SHANDILYA
ATHATO BHAKTI JIGYASA 09
Ninth Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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सूत्र
रागत्वादितिचेन्नोत्तमास्पदत्वात् संगवत्।। 21।।
तदेव कर्म्मिज्ञानियोगिभ्य आधिक्यशब्दात्।। 22।।
प्रश्ननिरूपणाभ्यामाधिक्यसिद्धेः।। 23।।
नैवश्रद्धा तु साधारण्यात्।। 24।।
तस्यां तत्वेचानवस्थानात्।। 25।।
रागत्वादितिचेन्नोत्तमास्पदत्वात् संगवत्।
‘अनुराग का ही नाम भक्ति है। कोई ऐसा भी कहते हैं कि अनुराग दुख का कारण है, इसलिए उसका त्याग करना उचित है। परंतु यह बात ऐसी नहीं है; क्योंकि संग की भांति इसका आश्रय उत्तम है।’
यह सूत्र महत्वपूर्ण है। ध्यानपूर्वक समझना। इस सूत्र पर सब कुछ निर्भर है तुम्हारे जीवन का रूपांतरण। सदा से तुमने सुना है, उसका खंडन कर रहे हैं शांडिल्य। सदा से तुमने जो माना है, उसका विरोध कर रहे हैं। इसलिए बहुत सजग होकर सुनोगे तो ही खयाल में पड़ सकेगी बात; क्योंकि तुम्हारे जाने-माने के बहुत विपरीत है।
कहा गया है तुमसे बार-बार कि प्रेम के कारण ही संसार है, दुख है, बंधन है। साधुओं ने, संन्यासियों ने तुम्हें यही समझाया है कि तुम्हारे सारे दुख का मूल प्रेम है, अनुराग है, प्रीति है, राग है। सारी शिक्षाएं तुमसे यह कहती हैं: विराग को उपलब्ध हो जाओ, राग को छोड़ दो। और बात तुम्हें भी जंचती है। और जंचने के पीछे कारण है। जहां राग है, वहीं से दुख उत्पन्न होता मालूम होता है। जिससे राग है, वही तुम्हें दुखी भी कर सकता है। तुमने किसी स्त्री को चाहा, जिस मात्रा में चाहा, उसी मात्रा में वह स्त्री तुम्हें दुख दे सकती है। तुमने किसी पुरुष से प्रेम किया, जिस मात्रा में प्रेम किया, उसी मात्रा में उस पुरुष से तुम्हें सुख मिलेगा, उसी मात्रा में दुख भी मिलेगा, मात्रा बराबर होगी। अगर कल पुरुष छोड़ कर चला जाए, या स्त्री छोड़ कर चली जाए, तो कितना दुख तुम उठाओगे? वह दुख उतना ही होगा जितना उसके पास होने से सुख होता था। सुख का स्रोत भी राग मालूम होता है, दुख का स्रोत भी राग मालूम होता है। जिसे हम चाहते हैं, मिल जाए तो सुख। जिसे हम चाहते हैं, छूट जाए तो दुख। जिसे हम नहीं चाहते, मिल जाए तो दुख। जिसे हम नहीं चाहते, छूट जाए तो सुख।
मनुष्य के सारे सुख और दुख अनुराग-आश्रित हैं। नरक भी वहीं से उमगता है, स्वर्ग भी। इसलिए तुम्हारे भोगी और योगियों के तर्क में भेद नहीं है। भोगी कहता है, माना कि दुख वहां से निकलता है, लेकिन सुख भी वहां से निकलता है। मैं दुख भोगने को तैयार हूं, लेकिन सुख छोड़ने को तैयार नहीं। यह तुम्हारे भोगी का तर्क है, यह उसकी सरणी है, यह उसकी विचार-दशा है। वह कहता है, माना कि गुलाब की झाड़ी में बहुत कांटे हैं, मगर फूल भी वहां हैं। कांटों के कारण फूल छोड़ दूं? यह नासमझी मुझसे न होगी। मैं जाऊंगा, चुभें कांटे तो चुभें; बचने की कोशिश करूंगा, बचाऊंगा; लेकिन फूल छोड़ने योग्य नहीं हैं। फूल इतने प्यारे हैं कि कांटे सहे जा सकते हैं। यह भोगी की तर्कदशा।
योगी क्या कहता है? विरागी क्या कहता है?
विरागी कहता है कि कांटे इतने ज्यादा हैं कि मैं फूल छोड़ने को तैयार हूं। विरागी भी मानता है कि फूल वहां हैं। अगर फूल न हों तो कांटों को छोड़ने की बात में कुछ अर्थ ही नहीं रह जाता। कुछ वहां छोड़ने योग्य है, कुछ वहां संपदा है। कुछ अपूर्व फूल खिले हैं जो मन को लुभाते हैं, बुलाते हैं, पुकारते हैं। वहां निमंत्रण है, आकर्षण है। लेकिन कांटे बहुत हैं। शर्त बड़ी है, महंगी है। इतना मूल्य चुकाने को योगी तैयार नहीं। वह कहता है, हम फूल छोड़ देंगे, मगर कांटों में न जाएंगे। दोनों मानते हैं कि वहां फूल भी हैं और कांटे भी हैं। एक फूल चुनता है, एक फूल छोड़ता है। एक फूलों के कारण कांटे चुनता है, एक कांटों के कारण फूल छोड़ता है। लेकिन दोनों की तर्कसरणी में भेद नहीं है।
शांडिल्य कह रहे हैं: अनुराग से इसका कोई भी संबंध नहीं। अनुराग के पात्र से संबंध है। तुमने किससे प्रेम किया, इस पर निर्भर करता है कि कितना दुख पाओगे। तुमने क्षणभंगुर से प्रेम किया, तो बहुत दुख पाओगे। क्योंकि प्रेम चाहता है शाश्वत होना। तुमने पानी के बबूले से प्रेम किया, तो दुख पाओगे ही। क्योंकि बबूला अभी है और अभी नहीं हुआ। पानी में उठा बबूला है, कब फूट जाएगा, पता नहीं--फूटता है, फूटता है, अब फूटा, तब फूटा, फूटने को ही तत्पर है, फूटेगा ही। एक बात सुनिश्चित है--सदा रहने वाला नहीं है। और तुमने प्रेम इससे लगाया, तो जब बबूला टूट जाएगा तब तुम तड़फोगे, तब तुम जलोगे आग में। यह प्रेम के कारण तुम नहीं जल रहे हो--शांडिल्य के सूत्र को खयाल में लेना। शांडिल्य कहते हैं, प्रेम के कारण तुम नहीं जल रहे हो, प्रेम के कारण तो तुम्हें बबूले में से भी रस मिला था--बबूला, जिसमें कि रस है ही नहीं। बबूला, जिसमें कुछ भी न था। तुमने चूंकि बबूले से प्रेम किया, उससे भी रस पा लिया था। प्रेम के कारण तुमने रेत से भी तेल निचोड़ लिया था। तेल तो आया था प्रेम से। अब बबूला टूटेगा तो दुख आएगा; दुख आता है बबूले की क्षणभंगुरता से। सुख आता है प्रेम से, दुख आता है क्षणभंगुर विषय से।
किसी ने धन चाहा। धन का क्या भरोसा, आज है, कल न हो! किसी ने पद चाहा। पद का क्या भरोसा, आज है, कल न हो! इस संसार में तुमने जो चाहा है, वह सदा रहने वाला नहीं है। फिर भी चाह के कारण, राग के कारण थोड़ा सा सुख मिलता है--इंद्रधनुषों से भी मिल जाता है, मृग-मरीचिकाओं से भी मिल जाता है। जो आदमी भटक गया है मरुस्थल में और प्यासा है, उसे दूर दिखाई पड़ता है एक मरूद्यान--हो या न हो। मान लो कि नहीं है, सिर्फ दिखाई पड़ता है, भ्रांति है, प्यासे आदमी का सपना है, प्यासे आदमी का प्रक्षेपण है, प्यासे आदमी की प्यास ही इतनी प्रगाढ़ हो गई है कि वह चारों तरफ मरूद्यान देखने लगा है। झूठा सही, लेकिन जब तक मरूद्यान तक नहीं पहुंचेगा, तब तक तो सच्चा है। जब तक सच्चा है, तब तक आशा और सुख।
राग लग गया झूठे मरूद्यान से, तो उससे भी थोड़ा सुख मिला है। पहुंचेगा पास, बोध होगा, दिखाई पड़ेगा कि झूठा था, तब दुख होगा। दुख राग के कारण नहीं हो रहा है--राग के कारण तो झूठे मरूद्यान से भी सुख पैदा हो गया था--दुख पैदा हो रहा है, क्योंकि मरूद्यान झूठा था।
शांडिल्य यह कह रहे हैं कि राग से तो दुख पैदा होता ही नहीं।
भेद खयाल में आया?
एक तो प्रेम है और एक प्रेम का विषय है। विषय अगर क्षणभंगुर है, तो दुख पैदा होता है। शांडिल्य कहते हैं: क्षणभंगुर की जगह शाश्वत को विषय बनाओ, परमात्मा को विषय बनाओ, फिर दुख न होगा। यही भक्ति है।
विरागी भ्रांति में है। उसने विश्लेषण ठीक से नहीं किया। शांडिल्य कहते हैं: वे जो फूल खिले हैं कांटों में, वे प्रेम के फूल हैं। और जो कांटे हैं, वे क्षणभंगुरता के हैं। दोनों चूंकि साथ-साथ खिले हैं, इसलिए तुम्हें भ्रांति हो रही है, तुम्हें अड़चन हो रही है।
जब भी चूम लेता हूं इन हसीन आंखों को
सौ चिराग अंधेरे में झिलमिलाने लगते हैं
फूल क्या, शिगूफे क्या, चांद क्या, सितारे क्या
सब रकीब कदमों पर सर झुकाने लगते हैं
रक्स करने लगती हैं मूरतें अजंता की
मुद्दतों के लबबस्ता गार गाने लगते हैं
फूल खिलने लगते हैं उजड़े-उजड़े गुलशन में
प्यासी-प्यासी धरती पर अब्र छाने लगते हैं
लम्हे भर को ये दुनिया जुल्म छोड़ देती है
लम्हे भर को सब पत्थर मुस्कुराने लगते हैं
लम्हे भर को ही लेकिन, क्षण भर को ही लेकिन। जब तुम किसी के प्रेम में पड़ते हो, सपना ही है यह, मगर प्रेम की शक्ति इतनी विराट है कि क्षण भर को सपने को भी सच कर देती है, क्षण भर को झूठ को भी प्रामाणिक कर देती है। शांडिल्य कह रहे हैं: प्रेम की शक्ति तो देखो, अनुराग की ऊर्जा तो देखो, झूठ पर बरसती है तो झूठ भी सच मालूम होने लगता है। यद्यपि क्षण भर को ही यह बात हो सकती है, क्योंकि झूठ आखिर झूठ है। आज नहीं कल उघड़ेगा, आज नहीं कल सपना टूटेगा। आज नहीं कल इंद्रधनुष विदा होगा। तुम्हारी आंखें फिर अंधेरे में रह जाएंगी। यह दीया बुझेगा।
विरागी भाग खड़ा होता है। वह कहता है: अब कभी प्रेम न लगाएंगे, प्रेम से बड़ा दुख पाया। शांडिल्य कहते हैं: प्रेम से दुख नहीं पाया, क्षणभंगुर से लगाया था इसलिए पाया--धन से लगाया, इसलिए पाया; तन से लगाया, इसलिए पाया; मन से लगाया, इसलिए पाया। परमात्मा से लगा कर देखो! उससे, जो सदा है। उससे, जो कभी ‘नहीं’ नहीं होता। और फिर आनंद ही आनंद है।
रागत्वादितिचेन्नोत्तमास्पदत्वात् संगवत्।
उत्तम से लगाओ, पारलौकिक से लगाओ। किससे लगाया, इस पर निर्भर है। सांप-बिच्छू से दोस्ती की, आज नहीं कल डसे जाओगे। यह दोस्ती का कसूर नहीं है, सांप-बिच्छू से दोस्ती की। इसलिए यह मत सोच लेना कि अब कसम खा लेता हूं कि कभी दोस्ती न करूंगा। सांप से दोस्ती की इसलिए पीड़ा पाई; दोस्ती से ही मत संबंध तोड़ लेना। अन्यथा तुम्हारे जीवन में सेतु ही खो जाएगा, तुम्हारे जीवन से रंग खो जाएगा, तुम्हारे जीवन से लय खो जाएगी, तुम्हारे जीवन से संगीत खो जाएगा। क्योंकि सब संगीत, सब लय, सब राग, सब रंग प्रेम का ही है। अनुराग के ही फूल हैं ये सब। यहां जितनी सुगंध है, प्रेम की है। और जितनी दुर्गंध है, अप्रेम की है।
तो यहां भोगी है, जो गलत से प्रेम लगा रहा है। वह गलत है, क्योंकि गलत से प्रेम लगा रहा है। और योगी है, जिसने प्रेम लगाना छोड़ दिया। वह गलत है, क्योंकि उसने प्रेम ही लगाना छोड़ दिया। अगर बात को तुम ठीक समझो तो योगी से भोगी बेहतर है। क्योंकि भोगी कम से कम प्रेम तो लगा रहा है। गलत से लगा रहा है, कभी समझ आएगी तो सही से भी लगाएगा। अभी गलत दिशा में जा रहा है, जा तो रहा है। कभी समझ आई तो ठीक दिशा में जा सकेगा। यही पैर ठीक दिशा में भी ले जा सकेंगे। यही पंख, जो अंधेरे और महा अंधकार की तरफ ले जा रहे हैं, किसी दिन प्रकाश की यात्रा पर भी निकल सकेंगे। लेकिन योगी ने तो पंख काट दिए। अब न अंधेरे की यात्रा हो सकती है, न उजाले की यात्रा हो सकती है, अब यात्रा ही नहीं हो सकती।
फिर योगी जब पंख काट देता है, तो एक अपूर्व उदासी से भर जाता है। उसी उदासी को बहुत से लोग साधुता समझते हैं। साधुओं का एक संप्रदाय तो उदासी कहलाता है। उदासी को लोग साधुता समझते हैं। साधुता तो आनंद होना चाहिए। साधुता तो नाचती हुई होनी चाहिए। साधुता में तो बहुत गीत जन्मने चाहिए। साधुता में तो चांद-तारे उगने चाहिए। साधुता नृत्य न हो तो साधुता नहीं है। साधुता में तो मस्ती होनी चाहिए, मादकता होनी चाहिए। साधु का जीवन तो मधुशाला होगी। वहां तो बड़ी मादकता होगी, बड़ा माधुर्य होगा। वहां तो सब तरफ आनंद ही आनंद होगा।
लेकिन जिसको तुम साधु कहते हो, वहां आनंद की कोई खबर नहीं; उदासी है, जड़ता है; एक तरह का मुर्दापन है, और सन्नाटा है मरघट का। साधु जड़ हो गया है; ठहर गया, डबरा हो गया है; अब यह धारा कहीं जाती नहीं, किसी सागर तक कभी नहीं पहुंचेगी, यह सड़ेगी। भक्त कहता है: नाचो! भक्त कहता है: उत्साह से भरो! भक्त कहता है: प्रेम की धारा को संसार से परमात्मा की तरफ मोड़ दो। धारा तुम्हारे पास है, पंख तुम्हारे पास हैं, दिशा तुम ठीक चुन लो, पंखों से नाराज मत हो जाओ।
और जब तुम्हारा कोई साधु पंखों से नाराज हो जाता है और अपने पंख काट देता है, तो दूसरों के पंख देख कर ईर्ष्या से भी भरता है। तुम्हारे साधु तुम्हें समझा रहे हैं कि तुम भी पंख काट दो। वे नाराज हैं, खुद पर नाराज हैं, तुम पर नाराज हैं, उनकी जिंदगी नाराजगी की जिंदगी है। वहां क्रोध है, वहां रोष है, वहां दमित वासना है। दमित होगी ही। क्योंकि प्रेम कुछ ऐसी बात है जिससे तुम छुटकारा पा नहीं सकते। पंख भी काट दो तुम पक्षी के, तो भी पक्षी उड़ने की आकांक्षा से छुटकारा नहीं पा सकता। वह तो पक्षी की आत्मा है, उससे छुटकारा नहीं है। उड़ने की आकांक्षा ही तो पक्षी के प्राण हैं।
प्रेम की आकांक्षा ही तो तुम्हारी आत्मा है। तुम कितने ही जंगलों में चले जाओ, कितनी ही दूर, और कितनी ही गुफाओं में बैठ जाओ, तुम्हारे भीतर प्रेम सुगबुगाएगा, तुम्हारे भीतर प्रेम का झरना फूटने की चेष्टा करता रहेगा। गुफा में बैठोगे तो गुफा से प्रेम हो जाएगा। किसी वृक्ष के नीचे बैठोगे तो उस वृक्ष से प्रेम हो जाएगा। कोई पक्षी तुम्हारे कंधे पर आकर बैठने लगेगा, वृक्ष के नीचे तुम्हें शांत बैठा देख कर, तो उस पक्षी से प्रेम हो जाएगा। अगर वह एक दिन न आएगा, तो तुम प्रतीक्षा करोगे। वैसी ही प्रतीक्षा जैसे प्रेमी प्रेयसी की करता है, या प्रेयसी प्रेमी की करती है। तुम चिंतातुर होओगे कि क्या हुआ उस पक्षी का? अंधड़ था, तूफान था, कहीं गिर तो नहीं गया? कहीं मर तो नहीं गया? वह वृक्ष सूखने लगेगा तो तुम बेचैन होओगे, तुम दूर नदी से जल भर कर लाओगे, उस वृक्ष को डालोगे। वह बेचैनी वैसी ही होगी जैसे बच्चा बीमार होता है तो मां को होती है। प्रेम से भागोगे कहां? तुम प्रेम हो।
भक्तों का यह उदघोष है कि प्रेम तुम्हारी आत्मा है, अनुराग तुम्हारा अस्तित्व है, इससे छूटने का कोई उपाय नहीं। पंख काट सकते हो, फिर भी तुम्हारे भीतर उड़ने की आकांक्षा तड़फड़ाएगी--और भी ज्यादा तड़फड़ाएगी। और जब तुम दूसरों को उड़ते देखोगे, तो बहुत ईर्ष्या पैदा होगी। उसी ईर्ष्या के कारण तुम्हारे साधु तुम्हें उपदेश देते हैं कि छोड़ो, त्यागो, भागो।
मुझसे लोग आकर पूछते हैं कि आप अपने संन्यासी को संसार छोड़ने को क्यों नहीं कहते हैं?
