SHANDILYA

ATHATO BHAKTI JIGYASA 05

Fifth Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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सूत्र

प्रकरणाच्च।। 11।।
दर्शनफलमितिचेन्न तेनव्यवधानात्‌।। 12।।
दृष्टत्वाच्च।। 13।।
अत एव तदभावाद्वल्लवीनाम्‌।। 14।।
भक्त्या जानातीतिचेन्नभिज्ञप्तया साहाय्यात्‌।। 15।।
kkकदम उसी मोड़ पर जमे हैं
नजर समेटे हुए खड़ा हूं
जुनूं यह मजबूर कर रहा है पलट के देखूं
खुदी यह कहती है मोड़ मुड़ जा
मगर मुहब्बत तकाजा करती है लौट जाऊं
अगर्चे एहसास कह रहा है
खुले दरीचे के पीछे दो आंखें झांकती हैं
अभी मेरे इंतजार में वह भी जागती हैं
कहीं तो उसके भी गोशा-ए-दिल में दर्द होगा
कसक भी होगी
उसे यह जिद है कि मैं पुकारूं
मुझे तकाजा है वह बुला ले
कदम उसी मोड़ पर जमे हैं
नजर समेटे हुए खड़ा हूं
स्नेह हो, या प्रेम, या श्रद्धा, या भक्ति--प्रीति का कोई भी रूप, प्रीति की कोई भी तरंग--बाधा एक है--अहंकार। क्षुद्रतम प्रेम से विराटतम प्रेम तक बाधाएं अलग-अलग नहीं हैं। एक ही बाधा है सदा--अस्मिता। मैं यदि बहुत मजबूत हो तो प्रेम नहीं फल सकेगा।
मैं का अर्थ है: परमात्मा की तरफ पीठ करके खड़े होना; प्रेमी की तरफ पीठ करके खड़े होना। मैं का अर्थ है: अकड़।
परमात्मा तुमसे दूर नहीं है, सिर्फ तुम पीठ किए खड़े हो। परमात्मा तुमसे दूर नहीं है। हाथ बढ़ाओ, तो मिल जाए। जरा गुनगुनाओ, तो आवाज उस तक पहुंच जाए। जरा मुड़ कर देखो, तो दिखाई पड़ जाए। मगर अहंकार कहता है: मुड़ कर देखना मत। अहंकार कहता है: पुकारना मत। अहंकार अटकाता है। और अहंकार के जाल बड़े सूक्ष्म हैं। मनुष्य और परमात्मा के बीच इसके अतिरिक्त और कोई व्यवधान नहीं है।
इसीलिए शांडिल्य ने बार-बार कहा कि ज्ञानी नहीं पहुंच पाता। क्यों नहीं पहुंच पाता? क्योंकि ज्ञान से अहंकार और भी मजबूत हो जाता है--मैं जानता हूं। जानना तो कुछ नहीं होता, मैं बहुत मजबूत हो जाता है। और जितना मैं मजबूत हो जाता है, उतनी ही जानने की संभावना कम हो जाती है। मैं के साथ कैसा जानना? मैं तो अंधापन है। मैं के साथ कैसी आंखें? मैं तो हृदय पर पड़ी चट्टान है। हृदय खिलेगा नहीं, कमल बनेगा नहीं। बीज फूटेगा नहीं, वृक्ष पनपेगा नहीं।
इसी चट्टान के नीचे दबे-दबे करोड़ों लोग मर जाते हैं। इस चट्टान को हटाते ही क्रांति हो जाती है। और मजा यह है कि इस चट्टान से कुछ भी नहीं मिलता। इससे ज्यादा व्यर्थ चीज संसार में दूसरी नहीं है। वायदे बहुत, हाथ कुछ भी नहीं आता। आश्वासन बहुत--अहंकार इतने आश्वासन देता है, इतने सब्जबाग दिखाता है, पर सब सपने। दौड़ाता बहुत है, पहुंचाता कभी नहीं। मगर बड़ा कुशल है फुसला लेने में। बड़ा कुशल है तुम्हें राजी कर लेने में। होगा ही, अन्यथा बार-बार धोखा खाकर भी भरोसा किए चले जाते हो!
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम श्रद्धालु नहीं हैं। हमारे मन में बड़े संदेह की दशा है; बड़े शक हैं, बड़े प्रश्न उठते हैं।
मैं उनसे कहता हूं, बड़े प्रश्न उठते हैं, बड़े संदेह, अहंकार पर प्रश्न उठाया है? अहंकार पर संदेह किया है? परमात्मा पर संदेह किया होगा। परमात्मा से तुम्हारा लेना-देना क्या? जिससे पहचान नहीं है, उस पर संदेह भी क्या खाक करोगे? जिससे मिलन नहीं हुआ, उस पर प्रश्न भी क्या उठाओगे? जो द्वार तुम्हारे लिए खुला ही नहीं कभी, उस द्वार के पीछे क्या है, इसकी जिज्ञासा! पहले द्वार तो खोलो।
सच्चा संदेहशील व्यक्ति वही है जो अहंकार पर संदेह उठा ले। और जो अहंकार पर संदेह उठा ले, उसे श्रद्धा उपलब्ध हो जाएगी। श्रद्धा के लिए श्रद्धा नहीं करनी होती, सिर्फ अहंकार पर संदेह करना होता है। और संदेह से तो तुम भरे हो। दोनों चीजें मौजूद हैं--संदेह भी है, अहंकार भी है। संदेह और अहंकार को जोड़ दो और तुम्हारे भीतर श्रद्धा की क्रांति हो जाएगी। संदेह को अहंकार पर मोड़ दो, संदेह के तीर को अहंकार में चुभ जाने दो। पूछो तो जिस अहंकार के साथ इतने दिन तक चले हो, अब भी चल रहे हो, आगे भी चलने के इरादे हैं, इस अहंकार ने कभी कुछ दिया है? यह कहीं थोथा तो नहीं? इसके आश्वासन झूठे तो नहीं?
मैंने सुना है, एक आदमी ने ईश्वर की बहुत-बहुत प्रार्थना की। ईश्वर प्रसन्न हुआ और ईश्वर ने उसे एक शंख भेंट कर दिया, और कहा, इससे जो तू मांगेगा, मिल जाएगा; जो तू मांगेगा, मिल जाएगा। वह आदमी क्षण भर में धनी हो गया। जो मांगा, मिलने लगा। जब मांगा, तब मिलने लगा। लाख रुपये कहे तो तत्क्षण छप्पर खुला और बरस गए।
अचानक उसके भाग्य में परिवर्तन देख कर दूर-दूर तक खबरें पहुंच गईं कि कुछ चमत्कार हो रहा है। न वह घर से बाहर जाता है, न कोई श्रम करता है, न कोई व्यवसाय करता है और खजाने खुल गए हैं।
एक संन्यासी उसके घर में आकर मेहमान हुआ। संन्यासी सुबह पूजा कर रहा था। उस गृहस्थ ने संन्यासी को पूजा करते देखा। उस संन्यासी के पास एक बड़ा शंख था। और संन्यासी ने उस शंख से कहा कि मुझे लाख रुपये चाहिए। वह गृहस्थ पीछे खड़ा सुन रहा था। उसने सोचा, अरे, इसके पास भी वैसा ही शंख है! और मुझसे भी बड़ा है! शंख बोला, लाख से क्या होगा, दो लाख ले लो। गृहस्थ के मन में बड़ी लोभ की वृत्ति उठी कि शंख हो तो ऐसा हो! मेरे पास है, लाख मांगता हूं, लाख दे देता है। जितना मांगो उतना दे देता है। यह भी कोई बात हुई! यह है शंख! लाख कहो, दो लाख कह रहा है! मांगने वाला कहता है--लाख, शंख कहता है--दो लाख ले लो। पैरों पर गिर पड़ा संन्यासी के। कहा, आप संन्यासी हैं, आपके लिए ऐसे शंख की क्या जरूरत? मैं गृहस्थ हूं। फिर मेरे पास भी शंख है, वह आप ले लें; वह उतना ही देता है जितना मांगो। आपको वैसे ही जरूरत नहीं है।
संन्यासी राजी हो गया, शंख बदल लिए गए। संन्यासी उसी सुबह विदा भी हो गया।
सांझ पूजा के बाद गृहस्थ ने शंख को कहा, लाख रुपया। शंख ने कहा, लाख में क्या होगा, दो लाख ले लो! गृहस्थ बड़ा प्रसन्न हुआ, कहा, धन्यवाद, तो दो ही लाख सही। शंख ने कहा, दो में क्या होगा, चार ले लो! बस, शंख ऐसा ही कहता चला गया। चार कहा तो कहा आठ ले लो, और आठ कहा तो कहा सोलह ले लो। थोड़ी देर में गृहस्थ की तो छाती कंप गई। देने-लेने की तो कोई बात ही नहीं थी, सिर्फ संख्या दुगुनी हो जाती थी।
अहंकार महाशंख है। तुम मांगो, उससे कई गुना देने को तैयार है--देता कभी नहीं। हाथ कभी कुछ नहीं आता। अहंकार से बड़ा झूठ इस संसार में दूसरा नहीं है। सारी भ्रांतियों का स्रोत है। उससे ही उठती है सारी माया। उससे ही उठता है सारा संसार। संसार को छोड़ कर मत भागना। क्योंकि कहां भागोगे? अहंकार तुम्हारे साथ रहेगा। जहां अहंकार रहेगा, वहां संसार रहेगा। छोड़ना हो कुछ तो अहंकार छोड़ दो। और मजा यह है कि छोड़ना कुछ भी नहीं पड़ता, अहंकार कुछ है ही नहीं, सिर्फ भाव है। सिर्फ मन में पड़ गई एक गांठ है। धागे उलझ गए हैं और गांठ हो गई है। धागे सुलझा लो और गांठ खो जाएगी। ऐसा नहीं है कि धागे सुलझाने पर गांठ भी बचेगी, कि जब धागे सुलझ जाएंगे तो गांठ भी हाथ आएगी। गांठ कुछ है ही नहीं।
इसलिए महावीर ने अहंकार को ग्रंथि कहा है, गांठ। और जो गांठ के पार हो गया, उसको निर्ग्रंथ कहा है। गांठ के पार हो गया। फिर गांठ नहीं बचती, सिर्फ सुलझाने हैं धागे। तुम्हारे विचार के धागे ही उलझ गए हैं। जितने ज्यादा उलझ गए हैं, उतनी बड़ी गांठ हो गई है। उलझते ही चले जा रहे हैं, सुलझाव का कोई उपाय नहीं दिखता है। यही गांठ बाधा है। धागे चित्त के सुलझ जाएं, परमात्मा को तुमने कभी खोया नहीं था।
तुम न आईं, आ गया मैं ही तुम्हारे द्वार पर

छोड़ कर वनश्री हरित सौंदर्य की रेवातटी
