, वह दीपक हो, वह मल्हार हो तुम
तुम्हारे जिस्म में ख्वाबीदा हैं हजारों राग
निगाह छेड़ती है जिसको वह सितार हो तुम
जिसे उठा न सकी जुस्तजू वह मोती हो
जिसे गूंथ न सकी आरजू वह हार हो तुम
जिसे बूझ न सका इश्क वह पहेली हो
जिसे समझ न सका प्यार भी वह प्यार हो तुम
समझ परमात्मा की संभव नहीं; प्रीति संभव है। प्रीति भी समझ नहीं पाएगी। लेकिन प्रीति अनुभव कर लेगी। प्रीति समझ की चिंता ही नहीं करती, प्रीति स्वाद ले लेती है। फिक्र क्या है कि मिठास को समझे या न समझे? मिठास का स्वाद आ गया, मिठास तुम्हारे रग-रेशे में फैल गई, मिठास में तुम डूब गए। फिक्र क्या है समझे कि नहीं समझे? हो गए मिठास। प्रीति परमात्मा बन जाती है। भक्त भगवत्ता में लीन हो जाता है। समझ तो वह भी नहीं पाता। समझ तो समझदार भी नहीं पाते, भक्त भी नहीं पाता--समझ संभव ही नहीं है। क्योंकि समझ के लिए एक अनिवार्य शर्त है कि विरोधाभास न हो, पैराडॉक्स न हो। और सत्य विरोधाभासी है। इसलिए समझ तो थक कर गिर जाती है। समझ तो अवाक होकर रह जाती है। समझ तो कह देती है--इसके आगे और मेरी गति नहीं।
इसलिए जो समझपूर्वक जाते हैं, वे कभी धार्मिक नहीं हो पाते। समझदार धार्मिक नहीं हो पाते। और इसलिए उनकी समझदारी दुनिया की सबसे बड़ी नासमझी सिद्ध होती है। धार्मिक होने के लिए नासमझी चाहिए, पागलपन चाहिए, हिम्मत चाहिए कि समझ को भी सिकोड़ कर एक तरफ रख दो कि ठीक है, तू आगे नहीं जाती, हम जाते हैं, तू यहीं रह।
इस घटना का नाम ही संन्यास है--समझ को एक तरफ छोड़ कर आगे बढ़ जाना और कहना: समझ जहां तक ला सकती थी, ले आई, धन्यवाद! अब आगे हम अकेले जाएंगे। प्रीति ले जाती है अंततः। स्वाद, अनुभव, अनुभूति। फिर कौन फिकर करता है समझने की!
तीसरा प्रश्न:
भगवान, तथ्य और सत्य में क्या अंतर है?
तथ्य है सामयिक सत्य और सत्य है शाश्वत तथ्य। ऐसा समझो कि तथ्य है सागर में उठी लहर और सत्य है सागर। लहरें आती हैं, जाती हैं। लहरें क्षणभंगुर होती हैं, सागर शाश्वत होता है। तथ्य सत्य की लहर है। तथ्य का अर्थ है: अभी है। सत्य का अर्थ है: सदा है। तथ्य का अर्थ है: अभी है, अभी नहीं हो जाएगा।
जैसे समझो, तुम्हारी देह तथ्य है। एक दिन नहीं थी, आज से चालीस साल, पचास साल पहले तुम्हारी देह नहीं थी। और आज से चालीस साल, पचास साल बाद फिर नहीं हो जाएगी। एक तथ्य था, पानी में उठी एक लहर थी, जो सत्तर-अस्सी साल या सौ साल रही। सौ साल का कोई ज्यादा मूल्य मत समझ लेना। संसार के बड़े पैमाने को देखते हुए सौ साल कुछ भी नहीं है, क्षणभंगुर भी नहीं है।
तो देह तथ्य है। है तो जरूर, लेकिन नहीं हो जाएगी। इसके होने में नहीं-होना छिपा है। इसके होने में नहीं-होना बड़ा हो रहा है। तुम एक दिन अचानक थोड़े ही मर जाते हो, जिस दिन पैदा होते हो उसी दिन से मरना शुरू हो जाते हो। फिर रोज-रोज धीरे-धीरे मरते-मरते एक दिन मृत्यु पूरी हो जाती है। पहले दिन का बच्चा, एक दिन की उम्र का बच्चा भी एक दिन मर चुका, चौबीस घंटे मर चुका--चौबीस घंटे उम्र कम हो गई। तुम जिनको जन्म-दिन कहते हो, अच्छा हो कि उनको मृत्यु-दिन कहो; उनका जन्म-दिन से कोई संबंध नहीं है। एक साल बीता, तुम कहते हो जन्म-दिन आया! एक साल और कम हो गई उम्र, मौत एक साल करीब आ गई, तुम कहते हो जन्म-दिन आया! कि मौत करीब आ गई? मौत निकट हो गई?
