SHANDILYA

ATHATO BHAKTI JIGYASA 08

Eighth Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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पहला प्रश्न:
भगवान, मनुष्य की आस्था धर्म से क्यों उठ गई है?
धर्मों के कारण ही। धर्मों का विवाद इतना है, धर्मों की एक-दूसरे के साथ छीना-झपटी इतनी है, धर्मों का एक-दूसरे के प्रति विद्वेष इतना है कि धर्म धर्म ही न रहे। उन पर श्रद्धा सिर्फ वे ही कर सकते हैं जिनमें बुद्धि नाममात्र को नहीं है। अब सिर्फ मूढ़ ही पाए जाते हैं मंदिरों में, मस्जिदों में। जिसमें थोड़ा भी सोच-विचार है, वहां से कभी का विदा हो चुका है। क्योंकि जिसमें थोड़ा सोच-विचार है, उसे दिखाई पड़ेगा कि धर्म के नाम से जो चल रहा है वह धर्म नहीं, राजनीति है; कुछ और है।
जीसस चले जब जमीन पर तो धर्म चला; पोप जब चलते हैं तो धर्म नहीं चलता, कुछ और चलता है। बुद्ध जब चले तो धर्म चला; अब पंडित हैं, पुजारी हैं, पुरोहित हैं, वे चलते हैं। उनके चलने में वह प्रसाद नहीं। उनकी वाणी में अनुभव की गंध नहीं। उनके व्यक्तित्व में वह कमल नहीं खिला जो प्रतीक है धर्म का। उनके हृदय बंद हैं और उतनी ही कालिख से भरे हैं जितने किसी और के, शायद थोड़े ज्यादा ही।
धर्म के नाम पर वैमनस्य है, ईर्ष्या है, हिंसा है, खून-खराबा है। मस्जिद और मंदिर ने इतना लड़वाया है कि कोई भरोसा भी करना चाहे तो कैसे करे? और शास्त्र सब आज नहीं कल झूठे हो जाते हैं। सत्य तो शास्ता में होता है, शास्त्रों में नहीं। सत्य तो बुद्ध में है, धम्मपद में नहीं; मोहम्मद में है, कुरान में नहीं। यद्यपि कुरान मोहम्मद से पैदा हुई है। तो जब तक कुरान मोहम्मद के ओंठों पर थी, तब तक उसमें मोहम्मद की श्वास थी, मोहम्मद की प्राण-ऊर्जा प्रतिफलित होती थी; जैसे ही शब्द मोहम्मद के ओंठों से हटे, मुर्दा हो गए; स्रोत से टूटे, कुछ के कुछ हो गए। फिर तुम्हारे हाथ में पड़े, तुमने उन्हें वह अर्थ दिया जो तुम दे सकते हो। तुम वह अर्थ तो कैसे दोगे जो मोहम्मद देना चाहते थे? मोहम्मद हुए बिना वह अर्थ नहीं दिया जा सकता। वह अर्थ मोहम्मद के होने में है। तुमने अपने अर्थ दिए। तुम्हारे अर्थ किसी प्रयोजन के नहीं। लाभ तो नहीं हो सकता, हानि सुनिश्चित होगी।
अनातोले फ्रांस का प्रसिद्ध वचन है कि कोई बंदर अगर दर्पण में झांकेगा तो बंदर को ही पाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन एक रास्ते से गुजरता था। एक दर्पण पड़ा हुआ मिल गया। उसने कभी दर्पण नहीं देखा था। उठा कर देखा, खुद की तस्वीर दिखाई पड़ी। खुद की तस्वीर कभी देखी नहीं थी, सोचा कि हो न हो मेरे पिता की तस्वीर है। पिता को देखा था। पिता को तो मरे हुए वक्त हो गया था। सोचा, मगर हद्द हो गई, यह मैंने कभी सोचा न था कि वे इतने रंगीन तबीयत के थे कि तस्वीर बनवाएंगे! पोंछ-पांछ कर, सम्हाल कर घर ले आया; छुपा कर रख दिया एक संदूक में। पत्नी चुपचाप देखती रही--जैसे पत्नियां देखती हैं--कि क्या कर रहा है! शक उसे हुआ कि कुछ गड़बड़ है, कुछ दाल में काला है। जब चला गया नसरुद्दीन तो उसने खोली संदूक, तस्वीर उठा कर देखी, अपना चेहरा दिखाई पड़ा। तो उसने कहा, अच्छा, तो इस खडूस के पीछे दीवाना है! उसने भी कभी अपनी तस्वीर न देखी थी।
दर्पण में वही दिखाई पड़ता है जो तुम हो। शास्त्रों में भी वही दिखाई पड़ता है जो तुम हो। जिसके हाथ में शास्त्र पड़ा, उसका ही हो गया। मोहम्मद के हाथ में जब तक था, तब तक कुरान थी; तुम्हारे हाथ में पड़ी, कुछ की कुछ और हो गई। और फिर तुम्हारे हाथों से भी चलती रही। हजारों साल बीत जाते हैं, एक हाथ से दूसरे हाथ, दूसरे हाथ से तीसरे हाथ, गंदी होती चली जाती है। किताबें गंदी हो जाती हैं।
ध्यान रहे, इस जगत में प्रत्येक चीज का जन्म होता है और प्रत्येक चीज की मृत्यु होती है। धर्म तो शाश्वत है। लेकिन कौन सा धर्म? वह धर्म जो जीवन का धारण किए है, वह शाश्वत है। लेकिन बुद्ध ने जब कहा, कहा शाश्वत को ही, लेकिन जब विचार में बांधा तो शाश्वत समय में उतरा। और समय के भीतर कोई भी चीज शाश्वत नहीं हो सकती। समय के भीतर तो पैदा हुई है, मरेगी। जन्मदिन होगा, मृत्यु भी आएगी। जब कोई सत्य शब्द में रूपायित होता है, तो सबसे पहले लोग उसका विरोध करते हैं। क्यों? क्योंकि उनकी पुरानी मानी हुई किताबों के खिलाफ पड़ता है। खिलाफ न पड़े तो कम से कम भिन्न तो पड़ता ही है। लोग विरोध करते हैं।
सत्य का पहला स्वागत विरोध से होता है--पत्थरों से, गालियों से। सत्य पहले विद्रोह की तरह मालूम होता है। खतरनाक मालूम होता है। बहुत सूलियां चढ़नी पड़ती हैं सत्य को, तब कहीं स्वीकार होता है। लेकिन वे सूलियां चढ़ने में ही समय बीत जाता है और सत्य जो संदेश लाया था वह धूमिल हो चुका होता है। जब तक तुम सत्य को स्वीकार करते हो, तब तक वह सत्य ही नहीं रह जाता। इतनी देर लगा देते हो स्वीकार करने में; लड़ने-झगड़ने में, विवाद में इतना समय गंवा देते हो कि तब तक सत्य पर बहुत धूल जम जाती है। धूल जम जाती है तभी तुम स्वीकार करते हो। क्योंकि तब सत्य तुम्हारे शास्त्र जैसा मालूम होने लगता है। तुम्हारे शास्त्र पर भी धूल जमी है बहुत।
जब बुद्ध पहली दफा बोले, तो जो गीता को मानते थे उन्होंने विरोध किया, जो वेद को मानते थे उन्होंने विरोध किया, बुद्ध दुश्मन की तरह मालूम पड़े, संघातक। फिर धीरे-धीरे बुद्ध के वचनों पर भी धूल जम गई, धम्मपद ने भी धूल इकट्ठी कर ली; जब धम्मपद पर धूल की पर्त इकट्ठी हो गई, तो धूल और धूल तो सब एक जैसी होती हैं, उसके नीचे क्या दबा है--वेद दबा है, कि धम्मपद, कि कुरान--क्या फर्क पड़ता है? जब धूल की पर्त खूब गहरी हो जाती है, तब तुम्हारा मन भर जाता है, तब तुम कहते हो--अब ठीक है, अब अपने शास्त्र जैसा लगने लगा।
एक मकान पर एक आदमी ने दस्तक दी। वह कुछ किताबें बेचने लाया था। उसने घर की महिला से कहा कि यह नया से नया निकला हुआ शब्दकोश है, खरीद लें, बच्चों के काम आएगा, और बड़ों के भी काम का है। महिला उसे टालना चाहती थी। उसने कहा, शब्दकोश हम क्या करेंगे? वह रखा है शब्दकोश, टेबल पर; हमारे पास शब्दकोश है, धन्यवाद! लेकिन वह भी एक ही आदमी था, उसने कहा, टेबल पर जो रखा है वह शब्दकोश नहीं है, बाइबिल है। वह स्त्री तो बड़ी हैरान हुई; क्योंकि टेबल दूर कोने में रखी थी, उतनी दूर से दिखाई भी नहीं पड़ता था कि बाइबिल हो सकती है। उसने कहा, तुमने कैसे जाना? उसने कहा, धूल जमी है, उसी से पता चलता है। शब्दकोश को तो कोई कभी उलटता-पलटता भी है, बाइबिल को कौन खोलता है?
