DARIYADAS
AMI JHARAT BIGSAT KANWAL 09
Ninth Discourse from the series of 14 discourses - AMI JHARAT BIGSAT KANWAL by Osho. These discourses were given during MAR 11 -24 1979.
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जाके उर उपजी नहिं भाई। सो क्या जाने पीर पराई।।
ब्यावर जाने पीर की सार। बांझ नार क्या लखे विकार।।
पतिब्रता पति को ब्रत जानै। बिभचारिन मिल कहा बखानै।।
हीरा पारख जौहरि पावै। मूरख निरख के कहा बतावै।।
लागा घाव कराहै सोई। कोतगहार के दर्द न कोई।।
रामनाम मेरा प्रान-अधार। सोई रामरस-पीवनहार।।
जन दरिया जानेगा सोई। प्रेम की भाल कलेजे पोई।।
जो धुनिया तो मैं भी राम तुम्हारा।
अधम कमीन जाति मतिहीना, तुम तो हौ सिरताज हमारा।।
काया का जंत्र, सब्द मन मुठिया, सुषमन तांत चढ़ाई।
गगन-मंडल में धुनिया बैठा, मेरे सतगुरु कला सिखाई।।
पाप-पान हरि कुबुधि-कांकड़ा, सहज-सहज झड़ जाई।
घुंडी गांठ रहन नहिं पावै, इकरंगी होए आई।।
इकरंग हुआ भरा हरि चोला, हरि कहै कहा दिलाऊं।
मैं नाहिं मेहनत का लोभी, बकसो मौज भक्ति निज पाऊं।।
किरपा करि हरि बोले बानी, तुम तो हौ मम दास।
दरिया कहै मेरे आतम भीतर, मेलौ राम भक्ति-बिस्वास।।
तुम रूप-राशि, मैं रूप-रसिक,
अवगुंठन खोलो, दर्शन दो!
मानस में मेरे आन बसो,
कुटिया मेरी जगमग कर दो!
युग-युग से प्यास लिए मन में,
फिरता आया इस-उस जग में,
ठहराव कहीं भी पा न सका,
अभिशप्त रहा हर जीवन में!
क्षणभंगुर रूप दिखा इत-उत,
हर जगती में, हर जीवन में,
तृष्णा-ज्वाला जलती ही रही,
हर जीवन में प्रतिपल मन में।
अब द्वार तुम्हारे आया हूं,
रूपसि, खोलो पट, दर्शन दो!
तुम रूप-राशि, मैं रूप-रसिक,
अवगुंठन खोलो, दर्शन दो!
मानस में मेरे आन बसो,
कुटिया मेरी जगमग कर दो!
हो मधुप कुसुम सा प्रणय-मिलन,
रसमय पीड़ा का उद्वेलन,
परिणय हो प्राप्ति कामना का,
प्राणों का प्राणों से मधुर मिलन!
सुन पाया मन तव आवाहन,
रससिक्त, मदिर, मृदु उदबोधन,
वंशी-ध्वनि का सा आवाहन,
ब्रज-वनिताओं सा उद्वेलन!
हर्षित पर शंकित, व्याकुल मन,
रूपसि, खोलो पट, दर्शन दो!
तुम रूप-राशि, मैं रूप-रसिक,
अवगुंठन खोलो, दर्शन दो!
मानस में मेरे आन बसो,
कुटिया मेरी जगमग कर दो!
युग-युग की संचित आशाएं,
प्रियकर पावन अभिलाषाएं,
चिर-सुख की सुंदर आशाएं,
चिर-शांति-मुक्ति अभिलाषाएं!
तन, मन, प्राणों की निधियां ले,
मृदु आदि-काल की सुधियां ले,
दे सकता जो, वह सब कुछ ले,
अपना जो कुछ, वह सब कुछ ले,
मैं अर्घ्य लिए द्वारे आया,
रूपसि, खोलो पट, दर्शन दो!
तुम रूप-राशि, मैं रूप-रसिक,
अवगुंठन खोलो, दर्शन दो!
मानस में मेरे आन बसो,
कुटिया मेरी जगमग कर दो!
भक्त का हृदय एक प्रार्थना है, एक अभीप्सा है--परमात्मा के द्वार पर एक दस्तक है। भक्त के प्राणों में एक ही अभिलाषा है--कि जो छिपा है वह प्रकट हो जाए, कि घूंघट उठे, कि वह परम प्रेमी या परम प्रेयसी मिले! इससे कम पर उसकी तृप्ति नहीं। उसे कुछ और चाहिए नहीं। और सब चाह कर देख भी लिया। चाह-चाह कर सब देख लिया। सब चाहें व्यर्थ पाईं। दौड़ाया बहुत चाहों ने, पहुंचाया कहीं भी नहीं।
जन्मों-जन्मों की मृग-तृष्णाओं के अनुभव के बाद कोई भक्त होता है। भक्ति अनंत-अनंत जीवन की यात्राओं के बाद खिला फूल है। भक्ति चेतना की चरम अभिव्यक्ति है। भक्ति तो केवल उन्हीं को उपलब्ध होती है जो बड़भागी हैं। नहीं तो हम हर बार फिर उन्हीं चक्करों में पड़ जाते हैं। बार-बार फिर कोल्हू के बैल की तरह चलने लगते हैं।
मनुष्य के जीवन में अगर कोई सर्वाधिक अविश्वसनीय बात है तो वह यह है कि मनुष्य अनुभव से कुछ सीखता नहीं। उन्हीं-उन्हीं भूलों को दोहराता है। भूलें भी नई करे तो भी ठीक; बस पुरानी ही पुरानी भूलों को दोहराता है। रोज-रोज वही, जन्म-जन्म वही। भक्ति का उदय तब होता है जब हम जीवन से कुछ अनुभव लेते हैं, कुछ निचोड़।
निचोड़ क्या है जीवन का?--कि कुछ भी पा लो, कुछ भी पाया नहीं जाता। कितना ही इकट्ठा कर लो और तुम भीतर दरिद्र के दरिद्र ही रहे आते हो। धन तुम्हें धनी नहीं बनाता--जब तक कि वह परम धनी न मिल जाए, वह मालिक न मिले। धन तुम्हें और भीतर निर्धन कर जाता है। धन की तुलना में भीतर की निर्धनता और खलने लगती है।
मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा, सब धोखे हैं, आत्मवंचनाएं हैं। कितना ही छिपाओ अपने घावों को, अपने घावों के ऊपर गुलाब के फूल रख दो; इससे घाव मिटते नहीं। भूल भला जाएं क्षण भर को, भरते नहीं। दूसरों को भला धोखा हो जाए, खुद को कैसे धोखा दोगे? तुम तो जानते ही हो, जानते ही हो, जानते ही रहोगे कि भीतर घाव है, ऊपर गुलाब का फूल रख कर छिपाया है। सारे जगत को भी धोखा देना संभव है, लेकिन स्वयं को धोखा देना संभव नहीं है।
जिस दिन यह स्थिति प्रगाढ़ होकर प्रकट होती है, उस दिन भक्त का जन्म होता है। और भक्त की यात्रा विरह से शुरू होती है। क्योंकि भक्त के भीतर एक ही प्यास उठती है अहर्निश--कैसे परमात्मा मिले? कहां खोजें उसे? उसका कोई पता और ठिकाना भी तो नहीं। किससे पूछें? हजारों हैं उत्तर देने वाले, लेकिन उनकी आंखों में उत्तर नहीं। और हजारों हैं शास्त्र लिखने वाले, लेकिन उनके प्राणों में सुगंध नहीं। हजारों हैं जो मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में प्रार्थनाएं कर रहे हैं, लेकिन उनकी प्रार्थनाओं में आंसुओं का गीलापन नहीं है। उनकी प्रार्थनाओं में हृदय का रंग नहीं है--रूखी हैं, सूखी हैं, मरुस्थल सी हैं। और प्रार्थना कहीं मरुस्थल होती है? प्रार्थना तो मरूद्यान है; उसमें तो बहुत फूल खिलते हैं, बहुत सुवास उठती है। हां, बाहर की आरती तो लोगों ने सजा ली है, लेकिन भीतर कर दीया बुझा है। और बाहर तो धूप-दीप का आयोजन कर लिया है, और भीतर सब शून्य है, रिक्त है।
भक्त को यह पीड़ा खलती है। भक्त इस झूठी भक्ति से अपने मन को बहला नहीं सकता। ये खिलौने अब उसके काम के न रहे। अब तो असली चाहिए। अब कोई नकली चीज उसे न भा सकती है, न भरमा सकती है, तो गहन विरह की आग जलनी शुरू होती है। प्यास उठती है, और चारों तरफ झूठे पानी के झरने हैं। और जितनी झूठे पानी के झरने की पहचान होती है, उतनी ही प्यास और प्रगाढ़ होती है। एक ऐसी घड़ी आती है जब भक्त धू-धू कर जलती हुई एक प्यास ही रह जाता है। उस प्यास के संबंध में ही ये प्यारे वचन दरिया ने कहे हैं।
जाके उर उपजी नहिं भाई। सो क्या जाने पीर पराई।।
यह विरह ऐसा है कि जिस हृदय में उठा हो, वही पहचान सकेगा। यह पीर ऐसी है। यह अनूठी पीड़ा है! यह साधारण पीड़ा नहीं है।
साधारण पीड़ा से तो तुम परिचित हो। कोई है जिसे धन की प्यास है। और कोई है जिसे पद की प्यास है। नहीं मिलता तो पीड़ा भी होती है। बाहर की पीड़ाओं से तो तुम परिचित हो। लेकिन भीतर की पीड़ा को तो तुमने कभी उघाड़ा नहीं। तुमने भीतर तो कभी आंख डाल कर देखा ही नहीं कि वहां भी एक पीड़ा का निवास है। और ऐसी पीड़ा का कि जो पीड़ा भी है और साथ ही बड़ी मधुर भी। पीड़ा है, क्योंकि सारा संसार व्यर्थ मालूम होता है। और मधुर, क्योंकि पहली बार उसी पीड़ा में परमात्मा की धुन बजने लगती है। पीड़ा--जैसे छाती में किसी ने छुरा भोंक दिया हो! ऐसा बिंधा रह जाता है भक्त।
लेकिन फिर भी यह पीड़ा सौभाग्य है। क्योंकि इसी पीड़ा के पार उसका द्वार खुलता है, उसके मंदिर के पट खुलते हैं। यह पीड़ा सूली भी है और सिंहासन भी। इधर सूली, उधर सिंहासन। एक तरफ सूली, दूसरी तरफ सिंहासन। इसलिए पीड़ा बड़ी रहस्यमय है। भक्त रोता भी है, लेकिन उसके आंसू और तुम्हारे आंसू एक ही जैसे नहीं होते।
हां, वैज्ञानिक के पास ले जाओगे परीक्षण करवाने, तो वह तो कहेगा कि एक ही जैसे हैं। दोनों खारे हैं--इतना नमक है, इतना जल है, इतना-इतना क्या-क्या है, सब विश्लेषण करके बता देगा। भक्त के आंसुओं में और साधारण दुख के आंसुओं में वैज्ञानिक को भेद दिखाई न पड़ेगा।
इसलिए वैज्ञानिक परम मूल्यों के संबंध में अंधा है। तुम तो जानते हो आंसुओं आंसुओं का भेद। कभी तुम आनंद से भी रोए हो। कभी तुम दुख से भी रोए हो। कभी क्रोध से भी रोए हो। कभी मस्ती से भी रोए हो। तुम्हें भेद पता है। लेकिन भेद आंतरिक है; यांत्रिक नहीं है, बाह्य नहीं है। इसलिए बाहर की किसी विधि की पकड़ में नहीं आता।
फिर भक्त के आंसू तो परम अनुभूति है, जो हृदय के पोर-पोर से रिसती है। उसमें पीड़ा है बहुत, क्योंकि परमात्मा को पाने की अभीप्सा जगी है। और उसमें आनंद भी है बहुत, क्योंकि परमात्मा को पाने की अभीप्सा जगी है। परमात्मा को पाने की आकांक्षा का जग जाना ही इतना बड़ा सौभाग्य है कि भक्त नाचता है। यह तो केवल थोड़े से सौभाग्यशालियों को यह पीड़ा मिलती है। यह अभिशाप नहीं है, यह वरदान है। इसे वे ही पहचान सकेंगे जिन्होंने इसका थोड़ा स्वाद लिया।
जाके उर उपजी नहिं भाई।
और यह पीड़ा मस्तिष्क में पैदा नहीं होती। यह कोई मस्तिष्क की खुजलाहट नहीं है। मस्तिष्क की खुजलाहट से दर्शनशास्त्रों का जन्म होता है। यह पीड़ा तो हृदय में पैदा होती है। इस पीड़ा का विचार से कोई नाता नहीं है। यह पीड़ा तो भाव की है। इस पीड़ा को कहा भी नहीं जा सकता। विचार व्यक्त हो सकते हैं, भाव अव्यक्त ही रहते हैं। विचारों को दूसरों से निवेदन किया जा सकता है। और निवेदन करके आदमी थोड़ा हलका हो जाता है। किसी से कह लो, दो बात कर लो, मन का बोझ उतर जाता है। पर यह पीड़ा ऐसी है कि किसी से कह भी नहीं सकते। कौन समझेगा? लोग पागल समझेंगे तुम्हें।
कल एक जर्मन महिला ने संन्यास लिया। एक शब्द न बोल सकी। शब्द बोलने चाहे तो हंसी, रोई, हाथ उठे, मुद्राएं बनीं। खुद चौंकी भी बहुत, क्योंकि शायद पागल समझी जाए। कहीं और होती तो पागल समझी भी जाती। मैंने उससे कहा भी कि अगर जर्मनी में ही होती तू और किसी प्रश्न के उत्तर में ऐसा करती तो पागल समझी जाती। तू ठीक जगह आ गई। यहां तुझे पागल न समझा जाएगा। यहां तुझे धन्यभागी, बड़भागी समझा जाएगा। रोती है, डोलती है। हाथ उठते हैं, कुछ कहना चाहते हैं। ओंठ खुलते हैं, कुछ बोलना चाहते हैं। मगर विचार हो तो कह दो, भाव हो तो कैसे कहो?
भाव तो केवल वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने उस पीड़ा का थोड़ा अनुभव किया हो।
इसलिए सत्संग का मूल्य है। सत्संग का अर्थ है: जहां तुम जैसे और दीवाने भी मिलते हैं। सत्संग का अर्थ है: जहां चार दीवाने मिलते हैं, जो एक-दूसरे का भाव समझेंगे; जो एक-दूसरे के भाव के प्रति सहानुभूति--सहानुभूति ही नहीं, समानुभूति भी अनुभव करेंगे; जहां एक के आंसू दूसरे के आंसुओं को छेड़ देंगे; और जहां एक का गीत दूसरे के भीतर गीत की गूंज बन जाएगा; और जहां एक नाच उठेगा तो शेष सब भी पुलक से भर जाएंगे; जहां एक ऊर्जा उन सबको घेर लेगी।
सत्संग अनूठी बात है। सत्संग का अर्थ है जहां पियक्कड़ मिल बैठे हैं। अब जिन्होंने कभी पी ही नहीं है शराब, वे तो कैसे समझेंगे? और बाहर की शराब तो कहीं भी मिल जाती है। भीतर की शराब तो कभी-कभी, बहुत मुश्किल से मिलती है। क्योंकि भीतर की शराब जहां मिल सके, ऐसी मधुशालाएं ही कभी-कभी, सैकड़ों सालों के बाद निर्मित होती हैं। किसी बुद्ध के पास, किसी नानक के पास, किसी दरिया के पास, किसी फरीद के पास कभी सत्संग का जन्म होता है।
सत्संग किसी जाग्रत पुरुष की हवा है। सत्संग किसी जाग्रत पुरुष के पास तरंगायित भाव की दशा है। सत्संग किसी के जले हुए दीये की रोशनी है। उस रोशनी में जब चार दीवाने बैठ जाते हैं और हृदय से हृदय जुड़ता है और हृदय से हृदय तरंगित होता है, तभी जाना जा सकता है।
दरिया ठीक कहते हैं। और तुम जरा भी समझ लो इस पीर को, इस पीड़ा को, तो तुम्हारे जीवन में भी अमृत की वर्षा हो जाए। अमी झरत, बिगसत कंवल! झरने लगे अमृत और खिलने लगे कमल आत्मा का। मगर इस पीड़ा के बिना कुछ भी नहीं है। यह प्रसव पीड़ा है।
जाके उर उपजी नहिं भाई। सो क्या जाने पीर पराई।।
हर समय तुम्हारा ध्यान, प्रिये,
मन उद्वेलित, आकुल प्रतिपल,
छू पाती मन के तारों को,
मेरी निस्वर मनुहार विकल?
अनुरागमयी, कह दो, कह दो,
आश्वासन के दो शब्द सरस,
दो बूंद सही, मधु तो दे दो,
घुल जाए मन में किंचित रस!
यह व्यथा कि जिसका अंत नहीं,
यह तृषा कि पल भर चैन नहीं,
मधु-घट सन्मुख, मधुदान नहीं!
यह न्याय नहीं! यह न्याय नहीं!
मधुदान उचित, प्रतिदान उचित,
मन प्राण तृषित, अनुराग विकल!
हर समय तुम्हारा ध्यान, प्रिये,
मन उद्वेलित, आकुल प्रतिपल,
छू पाती मन के तारों को,
मेरी निस्स्वर मनुहार विकल?
उठता है यह प्रश्न भक्त के मन में बहुत बार--कि जो मैं कह नहीं पाता, वह परमात्मा तक पहुंचता होगा? जो मैं बोल ही नहीं पाता, वह सुन पाता होगा? जो प्रार्थना मेरे ओंठों तक नहीं आ पाती, वह उसके कानों तक पहुंचती होगी?
लेकिन जानने वाले कहते हैं: वे ही प्रार्थनाएं पहुंचती हैं केवल, जो तुम्हारे ओंठों तक नहीं आ पातीं। जो तुम्हारे ओंठ तक आ गईं, वे उसके कान तक नहीं पहुंचतीं। जो तुम्हारे शब्दों तक आ गईं, वे यहीं पृथ्वी पर गिर जाती हैं। जो निःशब्द हैं, उनमें ही पंख होते हैं। वे ही उड़ती हैं आकाश में। जो निःशब्द हैं, वे निर्भार हैं। शब्द का भार होता है। शब्द भारी होते हैं। शब्द पर गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव होता है। शब्द को जमीन अपनी ओर खींच लेती है। यहीं तड़फड़ा कर गिर जाता है। उस तक तो निःशब्द में ही पहुंच सकते हो। उस तक तो शून्य में उठे हुए भाव ही यात्रा कर पाते हैं।
ब्यावर जाने पीर की सार।
कुछ दृष्टांत लेते हैं दरिया। सीधे-सादे आदमी हैं। धुनिया हैं। कुछ पढ़े-लिखे नहीं हैं बहुत। ठीक कबीर जैसे धुनिया हैं। लेकिन इन दो धुनियों ने न मालूम कितने पंडितों को धुन डाला है! कुछ बड़े-बड़े शब्द नहीं हैं, शास्त्रीय शब्द नहीं हैं--सीधे-सादे, लोक की समझ में आ सकें...।
ब्यावर जाने पीर की सार।
कहते हैं: जिसने बच्चे को जन्म दिया हो, वह स्त्री जानती है प्रसव की पीड़ा को। और जिसने अपने हृदय में परमात्मा को जन्म दिया हो, वही जानता है भक्त की पीड़ा को।
ब्यावर जाने पीर की सार।
कठिन है। जिस स्त्री ने अभी बच्चे को जन्म नहीं दिया, वह समझे भी तो कैसे समझे?--कि नौ महीने बच्चे को गर्भ में ढोना, वह भार, वमन, उल्टियां। भोजन का करना मुश्किल। चलना, उठना, बैठना, सब मुश्किल। और फिर भी एक आनंद-मगनता!
