DARIYADAS
AMI JHARAT BIGSAT KANWAL 14
Fourteenth Discourse from the series of 14 discourses - AMI JHARAT BIGSAT KANWAL by Osho. These discourses were given during MAR 11 -24 1979.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आधुनिक मनुष्य की सबसे बड़ी कठिनाई क्या है?
राकेश! पुरानी सारी कठिनाइयां तो मौजूद हैं ही, कुछ नई कठिनाइयां भी मौजूद हो गई हैं। पुरानी कठिनाइयां कटी नहीं हैं। बुद्ध के समय में या कृष्ण के समय में आदमी के लिए जो समस्याएं थीं, वे आज भी हैं। उतनी ही हैं। उनमें से एक भी समस्या विदा नहीं हुई। क्योंकि हमने समस्याओं के जो समाधान किए वे समाधान नहीं सिद्ध हुए। हमारे समाधान थोथे थे, ऊपरी थे। समस्याओं की जड़ को उन्होंने नहीं काटा। हम केवल ऊपर ही लीपापोती करते रहे।
क्रोध था किसी के भीतर, तो हमने क्रोध का दमन सिखाया। लेकिन दमित क्रोध नष्ट नहीं होता। दमित क्रोध और भी प्रज्वलित होकर भीतर जलने लगता है। साधारण आदमी जो कभी-कभी क्रोध कर लेता है, बेहतर है उस आदमी से जो क्रोध को दबा कर बैठ रहता है। क्योंकि साधारण आदमी का क्रोध रोज-रोज बह जाता है, संगृहीत नहीं होता। जिसने दमन किया हो, उसके भीतर बहुत संग्रह हो जाता है। और जब उसका विस्फोट होगा तो भयंकर होगा।
हमने दमन सिखाया सदियों तक; इससे आदमी रूपांतरित नहीं हुआ, सड़ गया। इससे आदमी आत्मवान नहीं हुआ, विकृत हुआ, विक्षिप्त हुआ। विमुक्ति के नाम पर हमने जो बातें लोगों को सिखाईं, उन्होंने उन्हें केवल पाखंडी बनाया। बाहर कुछ, भीतर कुछ। दिखाने के दांत और, खाने के दांत और। ऐसे हमने आदमी के जीवन में द्वैत पैदा कर दिया।
वे सारी समस्याएं वैसी की वैसी खड़ी हैं। और वे सारी समस्याएं समाधान मांगती हैं। नई समस्याएं भी खड़ी हो गई हैं; जिनका अतीत के मनुष्य को कुछ भी पता न था। जैसे एक नई समस्या खड़ी हो गई है कि मनुष्य का संबंध निसर्ग से टूटने लगा है, टूट गया है। जितना आधुनिक मनुष्य हो, उतना ही निसर्ग से विपन्न हो गया है। जैसे किसी वृक्ष की कोई जड़ें उखाड़ ले, फिर वृक्ष कुम्हलाने लगे, फूल झड़ने लगें, पत्ते हरे न रह जाएं--ऐसे मनुष्य को हमने प्रकृति से तोड़ लिया है।
और जो मनुष्य प्रकृति से टूट गया, उसका परमात्मा से जुड़ने का उपाय ही नहीं रह जाता। क्योंकि प्रकृति में ही परमात्मा की पहली झलक मिलती है। आदमी की बनाई हुई चीजों के बीच आधुनिक आदमी रह रहा है। सीमेंट के विशाल रास्ते हैं। इन्हें देख कर परमात्मा की याद नहीं आ सकती। कैसे आएगी? घास का एक तिनका भी उसकी याद दिलाता है और सीमेंट के विशाल राजपथ भी उसकी याद नहीं दिलाते। ये तो आदमी के बनाए हैं, उसकी याद दिलाएं तो दिलाएं कैसे?
एक छोटा सा फूल भी राह के किनारे खिल जाता है, तो अज्ञात की खबर लाता है, संदेश लाता है। परमात्मा की प्रेम-पाती है वह। और तुम मकान बनाओ जो आकाश को छूने लगें, गगनचुंबी हों, तो भी उसकी याद नहीं दिलाते; सिर्फ आदमी की कारीगरी, आदमी की तकनीक, आदमी की होशियारी, इन सबका स्मरण दिलाते हैं। और इनके स्मरण से अहंकार मजबूत होता है।
आदमी की बनाई हुई कोई भी चीज बढ़ती नहीं; ठहरी रहती है, क्योंकि मुर्दा है। परमात्मा की बनाई सारी चीजें बढ़ती हैं, क्योंकि जीवंत हैं। पौधा बड़ा होगा, वृक्ष होगा। नदी सागर होगी। सब गतिमान है। आदमी की बनाई चीजें सब ठहरी हुई हैं; उनमें कोई विकास नहीं होता। वे जैसी हैं, वैसी ही हैं। वस्तुएं हैं। उनमें प्राण नहीं हैं। और जिनमें प्राण नहीं हैं, उनसे महाप्राण की कैसे स्मृति आएगी?
तो मनुष्य के जीवन का जो सब से बड़ा अभिशाप है आज--पुरानी सारी बीमारियां मौजूद हैं और एक नई बीमारी खड़ी हो गई है--कि हमने एक कृत्रिम वातावरण बना लिया है। और कृत्रिम वातावरण बड़ा-बड़ा होता जा रहा है।
लंदन में एक सर्वे किया गया, दस लाख बच्चों ने गाय नहीं देखी और लाखों बच्चों ने खेत नहीं देखे। जिन बच्चों ने खेत नहीं देखे और पवन के झकोरों में डोलती हुई गेहूं की बालें और बाजरे और ज्वार को नहीं देखा, उन बच्चों के जीवन में कुछ चीज की कमी रह जाएगी। कुछ बड़ी मौलिक कमी रह जाएगी। उन्होंने कारें देखी हैं, बसें देखी हैं, रेलगाड़ियां देखी हैं।
मैंने सुना है, एक चर्च में एक पादरी बच्चों को समझा रहा था। रविवार का धार्मिक स्कूल लगा था। बाइबिल में एक वचन आता है कि सब सरकती हुई चीजें उसी ने बनाईं--अर्थात सांप इत्यादि। एक छोटे बच्चे ने खड़े होकर कहा कि उदाहरण दीजिए।
पादरी भी थोड़ा चौंका, क्योंकि सांप उस बच्चे ने देखा नहीं; और कोई सरकती चीज देखी नहीं; तो उसने कहा कि रेलगाड़ी। जैसे रेलगाड़ी। तो वह बच्चा निश्चिंत हो गया।
पादरी भी करे तो क्या करे? सरकती हुई चीज के लिए रेलगाड़ी का उदाहरण! यह भी परमात्मा ने बनाई है! हमारे पास उदाहरण भी खोते जाते हैं। जितना आधुनिक मनुष्य है, उतना ही ज्यादा कम प्राकृतिक, उतना ही ज्यादा कृत्रिम, उतना ही ज्यादा प्लास्टिक; असली नहीं, नकली। उसकी गंध नकली, उसका रंग नकली, उसका सब नकली! ओंठ रंग लिए हैं लिपस्टिक से, वह उसका रंग है ओंठों का। असली ओंठों का तो पता ही चलना मुश्किल हो गया है। कपड़े पहन लिए हैं इस ढंग से कि असली शरीर का पता चलना मुश्किल हो गया है। जिनकी छातियां नहीं हैं, उन्होंने कोटों में रुई भरवा ली है। हम सब तरफ से कृत्रिम में जी रहे हैं। और यंत्र बढ़ते जा रहे हैं। और मनुष्य की सबसे बड़ी कठिनाई सदा से यह रही कि मनुष्य मूर्च्छित है। यंत्रों के बीच और भी मूर्च्छित हो गया है, और भी यांत्रिक हो गया है।
तुम मुझसे पूछते हो: ‘आधुनिक मनुष्य की सबसे बड़ी कठिनाई क्या है?’
यांत्रिकता। यंत्रों के साथ रहोगे तो यांत्रिक हो ही जाना पड़ेगा। यदि बहुत जागरूक न रहे, तो सुबह सात बजे की गाड़ी पकड़नी है तो उसी ढंग से भागना होगा। कोई गाड़ी तुम्हारे लिए रुकी नहीं रहेगी। तुम अपनी निश्चिंतता की चाल नहीं चल सकते। तुम पक्षियों के गीत सुनते हुए नहीं जा सकते। आपाधापी है, भागमभाग है।
विद्यासागर ने लिखा है, एक सांझ वे घूम कर लौट रहे थे और उनके सामने ही एक मुसलमान सज्जन अपनी सुंदर छड़ी लिए हुए, टहलते हुए वे भी आ रहे थे। मुसलमान सज्जन का नौकर भागा हुआ आया और उसने कहा: मीर साहब, जल्दी चलिए! घर में आग लग गई है।
लेकिन मीर साहब वैसे ही चलते रहे। नौकर ने कहा: आप समझे या नहीं समझे? आपने सुना या नहीं सुना? घर जल रहा है, धू-धू कर जल रहा है! तेजी से चलिए! यह समय टहलने का नहीं है। दौड़ कर चलिए!
लेकिन मीर साहब ने कहा: घर तो जल ही रहा है, मेरे दौड़ने से कुछ आग बुझ न जाएगी। और यहां तो सभी कुछ जल रहा है और सभी को जल जाना है। जीवन भर की अपनी मस्ती की चाल इतने सस्ते में नहीं छोड़ सकता।
विद्यासागर तो बहुत हैरान हुए। मीर साहब उसी चाल से चलते रहे! वही छड़ी की टेक। वही मस्त चाल। वही लखनवी ढंग और शैली। विद्यासागर के जीवन में इससे एक क्रांति घटित हो गई। क्योंकि विद्यासागर को दूसरे दिन वाइसराय की कौंसिल में महापंडित होने का सम्मान मिलने वाला था। और मित्रों ने कहा कि इन्हीं अपने साधारण, सीधे-सादे, फटे-पुराने वस्त्रों में जाओगे, अच्छा नहीं लगेगा। तो हम ढंग के कपड़े बनवाए देते हैं, जैसे दरबार में चाहिए। तो वे राजी हो गए थे। तो चूड़ीदार पाजामा, और अचकन, और सब, ढंग की टोपी और जूते और छड़ी, सब तैयार करवा दिया था मित्रों ने। लेकिन इस मुसलमान, अजनबी आदमी की चाल, घर में लगी आग, और यह कहता है कि क्या जिंदगी भर की अपनी चाल को, अपनी मस्ती को, एक दिन घर में आग लग गई तो बदल दूं?
दूसरे दिन उन्होंने फिर वे बनाए गए कपड़े नहीं पहने। वाइसराय की दुनिया में पहुंच गए वैसे ही अपने सीधे-सादे कपड़े पहने।
मित्र बहुत चकित हुए। उन्होंने कहा: कपड़े बनवाए, उनका क्या हुआ?
उन्होंने कहा: वह एक मुसलमान ने गड़बड़ कर दिया। अगर वह मकान में आग लग जाने पर अपनी जिंदगी भर की चाल नहीं छोड़ता, तो मैं भी क्यों अपने जीवन के ढंग और शैली छोडूं जरा सी बात के लिए कि दरबार जाना है? देना हो पदवी, दे दें; न देना हो, न दें। लेकिन जाऊंगा अब अपनी ही शैली से।
मगर आज सब तरफ यंत्र कसे हुए है। यहां शैली नहीं बच सकती, व्यक्तित्व नहीं बच सकता, निजता नहीं बच सकती। यदि तुम अत्यधिक होश से न जीओ, तो यंत्र तुम पर हावी हो जाएगा, तुम पर छा जाएगा। तुम घड़ी के कांटे की तरह चलने लगोगे और मशीन के पहियों की तरह घूमने लगोगे। और धीरे-धीरे तुम्हें भूल ही जाएगा कि तुम्हारे भीतर कोई आत्मा भी है! एक तो प्रकृति से संबंध टूट जाना और दूसरा यंत्र से संबंध जुड़ जाना, दोनों बातें महंगी पड़ी जा रही हैं।
मुकुर के लोचन खुले हैं।
बंद हैं आधार के दृग;
जड़ हुआ आधार का अस्तित्व,
छाया चल रही है!
मात्र दर्पण है, न दर्शन;
पूजता पाषाण चेतन!
चेतना खो चुका जीवन;
आंजते दृगहीन अंजन,
तिमिर-माया छल रही है।
मान धन मन के निधन को;
खोजता जीवन मरण को--
अन्न-कण, क्षयग्रस्त क्षण को!
दिया तज रवि ने गगन को,
आयु दिन की ढल रही है!
मंत्र का दीपक बुझा कर,
तंत्र-बल को बाहु में भर,
पौढ़ कर मोहित धरा पर,
यंत्र की माया निरंतर
फूलती है, फल रही है!
और सब तो गया--मंत्र गया, तंत्र गया--यंत्र सिंहासन पर आरूढ़ हो गया है।
यंत्र की माया निरंतर
फूलती है, फल रही है!
और मनुष्य भी धीरे-धीरे यांत्रिक होता जा रहा है। वैज्ञानिक तो मानते भी नहीं कि मनुष्य यंत्र से कुछ ज्यादा है। और विज्ञान की छाप लोगों के हृदय पर बैठती जा रही है, क्योंकि विज्ञान का शिक्षण दिया जा रहा है। हृदय का तो कहीं कोई शिक्षण नहीं है। प्रेम के गीत तो कहीं सिखाए नहीं जा रहे हैं। हृदय की वीणा तो कहीं कोई बजाई नहीं जा रही है। तर्क सिखाया जा रहा है, गणित सिखाया जा रहा है। यंत्र को कैसे कुशलता से काम में लाया जाए, यह सिखाया जा रहा है। और धीरे-धीरे इस सबसे घिरा हुआ आधुनिक मनुष्य, प्रकृति से टूट गया, परमात्मा से टूट गया, अपने से टूट रहा है। सारे संबंध जीवन के विराट से उखड़े जा रहे हैं।
यह आज की सबसे बड़ी कठिनाई है। और इसलिए आज के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण और जरूरी हो गई है एक बात कि ध्यान का जितनी दूर-दूर तक प्रचार हो सके, जितने लोगों तक, करना जरूरी है। क्योंकि ध्यान ही अब एकमात्र उपाय है कि तुम्हें फिर याद दिला सके अपनी आत्मा की। और ध्यान ही एकमात्र उपाय है कि फिर तुम्हें वृक्षों में, चांद-तारों में परमात्मा की झलक मिल सके। ध्यान ही एकमात्र उपाय है जो तुम्हें वापस प्रकृति की तरफ ले चले। और ध्यान ही एकमात्र उपाय है कि यंत्रों के बीच रहते हुए भी, तुम्हें यंत्रों का मालिक बनाए रखे, यंत्रों का गुलाम न हो जाने दे।
मैंने एक झक्की नवाब के संबंध में सुना है। बीमार था। लेकिन पुरानी आदतें, रात दो-तीन बजे तक तो नाच-गाना चलता। फिर सोता। तो उठता सुबह दस बजे, ग्यारह बजे, बारह बजे। चिकित्सकों ने कहा: यह अब न चलेगा। अब इस योग्य स्वास्थ्य न रहा। अब तो सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठना पड़ेगा, छह बजे उठना पड़ेगा। तो ही तुम स्वस्थ हो सकते हो।
तो उसने कहा: यह कौन अड़चन की बात है, छह बजे उठेंगे।
भरोसा चिकित्सकों को नहीं आया, क्योंकि वह आदमी कभी जीवन में छह बजे नहीं उठा था। इतनी जल्दी राजी हो जाएगा! ना-नुच भी न करेगा! आना-कानी नहीं करेगा! सौदा नहीं करेगा, कि भई दस बजे नहीं तो आठ बजे, सात बजे। और सीधा बोला कि छह बजे तो छह बजे। उसके घर के लोग भी हैरान हुए। बेगम भी हैरान हुई, वजीर भी हैरान हुआ।
लेकिन बाद में राज खुल गया। राज यह था कि नवाब ने कहा: ऐसा करो कि जब भी मैं उठूं तब तुम घड़ी में छह बजा देना, बात खतम हो गई। बारह बजे उठूं कि दस बजे उठूं, जब भी उठूं, मगर घड़ी में छह बजने चाहिए। जैसे ही मैं करवट लूं, जल्दी से घड़ी में छह बजा देना।
ऐसे तो वह झक्की था, लेकिन एक बड़ी महत्वपूर्ण बात है उसके इस झक्कीपन में कि घड़ी को मालिक नहीं होने दिया, मालिक खुद ही रहा। उसने कहा: घड़ी मालिक है कि मैं मालिक हूं? घड़ी के हिसाब से मैं चलूंगा कि मेरे हिसाब से घड़ी चलेगी? घड़ी ने मुझको खरीदा है कि मैंने घड़ी को खरीदा है? मेरे हिसाब से घड़ी चलेगी!
यंत्र तुम्हारे हिसाब से चलने चाहिए। यंत्र तुम्हें गुलाम न बना लें। तुम्हारी मालकियत बनी रहे। यह अब केवल ध्यान से ही संभव हो सकता है।
राकेश! आधुनिक मनुष्य की सबसे बड़ी पीड़ा और सबसे बड़ी चुनौती, सबसे बड़ा खतरा, सबसे बड़ी समस्या एक ही है: प्रकृति से टूट जाना और यंत्रों से जुड़ जाना। ध्यान इतना जरूरी कभी भी नहीं था जितना आज है, क्योंकि ध्यान के बिना भी परमात्मा की याद आ जाती थी। प्रकृति चारों तरफ लहलहा रही थी। कब तक बचते? कैसे बचते? पपीहा पी-पी पुकारता और तुम्हें अपने पिया की याद न आती? और कोयल कुहू-कुहू की धुन मचाती और तुम्हारे प्राणों में कोई कुहू-कुहू की प्रतिध्वनि पैदा न होती? फूलों पर फूल खिलते, ऋतुएं घूमतीं, ऋतुओं का चक्र चलता--और तुम्हें यह याद न आती कि जगत सुनियोजित है, अराजक नहीं है? चांद-तारे समय पर आते हैं। वर्षा आती है। गर्मी आती है। शीत आती है। क्या इस सारे वर्तुलाकार प्रकृति को घूमते देख कर तुम्हें यह याद न आता कि कोई रहस्यपूर्ण छिपे हुए हाथ इसके पीछे होने चाहिए? बचना मुश्किल था। चारों तरफ उसकी गंध थी।
हमने धीरे-धीरे उसकी गंध बिलकुल बंद कर दी है। जितना आधुनिक मनुष्य है, उतना ही हटता चला गया है दूर। दिन भर मशीनों के साथ जीता है। घर आ जाए तो भी रेडियो खोल लेता है, कि टेलीविजन के सामने बैठ जाता है। फुरसत हो तो सिनेमा हो आता है। समय ही नहीं कि कभी तारों से भी गुफ्तगू हो। अवसर ही नहीं कि कभी नदियों के साथ भी दो बातें हो जाएं। आकांक्षा ही नहीं कि कभी पहाड़ों से भी मिलन हो। और इतने आवरण ओढ़ रखे हैं कि जब दो आदमी मिलते हैं तो भी मिलना नहीं हो पाता।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि एक बिस्तर पर जब पति और पत्नी सोते हैं, तो तुम यह मत समझना कि दो आदमी वहां सो रहे हैं। वहां चार भी सो सकते हैं; छह भी सो सकते हैं--क्योंकि एक तो पति वह है जो वह है; और एक पति वह है जैसा वह पत्नी को दिखलाता है; और एक पति वह है जैसा वह दिखलाता तो है लेकिन दिखला नहीं पाता, दिखलाना चाहता है। तो तीन पति हो गए, तीन पत्नियां हो गईं, छह आदमी सो रहे हैं। छोटा बिस्तर, वैसे ही भीड़-भाड़ हो जाती है।
तुम जो कहना चाहते हो, कहते हो? कुछ और ही कहते हो! और जो तुम कहते हो, उससे तुम्हारा कोई भी नाता नहीं होता। उसकी जड़ें तुम्हारे प्राणों में नहीं होतीं, तुम्हारे स्वरों का उसके साथ संबंध नहीं होता। तुम जरा लोगों के चेहरों पर गौर करो। तुम जरा लोगों के शरीर की भाषा सीखो। और तुम चकित हो जाओगे, उनके ओंठ कुछ कहते हैं, उनकी आंखें कुछ कहती हैं। उनके ओंठ कहते हैं: स्वागत! उनकी आंखें कहती हैं कि कहां सुबह-सुबह ये शनीचरी चेहरे के दर्शन हो गए। ओंठ कुछ कह रहे हैं, आंखें कुछ कह रही हैं। लोग कहते हैं कि बड़ा आनंद हुआ आपके आने से। लेकिन पूरा शरीर कुछ और कह रहा है।
शरीर की भाषा पर बड़ी शोध-बीन हो रही है। छोटे-छोटे इशारे शरीर कहता है, जिनका तुम्हें भी पता नहीं होता। जब तुम किसी आदमी से मिलना चाहते हो तो तुम उसके पास झुक कर खड़े होते हो; तुम उसकी तरफ झुके हुए होते हो। और जब तुम उससे नहीं मिलना चाहते तो तुम पीछे की तरफ खिंचे हुए खड़े होते हो। तुम जरा लोगों को गौर से देखना। जो स्त्री तुममें उत्सुक है, वह तुम्हारी तरफ झुकी हुई होगी। जो स्त्री तुमसे बचना चाहती है, वह तुम्हारे से दूसरी तरफ तनी हुई होगी। जो स्त्री तुममें उत्सुक है, वह तुम्हारे पास सरक कर बैठेगी; जो तुममें उत्सुक नहीं है, वह जिस तरह बच सके, जितनी बच सके, उतनी दूर तुमसे सरक कर बैठेगी। शायद उसे भी साफ न हो। लेकिन शरीर की भाषाएं हैं। ओंठ कुछ कहते हैं, शरीर कुछ कहता है। शरीर ज्यादा सच कहता है, क्योंकि अभी शरीर को झुठलाने की कला हमने नहीं सीखी। आंखें कुछ और कहती हैं, तुम कुछ भी कहो।
मनोवैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया आंखों के ऊपर। कुछ नंगी तस्वीरें और कुछ साधारण तस्वीरों में मिला दीं। और कुछ लोगों को उन तस्वीरों का अध्ययन करने के लिए कहा। सिर्फ देखने के लिए, एक नजर देखते जाना है। और उनकी आंखों पर यंत्र लगाए गए हैं। उनकी आंखों की जांच की जा रही है। उनसे कुछ...वे क्या कहते हैं, यह नहीं पूछा जा रहा है, सिर्फ उनकी आंखों की जांच की जा रही है। और एक बड़ी हैरानी का अनुभव हुआ। साधारण तस्वीर एक ढंग से देखती है आंख। अगर नग्न स्त्री की तस्वीर हो तो आंख की पुतलियां एकदम बड़ी हो जाती हैं। तो जो यंत्र से आंखें देख रहा है, उसे तस्वीरों का पता नहीं है, लेकिन वह आंखें देख कर यंत्र से कह सकता है कि यह आदमी अभी नंगी तस्वीर देख रहा है।
यह तो बड़ी खतरनाक चीज है। तुम अपने साधु-संतों की जांच कर सकते हो। और आंख पर बस नहीं है तुम्हारा स्वेच्छा से, कि तुम जब चाहो फैला लो, जब चाहो सिकुड़ा लो। खयाल भी नहीं है तुम्हें। जिस चीज को तुम देखना चाहते हो, उस आकांक्षा के कारण ही, वह दबी आकांक्षा ही कितनी ही क्यों न हो, तुम्हारी आंखों की पुतलियां बड़ी हो जाती हैं। क्यों? तुम उसे पूरा आत्मसात कर लेना चाहते हो।
फिल्म देखने तुम बैठे हो जाकर सिनेमागृह में। जब कोई ऐसी घटना घटती है जिसमें तुम उत्सुक हो, तुम कुर्सी छोड़ देते हो, एकदम तुम्हारी रीढ़ सीधी हो जाती है। तुम एकदम सजग होकर देखने लगते हो। जब कोई चीज ऐसी ही चल रही है तो तुम आराम से कुर्सी पर बैठ जाते हो; चूक भी गए तो कुछ हर्ज नहीं।
तुम्हारे शरीर की भाषा है। तुम कहते कुछ हो, तुम्हारा शरीर कुछ और ही कहता है। अक्सर उलटा कहता है। तुम्हारे ओंठ कुछ बोलते हैं और ओंठों का ढंग कुछ और बोलता है। ओंठ कुछ बोलते हैं, नाक कुछ बोलती है, आंख कुछ बोलती है। ऐसे खंड-खंड हो गया है आदमी। और यह खंडन बढ़ता जा रहा है, टुकड़े-टुकड़े होता जा रहा है। इसी टुकड़े-टुकड़े में फंसा हुआ है।
ध्यान का अर्थ होता है--अखंड हो जाओ; एक चैतन्य हो जाओ। और उस एक चैतन्य के लिए जरूरी है कि तुम अपने जीवन से यांत्रिकता छोड़ो। यंत्र तो नहीं छोड़े जा सकते, यह पक्का है। अब कोई उपाय नहीं है। अब लौटने की कोई जगह नहीं है। अब तुम चाहो लाख कि हवाई जहाज न हो, लोग फिर बैलगाड़ी में चलें--यह नहीं होगा। अब तुम लाख चाहो कि रेडियो न हो, यह नहीं होगा। अब तुम लाख चाहो कि बिजली न हो, यह नहीं होगा। होना भी नहीं चाहिए। लेकिन मनुष्य यांत्रिक न हो, यह हो सकता है। और अब तक तो खतरा न था, अब खतरा पैदा हुआ है। यंत्रों से बुद्ध के जमाने का आदमी नहीं घिरा था, तो भी बुद्ध ने अमूर्च्छा सिखाई है, विवेक सिखाया है, जागृति सिखाई है, होश सिखाया है। और आज तो और अड़चन बहुत हो गई है। आज तो एक ही बात सिखाई जानी चाहिए--मूर्च्छा छोड़ो! होशपूर्वक जीओ! जो भी करो, इतनी सजगता से करो कि तुम्हारा कृत्य मशीन का कृत्य न हो। तुममें और मशीन में इतना ही फर्क है अब कि तुम होशपूर्वक करोगे, मशीन को किसी होश की जरूरत नहीं है। अगर तुममें भी होश नहीं है तो तुम भी मशीन हो।
पुराने समय के ज्ञानियों ने मनुष्य को चौंकाया था, बार-बार एक बात कही थी, कल दरिया ने भी कही--कि देखो, आदमी रहना, पशु मत हो जाना! आज खतरा और बड़ा हो गया है। आज खतरा यह है कि देखो, आदमी रहना, यंत्र मत हो जाना! यह पशुओं से भी ज्यादा बड़ा पतन है। क्योंकि पशु फिर भी जीवंत है। पशु फिर भी यंत्र नहीं है। बुद्धों ने नहीं कहा है कि यंत्र मत हो जाना, क्योंकि यंत्र नहीं थे। लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि खतरा बहुत बढ़ गया है। खाई और गहरी हो गई है। पहले पुराने जमाने में गिरते तुम तो बहुत से बहुत पशु हो जाते, लेकिन अब गिरोगे तो यंत्र हो जाओगे। और यंत्र से नीचे गिरने का और कोई उपाय नहीं है। और यंत्र से बचने की एक ही औषधि है: जागे हुए जीओ। चलो तो होशपूर्वक, बैठो तो होशपूर्वक, सुनो तो होशपूर्वक, बोलो तो होशपूर्वक, चौबीस घंटे जितना बन सके उतना होश साधो। हर काम होशपूर्वक करो। छोटे-छोटे काम, क्योंकि सवाल काम का नहीं है, सवाल तो होश के लिए नये-नये अवसर खोजने का है। स्नान कर रहे हो, और तो कुछ काम नहीं है, होशपूर्वक ही करो। फव्वारे के नीचे बैठे हो, होशपूर्वक, जागे हुए, एक-एक बूंद को अनुभव करते हुए बैठो। भोजन कर रहे हो, जागे हुए।
लोग कहां भोजन कर रहे हैं जागे हुए! गटके जाते हैं। न स्वाद का पता है, न चबाने का पता है, न पचाने का पता है--गटके जाते हैं। पानी भी पीते हैं तो गटक गए। उसकी शीतलता भी अनुभव करो। तृप्त होती हुई प्यास भी अनुभव करो। तो तुम्हारे भीतर यह अनुभव करने वाला धीरे-धीरे सघन होगा, केंद्रीभूत होगा। और तुम जाग कर जीने लगो, तो फिर हो जाए जगत, यंत्र से भर जाए कितना ही, तुम्हारा परमात्मा से संबंध नहीं टूटेगा।
जागरण या ध्यान परमात्मा और तुम्हारे बीच सेतु है। और जितना तुम्हारे जीवन में ध्यान होगा, उतना ही तुम्हारे जीवन में प्रेम होगा। क्योंकि प्रेम ध्यान का परिणाम है। या इससे उलटा भी हो सकता है: जितना तुम्हारे जीवन में प्रेम होगा, उतना ध्यान होगा।
यंत्र दो काम नहीं कर सकते--ध्यान नहीं कर सकते और प्रेम नहीं कर सकते। बस इन दो बातों में ही मनुष्य की गरिमा है, महिमा है, महत्ता है, उसकी भगवत्ता है। इन दो को साध लो, सब सध जाएगा। और दोनों को इकट्ठा साधने की भी जरूरत नहीं है; इनमें से एक साध लो, दूसरा अपने आप सध जाएगा।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, साधु-संतों को देख कर ही मुझे चिढ़ होती है और क्रोध भी आता है। मैं तो उनमें सिवाय पाखंड के और कुछ भी नहीं देखता हूं। पर आपने न मालूम क्या कर दिया है कि श्रद्धा उमड़ती है! आपके प्रभाव का रहस्य क्या है?