जब धूल जम जाती है शास्त्रों पर समय की, जब शास्त्र परंपरा बन जाता है, जब शास्त्र सत्य को जन्माता नहीं, सत्य की कब्र बन जाता है, तब तुम स्वीकार करते हो--इसीलिए तुम स्वीकार करते हो। कब्रें कब्रें सब एक जैसी होती हैं। कब्रों में क्या फर्क! जिंदा आदमियों में फर्क होते हैं। कब्रों में तो सिर्फ नाम का ही फर्क रह जाता है, कि किसकी कब्र, पत्थर पर लिखा होता है, बस इतना ही फर्क होता है। और तो कोई फर्क नहीं होता। धम्मपद जब कब्र बन जाता है तो गीता की कब्र और कुरान की कब्र और वेद की कब्र से कुछ फर्क नहीं होता। तब तुम स्वागत कर लेते हो। तुम पुराने का स्वागत करते हो।
सत्य जब नया होता है तब सत्य होता है। जितना नया होता है, उतना सत्य होता है। क्योंकि उतना ही ताजा-ताजा परमात्मा से आया होता है। जैसे गंगा गंगोत्री में जैसी स्वच्छ है, फिर वैसी काशी में थोड़े ही होगी! हालांकि तुम काशी जाते हो पूजने! काशी तक तो बहुत गंदी हो चुकी, बहुत नदी-नाले गिर चुके, बहुत अर्थ मिश्रित हो चुके, न मालूम कितने मुर्दे बहाए जा चुके। काशी तक आते-आते तो गंगा अपवित्र हो गई, कितनी ही पवित्र रही हो गंगोत्री में। जैसे वर्षा होती है, तो जब तक पानी की बूंद ने जमीन नहीं छुई, तब तक वह परम शुद्ध होती है; जैसे ही जमीन छुई, कीचड़ हो गई, कीचड़ के साथ एक हो गई।
बुद्ध जब जानते हैं, या शांडिल्य जब जानते हैं, जब उनकी समाधि में परमात्मा झलकता है, तब ऐसी बूंद है जो अभी आकाश से पृथ्वी की तरफ चली--अभी आई नहीं। जब शांडिल्य बोलते हैं, तो पृथ्वी की धूल मिलने लगी। शब्द पृथ्वी के हैं, सत्य आकाश का है। फिर तुमने सुना, फिर दर्पण तुम्हारे हाथ में पड़ा, फिर उसमें तुम्हें जो दिखाई पड़ता है वह तुम्हारा ही चेहरा है। फिर धीरे-धीरे पर्त दर पर्त धूल इकट्ठी होती जाती है। जब धूल काफी हो जाती है--उसी धूल को हम कहते हैं परंपरा। सत्य की कोई परंपरा होती है? सत्य की कोई परंपरा नहीं होती। सत्य का कोई संप्रदाय होता है? सत्य का कोई संप्रदाय नहीं होता। लेकिन जब सत्य संप्रदाय बन जाए, अर्थात मर जाए, सड़ जाए, गल जाए, लाश हो जाए, तब तुम उसे छाती से लगाते हो। तुम्हारा लाशों से प्रेम इतना गहरा है, तुम जिंदा आदमी को मार लेते हो तब प्रेम करते हो।
तो पहले तो सत्य का अवतरण होता है विद्रोह की तरह। जब सत्य मरने लगता है, तब धीरे-धीरे कुछ लोग स्वीकार करते हैं। जब बिलकुल मर जाता है, तो सभी लोग स्वीकार करते हैं। तब सत्य विश्वास बन जाता है।
फिर और एक पतन होता है। यह तो तब की बात है जब बुद्ध के आस-पास लोग सुनते हैं, विरोध करते हैं, अंगीकार करते हैं। फिर बुद्ध को बीते ढाई हजार साल हो गए, फिर एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को देती चली जाती है। जिन्होंने बुद्ध से सुना था, या जिन्होंने कम से कम बुद्ध को देखा था, उन्हें कुछ भी सत्य की भनक कान में पड़ी होगी, बुद्ध के व्यक्तित्व का थोड़ा सा स्पर्श हुआ होगा, बुद्ध का रंग थोड़ा उनकी आत्मा पर पड़ा होगा, छाया पड़ी होगी--कितनी ही कम, लेकिन पड़ी होगी। फिर उनके बेटे और उनके बेटों के बेटे इसलिए मानते हैं कि पिता मानते थे, पिता के पिता मानते थे, सदा से लोग मानते रहे हैं, तब विश्वास अंधविश्वास हो जाता है। और जिनको तुम धर्म कहते हो, वे अंधविश्वास हैं। उन्हें कभी का विदा हो जाना चाहिए।
सत्य के रोज नये संस्करण आकाश से उतरते हैं। रोज नई कुरान उतरती है। परमात्मा थक नहीं गया है, मोहम्मद पर चुक नहीं गया है। न ईसा परमात्मा के अकेले बेटे हैं--जैसा ईसाई कहते हैं, इकलौते बेटे। और न चौबीस तीर्थंकरों पर परमात्मा समाप्त हो गया है। हजारों बुद्ध हुए हैं, हजारों बुद्ध होते रहेंगे। परमात्मा रोज आता रहा है, रोज आता रहेगा, लेकिन बीते परमात्मा से तुम्हारा छुटकारा हो तो तुम नये को समझ पाओ। पुरानी प्रतिमाएं तुमने इतनी इकट्ठी कर ली हैं--राम की, कृष्ण की, बुद्ध की--कि जब नया संस्करण परमात्मा का आता है तो तुम्हें अड़चन आती है, जगह ही नहीं मिलती, कहां रखो! और उस नये में ही श्रद्धा पैदा हो सकती है, क्योंकि उसी नये में चिनगारी है। वही चिनगारी तुम्हारे भीतर पड़ जाए तो तुम्हारे जीवन-यज्ञ को प्रज्वलित करे। तुम राख की पूजा कर रहे हो, इसलिए चिनगारी पर श्रद्धा कैसे आए? फिर राख की पूजा करते-करते तुम भी ऊब जाते हो, कुछ होता नहीं, फिर श्रद्धा खो जाती है।
तुमने पूछा: ‘मनुष्य की आस्था धर्म से क्यों उठ गई है?’
धर्मों के कारण। अन्यथा मैंने ऐसा मनुष्य नहीं देखा जो किसी न किसी रूप में जाने-अनजाने धर्म की खोज न करता हो। ऐसा मनुष्य होता ही नहीं। धर्म की खोज मनुष्य की अंतर्निहित खोज है। वह स्वाभाविक है। जैसे भूख लगती है हर आदमी को, और हर आदमी को प्यास लगती है, और हर आदमी को प्रेम की आकांक्षा जगती है, वैसे ही हर आदमी को प्रभु की आकांक्षा भी जगती है। नाम कुछ भी हों।
एक युवक ने कुछ दिन पहले मुझे आकर कहा कि मुझे परमात्मा में कोई उत्सुकता नहीं है, मैं तो यहां आनंद पाने आया हूं। तो मैंने कहा, तुम पागल हो; तुमने परमात्मा का नाम आनंद रखा है। आनंद से चलेगा। नाम का ही भेद है। आनंद कहो। सदा से उपनिषद के ऋषि कहते रहे हैं: सच्चिदानंद। सत-चित-आनंद। चलो, तुम आनंद कहो। कोई सत कहता है, कोई चित कहता है, कोई तीनों इकट्ठे जोड़ लेता है। तुम्हें जो नाम देना हो।
कोई आकर कहता है कि मुझे शांति की तलाश है। तो तुम शांति कहो। तलाश परमात्मा की है। तलाश अंतिम की है। तलाश उसकी है जिसने सबको सम्हाला है। तलाश उसकी है जिससे हम आए हैं और जिसमें हमें जाना है। तलाश उसकी है कि जो मिल जाए तो जीवन में अर्थ आए, सुगंध आए, नृत्य आए, उत्सव आए। उसी का नाम परमात्मा है। उस तत्व का नाम परमात्मा है जिसके आने से जीवन में अंधेरा टूट जाता है और रोशनी होती है। जिसके आने से उदासी कट जाती है, थकान मिट जाती है, तुम पुनरुज्जीवित हो उठते हो। उस तत्व का नाम है जिसके आने से फिर मृत्यु नहीं घटती, अमृत ही घटता है। शांडिल्य ने कहा न कि जो उसके साथ एक हो जाता है, वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है।
तुमने ऐसा आदमी देखा जो अमृत न चाहता हो? जो न चाहता हो कि मृत्यु के पार भी जीऊं? कि मृत्यु आए और मैं न मरूं? जिसके भीतर शाश्वत के साथ संबंध जोड़ लेने की प्रबल आकांक्षा न हो, ऐसा आदमी देखा? ऐसा आदमी होता ही नहीं।
तो धर्म से तो श्रद्धा उठ ही नहीं सकती, लेकिन धर्मों से उठ जाती है। अच्छा ही है। मैं तुम्हें एक बात याद दिला देना चाहता हूं, जिनकी धर्मों से श्रद्धा उठ जाती है, वे ही धार्मिक हो सकते हैं। मेरे देखे नास्तिक ही आस्तिक हो सकता है। जो झूठी आस्तिकता में उलझे रह जाते हैं, वे कभी आस्तिक नहीं हो पाते। झूठी आस्तिकता असली शत्रु है आस्तिकता की, नास्तिकता नहीं। नास्तिक तो कहता है--मैंने देखा नहीं, मैं कैसे मानूं? यह तो ईमानदारी की बात हुई। देखा नहीं, कैसे मानूं? देखूंगा तो मानूंगा। नास्तिक कहता है--दिखा दो तो मानूं। परमात्मा मिले तो बराबर मानूं। इसमें कहां बुराई है? निर्भीक स्वर है, साहस है, खोज की तैयारी है। असल में जो खोज से बचना चाहते हैं वे कहते हैं--हो या न हो, हमें क्या लेना-देना! कौन सिर मारे! आप कहते हो कि है, होगा, जरूर होगा। यह बचने की तरकीब है, यह पाने की तरकीब नहीं है।
मंदिरों-मस्जिदों में तुम्हें झूठे धार्मिक लोग मिलेंगे। सच्चे धार्मिक की तो कभी की श्रद्धा उठ जाती है मंदिर-मस्जिदों से। सच्चा धार्मिक बुद्ध को खोजता है, शांडिल्य को खोजता है, नारद को खोजता है; कृष्ण को, क्राइस्ट को, मोहम्मद को खोजता है। सच्चा धार्मिक मंदिर-मस्जिदों में पंडित-पुजारियों को नहीं खोजता। जिनको खुद ही पता नहीं है, वे दूसरे को कैसे जनाएंगे? जिनके जीवन में खुद ही कोई किरण नहीं है, जिनके दीये खुद बुझे पड़े हैं, उनके पास भी पहुंच जाओगे तो तुम्हारे दीये को ज्योति कैसे मिलेगी? सच्चा धार्मिक गुरु को खोजता है, सिद्धांत नहीं खोजता। क्योंकि कोई मिल जाए, जो जुड़ा दे। कोई ऐसा मिल जाए, जिसने जाना हो, जिसके माध्यम से सेतु बन जाए।
लेकिन मंदिर-मस्जिद तुम्हें परंपरा से मिलते हैं, पंडित-पुजारी तुम्हें परंपरा से मिलते हैं। तुम्हें पता ही नहीं कि तुमने उन्हें कभी चुना था। तुम्हें बिना चुने मिलते हैं। बच्चा पैदा हुआ नहीं कि हम चले उसे लेकर, कि चलो जाकर बपतिस्मा करवा दें, कि चलो खतना करवा दें, कि चलो जनेऊ डलवा दें, हम चले! अभी बच्चे को कुछ भी पता नहीं है, उससे हमने पूछा भी नहीं है। और हम जिनके पास ले जा रहे हैं उनके पास हम भी इसी तरह ले जाए गए थे, हमने भी नहीं जाना है। जो पिता अपने बच्चे को ले जा रहा है चर्च की तरफ, उसने अगर चर्च में जाना हो तो भी ठीक है--तब तो ठीक ही है। उसने चर्च में जाकर जाना, उसे जीवन का आनंद मिला, जीवन का रस बहा, वह अपने बेटे को भी भागीदार बनाना चाहता है। लेकिन उसे भी नहीं मिला है, उसके पिता उसे ले गए थे; उसके पिता को भी नहीं मिला था; याद ही नहीं पड़ता कि कभी किसी को पीछे कब मिला था। अंधे अंधों को मार्ग दिखा रहे हैं। अंधा अंधा ठेलिया, दोई कूप पड़ंत। नानक ने कहा है: अंधे अंधों को ठेल रहे हैं।
तुम ईसाई बन गए, यह तुम्हारा चुनाव नहीं; तुम हिंदू बन गए, यह तुम्हारा चुनाव नहीं; तुम्हारी श्रद्धा हो तो कैसे हो? तुमने इस श्रद्धा के लिए दांव पर क्या लगाया है? तुमने कीमत क्या चुकाई?
