SHANDILYA

ATHATO BHAKTI JIGYASA 02

Second Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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पहला प्रश्न:
जीवन क्या है?
ऐसे प्रश्न सरल लगते हैं, सभी के मन में उठते हैं। पर ऐसे प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है। ऐसे प्रश्न वस्तुतः प्रश्न ही नहीं हैं, इसलिए उनका उत्तर नहीं है।
जीवन क्या है, इसका उत्तर तभी हो सकता है जब जीवन के अतिरिक्त कुछ और भी हो। जीवन ही है, उसके अतिरिक्त कुछ और नहीं है। हम उत्तर किसी और के संदर्भ में दे सकते थे। लेकिन कोई और है नहीं, जीवन ही जीवन है। तो न तो कुछ लक्ष्य हो सकता है जीवन का, न कोई कारण हो सकता है जीवन का। कारण भी जीवन है और लक्ष्य भी जीवन है।
ऐसा समझो, तुमसे कोई पूछे, किस चीज पर ठहरे हो? तुम कहो, छत पर। और छत किस पर ठहरी है? तो तुम कहो, दीवालों पर। और दीवालें किस पर ठहरी हैं? तो तुम कहो, पृथ्वी पर। और पृथ्वी किस पर ठहरी है? तो तुम कहो, गुरुत्वाकर्षण पर। और ऐसा कोई पूछता चले, गुरुत्वाकर्षण किस पर ठहरा है? तो चांद-सूरज पर। और चांद-सूरज? तारों पर। और अंततः पूछे कि यह सब किस पर ठहरा है? तो प्रश्न तो ठीक लगता है, भाषा में ठीक जंचता है, लेकिन सब किसी पर कैसे ठहर सकेगा! सबमें तो वह भी आ गया है जिस पर ठहरा है। सबमें तो सब आ गया, बाहर कुछ बचा नहीं।
इसको ज्ञानियों ने अति प्रश्न कहा है। सब किसी पर नहीं ठहर सकता। इसलिए परमात्मा को स्वयंभू कहा है। अपने पर ही ठहरा है। अपने पर ही ठहरा है, इसका अर्थ होता है, किसी पर नहीं ठहरा है।
‘जीवन क्या है?’ तुम पूछते।
जीवन जीवन है। क्योंकि जीवन ही सब कुछ है। मेरे लिए जीवन परमात्मा का पर्यायवाची है।
लेकिन प्रश्न पूछा है, जिज्ञासा उठी है, तो थोड़ी खोजबीन करें। अगर उत्तर देना ही हो, अगर उत्तर के बिना बेचैनी मालूम पड़ती हो, तो फिर जीवन को दो हिस्सों में तोड़ना पड़ेगा। जिन्होंने उत्तर दिए, उन्होंने जीवन को दो हिस्सों में तोड़ लिया। एक को कहा यह जीवन और एक को कहा वह जीवन। यह जीवन माया, वह जीवन सत्य। इस जीवन का अर्थ फिर खोजा जा सकता है। इस जीवन का अर्थ है: उस जीवन को खोजना। इस जीवन का प्रयोजन है: उस जीवन को पाना। यह अवसर है। मगर तब जीवन को बांटना पड़ा। बांटो तो उत्तर मिल जाएगा।
मगर उत्तर थोड़ी दूर तक ही काम आएगा। फिर अगर कोई पूछे कि वह जीवन क्यों है--सत्य का, मोक्ष का, ब्रह्म का? फिर बात वहीं अटक जाएगी। वह जीवन बस है।
लेकिन यह विभाजन काम का है। कृत्रिम है, फिर भी काम का है। अपने भीतर भी तुम इन दो धाराओं को थोड़ा पृथक-पृथक करके देख सकते हो। थोड़ी दूर तक सहारा मिलेगा। एक तो वह है जो तुम्हें दिखाई पड़ता है, और एक वह है जो देखता है। दृश्य और द्रष्टा। ज्ञाता और ज्ञेय। जानने वाला और जाना जाने वाला। उसमें ही जीवन को खोजना जो जानने वाला है। अधिक लोग उसमें खोजते हैं जो दृश्य है--धन में खोजते, पद में खोजते। पद और धन दृश्य हैं। बाहर खोजते। बाहर जो भी है सब दृश्य है। उसमें खोजना जो द्रष्टा है, साक्षी है, तो तुम्हें परम जीवन की स्फुरणा मिलेगी।
उसी स्फुरणा में उत्तर है--मैं उत्तर नहीं दे सकूंगा। कोई उत्तर कभी नहीं दिया है। उत्तर है नहीं, मजबूरी है। देना चाहा है बहुतों ने, कभी किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया है। और जिन्होंने उत्तर सच में देने की चेष्टा की है, उन्होंने सिर्फ इशारे बताए हैं कि तुम अपना उत्तर कैसे खोज लो। उत्तर नहीं दिया, संकेत किए हैं--ऐसे चलो, तो उत्तर मिल जाएगा।
और उत्तर बाहर नहीं है, उत्तर तुम्हारे भीतर है। उत्तर है इस रूपांतरण में कि मेरी आंखें बाहर न देखें, भीतर देखें। मेरी आंखें दृश्य को न देखें, द्रष्टा को देखें। मैं अपने अंतरतम में खड़ा हो जाऊं, जहां कोई तरंग नहीं उठती। वहीं उत्तर है, क्योंकि वहीं जीवन अपनी पूरी विभा में प्रकट होता है। वहीं जीवन के सारे फूल खिलते हैं। वहीं जीवन का नाद है--ओंकार है।
इस छोटी सी कविता को समझो।
‘आगे?’
ऊंघते-ऊंघते बस यूं ही किसी एक ने पूछा

‘आगे भी पुल था, वही पुल था, वही पुल--
नीलिमी रात दहकती थी जहां नीचे, बहुत नीचे, जमीं पर
इस कदर नीचे कि झुक कर अगर आवाज भी दो
चूर हो जाए वह आवाज भी गिर कर जमीं पर
नीलिमी रात दहकती थी वहां नीचे, बहुत नीचे, जमीं पर
और दोपहर का पारा था, बरसता था फलक से
मैं कई सदियां चला, चलता रहा, चलता रहा पुल पे मगर
दूसरा कोई सिरा पुल का नजर आया न मुझको
आखिरशः बैठ गया थक कर, बस एक सांस की खातिर

पल को सुस्ता कर उठा
बस कि सोचा था उठूं
पांव को पुल से हटाया तो हटा पाया न पांव
हाथ से पांव छुड़ाया तो मेरा हाथ न छूटा
वह तिलिस्मी था कोई पुल कि मेरा जिस्म चिपकने सा लगा था
और पुल के, उसी पुल के कई दांत से अब उगने लगे थे’

‘ऊं’ एक ने लंबी जम्हाई ली और कहा ‘झूठ’
‘दूसरी, अच्छी सी, कोई कहानी हो तो सुनाओ’

मैंने कुछ सोच कर फिर एक कहानी थी शुरू की:
‘और शहजादा कई कांच के दरवाजों से गुजरा
पहले दरवाजे से दो पांव नजर आए परी के
नीलिमी हौज में डूबे हुए, दो गोरे कंवल से
दूजे दरवाजे से एक हाथ नजर आया परी का
संगेमरमर पे महकता हुआ इक फूल पड़ा था
तीजे दरवाजे से भी पीठ ही नजर आई परी की
चौथे दरवाजे से भी चेहरा नजर न आया उसका
और शहजादा कई कांच के दरवाजों से गुजरा
कोई दरवाजा मगर हौज की जानिब न खुला--’

‘बाप रे, फिर?’--ऊंघने वालों ने अब जाग कर पूछा
‘सिर्फ इतना ही नजर आया कि वह सोनपरी
कितनी सदियों से उसी हौज पर यूं बैठी हुई है
और शहजादा कई सदियों से उस शीशमहल में
हौज तक जाने का दरवाजा है जो ढूंढ रहा है
एक दरवाजा उसी हौज पे खुलता था--’
‘मिला?’
बीच में चौंक कर यूं पूछा किसी ने
‘हां मिला--’
‘और शहजादा परी तक पहुंचा?’
अब के आवाज में उम्मीद थी, ताकीद भी थी
‘हां, वह पहुंचा तो मगर--’
‘हां, मगर--’
‘सब अंग थे उस हूर के बस चेहरा नहीं था’
‘धत्‌!’--तिलमिला कर कहा एक ने, ‘सब झूठ’

