SHANDILYA
ATHATO BHAKTI JIGYASA 06
Sixth Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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पहला प्रश्न:
भगवान, प्रसाद से प्रभु-उपलब्धि। यह कैसे होती है?
प्रयास है मनुष्य के अहंकार की छाया। प्रसाद है निर-अहंकार दशा में उठी सुगंध।
प्रयास से मिलता है क्षुद्र। आदमी की मुट्ठी बड़ी छोटी है। कंकड़-पत्थर बांध सकते हो मुट्ठी में। हिमालय को बांधने चलोगे तो मुश्किल में पड़ोगे। प्रयास से मिलता है क्षुद्र, आदमी की शक्ति अल्प है, इसलिए। प्रसाद से मिलता है विराट। प्रयास है बंद मुट्ठी, प्रसाद है खुला हाथ। मैं पाकर रहूंगा, इसमें ही भ्रांति है। क्योंकि मैं ही भ्रांत है। मैं नहीं हूं, ऐसा जिस दिन जानोगे, उस दिन मिल गया। मिला ही था, सदा से मिला था, सिर्फ मैं की अकड़ के कारण दिखाई नहीं पड़ता था।
प्रसाद से जो मिलता है, वह आज मिलता है, ऐसा नहीं; मिला ही हुआ है, सदा से मिला हुआ है। लेकिन तुम अपनी अकड़ में मस्त हो, देखो तो कैसे देखो! सूरज निकला है, तुम अपनी अकड़ में आंख बंद किए खड़े हो। इतना ही नहीं, आंख बंद करके तुम सूरज की तलाश भी कर रहे हो।
आंख खोलो! और खयाल रखना, तुम लाख तलाश करो, आंख अगर बंद रहे तो प्रकाश तुम्हें मिलेगा नहीं। और प्रकाश चारों तरफ है, सब तरफ से बरस रहा है, तुम उसमें नहाए हुए खड़े हो, आंख खोलते ही मिल जाएगा।
अहंकार है बंद आंख, निर-अहंकारिता है खुली आंख। वर्षा तो हो ही रही है, लेकिन अहंकार है उलटा घड़ा, निर-अहंकार है सीधा घड़ा। वर्षा दोनों पर हो रही है, अहंकारी पर भी और निर-अहंकारी पर भी। कुछ भेद परमात्मा की तरफ से नहीं है, पापी पर भी बरस रहा है, पुण्यात्मा पर भी। उसकी तरफ से भेद हो भी नहीं सकता--पहाड़ों पर भी बरस रहा है, खाई-खड्डों में भी। लेकिन खाई-खड्डे भर जाएंगे और पहाड़ खाली रह जाएंगे, क्योंकि पहाड़ पहले से ही भरे हैं, खाई-खड्डे खाली हैं, उनमें रिक्त अवकाश है, स्थान है।
अहंकार से भरे हो तो चूक जाओगे। और सब प्रयास अहंकार की ही उधेड़बुन हैं। मैं कुछ करके दिखा दूं--फिर चाहे धन, चाहे पद, चाहे मोक्ष--मगर मैं कुछ करके दिखा दूं। मैं अपनी पताका फहरा दूं। मैं दिखा दूं दुनिया को दुंदुभी पीट कर कि मैं कुछ हूं। मैं कोई साधारण व्यक्ति नहीं, महात्मा हूं, संत हूं, मुक्त हूं। ये जो मैं की घोषणाएं हैं, यही तो तुम्हें बांधे हैं, यही तो तुम्हारे पैरों में पड़ी जंजीरें हैं। यही तो तुम्हारे गले में लगा फांसी का फंदा है।
और तुम जिसे पाने का दावा कर रहे हो, दावे के कारण ही चूक रहे हो। जो तुमसे कहे कि मैंने खोजा और पाया, जान लेना उसने अभी पाया नहीं। जो तुमसे कहे--मैंने खोजा नहीं और पाया, समझना कि उसने पाया। खोजने से नहीं मिलता है; खोजने से खो जाता है। खोजने में ही खो जाता है। जो खोजता नहीं--वही तो ध्यान की दशा है, या प्रेम की दशा है--जो खोजता नहीं, बैठा है शांत, प्रतीक्षा करता है, खोजता नहीं। खोजने में तुम चलते हो, प्रतीक्षा में परमात्मा चलता है। प्रतीक्षा में तुमने निमंत्रण भेज दिया, असहाय छोटे बच्चे की भांति तुम रो रहे हो--मां चलेगी। खोज में तुम चल पड़ते हो।
तुम चले कि चूक हो गई। तुम चले कि कभी न पहुंचोगे। तुम जितने चलोगे उतने ही दूर हो जाओगे। यात्रा तुम्हें सत्य से दूर ले जाएगी, पास नहीं लाएगी। सत्य की कोई यात्रा ही नहीं है। ठहरो, रुको; जैसे हो, जहां हो, वहीं समर्पित। छोड़ो यह भाव कि मैं कुछ करके दिखा दूं। तुम हो कहां? पहले इसे तो खोज लो कि मैं हूं भी? थोड़ा अपने भीतर टटोलो, जरा अपनी गांठ खोलो और टटोलो--मैं हूं भी? मैं हूं कहां? यह मैं है क्या सिवाय एक कोरे शब्द के! आज तक किसी ने कभी इसे पाया नहीं। एक भी व्यक्ति नहीं पा सका है पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में। निरपवाद रूप से, जो भी भीतर गया, उसने पाया कि मैं नहीं है, सन्नाटा है, शांति है। कभी कोई मैं के आमने-सामने नहीं आया। जितने भीतर गया, उतना ही मैं गला। और जिस दिन केंद्र पर पहुंचा अपनी जीवन ऊर्जा के, वहां मैं था ही नहीं। उस ना-मैं की दशा में जो घटता है उसका नाम प्रसाद है।
प्रसाद का अर्थ है: तुम्हारे कारण नहीं, प्रभु के कारण। भेंट है, उसकी तरफ से है। तुम्हारे लिए सौगात है।
तुम पूछते हो: ‘प्रसाद से प्रभु-उपलब्धि। यह कैसे होती है?’
प्रकरणात् च।
प्रकरणों में देखो। जब भी किसी को हुई है, तब ऐसे ही हुई है। कभी तुमने देखा, एक पक्षी तुम्हारे कमरे में घुस आता है। जिस द्वार से आया है, वह खुला है--इसीलिए भीतर आ सका है; द्वार बंद होता तो भीतर न आ सकता। और फिर खिड़की से टकराता है, बंद खिड़की के कांच से टकराता है। चोंचें मारता है, पर फड़फड़ाता है। जितना फड़फड़ाता है, जितना घबड़ाता है, उतना बेचैन हुआ जाता है। और खिड़की बंद है, और टकराता है। लहूलुहान भी हो सकता है। पंख भी तोड़ ले सकता है। कभी तुमने बैठ कर सोचा, यह पक्षी कैसा मूढ़ है! अभी दरवाजे से आया है, और दरवाजा खुला है, अभी उसी दरवाजे से वापस भी जा सकता है, मगर बंद खिड़की से टकरा रहा है!
प्रकरणात् च।
वहां खोजना प्रकरण। वहां तुम्हें शांडिल्य का सूत्र याद करना चाहिए। ऐसा ही आदमी है।
तुम इस जगत में आए हो, तुम अपने को जगत में लाए नहीं हो, आए हो--वहीं प्रसाद का सूत्र है। तुमने अपने को निर्मित नहीं किया है। यह जीवन तुम्हारा कर्तृत्व नहीं है, तुम्हारा कृत्य नहीं है, यह दान है, यह परमात्मा का प्रसाद है। यह द्वार खुला है, जहां से तुम आए। तुमसे किसी ने पूछा था जन्म के पहले कि महाराज, आप होना चाहते हैं? न किसी ने पूछा, न किसी ने तांछा। अचानक एक दिन तुमने पाया कि आंखें खुली हैं, श्वास चली है, जीवन की भेंट उतरी है। अचानक एक क्षण तुमने अपने को जीवित पाया। सारे जगत को रसविमुग्ध पाया। इसे तुमने चुपचाप स्वीकार कर लिया। तुमने कभी इस पर सोचा भी नहीं कि मुझसे किसी ने पूछा नहीं, मैंने निर्णय किया नहीं, यह जीवन सौगात है, प्रसाद है।
यहीं से दरवाजा खुला, जहां से तुम आए। और अब तुम प्रयास की बंद खिड़की पर सिर मार रहे हो, पंख तोड़े डाल रहे हो। जहां से आए हो, जैसे आए हो, उसी में सूत्र खोजो।
और ऐसा नहीं है कि तुम जब आए थे तब प्रसाद मिला था, रोज प्रसाद मिल रहा है। यह श्वास तुम्हारे भीतर आती-जाती है, लेकिन तुम कहते हो--मैं श्वास ले रहा हूं। अहमन्यता की भी सीमा होती है! विक्षिप्त बातें मत कहो। तुम क्या श्वास लोगे? श्वास लेना तुम्हारे हाथ में होता, तो तुम मरोगे ही नहीं कभी फिर, तुम श्वास लेते ही चले जाओगे। मौत दरवाजे पर आकर खड़ी रहेगी, यमदूत बैठे रहेंगे और तुम श्वास लेते रहोगे।
श्वास तुम्हारे हाथ में नहीं है। तुमने एक भी श्वास नहीं ली है कभी। श्वास तुम्हें ले रही है। तुम श्वास को लेते हो? यह तुम्हारा कृत्य है? तो आधी घड़ी को बंद कर दो--क्योंकि जो कृत्य है, वह बंद भी किया जा सकता है--तो आधी घड़ी श्वास मत लो, देखें! क्षण भी नहीं बीतेंगे और तुम पाओगे कि बेचैनी इतनी भयंकर हुई जा रही है! श्वास भीतर आना चाहती है, द्वार पर दस्तक दे रही है और तुम न आने दोगे तो भी आएगी। और एक दिन तुम लाना चाहोगे और नहीं आना है तो नहीं आएगी।
न रोक सकते हो श्वास तुम, न ले सकते हो श्वास तुम। श्वास चल रही है। अपने से चल रही है। इसलिए तो रात नींद में भी चलती है, नहीं तो नींद में तुम्हें याद रखना पड़े बार-बार, आंख खोल-खोल कर देखना पड़े कि श्वास ले रहा हूं कि नहीं ले रहा हूं? कहीं नींद में भूल न जाऊं श्वास लेना, नहीं तो मारे गए। फिर तो कोई सो भी न सकेगा निश्चिंत। पति सोएगा तो पत्नी जाग कर देखेगी और पत्नी सोएगी तो पति जाग कर देखता रहेगा कि कहीं श्वास लेना न भूल जाए। फिर भी रोज भूल-चूकें होंगी, रोज दुर्घटनाएं होंगी, कि आज फलां मर गए, आज ढिकां मर गए, रात श्वास लेना भूल गए। नींद में याद भी कौन रखेगा?
लेकिन नींद में भी श्वास चलती है। जब तुम प्रगाढ़ निद्रा में डूबे हो, जब तुम्हें अपना भी पता नहीं कि तुम हो या नहीं, स्वप्न भी नहीं चलता तुम्हारे चित्त पर, सब खो गया, अहंकार है ही नहीं--गहरी निद्रा में कहां अहंकार? इसलिए तो पतंजलि ने कहा कि सुषुप्ति और समाधि एक जैसे हैं। इस अर्थ में एक जैसे हैं कि दोनों में अहंकार नहीं होता। तुम हो कहां गहरी निद्रा में? सब सीमाएं समाप्त हो गईं, तुम शून्यवत हो। लेकिन फिर भी श्वास चल रही है। सब काम चल रहा है--पेट में पाचन चल रहा है, खून की धारा बह रही है, हड्डी-मांस-मज्जा बन रहा है--सब चल रहा है। पैर पर एक कीड़ा चढ़ने लगेगा, पैर उसे झटक देगा--और तुम हो ही नहीं! और सुबह तुम बता भी न सकोगे कि रात एक कीड़ा चढ़ा था और मैंने झटक दिया था--तुम्हें याद भी नहीं है। एक मच्छर भिनभिनाएगा, हाथ से तुम हटा दोगे। यह सब चल रहा है, और तुम नहीं हो। कर्म चल रहा है और कर्ता नहीं है, यहीं है सूत्र प्रसाद का--श्वास में है, सुषुप्ति में है।
तुम अगर अपने जीवन को थोड़ा परखो, पहचानो, जांचो, तो तुम्हें जगह-जगह प्रकरण मिल जाएगा। सब हो रहा है। जहां जीवन भी हो रहा है, प्रेम भी हो रहा है, श्वास भी चल रही है, वहां परमात्मा भी हो सकेगा। मेरे किए नहीं, मेरे किए कुछ भी नहीं हो रहा है।
इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हारे किए क्षुद्र नहीं हो रहा है। विराट नहीं होता तुम्हारे किए, क्षुद्र होता है। धन कमाओगे, तो ही पाओगे। पद की चेष्टा करोगे अथक, तो ही पाओगे, शायद तो भी न पाओ। प्रतिस्पर्धा करोगे, गलाघोंट प्रतिस्पर्धा में उतरोगे, दूसरों की लाशों पर चढ़ोगे, तब कहीं किसी पद पर, किसी कुर्सी पर पहुंच पाओगे। यह तुम्हारे किए से होगा।
परमात्मा क्षुद्र की भेंट नहीं देता। परमात्मा की भेंट क्षुद्र हो भी नहीं सकती। जब तुम्हें धन मिलता है, वह तुम्हारा ही प्रयास है। जब तुम्हें पद मिलता है, वह तुम्हारा ही प्रयास है। क्षुद्र प्रयास है, विराट प्रसाद है। अगर तुम प्रयास में ही लगे रहे, तो तुम क्षुद्र को ही जोड़ कर मर जाओगे। हो सकता है बड़ा तुम्हारा साम्राज्य हो, सारी पृथ्वी पर तुम्हारा राज्य हो, मगर क्षुद्र ही होगा सब। तुम मरोगे दरिद्र। विराट को पाए बिना कोई समृद्ध नहीं होता।
और कौन पाता है विराट को? वही पाता है विराट को जिसे यह सत्य दिखाई पड़ता है कि मेरे किए क्या हो सकता है? मैं हूं कहां? मैं नहीं हूं, ऐसी प्रतीति जिसकी सघन हो जाती है, वहां प्रसाद बरसता है।
यह कैसे होता है
सो तो मैं भी नहीं जानता।
प्रयत्न के अभाव में होता है।
अनमने किसी भाव में होता है
गहरे किसी चाव में होता है
हां,
घाव में भी होता है
मगर वह सिर्फ अपना न हो
कोरा कोई सपना न हो!
प्रसाद अनिर्वचनीय तत्व है। इस जगत में अज्ञात की किरण है। मनुष्य के जीवन में वह द्वार है जहां से हम आए, और उसी द्वार से बाहर जाना हो सकता है। और वह द्वार सदा खुला है। लेकिन हम खिड़कियों पर, बंद खिड़कियों पर सिर मार रहे हैं। तुम्हें पक्षी को देख कर दया आती है, तुम सोचते हो, मूढ़, अरे मूढ़, दरवाजे से क्यों नहीं निकलता? तुम्हें अपने पर कब दया आएगी? क्योंकि आदमी भी ऐसा ही मूढ़ है।
यह कैसे होता है
सो तो मैं भी नहीं जानता।
क्योंकि तुम अगर जान लो कैसे होता है, तब तो तुम करने में सफल हो जाओगे। तुम अगर जान लो कि प्रसाद कैसे घटता है, ‘कैसे’ पता चल जाए, तब तो तुम आयोजन करने लगोगे कि ऐसे घटता है। यही तो लोग कर रहे हैं आयोजन। कोई बैठा है मूर्ति के सामने थाल सजाए, दीप सजाए, धूप जलाए, प्रार्थना कर रहा है; सोचता है ऐसे प्रसाद होता है। मगर यह भी कृत्य है। इसमें भी प्रसाद नहीं होगा। तुम लाख पटको सिर, तुम कितने ही पूजा के फूल चढ़ाओ और तुम कितनी ही दीपमालाएं सजाओ और तुम कितनी ही आरतियां उतारो, नहीं होगा, क्योंकि तुम कर्ता की तरह वहां मौजूद हो। लेकिन तुम सोचते हो--शायद ऐसे होगा।
हो सकता है कि किसी को ऐसे हुआ हो। किसी को ऐसे हुआ हो, इसका अर्थ है--यह प्रासंगिक बात थी कि वह आदमी हाथ से थाल उतार रहा था और उस समय घटा, निर-अहंकार घटा। मगर निर-अहंकार के घटने का कोई कार्य-कारण संबंध आरती उतारने से नहीं है। किसी दूसरे को जंगल में लकड़ी काटते घट गया था। किसी तीसरे को वृक्ष के नीचे बैठे घट गया था। किसी चौथे को नाचते घट गया था। किसी पांचवें ने वीणा के तार छेड़े थे, और घट गया था। मगर इनका किसी का भी कार्य-कारण से संबंध नहीं है। यह प्रासंगिक है, यह प्रसंगवशात है। इसमें से किसी को भी तुम ऐसा मत सोच लेना कि ऐसा ही मैं करूंगा।
समझो, मीरा को घटा नाचते। नाच से नहीं घटा, नाचते घटा। नाच से घटता, तब तो फिर हमारे हाथ में सूत्र आ गया। फिर तो हम भी नाचेंगे और घट जाएगा। फिर कितने लोग तो नाच रहे हैं, और कितनी तो नर्तकियां हैं--मीरा से बेहतर नर्तकियां हैं दुनिया में--मगर उन्हें नहीं घट रहा है। नाच से घटता होता तो जो अच्छा नाचता है उसे पहले घट जाता। मीरा को घटा, उसके नाच में कुछ ज्यादा नाच जैसा था भी नहीं--अनगढ़ था, मगर घटा। कारण नहीं था। नाचते-नाचते खो गई, अहंकार गिर गया; नृत्य रहा, नर्तक विदा हो गया--और जहां मैं नहीं रहा, वहीं घटा।
बुद्ध को बिना नाचते घटा। अब बुद्ध के बाद ढाई हजार वर्षों से कितने लोग वृक्षों के नीचे बैठे हैं आंख बंद किए और नहीं घटता। वृक्ष के नीचे आंख बंद करके बैठने से नहीं घटता है। यह संयोग की बात थी। यह कहीं भी घट सकता है। यह तुलाधर वैश्य को दुकान पर बैठे-बैठे घटा था; तराजू तौलते-तौलते घटा था। यह जनक को सिंहासन पर बैठे-बैठे घटा था। यह कृष्ण को संसार के मध्य में घटा था। यह महावीर को संसार से हट जाने पर, पहाड़ की कंदराओं में नग्न खड़े-खड़े घटा था। मगर इनमें से कोई भी कारण नहीं है। ऐसा नहीं है कि जैसे हम पानी को गर्म करते हैं तो सौ डिग्री पर पानी भाप बनता है, ऐसा कोई कारण नहीं है। नहीं तो फिर सभी को नग्न होकर गुफा-कंदराओं में खड़ा होना पड़े, तब घटे।
अध्यात्म विज्ञान नहीं है। अध्यात्म विज्ञान जैसी क्षुद्र सीमाओं में आबद्ध नहीं है। हां, एक सूत्र खयाल में रखना, जब भी तुम नहीं हो, तब घटता है। इसलिए तुम्हारे कारण तो नहीं घटता है। तुम्हारे द्वारा नहीं घटता। तुम्हारे प्रयास से नहीं घटता। तुम्हारी अनुपस्थिति में घटता है। तुम कहो तो भी कैसे कहो?