जो आदमी जीसस के पास जाकर उनका अनुयायी बना था, उसने कीमत चुकाई थी, उसने खतरा मोल लिया था। जीसस को सूली लगी थी, उनके साथ चलने वाले लोगों के भी प्राण उतने ही खतरे में थे। कुछ कीमत चुकानी पड़ती है। जो आदमी बुद्ध के साथ चला था, उसने बहुत अवमानना सही थी।
एक मित्र ने पूछा है कि मैं संन्यास लेना चाहता हूं, लेकिन ये गैरिक वस्त्र बड़ी अड़चन में डाल देंगे मुझे। नौकरी मुश्किल में पड़ेगी, परिवार झंझट खड़ी करेगा, गांव-समाज के लोग अड़चन डालेंगे।
यह तो होगा। इतनी कीमत तो चुकानी होगी। परमात्मा मुफ्त नहीं मिलता है। और यह भी कोई कीमत है! एक नौकरी जाएगी तो दूसरी मिलेगी। और नहीं भी मिली तो क्या? अगर परमात्मा के रास्ते पर बिना नौकरी के जीना पड़ा तो बेहतर है, भीख मांगनी पड़ी तो बेहतर है। परमात्मा को खोकर तुम सम्राट भी हो जाओ तो तुम भिखारी हो। और परमात्मा को पाकर तुम भिखारी भी रह जाओ तो तुम जैसा सम्राट और कोई नहीं। लेकिन हम छोटी-छोटी बातों से डरते हैं।
यह डर ज्यादा दिन न रहेगा। जल्दी ही बहुत से गैरिक संन्यासी होंगे और यह भय समाप्त हो जाएगा। लेकिन तब सार भी चला जाएगा। सार अभी है। अभी जो मेरे साथ चलने को तत्पर हैं, उनके जीवन में रूपांतरण होगा। सौ साल बाद बहुत लोग चलने को तैयार होंगे, लेकिन तब तक शास्त्र पर धूल जम गई होगी; तब तक बात खो गई होगी; तुमने अपने ढंग की बना ली होगी। उसके पहले जागो।
इसलिए मैं कहता हूं: जो धार्मिक हैं, या कम से कम धार्मिक होने के लिए आतुर हैं, उनकी श्रद्धा धर्मों से उठ जाती है। उनकी ही उठती है, क्योंकि उनकी तृप्ति नहीं होती। जिसको प्यास लगी है, उसे तुम पानी की तस्वीर बताओ--सुंदर सरोवर, हरे वृक्षों से ढंका, बतखें तैरती हुई--प्यारी तस्वीर दिखाओ, वह आगबबूला हो जाएगा। वह कहेगा, मैं प्यासा हूं, तस्वीरें मत दिखाओ! जिसको प्यास नहीं लगी, वह बड़ा प्रसन्न होगा, वह कहेगा: सुंदर तस्वीर है, मढ़वा लूंगा, अपने घर पर टांगूंगा; बड़ी सुंदर है, बड़ी प्यारी है। तो पानी ऐसा होता है। सुंदर हुआ कि तुम ले आए। बड़ी कृपा है। जिसे भूख लगी है, उसे तुम पाकशास्त्र की किताब दो कि इसमें सब है, सब भोजन तैयार करने की विधियां लिखी हैं। वह किताब तुम्हारे सिर पर मारेगा; वह कहेगा, मुझे भूख लगी है, पाकशास्त्र का क्या करूंगा? जिसे परमात्मा की प्यास जगी है, वही तुम्हारे मंदिर-मस्जिदों से घबड़ा जाता है; वही तुम्हारे पुरोहितों की बकवास से ऊब जाता है; वही उनके व्यर्थ के वितंडा और व्यर्थ के सिद्धांतों के ऊहापोह से ऊब जाता है; वही पीठ फेर लेता है; वही है नास्तिक, उसी को तुम कहते हो अश्रद्धालु। लेकिन मेरे देखे, वह श्रद्धा के स्रोत की तरफ चल पड़ा, उसकी खोज शुरू हो गई है।
इक यही सोजे-निहां कुल मेरा सरमाया है
दोस्तो, मैं किसे ये सोजे-निहां नज्र करूं
कोई कातिल सरे-मक्तल नजर आता ही नहीं
किसको दिल नज्र करूं और किसे जां नज्र करूं

तुम भी महबूब मेरे, तुम भी हो दिलदार मेरे
आशना मुझसे मगर तुम भी नहीं, तुम भी नहीं
खत्म है तुम पे मसीहानफसी चारागरी
मरहमे-दर्दे-जिगर तुम भी नहीं, तुम भी नहीं

अपनी लाश आप उठाना कोई आसान नहीं
दस्तो-बाजू मेरे नाकारा हुए जाते हैं
जिनसे हर दौर में चमकी है तुम्हारी दहलीज
आज सज्दे वही आवारा हुए जाते हैं

दूर मंजिल थी मगर ऐसी भी कुछ दूर न थी
लेके फिरती रही रस्ते ही में वहशत मुझको
एक जख्म ऐसा न खाया कि बहार आ जाती
एक जख्म ऐसा न खाया कि बहार आ जाती
दार तक लेके गया शौके-शहादत मुझको

राह में टूट गए पांव तो मालूम हुआ
जुज मेरे और मेरा रहनुमा कोई नहीं
एक के बाद खुदा एक चला आता था
कह दिया अक्ल ने तंग आके खुदा कोई नहीं
जिसके हृदय में प्यास है, वहां जख्म है, घाव है। वह घाव पंडित-पुरोहितों की मलहम-पट्टी से नहीं भरता। झूठी सांत्वनाओं से नहीं भरता। और मवाद इकट्ठी होती है, और समय जाया होता है। जिसके भीतर घाव है वह तो परमात्मा से मिले बिना तृप्त नहीं होगा। वह तो हटा देगा बीच से सारी मूर्तियों को। वही तो मूर्तिभंजक है। हटा देगा सारे सिद्धांतों और शास्त्रों को, निकल पड़ेगा तलाश में। वह परमात्मा से कम पर राजी नहीं हो सकता।
एक जख्म ऐसा न खाया कि बहार आ जाती
दुख तो यही है कि हजारों लोग मंदिर-मस्जिदों में हैं और उनके दिल में कोई जख्म नहीं। नहीं तो बहार कभी की आ जाती। प्यास हो, तो पानी मिल जाता है। मिलेगा ही, क्योंकि खोज होती है। प्यास ही न हो, तो पानी बहता रहे सामने से तो भी दिखाई नहीं पड़ता।
हमें वही दिखाई पड़ता है जिसकी आकांक्षा और अभीप्सा होती है। परमात्मा तो चारों तरफ खड़ा है--इन हरे वृक्षों में, इन लोगों में, इन आकाश के चांद-तारों में, लेकिन हमें दिखाई नहीं पड़ता। हमें आकांक्षा नहीं है। हमें वही दिखाई पड़ता है जो हम चाहते हैं।
तुमने देखा, जब तुम बाजार जाते हो, तो जिस दिन तुम जो खरीदने जाते हो, उसी-उसी की दुकानें तुम्हें दिखाई पड़ती हैं। किसी दिन तुम मिठाई खरीदने गए हो, तो तुम हैरान होते हो कि इतनी मिठाई की दुकानें हैं इस बाजार में! पहले नहीं दिखाई पड़ी थीं! उस दिन तुम्हें चांदी-सोने की दुकानें दिखाई नहीं पड़तीं। उनसे तुम्हें लेना-देना नहीं है। फिर किसी दिन चांदी-सोना खरीदने गए हो, तब तुम हैरान होते हो--इतनी दुकानें! उस दिन मिठाई की दुकानें तिरोहित हो जाती हैं, धूमिल हो जाती हैं। तुम जो खरीदने निकलते हो वही दिखाई पड़ता है।
मंदिर-मस्जिदों में वे लोग बैठे रहते हैं जो परमात्मा को खरीदने नहीं निकले हैं। झूठी सांत्वनाओं में बैठे रहते हैं। नहीं तो आदमी सदगुरु की तलाश में निकलता है।
लेके फिरती रही रस्ते ही में वहशत मुझको
एक जख्म ऐसा न खाया कि बहार आ जाती
दार तक लेके गया शौके-शहादत मुझको
राह में टूट गए पांव तो मालूम हुआ
जुज मेरे और मेरा रहनुमा कोई नहीं
तुम्हारे अतिरिक्त और तुम्हें कोई नहीं बचा सकता। तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हें और कोई परमात्मा तक पहुंचा नहीं सकता। बुद्धपुरुष इशारा करते हैं, चलना तो तुम्हीं को है।
जुज मेरे और मेरा रहनुमा कोई नहीं
मेरे अलावा मेरा मार्गदर्शक और कोई भी नहीं। यह उसी दिन पता चलता है जिस दिन सच्ची प्यास जगती है और तुम खोज में निकलते हो और सब झूठी बातों को रास्ते से हटा देते हो।
एक के बाद खुदा एक चला आता था
कह दिया अक्ल ने तंग आके खुदा कोई नहीं
इतने मंदिर-मस्जिद! इतनी मूर्तियां! इतने शास्त्र! इतने सिद्धांत! इतना जंजाल!
कह दिया अक्ल ने तंग आके खुदा कोई नहीं
तुम पूछते हो: धर्म से श्रद्धा क्यों उठ गई? आस्था क्यों उठ गई?