जिंदगी, सच है कि, झूठ ही लगती अगर अफसाना न होती
जिंदगी, सच है कि, झूठ ही लगती अगर अफसाना न होती! वह जो दृश्य का जगत है, एक कहानी है, जो तुमने रची और जो तुमने तुमसे ही कही। एक नाटक है, जिसमें निर्देशक भी तुम, कथा-लेखक भी तुम, अभिनेता भी तुम, मंच भी तुम, मंच पर टंगे पर्दे भी तुम और दर्शक भी तुम। एक सपना है, जो तुम्हारी वासनाओं में उठा और धुएं की तरह जिसने तुम्हें घेर लिया। एक तो जिंदगी यह रही--दुकान की, बाजार की, पत्नी-बेटे की, आकांक्षाओं की। संसार जिसे कहा है। और एक जिंदगी और भी है--वह जो भीतर बैठा देख रहा है। देखता है कि जवान था, अब बूढ़ा हुआ; देखता था कि तमन्नाएं थीं, अब तमन्नाएं न रहीं; देखता था कि बहुत दौड़ा और कहीं न पहुंचा; देखता था, देखता रहा है, सब आया, सब गया, जीवन की धारा बहती रही, बहती रही, लेकिन एक है कुछ भीतर जो नहीं बहता, जो ठहरा है, जो थिर है, जो अडिग है, वह साक्षी। एक जीवन वह है।
बाहर का जीवन भटकाएगा, भरमाएगा। उत्तर के आश्वासन देगा और उत्तर कभी आएगा नहीं। भीतर का जीवन ही उत्तर है।
तुम पूछते हो: ‘जीवन क्या है?’
तुम्हें जानना होगा। तुम्हें अपने भीतर चलना होगा। मैं कोई उत्तर दूं, वह मेरा उत्तर होगा। शांडिल्य कोई उत्तर दें, वह शांडिल्य का उत्तर होगा। वह उन्होंने जाना, तुम्हारे लिए जानकारी होगी। और जानकारी ज्ञान में बाधा बन जाती है। जानकारी से कभी जानना नहीं निकलता। उधारी से कहीं जीवन निकला है!
बजाय तुम बाहर उत्तर खोजो, तुम अपने को भीतर समेटो। शास्त्र कहते हैं, जैसे कछुआ अपने को समेट लेता है भीतर, ऐसे तुम अपने को भीतर समेटो। तुम्हारी आंख भीतर खुले, और तुम्हारे कान भीतर सुनें, और तुम्हारे नासापुट भीतर सूंघें, और तुम्हारी जीभ भीतर स्वाद ले, और तुम्हारे हाथ भीतर टटोलें, और तुम्हारी पांचों इंद्रियां अंतर्मुखी हो जाएं। जब तुम्हारी पांचों इंद्रियां भीतर की तरफ चलती हैं, केंद्र की तरफ चलती हैं, तो एक दिन वह अहोभाग्य का क्षण निश्चित आता है जब तुम रोशन हो जाते हो। जब तुम्हारे भीतर रोशनी ही रोशनी होती है। और ऐसी रोशनी जो फिर कभी बुझती नहीं। ऐसी रोशनी जो बुझ ही नहीं सकती। क्योंकि वह रोशनी किसी तेल पर निर्भर नहीं--बिन बाती बिन तेल। अकारण है। वही जीवन का सार है। वही जीवन का ‘क्या’ है।
उत्तरों में नहीं मिलेगा समाधान। समाधि में समाधान है।