शैलखंडों की सुनील, सुरम्य, मादक छविपटी
झील, निर्झर, बावली की फैलती छांहें घनी
छोड़ कर आकाश की फैली विभा की दर्पणी
छोड़ कर आकंठ उमड़ी स्नेह की अगणित डगर
छोड़ कर शारद पवन की रोशनी जादूगरी
छोड़ कर झंकृत प्रपातों की छलक सपनों भरी
छोड़ कर जलपंखियों की पांत बादल से सटी
दिग्दिगंतों तक बिछी सुषमा फसल जैसे कटी
आ गया अपनत्व के आह्वान सारे छोड़ कर
था तुम्हारी प्रीति का उन्माद इन सबसे बड़ा
छोड़ कर घर-द्वार ही मुझ को यहां आना पड़ा
जीत ली बाजी तुम्हीं ने, आ गया मैं हार कर
तुम न आईं, आ गया मैं ही तुम्हारे द्वार पर

आज विजयिनि! भाव का प्रतिकंप मेरा है मुखर
है बड़ा मेरे अहं से यह तुम्हारापन प्रखर
बेखुदी छाई अभी तक है तुम्हारे स्वाद की
प्राण को दूरी असह थी प्राण के संवाद की
सिंधु पूरा था उमड़ पड़ता तुम्हारी याद में
आ गया मैं गूंजता तुम तक इसी जयनाद में
मैं तुम्हारी टेक की निर्मम कड़ी का मुग्ध स्वर
बीतने देना न मुझको तृप्ति के अवसाद में
तुम मुझे चुकने न देना पूर्ति के उल्लास में
अर्थ तुम बनने मुझे देना न बीती बात का
जागता तुमको रहूं हर नींद में मैं प्रात सा
तुम न आईं, आ गया मैं ही तुम्हारे द्वार पर
तुम न आईं, आ गया मैं ही तुम्हारे द्वार पर
जीत ली बाजी तुम्हीं ने, आ गया मैं हार कर
एक दिन, चाहे संसार का प्रेम हो, चाहे असांसारिक प्रेम हो, तुम्हें अपने मैं को छोड़ कर प्रेमी की तलाश करनी पड़ती है। एक दिन तुम्हें अपने अहंकार से बड़ा अपने प्रेमी का अस्तित्व अंगीकार करना होता है। ज्ञानी नहीं कर पाएगा, धनी नहीं कर पाएगा, प्रतिष्ठित नहीं कर पाएगा, यशस्वी नहीं कर पाएगा। इसलिए तो जीसस ने कहा--धन्यभागी हैं वे जो दरिद्र हैं। इन सब अर्थों में जो दरिद्र हैं। आत्मा से जो दरिद्र हैं--न जिनके पास ज्ञान है, न पद है, न प्रतिष्ठा है, न नाम है, न यश है। जिनके अहंकार को भरने के लिए कुछ भी नहीं है। धन्यभागी हैं वे जो निर्धन हैं आत्मा से, क्योंकि प्रभु का राज्य उन्हीं का है।
और तुम देखोगे तो तुम निर्धन हो। न देखो तो ही तुम मान सकते हो कि तुम धनी हो। धन के भला ढेर लगे हों तुम्हारे पास, लेकिन तुम धनी कहां हो? और नाम तुम्हारा बहुतों को पता हो, लेकिन तुम्हें अपना नाम अभी स्वयं ही पता नहीं है। और यश चाहे दूसरों से तुम्हें मिला हो, तुमने अभी वैसी घड़ी नहीं पाई जहां तुम अपना सम्मान कर सको। तुम अपने भीतर निंदित पड़े हो। तुम अपमानित हो स्वयं से। तुम तो भलीभांति जानते हो। दूसरों को धोखा दे दिया होगा, अपने को तो कैसे धोखा दोगे? इस जगत में स्वयं को धोखा देना तो संभव नहीं है। तुम तो अपनी कुरूपता भलीभांति जानते हो--भुलाते हो, छिपाते हो, फिर भी उभर-उभर आती है।
जो व्यक्ति देखेगा ठीक से, वह पाएगा--जानता मैं क्या हूं? ज्ञान मेरे पास क्या है? हां, कंठ ने उपनिषद याद कर लिए हैं, और स्मृति में कुरान है, और बाइबिल है, मगर मेरा जानना क्या है? कृष्ण ने जाना होगा सो कृष्ण ने जाना होगा; उनका जानना मेरा जानना कैसे बनेगा? कृष्ण ने भोजन किया होगा, तो उनकी मांस-मज्जा निर्मित हुई होगी, उनके भोजन से मेरा पेट नहीं भरता। कृष्ण के भोजन से तुम्हारा पेट नहीं भरता, तो कृष्ण के अनुभव से तुम्हारी आत्मा कैसे भरेगी? क्राइस्ट ने श्वास ली होगी, तो प्राण का संचार हुआ होगा। क्राइस्ट की श्वास तुममें प्राण का संचार नहीं करती, तो क्राइस्ट का परमात्म-अनुभव तुम्हारी आत्मा को कैसे पुनरुज्जीवित करेगा?
नहीं, क्राइस्ट ने कहा है: प्रत्येक व्यक्ति को अपना क्रास अपने ही कंधे पर ढोना पड़ेगा, उधारी नहीं चलेगी। और ज्ञान सब उधार है। इसलिए ज्ञान थोथा हो जाता है, ज्ञान कहीं ले जाता नहीं।
आज के सूत्रों में प्रवेश के पहले एक नजर पीछे की तरफ डाल कर देख लें। शांडिल्य ने अब तक जो सूत्र दिए, उनको याद कर लें।
ॐ अथातोभक्तिजिज्ञासा!
नाद के स्वागत के साथ, संगीत के सत्कार के साथ, उत्सव की घोषणा के साथ भक्ति की जिज्ञासा पर निकलते हैं। बजती हुई जगत की ध्वनि में, लोक और परलोक के बीच उठ रहे नाद में भगवान को खोजने निकलते हैं। यह यात्रा संगीत से पटी है। यह यात्रा रूखी-सूखी नहीं है। यहां गीत के झरने बहते हैं, क्योंकि यह यात्रा हृदय की यात्रा है। मस्तिष्क तो रूखा-सूखा मरुस्थल है, हृदय हरी-भरी बगिया है। यहां पक्षियों का गुंजन है, यहां जलप्रपातों का मर्मर है। इसलिए ओम से यात्रा शुरू करते हैं। और ओम पर ही यात्रा पूरी होनी है। क्योंकि जहां से हम आए हैं, वही पहुंच जाना है। हमारा स्रोत ही हमारा अंतिम गंतव्य भी है। बीज की यात्रा बीज तक। वृक्ष होगा, फल लगेंगे, फिर बीज लगेंगे। स्रोत अंत में फिर आ जाता है। और जब तक स्रोत फिर न आ जाए, तब तक भटकाव है। इसलिए चाहे कहो अंतिम लक्ष्य खोजना है, चाहे कहो प्रथम स्रोत खोजना है, एक ही बात है। मूल को जिसने खोज लिया, उसने अंतिम को भी खोज लिया।
नाद से ही शुरू हुई है यात्रा। तुमने देखा, बच्चे का जन्म होता है, नाद से यात्रा शुरू होती है। बच्चे के जन्म के साथ ही चिकित्सक, नर्सें, परिवार के लोग प्रतीक्षा करते हैं नाद की--बच्चा आवाज कर दे! चीख दे, रो दे, चिल्ला दे, जीवन का सबूत दे दे! अगर थोड़ी देर लग जाए और बच्चे के कंठ से आवाज न निकले, तो निराशा छा जाती है। नाद नहीं तो जीवन का प्रारंभ नहीं। रो भी दे तो भी चलेगा, क्योंकि रुदन भी नाद है। अभी गीत की तो आशा नहीं की जा सकती, रोने की ही संभावना है। अभी गीत तो सीखा नहीं, अभी जीवन के अनुभव से तो गुजरे नहीं, अभी साज तो सजाया नहीं, अभी साज तो बैठा नहीं। जैसे कि अभी पहले-पहले कारीगर ने वीणा बनाई हो और इस पर हाथ तुम रखो, तो ठीक-ठीक सुमधुर संगीत पैदा हो जाए, यह संभव नहीं, इसकी आशा भी नहीं की जाती--लेकिन ध्वनि तो पैदा हो! विसंगीत सही, विसंगीत में संगीत छिपा है। अगर विसंगीत पैदा हो गया तो संगीत भी जम जाएगा। फिर बिठाने पड़ेंगे तार, सजाने पड़ेंगे, कसने-ढीले करने पड़ेंगे, ठोंकना-पीटना पड़ेगा, लेकिन कम से कम आवाज, नाद तो पैदा हो जाए।
अगर तीन मिनट लग जाएं और बच्चे में नाद पैदा न हो, तो वह मुर्दा है। तीन मिनट के भीतर नाद पैदा ही होना चाहिए। अगर तीन मिनट तक उसने सांस नहीं ली तो फिर वह कभी सांस नहीं लेगा।
रुदन से प्रारंभ है। और जो ठीक-ठीक पहुंच जाएंगे, हंसी पर अंत होगा। वह भी नाद है। अब वीणा बैठ गई, साज जम गया।
‘ईश्वर के प्रति संपूर्ण अनुराग का नाम भक्ति है।’
संपूर्ण! थोड़े-बहुत से नहीं चलेगा। कंजूसी से नहीं चलेगा। कृपणता काम नहीं आएगी। जरा-जरा दिया और बचाए रखे, तो नहीं चलेगा। परमात्मा के साथ दोस्ती उन्हीं की होती है जो बेशर्त दे सकते हैं। जो कहते हैं--यह रहा पूरा का पूरा। जो ऐसा नहीं कहते कि थोड़ा-थोड़ा दूंगा, जो इंस्टालमेंट में नहीं देते, खंड-खंड नहीं देते। क्योंकि खंड-खंड देने का अर्थ है कि भरोसा नहीं है। सोचते हो--थोड़ा देकर देखें, जब उतने से लाभ मिलेगा तो फिर कुछ और देंगे, उतने से लाभ मिलेगा तो फिर कुछ और देंगे। जुआरियों का काम है भक्ति, व्यवसायियों का नहीं।
यह आकस्मिक नहीं है कि भारत में व्यवसायियों के वर्ग में कोई भी भक्ति का सूत्र पैदा नहीं हुआ। आकस्मिक नहीं है, इसके पीछे गणित है। व्यवसायी भक्त नहीं हो सकता। जैन हैं, भक्त नहीं हो सकते। उनका मार्ग ज्ञान का मार्ग है; तप का मार्ग है; वह समझ में आता है, उसका गणित है। भक्ति तो बिलकुल जुआरी का काम है, व्यवसायी का नहीं है। दांव पर लगाना है, जोखम है। पता नहीं, कुछ मिलेगा कि नहीं मिलेगा। जुए का दांव है, इसमें कुछ पक्का नहीं हो सकता। तुम जुए का दांव लगा कर कोई सुरक्षित नहीं रह सकते, कौन जाने क्या होगा?