परमात्मा ही संसार नहीं छोड़ रहा है, तो मेरा संन्यासी क्यों छोड़े? परमात्मा नहीं ऊबा है संसार से, तुम परमात्मा से भी श्रेष्ठ होने की आकांक्षा से भरे हो क्या? तुम्हें परमात्मा को भी पराजित करना है? तुम्हारा तथाकथित महात्मा अपने को परमात्मा से भी ज्यादा बुद्धिमान मान रहा है। परमात्मा अभी भी फूलों में हंसता है, अभी भी पक्षियों में उड़ता है, अभी भी झरनों में बहता है, अभी भी पहाड़ों में उठता है, अभी भी चांद-तारों में बसता है, अभी भी नये बच्चे पैदा होते हैं, परमात्मा अभी थक नहीं गया है।
रवींद्रनाथ ने कहा है कि जब भी कोई नया बच्चा पैदा होता है, तो मेरे मन में धन्यवाद उठता है परमात्मा के प्रति--तो तू अभी थका नहीं! तो तूने फिर एक नया आदमी बनाया! तेरी आशा अपरंपार है। अनंत है तेरी आशा। आदमी कितना ही गलत करे, आदमी कितना ही गलत हो जाए, लेकिन तू है कि आदमी गढ़े चला जाता है। तू कहता है--आज चूके तो कल जीतेंगे, कल चूके तो परसों, मगर जीतेंगे। आज नहीं कल मनुष्य जैसा होना चाहिए वैसा होगा। तेरा यह भरोसा!
आदमी की श्रद्धा परमात्मा पर भला खो गई हो, परमात्मा की श्रद्धा आदमी पर नहीं खो गई है। परमात्मा की श्रद्धा अपूर्व है तुम्हारे प्रति, इसीलिए तो तुम जी रहे हो, तुम्हारी श्वास चल रही है। उसका राग तुमसे है, और तुम विराग की बातें कर रहे हो? उसने तुम्हें चाहा है, उसकी चाहत तुम पर रोज बरसती है सुबह-सांझ, चाहे तुम देखो, चाहे तुम न देखो। सूरज की रोशनी में बरसती है, हवाओं के झोंकों में बरसती है, फूलों की गंध में बरसती है, मनुष्यों के प्रेम में बरसती है; उसकी अनुकंपा तुम्हारे पास रोज आती है, तुम चाहे धन्यवाद दो या न दो; उसका राग तुमसे है। परमात्मा तुम्हारे प्रेम में है। परमात्मा अपनी सृष्टि के प्रेम में है। नहीं तो इन वृक्षों को कौन हरा रखे? इन चांद-तारों को कौन रोशन रखे? इन पक्षियों के पंखों में कौन उड़े? और इन पक्षियों के कंठों में कौन गाए?
परमात्मा का राग तुमसे है, और तुम विराग की बात कर रहे हो? तुम भी इतने ही राग से उसके प्रति भर जाओ। तुम दोनों का राग मिल जाए, वहीं मुक्ति है, वहीं मोक्ष है। परमात्मा ने तुम्हें खूब चाहा है, और तुमने नहीं चाहा है, यही तुम्हारी भ्रांति है। तुम्हारी चाहत ऊर्ध्वगामी हो जाए! अभी अधोगामी है, नीचे की तरफ जाती है, क्षुद्र की तरफ जाती है।
इसलिए सावधान रहना, जब भी तुम्हें कोई उदास महात्मा दिखे, बचना। क्योंकि वह रोग के कीटाणु लिए हुए है। उससे दूर-दूर रहना, उससे सावधान रहना। क्योंकि वे रोग के कीटाणु खतरनाक हैं। एक बार तुम्हारे भीतर पड़ गए, तुम संक्रामक हो गए, तो उनका इलाज मुश्किल है। और वे रोग के कीटाणु तुम्हें जंचेंगे। जंचेंगे इसलिए कि तुमने भी दुख पाया है, तुम्हारे भी हाथ जले हैं, तुमने भी इस जीवन में बहुत पीड़ा पाई है। जिससे प्रेम किया उसी से दुख पाया है। किस और से दुख पाओगे? दुख तो पाया जाता है उसी से जिससे हम प्रेम करते हैं; क्योंकि उसी से हम आशा करते हैं, उसी से आशा भी टूटती है; उसी से आकांक्षा करते हैं, उसी से आकांक्षा उखड़ती है; उसी से हमारी अपेक्षाएं होती हैं, उसी से विषाद आता है।
तुमने देखा, अजनबी से तुम्हें कभी दुख नहीं होता। क्यों होगा? दुख तो अपनों से होता है, क्योंकि अपनों से अपेक्षा लगी होती है। कुछ तुम चाहते थे और वैसा नहीं हुआ। राह चलता कोई तुम्हारा एक छोटा सा काम कर देता है तो तुम अनुग्रह से भर जाते हो, क्योंकि कोई अपेक्षा नहीं है। तुम्हारी पत्नी तुम्हारी जीवन भर से सेवा कर रही है, तुमने कभी धन्यवाद नहीं दिया। धन्यवाद देना बेहूदा भी लगेगा--अपनों को कोई धन्यवाद देता है! परायों को ही हम धन्यवाद देते हैं। धन्यवाद का मतलब ही इतना है कि अपेक्षा न थी और तुमने किया। जिससे अपेक्षा है उस पर हम नाराज होते हैं, धन्यवाद नहीं देते। जितनी अपेक्षा थी उतना न किया तो नाराज होते हैं। कोई बेटा अपनी मां को धन्यवाद देता है? कोई मां अपने बेटे को धन्यवाद देती है? यह बात ही नहीं उठती। हां, शिकायतें चलती हैं; नाराजगियां होती हैं, क्रोध होता है।
तो हर आदमी जला हुआ है, और हर आदमी के फफोले पड़े हुए हैं। और तुमने कहावत सुनी है न--दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने लगता है। तो तुम्हारा भी अनुभव तुमसे यही कहता है। तुम्हारा भी विश्लेषण बहुत गहरा नहीं है, तुमने भी जीवन को बहुत उसकी गहराइयों में न समझा है, न परखा है; तुम्हारी आंखें भी बहुत पारदर्शी नहीं हैं। तो जब तुम्हारा महात्मा तुमसे कहता है कि यह सब राग का ही फल है; तुम को भी बात जंचती है, गणित बैठता है कि बात तो ठीक ही है, मैं भी राग में पड़ा हूं इसलिए दुख भोग रहा हूं। तो रोग के कीटाणु तुम लेने को तत्पर हो जाते हो।
शांडिल्य तुम्हारे लिए बड़े क्रांति के सूत्र दे रहे हैं। शांडिल्य कह रहे हैं: राग से नहीं कोई दुख पाता। कह दो अपने महात्माओं को कि तुमने राग से दुख नहीं पाया, गलत से राग लगाया था, उससे दुख पाया। अब तुम दूसरी गलती कर रहे हो कि तुमने राग ही छोड़ दिया।
एक आदमी अपने पैरों से चल कर वेश्यालय गया। निश्चित ही, पैर न होते तो कैसे जाता, पैरों से ही गया। फिर वेश्यालय में बहुत दुख पाया, बहुत अवमानना झेली, बहुत जीवन को दूषित बना डाला। क्रोध में अपने पैर काट डाले, क्योंकि ये पैर ही वेश्यालय ले गए थे। लेकिन ये पैर मंदिर भी ले जाते, इनसे ही तीर्थयात्रा भी होती। यह जो पैर काट कर बैठ गया है, इसको तुम महात्मा कहते हो? क्योंकि यह कहता है--पैर वेश्यालय ले गए थे, जुआघर ले गए थे, शराबघर ले गए थे, इन पैरों पर बहुत नाराज था, इसने पैर काट डाले। इसको तुम पागल कहोगे न! इसको तुम महात्मा तो नहीं कहोगे। इस आदमी ने पहले भी मूढ़ताएं कीं और अब महामूढ़ता कर रहा है, क्योंकि जो वेश्यालय तक जा सकता है, वह मंदिर तक जाने में समर्थ है। जो शराबघर तक जा सकता है, वह स्वर्ग तक जा सकता है। पैर हैं! जो नरक की यात्रा कर सकता है, उसको स्वर्ग की यात्रा में कौन सी बाधा है? रुख बदलना है, दिशा बदलनी है; बाएं न चले, दाएं चले, बस इतना ही फर्क करना है। पैर तो वही हैं, सीढ़ी तो वही है, नीचे न गए, ऊपर गए। उसी सीढ़ी से तुम ऊपर जाते हो, उसी से नीचे जाते हो, सीढ़ी थोड़े ही तोड़ देते हो इसलिए कि नीचे ले जाती है! जो सीढ़ी नीचे ले जाती है, वही ऊपर नहीं ले जाती? सिर्फ दिशा बदलनी होती है।
शांडिल्य कहते हैं: दिशा बदलो। क्षणभंगुर से छोड़ो नाता, राग छोड़ो, और शाश्वत से राग जोड़ो। परम से जोड़ो राग।
जरा सोचो तो कि क्षणभंगुर में, जहां कोई सुख नहीं है, राग के कारण वहां भी सुख के क्षण मिल जाते हैं--लम्हे भर को!
लम्हे भर को ये दुनिया जुल्म छोड़ देती है
लम्हे भर को सब पत्थर मुस्कुराने लगते हैं
तुम्हें दिखाई पड़ने लगता है कि सब चारों तरफ हंसी है, चारों तरफ खुशी है। जरा सोचो, अगर यही प्रेम तुम शाश्वत से लगाओ, तो अनंत होगी तुम्हारी संपदा, उसका कोई पारावार न होगा। और उन लोगों से बचना जिन्होंने पैर काट लिए, पंख काट लिए। विरागियों से बचना, राग ही मार्ग है।
जवानी अपनी किस तरह गुजारी है तूने
कि अब हर उठती जवानी से बदगुमान है तू
ये फर्दे-जुर्म किसी और की जुबां पर नहीं
खुद अपने अहदे-गुजिश्तां की तर्जुमान है तू
वो चेहरे जिनमें फरोजां है अस्मते-मरियम
तू उन पे अपने गुनाहों का अक्स डालती है
तेरा जमीर है तीरा, महो-नजूम नहीं
महो-नजूम पे तू तीरगी उछालती है
मिटा दिया तेरे चेहरे की झुर्रियों ने जिसे
तू उस निखार की अब ताब ला नहीं सकती
हंसी को जुर्म समझने का यह सबब तो नहीं
कि हंसी तेरे ओंठों पे आ नहीं सकती
बिठा दिए तो हैं पहरे कदम-कदम पे मगर
झिझक के चलने में लग्जिश जरूर होती है
गुनाह होते हैं दाखिल वहीं से फितरत में
जवानी अपना जहां एतबार खोती है
ये तितलियां जिन्हें मुट्ठी में भींच रक्खा है
जो उड़ने पाएं तो उलझें कभी न खारों से
तेरी तरह ये भी कहीं न बुझ के रह जाएं
तपिश निचोड़ न इन नाचते शरारों से
कवि कहता है--
जवानी अपनी किस तरह गुजारी है तूने
कि अब हर उठती जवानी से बदगुमान है तू
तुमने जरूर गलत ढंग से अपनी जवानी गुजारी होगी, तभी तुम जवानों पर नाराज होते हो, तभी तुम हर जवान के विरोध में होते हो। तुमने राग अपना गलत से लगाया होगा, इसलिए तुम हर रागी पर नाराज होते हो।
ये फर्दे-जुर्म किसी और की जुबां पर नहीं
खुद अपने अहदे-गुजिश्तां की तर्जुमान है तू
और जब भी तुम किसी बात की निंदा करते हो तो खयाल रखना, यह तुम्हारे अतीत की ही निंदा है, और किसी बात की निंदा नहीं। जब कोई आदमी कहता है--धन पाप है, तो समझ लेना कि इसने अपनी जिंदगी धन कमाने में गंवाई होगी। कुछ और नहीं कहता यह आदमी। जब कोई आदमी कहता है--स्त्रियों के पीछे मत भागो, यह सब व्यर्थ है, तो वह इतना ही कहता है कि इसने अपनी जिंदगी स्त्रियों के पीछे भागने में गंवा दी है। यह आदमी अपने संबंध में कुछ कह रहा है। यह तुम्हारे संबंध में कुछ नहीं कह रहा है, यह स्त्रियों के संबंध में कुछ नहीं कह रहा है, यह सिर्फ अपने संबंध में कुछ कह रहा है।
वो चेहरे जिनमें फरोजां है अस्मते-मरियम
तू उन पे अपने गुनाहों का अक्स डालती है
यहां ऐसी स्त्रियां भी हुईं जैसे मरियम--जीसस की मां मरियम, उससे ज्यादा पवित्र चेहरा और कहां खोज पाओगे? लेकिन तुम कहते हो कि स्त्रियां नरक के द्वार हैं। जरूर तुम अपना ही अनुभव दोहरा रहे हो। तुमने ऐसी स्त्रियां खोजी होंगी जो नरक के द्वार हैं। यह तुम्हारी खोज के संबंध में खबर है, यह स्त्रियों के संबंध में कोई खबर नहीं है। यहां तो मरियम जैसी स्त्रियां भी हैं, जो स्वर्ग के द्वार हैं, जिनसे देवता भी पैदा होने को तड़पें।
वो चेहरे जिनमें फरोजां है अस्मते-मरियम
तू उन पे अपने गुनाहों का अक्स डालती है
तेरा जमीर है तीरा, महो-नजूम नहीं
तेरा अंतःकरण अंधेरे से भरा है, आकाश नहीं, आकाश में तो बहुत चांद-तारे हैं!
तेरा जमीर है तीरा, महो-नजूम नहीं
महो-नजूम पे तू तीरगी उछालती है
और तुम अपने भीतर के अंधेरे को चांद-तारों पर फेंकते हो।
मिटा दिया तेरे चेहरे की झुर्रियों ने जिसे
तू उस निखार की अब ताब ला नहीं सकती
हंसी को जुर्म समझने का यह सबब तो नहीं
कि हंसी तेरे ओंठों पे आ नहीं सकती
क्योंकि तुम नहीं हंस सकते, इसलिए हंसी पाप है? क्योंकि तुम नहीं हंस सकते, इसलिए हंसी जुर्म है? क्योंकि तुम नहीं हंस सके तुम्हारे जीवन में, तुम्हें कला के सूत्र न मिले, तुम्हें हंसने का राज न मिला--क्योंकि तुमने रोते जिंदगी बिताई--तो तुम सभी को कहते फिरते हो कि जिंदगी में सिवाय आंसुओं के और कुछ भी नहीं है, कांटे ही कांटे हैं, फूल यहां हैं ही नहीं। क्योंकि तुम्हारी बगिया में फूल न खिला, इसलिए और बगियाओं में फूल नहीं हैं? तुम अपने को सब पर मत थोपो। तुम्हारी हार तुम सबकी हार में मत बदलो। मगर तुम्हारे महात्मा यही करते रहे हैं।
बिठा दिए तो हैं पहरे कदम-कदम पे मगर
झिझक के चलने में लग्जिश जरूर होती है
गुनाह होते हैं दाखिल वहीं से फितरत में
जवानी अपना जहां एतबार खोती है
जहां जवान आदमी, जहां जीवन अपने में आस्था खो देता है, वहीं से पाप शुरू होते हैं। और तुम्हारे महात्माओं ने तुम्हारी आस्था डगमगा दी है। उन्होंने तुम्हें ऐसी बातें दी हैं कि तुम जो भी करो, गलत है। तुम जो भी करो, गुनाह है। खाओ-पीओ, गुनाह है। उठो-बैठो, गुनाह है। सोओ-जागो, गुनाह है। प्रेम करो, संबंध बनाओ, दोस्ती बनाओ, गुनाह है। सब गुनाह है। तुम्हें गुनाहों से भर दिया। यह गुनाहों से भरा हुआ आदमी कैसे तो ईश्वर को पुकारे? किस मुंह से पुकारे? किस कारण पुकारे? ईश्वर ने सिवाय गुनाहों के और कुछ तो दिया नहीं। सिवाय पापों से भरी यह जिंदगी, और तो कुछ दिया नहीं। तुम धन्यवाद किस बात का दो? और जहां धन्यवाद नहीं है, वहां प्रार्थना नहीं पैदा होती।
गुनाह होते हैं दाखिल वहीं से फितरत में
जवानी अपना जहां एतबार खोती है
ये तितलियां जिन्हें मुट्ठी में भींच रक्खा है
जो उड़ने पाएं तो उलझें कभी न खारों से
और तुम्हारे महात्माओं ने क्या किया है? तितलियां पकड़ रखी हैं! इस डर से कि कहीं अगर उड़ें तो कांटों से न उलझ जाएं।
ये तितलियां जिन्हें मुट्ठी में भींच रक्खा है
जो उड़ने पाएं तो उलझें कभी न खारों से
तेरी तरह ये भी कहीं न बुझ के रह जाएं
तपिश निचोड़ न इन नाचते शरारों से
इन नाचती हुई चिनगारियों से आग को मत निकाल लो। इनका जीवन निचोड़ मत लो। इन्हें उड़ने दो।
भक्ति तुम्हें जीवन की परम स्वतंत्रता देती है। भक्ति कहती है: तुम्हारा आकाश है, उड़ो! प्रभु ने पंख दिए, उड़ो! इतना ही ध्यान रहे कि ये पंख ऊपर भी ले जा सकते हैं; ये पैर मंदिर तक भी पहुंच सकते हैं। ये आंखें देह का ही सौंदर्य देखने पर चुक न जाएं। यद्यपि देह के सौंदर्य में कुछ भी खराबी नहीं है, कोई भी पाप नहीं है, है तो सौंदर्य उसी का, सारा सौंदर्य उसी का है। जब तुम किसी स्त्री को या किसी पुरुष को सुंदर पाते हो, तो यह उसी की झलक है, यह उसी की खबर है। दूर की सही, बहुत दूर की गूंज सही, मगर उसी की गूंज है, अनुगूंज है। वही झलका है। लेकिन ये आंखें दृश्य पर ही समाप्त न हो जाएं, एक अदृश्य सौंदर्य भी है, इन आंखों को उसकी तलाश में लगाना। और ये कान शब्दों को ही सुनते-सुनते शांत न हो जाएं, शून्य को सुनने का भी और बड़ा आनंद है। और ये हाथ, जो छुआ जा सकता है उसी को न छूते रहें। कुछ ऐसा भी है जो छुआ नहीं जा सकता, फिर भी हाथों में आ सकता है। और यह हृदय व्यर्थ की ही चिंतना में न डूबा रहे, सार से भी इसका संबंध जुड़े। राग के दुश्मन मत बन जाना। राग के अतिरिक्त कोई सेतु नहीं है।
इसलिए कहते हैं शांडिल्य: ‘रागत्वादितिचेन्नोत्तमास्पदत्वात् संगवत्।’
‘अनुराग ही का नाम भक्ति है। कोई ऐसा कहते हैं कि अनुराग दुख का कारण है, इसलिए उसका त्याग करना चाहिए। परंतु यह बात ऐसी नहीं है; क्योंकि संग की भांति इसका आश्रय उत्तम है।’
आश्रय कैसा है? विषय कैसा है?
