SHANDILYA

ATHATO BHAKTI JIGYASA 01

First Discourse from the series of 40 discourses - ATHATO BHAKTI JIGYASA by Osho. These discourses were given during JAN 11-30 1978.
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सूत्र

ॐ अथातोभक्तिजिज्ञासा।। 1।।
सापरानुरक्तिरीश्वरे।। 2।।
तत्संस्थस्यामृतत्वोपदेशात्‌।। 3।।
ज्ञानमितिचेन्नद्विषतोऽपिज्ञानस्यतदसंस्थितेः।। 4।।
तयोपक्षयाच्च।। 5।।
अथातोभक्तिजिज्ञासा!
यह सुबह, यह वृक्षों में शांति, पक्षियों की चहचहाहट...या कि हवाओं का वृक्षों से गुजरना, पहाड़ों का सन्नाटा...या कि नदियों का पहाड़ों से उतरना...या सागरों में लहरों की हलचल, नाद...या आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट--यह सभी ओंकार है।
ओंकार का अर्थ है: सार-ध्वनि; समस्त ध्वनियों का सार। ओंकार कोई मंत्र नहीं, सभी छंदों में छिपी हुई आत्मा का नाम है। जहां भी गीत है, वहां ओंकार है। जहां भी वाणी है, वहां ओंकार है। जहां भी ध्वनि है, वहां ओंकार है।
और यह सारा जगत ध्वनियों से भरा है। इस जगत की उत्पत्ति ध्वनि में है। इस जगत का जीवन ध्वनि में है; और इस जगत का विसर्जन भी ध्वनि में है।
ओम से सब पैदा हुआ, ओम में सब जीता, ओम में सब एक दिन लीन हो जाता है। जो प्रारंभ है, वही अंत है। और जो प्रारंभ है और अंत है, वही मध्य भी है। मध्य अन्यथा कैसे होगा!
इंजील कहती है: प्रारंभ में ईश्वर था, और ईश्वर शब्द के साथ था, और ईश्वर शब्द था, और फिर उसी शब्द से सब निष्पन्न हुआ।
वह ओंकार की ही चर्चा है। मैं बोलूं तो ओंकार है। तुम सुनो तो ओंकार है। हम मौन बैठें तो ओंकार है। जहां लयबद्धता है, वहीं ओंकार है। सन्नाटे में भी--स्मरण रखना--जहां कोई नाद नहीं पैदा होता, वहां भी छुपा हुआ नाद है--मौन का संगीत! शून्य का संगीत! जब तुम चुप हो, तब भी तो एक गीत झर-झर बहता है। जब वाणी निर्मित नहीं होती, तब भी तो सूक्ष्म में छंद बंधता है। अप्रकट है, अव्यक्त है; पर है तो सही। तो शून्य में भी और शब्द में भी ओंकार निमज्जित है।
ओंकार ऐसा है जैसे सागर। हम ऐसे हैं जैसे सागर की मछली।
इस ओंकार को समझना। इस ओंकार को ठीक से समझा नहीं गया है। लोग तो समझे कि एक मंत्र है, दोहरा लिया। यह दोहराने की बात नहीं है। यह तो तुम्हारे भीतर जब छंदोबद्धता पैदा हो, तभी तुम समझोगे ओंकार क्या है। हिंदू होने से नहीं समझोगे। वेदपाठी होने से नहीं समझोगे। पूजा का थाल सजा कर ओंकार की रटन करने से नहीं समझोगे। जब तुम्हारे जीवन में उत्सव होगा, तब समझोगे। जब तुम्हारे जीवन में गान फूटेगा, तब समझोगे। जब तुम्हारे भीतर झरने बहेंगे, तब समझोगे।
ओम से शुरुआत अदभुत है।
ॐ अथातोभक्तिजिज्ञासा!
उस ओम में सब आ गया; अब आगे विस्तार होगा। जो जानते हैं, उनके लिए ओम में सब कह दिया गया। जो नहीं जानते, उनके लिए बात फैला कर कहनी होगी। अन्यथा शास्त्र पूरा हो गया ओंकार पर।
ओंकार बनता है तीन ध्वनियों से: अ उ म। ये तीन मूल ध्वनियां हैं; शेष सभी ध्वनियां इन्हीं ध्वनियों के प्रकारांतर से भेद हैं। यही असली त्रिवेणी है--अ उ म। यही त्रिमूर्ति है। यही शब्द-ब्रह्म के तीन चेहरे हैं।
सब शास्त्र अ उ म में समाहित हो गए। हिंदुओं के हों कि मुसलमानों के, कि ईसाइयों के, कि बौद्धों के, कि जैनों के--भेद नहीं पड़ता। जो भी कहा गया है अब तक, और जो नहीं कहा गया, सब इन तीन ध्वनियों में समाहित हो गया है। ओम कहा, तो सब कहा। ओम जाना, तो सब जाना। इसलिए वेद घोषणा करते हैं कि जिसने ओंकार को जान लिया, उसे जानने को कुछ और शेष नहीं रहा।
निश्चित ही यह उस ओंकार की बात नहीं है, जो तुम अपने पूजागृह में बैठ कर दोहरा लेते हो। यह ओंकार तो तुम्हारे पूरे जीवन की सुगंध की तरह प्रकट होगा, तो समझोगे।
तुम्हारे जीवन में बड़ी छंदहीनता है। तुम्हारा जीवन टूटा-फूटा हुआ सितार है, जिसके तार या तो बहुत ढीले हैं या बहुत कसे हैं; और जिस सितार पर कैसे अंगुलियां रखें, उसका शास्त्र ही तुम भूल गए हो; और जिस सितार को कैसे बजाएं, कैसे निनादित करें, उसकी भाषा ही तुम्हें नहीं आती। तुम सितार लिए बैठे हो, सितार में छिपा संगीत तुम्हारी प्रतीक्षा करता है, और जीवन बड़ी पीड़ा से भरा है। यह सारी पीड़ा रूपांतरित हो सकती है: तुम गाओ, तुम गुनगुनाओ; तुम्हारे भीतर की सरिता बहे; तुम नाचो।
भक्ति जीवन का परम स्वीकार है। इसलिए शुभ ही है कि शांडिल्य अपने इस अपूर्व सूत्र-ग्रंथ का उदघाटन ओम से करते हैं। ठीक ही है, क्योंकि भक्ति जीवन में संगीत पैदा करने की विधि है। जिस दिन तुम संगीतपूर्ण हो जाओगे, जिस दिन तुम्हारे भीतर एक भी स्वर ऐसा न रहेगा जो व्याघात उत्पन्न करता है, जिस दिन तुम बेसुरे न रहोगे, उसी दिन प्रभु-मिलन हो गया। प्रभु कहीं और थोड़े ही है--छंदबद्धता में है, लयबद्धता में है। जिस दिन नृत्य पूरा हो उठेगा, गान मुखरित होगा, तुम्हारे भीतर का छंद जिस क्षण स्वच्छंद होगा, उसी क्षण परमात्मा से मिलन हो गया।
इसलिए तो कहते हैं वेद कि ओम को जिन्होंने जान लिया, उन्हें जानने को कुछ शेष न रहा। यह शास्त्र में लिखे हुए ओम की बात नहीं है, यह जीवन में अनुभव किए गए, अनुभूत छंद की बात है।
गायत्री तुम्हारे भीतर छिपी है, भगवद्गीता भी। कुरान की आयतें तुम्हारे भीतर मचल रही हैं, तड़प रही हैं--मुक्त करो! तुम्हारे भीतर बड़ा रुदन है--जैसे किसी वृक्ष में हो, जिसके फूल नहीं खिले; जैसे किसी नदी में हो, चट्टानों के कारण जो बह न सकी और सागर से मिल न सकी। जिस वृक्ष में फूल नहीं आते, उसकी पीड़ा जानते हो? है और नहीं जैसा। जब तक फूल न आएं और जब तक सुगंध छिपी है जो पड़ी प्राणों में, जड़ों से जो मुक्त होना चाहती है, जो पक्षी बन कर उड़ जाना चाहती है आकाश में, जो पंख फैलाना चाहती है, जो चांद-तारों से बात करना चाहती है--बहुत दिन हो गए कारागृह में जड़ों की पड़े-पड़े--जो छूट जाना चाहती है सब जंजीरों से, जब तक वह सुगंध फूलों से मुक्त न हो जाए, तब तक वृक्ष तृप्त कैसे हो! तब तक कैसी तृप्ति! कैसा संतोष! कैसी शांति! कैसा आनंद! तब तक वृक्ष उदास है। ऐसे ही वृक्ष तुम हो।
तुम्हारे भीतर ओंकार पड़ा है--बंधन में, जंजीरों में। मुक्त करो उसे! गाओ! नाचो! ऐसे नाचो कि नाचने वाला मिट जाए और नाच ही रह जाए--उस क्षण पहचान होगी ओंकार से। ऐसे गाओ कि गायक न बचे, गीत ही रह जाए--उस क्षण तुम भगवद्गीता हो गए। जिस क्षण गाने वाला भीतर न हो और गान अपनी सहज स्फुरणा से बहे, उस क्षण तुम कुरान हो गए। उस दिन तुम्हारे भीतर परम काव्य का जन्म हुआ। उस दिन जीवन साधारण न रहा, असाधारण हुआ। उस दिन जीवन में दीप्ति आई, आभा उपजी।
इसलिए ओम से प्रारंभ है। इस ओम में इशारा है कि तुम अभी ऐसे वृक्ष हो जिसके फूल नहीं खिले हैं। और बिना फूल खिले कोई संतुष्टि नहीं है, कोई परितोष नहीं है।
ॐ अथातोभक्तिजिज्ञासा।
और यह तुम्हें खयाल में आ जाए कि मेरे फूल अभी खिले नहीं, कि मेरे फल अभी लगे नहीं, कि मेरा वसंत आया नहीं, कि मैं जो गीत लेकर आया था, मैंने अभी गाया नहीं; कि जो नाच मेरे पैरों में पड़ा है, मैंने घूंघर भी नहीं बांधे, वह नाच अभी उन्मुक्त भी नहीं हुआ--यह तुम्हें समझ में आ जाए तो ‘अथातो भक्ति जिज्ञासा’, फिर भक्ति की जिज्ञासा। उसके पहले भक्ति की कोई जिज्ञासा नहीं हो सकती।
