DARIYADAS
AMI JHARAT BIGSAT KANWAL 07
Seventh Discourse from the series of 14 discourses - AMI JHARAT BIGSAT KANWAL by Osho. These discourses were given during MAR 11 -24 1979.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.
सब जग सोता सुध नहिं पावै। बोलै सो सोता बरड़ावै।।
संसय मोह भरम की रैन। अंधधुंध होए सोते ऐन।।
जप तप संयम औ आचार। यह सब सुपने के ब्यौहार।।
तीर्थ-दान जग प्रतिमा-सेवा। यह सब सुपना लेवा-देवा।।
कहना सुनना हार औ जीत। पछा-पछी सुपनो विपरीत।।
चार बरन औ आश्रम चार। सुपना अंतर सब ब्यौहार।।
षट दरसन आदि भेद-भाव। सुपना अंतर सब दरसाव।।
राजा-रानी तप बलवंता। सुपना माहिं सब बरतंता।।
पीर औलिया सबै सयाना। ख्वाब माहिं बरतै विध नाना।।
काजी सैयद औ सुलताना। ख्वाब माहिं सब करत पयाना।।
सांख जोग औ नौधा भकती। सुपना में इनकी इक बिरती।।
काया कसनी दया औ धर्म। सुपने सुर्ग औ बंधन कर्म।।
काम क्रोध हत्या परनास। सुपना माहिं नर्क निवास।।
आदि भवानी संकर देवा। यह सब सुपना लेवा-देवा।।
ब्रह्मा बिष्नु दस औतार। सुपना अंतर सब ब्यौहार।।
उद्भिज सेदज जेरज अंडा। सुपनरूप बरतै ब्रह्मंडा।।
उपजै बरतै अरु बिनसावै। सुपने अंतर सब दरसावै।।
त्याग ग्रहन सुपना ब्यौहारा। जो जागे सो सबसे न्यारा।।
जो कोई साध जागिया चावै। सो सतगुरु के सरनै आवै।।
कृतकृत बिरला जोग सभागी। गुरमुख चेत सब्दमुख जागी।।
संसय मोह-भरम निस नास। आतमराम सहज परकास।।
राम सम्हाल सहज धर ध्यान। पाछे सहज प्रकासै ग्यान।।
जन दरियाव सोई बड़भागी। जाकी सुरत ब्रह्म संग जागी।।
ज्वार उठा जब-जब तूफानों में,
तट मेरा मझधार हो गया।
स्नेह-छांव छुट गई हाथ से,
छाया-पथ अंगार हो गया।
बेसुध सी रो पड़ी जिंदगी, स्वप्न पले के पले रह गए।
नयन ज्योति हो गई परायी, दीप जले के जले रह गए।
एक स्वप्न झूठा-झूठा सा,
जीने का विश्वास दे गया।
पांवों में बेड़ियां बांध कर,
चलने का आभास दे गया।
नयनों में चुभ गए अश्रुकण,
आशाओं का दर्पण फूटा।
कदम बढ़ाते ही आगे को,
फिसले पांव गीत-घट फूटा।
ठहर गए अधरों पर आंसू,
बिखर गया उल्लास धूल में।
चाह लुटी सोई अंगड़ाई,
उलझ गया मधुमास शूल में।
गीत बन गई मौन वेदना, भाव छले के छले रह गए।
दर्पण ने सब कुछ कह डाला, अधर सिले के सिले रह गए।
अंतर में पतझार छिपाए,
उपवन में आंधी बौराई।
हरसिंगार झर गया अजाने,
झुलस गई लतिका तरुणाई।
बिखर गया मनभावन सौरभ,
रही देखती साध कुंआरी,
धूल-धूसरित सूना अंबर,
खोई सी रजनी उजियारी।
टूट गई डाली से डाली,
उखड़ गई सांसों से धड़कन।
ठूंठ बनी रह गई कामना,
उजड़ गई कसमों की कसकन।
यौवन के फूटे अंकुर के पात हिले के हिले रह गए।
उपवन की लुट गईं बहारें, फूल खिले के खिले रह गए।
अनजाना सा एक सपेरा,
मंत्रों की डोली चढ़ आया।
नागिन डसी बीन की धुन में,
अपना ही हो गया पराया।
सिसक उठी सिंदूरी बिंदिया,
बिखर गया नैनों का काजल।
बांझ हो गई मिलन प्रतीक्षा,
बंधन बनी परायी पायल।
फूट गए अवशेष घरौंदे,
स्वप्न रहा सोया का सोया।
सब कुछ ही रह गया देखता,
बेसुध आंगन खोया-खोया।
छूट गए हाथों के बंधन, नयन मिले के मिले रह गए,
डोली पर चढ़ चली बावरी, द्वार खुले के खुले रह गए।
यह जीवन इतना क्षणभंगुर है, फिर भी हम भरोसा कर लेते हैं। हमारे भरोसे की क्षमता अपार है। हमारा भरोसा चमत्कार है। पानी का बबूला है यह जीवन--अब फूटा, तब फूटा। फिर भी हम कितने सपने संजो लेते हैं। सपने में भी हम कितनी आस्था कर लेते हैं। कि सपना भी सच मालूम होने लगता है। आस्था हो तो सपना भी सच हो जाता है। सच मालूम होता है कम से कम। और न मालूम कितने स्वप्न हैं! जितने लोग हैं, उतने स्वप्न हैं। जितने मन हैं, उतने स्वप्न हैं। संसार के स्वप्न हैं, त्याग के स्वप्न हैं। नरक के स्वप्न हैं, स्वर्ग के स्वप्न हैं।
जो जानते हैं, उनका कहना है: स्वप्न देखने वाले को छोड़ कर और सब स्वप्न है। सिर्फ द्रष्टा सत्य है। सब दृश्य झूठे हैं।
और यही क्रांति है--दृश्य से द्रष्टा पर आ जाना। यही छलांग है। स्वप्न तो झूठ हैं ही, स्वप्नों को देखने वाला भर झूठ नहीं है।
मगर हम बड़े उलटे हैं। स्वप्नों को देखने वाले को तो देखते ही नहीं, स्वप्नों में ही उलझे रह जाते हैं। और एक स्वप्न टूटा तो दूसरा बना लेते हैं। ऐसा भी हो जाता है कि धन का स्वप्न टूटा, तो त्याग का स्वप्न निर्मित कर लेते हैं। घर-गृहस्थी का स्वप्न टूटा, तो त्याग-विरक्ति का स्वप्न निर्मित कर लेते हैं। इस लोक का स्वप्न टूटा, तो परलोक के स्वप्न निर्मित कर लेते हैं।
यह क्रांति नहीं है। यह धर्म नहीं है। यह रूपांतरण नहीं है। रूपांतरण तो बस एक है--दृश्य से द्रष्टा पर सरक जाना। वह जो दिखाई पड़ रहा है, फिर चाहे सुख हो, चाहे दुख हो, सब बराबर है। हार हो कि जीत हो, बराबर है। देखने वाला भर सच है। देखने वाले को कब देखोगे? जिस दिन देखने वाले को देखोगे, उस दिन जाग गए।
जागरण का कोई और अर्थ नहीं है। जागरण का इतना ही अर्थ है कि द्रष्टा स्वयं के बोध से भर गया। यही ध्यान, यही समाधि! और फिर देर नहीं लगती--अमी झरत, बिगसत कंवल! झरने लगता है अमृत, कमल खिलने लगते हैं। तुम जागो भर।
स्वप्न तुम्हें सुलाए हैं। स्वप्नों ने तुम्हें मादकता दे दी है, तुम्हारी आंखों को बोझिलता दे दी है। तुम्हारी पलकों को स्वप्नों ने बंद कर दिया है। और तुम जानते भी हो। ऐसा भी नहीं कि नहीं जानते। ऐसा भी नहीं कि दरिया कहें तब तुम जानोगे। रोज कोई अरथी उठती है। मगर मन में एक भ्रांति बनी रहती है कि अरथी सदा दूसरे की उठती है। और बात एक अर्थ में ठीक भी मालूम पड़ती है। तुमने सदा दूसरे की अरथी ही उठते देखी है--कभी अ की, कभी ब की, कभी स की; अपनी अरथी तो उठते देखी नहीं। अपनी अरथी तो तुम उठते कभी देखोगे भी नहीं। दूसरे देखेंगे। इसलिए ऐसा लगता है कि मौत सदा दूसरे की होती है, मैं तो कभी नहीं मरता। तो भ्रांति को संजोए रखते हैं हम। हर आदमी ऐसे जीता है जैसे यह जीवन समाप्त न होगा; ऐसे लड़ता है जैसे सदा यहां रहना है; ऐसा जूझता है कि रत्ती भर उससे छिन न जाए; जब कि सब छिन जाएगा।
छूट गए हाथों के बंधन, नयन मिले के मिले रह गए,
डोली पर चढ़ चली बावरी, द्वार खुले के खुले रह गए।
यौवन के फूटे अंकुर के पात हिले के हिले रह गए,
उपवन की लुट गईं बहारें, फूल खिले के खिले रह गए।
गीत बन गई मौन वेदना, भाव छले के छले रह गए।
दर्पण ने सब कुछ कह डाला, अधर सिले के सिले रह गए।
बेसुध सी रो पड़ी जिंदगी, स्वप्न पले के पले रह गए,
नयन ज्योति हो गई परायी, दीप जले के जले रह गए।
सब पड़ा रह जाएगा। दीये जलते रहेंगे, तुम बुझ जाओगे। फूल खिलते रहेंगे, तुम झड़ जाओगे। संसार ऐसे ही चलता रहेगा। शहनाइयां ऐसे ही बजती रहेंगी, तुम न होओगे। वसंत भी आएंगे, फूल भी खिलेंगे। आकाश तारों से भी भरेगा। सुबह भी होगी। सांझ भी होगी। सब ऐसा ही होता रहेगा। एक तुम न होओगे।
यह एक कौन है, जो कभी अचानक प्रकट होता है जन्म में और फिर अचानक मृत्यु में विलीन हो जाता है? इस एक को पहचान लो। इस एक को जान लो। इस एक की स्मृति जगा लो। जिसने इस एक को जान लिया, उसका जीवन सार्थक है। अमी झरत, बिगसत कंवल! और सब तो सोए हुए हैं।
दरिया कहते हैं: सब जग सोता सुध नहिं पावै।
अपनी सुध नहीं है। सपनों की भलीभांति सुध है।
तुमने पुरानी कहानी सुनी न! दस आदमियों ने बाढ़ में आई हुई नदी पार की। गांव के गंवार थे। नदी-पार जाकर एक ने कहा कि गिनती तो कर लो; जितने चले थे, उतने पार कर पाए या नहीं? बाढ़ भयंकर है। कोई बाढ़ में बह न गया हो।
गिनती भी की। और दसों बैठ कर वृक्ष के नीचे रोने लगे उसके लिए जो बाढ़ में बह गया। क्योंकि गिनती नौ ही होती थी, चले दस थे। और गिनती नौ इसलिए नहीं होती थी कि कोई बह गया था; गिनती नौ इसलिए होती थी कि प्रत्येक अपने को छोड़ कर गिनता था। गिनता था शेष को, गिनने वाला छूट जाता था, गिनने वाला नहीं गिना जाता था। एक ने गिना, दूसरे ने गिना, तीसरे ने गिना...दसों ने गिना। तब तो बात बिलकुल पक्की हो गई। भूल होती एक से होती, दो से होती, दसों से तो भूल न होगी। और सबका निष्कर्ष आया नौ। तो जरूर एक साथी खो गया। दसों बैठ कर रोने लगे।
एक फकीर राह से गुजरता था। भले-चंगे दस आदमियों को रोते देखा, पूछा: हुआ क्या? किसलिए रोते हो?