व्यवसायी हिसाब से चलता है। इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि जैनों के संप्रदाय में भक्ति की कोई अवभावना नहीं पैदा हो सकी। शुद्ध गणित का काम है। इतना दो, इतना लो। इतना बुरा कर्म छोड़ दो, इतना लाभ मिले। इतना अच्छा कर्म करो, इतना मोक्ष पाओ। जितना करोगे, उतना मिलेगा। तर्क है, सुसंगति है।
भक्ति तर्क नहीं है, गणित नहीं है। इसलिए भक्ति के लिए तो जुआरी का हृदय चाहिए, जो सब दांव पर लगा कर खड़ा हो जाता है--इस पार या उस पार।
इसलिए शांडिल्य कहते हैं: ‘ईश्वर के प्रति संपूर्ण अनुराग का नाम भक्ति है।’
संपूर्ण पर ध्यान रखना।
‘उसमें चित्त का लग जाना अमृत की उपलब्धि है।’
कुछ और नहीं करना है, उसमें चित्त का लग जाना। और चित्त तब तक नहीं लगेगा जब तक तुम कुछ भी बचाओगे। तब तक चित्त शंकित रहेगा। तब तक चित्त सोचता रहेगा, विचारता रहेगा, जांचता रहेगा, आंख के कोने से हिसाब रखता रहेगा, पुण्य-पाप की राशि लगाता रहेगा। संपूर्ण तुम रख दो दांव पर। और कृपणता का कारण क्या है? है क्या तुम्हारे पास रखने को? वही खाली अहंकार है। खाली पात्र अहंकार का है, जो कभी भरा नहीं, भर ही नहीं सकता, क्योंकि उसमें तलहटी नहीं है; तुम भरते जाते हो, सब गिरता जाता है। खाली का खाली रहता है। खाली होना उसका स्वभाव है। इस खाली घड़े को ही परमात्मा के चरणों में रखना है, इसमें भी कंजूसी कर जाते हो! इसमें भी कहते हो--थोड़ा-थोड़ा!
शांडिल्य कहते हैं: ‘उसमें चित्त का संपूर्ण रूप से लग जाना ही अमृत की उपलब्धि है।’
क्यों?
अमृत कुछ अलग नहीं है। जिस दिन तुमने जाना कि मैं नहीं हूं, तुम अमृत हो गए। अमृत का अर्थ है: अब तुम कभी न मरोगे। मैं मरता है, मैं मरा ही हुआ है, तुम तो शाश्वत हो। यह मैं के साथ तुम्हारा जो गठबंधन हो गया है, इसकी वजह से तुम क्षणभंगुर से बंध गए हो। जैसे किसी आदमी ने मान लिया कि मैं मेरे कपड़े हूं। अब वह कपड़े नहीं उतारता। क्योंकि वह डरता है--कपड़े उतर गए तो मुश्किल खड़ी हो जाएगी।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन एक मेले में गया। बड़ी भीड़ थी। सब होटलें भरी थीं, सब धर्मशालाएं भरी थीं। बामुश्किल एक सराय में बहुत हाथ-पैर जोड़ने से जगह मिली। लेकिन सराय के मैनेजर ने कहा कि जगह तो दे देता हूं लेकिन अकेला कमरा नहीं मिल सकेगा। उस कमरे में एक आदमी पहले से सोया हुआ है, तुम भी चुपचाप जाओ और सो जाओ।
मुल्ला कमरे में गया। उसने आदमी को सोए देखा, वह किसी बड़ी अनजानी चिंता से भर गया। दार्शनिक चित्त का आदमी, बैठ कर सोचने लगा पलंग पर कि अब करना क्या? फिर सोच कर उसने यही निर्णय किया कि जैसा हूं ऐसे ही सो जाना ठीक है। तो पगड़ी लगाए, जूते पहने, कोट पहने लेट रहा।
वह सामने पड़ा हुआ आदमी आंख खोल-खोल कर देख रहा है कि ये सज्जन क्या कर रहे हैं। जब उसने देखा कि जूते पहने और पगड़ी पहने ही सोने की कोशिश कर रहे हैं, तो वह भी जरा चौंका कि यह कोई आदमी पागल तो नहीं है! रात इस आदमी के साथ सोना इस कमरे में अकेले, पता नहीं यह क्या करे? फिर मुल्ला को भी नींद नहीं आती है, क्योंकि कहीं जूते पहने और पगड़ी लगाए हुए, कोट पहने नींद आ सकती है? करवटें बदलता है। उसकी वजह से वह आदमी भी करवटें बदलता है।
आखिर उस आदमी ने कहा कि भाई, न तुम सो सकोगे, न मैं सो सकूंगा। हालांकि पगड़ी तुमने पहनी है और जूते तुमने बांधे हैं, मगर मैं भी नहीं सो पा रहा हूं। तुम इनको उतार ही दो।
मुल्ला ने कहा, एक अड़चन है। अपने घर पर मैं उतार कर ही सोता हूं। लेकिन कमरे में मैं अकेला ही होता हूं, तो मैं जानता हूं कि मैं ही मुल्ला नसरुद्दीन हूं। अब यहां दो आदमी हैं, पगड़ी उतार कर रख दी, जूते उतार कर रख दिए, कोट उतार कर रख दिया और दिगंबर होकर सो रहा, सुबह झंझट खड़ी होगी कि नसरुद्दीन कौन है? यहां दो आदमी हैं। क्योंकि ये मेरी पहचान हैं--यह पगड़ी, ये जूते, यह कोट--इन्हीं को दर्पण में देख कर मैं जानता हूं कि यह मैं हूं। इस खतरे के कारण यह नहीं कर रहा हूं।
वह आदमी हंसा इस पागलपन पर, उसने कहा, तुम फिकर न करो, इसके लिए कोई रास्ता खोजा जा सकता है। यह देखते हो कोने में, पहले कोई ठहरे होंगे लोग, उनका बच्चा एक फुग्गा छोड़ गया है फूला हुआ, कोने में पड़ा है, इसको अपनी टांग में बांध लो। तो तुम्हें पक्का पता रहेगा कि तुम्हीं नसरुद्दीन हो। नसरुद्दीन ने कहा, यह बात जंचती है। टांग में फुग्गा बांध कर, कपड़े उतार कर वह सो रहा।
उस आदमी को रात मजाक सूझा, उसने फुग्गा निकाल कर अपने पैर में बांध लिया। सुबह जब नसरुद्दीन उठा, उसने छाती पीट ली; उसने कहा, मैंने पहले ही कहा था। अब यह तो पक्का है कि तुम नसरुद्दीन हो, मगर मैं कौन हूं?
तुम्हारी पहचान क्या है? तुम हंसते हो इस बात पर, लेकिन तुम्हारी खुद की पहचान भी ऐसी ही है। रात तुम सो जाओ और कोई प्लास्टिक सर्जन तुम्हारा चेहरा बदल दे और सुबह तुम दर्पण के सामने खड़े हो जाओ, तो तुम्हारी यही हालत नहीं होगी जो नसरुद्दीन की हो गई? तुम्हारी एक पहचान थी, नाक थी, नक्शा था, एक ढंग था, तुम्हारी पहचान थी; रात किसी ने जादू किया--प्लास्टिक सर्जन ने आकर तुम्हारा चेहरा बदल दिया--सुबह तुम दर्पण के सामने खड़े हुए, तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। तुम कहोगे, एक बात तो पक्की है कि यह मैं नहीं हूं। फिर मैं कौन हूं?
तुम्हारी अपनी पहचान क्या है? वस्त्र की पहचान या शरीर की पहचान में कोई फर्क नहीं है, क्योंकि शरीर भी वस्त्र है। अगर तुम और थोड़े भीतर जाओगे तो मन की पहचान है कि मैं हिंदू हूं, मुसलमान हूं, ईसाई हूं, फलां हूं, ढिकां हूं, वह भी मन की ही पहचान है, वह भी वस्त्र है।
दूसरे महायुद्ध में ऐसा हुआ, एक आदमी गिरा युद्ध में। बड़ी भयंकर चोट लगी, तीन दिन बेहोश रहा, जब होश में आया तो उसकी स्मृति मिट गई। स्मृति तो ऐसे ही है जैसे कि कपड़े, छीने जा सकते हैं। वह आदमी स्मृति से नग्न हो गया। जब तीन दिन बाद उसकी आंख खुली और उससे पूछा गया कि तुम्हारा नाम, पता, ठिकाना? क्योंकि उसका नंबर भी युद्ध के मैदान पर गिर गया था। लोग प्रतीक्षा कर रहे थे, वह होश में आ जाए तो पूछ लें--तुम्हारा नाम, तुम्हारा पता, तुम्हारा नंबर? वह तो सब भूल चुका था। उसकी स्मृति पुंछ गई। वह तो चौंक कर रह गया। उसे तो कुछ याद नहीं आया। अब बड़ी कठिनाई हो गई, यह आदमी है कौन? क्योंकि मिलिटरी में तो आदमी नंबर से जाने जाते हैं, इसका नंबर पता नहीं है। और इसको अपना नाम भी याद नहीं रहा, नहीं तो फाइलों में खोजबीन हो सकती थी।
मेरे एक मित्र हैं, डाक्टर हैं। भीड़ थी ट्रेन में, दरवाजे पर खड़े-खड़े जाते थे, हाथ छूट गया राह में, गिर पड़े, भयंकर चोट आई। बचपन से मेरे मित्र हैं, साथ-साथ हम पढ़े, उनको मैं देखने गया, वे मुझे पहचान नहीं सके। मुझे पहचानना दूर, वे अपने मां-पिता को नहीं पहचानते। कोई सात साल फिर अ ब स से सब सीखना पड़ा। भाषा भी भूल गई।
तुम्हें पता है तुम कौन हो? हंसो मत नसरुद्दीन पर, वैसी ही हालत है। कपड़े हों, कि देह हो, कि मन हो, यही तो हमारी पहचान है। मगर यह सब छीनी जा सकती है।
चीन में जो कैदी पड़ जाते हैं कम्युनिस्टों के हाथ में, वे उनकी स्मृति पोंछ डालते हैं। रूस में भी वही किया गया है। अब रूस में किसी विरोधी व्यक्ति को, विद्रोही व्यक्ति को फांसी की सजा नहीं देते। वह पुराना ढंग हो गया। और फांसी की सजा में तो एक इज्जत भी थी। यह तो अच्छा था कि कोई फांसी की सजा लग जाए, कम से कम प्रतिष्ठा से तो मरता था। अब रूस में वह भी संभव नहीं, प्रतिष्ठा से फांसी भी संभव नहीं। पहले उसकी स्मृति पोंछ देते हैं। जैसे ही स्मृति पुंछ जाती है, न उसका विद्रोह बचता है, न उसके विचार बचते हैं, सब समाप्त हो गया। और अब विधियां खोज ली गई हैं उसके मन को फिर से संस्कारित करने की। जैसे कागज पर तुमने कुछ लिखा था, उसे पोंछ दिया गया, फिर से लिख दिया। तुमने पूरे आदमी को बदल दिया।
यही तो तुम्हारी पहचान है। कहते हो मैं हिंदू हूं, हिंदुस्तानी हूं; मुसलमान हूं, कि पाकिस्तानी हूं, कि चीनी हूं, तिब्बती हूं; कि इस पंथ को मानता, कि उस पंथ को मानता; कि बाइबिल, कि कुरान, कि गीता मेरी किताब है; कि यह मेरा गुरु है; कि यह मूर्ति मेरी श्रद्धा की पात्र है; कि यह मेरा मंदिर, यह मेरी मस्जिद; मगर यह सब छिन सकता है। तुम हो कौन? तुम्हारा घर, तुम्हारा परिवार, तुम्हारी शिक्षा, तुम्हारे सर्टिफिकेट, सब कागजी हैं। तुम हो कौन? यह चैतन्य कौन है जिस पर ये सारी चीजें टंगी हैं? यह देह टंगी, यह मन टंगा, ये विचार टंगे, ये सर्टिफिकेट टंगे, यह प्रतिष्ठा, नाम-धाम टंगा, यह भीतर तुम्हारे चैतन्य की खूंटी क्या है? उस खूंटी को जानना ही स्वयं को जानना है।
उसको जानते ही अमृत की उपलब्धि हो जाती है। क्योंकि वह अमृत है। उपलब्धि हो जाती है, ऐसा कहना ठीक नहीं। मर्त्य के साथ तुमने संबंध जोड़ लिया है, बस वह दोस्ती टूट जाती है। इस मर्त्य के साथ संबंध का, पूरा का पूरा संबंध का समग्रीभूत नाम अहंकार है। ‘उसमें’ चित्त का लग जाना अर्थात अपने से चित्त का उठ जाना, मैं से चित्त का छूट जाना और परमात्मा में चित्त का लग जाना अमृत की उपलब्धि है।
‘ज्ञान भक्ति नहीं है।’
अनुभव, स्वानुभव ही भक्ति है।
‘भक्ति के उदय पर ज्ञान का नाश हो जाता है।’
जरूरत ही नहीं रह जाती। भक्ति के उदय पर ज्ञान का नाश क्यों हो जाता है? क्योंकि ज्ञान तो उधार था। किसी ने तुमसे कहा था कि सूर्योदय कैसा होता है और तुमने वे याददाश्तें सम्हाल कर रखी थीं। क्योंकि तुम्हारी आंखें तो अंधी थीं और तुमने सूर्योदय देखा नहीं था। फिर तुम्हारी आंख की चिकित्सा हुई, मिल गया वैद्य तुम्हें, मिल गई औषधि, कटी व्याधि, पर्दा आंख का हटा। एक दिन तुमने आंख खोली, सुबह के सूरज को उगते देखा। अब क्या करोगे उन बातों का जो दूसरों ने तुमसे कही थीं? उनका अब कोई भी तो मूल्य नहीं रहा। अब साक्षात सूर्योदय सामने खड़ा है, यह उठता हुआ आग का प्रचंड गोला, ये बादलों पर रंग, यह सारे जगत में फैल गई जीवन की ताजगी, ये पक्षियों के गीत, ये हवाएं, यह सब तरफ बजता हुआ ओंकार का नाद, अब क्या याद करोगे उन बासी बातों को जो दूसरों ने तुमसे कही थीं कि सूर्योदय कैसा होता है?