भक्ति की जिज्ञासा का अर्थ ही यह है कि मैं टूटा-फूटा हूं अभी, मुझे जुड़ना है; मैं अधूरा-अधूरा हूं अभी, मुझे पूरा होना है; कमियां हैं, सीमाएं हैं हजार मुझ पर, सब सीमाओं को तोड़ कर बहना है; बूंद हूं अभी और सागर होना है। अथातो भक्ति जिज्ञासा! तभी तो तुम जिज्ञासा में लगोगे।
समझें, भक्ति अर्थात क्या?
एक तत्व हमारे भीतर है, जिसको प्रीति कहें। यह जो तत्व हमारे भीतर है--प्रीति, इसी के आधार पर हम जीते हैं। चाहे हम गलत ही जीएं, तो भी हमारा आधार प्रीति ही होता है। कोई आदमी धन कमाने में लगा है; धन तो ऊपर की बात है, भीतर तो प्रीति से ही जी रहा है--धन से उसकी प्रीति है। कोई आदमी पद के पीछे पागल है; पद तो गौण है, प्रतिष्ठा की प्रीति है। जहां भी खोजोगे, तो तुम प्रीति को ही पाओगे। कोई वेश्यालय चला गया है, और किसी ने किसी की हत्या कर दी है--पापी में और पुण्यात्मा में, तुम एक ही तत्व को एक साथ पाओगे, वह तत्व प्रीति है। फिर प्रीति किससे लग गई, उससे भेद पड़ता है। धन से लग गई तो तुम धन ही होकर रह जाते हो। ठीकरे हो जाते हो। कागज के सड़े-गले नोट होकर मरते हो। जिससे प्रीति लगी, वही हो जाओगे।
यह बड़ा बुनियादी सत्य है; इसे हृदय में सम्हाल कर रखना। प्रीति महंगा सौदा है, हर किसी से मत लगा लेना। जिससे लगाई वैसे ही हो जाओगे। वैसा होना हो तो ही लगाना। प्रीति का अर्थ ही यही होता है कि मैं यह होना चाहता हूं। राजनेता गांव में आया और तुम भीड़ करके पहुंच गए, फूलमालाएं सजा कर--किस बात की खबर है? तुम गहरे में चाहते हो कि मेरे पास भी पद हो, प्रतिष्ठा हो; इसलिए पद और प्रतिष्ठा की पूजा है। कोई फकीर गांव में आया और तुम पहुंच गए; उससे भी तुम्हारी प्रीति की खबर मिलती है कि तड़फ रहे हो फकीर होने को--कि कब होगा वह मुक्ति का क्षण, जब सब छोड़-छाड़...जब किसी चीज पर मेरी कोई पकड़ न रह जाएगी। कोई संगीत सुनता है तो धीरे-धीरे उसकी चेतना में संगीत की छाया पड़ने लगती है। तुम जिससे प्रीति करोगे वैसे हो जाओगे; जिनसे प्रीति करोगे वैसे हो जाओगे।
तो प्रीति का तत्व रूपांतरकारी है। प्रीति का तत्व भीतरी रसायन है। और बिना प्रीति के कोई भी नहीं रह सकता। प्रीति ऐसी अनिवार्य है जैसे श्वास। जैसे शरीर श्वास से जीता, आत्मा प्रीति से जीती। इसलिए अगर तुम्हारे जीवन में कोई प्रीति न हो, तो तुम आत्महत्या करने को उतारू हो जाओगे। या कभी तुम्हारी प्रीति का सेतु टूट जाए, तो आत्महत्या करने को उतारू हो जाओगे। घर में आग लग गई और सारा धन जल गया, और तुमने आत्महत्या कर ली; क्या तुम कह रहे हो? तुम यह कहते हो: यह घर ही मैं था, यह मेरी प्रीति थी। अब यही न रहा तो मेरे रहने का क्या अर्थ! तुम्हारी पत्नी मर गई और तुमने आत्महत्या कर ली; तुम क्या कह रहे हो? तुम यह कह रहे हो: यह मेरी प्रीति का आधार था। जब मेरी प्रीति उजड़ गई, मेरा संसार उजड़ गया। अब मेरे रहने में कोई सार नहीं।
हम प्रीति के साथ अपना तादात्म्य कर लेते हैं। बिना प्रीति के कोई भी नहीं जी सकता। जीना संभव ही प्रीति के सहारे है। जैसे बिना श्वास लिए शरीर नहीं रहेगा, वैसे ही बिना प्रीति के आत्मा नहीं टिकेगी। प्रीति है तो आत्मा टिकी रहती है। फिर प्रीति गलत से भी हो तो भी आत्मा टिकी रहती है। मगर चाहिए, प्रीति तो चाहिए--गलत हो कि सही।
फिर प्रीति के बहुत ढंग हैं, वे समझ लेने चाहिए। एक प्रीति है जो तुम्हारी पत्नी में होती है, मित्रों में होती है, पति में होती है, भाई-बहन में होती है। उस प्रीति को हम प्रेम कहते हैं। प्रेम का अर्थ होता है: उसके साथ जो समतल है। तुमसे ऊपर भी नहीं, तुमसे नीचे भी नहीं; तुम्हारे जैसा है; जिससे आलिंगन हो सकता है; उसको प्रेम कहते हैं। समतुल व्यक्तियों में प्रीति होती है तो प्रेम कहते हैं।
फिर एक प्रीति होती है माता, पिता या गुरु में; उसे श्रद्धा कहते हैं। कोई तुमसे ऊपर है; प्रीति को पहाड़ चढ़ना पड़ता है। इसलिए श्रद्धा कठिन होती है। श्रद्धा में दांव लगाना पड़ता है। श्रद्धा में चढ़ाई है। इसलिए बहुत कम लोगों में वैसी प्रीति मिलेगी जिसको श्रद्धा कहें। माता-पिता से कौन प्रीति करता है! कर्तव्य निभाते हैं लोग। दिखाते हैं। उपचार। दिखाना पड़ता है। प्रीति कहां! अपने से ऊपर प्रीति करने में पहाड़ चढ़ने की हिम्मत होनी चाहिए। और ध्यान रखना, तुम अपने से ऊपर, जितने ऊपर प्रीति करोगे, उतने ही तुम ऊपर जाने लगोगे, तुम्हारी चेतना ऊर्ध्वगामी होगी। इसलिए तो हमने श्रद्धा को बड़ा मूल्य दिया है सदियों से, क्योंकि श्रद्धा आदमी को बदलती है, अपने से पार ले जाती है। तुम्हारे हाथ तुमसे ऊपर की तरफ उठने लगते हैं और तुम्हारे पैर किसी ऊर्ध्वगमन पर गतिमान होते हैं। तुम्हारी आंखें ऊंचे शिखरों से टकराती और चुनौती लेती हैं।
जिसके जीवन में श्रद्धा नहीं है, उसके जीवन में विकास नहीं है। विकास हो ही नहीं सकता। किसी को महावीर में श्रद्धा है, तो विकास होगा; किसी को बुद्ध में, तो; कृष्ण में, तो; क्राइस्ट में, तो। श्रद्धा से विकास होता है, कृष्ण-क्राइस्ट तो सब खूंटियां हैं। कहां तुमने अपनी श्रद्धा टांगी, यह बात गौण है। मगर श्रद्धा कहीं न कहीं टांगना जरूर। यह बात बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि तुमने महावीर चुने कि मोहम्मद, कि कृष्ण चुने कि क्राइस्ट, इसमें बहुत मूल्य नहीं है। मूल्य इस बात में है कि तुमने श्रद्धा का कोई पात्र चुना। तुमने कोई चुना जो तुमसे पार है। तुमने कोई चुना जो आकाश में है--धवल शिखरों की भांति। उस चुनाव में ही यात्रा शुरू हो गई--तुम्हारी आंखें ऊपर उठने लगीं। तुमने जमीन पर गड़े-गड़े चलना बंद कर दिया। तुमने जमीन पर सरकना बंद कर दिया। तुम्हारे पंख फड़फड़ाने लगे। आज नहीं कल तुम उड़ोगे। क्योंकि जिससे श्रद्धा लग गई है, उस तक जाना होगा। यात्रा कठिन होगी तो भी जाना होगा। लाख कठिनाइयां होंगी तो भी जाना होगा। प्रीति लग जाए तो कठिनाइयों का पता नहीं चलता।
तो एक प्रीति है--श्रद्धा। अपने से ऊपर। वह ऊर्ध्वगामी है। एक प्रीति है--प्रेम। अपने से समतुल। उससे तुम कहीं जाते-आते नहीं; कोल्हू के बैल की तरह चक्कर काटते हो। पत्नी भी तुम जैसी, पति भी तुम जैसा, मित्र भी तुम जैसे। लोग अपने जैसे ही तो चुनते हैं, लोग अपने जैसों में ही तो आकर्षित होते हैं। अपने से बड़े में आकर्षित होने में ही खतरा मालूम होता है। क्यों? क्योंकि पहले तो किसी को अपने से बड़ा मानना अहंकार के प्रतिकूल है। किसी को गुरु मानना अहंकार के प्रतिकूल है। अहंकारी किसी को गुरु नहीं मान सकता। वह हजार बहाने खोजता है सिद्ध करने के कि कोई गुरु है ही नहीं। अब कहां गुरु! सतयुग में होते थे, यह कलियुग है! अब कहां गुरु! यह पंचम काल है, अब कहां गुरु! सब कहानियां हैं, कपोल-कल्पनाएं हैं। बचाता है अपने को। क्योंकि गुरु चुनने में ही तुमने एक बात जाहिर कर दी कि अब तुम्हें चुनौती स्वीकार करनी पड़ेगी। तुम जहां हो, वहीं समाप्त नहीं हो सकते हो, ऊपर जाना है।
इसलिए लोग अपने ही समान व्यक्तियों को चुनते हैं। उनके साथ कहीं जाना नहीं; यहीं झगड़ना है। पति-पत्नी यहीं लड़ते रहेंगे; कोल्हू के बैल की तरह रोज वही दोहराते रहेंगे--जो कल भी किया था, परसों भी किया था; कल भी करेंगे, परसों भी करेंगे; पूरा जन्म निकल जाएगा और वही पुनरुक्ति, पुनरुक्ति। नहीं कोई गति होती। हो नहीं सकती।