उत्तम से जोड़ दो तो भक्ति हो जाती है। क्षुद्र से जोड़ दो तो क्षुद्रता। इसलिए मैंने तुमसे कहा कि प्रीति-तत्व के ये रूप हैं: एक, स्नेह। अपने से छोटे से--बच्चे से, बेटे से। दूसरा, प्रेम। अपने समान से--पति से, पत्नी से, मित्र से। तीसरा, श्रद्धा। अपने से बड़े से--पिता से, मां से, गुरु से। और चौथी परम दशा है, भक्ति। ये सब प्रीति के ही रूप हैं। तुम्हारा प्रेम भक्ति तक पहुंच जाए। इतना स्मरण रहे, न कुछ छोड़ना है, नहीं कहीं भाग जाना है। इसी संसार की मिट्टी में परमात्मा का सोना मिला है। छांटना है, मिट्टी-मिट्टी अलग कर देनी है, सोना-सोना छांट लेना है।
तत् एव कर्म्मि ज्ञानि योगिभ्य आधिक्यशब्दात्।
‘कर्मी, ज्ञानी और योगी से भी भक्त को आधिक्य शब्द में वर्णन होते देखा जाता, इस कारण वह श्रेष्ठ ही है।’
शांडिल्य कहते हैं: सारे शास्त्रों का सार यह है कि जिस भांति शास्त्रों ने भक्त की प्रशंसा की है, वैसी किसी की भी नहीं की। वेद भी भक्त को परम कहते हैं, उपनिषद भी। कृष्ण भी गीता में भक्त को परम कहते हैं। आधिक्य से वर्णन किया गया है अगर किसी का, तो वह भक्त का किया गया है। कर्म की भी प्रशंसा की गई है। और ज्ञान की भी प्रशंसा की गई है। और योग की भी प्रशंसा की गई है। और सारी विधियों की भी चर्चा की गई है। लेकिन भक्त को आधिक्य से कहा गया है। उसकी अत्यधिक प्रशंसा की गई है। क्यों? क्योंकि भक्त इस जगत में द्वंद्व पैदा नहीं करता; निर्द्वंद्व है। भक्त इस जगत में चुनाव नहीं करता। यह संसार और यह परमात्मा, ऐसा खंड नहीं करता। कहता है, यह संसार भी उसी परमात्मा का। भक्त परमात्मा को संसार के विपरीत नहीं देखता, संसार में छिपा, अनुस्यूत देखता है। कण-कण में है। क्षण-क्षण में वही व्याप्त है।
फिर भक्त अपने को सब भांति समर्पित करता है। उसका समर्पण पूर्ण है। भक्त ही कर सकता है पूर्ण समर्पण। प्रेम ही कर सकता है पूर्ण समर्पण, और तो कोई पूर्ण समर्पण नहीं कर सकता। योगी का स्वार्थ है, मोक्ष चाहिए। भक्त को वैसा स्वार्थ भी नहीं है। भक्तों ने कभी मोक्ष नहीं मांगा। ज्ञानी को ज्ञान चाहिए। सत्य क्या है, इसका साक्षात्कार चाहिए। भक्त को उसकी भी चिंता नहीं है। भक्त तो कहता है, मेरे हृदय में मैं न रहूं, बस इतना काफी है। जहां मैं न रहा, वहां तू रहेगा ही। मैं शून्य हो जाऊं, मैं तेरे योग्य पात्र बन जाऊं, तेरे चरणों में कहीं धूल बन कर पड़ा रहूं, बस पर्याप्त है। मेरी अलग से कोई आकांक्षा नहीं है। योगी मोक्ष मांगता, ज्ञानी ज्ञान मांगता, कोई कुछ मांगता, कोई कुछ मांगता; भक्त कहता है, इतना ही कि मुझे मिटा दे; मुझे ऐसा नेस्तनाबूद कर दे कि मुझे मेरा कुछ पता न रहे; मैं बेखुद हो जाऊं।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि भक्त के हृदय में मैं जिस भांति विराजता हूं, वैसा किसी और के हृदय में नहीं विराजता हूं, वैसा वैकुंठ में भी नहीं। भक्त के हृदय में जिस प्रीति से बैठता हूं, वैसा कहीं और स्थान ही नहीं है।
प्रश्ननिरूपणाभ्याम् आधिक्य सिद्धेः।
‘भक्ति की यह श्रेष्ठता प्रश्न और उत्तर द्वारा भी सिद्ध हो चुकी है।’
यह सूत्र बड़ा अनूठा है। अनूठा इसलिए कि बड़ा सांकेतिक है। और सांकेतिक होने के कारण इसके अब तक जो अर्थ लिए गए हैं, बड़े गलत लिए गए हैं। यह सूत्र सीधा-सीधा नहीं है, बड़ा परोक्ष है। क्या चाहते हैं शांडिल्य कहना कि भक्ति की यह श्रेष्ठता प्रश्न और उत्तर द्वारा सिद्ध हो चुकी है?
जिन्होंने शांडिल्य पर व्याख्याएं की हैं, उन्होंने यह मान लिया कि प्रश्न-उत्तर से शांडिल्य का इशारा श्रीमद्भगवद्गीता की तरफ है; क्योंकि कृष्ण और अर्जुन के बीच प्रश्न-उत्तर हुए। और उन्हीं प्रश्न-उत्तर में भक्ति की सर्वोच्च ऊंचाई सिद्ध हो चुकी है।
ऐसा अर्थ किया जाए तो किया जा सकता है। मगर यह अर्थ बड़ा दूरगामी नहीं है। अगर शांडिल्य को यही कहना होता तो कृष्ण-अर्जुन संवाद कह देते; यही कहना होता तो श्रीमद्भगवद्गीता का नाम ही ले देते। इस तरह परोक्ष कहने की क्या जरूरत थी? इसलिए मैं इसका कुछ और अर्थ करना चाहता हूं।
शिष्य और गुरु के बीच बहुत कुछ है जो शब्दों के बिना भी होता है। विद्यार्थी और अध्यापक के बीच केवल शब्दों का लेन-देन होता है। यही फर्क है। शिष्य और गुरु के बीच निशब्द का भी लेन-देन होता है। शब्द का भी लेन-देन होता है, मगर वह गौण है, दोयम, नंबर दो। प्रथम तो है मौन का आदान-प्रदान।
पच्चीस सौ साल हुए, एक जंगल में एक सुबह यह घटना घटी। एक व्यक्ति अपने हाथ में फूल लिए हुए आया। आकर बैठा। उसके चारों तरफ उसकी शिष्य-मंडली थी। और उस व्यक्ति ने वह फूल एक-एक शिष्य के सामने किया। जिसके सामने फूल गया, उसने कुछ कहा, फूल के संबंध में कुछ व्याख्या की। फूल घूमता रहा। और आखिर में एक शिष्य के सामने गया और उस शिष्य ने कुछ भी न कहा, वह सिर्फ मुस्कुराया, हंसा। और कहते हैं, इसी घटना में झेन संप्रदाय का जन्म हुआ, ध्यान संप्रदाय का जन्म हुआ।
यह बात बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि वह व्यक्ति गौतम बुद्ध था। कोई और भी हो सकता था। कृष्ण हो सकते थे, क्राइस्ट हो सकते थे, कपिल हो सकते थे, कणाद हो सकते थे, कबीर हो सकते थे, कोई भी हो सकता था; शर्त एक ही है कि जो भी हो, वह जागा हुआ होना चाहिए।
और ध्यान संप्रदाय का जन्म क्यों हुआ उस एक के हंसने पर? क्योंकि जब बुद्ध ने इस फूल को औरों के सामने किया, तो वे भाषा में बोले, उन्होंने कुछ कहा, अपना-अपना ज्ञान दिखलाया; फूल के संबंध में कुछ कहा, लेकिन फूल से चूक गए। फूल तो तथ्य है, शब्दातीत है, कुछ कहने का उपाय नहीं है। आश्चर्यचकित हो सकते हो फूल को देख कर, विस्मय-विमुग्ध हो सकते हो फूल को देख कर, आनंदमग्न हो सकते हो फूल को देख कर, फूल के सौंदर्य को देख कर स्तब्ध हो सकते हो, आंसू झर सकते हैं आनंद के, कि हंसी फूट सकती है, मगर शब्द, शब्द बहुत ओछा है, शब्द बहुत छोटा है।
जिस शिष्य के पास फूल आया और ठहर गया, वह था महाकाश्यप। वह सिर्फ मुस्कुराया, फिर खिलखिला कर हंसा। और बुद्ध ने वह फूल महाकाश्यप को दे दिया। और कहा कि जो मैं कह सकता था वह मैंने औरों से कह दिया है, जो मैं नहीं कह सकता वह मैं तुझे दिए दे रहा हूं।
परम घटना मौन में घटती है। शिष्य और गुरु के बीच शब्दों का आदान-प्रदान नहीं होता, ऐसा नहीं, होता है, लेकिन वह असली आदान-प्रदान नहीं। एक और आदान-प्रदान है जो चुप-चुप होता है, जो बिन बोले होता है। शांडिल्य जिस शिष्य से ये सूत्र कह रहे हैं, या जिन शिष्यों से ये सूत्र कह रहे हैं, उनसे उनका मौन का नाता है। उन शिष्यों ने मौन में बहुत बार उनसे प्रश्न पूछे हैं, और बहुत बार उनके उत्तर पाए हैं। यहां मेरे पास वे लोग हैं जो मौन में पूछते हैं, और मौन में पाते भी हैं। मौन में पूछने वाला ही पाता है।
शांडिल्य जब कहते हैं: ‘प्रश्ननिरूपणाभ्याम् आधिक्य सिद्धेः।’
प्रश्न और उत्तर द्वारा भी क्या यही बात सिद्ध नहीं हो चुकी है!
वे किस बात की तरफ इशारा कर रहे हैं? वे अपने शिष्यों से कह रहे हैं कि तुमने कितनी बार पूछा है और मैंने कितनी बार तुमसे कहा है। भीतर-भीतर अंतरंग में तुम प्रश्न बने हो, मैं उत्तर बना हूं। क्या हर बार भक्ति की श्रेष्ठता सिद्ध नहीं हुई है?
क्या मतलब इसका? इसका मतलब यह हुआ कि जब भी तुमने शांत और मौन होकर प्रेम से भर कर पूछा है, तो तुमने उत्तर पाया है। जब भी तुम शांत और मौन होकर प्रेम से मेरी तरफ देखे हो, तो तुम चाहे हजार मील दूर रहे, तुमने मुझे अपने भीतर पाया है। क्या उससे बात सिद्ध नहीं हो गई है? क्या प्रेम के अनुभव से बात सिद्ध नहीं हो गई है?
यह इशारा कृष्ण की गीता की तरफ नहीं है। कृष्ण की गीता की तरफ होता तो सीधा कह देते, ऐसे प्रश्न-उत्तर की बात क्यों उठाते? क्योंकि फिर तो बड़ी झंझट है। उपनिषदों में भी प्रश्न-उत्तर हैं। फिर गीता ही क्यों? फिर उपनिषद क्यों नहीं? फिर प्रश्न-उत्तर तो हजारों साल से चलते रहे हैं, न मालूम कितने शास्त्रों में प्रश्न-उत्तर हैं। नहीं, शांडिल्य तो अपने उस अंतर्संबंध की तरफ इशारा कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि सुनो! तुम भी पूछते हो, और कितनी बार नहीं तुम्हारे प्रेम के कारण समय और स्थान की दूरी मेरे और तुम्हारे बीच मिट गई है! कितनी बार तुमने चुपचाप प्रेम से पूछा है और उत्तर पाया है! क्या उससे भक्ति का आधिक्य सिद्ध नहीं हो गया? उससे बात सिद्ध हो चुकी है।
न एव श्रद्धा तु साधारण्यात्।
‘भक्ति श्रद्धा की भांति नहीं है, क्योंकि श्रद्धा साधारणरूप से दिखाई पड़ती है।’
श्रद्धा साधन है भक्ति का, भक्ति साध्य है। साधन साध्य नहीं हो सकता। तुम जिस नाव से दूसरे किनारे पर जाते हो, वह नाव दूसरा किनारा नहीं है, न हो सकती है। साधन साधन है, साध्य साध्य है। श्रद्धा भक्ति तक लाती है, लेकिन भक्ति नहीं है। बहुत लोग श्रद्धा को ही भक्ति समझ लेते हैं, तो भ्रांति हो जाती है। फिर भक्ति क्या है?
श्रद्धा में कुछ न कुछ पाने की आकांक्षा बनी रहती है, भक्ति निष्कांक्षी है। भक्त ने तो पा लिया, श्रद्धालु पाने में लगा है। भक्ति उस भाव-दशा का नाम है, जब तुम्हें पता चलता है कि परमात्मा मिला ही हुआ है, पाने का कोई सवाल ही नहीं है। पाने की बात ही गलत है।
ऐसा समझो, तुम्हारे खीसे में हीरा पड़ा है और तुम भूल गए। श्रद्धा का अर्थ है, किसी ने कहा कि तुम भूल गए क्या? तुम्हारे पास हीरा है! और तुमने उस आदमी की बात पर भरोसा किया और खोज शुरू की, कि हो सकता है यह आदमी ठीक कहता हो। तुम इस आदमी को जानते हो, यह प्रामाणिक है, यह कभी झूठ नहीं बोला, इसने तुम्हें कभी धोखा नहीं दिया, इसकी और सलाहें भी पीछे अतीत में काम आई हैं, इसने जब जो कहा काम पड़ा है, इसने जब जो कहा वैसा ही हुआ है, हजार-हजार अनुभवों से सिद्ध हो चुका है कि यह आदमी विश्वास योग्य है। और यह आदमी आज तुमसे कहता है कि हीरा तुम्हारे पास है! तुम तलाशते क्यों नहीं? तुम हाथ फैलाए भीख क्यों मांगते हो? हीरा तुम्हारे भीतर पड़ा है! तो तुम्हें श्रद्धा उमगती है। तुम सोचते हो कि यह आदमी कभी झूठ नहीं बोला, यह आदमी सदा मेरे काम आया, और इसने जो कहा सदा ठीक हुआ, मैंने माना तो, मैंने नहीं माना तो, अंततः इसकी बात सदा सही सिद्ध हुई है। हो न हो यह भी बात सही हो--यह श्रद्धा।
फिर तुम खोज करते हो और एक दिन हीरा तुम्हारी मुट्ठी में आ जाता है। जब हीरा तुम्हारी मुट्ठी में आ जाता है, तब भक्ति। अब तुम अहोभाव से भरते हो। अब तुम्हारे भीतर बड़ी कृतज्ञता उठती है। तुम नाचते हो, तुम मस्त हो, मस्ती समाती नहीं, बही जाती है--आधिक्य हो गया। और अब तुम हंसते भी हो कि मैं भी कैसा मूढ़ हूं! जिस हीरे को खोजता था वह मेरे पास था। हीरा मेरे पास था और मैं दाने-दाने को मोहताज था। मैं भी कैसा पागल!