जिस दिन व्यक्ति भक्ति को उपलब्ध होता है, सब ज्ञान से छुटकारा हो जाता है। ज्ञान की आवश्यकता नहीं रह जाती। अपना धन मिल गया, अपनी प्रतीति हो गई, अपना साक्षात्कार हुआ। भक्ति यानी रस, लय, राग, रंग, उत्सव; भक्ति यानी भगवान का भोग। भक्ति परम योग है और परम भोग भी।
‘भक्ति ज्ञान की नाईं अनुष्ठानकर्ता के आधीन नहीं है।’
शांडिल्य कहते हैं कि तुम्हारे हाथ में नहीं है भक्ति। तुम्हारे कारण ही तो बाधा पड़ रही है भक्ति में। तुम जाओ तो भक्ति आए। इधर तुम गए, उधर भक्ति आई। तुम रहे तो भक्ति कभी नहीं आ पाएगी। इसलिए तुम्हारे अनुपस्थित हो जाने में भगवान की उपस्थिति है।
तुम पूछते हो: भगवान कहां है?
तुम्हारी उपस्थिति के कारण दिखाई नहीं पड़ रहा है। तुम अनुपस्थित होना सीखो, तुम विसर्जित होना सीखो। उसमें चित्त को लग जाने दो संपूर्ण। और तत्क्षण तुम पाओगे--सब तरफ वही है, उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
‘इसलिए भक्ति का फल समयातीत है। वह अनंत है।’
क्योंकि तुम्हारे हाथ से पैदा नहीं होता, इसलिए छीना भी नहीं जा सकता। तुम जो भी पैदा करोगे, वह क्षणभंगुर होगा। तुम क्षणभंगुर हो। अहंकार के द्वारा जो भी निर्मित होगा, वह पानी पर खींची गई लकीर है--खिंच भी नहीं पाएगी और मिट जाएगी। जो परमात्मा से आता है, वही शाश्वत है। तुम भी शाश्वत हो, क्योंकि तुम परमात्मा से आए। और जो भी परमात्मा से आता है, सब शाश्वत है। उसका अंत नहीं है।
‘ज्ञानी और अज्ञानी, दोनों को उसकी प्राप्ति हो सकती है।’
इसलिए ज्ञान कोई शर्त नहीं है। ज्ञानी को भी हो सकती है, अगर ज्ञान को हटा दे।
‘भक्ति मुख्य है, अनिवार्य है, क्योंकि और-और मार्गों में भी अंततः उसकी शरण लेनी होती है।’
ऐसा कोई मार्ग ही नहीं है जिसमें भक्ति की शरण न लेनी पड़ती हो। देखो तुम, बुद्ध ने कहा: भगवान नहीं है, कोई परमात्मा नहीं है, न कोई आत्मा है। लेकिन भक्ति का तत्व आया। पीछे के दरवाजे से आया--बुद्धं शरणं गच्छामि! संघं शरणं गच्छामि! धम्मं शरणं गच्छामि! शरण जाने की बात आ गई। कृष्ण ने कहा था: मामेकं शरणं व्रज, सर्व धर्मान्‌ परित्यज्य। सब छोड़-छाड़ अर्जुन, मेरी शरण आ। बुद्ध ने कहा: कोई परमात्मा नहीं है, कोई आत्मा नहीं है। लेकिन फिर भी बुद्ध का धर्म बिना शरणागति के खड़ा नहीं हो सका। बिना शरणागति के, बिना समर्पित हुए कोई धर्म खड़ा नहीं होता।
जैन धर्म शुद्ध योग है, शुद्ध तपश्चर्या है, लेकिन शरणागति तो आ ही जाती है। और महावीर ने अशरण की बात कही। महावीर ने कहा: अशरण हुए बिना...सब शरण छोड़ देनी है--तो ही तुम पहुंचोगे। लेकिन पीछे के द्वार से बात आ गई--अरिहंत शरणं पवज्झामि। मैं अरिहंत की शरण जाता हूं। जो जाग गए, जिन्होंने जीत लिया, उनकी शरण जाता हूं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम किसकी शरण जाते हो, शरण जाने से फर्क पड़ता है। तुम महावीर की शरण गए, कि तुम बुद्ध की शरण गए, कि तुम कृष्ण की शरण गए, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। कृष्ण, बुद्ध, महावीर, सब निमित्त हैं। शरण गए, इससे फर्क पड़ता है। वह शरण जाने की भाव-दशा ही भक्ति है।
इसलिए शांडिल्य बड़ी अपूर्व बात कह रहे हैं। शांडिल्य कहते हैं: सभी मार्गों में भक्ति अनिवार्य है। कुछ न कुछ भक्ति चाहिए ही, नहीं तो कोई धर्म निर्मित नहीं होता।
मुसलमानों ने मूर्ति हटा दी, काबा का पत्थर विराजमान हो गया। अब काबा के पत्थर में और मूर्ति में क्या फर्क है? पत्थर पत्थर है। मस्जिद से मूर्ति हटा दी, लेकिन शरण की भावना तो नहीं हटा सकते। मुसलमान जाकर जिस तरह झुकता है, उस तरह हिंदू भी नहीं झुकता। झुकता है, बार-बार झुकता है नमाज में। वही झुकना भक्ति है। अपने सिर को झुकाना, अपने अहंकार को झुकाना भक्ति है।
फिर आज के सूत्र तुम्हें समझ में आ सकेंगे।
प्रकरणाच्च।
‘और प्रकरण से ऐसा ही है।’
इसलिए मैंने ये पुराने सूत्र दोहराए, क्योंकि आज के सूत्र संबंधित हैं। शांडिल्य कहते हैं: यह जो मैंने अब तक कहा, इसके तुम्हें जीवन में जगह-जगह प्रमाण मिलेंगे।
‘प्रकरण से ऐसा ही है।’
तुम जरा आंख खोल कर खोजना शुरू करो। महावीर के मार्ग पर कोई परमात्मा नहीं है, लेकिन शरण का भाव आया। बुद्ध के मार्ग पर तो परमात्मा भी नहीं है, आत्मा भी नहीं है, फिर भी शरण का भाव आया। इस्लाम ने मूर्तियां हटा दीं, तो भी शरण का भाव है। दुनिया में ऐसा कोई धर्म नहीं है जिसमें शरण का भाव न हो। शरण तो जाना ही होगा।
प्रकरणाच्च।
प्रकरण से, सारे जगत के अलग-अलग अनुभवों से यही सिद्ध होता है कि भक्ति अनिवार्य है। भक्ति से छुटकारा नहीं है। भक्ति के तत्व के बिना कोई धर्म निर्मित नहीं होता। तुम ऐसा ही समझो कि इतनी मिठाइयां निर्मित होती हैं, लेकिन मिठास अनिवार्य है। अब मिठाइयों के तो बहुत रूप हैं--रसगुल्ला है और संदेश है और खीरमोहन है और हजार हैं, लेकिन मिठास, माधुर्य अनिवार्य है।
भक्ति माधुर्य है। भक्ति शक्कर है। उसके बिना कोई मिठाई न बनेगी। फिर तुम किस ढंग की मिठाई बनाओगे, यह तुम पर निर्भर है।
दुनिया के सारे धर्म अलग-अलग मिठाइयां हैं, भक्ति उनके भीतर सबमें छिपी हुई मिठास है। उनमें एक तत्व समान है, मिठास का। नमक डाल कर मिठाई नहीं बनती। उसको मिठाई नहीं कह सकोगे। तो और बातें गौण हैं, मिठास तो अनिवार्य होनी चाहिए। फिर चाहे मिठाई चीन में बने और चाहे भारत में और चाहे रूस में, कहीं भी बने मिठाई, उसमें मिठास अनिवार्य होनी चाहिए।
शांडिल्य कहते हैं, हम मौलिक तत्व की बात कर रहे हैं। ऊपरी रूप, ऊपरी ढंग गौण हैं। प्रेम प्राण है। जैसे देहें तो अलग-अलग हैं, लेकिन प्राणतत्व एक है। कोई सुंदर है और कोई कुरूप है; और कोई ठिगना है और कोई लंबा है; कोई गोरा है, कोई काला है; कोई अंधा है, कोई आंख वाला है; कोई लंगड़ा है, कोई लूला है, कोई बहरा है, कोई स्वस्थ है; कोई दुबला, कोई मोटा; बहुत रूप हैं देह के, मगर प्राणतत्व एक है।
शांडिल्य कहते हैं: ‘भक्ति प्राणतत्व है समस्त धर्मों का।’
और जैसे प्राण के बिना देह मुर्दा है, वैसे ही भक्ति के बिना धर्म मुर्दा है। जिस धर्म से भक्ति खो जाती है, वह मुर्दा हो जाता है--उसी मात्रा में मुर्दा हो जाता है, जिस मात्रा में भक्ति खो जाती है। जिस मात्रा में भक्ति होती है, बाढ़ होती है भक्ति की, उसी मात्रा में धर्म जीवित होता है। जितनी नाचती हुई भक्ति होती है, उतना ही धर्म जीवित होता है। जितनी उमंग होती है भक्ति की, जितना उत्साह होता है भक्ति का, उतना ही धर्म जीवित होता है
जैसे आत्मा है सभी के भीतर एक, वैसे ही सभी धर्म विधियों में प्राण है प्रीति, भक्ति। जहां-जहां प्रेम है, वहां-वहां प्राण है। और जहां-जहां भक्ति है, वहां-वहां भगवान है। लोग उलटी तरफ से सोचना शुरू करते हैं। लोग कहते हैं--भगवान कहां है?