तथ्य का अर्थ है: जिसके भीतर नहीं-होना छिपा है और बड़ा हो रहा है--पानी का बबूला, जैसे-जैसे बड़ा हो रहा है, फूटने के करीब आ रहा है। सत्य का अर्थ है: तुम्हारे भीतर वह जो साक्षी है, जो इस देह में रहे, उस देह में रहे, अनंत देहों में रहा है, अनंत देहों में रहेगा, फिर भी सदा है। वह जो साक्षीभाव, वह जो ध्यान है, वह जो जागरूकता है भीतर, चैतन्य है, वह सदा है। ऐसा ही समझो, पानी का एक बबूला उठा। बबूला क्षणभंगुर है, जल्दी ही फूट जाएगा। लेकिन बबूले के भीतर जो हवा थी, वह बचेगी; और बबूले में जो पानी था, वह भी बचेगा। बबूला संयोग था--बना और टूटा।
इस जगत में जो संयोग बनते हैं, उनका नाम तथ्य। और इस जगत में जो संयोग से नहीं बनता वरन शाश्वतता से है, जो सब संयोगों में होता है, लेकिन स्वयं संयोग नहीं है, उसका नाम सत्य। उसे परमात्मा कहो या जो भी नाम देना चाहो। एक तो जरूर यहां कुछ है, जो सदा है। जो आता नहीं, जाता नहीं; जो सदा मौजूद है। जिसका कोई अतीत नहीं होता और जिसका कोई भविष्य भी नहीं होता, जो सदा वर्तमान है। वही सत्य है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, मैं असंतुष्ट हूं, हर बात से असंतुष्ट। और कभी-कभी सोचता हूं कि शायद आनंद मेरे भाग्य में ही नहीं।
ऐसा आदमी ही कभी नहीं हुआ कि आनंद जिसके भाग्य में न हो। हालांकि ऐसे आदमी करोड़ों हैं जो आनंद को अनुभव नहीं कर पाते। लेकिन भाग्य को दोष मत देना। यह अपना दोष भाग्य के कंधों पर मत फेंको। यह तरकीब मत करो। दोषी तुम हो, भाग्य नहीं। तुम्हारे भाग्य के तुम ही निर्माता हो।
तुम असंतुष्ट हो तो अपने असंतोष को समझने की कोशिश करो--कि क्यों असंतुष्ट हूं? तुम कारण खोज लोगे। उन कारणों को मत दोहराओ, असंतोष खो जाएगा।
लेकिन कारण तुम खोजना नहीं चाहते। क्योंकि हो सकता है कारण तुम्हीं होओ, तुम्हारा होना ही कारण हो; यह तुम्हारा मैं जो संतुष्ट होना चाहता है, यही कारण हो। तो तुम उस खतरे को मोल नहीं लेना चाहते। तुम चाहते हो किसी पर दोष टाल दो।
