DARIYADAS

AMI JHARAT BIGSAT KANWAL 12

Twelth Discourse from the series of 14 discourses - AMI JHARAT BIGSAT KANWAL by Osho. These discourses were given during MAR 11 -24 1979.
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पहला प्रश्न:
भगवान, मेरे आंसू स्वीकार करें! जा रही हूं आपकी नगरी से। कैसे जा रही हूं, आप ही जान सकते हैं। मेरे जीवन में दुख ही दुख था। कब और कैसे क्या हो गया, जो मैं सोच भी नहीं सकती थी; अंदर-बाहर खुशी के फव्वारे फूट रहे हैं! आपने मेरी झोली अपनी खुशियों से भर दी है। मगर हृदय में गहन उदासी है और जाने का सोच कर तो सांस रुकने लगती है। आप हर पल मेरे रोम-रोम में समाए हुए हैं। मुझे बल दें कि जब तक आपका बुलावा नहीं आता, मैं आपसे दूर रह सकूं।
प्रेम शक्ति! मनुष्य का स्वयं से जुड़ जाना--और बस सुख के फव्वारे फूटने शुरू हो जाते हैं! मनुष्य का स्वयं से टूटे रहना--और जीवन विषाद है, दुख है, नरक है। सुख बाहर से नहीं आता।
मैंने तेरी झोली सुखों से नहीं भर दी है; तेरी झोली सदा से ही सुखों से भरी रही है। सुख हमारा स्वभाव है। पर नजर नहीं जाती! लोक-लोक में भटकती है दृष्टि, अपने पर नहीं जाती। और सबको हम देखते हैं, अपने को बिना देखे रह जाते हैं। सब जगह खोजते हैं, हर कोने-कातर में तलाशते हैं--बस एक अपने अंतस्तल में नहीं खोजते।
मैंने तेरी झोली खुशियों से नहीं भर दी है; सिर्फ तेरी आंखें तेरी भरी हुई झोली की तरफ मोड़ दी हैं! एक झलक मिल जाए कि फिर सारा अस्तित्व एक महोत्सव है।
और बड़ी आश्चर्य की बात तो यह है कि प्रत्येक व्यक्ति का यह स्वरूप-सिद्ध अधिकार है! तुम पैदा हुए हो आनंद के एक गीत होने को! तुम्हारी वीणा तैयार है कि छेड़ो और संगीत जन्मे। मगर वीणा पड़ी रह जाती है, संगीत पैदा नहीं होता। भीतर आंख नहीं जाती। गीत बीज ही रह जाते हैं, कभी फूल नहीं बन पाते। सारी पृथ्वी दुख में है। जैसे दुख में तू थी प्रेम शक्ति, वैसे दुख में सारे लोग हैं। और दुख अस्वाभाविक है। दुख अप्राकृतिक है। दुख होना नहीं चाहिए--और है। सुख होना चाहिए--और नहीं है। ऐसी विडंबना है।
लेकिन स्वभावतः, जब पहली दफे अपने भीतर सुख के फव्वारे फूटते हैं तो हमें भरोसा ही नहीं आता कि ये हमारे ही भीतर फूट रहे हैं! इसलिए हम सदा सोचते हैं: कहीं और से यह जलधार आई है। मेरे पास तू है तो स्वभावतः जब तेरा स्वभाव अंगड़ाई लेगा और जब तेरे भीतर पड़ी हुई प्रसुप्त संभावनाएं वास्तविक बनेंगी, तो नजर मुझ पर जाएगी, लगेगा कि मैंने कुछ किया है।
उस भूल में मत पड़ना। क्योंकि अगर कोई दूसरा सुख दे सके तो कोई दूसरा सुख छीन भी ले सकता है। अगर मैंने तेरी झोली भर दी तो कोई तेरी झोली लूट भी ले सकता है। फिर तो हम परवश हो गए।
सदगुरुओं ने सदा यही कहा है: न तो सुख दिया जा सकता है, न लिया जा सकता है। चोर चुरा नहीं सकते, लुटेरे लूट नहीं सकते। मृत्यु भी नहीं छीन सकती, लुटेरों की तो बात ही क्या है!
लेकिन तेरा भाव ठीक है, तेरा भाव प्रीतिपूर्ण है। तू दुख ही दुख में जीयी है, तेरे दुख का मुझे पता है। पहली बार जब तू आई थी तब की तेरी आंखें और आज की तेरी आंखें, एक ही व्यक्ति की आंखें नहीं हैं। जब तू आई थी तो तेरी आंखें गहन विषाद से दबी थीं, एक अमावस की रात थी तेरी आंखों में। अब पूरा चांद खिला है, चांदनी ही चांदनी है! तुझे भी भरोसा नहीं आता कि इतना रूपांतरण कैसे हो गया?
लेकिन फिर भी मैं तुझे याद दिलाता हूं: मेरे किए रूपांतरण नहीं हुआ है, रूपांतरण तेरे भीतर ही हुआ है। मैं उसका कारण नहीं हूं, निमित्त भला होऊं। निमित्त और कारण का यही फर्क है। निमित्त का अर्थ होता है--बहाना। मेरे बहाने तेरी नजर अपने भीतर चली गई। किसी और बहाने भी जा सकती थी। कारण सुनिश्चित होता है। सौ डिग्री तक पानी को गरम करोगे तो ही भाप बनेगा; यह कारण है। किसी और तरह से भाप नहीं बन सकता। यह निमित्त नहीं है, यह कारण है। लेकिन सुबह उगते सूरज को देख कर भी भीतर सूरज उग सकता है। झील में खिले कमल को खुलते देख कर तेरे भीतर का कमल भी खुल सकता है। रात तारों से भरी हो और तेरे भीतर का आकाश भी तारों से भर सकता है।
नानक के जीवन में ऐसा हुआ। रात है और दूर जंगल में पपीहा पी-कहां, पी-कहां, पी-कहां की पुकार लगा रहा है। और बस चोट पड़ गई! पपीहा सदगुरु हो गया। पपीहा ने भर दी झोली नानक की सुखों से। चोट पड़ गई: पी-कहां! याद आ गई, अपने पिया की याद आ गई! अपने पिया के गांव की याद आ गई। पुकारने लगे: पी-कहां! मां ने समझा कि पागल हो गए हैं। आकर कहा, लेकिन आनंद के आंसू बह रहे हैं और एक ही रट लगी है: पी-कहां! और मां ने कहा: अब सो भी जाओ, थोड़ा विश्राम कर लो! यह क्या लगा रखा है?
तो नानक ने कहा: जब तक पपीहा चुप न हो, तब तक मैं कैसे चुप हो जाऊं? पपीहा भी अभी पुकारे जा रहा है। और उसका पिया तो शायद बहुत दूर भी न होगा। और मेरे पिया का गांव तो कहां है, मुझे पता नहीं; शायद जिंदगी भर मुझे पुकारना होगा।
तो पपीहा से भी झोली भर गई। निमित्त! निमित्त कुछ भी हो सकता है।
नानक के जीवन में दूसरा निमित्त भी है। एक नवाब के घर नौकरी लगा दी बाप ने। ये ज्यादा साधु-सत्संग करते, इसको बचाने की जरूरत थी, बिगड़ न जाए। और बिगड़ने के सब आसार थे। सब तरह से बचाने की कोशिश की। पहले धंधे में लगाया। भेजा कि जा पास के शहर से कंबल खरीद ला, सर्दी के दिन आते हैं, अच्छी बिक्री हो जाएगी, कुछ लाभ हो जाएगा। अब तू जवान हो गया है, अब कुछ कर। यह राम को लिए बैठा कब तक...क्या होने वाला है? और खयाल रखना, कमाई करनी है! कमाई पर ध्यान रहे। कंबल खरीदने हैं और कमाई करनी है। और नानक नाचते हुए वापस लौटे। कंबल तो एक भी न था। पिता ने पूछा: कंबलों का क्या हुआ?
कहा: कमाई करके लौटा हूं।
तो रुपये कहां हैं?
तो नानक ने कहा: रुपये! रास्ते में देखा फकीरों का एक झुंड, वृक्षों के नीचे ठहरा था। सर्द रात! बांट दिए कंबल। मैंने कहा कि इससे बड़ी कमाई और क्या होगी! पुण्य लेकर लौटा हूं, पुण्य ही तो कमाई है न! पुण्य ही तो असली संपदा है न!
ऐसे बेटे से परेशान हो गए होंगे, तो नवाब के घर लगा दिया एक नौकरी पर। नौकरी भी ऐसी जिसमें ज्यादा कुछ उपद्रव नहीं। कुछ पैसे का लेन-देन भी नहीं। सैनिकों के लिए रोज अनाज तौल कर दे देना है। बस वही एक दिन निमित्त हो गया, प्रेम शक्ति! कारण तो इसको नहीं कह सकते।
खयाल रखना, कारण और निमित्त का भेद तुम्हें समझा रहा हूं। तौल रहे थे एक दिन, रोज तौलते थे; रोज नहीं हुआ, उस दिन हो गया। अगर कारण होता तो रोज होता। पानी तो रोज तुम गरम करो सौ डिग्री तक तो भाप बनेगा; ऐसा नहीं कि कभी बने, कभी न बने; कभी मौज तो बने, कभी मौज नहीं तो न बने; कभी कहे कि रहने दो, आज बनना ही नहीं भाप।
निमित्त हो तो स्वतंत्रता होती है। कारण में कोई स्वतंत्रता नहीं है, कारण में बंधन है। कारण बिलकुल जड़ है।
तौल रहे थे एक सैनिक को आटा। तौला, तराजू में डाला--एक, दो, पांच, छह, दस, ग्यारह, बारह...और जब तेरह पर आए तो हिंदी में तो तेरह है, पंजाबी में तेरा। तो बस जैसे ही ‘तेरा’ कहा कि परमात्मा की याद आ गई--पी-कहां! फिर भूल ही गए, फिर धुन बंध गई। इसको कहते हैं भजन! इसको कहते हैं भजन!! धुन बंध गई--तेरा! तेरा!! तौलते गए, चौदह आए ही न। तौलते ही जाएं--तेरा! तेरा!! सैनिक भी थोड़ा चौंका। और लोग भी खड़े थे, वे भी चौंके। उन्होंने नवाब को खबर दी कि वह आदमी पागल हो गया है। वह तौले जा रहा है, न मालूम सबको दिए जा रहा है और कह रहा है--तेरा!
नवाब ने पूछा कि क्या हुआ? लेकिन देखा, नवाब को यह देख कर भी लगा कि इस आदमी को पागल कहना ठीक नहीं। और अगर यह पागलपन है तो शुभ है। आंखों से आंसुओं की धार बह रही है। आनंदमग्न नानक! और नवाब से भी कहने लगे कि आज घट गई घड़ी, जिसकी प्रतीक्षा थी! आज उसकी याद आ गई तौलते-तौलते!
यह निमित्त है। रोज तौलते थे, नहीं हुआ। आज कोई भाव-दशा ऐसी तरंग में थी कि हो गया।