यह ऐसा ही है कि जैसे कोई युवक आए और तुमसे पूछे--मेरा प्रेमपात्र कहां है? क्या कहोगे तुम उससे? मेरी प्रेयसी कहां है? कोई आ जाए पूछने पुलिस दफ्तर में, कि मेरी प्रेयसी कहां है? तो वे कहेंगे--तुम्हारी प्रेयसी है कौन, तो हम पता लगाएं। वह कहे--मुझे अभी खुद ही पता नहीं है, मैं तो तलाश में निकला हूं, मेरी प्रेयसी कहां है? तो तुम कहोगे--पहले प्रेम करो, तो प्रेयसी होती है। अभी तुमने प्रेम किया नहीं, तुम प्रेयसी को खोजने निकल पड़े!
लोग भक्ति किए नहीं और भगवान को पूछते हैं--भगवान कहां है? ऐसी ही मूढ़तापूर्ण बात पूछते हैं। लगती बात बड़ी तर्कयुक्त है जब कोई पूछता है कि भगवान कहां है? हो तो मैं मानूं, हो तो मैं पूजूं, हो तो मैं झुकने को तैयार हूं। मगर है कहां?
अब तुम ऐसी ही मूढ़तापूर्ण बात पूछ रहे हो कि प्रेयसी मिल जाए तो सब निछावर कर दूं, लुटा दूं सब। पकड़ लूं उसके चरण सदा के लिए, उसे गले का हार बना लूं कि उसके गले का हार बन जाऊं। मगर है कहां, पहले पक्का हो जाए।
होगी कैसे प्रेयसी? प्रेयसी कोई व्यक्ति थोड़े ही है। तुम्हारा प्रेम जिस व्यक्ति पर आरोपित हो जाता है, वही तुम्हारा प्रेमी या प्रेयसी हो जाता है। जिस व्यक्ति पर, जिस शक्ति पर तुम्हारी भक्ति आरोपित हो जाती है, वही शक्ति, वही व्यक्ति भगवान हो जाता है। तो एक के लिए जो भगवान है, दूसरे के लिए भगवान नहीं होगा। तुम्हारी प्रेयसी मेरी प्रेयसी तो नहीं है। तुम यह तो नहीं कह सकते कि मेरी प्रेयसी को आप अपनी प्रेयसी क्यों नहीं मानते? सच तो यह है, कोई माने तो तुम झगड़ा खड़ा करोगे कि यह मेरी प्रेयसी है, आप इसको कैसे अपनी मानते हैं? लेकिन कोई कहे कि जब आपकी है, तो हमारी है!
मैंने सुना है, एक गांव में एक आदमी के पिता मर गए। वह बहुत रोने लगा, बहुत चिल्लाने लगा। पास-पड़ोस के लोग इकट्ठे हुए, लोगों ने कहा, क्यों रोते हो? गांव के बड़े-बूढ़ों ने कहा कि चलो, पिता चले गए, कोई बात नहीं, हम तो हैं, हम तुम्हारे पिता हैं। वह शांत हो गया।
फिर उसकी मां मर गई कुछ दिन के बाद। फिर गांव की बूढ़ियों ने कहा कि मत घबड़ाओ, हम तो मौजूद हैं, रोते क्यों हो? हम तुम्हारी मां हैं।
फिर उसकी पत्नी मर गई, फिर वह बैठ कर राह देखने लगा कि कोई आकर कहे। कोई न आए। फिर उसने बहुत शोरगुल मचाया, फिर वह छत पर चढ़ गया, उसने कहा, अब क्यों नहीं आते? अब कोई आकर क्यों नहीं कहता? पहले तो गांव भर के लोग आते थे कि हम तुम्हारे पिता, हम तुम्हारी माता, अब कोई नहीं आ रहा है! कोई नहीं कहता कि हम तुम्हारी पत्नी, क्यों रोते हो?
तुम्हारी प्रेयसी तुम्हारी प्रेयसी है। लेकिन इस पर झगड़े खड़े होते हैं, बड़े बेहूदे झगड़े। हिंदू कहते हैं: कृष्ण भगवान हैं। इसमें जैनों को एतराज है। एतराज तर्कयुक्त है कि इस आदमी ने महाभारत का युद्ध करवा दिया! अर्जुन तो संन्यासी होना चाहता था। भला आदमी था। जैन मुनि हो जाता अगर उसकी चलती। कृष्ण ने उसको कहां के उपद्रव में डाल दिया! भागने की उसने बहुत कोशिश की--तभी तो गीता पैदा हुई, वह बार-बार भागने की कोशिश कर रहा है और कृष्ण उसको फांस कर ला रहे हैं। आखिर उसको उलझवा दिया। उसको युद्ध करवा दिया। करोड़ों की हानि हुई, हजारों लोग मरे, इतनी हिंसा हुई, इस सबका जिम्मेवार कौन है? और हिंदू कहते हैं कृष्ण भगवान हैं! जैनियों ने नरक में डाल रखा है, उनके पुराणों में नरक में पड़े हैं, सातवें नरक में। और इस सृष्टि के समय में नहीं छूटेंगे, जब प्रलय होगी तभी छूटेंगे।
हिंदू के लिए कृष्ण भगवान हैं। उनसे बड़ा भगवान कोई भी नहीं। पूर्ण अवतार कहा उनको। राम भी अधूरे हैं, बुद्ध भी अधूरे हैं, कृष्ण पूरे हैं। इस बात में भी जान है, प्राण है। बुद्ध एकांगी तो लगते ही हैं--भाग गए संसार को छोड़-छाड़ कर। जीवन में संतुलन तो नहीं है। असंतुलित जीवन है। कृष्ण का जीवन बड़ा संतुलित है। बाजार में हैं और बाजार में नहीं हैं, यह संतुलन है। युद्ध में खड़े हैं और भीतर विराट शांति है, यह संतुलन है। भगोड़ापन नहीं है। जीवन में से यह चुनना, इसे छोड़ना, इसे पकड़ना, ऐसा नहीं, समग्र जीवन का स्वीकार है। इसी स्वीकार के कारण वे पूर्ण अवतार हैं। बुरा-भला, सब स्वीकार है। अस्वीकार करने वाला ही भीतर कोई नहीं है, तो अहंकार ही नहीं है जो चुनाव करे, इसलिए चुनावरहित हैं। जो घटे घटे। यही आस्तिकता की परमदशा है कि प्रभु जो चाहे घटवा रहा है, वही घटेगा।
तो हिंदुओं ने सारे अवतारों को पीछे कर दिया, कृष्ण को ऊपर कर लिया। अपनी-अपनी प्रीति! इसमें झगड़े की कोई गुंजाइश नहीं है।
ईसाई कहता है कि ये कृष्ण किस तरह के भगवान हैं? बांसुरी लेकर नाच रहे हैं और दुनिया में इतना दुख है! और ये भगवान हैं? और इतनी बीमारियां हैं! किसी अस्पताल में चले जाओ, अस्पताल खोलो, मरीजों की सेवा करो। कि इतनी बाढ़ आती हैं, तूफान आते हैं, तुम क्या बैठे बांसुरी बजा रहे हो! यह शोभा देती है! ईसाई सोचता है--यह बात ही अशोभन है, यह बात ही बड़ी बेहूदी है, कि जहां इतना दुख है संसार में, इतने लोग पीड़ित हैं, गरीब हैं, दीन हैं, दरिद्र हैं, वहां कोई आदमी बांसुरी बजाने की चेष्टा में लगा है। खुद बांसुरी बजा रहा है और स्त्रियों को नचा रहा है। यह खुद तो पागल है और दूसरों को पागल बना रहा है। क्राइस्ट ठीक मालूम पड़ते हैं। सूली पर लटके हैं, उदास। सारे लोग सूली पर हैं। उनके लिए सूली पर लटकना ही चाहिए जीसस को। इसलिए जीसस भगवान हैं।
लेकिन हिंदू से पूछो, तो हिंदू कहता है--भगवान और उदास? उदास तो अज्ञानी होता है। और ईसाई कहते हैं--जीसस कभी हंसे ही नहीं! यह तो महा तमस की अवस्था हो गई। उदास तो अज्ञानी होता है। और सूलियों पर तो पापी चढ़ते हैं। किए होंगे पिछले जन्म में कुछ पाप, उसका फल भोग रहे हैं। और तुम्हारे सूली पर चढ़ने से किसकी सूली कम हो जाएगी? यह तो ऐसे ही हुआ कि एक आदमी को पैर में कांटा लग गया और तुम उसके दुख में अपने पैर में भी कांटा चुभा कर बैठ कर रोने लगे। इससे क्या सार है? भई, निकालना था, उसका कांटा निकालते। अपने पैर में कांटा चुभाने से क्या होगा? उसका कांटा नहीं निकलेगा। दुनिया में दुख दुगुना हो गया, तुमने और काटा चुभा लिया।
हिंदू को जीसस में भगवान दिखाई नहीं पड़ सकते। और मैं तुमसे कह देना चाहता हूं, यह खयाल रखना, भगवान तो तुम्हारी प्रीति का संबंध है। किसी को महावीर में दिखाई पड़ते हैं, किसी को बुद्ध में, किसी को कृष्ण में, किसी को क्राइस्ट में। जहां तुम अपनी भक्ति को आरोपित कर देते हो, वहां भगवान प्रकट होता है। भगवान तो सब जगह छिपा है। इसलिए किसी को पीपल के वृक्ष में भी देवता प्रकट हो जाते हैं, और किसी को नदी की धार में भी, और किसी को अनगढ़ पत्थर में भी।
वह कल मैं तुमसे कह रहा था कि जब पहली दफे मील के पत्थर लगे लाल रंग पुते, तो गांव में लोग उनकी पूजा करने लगे। उन्होंने समझा हनुमानजी हैं। और बड़े खुश हुए कि सरकार भी अच्छी है कि इतने हनुमानजी! उन्होंने और उस पर जाकर सिंदूर इत्यादि पोत कर, फूल चढ़ा कर और पूजा शुरू कर दी। अंग्रेज परेशान थे कि यह क्या पागलपन है! लेकिन उसकी भी बात समझो। वह जो आदमी सिंदूर लगा दिया और जाकर पूजा करने लगा, उसकी भक्ति अगर वहां है, तो वहीं भगवान है। जहां भक्ति, वहां भगवान। पत्थर में पड़ जाए, तो पत्थर में भगवान का अवतरण होता है। और भगवान साक्षात तुम्हारे सामने खड़ा हो और तुम्हारी भक्ति न पड़े उसमें, तो पत्थर है। तुम्हारी भक्ति की ही सारी बात है। तुम्हारी भक्ति से भगवान का आविर्भाव होता है। तुम्हारी भक्ति पर्दा हटाती है।
तो मूल तत्व भगवान नहीं है, मूल तत्व भक्ति है।
कहते हैं शांडिल्य: ‘प्रकरणात्‌ च।’
अब तक सारे जगत में भक्तों के अनुभव से यही सिद्ध होता है कि भगवान दोयम, भक्ति प्रथम। भगवान पहले नहीं मिलता, भक्ति का आविर्भाव पहले होता है। उसी आविर्भाव में भगवान से मिलन होता है। भक्ति की आंख चाहिए भगवान को देखने को। प्रेम की आंख चाहिए प्रेयसी को, प्रेमी को खोज लेने को।
दर्शनफलमितिचेन्न तेनव्यवधानात्‌।
‘दर्शनलाभ ही फल नहीं है, क्योंकि उसमें व्यवधान रह जाता है।’
यह सूत्र अपूर्व है। शांडिल्य कहते हैं: भक्त की आकांक्षा भगवान का दर्शन कर लेने की नहीं है, क्योंकि दर्शन में तो दूरी रह जाती है। तुम इधर खड़े, भगवान उधर खड़े, दर्शन हो रहा! फासला है, व्यवधान है, दूरी है। दर्शन में दूरी है। तो भक्त क्या चाहता है? भक्त भगवान में एक होना चाहता है; दर्शन नहीं, एकात्म चाहता है। भक्त की तब तक तृप्ति नहीं है, जब तक भक्त भगवान न हो जाए, जब तक निमज्जित न हो जाए।
ज्ञानी सस्ते में राजी हो जाता है। वह कहता है, दर्शन हो गए, चले। देख लिया, जान लिया, पहचान लिया, प्रसन्न हो गए। यह तो ऐसे ही हुआ कि मिठाई के दर्शन कर लिए और प्रसन्न होकर चले गए। स्वाद तो लिया नहीं, माधुर्य तुम्हारे रक्त में तो बहा नहीं, तुम्हारी मांस-मज्जा में तो सम्मिलित नहीं हुआ, मिठाई के दर्शन से क्या होगा?