सतीश! बात सीधी-सादी है: मैं कोई साधु-संत नहीं हूं। और ठीक ही है कि साधु-संतों पर तुम्हें चिढ़ होती है। चिढ़ होनी चाहिए अब। हजारों साल हो गए! इन मुर्दों से कब छुटकारा पाओगे? इन लाशों को कब तक ढोओगे? अगर तुममें थोड़ी भी बुद्धि है, तो चिढ़ होगी ही। तोतों की तरह ये तुम्हारे तथाकथित साधु-संत दोहराए जा रहे हैं--राम की कथा, उपनिषद, वेद, सत्यनारायण की कथा। न इनके जीवन में सत्य का कोई पता है, न नारायण का कोई पता है। न इनके जीवन में राम की कोई झलक है, न कृष्ण का कोई रस बहता है। न तो बांसुरी बजती है इनके जीवन में कृष्ण की, न मीरा के घुंघरुओं की आवाज है। इनके जीवन में कोई उत्सव नहीं है, कोई फाग नहीं है, कोई दीवाली नहीं है। इनके जीवन में कुछ भी नहीं है। इन्होंने तो सिर्फ धर्म के नाम पर तुम्हारा शोषण करने की एक कला सीख ली है। ये पारंगत हो गए हैं। और ये उन बातों का उपयोग करते हैं, जिन बातों से सहज ही तुम्हारा शोषण हो सकता है।
भिखमंगे भी इस देश में ज्ञान की बातें करते हैं, मगर उनका प्रयोजन कुछ ज्ञान से नहीं है। भिखमंगे भी कहते हैं कि दान से बड़ा पुण्य नहीं है। कोई न उन्हें पुण्य से मतलब है, न दान से मतलब है। मतलब तुम्हारी जेब से है। वे तुम्हारे अहंकार को फुसला रहे हैं कि दान से बड़ा पुण्य नहीं है, कहां जा रहे हो? दान करो! और लोभ पाप का बाप बखाना! वे तुमसे कह रहे हैं कि लोभ पाप का बाप है, बचो इससे! दे दो, हम तुम्हें हलका किए देते हैं। और मांग रहे हैं। भिखमंगे हैं। और मांगना लोभ से हो रहा है, लेकिन शिक्षा वे अलोभ की दे रहे हैं!
तुम्हारे भिखमंगों में और तुम्हारे साधु-संतों में कुछ बहुत फर्क नहीं है। तुम्हारे भिखमंगों में और तुम्हारे साधु-संतों में इतना ही फर्क है कि भिखमंगे गरीब और साधु-संत थोड़े सुशिक्षित, थोड़े सुसंस्कृत। भिखमंगे थोड़े दीन-हीन और तुम्हारे साधु-संत तुम्हारा शोषण करने में ज्यादा कुशल।
कल ही मैं एक कविता पढ़ता था--
दीवाली के दिन
एक साधु बाबा बोले:
‘बच्चा! तेरी रक्षा करेगा भोले,
आज दीवाली है।
हमारा कमंडल खाली है।
भरवा दे
ज्यादा नहीं बस
पांच रुपये दिलवा दे।’
हमने कहा: ‘बाबाजी!
दिलवाना होता तो पांच क्या
पांच लाख दिलवा देते
सारा हिंदुस्तान
आपके नाम करवा देते
हम भारतीय नौजवान हैं;
हमारे पास अंधा भविष्य
|लंगड़ा वर्तमान और गूंगे बयान हैं,
सरकार काम नहीं देती
बाप पैसा नहीं देता
दुनिया इज्जत नहीं देती
महबूबा चिट्टी नहीं देती
लोग दीवाली के दिन
दीये जलाते हैं
हम दिल जला रहे हैं,
इच्छाओं को आंसुओं में तल कर
त्योहार मना रहे हैं।
लोग हिंदुस्तान में रह कर
लंदन को मात करते हैं।
हिंदी का झंडा थाम कर
अंग्रेजी की बात करते हैं।
और हमसे कहते हैं कि
अपनी संस्कृति को अपनाओ
अब हम आजाद हैं
त्योहार मनाओ।
त्योहार आदमी को
देश की संस्कृति से जोड़ता है
और संस्कृति
जोड़ती है आदमी को रोशनी से।
मगर बाबाजी!
कथनी और करनी में बड़ी दूरी है।
जिस देश की रोशनी कमरों में बंद हो
उस देश में त्योहार
थोपी हुई मजबूरी है।’
बाबाजी बोले:
‘दुखी मत हो बच्चा
तू किस्मत वाला है
दीवाली के दिन
हमारे दर्शन कर रहा है
तुझे आशीर्वाद देने का
मन कर रहा है।’
हमने कहा: ‘अपने मन को रोकिए
आशीर्वाद दाताओं के पैर छूते-छूते
कमर झुक गई है
जीवन की गाड़ी
आगे बढ़ने से रुक गई है।’
वे बोले:
‘तू हमारे आशीष का अपमान कर रहा है
हम त्रिकालदर्शी हैं
वेदांती हैं
देख! हमारे मुंह में एक भी दांत नहीं
बच्चा, हंसने की बात नहीं
लोग इस जमाने में
कपड़े पहन कर भी नंगे हैं
हम एक लंगोटी में नंगापन ढांक रहे हैं
संतों के देश में धूल फांक रहे हैं।
खाली कमंडल हाथ में लेकर
घर-घर अलख जगाते हैं
और लोग हमें चोर समझ कर भगाते हैं
सूरदास को चैन नहीं मिला
तो नैन फोड़ लिए
हमें अन्न नहीं मिला
तो दांत तोड़ लिए
वे सूरदास
हम पोपलदास
वे अतीत के गौरव
हम वर्तमान के संत्रास!’
हमने कहा: ‘बाबाजी!
आप तो साहित्यकारों को मात कर रहे हैं
साधु होकर संत्रास की बात कर रहे हैं।’
वे बोले: ‘तू हमें नहीं पहचानता
हमारा वर्तमान देख रहा है
भूतकाल नहीं जानता
आज से दस बरस पूर्व
हम अखिल भारतीय कवि थे
लोग हमारी बकवास को अनुप्रास
और अश्लीलता को अलंकार कहते थे
बड़े-बड़े संयोजक हमारी अंटी में रहते थे
हमने शब्दों से अर्थ कमाया है
कविता को मंच पर नंगा नाच नचाया है
उसी का फल चर रहे हैं
तन पर भभूत मल रहे हैं
खाली कमंडल लिए फिर रहे हैं।’
हमने कहा: ‘दुखी मत होओ बाबा!
आपका कमंडल खाली
हमारी जेब खाली
भाड़ में जाए होली
और चूल्हे में जाए दीवाली।’
नाराजगी स्वाभाविक है। चिढ़ होती होगी सतीश, चिढ़ होनी चाहिए। क्रोध भी आता होगा, आना चाहिए। न तो सभी चिढ़ व्यर्थ होती हैं, न सभी क्रोध व्यर्थ होते हैं। कभी तो क्रोध की भी सार्थकता होती है। इस देश को थोड़ा क्रोध भी आने लगे, तो भी सौभाग्य है। यह देश तो भूल ही गया है सारी तेजस्विता। यह तो गुलामी में ऐसा पक गया है, ऐसा रंग गया है, कि घिसता जाता है, कहीं भी जोत दो, किसी भी कोल्हू में जोत दो, और इस देश का आदमी चलने को राजी हो जाता है।
सदियों से भाग्य सिखाया गया है, नियति सिखाई गई है। सदियों से एक ही बात सिखाई गई है कि सब किस्मत में लिखा है। जो होना है वही होना है। तो अगर कोल्हू में बंधना है तो कोल्हू में बंधना है! और साधु-संतों का ऐसा सम्मान सिखाया है...। सिखाया किसने? उन्हीं ने सिखाया है। वही तुम्हारे शिक्षक रहे हैं। वही तुम्हें बताते रहे हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन ने एक दिन जाकर बाजार में कहा कि मेरी स्त्री से ज्यादा सुंदर और कोई स्त्री दुनिया में नहीं है। नूरजहां भी कुछ नहीं थी। मुमताजमहल भी कुछ नहीं थी। और ये आजकल की हेमामालिनी इत्यादि का तो कोई मूल्य ही नहीं है।
किसी ने पूछा: मगर मुल्ला नसरुद्दीन, अचानक तुम्हें इस बात का पता कैसे चला?
उसने कहा: पता कैसे चला? मेरी ही पत्नी ने मुझसे कहा है!
कौन तुम्हें समझाता रहा कि साधु-संतों को सम्मान दो, सत्कार दो, सेवा करो? यही साधु-संत तुम्हें समझाते रहे। सदियों-सदियों का संस्कार उन्होंने डाला है। तुम उन्हें देख कर झुक जाते हो। झुकना यांत्रिक है, औपचारिक है। तुम्हारे बाप भी झुकते रहे, बाप के बाप भी झुकते रहे, सदियां झुकती रहीं; तुम भी झुक जाते हो। उसी श्रृंखला में बंधे, कड़ियों में बंधे, झुक जाते हो।
अच्छा है सतीश कि चिढ़ होती है। इस देश के जवान में थोड़ी चिढ़ पैदा होनी चाहिए। तो कुछ टूटे, कुछ नया बने! नहीं तो तथाकथित बड़ी-बड़ी क्रांतियां हो जाती हैं। देखा अभी, समग्र क्रांति समग्र रूप से असफल गई! क्रांति बकवास है यहां, क्योंकि लोगों के प्राणों में क्रांति का भाव नहीं है। क्रांति ऊपर-ऊपर लीपा-पोती है! एक आदमी को हटाओ, दूसरे को बिठा दो। मगर वह दूसरा आदमी पहले से भी बदतर हो सकता है; या पहले ही जैसा होगा। बहन जी नहीं होंगी तो भाई जी होंगे, कुछ खास फर्क नहीं पड़ेगा। कोई अंतर नहीं होगा। एक लाश हटेगी, दूसरी लाश विराजमान कर दी जाएगी। नाम क्रांति का होगा। लेकिन क्रांति की भाषा नहीं हमें आती। क्रांति का हमारे पास बोध नहीं है। क्रांति का पहला बोध यह है कि हम देखना तो शुरू करें कि हम कितनी सदियों से कितनी गलत धारणाओं में आबद्ध हैं।
संत कौन है? हमारी परिभाषा क्या है संत की? अगर हिंदू से पूछो तो उसकी एक परिभाषा है--कि भभूत रमाए बैठा हो, धूनी लगाए बैठा हो, तो संत हो गया।
अब भभूत लगाने से और धूनी रमाने से कोई संत होता है? सर्कस में भर्ती हो जाना था; संत क्यों?
जैन से पूछो, उसकी यह परिभाषा नहीं है। वह तो जो भभूत लगाए है और धूनी जलाए है, उसको संत तो मान ही नहीं सकता, असंत मानेगा। क्योंकि आग जलाने से तो हिंसा होती है। कीड़े मरेंगे; आग पैदा होगी। आग जलाना तो जैन मुनि कर ही नहीं सकता। तो उसकी और परिभाषा है--उपवास करे कोई। लंबे-लंबे उपवास करे, भूखा मरे! खुद को सताए, तरह-तरह से सताए, तो मुनि है।
मगर यह श्वेतांबर जैन की परिभाषा है। दिगंबर से पूछो, तो जब तक वह नग्न न हो तब तक मुनि नहीं है, चाहे कितने ही लाख उपवास करे। मुनि तो वह तभी होगा, जब नग्न खड़ा हो जाए, जब वस्त्रों का त्याग कर दे।
ईसाइयों से पूछो, तो उनकी कुछ और परिभाषा है, मुसलमानों से कुछ और, और बौद्धों से कुछ और। दुनिया में तीन सौ धर्म हैं और तीन हजार परिभाषाएं हैं। क्योंकि तीन सौ धर्मों के कम से कम तीन हजार संप्रदाय हैं।
संत कौन है? इन परिभाषाओं से तय होने वाला नहीं है। ये परिभाषाएं काम न पड़ेंगी। संत तो मैं उसे कहता हूं जिसने सत्य को जाना। संत शब्द ही सत्य को जानने से बनता है। जिसने अनुभव किया, पीया सत्य को। जिसकी मौजूदगी में, जिसकी सन्निधि में तुम्हारे भीतर भी सत्य की हवाएं बहने लगें, सत्य की रोशनी होने लगे। जिसकी मौजूदगी में, जिसके संग-साथ में तुम्हारा बुझा दीया जल उठे। संत वही है।
जब तक तुम्हारा दीया न जल जाए, तब तक किसी को संत कहने का कोई कारण नहीं है। हां, तुम्हारा दीया कहीं जल जाए और तुम्हारे भीतर आनंद का प्रकाश हो और तुम्हें परमात्मा की सुध आने लगे, तो जिसके पास आ जाए वही संत है। फिर वह नग्न हो कि कपड़े पहने हो, महल में हो कि झोपड़े में हो, उपवास कर रहा हो कि सुस्वादु भोजन कर रहा हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता। इन सारी बातों से कोई संबंध नहीं है। फिर वह हिंदू हो कि मुसलमान कि ईसाई; स्त्री हो कि पुरुष; कोई फर्क नहीं पड़ता। एक ही बात निर्णायक है कि जिसकी सन्निधि में, तुम्हारे भीतर सोया हुआ जो परमात्मा है, वह करवट लेने लगे। तुम्हारे भीतर धुन बजने लगे कोई, जो कभी नहीं बजी थी! तुम्हारी आंखें गीली हो जाएं किसी नये आनंद से--अपरिचित, अछूते आनंद से! तुम्हारे पैर थिरकने लगें एक नये उल्लास से! तुम्हारा हृदय धड़कने लगे एक नये संगीत से! तुम आतुर हो जाओ अपना अतिक्रमण करने को! वही संत है।
और सतीश, जब भी ऐसा कोई संत मिलेगा तो चिढ़ कैसे होगी? जब ऐसा कोई संत मिलेगा तो श्रद्धा होगी। तो झुक जाने का मन होगा। नहीं कि झुकाओगे तुम अपने को; अचानक पाओगे कि झुक गए हो। नहीं कि चेष्टा करनी पड़ेगी झुकने की; नहीं-नहीं, जरा भी नहीं। झुका हुआ अनुभव करोगे! झुका हुआ पाओगे! अचानक पाओगे कि तुम्हारा अहंकार गया, बह गया, बाढ़ में बह गया।
मेरे पास तो केवल वे ही लोग आ सकते हैं जो तुम्हारे जैसे हैं। जिन्हें अभी पुराने, सड़े-गले धर्म में भरोसा है, वे तो यहां आ भी नहीं सकते। मेरे पास तो वे ही आने की हिम्मत जुटा सकते हैं, जिन्होंने देख लिया पुराने धर्म का सड़ा-गलापन; जिन्होंने देख ली उसकी असलियत और जो तलाश पर निकल पड़े हैं; जो खोज में निकल पड़े हैं। जो कहते हैं कि अब लीक पर चलने से कुछ भी न होगा; हम तलाश करेंगे, अपनी पगडंडी तोड़ेंगे, खोजेंगे--कहीं तो होगा परमात्मा का कोई प्रकाश! कहीं तो अभी भी किसी एकाध रंध्र से उसकी रोशनी आती होगी पृथ्वी तक, हम उस रंध्र को खोजेंगे। सदियों-सदियों पूजे गए पाखंड व्यर्थ हो गए हैं। सदियों-सदियों बनाए गए मंदिर खाली पड़े हैं। अब हम चलेंगे खुद ही तलाश पर। अब भीड़-भाड़ की न मानेंगे। अब तो निज का ही अनुभव होगा तो स्वीकार करेंगे।
मेरे पास, तुम कहते हो कि तुम्हें श्रद्धा अनुभव होती है। तो मेरे रहस्य का, मेरे राज का कारण पूछा है।
न कोई रहस्य है, न कोई राज है। बात सीधी-साफ है; दो और दो चार जैसी साफ है। मैं कोई बंधी-बंधाई परंपरा का प्रतिनिधि नहीं हूं। मैं किसी का साधु नहीं हूं, किसी का संत नहीं हूं। मैं अपनी निजता में जी रहा हूं। जो मेरा आनंद है, वैसे जी रहा हूं। रत्ती भर मुझे किसी और की परवाह नहीं है। जिन्हें औरों की परवाह है, उनसे मेरा नाता नहीं बनेगा। मुझसे तो नाता उनका बनेगा जिन्हें किसी की परवाह नहीं है; जिन्हें सिर्फ एक बात की चिंता है कि सत्य को जानना है, चाहे दांव पर कुछ भी लगाना पड़े। संस्कृति लगे दांव पर तो लगा देंगे। धर्म लगे दांव पर तो लगा देंगे। प्रतिष्ठा लगे दांव पर तो लगा देंगे। प्राण लग जाएं दांव पर तो लगा देंगे। सहेंगे अपमान। सहेंगे असम्मान। सहेंगे निंदा। लोग पागल कहेंगे तो सहेंगे, लेकिन सत्य को खोज कर रहेंगे! ऐसे जो लोग हैं, वे अचानक ही पाएंगे कि मेरे हृदय और उनके बीच एक स्वर बजने लगा। वे मेरे लोग हैं। मैं उनका हूं। मैं उन थोड़े से लोगों के लिए हूं जिनका ऐसा दुस्साहस है।
लेकिन सत्य की खोज के लिए दुस्साहस चाहिए ही। भीड़ के पास झूठ होता है, क्योंकि भीड़ को सत्य से कुछ लेना नहीं है। सांत्वना चाहिए। सांत्वना झूठ से मिलती है। सत्य से तो सब सांत्वनाएं टूट जाती हैं। सत्य तो आता है तलवार की धार की तरह और काट जाता है तुम्हें। सत्य तो मिटा देता है तुम्हें। और जब तुम मिट जाते हो तब जो शेष रह जाता है, वही परमात्मा है। अहंकार जहां नहीं है, वहीं परमात्म-अनुभव है।
लेकिन, सत्य को खोजो, पर अकारण साधु-संतों के प्रति चिढ़ को ही अपने जीवन की शैली मत बना लेना। उससे क्या लेना-देना? उनकी वे जानें। अगर किसी को पाखंडी होना है, तो उसे हक है पाखंडी होने का। और किसी को अगर झूठ में ही जीना है, तो यह भी उसकी आत्मा की स्वतंत्रता है कि वह झूठ में जीए। किसी को दोहरी जिंदगी जीनी है, उसकी मर्जी। तुम अपने को इसी पर आरोपित मत कर देना। नहीं तो तुम्हारा समय इसी में नष्ट होगा--इसको घृणा करो, उसको घृणा करो; इससे चिढ़ करो, उससे क्रोध करो, इससे लड़ो-झगड़ो। तुम अपनी तलाश कब करोगे?
और उन सौ साधु-संन्यासियों में कभी एकाध ऐसा भी हो सकता है जो सच्चा हो। तो कहीं ऐसा न हो कि कूड़ा-कर्कट के साथ तुम हीरे को भी फेंक दो।
इसलिए तुम इसकी चिंता छोड़ो। तुम तो सत्य की तलाश में ही अपनी सारी शक्ति को नियोजित कर दो। शक्ति को बांटो मत। इस भेद को खयाल में रख लो। नहीं तो तुम प्रतिक्रियावादी हो जाओगे, क्रांतिकारी नहीं। कुछ लोग हैं जो गलत को तोड़ने में ही जिंदगी गंवा देते हैं। मगर गलत को तोड़ने से ही ठीक थोड़े ही बनता है। तुम अगर उठा लो कुदाली और गांव में जितने भी गलत मकान हों, सब गिरा दो, तो भी इससे मकान तो नहीं बन जाएगा। गिराने से तो मकान नहीं बन जाएगा। अच्छा तो यही हो कि तुम पहले मकान बनाओ, सम्यक मकान बनाओ, मंदिर बनाओ, ताकि गलत अपने आप गलत दिखाई पड़ने लगे। फिर गिराना भी आसान होगा। और फिर इस भूल की भी संभावना नहीं है कि कहीं गलत की चपेट में तुम ठीक को भी गिरा जाओ। अक्सर ऐसा हो जाता है।
अंग्रेजी में कहावत है न कि टब के गंदे पानी के साथ कहीं बच्चे को न फेंक देना! अक्सर ऐसा हो जाता है कि जब लोग क्रोध में आ जाते हैं, तो कचरा तो फेंकते ही फेंकते हैं, हीरे भी फेंक देते हैं। हीरे भी पड़े हैं। सौ में एक ही होगा हीरा।
तब तुमको पहचान न पाया!
पाले की ठंडी अंधियाली
निशि में जब तुम एक ठिठुरते
भिखमंगे का रूप बना कर
आए मेरे गृह पर डरते
मैंने तुमको शरण नहीं दी, उलटे जी भर कर धमकाया!
तब तुमको पहचान न पाया!
अंगारे नभ उगल रहा था
बने पथिक तुम प्यासे पथ पर
पानी थोड़ा मांग रहे थे
राह किनारे बैठे थक कर
पानी मेरे पास बहुत था, फिर भी था तुमको तरसाया!
तब तुमको पहचान न पाया!
