SHANDILYA
ATHATO BHAKTI JIGYASA 07
Seventh Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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सूत्र
प्रागुक्तं च।। 16।।
एतेन विकल्पोऽपि प्रत्युक्तः।। 17।।
देवभक्तिरितरस्मिन् साहचर्य्यात्।। 18।।
योगस्तूभयार्थमपेक्षणात्प्रयाजवत्।। 19।।
गौण्यातु समाधिसिद्धिः।। 20।।
भक्ति परम है। उसके पार कुछ और नहीं, भगवान भी नहीं।
भक्ति है वह बिंदु जहां भक्त और भगवान का द्वैत समाप्त हो जाता है; जहां सब दुई मिट जाती है; जहां दो-पन एक-पन में लीन हो जाता है--ऐसे एक-पन में कि उसे एक भी कहें तो ठीक नहीं। क्योंकि जहां दो ही न रहे, वहां एक का भी क्या अर्थ? ऐसी शून्य-दशा है भक्ति, या ऐसी पूर्ण-दशा है भक्ति। नकार से कहो तो शून्य, विधेय से कहो तो पूर्ण, बात एक ही है। लेकिन भक्ति के पार और कुछ भी नहीं।
जैसे बीज होता, फिर बीज से अंकुर होता, फिर अंकुर से वृक्ष होता, फिर वृक्ष में फूल लगते और फिर फूल से गंध उड़ती--गंध है भक्ति। जीवन का अंतिम चरण, जहां जीवन परिपूर्ण होता, सुगंध, आखिरी घड़ी आ गई, इसके पार अब कुछ होने को नहीं, इसलिए सुगंध में संतोष है। न पार होने को कुछ है, न पार की आकांक्षा हो सकती। आकांक्षा करने वाला भी गया, आकांक्षा की जा सकती थी जिसकी वह भी समाप्त हुआ। ऐसी निष्कांक्षा, ऐसी वासनाशून्य, ऐसी रिक्त-दशा है भक्ति। रिक्त, अगर संसार की तरफ से देखें--तो सारा संसार समाप्त हुआ। भरी-पूरी, लबालब, अगर उस तरफ से देखें, परमात्मा की तरफ से देखें--क्योंकि शून्य घट में ही परमात्मा का पूर्ण भर पाता है।
शांडिल्य ने कहा: ‘प्रागुक्तं च।’
मैं जो कहता हूं, नया नहीं है, ऐसा पूर्व में भी कहा गया है। सदा-सदा कहा गया है।
प्रागुक्तं च का अर्थ होता है: पूर्व में भी ऐसा ही कहा गया; जिन्होंने जाना उन्होंने भी ऐसा ही कहा है; जब भी जाना, तभी ऐसा कहा गया है; भविष्य में भी जो जानेंगे, ऐसा ही कहेंगे। अभिव्यक्तियां भिन्न होंगी, शब्द अलग होंगे, भाषाएं पृथक होंगी, पर जो कहा गया है सार में वह यही है।
अज्ञानी एक जैसी बातें कहें तो भी बातें भिन्न-भिन्न होती हैं, क्योंकि अज्ञान निजी है, वैयक्तिक है, सबका अलग-अलग है। जैसे सपने सबके अलग-अलग होते हैं, झूठ सबके अलग-अलग होते हैं। सपना यानी झूठ। जो सपना तुमने देखा है, वह दुनिया में कोई कभी नहीं देखेगा। तुम अपने सपने में किसी को निमंत्रण भी नहीं दे सकते कि आओ, मेरा सपना देखो। बिलकुल निजी है। अपने प्रीतम को भी नहीं बुला सकते, अपने निकटतम मित्र को भी नहीं कह सकते कि मेरे सपने में आज आ जाना। वहां बस तुम अकेले हो--पृथक, अस्तित्व से टूटे हुए, अपने में बंद। इसीलिए तो सपना झूठ है, क्योंकि उसका कोई गवाह भी नहीं है। तुम एक गवाह नहीं खोज सकते अपने सपने के लिए। इसलिए तो सपना झूठ है, क्योंकि उसका कोई साक्षी नहीं है।
जिस जगत में हम संगी-साथी खोज लेते हैं, वह ज्यादा सच है। इसलिए जो वृक्ष तुमने आंख खोल कर देखा है, वह ज्यादा सच है--क्योंकि तुमने भी देखा, तुम्हारे पड़ोसी ने भी देखा, तुम्हारे मित्रों ने भी देखा, तुम्हारे शत्रुओं ने भी देखा। लेकिन जो सपने का वृक्ष है, आंख बंद करके तुमने देखा, बस तुमने देखा--शत्रुओं की तो बात दूर, मित्र भी उसे देख नहीं सकते। मित्रों की तो बात दूर, तुम भी उसे दुबारा देखना चाहो तो असमर्थ हो। तुम्हारे भी हाथ में नहीं है। एक तरंग थी झूठ की; तुम नींद में सोए थे, तुम इतने सोए थे कि झूठ को झूठ की तरह न देख पाए और सच मान लिया। नींद के कारण झूठ सच लगा।
अज्ञानियों की भाषा चाहे एक हो, चाहे उनके वक्तव्य एक हों, मगर वे अलग-अलग बात कहते हैं। अलग-अलग ही कहेंगे, क्योंकि वे अलग-अलग हैं। उन्होंने अभी एकात्म नहीं जाना; सर्व के साथ संबंध नहीं जाना, अभी सेतु ही नहीं बना। अभी सब अपने-अपने में बंद, द्वार-दरवाजे बंद किए बैठे हैं।
अज्ञानी एक सा भी बोलें तो उनकी बात का अर्थ एक नहीं होता--हो ही नहीं सकता। ज्ञानी अलग-अलग बोलें--अलग-अलग ही बोलते हैं--फिर भी उनकी बात का अर्थ एक ही होता है।
शांडिल्य कहते हैं: प्रागुक्तं च।
‘ऐसा ही पहले भी कहा गया है।’
ऐसा ही आगे भी कहा जाएगा। ऐसा ही कहा जा सकता है। सत्य को अन्यथा कहने का उपाय नहीं है, फिर गीता कहे, कि बाइबिल, कि कुरान। जिनके पास आंख है, वे गीता, कुरान और बाइबिल में एक की ही उदघोषणा पाएंगे, एक ही ओंकार का नाद पाएंगे।
कृष्ण का वचन है:
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।
‘ब्रह्मभाव प्राप्त करके जब मनुष्य प्रसन्नात्मा होता हुआ सब प्रकार की वासनाओं से मुक्त हो जाता है, उस समय सर्वभूत में समदर्शी होने पर वह मेरी पराभक्ति को प्राप्त होता है।’ अर्थात समस्त साधनाओं का एकमात्र फल भक्ति है। जब सारी आकांक्षाएं गिर जाती हैं, सारा सोच-विचार शांत हो जाता है--
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति।
ध्यान रखना, वासना है इसलिए विचार है।
मेरे पास अनेक बार लोग आते हैं, वे कहते हैं, विचार कैसे बंद करें? विचार बंद नहीं होगा जब तक वासना है। वासना है तो विचार उठता ही रहेगा। ऐसे ही जैसे जब तक वायु का प्रचंड वेग है, झील पर लहरें उठती रहेंगी। लहरों को कैसे बंद करोगे? वायु का वेग रुके तो लहरें अपने आप शांत हो जाएंगी, बंद करनी भी नहीं पड़ेंगी। विचार तो तरंगें हैं वासना के वेग में उठी।
तुमने देखा, चुपचाप बैठे हो, शांत बैठे हो, एक सुंदर स्त्री निकल गई और वासना उठी और तत्क्षण विचारों से घिर गए तुम--इधर आई वासना, उधर विचारों का प्रवाह आया; हजार-हजार तरंगें आ गईं। वासना का जरा सा कंकड़ गिर जाए तुम्हारी चेतना की झील में कि तरंग, और तरंग, और तरंग उठ आती है। चुपचाप बैठे थे, एक कार गुजर गई, मन में वासना उठी कि पाऊं। बस विचार का तांता शुरू हुआ, कतार बंधी। तुम अपने भीतर निरीक्षण करोगे तो इस सत्य को पकड़ पाओगे कि अगर विचार से मुक्त होना हो तो वासना से मुक्त होना पड़ेगा। विचार वासना के पीछे आता है--अनुसंगी है, छाया है।
कृष्ण कहते हैं: ‘जब कोई न सोचता, न वासना करता, तब प्रसन्नात्मा हो जाता है।’
सोचने वाला, वासना और विचार में ग्रस्त हमेशा अवसन्न रहेगा--उदास, हारा-थका, विषादग्रस्त, चिंतामग्न, संताप से भरा। क्यों? क्योंकि जितनी तुम्हारी वासना होगी, उतनी ही तुम्हें अपनी दीनता अनुभव होगी। वासना तुम्हें बताएगी क्या-क्या तुम्हारे पास नहीं है। किस-किस बात का अभाव है। जितनी ज्यादा वासनाएं होंगी, उतना अभाव मालूम होगा। तुम उतने ही दरिद्र होते हो जितनी तुम्हारी वासनाएं होती हैं, क्योंकि हर वासना खबर देती है कि यह मेरे पास नहीं। जिस दिन तक तुमने नहीं सोचा था कि एक बड़ा महल बनाऊं, उस दिन तक तुम महल में ही थे। तुम जहां भी थे महल था, झोपड़ा ही महल था। लेकिन जिस दिन यह वासना उठी कि एक बड़ा महल बनाऊं, उसी दिन से तुम झोपड़े में हो गए--क्योंकि अब उस महल की तुलना में यह झोपड़ा अखरता है, खटता है, काटता है। रूखी-सूखी रोटी मिल जाती थी, सुस्वादु थी; जिस दिन वासना उठी, उसी दिन स्वाद खो गया, उसी दिन से तुम भूखे हो। अब पेट नहीं भरता रूखी-सूखी रोटी से।
स्वामी राम कहते थे कि मैं बादशाह हूं। किसी ने पूछा--क्यों? तो उन्होंने कहा, इसीलिए कि मेरी कोई वासना नहीं। जितनी वासनाएं कम होती गईं, उतनी मेरी बादशाहत बढ़ती गई। और जिस दिन मेरी कोई वासना न रही, उस दिन मैंने पाया कि मैं सबसे बड़ा बादशाह हूं; सम्राट हूं, शहंशाह हूं। क्योंकि जहां हूं, वहां कोई अभाव नहीं है अब।
अभाव पता ही चलता है वासना से। वासना की लकीर बड़ी होती जाती है, तुम्हारे जीवन की लकीर छोटी होती चली जाती है। वासना की लकीर को मिटा दो और तुम पाओगे कि तुम प्रसन्नात्मा हो।
कृष्ण कहते हैं: जिसकी वासना गई, विचार गया, वह प्रसन्नात्मा हो जाता है। और जो प्रसन्नात्मा है, वह ब्रह्मभूत होने में समर्थ हो जाता है। वह परमात्मा में लीन होने के करीब आ गया। अब बाधा न रही। बाधा थी अभाव की; बाधा थी दीनता, दरिद्रता की।
मैं निरंतर तुमसे कहा हूं--भिखारी की तरह से उसके द्वार पर मत जाना। जो भिखारी की तरह उसके द्वार पर गया है, वह खाली हाथ लौटा है। खाली हाथ जाओगे, खाली हाथ लौटोगे। तुमने ही अगर तय कर रखा है कि खाली हाथ रखने हैं, तो परमात्मा भी तुम्हारे हाथ नहीं भर सकेगा। सम्राट की तरह जाना उसके द्वार पर। लेने और मांगने मत जाना, अपने को देने जाना। जिस दिन तुम्हारी प्रार्थना मांग नहीं होती, दान होती है, उसी दिन पूरी हो जाती है। जिस दिन तुम परमात्मा को देने को तत्पर होते हो, उस दिन फिर कोई अभाव नहीं रह जाएगा।
प्रसन्नात्मा दे सकता है। जो आनंद-उल्लास से भरा है, वही दे सकता है। जिसकी श्वास-श्वास उत्सव हो गई है, वही दे सकता है। जो प्रसन्नात्मा है, उसमें और ब्रह्म में दूरी नहीं रह गई। पास आने लगा घर। नदी उतरने लगी सागर में, जल्दी ही लीन हो जाएगी। ब्रह्मभाव उपलब्ध होगा।
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति।
समः सर्वेषु...
और जिसको ब्रह्मभाव उपलब्ध हुआ, वह सभी में अपने को पाएगा, और सभी में समता पाएगा। पत्थर में भी अपने को पाएगा, फूल में भी अपने को पाएगा। अपने को विस्तीर्ण होता पाएगा। सारा अस्तित्व उसकी देह बन जाएगा।
तुमने छोटी सी देह में अपने को बांध रखा है, क्योंकि तुमने क्षुद्र वासनाओं में अपने को कस रखा है। जैसे-जैसे वासना के बंधन गिरते हैं, तुम विराट होने लगते हो। ऐसा नहीं है कि परमात्मा कहीं से आता है, सिर्फ तुम्हारे बंधन गिर जाते हैं। तुम परमात्मा हो बंधे हुए; बंधन गिर जाते हैं, अचानक अनुभव होता है कि जो मैं सदा से था, वही हूं, सिर्फ भेद इतना पड़ा है--बंधन गिर गए।
बुद्ध एक सुबह अपने भिक्षुओं के सामने आए और उन्होंने अपने हाथ में एक रूमाल ले रखा था, और उन्होंने सबके सामने खड़े होकर उस रूमाल में पांच गांठें बांधीं, और फिर एक भिक्षु से पूछा कि क्या तुम कह सकते हो यह रूमाल वही है जैसा मैं लाया था, या भिन्न हो गया?
उस भिक्षु ने कहा, भगवान, आप उलझन की बात पूछते हैं। सही उत्तर यही हो सकता है कि एक अर्थ में तो रूमाल वही है, और एक अर्थ में रूमाल बदल गया। इस अर्थ में रूमाल वही है, क्योंकि रूमाल में कुछ नया नहीं हुआ है--गांठ से कुछ नया नहीं हो गया है। गांठ से क्या नया होगा? रूमाल बिलकुल वही है। लेकिन फिर भी यह कहना ठीक नहीं कि बिलकुल वही है, क्योंकि गांठ ने थोड़ा फर्क तो कर दिया। गांठ पहले नहीं थी, अब है।
तुम गांठ लगे रूमाल हो। तुम गांठ लगे भगवान हो। गांठ खुल जाए, भगवान कहीं और से आता नहीं--ग्रंथि खुल जाए। ग्रंथियां विचार की हैं, वासना की हैं। उनके कारण अभाव, विषाद, संताप। उनके कारण नरक। जितना बड़ा तुम्हारा विषाद है, उतनी परमात्मा से दूरी है। दुख में कोई परमात्मा से नहीं जुड़ पाता। और आदमी ऐसा मूढ़ है कि दुख में याद करता है, सुख में भूल जाता है। और दुख में कभी कोई नहीं जुड़ा। सुना ही नहीं, ऐसी घटना ही नहीं घटी कि दुख में कोई छलांग लगा गया हो परमात्मा में। दुख में तो तुम सिकुड़ जाते हो, गांठ और मजबूत हो जाती है। गांठ ही गांठ रह जाती है, रूमाल बचता ही नहीं; पांच नहीं, पचास गांठ हो जाती हैं, कि हजार गांठ हो जाती हैं। सारा रूमाल गांठों में दब जाता है। गांठों पर गांठें लग जाती हैं। ग्रंथियों पर ग्रंथियां। पता लगाना ही मुश्किल हो जाता है कि कभी यह रूमाल खुला भी था, कभी तुम मुक्त भी थे, कभी तुम निर्विकार भी थे, कभी तुम्हारी स्लेट पर कुछ भी न लिखा था; शांति थी, कोई धब्बा न पड़ा था।
दुख में आदमी भगवान को याद करता है। और दुख सर्वाधिक दूरी है मनुष्य और भगवान के बीच। प्रसन्नात्मा पहुंचता है। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं--नाचो, गाओ! रोते हुए मत जाओ, हंसते हुए जाओ! हंसते हुए ही कोई पहुंचता है। नाचते हुए जाओ! पहाड़ मत ढोओ चिंताओं के अपने सिर पर।
अक्सर ऐसा हो जाता है, ये पहाड़ ढोने वाले लोग ही तुम्हें संत-महात्मा मालूम होते हैं। ये बहुत दूर हैं, इन्हें कुछ भी पता नहीं है। कहीं कोई मस्त होकर नाचता हो, चाहे परमात्मा की उसे याद भी न हो, तो भी परमात्मा के करीब है। मस्ती में सार है। कहीं कोई रस-निमग्न है, कहीं कोई डूबा है, सब भांति भूल कर, वहीं समझना कि परमात्मा का द्वार करीब है--चूकना मत, वहां सत्संग करना। जहां मस्ती में डूबे हुए लोग मिल जाएं, जहां मस्तों की मधुशाला मिल जाए, वहीं मंदिर है। उस क्षण याद किया तो काम आ जाता है--क्योंकि उस वक्त हम बहुत करीब होते हैं। जरा सी आवाज दी कि वहां तक पहुंच जाती है। आनंद के पंखों पर चढ़ कर ही प्रार्थनाएं परमात्मा तक पहुंचती हैं। दुख तो पंखहीन है, पंख कटे जटायु सा। उस पर चढ़ कर कोई यात्रा नहीं होती।
जो ब्रह्मभूत हो गया, आनंदमग्न होकर सोच-विचार-वासना से मुक्त हुआ, उसे सबमें एक ही का वास दिखाई पड़ने लगता है।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।
और इस अवस्था का नाम परा भक्ति है। भगवान ही भगवान, शैतान में भी भगवान। राम ही राम, रावण में भी राम। जिस क्षण भगवान के अतिरिक्त कुछ और दिखाई ही न पड़े--चाहो तो भी दिखाई न पड़े, खोजो तो भी न पा सको; जहां उलटो, जिस पत्थर को पलटो, वही मिल जाए; जिस लकड़ी को तोड़ो, वही मिल जाए; आंख खोलो तो वही, आंख बंद करो तो वही; जिस दिन जहां जाओ वहीं काबा, वहीं काशी; जिस दिन जहां झुको वहीं मंदिर; जहां बैठ रहो वहीं तीर्थ।
कबीर ने कहा है: ‘खाऊं-पीयूं सो सेवा, उठूं-बैठूं सो परिक्रमा।’
वही है, तो अब अलग से भोग लगाने की भगवान को जरूरत न रही, तुमने जो खाया-पीया वह भी उसी को भोग लग गया। खाऊं-पीयूं सो सेवा, उठूं-बैठूं सो परिक्रमा। उठता हूं, बैठता हूं, यह उसी की परिक्रमा चल रही है। यह श्वास उसी की परिक्रमा है--आती-जाती श्वास; यह आती-जाती श्वास उसी का निनाद है, यह आती-जाती श्वास उसी का ओंकार है, यह उसी का भजन है।
इस परमदशा को कृष्ण ने भक्ति कहा है।
ठीक कहते हैं शांडिल्य: ‘प्रागुक्तं च।’
‘पूर्व में भी ऐसा ही कहा गया है।’
और दूसरे भक्ति के तत्त्वज्ञ नारद ने कहा है: ‘ॐ फल रूपत्वात्।’
वह भक्ति सब साधनों का फलरूप है। अंतिम है। पराकाष्ठा है। उसके पार और कुछ भी नहीं है। शेष सब रूप साधनाओं के उसी तरफ ले जाते हैं। शेष सब मार्ग हैं, साधन हैं, भक्ति साध्य है।
एतेन विकल्पोऽपि प्रत्युक्तः।
‘इससे विकल्प का नाश भी हो गया।’
साधारणतः इस वचन का अर्थ किया जाता है कि चूंकि शास्त्रों में भी ऐसा कहा है, आप्तपुरुषों ने भी ऐसा कहा है, जानने वालों के ऐसे ही वचन हैं, इसलिए अब कोई संदेह की बात न रही, अब सब विकल्प समाप्त हो गए, अब श्रद्धा की जा सकती है।
मैं इतने से अर्थ से राजी नहीं होऊंगा। यह अर्थ ठीक है, पर बहुत ऊपर-ऊपर है। क्योंकि शांडिल्य जैसा ज्ञानी सिर्फ शास्त्रों का उल्लेख करके ऐसा नहीं कह सकता कि सब विकल्प समाप्त हो गए। सब विकल्प तो समाप्त होते हैं तभी जब अनुभव हो जाए। शास्त्रों से कैसे विकल्प समाप्त हो जाएंगे? और शांडिल्य तो ऐसा कह ही नहीं सकते, क्योंकि अभी-अभी तो हमने देखे उनके और सूत्र जिनमें उन्होंने ज्ञान की व्यर्थता कही है; जिनमें उन्होंने कहा कि ज्ञान कचरा है; ज्ञान से कोई भक्ति तक नहीं पहुंचता। कृष्ण ने क्या कहा गीता में और नारद ने क्या कहा भक्ति-सूत्रों में, इसको जानने से कोई शांति होगी, विकल्प समाप्त होंगे? इसके जानने से समाधान होगा? समाधि के बिना कोई समाधान न हुआ है कभी, न हो सकता है।
शास्त्र कहते रहें कितना ही, जब तक तुम्हारा अंतर-शास्त्र न जाग उठे, तब तक सब विश्वास है, श्रद्धा नहीं। और विश्वास झूठी श्रद्धा का नाम है। तुम मान लो कि कृष्ण ने कहा तो ठीक ही कहा होगा, लेकिन पहले तो तुम्हें यह मानना पड़ता है कि कृष्ण ठीक हैं, फिर तुम्हें यह मानना पड़ता है कि जब ठीक व्यक्ति ने कहा है तो ठीक ही कहा होगा। मगर सारी बात अंधी है। तुम्हें कैसे पक्का पता हो कि कृष्ण ठीक हैं? शांडिल्य कहते हैं इसलिए कृष्ण ठीक नहीं हो सकते, क्योंकि फिर यह पक्का होना चाहिए कि शांडिल्य ठीक हैं। तुम रुकोगे कहां? तुम किस जगह से शुरू करोगे? जहां से भी शुरू करोगे वहीं से अंधापन होगा। तुम कहोगे, परंपरा कहती है। लेकिन परंपरा गलत हो सकती है। कहीं भ्रांति हो गई हो, कहीं भूल हो गई हो। जब तक तुम्हारा अंतर-अनुभव गवाही न दे, तब तक दुनिया की कोई चीज प्रमाण नहीं बन सकती। हां, मान ले सकते हो, सांत्वना होगी, थोड़ी राहत मिलेगी, मगर राहत और सत्य एक ही नहीं हैं। अक्सर तो ऐसा हो जाता है, जो आदमी राहत पाने का बहुत आदी हो जाता है, वह सत्य से सदा के लिए वंचित रह जाता है। क्योंकि वह व्यर्थ की बातें में ही राहत कर लेता है।
सत्य सुविधा नहीं है, राहत नहीं है, अपने को समझा-बुझा लेना नहीं है। सत्य अनुभव है। और अनुभव में जलना पड़ता है। सत्य अग्नि है। सत्य बहुत आग्नेय है। तुम्हें जलाएगा, निखारेगा, तभी तुम कुंदन बनोगे, तभी तुम्हारा सोना शुद्ध होगा।
मान लेने से यह नहीं हो सकता। मानने के कारण ही तो इतने लोग भटके हुए हैं। मानते तो सभी हैं--कोई कृष्ण को, कोई क्राइस्ट को, कोई मोहम्मद को, कोई महावीर को--मानते तो सभी हैं। फिर जो मोहम्मद को मानता है वह महावीर को नहीं मान सकता। जो महावीर को मानता है वह मोहम्मद को नहीं मान सकता। फिर इनमें से कौन आप्तपुरुष है? महावीर को मानने वाला मोहम्मद के मानने वाले के मन में संदेह तो पैदा कराएगा ही--कौन आप्तपुरुष है? आखिर कुछ लोग हैं जो महावीर को मानते हैं, कुछ लोग जो मोहम्मद को मानते हैं; कुछ लोग जो क्राइस्ट को, कुछ लोग जो कृष्ण को; इनमें कौन सच है? इस तरह की श्रद्धा विकल्पों से मुक्ति नहीं ला सकती।
इसलिए जिन्होंने शांडिल्य के इस सूत्र--
एतेन विकल्पोऽपि प्रत्युक्तः।
‘इससे विकल्प का नाश हो गया।’
इसका ऐसा अर्थ किया है कि चूंकि सत्पुरुषों ने कहा है, चूंकि सद्शास्त्र दोहराते हैं, इसलिए अब कोई शंका-संदेह का कारण नहीं रहा, ऐसा अर्थ मैं नहीं करना चाहूंगा। इतनी आसानी से संदेह नहीं मिटते, संदेह बड़े गहरे हैं। सच तो यह है कि स्वयं परमात्मा भी तुम्हारे सामने खड़ा हो तो भी संदेह नहीं मिटते, जब तक कि परमात्मा तुम्हारे भीतर खड़ा न हो जाए। उतनी दूरी भी रहे कि वह सामने खड़ा है, उतना भी फासला रहे--हाथ भर का फासला--तो भी संदेह उठते ही चले जाते हैं। पता नहीं धोखा हो; पता नहीं कोई चालबाज हो; पता नहीं कोई माया हो; पता नहीं मैं कोई सपना देख रहा हूं, कल्पना कर ली है; भरोसा कैसे आए? भरोसा स्वानुभव से ही आता है। स्वानुभव ही श्रद्धा है।
तो मैं इसका क्या अर्थ करूं?
