JAGJIVANDAS

Ari, Main To Naam Ke Rang Chhaki 09

Ninth Discourse from the series of 10 discourses - Ari, Main To Naam Ke Rang Chhaki by Osho. These discourses were given during SEP 11-20 1978.
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रंगि-रंगि चंदन चढ़ावहु, सांईं के लिलार रे।।
मन तें पुहुप माल गूंथिकै, सो लैकै पहिरावहु रे।
बिना नैन तें निरखु देखु छवि, बिन कर सीस नवावहु रे।।
दुइ कर जोरिकै बिनती करिकै, नाम कै मंगल गावहु रे।
जगजीवन विनती करि मांगै, कबहुं नहीं बिसरावहु रे।।

यहि नगरी में होरी खेलौं री।।
हमरी पिया तें भेंट करावौ, तुम्हरे संग मिलि दौरौं री।।
नाचौं नाच खोलि परदा मैं, अनत न पीव हंसौ री।
पीव जीव एकै करि राखौं, सो छवि देखि रसौं री।।
कतहूं न वहौं रहौं चरनन ढिग, मन दृढ़ होए कसौं री।।
रहौं निहारत पलक न लावौं, सर्बस और तजौं री।।
सदा सोहाग भाग मोरे जागे, सतसंग सुरति बरौं री।
जगजीवन सखि सुखित जुगन-जुग, चरनन सुरति धरौं री।।