प्रेम शक्ति, तू भी सुन रही है यहां, और भी लोग सुन रहे हैं; बहुतों की झोली भर गई, बहुतों की नहीं भरी। और मैं तो एक सा ही उंडेल रहा हूं। यह निमित्त है, कारण नहीं। अगर कारण हो, तो जो यहां आए, उसकी झोली भर जानी चाहिए; जो यहां आए, आनंदमग्न हो जाना चाहिए। जरूरी नहीं है। कुछ तो खिन्न होकर लौटते हैं, कोई नाराज होकर लौटते हैं, कोई दुश्मन होकर लौटते हैं। तेरी झोली फूलों से भर गई, कमलों से भर गई। मैंने नहीं भरी है; सिर्फ निमित्त हूं। ‘पी-कहां’ की मैंने आवाज दी और तूने सुन ली। ‘तेरा’ की संख्या आई और तेरे भीतर सोई हुई कोई स्मृति जग गई जन्मों-जन्मों की।
तूने पूछा है: ‘मेरे आंसू स्वीकार करें।’
स्वीकार हैं तेरे आंसू, क्योंकि वे आंसू दुख के नहीं हैं, आनंद के हैं। क्योंकि वे आंसू संताप के नहीं हैं, संतोष के हैं। क्योंकि वे आंसू परम तृप्ति के हैं। और इस जगत में जब आंसू तृप्ति के होते हैं, आनंद के होते हैं, अहोभाव के होते हैं, तो उनसे सुंदर कोई फूल नहीं होते। अमी झरत, बिगसत कंवल! उन आंसुओं में अमृत भी झरता है और कमल भी विकसित होते हैं।
इस जगत में आंसू से सुंदर कुछ भी नहीं है, अगर वह आनंद में डूबा हुआ हो। आंसू इस जगत की सबसे बड़ी कविता है, महाकाव्य है! सबसे बड़ा संगीत है! सबसे बड़ी प्रार्थना है, अर्चना है, पूजा है। सब पूजा के थाल दो कौड़ी के हैं। जिसके थाल में आंसू हैं आनंद के, उसकी अर्चना पहुंचेगी। पहुंच गई! चलने के पहले पहुंच गई! बोले नहीं कि पहुंच गई! पाती लिखी नहीं कि पहुंच गई!
तू कह रही है: ‘जा रही हूं आपकी नगरी से।’
अब जाना नहीं हो सकता, क्योंकि मेरी नगरी कोई स्थान में आबद्ध नहीं है। मेरी नगरी तो प्रेम-नगरी का ही दूसरा नाम है। प्रेम का कोई संबंध स्थान से नहीं है, काल से नहीं है। तू जहां रहेगी, मेरी नगरी में रहेगी।
और मैं चाहता हूं कि लोग जाएं दूर-दूर, ताकि मेरी नगरी फैले। ले जाओ प्रेम का यह रंग, उंडेलो! ले जाओ आनंद की यह गुलाल, उड़ाओ!
तुझे नाम भी मैंने दिया है--प्रेम शक्ति! क्योंकि मेरे लिए प्रेम से बड़ी कोई और शक्ति नहीं है। प्रेम परमात्मा है। बांटो! जब तुम्हारी झोली भर जाए तो बांटना सीखो। क्योंकि जितना तुम बांटोगे, उतनी झोली भरती जाएगी। यह जीवन का अंतस का गणित बड़ा अनूठा है। बाहर की दुनिया में, बाहर के अर्थशास्त्र में, तुम अगर बांटोगे तो आज नहीं कल दीन-दरिद्र हो जाओगे।
मुल्ला नसरुद्दीन ने एक भिखारी को किसी धुन में आकर पांच रुपये का नोट दे दिया। मस्ती में था। लाटरी हाथ लग गई थी। आज दिल देने का था। भिखमंगे को भी भरोसा नहीं आया। उसने भी उलट-पुलट कर नोट देखा कि असली है कि नकली! फिर मुल्ला नसरुद्दीन की तरफ देखा। नसरुद्दीन ने भी उसे गौर से देखा। आदमी भला मालूम पड़ता है, चेहरे से सुशिक्षित भी मालूम पड़ता है, संस्कारी मालूम पड़ता है, कुलीन मालूम पड़ता है; कपड़े भी यद्यपि फटे हैं, पुराने हैं, मगर कभी कीमती रहे होंगे। पूछा: यह तेरी हालत कैसे हुई?
वह भिखमंगा हंसने लगा। उसने कहा: यही हालत आपकी हो जाएगी। ऐसे ही मैं बांटता था। बाप तो बहुत छोड़ गए थे, मगर मैंने लुटा दिया। आप भी अब ज्यादा दिन फिकर न करो। और जब यह हालत हो जाए तो मेरे झोपड़े में आ जाना; वहां जगह काफी है। ऐसे ही बांटते रहे तो ज्यादा देर नहीं है, यह हालत आ जाएगी आपकी भी।
बाहर की दुनिया में अगर बांटोगे तो घटता है। भीतर की दुनिया में नियम उलटा है: रोकोगे तो घटता है; बांटोगे तो बढ़ता है।
अध्यात्म का अर्थशास्त्र और है, गणित और है। तुम्हारे भीतर प्रेम उठे तो द्वार-दरवाजे बंद करके उसे भीतर छिपा मत लेना, अन्यथा सड़ जाएगा; अन्यथा जहरीला हो जाएगा, विषाक्त हो जाएगा। झरने बहते रहें तो स्वच्छ रहते हैं, ताजे रहते हैं। प्रेम उठे, बांटना! और बांटते समय शर्तें मत लगाना, क्योंकि शर्तें बांटने में बाधा बनती हैं। आनंद उठे, लुटाना! दोनों हाथ उलीचिए! फिर यह भी फिकर मत देखना कि कौन पात्र है, कौन अपात्र है। यह तो कंजूस देखते हैं पात्र और अपात्र।
मेरे पास लोग आ जाते हैं और पूछते हैं: न आप पात्र देखते, न अपात्र, आप किसी को भी संन्यास दे देते हैं!
मैं कहता हूं: मैं लुटा रहा हूं! पात्र-अपात्र...मैं कोई कंजूस हूं? इसको देंगे, उसको देंगे, इसको नहीं देंगे; यह आदमी ऐसा सुबह पांच बजे उठता है कि नहीं, तो देंगे; ब्रह्ममुहूर्त में उठता है तो देंगे। क्या बकवास लगा रखी है? सात बजे उठेगा तो संन्यासी नहीं हो सकता? दिन भर भी सोया रहे तो भी संन्यासी हो सकता है। निशाचर हो तो भी चलेगा। क्योंकि संन्यास का क्या संबंध कब सोकर उठे, कब नहीं उठे? संन्यास का तो कुछ आंतरिक भाव-दशा से संबंध है। जो जागे में भी जागा रहे!
दरिया ने कहा न--जागे में जो जागे! सोए में तो जागेगा ही--जागे में जो जागे!
जागता ही रहे। चौबीस घंटे जिसके भीतर जागरण का सिलसिला हो जाए। फिर कब उठता है, कब नहीं उठता, क्या फर्क पड़ता है? उसके लिए सभी मुहूर्त ब्रह्ममुहूर्त हैं, क्योंकि ब्रह्म से जुड़ा है, और कोई मुहूर्त हो ही नहीं सकते।
तो मैं पात्र-अपात्र नहीं देखता। पात्र-अपात्र कंजूस देखते हैं। आनंद जब फलता है, कौन पात्र-अपात्र देखता है! बादल जब घिरते हैं तो पापियों के घर पर भी उतने ही बरसते हैं जितने पुण्यात्माओं के घर पर। और फूल जब खिलते हैं तो एक-एक नासापुट की परीक्षा नहीं करते--कि पापी का है कि पुण्यात्मा का! कि किसके नासापुट तक सुगंध को भेजें और किसके नासापुट तक जाती-जाती सुगंध को वापस लौटा लें! और जब दीया जलता है तो रोशनी सबको मिलती है, बेशर्त!
तेरी झोली भरी, प्रेम शक्ति, बांटना! लुटाना! बेशर्त बांटना! और चकित होकर तू पाएगी, अवाक तू रह जाएगी कि जितना बांटा जाता है, उतना बढ़ता है। इधर तुम बांटो, उधर भीतर के अनंत स्रोत बहने शुरू हो जाते हैं। कुएं और हौज का यही फर्क है। हौज में से कुछ निकालोगे तो हौज खाली हो जाती है। कुएं में से कुछ निकालोगे तो कुआं नया हो जाता है, खाली नहीं; नई जलधार बह रही है! पांडित्य हौज जैसा है, प्रज्ञा कुएं जैसी है। तेरे भीतर प्रज्ञा का जन्म हो रहा है, बोध का जन्म हो रहा है, ध्यान की पहली हवाएं आने लगी हैं, वसंत के पहले-पहले फूल खिल गए हैं। सूचक हैं, बड़े सूचक हैं! बांटो! जितना बांट सको, उतना कम है।
और मेरी नगरी से जाने का कोई उपाय नहीं है। मेरी नगरी तो हृदय की नगरी है। प्रेम शक्ति, तू उसमें सम्मिलित हो गई है, उसका अंग हो गई है, भाग हो गई है, उसमें लीन हो गई है। अब टूटने का कोई उपाय नहीं है, टूटना असंभव है। प्रेम कभी टूटता है? जो टूट जाए, जानना कि प्रेम ही न था; कुछ और रहा होगा, तुमने प्रेम समझ लिया होगा। वह भ्रांति थी। प्रेम कभी टूटता नहीं। और प्रेम जब आनंद से जुड़ जाता है, तब तो कोई टूटने की संभावना ही नहीं है।
तू कहती है: ‘आपकी नगरी से जा रही हूं। कैसे जा रही हूं, आप ही जान सकते हैं।’
यह सच है। दूर जाना रोज-रोज संन्यासियों को कठिन होता जाता है, रोज-रोज कठिन होता जाता है। इसलिए जल्दी व्यवस्था कर रहा हूं कि जो यहां सदा ही रह जाना चाहें, वे सदा ही यहां रह जाएं। और तेरे लिए तो पहले से ही इंतजाम किया हुआ है। जैसे ही नया कम्यून बनेगा, जो लोग सबसे पहले प्रवेश करेंगे, उनमें तू भी होने वाली है। तू चुन ली गई है।
तूने लिखा: ‘आपने मेरी झोली अपनी खुशियों से भर दी। अंदर-बाहर खुशी के फव्वारे फूट रहे हैं। मगर हृदय में गहन उदासी है और जाने का सोच कर तो सांस रुकने लगती है।’
स्वाभाविक है। जो मुझसे जुड़ेंगे, उनकी सांसें मेरी सांसों से जुड़ गईं। मुझसे दूर होना पीड़ादायी होगा। लेकिन सम्हालना। इस पीड़ा में डूबना नहीं। इस पीड़ा को चुनौती समझना। इस पीड़ा को भी विकास का एक आधार बनाना, एक सीढ़ी बनाना।
मेरे जीवन का दर्द न गाएगा
चाहे जितना भी मन घबड़ाएगा
मुझको कुछ ध्यान तुम्हारा भी तो है