उन्होंने कहा: हमारा एक साथी खो गया है। घर से दस चले थे। अब हम नौ हैं।
फकीर ने एक नजर डाली। दस ही थे। पूछा: जरा गिनती करो। देखी उनकी गिनती। समझ गया कि जो भूल पूरा संसार कर रहा है, वही भूल ये भी कर रहे हैं। भूल कुछ नई नहीं है, बड़ी पुरानी है, बड़ी प्राचीन है। जो इस भूल को करता है, वही गंवार है। जो इस भूल को करता है, वही अज्ञानी है। जो इस भूल से बच जाता है, उसी के जीवन में ज्ञान का सूर्य प्रकट होता है। अमी झरत, बिगसत कंवल!
फकीर हंसने लगा, खिलखिला कर हंसने लगा। तो फकीर ने कहा: तुम भी वही भूल कर रहे हो जो पहले मैं करता था। तुम वही भूल कर रहे हो जो सारा संसार करता है। तुम बड़े प्रतिनिधि हो। तुम बड़े प्रतीकरूप हो। तुम साधारणजन नहीं हो, तुम सारे संसार का निचोड़ हो। अब मैं तुम्हारी गिनती करता हूं। अब मेरे ढंग से गिनती समझो। मैं एक-एक चांटा मारूंगा तुम्हें। जिसको चांटा मारूं पहले, वह बोले एक। जब दूसरे को मारूं तो दो चांटे मारूंगा, तो वह बोले दो। तीसरे को मारूं तो तीन मारूंगा, वह बोले तीन। ऐसे गिनती चलेगी।
मस्त-तड़ंग फकीर था। करारे चांटे मारे उसने। एक-एक को छठी का दूध याद दिला दिया! और जब पड़ा चांटा तो गिनती उठी एक। पड़े दो चांटे, गिनती उठी दो। और ऐसे गिनती बढ़ती गई। और जब दस चांटे पड़े और गिनती उठी दस, तो उन दसों ने फकीर के पैर पकड़ लिए। उन्होंने कहा: मारा सो ठीक, पर तुम्हारा बड़ा धन्यवाद कि खोए को मिला दिया, कि डूबे को बचा लिया, कि जिसे हम समझते थे चूक ही चुके हैं, उसे लौटा दिया।
सदगुरु सिर्फ चांटे मार रहे हैं। करारे मारते हैं। छठी का दूध याद आ जाए, ऐसे मारते हैं। लेकिन नींद गहरी है, कोई और उपाय नहीं है। खूब झकझोरे जाओ तो ही शायद जागो। और एक बार अपनी गिनती कर लो तो बस, शेष करने को कुछ भी नहीं रह जाता।
सब जग सोता सुध नहिं पावै। बोलै सो सोता बरड़ावै।
और इस जगत में जो लोग बोल रहे हैं, सो रहे हैं और बोल भी रहे हैं। आखिर वार्ता तो चल ही रही है। वे सब नींद में बड़बड़ा रहे हैं।
तुम्हें यह भी कभी प्रतीति होती है कि तुम जो लोगों से बातें करते हो, होश में कर रहे हो? करनी थी, इसलिए कर रहे हो? करने में सार है, इसलिए कर रहे हो? करने से किसी का लाभ है, इसलिए कर रहे हो? कोई मंगल होगा? कोई कल्याण होगा? तुम किसलिए बातें कर रहे हो? बातों के लिए बातें चल रही हैं। बातों में से बातें चल रही हैं। बातों में से बतंगड़ बन जाते हैं। तुम एक कहते हो, दूसरा दूसरी कहता है। खाली नहीं रह सकते। लोग दिन-रात वार्ता में लगे हैं। हाथ कुछ लगता नहीं।
दरिया ठीक कहते हैं: नींद में बड़बड़ा रहे हो। तुम्हारे वचनों का कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारे शब्दों का कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारे शब्द निरर्थक। तुम्हारे वचन कूड़ा-कचरा। क्योंकि तुम्हीं जागे नहीं हो। सिर्फ जागों के वचन में अर्थ होता है। क्योंकि अर्थ ही जागरण से जन्मता है। बुद्धों के वचनों में जीवन होता है, आत्मा होती है। तुम्हारे वचन तो सड़ी हुई लाश हैं, जिनके भीतर कोई प्राण नहीं हैं। तुम्हें ही पता नहीं है और तुम दूसरों को जना रहे हो!
इस जगत में हर आदमी सलाह दे रहा है। कहते हैं: दुनिया में सबसे ज्यादा जो चीज दी जाती है वह सलाह है और सबसे कम जो चीज ली जाती है वह भी सलाह है। सब सलाह दे रहे हैं, कोई सलाह ले नहीं रहा है। तुम्हें मौका मिल जाए तो तुम चूकते नहीं, तुम चुप नहीं रहते। तुम्हें जिन बातों का पता नहीं, उनके भी तुम उत्तर देते हो। तुमसे कोई पूछे: ईश्वर है? तो तुम में इतनी भी ईमानदारी नहीं है कि कह सको कि मुझे मालूम नहीं। तुम्हारे तथाकथित धार्मिक लोगों से ज्यादा बड़े बेईमान खोजने कठिन हैं! तुम तो छोटी-मोटी बेईमानियां करते हो कि दो और दो जोड़े और पांच कर लिए। तुम्हारी बेईमानियां तो बहुत छोटी-छोटी हैं। लेकिन तुम्हारे धार्मिक व्यक्तियों की, तुम्हारे पंडित-पुरोहितों की, तुम्हारे मुल्ला-मौलवियों की बेईमानियां तो बहुत बड़ी हैं। ईश्वर का कोई पता नहीं और कहते हैं: हां, ईश्वर है! जोर से कहते हैं, छाती ठोंक कर कहते हैं कि ईश्वर है।
ईश्वर को जाना है? बिना जाने कैसे कह रहे हो? और यह बेईमानी तो बड़ी से बड़ी हो गई। इससे बड़ी तो कोई बेईमानी नहीं हो सकती। और फिर ऐसे ही दूसरी तरफ दूसरे बेईमान हैं, जिन्होंने जाना नहीं और कहते हैं: ईश्वर नहीं है।
पश्चिम में एक विचारक हुआ--टी.एच.हक्सले। उसने एक नये विचार, एक नई जीवन-दृष्टि को जन्म दिया। एक नया शब्द गढ़ा--एग्नास्टिक। नास्टिक का अर्थ अंग्रेजी में होता है: जो मानता है कि मुझे ज्ञात है। नास्टिक का अर्थ होता है: ज्ञानी, पंडित। हक्सले ने नया शब्द गढ़ा--एग्नास्टिक। हक्सले बड़ा ईमानदार आदमी था। उसने कहा: मुझे मालूम नहीं है कि ईश्वर है। और मुझे यह भी मालूम नहीं है कि ईश्वर नहीं है। और लोग मुझसे पूछते हैं कि तुम कौन हो, आस्तिक हो कि नास्तिक? मानते हो कि नहीं मानते? ईश्वरवादी कि अनीश्वरवादी? मैं क्या कहूं? बड़ा ईमानदार आदमी रहा होगा। बड़ा खरा आदमी था। उसने कहा: मुझे कोई नया शब्द गढ़ना पड़ेगा। क्योंकि लोग पूछते हैं, कुछ न कहो तो अभद्रता मालूम होती है। और लोगों ने तो सीधी कोटियां बांध रखी हैं--या तो कहो नास्तिक या कहो आस्तिक। मगर दोनों हालत में झूठ हो जाता है।
तो हक्सले ने सिर्फ सौ साल पहले एक नया शब्द गढ़ा--एग्नास्टिक। एग्नास्टिक का अर्थ होता है: मुझे पता नहीं। मुझे अभी कुछ भी पता नहीं। खोज रहा हूं, तलाश रहा हूं, टटोल रहा हूं।
मैं कहूंगा: हक्सले कहीं ज्यादा धार्मिक व्यक्ति है, बजाय तुम्हारे शंकराचार्यों के, कि वेटिकन के पोप के। ज्यादा धार्मिक आदमी है। क्योंकि धर्म यानी ईमान। और ईमान की शुरुआत यहीं से होनी चाहिए। न तो रूस के नास्तिकों में ईमानदारी है, क्योंकि उन्हें कोई पता नहीं है; न खोजा है, न ध्यान किया, न धारणा की, न समाधि में उतरे। और कहते हैं: ईश्वर नहीं है! छोटे-छोटे बच्चों को रूस में सिखाया जा रहा है कि ईश्वर नहीं है। स्कूल में पाठ हैं कि ईश्वर नहीं है। छोटे-छोटे बच्चे दोहराते हैं कि ईश्वर नहीं है। दोहराते-दोहराते बड़े हो जाते हैं, बड़े में भी दोहराते रहते हैं।
तुम सोचते हो, तुम्हारा ईश्वर रूस की नास्तिकता से कुछ भिन्न है? बचपन से सुना है कि है, तो दोहराते हो। घर में, बाहर, सब तरफ दोहराया जा रहा है, तो तुम भी दोहरा रहे हो। तुम ग्रामोफोन रिकार्ड हो। तुम अपनी कब कहोगे? और जब तक अपनी न कहोगे, तब तक ईमान नहीं है।
खोजो! तलाश करो! और तलाश जैसे ही तुम शुरू करोगे, यह सवाल सबसे बड़ा महत्वपूर्ण हो जाएगा कि तलाश कहां करें--बाहर कि भीतर?