आदमी सदियों से दोष टालता रहा है। बहाने बदल लेता है, लेकिन दोष टालता है। पहले कहता था--भाग्य। तुम पुराने ढंग के आदमी मालूम होते हो--भाग्य, भगवान! फिर लोग बदले, लेकिन कुछ ज्यादा नहीं बदले। मार्क्स ने कहा कि अगर तुम दुखी हो, तो समाज जिम्मेवार है।
अब यह समाज भी वैसे ही थोथा शब्द है जैसे भाग्य, कुछ फर्क नहीं पड़ा। मार्क्स में मैं कोई बड़ी क्रांति नहीं देखता। क्योंकि असली क्रांति एक ही है कि तुम टालो मत, तुम दूसरे पर मत फेंको, दूसरे के कंधे पर बंदूक रख कर मत चलाओ, बहाने मत खोजो, साक्षात करो सीधे-सीधे, अपने जीवन के रोग का ठीक-ठीक विश्लेषण करो, डायग्नोसिस करो, निदान करो, तो चिकित्सा भी हो सके, उपचार भी हो सके। लेकिन तुम बीमार हो और तुम कहते हो भाग्य। तो डाक्टर के पास जाने की कोई जरूरत नहीं, दवा लेने की कोई जरूरत नहीं। भाग्य की कोई दवा तो होती नहीं। या तुम कहते हो समाज। अब समाज जब बदलेगा तब बदलेगा, तब तक तुम न बचोगे।
फिर फ्रायड आया और फ्रायड ने कहा कि न समाज, न भाग्य, बल्कि तुम्हारा बचपन; तुम्हारी मां, तुम्हारे पिता; उन्होंने तुम्हें ऐसे गलत संस्कार दिए, उन्होंने तुम्हें इस तरह से दमित किया, इसलिए तुम उलझे हो। अब यह तो जब दुबारा मां-बाप मिलें और बेहतर मां-बाप मिलें! तो यह तो भूल हो चुकी, अब इसमें कोई उपाय नहीं।
फ्रायड ने कहा है--आदमी कभी सुखी नहीं हो सकता है। कैसे होगा? तुमने जो विधि बताई, वह ऐसी है जो कि हो ही चुकी। तुमने पहली भूल कर ही दी कि अपने मां-बाप को चुना। ढंग के मां-बाप चुनने थे। मगर तुम चुनते कैसे ढंग के मां-बाप? तुम थे कहां? तुमने चुने कब? यह तो घटना घटी। अब तो घट गई, अब पीछे लौटने का कोई उपाय नहीं। अब तो किसी तरह अपने को राजी कर लो, समझा-बुझा लो और चला लो, गुजार लो।
न तो फ्रायड ने कोई क्रांति की है, न मार्क्स ने कोई क्रांति की है। क्रांति तो की है बुद्ध ने। क्रांति तो की है महावीर ने। क्रांति तो की है कृष्ण ने, पतंजलि ने, जीसस ने। क्या क्रांति की? उन्होंने कहा कि तुम्हारा हाथ है तुम्हारे असंतोष में। समझो। क्यों तुम असंतुष्ट हो? क्यों हर चीज तुम्हें असंतुष्ट करती है?