वैसे तो घायल दिल कुछ गाता ही
दुनिया को अपना दर्द सुनाता ही
पर फूट न पाएंगे अब स्वर मेरे
मर्यादा ने सी दिए अधर मेरे
अधरों पर कोई गीत न आएगा
जो तुम्हें दूर से पास बुलाएगा
संयम का मुझे सहारा भी तो है

मुझको दीवाना किया बहारों ने
अहसान किया है मुझ पर तारों ने
जिसकी मुझको हर बात सुहाती है
चांदनी गीत मुझ पर बरसाती है
तुम कहां चांद के पास न जाऊंगा
अंधियारे में चुप हो सो जाऊंगा
मुझ पर अहसान तुम्हारा भी तो है

चांदनी सभी को पास बुलाती है
मैं ही क्या सारी दुनिया गाती है
कुछ तो गीतों से मन बहलाते हैं
कुछ घाव समय से खुद भर जाते हैं
बेहोशी है चंदन की छांहों में
है मौन अगर फूलों के गांवों में
जीने के लिए इशारा भी तो है

जो फूलों औ’ भ्रमरों पर छाई है
कांटों ने वह तकदीर बनाई है
पर फूल जिसे भी पास बुलाते हैं
कांटे खुद उनकी राह बनाते हैं
कैसे न सभी अवरोधों पर छाऊं
क्या करूं तुम्हारे द्वार न जो आऊं
तुमने फिर मुझे पुकारा भी तो है
पुकार तुझे दे दी गई है। पुकार तूने सुन भी ली है। आना जल्दी ही हो जाएगा। जल्दी ही एक बुद्ध-क्षेत्र निर्मित होने की तैयारी में लगा है, जहां चाहता हूं कम से कम पांच से लेकर दस हजार संन्यासियों का आवास हो। दस हजार लोग आनंदमग्न हो एक इतनी बड़ी ऊर्जा को पैदा कर सकेंगे, जो सारी पृथ्वी की हवा को बदल दे। अगर एक अणु-विस्फोट हिरोशिमा जैसे बड़े नगर को पांच क्षणों में विनष्ट कर सकता है, एक लाख लोगों को राख कर सकता है, तो दस हजार आत्माओं का आनंद-विस्फोट इस सारी पृथ्वी पर एक नये युग का सूत्रपात हो सकता है।
एक नये मनुष्य को जन्म देना है। तुम सब बड़भागी हो, क्योंकि उस नये मनुष्य को जन्म देने में तुम्हारा हाथ होगा, तुम्हारे हाथ की छाप होगी।
कठिनाइयां तो आएंगी। प्रेम शक्ति, मेरी तरफ से निमंत्रण तो मिल गया है। आना भी तुझे है। आना भी पड़ेगा। आना ही होगा। आए बिना कोई उपाय नहीं है। लेकिन अड़चनें भी होंगी, बाधाएं भी पड़ेंगी। परिवार है, समाज है, संबंधी हैं, सब तरह की बाधाएं होंगी। उन सब बाधाओं को भी बहुत आनंद से स्वीकार करना; वे भी तुम्हारे अंतर-विकास में सहयोगी हैं।
छिप-छिप कर चलती पगडंडी धनखेतों की छांव में।
अनगाए कुछ गीत गूंजते
हैं किरनों के हास में,
अकुलाई सी एक बुलाहट
पुरवा की हर सांस में;
सूनापन है उसे छेड़ता छू आंचल के छोर को,
जलखाते भी बुला रहे हैं बादल वाली नाव में!

अंग-अंग में लचक, उठी ज्यों
तरुणाई की भोर में,
नभ के सपनों की छाया को
आंज नयन की कोर में;
राह बनाती अपनी कुस-कांटों में संख-सिवार में,
कांदों-कीच पड़े रह जाते लिपट-लिपट कर पांव में!

पांतर पार धुंवारी भौंहों
की ज्यों चढ़ी कमान है,
मार रहा यह कौन अहेरी
सधे किरन के बान है?
रोम-रोम ज्यों चुभे तीर, टूटी सीमा मरजाद की,
सुध-बुध खो चल पड़ी अचीन्हे अपने पी के गांव में!

रुनझुन बिछिया झींगुर वाली
किंकिन ज्यों बक-पांत है,
स्वयंवरा बन चली बावरी
क्या दिन है, क्या रात है?
पहरू से कुछ पीली कलंगी वाले प़ेड बबूल के
बरज रहे, री पांव न धरना भोरी कहीं कुठांव में;
अपना ही आंगन क्या कम जो चली पराए गांव में!
बहुत बबूलों जैसे लोग, बबूल के वृक्षों जैसे कांटों भरे लोग रुकावट डालेंगे, बाधा डालेंगे। अज्ञात यात्रा पर निकलते यात्री को सभी भयभीत, डरे हुए लोग रोकना चाहते हैं। उनके भी रोकने के पीछे कारण है। जब कोई एक व्यक्ति भीड़ से छूटता है, भेड़ों की भीड़ से छूटता है और चल पड़ता है किसी अनजानी पगडंडी पर...और मैं एक अनजानी पगडंडी हूं! मेरा निमंत्रण अज्ञात का निमंत्रण है। मैं तुम्हें किसी एक ऐसे लोक में ले चलना चाहता हूं जिसकी तुम्हें कोई भी खबर नहीं है और मैं चाहूं भी तो भी उसका कोई प्रमाण नहीं दे सकता। तुम जाओगे तो ही जानोगे; अनुभव करोगे तो ही पहचानोगे; पीओगे तो ही स्वाद पाओगे। स्वाद के पहले मैं कोई प्रमाण नहीं दे सकता, कोई गारंटी भी नहीं दे सकता। कोई उपाय नहीं है गारंटी देने का।
मेरे साथ चलने के लिए हिम्मत चाहिए, दुस्साहस चाहिए। तो हजार तरह की बातें लोग कहेंगे। लोग समझेंगे पागल। लोग समझेंगे स्वच्छंद। लोग समझेंगे उच्छृंखल। लोग सब तरह की अड़चनें पैदा करेंगे। उन अड़चनों को भी, प्रेम शक्ति, बड़ी प्रीति से, बड़े आनंद से, बड़े अहोभाव से स्वीकार करना। क्योंकि मेरे देखे, राह में पड़ी सारी बाधाएं सीढ़ियां बन सकती हैं, बननी ही चाहिए; वही तो जीवन की कला है।
तूने कहा: ‘आप हर पल मेरे रोम-रोम में समाए हुए हैं। मुझे बल दें कि जब तक आपका बुलावा नहीं आता, मैं आपसे दूर रह सकूं।’
बुलावा तो दे ही दिया गया है। दूर रहने की अब कोई जरूरत भी नहीं है। दूरी अब दूरी मालूम होगी भी नहीं। एक तो निकटता होती है शरीर की। और यह हो सकता है कि तुम किसी के पास बैठे हो, शरीर से लगा है शरीर, और फिर भी हजारों कोस का फासला हो! और यह भी हो सकता है कि हजारों कोस की दूरी हो और फासला जरा भी न हो। जीवन ऐसा ही रहस्य है। यह सीधे-सीधे गणित से हल नहीं होता। हजारों मील की दूरी पर भी प्रेमी पास ही होते हैं और शरीर से शरीर लगाए हुए लोग भी अगर प्रेम में नहीं हैं तो दूर ही होते हैं। प्रेम निकटता है। और वैसे प्रेम का तेरे भीतर जन्म हो गया है। तो दूर, कितने दूर रहेगी? सामीप्य बना ही रहेगा। मैं अब तुझे छाया की तरह घेरे ही रहूंगा। मैं एक गंध की तरह तेरे चारों तरफ मौजूद ही रहूंगा। तेरी श्वास-श्वास में स्मृति उठती रहेगी, सुरति जगती रहेगी। चिंता लेने की कोई भी जरूरत नहीं है।
और ज्यादा देर भी नहीं है। सारी बाधाओं के बावजूद भी संन्यासियों का ग्राम तो बसेगा ही। जल्दी ही बसेगा! क्योंकि वह काम मेरा नहीं है, वह काम परमात्मा का है; उसमें बाधा पड़ नहीं सकती।
और जितनी बाधाएं पड़ेंगी, उतना ही लाभ होगा। शायद जितनी देर हो रही है, वह भी जरूरी है। और तुम पक जाओ। और तुम परिपक्व हो जाओ। लेकिन जिस घड़ी तुम राजी हो, उसी घड़ी नया ग्राम बस जाएगा। और कोई बाधा रुकावट नहीं डाल सकती।
और ऐसा विराट प्रयोग पृथ्वी पर पहले कभी हुआ नहीं है कि दस हजार संन्यासियों ने एक जगह रह कर, एक प्रेम में आबद्ध होकर, संयुक्त प्रार्थना का, ध्यान का स्वर उठाया हो। उसकी जरूरत हो गई है अब। यह पृथ्वी अत्यंत डांवाडोल है। यहां घृणा की शक्तियां तो बहुत प्रबल हैं और प्रेम की शक्ति बहुत क्षीण हो गई है। यहां प्रेम को प्रज्वलित करना है। यहां प्रेम की बुझती-बुझती लौ को उकसाना है, सम्हालना है, मशाल बनानी है। और दस हजार लोग अगर सब भांति समर्पित होकर, अलग-अलग न रह कर एक विराट ऊर्जा का स्तंभ बन जाएं, तो इस पृथ्वी को बचाया जा सकता है, इस पृथ्वी पर नये मनुष्य का सूत्रपात हो सकता है। होना ही चाहिए। मनुष्य बहुत दिन तक अंधेरे में जी लिया, अब रोशनी को लाने का कोई महत आयोजन आवश्यक है।
प्रेम शक्ति, तेरे लिए निमंत्रण है, बुलावा है। तुझे उस महत आयोजन में सम्मिलित होना है। थोड़ी-बहुत देर लगे तो उसे भी आनंद से, गीत गाकर, प्रेम से गुजार लेना। उसे भी स्वागत करके गुजार लेना। विषाद की भाषा ही मेरे संन्यासी छोड़ दें। आनंद की भाषा बोलो। आनंद की भाषा जीओ। विषाद से सारे संबंध तोड़ लो। इस जगत में विषाद-योग्य कुछ भी नहीं है, क्योंकि परमात्मा सब जगह मौजूद है, कण-कण में भरा है, कण-कण में बह रहा है। होना ही इतना बड़ा आनंद है कि किसी और आनंद की आवश्यकता नहीं है। श्वास लेना ही इतना बड़ा आनंद है, किस और आनंद की आकांक्षा करो! अभीप्सा करो!