तुमने गर्भवती स्त्री की आंखों में देखा? पीर नहीं दिखाई पड़ती, पीड़ा नहीं दिखाई पड़ती--एक अहोभाव, एक धन्यभाव। तुमने उसके चेहरे की आभा देखी? एक प्रसाद! गर्भवती स्त्री में एक अपूर्व सौंदर्य प्रकट होता है। उसके चेहरे से जैसे दो आत्माएं झलकने लगती हैं। जैसे उसके भीतर दो दीये जलने लगते हैं एक की जगह। देह कितनी ही पीड़ा से गुजर रही हो, उसकी आत्मा आनंदमग्न हो नाचने लगती है। मां बनने का क्षण करीब आया। फलवती होने का क्षण करीब आया। अब फूल लगेंगे, वसंत आ गया। और जैसे वसंत में वृक्ष नाच उठते हैं और मस्त हो उठते हैं, ऐसे ही गर्भवती स्त्री मस्त हो उठती है। यद्यपि कठिन है यात्रा, कष्टपूर्ण है यात्रा--नौ महीने...।
और गर्भवती स्त्री की तो यात्रा नौ महीने में पूरी हो जाती है; लेकिन जिन्हें अपने भीतर बुद्धों को जन्म देना है, जिन्हें अपने भीतर परमात्मा को जन्म देना है, उसकी तो कोई नियत-सीमा नहीं है। नौ महीने लगेंगे, कि नौ वर्ष लगेंगे, कि नौ जन्म लग जाएंगे, कोई कुछ कह सकता नहीं। कोई बंधा हुआ समय नहीं है। तुम्हारी त्वरा, तुम्हारी तीव्रता, तुम्हारी तन्मयता, तुम्हारी समग्रता पर निर्भर है। कितने प्राणपण से जुटोगे, इस पर निर्भर है। नौ क्षण में भी हो सकता है, नौ महीने में भी न हो, नौ जन्म भी व्यर्थ चले जाएं। समय बाहर से निर्णीत नहीं है। समय तुम्हारे भीतर से निर्णीत होगा। कितने प्रज्वलित हो? कितने धू-धू कर जल रहे हो?
ब्यावर जाने पीर की सार। बांझ नार क्या लखे विकार।।
जिसने कभी बच्चे को जन्म नहीं दिया, उसे तो सिर्फ इतना ही दिखाई पड़ता होगा--कितनी मुसीबत में पड़ गई बेचारी! गर्भवती स्त्री को देख कर उसे लगता होगा--कितनी मुसीबत में पड़ गई बेचारी! उसे तो पीड़ा ही पीड़ा दिखाई पड़ती होगी। स्वाभाविक भी है। लेकिन पीड़ा में एक माधुर्य है, एक अंतर्नाद है, वह तो उसे नहीं सुनाई पड़ सकता। वह तो सिर्फ अनुभोक्ता का ही हक है, अधिकार है।
पतिब्रता पति को ब्रत जानै।
जिसने किसी को प्रेम किया है। और जिसने किसी को ऐसी गहनता से प्रेम किया है कि उसके प्रेमी के अतिरिक्त उसे संसार में कोई और बचा ही नहीं है; जिसने सारा प्रेम किसी एक के ही ऊपर निछावर कर दिया है; जिसके प्रेम में इतनी आत्मीयता है, इतना समर्पण है कि अब इस प्रेम के बदलने का कोई उपाय नहीं है; ऐसी शाश्वतता है कि अब कुछ भी हो जाए, जीवन रहे कि जाए, मगर प्रेम थिर रहेगा। जीवन तो एक दिन जाएगा, लेकिन प्रेम नहीं जाएगा। जीवन तो एक दिन चिता पर चढ़ेगा, लेकिन प्रेम का फिर कोई अंत नहीं है। जिसने किसी एक को इतनी अनन्यता से चाहा है, इतनी परिपूर्णता से चाहा है, वही जान सकता है प्रेम की, प्रीति की पीड़ा।
बिभचारिन मिल कहा बखानै।
लेकिन जिसने कभी किसी से आत्मीयता नहीं जानी, किसी से प्रेम नहीं जाना; जो क्षणभंगुर में ही जीया है...।
वेश्या से पूछने जाओगे पतिव्रता के हृदय का राज, तो कैसे बताएगी? वह उसका अनुभव नहीं है। पतिव्रता का राज तो पतिव्रता से पूछना होगा। और फिर भी पतिव्रता बता न सकेगी। क्या बताएगी? गूंगे का गुड़! बोलो तो बोल न सको। हां, पतिव्रता के पास रहोगे तो शायद थोड़ी-थोड़ी झलक मिलनी शुरू हो। उसका अनन्य प्रेम-भाव देखो तो शायद झलक मिलनी शुरू हो। उसका समग्र समर्पण देखो तो शायद झलक मिलनी शुरू हो।
हीरा पारख जौहरि पावै। मूरख निरख के कहा बतावै।।
हीरा हो तो पारखी जान सकेगा। मूरख देख भी लेगा तो भी क्या बताएगा?
यह वचन प्यारा है। मैं तुमसे कहता हूं: परमात्मा को तुमने भी देखा है, मगर पहचान नहीं पाए। ऐसा कैसे हो सकता है कि परमात्मा को न देखा हो! ऐसा तो हो ही नहीं सकता। हीरा न देखा हो, यह हो सकता है। लेकिन परमात्मा न देखा हो, यह नहीं हो सकता। क्योंकि हीरे तो कभी कहीं मुश्किल से मिलते हैं। परमात्मा तो सब तरफ मौजूद है। वृक्षों के पत्ते-पत्ते में उसके हस्ताक्षर। कंकड़-कंकड़ पर उसकी छाप। पत्थर-पत्थर में उसकी प्रतिमा। पक्षी-पक्षी में उसके गीत। हवाएं जब वृक्षों से गुजरती हैं, तो उसकी भगवदगीता। और आकाश में जब बादल घिर आते हैं और गड़गड़ाने लगते हैं, तो उसका कुरान। और झरनों में जब कल-कल नाद होता है, तो उसके वेद! तुम बचोगे कैसे? और जब सुबह सूरज निकलता है, तो वही निकलता है। और जब रात चांद की चांदनी बरसने लगती है, तो वही बरसता है। मोर के नाच में भी वही है। कोयल की कुहू-कुहू में भी वही है। मेरे बोलने में वही है, तुम्हारे सुनने में वही है। उसके अतिरिक्त तो कोई और है ही नहीं।
ऐसा तो कभी पूछना ही मत कि परमात्मा कहां है। ऐसा ही पूछना कि परमात्मा कहां नहीं है। तो यह तो हो ही कैसे सकता है कि तुमने परमात्मा को न देखा हो? रोज-रोज देखा है। हर घड़ी देखा है। हर घड़ी उसी से तो मुठभेड़ हो जाती है!
कबीर से किसी ने कहा कि अब तुम परम ज्ञान को उपलब्ध हो गए; अब बंद कर दो यह दिन-रात कपड़े बुनना और फिर बाजार बेचने जाना। शोभा भी नहीं देता। हजारों तुम्हारे शिष्य हैं, हम तुम्हारी फिकर कर लेंगे। तुम्हारा ऐसा खर्च भी क्या है? दो रोटी हम जुटा देंगे। हमारे मन में पीड़ा होती है कि तुम कपड़ा बुनो और फिर कपड़े बेचने बाजार जाओ।
लेकिन कबीर ने कहा कि नहीं-नहीं। फिर राम का क्या होगा?
उन्होंने पूछा: कौन राम?
उन्होंने कहा: वे जो ग्राहक में छिपे हुए राम आते हैं, उनके लिए कपड़े बुनता हूं।
कबीर जब बनारस के बाजार में बैठ कर और कपड़े बेचते थे, तो हर ग्राहक से कहते थे: राम! सम्हाल कर रखना। बहुत प्रेम से बुना है। झीनी-झीनी रे बीनी चदरिया! इसमें बहुत रस डाला है। इसमें प्राण उंडेले हैं।
गोरा कुम्हार ज्ञान को उपलब्ध हो गया, लेकिन घड़े बनाता रहा सो तो बनाता ही रहा। किसी ने कहा गोरा कुम्हार को: अब तो बंद कर दो घड़े बनाने। तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए। इतने तुम्हारे शिष्य हैं।
गोरा कुम्हार ने कहा: मैं कुम्हार और परमात्मा भी कुम्हार। उसने घड़े बनाने बंद नहीं किए, मैं कैसे कर दूं? वह बनाए जाता है। मैं भी बनाए जाऊंगा। और घड़े किनके लिए बनाता हूं? उसके लिए ही बनाता हूं! जब तक हूं, जो भी सेवा बन सके उसकी...।
गोरा को किसी ने कभी मंदिर जाते नहीं देखा, पूजा-प्रार्थना करते नहीं देखा; लेकिन घड़े बनाते जरूर देखा। और जब गोरा मिट्टी कूटता था, अपने पैरों से मिट्टी रौंदता था, तो उसकी मस्ती देखने जैसी थी! सैकड़ों लोग देखने इकट्ठे हो जाते थे। मिट्टी क्या कूटता था, जैसे मीरा नाचती थी ऐसे ही नाचता था! ऐसा ही मस्त, ऐसा ही दीवाना! उस मिट्टी में भी मस्ती आ जाती होगी। उसके बनाए गए घड़ों में शराब भरने की जरूरत न पड़ती होगी--शराब भरी ही होती होगी। उनके सूनेपन में भी शराब भरी होती होगी। उनके खालीपन में भी रस भरा होता होगा।
हीरे को तो पारखी देखेगा, पारखी समझेगा।
मूरख निरख के कहा बतावै।
लेकिन किसी मूर्ख को दिखा दिया तो वह क्या बताएगा? देख भी लेगा तो भी चुप रहेगा। उसको तो कंकड़-पत्थर ही दिखाई पड़ते हैं।
आदमी को वही दिखाई पड़ता है जितनी उसकी देखने की क्षमता होती है। हमारी सृष्टि हमारी दृष्टि से सीमित रहती है। जितनी बड़ी दृष्टि, उतनी बड़ी सृष्टि। जब दृष्टि इतनी असीम होती है कि उसकी कोई सीमा नहीं, तब सृष्टि खो जाती है और स्रष्टा दिखाई देता है। जब तुम्हारी दृष्टि असीम होती है, तो असीम से तुम्हारा साक्षात्कार होता है।
सघन आवेग के बादल हृदय-आकाश में जब,
सजल अनुभूति लेकर डोलते हैं।
रंगीली कल्पना के तब पिपासित भाव पंछी,
अधर में गीत सा पर खोलते हैं।
अधूरे विस्मरण सा शांतिमय वातावरण में,
विचारों का पवन जब सहम कर निस्वास भरता।
नयन की पुतलियों में इंद्रधनुषी रंग लेकर,
छली सपना अजाने चित्र सा बन कर उभरता।
जलन की वेदना से दमित नीरव नीड़ सूने,
व्यथा की टीस भर कर बोलते हैं।
सुहानी गंध जैसी प्राण में उच्छवास भरती,
किसी की याद जब अमराइयों सा फूलती है।
उभरता मौन मधु उल्लास सावन सा सलोना,
मृदुल मन की मधुरता छंद बन कर झूलती है।
सुखद मन के सुकोमल शब्द ध्वनि के पेंग भर कर,
सधी सी पंक्ति बन कर झूलते हैं।
तृषा रत जब कुंआरा क्षुब्ध घुटता मौन चातक,
हरित धरती दुल्हन सी मांग भरती देखता है।
प्रणय की अर्चना में साधना-अंगार खाकर,
प्रवासी स्वाति को लय में विलय हो टेरता है।
विरह की सांस में भर कर उदासी चिर मिलन की,
निलय में स्वप्न सतरंग घोलते हैं।
सघन आवेग के बादल हृदय-आकाश में जब,
सजल अनुभूति लेकर डोलते हैं।
रंगीली कल्पना के तब पिपासित भाव पंछी,
अधर में गीत सा पर खोलते हैं।
जैसे-जैसे तुम्हारे भाव की सघनता होती है, जैसे-जैसे तुम्हारे भाव की गहनता होती है, वैसे-वैसे अस्तित्व रहस्यमय होने लगता है। वैसे-वैसे पर्दे उठते हैं। वैसे-वैसे सत्य भी नग्न होता है। वैसे-वैसे प्रकृति अपने भीतर छिपे परमात्मा को प्रकट करने लगती है।
लागा घाव कराहै सोई।
जिसको घाव लगा है, वह कराहता है।
कोतगहार के दर्द न कोई।
तमाशा देखने वाले को तो कोई दर्द नहीं होता। तुम जिंदगी में अब तक तमाशा देखने वाले रहे हो। जिंदगी में डुबकी मारो। किनारे पर कब से खड़े हो! किनारे पर ही जीना है और किनारे पर ही मरना है? और यह घुमड़ता सागर तुम्हें निमंत्रण दे रहा है। और ये उठती हुई तरंगें, चुनौती हैं, कि छोड़ो अपनी नाव। नहीं कोई नक्शा है पास, माना। मगर नक्शा सिर्फ नामर्द पूछते हैं। मर्द तो अनंत में, अज्ञात में अपनी छोटी सी डोंगी लेकर उतर जाते हैं।
खोजने का आनंद इतना है कि उसमें अगर कोई खुद भी खो जाए तो हर्ज नहीं। खोजने का आनंद ही इतना है कि खुद को भी समर्पित किया जा सकता है। और यह भी समझ लेना, जो खुद को खोने को राजी नहीं है, वह कभी खोज नहीं पाएगा। जो इस बात के लिए राजी है कि अगर यह नौका डूब जाएगी मझधार में तो मझधार ही मेरा किनारा होगा--वही केवल परमात्मा के विराट सागर में अपनी नौका को छोड़ सकता है और वही कभी उसे पाने में समर्थ हो सकता है।
लागा घाव कराहै सोई। कोतगहार के दर्द न कोई।।
लेकिन लोग सिर्फ तमाशबीन हैं। वे बुद्धों को उतरते भी देखते हैं सागर में; तरंगों पर, लहरों पर जीतते भी देखते हैं; फिर भी किनारे पर ही खड़े देखते रहते हैं। दूर से नमस्कार भी कर लेते हैं, मगर पैर नहीं रखते। एक कदम नहीं उठाते। पैर रखना तो दूर, किनारे पर पैर गड़ा कर खड़े होते हैं कि किसी भूल-चूक के क्षण में, अपने बावजूद, कभी किसी दीवाने की बातों में आकर कहीं उतर न जाएं! तो जंजीरें बांध रखते हैं। पैरों में जंजीरें बांध देते हैं। अपने पर इतना भी भरोसा तो नहीं है। हो सकता है किसी की बात मन को आंदोलित कर दे, कोई तार छिड़ जाए भीतर, कोई सोया भाव जगा दे। और कहीं ऐसा हो जाए कि उतर ही न जाऊं! फिर उतर जाऊं तो पछताऊं। उतर जाऊं तो लौटने का भी तो पता नहीं कि लौट पाऊं।
इसलिए किनारे पर लोगों ने पैर गड़ा लिए हैं जमीन में। खूंटे गाड़ लिए हैं। खूंटों से जंजीरें बांध ली हैं। तुम जरा खुद ही गौर से देखो, तुमने कितनी जंजीरें बांध रखी हैं! और लोग जंजीरों के बहाने चुनौतियों को इनकार करते रहते हैं।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं: संन्यास तो लेना है, मगर अभी नहीं ले सकता। अभी तो बेटे का विवाह करना है। जब बेटे का विवाह हो जाएगा तब लूंगा। अभी संन्यास ले लूं, कहीं बेटे के विवाह में अड़चन न पड़े।
और कल अगर मौत आ गई तो क्या तुम सोचते हो कि बेटे का विवाह रुकेगा? तो क्या तुम सोचते हो कि तुम्हारी मौत से कुछ बाधा पड़ जाने वाली है? और मौत आ गई तो फिर क्या करोगे?
नहीं, लेकिन कोई यह सोचता ही नहीं कि मैं कभी मरने वाला हूं। लोग सोचते हैं कि सदा दूसरे मरते हैं। मौत हमेशा किसी और की होती है, मेरी नहीं। मैं तो सदा बचता हूं। यह तो कोई सोचता ही नहीं कि कल मौत हो सकती है। और जिसने यह नहीं सोचा है कि कल मौत हो सकती है, वह आज के निमंत्रण को स्वीकार न कर सकेगा, वह कल पर टालेगा। वह कहेगा: कुछ और थोड़ा काम-धाम निपटा लूं।
बुद्ध एक गांव से तीस साल तक गुजरे, कई बार गुजरे। वह उनके रास्ते में पड़ता था श्रावस्ती आते-जाते। उस गांव में एक वणिक था। तीस साल में बुद्ध नहीं तो कम से कम साठ बार उस गांव से गुजरे। लेकिन वह मिलने न जा सका सो न जा सका। जाना चाहता था। जवान था, तब से जाना चाहता था। बूढ़ा हो गया, तब तक नहीं गया। जिस दिन उसे खबर मिली कि अब बुद्ध प्राण छोड़ रहे हैं, देह छोड़ रहे हैं, उस दिन भागा हुआ पहुंचा।
लोगों ने पूछा: इस गांव से बुद्ध इतनी बार निकले, तू कभी गया नहीं?
उसने कहा: कोई न कोई बहाना मिल गया। आज मैं जानता हूं कि वे बहाने थे। कभी घर से निकल ही रहा था कि कोई ग्राहक आ गया।
उस समय कोई गुमाश्ता कानून तो था नहीं कि कितने बजे दुकान खोलनी है, कितने बजे दुकान बंद करनी है। जब तक ग्राहक आते रहें, दुकान खुली रहे। अब एक ग्राहक आ गया, बंद ही कर रहा था दुकान, तो उसने सोचा कि अब अगली बार जब बुद्ध निकलेंगे तब निपट लूंगा; यह ग्राहक अगली बार आए कि न आए! हाथ आए ग्राहक को छोड़ना!