ऐसी ही परमात्मा की उपलब्धि है। परमात्मा को तुमने कभी खोया नहीं। जिसे तुम खो दो, वह परमात्मा नहीं। परमात्मा तुम्हारा स्वभाव है, खोओगे कैसे? तुम परमात्मा हो। परमात्मा तुम्हारे हृदय में धड़क रहा है। वह हीरा तुम्हारे भीतर पड़ा है। तुम जब चाहो तब पा लो, क्योंकि तुम पाए ही हुए हो। भक्ति उस दशा का नाम है जब तुम अपने भीतर भगवान को पाते हो। भक्ति भगवान की उपस्थिति से उठी सुवास है। श्रद्धा तलाश है, श्रद्धा खोज है।
शांडिल्य कहते हैं: ‘भक्ति श्रद्धा की भांति नहीं है, क्योंकि श्रद्धा साधारण रूप से दिखाई पड़ती है।’
और भी भेद हैं श्रद्धा और भक्ति में। श्रद्धा नास्तिक को भी होती है। आखिर कम्युनिस्ट कार्ल मार्क्स और एंजिल्स और लेनिन पर वैसी ही श्रद्धा करता है जैसे हिंदू कृष्ण पर करता है और ईसाई क्राइस्ट पर करता है। कम्युनिस्ट दास कैपिटल पर वैसी ही श्रद्धा करता है जैसे मुसलमान कुरान पर करता है और बौद्ध धम्मपद पर करता है। यद्यपि कम्युनिस्ट भक्त नहीं है, और कभी भक्त नहीं हो सकता। श्रद्धा तो साधारणतः सब तरफ दिखाई पड़ती है। बच्चे मां-बाप पर श्रद्धा करते हैं, लेकिन भक्ति नहीं है वह। जिस गुरु से तुम कुछ सीख लेते हो, उस पर तुम्हें श्रद्धा आती है, सम्मान आता है, आदर भाव आता है, लेकिन भक्ति नहीं है वह।
श्रद्धा अधार्मिक भी हो सकती है, अनैतिक भी हो सकती है। समझो कि किसी ने तुम्हें जेब काटना सिखाया, वह तुम्हारा गुरु हो गया। उस पर श्रद्धा होगी, उस पर आदर होगा। चोरों के भी गुरु होते हैं, बेईमानों के भी गुरु होते हैं। बेईमानी की भी तो कला होती है। कोई ऐसे ही तो नहीं आ जाती है बेईमानी, सीखनी पड़ती है। उसमें भी दादागुरु होते हैं! तो वहां भी श्रद्धा होती है। श्रद्धा साधारण बात है। जिससे हमें कुछ मिलता है मूल्यवान, उसी पर श्रद्धा हो जाती है।
परमात्मा से जो संबंध है, वह मात्र श्रद्धा का नहीं हो सकता। श्रद्धा का हो, तो अभी संबंध हुआ नहीं। परमात्मा से संबंध भक्ति का हो सकता है। इसीलिए तो कृष्ण को मानने वाला कृष्ण को भगवान कहेगा। क्यों? महावीर को मानने वाला महावीर को भगवान कहेगा। क्यों? वह इतना ही कह रहा है कि हम साधारण गुरु नहीं मानते महावीर को, हमारा संबंध श्रद्धा का ही नहीं है, भक्ति का है। वह और कुछ भी नहीं कह रहा है। वह सिर्फ इस बात की घोषणा कर रहा है कि महावीर मेरे लिए गुरु ही नहीं हैं, भगवान हैं। मेरे भीतर उनके प्रति जो भाव है वह मात्र श्रद्धा का नहीं है, श्रद्धा तो साधारण बात है। मेरे और उनके बीच जो फूल खिला है वह भक्ति का है। मुझे अब उनसे कुछ लेना-देना नहीं है, उनकी मौजूदगी काफी है, उनका होना परम धन्यता है।
इसलिए जो एक को भगवान है, दूसरे को नहीं भी होगा। जैनों का भगवान हिंदुओं के लिए भगवान नहीं है। कोई कारण नहीं है। क्योंकि भगवत्ता तो एक निजी घटना है। ईसाइयों का भगवान मुसलमानों का भगवान नहीं है। बुद्ध को मानने वाले बुद्ध को भगवान कहते हैं। कृष्ण को मानने वाले राजी नहीं होंगे, जैन राजी नहीं होंगे--बुद्ध और भगवान? लेकिन उनकी नाराजगी इतना ही कहती है कि उनके और बुद्ध के बीच भक्ति का संबंध नहीं है--और कुछ नहीं कहती। इसमें कुछ विवाद जैसी बात नहीं है। अगर जैन यह सिद्ध करने लगें कि महावीर सबके भगवान हैं, तो झंझट की बात है। जैन अगर इतना ही कहें कि हमारे भगवान हैं, बात समाप्त हो गई। इससे आगे कोई विवाद का उपाय नहीं है। लेकिन महावीर की, कृष्ण की, या बुद्ध की उदघोषणा भगवान की तरह उनके प्रेम करने वालों ने की, उसका कारण इतना ही है कि वे यह जाहिर करना चाहते हैं कि हमारे और उनके बीच साधारण श्रद्धा का नाता नहीं है, वह नाता वही है जिसको भक्ति का नाता कहते हैं। भक्ति परम नाता है। वह अनुराग की परम शुद्ध दशा है। उसके ऊपर और कोई शुद्धि नहीं है।
स्नेह क्षणभंगुर का होता, प्रेम भी क्षणभंगुर का होता, और श्रद्धा भी। भक्ति शाश्वत की है। श्रद्धा बनती है, मिट सकती है। आज है, कल खो जाए। आज तुमने जिसे श्रद्धा से देखा, शायद कल श्रद्धा से न देखो, अश्रद्धा से देखो। श्रद्धा बदल सकती है। लेकिन भक्ति आई तो आई, फिर बदलना नहीं जानती। और जो भक्ति बदल जाए, तो जानना कि भक्ति नहीं थी; श्रद्धा ही रही होगी; तुमने भक्ति मान लिया था। झूठ तुमने अपने ऊपर आरोपित कर लिया था। भक्ति बदलती नहीं, बदल ही नहीं सकती। एक बार आई तो आई, फिर जाने का नाम नहीं लेती। जो चली जाए, वह ज्यादा से ज्यादा श्रद्धा हो सकती है।
काम तखईल आ नहीं सकती
दीद दूरी मिटा नहीं सकती
कैफ क्या भागती बहारों में
दिल की राहत कहां नजारों में
लाख झूले नजर सितारों में
तीरगी घर की जा नहीं सकती
कल्पना से कुछ काम नहीं बनता।
काम तखईल आ नहीं सकती
तुम्हारे प्रेम, तुम्हारे स्नेह, तुम्हारी श्रद्धाएं कल्पना के फैलाव हैं; तुम्हारी मान्यताएं हैं; तुमने मान लिया। मान लिया तो ठीक, लेकिन जीवन के सत्य के अनुभव नहीं हैं।
दीद दूरी मिटा नहीं सकती
और दर्शन भर से दूरी नहीं मिटती, जब तक एकात्म अवस्था न हो जाए। श्रद्धा में दूरी है, भक्ति में दूरी समाप्त हो गई। भक्त और भगवान एक हो गए।
काम तखईल आ नहीं सकती
दीद दूरी मिटा नहीं सकती
कैफ क्या भागती बहारों में
और जहां प्रतिक्षण सब कुछ बदला जा रहा है, वहां आनंद कैसे होगा?
कैफ क्या भागती बहारों में
दिल की राहत कहां नजारों में
लाख झूले नजर सितारों में
तीरगी घर की जा नहीं सकती
और तुम कितने ही आकाश के तारों को देखते रहो, इससे तुम्हारे घर का अंधेरा नहीं मिटेगा। घर का अंधेरा तो तभी मिटेगा जब घर का दीया जलेगा।
श्रद्धा दूसरे पर होती है, श्रद्धा ‘पर’ पर होती है। भक्ति, जब तुम्हारे भीतर भगवान का दीया जलता, जब तुम भगवान के मंदिर बनते हो, तब, जब तुम उसके पूजागृह बन जाते हो--पुजारी ही नहीं, उसके पूजागृह; उपासक ही नहीं, उसके मंदिर।
जिक्रे अजदाद से हूं गो खुर्सद
हालो-माजी का राब्ता ता चंद
मौत से साज करके जीना क्या
खुम से जो गिर गई वो पीना क्या
वहम से चाके-अक्ल सीना क्या
उधड़े जाते हैं खुद-ब-खुद पैबंद
नग्मगी गम पे छाएगी क्यों कर
मुफलिसी गुनगुनाएगी क्यों कर
मैकदा है निशात की बस्ती
फिर भी मिटता नहीं गमे-हस्ती
मुस्तकिल प्यार, आरजी मस्ती
रूह तस्कीन पाएगी क्यों कर
यहां इस जगत में राहत नहीं मिल सकती, तस्कीन नहीं मिल सकती।
मुस्तकिल प्यार, आरजी मस्ती
यहां सब क्षणिक है। अभी है, अभी नहीं है। सब पानी पर खींची गई लकीरें हैं।
मुस्तकिल प्यार, आरजी मस्ती
रूह तस्कीन पाएगी क्यों कर
यख जमेगी शरार पर कितनी
आगही होगी बेखबर कितनी
जुल्फ लहरा के इत्र बरसा जाए
नश्शा-सा इक हवास पर छा जाए
नर्म जानू पे नींद आ जाए
नींद की उम्र ही मगर कितनी
यख जमेगी शरार पर कितनी
चिनगारी पर बर्फ जमाना चाहो तो कितनी देर जमा पाओगे? कितनी जमा पाओगे?
यख जमेगी शरार पर कितनी
आगही होगी बेखबर कितनी
जुल्फ लहरा के इत्र बरसा जाए
नश्शा-सा इक हवास पर छा जाए
नर्म जानू पे नींद आ जाए
नींद की उम्र ही मगर कितनी
बार-बार सोओगे क्षणभंगुर में, बार-बार नींद टूटेगी, बार-बार जगोगे। यहां तो उथल-पुथल मची ही रहेगी। तो स्नेह से काम न चलेगा, प्रेम से काम न चलेगा, श्रद्धा से काम न चलेगा--वे सभी के सभी संसार के भीतर हैं--भक्ति चाहिए। संसार के पार आंख उठनी चाहिए। कुछ तो तुम्हारे जीवन में ऐसा हो जो सांसारिक नहीं है। कोई एक किरण सही, जो तुम्हें संसार के पार ले चले। उसी किरण के सहारे तुम परमात्मा तक पहुंच जाओगे।
और फिर कृष्ण ने अर्जुन से कहा:
न कोई भाई, न बेटा, न भतीजा, न गुरु
एक ही शक्ल उभरती है हर आईने में
आत्मा मरती नहीं, जिस्म बदल लेती है
धड़कन इस सीने की जा छुपती है उस सीने में
जिस्म लेते हैं जनम, जिस्म फना होते हैं
और जो इक रोज फना होगा, वह पैदा होगा
इक कड़ी टूटती है, दूसरी बन जाती है
खत्म ये सिलसिला-ए-जिंदगी फिर क्या होगा
रिश्ते सौ, जज्बे भी सौ, चेहरे भी सौ होते हैं
फर्ज सौ चेहरों में शक्ल अपनी ही पहचानता है
वही महबूब, वही दोस्त, वही एक अजीज
दिल जिसे इश्क, और इदराक अमल मानता है
जिंदगी सिर्फ अमल, सिर्फ अमल, सिर्फ अमल
और ये बेदर्द अमल सुलह भी है, जंग भी है
अम्न की मोहनी तस्वीर में हैं जितने रंग
उन्हीं रंगों में छिपा खून का इक रंग भी है
खौफ के रूप कई होते हैं, अंदाज कई
प्यार समझा है जिसे, खौफ है वो प्यार नहीं
उंगलियां और गड़ा, और जकड़, और जकड़
आज महबूब का बाजू है ये, तलवार नहीं
जंग रहमत है कि लानत, पर सवाल अब न उठा
जंग जब आ ही गई सर पे तो रहमत होगी
दूर से देख न भड़के हुए शोलों का जलाल
इसी दोजख के किसी कोने में जन्नत होगी
जख्म खा, जख्म लगा, जख्म हैं किस गिनती में
फर्ज जख्मों को भी चुन लेता है फूलों की तरह
न कोई रंज, न राहत, न सिले की परवा
पाक हर गर्द से रख दिल को रसूलों की तरह
यहां जितने संबंध हैं--भाई का, बेटे का, मां का, पिता का, गुरु का--सब संसार के हैं।
न कोई भाई, न बेटा, न भतीजा, न गुरु
एक ही शक्ल उभरती है हर आईने में
आत्मा मरती नहीं, जिस्म बदल लेती है
धड़कन इस सीने की जा छुपती है उस सीने में
जिस दिन तुमने सब शक्लों में छिपे उस एक को देख लिया, उस दिन भक्ति। जब तक शक्ल में अटके, तब तक स्नेह, प्रेम, श्रद्धा। जिस दिन शक्लों के पीछे छिपे उस एक को देख लिया--जब तक लहरों में उलझे, तब तक स्नेह, प्रेम, श्रद्धा। जब सागर को देख लिया, तो भक्ति।
ऐसा नहीं है कुछ कि भगवान कहीं और है। यहीं छिपा है--इन्हीं वृक्षों में, इन्हीं लोगों में, इन्हीं पक्षियों में, इन्हीं पहाड़ों में--यहीं छिपा है। लेकिन हम शक्ल से उलझ जाते हैं। हम वृक्ष को देखते हैं, वृक्ष के भीतर बहते प्राण की धारा को नहीं। हम पक्षी को उड़ते देखते हैं, पक्षी के भीतर उड़ती हुई आत्मा को नहीं। हम आदमी को देखते हैं, औरत को देखते हैं--आदमी और औरत ऊपर की बातें हैं--भीतर छिपे हुए चैतन्य को नहीं देखते। वह चैतन्य दिखने लगे तो भक्ति।
न कोई भाई, न बेटा, न भतीजा, न गुरु
एक ही शक्ल उभरती है हर आईने में
आत्मा मरती नहीं, जिस्म बदल लेती है
धड़कन इस सीने की जा छुपती है उस सीने में
ऐसा देखो, ऐसा परखो, तो तुम धीरे-धीरे पाओगे: शांडिल्य जिस अनुपम अनुराग की बात कह रहे हैं, वह तुम्हारे भीतर उठने लगा--अरूप का प्रेम, निराकार का प्रेम, निर्गुण का प्रेम।
तस्यां तत्वेचानवस्थानात्।
‘श्रद्धा और भक्ति को एक अर्थ में लगाने से दोष हो जाएगा।’
श्रद्धा को भक्ति मत समझ लेना; श्रद्धा पर रुक मत जाना, शांडिल्य का यह इशारा है।
तुम कुछ ऐसे हो कि जगह-जगह रुक जाते हो, इसलिए सदगुरुओं को कहना पड़ता है बार-बार। तुम ऐसे हो कि रुकने को तत्पर हो। बुद्ध ने कहा है: अगर मैं तुम्हारे ध्यान के रास्ते पर कहीं मिल जाऊं, तो मुझे दो टुकड़े कर देना। इफ यू मीट मी ऑन दि वे, किल मी। मुझे मार डालना। क्यों? क्योंकि अगर बुद्ध न मारे जाएं, तो श्रद्धा पर अटकन हो जाएगी। जब बुद्ध भी विदा हो जाएं, तो भगवत्ता का उदय हो।
गुरु के भी पार जाना होगा। गुरु ले जाता अंतिम तक, लेकिन अंततः, अंततोगत्वा गुरु अपना हाथ छुड़ा लेता है। उस समय हिम्मत होनी चाहिए कि तुम भी हाथ छोड़ दो। क्योंकि गुरु आखिरी रूप है, अरूप और रूप के बीच गुरु आखिरी कड़ी है। मगर अरूप में जाना है, निर्गुण में जाना है, निराकार में जाना है।
इसलिए शांडिल्य कहते हैं: श्रद्धा और भक्ति को एक समझोगे, तो दोष हो जाएगा।
श्रद्धा और भक्ति को एक मत समझना। श्रद्धा जगे, शुभ है। अगर तुम स्नेह में पड़े हो, प्रेम में पड़े हो, तो श्रद्धा तक पहुंचना बड़ी क्रांति है। लेकिन फिर उस क्रांति के भी पार जाना है। बुद्ध ने कहा है: जैसे कोई नाव से नदी पार करता है, फिर दूसरे किनारे उतर कर नाव को छोड़ कर आगे बढ़ जाता है। ऐसे श्रद्धा से नाव बना लेना, पार कर लेना नदी; लेकिन जब दूसरा किनारा आ जाए, तो श्रद्धा को सिर पर मत ढोते फिरना।
इसलिए झेन फकीरों की अदभुत कहानियां हैं। रिंझाई ने बौद्ध शास्त्रों को आग लगा दी। शिष्यों ने पूछा, यह क्या करते हो? रिंझाई ने कहा, श्रद्धा बहुत हो चुकी, श्रद्धा तोड़नी जरूरी है। तुम इन शास्त्रों में मत अटक जाना, इसलिए आग लगाता हूं।
दूसरे झेन फकीर इक्का ने बुद्ध की लकड़ी की मूर्तियां जला दीं और आंच ताप ली।
श्रद्धा को एक दिन छोड़ देना है। श्रद्धा के जो पार उठता है, वही भक्ति को उपलब्ध होता है।
आज इतना ही।
रागत्वादितिचेन्नोत्तमास्पदत्वात् संगवत्।। 21।।
तदेव कर्म्मिज्ञानियोगिभ्य आधिक्यशब्दात्।। 22।।
प्रश्ननिरूपणाभ्यामाधिक्यसिद्धेः।। 23।।
नैवश्रद्धा तु साधारण्यात्।। 24।।
तस्यां तत्वेचानवस्थानात्।। 25।।
रागत्वादितिचेन्नोत्तमास्पदत्वात् संगवत्।
‘अनुराग का ही नाम भक्ति है। कोई ऐसा भी कहते हैं कि अनुराग दुख का कारण है, इसलिए उसका त्याग करना उचित है। परंतु यह बात ऐसी नहीं है; क्योंकि संग की भांति इसका आश्रय उत्तम है।’
यह सूत्र महत्वपूर्ण है। ध्यानपूर्वक समझना। इस सूत्र पर सब कुछ निर्भर है तुम्हारे जीवन का रूपांतरण। सदा से तुमने सुना है, उसका खंडन कर रहे हैं शांडिल्य। सदा से तुमने जो माना है, उसका विरोध कर रहे हैं। इसलिए बहुत सजग होकर सुनोगे तो ही खयाल में पड़ सकेगी बात; क्योंकि तुम्हारे जाने-माने के बहुत विपरीत है।
कहा गया है तुमसे बार-बार कि प्रेम के कारण ही संसार है, दुख है, बंधन है। साधुओं ने, संन्यासियों ने तुम्हें यही समझाया है कि तुम्हारे सारे दुख का मूल प्रेम है, अनुराग है, प्रीति है, राग है। सारी शिक्षाएं तुमसे यह कहती हैं: विराग को उपलब्ध हो जाओ, राग को छोड़ दो। और बात तुम्हें भी जंचती है। और जंचने के पीछे कारण है। जहां राग है, वहीं से दुख उत्पन्न होता मालूम होता है। जिससे राग है, वही तुम्हें दुखी भी कर सकता है। तुमने किसी स्त्री को चाहा, जिस मात्रा में चाहा, उसी मात्रा में वह स्त्री तुम्हें दुख दे सकती है। तुमने किसी पुरुष से प्रेम किया, जिस मात्रा में प्रेम किया, उसी मात्रा में उस पुरुष से तुम्हें सुख मिलेगा, उसी मात्रा में दुख भी मिलेगा, मात्रा बराबर होगी। अगर कल पुरुष छोड़ कर चला जाए, या स्त्री छोड़ कर चली जाए, तो कितना दुख तुम उठाओगे? वह दुख उतना ही होगा जितना उसके पास होने से सुख होता था। सुख का स्रोत भी राग मालूम होता है, दुख का स्रोत भी राग मालूम होता है। जिसे हम चाहते हैं, मिल जाए तो सुख। जिसे हम चाहते हैं, छूट जाए तो दुख। जिसे हम नहीं चाहते, मिल जाए तो दुख। जिसे हम नहीं चाहते, छूट जाए तो सुख।
मनुष्य के सारे सुख और दुख अनुराग-आश्रित हैं। नरक भी वहीं से उमगता है, स्वर्ग भी। इसलिए तुम्हारे भोगी और योगियों के तर्क में भेद नहीं है। भोगी कहता है, माना कि दुख वहां से निकलता है, लेकिन सुख भी वहां से निकलता है। मैं दुख भोगने को तैयार हूं, लेकिन सुख छोड़ने को तैयार नहीं। यह तुम्हारे भोगी का तर्क है, यह उसकी सरणी है, यह उसकी विचार-दशा है। वह कहता है, माना कि गुलाब की झाड़ी में बहुत कांटे हैं, मगर फूल भी वहां हैं। कांटों के कारण फूल छोड़ दूं? यह नासमझी मुझसे न होगी। मैं जाऊंगा, चुभें कांटे तो चुभें; बचने की कोशिश करूंगा, बचाऊंगा; लेकिन फूल छोड़ने योग्य नहीं हैं। फूल इतने प्यारे हैं कि कांटे सहे जा सकते हैं। यह भोगी की तर्कदशा।
योगी क्या कहता है? विरागी क्या कहता है?