यह कैसे होता है
सो तो मैं भी नहीं जानता
जिनको घट गया है, वे भी नहीं जानते कि कैसे होता है। उनसे भी तुम पूछो तो वे कहेंगे: मुश्किल है बात; मत पूछो; इतना ही कह सकते हैं कि हमारे किए नहीं घटा। नकारात्मक परिभाषा दे सकते हैं। हमने नहीं पाया। हम तो थक गए थे, हार गए थे, गिर गए थे; हम तो विषाद में पड़े थे कि सब व्यर्थ गया, कुछ भी पाया नहीं जा सका, दौड़े बहुत, तड़पे बहुत, साधना की, साधन किए, सब करके देख लिया और एक क्षण गिर गए थे थक कर, तभी पाया कि घट गया। अव्याख्य है।
प्रयत्न के अभाव में होता है
लेकिन कुछ बातें कही जा सकती हैं--नकारात्मक।
प्रयत्न के अभाव में होता है
जब तुम यत्न करते होते हो, तब तुम चिंता से भरे होते हो। यत्न यानी चिंता। होगा कि नहीं होगा; ऐसे करूं तो होगा कि वैसे करूं तो होगा; जिस मार्ग पर चला हूं, ठीक है कि नहीं ठीक है; और भी बहुत मार्ग हैं; हजार विकल्प उठते हैं मन में, विचर उठते हैं मन में--किसके पीछे जाऊं? किस शास्त्र को मानूं? किस मंदिर को पूजूं? यह मंदिर ठीक है कि गलत? कोई उपाय भी तो नहीं, कोई कसौटी भी तो नहीं। यह शास्त्र सत्य है कि मिथ्या? सत्य कहने वाले लोग हैं और इसी शास्त्र को मिथ्या कहने वाले लोग हैं, किसकी मानूं? किसकी सुनूं? किसकी बूझूं?
यत्न तो चिंता लाता है। और यत्न में भ्रांति बनी ही रहती है कि मैं कोशिश कर रहा हूं, आज नहीं कल, कल नहीं परसों पाकर रहूंगा।
प्रयत्न के अभाव में होता है
अनमने किसी भाव में होता है
जब मन नहीं होता, ऐसे किसी भाव में होता है। जब कोई तरंग नहीं होती विचार की; कोई कल्पना, कोई वासना, कोई स्मृति मन को कंपाती नहीं, मन निष्कंप झील जैसा होता है।
अनमने किसी भाव में होता है
इतना ही कह सकते हैं कि जहां मन नहीं होता वहां होता है, जहां मैं नहीं होता वहां होता है।
गहरे किसी चाव में होता है
किसी गहरी प्रीति में, किसी गहरी श्रद्धा में, किसी गहरी भक्ति में होता है। लेकिन ध्यान रखना, भक्ति का अर्थ ही होता है कि भक्त मिटा। भक्त और भक्ति दोनों साथ नहीं होते। जब तक भक्त होता है तब तक भक्ति कहां? तब तक भक्त बाधा बना रहता है। जब भक्त चला जाता है, तो भक्ति।
गहरे किसी चाव में होता है
मगर ये बातें सांकेतिक हैं।
हां, घाव में भी होता है
मगर वह सिर्फ अपना न हो
कोरा कोई सपना न हो!
किसी दूसरे की पीड़ा में भी हो जाता है। किसी दूसरे के दुख को अनुभव करने में भी हो जाता है। क्यों? क्योंकि जब तुम दूसरे के दुख को गहरा अनुभव करते हो, तो मिट जाते हो। असल में दूसरे का दुख अनुभव करने के लिए तुम्हें मिटना ही होगा। वह फिर अहंकार का ही त्याग है। जब तक तुम हो, तब तक तुम दूसरे का दुख अनुभव न कर सकोगे। तुम मिटे, तो दूसरे का दुख अनुभव होता है।
जीसस भी ठीक ही कहते हैं कि सेवा से होता है। सेवा का अर्थ है: दूसरे के दुख की प्रतीति--ऐसी जैसे अपना हो। इतनी समानुभूति।
हां, घाव में भी होता है
मगर वह सिर्फ अपना न हो
क्योंकि अपना घाव हो तो वह अहंकार में ही अटका रहता है। अपना घाव अपना ही घाव है। मैं की तड़प मैं की ही तड़प है।
मगर वह सिर्फ अपना न हो
कोरा कोई सपना न हो!
सत्य हो, वास्तविक हो; सहानुभूति झूठी न हो, कोरी न हो, बात-बात की न हो, हार्दिक हो, अस्तित्वगत हो, तो कभी-कभी तब भी हो जाता है। चाव में हो जाता है गहरे, घाव में हो जाता है गहरे, अनमने भाव में हो जाता है, प्रयत्न के अभाव में हो जाता है।
पूछते हो: ‘प्रसाद से प्रभु-उपलब्धि कैसे? यह कैसे होती है?’
इतना ही कहा जा सकता है: ‘प्रयत्न की व्यर्थता समझो। प्रयत्न की असारता समझो।’
शांडिल्य कहते हैं: ‘दृष्टत्वाच्च।’
ऐसा ही देखने में आता है। कैसा देखने में आता है? कभी तुमने देखा, किसी आदमी को राह पर देखा, चेहरा पहचान में आ गया, जबान पर नाम रखा है, तुम कहते हो--जीभ पर नाम रखा है, और फिर भी याद नहीं आता। और चेहरा याद आ रहा है और नाम भी याद आ रहा है, और कहते हो जीभ पर रखा है--और फिर भी याद नहीं आ रहा है। बड़ी मजे की बात कह रहे हो! जीभ पर रखा है तो बोलते क्यों नहीं? फिर भी मैं मानता हूं कि तुम ठीक ही कह रहे हो--जीभ पर रखा है, वह भी अनुभव है, और नहीं आता, यह भी साथ है; और आदमी पहचाना हुआ है, यह भी पक्का है। तुम बड़ी उधेड़बुन करते हो। तुम बड़ा सिर मारते हो। तुम पहेली बूझने की कोशिश करते हो--इधर से, उधर से; स्मृति में ताकते हो, झांकते हो, उधेड़बुन करते हो, पर्तें उलटते हो, गड्ढा खोदते हो स्मृति में कि कहीं से सूत्र मिल जाए, कहीं से कोई सहारा मिल जाए। और जितना तुम सहारा खोजते हो उतना ही मुश्किल होता जाता है। बात तो साफ होने लगती है कि याद है, याद है, जबान पर रखा है, बिलकुल रखा है, अभी निकल पड़े ऐसा है, और फिर भी पकड़ में नहीं आता।
फिर तुम थक गए। फिर तुमने सोचा--छोड़ो भी! भाड़ में जाने दो! करना भी क्या है। तुम मुंह फेर कर अपने घर चल पड़े। और अचानक--जब तुम कोई प्रयास नहीं कर रहे थे, छोड़ ही चुके थे बात, भूल ही चुके थे बात, राह में लगे फिल्म का पोस्टर पढ़ रहे थे--अचानक नाम याद आ गया है। क्या हुआ? तुमने जब प्रयत्न किया तो तुम बहुत चिंतित हो गए। जब तुमने बहुत प्रयास किया याद करने का तो तुम्हारी चेतना बड़ी संकीर्ण हो गई, सिकुड़ गई, तन गई; चिंता ने तुम्हें घेर लिया, तुम मुक्त न रहे। तुम्हारे भीतर पड़ा था नाम, उठना भी चाहता था, लेकिन तुम इतने सिकुड़ गए, इतने तनाव से भर गए कि जगह न रही नाम को ऊपर आने की। फिर तुमने छोड़ दिया प्रयास, फिर तुम विश्राम को पा गए, फिर तनाव ढीला हो गया, संकीर्णता खो गई, सरलता से नाम ऊपर तिर आया, सतह पर आ गया। ऐसा अनुभव तुम्हें रोज होता है--प्रयास से नहीं हुआ, अप्रयास से हो गया।
परमात्मा पाना नहीं है, परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद है। सिर्फ उसकी स्मृति खो गई है, स्मृति लानी है। बुद्ध ने कहा है: सम्मासति। उसकी सम्यक स्मृति लानी है। या नानक, कबीर कहते हैं: सुरति लानी है। विस्मरण हो गया है, भूल गए हैं; पहचान थी, जबान पर रखा है, मगर भूल गए हैं, बीच में कुछ धुंधले पर्दे आ गए हैं, धुआं आ गया है--सदियां हो गईं मुलाकात हुए। परमात्मा को तुम जानते तो हो ही, क्योंकि उससे ही आए हो। वह पक्षी जो खुले आकाश से आया है, खुले द्वार से आया है, खुले आकाश को जानता है। जानता है खुले आकाश को, इसीलिए तो भागने की कोशिश कर रहा है। चोट कर रहा है बंद खिड़की पर कि निकल जाऊं बाहर। तुम भी जन्मों से बंद दरवाजों पर चोटें कर रहे हो। और एक दरवाजा सदा खुला हुआ है। वह एक दरवाजा अप्रयास का है, सब दरवाजे प्रयास के हैं। वह एक दरवाजा विश्राम का है, सब दरवाजे श्रम के हैं। वह एक दरवाजा समर्पण का है, सब दरवाजे संकल्प के हैं।
तुम थोड़ा विश्राम करो, तुम खिड़की पर सिर मत मारो। यह पक्षी अगर थोड़ी देर रुक जाए, बैठ जाए, एक दफा पुनर्विचार कर ले--कि क्या हुआ? मैं आया कहां से? किस दिशा से आया? कैसे आया? उसी से क्यों न लौट चलूं? परमात्मा भविष्य में मिलने वाला लक्ष्य नहीं है, अतीत में खो गया स्रोत है। परमात्मा आगे नहीं है, पीछे है। तुम्हारे भीतर खड़ा है। तुम चारों दिशाओं में भागे जा रहे हो। जितना भागते हो उतना चूकते हो।
प्रसाद का अर्थ होता है: अब नहीं भागूंगा, अब नहीं खोजूंगा, अब अपने पर भरोसा और नहीं करूंगा।
मुझसे कहो उठो, मैं उठूंगा
कहो मुझसे चलो, मैं चलूंगा
गाओ कहोगे तो
वह मेरे लिए सहज है
शाम से भोर तक
धरती से आसमान के छोर तक
गाऊंगा, उठूंगा, चलूंगा
घुमाऊंगा जैसे धरती को
तुम्हारे इशारे पर
अपने को हटा लेता हूं। मुझसे कहो उठो, मैं उठूंगा; मुझसे कहो चलो, मैं चलूंगा; मैं अपने को बीच से हटा लेता हूं। तुम्हारी मर्जी अब से मेरा जीवन होगी। अब से न मैं हूं, न मेरी कोई मर्जी है।
ऐसे किसी भाव में, अनमने भाव में, ऐसे किसी चाव में, ऐसे किसी गहरे चाव में, प्रयत्न के अभाव में, ऐसे किसी घाव में प्रसाद घटता है।
तुम थोड़ी जगह खाली करो, तुम जरा बीच से हटो, तुम्हारे अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। और उलझाव बढ़ता चला जाता है, क्योंकि तुम इसी बाधा को साधन बना रहे हो। उलझाव बढ़ता चला जाता है कि जो बीमारी है, उसी को तुम औषधि समझ रहे हो। व्याधि को जिसने औषधि समझ लिया, उसकी विडंबना भयंकर है। समझ कर तो तुम पीते हो औषधि, और पीते हो व्याधि; तो व्याधि बढ़ती चली जाती है। तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारा और कोई दुश्मन नहीं है। मगर तुम सोचते हो कि मैं मेरा मित्र, और सारी दुनिया मेरी दुश्मन। तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारे और परमात्मा के बीच और कोई दीवाल नहीं है। तुम और हजार तरह की दीवालें कल्पना करते हो, मगर यह एक दीवाल तुम नहीं देखते कि तुम्हारे अतिरिक्त और कोई दीवाल नहीं है। तुम न मालूम कहां-कहां की व्याख्याएं खोज लाते हो, बड़ी दूर की कौड़ियां तलाश लाते हो! कभी कहते हो कि पिछले जन्मों के कर्मों के कारण, बहुत पाप किए होंगे, इसलिए परमात्मा नहीं मिल रहा है। मगर एक बात तुम नहीं छोड़ते कि मेरे करने की ही बात है--पाप किए थे इसलिए नहीं मिलता, मगर कृत्य मेरा है। पुण्य करूंगा तो मिलेगा। मैं को नहीं छोड़ते।
तुम्हारा साधु भी मैं को नहीं छोड़ता, तुम्हारा असाधु भी मैं को नहीं छोड़ता। इसीलिए तो मैं कहता हूं, तुम्हारे साधु-असाधु में बहुत फर्क नहीं है। तुम्हारे साधु-असाधु में इतना ही फर्क है कि एक आदमी पैर के बल खड़ा है और उसी के बगल में दूसरा आदमी--वैसा का वैसा आदमी--सिर के बल खड़ा हो गया है। बस इतना ही फर्क है। तुम्हारे पापी में और तुम्हारे पुण्यात्मा में कोई फर्क नहीं है। पापी सोचता है पाप कर रहा हूं, पुण्यात्मा सोचता है पुण्य कर रहा हूं, मगर कर्ता का भाव दोनों में अवशिष्ट है। और जो रोक रहा है, वह कर्ता का भाव है।
मेरा मन
एक वन है इस घड़ी
जिसमें से
गंधवाही तुम्हारे
समीरण का झोंका
गुजर रहा है
उसे करते हुए अस्थिर
और भरते हुए उसमें
प्रवालवर्णी
छंद
वेणु-बंधी
स्वर!
तुम अपने को ऐसा समझो जैसा बांसों का वन। हवा का झोंका गुजर रहा है--सारे वन को कंपाता हुआ, नये स्वरों को जगाता हुआ। एक-एक पत्ते से संगीत झर रहा है, नाद हो रहा है, ओंकार जग रहा है। तुम अपने को ऐसा ही समझो--वेणुवन; जिसमें ऊर्जा परमात्मा की है, जिसमें प्रवाह उसका है--वही बोलता, वही चलता, वही उठता। तुम अपने को हटा लो। और तुम अपने को हटाते ही पाओगे--बन गए तुम वेणु; गीत उसके तुमसे बरसने लगे, बन गए तुम वेणु। वेणु बनने की कला प्रसाद पाने की कला है। खाली, भीतर से कोरे। बांसुरी में भीतर कुछ भी नहीं होता--पोला बांस ही तो बांसुरी है। पोलापन ही तो उसका सारा राज है। पोली है बांसुरी, इसीलिए तो गीत को ले आती है।
जिस दिन तुम पोले बांस की तरह हो जाओगे, उसी दिन परमात्मा का गीत तुमसे झरने लगेगा। गीत तो अभी भी बहने को तत्पर है, मगर तुम भरे हो। और तुम किससे भरे हो? तुमसे ही भरे हो। मैं के अतिरिक्त तुम्हारा और कोई भराव नहीं। मैं गया कि तुम शून्य हुए। उस महाशून्य में प्रसाद की वर्षा है। उस महाशून्य में तुम्हारे हाथ पसर जाएंगे, सारा ब्रह्मांड तुम पर बरस उठेगा।
सब मिल सकता है--एक तुम खो जाओ। इतनी कीमत चुका दो। भक्ति का सारा सार इतनी छोटी सी बात में है--भक्त मिट जाए, तो भगवान हो जाए।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, नारद और शांडिल्य, दोनों ने भक्ति-सूत्र कहे हैं। आप नारद के भक्ति-सूत्र पर बोल चुके और अब शांडिल्य के भक्ति-सूत्र पर विमर्श कर रहे हैं। मेरे जैसे सामान्य मानस को दोनों के दृष्टिकोण में बड़ा भेद दिखाई पड़ता है। एक ही मार्ग पर इतना भेद क्यों?
अभेद की हमारी इतनी आकांक्षा क्यों है? हम भेद को बर्दाश्त क्यों नहीं कर पाते हैं? हम सारे जगत को एक रंग में क्यों रंग देना चाहते हैं? और क्या सारे फूल एक रंग के होंगे तो यह जगत इतना सुंदर होगा? क्या सारे गायक एक ही गीत गुनगुनाएंगे, ऊब पैदा नहीं होगी? सारी वीणाओं से एक ही स्वर उठेगा और एक ही स्वर, और एक ही स्वर गूंजता रहेगा, तो तुम आत्मघात करने की नहीं सोचने लगोगे?
अभेद की हमारी इतनी आकांक्षा क्यों है? हम भेद से इतने भयभीत क्यों हैं? इतने वृक्ष हैं! कोई इस ढंग का है, कोई उस ढंग का है। कोई छोटा है, कोई बड़ा है। किसी पर छोटे सफेद फूल आते, किसी पर रंगीन फूल आते--नीले, पीले, लाल, कितने फूल हैं! कितनी हरियालियां हैं! कितने पक्षी हैं! कितने उनके कंठगान हैं! जगत वैविध्य है। वैविध्य में सौंदर्य है। वैविध्य में संपदा है। जरा सोचो--एक ही जैसे वृक्ष, एक ही जैसे लोग, एक ही जैसे पक्षी--जीवन बड़ा दरिद्र हो जाएगा।
शांडिल्य शांडिल्य हैं। नारद नारद हैं। नारद ने अपने ढंग से बात कही है। जो जाना वह तो एक है, लेकिन जब नारद कहेंगे तो नारद के ढंग से ही कहेंगे। शांडिल्य कहेंगे, शांडिल्य के ढंग से कहेंगे। और अगर शांडिल्य का अपना कोई ढंग न हो कहने को, तो शांडिल्य कहेंगे ही क्यों? नारद ने कह दिया, बात खतम हो गई।
परमात्मा चुकता नहीं। अनंत-अनंत लोगों ने कहा है, फिर भी अनकहा रह गया है। अनंत-अनंत लोग आगे भी कहेंगे, और फिर भी अनकहा रह जाएगा। चुकता ही नहीं। हम एक तस्वीर बनाते हैं, तस्वीर बन नहीं पाती कि हम पाते हैं कि परमात्मा ने चेहरा बदल लिया, कि परमात्मा नया हो गया। फिर तस्वीर बनाओ, फिर सूत्र रचो, फिर गीत गाओ। परमात्मा सतत प्रवाही है। परमात्मा कोई बंद तालाब की तरह नहीं है, बहती हुई गंगा की धारा है। रोज नई उमंग है, रोज नया उल्लास है। एक तरंग नारद की उठी, एक तरंग शांडिल्य की। सागर में कितनी लहरें हैं! दो लहरें एक जैसी होती हैं? हालांकि एक ही सागर की हैं, फिर भी दो लहरें एक जैसी नहीं होतीं। और अच्छा ही है कि नहीं होतीं।
तुम यह चिंता ही छोड़ दो कि सब ज्ञानियों को एक जैसी ही बात कहनी चाहिए। अक्सर ऐसा होता है, अज्ञानी एक जैसी बात कहते हैं। जैसे, एक अज्ञानी हिंदू और दूसरे अज्ञानी हिंदू की बात में कोई फर्क पाओगे? एक अज्ञानी मुसलमान और दूसरे अज्ञानी मुसलमान की बात में तुम कोई फर्क पाओगे? अज्ञानी तो एक-दूसरे को दोहराते हैं, फर्क हो कैसे सकता है? अज्ञानी तो तोते हैं, उधार हैं, फर्क हो कैसे सकता है? लेकिन एक हिंदू ज्ञानी और दूसरे हिंदू ज्ञानी में फर्क हो जाता है। क्योंकि दोनों मूल स्रोत से लाते हैं, दोहराते नहीं किसी को; किसी की पुनरुक्ति नहीं करते। कोई ज्ञानी किसी की कार्बनकापी नहीं होता, मूल होता है, मौलिक होता है। जान कर आता है मूल स्रोत से। और जब गाता है, तो उसका गीत ऐसा होता है जैसा पहले कभी किसी ने नहीं गाया। इसीलिए तो गाने योग्य होता है। नहीं तो शांडिल्य क्यों परेशान हों? कह दिया नारद ने, शांडिल्य कह देते कि बस ठीक है, वही ठीक है।
तुमने उस वकील की कहानी सुनी? होशियार आदमी था। घर में उसके एक मेहमान हुआ, एक मित्र आया। रात दोनों एक ही कमरे में सोए। मित्र बड़ा हैरान हुआ, वकील बैठा। मित्र ने पूछा, क्या करते हो? वकील ने कहा, प्रार्थना। और आकाश की तरफ हाथ उठाया, बिजली बुझाई और कहा: डिट्टो! और जल्दी से सो गया। मित्र ने पूछा कि यह कैसी प्रार्थना? बहुत प्रार्थनाएं सुनी हैं, डिट्टो! वकील ने कहा, रोज-रोज वही-वही क्या दोहराना? कल भी की थी, परसों भी की थी। एक दफे कर दी, अब रोज तो डिट्टो कह देते हैं, वे समझ जाते होंगे। भगवान को इतनी अकल तो होगी ही! अब उसी को क्या दोहराना?