दूसरा प्रश्न:
भगवान, मैं परमात्मा को पाना चाहता हूं, क्या करना आवश्यक है?
सहजानंद! पहली बात, परमात्मा को पाने की चेष्टा भी अहंकार का हिस्सा है। क्यों पाना चाहते हो परमात्मा को? क्या जरूरत आ पड़ी है? कौन सी अड़चन हो रही है? कुछ लोग धन पाना चाहते हैं, कुछ लोग पद पाना चाहते हैं, तुम परमात्मा पाना चाहते हो! जिनके पास धन है, जिनके पास पद है, उनको भी हराना चाहते हो? उनको भी तुम कहना चाहते हो: अरे तुम क्षुद्र सांसारिक जीव, मैं आध्यात्मिक! मैं छोटी-मोटी चीजों की तलाश नहीं करता, मैं सिर्फ परमात्मा को खोजता हूं!
अहंकार के रास्ते बड़े सूक्ष्म हैं। एक बात खयाल में रखना: जहां चाह है, वहां अहंकार है। परमात्मा को चाहा नहीं जाता, परमात्मा को पाया जरूर जाता है; लेकिन परमात्मा को चाहा नहीं जाता। और परमात्मा को पाने की शर्त यही है कि चाह नहीं होनी चाहिए, कोई चाह नहीं होनी चाहिए--न धन की, न पद की, न परमात्मा की; चाह मात्र नहीं होनी चाहिए। जहां सब चाहें गिर जाती हैं, वहां जो शेष रह जाता है वही परमात्मा है। परमात्मा की चाह में और धन की चाह में कुछ भी भेद नहीं है। जरा भी भेद नहीं है। चाह तो चाह है। चाह का स्वभाव तो एक है। तुमने चाह किस चीज पर लगाई--किसी ने अ पर लगाई, किसी ने ब पर लगाई, किसी ने स पर लगाई--इससे क्या फर्क पड़ेगा? चाह के विषय से चाह के स्वभाव में अंतर नहीं पड़ता। चाह तो चाह ही रहती है। वह तो वासना ही है। वह तो मन का ही खेल है। वह तो अहंकार की ही दौड़ है। वह तो महत्वाकांक्षा है।
परमात्मा जरूर मिलता है, लेकिन उन्हें मिलता है जिनके चित्त में कोई चाह नहीं होती। जहां चाह नहीं, वहां चित्त नहीं। जहां चाह नहीं, वहां तुम नहीं।
जरा सोचो! जरा क्षण भर को ध्याओ। अगर कोई चाह न हो तो तुम बचोगे? एक सन्नाटा रहेगा। एक विराट शून्य तुम्हारे भीतर होगा। एक गहन मौन होगा। लेकिन तुम न होओगे। उसी गहन मौन में, उसी शून्य में परमात्मा का पदार्पण होता है, आविर्भाव होता है। सच तो यह है, वही शून्य पूर्ण है। चाह बाधा डाल रही है। चाह व्याघात डाल रही है।
तुम चाहें तो बदल लेते हो, लेकिन चाह नहीं छोड़ते। सांसारिक चाहों की जगह पारलौकिक चाहें आ जाती हैं। साधारण चाहों की जगह असाधारण चाहें आ जाती हैं। मगर चाहें जारी रहती हैं। और जहां चाह है, वहां बाधा है। जहां चाह है, वहां दीवाल है। अचाह में सेतु है।
तो सहजानंद! पहली बात, परमात्मा को चाहो मत। अगर पाना है तो चाहो मत।
अब दूसरी बात तुमसे कह दूं: मन बहुत चालाक है। मन कहेगा: अच्छा! मन कहेगा: ठीक सहजानंद, अगर पाना है तो चाहो मत! चाह छोड़ दो अगर पाना है!
तो मन यह भी कर सकता है कि चाह छोड़ने में लग जाए, क्योंकि पाना है। मगर यह चाह का नया रूप हुआ। यह पीछे के दरवाजे से चाह आ गई। तुमने बाहर के दरवाजे से विदा किया कि नमस्कार! मेहमान पीछे के दरवाजे से आ गया।
समझना होगा, चाह की विकृति समझनी होगी, ताकि चाह पीछे के दरवाजे से न आ जाए। चाह जब पीछे के दरवाजे से आती है तो और भी खतरनाक हो जाती है, क्योंकि अब की बार वह मुखौटे ओढ़ कर आती है। सामने के दरवाजे पर तो स्थूल होती है; पीछे के दरवाजे पर सूक्ष्म हो जाती है। और चूंकि तुम्हारे पीछे से आती है, पीठ के पीछे छिपी होती है, इसलिए तुम देख भी नहीं पाते। आंख के सामने हो तो दुश्मन बेहतर, कम से कम सामने तो है! दुश्मन पीछे छिपा हो तो तुम बड़े असहाय हो जाते हो। तुम्हारे साधु-संत इसी तरह की चाह से पीड़ित हैं। तुम्हारी चाह सामने खड़ी है, बाजार में खड़ी है; उनकी चाह उनके पीछे छिपी है, पीठ के पीछे छिपी है। उन्हें दिखाई ही नहीं पड़ती। वे लौट कर खड़े भी हो जाएं तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि चाह उनकी पीठ से ही ज़ुड गई है। वे जब भी लौटते हैं, चाह उनकी पीठ के पीछे पहुंच जाती है। चाह उनके सामने कभी आती नहीं, उन्हें कभी दिखाई पड़ती नहीं।
तो दूसरी बात, कहीं चाह को ऐसे मत बचा लेना कि मैंने कहा कि अगर पाना है तो चाह छोड़नी होगी। मैं यह नहीं कह रहा हूं। पाना घटता है जब चाह नहीं होती। छोड़ने को नहीं कह रहा हूं। छोड़ोगे तो तुम तभी जब तुम्हें कोई और बड़ी चाह मिलने को हो, नहीं तो तुम छोड़ोगे कैसे? एक कांटे को निकालना हो तो दूसरे कांटे से निकालते हैं। और यही हालत चाह की है। एक चाह निकालनी है, दूसरी चाह से निकालते हैं। और ध्यान रखना, कमजोर कांटे को निकालना हो तो भी जरा मजबूत कांटा चाहिए। तो पहली चाह को निकालना हो तो और जरा मजबूत चाह चाहिए, जो उसे निकाल बाहर कर दे। मगर दूसरी चाह में फंस गए।
चाह को समझना है। न निकालना है, न त्यागना है--सिर्फ समझना है। चाह का स्वभाव समझना है कि चाह का स्वभाव क्या है? चाह करती क्या है?
चाह कुछ काम करती है। पहली बात: तुम्हें कभी वर्तमान में नहीं जीने देती, हमेशा भविष्य में रखती है--कल! चाह का अस्तित्व कल में है। और कल कभी आता नहीं। इसलिए चाह कभी पूरी होती नहीं। तुम आज हो, चाह कल है। इसलिए चाह तुम्हें अपने साथ ही एक नहीं होने देती, तोड़ कर रखती है, तुम्हें खंडों में बांट देती है।
सत्य अभी है, यहीं है--और चाह तुम्हें कल में अटकाए रखती है। ऐसे तुम सत्य से वंचित रह जाते हो, अस्तित्व से वंचित रह जाते हो, परमात्मा से वंचित रह जाते हो, अपने से वंचित रह जाते हो। द्वार है वर्तमान में और चाह टटोलती है भविष्य में; वहां सिर्फ दीवाल है और दीवाल है।
चाह को समझो। चाह का अर्थ क्या है? चाह का अर्थ यह है कि तुम जैसे हो, उससे संतुष्ट नहीं हो। तुम परमात्मा को क्यों चाहते हो? क्योंकि पत्नी से संतुष्ट नहीं हो, पति से संतुष्ट नहीं हो, बेटे से संतुष्ट नहीं हो, भाई से संतुष्ट नहीं हो। संसार से असंतुष्ट हो, इसलिए परमात्मा को चाहते हो। तुम्हारे परमात्मा की चाह के पीछे सिर्फ तुम्हारा असंतोष छिपा है।
और वहीं भूल हो गई। परमात्मा उन्हें मिलता है जो संतुष्ट हैं। परमात्मा उन्हें मिलता है जिनके जीवन में गहन परितोष है; जो ऐसे परितुष्ट हैं कि परमात्मा न मिले तो भी चलेगा; जो इतने परितुष्ट हैं कि परमात्मा न मिले तो कोई अड़चन नहीं है। उनको परमात्मा मिलता है!
परमात्मा का नियम करीब-करीब वैसा है जैसा बैंक का नियम होता है। अगर तुम्हारे पास रुपये हैं, बैंक रुपये देने को राजी होता है। अगर तुम्हारे पास रुपये नहीं हैं, बैंक मुंह फेर लेता है--कि रास्ता लगो, कहीं और जाओ। जिसकी साख है बाजार में, उसको बैंक रुपये देता है। उसको जरूरत नहीं है रुपये की, इसीलिए रुपये देते हैं। ये बड़े अजीब नियम हैं, मगर यही नियम हैं! जिसको रुपये की कोई जरूरत नहीं है, बैंक उनके पीछे घूमता है। बैंक के मैनेजर खुद आते हैं कि कुछ ले लें, कि कुछ हमारी सेवा ले लें। और जिसको जरूरत है, वह बैंकों के चक्कर लगाता है, उसे कोई देता नहीं।
परमात्मा का नियम भी कुछ ऐसा ही है। तुम अगर संतुष्ट हो, परमात्मा कहता है: ले ही लो मुझे, आ जाने दो मुझे भीतर। तुम्हारे संतोष में अपना घर बनाना चाहता है।
संतोष में ही तुम मंदिर होते हो। और मंदिर का देवता द्वार पर दस्तक देता है, कि आ जाने दो। अब तुम राजी हो गए। अब तुम मंदिर हो, अब मैं आ जाऊं और विराजमान हो जाऊं। सिंहासन बन चुका, अब खाली रखने की कोई जरूरत नहीं है।
लेकिन तुम हो असंतोष की लपटों से भरे हुए। मंदिर तो है ही नहीं; तुम एक चिता हो, जो धू-धू कर जल रही है। परमात्मा आए तो कहां आए?
तुम कहते हो: ‘मैं परमात्मा को पाना चाहता हूं।’
क्यों पाना चाहते हो? जरा कारणों में खोजो। अजीब-अजीब कारण हैं। किसी की पत्नी मर गई, वे परमात्मा की तलाश में लग गए। किसी का दिवाला निकल गया, मूंड़ मुड़ाए भये संन्यासी! अब दिवाला ही निकल गया है तो अब करना भी क्या है दुकान पर रह कर! अब संन्यासी होने का ही मजा ले लो!
लोग जरा कारण तो देखें कि किसलिए परमात्मा को खोजने निकलते हैं! तुमने देखा, जब तुम दुख में होते हो तब परमात्मा की याद करते हो। जब तुम सुख में होते हो, तब? तब बिलकुल भूल जाते हो।
और मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि सुख में पुकारो तो आए; दुख में पुकारो तो नहीं आएगा। क्योंकि दुख की पुकार ही झूठी है। दुख की पुकार सांत्वना के लिए है, सहारे के लिए है। दुख की पुकार में तुम परमात्मा का शोषण कर लेना चाहते हो, उसका उपयोग कर लेना चाहते हो, उसकी सेवा लेना चाहते हो। जब तुम सुख से भरो, तब पुकारो।
मैं अपने संन्यासियों को कहना चाहता हूं: जब तुम आनंदित होओ, तब प्रार्थना करो। दुख को क्या उसके द्वार पर ले जाना! द्वार-दरवाजे बंद करके दुख को रो लेना; क्या परमात्मा के चरणों में चढ़ाना! हां, जब आनंद उठे, मग्न भाव उठे, तो नाचना, तो पहन लेना पैरों में घूंघर, तो देना थाप मृदंग पर! उत्सव में उससे मिलन होगा, क्योंकि उत्सव में ही तुम अपनी पराकाष्ठा पर होते हो। उत्सव के क्षण में ही तुम्हारे भीतर के सारे द्वंद्व चले जाते हैं, तुम निर्द्वंद्व होते हो। उत्सव के क्षण में ही तुम्हारे भीतर दीया जलता है, रोशनी होती है।
और जो उत्सव से भरा है, उससे कौन गले नहीं लगना चाहता! परमात्मा भी उससे गले लगना चाहता है जो उत्सव से भरा है। रोती शक्लों से तुम भी बचते हो, परमात्मा भी बचता है। आखिर उस पर भी कुछ दया करो! उसका भी कुछ ध्यान रखो! और तुम एक ही नहीं हो, जमीन भरी है रोती लंबी शक्लों से, उदास शक्लों से। परमात्मा इनसे बचता है, मैं तुमसे कह देना चाहता हूं! ये जहां पहुंच जाते हैं, परमात्मा वहां से भाग निकलता है।
परमात्मा तो वहां आता है जहां कोई गीत गूंजता है, कहीं नाच होता है, कहीं वीणा के स्वर छेड़े जाते हैं। परमात्मा तो वहां आता है जहां मौज तरंगें लेती है। परमात्मा तो वहां आता है जहां प्रेम हिलोरें लेता है। परमात्मा तो वहां आता है जहां तुम्हारी आत्मा का कमल खिलता है।
परमात्मा अपने से आ जाएगा, तुम चिंता ही न करो। तुम मत परमात्मा को खोजो; मैं तुम्हें एक ऐसी राह बताता हूं कि परमात्मा तुम्हें खोजे। और तब मजा और है। खोज सकता है परमात्मा तुम्हें--तुम शांत होओ, आनंदित होओ, प्रफुल्लित होओ, मस्त होओ। खोजना ही पड़ेगा उसे।
साधना देवत्व की करता रहा मैं,
पर हृदय का शून्य ही भरने न पाया।