मैं इसका अर्थ करना चाहूंगा कि जहां न भक्त बचता, न भगवान, ऐसी पराभक्ति में विकल्प समाप्त होते हैं।
एतेन विकल्पोऽपि प्रत्युक्तः।
उस पराभक्ति में जाकर विकल्प समाप्त हो जाते हैं। जहां तुम्हारे सब विकल्प समाप्त हो जाएं, समझना कि पराभक्ति आई। जहां कोई विकल्प न बचे।
जब तक दो हैं, तब तक विकल्प रहेंगे। जब तक मैं हूं और तू है, तब तक विकल्प रहेंगे। तब तक संघर्ष चलेगा। जब एक ही बचता है--न मैं, न तू, जब वह बचता है--तत्, तब विकल्प बचने की कोई जगह न रही। अब विकल्प किसमें उठेंगे--न भक्त है, न भगवान है, भगवत्ता रही। उस भगवत्ता में, उस पराभक्ति में, उस परम अवस्था में, जहां बीज गया, वृक्ष गया, फूल गया, सिर्फ सुगंध रही--अदृश्य सुगंध--वहीं जाकर विकल्प शांत होते हैं।
देव भक्तिः इतर अस्मिन् साहचर्य्यात्।
‘ईश्वर में भक्ति के सिवाय और देवताओं की जो भक्ति है वह पराभक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इस प्रकार की भक्ति की नाईं और-और साधनों में भी भक्ति देख पड़ती है।’
और जो मैंने अर्थ किया, वह इस आने वाले सूत्र से और भी स्पष्ट हो जाएगा, और भी पुष्ट हो जाएगा।
शांडिल्य कहते हैं: ईश्वर में भक्ति के सिवाय और देवताओं की जो भक्ति है वह पराभक्ति नहीं है। क्या अर्थ होगा? हिंदू को मैं धार्मिक नहीं कहता, और मुसलमान को भी धार्मिक नहीं कहता, और जैन को भी नहीं, और बौद्ध को भी नहीं। जब तक जैन-हिंदू-मुसलमान-ईसाई मौजूद हैं, तब तक कोई धार्मिक नहीं होता। क्योंकि ईसाई का अपना परमात्मा है, हिंदू का अपना परमात्मा है। अभी तो परमात्मा तक कई हैं। अभी तो परमात्मा में भी भेद है। अभी तो भक्त और भगवान का भेद मिटने का तो सवाल ही दूर, अभी तो भगवानों में भेद है। अभी तो भगवान भी एक नहीं है, भक्त का उससे एक होना तो बहुत दूर की बात है, दूर का सपना है। जब हिंदू झुकता है तो वह भगवान के चरणों में नहीं झुकता, वह हिंदू भगवान के चरणों में झुकता है।
कहानी है कि तुलसीदास को कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया जब वे वृंदावन गए, वे झुके नहीं। कृष्ण के सामने और तुलसीदास झुकें! नहीं झुके। उन्होंने कहा कि जब तक धनुषबाण हाथ न लोगे, तब तक मैं नहीं झुकूंगा। यह मजा देखते हैं! यह अहंकार देखते हैं! भक्त भगवान पर भी शर्त लगा रहा है। भक्त यह कह रहा है कि मेरी शर्त के अनुकूल होओगे तो झुकूंगा। धनुषबाण हाथ लो, तो तुलसी का माथा झुके। मैं धनुषबाण वाले राम को मानता हूं, मैं यह बांसुरी वाले कृष्ण को नहीं मानता।
तुलसीदास के पास भी आंखें नहीं मालूम होतीं। नहीं तो जिसने धनुषबाण लिया है, उसी ने बांसुरी भी बजाई है। और ये तो दोनों ही हिंदू थे--ये कृष्ण और राम की दोनों धारणाएं हिंदू थीं। जरा मस्जिद में सोचो तुलसीदास की क्या गति होती! भीतर ही न घुसते। मंदिर में चले गए, यह उनकी बड़ी कृपा! कम से कम भीतर तो चले गए! इतना अनुग्रह तो किया परमात्मा पर, कि कृष्ण को एक मौका तो दिया कि अगर झुकवाना हो मुझे, तो धनुषबाण हाथ ले लो! लेकिन मस्जिद में क्या करते, वहां तो हाथ ही नहीं हैं! बांसुरी लेने वाला तो धनुषबाण भी कभी ले सकता है, मगर मस्जिद में तो हाथ ही नहीं हैं, कोई प्रतिमा ही नहीं, वहां क्या करते? वहां तो भीतर जा ही नहीं सकते थे।
अगर किसी जैन मंदिर में गए होते और महावीर खड़े थे, तो महावीर से यह कहना कि धनुषबाण हाथ लो, बड़ी बेहूदी बात हो जाती। क्योंकि वह आदमी धनुषबाण के बिलकुल विपरीत था। अहिंसा परमो धर्मः। वह धनुषबाण हाथ में लेने की ही वजह से तो राम जैनों को स्वीकार नहीं हो सकते। जैन नहीं झुक सकता राम के मंदिर में। कैसे झुके? ये धनुषबाण लिए खड़े हैं! और धनुषबाण तो पाप का प्रतीक है, हिंसा का प्रतीक है। और हिंसा से कहीं हिंसा मिटी है? हिंसा से तो और हिंसा जन्मती है। जैन शास्त्रों में राम की कथाएं हैं--उनको महापुरुष कहा है, लेकिन भगवान नहीं। बस उतने दूर तक जैन उनको मान सकते हैं--कि एक महापुरुष हैं, जैसे और बहुत महापुरुष हुए, लेकिन भगवान नहीं। बुद्ध का भी नाम अगर जैन उल्लेख करते हैं तो उनको महात्मा कहते हैं, भगवान नहीं। महात्मा मान सकते हैं। लेकिन भगवान! धारणा उनकी है अपनी। हर एक की अपनी धारणा है। और जब तक तुम्हारी धारणा है, तब तक तुम भगवान से न जुड़ सकोगे--धारणा ही बाधा है। तब तक हिंदू हिंदू भगवान के सामने झुक रहा है--और हिंदू भगवान कहीं है? भगवान तो बस भगवान है--न हिंदू, न मुसलमान, न ईसाई।
मैंने एक कहानी सुनी है। एक फकीर रात सोया। उसने एक सपना देखा कि वह स्वर्ग पहुंच गया है। और बड़ी भीड़-भड़क्का है; स्वर्ग बड़ा सजा है और बड़ा जुलूस निकल रहा है--शोभायात्रा! उसने पूछा, वह भी खड़ा हो गया भीड़ में कि क्या बात है? आज भगवान का जन्मदिन है, किसी राहगीर ने कहा, उत्सव मनाया जा रहा है। उसने कहा, अच्छे भाग्य मेरे कि ठीक दिन आया स्वर्ग। जुलूस निकलते हैं। निकले रामचंद्रजी धनुषबाण लिए हुए, और लाखों-करोड़ों लोग उनके पीछे। फिर निकले मोहम्मद अपनी तलवार लिए, और लाखों-करोड़ों लोग उनके भी पीछे। और फिर निकले बुद्ध, और फिर निकले महावीर, और जरथुस्त्र, और निकलते गए, निकलते गए...और आखिर में जब सब निकल गए तो एक आदमी एक बूढ़े से मरियल से घोड़े पर सवार निकला। जनता भी जा चुकी थी, लोग भी जा चुके थे, उत्सव समाप्त होने के करीब था, आधी रात हो गई, इस फकीर को इस आदमी को देख कर हंसी आने लगी कि ये भी सज्जन खूब हैं, ये काहे के लिए निकल रहे हैं अब! और इनके पीछे कोई भी नहीं। उसने पूछा, आप कौन हैं और घोड़े पर किसलिए सवार हैं? और यह कैसी शोभायात्रा है, आपके पीछे कोई नहीं! उसने कहा, मैं क्या करूं, मैं भगवान हूं। कुछ लोग हिंदुओं के साथ हो गए हैं, कुछ बौद्धों के साथ, कुछ ईसाइयों के साथ, कुछ मुसलमानों के साथ, मेरे साथ कोई भी नहीं, मैं अकेला हूं। मेरा जन्मदिन मनाया जा रहा है, तुम्हें मालूम नहीं?
घबड़ाहट में फकीर की नींद खुल गई। तुम भी सोचोगे तो घबड़ाहट में तुम्हारी भी नींद खुल जाएगी।
शांडिल्य का सूत्र बड़ा अदभुत है, शांडिल्य कहते हैं--
देव भक्तिः इतर अस्मिन् साहचर्य्यात्।
ईश्वर में भक्ति के सिवाय और-और देवताओं की जो भक्ति है वह पराभक्ति नहीं है। और-और देवता अर्थात विशेषण वाले भगवान। और-और देवता अर्थात धारणाओं में आबद्ध, सीमाओं में आबद्ध। भगवान का अर्थ होता है: जो एक है, जो समस्त में व्याप्त है। तुम हिंदू होना छोड़ो तो ही उससे संबंध जुड़े। तुम मुसलमान होना छोड़ो तो ही उससे संबंध बने। यही मेरी शिक्षा है। यही मैं सिखा रहा हूं सुबह-शाम कि तुम मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे से मुक्त हो जाओ, तो तुम्हें उसका मंदिर मिले। और तुम धनुष वाले राम, और बांसुरी वाले कृष्ण, और नग्न खड़े महावीर से मुक्त हो जाओ, तो तुम्हें उसकी झलक मिले। नहीं तो झलक असंभव है।
खयाल रखना, अगर तुम्हारे भगवान की धारणा किसी दूसरे के भगवान की धारणा के विपरीत पड़ती है, तो यह भगवान सच्चा नहीं हो सकता। ऐसे भगवान को खोजो, जिसमें सभी धारणाएं लीन हो जाती हैं। जो धारणातीत है। जो शब्दों के पार है। जो सिद्धांतों की पकड़ में नहीं आता। शास्त्र जिसकी तरफ इंगित करते हैं, मगर जिसकी व्याख्या नहीं कर पाते। महर्षि जिसकी चर्चा करते हैं, लेकिन जो चर्चा में बंध नहीं पाता। समझाते हैं और नहीं समझा पाते।
लाओत्सु ने कहा है: उसका क्या नाम है, मुझे मालूम नहीं, काम चलाने के लिए उसको मैं ‘ताओ’ कहूंगा। काम चलाने को! उसका क्या नाम है, मुझे मालूम नहीं। वह अनाम है। काम चलाने को ‘ताओ’ कहूंगा। अब ताओ कहो, कि भगवान कहो, प्रभु कहो, निर्वाण कहो, धर्म कहो, कुछ भेद नहीं पड़ता, सब कामचलाऊ हैं, सब नाम कामचलाऊ हैं।
जरा गौर से देखो, तुम पैदा हुए तब अनाम पैदा हुए। मगर काम तो चलाना पड़ेगा, तो तुम्हारा एक नाम रखा। नाम तुम्हारा रखा हुआ है--जरूरत थी, बिना नाम के अड़चन आती, चिट्ठी-पत्री आती तो कैसे तुम तक पहुंचाते? और कोई पुकारता तो कैसे पुकारता? और इतनी भीड़-भाड़ है, इतने लोग हैं!
अभी मैंने देखा, अमरीका की एक अदालत ने फैसला दिया। एक आदमी अपना नाम बदलना चाहता था, अदालत ने इनकार कर दिया कि नाम नहीं बदल सकते। आदमी अपना नाम बदलना चाहता था और नाम की जगह नंबर चाहता था--1001। अदालत मुश्किल में पड़ी, क्योंकि इसके पहले कोई घटना नहीं है कि किसी ने कभी नंबर अपना नाम रखा हो। बड़ा सोच-विचार किया और फैसला दिया कि नहीं, यह हो नहीं सकेगा, क्योंकि पहले यह कभी हुआ नहीं।
अब यह बड़ी मूढ़ता की बात है। जब मैंने यह निर्णय देखा तो मुझे बड़ी हैरानी हुई--पहले यह हुआ नहीं, तो यह हो नहीं सकता। तो फिर यह होगा कैसे? और पहले भी अगर आता यह आदमी, तब भी तुम यही कहते कि पहले हुआ नहीं। तब तो यह कभी हो ही नहीं सकता। एक बार तो कम से कम होने दो, तब पहले हुआ, फिर सुविधा बन जाएगी। एक आदमी को तो पहले होने दो!
मगर अदालत की भी झंझट थी। झंझट यह थी--और उस आदमी की थोड़ी गलती थी, अगर वह मुझसे सलाह ले तो उसको मैं कहूं कि तू थोड़ी सी सुधार इसमें कर। उसने अंक लिखे थे; अंक नहीं लिखने चाहिए, अक्षर लिखता तो रास्ता बन जाता। उसने लिखा--1001, अंक। अब इसमें झंझट है। क्योंकि इसको कोई कैसा पढ़ेगा, इस पर निर्भर है। तो नाम में अड़चन हो जाएगी। कोई पढ़ सकता है--दस सौ एक; कोई पढ़ सकता है--एक हजार एक; तो ये तो दो नाम हो गए एक नाम में! और इसमें कठिनाई खड़ी हो सकती है। उसे भाषा में लिखना था, अक्षरों में लिखना था--एक हजार एक। तो कानूनी झंझट नहीं आती।
मगर अदालत मूढ़ मालूम होती है--सभी अदालतें मूढ़ होती हैं। मूढ़ इसलिए होती हैं कि वे अतीत से बंधी होती हैं। उनके पास भविष्य की कोई योजना नहीं होती। चूंकि पहले कभी नहीं हुआ, इसलिए नहीं होने देंगे, यह भी कोई बात हुई! यह इस आदमी का कसूर है कोई कि पहले किसी ने नहीं चाहा! इसकी इस आदमी की तो कहीं भी भूल नहीं है। सिर्फ इस कारण कि पहले किसी ने नहीं किया, तुम भी नहीं कर सकोगे, तब तो भविष्य को मार डालोगे तुम। इसलिए सब कानून भविष्य-विरोधी होते हैं। और सब सिद्धांत अतीत-आग्रही होते हैं। और जितना सिद्धांतों और नियमों का जाल होता है उतना ही भविष्य के जन्म में अड़चन पड़ती है। इसका कोई गलत मामला नहीं है, ठीक, अच्छी बात है, 1001 सही। मगर नाम तो चाहिए ही पड़ेगा। बिना नाम के काम नहीं चलेगा। नंबर हो तो चलेगा, लेकिन कुछ न कुछ नाम चाहिए, कुछ प्रतीक चाहिए। यद्यपि भीतर तुम नामरहित हो।
लाओत्सु ठीक कहता है कि उसका कोई नाम नहीं है और मुझे पता नहीं है कि उसका कोई नाम हो सकता है, इसलिए काम चलाने के लिए ‘ताओ’ कहूंगा। काम चलाने को किसी ने राम कहा है; और काम चलाने को किसी ने कृष्ण कहा है; और काम चलाने को किसी ने ईसा कहा है; यह सब काम चलाना है। उसका कोई नाम नहीं है। तुम अनाम में उतरो तो ही भक्ति का जन्म होगा।
ईश्वर में भक्ति के सिवाय--उस अनाम तत्व में डूबने के सिवाय--और-और देवताओं की जो भक्ति है वह पराभक्ति नहीं है।
कोई गणेश की भक्ति कर रहा है, कोई कालीमाता को पूज रहा है; कोई मस्जिद जाता, कोई मंदिर जाता; कितने-कितने देवी-देवता हैं! जब इस देश की संख्या तैंतीस करोड़ हुआ करती थी, तब लोग कहते थे कि तैंतीस करोड़ देवी-देवता हैं। अब तो संख्या साठ करोड़ है, अब देवी-देवता भी साठ करोड़ हो गए होंगे। क्योंकि हर आदमी का अपना देवी-देवता है। हर आदमी की अपनी धारणा है। हर आदमी का अपना मन है। उसी से तो देवी-देवता निर्मित होते हैं। इन देवी-देवताओं में उलझे तो तुम अपने अहंकार के पार कभी न जा सकोगे--ये तुम्हारे अहंकार की ही छायाएं हैं। इनसे मुक्त हो जाना है।
तुम क्यों जैन मंदिर जाते हो? क्योंकि बचपन से, संयोग की बात थी, तुम ऐसे घर में पैदा हुए जहां लोग जैन मंदिर जाते थे, बस इतनी सी बात है। इसमें कुछ और ज्यादा सार नहीं है। अगर तुम पैदा हुए थे तभी उठा कर तुम्हें मुसलमान घर में रख दिया होता, तो तुम कभी भूल कर जैन मंदिर न गए होते। खून वही होता, हड्डी-मांस-मज्जा वही होती, लेकिन तुम जाते मस्जिद। यह तो संस्कार की बात हो गई। और अगर तुम्हें रूस भेज दिया गया होता पैदा होते ही से, तो तुम मस्जिद भी न जाते और जैन मंदिर भी न जाते, तुम मानते कि ईश्वर है ही नहीं। तुम्हें जो सिखाया जाता वही तुम मानते। जो तुम्हें सिखाया गया है उससे मुक्त होना पड़ेगा, तो तुम वह जान सकोगे जो है। जिसे कम्युनिज्म सिखाया गया है जन्म से, दूध में घोंट कर पिलाया गया है, उसे कम्युनिज्म से मुक्त होना पड़ेगा। और जिसे हिंदूइज्म सिखाया गया है, उसे हिंदूइज्म से मुक्त होना पड़ेगा। इज्म से मुक्त होना ही पड़ेगा, वाद से मुक्त होना ही पड़ेगा। वादी कभी सत्य तक नहीं पहुंचता है। वहां तो निर्विवाद चित्त चाहिए।
शांडिल्य कहते हैं: इस प्रकार की भक्ति पराभक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इस प्रकार की भक्ति की नाईं और-और स्थानों में भी भक्ति देख पड़ती है।
इसे समझना। छोटे-छोटे बच्चे लड़ पड़ते हैं कि मेरे पिता तुम्हारे पिता से ज्यादा ताकतवर हैं, कि मेरी मां तुम्हारी मां से ज्यादा सुंदर है, कि मेरी अध्यापिका तुम्हारी अध्यापिका से ज्यादा बुद्धिमान है। यही झगड़ा जारी रहता है जिंदगी भर, कि मेरा मंदिर तुम्हारे मंदिर से ज्यादा पवित्र, कि मेरा गुरु तुम्हारे गुरु से ज्यादा सच्चा, कि मेरा शास्त्र तुम्हारे शास्त्र से ज्यादा प्रामाणिक। ये बचकानी बातें हैं। ये चित्त के विकास के लक्षण नहीं हैं, अप्रौढ़ता के लक्षण हैं। और इन सबके पीछे अहंकार है, जब कोई बच्चा कहता है कि मेरे पिता तुम्हारे पिता से ज्यादा ताकतवर, तो वह यह क्या कह रहा है--कि मैं ताकतवर पिता का बेटा हूं, मैं ताकतवर! वह पिता के बहाने अपनी घोषणा कर रहा है। जब तुम कहते हो, मेरा धर्म सबसे प्राचीन धर्म दुनिया का। तो तुम यह कह रहे हो कि मेरा धर्म है, कोई साधारण बात है! मेरा है, प्राचीन होना ही चाहिए! मेरी किताब दुनिया की सबसे अच्छी किताब होनी ही चाहिए। फिर वह किताब कोई भी हो। तुम्हारी किताब है तो सबसे अच्छी होनी ही चाहिए। ये अहंकार की छिपी हुई घोषणाएं हैं। यह भक्ति नहीं है। यह कई रूपों में प्रकट होती है--माता की भक्ति, पिता की भक्ति, गुरु की भक्ति, देश भक्ति--मेरा देश!