पहली तो बात, तुम्हारी मांगें असंभव होंगी। जैसे एक सज्जन मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि मुझे किसी स्त्री में रस नहीं आता, मैं एक परम सुंदरी स्त्री चाहता हूं, एक पूर्ण स्त्री चाहता हूं।
मैंने उनसे कहा कि मैंने एक कहानी सुनी है एक आदमी की, वह भी पूर्ण स्त्री खोजना चाहता था। जिंदगी भर खोजता रहा, नहीं मिली। तो मित्रों ने पूछा कि तुमने जिंदगी भर खोजी और नहीं मिली? उसने कहा, ऐसा नहीं है कि नहीं मिली, मिली, एक बार मिली। तो फिर क्या हुआ? तो उसने कहा कि दुर्भाग्य मेरा कि वह पूर्ण पुरुष खोज रही थी।
अब तुम पूर्ण स्त्री खोजने चले हो, इसकी बिना फिक्र किए कि तुम पूर्ण पुरुष हो या नहीं। पूर्ण पुरुष हो जाओ तो शायद पूर्ण स्त्री मिल जाए--शायद तुम्हारे पड़ोस में ही रहती हो। पूर्ण को पूर्ण दिखाई पड़ता है। अपूर्ण को तो पूर्ण दिखाई भी नहीं पड़ सकता, दिखाई भी पड़ जाए तो पहचान में नहीं आ सकता।
अब तुम अगर पूर्ण स्त्री खोजने चले, तो दुख में रहोगे। तुम्हारी मांगें असंभव हैं, तो असंतोष होगा। मांगों को सीमा में लाओ आदमी की। तुम मांगते ही चले जाते हो। तुम इसकी फिकर ही नहीं करते कि मैं क्या मांग रहा हूं, यह मिल भी सकेगा कि नहीं! तुम शाश्वत जीवन मांगते हो। यह देह सदा रहनी चाहिए। फिर मौत आती है तो असंतोष होता है। तुम कहते हो, यश मुझे ऐसा मिले जो सदा रहे। मगर हवा बदल जाती है। तुम्हारी लहर कभी चली, फिर किसी और की लहर चलने लगती है। आखिर किसी और की भी लहर चलने दोगे कि नहीं चलने दोगे? तुम्हारी ही तुम्हारी चलती रहे तो बाकी लोग असंतुष्ट रह जाएंगे। और जब तुम्हारी चली थी तो किसी की रुक गई थी, वह तुम भूल गए? वह असंतुष्ट हो गया था। यश तो क्षणभंगुर होगा। यह तो पानी की लहर है--आई और गई। अब तुम चाहो कि यह शाश्वत हो जाए; तुम चाहो कि गुलाब का फूल जो सुबह खिला, अब कभी मुर्झाए न, तो फिर तुम प्लास्टिक के फूल खरीदो, तुम असली गुलाब न चाहो। लेकिन प्लास्टिक का फूल नकली मालूम पड़ता है, उससे दिल भरता नहीं। अब तुम एक असंभव मांग कर रहे हो। असली फूल से नकली फूल जैसे होने की मांग कर रहे हो। यह हो नहीं सकता, तो असंतोष होगा।
तुम अपनी मांगों में तलाशो, भाग्य में मत! कोई भाग्य नहीं है। तुम्हारी मांगें कुछ ऐसी होंगी, तुमने अपने ऊपर कुछ ऐसी मांगें बिठा रखी होंगी, कुछ ऐसे आदर्श बिठा रखे होंगे, जो पूरे नहीं होते। पूरे नहीं होते तो पीड़ा होती है। मैं तुम्हें राज बताता हूं, संतुष्ट होने का राज है: मांगो ही मत, जीओ। जो है, उसको जीओ। असंभव मांगें मत करो। जीवन की सामान्यता को स्वीकार करो।
परसों एक युवती पश्चिम से आई। रोने लगी, कहने लगी कि जब मैं वहां से चली थी तो बड़ी आशाएं लेकर चली थी। यहां आई हूं तो मैं अपने को बहुत साधारण पाती हूं। तो दुखी हो रही हूं।
उसकी हालत समझो, वही तुम्हारी हालत होगी। चली होगी अपने घर से तो सोचा होगा कि जब आश्रम में पहुंचेगी, तो बैंडबाजा बजेगा, कोई हाथी वगैरह पर बिठाल कर जुलूस निकाला जाएगा, कोई स्वागत किया जाएगा। सभी के मन में ऐसी धारणाएं होती हैं। सभी ऐसी कल्पनाओं में जीते हैं। फिर ये कल्पनाएं पूरी नहीं होतीं। न कोई जुलूस निकालता, न कोई हाथी-घोड़े पर बिठाता, न कोई बैंडबाजे बजाता--एकदम से लगता है, अरे, मैं साधारण!