विरागी कहता है कि कांटे इतने ज्यादा हैं कि मैं फूल छोड़ने को तैयार हूं। विरागी भी मानता है कि फूल वहां हैं। अगर फूल न हों तो कांटों को छोड़ने की बात में कुछ अर्थ ही नहीं रह जाता। कुछ वहां छोड़ने योग्य है, कुछ वहां संपदा है। कुछ अपूर्व फूल खिले हैं जो मन को लुभाते हैं, बुलाते हैं, पुकारते हैं। वहां निमंत्रण है, आकर्षण है। लेकिन कांटे बहुत हैं। शर्त बड़ी है, महंगी है। इतना मूल्य चुकाने को योगी तैयार नहीं। वह कहता है, हम फूल छोड़ देंगे, मगर कांटों में न जाएंगे। दोनों मानते हैं कि वहां फूल भी हैं और कांटे भी हैं। एक फूल चुनता है, एक फूल छोड़ता है। एक फूलों के कारण कांटे चुनता है, एक कांटों के कारण फूल छोड़ता है। लेकिन दोनों की तर्कसरणी में भेद नहीं है।
शांडिल्य कह रहे हैं: अनुराग से इसका कोई भी संबंध नहीं। अनुराग के पात्र से संबंध है। तुमने किससे प्रेम किया, इस पर निर्भर करता है कि कितना दुख पाओगे। तुमने क्षणभंगुर से प्रेम किया, तो बहुत दुख पाओगे। क्योंकि प्रेम चाहता है शाश्वत होना। तुमने पानी के बबूले से प्रेम किया, तो दुख पाओगे ही। क्योंकि बबूला अभी है और अभी नहीं हुआ। पानी में उठा बबूला है, कब फूट जाएगा, पता नहीं--फूटता है, फूटता है, अब फूटा, तब फूटा, फूटने को ही तत्पर है, फूटेगा ही। एक बात सुनिश्चित है--सदा रहने वाला नहीं है। और तुमने प्रेम इससे लगाया, तो जब बबूला टूट जाएगा तब तुम तड़फोगे, तब तुम जलोगे आग में। यह प्रेम के कारण तुम नहीं जल रहे हो--शांडिल्य के सूत्र को खयाल में लेना। शांडिल्य कहते हैं, प्रेम के कारण तुम नहीं जल रहे हो, प्रेम के कारण तो तुम्हें बबूले में से भी रस मिला था--बबूला, जिसमें कि रस है ही नहीं। बबूला, जिसमें कुछ भी न था। तुमने चूंकि बबूले से प्रेम किया, उससे भी रस पा लिया था। प्रेम के कारण तुमने रेत से भी तेल निचोड़ लिया था। तेल तो आया था प्रेम से। अब बबूला टूटेगा तो दुख आएगा; दुख आता है बबूले की क्षणभंगुरता से। सुख आता है प्रेम से, दुख आता है क्षणभंगुर विषय से।
किसी ने धन चाहा। धन का क्या भरोसा, आज है, कल न हो! किसी ने पद चाहा। पद का क्या भरोसा, आज है, कल न हो! इस संसार में तुमने जो चाहा है, वह सदा रहने वाला नहीं है। फिर भी चाह के कारण, राग के कारण थोड़ा सा सुख मिलता है--इंद्रधनुषों से भी मिल जाता है, मृग-मरीचिकाओं से भी मिल जाता है। जो आदमी भटक गया है मरुस्थल में और प्यासा है, उसे दूर दिखाई पड़ता है एक मरूद्यान--हो या न हो। मान लो कि नहीं है, सिर्फ दिखाई पड़ता है, भ्रांति है, प्यासे आदमी का सपना है, प्यासे आदमी का प्रक्षेपण है, प्यासे आदमी की प्यास ही इतनी प्रगाढ़ हो गई है कि वह चारों तरफ मरूद्यान देखने लगा है। झूठा सही, लेकिन जब तक मरूद्यान तक नहीं पहुंचेगा, तब तक तो सच्चा है। जब तक सच्चा है, तब तक आशा और सुख।
राग लग गया झूठे मरूद्यान से, तो उससे भी थोड़ा सुख मिला है। पहुंचेगा पास, बोध होगा, दिखाई पड़ेगा कि झूठा था, तब दुख होगा। दुख राग के कारण नहीं हो रहा है--राग के कारण तो झूठे मरूद्यान से भी सुख पैदा हो गया था--दुख पैदा हो रहा है, क्योंकि मरूद्यान झूठा था।
शांडिल्य यह कह रहे हैं कि राग से तो दुख पैदा होता ही नहीं।
भेद खयाल में आया?
एक तो प्रेम है और एक प्रेम का विषय है। विषय अगर क्षणभंगुर है, तो दुख पैदा होता है। शांडिल्य कहते हैं: क्षणभंगुर की जगह शाश्वत को विषय बनाओ, परमात्मा को विषय बनाओ, फिर दुख न होगा। यही भक्ति है।
विरागी भ्रांति में है। उसने विश्लेषण ठीक से नहीं किया। शांडिल्य कहते हैं: वे जो फूल खिले हैं कांटों में, वे प्रेम के फूल हैं। और जो कांटे हैं, वे क्षणभंगुरता के हैं। दोनों चूंकि साथ-साथ खिले हैं, इसलिए तुम्हें भ्रांति हो रही है, तुम्हें अड़चन हो रही है।
जब भी चूम लेता हूं इन हसीन आंखों को
सौ चिराग अंधेरे में झिलमिलाने लगते हैं
फूल क्या, शिगूफे क्या, चांद क्या, सितारे क्या
सब रकीब कदमों पर सर झुकाने लगते हैं
रक्स करने लगती हैं मूरतें अजंता की
मुद्दतों के लबबस्ता गार गाने लगते हैं
फूल खिलने लगते हैं उजड़े-उजड़े गुलशन में
प्यासी-प्यासी धरती पर अब्र छाने लगते हैं
लम्हे भर को ये दुनिया जुल्म छोड़ देती है
लम्हे भर को सब पत्थर मुस्कुराने लगते हैं
लम्हे भर को ही लेकिन, क्षण भर को ही लेकिन। जब तुम किसी के प्रेम में पड़ते हो, सपना ही है यह, मगर प्रेम की शक्ति इतनी विराट है कि क्षण भर को सपने को भी सच कर देती है, क्षण भर को झूठ को भी प्रामाणिक कर देती है। शांडिल्य कह रहे हैं: प्रेम की शक्ति तो देखो, अनुराग की ऊर्जा तो देखो, झूठ पर बरसती है तो झूठ भी सच मालूम होने लगता है। यद्यपि क्षण भर को ही यह बात हो सकती है, क्योंकि झूठ आखिर झूठ है। आज नहीं कल उघड़ेगा, आज नहीं कल सपना टूटेगा। आज नहीं कल इंद्रधनुष विदा होगा। तुम्हारी आंखें फिर अंधेरे में रह जाएंगी। यह दीया बुझेगा।
विरागी भाग खड़ा होता है। वह कहता है: अब कभी प्रेम न लगाएंगे, प्रेम से बड़ा दुख पाया। शांडिल्य कहते हैं: प्रेम से दुख नहीं पाया, क्षणभंगुर से लगाया था इसलिए पाया--धन से लगाया, इसलिए पाया; तन से लगाया, इसलिए पाया; मन से लगाया, इसलिए पाया। परमात्मा से लगा कर देखो! उससे, जो सदा है। उससे, जो कभी ‘नहीं’ नहीं होता। और फिर आनंद ही आनंद है।
रागत्वादितिचेन्नोत्तमास्पदत्वात् संगवत्।
उत्तम से लगाओ, पारलौकिक से लगाओ। किससे लगाया, इस पर निर्भर है। सांप-बिच्छू से दोस्ती की, आज नहीं कल डसे जाओगे। यह दोस्ती का कसूर नहीं है, सांप-बिच्छू से दोस्ती की। इसलिए यह मत सोच लेना कि अब कसम खा लेता हूं कि कभी दोस्ती न करूंगा। सांप से दोस्ती की इसलिए पीड़ा पाई; दोस्ती से ही मत संबंध तोड़ लेना। अन्यथा तुम्हारे जीवन में सेतु ही खो जाएगा, तुम्हारे जीवन से रंग खो जाएगा, तुम्हारे जीवन से लय खो जाएगी, तुम्हारे जीवन से संगीत खो जाएगा। क्योंकि सब संगीत, सब लय, सब राग, सब रंग प्रेम का ही है। अनुराग के ही फूल हैं ये सब। यहां जितनी सुगंध है, प्रेम की है। और जितनी दुर्गंध है, अप्रेम की है।
तो यहां भोगी है, जो गलत से प्रेम लगा रहा है। वह गलत है, क्योंकि गलत से प्रेम लगा रहा है। और योगी है, जिसने प्रेम लगाना छोड़ दिया। वह गलत है, क्योंकि उसने प्रेम ही लगाना छोड़ दिया। अगर बात को तुम ठीक समझो तो योगी से भोगी बेहतर है। क्योंकि भोगी कम से कम प्रेम तो लगा रहा है। गलत से लगा रहा है, कभी समझ आएगी तो सही से भी लगाएगा। अभी गलत दिशा में जा रहा है, जा तो रहा है। कभी समझ आई तो ठीक दिशा में जा सकेगा। यही पैर ठीक दिशा में भी ले जा सकेंगे। यही पंख, जो अंधेरे और महा अंधकार की तरफ ले जा रहे हैं, किसी दिन प्रकाश की यात्रा पर भी निकल सकेंगे। लेकिन योगी ने तो पंख काट दिए। अब न अंधेरे की यात्रा हो सकती है, न उजाले की यात्रा हो सकती है, अब यात्रा ही नहीं हो सकती।
फिर योगी जब पंख काट देता है, तो एक अपूर्व उदासी से भर जाता है। उसी उदासी को बहुत से लोग साधुता समझते हैं। साधुओं का एक संप्रदाय तो उदासी कहलाता है। उदासी को लोग साधुता समझते हैं। साधुता तो आनंद होना चाहिए। साधुता तो नाचती हुई होनी चाहिए। साधुता में तो बहुत गीत जन्मने चाहिए। साधुता में तो चांद-तारे उगने चाहिए। साधुता नृत्य न हो तो साधुता नहीं है। साधुता में तो मस्ती होनी चाहिए, मादकता होनी चाहिए। साधु का जीवन तो मधुशाला होगी। वहां तो बड़ी मादकता होगी, बड़ा माधुर्य होगा। वहां तो सब तरफ आनंद ही आनंद होगा।
लेकिन जिसको तुम साधु कहते हो, वहां आनंद की कोई खबर नहीं; उदासी है, जड़ता है; एक तरह का मुर्दापन है, और सन्नाटा है मरघट का। साधु जड़ हो गया है; ठहर गया, डबरा हो गया है; अब यह धारा कहीं जाती नहीं, किसी सागर तक कभी नहीं पहुंचेगी, यह सड़ेगी। भक्त कहता है: नाचो! भक्त कहता है: उत्साह से भरो! भक्त कहता है: प्रेम की धारा को संसार से परमात्मा की तरफ मोड़ दो। धारा तुम्हारे पास है, पंख तुम्हारे पास हैं, दिशा तुम ठीक चुन लो, पंखों से नाराज मत हो जाओ।
और जब तुम्हारा कोई साधु पंखों से नाराज हो जाता है और अपने पंख काट देता है, तो दूसरों के पंख देख कर ईर्ष्या से भी भरता है। तुम्हारे साधु तुम्हें समझा रहे हैं कि तुम भी पंख काट दो। वे नाराज हैं, खुद पर नाराज हैं, तुम पर नाराज हैं, उनकी जिंदगी नाराजगी की जिंदगी है। वहां क्रोध है, वहां रोष है, वहां दमित वासना है। दमित होगी ही। क्योंकि प्रेम कुछ ऐसी बात है जिससे तुम छुटकारा पा नहीं सकते। पंख भी काट दो तुम पक्षी के, तो भी पक्षी उड़ने की आकांक्षा से छुटकारा नहीं पा सकता। वह तो पक्षी की आत्मा है, उससे छुटकारा नहीं है। उड़ने की आकांक्षा ही तो पक्षी के प्राण हैं।
प्रेम की आकांक्षा ही तो तुम्हारी आत्मा है। तुम कितने ही जंगलों में चले जाओ, कितनी ही दूर, और कितनी ही गुफाओं में बैठ जाओ, तुम्हारे भीतर प्रेम सुगबुगाएगा, तुम्हारे भीतर प्रेम का झरना फूटने की चेष्टा करता रहेगा। गुफा में बैठोगे तो गुफा से प्रेम हो जाएगा। किसी वृक्ष के नीचे बैठोगे तो उस वृक्ष से प्रेम हो जाएगा। कोई पक्षी तुम्हारे कंधे पर आकर बैठने लगेगा, वृक्ष के नीचे तुम्हें शांत बैठा देख कर, तो उस पक्षी से प्रेम हो जाएगा। अगर वह एक दिन न आएगा, तो तुम प्रतीक्षा करोगे। वैसी ही प्रतीक्षा जैसे प्रेमी प्रेयसी की करता है, या प्रेयसी प्रेमी की करती है। तुम चिंतातुर होओगे कि क्या हुआ उस पक्षी का? अंधड़ था, तूफान था, कहीं गिर तो नहीं गया? कहीं मर तो नहीं गया? वह वृक्ष सूखने लगेगा तो तुम बेचैन होओगे, तुम दूर नदी से जल भर कर लाओगे, उस वृक्ष को डालोगे। वह बेचैनी वैसी ही होगी जैसे बच्चा बीमार होता है तो मां को होती है। प्रेम से भागोगे कहां? तुम प्रेम हो।
भक्तों का यह उदघोष है कि प्रेम तुम्हारी आत्मा है, अनुराग तुम्हारा अस्तित्व है, इससे छूटने का कोई उपाय नहीं। पंख काट सकते हो, फिर भी तुम्हारे भीतर उड़ने की आकांक्षा तड़फड़ाएगी--और भी ज्यादा तड़फड़ाएगी। और जब तुम दूसरों को उड़ते देखोगे, तो बहुत ईर्ष्या पैदा होगी। उसी ईर्ष्या के कारण तुम्हारे साधु तुम्हें उपदेश देते हैं कि छोड़ो, त्यागो, भागो।
मुझसे लोग आकर पूछते हैं कि आप अपने संन्यासी को संसार छोड़ने को क्यों नहीं कहते हैं?