सभी देशों में वही भ्रांति है। भारत में रहने वाले लोग सोचते हैं कि यह पुण्य-भूमि है, और सारी भूमियां पाप-भूमियां हैं। और भूमियां जैसे अलग-अलग हैं! जैसे हिंदुस्तान और पाकिस्तान कहीं कटे हैं भूमि से! और मजा यह है कि पाकिस्तान भी उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले पुण्य-भूमि हुआ करता था, अब नहीं है! उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले वह भी भारत था, तो पुण्य-भूमि था। जब से नक्शे पर एक लकीर खिंच गई--नक्शे पर खिंची है, जमीन पर नहीं। जमीन पर कौन लकीर खींच सकेगा? जमीन तो अविभाज्य है। नक्शे पर एक लकीर खिंच गई, तब से पाकिस्तान पुण्य-भूमि नहीं है, तब से वहां पापी रहने लगे। और वे भी इसी भ्रांति में हैं। इसीलिए तो पाकिस्तान कहते हैं उसको। पाकिस्तान मतलब पवित्र-भूमि, पाक! वे भी यही कह रहे हैं कि तुम हिंदुस्तान में रहते हो? हम पाकिस्तान में रहते हैं! हिंदुस्तान में रखा क्या है? यह पाक-भूमि है, यह पवित्र-भूमि है। एक सी मूढ़ताएं हैं।
चीनियों से पूछो, तो वे कहते हैं, हमारी संस्कृति सबसे प्राचीन है। और हिंदुओं से पूछो, तो वे कहते हैं, हमारी संस्कृति सबसे प्राचीन है। और मिश्रियों से पूछो, तो वे कहते हैं, तुम हो क्या हमारे सामने, हम बहुत प्राचीन हैं। सब अपनी किताबों को प्राचीन सिद्ध करते हैं, सब अपने झंडों को ऊंचा करते हैं--झंडा ऊंचा रहे हमारा! जो भी तुम्हें कभी आदमी मिल जाए झंडा लिए हुए, समझ लेना पागल है। और जो कहे झंडा ऊंचा रहे हमारा, समझना कि इस आदमी के पास बुद्धि नाम की चीज ही नहीं है। झंडा ऊंचा रहे हमारा! इससे ज्यादा मूढ़ता की और क्या बात होगी? मगर इस पर झगड़े हो जाते हैं, युद्ध हो जाते हैं। लोग मारे जाते हैं, कट जाते हैं--मातृभूमि पर हमला हो गया। मेरी मातृभूमि!
शांडिल्य कहते हैं: इस तरह की भ्रांतियां और-और जगह भी देखी जाती हैं, यह कोई भक्ति नहीं है। देश-भक्ति भक्ति नहीं है। और न ही देवता की भक्ति भक्ति है। फिर भक्ति क्या है? शांडिल्य कहते हैं: भक्ति तो सिर्फ एक है--विराट के साथ तुम लीन हो जाओ, जैसे बूंद सागर में गिर जाती है। अनाम में अनाम हो जाओ! उसके साथ सेतु जोड़ लो। दावेदार मत बनो तुम, दावेदार बन कैसे सकते हो? जब तक दावा है तब तक दूरी है, जब तक दूरी है तब तक भक्ति कहां!
देव भक्तिः इतर अस्मिन् साहचर्य्यात्!
ईश्वर में भक्ति के सिवाय...ईश्वर अर्थात न हिंदू का, न मुसलमान का; न जैन का, न बौद्ध का; न हिंदुस्तान का, न चीन का; ईश्वर यानी वह अनाम परम तत्व जिससे हम सब आए और जिसमें हम सब एक दिन लीन हो जाएंगे; जो हमारा स्रोत है और हमारा गंतव्य है; जो हमारा बीज है और जो हमारा फल है; जिसमें हम इस क्षण भी जी रहे हैं; जो हममें अभी भी सांस फूंक रहा है; जो हमारा प्राणों का प्राण है; उस परात्पर में लीन हो जाने का नाम भक्ति है।
पराभक्ति है परम की, परात्पर की घोषणा। मेरा-तेरा वहां नहीं। मैं ही वहां नहीं है तो तेरा तो हो नहीं सकता। मेरा देवता, मेरा भगवान, ऐसी वृत्ति क्षुद्र है। जो भगवान सबका नहीं, वह भगवान ही नहीं। जो भगवान किसी का है, उसी मात्रा में कम भगवान हो गया। शब्दों से ऊपर उठो। क्षुद्र सीमाओं को तोड़ो। इन सीमाओं के कारण ही तुम कष्ट में हो। विस्तार से, विराट से आनंद उपजेगा। तुम क्षुद्र से अपने को बांध रहे हो। छोटे-छोटे बिलों में घुस गए हो--वहां तड़प रहे हो, और निकलते भी नहीं, और बिल को छोटे से छोटा करते चले जाते हो; आखिर में तुम्हीं बचते हो, सिर्फ तुम्हारा अहंकार ही बचता है आखिर में। अगर छोटे होते चले जाओगे तो अहंकार ही बचेगा आखिर में, अगर बड़े होते चले जाओगे तो सब बचेगा, अहंकार भर नहीं बचेगा। और ये दो ही संभावनाएं हैं--या तो मैं, या सर्व। सर्व के लिए मैं को समर्पित कर दो। और मैं है भी व्यर्थ। मैं है भी झूठा। लेकिन झूठ से हमारा मोह ज्यादा है। हम सत्य को समर्पित करने को तैयार हैं, झूठ को छोड़ने को नहीं। इस झूठ से हमारे बड़े लंबे संबंध हैं, बड़े पुराने संबंध हैं। इसी झूठ को हम नये-नये ढंग से स्थापित करते चले जाते हैं। नई-नई तरकीबें खोज लेते हैं, नये-नये निमित्त खोज लेते हैं, मगर झूठ पुराना है, वही का वही है।
तुम देखो, अपने भीतर जांच करना, तुम जिन-जिन बातों की घोषणा करते हो कि यह श्रेष्ठ, वहां अपने मैं को छिपा हुआ पाओगे। वेद श्रेष्ठ, जब कोई कहे, तो तुम जान ले सकते हो कि यह आदमी हिंदू है। बाइबिल श्रेष्ठ, तो तुम जान सकते हो कि यह आदमी ईसाई है। क्योंकि आदमी अपनी ही श्रेष्ठता की घोषणाएं करते हैं--बहाने कुछ भी हों। अक्सर ऐसा हो जाता है कि जो वेद की श्रेष्ठता की घोषणा कर रहा है, वेद शायद पढ़ा ही न हो।
एक बार एक वृद्ध सज्जन मुझे मिलने आए, अमृतसर के निवासी थे। कहने लगे, वेद तो परम है। आर्यसमाजी थे। मैंने उनसे पूछा, वेद आपने कभी पढ़ा? थोड़ा तिलमिलाए। कहा कि नहीं, पढ़ा तो नहीं। तो मैंने कहा, घोषणा कैसे कर रहे हैं? सामने ही आलमारी में वेद की किताब रखी थी, मैं वह निकाल कर लाया, मैंने उनसे कहा, कोई भी पन्ना खोलिए और एक पन्ना पढ़ डालिए--जोर से। वे कहने लगे, क्यों? मैंने कहा, उससे सिद्ध हो जाएगा कि श्रेष्ठता क्या है। जो पन्ना खुल जाए! यह भी नहीं कहता कि कोई खास पन्ना। उन्होंने किताब खोली और एक पन्ना पढ़ा--बीच में ही रुक गए। क्योंकि वेद में निन्यानबे प्रतिशत तो कचरा है। हीरे हैं, मगर मुश्किल से कहीं-कहीं। क्योंकि वेद सिर्फ हीरों का संग्रह नहीं है, उस दिन की सारी बातों का संग्रह है। अखबार में भी कभी-कभी हीरा मिल जाता है। वेद उस दिन का अखबार है। उस दिन का इतिहास भी उसमें है, उस दिन की कविता भी उसमें है, उस दिन का पुराण भी उसमें है, उस दिन का धर्म, दर्शन भी उसमें है, उस दिन के...उस दिन जो भी था उस सबकी झलक उसमें है। उसमें हीरे ही हीरे नहीं हो सकते। उस दिन की राजनीति, कूटनीति, धोखाधड़ी, सब उसमें है। वह उस दिन का दर्पण है। यही तो उसकी खूबी है।
एक पन्ना पढ़ा, बीच में ही रुक गए, कहने लगे कि यह तो मैंने सोचा ही नहीं था कि इस तरह की बातें...। तुमने भी नहीं सोची होंगी कि वेद में कोई ब्राह्मण प्रार्थना कर रहा है परमात्मा से कि मेरी गाय के थन बड़े हो जाएं! तुम कहोगे--यह कोई बात हुई? और यहीं तक बात नहीं रुकती, मेरे दुश्मन की गाय के थन छोटे हो जाएं।
मगर मैं कहता हूं, यह वेद सिर्फ प्रतिफलन है मनुष्य का। ऐसा आदमी है। वेद ईमानदार है। मैं तो प्रशंसा करता हूं इस बात की कि वेद ईमानदार है। उसने बताया कि आखिर ऋषि भी तुम्हारे तुम जैसे ही हैं। उनके भी पैर मिट्टी के हैं, और उनकी खोपड़ी में भी तुमसे कुछ ऊंची बातें नहीं उठतीं। उनकी प्रार्थनाएं भी क्षुद्र आकांक्षाओं से भरी हैं, कि मेरे खेत में वर्षा ज्यादा हो जाए, और पड़ोसी के खेत में बिलकुल न हो। यही तो तुम भी चाहते हो कि तुम्हारे खेत में वर्षा हो जाए और पड़ोसी के खेत में वर्षा न हो। यही तो आदमी की सामान्य आकांक्षा है।
मैंने सुना है, एक आदमी ने बहुत भक्ति की, बहुत भक्ति की और परमात्मा प्रकट हुआ, उसने कहा, मांग ले तू क्या मांगता है! उसने कहा, जो मैं मांगूं, वह मुझे मिल जाए। परमात्मा ने कहा, ठीक! लेकिन एक शर्त मेरी भी, तुझसे दुगना तेरे पड़ोसियों को मिल जाएगा। तू जो मांग वह तुझे मिलेगा, मगर तत्क्षण तुझसे दुगना तेरे पड़ोसियों को मिल जाएगा।
उस आदमी ने छाती पीट ली, उसने कहा कि मार डाला! भगवान तो तिरोहित हो गए। अब वह आदमी बड़ी मुश्किल में। मांगना चाहे कि लाख रुपये चाहिए, मगर लाख मांगे तो पड़ोसियों को दो लाख मिल जाएंगे! आखिर उसने किसी वकील की तलाश की। वकील तो मिल ही जाते हैं। उसने खोजा किसी को कि कोई तरकीब निकालो, इस शर्त में से कुछ रास्ता निकालो। एक वकील ने कहा, इसमें क्या रखा है! तू मांग कि तेरे घर के सामने एक कुआं खुद जाए। उसने कहा, इससे क्या होगा? उसने कहा, पड़ोसियों के सामने तू पहले कुआं तो खुदने दे! उसने मांगा कि मेरे घर के सामने एक कुआं खुद जाए। कुआं खुद गया--और पड़ोसियों के सामने दो-दो कुएं। और वकील ने कहा, अब तू मांग कि मेरी एक आंख फूट जाए। पड़ोसियों की दो-दो आंखें फूट गईं। और सामने दो-दो कुएं! तो जो गति हो गई उस गांव की! मगर वह आदमी बड़ा प्रसन्न था। घूमता था बस्ती में--अकेला ही बचा, अंधों में कनवा राजा--और लोग तड़प रहे हैं, कुओं में गिरे हैं, वह देख रहा है मजा, कि यह रहा मजा!
भगवान ने भी न सोचा होगा कि वकील रास्ता निकाल लेंगे। लेकिन उस आदमी ने लाख रुपये नहीं मांगे सो नहीं मांगे। उसने महल मांगना चाहा था, वह नहीं मांगा। मांगने का मजा ही चला गया। मांगने का मजा ही इसमें है कि पड़ोसी से ज्यादा तुम्हारे पास हो।
तो वह जो वेद की ऋचा है वह मनुष्य की सहज, स्वाभाविक, पाशविक, क्षुद्र आकांक्षा की प्रतीक है। मैं तो कहता हूं यह सुंदर है। मगर वे वेद के पोषक एकदम बेचैन हो गए। उन्होंने कहा, मैंने तो नहीं सोचा था इस तरह की छोटी बातें वेद में होंगी।
इस तरह की छोटी बातें बाइबिल में भी हैं। इस तरह की छोटी बातें कुरान में भी हैं। मगर जो जिस शास्त्र की घोषणा करता है, वह हर चीज को ठीक सिद्ध करना चाहता है। शायद इसी डर से वह पढ़ता भी नहीं कि कहीं कुछ ऐसा मिल जाए कि जिससे मेरी श्रेष्ठता की घोषणा में अड़चन पड़े, पढ़ने-वढ़ने की झंझट में भी नहीं पड़ता। लोग लड़ने को तैयार होते हैं, पढ़ने को कौन तैयार है!
