DARIYADAS

AMI JHARAT BIGSAT KANWAL 10

Tenth Discourse from the series of 14 discourses - AMI JHARAT BIGSAT KANWAL by Osho. These discourses were given during MAR 11 -24 1979.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आपने एक प्रवचन में कहा है कि भारत अपने आध्यात्मिक मूल्यों में गिरता जा रहा है। कृपया बताएं कि आगे कोई आशा की किरण नजर आती है?
रामानंद भारती! आध्यात्मिक मूल्य सदा ही वैयक्तिक घटना है, सामूहिक नहीं। नैतिकता सामूहिक है; अध्यात्म वैयक्तिक। कोई समाज नैतिक हो सकता है, क्योंकि नीति बाहर से आरोपित की जा सकती है; लेकिन कोई समाज आध्यात्मिक नहीं होता। व्यक्ति आध्यात्मिक होता है। समाज की तो कोई आत्मा ही नहीं है तो अध्यात्म कैसे होगा? समाज के पास तो केवल व्यवहार है, अंतर्संबंध हैं। अंतर्संबंध नैतिक हो सकते हैं, अनैतिक हो सकते हैं; अच्छे हो सकते हैं, बुरे हो सकते हैं; पाप के हो सकते हैं, पुण्य के हो सकते हैं। अध्यात्म तो अतिक्रमण है। अध्यात्म तो वैसी चैतन्य की दशा है जहां न पाप बचता, न पुण्य; न लोहे की जंजीरें, न सोने की जंजीरें। जहां चित्त ही नहीं हो, वहां द्वंद्व कहां? वहां दुई कहां?
और निश्चित ही वैसा अध्यात्म भारत से खोता जा रहा है। बुद्ध, महावीर, कृष्ण, कबीर, दादू, दरिया, वैसे लोग कम होते जा रहे हैं, वैसी ज्योतियां विरल होती जा रही हैं, बहुत विरली होती जा रही हैं! धर्म के नाम पर पाखंड बहुत है, पांडित्य बहुत है। उसमें कोई कमी नहीं हुई; उसमें बढ़ती हुई है। लेकिन धर्म नहीं है। क्योंकि धर्म के लिए जो मौलिक आधार चाहिए, वे खो गए हैं।
पहली तो बात, देश बहुत गरीब हो, समाज बहुत गरीब हो, तो सारा जीवन, सारी ऊर्जा रोटी-रोजी में ही उलझी समाप्त हो जाती है। गरीब आदमी कब वीणा बजाए? कब बांसुरी बजाए? दीन-हीन, रोटी न जुटा पाए, तो अध्यात्म की उड़ानें कैसे भरे? अध्यात्म तो परम विलास है; वह तो आखिरी भोग है, आत्यंतिक भोग! चूंकि देश गरीब होता चला गया, उस ऊंचाई पर उड़ने की क्षमता लोगों की कम होती चली गई।
मेरे हिसाब में, जितनी समृद्धि हो, उतने ही बुद्धों की संभावना बढ़ जाएगी। इसलिए मैं समृद्धि के विरोध में नहीं हूं; मैं समृद्धि के पक्ष में हूं। मैं चाहता हूं यह देश समृद्ध हो। यह सोने की चिड़िया फिर सोने की चिड़िया हो। यह दरिद्रनारायण की बकवास बंद होनी चाहिए। लक्ष्मीनारायण ही ठीक हैं; उनको दरिद्रनारायण से न बदलो।
बुद्ध पैदा हुए तब देश सच में सोने की चिड़िया था। चौबीस तीर्थंकर जैनों के, सम्राटों के बेटे थे--और राम और कृष्ण भी, और बुद्ध भी। इस देश में जो महाप्रतिभाएं पैदा हुईं, वे सब राजमहलों से आई थीं। अकारण ही नहीं, आकस्मिक ही नहीं। जिसने भोगा है, वही विरक्त होता है। तेन त्यक्तेन भुंजीथा! वही छोड़ पाता है, जिसने जाना है, जीया है, भोगा है। जिसके पास धन ही नहीं है, उससे तुम कहो कि धन छोड़ दो! क्या खाक छोड़ेगा? जो संसार का अनुभव ही नहीं किया है, उससे कहो कि संसार छोड़ दो! कैसे छोड़ेगा?
अनुभव से मुक्ति आती है, अनुभव से विरक्ति आती है। राग का अनुभव वैराग्य के मंदिर में प्रवेश करा देता है। भोग में जितने गहरे उतरोगे, उतने ही तुम्हारे भीतर त्याग की क्षमता सघन होगी।
ये मेरी बातें उलटी लगती हैं, उलटबांसियां मालूम होती हैं। जरा भी उलटी नहीं हैं। इनका गणित बहुत सीधा-साफ है। जिस चीज को भी तुम भोग लेते हो, उसी की व्यर्थता दिखाई पड़ जाती है। जिस चीज को नहीं भोग पाते, उसमें रस बना रहता है, कहीं कोने-कातर में, मन के किसी अंधेरे में वासना दबकी पड़ी रहती है कि कभी अवसर मिल जाए तो भोग लूं। जाना तो नहीं है। हां, बुद्ध कहते हैं कि असार है। मगर तुमने जाना है कि असार है? और जब तक तुमने नहीं जाना कि असार है, तब तक लाख बुद्ध कहते रहें, किस काम का है? बुद्ध की आंख तुम्हारी आंख नहीं बन सकती। मेरी आंख तुम्हारी आंख नहीं बन सकती। तुम्हारी आंख ही तुम्हारी आंख है, और तुम्हारा अनुभव ही तुम्हारा अनुभव है।
परमात्मा की तरफ जाने के लिए संसार सीढ़ी है। और भारत में आध्यात्मिकता की संभावना कम होती जाती है, क्योंकि भारत रोज-रोज दीन होता जाता है, रोज-रोज दरिद्र होता जाता है। और कारण? कारण हमारी धारणाएं हैं।
पहली तो धारणा, हमने मान रखा है कि लोग गरीब और अमीर भाग्य से हैं।
यह बात नितांत मूढ़तापूर्ण है। न कोई अमीर है भाग्य से, न कोई गरीब है भाग्य से। गरीबी-अमीरी सामाजिक व्यवस्था की बात है। गरीबी-अमीरी बुद्धिमत्ता की बात है। गरीबी-अमीरी विज्ञान और टेक्नालॉजी की बात है। क्या तुम सोचते हो कि सब भाग्यशाली अमरीका में ही पैदा होते हैं? अगर तुम्हारे शास्त्र सही हैं तो सब भाग्यशाली अमरीका में पैदा होते हैं। और अब अभागे भारत में पैदा होते हैं। अगर तुम्हारे शास्त्र सही हैं तो भारत में सिर्फ पापी ही पैदा होते हैं, जिन्होंने पहले पाप किए हैं। और अमरीका में वे सब पैदा होते हैं, जिन्होंने पहले पुण्य किए।
तुम्हारे शास्त्र गलत हैं, तुम्हारा गणित गलत है। अमरीका समृद्ध इसलिए नहीं है कि वहां पुण्यवान लोग पैदा हो रहे हैं। अमरीका समृद्ध इसलिए है कि विज्ञान है, तकनीक है, बुद्धि का प्रयोग है। अमरीका समृद्ध होता जा रहा है, रोज-रोज समृद्ध होता जा रहा है। और तुम देखते हो, अमरीका में कितने जोर की लहर है अध्यात्म की! कितनी अभीप्सा है ध्यान की! कितनी आतुरता है अंतर्यात्रा की! हजारों लोग पश्चिम से पूरब की तरफ यात्रा करते हैं, इसी आशा में कि शायद पूरब के पास कुंजियां मिल जाएं। उन्हें पता नहीं, पूरब अपनी कुंजियां खो चुका है। पूरब बहुत दरिद्र है। और इन दरिद्र हाथों में परमात्मा के मंदिर की कुंजियां बहुत मुश्किल हैं।
तो पहली तो बात है कि भारत पुनः समृद्ध होना चाहिए। और समृद्ध होने के लिए जरूरी है कि गांधीवादी जैसे विचारों से भारत का छुटकारा हो। बिना बड़ी टेक्नालॉजी के अब यह देश समृद्ध नहीं हो सकता। अब इसकी संख्या बहुत है। बुद्ध के समय में पूरे देश की संख्या दो करोड़ थी। निश्चित देश समृद्ध रहा होगा--इतनी भूमि और दो करोड़ लोग। भूमि अब भी उतनी है और साठ करोड़ लोग! और यह सिर्फ अब भारत की बात कर रहा हूं, पाकिस्तान को भी जोड़ना चाहिए, बंगलादेश को भी जोड़ना चाहिए, क्योंकि बुद्ध के समय में दो करोड़ में वे लोग भी जुड़े थे। अगर उन दोनों को भी जोड़ लो तो अस्सी करोड़। कहां दो करोड़ लोग और कहां अस्सी करोड़ लोग! और इंच भर जमीन बढ़ी नहीं। हां, जमीन घटी बहुत। घटी इस अर्थों में कि इन ढाई हजार सालों में हमने जमीन का इतना शोषण किया, इतनी फसलें काटीं कि जमीन रोज-रोज रूखी होती चली गई। हमने जमीन का सब कुछ छीन लिया। वापस कुछ भी नहीं दिया। वापस देने की हमें सूझ ही नहीं है, लेते ही चले गए, लेते ही चले गए। जमीन दीन-हीन होती चली गई, उसके साथ हम दीन-हीन होते चले गए। और जितना ही समाज दीन-हीन होता है, उतने ज्यादा बच्चे पैदा करता है।
इस जगत में बड़े अनूठे हिसाब हैं! अमीर घर में बच्चे कम पैदा होते हैं, गरीब घर में बच्चे ज्यादा पैदा होते हैं। क्यों? अमीरों को अक्सर बच्चे गोद लेना पड़ते हैं। कारण हैं। जितनी ही जीवन में सुख-सुविधा होती है, जितना ही जीवन में विश्राम होता है, जितने ही जीवन में भोग के और-और अन्य-अन्य साधन होते हैं, उतनी ही कामवासना की पकड़ कम हो जाती है। जिनके पास और भोग के कोई भी साधन नहीं हैं, उनके पास बस एक ही मनोरंजन है--कामवासना, और कोई मनोरंजन नहीं है। फिल्म जाओ तो पैसे लगते; रेडियो, टेलीविजन, नृत्य, संगीत, सबमें खर्चा है। कामवासना बेखर्च मालूम होती है। तो गरीब आदमी का एक ही मनोरंजन है--कामवासना। तो गरीब आदमी बच्चे पैदा किए चला जाता है। जितने गरीब देश हैं, उतने और गरीब होते चले जाते हैं। जितने अमीर देश हैं, उतने और अमीर होते चले जाते हैं; क्योंकि अमीर देशों में बच्चे पैदा करना बहुत सोच-विचार कर होता है।