नील अंबर के निलय का,
रह गया संधान करता।
प्रश्न के उत्तर न आया,
रह गया अनुमान करता।
कृपणता के कूट से भी,
शिखर तक चढ़ने न पाया।
सामने मंजिल खड़ी थी,
पांव पर बढ़ने न पाया।

अर्चना पुरुषत्व की करता रहा मैं,
किंतु भय का बीज ही मरने न पाया।

खोखले गुंफन में कस कर,
वासना का शव उठाए।
आत्मा की घुटन पीकर,
नैन मेरे छटपटाए।
खो गया निर्वाण पावन,
भटक अंधी सी गली में।
लग गए कुछ कीट काले,
शुद्ध काया की कली में।

कामना अमरत्व की करता रहा मैं,
वासना का वेग ही थिरने न पाया।

चाहता था विश्व सारा,
फूल मुझ पर ही चढ़ाए।
मान कर प्रतिमान मुझको,
प्रेम का चंदन लगाए।
किंतु मन दुर्भावनाओं
में फंसा, अस्तित्व कह कर।
मूढ़ता मेरी स्वयं ही,
छल गई व्यक्तित्व बन कर।

वांछना अखिलत्व की करता रहा मैं,
किंतु सबसे प्यार करना ही न आया।
छोड़ो परमात्मा की फिकर! खोजोगे भी कहां उसे? उसका पता-ठिकाना भी तो नहीं है। उसके रंग-रूप का भी तो कोई निर्णय नहीं है। मिल भी जाए अचानक तो पहचानोगे कैसे? कोई तस्वीर नहीं है उसकी, कोई आकृति नहीं, आकार नहीं उसका, कोई नाम-धाम नहीं उसका। कहां जाओगे? कैसे तलाशोगे? किससे पूछोगे? है तो सभी जगह है, तो फिर खोजने की कोई जरूरत नहीं है। और नहीं है तो कहीं भी नहीं है, तो फिर भी खोजने की कोई जरूरत नहीं है। खोजने का कोई सवाल ही नहीं है।
खोज छोड़ो। खोज में दौड़ है। दौड़ में तनाव है। खोज में मन है। मन में अहंकार है। खोज छोड़ो।
ध्यान का इतना ही अर्थ है कि घड़ी दो घड़ी रोज सब खोज छोड़ कर चुपचाप बैठ जाओ, कुछ भी न करो। कुछ भी न करो! मस्त बैठे--अलमस्त! डोलो! कोई गीत उठ आए, सहज गुनगुनाओ। बांसुरी बजानी आती हो, बांसुरी बजाओ। कि अलगोजे पर तान छेड़ दो। कुछ भी न आता हो, एड़ा-टेढ़ा नाच सकते हो, नाचो! बैठ तो सकते ही हो!
एक घंटा अगर चौबीस घंटे में तुम सब खोज, सब चाह छोड़ कर बैठ जाओ, जैसे न कुछ करने को है, न कुछ करने योग्य है, तो ऐसे बैठते-बैठते-बैठते तुम्हारे मन में एक दिन एक ऐसा सन्नाटा आ जाएगा, जिससे तुम अपरिचित हो। वह सन्नाटा परमात्मा के आगमन की खबर है। उसके पीछे ही परमात्मा चला आ रहा है। गहन शांति होगी, शून्य होगा। और उसी के पीछे पूर्ण भर आएगा।
सहजानंद! पूछते हो: ‘क्या करना आवश्यक है?’
कुछ भी करना आवश्यक नहीं है। क्योंकि परमात्मा है ही, बनाना नहीं है, निर्माण नहीं करना है। उघाड़ना भी नहीं है--उघड़ा ही है। नग्न खड़ा है। सिर्फ तुम्हारी आंखें बंद हैं। और आंखें बंद कैसे हैं? चाह के कारण बंद हैं। वासना के कारण बंद हैं। कामना के कारण बंद हैं। यह मिल जाए, वह मिल जाए--ये सब विचार की परतों पर परतें तुम्हारी आंखों को अंधा किए हैं।
नहीं कुछ चाहिए; जो है, पर्याप्त है--ऐसे भाव में डुबकी मारो! जो है, जरूरत से ज्यादा है--ऐसे परितोष को सम्हालो। जो है, उसके लिए धन्यवाद दो। जो नहीं है, उसकी मांग न करो। और मैं तुम्हें आश्वासन देता हूं: परमात्मा तुम्हें खोजता आ जाएगा। निश्चित आ जाएगा! ऐसा ही सदा खोजता आया है।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, आपके प्रवचन में सुना कि एक जैन मुनि आपकी शैली में बोलने की कोशिश करते हैं, तोते की भांति। पर यह मुनि ही नहीं, बहुत-बहुत से महानुभावों को यही करते देख रहे हैं। चुपके-चुपके वे आपकी किताबें पढ़ते हैं, फिर बाहर घोर विरोध भी करते हैं। और बुरा तो बहुत तब लगता है, जब आपके विचारों को अपना कह कर बताते हैं, छपवाते हैं--फिर इतराते हैं। ऐसे तथाकथित प्रतिभाशालियों के पाखंड को सहा नहीं जाता, तो क्या करें?
माधवी भारती! यह स्वाभाविक है। इससे चिंतित होने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। इस तरह परोक्ष रूप से वे मुझे स्वीकार कर रहे हैं। अभी परोक्ष किया है स्वीकार, हिम्मत बढ़ते-बढ़ते किसी दिन प्रत्यक्ष भी स्वीकार कर सकेंगे। और ऐसे धोखा कितने दिन तक दे सकते हैं? लाखों लोग मेरी किताबें पढ़ रहे हैं, मेरे वचन सुन रहे हैं; उन्हीं के बीच बोलेंगे, कब तक यह धोखा चला सकते हैं? इसकी चिंता न करो।
और यह बिलकुल स्वाभाविक है। जब भी कोई चीज लगती है कि लोगों को आकर्षित कर रही है, तो उसकी नकलें पैदा होनी स्वाभाविक हैं। असली सिक्के हैं, इसलिए नकली सिक्के होते हैं। असली सिक्के न हों तो नकली सिक्के भी मिट जाएं।
और जरूरी है कि वे मेरा विरोध करें, क्योंकि अगर वे विरोध न करें और फिर मेरी बातों को दोहराएं, तब तो बिलकुल पकड़े जाएं। तो पहले विरोध करते हैं, ताकि एक बात तो साफ हो गई कि वे मेरे विरोधी हैं; ताकि कोई शक भी न कर सके कि वे जो कह रहे हैं, वह घूम-फिर कर मेरी ही बातें कह रहे हैं।
मैंने जिन मुनि की बात की, मुनि नथमल--मैं तो उनका नाम रखता हूं: मुनि थोथूमल! बिलकुल थोथे! सब उधार! लेकिन दोहराने में कुशल हैं। दोहराने की भी एक कुशलता होती है। सभी नहीं दोहरा सकते। और दोहराना कोई आसान काम नहीं है, बड़ा कठिन काम है। अपनी बात कहनी तो बड़ा आसान है; अड़चन ही नहीं होती कुछ, अपनी ही बात है, सहज आती है।
तो मुनि थोथूमल का तो मैं बहुत सम्मान करता हूं। सम्मान इसलिए करता हूं कि वे बिलकुल दोहरा लेते हैं। बड़ी मेहनत करनी पड़ती होगी। बड़ा श्रम उठाना पड़ता होगा। उनकी कुशलता तो माननी होगी। और तेरापंथ के जैन साधुओं में सदियों से एक प्रयोग जारी रहा; वह स्मृति का प्रयोग है: शतावधान। उसमें स्मृति को निखारने की कोशिश की जाती है। और ज्यादा से ज्यादा चीजें कैसे याद रखी जाएं, इसके प्रयोग किए जाते हैं। सौ चीजें इकट्ठी याद रखी जा सकें, जैसे तुम सौ नाम लो तो जैन मुनि सौ ही नाम इकट्ठे दोहरा देगा उसी क्रम में, जिस क्रम में तुमने लिए थे। तुम खुद ही भूल जाओगे कि ये सौ नाम मैंने किस क्रम में लिए थे। तुम्हें फेहरिस्त रखनी पड़ेगी मेल रखने के लिए कि मुनि जब कहे तो मिला लूं कि ठीक। लेकिन तेरापंथ में यह प्रक्रिया जारी रही है। स्मृति का एक प्रयोग है। याददाश्त को निखारने की एक अभ्यास-व्यवस्था है। पुराने दिनों में इसका उपयोग भी था, क्योंकि शास्त्र छपते नहीं थे, लोगों को याद रखना पड़ते थे। सदियों तक लोगों ने शास्त्र याद रखे सिर्फ स्मृति के बल पर। तो उसी पुरानी प्रक्रिया को अभी भी दोहराए चले जा रहे हैं। अब कोई जरूरत नहीं है। मगर उसका उपयोग और तरह से भी हो सकता है।
जब घंटे, डेढ़ घंटे मैं आचार्य तुलसी से बात किया और मुनि थोथूमल ने पूरी की पूरी बात, वैसी की वैसी शब्दशः दोहरा दी, तो एक बात तो माननी होगी कि स्मृति सुंदर है, स्मृति अच्छी है। बुद्धि नहीं है!
बुद्धि और स्मृति का कोई अनिवार्य नाता नहीं है। सच तो यह है, अगर तुम्हें अपनी ही बात कहनी है तो स्मृति की कोई जरूरत ही नहीं रहती। तुम कभी भी कह सकते हो, तुम्हारी ही बात है। जब तुम्हें सत्य ही कहना है तो स्मृति की कोई जरूरत नहीं रहती। झूठ बोलने वाले आदमी को स्मृति को निखारना पड़ता है, क्योंकि उसे याद रखना पड़ता है कि झूठ बोला हूं, किससे बोला हूं, क्या बोला हूं, कहीं उसके विपरीत कुछ न बोल जाऊं, उससे भिन्न कुछ न बोल जाऊं! उसे सब तरह की चिंता रखनी पड़ती है।
जो दूसरों की बातें दोहराते हैं, उन पर दया करो, उनके श्रम पर दया करो। उनकी मेहनत बड़ी है। माधवी, नाराज होने की कोई जरूरत नहीं है।
नाराजगी आती है, यह स्वाभाविक है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन मुझसे कह रहा था कि मेरे भाई से मेरी लड़ाई हो गई और आज जरा बात ज्यादा हो गई। बातचीत तो कई दफे हुई थी, आज हाथापाई हो गई। ऐसा मुझे क्रोध आया कि दो-चार चांटे रसीद कर दिए। अब चित्त जरा मलिन है।
मैंने कहा: आखिर मामला क्या हुआ? तुम दोनों में तो काफी बनती है।
कहा: उसी बनती-बनती के कारण तो यह उपद्रव बढ़ता गया।
मुल्ला नसरुद्दीन बोला: अजी, सालों से वह मेरे कपड़े पहन रहा था। जुड़वां भाई हैं। मेरे जूते काम में ला रहा था। मैं कुछ नहीं बोला। यहां तक कि मेरी प्रेयसी भी उसने मुझसे छीन ली, फिर भी मैं कुछ नहीं बोला। बैंक से मेरे नाम से पैसे निकाल लाता है, फिर भी मैं बरदाश्त करता रहा। मेरे नाम से लोगों से पैसा उधार ले लेता है, जो मुझे चुकाने पड़ते हैं। लेकिन बरदाश्त की भी एक हद्द होती है। कल वह मेरे दांत लगा कर मेरी ही खिल्ली उड़ाने लगा! फिर मैंने रसीद कर दिए दो हाथ। एक सीमा होती है हर चीज की।
तो माधवी, तेरा दुख मैं समझा, तेरी पीड़ा समझा। ऐसा पाखंड मेरे संन्यासियों को अखरता है। क्योंकि मेरे संन्यासी जानते हैं मैं क्या कह रहा हूं और जब वे सुनते हैं उन्हीं बातों को किन्हीं से दोहराया जाता...। और इतनी भी ईमानदारी नहीं कि स्पष्ट कह सकें कि ये विचार कहां से आए हैं। न केवल इतनी ईमानदारी नहीं, इतनी सौजन्यता भी नहीं कि कम से कम विरोध न करें।
लेकिन विरोध के पीछे भी तर्क है। विरोध करने से पक्का हो जाता है कि ये विचार कम से कम मेरे तो नहीं हो सकते। जिसका विरोध कर रहे हैं, उसके तो नहीं हो सकते।
बर्ट्रेंड रसेल ने लिखा है कि अगर कहीं किसी की जेब कट जाए और जो आदमी बहुत जोर से चोरी के खिलाफ बोले और कहे--मारो, पकड़ो, किसने जेब काटा! उसको पकड़ लेना; जहां तक संभावना है उसी ने काटा है। उसको एकदम पकड़ लेना।
यह ठीक बात है। इसको मैं अनुभव से जानता हूं। मेरे गांव में, मेरे बचपन में ज्यादा कुछ चीजें चुराने को थीं भी नहीं। लेकिन तरबूज-खरबूज नदी पर होते; और उनको चुराना भी आसान है; क्योंकि रेत में ही बागुड़ लगाई जाती है, कहीं से भी बागुड़ को रेत से उखाड़ लो, कोई उखाड़ने में भी अड़चन नहीं है, रेत ही है, कहीं से भी घुस जाओ बागुड़ में। तो दो-चार मित्र घुस जाते थे। लेकिन मैंने एक बात बहुत जल्दी सीख ली कि अगर आ जाए मालिक तो भागना नहीं है। बाकी तो भागते थे, मैं चिल्लाता था: पकड़ो! मैं कभी नहीं पकड़ा गया। क्योंकि मालिक समझता कि अपने साथ में है, यह आदमी अपने साथ में है। स्वभावतः जब मैं भाग ही नहीं रहा हूं तो बात जाहिर है कि मैंने चोरी नहीं की है।