शांडिल्य ठीक कहते हैं कि भक्त उतने से राजी नहीं है। भक्त कहता है: यह भी कोई बात हुई! यह तो और बेचैनी बढ़ेगी। नहीं जाना था, वही अच्छा था। कम से कम इतना तो था कि तुम हो ही नहीं। हो ही नहीं तो कोई बेचैनी नहीं थी। जान कर तो अड़चन शुरू हुई। अब तो बिना एक हुए कोई मार्ग नहीं है, एक हो जाएं तभी तृप्ति है। अन्यथा अतृप्ति की आग जलेगी और जलाएगी, तड़फाएगी।
‘दर्शनलाभ ही फल नहीं है, क्योंकि उसमें व्यवधान रह जाता है।’
भक्त आत्यंतिक चाहता है, अंतिम चाहता है, जिसमें कोई दूरी न रह जाए। सभी प्रेमी यही चाहते हैं। और इसीलिए तो प्रेम में इतनी विफलता होती है। समझना।
तुम किसी स्त्री को प्रेम किए, किसी पुरुष को प्रेम किए। इतना विषाद क्यों होता है प्रेम में? प्रेमी बहुत शीघ्र ही विषाद से भर जाता है। विषाद कहां से आता है? प्रसन्न होना चाहिए था, तुम्हारी प्रेयसी तुम्हें मिल गई। जानने वाले कहते हैं: मजनू धन्यभागी है कि उसको लैला नहीं मिली। मिल जाती तो विषादग्रस्त हो जाता। जिनको मिल गई है, उनसे पूछो। मिल जाने के बाद विषाद हो जाता है। जिस स्त्री को तुमने चाहा, मिल गई, अब क्या करो? अब बैठे हैं पति-पत्नी होकर। अब कर रहे हैं एक-दूसरे का दर्शन और घबड़ा रहे हैं एक-दूसरे को, और घबड़ा रहे हैं एक-दूसरे से, और ऊब रहे हैं, अब करो क्या?
यह विषाद इसलिए पैदा होता है कि कोई उपाय नहीं इस स्त्री के साथ एक हो जाने का, इस पुरुष के साथ एक हो जाने का। कितने ही करीब आओ, दूरी रह जाती है। उस दूरी में विषाद है। मजनू को कम से कम एक तो आश्वासन रहा होगा कि कभी लैला मिलेगी, कभी मिलन होगा। उसे यह पता नहीं है कि मिलन होता ही नहीं। यह तो पता तभी चलेगा जब लैला मिल जाए और मिलन न हो, तब पता चलेगा, उसके पहले पता नहीं चलेगा। हाथ में हाथ लेकर खड़े रहो अपनी प्रेयसी का तो भी मिलन कहां है? तुम्हारा हाथ अलग, प्रेयसी का हाथ अलग। दोनों के बीच में बहुत कम दूरी है, मगर कम दूरी भी काफी दूरी है। गले से गला लगा कर खड़े हो जाओ, हृदय से हृदय लगा कर खड़े हो जाओ, और दूरी है। संभोग के क्षण में भी एक क्षण को ऐसी भ्रांति होती है कि दूरी मिट गई, मगर दूरी तो बनी ही रहती है।
इस जगत में प्रेम का विषाद यही है कि प्रेम चाहता है प्रेमी के साथ एक हो जाए और नहीं हो पाता। यह घटना भक्ति में ही घट सकती है। क्योंकि भक्ति में दो देहों का मिलन नहीं है, दो आत्माओं का मिलन है। आत्माएं एक-दूसरे में मिल सकती हैं।
ऐसा समझो कि तुमने एक कमरे में दो दीये जलाए। तो दो दीये तो अलग-अलग होंगे, लेकिन दोनों दीयों का प्रकाश मिल जाएगा। दीये नहीं मिल सकते--तुम दीयों को कितना ही खटखटाओ, एक-दूसरे के साथ लड़ाओ, मिलाओ-जुलाओ, दीये नहीं मिल सकते, दीये तो अलग ही रहेंगे। लेकिन दोनों की रोशनी मिल जाएगी। आत्मा रोशनी है--कोई व्यवधान नहीं आता। एक कमरे में दो दीये जलाओ, पचास दीये जलाओ, कोई अड़चन नहीं आती। कमरा एकदम चिल्लाने नहीं लगेगा कि यहां रोशनी ज्यादा हो गई, अब नहीं समाएगी। कितनी ही रोशनी लाओ, समा जाएगी। और ऐसा भी नहीं होगा कि दूसरे दीये यह कहने लगें कि और दीये मत लाओ, इससे हमारी रोशनी में बाधा पड़ती है, कि अतिक्रमण होता है हमारी रोशनी का, कि हमारी रोशनी का क्षेत्र कम होता है, दूसरे कब्जा कर लेते हैं। हां, ऐसा तो हो सकता है कि एक घड़ी आ जाए, कमरे में दीये न बन सकें; लेकिन रोशनी न बने, ऐसी घड़ी कभी न आएगी। रोशन तत्व एक-दूसरे से मिल जाते हैं। आत्मा तुम्हारी रोशनी है, शरीर तुम्हारा दीया है।
प्रेम का अर्थ है: दो दीयों को मिलाने की कोशिश चल रही है, दो देहों को मिलाने की कोशिश चल रही है। विषाद सुनिश्चित है। विषाद अनिवार्य है। भक्ति का अर्थ है: यह भ्रांति छोड़ दी कि दीये मिलाने हैं। ज्योति में ज्योति मिलानी है। और ज्योति से ज्योति जब मिल जाती है, तो दर्शन नहीं होता, साक्षात्कार नहीं होता, ज्ञान नहीं होता, भक्त भगवान हो जाता है। अहं ब्रह्मास्मि का उदघोष उठता है। अनलहक का उदघोष उठता है। मैं और तू दो नहीं रह जाते। सच तो यह है, उस स्थिति में हमें यह भी नहीं कहना चाहिए कि भक्त बचता है, हमें यह भी नहीं कहना चाहिए कि भगवान बचता है। मैं शब्द सुझाना चाहता हूं--भगवत्ता बचती है। इधर भक्त खो जाता है, उधर भगवान खो जाता है। क्योंकि भगवान को होने के लिए भी भक्त का होना जरूरी है। भक्त के बिना भगवान नहीं हो सकता, भगवान के बिना भक्त नहीं हो सकता। वे तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक गया कि दूसरा गया। तो जो बचती है, वह है--भगवत्ता, दिव्यता, असीम आलोक।
भक्ति का मार्ग आलोक का मार्ग है। आलोक पंथः।
‘दर्शनलाभ ही फल नहीं है, क्योंकि उसमें व्यवधान रह जाता है।’
दृष्टत्वाच्च।
‘इस प्रकार देखने में भी आता है।’
शांडिल्य कहते हैं: जो-जो गए हैं, उनसे पूछो! वे सभी यही कहेंगे--इस प्रकार देखने में भी आता है--कि जैसे-जैसे भक्त भगवान के करीब पहुंचता है, वैसे ही वैसे दर्शन में रस नहीं रह जाता। योग में रस होता है, दर्शन में नहीं। मिलन हो जाए, सम्मिलन हो जाए। इस तरह मिलना हो जाए कि कहीं कोई रेखा विभाजन न करे। मेरे हृदय में भगवान धड़के, मैं भगवान के हृदय में धड़कूं। न कोई मैं बचे, न कोई तू बचे।
जलालुद्दीन रूमी की प्रसिद्ध कविता है कि प्रेमी ने अपनी प्रेयसी के द्वार पर दस्तक दी और पीछे से पूछा गया--कौन है? कौन है? और प्रेमी ने कहा, मैं हूं तेरा प्रेमी, तू मेरी पदचाप नहीं पहचानी? लेकिन भीतर सन्नाटा हो गया। उसने फिर दस्तक दी, उसने कहा, तूने मुझे पहचाना नहीं? मेरी आवाज नहीं पहचानी? और प्रेयसी ने कहा, यह घर छोटा है, यह प्रेम का घर है, यहां दो न समा सकेंगे।
प्रेमी लौट गया। दिन आए, रातें आईं; सूरज निकला, चांद निकला; वर्ष आए, वर्ष गए; उसने बड़ी कठोर साधना की। फिर वर्षों बाद वापस आया, द्वार पर दस्तक दी, फिर पूछा गया वही प्रश्न--वही प्रश्न सदा पूछा जाता है--कौन है? अब की बार उसने कहा कि मैं नहीं हूं, तू ही है।
जलालुद्दीन रूमी ने यहां कविता पूरी कर दी है, मैं पूरी नहीं कर सकता। रूमी से मेरा कहीं मिलना हो जाए तो उनसे कहूं--अधूरी है, इसको पूरा करो। क्योंकि प्रेमी कहता है कि मैं नहीं हूं, तू ही है। लेकिन जब तक तुम्हें तू का पता है, मैं का पता भी होगा। यह कहने के लिए भी मैं होना चाहिए कि मैं नहीं हूं। यह कौन कहता है? यह किसको स्मरण हो रहा है कि मैं नहीं हूं? और यह कौन कहता है कि तू ही है? यह भेद कौन कर रहा है मैं और तू का?