कम बच्चे चाहिए, ज्यादा विज्ञान चाहिए--और तुम्हारे चित्त में भौतिकवाद के प्रति जो विरोध है, उसका अंत चाहिए। क्योंकि अध्यात्म केवल भौतिकता के ही आधार पर खड़ा हो सकता है। मंदिर बनाते हो, स्वर्ण के शिखर चढ़ाते हो, मगर नींव में तो अनगढ़ पत्थर ही भरने पड़ते हैं, नींव में तो सोना नहीं भरना पड़ता। जरूर जीवन के मंदिर में शिखर तो अध्यात्म का होना चाहिए, लेकिन बुनियाद तो भौतिकता की होनी चाहिए।
मेरे हिसाब में, भौतिकवादी और अध्यात्मवादी में शत्रुता नहीं होनी चाहिए, मित्रता होनी चाहिए। हां, भौतिकवाद पर ही रुक मत जाना। अन्यथा ऐसा हुआ कि नींव तो भर ली और मंदिर कभी बनाया नहीं। भौतिकवाद पर रुक मत जाना। भौतिकवाद की बुनियाद बना लो, फिर उस पर अध्यात्म का मंदिर खड़ा करो। भौतिकवाद तो ऐसे है जैसे वीणा बनी है लकड़ी की, तारों से। और अध्यात्मवाद ऐसे है जैसे वीणा पर उठाया गया संगीत। वीणा और संगीत में विरोध तो नहीं है। वीणा भौतिक है, संगीत अभौतिक है। वीणा को पकड़ सकते हो, छू सकते हो; संगीत को न पकड़ सकते, न छू सकते, सिर्फ अनुभव कर सकते हो। उस पर मुट्ठी नहीं बांध सकते।
अध्यात्म जीवन की बुनियाद नहीं बन सकता। और वही भूल भारत ने की। अध्यात्म को जीवन की बुनियाद बनाना चाहा, बिना वीणा के संगीत को लाना चाहा। हम चूकते चले गए।
पश्चिम की भूल है--वीणा तो बन गई है, लेकिन वीणा को बजाना नहीं आता; नींव तो भर गई है, लेकिन मंदिर के बनाने की कला भूल गई है, याद ही नहीं रहा कि नींव क्यों बनाई थी। पश्चिम ने आधी भूल की है, आधी भूल हमने की है। और फिर भी मैं तुमसे कहता हूं: पश्चिम की आधी भूल ही तुम्हारी आधी भूल से ज्यादा बेहतर है। नींव हो तो मंदिर बन सकता है; लेकिन सिर्फ मंदिर की कल्पनाएं हों और नींव न हो तो मंदिर नहीं बन सकता।
भारत को फिर से भौतिकवाद के पाठ सिखाने होंगे। और मैं तुमसे कहता हूं कि वेद और उपनिषद भौतिकवाद विरोधी नहीं हैं। कहानियां तुम उठा कर देखो।
जनक ने एक बहुत बड़े शास्त्रार्थ का आयोजन किया है। एक हजार गौओं, सुंदर गौओं को, उनके सींगों को सोने से मढ़ कर, हीरे-जवाहरात जड़ कर महल के द्वार पर खड़ा किया है कि जो भी शास्त्रार्थ में विजेता होगा, वह इन गौओं को ले जाएगा। ऋषि-मुनि आए हैं, बड़े विद्वान पंडित आए हैं। विवाद चल रहा है। कौन जीतेगा, पता नहीं! दोपहर हो गई, गौएं धूप में खड़ी हैं। तब याज्ञवल्क्य आया--उस समय का एक अदभुत ऋषि। रहा होगा मेरे जैसा आदमी! आया अपने शिष्यों के साथ--रहे होंगे तुम जैसे संन्यासी। महल में प्रवेश करने के पहले अपने शिष्यों से कहा कि सुनो, गौओं को घेर कर आश्रम ले जाओ! गौएं थक गईं, पसीने-पसीने हुई जा रही हैं। रहा विवाद, सो मैं जीत लूंगा।
हजार गौएं, सोने से मढ़े हुए उनके सींग, हीरे-जवाहरात जड़े हुए। याज्ञवल्क्य की हिम्मत देखते हो! यह कोई अभौतिकवादी है? और इसकी हिम्मत देखते हो! और इसका भरोसा देखते हो! यह भरोसा केवल उन्हीं को हो सकता है जिन्होंने जाना है। पंडित विवाद कर रहे थे। वे तो आंखें फाड़े, मुंह फाड़े रह गए--जब उन्होंने देखा कि गौएं तो याज्ञवल्क्य के शिष्य घेर कर ले ही गए! उनकी तो बोलती बंद हो गई। किसी ने खुसफुसाया जनक को कि यह क्या बात है, अभी जीत तो हुई नहीं है! लेकिन याज्ञवल्क्य ने कहा कि जीत होकर रहेगी, मैं आ गया हूं। जीत होती रहेगी, लेकिन गौएं क्यों तड़पें?
और याज्ञवल्क्य जीता। उसकी मौजूदगी जीत थी। उसके वक्तव्य में बल था, क्योंकि अनुभव था। अब जिसके आश्रम में हजार गौएं हों, सोने से मढ़े हुए सींग हों, उसका आश्रम कोई दीन-हीन आश्रम नहीं हो सकता। उसका आश्रम सुंदर रहा होगा, सुरम्य रहा होगा, सुविधापूर्ण रहा होगा।
आश्रम समृद्ध थे। उपनिषद और वेदों में दरिद्रता की कोई प्रशंसा नहीं है, कहीं भी कोई प्रशंसा नहीं है। दरिद्रता पाप है, क्योंकि और सब पाप दरिद्रता से पैदा होते हैं। दरिद्र बेईमान हो जाएगा, दरिद्र चोर हो जाएगा, दरिद्र धोखेबाज हो जाएगा। स्वाभाविक है, होना ही पड़ेगा।
समृद्धि से सारे सदगुण पैदा होते हैं, क्योंकि समृद्धि तुम्हें अवसर देती है कि अब बेईमानी की जरूरत क्या है? जो बेईमानी से मिलता, वह मिला ही हुआ है।
लेकिन एक समय आया इस देश का, जब पश्चिम से लुटेरे आए, सैकड़ों हमलावर आए--हूण आए, तुर्क आए, मुगल आए, फिर अंग्रेज, पुर्तगीज--और यह देश लुटता ही रहा, लुटता ही रहा! और यह देश दीन होता चला गया।
और ध्यान रखना, मनुष्य का मन हर चीज के लिए तर्क खोज लेता है। जब यह देश बहुत दीन हो गया, तो अब अपने अहंकार को कैसे बचाएं? तो हमने दीनता की प्रशंसा शुरू कर दी। हम कहने लगे: अंगूर खट्टे हैं। जिन अंगूरों तक हम पहुंच नहीं सकते, उनको हम खट्टे कहने लगे! और हम कहने लगे: अंगूरों में हमें रस ही नहीं है। जैसे हम दरिद्र हुए, वैसे ही हम दरिद्रता का यशोगान करने लगे। यह अपने अहंकार को समझाना था, लीपा-पोती करनी थी। और अब भी यह लीपा-पोती चल रही है।
इसे तोड़ना होगा। यह देश समृद्ध हो सकता है, इस देश की भूमि फिर सोना उगल सकती है। मगर तुम्हारी दृष्टि बदले तो। तुम्हारे भीतर वैज्ञानिक सूझ-बूझ पैदा हो तो। कोई कारण नहीं है दरिद्र रहने का। और एक बार तुम समृद्ध हो जाओ तो तुम्हारे भीतर भी आकाश को छूने की आकांक्षा बलवती होने लगेगी। फिर करोगे क्या? जब धन होता, पद होता, प्रतिष्ठा होती, सब होता है, फिर तुम करोगे क्या? फिर प्रश्न जीवन के--आत्यंतिक प्रश्न उठने शुरू होते हैं--मैं कौन हूं? ये भरे पेट ही उठ सकते हैं। भूखे भजन न होई गोपाला। यह भजन, यह कीर्तन, यह गीत, यह आनंद, यह उत्सव भरे पेट ही हो सकता है। और परमात्मा ने सब दिया है। अगर वंचित हो तो तुम अपने कारण से वंचित हो। अगर वंचित हो तो तुम्हारी गलत धारणाओं के कारण तुम वंचित हो।
अमरीका की कुल उम्र तीन सौ साल है। और तीन सौ साल की उम्र में आकाश छू लिया! सोने के ढेर लगा दिए! और यह देश कम से कम दस हजार साल से जी रहा है, और हम रोज दीन होते गए! रोज दरिद्र होते चले गए! यहां तक दरिद्र हो गए कि अपनी दरिद्रता को हमें सुंदर वस्त्र पहनाने पड़े--दरिद्रनारायण! हमें दरिद्रता के गुणगान गाने पड़े। हमने दरिद्रता को अध्यात्म बनाना शुरू कर दिया।
जर्मनी का एक विचारक, काउंट कैसरलिंग, जब भारत से वापस लौटा तो उसने भारत की यात्रा की अपनी डायरी लिखी। उस डायरी में उसने जगह-जगह एक बात लिखी है जो बड़ी हैरानी की है। उसने लिखा: भारत जाकर मुझे पता चला कि दरिद्र होने में अध्यात्म है। भारत जाकर मुझे पता चला कि बीमार, रुग्ण, दीन-हीन होने में अध्यात्म है। भारत जाकर मुझे पता चला कि उदास, मुर्दा होने में अध्यात्म है।
तुमसे मैं कहना चाहता हूं: ऐसा चलता रहा तो कोई आशा की किरण नहीं है, रामानंद! आशा की एक किरण है--सिर्फ एक किरण--कि यह देश समृद्ध होने की अभीप्सा से भरे। फिर उस अभीप्सा से अपने आप अध्यात्म का जन्म होगा।
हवा में इन दिनों जहरीला सरूर है।
हर एक सर उठाए है
गोवर्धन परेशानियों के
हर एक अधमरा है
अनिश्चयों और बेहालियों से
हर एक है हर एक से नाराज
पर टहलता है होकर बगलगीर
रिश्ता आदमी का आदमी से
चकनाचूर है।
हवा में इन दिनों जहरीला सरूर है।

कोई बात है कि आदमी