अगर नारद की ही बात शांडिल्य को कहनी थी, तो कह देते--डिट्टो! बात खतम हो गई। नारद के सूत्र पर अपने दस्तखत भी कर देते!
लेकिन शांडिल्य को अपना गीत गाना था। यह जगत बड़ा सृजनात्मक है। और जब तक शांडिल्य अपना गीत न गा लें, तब तक चैन नहीं होगा। जब तक नारद अपना गीत न गा लें, तब तक चैन नहीं होगा।
मैंने एक किरन देखी है
जो सविता है
मैंने एक हंसी सुनी है
जो कविता है
एक फूल देखा है मैंने
जो सचमुच कमल है
एक रंग देखा है मैंने
जो ठीक धवल है
सारे रंग जिसमें समाए हुए हैं
तपाए हुए सोने से अलग
हर तरह के होने से अलग
यह किरन, यह हंसी
यह फूल, यह रंग
मगर आनंद नहीं है मेरे जीवन का
क्योंकि मैं इसे
देखता रह गया हूं
छंद नहीं कर पाया हूं अभी!
देख लेने से ही कुछ नहीं होता, जब तक छंद न कर पाओ। जब तक बांध न पाओ अभिव्यक्ति में। परमात्मा का गीत सुन लेने से कुछ नहीं होता, जब तक गीत तुमसे बहे न, और पहुंच न जाए लोगों तक, तब तक अधूरा रहता है। तब तक बात पूरी नहीं हुई। जब तक तुम कह न दो जो तुमने सुना है, तब तक तुमने सुना है, इस पर भी तुम्हें भरोसा नहीं आता। और तब तक, सुना है या नहीं सुना, इसकी स्पष्ट प्रतीति नहीं होती। जब ज्ञानी बोलता है, तभी स्वयं भी उसके सामने स्पष्ट होता है कि क्या उसने देखा। क्योंकि जो देखा वह तो बड़ा विराट था, अराजक था, एक नीहारिका थी अनंत, जो देखा वह तो बहुत बड़ा था; उस देखे को जब वह सार-सूत्र में बांधने लगता है, तब स्वयं भी स्पष्ट होता है।
एक बड़ी प्रसिद्ध मिश्री कहावत है कि दुनिया में किसी बात को सीखने का सबसे अच्छा ढंग उसे दूसरों को सिखाना है।
बात में कुछ सार है। सार यही है कि जब तुम किसी दूसरे को सिखाने बैठते हो, तब तुम्हारे सामने भी चीजें साफ होनी शुरू होती हैं। तुमने भी देखा होगा। प्रकरणात् च। कभी-कभी तुम्हें भी ऐसा अनुभव हुआ होगा कि जब तुम किसी को कुछ समझा रहे थे, तब तुम्हारे सामने बात पहली दफे साफ हुई। हालांकि तुम्हारे अनुभव में थी, लेकिन धुंधली-धुंधली थी, प्रकट नहीं थी, स्पष्ट नहीं थी। किसी को समझाते थे, तब अचानक स्पष्ट हो गई। किसी को समझाते थे, तब तुम भी समझ गए।
इसीलिए तो संवाद का इतना आनंद है। इसीलिए तो सत्संग का इतना अर्थ है। इसीलिए तो ज्ञानियों ने कहा है--जब दो भक्त मिलें आपस में तो प्रभु की प्रशंसा करें, प्रभु की स्तुति एक-दूसरे से करें। क्यों? क्योंकि उस स्थिति में उन्हें भी साफ होगा, दूसरे के भीतर भी उमंग उठेगी। तुमने जो जाना हो, उसे कहना। कहते-कहते तुम पाओगे--तुमने और भी जाना। कह कर तुम पाओगे--बात अब तक धुंधली थी, आज प्रकट हुई, साफ हुई, रेखाबद्ध हुई।
और एक अनिवार्य है सत्य की अनुभूति में बात कि उसे कहना ही पड़ेगा। जो जाना है, उसे बांटना पड़ेगा। नहीं तो फूल अपनी गंध को अपने भीतर ही रख लेते। नहीं तो दीया अपनी रोशनी को अपने भीतर ही बंद कर लेता। नहीं तो बादल अपने जल पर पहरा बिठा देते। लेकिन बादल बरसेंगे, बरसना ही होगा। तुम यह मत सोचना कि जब धरती प्यासी होती है तो धरती ही तड़फती है बादलों के लिए, बादल भी तड़फते हैं प्यासी धरती के लिए। उतनी ही तड़प दोनों तरफ, आग दोनों तरफ। इधर धरती तड़फती है कि पानी मिले, उधर बादल तड़फता है कि कोई प्यासा मिले। बादल भी बोझिल हो जाता है।
तो जब बुद्ध पचास वर्षों तक गांव-गांव घूमते हैं, वह प्यासी धरती की तलाश है। महावीर चालीस वर्षों तक निरंतर उपदेश देते हैं, वह फूल की गंध है जो नासापुटों की तलाश कर रही है। नारद और शांडिल्य ने ये सूत्र कहे हैं, ये दीये की किरणें हैं, जो आंखों की खोज कर रही हैं। कोई आंख मिले, तो पहचान हो। अक्सर तुमने एक तरफ से ही बात देखी है, तुमने देखा कि शिष्य खोजता है, तुमने यह नहीं देखा कि गुरु भी खोजता है। शिष्य तो खोजता है, क्योंकि उसे मिला नहीं। गुरु खोजता है, क्योंकि उसे मिल गया। दोनों खोजते हैं। और जब दोनों मिल जाते हैं तो अपूर्व आनंद होता है। शिष्य को आनंद होता है कि जो उसे नहीं था, दिखा; जो उसके पास नहीं था, मिला; और गुरु को आनंद होता है कि जो था, उसे बांट सका। उऋण हुआ। परमात्मा ने उसे दिया था, उसने किसी को दे दिया। प्रसाद में जो मिला है, वह जब तुम प्रसाद की तरह बांट दोगे तभी उऋण होओगे, नहीं तो ऋण रह जाएगा, ऋणी हो जाओगे। इतना परमात्मा ने दिया है, उसे क्या करोगे अब? उसे किसी को दे दो।
यह मार्ग है परमात्मा तक उसे वापस लौटा देने का--क्योंकि दूसरे भी परमात्मा हैं। जब गुरु अपने शिष्य को कुछ देता है, तो वह परमात्मा को ही लौटा रहा है--शिष्य के बहाने, शिष्य के निमित्त। त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पयेत्। वह यह कह रहा है कि ठीक, अब गोविंद तुम आ गए शिष्य बन कर, यह लो, सम्हालो। तुम्हारी चीज तुम्हीं को लौटा देते हैं।
देखते हो, आकाश में बादल उठे, बरसे हिमालय पर, गंगा में भर गया जल ही जल और चली गंगा सागर में उलीचने। और फिर सागर में बादल उठेंगे, और फिर गंगा में भरेंगे, और फिर गंगा उलीचेगी अपने को, ऐसा वर्तुल है। जीवन एक वर्तुल है। जो मिला है, देना पड़ेगा। गंगा कहे कि क्यों दूं? बामुश्किल तो मिलता है; महीनों प्रतीक्षा करती हूं, तब कहीं वर्षा के मेघ घिरते हैं, आषाढ़ आता है। नहीं दूंगी, रोक रखूंगी। गंगा अगर रोक रख ले, तो वर्तुल टूट जाएगा। फिर बादल नहीं आएंगे, आषाढ़ में बादल भी नहीं आएंगे। आषाढ़ में बादल इसीलिए आते हैं, क्योंकि गंगा जाती है और गंगासागर में लीन हो जाती है। तो सागर से फिर बादल उठते हैं।
परमात्मा ने नारद को दिया, नारद ने फिर गंगा में डाल दिया। फिर कोई नारद उठेगा, परमात्मा फिर नारद में बरसेगा। इस जीवन की वर्तुलाकार प्रक्रिया को समझो। मगर हर एक का भेद होगा। गंगा की अपनी चाल, गंगा का अपना लहजा! सिंधु की अपनी चाल, अपनी मौज, अपना ढंग! सबकी अपनी शैली। गंगा अपने ढंग से बहती, ब्रह्मपुत्र अपने ढंग से बहती। सब सागर की तरफ जाती हैं और सब सागर से ही पाती हैं, लेकिन यह वैविध्य सुंदर है। नहीं तो जीवन बड़ी ऊब हो जाए।
भेद अभिव्यक्ति का है, अनुभूति का नहीं। जो जाना है, वह एक है। इसलिए शास्त्र कहते हैं: जानने वालों ने एक को जाना, लेकिन बहुविधि से कहा है। विविधता कथन में है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, दर्शनशास्त्र में इतनी उलझनें क्यों हैं?
दर्शन में उलझन नहीं है, शास्त्र में तो उलझन होगी। शास्त्र का मतलब ही होता है उलझन। शास्त्र का अर्थ होता है: सिद्धांत, तर्क, शब्द। दर्शन तो साफ-सीधा है। दर्शन का तो अर्थ होता है: दृष्टि, देखने की क्षमता, आंख। जब आंख खाली होती है, अहंकार से शून्य होती है, विचार से मुक्त होती है, मन बाधा नहीं डालता, तब जो घटता है वह दर्शन। जैसा है, उसको वैसा ही देख लेना दर्शन है। दर्शन और दर्शनशास्त्र के भेद को याद रखना। दर्शनशास्त्र दर्शन नहीं है, दर्शनशास्त्र ऊहापोह है। दर्शन दृष्टि है, अनुभव है। दर्शनशास्त्र में तो झंझट होगी। दर्शनशास्त्र में तो एक-एक प्रश्न में हजार प्रश्न लगेंगे और एक-एक उत्तर से हजार प्रश्न उठेंगे। और दर्शनशास्त्र में कभी किसी प्रश्न का कोई हल नहीं हो पाता। पांच हजार साल के इतिहास में दर्शनशास्त्रियों ने एक प्रश्न भी हल नहीं किया है। पांच हजार साल में उन्होंने बहुत प्रश्न पूछे हैं, लेकिन एक भी उत्तर नहीं दिया है। वे दे ही नहीं सकते।
दर्शनशास्त्री तो करीब-करीब ऐसा ही है, जैसे तुमने कहानी सुनी होगी कि पांच अंधे एक हाथी को देखने गए थे। आंख तो पास नहीं, तो टटोला। किसी ने हाथी के पैर को टटोला तो उसने कहा, खंभे की भांति है, स्तंभवत। और किसी ने हाथी के कान को टटोला और उसने कहा, सूप की भांति है। और किसी ने कुछ, किसी ने कुछ। पांचों अंधों में बड़ा विवाद हो गया। जो जिसने टटोला था, उसने उसी को पूरा हाथी सिद्ध करने की कोशिश की। पूरा किसी ने देखा नहीं, क्योंकि पूरा देखने के लिए आंख चाहिए। बड़ा विवाद मच गया।
वे अंधे अब भी विवाद कर रहे हैं। उन्हीं पांचों ने सारे दर्शनशास्त्र रचे हैं। जिनको हम दार्शनिक कहते हैं वे और कोई नहीं, वे ही अंधे हैं। और उनके विवाद का कोई अंत कभी नहीं होना है।
मैं विश्वविद्यालय में भर्ती हुआ, विद्यार्थी था, दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी था। मेरे जो वृद्ध प्रोफेसर थे, उन्होंने पहले ही दिन अपना जो पहला व्याख्यान दिया, वह बड़ा प्यारा था। वेदांती थे वे और मानते थे कि जगत माया है। मगर मेरे साथ उनकी झंझट हो गई। उन्होंने उदाहरण बड़ा अच्छा लिया था। उन्होंने उदाहरण लिया था जगत को माया सिद्ध करने के लिए, बड़ा वैज्ञानिक उदाहरण लिया था। उन्होंने कहा, जैसे समझो, न्याग्रा का जलप्रपात। हजारों साल से गिर रहा था, लेकिन शून्य था और शांत था, आवाज नहीं थी।...सुनने वाले हम सब चौंके भी थे कि आवाज नहीं थी? न्याग्रा के पास तो भयंकर आवाज होती है। इतनी ऊंचाई से गिरता है! इतनी जलधार गिरती है! चट्टानों पर गिरता है--पहाड़ तोड़ डाले हैं न्याग्रा ने, इससे बड़ा कोई प्रपात नहीं है। आवाज नहीं? लेकिन फिर जल्दी ही समझ में आया कि उनका मतलब क्या है, वे विज्ञान का सहारा ले रहे थे। फिर उन्होंने कहा कि हजारों-हजारों साल तक कोई आवाज नहीं हुई, सन्नाटा था। फिर एक जंगली आदमी न्याग्रा के पास पहुंचा। जैसे ही वह पास पहुंचा कि सारा जगत न्याग्रा के उदघोष से भर गया। मतलब कि जब तक कान न हो, तब तक आवाज नहीं हो सकती।
बात तो ठीक है, आवाज हो ही कैसे सकती है? न्याग्रा गिरता रहे, लेकिन जब तक कोई कान न आए पास...तुम थोड़ा सोचो तो तुम्हें समझ में आ जाएगा कि आवाज हो ही कैसे सकती है? आवाज के लिए कान बिलकुल जरूरी है, अनिवार्य है। हम सब विद्यार्थी चौंके थे कि बात तो ठीक है।
फिर उन्होंने कहा, और अब तक कोई रंग न था न्याग्रा में।
रंग भी नहीं हो सकता बिना आंख के। ये वृक्ष हरे हैं, ऐसा मत कहो; तुम जब चले जाते हो तब ये हरे नहीं रह जाते। तुम जब चले गए--आंख चली गई--तो फिर कैसे हरे? हरे में तो संबंध है वृक्ष और तुम्हारी आंख का। जो पीलिया से बीमार है, उसको ये पीले दिखाई पड़ते हैं--वह दूसरे ढंग की आंख है, उसका संबंध दूसरा बनता है। जब कोई आंख नहीं होती, तब वृक्ष अपना रंग छोड़ देते हैं, क्योंकि रंग किसके लिए होगा? रंग तो आंख का संबंध है।
हम सब जानते थे कि वे वेदांती हैं और इस जगत को माया सिद्ध करना चाहते हैं। तो उन्होंने कहा कि देखते हो, न तो रंग है न्याग्रा में कोई, न ध्वनि है कोई। ध्वनि और रंग, दोनों आदमी के सिर में हैं। वह जो आदमी आया था, दोनों घटनाएं उसके सिर में घटीं।
मुझे झंझट की आदत रही है, मैं खड़ा हो गया। मैंने उनसे पूछा कि आप कहते हैं कि ध्वनि नहीं बाहर? उन्होंने कहा, ठीक। रंग नहीं बाहर? उन्होंने कहा, ठीक। वे बहुत प्रसन्न थे कि एक विद्यार्थी शिष्य मिला। मैंने पूछा, सब सिर के भीतर? उन्होंने कहा, बिलकुल ठीक। और मैंने कहा, सिर? सिर सिर के बाहर है या सिर के भीतर? वे थोड़े बेचैन हुए। अब झंझट! अगर कहें सिर सिर के बाहर है, तो बाहर को स्वीकार करना पड़ेगा। अगर कहें सिर सिर के भीतर है, तो भी झंझट होगी। क्योंकि किसके भीतर कौन? भीतर होने के लिए कुछ बाहर होना चाहिए। उन्होंने एक क्षण सोचा, फिर उन्होंने कहा कि सिर भी सिर के ही भीतर है। तो मैंने कहा, तब दो सिर हो गए। भीतर होने के लिए एक सिर, जिसके भीतर है, और एक सिर, जो भीतर है। एक सिर बाहर हो गया। जो बाहर सिर है, वह बाहर है? जो भीतर सिर है, वह भीतर है?
वे थोड़े बेचैन हो आए, उनको पसीना आ गया; उन्होंने कहा, तुम बाहर चले जाओ!
मैंने कहा, कहां है बाहर? आपके सिर में कि मेरे सिर में? मैं जाऊं कहां?
वे तो इतने नाराज हो गए--सब वेदांत वगैरह भूल गए! वे चिल्लाने लगे--निकल जाओ!
मैंने कहा, आप चिल्लाते रहें, मगर मैं निकल कर जाऊं कहां? आपकी आवाज भी मेरे सिर के भीतर है, बाहर भी मेरे सिर के भीतर है, आप भी मेरे सिर के भीतर हैं, मैं आपके सिर के भीतर हूं, बहुत झंझट है, उलझाव है बहुत!
मैंने उनसे कहा, यह तो ऐसा हुआ कि एक चूहा अपनी पोल में घुसा और जब पोल में घुस गया तो उसने खींच कर अपनी पोल को भी अपने भीतर कर लिया। अब मैं पूछता हूं कि पोल चूहे के भीतर है कि चूहा पोल के भीतर है? पहले चूहा पोल के भीतर गया, तब तक बात ठीक है। फिर उसने खींच कर पोल को भी अपने भीतर कर लिया। अब जिस पोल को उसने अपने भीतर किया, उसके वह भीतर था, तो अब चूहा कहां है?