इसलिए कि धर्म हो तो एक ही हो सकता है। विज्ञान एक है, इसलिए विज्ञान पर श्रद्धा है। अब तुमने कहीं सुना कि विज्ञान अगर बहुत हो जाएं--हिंदुओं का, मुसलमानों का, ईसाइयों का--और सब अलग-अलग बातें कहने लगें, तो विज्ञान पर भी श्रद्धा उठ जाएगी। विज्ञान पर इतनी श्रद्धा क्यों है? क्योंकि विज्ञान सार्वभौम है, एक ही है। फिर चाहे ईसाई खोजे, चाहे हिंदू, चाहे मुसलमान, कोई फर्क नहीं पड़ता। विज्ञान का सिद्धांत न हिंदू होता है, न मुसलमान, न ईसाई, सिर्फ वैज्ञानिक होता है।
यही मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि धर्म का सिद्धांत सिर्फ धार्मिक होता है; बुद्ध कहें, शांडिल्य कहें, कृष्ण कहें; कौन कहे, इससे फर्क नहीं पड़ता। धर्म का सिद्धांत धार्मिक होता है, जैसे विज्ञान का सिद्धांत वैज्ञानिक होता है। धर्म तो और भी सार्वभौम है। विज्ञान की तो सीमा है, क्योंकि वह पदार्थ पर समाप्त हो जाता है। धर्म की तो असीमा है, क्योंकि वह आत्मा में ले जाता है, परमात्मा में ले जाता है। धर्म को संकीर्ण दायरों से मुक्त होने दो, श्रद्धा लौट आएगी।
अभी हालत ऐसी है, जिनकी श्रद्धा का कोई मूल्य नहीं, उनको श्रद्धा है; और जिनकी श्रद्धा का कुछ मूल्य हो सकता है, उनको कोई श्रद्धा नहीं है। हालत बड़ी अजीब है। मुर्दे बैठे हैं मंदिरों में, जिंदा आदमी कभी के निकल भागे हैं। और वे जिंदा आदमी ही मंदिरों को जिंदा बना सकते थे। लेकिन तुम्हारे मंदिरों की इतनी कतारें घबड़ा देती हैं, बुद्धि तंग आ जाती है।
लोग सोचते हैं कि धर्म से आस्था उठ गई है, क्योंकि दुनिया में नास्तिकता बढ़ गई है। गलत सोचते हैं। कि दुनिया में कम्युनिज्म बढ़ गया है। गलत सोचते हैं। कि विज्ञान के प्रभाव ने लोगों के मन में श्रद्धा नष्ट कर दी है। गलत सोचते हैं। धर्म पर श्रद्धा उठ गई है धर्म के नाम पर चलते गहन पाखंड के कारण, धर्म के नाम पर चलते अंधविश्वास के कारण। धर्म ने आत्महत्या कर ली है, इसलिए श्रद्धा उठ गई है।
मगर खोज मरती नहीं, खोज का मंदिरों-मस्जिदों से कुछ रुकाव नहीं होता, खोज जारी है। खोजने वाले खोजते रहते हैं, कोई उन्हें कभी नहीं रोक पाता। वे अपनी खोज में लगे रहते हैं। नाम बदल जाएं, हो सकता है कि भगवान को भगवान कहने में संकोच होने लगे, क्योंकि भगवान शब्द के साथ इतने गलत साहचर्य जुड़ गए हैं; आनंद कहो, ध्यान कहो, समाधि कहो, प्रेम कहो, कुछ नये नाम खोज लो, कुछ फर्क नहीं पड़ता; लेकिन एक बात सुनिश्चित है--आदमी अंधेरे में है और रोशनी चाहता है; आदमी मृत्यु से घिरा है और अमृत का स्वाद चाहता है; आदमी महादुख में है, आनंद का उत्सव चाहता है। वह श्रद्धा अखंड है। उस श्रद्धा को ही मैं धर्म की श्रद्धा कहता हूं। वह न कभी नष्ट हुई है, न कभी नष्ट होगी। जो नष्ट हो जाता है, जो नष्ट हो सकता है, वैसी वह श्रद्धा नहीं। तुम लाख कहो कि मैं अश्रद्धालु हूं, तो भी तुम्हारे भीतर ये तीन बातों की तलाश चलती रहती है--अंधेरे के पार, दुख के पार, मृत्यु के पार कुछ है, कुछ होना चाहिए। पर्दे के पार कुछ जरूर होना चाहिए। नहीं तो इतना जीवन कहां से आए? कैसे आए? और जीवन कितना सुसंबद्ध चलता है! कोई सूत्र होना चाहिए जो सबको बांधे हुए है। दिखाई नहीं पड़ता, सच है।
तुमने गले में माला पहन रखी है, उसमें मनके तो दिखाई पड़ते हैं, धागा जो सब मनकों को बांधे है, दिखाई नहीं पड़ता। वही सूत्रधार है। वही परमात्मा है। इतना विराट आयोजन चल रहा है, इसमें कोई सूत्रबद्ध सबको सम्हाले है, नहीं तो ये मनके बिखर जाते कभी के, यह सब गिर जाता। अराजकता नहीं है, एक गहन सुसंबद्धता है; एक संगीत है। यही संगीत प्रमाण है ईश्वर का। तर्क प्रमाण नहीं होते ईश्वर के, यह जीवन की जो संयोजना है, यही प्रमाण है।
उसकी तलाश सदा रही है, सदा रहेगी। नाम बदल जाते तलाश के, लेकिन तलाश जारी रहती है। बहुत रूपों में प्रकट होती है। यह सदी प्रौढ़ सदी है। यह पुरानी सदियों जैसी नहीं है कि किसी ने कहा और मान लिया। यह बचकानी सदी नहीं है। आदमी प्रौढ़ हुआ है, हर कुछ नहीं मान लेगा, वही मानेगा जिसको कसौटी पर कसेगा और ठीक पाएगा। यह सौभाग्य की घड़ी है। अब दुनिया में पाखंड ज्यादा दिन नहीं चलेगा। यह अश्रद्धा, यह अनास्था अच्छी है, सौभाग्य है, शुभ संकेत है, शुभ मुहूर्त है यह। इसलिए इसे शुभ मुहूर्त कहता हूं कि इस अनास्था की आग में पाखंड के सारे जाल जल जाएंगे, धर्म नया होकर निकलेगा, फिर सूरज उगेगा--ताजा। सूरज की तस्वीरों से बहुत दिन मन बहला लिया, अब उनसे मन बहलता नहीं, अब असली सूरज चाहिए, इसलिए अनास्था है।
इससे तुम विषाद मत लेना। इस अनास्था को सीढ़ी बनाओ। इसी सीढ़ी पर चढ़ कर असली आस्था सदा आई है, सदा आती है। और कोई उपाय नहीं है। अनास्था की रात से गुजर कर ही आस्था की सुबह पैदा होती है। और ध्यान रखना, जब रात बहुत-बहुत अंधेरी होती है, तभी सुबह बहुत करीब होती है।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, जैसे शांडिल्य ऋषि ज्ञान और योग को भक्ति का सहायक बताते हैं, वैसे ही ज्ञान और योग के प्रस्तोता भक्ति को अपना सहायक मानते हैं या नहीं?
भक्त की दृष्टि ज्ञानी और योगी की दृष्टि से ज्यादा उदार होती है। चूंकि भक्ति का स्रोत है हृदय। हृदय विराट है, अपने से विरोधी को भी समा लेता है। हृदय संगति की चिंता नहीं करता, हृदय संगीत की चिंता करता है। ज्ञान और योग हृदय के मार्ग नहीं हैं, बुद्धि के मार्ग हैं। बुद्धि बड़ी संकीर्ण है। बुद्धि चुनाव करती है। फिर बुद्धि संगति की चिंता करती है, संगीत की नहीं--तर्कयुक्त संगति होनी चाहिए।
तो महावीर के वचनों में भक्ति की गुंजाइश नहीं हो सकती। शुद्ध विचार का मार्ग है, सम्यक ज्ञान, ठीक ज्ञान का मार्ग है। वहां तो जो ज्ञान को एकदम अनुकूल है वही अंगीकार होगा। ज्ञान चुनाव कर लेता है, छांट लेता है; सुसंबद्ध होता है; रूपरेखा होती है ज्ञान की। भक्त इतना संकीर्ण नहीं होता। भक्त को असंगति में कुछ घबड़ाहट नहीं होती। जैसे तार्किक, दार्शनिक असंगत नहीं होता, लेकिन कवि असंगत होता है।
अमरीका के महाकवि व्हिटमैन को किसी ने पूछा कि तुम्हारी कविताओं में बड़ी असंगतियां हैं, कंट्राडिक्शंस हैं, बड़े विरोधाभास हैं। मालूम है व्हिटमैन ने क्या कहा? व्हिटमैन ने कहा, हां हैं, क्योंकि मैं बड़ा हूं, क्योंकि मैं विराट हूं, और मैं विरोधाभासों को आत्मसात कर लेता हूं।
यह कोई तर्कशास्त्री नहीं कह सकता कि मैं विरोधाभासों को आत्मसात कर लेता हूं, कि दिन और रात दोनों के लिए मुझमें जगह है। यह कोई कवि ही कह सकता है। और भक्ति तो कवि का मार्ग है, हृदय का मार्ग है। भक्ति काव्य है।
तुम कविता में संगति नहीं खोजते, संगीत खोजते हो। तुमने भी खयाल किया होगा, जब तुम किसी कविता को सुंदर कहते हो, तब तुम यही कहते हो कि कविता में बड़ा लालित्य है, बड़ी लय है, बड़ा रस है, बड़ा संगीत है; यह कविता ऐसी है कि गुनगुनाई जा सकती है, गेय है। कविता में तुम सत्य-असत्य की फिक्र नहीं करते, संगीत की फिक्र करते हो। लेकिन गणित में तुम संगीत की फिक्र नहीं करते; तुम ठीक है कि गलत है, संगत है कि असंगत है, इसकी चिंता करते हो।
विचार के जो मार्ग हैं, वे तर्कनिष्ठ होते हैं; उनकी निष्ठा तर्क की है। भाव का जो मार्ग है, उसकी निष्ठा तर्क की नहीं है; वह अतर्क्य है, तर्कातीत है। इसलिए शांडिल्य जितनी सरलता से कह देते हैं कि ज्ञान भी सहयोगी है और योग भी भूमिका है, उतनी सरलता से ज्ञानी नहीं कह सकेंगे, योगी नहीं कह सकेंगे; उनका दायरा संकीर्ण होगा। सिर छोटा है, हृदय से बहुत छोटा है।
इसलिए तो सिर में जीने वाले लोग ओछे हो जाते हैं; खोपड़ी ही उनकी दुनिया हो जाती है। हृदय खुले आकाश जैसा है, खोपड़ी तुम्हारे घर का आंगन है। या ऐसा समझो कि खोपड़ी ऐसे है जैसे तुमने एक छोटी सी बगिया लगाई, साफ-सुथरी, कटी-छंटी, लान बनाया, क्यारियां बनाईं, सब सिमिट्री में रखा, समतोल बनाई; इधर एक क्यारी, तो उधर एक क्यारी; इधर एक द्वार, तो उधर एक द्वार। लेकिन भक्ति जंगल की तरह है, बगिया नहीं है, आदमी की बनाई हुई बगिया नहीं है। तो जंगल में तो सभी होगा। वहां तुम सिमिट्री खोजने जाओगे तो नहीं मिलेगी। वहां तो कोई वृक्ष कहां ऊग आएगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। तुम यह नहीं कह सकते कि ये दोनों वृक्ष अगर आमने-सामने होते तो अच्छे लगते। वहां तो सब जंगल ही होगा न! आदमी व्यवस्था बनाता है; जंगल में एक स्वतंत्रता है, व्यवस्था नहीं। भक्ति में एक स्वतंत्रता है, ज्ञान उतना स्वतंत्र नहीं।