तुम अपने भीतर जांचना, निरीक्षण करना, जब भी तुम किसी बात की घोषणा करते हो कि यह ठीक, यह श्रेष्ठ, तो क्या परोक्षरूपेण तुम अपने अहंकार की घोषणा नहीं कर रहे हो? और जहां अहंकार की घोषणा है, वहीं पाप है। और जाग कर धीरे-धीरे अपने अहंकार की सारी घोषणाओं को विलीन कर दो। जिस दिन तुम्हारे अहंकार की सारी घोषणाएं जा चुकी होंगी, उस क्षण तुम पाओगे भगवान से संबंध होना शुरू हुआ। फिर न वेद बाधा है, न बाइबिल, न कुरान; फिर न कृष्ण, न राम, न अल्लाह। फिर तुम्हें दिखाई पड़ेगा वह, लाओत्सु कहता है--उसका क्या नाम है, मुझे मालूम नहीं, काम चलाने को ‘ताओ’ कहता हूं। फिर काम चलाने को तुम ‘राम’ कह लेना, कोई हर्जा नहीं है। मगर काम चलाने को, याद रहे, भूल मत जाना, कि यह काम चलाने की बात है।
योगस्तूभयार्थमपेक्षणात्प्रयाजवत्।
‘और योग तो वाजपेय यज्ञ में प्रयाज की भांति भक्ति और ज्ञान का अंग स्वरूप है।’
और शांडिल्य कहते हैं कि जैसे ज्ञान समझ हो तो सहयोगी हो सकता है भक्ति में...समझ हो तो, ज्ञान अपने आप में सहयोगी नहीं होता। समझ लेना ठीक से! समझ हो तो जहर भी अमृत हो सकता है। और ज्ञान जहर है! जरा भी नासमझी की तो औषधि नहीं रह जाएगी; उसी से व्याधि पैदा हो जाएगी। ज्ञान समझपूर्वक हो। समझ का मतलब ही यह है: यह बात याद रहे कि जो मैंने नहीं जाना है वह सिर्फ जानकारी है। यह बात याद रहे कि औरों ने जाना है, मुझे खोजना है अभी।
ज्ञान से प्यास जगे सत्य की, तब तो समझ। और ज्ञान से तृप्ति होने लगे कि पा लिया, जान लिया, तो मृत्यु। तो तुम मारे गए। तो तुमने आत्महत्या कर ली। ज्ञान की फांसी लगा ली। ज्ञान में बोध होना चाहिए। यह याद सदा ही रहे कि यह मेरा जाना हुआ नहीं है। बुद्ध ने कहा है। बुद्ध ने कहा है तो ठीक ही कहा होगा। शांडिल्य ने कहा है। शांडिल्य ने कहा है तो ठीक ही कहा होगा। लेकिन मैं नहीं जानता हूं। और जब तक मैं नहीं जानता हूं, मैं कैसे गवाह बनूं? मुझे खोजना है अभी। और शांडिल्य ने कहा है, बुद्ध ने कहा है, नारद ने कहा है, कृष्ण ने कहा है, इतने लोगों ने कहा है तो खोजना होगा। फिर बैठूं न, जीवन गंवाऊं न, मैं भी इस खोज पर निकलूं। और इन सबने कहा कि परम आनंद है उस उपलब्धि से, तो मेरा जीवन ऐसे ही रेगिस्तान न रह जाए, मरूद्यान बनाऊं, एक बगिया लगाऊं, फूल खिलाऊं। मगर मेरे फूल खिलेंगे तभी गवाही दे सकूंगा, तभी कह सकूंगा बुद्धों से कि हां, ठीक कहा है। जब तक मेरे फूल न खिलेंगे तब तक तुम्हारी बात सुन कर अपनी प्यास को जगाऊंगा, अपनी खोज को त्वरा दूंगा, तीव्रता लाऊंगा, और भी बल लगाऊंगा, अपनी सारी ऊर्जा समर्पित कर दूंगा कि जब इतने महापुरुषों ने कहा है तो पाने योग्य कुछ होगा, खोजूं, लेकिन जब तक स्वयं न पा लूं तब तक यह न कहूंगा कि मैंने जान लिया है। क्योंकि वह तो झूठ होगा। वह तो ज्ञान के साथ अन्याय होगा। ज्ञान अगर बोधपूर्वक हो तो भक्ति में सहयोगी बन जाता है।
शांडिल्य कहते हैं: ऐसे ही योग भी सहयोगी बन जाता है, अगर समझपूर्वक हो।
योग बड़ी महिमापूर्ण प्रक्रिया है, साधन है। योग साध्य नहीं है, भक्ति साध्य है। ज्ञान साध्य नहीं है, भक्ति साध्य है। ज्ञान का उपयोग कर लेना प्यास जगाने के लिए। और योग का क्या उपयोग करोगे? योग का उपयोग करना अपने को शुद्ध करने के लिए। परमात्मा के आने के पूर्व तैयारी करनी होगी न! घर में मेहमान आता है तो स्वच्छता करते हो न! झाडू-बुहारी लगाते हो न! कूड़ा-कर्कट साफ करते हो न! योग वही है। उस परम प्रिय को पुकारा है तो घर की तैयारी कर लेनी जरूरी है। उसके योग्य आसन बिछाओगे न! उसके योग्य स्वच्छता चाहिए, पुनीतता चाहिए, पवित्रता चाहिए। धूप-दीप जलाओगे न! वही योग है। योग का इतना ही अर्थ है: जो कल्मष है, उसे धो डालूं। जो दीवालें गंदी हो गई हैं मेरे जीवन के अनाचरण से, मेरे जीवन के अज्ञान से, मेरे जीवन की मूर्च्छा से, वे सब धब्बे साफ कर डालूं। स्वच्छ कर लूं घर, ताकि उसे असुविधा न हो। जब तुम्हारे पात्र में अमृत भरने को हो, तो जो जहर के दाग लग गए हैं उन्हें छुड़ाओगे न! बस वही है योग। समझ हो तो योग की प्रत्येक प्रक्रिया अनूठी है। शुद्धि का अपूर्व मार्ग है। तुम्हारे रोएं-रोएं को शुद्ध कर जाएगी, पुनीत कर जाएगी, पावन कर जाएगी। तुम्हें तैयार कर जाएगी, तुम्हें मंदिर बना देगी, जिसमें कि विराजमान हो सके परमात्मा। तुम्हें सिंहासन बना देगी, जिस पर वह हृदयों का सम्राट आए और बैठे।
मगर अक्सर ऐसा होता है कि समझ है कहां! ज्ञान इकट्ठा करके आदमी पंडित हो जाता है, प्रज्ञावान नहीं होता। और योग की प्रक्रियाओं में पड़ कर आदमी गोरखधंधे में पड़ जाता है। बस वह फिर व्यर्थ की बातें ही करता रहता है। आसन लगाए रहता है, आसन जमाए जाता है, उलटे-सीधे व्यायाम करता रहता है, सिर के बल खड़ा होता रहता है; धीरे-धीरे यही उसकी जीवनचर्या हो जाती है, वह भूल ही जाता है कि मेहमान को भी बुलाना है। वह मंदिर ही बनाने में इतना मशगूल हो जाता है कि मेहमान द्वार पर भी आकर खड़ा हो जाए तो भी वह आंख उठा कर नहीं देखता, वह मंदिर ही बनाने में लगा रहता है। वह सफाई ही करता रहता है। सफाई का फिर कोई अंत नहीं है। फिर तुम करते ही चले जाओ।
यह देह पूर्ण शुद्ध तो हो ही नहीं सकती। यह देह अशुद्धि से बनी है। शुद्ध हो सकती है, पूर्ण शुद्ध कभी नहीं हो सकती। स्वस्थ हो सकती है, पूर्ण स्वस्थ कभी नहीं हो सकती। पूर्णता का देह से संबंध नहीं जुड़ सकता। देह तो अपूर्ण रहेगी, सीमा में बंधी रहेगी। इसमें तो व्याधियां-आधियां रहेंगी। समाधि इसमें फलानी है। इसलिए जितनी व्याधियां कम हों, उतना अच्छा। लेकिन तुम इसी फिक्र में मत पड़ जाना कि जब सब व्याधियां समाप्त हो जाएंगी तब देखेंगे समाधि। तो फिर तुम कभी न देख पाओगे समाधि को। एक व्याधि हटेगी, दूसरी पैदा होगी; दूसरी हटेगी, तीसरी पैदा होगी।
इसी से तो गोरखधंधा शब्द पैदा हुआ, वह गोरखनाथ से पैदा हुआ। गोरखनाथ महायोगी हुए। उन्होंने योग की प्रक्रियाओं का जैसा प्रयोग किया, किसी ने कभी नहीं किया था। पतंजलि भी देखते तो सिर ठोंक लेते! क्योंकि गोरखनाथ ने बड़ी प्रक्रियाएं, कृच्छ साधनाएं खोजीं। सुबह से लेकर सांझ तक लगे ही रहते थे--और दूसरों को भी लगाए रखते थे। उसी से गोरखधंधा शब्द पैदा हुआ। भूल ही गए असली बात, इसी में लग गए; गौण में उलझ गए।
अगर समझ हो, तो गौण में मत उलझना। और खयाल रखना, गोरखनाथ स्वयं उलझ गए, ऐसा नहीं है। गोरखनाथ के मानने वाले उलझ गए। गोरखनाथ ने तो जो प्रक्रियाएं दी थीं--यद्यपि बहुत प्रक्रियाएं दी थीं--वह अलग-अलग साधकों के लिए दी थीं। किसी को एक प्रक्रिया दी थी, किसी को दूसरी दी थी, किसी को तीसरी दी थी। धीरे-धीरे यह हुआ कि साधकों को तो लोभ पैदा होता है, उन्होंने सोचा कि फलां फलां कर रहा है, फलां फलां कर रहा है, हम भी सब कर डालें।
यहां शिविर में तुम पांच ध्यान करते हो। उनमें से एक चुन लेना है। वे सिर्फ चुनाव के लिए हैं। एक सज्जन मेरे पास आए कुछ महीने पहले, उनकी हालत बहुत खराब हुई जा रही है, कहने लगे कि ध्यान से बड़ी हालत खराब हुई जा रही है।
मैंने पूछा कि कौन सा ध्यान करते हो?
उन्होंने कहा, कौन सा क्या, दस ध्यान करता हूं। जितने आपने बताए हैं, सब करता हूं। सुबह चार बजे से लेकर रात बारह बजे तक लगा ही रहता हूं।
हालत तो खराब हो ही जाएगी! मेरा कसूर नहीं है। मैंने तुमसे कहा कब कि तुम सब करना? और सब करोगे तो और कब बचेगा कुछ करने को? भगवान को आने की थोड़ी-बहुत जगह भी दोगे, वह द्वार पर ही खड़ा रहेगा? कभी तुम कुंडलिनी कर रहे, कभी तुम सक्रिय कर रहे, और कभी तुम नादब्रह्म कर रहे, और कभी तुम सूफी कर रहे, और कभी तुम कुछ कर रहे, वह बाहर ही खड़ा रहेगा कि भई, तुम चुको, तुम्हारी झंझट से मुक्त होओ, तो मैं भी आऊं, दो बात तुमसे कर लूं! मगर तुम्हें फुर्सत कहां है? थक जाओगे, तब सो जाओगे। सुबह फिर उठोगे, फिर अपने गोरखधंधे में लग जाओगे।
यह गोरखधंधा हो गया! गोरखनाथ ने गोरखधंधा नहीं दिया था, गोरखनाथ ने तो अलग-अलग साधकों को अलग-अलग प्रक्रियाएं दी थीं। मगर लोभ पकड़ता है कि कहीं ऐसा न हो कि इस प्रक्रिया से न मिले, तो उससे मिल जाए, उससे न मिले तो उससे मिल जाए, सभी कर डालो। आदमी बड़ा लोभी है। उस लोभ से गोरखधंधा पैदा हुआ। अज्ञानी जो भी करेगा उसमें से कुछ न कुछ उपद्रव निकाल लेता है। तुम इससे सावधान रहना।
शांडिल्य कहते हैं: ‘योगस्तूभयार्थमपेक्षणात्प्रयाजवत्।’
‘और योग तो वाजपेय यज्ञ में प्रयाज की भांति भक्ति और ज्ञान का अंग स्वरूप है।’
जब कोई यज्ञ करता है तो पहले यज्ञ की तैयारी करनी होती है। उस तैयारी का नाम है प्रयाज--पूर्व तैयारी, भूमिका। हवनकुंड बनाना होगा, भूमि शुद्ध करनी होगी, बंदनवार बांधने होंगे--वह सब जो तैयारी है, उसका नाम प्रयाज। बिना तैयारी के तो यज्ञ नहीं हो सकेगा। ऐसे ही, शांडिल्य कहते हैं, भक्ति तो यज्ञ है, योग प्रयाज है--पूर्व तैयारी, भूमिका। मगर भूमिका ही है। भूमिका में ज्यादा मत उलझ जाना।
अगर तुमने जार्ज बर्नार्ड शॉ की कोई किताब देखी है, तो तुम चकित होओगे, किताब से बड़ी भूमिका है। किताब है सौ पन्ने की, भूमिका दो सौ पन्ने की। अब भूमिका का मतलब ही यह होता है कि उसमें सार-इशारा होना चाहिए, किताब के संबंध में कुछ संकेत होना चाहिए, ताकि जो आदमी किताब पढ़ने को उत्सुक है, वह दो पन्ने भूमिका के पढ़ कर यह सोच ले कि यह मेरे काम की है या नहीं। अब दो सौ पन्ने भूमिका के पढ़ने हैं। इससे तो सौ पन्ने की किताब ही सीधी पढ़ लेना ज्यादा सस्ता है। लेकिन बर्नार्ड शॉ को वैसी आदत थी--बहुत लोगों को वैसी आदत है। उनकी भूमिका लंबी होती है। अक्सर वे भूल ही जाते हैं कि भूमिका में ही जीवन व्यतीत हो जाता है। ऐसे बहुत लोग हैं जो सुख से जीना चाहते हैं; सुख से जीने के लिए धन इकट्ठा करने में लगते हैं; फिर धन ही इकट्ठा करते-करते मर जाते हैं, सुख से जीने का मौका ही नहीं आता; भूमिका ही पूरी नहीं होती।
सिकंदर सारी दुनिया को जीत कर सुख से जीना चाहता था। मगर सारी दुनिया को जीत कर। फकीर डायोजनीज ने उससे कहा था कि मेरी समझ में यह तर्क नहीं आता। सुख से ही जीना है न! तो अभी क्यों नहीं सुख से जीते? सिकंदर ने कहा, अभी कैसे जी सकता हूं? पहले दुनिया जीतनी है! डायोजनीज ने कहा, अभी क्यों नहीं जी सकते? मैं जी रहा हूं! और मैंने पूरी दुनिया नहीं जीती। पूरी दुनिया की तो बात और, जो मेरे पास था वह भी मैंने छोड़ दिया, क्योंकि उससे झंझट होती थी। देखो मैं मजे में लेटा हूं--वह लेटा ही था नग्न, नदी के तट पर, धूप ले रहा था सुबह की--उसने सिकंदर से कहा, तुम क्यों परेशान होते हो? इस टीन के पोंगरे में मैं रहता हूं, इसमें जगह काफी है, इसमें एक कुत्ता भी रहता है, मैं भी रहता हूं, तुम भी रह सकते हो।
वह जो म्युनिसिपलिटी का कचरा इकट्ठा करने के लिए टीन का बड़ा डब्बा रखा होता है, वही डब्बा उसको मिल गया था, एक पुराना डब्बा, म्युनिसिपलिटी ने फेंक दिया होगा, उसने उसी को साफ कर लिया, वह उसी में रहने लगा था; नदी के किनारे उसको रख लिया था; जब छाया की जरूरत होती, अंदर चला गया; जब धूप की जरूरत होती, बाहर आ गया। एक भिक्षापात्र उसके पास था केवल। वह भी उसने एक दिन फेंक दिया। क्योंकि एक दिन पानी पीने जा रहा था नदी की तरफ अपना भिक्षापात्र लिए, उसी के साथ-साथ एक कुत्ता भागता हुआ आया। इसके पहले कि वह पात्र में पानी भरे, कुत्ते ने झटके से जल्दी से अपनी जीभ से सीधा-सीधा पानी पी लिया। उसे बड़ी हार मालूम हुई। उसने कहा, कुत्ता हमसे आगे निकल गया! हम नाहक यह भिक्षापात्र लिए फिरते हैं! इसके पास कोई पात्र वगैरह भी नहीं है, यह हमसे महात्यागी है। उसने वहीं नदी में पात्र बहा दिया। उसने कहा, जब कुत्ता चला लेता है काम, तो हम भी चला लेंगे। वह उसकी आखिरी संपदा थी। उसने सिकंदर को कहा कि उस दिन से मेरे पास कुछ है ही नहीं, मगर मैं बड़े मजे में हूं। और निश्चित वह मजे में था! उतना मस्त आदमी लोगों ने देखा नहीं। वह यूनान का महावीर है। नग्न था और मस्त था।
एक बार कुछ लोगों ने उसे पकड़ लिया एक जंगल में। मस्ती देख कर और नग्न देख कर उन्होंने सोचा कि अच्छा है, बाजार में बेच देंगे। उन दिनों गुलाम बिकते थे। जब उन्होंने उसे पकड़ा तो उसने जल्दी से अपने हाथ उनके सामने कर दिए। वे तो बड़े हैरान हुए, क्योंकि उन्होंने सोचा था कि यह झंझट-झगड़ा करेगा तो चार को पस्त कर देगा। मगर उसने जल्दी से हाथ कर दिए और उसने जल्दी से जंजीरें डलवा लीं। उसने कहा, तुम नाहक जंजीर डाल रहे हो, तुम कहां जाना चाहते हो, मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूं; जंजीर काहे को तुम झंझट करते हो! वह उनके साथ हो लिया। रास्ते में जो भी मिलता, उसको लोग नमस्कार करते, वे चार तो उसके गुलाम जैसे मालूम पड़ते। किसी ने पूछा कि ये लोग कौन हैं? उसने कहा, ये मेरे गुलाम हैं। उन्होंने कहा, तुम बात क्या कर रहे हो? उसने कहा, तुम देख लो, कोई से भी पूछ लो, मालिक कौन मालूम पड़ रहा है? तुम चोर जैसे मालूम पड़ते हो, मैं मालिक हूं।
फिर उसे वे बाजार ले गए। वहां बाजार में जब उसे तख्ती पर खड़ा किया गया, जिस पर खड़े होकर गुलाम बिकते थे--उसने जोर से आवाज लगाई कि एक मालिक आज बिकने आया है, किसी गुलाम को खरीदना हो तो खरीद ले! और था भी वह आदमी मालिक। उसकी शान वैसी थी! जिसकी कोई इच्छा न रही हो वह मालिक हो ही जाता है। उसकी गरिमा!
लेकिन सिकंदर ने कहा कि ठीक तुम कहते हो कि मैं भी आराम कर सकता हूं, मगर मुश्किल है। पहले तो मैं दुनिया जीतूंगा। डायोजनीज ने कहा, तो तुम एक बात मेरी याद रखना, दुनिया तो शायद जीतोगे कि नहीं, मगर आराम कभी न कर पाओगे। दुनिया जीतने के पहले मर जाओगे।
और यही हुआ। सिकंदर जब हिंदुस्तान से वापस लौटता था तो यूनान वापस नहीं पहुंच पाया, रास्ते में मर गया। जिस दिन मरा, उस दिन उसे डायोजनीज की याद आई। उस दिन उसकी आंख से आंसू गिरे। और किसी ने पूछा कि तुम क्यों रोते हो? उसने कहा, मैं उस फकीर के लिए रोता हूं, उसने ठीक कहा था, वह आदमी सच कहता था।
भूमिका में ही जिंदगी निकल जाती है।
तो योग को कहीं इतना मत पकड़ लेना कि नौली, धोती, और आसन, व्यायाम, और प्राणायाम, और करते-करते ही मर जाओ। योग भूमिका है, समाधि लक्ष्य है। न मालूम कितने लोग भूमिका में ही मर जाते हैं। समाधि पर ध्यान रखना। शांडिल्य ठीक कहते हैं कि योग का उपयोग हो सकता है सहयोग की तरह।
गौण्यातु समाधिसिद्धिः।
‘गौणी भक्ति के द्वारा समाधि की सिद्धि होती है।’
दो तरह की भक्तियां शांडिल्य ने कही हैं--गौणी भक्ति और पराभक्ति। गौणी भक्ति का अर्थ होता है: अभी भक्त मौजूद है, भगवान मौजूद है, दोनों आमने-सामने खड़े हैं; रस बह रहा है, अपूर्व आनंद है, मस्ती बंधी है, लौ से लौ मिल गई है; मगर अभी द्वैत कायम है; गौणी भक्ति। पराभक्ति का अर्थ है: भगवान भक्त में खो गया, भक्त भगवान में खो गया, अब दो नहीं।
पहली जो गौणी भक्ति है, उससे जो समाधि मिलती है, पतंजलि का शब्द उपयोग करें तो उसका नाम है--सबीज समाधि। और जो पराभक्ति है, उसके लिए पतंजलि का शब्द उपयोग करें तो उसका नाम है--निर्बीज समाधि। सबीज समाधि में बीज अभी कायम है; वृक्ष खो गया, लेकिन बीज अभी कायम है। मौका पाकर बीज से फिर वृक्ष पैदा हो सकता है। गौणी भक्ति से जो समाधि मिलती है, वह खो सकती है। तुम भगवान के सामने खड़े हो, लेकिन अभी दूरी है, चाहे इंच भर की दूरी हो, मगर दूरी है। और जो इंच भर की दूरी है, वह मील की दूरी हो सकती है, योजनों की दूरी हो सकती है, फिर दूरी बढ़ सकती है, फिर भेद पैदा हो सकता है, फिर भटकाव हो सकता है। अभी बीज कायम है, द्वैत कायम है। तो या तो उसे सबीज समाधि कहें--अभी गिरना हो सकता है। या सविकल्प समाधि कहें--अभी विचार कायम है, अनुभव हो रहा है कि आनंद आ रहा है, मैं हूं और मुझे आनंद आ रहा है।
जब तक तुम्हें ऐसा लगे कि आनंद आ रहा है, तब तक समझना--गौणी भक्ति, छोटी समाधि; अभी अनुभव करने वाला शेष है। फिर अंतिम चरण में होती है--पराभक्ति; बीज भी मिट गया, बीज दग्ध हो गया, अब कभी लौटना न हो सकेगा, अब कोई वापसी नहीं होगी, संसार समाप्त हुआ। अब अनुभव भी नहीं हो सकता कि मैं आनंद में हूं--मैं ही नहीं हूं, आनंद ही आनंद है। इसलिए गौणी भक्ति से तो अनुभव होता है, पराभक्ति में अनुभव नहीं होता।
कृष्णमूर्ति ठीक कहते हैं कि वह जो परमदशा है, उसको अनुभव नहीं कहा जा सकता। उसे ज्ञान भी नहीं कहा जा सकता। उसे दर्शन भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि दर्शन, ज्ञान, अनुभव, सभी में दो की अपेक्षा है--जानने वाला अलग होता है जाना जाने वाले से; ज्ञेय अलग होता है ज्ञाता से; द्रष्टा अलग होता है दृश्य से। उस परमदशा में द्रष्टा और दृश्य एक है। वह पराभक्ति, वह निर्बीज समाधि, निर्विकल्प समाधि। वही लक्ष्य है।
गौणी भक्ति से समाधि की सिद्धि हो सकती है। लेकिन उससे तृप्त मत हो जाना। उससे भी पार जाना है। ऐसी जगह जाना है जिसके पार और जाना न रहे। उस स्थिति को पाना है जिसके पार और कोई स्थिति नहीं है। फूल ही बन कर समाप्त मत हो जाना--फूल यानी गौणी भक्ति; अभी आकार है, अभी रूप है, अभी रंग है; सुवास होकर समाप्त होना। सुवास मुक्त हो गई आकार से, रूप से, रंग से। सुवास आकाश में लीन हो गई। सुवास आकाश हो गई। उसे शांडिल्य ने पराभक्ति कहा है। गौणी भक्ति में भक्त और भगवान होते हैं और भक्ति होती है, पराभक्ति में न कोई भक्त होता, न कोई भगवान होता, बस भक्ति होती है, भगवत्ता होती है।
ऐसे ये अपूर्व सूत्र हैं। शांडिल्य को सुन कर तुममें प्यास जगे, इसलिए इन सूत्रों की व्याख्या कर रहा हूं। ज्ञान न जमा लेना। ज्ञान जमा लिया, चूक गए। प्यास जगाना। तुम्हारे भीतर गहन आकांक्षा उठे, अभीप्सा जगे, एक लपट बन जाए कि पाकर रहूं, कि इस अनुभव को जान कर रहूं, कि इस अनुभव को जाने बिना जीवन अकारथ है। ऐसी ज्वलंत आग तुम्हारे भीतर पैदा हो जाए तो दूर नहीं है गंतव्य। उसी आग में अहंकार जल जाता है। उसी आग में बीज दग्ध हो जाता है और तुम्हारे भीतर जन्मों-जन्मों से छिपी हुई सुवास मुक्त आकाश में विलीन हो जाती है। उसे मोक्ष कहो, निर्वाण कहो, जो नाम देना चाहो दो--उसका कोई नाम नहीं है।
लाओत्सु ठीक कहता है, उसका कोई नाम नहीं है, काम चलाने को ‘ताओ’ कहता हूं।
आज इतना ही।
प्रागुक्तं च।। 16।।
एतेन विकल्पोऽपि प्रत्युक्तः।। 17।।