वे तो एकदम क्लास छोड़ दिए। उन्होंने तो जाकर इस्तीफा लिख दिया। उन्होंने कहा, या तो यह विद्यार्थी पढ़े, या मैं पढ़ाऊं, दोनों साथ नहीं चल सकते हैं। यह झंझटी है।
मुझे बुलाया प्रिंसिपल ने, उन्होंने कहा कि क्या झंझट है? मैंने कहा, झंझट नहीं, यह दर्शनशास्त्र है। झंझट उन्होंने ही खड़ी की है। मैं तो बिलकुल चुप ही था। मैं तो न्याग्रा प्रपात था, चुप बैठा था, घंटे भर वे बोले। जब मैंने प्रिंसिपल को सारी उलझन समझाई, तो उन्होंने कहा, मेरा सिर घुमा दोगे। मैं समझ गया कि वे क्यों छोड़ कर चले गए हैं। जब मैंने उनको कहा कि चूहा पोल के भीतर कि पोल चूहे के भीतर? तो उन्होंने कहा, भई, मैं बिलकुल दार्शनिक नहीं हूं। और जब तुमने उनका सिर घुमा दिया तो मेरा घुमा दोगे। अच्छा हो कि तुम छोड़ दो यह कालेज। मैंने कहा, फिर मैं दर्शनशास्त्र कहां पढूंगा?
अफवाह पूरे नगर में--जहां मैं पढ़ता था--सब जगह धीरे-धीरे खबर पहुंच गई। तीन दिन तक वे कालेज नहीं आए, उन्होंने तो जिद्द ही कर ली। और उनकी जिद्द ठीक भी थी। मैं भी जानता हूं कि वह उन्होंने ठीक ही किया, क्योंकि यह बात आगे बढ़ नहीं सकती थी, मैं वहीं अटकाए रखता। या तो उनको स्वीकार करना पड़े कि बाहर है--जो वे कर नहीं सकते थे, वे बड़े बर्कले के मानने वाले और शंकर के मानने वाले वेदांती थे, विज्ञानवादी थे, वे मान नहीं सकते थे। और जब तक वे मान न लें, तब तक मैं छोड़ सकता नहीं था।
प्रिंसिपल ने मुझे बहुत समझाया कि बूढ़े आदमी हैं वे। और मैं जानता हूं कि तुम्हारा कोई कसूर नहीं है। उन्होंने ही समस्या उठाई, यह भी ठीक है। लेकिन उनको हम छोड़ना भी नहीं चाहते, प्रतिष्ठित हैं। तुम किसी दूसरे कालेज में भर्ती हो जाओ।
मुझे कोई दूसरा कालेज जगह देने को राजी नहीं। वे कहें, पहले यह लिख कर दो कि प्रश्न तो नहीं उठाओगे।
दर्शनशास्त्र तो झंझट है। तुमने प्रश्न उठाया कि झंझट शुरू हुई। उत्तर दिया कि झंझट और बढ़ी। फिर कोई अंत नहीं है। लेकिन दर्शन झंझट नहीं है।
धर्म का रस दर्शन में है, दर्शनशास्त्र में नहीं। और भक्ति का रस तो दर्शन से भी गहरा जाता है--देखने में ही नहीं, होने में। ये बड़ी अलग बातें हैं। दर्शनशास्त्र का रस तो सिर्फ यही है कि सोचो, विचारो, जिज्ञासा करो, तर्क बिठाओ; समाधान; समस्याएं। कहीं पहुंचता नहीं आदमी, यह जाल बढ़ता चला जाता है। यह ढेर बड़ा हो जाता है। इसमें आदमी विक्षिप्त हो सकता है। इसलिए अगर दार्शनिक विक्षिप्त हो जाते हैं, तो कुछ आश्चर्य नहीं। दार्शनिक होने के लिए बड़ी प्रगाढ़ मेधा चाहिए, नहीं तो विक्षिप्त हो ही जाओगे।
धर्म की आकांक्षा दर्शन में है--देखना चाहता है धर्म; सोचना नहीं, देखना। भक्ति की आकांक्षा और भी गहरी है--देखना भी क्या? देखने से भी क्या होगा? सोचने से गहरा है देखना, देखने से भी गहरा है होना। भक्त तो भगवान होना चाहता है, भक्त तो भगवत्ता को अनुभव करना चाहता है। देखा, वह भी तो दूर रह गया।
इसलिए शांडिल्य ने कहा कि भक्त चाहता है--न ज्ञान, न दर्शन--समस्त रूप से एक हो जाना, एकात्मभाव।
चौथा प्रश्न:
भगवान, सूत्र ‘अथातोभक्तिजिज्ञासा’ में भक्ति के लिए जिज्ञासा शब्द का उपयोग करना कुछ अजीब लगता है। क्योंकि जिज्ञासा में कुछ बौद्धिक गंध है। क्या जिज्ञासा जिज्ञासा में फर्क है--ज्ञान की जिज्ञासा में और भक्ति की जिज्ञासा में? क्या प्रेम भी विस्मय और रस-विभोरता की जगह जिज्ञासा बन सकता है?
शब्द में कोई अर्थ नहीं होता। अर्थ तो तुम डालते हो--वही हो जाता है। शब्द तो कृत्रिम हैं, कामचलाऊ हैं। अगर शब्दों में ही कोई अर्थ होता होता, तब तो तुम चीनी भाषा पहली दफे सुनते और समझ जाते। शब्द तो सुनाई पड़ते हैं, लेकिन अर्थ पकड़ में नहीं आता। शब्दों में कोई अर्थ नहीं है। शब्दों में अर्थ तो निरंतर अभ्यास से डाला जाता है। तुम बार-बार उस शब्द का वही अर्थ मान कर चलते हो, बार-बार वही अर्थ प्रयोग करते हो, तो धीरे-धीरे वही अर्थ घनीभूत हो जाता है। लेकिन शब्द में कोई अर्थ नहीं है। एक ही शब्द का अलग-अलग लोग अलग-अलग अर्थ कर सकते हैं। और अलग-अलग परंपराएं एक ही शब्द का अलग-अलग अर्थ करती हैं।
जैसे जिज्ञासा शब्द। ज्ञानी इसका उपयोग करता है खोजबीन के अर्थ में, बौद्धिक अर्थ में। भक्त इसका अर्थ करता है खोजबीन के ही अर्थ में, लेकिन अस्तित्वगत खोजबीन। जानना ही नहीं चाहता, होना चाहता है--होने की जिज्ञासा।
शब्द अपने आप में कोई नियत अर्थ नहीं रखते हैं। अर्थ तो प्रयोग से निर्णीत होता है। इसलिए तुम ऐसा भी पाओगे कि जो शब्द एक परंपरा में एक अर्थ रखता है, दूसरी परंपरा में दूसरा अर्थ रखता है। जैसे दर्शन शब्द। हिंदू परंपरा में अर्थ रखता है--दृष्टि, जैन परंपरा में अर्थ रखता है--श्रद्धा। सम्यक दर्शन का जहां जैन परंपरा उपयोग करती है वहां अर्थ होता है--सम्यक श्रद्धान। वहां दृष्टि अर्थ नहीं होता। उनका भी कारण है। वे कहते हैं, जो देख लिया, उसमें श्रद्धा आ जाती है। वह फिर दृष्टि नहीं रह जाती, श्रद्धा बन जाती है। जो देख लिया ठीक से, वह श्रद्धा का अंग हो गया।
सुकरात ने कहा है: ज्ञान क्रांति है, ज्ञान मुक्ति है, ज्ञान शक्ति है।
ज्ञान का सुकरात का अर्थ अपना है, शांडिल्य से बहुत भिन्न है। ज्ञान का अर्थ होता है, जिसने वस्तुतः जाग कर देख लिया, जान लिया, जिसका सारा अज्ञान मिट गया, जिसके भीतर ज्ञान की ज्योति जगमगा उठी। तो ठीक कह रहा है सुकरात कि ज्ञान शक्ति है, ज्ञान मुक्ति है, ज्ञान क्रांति है।
लेकिन शांडिल्य कहते हैं: ज्ञान से क्या होगा? ज्ञान का अर्थ शांडिल्य करते हैं--जानकारी, इनफर्मेशन, सूचना। तुम ईश्वर के संबंध में कितना ही जान लो, इससे क्या होगा? जब तक ईश्वर को न जानो। तुम सूरज के संबंध में कितना ही जान लो, इससे क्या होगा? जब तक तुम्हारी आंख अंधी है, जब तक तुम्हारी आंख न खुले।
अब फर्क हो गया। सुकरात जब ज्ञान का उपयोग करता है, तो उसका अर्थ यही है कि आंख खुल कर जो दिखे। और शांडिल्य जब ज्ञान का उपयोग करते हैं, तो उनका अर्थ यह होता है कि अंधा भी प्रकाश के संबंध में जान सकता है--वह ज्ञान; और आंख वाला जो जानता है, वह ज्ञान नहीं, वह तो एकात्म हो गया, वह लीन हो गया।
शब्द-शब्द का भेद स्मरण रखना।
तुम पूछते हो: ‘सूत्र अथातोभक्तिजिज्ञासा में भक्ति के लिए जिज्ञासा शब्द का उपयोग करना कुछ अजीब लगता है।’
वह अजीब तुम्हें अपनी आदत के कारण लगता होगा। तुम्हें शांडिल्य के साथ चलना पड़ेगा। तुम्हें शांडिल्य के शब्दों का अर्थ पकड़ना होगा। शांडिल्य के साथ सहानुभूति रखनी होगी। तुम अपना अर्थ मत डालो, नहीं तो शांडिल्य के साथ संबंध छूट जाएगा।
तुम कहते हो: ‘क्योंकि जिज्ञासा में कुछ बौद्धिक गंध है।’
वह बौद्धिक गंध तुम्हें दिखाई पड़ रही है, शांडिल्य को नहीं। शांडिल्य को बुद्धि से कुछ लेना-देना नहीं है। शांडिल्य की सारी जिज्ञासा हार्दिक है।
तीन तल हो सकते हैं जिज्ञासा के--बौद्धिक, हार्दिक, अस्तित्वगत। शांडिल्य की जिज्ञासा हार्दिक है। भक्ति हृदय से शुरू होती है, अस्तित्व पर पूर्ण होती है। ज्ञान का मार्ग मस्तिष्क से शुरू होता है, हृदय में प्रवेश करता है, अस्तित्व पर पहुंचता है। भक्ति का मार्ग बुद्धि को छोड़ ही देता है एक किनारे। वह शुरू ही हृदय से होता है और सीधा अस्तित्व की यात्रा करता है। ध्यान का मार्ग हृदय से भी शुरू नहीं होता। वह बुद्धि को भी छोड़ देता है, हृदय को भी छोड़ देता है। वह सीधी छलांग लेता है अस्तित्व में। वह सीढ़ियों को हटा ही देता है, छलांग है। तो जब ध्यानी कहेगा जिज्ञासा, तो उसका अर्थ होगा--अस्तित्व की जिज्ञासा। प्रेमी कहेगा जिज्ञासा, उसका अर्थ होगा--हृदय की, भाव की जिज्ञासा। ज्ञानी कहेगा जिज्ञासा, उसका अर्थ होगा--विचारणा, ऊहापोह।
एक डाक्टर की प्रैक्टिस काफी चलती थी। जगह छोटी पड़ने लगी, तो उसे दूसरी मंजिल पर, उसी मकान में, बड़ा स्थान मिल गया। तो वह पहली मंजिल से हट कर दूसरी पर चला गया। लेकिन दूसरी पर जाने के बाद उसकी प्रैक्टिस एकदम मर गई। लोग आते ही न। उसके अपने मरीज भी दूसरों के पास जाने लगे। वह बड़ा हैरान था। उसने एक दिन एक मरीज से पूछा कि बात क्या है--राह पर मिल गया मरीज--कि बात क्या है? तुमने मेरे पास आना बंद क्यों कर दिया? औरों ने भी बंद कर दिया है। उस मरीज ने कहा, इसका कारण है सीढ़ियों पर लगी हुई पटिया। डाक्टर ने कहा, सीढ़ियों पर लगी पटिया! उससे क्या लेना-देना? मरीज ने कहा, लेना-देना है। डाक्टर ने पूछा, मतलब? उसने कहा, मतलब, उस पटिया पर लिखा है, ऊपर जाने का रास्ता। अब ऊपर कोई जाना नहीं चाहता है, इसीलिए तो हम आते हैं डाक्टर के पास। अब यह ऊपर जाने का रास्ता, मरीज डर गए हैं, गांव में खबर फैल गई है कि भाई, जरा सावधान!
कौन ऊपर जाना चाहता है!
एक धर्मसभा में धर्मगुरु ने लोगों को समझाया कि कौन-कौन स्वर्ग जाना चाहते हैं, हाथ उठा दें। सबने हाथ उठा दिए, सिर्फ मुल्ला नसरुद्दीन बैठा रहा। उसने दुबारा पूछा, वह जरा हैरान हुआ, उसने कहा, नसरुद्दीन, सुना या नहीं? झपकी लेते हो? स्वर्ग जाना है कि नहीं? नसरुद्दीन फिर भी बैठा रहा। तब उसने दूसरा सवाल पूछा कि जो नरक जाना चाहते हैं, वे हाथ उठा दें। किसी ने हाथ नहीं उठाया--मुल्ला ने भी नहीं उठाया। तब उस धर्मगुरु ने पूछा कि तुम आखिर जाना कहां चाहते हो? उसने कहा, मैं अपने घर जाना चाहता हूं। जब घर से चलने लगा तो पत्नी ने कहा था: मस्जिद से सीधे घर आना, नहीं तो टांग तोड़ दूंगी। कोई स्वर्ग जाए, कोई नरक जाए, मुझे घर जाना है। मैं टांग नहीं तुड़वाना चाहता।
अपने-अपने भाव हैं, अपने-अपने शब्दों के अर्थ हैं।
मैंने यहां पिछले दो या तीन दिन पहले भक्ति का अर्थ कहा--माधुर्य, कि भक्ति तो ऐसे है जैसे सभी मिठाइयों में माधुर्य है। जैसे सभी मिठाइयों में शक्कर। कमल ने दूसरे दिन एक प्रश्न लिख कर भेज दिया कि पहले आश्रम के भोजनालय में दही में शक्कर मिलती थी, अब क्यों नहीं मिलती?
उसको याद आ गई होगी शक्कर शब्द सुन कर। मैं किस शक्कर की समझा रहा हूं, तुम्हें कौन सी शक्कर याद आ रही है! मगर अपने-अपने अर्थ हैं।
एक संवाददाता जब एक फिल्म के सेट पर पहुंचा, तो देखा, खंडहरों का सेट लगा हुआ है; बेहोश अभिनेत्री पड़ी है, टूटी कुर्सियां, टूटी मेजें, सेट की टूटी हुई दीवालें, और खिड़कियों के बीच हांफता हुआ हीरो खड़ा है। निर्देशक भी बेहोश है, असिस्टेंट, लाइटमैन वगैरह सब चुप खड़े हैं। सिर्फ हीरो का सेक्रेटरी निश्चिंत खड़ा सिगरेट पी रहा है। संवाददाता ने पूछा, यह सब क्या? सेट की दीवालें टूटी हुई हैं, लोगों की यह हालत, यह सब कैसे हुआ? हीरो का लड़ाई के दृश्य में इंवॉल्वमेंट बढ़ गया था, सेक्रेटरी बोला। इतना ज्यादा इंवॉल्वमेंट कैसे हो गया? सेक्रेटरी ने कहा, इंस्टालमेंट नहीं मिला था।
अपने शब्द हैं, अपने अर्थ हैं।
वित्तविभाग के एक अधिकारी को, जो अविवाहित थे, किसी भी विभाग की धन संबंधी मांगों में बड़ा अड़ंगा लगाने की आदत थी। वे विभागों द्वारा आई हुई फाइलों पर यह लिख कर कि--यह बताने का कष्ट करें कि पहले आपका काम कैसे चलता था? वापस कर देते थे। इसी बीच उनका विवाह निश्चित हुआ, उन्होंने सभी को शादी के कार्ड भेजे। दूसरे दिन सभी कार्ड वापस आ गए और सब पर यही लिखा था--यह बताने का कष्ट करें कि पहले आपका काम कैसे चलता था?
शब्दों का अर्थ संदर्भ में होता है। शब्दों का अर्थ संदर्भ के बाहर नहीं होता। शांडिल्य का जिज्ञासा से अर्थ है--हार्दिक जिज्ञासा।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, मैं संन्यास लेना चाहता हूं, लेकिन मित्र और प्रियजन बाधा बन रहे हैं! मैं क्या करूं?
वे मित्र न होंगे, और वे प्रियजन भी नहीं। जो तुम्हें स्वतंत्रता न दें स्वयं होने की, वे मित्र भी नहीं हो सकते, प्रियजन भी नहीं हो सकते। मित्रता का अर्थ ही यही है कि हम दूसरे को इतना चाहते हैं कि वह जो होना चाहे, हम उसे स्वतंत्रता देंगे। और प्रियजन का अर्थ यही है कि तुम जिस दिशा में जाना चाहो, जहां तुम्हारा आनंद हो, हमारे आशीर्वाद तुम्हारे साथ होंगे--चाहे हम विचार से राजी न भी हों।
प्रेम मुक्ति देता है। और जो मुक्ति न दे, वह प्रेम नहीं है।
मैं तुमसे कहता नहीं कि तुम संन्यास लो। मैं तुमसे इतना ही कहना चाहूंगा--जो तुम्हारी अंतर्भावना हो, हिम्मत से उस पर बढ़ो। संन्यास की हो तो, संसार की हो तो। दूसरे को निर्णायक मत बनाओ। दूसरे के हाथ में निर्णय मत दो। अन्यथा तुम अपने जीवन को नष्ट कर लोगे। तुम्हारा जीवन तुम्हारा है, तुम इसे अपने ढंग से जीओ।
मैं जो हूं
मुझे वही रहना चाहिए
यानी
वन का वृक्ष
खेत की मेंड
नदी की लहर
दूर का गीत
व्यतीत
वर्तमान में
उपस्थित
भविष्य में
मैं जो हूं
मुझे वही रहना चाहिए
तेज गर्मी
मूसलाधार वर्षा
कड़ाके की सर्दी
खून की लाली
दूब का हरापन
फूल की जर्दी
मैं जो हूं
मुझे वही रहना चाहिए
मुझे अपना
होना
ठीक-ठीक सहना चाहिए
तपना चाहिए
अगर लोहा हूं
तो हल बनने के लिए
बीज हूं
तो गड़ना चाहिए
फूल बनने के लिए
मैं जो हूं
मुझे वही बनना चाहिए
धारा हूं अंतःसलिला
तो मुझे कुएं के रूप में
खनना चाहिए
ठीक जरूरतमंद हाथों से
गान फैलाना चाहिए मुझे
अगर मैं आसमान हूं
मगर मैं
कब से ऐसा नहीं
कर रहा हूं
जो हूं
वही होने से डर रहा हूं!
जीवन में एक ही असफलता है--तुम जो हो, वही होने से डरना। और जीवन में एक ही सफलता है--वही हो जाना, जो तुम्हारी अंतःप्रेरणा है। तुम जो होना चाहो, हो जाओ। सब झंझट मोल लो, सब कीमत चुकाओ, यही साहस है। डरपोक रहे, जीवन से चूक जाओगे। कायर रहे, जीवन की संपदा तुम्हारी कभी भी न हो सकेगी। विजेता बनना हो तो एक बात तय कर लेनी चाहिए कि कुछ भी हो परिणाम, सारा संसार साथ हो कि विपरीत, मैं अपनी डगर पर चलूंगा। फिर चाहे मेरी डगर नरक ही क्यों न जाती हो। मैं अपने हृदय की सुनूंगा।
और जो व्यक्ति अपनी सुन कर नरक भी जाए, वह स्वर्ग पहुंच जाता है। और जो दूसरे की सुन कर स्वर्ग भी जाए, वह निश्चित ही नरक पहुंच जाता है।
आज इतना ही।
भगवान, प्रसाद से प्रभु-उपलब्धि। यह कैसे होती है?