सब मौजूद है। सिर्फ जो धारा पृथ्वी के ऊपर बहती थी, वह अंतर्धारा हो गई, वह पृथ्वी के नीचे बहने लगी। मैं अंडरग्राउंड चला गया। और यह और खतरनाक हालत है। मैं ऊपर था तो पहचान में आता था, दुश्मन साफ-साफ था। अब मैं जो है भूमिगत हो गया, अब उसने अपने को नीचे छिपा लिया। अब वह कहता है--मैं नहीं हूं। अहंकार बड़ा सूक्ष्म है, वह यह भी कह सकता है कि मैं नहीं हूं, और अपने को बचा ले सकता है।
अगर मैं उस कविता को आगे बढ़ाऊं, तो मैं उसे फिर वापस भेज दूंगा। हालांकि कठोरता लगेगी कि प्रेमी के साथ मैं ज्यादती कर रहा हूं। लेकिन मैं क्या कर सकता हूं? मेरे वश में हो तो मैं यही कहूंगा कि प्रेयसी ने कहा कि अभी कुछ फर्क नहीं हुआ, यह घर बहुत छोटा है, इसमें दो न समा सकेंगे। प्रेम गली अति सांकरी तामें दो न समाएं।
प्रेमी फिर लौट गया। फिर तो और ज्यादा समय लगा होगा, और अनंत वर्ष, या कहना चाहिए अनंत जन्म। और एक दिन वह घड़ी आई, जब प्रेमी सच में ही मिट गया। न मैं ऊपर रहा, न भीतर रहा; न चेतन में, न अचेतन में; न भूमि पर, न भूमिगत। तब मेरे सामने एक अड़चन है--अब उसको कैसे लाएं वापस प्रेयसी के दरवाजे पर? मैं नहीं ला सकता। वह भी मैं नहीं कर सकता। शायद इसीलिए जलालुद्दीन रूमी ने कविता वहीं पूरी कर दी। नहीं तो कविता बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगी, उसको पूरा कहां करोगे। कविता को आखिर कहीं शुरू और कहीं पूरा होना पड़ता है, जिंदगी तो कहीं शुरू नहीं होती और कहीं पूरी नहीं होती। मैं भी जानता हूं जलालुद्दीन की तकलीफ कि वहीं क्यों पूरी कर दी कविता को। क्योंकि जब मैं बिलकुल ही मिट जाएगा, तो फिर प्रेमी लौट नहीं सकता।
पर क्या जरूरत है कि प्रेमी लौटे ही? मैं पसंद करूंगा कि फिर प्रेयसी उसे खोजने निकलती। क्योंकि जब मैं मिट गया प्रेमी का, तो प्रेयसी को खोजने निकलना ही पड़ेगा। जिस दिन व्यक्ति का मैं मिट जाता है, उस दिन परमात्मा खोजने निकलता है। तुम कहीं मत जाओ, सिर्फ नहीं हो जाओ, और परमात्मा भागा चला आएगा।
और तुम जाओगे भी तो कहां जाओगे? उसे खोजोगे भी तो कहां खोजोगे? वह सामने भी मिल जाएगा रास्ते पर कहीं बैठा हुआ, तो तुम पहचानोगे कैसे कि यही है? पहले कभी देखा नहीं, प्रत्यभिज्ञा कैसे होगी? जिन रूपों में तुम देख रहे हो, या सोचते हो कि होगा, उन रूपों में दुबारा नहीं होता। अगर तुम कृष्ण के भक्त हो और तुम सोचते हो कि मोरमुकुट बांधे और एम.जी. रोड पर कहीं भीड़-भाड़ इकट्ठी किए बांसुरी बजा रहे होंगे, तो तुम्हारे पहुंचने के पहले पुलिस उनको ले जाएगी। कि यह आदमी यहां ट्रैफिक में गड़बड़ कर रहा है! और यह मोरमुकुट क्यों बांधा है? होश में हो कि पागल हो? और तुम्हें भी मिल जाएं यह मोरमुकुट बांधे, तो तुम भी कहोगे कि कोई कृष्णलीला होने वाली है बस्ती में? क्या बात है? या रामचंद्रजी मिल जाएं धनुषबाण इत्यादि लिए हुए जाते, तो तुम चौंक कर खड़े हो जाओगे कि भई, रामलीला होने वाली है? क्या बात है?
तुम भी भरोसा नहीं करोगे। क्योंकि सत्य दुबारा नहीं दोहरता। कृष्ण एक बार हुए, दुबारा नहीं होंगे। बुद्ध एक बार हुए, दुबारा नहीं होंगे। परमात्मा हर बार नये रूपों में आता है, इसीलिए तो पहचान नहीं हो पाती। तुम पुराने के साथ नाता जोड़े बैठे रहते हो और परमात्मा नया होकर आता है। परमात्मा का अर्थ ही है, जो प्रतिपल नया है। अब हो सकता है इस बार वह फुलपैंट इत्यादि पहन कर आ गए हों, और मोरमुकुट न बांधा हो। फुलपैंट में देख कर ही तुम कहोगे कि खतम बात!
एक गांव में मैं मेहमान था। वहां के कालेज ने ‘आधुनिक रामलीला’, ऐसा एक नाटक खेला। झगड़ा हो गया वहां। गांव के पंडित बहुत नाराज हो गए। वे मजाक भी न समझ सके। प्यारा व्यंग्य था। मुझे उसी का उदघाटन करने बुलाया था। मैं उदघाटन करके मुसीबत में पड़ गया। पीछे मुकदमा चला। मुझे अदालत तक में जाना पड़ा। प्यारा व्यंग्य था। लेकिन गांव के लोगों को न जंचा, क्योंकि रामचंद्रजी सिगरेट पीते। गांव के लोगों ने कहा कि मार-पीट हो जाएगी, हत्या हो जाएगी--रामचंद्रजी और सिगरेट पीते हों! और सीताजी लंबी एड़ी का जूता पहन कर चलती हैं!
मैं तुमसे कहता हूं, जरा होश रखना, हो सकता है लंबी एड़ी का जूता पहन कर चलती हों। जमाना बदल गया, भगवान पुराना थोड़े ही रहता है, रोज नया हो जाता है। मगर हमारी आंखें पुरानी हैं। हम कहते हैं--ऐसा होना चाहिए। हमने एक ढांचा बांध रखा है। उस ढांचे में फिर कभी नहीं होगा। भगवान बासा नहीं है। तुमने कभी एक सुबह दूसरी सुबह जैसी देखी? और एक सांझ दूसरी सांझ जैसी देखी? जब सूरज सांझ को डूबता है तो जो रंग फैल जाते आकाश में, वैसे तुमने कभी पहले देखे थे? कभी दुबारा वैसा दोहरेगा फिर? कभी नहीं दोहरेगा, कुछ नहीं दोहरता। परमात्मा की सृष्टि अपूर्व है। वह पुनरुक्ति नहीं करता। उसकी सृजन-क्षमता असीम है, पुनरुक्ति करे क्यों? जो आदमी रोज नई कविता गा सकता हो, वह पुरानी क्यों गाए? और जो आदमी रोज नया गीत पैदा कर सकता हो, वह पुराना क्यों दोहराए? परमात्मा अपनी कापी नहीं करता, वह कार्बनकापियां नहीं भेजता। वह सिर्फ एक ही मूललिपि, ओरिजिनल, उसके बाद बात खतम। उसके दफ्तर में डुप्लीकेटर है ही नहीं।
मगर हमारी पकड़ पुराने की होती है। तुम्हें मिल भी जाए तो तुम पहचान न सकोगे।
फिर क्या उपाय है?
तुम मिटो, तुम शून्य हो जाओ, भागा आता है परमात्मा चारों तरफ से और तुम्हें भर देता है। तुमने जल को देखा? कभी जल में तुमने घड़ा भरा? तुम घड़ा भरते हो, खाली जगह छूटी, चारों तरफ से जल दौड़ कर उसे तत्क्षण भर देता है। शून्य बर्दाश्त नहीं किया जाता। हवा में शून्य पैदा हो जाए, चारों तरफ से हवा दौड़ कर उस शून्य को भर देती है। जहां शून्य पैदा हो जाता है, वहीं भरने के लिए ऊर्जा पहुंच जाती है। तुम जरा शून्य होकर देखो, और तुम पाओगे कि पूर्ण से भर दिए गए।
शांडिल्य कहते हैं: ‘दृष्टत्वाच्च।’
इस प्रकार ही देखने में आया है। जानने वालों ने इसी तरह जाना है कि जो उसके पास गया, खुद तो मिटा ही, परमात्मा भी उसके साथ ही मिट गया। भगवत्ता शेष रही।
अत एव तदभावाद्वल्लवीनाम्‌।
‘ज्ञान-विज्ञान आदि के अभाव रहने पर भी ब्रज की गोपियां अनुराग के बल से ही मुक्ति के लाभ करने में समर्थ हो गई थीं।’
अत एव तदभावाद्वल्लवीनाम्‌।
उस प्यारे को पाने का एक ही उपाय है--उसके भाव से आपूर हो जाओ, आकंठ भर जाओ।
अत एव तदभावाद्।
उसका भाव तुम्हें पूरा डुबा दे। तुम उसके भाव में ही पूरे लीन हो जाओ। उस प्यारे को पाने का एक ही उपाय है--ज्ञान नहीं, तप नहीं--भाव।
शांडिल्य कहते हैं: गोपियां न तो ज्ञानी थीं, न तपस्वी थीं, न उन्होंने योग साधा, न कृच्छ साधनाएं कीं, न हिमालय की गुफाओं में गईं, न त्याग किया संसार का। सीधी-साधी स्त्रियां थीं, मगर भाव से भर गईं। उसके भाव में डूब गईं।
तुमने चित्र देखा होगा--गोपियां नाच रही हैं, कृष्ण नाच रहे हैं, और हर गोपी के साथ एक कृष्ण नाच रहा है--कृष्ण उतने ही हो गए जितनी गोपियां हैं। जितने शून्य होंगे इस जगत में, उतनी ही भगवत्ताएं हो जाती हैं। महावीर भी भगवान हैं, इससे कुछ बुद्ध के भगवान होने में कमी नहीं पड़ती।
मगर हम बड़े कंजूस हैं। हम सोचते हैं इसमें झंझट है। इसलिए ईसाई कहता है: सिर्फ क्राइस्ट भगवान हैं, कृष्ण नहीं। और हिंदू कहता है: कृष्ण भगवान हैं, महावीर नहीं। और जैन कहता है: महावीर भगवान हैं और बुद्ध नहीं। क्योंकि सबको ऐसा लगता है कि बहुत भगवान हो गए तो अपने भगवान की भगवत्ता कुछ कम हो जाएगी। कंजूसों का हिसाब है। वे सोचते हैं--इतने भगवान हो गए तो स्वभावतः भगवत्ता डायल्यूट हो जाएगी। उसकी मात्रा कम-कम हो जाएगी। बूंद-बूंद रह गई। अपने ही भगवान सिर्फ भगवान होते, तो पूरा सागर होते। अब इतने हो गए, तो बस बह रहे हैं छोटे-मोटे झरने की भांति, फिर सागर कहां! इस डर के कारण सारे धर्म एक मूढ़तापूर्ण बात में उलझ गए हैं कि जो हमारा है, बस वही सच, बाकी सब झूठ।