सब सह कर भी बच रहता है
आंसुओं में हंस सकता है,
दुखों में भी नच सकता है
दुश्मनी के दायरों, दौरों में
वह चीते की तरह है चौकन्ना
अपनपे की हद पर जिसे
मर जाना मंजूर है।
हवा में इन दिनों जहरीला सरूर है।
हवा में बहुत जहर छाया हुआ है। प्रेम की जगह घृणा के बीज हमने बोए हैं--हिंदू के, मुसलमान के, ईसाई के, जैन के...! खंड-खंड हो गए हैं। अध्यात्म अखंड हवा में पैदा होता है। हमने भाईचारा तक छोड़ दिया है, मैत्री तक भूल गए हैं, प्रार्थना कैसे पैदा होगी? हम प्रेम के दुश्मन हो गए हैं, प्रार्थना कैसे पैदा होगी? और मैं अगर प्रेम की बात करता हूं तो सारा देश गालियां देने को तैयार है।
प्रेम न करोगे तो तुम कभी प्रार्थना भी न कर सकोगे। क्योंकि यह प्रेम का ही इत्र है प्रार्थना। पत्नी को किया प्रेम, पति को किया प्रेम, मित्र को किया, बेटे को, मां को, भाई को, पिता को, बंधु-बांधवों को, और सब जगह पाया कि प्रेम बड़ा है और प्रेम का पात्र छोटा पड़ जाता है। तुम उंडेलते हो, पात्र छोटा पड़ जाता है। पूरा तुम्हें झेल नहीं पाता। ऐसे अनेक-अनेक अनुभव होंगे, तब एक दिन तुम उस परम पात्र को खोजोगे--परमात्मा को--जिसमें तुम अपने को उंडेल दो, तुम छोटे पड़ जाओ, पात्र छोटा न पड़े, कि तुम पूरे के पूरे चुक जाओ। तुम सागर हो और छोटी-छोटी गागरों में अपने को उंडेल रहे हो; तृप्ति नहीं मिलती। कैसे मिलेगी? सागर को उंडेलना हो तो आकाश चाहिए। मगर सागर आकाश तक आए, इसके पहले बहुत गागरों का अनुभव अनिवार्य है।
प्रेम करो! जीवन की निसर्गता से विरोध न करो, जीवन का निषेध न करो। जीवन का अंगीकार करो, अहोभाव से अंगीकार करो। क्योंकि उसी अंगीकार से फिर एक दिन तुम परमात्मा को भी अंगीकार कर सकोगे। परमात्मा यहीं छिपा है--इन्हीं वृक्षों में, इन्हीं लोगों में, इन्हीं पहाड़ों, इन्हीं पर्वतों में। तुम इस अस्तित्व को प्रेम करना सीखो। तुम्हारा तथाकथित धर्म तुम्हें अस्तित्व को घृणा करना सिखाता है। बाहर जो है निसर्ग, उसको भी घृणा करना सिखाता है और तुम्हारे भीतर जो है निसर्ग, उसे भी घृणा करना सिखाता है। निसर्ग को प्रेम करो, क्योंकि निसर्ग परमात्मा का घूंघट है। निसर्ग को प्रेम करो तो घूंघट उठा सकोगे।
आशा की किरण तो निश्चित है। आशा की किरण तो कभी नष्ट नहीं होती। रात कितनी ही अमावस की आ गई हो, सुबह तो होगी। सुबह तो होकर रहेगी। अमावस की रात कितनी ही लंबी हो, और कितना ही यह देश गलत धारणाओं में डूब गया हो, लेकिन फिर भी कुछ लोग हैं जो सोच रहे, विचार रहे, ध्यान कर रहे हैं। वे ही थोड़े से लोग तो धीरे-धीरे मेरे पास इकट्ठे हुए जा रहे हैं।
रोटी का मारा
यह देश
अभी कमल को
सही पहचानता है।
माना भूखा है, माना दीन-हीन है; मगर कुछ आंखें अभी भी आकाश की तरफ उठती हैं। कीचड़ बहुत है, मगर कमल की पहचान बिलकुल खो गई हो, ऐसा भी नहीं है। लाख में किसी एकाध को अभी भी कमल पहचान में आ जाता है, प्रत्यभिज्ञा हो जाती है। नहीं तो तुम यहां कैसे होते? जितनी गालियां मुझे पड़ रही हैं, जितना विरोध, जितनी अफवाहें, उन सबके बावजूद भी तुम यहां हो। जरूर तुम कमल को कुछ पहचानते हो। लाख दुनिया कुछ कहे, सब लोकलाज छोड़ कर भी तुम मेरे साथ होने को तैयार हो। आशा की किरण है।
रोटी का मारा
यह देश
अभी कमल को
सही पहचानता है।
तल के पंक तक फैली
जल की गहराई से
उपजे सौंदर्य को
भूख के आगे झुके बिना
--धुर अपना मानता है।

रूखी रोटी पर तह-ब-तह
ताजा मक्खन लगा कर
कच्ची बुद्धिवाले कुछ लोगों के
हाथ में थमा कर
कृष्ण-कृष्ण कहते हुए
जो उनका कमल
छीन लेना चाहते हैं
उनकी नियत को
भलीभांति जानता है।

भोले का भक्त है
फक्कड़ है
पक्का पियक्कड़ है
बांध कर अंगौछा
यहीं गंगा के घाट पर
दोनों जून छानता है;
किंतु मौका पड़ने पर
हर हर महादेव कहते हुए
प्रलयंकर त्रिशूल भी तानता है।

रोटी का मारा
यह देश
अभी कमल को
ठीक-ठीक पहचानता है।
पहचान बिलकुल मर नहीं गई है। खो गई है, बहुत खो गई है। कभी-कभी कोई आदमी मिलता है--कोई आदमी, जिससे बात करो, जो समझे। मगर अभी आदमी मिल जाते हैं। भीड़ अंधी हो गई है, मगर सभी अंधे नहीं हो गए हैं। लाख, दो लाख में एकाध आंख वाला भी है, कान वाला भी है, हृदय वाला भी है। उसी से आशा है। अभी भी कुछ लोग तैयार हैं कि परमात्मा की मधुशाला कहीं हो तो द्वार पर दस्तक दें कि खोलो द्वार। अभी भी कुछ लोग तैयार हैं कि कहीं बुद्धत्व की संभावना हो तो हम उससे जुड़ जाएं, चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े। अभी भी कुछ लोग तैयार हैं कि कहीं पियक्कड़ों की जमात बैठे तो हम भी पीएं, हम भी डूबें; चाहे दांव कुछ भी लगाना पड़े, चाहे दांव जीवन ही क्यों न लग जाए।
इसलिए आशा की किरण है, रामानंद! आशा की किरण नहीं खो गई है। निराश होने का कोई कारण नहीं है। सच तो यह है, जितनी रात अंधेरी हो जाती है, उतनी ही सुबह करीब होती है। रात बहुत अंधेरी हो रही है, इसलिए समझो कि सुबह बहुत करीब होगी। लोग बहुत क्षुद्र बातों के अंधेरे में खो रहे हैं, इसलिए समझो कि अगर सत्य प्रकट हुआ, प्रकट किया गया, तो पहचानने वाले भी जुड़ जाएंगे, सत्य के दीवाने भी इकट्ठे हो जाएंगे। और सत्य संक्रामक होता है। एक को लग जाए, एक को छू जाए, तो फैलता चला जाता है। एक जले दीये से अनंत-अनंत दीये जल सकते हैं।
आशा है, बहुत आशा है। निराश होने का कोई कारण नहीं है। उसी आशा के भरोसे तो मैं काम में लगा हूं। जानता हूं कि भीड़ नहीं पहचान पाएगी, लेकिन यह भी जानता हूं कि उस भीड़ में कुछ अभिजात हृदय भी हैं, उस भीड़ में कुछ प्यासे हृदय भी हैं--जो तड़प रहे हैं और जिन्हें कहीं जल-स्रोत दिखाई नहीं पड़ता; जहां जाते हैं, पाखंड है; जहां जाते हैं, व्यर्थ की बकवास है; जहां जाते हैं, शास्त्रों का तोता-रटंत व्यवहार है, पुनरुक्ति है। वैसे कुछ लोग हैं। थोड़े से वैसे ही लोग इकट्ठे होने लगें कि संघ निर्मित हो जाए। संघ निर्मित होना शुरू हो गया है। यह मशाल जलेगी। यह मशाल इस अंधेरे को तोड़ सकती है। सब तुम पर निर्भर है!

दूसरा प्रश्न:
भगवान, आज के प्रवचन में अणुव्रत की आपने बात की। मेरा जन्म उसी परिवार से है जो आचार्य तुलसी के अनुयायी हैं। बचपन से ही आचार्य तुलसी के उपदेशों ने कभी हृदय को नहीं छुआ। अभी उन्होंने अपना उत्तराधिकारी आचार्य मुनि नथमल को आचार्य महाप्राज्ञ नाम देकर बनाया है। वे ठीक आपकी ही स्टाइल में प्रवचन देते हैं, मगर उन्होंने भी कभी हृदय को नहीं छुआ। और आपके प्रथम प्रवचन को सुनते ही आपके चरणों में समर्पित होने का भाव पूरा हो गया और समर्पण कर दिया। यह किस जन्म की प्यास थी जो आपका इंतजार कर रही थी? बताने की कृपा करें।
कृष्ण सत्यार्थी! आचार्य तुलसी को मैं भलीभांति जानता हूं। दो-तीन बार मिलना हुआ है। नितांत थोथापन है, और कुछ भी नहीं। कैसे हृदय को छुएंगे तुम्हारे? हृदय हो तो हृदय को छुआ जा सकता है। बस बातचीत है, शास्त्रों की व्याख्या है, विश्लेषण है। वह भी मौलिक नहीं; वह भी उधार, उच्छिष्ट।
आचार्य तुलसी का निमंत्रण था मुझे, तो गया मिलने। कहा: एकांत में मिलेंगे। बहुत लोग उत्सुक थे कि दोनों की बात सुनें। मगर उन्होंने कहा कि नहीं, बस सिर्फ एक मेरे शिष्य मुनि नथमल रहेंगे, और कोई नहीं रहेगा। सब लोगों को विदा कर दिया गया। मैंने कहा भी कि हर्ज क्या है? और लोगों को भी रहने दें। वे भी सुनें, चुपचाप बैठे रहें। क्यों उन्हें वंचित करते हैं? बड़ी आशा से आए हैं। कोई सौ, डेढ़ सौ लोगों की भीड़ थी। मगर वे राजी नहीं हुए। मैं थोड़ा हैरान हुआ कि उन्हें क्या अड़चन है!