प्रयास है मनुष्य के अहंकार की छाया। प्रसाद है निर-अहंकार दशा में उठी सुगंध।
प्रयास से मिलता है क्षुद्र। आदमी की मुट्ठी बड़ी छोटी है। कंकड़-पत्थर बांध सकते हो मुट्ठी में। हिमालय को बांधने चलोगे तो मुश्किल में पड़ोगे। प्रयास से मिलता है क्षुद्र, आदमी की शक्ति अल्प है, इसलिए। प्रसाद से मिलता है विराट। प्रयास है बंद मुट्ठी, प्रसाद है खुला हाथ। मैं पाकर रहूंगा, इसमें ही भ्रांति है। क्योंकि मैं ही भ्रांत है। मैं नहीं हूं, ऐसा जिस दिन जानोगे, उस दिन मिल गया। मिला ही था, सदा से मिला था, सिर्फ मैं की अकड़ के कारण दिखाई नहीं पड़ता था।
प्रसाद से जो मिलता है, वह आज मिलता है, ऐसा नहीं; मिला ही हुआ है, सदा से मिला हुआ है। लेकिन तुम अपनी अकड़ में मस्त हो, देखो तो कैसे देखो! सूरज निकला है, तुम अपनी अकड़ में आंख बंद किए खड़े हो। इतना ही नहीं, आंख बंद करके तुम सूरज की तलाश भी कर रहे हो।
आंख खोलो! और खयाल रखना, तुम लाख तलाश करो, आंख अगर बंद रहे तो प्रकाश तुम्हें मिलेगा नहीं। और प्रकाश चारों तरफ है, सब तरफ से बरस रहा है, तुम उसमें नहाए हुए खड़े हो, आंख खोलते ही मिल जाएगा।
अहंकार है बंद आंख, निर-अहंकारिता है खुली आंख। वर्षा तो हो ही रही है, लेकिन अहंकार है उलटा घड़ा, निर-अहंकार है सीधा घड़ा। वर्षा दोनों पर हो रही है, अहंकारी पर भी और निर-अहंकारी पर भी। कुछ भेद परमात्मा की तरफ से नहीं है, पापी पर भी बरस रहा है, पुण्यात्मा पर भी। उसकी तरफ से भेद हो भी नहीं सकता--पहाड़ों पर भी बरस रहा है, खाई-खड्डों में भी। लेकिन खाई-खड्डे भर जाएंगे और पहाड़ खाली रह जाएंगे, क्योंकि पहाड़ पहले से ही भरे हैं, खाई-खड्डे खाली हैं, उनमें रिक्त अवकाश है, स्थान है।
अहंकार से भरे हो तो चूक जाओगे। और सब प्रयास अहंकार की ही उधेड़बुन हैं। मैं कुछ करके दिखा दूं--फिर चाहे धन, चाहे पद, चाहे मोक्ष--मगर मैं कुछ करके दिखा दूं। मैं अपनी पताका फहरा दूं। मैं दिखा दूं दुनिया को दुंदुभी पीट कर कि मैं कुछ हूं। मैं कोई साधारण व्यक्ति नहीं, महात्मा हूं, संत हूं, मुक्त हूं। ये जो मैं की घोषणाएं हैं, यही तो तुम्हें बांधे हैं, यही तो तुम्हारे पैरों में पड़ी जंजीरें हैं। यही तो तुम्हारे गले में लगा फांसी का फंदा है।
और तुम जिसे पाने का दावा कर रहे हो, दावे के कारण ही चूक रहे हो। जो तुमसे कहे कि मैंने खोजा और पाया, जान लेना उसने अभी पाया नहीं। जो तुमसे कहे--मैंने खोजा नहीं और पाया, समझना कि उसने पाया। खोजने से नहीं मिलता है; खोजने से खो जाता है। खोजने में ही खो जाता है। जो खोजता नहीं--वही तो ध्यान की दशा है, या प्रेम की दशा है--जो खोजता नहीं, बैठा है शांत, प्रतीक्षा करता है, खोजता नहीं। खोजने में तुम चलते हो, प्रतीक्षा में परमात्मा चलता है। प्रतीक्षा में तुमने निमंत्रण भेज दिया, असहाय छोटे बच्चे की भांति तुम रो रहे हो--मां चलेगी। खोज में तुम चल पड़ते हो।
तुम चले कि चूक हो गई। तुम चले कि कभी न पहुंचोगे। तुम जितने चलोगे उतने ही दूर हो जाओगे। यात्रा तुम्हें सत्य से दूर ले जाएगी, पास नहीं लाएगी। सत्य की कोई यात्रा ही नहीं है। ठहरो, रुको; जैसे हो, जहां हो, वहीं समर्पित। छोड़ो यह भाव कि मैं कुछ करके दिखा दूं। तुम हो कहां? पहले इसे तो खोज लो कि मैं हूं भी? थोड़ा अपने भीतर टटोलो, जरा अपनी गांठ खोलो और टटोलो--मैं हूं भी? मैं हूं कहां? यह मैं है क्या सिवाय एक कोरे शब्द के! आज तक किसी ने कभी इसे पाया नहीं। एक भी व्यक्ति नहीं पा सका है पूरे मनुष्य-जाति के इतिहास में। निरपवाद रूप से, जो भी भीतर गया, उसने पाया कि मैं नहीं है, सन्नाटा है, शांति है। कभी कोई मैं के आमने-सामने नहीं आया। जितने भीतर गया, उतना ही मैं गला। और जिस दिन केंद्र पर पहुंचा अपनी जीवन ऊर्जा के, वहां मैं था ही नहीं। उस ना-मैं की दशा में जो घटता है उसका नाम प्रसाद है।
प्रसाद का अर्थ है: तुम्हारे कारण नहीं, प्रभु के कारण। भेंट है, उसकी तरफ से है। तुम्हारे लिए सौगात है।
तुम पूछते हो: ‘प्रसाद से प्रभु-उपलब्धि। यह कैसे होती है?’
प्रकरणात् च।
प्रकरणों में देखो। जब भी किसी को हुई है, तब ऐसे ही हुई है। कभी तुमने देखा, एक पक्षी तुम्हारे कमरे में घुस आता है। जिस द्वार से आया है, वह खुला है--इसीलिए भीतर आ सका है; द्वार बंद होता तो भीतर न आ सकता। और फिर खिड़की से टकराता है, बंद खिड़की के कांच से टकराता है। चोंचें मारता है, पर फड़फड़ाता है। जितना फड़फड़ाता है, जितना घबड़ाता है, उतना बेचैन हुआ जाता है। और खिड़की बंद है, और टकराता है। लहूलुहान भी हो सकता है। पंख भी तोड़ ले सकता है। कभी तुमने बैठ कर सोचा, यह पक्षी कैसा मूढ़ है! अभी दरवाजे से आया है, और दरवाजा खुला है, अभी उसी दरवाजे से वापस भी जा सकता है, मगर बंद खिड़की से टकरा रहा है!
प्रकरणात् च।
वहां खोजना प्रकरण। वहां तुम्हें शांडिल्य का सूत्र याद करना चाहिए। ऐसा ही आदमी है।
तुम इस जगत में आए हो, तुम अपने को जगत में लाए नहीं हो, आए हो--वहीं प्रसाद का सूत्र है। तुमने अपने को निर्मित नहीं किया है। यह जीवन तुम्हारा कर्तृत्व नहीं है, तुम्हारा कृत्य नहीं है, यह दान है, यह परमात्मा का प्रसाद है। यह द्वार खुला है, जहां से तुम आए। तुमसे किसी ने पूछा था जन्म के पहले कि महाराज, आप होना चाहते हैं? न किसी ने पूछा, न किसी ने तांछा। अचानक एक दिन तुमने पाया कि आंखें खुली हैं, श्वास चली है, जीवन की भेंट उतरी है। अचानक एक क्षण तुमने अपने को जीवित पाया। सारे जगत को रसविमुग्ध पाया। इसे तुमने चुपचाप स्वीकार कर लिया। तुमने कभी इस पर सोचा भी नहीं कि मुझसे किसी ने पूछा नहीं, मैंने निर्णय किया नहीं, यह जीवन सौगात है, प्रसाद है।
यहीं से दरवाजा खुला, जहां से तुम आए। और अब तुम प्रयास की बंद खिड़की पर सिर मार रहे हो, पंख तोड़े डाल रहे हो। जहां से आए हो, जैसे आए हो, उसी में सूत्र खोजो।
और ऐसा नहीं है कि तुम जब आए थे तब प्रसाद मिला था, रोज प्रसाद मिल रहा है। यह श्वास तुम्हारे भीतर आती-जाती है, लेकिन तुम कहते हो--मैं श्वास ले रहा हूं। अहमन्यता की भी सीमा होती है! विक्षिप्त बातें मत कहो। तुम क्या श्वास लोगे? श्वास लेना तुम्हारे हाथ में होता, तो तुम मरोगे ही नहीं कभी फिर, तुम श्वास लेते ही चले जाओगे। मौत दरवाजे पर आकर खड़ी रहेगी, यमदूत बैठे रहेंगे और तुम श्वास लेते रहोगे।
श्वास तुम्हारे हाथ में नहीं है। तुमने एक भी श्वास नहीं ली है कभी। श्वास तुम्हें ले रही है। तुम श्वास को लेते हो? यह तुम्हारा कृत्य है? तो आधी घड़ी को बंद कर दो--क्योंकि जो कृत्य है, वह बंद भी किया जा सकता है--तो आधी घड़ी श्वास मत लो, देखें! क्षण भी नहीं बीतेंगे और तुम पाओगे कि बेचैनी इतनी भयंकर हुई जा रही है! श्वास भीतर आना चाहती है, द्वार पर दस्तक दे रही है और तुम न आने दोगे तो भी आएगी। और एक दिन तुम लाना चाहोगे और नहीं आना है तो नहीं आएगी।
न रोक सकते हो श्वास तुम, न ले सकते हो श्वास तुम। श्वास चल रही है। अपने से चल रही है। इसलिए तो रात नींद में भी चलती है, नहीं तो नींद में तुम्हें याद रखना पड़े बार-बार, आंख खोल-खोल कर देखना पड़े कि श्वास ले रहा हूं कि नहीं ले रहा हूं? कहीं नींद में भूल न जाऊं श्वास लेना, नहीं तो मारे गए। फिर तो कोई सो भी न सकेगा निश्चिंत। पति सोएगा तो पत्नी जाग कर देखेगी और पत्नी सोएगी तो पति जाग कर देखता रहेगा कि कहीं श्वास लेना न भूल जाए। फिर भी रोज भूल-चूकें होंगी, रोज दुर्घटनाएं होंगी, कि आज फलां मर गए, आज ढिकां मर गए, रात श्वास लेना भूल गए। नींद में याद भी कौन रखेगा?
लेकिन नींद में भी श्वास चलती है। जब तुम प्रगाढ़ निद्रा में डूबे हो, जब तुम्हें अपना भी पता नहीं कि तुम हो या नहीं, स्वप्न भी नहीं चलता तुम्हारे चित्त पर, सब खो गया, अहंकार है ही नहीं--गहरी निद्रा में कहां अहंकार? इसलिए तो पतंजलि ने कहा कि सुषुप्ति और समाधि एक जैसे हैं। इस अर्थ में एक जैसे हैं कि दोनों में अहंकार नहीं होता। तुम हो कहां गहरी निद्रा में? सब सीमाएं समाप्त हो गईं, तुम शून्यवत हो। लेकिन फिर भी श्वास चल रही है। सब काम चल रहा है--पेट में पाचन चल रहा है, खून की धारा बह रही है, हड्डी-मांस-मज्जा बन रहा है--सब चल रहा है। पैर पर एक कीड़ा चढ़ने लगेगा, पैर उसे झटक देगा--और तुम हो ही नहीं! और सुबह तुम बता भी न सकोगे कि रात एक कीड़ा चढ़ा था और मैंने झटक दिया था--तुम्हें याद भी नहीं है। एक मच्छर भिनभिनाएगा, हाथ से तुम हटा दोगे। यह सब चल रहा है, और तुम नहीं हो। कर्म चल रहा है और कर्ता नहीं है, यहीं है सूत्र प्रसाद का--श्वास में है, सुषुप्ति में है।
तुम अगर अपने जीवन को थोड़ा परखो, पहचानो, जांचो, तो तुम्हें जगह-जगह प्रकरण मिल जाएगा। सब हो रहा है। जहां जीवन भी हो रहा है, प्रेम भी हो रहा है, श्वास भी चल रही है, वहां परमात्मा भी हो सकेगा। मेरे किए नहीं, मेरे किए कुछ भी नहीं हो रहा है।
इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हारे किए क्षुद्र नहीं हो रहा है। विराट नहीं होता तुम्हारे किए, क्षुद्र होता है। धन कमाओगे, तो ही पाओगे। पद की चेष्टा करोगे अथक, तो ही पाओगे, शायद तो भी न पाओ। प्रतिस्पर्धा करोगे, गलाघोंट प्रतिस्पर्धा में उतरोगे, दूसरों की लाशों पर चढ़ोगे, तब कहीं किसी पद पर, किसी कुर्सी पर पहुंच पाओगे। यह तुम्हारे किए से होगा।
परमात्मा क्षुद्र की भेंट नहीं देता। परमात्मा की भेंट क्षुद्र हो भी नहीं सकती। जब तुम्हें धन मिलता है, वह तुम्हारा ही प्रयास है। जब तुम्हें पद मिलता है, वह तुम्हारा ही प्रयास है। क्षुद्र प्रयास है, विराट प्रसाद है। अगर तुम प्रयास में ही लगे रहे, तो तुम क्षुद्र को ही जोड़ कर मर जाओगे। हो सकता है बड़ा तुम्हारा साम्राज्य हो, सारी पृथ्वी पर तुम्हारा राज्य हो, मगर क्षुद्र ही होगा सब। तुम मरोगे दरिद्र। विराट को पाए बिना कोई समृद्ध नहीं होता।
और कौन पाता है विराट को? वही पाता है विराट को जिसे यह सत्य दिखाई पड़ता है कि मेरे किए क्या हो सकता है? मैं हूं कहां? मैं नहीं हूं, ऐसी प्रतीति जिसकी सघन हो जाती है, वहां प्रसाद बरसता है।
यह कैसे होता है
सो तो मैं भी नहीं जानता।
प्रयत्न के अभाव में होता है।
अनमने किसी भाव में होता है
गहरे किसी चाव में होता है
हां,
घाव में भी होता है
मगर वह सिर्फ अपना न हो
कोरा कोई सपना न हो!
प्रसाद अनिर्वचनीय तत्व है। इस जगत में अज्ञात की किरण है। मनुष्य के जीवन में वह द्वार है जहां से हम आए, और उसी द्वार से बाहर जाना हो सकता है। और वह द्वार सदा खुला है। लेकिन हम खिड़कियों पर, बंद खिड़कियों पर सिर मार रहे हैं। तुम्हें पक्षी को देख कर दया आती है, तुम सोचते हो, मूढ़, अरे मूढ़, दरवाजे से क्यों नहीं निकलता? तुम्हें अपने पर कब दया आएगी? क्योंकि आदमी भी ऐसा ही मूढ़ है।
यह कैसे होता है
सो तो मैं भी नहीं जानता।
क्योंकि तुम अगर जान लो कैसे होता है, तब तो तुम करने में सफल हो जाओगे। तुम अगर जान लो कि प्रसाद कैसे घटता है, ‘कैसे’ पता चल जाए, तब तो तुम आयोजन करने लगोगे कि ऐसे घटता है। यही तो लोग कर रहे हैं आयोजन। कोई बैठा है मूर्ति के सामने थाल सजाए, दीप सजाए, धूप जलाए, प्रार्थना कर रहा है; सोचता है ऐसे प्रसाद होता है। मगर यह भी कृत्य है। इसमें भी प्रसाद नहीं होगा। तुम लाख पटको सिर, तुम कितने ही पूजा के फूल चढ़ाओ और तुम कितनी ही दीपमालाएं सजाओ और तुम कितनी ही आरतियां उतारो, नहीं होगा, क्योंकि तुम कर्ता की तरह वहां मौजूद हो। लेकिन तुम सोचते हो--शायद ऐसे होगा।
हो सकता है कि किसी को ऐसे हुआ हो। किसी को ऐसे हुआ हो, इसका अर्थ है--यह प्रासंगिक बात थी कि वह आदमी हाथ से थाल उतार रहा था और उस समय घटा, निर-अहंकार घटा। मगर निर-अहंकार के घटने का कोई कार्य-कारण संबंध आरती उतारने से नहीं है। किसी दूसरे को जंगल में लकड़ी काटते घट गया था। किसी तीसरे को वृक्ष के नीचे बैठे घट गया था। किसी चौथे को नाचते घट गया था। किसी पांचवें ने वीणा के तार छेड़े थे, और घट गया था। मगर इनका किसी का भी कार्य-कारण से संबंध नहीं है। यह प्रासंगिक है, यह प्रसंगवशात है। इसमें से किसी को भी तुम ऐसा मत सोच लेना कि ऐसा ही मैं करूंगा।
समझो, मीरा को घटा नाचते। नाच से नहीं घटा, नाचते घटा। नाच से घटता, तब तो फिर हमारे हाथ में सूत्र आ गया। फिर तो हम भी नाचेंगे और घट जाएगा। फिर कितने लोग तो नाच रहे हैं, और कितनी तो नर्तकियां हैं--मीरा से बेहतर नर्तकियां हैं दुनिया में--मगर उन्हें नहीं घट रहा है। नाच से घटता होता तो जो अच्छा नाचता है उसे पहले घट जाता। मीरा को घटा, उसके नाच में कुछ ज्यादा नाच जैसा था भी नहीं--अनगढ़ था, मगर घटा। कारण नहीं था। नाचते-नाचते खो गई, अहंकार गिर गया; नृत्य रहा, नर्तक विदा हो गया--और जहां मैं नहीं रहा, वहीं घटा।
बुद्ध को बिना नाचते घटा। अब बुद्ध के बाद ढाई हजार वर्षों से कितने लोग वृक्षों के नीचे बैठे हैं आंख बंद किए और नहीं घटता। वृक्ष के नीचे आंख बंद करके बैठने से नहीं घटता है। यह संयोग की बात थी। यह कहीं भी घट सकता है। यह तुलाधर वैश्य को दुकान पर बैठे-बैठे घटा था; तराजू तौलते-तौलते घटा था। यह जनक को सिंहासन पर बैठे-बैठे घटा था। यह कृष्ण को संसार के मध्य में घटा था। यह महावीर को संसार से हट जाने पर, पहाड़ की कंदराओं में नग्न खड़े-खड़े घटा था। मगर इनमें से कोई भी कारण नहीं है। ऐसा नहीं है कि जैसे हम पानी को गर्म करते हैं तो सौ डिग्री पर पानी भाप बनता है, ऐसा कोई कारण नहीं है। नहीं तो फिर सभी को नग्न होकर गुफा-कंदराओं में खड़ा होना पड़े, तब घटे।
अध्यात्म विज्ञान नहीं है। अध्यात्म विज्ञान जैसी क्षुद्र सीमाओं में आबद्ध नहीं है। हां, एक सूत्र खयाल में रखना, जब भी तुम नहीं हो, तब घटता है। इसलिए तुम्हारे कारण तो नहीं घटता है। तुम्हारे द्वारा नहीं घटता। तुम्हारे प्रयास से नहीं घटता। तुम्हारी अनुपस्थिति में घटता है। तुम कहो तो भी कैसे कहो?