तुमने कृष्ण को देखा, सब गोपियों के साथ नाचते? वह बड़ा प्रतीक चित्र है। वह यह कह रहा है कि जितनी चेतनाएं हैं इस जगत में, उतनी भगवत्ताएं हो सकती हैं। भगवान अनंत है, भगवत्ताएं अनंत हो सकती हैं। तुमने उपनिषद का वचन सुना? उस पूर्ण से पूर्ण को भी निकाल लो तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। बुद्ध के भगवान होने से भगवान कुछ कम नहीं हो गया, कि अब जो भगवान होगा उसको कुछ कम मात्रा में भगवत्ता मिलेगी। भगवान उतना का ही उतना है। सारी कला तुम्हारे शून्य होने की है। तुम शून्य हुए कि तुम पूर्ण से भरे। फिर जितने शून्य होंगे उतने पूर्ण से भर जाएंगे। यह सारा जगत भगवान से सराबोर है। इसमें कोई और जगह ही नहीं है। भगवान ही भगवान भरा हुआ है। और जब तुम्हें पता नहीं है, तब भी भगवान तुम्हारे भीतर मौजूद है, सिर्फ पता नहीं है। सारी बात इतनी है कि तुम्हें लौट कर दिखाई पड़ जाए। न तो तपश्चर्या की जरूरत है, न किसी गोरखधंधे में पड़ने की।
तदभावाद्वल्लवीनाम्‌।
उस प्यारे को पाना है, बस एक बात कर लो--अपने को मिटा दो, उसके भाव को निमंत्रण दे दो।
भक्त्या जानातीतिचेन्नभिज्ञप्तया साहाय्यात्‌।
‘यदि ऐसा कहो कि भक्ति से ही ज्ञान का उदय होता है, तो ऐसा नहीं है, क्योंकि ज्ञान भक्ति की सहायता किया करता है।’
कुछ लोग सोचते हैं, शांडिल्य कहते हैं, शंका उठाते हैं कि कुछ लोग सोचते हैं, कुछ लोगों ने कहा भी है--कि भक्त को ही असली ज्ञान होता है। शांडिल्य कहते हैं: ज्ञानी को तो भक्ति होती ही नहीं; अगर वह ज्ञान में ही उलझ गया तो भक्ति से वंचित रह जाता है। हां, ज्ञानी अगर समझदार हो--और ज्ञानी कम ही समझदार होते हैं--क्योंकि ज्ञानी अकड़ा होता है, समझ कहां? जानने की अकड़ निर्मल नहीं होने देती, विनम्र नहीं होने देती। अगर ज्ञानी समझदार हो, जो कि बहुत विरले ज्ञानियों में मिलेगा, अगर ज्ञानी समझदार हो, प्रज्ञावान हो, तो ज्ञान का उपयोग भी भक्ति को पाने के लिए करता है। ज्ञान की सहायता भक्त होने के लिए करता है, लेता है। अपने ज्ञान को समर्पित कर देता है भाव के लिए। अपने मस्तिष्क को हृदय की सेवा में लगा देता है। अपने तर्क को अपनी श्रद्धा का चाकर बना देता है। फिर तर्क भी बड़ा काम आता है। क्योंकि वह श्रद्धा का सहयोगी हो जाता है। फिर ज्ञान भी काम में आ जाता है, वह सीढ़ी बन जाता है। भक्त उस पर चढ़ कर मंदिर तक पहुंच जाता है।
शांडिल्य कहते हैं: जो ऐसा कहता हो कि भक्त को ज्ञान उपलब्ध होता है अंत में, वह तो गलत कहता है, क्योंकि ज्ञान में तो भेद रह जाता है--ज्ञाता का, ज्ञेय का भेद रह जाता है, दूरी रह जाती है। जैसे दर्शन में दूरी रह जाती है, वैसे ज्ञान में दूरी रह जाती है। भक्त तो एक ही हो जाता है--वहां कौन जानने वाला, कौन जाना जाने वाला? वहां तो दोनों मिल गए और एक हो गए। वहां जीवन की शुरुआत है, जानने की नहीं। वहां अनुभूति का जन्म है, जानने का नहीं।
फिर इसलिए भी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ज्ञान का जन्म भक्ति के अंत में होता है, क्योंकि ज्ञान का तो सहारा लिया सीढ़ियों की तरह। ज्ञान पर तो चढ़े और भक्ति तक पहुंचे। अज्ञानी से अज्ञानी के पास भी थोड़ा-बहुत ज्ञान है। नहीं तो वह कभी का ज्ञानी हो गया होता। अज्ञानी के पास भी थोड़ा न बहुत ज्ञान है, वही अटका रहा है--अज्ञान नहीं अटका रहा है, ज्ञान अटका रहा है।
तुमने ऐसा अज्ञानी देखा जो कहे कि मैं पूर्ण अज्ञानी हूं? अगर ऐसा अज्ञानी तुम्हें मिल जाए, उसके चरण पकड़ लेना। क्योंकि वह तो ज्ञान को उपलब्ध हो गया, जो कह दे मैं पूर्ण अज्ञानी। लाओत्सु ने कहा है कि मेरी हालत महामूढ़ जैसी है। जैसे मूढ़ों की खोपड़ी खाली होती है, ऐसी मेरी है।
अज्ञानी भी दंभ करता है कि मैं जानता हूं। हो सकता है तुमसे कम जानता हूं, लेकिन जानता हूं। मात्रा का भेद होगा, गुण का भेद नहीं है। पंडित में और मूर्ख में मात्रा का भेद होता है, गुण का भेद नहीं होता। मूर्ख थोड़ा कम पंडित है, पंडित थोड़ा कम मूर्ख है, बस इतना ही फर्क होता है। एक ही सीढ़ी पर हैं--एक जरा आगे, एक जरा पीछे।
ज्ञान रोकता है--अज्ञानी को भी और ज्ञानी को भी। धन्यभागी हैं वे जो ज्ञान की सहायता ले लें, जो ज्ञान की सीढ़ियां बना लें।
भक्त्या जानातीतिचेन्नभिज्ञप्तया साहाय्यात्‌।
भक्ति के अंत में ज्ञान नहीं है। भक्ति के शुरू में ही, जो ज्ञान है उसकी सीढ़ियां बना लेनी हैं, सहायता ले लेनी है। सीढ़ियों पर चढ़ कर जब तुम मंदिर में पहुंचोगे तो भगवान मिलेगा, और सीढ़ियां नहीं मिलेंगी। नहीं तो मंदिर में पहुंचे ही नहीं अगर और सीढ़ियां मिलें।
ज्ञान तो सहयोगी हो सकता है ज्यादा से ज्यादा, अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकता। ज्ञान साधन हो सकता है, साध्य नहीं हो सकता। तुम कोई चीज जानना चाहते हो, क्योंकि तुम कुछ और पाना चाहते हो। ज्ञान अपने आप में साध्य नहीं है, उपकरण है। भक्ति साध्य है।
जैसे समझो, तुम धन कमाना चाहते हो। कोई पूछे कि धन किसलिए? तो तुम उत्तर दे सकते हो कि ताकि आराम से रह सकूं। कोई पूछे आराम से किसलिए रहना चाहते हो? तो तुम कहोगे, ताकि मैं प्रेम कर सकूं, अपने बच्चे, अपनी पत्नी...। लेकिन कोई तुमसे पूछे कि प्रेम किसलिए करना चाहते हो? तो तुम अटक जाओगे, तुम उत्तर न दे पाओगे। और जो उत्तर दे दे, वह प्रेम को जानता ही नहीं। तुम कहोगे--प्रेम तो प्रेम के लिए।
धन किसी चीज के लिए, पद किसी चीज के लिए, ज्ञान किसी चीज के लिए, लेकिन प्रेम? प्रेम गंतव्य है। प्रेम अपने आप में अपना साध्य है। भक्ति तो प्रेम की पराकाष्ठा है। इसलिए भक्ति के बाद और कोई फल नहीं है, भक्ति तो स्वयं फल है। और सब खाद बन जाए। खाद तुम बना सको तो बुद्धिमान हो।
इन अपूर्व सूत्रों पर खूब ध्यान करना। इनके रस में डूबना। एक-एक सूत्र ऐसा बहुमूल्य है कि तुम पूरे जीवन से भी चुकाना चाहो तो उसकी कीमत नहीं चुकाई जा सकती।
भक्त कुछ मांगने नहीं जाता। भक्ति में भिक्षा का भाव ही नहीं है। लेकिन फिर भी भक्त हाथ तो पसारता है। मांगना नहीं चाहता, मांगता भी नहीं; पर हाथ तो फैलाता है, झुकता तो है। और ऐसा भी नहीं कि भक्त पाता नहीं, भक्त खूब पाता है। जितना भक्त पाता है, कोई भी नहीं पाता।
मैंने
हाथ
इस भाव से
नहीं पसारा था

बस
पसार दिया था

तुमने
जाने क्या सोच कर
मेरे हाथ में
ब्रह्मांड रख दिया

अब
कहां घूमूं मैं
इसे
मुट्ठी में बांधे-बांधे!
जो बिना मांगे हाथ पसार दे, अहोभाग्य हैं उसके! क्योंकि मांग नहीं होगी, तो सारा ब्रह्मांड उपलब्ध हो जाएगा, सब उपलब्ध हो जाएगा। बिन मांगे मोती मिलें, मांगे मिले न चून। भिखारी को कुछ भी नहीं मिलता। भिखारी को तो कहा जाता है--आगे बढ़ो। सम्राटों को मिलता है।
जीसस का बड़ा प्रसिद्ध वचन है कि जिनके पास है उन्हें और दिया जाएगा और जिनके पास नहीं है उनसे वह भी छीन लिया जाएगा जो उनके पास है।
प्रेम को उमगाओ। अगर तुम्हारे पास प्रेम है तो और मिलेगा तुम्हें। मांगो मत, मांगने की जरूरत नहीं है, प्रेम के पीछे अपने आप साम्राज्य चले आते हैं। प्रेम के पीछे अपने आप सब चला आता है।
जीसस ने कहा है: पहले तुम प्रभु के राज्य को खोज लो, और पीछे सब अपने आप चला आता है। सब! किसी और चीज को अलग-अलग खोजने की जरूरत नहीं है।
भक्ति के पीछे आता प्रसाद।
किसी वासना से, किसी हेतु से, किसी कारण से प्रार्थना मत करना। नहीं तो प्रार्थना पहले से ही तुमने गलत कर दी। प्रार्थना करना प्रार्थना के सहज आनंद के लिए। नाचना, डोलना, मस्त होना, मदमस्त होना, मगर सहज आनंद के लिए।
यहां हजारों लोग आते, ध्यान करते, नाचते, आनंदित होते; उनमें से वे ही पाते हैं जो अकारण नाचते हैं। यह रोज-रोज घटते देखता हूं।
प्रकरणाच्च।
इसके प्रकरण ही प्रकरण यहां फैले हुए हैं। मिलता उन्हीं को जो मांगते ही नहीं, जिन्हें मांगने का भाव ही नहीं है। जो कहते हैं--गीत में तल्लीन हो जाना, संगीत में डूब जाना, और क्या चाहिए! नाच लिए क्षण भर को--सारा अस्तित्व नाच रहा है, चांद-तारे नाच रहे हैं, इनके साथ हम भी सम्मिलित हो गए, इस रासलीला में थोड़ी देर हम भी भागीदार हो गए, और क्या चाहिए! जो ऐसा कहेगा, उसके हाथ में सारा ब्रह्मांड आ जाता है।
तुम्हारे हाथ में भी आ सकता है, पसारो! मगर मांगने के लिए मत पसारना। पसारने के आनंद के लिए पसारना।

आज इतना ही।

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