स्वभावतः, पहले भीतर। पहले अपने को तो पहचानो! पहले खोजी को तो खोजो! और मजा यह है कि जिसने खोजी को खोजा, उसे सब मिल जाता है। स्वयं को जानते ही सत्य के द्वार खुल जाते हैं। आत्मा को पहचानते ही परमात्मा पहचान लिया जाता है। आत्मा तुम्हारे भीतर झरोखा है परमात्मा का। आत्मा तुम्हारे भीतर लहर है उसके सागर की। आत्मा उसका अणु है, बूंद है। और बूंद में सब सागरों का राज छिपा है। एक बूंद को ठीक से समझ लो तो तुमने सारे सागरों का राज समझ लिया। जल का सूत्र समझ में आ जाएगा। जल का स्वभाव समझ में आ जाएगा।
सब जग सोता सुध नहिं पावै। बोलै सो सोता बरड़ावै।।
और यहां पंडित हैं, पुरोहित हैं और प्रवचन दिए जा रहे हैं और धर्मशास्त्र समझाए जा रहे हैं, रामायण पढ़ी जा रही है, गीता पढ़ी जा रही है, कुरान समझाए जा रहे हैं। किससे तुम समझ रहे हो? समझाने वाला छाती पर हाथ रख कर कह सकता है कि उसने जाना है? जरा उसकी आंखों में झांको। उसकी आंखें उतनी ही अंधी हैं जितनी तुम्हारी; शायद थोड़ी ज्यादा हों, कम तो नहीं। क्योंकि उसकी आंखों पर शब्दों का और शास्त्रों का बोझ तुमसे ज्यादा है। जरा उसके जीवन में तलाशो। और न तो तुम्हें सुगंध मिलेगी सत्य की और न तुम्हें आलोक मिलेगा आत्मा का। जरा उसके पास बैठो। न तो आनंद का झरना फूटता हुआ मालूम पड़ेगा, न शांति की हवाएं बहती हुई मालूम होंगी। हां, रामायण शायद तुम्हें वह ठीक से समझाए और गीता के शब्द-शब्द का विश्लेषण करे। मगर यह सब बाल की खाल निकालना है। इसका कोई भी मूल्य नहीं है।
कब आएगा नवल सवेरा,
कब जागेगा सूरज मेरा,
देख अंधेरे की तरुणाई,
मन की चाह मिटी जाती है।
इंतजार करते-करते ही
सारी उम्र कटी जाती है।
जिधर देखता नयन उठा कर,
सघन बबूलों के कानन हैं।
पुष्प जले कुंजों में खिल कर,
मरुथल हरे-भरे मधुवन हैं।
देख तपन सारी धरती की,
मन की प्यास लुटी जाती है।
यही आस लेकर जीता था,
चाह स्वयं वरदान बनेगी।
तृष्णा की अनवरत साधना
सावन का प्रतिमान बनेगी।
देख पतझरों में सावन को,
घिरी घटा सिमटी जाती है।
सूरज बन कर उग आने का,
प्रण था जगते संकल्पों का।
किंतु प्रकंपित नक्षत्रों सा,
मन अंकुवाए वैकल्पों का।
संशयवश चिंतन करते ही,
जीती गोट पिटी जाती है।
नित्य भोर की किरण चूम कर,
सोए स्वप्न जगा जाती है।
किंतु सांझ के सूनेपन में,
मौन वेदना छा जाती है।
अंगुली पोर-पोर गिनते ही,
थक कर स्वयं हटी जाती है।
इतनी दूर आ गया चल कर,
फिर भी लक्ष्य न दिख पाता है।
मेरे दो नयनों का दर्शन,
द्विविधा बन कर भटकाता है।
इंतजार करते-करते ही,
सारी उम्र कटी जाती है।
इंतजार ही इंतजार में उम्र को बिता दोगे? आशा ही आशा में उम्र को गंवा दोगे, या कि कुछ पाना है? पाना है तो कल पर मत छोड़ो। पाना है तो आज और अभी झांको। पाना है तो टालो मत। क्योंकि टालना सोने की एक प्रक्रिया है। टालना नींद का एक ढंग है। टालना नींद की दवा है। टालो मत। यह मत कहो कल। आज, अभी!
जागना है तो अभी, सोना है तो कल। जो सोया सो खोया। क्योंकि आज टालेगा कल पर, कल फिर टालेगा कल पर। टालना आदत हो जाएगी। इंतजार कहीं तुम्हारी आदत न हो जाए। जिसे पाया जा सकता है, उसका इंतजार क्यों? जो तुम्हारे भीतर मौजूद है, उसका स्थगन क्यों? अभी क्यों नहीं? उससे ज्यादा मूल्यवान और कुछ भी नहीं है।
सब टालो, आत्मबोध मत टालना। सब टालो, जागने की आकांक्षा मत टालना। सब टालो, जागने पर सारी ऊर्जा को उंडेल दो। क्योंकि एक क्षण भर को भी तुम जाग जाओ और सपने बिखर जाएं, तो तुम्हारे जीवन में क्रांति उपस्थित हो जाएगी। फिर तुम वही न हो सकोगे जो तुम थे। फिर तुम नये हो जाओगे। फिर तुम्हारा संबंध शाश्वत से जुड़ जाएगा। अमी झरत, बिगसत कंवल!
संसय मोह भरम की रैन।
बड़ी अंधेरी रात है। और अंधेरी रात बनी है संशय से, मोह से, भ्रम से। मन जीता ही संशय के भोजन से है। मन कहता है: यह करो, वह करो। मन हमेशा यह या वह, इसमें डोलता रहता है। मन कभी तय ही नहीं कर पाता। मन का तय करना स्वभाव नहीं है। मन जीता ही अनिश्चय में है।
कभी तय भी तुम्हें करना पड़ता है तो तुम मजबूरी में तय करते हो। जब कोई विकल्प ही नहीं रह जाता, तब तय करते हो। मगर तब बहुत देर हो गई होती है।
दो तरह के लोग हैं यहां इस संसार में। भीड़ तो उनकी है जो बिना तय किए ही जीते हैं। जैसे पानी के झकोरों में डोलता हुआ लकड़ी का टुकड़ा--कभी इधर, कभी उधर, पानी की लहरें जहां ले जाएं। न कोई किनारे का पता है, न कोई मंजिल का होश है, न कुछ अपना बोध है। लहरों के भरोसे, लहरों के बंधन में बंधा, हवाओं के झोंकों में बंधा। न कोई दिशा है, न कोई गंतव्य है। गति भी विक्षिप्त है। ऐसे ही अधिक लोग हैं।
तुम कैसे जी रहे हो, जरा गौर करना। तुम्हारा जीना करीब-करीब ऐसा ही है। राह पर जाते थे, किसी ने कहा: अरे, फलां फिल्म देखी कि नहीं? बड़ी सुंदर है! तुमने सोचा, चलो देख ही आएं। फिल्म देखने चल दिए। एक हवा का झोंका आया। एक धक्का लगा। फिल्म देख आए। फिल्म में पास कोई स्त्री बैठी थी। पहचान हो गई। यह सोचा ही नहीं था कि फिल्म में यह मामला इतना बढ़ जाएगा। विवाह कर बैठे। बाल-बच्चे हो गए। यह सब हुआ चला जा रहा है।
एक यहूदी विचारक ने अपनी आत्मकथा लिखी है। उसमें उसने लिखा है कि मेरा होना बिलकुल संयोगवशात है। उसने लिखा है कि मैं शुरू से ही शुरू करता हूं, कि मेरे पिता एक ट्रेन में सफर कर रहे थे। स्टेशन पर उतरे। ट्रेन छह घंटे देर से पहुंची थी। आधी रात हो गई थी। बर्फ पड़ रही थी। रूस की कहानी है। टैक्सियां भी उपलब्ध न थीं। इतनी रात तक कोई टैक्सी ड्राइवर प्रतीक्षा करने रुका भी नहीं था। कोई और उपाय न देख कर, जो होटल के दरवाजे बंद हो रहे थे, भीतर गए और कहा: कम से कम एक कप कॉफी तो मुझे पीने मिल जाए, इसके बाद बंद करना।
जो महिला होटल बंद कर रही थी, उसने एक कप कॉफी दी। उसने खुद भी एक कप कॉफी पी। रात सर्द थी। फिर दोनों ने बातचीत की। यात्री ने कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं। छह मील दूर जाना है, कोई टैक्सी नहीं।
उस महिला ने कहा: ऐसा करो कि मुझे भी घर जाना है, मेरी गाड़ी में ही आ जाओ।
गाड़ी में बैठ गए। सर्दी थी तो पास-पास सरक कर बैठे। होटल बंद थी। मैनेजर कभी का घर जा चुका था। ठहरने को कोई जगह न मिलती थी। तो उस महिला ने कहा: तुम मेरे ही घर रात गुजार दो। अब दो-चार घंटे तो रात और बची है। फिर सुबह उठ कर होटल चले जाना।
ऐसे बात बढ़ती गई, बढ़ती गई, बढ़ती गई और फिर बिगड़ कर रही! उस विचारक ने लिखा है: काश, उस रात ट्रेन लेट न होती तो मैं कभी पैदा ही न होता; या कि होटल खुली मिल गई होती तो मैं पैदा न होता; या कि एकाध टैक्सी ड्राइवर भूला-भटका बैठा ही रह गया होता तो मैं पैदा न होता; या कि स्त्री जो होटल बंद कर रही थी, एक क्षण पहले होटल बंद करके जा चुकी होती तो मैं कभी पैदा ही न होता। बिलकुल संयोगवशात मालूम होता है सब।
तुम जरा अपनी जिंदगी गौर से देखो, और तुम ऐसे ही संयोग पाओगे। ऐसे ही संयोगों का सिलसिला! इसको जिंदगी कहते हो? संयोगों के सिलसिले का नाम जीवन नहीं है। संयोगों का सिलसिला तो एक धोखा है। संयोगों के सिलसिले से तो ज्यादा से ज्यादा एक स्वप्न पैदा हो सकता है, सत्य निर्मित नहीं होता। लेकिन मन का ढंग यही है। मन ऐसे ही जीता है। मन ऐसे ही अनिश्चय में डांवाडोल होता रहता है। अंधा जैसे टटोलता-टटोलता कुछ पकड़ लेता है, पा लेता है--ऐसी हमारी जिंदगी है। और जो हम पा लेते हैं, वह भी मौत हमसे छीन लेती है।
संसय मोह भरम की रैन।
हमारे मोह क्या हैं? हमारी आसक्तियां क्या हैं?
बस ऐसे ही, संयोगवशात, नदी-नाव-संयोग! और कितने भ्रम हम पाल लेते हैं! हमने एक-दूसरे से कितनी आशाएं कर रखी हैं, कितनी अपेक्षाएं कर रखी हैं! यह भी नहीं सोचते कि दूसरा इन अपेक्षाओं को कभी पूरा कर पाएगा? इन आशाओं को पूरा कर पाएगा? और जब दूसरा पूरा नहीं कर पाता है तो हम सोचते हैं कि बड़ा धोखा खाया, बड़ा धोखा दिया गया।
कोई धोखा नहीं दे रहा है। तुम्हारी अपेक्षाएं ही ऐसी हैं जो कोई पूरी नहीं कर सकता। दूसरा भी तुम्हारे साथ इसीलिए है कि उसकी भी अपेक्षाएं हैं, तुम भी पूरी नहीं कर रहे हो। मोह हैं और मोह-भ्रांतियां टूटती हैं रोज! मगर नये मोह हम बना लेते हैं। ऐसे भ्रम, मोह, संशय, अनिश्चय की यह अंधेरी रात है। इस अंधेरी रात में हम खोज में लगे हैं। किसको खोज रहे हैं, यह भी पक्का नहीं है।
पश्चिम में दर्शनशास्त्र की परिभाषा ऐसी की जाती है--कि दार्शनिक ऐसा अंधा है, जो अंधेरी रात में, एक घनघोर अंधेरे कमरे में, एक काली बिल्ली को खोज रहा है, जो वहां है ही नहीं। एक तो अंधे, अमावस की रात, बंद कमरा, काली बिल्ली--और वह भी वहां है नहीं, खोज रहे हैं!
यह दर्शनशास्त्र की ही परिभाषा नहीं है, यह तुम्हारे जीवन की भी परिभाषा है।
अंधधुंध होए सोते ऐन।
ऐसे नींद में और अंधापन बढ़ता है, और अंधेरा बढ़ता है।
रोज-रोज अंधेरा बढ़ रहा है, और रोज-रोज अंधापन बढ़ रहा है। बच्चों के पास तो थोड़ी आंख होती है, बूढ़ों के पास वह भी नहीं रह जाती। बच्चों के पास तो थोड़ा ताजा बोध होता है, बूढ़ों के पास वह भी धूमिल हो जाता है। खूब धुआं जम जाता है। धूल बैठ जाती है। बच्चों के पास तो थोड़ा निर्दोष चित्त भी होता है, बूढ़ों के पास कहां निर्दोष चित्त!