यह कैसे होता है
सो तो मैं भी नहीं जानता
जिनको घट गया है, वे भी नहीं जानते कि कैसे होता है। उनसे भी तुम पूछो तो वे कहेंगे: मुश्किल है बात; मत पूछो; इतना ही कह सकते हैं कि हमारे किए नहीं घटा। नकारात्मक परिभाषा दे सकते हैं। हमने नहीं पाया। हम तो थक गए थे, हार गए थे, गिर गए थे; हम तो विषाद में पड़े थे कि सब व्यर्थ गया, कुछ भी पाया नहीं जा सका, दौड़े बहुत, तड़पे बहुत, साधना की, साधन किए, सब करके देख लिया और एक क्षण गिर गए थे थक कर, तभी पाया कि घट गया। अव्याख्य है।
प्रयत्न के अभाव में होता है
लेकिन कुछ बातें कही जा सकती हैं--नकारात्मक।
प्रयत्न के अभाव में होता है
जब तुम यत्न करते होते हो, तब तुम चिंता से भरे होते हो। यत्न यानी चिंता। होगा कि नहीं होगा; ऐसे करूं तो होगा कि वैसे करूं तो होगा; जिस मार्ग पर चला हूं, ठीक है कि नहीं ठीक है; और भी बहुत मार्ग हैं; हजार विकल्प उठते हैं मन में, विचर उठते हैं मन में--किसके पीछे जाऊं? किस शास्त्र को मानूं? किस मंदिर को पूजूं? यह मंदिर ठीक है कि गलत? कोई उपाय भी तो नहीं, कोई कसौटी भी तो नहीं। यह शास्त्र सत्य है कि मिथ्या? सत्य कहने वाले लोग हैं और इसी शास्त्र को मिथ्या कहने वाले लोग हैं, किसकी मानूं? किसकी सुनूं? किसकी बूझूं?
यत्न तो चिंता लाता है। और यत्न में भ्रांति बनी ही रहती है कि मैं कोशिश कर रहा हूं, आज नहीं कल, कल नहीं परसों पाकर रहूंगा।
प्रयत्न के अभाव में होता है
अनमने किसी भाव में होता है
जब मन नहीं होता, ऐसे किसी भाव में होता है। जब कोई तरंग नहीं होती विचार की; कोई कल्पना, कोई वासना, कोई स्मृति मन को कंपाती नहीं, मन निष्कंप झील जैसा होता है।
अनमने किसी भाव में होता है
इतना ही कह सकते हैं कि जहां मन नहीं होता वहां होता है, जहां मैं नहीं होता वहां होता है।
गहरे किसी चाव में होता है
किसी गहरी प्रीति में, किसी गहरी श्रद्धा में, किसी गहरी भक्ति में होता है। लेकिन ध्यान रखना, भक्ति का अर्थ ही होता है कि भक्त मिटा। भक्त और भक्ति दोनों साथ नहीं होते। जब तक भक्त होता है तब तक भक्ति कहां? तब तक भक्त बाधा बना रहता है। जब भक्त चला जाता है, तो भक्ति।
गहरे किसी चाव में होता है
मगर ये बातें सांकेतिक हैं।
हां, घाव में भी होता है
मगर वह सिर्फ अपना न हो
कोरा कोई सपना न हो!
किसी दूसरे की पीड़ा में भी हो जाता है। किसी दूसरे के दुख को अनुभव करने में भी हो जाता है। क्यों? क्योंकि जब तुम दूसरे के दुख को गहरा अनुभव करते हो, तो मिट जाते हो। असल में दूसरे का दुख अनुभव करने के लिए तुम्हें मिटना ही होगा। वह फिर अहंकार का ही त्याग है। जब तक तुम हो, तब तक तुम दूसरे का दुख अनुभव न कर सकोगे। तुम मिटे, तो दूसरे का दुख अनुभव होता है।
जीसस भी ठीक ही कहते हैं कि सेवा से होता है। सेवा का अर्थ है: दूसरे के दुख की प्रतीति--ऐसी जैसे अपना हो। इतनी समानुभूति।
हां, घाव में भी होता है
मगर वह सिर्फ अपना न हो
क्योंकि अपना घाव हो तो वह अहंकार में ही अटका रहता है। अपना घाव अपना ही घाव है। मैं की तड़प मैं की ही तड़प है।
मगर वह सिर्फ अपना न हो
कोरा कोई सपना न हो!
सत्य हो, वास्तविक हो; सहानुभूति झूठी न हो, कोरी न हो, बात-बात की न हो, हार्दिक हो, अस्तित्वगत हो, तो कभी-कभी तब भी हो जाता है। चाव में हो जाता है गहरे, घाव में हो जाता है गहरे, अनमने भाव में हो जाता है, प्रयत्न के अभाव में हो जाता है।
पूछते हो: ‘प्रसाद से प्रभु-उपलब्धि कैसे? यह कैसे होती है?’
इतना ही कहा जा सकता है: ‘प्रयत्न की व्यर्थता समझो। प्रयत्न की असारता समझो।’
शांडिल्य कहते हैं: ‘दृष्टत्वाच्च।’
ऐसा ही देखने में आता है। कैसा देखने में आता है? कभी तुमने देखा, किसी आदमी को राह पर देखा, चेहरा पहचान में आ गया, जबान पर नाम रखा है, तुम कहते हो--जीभ पर नाम रखा है, और फिर भी याद नहीं आता। और चेहरा याद आ रहा है और नाम भी याद आ रहा है, और कहते हो जीभ पर रखा है--और फिर भी याद नहीं आ रहा है। बड़ी मजे की बात कह रहे हो! जीभ पर रखा है तो बोलते क्यों नहीं? फिर भी मैं मानता हूं कि तुम ठीक ही कह रहे हो--जीभ पर रखा है, वह भी अनुभव है, और नहीं आता, यह भी साथ है; और आदमी पहचाना हुआ है, यह भी पक्का है। तुम बड़ी उधेड़बुन करते हो। तुम बड़ा सिर मारते हो। तुम पहेली बूझने की कोशिश करते हो--इधर से, उधर से; स्मृति में ताकते हो, झांकते हो, उधेड़बुन करते हो, पर्तें उलटते हो, गड्ढा खोदते हो स्मृति में कि कहीं से सूत्र मिल जाए, कहीं से कोई सहारा मिल जाए। और जितना तुम सहारा खोजते हो उतना ही मुश्किल होता जाता है। बात तो साफ होने लगती है कि याद है, याद है, जबान पर रखा है, बिलकुल रखा है, अभी निकल पड़े ऐसा है, और फिर भी पकड़ में नहीं आता।
फिर तुम थक गए। फिर तुमने सोचा--छोड़ो भी! भाड़ में जाने दो! करना भी क्या है। तुम मुंह फेर कर अपने घर चल पड़े। और अचानक--जब तुम कोई प्रयास नहीं कर रहे थे, छोड़ ही चुके थे बात, भूल ही चुके थे बात, राह में लगे फिल्म का पोस्टर पढ़ रहे थे--अचानक नाम याद आ गया है। क्या हुआ? तुमने जब प्रयत्न किया तो तुम बहुत चिंतित हो गए। जब तुमने बहुत प्रयास किया याद करने का तो तुम्हारी चेतना बड़ी संकीर्ण हो गई, सिकुड़ गई, तन गई; चिंता ने तुम्हें घेर लिया, तुम मुक्त न रहे। तुम्हारे भीतर पड़ा था नाम, उठना भी चाहता था, लेकिन तुम इतने सिकुड़ गए, इतने तनाव से भर गए कि जगह न रही नाम को ऊपर आने की। फिर तुमने छोड़ दिया प्रयास, फिर तुम विश्राम को पा गए, फिर तनाव ढीला हो गया, संकीर्णता खो गई, सरलता से नाम ऊपर तिर आया, सतह पर आ गया। ऐसा अनुभव तुम्हें रोज होता है--प्रयास से नहीं हुआ, अप्रयास से हो गया।
परमात्मा पाना नहीं है, परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद है। सिर्फ उसकी स्मृति खो गई है, स्मृति लानी है। बुद्ध ने कहा है: सम्मासति। उसकी सम्यक स्मृति लानी है। या नानक, कबीर कहते हैं: सुरति लानी है। विस्मरण हो गया है, भूल गए हैं; पहचान थी, जबान पर रखा है, मगर भूल गए हैं, बीच में कुछ धुंधले पर्दे आ गए हैं, धुआं आ गया है--सदियां हो गईं मुलाकात हुए। परमात्मा को तुम जानते तो हो ही, क्योंकि उससे ही आए हो। वह पक्षी जो खुले आकाश से आया है, खुले द्वार से आया है, खुले आकाश को जानता है। जानता है खुले आकाश को, इसीलिए तो भागने की कोशिश कर रहा है। चोट कर रहा है बंद खिड़की पर कि निकल जाऊं बाहर। तुम भी जन्मों से बंद दरवाजों पर चोटें कर रहे हो। और एक दरवाजा सदा खुला हुआ है। वह एक दरवाजा अप्रयास का है, सब दरवाजे प्रयास के हैं। वह एक दरवाजा विश्राम का है, सब दरवाजे श्रम के हैं। वह एक दरवाजा समर्पण का है, सब दरवाजे संकल्प के हैं।
तुम थोड़ा विश्राम करो, तुम खिड़की पर सिर मत मारो। यह पक्षी अगर थोड़ी देर रुक जाए, बैठ जाए, एक दफा पुनर्विचार कर ले--कि क्या हुआ? मैं आया कहां से? किस दिशा से आया? कैसे आया? उसी से क्यों न लौट चलूं? परमात्मा भविष्य में मिलने वाला लक्ष्य नहीं है, अतीत में खो गया स्रोत है। परमात्मा आगे नहीं है, पीछे है। तुम्हारे भीतर खड़ा है। तुम चारों दिशाओं में भागे जा रहे हो। जितना भागते हो उतना चूकते हो।
प्रसाद का अर्थ होता है: अब नहीं भागूंगा, अब नहीं खोजूंगा, अब अपने पर भरोसा और नहीं करूंगा।
मुझसे कहो उठो, मैं उठूंगा
कहो मुझसे चलो, मैं चलूंगा
गाओ कहोगे तो
वह मेरे लिए सहज है
शाम से भोर तक
धरती से आसमान के छोर तक
गाऊंगा, उठूंगा, चलूंगा
घुमाऊंगा जैसे धरती को
तुम्हारे इशारे पर
अपने को हटा लेता हूं। मुझसे कहो उठो, मैं उठूंगा; मुझसे कहो चलो, मैं चलूंगा; मैं अपने को बीच से हटा लेता हूं। तुम्हारी मर्जी अब से मेरा जीवन होगी। अब से न मैं हूं, न मेरी कोई मर्जी है।
ऐसे किसी भाव में, अनमने भाव में, ऐसे किसी चाव में, ऐसे किसी गहरे चाव में, प्रयत्न के अभाव में, ऐसे किसी घाव में प्रसाद घटता है।
तुम थोड़ी जगह खाली करो, तुम जरा बीच से हटो, तुम्हारे अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। और उलझाव बढ़ता चला जाता है, क्योंकि तुम इसी बाधा को साधन बना रहे हो। उलझाव बढ़ता चला जाता है कि जो बीमारी है, उसी को तुम औषधि समझ रहे हो। व्याधि को जिसने औषधि समझ लिया, उसकी विडंबना भयंकर है। समझ कर तो तुम पीते हो औषधि, और पीते हो व्याधि; तो व्याधि बढ़ती चली जाती है। तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारा और कोई दुश्मन नहीं है। मगर तुम सोचते हो कि मैं मेरा मित्र, और सारी दुनिया मेरी दुश्मन। तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारे और परमात्मा के बीच और कोई दीवाल नहीं है। तुम और हजार तरह की दीवालें कल्पना करते हो, मगर यह एक दीवाल तुम नहीं देखते कि तुम्हारे अतिरिक्त और कोई दीवाल नहीं है। तुम न मालूम कहां-कहां की व्याख्याएं खोज लाते हो, बड़ी दूर की कौड़ियां तलाश लाते हो! कभी कहते हो कि पिछले जन्मों के कर्मों के कारण, बहुत पाप किए होंगे, इसलिए परमात्मा नहीं मिल रहा है। मगर एक बात तुम नहीं छोड़ते कि मेरे करने की ही बात है--पाप किए थे इसलिए नहीं मिलता, मगर कृत्य मेरा है। पुण्य करूंगा तो मिलेगा। मैं को नहीं छोड़ते।
तुम्हारा साधु भी मैं को नहीं छोड़ता, तुम्हारा असाधु भी मैं को नहीं छोड़ता। इसीलिए तो मैं कहता हूं, तुम्हारे साधु-असाधु में बहुत फर्क नहीं है। तुम्हारे साधु-असाधु में इतना ही फर्क है कि एक आदमी पैर के बल खड़ा है और उसी के बगल में दूसरा आदमी--वैसा का वैसा आदमी--सिर के बल खड़ा हो गया है। बस इतना ही फर्क है। तुम्हारे पापी में और तुम्हारे पुण्यात्मा में कोई फर्क नहीं है। पापी सोचता है पाप कर रहा हूं, पुण्यात्मा सोचता है पुण्य कर रहा हूं, मगर कर्ता का भाव दोनों में अवशिष्ट है। और जो रोक रहा है, वह कर्ता का भाव है।
मेरा मन
एक वन है इस घड़ी
जिसमें से
गंधवाही तुम्हारे
समीरण का झोंका
गुजर रहा है
उसे करते हुए अस्थिर
और भरते हुए उसमें
प्रवालवर्णी
छंद
वेणु-बंधी
स्वर!
तुम अपने को ऐसा समझो जैसा बांसों का वन। हवा का झोंका गुजर रहा है--सारे वन को कंपाता हुआ, नये स्वरों को जगाता हुआ। एक-एक पत्ते से संगीत झर रहा है, नाद हो रहा है, ओंकार जग रहा है। तुम अपने को ऐसा ही समझो--वेणुवन; जिसमें ऊर्जा परमात्मा की है, जिसमें प्रवाह उसका है--वही बोलता, वही चलता, वही उठता। तुम अपने को हटा लो। और तुम अपने को हटाते ही पाओगे--बन गए तुम वेणु; गीत उसके तुमसे बरसने लगे, बन गए तुम वेणु। वेणु बनने की कला प्रसाद पाने की कला है। खाली, भीतर से कोरे। बांसुरी में भीतर कुछ भी नहीं होता--पोला बांस ही तो बांसुरी है। पोलापन ही तो उसका सारा राज है। पोली है बांसुरी, इसीलिए तो गीत को ले आती है।
जिस दिन तुम पोले बांस की तरह हो जाओगे, उसी दिन परमात्मा का गीत तुमसे झरने लगेगा। गीत तो अभी भी बहने को तत्पर है, मगर तुम भरे हो। और तुम किससे भरे हो? तुमसे ही भरे हो। मैं के अतिरिक्त तुम्हारा और कोई भराव नहीं। मैं गया कि तुम शून्य हुए। उस महाशून्य में प्रसाद की वर्षा है। उस महाशून्य में तुम्हारे हाथ पसर जाएंगे, सारा ब्रह्मांड तुम पर बरस उठेगा।
सब मिल सकता है--एक तुम खो जाओ। इतनी कीमत चुका दो। भक्ति का सारा सार इतनी छोटी सी बात में है--भक्त मिट जाए, तो भगवान हो जाए।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, नारद और शांडिल्य, दोनों ने भक्ति-सूत्र कहे हैं। आप नारद के भक्ति-सूत्र पर बोल चुके और अब शांडिल्य के भक्ति-सूत्र पर विमर्श कर रहे हैं। मेरे जैसे सामान्य मानस को दोनों के दृष्टिकोण में बड़ा भेद दिखाई पड़ता है। एक ही मार्ग पर इतना भेद क्यों?
अभेद की हमारी इतनी आकांक्षा क्यों है? हम भेद को बर्दाश्त क्यों नहीं कर पाते हैं? हम सारे जगत को एक रंग में क्यों रंग देना चाहते हैं? और क्या सारे फूल एक रंग के होंगे तो यह जगत इतना सुंदर होगा? क्या सारे गायक एक ही गीत गुनगुनाएंगे, ऊब पैदा नहीं होगी? सारी वीणाओं से एक ही स्वर उठेगा और एक ही स्वर, और एक ही स्वर गूंजता रहेगा, तो तुम आत्मघात करने की नहीं सोचने लगोगे?
अभेद की हमारी इतनी आकांक्षा क्यों है? हम भेद से इतने भयभीत क्यों हैं? इतने वृक्ष हैं! कोई इस ढंग का है, कोई उस ढंग का है। कोई छोटा है, कोई बड़ा है। किसी पर छोटे सफेद फूल आते, किसी पर रंगीन फूल आते--नीले, पीले, लाल, कितने फूल हैं! कितनी हरियालियां हैं! कितने पक्षी हैं! कितने उनके कंठगान हैं! जगत वैविध्य है। वैविध्य में सौंदर्य है। वैविध्य में संपदा है। जरा सोचो--एक ही जैसे वृक्ष, एक ही जैसे लोग, एक ही जैसे पक्षी--जीवन बड़ा दरिद्र हो जाएगा।
शांडिल्य शांडिल्य हैं। नारद नारद हैं। नारद ने अपने ढंग से बात कही है। जो जाना वह तो एक है, लेकिन जब नारद कहेंगे तो नारद के ढंग से ही कहेंगे। शांडिल्य कहेंगे, शांडिल्य के ढंग से कहेंगे। और अगर शांडिल्य का अपना कोई ढंग न हो कहने को, तो शांडिल्य कहेंगे ही क्यों? नारद ने कह दिया, बात खतम हो गई।
परमात्मा चुकता नहीं। अनंत-अनंत लोगों ने कहा है, फिर भी अनकहा रह गया है। अनंत-अनंत लोग आगे भी कहेंगे, और फिर भी अनकहा रह जाएगा। चुकता ही नहीं। हम एक तस्वीर बनाते हैं, तस्वीर बन नहीं पाती कि हम पाते हैं कि परमात्मा ने चेहरा बदल लिया, कि परमात्मा नया हो गया। फिर तस्वीर बनाओ, फिर सूत्र रचो, फिर गीत गाओ। परमात्मा सतत प्रवाही है। परमात्मा कोई बंद तालाब की तरह नहीं है, बहती हुई गंगा की धारा है। रोज नई उमंग है, रोज नया उल्लास है। एक तरंग नारद की उठी, एक तरंग शांडिल्य की। सागर में कितनी लहरें हैं! दो लहरें एक जैसी होती हैं? हालांकि एक ही सागर की हैं, फिर भी दो लहरें एक जैसी नहीं होतीं। और अच्छा ही है कि नहीं होतीं।
तुम यह चिंता ही छोड़ दो कि सब ज्ञानियों को एक जैसी ही बात कहनी चाहिए। अक्सर ऐसा होता है, अज्ञानी एक जैसी बात कहते हैं। जैसे, एक अज्ञानी हिंदू और दूसरे अज्ञानी हिंदू की बात में कोई फर्क पाओगे? एक अज्ञानी मुसलमान और दूसरे अज्ञानी मुसलमान की बात में तुम कोई फर्क पाओगे? अज्ञानी तो एक-दूसरे को दोहराते हैं, फर्क हो कैसे सकता है? अज्ञानी तो तोते हैं, उधार हैं, फर्क हो कैसे सकता है? लेकिन एक हिंदू ज्ञानी और दूसरे हिंदू ज्ञानी में फर्क हो जाता है। क्योंकि दोनों मूल स्रोत से लाते हैं, दोहराते नहीं किसी को; किसी की पुनरुक्ति नहीं करते। कोई ज्ञानी किसी की कार्बनकापी नहीं होता, मूल होता है, मौलिक होता है। जान कर आता है मूल स्रोत से। और जब गाता है, तो उसका गीत ऐसा होता है जैसा पहले कभी किसी ने नहीं गाया। इसीलिए तो गाने योग्य होता है। नहीं तो शांडिल्य क्यों परेशान हों? कह दिया नारद ने, शांडिल्य कह देते कि बस ठीक है, वही ठीक है।
तुमने उस वकील की कहानी सुनी? होशियार आदमी था। घर में उसके एक मेहमान हुआ, एक मित्र आया। रात दोनों एक ही कमरे में सोए। मित्र बड़ा हैरान हुआ, वकील बैठा। मित्र ने पूछा, क्या करते हो? वकील ने कहा, प्रार्थना। और आकाश की तरफ हाथ उठाया, बिजली बुझाई और कहा: डिट्टो! और जल्दी से सो गया। मित्र ने पूछा कि यह कैसी प्रार्थना? बहुत प्रार्थनाएं सुनी हैं, डिट्टो! वकील ने कहा, रोज-रोज वही-वही क्या दोहराना? कल भी की थी, परसों भी की थी। एक दफे कर दी, अब रोज तो डिट्टो कह देते हैं, वे समझ जाते होंगे। भगवान को इतनी अकल तो होगी ही! अब उसी को क्या दोहराना?