दूसरा प्रश्न:
शांडिल्य ऋषि के संबंध में कुछ कहें।
जिनके भीतर से ऐसे अपूर्व सूत्रों का जन्म हुआ, उनके संबंध में कुछ जानने का मन स्वाभाविक है।
शांडिल्य ऋषि के संबंध में कुछ भी ज्ञात नहीं है। किस ऋषि के संबंध में कुछ भी ज्ञात है? कोई लकीर नहीं छोड़ी, पदचिह्न नहीं छोड़े। अच्छा ही किया है। नहीं तो तुम्हारी आदतें व्यर्थ में उलझ जाने की हैं। शांडिल्य ऋषि कहां पैदा हुए, इससे क्या सार होगा? पूरब में पैदा हुए कि पश्चिम में, उत्तर में पैदा हुए कि दक्षिण में, क्या फर्क पड़ेगा? इस गांव में पैदा हुए कि उस गांव में, क्या फर्क पड़ेगा? शांडिल्य ऋषि के पिता कौन थे, उनका नाम क्या था, क्या फर्क पड़ेगा? अ ब स द, कोई भी पिता रहे हों। कितने दिन जीए--साठ, कि सत्तर, कि अस्सी, कि सौ, कि डेढ़ सौ साल--क्या भेद पड़ता है? इतने लोग जी रहे हैं, सत्तर साल जीओ तो पानी में चला जाता है, सात सौ साल जीओ तो पानी में चला जाता है। सपना ही है, कितना लंबा देखा, इससे क्या भेद पड़ेगा? जागने पर पाओगे कि सपना लंबा था कि छोटा था, सब बराबर था, क्योंकि सपना सपना था।
शांडिल्य ऋषि के संबंध में कुछ भी पता नहीं है। बस यही सूत्र, भक्ति-सूत्र, इतनी ही सुगंध छोड़ गए हैं। मगर इतनी सुगंध काफी है। क्योंकि इन सूत्रों के अनुसार अगर तुम अपनी आंखें खोलोगे तो तुम्हारे भीतर का ऋषि जो सोया है, जाग जाएगा। वही असली बात है। शांडिल्य के संबंध में जानने से क्या होगा? शांडिल्य को ही जान लो। और वह जानने का मार्ग तुम्हारे भीतर है।
इसलिए पूरब के किसी मनीषी के संबंध में कुछ भी पता नहीं। पश्चिम के लोग बहुत हैरान होते हैं। और उनका कहना ठीक ही है कि पूरब के लोगों को इतिहास लिखना नहीं आता। उनकी बात सच है। लेकिन पूरब की मनीषा को भी समझना चाहिए। पूरब के लोग इतना लिखने के आदी रहे हैं--सबसे पहले भाषाएं पूरब में जन्मीं, सबसे पहले किताबें पूरब में जन्मीं, सबसे पहले पूरब में लिखावट पैदा हुई, सबसे पुरानी किताबें पूरब के पास हैं--तो जिन्होंने वेद लिखे, उपनिषद लिखे, गीता लिखी, वे चाहते तो इतिहास न लिख सकते थे?
चाह कर नहीं लिखा। उनकी बात भी समझनी चाहिए। जान कर नहीं लिखा। जिन्होंने कहा संसार माया है, वे इतिहास लिखें तो कैसे लिखें? किस बात का इतिहास? बबूलों का इतिहास? इंद्रधनुषों का इतिहास? मृग-मरीचिकाओं का इतिहास? जो है ही नहीं, उसका इतिहास?
पश्चिम ने इतिहास लिखा, क्योंकि पश्चिम ने बाहर के जगत को सत्य माना है। इतिहास लिखने के पीछे बाहर के जगत को सत्य मानने की दृष्टि है। सत्य है, तो महत्वपूर्ण है। तुम सुबह उठ कर अपने सपने तो नहीं लिखते! मिनट दो मिनट भी याद नहीं रखते। जाग गए, बात खतम हो गई। सपना भी कोई लिखने की बात है! तुम डायरी में अपने सपने नहीं लिखते।
हालांकि पश्चिम में लोग सपने भी डायरी में लिखते हैं। जब बड़े सपने को मान लिया, तो छोटे सपने को भी मानना पड़ता है। और जिन्होंने बड़ा सपना ही इनकार कर दिया, वे छोटे सपने की क्या फिकर करें? सपने के भीतर सपना है!
पूरब ने इतिहास नहीं लिखा, क्योंकि पूरब की दृष्टि यह है कि इन सब व्यर्थ की बातों को लिखने से क्या होगा? सार क्या है? प्रयोजन क्या है? सिर्फ बच्चों को सताओगे स्कूल में, कि तिथि-तारीख याद करते रहें, जिनका कोई मूल्य नहीं है। अब सिकंदर कब पैदा हुआ, इससे क्या लेना-देना? न भी हुआ हो तो अच्छा--न ही हुआ हो तो अच्छा। इस कूड़ा-कर्कट को क्यूं याद रखो? यह किस काम पड़ता है?
नहीं, पूरब ने पुराण लिखा, इतिहास नहीं लिखा। पुराण बड़ी और बात है। पश्चिम में पुराण जैसी कोई चीज है ही नहीं।
पुराण क्या है?
एक सिकंदर हुआ, दूसरा सिकंदर हुआ, तीसरा सिकंदर हुआ, सिकंदरों पर सिकंदर हुए। अब सबकी कहानी लिखने से क्या सार है? हमने सिकंदर की जो वृत्ति है, उसकी एक कहानी लिख ली। उस वृत्ति की प्रतीक-कहानी। एक आदमी धन के पीछे पागल हुआ, दूसरा आदमी धन के पीछे पागल हुआ, तीसरा आदमी धन के पीछे पागल हुआ, करोड़ों लोग धन के पीछे पागल हुए। अब सबका इतिहास लिखने की क्या जरूरत है? धन के पागलपन की बात हमने एक कहानी में निचोड़ कर ली। उसको हम पुराण कहते हैं। पुराण का मतलब है: ऐसा कभी हुआ नहीं है, लेकिन ऐसा ही हो रहा है चारों तरफ। उसमें से सार निचोड़ लिया है, संक्षिप्त निकाल लिया है, सूत्र बना लिया है। उस सूत्र को हमने लिखा है। अगर कोई खोजने जाए तो शायद वैसा ठीक-ठीक कभी न हुआ हो।
जैसे समझो, बुद्ध की प्रतिमा है; यह पुराण है, इतिहास नहीं। क्यों पुराण है? क्योंकि इसमें इस बात की फिकर नहीं की गई कि बुद्ध की नाक जैसी थी वैसी ही इस प्रतिमा में है या नहीं। इसकी भी फिकर नहीं की गई कि बुद्ध के बाल जैसे थे वैसे ही प्रतिमा में आए कि नहीं। इस बात की फिकर नहीं की गई कि बुद्ध का सीना जैसा था वैसा ही आया या नहीं। यह कोई फोटोग्राफ नहीं है। यह इतिहास नहीं है। फिर यह क्या है? यह समस्त बुद्धों की प्रतिमा है। जो भी जागा, वह किस तरह बैठता है, उसका सारसूत्र इसमें है। जो भी जागा, किस तरह चलता है, उसका सारसूत्र इसमें है। जो भी जागा, उसकी आंखें कैसी होती हैं; जो भी जागा, उसकी दृष्टि कैसी निर्मल होती है, उसके बैठने में भी कैसी मग्नता और शांति होती है, उसकी मौजूदगी में कैसा प्रसाद बरसता है--यह सारे बुद्धों की प्रतिमा है।
तुमने देखा जैन मंदिर में जाकर चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाएं, तुम भेद न कर सकोगे कि कौन किसकी है। सब एक जैसी हैं। भेद करने के लिए हर प्रतिमा के नीचे चिह्न बनाना पड़ा है। किसी का प्रतीक सिंह और किसी का कुछ, किसी का कुछ, वह प्रतीक बनाना पड़ा है, सिर्फ भेद करने के लिए, ताकि पता चले कि कौन किसकी है। नहीं तो मूर्तियां सब एक जैसी हैं।
क्या तुम सोचते हो चौबीस तीर्थंकर एक जैसे थे? उन सबकी ऊंचाई एक जैसी थी? नाक एक जैसी थी? बाल एक जैसे थे? कान एक जैसे थे? इस भूल में मत पड़ना। यहां दुनिया में दो आदमी एक जैसे होते कब हैं? कभी नहीं होते। तुम्हारे अंगूठे का चिह्न बस तुम्हारा ही है, दुनिया में किसी दूसरे के अंगूठे का चिह्न वैसा नहीं होता। न पहले कभी हुआ है, न आगे कभी होगा। हर आदमी यहां अनूठा है। तो चौबीस तीर्थंकर एक जैसे तुम पाओगे कहां? सबके कान इतने लंबे कि कंधा छू रहे हैं। इतने-इतने लंबे कान वाले चौबीस आदमी एक साथ पाओगे कहां?
और फिर मूढ़ हैं, जो इन मूर्तियों को इतिहास समझ लेते हैं। वे कहते हैं, जब तक कान इतना लंबा न हो तब तक कोई आदमी तीर्थंकर है ही नहीं। अब कान महत्वपूर्ण हो गया। और प्रतीक किसी और ही बात का है। वह लंबा कान सिर्फ सूचक है, संकेत है। वह लंबा कान इस बात का सूचक है कि ये लोग श्रवण में कुशल थे। वही सुनते थे जो था, जैसा था। इन्होंने ओंकार का नाद सुना था, इस बात की खबर देने के लिए लंबा कान बनाया। यह जो नाद से भरा हुआ जगत है, इनको सुनाई पड़ गया था। इनकी बड़ी-बड़ी आंखें सिर्फ इस बात की खबर हैं कि इनकी दृष्टि बड़ी थी, गहरी थी, पारदर्शी थी। इनकी अडिग प्रतिमा, थिर-भाव, शून्य-भाव इस बात का प्रतीक है कि भीतर इनके सब डांवाडोलपन विदा हो गया था; थिर हो गए थे; कोई कंपन नहीं उठता था, निष्कंप हो गए थे।
एक बुद्ध की प्रतिमा में सारे बुद्धों की प्रतिमाएं हैं। और एक बुद्ध की कहानी में सारे बुद्धों की कहानी है। और एक बुद्ध के वचनों में सारे बुद्धों के वचन हैं।
पश्चिम के पास ऐसी दृष्टि नहीं है। वे पूछते हैं इतिहास, हम लिखते हैं पुराण। शांडिल्य की हमने फिकर नहीं की। क्या सार है? असार में क्या सार है?
तुम पत्र लिखते हो अपनी प्रेयसी को, तो तुम पत्र के नीचे यह थोड़े ही लिखते हो कि पार्कर फाउंटेनपेन से लिखा गया। कि लिखते हो? लिखते हो तो पागल हो। तुमने पार्कर फाउंटेनपेन से लिखा, कि शेफर से लिखा, इससे क्या फर्क पड़ता है? लिखने वाला न तो पार्कर फाउंटेनपेन है, न शेफर फाउंटेनपेन है। फाउंटेनपेन ने तो केवल उपकरण का काम किया है।
शांडिल्य ऋषि तो उपकरण हैं, परमात्मा बोला। फाउंटेनपेन के संबंध में लिखो तो इतिहास होगा, भ्रांति होगी, भूल हो जाएगी। इसलिए हमने अच्छा ही किया कि ऋषियों के संबंध में कुछ भी नहीं बचाया; ताकि तुम क्षुद्र में न उलझ जाओ। नहीं तो तुम्हारा इस क्षुद्र में उलझ जाने का इतना गहरा भाव रहता है कि क्षुद्र में ही तुम उलझ जाते हो।