जीसस ने कहा है: जो फिर से बच्चों की भांति हो जाएंगे, वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। तुम्हें सीखनी होगी कला फिर से बच्चों की भांति होने की। छोड़ना होगा तथाकथित ज्ञान। छोड़ना होगा उधार पांडित्य, ताकि फिर तुम निर्दोष हो सको; ताकि फिर तुम खुली आंखों से जगत को, अस्तित्व को देख सको। छोड़ने होंगे स्वप्न, क्योंकि स्वप्नों में तुम जितने उलझ जाते हो, उतनी ही अपने पर दृष्टि जानी बंद हो जाती है।
गागर तो बूंद-बूंद रिसती ही जाती है,
जीवन की आस किंतु वैसी की वैसी है।
हर डग पर हर पग पर जाने अनजाने ही,
एक बूंद गिरती है और बिखर जाती है।
फूटी सी गागर की छलना का रूप देख,
अधरों की प्यास तनिक और सिहर जाती है।
रूप की दुपहरी तो ढलती ही जाती है,
तरुणाई प्यास किंतु वैसी की वैसी है।
गागर तो बूंद-बूंद रिसती ही जाती है,
जीवन की आस किंतु वैसी की वैसी है।
चाहों का मरुथल जब पीता अंगारों को,
नयनों का रत्नाकर और उमड़ पड़ता है।
ढलती हैं संध्या की घड़ियां तब चुपके से,
आशा का सूरज जब और तेज चढ़ता है।
संध्या तो रोज-रोज आकर छल जाती है,
अनबोली सांस किंतु वैसी की वैसी है।
गागर तो बूंद-बूंद रिसती ही जाती है।
जीवन की आस किंतु वैसी की वैसी है।
वासंती मौसम में शाख-शाख जागे जब,
फूल सी उमंग और रह-रह कर बढ़ती है।
अभिशापों की करवट लेकर तब अंगड़ाई,
पतझर का हाथ पकड़ धीमे से चढ़ती है।
पंखुरियां टूट-टूट बिखरी ही जाती हैं,
धूल की सुवास किंतु वैसी की वैसी है।
गागर तो बूंद-बूंद रिसती ही जाती है,
जीवन की आस किंतु वैसी की वैसी है।
और जीवन रोज चुका जा रहा है। जीवन रोज बहा जा रहा है। जागो! समय रहते जागो! पीछे बहुत पछतावा होगा। लेकिन फिर पछतावे में भी कुछ सार नहीं। जब तक शक्ति है, जागो!
और कल का क्या पता? अगले क्षण का भी पता नहीं है। श्वास जो बाहर गई, भीतर आएगी भी, इसका भी पक्का नहीं है। इसलिए जागो! क्षण भर भी मत टालो। इसी क्षण जागो!
जप तप संयम औ आचार। यह सब सुपने के ब्यौहार।।
बड़े क्रांतिकारी वचन हैं। सीधे-सादे, मगर आग के अंगारों जैसे हैं। तुम्हारा जप, तुम्हारा तप, तुम्हारा संयम, तुम्हारा आचार, सब सपने का व्यवहार है। क्योंकि जागते तो तुम हो ही नहीं। जैसे सोए-सोए दुकान करते हो, वैसे ही सोए-सोए मंदिर भी जाते हो। दुकान भी सपना, तुम्हारा मंदिर भी सपना। चलो ऐसा कर लो कि दुकान अधार्मिक सपना और मंदिर धार्मिक सपना। भोजन भी करते हो सोए-सोए। उपवास भी करते हो सोए-सोए। नींद तो टूटती ही नहीं। ध्यान तो उठता ही नहीं। आत्मबोध तो जगता ही नहीं। तो तुम्हारा जप भी व्यर्थ है।
देख लो तुम जप करने वालों को, माला जपते रहते हैं, माला फेरते रहते हैं। माला भी फेरते रहते हैं, नजर भी रखते हैं कि दुकान पर कोई ग्राहक धोखा न दे जाए, नौकर कुछ पैसा न मार दे। माला भी जपते रहते हैं; कुत्ता घुस जाता है, उसको भी भगा देते हैं। माला भी जपते रहते हैं, आंखों से इशारा भी करते रहते हैं--कि देखो, कौन आया, कौन गया!
तुम्हारी नींद कैसी है! तुम राम-राम भी जपते रहते हो और भीतर हजार-हजार सपने और हजार-हजार विचार भी चलते रहते हैं। और राम-राम ऊपर और भीतर सारा उपद्रव!
जप तप संयम औ आचार।
तुम चाहे घर छोड़ कर भाग जाओ, शरीर को सुखा लो, सिर के बल खड़े रहो, जंगल की गुफाओं में रहो, भूखे-प्यासे रहो--कुछ फर्क न पड़ेगा। तुम चाहे दुर्जन से सज्जन हो जाओ, चोरी न करो, बेईमानी न करो--तो भी कुछ फर्क न पड़ेगा।
दरिया कहते हैं: फर्क तो सिर्फ एक बात से पड़ता है, वह है--ध्यान की लपट तुम्हारे भीतर पैदा हो। यह दरिया का जोर समझना किस बात पर है। दरिया यह नहीं कह रहे हैं कि चोरी करो, खयाल रखना। वे यह नहीं कह रहे हैं कि संयम मत साधना। तुम्हारी मौज। तुम्हें जो सपना देखना हो देखना। कुछ लोग पापी होने का सपना देखते हैं, कुछ लोग पुण्यात्मा होने का; तुम्हारी जो मौज। दरिया तो यह कह रहे हैं कि हमारी तरफ से दोनों सपने हैं।
रात एक आदमी सोता है और चोरी का सपना देखता है--कि पहुंच गया, खोल लिया खजाना, अरबों-खरबों का रुपया सरका दिया। और एक आदमी रात सपना देखता है कि सब त्याग कर दिया, नग्न दिगंबर होकर जंगल में साधना को चल पड़ा। तुम सोचते हो उन दोनों के सपने में सुबह कुछ फर्क होगा? जब दोनों जागेंगे, अपनी-अपनी खाट पर पड़ा हुआ पाएंगे। न तो खजाने वाले के हाथ में खजाना है और न जंगल जो गया था वह जंगल पहुंचा है। दोनों सपने देख रहे थे। क्या तुम यह कहोगे कि जिसने संन्यास लेने का सपना देखा उसने अच्छा सपना देखा और जिसने चोरी का सपना देखा उसने बुरा सपना देखा? क्या सपने भी अच्छे और बुरे हो सकते हैं?
सपने तो झूठे होते हैं, अच्छे-बुरे नहीं होते। इसलिए प्रश्न अच्छे-बुरे के बीच चुनने का नहीं है; प्रश्न तो सपने और सत्य के बीच चुनने का है।
इस मौलिक बात को याद रखो। सवाल यह नहीं है कि क्या करो--अच्छा करो कि बुरा करो। सवाल यह है कि करने वाला कौन है? जाग कर करो! फिर तुम जो भी करो, ठीक है। जाग कर जो भी हो, पुण्य है। और सोए-सोए जो भी हो, पाप। फिर पाप में चाहे तुम मंदिर बनवाओ, धर्मशालाएं बनवाओ, त्याग-तपश्चर्या करो--कुछ भेद न पड़ेगा। जब मरोगे तब तुम पाओगे--जैसे धन छूट गया दूसरों के हाथ से, वैसे ही तुम्हारे हाथ से संयम छूट गया। जब मरोगे, नींद टूटेगी। मौत सुबह है; जिंदगी की नींद टूटती है। सिर्फ मौत उनको नहीं डरा सकती, जिन्होंने खुद अपनी नींद जीते-जी तोड़ दी है। उनके लिए मौत नहीं आती। नहीं कि उनकी देह नहीं जाती; देह तो जाएगी ही; मगर वे जागे हुए मौत में प्रवेश करते हैं।
तीर्थ-दान जग प्रतिमा-सेवा। यह सब सुपना लेवा-देवा।।
इससे समझो कि जाओ तीर्थ, कि दान करो, कि प्रतिमाएं पूजो, कि जगत की सेवा करो, कि अस्पताल खोलो, कि स्कूल बनवाओ...
यह सब सुपना लेवा-देवा।
यह सब सपने का लेन-देन है।
कहना सुनना हार औ जीत।
यहां बिना जागे कुछ भी कहो और कुछ भी सुनो, हारो कि जीतो।
पछा-पछी सुपनो विपरीत।
पक्ष में रहो कि विपक्ष में रहो, हिंदू कि मुसलमान, आस्तिक कि नास्तिक--कुछ फर्क नहीं पड़ता; सब स्वप्न का लोक है।
चार बरन औ आश्रम चार।
फिर चाहे ब्राह्मण समझो अपने को, चाहे शूद्र; फिर चाहे जवान समझो अपने को, चाहे वृद्ध; चाहे गृहस्थ, चाहे वानप्रस्थ, चाहे संन्यासी--कुछ फर्क न पड़ेगा।
सुपना अंतर सब ब्यौहार।
षट दरसन आदि भेद-भाव। सुपना अंतर सब दरसाव।।
फिर तुम चाहे दर्शनशास्त्रों में कोई चुन लो--वेदांती हो जाओ, कि जैन हो जाओ, कि बौद्ध हो जाओ, कि सांख्य को मानो, कि योग को, कि वैशेषिक को--कि तुम्हारी जो मर्जी हो, कोई भी दर्शनशास्त्र चुन लो; मगर यह सब सपने का खेल है।
हर उत्तर के बाद प्रश्न के चिह्न लगाता रहा निरंतर,
इसीलिए मेरे अंतर का अंतर प्रश्नाकार हो गया।
तर्क रेख जितनी बढ़ती है, उतनी दूरी बढ़ती जाती,
सहज प्राप्य निष्कर्षों पर भी घनी पर्त सी चढ़ती जाती।
मुख में नयन, नयन में ज्योति, ज्योति में ही विश्व समाया,
कैसे कह दूं सत्य जगत है, कैसे कह दूं केवल माया।
जभी खोल देता पलकों को, सारा विश्व लीन हो जाता,
जभी मूंद लेता नयनों को, सारा जग विलीन हो जाता।
अगणित उत्तर हो सकते हैं, लेकिन प्रश्न एक होता है,
जैसे हर असत्य की तह में सोया एक सत्य होता है।
हर असत्य के बाद सत्य को भूल समझता रहा निरंतर,
इसीलिए कृत्रिम जीवन ही इस जग में व्यवहार हो गया।
भ्रम के वशीभूत हो मैंने जितनी बार प्रश्न को जांचा,
उतनी बार बदलता रहता मेरे अनुमानों का सांचा।
ठीक-गलत के जभी तराजू में रख कर प्रश्नों को तोला,
कभी झुका इस ओर संयमन, कभी उधर को रह-रह डोला।
उत्तर तो कितने आए पर मन को ही विश्वास न आया,
उत्तर तो पा लिया किंतु उन प्रश्नों का अभ्यास न आया।
जब भी नट सा चला रज्जु पर, विश्वासों के पांव हिल गए,
कंपते से संतुलन हृदय में भय की काली रेख बन गए।
क्यों, कैसे, कब, क्या होता है, यही सोचता रहा निरंतर,
इसीलिए संशय का पलड़ा भय का पारावार हो गया।
चाह रही सब कुछ पाने की, लेकिन पाकर पा न सका मैं,
हर झूठा विश्वास दिलाया, लेकिन मन बहला न सका मैं।
जब आशा थी पा जाने की, अंतर को विश्वास नहीं था,
जब खो जाने की घड़ियां थीं, खोने का आभास नहीं था।
पाकर खोया, खोकर पाया, लेकिन फिर भी पा न सका मैं,
सब कुछ था अपने ही वश में पर मन को समझा न सका मैं।
जब पाया, खोने का भय था, खोने पर पाने की आशा,
यही सदा भटकाती मुझको मेरी अनबुझ मौन पिपासा।
सूखे अधर लिए सागर के तट पर बैठा रहा निरंतर,
इसीलिए प्यासे रहना ही जीवन का व्यापार हो गया।
कभी भयातुर हो संशय से हर तिनके से नीड़ संजोता,
कभी त्याग कर सारा वैभव अपने ही ऊपर हंस देता।