अगर नारद की ही बात शांडिल्य को कहनी थी, तो कह देते--डिट्टो! बात खतम हो गई। नारद के सूत्र पर अपने दस्तखत भी कर देते!
लेकिन शांडिल्य को अपना गीत गाना था। यह जगत बड़ा सृजनात्मक है। और जब तक शांडिल्य अपना गीत न गा लें, तब तक चैन नहीं होगा। जब तक नारद अपना गीत न गा लें, तब तक चैन नहीं होगा।
मैंने एक किरन देखी है
जो सविता है
मैंने एक हंसी सुनी है
जो कविता है
एक फूल देखा है मैंने
जो सचमुच कमल है
एक रंग देखा है मैंने
जो ठीक धवल है
सारे रंग जिसमें समाए हुए हैं
तपाए हुए सोने से अलग
हर तरह के होने से अलग
यह किरन, यह हंसी
यह फूल, यह रंग
मगर आनंद नहीं है मेरे जीवन का
क्योंकि मैं इसे
देखता रह गया हूं
छंद नहीं कर पाया हूं अभी!
देख लेने से ही कुछ नहीं होता, जब तक छंद न कर पाओ। जब तक बांध न पाओ अभिव्यक्ति में। परमात्मा का गीत सुन लेने से कुछ नहीं होता, जब तक गीत तुमसे बहे न, और पहुंच न जाए लोगों तक, तब तक अधूरा रहता है। तब तक बात पूरी नहीं हुई। जब तक तुम कह न दो जो तुमने सुना है, तब तक तुमने सुना है, इस पर भी तुम्हें भरोसा नहीं आता। और तब तक, सुना है या नहीं सुना, इसकी स्पष्ट प्रतीति नहीं होती। जब ज्ञानी बोलता है, तभी स्वयं भी उसके सामने स्पष्ट होता है कि क्या उसने देखा। क्योंकि जो देखा वह तो बड़ा विराट था, अराजक था, एक नीहारिका थी अनंत, जो देखा वह तो बहुत बड़ा था; उस देखे को जब वह सार-सूत्र में बांधने लगता है, तब स्वयं भी स्पष्ट होता है।
एक बड़ी प्रसिद्ध मिश्री कहावत है कि दुनिया में किसी बात को सीखने का सबसे अच्छा ढंग उसे दूसरों को सिखाना है।
बात में कुछ सार है। सार यही है कि जब तुम किसी दूसरे को सिखाने बैठते हो, तब तुम्हारे सामने भी चीजें साफ होनी शुरू होती हैं। तुमने भी देखा होगा। प्रकरणात् च। कभी-कभी तुम्हें भी ऐसा अनुभव हुआ होगा कि जब तुम किसी को कुछ समझा रहे थे, तब तुम्हारे सामने बात पहली दफे साफ हुई। हालांकि तुम्हारे अनुभव में थी, लेकिन धुंधली-धुंधली थी, प्रकट नहीं थी, स्पष्ट नहीं थी। किसी को समझाते थे, तब अचानक स्पष्ट हो गई। किसी को समझाते थे, तब तुम भी समझ गए।
इसीलिए तो संवाद का इतना आनंद है। इसीलिए तो सत्संग का इतना अर्थ है। इसीलिए तो ज्ञानियों ने कहा है--जब दो भक्त मिलें आपस में तो प्रभु की प्रशंसा करें, प्रभु की स्तुति एक-दूसरे से करें। क्यों? क्योंकि उस स्थिति में उन्हें भी साफ होगा, दूसरे के भीतर भी उमंग उठेगी। तुमने जो जाना हो, उसे कहना। कहते-कहते तुम पाओगे--तुमने और भी जाना। कह कर तुम पाओगे--बात अब तक धुंधली थी, आज प्रकट हुई, साफ हुई, रेखाबद्ध हुई।
और एक अनिवार्य है सत्य की अनुभूति में बात कि उसे कहना ही पड़ेगा। जो जाना है, उसे बांटना पड़ेगा। नहीं तो फूल अपनी गंध को अपने भीतर ही रख लेते। नहीं तो दीया अपनी रोशनी को अपने भीतर ही बंद कर लेता। नहीं तो बादल अपने जल पर पहरा बिठा देते। लेकिन बादल बरसेंगे, बरसना ही होगा। तुम यह मत सोचना कि जब धरती प्यासी होती है तो धरती ही तड़फती है बादलों के लिए, बादल भी तड़फते हैं प्यासी धरती के लिए। उतनी ही तड़प दोनों तरफ, आग दोनों तरफ। इधर धरती तड़फती है कि पानी मिले, उधर बादल तड़फता है कि कोई प्यासा मिले। बादल भी बोझिल हो जाता है।
तो जब बुद्ध पचास वर्षों तक गांव-गांव घूमते हैं, वह प्यासी धरती की तलाश है। महावीर चालीस वर्षों तक निरंतर उपदेश देते हैं, वह फूल की गंध है जो नासापुटों की तलाश कर रही है। नारद और शांडिल्य ने ये सूत्र कहे हैं, ये दीये की किरणें हैं, जो आंखों की खोज कर रही हैं। कोई आंख मिले, तो पहचान हो। अक्सर तुमने एक तरफ से ही बात देखी है, तुमने देखा कि शिष्य खोजता है, तुमने यह नहीं देखा कि गुरु भी खोजता है। शिष्य तो खोजता है, क्योंकि उसे मिला नहीं। गुरु खोजता है, क्योंकि उसे मिल गया। दोनों खोजते हैं। और जब दोनों मिल जाते हैं तो अपूर्व आनंद होता है। शिष्य को आनंद होता है कि जो उसे नहीं था, दिखा; जो उसके पास नहीं था, मिला; और गुरु को आनंद होता है कि जो था, उसे बांट सका। उऋण हुआ। परमात्मा ने उसे दिया था, उसने किसी को दे दिया। प्रसाद में जो मिला है, वह जब तुम प्रसाद की तरह बांट दोगे तभी उऋण होओगे, नहीं तो ऋण रह जाएगा, ऋणी हो जाओगे। इतना परमात्मा ने दिया है, उसे क्या करोगे अब? उसे किसी को दे दो।
यह मार्ग है परमात्मा तक उसे वापस लौटा देने का--क्योंकि दूसरे भी परमात्मा हैं। जब गुरु अपने शिष्य को कुछ देता है, तो वह परमात्मा को ही लौटा रहा है--शिष्य के बहाने, शिष्य के निमित्त। त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पयेत्। वह यह कह रहा है कि ठीक, अब गोविंद तुम आ गए शिष्य बन कर, यह लो, सम्हालो। तुम्हारी चीज तुम्हीं को लौटा देते हैं।
देखते हो, आकाश में बादल उठे, बरसे हिमालय पर, गंगा में भर गया जल ही जल और चली गंगा सागर में उलीचने। और फिर सागर में बादल उठेंगे, और फिर गंगा में भरेंगे, और फिर गंगा उलीचेगी अपने को, ऐसा वर्तुल है। जीवन एक वर्तुल है। जो मिला है, देना पड़ेगा। गंगा कहे कि क्यों दूं? बामुश्किल तो मिलता है; महीनों प्रतीक्षा करती हूं, तब कहीं वर्षा के मेघ घिरते हैं, आषाढ़ आता है। नहीं दूंगी, रोक रखूंगी। गंगा अगर रोक रख ले, तो वर्तुल टूट जाएगा। फिर बादल नहीं आएंगे, आषाढ़ में बादल भी नहीं आएंगे। आषाढ़ में बादल इसीलिए आते हैं, क्योंकि गंगा जाती है और गंगासागर में लीन हो जाती है। तो सागर से फिर बादल उठते हैं।
परमात्मा ने नारद को दिया, नारद ने फिर गंगा में डाल दिया। फिर कोई नारद उठेगा, परमात्मा फिर नारद में बरसेगा। इस जीवन की वर्तुलाकार प्रक्रिया को समझो। मगर हर एक का भेद होगा। गंगा की अपनी चाल, गंगा का अपना लहजा! सिंधु की अपनी चाल, अपनी मौज, अपना ढंग! सबकी अपनी शैली। गंगा अपने ढंग से बहती, ब्रह्मपुत्र अपने ढंग से बहती। सब सागर की तरफ जाती हैं और सब सागर से ही पाती हैं, लेकिन यह वैविध्य सुंदर है। नहीं तो जीवन बड़ी ऊब हो जाए।
भेद अभिव्यक्ति का है, अनुभूति का नहीं। जो जाना है, वह एक है। इसलिए शास्त्र कहते हैं: जानने वालों ने एक को जाना, लेकिन बहुविधि से कहा है। विविधता कथन में है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, दर्शनशास्त्र में इतनी उलझनें क्यों हैं?
दर्शन में उलझन नहीं है, शास्त्र में तो उलझन होगी। शास्त्र का मतलब ही होता है उलझन। शास्त्र का अर्थ होता है: सिद्धांत, तर्क, शब्द। दर्शन तो साफ-सीधा है। दर्शन का तो अर्थ होता है: दृष्टि, देखने की क्षमता, आंख। जब आंख खाली होती है, अहंकार से शून्य होती है, विचार से मुक्त होती है, मन बाधा नहीं डालता, तब जो घटता है वह दर्शन। जैसा है, उसको वैसा ही देख लेना दर्शन है। दर्शन और दर्शनशास्त्र के भेद को याद रखना। दर्शनशास्त्र दर्शन नहीं है, दर्शनशास्त्र ऊहापोह है। दर्शन दृष्टि है, अनुभव है। दर्शनशास्त्र में तो झंझट होगी। दर्शनशास्त्र में तो एक-एक प्रश्न में हजार प्रश्न लगेंगे और एक-एक उत्तर से हजार प्रश्न उठेंगे। और दर्शनशास्त्र में कभी किसी प्रश्न का कोई हल नहीं हो पाता। पांच हजार साल के इतिहास में दर्शनशास्त्रियों ने एक प्रश्न भी हल नहीं किया है। पांच हजार साल में उन्होंने बहुत प्रश्न पूछे हैं, लेकिन एक भी उत्तर नहीं दिया है। वे दे ही नहीं सकते।
दर्शनशास्त्री तो करीब-करीब ऐसा ही है, जैसे तुमने कहानी सुनी होगी कि पांच अंधे एक हाथी को देखने गए थे। आंख तो पास नहीं, तो टटोला। किसी ने हाथी के पैर को टटोला तो उसने कहा, खंभे की भांति है, स्तंभवत। और किसी ने हाथी के कान को टटोला और उसने कहा, सूप की भांति है। और किसी ने कुछ, किसी ने कुछ। पांचों अंधों में बड़ा विवाद हो गया। जो जिसने टटोला था, उसने उसी को पूरा हाथी सिद्ध करने की कोशिश की। पूरा किसी ने देखा नहीं, क्योंकि पूरा देखने के लिए आंख चाहिए। बड़ा विवाद मच गया।
वे अंधे अब भी विवाद कर रहे हैं। उन्हीं पांचों ने सारे दर्शनशास्त्र रचे हैं। जिनको हम दार्शनिक कहते हैं वे और कोई नहीं, वे ही अंधे हैं। और उनके विवाद का कोई अंत कभी नहीं होना है।
मैं विश्वविद्यालय में भर्ती हुआ, विद्यार्थी था, दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी था। मेरे जो वृद्ध प्रोफेसर थे, उन्होंने पहले ही दिन अपना जो पहला व्याख्यान दिया, वह बड़ा प्यारा था। वेदांती थे वे और मानते थे कि जगत माया है। मगर मेरे साथ उनकी झंझट हो गई। उन्होंने उदाहरण बड़ा अच्छा लिया था। उन्होंने उदाहरण लिया था जगत को माया सिद्ध करने के लिए, बड़ा वैज्ञानिक उदाहरण लिया था। उन्होंने कहा, जैसे समझो, न्याग्रा का जलप्रपात। हजारों साल से गिर रहा था, लेकिन शून्य था और शांत था, आवाज नहीं थी।...सुनने वाले हम सब चौंके भी थे कि आवाज नहीं थी? न्याग्रा के पास तो भयंकर आवाज होती है। इतनी ऊंचाई से गिरता है! इतनी जलधार गिरती है! चट्टानों पर गिरता है--पहाड़ तोड़ डाले हैं न्याग्रा ने, इससे बड़ा कोई प्रपात नहीं है। आवाज नहीं? लेकिन फिर जल्दी ही समझ में आया कि उनका मतलब क्या है, वे विज्ञान का सहारा ले रहे थे। फिर उन्होंने कहा कि हजारों-हजारों साल तक कोई आवाज नहीं हुई, सन्नाटा था। फिर एक जंगली आदमी न्याग्रा के पास पहुंचा। जैसे ही वह पास पहुंचा कि सारा जगत न्याग्रा के उदघोष से भर गया। मतलब कि जब तक कान न हो, तब तक आवाज नहीं हो सकती।
बात तो ठीक है, आवाज हो ही कैसे सकती है? न्याग्रा गिरता रहे, लेकिन जब तक कोई कान न आए पास...तुम थोड़ा सोचो तो तुम्हें समझ में आ जाएगा कि आवाज हो ही कैसे सकती है? आवाज के लिए कान बिलकुल जरूरी है, अनिवार्य है। हम सब विद्यार्थी चौंके थे कि बात तो ठीक है।
फिर उन्होंने कहा, और अब तक कोई रंग न था न्याग्रा में।
रंग भी नहीं हो सकता बिना आंख के। ये वृक्ष हरे हैं, ऐसा मत कहो; तुम जब चले जाते हो तब ये हरे नहीं रह जाते। तुम जब चले गए--आंख चली गई--तो फिर कैसे हरे? हरे में तो संबंध है वृक्ष और तुम्हारी आंख का। जो पीलिया से बीमार है, उसको ये पीले दिखाई पड़ते हैं--वह दूसरे ढंग की आंख है, उसका संबंध दूसरा बनता है। जब कोई आंख नहीं होती, तब वृक्ष अपना रंग छोड़ देते हैं, क्योंकि रंग किसके लिए होगा? रंग तो आंख का संबंध है।
हम सब जानते थे कि वे वेदांती हैं और इस जगत को माया सिद्ध करना चाहते हैं। तो उन्होंने कहा कि देखते हो, न तो रंग है न्याग्रा में कोई, न ध्वनि है कोई। ध्वनि और रंग, दोनों आदमी के सिर में हैं। वह जो आदमी आया था, दोनों घटनाएं उसके सिर में घटीं।
मुझे झंझट की आदत रही है, मैं खड़ा हो गया। मैंने उनसे पूछा कि आप कहते हैं कि ध्वनि नहीं बाहर? उन्होंने कहा, ठीक। रंग नहीं बाहर? उन्होंने कहा, ठीक। वे बहुत प्रसन्न थे कि एक विद्यार्थी शिष्य मिला। मैंने पूछा, सब सिर के भीतर? उन्होंने कहा, बिलकुल ठीक। और मैंने कहा, सिर? सिर सिर के बाहर है या सिर के भीतर? वे थोड़े बेचैन हुए। अब झंझट! अगर कहें सिर सिर के बाहर है, तो बाहर को स्वीकार करना पड़ेगा। अगर कहें सिर सिर के भीतर है, तो भी झंझट होगी। क्योंकि किसके भीतर कौन? भीतर होने के लिए कुछ बाहर होना चाहिए। उन्होंने एक क्षण सोचा, फिर उन्होंने कहा कि सिर भी सिर के ही भीतर है। तो मैंने कहा, तब दो सिर हो गए। भीतर होने के लिए एक सिर, जिसके भीतर है, और एक सिर, जो भीतर है। एक सिर बाहर हो गया। जो बाहर सिर है, वह बाहर है? जो भीतर सिर है, वह भीतर है?
वे थोड़े बेचैन हो आए, उनको पसीना आ गया; उन्होंने कहा, तुम बाहर चले जाओ!
मैंने कहा, कहां है बाहर? आपके सिर में कि मेरे सिर में? मैं जाऊं कहां?
वे तो इतने नाराज हो गए--सब वेदांत वगैरह भूल गए! वे चिल्लाने लगे--निकल जाओ!
मैंने कहा, आप चिल्लाते रहें, मगर मैं निकल कर जाऊं कहां? आपकी आवाज भी मेरे सिर के भीतर है, बाहर भी मेरे सिर के भीतर है, आप भी मेरे सिर के भीतर हैं, मैं आपके सिर के भीतर हूं, बहुत झंझट है, उलझाव है बहुत!
मैंने उनसे कहा, यह तो ऐसा हुआ कि एक चूहा अपनी पोल में घुसा और जब पोल में घुस गया तो उसने खींच कर अपनी पोल को भी अपने भीतर कर लिया। अब मैं पूछता हूं कि पोल चूहे के भीतर है कि चूहा पोल के भीतर है? पहले चूहा पोल के भीतर गया, तब तक बात ठीक है। फिर उसने खींच कर पोल को भी अपने भीतर कर लिया। अब जिस पोल को उसने अपने भीतर किया, उसके वह भीतर था, तो अब चूहा कहां है?