जब चली होगी तो अपने गांव में अकेली संन्यासिनी थी। यहां आई तो देखा कि यहां एक हजार संन्यासी। स्वभावतः एक संन्यासी हो एक गांव में तो सबकी नजर उस पर पड़ेगी। जहां एक हजार संन्यासी हों, कौन देखता है? एक हजार संन्यासियों में चेहरा ही खो जाएगा। सब गैरिक वस्त्रधारी एक जैसे मालूम होते हैं। साधारण मालूम होने लगी होगी। अब पीड़ित हो रही है। लेकिन पीड़ा किस कारण हो रही है? असाधारण होने की आकांक्षा की थी। विशिष्ट होने की आकांक्षा की थी। उसी आकांक्षा ने यह कष्ट पैदा किया है। इसको न समझोगे तो कष्ट जारी रहेगा।
अपनी साधारणता को स्वीकार करो। सुना नहीं तुमने शांडिल्य ने कहा कि परमात्मा विशिष्ट नहीं है, साधारण है, अविशिष्ट है। ऐसे ही तुम भी साधारण हो जाओ। झेन फकीर लिंची से किसी ने पूछा कि तुम्हारी साधना क्या है? उसने कहा, जब भूख लगती है तो खाना खा लेता, और जब प्यास लगती तो पानी पी लेता, और जब नींद आती तो सो जाता। तो पूछने वाले ने कहा, लेकिन यह तो सभी साधारण लोग करते हैं! तो लिंची ने कहा, मैं कौन असाधारण हूं? मैं साधारणों में भी साधारण हूं। उस आदमी ने पूछा, फिर फायदा क्या है? लिंची ने कहा, फायदा बहुत है, संतुष्ट हूं। और क्या फायदा!
तुम अगर जीवन की छोटी-छोटी चीजों में रस लेने लगो, तो संतुष्ट हो जाओगे।
मुझे आज फिर तुमसे मिल के नाउम्मीदी हुई है
वही तर्जे-गुफ्तार, चेहरे पे उदासी का आलम
जमाने की बेदाद, हालात की कजअदाई का शिकवा
तग-ओ-ताज, तकदीर की नारसाई का मातम
तही-दामनी पर पशेमान होने की मासूम कोशिश
जवां खूबसूरत महकते हुए रोज-ओ-शब का तसव्वुर
निशात-आफरीं महफिलों में कभी बारियावी का अरमां
गुलाबों की मानिंद खिलते हुए जिस्म छूने की ख्वाहिश
मुझे कब से हसरत है इक शब कभी तुम
मेरी महफिले-नाज में यूं भी आते
मुझे जिस्म-ओ-जां की सभी राहतें सौंप देने में
कोई तकल्लुफ न होता
यह कोई प्रेयसी कह रही है अपने प्रेमी से—
मुझे आज फिर तुमसे मिल के नाउम्मीदी हुई है
वही तर्जे-गुफ्तार, चेहरे पे उदासी का आलम
वही तुम्हारी पुरानी बातचीत, वही पुरानी आदत, वही ढर्रा, चेहरे पर बड़ी उदास स्थिति।
जमाने की बेदाद, हालात की कजअदाई का शिकवा
और जमाने भर के अत्याचार, दुर्घटनाएं, टेढ़ेपन की चर्चा कि दुनिया बड़ी बुरी है, कि दुनिया में बड़ा अत्याचार हो रहा है, कि दुनिया में बड़ा शोषण है, कि दुनिया में कहीं शांति नहीं है, बड़े युद्ध हो रहे हैं। शिकायत, और शिकायत, और शिकायत।
तग-ओ-ताज, तकदीर की नारसाई का मातम
जिंदगी की भागदौड़, आपाधापी की शिकायत, भाग्य की शिकायत, वही रोना, वही पुराना रोना।