देवभक्तिरितरस्मिन् साहचर्य्यात्।। 18।।
योगस्तूभयार्थमपेक्षणात्प्रयाजवत्।। 19।।
गौण्यातु समाधिसिद्धिः।। 20।।
भक्ति परम है। उसके पार कुछ और नहीं, भगवान भी नहीं।
भक्ति है वह बिंदु जहां भक्त और भगवान का द्वैत समाप्त हो जाता है; जहां सब दुई मिट जाती है; जहां दो-पन एक-पन में लीन हो जाता है--ऐसे एक-पन में कि उसे एक भी कहें तो ठीक नहीं। क्योंकि जहां दो ही न रहे, वहां एक का भी क्या अर्थ? ऐसी शून्य-दशा है भक्ति, या ऐसी पूर्ण-दशा है भक्ति। नकार से कहो तो शून्य, विधेय से कहो तो पूर्ण, बात एक ही है। लेकिन भक्ति के पार और कुछ भी नहीं।
जैसे बीज होता, फिर बीज से अंकुर होता, फिर अंकुर से वृक्ष होता, फिर वृक्ष में फूल लगते और फिर फूल से गंध उड़ती--गंध है भक्ति। जीवन का अंतिम चरण, जहां जीवन परिपूर्ण होता, सुगंध, आखिरी घड़ी आ गई, इसके पार अब कुछ होने को नहीं, इसलिए सुगंध में संतोष है। न पार होने को कुछ है, न पार की आकांक्षा हो सकती। आकांक्षा करने वाला भी गया, आकांक्षा की जा सकती थी जिसकी वह भी समाप्त हुआ। ऐसी निष्कांक्षा, ऐसी वासनाशून्य, ऐसी रिक्त-दशा है भक्ति। रिक्त, अगर संसार की तरफ से देखें--तो सारा संसार समाप्त हुआ। भरी-पूरी, लबालब, अगर उस तरफ से देखें, परमात्मा की तरफ से देखें--क्योंकि शून्य घट में ही परमात्मा का पूर्ण भर पाता है।
शांडिल्य ने कहा: ‘प्रागुक्तं च।’
मैं जो कहता हूं, नया नहीं है, ऐसा पूर्व में भी कहा गया है। सदा-सदा कहा गया है।
प्रागुक्तं च का अर्थ होता है: पूर्व में भी ऐसा ही कहा गया; जिन्होंने जाना उन्होंने भी ऐसा ही कहा है; जब भी जाना, तभी ऐसा कहा गया है; भविष्य में भी जो जानेंगे, ऐसा ही कहेंगे। अभिव्यक्तियां भिन्न होंगी, शब्द अलग होंगे, भाषाएं पृथक होंगी, पर जो कहा गया है सार में वह यही है।
अज्ञानी एक जैसी बातें कहें तो भी बातें भिन्न-भिन्न होती हैं, क्योंकि अज्ञान निजी है, वैयक्तिक है, सबका अलग-अलग है। जैसे सपने सबके अलग-अलग होते हैं, झूठ सबके अलग-अलग होते हैं। सपना यानी झूठ। जो सपना तुमने देखा है, वह दुनिया में कोई कभी नहीं देखेगा। तुम अपने सपने में किसी को निमंत्रण भी नहीं दे सकते कि आओ, मेरा सपना देखो। बिलकुल निजी है। अपने प्रीतम को भी नहीं बुला सकते, अपने निकटतम मित्र को भी नहीं कह सकते कि मेरे सपने में आज आ जाना। वहां बस तुम अकेले हो--पृथक, अस्तित्व से टूटे हुए, अपने में बंद। इसीलिए तो सपना झूठ है, क्योंकि उसका कोई गवाह भी नहीं है। तुम एक गवाह नहीं खोज सकते अपने सपने के लिए। इसलिए तो सपना झूठ है, क्योंकि उसका कोई साक्षी नहीं है।
जिस जगत में हम संगी-साथी खोज लेते हैं, वह ज्यादा सच है। इसलिए जो वृक्ष तुमने आंख खोल कर देखा है, वह ज्यादा सच है--क्योंकि तुमने भी देखा, तुम्हारे पड़ोसी ने भी देखा, तुम्हारे मित्रों ने भी देखा, तुम्हारे शत्रुओं ने भी देखा। लेकिन जो सपने का वृक्ष है, आंख बंद करके तुमने देखा, बस तुमने देखा--शत्रुओं की तो बात दूर, मित्र भी उसे देख नहीं सकते। मित्रों की तो बात दूर, तुम भी उसे दुबारा देखना चाहो तो असमर्थ हो। तुम्हारे भी हाथ में नहीं है। एक तरंग थी झूठ की; तुम नींद में सोए थे, तुम इतने सोए थे कि झूठ को झूठ की तरह न देख पाए और सच मान लिया। नींद के कारण झूठ सच लगा।
अज्ञानियों की भाषा चाहे एक हो, चाहे उनके वक्तव्य एक हों, मगर वे अलग-अलग बात कहते हैं। अलग-अलग ही कहेंगे, क्योंकि वे अलग-अलग हैं। उन्होंने अभी एकात्म नहीं जाना; सर्व के साथ संबंध नहीं जाना, अभी सेतु ही नहीं बना। अभी सब अपने-अपने में बंद, द्वार-दरवाजे बंद किए बैठे हैं।
अज्ञानी एक सा भी बोलें तो उनकी बात का अर्थ एक नहीं होता--हो ही नहीं सकता। ज्ञानी अलग-अलग बोलें--अलग-अलग ही बोलते हैं--फिर भी उनकी बात का अर्थ एक ही होता है।
शांडिल्य कहते हैं: प्रागुक्तं च।
‘ऐसा ही पहले भी कहा गया है।’
ऐसा ही आगे भी कहा जाएगा। ऐसा ही कहा जा सकता है। सत्य को अन्यथा कहने का उपाय नहीं है, फिर गीता कहे, कि बाइबिल, कि कुरान। जिनके पास आंख है, वे गीता, कुरान और बाइबिल में एक की ही उदघोषणा पाएंगे, एक ही ओंकार का नाद पाएंगे।
कृष्ण का वचन है:
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।
‘ब्रह्मभाव प्राप्त करके जब मनुष्य प्रसन्नात्मा होता हुआ सब प्रकार की वासनाओं से मुक्त हो जाता है, उस समय सर्वभूत में समदर्शी होने पर वह मेरी पराभक्ति को प्राप्त होता है।’ अर्थात समस्त साधनाओं का एकमात्र फल भक्ति है। जब सारी आकांक्षाएं गिर जाती हैं, सारा सोच-विचार शांत हो जाता है--
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति।
ध्यान रखना, वासना है इसलिए विचार है।
मेरे पास अनेक बार लोग आते हैं, वे कहते हैं, विचार कैसे बंद करें? विचार बंद नहीं होगा जब तक वासना है। वासना है तो विचार उठता ही रहेगा। ऐसे ही जैसे जब तक वायु का प्रचंड वेग है, झील पर लहरें उठती रहेंगी। लहरों को कैसे बंद करोगे? वायु का वेग रुके तो लहरें अपने आप शांत हो जाएंगी, बंद करनी भी नहीं पड़ेंगी। विचार तो तरंगें हैं वासना के वेग में उठी।
तुमने देखा, चुपचाप बैठे हो, शांत बैठे हो, एक सुंदर स्त्री निकल गई और वासना उठी और तत्क्षण विचारों से घिर गए तुम--इधर आई वासना, उधर विचारों का प्रवाह आया; हजार-हजार तरंगें आ गईं। वासना का जरा सा कंकड़ गिर जाए तुम्हारी चेतना की झील में कि तरंग, और तरंग, और तरंग उठ आती है। चुपचाप बैठे थे, एक कार गुजर गई, मन में वासना उठी कि पाऊं। बस विचार का तांता शुरू हुआ, कतार बंधी। तुम अपने भीतर निरीक्षण करोगे तो इस सत्य को पकड़ पाओगे कि अगर विचार से मुक्त होना हो तो वासना से मुक्त होना पड़ेगा। विचार वासना के पीछे आता है--अनुसंगी है, छाया है।
कृष्ण कहते हैं: ‘जब कोई न सोचता, न वासना करता, तब प्रसन्नात्मा हो जाता है।’
सोचने वाला, वासना और विचार में ग्रस्त हमेशा अवसन्न रहेगा--उदास, हारा-थका, विषादग्रस्त, चिंतामग्न, संताप से भरा। क्यों? क्योंकि जितनी तुम्हारी वासना होगी, उतनी ही तुम्हें अपनी दीनता अनुभव होगी। वासना तुम्हें बताएगी क्या-क्या तुम्हारे पास नहीं है। किस-किस बात का अभाव है। जितनी ज्यादा वासनाएं होंगी, उतना अभाव मालूम होगा। तुम उतने ही दरिद्र होते हो जितनी तुम्हारी वासनाएं होती हैं, क्योंकि हर वासना खबर देती है कि यह मेरे पास नहीं। जिस दिन तक तुमने नहीं सोचा था कि एक बड़ा महल बनाऊं, उस दिन तक तुम महल में ही थे। तुम जहां भी थे महल था, झोपड़ा ही महल था। लेकिन जिस दिन यह वासना उठी कि एक बड़ा महल बनाऊं, उसी दिन से तुम झोपड़े में हो गए--क्योंकि अब उस महल की तुलना में यह झोपड़ा अखरता है, खटता है, काटता है। रूखी-सूखी रोटी मिल जाती थी, सुस्वादु थी; जिस दिन वासना उठी, उसी दिन स्वाद खो गया, उसी दिन से तुम भूखे हो। अब पेट नहीं भरता रूखी-सूखी रोटी से।
स्वामी राम कहते थे कि मैं बादशाह हूं। किसी ने पूछा--क्यों? तो उन्होंने कहा, इसीलिए कि मेरी कोई वासना नहीं। जितनी वासनाएं कम होती गईं, उतनी मेरी बादशाहत बढ़ती गई। और जिस दिन मेरी कोई वासना न रही, उस दिन मैंने पाया कि मैं सबसे बड़ा बादशाह हूं; सम्राट हूं, शहंशाह हूं। क्योंकि जहां हूं, वहां कोई अभाव नहीं है अब।
अभाव पता ही चलता है वासना से। वासना की लकीर बड़ी होती जाती है, तुम्हारे जीवन की लकीर छोटी होती चली जाती है। वासना की लकीर को मिटा दो और तुम पाओगे कि तुम प्रसन्नात्मा हो।
कृष्ण कहते हैं: जिसकी वासना गई, विचार गया, वह प्रसन्नात्मा हो जाता है। और जो प्रसन्नात्मा है, वह ब्रह्मभूत होने में समर्थ हो जाता है। वह परमात्मा में लीन होने के करीब आ गया। अब बाधा न रही। बाधा थी अभाव की; बाधा थी दीनता, दरिद्रता की।
मैं निरंतर तुमसे कहा हूं--भिखारी की तरह से उसके द्वार पर मत जाना। जो भिखारी की तरह उसके द्वार पर गया है, वह खाली हाथ लौटा है। खाली हाथ जाओगे, खाली हाथ लौटोगे। तुमने ही अगर तय कर रखा है कि खाली हाथ रखने हैं, तो परमात्मा भी तुम्हारे हाथ नहीं भर सकेगा। सम्राट की तरह जाना उसके द्वार पर। लेने और मांगने मत जाना, अपने को देने जाना। जिस दिन तुम्हारी प्रार्थना मांग नहीं होती, दान होती है, उसी दिन पूरी हो जाती है। जिस दिन तुम परमात्मा को देने को तत्पर होते हो, उस दिन फिर कोई अभाव नहीं रह जाएगा।
प्रसन्नात्मा दे सकता है। जो आनंद-उल्लास से भरा है, वही दे सकता है। जिसकी श्वास-श्वास उत्सव हो गई है, वही दे सकता है। जो प्रसन्नात्मा है, उसमें और ब्रह्म में दूरी नहीं रह गई। पास आने लगा घर। नदी उतरने लगी सागर में, जल्दी ही लीन हो जाएगी। ब्रह्मभाव उपलब्ध होगा।
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति।
समः सर्वेषु...
और जिसको ब्रह्मभाव उपलब्ध हुआ, वह सभी में अपने को पाएगा, और सभी में समता पाएगा। पत्थर में भी अपने को पाएगा, फूल में भी अपने को पाएगा। अपने को विस्तीर्ण होता पाएगा। सारा अस्तित्व उसकी देह बन जाएगा।
तुमने छोटी सी देह में अपने को बांध रखा है, क्योंकि तुमने क्षुद्र वासनाओं में अपने को कस रखा है। जैसे-जैसे वासना के बंधन गिरते हैं, तुम विराट होने लगते हो। ऐसा नहीं है कि परमात्मा कहीं से आता है, सिर्फ तुम्हारे बंधन गिर जाते हैं। तुम परमात्मा हो बंधे हुए; बंधन गिर जाते हैं, अचानक अनुभव होता है कि जो मैं सदा से था, वही हूं, सिर्फ भेद इतना पड़ा है--बंधन गिर गए।
बुद्ध एक सुबह अपने भिक्षुओं के सामने आए और उन्होंने अपने हाथ में एक रूमाल ले रखा था, और उन्होंने सबके सामने खड़े होकर उस रूमाल में पांच गांठें बांधीं, और फिर एक भिक्षु से पूछा कि क्या तुम कह सकते हो यह रूमाल वही है जैसा मैं लाया था, या भिन्न हो गया?
उस भिक्षु ने कहा, भगवान, आप उलझन की बात पूछते हैं। सही उत्तर यही हो सकता है कि एक अर्थ में तो रूमाल वही है, और एक अर्थ में रूमाल बदल गया। इस अर्थ में रूमाल वही है, क्योंकि रूमाल में कुछ नया नहीं हुआ है--गांठ से कुछ नया नहीं हो गया है। गांठ से क्या नया होगा? रूमाल बिलकुल वही है। लेकिन फिर भी यह कहना ठीक नहीं कि बिलकुल वही है, क्योंकि गांठ ने थोड़ा फर्क तो कर दिया। गांठ पहले नहीं थी, अब है।
तुम गांठ लगे रूमाल हो। तुम गांठ लगे भगवान हो। गांठ खुल जाए, भगवान कहीं और से आता नहीं--ग्रंथि खुल जाए। ग्रंथियां विचार की हैं, वासना की हैं। उनके कारण अभाव, विषाद, संताप। उनके कारण नरक। जितना बड़ा तुम्हारा विषाद है, उतनी परमात्मा से दूरी है। दुख में कोई परमात्मा से नहीं जुड़ पाता। और आदमी ऐसा मूढ़ है कि दुख में याद करता है, सुख में भूल जाता है। और दुख में कभी कोई नहीं जुड़ा। सुना ही नहीं, ऐसी घटना ही नहीं घटी कि दुख में कोई छलांग लगा गया हो परमात्मा में। दुख में तो तुम सिकुड़ जाते हो, गांठ और मजबूत हो जाती है। गांठ ही गांठ रह जाती है, रूमाल बचता ही नहीं; पांच नहीं, पचास गांठ हो जाती हैं, कि हजार गांठ हो जाती हैं। सारा रूमाल गांठों में दब जाता है। गांठों पर गांठें लग जाती हैं। ग्रंथियों पर ग्रंथियां। पता लगाना ही मुश्किल हो जाता है कि कभी यह रूमाल खुला भी था, कभी तुम मुक्त भी थे, कभी तुम निर्विकार भी थे, कभी तुम्हारी स्लेट पर कुछ भी न लिखा था; शांति थी, कोई धब्बा न पड़ा था।
दुख में आदमी भगवान को याद करता है। और दुख सर्वाधिक दूरी है मनुष्य और भगवान के बीच। प्रसन्नात्मा पहुंचता है। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं--नाचो, गाओ! रोते हुए मत जाओ, हंसते हुए जाओ! हंसते हुए ही कोई पहुंचता है। नाचते हुए जाओ! पहाड़ मत ढोओ चिंताओं के अपने सिर पर।
अक्सर ऐसा हो जाता है, ये पहाड़ ढोने वाले लोग ही तुम्हें संत-महात्मा मालूम होते हैं। ये बहुत दूर हैं, इन्हें कुछ भी पता नहीं है। कहीं कोई मस्त होकर नाचता हो, चाहे परमात्मा की उसे याद भी न हो, तो भी परमात्मा के करीब है। मस्ती में सार है। कहीं कोई रस-निमग्न है, कहीं कोई डूबा है, सब भांति भूल कर, वहीं समझना कि परमात्मा का द्वार करीब है--चूकना मत, वहां सत्संग करना। जहां मस्ती में डूबे हुए लोग मिल जाएं, जहां मस्तों की मधुशाला मिल जाए, वहीं मंदिर है। उस क्षण याद किया तो काम आ जाता है--क्योंकि उस वक्त हम बहुत करीब होते हैं। जरा सी आवाज दी कि वहां तक पहुंच जाती है। आनंद के पंखों पर चढ़ कर ही प्रार्थनाएं परमात्मा तक पहुंचती हैं। दुख तो पंखहीन है, पंख कटे जटायु सा। उस पर चढ़ कर कोई यात्रा नहीं होती।
जो ब्रह्मभूत हो गया, आनंदमग्न होकर सोच-विचार-वासना से मुक्त हुआ, उसे सबमें एक ही का वास दिखाई पड़ने लगता है।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।
और इस अवस्था का नाम परा भक्ति है। भगवान ही भगवान, शैतान में भी भगवान। राम ही राम, रावण में भी राम। जिस क्षण भगवान के अतिरिक्त कुछ और दिखाई ही न पड़े--चाहो तो भी दिखाई न पड़े, खोजो तो भी न पा सको; जहां उलटो, जिस पत्थर को पलटो, वही मिल जाए; जिस लकड़ी को तोड़ो, वही मिल जाए; आंख खोलो तो वही, आंख बंद करो तो वही; जिस दिन जहां जाओ वहीं काबा, वहीं काशी; जिस दिन जहां झुको वहीं मंदिर; जहां बैठ रहो वहीं तीर्थ।
कबीर ने कहा है: ‘खाऊं-पीयूं सो सेवा, उठूं-बैठूं सो परिक्रमा।’
वही है, तो अब अलग से भोग लगाने की भगवान को जरूरत न रही, तुमने जो खाया-पीया वह भी उसी को भोग लग गया। खाऊं-पीयूं सो सेवा, उठूं-बैठूं सो परिक्रमा। उठता हूं, बैठता हूं, यह उसी की परिक्रमा चल रही है। यह श्वास उसी की परिक्रमा है--आती-जाती श्वास; यह आती-जाती श्वास उसी का निनाद है, यह आती-जाती श्वास उसी का ओंकार है, यह उसी का भजन है।
इस परमदशा को कृष्ण ने भक्ति कहा है।
ठीक कहते हैं शांडिल्य: ‘प्रागुक्तं च।’
‘पूर्व में भी ऐसा ही कहा गया है।’
और दूसरे भक्ति के तत्त्वज्ञ नारद ने कहा है: ‘ॐ फल रूपत्वात्।’
वह भक्ति सब साधनों का फलरूप है। अंतिम है। पराकाष्ठा है। उसके पार और कुछ भी नहीं है। शेष सब रूप साधनाओं के उसी तरफ ले जाते हैं। शेष सब मार्ग हैं, साधन हैं, भक्ति साध्य है।
एतेन विकल्पोऽपि प्रत्युक्तः।
‘इससे विकल्प का नाश भी हो गया।’
साधारणतः इस वचन का अर्थ किया जाता है कि चूंकि शास्त्रों में भी ऐसा कहा है, आप्तपुरुषों ने भी ऐसा कहा है, जानने वालों के ऐसे ही वचन हैं, इसलिए अब कोई संदेह की बात न रही, अब सब विकल्प समाप्त हो गए, अब श्रद्धा की जा सकती है।
मैं इतने से अर्थ से राजी नहीं होऊंगा। यह अर्थ ठीक है, पर बहुत ऊपर-ऊपर है। क्योंकि शांडिल्य जैसा ज्ञानी सिर्फ शास्त्रों का उल्लेख करके ऐसा नहीं कह सकता कि सब विकल्प समाप्त हो गए। सब विकल्प तो समाप्त होते हैं तभी जब अनुभव हो जाए। शास्त्रों से कैसे विकल्प समाप्त हो जाएंगे? और शांडिल्य तो ऐसा कह ही नहीं सकते, क्योंकि अभी-अभी तो हमने देखे उनके और सूत्र जिनमें उन्होंने ज्ञान की व्यर्थता कही है; जिनमें उन्होंने कहा कि ज्ञान कचरा है; ज्ञान से कोई भक्ति तक नहीं पहुंचता। कृष्ण ने क्या कहा गीता में और नारद ने क्या कहा भक्ति-सूत्रों में, इसको जानने से कोई शांति होगी, विकल्प समाप्त होंगे? इसके जानने से समाधान होगा? समाधि के बिना कोई समाधान न हुआ है कभी, न हो सकता है।
शास्त्र कहते रहें कितना ही, जब तक तुम्हारा अंतर-शास्त्र न जाग उठे, तब तक सब विश्वास है, श्रद्धा नहीं। और विश्वास झूठी श्रद्धा का नाम है। तुम मान लो कि कृष्ण ने कहा तो ठीक ही कहा होगा, लेकिन पहले तो तुम्हें यह मानना पड़ता है कि कृष्ण ठीक हैं, फिर तुम्हें यह मानना पड़ता है कि जब ठीक व्यक्ति ने कहा है तो ठीक ही कहा होगा। मगर सारी बात अंधी है। तुम्हें कैसे पक्का पता हो कि कृष्ण ठीक हैं? शांडिल्य कहते हैं इसलिए कृष्ण ठीक नहीं हो सकते, क्योंकि फिर यह पक्का होना चाहिए कि शांडिल्य ठीक हैं। तुम रुकोगे कहां? तुम किस जगह से शुरू करोगे? जहां से भी शुरू करोगे वहीं से अंधापन होगा। तुम कहोगे, परंपरा कहती है। लेकिन परंपरा गलत हो सकती है। कहीं भ्रांति हो गई हो, कहीं भूल हो गई हो। जब तक तुम्हारा अंतर-अनुभव गवाही न दे, तब तक दुनिया की कोई चीज प्रमाण नहीं बन सकती। हां, मान ले सकते हो, सांत्वना होगी, थोड़ी राहत मिलेगी, मगर राहत और सत्य एक ही नहीं हैं। अक्सर तो ऐसा हो जाता है, जो आदमी राहत पाने का बहुत आदी हो जाता है, वह सत्य से सदा के लिए वंचित रह जाता है। क्योंकि वह व्यर्थ की बातें में ही राहत कर लेता है।
सत्य सुविधा नहीं है, राहत नहीं है, अपने को समझा-बुझा लेना नहीं है। सत्य अनुभव है। और अनुभव में जलना पड़ता है। सत्य अग्नि है। सत्य बहुत आग्नेय है। तुम्हें जलाएगा, निखारेगा, तभी तुम कुंदन बनोगे, तभी तुम्हारा सोना शुद्ध होगा।
मान लेने से यह नहीं हो सकता। मानने के कारण ही तो इतने लोग भटके हुए हैं। मानते तो सभी हैं--कोई कृष्ण को, कोई क्राइस्ट को, कोई मोहम्मद को, कोई महावीर को--मानते तो सभी हैं। फिर जो मोहम्मद को मानता है वह महावीर को नहीं मान सकता। जो महावीर को मानता है वह मोहम्मद को नहीं मान सकता। फिर इनमें से कौन आप्तपुरुष है? महावीर को मानने वाला मोहम्मद के मानने वाले के मन में संदेह तो पैदा कराएगा ही--कौन आप्तपुरुष है? आखिर कुछ लोग हैं जो महावीर को मानते हैं, कुछ लोग जो मोहम्मद को मानते हैं; कुछ लोग जो क्राइस्ट को, कुछ लोग जो कृष्ण को; इनमें कौन सच है? इस तरह की श्रद्धा विकल्पों से मुक्ति नहीं ला सकती।
इसलिए जिन्होंने शांडिल्य के इस सूत्र--
एतेन विकल्पोऽपि प्रत्युक्तः।
‘इससे विकल्प का नाश हो गया।’
इसका ऐसा अर्थ किया है कि चूंकि सत्पुरुषों ने कहा है, चूंकि सद्शास्त्र दोहराते हैं, इसलिए अब कोई शंका-संदेह का कारण नहीं रहा, ऐसा अर्थ मैं नहीं करना चाहूंगा। इतनी आसानी से संदेह नहीं मिटते, संदेह बड़े गहरे हैं। सच तो यह है कि स्वयं परमात्मा भी तुम्हारे सामने खड़ा हो तो भी संदेह नहीं मिटते, जब तक कि परमात्मा तुम्हारे भीतर खड़ा न हो जाए। उतनी दूरी भी रहे कि वह सामने खड़ा है, उतना भी फासला रहे--हाथ भर का फासला--तो भी संदेह उठते ही चले जाते हैं। पता नहीं धोखा हो; पता नहीं कोई चालबाज हो; पता नहीं कोई माया हो; पता नहीं मैं कोई सपना देख रहा हूं, कल्पना कर ली है; भरोसा कैसे आए? भरोसा स्वानुभव से ही आता है। स्वानुभव ही श्रद्धा है।
तो मैं इसका क्या अर्थ करूं?