अब जैनों में श्वेतांबर हैं, दिगंबर हैं। वे लड़ते रहते हैं क्षुद्र बातों पर। ऐसी क्षुद्र बातों पर कि भरोसा ही न हो कि इन बातों पर भी कोई लड़ सकता है! कि महावीर की प्रतिमा आंख बंद किए हो कि खुली हुई हो। अब यह बात सच है कि प्रतिमा दोनों काम नहीं कर सकती। प्रतिमा है, अब आंख खोलना और बंद करना तो नहीं कर सकती। महावीर दोनों काम करते रहे होंगे; आंख खोलना और आंख बंद करना, दोनों ही करते रहे होंगे। आखिर जिंदा आदमी थे, तो आंख कभी खोलते भी होंगे, कभी बंद भी करते होंगे। ऐसा थोड़े ही कि आंख बंद किए सो बंद किए, या खोल ली तो खोले ही रहे। कोई पागल तो नहीं थे। प्रतिमा में मुश्किल है, क्योंकि प्रतिमा पत्थर है। अब प्रतिमा पलक नहीं झप सकती, तो प्रतिमा में या तो आंख खुली होगी या बंद होगी। मगर झंझट खड़ी हो जाती है इसी बात पर कि प्रतिमा आंख खुली बनाएं कि बंद बनाएं। लोग हैं जो कहते हैं, हम तो खुली आंख की ही पूजा करेंगे। और लोग हैं जो कहते हैं, हम तो बंद आंख की ही पूजा करेंगे। इस पर सिर फूट जाते हैं, अदालतों में मुकदमे चलते हैं, मंदिर तोड़ दिए जाते हैं। और ऐसा किसी एक धर्म में होता हो, ऐसा नहीं, सभी धर्मों में होता है। क्षुद्र में उलझ जाते हैं हम। हम क्षुद्र के लिए बड़े उत्सुक हैं। हमें क्षुद्र चाहिए ही, ताकि हम जल्दी से मुट्ठी बांध लें। विराट तो हमारी पकड़ में नहीं आता। और विराट हमें डराता भी है।
अब शांडिल्य-सूत्रों को समझने से ज्यादा तुम्हारी चिंता इस बात की है कि शांडिल्य ऋषि के संबंध में कुछ पता चलना चाहिए। क्या फायदा? क्या करोगे? उससे कहीं भी तो कोई लाभ नहीं होगा तुम्हारी समाधि में, तुम्हारी भक्ति में। व्यर्थ को क्यों पूछना चाहते हो? कैसे कपड़े पहनते थे? पहनते थे कि नहीं पहनते थे? किस मकान में रहते थे? कैसा भोजन करते थे?
लेकिन हम क्यों पूछना चाहते हैं? हमारे भीतर यह प्रश्न क्यों उठता है? प्रश्न से भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है--गीता ने पूछा है यह प्रश्न--प्रश्न से भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि गीता के मन में यह प्रश्न क्यों उठता है? सूत्र काफी नहीं हैं? सूत्र पर्याप्त नहीं हैं? सूत्रों में ही ऋषि को खोजो, सूत्रों से बाहर नहीं। सूत्रों में ही पकड़ो ऋषि को। सूत्रों में ही उनकी उपस्थिति है, क्योंकि ये उनके प्राण और उनकी प्रज्ञा हैं। यह उनका अनुभव है। यह उनकी जीवंत प्रतीति है। ये सूत्र ऐसे ही नहीं हैं कि किसी लेखक ने लिखे हैं। जिसने जीए हैं! यही तो भेद है ऋषि और कवि का।
कवि हम उसको कहते हैं जिसने जीया नहीं और गाया। ऋषि हम उसको कहते हैं जिसने जीया और गाया; जो जीया, वही गाया; जैसा जीया, वैसा ही गाया; जाना तो कहा; उसको ऋषि कहते हैं। बिना जाने कहा, उसको कवि कहते हैं। इसलिए कवि की कविता पढ़ो, तो बहुत सुंदर मालूम होगी। और अगर कभी भूल-चूक कवि से मिलना हो जाए, तो बड़ा चित्त में विषाद होगा। भरोसा ही न आएगा कि यही सज्जन! इतनी ऊंची कविता! इन पर प्रकट कैसे हुई इतनी ऊंची कविता! आकाश की बात है कविता में। और ये हो सकता है मिल जाएं तुम्हें कहीं चौरस्ते पर बैठे बीड़ी पीते, मक्खियां भिनभिना रही हों, कई दिन से नहाए न हों। तुम्हें भरोसा ही न आए कि कविता इन पर उतरती क्यों है? कविता को उतरने के लिए और कोई नहीं मिलता? इनको चुना है! इस गरीब आदमी को क्यों परेशान कर रही है कविता? तुम्हें भरोसा न आए। तुम शायद सोचो कि कहीं से नकल कर ली होगी, किसी की उधार चुरा ली होगी। इनकी शकल-सूरत ऐसी नहीं मालूम पड़ती कि कविता ने इन्हें वरा होगा। मगर अक्सर ऐसा होगा। कवि और कविता में कोई तालमेल नहीं होता। किसी क्षण में कवि पकड़ लेता है, जैसे बिजली कौंध गई।
ऋषि ऐसा है जैसे दिन का सूरज निकला--बिजली कौंध गई, ऐसा नहीं, किसी क्षण में नहीं--उसका अनुभव है, उसकी प्रतीति है, उसका साक्षात्कार है।
शांडिल्य ऋषि हैं, और उन्हें अगर तुम्हें पकड़ना हो तो उनके सूत्रों में ही डुबकी लगा लेना। वे जैसा कहते हैं, उसको ही अगर तुम समझ गए, तो तुम पाओगे कि तुम शांडिल्य ऋषि को समझ गए। ऋषि का अनुभव तुम्हारे भीतर छिपे हुए प्रेम के प्रवाह में होगा। क्षुद्र को मत पकड़ो। और क्षुद्र की चिंता भी मत करो। क्षुद्र की चिंता तुम्हारे मन में उठी कि तुम विराट से वंचित होने लगे।
मगर हमारी ऐसी ही उत्सुकताएं हैं। हम मूल तो प्रश्न पूछते नहीं, हम गौण प्रश्न पूछते हैं। और कभी-कभी गौण के विवाद में उलझ जाते हैं। सारी दुनिया में तथाकथित धार्मिक लोग गौण के विवाद में उलझ गए हैं। मुसलमान सोचता है कि काबा की तरफ हाथ जोड़ कर प्रार्थना करूं तो ही पहुंचेगी। कोई सोचता है, काशी में स्नान करूं तो ही पहुंचूंगा। गौण में उलझ गए। प्रार्थना महत्वपूर्ण है, किस तरफ हाथ किए, क्या फर्क पड़ता है? परमात्मा सब ओर है। काबा ही काबा है। सब पत्थर काबा के पत्थर हैं। और सब जल गंगा है। मन चंगा तो कठौती में गंगा। वह नल की टोंटी से जो आती है, वह भी गंगा है, मन चंगा हो। रोग से भरे हुए मन को लेकर चले जाओगे, गंगा में भी स्नान कर आओगे, तो क्या होगा?
लेकिन हम क्षुद्र को पकड़ लेते हैं। प्रार्थना तो भूल जाती है, प्रार्थना की औपचारिकता याद रह जाती है। मंदिर तो हो आते हैं, लेकिन मंदिर का भाव भीतर है ही नहीं। और भाव हो तो मंदिर जाओ क्यों? जरूरत क्या है? जहां बैठे, वहां मंदिर है। जहां बैठ कर उसकी स्तुति उठी, वहां मंदिर है। जहां बैठ कर आंखें बंद कर लीं, उसके भाव में रसविभोर हुए, वहां मंदिर है।
यहां रोज ऐसा होता है। मैं जीसस पर बोलता हूं तो कोई ईसाई मुझसे आकर कहता है कि जो बातें आपने कहीं, ये गजब की हैं। मैं कृष्ण पर बोलता हूं तो हिंदू आकर कहता है कि ये बातें आपने बड़े गजब की कहीं। और उन दोनों मूढ़ों को इस बात का खयाल ही नहीं कि जीसस हों कि कृष्ण, मैं वही बोलता हूं जो मुझे बोलना है। मैं बोलने वाला हूं, जीसस और कृष्ण तो खूंटियां हैं, जिन पर मुझे जो टांगना है वही टांगता हूं। मगर जीसस का नाम और ईसाई का हृदय गदगद हो जाता है--बस नाम से। मुझे जो कहना है वही कहना है। वही मैंने कृष्ण के नाम से भी कहा है--ठीक वही, शब्दशः वही। मैंने कबीर के नाम से भी कहा है--ठीक वही, अक्षरशः वही। वही मैंने बुद्ध के नाम से भी कहा है। लेकिन यह ईसाई तब बैठा सुनता रहा है, इसको कुछ खास भाव नहीं हुआ था। लेकिन जब जीसस का नाम लिया, बस तब गदगद हो गया। जीसस से इसके अहंकार का जोड़ है। किसी का जोड़ कबीर से है, और किसी का जोड़ महावीर से है। मगर तुम सब गौण से उलझ गए हो। नहीं तो तुम पाओगे, जो महावीर ने कहा है, वही बुद्ध ने कहा है, वही कृष्ण ने कहा है, वही मोहम्मद ने कहा है।
अगर तुम मूल को देखोगे तो तुम ये व्यर्थ की बातें भूल जाओगे। तुम न हिंदू रह जाओगे, न मुसलमान, न ईसाई। तुम सिर्फ आदमी हो जाओगे। और वही बात मूल्य की है। आदमी पाने बड़े कठिन हैं। हिंदू मिल जाते, ईसाई मिल जाते, बौद्ध मिल जाते, जैन मिल जाते--आदमी नहीं मिलता।
यूनान में एक बहुत बड़ा फकीर हुआ है, डायोजनीज। वह भरी दोपहरी में लालटेन लेकर घूमता था, जलती लालटेन, एथेंस की सड़कों पर। लोग उससे पूछते, तुम पागल तो नहीं हो गए? तुम क्या खोज रहे हो लालटेन लेकर? वह लोगों के चेहरे में लालटेन से देखता, वह कहता, मैं आदमी खोज रहा हूं। जिंदगी के अंत में जब डायोजनीज मर रहा था तो किसी ने उससे पूछा...वह अपनी लालटेन रखे पड़ा था...किसी ने उससे पूछा कि तुम जिंदगी भर दिन की भरी दोपहरी में लालटेन जला कर आदमी खोजते रहे, मिला? डायोजनीज ने आंखें खोलीं और कहा, आदमी तो नहीं मिला, लेकिन यही क्या कम है कि किसी ने मेरी लालटेन नहीं चुराई। धन्यवाद इसी का कि लालटेन बच गई। नहीं तो कई की नजर लालटेन पर लगी थी। आदमी तो मिलता ही नहीं था।
आदमी मिलना कठिन है, क्योंकि हर आदमी गौण में उलझ गया है।
तुम फिकर न करो, शांडिल्य हुए हों कि न हुए हों, ये सूत्र हो गए, यही बहुत है। ये किसने लिखे, क्या फर्क पड़ता है? किस कलम से उतरे, क्या फर्क पड़ता है? किस वाणी से बोले गए, क्या फर्क पड़ता है? बोलने वाला गोरा था कि काला था, जवान था कि बूढ़ा था, क्या फर्क पड़ता है? ये सूत्र इस बात की खबर देते हैं कि जिसने भी कहे, पहुंच गया था। जिसने कहे, जान कर कहे। ऋषि था। इन सूत्रों में तुम डुबकी लगाओ।