लेकिन पीछे पता चला कि अड़चन थी। लोग जब विदा हो गए तब उन्होंने पूछा: ध्यान के संबंध में समझाएं, ध्यान कैसे करूं? तब मेरी समझ में आया, दो सौ, डेढ़ सौ लोगों के सामने पूछना कि मैं ध्यान कैसे करूं, मुश्किल बात होती। उसका तो अर्थ होता कि अभी ध्यान हुआ ही नहीं। सात सौ जैन साधुओं के आचार्य हैं वे और हजारों तेरापंथियों के गुरु हैं। अभी गुरु को, आचार्य को ध्यान नहीं हुआ! यह तो खबर आग की तरह फैल जाती। इसे एकांत में ही पूछना जरूरी था।
मैंने कहा: ध्यान नहीं हुआ आपको! तो फिर आप अब तक करते क्या रहे हैं? फिर लोगों को क्या समझा रहे हैं? जब आपको ही ध्यान नहीं हुआ तो लोगों को क्या समझाएंगे? लोगों को क्या बांटेंगे?
उन्होंने कहा: इसीलिए तो आपको निमंत्रित किया कि समझ लूं कि ध्यान कैसे करना है।
लेकिन वह बात भी झूठ थी। वह बात भी राजनीतिज्ञ की बात थी। आचार्य तुलसी में मुझे शुद्ध राजनीति दिखाई पड़ी। सीखने के लिए नहीं उन्होंने मुझे बुलाया था। प्रयोजन कुछ और था, वह पीछे साफ हुआ। वे मुझसे प्रश्न पूछने लगे ध्यान के संबंध में, मैं ध्यान के संबंध में उन्हें समझाने लगा और मुनि नथमल नोट लेने लगे।
मैंने बीच में कहा भी कि नोट लेने की कोई जरूरत नहीं है। आपको भी अवसर मिला है, आप भी चुपचाप बैठ कर समझ लें। मैं मौजूद हूं तब समझ लें। नोट लेने में ही समय खराब मत करें।
नहीं, लेकिन आचार्य तुलसी ने कहा: उन्हें नोट लेने दें, ताकि हमारे पीछे काम आ सकें।
समझ की कमी हो तो ही नोट की जरूरत है। नहीं तो नोट क्या लेना है! लेकिन प्रयोजन और ही था। तेरापंथियों का सम्मेलन था, कोई बीस हजार लोग इकट्ठे थे। दोपहर मुझे तेरापंथियों के सम्मेलन में बोलना था। मुनि नथमल ने सारे नोट ले लिए जो घंटे डेढ़ घंटे मेरी बात आचार्य तुलसी से हुई।
अचानक, कार्यक्रम का यह हिस्सा नहीं था; मुझे बोलना था, मेरे बोलने की घोषणा करने के पहले आचार्य तुलसी ने कहा कि मुझसे बोलने के पहले मुनि नथमल बोलेंगे। तब मुझे पता चला कि नोट्‌स लेने का प्रयोजन क्या था। मुनि नथमल ने शब्दशः, जो मेरी डेढ़ घंटे बात हुई थी, वह दोहरायी, शब्दशः!
न उन्हें ध्यान का पता है, न उनके गुरु को ध्यान का पता है--और ध्यान क्या है, यह समझाया! तब प्रयोजन साफ हुआ। प्रयोजन यह था कि मैं ध्यान के संबंध में लोगों को समझाऊंगा, उसके पहले मुनि नथमल बोलें, ताकि लोगों को जाहिर हो जाए कि ध्यान तो हम भी जानते हैं। कोई ऐसा नहीं कि हमारे मुनि ध्यान नहीं जानते।
लेकिन मुझे तो आप जानते हैं कि मुझे विरोधाभास में कोई अड़चन नहीं है। मैंने खंडन किया। दोनों चौंके। दोनों आंखें फाड़-फाड़ कर देखने लगे कि बात क्या हुई! जो मैं बोला था डेढ़ घंटे और जिसको मुनि नथमल ने दोहराया था तोते की तरह, उसका मैंने शब्दशः खंडन किया। एक-एक इंच खंडन किया। रात जब आचार्य तुलसी से फिर मिलना हुआ, उन्होंने कहा कि आप हैरान करते हैं! आपने ही तो ये बातें कही थीं।
मैंने कहा: अब आप समझे? मैंने कहा था लोगों को रहने दो। अगर लोग रहते तो मैं खंडन न कर पाता। आप राजनीति खेले। मैं कोई राजनीतिज्ञ नहीं हूं, लेकिन राजनीतिज्ञों के खेल पहचान सकता हूं।
वे नोट्‌स किसलिए लिए गए थे, यह भी जाहिर हो गया। अचानक बिना पूर्व-कार्यक्रम के मुनि नथमल को क्यों मुझसे पहले बुलवाया गया, वह भी जाहिर हो गया। लेकिन एक अड़चन हुई। आखिर जब तुम किसी और की बात दोहराओ तो उसमें प्राण नहीं होते, उसमें बल नहीं होता। ओंठों पर ही होती है; उसमें तुम्हारे हृदय की धड़कन नहीं होती। उसमें तुम्हारे खून का प्रवाह नहीं होता। उसमें तुम्हारे रक्त की गर्मी नहीं होती।
तो मुनि नथमल ने दोहरा दिया, जैसे तोते दोहराते हैं--राम-राम, तोता-राम, सीता-राम! अब तोते को क्या लेना सीता से! क्या लेना राम से! उसे पता भी नहीं कि कौन सीता, कौन राम! मगर तोते को सिखा दिया तो तोता दोहराता है। अब तोते को तुम दोहराते सुन कर राम-राम सोचते हो कि तुम्हें एकदम से राम की याद आ जाएगी? कि तुम झुक कर तोते को प्रणाम करोगे? तो दोहराया तो उन्होंने और सोचा था इस आशा में कि जिस तरह लोग मेरी बात से आंदोलित होते हैं, प्रभावित होते हैं, झंकृत होते हैं--ऐसे ही झंकृत हो जाएंगे। कुछ झंकार न हुई। तो उसके लिए भी बहाना खोजा कि झंकार न होने का कारण यह है कि इतने लोग और मुनि नथमल बिना माइक के बोले। तब तक आचार्य तुलसी और उनके मुनि माइक से नहीं बोलते थे। क्योंकि जैन शास्त्रों में, माइक से बोलना चाहिए, इसका कोई उल्लेख नहीं है। तो उस दिन उन्होंने यह बहाना निकाला कि लोग इसलिए प्रभावित नहीं हुए। यद्यपि मुनि नथमल ने पूरी ताकत लगाई जितनी लगा सकते थे, मगर लोगों तक आवाज नहीं पहुंची। उसी दिन तेरापंथ में माइक से बोलने का मुनियों ने काम शुरू किया, कि शायद माइक की कमी थी।
आत्मा की कमी थी, माइक की कमी नहीं थी। माइक से भी तोते को बुलवाओगे तो माना कि बहुत लोगों तक शोरगुल पहुंचाएगा, ज्यादा लोगों तक खबर पहुंचेगी--सीता-राम! सीता-राम! मगर तोता तोता है। तोते पर भरोसा नहीं किया जा सकता। और तोते की आंखों में दीये नहीं जलते। तोता बोलता तो है, मगर ऐसा नहीं लगता कि तोता समझता है।
आचार्य तुलसी ने, तुम कह रहे हो कि अब उन्हीं मुनि नथमल को अपना उत्तराधिकारी बना लिया है। तोते तोतों को खोज लेते हैं। यह बिलकुल स्वाभाविक है। तुम उस घर में पैदा हुए, उस परिवार में पैदा हुए, फिर भी तुम्हें वे प्रभावित न कर पाए। कारण सीधा-साफ है। तुममें थोड़ी सी बुद्धि है, इसलिए। तुममें थोड़ी सी चमक है, तुममें थोड़ा विचार है, तुममें थोड़ी धार है--इसलिए। तुम अगर बिलकुल बोथले होते तो तुम्हें प्रभावित करते। लेकिन तुम्हारे पास आंखें हैं देखने वाली और इसलिए प्रभावित नहीं कर पाए। तुम समझ सकते हो इतनी बात कि हृदय से आती है या सिर्फ ओंठों से। तुम इतनी बात पहचान सकते हो कि यह गीत अपना है या पराया या बासा।
तुम कहते हो कि वे आपकी ही स्टाइल में प्रवचन देते हैं।
वह भी सीखा हुआ है। यह जान कर तुम हैरान होओगे कि जो सर्वाधिक मेरे विरोध में हैं, वे सर्वाधिक मेरी किताबें पढ़ते हैं। जैन मुनियों के जितने आर्डर आश्रम को उपलब्ध होते हैं किताबों के लिए, उतने किसी और के नहीं। ऐसा कोई जैन मुनि कि जैन साध्वी नहीं जो मेरी किताबें न पढ़ती हो। लेकिन उन किताबों को पढ़ कर तुम यह मत सोचना कि वे कुछ समझते हैं, या उनके जीवन में कोई रूपांतरित होना है, या उनके जीवन में कोई क्रांति की अभीप्सा है। नहीं, उन किताबों को पढ़ते हैं ताकि प्रवचन दे सकें, ताकि शैली पकड़ में आ जाए। क्योंकि उन सबको खयाल है कि मेरी शैली में कुछ बात होगी, इससे लोग प्रभावित हैं।
शैली में कुछ भी नहीं है। मेरे पास कोई शैली है? मेरे बोलने में कोई ढंग है? मेरे जैसा बेढंगा बोलने वाला देखा? मेरा बोलना वैसे ही है जैसे मैं कुछ दिन पहले तुम्हें उल्लेख किया था कि एक कवि ने एक जाट को देखा कि सिर पर खाट लिए जा रहा है। कवि बोला: जाट रे जाट, तेरे सिर पर खाट!