मैं इसका अर्थ करना चाहूंगा कि जहां न भक्त बचता, न भगवान, ऐसी पराभक्ति में विकल्प समाप्त होते हैं।
एतेन विकल्पोऽपि प्रत्युक्तः।
उस पराभक्ति में जाकर विकल्प समाप्त हो जाते हैं। जहां तुम्हारे सब विकल्प समाप्त हो जाएं, समझना कि पराभक्ति आई। जहां कोई विकल्प न बचे।
जब तक दो हैं, तब तक विकल्प रहेंगे। जब तक मैं हूं और तू है, तब तक विकल्प रहेंगे। तब तक संघर्ष चलेगा। जब एक ही बचता है--न मैं, न तू, जब वह बचता है--तत्, तब विकल्प बचने की कोई जगह न रही। अब विकल्प किसमें उठेंगे--न भक्त है, न भगवान है, भगवत्ता रही। उस भगवत्ता में, उस पराभक्ति में, उस परम अवस्था में, जहां बीज गया, वृक्ष गया, फूल गया, सिर्फ सुगंध रही--अदृश्य सुगंध--वहीं जाकर विकल्प शांत होते हैं।
देव भक्तिः इतर अस्मिन् साहचर्य्यात्।
‘ईश्वर में भक्ति के सिवाय और देवताओं की जो भक्ति है वह पराभक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इस प्रकार की भक्ति की नाईं और-और साधनों में भी भक्ति देख पड़ती है।’
और जो मैंने अर्थ किया, वह इस आने वाले सूत्र से और भी स्पष्ट हो जाएगा, और भी पुष्ट हो जाएगा।
शांडिल्य कहते हैं: ईश्वर में भक्ति के सिवाय और देवताओं की जो भक्ति है वह पराभक्ति नहीं है। क्या अर्थ होगा? हिंदू को मैं धार्मिक नहीं कहता, और मुसलमान को भी धार्मिक नहीं कहता, और जैन को भी नहीं, और बौद्ध को भी नहीं। जब तक जैन-हिंदू-मुसलमान-ईसाई मौजूद हैं, तब तक कोई धार्मिक नहीं होता। क्योंकि ईसाई का अपना परमात्मा है, हिंदू का अपना परमात्मा है। अभी तो परमात्मा तक कई हैं। अभी तो परमात्मा में भी भेद है। अभी तो भक्त और भगवान का भेद मिटने का तो सवाल ही दूर, अभी तो भगवानों में भेद है। अभी तो भगवान भी एक नहीं है, भक्त का उससे एक होना तो बहुत दूर की बात है, दूर का सपना है। जब हिंदू झुकता है तो वह भगवान के चरणों में नहीं झुकता, वह हिंदू भगवान के चरणों में झुकता है।
कहानी है कि तुलसीदास को कृष्ण के मंदिर में ले जाया गया जब वे वृंदावन गए, वे झुके नहीं। कृष्ण के सामने और तुलसीदास झुकें! नहीं झुके। उन्होंने कहा कि जब तक धनुषबाण हाथ न लोगे, तब तक मैं नहीं झुकूंगा। यह मजा देखते हैं! यह अहंकार देखते हैं! भक्त भगवान पर भी शर्त लगा रहा है। भक्त यह कह रहा है कि मेरी शर्त के अनुकूल होओगे तो झुकूंगा। धनुषबाण हाथ लो, तो तुलसी का माथा झुके। मैं धनुषबाण वाले राम को मानता हूं, मैं यह बांसुरी वाले कृष्ण को नहीं मानता।
तुलसीदास के पास भी आंखें नहीं मालूम होतीं। नहीं तो जिसने धनुषबाण लिया है, उसी ने बांसुरी भी बजाई है। और ये तो दोनों ही हिंदू थे--ये कृष्ण और राम की दोनों धारणाएं हिंदू थीं। जरा मस्जिद में सोचो तुलसीदास की क्या गति होती! भीतर ही न घुसते। मंदिर में चले गए, यह उनकी बड़ी कृपा! कम से कम भीतर तो चले गए! इतना अनुग्रह तो किया परमात्मा पर, कि कृष्ण को एक मौका तो दिया कि अगर झुकवाना हो मुझे, तो धनुषबाण हाथ ले लो! लेकिन मस्जिद में क्या करते, वहां तो हाथ ही नहीं हैं! बांसुरी लेने वाला तो धनुषबाण भी कभी ले सकता है, मगर मस्जिद में तो हाथ ही नहीं हैं, कोई प्रतिमा ही नहीं, वहां क्या करते? वहां तो भीतर जा ही नहीं सकते थे।
अगर किसी जैन मंदिर में गए होते और महावीर खड़े थे, तो महावीर से यह कहना कि धनुषबाण हाथ लो, बड़ी बेहूदी बात हो जाती। क्योंकि वह आदमी धनुषबाण के बिलकुल विपरीत था। अहिंसा परमो धर्मः। वह धनुषबाण हाथ में लेने की ही वजह से तो राम जैनों को स्वीकार नहीं हो सकते। जैन नहीं झुक सकता राम के मंदिर में। कैसे झुके? ये धनुषबाण लिए खड़े हैं! और धनुषबाण तो पाप का प्रतीक है, हिंसा का प्रतीक है। और हिंसा से कहीं हिंसा मिटी है? हिंसा से तो और हिंसा जन्मती है। जैन शास्त्रों में राम की कथाएं हैं--उनको महापुरुष कहा है, लेकिन भगवान नहीं। बस उतने दूर तक जैन उनको मान सकते हैं--कि एक महापुरुष हैं, जैसे और बहुत महापुरुष हुए, लेकिन भगवान नहीं। बुद्ध का भी नाम अगर जैन उल्लेख करते हैं तो उनको महात्मा कहते हैं, भगवान नहीं। महात्मा मान सकते हैं। लेकिन भगवान! धारणा उनकी है अपनी। हर एक की अपनी धारणा है। और जब तक तुम्हारी धारणा है, तब तक तुम भगवान से न जुड़ सकोगे--धारणा ही बाधा है। तब तक हिंदू हिंदू भगवान के सामने झुक रहा है--और हिंदू भगवान कहीं है? भगवान तो बस भगवान है--न हिंदू, न मुसलमान, न ईसाई।
मैंने एक कहानी सुनी है। एक फकीर रात सोया। उसने एक सपना देखा कि वह स्वर्ग पहुंच गया है। और बड़ी भीड़-भड़क्का है; स्वर्ग बड़ा सजा है और बड़ा जुलूस निकल रहा है--शोभायात्रा! उसने पूछा, वह भी खड़ा हो गया भीड़ में कि क्या बात है? आज भगवान का जन्मदिन है, किसी राहगीर ने कहा, उत्सव मनाया जा रहा है। उसने कहा, अच्छे भाग्य मेरे कि ठीक दिन आया स्वर्ग। जुलूस निकलते हैं। निकले रामचंद्रजी धनुषबाण लिए हुए, और लाखों-करोड़ों लोग उनके पीछे। फिर निकले मोहम्मद अपनी तलवार लिए, और लाखों-करोड़ों लोग उनके भी पीछे। और फिर निकले बुद्ध, और फिर निकले महावीर, और जरथुस्त्र, और निकलते गए, निकलते गए...और आखिर में जब सब निकल गए तो एक आदमी एक बूढ़े से मरियल से घोड़े पर सवार निकला। जनता भी जा चुकी थी, लोग भी जा चुके थे, उत्सव समाप्त होने के करीब था, आधी रात हो गई, इस फकीर को इस आदमी को देख कर हंसी आने लगी कि ये भी सज्जन खूब हैं, ये काहे के लिए निकल रहे हैं अब! और इनके पीछे कोई भी नहीं। उसने पूछा, आप कौन हैं और घोड़े पर किसलिए सवार हैं? और यह कैसी शोभायात्रा है, आपके पीछे कोई नहीं! उसने कहा, मैं क्या करूं, मैं भगवान हूं। कुछ लोग हिंदुओं के साथ हो गए हैं, कुछ बौद्धों के साथ, कुछ ईसाइयों के साथ, कुछ मुसलमानों के साथ, मेरे साथ कोई भी नहीं, मैं अकेला हूं। मेरा जन्मदिन मनाया जा रहा है, तुम्हें मालूम नहीं?
घबड़ाहट में फकीर की नींद खुल गई। तुम भी सोचोगे तो घबड़ाहट में तुम्हारी भी नींद खुल जाएगी।
शांडिल्य का सूत्र बड़ा अदभुत है, शांडिल्य कहते हैं--
देव भक्तिः इतर अस्मिन् साहचर्य्यात्।
ईश्वर में भक्ति के सिवाय और-और देवताओं की जो भक्ति है वह पराभक्ति नहीं है। और-और देवता अर्थात विशेषण वाले भगवान। और-और देवता अर्थात धारणाओं में आबद्ध, सीमाओं में आबद्ध। भगवान का अर्थ होता है: जो एक है, जो समस्त में व्याप्त है। तुम हिंदू होना छोड़ो तो ही उससे संबंध जुड़े। तुम मुसलमान होना छोड़ो तो ही उससे संबंध बने। यही मेरी शिक्षा है। यही मैं सिखा रहा हूं सुबह-शाम कि तुम मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे से मुक्त हो जाओ, तो तुम्हें उसका मंदिर मिले। और तुम धनुष वाले राम, और बांसुरी वाले कृष्ण, और नग्न खड़े महावीर से मुक्त हो जाओ, तो तुम्हें उसकी झलक मिले। नहीं तो झलक असंभव है।
खयाल रखना, अगर तुम्हारे भगवान की धारणा किसी दूसरे के भगवान की धारणा के विपरीत पड़ती है, तो यह भगवान सच्चा नहीं हो सकता। ऐसे भगवान को खोजो, जिसमें सभी धारणाएं लीन हो जाती हैं। जो धारणातीत है। जो शब्दों के पार है। जो सिद्धांतों की पकड़ में नहीं आता। शास्त्र जिसकी तरफ इंगित करते हैं, मगर जिसकी व्याख्या नहीं कर पाते। महर्षि जिसकी चर्चा करते हैं, लेकिन जो चर्चा में बंध नहीं पाता। समझाते हैं और नहीं समझा पाते।
लाओत्सु ने कहा है: उसका क्या नाम है, मुझे मालूम नहीं, काम चलाने के लिए उसको मैं ‘ताओ’ कहूंगा। काम चलाने को! उसका क्या नाम है, मुझे मालूम नहीं। वह अनाम है। काम चलाने को ‘ताओ’ कहूंगा। अब ताओ कहो, कि भगवान कहो, प्रभु कहो, निर्वाण कहो, धर्म कहो, कुछ भेद नहीं पड़ता, सब कामचलाऊ हैं, सब नाम कामचलाऊ हैं।
जरा गौर से देखो, तुम पैदा हुए तब अनाम पैदा हुए। मगर काम तो चलाना पड़ेगा, तो तुम्हारा एक नाम रखा। नाम तुम्हारा रखा हुआ है--जरूरत थी, बिना नाम के अड़चन आती, चिट्ठी-पत्री आती तो कैसे तुम तक पहुंचाते? और कोई पुकारता तो कैसे पुकारता? और इतनी भीड़-भाड़ है, इतने लोग हैं!
अभी मैंने देखा, अमरीका की एक अदालत ने फैसला दिया। एक आदमी अपना नाम बदलना चाहता था, अदालत ने इनकार कर दिया कि नाम नहीं बदल सकते। आदमी अपना नाम बदलना चाहता था और नाम की जगह नंबर चाहता था--1001। अदालत मुश्किल में पड़ी, क्योंकि इसके पहले कोई घटना नहीं है कि किसी ने कभी नंबर अपना नाम रखा हो। बड़ा सोच-विचार किया और फैसला दिया कि नहीं, यह हो नहीं सकेगा, क्योंकि पहले यह कभी हुआ नहीं।
अब यह बड़ी मूढ़ता की बात है। जब मैंने यह निर्णय देखा तो मुझे बड़ी हैरानी हुई--पहले यह हुआ नहीं, तो यह हो नहीं सकता। तो फिर यह होगा कैसे? और पहले भी अगर आता यह आदमी, तब भी तुम यही कहते कि पहले हुआ नहीं। तब तो यह कभी हो ही नहीं सकता। एक बार तो कम से कम होने दो, तब पहले हुआ, फिर सुविधा बन जाएगी। एक आदमी को तो पहले होने दो!
मगर अदालत की भी झंझट थी। झंझट यह थी--और उस आदमी की थोड़ी गलती थी, अगर वह मुझसे सलाह ले तो उसको मैं कहूं कि तू थोड़ी सी सुधार इसमें कर। उसने अंक लिखे थे; अंक नहीं लिखने चाहिए, अक्षर लिखता तो रास्ता बन जाता। उसने लिखा--1001, अंक। अब इसमें झंझट है। क्योंकि इसको कोई कैसा पढ़ेगा, इस पर निर्भर है। तो नाम में अड़चन हो जाएगी। कोई पढ़ सकता है--दस सौ एक; कोई पढ़ सकता है--एक हजार एक; तो ये तो दो नाम हो गए एक नाम में! और इसमें कठिनाई खड़ी हो सकती है। उसे भाषा में लिखना था, अक्षरों में लिखना था--एक हजार एक। तो कानूनी झंझट नहीं आती।
मगर अदालत मूढ़ मालूम होती है--सभी अदालतें मूढ़ होती हैं। मूढ़ इसलिए होती हैं कि वे अतीत से बंधी होती हैं। उनके पास भविष्य की कोई योजना नहीं होती। चूंकि पहले कभी नहीं हुआ, इसलिए नहीं होने देंगे, यह भी कोई बात हुई! यह इस आदमी का कसूर है कोई कि पहले किसी ने नहीं चाहा! इसकी इस आदमी की तो कहीं भी भूल नहीं है। सिर्फ इस कारण कि पहले किसी ने नहीं किया, तुम भी नहीं कर सकोगे, तब तो भविष्य को मार डालोगे तुम। इसलिए सब कानून भविष्य-विरोधी होते हैं। और सब सिद्धांत अतीत-आग्रही होते हैं। और जितना सिद्धांतों और नियमों का जाल होता है उतना ही भविष्य के जन्म में अड़चन पड़ती है। इसका कोई गलत मामला नहीं है, ठीक, अच्छी बात है, 1001 सही। मगर नाम तो चाहिए ही पड़ेगा। बिना नाम के काम नहीं चलेगा। नंबर हो तो चलेगा, लेकिन कुछ न कुछ नाम चाहिए, कुछ प्रतीक चाहिए। यद्यपि भीतर तुम नामरहित हो।
लाओत्सु ठीक कहता है कि उसका कोई नाम नहीं है और मुझे पता नहीं है कि उसका कोई नाम हो सकता है, इसलिए काम चलाने के लिए ‘ताओ’ कहूंगा। काम चलाने को किसी ने राम कहा है; और काम चलाने को किसी ने कृष्ण कहा है; और काम चलाने को किसी ने ईसा कहा है; यह सब काम चलाना है। उसका कोई नाम नहीं है। तुम अनाम में उतरो तो ही भक्ति का जन्म होगा।
ईश्वर में भक्ति के सिवाय--उस अनाम तत्व में डूबने के सिवाय--और-और देवताओं की जो भक्ति है वह पराभक्ति नहीं है।
कोई गणेश की भक्ति कर रहा है, कोई कालीमाता को पूज रहा है; कोई मस्जिद जाता, कोई मंदिर जाता; कितने-कितने देवी-देवता हैं! जब इस देश की संख्या तैंतीस करोड़ हुआ करती थी, तब लोग कहते थे कि तैंतीस करोड़ देवी-देवता हैं। अब तो संख्या साठ करोड़ है, अब देवी-देवता भी साठ करोड़ हो गए होंगे। क्योंकि हर आदमी का अपना देवी-देवता है। हर आदमी की अपनी धारणा है। हर आदमी का अपना मन है। उसी से तो देवी-देवता निर्मित होते हैं। इन देवी-देवताओं में उलझे तो तुम अपने अहंकार के पार कभी न जा सकोगे--ये तुम्हारे अहंकार की ही छायाएं हैं। इनसे मुक्त हो जाना है।
तुम क्यों जैन मंदिर जाते हो? क्योंकि बचपन से, संयोग की बात थी, तुम ऐसे घर में पैदा हुए जहां लोग जैन मंदिर जाते थे, बस इतनी सी बात है। इसमें कुछ और ज्यादा सार नहीं है। अगर तुम पैदा हुए थे तभी उठा कर तुम्हें मुसलमान घर में रख दिया होता, तो तुम कभी भूल कर जैन मंदिर न गए होते। खून वही होता, हड्डी-मांस-मज्जा वही होती, लेकिन तुम जाते मस्जिद। यह तो संस्कार की बात हो गई। और अगर तुम्हें रूस भेज दिया गया होता पैदा होते ही से, तो तुम मस्जिद भी न जाते और जैन मंदिर भी न जाते, तुम मानते कि ईश्वर है ही नहीं। तुम्हें जो सिखाया जाता वही तुम मानते। जो तुम्हें सिखाया गया है उससे मुक्त होना पड़ेगा, तो तुम वह जान सकोगे जो है। जिसे कम्युनिज्म सिखाया गया है जन्म से, दूध में घोंट कर पिलाया गया है, उसे कम्युनिज्म से मुक्त होना पड़ेगा। और जिसे हिंदूइज्म सिखाया गया है, उसे हिंदूइज्म से मुक्त होना पड़ेगा। इज्म से मुक्त होना ही पड़ेगा, वाद से मुक्त होना ही पड़ेगा। वादी कभी सत्य तक नहीं पहुंचता है। वहां तो निर्विवाद चित्त चाहिए।
शांडिल्य कहते हैं: इस प्रकार की भक्ति पराभक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इस प्रकार की भक्ति की नाईं और-और स्थानों में भी भक्ति देख पड़ती है।
इसे समझना। छोटे-छोटे बच्चे लड़ पड़ते हैं कि मेरे पिता तुम्हारे पिता से ज्यादा ताकतवर हैं, कि मेरी मां तुम्हारी मां से ज्यादा सुंदर है, कि मेरी अध्यापिका तुम्हारी अध्यापिका से ज्यादा बुद्धिमान है। यही झगड़ा जारी रहता है जिंदगी भर, कि मेरा मंदिर तुम्हारे मंदिर से ज्यादा पवित्र, कि मेरा गुरु तुम्हारे गुरु से ज्यादा सच्चा, कि मेरा शास्त्र तुम्हारे शास्त्र से ज्यादा प्रामाणिक। ये बचकानी बातें हैं। ये चित्त के विकास के लक्षण नहीं हैं, अप्रौढ़ता के लक्षण हैं। और इन सबके पीछे अहंकार है, जब कोई बच्चा कहता है कि मेरे पिता तुम्हारे पिता से ज्यादा ताकतवर, तो वह यह क्या कह रहा है--कि मैं ताकतवर पिता का बेटा हूं, मैं ताकतवर! वह पिता के बहाने अपनी घोषणा कर रहा है। जब तुम कहते हो, मेरा धर्म सबसे प्राचीन धर्म दुनिया का। तो तुम यह कह रहे हो कि मेरा धर्म है, कोई साधारण बात है! मेरा है, प्राचीन होना ही चाहिए! मेरी किताब दुनिया की सबसे अच्छी किताब होनी ही चाहिए। फिर वह किताब कोई भी हो। तुम्हारी किताब है तो सबसे अच्छी होनी ही चाहिए। ये अहंकार की छिपी हुई घोषणाएं हैं। यह भक्ति नहीं है। यह कई रूपों में प्रकट होती है--माता की भक्ति, पिता की भक्ति, गुरु की भक्ति, देश भक्ति--मेरा देश!