अरी ए, नैहर डर लागै, सखी री, कैसे खेलौं मैं होरी।
औंगुन बहुत नाहिं गुन एकौ, कैसे गहौं दृढ़ डोरी।।
केहिं कां दोष मैं देउं सखी री, सबैं आपनी खोरी।
मैं तो सुमारग चला चहत हौं, मैं तैं विष मां घोरी।।
सुमति होहि तब चढ़ौं गगन-गढ़, पिय तें मिलौं करि जोरी।।
भीजौं नैनन चाखि दरसन-रस, प्रीति-गांठि नहिं छोरी।।
रहौं सीस दै सदा चरनतर, होउं ताहिकी चेरी।
जगजीवन सत-सेज सूति रहि, और बात सब थोरी।।
सहर तक शमए-महफिल! मैंने जल-बुझने की ठानी है
हमें ये देखना है, खाक हो जाते हैं हम कब तक
परमात्मा की जो खोज पर निकले हैं, उन्हें खाक हो जाने की तैयारी रखनी होती है। मिटो, तो ही उसे पा सकोगे। जरा से भी बच गए, तो उतना ही फासला शेष रह जाता है। तुम्हारा मिटना ही उसका होना है। तुम्हारा मिटना ही उससे मिलना है। इसलिए जिसे यह बात साफ नहीं है, वह जन्मों-जन्मों तक भटकता रहे, खोजता रहे, पाएगा नहीं।
सहर तक शमए-महफिल! मैंने जल-बुझने की ठानी है
हमें ये देखना है, खाक हो जाते हैं हम कब तक
मिटने की तैयारी ही उसकी एकमात्र साधना है। ‘मैं’ विदा हो जाए, समग्ररूपेण विदा हो जाए, तो द्वार खुल जाता है। मैं के अतिरिक्त और कोई ताला नहीं है उसके द्वार पर। तुम ही बाधा हो।
लोग सोचते हैं, कोई और बाधा है। लोग सोचते हैं, अज्ञानी हूं, थोड़ा ज्ञान हो जाएगा तो बाधा मिट जाएगी। पापी हूं, थोड़ा पुण्य कर लूंगा तो बाधा मिट जाएगी। नहीं, न तो पुण्य से बाधा मिटेगी, न ज्ञान से बाधा मिटेगी। जब तक तुम हो, बाधा रहेगी। अज्ञानी होकर रहो तो बाधा रहेगी, ज्ञानी होकर रहो तो बाधा रहेगी; पापी होकर रहो तो बाधा रहेगी, पुण्यात्मा होकर रहो तो बाधा रहेगी। फिर ताला लोहे का है कि सोने का, फर्क नहीं पड़ता। ताला ताला है। दरवाजा नहीं खुलेगा सो नहीं खुलेगा। मिटना होगा। खाक हो जाना होगा। जैसे दीया बुझ जाता है!
इसलिए बुद्ध ने उस परम अवस्था को निर्वाण कहा। निर्वाण का अर्थ है: दीये का बुझ जाना। जैसे दीया बुझ जाता है ऐसे तुम बुझ जाओ, तो सूरज प्रकट हो जाए। तुम्हारे दीये की टिमटिमाती लौ ने ही सूरज को छिपा रखा है। जरा सी किरकिरी आंख में पड़ जाती है, पहाड़ ओझल हो जाते हैं। ऐसी जरा सी ही किरकिरी है अहंकार की, पर उसी की आड़ में, उसी की ओट में सब-कुछ छिप गया है।
किसे यकीन कि तुम देखने को आओगे,
आखिरी वक्त मगर इंतजार और सही।
अंत तक, ठीक अंत तक भी उसका आगमन नहीं होता--अंत हो जाने के बाद ही होता है। जरा से भी बच गए हो, तो उतनी ही बाधा शेष रह गई है।
सिद्ध कौन है? जो शून्य है। जो परिपूर्ण शून्य है। जो है ही नहीं। जिसके भीतर जाओ तो रिक्तता है। कोरा आकाश! न विचार के बादल रह गए हैं, न अहंकार की गांठ रह गई है। फिर घटना घटती है। फिर आ जाती सुहाग की घड़ी। होली का परम क्षण आ जाता है!
उनको बुलाके और पशेमां हुए जिगर
ये क्या खबर थी होश में आया न जाएगा
फिर बेहोशी और मस्ती का क्षण आता है। फिर जीवन में नृत्य है--फिर जीवन नृत्य है! फिर जीवन में रंग है--फिर जीवन रंग है! उसके पहले बेरंग है जीवन। उसके पहले नाममात्र को ही जीवन है, जीवन कहां? श्वास के लेने का नाम ही तो जीवन नहीं है। श्वास तो पशु भी ले लेते हैं। हृदय के धड़कने का नाम तो जीवन नहीं। पशु-पक्षियों के भी हृदय धड़क रहे हैं। जिसने श्वास और हृदय के धड़कन को ही जीवन समझ लिया, उसने यात्रा शुरू ही नहीं की, उसने पहला कदम भी नहीं उठाया।
जीवन तो तब है जब परम जीवन का अनुभव हो, शाश्वत जीवन का अनुभव हो। ये श्वासें तो टूट जाएंगी, असली श्वास कब लोगे, जो टूटती नहीं? यह धड़कन तो बंद हो जाएगी। यह हृदय असली हृदय नहीं है। उस हृदय को कब धड़काओगे, जो एक बार धड़कता है तो शाश्वत तक धड़कता है, फिर उसका कोई अंत नहीं आता। अमृत को कब पीओगे? यह जीवन तो मृत्यु है। इस जीवन के पीछे तो मौत खड़ी ही है, हर घड़ी खड़ी है; कब आ जाए, कुछ पता नहीं। यह जीवन तो मौत के पास ही सरकते जाने का एक नाम है। मरघट के करीब रोज जा रहे हो। अर्थी रोज कसी जा रही है। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, मौत घेर लेगी, अंधकार आ जाएगा। यह रोशनी का दिखावा थोड़ी देर का है। यह चहल-पहल चार घड़ी की है। और इस चहल-पहल में सिर्फ चहल-पहल ही है, हाथ कुछ लगता नहीं, हाथ खाली के खाली रह जाते हैं। न कुछ लेकर आते हो, न कुछ लेकर जाते हो। खाली आते, खाली चले जाते हो।
जागो! इस शोरगुल में बहुत मत उलझ जाओ! एक और सन्नाटा है भीतर जिससे पहचान करनी है। एक और हृदय है, जिसकी कुंजी तलाशनी है। तुम्हारे भीतर ही छिपा हुआ एक और राज है, जिसके पर्दे उघाड़ने हैं, जिसका घूंघट उठाना है। जिस दिन वह पर्दा उठता है, उस दिन ही पता चलता है कि हम क्या थे और क्या होकर रह गए थे! कमल थे और कीचड़ ही होकर रह गए थे। कमल की संभावना थी और हमने कीचड़ को ही अपना होना मान रखा था। राम थे और काम ही होकर रह गए थे। विराट थे और बड़े क्षुद्र में अपने को बांध लिया था। सारा आकाश थे, मुक्त आकाश थे, और कितने छोटे-छोटे इरछे-तिरछे आंगनों में आबद्ध हो गए थे!
जो खोजने चलता है, उसे यह दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है कि यह जीवन तो असली जीवन नहीं। इस जीवन से तो उसका चित्त निराश हो जाता है। इस जीवन से तो हताश हो जाते हैं उसके प्राण। और जिसने असार को असार की तरह जान लिया, अब ज्यादा देर नहीं है सार को सार की तरह देखने में। व्यर्थ को व्यर्थ की तरह पहचान लिया तो सार्थक के बहुत करीब आ गए। झूठ को झूठ की तरह पहचान लेना, सत्य को सत्य की तरह पहचान लेने की अनिवार्य मंजिल है।
रंगि-रंगि चंदन चढ़ावहु, साईं के लिलार रे।
और जो खोजने निकलता है और इतनी कीमत चुकाने को राजी है कि खाक होना पड़े तो खाक हो जाए; जो सूली पर चढ़ने को राजी है, उसे सिंहासन मिलता है। आ जाती है वह अमृत-घड़ी!
रंगि-रंगि चंदन चढ़ावहु, साईं के लिलार रे।
--कि उस प्यारे के ललाट पर चंदन का टीका लगाने का मौका आ जाता है!
मन तें पुहुप माल गूंथिकै, सो लैकै पहिरावहु रे।
और जब तुम शून्य हो जाते हो, तो जहां तुमने केवल विचारों की भीड़ देखी थी, जिस मन में तुमने सिवाय वासनाओं के, विचारों के, कल्पनाओं के, व्यर्थ के ऊहापोह के और कभी कुछ भी न पाया था; जिस मन में तुमने सिर्फ हाट भरी देखी थी वासनाओं, इच्छाओं, ऐषणाओं की, उसी मन में एक फूल खिलता है--चैतन्य का! यही मन, जो बाहर उलझा रहता है तो विक्षिप्तता लाता है, यही मन बाहर से मुक्त हो जाता है तो विमुक्तता लाता है। यही सीढ़ी है बाहर जाने की, यही सीढ़ी है भीतर आने की। उसी द्वार से तो बाहर जाते हो, जिस द्वार से भीतर आते हो। जिस सीढ़ी से नीचे उतरते हो, उसी से तो ऊपर भी जाते हो। सीढ़ी को दोष मत देना, दिशा का सवाल है।
यही मन संसार से जोड़ देता है, यही मन परमात्मा से जोड़ देता है। जब तक संसार से जोड़ता है, तब तक इस मन में कांटे ही कांटे उगते हैं क्योंकि संसार में सिवाय कांटों के और कुछ भी नहीं है--कांटों का जंगल है! और जब यही मन तुम्हें परमात्मा से जोड़ देता है, अंतरात्मा से जोड़ देता है, तो फूल खिल आते हैं। और वे ही फूल चढ़ाने योग्य हैं।
वृक्षों के फूल तोड़ कर जाकर मंदिर की मूर्तियों पर चढ़ा देते हो! न मूर्तियां सच्ची तुम्हारी, न फूल अपने। इस झूठ को तुम पूजा कहते हो? फूल पौधौं के--और चढ़े ही थे, पौधौं पर चढ़े ही तो चढ़े थे परमात्मा को। जिंदा तो थे! रस बह रहा था। चांद-तारों से बातें कर रहे थे। हवाओं में गंध बिखेर रहे थे। ये परमात्मा के ही चरणों पर चढ़े थे। और जीवंत थे और तुम्हारी पूजा बड़ी अनूठी है! इन जिंदाओं को तुमने तोड़ डाला, मार डाला, काट लिया! और चढ़ा कहां आए? जीवन को मुर्दा कर दिया और अपनी ही बनाई हुई मूर्तियों पर, पत्थर की मूर्तियों पर चढ़ा आए!
तुम्हारी बनाई मूर्तियां तुम्हारी प्रतिछवियां हैं। तुम्हारी ही तस्वीरें हैं। तुम्हारी बनाई मूर्तियां तुम्हारी ही कल्पनाएं हैं। तुम्हारे हाथ से परमात्मा गढ़ा जाए, यह संभव कैसे? तुम्हें परमात्मा ने गढ़ा है। तुम गढ़ने वाले को गढ़ लेते हो, किसको धोखा देते हो? बजाय इसके कि समझो कि वह स्रष्टा है, तुम उसके स्रष्टा बन जाते हो। और तुमने रंग-रंग, ढंग-ढंग के परमात्मा बना रखे हैं। तुम्हारी मौज! मगर धोखा दे रहे हो और धोखा खुद ही खा रहे हो--किसको दोगे और?
नहीं, एक और घड़ी है--वास्तविक परमात्मा के साक्षात्कार की, जब जीवन का अनुभव होता है, जब अमृत की वर्षा होती है। तब भी फूल चढ़ाए जाते हैं लेकिन वे फूल वृक्षों से नहीं लिए जाते, उधार नहीं होते, अपने ही प्राणों के होते हैं; अपने ही मन में खिले होते हैं। मनुष्य भी एक वृक्ष है और उसमें भी फूल खिलते हैं--चैतन्य के, प्रज्ञा के, ध्यान के, सुरति के। उन्हीं फूलों को चढ़ाना। उन्हीं फूलों को खिलाओ, ताकि चढ़ा सको। उनसे कम में कुछ काम नहीं चलेगा। इस मन को फूल बनाओ। यह वचन प्यारा है: मन तें पुहुप माल गूंथिकै! मन से ही गूंथ लिए फूल, मन से ही तोड़ लिए फूल...सो लैकै पहिरावहु रे! और इसकी ही माला उसे पहनाई।
रंगि-रंगि चंदन चढ़ावहु,...
निश्चित ही यह चंदन भी बाहर का नहीं हो सकता। जब फूल भीतर के हैं तो चंदन भी भीतर का होगा। तुम्हारी चेतना में ही जो सुवास उठती है, उसी का नाम चंदन है। तुम्हारी चेतना की सुवास का नाम चंदन है। तुम्हारे भीतर छिपी है वास और तुम बाहर तलाश रहे हो। देखते न, कस्तूरा, कस्तूरी मृग भागता फिरता, भागता फिरता--इस तलाश में कि कहां से आ रही है यह सुवास? और सुवास उसकी ही नाभि से आती है। कस्तूरी कुंडल बसै!
तुम्हारे भीतर बड़ी सुवास के खजाने पड़े हैं। मगर तुम बाहर की गंध में ऐसे उलझे हो कि अपनी गंध का पता ही नहीं चलता। तुम्हारे नासापुट बाहर की गंधों से ही भरे हैं। तुम समय ही नहीं देते, सुविधा ही नहीं देते कि तुम्हारी आंखें भीतर देख सकें, कि तुम्हारे कान भीतर सुन सकें, कि तुम्हारे नासापुट भीतर की गंध ले सकें, कि तुम्हारी जीभ भीतर का स्वाद ले सके, कि तुम्हें भीतर का स्पर्श हो सके, दरस-परस हो सके--मौका ही नहीं देते। बाहर इतने उलझे हो; तुम्हारी सारी इंद्रियों को तुमने बाहर उलझा रखा है, और फिर इंद्रियों को गाली देते हो। उलझाया तुमने है। इंद्रियां तो भीतर भी ले जा सकती हैं, इंद्रियां बाहर भी ले जा सकती हैं। इंद्रियां तो द्वार हैं।
जिस दरवाजे पर एक तरफ से लिखा होता है एंट्रेंस, प्रवेश, उसी दरवाजे पर दूसरी तरफ से लिखा होता है--एक्झिट, निकास। दरवाजा एक ही है। यह आंख बाहर ही अगर देखती होती तो मनुष्य परमात्मा को कभी भी नहीं देख सकता था। यह आंख भीतर भी देखती है--यह मुड़ कर भी देखती है। यह आंख दुधारी तलवार है। और ऐसी ही तुम्हारी सारी इंद्रियां हैं। बाहर चाहो बाहर देखो, भीतर चाहो भीतर देखो। बाहर देखोगे तो संसार है, भीतर देखोगे तो निर्वाण है। और जो तुमने संसार में देखा है सब तुम्हें भीतर मिल जाएगा--और अनंत-अनंत गुना और अनंत-अनंत गहरा।
गंधें तुमने बाहर भी देखी हैं, मगर कुछ भी नहीं! बाहर की गंधें तो केवल दुर्गंधों को छिपाने के उपाय हैं। बाहर की गंधें तो ऐसे ही हैं जैसे किसी को घाव हुआ हो, मवाद पड़ गई हो और उसके ऊपर एक गुलाब का फूल रख ले। गुलाब का फूल रख लो घाव पर, इससे घाव मिटेगा नहीं, छिप भला जाए। किसे धोखा दे रहे हो? घाव बढ़ता रहेगा। और गुलाब की ओट में हो जाएगा तो और सुविधा से बढ़ेगा, क्योंकि दिखाई भी नहीं पड़ेगा।
अपनी दुर्गंध को छिपाने के लिए लोग सुगंध छिड़क लेते हैं। वह सिर्फ उपाय है भ्रांति पैदा करने का। अपनी कुरूपता को छिपाने के लिए लोग कितने सौंदर्य के आयोजन करते हैं। वस्त्रों से, परिधान से, परिवेष्ठन से, अलंकारों से, आभूषणों से, कितने-कितने उपाय करते हैं! यह सिर्फ कुरूपता को छिपाने के उपाय हैं। बाहर से कोई सुंदर नहीं हो सकता। सौंदर्य का तो अंतस्तल में आविर्भाव होता है।
तुमने बाहर भी रंग देखे हैं, मगर वे रंग कुछ भी नहीं हैं उन रंगों के मुकाबले जो तुम्हारे भीतर भरे हैं। और तुमने बाहर भी इंद्रधनुष देखे हैं, मगर जब भीतर के इंद्रधनुष देखोगे तब पता चलेगा कि बाहर के इंद्रधनुष तो सब फीके थे; सब छायामात्र थे। बाहर तो केवल प्रतिध्वनियां हैं, मूल तो भीतर है। बाहर तो ऐसा समझो कि जैसे तुम पहाड़ों में गए हो और तुमने जोर से आवाज लगाई और पहाड़ी घाटियों में आवाज गूंजी और तुम पर लौट आई। और तुम चौंकते हो और लगता है, शायद पहाड़ों ने तुम्हें पुकारा!
बाहर प्रतिध्वनि हो रही है। गूंज का असली मूल तुम्हारे भीतर है। वहां चंदन के रंग भी हैं, चंदन की सुवास भी। वहां फूल भी खिलते हैं। वहां सहस्रार का परम फूल भी खिलता है! और उसी को परमात्मा के चरणों में चढ़ाया जा सकता है, उसी की माला बनाई जा सकती है।
बिना नैन तें निरखु देखु छवि,...
और जब आंख भीतर मुड़ती है तो आंख में एक रूपांतरण हो जाता है, एक क्रांति हो जाती है। जब आंख बाहर देखती है तो देखने वाला और दिखाई पड़नेवाली चीज अलग-अलग होती हैं, द्रष्टा और दृश्य का भेद होता है। जब आंख भीतर मुड़ती है, तो देखने वाला भी वही होता है, दिखाई पड़ने वाला भी वही होता है। वहां दृश्य और द्रष्टा एक हो जाते हैं। वहां तो दो कैसे होंगे? वहां जानने वाला और जो जाना गया है, एक होता है। वहां भक्त और भगवान एक होता है। वहां सब द्वैत मिट जाते हैं। वही असली दर्शन है जहां दृश्य और दृष्टा दोनों एक में ही खो जाएं।
बिना नैन तें निरखु देखु छवि,...
देखने वाला तो बचता ही नहीं वहां। तब बड़ा चमत्कार अनुभव होता है, बड़े रहस्य का जन्म होता है। चौंक पड़ता है मनुष्य, अवाक रह जाता है!
बिना नैन तें निरखु देखु छवि, बिन कर सीस नवावहु रे।
और वहां तो कोई सिर नहीं है, वहां तो कोई हाथ भी नहीं है--भीतर--मगर बिना हाथ के भी हाथ जुड़ते हैं और बिना सीस के भी सीस झुकता है। और वही असली झुकना है। बाहर का सीस तो तुमने बहुत बार झुकाया मगर झुकता कहां है? झुक-झुक कर अकड़ जाता है। सीस तो झुक जाता है, तुम नहीं झुकते। मंदिरों में खड़े लोगों को देख लो, सीस झुका है मगर खुद अकड़ कर खड़े हैं! खुद का अहंकार तो पूरी तरह मजबूत है, जरा नहीं झुकता, रंच भर नहीं झुकता।
सीस को झुकाने से अहंकार नहीं झुकता। लेकिन जब भीतर सीस झुकता है, बिना सीस के सीस झुकता है तो अहंकार विदा हो जाता है। और फिर एक बार जो भीतर दिखाई पड़ जाए, भीतर सुनाई पड़ जाए, तो फिर सब तरफ उसकी झलक दिखाई पड़ने लगती है।
पासे-अदब से छुप न सका राजे-हुस्नो-इश्क
जिस जा तुम्हारा नाम सुना सर झुका दिया
फिर तो कोई नाम ही ले दे कहीं, याद आ जाती है उसकी!
रामकृष्ण को रास्तों तक पर ले जाने में मुश्किल हो जाती थी। उनके शिष्यों को बड़े सम्हाल कर ले जाना पड़ता था। कोई रास्ते में ‘जयरामजी’ ही कर दे, बस उतना काफी था, कि वे मस्त हो जाते, कि वे भाव-दशा में आ जाते, कि चौरस्ते पर खड़े हो जाते, आंखें बंद हो जातीं, आंसू झर-झर बहने लगते, आनंदमग्न हो नाचने लगते। भूल ही जाते कि चौराहा है, कि रास्ता चल रहा है, कि गाड़ियां गुजर रही हैं, कि भीड़ लग गई, कि पुलिसवाला भीड़ छांटने आ गया है। उन्हें फिर कुछ भी याद न रहती। नाम भी कोई ले देता!
एक शिष्य के घर विवाह था, उसकी बेटी का विवाह था, उसने बहुत प्रार्थना की रामकृष्ण को कि आप आएं। उन्होंने कहा: मैं आऊंगा। दूसरे शिष्यों ने कहा: बेहतर है न ले जाओ। कोई झंझट हो गई तो दूल्हा और दुल्हन तो एक तरफ रह जाएंगे...! मगर भक्त नहीं माना तो रामकृष्ण गए। और जो होना था वही हुआ। दूल्हे को सजे देख कर घोड़े पर उन्हें असली दूल्हे की याद आ गई। सबको सम्हाल दिया था कि कोई जयरामजी इत्यादि मत करना, परमात्मा का नाम मत लेना, मगर यह किसी ने सोचा न था कि घोड़े पर बैठे दूल्हे को देख कर...उनके मन में वैसा ही हो गया होगा जैसा कबीर ने कहा है: मैं तो राम की दुल्हनियां! वे तो एकदम नाचने लगे। वे नाचने लगे तो बस सब फीका पड़ गया। रामकृष्ण नाचें तो फिर और क्या रह जाए! जो होना था--विवाह का क्रियाकांड--वह तो एक तरफ पड़ गया, वह तो भूलभाल गए लोग, सब रामकृष्ण के पास इकट्ठे हो गए। भक्त बड़े हैरान हुए! क्योंकि किसी ने न जयरामजी की, न हरिनाम लिया, न कुछ सवाल उठा, यह आज मामला कैसे हुआ?
जब होश आया तीन घंटे बाद, रामकृष्ण से पूछा कि किसी ने तो कुछ कहा ही नहीं, आप एकदम से कैसे हो गए? उन्होंने कहा: किसी के कहने का क्या सवाल था, देखा नहीं घोड़े पर राम जी को! क्या सवार थे! याद आ गई! असली वर की याद आ गई! मेरी भी तो गांठ बंध गई ऐसे ही। ऐसे ही मेरी भी तो भांवर पड़ गई! फिर न सम्हाल सका।
भीतर झुक जाओ, फिर तो बाहर भी झुकोगे। फिर मैं तुमसे कहता हूं: पत्थर की मूर्ति के सामने भी झुक जाओगे तो तुम उसी के सामने झुक रहे हो! मगर तब तक नहीं, जब तक भीतर की पहचान नहीं है। फिर तो वृक्ष के सामने झुकोगे तो भी उसी के सामने झुक रहे हो, क्योंकि उसी की हरियाली है वहां। फिर तो तुम किसी के भी सामने झुक जाओगे। झुकना तुम्हारे जीवन का ढंग हो जाएगा। तुम झुके ही जीने लगोगे। तुम्हारे भीतर झुकाव एक शैली बन जाएगी। एक सहज भाव-दशा!
ठेस लग जाए न उनकी हसरते-दीदार को
ऐ हुजूमे-गम संभलने दे जरा बीमार को
फिक्र है जाहिद को हूरो-कौसरो-तसनीम की
और हम जन्नत समझते हैं तिरे दीदार को
भक्त तो कहते हैं कि हमें बस इतना काफी है कि तेरा दीदार हो जाए, कि तू दिखाई पड़ जाए।
फिक्र है जाहिद को हूरो-कौसरो-तसनीम की
लेकिन वे जो तपस्वी हैं तथाकथित, विरागी हैं तथाकथित, उनको बड़ी आकांक्षाएं हैं। उनको आकांक्षाएं हैं कि स्वर्ग मिले, स्वर्ग में स्वर्ण-महल मिलें, सुंदर अप्सराएं मिलें, उर्वशियां उनके पैर दाबें और गंधर्व उनके आस-पास वीणा बजाएं, और शराब के चश्मे बहें और कल्पवृक्ष हों, और उनके नीचे बैठ कर वे जो मर्जी हो पूरा करें! ये कोई भक्त के लक्षण नहीं, न धार्मिक के लक्षण हैं। ये तो वही आकांक्षाएं, वही संसार। तुमने फिर नये पर्दे पर वही चित्र बना लिए। फिर तुमने नई दिशा में वही आकांक्षाएं आरोपित कर लीं। फिर तुम अपना बाजार वापस ले आए।
पुराणों में जो स्वर्गों की कथाएं हैं, स्वर्गों के जो वर्णन हैं, अगर गौर से समझोगे, तुम्हारे चित्त के वर्णन हैं, स्वर्गों के नहीं। तुम्हारी वासनाओं के वर्णन हैं, स्वर्गों के नहीं। स्वर्ग कोई स्थान नहीं है। स्वर्ग तो उसके दीदार में मिट जाने का नाम है। स्वर्ग तो उसके दर्शन में तिरोहित हो जाने का नाम है। स्वर्ग तो उसके दरस-परस का ही नाम है। कोई स्थान नहीं कि जहां कल्पवृक्ष लगे हैं, जिनके नीचे तुम बैठोगे। कल्पवृक्ष की कल्पना ही यह बताती है कि तुम्हारे मन में अधूरी रह गई हैं वासनाएं। यहां पूरी नहीं कर पाए तो वहां पूरा करोगे। और वहां पूरा करने के लिए यहां तुम वासनाओं को दबा रहे हो, उनसे लड़ रहे हो--जरा पागलपन देखो, जरा तुम्हारा गणित समझो!
अगर वासनाएं गलत हैं, तो यहां भी गलत हैं, वहां भी गलत होंगी। अगर शराब गलत है, तो यहां भी गलत है, वहां भी गलत होगी। मगर मजा देखो--यहां तो जरा से कुल्हड़ में शराब पीना पाप है और वहां झरने बह रहे हैं, कि पीओ दिल भर कर, कि डुबकी मारो! यहां तुम्हारे साधु-संत तुमसे कहे जाते हैं, सावधान, स्त्री से सावधान! और वहां सुंदर स्त्रियां मिलेंगी--इसी सावधानी के परिणाम में! यह गणित कैसा है? यह तो बड़ी चालबाजी हो गई, यह तो बड़ा लोभ और लालच हो गया! यह तो ऐसा हुआ कि यहां की साधारण स्त्रियां छोड़ीं वहां की असाधारण स्त्रियों को पाने के लिए। वहां की स्त्रियां असाधारण हैं। मनुष्य के मन ने कैसी कल्पनाएं की हैं, कि वहां की स्त्रियों की उम्र नहीं बढ़ती। बस सोलह साल पर रुकी है सो रुकी है। उर्वशी अभी भी सोलह ही साल की है! हजारों साल बीत गए, ऋषि-मुनि आते रहे, जाते रहे, उर्वशी सोलह साल की है सो सोलह ही साल की है! वहां कोई बूढ़े नहीं होते।
यह तुम्हारी आकांक्षा है। यह तुम्हारी मनोवासना है। तुम यहां भी नहीं चाहते कि बुढ़ापा आए। मगर यहां तुम विवश हो। आता है; क्या करोगे? बहुत छिपाते हो, बहुत रोकते हो, बहुत सम्हालते हो, आ-आ जाता है। मगर कम से कम स्वर्ग की कल्पना में ही मन को रमाते हो। वहां भी तुम यही भोग कल्पना कर रहे हो। यह कोई त्याग नहीं है।
फिर असली त्यागी कौन है?
असली त्यागी वही है जो कहता है: परमात्मा का दर्शन हो गया, सब मिल गया।
और हम जन्नत समझते हैं तिरे दीदार को
इससे ज्यादा की मांग संसार की मांग है। फिर तुमने परमात्मा से भी ऊपर कोई चीजें अभी रखी हैं।
तुम जरा सोचो, अगर तुमसे कोई कहे कि परमात्मा से तुम्हारा मिलन हो जाएगा, तो तुम कौन सी तीन चीजें मांगोगे? तत्क्षण तुम्हारा चित्त फेहरिस्त बनाने लगेगा। कभी बैठ कर एक क्षण को सोचना कि परमात्मा से मिलना हो जाए तो तैयार तो कर लो फेहरिस्त, मांगोगे क्या? कम से कम तीन चीजें तो तय कर लो। क्योंकि कहानियां हैं, जिनमें कभी-कभी परमात्मा से मिलना हो गया है लोगों का और उन्होंने फेहरिस्त तैयार नहीं की थी और बड़ी झंझट में पड़े। क्योंकि जो मांगा, उससे मुसीबत हो गई। गलत-सलत मांग लिया। बिना सोच-समझ कर मांग लिया। ऐसी बहुत कहानियां हैं।
एक आदमी को इष्टदेवता के दर्शन हो गए। और देवता जैसा पूछते हैं कहानियों में, उन्होंने पूछा, कि मांग ले, तीन वरदान मांग ले। वह आदमी अपनी पत्नी से परेशान था--जैसे सभी आदमी परेशान हैं। तो उसने कहा कि ठीक, यह मेरी पत्नी मर जाए। तत्क्षण पत्नी गिर पड़ी और मर गई। और जैसा पत्नी के मरने पर होगा, तब घबड़ाया। क्योंकि पत्नी के बिना कैसे चलेगा! न साथ चलता है, न बिना चलता है। पत्नी से दूर होते ही से पता चलता है कि बिना उसके चल ही नहीं सकता। तब उसे होश आया कि खाना कौन पकाएगा, बिस्तर कौन लगाएगा, बच्चों की कौन फिकर करेगा। मारे गए! मुश्किल में पड़ गए! जल्दी से प्रार्थना की कि पत्नी को जिंदा करो। उसमें दूसरा वरदान भी खत्म हो गया--बात वहीं की वहीं है--पत्नी जिंदा हो गई। इष्टदेवता ने कहा: अब जल्दी करो, तीसरा मांग लो। उसने कहा: अब रुको! अब एक ही बचा, अब मुझे सोचने दो।
और मैंने सुना है, वह अभी भी सोच रहा है। अब एक ही वरदान मांगना हो, इतनी दुनिया की वासनाएं, इतनी कामनाएं, कैसे चुनाव कर पाओगे? पागल हो गया होगा बेचारा! यह मांगो तो वह छूटता है, वह मांगो तो यह छूटता है। इतनी चीजें हैं संसार में मांगने को।
तो तुम फेहरिस्त बनाना। कम से कम तीन की तो तैयार ही रखना, क्योंकि पुरानी आदत देवताओं की, वे कहते हैं: तीन मांग लो। न दो, न चार। तुम तीन की फेहरिस्त बनाना, तुम भी चकित हो जाओगे। अपनी फेहरिस्त देख कर चकित हो जाओगे। एक कागज पर लिखना। डरना मत। झूठी फेहरिस्त मत बना लेना। किसी को दिखाने के लिए नहीं बनाना है, तुम्हीं को जानने के लिए बनाना है। दिखाने के लिए बनाओगे तो झूठी हो जाएगी। जो आता है मन में, वही लिखना। तब तुम्हें पता चलेगा: परमात्मा भी सामने खड़ा हो तो तुम क्षुद्र बातें मांगोगे। बड़ी क्षुद्र बातें मांगोगे! धन मांगोगे, पद मांगोगे, प्रतिष्ठा मांगोगे। भोग की कोई यात्रा पर निकलना चाहोगे। मांगोगे क्या और? और तुम्हारा त्यागी-व्रती यही कर रहा है।
नहीं, भक्त की ऐसी कोई आकांक्षा नहीं। भक्त कहता है, तेरा दीदार, बस काफी!
बिना नैन तें निरखु देखु छवि, बिन कर सीस नवावहु रे।।
दुइ कर जोरिकै बिनती करिकै, नाम कै मंगल गावहु रे।
दोनों हाथ जोड़ कर विनती करूंगा, तेरे नाम का मंगल गाऊंगा। और क्या करने को बचता है! जिसे परमात्मा का दर्शन हुआ, उसके पास सिवाय उत्सव के और कुछ भी नहीं है अब। स्वर्ग उत्सव है। भोग नहीं, उत्सव। मांग नहीं, उत्सव--धन्यवाद, आभार-प्रदर्शन।
इसलिए मैं अपने संन्यासियों को कहता हूं: प्रत्येक ध्यान के बाद थोड़ी देर के लिए उत्सव की घड़ी जरूर लाना, उत्सव मना लेना। हर ध्यान के बाद। क्योंकि अंततः परम ध्यान के बाद उत्सव ही घटने वाला है, उसकी तैयारी करो। उसके लिए धीरे-धीरे, धीरे-धीरे अपने को निष्णात करो। समाधि के बाद सिर्फ उत्सव ही रह जाता है और सब खो जाता है। समाधिस्थ पुरुष के जीवन में सिवाय नृत्य के, गीत के और क्या है? और गीत भी उसके अपने नहीं हैं अब।
प्रिय, तुमने ही तो गाए थे
मैंने ये जितने गीत लिखे!