भूखा बालक बन कर उस दिन
खंडहर में तुम बिलख रहे थे
मेरे पास अनाजों के जाने
कितने भंडार भरे थे
तब भी मैंने उठा प्रेम से नहीं तुम्हें निज कंठ लगाया!
तब तुमको पहचान न पाया!
आज तुम्हारे द्वार खड़ा मैं
जाने ले कितनी आशाएं
बेशर्मी की भी तो हद है
कैसे ये दृग पलक उठाएं
मैं लघु पर तुम तो महान, विश्वास यही मुझको ले आया!
तब तुमको पहचान न पाया!
कौन जाने परमात्मा किस रूप में आ जाए! कौन जाने परमात्मा किस रूप में मिल जाए! इसलिए किसी रूप से कोई जिद मत बांध लेना। आग्रह मत कर लेना। फिर वह रूप चाहे साधु-संत का ही क्यों न हो। तुम्हें क्या पड़ी? तुम अपने सत्य की तलाश में लगो। तुम्हारा सत्य प्रकट हो जाए, उसी घड़ी तुम्हें पता चल जाएगा कि कहां-कहां सत्य है और कहां-कहां सत्य नहीं है। उसके पहले पता भी नहीं चल सकता।
तोड़ने का भी एक मजा होता है। विरोध का भी एक मजा होता है। निंदा का भी एक रस होता है। उसमें मत पड़ जाना। नहीं तो कई बार, द्वार के करीब आते-आते भी चूक जा सकते हो। सत्य के तलाशी को पक्षपात-शून्य होना चाहिए। सत्य के खोजी को धारणा-शून्य होना चाहिए। पूर्व-धारणाएं लेकर तुम जहां भी जाओगे, वहां तुम वही नहीं देख पाओगे जो है; वही देख लोगे जो तुम देखने गए थे।
और जीवन सच में ही बड़ा रहस्यपूर्ण है। यहां कभी-कभी ऐसी अनहोनी घटनाएं घटती हैं जिनकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते थे। यहां इस-इस रूप में सत्य की उपलब्धि हो जाती है जिसकी तुम स्वप्न में भी धारणा नहीं कर सकते थे। इसलिए मन को जिद में मत बांधो सतीश! न क्रोध में बांधो।
बात तो तुम्हारी ठीक है। बहुत धोखा हुआ है, बहुत पाखंड हुआ है। धर्म के नाम पर बहुत उपद्रव चला है, बहुत शोषण चला है। मगर यह शोषण ऐसे ही नहीं चलता रहा है। इस शोषण की जिम्मेवारी शोषण करने वालों पर ही नहीं है। इसकी बड़ी जिम्मेवारी तो उन पर है जो इसे चलने देते हैं। शायद उनकी जरूरत है। शायद इसके बिना वे जी नहीं सकते।
सिगमंड फ्रायड ने कुछ महत्वपूर्ण बातों में एक महत्वपूर्ण बात यह भी कही है कि चालीस वर्षों के मनुष्य के मनोविज्ञान के अध्ययन के बाद, अनेक-अनेक लोगों के निरीक्षण के बाद, मेरा निष्कर्ष है कि आदमी, कम से कम अधिकतम आदमी, बिना झूठ के नहीं जी सकते। अधिकतम लोगों के लिए भ्रमों के जाल चाहिए ही चाहिए। क्योंकि सत्य की चोट झेलने की क्षमता कितने लोगों की है?
फ्रेड्रिक नीत्शे ने भी बड़ी गहरी बात कही है, ठीक-ठीक ऐसी ही ऐसी। फ्रेड्रिक नीत्शे ने कहा है कि कृपा करो, लोगों के भ्रम मत छीनो! क्योंकि लोग बिना भ्रम के मर जाएंगे। भ्रम उनके जीवन का आधार है।
तो शोषण यूं ही नहीं चलता है। कोई है जो शोषण के बिना जी नहीं सकता है, इसलिए शोषण चलता है। अर्थशास्त्र का एक नियम है, अब हालांकि वह नियम उतना काम नहीं आता। अब तो अर्थशास्त्र भी शीर्षासन कर रहा है। लेकिन पुराना नियम यही है कि जहां-जहां मांग होती है, वहां-वहां पूर्ति होती है। जब तक किसी चीज की मांग न हो, तब तक पूर्ति नहीं होती। अगर पाखंडी सिर पर बैठे हैं, तो जरूर तुम चाहते होओगे कि तुम्हारे सिर पर कोई बैठे। बिना तुम्हारी मांग के तुम क्यों उन्हें सिर पर बिठाओगे? तुम्हारे भीतर जरूर उनके कारण कुछ सहारा मिलता होगा; कोई सांत्वना मिलती होगी, कोई सुरक्षा मिलती होगी। तुम्हारे भीतर कुछ जरूर उनके कारण तृप्त होता होगा। तुम्हारी कोई न कोई जरूरत वे जरूर पूरी कर रहे हैं।
हालांकि अब अर्थशास्त्र का नियम थोड़ा बदला है। बदला है अब ऐसा, और बदलना पड़ा है विज्ञापन के कारण। यह जब नियम बना था तब विज्ञापन इतना विकसित नहीं हुआ था। अब विज्ञापन ने हालत बदल दी है। अब विज्ञापन कहता है: पहले पूर्ति करो, फिर मांग तो पैदा हो ही जाएगी। अब विज्ञापन की दुनिया ने क्रांति कर दी एक। पहले तो ऐसा था--लोगों की जरूरत होती तो लोग मांग करते थे; मांग होती तो कोई खोज करता, पूर्ति करता। समझो कि लोगों को ठंड लग रही है, कंबल की जरूरत है, तो कंबल बाजार में आ जाते। अब हालत उलटी है। अब पहले कंबल बाजार में ले आओ। खूब प्रचार करो कि कंबल पहनने से शरीर सुंदर होता है, कंबल ओढ़ने से ऐसे-ऐसे लाभ होते हैं, उम्र लंबी होती है, आदमी ज्यादा देर तक जवान रहता है। खूब जो-जो प्रचार करना हो करो। कि जिसके पास यह कंबल होगा, उसके पास सुंदरियां आती हैं! कि इस कंबल को देख कर सुंदरियां एकदम मोहित हो जाती हैं! इस कंबल को देखते ही जादू छा जाता है! बस फिर चाहे सर्दी हो या न; फिर गर्मी में लोगों को तुम देखोगे कि कंबल ओढ़े बैठे हैं। पसीने से तरबतर हो रहे हैं, लेकिन सुंदरियों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अब हालत बदल गई है।
तुमने कहावत सुनी है अंग्रेजी की, कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। अब उसको बदल दो। अब कहावत कर लो: आवश्यकता आविष्कार की जननी नहीं; आविष्कार आवश्यकता का पिता है। पहले आविष्कार कर लो, फिर फिकर करना; विज्ञापन करना जोर से। इसलिए अमरीका में तो ऐसा है कि कोई भी चीज बाजार में आती है, उसके दो साल, तीन साल पहले विज्ञापन शुरू हो जाता है। अब तो लोग विज्ञापन से जीते हैं! जिन बातों की लोगों को कभी खबर ही नहीं थी, जिनकी उन्हें कभी जरूरत नहीं थी, विज्ञापन उनको जरूरत सिखा देता है। बस ठीक से प्रचार करो। लोगों को जंचा दो कि इसके बिना चलेगा नहीं। लोग खरीदने लगेंगे।
तो पहले तो पुरोहित आदमी की जरूरत से पैदा हुआ। जरूरत क्या थी आदमी की? जरूरत थी कि आदमी डरा हुआ था, भयभीत था। मौत थी सामने। मौत के पार क्या है? यह प्रश्न था सामने। जिंदगी में हजार-हजार मुसीबतें थीं, बीमारियां थीं। क्यों हैं ये बीमारियां, इनके उत्तर चाहिए थे। तो साधु-संत पैदा हो गए। उन्होंने उत्तर दे दिए। किसी ने उत्तर दे दिया कि तुमने पिछले जन्मों में पाप-कर्म किए थे। पिछले जन्म का पक्का ही नहीं है अभी; लेकिन पिछले जन्म में पाप-कर्म किए थे, उनका फल भोग रहे हो! और वह जो धन लिए बैठा है और मजा कर रहा है, उसने पिछले जन्म में पुण्य किए थे, इसलिए वह पुण्य का फल भोग रहा है! उत्तर मिल गया। सांत्वना मिली। थोड़ी राहत मिली। थोड़ी बेचैनी कटी--बड़ी बेचैनी कटी! अहंकार को बड़ा सहारा मिला। नहीं तो ऐसा लगता है कि हम भी मेहनत कर रहे हैं, दूसरा भी मेहनत कर रहा है; वह सफल होता है, हम असफल होते हैं। तो जरूर हमारे पास बुद्धि की कमी है। लेकिन अब बुद्धि क्या करे? बुद्धि तो हमारे पास उससे भी अच्छी है। मगर अब पिछले जन्मों के कर्मों के कारण अड़चन आ रही है। राहत मिल गई!
मृत्यु के बाद, घबड़ाओ मत, आत्मा अमर है। यही तो हम चाहते थे सुनना कि कोई कह दे, किसी तरह समझा दे कि आत्मा अमर है। हमें मरना न पड़े। कोई मरना नहीं चाहता। कोई समझा दे यह भी कि मरने के बाद जो दुनिया है, वह बड़े स्वर्ग की है, सुख की है।
थोड़ी सी शर्तें लगाईं साधु-संतों ने, वह भी ठीक, कि जो हमारी सेवा करेगा वह मेवा पाएगा। ठीक भी है। आखिर वे तुम्हारी सेवा कर रहे थे, थोड़ी तुमसे सेवा ली, तो दुनिया तो लेन-देन का मामला है। कुछ तुमने दिया, कुछ उन्होंने लिया। कुछ उन्होंने दिया, कुछ तुमने लिया। सौदा जम गया। उन्होंने कहा: तुम हमारी यहां सेवा करो, हम तुम्हें पक्का भरोसा दिलाते हैं कि स्वर्ग में तुम्हारी अप्सराएं सेवा करेंगी। तब एक अदृश्य का धंधा शुरू हुआ। तुम्हें जो चाहिए वह स्वर्ग में मिलेगा। यहां दो, वहां लो।
मगर यह बात जरा गड़बड़ की तो थी। क्योंकि यहां देना पड़े प्रकट और मरने के बाद मिलेगा कि नहीं मिलेगा! तो साधु-संतों ने कहा: एक पैसा यहां दो, वहां एक करोड़ गुना लो। देखते हो लोभ कितना दिया! पंडे-पुजारी तीर्थों में बैठ कर लोगों को समझाते हैं कि तुम एक दो, एक करोड़ गुना मिलेगा। कौन नहीं इस लोभ में आ जाएगा? एक पैसा दान दे दिया और एक करोड़ मिलेगा, यह तो सरकारी लाटरी से भी बेहतर हुआ! यह है लाटरी, असली आध्यात्मिक लाटरी! एक पैसा दे दिया और करोड़ गुना! एक रुपया दे दिया और करोड़ गुना! यह कमाई कौन छोड़ेगा? और अगर गया भी तो एक ही रुपया गया, कोई बहुत बड़ा चला नहीं गया। और अगर मिला...कौन जाने मिले ही! तो इतना लोभ दिया! उस लोभ ने तुम्हें राहत दी।
स्वर्ग के कैसे-कैसे सुखों के वर्णन हैं! और फिर तुम्हें डरवाया भी। क्योंकि जो उनकी न मानेगा, वे नरक में सड़ेंगे। और नरक में फिर कैसे-कैसे सड़ाने के वर्णन हैं! जिन्होंने किए हैं, बड़े कल्पना-जीवी लोग रहे होंगे। किस-किस प्रकार की ईजादें की हैं नरक में सड़ाने की, परेशान करने की! और स्वर्ग में सब सुख। और भेद कितना? जो मानेगा इन साधु-संतों को!
अब बड़ी अड़चन खड़ी हो गई, क्योंकि दुनिया में बहुत तरह के साधु-संत हैं, बहुत तरह के संप्रदाय हैं। सबके दावे हैं। ईसाई कहते हैं: जो ईसा को मानेगा, बस वही जाएगा स्वर्ग, शेष सब नरक में पड़ेंगे। जब तक पता नहीं था एक धर्म का दूसरे धर्मों को, तब तक तो ये दुकानें चलती थीं आसानी से। अब बड़ी बिगूचना हो गई, बड़ी विडंबना हो गई। अब बड़ी घबड़ाहट पैदा होती है लोगों को कि करना क्या है! पता नहीं कौन सच्चा हो! कहीं ऐसा न हो कि वहां पहुंचें और जीसस इनकार कर दें, क्योंकि ईसाई कहते हैं कि जीसस पहचानते हैं, कौन उनका है। वे अपनों-अपनों को चुन लेंगे। वे अपनी भेड़ों को चुन लेंगे। वे रखवाले हैं, गड़रिए हैं; वे अपनी भेड़ों को चुन लेंगे, बाकी भेड़ें जाएं भाड़ में।
तो लोगों को खूब डरवाने के उपाय किए गए।
मैंने सुना है, एक आदिवासी गांव में...आदिवासियों को तो, सीधे-सादे, भोले-भाले लोग, उनको बदलने के लिए भी भोली-भाली, सीधी-सादी कोई तरकीबें खोजनी पड़ती हैं, जो उनके काम आ सकें। बड़े तर्क तो वे समझ नहीं सकते। बाइबिल और वेद का तो उन्हें पता नहीं। तो पादरी ने पूरा गांव बदलने की तैयारी कर ली थी। ईसाई होने को गांव तैयार था। और तरकीब क्या थी? तरकीब बड़ी सीधी-सरल थी। मगर तुम्हारी तरकीबें भी बहुत भिन्न नहीं हैं। कितनी ही जटिल हों, उनका मौलिक ढंग वही है।
तरकीब यह थी कि उसने एक दिन सारे गांव को इकट्ठा किया। आग जलाई एक तरफ और पानी से भरा हुआ एक मटका रखा दूसरी तरफ। और उसने कहा कि देखो, कौन सच्चा है? किससे परख की जाए? आदिवासी कहते हैं: भवसागर कहा है संसार को, तो सच्चा वही जो तिरा दे। तो पानी में जो डूब जाए वह झूठा और जो बच जाए वह सच्चा। उसने दो मूर्तियां बना रखी थीं। एक राम की मूर्ति, वह लोहे की; और एक जीसस की मूर्ति, वह लकड़ी की। और उसने एक दूसरा सेट भी अपने झोले में तैयार रखा था। अगर आग से परीक्षा करनी हो, तो उलटा। वहां जीसस लोहे के और राम लकड़ी के। मटके में उसने डाल दीं दोनों मूर्तियां। राम जी तत्काल डूब गए। लोहे के थे तो बचते कैसे? जीसस तैरने लगे। तालियां बज गईं। गांव के लोगों ने कहा कि अब इससे ज्यादा प्रत्यक्ष प्रमाण और क्या? संसार भवसागर है! ये राम जी के साथ गए तो खुद भी डूबे। आप डूबन्ते, ले डूबे जिजमान! खुद तो डूबेंगे ही डूबेंगे महाराज, हमें भी डुबाएंगे। जीसस ही बचावनहार! देखो क्या तैर रहे हैं! तुम्हें भी तिरा देंगे।
वह तो सब गड़बड़ हो गई एक आदमी की वजह से। एक हिंदू संन्यासी भी गांव में ठहरा हुआ था। उसको यह खबर लगी। वह भी भागा हुआ पहुंचा। उसने यह सब हालत देखी; सब समझ गया राज। उसने कहा: भाई, परीक्षा तो अग्नि से होगी, क्योंकि अग्नि-परीक्षा ही हिंदुस्तान में चलती रही है। राम जी भी जब सीता जी को लेकर आए थे तो अग्नि-परीक्षा ली थी। जल-परीक्षा सुनी कभी?
गांव के लोगों ने कहा: यह बात तो ठीक है। जल-परीक्षा सुनी ही नहीं। अग्नि-परीक्षा!
पादरी थोड़ा डरा। उसने कोशिश तो की कि किसी तरह झोले में छिपी दूसरी मूर्तियां निकाल ले, लेकिन अब इस संन्यासी को धोखा देना मुश्किल था। उसने तो मटके में डली हुई मूर्तियां बाहर निकाल लीं और उसने कहा कि अब असली परीक्षा होती है देखो। डाल दिया दोनों को आग में। राम जी तो मजे से खड़े रहे, जीसस महाराज भभक कर जल गए। उस संन्यासी ने कहा: देखा, अग्नि-परीक्षा होगी, उसमें जो पार उतरेगा, वही तुम्हें पार उतारेगा।
आदमी के साथ यही खिलवाड़ चलता रहा है। उसे ऐसे ही तर्क दिए जाते रहे हैं। उसे इसी तरह के गणित समझाए जाते रहे हैं। आदमी भयभीत है; बचना चाहता है। मौत सामने खड़ी है। साधु-संतों ने यह मौका नहीं छोड़ा। उन्होंने इसका शोषण कर लिया है। उन्होंने हजार-हजार सिद्धांत खड़े कर लिए हैं।
लेकिन आज अड़चन खड़ी हो गई है, क्योंकि दुनिया के सारे धर्म, पहली बार एक-दूसरे से परिचित हुए हैं। इसके पहले तो सब अपने-अपने कुएं में बंद थे। विज्ञान ने कुएं तोड़ दिए, सीमाएं तोड़ दीं। संसार छोटा हो गया; एकदम छोटे गांव जैसा हो गया। आज न्यूयार्क में और पूना में अंतर ही क्या है? घंटों का फासला रह गया। इतने करीब हो गया है सब कि न्यूयार्क में नाश्ता लो, लंदन में भोजन करो और पूना में बदहजमी झेलो! सब इतना करीब हो गया है। एकदम जुड़ गया है। इतनी दुनिया करीब आ गई। इस करीब दुनिया में अब मन बहुत विभ्रांत है कि कौन सही, कौन गलत?
मैं तुमसे कहना चाहता हूं: ये सारी धारणाएं ही व्यर्थ। इनमें सही और गलत चुनना ही मत। इनमें कुछ गलत नहीं, कुछ सही नहीं। ये अलग-अलग दुकानों के अलग-अलग इश्तहार थे। ये दुकानें ही गलत थीं। धर्म का कोई संबंध परलोक से नहीं है। धर्म का संबंध वर्तमान से है। धर्म का कोई संबंध मृत्यु के पार से नहीं है, धर्म का मौलिक संबंध जीवन के निखार से है। धर्म का कोई संबंध पाप और पुण्य से नहीं है, धर्म का संबंध है मूर्च्छा और जागरण से।
तुम जागो! और जागोगे तो अभी ही जाग सकते हो, कल नहीं। इस क्षण को जागरण का क्षण बना लो। इस क्षण को निखार लो। इस क्षण को उत्सव, रसमय कर लो। फिर सब शेष अपने आप ठीक हो जाएगा। क्योंकि दूसरा क्षण इसी क्षण से पैदा होगा। वह और भी रसपूर्ण होगा। और अगर कोई जन्म है...और मैं जानता हूं कि मृत्यु के बाद जन्म है, जीवन है। लेकिन तुमसे कहता नहीं कि मेरी बात पर भरोसा करो। मेरा जानना मेरा जानना है; उस पर तुम्हें कोई अपने आधार खड़े नहीं करने हैं। लेकिन अगर यह जीवन तुम्हारा सुंदर हुआ, तो आने वाला जीवन इसी जीवन से तो उमगेगा, और भी सुंदर होगा।
और तुम पाप-पुण्य में चुनने की बजाय जागृति और मूर्च्छा में चुनो। क्योंकि पाप और पुण्य तो सभी धर्मों के अलग-अलग हैं, लेकिन जागृति और मूर्च्छा सभी धर्मों की अलग-अलग नहीं हो सकतीं। ईसाई जागे तो भी जागे और हिंदू जागे तो भी जागे और जैन जागे तो भी जागे। जागरण हिंदू नहीं होता और न मुसलमान होता है। जागरण तो बस जागरण है और मूर्च्छा मूर्च्छा है।
हां, पाप-पुण्य में बड़े भेद हैं। अगर मांसाहार करो तो मुसलमान के लिए पाप नहीं है, ईसाई के लिए पाप नहीं है। और ईसाई अपनी किताब के उद्धरण देने को तैयार है कि ईश्वर ने सारे पशु-पक्षी बनाए मनुष्य के उपयोग के लिए। वह तो ईश्वर का वक्तव्य बाइबिल में दिया हुआ है कि मनुष्य के उपयोग के लिए सारे पशु-पक्षी बनाए; और तो इनका कोई उपयोग ही नहीं है।
अगर जैनों से पूछो तो मांसाहार महापाप है। उससे बड़ा कोई पाप नहीं। लेकिन रामकृष्ण मछली खाते रहे और मुक्त हो गए। जैनों के हिसाब से नहीं हो सकते। जैनों के हिसाब से रामकृष्ण को परमहंस नहीं कहना चाहिए। हंसा तो मोती चुगै। और ये मछली चुग रहे हैं! और परमहंस हो गए मछली चुग-चुग कर। और बंगाली मछली न चुगे तो चले नहीं काम।
कठिनाई है बहुत, पाप कौन तय करे? पुण्य कौन तय करे?
ईसाइयों का एक समूह है रूस में, अब तो समाप्त होने के करीब हो गया, लेकिन उसकी मान्यता यह थी कि जिस पशु-पक्षी को तुम खा लेते हो, उसकी आत्मा को तुम मुक्त कर देते हो बंधन से। न केवल पाप तो कर ही नहीं रहे, पुण्य कर रहे हो। उसकी आत्मा को मुक्त कर रहे हो। जैसे कोई पक्षी बंद है, तोता बंद है पिंजड़े में, तुमने पिंजड़ा खोल दिया और तोते को उड़ा दिया। इसको तुम पाप कहोगे? उस संप्रदाय की यह मान्यता थी कि तुमने एक तोते को खा लिया, तो वह जो शरीर था तोते का, वह पिंजड़ा था, वह तुम पचा गए। पिंजड़ा ही पचाओगे, आत्मा तो मुक्त हो गई। तो तुमने कृपा की तोते पर! तुमने तोते का बड़ा कल्याण किया। अब उसकी आत्मा बंधन से मुक्त हो गई। और चूंकि मनुष्य ने उसे पचा लिया, अगला जन्म उसका अच्छा जन्म होगा।
इसी आशा में तो हिंदू भी नरबलि देते रहे; आज भी देते हैं! आज भी मूढ़ों की कमी नहीं है। इस देश में अश्वमेध यज्ञ हुए। अश्वमेध! और गऊ माता की पूजा करने वाले गो-मेध भी करते रहे। वे ही ऋषि-मुनि! गो-मेध की तो बात छोड़ दो, नर-मेध भी करते रहे। लेकिन यज्ञ की वेदी पर चढ़ाई गई गऊ सीधी स्वर्ग जाती है!
बुद्ध ने मजाक किया है। एक गांव में यज्ञ हो रहा है, भेड़-बकरियां काटी जा रही हैं, और बुद्ध आ गए, बस ठीक समय पर आ गए। उन्होंने पूछा उस पंडित को, पुरोहित को, जो यह कर रहा है हत्या का कार्य। खास पंडित-पुरोहित होते थे, जो यही काम करते थे। तुम जान कर चकित होओगे, तुममें कोई शर्मा यहां मौजूद हों तो नाराज न हों। शर्मा उन्हीं पंडित-पुरोहितों का नाम है। शर्मा का अर्थ होता है शर्मन करने वाला, काटने वाला। जो यज्ञ में पशु-पक्षियों को काटता था, वह शर्मा कहा जाता था। अब तो लोग भूल-भाल गए हैं। अब तो शर्मा बड़ा समादृत शब्द है। इतना समादृत कि वर्मा इत्यादि भी अपने को छोड़ कर शर्मा लिखते हैं। शर्मा का मतलब होता है हत्यारा। लेकिन हत्यारा साधारण नहीं, असाधारण हत्यारा! आत्माओं को स्वर्ग पहुंचाने वाला।
तो बुद्ध ने कहा कि यह तुम क्या कर रहे हो? तो उन्होंने कहा कि यह कोई हत्या नहीं है, हिंसा नहीं है। ये जो पशु-पक्षी काटे जाएंगे, इन सबकी आत्माएं स्वर्ग चली जाएंगी। तो बुद्ध ने बड़ा मजाक किया है! और बुद्ध ने कहा: तो फिर अपने माता-पिता को क्यों नहीं काटते? स्वर्ग ही भेज दो। यह अवसर मिला, स्वर्ग भेजने का द्वार खुला और तुम इन पशु-पक्षियों को भेज रहे हो? माता-पिता को भेज दो! पत्नी-बच्चों को भेज दो! फिर सबको भेज कर खुद भी चले जाना! मगर इन पशु-पक्षियों को तो न भेजो। ये तो जाना भी नहीं चाहते। ये तो तड़प रहे हैं। ये तो भागना चाहते हैं। ये तो कहते हैं कि क्षमा करो! बोल नहीं सकते। जरा इनकी आंखें तो देखो, गिड़गिड़ा रही हैं। मिमिया रहे हैं; ये कह रहे हैं कि हमें जाने दो। ये तो स्वर्ग जाना नहीं चाहते, इनको तुम भेज रहे हो। और जो जाना चाहते हैं...। जिस यजमान ने यह करवाया है यज्ञ, वह स्वर्ग जाना चाहता है, उसी को भेज दो।
खूब चालबाज लोग दुनिया में थे। चालबाजियां चलती रहीं। चालबाजियां हम सहते रहे। पाप और पुण्य का निर्णय करना मुश्किल है। एक तरफ हैं अमेजान नदी के किनारे बसे हुए लोग, जो आदमियों को भी खा जाते हैं, और इसमें कोई पाप नहीं। मनुष्य का आहार कर जाते हैं, भक्षण कर जाते हैं, और इसमें जरा भी कोई पाप नहीं है। और एक तरफ क्वेकर हैं, जो दूध भी नहीं पीते। क्योंकि दूध भी आता तो शरीर से है। खून से छन-छन कर आता है। रक्त का ही हिस्सा है। देह का अंग है। चाहे हाथ को काट कर खाओ और चाहे मां के स्तन से दूध को लेकर पी लो, है तो इसमें हिंसा ही।
और गाय का तुम दूध पीते हो; वह तुम्हारे लिए बनाया नहीं गया है। वह तो गाय के बछड़े के लिए बनाया गया है। बछड़े को छीन कर तुम पी रहे हो, तो तुम पाप ही कर रहे हो। फिर दूध सिवाय आदमी को छोड़ कर कोई पशु एक उम्र के बाद नहीं पीता, इसलिए यह अप्राकृतिक भी है। छोटे बच्चे दूध पीए मां से, ठीक है। लेकिन जैसे ही उनके दांत ऊग आए और वे पचाने लगे, फिर दूध छूट जाना चाहिए।
तो एक तरफ क्वेकर हैं, जो दूध भी नहीं पीते। एक क्वेकर मेहमान मेरे घर रुके। सुबह मैंने उनसे पूछा: आप चाय लेंगे, कॉफी लेंगे, दूध लेंगे?