जिस डाली पर नीड़ बनाया वही टूट मिल गई धूल में,
जिसे अप्राप्य समझ कर छोड़ा वही फूल खिल गया शूल में।
यह जग केवल एक समस्या, हर विवाद संयम का कंपन,
चिंतन हीन भुलावा सुंदर, मादक मोह पाश का बंधन।
सत्य प्रश्न का प्रश्न अगर तो मौन मात्र इसका उत्तर है,
निज अनुभूति एक शाश्वत हल व्यर्थ अन्यथा प्रत्युत्तर है।
इस जग के ठगने को वाणी दूषित करता रहा निरंतर,
इसीलिए मन के चंदन घर सांपों का अधिकार हो गया।
करो अनुमान! तुम्हारे सारे दर्शनशास्त्र अनुमान हैं, अनुभव नहीं। अनुभव का कोई शास्त्र नहीं होता। अनुभव का कोई दर्शन नहीं होता। जहां दर्शन है, वहां दर्शनशास्त्र नहीं होता। अनुभूति तो बंधती ही नहीं शब्दों में, सिद्धांतों में।
दरिया ठीक कहते हैं: षट दरसन आदि भेद-भाव।
ये जो छह दर्शन हैं, ये सिर्फ भेद-भाव हैं।
सुपना अंतर सब दरसाव।
राजा-रानी तप बलवंता।
खयाल रखना, तुमसे ऐसा तो कहा गया है बार-बार कि क्या होगा सम्राट होने से? क्या होगा साम्राज्य होने से? धन का संग्रह कर लिया तो क्या फायदा? लेकिन दरिया और गहरी बात कहते हैं।
दरिया कहते हैं: राजा-रानी तप बलवंता।
राजा-रानी होने से तो कुछ होता ही नहीं; बड़े तपस्वी भी हो जाओ, महातपस्वी भी हो जाओ, तो भी कुछ नहीं होता।
सुपना माहिं सब बरतंता।
यह सब व्यवहार स्वप्न में चल रहा है।
पीर औलिया सबै सयाना। ख्वाब माहिं बरतै विध नाना।।
काजी सैयद औ सुलताना। ख्वाब माहिं सब करत पयाना।।
सांख जोग औ नौधा भकती। सुपना में इनकी इक बिरती।।
कहते हैं कि सांख्य का अपूर्व शास्त्र, योग की तपश्चर्या, नौ प्रकार की भक्तियां, ये सब सपने की ही वृत्तियां हैं। ऐसे क्रांतिकारी वचन बहुत मुश्किल से, खोजे-खोजे नहीं मिलते हैं। क्यों इन सबको स्वप्न की वृत्ति कहते हैं दरिया? अनुभव मात्र स्वप्न है। क्योंकि अनुभव तुमसे अलग है। अनुभोक्ता सत्य है।
समझो। ध्यान में बैठे। भीतर प्रकाश ही प्रकाश हो गया। तो तुम्हारे भीतर दो हैं अब। एक वह जो जानता है कि प्रकाश हो रहा है; और एक वह जो तुम्हारे भीतर प्रकाश की भांति प्रकट हुआ है। प्रकाश तुम नहीं हो। तुम तो प्रकाश को जानने वाले हो। इसलिए भूल मत जाना, नहीं तो नया आध्यात्मिक सपना शुरू हो गया। अब इसी मजे में मत डोल जाना। और रस बहुत है। भीतर प्रकाश हो गया, खूब रसपूर्ण है! खूब आनंद मालूम होगा। लेकिन यह नये सपने की शुरुआत है। मन अंत तक पीछा करेगा। मन अंत तक डोरे डालेगा। मन अंत तक खींचेगा। कहेगा: अहा, देखो कैसे धन्यभागी हो! प्रकाश हो गया! यही प्रकाश, जिसकी संत सदा चर्चा करते रहे हैं!
लेकिन जो सचमुच जागे हुए संत हैं, उन्होंने प्रकाश इत्यादि को स्वप्न कहा है। उन्होंने भीतर होते हुए अनुभवों को, आंतरिक अनुभवों को भी स्वप्न कहा है। उन्होंने तो सिर्फ एक को ही सत्य माना है--बस एक को--द्रष्टा को, साक्षी को। जब भीतर प्रकाश हो जाए तो इस नये भ्रम में मत पड़ जाना। जानते रहना कि मैं तो जानने वाला हूं, मैं प्रकाश नहीं। यह प्रकाश तो मेरे सामने है, दृश्य है; मैं द्रष्टा हूं। यह प्रकाश तो अनुभव है; मैं अनुभोक्ता हूं। अपने को निरंतर साक्षी, साक्षी, साक्षी, ऐसी याद दिलाते रहना। तब कभी वह सौभाग्य की घड़ी आती है, जब सब अनुभव खो जाते हैं। निराकार छा जाता है। चारों तरफ शून्य व्याप्त हो जाता है। और अनुभव की कहीं कोई रेख नहीं रह जाती। सिर्फ साक्षी का दीया जलता है। उस परम घड़ी में ही--अमी झरत, बिगसत कंवल!
काया कसनी दया औ धर्म। सुपने सुर्ग औ बंधन कर्म।।
सुनते हो! दरिया हिम्मत के आदमी रहे होंगे। जरा चिंता नहीं की। सब पर पानी फेर दिया--तुम्हारे ज्ञान पर, तुम्हारे दर्शनशास्त्रों पर, तुम्हारी भक्ति पर।
काया कसनी दया औ धर्म।
कितनी ही कसो काया को, कितना ही सताओ, हो जाओ महामुनि--कुछ भी न होगा। कितना ही धर्म करो, कुछ भी न होगा।
सुपने सुर्ग औ बंधन कर्म।
बड़ा अदभुत वचन है! तुम्हारे स्वर्ग भी स्वप्न हैं, तुम्हारे नरक भी स्वप्न हैं। और तुम जिन बंधनों को सोचते हो कि कर्म का बंधन है, वे भी तुम्हारे स्वप्न हैं; क्योंकि तुम कर्ता नहीं हो, द्रष्टा हो। कर्म का बंधन तुम पर हो ही नहीं सकता। यह क्रांति का बड़ा आग्नेय-सूत्र है। तुम्हें पंडित-पुरोहित यही समझाते रहे हैं कि कर्म का बंधन है। अगर तुम दुख पा रहे हो तो पिछले जन्मों के किए गए कर्मों का फल भोग रहे हो। अगर कोई सुख पा रहा है तो पिछले जन्मों में किए कर्मों के आधार से सुख पा रहा है। अच्छे कर्म करो, अगले जन्म में अच्छे-अच्छे फल मिलेंगे। बुरे कर्म करोगे, अगले जन्म में दुख पाओगे।
दरिया कहते हैं: कर्ता ही नहीं हूं मैं, तो कर्म का बंधन क्या होगा मुझ पर? मैं तो सिर्फ साक्षी हूं।
साक्षी स्वतंत्रता है, परम स्वतंत्रता है। उस पर कोई बंधन नहीं है। न कभी कोई बंधन हुआ है उस पर। बंधन माना हुआ है। मान लो तो हो जाता है। स्वीकार कर लो तो हो जाता है। तुम्हारी मान्यता में ही तुम्हारे ऊपर बंधन है। इसलिए मुझसे कभी-कभी लोग आकर पूछते हैं कि आप कहते हैं कि क्षण में समाधि फल सकती है। तो हमारे अतीत जन्मों में किए कर्मों का क्या होगा? पहले तो उनसे निपटना होगा न! पहले तो उनको काटना होगा न! पहले तो उनका फल भोगना होगा न! और आप कहते हो, क्षण में!
मैं कहता हूं: क्षण में! क्योंकि अतीत के कर्म छोड़ने नहीं हैं। तुमने कभी किए नहीं हैं। तुमने सिर्फ माना है। तुम अगर अभी जाग जाओ और साक्षी में थिर हो जाओ, सारे कर्म गए। कर्ता ही गया तो कर्म कहां बचेंगे? सारे बंधन गए। सारा अतीत गया, सारा भविष्य गया; सिर्फ वर्तमान बचा--शुद्ध वर्तमान! और वही शुद्ध वर्तमान परमात्मा का द्वार है, निर्वाण का द्वार है।
हम संसार में भी सपने सजाते हैं। हम परलोक के भी सपने सजाते हैं। हमने सपने ही सपने बसा लिए हैं!
तुम न अगर मिलते तो मेरे
गीत कुंआरे ही रह जाते।
कौन स्वप्न की माला मेरी हृदय लगा हंस कर अपनाता,
कौन गीत में चुपके छिप कर अपने रसमय अधर मिलाता।
कौन अर्चना के फूलों को अपने आंचल में रख लेता,
कौन उन्हें श्रृंगार बना कर अपना जीवन धन कह देता।
तेरा मधुर समर्पण ही तो मेरे याचक मन की थाती,
नेह तुम्हारा पीकर जीती मेरे मन मंदिर की बाती।
प्राणों का जलना ही जीवन जलता जीवन एक कहानी,
जिसका है हर पृष्ठ वेद सा पावन ज्यों गंगा का पानी।
जब रिसता है प्यारा तुम्हारा,
बह उठती गीतों की धारा।
तुम न अगर बनते पीड़ा तो,
आंसू ही खारे रह जाते।
किसके पनघट पर जाकर मैं जीवन की आशा कह पाता,
दर-दर प्यास लिए फिरता मैं हर देहरी पर ठोकर खाता।
कौन मुझे चंदन सा छूकर मादक मस्ती से भर देता,
सम्मोहन में मुझे डुबा कर अपनी बांहों में भर लेता।
मादक गंध तुम्हारी पीकर पतझर भी मधुमास बन गया,
सांसें महक उठीं चूनर सी मंडप नीलाकाश बन गया।
हरित वृक्ष बन गए बराती कोकिल की कूजी शहनाई,
कलित कल्पना की गीतों से अनदेखी हो गई सगाई।
कितना मादक मिलन तुम्हारा,
कितना अभिनव सृजन तुम्हारा।
तुम न अगर बनते वसंत तो,
मनसिज अंगारे रह जाते।
किसके कुंतल मेघ सांवरे देख नाच उठता मयूर मन,
पीला दर्द हरा रखने को कब आता ले जलधर सावन।
मेरे प्यासे अधर बावरे भैरव राग नित्य दुहराते,
झूले पड़ते नहीं डाल पर सूखे स्वर मल्हार न गाते।
तुम आए तो थिरक उठा मन छाए रसमय काले बादल,
कजरारे केशों का सौरभ घुल कर बना नयन में काजल।
तन भी बहका मन भी बहका, बहक उठी चंचल पुरवाई,
मधु रसाल बन जागीं सुधियां नेह हुआ मादक अमराई।
तुम बरसे तो सुधियां सरसीं,
तुम हरषे तो बूंदें बरसीं।
तुम न अगर बनते सावन तो,
अंकुर अनियारे रह जाते।
तुम न अगर मिलते तो मेरे
गीत कुंआरे ही रह जाते।
यह बात दोनों जगत पर लागू है। इस जगत में भी प्रेमी और प्रेयसी इसी तरह के सपने सजा रहे हैं। और उस जगत में भी भक्त, भक्त और भगवान, इसी तरह के सपने सजा रहा है। जैसे प्रेमी और प्रेयसी इस जगत के सपने सजाते हैं, ऐसे ही भक्त भगवान के साथ उस जगत के सपने सजाता है।
दरिया तो उठा कर तलवार तुम्हारे सब सपने तोड़ देते हैं। नवधा भक्ति! तुम्हारे भक्ति के मीठे-मीठे रंग-रूप, सब व्यर्थ हैं। तुम्हारे विचार ही स्वप्न नहीं हैं, तुम्हारे भाव भी स्वप्न हैं। तुम्हारा मस्तिष्क ही व्यर्थ नहीं है, तुम्हारा हृदय भी व्यर्थ है। मस्तिष्क सबसे ऊपर है। उसके नीचे भाव, हृदय है। और उससे भी नीचे छिपा हुआ साक्षी है।
दरिया तो कहते हैं: बस साक्षी के अतिरिक्त और कहीं शरण नहीं है।
बुद्धं शरणं गच्छामि! बुद्ध की शरण जाता हूं मैं।
किसी ने बुद्ध से पूछा: आप तो कहते हैं कि किसी की शरण जाने की जरूरत नहीं। और लोग आपके ही चरणों में आकर सिर रखते हैं और कहते हैं: बुद्धं शरणं गच्छामि! आप रोकते क्यों नहीं?