अंबर की लाली को उस दिन
तुमने ही था अनुराग दिया,
तुमने ऊषा को अपनी छवि,
कलरव को अपना राग दिया,
अपना प्रकाश रवि-किरणों को,
अपना सौरभ मलयानिल को,
पुलकित शतदल को तुमने ही
प्रिय, अपना मधुर पराग दिया!
फिर भक्त तो बचा ही नहीं, भगवान ही भक्त में नाचता है। अनूठा रास! आनंद-उत्सव, महोत्सव! फूल पर फूल खिलते हैं। बीन पर बीन बजती है। नये-नये पर्दे उठते जाते रहस्य के। चारों तरफ दीये ही दीये जल जाते हैं। दीवाली भी आ गई और होली भी आ गई--सब साथ हो जाता है।
जगजीवन बिनती करि मांगै, कबहुं नहीं बिसरावहु रे।
बस एक ही प्रार्थना रह जाती है करने की, कि कभी भूलूं न, कभी फिर न भूल जाऊं! ध्यान करना इस बात पर, और कुछ नहीं मांगते जगजीवन, इतना ही मांगते हैं कि यह दर्शन जो हो गया है, यह मेरी पात्रता से तो नहीं हुआ है, मैं तो अपात्र ही हूं, मैं तो जैसा हूं वैसा ही हूं, मैंने कोई बहुत बड़ा अर्जन नहीं कर लिया है, मैंने कोई बहुत बड़ा त्याग नहीं कर दिया है--मेरे त्याग में भी क्या रखा है; मेरा त्याग मेरे ही जैसा होगा! दो कौड़ी की मेरी स्थिति है, दो कौड़ी का मेरा त्याग होगा। न मेरा ज्ञान है, न मेरा ध्यान है, और तुम आ गए! अनायास तुम आ गए हो, अतिथि बन कर तुम मौजूद हो गए हो, तुमने द्वार पर दस्तक दे दी है, यह दस्तक देते रहना! और मुझे याद दिलाते रहना। मैं तो नासमझ हूं, भूल भी सकता हूं, पा-पा कर भी चूक सकता हूं। तुम्हें देख लिया, फिर भी विस्मरण कर सकता हूं।
भक्त यही कहता है, यही निवेदन करता है कि तुम्हें देख लिया, अब विस्मरण होना नहीं चाहिए, लेकिन मुझे अपनी अपात्रता का पता है, मुझे अपने अज्ञान का पता है, मैं फिर अंधेरी रात में खो सकता हूं। यह पूर्णिमा जो आज मेरे जीवन में आई है, फिर अमावस बन सकती है। अगर मुझ पर ही निर्भर रहा तो अमावस बन ही जाएगी। तुम्हारे सहारे की अब मुझे और भी जरूरत होगी। अब दर्शन दिया है, तो अब विस्मरण न हो पाए! मैं तुम्हारे स्मरण को करता ही रहूं।
दुइ कर जोरिकै बिनती करिकै,...
मैं दोनों हाथ जोड़ कर विनती करता हूं।
दुनिया में बहुत तरह के प्रणाम हैं, लेकिन दोनों हाथों को जोड़ कर प्रणाम करने की प्रक्रिया इस देश की है। और इसके पीछे बड़े रहस्य हैं, बड़े प्रतीक हैं। अब तो वैज्ञानिक अनुसंधान भी इस बात के करीब आ रहा है। विज्ञान की नई खोजें कहती हैं कि मनुष्य का मस्तिष्क दो हिस्सों में बंटा हुआ है। जो दाएं तरफ का हिस्सा है मनुष्य के मस्तिष्क का, वह बाएं हाथ से जुड़ा है। और जो बाएं तरफ का हिस्सा है मस्तिष्क का वह दाएं हाथ से जुड़ा है। उलटा, क्रास के जैसा। बायां दाएं से जुड़ा है, दायां बाएं से जुड़ा है। चूंकि हमने दाएं हाथ को महत्वपूर्ण बना लिया है और हमारे सारे कृत्य उसी से हो रहे हैं, इसलिए हमारा बायां मस्तिष्क का हिस्सा सक्रिय है। बाएं मस्तिष्क के हिस्से के कुछ लक्षण हैं--गणित, तर्क, हिसाब-किताब, बहिर्यात्रा। और शायद इसीलिए दायां हाथ महत्वपूर्ण हो गया। अब विज्ञान इस खोज-बीन में लगा है, शायद इसीलिए दायां हाथ महत्वपूर्ण हो गया। क्योंकि बाएं मस्तिष्क को सक्रिय करने के लिए दाएं हाथ को सक्रिय रहना जरूरी है; वे जुड़े हैं। जब दायां हाथ चलता है, तो बायां मस्तिष्क चलता है। जब बायां हाथ चलता है, तो दायां मस्तिष्क चलता है। दाएं मस्तिष्क के लक्षण हैं--काव्य, भाव, अनुभूति, प्रेम। उनका तो कोई मूल्य नहीं है जगत में। इसीलिए बायां हाथ बेकार डाल दिया गया है। बायें हाथ को बेकार डालने में हमने काव्य को बेकार कर दिया है, प्रेम को बेकार कर दिया है, अनुभूति को, भाव को बेकार कर दिया है। यह बड़ी तरकीब है। बड़ी जालसाजी है!
ये दोनों हाथ समान रूप से सक्रिय हो सकते हैं भविष्य में। और होने चाहिए। भविष्य के मनुष्य की जो प्रशिक्षण-प्रक्रिया होगी, उसमें ये दोनों हाथ सक्रिय करने की कोशिश की जाएगी। अभी तो हालत यह है, अगर कोई बच्चा बाएं हाथ से लिखता है, तो हम उसके पीछे पड़ जाते हैं कि दाएं से लिखो। दस प्रतिशत लोग बाएं हाथ से लिखने वाले पैदा होते हैं। दस प्रतिशत कोई छोटा आंकड़ा नहीं है। सौ में दस आदमी बाएं हाथ से लिखने वाले पैदा होते हैं। लेकिन मिलेंगे तुमको शायद एकाध ही आदमी मिलेगा सौ में से जो बाएं से लिखता हो, बाकी नौ को हम धक्का मार-मार कर, सजा दे-दे कर, स्कूल में मार-पीट कर दाएं हाथ से लिखवाने लगते हैं।
उसके पीछे कारण हैं।
समाज तर्क को मूल्य देता है, काव्य को नहीं। समाज गणित को मूल्य देता है, प्रेम को नहीं। समाज हिसाब-किताब से जीता है, भाव से नहीं। यह भाव की हत्या की खूब तरकीब निकाली! मगर हजारों-हजारों सदियों से यह तरकीब चल रही है और हमारा मस्तिष्क का आधा हिस्सा बिलकुल निष्क्रिय होकर पड़ा है।
दोनों हाथों को एक साथ रख कर जोड़ने में प्रतीक है कि हम दोनों अंगों को जोड़ते हैं, हम इकट्ठे होकर नमस्कार कर रहे हैं। हम दोनों मस्तिष्कों को एक साथ लाकर नमस्कार कर रहे हैं। हमारा तर्क भी तुम्हें निवेदन है, हमारा प्रेम भी तुम्हें निवेदन है; हमारा गणित भी, हमारा काव्य भी; हमारा स्त्रैण चित्त भी, हमारा पुरुष चित्त भी, दोनों समर्पित हैं। हम इकट्ठे होकर समर्पित हैं।
अब भेद है! पश्चिम में लोग हाथ मिलाते हैं। उसमें एक ही हाथ का काम होता है। वह आधे मस्तिष्क का कृत्य है। उसमें समग्र मनुष्य समाहित नहीं है। दोनों हाथ को जोड़ने में समग्रता समाहित है। हम दुई को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं। दो नहीं, एक। इसलिए परमात्मा के सामने दोनों हाथ जोड़ते हैं। जहां भी निवेदन करते हैं, वहां दोनों हाथ जोड़ते हैं।
जब तुम दोनों हाथ जोड़ते हो एक साथ, तो तुम्हारा मस्तिष्क और तुम्हारे दोनों हाथों की ऊर्जा वर्तुलाकार हो जाती है, विद्युत वर्तुल में घूमने लगती है। यह सिर्फ प्रतीक ही नहीं है, वस्तुतः यह घटना घटती है।
इसलिए ध्यान में कहा जाता है: पद्मासन। पद्मासन में एक पैर दूसरे पैर से जुड़ जाता है और हाथ पर हाथ रख लो तो हाथ भी एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं--तुम्हारा पूरा शरीर एक हो गया। तुम्हारा द्वंद्व टूट गया भीतर। तुम्हारे शरीर में विद्युत कि ऊर्जा वर्तुलाकार घूमने लगी। यह जो वर्तुल है विद्युत का, बड़ा शांतिदायी है। इसलिए पद्मासन, सिद्धासन बड़े वैज्ञानिक आसन हैं। सुगमता से चित्त शांत हो सकेगा। सरलता से चित्त शांत हो सकेगा। शरीर को जोड़ कर हमने मस्तिष्क के दोनों खंडों को जोड़ दिया। दोनों मस्तिष्क के खंड जुड़ जाएं तो हमारे भीतर जो भाव का और विचार का द्वंद्व है, वह समाप्त हो जाता है। विज्ञान और धर्म का जो द्वंद्व है, वह समाप्त हो जाता है।
दोनों हाथों को जोड़ कर नमस्कार करना बड़ा वैज्ञानिक है। इसे हाथ मिलाने से मत बदल लेना, वह बहुत सस्ता है, उसका कोई मूल्य नहीं, उसकी कोई वैज्ञानिकता नहीं है।
दुइ कर जोरिकै बिनती करिकै, नाम कै मंगल गावहु रे।
अब तो कुछ और बचा नहीं, दुई मिटा दी है, एक हो गया हूं और अब एक होने के बाद सिवाय मंगल गाने के और क्या बचता है! मंगल ही मंगल है!
जगजीवन विनती करि मांगै, कबहुं नहीं बिसरावहु रे।
कभी बिसराऊं न, कभी भूलूं न। क्योंकि जिसने एक बार जान लिया है, फिर बिसराना बहुत दुखद हो जाता है! बहुत दुखद हो जाता है! इससे तो अच्छा था न जानना। स्वाद नहीं लगा था तो विषाद भी नहीं था। स्वाद लग गया, फिर अड़चन होती है। जिसने शराब पी ली, फिर उसे पता है शराब का रस, शराब की मस्ती! जिसने कभी पी ही नहीं है, उसे न मस्ती का पता है, न रस का पता है; उसे कोई अड़चन भी नहीं है, उसे याद भी नहीं है।
इश्क ने तोड़ी सर पे कियामत, जोरे-कियामत क्या कहिए
सुनने वाला कोई नहीं, रूदादे-मोहब्बत क्या कहिए