परमात्मा ही संसार नहीं छोड़ रहा है, तो मेरा संन्यासी क्यों छोड़े? परमात्मा नहीं ऊबा है संसार से, तुम परमात्मा से भी श्रेष्ठ होने की आकांक्षा से भरे हो क्या? तुम्हें परमात्मा को भी पराजित करना है? तुम्हारा तथाकथित महात्मा अपने को परमात्मा से भी ज्यादा बुद्धिमान मान रहा है। परमात्मा अभी भी फूलों में हंसता है, अभी भी पक्षियों में उड़ता है, अभी भी झरनों में बहता है, अभी भी पहाड़ों में उठता है, अभी भी चांद-तारों में बसता है, अभी भी नये बच्चे पैदा होते हैं, परमात्मा अभी थक नहीं गया है।
रवींद्रनाथ ने कहा है कि जब भी कोई नया बच्चा पैदा होता है, तो मेरे मन में धन्यवाद उठता है परमात्मा के प्रति--तो तू अभी थका नहीं! तो तूने फिर एक नया आदमी बनाया! तेरी आशा अपरंपार है। अनंत है तेरी आशा। आदमी कितना ही गलत करे, आदमी कितना ही गलत हो जाए, लेकिन तू है कि आदमी गढ़े चला जाता है। तू कहता है--आज चूके तो कल जीतेंगे, कल चूके तो परसों, मगर जीतेंगे। आज नहीं कल मनुष्य जैसा होना चाहिए वैसा होगा। तेरा यह भरोसा!
आदमी की श्रद्धा परमात्मा पर भला खो गई हो, परमात्मा की श्रद्धा आदमी पर नहीं खो गई है। परमात्मा की श्रद्धा अपूर्व है तुम्हारे प्रति, इसीलिए तो तुम जी रहे हो, तुम्हारी श्वास चल रही है। उसका राग तुमसे है, और तुम विराग की बातें कर रहे हो? उसने तुम्हें चाहा है, उसकी चाहत तुम पर रोज बरसती है सुबह-सांझ, चाहे तुम देखो, चाहे तुम न देखो। सूरज की रोशनी में बरसती है, हवाओं के झोंकों में बरसती है, फूलों की गंध में बरसती है, मनुष्यों के प्रेम में बरसती है; उसकी अनुकंपा तुम्हारे पास रोज आती है, तुम चाहे धन्यवाद दो या न दो; उसका राग तुमसे है। परमात्मा तुम्हारे प्रेम में है। परमात्मा अपनी सृष्टि के प्रेम में है। नहीं तो इन वृक्षों को कौन हरा रखे? इन चांद-तारों को कौन रोशन रखे? इन पक्षियों के पंखों में कौन उड़े? और इन पक्षियों के कंठों में कौन गाए?
परमात्मा का राग तुमसे है, और तुम विराग की बात कर रहे हो? तुम भी इतने ही राग से उसके प्रति भर जाओ। तुम दोनों का राग मिल जाए, वहीं मुक्ति है, वहीं मोक्ष है। परमात्मा ने तुम्हें खूब चाहा है, और तुमने नहीं चाहा है, यही तुम्हारी भ्रांति है। तुम्हारी चाहत ऊर्ध्वगामी हो जाए! अभी अधोगामी है, नीचे की तरफ जाती है, क्षुद्र की तरफ जाती है।
इसलिए सावधान रहना, जब भी तुम्हें कोई उदास महात्मा दिखे, बचना। क्योंकि वह रोग के कीटाणु लिए हुए है। उससे दूर-दूर रहना, उससे सावधान रहना। क्योंकि वे रोग के कीटाणु खतरनाक हैं। एक बार तुम्हारे भीतर पड़ गए, तुम संक्रामक हो गए, तो उनका इलाज मुश्किल है। और वे रोग के कीटाणु तुम्हें जंचेंगे। जंचेंगे इसलिए कि तुमने भी दुख पाया है, तुम्हारे भी हाथ जले हैं, तुमने भी इस जीवन में बहुत पीड़ा पाई है। जिससे प्रेम किया उसी से दुख पाया है। किस और से दुख पाओगे? दुख तो पाया जाता है उसी से जिससे हम प्रेम करते हैं; क्योंकि उसी से हम आशा करते हैं, उसी से आशा भी टूटती है; उसी से आकांक्षा करते हैं, उसी से आकांक्षा उखड़ती है; उसी से हमारी अपेक्षाएं होती हैं, उसी से विषाद आता है।
तुमने देखा, अजनबी से तुम्हें कभी दुख नहीं होता। क्यों होगा? दुख तो अपनों से होता है, क्योंकि अपनों से अपेक्षा लगी होती है। कुछ तुम चाहते थे और वैसा नहीं हुआ। राह चलता कोई तुम्हारा एक छोटा सा काम कर देता है तो तुम अनुग्रह से भर जाते हो, क्योंकि कोई अपेक्षा नहीं है। तुम्हारी पत्नी तुम्हारी जीवन भर से सेवा कर रही है, तुमने कभी धन्यवाद नहीं दिया। धन्यवाद देना बेहूदा भी लगेगा--अपनों को कोई धन्यवाद देता है! परायों को ही हम धन्यवाद देते हैं। धन्यवाद का मतलब ही इतना है कि अपेक्षा न थी और तुमने किया। जिससे अपेक्षा है उस पर हम नाराज होते हैं, धन्यवाद नहीं देते। जितनी अपेक्षा थी उतना न किया तो नाराज होते हैं। कोई बेटा अपनी मां को धन्यवाद देता है? कोई मां अपने बेटे को धन्यवाद देती है? यह बात ही नहीं उठती। हां, शिकायतें चलती हैं; नाराजगियां होती हैं, क्रोध होता है।
तो हर आदमी जला हुआ है, और हर आदमी के फफोले पड़े हुए हैं। और तुमने कहावत सुनी है न--दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने लगता है। तो तुम्हारा भी अनुभव तुमसे यही कहता है। तुम्हारा भी विश्लेषण बहुत गहरा नहीं है, तुमने भी जीवन को बहुत उसकी गहराइयों में न समझा है, न परखा है; तुम्हारी आंखें भी बहुत पारदर्शी नहीं हैं। तो जब तुम्हारा महात्मा तुमसे कहता है कि यह सब राग का ही फल है; तुम को भी बात जंचती है, गणित बैठता है कि बात तो ठीक ही है, मैं भी राग में पड़ा हूं इसलिए दुख भोग रहा हूं। तो रोग के कीटाणु तुम लेने को तत्पर हो जाते हो।
शांडिल्य तुम्हारे लिए बड़े क्रांति के सूत्र दे रहे हैं। शांडिल्य कह रहे हैं: राग से नहीं कोई दुख पाता। कह दो अपने महात्माओं को कि तुमने राग से दुख नहीं पाया, गलत से राग लगाया था, उससे दुख पाया। अब तुम दूसरी गलती कर रहे हो कि तुमने राग ही छोड़ दिया।
एक आदमी अपने पैरों से चल कर वेश्यालय गया। निश्चित ही, पैर न होते तो कैसे जाता, पैरों से ही गया। फिर वेश्यालय में बहुत दुख पाया, बहुत अवमानना झेली, बहुत जीवन को दूषित बना डाला। क्रोध में अपने पैर काट डाले, क्योंकि ये पैर ही वेश्यालय ले गए थे। लेकिन ये पैर मंदिर भी ले जाते, इनसे ही तीर्थयात्रा भी होती। यह जो पैर काट कर बैठ गया है, इसको तुम महात्मा कहते हो? क्योंकि यह कहता है--पैर वेश्यालय ले गए थे, जुआघर ले गए थे, शराबघर ले गए थे, इन पैरों पर बहुत नाराज था, इसने पैर काट डाले। इसको तुम पागल कहोगे न! इसको तुम महात्मा तो नहीं कहोगे। इस आदमी ने पहले भी मूढ़ताएं कीं और अब महामूढ़ता कर रहा है, क्योंकि जो वेश्यालय तक जा सकता है, वह मंदिर तक जाने में समर्थ है। जो शराबघर तक जा सकता है, वह स्वर्ग तक जा सकता है। पैर हैं! जो नरक की यात्रा कर सकता है, उसको स्वर्ग की यात्रा में कौन सी बाधा है? रुख बदलना है, दिशा बदलनी है; बाएं न चले, दाएं चले, बस इतना ही फर्क करना है। पैर तो वही हैं, सीढ़ी तो वही है, नीचे न गए, ऊपर गए। उसी सीढ़ी से तुम ऊपर जाते हो, उसी से नीचे जाते हो, सीढ़ी थोड़े ही तोड़ देते हो इसलिए कि नीचे ले जाती है! जो सीढ़ी नीचे ले जाती है, वही ऊपर नहीं ले जाती? सिर्फ दिशा बदलनी होती है।
शांडिल्य कहते हैं: दिशा बदलो। क्षणभंगुर से छोड़ो नाता, राग छोड़ो, और शाश्वत से राग जोड़ो। परम से जोड़ो राग।
जरा सोचो तो कि क्षणभंगुर में, जहां कोई सुख नहीं है, राग के कारण वहां भी सुख के क्षण मिल जाते हैं--लम्हे भर को!
लम्हे भर को ये दुनिया जुल्म छोड़ देती है
लम्हे भर को सब पत्थर मुस्कुराने लगते हैं
तुम्हें दिखाई पड़ने लगता है कि सब चारों तरफ हंसी है, चारों तरफ खुशी है। जरा सोचो, अगर यही प्रेम तुम शाश्वत से लगाओ, तो अनंत होगी तुम्हारी संपदा, उसका कोई पारावार न होगा। और उन लोगों से बचना जिन्होंने पैर काट लिए, पंख काट लिए। विरागियों से बचना, राग ही मार्ग है।
जवानी अपनी किस तरह गुजारी है तूने
कि अब हर उठती जवानी से बदगुमान है तू
ये फर्दे-जुर्म किसी और की जुबां पर नहीं
खुद अपने अहदे-गुजिश्तां की तर्जुमान है तू
वो चेहरे जिनमें फरोजां है अस्मते-मरियम
तू उन पे अपने गुनाहों का अक्स डालती है
तेरा जमीर है तीरा, महो-नजूम नहीं
महो-नजूम पे तू तीरगी उछालती है
मिटा दिया तेरे चेहरे की झुर्रियों ने जिसे
तू उस निखार की अब ताब ला नहीं सकती
हंसी को जुर्म समझने का यह सबब तो नहीं
कि हंसी तेरे ओंठों पे आ नहीं सकती
बिठा दिए तो हैं पहरे कदम-कदम पे मगर
झिझक के चलने में लग्जिश जरूर होती है
गुनाह होते हैं दाखिल वहीं से फितरत में
जवानी अपना जहां एतबार खोती है
ये तितलियां जिन्हें मुट्ठी में भींच रक्खा है
जो उड़ने पाएं तो उलझें कभी न खारों से
तेरी तरह ये भी कहीं न बुझ के रह जाएं
तपिश निचोड़ न इन नाचते शरारों से
कवि कहता है--
जवानी अपनी किस तरह गुजारी है तूने
कि अब हर उठती जवानी से बदगुमान है तू
तुमने जरूर गलत ढंग से अपनी जवानी गुजारी होगी, तभी तुम जवानों पर नाराज होते हो, तभी तुम हर जवान के विरोध में होते हो। तुमने राग अपना गलत से लगाया होगा, इसलिए तुम हर रागी पर नाराज होते हो।
ये फर्दे-जुर्म किसी और की जुबां पर नहीं
खुद अपने अहदे-गुजिश्तां की तर्जुमान है तू
और जब भी तुम किसी बात की निंदा करते हो तो खयाल रखना, यह तुम्हारे अतीत की ही निंदा है, और किसी बात की निंदा नहीं। जब कोई आदमी कहता है--धन पाप है, तो समझ लेना कि इसने अपनी जिंदगी धन कमाने में गंवाई होगी। कुछ और नहीं कहता यह आदमी। जब कोई आदमी कहता है--स्त्रियों के पीछे मत भागो, यह सब व्यर्थ है, तो वह इतना ही कहता है कि इसने अपनी जिंदगी स्त्रियों के पीछे भागने में गंवा दी है। यह आदमी अपने संबंध में कुछ कह रहा है। यह तुम्हारे संबंध में कुछ नहीं कह रहा है, यह स्त्रियों के संबंध में कुछ नहीं कह रहा है, यह सिर्फ अपने संबंध में कुछ कह रहा है।
वो चेहरे जिनमें फरोजां है अस्मते-मरियम
तू उन पे अपने गुनाहों का अक्स डालती है
यहां ऐसी स्त्रियां भी हुईं जैसे मरियम--जीसस की मां मरियम, उससे ज्यादा पवित्र चेहरा और कहां खोज पाओगे? लेकिन तुम कहते हो कि स्त्रियां नरक के द्वार हैं। जरूर तुम अपना ही अनुभव दोहरा रहे हो। तुमने ऐसी स्त्रियां खोजी होंगी जो नरक के द्वार हैं। यह तुम्हारी खोज के संबंध में खबर है, यह स्त्रियों के संबंध में कोई खबर नहीं है। यहां तो मरियम जैसी स्त्रियां भी हैं, जो स्वर्ग के द्वार हैं, जिनसे देवता भी पैदा होने को तड़पें।
वो चेहरे जिनमें फरोजां है अस्मते-मरियम
तू उन पे अपने गुनाहों का अक्स डालती है
तेरा जमीर है तीरा, महो-नजूम नहीं
तेरा अंतःकरण अंधेरे से भरा है, आकाश नहीं, आकाश में तो बहुत चांद-तारे हैं!
तेरा जमीर है तीरा, महो-नजूम नहीं
महो-नजूम पे तू तीरगी उछालती है
और तुम अपने भीतर के अंधेरे को चांद-तारों पर फेंकते हो।
मिटा दिया तेरे चेहरे की झुर्रियों ने जिसे
तू उस निखार की अब ताब ला नहीं सकती
हंसी को जुर्म समझने का यह सबब तो नहीं
कि हंसी तेरे ओंठों पे आ नहीं सकती
क्योंकि तुम नहीं हंस सकते, इसलिए हंसी पाप है? क्योंकि तुम नहीं हंस सकते, इसलिए हंसी जुर्म है? क्योंकि तुम नहीं हंस सके तुम्हारे जीवन में, तुम्हें कला के सूत्र न मिले, तुम्हें हंसने का राज न मिला--क्योंकि तुमने रोते जिंदगी बिताई--तो तुम सभी को कहते फिरते हो कि जिंदगी में सिवाय आंसुओं के और कुछ भी नहीं है, कांटे ही कांटे हैं, फूल यहां हैं ही नहीं। क्योंकि तुम्हारी बगिया में फूल न खिला, इसलिए और बगियाओं में फूल नहीं हैं? तुम अपने को सब पर मत थोपो। तुम्हारी हार तुम सबकी हार में मत बदलो। मगर तुम्हारे महात्मा यही करते रहे हैं।
बिठा दिए तो हैं पहरे कदम-कदम पे मगर
झिझक के चलने में लग्जिश जरूर होती है
गुनाह होते हैं दाखिल वहीं से फितरत में
जवानी अपना जहां एतबार खोती है
जहां जवान आदमी, जहां जीवन अपने में आस्था खो देता है, वहीं से पाप शुरू होते हैं। और तुम्हारे महात्माओं ने तुम्हारी आस्था डगमगा दी है। उन्होंने तुम्हें ऐसी बातें दी हैं कि तुम जो भी करो, गलत है। तुम जो भी करो, गुनाह है। खाओ-पीओ, गुनाह है। उठो-बैठो, गुनाह है। सोओ-जागो, गुनाह है। प्रेम करो, संबंध बनाओ, दोस्ती बनाओ, गुनाह है। सब गुनाह है। तुम्हें गुनाहों से भर दिया। यह गुनाहों से भरा हुआ आदमी कैसे तो ईश्वर को पुकारे? किस मुंह से पुकारे? किस कारण पुकारे? ईश्वर ने सिवाय गुनाहों के और कुछ तो दिया नहीं। सिवाय पापों से भरी यह जिंदगी, और तो कुछ दिया नहीं। तुम धन्यवाद किस बात का दो? और जहां धन्यवाद नहीं है, वहां प्रार्थना नहीं पैदा होती।
गुनाह होते हैं दाखिल वहीं से फितरत में
जवानी अपना जहां एतबार खोती है
ये तितलियां जिन्हें मुट्ठी में भींच रक्खा है
जो उड़ने पाएं तो उलझें कभी न खारों से
और तुम्हारे महात्माओं ने क्या किया है? तितलियां पकड़ रखी हैं! इस डर से कि कहीं अगर उड़ें तो कांटों से न उलझ जाएं।
ये तितलियां जिन्हें मुट्ठी में भींच रक्खा है
जो उड़ने पाएं तो उलझें कभी न खारों से
तेरी तरह ये भी कहीं न बुझ के रह जाएं
तपिश निचोड़ न इन नाचते शरारों से
इन नाचती हुई चिनगारियों से आग को मत निकाल लो। इनका जीवन निचोड़ मत लो। इन्हें उड़ने दो।
भक्ति तुम्हें जीवन की परम स्वतंत्रता देती है। भक्ति कहती है: तुम्हारा आकाश है, उड़ो! प्रभु ने पंख दिए, उड़ो! इतना ही ध्यान रहे कि ये पंख ऊपर भी ले जा सकते हैं; ये पैर मंदिर तक भी पहुंच सकते हैं। ये आंखें देह का ही सौंदर्य देखने पर चुक न जाएं। यद्यपि देह के सौंदर्य में कुछ भी खराबी नहीं है, कोई भी पाप नहीं है, है तो सौंदर्य उसी का, सारा सौंदर्य उसी का है। जब तुम किसी स्त्री को या किसी पुरुष को सुंदर पाते हो, तो यह उसी की झलक है, यह उसी की खबर है। दूर की सही, बहुत दूर की गूंज सही, मगर उसी की गूंज है, अनुगूंज है। वही झलका है। लेकिन ये आंखें दृश्य पर ही समाप्त न हो जाएं, एक अदृश्य सौंदर्य भी है, इन आंखों को उसकी तलाश में लगाना। और ये कान शब्दों को ही सुनते-सुनते शांत न हो जाएं, शून्य को सुनने का भी और बड़ा आनंद है। और ये हाथ, जो छुआ जा सकता है उसी को न छूते रहें। कुछ ऐसा भी है जो छुआ नहीं जा सकता, फिर भी हाथों में आ सकता है। और यह हृदय व्यर्थ की ही चिंतना में न डूबा रहे, सार से भी इसका संबंध जुड़े। राग के दुश्मन मत बन जाना। राग के अतिरिक्त कोई सेतु नहीं है।
इसलिए कहते हैं शांडिल्य: ‘रागत्वादितिचेन्नोत्तमास्पदत्वात् संगवत्।’
‘अनुराग ही का नाम भक्ति है। कोई ऐसा कहते हैं कि अनुराग दुख का कारण है, इसलिए उसका त्याग करना चाहिए। परंतु यह बात ऐसी नहीं है; क्योंकि संग की भांति इसका आश्रय उत्तम है।’
आश्रय कैसा है? विषय कैसा है?