तीसरा प्रेम है--प्रीति है, जिसे हम स्नेह कहते हैं; वह अपने से छोटों के प्रति। पुत्र, कन्यादिक या शिष्य। जो अपने से छोटे के प्रति होती है।
अपने से छोटे के प्रति भी हम आसानी से राजी हो जाते हैं। सच तो यह है, हम बड़े आह्लादित होते हैं। इसलिए तो तुम आह्लादित होते हो जब तुम्हारे घर में बेटा पैदा होता है। तुम्हारा आह्लाद क्या है? तुम्हारा आह्लाद यही है कि इसकी तुलना में तुम बड़े हो गए।
तुमने कहानी सुनी न, अकबर ने एक लकीर खींच दी राजदरबार में आकर और कहा, इसे बिना छुए छोटी कर दो। कोई न कर सका। लेकिन बीरबल ने एक बड़ी लकीर उसके नीचे खींच दी; उसे छुआ नहीं, छोटी हो गई। छोटी लकीर खींच देता तो बड़ी हो जाती--उसे छुए बिना।
तुम अपने पुत्र में, पुत्रियों में इतना जो रस लेते हो उसका कारण क्या है? चलो, कोई तो है जो तुम्हारी तरफ देखता है और तुम्हें बड़ा मानता है! तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है। इसलिए शिष्य होना कठिन है, गुरु होना आसान मालूम पड़ता है।
एक शिष्य गुरु के पास पहुंचा। उसने पूछा कि मुझे स्वीकार करेंगे? मैं दीक्षित होने आया हूं।
गुरु ने कहा, कठिन होगा मामला। यात्रा दुर्गम है। सम्हाल सकोगे? पात्रता है?
पूछा उस युवा ने, क्या करना होगा? ऐसी कौन सी कठिनाई है?
गुरु ने कहा, जो मैं कहूंगा, वही करना पड़ेगा। वर्षों तक तो जंगल से लकड़ी काटना, आश्रम के जानवरों को चरा आना, बुहारी लगाना, भोजन पकाना--इसमें ही लगना होगा। फिर जब पाऊंगा कि अब तुम्हारा समर्पण ठीक-ठीक हुआ, तार ठीक-ठीक बंधे, तब तुम्हारे ऊपर सत्य के प्रयोग शुरू होंगे, तब ध्यान और तप।
उस युवक ने पूछा, यह तो बड़ी झंझट की बात है। कितने वर्ष लगेंगे--यह जंगल जाना, लकड़ी काटना, भोजन बनाना, सफाई करना, जानवर चराना?
गुरु ने कहा, कुछ कहा नहीं जा सकता। निर्भर करता है कि कब तुम तैयार होओगे। जब तैयार हो जाओगे, तभी। वर्ष भी लग सकते हैं, कभी-कभी जन्म भी लग जाते हैं।
उस युवक ने कहा, चलिए, यह तो जाने दीजिए, यह मुझे जंचता नहीं। गुरु होने में क्या करना पड़ता है?
तो उस गुरु ने कहा, गुरु होने में कुछ नहीं। जैसे मैं यहां बैठा हूं ऐसे बैठ जाओ और आज्ञा देते रहो।
तो उसने कहा, फिर ऐसा करिए, मुझे गुरु ही बना लीजिए। यह जंचता है।
गुरु कौन नहीं बन जाना चाहता! तुम भी कोई मौका नहीं खोते जब गुरु बनने का मौका मिले। किसी को अगर तुम पा लो किसी हालत में कि सलाह की जरूरत है, तो तुम्हें चाहे सलाह देने योग्य पात्रता हो या न हो, तुम जरूर देते हो। तुम चूकते नहीं मौका। कोई मिल भर जाए मुसीबत में, तुम उसकी गर्दन पकड़ लेते हो। तुम उसको सलाह पिलाने लगते हो। और ऐसी सलाहें, जो तुमने जीवन में खुद भी कभी स्वीकार नहीं कीं; जिन पर तुम कभी नहीं चले; जिन पर तुम कभी चलोगे भी नहीं। लेकिन किसी और ने तुम्हारी गर्दन पकड़ कर तुम्हें पिला दी थीं, अब तुम किसी और के साथ बदला ले रहे हो।
दुनिया में सलाहें इतनी दी जाती हैं, मगर लेता कौन? कोई किसी की सलाह लेता है? तुमने कभी किसी की ली? और खयाल रखना, जिसने भी तुम्हारी असहाय अवस्था का मौका उठा कर सलाह दी है, उससे तुम नाराज हो, अभी भी नाराज हो, तुम उसे क्षमा नहीं कर पाए हो। क्योंकि तुम असमय में थे और दूसरे ने फायदा उठा लिया। तुम्हारे घर में आग लग गई थी और कोई ज्ञानी तुमसे कहने लगा: क्या रखा है! यह संसार तो सब जल ही रहा है! सब जल ही जाएगा! सब पड़ा रह जाएगा--सब ठाट पड़ा रह जाएगा जब बांध चलेगा बंजारा! अरे, यहां रखा क्या है! ये बातें तो तुम्हें भी मालूम हैं, लेकिन तुम्हारा घर जल रहा है और इन सज्जन को सलाह देने की सूझी है! तुम्हारी पत्नी मर गई और कोई कह रहा है कि आत्मा तो अमर है! तुम्हारी तबीयत होती है कि इसको यहीं दुरुस्त कर दो इस आदमी को। मेरी पत्नी मर गई है, इसे ज्ञान सूझ रहा है! और तुम भलीभांति जानते हो कि इसकी पत्नी जब मरी थी तब यह भी रो रहा था; और कल जब इसका बेटा मरेगा तो फिर यह ज़ार-ज़ार रोएगा। तब तुम्हारे हाथ में एक मौका होगा कि तुम भी बदला ले लोगे, तुम भी सलाह दे दोगे।
सलाहें एक-दूसरे का अपमान हैं। सलाह का मतलब यह होता है, तुम सिद्ध कर रहे हो: मैं जानता हूं, तुम नहीं जानते; मैं ज्ञानी, तुम अज्ञानी। तुम मौका पाकर गुरु बन रहे हो। जांचना। अपने जीवन को जरा परखना। हर किसी को सलाह देने को तैयार हो! कोई सिगरेट पी रहा है और तुम्हारे भीतर एकदम खुजलाहट होती है कि इसको सलाह दो कि सिगरेट पीना बुरा है। और तुम पान चबा रहे हो! मगर पान चबाना बात और! लेकिन तुम सलाह देने का मौका नहीं छोड़ोगे। तुम्हारे बाप ने तुम्हें सलाह दी थी और तुमने एक न मानी। और वे ही सलाहें तुम अपने बेटों को पिला रहे हो। वे भी नहीं मानेंगे। तुमने नहीं मानी थी। कौन मानता है सलाह! क्यों सलाहें नहीं मानी जाती हैं? कारण है। देने वाला अहंकार का मजा लेता है, लेने वाले के अहंकार को चोट लगती है।
तुम्हारे घर बेटे-बेटियां पैदा हो जाते हैं, तुम बड़े खुश होते हो। तुमको ये असहाय प्राणी मिल गए, जिनको अब तुम जैसा चाहो बनाओ; जहां चाहो भेजो; जो आज्ञा दो, इन्हें मानना ही पड़े।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चों के साथ सदियों में जो अत्याचार हुआ है, वैसा अत्याचार किसी के साथ कभी नहीं हुआ। गुलाम से गुलाम भी इतना गुलाम नहीं होता जितने बच्चे तुम्हारे गुलाम हो जाते हैं; क्योंकि असहाय हैं, तुम पर निर्भर हैं, जी नहीं सकते तुम्हारे बिना। एक छोटा सा बच्चा है, दूध नहीं मिले, सेवा नहीं मिले, सुरक्षा नहीं मिले--मर ही जाएगा, जी ही नहीं सकता। उसका जीवन दांव पर लगा है। तुम इस मौके को नहीं चूकते। तुम इस मौके का पूरा फायदा उठा लेते हो--पूरे से ज्यादा फायदा उठा लेते हो। हालांकि तुम कहते यही हो कि मुझे तुमसे प्रेम है, इसीलिए ऐसा कर रहा हूं। लेकिन अगर बहुत छान-बीन करोगे, थोड़े सजग होओगे, तो पाओगे, अहंकार का रस ले रहे हो। और तो कोई तुम्हारी सुनता नहीं, तुम्हारे बेटे को तो सुननी ही पड़ती है।
इसलिए कौन बेटा अपने बाप को माफ कर पाता है? कोई बेटा अपने बाप को माफ नहीं कर पाता। और अगर मौका मिलेगा बुढ़ापे में, जब तुम बूढ़े हो जाओगे और कमजोर हो जाओगे, असहाय हो जाओगे, बच्चे जैसे हो जाओगे, तब तुम्हारा बेटा तुमसे बदला लेगा। तब छोटी-छोटी बातों में तुम दुतकारे जाओगे। और तब तुम तड़फोगे और तुम कहोगे, मैंने ऐसा क्या पाप किया? मैंने तुझे बड़ा किया, मैंने अपना जीवन तेरे ऊपर लगाया, निछावर किया और तू मुझसे बदला ले रहा है? यह कैसी अकृतज्ञता!
नहीं, लेकिन तुम जांच करना, गौर करना। तुमने अपने अहंकार को खूब उछाला होगा। इस बेटे में पड़े घाव अब तक हरे हैं। बच्चों के साथ हम बड़ा अमानवीय व्यवहार करते हैं। और यह कहते हम चले जाते हैं कि हमारा बड़ा स्नेह है।