जबसे उसने फेर लीं नजरें, रंगे-तबाही आह! न पूछ
सीना खाली, आंखें वीरां, दिल की हालत क्या कहिए
अगर उससे नजर मिल कर फिर नजर चूकी, तो--
जबसे उसने फेर लीं नजरें, रंगे-तबाही आह! न पूछ
फिर तबाही का रंग न पूछो! फिर तबाही का हाल न पूछो! ‘सीना खाली, आंखें वीरां...फिर भीतर सब रिक्त-रिक्त, आंखें वीरान...दिल की हालत क्या कहिए! फिर कुछ कहा नहीं जा सकता। फिर सब टूट गया, सब मरुस्थल हो गया। कल तक तो झूठे गुलिस्तां में जीते थे, कल तक तो भ्रामक सपनों में जीते थे। उससे आंख क्या मिली, सपने तो टूट गए; अब सपनों से तो अपने को भर न सकोगे; और अब उसका विस्मरण हो गया! सपने भी गए और सत्य का भी विस्मरण हो गया! यह बड़ी कठिन दशा हो जाती है।
इसलिए भक्त एक ही प्रार्थना करता है: जगजीवन बिनती करि मांगै, कबहुं नहीं बिसरावहु रे।।
बस इतना ही मुझे चेताए रखना। मैं तो अपनी तरफ से भूल ही जाऊंगा। मुझ पर भरोसा मत रखना। मैं तो अवश हूं। मुझे अपनी कमजोरियों का भलीभांति पता है। अगर मुझ पर ही छोड़ दिया तो भूल होने ही वाली है। मैं तो फिर किसी गड्ढे में गिर जाऊंगा। मैं फिर किसी उलझन में फंस जाऊंगा। मुझे उलझनों में पड़ने की पुरानी आदत है। मेरे पैर अपने आप उलझनों की तरफ बढ़ जाते हैं। यह जो सुलझाव की घड़ी आ गई है, जैसे तुम ले आए हो सुलझाव की घड़ी, इसी तरह अब मेरी याद को भी जगाए रखना। यह दीया बुझे न। यह दीया तुम उकसाए रखना। यह ज्योति तुम जलाए रखना।
यह भक्त की प्रार्थना है--और इससे श्रेष्ठ क्या प्रार्थना हो सकती है? प्रार्थना करना तो यही करना। फेहरिस्त कुछ और बनाओ तो गलत होगी।
यहि नगरी में होरी खेलौं री।।
बुद्ध का प्रसिद्ध वचन है: यही पृथ्वी है स्वर्गों का स्वर्ग। दिस वेरी अर्थ दि लोटस पैराडाइज। और यही देह है भगवत्ता। एंड दिस वेरी बॉडी दि बुद्धा।
जगजीवन कहते हैं: यहि नगरी में होरी खेलौं री।।
इसी देह की नगरी में होली का क्षण आ गया। सोचा भी न था! क्योंकि तथाकथित साधु-संत तो यही कहे चले जाते हैं कि शरीर दुश्मन है, शरीर को नष्ट करो। भक्त नहीं कहते ऐसी भ्रांत बात। भक्त कहते हैं: शरीर तो उसका मंदिर है। सम्हालो, साज-संवार रखो! जैसे मंदिर की रखते हैं, ऐसी ही देह की भी साज-संवार रखो, यह उसका मंदिर है।
सच तो यह है, हमने जो मंदिर बनाए हैं इस देश में, वे पद्मासन में बैठे हुए आदमी की प्रतिमा के रूप में ही बनाए हैं। आदमी जब पद्मासन में बैठे तो जो उसकी प्रतिमा का रूप होगा, जो उसका रूप बनेगा, उसी रूप में हमने मंदिर को भी बनाया है। बुनियाद उसके पैर हैं। फिर मंदिर की चार दीवालें हैं, वह देह है। फिर मंदिर का गुंबज है, वह मस्तिष्क है, वह सिर है। और फिर ऊपर चढ़ाते हैं स्वर्ण का कलश, वह भीतर खिलनेवाले स्वर्ण के फूल का प्रतीक है।
यह देह मंदिर है। स्वर्गों का स्वर्ग! इससे लड़ना मत। यह परमात्मा की भेंट है तुम्हें। इससे लड़ोगे, कृतघ्नता होगी। सुनो, जगजीवन कहते हैं: यहि नगरी में होरी खैलौं री! इसी नगरी में, इसी देह में, इसी संसार में होली का क्षण आ गया। परमात्मा कहीं और नहीं है, यहीं है--आंख भर निर्मल हो, आंख भर भीतर देखे, यहीं है, इसी क्षण है!
फिर झमका रंग-गुलाल सुमुखि, फिर गमका फागुन-राग,
फिर चमका मनसिज के नयनों में रति का नव अनुराग।
फिर घिर आई है होली।