उत्तम से जोड़ दो तो भक्ति हो जाती है। क्षुद्र से जोड़ दो तो क्षुद्रता। इसलिए मैंने तुमसे कहा कि प्रीति-तत्व के ये रूप हैं: एक, स्नेह। अपने से छोटे से--बच्चे से, बेटे से। दूसरा, प्रेम। अपने समान से--पति से, पत्नी से, मित्र से। तीसरा, श्रद्धा। अपने से बड़े से--पिता से, मां से, गुरु से। और चौथी परम दशा है, भक्ति। ये सब प्रीति के ही रूप हैं। तुम्हारा प्रेम भक्ति तक पहुंच जाए। इतना स्मरण रहे, न कुछ छोड़ना है, नहीं कहीं भाग जाना है। इसी संसार की मिट्टी में परमात्मा का सोना मिला है। छांटना है, मिट्टी-मिट्टी अलग कर देनी है, सोना-सोना छांट लेना है।
तत् एव कर्म्मि ज्ञानि योगिभ्य आधिक्यशब्दात्।
‘कर्मी, ज्ञानी और योगी से भी भक्त को आधिक्य शब्द में वर्णन होते देखा जाता, इस कारण वह श्रेष्ठ ही है।’
शांडिल्य कहते हैं: सारे शास्त्रों का सार यह है कि जिस भांति शास्त्रों ने भक्त की प्रशंसा की है, वैसी किसी की भी नहीं की। वेद भी भक्त को परम कहते हैं, उपनिषद भी। कृष्ण भी गीता में भक्त को परम कहते हैं। आधिक्य से वर्णन किया गया है अगर किसी का, तो वह भक्त का किया गया है। कर्म की भी प्रशंसा की गई है। और ज्ञान की भी प्रशंसा की गई है। और योग की भी प्रशंसा की गई है। और सारी विधियों की भी चर्चा की गई है। लेकिन भक्त को आधिक्य से कहा गया है। उसकी अत्यधिक प्रशंसा की गई है। क्यों? क्योंकि भक्त इस जगत में द्वंद्व पैदा नहीं करता; निर्द्वंद्व है। भक्त इस जगत में चुनाव नहीं करता। यह संसार और यह परमात्मा, ऐसा खंड नहीं करता। कहता है, यह संसार भी उसी परमात्मा का। भक्त परमात्मा को संसार के विपरीत नहीं देखता, संसार में छिपा, अनुस्यूत देखता है। कण-कण में है। क्षण-क्षण में वही व्याप्त है।
फिर भक्त अपने को सब भांति समर्पित करता है। उसका समर्पण पूर्ण है। भक्त ही कर सकता है पूर्ण समर्पण। प्रेम ही कर सकता है पूर्ण समर्पण, और तो कोई पूर्ण समर्पण नहीं कर सकता। योगी का स्वार्थ है, मोक्ष चाहिए। भक्त को वैसा स्वार्थ भी नहीं है। भक्तों ने कभी मोक्ष नहीं मांगा। ज्ञानी को ज्ञान चाहिए। सत्य क्या है, इसका साक्षात्कार चाहिए। भक्त को उसकी भी चिंता नहीं है। भक्त तो कहता है, मेरे हृदय में मैं न रहूं, बस इतना काफी है। जहां मैं न रहा, वहां तू रहेगा ही। मैं शून्य हो जाऊं, मैं तेरे योग्य पात्र बन जाऊं, तेरे चरणों में कहीं धूल बन कर पड़ा रहूं, बस पर्याप्त है। मेरी अलग से कोई आकांक्षा नहीं है। योगी मोक्ष मांगता, ज्ञानी ज्ञान मांगता, कोई कुछ मांगता, कोई कुछ मांगता; भक्त कहता है, इतना ही कि मुझे मिटा दे; मुझे ऐसा नेस्तनाबूद कर दे कि मुझे मेरा कुछ पता न रहे; मैं बेखुद हो जाऊं।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि भक्त के हृदय में मैं जिस भांति विराजता हूं, वैसा किसी और के हृदय में नहीं विराजता हूं, वैसा वैकुंठ में भी नहीं। भक्त के हृदय में जिस प्रीति से बैठता हूं, वैसा कहीं और स्थान ही नहीं है।
प्रश्ननिरूपणाभ्याम् आधिक्य सिद्धेः।
‘भक्ति की यह श्रेष्ठता प्रश्न और उत्तर द्वारा भी सिद्ध हो चुकी है।’
यह सूत्र बड़ा अनूठा है। अनूठा इसलिए कि बड़ा सांकेतिक है। और सांकेतिक होने के कारण इसके अब तक जो अर्थ लिए गए हैं, बड़े गलत लिए गए हैं। यह सूत्र सीधा-सीधा नहीं है, बड़ा परोक्ष है। क्या चाहते हैं शांडिल्य कहना कि भक्ति की यह श्रेष्ठता प्रश्न और उत्तर द्वारा सिद्ध हो चुकी है?
जिन्होंने शांडिल्य पर व्याख्याएं की हैं, उन्होंने यह मान लिया कि प्रश्न-उत्तर से शांडिल्य का इशारा श्रीमद्भगवद्गीता की तरफ है; क्योंकि कृष्ण और अर्जुन के बीच प्रश्न-उत्तर हुए। और उन्हीं प्रश्न-उत्तर में भक्ति की सर्वोच्च ऊंचाई सिद्ध हो चुकी है।
ऐसा अर्थ किया जाए तो किया जा सकता है। मगर यह अर्थ बड़ा दूरगामी नहीं है। अगर शांडिल्य को यही कहना होता तो कृष्ण-अर्जुन संवाद कह देते; यही कहना होता तो श्रीमद्भगवद्गीता का नाम ही ले देते। इस तरह परोक्ष कहने की क्या जरूरत थी? इसलिए मैं इसका कुछ और अर्थ करना चाहता हूं।
शिष्य और गुरु के बीच बहुत कुछ है जो शब्दों के बिना भी होता है। विद्यार्थी और अध्यापक के बीच केवल शब्दों का लेन-देन होता है। यही फर्क है। शिष्य और गुरु के बीच निशब्द का भी लेन-देन होता है। शब्द का भी लेन-देन होता है, मगर वह गौण है, दोयम, नंबर दो। प्रथम तो है मौन का आदान-प्रदान।
पच्चीस सौ साल हुए, एक जंगल में एक सुबह यह घटना घटी। एक व्यक्ति अपने हाथ में फूल लिए हुए आया। आकर बैठा। उसके चारों तरफ उसकी शिष्य-मंडली थी। और उस व्यक्ति ने वह फूल एक-एक शिष्य के सामने किया। जिसके सामने फूल गया, उसने कुछ कहा, फूल के संबंध में कुछ व्याख्या की। फूल घूमता रहा। और आखिर में एक शिष्य के सामने गया और उस शिष्य ने कुछ भी न कहा, वह सिर्फ मुस्कुराया, हंसा। और कहते हैं, इसी घटना में झेन संप्रदाय का जन्म हुआ, ध्यान संप्रदाय का जन्म हुआ।
यह बात बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि वह व्यक्ति गौतम बुद्ध था। कोई और भी हो सकता था। कृष्ण हो सकते थे, क्राइस्ट हो सकते थे, कपिल हो सकते थे, कणाद हो सकते थे, कबीर हो सकते थे, कोई भी हो सकता था; शर्त एक ही है कि जो भी हो, वह जागा हुआ होना चाहिए।
और ध्यान संप्रदाय का जन्म क्यों हुआ उस एक के हंसने पर? क्योंकि जब बुद्ध ने इस फूल को औरों के सामने किया, तो वे भाषा में बोले, उन्होंने कुछ कहा, अपना-अपना ज्ञान दिखलाया; फूल के संबंध में कुछ कहा, लेकिन फूल से चूक गए। फूल तो तथ्य है, शब्दातीत है, कुछ कहने का उपाय नहीं है। आश्चर्यचकित हो सकते हो फूल को देख कर, विस्मय-विमुग्ध हो सकते हो फूल को देख कर, आनंदमग्न हो सकते हो फूल को देख कर, फूल के सौंदर्य को देख कर स्तब्ध हो सकते हो, आंसू झर सकते हैं आनंद के, कि हंसी फूट सकती है, मगर शब्द, शब्द बहुत ओछा है, शब्द बहुत छोटा है।
जिस शिष्य के पास फूल आया और ठहर गया, वह था महाकाश्यप। वह सिर्फ मुस्कुराया, फिर खिलखिला कर हंसा। और बुद्ध ने वह फूल महाकाश्यप को दे दिया। और कहा कि जो मैं कह सकता था वह मैंने औरों से कह दिया है, जो मैं नहीं कह सकता वह मैं तुझे दिए दे रहा हूं।
परम घटना मौन में घटती है। शिष्य और गुरु के बीच शब्दों का आदान-प्रदान नहीं होता, ऐसा नहीं, होता है, लेकिन वह असली आदान-प्रदान नहीं। एक और आदान-प्रदान है जो चुप-चुप होता है, जो बिन बोले होता है। शांडिल्य जिस शिष्य से ये सूत्र कह रहे हैं, या जिन शिष्यों से ये सूत्र कह रहे हैं, उनसे उनका मौन का नाता है। उन शिष्यों ने मौन में बहुत बार उनसे प्रश्न पूछे हैं, और बहुत बार उनके उत्तर पाए हैं। यहां मेरे पास वे लोग हैं जो मौन में पूछते हैं, और मौन में पाते भी हैं। मौन में पूछने वाला ही पाता है।
शांडिल्य जब कहते हैं: ‘प्रश्ननिरूपणाभ्याम् आधिक्य सिद्धेः।’
प्रश्न और उत्तर द्वारा भी क्या यही बात सिद्ध नहीं हो चुकी है!
वे किस बात की तरफ इशारा कर रहे हैं? वे अपने शिष्यों से कह रहे हैं कि तुमने कितनी बार पूछा है और मैंने कितनी बार तुमसे कहा है। भीतर-भीतर अंतरंग में तुम प्रश्न बने हो, मैं उत्तर बना हूं। क्या हर बार भक्ति की श्रेष्ठता सिद्ध नहीं हुई है?
क्या मतलब इसका? इसका मतलब यह हुआ कि जब भी तुमने शांत और मौन होकर प्रेम से भर कर पूछा है, तो तुमने उत्तर पाया है। जब भी तुम शांत और मौन होकर प्रेम से मेरी तरफ देखे हो, तो तुम चाहे हजार मील दूर रहे, तुमने मुझे अपने भीतर पाया है। क्या उससे बात सिद्ध नहीं हो गई है? क्या प्रेम के अनुभव से बात सिद्ध नहीं हो गई है?
यह इशारा कृष्ण की गीता की तरफ नहीं है। कृष्ण की गीता की तरफ होता तो सीधा कह देते, ऐसे प्रश्न-उत्तर की बात क्यों उठाते? क्योंकि फिर तो बड़ी झंझट है। उपनिषदों में भी प्रश्न-उत्तर हैं। फिर गीता ही क्यों? फिर उपनिषद क्यों नहीं? फिर प्रश्न-उत्तर तो हजारों साल से चलते रहे हैं, न मालूम कितने शास्त्रों में प्रश्न-उत्तर हैं। नहीं, शांडिल्य तो अपने उस अंतर्संबंध की तरफ इशारा कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि सुनो! तुम भी पूछते हो, और कितनी बार नहीं तुम्हारे प्रेम के कारण समय और स्थान की दूरी मेरे और तुम्हारे बीच मिट गई है! कितनी बार तुमने चुपचाप प्रेम से पूछा है और उत्तर पाया है! क्या उससे भक्ति का आधिक्य सिद्ध नहीं हो गया? उससे बात सिद्ध हो चुकी है।
न एव श्रद्धा तु साधारण्यात्।
‘भक्ति श्रद्धा की भांति नहीं है, क्योंकि श्रद्धा साधारणरूप से दिखाई पड़ती है।’
श्रद्धा साधन है भक्ति का, भक्ति साध्य है। साधन साध्य नहीं हो सकता। तुम जिस नाव से दूसरे किनारे पर जाते हो, वह नाव दूसरा किनारा नहीं है, न हो सकती है। साधन साधन है, साध्य साध्य है। श्रद्धा भक्ति तक लाती है, लेकिन भक्ति नहीं है। बहुत लोग श्रद्धा को ही भक्ति समझ लेते हैं, तो भ्रांति हो जाती है। फिर भक्ति क्या है?
श्रद्धा में कुछ न कुछ पाने की आकांक्षा बनी रहती है, भक्ति निष्कांक्षी है। भक्त ने तो पा लिया, श्रद्धालु पाने में लगा है। भक्ति उस भाव-दशा का नाम है, जब तुम्हें पता चलता है कि परमात्मा मिला ही हुआ है, पाने का कोई सवाल ही नहीं है। पाने की बात ही गलत है।
ऐसा समझो, तुम्हारे खीसे में हीरा पड़ा है और तुम भूल गए। श्रद्धा का अर्थ है, किसी ने कहा कि तुम भूल गए क्या? तुम्हारे पास हीरा है! और तुमने उस आदमी की बात पर भरोसा किया और खोज शुरू की, कि हो सकता है यह आदमी ठीक कहता हो। तुम इस आदमी को जानते हो, यह प्रामाणिक है, यह कभी झूठ नहीं बोला, इसने तुम्हें कभी धोखा नहीं दिया, इसकी और सलाहें भी पीछे अतीत में काम आई हैं, इसने जब जो कहा काम पड़ा है, इसने जब जो कहा वैसा ही हुआ है, हजार-हजार अनुभवों से सिद्ध हो चुका है कि यह आदमी विश्वास योग्य है। और यह आदमी आज तुमसे कहता है कि हीरा तुम्हारे पास है! तुम तलाशते क्यों नहीं? तुम हाथ फैलाए भीख क्यों मांगते हो? हीरा तुम्हारे भीतर पड़ा है! तो तुम्हें श्रद्धा उमगती है। तुम सोचते हो कि यह आदमी कभी झूठ नहीं बोला, यह आदमी सदा मेरे काम आया, और इसने जो कहा सदा ठीक हुआ, मैंने माना तो, मैंने नहीं माना तो, अंततः इसकी बात सदा सही सिद्ध हुई है। हो न हो यह भी बात सही हो--यह श्रद्धा।
फिर तुम खोज करते हो और एक दिन हीरा तुम्हारी मुट्ठी में आ जाता है। जब हीरा तुम्हारी मुट्ठी में आ जाता है, तब भक्ति। अब तुम अहोभाव से भरते हो। अब तुम्हारे भीतर बड़ी कृतज्ञता उठती है। तुम नाचते हो, तुम मस्त हो, मस्ती समाती नहीं, बही जाती है--आधिक्य हो गया। और अब तुम हंसते भी हो कि मैं भी कैसा मूढ़ हूं! जिस हीरे को खोजता था वह मेरे पास था। हीरा मेरे पास था और मैं दाने-दाने को मोहताज था। मैं भी कैसा पागल!