अपने से छोटे के प्रति जो प्रीति होती है उसका नाम स्नेह है। मेरे देखे, अपने से छोटे के प्रति सच्ची प्रीति और ठीक प्रीति तभी होती है जब अपने से बड़े के प्रति श्रद्धा हो; अन्यथा नहीं होती; अन्यथा झूठी होती है। जिस व्यक्ति के जीवन में अपने से बड़े के प्रति श्रद्धा है, सम्यक श्रद्धा है, उस व्यक्ति के जीवन में अपने से छोटे के प्रति सम्यक स्नेह होता है। और उस व्यक्ति के जीवन में एक और क्रांति घटती है--अपने से सम के प्रति सम्यक प्रेम होता है। उसके जीवन में प्रेम का छंद बंध जाता है। छोटे के प्रति सम्यक स्नेह होता है, धारा की तरह बहता है उसका प्रेम। बेशर्त। वह कोई शर्तबंदी नहीं करता कि तुम ऐसा करोगे तो मैं तुम्हें प्रेम करूंगा, कि तुम ऐसे होओगे तो मैं तुम्हें प्रेम करूंगा। वह यह भी नहीं कहता कि बड़े होकर तुम इस तरह के व्यक्ति बनना; कि मैं हिंदू हूं तो तुम भी हिंदू होना; कि मैं कम्युनिस्ट हूं तो तुम भी कम्युनिस्ट होना; कि मैं ईसाई हूं तो तुम भी ईसाई रहना; कि मैं चाहता हूं कि तुम डाक्टर बनो, कि इंजीनियर बनो, तो इंजीनियर ही बनना। नहीं, वह कोई आग्रह नहीं रखता। वह कहता है: मैंने तुम्हें प्रेम दिया, मैं प्रेम देकर आनंदित हुआ; तुमने मुझे हलका किया। जैसे बादल हलके हो जाते हैं भूमि पर बरस कर, ऐसा तुम पर बरस कर मैं हलका हुआ। मैं अनुगृहीत हूं। तुम्हें जो होना हो तुम होना; मैं तुम्हें सहारा दूंगा--तुम जो होना चाहो उसमें--लेकिन तुम्हें कुछ खास बनाने की चेष्टा नहीं करूंगा। मैं कौन हूं? तुम स्वतंत्र हो। तुम आत्मवान हो।
मगर यह प्रेम, यह स्नेह उसी में हो सकता है, जिसके जीवन में श्रद्धा हुई हो और जिसने किसी गुरु का सत्संग किया हो। गुरु वही है जो तुम्हें इतनी स्वतंत्रता दे कि तुम जो होना चाहो, तुम्हें साथ दे, सहारा दे; तुम्हें अपनी सारी संपदा को खोल कर रख दे कि चुन लो; और इतनी भी अपेक्षा न रखे कि तुम धन्यवाद देना। जब तुम किसी गुरु से मिल गए हो, तभी तुम इस योग्य हो सकोगे कि अपने से छोटे के प्रति स्नेह कर सको--सम्यक स्नेह। अन्यथा तुम्हारा स्नेह भी फांसी का फंदा होगा। और जब तुम अपने से बड़े के प्रति श्रद्धा कर सको और अपने से छोटे के प्रति स्नेह कर सको, तो दोनों के मध्य में प्रेम की घटना घटती है, अन्यथा नहीं घटती। तभी तुम अपनी पत्नी को प्रेम कर सकोगे, अपने पति को प्रेम कर सकोगे। और उस प्रेम में बड़े फूल खिलेंगे, बड़ी सुगंध होगी। उस प्रेम में बड़े संगीत का जन्म होगा।
ये प्रीति की तीन साधारण स्थितियां हैं। और जब ये तीनों सम्यक हो जाती हैं, जब इन तीनों के तार मिल जाते हैं, जब ये तीनों छंदोबद्ध हो जाती हैं, तब चौथी अवस्था, परम अवस्था पैदा होती है, उसका नाम--भक्ति। अथातो भक्ति जिज्ञासा! जिसने स्नेह किया हो, जिसने प्रेम किया हो, जिसने श्रद्धा की हो--और जिसके तीनों के तार मिल गए हों और तीनों के माध्यम से जिसके भीतर एक अपूर्व आनंद की आभा जगी हो--वही व्यक्ति भक्ति करने में कुशल हो सकता है। भक्ति प्रीति की पराकाष्ठा है।
भक्ति का अर्थ है: सर्वात्मा से प्रीति। छोटे से कर ली, समान से कर ली, बड़े से कर ली--अब सर्वात्मा से, अब परमेश्वर से।
परमेश्वर कोई व्यक्ति नहीं है, खयाल रखना बार-बार। अगर परमेश्वर व्यक्ति है तुम्हारी धारणा में, तो तुम जो करोगे वह श्रद्धा होगी। फिर श्रद्धा में और भक्ति में कोई फर्क न रह जाएगा। फिर तो परमेश्वर भी एक व्यक्ति हो गया, जैसे गुरु है--और ऊपर सही, बहुत ऊपर सही, मगर श्रद्धा ही रहेगी। श्रद्धा और भक्ति में भेद है।
परमात्मा यानी सर्व। जिस दिन तुम्हारी प्रीति सब दिशाओं में अकारण बहने लगे, अहैतुक--वृक्षों को, पहाड़ों को, पत्थरों को, चांद-तारों को, दृश्य को, अदृश्य को, यह समस्त को तुम्हारी प्रीति मिलने लगे; तुम इस सारे के प्रेम में पड़ जाओ; तुम्हारे प्रेम पर कोई सीमाएं न रह जाएं, उस दिन भक्ति।
ॐ अथातोभक्तिजिज्ञासा!
‘अब भक्ति की जिज्ञासा करें।’
सापरानुरक्तिः ईश्वरे।
‘ईश्वर के प्रति संपूर्ण अनुराग का नाम भक्ति है।’
ऐसा हिंदी में जगह-जगह अनुवाद किया जाता है। मूल ज्यादा साफ है। अनुवाद कहता है: ईश्वर के प्रति संपूर्ण अनुराग का नाम भक्ति है। मूल कहता है: सापरानुरक्तिः। परा। वे जो तीन प्रीतियां थीं, उनका नाम है अपरा--श्रद्धा, प्रेम, स्नेह। वे सांसारिक हैं।
ध्यान रहे, श्रद्धा भी सांसारिक है। नास्तिक भी श्रद्धा कर सकता है। आखिर कम्युनिस्ट श्रद्धा करता ही है कार्ल मार्क्स में और दास कैपिटल में। नास्तिक भी श्रद्धा कर सकता है, उसके भी गुरु होते हैं। चार्वाक को मानने वाला चार्वाक में श्रद्धा करता है। एपीकुरस को मानने वाला एपीकुरस में श्रद्धा करता है। उसके भी गुरु हैं, उसके भी शास्त्र हैं, उसके भी सिद्धांत हैं, उसके भी तीर्थ हैं। अगर मुसलमानों के लिए मक्का है तो कम्युनिस्टों के लिए मास्को है, पर तीर्थ तो हैं ही। अगर किसी के लिए काबा है तो किसी के लिए क्रेमलिन है, तीर्थ तो हैं ही। उसी भक्ति, उसी पूजा, उसी श्रद्धा से लोग मास्को जाते, जिस भक्ति, श्रद्धा और पूजा से लोग काशी जाते, काबा जाते, गिरनार जाते।
श्रद्धा सांसारिक है। जिससे हमने कुछ सीखा है, उसके प्रति श्रद्धा हो जाएगी। अगर तुमने किसी से चोरी सीखी है तो वह तुम्हारा गुरु हो गया और उससे श्रद्धा हो जाएगी। पापी भी श्रद्धा करता है, बुरा आदमी भी श्रद्धा करता है--आखिर जिससे कुछ सीखा है, वही गुरु हो जाता है।
भक्ति श्रद्धा से भिन्न बात है।
सूत्र कहता है: ‘सापरानुरक्तिः!’
ये तो अपरा हुईं। ये तो इस जगत की बातें हुईं--प्रेम, स्नेह, श्रद्धा। इनके पार भी एक शुद्ध रूप है प्रीति का। उस रूप को परा अनुरक्ति, ऐसा शांडिल्य कहते हैं। उस परा अनुरक्ति का जो पात्र है, वही ईश्वर है।
अब तुम यह मत समझना कि कोई ईश्वर है, जिस पर तुम अपनी अनुरक्ति को ढालोगे, जिस पर तुम अपनी अनुरक्ति को केंद्रित करोगे। नहीं, अगर तुमने कोई ईश्वर मान लिया और फिर उस पर अपनी अनुरक्ति को केंद्रित किया तो श्रद्धा हो गई। जिस दिन तुम्हारी अनुरक्ति सभी पात्रों से मुक्त हो जाएगी--न स्नेह रही, न प्रेम रही, न श्रद्धा रही; जिस दिन तुम्हारी प्रीति शुद्ध प्रीति हो गई; मात्र प्रीति हो गई; तुम्हारे चित्त की सहज दशा हो गई, उस दिन जिस तरफ तुम बहोगे, वही ईश्वर है। सब तरफ ईश्वर है।
सापरानुरक्तिः ईश्वरे।
परा अनुरक्ति संपूर्ण होती है। बच्चे से प्रेम होता है, लेकिन इतना नहीं होता कि अगर मरने का वक्त आ जाए और चुनाव करना पड़े कि दो में से कोई एक ही जी सकता है--तुम या तुम्हारा बेटा--तो बहुत संभावना यह है कि तुम अपने को बचाओगे। तुम कहोगे: बेटे तो और भी पैदा हो सकते हैं। प्रेम था, लेकिन इतना नहीं था कि अपने को गंवा दो।
पत्नी से प्रेम है; तुम कहते हो कि तेरे बिना मर जाऊंगा। मगर अगर आज ऐसा मौका आ जाए कि एक हत्यारा आ जाए और कहे कि दो में से कोई भी एक मरने को तैयार हो जाओ, तो तुम अपनी पत्नी को कहोगे, क्या बैठी देख रही है, तैयार हो! मैं तेरा स्वामी हूं! पति तो परमात्मा है! तू बैठी क्या देख रही है? तब तुम मरने को राजी न होओगे। ये कहने की बातें हैं!
फिर संपूर्ण अनुरक्ति का क्या अर्थ होता है?
संपूर्ण अनुरक्ति का अर्थ होता है: अब तुम अपने को छोड़ने को राजी हो। अपरा अनुरक्ति में तुम रहते हो। तुम्हारे रहते सब ठीक; लेकिन अगर तुम्हें स्वयं को दांव लगाना पड़े तो फिर तुम हट जाते हो। परा अनुरक्ति में तुम अपने को दांव पर लगा देते हो। तुम कहते हो: मैं तो बूंद हूं जो सागर में खो जाना चाहती है। मैं तो बीज हूं जो भूमि में खो जाना चाहता है। तुम परमात्मा और अपने बीच परमात्मा को चुनते हो, सर्व को चुनते हो; तुम अपनी सारी सीमाएं छोड़ कर छलांग लगा जाना चाहते हो।
जब तक यह शीशे का घर है
तब तक ही पत्थर का डर है