मेरे विरोध में वे बोलते हैं; वह सिर्फ भूमिका है, ताकि फिर वे मेरी बातों को दोहराएं तो तुम्हें कल्पना में भी यह बात न उठ सके कि चोरी की गई है। लेकिन वे कितनी ही व्यवस्था से दोहराएं और कितना ही शब्दशः दोहराएं, मेरी बातों के आधार-स्तंभ उनके जीवन-आधार-स्तंभों से भिन्न ही नहीं, विपरीत हैं। इसलिए अगर तुम गौर से देखोगे तो उनके मुंह से मेरी बातें अत्यंत फूहड़ हो जाती हैं। और उन्हें उनमें कुछ-कुछ मिलाना पड़ता है, नहीं तो उनकी जीवन-दृष्टि से तालमेल नहीं बैठेगा।
अब जैसे मैं जीवन का पक्षपाती हूं, तुम्हारे साधु-संन्यासी जीवन-विरोधी हैं। मेरी सारी बातों की संगति जीवन के प्रेम से जुड़ी है और उन सबके विचारों का आधार, जीवन त्याज्य है, इस बात पर खड़ा है। अब मेरी बातें दोहराएंगे तो बड़ी अड़चन आती है। उसमें विसंगति आती है। तो या तो मेरी बातों को तोड़ना-मरोड़ना पड़ता है, यहां-वहां से जोड़ना पड़ता है; और या फिर मेरी बातें स्पष्ट रूप से ही उनके मुंह पर एकदम अर्थहीन हो जाती हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन पोस्ट आफिस गया और पोस्ट मास्टर के पास जाकर उसने कहा कि जरा मेरा यह कार्ड लिख दें, पता लिख दें इस पर।
पोस्ट मास्टर ने पता लिख दिया।
धन्यवाद! नसरुद्दीन ने कहा: अब जरा चार पंक्तियां मेरी खैरियत की भी लिख दें।
पोस्ट मास्टर ऐसे तो प्रसन्न नहीं था कि इस काम के लिए पोस्ट मास्टर नहीं है, लेकिन अब यह बूढ़ा आदमी, अब पता लिख ही दिया, चार पंक्तियां और। किसी तरह झुंझलाते हुए उसने चार पंक्तियां और लिख दीं और फिर पूछा: और कुछ?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: बस एक पंक्ति और लिख दें, इतना और लिख दें कि गंदे और फूहड़ हैंडराइटिंग के लिए क्षमा करना।
ऐसी ही हालत हो जाती है। मैं जो कह रहा हूं, उसका मेरे साथ एक तारतम्य है, उसका एक तालमेल है। मैं जो कह रहा हूं वे मेरे वीणा के तार हैं; उन तारों को लेकर तुम किसी और वाद्य में जोड़ दोगे, बेसुरे हो जाएंगे, फूहड़ हो जाएंगे। मैं जो कह रहा हूं वह एक पूरी जीवन-दृष्टि है, एक पूरा जीवन-दर्शन है। उसमें से तुमने कुछ भी टुकड़े निकाले, चाहे वे टुकड़े कितने ही प्रीतिकर लगते हों, उनके संदर्भ से उनको अलग किया कि वे बेजान हो जाएंगे।
तुम्हें एक बच्चे की आंखें बड़ी प्यारी लगती हैं--शांत, निर्मल, निर्दोष! इससे यह मत सोचना कि बच्चे की आंखें निकाल लोगे और टेबल पर सजा कर रखोगे तो बहुत अच्छी लगेंगी। खून-खराबा हो जाएगा। सारी सादगी बच्चे की आंखों की, निर्दोषता खो जाएगी। मुर्दा हो जाएंगी आंखें, पथरा जाएंगी। वह तो उसके पूरे व्यक्तित्व के साथ ही उनका तालमेल है, संगति है, संदर्भ है। और पूरे प्राणों से उनका जोड़ है।
मेरा एक-एक शब्द मेरी पूरी जीवन-दृष्टि से जुड़ा हुआ है। उसे तुम तोड़ ले सकते हो। उसको तुम अलग-अलग वाद्यों पर बजाने की कोशिश कर सकते हो। लेकिन बात जमेगी नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन ने बढ़िया सा कपड़ा खरीदा और सूट सिलवाने के लिए एक दर्जी के पास गया। दर्जी ने कपड़ा लेकर मापा और कुछ सोचते हुए कहा: कपड़ा कम है। इसका एक सूट नहीं बन सकता।
वह दूसरे दर्जी के पास चला गया। उसने माप लेने के बाद कहा: आप दस दिन बाद आइए और सूट ले जाइए।
निश्चित समय पर मुल्ला नसरुद्दीन दर्जी के पास गया। सूट तैयार था। अभी सिलाई के पैसे चुका ही रहा था कि दुकान में दर्जी का पांच वर्षीय लड़का प्रविष्ट हुआ। उस बच्चे ने बिलकुल उसी कपड़े का सूट पहन रखा था, जिसका मुल्ला नसरुद्दीन ने सूट बनवाया था। मुल्ला चौंका। उसने कहा: मामला क्या है? तुमने कपड़ा चुराया है!
थोड़ी सी बहस के बाद दर्जी ने स्वीकार कर लिया। अब मुल्ला नसरुद्दीन पहले दर्जी के पास गया और फुंकारते हुए बोला: तुम तो कहते थे कि कपड़ा कम है, पर तुम्हारे प्रतिद्वंद्वी दर्जी ने उसी कपड़े से न केवल मेरा बल्कि अपने लड़के का भी सूट बना लिया!
दर्जी धीरज से सुनता रहा। फिर कुछ सोचते हुए बोला: लड़के की उम्र क्या है?
पांच वर्ष।
दर्जी चहक कर बोला: मैं भी कहूं कि कारण क्या है। श्रीमान, मेरे लड़के की उम्र अठारह वर्ष है।
एक संदर्भ में बात लग जाए, दूसरे संदर्भ में न लगे। लगती ही नहीं! मैं भी देखता हूं, मेरे पास लोग भेज देते हैं, मेरे संन्यासी लेख भेज देते हैं, किताबें भेज देते हैं कि ये बिलकुल बातें आपसे चुराई हुई हैं। कहीं उनका तालमेल नहीं बैठता। लेकिन इस आशा में कि ये बातें लाखों लोगों को प्रभावित कर रही हैं तो इन बातों में कुछ बल है, इसलिए इन बातों को कहीं भी डाल दो तो शायद लोग प्रभावित होंगे।
मैं उन सब थोथूमलों से कह देना चाहता हूं: बातों में बल नहीं होता, बल व्यक्तित्व में होता है। बातों में क्या होता है? शब्द तो मैं वही बोल रहा हूं जो तुम सब बोलते हो। कुछ ज्यादा शब्द मुझे आते भी नहीं। शब्दों की कोई बहुत बड़ी संख्या भी मेरे पास नहीं है। मेरी शब्दावली बहुत छोटी है। अगर तुम हिसाब लगाने बैठो तो चार सौ, पांच सौ शब्दों से ज्यादा शब्द मैं उपयोग में नहीं लाता। लेकिन टर्न-ओवर काफी है! असली सवाल टर्न-ओवर है।
शब्द तो मैं कोई अनूठे नहीं बोल रहा हूं--कामचलाऊ हैं, रोजमर्रा के हैं, बातचीत के हैं। लेकिन पीछे कोई और है। शब्दों के पीछे निःशब्द का प्राण है। शब्दों के पीछे शून्य का संगीत है। शब्दों के पीछे साक्षात्कार है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन आया और अपने यात्रा के किस्सों को बढ़ा-चढ़ा कर लोगों को सुनाने लगा। और मुझे पता है, वह कहीं गया नहीं है। मेरे सामने ही सुनाने लगा। कहने लगा: अमरीका गया, इंग्लैंड भी गया, अफ्रीका भी गया। अफ्रीका के जंगली देश देखे। बर्फानी देशों में भी फंसा। ऐसा शिकार किया, वैसा किया।
मैं चुपचाप सुनता रहा। मैंने उससे इतना ही पूछा कि नसरुद्दीन, फिर तो आपको भूगोल की अच्छी-खासी जानकारी हो गई होगी?
उसने कहा: जी नहीं, मैं वहां गया ही नहीं।
तुम्हें जब कोई थोथूमल मिल जाएं तो उनसे जरा कुछ पूछा करो, कि भैया, भूगोल गए? वे कहेंगे: नहीं, वहां गए ही नहीं।
नाराज मत होना, माधवी। मजा लो! इन सब बातों का भी मजा लो। यह सब भी होता है। यह सब स्वाभाविक है। ये अच्छे लक्षण हैं। ये इस बात के लक्षण हैं कि जो मेरे विरोध में हैं, वे भी अपने को मुझसे बचा नहीं पा रहे हैं। किताबों में छिपा-छिपा कर किताबें पढ़ रहे हैं।
मेरे एक मित्र जैनों के एक बड़े संत कानजी स्वामी को मिलने गए। वे कुछ पढ़ रहे थे, उन्होंने जल्दी से किताब उलटा कर रख दी। मेरे मित्र को गैरिक वस्त्रों में देखा, माला देखी, बस एकदम मेरे खिलाफ बोलने लगे। इसीलिए तो तुमको गैरिक वस्त्र और माला पहना दी है। जैसे सांड एकदम बिचक जाता है न लाल झंडी देख कर, ऐसे लोगों को बिचकाने के लिए तुम्हें यह लाल झंडी दे दी है कि जहां देखी झंडी कि वे बिचके एकदम! एकदम मेरे खिलाफ बोलने लगे!
लेकिन मेरे मित्र को वह किताब देख कर शक हुआ। उलटी तो रख दी थी उन्होंने, लेकिन तुम देखते हो, मैं दोनों तरफ फोटो छपवा देता हूं! उलटी भी रखोगे तो कैसे रखोगे? उन्होंने कहा: आप खिलाफ तो बड़ा बोल रहे हैं, फिर यह किताब क्यों पढ़ रहे हैं? अगर ये व्यर्थ की ही बातें हैं तो आप समय खराब क्यों कर रहे हैं? सार्थक बातें क्यों नहीं पढ़ते? समयसार पढ़िए, जैन शास्त्र पढ़िए, यह क्यों किताब...आप समय खराब कर रहे हैं? और क्या मैं देख सकता हूं यह किताब? क्योंकि मुझे शक है कि तीन दिन से आपको सुन रहा हूं, वह इसी किताब में से बोला जा रहा है।
हालांकि सब विकृत हो जाता है। हो ही जाएगा। तुम किसी सुंदर से सुंदर गीत से शब्द चुन लो तो उन शब्दों में सौंदर्य नहीं रह जाता। सौंदर्य सदा संपूर्ण संदर्भ में रहता है। एक फूल तुम तोड़ लो वृक्ष से, तोड़ते ही मर जाता है। वृक्ष में जीवंत था, रसधार बहती थी।
मगर यह चलेगा। इसको रोकने का एक ही उपाय है: मेरी किताबों को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाओ। इसको रोकने का एक ही उपाय है: लोग मुझसे ज्यादा से ज्यादा परिचित हो जाएं। यह अपने आप रुक जाएगा। या तो रुकेगा या फिर जिन लोगों को यह बात ठीक ही लग रही है, उनको हिम्मतपूर्वक स्वीकार करना पड़ेगा।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं: फलां मुनि महाराज बस आपकी ही बात बोलते हैं।
मैंने कहा: मेरा नाम लेते हैं कभी?
कहा: नाम आपका कभी नहीं लेते! मगर बात तो आपकी ही बोलते हैं। किताब तो आपकी ही पढ़ते हैं।
तो मैंने कहा: जब तक वे मेरा नाम न लें, तब तक समझना कि बेईमान हैं। किताब पढ़ना और बात मेरी बोलना...। लेकिन इस तरह की भ्रांति खड़ी करना कि वह बात उनकी है। मुझे कुछ अड़चन नहीं है, लेकिन इससे वे खुद ही धोखा खा रहे हैं। खुद भी जो लाभ उठा सकते थे, वह भी नहीं उठा पा रहे हैं।
और दूसरों को कब तक धोखा दोगे? थोड़े से लोगों को थोड़े दिन धोखा दिया जा सकता है, लेकिन कब तक? धोखे टूट जाते हैं। धोखे टूट कर ही रहेंगे।
अब मेरे एक लाख संन्यासी हैं सारी दुनिया में। ये जगह-जगह धोखे तोड़ेंगे। और ये एक लाख पर रुकने वाले नहीं हैं, ये जल्दी दस लाख हो जाएंगे। यह फैलता हुआ...जैसे पूरे जंगल में आग लग गई है! एक चिनगारी से लगी है, मगर पूरा जंगल जल उठा है! कितनी देर तक यह धोखाधड़ी चलेगी?
इसलिए, माधवी, इसकी चिंता में मत पड़ो। इतराने दो, बोलने दो, दोहराने दो। तोते हैं, इन पर नाराज होना नहीं चाहिए। तोते हैं, तोतों के साथ तोतों जैसा व्यवहार करो, बस। बुद्धि नाममात्र को नहीं है। ग्रामोफोन रिकार्ड हैं--हिज मास्टर्स वाइस। वह हिज मास्टर्स वाइस वालों ने भी खूब तरकीब की--चोंगे के सामने कुत्ते को बिठा दिया! क्योंकि कुत्ते से ज्यादा सेवक और मालिक का कौन है? हिज मास्टर्स वाइस! मालिक कहे कि पूंछ हिलाओ, तो पूंछ हिलाता है। मालिक कहे कि भौंको, तो भौंकता है। कभी-कभी कुत्ता संदेह में होता है तो दोनों करता है।