सभी देशों में वही भ्रांति है। भारत में रहने वाले लोग सोचते हैं कि यह पुण्य-भूमि है, और सारी भूमियां पाप-भूमियां हैं। और भूमियां जैसे अलग-अलग हैं! जैसे हिंदुस्तान और पाकिस्तान कहीं कटे हैं भूमि से! और मजा यह है कि पाकिस्तान भी उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले पुण्य-भूमि हुआ करता था, अब नहीं है! उन्नीस सौ सैंतालीस के पहले वह भी भारत था, तो पुण्य-भूमि था। जब से नक्शे पर एक लकीर खिंच गई--नक्शे पर खिंची है, जमीन पर नहीं। जमीन पर कौन लकीर खींच सकेगा? जमीन तो अविभाज्य है। नक्शे पर एक लकीर खिंच गई, तब से पाकिस्तान पुण्य-भूमि नहीं है, तब से वहां पापी रहने लगे। और वे भी इसी भ्रांति में हैं। इसीलिए तो पाकिस्तान कहते हैं उसको। पाकिस्तान मतलब पवित्र-भूमि, पाक! वे भी यही कह रहे हैं कि तुम हिंदुस्तान में रहते हो? हम पाकिस्तान में रहते हैं! हिंदुस्तान में रखा क्या है? यह पाक-भूमि है, यह पवित्र-भूमि है। एक सी मूढ़ताएं हैं।
चीनियों से पूछो, तो वे कहते हैं, हमारी संस्कृति सबसे प्राचीन है। और हिंदुओं से पूछो, तो वे कहते हैं, हमारी संस्कृति सबसे प्राचीन है। और मिश्रियों से पूछो, तो वे कहते हैं, तुम हो क्या हमारे सामने, हम बहुत प्राचीन हैं। सब अपनी किताबों को प्राचीन सिद्ध करते हैं, सब अपने झंडों को ऊंचा करते हैं--झंडा ऊंचा रहे हमारा! जो भी तुम्हें कभी आदमी मिल जाए झंडा लिए हुए, समझ लेना पागल है। और जो कहे झंडा ऊंचा रहे हमारा, समझना कि इस आदमी के पास बुद्धि नाम की चीज ही नहीं है। झंडा ऊंचा रहे हमारा! इससे ज्यादा मूढ़ता की और क्या बात होगी? मगर इस पर झगड़े हो जाते हैं, युद्ध हो जाते हैं। लोग मारे जाते हैं, कट जाते हैं--मातृभूमि पर हमला हो गया। मेरी मातृभूमि!
शांडिल्य कहते हैं: इस तरह की भ्रांतियां और-और जगह भी देखी जाती हैं, यह कोई भक्ति नहीं है। देश-भक्ति भक्ति नहीं है। और न ही देवता की भक्ति भक्ति है। फिर भक्ति क्या है? शांडिल्य कहते हैं: भक्ति तो सिर्फ एक है--विराट के साथ तुम लीन हो जाओ, जैसे बूंद सागर में गिर जाती है। अनाम में अनाम हो जाओ! उसके साथ सेतु जोड़ लो। दावेदार मत बनो तुम, दावेदार बन कैसे सकते हो? जब तक दावा है तब तक दूरी है, जब तक दूरी है तब तक भक्ति कहां!
देव भक्तिः इतर अस्मिन् साहचर्य्यात्!
ईश्वर में भक्ति के सिवाय...ईश्वर अर्थात न हिंदू का, न मुसलमान का; न जैन का, न बौद्ध का; न हिंदुस्तान का, न चीन का; ईश्वर यानी वह अनाम परम तत्व जिससे हम सब आए और जिसमें हम सब एक दिन लीन हो जाएंगे; जो हमारा स्रोत है और हमारा गंतव्य है; जो हमारा बीज है और जो हमारा फल है; जिसमें हम इस क्षण भी जी रहे हैं; जो हममें अभी भी सांस फूंक रहा है; जो हमारा प्राणों का प्राण है; उस परात्पर में लीन हो जाने का नाम भक्ति है।
पराभक्ति है परम की, परात्पर की घोषणा। मेरा-तेरा वहां नहीं। मैं ही वहां नहीं है तो तेरा तो हो नहीं सकता। मेरा देवता, मेरा भगवान, ऐसी वृत्ति क्षुद्र है। जो भगवान सबका नहीं, वह भगवान ही नहीं। जो भगवान किसी का है, उसी मात्रा में कम भगवान हो गया। शब्दों से ऊपर उठो। क्षुद्र सीमाओं को तोड़ो। इन सीमाओं के कारण ही तुम कष्ट में हो। विस्तार से, विराट से आनंद उपजेगा। तुम क्षुद्र से अपने को बांध रहे हो। छोटे-छोटे बिलों में घुस गए हो--वहां तड़प रहे हो, और निकलते भी नहीं, और बिल को छोटे से छोटा करते चले जाते हो; आखिर में तुम्हीं बचते हो, सिर्फ तुम्हारा अहंकार ही बचता है आखिर में। अगर छोटे होते चले जाओगे तो अहंकार ही बचेगा आखिर में, अगर बड़े होते चले जाओगे तो सब बचेगा, अहंकार भर नहीं बचेगा। और ये दो ही संभावनाएं हैं--या तो मैं, या सर्व। सर्व के लिए मैं को समर्पित कर दो। और मैं है भी व्यर्थ। मैं है भी झूठा। लेकिन झूठ से हमारा मोह ज्यादा है। हम सत्य को समर्पित करने को तैयार हैं, झूठ को छोड़ने को नहीं। इस झूठ से हमारे बड़े लंबे संबंध हैं, बड़े पुराने संबंध हैं। इसी झूठ को हम नये-नये ढंग से स्थापित करते चले जाते हैं। नई-नई तरकीबें खोज लेते हैं, नये-नये निमित्त खोज लेते हैं, मगर झूठ पुराना है, वही का वही है।
तुम देखो, अपने भीतर जांच करना, तुम जिन-जिन बातों की घोषणा करते हो कि यह श्रेष्ठ, वहां अपने मैं को छिपा हुआ पाओगे। वेद श्रेष्ठ, जब कोई कहे, तो तुम जान ले सकते हो कि यह आदमी हिंदू है। बाइबिल श्रेष्ठ, तो तुम जान सकते हो कि यह आदमी ईसाई है। क्योंकि आदमी अपनी ही श्रेष्ठता की घोषणाएं करते हैं--बहाने कुछ भी हों। अक्सर ऐसा हो जाता है कि जो वेद की श्रेष्ठता की घोषणा कर रहा है, वेद शायद पढ़ा ही न हो।
एक बार एक वृद्ध सज्जन मुझे मिलने आए, अमृतसर के निवासी थे। कहने लगे, वेद तो परम है। आर्यसमाजी थे। मैंने उनसे पूछा, वेद आपने कभी पढ़ा? थोड़ा तिलमिलाए। कहा कि नहीं, पढ़ा तो नहीं। तो मैंने कहा, घोषणा कैसे कर रहे हैं? सामने ही आलमारी में वेद की किताब रखी थी, मैं वह निकाल कर लाया, मैंने उनसे कहा, कोई भी पन्ना खोलिए और एक पन्ना पढ़ डालिए--जोर से। वे कहने लगे, क्यों? मैंने कहा, उससे सिद्ध हो जाएगा कि श्रेष्ठता क्या है। जो पन्ना खुल जाए! यह भी नहीं कहता कि कोई खास पन्ना। उन्होंने किताब खोली और एक पन्ना पढ़ा--बीच में ही रुक गए। क्योंकि वेद में निन्यानबे प्रतिशत तो कचरा है। हीरे हैं, मगर मुश्किल से कहीं-कहीं। क्योंकि वेद सिर्फ हीरों का संग्रह नहीं है, उस दिन की सारी बातों का संग्रह है। अखबार में भी कभी-कभी हीरा मिल जाता है। वेद उस दिन का अखबार है। उस दिन का इतिहास भी उसमें है, उस दिन की कविता भी उसमें है, उस दिन का पुराण भी उसमें है, उस दिन का धर्म, दर्शन भी उसमें है, उस दिन के...उस दिन जो भी था उस सबकी झलक उसमें है। उसमें हीरे ही हीरे नहीं हो सकते। उस दिन की राजनीति, कूटनीति, धोखाधड़ी, सब उसमें है। वह उस दिन का दर्पण है। यही तो उसकी खूबी है।
एक पन्ना पढ़ा, बीच में ही रुक गए, कहने लगे कि यह तो मैंने सोचा ही नहीं था कि इस तरह की बातें...। तुमने भी नहीं सोची होंगी कि वेद में कोई ब्राह्मण प्रार्थना कर रहा है परमात्मा से कि मेरी गाय के थन बड़े हो जाएं! तुम कहोगे--यह कोई बात हुई? और यहीं तक बात नहीं रुकती, मेरे दुश्मन की गाय के थन छोटे हो जाएं।
मगर मैं कहता हूं, यह वेद सिर्फ प्रतिफलन है मनुष्य का। ऐसा आदमी है। वेद ईमानदार है। मैं तो प्रशंसा करता हूं इस बात की कि वेद ईमानदार है। उसने बताया कि आखिर ऋषि भी तुम्हारे तुम जैसे ही हैं। उनके भी पैर मिट्टी के हैं, और उनकी खोपड़ी में भी तुमसे कुछ ऊंची बातें नहीं उठतीं। उनकी प्रार्थनाएं भी क्षुद्र आकांक्षाओं से भरी हैं, कि मेरे खेत में वर्षा ज्यादा हो जाए, और पड़ोसी के खेत में बिलकुल न हो। यही तो तुम भी चाहते हो कि तुम्हारे खेत में वर्षा हो जाए और पड़ोसी के खेत में वर्षा न हो। यही तो आदमी की सामान्य आकांक्षा है।
मैंने सुना है, एक आदमी ने बहुत भक्ति की, बहुत भक्ति की और परमात्मा प्रकट हुआ, उसने कहा, मांग ले तू क्या मांगता है! उसने कहा, जो मैं मांगूं, वह मुझे मिल जाए। परमात्मा ने कहा, ठीक! लेकिन एक शर्त मेरी भी, तुझसे दुगना तेरे पड़ोसियों को मिल जाएगा। तू जो मांग वह तुझे मिलेगा, मगर तत्क्षण तुझसे दुगना तेरे पड़ोसियों को मिल जाएगा।
उस आदमी ने छाती पीट ली, उसने कहा कि मार डाला! भगवान तो तिरोहित हो गए। अब वह आदमी बड़ी मुश्किल में। मांगना चाहे कि लाख रुपये चाहिए, मगर लाख मांगे तो पड़ोसियों को दो लाख मिल जाएंगे! आखिर उसने किसी वकील की तलाश की। वकील तो मिल ही जाते हैं। उसने खोजा किसी को कि कोई तरकीब निकालो, इस शर्त में से कुछ रास्ता निकालो। एक वकील ने कहा, इसमें क्या रखा है! तू मांग कि तेरे घर के सामने एक कुआं खुद जाए। उसने कहा, इससे क्या होगा? उसने कहा, पड़ोसियों के सामने तू पहले कुआं तो खुदने दे! उसने मांगा कि मेरे घर के सामने एक कुआं खुद जाए। कुआं खुद गया--और पड़ोसियों के सामने दो-दो कुएं। और वकील ने कहा, अब तू मांग कि मेरी एक आंख फूट जाए। पड़ोसियों की दो-दो आंखें फूट गईं। और सामने दो-दो कुएं! तो जो गति हो गई उस गांव की! मगर वह आदमी बड़ा प्रसन्न था। घूमता था बस्ती में--अकेला ही बचा, अंधों में कनवा राजा--और लोग तड़प रहे हैं, कुओं में गिरे हैं, वह देख रहा है मजा, कि यह रहा मजा!
भगवान ने भी न सोचा होगा कि वकील रास्ता निकाल लेंगे। लेकिन उस आदमी ने लाख रुपये नहीं मांगे सो नहीं मांगे। उसने महल मांगना चाहा था, वह नहीं मांगा। मांगने का मजा ही चला गया। मांगने का मजा ही इसमें है कि पड़ोसी से ज्यादा तुम्हारे पास हो।
तो वह जो वेद की ऋचा है वह मनुष्य की सहज, स्वाभाविक, पाशविक, क्षुद्र आकांक्षा की प्रतीक है। मैं तो कहता हूं यह सुंदर है। मगर वे वेद के पोषक एकदम बेचैन हो गए। उन्होंने कहा, मैंने तो नहीं सोचा था इस तरह की छोटी बातें वेद में होंगी।
इस तरह की छोटी बातें बाइबिल में भी हैं। इस तरह की छोटी बातें कुरान में भी हैं। मगर जो जिस शास्त्र की घोषणा करता है, वह हर चीज को ठीक सिद्ध करना चाहता है। शायद इसी डर से वह पढ़ता भी नहीं कि कहीं कुछ ऐसा मिल जाए कि जिससे मेरी श्रेष्ठता की घोषणा में अड़चन पड़े, पढ़ने-वढ़ने की झंझट में भी नहीं पड़ता। लोग लड़ने को तैयार होते हैं, पढ़ने को कौन तैयार है!