वे तो एकदम क्लास छोड़ दिए। उन्होंने तो जाकर इस्तीफा लिख दिया। उन्होंने कहा, या तो यह विद्यार्थी पढ़े, या मैं पढ़ाऊं, दोनों साथ नहीं चल सकते हैं। यह झंझटी है।
मुझे बुलाया प्रिंसिपल ने, उन्होंने कहा कि क्या झंझट है? मैंने कहा, झंझट नहीं, यह दर्शनशास्त्र है। झंझट उन्होंने ही खड़ी की है। मैं तो बिलकुल चुप ही था। मैं तो न्याग्रा प्रपात था, चुप बैठा था, घंटे भर वे बोले। जब मैंने प्रिंसिपल को सारी उलझन समझाई, तो उन्होंने कहा, मेरा सिर घुमा दोगे। मैं समझ गया कि वे क्यों छोड़ कर चले गए हैं। जब मैंने उनको कहा कि चूहा पोल के भीतर कि पोल चूहे के भीतर? तो उन्होंने कहा, भई, मैं बिलकुल दार्शनिक नहीं हूं। और जब तुमने उनका सिर घुमा दिया तो मेरा घुमा दोगे। अच्छा हो कि तुम छोड़ दो यह कालेज। मैंने कहा, फिर मैं दर्शनशास्त्र कहां पढूंगा?
अफवाह पूरे नगर में--जहां मैं पढ़ता था--सब जगह धीरे-धीरे खबर पहुंच गई। तीन दिन तक वे कालेज नहीं आए, उन्होंने तो जिद्द ही कर ली। और उनकी जिद्द ठीक भी थी। मैं भी जानता हूं कि वह उन्होंने ठीक ही किया, क्योंकि यह बात आगे बढ़ नहीं सकती थी, मैं वहीं अटकाए रखता। या तो उनको स्वीकार करना पड़े कि बाहर है--जो वे कर नहीं सकते थे, वे बड़े बर्कले के मानने वाले और शंकर के मानने वाले वेदांती थे, विज्ञानवादी थे, वे मान नहीं सकते थे। और जब तक वे मान न लें, तब तक मैं छोड़ सकता नहीं था।
प्रिंसिपल ने मुझे बहुत समझाया कि बूढ़े आदमी हैं वे। और मैं जानता हूं कि तुम्हारा कोई कसूर नहीं है। उन्होंने ही समस्या उठाई, यह भी ठीक है। लेकिन उनको हम छोड़ना भी नहीं चाहते, प्रतिष्ठित हैं। तुम किसी दूसरे कालेज में भर्ती हो जाओ।
मुझे कोई दूसरा कालेज जगह देने को राजी नहीं। वे कहें, पहले यह लिख कर दो कि प्रश्न तो नहीं उठाओगे।
दर्शनशास्त्र तो झंझट है। तुमने प्रश्न उठाया कि झंझट शुरू हुई। उत्तर दिया कि झंझट और बढ़ी। फिर कोई अंत नहीं है। लेकिन दर्शन झंझट नहीं है।
धर्म का रस दर्शन में है, दर्शनशास्त्र में नहीं। और भक्ति का रस तो दर्शन से भी गहरा जाता है--देखने में ही नहीं, होने में। ये बड़ी अलग बातें हैं। दर्शनशास्त्र का रस तो सिर्फ यही है कि सोचो, विचारो, जिज्ञासा करो, तर्क बिठाओ; समाधान; समस्याएं। कहीं पहुंचता नहीं आदमी, यह जाल बढ़ता चला जाता है। यह ढेर बड़ा हो जाता है। इसमें आदमी विक्षिप्त हो सकता है। इसलिए अगर दार्शनिक विक्षिप्त हो जाते हैं, तो कुछ आश्चर्य नहीं। दार्शनिक होने के लिए बड़ी प्रगाढ़ मेधा चाहिए, नहीं तो विक्षिप्त हो ही जाओगे।
धर्म की आकांक्षा दर्शन में है--देखना चाहता है धर्म; सोचना नहीं, देखना। भक्ति की आकांक्षा और भी गहरी है--देखना भी क्या? देखने से भी क्या होगा? सोचने से गहरा है देखना, देखने से भी गहरा है होना। भक्त तो भगवान होना चाहता है, भक्त तो भगवत्ता को अनुभव करना चाहता है। देखा, वह भी तो दूर रह गया।
इसलिए शांडिल्य ने कहा कि भक्त चाहता है--न ज्ञान, न दर्शन--समस्त रूप से एक हो जाना, एकात्मभाव।
चौथा प्रश्न:
भगवान, सूत्र ‘अथातोभक्तिजिज्ञासा’ में भक्ति के लिए जिज्ञासा शब्द का उपयोग करना कुछ अजीब लगता है। क्योंकि जिज्ञासा में कुछ बौद्धिक गंध है। क्या जिज्ञासा जिज्ञासा में फर्क है--ज्ञान की जिज्ञासा में और भक्ति की जिज्ञासा में? क्या प्रेम भी विस्मय और रस-विभोरता की जगह जिज्ञासा बन सकता है?
शब्द में कोई अर्थ नहीं होता। अर्थ तो तुम डालते हो--वही हो जाता है। शब्द तो कृत्रिम हैं, कामचलाऊ हैं। अगर शब्दों में ही कोई अर्थ होता होता, तब तो तुम चीनी भाषा पहली दफे सुनते और समझ जाते। शब्द तो सुनाई पड़ते हैं, लेकिन अर्थ पकड़ में नहीं आता। शब्दों में कोई अर्थ नहीं है। शब्दों में अर्थ तो निरंतर अभ्यास से डाला जाता है। तुम बार-बार उस शब्द का वही अर्थ मान कर चलते हो, बार-बार वही अर्थ प्रयोग करते हो, तो धीरे-धीरे वही अर्थ घनीभूत हो जाता है। लेकिन शब्द में कोई अर्थ नहीं है। एक ही शब्द का अलग-अलग लोग अलग-अलग अर्थ कर सकते हैं। और अलग-अलग परंपराएं एक ही शब्द का अलग-अलग अर्थ करती हैं।
जैसे जिज्ञासा शब्द। ज्ञानी इसका उपयोग करता है खोजबीन के अर्थ में, बौद्धिक अर्थ में। भक्त इसका अर्थ करता है खोजबीन के ही अर्थ में, लेकिन अस्तित्वगत खोजबीन। जानना ही नहीं चाहता, होना चाहता है--होने की जिज्ञासा।
शब्द अपने आप में कोई नियत अर्थ नहीं रखते हैं। अर्थ तो प्रयोग से निर्णीत होता है। इसलिए तुम ऐसा भी पाओगे कि जो शब्द एक परंपरा में एक अर्थ रखता है, दूसरी परंपरा में दूसरा अर्थ रखता है। जैसे दर्शन शब्द। हिंदू परंपरा में अर्थ रखता है--दृष्टि, जैन परंपरा में अर्थ रखता है--श्रद्धा। सम्यक दर्शन का जहां जैन परंपरा उपयोग करती है वहां अर्थ होता है--सम्यक श्रद्धान। वहां दृष्टि अर्थ नहीं होता। उनका भी कारण है। वे कहते हैं, जो देख लिया, उसमें श्रद्धा आ जाती है। वह फिर दृष्टि नहीं रह जाती, श्रद्धा बन जाती है। जो देख लिया ठीक से, वह श्रद्धा का अंग हो गया।
सुकरात ने कहा है: ज्ञान क्रांति है, ज्ञान मुक्ति है, ज्ञान शक्ति है।
ज्ञान का सुकरात का अर्थ अपना है, शांडिल्य से बहुत भिन्न है। ज्ञान का अर्थ होता है, जिसने वस्तुतः जाग कर देख लिया, जान लिया, जिसका सारा अज्ञान मिट गया, जिसके भीतर ज्ञान की ज्योति जगमगा उठी। तो ठीक कह रहा है सुकरात कि ज्ञान शक्ति है, ज्ञान मुक्ति है, ज्ञान क्रांति है।
लेकिन शांडिल्य कहते हैं: ज्ञान से क्या होगा? ज्ञान का अर्थ शांडिल्य करते हैं--जानकारी, इनफर्मेशन, सूचना। तुम ईश्वर के संबंध में कितना ही जान लो, इससे क्या होगा? जब तक ईश्वर को न जानो। तुम सूरज के संबंध में कितना ही जान लो, इससे क्या होगा? जब तक तुम्हारी आंख अंधी है, जब तक तुम्हारी आंख न खुले।
अब फर्क हो गया। सुकरात जब ज्ञान का उपयोग करता है, तो उसका अर्थ यही है कि आंख खुल कर जो दिखे। और शांडिल्य जब ज्ञान का उपयोग करते हैं, तो उनका अर्थ यह होता है कि अंधा भी प्रकाश के संबंध में जान सकता है--वह ज्ञान; और आंख वाला जो जानता है, वह ज्ञान नहीं, वह तो एकात्म हो गया, वह लीन हो गया।
शब्द-शब्द का भेद स्मरण रखना।
तुम पूछते हो: ‘सूत्र अथातोभक्तिजिज्ञासा में भक्ति के लिए जिज्ञासा शब्द का उपयोग करना कुछ अजीब लगता है।’
वह अजीब तुम्हें अपनी आदत के कारण लगता होगा। तुम्हें शांडिल्य के साथ चलना पड़ेगा। तुम्हें शांडिल्य के शब्दों का अर्थ पकड़ना होगा। शांडिल्य के साथ सहानुभूति रखनी होगी। तुम अपना अर्थ मत डालो, नहीं तो शांडिल्य के साथ संबंध छूट जाएगा।
तुम कहते हो: ‘क्योंकि जिज्ञासा में कुछ बौद्धिक गंध है।’
वह बौद्धिक गंध तुम्हें दिखाई पड़ रही है, शांडिल्य को नहीं। शांडिल्य को बुद्धि से कुछ लेना-देना नहीं है। शांडिल्य की सारी जिज्ञासा हार्दिक है।
तीन तल हो सकते हैं जिज्ञासा के--बौद्धिक, हार्दिक, अस्तित्वगत। शांडिल्य की जिज्ञासा हार्दिक है। भक्ति हृदय से शुरू होती है, अस्तित्व पर पूर्ण होती है। ज्ञान का मार्ग मस्तिष्क से शुरू होता है, हृदय में प्रवेश करता है, अस्तित्व पर पहुंचता है। भक्ति का मार्ग बुद्धि को छोड़ ही देता है एक किनारे। वह शुरू ही हृदय से होता है और सीधा अस्तित्व की यात्रा करता है। ध्यान का मार्ग हृदय से भी शुरू नहीं होता। वह बुद्धि को भी छोड़ देता है, हृदय को भी छोड़ देता है। वह सीधी छलांग लेता है अस्तित्व में। वह सीढ़ियों को हटा ही देता है, छलांग है। तो जब ध्यानी कहेगा जिज्ञासा, तो उसका अर्थ होगा--अस्तित्व की जिज्ञासा। प्रेमी कहेगा जिज्ञासा, उसका अर्थ होगा--हृदय की, भाव की जिज्ञासा। ज्ञानी कहेगा जिज्ञासा, उसका अर्थ होगा--विचारणा, ऊहापोह।
एक डाक्टर की प्रैक्टिस काफी चलती थी। जगह छोटी पड़ने लगी, तो उसे दूसरी मंजिल पर, उसी मकान में, बड़ा स्थान मिल गया। तो वह पहली मंजिल से हट कर दूसरी पर चला गया। लेकिन दूसरी पर जाने के बाद उसकी प्रैक्टिस एकदम मर गई। लोग आते ही न। उसके अपने मरीज भी दूसरों के पास जाने लगे। वह बड़ा हैरान था। उसने एक दिन एक मरीज से पूछा कि बात क्या है--राह पर मिल गया मरीज--कि बात क्या है? तुमने मेरे पास आना बंद क्यों कर दिया? औरों ने भी बंद कर दिया है। उस मरीज ने कहा, इसका कारण है सीढ़ियों पर लगी हुई पटिया। डाक्टर ने कहा, सीढ़ियों पर लगी पटिया! उससे क्या लेना-देना? मरीज ने कहा, लेना-देना है। डाक्टर ने पूछा, मतलब? उसने कहा, मतलब, उस पटिया पर लिखा है, ऊपर जाने का रास्ता। अब ऊपर कोई जाना नहीं चाहता है, इसीलिए तो हम आते हैं डाक्टर के पास। अब यह ऊपर जाने का रास्ता, मरीज डर गए हैं, गांव में खबर फैल गई है कि भाई, जरा सावधान!
कौन ऊपर जाना चाहता है!
एक धर्मसभा में धर्मगुरु ने लोगों को समझाया कि कौन-कौन स्वर्ग जाना चाहते हैं, हाथ उठा दें। सबने हाथ उठा दिए, सिर्फ मुल्ला नसरुद्दीन बैठा रहा। उसने दुबारा पूछा, वह जरा हैरान हुआ, उसने कहा, नसरुद्दीन, सुना या नहीं? झपकी लेते हो? स्वर्ग जाना है कि नहीं? नसरुद्दीन फिर भी बैठा रहा। तब उसने दूसरा सवाल पूछा कि जो नरक जाना चाहते हैं, वे हाथ उठा दें। किसी ने हाथ नहीं उठाया--मुल्ला ने भी नहीं उठाया। तब उस धर्मगुरु ने पूछा कि तुम आखिर जाना कहां चाहते हो? उसने कहा, मैं अपने घर जाना चाहता हूं। जब घर से चलने लगा तो पत्नी ने कहा था: मस्जिद से सीधे घर आना, नहीं तो टांग तोड़ दूंगी। कोई स्वर्ग जाए, कोई नरक जाए, मुझे घर जाना है। मैं टांग नहीं तुड़वाना चाहता।
अपने-अपने भाव हैं, अपने-अपने शब्दों के अर्थ हैं।
मैंने यहां पिछले दो या तीन दिन पहले भक्ति का अर्थ कहा--माधुर्य, कि भक्ति तो ऐसे है जैसे सभी मिठाइयों में माधुर्य है। जैसे सभी मिठाइयों में शक्कर। कमल ने दूसरे दिन एक प्रश्न लिख कर भेज दिया कि पहले आश्रम के भोजनालय में दही में शक्कर मिलती थी, अब क्यों नहीं मिलती?
उसको याद आ गई होगी शक्कर शब्द सुन कर। मैं किस शक्कर की समझा रहा हूं, तुम्हें कौन सी शक्कर याद आ रही है! मगर अपने-अपने अर्थ हैं।
एक संवाददाता जब एक फिल्म के सेट पर पहुंचा, तो देखा, खंडहरों का सेट लगा हुआ है; बेहोश अभिनेत्री पड़ी है, टूटी कुर्सियां, टूटी मेजें, सेट की टूटी हुई दीवालें, और खिड़कियों के बीच हांफता हुआ हीरो खड़ा है। निर्देशक भी बेहोश है, असिस्टेंट, लाइटमैन वगैरह सब चुप खड़े हैं। सिर्फ हीरो का सेक्रेटरी निश्चिंत खड़ा सिगरेट पी रहा है। संवाददाता ने पूछा, यह सब क्या? सेट की दीवालें टूटी हुई हैं, लोगों की यह हालत, यह सब कैसे हुआ? हीरो का लड़ाई के दृश्य में इंवॉल्वमेंट बढ़ गया था, सेक्रेटरी बोला। इतना ज्यादा इंवॉल्वमेंट कैसे हो गया? सेक्रेटरी ने कहा, इंस्टालमेंट नहीं मिला था।
अपने शब्द हैं, अपने अर्थ हैं।
वित्तविभाग के एक अधिकारी को, जो अविवाहित थे, किसी भी विभाग की धन संबंधी मांगों में बड़ा अड़ंगा लगाने की आदत थी। वे विभागों द्वारा आई हुई फाइलों पर यह लिख कर कि--यह बताने का कष्ट करें कि पहले आपका काम कैसे चलता था? वापस कर देते थे। इसी बीच उनका विवाह निश्चित हुआ, उन्होंने सभी को शादी के कार्ड भेजे। दूसरे दिन सभी कार्ड वापस आ गए और सब पर यही लिखा था--यह बताने का कष्ट करें कि पहले आपका काम कैसे चलता था?
शब्दों का अर्थ संदर्भ में होता है। शब्दों का अर्थ संदर्भ के बाहर नहीं होता। शांडिल्य का जिज्ञासा से अर्थ है--हार्दिक जिज्ञासा।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, मैं संन्यास लेना चाहता हूं, लेकिन मित्र और प्रियजन बाधा बन रहे हैं! मैं क्या करूं?
वे मित्र न होंगे, और वे प्रियजन भी नहीं। जो तुम्हें स्वतंत्रता न दें स्वयं होने की, वे मित्र भी नहीं हो सकते, प्रियजन भी नहीं हो सकते। मित्रता का अर्थ ही यही है कि हम दूसरे को इतना चाहते हैं कि वह जो होना चाहे, हम उसे स्वतंत्रता देंगे। और प्रियजन का अर्थ यही है कि तुम जिस दिशा में जाना चाहो, जहां तुम्हारा आनंद हो, हमारे आशीर्वाद तुम्हारे साथ होंगे--चाहे हम विचार से राजी न भी हों।
प्रेम मुक्ति देता है। और जो मुक्ति न दे, वह प्रेम नहीं है।
मैं तुमसे कहता नहीं कि तुम संन्यास लो। मैं तुमसे इतना ही कहना चाहूंगा--जो तुम्हारी अंतर्भावना हो, हिम्मत से उस पर बढ़ो। संन्यास की हो तो, संसार की हो तो। दूसरे को निर्णायक मत बनाओ। दूसरे के हाथ में निर्णय मत दो। अन्यथा तुम अपने जीवन को नष्ट कर लोगे। तुम्हारा जीवन तुम्हारा है, तुम इसे अपने ढंग से जीओ।
मैं जो हूं
मुझे वही रहना चाहिए
यानी
वन का वृक्ष
खेत की मेंड
नदी की लहर
दूर का गीत
व्यतीत
वर्तमान में
उपस्थित
भविष्य में
मैं जो हूं
मुझे वही रहना चाहिए
तेज गर्मी
मूसलाधार वर्षा
कड़ाके की सर्दी
खून की लाली
दूब का हरापन
फूल की जर्दी
मैं जो हूं
मुझे वही रहना चाहिए
मुझे अपना
होना
ठीक-ठीक सहना चाहिए
तपना चाहिए
अगर लोहा हूं
तो हल बनने के लिए
बीज हूं
तो गड़ना चाहिए
फूल बनने के लिए
मैं जो हूं
मुझे वही बनना चाहिए
धारा हूं अंतःसलिला
तो मुझे कुएं के रूप में
खनना चाहिए
ठीक जरूरतमंद हाथों से
गान फैलाना चाहिए मुझे
अगर मैं आसमान हूं
मगर मैं
कब से ऐसा नहीं
कर रहा हूं
जो हूं
वही होने से डर रहा हूं!
जीवन में एक ही असफलता है--तुम जो हो, वही होने से डरना। और जीवन में एक ही सफलता है--वही हो जाना, जो तुम्हारी अंतःप्रेरणा है। तुम जो होना चाहो, हो जाओ। सब झंझट मोल लो, सब कीमत चुकाओ, यही साहस है। डरपोक रहे, जीवन से चूक जाओगे। कायर रहे, जीवन की संपदा तुम्हारी कभी भी न हो सकेगी। विजेता बनना हो तो एक बात तय कर लेनी चाहिए कि कुछ भी हो परिणाम, सारा संसार साथ हो कि विपरीत, मैं अपनी डगर पर चलूंगा। फिर चाहे मेरी डगर नरक ही क्यों न जाती हो। मैं अपने हृदय की सुनूंगा।
और जो व्यक्ति अपनी सुन कर नरक भी जाए, वह स्वर्ग पहुंच जाता है। और जो दूसरे की सुन कर स्वर्ग भी जाए, वह निश्चित ही नरक पहुंच जाता है।
आज इतना ही।