तीसरा प्रश्न:
आपने कल श्रद्धा का महत्व कहा। लेकिन बुद्धि श्रद्धा करने में बाधा बनती है। वह आशंका करती है, प्रश्न उठाती है!
आशंका और प्रश्नों में अश्रद्धा है ही नहीं। आशंका और प्रश्न श्रद्धा की तलाश हैं। बुद्धि बाधा नहीं बनती। बुद्धि तुम्हें साथ दे रही है। बुद्धि कहती है, जल्दी श्रद्धा मत कर लेना, नहीं तो कच्ची होगी। बुद्धि कहती है, पहले ठीक जांच-परख तो कर लो।
तुम बाजार मिट्टी का घड़ा खरीदने जाते हो--दो पैसे का घड़ा--तो सब तरफ से ठोंक-पीट कर लेते हो या नहीं? तुम यह तो नहीं कहते कि यह बुद्धि जो कह रही है जरा घड़े को ठोंक-पीट लो, यह दुश्मन है घड़े की। नहीं, घड़े की दुश्मन नहीं है। यह कह रही है, जब घड़ा लेने ही निकले हो, तो घड़ा जैसा घड़ा लेना; पानी भर सको, ऐसा घड़ा लेना; श्रद्धा करने निकले हो तो ऐसी श्रद्धा लेना कि परमात्मा को भर सको। ऐसा टूटा-फूटा घड़ा मत ले आना। कच्चा घड़ा मत ले आना कि पहली बरसात हो और घड़ा बह जाए। पानी आए और रुके न। छिद्र वाला घड़ा मत ले लेना।
वे तुम्हारे सारे प्रश्न घड़े को ठोंकने-पीटने के हैं। बुद्धि के दुश्मन मत बन जाओ। ऐसा मत सोच लो कि बुद्धि अनिवार्य रूप से श्रद्धा के विरोध में है। नहीं, जरा भी नहीं। सिर्फ बुद्धिमान ही श्रद्धालु हो सकता है। बुद्धिहीन श्रद्धालु नहीं होता, सिर्फ विश्वासी होता है। और विश्वास और श्रद्धा में बड़ा भेद है।
विश्वास तो इस बात का संकेत है केवल कि इस आदमी को सोच-विचार की क्षमता नहीं है। विश्वास तो अज्ञान का प्रतीक है। जो मिला, सो मान लिया। जिसने जो कह दिया, सो मान लिया। न मानने के लिए, प्रश्न उठाने के लिए तो थोड़ी बुद्धि चाहिए, प्रखर बुद्धि चाहिए। बुद्धि सिर्फ तुमसे यह कह रही है--उठाओ प्रश्न, जिज्ञासाएं खड़ी करो, सोचो। और जब सारे प्रश्नों के उत्तर आ जाएं, और सारी शंकाएं-कुशंकाएं गिर जाएं, तब जो श्रद्धा का आविर्भाव होगा, वही सच है।
मैं तुम्हारे पक्ष में हूं। मैं तुमसे यह कहता ही नहीं कि तुम विश्वास कर लो। विश्वास ने ही तो मारा! विश्वास ही तो डुबाया है तुम्हें! विश्वास ने ही तो तुम्हें हिंदू-मुसलमान-ईसाई बना दिया है। मैं तुम्हें धार्मिक बनाना चाहता हूं। धार्मिक आदमी का अर्थ होता है: खोजेगा; खोजी होगा; बेरहम खोजेगा। जरा भी अपने को बचाएगा नहीं, चाहे कितने ही कष्ट में पड़ना पड़े और चाहे कितनी ही पीड़ा से गुजरना पड़े और चाहे कितनी ही बेचैनी सहनी पड़े।
निश्चित ही, जब प्रश्न उठते हैं तो बेचैनी होती है, क्योंकि हर प्रश्न कांटा बन कर चुभ जाता है। और जब शंकाएं उठती हैं तो निश्चित ही सब समाधान खो जाते हैं, संताप पैदा होता है, भय पैदा होता है, पैर थरथराने लगते हैं, जमीन पैर के नीचे से खिसक जाती है। कोई फिकर न करो, यही सम्यक श्रद्धा को पाने का मार्ग है। पूछो, दिल खोल कर पूछो! समग्रता से पूछो! कंजूसी मत करना। अगर जरा भी एकाध प्रश्न तुमने बचा लिया, पूछा नहीं, तो वही प्रश्न तुम्हें डुबाएगा। वही तुम्हारी नाव में छेद रह जाएगा। और एक दफा सागर में उतर गए नाव लेकर--छेद वाली नाव--फिर बहुत पछताओगे। किनारे पर ही सारी तलाश कर लो, सब छेद खोज डालो, सारे छेद भर डालो। और जब तुम पाओ कि सब तरफ से बुद्धि निश्चिंत हो गई--बुद्धि कहती है कि हां, अब ठीक; बुद्धि बताती है झंडा कि अब चल पड़ो--जब बुद्धि आज्ञा दे दे, तभी श्रद्धा में जाना।
बुद्धि के मार्ग से जो श्रद्धा आती है, वही परिपक्व है। उसी से बुद्धों का जन्म होता है। जो श्रद्धा बुद्धि के विपरीत आती है, वह सिर्फ तुम्हें बुद्धू बनाती है, बुद्ध कभी भी नहीं बनाएगी। तो जल्दी क्या है? इतनी घबड़ाहट क्या है? खोजो! खोज में पीड़ा है। खोज आग है जो जलाती है, मगर निखारती भी है। हर प्रश्न जो उठता है, वह सम्यक है। उसका हल खोजो। दो ही होंगी संभावनाएं--या तो हल मिल जाएगा, प्रश्न शांत हो जाएगा। या खोजते-खोजते पता चलेगा कि यह प्रश्न प्रश्न ही नहीं है, इसमें बुनियादी भूल है, इसका उत्तर नहीं हो सकता।
जैसे कोई आदमी पूछे कि हरे रंग की सुगंध क्या है? प्रश्न जैसा लगता है, मगर है नहीं। अब रंग का सुगंध से क्या लेना-देना? हरे रंग में कोई भी सुगंध हो सकती है, और निर्गंध भी हो सकता है। हरा रंग और सुगंध का कोई संयोग नहीं है। अब कोई पूछे, हरे रंग की सुगंध क्या है? तो भाषा में तो प्रश्न बिलकुल ही ठीक मालूम पड़ता है, लेकिन अस्तित्व में गलत है।
मगर यह भी मैं कहूंगा--किसी पर भरोसा करके मत मान लेना। क्योंकि पता नहीं वह आदमी तुम्हें धोखा देना चाहता हो। यहां बहुत धोखेबाज हैं। या हो सकता है वह आदमी तुम्हें धोखा न देना चाहता हो, खुद धोखे में पड़ गया हो। क्योंकि यहां स्वयं को धोखा देने वाले लोग भी हैं। खोजो! जिन प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे, वे प्रश्न गिर गए, उतने तुम निर्भार हुए। और जिन प्रश्नों के उत्तर अंत तक न मिलेंगे, उनमें भी खोजते-खोजते तुम्हें यह अनुभव समझ में आ जाएगा कि ये प्रश्न प्रश्न ही नहीं हैं। जो प्रश्न प्रश्न है, उसका उत्तर निश्चित मिलेगा। और जो प्रश्न प्रश्न नहीं है, उसके संबंध में दृष्टि जागेगी कि यह प्रश्न ही नहीं है, यह व्यर्थ का प्रश्न है, इसका उत्तर हो ही नहीं सकता, मैं नाहक खोज रहा हूं। दोनों हालतों में प्रश्न से तुम निर्भार होते जाओगे। एक ऐसी घड़ी आती चेतना की, जब कोई प्रश्न नहीं रह जाता। उस निष्प्रश्न दशा में श्रद्धा का जन्म है।
तुम पूछते: ‘आपने कल श्रद्धा का महत्व कहा, लेकिन बुद्धि श्रद्धा करने में बाधा बनती है।’