उन्होंने मुझे ऐसे चौंक कर देखा, जैसे किसी जैन मुनि से तुम पूछो कि अंडा लेंगे, कि मछली लेंगे, कि गऊ-मांस, क्या विचार है? ऐसे मुझे चौंक कर देखा, कहा: आप और इस तरह की बात पूछते हैं!
मैंने कहा: कुछ भूल हुई?
उन्होंने कहा कि क्वेकर और दूध, चाय, कॉफी। दूध तो हम छू नहीं सकते। दूध तो पाप है। दूध तो हिंसा है, मांसाहार का हिस्सा है।
बड़ी अजीब दुनिया है। हिंदुस्तान में तो लोग समझते हैं कि दूध सबसे ज्यादा शुद्ध आहार, सात्विक आहार। अगर कोई आदमी सिर्फ दूध ही दूध पीकर रहे, दुग्धाधारी हो जाए, तो उसको लोग महात्मा मानते हैं। और क्वेकर की दृष्टि में इस आदमी से बड़ा पापी नहीं। दूध ही दूध पी रहा है, शुद्ध मांसाहारी है! तो क्या पाप है, क्या पुण्य है?
मेरी दृष्टि में, ये सब पाप-पुण्य सामाजिक व्यवस्थाएं हैं। ये पाप-पुण्य वस्तुतः मूल्यवान नहीं हैं। ये ऐसे ही हैं जैसे रास्ते के नियम--बाएं चलो कि दाएं चलो। बाएं चलो तो भी ठीक है और दाएं चलो तो भी ठीक है। हिंदुस्तान में लिखा होता है--बाएं चलो। अमरीका में लिखा होता है--दाएं चलो। नियम कुछ न कुछ चाहिए। रास्ते पर सभी तरफ लोग चलें तो दुर्घटनाएं हो जाएंगी, बहुत दुर्घटनाएं हो जाएंगी। शायद कोई भी अपने घर नहीं पहुंच पाएगा। ट्रैफिक जाम हो जाएंगे। तो नियम बनाना पड़ता है, नियम उपयोगी हैं, लेकिन नियम की कोई शाश्वतता नहीं है।
ऐसे ही ये तुम्हारे पाप-पुण्य के नियम हैं। जिन लोगों के साथ रहते हो, जिनकी सड़क पर चलते हो, बाएं चलो कि दाएं चलो, वैसा मान कर चल लेना। मगर इनका कोई वास्तविक मूल्य नहीं है। फिर वास्तविक मूल्य किस बात का है? दो ही बातों का। मूर्च्छा से जीओ तो पाप और होश से जीओ तो पुण्य। और मेरे देखे यह समझ में आया है कि जो आदमी जितना होश से जीएगा, चकित हो जाएगा। जो-जो गलत है, वह अपने आप छूटता चला जाता है! अपने आप! जो-जो गलत है, छोड़ना नहीं पड़ता, छूट जाता है। क्योंकि होश से भरा हुआ आदमी कैसे कर सकता है गलत को? जैसे अंधा आदमी तो शायद कभी दीवाल से निकलने की भी कोशिश करे, आंख वाला कैसे दीवाल से निकलने की कोशिश करेगा? आंख वाला तो दरवाजे से निकलता है। ऐसे ही जिसके पास जागरण के च्रु हैं, ध्यान की आंख है, वह जो भी करता है, ठीक करता है।
मुझसे जब लोग पूछते हैं कि ठीक क्या है, तो उनको मैं कहता हूं कि ब्योरे में मत जाओ। क्योंकि ब्योरे का तो तय करना बहुत मुश्किल है। एक तरफ ईसाई हैं, जो कहते हैं: सेवा करो; जितनी सेवा करोगे, उतना ही स्वर्ग निकट है। अस्पताल खोलो, कोढ़ियों के हाथ-पैर दबाओ, स्कूल चलाओ। और एक तरफ तेरापंथी जैन हैं, जो कहते हैं कि रास्ते के किनारे कोई प्यासा भी मरता हो तो तुम चुपचाप अपने रास्ते पर चले जाना, उसको पानी भी न पिलाना। क्यों? उनका भी हिसाब है। वे कहते हैं: वह आदमी रास्ते के किनारे तड़प कर मर रहा है, जरूर किसी पिछले जन्म के पाप का फल भोग रहा है। अब तुम उसको पानी पिला दो, तो पाप का फल भोगने से वंचित कर दिया। वंचित करने का मतलब यह है कि फिर कभी भोगना पड़ेगा। तुमने उसकी और यात्रा बढ़ा दी। उनका गणित समझो। उसको फल भोग लेने दो बेचारे को तो झंझट खत्म हो जाए। एक पाप कटे। कटा जा रहा था पाप, आप पानी लेकर आ गए! कटते-कटते पिंजड़े के बाहर हो रहा था पक्षी, फिर तुमने दरवाजे पर सांकल लगा दी, फिर पानी पिला दिया। फिर उसको कष्ट से बचा दिया।
फिर और दूसरा खतरा भी है। वह जो और भी बड़ा है। वह यह कि इसको तुमने पानी पिला कर बचा दिया। अब पता नहीं यह आदमी कौन हो, डाकू हो, हत्यारा हो, चोर हो, बेईमान हो, राजनेता हो, लुच्चा-लफंगा, कौन हो क्या पता! और कल जाकर यह किसी की हत्या कर दे, तो फिर तुम भी पाप के भागीदार होओगे। न तुम पिलाते पानी, न यह बचता, न हत्या होती। तो तुम श्रृंखला के हिस्से हो गए। सावधान! यह कल राजनेता हो जाए! कोई भी हो सकता है।
जब मैं स्कूल में पढ़ता था, तो जो मुझे नागरिक शास्त्र पढ़ाते थे अध्यापक, उनसे मेरा बड़ा विवाद हो गया था। विवाद इस बात पर हो गया था कि वे कहते थे कि स्वतंत्र लोकतंत्र में कोई भी व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री हो सकता है। और मैं उनसे कहता था: यह कैसे हो सकता है कोई भी व्यक्ति? कोई योग्यता चाहिए। कोई भी कैसे हो सकता है? कोई कुशलता चाहिए। फिर वे तो चल बसे। लेकिन जब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री हुए, तो मैंने उनकी चल बसी आत्मा से क्षमा मांगी। मैंने कहा: माफ करो, हे मेरे नागरिक शास्त्र को पढ़ाने वाले शिक्षक! तुम ठीक ही कहते थे। जब मोरारजी देसाई भी हो सकते हैं तो कोई भी हो सकता है। मेरी गलती थी। तुमने ठीक ही कहा था। मेरा विवाद करना उचित न था।
अब क्या पता, इसको पानी पिला दो और कल देश का प्रधानमंत्री हो जाए और फिर हजारों तरह के उपद्रव करे, हजारों तरह के उपद्रव करवाए! सबका पाप किस पर लगेगा?
तो तेरापंथ मानता है कि राह में पड़े हुए प्यासे आदमी को पानी भी मत पिलाना। और एक तरफ ईसाई हैं, वे मानते हैं कि हमेशा डोर और बाल्टी साथ में रखो, कि कहीं कोई प्यासा मिल जाए, जल्दी से कुएं में डालो डोर, निकालो पानी, पिलाओ। सब इंतजाम पास में रखो।
मैंने सुनी है चीन की एक कहानी। एक मेला भरा है। और एक आदमी गिर पड़ा कुएं में। शोरगुल बहुत है। बहुत चिल्लाता है, मगर कोई सुनता नहीं। तब एक बौद्ध भिक्षु उसके पास आकर रुका। उसने नीचे नजर डाली। वह आदमी चिल्लाया कि बचाओ महाराज! हे भिक्षु महाराज, मुझे बचाओ! मैं मरा जा रहा हूं।
भिक्षु ने कहा: भगवान ने कहा है कि जीवन तो जरा है, मरण है। मरना तो होगा ही। मरना तो सभी को है। यहां जो भी आए, सभी को मरना है।
उस आदमी ने कहा: वह सब ठीक है, मगर अभी, अभी फिलहाल तो निकालो! फिर जब मरना है तब मरेंगे।
मगर बौद्ध भिक्षु भी ज्ञानी था, उसने कहा कि क्या समय से भेद पड़ता है, आज मरे कि कल मरे! अरे जब मरना ही है तो मर ही जाओ। और यह जीवन की आशा छोड़ कर मरोगे, तो फिर पुनर्जन्म नहीं होगा। और यह जीवन की आशा लेकर मरे, फिर सड़ोगे। चौरासी का चक्कर है!
वह आदमी वैसे ही तो मरा जा रहा है, उसको और चौरासी का चक्कर! बौद्ध भिक्षु तो आगे बढ़ गया। ज्ञान की बात कह दी, मतलब की बात कह दी; सुनो सुनो, समझो समझो, न समझो न समझो।
उसके पीछे एक कनफ्यूशियन भिक्षु आकर रुका। उसने भी देखा नीचे। वह आदमी चिल्लाया कि महाराज, तुम बचाओ!
कनफ्यूशियस को मानने वाले ने कहा: घबड़ा मत! कनफ्यूशियस ने अपनी किताब में लिखा है कि हर कुएं पर पाट होनी चाहिए, आज यह प्रमाण हो गया। इस कुएं पर पाट नहीं है, इसलिए तू गिरा। अगर पाट होती, कभी न गिरता। हम सारे देश में आंदोलन चलाएंगे कि हर कुएं पर पाट होनी चाहिए।
उसने कहा: यह सब तुम करना पीछे। मैं मर जाऊंगा। और अब पाट भी बन जाएगी तो क्या होगा? मैं तो गिर ही चुका हूं।
उसने कहा: तू तो फिकर मत कर; यह सवाल व्यक्तियों का नहीं है। व्यक्ति तो आते रहते हैं, जाते रहते हैं; सवाल समाज का है।
वह गया और मंच पर खड़ा हो गया और मेले में लोगों को समझाने लगा कि भाइयो! हर कुएं पर पाट होनी चाहिए।
तब एक ईसाई पादरी आकर रुका। उसने जल्दी से अपने झोले में से बाल्टी निकाली, रस्सी निकाली। बाल्टी डाली, रस्सी डाली। आदमी को कहा कि पकड़ ले रस्सी, बैठ जा बाल्टी में। खींच लिया उसे बाहर। वह आदमी पैरों पर गिर पड़ा और उसने कहा कि तुम्हीं सच्चे धार्मिक आदमी हो। बौद्ध भिक्षु आया, वह मुझे धम्मपद की गाथाएं सुनाने लगा। कनफ्यूशियसी आया, वह मुझे कहने लगा कि सब कुओं पर पाट बनवा देंगे, तू मत घबड़ा। तेरे बच्चे कभी भी नहीं गिरेंगे। एक तुम्हीं सच्चे, जो तुमने मुझे बचाया। मगर एक बात मेरे मन में उठती है कि एकदम से बाल्टी-रस्सी कहां से ले आए?
उसने कहा: मैं ईसाई हूं। हम सब इंतजाम पहले ही करके चलते हैं। सेवा हमारा धर्म है। और हमारी तुमसे इतनी ही प्रार्थना है, न तो जरूरत है कुओं पर पाट बनाने की, न जरूरत है धम्मपद की गाथाओं को याद करने की। ऐसे ही गिरते रहना, ताकि हम भी बचाएं, हमारे बच्चे भी बचाएं। अपने बच्चों को भी समझा जाना कि गिरते रहना। क्योंकि न तुम गिरोगे, न हम बचाएंगे, तो फिर स्वर्ग कैसे जाएंगे?
यहां सबके अपने हिसाब हैं। यहां किसी को किसी और से प्रयोजन नहीं है। यहां क्या पुण्य, क्या पाप! मेरे हिसाब में एक ही पाप है--मूर्च्छित जीना। ऐसे जीना जैसे तुम शराब पीकर जी रहे हो। और ऐसे ही लोग जी रहे हैं। दरिया कहते हैं: जागे में जागना है। और हम तो जागे में सोए हैं! सोए में तो सोए ही हैं, जागे में सोए हैं। हमें जागे में जागना है और फिर सोए में भी जागना है।
कृष्ण ने कहा है: या निशा सर्वभूतायां तस्यां जागर्ति संयमी। जब सारे लोग सोए होते हैं, तब भी जो वस्तुतः योगी है, ध्यानी है, जागा होता है। गहरी से गहरी नींद में भी उसके ध्यान का दीया नहीं बुझता, उसका ध्यान का दीया जलता रहता है।
तो मैं तुमसे कहता हूं: जागो! होश को सम्हालो! फिर तुम जो भी करोगे, वह ठीक होगा। ठीक करने से होश नहीं सम्हलता; होश सम्हलने से ठीक होता है। गलत छोड़ने से होश नहीं सम्हलता, होश सम्हलने से गलत छूटता है। मैं अपने सारे धर्म को एक ही शब्द में तुमसे कह देना चाहता हूं--वह ध्यान है। और ध्यान का अर्थ--होश, प्रज्ञा, जागरण।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, बुरे कामों के प्रति जागरण से बुरे काम छूट जाते हैं। तो फिर अच्छे काम जैसे प्रेम, भक्ति आदि के भी प्रति जागरण हो तो क्या होता है? कृपया इसे स्पष्ट करें।
रामछवि प्रसाद! जागरण की तीन सीढ़ियां हैं। पहली सीढ़ी--प्राथमिक जागरण--बुरे का अंत हो जाता है और शुभ की बढ़ती होती है। अशुभ विदा होता है, शुभ घना होता है। द्वितीय चरण--शुभ विदा होने गलता है, शून्य घना होता है। और तृतीय चरण--शून्य भी विदा हो जाता है। तब जो सहज...तब जो सहज अवस्था रह जाती है, जो शुद्ध चैतन्य रह जाता है, बोधमात्र, वही बुद्धावस्था है, वही निर्वाण है।
शुरू करो जागना, तो पहले तुम पाओगे--जो गलत है, छूटने लगा। जाग कर सिगरेट पीओ, तुम न पी सकोगे। इसलिए नहीं कि सिगरेट पीना पाप है। सिगरेट पीने में क्या पाप हो सकता है? कोई आदमी धुआं बाहर ले जाता है, भीतर ले आता है; बाहर ले जाता है, भीतर ले आता है। इसमें क्या पाप है? किसी का क्या बिगाड़ रहा है? सिगरेट पीने में पाप नहीं है। बुद्धूपन जरूर है, मगर पाप नहीं है। मूढ़ता जरूर है, लेकिन पाप नहीं है। मूढ़ता इसलिए है कि शुद्ध हवा ले जा सकता था और प्राणायाम कर लेता। प्राणायाम ही कर रहा है। लेकिन नाहक हवा को गंदी करके कर रहा है। धूम्रपान एक तरह का मूढ़तापूर्ण प्राणायाम है। योग साध रहे हैं, मगर वह भी खराब करके। शुद्ध पानी था, उसमें पहले कीचड़ मिला ली, फिर उसको पी गए। अगर तुम जरा होशपूर्वक सिगरेट पीओगे, सिगरेट पीना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि तुम्हें मूढ़ता दिखाई पड़ेगी। इतनी प्रकटता से दिखाई पड़ेगी कि हाथ की सिगरेट हाथ में रह जाएगी।
पहले ऐसी व्यर्थ की चीजें छूटनी शुरू होंगी। फिर धीरे-धीरे, तुम जो गलत करते थे, जरा-जरा सी बात पर क्रुद्ध हो जाते थे, नाराज हो जाते थे, वह छूटना शुरू हो जाएगा। क्योंकि बुद्ध ने कहा है: किसी दूसरे की भूल पर तुम्हारा क्रुद्ध होना ऐसे ही है जैसे किसी दूसरे की भूल पर अपने को दंड देना। जब जरा बोध जगेगा तो तुम यह देखोगे कि गाली तो उसने दी और मैं भुनभुनाया जा रहा हूं! और मैं जला जा रहा हूं! और मैं विदग्ध हुआ जा रहा हूं! यह तो पागलपन है! गाली जिसने दी, वह भोगे। न मैंने दी, न मैंने ली।
जैसे ही तुम जागोगे, गाली का लेना-देना बंद हो गया। अब तुम्हारे भीतर क्रोध नहीं उठेगा, दया उठेगी, क्षमा-भाव उठेगा--बेचारा! अभी भी गाली देने में पड़ा है। वे ही शब्द जो गीत बन सकते थे, अभी गाली बन रहे हैं। वही जीवन-ऊर्जा जो कमल बन सकती थी, अभी कीचड़ है।
तो पहले तो बुरा छूटना शुरू हो जाएगा। और जैसे-जैसे ही बुरा छूटेगा, तो जो ऊर्जा बुरे में नियोजित थी, वह भले में संलग्न होने लगेगी। गाली छूटेगी तो गीत जन्मेगा। क्रोध छूटेगा, करुणा पैदा होगी। यह पहला चरण है। घृणा छूटेगी, प्रेम बढ़ेगा।
फिर दूसरा चरण--भले की भी समाप्ति होने लगेगी। क्योंकि प्रेम भी बिना घृणा के नहीं जी सकता। वह घृणा का ही दूसरा पहलू है। इसीलिए तो कभी भी तुम चाहो तो घृणा प्रेम बन सकती है और प्रेम घृणा बन सकता है। क्रोध करुणा बन सकती है, करुणा क्रोध बन सकता है, वह परिवर्तनीय है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
तो पहले बुरा गया, एक सिक्के का पहलू विदा हुआ; फिर दूसरा पहलू भी विदा हो जाएगा, फिर भला भी विदा हो जाएगा। और शून्य की बढ़ती होगी। तुम्हारे भीतर शांति की बढ़ती होगी। न शुभ, न अशुभ। तुम निर्विषय होने लगोगे, निर्विकार होने लगोगे।
और तीसरे चरण में, अंतिम चरण में, यह भी बोध न रह जाएगा कि मैं शून्य हो गया हूं। क्योंकि जब तक यह बोध है कि मैं शून्य हूं, तब तक एक विचार अभी शेष है--मैं शून्य हूं, यह विचार शेष है। यह विचार भी जाना चाहिए। यह भी चला जाएगा। तब तुम रह गए निर्विचार, निर्विकल्प। उसको ही पतंजलि ने कहा है निर्बीज समाधि; बुद्ध ने कहा है निर्वाण; महावीर ने कहा है कैवल्य की अवस्था। जो नाम तुम्हें प्रीतिकर हो, वह नाम तुम दे सकते हो।
अंतिम प्रश्न:
भगवान, प्रभु-मिलन में वस्तुतः क्या होता है? पूछते डरता हूं, पर जिज्ञासा बिना पूछे मानती भी नहीं। भूल हो तो क्षमा करें!
रामदुलारे! भूल जरा भी नहीं है। जिज्ञासा स्वाभाविक है। जिसे खोजने चले हैं, उसे खोज कर क्या होगा? जिसकी तलाश पर निकले हैं, उसे मिलने से क्या होगा? यह सहज भाव है मन में उठने वाला। जब कमल खिलेंगे तो कैसी सुवास होगी? कैसा रंग होगा? कैसा रूप होगा?
अमी झरत, बिगसत कंवल!
जब अमृत बरसेगा, नहा-नहा जाएंगे, तो कैसी अनुभूति होगी? कैसी गदगद अवस्था होगी? यह जिज्ञासा बिलकुल स्वाभाविक है। नहीं कोई भूल है।
फिर भी इस जिज्ञासा को शांत करने का कोई उपाय नहीं है। बिना अनुभव के यह शांत नहीं होगी। मैं कितना ही कुछ कहूं, वह तो गूंगे का गुड़ है--जिसे होता है, बस वही जानता है। हां, तुम्हें खूब तड़पा सकता हूं। तुम्हें खूब प्यासा कर सकता हूं। मगर यह नहीं कह सकता कि जब तुम सरोवर पर पहुंच जाओगे और अंजुलि भर-भर कर पीओगे, तो जो तृप्ति होगी वह कैसी होती है!
वह तृप्ति हुई मुझे। वह तृप्ति तुम्हें भी हो सकती है। मगर उस तृप्ति को शब्दों में प्रकट करने का कोई उपाय नहीं है। तुम्हारी जिज्ञासा ठीक। जरा भी भूल नहीं। क्षमा मांगने का कोई कारण नहीं। लेकिन मेरी असमर्थता भी समझो, मेरी विवशता भी समझो। और वह मेरी ही असमर्थता नहीं है, समस्त बुद्धों की है। कौन उसे आज तक कह पाया कि प्रभु-मिलन में वस्तुतः क्या होता है? और जो भी कहा गया है, वह बहुत दूर पड़ जाता है, बहुत ओछा पड़ जाता है। जो भी कहो, छोटा पड़ जाता है। मुट्ठी में आसमान को बांधो, तो कैसे बांधो? साधारण से कामचलाऊ शब्दों में निःशब्द को कैसे प्रकट करो? बहुत कठिनाई है। असंभावना है।
लपटों का अंशुक ओढ़ यामिनी आई।
धुन कर तारे कर लिए तूल से झीने,
फिर बुने तार सितश्याम चांदनी भीने,
चंदन बूंदों से सजा सुरमई चूनर,
पिघली ज्वाला के रंगों में रंगवाई।
घन अगरू धूमलेखा से लहरे कुंतल,
उजली चितवन में उड़े बलाकों के दल,
सांसों में वासित रह-रह सिहर-सिहर कर,
सरसर बहती है आभा की पुरवाई।
आंधियां पीत पल्लव सी झर बिछ जातीं,
तम की हिलोर संदेश दिवस का लातीं,
पिस गईं बिजलियां पथ में रथ चक्रों से,
उड़-उड़ कर पीली रेणु क्षितिज पर छाई।
नभ का कदंब दीपक-फूलों में फूला,
दुख का विहंग भू के नीड़ों को भूला,
आतप तन दिन की सप्तरंगिणी छाया,
निशि बन, कण-कण-प्राणों में आज समाई।
जल उठे नयन में स्वप्न, भाल पर श्रम-कण,
दीपित प्रभात की सुधि में जलता है मन,
जीवन मेरा निष्कंप शिखा दीपक की,
लौ से मिल लौ ने अब असीमता पाई।
लपटों का ओढ़ दुकूल निशा मुस्काई।
इतना ही कहा जा सकता है--
जीवन मेरा निष्कंप शिखा दीपक की,
लौ से मिल लौ ने अब असीमता पाई।
बूंद सागर में मिल जाती है और असीम हो जाती है। छोटी सी लौ अनंत रोशनी में एक हो जाती है। लहर सागर हो जाती है। सीमा टूटती है, असीम प्रकट होता है। मृत्यु मिटती है, अमृत का अनुभव होता है। खूब रंग बरसता है। खूब फाग खेली जाती है--ऐसे रंगों की जो मिटते नहीं। खूब गुलाल उड़ती है--ऐसी गुलाल जो न देखी, जो न सुनी--जो इस जगत की नहीं है!
पिचकारी ने खिला दिया है
नई प्रीति का रंग
कि फागुन के दिन आए रे!
किसने मला गुलाल
लाल गोरी के सारे अंग
कि फागुन के दिन आए रे!
ताल दे रही मन की धड़कन
ठुमक रहे हैं पांव
झूम रहा है सारा मौसम
नाच रहा है गांव,
घुंघरू, कंगन, ढोल-मंजीरे
बजने लगा मृदंग
कि फागुन के दिन आए रे!
हाव-भाव चलने-फिरने के
बदल गए सब ढंग
कि फागुन के दिन आए रे!
उड़ा अबीर, कबीर गूंजता
हाल हुआ बेहाल
सरसों सी पीली चूनर
यौवन टेसू सा लाल,
गंध भरी सांसें, जीवन में--
उठती नई उमंग
कि फागुन के दिन आए रे!
यादों के उन्मुक्त गगन में
उड़ता हृदय विहंग
कि फागुन के दिन आए रे!
एक अंतर-जगत की फाग! एक अंतर-जगत में रंगों का विस्फोट!