तही-दामनी पर पशेमान होने की मासूम कोशिश
और अपने आप पर निरंतर दुखी होने की, अपने आप पर दया करने की चेष्टा।
जवां खूबसूरत महकते हुए रोज-ओ-शब का तसव्वुर
और बड़ी कल्पनाएं कि ऐसा होना चाहिए। जो है, गलत, और जो होना चाहिए वह होता नहीं है। और ऐसा होना चाहिए।
जवां खूबसूरत महकते हुए रोज-ओ-शब का तसव्वुर
निशात-आफरीं महफिलों में कभी बारियावी का अरमां
और बड़े आनंद के सपने।
गुलाबों की मानिंद खिलते हुए जिस्म छूने की ख्वाहिश
और गुलाबों की तरह शरीर हों, उनको छूने की ख्वाहिश। वह प्रेयसी कह रही है--
मुझे कब से हसरत है इक शब कभी तुम
मेरी महफिले-नाज में यूं भी आते
मुझे जिस्म-ओ-जां की सभी राहतें सौंप देने में
कोई तकल्लुफ न होता
और मैं कब से राह देख रही हूं कि कभी तो तुम आते, मुझ साधारण स्त्री को अंगीकार करते, गुलाब के फूलों जैसे जिस्मों की आकांक्षा न करते। कभी तुम आते और दुनिया की शिकायत बाहर छोड़ आते। कभी तुम आते अनुग्रह से भरे, शिकायत और शिकवे से भरे नहीं।
मुझे कब से हसरत है इक शब कभी तुम
मेरी महफिले-नाज में यूं भी आते
मुझे जिस्म-ओ-जां की सभी राहतें सौंप देने में
कोई तकल्लुफ न होता
लेकिन वह मौका ही नहीं है। मेरे पास जो है, मैं तुम्हें सौंप ही नहीं पाती, क्योंकि तुम तो खोए हो अपनी उदासी में, अपनी शिकायतों में। दुनिया भर के उपद्रव, दुनिया भर की चिंताएं तुम लिए चले आते हो।
जिंदगी छोटी-छोटी बातों में है। और जिंदगी का राज छोटी-छोटी बातों में है। जिंदगी बड़ी छोटी-छोटी बातों से मिल कर बनती है। छोटी-छोटी ईंटें, और जिंदगी का मंदिर बनता है। तुम्हारी आकांक्षाएं बड़ी-बड़ी होंगी। तुम फिजूल की बातों में पड़ गए होओगे। तुम्हारी कल्पनाएं बड़ी-बड़ी होंगी। तुम चाहते हो, ऐसा होना चाहिए। जैसा होता है, वैसा होता है, तुम्हारे चाहने से कुछ होने वाला नहीं है। तुम्हारी चाह सिर्फ तुम्हें असंतुष्ट रखेगी, तुम्हें दुखी रखेगी, तुम्हें पीड़ित रखेगी। यह आदत छोड़ो। भाग्य नहीं, यह सिर्फ आदत है। यह आदत छोड़ो, अनुग्रह से जीना शुरू करो। जो दिया है, वह बहुत है। और ज्यादा मत मांगो। पहले इसे तो भोगो। तुम अगर इसे भोगने में समर्थ हो जाओ, तो तुम्हें और दिया जाएगा।
जीसस का एक बहुत अदभुत वचन है कि जिनके पास है उन्हें और दिया जाएगा, और जिनके पास नहीं है उनसे वह भी छीन लिया जाएगा जो उनके पास है।
यह बड़ा चमत्कारी वचन है। दुनिया भर के शास्त्रों में खोज कर भी ऐसा वचन मुझे दुबारा नहीं मिला। यह बड़ा अदभुत है। जिनके पास है उन्हें और भी दिया जाएगा। मतलब? यह तो बड़ा अन्याय मालूम पड़ता है कि जिनके पास है उन्हें और भी दिया जाएगा। यह तो अमीर को और अमीर, गरीब को और गरीब बनाने की कोशिश, यह तो बड़ी पूंजीवादी बात है।