तुमने देखा, तुम किसी के घर गए, कुत्ता सामने मिला। और कुत्ते को पक्का नहीं है कि मालिक के दोस्त हो कि दुश्मन हो, अपने हो कि पराए हो, कि तुमसे कैसा व्यवहार करना! तो कुत्ता दोनों काम करता है--भौंकता भी है, पूंछ भी हिलाता है। यह राजनीति है। वह देख रहा है कि जैसी स्थिति होगी, जिस तरफ ऊंट करवट लेगा, उसी तरफ हम भी हो जाएंगे। पूंछ से जय-जयकार बोल रहा है। पूंछ से कह रहा है जिंदाबाद, मुंह से कह रहा है मुर्दाबाद! और देख रहा है, प्रतीक्षा, कि स्थिति साफ हो जाए कि मामला क्या है! फिर घर का मालिक आ गया और तुम्हें गले लगा लिया, भौंकना बंद हो गया, पूंछ हिलती रही। घर का मालिक आ गया और उसने कहा: आगे बढ़ो, और दरवाजा देखो! कि पूंछ हिलना बंद हो जाएगी कुत्ते की, भौंकना बढ़ जाएगा!
अभी ये जो लोग मेरी बातें दोहरा रहे हैं, ये दोहरी स्थिति में हैं--भौंकते भी हैं, पूंछ भी हिलाते हैं। इनको अभी पक्का नहीं है कि मैं जो कह रहा हूं, उसके साथ क्या निर्णय लेना? क्या मान कर चल पड़ना? इतना साहस करना? बिन माने भी नहीं रह सकते। कुछ बात है कि दिल में चोट भी करती है। कुछ बात है कि झकझोरती भी है।
कितने साधु-संन्यासियों और मुनियों के पत्र आते हैं कि हम छोड़ने को राजी हैं। हम इस जाल से छूटना चाहते हैं। लेकिन क्या आपके आश्रम में जगह मिलेगी?
अब मैं जानता हूं, ये जो जैन मुनि हैं, हिंदू साधु हैं, ये किसी काम के नहीं हैं। और मेरा आश्रम सृजनात्मक होने वाला है। इनको बिठा कर वहां क्या करेंगे? कोई मक्खियां मरवानी हैं? किस काम के हैं? ज्यादा से ज्यादा सेवा ले सकते हैं, और तो कुछ काम के हैं नहीं।
और इनकी आदतें खराब हो गई हैं, क्योंकि इनकी सेवा चल रही है। कुछ गुण नहीं हैं, कुछ प्रतिभा नहीं है। कोई इसलिए पूजा जा रहा है कि उसने मुंह पर पट्टी बांध रखी है। कोई इसलिए पूजा जा रहा है कि वह नग्न खड़ा है। कोई इसलिए पूजा जा रहा है कि वह अपने बाल लोंचता है, केश-लुंज करता है। कोई इसलिए पूजा जा रहा है कि वह उपवास करता है। मगर इन बातों का मेरे आश्रम में तो कोई मूल्य नहीं है। तुम कितना ही केश लोंचो, कोई खड़े होकर देखेगा भी नहीं, कोई फिकर भी नहीं करेगा--लोंचते रहो, तुम्हारी मर्जी! लोग समझेंगे कि कैथार्सिस कर रहे, कि सक्रिय ध्यान की कोई भाव-मुद्रा आ गई, कि करो भाई, कि कुंडलिनी ऊर्जा शायद सिर में पहुंच गई! यहां कौन तुमको समझेगा कि तुम केश-लुंज कर रहे हो? और कोई तुम्हारे पैर नहीं छुएगा।
यहां तुम उपवास करोगे तो कोई तुम्हें सम्मान नहीं मिलेगा। क्योंकि भूखे मरने में कौन सा समादर है? न तो ज्यादा खाने में कुछ है, न कम खाने में कुछ है। सम्यक आहार! जितना जरूरी है, उतना सदा लेना उचित है। तुम यहां नंगे खड़े हो जाओगे, कि धूप सहोगे, कि सर्दी सहोगे, लोग समझेंगे कि थोड़े झक्की हो। और काम के तो तुम कुछ भी नहीं हो।
और मैं नहीं चाहता कि मेरा संन्यासी गैर-सृजनात्मक हो। गैर-सृजनात्मक होने के कारण ही इस संसार में संन्यास की प्रतिष्ठा नहीं बन पाई। यहां तो कुछ करना होगा। यहां जितने संन्यासी हैं--तीन सौ संन्यासी आश्रम में हैं, शायद भारत के किसी आश्रम में तीन सौ संन्यासी नहीं हैं--लेकिन सब कार्य में संलग्न हैं। कुछ बनाने में लगे हैं। और स्वभावतः कुछ ऐसा बनाना है जो कि सांसारिक न बना सकते हों, तो तुम्हारी कुछ खूबी है। जैसे ही संन्यासियों का गांव बसेगा, तुम देखोगे कि हम इस देश को हजार तरह की सृजनात्मक दिशाएं दे सकते हैं। छोटी से लेकर बड़ी चीजों तक हम बना सकते हैं। बनानी हैं, क्योंकि यह देश गरीब है, इसको समृद्ध करना है। छोटे-छोटे काम इस देश के जीवन में क्रांति ला सकते हैं। जरा-जरा सी बात से बहुत फर्क हो जाता है।
फिर इस जगत को सुंदर बनाने के अतिरिक्त और धार्मिक आदमी का कृत्य क्या होगा? जैसा तुम आए थे वैसा ही संसार को मत छोड़ जाना। थोड़ा सुंदर बना जाना। थोड़ा गीत की एक कड़ी जोड़ जाना। संगीत का एक स्वर जोड़ जाना। नृत्य की एक धुन बजा जाना।
तो मैं इन मुनियों को लेकर यहां करूं क्या? तो अड़चन है। छोड़ कर आने को कई उनमें से राजी हैं। बात उनके हृदय को छुई है। लेकिन रहना जिनके बीच है...क्योंकि रोटी-रोजी उन पर निर्भर है।
तुम जान कर चकित होओगे कि तुम्हारे साधु-संन्यासियों से ज्यादा गुलाम इस देश में और कोई भी नहीं है। उसकी गुलामी बड़ी गहरी है। वह रोटी-रोजी पर निर्भर है। तुम उसे खिलाओ तो खाए, तुम उसे पिलाओ तो पीए। उसे तुमने बिलकुल अपंग बना दिया है। और जितना अपंग होता है, उतना ही उसको तुम समादर देते हो। तो मेरी बात उसकी समझ में भी आ जाए तो भी सवाल यह है कि छोड़े कैसे? छोड़े तो फिर उसका हो क्या? तुम चकित होओगे यह जान कर कि गृहस्थ व्यक्ति अपने घर छोड़ने में इतनी ज्यादा चिंता अनुभव नहीं करता जितना जैन मुनि अनुभव करेगा अपना मुनि-वेश त्यागने में, क्योंकि वह तो बिलकुल ही समाज-निर्भर है। उसके पास और तो कोई गुणवत्ता नहीं है, सिवाय इसके कि वह मुनि है तो सम्मान मिलता है।
एक जैन मुनि ने छोड़ दिया मुनि-वेश। मैं हैदराबाद में था। उन्हें मेरी बात ठीक लगी। उन्होंने मुनि-वेश छोड़ कर, मैं जहां रुका था, वहां आ गए। उनका बड़ा समादर था। मगर जैन बड़े नाराज हो गए--स्वभावतः कि जिसको इतना समादर दिया, वह इस तरह धोखा कर जाए! दगाबाजी हो गई यह तो। तो वे उनको मारने के पीछे पड़े, कि उनकी पिटाई करनी है। उन्हीं की पिटाई! पहले एक तरह की सेवा की थी, अब दूसरी तरह की सेवा करनी है।
मैंने उनको कहा भी कि तुम्हें इससे क्या प्रयोजन? उस आदमी को मुनि रहना था तो रहा, नहीं रहना तो नहीं रहा। तुम क्यों पीछे पड़े हो? तुम्हें मुनि होना हो, तुम हो जाओ।
उन्होंने कहा: नहीं, हम ऐसे नहीं छोड़ देंगे। इससे हमारे धर्म का अपमान होता है। उनका धर्म को छोड़ कर जाना और लोगों के मन में संदेह पैदा करता है।
मैं एक सभा में बोलने गया तो वे भी, भूतपूर्व जैन मुनि, मेरे साथ गए। पुरानी आदत मंच पर बैठने की, तो वे मेरे साथ मंच पर चले गए। बस जैन खड़े हो गए। उन्होंने कहा कि पहले इनको मंच से नीचे उतारा जाए। इनको हम मंच पर न बैठने देंगे।
मैंने कहा कि मुझे तुम बैठने दे रहे हो, मैं तुम्हारा कभी मुनि नहीं रहा, न कभी होने की आशा है। तो इस बेचारे ने क्या बिगाड़ा है? यह कम से कम भूतपूर्व मुनि है, कुछ तो रहा है।
नहीं, लेकिन उन्होंने कहा कि इन्हें तो उतारना ही पड़ेगा। इन्हें हम मंच पर बरदाश्त ही नहीं कर सकते। इन्होंने धोखा दिया है।
जैनों को तुम अहिंसात्मक समझते हो, उतने अहिंसात्मक नहीं हैं। वे उनको खींचने लगे। किसी ने पैर पकड़ लिया, किसी ने हाथ पकड़ लिया। मगर मुनि भी मुनि! वे मंच पकड़ें!
मैंने कहा: हद हो गई! अब तुमने मुनि-वेश छोड़ दिया, कम से कम मंच छोड़ दो! चलो इन बेचारों का मन भर दो, इन्हीं के पास बैठ जाओ जाकर। इनको काफी दिन कष्ट दिया मंच पर बैठ कर, इनको नीचे
बिठा रखा; अब इनको भी थोड़ा मजा ले लेने दो, इन्हीं के बीच बैठ जाओ, क्या बिगड़ेगा?
मगर वे मंच न छोड़ें। उनका भी सम्मान का सवाल। और उनका समाज उनके पैर न छोड़े। इस खींचातानी में मैंने कहा कि फिर मैं यहां से चला। फिर आप लोग निपटें। इसमें कोई अर्थ नहीं है। यह बिलकुल पागलपन है। तुम भी पागल हो, तुम्हारा मुनि भी पागल है। वह चाहता है कि पुराना ही सम्मान मिले। वह कैसे मिलेगा? जिस कारण से वे सम्मान देते थे, वह कारण खतम हो गया। और तुममें इतनी भलमनसाहत नहीं है कि बैठा रहने दो बेचारे को, क्या बिगाड़ रहा है! मंच बड़ा है, बैठा है एक कोने में, बैठा रहने दो। तुम भी बरदाश्त नहीं कर सकते!
जैन मुनि या हिंदू संन्यासी...हिंदू संन्यासी यहां आ जाते हैं कभी। कहते हैं: आने का तो मन होता है, मगर फिर हिंदू...
मैं अमृतसर गया। एक हिंदू संन्यासी और सारे लोगों के साथ मेरे स्वागत को आ गए। मेरी किताबें पढ़ीं, मेरे प्रेम में थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों ने मेरे विरोध में स्टेशन पर एक हंगामा खड़ा किया था, कोई दो सौ स्वयंसेवक काले झंडे लेकर इकट्ठे हुए थे। ठीक है, उसमें तो कुछ हर्जा नहीं। झंडे तुम्हारे हैं। तुम्हें काले लेना हों, काले लो। सफेद लेना हों, सफेद लो। तुम्हारी मौज, मेरा क्या बनता-बिगड़ता है! वे चिल्लाते रहे, शोरगुल मचाते रहे। मैं तो चला गया। लेकिन उस हिंदू संन्यासी को पकड़ लिया उन लोगों ने--कि तुम क्यों स्वागत के लिए आए? हिंदू संन्यासी होकर, हिंदुत्व का अपमान!
जब दूसरे दिन वह संन्यासी मुझे मिलने आए तो पट्टी इत्यादि बंधी। मैंने कहा: तुम्हें क्या हुआ?
उन्होंने कहा: यह आपका स्वागत करने जाने का फल है।
मैंने कहा: पर उन्होंने मुझे नहीं चोट पहुंचाई, तुम्हें क्यों चोट पहुंचाई?
उन्होंने कहा कि चोट इसलिए पहुंचाई कि मैं हिंदू संन्यासी, हिंदू होकर और मैं ऐसे व्यक्ति के स्वागत को गया जो सारे हिंदू धर्म की जड़ें काट रहा है!
न मालूम कितने संन्यासी आना चाहते हैं! एक मुसलमान फकीर ने लिखा था कि आना चाहता है, लेकिन मुसलमानों का डर लगता है। जैन आना चाहते हैं, जैनों का डर लगता है। हिंदू आना चाहते हैं, हिंदुओं का डर लगता है।
मेरी बातें तो उनकी समझ में आ रही हैं। तो उनकी हालत ऐसी हो गई है कि मेरी बात समझ में आती है, प्रभावित करती है, हृदय को छूती है, तो जाने-अनजाने निकल भी जाती है। मगर तभी उनको खयाल आता है अपने सुनने वाले श्रावकों का और तत्क्षण वे मेरा विरोध भी करने लगते हैं। मेरा विरोध भी करना पड़ेगा उनको, अगर उनके बीच रहना है। और मेरी बात से भी नहीं बच सकते, क्योंकि बात में कुछ बल है जो उनके प्राणों को स्पर्श कर रहा है।
माधवी, इस सबमें दुखी होने की कोई भी जरूरत नहीं है। आनंदित हो! यह सब स्वाभाविक है।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, आपको सुनते-सुनते आंसू क्यों बहने लगते हैं?
विजय सत्यार्थी! आनंद हो तो आंसू न बहें तो और क्या बहे? तुम्हारा हृदय मेरे हृदय से मेल खाए तो आंसू अभिव्यक्ति न करें तो और कैसे अभिव्यक्ति हो?
मुझे समझ न किसी दीदाए-गरीब का अश्क
जो लब तक आ न सकी है, वो इल्तिजा मैं हूं
वे तुम्हारी प्रार्थनाएं हैं! वह तुम्हारी दीनता नहीं है तुम्हारे आंसू। वे तुम्हारी प्रार्थनाएं हैं, वे तुम्हारी इल्तिजाएं हैं। तुम्हारा हृदय कुछ निवेदन करना चाहता है। शब्द नहीं मिलते। भाषा छोटी पड़ जाती है। कैसे कहो? आंखें गीली हो जाती हैं! वह गीलापन तुम्हारे प्रेम का प्रतीक है।
जितनी अधरों में कैद हुई पीड़ा,
उतना नैनों से जल रह-रह छलका।