इसलिए धन्यभागी हैं वे जो भक्ति में पग जाएं, जो भक्ति में उतर जाएं। जो भक्ति में न उतर सकें, उनके लिए कोई संकीर्ण मार्ग चुनना होगा। भक्ति बड़ा पथ है, सबको समा लेता है। क्योंकि भक्ति प्रेम है। प्रीति का तत्व उसका मूल आधार है। ज्ञान में प्रीति का तत्व नहीं है। प्रीति जोड़ती है, विपरीत को भी जोड़ देती है। सच तो यह है, प्रीति विपरीत को ही जोड़ती है। इसलिए तो पुरुष स्त्री के प्रेम में पड़ता है, स्त्री पुरुष के प्रेम में पड़ती है, वह विपरीत है। जितना वैपरीत्य होता है, उतना ही प्रेम सघन होता है।
पश्चिम में स्त्री-पुरुषों के बीच प्रेम कम होता जा रहा है। और कारण? कारण यह है कि स्त्री-पुरुष समान होते जा रहे हैं, उनकी वैषम्यता मिटती जा रही है, तो रस खोता जा रहा है। पुरुष भी वैसे कपड़े पहने है, स्त्री भी वैसे कपड़े पहने है; पुरुष भी सिगरेट पी रहा है, स्त्री भी सिगरेट पी रही है; पुरुष भी दफ्तर में काम कर रहा है, स्त्री भी दफ्तर में काम कर रही है--स्त्री की पूरी चेष्टा है कि वह ठीक जैसा पुरुष है वैसी ही होनी चाहिए। इसलिए पश्चिम की स्त्री थोड़ी कम स्त्रैण होती जा रही है। उसका स्त्रैण-तत्व कम होता जा रहा है। और जैसे-जैसे स्त्रैण-तत्व कम होता जा रहा है, वैसे-वैसे पुरुष का रस उसमें कम होता जा रहा है। पूरब की स्त्री में ज्यादा स्त्रैण-तत्व है। और इसलिए पूरब की स्त्री ज्यादा आकर्षक है। उतना वैपरीत्य है, पुरुष से भिन्नता है। भिन्नता में रस होता है।
प्रीति का तत्व विपरीत को जोड़ता है--जितने विपरीत हों, उतने ज्यादा गहराई से जोड़ता है। उतनी ही बड़ी चुनौती होती है प्रीति के तत्व को कि वह जोड़े। इस जगत को जिस तत्व से परमात्मा ने जोड़ा है उस तत्व का नाम प्रीति है। क्योंकि इस जगत में बड़े विरोधाभास हैं, लेकिन सब जुड़ा है। दिन और रात जुड़ी है, अंधेरा-रोशनी जुड़ी है, मृत्यु-जीवन जुड़ा है, अपूर्व जोड़ है; यह जोड़ सिर्फ प्रीति से ही हो सकता है। यह प्रीति ही है जो विपरीत को बांध सकती है।
अगर भक्तों से पूछो तो भक्त यही कहेंगे: यह सारा अस्तित्व प्रीति के तत्व से जुड़ा है, निबद्ध है। नहीं तो यह गिर पड़े, सब उखड़ जाए, सब टूट जाए। विपरीत में बड़ा आकर्षण होता है।
तो शांडिल्य तो चूंकि प्रीति के उपदेष्टा हैं, उन्होंने योग को भी समाहित कर लिया, ज्ञान को भी समाहित कर लिया। करना ही चाहिए! इससे प्रमाण मिलता है कि जरूर उन्होंने प्रीति को जाना होगा। प्रीति को न जाना होता तो यह बात नहीं हो सकती थी।
तुम ज्ञानी से पूछो, तुम कृष्णमूर्ति से पूछो। कृष्णमूर्ति शुद्ध ज्ञान हैं, वहां प्रीति का तत्व जरा भी नहीं है। तुम कृष्णमूर्ति से पूछो कि भक्त के संबंध में क्या खयाल है? वे कहेंगे, सब कल्पना-जाल। इससे ज्यादा जगह नहीं हो सकती, कल्पना-जाल! सब मन के ही खेल! भक्ति से मुक्त होना पड़ेगा, सहयोग भक्ति का नहीं लिया जा सकता, भक्ति बाधा है। बंधन है, उसी से तो अटकाव है। तुम पतंजलि को पूछो। प्रेम के तत्व के लिए कोई जगह नहीं रह जाती, क्योंकि सारा गणित का हिसाब है। प्रेम को बीच में क्यों लाना? प्रेम के लाने से झंझट होती है।
वैज्ञानिक भी प्रेम को बीच में नहीं लाता। तुम वैज्ञानिक की सुनो, वैज्ञानिक क्या कहता है? वैज्ञानिक कहता है, अगर तुम्हें सत्य का निरीक्षण करना हो तो निष्पक्ष होना, तटस्थ होना, भाव से आंदोलित मत होना, नहीं तो तुम्हारा भाव तुम्हारे सत्य की प्रतीति को डांवाडोल कर देगा। जब एक वैज्ञानिक निरीक्षण करता होता है प्रयोगशाला में तो वह अपने को बिलकुल अलग-थलग कर लेता है, वह तटस्थ खड़ा होता है। कवि इस तरह खड़ा नहीं होता। कवि जब गुलाब के खिले फूल को देखता है तो आनंदमग्न हो जाता है, भावमुग्ध हो जाता है, नाचने लगता है, गुनगुनाने लगता है, उसके भीतर तरंग उठती है। जब वनस्पतिशास्त्री इसी गुलाब के फूल को देखता है, वह न तो गुनगुनाता, न नाचता, क्योंकि वह नाचे और गुनगुनाए तो यह प्रमाण होगा कि वह वनस्पतिशास्त्री नहीं है, वह वैज्ञानिक नहीं है। वैज्ञानिक का मतलब ही यह है कि तुम अपने को बिलकुल दूर रखो, अपने को बीच में मत डालो, अन्यथा तुम जो बीच में डाल रहे हो, उसके कारण ही सत्य को न जान पाओगे।
अब फर्क समझते हो?
कवि कहता है कि अपने को अगर तुमने जोड़ा नहीं फूल से, तो जानोगे कैसे? दूर-दूर रहे, तटस्थ रहे, अपने को बचाए रहे; न फूल को तुम्हारे हृदय में प्रवेश मिला, न तुम्हारा फूल में प्रवेश हुआ, जोड़ ही न बना, आलिंगन न हुआ, नाचे नहीं फूल के साथ, फूल की तरंग में मस्त न हुए, मादकता आई ही न, तो तुम जानोगे कैसे फूल को? फूल अपना हृदय ही नहीं खोलेगा तुम्हारे सामने, फूल अपना घूंघट न उठाएगा। तुम दूर खड़े रहे तो फूल भी दूर खड़ा रह जाएगा, यह कवि कहता है। तुम बढ़ो तो फूल भी बढ़े। तुम पास आओ तो फूल भी पास आए। तुम एक कदम चलो तो फूल भी एक कदम चले। तुम अकड़े खड़े रहे कि मैं तटस्थ, तो फूल भी तटस्थ रह जाएगा, घूंघट पड़ा रहेगा, फूल अपने हृदय को तुम्हारे सामने खोलेगा नहीं, फूल अपने रहस्य को प्रकट नहीं करेगा। तब तुम जो जानोगे वह व्यर्थ होगा, ऊपरी होगा, परिधि का होगा; सार नहीं होगा उसमें, आत्मा नहीं होगी उसमें, फूल का अस्तित्व अपरिचित रहेगा। इसलिए कवि कहता है कि वैज्ञानिक कितना ही जान ले जगत को, उसका जानना ऊपरी-ऊपरी है, बाहर-बाहर है।
जैसे कोई किसी राजमहल में आए और बाहर ही बाहर दीवालों का चक्कर लगा कर, निरीक्षण करके चला जाए, राजमहल के भीतर कभी प्रवेश न करे। और महल भीतर है। बाहर की दीवालें महल नहीं हैं। बाहर की दीवालें तो महल का अंत हैं, वहां महल समाप्त होता है। महल तो भीतर है, महल का सौंदर्य भीतर है, महल का मालिक भीतर है, मालकिन भीतर है, महल का सारा राज भीतर है। बाहर की दीवालों को देख कर गुजर कर चले गए, तो तुम कुछ खबर ले जाओगे, कुछ तस्वीरें ले जाओगे, वे महल की ही होंगी, मगर बाहर से होंगी। और बाहर और भीतर में बड़ा भेद है।
विज्ञान बाहर-बाहर भटकता है। तर्क और गणित बाहर-बाहर रह जाते हैं। प्रेम छलांग लगाता है। प्रेम तटस्थ नहीं होता, प्रेम अपने को निमज्जित कर देता है, डुबकी मार जाता है। ज्ञान तैरता है, प्रेम डुबकी मारता है। तो ज्ञान खूब तैर सकता है, दूर-दूर की यात्रा कर सकता है, लेकिन गहराई में उसकी पहुंच नहीं हो पाती।
और ध्यान रखना, जिसने गहराई को जाना, वह बाहर को भी अंगीकार कर लेगा। क्योंकि वह जानता है कि बाहर भी उसी भीतर का हिस्सा है। लेकिन जिसने बाहर को जाना, वह भीतर को अंगीकार नहीं करेगा, क्योंकि भीतर को उसने जाना ही नहीं, अंगीकार कैसे करे?
ज्ञान का मार्ग संकीर्ण है, भक्ति का मार्ग विराट है। अगर भक्तों से तुम्हारा जोड़ मिल जाए, तो फिर तुम किसी और की चिंता मत करना। न मिले दुर्भाग्यवश, तो फिर तुम कोई और मार्ग खोजना। प्रार्थना बन सकती हो, प्रेम बन सकता हो, तो चूकना मत; क्योंकि वह सुगमतम है, स्वाभाविक है। स्नेह तुम्हारे भीतर है, थोड़ा-बहुत प्रेम भी तुम्हारे भीतर है, थोड़ी-बहुत श्रद्धा भी तुम्हारे भीतर है, इन्हीं को थोड़ा निखार लेना है, फिर ये प्रीति बन जाएंगे। और प्रीति की ही अंतिम पराकाष्ठा भक्ति है।
भक्ति के मार्ग पर तुम्हारे पास संपत्ति पहले से कुछ है, तुम एकदम भिखारी नहीं हो। कुछ है तुम्हारे पास, थोड़ा निखारना है, थोड़ा साफ-सुथरा करना है जरूर, लेकिन कुछ तुम्हारे पास है। ज्ञान के मार्ग पर तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। वहां तो तुम्हें अ ब स से शुरू करना पड़ेगा। ज्ञान का मार्ग आदमी की खोज है और भक्ति का मार्ग प्रभु का प्रसाद है। वह तुम्हें दिया ही हुआ है।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, क्या भक्त भी कभी भगवान से झगड़ता है?
भक्त ही झगड़ता है! और कौन झगड़ेगा? भक्त ही झगड़ सकता है! और तो किसकी इतनी सामर्थ्य होगी? भक्त को भय नहीं होता। प्रेम में कहां भय है?