नहीं, बुद्धि कभी बाधा नहीं बनती। तुम जल्दी श्रद्धा करना चाहते हो, तुम कच्ची श्रद्धा करना चाहते हो, इसलिए तुम बुद्धि का विरोध कर रहे हो। तुम गलत हो, बुद्धि गलत नहीं है। तुम उधार श्रद्धा करना चाहते हो। तुम कीमत नहीं चुकाना चाहते श्रद्धा की। तुम कष्ट नहीं झेलना चाहते श्रद्धा को पाने में। और हर चीज के लिए कीमत चुकानी पड़ती है। और श्रद्धा तो इतनी बड़ी संपदा है, उसके लिए कीमत न चुकाओगे तो कैसे मिलेगी? तुम चाहते हो--कोई कह दे और हम मान लें। कोई कह दे और हम मान लें। हमें कुछ खोज-बीन न करनी पड़े। हमें ये लंबे रास्ते तय न करने पड़ें। हमें ये पहाड़ी चढ़ाइयां पूरी न करनी पड़ें। हमें ये सागर न लांघने पड़ें। हम यहीं के यहीं बैठे रहें। कोई कह दे, हम मान लें। बुद्धि इसमें बाधा डालती है। बुद्धि श्रद्धा में बाधा नहीं डालती, बुद्धि तुम्हारी इस बेईमानी में बाधा डालती है। यह तो तुम सस्ती और जो मुफ्त श्रद्धा चाहते हो, उसमें बाधा डालती है। और अच्छा है कि बाधा डालती है। बुद्धि तुम्हें चैन न लेने देगी। ऐसी मुफ्त ओढ़ ली गई श्रद्धाएं बुद्धि उखाड़ कर फेंक देगी। बुद्धि परमात्मा की सेवा में संलग्न है। तुम्हारी सेवा में संलग्न नहीं है। नहीं तो तुम तो किसी भी घूरे पर बैठ जाना चाहते हो आंख बंद करके और सोचना चाहते हो, यही महल है, आ गया महल--क्योंकि चलने से बचना है। अगर कहो कि महल नहीं आया, तो चलना पड़ता है। अगर कहो कि यह सत्य नहीं है, तो फिर सत्य खोजना पड़ता है। तुम तो किसी भी चीज को पकड़ लेना चाहते हो। तुम तो ऐसे हो, जैसे डूबते को तिनके का सहारा--तिनका ही पकड़ लेता है। कागज की नाव में ही बैठ जाते हो--नाव नाम मिल गया, बस पर्याप्त है! बुद्धि कहती है, जरा सम्हलो! जरा होश सम्हालो! यह कागज की नाव है, डुबकी खा जाओगे। अभी कम से कम किनारे पर हो--इस किनारे पर ही सही, कम से कम किनारे पर हो। उस किनारे पर पहुंचना हो तो कोई ठीक, सम्यक नाव खोजो। ये कागज की नावों से नहीं पहुंच पाओगे।
तुम्हारे पिता ने कह दिया कि मान लो और तुमने मान लिया--यह कागज की नाव है। न तुम्हारे पिता को पता है, उनके पिता ने उनसे कह दिया था। उनको भी पता नहीं था। ऐसी उधारी चल रही है। तुम जिंदगी को इस तरह जी सकते हो? तुम्हारे पिता ने कह दिया कि बेटा, मैंने भोजन कर लिया, अब तुझे क्या जरूरत है, तू मान ले कि पेट भर गया। तो तुम मानते नहीं, तुम कहते, पिताजी, आपका भर गया होगा, मेरा तो भरना चाहिए। मैं भोजन करूंगा तब मेरा भरेगा, आपके भरने से मेरा नहीं भरता। मैं अपनी तृप्ति चाहता हूं। मैं भी हूं।
लेकिन पिता ने कहा कि ईश्वर है, मैं मानता हूं, तू भी मान ले। और तुमने मान लिया। असल में तुम ईश्वर को खोजने से बचना चाहते हो। तुम चालबाजी कर रहे हो। तुम कहते हो, कौन झंझट में पड़े? तुम नास्तिक हो। तुम कहते हो कि मैंने ईश्वर को मान लिया, मगर तुम नास्तिक हो। क्योंकि तुम ईश्वर को पाने की झंझट में नहीं पड़ना चाहते--यही तो नास्तिकता है। तुम से तो वह नास्तिक बेहतर है जो कहता है--मैं ईश्वर इस तरह नहीं मानूंगा, जब तक देख नहीं लूंगा। वह कम से कम तुमसे ज्यादा झंझट ले रहा है; परेशानी ले रहा है, चिंता ले रहा है। उसकी रातों में बेचैनी होगी, कई बार जाग आएगा, डरेगा, घबड़ाएगा; बुढ़ापा पास आएगा तो सोचेगा--अब मान लेना चाहिए, अब मौत करीब आती है, कहीं हो ही न! कहीं ऐसा न हो कि मर कर और उसके सामने खड़ा होना पड़े और वह पूछे कि कहो जनाब, मानते नहीं थे, अब बोलो? कभी पूजा नहीं की, अब जाओ नरक!
बुढ़ापा करीब आता है तो नास्तिक भी सोचने लगता है: अब मान ही लो, हर्ज क्या है? बिगड़ेगा क्या? यही समझो कि कुछ समय पूजा-पत्री में खराब हुआ, और क्या बिगड़ने वाला है? हुआ तो काम आ जाएगा और नहीं हुआ तो अपना खोया क्या? वह सम्हाल रहा है। वह व्यवसाय कर रहा है। उससे तो नास्तिक कहीं ज्यादा ईमानदार है! वह कहता है, ठीक है, जो होगा होगा, मगर जब तक मैं अनुभव न कर लूं, कैसे मानूं?
मैं नास्तिक का विरोधी नहीं हूं। मेरी तो दृष्टि यही है कि परम आस्तिकता नास्तिकता के मार्ग से ही आती है। मैं तो नास्तिकता को आस्तिकता का विरोध नहीं मानता, सीढ़ी मानता हूं। झूठा आस्तिक कभी आस्तिक नहीं हो पाता, सच्चा नास्तिक निश्चित ही आस्तिक हो जाता है।
अब तुम कहते हो कि बुद्धि बाधा डाल रही है!
बुद्धि बाधा डाल रही है, तुम जल्दी से पकड़ लेना चाहते हो। बुद्धि की बड़ी कृपा है तुम पर! उसके प्रश्नों को सुनो, उसकी शंकाओं पर विचार करो। वह जो तुम्हारे भीतर बवंडर उठाती है, उन बवंडरों से गुजरो। वह जो तूफान उठाती है, उनसे गुजरना होगा। वे तुम्हारी परीक्षाएं हैं, उनसे कसौटी है। उनसे गुजर कर ही तुम निखरोगे, उनसे गुजर कर ही तुम किसी दिन सम्यक श्रद्धा को उपलब्ध होओगे। विश्वास तो झूठे हैं। विश्वास पर विश्वास मत कर लेना।
बहुत लोगों ने अपनी बुद्धि को मौका नहीं दिया है। बुद्धि का तत्व परमात्म-तत्व है। जो तुम्हारे भीतर प्रश्न पूछ रहा है, वह भी परमात्मा है। बहुत लोग बुद्धि को अवसर ही नहीं देते। उसको दबा कर रखते हैं, उसको उभरने नहीं देते। इसीलिए तो अधिक लोग पंगु रह जाते हैं--पक्षाघात, अप्रौढ़ रह जाते हैं, बचकाने रह जाते हैं। उनके जीवन में परिक्वता नहीं आती।
मैं सभी प्रश्नों के पक्ष में हूं। या तो प्रश्न सच्चे होंगे तो उत्तर मिल जाएंगे, या प्रश्न झूठे होंगे तो उनका झूठ दिखाई पड़ जाएगा। दोनों हालत में लाभ है। मगर चलो बुद्धि के साथ। श्रद्धा बुद्धि का अंतिम शिखर है--बुद्धि ही लाती है। बुद्धिमान ही श्रद्धा तक पहुंचते हैं।
एक जगह नाटक हो रहा था। उस नाटक का एक पात्र एक गधा भी था। गधे को अभिनय करता देखने के लिए सैकड़ों लोग आए। नाटक निहायत घटिया और बोर था। अंत में निर्देशक ने गधे को मंच पर बुलाया। गधे ने आकर निर्देशक को एक दुलत्ती मारी और चला गया।
एक प्रसिद्ध आलोचक ने बगल में बैठे एक मित्र से कहा, यार, गधा न केवल एक अच्छा कलाकार ही था, एक सुलझा हुआ समीक्षक भी था।
बुद्धि की आलोचना को समझो। बुद्धि की समीक्षा को समझो। बुद्धि बहुत बार दुलत्तियां मारती है। और उनसे चोट भी होती है और पीड़ा भी होती है। मगर बिना पीड़ा के कौन पका है? बिना चोट के कौन निखरा है? आग से गुजरे बिना सोना कुंदन नहीं बनता है। तुम भी नहीं बनोगे। सस्ती श्रद्धा नहीं, कठिनाइयों से गुजर कर पाई गई श्रद्धा ही शरण है।