अमी झरत, बिगसत कंवल!
आज इतना ही।
भगवान, आधुनिक मनुष्य की सबसे बड़ी कठिनाई क्या है?
राकेश! पुरानी सारी कठिनाइयां तो मौजूद हैं ही, कुछ नई कठिनाइयां भी मौजूद हो गई हैं। पुरानी कठिनाइयां कटी नहीं हैं। बुद्ध के समय में या कृष्ण के समय में आदमी के लिए जो समस्याएं थीं, वे आज भी हैं। उतनी ही हैं। उनमें से एक भी समस्या विदा नहीं हुई। क्योंकि हमने समस्याओं के जो समाधान किए वे समाधान नहीं सिद्ध हुए। हमारे समाधान थोथे थे, ऊपरी थे। समस्याओं की जड़ को उन्होंने नहीं काटा। हम केवल ऊपर ही लीपापोती करते रहे।
क्रोध था किसी के भीतर, तो हमने क्रोध का दमन सिखाया। लेकिन दमित क्रोध नष्ट नहीं होता। दमित क्रोध और भी प्रज्वलित होकर भीतर जलने लगता है। साधारण आदमी जो कभी-कभी क्रोध कर लेता है, बेहतर है उस आदमी से जो क्रोध को दबा कर बैठ रहता है। क्योंकि साधारण आदमी का क्रोध रोज-रोज बह जाता है, संगृहीत नहीं होता। जिसने दमन किया हो, उसके भीतर बहुत संग्रह हो जाता है। और जब उसका विस्फोट होगा तो भयंकर होगा।
हमने दमन सिखाया सदियों तक; इससे आदमी रूपांतरित नहीं हुआ, सड़ गया। इससे आदमी आत्मवान नहीं हुआ, विकृत हुआ, विक्षिप्त हुआ। विमुक्ति के नाम पर हमने जो बातें लोगों को सिखाईं, उन्होंने उन्हें केवल पाखंडी बनाया। बाहर कुछ, भीतर कुछ। दिखाने के दांत और, खाने के दांत और। ऐसे हमने आदमी के जीवन में द्वैत पैदा कर दिया।
वे सारी समस्याएं वैसी की वैसी खड़ी हैं। और वे सारी समस्याएं समाधान मांगती हैं। नई समस्याएं भी खड़ी हो गई हैं; जिनका अतीत के मनुष्य को कुछ भी पता न था। जैसे एक नई समस्या खड़ी हो गई है कि मनुष्य का संबंध निसर्ग से टूटने लगा है, टूट गया है। जितना आधुनिक मनुष्य हो, उतना ही निसर्ग से विपन्न हो गया है। जैसे किसी वृक्ष की कोई जड़ें उखाड़ ले, फिर वृक्ष कुम्हलाने लगे, फूल झड़ने लगें, पत्ते हरे न रह जाएं--ऐसे मनुष्य को हमने प्रकृति से तोड़ लिया है।
और जो मनुष्य प्रकृति से टूट गया, उसका परमात्मा से जुड़ने का उपाय ही नहीं रह जाता। क्योंकि प्रकृति में ही परमात्मा की पहली झलक मिलती है। आदमी की बनाई हुई चीजों के बीच आधुनिक आदमी रह रहा है। सीमेंट के विशाल रास्ते हैं। इन्हें देख कर परमात्मा की याद नहीं आ सकती। कैसे आएगी? घास का एक तिनका भी उसकी याद दिलाता है और सीमेंट के विशाल राजपथ भी उसकी याद नहीं दिलाते। ये तो आदमी के बनाए हैं, उसकी याद दिलाएं तो दिलाएं कैसे?
एक छोटा सा फूल भी राह के किनारे खिल जाता है, तो अज्ञात की खबर लाता है, संदेश लाता है। परमात्मा की प्रेम-पाती है वह। और तुम मकान बनाओ जो आकाश को छूने लगें, गगनचुंबी हों, तो भी उसकी याद नहीं दिलाते; सिर्फ आदमी की कारीगरी, आदमी की तकनीक, आदमी की होशियारी, इन सबका स्मरण दिलाते हैं। और इनके स्मरण से अहंकार मजबूत होता है।
आदमी की बनाई हुई कोई भी चीज बढ़ती नहीं; ठहरी रहती है, क्योंकि मुर्दा है। परमात्मा की बनाई सारी चीजें बढ़ती हैं, क्योंकि जीवंत हैं। पौधा बड़ा होगा, वृक्ष होगा। नदी सागर होगी। सब गतिमान है। आदमी की बनाई चीजें सब ठहरी हुई हैं; उनमें कोई विकास नहीं होता। वे जैसी हैं, वैसी ही हैं। वस्तुएं हैं। उनमें प्राण नहीं हैं। और जिनमें प्राण नहीं हैं, उनसे महाप्राण की कैसे स्मृति आएगी?
तो मनुष्य के जीवन का जो सब से बड़ा अभिशाप है आज--पुरानी सारी बीमारियां मौजूद हैं और एक नई बीमारी खड़ी हो गई है--कि हमने एक कृत्रिम वातावरण बना लिया है। और कृत्रिम वातावरण बड़ा-बड़ा होता जा रहा है।
लंदन में एक सर्वे किया गया, दस लाख बच्चों ने गाय नहीं देखी और लाखों बच्चों ने खेत नहीं देखे। जिन बच्चों ने खेत नहीं देखे और पवन के झकोरों में डोलती हुई गेहूं की बालें और बाजरे और ज्वार को नहीं देखा, उन बच्चों के जीवन में कुछ चीज की कमी रह जाएगी। कुछ बड़ी मौलिक कमी रह जाएगी। उन्होंने कारें देखी हैं, बसें देखी हैं, रेलगाड़ियां देखी हैं।
मैंने सुना है, एक चर्च में एक पादरी बच्चों को समझा रहा था। रविवार का धार्मिक स्कूल लगा था। बाइबिल में एक वचन आता है कि सब सरकती हुई चीजें उसी ने बनाईं--अर्थात सांप इत्यादि। एक छोटे बच्चे ने खड़े होकर कहा कि उदाहरण दीजिए।
पादरी भी थोड़ा चौंका, क्योंकि सांप उस बच्चे ने देखा नहीं; और कोई सरकती चीज देखी नहीं; तो उसने कहा कि रेलगाड़ी। जैसे रेलगाड़ी। तो वह बच्चा निश्चिंत हो गया।
पादरी भी करे तो क्या करे? सरकती हुई चीज के लिए रेलगाड़ी का उदाहरण! यह भी परमात्मा ने बनाई है! हमारे पास उदाहरण भी खोते जाते हैं। जितना आधुनिक मनुष्य है, उतना ही ज्यादा कम प्राकृतिक, उतना ही ज्यादा कृत्रिम, उतना ही ज्यादा प्लास्टिक; असली नहीं, नकली। उसकी गंध नकली, उसका रंग नकली, उसका सब नकली! ओंठ रंग लिए हैं लिपस्टिक से, वह उसका रंग है ओंठों का। असली ओंठों का तो पता ही चलना मुश्किल हो गया है। कपड़े पहन लिए हैं इस ढंग से कि असली शरीर का पता चलना मुश्किल हो गया है। जिनकी छातियां नहीं हैं, उन्होंने कोटों में रुई भरवा ली है। हम सब तरफ से कृत्रिम में जी रहे हैं। और यंत्र बढ़ते जा रहे हैं। और मनुष्य की सबसे बड़ी कठिनाई सदा से यह रही कि मनुष्य मूर्च्छित है। यंत्रों के बीच और भी मूर्च्छित हो गया है, और भी यांत्रिक हो गया है।
तुम मुझसे पूछते हो: ‘आधुनिक मनुष्य की सबसे बड़ी कठिनाई क्या है?’
यांत्रिकता। यंत्रों के साथ रहोगे तो यांत्रिक हो ही जाना पड़ेगा। यदि बहुत जागरूक न रहे, तो सुबह सात बजे की गाड़ी पकड़नी है तो उसी ढंग से भागना होगा। कोई गाड़ी तुम्हारे लिए रुकी नहीं रहेगी। तुम अपनी निश्चिंतता की चाल नहीं चल सकते। तुम पक्षियों के गीत सुनते हुए नहीं जा सकते। आपाधापी है, भागमभाग है।
विद्यासागर ने लिखा है, एक सांझ वे घूम कर लौट रहे थे और उनके सामने ही एक मुसलमान सज्जन अपनी सुंदर छड़ी लिए हुए, टहलते हुए वे भी आ रहे थे। मुसलमान सज्जन का नौकर भागा हुआ आया और उसने कहा: मीर साहब, जल्दी चलिए! घर में आग लग गई है।
लेकिन मीर साहब वैसे ही चलते रहे। नौकर ने कहा: आप समझे या नहीं समझे? आपने सुना या नहीं सुना? घर जल रहा है, धू-धू कर जल रहा है! तेजी से चलिए! यह समय टहलने का नहीं है। दौड़ कर चलिए!
लेकिन मीर साहब ने कहा: घर तो जल ही रहा है, मेरे दौड़ने से कुछ आग बुझ न जाएगी। और यहां तो सभी कुछ जल रहा है और सभी को जल जाना है। जीवन भर की अपनी मस्ती की चाल इतने सस्ते में नहीं छोड़ सकता।
विद्यासागर तो बहुत हैरान हुए। मीर साहब उसी चाल से चलते रहे! वही छड़ी की टेक। वही मस्त चाल। वही लखनवी ढंग और शैली। विद्यासागर के जीवन में इससे एक क्रांति घटित हो गई। क्योंकि विद्यासागर को दूसरे दिन वाइसराय की कौंसिल में महापंडित होने का सम्मान मिलने वाला था। और मित्रों ने कहा कि इन्हीं अपने साधारण, सीधे-सादे, फटे-पुराने वस्त्रों में जाओगे, अच्छा नहीं लगेगा। तो हम ढंग के कपड़े बनवाए देते हैं, जैसे दरबार में चाहिए। तो वे राजी हो गए थे। तो चूड़ीदार पाजामा, और अचकन, और सब, ढंग की टोपी और जूते और छड़ी, सब तैयार करवा दिया था मित्रों ने। लेकिन इस मुसलमान, अजनबी आदमी की चाल, घर में लगी आग, और यह कहता है कि क्या जिंदगी भर की अपनी चाल को, अपनी मस्ती को, एक दिन घर में आग लग गई तो बदल दूं?
दूसरे दिन उन्होंने फिर वे बनाए गए कपड़े नहीं पहने। वाइसराय की दुनिया में पहुंच गए वैसे ही अपने सीधे-सादे कपड़े पहने।
मित्र बहुत चकित हुए। उन्होंने कहा: कपड़े बनवाए, उनका क्या हुआ?
उन्होंने कहा: वह एक मुसलमान ने गड़बड़ कर दिया। अगर वह मकान में आग लग जाने पर अपनी जिंदगी भर की चाल नहीं छोड़ता, तो मैं भी क्यों अपने जीवन के ढंग और शैली छोडूं जरा सी बात के लिए कि दरबार जाना है? देना हो पदवी, दे दें; न देना हो, न दें। लेकिन जाऊंगा अब अपनी ही शैली से।
मगर आज सब तरफ यंत्र कसे हुए है। यहां शैली नहीं बच सकती, व्यक्तित्व नहीं बच सकता, निजता नहीं बच सकती। यदि तुम अत्यधिक होश से न जीओ, तो यंत्र तुम पर हावी हो जाएगा, तुम पर छा जाएगा। तुम घड़ी के कांटे की तरह चलने लगोगे और मशीन के पहियों की तरह घूमने लगोगे। और धीरे-धीरे तुम्हें भूल ही जाएगा कि तुम्हारे भीतर कोई आत्मा भी है! एक तो प्रकृति से संबंध टूट जाना और दूसरा यंत्र से संबंध जुड़ जाना, दोनों बातें महंगी पड़ी जा रही हैं।
मुकुर के लोचन खुले हैं।
बंद हैं आधार के दृग;
जड़ हुआ आधार का अस्तित्व,
छाया चल रही है!
मात्र दर्पण है, न दर्शन;
पूजता पाषाण चेतन!
चेतना खो चुका जीवन;
आंजते दृगहीन अंजन,
तिमिर-माया छल रही है।
मान धन मन के निधन को;
खोजता जीवन मरण को--
अन्न-कण, क्षयग्रस्त क्षण को!
दिया तज रवि ने गगन को,
आयु दिन की ढल रही है!
मंत्र का दीपक बुझा कर,
तंत्र-बल को बाहु में भर,
पौढ़ कर मोहित धरा पर,
यंत्र की माया निरंतर
फूलती है, फल रही है!
और सब तो गया--मंत्र गया, तंत्र गया--यंत्र सिंहासन पर आरूढ़ हो गया है।
यंत्र की माया निरंतर
फूलती है, फल रही है!
और मनुष्य भी धीरे-धीरे यांत्रिक होता जा रहा है। वैज्ञानिक तो मानते भी नहीं कि मनुष्य यंत्र से कुछ ज्यादा है। और विज्ञान की छाप लोगों के हृदय पर बैठती जा रही है, क्योंकि विज्ञान का शिक्षण दिया जा रहा है। हृदय का तो कहीं कोई शिक्षण नहीं है। प्रेम के गीत तो कहीं सिखाए नहीं जा रहे हैं। हृदय की वीणा तो कहीं कोई बजाई नहीं जा रही है। तर्क सिखाया जा रहा है, गणित सिखाया जा रहा है। यंत्र को कैसे कुशलता से काम में लाया जाए, यह सिखाया जा रहा है। और धीरे-धीरे इस सबसे घिरा हुआ आधुनिक मनुष्य, प्रकृति से टूट गया, परमात्मा से टूट गया, अपने से टूट रहा है। सारे संबंध जीवन के विराट से उखड़े जा रहे हैं।
यह आज की सबसे बड़ी कठिनाई है। और इसलिए आज के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण और जरूरी हो गई है एक बात कि ध्यान का जितनी दूर-दूर तक प्रचार हो सके, जितने लोगों तक, करना जरूरी है। क्योंकि ध्यान ही अब एकमात्र उपाय है कि तुम्हें फिर याद दिला सके अपनी आत्मा की। और ध्यान ही एकमात्र उपाय है कि फिर तुम्हें वृक्षों में, चांद-तारों में परमात्मा की झलक मिल सके। ध्यान ही एकमात्र उपाय है जो तुम्हें वापस प्रकृति की तरफ ले चले। और ध्यान ही एकमात्र उपाय है कि यंत्रों के बीच रहते हुए भी, तुम्हें यंत्रों का मालिक बनाए रखे, यंत्रों का गुलाम न हो जाने दे।
मैंने एक झक्की नवाब के संबंध में सुना है। बीमार था। लेकिन पुरानी आदतें, रात दो-तीन बजे तक तो नाच-गाना चलता। फिर सोता। तो उठता सुबह दस बजे, ग्यारह बजे, बारह बजे। चिकित्सकों ने कहा: यह अब न चलेगा। अब इस योग्य स्वास्थ्य न रहा। अब तो सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठना पड़ेगा, छह बजे उठना पड़ेगा। तो ही तुम स्वस्थ हो सकते हो।
तो उसने कहा: यह कौन अड़चन की बात है, छह बजे उठेंगे।
भरोसा चिकित्सकों को नहीं आया, क्योंकि वह आदमी कभी जीवन में छह बजे नहीं उठा था। इतनी जल्दी राजी हो जाएगा! ना-नुच भी न करेगा! आना-कानी नहीं करेगा! सौदा नहीं करेगा, कि भई दस बजे नहीं तो आठ बजे, सात बजे। और सीधा बोला कि छह बजे तो छह बजे। उसके घर के लोग भी हैरान हुए। बेगम भी हैरान हुई, वजीर भी हैरान हुआ।
लेकिन बाद में राज खुल गया। राज यह था कि नवाब ने कहा: ऐसा करो कि जब भी मैं उठूं तब तुम घड़ी में छह बजा देना, बात खतम हो गई। बारह बजे उठूं कि दस बजे उठूं, जब भी उठूं, मगर घड़ी में छह बजने चाहिए। जैसे ही मैं करवट लूं, जल्दी से घड़ी में छह बजा देना।
ऐसे तो वह झक्की था, लेकिन एक बड़ी महत्वपूर्ण बात है उसके इस झक्कीपन में कि घड़ी को मालिक नहीं होने दिया, मालिक खुद ही रहा। उसने कहा: घड़ी मालिक है कि मैं मालिक हूं? घड़ी के हिसाब से मैं चलूंगा कि मेरे हिसाब से घड़ी चलेगी? घड़ी ने मुझको खरीदा है कि मैंने घड़ी को खरीदा है? मेरे हिसाब से घड़ी चलेगी!
यंत्र तुम्हारे हिसाब से चलने चाहिए। यंत्र तुम्हें गुलाम न बना लें। तुम्हारी मालकियत बनी रहे। यह अब केवल ध्यान से ही संभव हो सकता है।
राकेश! आधुनिक मनुष्य की सबसे बड़ी पीड़ा और सबसे बड़ी चुनौती, सबसे बड़ा खतरा, सबसे बड़ी समस्या एक ही है: प्रकृति से टूट जाना और यंत्रों से जुड़ जाना। ध्यान इतना जरूरी कभी भी नहीं था जितना आज है, क्योंकि ध्यान के बिना भी परमात्मा की याद आ जाती थी। प्रकृति चारों तरफ लहलहा रही थी। कब तक बचते? कैसे बचते? पपीहा पी-पी पुकारता और तुम्हें अपने पिया की याद न आती? और कोयल कुहू-कुहू की धुन मचाती और तुम्हारे प्राणों में कोई कुहू-कुहू की प्रतिध्वनि पैदा न होती? फूलों पर फूल खिलते, ऋतुएं घूमतीं, ऋतुओं का चक्र चलता--और तुम्हें यह याद न आती कि जगत सुनियोजित है, अराजक नहीं है? चांद-तारे समय पर आते हैं। वर्षा आती है। गर्मी आती है। शीत आती है। क्या इस सारे वर्तुलाकार प्रकृति को घूमते देख कर तुम्हें यह याद न आता कि कोई रहस्यपूर्ण छिपे हुए हाथ इसके पीछे होने चाहिए? बचना मुश्किल था। चारों तरफ उसकी गंध थी।
हमने धीरे-धीरे उसकी गंध बिलकुल बंद कर दी है। जितना आधुनिक मनुष्य है, उतना ही हटता चला गया है दूर। दिन भर मशीनों के साथ जीता है। घर आ जाए तो भी रेडियो खोल लेता है, कि टेलीविजन के सामने बैठ जाता है। फुरसत हो तो सिनेमा हो आता है। समय ही नहीं कि कभी तारों से भी गुफ्तगू हो। अवसर ही नहीं कि कभी नदियों के साथ भी दो बातें हो जाएं। आकांक्षा ही नहीं कि कभी पहाड़ों से भी मिलन हो। और इतने आवरण ओढ़ रखे हैं कि जब दो आदमी मिलते हैं तो भी मिलना नहीं हो पाता।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि एक बिस्तर पर जब पति और पत्नी सोते हैं, तो तुम यह मत समझना कि दो आदमी वहां सो रहे हैं। वहां चार भी सो सकते हैं; छह भी सो सकते हैं--क्योंकि एक तो पति वह है जो वह है; और एक पति वह है जैसा वह पत्नी को दिखलाता है; और एक पति वह है जैसा वह दिखलाता तो है लेकिन दिखला नहीं पाता, दिखलाना चाहता है। तो तीन पति हो गए, तीन पत्नियां हो गईं, छह आदमी सो रहे हैं। छोटा बिस्तर, वैसे ही भीड़-भाड़ हो जाती है।
तुम जो कहना चाहते हो, कहते हो? कुछ और ही कहते हो! और जो तुम कहते हो, उससे तुम्हारा कोई भी नाता नहीं होता। उसकी जड़ें तुम्हारे प्राणों में नहीं होतीं, तुम्हारे स्वरों का उसके साथ संबंध नहीं होता। तुम जरा लोगों के चेहरों पर गौर करो। तुम जरा लोगों के शरीर की भाषा सीखो। और तुम चकित हो जाओगे, उनके ओंठ कुछ कहते हैं, उनकी आंखें कुछ कहती हैं। उनके ओंठ कहते हैं: स्वागत! उनकी आंखें कहती हैं कि कहां सुबह-सुबह ये शनीचरी चेहरे के दर्शन हो गए। ओंठ कुछ कह रहे हैं, आंखें कुछ कह रही हैं। लोग कहते हैं कि बड़ा आनंद हुआ आपके आने से। लेकिन पूरा शरीर कुछ और कह रहा है।
शरीर की भाषा पर बड़ी शोध-बीन हो रही है। छोटे-छोटे इशारे शरीर कहता है, जिनका तुम्हें भी पता नहीं होता। जब तुम किसी आदमी से मिलना चाहते हो तो तुम उसके पास झुक कर खड़े होते हो; तुम उसकी तरफ झुके हुए होते हो। और जब तुम उससे नहीं मिलना चाहते तो तुम पीछे की तरफ खिंचे हुए खड़े होते हो। तुम जरा लोगों को गौर से देखना। जो स्त्री तुममें उत्सुक है, वह तुम्हारी तरफ झुकी हुई होगी। जो स्त्री तुमसे बचना चाहती है, वह तुम्हारे से दूसरी तरफ तनी हुई होगी। जो स्त्री तुममें उत्सुक है, वह तुम्हारे पास सरक कर बैठेगी; जो तुममें उत्सुक नहीं है, वह जिस तरह बच सके, जितनी बच सके, उतनी दूर तुमसे सरक कर बैठेगी। शायद उसे भी साफ न हो। लेकिन शरीर की भाषाएं हैं। ओंठ कुछ कहते हैं, शरीर कुछ कहता है। शरीर ज्यादा सच कहता है, क्योंकि अभी शरीर को झुठलाने की कला हमने नहीं सीखी। आंखें कुछ और कहती हैं, तुम कुछ भी कहो।
मनोवैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया आंखों के ऊपर। कुछ नंगी तस्वीरें और कुछ साधारण तस्वीरों में मिला दीं। और कुछ लोगों को उन तस्वीरों का अध्ययन करने के लिए कहा। सिर्फ देखने के लिए, एक नजर देखते जाना है। और उनकी आंखों पर यंत्र लगाए गए हैं। उनकी आंखों की जांच की जा रही है। उनसे कुछ...वे क्या कहते हैं, यह नहीं पूछा जा रहा है, सिर्फ उनकी आंखों की जांच की जा रही है। और एक बड़ी हैरानी का अनुभव हुआ। साधारण तस्वीर एक ढंग से देखती है आंख। अगर नग्न स्त्री की तस्वीर हो तो आंख की पुतलियां एकदम बड़ी हो जाती हैं। तो जो यंत्र से आंखें देख रहा है, उसे तस्वीरों का पता नहीं है, लेकिन वह आंखें देख कर यंत्र से कह सकता है कि यह आदमी अभी नंगी तस्वीर देख रहा है।
यह तो बड़ी खतरनाक चीज है। तुम अपने साधु-संतों की जांच कर सकते हो। और आंख पर बस नहीं है तुम्हारा स्वेच्छा से, कि तुम जब चाहो फैला लो, जब चाहो सिकुड़ा लो। खयाल भी नहीं है तुम्हें। जिस चीज को तुम देखना चाहते हो, उस आकांक्षा के कारण ही, वह दबी आकांक्षा ही कितनी ही क्यों न हो, तुम्हारी आंखों की पुतलियां बड़ी हो जाती हैं। क्यों? तुम उसे पूरा आत्मसात कर लेना चाहते हो।
फिल्म देखने तुम बैठे हो जाकर सिनेमागृह में। जब कोई ऐसी घटना घटती है जिसमें तुम उत्सुक हो, तुम कुर्सी छोड़ देते हो, एकदम तुम्हारी रीढ़ सीधी हो जाती है। तुम एकदम सजग होकर देखने लगते हो। जब कोई चीज ऐसी ही चल रही है तो तुम आराम से कुर्सी पर बैठ जाते हो; चूक भी गए तो कुछ हर्ज नहीं।
तुम्हारे शरीर की भाषा है। तुम कहते कुछ हो, तुम्हारा शरीर कुछ और ही कहता है। अक्सर उलटा कहता है। तुम्हारे ओंठ कुछ बोलते हैं और ओंठों का ढंग कुछ और बोलता है। ओंठ कुछ बोलते हैं, नाक कुछ बोलती है, आंख कुछ बोलती है। ऐसे खंड-खंड हो गया है आदमी। और यह खंडन बढ़ता जा रहा है, टुकड़े-टुकड़े होता जा रहा है। इसी टुकड़े-टुकड़े में फंसा हुआ है।
ध्यान का अर्थ होता है--अखंड हो जाओ; एक चैतन्य हो जाओ। और उस एक चैतन्य के लिए जरूरी है कि तुम अपने जीवन से यांत्रिकता छोड़ो। यंत्र तो नहीं छोड़े जा सकते, यह पक्का है। अब कोई उपाय नहीं है। अब लौटने की कोई जगह नहीं है। अब तुम चाहो लाख कि हवाई जहाज न हो, लोग फिर बैलगाड़ी में चलें--यह नहीं होगा। अब तुम लाख चाहो कि रेडियो न हो, यह नहीं होगा। अब तुम लाख चाहो कि बिजली न हो, यह नहीं होगा। होना भी नहीं चाहिए। लेकिन मनुष्य यांत्रिक न हो, यह हो सकता है। और अब तक तो खतरा न था, अब खतरा पैदा हुआ है। यंत्रों से बुद्ध के जमाने का आदमी नहीं घिरा था, तो भी बुद्ध ने अमूर्च्छा सिखाई है, विवेक सिखाया है, जागृति सिखाई है, होश सिखाया है। और आज तो और अड़चन बहुत हो गई है। आज तो एक ही बात सिखाई जानी चाहिए--मूर्च्छा छोड़ो! होशपूर्वक जीओ! जो भी करो, इतनी सजगता से करो कि तुम्हारा कृत्य मशीन का कृत्य न हो। तुममें और मशीन में इतना ही फर्क है अब कि तुम होशपूर्वक करोगे, मशीन को किसी होश की जरूरत नहीं है। अगर तुममें भी होश नहीं है तो तुम भी मशीन हो।
पुराने समय के ज्ञानियों ने मनुष्य को चौंकाया था, बार-बार एक बात कही थी, कल दरिया ने भी कही--कि देखो, आदमी रहना, पशु मत हो जाना! आज खतरा और बड़ा हो गया है। आज खतरा यह है कि देखो, आदमी रहना, यंत्र मत हो जाना! यह पशुओं से भी ज्यादा बड़ा पतन है। क्योंकि पशु फिर भी जीवंत है। पशु फिर भी यंत्र नहीं है। बुद्धों ने नहीं कहा है कि यंत्र मत हो जाना, क्योंकि यंत्र नहीं थे। लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि खतरा बहुत बढ़ गया है। खाई और गहरी हो गई है। पहले पुराने जमाने में गिरते तुम तो बहुत से बहुत पशु हो जाते, लेकिन अब गिरोगे तो यंत्र हो जाओगे। और यंत्र से नीचे गिरने का और कोई उपाय नहीं है। और यंत्र से बचने की एक ही औषधि है: जागे हुए जीओ। चलो तो होशपूर्वक, बैठो तो होशपूर्वक, सुनो तो होशपूर्वक, बोलो तो होशपूर्वक, चौबीस घंटे जितना बन सके उतना होश साधो। हर काम होशपूर्वक करो। छोटे-छोटे काम, क्योंकि सवाल काम का नहीं है, सवाल तो होश के लिए नये-नये अवसर खोजने का है। स्नान कर रहे हो, और तो कुछ काम नहीं है, होशपूर्वक ही करो। फव्वारे के नीचे बैठे हो, होशपूर्वक, जागे हुए, एक-एक बूंद को अनुभव करते हुए बैठो। भोजन कर रहे हो, जागे हुए।
लोग कहां भोजन कर रहे हैं जागे हुए! गटके जाते हैं। न स्वाद का पता है, न चबाने का पता है, न पचाने का पता है--गटके जाते हैं। पानी भी पीते हैं तो गटक गए। उसकी शीतलता भी अनुभव करो। तृप्त होती हुई प्यास भी अनुभव करो। तो तुम्हारे भीतर यह अनुभव करने वाला धीरे-धीरे सघन होगा, केंद्रीभूत होगा। और तुम जाग कर जीने लगो, तो फिर हो जाए जगत, यंत्र से भर जाए कितना ही, तुम्हारा परमात्मा से संबंध नहीं टूटेगा।
जागरण या ध्यान परमात्मा और तुम्हारे बीच सेतु है। और जितना तुम्हारे जीवन में ध्यान होगा, उतना ही तुम्हारे जीवन में प्रेम होगा। क्योंकि प्रेम ध्यान का परिणाम है। या इससे उलटा भी हो सकता है: जितना तुम्हारे जीवन में प्रेम होगा, उतना ध्यान होगा।
यंत्र दो काम नहीं कर सकते--ध्यान नहीं कर सकते और प्रेम नहीं कर सकते। बस इन दो बातों में ही मनुष्य की गरिमा है, महिमा है, महत्ता है, उसकी भगवत्ता है। इन दो को साध लो, सब सध जाएगा। और दोनों को इकट्ठा साधने की भी जरूरत नहीं है; इनमें से एक साध लो, दूसरा अपने आप सध जाएगा।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, साधु-संतों को देख कर ही मुझे चिढ़ होती है और क्रोध भी आता है। मैं तो उनमें सिवाय पाखंड के और कुछ भी नहीं देखता हूं। पर आपने न मालूम क्या कर दिया है कि श्रद्धा उमड़ती है! आपके प्रभाव का रहस्य क्या है?