कभी बुद्ध गांव आए, घर में मेहमान थे। तो इनकी सेवा करनी कि बुद्ध से मिलने जाऊं? कभी बुद्ध आए तो पत्नी बीमार थी। कभी बुद्ध आए तो बच्चा हुआ था घर में। कभी बुद्ध आए तो ऐसा, कभी बुद्ध आए तो वैसा...बेटी का विवाह था। कभी बुद्ध आए तो पड़ोस में कोई मर गया, तो उसकी अरथी में जाऊं कि बुद्ध को सुनने जाऊं? ऐसे आते ही रहे बहाने, आते ही रहे।
और ये सब तुम्हारे बहाने हैं, याद रखना। वह आदमी तुम्हारे सारे बहानों को इकट्ठा बता रहा है। तीस साल...और लोग चूकते गए! और कभी-कभी तो ऐसी छोटी-छोटी बातों से चूकते हैं जिसका हिसाब नहीं।
लक्ष्मी अभी दिल्ली गई। एक मंत्री से मिली। तो मंत्री ने कहा: मैं आया था आश्रम के द्वार तक। द्वार से मैंने झांक कर भीतर देखा तो वहां चार-छह लोग देखे जो मुझे पहचानते हैं। इसलिए द्वार से ही लौट पड़ा। दिल्ली से सिर्फ आश्रम के ही लिए आया था। लेकिन यह देख कर कि दो-चार आदमी वहां मौजूद थे, जो मुझे पहचानते हैं। तो अफवाह उड़ जाएगी, अखबारों में खबर पहुंच जाएगी।
और मेरे साथ नाम जोड़ना खतरे से खाली नहीं है। न मालूम कितने मंत्री खबर भेजते हैं कि हम समझते हैं और हम चाहते हैं कि किसी तरह आपके काम में किसी भी प्रकार से हम सहयोगी हो सकें; लेकिन हम प्रकट रूप से कुछ भी नहीं कर सकते। हम प्रकट रूप से यह कह भी नहीं सकते।
यहां न मालूम कितने संसद-सदस्य आए और गए। और अभी जब संसद में मेरे संबंध में विवाद चला, तो उनमें से एक भी नहीं बोला। मैंने पूरी फेहरिस्त देखी कि जो यहां आए और गए, उनमें से कोई बोला कि नहीं? जो यहां आए और गए, उनमें से एक भी नहीं बोला। यहां कह कर गए थे कि हम आपके लिए लड़ेंगे। लड़ने की तो बात दूर, बोले ही नहीं। क्योंकि यह भी पता चल जाए कि यहां आए थे, या मुझसे कुछ नाता है, या मुझसे कुछ संबंध है, या मुझसे कुछ लगाव है--तो खतरे से खाली बात नहीं है। जो बोले, उनमें से कोई यहां आया नहीं है। उनमें से किसी ने कोई मेरी किताब नहीं पढ़ी, मुझे सुना नहीं है।
अब यह बड़े मजे की बात है! घंटे भर विवाद चला, उसमें बोलने वाले एक भी मुझसे परिचित नहीं हैं। और जो परिचित हैं--और बहुत परिचित हैं--वे चुप रहे।
दरवाजे से लौट जाए कोई--सिर्फ यह देख कर कि कोई पहचान के लोग दिखाई पड़ते हैं! खबर उड़ जाएगी। कैसे-कैसे बहाने आदमी खोज लेता है! और कैसे क्षुद्र बहानों के कारण कितनी अनंत संभावनाओं से वंचित रह जाता है। अब जो आदमी दिल्ली से यहां तक आया, कुछ न कुछ प्यास थी। लेकिन प्यास को दबा कर लौट गया।
और यह हमारी सदी तो तमाशबीनों की सदी है। दुनिया इतनी तमाशबीन कभी भी नहीं थी। आधुनिक टेक्नालॉजी ने आदमी को बिलकुल तमाशबीन बना दिया। अगर तुम आदिवासियों से मिलने जाओ, तो जब उन्हें नाचना होता है, वे नाचते हैं। नाच देखते नहीं, नाचते हैं। और जब उन्हें गाना होता है तो गाते हैं, अपना अलगोजा बजाते हैं। लेकिन तुम्हें जब नाच देखना होता है तो तुम नाचते नहीं; तुम फिल्म देखने जाते हो। या किसी नर्तकी को निमंत्रित कर देते हो। या अगर टेलीविजन घर में है, तब तो कहीं जाने की जरूरत नहीं। और जब तुम्हें गीत सुनने का मन होता है तो तुम ग्रामोफोन रिकार्ड चढ़ा देते हो, या रेडियो खोल देते हो, या रिकार्ड प्लेयर। कोई गाता है, कोई नाचता है, तुम सिर्फ देखते हो। तुम सिर्फ तमाशबीन हो। फुटबाल का खेल, लाखों लोग चले देखने। क्रिकेट का खेल, लाखों लोग दीवाने हैं। खेलता कोई और है। पेशेवर खिलाड़ी, जिनका धंधा खेलना है।
मेरा एक संन्यासी है यहां। पेशेवर खिलाड़ी है। पेशेवर खिलाड़ी है, तो अमरीका ने उसे निमंत्रण दिया है कि तुम अमरीका ही आकर बस जाओ। तो वह अमरीका रहा। फिर किसी तरह मेरी सुगंध उसे लग गई। यहां चला आया। अब उसे जाना नहीं है। तो अब बड़ी मुश्किल है, वह रहे यहां कैसे? टेनिस का खिलाड़ी है, अदभुत खिलाड़ी है! तो यहां के टेनिस के खिलाड़ियों ने कहा: तुम फिकर मत करो! अगर तुम रहना चाहो, सरकार से हम सब इंतजाम करवाएंगे। हम सब इंतजाम करेंगे तुम्हारे रहने, खाने-पीने, तनख्वाह का। तुम यहीं रह जाओ। तुम्हारा रहना तो सौभाग्य की बात है।
अब सब चीज पेशेवर हो गई है! दो पहलवान लड़ रहे हैं, सारे लोग चले! अमरीका में लोग पांच-पांच, छह-छह घंटे टेलीविजन के सामने बैठे हैं। बस देख रहे हैं! धीरे-धीरे सब चीज देखने की होती जा रही है। अब प्रेम तुम करते नहीं; फिल्म में देख आते हो दो लोगों को प्रेम करते। अब तुम्हें करने की क्या झंझट? क्योंकि प्रेम की झंझटें हैं बहुत। फिल्म में देख आए, बात खत्म हो गई। निश्चिंत आकर सो गए।
यह सदी तमाशबीनों की सदी है। और जब सब चीजों के संबंध में तुम तमाशबीन हो गए हो तो परमात्मा के संबंध में तो बहुत ही ज्यादा। क्योंकि परमात्मा तो आखिरी बात है। मुश्किल से उसकी खोज पर कोई निकलता है। अब तो यहां खोज का सवाल ही नहीं है। अब तो हर चीज कोई दूसरा तुम्हारे लिए कर देता है, तुम देख लो।
परमात्मा के संबंध में तो तुम्हें तमाशबीन नहीं रहना होगा। वहां तो भागीदार बनना होगा। वहां तो नाचना होगा, गाना होगा, रोना होगा, भाव-विभोर होना होगा। वहां तो संयुक्त होना होगा।
यहां लोग आते हैं। मैं उनसे पूछता हूं: कोई ध्यान किया?
वे कहते हैं कि नहीं, अभी तो हम सिर्फ देखते हैं।
क्या देखोगे? ध्यान कभी किसी ने देखा है? ध्यान कोई वस्तु है जो तुम देख लोगे?
नहीं; वे कहते हैं, हम दूसरों को ध्यान करते देखते हैं।
दूसरों को ध्यान करते देखते हो तुम, क्या देखोगे? कोई नाच रहा है, तो नाच दिखाई पड़ेगा, ध्यान थोड़े ही दिखाई पड़ेगा। ध्यान तो अंतर्दशा है। वह तो जो नाच रहा है, उसके अंतरतम में घटित होगा। तुम उसे नहीं देख सकोगे। तुम तो नाचने वाले को देख कर लौट आओगे। और तुम सोचोगे मन में--नाच और ध्यान! ये दोनों एक कैसे हो सकते हैं? नाच का ध्यान से क्या लेना-देना है?
तुमने नाचने वाले तो बहुत देखे हैं। नाच बिना ध्यान के हो सकता है। और ध्यान भी बिना नाच के हो सकता है। और ध्यान और नाच साथ-साथ भी हो सकते हैं। बुद्ध ने सिर्फ ध्यान किया, उसमें नाच नहीं है। मीरा नाची भी और ध्यान भी किया। उसमें दोनों संयुक्त हैं। मीरा बुद्ध से थोड़ा ज्यादा धनी है। उसके ध्यान में एक और लहर, एक और तरंग है। बुद्ध का ध्यान शांत है। बुद्ध संगमरमर की प्रतिमा की भांति शांत हैं। इसलिए यह कोई आकस्मिक नहीं है कि बुद्ध की ही प्रतिमाएं सबसे पहले बनीं और संगमरमर की बनीं। अब तुम मीरा की प्रतिमा कैसे बनाओगे संगमरमर की? बनाओगे भी तो झूठी होगी। मीरा की प्रतिमा बनानी हो तो पानी के फव्वारे से बनानी होगी। तब कहीं उसमें कुछ नाच जैसा भाव होगा। बुद्ध को भी तुम बैठा देख लोगे वृक्ष के नीचे सिद्धासन में, तो क्या ध्यान देखोगे? सिद्धासन दिखाई पड़ेगा, कि हाथ कहां रखे, कि पैर कहां रखे, कि रीढ़ सीधी है, कि सिर ऐसा है, कि आंख आधी खुली है कि पूरी बंद। मगर ध्यान कैसे देखोगे? यह तो बैठना है, यह तो आसन है। ऐसे तो कई बुद्धू बैठे हुए हैं और बुद्ध नहीं हो पाए हैं। यह तो तुम भी सीख सकते हो। यह तो थोड़ा सा अभ्यास करके तुम भी सिद्धासन मार कर बैठ जाओगे। मगर इससे तुम बुद्ध नहीं हो जाओगे। ध्यान तो अंतर की घटना है; देखी नहीं जा सकती, केवल अनुभव की जा सकती है।
लागा घाव कराहै सोई। कोतगहार के दर्द न कोई।
जिसको दर्द नहीं हुआ है, वह समझ ही नहीं पाएगा।
विवेक मुझे कहती थी, उसके पिता को कभी सिरदर्द नहीं हुआ। हुआ ही नहीं, तो लाख कोई समझाए कि सिरदर्द क्या है, उसके पिता को समझ में नहीं आता। वे कहते हैं: सिरदर्द? कैसे समझाओगे, जिस आदमी को सिरदर्द हुआ ही नहीं? जिसको सिरदर्द नहीं हुआ, उसे तो सिर का भी पता नहीं चलता। सिरदर्द तो दूर की बात है। सिरदर्द में ही सिर का पता चलता है। नहीं; समझाना असंभव है।
तुम आंख वाले हो, अंधे की क्या दशा है, तुम कैसे समझोगे?
आंख वाले अक्सर सोचते हैं कि अंधे आदमी को अंधेरे ही अंधेरे में रहना होता होगा। तुम बिलकुल गलत सोचते हो। अंधेरा भी आंख वाले का अनुभव है। अंधे को तो अंधेरा भी दिखाई नहीं पड़ सकता। फिर अंधेरे को भी नहीं देख सकता जो उसे क्या दिखाई पड़ता होगा? खयाल रखना, आंख ही रोशनी देखती है, आंख ही अंधेरा देखती है। अंधे को न रोशनी दिखाई पड़ती है, न अंधेरा दिखाई पड़ता है। फिर क्या दिखाई पड़ता है? अंधे को कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। आंख ही नहीं है।
तुम सोचते हो कि बहरे को सन्नाटा सुनाई पड़ता होगा, तो तुम गलती में हो। सन्नाटा सुनने के लिए भी कान चाहिए। जैसे संगीत सुनने के लिए कान चाहिए, ऐसे सन्नाटा सुनने के लिए भी कान चाहिए। सन्नाटा भी कान का अनुभव है। तो बहरे को क्या सुनाई पड़ता होगा? कुछ भी सुनाई नहीं पड़ता। न उसे शब्द का पता है, न सन्नाटे का, न संगीत का, न शून्य का। वह अनुभव का जगत ही नहीं है उसका। कोई उपाय नहीं है उसको। अनुभव के अतिरिक्त कोई समझने का उपाय नहीं है।
लोग पूछते हैं: हम ईश्वर को समझना चाहते हैं और समझ लें तो फिर अनुभव भी करें। उन्होंने तो पहले से ही एक गलत शर्त लगा दी। अनुभव करो तो समझ सकते हो। वे कहते हैं: हम समझ लें तो फिर अनुभव करें। लोग चाहते हैं कि पहले ध्यान को हम समझ लें तो फिर ध्यान करें। गलत शर्त लगा दी।
यह तो तुमने ऐसी शर्त लगा दी कि पहले तैरने को समझ लें तो फिर हम तैरना सीखें। अब तैरना तुम्हें कैसे समझाया जाए? गद्दा-तकिया बिछा कर उस पर तुम्हारे हाथ-पैर तड़फड़ाए जाएं?
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन गया था तैरना सीखने। जो उस्ताद उसे ले गए थे सिखाने, वे तो अपने कपड़े उतार रहे थे, तभी मुल्ला किनारे गया। सीढ़ियों पर जमी हुई काई थी, उसका पैर फिसल पड़ा। भड़ाम से नीचे गिरा। उठा और भागा घर की तरफ।
उस्ताद ने कहा: कहां जाते हो बड़े मियां? तैरना नहीं सीखना?
उसने कहा कि अब तो जब तक तैरना न सीख लूं, नदी के पास नहीं आऊंगा। यह तो भगवान की कृपा है कि पैर फिसला और पानी में नहीं पहुंच गया। जान बची और लाखों पाए, बुद्धू लौट कर घर को आए। उसने कहा: अब नहीं। अब तो तैरना सीख ही लूं, तभी पानी के पास कदम रखूंगा।
लेकिन तैरना कैसे सीखोगे? और बात तो तर्कयुक्त लगती है, कि आखिर तैरना बिना सीखे पानी में पैर रखना खतरे से खाली नहीं है। और ऐसे ही कुछ लोग हैं, वे कहते हैं: पहले हम ध्यान समझ लें, फिर हम ध्यान करें।
समझोगे कैसे?
वे कहते हैं: हम देखें दूसरों को ध्यान करते।
हां; देखोगे, कुछ दिखाई भी पड़ेगा। कोई पद्मासन लगा कर विपस्सना कर रहा है। कोई नाच कर सूफी मस्ती में डूबा हुआ है। कोई नाच रहा है और उमर खय्याम हो गया है। और कोई सिद्धासन में बुद्ध की तरह बैठा है। मगर ये तो बाहर की घटनाएं हैं जो तुम देख रहे हो। भीतर क्या हो रहा है? हो भी रहा है कि नहीं हो रहा है? यह तो जब तक तुम्हें न हो जाए, तब तक कोई उपाय नहीं है।
रामनाम मेरा प्रान-अधार।
जब तक राम-नाम ही तुम्हारे प्राण का आधार न हो जाए, तब तक तुम यह रस पी न सकोगे।
सोई रामरस-पीवनहार।
वही पीएगा इसे जो हिम्मत करेगा अज्ञात में उतर जाने की, अनजान में, अपरिचित में जाने की। जो तमाशबीन नहीं है, जो जुआरी है। जो अपने को दांव पर लगा सकता है। जो जोखिम उठा सकता है। जो कहता है कि ठीक है, डूबेंगे तो डूबेंगे; मगर तैरना सीखना है तो पानी में उतरेंगे।
जन दरिया जानेगा सोई। प्रेम की भाल कलेजे पोई।।
वही जान सकेगा--केवल वही, जिसके कलेजे में प्रेम का भाला छिद गया हो।
अलिखित ही रही सदा
जीवन की सत्य-कथा,
जीवन की लिखित कथा
सत्य नहीं, क्षेपक है!
जीवन का विविध रूप,
जीवन का त्रिविध रूप;
जीवन की शाश्वत लय,
चिर-विरोध चिर-परिणय;
छोटे फल बरगद पर,
शैलखंड पद-पद पर,
जीवन की अक्षर गति,
जीवन की अंत नियति;
जीवन की रेणु क्षुद्र,
जीवन के शत समुद्र;
जीवन के गुण अगणित,
जीवन का गुण अविदित;
जीवन का महाकाव्य
अलिखित ही रहा सदा!
जीवन का खंडकाव्य
खंडसत्य, क्षेपक है!
अलिखित ही रही सदा
जीवन की सत्य-कथा,
जीवन की लिखित कथा
सत्य नहीं, क्षेपक है!
शास्त्र से न समझ सकोगे। शास्त्र तो क्षेपक है। एक कथा है; एक प्रतीक है; एक इशारा है। लेकिन इशारा तुम्हारे लिए काफी नहीं, जब तक कि तुम्हारे भीतर स्वाद न जन्मे। और स्वाद जन्मना जरा महंगा सौदा है।
प्रेम की भाल कलेजे पोई।
मरना पड़े, मिटना पड़े।
अहंकार को जाने दो, सूली पर चढ़ जाने दो--तो तुम्हारी आत्मा को सिंहासन मिले।
मैं मरने से पहले
मरना नहीं चाहता
यह जानते हुए भी कि
मुझ में लड़ने का
बहुत दम नहीं
लेकिन जीने की इच्छा
उगते सूरज से कम नहीं!
मैं मरने से पहले
मरना नहीं चाहता
यह जानते हुए भी कि
बहुत पास अंधेरा
कांप रहा है
लेकिन खयाल के पेड़ से
पत्ते की तरह
झड़ना नहीं चाहता!
मैं मरने से पहले
मरना नहीं चाहता!
और वही जान पाता है परमात्मा को, जो मरने के पहले मर जाता है। मरते तो सभी हैं, लेकिन जीते-जी जो मर जाता है, उसके सौभाग्य की कोई सीमा नहीं है। जीते-जी जो ‘नहीं’ हो जाता है, जो जीते-जी अपने भीतर शून्य हो जाता है, ना-कुछ, उसी शून्य में परमात्मा का पदार्पण है। और वही शून्य है जिसको दरिया कहते हैं: भाला!
प्रेम की भाल कलेजे पोई।
जो प्रेम के लिए अपने को निछावर कर देता है।
जो धुनिया तो मैं भी राम तुम्हारा।
दरिया कहते हैं कि मुझे मालूम है कि मैं ना-कुछ हूं, धुनिया हूं, दीन-हीन हूं; मगर इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि मुझे दूसरी बात भी पता है--
...तो मैं भी राम तुम्हारा।
मैं तुम्हारा हूं! धुनिया सही, ना-कुछ सही, दीन-हीन सही; इसकी मुझे जरा भी चिंता नहीं है। यह बात मुझे खलती नहीं है। क्योंकि हूं तुम्हारा। और तुम्हारे होने में सम्राट हूं। तुम्हारे होने में सारा साम्राज्य मेरा है।
अधम कमीन जाति मतिहीना...
बहुत गिरा हूं, पापी हूं। मुझसे बुरा आदमी खोजना कठिन है! बुरे को खोजने जाता हूं तो मुझसे बुरा नहीं पाता। जाति मतिहीना! मेरी बुद्धि है ही नहीं। मान ही लो कि मैं मतिहीन हूं।
कबीर ने कहा न, कि कभी कागज हाथ से छुआ नहीं। मसि कागद छुओ नहीं! कभी स्याही हाथ में ली नहीं। कबीर ने यह भी कहा है: लिखा-लिखी की है नहीं, देखा-देखी बात।
तो न शास्त्र जानता हूं, न बहुत ज्ञानी हूं, न पांडित्य है कुछ। पक्का मान लो कि मतिहीन हूं। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? फिर भी मैं तुम्हारा हूं और तुम मेरे हो।
...तुम तो हौ सिरताज हमारा।
और तुम हो हमारे सिर पर, बस इतना बहुत है। न बुद्धि चाहिए, न श्रेष्ठ कुल चाहिए, न धन चाहिए, न पद चाहिए--तुम मिले तो सब मिला!
प्रेम की भाल कलेजे पोई।
जिसने भी प्रेम की भाल को कलेजे में उतर जाने दिया, वह ना-कुछ से सब कुछ हो जाता है; शून्य से पूर्ण हो जाता है।
विकल वेदना से व्याकुल मन तुम्हें पुकार उठा है।
आज न जाने फिर सुधियों का कैसा ज्वार उठा है।
सोती व्यथा जगी अंतर में नव-संदेश मिला है।
सुन कर मृदु झनकार हृदय में मादक सोम घुला है।
युगल पुष्प अवगुंठित कर से सौरभ युक्त खिला है।
रजत चांदनी के प्रकाश में अंधा तिमिर धुला है
भूले आकर्षण के घावों में उदगार उठा है।
आज न जाने फिर सुधियों का कैसा ज्वार उठा है।
धुंधली प्रतिमाओं ने फिर से आज आवरण खोला।
बीते मधु क्षण का आलोड़न कुछ कानों में बोला।
चिर-परिचित अनजान हृदय की अठखेली मुस्काई।
मूक पवन ले मलय साथ छवि के द्वारे पर आई।
आमंत्रण के मादक स्वर में नव-गुंजार उठा है।
आज न जाने फिर सुधियों का कैसा ज्वार उठा है।
मुरझाए फूलों को अलि ने फिर वसंत में चूमा।
खंडहर सा अतीत का सपना झंझा बन कर झूमा।
किसने मन-मंदिर के छल से बंद द्वार खोला है।
मेरी अलसायी आंखों में फिर सपना घोला है।
स्वर्णिम लहरों में अपनापन हो साकार उठा है।
आज न जाने फिर सुधियों का कैसा ज्वार उठा है।
मिटो--और सुधि जन्मती है! मिटो--और सुरति उठती है! मिटो--और द्वार खुलता है! मिटो--और तुम मंदिर में प्रविष्ट हो गए! मिटो--और आ गया तीर्थ! मिटो--और वही स्थान काबा है, वही कैलाश, वही काशी! लेकिन अहंकार को लिए तुम जाओ काबा, तुम जाओ काशी, तुम्हें जहां जो करना हो तीर्थयात्राएं करो, तुम जैसे हो वैसे के वैसे वापस लौट आओगे।
सुना है मैंने कि कुछ यात्री तीर्थयात्रा को जाते थे। एकनाथ के पड़ोसी भी तीर्थयात्रा को जाते थे। तो एकनाथ ने कहा कि भई, यह मेरी तुंबी है, इसको भी तुम तीर्थयात्रा करा लाओ। मैं तो जाने से रहा। इतनी लंबी यात्रा न कर पाऊंगा। लेकिन मेरी तुंबी को ही स्नान करवा लाना। कम से कम यही पवित्र हो जाए। इसी को छाती लगा लूंगा।
ले गए तीर्थयात्री तुंबी को। हर जगह डुबकी दिलवा दी, एक क्या दस दिलवा दीं। तुंबी को डुबकी दिलवाने में क्या दिक्कत! घाट-घाट, तीर्थ-तीर्थ, सब जगह स्नान करवा कर ले आए। लेकिन तुंबी कड़वी थी। जब ले आए तो तुंबी काटी एकनाथ ने और उनको चखने को दी। थूक दिया उन्होंने, कड़वी तुंबी थी। कहा कि यह भी कोई चखवाने की चीज थी?