ऐसी ही परमात्मा की उपलब्धि है। परमात्मा को तुमने कभी खोया नहीं। जिसे तुम खो दो, वह परमात्मा नहीं। परमात्मा तुम्हारा स्वभाव है, खोओगे कैसे? तुम परमात्मा हो। परमात्मा तुम्हारे हृदय में धड़क रहा है। वह हीरा तुम्हारे भीतर पड़ा है। तुम जब चाहो तब पा लो, क्योंकि तुम पाए ही हुए हो। भक्ति उस दशा का नाम है जब तुम अपने भीतर भगवान को पाते हो। भक्ति भगवान की उपस्थिति से उठी सुवास है। श्रद्धा तलाश है, श्रद्धा खोज है।
शांडिल्य कहते हैं: ‘भक्ति श्रद्धा की भांति नहीं है, क्योंकि श्रद्धा साधारण रूप से दिखाई पड़ती है।’
और भी भेद हैं श्रद्धा और भक्ति में। श्रद्धा नास्तिक को भी होती है। आखिर कम्युनिस्ट कार्ल मार्क्स और एंजिल्स और लेनिन पर वैसी ही श्रद्धा करता है जैसे हिंदू कृष्ण पर करता है और ईसाई क्राइस्ट पर करता है। कम्युनिस्ट दास कैपिटल पर वैसी ही श्रद्धा करता है जैसे मुसलमान कुरान पर करता है और बौद्ध धम्मपद पर करता है। यद्यपि कम्युनिस्ट भक्त नहीं है, और कभी भक्त नहीं हो सकता। श्रद्धा तो साधारणतः सब तरफ दिखाई पड़ती है। बच्चे मां-बाप पर श्रद्धा करते हैं, लेकिन भक्ति नहीं है वह। जिस गुरु से तुम कुछ सीख लेते हो, उस पर तुम्हें श्रद्धा आती है, सम्मान आता है, आदर भाव आता है, लेकिन भक्ति नहीं है वह।
श्रद्धा अधार्मिक भी हो सकती है, अनैतिक भी हो सकती है। समझो कि किसी ने तुम्हें जेब काटना सिखाया, वह तुम्हारा गुरु हो गया। उस पर श्रद्धा होगी, उस पर आदर होगा। चोरों के भी गुरु होते हैं, बेईमानों के भी गुरु होते हैं। बेईमानी की भी तो कला होती है। कोई ऐसे ही तो नहीं आ जाती है बेईमानी, सीखनी पड़ती है। उसमें भी दादागुरु होते हैं! तो वहां भी श्रद्धा होती है। श्रद्धा साधारण बात है। जिससे हमें कुछ मिलता है मूल्यवान, उसी पर श्रद्धा हो जाती है।
परमात्मा से जो संबंध है, वह मात्र श्रद्धा का नहीं हो सकता। श्रद्धा का हो, तो अभी संबंध हुआ नहीं। परमात्मा से संबंध भक्ति का हो सकता है। इसीलिए तो कृष्ण को मानने वाला कृष्ण को भगवान कहेगा। क्यों? महावीर को मानने वाला महावीर को भगवान कहेगा। क्यों? वह इतना ही कह रहा है कि हम साधारण गुरु नहीं मानते महावीर को, हमारा संबंध श्रद्धा का ही नहीं है, भक्ति का है। वह और कुछ भी नहीं कह रहा है। वह सिर्फ इस बात की घोषणा कर रहा है कि महावीर मेरे लिए गुरु ही नहीं हैं, भगवान हैं। मेरे भीतर उनके प्रति जो भाव है वह मात्र श्रद्धा का नहीं है, श्रद्धा तो साधारण बात है। मेरे और उनके बीच जो फूल खिला है वह भक्ति का है। मुझे अब उनसे कुछ लेना-देना नहीं है, उनकी मौजूदगी काफी है, उनका होना परम धन्यता है।
इसलिए जो एक को भगवान है, दूसरे को नहीं भी होगा। जैनों का भगवान हिंदुओं के लिए भगवान नहीं है। कोई कारण नहीं है। क्योंकि भगवत्ता तो एक निजी घटना है। ईसाइयों का भगवान मुसलमानों का भगवान नहीं है। बुद्ध को मानने वाले बुद्ध को भगवान कहते हैं। कृष्ण को मानने वाले राजी नहीं होंगे, जैन राजी नहीं होंगे--बुद्ध और भगवान? लेकिन उनकी नाराजगी इतना ही कहती है कि उनके और बुद्ध के बीच भक्ति का संबंध नहीं है--और कुछ नहीं कहती। इसमें कुछ विवाद जैसी बात नहीं है। अगर जैन यह सिद्ध करने लगें कि महावीर सबके भगवान हैं, तो झंझट की बात है। जैन अगर इतना ही कहें कि हमारे भगवान हैं, बात समाप्त हो गई। इससे आगे कोई विवाद का उपाय नहीं है। लेकिन महावीर की, कृष्ण की, या बुद्ध की उदघोषणा भगवान की तरह उनके प्रेम करने वालों ने की, उसका कारण इतना ही है कि वे यह जाहिर करना चाहते हैं कि हमारे और उनके बीच साधारण श्रद्धा का नाता नहीं है, वह नाता वही है जिसको भक्ति का नाता कहते हैं। भक्ति परम नाता है। वह अनुराग की परम शुद्ध दशा है। उसके ऊपर और कोई शुद्धि नहीं है।
स्नेह क्षणभंगुर का होता, प्रेम भी क्षणभंगुर का होता, और श्रद्धा भी। भक्ति शाश्वत की है। श्रद्धा बनती है, मिट सकती है। आज है, कल खो जाए। आज तुमने जिसे श्रद्धा से देखा, शायद कल श्रद्धा से न देखो, अश्रद्धा से देखो। श्रद्धा बदल सकती है। लेकिन भक्ति आई तो आई, फिर बदलना नहीं जानती। और जो भक्ति बदल जाए, तो जानना कि भक्ति नहीं थी; श्रद्धा ही रही होगी; तुमने भक्ति मान लिया था। झूठ तुमने अपने ऊपर आरोपित कर लिया था। भक्ति बदलती नहीं, बदल ही नहीं सकती। एक बार आई तो आई, फिर जाने का नाम नहीं लेती। जो चली जाए, वह ज्यादा से ज्यादा श्रद्धा हो सकती है।
काम तखईल आ नहीं सकती
दीद दूरी मिटा नहीं सकती
कैफ क्या भागती बहारों में
दिल की राहत कहां नजारों में
लाख झूले नजर सितारों में
तीरगी घर की जा नहीं सकती
कल्पना से कुछ काम नहीं बनता।
काम तखईल आ नहीं सकती
तुम्हारे प्रेम, तुम्हारे स्नेह, तुम्हारी श्रद्धाएं कल्पना के फैलाव हैं; तुम्हारी मान्यताएं हैं; तुमने मान लिया। मान लिया तो ठीक, लेकिन जीवन के सत्य के अनुभव नहीं हैं।
दीद दूरी मिटा नहीं सकती
और दर्शन भर से दूरी नहीं मिटती, जब तक एकात्म अवस्था न हो जाए। श्रद्धा में दूरी है, भक्ति में दूरी समाप्त हो गई। भक्त और भगवान एक हो गए।
काम तखईल आ नहीं सकती
दीद दूरी मिटा नहीं सकती
कैफ क्या भागती बहारों में
और जहां प्रतिक्षण सब कुछ बदला जा रहा है, वहां आनंद कैसे होगा?
कैफ क्या भागती बहारों में
दिल की राहत कहां नजारों में
लाख झूले नजर सितारों में
तीरगी घर की जा नहीं सकती
और तुम कितने ही आकाश के तारों को देखते रहो, इससे तुम्हारे घर का अंधेरा नहीं मिटेगा। घर का अंधेरा तो तभी मिटेगा जब घर का दीया जलेगा।
श्रद्धा दूसरे पर होती है, श्रद्धा ‘पर’ पर होती है। भक्ति, जब तुम्हारे भीतर भगवान का दीया जलता, जब तुम भगवान के मंदिर बनते हो, तब, जब तुम उसके पूजागृह बन जाते हो--पुजारी ही नहीं, उसके पूजागृह; उपासक ही नहीं, उसके मंदिर।
जिक्रे अजदाद से हूं गो खुर्सद
हालो-माजी का राब्ता ता चंद
मौत से साज करके जीना क्या
खुम से जो गिर गई वो पीना क्या
वहम से चाके-अक्ल सीना क्या
उधड़े जाते हैं खुद-ब-खुद पैबंद
नग्मगी गम पे छाएगी क्यों कर
मुफलिसी गुनगुनाएगी क्यों कर
मैकदा है निशात की बस्ती
फिर भी मिटता नहीं गमे-हस्ती
मुस्तकिल प्यार, आरजी मस्ती
रूह तस्कीन पाएगी क्यों कर
यहां इस जगत में राहत नहीं मिल सकती, तस्कीन नहीं मिल सकती।
मुस्तकिल प्यार, आरजी मस्ती
यहां सब क्षणिक है। अभी है, अभी नहीं है। सब पानी पर खींची गई लकीरें हैं।
मुस्तकिल प्यार, आरजी मस्ती
रूह तस्कीन पाएगी क्यों कर
यख जमेगी शरार पर कितनी
आगही होगी बेखबर कितनी
जुल्फ लहरा के इत्र बरसा जाए
नश्शा-सा इक हवास पर छा जाए
नर्म जानू पे नींद आ जाए
नींद की उम्र ही मगर कितनी
यख जमेगी शरार पर कितनी
चिनगारी पर बर्फ जमाना चाहो तो कितनी देर जमा पाओगे? कितनी जमा पाओगे?
यख जमेगी शरार पर कितनी
आगही होगी बेखबर कितनी
जुल्फ लहरा के इत्र बरसा जाए
नश्शा-सा इक हवास पर छा जाए
नर्म जानू पे नींद आ जाए
नींद की उम्र ही मगर कितनी
बार-बार सोओगे क्षणभंगुर में, बार-बार नींद टूटेगी, बार-बार जगोगे। यहां तो उथल-पुथल मची ही रहेगी। तो स्नेह से काम न चलेगा, प्रेम से काम न चलेगा, श्रद्धा से काम न चलेगा--वे सभी के सभी संसार के भीतर हैं--भक्ति चाहिए। संसार के पार आंख उठनी चाहिए। कुछ तो तुम्हारे जीवन में ऐसा हो जो सांसारिक नहीं है। कोई एक किरण सही, जो तुम्हें संसार के पार ले चले। उसी किरण के सहारे तुम परमात्मा तक पहुंच जाओगे।
और फिर कृष्ण ने अर्जुन से कहा:
न कोई भाई, न बेटा, न भतीजा, न गुरु
एक ही शक्ल उभरती है हर आईने में
आत्मा मरती नहीं, जिस्म बदल लेती है
धड़कन इस सीने की जा छुपती है उस सीने में
जिस्म लेते हैं जनम, जिस्म फना होते हैं
और जो इक रोज फना होगा, वह पैदा होगा
इक कड़ी टूटती है, दूसरी बन जाती है
खत्म ये सिलसिला-ए-जिंदगी फिर क्या होगा
रिश्ते सौ, जज्बे भी सौ, चेहरे भी सौ होते हैं
फर्ज सौ चेहरों में शक्ल अपनी ही पहचानता है
वही महबूब, वही दोस्त, वही एक अजीज
दिल जिसे इश्क, और इदराक अमल मानता है
जिंदगी सिर्फ अमल, सिर्फ अमल, सिर्फ अमल
और ये बेदर्द अमल सुलह भी है, जंग भी है
अम्न की मोहनी तस्वीर में हैं जितने रंग
उन्हीं रंगों में छिपा खून का इक रंग भी है
खौफ के रूप कई होते हैं, अंदाज कई
प्यार समझा है जिसे, खौफ है वो प्यार नहीं
उंगलियां और गड़ा, और जकड़, और जकड़
आज महबूब का बाजू है ये, तलवार नहीं
जंग रहमत है कि लानत, पर सवाल अब न उठा
जंग जब आ ही गई सर पे तो रहमत होगी
दूर से देख न भड़के हुए शोलों का जलाल
इसी दोजख के किसी कोने में जन्नत होगी
जख्म खा, जख्म लगा, जख्म हैं किस गिनती में
फर्ज जख्मों को भी चुन लेता है फूलों की तरह
न कोई रंज, न राहत, न सिले की परवा
पाक हर गर्द से रख दिल को रसूलों की तरह
यहां जितने संबंध हैं--भाई का, बेटे का, मां का, पिता का, गुरु का--सब संसार के हैं।
न कोई भाई, न बेटा, न भतीजा, न गुरु
एक ही शक्ल उभरती है हर आईने में
आत्मा मरती नहीं, जिस्म बदल लेती है
धड़कन इस सीने की जा छुपती है उस सीने में
जिस दिन तुमने सब शक्लों में छिपे उस एक को देख लिया, उस दिन भक्ति। जब तक शक्ल में अटके, तब तक स्नेह, प्रेम, श्रद्धा। जिस दिन शक्लों के पीछे छिपे उस एक को देख लिया--जब तक लहरों में उलझे, तब तक स्नेह, प्रेम, श्रद्धा। जब सागर को देख लिया, तो भक्ति।
ऐसा नहीं है कुछ कि भगवान कहीं और है। यहीं छिपा है--इन्हीं वृक्षों में, इन्हीं लोगों में, इन्हीं पक्षियों में, इन्हीं पहाड़ों में--यहीं छिपा है। लेकिन हम शक्ल से उलझ जाते हैं। हम वृक्ष को देखते हैं, वृक्ष के भीतर बहते प्राण की धारा को नहीं। हम पक्षी को उड़ते देखते हैं, पक्षी के भीतर उड़ती हुई आत्मा को नहीं। हम आदमी को देखते हैं, औरत को देखते हैं--आदमी और औरत ऊपर की बातें हैं--भीतर छिपे हुए चैतन्य को नहीं देखते। वह चैतन्य दिखने लगे तो भक्ति।
न कोई भाई, न बेटा, न भतीजा, न गुरु
एक ही शक्ल उभरती है हर आईने में
आत्मा मरती नहीं, जिस्म बदल लेती है
धड़कन इस सीने की जा छुपती है उस सीने में
ऐसा देखो, ऐसा परखो, तो तुम धीरे-धीरे पाओगे: शांडिल्य जिस अनुपम अनुराग की बात कह रहे हैं, वह तुम्हारे भीतर उठने लगा--अरूप का प्रेम, निराकार का प्रेम, निर्गुण का प्रेम।
तस्यां तत्वेचानवस्थानात्।
‘श्रद्धा और भक्ति को एक अर्थ में लगाने से दोष हो जाएगा।’
श्रद्धा को भक्ति मत समझ लेना; श्रद्धा पर रुक मत जाना, शांडिल्य का यह इशारा है।
तुम कुछ ऐसे हो कि जगह-जगह रुक जाते हो, इसलिए सदगुरुओं को कहना पड़ता है बार-बार। तुम ऐसे हो कि रुकने को तत्पर हो। बुद्ध ने कहा है: अगर मैं तुम्हारे ध्यान के रास्ते पर कहीं मिल जाऊं, तो मुझे दो टुकड़े कर देना। इफ यू मीट मी ऑन दि वे, किल मी। मुझे मार डालना। क्यों? क्योंकि अगर बुद्ध न मारे जाएं, तो श्रद्धा पर अटकन हो जाएगी। जब बुद्ध भी विदा हो जाएं, तो भगवत्ता का उदय हो।
गुरु के भी पार जाना होगा। गुरु ले जाता अंतिम तक, लेकिन अंततः, अंततोगत्वा गुरु अपना हाथ छुड़ा लेता है। उस समय हिम्मत होनी चाहिए कि तुम भी हाथ छोड़ दो। क्योंकि गुरु आखिरी रूप है, अरूप और रूप के बीच गुरु आखिरी कड़ी है। मगर अरूप में जाना है, निर्गुण में जाना है, निराकार में जाना है।
इसलिए शांडिल्य कहते हैं: श्रद्धा और भक्ति को एक समझोगे, तो दोष हो जाएगा।
श्रद्धा और भक्ति को एक मत समझना। श्रद्धा जगे, शुभ है। अगर तुम स्नेह में पड़े हो, प्रेम में पड़े हो, तो श्रद्धा तक पहुंचना बड़ी क्रांति है। लेकिन फिर उस क्रांति के भी पार जाना है। बुद्ध ने कहा है: जैसे कोई नाव से नदी पार करता है, फिर दूसरे किनारे उतर कर नाव को छोड़ कर आगे बढ़ जाता है। ऐसे श्रद्धा से नाव बना लेना, पार कर लेना नदी; लेकिन जब दूसरा किनारा आ जाए, तो श्रद्धा को सिर पर मत ढोते फिरना।
इसलिए झेन फकीरों की अदभुत कहानियां हैं। रिंझाई ने बौद्ध शास्त्रों को आग लगा दी। शिष्यों ने पूछा, यह क्या करते हो? रिंझाई ने कहा, श्रद्धा बहुत हो चुकी, श्रद्धा तोड़नी जरूरी है। तुम इन शास्त्रों में मत अटक जाना, इसलिए आग लगाता हूं।
दूसरे झेन फकीर इक्का ने बुद्ध की लकड़ी की मूर्तियां जला दीं और आंच ताप ली।
श्रद्धा को एक दिन छोड़ देना है। श्रद्धा के जो पार उठता है, वही भक्ति को उपलब्ध होता है।
आज इतना ही।