चौथा प्रश्न:
प्रीति और कामना के बीच क्या कुछ संबंध है?
प्रीति तो शुद्ध भाव-दशा है। प्रीति यानी परमात्मा। वही जीसस ने कहा है: प्रीति अर्थात परमात्मा। प्रीति तो शुद्ध दशा है। जैसे प्रकाश जले--शुद्ध--किसी चीज पर न पड़े, ऐसी प्रीति है। फिर प्रीति जब किसी पर पड़ती है, किसी विषय पर पड़ती है, तो उसके रूप बनने शुरू हो जाते हैं। जैसे जल को हम किसी बर्तन में रख देते हैं तो बर्तन का आकार ले लेता है। ऐसी ही शुद्ध प्रीति जब किसी पात्र में गिरती है, तो पात्र का आकार ले लेती है। अगर पत्नी से हो तो प्रेम; अगर बेटे से हो तो स्नेह; अगर गुरु से हो तो श्रद्धा। मगर ये सब हैं प्रीति के ही रूप। और सभी के भीतर एक ही ऊर्जा आंदोलित हो रही है। लेकिन जिस विषय पर पड़ती है, उस विषय की छाया भी पड़ने लगती है।
तो समझना, तुमने पूछा है: प्रीति और कामना के बीच क्या कुछ संबंध है?
प्रेम में कामना बहुत ज्यादा है। पति-पत्नी का प्रेम है, उसमें कामना बड़ी मात्रा में है। स्नेह में उतनी बड़ी मात्रा में नहीं है, लेकिन थोड़ी है। अपने बेटे से, अपनी बेटी से जो प्रेम है, जो लगाव है, उसमें भी आकांक्षा छिपी है--कल बेटा बड़ा होगा, जो महत्वाकांक्षाएं मैं पूरी नहीं कर पाया, यह पूरी करेगा। बेटे के कंधे पर बंदूक रख कर चलाने की इच्छा किस बाप की नहीं है? मैं धन नहीं कमा पाया, कमाना चाहता था, बेटा कमाएगा। मैं मर जाऊंगा, लेकिन बेटा मेरे नाम को बचा रखेगा।
इसीलिए तो लोग सदियों से बेटे के लिए दीवाने रहे हैं। बेटी पैदा होती है तो इतने प्रसन्न नहीं होते, क्योंकि उससे नाम नहीं चलेगा। बेटा पैदा होता है, उससे नाम चलेगा। और नाम चलाने की आकांक्षा कामना है, अहंकार की यात्रा है--मेरा नाम रहना चाहिए! जैसे तुम्हारा नाम न रहने से दुनिया का कुछ बिगड़ जाएगा। तुम रहो कि न रहो, दुनिया का कुछ बिगड़ता नहीं। तुम्हारे नाम का मूल्य क्या है? लेकिन लोग कहते हैं--नहीं, चला आया, चलता रहे! एक तरह की परोक्ष अमरता की आकांक्षा है कि पता नहीं हम तो बचे, न बचे, लेकिन कुछ तो बचेगा--हमारा अंश सही, हमारा बेटा सही, है तो हमारा खून। फिर इसके बेटे होंगे, इसी बहाने जीएंगे। मगर जीएंगे। ऐसी जीवेषणा है।
तो कामना तो है ही। पति-पत्नी जैसी प्रगाढ़ वासना जैसी नहीं है, मगर फिर भी महत्वाकांक्षा है। उससे भी कम रह जाती है गुरु के साथ जो श्रद्धा का संबंध है, उसमें। और भी कम हो गई। पर फिर भी है, क्योंकि गुरु से भी कुछ पाने की आकांक्षा है--मोक्ष, ध्यान, समाधि--कुछ पाने की आकांक्षा है। मगर शुद्ध होती जा रही है, कम होती जा रही है। पति-पत्नी के प्रेम में सर्वाधिक, पुत्र-पुत्रियों के प्रेम में उससे कम, श्रद्धा में बहुत न्यून, एक प्रतिशत रही जैसे। पति-पत्नी के प्रेम में निन्यानबे प्रतिशत थी। फिर जब एक प्रतिशत भी शून्य हो जाता है, तो श्रद्धा का भी अतिक्रमण हो गया--तब भक्ति। भक्ति में कामना जरा भी नहीं रहती।
अगर भक्ति में कामना रहे, तो भक्ति नहीं है। अगर तुमने परमात्मा से कुछ मांगा, तो चूक गए--कुछ भी मांगा तो चूक गए। तुमने कहा कि मेरी पत्नी बीमार है, ठीक हो जाए; कि मेरे बेटे को नौकरी नहीं लगती, नौकरी लग जाए; कि तुम चूक गए--यह प्रार्थना न रही, यह वासना हो गई। प्रार्थना तो तभी है जब कोई भी मांग न हो, कोई अपेक्षा न हो। प्रार्थना शुद्ध धन्यवाद है, मांग का सवाल ही नहीं है। जो दिया, वह इतना ज्यादा है कि हम अनुगृहीत हैं। जो दिया, वह मेरी पात्रता से ज्यादा है--ऐसी कृतज्ञता का नाम भक्ति है। भक्ति सौ प्रतिशत प्रीति है। जरा भी धुआं नहीं रहा।
आग तुम जलाते हो, लकड़ी तुम जलाते हो। तो तुमने देखा, अलग-अलग लकड़ियों से अलग-अलग धुआं उठता है। मगर तुमने कारण देखा? कारण होता है: जो लकड़ी जितनी गीली होती है, उतना धुआं उठता है। अगर लकड़ी बिलकुल गीली न हो, आर्द्रता हो ही न लकड़ी में, तो धुआं बिलकुल नहीं उठेगा। धुआं लकड़ी से नहीं उठता, लकड़ी में छिपे पानी से उठता है। तो गीली लकड़ी जलाओ तो बहुत धुआं उठता है।
पति-पत्नी के बीच गीली लकड़ी जलती है। पिता-बेटे के बीच लकड़ी थोड़ी सूखी है, मगर अभी भी धुआं उठता है। गुरु-शिष्य के बीच करीब-करीब लकड़ी सूखी है, जिनके पास देखने को आंखें हैं उनको ही धुआं दिखाई पड़ेगा, नहीं तो दिखाई भी नहीं पड़ेगा, अगर आंख थोड़ी कमजोर है और चश्मा लगा है तो दिखाई नहीं पड़ेगा--एक प्रतिशत बचा है, निन्यानबे प्रतिशत सूखापन है। और जब परमात्मा और तुम्हारे बीच प्रीति जलती है तो धुआं उठता ही नहीं--निर्धूम अग्नि होती है।
इस परम स्थिति के दो रूप हो सकते हैं। एक का नाम ध्यान, एक का नाम भक्ति। अगर यह परम प्रीति की दशा, निर्धूम दशा परमात्मा की तरफ उन्मुख हो, समग्र के प्रति उन्मुख हो, तो भक्ति इसका नाम है। और अगर यह किसी के प्रति उन्मुख न हो, अंतर्मुखी हो, अपने में ही गिर रही हो--यह प्रीति का झरना स्वयं में ही गिर रहा हो, कहीं न जा रहा हो; इसकी कोई दिशा न हो, तो ध्यान। इन दो ही मार्गों से आदमी ने पाया है। बुद्ध ने ध्यान से, मीरा ने भक्ति से। दोनों की शुद्ध दशाएं हैं। बुद्ध की प्रीति अपने ही भीतर उमगती है--लबालब--झील बन गई है; मीरा की भक्ति नाचती है और सागर की तरफ चलती है--सरिता बन गई है। पर दोनों ही हालत में प्रीति शुद्ध हो गई है।
क्या तुम पूर्व हो
मुझे
सूरज दोगे?