हर आंगन जलता जंगल है
दरवाजे सांपों का पहरा
झरती रोशनियों में अब भी
लगता कहीं अंधेरा ठहरा

जब तक यह बालू का घर है
तब तक ही लहरों का डर है

हर खूंटी पर टंगा हुआ है
जख्म भरे मौसम का चेहरा
शोर सड़क पर थमा हुआ है
गलियों में सन्नाटा गहरा

जब तक यह काजल का घर है
तब तक ही दर्पण का डर है

हर क्षण धरती टूट रही है
जर्रा-जर्रा पिघल रहा है
चांद-सूर्य को कोई अजगर
धीरे-धीरे निगल रहा है

जब तक यह बारूदी घर है
तब तक चिनगारी का डर है
जब तक हमने शरीर के साथ अपने को एक समझा है, तभी तक सब भय हैं--बीमारी के, बुढ़ापे के, मृत्यु के। जिसकी आंखें सब जगह छिपे हुए परमात्मा को खोजने लगीं, जिसमें भक्ति की जिज्ञासा उठी, जिसने जानना चाहा है कि जीवन का परम सार क्या है? जीवन की परम बुनियाद क्या है? जो जानना चाहता है कि अब मैं तरंगों से नहीं, सागर से मिलना चाहता हूं। अब मैं अभिव्यक्ति से नहीं, अभिव्यक्तियों के भीतर जो छिपा है, अदृश्य, उसको जानना चाहता हूं। जिसने अपने भीतर देखा कि एक तो देह है जो दिखाई पड़ती है और एक मैं हूं जो दिखाई नहीं पड़ता...
तुम आज तक किसी को दिखाई नहीं पड़े हो, इस पर तुमने कभी विचार किया? न तुम्हारी पत्नी ने तुम्हें देखा, न तुम्हारे बेटे ने, न तुम्हारे मित्रों ने। न तुमने अपनी पत्नी को देखा है। जो देखा है वह देह है--तुम अनदेखे रह गए हो। तुम जरा कभी बैठ कर सोचना। तुम्हें आज तक किसी ने भी नहीं देखा। तुम्हारी आंखों में भी कोई आंखें डाल दे, तो भी तुम्हें नहीं देख सकता। फिर भी तुम हो--आंखों से अलग, कानों से अलग, हाथ-पैरों से अलग तुम हो; इस देह से अलग तुम हो। तुम भलीभांति जानते हो, वह तुम्हारा सहज अनुभव है कि मैं इससे पृथक हूं। तुम्हारा हाथ कट जाए तो भी तुम नहीं कट जाते। तुम आंखें बंद कर लो तो भी भीतर तुम देखते हो--बिना आंख के देखते हो। तुम भीतर हो। तुम चैतन्य हो। तुम अदृश्य हो। जैसे तुम्हारे भीतर यह छोटा सा अदृश्य छिपा है, ऐसा ही इस सारे जगत के भीतर भी अदृश्य छिपा है। दृश्य दिखाई पड़ रहा है, अदृश्य से पहचान नहीं हो रही है।
उस अदृश्य की प्रीति में पड़ जाने का नाम भक्ति है।
फिर भय क्या? दृश्य छिन जाएगा तो छिन जाए। अगर दृश्य की कीमत पर विराट अदृश्य मिलता हो, यह क्षुद्र देह जाती हो तो जाए। यह सस्ता सौदा है। अगर इस देह के जाने पर विराट से मिलन होता हो, प्रभु-मिलन होता हो, तो कौन होगा पागल जो इस देह के लिए रुकेगा? मगर यह प्रतीति भीतर गहरी हो गई हो, तब; नहीं तो भक्ति की जिज्ञासा का क्षण नहीं आया अभी।
दोपहरी तक पहुंचते-पहुंचते
मुरझा जाता है जो
वह कैसा भोर है
क्या
कुल मिला कर
जीवन का मुंह
मृत्यु की ओर है
ऐसा ही है। हम सब मरने की तरफ चल रहे हैं। जिस दिन तुम्हें यह दिखाई पड़ता है कि देर-अबेर, आज नहीं कल, यह देह छूट ही जाएगी; यहां हम सब मरने को ही सन्नद्ध खड़े हैं, पंक्तिबद्ध खड़े हैं; कोई आज मर गया, कोई कल मरेगा; देर-अबेर मैं भी मरूंगा; यहां मृत्यु घटने ही वाली है--इसके पहले अमृत से कुछ पहचान कर लें! अथातो भक्ति जिज्ञासा! इसके पहले कि देह छिन जाए, देह में जो बसा है, उससे पहचान कर लें! इसके पहले कि पिंजड़ा टूट जाए, पिंजड़े में जो पक्षी है, उससे पहचान कर लें। तो फिर पिंजड़ा रहे कि टूटे, कोई भेद नहीं पड़ता। अंतर की जिसे पहचान हो गई, उसे सब तरफ भगवान की झलक मिलने लगती है। मगर पहली पहचान अपने भीतर है। जिसने स्वयं को नहीं जाना, वह उस परमात्मा को कभी भी नहीं जान सकेगा।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, परमात्मा को जानना है।
मैं उनसे पूछता हूं, तुम स्वयं को जानते हो? स्वयं को बिना जाने कैसे परमात्मा को जानोगे? कण से तो पहचान करो, फिर विराट से करना।
तत्संस्थस्यामृतत्वोपदेशात्‌।
‘ऐसा कहा है कि उनमें चित्त लग जाने से जीव अमरत्व को प्राप्त हो जाता है।’
उपदेशात्‌ का अर्थ होता है: जिन्होंने जाना, उन्होंने कहा है। उपदेश शब्द का अर्थ इतना ही नहीं होता कि ऐसा कहा है। हर किसी की कही बात उपदेश नहीं होती। उपदेश किसकी बात को कहते हैं? जिसने जाना हो। और उपदेश क्यों कहते हैं? उपदेश शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है: जिसके पास बैठने से तुम भी जान लो--उप, देश--जिसके पास बैठने से तुम्हें भी जानना घटित हो जाए, जिसकी सन्निधि में तुम्हारे भीतर भी तरंगें उठने लगें, जिसके स्पर्श से तुम भी स्फुरित हो उठो, जिसके निकट आने से तुम्हारा दीया भी जल जाए, उसके वचन को उपदेश कहते हैं।
तत्‌ संस्थस्य अमृतत्व उपदेशात्‌।
जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा है कि उसमें चित्त लग जाने से जीव अमरत्व को प्राप्त हो जाता है। अनुवाद में थोड़े शब्द ज्यादा हो गए हैं। संस्कृत के सूत्र शब्दों के संबंध में बड़े वैज्ञानिक हैं; एक शब्द का भी ज्यादा उपयोग नहीं करेंगे। अनुवादक ने जीव शब्द को बीच में डाल दिया। अनुवाद इतना ही होना चाहिए--जिन्होंने जाना, उन्होंने कहा: जो उसे पा लेते हैं वे अमृत हो जाते हैं। उनकी मृत्यु मिट जाती है। उनके लिए मृत्यु मिट जाती है। उनका मृत्यु से संबंध विच्छिन्न हो जाता है। क्यों? क्योंकि ईश्वर का अर्थ होता है: जीवन। वृक्ष आते हैं और जाते हैं, लेकिन वृक्षों के भीतर जो छिपा जीवन है वह सदा है। पात्र बदलते हैं, नाटक चलता है। हम नहीं थे, सब था; हम नहीं होंगे, फिर भी सब होगा। हमारे होने न होने से कुछ भेद नहीं पड़ता। जो है, है। हम तरंगें हैं। हम हो भी जाते हैं, नहीं भी हो जाते हैं। फिर भी इस अस्तित्व में न तो हमारे होने से कुछ जुड़ता है और न हमारे न होने से कुछ घटता है। यह अस्तित्व उतना का उतना, जितना का जितना, जस का तस, वैसा का वैसा बना रहता है।
सागर में लहर उठी, फिर लहर सो गई। क्या तुम सोचते हो लहर के उठने से सागर में कुछ नया जुड़ गया था? अब लहर के चले जाने से क्या सागर में कुछ कमी हो गई? न तो सागर में कुछ जुड़ा, न कुछ कमी हुई। सब वैसा का वैसा है।
सत्य न तो घटता, न बढ़ता। बढ़े तो कहां से बढ़े? घटे तो कहां घटे? कैसे घटे? सत्य तो जितना है उतना है। जिस दिन व्यक्ति अपने को लहर की तरह देखता है और परमात्मा को सागर की तरह, अपने को तरंग की तरह, इससे ज्यादा नहीं; एक रूप, एक नाम, इससे ज्यादा नहीं; एक भावभंगिमा, एक मुख-मुद्रा, इससे ज्यादा नहीं; उसके भीतर उठा हुआ एक स्वप्न, इससे ज्यादा नहीं--अमृत से संबंध हो गया। तत्संस्थस्य! उसके साथ जो जुड़ गया!
तत्‌ शब्द विचारणीय है। तत्‌ का अर्थ होता है: वह; दैट। ईश्वर को हम कोई व्यक्तिवाची नाम नहीं देते, क्योंकि व्यक्तिवाची नाम देने से भ्रांतियां होती हैं। राम कहो, कृष्ण कहो--भ्रांति खड़ी होती है। क्योंकि ये भी तरंगें हैं; बड़ी तरंगें सही, मगर तरंगें हैं। उसकी तरंगें हैं। अवतार सही, मगर आज हैं और कल नहीं हो जाएंगे। छोटी तरंग हो सागर में कि बड़ी तरंग हो, इससे क्या फर्क पड़ता है--तरंग तरंग है। उसकी! तत्‌! उसमें जो ठहर गया; उससे भिन्न अपने को जो नहीं मानता--उसका संबंध अमृत से हो जाता है, क्योंकि परमात्मा अमृत है।