लेकिन जीसस को समझना, जल्दी मत कर लेना। जीसस ठीक कहते हैं। तुम्हें जो मिला है, अगर तुम उसे आनंद से भोगो, तो उसी आनंद के भोग के कारण तुम्हें और दिया जाएगा। तुम पात्र बन जाओगे। तुम्हें जो रूखी-सूखी मिली है, उसे स्वाद से खाओ; मिष्ठान्न आते होंगे। तुम्हें जो जिंदगी मिली है, उसे ऐसे भोगो जैसे यह स्वर्ग है, तो स्वर्ग भी आता होगा। तुम्हें जो मिला है पहले उसका धन्यवाद तो करो, तो देने वाले की हिम्मत बढ़े, तो देने वाले का मन फैले, तो देने वाला और तुम पर बरसे। लेकिन तुम शिकायत ही शिकायत से भरे हो।
तुम कहते: ‘मैं असंतुष्ट हूं, हर बात से असंतुष्ट। और कभी-कभी सोचता हूं कि शायद आनंद मेरे भाग्य में ही नहीं है।’
ऐसा कोई आदमी ही कभी नहीं हुआ। आनंद सबकी नियति है। आनंद सब के भाग्य में है। आनंद लिख कर ही भगवान प्रत्येक को भेजता है। आनंद से ही हम निर्मित हुए हैं, आनंद हमारा स्वभाव है। दुख में अगर तुम हो, तो तुमने पैदा किया होगा। दुख आदमी पैदा कर लेता है। दुख आदमी की कुशलता है। दुख आदमी की कला है। आनंद भगवान का दान है, उसकी भेंट है, उसका प्रसाद है।
इसलिए शांडिल्य ने कहा है: भक्त प्रसाद में भरोसा करता है, प्रयास में नहीं। प्रयास से तो सिर्फ दुख ही दुख पैदा होता है। प्रयास से संसार, प्रसाद से निर्वाण।
तुम जरा एक बार अपनी जिंदगी पर फिर से पुनर्विचार करो। अपने ढंग, अपने रवैयों को परखो, पहचानो। असंतोष तुम पैदा कर रहे हो।
मैं एक घर में मेहमान हुआ। एयरपोर्ट से ले जाते वक्त मैंने देखा कि जो मेरे मेजबान हैं, बड़े उदास हैं। मैंने उनकी पत्नी से पूछा कि बहुत उदास दिखते हैं तुम्हारे पति, बात क्या है? जब मैं आता हूं, सदा उन्हें प्रसन्न पाता हूं। उनकी पत्नी ने कहा कि जरा मामला है। मामला ऐसा है कि वे कहते हैं, उन्हें बहुत हानि हो गई है। मैंने पति से पूछा कि बात क्या है? उन्होंने कहा, पांच लाख का नुकसान हो गया। पत्नी ने कहा, लेकिन आप इनकी बात पर भरोसा मत करना; मैं कहती हूं कि पांच लाख का लाभ हुआ है; ये कहते हैं, पांच लाख का नुकसान हुआ है; मैं खुश हूं और ये परेशान हैं। पति ने कहा कि हानि हुई है, क्योंकि दस लाख का लाभ होना चाहिए था और सिर्फ पांच का हुआ है।
अब तुम असंतुष्ट न होओगे तो क्या होओगे?
जीवन के देखने के ढंग को बदलो। अपनी आदत बदलो। उस आदत की बदलाहट में ही संतोष है, शांति है। और जहां संतोष है, शांति है, वहां आज नहीं कल सत्य निश्चित ही आ जाता है।
आज इतना ही।