इसलिए मैं कहता हूं: तुलसीदास का वचन गलत है, जो उन्होंने कहा--भय बिन होई न प्रीति। तुलसीदास को प्रीति का पता नहीं है। जहां भय है, वहां प्रीति कैसी? और जो भय के कारण होती है प्रीति, वह कुछ और होगी, प्रीति नहीं है। कोई डंडा लेकर खड़ा है और तुमसे कहता है, प्रेम करो मुझे! करोगे तुम, क्योंकि डंडा देख रहे हो, नहीं तो सिर खोल देगा। मां बेटे से कह रही है कि मुझे प्रेम करो, मैं तेरी मां हूं! और नहीं तो दूध नहीं दूंगी, भूखा मर जाएगा। बेटा भी सोचता है कि प्रेम करना पड़ेगा। यह प्रीति तो भय से हो रही है। बाप कहता है, मुझे प्रेम करो, मैं पिता हूं तुम्हारा! इस जगत में तुम्हारी जो प्रीतियां हैं, वे भय से ही हो रही हैं। तुलसीदास उस संबंध में सच हैं। लेकिन ये प्रीतियां कहां हैं? ये तो पाखंड हैं। ये तो थोथी बातें हैं, जबर्दस्ती ओढ़ ली हैं। इनमें सत्य नहीं है, प्रामाणिकता नहीं है। असली प्रीति भय से नहीं होती। और जहां प्रीति होती है, वहां भय नहीं होता। उनका एक साथ समागम नहीं होता।
तो भक्त तो लड़ता है, जब जरूरत होती है तो वह लड़ता है। वह लड़ सकता है। प्रेमी लड़ते हैं। लड़ने से प्रेम नष्ट नहीं होता, सघन होता है। जो प्रेम लड़ने से नष्ट हो जाए, समझो बहुत कमजोर था, था ही नहीं, काम का ही नहीं था, खतम हुआ अच्छा हुआ। हर लड़ाई के बाद जो प्रेम और प्रगाढ़ हो जाता है, वही प्रेम है। हर लड़ने के बाद और एक नया सोपान उपलब्ध होता है प्रेम को। भक्त तो खूब लड़ता है। लड़ने के कारण भी हैं। भक्त का लड़ना एकदम अकारण भी नहीं है।
रात चुपचाप दबे पांव चली जाती है
रात खामोश है, रोती नहीं, हंसती भी नहीं
कांच का नीला सा गुंबद है, उड़ा जाता है
खाली-खाली कोई बजरा-सा बहा जाता है
चांद की किरणों में वह रोज-सा रेशम भी नहीं
चांद की चिकनी डली है कि घुली जाती है
और सन्नाटों की इक धूल उड़ी जाती है
काश! इक बार कभी नींद से उठ कर तुम भी
हिज्र की रातों में यह देखो तो क्या होता है
प्रेमी भी लड़ता है, भक्त भी लड़ता है। उनकी लड़ाई का सार एक है। भक्त कहता है: मैं इतनी तकलीफ में पड़ा हूं, इतने विरह में पड़ा हूं, कभी तुमको भी विरह सताए तो पता चले!
काश! इक बार कभी नींद से उठ कर तुम भी
हिज्र की रातों में यह देखो तो क्या होता है
तुम्हें पता है कि मैं कितना रो रहा हूं, भक्त कहता है! तुम्हें पता है कि कितने आंसू गिरा चुका हूं! तुम्हें सुनाई पड़ता है कि तुम बहरे हो? तुम तक खबर पहुंचती है या नहीं पहुंचती है? शायद तुम्हें अनुभव ही नहीं है विरह का कोई!
फिर वही रात, वही दर्द, वही गम की कसक
फिर उसी दर्द ने सीने में जलाया संदल
फिर वही यादों के बजते हैं तिलस्मी घुंघरू
दूधिया चांदनी पहने हुए अंगूरी बदन
और आवाज में पिघली हुई चांदी लेकर
कोई अनजानी-सी राहों से चला आता है
संगेमरमर के तराशे हुए बुत जागते हैं
संगेमरमर के तराशे हुए बुत बोलते हैं
आज की रात वही दर्द की तनहाई की रात
दर्द तनहाई का शायद तुझे मालूम नहीं
काश! इक बार तो तुझको भी यह जहमत होती
प्रेमी भी यही कहता है, भक्त भी यही कहता है कि यह दर्द जो तनहाई का है, एकांत का है, अकेले हो जाने का है, इसका तुझे पता होता! शायद तू इसीलिए नहीं सुन पाता इस रुदन को, इस पुकार को, इस प्यास को, क्योंकि तुझे प्यास का कुछ पता नहीं है, क्योंकि तू कभी रोया नहीं है, तुझे आंसुओं से कुछ मुलाकात-पहचान नहीं है, तुझे हृदय की पीड़ा का कुछ अनुभव नहीं है!
दर्द तनहाई का शायद तुझे मालूम नहीं
काश! इक बार तो तुझको भी यह जहमत होती
इसलिए भक्त के पास कारण हैं कि वह लड़े। नाराजगी के कारण हैं। लेकिन उसकी लड़ाई में बड़ी मिठास है। उसकी लड़ाई उसकी प्रार्थना का एक ढंग है। फिर दोहरा दूं, भक्त की लड़ाई उसकी भक्ति का एक ढंग है, वह उसकी आराधना है। उसकी शिकायत, उसका शिकवा, सब उसकी प्रार्थना है। ऐसा मत समझना कि वह किसी दुश्मनी से ये बातें कहता है। ये बड़े प्रेम से उठती हैं, बड़े गहरे प्रेम से उठती हैं। ये उसकी मिलन की गहरी आतुरता से उठती हैं। और कई बार खोज का रेगिस्तान इतना लंबा होता जाता है और आदमी की इतनी छोटी सी सामर्थ्य है कि अगर भक्त नाराज होकर चिल्लाने लगता है कि आखिर कब? आखिर कब मिलन होगा? कब तक चलता रहूं? पैर टूटे जाते हैं! अब यह बोझ और ढोया नहीं जाता! और रास्ते का कोई अंत मालूम होता नहीं, और राह है कि बढ़ी जाती है, और रात है कि लंबी हुई जाती है, सुबह का कोई संदेशा मिलता नहीं, कोई किरण भी फूटती मालूम नहीं होती--और कब तक? और कब तक? लेकिन इस सारी शिकायत के पीछे प्यास है, त्वरा है, गहन अभीप्सा है और बड़ा माधुर्य है।

चौथा प्रश्न:
भगवान, नीत्शे ने कहीं कहा है कि संन्यासी एक सूक्ष्म तरह की हिंसा करता है। वह अपनी ऊंचाई से साधारणजनों को दीन-हीन बनाता है, उन्हें आत्मग्लानि के भाव से उत्पीड़ित करता है। हो न हो यही हिंसा उसके संन्यास की प्रेरणा हो। नीत्शे के इस विचार पर कुछ कहने की कृपा करेंगे?
फ्रेड्रिक नीत्शे जब भी कुछ कहे तो विचार-योग्य कहता है। आदमी बड़ी गहराई का था। बुद्ध हो सकता, शांडिल्य हो सकता, ऐसा आदमी था। लेकिन पश्चिम में उसे मार्ग नहीं मिला। जैसा मैं कहता हूं कि नास्तिकता पहला चरण है, नीत्शे महानास्तिक है; पहला चरण तो पूरा हो गया, दूसरा चरण नहीं उठा, नहीं तो महाआस्तिक का जन्म होता।
नीत्शे जब भी कुछ कहता है तो गहरी बात कहता है, सदा खयाल रखना। मगर अधूरी होती है बात, क्योंकि एक ही कदम उठा, दूसरा कदम नहीं उठा। गहरी होती है, मगर अधूरी होती है। गहरी होती है, काफी दूर तक सही होती है, लेकिन पूरी दूर तक सही नहीं होती।
यही वचन कि संन्यासी एक तरह की सूक्ष्म हिंसा करता है, वह अपनी ऊंचाई से साधारणजनों को दीन-हीन बनाता है, उन्हें आत्मग्लानि के भाव से उत्पीड़ित करता है, यही हिंसा उसके संन्यास की प्रेरणा है। इसमें सचाई है। पूरी सचाई नहीं है, सचाई है। आधी बात है। इसमें सत्य है इतना, क्योंकि आदमी का अहंकार बड़ा सूक्ष्म है। धन से भी आदमी अपने अहंकार को भरता है और तप और त्याग से भी। नीत्शे कह रहा है, तो निरीक्षण करके कह रहा है। तुम देख सकते हो अपने तथाकथित संन्यासियों के चेहरे पर दंभ, भयंकर दंभ। भूल से कभी-कभी तुम उसे तप की चमक समझ लेते हो। वह तप की चमक नहीं है, वह अहंकार है--इतना तप किया मैंने! मैं असाधारण हूं! इतना छोड़ा मैंने, इतना त्याग किया, मैं विशिष्ट हूं! मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं।
तुम्हारा संन्यासी अपने को किसी सिंहासन पर मंडित मानता है। तुम्हारे संन्यासी की आंख में तुम्हारे प्रति गहरी घृणा है, तुम्हारा अपमान है। तुम जाओ तुम्हारे तथाकथित मुनि-यतियों के पास। तुम्हारे प्रति एक गहरी अवमानना है। तुम पापी हो। उनके सारे उपदेशों का सार इतना है कि तुम पापी हो। और तुम्हें पापी सिद्ध करके वे बड़े अपने को पुण्यात्मा मान लेते हैं। उनकी आंखों में तुम्हारे तरफ एक ही खबर है कि जाओगे नरक! कि नरक जा रहे हो! सम्हल जाओ, मान लो हमारी, नहीं तो नरक जाओगे! और उन्होंने खूब रस ले-ले कर नरक का वर्णन किया है कि कैसे-कैसे आदमी वहां जलाए जाएंगे कड़ाहों में, सताए जाएंगे, कीड़े-मकोड़े किस तरह आदमियों के शरीरों को छेद-छेद कर देंगे; कैसी वहां भयंकर प्यास लगी होगी, जल की धार सामने बहती होगी और पानी पीने की आज्ञा नहीं होगी। खूब-खूब खोजी हैं उन्होंने तरकीबें। जिन्होंने खोजीं, ये रुग्ण लोग रहे होंगे। जिन्होंने नरक का वर्णन किया है शास्त्रों में, ये स्वस्थ लोग नहीं हो सकते। ये एडोल्फ हिटलर के पूर्वज रहे होंगे।
एडोल्फ हिटलर ने करके बता दिया, वैसे ही नरक उसने बना दिए थे जर्मनी में, लाखों लोगों को जला डाला। और तुम चकित होओगे यह जान कर कि जिन भट्टियों में हजारों लोग एक साथ जलाए जाते थे, उन भट्टियों के पास उसने कांच लगवा रखा था। उस कांच में से लोग आकर देखते थे--भीड़ें देखने आती थीं। इकतरफा दिखाई पड़ता था। अंदर जो लोग खड़े हैं नग्न, जलने की तैयारी में, उनको बाहर की तरफ नहीं दिखाई पड़ता था कि कोई देख रहा है। मगर बाहर जो खड़े थे, उनको दिखाई पड़ता था। हजारों लोग देखने आते थे, यह भी आश्चर्य है! और बिजली की बटन दबी, और एक भपका हुआ, और दस हजार आदमी इकट्ठे एक भट्टी में धुआं हो गए, और चिमनी से तुमने धुआं उठते देखा। लोग इसको देखने आते थे, जैसे यह कोई सर्कस हो! एडोल्फ हिटलर ने तुम्हारे संतों-महात्माओं की सारी कल्पनाओं को पूरा करके दिखा दिया। उसने कहा, कहां नरक की प्रतीक्षा करते हो, यहीं बनाए देते हैं! हो नरक, न हो!