सौरभ से श्लथ, मद से अलसित
फिर मलय समीरन डोली।

उर में अदम्य उच्छ्‌वास लिए,
सुर में अतृप्ति की प्यास लिए,
मंजरित आम की डाली पर
फिर काली कोयल बोली।

अपने पराग से हो विह्वल
कलियों ने खोले वक्षस्थल
आकांक्षा की पुलकन बन कर
है छलक रहा उनका परिमल

वे झूम-झूम वे विहंस-विहंस
वितरित करती हैं अपना रस
उनके वैभव पर उमड़ पड़ी
फिर से भ्रमरों की टोली।

फिर है मानस में स्पंदन
फिर है शरीर में कंपन
फिर अंग-अंग में है उमंग
फिर है नयनों में राग-रंग
फिर तन्मयता संचरित और
फिर बांहों में आलिंगन।
फिर आज भरी-सी लगती है
उन अरमानों की झोली।
फिर से है मन में आग लगी, फिर से जीवन में आग,
फिर झमका रंग-गुलाल सुमुखि, फिर गमका फागुन-राग।
इसी देह में, तुम जैसे हो ऐसे ही परमात्मा बरस सकता है। तुम्हारी वीणा तैयार है, जरा तार कसने हैं, जरा साज बिठाना है। सब-कुछ मौजूद है, सिर्फ संयोग ठीक नहीं है। जैसे वीणा तो रखी है, किसी ने तार अलग कर दिए हैं, तो वीणा रखी रहेगी। सब मौजूद था, जरा तार कसने थे, जरा तार बिठाने थे और गीत का जन्म हो जाता। ऐसे ही तुम्हारे भीतर परमात्मा संभावना की तरह मौजूद है, सत्य हो सकता है, जरा से तार बिठाने हैं। उन्हीं तार बिठालने की कलाओं का नाम धर्म है।
फिर स्वभावतः बहुत ढंग से तार बिठाए जा सकते हैं। ढंग-ढंग से बिठाए जा सकते हैं। इसलिए बहुत धर्म दुनिया में पैदा हुए। धर्म तो एक ही है, बहुत ढंग पैदा हुए तार बिठाने के।
तुम जो भी लेकर आए हो, काश तुम उस पूरे को प्रकट हो जाने दो, तो यहीं, इसी देह में...यहि नगरी में होरी खेलौं री!
हमरी पिया तें भेंट करावौ, तुम्हरे संग मिलि दौरौं री।
और शरीर से कह रहे हैं जगजीवन, कि तुमने ही, तुम्हारे द्वारा ही प्यारे से मिलन हो सका, तो अब तुम्हें ही संग लेकर दौड़ना है। परमात्मा के मिलन में देह बाहर नहीं रह जाती, यह याद रखना। परमात्मा के मिलन में देह उतनी ही समाविष्ट होती है जितने तुम। पदार्थ भी परमात्मा का है--उतना ही, जितना चैतन्य। मिट्टी भी उसकी है, अमृत भी उसका है। तुम मिट्टी और अमृत के मेल हो। और जब तुम्हारा अमृत नाचेगा तो तुम्हारी मिट्टी भी नाच उठेगी। और जब स्वर्ग नाचता है तो धरा भी नाचती है। अलग-अलग नहीं हैं ये सब। इनमें कुछ फासला नहीं, भेद नहीं। मिट्टी अमृत का ही सोया हुआ रूप है और अमृत मिट्टी का ही जागा हुआ रूप। दिस वेरी बॉडी दि बुद्धा! यह देह ही तो बुद्धत्व है, यह जगत ही स्वर्गों का स्वर्ग!
नाचौं नाच खोलि परदा मैं, अनत न पीव हंसौ री।
जगजीवन कहते हैं: अब सब परदे खोलता जा रहा हूं और नाच पर नाच बढ़ता जा रहा है। नृत्य गहन होता जा रहा है। नर्तक नृत्य में खोता जा रहा है? अब सब पर्दे उठा देने हैं। अब सब घूंघट अलग कर देने हैं। अब क्या छिपाना है? अब किससे छिपाना है?
साधारणतः आदमी छिप-छिप कर रह रहा है। कितने तुमने मुखौटे ओढ़ रखे हैं, ताकि तुम छिपे रहो, तुम्हारा असली चेहरा लोगों को पता न चल जाए। तुमने कितनी तरकीबें कर रखी हैं! तुम कैसे-कैसे रूप बनाए हो! यहां सब बहुरुपिए हैं। सारा संसार बहुरूपियों से भरा है। होते कुछ हो, दिखाते कुछ हो। और धीरे-धीरे दूसरों को धोखा देते-देते खुद भी धोखा खा जाते हो।
खयाल रखना, बहुत दिन तक धोखा देने का दुष्परिणाम यही है कि अंततः खुद ही भरोसा आ जाता है कि यही ठीक होगा। झूठे ही मुस्कुराते हो, फिर मुस्कुराहट आदत हो जाती है। जैसे जिमी कार्टर जैसे राजनेता। तुम सोचते हो रात भी बिना मुस्कुराए सोते होंगे! मैंने तो सुना है, नींद में भी उनके ओंठ खुले ही रहते हैं। चौबीस घंटे! अभ्यास हो गया।
जो तुम दिन भर करते हो, वही अभ्यास रात में भी चल जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक रात उठा और अपनी चादर फाड़ी। उसकी पत्नी ने रोका कि क्या करते हो, क्या करते हो?! मगर उसने तो फाड़ ही दी, उसने कहा कि तो तू दुकान पर भी आकर झंझट करने लगी! दिन भर कपड़ा फाड़ता है--कपड़े की दुकान है। सपने में भी किसी ग्राहक से मुलाकात हो गई--फाड़ दी चादर! नाराज पत्नी पर हो रहा है: तो तू अब दुकान पर भी आने लगी! यहां भी चैन नहीं!
दिन जो है, वही तो तुम्हारी रात भी हो जाएगी। तुम्हारा चेतन मन जो करता है, वही तुम्हारा अचेतन मन भी करने लगेगा। धीरे-धीरे अपने ही धोखे अपने लिए ही सच मालूम होने लगते हैं। जो आदमी मुस्कुराता रहता है झूठा, उसे खुद ही भरोसा आ जाता है कि मैं बड़ा प्रसन्नचित्त आदमी हूं। दूसरे कहते हैं कि वाह, कितने प्रसन्नचित्त आदमी हो! सुनते-सुनते उसे भी भरोसा आ जाता है कि हो न हो, ठीक ही कहते होंगे लोग! सच ही कहते होंगे लोग!
मैंने सुना है, एक पत्रकार मरा और स्वर्ग पहुंचा। दरवाजे पर दस्तक दी, द्वारपाल ने दरवाजा खोला और कहा कि पत्रकारों की जगह सब पहले से पूरी भरी हैं; दूसरी जगह जाओ। दूसरी जगह मतलब सामने नरक का दरवाजा है। पत्रकार ने कहा कि नहीं, ऐसी आसानी से न जाऊंगा; इतनी तो कृपा करो, मुझे चौबीस घंटे का अवसर दो। मैं अगर किसी दूसरे पत्रकार को राजी कर लूं और वह जाने को राजी हो, तो फिर तो तुम्हें कोई अड़चन नहीं? द्वारपाल ने कहा: फिर कोई अड़चन नहीं है।
स्वर्ग में पत्रकारों की वैसे भी ज्यादा कोई जगह थी नहीं--बारह जगह थीं। वह भी होनी चाहिए जगह--क्योंकि अखबार कोई निकलता ही नहीं वहां-- नहीं तो शैतान डींग मारेगा। नरक में बहुत अखबार निकलते हैं, एक से एक शानदार अखबार! अखबार के लायक घटनाएं भी वहां घटती हैं। स्वर्ग में घटता ही क्या है--ऋषि-मुनि बैठे हैं! एक दफा छापो कि हजार दफा छापो, खबर वही की वही है। चाहो तारीख बदलते रहो, वही का वही अखबार चलेगा। ऋषि-मुनि अपने-अपने झाड़ के नीचे बैठे हैं--अपनी-अपनी सिद्धशिला पर, आंखें बंद किए। अब ध्यान कोई खबर तो नहीं है। कोई मार-पीट हो, छुरेबाजी हो; कोई झगड़ा-फसाद हो; कोई घेराव-जुलूस हो; कोई हड़ताल हो जाए, कुछ हो तो खबर। खबर जैसी कोई चीज वहां है नहीं।
बर्नार्ड शॉ ने कहा है कि अगर कुत्ता आदमी को काटे तो यह कोई खबर नहीं है। जब आदमी कुत्ते को काटता है, तो यह खबर है! खबर का मतलब ही होता है: कुछ हो!
पत्रकार अंदर गया। उसने खबर उड़ा दी एकदम जाते ही से कि नरक में एक नये अखबार की शुरुआत होने वाली है, बड़ा अखबार निकलने वाला है। प्रधान संपादक की, उपप्रधान संपादक की, और-और पत्रकारों की जरूरत है। झूठी खबर!
जब चौबीस घंटे बाद वह आया, द्वारपाल से उसने पूछा कि भाई, क्या हालत है, कोई गया? उसने कहा: कोई नहीं! सब गए! अब तुम जा नहीं सकते। कम से कम एक तो होना ही चाहिए। उसने कहा: अब मैं रुक नहीं सकता, मुझे भी जाने दो। उसने कहा: तुम पागल हो गए हो, तुम किसलिए जाते हो? उसने कहा कि हो न हो, बात में कुछ सच्चाई होनी चाहिए। बारह आदमी चले गए!
इसी ने उड़ाई है अफवाह!
तुम खयाल करना, तुम्हीं अफवाह उड़ा देते हो और जब चौबीस घंटे बाद अफवाह पूरे मोहल्ले में घूम कर तुम्हारे पास लौटती है तो तुम्हें भी शक होने लगता है: हो न हो, कुछ बात होगी! चिंदी का सांप होगा, मगर चिंदी तो होगी! कुछ न कुछ तो होगा ही! जहां धुआं होता है, वहां आग भी होती है। तुम्हीं कहने लगोगे कि जहां धुआं होता है वहां आग भी होती है, जरूर कहीं न कहीं कुछ हुआ होगा।
लोग झूठ बोल-बोल कर खुद ही झूठ हो जाते हैं। असली धोखा इस जगत में यही है कि तुम खुद ही धोखे में आ जाते हो। अपने दिए गए धोखे अपने पर ही लौट कर पड़ जाते हैं। और फिर परदे पर परदे डालने होते हैं, क्योंकि तुम कुछ हो, कुछ दिखलाना चाहते हो। कोई अपनी नग्नता में प्रकट नहीं होना चाहता।
परमात्मा के सामने तो पर्दे हटाने होंगे। सब मुखौटे उतार कर रख देने होंगे। निर्वस्त्र हो जाना होगा। सारी धोखाधड़ी छोड़ देनी होगी। सारी वंचनाएं हटा देनी होंगी। वहां तो प्रामाणिक होना होगा।
नाचौं नाच खोलि परदा मैं,...
जगजीवन कहते हैं: अब क्या पर्दा, किससे पर्दा? अपने मालिक के सामने खड़ा हूं, अब सब पर्दे गिरा देता हूं। अब निर्वस्त्र नग्न अपने परमात्मा के सामने खड़ा हूं, अब छिपाना क्या है? उससे क्या छिपाना है? उससे क्या छिपा है?
पीव जीव एकै करि राखौं,...
और जब ये सब पर्दे गिर जाते हैं, तभी पीव और जीव एक हो पाते हैं, नहीं तो पर्दों का ही तो फासला है। जितने तुमने झूठ अपने आस-पास बना रखे हैं, उतनी ही दूरी है। अहंकार तुम्हारा सबसे बड़ा झूठ है। और फिर छोटे-छोटे झूठों की कतार लगी है अहंकार के पीछे। ‘यह मेरा’, ‘वह तेरा’--यह सब झूठ है, क्योंकि न तुम कुछ लाए थे, न कुछ ले जाओगे। क्या मेरा, क्या तेरा? ‘मैं बड़ा, तुम छोटे।’ तुममें भी वही, उसमें भी वही--कौन बड़ा, कौन छोटा? ये झूठ पर झूठ तुम बोले जा रहे हो और झूठ पर झूठ तुम जमाए जा रहे हो। धीरे-धीरे इन्हीं झूठों की दीवाल के पीछे उलझ जाओगे।
लोग अपने ही बनाए कारागृहों में पड़ गए हैं। किसी और ने किसी के लिए जंजीरें नहीं ढाली हैं। अपनी ही जंजीरें हैं, अपने ही बनाए कारागृह हैं, फिर खुद ही फंस गए हैं। यह हो सकता है, दूसरों को फंसाने के लिए बनाए थे। मगर खयाल रखना, जो गड्ढे तुमने दूसरों के लिए खोदे हैं, आज नहीं कल तुम स्वयं उनमें गिरोगे। दूसरे भी गिरेंगे--वे अपने खोदे गड्ढों में गिरेंगे; आखिर अपने-अपने गड्ढों की सबको फिकर रखनी है। उन्होंने भी खोदे हैं, वे कोई तुम्हारे गड्ढों में गिरने आएंगे? और कुछ न कर सकें, गड्ढे तो खोद ही सकते हैं। उन्होंने भी खोदे हैं खूब गड्ढे, वे अपने गड्ढों में गिरेंगे, तुम अपने गड्ढों में गिरोगे।
और जरा जिंदगी की परख करना। तुम सदा पाओगे कि जिस गड्ढे में तुम गिरते हो, वह तुम्हारा ही खोदा हुआ गड्ढा है।
मैं एक रात एक स्टेशन पर रुका। एक अनोखी घटना घट गई वहां। एक छोटी सी स्टेशन--मकरौनियां। दो ही गाड़ी वहां खड़ी होती हैं--एक सुबह आने वाली, एक सांझ जाने वाली। एक आदमी काफी रुपयों की थैली लिए प्रतीक्षा कर रहा था। और डर के मारे उसने स्टेशन मास्टर को बता दिया कि मैं काफी सम्पत्ति लिए हूं और यहां अंधेरी रात और रात दो बजे गाड़ी आएगी, तो मैं आपको बता देता हूं कि थोड़ी मुझे बैठने की सुविधा अंदर कर दें, स्टेशन मास्टर के कमरे में, यहां न कोई है न कुछ...। स्टेशन मास्टर का मन डोला। उसने कहा: बेफिकरी से तुम यह पास में पड़ी हुई बेंच पर लेट जाओ। और उसने जाकर पोर्टर को कहा कि यह मौका चूकने जैसा नहीं है, कुल्हाड़ी लाकर इसकी गर्दन अलग कर दो। वह पोर्टर प्रतीक्षा करता रहा, कब मौका मिले कि गर्दन अलग कर दे।
वह आदमी सो न सका। जिसके पास इतने पैसे हों, वह सोए कैसे? तो वह उठ कर टहलने लगा। वह अपना झोला लेकर टहलने लगा। रात देर हो गई, स्टेशन मास्टर रोज उसी बेंच पर विश्राम करता था, वह उस पर विश्राम करने लेट गया, और मौका पाकर पोर्टर ने उसकी गर्दन अलग कर दी। यह तो राज तब पता चला जब अदालत में मामला चला, सारी बात जाहिर हुई, खुली कि वह स्टेशन मास्टर का ही षडयंत्र था। पोर्टर तो सिर्फ आज्ञा का पालन कर रहा था।
इतनी स्पष्ट घटनाएं तो बहुत कम घटती हैं, मगर जिंदगी इसी तरह की घटनाओं से भरी है, स्पष्ट घटती हों कि न घटती हों। अगर तुम गौर करोगे तो तुम पाओगे तुम अपने ही खोदे गड्ढों में गिर गए हो; हो सकता है गड्ढा आज खोदा और तीस साल बाद गिरो, इसलिए याद भी न रह जाए, भूल भी जाओ तुम, सोचने लगो किसी और ने खोदा है। लेकिन सदियों का अनुभव यह है ज्ञानियों का कि हर आदमी अपने खोदे गड्ढे में गिरता है। यही बात है मूल आधार कर्म के सिद्धांत का, और कुछ अर्थ नहीं है कर्म के सिद्धांत में। तुमने जो बोया है, वही तुम काट रहे हो, वही तुम काटोगे; वही तुम काट सकते हो।
ये महफिले हस्ती भी क्या महफिले-हस्ती है
जब कोई पर्दा उठा, मैं खुद ही नजर आया
यह जिंदगी की महफिल बड़ी अजीब महफिल है। यहां जब पर्दे उठेंगे तो तुम चकित होओगे कि हर पर्दे के भीतर तुम्हीं हो। झूठ के भीतर भी तुम्हीं हो, पाप के भीतर भी तुम्हीं हो। पुण्य के भीतर भी तुम्हीं हो और अंततः जब आखिरी पर्दा उठ जाएगा तो परमात्मा के भीतर भी तुम अपने को ही पाओगे। तुम्हारे अतिरिक्त यहां और कोई भी नहीं है। यहां एक का ही वास है। यहां एक का ही आंदोलन हो रहा है।
पीव जीव एकै करि राखौं, सो छवि देखि रसौं री।
और जब प्रेमिका प्रेमी से मिल जाती है, जब जीव पीव से मिल जाता है, जब आत्मा परमात्मा से मिल जाती है, जब सब पर्दे बीच के हट जाते हैं...पीव जीव एकै करि राखौं, सो छवि देखि रसौं री!...फिर रसधार बहती है, फिर आनंद उमगता है, फिर फूल खिलते हैं, फिर उत्सव जन्मता है, फिर मंगल-गीत पैदा होते हैं!
क्या जानिए खयाल कहां है नजर कहां
तेरी खबर के बाद फिर अपनी खबर कहां
पीव जीव एकै करि राखौं! उस पर नजर आ गई कि तुम गए। तुम गए कि उस पर नजर आई। ये एक साथ घटती हैं घटनाएं--युगपत। एक ही क्षण में घट जाती हैं। ये एक ही घटना के दो पहलू हैं--तुम्हारा जाना, उसका आना; उसका आना, तुम्हारा जाना।
पीव जीव एकै करि राखौं, सो छवि देखि रसौं री।
प्यारा वचन है: सो छवि देखि रसौं री! रस ही रस बह जाता है। रसनिमग्नता आ जाती है।।
कब तक आखिर मुश्किलाते-शौक आसां कीजिए
अब मोहब्बत को मोहब्बत पर ही कुर्बां कीजिए