तो बुद्ध ने कहा: वे मेरी शरण नहीं जाते। बुद्धं शरणं गच्छामि! बुद्धं का अर्थ होता है: जागरण, साक्षी, बोध। मैं तो प्रतीकमात्र हूं। मैं तो बहाना हूं। वे बुद्धत्व की शरण जाते हैं।
दरिया भी कहते हैं: बस एक ही शरण पकड़ो--साक्षी की। साक्षी को पकड़ते ही तुम भी बुद्ध हो जाओगे। उससे कम पर राजी नहीं हैं। कोई समझौता करने को दरिया राजी नहीं हैं। समग्र क्रांति के पक्षपाती हैं।
काम क्रोध हत्या परनास।
तुम थोड़ा चौंकोगे भी! वे कहते हैं: काम क्रोध हत्या परनास। सुपना माहिं नर्क निवास।।
ये भी सब स्वप्न हैं--कि तुमने काम किया, कि क्रोध किया, कि हत्या की। वह भी स्वप्न है।
सुपना माहिं नर्क निवास।
आदि भवानी संकर देवा। यह सब सुपना लेवा-देवा।।
कि चले अंबाजी के मंदिर! कि चले शंकर जी की सेवा कर आएं! कि चलो शंकर जी से कुछ मांग लें, क्योंकि सुना है कि वे बड़े औघड़दानी हैं, जरूर देंगे! कि चलो हनुमान जी की खुशामद करें, क्योंकि वे राम जी की खुशामद करते हैं। कुछ ऐसा रास्ता बन जाए। सीधे राम जी तक पहुंचना शायद मुश्किल हो, तो कोई चमचा जी को पकड़ो। उनके द्वारा चलो। तो लोग हनुमान-चालीसा पढ़ रहे हैं, कि हनुमान जी राजी हो गए, फिर तो हाथ में सब मामला है। कि जब हनुमान जी राजी हो गए तो फिर रामचंद्र जी को तो मानना ही पड़ेगा। ये सब तुम्हारे मन के ही जाल हैं। राम बाहर नहीं हैं। राम तुम्हारा अंतर्तम का ही नाम है।
ब्रह्मा बिष्नु दस औतार। सुपना अंतर सब ब्यौहार।।
सब सपने का व्यवहार है--यह दस अवतार। क्योंकि अवतरण तो परमात्मा का कण-कण में हुआ है। दस की गिनती क्यों? और जिन्होंने दस की गिनती की, तुम देखते हो, उनका व्यवहार देखते हो? कछुए को तो उन्होंने मान लिया कि भगवान का अवतार है, लेकिन मछुए को नहीं मान सकते। कछुए को मान सकते हैं कि भगवान का अवतार है, लेकिन शूद्र को नहीं मान सकते। यह भी खूब है! पशुओं को मान सकते हैं भगवान का अवतार, मनुष्यों को नहीं मान सकते। कछुए को भगवान का अवतार मानने वाले लोग महावीर को, मोहम्मद को, क्राइस्ट को अवतार नहीं मान सकते, औरों की तो बात छोड़ दो।
सब मान्यता के जाल हैं, अनुमान हैं, कल्पना के फैलाव हैं। और कल्पना को जितना उड़ाओ उड़ा सकते हो। परमात्मा तो उतरा है सबमें--मुझमें, तुममें, वृक्षों में, नदी-पहाड़ों में। परमात्मा का अवतरण तो समस्त अस्तित्व में हुआ है। यह सारा अस्तित्व परमात्मरूप है। इसमें तुम दस की गिनती क्या करते हो? यहां गिनती करने का सवाल ही नहीं है। यहां तो अनगिनत रूप से परमात्मा मौजूद है, क्योंकि सभी उसकी अभिव्यक्तियां हैं। सभी गीत उसके हैं। सभी कंठ उसके हैं।
ब्रह्मा बिष्नु दस औतार। सुपना अंतर सब ब्यौहार।।
उद्भिज सेदज जेरज अंडा। सुपनरूप बरतै ब्रह्मंडा।।
स्वेदज हों, पिंडज हों, अंडज हों, कैसे भी कोई पैदा हुआ हो, यह सारा ब्रह्मांड एक स्वप्न से ज्यादा नहीं है। इस ब्रह्मांड को स्वप्न समझो, ताकि तुम अपने साक्षी की तरफ चल सको। इस ब्रह्मांड को जिस दिन तुम पूरा-पूरा स्वप्न समझ लोगे, तुम्हारी पकड़ छूट जाएगी। और पकड़ के छूटते ही साक्षी में थिर हो जाओगे।
उपजै बरतै अरु बिनसावै।
यह सारा जगत स्वप्न है, ऐसा कहने का कारण क्या? इसके बाद इस बात को कहने के लिए प्रमाण क्या?
ज्ञानियों ने सत्य और स्वप्न में थोड़ा सा ही फर्क किया है। थोड़ा, लेकिन बहुत बड़ा भी। स्वप्न की परिभाषा जानने वालों ने की है: वह जो पैदा हो, रहे और मिट जाए। और सत्य की परिभाषा की है: जो पैदा न हो, बस रहे और मिटे कभी नहीं। सत्य का अर्थ है: शाश्वत। और स्वप्न का अर्थ है: क्षणभंगुर।
उपजै बरतै अरु बिनसावै।
पैदा होता है, थोड़ी देर रहता है और गया। पानी का बबूला बना, थोड़ी देर तैरा और फूटा। इंद्रधनुष उगा, अभी था, अभी खो गया।
उपजै बरतै अरु बिनसावै। सुपने अंतर सब दरसावै।।
ऐसी सारी बातों को स्वप्न समझना, जो पैदा होती हैं, क्षण भर ठहरती हैं और विनष्ट हो जाती हैं। जो न कभी पैदा होता, न कभी विनष्ट होता, उसे खोज लो। वही असली संपदा है। वही साम्राज्य है। साक्षी कभी पैदा नहीं होता और साक्षी कभी मरता नहीं। साक्षी का समय से कोई संबंध ही नहीं है। साक्षी कालातीत है। और ध्यान में इसी साक्षी की झलक आनी शुरू होती है। ध्यान का अर्थ है: स्वप्न-रहित हो जाना, विचार-रहित हो जाना, ताकि साक्षी की झलक अनिवार्यरूपेण फलित होने लगे।
त्याग ग्रहन सुपना ब्यौहारा। जो जागे सो सबसे न्यारा।।
अनूठी बात कहते हैं दरिया। यही मैं तुमसे कह रहा हूं रोज।
कहते हैं: त्याग ग्रहन सुपना ब्यौहारा।
भोगी भी सपने में है, योगी भी सपने में है। क्योंकि त्याग और ग्रहण, दोनों ही स्वप्न का व्यवहार हैं। कोई कहता है कि मेरे पास लाखों हैं और कोई कहता है कि मैंने लाखों त्याग दिए। दोनों में तुम फर्क मानते हो? इंच भर भी फर्क नहीं है। रत्ती भर भी फर्क नहीं है। एक कहता है: लाखों मेरे हैं। मैं मालिक! दूसरा भी यही कह रहा है कि मैं मालिक, मैंने लाखों छोड़ दिए! मेरे थे तभी तो छोड़ दिए!
दो अफीमची एक झाड़ के नीचे बैठे हैं। जब जरा अफीम चढ़ गई...। रात है सुंदर। आकाश में पूर्णिमा का चांद है। चांदनी बरसती है, चारों तरफ चांदी ही चांदी है! एक अफीमची ने कहा: दिल होता है कि रात को, इस चांद को, इस चांदनी को, सबको खरीद लूं।
दूसरे ने थोड़ी देर सोचा और उसने कहा कि नहीं, यह नहीं हो सकता।
पहले ने कहा: क्यों नहीं हो सकता?
उसने कहा: मुझे बेचना ही नहीं। मैं बेचूं, तब तो तुम खरीदो न! कि ऐसे ही खरीद लोगे?
रात, चांद, चांदनी...अफीमची खरीद और बेच रहे हैं!
तुम्हारा यहां क्या है? तो जो पकड़ कर बैठा है, वह भी पागल है। और जो छोड़ कर भाग गया है, वह और बड़ा पागल है। जहां हो, बिना पकड़े मजे से रहो। सब सपना है। साक्षी के बोध को, जहां रहो, वहीं जगाए रहो। दुकान पर बैठ कर साक्षी सधे, मंदिर में बैठ कर भी सधे, बाजार में भी। साक्षी की स्मृति सघन होती जाए। धीरे-धीरे सब पकड़ना-छोड़ना छूट जाए। पकड़ना भी छूट जाए, छोड़ना भी छूट जाए, तब तुम जानना कि तुम संन्यासी हुए।
मेरे संन्यास की यही परिभाषा है: पकड़ना भी न रह जाए, छोड़ना भी न रह जाए। क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों एक ही भ्रांति के हिस्से हैं। भोगी और त्यागी में फर्क नहीं है। एक-दूसरे की तरफ पीठ किए खड़े हैं, माना; मगर फर्क नहीं है। दोनों की दृष्टि एक है। दोनों मानते हैं कि मेरा है। एक मुट्ठी बांधे है, दूसरे ने फेंक दिया। मगर दोनों की भ्रांति वही है कि मेरा है। वर्षों बीत जाते हैं और त्यागी बात करता रहता है कि मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी!
एक संन्यासी से मैं मिलता था। वे जब भी मिलते तो याद दिलाते कि मैंने लाखों पर लात मार दी!
मैंने उनसे एक दिन पूछा...जब ऊब गया सुन-सुन कर बहुत बार कि लाखों पर उन्होंने लात मार दी...मैंने उनसे पूछा: यह लात मारी कब थी?
उन्होंने कहा: कोई तीस साल हो गए।
तो फिर मैंने कहा: एक बात मैं आपसे कहूं कि लात लगी नहीं।
उन्होंने कहा: मतलब?