सतीश! बात सीधी-सादी है: मैं कोई साधु-संत नहीं हूं। और ठीक ही है कि साधु-संतों पर तुम्हें चिढ़ होती है। चिढ़ होनी चाहिए अब। हजारों साल हो गए! इन मुर्दों से कब छुटकारा पाओगे? इन लाशों को कब तक ढोओगे? अगर तुममें थोड़ी भी बुद्धि है, तो चिढ़ होगी ही। तोतों की तरह ये तुम्हारे तथाकथित साधु-संत दोहराए जा रहे हैं--राम की कथा, उपनिषद, वेद, सत्यनारायण की कथा। न इनके जीवन में सत्य का कोई पता है, न नारायण का कोई पता है। न इनके जीवन में राम की कोई झलक है, न कृष्ण का कोई रस बहता है। न तो बांसुरी बजती है इनके जीवन में कृष्ण की, न मीरा के घुंघरुओं की आवाज है। इनके जीवन में कोई उत्सव नहीं है, कोई फाग नहीं है, कोई दीवाली नहीं है। इनके जीवन में कुछ भी नहीं है। इन्होंने तो सिर्फ धर्म के नाम पर तुम्हारा शोषण करने की एक कला सीख ली है। ये पारंगत हो गए हैं। और ये उन बातों का उपयोग करते हैं, जिन बातों से सहज ही तुम्हारा शोषण हो सकता है।
भिखमंगे भी इस देश में ज्ञान की बातें करते हैं, मगर उनका प्रयोजन कुछ ज्ञान से नहीं है। भिखमंगे भी कहते हैं कि दान से बड़ा पुण्य नहीं है। कोई न उन्हें पुण्य से मतलब है, न दान से मतलब है। मतलब तुम्हारी जेब से है। वे तुम्हारे अहंकार को फुसला रहे हैं कि दान से बड़ा पुण्य नहीं है, कहां जा रहे हो? दान करो! और लोभ पाप का बाप बखाना! वे तुमसे कह रहे हैं कि लोभ पाप का बाप है, बचो इससे! दे दो, हम तुम्हें हलका किए देते हैं। और मांग रहे हैं। भिखमंगे हैं। और मांगना लोभ से हो रहा है, लेकिन शिक्षा वे अलोभ की दे रहे हैं!
तुम्हारे भिखमंगों में और तुम्हारे साधु-संतों में कुछ बहुत फर्क नहीं है। तुम्हारे भिखमंगों में और तुम्हारे साधु-संतों में इतना ही फर्क है कि भिखमंगे गरीब और साधु-संत थोड़े सुशिक्षित, थोड़े सुसंस्कृत। भिखमंगे थोड़े दीन-हीन और तुम्हारे साधु-संत तुम्हारा शोषण करने में ज्यादा कुशल।
कल ही मैं एक कविता पढ़ता था--
दीवाली के दिन
एक साधु बाबा बोले:
‘बच्चा! तेरी रक्षा करेगा भोले,
आज दीवाली है।
हमारा कमंडल खाली है।
भरवा दे
ज्यादा नहीं बस
पांच रुपये दिलवा दे।’
हमने कहा: ‘बाबाजी!
दिलवाना होता तो पांच क्या
पांच लाख दिलवा देते
सारा हिंदुस्तान
आपके नाम करवा देते
हम भारतीय नौजवान हैं;
हमारे पास अंधा भविष्य
|लंगड़ा वर्तमान और गूंगे बयान हैं,
सरकार काम नहीं देती
बाप पैसा नहीं देता
दुनिया इज्जत नहीं देती
महबूबा चिट्टी नहीं देती
लोग दीवाली के दिन
दीये जलाते हैं
हम दिल जला रहे हैं,
इच्छाओं को आंसुओं में तल कर
त्योहार मना रहे हैं।
लोग हिंदुस्तान में रह कर
लंदन को मात करते हैं।
हिंदी का झंडा थाम कर
अंग्रेजी की बात करते हैं।
और हमसे कहते हैं कि
अपनी संस्कृति को अपनाओ
अब हम आजाद हैं
त्योहार मनाओ।
त्योहार आदमी को
देश की संस्कृति से जोड़ता है
और संस्कृति
जोड़ती है आदमी को रोशनी से।
मगर बाबाजी!
कथनी और करनी में बड़ी दूरी है।
जिस देश की रोशनी कमरों में बंद हो
उस देश में त्योहार
थोपी हुई मजबूरी है।’
बाबाजी बोले:
‘दुखी मत हो बच्चा
तू किस्मत वाला है
दीवाली के दिन
हमारे दर्शन कर रहा है
तुझे आशीर्वाद देने का
मन कर रहा है।’
हमने कहा: ‘अपने मन को रोकिए
आशीर्वाद दाताओं के पैर छूते-छूते
कमर झुक गई है
जीवन की गाड़ी
आगे बढ़ने से रुक गई है।’
वे बोले:
‘तू हमारे आशीष का अपमान कर रहा है
हम त्रिकालदर्शी हैं
वेदांती हैं
देख! हमारे मुंह में एक भी दांत नहीं
बच्चा, हंसने की बात नहीं
लोग इस जमाने में
कपड़े पहन कर भी नंगे हैं
हम एक लंगोटी में नंगापन ढांक रहे हैं
संतों के देश में धूल फांक रहे हैं।
खाली कमंडल हाथ में लेकर
घर-घर अलख जगाते हैं
और लोग हमें चोर समझ कर भगाते हैं
सूरदास को चैन नहीं मिला
तो नैन फोड़ लिए
हमें अन्न नहीं मिला
तो दांत तोड़ लिए
वे सूरदास
हम पोपलदास
वे अतीत के गौरव
हम वर्तमान के संत्रास!’
हमने कहा: ‘बाबाजी!
आप तो साहित्यकारों को मात कर रहे हैं
साधु होकर संत्रास की बात कर रहे हैं।’
वे बोले: ‘तू हमें नहीं पहचानता
हमारा वर्तमान देख रहा है
भूतकाल नहीं जानता
आज से दस बरस पूर्व
हम अखिल भारतीय कवि थे
लोग हमारी बकवास को अनुप्रास
और अश्लीलता को अलंकार कहते थे
बड़े-बड़े संयोजक हमारी अंटी में रहते थे
हमने शब्दों से अर्थ कमाया है
कविता को मंच पर नंगा नाच नचाया है
उसी का फल चर रहे हैं
तन पर भभूत मल रहे हैं
खाली कमंडल लिए फिर रहे हैं।’
हमने कहा: ‘दुखी मत होओ बाबा!
आपका कमंडल खाली
हमारी जेब खाली
भाड़ में जाए होली
और चूल्हे में जाए दीवाली।’
नाराजगी स्वाभाविक है। चिढ़ होती होगी सतीश, चिढ़ होनी चाहिए। क्रोध भी आता होगा, आना चाहिए। न तो सभी चिढ़ व्यर्थ होती हैं, न सभी क्रोध व्यर्थ होते हैं। कभी तो क्रोध की भी सार्थकता होती है। इस देश को थोड़ा क्रोध भी आने लगे, तो भी सौभाग्य है। यह देश तो भूल ही गया है सारी तेजस्विता। यह तो गुलामी में ऐसा पक गया है, ऐसा रंग गया है, कि घिसता जाता है, कहीं भी जोत दो, किसी भी कोल्हू में जोत दो, और इस देश का आदमी चलने को राजी हो जाता है।
सदियों से भाग्य सिखाया गया है, नियति सिखाई गई है। सदियों से एक ही बात सिखाई गई है कि सब किस्मत में लिखा है। जो होना है वही होना है। तो अगर कोल्हू में बंधना है तो कोल्हू में बंधना है! और साधु-संतों का ऐसा सम्मान सिखाया है...। सिखाया किसने? उन्हीं ने सिखाया है। वही तुम्हारे शिक्षक रहे हैं। वही तुम्हें बताते रहे हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन ने एक दिन जाकर बाजार में कहा कि मेरी स्त्री से ज्यादा सुंदर और कोई स्त्री दुनिया में नहीं है। नूरजहां भी कुछ नहीं थी। मुमताजमहल भी कुछ नहीं थी। और ये आजकल की हेमामालिनी इत्यादि का तो कोई मूल्य ही नहीं है।
किसी ने पूछा: मगर मुल्ला नसरुद्दीन, अचानक तुम्हें इस बात का पता कैसे चला?
उसने कहा: पता कैसे चला? मेरी ही पत्नी ने मुझसे कहा है!
कौन तुम्हें समझाता रहा कि साधु-संतों को सम्मान दो, सत्कार दो, सेवा करो? यही साधु-संत तुम्हें समझाते रहे। सदियों-सदियों का संस्कार उन्होंने डाला है। तुम उन्हें देख कर झुक जाते हो। झुकना यांत्रिक है, औपचारिक है। तुम्हारे बाप भी झुकते रहे, बाप के बाप भी झुकते रहे, सदियां झुकती रहीं; तुम भी झुक जाते हो। उसी श्रृंखला में बंधे, कड़ियों में बंधे, झुक जाते हो।
अच्छा है सतीश कि चिढ़ होती है। इस देश के जवान में थोड़ी चिढ़ पैदा होनी चाहिए। तो कुछ टूटे, कुछ नया बने! नहीं तो तथाकथित बड़ी-बड़ी क्रांतियां हो जाती हैं। देखा अभी, समग्र क्रांति समग्र रूप से असफल गई! क्रांति बकवास है यहां, क्योंकि लोगों के प्राणों में क्रांति का भाव नहीं है। क्रांति ऊपर-ऊपर लीपा-पोती है! एक आदमी को हटाओ, दूसरे को बिठा दो। मगर वह दूसरा आदमी पहले से भी बदतर हो सकता है; या पहले ही जैसा होगा। बहन जी नहीं होंगी तो भाई जी होंगे, कुछ खास फर्क नहीं पड़ेगा। कोई अंतर नहीं होगा। एक लाश हटेगी, दूसरी लाश विराजमान कर दी जाएगी। नाम क्रांति का होगा। लेकिन क्रांति की भाषा नहीं हमें आती। क्रांति का हमारे पास बोध नहीं है। क्रांति का पहला बोध यह है कि हम देखना तो शुरू करें कि हम कितनी सदियों से कितनी गलत धारणाओं में आबद्ध हैं।
संत कौन है? हमारी परिभाषा क्या है संत की? अगर हिंदू से पूछो तो उसकी एक परिभाषा है--कि भभूत रमाए बैठा हो, धूनी लगाए बैठा हो, तो संत हो गया।
अब भभूत लगाने से और धूनी रमाने से कोई संत होता है? सर्कस में भर्ती हो जाना था; संत क्यों?
जैन से पूछो, उसकी यह परिभाषा नहीं है। वह तो जो भभूत लगाए है और धूनी जलाए है, उसको संत तो मान ही नहीं सकता, असंत मानेगा। क्योंकि आग जलाने से तो हिंसा होती है। कीड़े मरेंगे; आग पैदा होगी। आग जलाना तो जैन मुनि कर ही नहीं सकता। तो उसकी और परिभाषा है--उपवास करे कोई। लंबे-लंबे उपवास करे, भूखा मरे! खुद को सताए, तरह-तरह से सताए, तो मुनि है।
मगर यह श्वेतांबर जैन की परिभाषा है। दिगंबर से पूछो, तो जब तक वह नग्न न हो तब तक मुनि नहीं है, चाहे कितने ही लाख उपवास करे। मुनि तो वह तभी होगा, जब नग्न खड़ा हो जाए, जब वस्त्रों का त्याग कर दे।
ईसाइयों से पूछो, तो उनकी कुछ और परिभाषा है, मुसलमानों से कुछ और, और बौद्धों से कुछ और। दुनिया में तीन सौ धर्म हैं और तीन हजार परिभाषाएं हैं। क्योंकि तीन सौ धर्मों के कम से कम तीन हजार संप्रदाय हैं।
संत कौन है? इन परिभाषाओं से तय होने वाला नहीं है। ये परिभाषाएं काम न पड़ेंगी। संत तो मैं उसे कहता हूं जिसने सत्य को जाना। संत शब्द ही सत्य को जानने से बनता है। जिसने अनुभव किया, पीया सत्य को। जिसकी मौजूदगी में, जिसकी सन्निधि में तुम्हारे भीतर भी सत्य की हवाएं बहने लगें, सत्य की रोशनी होने लगे। जिसकी मौजूदगी में, जिसके संग-साथ में तुम्हारा बुझा दीया जल उठे। संत वही है।
जब तक तुम्हारा दीया न जल जाए, तब तक किसी को संत कहने का कोई कारण नहीं है। हां, तुम्हारा दीया कहीं जल जाए और तुम्हारे भीतर आनंद का प्रकाश हो और तुम्हें परमात्मा की सुध आने लगे, तो जिसके पास आ जाए वही संत है। फिर वह नग्न हो कि कपड़े पहने हो, महल में हो कि झोपड़े में हो, उपवास कर रहा हो कि सुस्वादु भोजन कर रहा हो, कुछ फर्क नहीं पड़ता। इन सारी बातों से कोई संबंध नहीं है। फिर वह हिंदू हो कि मुसलमान कि ईसाई; स्त्री हो कि पुरुष; कोई फर्क नहीं पड़ता। एक ही बात निर्णायक है कि जिसकी सन्निधि में, तुम्हारे भीतर सोया हुआ जो परमात्मा है, वह करवट लेने लगे। तुम्हारे भीतर धुन बजने लगे कोई, जो कभी नहीं बजी थी! तुम्हारी आंखें गीली हो जाएं किसी नये आनंद से--अपरिचित, अछूते आनंद से! तुम्हारे पैर थिरकने लगें एक नये उल्लास से! तुम्हारा हृदय धड़कने लगे एक नये संगीत से! तुम आतुर हो जाओ अपना अतिक्रमण करने को! वही संत है।
और सतीश, जब भी ऐसा कोई संत मिलेगा तो चिढ़ कैसे होगी? जब ऐसा कोई संत मिलेगा तो श्रद्धा होगी। तो झुक जाने का मन होगा। नहीं कि झुकाओगे तुम अपने को; अचानक पाओगे कि झुक गए हो। नहीं कि चेष्टा करनी पड़ेगी झुकने की; नहीं-नहीं, जरा भी नहीं। झुका हुआ अनुभव करोगे! झुका हुआ पाओगे! अचानक पाओगे कि तुम्हारा अहंकार गया, बह गया, बाढ़ में बह गया।
मेरे पास तो केवल वे ही लोग आ सकते हैं जो तुम्हारे जैसे हैं। जिन्हें अभी पुराने, सड़े-गले धर्म में भरोसा है, वे तो यहां आ भी नहीं सकते। मेरे पास तो वे ही आने की हिम्मत जुटा सकते हैं, जिन्होंने देख लिया पुराने धर्म का सड़ा-गलापन; जिन्होंने देख ली उसकी असलियत और जो तलाश पर निकल पड़े हैं; जो खोज में निकल पड़े हैं। जो कहते हैं कि अब लीक पर चलने से कुछ भी न होगा; हम तलाश करेंगे, अपनी पगडंडी तोड़ेंगे, खोजेंगे--कहीं तो होगा परमात्मा का कोई प्रकाश! कहीं तो अभी भी किसी एकाध रंध्र से उसकी रोशनी आती होगी पृथ्वी तक, हम उस रंध्र को खोजेंगे। सदियों-सदियों पूजे गए पाखंड व्यर्थ हो गए हैं। सदियों-सदियों बनाए गए मंदिर खाली पड़े हैं। अब हम चलेंगे खुद ही तलाश पर। अब भीड़-भाड़ की न मानेंगे। अब तो निज का ही अनुभव होगा तो स्वीकार करेंगे।
मेरे पास, तुम कहते हो कि तुम्हें श्रद्धा अनुभव होती है। तो मेरे रहस्य का, मेरे राज का कारण पूछा है।
न कोई रहस्य है, न कोई राज है। बात सीधी-साफ है; दो और दो चार जैसी साफ है। मैं कोई बंधी-बंधाई परंपरा का प्रतिनिधि नहीं हूं। मैं किसी का साधु नहीं हूं, किसी का संत नहीं हूं। मैं अपनी निजता में जी रहा हूं। जो मेरा आनंद है, वैसे जी रहा हूं। रत्ती भर मुझे किसी और की परवाह नहीं है। जिन्हें औरों की परवाह है, उनसे मेरा नाता नहीं बनेगा। मुझसे तो नाता उनका बनेगा जिन्हें किसी की परवाह नहीं है; जिन्हें सिर्फ एक बात की चिंता है कि सत्य को जानना है, चाहे दांव पर कुछ भी लगाना पड़े। संस्कृति लगे दांव पर तो लगा देंगे। धर्म लगे दांव पर तो लगा देंगे। प्रतिष्ठा लगे दांव पर तो लगा देंगे। प्राण लग जाएं दांव पर तो लगा देंगे। सहेंगे अपमान। सहेंगे असम्मान। सहेंगे निंदा। लोग पागल कहेंगे तो सहेंगे, लेकिन सत्य को खोज कर रहेंगे! ऐसे जो लोग हैं, वे अचानक ही पाएंगे कि मेरे हृदय और उनके बीच एक स्वर बजने लगा। वे मेरे लोग हैं। मैं उनका हूं। मैं उन थोड़े से लोगों के लिए हूं जिनका ऐसा दुस्साहस है।
लेकिन सत्य की खोज के लिए दुस्साहस चाहिए ही। भीड़ के पास झूठ होता है, क्योंकि भीड़ को सत्य से कुछ लेना नहीं है। सांत्वना चाहिए। सांत्वना झूठ से मिलती है। सत्य से तो सब सांत्वनाएं टूट जाती हैं। सत्य तो आता है तलवार की धार की तरह और काट जाता है तुम्हें। सत्य तो मिटा देता है तुम्हें। और जब तुम मिट जाते हो तब जो शेष रह जाता है, वही परमात्मा है। अहंकार जहां नहीं है, वहीं परमात्म-अनुभव है।
लेकिन, सत्य को खोजो, पर अकारण साधु-संतों के प्रति चिढ़ को ही अपने जीवन की शैली मत बना लेना। उससे क्या लेना-देना? उनकी वे जानें। अगर किसी को पाखंडी होना है, तो उसे हक है पाखंडी होने का। और किसी को अगर झूठ में ही जीना है, तो यह भी उसकी आत्मा की स्वतंत्रता है कि वह झूठ में जीए। किसी को दोहरी जिंदगी जीनी है, उसकी मर्जी। तुम अपने को इसी पर आरोपित मत कर देना। नहीं तो तुम्हारा समय इसी में नष्ट होगा--इसको घृणा करो, उसको घृणा करो; इससे चिढ़ करो, उससे क्रोध करो, इससे लड़ो-झगड़ो। तुम अपनी तलाश कब करोगे?
और उन सौ साधु-संन्यासियों में कभी एकाध ऐसा भी हो सकता है जो सच्चा हो। तो कहीं ऐसा न हो कि कूड़ा-कर्कट के साथ तुम हीरे को भी फेंक दो।
इसलिए तुम इसकी चिंता छोड़ो। तुम तो सत्य की तलाश में ही अपनी सारी शक्ति को नियोजित कर दो। शक्ति को बांटो मत। इस भेद को खयाल में रख लो। नहीं तो तुम प्रतिक्रियावादी हो जाओगे, क्रांतिकारी नहीं। कुछ लोग हैं जो गलत को तोड़ने में ही जिंदगी गंवा देते हैं। मगर गलत को तोड़ने से ही ठीक थोड़े ही बनता है। तुम अगर उठा लो कुदाली और गांव में जितने भी गलत मकान हों, सब गिरा दो, तो भी इससे मकान तो नहीं बन जाएगा। गिराने से तो मकान नहीं बन जाएगा। अच्छा तो यही हो कि तुम पहले मकान बनाओ, सम्यक मकान बनाओ, मंदिर बनाओ, ताकि गलत अपने आप गलत दिखाई पड़ने लगे। फिर गिराना भी आसान होगा। और फिर इस भूल की भी संभावना नहीं है कि कहीं गलत की चपेट में तुम ठीक को भी गिरा जाओ। अक्सर ऐसा हो जाता है।
अंग्रेजी में कहावत है न कि टब के गंदे पानी के साथ कहीं बच्चे को न फेंक देना! अक्सर ऐसा हो जाता है कि जब लोग क्रोध में आ जाते हैं, तो कचरा तो फेंकते ही फेंकते हैं, हीरे भी फेंक देते हैं। हीरे भी पड़े हैं। सौ में एक ही होगा हीरा।
तब तुमको पहचान न पाया!
पाले की ठंडी अंधियाली
निशि में जब तुम एक ठिठुरते
भिखमंगे का रूप बना कर
आए मेरे गृह पर डरते
मैंने तुमको शरण नहीं दी, उलटे जी भर कर धमकाया!
तब तुमको पहचान न पाया!
अंगारे नभ उगल रहा था
बने पथिक तुम प्यासे पथ पर
पानी थोड़ा मांग रहे थे
राह किनारे बैठे थक कर
पानी मेरे पास बहुत था, फिर भी था तुमको तरसाया!
तब तुमको पहचान न पाया!