चाहता है इश्क, राजे-इश्क उरियां कीजिए
यानी खुद खो जाइए, उनको नुमायां कीजिए
मिटो, उसको होने दो!
यानी खुद खो जाइए, उनको नुमायां कीजिए
हट जाओ, जगह खाली कर दो! सिंहासन खाली करो, परमात्मा आने को उत्सुक है! तुम जब तक सिंहासन पर बैठे हो, कैसे आए? तुम मिटो तो आ जाए और तब रसधार बहती है। तभी जीवन में आनंद है।
अगर तुम दुखी हो तो अपने कारण दुखी हो। तुम्हारे दुख का मूल आधार एक ही है कि तुम हो। तुम दुख हो। बुद्ध ने कहा है: संसार दुख है। मैं कहता हूं: तुम दुख हो! और तुम्हारा होना ही संसार का फैलाव है। तुम गए कि तुम्हारा तथाकथित कल्पनाओं का संसार गया। फिर जो शेष रह जाता है, वह तो परमात्मा है, संसार नहीं।
कतहूं न बहौं रहौं चरनन ढिग, मन दृढ़ होए कसौं री।
कहते हैं जगजीवन: अब हटूंगा नहीं। अब हटाए न हटूंगा।
कतहूं न बहौं रहौं चरनन ढिग,...
अब कुछ भी हो जाए, कितने ही पुराने अतीत की याददाश्तें आएं, पुराने भुलावे जाल फैलाएं, पुराने आकर्षण खींचें--पुरानी आदतें, पुराने संस्कार बलशाली होते हैं--कतहूं न बहौं रहौं चरनन ढिग! अब बहूंगा नहीं, अब इन चरणों से दूर न हटूंगा। अब लाख कुछ हो जाए, अपनी पूरी शक्ति एक ही बात में लगाऊंगा--मन दृढ़ होए कसौं री! अब तो मन को दृढ़ता से इन्हीं पैरों से कस दूंगा।
लेकिन फिर भी यह तो प्रार्थना जारी रहती है भक्त की--जगजीवन विनती करि मांगै, कबहुं नहीं बिसरावहु रे! मुझे भूल मत जाना और मुझे भटकने मत देना। मैं तो अपनी पूरी सामर्थ्य लगाऊं कि तुम्हारे पैर न छूटें, मगर मैं आखिर मैं हूं! मेरा भरोसा क्या? मेरा बल कितना छोटा है! तुम्हारे सहारे के बिना मैं निर्बल हूं। तुम हो तो मैं बलशाली हूं। तुम मेरे बल हो। निर्बल के बल राम!
रहौं निहारत पलक न लावौं, सर्बस और तजौं री।
सब छोड़ दूं, सब छोड़ दूंगा, सदा तुम्हारी तरफ अपलक निहारता रहूंगा। अब और देखने जैसा क्या! जिसने उसे देखा, अब और देखने जैसा क्या!
रहौं निहारत पलक न लावौं,...
सोऊंगा भी नहीं, आंख भी न झपूंगा, सतत चौबीस घंटे उठते-बैठते तुम्हारी याद करता रहूंगा।
...सर्बस और तजौं री।
और सब छोड़ दूंगा। जो भी है, सब छोड़ दूंगा।
दिखा कर इक झलक सामाने-राहत जिसने लूटा था
निगाहें ढूंढती हैं फिर उसी गारतगरे-जां को
और अगर कभी साथ छूट जाता है उससे--जिसने सब लूट लिया, दिखा कर इक झलक सामाने-राहत जिसने लूटा था, जिसने एक झलक दिखा कर सारे संसार का सब-कुछ जो सोचते थे अपना है, मेरा है, लूट लिया था...निगाहें ढूंढती हैं फिर उसी गारतगरे-जां को! उसी मिटा देने वाले को, उसी लूटने वाले को फिर निगाहें बार-बार ढूंढती रहती हैं। इसलिए हमने उसको नाम दिया: हरि। हरि का अर्थ होता है: लुटेरा; जो हर ले; जो सब छीन ले। दुनिया में बहुत नाम परमात्मा के हैं, मगर हरि जैसा प्यारा नाम नहीं। लुटेरा, चोर, हरन करने वाला हरि। लूट लेता है। मगर लूटता है वही, जो नहीं है; और देता है वही, जो है। लूटता है वही जो भ्रांति थी; और देता है वही जो सत्य है। लुटेरा है और दाता है।
तू खुश है कि तुझको हासिल हैं, मैं खुश कि मेरे हिस्से में नहीं
वो काम जो आसां होते हैं, वो जल्वे जो अर्जां होते हैं
साधारण काम, आसान काम, भक्त कहता है: मैं खुश हूं कि मेरे हिस्से में नहीं हैं; मेरे हिस्से में कठिन काम पड़े। मेरे हिस्से तलवार की धार पर चलना पड़ा।
तू खुश है कि तुझको हासिल हैं, मैं खुश कि मेरे हिस्से में नहीं
वो काम जो आसां होते हैं, वो जल्वे जो अर्जां होते हैं

आसूदा-ए-साहिल तो है मगर शायद ये तुझे मालूम नहीं
साहिल से भी मौजें उठती हैं, खामोश भी तूफां होते हैं
ऐसे तूफान भी होते हैं जो खामोश हैं। भक्त ऐसे ही खामोशी के तूफान में उतर जाता है।
जो हक की खातिर जीते हैं मरने से कहीं डरते हैं ‘जिगर’?
जब वक्ते-शहादत आता है, दिल सीनों में रक्सां होते हैं
मरने का जब क्षण आता है भक्त को, तब उसका हृदय नाच उठता है। दिल सीनों में रक्सां होते हैं। दिल नाच उठते हैं। मृत्यु को भक्त परम आनंद का क्षण मानता है; क्योंकि अपना मिटना उसका होना है। मृत्यु परम सखा है।
भक्ति के मार्ग पर मृत्यु परम अनुभूति है। वह उसका द्वार है। भक्ति के मार्ग पर मृत्यु होती ही नहीं। यह जीवन गया और महाजीवन मिलता है। यह छोटी सी दुनिया गई और विराट दुनिया मिलती है। बूंद खो जाती है और सागर मिलता है।
रहौं निहारत पलक न लावौं, सर्बस और तजौं री।

जब वक्ते-शहादत आता है, दिल सीनों में रक्सां होते हैं
जो हक की खातिर जीते हैं मरने से कहीं डरते हैं ‘जिगर’?