यह दुख में रस है, दूसरे के दुख में रस है। जिस शास्त्र में नरक का वर्णन हो, मान लेना कि वह शास्त्र किसी दुखवादी ने लिखा होगा--परदुखवादी ने, सैडिस्ट ने लिखा होगा, जो दूसरे को सताना चाहता है। यहां सताने का मौका नहीं है, तो रस ले रहा है कि नरक में सताए जाओगे।
और अपने लिए उसने स्वर्ग की कल्पनाएं की हैं, वहां उसने सारे सुख के इंतजाम कर लिए हैं--सुंदर स्त्रियां, अप्सराएं; कल्पवृक्ष, जिनके नीचे बैठो और जो इच्छा हो तत्क्षण पूरी हो जाए; और शराब के झरने; ये सारे इंतजाम कर लिए हैं--अपने लिए। यह त्यागी-तपस्वियों के लिए है, ध्यान रखना। जिन्होंने स्त्रियां यहां छोड़ी हैं, उनके लिए सुंदर अप्सराएं आकाश में। यह भी खूब मजा हुआ! अगर स्त्रियां छोड़ने से स्त्रियां ही मिलनी हैं, तो फिर स्त्रियां छोड़ना ही क्यों? यहां समझाते रहे कि स्त्रियां छोड़ो, स्त्रियां पाप हैं, स्त्रियां नरक के द्वार हैं, और आखिर में स्वर्ग में उन्हीं का इंतजाम कर लिया! यह तो बड़ी चालबाजी हो गई। यह तो बड़ा धोखा हो गया।
लेकिन इसके पीछे मनोविज्ञान का सीधा सत्य है। तुम जो भी दबाओगे, उसकी आकांक्षा तुम्हारा पीछा करेगी। ये तुम्हारे त्यागी-मुनियों ने स्त्रियों को किसी तरह छोड़ दिया--किसी तरह छोड़ दिया--मन मांग कर रहा है। वे मन को समझा रहे हैं कि बेटा, चुप रह! थोड़ी देर और, फिर तो अप्सराएं ही अप्सराएं हैं--उर्वशियां, और कल्पवृक्ष, जरा और, जरा धीरज और, ज्यादा देर नहीं है! और ईर्ष्या भी उठती होगी मन में इन लोगों के प्रति जो मजे कर रहे हैं। इस ईर्ष्या का बदला भी लेना है। इनसे भी वे कह रहे हैं कि कर लो थोड़ा मजा, भोगोगे! पीछे पछताओगे! याद आएगी फिर हमारी कि समझाया था कितना! फिर सड़ोगे अनंत काल तक नरक में!
ये चित्त के विकार हैं। ये स्वर्ग और नरक कहीं भी नहीं हैं। स्वर्ग में तुम हो, जब भी तुम शांत हो, आनंदित हो, ध्यानस्थ हो, प्रेमपूर्ण हो, तुम स्वर्ग में हो। स्वर्ग कहीं और नहीं। और नरक भी कहीं और नहीं, जब तुम क्रोध में हो और जब तुम ईर्ष्या से भरे हो और जब तुम जलन से जल रहे हो, तो तुम नरक की भट्टी में हो। और स्वर्ग और नरक भूगोल नहीं हैं। और ऐसा भी नहीं है कि कोई स्वर्ग में रहता है और कोई नरक में। घड़ी भर पहले तुम नरक में, घड़ी भर बाद तुम स्वर्ग में--दिन में पच्चीस दफा तुम बदलते हो। कभी स्वर्ग, कभी नरक, कभी स्वर्ग, कभी नरक। ये तुम्हारी मनोदशाएं हैं। और इन दोनों से जो मुक्त हो गया, उस दशा का नाम मोक्ष है, जहां न सुख है, न दुख है। वही परम दशा है, वही असली बात है। सुख-दुख के पार आनंद है, सुख-दुख के पार शांति है, स्वतंत्रता है, मुक्ति है।
नीत्शे ठीक ही कहता है कि तुम्हारे संन्यासी अहंकारी हैं। यह बात निन्यानबे प्रतिशत संन्यासियों के संबंध में सही है। मगर एक प्रतिशत के संबंध में गलत है और इसलिए यह पूरा सत्य नहीं है। कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई शांडिल्य नीत्शे की इस रूप-रेखा में नहीं आता। और वही सच्चा संन्यासी है जो रूप-रेखा में नहीं आता। और जिन संन्यासियों के संबंध में यह बात सच है, वे तो झूठे संन्यासी हैं।
मेरी बात समझ में आई? नीत्शे की बात सच है केवल झूठे संन्यासियों के संबंध में, सच्चे संन्यासियों के संबंध में सच नहीं है। नीत्शे वहां चूक कर गया है। उसने फिर सबको एक साथ गिन लिया। उसने अपवाद भी नहीं माने। वह भी तर्कवादी है, बुद्धिवादी है, असंगति नहीं मान सकता। अपवाद मानो तो असंगति होती है, विसंगति आ जाती है; निरपवाद मानने चाहिए सिद्धांत; तो उसने कोई संगति में बाधा नहीं पड़ने दी। उसने तो जीसस तक की खबर ली है इस बात से। अब देखना वह किस तरह खबर लेता है।
जीसस ने कहा है कि कोई तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे तो दूसरा उसके सामने कर देना।
यह परम संन्यासी का वक्तव्य है। और जीसस ने कभी सोचा नहीं होगा कि इसमें भी कोई भूल खोज लेगा! तुम इसमें सोच सकते हो भूल? भूल ही नहीं, इसमें कोई पाप खोज लेगा। नीत्शे ने वह भी खोज लिया। नीत्शे ने तो निर्णय कर लिया है कि धर्म यानी गलत। सही तो हो ही नहीं सकता, इसलिए गलत को तो खोजना ही पड़ेगा। तो उसने क्या तरकीब निकाली? उसने यह तरकीब निकाली कि यह दूसरे का अपमान है। एक आदमी ने तुम्हारे गाल पर चांटा मारा और तुम दूसरा गाल उसके सामने करते हो, तुमने उसको कीड़ा-मकोड़ा कर दिया। तुमने उसका भयंकर अपमान कर दिया। तुमने सिद्ध कर दिया कि देखो, मैं कितना महान हूं, तू कितना क्षुद्र है। नीत्शे कहता है कि यह तो बर्दाश्त के बाहर है यह अपमान। ज्यादा सम्मान यह होता कि तुमने भी उसके गाल पर एक चांटा मारा होता, कम से कम उसको भी आदमी तो स्वीकार करते, बराबर का तो होता। उसने चांटा मारा, तुमने चांटा मारा, बराबर तो हुए। सम होते, समानता होती। उसने चांटा मारा, तुमने दूसरा गाल कर दिया, तुम तो आसमान में चले गए, उसको तुमने जमीन में गाड़ दिया।
जीसस के संबंध में तो यह बात गलत है, लेकिन निन्यानबे संन्यासियों के संबंध में सही है। निन्यानबे प्रतिशत आदमी ऐसे ही हैं कि जब वे दूसरा गाल तुम्हारे सामने करेंगे तो अकड़ कर देखेंगे कि देखो, एक मैं हूं कि तुम चांटा मार रहे हो, मैं दूसरा गाल तुम्हारे सामने कर रहा हूं। मेरी विनम्रता देखो, मेरी महानता देखो, और तुम अपनी क्षुद्रता देखो! देखो यह चला मैं स्वर्ग और तुम चले नरक! यह मैंने सीढ़ी लगा ली स्वर्ग की!
मैंने सुना है, एक ईसाई पादरी इस सिद्धांत को मानता था। एक आदमी ने उसके चांटा मारा, उसे अपनी किताब याद आई, रोज-रोज बाइबिल पढ़ता था और समझाता भी था दूसरों को, उसे याद आया--जीसस ने कहा है कि जो तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, उसके सामने दूसरा गाल कर दो। उसने दूसरा गाल कर दिया। वह दूसरा आदमी हो सकता है नीत्शे का पढ़ने वाला रहा हो--दुनिया में सब तरह के लोग हैं--उसने यह मौका न छोड़ा, उसने दूसरे गाल पर भी और जोर से जड़ दिया!
साधारणतः हमारी आशा यह होती है कि जब हम दूसरा गाल करेंगे, तो तुम क्षमा मांगोगे कि भई, भूल हो गई, आप जैसे महात्मा को और हमने चोट की। ऐसी हमारी कहानियों में यही आता है, सब पुराण में यही कहानियां लिखी हैं कि फिर महात्मा ने माफ किया तो तुम जल्दी से उसके पैर पर गिर पड़े कि क्षमा करिए, मुझसे बड़ी भूल हो गई, आप जैसे सत्पुरुष को मार दिया।
लेकिन वह आदमी भी मजे का आदमी था--नीत्शे का अनुयायी रहा होगा--उसने एक और करारा जड़ दिया। जब उसने करारा चांटा मारा, तब ईसाई पादरी हैरान हुआ कि अब क्या करना? तब उसे याद आया कि बाइबिल में इसके आगे तो कुछ कहा ही नहीं है। और दो ही तो गाल हैं आदमी के पास। वह एकदम उचक कर उसकी गर्दन पर चढ़ बैठा। उस आदमी ने कहा, भई, यह क्या करते हो? क्योंकि वह भरोसा कर रहा था कि पादरी है; और एक गाल किया, दूसरा किया, यह क्या करते हो?