भूखा बालक बन कर उस दिन
खंडहर में तुम बिलख रहे थे
मेरे पास अनाजों के जाने
कितने भंडार भरे थे
तब भी मैंने उठा प्रेम से नहीं तुम्हें निज कंठ लगाया!
तब तुमको पहचान न पाया!
आज तुम्हारे द्वार खड़ा मैं
जाने ले कितनी आशाएं
बेशर्मी की भी तो हद है
कैसे ये दृग पलक उठाएं
मैं लघु पर तुम तो महान, विश्वास यही मुझको ले आया!
तब तुमको पहचान न पाया!
कौन जाने परमात्मा किस रूप में आ जाए! कौन जाने परमात्मा किस रूप में मिल जाए! इसलिए किसी रूप से कोई जिद मत बांध लेना। आग्रह मत कर लेना। फिर वह रूप चाहे साधु-संत का ही क्यों न हो। तुम्हें क्या पड़ी? तुम अपने सत्य की तलाश में लगो। तुम्हारा सत्य प्रकट हो जाए, उसी घड़ी तुम्हें पता चल जाएगा कि कहां-कहां सत्य है और कहां-कहां सत्य नहीं है। उसके पहले पता भी नहीं चल सकता।
तोड़ने का भी एक मजा होता है। विरोध का भी एक मजा होता है। निंदा का भी एक रस होता है। उसमें मत पड़ जाना। नहीं तो कई बार, द्वार के करीब आते-आते भी चूक जा सकते हो। सत्य के तलाशी को पक्षपात-शून्य होना चाहिए। सत्य के खोजी को धारणा-शून्य होना चाहिए। पूर्व-धारणाएं लेकर तुम जहां भी जाओगे, वहां तुम वही नहीं देख पाओगे जो है; वही देख लोगे जो तुम देखने गए थे।
और जीवन सच में ही बड़ा रहस्यपूर्ण है। यहां कभी-कभी ऐसी अनहोनी घटनाएं घटती हैं जिनकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते थे। यहां इस-इस रूप में सत्य की उपलब्धि हो जाती है जिसकी तुम स्वप्न में भी धारणा नहीं कर सकते थे। इसलिए मन को जिद में मत बांधो सतीश! न क्रोध में बांधो।
बात तो तुम्हारी ठीक है। बहुत धोखा हुआ है, बहुत पाखंड हुआ है। धर्म के नाम पर बहुत उपद्रव चला है, बहुत शोषण चला है। मगर यह शोषण ऐसे ही नहीं चलता रहा है। इस शोषण की जिम्मेवारी शोषण करने वालों पर ही नहीं है। इसकी बड़ी जिम्मेवारी तो उन पर है जो इसे चलने देते हैं। शायद उनकी जरूरत है। शायद इसके बिना वे जी नहीं सकते।
सिगमंड फ्रायड ने कुछ महत्वपूर्ण बातों में एक महत्वपूर्ण बात यह भी कही है कि चालीस वर्षों के मनुष्य के मनोविज्ञान के अध्ययन के बाद, अनेक-अनेक लोगों के निरीक्षण के बाद, मेरा निष्कर्ष है कि आदमी, कम से कम अधिकतम आदमी, बिना झूठ के नहीं जी सकते। अधिकतम लोगों के लिए भ्रमों के जाल चाहिए ही चाहिए। क्योंकि सत्य की चोट झेलने की क्षमता कितने लोगों की है?
फ्रेड्रिक नीत्शे ने भी बड़ी गहरी बात कही है, ठीक-ठीक ऐसी ही ऐसी। फ्रेड्रिक नीत्शे ने कहा है कि कृपा करो, लोगों के भ्रम मत छीनो! क्योंकि लोग बिना भ्रम के मर जाएंगे। भ्रम उनके जीवन का आधार है।
तो शोषण यूं ही नहीं चलता है। कोई है जो शोषण के बिना जी नहीं सकता है, इसलिए शोषण चलता है। अर्थशास्त्र का एक नियम है, अब हालांकि वह नियम उतना काम नहीं आता। अब तो अर्थशास्त्र भी शीर्षासन कर रहा है। लेकिन पुराना नियम यही है कि जहां-जहां मांग होती है, वहां-वहां पूर्ति होती है। जब तक किसी चीज की मांग न हो, तब तक पूर्ति नहीं होती। अगर पाखंडी सिर पर बैठे हैं, तो जरूर तुम चाहते होओगे कि तुम्हारे सिर पर कोई बैठे। बिना तुम्हारी मांग के तुम क्यों उन्हें सिर पर बिठाओगे? तुम्हारे भीतर जरूर उनके कारण कुछ सहारा मिलता होगा; कोई सांत्वना मिलती होगी, कोई सुरक्षा मिलती होगी। तुम्हारे भीतर कुछ जरूर उनके कारण तृप्त होता होगा। तुम्हारी कोई न कोई जरूरत वे जरूर पूरी कर रहे हैं।
हालांकि अब अर्थशास्त्र का नियम थोड़ा बदला है। बदला है अब ऐसा, और बदलना पड़ा है विज्ञापन के कारण। यह जब नियम बना था तब विज्ञापन इतना विकसित नहीं हुआ था। अब विज्ञापन ने हालत बदल दी है। अब विज्ञापन कहता है: पहले पूर्ति करो, फिर मांग तो पैदा हो ही जाएगी। अब विज्ञापन की दुनिया ने क्रांति कर दी एक। पहले तो ऐसा था--लोगों की जरूरत होती तो लोग मांग करते थे; मांग होती तो कोई खोज करता, पूर्ति करता। समझो कि लोगों को ठंड लग रही है, कंबल की जरूरत है, तो कंबल बाजार में आ जाते। अब हालत उलटी है। अब पहले कंबल बाजार में ले आओ। खूब प्रचार करो कि कंबल पहनने से शरीर सुंदर होता है, कंबल ओढ़ने से ऐसे-ऐसे लाभ होते हैं, उम्र लंबी होती है, आदमी ज्यादा देर तक जवान रहता है। खूब जो-जो प्रचार करना हो करो। कि जिसके पास यह कंबल होगा, उसके पास सुंदरियां आती हैं! कि इस कंबल को देख कर सुंदरियां एकदम मोहित हो जाती हैं! इस कंबल को देखते ही जादू छा जाता है! बस फिर चाहे सर्दी हो या न; फिर गर्मी में लोगों को तुम देखोगे कि कंबल ओढ़े बैठे हैं। पसीने से तरबतर हो रहे हैं, लेकिन सुंदरियों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अब हालत बदल गई है।
तुमने कहावत सुनी है अंग्रेजी की, कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। अब उसको बदल दो। अब कहावत कर लो: आवश्यकता आविष्कार की जननी नहीं; आविष्कार आवश्यकता का पिता है। पहले आविष्कार कर लो, फिर फिकर करना; विज्ञापन करना जोर से। इसलिए अमरीका में तो ऐसा है कि कोई भी चीज बाजार में आती है, उसके दो साल, तीन साल पहले विज्ञापन शुरू हो जाता है। अब तो लोग विज्ञापन से जीते हैं! जिन बातों की लोगों को कभी खबर ही नहीं थी, जिनकी उन्हें कभी जरूरत नहीं थी, विज्ञापन उनको जरूरत सिखा देता है। बस ठीक से प्रचार करो। लोगों को जंचा दो कि इसके बिना चलेगा नहीं। लोग खरीदने लगेंगे।
तो पहले तो पुरोहित आदमी की जरूरत से पैदा हुआ। जरूरत क्या थी आदमी की? जरूरत थी कि आदमी डरा हुआ था, भयभीत था। मौत थी सामने। मौत के पार क्या है? यह प्रश्न था सामने। जिंदगी में हजार-हजार मुसीबतें थीं, बीमारियां थीं। क्यों हैं ये बीमारियां, इनके उत्तर चाहिए थे। तो साधु-संत पैदा हो गए। उन्होंने उत्तर दे दिए। किसी ने उत्तर दे दिया कि तुमने पिछले जन्मों में पाप-कर्म किए थे। पिछले जन्म का पक्का ही नहीं है अभी; लेकिन पिछले जन्म में पाप-कर्म किए थे, उनका फल भोग रहे हो! और वह जो धन लिए बैठा है और मजा कर रहा है, उसने पिछले जन्म में पुण्य किए थे, इसलिए वह पुण्य का फल भोग रहा है! उत्तर मिल गया। सांत्वना मिली। थोड़ी राहत मिली। थोड़ी बेचैनी कटी--बड़ी बेचैनी कटी! अहंकार को बड़ा सहारा मिला। नहीं तो ऐसा लगता है कि हम भी मेहनत कर रहे हैं, दूसरा भी मेहनत कर रहा है; वह सफल होता है, हम असफल होते हैं। तो जरूर हमारे पास बुद्धि की कमी है। लेकिन अब बुद्धि क्या करे? बुद्धि तो हमारे पास उससे भी अच्छी है। मगर अब पिछले जन्मों के कर्मों के कारण अड़चन आ रही है। राहत मिल गई!
मृत्यु के बाद, घबड़ाओ मत, आत्मा अमर है। यही तो हम चाहते थे सुनना कि कोई कह दे, किसी तरह समझा दे कि आत्मा अमर है। हमें मरना न पड़े। कोई मरना नहीं चाहता। कोई समझा दे यह भी कि मरने के बाद जो दुनिया है, वह बड़े स्वर्ग की है, सुख की है।
थोड़ी सी शर्तें लगाईं साधु-संतों ने, वह भी ठीक, कि जो हमारी सेवा करेगा वह मेवा पाएगा। ठीक भी है। आखिर वे तुम्हारी सेवा कर रहे थे, थोड़ी तुमसे सेवा ली, तो दुनिया तो लेन-देन का मामला है। कुछ तुमने दिया, कुछ उन्होंने लिया। कुछ उन्होंने दिया, कुछ तुमने लिया। सौदा जम गया। उन्होंने कहा: तुम हमारी यहां सेवा करो, हम तुम्हें पक्का भरोसा दिलाते हैं कि स्वर्ग में तुम्हारी अप्सराएं सेवा करेंगी। तब एक अदृश्य का धंधा शुरू हुआ। तुम्हें जो चाहिए वह स्वर्ग में मिलेगा। यहां दो, वहां लो।
मगर यह बात जरा गड़बड़ की तो थी। क्योंकि यहां देना पड़े प्रकट और मरने के बाद मिलेगा कि नहीं मिलेगा! तो साधु-संतों ने कहा: एक पैसा यहां दो, वहां एक करोड़ गुना लो। देखते हो लोभ कितना दिया! पंडे-पुजारी तीर्थों में बैठ कर लोगों को समझाते हैं कि तुम एक दो, एक करोड़ गुना मिलेगा। कौन नहीं इस लोभ में आ जाएगा? एक पैसा दान दे दिया और एक करोड़ मिलेगा, यह तो सरकारी लाटरी से भी बेहतर हुआ! यह है लाटरी, असली आध्यात्मिक लाटरी! एक पैसा दे दिया और करोड़ गुना! एक रुपया दे दिया और करोड़ गुना! यह कमाई कौन छोड़ेगा? और अगर गया भी तो एक ही रुपया गया, कोई बहुत बड़ा चला नहीं गया। और अगर मिला...कौन जाने मिले ही! तो इतना लोभ दिया! उस लोभ ने तुम्हें राहत दी।
स्वर्ग के कैसे-कैसे सुखों के वर्णन हैं! और फिर तुम्हें डरवाया भी। क्योंकि जो उनकी न मानेगा, वे नरक में सड़ेंगे। और नरक में फिर कैसे-कैसे सड़ाने के वर्णन हैं! जिन्होंने किए हैं, बड़े कल्पना-जीवी लोग रहे होंगे। किस-किस प्रकार की ईजादें की हैं नरक में सड़ाने की, परेशान करने की! और स्वर्ग में सब सुख। और भेद कितना? जो मानेगा इन साधु-संतों को!
अब बड़ी अड़चन खड़ी हो गई, क्योंकि दुनिया में बहुत तरह के साधु-संत हैं, बहुत तरह के संप्रदाय हैं। सबके दावे हैं। ईसाई कहते हैं: जो ईसा को मानेगा, बस वही जाएगा स्वर्ग, शेष सब नरक में पड़ेंगे। जब तक पता नहीं था एक धर्म का दूसरे धर्मों को, तब तक तो ये दुकानें चलती थीं आसानी से। अब बड़ी बिगूचना हो गई, बड़ी विडंबना हो गई। अब बड़ी घबड़ाहट पैदा होती है लोगों को कि करना क्या है! पता नहीं कौन सच्चा हो! कहीं ऐसा न हो कि वहां पहुंचें और जीसस इनकार कर दें, क्योंकि ईसाई कहते हैं कि जीसस पहचानते हैं, कौन उनका है। वे अपनों-अपनों को चुन लेंगे। वे अपनी भेड़ों को चुन लेंगे। वे रखवाले हैं, गड़रिए हैं; वे अपनी भेड़ों को चुन लेंगे, बाकी भेड़ें जाएं भाड़ में।
तो लोगों को खूब डरवाने के उपाय किए गए।
मैंने सुना है, एक आदिवासी गांव में...आदिवासियों को तो, सीधे-सादे, भोले-भाले लोग, उनको बदलने के लिए भी भोली-भाली, सीधी-सादी कोई तरकीबें खोजनी पड़ती हैं, जो उनके काम आ सकें। बड़े तर्क तो वे समझ नहीं सकते। बाइबिल और वेद का तो उन्हें पता नहीं। तो पादरी ने पूरा गांव बदलने की तैयारी कर ली थी। ईसाई होने को गांव तैयार था। और तरकीब क्या थी? तरकीब बड़ी सीधी-सरल थी। मगर तुम्हारी तरकीबें भी बहुत भिन्न नहीं हैं। कितनी ही जटिल हों, उनका मौलिक ढंग वही है।
तरकीब यह थी कि उसने एक दिन सारे गांव को इकट्ठा किया। आग जलाई एक तरफ और पानी से भरा हुआ एक मटका रखा दूसरी तरफ। और उसने कहा कि देखो, कौन सच्चा है? किससे परख की जाए? आदिवासी कहते हैं: भवसागर कहा है संसार को, तो सच्चा वही जो तिरा दे। तो पानी में जो डूब जाए वह झूठा और जो बच जाए वह सच्चा। उसने दो मूर्तियां बना रखी थीं। एक राम की मूर्ति, वह लोहे की; और एक जीसस की मूर्ति, वह लकड़ी की। और उसने एक दूसरा सेट भी अपने झोले में तैयार रखा था। अगर आग से परीक्षा करनी हो, तो उलटा। वहां जीसस लोहे के और राम लकड़ी के। मटके में उसने डाल दीं दोनों मूर्तियां। राम जी तत्काल डूब गए। लोहे के थे तो बचते कैसे? जीसस तैरने लगे। तालियां बज गईं। गांव के लोगों ने कहा कि अब इससे ज्यादा प्रत्यक्ष प्रमाण और क्या? संसार भवसागर है! ये राम जी के साथ गए तो खुद भी डूबे। आप डूबन्ते, ले डूबे जिजमान! खुद तो डूबेंगे ही डूबेंगे महाराज, हमें भी डुबाएंगे। जीसस ही बचावनहार! देखो क्या तैर रहे हैं! तुम्हें भी तिरा देंगे।
वह तो सब गड़बड़ हो गई एक आदमी की वजह से। एक हिंदू संन्यासी भी गांव में ठहरा हुआ था। उसको यह खबर लगी। वह भी भागा हुआ पहुंचा। उसने यह सब हालत देखी; सब समझ गया राज। उसने कहा: भाई, परीक्षा तो अग्नि से होगी, क्योंकि अग्नि-परीक्षा ही हिंदुस्तान में चलती रही है। राम जी भी जब सीता जी को लेकर आए थे तो अग्नि-परीक्षा ली थी। जल-परीक्षा सुनी कभी?
गांव के लोगों ने कहा: यह बात तो ठीक है। जल-परीक्षा सुनी ही नहीं। अग्नि-परीक्षा!
पादरी थोड़ा डरा। उसने कोशिश तो की कि किसी तरह झोले में छिपी दूसरी मूर्तियां निकाल ले, लेकिन अब इस संन्यासी को धोखा देना मुश्किल था। उसने तो मटके में डली हुई मूर्तियां बाहर निकाल लीं और उसने कहा कि अब असली परीक्षा होती है देखो। डाल दिया दोनों को आग में। राम जी तो मजे से खड़े रहे, जीसस महाराज भभक कर जल गए। उस संन्यासी ने कहा: देखा, अग्नि-परीक्षा होगी, उसमें जो पार उतरेगा, वही तुम्हें पार उतारेगा।
आदमी के साथ यही खिलवाड़ चलता रहा है। उसे ऐसे ही तर्क दिए जाते रहे हैं। उसे इसी तरह के गणित समझाए जाते रहे हैं। आदमी भयभीत है; बचना चाहता है। मौत सामने खड़ी है। साधु-संतों ने यह मौका नहीं छोड़ा। उन्होंने इसका शोषण कर लिया है। उन्होंने हजार-हजार सिद्धांत खड़े कर लिए हैं।
लेकिन आज अड़चन खड़ी हो गई है, क्योंकि दुनिया के सारे धर्म, पहली बार एक-दूसरे से परिचित हुए हैं। इसके पहले तो सब अपने-अपने कुएं में बंद थे। विज्ञान ने कुएं तोड़ दिए, सीमाएं तोड़ दीं। संसार छोटा हो गया; एकदम छोटे गांव जैसा हो गया। आज न्यूयार्क में और पूना में अंतर ही क्या है? घंटों का फासला रह गया। इतने करीब हो गया है सब कि न्यूयार्क में नाश्ता लो, लंदन में भोजन करो और पूना में बदहजमी झेलो! सब इतना करीब हो गया है। एकदम जुड़ गया है। इतनी दुनिया करीब आ गई। इस करीब दुनिया में अब मन बहुत विभ्रांत है कि कौन सही, कौन गलत?
मैं तुमसे कहना चाहता हूं: ये सारी धारणाएं ही व्यर्थ। इनमें सही और गलत चुनना ही मत। इनमें कुछ गलत नहीं, कुछ सही नहीं। ये अलग-अलग दुकानों के अलग-अलग इश्तहार थे। ये दुकानें ही गलत थीं। धर्म का कोई संबंध परलोक से नहीं है। धर्म का संबंध वर्तमान से है। धर्म का कोई संबंध मृत्यु के पार से नहीं है, धर्म का मौलिक संबंध जीवन के निखार से है। धर्म का कोई संबंध पाप और पुण्य से नहीं है, धर्म का संबंध है मूर्च्छा और जागरण से।
तुम जागो! और जागोगे तो अभी ही जाग सकते हो, कल नहीं। इस क्षण को जागरण का क्षण बना लो। इस क्षण को निखार लो। इस क्षण को उत्सव, रसमय कर लो। फिर सब शेष अपने आप ठीक हो जाएगा। क्योंकि दूसरा क्षण इसी क्षण से पैदा होगा। वह और भी रसपूर्ण होगा। और अगर कोई जन्म है...और मैं जानता हूं कि मृत्यु के बाद जन्म है, जीवन है। लेकिन तुमसे कहता नहीं कि मेरी बात पर भरोसा करो। मेरा जानना मेरा जानना है; उस पर तुम्हें कोई अपने आधार खड़े नहीं करने हैं। लेकिन अगर यह जीवन तुम्हारा सुंदर हुआ, तो आने वाला जीवन इसी जीवन से तो उमगेगा, और भी सुंदर होगा।
और तुम पाप-पुण्य में चुनने की बजाय जागृति और मूर्च्छा में चुनो। क्योंकि पाप और पुण्य तो सभी धर्मों के अलग-अलग हैं, लेकिन जागृति और मूर्च्छा सभी धर्मों की अलग-अलग नहीं हो सकतीं। ईसाई जागे तो भी जागे और हिंदू जागे तो भी जागे और जैन जागे तो भी जागे। जागरण हिंदू नहीं होता और न मुसलमान होता है। जागरण तो बस जागरण है और मूर्च्छा मूर्च्छा है।
हां, पाप-पुण्य में बड़े भेद हैं। अगर मांसाहार करो तो मुसलमान के लिए पाप नहीं है, ईसाई के लिए पाप नहीं है। और ईसाई अपनी किताब के उद्धरण देने को तैयार है कि ईश्वर ने सारे पशु-पक्षी बनाए मनुष्य के उपयोग के लिए। वह तो ईश्वर का वक्तव्य बाइबिल में दिया हुआ है कि मनुष्य के उपयोग के लिए सारे पशु-पक्षी बनाए; और तो इनका कोई उपयोग ही नहीं है।
अगर जैनों से पूछो तो मांसाहार महापाप है। उससे बड़ा कोई पाप नहीं। लेकिन रामकृष्ण मछली खाते रहे और मुक्त हो गए। जैनों के हिसाब से नहीं हो सकते। जैनों के हिसाब से रामकृष्ण को परमहंस नहीं कहना चाहिए। हंसा तो मोती चुगै। और ये मछली चुग रहे हैं! और परमहंस हो गए मछली चुग-चुग कर। और बंगाली मछली न चुगे तो चले नहीं काम।
कठिनाई है बहुत, पाप कौन तय करे? पुण्य कौन तय करे?
ईसाइयों का एक समूह है रूस में, अब तो समाप्त होने के करीब हो गया, लेकिन उसकी मान्यता यह थी कि जिस पशु-पक्षी को तुम खा लेते हो, उसकी आत्मा को तुम मुक्त कर देते हो बंधन से। न केवल पाप तो कर ही नहीं रहे, पुण्य कर रहे हो। उसकी आत्मा को मुक्त कर रहे हो। जैसे कोई पक्षी बंद है, तोता बंद है पिंजड़े में, तुमने पिंजड़ा खोल दिया और तोते को उड़ा दिया। इसको तुम पाप कहोगे? उस संप्रदाय की यह मान्यता थी कि तुमने एक तोते को खा लिया, तो वह जो शरीर था तोते का, वह पिंजड़ा था, वह तुम पचा गए। पिंजड़ा ही पचाओगे, आत्मा तो मुक्त हो गई। तो तुमने कृपा की तोते पर! तुमने तोते का बड़ा कल्याण किया। अब उसकी आत्मा बंधन से मुक्त हो गई। और चूंकि मनुष्य ने उसे पचा लिया, अगला जन्म उसका अच्छा जन्म होगा।
इसी आशा में तो हिंदू भी नरबलि देते रहे; आज भी देते हैं! आज भी मूढ़ों की कमी नहीं है। इस देश में अश्वमेध यज्ञ हुए। अश्वमेध! और गऊ माता की पूजा करने वाले गो-मेध भी करते रहे। वे ही ऋषि-मुनि! गो-मेध की तो बात छोड़ दो, नर-मेध भी करते रहे। लेकिन यज्ञ की वेदी पर चढ़ाई गई गऊ सीधी स्वर्ग जाती है!
बुद्ध ने मजाक किया है। एक गांव में यज्ञ हो रहा है, भेड़-बकरियां काटी जा रही हैं, और बुद्ध आ गए, बस ठीक समय पर आ गए। उन्होंने पूछा उस पंडित को, पुरोहित को, जो यह कर रहा है हत्या का कार्य। खास पंडित-पुरोहित होते थे, जो यही काम करते थे। तुम जान कर चकित होओगे, तुममें कोई शर्मा यहां मौजूद हों तो नाराज न हों। शर्मा उन्हीं पंडित-पुरोहितों का नाम है। शर्मा का अर्थ होता है शर्मन करने वाला, काटने वाला। जो यज्ञ में पशु-पक्षियों को काटता था, वह शर्मा कहा जाता था। अब तो लोग भूल-भाल गए हैं। अब तो शर्मा बड़ा समादृत शब्द है। इतना समादृत कि वर्मा इत्यादि भी अपने को छोड़ कर शर्मा लिखते हैं। शर्मा का मतलब होता है हत्यारा। लेकिन हत्यारा साधारण नहीं, असाधारण हत्यारा! आत्माओं को स्वर्ग पहुंचाने वाला।
तो बुद्ध ने कहा कि यह तुम क्या कर रहे हो? तो उन्होंने कहा कि यह कोई हत्या नहीं है, हिंसा नहीं है। ये जो पशु-पक्षी काटे जाएंगे, इन सबकी आत्माएं स्वर्ग चली जाएंगी। तो बुद्ध ने बड़ा मजाक किया है! और बुद्ध ने कहा: तो फिर अपने माता-पिता को क्यों नहीं काटते? स्वर्ग ही भेज दो। यह अवसर मिला, स्वर्ग भेजने का द्वार खुला और तुम इन पशु-पक्षियों को भेज रहे हो? माता-पिता को भेज दो! पत्नी-बच्चों को भेज दो! फिर सबको भेज कर खुद भी चले जाना! मगर इन पशु-पक्षियों को तो न भेजो। ये तो जाना भी नहीं चाहते। ये तो तड़प रहे हैं। ये तो भागना चाहते हैं। ये तो कहते हैं कि क्षमा करो! बोल नहीं सकते। जरा इनकी आंखें तो देखो, गिड़गिड़ा रही हैं। मिमिया रहे हैं; ये कह रहे हैं कि हमें जाने दो। ये तो स्वर्ग जाना नहीं चाहते, इनको तुम भेज रहे हो। और जो जाना चाहते हैं...। जिस यजमान ने यह करवाया है यज्ञ, वह स्वर्ग जाना चाहता है, उसी को भेज दो।
खूब चालबाज लोग दुनिया में थे। चालबाजियां चलती रहीं। चालबाजियां हम सहते रहे। पाप और पुण्य का निर्णय करना मुश्किल है। एक तरफ हैं अमेजान नदी के किनारे बसे हुए लोग, जो आदमियों को भी खा जाते हैं, और इसमें कोई पाप नहीं। मनुष्य का आहार कर जाते हैं, भक्षण कर जाते हैं, और इसमें जरा भी कोई पाप नहीं है। और एक तरफ क्वेकर हैं, जो दूध भी नहीं पीते। क्योंकि दूध भी आता तो शरीर से है। खून से छन-छन कर आता है। रक्त का ही हिस्सा है। देह का अंग है। चाहे हाथ को काट कर खाओ और चाहे मां के स्तन से दूध को लेकर पी लो, है तो इसमें हिंसा ही।
और गाय का तुम दूध पीते हो; वह तुम्हारे लिए बनाया नहीं गया है। वह तो गाय के बछड़े के लिए बनाया गया है। बछड़े को छीन कर तुम पी रहे हो, तो तुम पाप ही कर रहे हो। फिर दूध सिवाय आदमी को छोड़ कर कोई पशु एक उम्र के बाद नहीं पीता, इसलिए यह अप्राकृतिक भी है। छोटे बच्चे दूध पीए मां से, ठीक है। लेकिन जैसे ही उनके दांत ऊग आए और वे पचाने लगे, फिर दूध छूट जाना चाहिए।
तो एक तरफ क्वेकर हैं, जो दूध भी नहीं पीते। एक क्वेकर मेहमान मेरे घर रुके। सुबह मैंने उनसे पूछा: आप चाय लेंगे, कॉफी लेंगे, दूध लेंगे?