एकनाथ ने कहा: अंधो! कुछ तो समझो! यह तुंबी कड़वी थी। इतनी तीर्थयात्रा कर आई--इतनी गंगा में, यमुना में, नर्मदा में, न मालूम कितनी जगह डुबकी खिलाई; यह तक मीठी नहीं हो पाई, जरा अपने भीतर देखो! तुम्हारा जो कड़वा था, वह अब भी कड़वा है।
असली क्रांति भीतर है, बाहर नहीं। असली तीर्थ भी भीतर है, बाहर नहीं।
काया का जंत्र...
धुनिया हैं तो उनकी भाषा भी धुनिया की है। कहते हैं: काया का जंत्र...
काया की धुनकी।
...सब्द मन मुठिया।
और वह जो शब्द सदगुरु से सुना है शून्य में, वह जो झनकार, वह जो हृदय की वीणा कर तार छिड़ गया है!
...सब्द मन मुठिया।
वह मेरा मुठिया है।
...सुषमन तांत चढ़ाई।
और जिसको योगी सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं, वह मेरी तांत है।
गगन-मंडल में धुनिया बैठा...
मैं गरीब धुनिया, मगर गजब हो गया है कि मैं शून्य आकाश में विराजमान हो गया हूं। मेरे पास कुछ ज्यादा नहीं था--काया का जंत्र--शरीर की धुनकी थी। सब्द मन मुठिया था। सुषमन तांत चढ़ाई। मगर मुझ दीन-हीन पर भी अपार कृपा हुई है। क्योंकि हूं तो आखिर राम तुम्हारा! तुम न फिकर करोगे तो कौन फिकर करेगा? तुमने मुझ धुनिया की भी फिकर की।
गगन-मंडल में धुनिया बैठा...
गगन-मंडल का अर्थ होता है: शून्य-समाधि। जहां सब विचार शून्य हो गए, शांत हो गए। जब सब वासनाएं क्षीण हो गईं। जहां मन रहा ही नहीं। जहां कोरा आकाश रह गया। जहां निराकार रह गया!
गगन-मंडल में धुनिया बैठा...
कहते हैं: मैं खुद ही चमत्कृत हूं कि मुझ धुनिया को कहां बिठा दिया! यह सिंहासन मेरे लिए? यह शून्य-समाधि मेरे लिए? बुद्ध के लिए थी, ठीक थी; राजपुत्र थे। महावीर के लिए भी ठीक थी; सम्राट थे। राम को भी ठीक होगी, कृष्ण को भी ठीक होगी; मगर मैं तो धुनिया!
अधम कमीन जाति मतिहीना।
और मुझे तुमने कहां बिठा दिया! अब समझ में आया कि मैं भी आखिर तुम्हारा उतना ही हूं जितने राम, जितने कृष्ण, जितने बुद्ध, जितने महावीर। तुम्हारी अनुकंपा में भेद नहीं। तुम्हारी करुणा समान बरसती है। जो भी अपने पात्र को खोल देता है, वही भर जाता है। मैं धुनिया भी भर गया।
गगन-मंडल में धुनिया बैठा, मेरे सतगुरु कला सिखाई।
और मेरे सदगुरु ने मुझे कला सिखा दी। क्या कला सिखा दी?--कि कैसे मिट जाऊं। मिटने की कला सिखा दी।
प्रेम की भाल कलेजे पोई।
सदगुरु के पास एक ही घटना घटनी चाहिए, तो ही समझना कि तुम सदगुरु के पास गए। सदगुरु के पास होना कोई भौतिक बात नहीं है, कि शरीर से पास रहे। सदगुरु के पास होने का अर्थ है कि मिट कर पास रहे; न होकर पास रहे। अपने को पोंछ ही दिया। अपने को बचाया ही नहीं। अपने को पूरा-पूरा चरणों में चढ़ा दिया।
पाप-पान हरि कुबुधि-कांकड़ा, सहज-सहज झड़ जाई।
और तब चमत्कारों पर चमत्कार होते मैंने देखे हैं, दरिया कहते हैं। वह जो कला गुरु ने सिखाई मिटने की, उस कला के सीखते ही--
पाप-पान हरि कुबुधि-कांकड़ा...
पाप-रूपी पत्ते अपने आप झड़ने लगे। जैसे पतझड़ आ गई हो! जिन्हें मैंने लाख-लाख बार छोड़ना चाहा था और नहीं छूट पाए थे; जिन्हें मैंने तोड़ा भी था तो फिर-फिर उग आए थे। वे पाप के पत्ते ऐसे झड़ गए जैसे पतझड़ आ गई। मेरे बिना झड़ाए झड़ गए। मेरे बिना काटे कट गए।
पाप-पान हरि कुबुधि-कांकड़ा...
धुनिए की भाषा है यह, खयाल रखना। मेरे भीतर जो कुबुद्धि का कांकड़ा था, बिनौला था, वह कहां खो गया! खोजे से उसका पता नहीं चलता।
...सहज-सहज झड़ जाई।
मैं तो सोचता था कि बड़ा श्रम करना होगा। मगर सदगुरु ने ऐसी कला सिखाई, जड़ ही काट दी, पत्ते-पत्ते नहीं काटे।
पत्ते-पत्ते जो काटते हैं, वे तुम्हें नीति की शिक्षा देते हैं। और नीति की शिक्षा से कोई कभी धार्मिक नहीं हो पाता है। यद्यपि जो धार्मिक हो जाता है, वह सदा नैतिक हो जाता है।
धर्म जड़ को काटता है; नीति पत्ते-पत्ते काटती है। नीति कहती है: क्रोध मत करो, लोभ मत करो। मगर लोग एकदम से लोभ छोड़ने को राजी नहीं, क्रोध छोड़ने को राजी नहीं। तो आचार्य तुलसी जैसे नैतिक लोग समझाते हैं: तो चलो अणुव्रत। पूरा नहीं छूटता तो थोड़ा-थोड़ा छोड़ो--अणुव्रत! थोड़ा सा क्रोध छोड़ो। थोड़ा सा मोह छोड़ो। थोड़ा और, थोड़ा और...धीरे-धीरे करके छोड़ देना। सब पत्ते एकदम नहीं कटते तो एक काटो, एक शाखा काटो, फिर दूसरी काटना।
लेकिन तुम्हीं पता है, शाखा काटोगे वृक्ष की, तो जहां काटोगे, वहां तीन शाखाएं निकल आती हैं! अणुव्रत साधोगे और महापाप प्रकट होंगे! इधर से सम्हालोगे, उधर से पाप बहने लगेंगे। जड़ नहीं काटी जब तक, तब तक कुछ भी न होगा।
पाप-पान हरि कुबुधि-कांकड़ा, सहज-सहज झड़ जाई।
जड़ के कटते ही...और जड़ क्या है? अहंकार जड़ है। मैं हूं, यह भाव जड़ है। सत्संग में बैठने का अर्थ है: मैं नहीं हूं, ऐसे बैठना। बस इतनी सी कला है। बस इतना सा राज है। कुंजियां छोटी होती हैं। ताले कितने ही बड़े हों और कितने ही जटिल हों, कुंजियां तो छोटी सी होती हैं। यह छोटी सी कुंजी जीवन के अनंत रहस्यों के द्वार खोल देती है।
घुंडी गांठ रहन नहिं पावै, इकरंगी होए आई।।
वही धुनिया अपनी भाषा में समझाने की कोशिश कर रहा है।
घुंडी गांठ रहन नहिं पावै...
न तो कहीं गांठ रह जाती, न कहीं उलझन रह जाती धागों में। सब मिट जाती है।
...इकरंगी होए आई।
यह जो बहुरंगा मन है--यह करूं, वह करूं; यह भी कर लूं, वह भी कर लूं--यह जो हजार-हजार दिशाओं में दौड़ता हुआ मन है, अचानक एक रंग का हो जाता है।
मैं अपने संन्यासी को गैरिक रंग दे रहा हूं। मुझसे लोग पूछते हैं: क्या और रंग बुरे हैं?
नहीं; और रंग बुरे नहीं हैं। यह तो केवल सूचक है कि धीरे-धीरे एक रंग के हो जाना है। कोई भी चुन सकता था। हरा चुनता, वह भी प्यारा रंग है--वृक्षों का रंग है, सूफियों का रंग है! शांति का रंग है। शीतलता का रंग है। वह भी प्यारा रंग है। गैरिक चुना; वह सूरज का रंग है; आग का रंग है--जिसमें कोई पड़ जाए तो जल कर राख हो जाए। वह अहंकार को भस्मीभूत करने का रंग है। सफेद भी चुन सकता था। वह पवित्रता का रंग है, निर्दोषता का रंग है, कुंवारेपन का रंग है। सब रंग प्यारे हैं। काला भी चुन सकता था। वह गहराई का रंग है; असीमता का रंग है; शाश्वतता का रंग है। प्रकाश तो आता-जाता है, अंधेरा सदा रहता है। प्रकाश के लिए तो ईंधन की जरूरत पड़ती है; बाती लाओ, तेल लाओ। अंधेरे के लिए कोई जरूरत नहीं पड़ती। न बाती की, न तेल की। अंधेरे को बनाना ही नहीं पड़ता; वह है ही। प्रकाश आता-जाता है; अंधेरा सदा है। तो काला रंग भी चुन सकता था।
मगर एक रंग चुनना था, ताकि भीतर तुम्हें स्मरण बना रहे कि मन बहुरंगी है, सतरंगी है--इसे इकरंगी कर देना है; इसे एक रंग में रंग देना है।
फिर गैरिक ही चुना, क्योंकि वह चिता का रंग है, आग का रंग है। और सत्संग तो चिता है; वहां मरना सीखना है; मरने की कला सीखना है।
प्रेम की भाल कलेजे पोई।
वहां प्रेम की ज्वाला में भस्मीभूत हो जाना सीखना है।
इकरंग हुआ भरा हरि चोला, हरि कहै कहा दिलाऊं।
दरिया कहते हैं: और जिस दिन मैं एकरंग हुआ, उसी दिन मेरे भीतर हरि ही हरि भर गया। जब तक मैं बंटा था, हरि का पता न था। जब मैं अनबंटा हुआ, अखंड हुआ, एक हुआ--तत्क्षण वह अखंड मुझमें उतर आया।
इकरंग हुआ भरा हरि चोला...
तो पूरे देह में, तन-प्राण में हरि ही हरि भर गया।
...हरि कहै कहा दिलाऊं।
और फिर हरि मुझसे कहने लगे: क्या चाहिए, बोल? क्या दिला दूं?
अब यह भी कोई बात हुई! अब तो पाने को कुछ रहा नहीं। यही तो मजा है! जब पाने को कुछ नहीं होता, तब परमात्मा कहता है: बोलो, क्या चाहिए? भिखमंगों को परमात्मा कुछ नहीं देता, सम्राटों को सब देता है। उससे दोस्ती करनी हो तो भिखमंगापन छोड़ना पड़ता है। इसलिए तो इस देश ने संन्यासी के लिए स्वामी नाम चुना। स्वामी का अर्थ होता है: मालिक, सम्राट। मांग कर नहीं कोई उसके द्वार तक पहुंचता। मांगने में तो वासना है। जहां तक मांगना है, वहां तक प्रार्थना नहीं है। जहां तक मांगना है, वहां तक संसार। जहां सब मांगना छूट गया, जहां कुछ मांगने को नहीं--वहां अपूर्व घटना घटती है। परमात्मा कहता है: बोलो, क्या चाहिए?
कबीर ने कहा है कि मैं हरि को खोजता फिरता था और मिलते नहीं थे। और जब से मिले हैं, हालत बदल गई है। अब मेरे पीछे-पीछे घूमते हैं--कहत कबीर-कबीर! कहां जा रहे कबीर? क्या चाहिए कबीर? अब मैं लौट कर नहीं देखता, क्योंकि मुझे कुछ चाहिए नहीं। अब ये और एक झंझट का प्रश्न खड़ा करते हैं--क्या चाहिए? न मांगूं तो भी शोभा नहीं देता। न मांगूं तो ऐसा लगता है कि कहीं अशिष्टाचार न हो। सो मैं भागता हूं। और वे मेरे पीछे पड़े हैं--कहत कबीर-कबीर! कहां जा रहे? रुको! कुछ ले लो!
इकरंग हुआ भरा हरि चोला, हरि कहै कहा दिलाऊं।।
मैं नाहिं मेहनत का लोभी...
वे कहते हैं: मुझे कोई लोभ नहीं है। मुझे अब कुछ चाहिए नहीं है।
...बकसो मौज भक्ति निज पाऊं।
अब अगर नहीं ही मानते हो और कुछ मांगना ही है, मांगना ही पड़ेगा, जिद पर ही पड़े हो, तो इतना ही करो कि मेरी भक्ति बढ़े, और बढ़े, कि मेरी मौज और बढ़े। इतनी बढ़े, इतनी बढ़े कि निज को पा लूं।
इस संसार में सब स्वप्नवत है--सिर्फ एक तुमको छोड़ कर। इस संसार में सब दृश्य झूठे हैं--सिर्फ एक द्रष्टा को छोड़ कर।
दीपक की लौ कांपी,
परदों में लहर पड़ी!
शीशे में अनजाने तन के आभास हिले
अनदेखे पग में जादू के घुंघरू छमके
कालीनों में ऊनी फूल दबे और खिले
थाप पड़ी पहले कुछ तेजी से फिर थमके
किसने छेड़ी पिछले जन्मों में सुने हुए,
एक किसी गाने की पहली रंगीन कड़ी!
अगहन के कोहरे से निर्मित हलके तन के
टोने सहसा जैसे कमरे में घूम गए
हाथों में ताजी कलियों के कंगन खनके
कंधों पर वेणी के फूल-सांप झूम गए
दीपक के हिलते आलोकों को छेड़ गईं,
चंपे की लहराती बांहें बड़ी-बड़ी!
इन बहकी घड़ियों की गहरी बेहोशी में
जाने कब रात हुई, जाने कब बीत गई
मन के अंधियारे में उभरे धीमे-धीमे
रंगों के द्वीप नये, वाणी की भूमि नई
मणियों के कूल नये जिन पर हम भूल गए,
लक्ष्यहीन यात्राओं की वह सुनसान घड़ी!
नर्तन यह खींच कहां मुझको ले जाएगा
क्या ये सब पिछली तट-रेखाएं छूटेंगी
या दीपक गुल होगा, उत्सव थम जाएगा
गीतों की सब कड़ियां सिसकी में टूटेंगी
जाने क्या होना है? सच है या टोना है?
या यह भी खोना है? छलना की एक लड़ी!
परदों में लहर पड़ी,
दीपक की लौ कांपी।
यह संसार बस ऐसा है जैसे--
परदों में लहर पड़ी,
दीपक की लौ कांपी।
और दीवाल पर छायाएं कंप गईं! बस इतना, बस इससे जरा ज्यादा नहीं।
यहां मांगने योग्य क्या है? सिर्फ एक निजता सत्य है। सिर्फ एक आत्मा सत्य है। सिर्फ एक साक्षी सत्य है। परमात्मा अगर कहे--मांगो! तो बेचारा भक्त मांगे तो क्या मांगे? इतना ही मांगता है--
...बकसो मौज भक्ति निज पाऊं।
किरपा करि हरि बोले बानी, तुम तो हौ मम दास।
और जब तुम चुप हो जाओगे, तब परमात्मा बोलता है। जब तक तुम बोलते हो, तब तक वह चुप है; या शायद बोलता है, लेकिन तुम्हारे बोलने के कारण तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता।
किरपा करि हरि बोले बानी, तुम तो हौ मम दास।
दरिया कहै मेरे आतम भीतर, मेलौ राम भक्ति-बिस्वास।।
जैसे ही इतनी सी बात कह दी कि तुम मेरे दास हो, तुम मेरे हो, तुम मेरे अंग हो, कि तुम मेरी ही एक किरण हो, कि मेरी ही एक गंध हो--कि बस सब हो गया!
दरिया कहै मेरे आतम भीतर, मेलौ राम भक्ति-बिस्वास।।
उस घड़ी श्रद्धा जन्मी। उस घड़ी जाना परमात्मा है।
परमात्मा प्रमाणों से नहीं जाना जाता। कोई प्रमाण नहीं परमात्मा का सिवाय समाधि के अनुभव के।
छू गई है ज्योति मुझको,
मोम सा मैं गल रहा हूं!
मुझ पर असर होता नहीं था,
मैं कभी पाषाण सा था;
मैं समंदर में पड़ा बहता
बरफ--चट्टान सा था!
एक दिन किरणें पड़ीं सिर पर
अचानक, जल रहा हूं!
यह बड़ी कड़वी, बड़ी
मीठी, बड़ी नमकीन भी है!
इस जलन में अमृत रस है,
साथ ही रस-हीन भी है!
हाथ पकड़ा है किसी ने,
और मैं भी चल रहा हूं!
छू गई है ज्योति मुझको,
मोम सा मैं गल रहा हूं!
परमात्मा तुम्हें छुए, इतना उसे अवसर दो। इतना कम से कम अपने भीतर द्वार-दरवाजा खुला रखो कि उसकी धूप आ सके, कि उसकी हवा आ सके, कि उसका स्पर्श तुम्हें मिल सके। फिर शेष सब, जो तुम जन्मों-जन्मों चाहे थे, मांगे थे, कल्पना की थी, घटना शुरू हो जाता है। और जिसने उसे जाना, क्षण भर को भी जाना, फिर लौटने का कोई उपाय नहीं है। फिर तो मस्त-मगन हो उसके गीत गाता है!
चांद अगर मिल सका न मुझको,
क्या होगा सारा उजियारा।
रूठ गए यदि तुम ही मुझसे,
फिर जीवन का कौन सहारा।
मैंने तो जीवन नौका की सौंपी है पतवार तुम्हीं को,
पार लगाओ या कि डुबा दो सारा है अधिकार तुम्हीं को।
सागर बीच कह रहे मुझसे मैं तेरे संग अब न चलूंगा,
संभव नहीं हमारा मिलना इसीलिए अब मिल न सकूंगा।
माना चाह मधुर सा सपना,
माना मिलन असंभव अपना।
लेकिन तुम्हें छोड़ दूं कैसे,
तुम्हीं भंवर हो तुम्हीं किनारा।
मेरे नयनों के दीपक में ज्योति तुम्हारी ही पलती है,
आशाओं की बाती बन कर याद तुम्हारी ही जलती है।
भूल नहीं पाता दो पल भी स्मृतियों की जलन चुभन को,
आलिंगन का बंदीगृह ही भाता है अब मेरे मन को।
इसमें कुछ अपराध न मेरा,
इसमें कुछ अपराध न तेरा,
मेरे ही अंतर्मन को जब,
भाता कारागार तुम्हारा।
तुम ही तो मेरे गीतों में कलित कल्पना की काया हो,
कंपित सी कोमल भावों में अनुभावों की अनुछाया हो।
तुम्हीं काव्य की अमर प्रेरणा तुम्हीं साधना का साधन हो,
तुम्हीं शब्द हो तुम्हीं पंक्ति हो तुम्हीं सरस स्वर आराधन हो।
तुम्हीं सुधामय अमर प्रीति हो,
तुम्हीं मिलन का मधुर गीत हो।
बिना तुम्हारे रह जाएगा,
मेरा भाव सिंधु ही खारा।
चांद अगर मिल सका न मुझको,
क्या होगा सारा उजियारा।
रूठ गए यदि तुम ही मुझसे,
फिर जीवन का कौन सहारा।
और अभी परमात्मा तुमसे रूठा है, क्योंकि तुम परमात्मा से रूठे हो। तुम परमात्मा की तरफ पीठ किए खड़े हो। और इसलिए कितना ही उजाला हो, तुम्हारी जिंदगी अंधेरी रहेगी, अंधेरी ही रहेगी। उस चांद को पाए बिना कोई उजियाला काम का नहीं है। उस परम धन को पाए बिना सब धन व्यर्थ। उस परम पद को पाए बिना सब पद व्यर्थ।
परमात्मा परम भोग है। उसको पाए बिना सब भोग, भोग के धोखे हैं।
हिम्मत करो! साहस करो! एक दिन ऐसी घड़ी आए कि तुम भी कह सको--
गगन-मंडल में धुनिया बैठा, मेरे सतगुरु कला सिखाई।
आ सकती है घड़ी। तुम्हारा अधिकार है। तुम्हारे भीतर छिपी हुई संभावना है। अभी बीज है माना; मगर बीज कभी भी फूल बन सकते हैं। और जब तक अमृत की वर्षा न हो और तुम्हारे बीज भीतर खिल कर कमल न बन जाएं, तब तक बैठना मत, तब तक चलना है, तब तक चलते ही चलना है। याद रखना--अमी झरत, बिगसत कंवल! अमृत झरे और कमल खिले--यह गंतव्य है।
आज इतना ही।
ब्यावर जाने पीर की सार। बांझ नार क्या लखे विकार।।
पतिब्रता पति को ब्रत जानै। बिभचारिन मिल कहा बखानै।।
हीरा पारख जौहरि पावै। मूरख निरख के कहा बतावै।।
लागा घाव कराहै सोई। कोतगहार के दर्द न कोई।।
रामनाम मेरा प्रान-अधार। सोई रामरस-पीवनहार।।
जन दरिया जानेगा सोई। प्रेम की भाल कलेजे पोई।।
जो धुनिया तो मैं भी राम तुम्हारा।
अधम कमीन जाति मतिहीना, तुम तो हौ सिरताज हमारा।।
काया का जंत्र, सब्द मन मुठिया, सुषमन तांत चढ़ाई।
गगन-मंडल में धुनिया बैठा, मेरे सतगुरु कला सिखाई।।
पाप-पान हरि कुबुधि-कांकड़ा, सहज-सहज झड़ जाई।
घुंडी गांठ रहन नहिं पावै, इकरंगी होए आई।।
इकरंग हुआ भरा हरि चोला, हरि कहै कहा दिलाऊं।
मैं नाहिं मेहनत का लोभी, बकसो मौज भक्ति निज पाऊं।।
किरपा करि हरि बोले बानी, तुम तो हौ मम दास।
दरिया कहै मेरे आतम भीतर, मेलौ राम भक्ति-बिस्वास।।
तुम रूप-राशि, मैं रूप-रसिक,
अवगुंठन खोलो, दर्शन दो!