तुम अपने भीतर जांचना, निरीक्षण करना, जब भी तुम किसी बात की घोषणा करते हो कि यह ठीक, यह श्रेष्ठ, तो क्या परोक्षरूपेण तुम अपने अहंकार की घोषणा नहीं कर रहे हो? और जहां अहंकार की घोषणा है, वहीं पाप है। और जाग कर धीरे-धीरे अपने अहंकार की सारी घोषणाओं को विलीन कर दो। जिस दिन तुम्हारे अहंकार की सारी घोषणाएं जा चुकी होंगी, उस क्षण तुम पाओगे भगवान से संबंध होना शुरू हुआ। फिर न वेद बाधा है, न बाइबिल, न कुरान; फिर न कृष्ण, न राम, न अल्लाह। फिर तुम्हें दिखाई पड़ेगा वह, लाओत्सु कहता है--उसका क्या नाम है, मुझे मालूम नहीं, काम चलाने को ‘ताओ’ कहता हूं। फिर काम चलाने को तुम ‘राम’ कह लेना, कोई हर्जा नहीं है। मगर काम चलाने को, याद रहे, भूल मत जाना, कि यह काम चलाने की बात है।
योगस्तूभयार्थमपेक्षणात्प्रयाजवत्।
‘और योग तो वाजपेय यज्ञ में प्रयाज की भांति भक्ति और ज्ञान का अंग स्वरूप है।’
और शांडिल्य कहते हैं कि जैसे ज्ञान समझ हो तो सहयोगी हो सकता है भक्ति में...समझ हो तो, ज्ञान अपने आप में सहयोगी नहीं होता। समझ लेना ठीक से! समझ हो तो जहर भी अमृत हो सकता है। और ज्ञान जहर है! जरा भी नासमझी की तो औषधि नहीं रह जाएगी; उसी से व्याधि पैदा हो जाएगी। ज्ञान समझपूर्वक हो। समझ का मतलब ही यह है: यह बात याद रहे कि जो मैंने नहीं जाना है वह सिर्फ जानकारी है। यह बात याद रहे कि औरों ने जाना है, मुझे खोजना है अभी।
ज्ञान से प्यास जगे सत्य की, तब तो समझ। और ज्ञान से तृप्ति होने लगे कि पा लिया, जान लिया, तो मृत्यु। तो तुम मारे गए। तो तुमने आत्महत्या कर ली। ज्ञान की फांसी लगा ली। ज्ञान में बोध होना चाहिए। यह याद सदा ही रहे कि यह मेरा जाना हुआ नहीं है। बुद्ध ने कहा है। बुद्ध ने कहा है तो ठीक ही कहा होगा। शांडिल्य ने कहा है। शांडिल्य ने कहा है तो ठीक ही कहा होगा। लेकिन मैं नहीं जानता हूं। और जब तक मैं नहीं जानता हूं, मैं कैसे गवाह बनूं? मुझे खोजना है अभी। और शांडिल्य ने कहा है, बुद्ध ने कहा है, नारद ने कहा है, कृष्ण ने कहा है, इतने लोगों ने कहा है तो खोजना होगा। फिर बैठूं न, जीवन गंवाऊं न, मैं भी इस खोज पर निकलूं। और इन सबने कहा कि परम आनंद है उस उपलब्धि से, तो मेरा जीवन ऐसे ही रेगिस्तान न रह जाए, मरूद्यान बनाऊं, एक बगिया लगाऊं, फूल खिलाऊं। मगर मेरे फूल खिलेंगे तभी गवाही दे सकूंगा, तभी कह सकूंगा बुद्धों से कि हां, ठीक कहा है। जब तक मेरे फूल न खिलेंगे तब तक तुम्हारी बात सुन कर अपनी प्यास को जगाऊंगा, अपनी खोज को त्वरा दूंगा, तीव्रता लाऊंगा, और भी बल लगाऊंगा, अपनी सारी ऊर्जा समर्पित कर दूंगा कि जब इतने महापुरुषों ने कहा है तो पाने योग्य कुछ होगा, खोजूं, लेकिन जब तक स्वयं न पा लूं तब तक यह न कहूंगा कि मैंने जान लिया है। क्योंकि वह तो झूठ होगा। वह तो ज्ञान के साथ अन्याय होगा। ज्ञान अगर बोधपूर्वक हो तो भक्ति में सहयोगी बन जाता है।
शांडिल्य कहते हैं: ऐसे ही योग भी सहयोगी बन जाता है, अगर समझपूर्वक हो।
योग बड़ी महिमापूर्ण प्रक्रिया है, साधन है। योग साध्य नहीं है, भक्ति साध्य है। ज्ञान साध्य नहीं है, भक्ति साध्य है। ज्ञान का उपयोग कर लेना प्यास जगाने के लिए। और योग का क्या उपयोग करोगे? योग का उपयोग करना अपने को शुद्ध करने के लिए। परमात्मा के आने के पूर्व तैयारी करनी होगी न! घर में मेहमान आता है तो स्वच्छता करते हो न! झाडू-बुहारी लगाते हो न! कूड़ा-कर्कट साफ करते हो न! योग वही है। उस परम प्रिय को पुकारा है तो घर की तैयारी कर लेनी जरूरी है। उसके योग्य आसन बिछाओगे न! उसके योग्य स्वच्छता चाहिए, पुनीतता चाहिए, पवित्रता चाहिए। धूप-दीप जलाओगे न! वही योग है। योग का इतना ही अर्थ है: जो कल्मष है, उसे धो डालूं। जो दीवालें गंदी हो गई हैं मेरे जीवन के अनाचरण से, मेरे जीवन के अज्ञान से, मेरे जीवन की मूर्च्छा से, वे सब धब्बे साफ कर डालूं। स्वच्छ कर लूं घर, ताकि उसे असुविधा न हो। जब तुम्हारे पात्र में अमृत भरने को हो, तो जो जहर के दाग लग गए हैं उन्हें छुड़ाओगे न! बस वही है योग। समझ हो तो योग की प्रत्येक प्रक्रिया अनूठी है। शुद्धि का अपूर्व मार्ग है। तुम्हारे रोएं-रोएं को शुद्ध कर जाएगी, पुनीत कर जाएगी, पावन कर जाएगी। तुम्हें तैयार कर जाएगी, तुम्हें मंदिर बना देगी, जिसमें कि विराजमान हो सके परमात्मा। तुम्हें सिंहासन बना देगी, जिस पर वह हृदयों का सम्राट आए और बैठे।
मगर अक्सर ऐसा होता है कि समझ है कहां! ज्ञान इकट्ठा करके आदमी पंडित हो जाता है, प्रज्ञावान नहीं होता। और योग की प्रक्रियाओं में पड़ कर आदमी गोरखधंधे में पड़ जाता है। बस वह फिर व्यर्थ की बातें ही करता रहता है। आसन लगाए रहता है, आसन जमाए जाता है, उलटे-सीधे व्यायाम करता रहता है, सिर के बल खड़ा होता रहता है; धीरे-धीरे यही उसकी जीवनचर्या हो जाती है, वह भूल ही जाता है कि मेहमान को भी बुलाना है। वह मंदिर ही बनाने में इतना मशगूल हो जाता है कि मेहमान द्वार पर भी आकर खड़ा हो जाए तो भी वह आंख उठा कर नहीं देखता, वह मंदिर ही बनाने में लगा रहता है। वह सफाई ही करता रहता है। सफाई का फिर कोई अंत नहीं है। फिर तुम करते ही चले जाओ।
यह देह पूर्ण शुद्ध तो हो ही नहीं सकती। यह देह अशुद्धि से बनी है। शुद्ध हो सकती है, पूर्ण शुद्ध कभी नहीं हो सकती। स्वस्थ हो सकती है, पूर्ण स्वस्थ कभी नहीं हो सकती। पूर्णता का देह से संबंध नहीं जुड़ सकता। देह तो अपूर्ण रहेगी, सीमा में बंधी रहेगी। इसमें तो व्याधियां-आधियां रहेंगी। समाधि इसमें फलानी है। इसलिए जितनी व्याधियां कम हों, उतना अच्छा। लेकिन तुम इसी फिक्र में मत पड़ जाना कि जब सब व्याधियां समाप्त हो जाएंगी तब देखेंगे समाधि। तो फिर तुम कभी न देख पाओगे समाधि को। एक व्याधि हटेगी, दूसरी पैदा होगी; दूसरी हटेगी, तीसरी पैदा होगी।
इसी से तो गोरखधंधा शब्द पैदा हुआ, वह गोरखनाथ से पैदा हुआ। गोरखनाथ महायोगी हुए। उन्होंने योग की प्रक्रियाओं का जैसा प्रयोग किया, किसी ने कभी नहीं किया था। पतंजलि भी देखते तो सिर ठोंक लेते! क्योंकि गोरखनाथ ने बड़ी प्रक्रियाएं, कृच्छ साधनाएं खोजीं। सुबह से लेकर सांझ तक लगे ही रहते थे--और दूसरों को भी लगाए रखते थे। उसी से गोरखधंधा शब्द पैदा हुआ। भूल ही गए असली बात, इसी में लग गए; गौण में उलझ गए।
अगर समझ हो, तो गौण में मत उलझना। और खयाल रखना, गोरखनाथ स्वयं उलझ गए, ऐसा नहीं है। गोरखनाथ के मानने वाले उलझ गए। गोरखनाथ ने तो जो प्रक्रियाएं दी थीं--यद्यपि बहुत प्रक्रियाएं दी थीं--वह अलग-अलग साधकों के लिए दी थीं। किसी को एक प्रक्रिया दी थी, किसी को दूसरी दी थी, किसी को तीसरी दी थी। धीरे-धीरे यह हुआ कि साधकों को तो लोभ पैदा होता है, उन्होंने सोचा कि फलां फलां कर रहा है, फलां फलां कर रहा है, हम भी सब कर डालें।
यहां शिविर में तुम पांच ध्यान करते हो। उनमें से एक चुन लेना है। वे सिर्फ चुनाव के लिए हैं। एक सज्जन मेरे पास आए कुछ महीने पहले, उनकी हालत बहुत खराब हुई जा रही है, कहने लगे कि ध्यान से बड़ी हालत खराब हुई जा रही है।
मैंने पूछा कि कौन सा ध्यान करते हो?
उन्होंने कहा, कौन सा क्या, दस ध्यान करता हूं। जितने आपने बताए हैं, सब करता हूं। सुबह चार बजे से लेकर रात बारह बजे तक लगा ही रहता हूं।
हालत तो खराब हो ही जाएगी! मेरा कसूर नहीं है। मैंने तुमसे कहा कब कि तुम सब करना? और सब करोगे तो और कब बचेगा कुछ करने को? भगवान को आने की थोड़ी-बहुत जगह भी दोगे, वह द्वार पर ही खड़ा रहेगा? कभी तुम कुंडलिनी कर रहे, कभी तुम सक्रिय कर रहे, और कभी तुम नादब्रह्म कर रहे, और कभी तुम सूफी कर रहे, और कभी तुम कुछ कर रहे, वह बाहर ही खड़ा रहेगा कि भई, तुम चुको, तुम्हारी झंझट से मुक्त होओ, तो मैं भी आऊं, दो बात तुमसे कर लूं! मगर तुम्हें फुर्सत कहां है? थक जाओगे, तब सो जाओगे। सुबह फिर उठोगे, फिर अपने गोरखधंधे में लग जाओगे।
यह गोरखधंधा हो गया! गोरखनाथ ने गोरखधंधा नहीं दिया था, गोरखनाथ ने तो अलग-अलग साधकों को अलग-अलग प्रक्रियाएं दी थीं। मगर लोभ पकड़ता है कि कहीं ऐसा न हो कि इस प्रक्रिया से न मिले, तो उससे मिल जाए, उससे न मिले तो उससे मिल जाए, सभी कर डालो। आदमी बड़ा लोभी है। उस लोभ से गोरखधंधा पैदा हुआ। अज्ञानी जो भी करेगा उसमें से कुछ न कुछ उपद्रव निकाल लेता है। तुम इससे सावधान रहना।
शांडिल्य कहते हैं: ‘योगस्तूभयार्थमपेक्षणात्प्रयाजवत्।’
‘और योग तो वाजपेय यज्ञ में प्रयाज की भांति भक्ति और ज्ञान का अंग स्वरूप है।’
जब कोई यज्ञ करता है तो पहले यज्ञ की तैयारी करनी होती है। उस तैयारी का नाम है प्रयाज--पूर्व तैयारी, भूमिका। हवनकुंड बनाना होगा, भूमि शुद्ध करनी होगी, बंदनवार बांधने होंगे--वह सब जो तैयारी है, उसका नाम प्रयाज। बिना तैयारी के तो यज्ञ नहीं हो सकेगा। ऐसे ही, शांडिल्य कहते हैं, भक्ति तो यज्ञ है, योग प्रयाज है--पूर्व तैयारी, भूमिका। मगर भूमिका ही है। भूमिका में ज्यादा मत उलझ जाना।
अगर तुमने जार्ज बर्नार्ड शॉ की कोई किताब देखी है, तो तुम चकित होओगे, किताब से बड़ी भूमिका है। किताब है सौ पन्ने की, भूमिका दो सौ पन्ने की। अब भूमिका का मतलब ही यह होता है कि उसमें सार-इशारा होना चाहिए, किताब के संबंध में कुछ संकेत होना चाहिए, ताकि जो आदमी किताब पढ़ने को उत्सुक है, वह दो पन्ने भूमिका के पढ़ कर यह सोच ले कि यह मेरे काम की है या नहीं। अब दो सौ पन्ने भूमिका के पढ़ने हैं। इससे तो सौ पन्ने की किताब ही सीधी पढ़ लेना ज्यादा सस्ता है। लेकिन बर्नार्ड शॉ को वैसी आदत थी--बहुत लोगों को वैसी आदत है। उनकी भूमिका लंबी होती है। अक्सर वे भूल ही जाते हैं कि भूमिका में ही जीवन व्यतीत हो जाता है। ऐसे बहुत लोग हैं जो सुख से जीना चाहते हैं; सुख से जीने के लिए धन इकट्ठा करने में लगते हैं; फिर धन ही इकट्ठा करते-करते मर जाते हैं, सुख से जीने का मौका ही नहीं आता; भूमिका ही पूरी नहीं होती।
सिकंदर सारी दुनिया को जीत कर सुख से जीना चाहता था। मगर सारी दुनिया को जीत कर। फकीर डायोजनीज ने उससे कहा था कि मेरी समझ में यह तर्क नहीं आता। सुख से ही जीना है न! तो अभी क्यों नहीं सुख से जीते? सिकंदर ने कहा, अभी कैसे जी सकता हूं? पहले दुनिया जीतनी है! डायोजनीज ने कहा, अभी क्यों नहीं जी सकते? मैं जी रहा हूं! और मैंने पूरी दुनिया नहीं जीती। पूरी दुनिया की तो बात और, जो मेरे पास था वह भी मैंने छोड़ दिया, क्योंकि उससे झंझट होती थी। देखो मैं मजे में लेटा हूं--वह लेटा ही था नग्न, नदी के तट पर, धूप ले रहा था सुबह की--उसने सिकंदर से कहा, तुम क्यों परेशान होते हो? इस टीन के पोंगरे में मैं रहता हूं, इसमें जगह काफी है, इसमें एक कुत्ता भी रहता है, मैं भी रहता हूं, तुम भी रह सकते हो।
वह जो म्युनिसिपलिटी का कचरा इकट्ठा करने के लिए टीन का बड़ा डब्बा रखा होता है, वही डब्बा उसको मिल गया था, एक पुराना डब्बा, म्युनिसिपलिटी ने फेंक दिया होगा, उसने उसी को साफ कर लिया, वह उसी में रहने लगा था; नदी के किनारे उसको रख लिया था; जब छाया की जरूरत होती, अंदर चला गया; जब धूप की जरूरत होती, बाहर आ गया। एक भिक्षापात्र उसके पास था केवल। वह भी उसने एक दिन फेंक दिया। क्योंकि एक दिन पानी पीने जा रहा था नदी की तरफ अपना भिक्षापात्र लिए, उसी के साथ-साथ एक कुत्ता भागता हुआ आया। इसके पहले कि वह पात्र में पानी भरे, कुत्ते ने झटके से जल्दी से अपनी जीभ से सीधा-सीधा पानी पी लिया। उसे बड़ी हार मालूम हुई। उसने कहा, कुत्ता हमसे आगे निकल गया! हम नाहक यह भिक्षापात्र लिए फिरते हैं! इसके पास कोई पात्र वगैरह भी नहीं है, यह हमसे महात्यागी है। उसने वहीं नदी में पात्र बहा दिया। उसने कहा, जब कुत्ता चला लेता है काम, तो हम भी चला लेंगे। वह उसकी आखिरी संपदा थी। उसने सिकंदर को कहा कि उस दिन से मेरे पास कुछ है ही नहीं, मगर मैं बड़े मजे में हूं। और निश्चित वह मजे में था! उतना मस्त आदमी लोगों ने देखा नहीं। वह यूनान का महावीर है। नग्न था और मस्त था।
एक बार कुछ लोगों ने उसे पकड़ लिया एक जंगल में। मस्ती देख कर और नग्न देख कर उन्होंने सोचा कि अच्छा है, बाजार में बेच देंगे। उन दिनों गुलाम बिकते थे। जब उन्होंने उसे पकड़ा तो उसने जल्दी से अपने हाथ उनके सामने कर दिए। वे तो बड़े हैरान हुए, क्योंकि उन्होंने सोचा था कि यह झंझट-झगड़ा करेगा तो चार को पस्त कर देगा। मगर उसने जल्दी से हाथ कर दिए और उसने जल्दी से जंजीरें डलवा लीं। उसने कहा, तुम नाहक जंजीर डाल रहे हो, तुम कहां जाना चाहते हो, मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूं; जंजीर काहे को तुम झंझट करते हो! वह उनके साथ हो लिया। रास्ते में जो भी मिलता, उसको लोग नमस्कार करते, वे चार तो उसके गुलाम जैसे मालूम पड़ते। किसी ने पूछा कि ये लोग कौन हैं? उसने कहा, ये मेरे गुलाम हैं। उन्होंने कहा, तुम बात क्या कर रहे हो? उसने कहा, तुम देख लो, कोई से भी पूछ लो, मालिक कौन मालूम पड़ रहा है? तुम चोर जैसे मालूम पड़ते हो, मैं मालिक हूं।
फिर उसे वे बाजार ले गए। वहां बाजार में जब उसे तख्ती पर खड़ा किया गया, जिस पर खड़े होकर गुलाम बिकते थे--उसने जोर से आवाज लगाई कि एक मालिक आज बिकने आया है, किसी गुलाम को खरीदना हो तो खरीद ले! और था भी वह आदमी मालिक। उसकी शान वैसी थी! जिसकी कोई इच्छा न रही हो वह मालिक हो ही जाता है। उसकी गरिमा!
लेकिन सिकंदर ने कहा कि ठीक तुम कहते हो कि मैं भी आराम कर सकता हूं, मगर मुश्किल है। पहले तो मैं दुनिया जीतूंगा। डायोजनीज ने कहा, तो तुम एक बात मेरी याद रखना, दुनिया तो शायद जीतोगे कि नहीं, मगर आराम कभी न कर पाओगे। दुनिया जीतने के पहले मर जाओगे।
और यही हुआ। सिकंदर जब हिंदुस्तान से वापस लौटता था तो यूनान वापस नहीं पहुंच पाया, रास्ते में मर गया। जिस दिन मरा, उस दिन उसे डायोजनीज की याद आई। उस दिन उसकी आंख से आंसू गिरे। और किसी ने पूछा कि तुम क्यों रोते हो? उसने कहा, मैं उस फकीर के लिए रोता हूं, उसने ठीक कहा था, वह आदमी सच कहता था।
भूमिका में ही जिंदगी निकल जाती है।
तो योग को कहीं इतना मत पकड़ लेना कि नौली, धोती, और आसन, व्यायाम, और प्राणायाम, और करते-करते ही मर जाओ। योग भूमिका है, समाधि लक्ष्य है। न मालूम कितने लोग भूमिका में ही मर जाते हैं। समाधि पर ध्यान रखना। शांडिल्य ठीक कहते हैं कि योग का उपयोग हो सकता है सहयोग की तरह।
गौण्यातु समाधिसिद्धिः।
‘गौणी भक्ति के द्वारा समाधि की सिद्धि होती है।’
दो तरह की भक्तियां शांडिल्य ने कही हैं--गौणी भक्ति और पराभक्ति। गौणी भक्ति का अर्थ होता है: अभी भक्त मौजूद है, भगवान मौजूद है, दोनों आमने-सामने खड़े हैं; रस बह रहा है, अपूर्व आनंद है, मस्ती बंधी है, लौ से लौ मिल गई है; मगर अभी द्वैत कायम है; गौणी भक्ति। पराभक्ति का अर्थ है: भगवान भक्त में खो गया, भक्त भगवान में खो गया, अब दो नहीं।
पहली जो गौणी भक्ति है, उससे जो समाधि मिलती है, पतंजलि का शब्द उपयोग करें तो उसका नाम है--सबीज समाधि। और जो पराभक्ति है, उसके लिए पतंजलि का शब्द उपयोग करें तो उसका नाम है--निर्बीज समाधि। सबीज समाधि में बीज अभी कायम है; वृक्ष खो गया, लेकिन बीज अभी कायम है। मौका पाकर बीज से फिर वृक्ष पैदा हो सकता है। गौणी भक्ति से जो समाधि मिलती है, वह खो सकती है। तुम भगवान के सामने खड़े हो, लेकिन अभी दूरी है, चाहे इंच भर की दूरी हो, मगर दूरी है। और जो इंच भर की दूरी है, वह मील की दूरी हो सकती है, योजनों की दूरी हो सकती है, फिर दूरी बढ़ सकती है, फिर भेद पैदा हो सकता है, फिर भटकाव हो सकता है। अभी बीज कायम है, द्वैत कायम है। तो या तो उसे सबीज समाधि कहें--अभी गिरना हो सकता है। या सविकल्प समाधि कहें--अभी विचार कायम है, अनुभव हो रहा है कि आनंद आ रहा है, मैं हूं और मुझे आनंद आ रहा है।
जब तक तुम्हें ऐसा लगे कि आनंद आ रहा है, तब तक समझना--गौणी भक्ति, छोटी समाधि; अभी अनुभव करने वाला शेष है। फिर अंतिम चरण में होती है--पराभक्ति; बीज भी मिट गया, बीज दग्ध हो गया, अब कभी लौटना न हो सकेगा, अब कोई वापसी नहीं होगी, संसार समाप्त हुआ। अब अनुभव भी नहीं हो सकता कि मैं आनंद में हूं--मैं ही नहीं हूं, आनंद ही आनंद है। इसलिए गौणी भक्ति से तो अनुभव होता है, पराभक्ति में अनुभव नहीं होता।
कृष्णमूर्ति ठीक कहते हैं कि वह जो परमदशा है, उसको अनुभव नहीं कहा जा सकता। उसे ज्ञान भी नहीं कहा जा सकता। उसे दर्शन भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि दर्शन, ज्ञान, अनुभव, सभी में दो की अपेक्षा है--जानने वाला अलग होता है जाना जाने वाले से; ज्ञेय अलग होता है ज्ञाता से; द्रष्टा अलग होता है दृश्य से। उस परमदशा में द्रष्टा और दृश्य एक है। वह पराभक्ति, वह निर्बीज समाधि, निर्विकल्प समाधि। वही लक्ष्य है।
गौणी भक्ति से समाधि की सिद्धि हो सकती है। लेकिन उससे तृप्त मत हो जाना। उससे भी पार जाना है। ऐसी जगह जाना है जिसके पार और जाना न रहे। उस स्थिति को पाना है जिसके पार और कोई स्थिति नहीं है। फूल ही बन कर समाप्त मत हो जाना--फूल यानी गौणी भक्ति; अभी आकार है, अभी रूप है, अभी रंग है; सुवास होकर समाप्त होना। सुवास मुक्त हो गई आकार से, रूप से, रंग से। सुवास आकाश में लीन हो गई। सुवास आकाश हो गई। उसे शांडिल्य ने पराभक्ति कहा है। गौणी भक्ति में भक्त और भगवान होते हैं और भक्ति होती है, पराभक्ति में न कोई भक्त होता, न कोई भगवान होता, बस भक्ति होती है, भगवत्ता होती है।
ऐसे ये अपूर्व सूत्र हैं। शांडिल्य को सुन कर तुममें प्यास जगे, इसलिए इन सूत्रों की व्याख्या कर रहा हूं। ज्ञान न जमा लेना। ज्ञान जमा लिया, चूक गए। प्यास जगाना। तुम्हारे भीतर गहन आकांक्षा उठे, अभीप्सा जगे, एक लपट बन जाए कि पाकर रहूं, कि इस अनुभव को जान कर रहूं, कि इस अनुभव को जाने बिना जीवन अकारथ है। ऐसी ज्वलंत आग तुम्हारे भीतर पैदा हो जाए तो दूर नहीं है गंतव्य। उसी आग में अहंकार जल जाता है। उसी आग में बीज दग्ध हो जाता है और तुम्हारे भीतर जन्मों-जन्मों से छिपी हुई सुवास मुक्त आकाश में विलीन हो जाती है। उसे मोक्ष कहो, निर्वाण कहो, जो नाम देना चाहो दो--उसका कोई नाम नहीं है।
लाओत्सु ठीक कहता है, उसका कोई नाम नहीं है, काम चलाने को ‘ताओ’ कहता हूं।
आज इतना ही।