ऐसा कहना कि परमात्मा अमृत है, शायद ठीक नहीं। ऐसा ही कहना ठीक है कि इस जगत में जो अमृत है, उसका नाम परमात्मा है। इस जगत में जो नहीं मरता, उसका नाम परमात्मा है। जो इस जगत में मर जाता है, वह संसार। जो नहीं मरता, वह परमात्मा।
तुमने एक बीज बोया। बीज मर गया। लेकिन अंकुर हो गया। जो बीज में छिपा था अमृत, अब अंकुर में आ गया। बीज मर गया, उसने बीज को छोड़ दिया, वह देह छोड़ दी, अब उसने नई देह ले ली, नया रूप ले लिया। अब तुम बैठ कर रोओ मत बीज की मृत्यु पर। क्योंकि बीज में तो कुछ और था ही नहीं; जो था, अब अंकुर में है। फिर एक दिन वृक्ष बड़ा हो गया, फिर एक दिन वृक्ष मर गया। अब तुम रोओ मत वृक्ष की मृत्यु पर। क्योंकि जो वृक्ष में मर गया, वह अब फिर बीजों में छिप गया है। बीज में वृक्ष छिप गया। अब फिर कहीं, फिर किसी मौसम में, फिर किसी अवसर में, फिर किसी क्षण में बीज अंकुरित होंगे। फिर पौधा होगा, फिर वृक्ष होगा।
जीवन शाश्वत है। रूप बदलते, ढंग बदलते, मगर जीवन शाश्वत है। उसे देखो--अविच्छिन्न जीवन की धारा को।
एक दिन तुम मां के पेट में सिर्फ मांस-पिंड थे। आज वह मांस-पिंड कहीं भी नहीं है। आज तुम्हारे सामने उस मांस-पिंड का कोई चित्र रख दे तो तुम पहचान ही न सकोगे कि कभी मैं यह था। या कि तुम सोचते हो पहचान सकोगे? फिर एक दिन तुम छोटे बच्चे थे, फिर वह भी खो गया। फिर तुम जवान थे, वह भी खो गया। अब तुम बूढ़े हो, वह भी खो रहा है। मौत भी आएगी, यह देह भी खो जाएगी। फिर किसी और क्षण में, फिर किसी और मौसम में, तुम कहीं फिर उमगोगे, फिर जन्मोगे। जो इस तरह से रूपों से गुजरता है, उसकी याद करो, उसका स्मरण करो। उसका नाम तत्‌, वह। वह अमृत है। और उससे जो जुड़ गया, वह भी अमृत हो गया।
अब यहां यह भ्रांति मत कर लेना, जैसी कि हिंदी अनुवाद में हो सकती है: ऐसा कहा है कि उनमें चित्त लग जाने से जीव अमरत्व को प्राप्त हो जाता है।
इससे भ्रांति पैदा हो सकती है, तुमको यह लग सकता है: तो चलो परमात्मा से जुड़ जाएं, इससे मृत्यु से बच जाएंगे! अमृत हो जाएंगे! तो मैं बचूंगा! तो रहूंगा बैकुंठ में, कि स्वर्ग में, कि मोक्ष में--मगर मैं बचूंगा--जीव बचेगा! अब यह जीव नाहक बीच में ले आया गया; इसकी कोई जरूरत न थी। यह तो ऐसा ही हुआ कि बीज सोचे कि मैं बचूंगा; चलो कोई हर्जा नहीं, पौधे में बचूंगा।
बीज कहां बचेगा? बीज तो जाएगा। तुम तो जाओगे, तुम नहीं बचोगे। तुम जैसे हो ऐसे तो तुम जाओगे ही, जा ही रहे हो, प्रतिपल जा रहे हो। तुमने जैसा अपने को जाना है, यह बचने वाली बात नहीं है। लेकिन तुम्हारे भीतर कोई ऐसा तत्व भी छिपा पड़ा है, जैसा तुमने अपने को अभी तक जाना ही नहीं है, वह बचेगा। उसका तुमसे कुछ संबंध नहीं। वह यानी वह, तत्‌। तुम्हारे भीतर भी तत्‌ बैठा है--साक्षी की तरह बैठा है। जब तुम भोजन कर रहे हो, तब वह भोजन नहीं कर रहा है, देख रहा है कि तुम भोजन कर रहे हो। जब तुम स्नान कर रहे हो, तब वह स्नान नहीं कर रहा है, देख रहा है कि तुम स्नान कर रहे हो। जब तुम बीमार पड़ते हो, तब वह बीमार नहीं होता, देखता है कि तुम बीमार हो गए हो। और जब तुम स्वस्थ होते हो, तब वह स्वस्थ नहीं होता, देखता है कि तुम स्वस्थ हो गए हो।
समझ लेना भेद। जिसने भोजन किया, जो भूखा था; जो बीमार पड़ा, जो स्वस्थ हुआ--इसको ही तुमने अब तक माना है कि मैं हूं। यह तो जाएगा। और तुम्हारे भीतर एक तत्‌ छिपा है, एक साक्षी खड़ा है, एक चैतन्य--जिससे तुमने अपना संबंध ही नहीं जोड़ा है अभी तक, जिससे तुम्हारी कोई पहचान ही नहीं है! तुम्हारी अपने से पहचान ही कहां है!
तुम्हारी हालत ऐसी ही है जैसे किसी ने अपने को अपने वस्त्रों के साथ एक कर लिया और सोचता है: यही मैं हूं। यह कमीज, यह कोट, यह टोपी, यह अंगरखा, यह मैं हूं। ये तो जाएंगे, ये तुम हो ही नहीं। तुम तो बिलकुल न बचोगे। लेकिन फिर भी कुछ बचेगा। और वह कुछ तुम्हारे मैं से बिलकुल मुक्त है। वहां मैं का भाव ही नहीं उठता है। वहां मैं की तरंग ही नहीं बनती है।
इसलिए बुद्ध ने तो कह दिया: अनात्मा; कोई आत्मा नहीं है। क्योंकि आत्मा अर्थात मैं। उस साक्षी में कहां आत्मा है! उस साक्षी में यह भाव ही नहीं बनता कि मैं। जहां मैं का भाव बना, संसार शुरू हुआ। जहां मैं का भाव मिटा, संसार मिटा। उसमें ठहर गए, तो अमरत्व--ऐसा जानने वालों ने कहा है।
ज्ञानमितिचेन्नद्विषतोऽपिज्ञानस्यतदसंस्थितेः।
‘ईश्वर-संबंधी ज्ञानविशेष का नाम भक्ति नहीं है। द्वेषी पुरुष को भी ज्ञान होता है, परंतु उसमें प्रीति नहीं होती।’
यह सूत्र बहुमूल्य है। खूब ध्यानपूर्वक समझना।
‘ज्ञानविशेष का नाम भक्ति नहीं है।’
ईश्वर के संबंध में जानना ईश्वर को जानना नहीं है। ईश्वर के संबंध में जानना तो बहुत सस्ता है; बिना कुछ दांव पर लगाए हो जाता है--शास्त्र पढ़ लिए और जान लिया। सदगुरुओं के वचन कंठस्थ कर लिए--तोते की भांति! तो ज्ञान तो सस्ता है। पंडित हो जाना तो बहुत सस्ता है। ज्ञानी होना बहुत कठिन है। ज्ञानी कोई ज्ञान से नहीं होता, ज्ञानी तो प्रेम से होता है।
यह बात जरा उलझी हुई लगेगी। जानने के लिए ज्ञान का संग्रह पर्याप्त नहीं है। जानने के लिए तो प्रीति जगनी चाहिए--विराट के प्रति, अनंत के प्रति, अमृत के प्रति।
‘ईश्वर-संबंधी ज्ञानविशेष का नाम भक्ति नहीं है।’
इसलिए इस भ्रांति में मत पड़ जाना कि खूब जान लिया--उपनिषद पढ़े, वेद पढ़े, गीता पढ़ी, खूब जान लिया, कंठस्थ कर लिया, शास्त्र याद हो गए। सोचने लगे कि ईश्वर है, क्योंकि शास्त्रों के तर्क ने समझा दिया कि ईश्वर है। मानने भी लगे कि ईश्वर है। लेकिन यह मानना, यह जानना, सब थोथा है, सब ऊपर-ऊपर है। यह तुम्हारे हृदय में नहीं अंकुरित हुआ है। यह जानना तुम्हारा नहीं है। और जब तक तुम्हारा न हो तब तक झूठ है।
‘ईश्वर-संबंधी ज्ञानविशेष का नाम भक्ति नहीं है।’
तो असली भक्ति क्या है?
असली भक्ति वैयक्तिक रूप से ईश्वर से संबंधित होना है। असली भक्ति व्यक्ति का परम से विवाह है। शास्त्र पढ़ने से नहीं होगा। सत्य में उतरना होगा। उतरना महंगा सौदा है। खतरा है। बड़ा खतरा तो है अपने को खोने का। अपने को जो मिटाने को तैयार है, वही वहां जाएगा।
कबीर ने कहा है: जो घर बारै आपना, चलै हमारे संग। यह अपना, यह मैं, यह घर तो जला डालना होगा। यह अपने ही हाथ से फूंक देना होगा।
पंडित कुछ भी नहीं फूंकता, उलटे उसका मैं और मजबूत हो जाता है। वह तो अपने मैं के घर को और बड़ा कर लेता है। ज्ञान से खूब सजा लेता है। ज्ञान आभूषण है अहंकार का। इसलिए ज्ञानी परमात्मा को नहीं जान पाता, प्रेमी जानता है। प्रेमी का अर्थ है: जो अपने को कुर्बान करने को तत्पर है। प्रेमी का अर्थ है: जो झुकने को, समर्पित होने को राजी है।
मैं रुका रहा