और जाट भी कैसे चुप रह जाए! जाट ने कहा: कवि रे कवि, तेरी ऐसी की तैसी।
कवि ने कहा: काफिया नहीं बैठता, तुकबंदी नहीं बैठती।
जाट ने कहा कि तुकबंदी बैठे कि न बैठे, मुझे जो कहना था सो कह दिया।
ऐसा मेरे कहने का ढंग है। यह कोई शैली है? शैली के कारण नहीं तुम मुझसे जुड़ गए हो। जुड़ने के कारण आंतरिक हैं, बाह्य नहीं हैं। मेरे पास न तो शास्त्रीय शब्द हैं, न शास्त्रीय सिद्धांत हैं। न मैं संस्कृत जानता, न प्राकृत, न पाली, न अरबी, न लैटिन, न ग्रीक! लेकिन अपने को जानता हूं। परमात्मा को जानता हूं। और उस जानने में सब जान लिया गया।
एक जगह मैं बोल रहा था। मैंने कहा कि महावीर ने ऐसा कहा है। एक जैन पंडित खड़े हो गए। काशी की बात है। उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं कहा है। आप सुधार करें।
मैंने कहा: मैं सुधार करने में भरोसा नहीं करता। अगर सुधार ही करना हो तो आप अपनी किताब में जिसमें महावीर का वचन हो, वहां सुधार कर लेना।
वे तो एकदम भौचक्के खड़े रह गए। उन्होंने कहा: आप क्या कहते हैं? महावीर की वाणी में सुधार कर लेना!
मैंने कहा कि मैं अपने को जान कर बोल रहा हूं। अगर महावीर ने नहीं कहा है, तो कहना चाहिए था, जोड़ दो। मैं गवाही हूं कि कहना ही चाहिए था।
नागपुर में था। एक प्रवचन में मैंने बुद्ध के जीवन की एक कहानी का उल्लेख किया। बौद्ध भिक्षु, एक प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु, मुझे मिलने आए सांझ। उन्होंने कहा: कहानी तो प्यारी थी, मगर मैं सब शास्त्र पढ़ गया, कहीं नहीं है। आप किस प्रमाण पर, किस आधार पर यह कहानी कहे?
मैंने कहा: कहानी खुद अपने में प्रमाण लिए है, स्वतः प्रमाण्य है।
उन्होंने कहा: स्वतः प्रमाण्य?
मैंने कहा: नहीं घटी तो घटनी चाहिए थी।
कहानी छोटी सी थी कि बुद्ध एक गांव से गुजर रहे हैं। अभी बुद्धत्व उपलब्ध नहीं हुआ, उसके पहले की बात है। बस दो-चार दिन पहले की बात है। करीब ही करीब है सुबह। शायद भोर के पहले-पहले पक्षी जाग भी गए, आखिरी तारे डूबने भी लगे। प्राची लाल हो उठी है, बस सूरज निकला-निकला। ऐसे बस दो-चार दिन बचे हैं। और बुद्ध एक गांव से गुजर रहे हैं। आनंद साथ है। आनंद ने कोई प्रश्न पूछा है, उसका उत्तर दे रहे हैं। तभी एक मक्खी उनके सिर पर आ बैठी। तो उस मक्खी को हाथ से उड़ा दिया। दो कदम चले; फिर ठहर गए। फिर से हाथ माथे की तरफ ले गए। अब वहां कोई मक्खी नहीं है, वह तो कब की उड़ गई। फिर से मक्खी उड़ाई, जो है ही नहीं!
आनंद ने पूछा: आप क्या कर रहे हैं? पहली बार तो मक्खी थी, इस बार मैं कोई मक्खी नहीं देखता। आप किसको उड़ा रहे हैं?
बुद्ध ने कहा: पहली बार मैंने यंत्रवत उड़ा दी, वह भूल हो गई। मूर्च्छित उड़ा दी। तुमसे बात करता रहा और मक्खी उड़ा दी। ध्यानपूर्वक नहीं। हाथ की चोट भी लग सकती थी मक्खी को। मक्खी मर भी सकती थी। यह तो जागरूक चित्त का व्यवहार नहीं है। चूक हो गई। अब इस तरह उड़ा रहा हूं जिस तरह पहले उड़ानी चाहिए थी। अब ध्यानपूर्वक उड़ा रहा हूं। हालांकि मक्खी नहीं है, लेकिन अभ्यास तो हो जाए; फिर कभी मक्खी बैठे तो ऐसी भूल न हो। तो अब मक्खी नहीं है, लेकिन उड़ा रहा हूं ध्यानपूर्वक। मेरा पूरा हाथ ध्यान से भरा हुआ है। अब यंत्रवत नहीं उड़ा रहा हूं।
बौद्ध भिक्षु ने कहा: कहानी तो बड़ी प्यारी लगी, मगर लिखी कहां है?
मैंने कहा: लिखी हो या न लिखी हो। लिखा-लिखी की बात ही कहां है! लिख लो! और जल्दी ही मेरी किसी किताब में लिख जाएगी, फिर पढ़ लेना, अगर लिखे का ही भरोसा है।
नहीं, उन्होंने कहा: मेरा मतलब यह नहीं। मेरा मतलब यह कि ऐतिहासिक है या नहीं?
मैंने कहा: इतिहास की अगर चिंता करने चलो, तब तो बुद्ध भी ऐतिहासिक हैं या नहीं, तय करना मुश्किल हो जाएगा। कृष्ण ऐतिहासिक हैं या नहीं, तय करना मुश्किल हो जाएगा। हुए भी इस तरह के लोग कभी या नहीं हुए, यह तय करना मुश्किल हो जाएगा। अगर इतिहास की ही चिंता करते हो तब तो बुद्ध भी सिद्ध नहीं होंगे।
और फिर, ये अंतर की घटनाएं इतिहास की रेत पर चरण-चिह्न नहीं छोड़तीं। ये अंतर की घटनाएं तो जैसा दरिया कहते हैं--आकाश में जैसे पक्षी उड़े और पैरों के चिह्न न छूटें, कि पानी में मीन चले और पीछे कोई निशान न छूटे!
इतिहास तो क्षुद्र की गणना करता है। इतिहास का कोई बड़ा मूल्य नहीं है। इतिहास तो व्यर्थ का हिसाब-किताब रखता है। मैं तो जो कह रहा हूं, वह इतिहास नहीं है, पुराण है। और पुराण समाप्त नहीं होता। पुराण एक प्रक्रिया है। बुद्ध आते रहेंगे और बुद्धों के जीवन में जोड़ते रहेंगे--नई कथाएं, नये बोध, नये प्रसंग, नये आयाम। हर बुद्ध अपने अतीत बुद्धों के जीवन में नये रंग डाल जाता है, नये जीवन डाल जाता है। फिर-फिर पुनः-पुनः पुनरुज्जीवित कर जाता है।
तुम्हारे पास अगर हृदय है, तो कोई उपाय ही नहीं है, तुम मेरे हृदय के साथ धड़कोगे। और वही हुआ, कृष्ण सत्यार्थी!
धर्म का कोई संबंध जन्म से नहीं है। काश, धर्म इतना आसान होता कि जन्म से ही धर्म मिल जाता, तो सभी दुनिया में लोग धार्मिक होते--कोई ईसाई, कोई हिंदू, कोई मुसलमान! लेकिन जन्म से धर्म का कोई संबंध नहीं है। जन्म से धर्म का संबंध जोड़ना वैसा ही मूढ़तापूर्ण है, जैसे कोई किसी कांग्रेसी के घर में पैदा हो और कहे कि मैं कांग्रेसी हूं, क्योंकि मैं कांग्रेसी घर में पैदा हुआ। तो तुम भी हंसोगे कि पागल हो गए हो! कम्युनिस्ट के घर में पैदा हुए तो कम्युनिस्ट हो गए!
पैदा होने से विचार का कोई संबंध नहीं है। धर्म का भी कोई संबंध नहीं है। धर्म तो और गहरी बात है, निर्विचार की बात है। विचार तक का संबंध नहीं जुड़ता जन्म से तो निर्विचार का तो कैसे जुड़ेगा?
लेकिन तुम सौभाग्यशाली हो कि तुम लीक पर न चले। अन्यथा लोग लीक पर चलते हैं। लीक में सुविधा है। जहां सभी भीड़ चल रही है, जिस भीड़ में तुम पैदा हुए हो, अगर तेरापंथियों की भीड़ है तो चले तुम भी तेरापंथियों की भीड़ में, मुसलमानों की तो मुसलमानों की, हिंदुओं की तो हिंदुओं की--चले भीड़ में! भीड़ में सुविधा है, पिता भी जा रहे, मां भी जा रही, भाई भी जा रहे, मित्र भी जा रहे, परिवार, पड़ोस, सब जा रहा। अकेले तुम अलग-अलग चलो तो चिंता पैदा होती है, संशय जगते हैं, दुविधाएं उठती हैं--कि पता नहीं मैं ठीक कर रहा हूं कि गलत! भीड़ में यह रहता है, जब इतने लोग कर रहे हैं तो ठीक ही कर रहे होंगे। और मजा यह है कि उनमें से हरेक यही सोच रहा है कि जब इतने लोग कर रहे हैं तो ठीक ही कर रहे होंगे।
भीड़ में एक तरह की सुरक्षा है। लेकिन भीड़ तुम्हें भेड़ बना देती है। और जो भेड़ बन गया, वह क्या परमात्मा को पाएगा! क्या सत्य को पाएगा! उसे पाने के लिए तो सिंह होना पड़ता है, सिंहनाद करना होता है। उसके लिए तो चलना पड़ता है अपना ही रास्ता बना कर।
हां, कभी-कभी जब तुम्हें किसी सिंह की दहाड़ सुनाई पड़ जाएगी, तो तुम्हारे भीतर सोया हुआ सिंह जग जाएगा। तोतों की बातें सुन कर ज्यादा से ज्यादा तुम तोते हो सकते हो, बस और कुछ नहीं हो सकता। सिंह की दहाड़ सुन कर शायद तुम्हारी छाती में सोई हुई, सोई जन्मों-जन्मों से जो प्रतिभा है, अंकुरित हो उठे।
तुमने उस बूढ़े सिंह की कहानी तो सुनी न, जिसने एक दिन देखा कि एक जवान सिंह भेड़ों के बीच घसर-पसर भागा जा रहा है! वह बड़ा हैरान हुआ, ऐसा चमत्कार कभी देखा न था! और भेड़ें उससे परेशान भी नहीं हैं, उसी के साथ भाग रही हैं। इस ब़ूढे सिंह को देख कर भाग रही हैं और जवान सिंह उन्हीं के बीच में भागा जा रहा है! बूढ़े से रहा न गया। दौड़ा, बामुश्किल पकड़ पाया। पकड़ा सिंह को। जवान सिंह रिरियाए, मिमियाए। क्योंकि संयोग से वह भेड़ों के बीच ही बड़ा हुआ था। उसकी मां एक छलांग लगा रही थी एक टीले से दूसरे टीले पर और बीच में ही बच्चे का जन्म हो गया। मां तो छलांग लगा कर चली गई, बच्चा गिर पड़ा नीचे भेड़ों के एक झुंड में। उसी में बड़ा हुआ, घास-पात चरा। उन्हीं की भाषा सीखी, रिरियाना-मिमियाना सीखा, डरना-घबड़ाना सीखा। उसे याद भी आए तो कैसे आए कि मैं सिंह हूं! चेताए तो कौन चेताए! सारी भेड़ें भागती थीं सिंह को देख कर तो वह भी भागता था--अपने वालों के साथ। लेकिन इस बूढ़े सिंह ने उसे पकड़ा। वह गिड़गिड़ाए, पसीना-पसीना! जवान सिंह पसीना-पसीना! बूढ़ा कहे कि तू शांत तो हो। मगर वह कहे: मुझे छोड़ो! मुझे जाने दो! मेरे लोग जा रहे हैं! वे सब तेरापंथी चले! और तुम मुझे रोक रहे हो। मुझे जान बख्शो।
मगर बूढ़ा नहीं माना। उसे घसीट कर तालाब के किनारे ले गया और कहा कि झांक तालाब में! और देख मेरा चेहरा और तेरा चेहरा!