उन्होंने मुझे ऐसे चौंक कर देखा, जैसे किसी जैन मुनि से तुम पूछो कि अंडा लेंगे, कि मछली लेंगे, कि गऊ-मांस, क्या विचार है? ऐसे मुझे चौंक कर देखा, कहा: आप और इस तरह की बात पूछते हैं!
मैंने कहा: कुछ भूल हुई?
उन्होंने कहा कि क्वेकर और दूध, चाय, कॉफी। दूध तो हम छू नहीं सकते। दूध तो पाप है। दूध तो हिंसा है, मांसाहार का हिस्सा है।
बड़ी अजीब दुनिया है। हिंदुस्तान में तो लोग समझते हैं कि दूध सबसे ज्यादा शुद्ध आहार, सात्विक आहार। अगर कोई आदमी सिर्फ दूध ही दूध पीकर रहे, दुग्धाधारी हो जाए, तो उसको लोग महात्मा मानते हैं। और क्वेकर की दृष्टि में इस आदमी से बड़ा पापी नहीं। दूध ही दूध पी रहा है, शुद्ध मांसाहारी है! तो क्या पाप है, क्या पुण्य है?
मेरी दृष्टि में, ये सब पाप-पुण्य सामाजिक व्यवस्थाएं हैं। ये पाप-पुण्य वस्तुतः मूल्यवान नहीं हैं। ये ऐसे ही हैं जैसे रास्ते के नियम--बाएं चलो कि दाएं चलो। बाएं चलो तो भी ठीक है और दाएं चलो तो भी ठीक है। हिंदुस्तान में लिखा होता है--बाएं चलो। अमरीका में लिखा होता है--दाएं चलो। नियम कुछ न कुछ चाहिए। रास्ते पर सभी तरफ लोग चलें तो दुर्घटनाएं हो जाएंगी, बहुत दुर्घटनाएं हो जाएंगी। शायद कोई भी अपने घर नहीं पहुंच पाएगा। ट्रैफिक जाम हो जाएंगे। तो नियम बनाना पड़ता है, नियम उपयोगी हैं, लेकिन नियम की कोई शाश्वतता नहीं है।
ऐसे ही ये तुम्हारे पाप-पुण्य के नियम हैं। जिन लोगों के साथ रहते हो, जिनकी सड़क पर चलते हो, बाएं चलो कि दाएं चलो, वैसा मान कर चल लेना। मगर इनका कोई वास्तविक मूल्य नहीं है। फिर वास्तविक मूल्य किस बात का है? दो ही बातों का। मूर्च्छा से जीओ तो पाप और होश से जीओ तो पुण्य। और मेरे देखे यह समझ में आया है कि जो आदमी जितना होश से जीएगा, चकित हो जाएगा। जो-जो गलत है, वह अपने आप छूटता चला जाता है! अपने आप! जो-जो गलत है, छोड़ना नहीं पड़ता, छूट जाता है। क्योंकि होश से भरा हुआ आदमी कैसे कर सकता है गलत को? जैसे अंधा आदमी तो शायद कभी दीवाल से निकलने की भी कोशिश करे, आंख वाला कैसे दीवाल से निकलने की कोशिश करेगा? आंख वाला तो दरवाजे से निकलता है। ऐसे ही जिसके पास जागरण के च्रु हैं, ध्यान की आंख है, वह जो भी करता है, ठीक करता है।
मुझसे जब लोग पूछते हैं कि ठीक क्या है, तो उनको मैं कहता हूं कि ब्योरे में मत जाओ। क्योंकि ब्योरे का तो तय करना बहुत मुश्किल है। एक तरफ ईसाई हैं, जो कहते हैं: सेवा करो; जितनी सेवा करोगे, उतना ही स्वर्ग निकट है। अस्पताल खोलो, कोढ़ियों के हाथ-पैर दबाओ, स्कूल चलाओ। और एक तरफ तेरापंथी जैन हैं, जो कहते हैं कि रास्ते के किनारे कोई प्यासा भी मरता हो तो तुम चुपचाप अपने रास्ते पर चले जाना, उसको पानी भी न पिलाना। क्यों? उनका भी हिसाब है। वे कहते हैं: वह आदमी रास्ते के किनारे तड़प कर मर रहा है, जरूर किसी पिछले जन्म के पाप का फल भोग रहा है। अब तुम उसको पानी पिला दो, तो पाप का फल भोगने से वंचित कर दिया। वंचित करने का मतलब यह है कि फिर कभी भोगना पड़ेगा। तुमने उसकी और यात्रा बढ़ा दी। उनका गणित समझो। उसको फल भोग लेने दो बेचारे को तो झंझट खत्म हो जाए। एक पाप कटे। कटा जा रहा था पाप, आप पानी लेकर आ गए! कटते-कटते पिंजड़े के बाहर हो रहा था पक्षी, फिर तुमने दरवाजे पर सांकल लगा दी, फिर पानी पिला दिया। फिर उसको कष्ट से बचा दिया।
फिर और दूसरा खतरा भी है। वह जो और भी बड़ा है। वह यह कि इसको तुमने पानी पिला कर बचा दिया। अब पता नहीं यह आदमी कौन हो, डाकू हो, हत्यारा हो, चोर हो, बेईमान हो, राजनेता हो, लुच्चा-लफंगा, कौन हो क्या पता! और कल जाकर यह किसी की हत्या कर दे, तो फिर तुम भी पाप के भागीदार होओगे। न तुम पिलाते पानी, न यह बचता, न हत्या होती। तो तुम श्रृंखला के हिस्से हो गए। सावधान! यह कल राजनेता हो जाए! कोई भी हो सकता है।
जब मैं स्कूल में पढ़ता था, तो जो मुझे नागरिक शास्त्र पढ़ाते थे अध्यापक, उनसे मेरा बड़ा विवाद हो गया था। विवाद इस बात पर हो गया था कि वे कहते थे कि स्वतंत्र लोकतंत्र में कोई भी व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री हो सकता है। और मैं उनसे कहता था: यह कैसे हो सकता है कोई भी व्यक्ति? कोई योग्यता चाहिए। कोई भी कैसे हो सकता है? कोई कुशलता चाहिए। फिर वे तो चल बसे। लेकिन जब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री हुए, तो मैंने उनकी चल बसी आत्मा से क्षमा मांगी। मैंने कहा: माफ करो, हे मेरे नागरिक शास्त्र को पढ़ाने वाले शिक्षक! तुम ठीक ही कहते थे। जब मोरारजी देसाई भी हो सकते हैं तो कोई भी हो सकता है। मेरी गलती थी। तुमने ठीक ही कहा था। मेरा विवाद करना उचित न था।
अब क्या पता, इसको पानी पिला दो और कल देश का प्रधानमंत्री हो जाए और फिर हजारों तरह के उपद्रव करे, हजारों तरह के उपद्रव करवाए! सबका पाप किस पर लगेगा?
तो तेरापंथ मानता है कि राह में पड़े हुए प्यासे आदमी को पानी भी मत पिलाना। और एक तरफ ईसाई हैं, वे मानते हैं कि हमेशा डोर और बाल्टी साथ में रखो, कि कहीं कोई प्यासा मिल जाए, जल्दी से कुएं में डालो डोर, निकालो पानी, पिलाओ। सब इंतजाम पास में रखो।
मैंने सुनी है चीन की एक कहानी। एक मेला भरा है। और एक आदमी गिर पड़ा कुएं में। शोरगुल बहुत है। बहुत चिल्लाता है, मगर कोई सुनता नहीं। तब एक बौद्ध भिक्षु उसके पास आकर रुका। उसने नीचे नजर डाली। वह आदमी चिल्लाया कि बचाओ महाराज! हे भिक्षु महाराज, मुझे बचाओ! मैं मरा जा रहा हूं।
भिक्षु ने कहा: भगवान ने कहा है कि जीवन तो जरा है, मरण है। मरना तो होगा ही। मरना तो सभी को है। यहां जो भी आए, सभी को मरना है।
उस आदमी ने कहा: वह सब ठीक है, मगर अभी, अभी फिलहाल तो निकालो! फिर जब मरना है तब मरेंगे।
मगर बौद्ध भिक्षु भी ज्ञानी था, उसने कहा कि क्या समय से भेद पड़ता है, आज मरे कि कल मरे! अरे जब मरना ही है तो मर ही जाओ। और यह जीवन की आशा छोड़ कर मरोगे, तो फिर पुनर्जन्म नहीं होगा। और यह जीवन की आशा लेकर मरे, फिर सड़ोगे। चौरासी का चक्कर है!
वह आदमी वैसे ही तो मरा जा रहा है, उसको और चौरासी का चक्कर! बौद्ध भिक्षु तो आगे बढ़ गया। ज्ञान की बात कह दी, मतलब की बात कह दी; सुनो सुनो, समझो समझो, न समझो न समझो।
उसके पीछे एक कनफ्यूशियन भिक्षु आकर रुका। उसने भी देखा नीचे। वह आदमी चिल्लाया कि महाराज, तुम बचाओ!
कनफ्यूशियस को मानने वाले ने कहा: घबड़ा मत! कनफ्यूशियस ने अपनी किताब में लिखा है कि हर कुएं पर पाट होनी चाहिए, आज यह प्रमाण हो गया। इस कुएं पर पाट नहीं है, इसलिए तू गिरा। अगर पाट होती, कभी न गिरता। हम सारे देश में आंदोलन चलाएंगे कि हर कुएं पर पाट होनी चाहिए।
उसने कहा: यह सब तुम करना पीछे। मैं मर जाऊंगा। और अब पाट भी बन जाएगी तो क्या होगा? मैं तो गिर ही चुका हूं।
उसने कहा: तू तो फिकर मत कर; यह सवाल व्यक्तियों का नहीं है। व्यक्ति तो आते रहते हैं, जाते रहते हैं; सवाल समाज का है।
वह गया और मंच पर खड़ा हो गया और मेले में लोगों को समझाने लगा कि भाइयो! हर कुएं पर पाट होनी चाहिए।
तब एक ईसाई पादरी आकर रुका। उसने जल्दी से अपने झोले में से बाल्टी निकाली, रस्सी निकाली। बाल्टी डाली, रस्सी डाली। आदमी को कहा कि पकड़ ले रस्सी, बैठ जा बाल्टी में। खींच लिया उसे बाहर। वह आदमी पैरों पर गिर पड़ा और उसने कहा कि तुम्हीं सच्चे धार्मिक आदमी हो। बौद्ध भिक्षु आया, वह मुझे धम्मपद की गाथाएं सुनाने लगा। कनफ्यूशियसी आया, वह मुझे कहने लगा कि सब कुओं पर पाट बनवा देंगे, तू मत घबड़ा। तेरे बच्चे कभी भी नहीं गिरेंगे। एक तुम्हीं सच्चे, जो तुमने मुझे बचाया। मगर एक बात मेरे मन में उठती है कि एकदम से बाल्टी-रस्सी कहां से ले आए?
उसने कहा: मैं ईसाई हूं। हम सब इंतजाम पहले ही करके चलते हैं। सेवा हमारा धर्म है। और हमारी तुमसे इतनी ही प्रार्थना है, न तो जरूरत है कुओं पर पाट बनाने की, न जरूरत है धम्मपद की गाथाओं को याद करने की। ऐसे ही गिरते रहना, ताकि हम भी बचाएं, हमारे बच्चे भी बचाएं। अपने बच्चों को भी समझा जाना कि गिरते रहना। क्योंकि न तुम गिरोगे, न हम बचाएंगे, तो फिर स्वर्ग कैसे जाएंगे?
यहां सबके अपने हिसाब हैं। यहां किसी को किसी और से प्रयोजन नहीं है। यहां क्या पुण्य, क्या पाप! मेरे हिसाब में एक ही पाप है--मूर्च्छित जीना। ऐसे जीना जैसे तुम शराब पीकर जी रहे हो। और ऐसे ही लोग जी रहे हैं। दरिया कहते हैं: जागे में जागना है। और हम तो जागे में सोए हैं! सोए में तो सोए ही हैं, जागे में सोए हैं। हमें जागे में जागना है और फिर सोए में भी जागना है।
कृष्ण ने कहा है: या निशा सर्वभूतायां तस्यां जागर्ति संयमी। जब सारे लोग सोए होते हैं, तब भी जो वस्तुतः योगी है, ध्यानी है, जागा होता है। गहरी से गहरी नींद में भी उसके ध्यान का दीया नहीं बुझता, उसका ध्यान का दीया जलता रहता है।
तो मैं तुमसे कहता हूं: जागो! होश को सम्हालो! फिर तुम जो भी करोगे, वह ठीक होगा। ठीक करने से होश नहीं सम्हलता; होश सम्हलने से ठीक होता है। गलत छोड़ने से होश नहीं सम्हलता, होश सम्हलने से गलत छूटता है। मैं अपने सारे धर्म को एक ही शब्द में तुमसे कह देना चाहता हूं--वह ध्यान है। और ध्यान का अर्थ--होश, प्रज्ञा, जागरण।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, बुरे कामों के प्रति जागरण से बुरे काम छूट जाते हैं। तो फिर अच्छे काम जैसे प्रेम, भक्ति आदि के भी प्रति जागरण हो तो क्या होता है? कृपया इसे स्पष्ट करें।
रामछवि प्रसाद! जागरण की तीन सीढ़ियां हैं। पहली सीढ़ी--प्राथमिक जागरण--बुरे का अंत हो जाता है और शुभ की बढ़ती होती है। अशुभ विदा होता है, शुभ घना होता है। द्वितीय चरण--शुभ विदा होने गलता है, शून्य घना होता है। और तृतीय चरण--शून्य भी विदा हो जाता है। तब जो सहज...तब जो सहज अवस्था रह जाती है, जो शुद्ध चैतन्य रह जाता है, बोधमात्र, वही बुद्धावस्था है, वही निर्वाण है।
शुरू करो जागना, तो पहले तुम पाओगे--जो गलत है, छूटने लगा। जाग कर सिगरेट पीओ, तुम न पी सकोगे। इसलिए नहीं कि सिगरेट पीना पाप है। सिगरेट पीने में क्या पाप हो सकता है? कोई आदमी धुआं बाहर ले जाता है, भीतर ले आता है; बाहर ले जाता है, भीतर ले आता है। इसमें क्या पाप है? किसी का क्या बिगाड़ रहा है? सिगरेट पीने में पाप नहीं है। बुद्धूपन जरूर है, मगर पाप नहीं है। मूढ़ता जरूर है, लेकिन पाप नहीं है। मूढ़ता इसलिए है कि शुद्ध हवा ले जा सकता था और प्राणायाम कर लेता। प्राणायाम ही कर रहा है। लेकिन नाहक हवा को गंदी करके कर रहा है। धूम्रपान एक तरह का मूढ़तापूर्ण प्राणायाम है। योग साध रहे हैं, मगर वह भी खराब करके। शुद्ध पानी था, उसमें पहले कीचड़ मिला ली, फिर उसको पी गए। अगर तुम जरा होशपूर्वक सिगरेट पीओगे, सिगरेट पीना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि तुम्हें मूढ़ता दिखाई पड़ेगी। इतनी प्रकटता से दिखाई पड़ेगी कि हाथ की सिगरेट हाथ में रह जाएगी।
पहले ऐसी व्यर्थ की चीजें छूटनी शुरू होंगी। फिर धीरे-धीरे, तुम जो गलत करते थे, जरा-जरा सी बात पर क्रुद्ध हो जाते थे, नाराज हो जाते थे, वह छूटना शुरू हो जाएगा। क्योंकि बुद्ध ने कहा है: किसी दूसरे की भूल पर तुम्हारा क्रुद्ध होना ऐसे ही है जैसे किसी दूसरे की भूल पर अपने को दंड देना। जब जरा बोध जगेगा तो तुम यह देखोगे कि गाली तो उसने दी और मैं भुनभुनाया जा रहा हूं! और मैं जला जा रहा हूं! और मैं विदग्ध हुआ जा रहा हूं! यह तो पागलपन है! गाली जिसने दी, वह भोगे। न मैंने दी, न मैंने ली।
जैसे ही तुम जागोगे, गाली का लेना-देना बंद हो गया। अब तुम्हारे भीतर क्रोध नहीं उठेगा, दया उठेगी, क्षमा-भाव उठेगा--बेचारा! अभी भी गाली देने में पड़ा है। वे ही शब्द जो गीत बन सकते थे, अभी गाली बन रहे हैं। वही जीवन-ऊर्जा जो कमल बन सकती थी, अभी कीचड़ है।
तो पहले तो बुरा छूटना शुरू हो जाएगा। और जैसे-जैसे ही बुरा छूटेगा, तो जो ऊर्जा बुरे में नियोजित थी, वह भले में संलग्न होने लगेगी। गाली छूटेगी तो गीत जन्मेगा। क्रोध छूटेगा, करुणा पैदा होगी। यह पहला चरण है। घृणा छूटेगी, प्रेम बढ़ेगा।
फिर दूसरा चरण--भले की भी समाप्ति होने लगेगी। क्योंकि प्रेम भी बिना घृणा के नहीं जी सकता। वह घृणा का ही दूसरा पहलू है। इसीलिए तो कभी भी तुम चाहो तो घृणा प्रेम बन सकती है और प्रेम घृणा बन सकता है। क्रोध करुणा बन सकती है, करुणा क्रोध बन सकता है, वह परिवर्तनीय है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
तो पहले बुरा गया, एक सिक्के का पहलू विदा हुआ; फिर दूसरा पहलू भी विदा हो जाएगा, फिर भला भी विदा हो जाएगा। और शून्य की बढ़ती होगी। तुम्हारे भीतर शांति की बढ़ती होगी। न शुभ, न अशुभ। तुम निर्विषय होने लगोगे, निर्विकार होने लगोगे।
और तीसरे चरण में, अंतिम चरण में, यह भी बोध न रह जाएगा कि मैं शून्य हो गया हूं। क्योंकि जब तक यह बोध है कि मैं शून्य हूं, तब तक एक विचार अभी शेष है--मैं शून्य हूं, यह विचार शेष है। यह विचार भी जाना चाहिए। यह भी चला जाएगा। तब तुम रह गए निर्विचार, निर्विकल्प। उसको ही पतंजलि ने कहा है निर्बीज समाधि; बुद्ध ने कहा है निर्वाण; महावीर ने कहा है कैवल्य की अवस्था। जो नाम तुम्हें प्रीतिकर हो, वह नाम तुम दे सकते हो।
अंतिम प्रश्न:
भगवान, प्रभु-मिलन में वस्तुतः क्या होता है? पूछते डरता हूं, पर जिज्ञासा बिना पूछे मानती भी नहीं। भूल हो तो क्षमा करें!
रामदुलारे! भूल जरा भी नहीं है। जिज्ञासा स्वाभाविक है। जिसे खोजने चले हैं, उसे खोज कर क्या होगा? जिसकी तलाश पर निकले हैं, उसे मिलने से क्या होगा? यह सहज भाव है मन में उठने वाला। जब कमल खिलेंगे तो कैसी सुवास होगी? कैसा रंग होगा? कैसा रूप होगा?
अमी झरत, बिगसत कंवल!
जब अमृत बरसेगा, नहा-नहा जाएंगे, तो कैसी अनुभूति होगी? कैसी गदगद अवस्था होगी? यह जिज्ञासा बिलकुल स्वाभाविक है। नहीं कोई भूल है।
फिर भी इस जिज्ञासा को शांत करने का कोई उपाय नहीं है। बिना अनुभव के यह शांत नहीं होगी। मैं कितना ही कुछ कहूं, वह तो गूंगे का गुड़ है--जिसे होता है, बस वही जानता है। हां, तुम्हें खूब तड़पा सकता हूं। तुम्हें खूब प्यासा कर सकता हूं। मगर यह नहीं कह सकता कि जब तुम सरोवर पर पहुंच जाओगे और अंजुलि भर-भर कर पीओगे, तो जो तृप्ति होगी वह कैसी होती है!
वह तृप्ति हुई मुझे। वह तृप्ति तुम्हें भी हो सकती है। मगर उस तृप्ति को शब्दों में प्रकट करने का कोई उपाय नहीं है। तुम्हारी जिज्ञासा ठीक। जरा भी भूल नहीं। क्षमा मांगने का कोई कारण नहीं। लेकिन मेरी असमर्थता भी समझो, मेरी विवशता भी समझो। और वह मेरी ही असमर्थता नहीं है, समस्त बुद्धों की है। कौन उसे आज तक कह पाया कि प्रभु-मिलन में वस्तुतः क्या होता है? और जो भी कहा गया है, वह बहुत दूर पड़ जाता है, बहुत ओछा पड़ जाता है। जो भी कहो, छोटा पड़ जाता है। मुट्ठी में आसमान को बांधो, तो कैसे बांधो? साधारण से कामचलाऊ शब्दों में निःशब्द को कैसे प्रकट करो? बहुत कठिनाई है। असंभावना है।
लपटों का अंशुक ओढ़ यामिनी आई।
धुन कर तारे कर लिए तूल से झीने,
फिर बुने तार सितश्याम चांदनी भीने,
चंदन बूंदों से सजा सुरमई चूनर,
पिघली ज्वाला के रंगों में रंगवाई।
घन अगरू धूमलेखा से लहरे कुंतल,
उजली चितवन में उड़े बलाकों के दल,
सांसों में वासित रह-रह सिहर-सिहर कर,
सरसर बहती है आभा की पुरवाई।
आंधियां पीत पल्लव सी झर बिछ जातीं,
तम की हिलोर संदेश दिवस का लातीं,
पिस गईं बिजलियां पथ में रथ चक्रों से,
उड़-उड़ कर पीली रेणु क्षितिज पर छाई।
नभ का कदंब दीपक-फूलों में फूला,
दुख का विहंग भू के नीड़ों को भूला,
आतप तन दिन की सप्तरंगिणी छाया,
निशि बन, कण-कण-प्राणों में आज समाई।
जल उठे नयन में स्वप्न, भाल पर श्रम-कण,
दीपित प्रभात की सुधि में जलता है मन,
जीवन मेरा निष्कंप शिखा दीपक की,
लौ से मिल लौ ने अब असीमता पाई।
लपटों का ओढ़ दुकूल निशा मुस्काई।
इतना ही कहा जा सकता है--
जीवन मेरा निष्कंप शिखा दीपक की,
लौ से मिल लौ ने अब असीमता पाई।
बूंद सागर में मिल जाती है और असीम हो जाती है। छोटी सी लौ अनंत रोशनी में एक हो जाती है। लहर सागर हो जाती है। सीमा टूटती है, असीम प्रकट होता है। मृत्यु मिटती है, अमृत का अनुभव होता है। खूब रंग बरसता है। खूब फाग खेली जाती है--ऐसे रंगों की जो मिटते नहीं। खूब गुलाल उड़ती है--ऐसी गुलाल जो न देखी, जो न सुनी--जो इस जगत की नहीं है!
पिचकारी ने खिला दिया है
नई प्रीति का रंग
कि फागुन के दिन आए रे!
किसने मला गुलाल
लाल गोरी के सारे अंग
कि फागुन के दिन आए रे!
ताल दे रही मन की धड़कन
ठुमक रहे हैं पांव
झूम रहा है सारा मौसम
नाच रहा है गांव,
घुंघरू, कंगन, ढोल-मंजीरे
बजने लगा मृदंग
कि फागुन के दिन आए रे!
हाव-भाव चलने-फिरने के
बदल गए सब ढंग
कि फागुन के दिन आए रे!
उड़ा अबीर, कबीर गूंजता
हाल हुआ बेहाल
सरसों सी पीली चूनर
यौवन टेसू सा लाल,
गंध भरी सांसें, जीवन में--
उठती नई उमंग
कि फागुन के दिन आए रे!
यादों के उन्मुक्त गगन में
उड़ता हृदय विहंग
कि फागुन के दिन आए रे!
एक अंतर-जगत की फाग! एक अंतर-जगत में रंगों का विस्फोट!
अमी झरत, बिगसत कंवल!
आज इतना ही।