किसी बांस की डाली की तरह
हवा के सामने झुका रहा
और आवाज सुनता रहा एक
कि नति ठीक है
मगर मना नहीं है तुम्हारे लिए गति
हमने तो तुमसे उन्नत होने को कहा है
विरति की बात कहां कही है हमने
रत रहने के लिए
कहा है हमने तो तुमसे

सुनने को सुनता रहा मैं यह आवाज
मगर समझ लिया मैंने
कि यह एक सलाह है

अपनी एक राह है मेरी
रुकने की और झुकने की
किसी न किसी जगह
पूरी तरह चुकने की!
वही जान पाएगा परमात्मा को, जिसने यह राह पकड़ी--
अपनी एक राह है मेरी
रुकने की और झुकने की
किसी न किसी जगह
पूरी तरह चुकने की!
जो अपने को पूरा उंडेल देगा। कुछ और चढ़ाने से काम नहीं होगा। किसको धोखा देते हो? फूल चढ़ाने से काम नहीं होगा, जब तक तुम अपने प्राणों के फूल न चढ़ाओ। यह धूप-दीप जलाने से कुछ भी न होगा, जब तक तुम अपने प्राणों की धूप-दीप न जलाओ। ये तुम्हारे पूजा के थाल झूठे हैं। इसलिए तो परमात्मा से कभी कोई संबंध नहीं हुआ। ये पूजा के थाल ही अड़ंगा बने हैं। ये तुम्हारे मंदिरों में बजते हुए घंटनाद और उठता हुआ धूप का धुआं--यह सब झूठा है। यह धुआं तुमसे उठे! यह नाद तुम्हारे भीतर हो! यह तुम्हारा ओंकार हो! तुम जलो! तुम गलो! तुम झुको! तुम अपने को उंडेलो, तो कुछ हो!
‘ईश्वर-संबंधी ज्ञानविशेष का नाम भक्ति नहीं है। द्वेषी पुरुष को भी ज्ञान होता है, परंतु उसमें प्रीति नहीं होती।’
ज्ञान तो सरल बात है। ज्ञान तो कैसे भी आदमी को हो सकता है। द्वेषी को भी हो सकता है। अत्यंत घृणा से भरे हुए व्यक्ति को भी हो सकता है। क्रोध से भरे हुए व्यक्ति को भी हो सकता है।
तुमने दुर्वासा जैसे ऋषियों की कहानियां तो पढ़ी ही हैं। ऋषि तो थे ही, मगर गजब के ऋषि रहे होंगे! ज्ञान तो था ही, शास्त्रों के ज्ञाता तो थे ही, लेकिन प्रीति नहीं उमगी, प्रेम का वसंत नहीं आया, प्रेम के फूल नहीं खिले, प्रेम की सरिता नहीं बही--क्रोध ही जलता रहा।
फिर कभी-कभी उनको भी हो गया है, जिनके पास पांडित्य बिलकुल नहीं था--जैसे कबीर को, या कि जैसे मीरा को। पंडित तो जरा भी नहीं थे। शास्त्र का तो कुछ बोध ही नहीं था। कबीर ने तो कहा है: मसि कागद छूयो नहीं। स्याही और कागज तो कभी छुआ ही नहीं। लेकिन कबीर ने कहा है: ढाई आखर प्रेम के, पढ़ै सो पंडित होय। वे जो ढाई अक्षर प्रेम के हैं, वे जरूर पढ़े। बस उन्हीं को पढ़ लिया तो सब पढ़ लिया। उन ढाई अक्षरों में सब अक्षर आ गए। ‘अक्षर’ आ गया।
प्रेम द्वार है परमात्मा का, ज्ञान नहीं।
तो तीन बातें खयाल में लेना। पहली बात: कर्म। दूसरी बात: ज्ञान। और तीसरी बात: भक्ति।
कर्म बड़ा स्थूल अहंकार है--कुछ करके दिखा दूं, कुछ पाकर दिखा दूं। धन हो, पद हो, प्रतिष्ठा हो, दौड़-धाप--कर्ता का अहंकार है। जब आदमी कर्म से हार जाता है, गिर पड़ता है, चलते-चलते- चलते थक जाता है, अनुभव में आता है कि मेरे ही किए कुछ भी नहीं होगा, मेरे बस में नहीं है, मैं एक छोटी बूंद हूं और यह अस्तित्व बड़ा है, मेरी सामर्थ्य में नहीं है--तब आदमी ज्ञान से संयुक्त होता है। कर्म से थका तो ज्ञान से संयुक्त होता है।
ज्ञान का अर्थ होता है: जीत तो न सका, जान कर रहूंगा। जीत तो नहीं हो सकी, लेकिन जानना तो हो सकता है! यह सूक्ष्म अहंकार है।
फिर एक दिन आदमी इससे भी थक जाता है, कि जानना भी नहीं हो सकता; मैं इतना छोटा हूं और यह इतना विराट है--इसको जानूंगा कैसे? मैं इससे अलग कहां हूं? अलग-थलग होता तो जान लेता; मैं तो इसी में जुड़ा हूं, इसी का हिस्सा हूं। अब कोई पत्ता किसी वृक्ष का, वृक्ष को जानना चाहे, कैसे जानेगा? वह वृक्ष का ही हिस्सा है। वृक्ष उससे पूर्व है। वृक्ष चाहे तो पत्ते को जान ले, पत्ता वृक्ष को नहीं जान सकता।
एक दिन कर्म थक जाता है तो ज्ञान पैदा होता है। कर्म यानी स्थूल अहंकार। ज्ञान यानी सूक्ष्म अहंकार। एक दिन ज्ञान भी थक जाता है, तब क्षण आता है: ॐ अथातोभक्तिजिज्ञासा! तब आदमी कहता है: न मैं जीत सका, न मैं जान सका, प्रेम तो कर सकता हूं! यह हो सकता है। पत्ता वृक्ष को जीत नहीं सकता, न वृक्ष को जान सकता है; लेकिन पत्ता वृक्ष के प्रेम में लीन हो सकता है। इसमें कोई अड़चन नहीं है। कर्म: स्थूल अहंकार। ज्ञान: सूक्ष्म अहंकार। भक्ति: निर-अहंकार।
तयोपक्षयाच्च।
‘क्योंकि पूर्णरूप से भक्ति का उदय होते ही ज्ञान का नाश हो जाता है।’
यह सूत्र बड़ा अदभुत है। इसके दो अर्थ हो सकते हैं। तयोपक्षयाच्च। उसके जानने से क्षय हो जाता है। इसके दो अर्थ हो सकते हैं। एक अर्थ तो यह हो सकता है कि ज्ञान के जानने से भक्ति का क्षय हो जाता है। दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि भक्ति के जानने से ज्ञान का क्षय हो जाता है। दोनों अर्थ प्यारे हैं। और दोनों अर्थ एक साथ मैं करना चाहता हूं। अब तक किसी ने दोनों अर्थ एक साथ किए नहीं हैं।
पहला: ज्ञान से भक्ति का क्षय हो जाता है।
जितना आदमी जानकार होगा, उतना ही कम प्रेम हो जाएगा। जानना प्रेम की हत्या करता है। जानना जहर है प्रेम के लिए। क्योंकि प्रेम के लिए रहस्य चाहिए, प्रेम के लिए विस्मय-विमुग्धता चाहिए। और ज्ञान तो रहस्य को छीन लेता है। ज्ञान तो कहता है: हम जानते हैं, रहस्य क्या है?
छोटे बच्चे प्रेम कर सकते हैं, क्योंकि आश्चर्यचकित! विस्मय-विमुग्ध! अवाक! छोटा बच्चा छोटी-छोटी चीजों के प्रेम में पड़ जाता है--समुद्र के किनारे रंगीन पत्थर बीनने लगता है, शंख-सीप बीनने लगता है। तुम ज्ञानी हो, तुम कहते हो, फेंको इनको! कचरा कहां ले जा रहे हो? बच्चे की समझ में नहीं आता कि इतना प्यार पत्थर, सूरज की रोशनी में ऐसे दमक रहा है हीरे जैसा! ऐसा प्यार शंख! वह बाप की नजर बचा कर खीसे में छिपा लेता है। उसे प्रेम उपजता है। उसे हर चीज से प्रेम उपजता है। वह हर चीज के पास ठिठक कर खड़ा हो जाता है। घास में फूल खिला है और वह ठिठक कर खड़ा हो जाता है। वह भरोसा नहीं कर पाता--ऐसा प्यारा फूल! ऐसा अदभुत रंग! एक तितली उड़ी जा रही है, वह भरोसा नहीं कर पाता; वह भागने लगता है तितली के पीछे--ऐसा चमत्कार, जैसे फूल को पंख लग गए हों! हर चीज चमत्कृत करती है उसे, क्योंकि वह कुछ भी नहीं जानता, अज्ञानी है, विस्मय से भरा है। आश्चर्य अभी उसका जीवित है।