क्या तुम अपूर्व हो
मुझे
शरण में लोगे?

क्या तुम उत्तर हो
मुझे तुममें से
समाधान मिलेगा?

क्या दक्षिण-पवन हो तुम
तुममें से मुझे
मलय-गान मिलेगा?
भक्त परमात्मा को सब तरफ देखता--पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण; ऊपर, नीचे; सब दिशाओं में, सब आयामों में। भक्त भगवान से घिरा होता है। भक्त स्वयं तो मिट गया होता है, भगवान ही बचता है। यह प्रीति की एक दशा।
ध्यानी के लिए भगवान होता ही नहीं। प्रीति की समग्रता इतनी गहरी हो गई होती है कि कोई पर नहीं बचता, परमात्मा कैसे बचेगा? कोई पर नहीं बचता, स्व ही होता है। उस स्व की परम स्थिति में भी मुक्ति है। दोनों हालत में एक घटना घट जाती है। भक्त शून्य हो जाता है--अपने तरफ--और परमात्मा पूर्ण हो जाता है; और ध्यानी अपने में पूर्ण हो जाता है, परमात्मा शून्य हो जाता है। पूर्ण और शून्य का मिलन हो जाता है--दो ढंग से। और जहां पूर्ण और शून्य का मिलन है, वहीं मुक्ति है, वहीं मोक्ष है। सब तुम पर निर्भर है कि तुम्हारा प्रेम कहां उलझा है, किससे लगा है।
मैंने सुना, एक सज्जन ने एक बार कव्वाली आयोजित करवाई। जो कव्वाल था, एक सूफी मस्त फकीर था। स्त्रियों के बैठने के लिए पर्दे के पीछे अलग प्रबंध था। उक्त महाशय की पत्नी और अन्य महिलाएं पर्दे के पीछे बैठी कव्वाली सुन रही थीं। कव्वाल तो फकीर था, मस्त फकीर था, वह अपनी मस्ती में आकर बार-बार एक ही मिसरे की रट लगाने लगा--पर्दे के पीछे कौन है? अरे, पर्दे के पीछे कौन है? इस नीले पर्दे के पीछे कौन है?
अब वह तो आकाश की बात कर रहा है--नीला पर्दा--इस पर्दे के पीछे कौन है? और जो उसको परमात्मा की याद आ गई तो धुन बंध गई, वह कहने लगा--अरे, इस पर्दे के पीछे कौन है? नीले पर्दे के पीछे कौन है? संयोगवश वह पर्दा भी नीला था, जिसके पीछे स्त्रियां बैठी थीं। जब कव्वाल ने दस-बारह बार यही मिसरा दोहराया, तो वे महाशय बिगड़ पड़े जिन्होंने कव्वाली आयोजित करवाई थी, गरज कर बोले: अरे कमबख्त, तेरा ध्यान बस पर्दे के ही पीछे लगा हुआ है! तेरी मां-बहनें हैं पर्दे के पीछे, और कौन है!
अपनी-अपनी दृष्टि है।
सूफी फकीर उस विराट पर्दे की बात कर रहा है जो आकाश है, और उसके पीछे कौन है उसकी बात कर रहा है। सूफी फकीर मस्ती की बात कर रहा है, भक्ति की बात कर रहा है। मगर इस आदमी को बेचैनी हो रही है। इसको न तो परमात्मा का कोई बोध है, न आकाश की कोई स्मृति है; न इस सूफी की मस्ती का कुछ अनुभव है। और जब यह ज्यादा मस्त होने लगा और जब ज्यादा दोहराने लगा तो उसकी बेचैनी बढ़ने लगी, उसने कहा, यह तो हद हो गई, यह तो बदतमीज मालूम होता है! यह भी कोई बात उठाने की है कि पर्दे के पीछे कौन है! तेरी मां-बहनें हैं!
तुम्हारा प्रीति का विषय क्या है, बस उतना ही तुम समझ पाओगे। तुम्हारी जो प्रीति की धारा है, जिस तरफ जा रही है, उतना ही तुम समझ पाओगे।
इसलिए अक्सर ऐसा हो गया है कि भक्तों के वचनों को बहुत गलत समझा गया है। फ्रायड और उसके अनुयायी तो समझते हैं कि यह भक्तों की वाणी सब कामवासना का ही विक्षिप्त रूप है--पर्दे के पीछे कौन है? अरे! नीले पर्दे के पीछे कौन है? फ्रायड समझता है कि यह सब स्त्रियों की ही बातें हो रही हैं। तुम्हारी मां-बहनें हैं, और कौन है!
तुम उतना ही समझ सकते हो जितनी तुम्हारी प्रीति है, जहां तुम्हारी प्रीति है। प्रीति को मुक्त करो। अगर पति-पत्नी वाली प्रीति है, तो थोड़ा वात्सल्य को जगाओ, थोड़ा स्नेह को जगाओ। अगर स्नेह जग गया है, तो थोड़ी श्रद्धा जगाओ। अगर श्रद्धा जग गई है, तो भक्ति में छलांग लगाओ।
बंद शीशों के परे देख दरीचों के उधर
सब्ज पेड़ों पे घनी शाखों पे फूलों पे वहां
कैसे चुपचाप बरसता है मुसलसल पानी

कितनी आवाजें हैं, ये लोग हैं, बातें हैं मगर
जेहन के पीछे किसी और ही सतह पे कहीं
जैसे चुपचाप बरसता है तसव्वुर तेरा

सब तरफ वही बरस रहा है।
जैसे चुपचाप बरसता है तसव्वुर तेरा
देखने की आंख चाहिए। प्रीति को कामना से मुक्त करो! कामना के कारण ही देखने की आंख नहीं मिलती; कामना अंधा बनाती है; कामना अंधी है।

आज इतना ही।

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