मानस में मेरे आन बसो,
कुटिया मेरी जगमग कर दो!
युग-युग से प्यास लिए मन में,
फिरता आया इस-उस जग में,
ठहराव कहीं भी पा न सका,
अभिशप्त रहा हर जीवन में!
क्षणभंगुर रूप दिखा इत-उत,
हर जगती में, हर जीवन में,
तृष्णा-ज्वाला जलती ही रही,
हर जीवन में प्रतिपल मन में।
अब द्वार तुम्हारे आया हूं,
रूपसि, खोलो पट, दर्शन दो!
तुम रूप-राशि, मैं रूप-रसिक,
अवगुंठन खोलो, दर्शन दो!
मानस में मेरे आन बसो,
कुटिया मेरी जगमग कर दो!
हो मधुप कुसुम सा प्रणय-मिलन,
रसमय पीड़ा का उद्वेलन,
परिणय हो प्राप्ति कामना का,
प्राणों का प्राणों से मधुर मिलन!
सुन पाया मन तव आवाहन,
रससिक्त, मदिर, मृदु उदबोधन,
वंशी-ध्वनि का सा आवाहन,
ब्रज-वनिताओं सा उद्वेलन!
हर्षित पर शंकित, व्याकुल मन,
रूपसि, खोलो पट, दर्शन दो!
तुम रूप-राशि, मैं रूप-रसिक,
अवगुंठन खोलो, दर्शन दो!
मानस में मेरे आन बसो,
कुटिया मेरी जगमग कर दो!
युग-युग की संचित आशाएं,
प्रियकर पावन अभिलाषाएं,
चिर-सुख की सुंदर आशाएं,
चिर-शांति-मुक्ति अभिलाषाएं!
तन, मन, प्राणों की निधियां ले,
मृदु आदि-काल की सुधियां ले,
दे सकता जो, वह सब कुछ ले,
अपना जो कुछ, वह सब कुछ ले,
मैं अर्घ्य लिए द्वारे आया,
रूपसि, खोलो पट, दर्शन दो!
तुम रूप-राशि, मैं रूप-रसिक,
अवगुंठन खोलो, दर्शन दो!
मानस में मेरे आन बसो,
कुटिया मेरी जगमग कर दो!
भक्त का हृदय एक प्रार्थना है, एक अभीप्सा है--परमात्मा के द्वार पर एक दस्तक है। भक्त के प्राणों में एक ही अभिलाषा है--कि जो छिपा है वह प्रकट हो जाए, कि घूंघट उठे, कि वह परम प्रेमी या परम प्रेयसी मिले! इससे कम पर उसकी तृप्ति नहीं। उसे कुछ और चाहिए नहीं। और सब चाह कर देख भी लिया। चाह-चाह कर सब देख लिया। सब चाहें व्यर्थ पाईं। दौड़ाया बहुत चाहों ने, पहुंचाया कहीं भी नहीं।
जन्मों-जन्मों की मृग-तृष्णाओं के अनुभव के बाद कोई भक्त होता है। भक्ति अनंत-अनंत जीवन की यात्राओं के बाद खिला फूल है। भक्ति चेतना की चरम अभिव्यक्ति है। भक्ति तो केवल उन्हीं को उपलब्ध होती है जो बड़भागी हैं। नहीं तो हम हर बार फिर उन्हीं चक्करों में पड़ जाते हैं। बार-बार फिर कोल्हू के बैल की तरह चलने लगते हैं।
मनुष्य के जीवन में अगर कोई सर्वाधिक अविश्वसनीय बात है तो वह यह है कि मनुष्य अनुभव से कुछ सीखता नहीं। उन्हीं-उन्हीं भूलों को दोहराता है। भूलें भी नई करे तो भी ठीक; बस पुरानी ही पुरानी भूलों को दोहराता है। रोज-रोज वही, जन्म-जन्म वही। भक्ति का उदय तब होता है जब हम जीवन से कुछ अनुभव लेते हैं, कुछ निचोड़।
निचोड़ क्या है जीवन का?--कि कुछ भी पा लो, कुछ भी पाया नहीं जाता। कितना ही इकट्ठा कर लो और तुम भीतर दरिद्र के दरिद्र ही रहे आते हो। धन तुम्हें धनी नहीं बनाता--जब तक कि वह परम धनी न मिल जाए, वह मालिक न मिले। धन तुम्हें और भीतर निर्धन कर जाता है। धन की तुलना में भीतर की निर्धनता और खलने लगती है।
मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा, सब धोखे हैं, आत्मवंचनाएं हैं। कितना ही छिपाओ अपने घावों को, अपने घावों के ऊपर गुलाब के फूल रख दो; इससे घाव मिटते नहीं। भूल भला जाएं क्षण भर को, भरते नहीं। दूसरों को भला धोखा हो जाए, खुद को कैसे धोखा दोगे? तुम तो जानते ही हो, जानते ही हो, जानते ही रहोगे कि भीतर घाव है, ऊपर गुलाब का फूल रख कर छिपाया है। सारे जगत को भी धोखा देना संभव है, लेकिन स्वयं को धोखा देना संभव नहीं है।
जिस दिन यह स्थिति प्रगाढ़ होकर प्रकट होती है, उस दिन भक्त का जन्म होता है। और भक्त की यात्रा विरह से शुरू होती है। क्योंकि भक्त के भीतर एक ही प्यास उठती है अहर्निश--कैसे परमात्मा मिले? कहां खोजें उसे? उसका कोई पता और ठिकाना भी तो नहीं। किससे पूछें? हजारों हैं उत्तर देने वाले, लेकिन उनकी आंखों में उत्तर नहीं। और हजारों हैं शास्त्र लिखने वाले, लेकिन उनके प्राणों में सुगंध नहीं। हजारों हैं जो मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में प्रार्थनाएं कर रहे हैं, लेकिन उनकी प्रार्थनाओं में आंसुओं का गीलापन नहीं है। उनकी प्रार्थनाओं में हृदय का रंग नहीं है--रूखी हैं, सूखी हैं, मरुस्थल सी हैं। और प्रार्थना कहीं मरुस्थल होती है? प्रार्थना तो मरूद्यान है; उसमें तो बहुत फूल खिलते हैं, बहुत सुवास उठती है। हां, बाहर की आरती तो लोगों ने सजा ली है, लेकिन भीतर कर दीया बुझा है। और बाहर तो धूप-दीप का आयोजन कर लिया है, और भीतर सब शून्य है, रिक्त है।
भक्त को यह पीड़ा खलती है। भक्त इस झूठी भक्ति से अपने मन को बहला नहीं सकता। ये खिलौने अब उसके काम के न रहे। अब तो असली चाहिए। अब कोई नकली चीज उसे न भा सकती है, न भरमा सकती है, तो गहन विरह की आग जलनी शुरू होती है। प्यास उठती है, और चारों तरफ झूठे पानी के झरने हैं। और जितनी झूठे पानी के झरने की पहचान होती है, उतनी ही प्यास और प्रगाढ़ होती है। एक ऐसी घड़ी आती है जब भक्त धू-धू कर जलती हुई एक प्यास ही रह जाता है। उस प्यास के संबंध में ही ये प्यारे वचन दरिया ने कहे हैं।
जाके उर उपजी नहिं भाई। सो क्या जाने पीर पराई।।
यह विरह ऐसा है कि जिस हृदय में उठा हो, वही पहचान सकेगा। यह पीर ऐसी है। यह अनूठी पीड़ा है! यह साधारण पीड़ा नहीं है।
साधारण पीड़ा से तो तुम परिचित हो। कोई है जिसे धन की प्यास है। और कोई है जिसे पद की प्यास है। नहीं मिलता तो पीड़ा भी होती है। बाहर की पीड़ाओं से तो तुम परिचित हो। लेकिन भीतर की पीड़ा को तो तुमने कभी उघाड़ा नहीं। तुमने भीतर तो कभी आंख डाल कर देखा ही नहीं कि वहां भी एक पीड़ा का निवास है। और ऐसी पीड़ा का कि जो पीड़ा भी है और साथ ही बड़ी मधुर भी। पीड़ा है, क्योंकि सारा संसार व्यर्थ मालूम होता है। और मधुर, क्योंकि पहली बार उसी पीड़ा में परमात्मा की धुन बजने लगती है। पीड़ा--जैसे छाती में किसी ने छुरा भोंक दिया हो! ऐसा बिंधा रह जाता है भक्त।
लेकिन फिर भी यह पीड़ा सौभाग्य है। क्योंकि इसी पीड़ा के पार उसका द्वार खुलता है, उसके मंदिर के पट खुलते हैं। यह पीड़ा सूली भी है और सिंहासन भी। इधर सूली, उधर सिंहासन। एक तरफ सूली, दूसरी तरफ सिंहासन। इसलिए पीड़ा बड़ी रहस्यमय है। भक्त रोता भी है, लेकिन उसके आंसू और तुम्हारे आंसू एक ही जैसे नहीं होते।
हां, वैज्ञानिक के पास ले जाओगे परीक्षण करवाने, तो वह तो कहेगा कि एक ही जैसे हैं। दोनों खारे हैं--इतना नमक है, इतना जल है, इतना-इतना क्या-क्या है, सब विश्लेषण करके बता देगा। भक्त के आंसुओं में और साधारण दुख के आंसुओं में वैज्ञानिक को भेद दिखाई न पड़ेगा।
इसलिए वैज्ञानिक परम मूल्यों के संबंध में अंधा है। तुम तो जानते हो आंसुओं आंसुओं का भेद। कभी तुम आनंद से भी रोए हो। कभी तुम दुख से भी रोए हो। कभी क्रोध से भी रोए हो। कभी मस्ती से भी रोए हो। तुम्हें भेद पता है। लेकिन भेद आंतरिक है; यांत्रिक नहीं है, बाह्य नहीं है। इसलिए बाहर की किसी विधि की पकड़ में नहीं आता।
फिर भक्त के आंसू तो परम अनुभूति है, जो हृदय के पोर-पोर से रिसती है। उसमें पीड़ा है बहुत, क्योंकि परमात्मा को पाने की अभीप्सा जगी है। और उसमें आनंद भी है बहुत, क्योंकि परमात्मा को पाने की अभीप्सा जगी है। परमात्मा को पाने की आकांक्षा का जग जाना ही इतना बड़ा सौभाग्य है कि भक्त नाचता है। यह तो केवल थोड़े से सौभाग्यशालियों को यह पीड़ा मिलती है। यह अभिशाप नहीं है, यह वरदान है। इसे वे ही पहचान सकेंगे जिन्होंने इसका थोड़ा स्वाद लिया।
जाके उर उपजी नहिं भाई।
और यह पीड़ा मस्तिष्क में पैदा नहीं होती। यह कोई मस्तिष्क की खुजलाहट नहीं है। मस्तिष्क की खुजलाहट से दर्शनशास्त्रों का जन्म होता है। यह पीड़ा तो हृदय में पैदा होती है। इस पीड़ा का विचार से कोई नाता नहीं है। यह पीड़ा तो भाव की है। इस पीड़ा को कहा भी नहीं जा सकता। विचार व्यक्त हो सकते हैं, भाव अव्यक्त ही रहते हैं। विचारों को दूसरों से निवेदन किया जा सकता है। और निवेदन करके आदमी थोड़ा हलका हो जाता है। किसी से कह लो, दो बात कर लो, मन का बोझ उतर जाता है। पर यह पीड़ा ऐसी है कि किसी से कह भी नहीं सकते। कौन समझेगा? लोग पागल समझेंगे तुम्हें।
कल एक जर्मन महिला ने संन्यास लिया। एक शब्द न बोल सकी। शब्द बोलने चाहे तो हंसी, रोई, हाथ उठे, मुद्राएं बनीं। खुद चौंकी भी बहुत, क्योंकि शायद पागल समझी जाए। कहीं और होती तो पागल समझी भी जाती। मैंने उससे कहा भी कि अगर जर्मनी में ही होती तू और किसी प्रश्न के उत्तर में ऐसा करती तो पागल समझी जाती। तू ठीक जगह आ गई। यहां तुझे पागल न समझा जाएगा। यहां तुझे धन्यभागी, बड़भागी समझा जाएगा। रोती है, डोलती है। हाथ उठते हैं, कुछ कहना चाहते हैं। ओंठ खुलते हैं, कुछ बोलना चाहते हैं। मगर विचार हो तो कह दो, भाव हो तो कैसे कहो?
भाव तो केवल वे ही समझ सकते हैं, जिन्होंने उस पीड़ा का थोड़ा अनुभव किया हो।
इसलिए सत्संग का मूल्य है। सत्संग का अर्थ है: जहां तुम जैसे और दीवाने भी मिलते हैं। सत्संग का अर्थ है: जहां चार दीवाने मिलते हैं, जो एक-दूसरे का भाव समझेंगे; जो एक-दूसरे के भाव के प्रति सहानुभूति--सहानुभूति ही नहीं, समानुभूति भी अनुभव करेंगे; जहां एक के आंसू दूसरे के आंसुओं को छेड़ देंगे; और जहां एक का गीत दूसरे के भीतर गीत की गूंज बन जाएगा; और जहां एक नाच उठेगा तो शेष सब भी पुलक से भर जाएंगे; जहां एक ऊर्जा उन सबको घेर लेगी।
सत्संग अनूठी बात है। सत्संग का अर्थ है जहां पियक्कड़ मिल बैठे हैं। अब जिन्होंने कभी पी ही नहीं है शराब, वे तो कैसे समझेंगे? और बाहर की शराब तो कहीं भी मिल जाती है। भीतर की शराब तो कभी-कभी, बहुत मुश्किल से मिलती है। क्योंकि भीतर की शराब जहां मिल सके, ऐसी मधुशालाएं ही कभी-कभी, सैकड़ों सालों के बाद निर्मित होती हैं। किसी बुद्ध के पास, किसी नानक के पास, किसी दरिया के पास, किसी फरीद के पास कभी सत्संग का जन्म होता है।
सत्संग किसी जाग्रत पुरुष की हवा है। सत्संग किसी जाग्रत पुरुष के पास तरंगायित भाव की दशा है। सत्संग किसी के जले हुए दीये की रोशनी है। उस रोशनी में जब चार दीवाने बैठ जाते हैं और हृदय से हृदय जुड़ता है और हृदय से हृदय तरंगित होता है, तभी जाना जा सकता है।
दरिया ठीक कहते हैं। और तुम जरा भी समझ लो इस पीर को, इस पीड़ा को, तो तुम्हारे जीवन में भी अमृत की वर्षा हो जाए। अमी झरत, बिगसत कंवल! झरने लगे अमृत और खिलने लगे कमल आत्मा का। मगर इस पीड़ा के बिना कुछ भी नहीं है। यह प्रसव पीड़ा है।
जाके उर उपजी नहिं भाई। सो क्या जाने पीर पराई।।
हर समय तुम्हारा ध्यान, प्रिये,
मन उद्वेलित, आकुल प्रतिपल,
छू पाती मन के तारों को,
मेरी निस्वर मनुहार विकल?
अनुरागमयी, कह दो, कह दो,
आश्वासन के दो शब्द सरस,
दो बूंद सही, मधु तो दे दो,
घुल जाए मन में किंचित रस!
यह व्यथा कि जिसका अंत नहीं,
यह तृषा कि पल भर चैन नहीं,
मधु-घट सन्मुख, मधुदान नहीं!
यह न्याय नहीं! यह न्याय नहीं!
मधुदान उचित, प्रतिदान उचित,
मन प्राण तृषित, अनुराग विकल!
हर समय तुम्हारा ध्यान, प्रिये,
मन उद्वेलित, आकुल प्रतिपल,
छू पाती मन के तारों को,
मेरी निस्स्वर मनुहार विकल?
उठता है यह प्रश्न भक्त के मन में बहुत बार--कि जो मैं कह नहीं पाता, वह परमात्मा तक पहुंचता होगा? जो मैं बोल ही नहीं पाता, वह सुन पाता होगा? जो प्रार्थना मेरे ओंठों तक नहीं आ पाती, वह उसके कानों तक पहुंचती होगी?
लेकिन जानने वाले कहते हैं: वे ही प्रार्थनाएं पहुंचती हैं केवल, जो तुम्हारे ओंठों तक नहीं आ पातीं। जो तुम्हारे ओंठ तक आ गईं, वे उसके कान तक नहीं पहुंचतीं। जो तुम्हारे शब्दों तक आ गईं, वे यहीं पृथ्वी पर गिर जाती हैं। जो निःशब्द हैं, उनमें ही पंख होते हैं। वे ही उड़ती हैं आकाश में। जो निःशब्द हैं, वे निर्भार हैं। शब्द का भार होता है। शब्द भारी होते हैं। शब्द पर गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव होता है। शब्द को जमीन अपनी ओर खींच लेती है। यहीं तड़फड़ा कर गिर जाता है। उस तक तो निःशब्द में ही पहुंच सकते हो। उस तक तो शून्य में उठे हुए भाव ही यात्रा कर पाते हैं।
ब्यावर जाने पीर की सार।
कुछ दृष्टांत लेते हैं दरिया। सीधे-सादे आदमी हैं। धुनिया हैं। कुछ पढ़े-लिखे नहीं हैं बहुत। ठीक कबीर जैसे धुनिया हैं। लेकिन इन दो धुनियों ने न मालूम कितने पंडितों को धुन डाला है! कुछ बड़े-बड़े शब्द नहीं हैं, शास्त्रीय शब्द नहीं हैं--सीधे-सादे, लोक की समझ में आ सकें...।
ब्यावर जाने पीर की सार।
कहते हैं: जिसने बच्चे को जन्म दिया हो, वह स्त्री जानती है प्रसव की पीड़ा को। और जिसने अपने हृदय में परमात्मा को जन्म दिया हो, वही जानता है भक्त की पीड़ा को।
ब्यावर जाने पीर की सार।
कठिन है। जिस स्त्री ने अभी बच्चे को जन्म नहीं दिया, वह समझे भी तो कैसे समझे?--कि नौ महीने बच्चे को गर्भ में ढोना, वह भार, वमन, उल्टियां। भोजन का करना मुश्किल। चलना, उठना, बैठना, सब मुश्किल। और फिर भी एक आनंद-मगनता!