फिर तुम धीरे-धीरे ज्ञान ठूंसोगे, तुम हर चीज समझा दोगे। फिर एक दिन धीरे-धीरे जब वह विश्वविद्यालय से वापस लौटेगा ज्ञानी होकर--सब गंवा कर और कोरे कागज साथ लेकर, सर्टिफिकेट लेकर--तब उसे कोई चीज विस्मय-विमुग्ध न करेगी। हर चीज का उत्तर उसके पास होगा। तुम पूछो, वृक्ष हरे क्यों हैं? वह कहेगा, क्लोरोफिल। बात खतम हो गई। स्त्री सुंदर क्यों लगती है? हारमोन। बात खतम हो गई। प्रेम क्या है? रसायनशास्त्र। वह समझा सकेगा सब। वह सब समझ कर आ गया है। वह हर चीज को जानता है। अब अनजाना कुछ छूटा नहीं है, प्रीति कैसे उमगे? आश्चर्य ही मर गया। आश्चर्य की हवा में प्रीति उमगती है।
इसलिए तुम जान कर आश्चर्यचकित मत होना कि जैसे-जैसे आदमी का ज्ञान बढ़ा है, वैसे-वैसे दुनिया में प्रेम कम हो गया। यह स्वाभाविक परिणाम है। यह शांडिल्य के सूत्र में छिपा है: तयोपक्षयाच्च।
देखते नहीं, तुम रोज देखते नहीं--दुनिया में जितनी शिक्षा बढ़ती जाती है, उतना प्रेम कम होता जाता है। शिक्षित आदमी और प्रेमी, जरा मुश्किल जोड़ है! जितना शिक्षित, उतना ही कम प्रेमी। थोड़ा अशिक्षित होना चाहिए प्रेम के लिए। ग्रामीण के पास प्रेम है, शहरी के पास विदा हो गया। असभ्य के पास प्रेम है, सभ्य के पास नहीं। जो जितना सुसंस्कृत हो गया है, उसके पास औपचारिकता है, लेकिन औपचारिकता में कहीं कोई प्राण नहीं है, कहीं कोई जीवन नहीं है। वह जब तुमसे पूछता है, कहिए कैसे हैं? कुछ नहीं पूछ रहा है। वह यह कह रहा है कि चलो, आगे बढ़ो। यह तो पूछना पड़ता है। हमें मतलब? तुम्हें मतलब? किसी को क्या लेना-देना है।
वर्षों बीत जाते हैं और पड़ोसी से पहचान नहीं होती। सुसंस्कृत आदमी का कोई पड़ोसी ही नहीं है। पड़ोस तो प्रेम से बनता है। जीसस ने कहा है: कौन है पड़ोसी? क्योंकि जीसस बहुत जोर देते थे इस बात पर कि पड़ोसी से प्रेम करो, तो ही तुम परमात्मा से प्रेम कर पाओगे। अपने प्रेम को थोड़ा बढ़ाओ, फैलाओ सब तरफ; आस-पड़ोस प्रेम को फैलाओ। कौन है पड़ोसी?
एक दिन उनके शिष्य ने पूछा कि आप किसको पड़ोसी कहते हैं?
तो जीसस ने कहा, एक आदमी निकलता था एक सुनसान रास्ते से। डाकुओं ने हमला किया, उसे लूट लिया, उसको छुरे मारे। उसको कई घावों से भर कर पास के गड्ढे में फेंक दिया। फिर उसके गांव का ही पादरी वहां से गुजरा, रबाई। उसने देखा इस आदमी को, यह इसके गांव का ही आदमी था, इसके ही मंदिर में प्रार्थना करने आता था--यह मंदिर में ही प्रार्थना करने जा रहा था--इसने देखा, घाव से भरे, कराहते। उस आदमी ने कहा कि मुझे बचाओ; मैं मर रहा हूं, मुझे उठाओ।
लेकिन उसने कहा कि अगर मैं तुम्हें उठाऊं तो मैं झंझट में पडूंगा; पुलिस पीछे पड़ेगी--क्या हुआ? कैसे हुआ? किसने मारा? तुम वहां क्या कर रहे थे? तुम्हारा कुछ हाथ तो नहीं है? फिर अभी मुझे मंदिर जाना है, मैं प्रार्थना करने जा रहा हूं। यह बेवक्त की झंझट कौन सिर ले! मंदिर की जगह पुलिसथाने जाना पड़े! फिर इसको अस्पताल ले जाओ, फिर मर-मरा जाए, फिर न मालूम कौन झंझट खड़ी हो।
उसने तो पीठ फेर ली और चल पड़ा। फिर दूसरे गांव का एक आदमी पास से गुजर रहा था, जिसने इस आदमी को कभी देखा भी नहीं। वह पास आया, उसने इसे अपने गधे पर बिठाया, इसके घाव धोए, इसको पास की धर्मशाला में ले गया, वहां भोजन कराया, वहां इसे लिटाया, चिकित्सक को बुलाया--और यह इस आदमी को जानता भी नहीं था!
तो जीसस ने पूछा अपने शिष्यों से, तुम किसको पड़ोसी कहते हो? वह पुरोहित पड़ोसी था, जो पड़ोस में ही रहता था, या यह अजनबी आदमी पड़ोसी है, जिसने इसे कभी देखा नहीं था?
शिष्यों ने कहा, स्वभावतः यह अजनबी आदमी पड़ोसी है।
तो जीसस ने कहा, जहां प्रेम है, वहां पड़ोस है। जितना बड़ा प्रेम है, उतना बड़ा पड़ोस है। अगर प्रेम बड़ा हो तो सारी पृथ्वी पड़ोस है। और प्रेम बड़ा हो तो सारा ब्रह्मांड पड़ोस है। प्रेम की सीमा पड़ोस की सीमा है। प्रेम यानी पड़ोस।
जैसे-जैसे शिक्षा बढ़ती है, ज्ञान बढ़ता है, प्रेम संकुचित होता जाता है। तयोपक्षयाच्च। इसलिए ज्ञान भक्ति में सहयोगी तो होता ही नहीं, बाधा होता है।
और दूसरा अर्थ भी बहुमूल्य है: भक्ति से ज्ञान का क्षय हो जाता है। और जब भक्ति का जन्म होता है तो आदमी पुनः अज्ञानी हो जाता है; वह सब ज्ञान-व्यान को जला कर फेंक देता है, राख कर देता है। क्योंकि जब वह परमात्मा से थोड़ा सा जुड़ता है, तब उसे पता चलता है कि जो जाना सब कचरा था। वह तो सब झूठ था। वह तो सब व्यर्थ था। अब असली हीरे मिले। तो वे जो उसने कंकड़-पत्थर बीन रखे थे, फेंक देता है। जो उसने शास्त्रों का उच्छिष्ट इकट्ठा कर लिया था, अब क्यों करे? अब तो अपने ही शास्त्र का जन्म हो गया है। अब तो उपनिषद अपने भीतर ही उतर रहा है। अब क्यों किसी उपनिषद को बांधे फिरे? अब क्यों किसी कुरान की आयत को दोहराए? अपनी ही आयत गर्भ में आ गई है, पक रही है। अपने ही फल पकने लगे, अपने ही फूल खिलने लगे। तो जैसे ही भक्ति का जन्म होता है, ज्ञान का क्षय हो जाता है। भक्ति और ज्ञान ऐसे हैं जैसे रोशनी और अंधेरा। रोशनी है तो अंधेरा नहीं। अंधेरा है तो रोशनी नहीं। दोनों साथ नहीं होते हैं।
ज्ञानी भक्त नहीं होता--ज्ञानी यानी पंडित, खयाल रखना--और भक्त ज्ञानी नहीं होता। भक्त तो निर्दोष हो जाता है, समस्त ज्ञान से मुक्त हो जाता है। भक्त तो पुनः अज्ञानी हो जाता है। क्योंकि परमात्मा अज्ञेय है; उसके सामने हम अज्ञानी की तरह ही खड़े हो सकते हैं, ज्ञानी की तरह नहीं। ज्ञान का दावा अहंकार का दावा है।
इस सूत्र को खूब हृदय में सम्हाल कर रखना। यह कुंजी है।
तयोपक्षयाच्च।
‘क्योंकि पूर्णरूप से भक्ति का उदय होते ही ज्ञान का नाश हो जाता है।’
तीर-तीर
थका शरीर लेकर चलता हूं
रुक जाता हूं शाम को

नाम का सहारा
काट देता है रातें
और फिर पौ फटते ही
उतर पड़ता हूं पानी में
वाणी में घोल कर विश्वास
कि पहुंच रहा हूं ठांव पर

टेक पाऊंगा
किसी-किसी संध्या में
अपना माथा
अशरण-शरण तुम्हारे पांव पर
नाम से रूप तक
रूप से नाम तक की यात्रा
चल रही है

ऐसा नहीं लगता
किसी दिन बंद होगी यह

लगता है रोज-रोज
अधिकाधिक छंद होगी यह!
बड़ा जीवन पड़ा है शेष अभी। जो तुमने जाना, वह तो कुछ भी नहीं है। बड़ा जीवन शेष पड़ा है अभी। जो तुमने जाना, वह तो मृत्यु है। अमृत तो अपरिचित पड़ा है अभी! बड़ी यात्रा करनी है। यह कुछ ऐसी यात्रा नहीं कि समाप्त होगी।
ऐसा नहीं लगता
किसी दिन बंद होगी यह
लगता है रोज-रोज
अधिकाधिक छंद होगी यह!
रोज-रोज नये छंद, नये गीत उमगेंगे। रोज-रोज ओंकार नये रूपों में प्रकट होगा। बढ़ो! ज्ञान से नहीं, कर्म से नहीं--प्रेम से!
ॐ अथातोभक्तिजिज्ञासा!

आज इतना ही।

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