मैंने कहा: जब तीस साल हो गए और अभी तक याद बनी है, तो लात लगी नहीं होगी। तीस साल से यही याद किए बैठे हो कि लाखों पर लात मार दी, लाखों पर लात मार दी! तुम्हारे थे? तुम्हारे बाप के थे? किसके थे? तुमने लात मारी कैसे? लात मारने का तुम्हें अधिकार क्या? लेकर आए थे? न लेकर जाते। यह लात मारने का अहंकार वही का वही अहंकार है। तुम जरूर, जब तुम्हारे पास लाखों रहे होंगे, तो सड़क पर चलते होओगे इस अकड़ से कि लाखों मेरे पास हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन और उसका बेटा, दोनों एक नाले को पार कर रहे थे। बरसाती नाला। मुल्ला ने छलांग मारी। अस्सी साल का बूढ़ा, मगर मार गया छलांग। उस पार पहुंच गया। अब लड़के को भी चुनौती मिली, उसने कहा कि जब बाप बूढ़ा अस्सी साल का मार गया छलांग और मैं चल कर जाऊं नाले में से, बेइज्जती होगी, लोग क्या कहेंगे! नाले के इस तरफ उस तरफ लोग काम भी कर रहे हैं, आ-जा भी रहे हैं। तो उसने भी मारी छलांग। बीच नाले में गिरा। और भद्द हुई। रास्ते में जब दोनों फिर चलने लगे, उसने अपने बाप से पूछा कि इतना तो बताएं, आप अस्सी साल के हो गए और छलांग मार गए। और मैं तो अभी जवान हूं और बीच नाले में गिर गया, इसका राज क्या है?
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपना खीसा बजाया--खनाखन! खनाखन! पुरानी कहानी है, रुपये बजे!
बेटे ने कहा: मैं कुछ समझा नहीं।
उसने कहा कि जेब गरम हो तो आत्मा में बल होता है। तेरी जेब में क्या है? खाली जेब! खोखी आत्मा! गिरा बीच में। बीच तक पहुंच गया, यही चमत्कार है! मैं भी पूछना चाहता हूं कि बीच तक तू पहुंचा कैसे? मैं तो सौ नगद कलदार जब तक खीसे में न रखूं, घर से नहीं निकलता। गरमी रहती है, शान रहती है, अकड़ रहती है, बल रहता है, जवानी रहती है।
लोगों के पास धन होता है तो उनकी चाल और होती है। तुमने भी गौर किया? जब खीसे में रुपये होते हैं, तुम्हारी चाल और होती है; जब खीसे में रुपये नहीं होते, तुम्हारी चाल और होती है। अभी तक न खयाल किया हो तो अब करना। जब आदमी पद पर होता है तब उसकी चाल देखो।
इस संबंध में बड़ी खोज-बीन की गई है और यह पाया गया है कि जब तक लोग पद पर होते हैं, तब तक ज्यादा जीते हैं; और पद से हटते ही जल्दी मर जाते हैं। पश्चिम में इस पर काफी शोध काम हुआ है। और शोध के ये नतीजे हैं कि जब लोग अवकाश प्राप्त करते हैं तो उनकी उम्र दस साल कम हो जाती है। हैरानी की बात है!
कोई कलेक्टर था, कोई कमिश्नर था, कोई चीफ मिनिस्टर था, कोई प्राइम मिनिस्टर था, कोई राष्ट्रपति था, फिर अवकाश लिया। जब तक कलेक्टर था, एक गरमी थी। मुल्ला नसरुद्दीन की कहानी ऐसे ही नहीं है। चलता था, लोग नमस्कार करते थे, झुक-झुक जाते थे। रोब था। मैं कुछ हूं, यह बल था। जीने के लिए कुछ आधार था। फिर यही कलेक्टर रिटायर हो गया। अब इसको कोई नहीं पूछता। रास्ते से गुजर जाता है, लोग नमस्कार भी नहीं करते। घर में भी लोग नहीं पूछते। क्योंकि जब तक यह कलेक्टर था, पत्नी भी आदर देती थी। अब पत्नी भी डांटती है कि नाहक खांसते-खंखारते बैठे रहते हो, कुछ करो! बच्चे भी नाराज होते हैं कि ब़ूढे से कब छुटकारा हो, कि हर चीज में अड़ंगेबाजी करता है!
अड़ंगेबाजी करेगा; उसकी जिंदगी भर की आदत है। कलेक्टर था। हर काम में अड़ंगेबाजी करता रहा। वही उसकी कुशलता थी। सरकारी अफसरों की कुशलता ही एक है कि जो काम तीन दिन में हो सके, वह तीन साल में न होने दें। उसमें ऐसे अड़ंगे निकालें, ऐसी तरकीबें निकालें, फाइलें इस तरह घुमाएं कि भंवर खाती रहें। जिंदगी भर की उसकी कला वही थी। अब भी वह मौका देख कर थोड़े पुराने हाथ चलाता है, पुराने दांव मारता है। उतना ही जानता है। और कुछ कर भी नहीं सकता। जहां उसकी जरूरत नहीं, वहां बीच में आकर खड़ा हो जाता है। हर चीज में सलाह देता है। जमाना गया उसका। जमाना बदल गया। अब उसकी सलाह किसी काम की भी नहीं है। उसकी सलाह जो मानेगा, पिद्दी की तरह पिटेगा जगह-जगह। अब उसके बेटे उससे कहते हैं: तुम शांत भी रहो। माला ले लो। पूजा करो। घर में पूजागृह बनवा दिया है, वहां बैठा करें। मगर वह घर भर में नजर रखता है। वह सोचता है कि उसके पास भारी ज्ञान है, जीवन भर का अनुभव है।
कोई उसके पक्ष में नहीं है। मोहल्ले-पड़ोस के लोग उसके पक्ष में नहीं हैं। जिससे भी बात करता है, वह बचना चाहता है। क्योंकि अब काम क्या है इससे बात करने का! यही लोग एक दिन इसकी तलाश करते थे। आज इससे कोई बात करने को भी राजी नहीं है। पत्नी भी इसको मानती थी पहले। इसको थोड़े ही मानती थी, वह जो हर महीने तनख्वाह आती थी, उसको मानती थी। अब तनख्वाह भी नहीं आती। अब नई साड़ियां भी नहीं आतीं। अब नये गहने भी नहीं आते। अब इसको मानने से मतलब क्या है? अब तो एक ही आशा है कि ये किसी तरह विदा हो जाएं, तो वह जो बीमा करवाया है...
मुल्ला नसरुद्दीन, उसकी पत्नी और उसका बेटा झील पर गए थे--पिकनिक के लिए गए थे। मुल्ला नसरुद्दीन झील में तैरता दूर निकल गया। बेटा भी उतरना चाहता था झील में। मां ने कहा: तू रुक।
बेटे ने कहा: क्यों? और पिताजी गए!
उसने कहा: पिताजी को जाने दे। उनका बीमा है, तेरा बीमा नहीं है।
कल मैं एक कहानी पढ़ रहा था, कि एक से एक चालबाज आदमी होते हैं। एक आदमी ऐसा चालबाज था कि मरने के पहले, जब पक्का हो गया कि मरना ही है, उसने अपना बीमा कैंसिल करवा दिया। क्योंकि जब मर जाएगा तो पत्नी को लाखों डालर मिलने वाले थे। मरने के पहले उसने अपना बीमा ही कैंसिल करवा दिया! जब पक्का हो गया और डाक्टरों ने कह दिया कि अब बस दो-चार दिन के ही मेहमान हो। तो उसने पहला काम यह किया कि अपना बीमा कैंसिल करवा दिया। मगर पत्नी भी एक ही घाघ थी! पति को दफनाया नहीं--अमरीका में तो पति को दफनाते हैं--जलवाया। और आग का जो बीमा होता है, उससे पैसे वसूल किए। जल कर मरा!
पत्नी भी पूछती नहीं अब, बेटे भी पूछते नहीं अब, परिवार भी पूछता नहीं अब। पास-पड़ोस के लोग भी पूछते नहीं अब। मनोवैज्ञानिक कहते हैं: दस साल उम्र कम हो जाती है। शायद इसीलिए जो राजनेता गद्दी पर बैठ जाता है, फिर ऐसी पकड़ता है कि छोड़ता ही नहीं। कितना ही खींचो टांग, कितना ही खींचो हाथ, कुर्सी को ऐसा पकड़ता है कि छोड़ता ही नहीं। कुछ भी करो, फिर उससे कुर्सी छुड़ाना बहुत मुश्किल है। कारण है। कुर्सी छूटी कि जिंदगी छूटी। कुर्सी ही जिंदगी है। जब तक कुर्सी पर है, तब तक सब कुछ है। जैसे ही कुर्सी गई, कुछ भी नहीं।
अभी देखा नहीं, दो-चार दिन पहले अखबारों में खबरें थीं कि भूतपूर्व राष्ट्रपति वी.वी.गिरि की टिकट का पास तक वापस ले लिया। भूतपूर्व राष्ट्रपति की यह हालत हो जाती है! कितना फर्क पड़ता है? कोई गिरि इस उम्र में रोज-रोज यात्रा करते भी नहीं हैं। और करें भी तो कितना फर्क पड़ता है? साल में अगर हजार, पांच सौ रुपये की टिकट के पास का उपयोग कर लेते तो क्या बन-बिगड़ जाता? मगर जो सत्ता से गया, वह सब तरफ से चला जाता है। यह भी न सोचा इनकार करते वक्त कि यही गति तुम्हारी हो जाएगी कल। सत्ता के बाहर हुए कि दो कौड़ी कीमत हो जाती है। इसलिए जो राजनेता पहुंच जाता है सत्ता में, वह सत्ता में ही बना रहना चाहता है।
मध्यप्रदेश के एक मुख्यमंत्री थे रविशंकर शुक्ल। उन्होंने कस्द कर लिया था कि मरूंगा तो कुर्सी पर ही मरूंगा, नहीं तो मरूंगा ही नहीं। कुर्सी पर ही मरे! क्योंकि मरो कुर्सी पर तो उसका भी मजा और है। राजकीय सम्मान मिलता है, बैंड-बाजे बजते हैं। फौजी टैंक पर सवार होकर लाश जाती है। भारी शोरगुल मचता है। मरने का मजा ही और है। ऐसे ही मर गए, न बैंड बजे, न बाजे बजे; न मिलिट्री आई, न झंडे फहराए गए, न झंडे झुकाए गए--यह भी कोई मरना है! कुत्ते की मौत!
मरने-मरने में भी लोगों ने फर्क कर रखा है। मर गए तो भी!