दोनों ने झांका, बस एक क्षण में क्रांति घट गई। एक दहाड़ उठी। उस जवान सिंह की छाती में सोई हुई गर्जना उठी। पहाड़ कंप गए, घाटियां गूंज उठीं।
कुछ कहा नहीं, बस चेहरा दिखा दिया। जवान सिंह को दिखाई पड़ गया कि अरे, मैं भी भेड़ों में जी रहा था! मैं तो ऐसा ही हूं जैसे तुम! मैं तो वैसा ही हूं जैसा यह सिंह! बस इतना बोध!
सदगुरु का इतना ही काम है कि पकड़ ले तुम्हें। तुम चाहे कितने ही मिमियाओ-रिरियाओ, भागो, वह पकड़ कर तुम्हें ले ही जाए किसी दर्पण के पास। उसके सारे वक्तव्य दर्पण हैं। उसकी मौजूदगी दर्पण है। उसका सत्संग दर्पण है। वह तुम्हें अपना चेहरा पहचानने की व्यवस्था करा रहा है। और एक ही उपाय है कि वह अपनी अंतरात्मा तुम्हारे सामने उघाड़ कर रख दे, कि तुम देख सको कि अरे, यही तो मेरे भीतर भी है! और उठे हुंकार! और तुम भी भर जाओ ओंकार के नाद से! और तुम्हारे भीतर भी सिंह की गर्जना हो!
ऐसा ही कुछ हुआ होगा, कृष्ण सत्यार्थी! तुम पहली ही बार आए और समर्पित हो गए, संन्यस्त हो गए। अब लौट कर जाओ तो भेड़ें तुम्हें बहुत दिक्कत देंगी। वे कहेंगी कि चलो तेरापंथ में वापस! यह तुम्हें क्या हुआ? होश गंवा दिया? सम्मोहित कर लिए गए? अपने परिवार का धर्म, अपना धर्म गंवाया? कुछ तो लोकलाज का सोचा होता। कुछ तो परिवार की प्रतिष्ठा की चिंता की होती! अगर संन्यस्त ही होना था तो आचार्य तुलसी से होते या मुनि नथमल से होते। तुम कहां इस उपद्रवी आदमी के हाथों में पड़ गए! यह तुम्हें भटकाएगा, यह तुम्हें खतरों में ले जाएगा।
घर जाओगे तो भेड़ें थोड़ी दिक्कत देंगी, तुम घबड़ाना मत। जब भी भेड़ें थोड़ी दिक्कत दें, तेरापंथी इकट्ठे हों, एकदम सिंहनाद करना। आचार्य तुलसी भी कंपेंगे और मुनि नथमल भी कंपेंगे।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, मैं दुख से इतना परिचित हूं कि सुख का मुझे भरोसा ही नहीं आता है। एक दुख गया कि दूसरा आया, बस ऐसा ही सिलसिला चलता रहता है। क्या कभी मैं सुख के दर्शन पा सकूंगा? मार्ग दिखावें कि सुख पाने के लिए क्या करूं? मैं सब कुछ करने को तैयार हूं।
रामविलास! दुख अकेला नहीं आता। कोई दुख अकेला नहीं आता। क्योंकि कोई दुख अकेला नहीं जी सकता। दुख की श्रृंखला होती है, जैसे जंजीरों की श्रृंखला होती है। कड़ियों में कड़ियां पोई होती हैं। ऐसे दुख के पीछे दुख आते हैं। एक दुख दूसरे दुख को लाता है। और ऐसे ही सुख की भी श्रृंखला होती है। एक सुख दूसरे सुख को लाता है। तुम्हारे हाथ में है कि तुम कौन सी श्रृंखला को शुरू करो। अगर तुम अपने भीतर सुख जन्माओ तो बाहर भी तुम्हारे जीवन में सुख ही सुख फैल जाएगा।
जीसस का बड़ा प्रसिद्ध वचन है और बड़ा अनूठा: जिनके पास है, उन्हें और दिया जाएगा; और जिनके पास नहीं है उनसे वह भी छीन लिया जाएगा जो उनके पास है!
तर्कयुक्त नहीं मालूम होता। न्याययुक्त नहीं मालूम होता। होना तो दूसरी बात चाहिए। कहना था जीसस को: जिनके पास नहीं है, उन्हें दिया जाएगा; और जिनके पास है, उनसे छीन लिया जाएगा। यह कहते तो बात न्याययुक्त मालूम होती। मगर यह क्या बात कही कि जिनके पास है, उन्हें और दिया जाएगा!
ठीक कहा लेकिन, जीवन का वही परम नियम है। तुम्हारे पास जो हो, वही तुम्हारे प्रति आकर्षित होने लगता है। अगर सुख है तो चारों तरफ से सुख की धाराएं तुम्हारी तरफ बहने लगेंगी। अगर दुख है तो दुख की धाराएं बहने लगेंगी। और अगर तुम बाहर के दुखों को काटने में लग गए और यह याद ही न किया कि भीतर दुख का चुंबक तुमने बना रखा है, तो तुम काटते रहो बाहर दुख, इससे कुछ अंतर न पड़ेगा; दुख आते रहेंगे और तुम्हें और-और सताते रहेंगे। तुम्हारे चारों तरफ नरक निर्मित हो जाएगा।
लेकिन जड़ अगर समझ में आ जाए कि भीतर है, तो दुख को काट देना कठिन नहीं। एक तलवार की चोट में दुख काटा जा सकता है। और मजे की बात, कि दुख के जाते ही जो शेष रह जाता है वही सुख है। सुख दुख के विपरीत नहीं है, सुख दुख का अभाव है। जहां दुख नहीं है, वहां जो रह गया शेष, वह सुख है। इसलिए सुख की कोई परिभाषा भी नहीं हो सकती। जैसे स्वास्थ्य की कोई परिभाषा नहीं हो सकती। पूछो चिकित्सकों से स्वास्थ्य की परिभाषा। वे कहेंगे: जो बीमार नहीं, वह स्वस्थ। अगर तुम जाओ अपने स्वास्थ्य का परीक्षण करवाने तो क्या तुम सोचते हो तुम्हारे स्वास्थ्य का कोई परीक्षण कर सकता है? परीक्षण तो तुम्हारी बीमारियों का किया जाता है, स्वास्थ्य का कोई परीक्षण हो ही नहीं सकता। अब तक कोई यंत्र नहीं है जो खबर दे सके कि यह आदमी स्वस्थ है। हां, हजार यंत्र हैं जो खबर देते हैं कि यह आदमी इस बीमारी, उस बीमारी से भरा है। जब सभी बीमारी बताने वाले यंत्र कह देते हैं कि कोई बीमारी नहीं, तो चिकित्सक कह देता है कि तुम स्वस्थ हो।
तो स्वास्थ्य का अर्थ हुआ: बीमारी का अभाव। ऐसे ही सुख का अर्थ होता है: दुख का अभाव।
सबसे बड़ा दुख क्या है? सबसे बड़ा दुख यह है कि तुम सदा सोचते हो कि दुख बाहर से आते हैं। यह सबसे मौलिक आधारभूत बात समझने की है। दुख बाहर से नहीं आते; तुम बुलाते हो तो आते हैं। कोई अतिथि बिना बुलाए नहीं आता। सब मेहमान तुम्हारे बुलाए आते हैं। हां, यह हो सकता है कि तुम जो प्रेम-पातियां लिखते हो दुख को, वे इतनी मूर्च्छा में लिखते हो कि तुम्हें पता ही नहीं चलता कि कब तुमने लिख भेजीं। बेहोशी में बुला लेते हो, फिर तड़पते हो।
मुल्ला नसरुद्दीन से कोई कह रहा था: धन्य है वह युवक जिसकी मासिक आय केवल पचहत्तर रुपये हो, फिर भी वह एक भले आदमी की तरह जीवन बिता रहा हो।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा: इतने रुपये में वह और कर भी क्या सकता है?