सदा सोहाग भाग मोरे जागे,...
और अब पता चला कि सुहाग क्या है, सुहागरात क्या है? अब पता चला। अब तक जो सुहाग रचाए थे, रचे और उजड़े। अब तक जो विवाह रचाए थे, बने और मिटे। अब तक जो मिलन हुए थे, केवल बिछोह की तैयारियां थे। सब क्षणभंगुर था। कोई मिलन शाश्वत नहीं था। इसलिए सब मिलन दुख दे गए, घाव दे गए।
सदा सोहाग भाग मोरे जागे,...
अब परमात्मा से जो मिलन हुआ है, तो सदा सुहाग! अब सच में ही--जगजीवन कहते हैं: सुहागवती हो गई मैं। भाग मोरे जागे!
...सतसंग सुरति बरौं री।
और अब तो बस सत्संग ही जीवन है। सुरति ही श्वास है। अब तो उसका स्मरण ही एकमात्र भोजन है, पोषण है। सतसंग सुरति बरौं री!
खुदा जाने मोहब्बत कौन सी मंजिल को कहते हैं
न जिस की इब्तिदा ही है, न जिसकी इंतिहा ही है
न तो शुरुआत है अब, न अंत है अब। शाश्वत! प्रेम एक ऐसी यात्रा है।
सदा सोहाग भाग मोरे जागे, सतसंग सुरति बरौं री।
जगजीवन सखि सुखित जुगन-जुग, चरनन सुरति धरौं री।।
जुगों-जुगों की आशा पूरी हो गई। जन्मों-जन्मों की यात्रा पूरी हो गई। जन्मों-जन्मों की आकांक्षा फल गई। चरनन सुरति धरौं री! तुम्हारे चरणों की स्मृति आ गई, तुम्हारे चरणों पर सुरति धरने का अपूर्व क्षण आ गया!
अरी ए, नैहर डर लागै, सखी री, कैसे खेलौं मैं होरी।
लेकिन फिर भी डर लगता है। नाचने में डर लगता है। आदत ही नाचने की नहीं है। पैर जंजीरों में बंधे रहे। घूंघर कभी बांधे नहीं। जंजीरें ही एकमात्र परिचित रही हैं। अगर तुम कैदी को एकदम कैदखाने से निकाल भी दो और उससे कहो: नाचो, नाच नहीं पाएगा। जो जंजीरें उसके पैर से निकल गईं, उनका बोझ अब भी बाकी होगा। अगर कोई आदमी तीस साल तक लोहे की जंजीरें पहने रहा है, तो क्या तुम सोचते हो आज जंजीरें काट कर एकदम उसका बोझ मिट जाएगा? बोझ चित्त पर हो गया है।
चिकित्सक ऐसा एक अनुभव जानते हैं।
दूसरे महायुद्ध में बहुत बार ऐसी घटना घटी। किसी आदमी के पैर पर बम गिर गया। उसका पूरा पैर क्षत-विक्षत हो गया। भयंकर पीड़ा। बेहोशी होश में डोल रहा है। उसे अस्पताल ले जाया गया। हालत ऐसी खराब है कि उसका पैर तो बचाया नहीं जा सकता। पैर के बचाने की कोशिश की तो पूरी देह चली जाएगी। तो रात उसे बेहोश करके उसका पूरा पैर काट दिया गया। जब भी उसे होश आता था वह एक ही बात चिल्लाता था: मेरे पंजे में बहुत दर्द है। जब सुबह उसे होश आया, तब भी वह कहने लगा: मेरे पंजे में बहुत दर्द है। चिकित्सक हंसने लगे। उन्होंने कहा: तुझे पता नहीं, अब पंजा है ही नहीं, दर्द कैसे हो सकता है? उघाड़ा गया कंबल, उसे दिखाया गया कि तेरा पूरा पैर ही काट दिया गया है। अब तो पंजे में दर्द हो ही क्या सकता है? जो पंजा ही नहीं है, उसमें दर्द कैसे होगा? लेकिन वह आदमी कहता: दर्द तो है। हालांकि मैं देख रहा हूं कि पैर काट दिया गया है, मगर दर्द तो मुझे अब भी हो रहा है।
दर्द मन पर छाया रह गया। पैर नहीं है और दर्द है। दर्द मन से छूटने में समय लगेगा।
बहुत बार ऐसा होता है, बीमारी चली जाती है, सिर्फ तुम्हारे मन में बीमारी की आभा रह जाती है, सरकती-सरकती छाया रह जाती है। बीमारी से छूटना एक बात है और बीमारी के मन से छूटना बिलकुल दूसरी बात है। बीमारी का मन अलग बात है।
डॉक्टर जानते हैं इस तरह के लोगों को, जिनके शरीर में कोई बीमारी नहीं है, मगर वे पहुंचते रहते हैं डॉक्टरों के पास, कि होनी चाहिए। अगर एक डॉक्टर के पास नहीं तो दूसरे के पास जाते हैं, जब तक कि कोई डॉक्टर कह ही न दे कि हां, बीमारी है। चाहे शक्कर की गोलियां ही क्यों न दे, मगर जब तक कोई डॉक्टर कह न दे कि बीमारी है, तब तक वे जाते ही रहते हैं ऐसे बहुत लोग हैं, जिनका काम ही यही है। मगर वे दया के पात्र हैं। यद्यपि उनके शरीर में कोई बीमारी नहीं है।
ऐसे मैंने एक आदमी के बाबत सुना है। हाइपोकान्ड्रीयाक था, इसी तरह का बीमार था। बीमारी कोई भी नहीं, बस बीमारी के खयाल। और बड़ी-बड़ी बीमारियां खोजता था। और ऐसे लोग तरकीबें भी निकालते हैं, अखबारों में भी बीमारी की खबरें पढ़ते हैं; पत्रिकाओं में नई-नई बीमारियों की खोजें होती हैं, वे पढ़ते हैं; रेडियो पर भी बीमारियों की खबरें सुनते हैं; टेलीविजन पर भी वही देखते हैं; जो देखते हैं, जो पढ़ते हैं, वही उनको हो जाती है! डॉक्टर को फोन किया उसने कि सुनते हो, हृदय में मुझे बहुत धड़कन हो रही है। डॉक्टर ने कहा: बकवास बंद करो; तुम जो टेलीविजन पर फिल्म देखी है, वह मैंने भी देखी है!
अक्सर मेडिकल कालेज में ऐसा हो जाता है कि लड़कों को जो बीमारी पढ़ाई जाती है, वही बीमारी कालेज में फैलने लगती है। मन पकड़ लेता है। अक्सर; जो बीमारी उन्हें समझाई जाती है, पढ़ाई जाती है, उसी बीमारी के खयाल प्रविष्ट हो जाते हैं।
ऐसा एक आदमी जो जिंदगी भर डॉक्टरों को परेशान करता रहा और डॉक्टर जिसे कहते रहे कि तुम्हें कोई बीमारी नहीं है, तुम चंगे हो, तुम्हें कोई परेशान होने की जरूरत नहीं है, जब मरा तो अपनी पत्नी से कह गया कि यह मेरे पत्थर पर खुदवा देना कि ‘अब तो मानते हो कि मैं मर गया?’ डॉक्टरों के नाम इतना मेरे कब्र पर पत्थर लगवा देना; इन दुष्टों ने कभी नहीं माना; मगर अब तो मानेंगे कि मैं मर गया? कि अभी भी नहीं मानते? कि अभी भी मैं धोखा खा रहा हूं मरने का? वह अपनी कब्र पर पत्थर लगवा गया।
चित्त आसानी से नहीं छूटता। जगजीवन ठीक कह रहे हैं। ये बड़े अनुभव की बातें हैं। होली का क्षण आ गया, फाग खेलने का दिन आ गया; भरें पिचकारी में रंग, बांधें घूंघर, गाएं गीत, उड़ाएं गुलाल--घड़ी आ गई! मगर--अरी ए, नैहर डर लागै, सखी री, कैसे खेलौं मैं होरी? जन्मों-जन्मों से कभी होली तो खेली नहीं, जन्मों-जन्मों से रंग तो उड़ाए नहीं, गंध तो फेंकी नहीं; जन्मों-जन्मों से उत्सव तो मनाए ही नहीं, उत्सव की तो बात ही नहीं जानते, उत्सव की भाषा नहीं जानते उत्सव की शैली नहीं आती। जो कभी नहीं नाचा, एकदम से कैसे नाचेगा? नाचते-नाचते ही नाच पाएगा।
औंगुन बहुत नाहिं गुन एकौ,...
उत्सव की घड़ी भी आ गई, उसने सुहाग का टीका भी कर दिया, उसने मांग भी भर दी, मगर--औंगुन बहुत नाहिं गुन एकौ! मुझमें तो अवगुण ही अवगुण हैं, गुण तो एक भी नहीं।
...कैसे गहौं दृढ़ डोरी।
कैसे जोर से पकड़ लूं इस प्रेम की डोर को? मुझे तो अपनी अपात्रता का ही बोध है, पात्रता का तो कोई बोध नहीं। मैं तो अपने पाप को ही जानता हूं, पुण्य की तो मुझे कोई खबर नहीं, किस तरह पकडूं इस डोर को कि छूट न जाए?
केहिं कां दोष मैं देउं सखी री,
किसको दोष दूं...
...सबैं आपनी खोरी।
अब तो दिखाई पड़ता है, जन्मों-जन्मों से अपने ही दोष थे, अपने ही खोदे गड्ढे थे, अपने ही बोए बीज थे, वही काटते रहे। आज सुदिन भी आ गया, मगर पैर नाचना भूल गए हैं। कंठ से गीत नहीं फूटता।
मैं तो सुमारग चला चहत हौं,...
मैं तो चाहती हूं कि नाचूं, सुमारग पर चलूं।
...मैं तैं विष मां घोरी।
लेकिन जन्मों-जन्मों से विष घुल गया है। आज अमृत भी बरसा है, स्वाद भी आ रहा है, मगर धन्यवाद देने के लिए हिम्मत नहीं जुटती। अरी ए, नैहर डर लागै!
तुम चौंकोगे यह बात जान कर कि आनंद का भी डर लगता है। निश्चित लगता है। आनंद का जितना डर लगता है और किसी चीज का नहीं लगता। दुख के तो तुम आदी हो, परिचित हो; पहचान है, पुरानी दोस्ती है; दुख से तो तुम निपट लेते हो; आनंद का डर लगता है!
यहां मेरे पास रोज यह घटना घटती है। जब कोई आदमी आनंदित होता है, वह एकदम घबड़ा कर मेरे पास आ जाता है। वह कहता है कि बहुत डर लग रहा है। ऐसा आनंद हो रहा है कि शक होता है कि मैं पागल तो नहीं हुआ जा रहा हूं! दुख में पागल नहीं था। दुख में कभी शक नहीं हुआ था। शक क्या खाक होता, दुख तो जन्मों-जन्मों से परिचित है, आदत है। दुख की पाठशाला में तो जीए हैं, वहीं तो बड़े हुए हैं--मैं तैं विष मां घोरी--विष में घुले हुए हैं, रग-रग में रमा हुआ है विष ही विष है, तो विष पीने में तो कोई अड़चन नहीं आती। और जब पहली दफा आनंद के द्वार खुलते हैं, सुनाई पड़ती है उसकी टेर, उसकी पुकार, तो भरोसा नहीं आता। कैसे भरोसा आए? कैसे आए! कभी तो हुआ नहीं था। अनहुआ हो रहा है। नहीं होना चाहिए, ऐसा कुछ हो रहा है। मांगा था खुद, प्रार्थना भी की थी, मगर भरोसा खुद भी कब किया था कि मिलेगा!
प्रार्थना कर-कर भी हम कहां भरोसा करते हैं कि मिलेगा! सोचते हैं, शायद! ‘शायद’ बना ही रहता है मन में। निश्चय नहीं हो पाता। इसलिए जब पहली दफा घटना घटती है, तो जगजीवन ठीक कह रहे हैं, ठीक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है; अनुभूत; विचार का ही नहीं है, अस्तित्वगत।
संन्यासियों में रोज यह घटना घटती है। कोई आता आनंद से परेशान, भयभीत, डरा हुआ--कि क्या हो रहा है? आश्वासन मांगने आता है कि मैं ठीक तो हूं? यह इतना जो भीतर आनंद हो रहा है, यह जो हंसी फूटी पड़ती है, यह अकारण मुस्कुराहट खेल रही है, कोई कारण समझ में नहीं आता खुशी का और खुशी फूटी पड़ती है, बही जाती है। ऐसा तो कभी न हुआ था। मैं होश में तो हूं? विक्षिप्त तो नहीं हो गया?
गुरु की जरूरत पड़ती है तुम्हें मार्ग पर चलाने में, गुरु की जरूरत पड़ती है तुम्हें मार्ग से न भटकने देने में और गुरु की सबसे बड़ी जरूरत पड़ती है जब आनंद की घड़ी करीब आती है; तब आश्वासन देने में कि मत घबड़ाओ, तुम विक्षिप्त नहीं हो गए हो, पागल नहीं हो गए हो। शुभ दिन आ गया। होरी का क्षण आ गया। खेलो! भरो पिचकारी! उड़ाओ रंग-गुलाल!
मैं तो सुमारग चला चहत हौं, मैं तैं विष मां घोरी।
सुमति होहि तब चढ़ौं गगन-गढ़,...
द्वार सामने है अब, अब कोई देर नहीं है, सुहाग भर दिया गया, परमात्मा ने स्वीकार कर लिया है--पीव जीव को अपने भीतर लेने को तैयार है।
सुमति होहि तब चढ़ौं गगन-गढ़, पिय तें मिलौं कर जोरी।
मगर भक्त अभी डर रहा है। प्रार्थी अभी भयभीत है। सीढ़ियां सामने हैं, चढ़ जाए, मगर अभी भी सोच रहा है: सुमति होहि तब चढ़ौं गगन-गढ़! होगी सुमति जब; अभी तो पुराना विष, पुरानी आदतें, पुराने संस्कार खींचे डाल रहे हैं। सुमति जब होगी, ठीक-ठीक बुद्धि जब होगी, तब चढ़ जाऊंगी--इस गगन-गढ़ पर, इस आकाश में, इस अनंत में, इस विस्तीर्ण में, इस ब्रह्म में! पिय तें मिलौं करि जोरी! और हाथ जोड़ कर प्रभु से मिलूंगी।
अरी ए, नैहर डर लागै! पर बहुत डर लगता है। यात्रा बड़ी नई है। यह आकाश की तरफ जाती हुई सीढ़ियां कहां ले जाएंगी? सीमा में रहने का आदी असीम में उतरे तो डरेगा तो। नदी जब सागर के पास पहुंचती है, भयभीत तो होगी।
खलील जिब्रान ने लिखा है: जब नदी सागर में गिरती है, लौट कर पीछे देखती है। जरूर देखती होगी। वे सब यादें, वे पर्वत-श्रृंखलाएं, वे मूल उदगम-स्रोत, वे पहाड़, वे खाइयां, वे जलप्रपात, वे मैदान, वे तीर्थ, वे मंदिर, वे लोग, सारी यात्रा सारा अतीत पुकारता होगा! लौट कर नदी देखती होगी, क्योंकि सामने सागर है। सागर यानी खोना। डरती भी होगी, झिझकती भी होगी...अरी ए, नैहर डर लागै, सखि री, कैसे खेलौं मैं होरी! नदी भी सोचती होगी कि सागर से कैसे मिलूं? मिली कि गई! मिली कि सदा के लिए गई, फिर लौटना न हो सकेगा! फिर मेरा होना न हो सकेगा। सिकुड़ती होगी, सकुचती होगी, झिझकती होगी, लौट पड़ना चाहती होगी--पुरानी आदतें, फिर पुरानी स्मृतियां वापस खींचती होंगी।
सुमति होहि तब चढ़ौं गगन-गढ़, पिय तें मिलौं कर जोरी।
यह झिझक तो आती है। मगर झिझक रोक नहीं पाती। डर तो लगता है। लेकिन सामने खड़ा स्वाद इतना गहन है कि सब डर के बावजूद चढ़ ही जाता है आदमी गगन-गढ़। सब भयों के बावजूद, यह प्रेम का खिंचाव ऐसा है, यह आकर्षण ऐसा है कि भूल कर सब अतीत को छलांग ले लेता है भविष्य के अज्ञात में।
भीजौं नैनन चाखि दरसन-रस, प्रीति-गांठि नहिं छोरी।
आंखें भीगी जा रही हैं।
भीजौं नैनन चाखि दरसन-रस,...
दर्शन का रस आंखों में उतर रहा है। सब भीगा जा रहा है। सब आद्र हुआ जा रहा है, सब रस लीन हुआ जा रहा है।
भीजौं नैनन चाखि दरसन-रस, प्रीति-गांठि नहिं छोरी।
अब चाहे कुछ भी हो, भय तो बहुत लगता है, मगर यह प्रेम की गांठ नहीं छोडूंगी, नहीं छोडूंगी। भय तो बहुत लगता है।
ऐसे ही समझो, जब नई दुल्हन विवाहित होकर जाने लगती है, नैहर से, मां के घर से जब जाने लगती है, पति के घर की तरफ, तो लौट-लौट कर नहीं देखती? ज़ार-ज़ार नहीं रोती? इसलिए ‘नैहर’ शब्द का प्रयोग किया है...अरी ए, नैहर डर लागै! जहां जन्मे, जहां बड़े हुए, जिन सखियों के साथ खेले, जिन माता-पिता की छाया में बड़े हुए, सबको छोड़ना पड़ रहा है। अरी ए, नैहर डर लागै! मगर फिर भी--रोते-रोते भी, मगर फिर भी--बैठ जाती है डोली में। बैठना ही पड़ेगा। अतीत का भय भविष्य के प्रेम में बाधा नहीं बन सकता। जाना ही पड़ेगा। रोते-रोते तो रोते-रोते सही, भयभीत तो भयभीत सही, जाना तो पड़ेगा ही। यह नृत्य की घड़ी आ गई, नाचना तो पड़ेगा ही। नहीं आता नाच तो कोई फिकर नहीं। नहीं जमेंगे पैर आज, कोई हर्ज नहीं। नाचना तो पड़ेगा ही। अब कोई बहाने काम न आएंगे। डोली द्वार पर आ गई है, चढ़ना तो होगा ही।
भीजौं नैनन चाखि दरसन-रस, प्रीति-गांठि नहिं छोरी।
अब छोड़ भी नहीं सकती हूं प्रीति की गांठ को, कितना ही लगे भय!
रहौं सीस दै सदा चरनतर,...
अब तो अगर सीस भी देना पड़ेगा तो दूंगी, भय लगे तो लगे।
रहौं सीस दै सदा चरनतर, होउं ताहिकी चेरी।
अब तो उसकी ही सेवा में, उसकी ही दासी होकर रह जाऊंगी।
जगजीवन सत-सेज सूति रहि,...
अब तो सेज तैयार है पिया की।
...और बात सब थोरी।
और बाकी सब बातें व्यर्थ हैं, थोथी हैं। जाना तो होगा ही--सेज तैयार हो गई, पिया मिलने को आतुर, उसका बुलावा आ गया, आंखों में उसका रस भर आया, हृदय उसको अनुभव करने लगा, सामने सीढ़ियां हैं, डोली द्वार आ लगी।
अरी ए, नैहर डर लागै, सखी री, कैसे खेलौं मैं होरी।
मगर खेलनी ही होगी! शुरू-शुरू कुशलता न होगी, पैर इधर-उधर पड़ेंगे; शुरू-शुरू वाद्य ठीक न बजेगा; शुरू-शुरू छंद ठीक न बैठेगा--फिर बैठ जाएगा--मगर अब सब चिंताएं छोड़ कर छलांग तो लेनी ही है।
जगजीवन सत-सेज सूति रहि, और बात सब थोरी।
अब तो उसके बिना जिंदगी व्यर्थ है।
यूं जिंदगी गुजार रहा हूं तिरे बगैर
जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूं मैं