तुमने गर्भवती स्त्री की आंखों में देखा? पीर नहीं दिखाई पड़ती, पीड़ा नहीं दिखाई पड़ती--एक अहोभाव, एक धन्यभाव। तुमने उसके चेहरे की आभा देखी? एक प्रसाद! गर्भवती स्त्री में एक अपूर्व सौंदर्य प्रकट होता है। उसके चेहरे से जैसे दो आत्माएं झलकने लगती हैं। जैसे उसके भीतर दो दीये जलने लगते हैं एक की जगह। देह कितनी ही पीड़ा से गुजर रही हो, उसकी आत्मा आनंदमग्न हो नाचने लगती है। मां बनने का क्षण करीब आया। फलवती होने का क्षण करीब आया। अब फूल लगेंगे, वसंत आ गया। और जैसे वसंत में वृक्ष नाच उठते हैं और मस्त हो उठते हैं, ऐसे ही गर्भवती स्त्री मस्त हो उठती है। यद्यपि कठिन है यात्रा, कष्टपूर्ण है यात्रा--नौ महीने...।
और गर्भवती स्त्री की तो यात्रा नौ महीने में पूरी हो जाती है; लेकिन जिन्हें अपने भीतर बुद्धों को जन्म देना है, जिन्हें अपने भीतर परमात्मा को जन्म देना है, उसकी तो कोई नियत-सीमा नहीं है। नौ महीने लगेंगे, कि नौ वर्ष लगेंगे, कि नौ जन्म लग जाएंगे, कोई कुछ कह सकता नहीं। कोई बंधा हुआ समय नहीं है। तुम्हारी त्वरा, तुम्हारी तीव्रता, तुम्हारी तन्मयता, तुम्हारी समग्रता पर निर्भर है। कितने प्राणपण से जुटोगे, इस पर निर्भर है। नौ क्षण में भी हो सकता है, नौ महीने में भी न हो, नौ जन्म भी व्यर्थ चले जाएं। समय बाहर से निर्णीत नहीं है। समय तुम्हारे भीतर से निर्णीत होगा। कितने प्रज्वलित हो? कितने धू-धू कर जल रहे हो?
ब्यावर जाने पीर की सार। बांझ नार क्या लखे विकार।।
जिसने कभी बच्चे को जन्म नहीं दिया, उसे तो सिर्फ इतना ही दिखाई पड़ता होगा--कितनी मुसीबत में पड़ गई बेचारी! गर्भवती स्त्री को देख कर उसे लगता होगा--कितनी मुसीबत में पड़ गई बेचारी! उसे तो पीड़ा ही पीड़ा दिखाई पड़ती होगी। स्वाभाविक भी है। लेकिन पीड़ा में एक माधुर्य है, एक अंतर्नाद है, वह तो उसे नहीं सुनाई पड़ सकता। वह तो सिर्फ अनुभोक्ता का ही हक है, अधिकार है।
पतिब्रता पति को ब्रत जानै।
जिसने किसी को प्रेम किया है। और जिसने किसी को ऐसी गहनता से प्रेम किया है कि उसके प्रेमी के अतिरिक्त उसे संसार में कोई और बचा ही नहीं है; जिसने सारा प्रेम किसी एक के ही ऊपर निछावर कर दिया है; जिसके प्रेम में इतनी आत्मीयता है, इतना समर्पण है कि अब इस प्रेम के बदलने का कोई उपाय नहीं है; ऐसी शाश्वतता है कि अब कुछ भी हो जाए, जीवन रहे कि जाए, मगर प्रेम थिर रहेगा। जीवन तो एक दिन जाएगा, लेकिन प्रेम नहीं जाएगा। जीवन तो एक दिन चिता पर चढ़ेगा, लेकिन प्रेम का फिर कोई अंत नहीं है। जिसने किसी एक को इतनी अनन्यता से चाहा है, इतनी परिपूर्णता से चाहा है, वही जान सकता है प्रेम की, प्रीति की पीड़ा।
बिभचारिन मिल कहा बखानै।
लेकिन जिसने कभी किसी से आत्मीयता नहीं जानी, किसी से प्रेम नहीं जाना; जो क्षणभंगुर में ही जीया है...।
वेश्या से पूछने जाओगे पतिव्रता के हृदय का राज, तो कैसे बताएगी? वह उसका अनुभव नहीं है। पतिव्रता का राज तो पतिव्रता से पूछना होगा। और फिर भी पतिव्रता बता न सकेगी। क्या बताएगी? गूंगे का गुड़! बोलो तो बोल न सको। हां, पतिव्रता के पास रहोगे तो शायद थोड़ी-थोड़ी झलक मिलनी शुरू हो। उसका अनन्य प्रेम-भाव देखो तो शायद झलक मिलनी शुरू हो। उसका समग्र समर्पण देखो तो शायद झलक मिलनी शुरू हो।
हीरा पारख जौहरि पावै। मूरख निरख के कहा बतावै।।
हीरा हो तो पारखी जान सकेगा। मूरख देख भी लेगा तो भी क्या बताएगा?
यह वचन प्यारा है। मैं तुमसे कहता हूं: परमात्मा को तुमने भी देखा है, मगर पहचान नहीं पाए। ऐसा कैसे हो सकता है कि परमात्मा को न देखा हो! ऐसा तो हो ही नहीं सकता। हीरा न देखा हो, यह हो सकता है। लेकिन परमात्मा न देखा हो, यह नहीं हो सकता। क्योंकि हीरे तो कभी कहीं मुश्किल से मिलते हैं। परमात्मा तो सब तरफ मौजूद है। वृक्षों के पत्ते-पत्ते में उसके हस्ताक्षर। कंकड़-कंकड़ पर उसकी छाप। पत्थर-पत्थर में उसकी प्रतिमा। पक्षी-पक्षी में उसके गीत। हवाएं जब वृक्षों से गुजरती हैं, तो उसकी भगवदगीता। और आकाश में जब बादल घिर आते हैं और गड़गड़ाने लगते हैं, तो उसका कुरान। और झरनों में जब कल-कल नाद होता है, तो उसके वेद! तुम बचोगे कैसे? और जब सुबह सूरज निकलता है, तो वही निकलता है। और जब रात चांद की चांदनी बरसने लगती है, तो वही बरसता है। मोर के नाच में भी वही है। कोयल की कुहू-कुहू में भी वही है। मेरे बोलने में वही है, तुम्हारे सुनने में वही है। उसके अतिरिक्त तो कोई और है ही नहीं।
ऐसा तो कभी पूछना ही मत कि परमात्मा कहां है। ऐसा ही पूछना कि परमात्मा कहां नहीं है। तो यह तो हो ही कैसे सकता है कि तुमने परमात्मा को न देखा हो? रोज-रोज देखा है। हर घड़ी देखा है। हर घड़ी उसी से तो मुठभेड़ हो जाती है!
कबीर से किसी ने कहा कि अब तुम परम ज्ञान को उपलब्ध हो गए; अब बंद कर दो यह दिन-रात कपड़े बुनना और फिर बाजार बेचने जाना। शोभा भी नहीं देता। हजारों तुम्हारे शिष्य हैं, हम तुम्हारी फिकर कर लेंगे। तुम्हारा ऐसा खर्च भी क्या है? दो रोटी हम जुटा देंगे। हमारे मन में पीड़ा होती है कि तुम कपड़ा बुनो और फिर कपड़े बेचने बाजार जाओ।
लेकिन कबीर ने कहा कि नहीं-नहीं। फिर राम का क्या होगा?
उन्होंने पूछा: कौन राम?
उन्होंने कहा: वे जो ग्राहक में छिपे हुए राम आते हैं, उनके लिए कपड़े बुनता हूं।
कबीर जब बनारस के बाजार में बैठ कर और कपड़े बेचते थे, तो हर ग्राहक से कहते थे: राम! सम्हाल कर रखना। बहुत प्रेम से बुना है। झीनी-झीनी रे बीनी चदरिया! इसमें बहुत रस डाला है। इसमें प्राण उंडेले हैं।
गोरा कुम्हार ज्ञान को उपलब्ध हो गया, लेकिन घड़े बनाता रहा सो तो बनाता ही रहा। किसी ने कहा गोरा कुम्हार को: अब तो बंद कर दो घड़े बनाने। तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए। इतने तुम्हारे शिष्य हैं।
गोरा कुम्हार ने कहा: मैं कुम्हार और परमात्मा भी कुम्हार। उसने घड़े बनाने बंद नहीं किए, मैं कैसे कर दूं? वह बनाए जाता है। मैं भी बनाए जाऊंगा। और घड़े किनके लिए बनाता हूं? उसके लिए ही बनाता हूं! जब तक हूं, जो भी सेवा बन सके उसकी...।
गोरा को किसी ने कभी मंदिर जाते नहीं देखा, पूजा-प्रार्थना करते नहीं देखा; लेकिन घड़े बनाते जरूर देखा। और जब गोरा मिट्टी कूटता था, अपने पैरों से मिट्टी रौंदता था, तो उसकी मस्ती देखने जैसी थी! सैकड़ों लोग देखने इकट्ठे हो जाते थे। मिट्टी क्या कूटता था, जैसे मीरा नाचती थी ऐसे ही नाचता था! ऐसा ही मस्त, ऐसा ही दीवाना! उस मिट्टी में भी मस्ती आ जाती होगी। उसके बनाए गए घड़ों में शराब भरने की जरूरत न पड़ती होगी--शराब भरी ही होती होगी। उनके सूनेपन में भी शराब भरी होती होगी। उनके खालीपन में भी रस भरा होता होगा।
हीरे को तो पारखी देखेगा, पारखी समझेगा।
मूरख निरख के कहा बतावै।
लेकिन किसी मूर्ख को दिखा दिया तो वह क्या बताएगा? देख भी लेगा तो भी चुप रहेगा। उसको तो कंकड़-पत्थर ही दिखाई पड़ते हैं।
आदमी को वही दिखाई पड़ता है जितनी उसकी देखने की क्षमता होती है। हमारी सृष्टि हमारी दृष्टि से सीमित रहती है। जितनी बड़ी दृष्टि, उतनी बड़ी सृष्टि। जब दृष्टि इतनी असीम होती है कि उसकी कोई सीमा नहीं, तब सृष्टि खो जाती है और स्रष्टा दिखाई देता है। जब तुम्हारी दृष्टि असीम होती है, तो असीम से तुम्हारा साक्षात्कार होता है।
सघन आवेग के बादल हृदय-आकाश में जब,
सजल अनुभूति लेकर डोलते हैं।
रंगीली कल्पना के तब पिपासित भाव पंछी,
अधर में गीत सा पर खोलते हैं।
अधूरे विस्मरण सा शांतिमय वातावरण में,
विचारों का पवन जब सहम कर निस्वास भरता।
नयन की पुतलियों में इंद्रधनुषी रंग लेकर,
छली सपना अजाने चित्र सा बन कर उभरता।
जलन की वेदना से दमित नीरव नीड़ सूने,
व्यथा की टीस भर कर बोलते हैं।
सुहानी गंध जैसी प्राण में उच्छवास भरती,
किसी की याद जब अमराइयों सा फूलती है।
उभरता मौन मधु उल्लास सावन सा सलोना,
मृदुल मन की मधुरता छंद बन कर झूलती है।
सुखद मन के सुकोमल शब्द ध्वनि के पेंग भर कर,
सधी सी पंक्ति बन कर झूलते हैं।
तृषा रत जब कुंआरा क्षुब्ध घुटता मौन चातक,
हरित धरती दुल्हन सी मांग भरती देखता है।
प्रणय की अर्चना में साधना-अंगार खाकर,
प्रवासी स्वाति को लय में विलय हो टेरता है।
विरह की सांस में भर कर उदासी चिर मिलन की,
निलय में स्वप्न सतरंग घोलते हैं।
सघन आवेग के बादल हृदय-आकाश में जब,
सजल अनुभूति लेकर डोलते हैं।
रंगीली कल्पना के तब पिपासित भाव पंछी,
अधर में गीत सा पर खोलते हैं।
जैसे-जैसे तुम्हारे भाव की सघनता होती है, जैसे-जैसे तुम्हारे भाव की गहनता होती है, वैसे-वैसे अस्तित्व रहस्यमय होने लगता है। वैसे-वैसे पर्दे उठते हैं। वैसे-वैसे सत्य भी नग्न होता है। वैसे-वैसे प्रकृति अपने भीतर छिपे परमात्मा को प्रकट करने लगती है।
लागा घाव कराहै सोई।
जिसको घाव लगा है, वह कराहता है।
कोतगहार के दर्द न कोई।
तमाशा देखने वाले को तो कोई दर्द नहीं होता। तुम जिंदगी में अब तक तमाशा देखने वाले रहे हो। जिंदगी में डुबकी मारो। किनारे पर कब से खड़े हो! किनारे पर ही जीना है और किनारे पर ही मरना है? और यह घुमड़ता सागर तुम्हें निमंत्रण दे रहा है। और ये उठती हुई तरंगें, चुनौती हैं, कि छोड़ो अपनी नाव। नहीं कोई नक्शा है पास, माना। मगर नक्शा सिर्फ नामर्द पूछते हैं। मर्द तो अनंत में, अज्ञात में अपनी छोटी सी डोंगी लेकर उतर जाते हैं।
खोजने का आनंद इतना है कि उसमें अगर कोई खुद भी खो जाए तो हर्ज नहीं। खोजने का आनंद ही इतना है कि खुद को भी समर्पित किया जा सकता है। और यह भी समझ लेना, जो खुद को खोने को राजी नहीं है, वह कभी खोज नहीं पाएगा। जो इस बात के लिए राजी है कि अगर यह नौका डूब जाएगी मझधार में तो मझधार ही मेरा किनारा होगा--वही केवल परमात्मा के विराट सागर में अपनी नौका को छोड़ सकता है और वही कभी उसे पाने में समर्थ हो सकता है।
लागा घाव कराहै सोई। कोतगहार के दर्द न कोई।।
लेकिन लोग सिर्फ तमाशबीन हैं। वे बुद्धों को उतरते भी देखते हैं सागर में; तरंगों पर, लहरों पर जीतते भी देखते हैं; फिर भी किनारे पर ही खड़े देखते रहते हैं। दूर से नमस्कार भी कर लेते हैं, मगर पैर नहीं रखते। एक कदम नहीं उठाते। पैर रखना तो दूर, किनारे पर पैर गड़ा कर खड़े होते हैं कि किसी भूल-चूक के क्षण में, अपने बावजूद, कभी किसी दीवाने की बातों में आकर कहीं उतर न जाएं! तो जंजीरें बांध रखते हैं। पैरों में जंजीरें बांध देते हैं। अपने पर इतना भी भरोसा तो नहीं है। हो सकता है किसी की बात मन को आंदोलित कर दे, कोई तार छिड़ जाए भीतर, कोई सोया भाव जगा दे। और कहीं ऐसा हो जाए कि उतर ही न जाऊं! फिर उतर जाऊं तो पछताऊं। उतर जाऊं तो लौटने का भी तो पता नहीं कि लौट पाऊं।
इसलिए किनारे पर लोगों ने पैर गड़ा लिए हैं जमीन में। खूंटे गाड़ लिए हैं। खूंटों से जंजीरें बांध ली हैं। तुम जरा खुद ही गौर से देखो, तुमने कितनी जंजीरें बांध रखी हैं! और लोग जंजीरों के बहाने चुनौतियों को इनकार करते रहते हैं।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं: संन्यास तो लेना है, मगर अभी नहीं ले सकता। अभी तो बेटे का विवाह करना है। जब बेटे का विवाह हो जाएगा तब लूंगा। अभी संन्यास ले लूं, कहीं बेटे के विवाह में अड़चन न पड़े।
और कल अगर मौत आ गई तो क्या तुम सोचते हो कि बेटे का विवाह रुकेगा? तो क्या तुम सोचते हो कि तुम्हारी मौत से कुछ बाधा पड़ जाने वाली है? और मौत आ गई तो फिर क्या करोगे?
नहीं, लेकिन कोई यह सोचता ही नहीं कि मैं कभी मरने वाला हूं। लोग सोचते हैं कि सदा दूसरे मरते हैं। मौत हमेशा किसी और की होती है, मेरी नहीं। मैं तो सदा बचता हूं। यह तो कोई सोचता ही नहीं कि कल मौत हो सकती है। और जिसने यह नहीं सोचा है कि कल मौत हो सकती है, वह आज के निमंत्रण को स्वीकार न कर सकेगा, वह कल पर टालेगा। वह कहेगा: कुछ और थोड़ा काम-धाम निपटा लूं।
बुद्ध एक गांव से तीस साल तक गुजरे, कई बार गुजरे। वह उनके रास्ते में पड़ता था श्रावस्ती आते-जाते। उस गांव में एक वणिक था। तीस साल में बुद्ध नहीं तो कम से कम साठ बार उस गांव से गुजरे। लेकिन वह मिलने न जा सका सो न जा सका। जाना चाहता था। जवान था, तब से जाना चाहता था। बूढ़ा हो गया, तब तक नहीं गया। जिस दिन उसे खबर मिली कि अब बुद्ध प्राण छोड़ रहे हैं, देह छोड़ रहे हैं, उस दिन भागा हुआ पहुंचा।
लोगों ने पूछा: इस गांव से बुद्ध इतनी बार निकले, तू कभी गया नहीं?
उसने कहा: कोई न कोई बहाना मिल गया। आज मैं जानता हूं कि वे बहाने थे। कभी घर से निकल ही रहा था कि कोई ग्राहक आ गया।
उस समय कोई गुमाश्ता कानून तो था नहीं कि कितने बजे दुकान खोलनी है, कितने बजे दुकान बंद करनी है। जब तक ग्राहक आते रहें, दुकान खुली रहे। अब एक ग्राहक आ गया, बंद ही कर रहा था दुकान, तो उसने सोचा कि अब अगली बार जब बुद्ध निकलेंगे तब निपट लूंगा; यह ग्राहक अगली बार आए कि न आए! हाथ आए ग्राहक को छोड़ना!