दुख के खरीदने के लिए भी सुविधा चाहिए। दुख के खरीदने के लिए भी अवसर चाहिए, समय चाहिए, अनुकूलता चाहिए। दुख भी मुफ्त नहीं मिलता, बड़ा श्रम करना पड़ता है! सच तो यह है, सुख मुफ्त मिलता है और दुख मुफ्त नहीं मिलता। क्योंकि सुख तुम्हारा स्वभाव है, मिला ही हुआ है; सिर्फ दुख से आच्छादित न होने दो। और दुख पर-भाव है, मिला हुआ नहीं है, बाहर से पकड़ना पड़ता है।
तुम भी पकड़ने को उत्सुक हो दुख, क्योंकि दुख में बड़े न्यस्त स्वार्थ हैं। कई खूबी की बातें हैं दुख में, नहीं तो हर कोई पकड़े क्यों? बड़ी खूबी तो यह है कि दुखी आदमी पर सब दया करते हैं, सब सहानुभूति करते हैं। दुखी आदमी की सब सेवा करते हैं। दुखी आदमी की कोई निंदा नहीं करता। कोई ईर्ष्या नहीं करता दुखी आदमी से। जिससे जितना बने, दुखी की सेवा ही करते हैं सब। ये दुख की खूबियां हैं। तुम अगर रोओ तो लोग तुम्हारे आंसू पोंछते हैं। तुम अगर हंसो तो लोग एकदम ईर्ष्या से भर जाते हैं।
तुम्हारे मकान में आग लग जाए तो सारा मोहल्ला संवेदना प्रकट करने आता है। जरा गौर से देखना, उनकी संवेदना के भीतर बड़ा रस है, कि भीतर-भीतर वे कह रहे हैं कि धन्यवाद भगवान का, कि इसी का जला, अपना न जला; और जलना ही था, पाप का भंडाफोड़ होता ही है! भीतर वे यह कह रहे हैं, ऊपर यह कह रहे हैं: बड़ा बुरा हुआ, बड़ा बुरा हुआ! बड़ी सहानुभूति दिखा रहे हैं--कि फिर बन जाएगा, अरे मकान ही है! हाथ का मैल है पैसा तो, फिर कमा लोगे! अब दुखी न होओ, जो हुआ सो ठीक हुआ! चलो, कोई रहा होगा पिछले जन्म का पाप, कट गया, झंझट मिटी! मकान तो फिर बन जाएगा। बड़ी ऊंची ज्ञान की बातें करेंगे वे। सहानुभूति दिखाएंगे। लेकिन तुम अगर एक बड़ा मकान बना लो तो पड़ोस में से कोई नहीं आएगा तुम्हें धन्यवाद देने कि हम खुश हैं, हम प्रसन्न हैं कि तुमने बड़ा मकान बना लिया। लोग, रास्ते पर मिल जाओगे तो कन्नी काट जाएंगे, बच कर निकल जाएंगे।
मैं कलकत्ते में एक घर में मेहमान होता था। कलकत्ते का सबसे सुंदर मकान है वह। बड़ा बगीचा है, सारा मकान संगमरमर का है। बच्चे हैं नहीं परिवार को और धन बहुत है। वे सदा, जब भी मैं उनके घर रुकता था, तो अपना मकान दिखलाते, बार-बार, कई दफा दिखला चुके थे। बगीचे में ले जाते, यह दिखलाते, वह दिखलाते।
एक बार मैं गया, उन्होंने मकान की बात ही न उठाई, तो मैं थोड़ा चिंतित हुआ। वे तो मकान ही मकान से भरे रहते थे। मैंने कहा: हुआ क्या तुम्हें? एकदम तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए, या क्या हुआ? मकान का क्या हुआ? कुछ बात ही नहीं करते इस बार मकान की! मैं तो इतने दूर से आता हूं यही बात सुनने।
उन्होंने कहा: अब बात ही नहीं करनी मकान की। अभी साल, दो साल बात ही नहीं कर सकता।
बात क्या है? आखिर बात के पीछे कुछ बात होगी!
उन्होंने कहा: बात यह है, देखते नहीं पड़ोस में!
उनसे बड़ा मकान उठ कर खड़ा हो गया है। और उनका दिल बैठ गया, उनकी छाती टूट गई।
मैंने उनसे कहा: तुम्हारा मकान तो जैसा है वैसा ही है, तुम क्यों परेशान हो रहे हो?
उन्होंने कहा: अब वैसा ही नहीं है, यह बड़ा मकान देखते हो!
तब मुझे याद आई अकबर की कहानी। उसने एक दिन अपने दरबार में एक लकीर खींची थी और कहा था दरबारियों को: इसे बिना छुए छोटा कर दो। कोई न कर सका था। फिर उठा बीरबल, उसने एक बड़ी लकीर उस लकीर के नीचे खींच दी। उसे छुआ नहीं और वह छोटी हो गई।
मैं उनकी पीड़ा समझा। मैंने उनसे कहा: जाकर कम से कम पड़ोस के आदमी को धन्यवाद तो दे आओ।
उन्होंने कहा: धन्यवाद! कल आपका निमंत्रण है उसके घर, मुझे भी निमंत्रण दिया है। मैं भी जानता हूं कि क्यों दिया है। दिखलाने के लिए। मैं आने वाला नहीं, आपको अकेले ही जाना पड़ेगा।
वे नहीं गए। इस संसार में दुखी आदमी के लिए सहानुभूति करने वाले लोग मिल जाते हैं। सुखी आदमी से सिर्फ ईर्ष्या करने वाले लोग मिलते हैं। तो दुख में एक न्यस्त स्वार्थ हो जाता है। तुम सहानुभूति में रस लेते हो। इसीलिए तो लोग अपने दुख की गाथाएं कहते हैं एक-दूसरे से, दुख की कहानियां सुनाते हैं। न सुनना चाहें, उनको भी सुनाते हैं।
एक कवि के यहां एक श्रोता फंसा
पहले तो वह उसे देख कर हंसा
फिर उसे दया आई
उसने फौरन दो कप चाय मंगाई
खुद भी पी, उसे भी पिलाई
उसके बाद कवि जी मूड में आए
तीन घंटे में बीस मुक्तक और इक्कीस गीत सुनाए
श्रोता ने जाने के लिए कदम बढ़ाया
तो पीछे खड़े पहलवान का आदेशात्मक स्वर आया:
‘उठने की कोशिश बेकार है, वहीं बैठे रहिए।’
श्रोता ने पूछा: ‘आप कौन हैं?’
‘मैं कवि जी का नौकर हूं,
इसी बात की तनख्वाह पाता हूं
जबरदस्ती गीत सुनवाता हूं
जब सुनने वाला बेहोश हो जाता है
तो उसे अस्पताल भी पहुंचाता हूं।’
श्रोता बोला: ‘दो घंटे और सुनता रहा
तो प्राणपखेरू उड़ जाएंगे।’
पहलवान की आवाज आई:
‘कवि जी पूरा काव्य नहीं सुनाएंगे
तो ये मर जाएंगे।’
एक घंटे बाद श्रोता ने कहा:
‘कवि जी आज्ञा दीजिए
अब हम घर जा रहे हैं।’
पहलवान की फिर आवाज आई:
‘आप अभी से घबड़ा रहे हैं
इनके पिताजी भी कवि हैं
इसके बाद वे आ रहे हैं।’
फिर एक दुख के पीछे दूसरा दुख चला आता है। फिर बेटा गया तो पिताजी आ रहे हैं। लेकिन शुरुआत--तुम गए ही काहे को कवि जी के घर? और जब वे हंसे थे तभी क्यों न निकल भागे? और जब एक कप चाय पिलाई थी तब ही क्यों न चौंके? जब चाय पी ली तो फिर निकलना मुश्किल हो जाता है। फिर नमक खाओ तो बजाना भी पड़ता है, नहीं तो लोग कहते हैं: नमकहराम!
सावधानी पहले से बरतो। दुख का मूल कहां है? दुख का मूल है अहंकार में। मैं हूं, इस भाव में दुख का मूल है। यह सारी बीमारियों की जड़ है, सारी बीमारियां इसी के पत्ते हैं। और इसे तुम छोड़ते नहीं, इसे तुम पकड़ कर बैठे हो। और यह बिलकुल सरासर झूठ है। तुम नहीं हो, परमात्मा है। मैं नहीं हूं, परमात्मा है। लहर समझ रही है अपने को कि मैं हूं, जब कि सागर है, लहर कहां? और फिर जब तुम झूठ को जीने लगते हो तो फिर उस झूठ को सम्हालने के लिए और न मालूम क्या-क्या झूठ इकट्ठे करने पड़ते हैं। एक झूठ को सम्हालने के लिए फिर हजार झूठों के टेके लगाने पड़ते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन मुझसे कह रहा था: आज मैंने अपनी बीबी को घुटनों के बल चलवा दिया।
अच्छा! मैंने पूछा: हुआ क्या? कैसे यह हुआ? यह घटना तो बड़ी अनहोनी है। बीबियां घुटनों के बल पतियों को सदा चलवाती रहीं। तुमने कैसे चलवा दिया?
नसरुद्दीन मुस्कुराया, उसने कहा कि आखिर हम भी कुछ हैं।
मैंने पूछा कि जब घुटनों के बल बीबी चली तो बोली क्या?
तो कहा: बोली, खाट के नीचे से निकलो तो देखती हूं तुम्हें!
एक झूठ कि मैं कुछ हूं। तो फिर पच्चीस झूठ इकट्ठे करने पड़ते हैं। झूठ झूठ के ही भोजन पर जीता है। तो मौलिक झूठ को पहचान लो: तुम नहीं हो। तुम इस विराट अस्तित्व के एक अंग हो। इस विराट के साथ अखंड हो, एक हो। भिन्न मानोगे, बस पीड़ा उठेगी। अभिन्न जानोगे, सुख ही सुख बरस जाएगा। अमी झरत, बिगसत कंवल!
मगर नहीं, लाख दिक्कतें आएं, तुम इस ‘मैं’ को नहीं छोड़ते।
मुल्ला नसरुद्दीन का सुपुत्र काफी देर से मैदान में पत्थर बीन रहा था। मैं बहुत देर तक तो चुपचाप देखता रहा। फिर मैंने उससे पूछा: बेटे! यह क्या कर रहे हो?