ऐसी भी इक निगाह किए जा रहा हूं मैं
जर्रों को मेहरो-माह किए जा रहा हूं मैं

मुझसे लगे हैं इश्क की अज्मत को चार चांद
खुद हुस्न को गवाह किए जा रहा हूं मैं

आगे कदम बढ़ाएं जिन्हें सूझता नहीं
रौशन चिरागे-राह किए जा रहा हूं मैं
जगजीवन कह रहे हैं कि जैसे मैं जा रहा हूं इस डोली में चढ़ कर अज्ञात की, पीव से जीव को मिलने का साहस जुटा रहा हूं, ऐसे ही तुम भी जुटाना।
आगे कदम बढ़ाएं जिन्हें सूझता नहीं
रौशन चिरागे-राह किए जा रहा हूं मैं
जिस दिन कोई भक्त परमात्मा से मिलने का साहस जुटा लेता है, उसी दिन उसके भीतर सतगुरु का जन्म हो जाता है। फिर उसके द्वारा औरों को सहारा मिलने लगता है। जब तक डर है तब तक वह शिष्य रहता है। जिस दिन डर को त्याग कर, निर्भय छलांग ले लेता है, उसी दिन गुरु हो जाता है।
एक सदगुरु के पास अनेक सदगुरु पैदा हो सकते हैं। एक दीये से अनेक दीये जल सकते हैं। और फिर प्रत्येक दीया अनेक-अनेक दीयों को जलाने का कारण बन सकता है। यह सारी पृथ्वी दीपावली हो सकती है। यह सारी पृथ्वी गुलाल से भर सकती है, रंग से भर सकती है। मगर बड़ी से बड़ी जो बात है, वह है सारे भय छोड़ कर अज्ञात की यात्रा पर निकल जाना।
आगे कदम बढ़ाएं जिन्हें सूझता नहीं
रौशन चिरागे-राह किए जा रहा हूं मैं
ऐसे ये प्यारे वचन थे जगजीवन के। इन्हें तुमने सुना, गुनना भी! इन्हें तुमने सुना, जीना भी! और इनसे तुम्हारे भीतर छिपे चिराग प्रकट होंगे, बंद पड़ी कलियां खिलेंगी।
यह कठिन नहीं है। यह हो सकता है। जैसा एक को हुआ, वैसा सभी को हो सकता है। जो एक मनुष्य के जीवन में घटता है, वह सभी का अधिकार है।
अरी, मैं तो राम के रंग छकी!
अरी, मैं तो नाम के रंग छकी!
तुम भी छको! मगर पीओगे तो ही छकोगे; जीओगे तो ही छकोगे। ऐसे छको कि तुम्हारे ऊपर से बहने लगे; ऐसे भरो कि तुम्हारी प्याली से औरों की प्याली में बहने लगे रस। जलो, औरों को जलाओ! भरो, औरों के भरो! वही व्यक्ति धन्य है। फिर तुम भी कह सकोगे:
सदा सोहाग भाग मोरे जागे, सतसंग सुरति बरौं री।
जगजीवन सखि सुखित जुगन-जुग, चरनन सुरति धरौं री।।

रंगि-रंगि चंदन चढ़ावहु साईं के लिलार रे।।
मन तें पुहुप माल गूंथिकै, सो लैकै पहिरावहु रे।
बिना नैन तें निरखु देखु छवि, बिन कर सीस नवावहु रे।।
दुइ कर जोरिकै बिनती करिकै, नाम कै मंगल गावहु रे।
जगजीवन विनती करि मांगै, कबहुं नहीं बिसरावहु रे।।
छको--ऐसे ही छको! ऐसा ही सुहाग तुम्हारा हो! ऐसा ही भाग तुम्हारा हो!
अरी, मैं तो नाम रंग छकी!

आज इतना ही।

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