जब हर अभाव का भाव बना पाहुन,
द्वारे से लौटा गीतों का सावन।
हर सांस घुटी मलयानिल को छूकर,
पतझार हुआ कलियों का उन्मीलन।
जितनी संपुट में बंद हुई आशा,
उतना मन का भंवरा रह-रह तड़पा।
जितनी अधरों में कैद हुई पीड़ा,
उतना नैनों से जल रह-रह छलका।

जब घने हो गए संयम के ताले,
रिस-रिस कर फूटे अंतर के छाले।
उन्माद लिए व्याकुलता सी छाई,
हाथों से छूटे मदिरा के प्याले।
जितनी बंधन में लाज बंधी मन की,
उतना क्वांरा आंचल रह-रह ढलका।
जितनी अधरों में कैद हुई पीड़ा।
उतना नैनों से जल रह-रह छलका।

जब चाह लुटी हर लौटी पाती में,
सब स्वप्न जले दीपक की बाती में।
अंगारों सी स्मृतियां शेष रहीं,
ज्वालामुखियों सी लेटी छाती में।
जितना सपनों का बिंब हुआ धूमिल,
उतना दीपक का छल रह-रह झलका।
जितनी अधरों में कैद हुई पीड़ा,
उतना नैनों से जल रह-रह छलका।
एक प्रेम का जन्म हो रहा है। मेरे पास इस सत्संग में, इस बुद्ध-ऊर्जा के क्षेत्र में एक प्रेम का जन्म हो रहा है। तुम्हारे हृदय गीत गा रहे हैं, नाच रहे हैं, गुनगुना रहे हैं।
जितनी अधरों में कैद हुई पीड़ा,
उतना नैनों से जल रह-रह छलका।
प्रेम की एक सघन पीड़ा तुम्हारे भीतर इकट्ठी हो रही है। और जब बादल सघन होंगे तो बरसेंगे। आंसू से ज्यादा बहुमूल्य अभिव्यक्ति का कोई उपाय नहीं है। प्रेम को जितनी सरलता से, जितनी सुगमता से आंसू कह जाते हैं, और कोई भी नहीं कह पाता।
विजय सत्यार्थी! शुभ हो रहा है। सदभाग्य है। अभागे हैं वे, जिनकी आंखें गीली नहीं हो पातीं। अभागे हैं, क्योंकि उनके हृदय गीले नहीं हैं।

आज इतना ही।

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