कभी बुद्ध गांव आए, घर में मेहमान थे। तो इनकी सेवा करनी कि बुद्ध से मिलने जाऊं? कभी बुद्ध आए तो पत्नी बीमार थी। कभी बुद्ध आए तो बच्चा हुआ था घर में। कभी बुद्ध आए तो ऐसा, कभी बुद्ध आए तो वैसा...बेटी का विवाह था। कभी बुद्ध आए तो पड़ोस में कोई मर गया, तो उसकी अरथी में जाऊं कि बुद्ध को सुनने जाऊं? ऐसे आते ही रहे बहाने, आते ही रहे।
और ये सब तुम्हारे बहाने हैं, याद रखना। वह आदमी तुम्हारे सारे बहानों को इकट्ठा बता रहा है। तीस साल...और लोग चूकते गए! और कभी-कभी तो ऐसी छोटी-छोटी बातों से चूकते हैं जिसका हिसाब नहीं।
लक्ष्मी अभी दिल्ली गई। एक मंत्री से मिली। तो मंत्री ने कहा: मैं आया था आश्रम के द्वार तक। द्वार से मैंने झांक कर भीतर देखा तो वहां चार-छह लोग देखे जो मुझे पहचानते हैं। इसलिए द्वार से ही लौट पड़ा। दिल्ली से सिर्फ आश्रम के ही लिए आया था। लेकिन यह देख कर कि दो-चार आदमी वहां मौजूद थे, जो मुझे पहचानते हैं। तो अफवाह उड़ जाएगी, अखबारों में खबर पहुंच जाएगी।
और मेरे साथ नाम जोड़ना खतरे से खाली नहीं है। न मालूम कितने मंत्री खबर भेजते हैं कि हम समझते हैं और हम चाहते हैं कि किसी तरह आपके काम में किसी भी प्रकार से हम सहयोगी हो सकें; लेकिन हम प्रकट रूप से कुछ भी नहीं कर सकते। हम प्रकट रूप से यह कह भी नहीं सकते।
यहां न मालूम कितने संसद-सदस्य आए और गए। और अभी जब संसद में मेरे संबंध में विवाद चला, तो उनमें से एक भी नहीं बोला। मैंने पूरी फेहरिस्त देखी कि जो यहां आए और गए, उनमें से कोई बोला कि नहीं? जो यहां आए और गए, उनमें से एक भी नहीं बोला। यहां कह कर गए थे कि हम आपके लिए लड़ेंगे। लड़ने की तो बात दूर, बोले ही नहीं। क्योंकि यह भी पता चल जाए कि यहां आए थे, या मुझसे कुछ नाता है, या मुझसे कुछ संबंध है, या मुझसे कुछ लगाव है--तो खतरे से खाली बात नहीं है। जो बोले, उनमें से कोई यहां आया नहीं है। उनमें से किसी ने कोई मेरी किताब नहीं पढ़ी, मुझे सुना नहीं है।
अब यह बड़े मजे की बात है! घंटे भर विवाद चला, उसमें बोलने वाले एक भी मुझसे परिचित नहीं हैं। और जो परिचित हैं--और बहुत परिचित हैं--वे चुप रहे।
दरवाजे से लौट जाए कोई--सिर्फ यह देख कर कि कोई पहचान के लोग दिखाई पड़ते हैं! खबर उड़ जाएगी। कैसे-कैसे बहाने आदमी खोज लेता है! और कैसे क्षुद्र बहानों के कारण कितनी अनंत संभावनाओं से वंचित रह जाता है। अब जो आदमी दिल्ली से यहां तक आया, कुछ न कुछ प्यास थी। लेकिन प्यास को दबा कर लौट गया।
और यह हमारी सदी तो तमाशबीनों की सदी है। दुनिया इतनी तमाशबीन कभी भी नहीं थी। आधुनिक टेक्नालॉजी ने आदमी को बिलकुल तमाशबीन बना दिया। अगर तुम आदिवासियों से मिलने जाओ, तो जब उन्हें नाचना होता है, वे नाचते हैं। नाच देखते नहीं, नाचते हैं। और जब उन्हें गाना होता है तो गाते हैं, अपना अलगोजा बजाते हैं। लेकिन तुम्हें जब नाच देखना होता है तो तुम नाचते नहीं; तुम फिल्म देखने जाते हो। या किसी नर्तकी को निमंत्रित कर देते हो। या अगर टेलीविजन घर में है, तब तो कहीं जाने की जरूरत नहीं। और जब तुम्हें गीत सुनने का मन होता है तो तुम ग्रामोफोन रिकार्ड चढ़ा देते हो, या रेडियो खोल देते हो, या रिकार्ड प्लेयर। कोई गाता है, कोई नाचता है, तुम सिर्फ देखते हो। तुम सिर्फ तमाशबीन हो। फुटबाल का खेल, लाखों लोग चले देखने। क्रिकेट का खेल, लाखों लोग दीवाने हैं। खेलता कोई और है। पेशेवर खिलाड़ी, जिनका धंधा खेलना है।
मेरा एक संन्यासी है यहां। पेशेवर खिलाड़ी है। पेशेवर खिलाड़ी है, तो अमरीका ने उसे निमंत्रण दिया है कि तुम अमरीका ही आकर बस जाओ। तो वह अमरीका रहा। फिर किसी तरह मेरी सुगंध उसे लग गई। यहां चला आया। अब उसे जाना नहीं है। तो अब बड़ी मुश्किल है, वह रहे यहां कैसे? टेनिस का खिलाड़ी है, अदभुत खिलाड़ी है! तो यहां के टेनिस के खिलाड़ियों ने कहा: तुम फिकर मत करो! अगर तुम रहना चाहो, सरकार से हम सब इंतजाम करवाएंगे। हम सब इंतजाम करेंगे तुम्हारे रहने, खाने-पीने, तनख्वाह का। तुम यहीं रह जाओ। तुम्हारा रहना तो सौभाग्य की बात है।
अब सब चीज पेशेवर हो गई है! दो पहलवान लड़ रहे हैं, सारे लोग चले! अमरीका में लोग पांच-पांच, छह-छह घंटे टेलीविजन के सामने बैठे हैं। बस देख रहे हैं! धीरे-धीरे सब चीज देखने की होती जा रही है। अब प्रेम तुम करते नहीं; फिल्म में देख आते हो दो लोगों को प्रेम करते। अब तुम्हें करने की क्या झंझट? क्योंकि प्रेम की झंझटें हैं बहुत। फिल्म में देख आए, बात खत्म हो गई। निश्चिंत आकर सो गए।
यह सदी तमाशबीनों की सदी है। और जब सब चीजों के संबंध में तुम तमाशबीन हो गए हो तो परमात्मा के संबंध में तो बहुत ही ज्यादा। क्योंकि परमात्मा तो आखिरी बात है। मुश्किल से उसकी खोज पर कोई निकलता है। अब तो यहां खोज का सवाल ही नहीं है। अब तो हर चीज कोई दूसरा तुम्हारे लिए कर देता है, तुम देख लो।
परमात्मा के संबंध में तो तुम्हें तमाशबीन नहीं रहना होगा। वहां तो भागीदार बनना होगा। वहां तो नाचना होगा, गाना होगा, रोना होगा, भाव-विभोर होना होगा। वहां तो संयुक्त होना होगा।
यहां लोग आते हैं। मैं उनसे पूछता हूं: कोई ध्यान किया?
वे कहते हैं कि नहीं, अभी तो हम सिर्फ देखते हैं।
क्या देखोगे? ध्यान कभी किसी ने देखा है? ध्यान कोई वस्तु है जो तुम देख लोगे?
नहीं; वे कहते हैं, हम दूसरों को ध्यान करते देखते हैं।
दूसरों को ध्यान करते देखते हो तुम, क्या देखोगे? कोई नाच रहा है, तो नाच दिखाई पड़ेगा, ध्यान थोड़े ही दिखाई पड़ेगा। ध्यान तो अंतर्दशा है। वह तो जो नाच रहा है, उसके अंतरतम में घटित होगा। तुम उसे नहीं देख सकोगे। तुम तो नाचने वाले को देख कर लौट आओगे। और तुम सोचोगे मन में--नाच और ध्यान! ये दोनों एक कैसे हो सकते हैं? नाच का ध्यान से क्या लेना-देना है?
तुमने नाचने वाले तो बहुत देखे हैं। नाच बिना ध्यान के हो सकता है। और ध्यान भी बिना नाच के हो सकता है। और ध्यान और नाच साथ-साथ भी हो सकते हैं। बुद्ध ने सिर्फ ध्यान किया, उसमें नाच नहीं है। मीरा नाची भी और ध्यान भी किया। उसमें दोनों संयुक्त हैं। मीरा बुद्ध से थोड़ा ज्यादा धनी है। उसके ध्यान में एक और लहर, एक और तरंग है। बुद्ध का ध्यान शांत है। बुद्ध संगमरमर की प्रतिमा की भांति शांत हैं। इसलिए यह कोई आकस्मिक नहीं है कि बुद्ध की ही प्रतिमाएं सबसे पहले बनीं और संगमरमर की बनीं। अब तुम मीरा की प्रतिमा कैसे बनाओगे संगमरमर की? बनाओगे भी तो झूठी होगी। मीरा की प्रतिमा बनानी हो तो पानी के फव्वारे से बनानी होगी। तब कहीं उसमें कुछ नाच जैसा भाव होगा। बुद्ध को भी तुम बैठा देख लोगे वृक्ष के नीचे सिद्धासन में, तो क्या ध्यान देखोगे? सिद्धासन दिखाई पड़ेगा, कि हाथ कहां रखे, कि पैर कहां रखे, कि रीढ़ सीधी है, कि सिर ऐसा है, कि आंख आधी खुली है कि पूरी बंद। मगर ध्यान कैसे देखोगे? यह तो बैठना है, यह तो आसन है। ऐसे तो कई बुद्धू बैठे हुए हैं और बुद्ध नहीं हो पाए हैं। यह तो तुम भी सीख सकते हो। यह तो थोड़ा सा अभ्यास करके तुम भी सिद्धासन मार कर बैठ जाओगे। मगर इससे तुम बुद्ध नहीं हो जाओगे। ध्यान तो अंतर की घटना है; देखी नहीं जा सकती, केवल अनुभव की जा सकती है।
लागा घाव कराहै सोई। कोतगहार के दर्द न कोई।
जिसको दर्द नहीं हुआ है, वह समझ ही नहीं पाएगा।
विवेक मुझे कहती थी, उसके पिता को कभी सिरदर्द नहीं हुआ। हुआ ही नहीं, तो लाख कोई समझाए कि सिरदर्द क्या है, उसके पिता को समझ में नहीं आता। वे कहते हैं: सिरदर्द? कैसे समझाओगे, जिस आदमी को सिरदर्द हुआ ही नहीं? जिसको सिरदर्द नहीं हुआ, उसे तो सिर का भी पता नहीं चलता। सिरदर्द तो दूर की बात है। सिरदर्द में ही सिर का पता चलता है। नहीं; समझाना असंभव है।
तुम आंख वाले हो, अंधे की क्या दशा है, तुम कैसे समझोगे?
आंख वाले अक्सर सोचते हैं कि अंधे आदमी को अंधेरे ही अंधेरे में रहना होता होगा। तुम बिलकुल गलत सोचते हो। अंधेरा भी आंख वाले का अनुभव है। अंधे को तो अंधेरा भी दिखाई नहीं पड़ सकता। फिर अंधेरे को भी नहीं देख सकता जो उसे क्या दिखाई पड़ता होगा? खयाल रखना, आंख ही रोशनी देखती है, आंख ही अंधेरा देखती है। अंधे को न रोशनी दिखाई पड़ती है, न अंधेरा दिखाई पड़ता है। फिर क्या दिखाई पड़ता है? अंधे को कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। आंख ही नहीं है।
तुम सोचते हो कि बहरे को सन्नाटा सुनाई पड़ता होगा, तो तुम गलती में हो। सन्नाटा सुनने के लिए भी कान चाहिए। जैसे संगीत सुनने के लिए कान चाहिए, ऐसे सन्नाटा सुनने के लिए भी कान चाहिए। सन्नाटा भी कान का अनुभव है। तो बहरे को क्या सुनाई पड़ता होगा? कुछ भी सुनाई नहीं पड़ता। न उसे शब्द का पता है, न सन्नाटे का, न संगीत का, न शून्य का। वह अनुभव का जगत ही नहीं है उसका। कोई उपाय नहीं है उसको। अनुभव के अतिरिक्त कोई समझने का उपाय नहीं है।
लोग पूछते हैं: हम ईश्वर को समझना चाहते हैं और समझ लें तो फिर अनुभव भी करें। उन्होंने तो पहले से ही एक गलत शर्त लगा दी। अनुभव करो तो समझ सकते हो। वे कहते हैं: हम समझ लें तो फिर अनुभव करें। लोग चाहते हैं कि पहले ध्यान को हम समझ लें तो फिर ध्यान करें। गलत शर्त लगा दी।
यह तो तुमने ऐसी शर्त लगा दी कि पहले तैरने को समझ लें तो फिर हम तैरना सीखें। अब तैरना तुम्हें कैसे समझाया जाए? गद्दा-तकिया बिछा कर उस पर तुम्हारे हाथ-पैर तड़फड़ाए जाएं?
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन गया था तैरना सीखने। जो उस्ताद उसे ले गए थे सिखाने, वे तो अपने कपड़े उतार रहे थे, तभी मुल्ला किनारे गया। सीढ़ियों पर जमी हुई काई थी, उसका पैर फिसल पड़ा। भड़ाम से नीचे गिरा। उठा और भागा घर की तरफ।
उस्ताद ने कहा: कहां जाते हो बड़े मियां? तैरना नहीं सीखना?
उसने कहा कि अब तो जब तक तैरना न सीख लूं, नदी के पास नहीं आऊंगा। यह तो भगवान की कृपा है कि पैर फिसला और पानी में नहीं पहुंच गया। जान बची और लाखों पाए, बुद्धू लौट कर घर को आए। उसने कहा: अब नहीं। अब तो तैरना सीख ही लूं, तभी पानी के पास कदम रखूंगा।
लेकिन तैरना कैसे सीखोगे? और बात तो तर्कयुक्त लगती है, कि आखिर तैरना बिना सीखे पानी में पैर रखना खतरे से खाली नहीं है। और ऐसे ही कुछ लोग हैं, वे कहते हैं: पहले हम ध्यान समझ लें, फिर हम ध्यान करें।
समझोगे कैसे?
वे कहते हैं: हम देखें दूसरों को ध्यान करते।
हां; देखोगे, कुछ दिखाई भी पड़ेगा। कोई पद्मासन लगा कर विपस्सना कर रहा है। कोई नाच कर सूफी मस्ती में डूबा हुआ है। कोई नाच रहा है और उमर खय्याम हो गया है। और कोई सिद्धासन में बुद्ध की तरह बैठा है। मगर ये तो बाहर की घटनाएं हैं जो तुम देख रहे हो। भीतर क्या हो रहा है? हो भी रहा है कि नहीं हो रहा है? यह तो जब तक तुम्हें न हो जाए, तब तक कोई उपाय नहीं है।
रामनाम मेरा प्रान-अधार।
जब तक राम-नाम ही तुम्हारे प्राण का आधार न हो जाए, तब तक तुम यह रस पी न सकोगे।
सोई रामरस-पीवनहार।
वही पीएगा इसे जो हिम्मत करेगा अज्ञात में उतर जाने की, अनजान में, अपरिचित में जाने की। जो तमाशबीन नहीं है, जो जुआरी है। जो अपने को दांव पर लगा सकता है। जो जोखिम उठा सकता है। जो कहता है कि ठीक है, डूबेंगे तो डूबेंगे; मगर तैरना सीखना है तो पानी में उतरेंगे।
जन दरिया जानेगा सोई। प्रेम की भाल कलेजे पोई।।
वही जान सकेगा--केवल वही, जिसके कलेजे में प्रेम का भाला छिद गया हो।
अलिखित ही रही सदा
जीवन की सत्य-कथा,
जीवन की लिखित कथा
सत्य नहीं, क्षेपक है!
जीवन का विविध रूप,
जीवन का त्रिविध रूप;
जीवन की शाश्वत लय,
चिर-विरोध चिर-परिणय;
छोटे फल बरगद पर,
शैलखंड पद-पद पर,
जीवन की अक्षर गति,
जीवन की अंत नियति;
जीवन की रेणु क्षुद्र,
जीवन के शत समुद्र;
जीवन के गुण अगणित,
जीवन का गुण अविदित;
जीवन का महाकाव्य
अलिखित ही रहा सदा!
जीवन का खंडकाव्य
खंडसत्य, क्षेपक है!
अलिखित ही रही सदा
जीवन की सत्य-कथा,
जीवन की लिखित कथा
सत्य नहीं, क्षेपक है!
शास्त्र से न समझ सकोगे। शास्त्र तो क्षेपक है। एक कथा है; एक प्रतीक है; एक इशारा है। लेकिन इशारा तुम्हारे लिए काफी नहीं, जब तक कि तुम्हारे भीतर स्वाद न जन्मे। और स्वाद जन्मना जरा महंगा सौदा है।
प्रेम की भाल कलेजे पोई।
मरना पड़े, मिटना पड़े।
अहंकार को जाने दो, सूली पर चढ़ जाने दो--तो तुम्हारी आत्मा को सिंहासन मिले।
मैं मरने से पहले
मरना नहीं चाहता
यह जानते हुए भी कि
मुझ में लड़ने का
बहुत दम नहीं
लेकिन जीने की इच्छा
उगते सूरज से कम नहीं!
मैं मरने से पहले
मरना नहीं चाहता
यह जानते हुए भी कि
बहुत पास अंधेरा
कांप रहा है
लेकिन खयाल के पेड़ से
पत्ते की तरह
झड़ना नहीं चाहता!
मैं मरने से पहले
मरना नहीं चाहता!
और वही जान पाता है परमात्मा को, जो मरने के पहले मर जाता है। मरते तो सभी हैं, लेकिन जीते-जी जो मर जाता है, उसके सौभाग्य की कोई सीमा नहीं है। जीते-जी जो ‘नहीं’ हो जाता है, जो जीते-जी अपने भीतर शून्य हो जाता है, ना-कुछ, उसी शून्य में परमात्मा का पदार्पण है। और वही शून्य है जिसको दरिया कहते हैं: भाला!
प्रेम की भाल कलेजे पोई।
जो प्रेम के लिए अपने को निछावर कर देता है।
जो धुनिया तो मैं भी राम तुम्हारा।
दरिया कहते हैं कि मुझे मालूम है कि मैं ना-कुछ हूं, धुनिया हूं, दीन-हीन हूं; मगर इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि मुझे दूसरी बात भी पता है--
...तो मैं भी राम तुम्हारा।
मैं तुम्हारा हूं! धुनिया सही, ना-कुछ सही, दीन-हीन सही; इसकी मुझे जरा भी चिंता नहीं है। यह बात मुझे खलती नहीं है। क्योंकि हूं तुम्हारा। और तुम्हारे होने में सम्राट हूं। तुम्हारे होने में सारा साम्राज्य मेरा है।
अधम कमीन जाति मतिहीना...
बहुत गिरा हूं, पापी हूं। मुझसे बुरा आदमी खोजना कठिन है! बुरे को खोजने जाता हूं तो मुझसे बुरा नहीं पाता। जाति मतिहीना! मेरी बुद्धि है ही नहीं। मान ही लो कि मैं मतिहीन हूं।
कबीर ने कहा न, कि कभी कागज हाथ से छुआ नहीं। मसि कागद छुओ नहीं! कभी स्याही हाथ में ली नहीं। कबीर ने यह भी कहा है: लिखा-लिखी की है नहीं, देखा-देखी बात।
तो न शास्त्र जानता हूं, न बहुत ज्ञानी हूं, न पांडित्य है कुछ। पक्का मान लो कि मतिहीन हूं। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? फिर भी मैं तुम्हारा हूं और तुम मेरे हो।
...तुम तो हौ सिरताज हमारा।
और तुम हो हमारे सिर पर, बस इतना बहुत है। न बुद्धि चाहिए, न श्रेष्ठ कुल चाहिए, न धन चाहिए, न पद चाहिए--तुम मिले तो सब मिला!
प्रेम की भाल कलेजे पोई।
जिसने भी प्रेम की भाल को कलेजे में उतर जाने दिया, वह ना-कुछ से सब कुछ हो जाता है; शून्य से पूर्ण हो जाता है।
विकल वेदना से व्याकुल मन तुम्हें पुकार उठा है।
आज न जाने फिर सुधियों का कैसा ज्वार उठा है।
सोती व्यथा जगी अंतर में नव-संदेश मिला है।
सुन कर मृदु झनकार हृदय में मादक सोम घुला है।
युगल पुष्प अवगुंठित कर से सौरभ युक्त खिला है।
रजत चांदनी के प्रकाश में अंधा तिमिर धुला है
भूले आकर्षण के घावों में उदगार उठा है।
आज न जाने फिर सुधियों का कैसा ज्वार उठा है।
धुंधली प्रतिमाओं ने फिर से आज आवरण खोला।
बीते मधु क्षण का आलोड़न कुछ कानों में बोला।
चिर-परिचित अनजान हृदय की अठखेली मुस्काई।
मूक पवन ले मलय साथ छवि के द्वारे पर आई।
आमंत्रण के मादक स्वर में नव-गुंजार उठा है।
आज न जाने फिर सुधियों का कैसा ज्वार उठा है।
मुरझाए फूलों को अलि ने फिर वसंत में चूमा।
खंडहर सा अतीत का सपना झंझा बन कर झूमा।
किसने मन-मंदिर के छल से बंद द्वार खोला है।
मेरी अलसायी आंखों में फिर सपना घोला है।
स्वर्णिम लहरों में अपनापन हो साकार उठा है।
आज न जाने फिर सुधियों का कैसा ज्वार उठा है।
मिटो--और सुधि जन्मती है! मिटो--और सुरति उठती है! मिटो--और द्वार खुलता है! मिटो--और तुम मंदिर में प्रविष्ट हो गए! मिटो--और आ गया तीर्थ! मिटो--और वही स्थान काबा है, वही कैलाश, वही काशी! लेकिन अहंकार को लिए तुम जाओ काबा, तुम जाओ काशी, तुम्हें जहां जो करना हो तीर्थयात्राएं करो, तुम जैसे हो वैसे के वैसे वापस लौट आओगे।
सुना है मैंने कि कुछ यात्री तीर्थयात्रा को जाते थे। एकनाथ के पड़ोसी भी तीर्थयात्रा को जाते थे। तो एकनाथ ने कहा कि भई, यह मेरी तुंबी है, इसको भी तुम तीर्थयात्रा करा लाओ। मैं तो जाने से रहा। इतनी लंबी यात्रा न कर पाऊंगा। लेकिन मेरी तुंबी को ही स्नान करवा लाना। कम से कम यही पवित्र हो जाए। इसी को छाती लगा लूंगा।
ले गए तीर्थयात्री तुंबी को। हर जगह डुबकी दिलवा दी, एक क्या दस दिलवा दीं। तुंबी को डुबकी दिलवाने में क्या दिक्कत! घाट-घाट, तीर्थ-तीर्थ, सब जगह स्नान करवा कर ले आए। लेकिन तुंबी कड़वी थी। जब ले आए तो तुंबी काटी एकनाथ ने और उनको चखने को दी। थूक दिया उन्होंने, कड़वी तुंबी थी। कहा कि यह भी कोई चखवाने की चीज थी?
एकनाथ ने कहा: अंधो! कुछ तो समझो! यह तुंबी कड़वी थी। इतनी तीर्थयात्रा कर आई--इतनी गंगा में, यमुना में, नर्मदा में, न मालूम कितनी जगह डुबकी खिलाई; यह तक मीठी नहीं हो पाई, जरा अपने भीतर देखो! तुम्हारा जो कड़वा था, वह अब भी कड़वा है।
असली क्रांति भीतर है, बाहर नहीं। असली तीर्थ भी भीतर है, बाहर नहीं।
काया का जंत्र...