उसने कहा, अब क्या करें, इसके आगे जीसस का वचन ही नहीं है! अब हम तुम्हें मजा चखाएंगे। यहीं तक कहा है हमारे गुरु ने कि एक गाल पर कोई चांटा मारे, दूसरा कर देना; तीसरा कोई गाल नहीं है, और अब इसके आगे हम स्वतंत्र हैं।
जबर्दस्ती माने गए नियम कितनी दूर तक साथ जा सकते हैं।
जीसस के जीवन में उल्लेख है, उनके एक शिष्य ने उनसे पूछा कि आप कहते हैं कि लोगों को माफ करो। कितनी बार माफ करें? अब इसमें ही माफ न करने की वृत्ति है--कितनी बार? कुछ सीमा होती है हर बात की, कितनी बार माफ करें? तो जीसस ने कहा, कम से कम सात बार। उसने कहा, अच्छी बात है। लेकिन जिस ढंग से उसने कहा ‘अच्छी बात है’, उससे जीसस को लगा कि यह आठवीं बार सातों का इकट्ठा बदला लेगा। अच्छी बात है, उसने कहा, ठीक है, देख लेंगे! सात के बाद तो मौका आएगा न आठवां! उसकी आंख की चमक को देख कर जीसस को लगा होगा कि यह तो भूल हो गई, यह आदमी से तो गलती बात हो गई। क्योंकि सात बार का इकट्ठा अगर बदला लेगा तो बहुत महंगा हो जाएगा। उससे तो पहली दफा ही ले लेता तो ही ठीक था। क्योंकि उस पहली दफा बहुत इकट्ठाभी तो नहीं होता। एक गाली दी थी तो तुमने एक गाली दे दी होती। किसी ने सात गाली दीं, फिर आठवीं गाली तुम दोगे तो वजनी खोजनी पड़ेगी कि आठ के मुकाबले! तो जीसस ने कहा, नहीं सात बार नहीं, सतहत्तर बार। वह आदमी थोड़ा उदास दिखा, उसने कहा, अच्छी बात है।
करोगे क्या ऐसे आदमियों के साथ? सात कहो कि सतहत्तर, सतहत्तर भी प्रतीक्षा कर सकते हैं वे। और यह भी हो सकता है कि उकसाएं तुम्हें कि अब सतहत्तर बार कर लो। सौ सुनार की, एक लुहार की! फिर देखेंगे, एक में ही फैसला कर देंगे। आदमी बेईमान है। शुभ का भी शोषण कर लेता है। लेकिन इसमें शुभ का कोई कसूर नहीं। धर्म से भी अहंकार को भर लेता है। लेकिन इसमें धर्म का कोई कसूर नहीं है। संन्यास से भी रोग पाल लेता है। लेकिन इसमें संन्यास का कोई कसूर नहीं।
नीत्शे सही है और गलत भी। सही है गलत संन्यासियों के संबंध में, गलत है सही संन्यासियों के संबंध में। और अच्छा है कि तुम दोनों को समझ लो, क्योंकि दोनों संभावनाएं तुम्हारे भीतर भी हैं। ठीक भी हो सकते हो, गलत भी हो सकते हो। गलत का बोध रहे, तो ठीक होने की गुंजाइश बनी रहती है। गलत के संबंध में समझदारी हो, तो गलत होने का डर कम हो जाता है। गलत के प्रति जागरूकता सम्यक बने रहने का उपाय है।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, समर्पण यानी क्या?
संकल्प का अर्थ होता है: मैं। समर्पण का अर्थ होता है: ना-मैं। संकल्प का अर्थ होता है: कर्ताभाव। समर्पण का अर्थ होता है: अकर्ताभाव। संकल्प का अर्थ होता है: मेरे किए ही कुछ हो सकता है, मेरे बिना किए कुछ भी न होगा, प्रयत्न सब कुछ है। समर्पण का अर्थ होता है: प्रसाद सब कुछ है। मेरे किए क्या होगा? प्रभु करेगा तो होगा। मैं तो बांस की पोंगरी हूं, वह गाएगा तो बांसुरी बन जाऊंगा। उसका गीत सब कुछ है। मैं उसे मार्ग दूं, अवरोध न बनूं। मैं मार्ग से हट जाऊं।
समर्पण अपने को विदा देना है, अलविदा। और तब जीवन में अपूर्व क्रांति घटती है।
शाम से
जरा पहले
खत्म हुआ हाथ का काम
नाम से
जरा पहले जैसे
जाग गया मन में
रूप
अब मैं
तल्लीन एक धूप हूं
तन्मय चांदनी की तरह
छंद की जगह
लय हूं लहर की
याने शाम से ही
किरन हूं सहर की
जिस व्यक्ति में समर्पण जगा, पहली किरण आ गई--शाम से ही किरण आ गई सुबह की!
छंद की जगह
लय हूं लहर की
याने शाम से ही
किरन हूं सहर की
समर्पण परमात्मा का पहला चरण है तुम्हारे भीतर। अंधेरा है अभी, लेकिन किरण आ गई। भोर का पहला पक्षी बोला। समर्पण भोर के पहले पक्षी की आवाज है। मुर्गे ने बांग दी। अभी रात है, मगर रात टूटने लगी। अभी रात है, लेकिन रात नहीं रही, तुम्हारे लिए टूट गई। इधर मैं टूटा, उधर रात टूटी। हम नाहक ही बोझ लिए चल रहे हैं।
मैंने सुना है, एक राजा एक रथ से गुजरता था--जंगल का रास्ता, शिकार से लौटता था। राह पर उसने एक गरीब आदमी को, एक भिखारी को एक बड़ी पोटली--बूढ़ा आदमी और बड़ा बोझ लिए हुए चलते देखा। उसे दया आ गई। उसने रथ रुकवाया और कहा भिखारी को कि तू बैठ जा! कहां तुझे उतरना है, हम उतार देंगे। भिखारी बैठ तो गया, डरता, सकुचाता--रथ, राजा! अपनी आंखों पर भरोसा नहीं आता! कहीं छू न जाए राजा को! कहीं रथ पर ज्यादा बोझ न पड़ जाए! ऐसा संकुचित, घबड़ाया, बेचैन! सच में तो डरा हुआ बैठ गया, क्योंकि इनकार कैसे करे? मन तो यह था कि कह दूं कि नहीं-नहीं, मैं और रथ पर! मुझ जैसे गंदे आदमी को, चीथड़े जैसे कपड़े, इस रथ पर बैठाएंगे, शोभा नहीं देती। लेकिन राजा की बात इनकार भी कैसे करो? बुरा न मान जाए, अपमान न हो जाए। तो बैठ तो गया, बड़े डरे-डरे मन से, और पोटली सिर से न उतारी। राजा ने कहा, मेरे भाई, पोटली तेरे सिर पर भारी है इसीलिए तो तुझे मैंने रथ में बिठाया, तू पोटली सिर से नीचे क्यों नहीं उतारता? उसने कहा, आप भी क्या कहते हैं? मैं ही बैठा हूं, यही क्या कम है। और पोटली का वजन भी रथ पर डालूं! मुझे बैठा लिया, यही कम सौभाग्य मेरा! नहीं-नहीं, यह मुझसे न हो सकेगा; पोटली का वजन भी और रथ पर डालूं!
अब तुम रथ में बैठे हो, पोटली सिर पर रखे हो तो भी वजन रथ पर ही पड़ रहा है। उतार कर रख दोगे तो भी वजन रथ पर पड़ रहा है।
इस भिखारी की दशा है अहंकारी की। वह नाहक ही बोझ ढो रहा है। वह कह रहा है--मैं यह करूं, मैं यह करूं, मैं यह करके दिखाऊं, वह करके दिखाऊं। करने वाला कोई और। तुम न करो तो भी वही होगा जो होना है। तुम करो तो भी वही होगा जो होना है। तुम नाहक ही पोटली सिर पर लिए बैठे हो। सब उसके हाथों में है। उसके हाथ सब तरफ फैले हुए हैं। इसीलिए तो हिंदुओं ने उसको हजार हाथों का बनाया है। दो हाथ का हो तो हमें संकोच होगा कि भई, पता नहीं किसी और के काम में उलझा हो अभी। हजार हाथ हैं उसके, अनंत हाथ हैं उसके। तुम जरा अपने को छोड़ो, तो उसका हाथ का सहारा सदा है। वही तुम्हें सम्हाले है। जब तुम जीते हो, तब वही जीता है। जब तुम हारे हो, तब तुम हारे हो। हार उसकी नहीं है। हार तुम्हारी इस भ्रांति की है कि मैं कुछ करके रहूंगा। वह टूटती है भ्रांति कभी। अगर तुम उसके विपरीत कुछ करते हो तो नहीं होता, नहीं होता तो तुम हारते हो, हारते हो तो रोते हो, दुखी होते हो, पीड़ित-परेशान होते हो। छोड़ दो उस पर, फिर कोई हार नहीं है, फिर कोई विषाद नहीं है।
सब संयुक्त है। हम सब जुड़े हैं। यह सारा अस्तित्व एक ही लय में बद्ध है। यहां हमें अलग-अलग कुछ करने की बड़ी जरूरत नहीं है।
सड़क-सड़क
चली
इक कली
नदी के तीर पर
सपना
सोया था कोई उसका
काले गहरे नीर पर
कितने और कैसे-कैसे
पांवों से बच कर
पहुंची वह घाट तक
उतरी अभिसारिका वह
सीढ़ियों से लहरों पर
चेहरों पर तारों के
चमक आ गई
पूरे प्रवाह पर
एक चुप्पी छा गई
एक छोटी सी कली नदी के तीर पर चल कर पहुंची, उतरी है जलधार में!
उतरी अभिसारिका वह
सीढ़ियों से लहरों पर
चेहरों पर तारों के
चमक आ गई
इतना सब जुड़ा है। एक छोटी सी कली भी जब पानी की लहर में उतरती है, तो अनंत-अनंत दूरी पर जो तारे हैं, उनकी आंखों में भी चमक आ जाती है।
पूरे प्रवाह पर
एक चुप्पी छा गई
सब संयुक्त है। एक पत्ता हिलता है तो चांद-तारे हिलते हैं। एक छोटी सी घास की पत्ती भी सूरज से जुड़ी है। हम सब इकट्ठे हैं। इस इकट्ठे होने का नाम परमात्मा है। तुम अपने को अलग मानते हो, यह अहंकार। तुम अपने को इसके साथ एक मानते हो, यह समर्पण।
अहंकार मरेगा, क्योंकि अहंकार झूठा है। कैसे तुम सम्हाले हो उसे, यही चमत्कार है! जितने दिन सम्हाल लो, यह चमत्कार है! जादू किया तुमने! अहंकार तो है ही नहीं, इसलिए मरेगा, आज नहीं कल भ्रम टूटेगा, सपने से आदमी जगेगा। कब तक देखोगे सपना? सपना आखिर सपना है! सुबह होगी, आंख खुलेगी, और तब तुम पाओगे जो बच रहा है वह परमात्मा है। और वही सदा सच था। बीच में तुम एक झूठ में खो गए थे, एक सपना जगा लिया था।
कविता टिकेगी
क्योंकि
कोई शरीर नहीं है वह मेरा
वह मेरी
आत्मा ही नहीं
अध्यात्म है
वह मेरे जीवन से उपज कर
बाहर को भेंटती है
बाहर को भेंट कर
समूचे को भीतर समेटती है
मगर मेरी नहीं है
मेरी व्यक्तिगत किसी भी इच्छा की
चेरी नहीं है
इसलिए वह टिकेगी
वह टिकेगी
क्योंकि वह समय है
भय नहीं है वह
मेरे भीतर का
विश्वात्मा का अभय है!
तुम्हारे भीतर वही टिकेगा जो शाश्वत से जुड़ा है। तुम्हारे भीतर वही टिकेगा जो समष्टि का अंग है। जो तुमने अलग-थलग अपना बना लिया है, निजी, वह झूठा है। निजता असत्य है, समग्रता सत्य है।
निजता को जोर से पकड़ लेना अहंकार है। निजता को जाने देना, बह जाने देना, धार में सम्मिलित हो जाना, विराट के इस नृत्य में अंग बन जाना, सागर की एक लहर हो जाना समर्पण है। समर्पण भक्ति का सार है।

आज इतना ही।

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