कुछ नहीं, पत्थर बीन रहा हूं। पिताजी का कहना है कि मैदान के जितने पत्थर आज बीनोगे, उतनी ही टाफियां तुम्हें दूंगा। आपको मालूम नहीं, आज उन्हें इसी मैदान में कविता पढ़नी है--आज्ञाकारी पुत्र ने उत्तर दिया।
पत्थर बिनवाए जा रहे हैं, क्योंकि पता है कविता का कि इधर तुमने कविता पढ़ी कि श्रोताओं ने पत्थर फेंके।
मुल्ला नसरुद्दीन जब भी कविता पढ़ने जाता है, तो पहले जाता है सब्जी बाजार में, जितने सड़े केले इत्यादि, टमाटर, सब खरीद लेता है। क्योंकि नहीं तो वही फिंकेंगे कवि-सम्मेलन में। लेकिन कविता पढ़ना नहीं छोड़ता।
वही दशा है तुम्हारी। अहंकार इतने दुख लाता है, इतने सड़े टमाटर तुम पर बरसते हैं--कहां अमी झरत! कहां बिगसत कंवल! सड़े टमाटर, केलों के छिलके, कंकड़-पत्थर। मगर अपनी सुरक्षा किए, जितने ही कंकड़-पत्थर बरसते हैं उतने ही अपने अहंकार को बचाए, कि कहीं चोट न खा जाए, सम्हाले जी रहे हो--सो दुख पा रहे हो।
तुम कहते हो: ‘मैं दुख से इतना परिचित हूं कि सुख का मुझे भरोसा ही नहीं आता।’
मैं समझ सकता हूं, कैसे सुख का भरोसा आए? दुख ही दुख जाना है।
‘एक दुख गया कि दूसरा आया। बस ऐसा ही सिलसिला चलता रहा है।’
चलता रहेगा, जब तक तुम जागोगे नहीं।
‘क्या कभी मैं सुख के दर्शन पा सकूंगा?’
निश्चित पा सकते हो। कभी क्यों, अभी! लेकिन मूल जड़ काट दो।
‘मार्ग दिखावें कि सुख पाने के लिए मैं क्या करूं? मैं सब कुछ करने को तैयार हूं।’
ईमान से कह रहे हो कि सब कुछ करने को तैयार हो? सब कुछ करने को मैं कह भी नहीं रहा। मैं तो थोड़ा सा कुछ करने को कह रहा हूं: यह अहंकार जाने दो और फिर देखो। यह मैं-भाव क्षीण होने दो। अपने को अस्तित्व से भिन्न न समझो। दर्शक और दृश्य को एक होने दो। जितने बार हो सके, एक होने दो। सुबह सूरज उगता हो, देखते-देखते उसी में लीन हो जाओ। न वहां तुम रहो, न सूरज, बस एक ही घटना घट जाए--सूरज ही सूरज! कि सांझ सूरज को डूबते देखते हो, एक हो जाओ। कि फूल को खिलते देखते हो, कि दूर मत खड़े रहो, फूल के साथ खिलो। कि वृक्ष से गिरते पत्तों को देखते हो, कि दूर मत रहो, पत्तों के साथ गिरो। जितने अवसर मिलें चौबीस घंटे में, कोई अवसर मत चूको, जब कि तुम अपने को डुबा सको, मिटा सको, मिला सको। पिघलो, जैसे धूप में बर्फ पिघल जाए, ऐसे तुम इस सान्निध्य में पिघलो। उसी पिघलने से एक दिन तरल हो जाओगे। और तरल हो गए कि चल पड़े सागर की तरफ, कि चल पड़े सुख की तरफ। सुख तुम्हारा स्वभाव-सिद्ध अधिकार है।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, मुझे वह इक नजर, इक जाविदानी सी नजर दे दे! बस एक नजर, जो अमृत को पहचान ले, प्रभु।
सत्संग! वह नजर रोज-रोज तुम्हें दे रहा हूं। और वह नजर थोड़ी-थोड़ी तुम्हें मिलनी शुरू भी हो गई है। इसीलिए प्रश्न उठा है। स्वाद लगता है तो और-और पाने की अभीप्सा जगती है। पूछता ही वही है ऐसे प्रश्न जिसकी जीभ पर एकाध बूंद अमृत की पड़ी। वह पड़ना शुरू हो गई है। बूंदा-बांदी होनी शुरू हो गई है। अब अपने को बचाना मत, छिपाना मत। ये जो अपूर्व अनुभव उतरने शुरू हो रहे हैं, इनको किसी तरह झुठलाना मत--कल्पना कह कर, स्वप्न कह कर, द्वार-दरवाजे बंद मत कर लेना।
लोग आनंद पर भरोसा नहीं करते। जब आता है आनंद तो भी उनको संदेह होता है कि पता नहीं क्या हो रहा है! आनंद और मुझे! हो ही नहीं सकता। जरूर मैं किसी भ्रम में पड़ रहा हूं।
इसीलिए तो यहां आए लोग जैसे-जैसे आनंद में डूबते हैं, बाहर के लोग समझते हैं कि सम्मोहित हो गए। जब बाहर के दर्शक यहां आते हैं, पत्रकार यहां आते हैं, तो वे यही समझते हैं: ये सारे लोग सम्मोहित हो गए! इतनी मस्ती आदमी में होती ही कहां है! जरूर ये होश में नहीं हैं। ये किसी नशे में हैं, इनको कोई नशा करवा दिया गया है। स्थूल कि सूक्ष्म, कोई नशे में डुबा दिया गया है।
हजार लोग तुम्हें संदेह उठाएंगे तुम्हारे आनंद पर। तुम्हारी आंख जो पैदा होनी शुरू हुई है, उस आंख को लोग अंधा कहेंगे, क्योंकि यह प्रेम की आंख है और प्रेम को लोग अंधा कहते हैं। गणित को आंख वाला कहते हैं, तर्क को आंख वाला कहते हैं, बुद्धि को आंख वाला कहते हैं, हृदय को अंधा कहते हैं। तुम्हें लोग अंधा कहेंगे। तुम्हें लोग दीवाना कहेंगे। तुम्हें लोग पागल कहेंगे।
‘सत्संग’ की वैसी ही हालत हो रही है। घर के लोगों ने तो बिलकुल पागल समझ लिया, तो सत्संग को घर छोड़ देना पड़ा। अभी कल मुझे खबर मिली कि अब ‘सत्संग’ कोई मकान खोजते हैं, मगर कोई मकान किराए पर देने को राजी नहीं! पागलों को कोई मकान किराए पर देता है! क्या भरोसा क्या करो--नाचो, गाओ कि कूदो। कि लोग पूछते होंगे: कुंडलिनी ध्यान तो नहीं करोगे? सक्रिय ध्यान तो नहीं करने लगोगे? और दूसरे गैरिक दीवानों को तो घर में न ले आओगे?
बाहर लोग इतने दुख में जी रहे हैं कि तुम्हारे जीवन में जब सुख की झलक आएगी, पहली बार फागुन आएगा, पहली बार फाग जन्मेगी, गुलाल उड़ेगी, तो लोग भरोसा नहीं करेंगे। और चूंकि तुम भी सदा लोगों पर भरोसा करते रहे हो, तुम्हें भी बड़ी चिंता पैदा होगी--इतने लोग गलत तो नहीं हो सकते, कहीं मैं ही तो गलत नहीं हूं? अनेक-अनेक बार यह मन में शंका उठेगी।
सत्संग! आंख तो पैदा होनी शुरू हो गई है। मुझे तो दिखाई पड़ रही है कि आंख थोड़ी-थोड़ी खुलने लगी। हां, थोड़ा रंध्र ही अभी खुला है, मगर उतना ही क्या कम है! उतना खुला है तो और खुलेगा। जिनके पास है, उन्हें और दिया जाएगा।
आया फागुन
अकुलाया मन।
हवा करे अब
बंसी वादन।
झूम रहे हैं
पेड़ों के तन।
पतझड़ जीवन
आओ साजन।
तोड़ो आकर
कसते बंधन।
याद तुम्हारी
भरती सिहरन।
बड़ी हठीली
मन की दुल्हन।
युग से तड़पे
बन कर विरहन।
मिलो झूम कर
कहता फागुन।
आओ आओ
आया फागुन।
फागुन आ गया! नाचो! पद घुंघरू बांध नाचो!
मौसम ने लगा कर
मस्ती का दांव,
जगा दिया नयनों में
सुधियों का गांव।
छम-छम पैजनियां हैं,
पग-पग बहार की,
द्वारे दस्तक हुई
फागुनी बयार की।

पत्ते भी झूम-झूम
दे रहे ताल,
सजाया फूलों ने
महकता गुलाल,
मन में घुमड़ रही बातें
सौ-सौ प्यार की,
द्वारे दस्तक हुई
फागुनी बयार की।

बंसी पर थिरक उठे
फिर बिखरे बोल,
जल में पंछियों से
कर रहे किलोल।
चंचल अधरों पर
बातें आरपार की,
द्वारे दस्तक हुई
फागुनी बयार की।
द्वार पर दस्तक दी है फागुन ने, खोलो द्वार! थोड़ा तुमने खोला है, जरा सा तुमने खोला है। उतने से रोशनी आनी शुरू हुई है। पूरे द्वार खोल दो! सब द्वार खोल दो! सब खिड़कियां खोल दो! यह चार दिन का जीवन है, इसे उत्सव से जीना है, इसे महोत्सव बनाना है। दुनिया पागल कहे तो कहने दो, क्योंकि यह परमात्मा के रास्ते पर पागल हो जाने से बड़ी और कोई बुद्धिमानी नहीं है, और कोई बड़ी प्रज्ञा नहीं है।
साथ हुए तुम,
लगे क्षण बहके-बहके,
पोर-पोर चंदन से महके।

तन को सिहराए है
धूप की कनी,
मांग का सिंदूर जब
हर छुअन बनी।
पारस स्पर्श
देह कंचन बन दहके।

बार-बार पर तौले
तितली सा मन
देहरी में उग आए
केशर के वन।
मन का हर फूल हंसा
जाने क्या कह के!
घट रही है अनघट घटना। छिटक मत जाना, भटक मत जाना। दिशा मिल गई है, अब नाक की सीध चले चलो। आंख मिल रही है, मिलती रहेगी। और यह आंख ऐसी है कि खुलती है, खुलती जाती है। इसका कोई अंत नहीं है। एक दिन यह सारा आकाश तुम्हारी आंख बन जाता है। एक दिन परमात्मा की आंखें तुम्हारी आंखें होती हैं।
यह बड़ी लंबी यात्रा है। मगर पहला कदम उठ गया है, तुम धन्यभागी हो। और बहुतों का भी उठ गया है, वे सब धन्यभागी हैं। मेरे पास बड़भागियों का मेला जुट रहा है।

आज इतना ही।

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