धुनिया हैं तो उनकी भाषा भी धुनिया की है। कहते हैं: काया का जंत्र...
काया की धुनकी।
...सब्द मन मुठिया।
और वह जो शब्द सदगुरु से सुना है शून्य में, वह जो झनकार, वह जो हृदय की वीणा कर तार छिड़ गया है!
...सब्द मन मुठिया।
वह मेरा मुठिया है।
...सुषमन तांत चढ़ाई।
और जिसको योगी सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं, वह मेरी तांत है।
गगन-मंडल में धुनिया बैठा...
मैं गरीब धुनिया, मगर गजब हो गया है कि मैं शून्य आकाश में विराजमान हो गया हूं। मेरे पास कुछ ज्यादा नहीं था--काया का जंत्र--शरीर की धुनकी थी। सब्द मन मुठिया था। सुषमन तांत चढ़ाई। मगर मुझ दीन-हीन पर भी अपार कृपा हुई है। क्योंकि हूं तो आखिर राम तुम्हारा! तुम न फिकर करोगे तो कौन फिकर करेगा? तुमने मुझ धुनिया की भी फिकर की।
गगन-मंडल में धुनिया बैठा...
गगन-मंडल का अर्थ होता है: शून्य-समाधि। जहां सब विचार शून्य हो गए, शांत हो गए। जब सब वासनाएं क्षीण हो गईं। जहां मन रहा ही नहीं। जहां कोरा आकाश रह गया। जहां निराकार रह गया!
गगन-मंडल में धुनिया बैठा...
कहते हैं: मैं खुद ही चमत्कृत हूं कि मुझ धुनिया को कहां बिठा दिया! यह सिंहासन मेरे लिए? यह शून्य-समाधि मेरे लिए? बुद्ध के लिए थी, ठीक थी; राजपुत्र थे। महावीर के लिए भी ठीक थी; सम्राट थे। राम को भी ठीक होगी, कृष्ण को भी ठीक होगी; मगर मैं तो धुनिया!
अधम कमीन जाति मतिहीना।
और मुझे तुमने कहां बिठा दिया! अब समझ में आया कि मैं भी आखिर तुम्हारा उतना ही हूं जितने राम, जितने कृष्ण, जितने बुद्ध, जितने महावीर। तुम्हारी अनुकंपा में भेद नहीं। तुम्हारी करुणा समान बरसती है। जो भी अपने पात्र को खोल देता है, वही भर जाता है। मैं धुनिया भी भर गया।
गगन-मंडल में धुनिया बैठा, मेरे सतगुरु कला सिखाई।
और मेरे सदगुरु ने मुझे कला सिखा दी। क्या कला सिखा दी?--कि कैसे मिट जाऊं। मिटने की कला सिखा दी।
प्रेम की भाल कलेजे पोई।
सदगुरु के पास एक ही घटना घटनी चाहिए, तो ही समझना कि तुम सदगुरु के पास गए। सदगुरु के पास होना कोई भौतिक बात नहीं है, कि शरीर से पास रहे। सदगुरु के पास होने का अर्थ है कि मिट कर पास रहे; न होकर पास रहे। अपने को पोंछ ही दिया। अपने को बचाया ही नहीं। अपने को पूरा-पूरा चरणों में चढ़ा दिया।
पाप-पान हरि कुबुधि-कांकड़ा, सहज-सहज झड़ जाई।
और तब चमत्कारों पर चमत्कार होते मैंने देखे हैं, दरिया कहते हैं। वह जो कला गुरु ने सिखाई मिटने की, उस कला के सीखते ही--
पाप-पान हरि कुबुधि-कांकड़ा...
पाप-रूपी पत्ते अपने आप झड़ने लगे। जैसे पतझड़ आ गई हो! जिन्हें मैंने लाख-लाख बार छोड़ना चाहा था और नहीं छूट पाए थे; जिन्हें मैंने तोड़ा भी था तो फिर-फिर उग आए थे। वे पाप के पत्ते ऐसे झड़ गए जैसे पतझड़ आ गई। मेरे बिना झड़ाए झड़ गए। मेरे बिना काटे कट गए।
पाप-पान हरि कुबुधि-कांकड़ा...
धुनिए की भाषा है यह, खयाल रखना। मेरे भीतर जो कुबुद्धि का कांकड़ा था, बिनौला था, वह कहां खो गया! खोजे से उसका पता नहीं चलता।
...सहज-सहज झड़ जाई।
मैं तो सोचता था कि बड़ा श्रम करना होगा। मगर सदगुरु ने ऐसी कला सिखाई, जड़ ही काट दी, पत्ते-पत्ते नहीं काटे।
पत्ते-पत्ते जो काटते हैं, वे तुम्हें नीति की शिक्षा देते हैं। और नीति की शिक्षा से कोई कभी धार्मिक नहीं हो पाता है। यद्यपि जो धार्मिक हो जाता है, वह सदा नैतिक हो जाता है।
धर्म जड़ को काटता है; नीति पत्ते-पत्ते काटती है। नीति कहती है: क्रोध मत करो, लोभ मत करो। मगर लोग एकदम से लोभ छोड़ने को राजी नहीं, क्रोध छोड़ने को राजी नहीं। तो आचार्य तुलसी जैसे नैतिक लोग समझाते हैं: तो चलो अणुव्रत। पूरा नहीं छूटता तो थोड़ा-थोड़ा छोड़ो--अणुव्रत! थोड़ा सा क्रोध छोड़ो। थोड़ा सा मोह छोड़ो। थोड़ा और, थोड़ा और...धीरे-धीरे करके छोड़ देना। सब पत्ते एकदम नहीं कटते तो एक काटो, एक शाखा काटो, फिर दूसरी काटना।
लेकिन तुम्हीं पता है, शाखा काटोगे वृक्ष की, तो जहां काटोगे, वहां तीन शाखाएं निकल आती हैं! अणुव्रत साधोगे और महापाप प्रकट होंगे! इधर से सम्हालोगे, उधर से पाप बहने लगेंगे। जड़ नहीं काटी जब तक, तब तक कुछ भी न होगा।
पाप-पान हरि कुबुधि-कांकड़ा, सहज-सहज झड़ जाई।
जड़ के कटते ही...और जड़ क्या है? अहंकार जड़ है। मैं हूं, यह भाव जड़ है। सत्संग में बैठने का अर्थ है: मैं नहीं हूं, ऐसे बैठना। बस इतनी सी कला है। बस इतना सा राज है। कुंजियां छोटी होती हैं। ताले कितने ही बड़े हों और कितने ही जटिल हों, कुंजियां तो छोटी सी होती हैं। यह छोटी सी कुंजी जीवन के अनंत रहस्यों के द्वार खोल देती है।
घुंडी गांठ रहन नहिं पावै, इकरंगी होए आई।।
वही धुनिया अपनी भाषा में समझाने की कोशिश कर रहा है।
घुंडी गांठ रहन नहिं पावै...
न तो कहीं गांठ रह जाती, न कहीं उलझन रह जाती धागों में। सब मिट जाती है।
...इकरंगी होए आई।
यह जो बहुरंगा मन है--यह करूं, वह करूं; यह भी कर लूं, वह भी कर लूं--यह जो हजार-हजार दिशाओं में दौड़ता हुआ मन है, अचानक एक रंग का हो जाता है।
मैं अपने संन्यासी को गैरिक रंग दे रहा हूं। मुझसे लोग पूछते हैं: क्या और रंग बुरे हैं?
नहीं; और रंग बुरे नहीं हैं। यह तो केवल सूचक है कि धीरे-धीरे एक रंग के हो जाना है। कोई भी चुन सकता था। हरा चुनता, वह भी प्यारा रंग है--वृक्षों का रंग है, सूफियों का रंग है! शांति का रंग है। शीतलता का रंग है। वह भी प्यारा रंग है। गैरिक चुना; वह सूरज का रंग है; आग का रंग है--जिसमें कोई पड़ जाए तो जल कर राख हो जाए। वह अहंकार को भस्मीभूत करने का रंग है। सफेद भी चुन सकता था। वह पवित्रता का रंग है, निर्दोषता का रंग है, कुंवारेपन का रंग है। सब रंग प्यारे हैं। काला भी चुन सकता था। वह गहराई का रंग है; असीमता का रंग है; शाश्वतता का रंग है। प्रकाश तो आता-जाता है, अंधेरा सदा रहता है। प्रकाश के लिए तो ईंधन की जरूरत पड़ती है; बाती लाओ, तेल लाओ। अंधेरे के लिए कोई जरूरत नहीं पड़ती। न बाती की, न तेल की। अंधेरे को बनाना ही नहीं पड़ता; वह है ही। प्रकाश आता-जाता है; अंधेरा सदा है। तो काला रंग भी चुन सकता था।
मगर एक रंग चुनना था, ताकि भीतर तुम्हें स्मरण बना रहे कि मन बहुरंगी है, सतरंगी है--इसे इकरंगी कर देना है; इसे एक रंग में रंग देना है।
फिर गैरिक ही चुना, क्योंकि वह चिता का रंग है, आग का रंग है। और सत्संग तो चिता है; वहां मरना सीखना है; मरने की कला सीखना है।
प्रेम की भाल कलेजे पोई।
वहां प्रेम की ज्वाला में भस्मीभूत हो जाना सीखना है।
इकरंग हुआ भरा हरि चोला, हरि कहै कहा दिलाऊं।
दरिया कहते हैं: और जिस दिन मैं एकरंग हुआ, उसी दिन मेरे भीतर हरि ही हरि भर गया। जब तक मैं बंटा था, हरि का पता न था। जब मैं अनबंटा हुआ, अखंड हुआ, एक हुआ--तत्क्षण वह अखंड मुझमें उतर आया।
इकरंग हुआ भरा हरि चोला...
तो पूरे देह में, तन-प्राण में हरि ही हरि भर गया।
...हरि कहै कहा दिलाऊं।
और फिर हरि मुझसे कहने लगे: क्या चाहिए, बोल? क्या दिला दूं?
अब यह भी कोई बात हुई! अब तो पाने को कुछ रहा नहीं। यही तो मजा है! जब पाने को कुछ नहीं होता, तब परमात्मा कहता है: बोलो, क्या चाहिए? भिखमंगों को परमात्मा कुछ नहीं देता, सम्राटों को सब देता है। उससे दोस्ती करनी हो तो भिखमंगापन छोड़ना पड़ता है। इसलिए तो इस देश ने संन्यासी के लिए स्वामी नाम चुना। स्वामी का अर्थ होता है: मालिक, सम्राट। मांग कर नहीं कोई उसके द्वार तक पहुंचता। मांगने में तो वासना है। जहां तक मांगना है, वहां तक प्रार्थना नहीं है। जहां तक मांगना है, वहां तक संसार। जहां सब मांगना छूट गया, जहां कुछ मांगने को नहीं--वहां अपूर्व घटना घटती है। परमात्मा कहता है: बोलो, क्या चाहिए?
कबीर ने कहा है कि मैं हरि को खोजता फिरता था और मिलते नहीं थे। और जब से मिले हैं, हालत बदल गई है। अब मेरे पीछे-पीछे घूमते हैं--कहत कबीर-कबीर! कहां जा रहे कबीर? क्या चाहिए कबीर? अब मैं लौट कर नहीं देखता, क्योंकि मुझे कुछ चाहिए नहीं। अब ये और एक झंझट का प्रश्न खड़ा करते हैं--क्या चाहिए? न मांगूं तो भी शोभा नहीं देता। न मांगूं तो ऐसा लगता है कि कहीं अशिष्टाचार न हो। सो मैं भागता हूं। और वे मेरे पीछे पड़े हैं--कहत कबीर-कबीर! कहां जा रहे? रुको! कुछ ले लो!
इकरंग हुआ भरा हरि चोला, हरि कहै कहा दिलाऊं।।
मैं नाहिं मेहनत का लोभी...
वे कहते हैं: मुझे कोई लोभ नहीं है। मुझे अब कुछ चाहिए नहीं है।
...बकसो मौज भक्ति निज पाऊं।
अब अगर नहीं ही मानते हो और कुछ मांगना ही है, मांगना ही पड़ेगा, जिद पर ही पड़े हो, तो इतना ही करो कि मेरी भक्ति बढ़े, और बढ़े, कि मेरी मौज और बढ़े। इतनी बढ़े, इतनी बढ़े कि निज को पा लूं।
इस संसार में सब स्वप्नवत है--सिर्फ एक तुमको छोड़ कर। इस संसार में सब दृश्य झूठे हैं--सिर्फ एक द्रष्टा को छोड़ कर।
दीपक की लौ कांपी,
परदों में लहर पड़ी!
शीशे में अनजाने तन के आभास हिले
अनदेखे पग में जादू के घुंघरू छमके
कालीनों में ऊनी फूल दबे और खिले
थाप पड़ी पहले कुछ तेजी से फिर थमके
किसने छेड़ी पिछले जन्मों में सुने हुए,
एक किसी गाने की पहली रंगीन कड़ी!
अगहन के कोहरे से निर्मित हलके तन के
टोने सहसा जैसे कमरे में घूम गए
हाथों में ताजी कलियों के कंगन खनके
कंधों पर वेणी के फूल-सांप झूम गए
दीपक के हिलते आलोकों को छेड़ गईं,
चंपे की लहराती बांहें बड़ी-बड़ी!
इन बहकी घड़ियों की गहरी बेहोशी में
जाने कब रात हुई, जाने कब बीत गई
मन के अंधियारे में उभरे धीमे-धीमे
रंगों के द्वीप नये, वाणी की भूमि नई
मणियों के कूल नये जिन पर हम भूल गए,
लक्ष्यहीन यात्राओं की वह सुनसान घड़ी!
नर्तन यह खींच कहां मुझको ले जाएगा
क्या ये सब पिछली तट-रेखाएं छूटेंगी
या दीपक गुल होगा, उत्सव थम जाएगा
गीतों की सब कड़ियां सिसकी में टूटेंगी
जाने क्या होना है? सच है या टोना है?
या यह भी खोना है? छलना की एक लड़ी!
परदों में लहर पड़ी,
दीपक की लौ कांपी।
यह संसार बस ऐसा है जैसे--
परदों में लहर पड़ी,
दीपक की लौ कांपी।
और दीवाल पर छायाएं कंप गईं! बस इतना, बस इससे जरा ज्यादा नहीं।
यहां मांगने योग्य क्या है? सिर्फ एक निजता सत्य है। सिर्फ एक आत्मा सत्य है। सिर्फ एक साक्षी सत्य है। परमात्मा अगर कहे--मांगो! तो बेचारा भक्त मांगे तो क्या मांगे? इतना ही मांगता है--
...बकसो मौज भक्ति निज पाऊं।
किरपा करि हरि बोले बानी, तुम तो हौ मम दास।
और जब तुम चुप हो जाओगे, तब परमात्मा बोलता है। जब तक तुम बोलते हो, तब तक वह चुप है; या शायद बोलता है, लेकिन तुम्हारे बोलने के कारण तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता।
किरपा करि हरि बोले बानी, तुम तो हौ मम दास।
दरिया कहै मेरे आतम भीतर, मेलौ राम भक्ति-बिस्वास।।
जैसे ही इतनी सी बात कह दी कि तुम मेरे दास हो, तुम मेरे हो, तुम मेरे अंग हो, कि तुम मेरी ही एक किरण हो, कि मेरी ही एक गंध हो--कि बस सब हो गया!
दरिया कहै मेरे आतम भीतर, मेलौ राम भक्ति-बिस्वास।।
उस घड़ी श्रद्धा जन्मी। उस घड़ी जाना परमात्मा है।
परमात्मा प्रमाणों से नहीं जाना जाता। कोई प्रमाण नहीं परमात्मा का सिवाय समाधि के अनुभव के।
छू गई है ज्योति मुझको,
मोम सा मैं गल रहा हूं!
मुझ पर असर होता नहीं था,
मैं कभी पाषाण सा था;
मैं समंदर में पड़ा बहता
बरफ--चट्टान सा था!
एक दिन किरणें पड़ीं सिर पर
अचानक, जल रहा हूं!
यह बड़ी कड़वी, बड़ी
मीठी, बड़ी नमकीन भी है!
इस जलन में अमृत रस है,
साथ ही रस-हीन भी है!
हाथ पकड़ा है किसी ने,
और मैं भी चल रहा हूं!
छू गई है ज्योति मुझको,
मोम सा मैं गल रहा हूं!
परमात्मा तुम्हें छुए, इतना उसे अवसर दो। इतना कम से कम अपने भीतर द्वार-दरवाजा खुला रखो कि उसकी धूप आ सके, कि उसकी हवा आ सके, कि उसका स्पर्श तुम्हें मिल सके। फिर शेष सब, जो तुम जन्मों-जन्मों चाहे थे, मांगे थे, कल्पना की थी, घटना शुरू हो जाता है। और जिसने उसे जाना, क्षण भर को भी जाना, फिर लौटने का कोई उपाय नहीं है। फिर तो मस्त-मगन हो उसके गीत गाता है!
चांद अगर मिल सका न मुझको,
क्या होगा सारा उजियारा।
रूठ गए यदि तुम ही मुझसे,
फिर जीवन का कौन सहारा।
मैंने तो जीवन नौका की सौंपी है पतवार तुम्हीं को,
पार लगाओ या कि डुबा दो सारा है अधिकार तुम्हीं को।
सागर बीच कह रहे मुझसे मैं तेरे संग अब न चलूंगा,
संभव नहीं हमारा मिलना इसीलिए अब मिल न सकूंगा।
माना चाह मधुर सा सपना,
माना मिलन असंभव अपना।
लेकिन तुम्हें छोड़ दूं कैसे,
तुम्हीं भंवर हो तुम्हीं किनारा।
मेरे नयनों के दीपक में ज्योति तुम्हारी ही पलती है,
आशाओं की बाती बन कर याद तुम्हारी ही जलती है।
भूल नहीं पाता दो पल भी स्मृतियों की जलन चुभन को,
आलिंगन का बंदीगृह ही भाता है अब मेरे मन को।
इसमें कुछ अपराध न मेरा,
इसमें कुछ अपराध न तेरा,
मेरे ही अंतर्मन को जब,
भाता कारागार तुम्हारा।
तुम ही तो मेरे गीतों में कलित कल्पना की काया हो,
कंपित सी कोमल भावों में अनुभावों की अनुछाया हो।
तुम्हीं काव्य की अमर प्रेरणा तुम्हीं साधना का साधन हो,
तुम्हीं शब्द हो तुम्हीं पंक्ति हो तुम्हीं सरस स्वर आराधन हो।
तुम्हीं सुधामय अमर प्रीति हो,
तुम्हीं मिलन का मधुर गीत हो।
बिना तुम्हारे रह जाएगा,
मेरा भाव सिंधु ही खारा।
चांद अगर मिल सका न मुझको,
क्या होगा सारा उजियारा।
रूठ गए यदि तुम ही मुझसे,
फिर जीवन का कौन सहारा।
और अभी परमात्मा तुमसे रूठा है, क्योंकि तुम परमात्मा से रूठे हो। तुम परमात्मा की तरफ पीठ किए खड़े हो। और इसलिए कितना ही उजाला हो, तुम्हारी जिंदगी अंधेरी रहेगी, अंधेरी ही रहेगी। उस चांद को पाए बिना कोई उजियाला काम का नहीं है। उस परम धन को पाए बिना सब धन व्यर्थ। उस परम पद को पाए बिना सब पद व्यर्थ।
परमात्मा परम भोग है। उसको पाए बिना सब भोग, भोग के धोखे हैं।
हिम्मत करो! साहस करो! एक दिन ऐसी घड़ी आए कि तुम भी कह सको--
गगन-मंडल में धुनिया बैठा, मेरे सतगुरु कला सिखाई।
आ सकती है घड़ी। तुम्हारा अधिकार है। तुम्हारे भीतर छिपी हुई संभावना है। अभी बीज है माना; मगर बीज कभी भी फूल बन सकते हैं। और जब तक अमृत की वर्षा न हो और तुम्हारे बीज भीतर खिल कर कमल न बन जाएं, तब तक बैठना मत, तब तक चलना है, तब तक चलते ही चलना है। याद रखना--अमी झरत, बिगसत कंवल! अमृत झरे और कमल खिले--यह गंतव्य है।
आज इतना ही।