मैंने सुना है, एक राजनेता मरा। बड़ी भीड़ इकट्ठी हुई उसको भेजने को। वह भी, अब तो आत्मा मात्र रह गई थी, भूत मात्र, वह भी गया था देखने मरघट पर अपनी आखिरी अवस्था में--लोग कैसे-कैसे व्याख्यान देते हैं? कौन क्या कहता है? अपने वाले धोखा तो नहीं दे जाते? दुश्मन क्या कहते हैं? जब वहां उसने प्रशंसा के प्रशस्ति-गान सुने, कि दुश्मनों ने भी प्रशंसा की उसकी कि कैसा अदभुत प्रतिभाशाली व्यक्ति था! कि दीया बुझ गया! कि अब देश में अंधेरा ही अंधेरा रहेगा! कि अब कभी उसके स्थान की पूर्ति नहीं हो सकती, अपूरणीय क्षति हुई है! तो पास में खड़े एक दूसरे भूत से उसने कहा कि अगर ऐसा मुझे पता होता तो मैं पहले ही मर जाता। अगर इतना सम्मान मरने से मिल सकता है, अगर इतनी भीड़ आने वाली थी मुझे पहुंचाने, तो मैं कभी का मर गया होता। मैं नाहक अटक रहा। इतनी प्रशंसा तो जिंदगी में कभी न मिली थी।
नियम है कि मरे आदमी की हम प्रशंसा करते हैं। जिंदगी में तो बहुत मुश्किल है प्रशंसा मिलना, कम से कम मरे को सांत्वना तो दे दो। जाती-जाती आत्मा को इतनी तो सांत्वना दे दो कि चलो, जिंदगी में नहीं मिला, मर कर मिला, मरे आदमी के खिलाफ कोई कुछ नहीं कहता।
एक गांव में एक आदमी मरा। वह इतना दुष्ट था, इतना दुष्ट कि जब उसको दफनाने गए, तो नियम था कि पक्ष में कुछ बोला जाए, मगर उसके पक्ष में कोई बात ही नहीं थी जो बोली जा सके। गांव के पंच एक-दूसरे की तरफ देखें कि भई, तुम बोलो। मगर बोलें तो क्या खाक बोलें! उसने सबको सताया था। उसकी दुष्टता ऐसी थी कि पूरा घर, पूरा परिवार, पूरा गांव, आस-पास के गांव भी प्रसन्न थे कि मर गया तो झंझट कटी! लोग प्रशंसा करने नहीं आए थे, लोग आनंद मनाने आए थे। मगर यह नियम था कि जब तक प्रशंसा में कुछ बोला न जाए, तब तक दफनाया नहीं जा सकता। आखिर गांव के लोगों ने प्रार्थना की गांव के पुरोहित से कि भैया, तुम्हीं कुछ बोलो। तुम तो बड़े बक्कार हो, कि तुम तो शब्दों की खाल निकालने में बड़े कुशल हो। इस आदमी में कुछ खोजो! कुछ भी इसकी प्रशंसा करो।
पुरोहित भी खड़ा हुआ; वह भी कुछ समझ नहीं पाया कि बोलें क्या इस आदमी के पक्ष में! इस आदमी की जिंदगी में कुछ था ही नहीं। फिर उसने कहा कि एक बात है, इस आदमी की प्रशंसा करनी ही होगी, क्योंकि अभी इसके सात भाई और जिंदा हैं; उनके मुकाबले यह देवता था।
मरे हुए आदमी की प्रशंसा करनी ही होती है। पद पर रहते हैं लोग तो लंबा जाती है उनकी जिंदगी। पद से हटते ही घट जाती है उनकी जिंदगी। धन की बड़ी अकड़ है। पद की बड़ी अकड़ है। होता है तो आदमी अकड़े रहते हैं और छोड़ देते हैं तो अकड़े रहते हैं। तुम जैन शास्त्र पढ़ो, बौद्धों के शास्त्र पढ़ो, तो खूब लंबी-लंबी बढ़ा कर झूठी बातें लिखी हैं--कि महावीर ने इतने घोड़े छोड़े, इतने हाथी छोड़े, इतने रथ, इतना धन--ऐसी बड़ी-बड़ी संख्याएं जो कि संभव नहीं हैं। संभव इसलिए नहीं हैं कि महावीर एक बहुत छोटे से राज्य के राजकुमार थे। महावीर के जमाने में भारत में दो हजार रियासतें थीं। ज्यादा से ज्यादा एक तहसील के बराबर उनका राज्य था। अब तहसील के बराबर राज्य! जितने हाथी-घोड़े जैन शास्त्रों में लिखे हैं, अगर उनको खड़ा भी करो तो खड़ा करने की जगह भी न मिले। आखिर कहीं खड़े भी तो होने चाहिए! इतना धन लाओगे कहां से? मगर नहीं, लिखा है।
उसके पीछे कारण है, मनोवैज्ञानिक कारण है। क्योंकि जितना धन, जितने घोड़े, जितने हाथी, जितने रथ, जितने हीरे-जवाहरात तुम बढ़ा कर बता सको, उतना ही बड़ा त्याग मालूम पड़ेगा। त्याग को भी नापने का एक ही उपाय है--कि कितना छोड़ा? यह बड़े मजे की बात है। है तो भी रुपये से ही नापा जाता है और छोड़ा तो भी रुपये से ही नापा जाता है। दोनों का मापदंड रुपया है। दोनों का तराजू एक है।
तो फिर बौद्ध भी पीछे नहीं रह सकते थे। उन्होंने और बढ़ा दिए। जब अपने ही हाथ में है संख्याएं लिखना तो रखते जाओ शून्य आगे, बढ़ाते जाओ शून्य पर शून्य। कोई किसी से पीछे नहीं है।
महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में हुआ। अठारह अक्षौहिणी सेना! कुरुक्षेत्र छोटा सा मैदान है। उतनी बड़ी सेना वहां खड़ी नहीं हो सकती। और खड़ी हो जाए तो लड़ना तो दूर, प्रेम करना भी आसान नहीं! आखिर तलवार वगैरह चलाने को थोड़ी जगह भी तो चाहिए। नहीं तो खुद ही की तलवार खुद ही को लग जाए, कि अपने वालों की ही गर्दन कट जाए। आखिर घोड़े-रथ दौड़ाने इत्यादि के लिए कुछ स्थान तो चाहिए। कुरुक्षेत्र के मैदान में अठारह अक्षौहिणी सेना! पागल हो गए हो? लेकिन उसको बड़ा युद्ध बताना है--महाभारत! उसको बड़ा युद्ध बताना है, छोटा-मोटा युद्ध नहीं।
युद्ध भी बड़े बताने हैं तो संख्या बढ़ाओ। त्याग भी बड़ा बताना है तो संख्या बढ़ाओ। भोग भी बड़ा बताना है तो संख्या बढ़ाओ। तुम्हारा भरोसा गणित पर बहुत ज्यादा है।
मैंने उन मित्र से कहा कि तुम्हारा पैर लगा नहीं, नहीं तो भूल गए होते। तीस साल हो गए, कौन याद रखता है! बात खत्म हो गई होती। मगर छूटता नहीं है। तुम्हारा मोह अब भी लगा है। अभी भी तुम मजा ले रहे हो। अब भी चुस्कियां ले रहे हो!
त्याग ग्रहन सुपना ब्यौहारा। जो जागे सो सबसे न्यारा।।
जो जागता है, न तो वह त्यागी होता है, न भोगी होता है। वह सबसे न्यारा होता है। इसलिए उसको पहचानना मुश्किल होता है। क्योंकि वह भोगियों जैसा भी दिखाई पड़ता है, त्यागियों जैसा भी दिखाई पड़ता है। वह दोनों नहीं होता और दोनों भी होता है।
जो जागे सो सबसे न्यारा।
त्यागी को पहचानना आसान है, भोगी को पहचानना आसान है। ज्ञानी को पहचानना बहुत कठिन है। तुम सिकंदर को भी पहचान लोगे, तुम महावीर को भी पहचान लोगे। मगर जनक को पहचानना बहुत कठिन हो जाएगा, क्योंकि जनक रहते तो सिकंदर की दुनिया में हैं और रहते महावीर की तरह हैं। जनक को पहचानने के लिए जरा गहरी आंख चाहिए, बड़ी गहरी आंख चाहिए। जनक का जीवन न तो त्याग है, न भोग है, वरन साक्षीभाव है।
इसलिए मैंने जनक-अष्टावक्र का जो संवाद हुआ, उसको महागीता कहा है। कृष्ण और अर्जुन के संवाद को मैं सिर्फ गीता कहता हूं। लेकिन अष्टावक्र और जनक के संवाद को महागीता कहता हूं। क्योंकि उसमें एक ही स्वर है--साक्षी, साक्षी, साक्षी। न छोड़ना, न पकड़ना, बस देखने वाले हो जाना। छूटे तो छूट जाए; पकड़ में आ जाए तो पकड़ में आ जाए। लेकिन भीतर न पकड़ने की आकांक्षा है, न छोड़ने की आकांक्षा है। भीतर कोई आकांक्षा ही नहीं है। वह आकांक्षामुक्त जीवन परम जीवन है।
जो जागे सो सबसे न्यारा!
जो कोई साध जागिया चावै।
और जिसको भी जागना हो!
सो सतगुरु के सरनै आवै!
किसी जागे हुए से संबंध जोड़े। क्योंकि बिना जागे हुए से संबंध जोड़े पहचान न आएगी। यह बात जरा जटिल है। यह बात जरा सूक्ष्म है। भोग और त्याग बड़े आसान हैं, स्थूल हैं। ऊपर-ऊपर से दिखाई पड़ते हैं। इसमें कुछ अड़चन नहीं होती।
जैन मुनि को तुम जानते हो कि त्यागी। और तुम जानते हो कि जो बाजार में बैठा है, भोगी। जो वेश्यागृह में जाकर नाच देख रहा है, भोगी। और जो जंगल भाग गया है, त्यागी। जनक को क्या करोगे? जनक बैठे हैं राजमहल में, वेश्याओं का नृत्य चल रहा है। और भीतर जंगल है। भीतर सन्नाटा है। भीतर अंतर-गुफा है। भीतर साक्षी है। यह सब बाहर खेल चल रहा है। वेश्याएं नाच रही हैं और शराब के प्याले पर प्याले ढाले जा रहे हैं। और जनक वहां हैं और नहीं भी हैं। इस न्यारे आदमी को कैसे पहचानोगे? न्यारे से संबंध जोड़ोगे, तो ही पहचान आएगी।
कृतकृत बिरला जोग सभागी। गुरमुख चेत सब्दमुख जागी।।
वह भाग्यवान है जो किसी ऐसे अनूठे व्यक्ति के साथ जुड़ जाए, क्योंकि उसका शब्द भी जगा देता है।
संसय मोह-भरम निस नास।
उसका सान्निध्य संशय को मिटा देता है, मोह को मिटा देता है। भ्रम की निशा नष्ट हो जाती है, श्रद्धा की सुबह होती है।
आतमराम सहज परकास।
उसके सान्निध्य में स्वयं के भीतर डुबकी लगने लगती है। आत्मा का सहज प्रकाश उपलब्ध होने लगता है।
राम सम्हाल सहज धर ध्यान।
उसके पास सीखने को मिलता है--संसार को न तो पकड़ना है, न छोड़ना है। पकड़ना-छोड़ना अगर किसी को है तो राम को। बाहर की बात ही छोड़ो, भीतर पकड़ो। अभी भीतर छोड़े बैठे हो।
राम सम्हाल...
बस एक बात सम्हाल लो--भीतर राम को सम्हाल लो। भीतर साक्षीभाव को सम्हाल लो।
...सहज धर ध्यान!
नैसर्गिक है भीतर तुम्हारे जो बह रहा है। तुम्हें जन्म से मिला है। तुम्हारा स्वभाव है। उसे कहीं से लाना नहीं है, सहज है। उस सहज ध्यान को साध लो।
पाछे सहज प्रकासै ग्यान।
उसके पीछे अपने आप ज्ञान चला आता है। ध्यान के पीछे कतार बंधी है--वेदों की, उपनिषदों की, कुरानों, बाइबिलों की। वे अपने आप चली आती हैं। मगर पहले ध्यान, पहले जागरण।
जन दरियाव सोई बड़भागी। जाकी सुरत ब्रह्म संग जागी।
और सब छोड़ो, भीतर बैठे ब्रह्म की स्मृति को जगाओ। तब जरूर होगी अमृत की वर्षा। तब खिलेगा जरूर कमल। अमी झरत, बिगसत कंवल!
आज इतना ही।
संसय मोह भरम की रैन। अंधधुंध होए सोते ऐन।।
जप तप संयम औ आचार। यह सब सुपने के ब्यौहार।।
तीर्थ-दान जग प्रतिमा-सेवा। यह सब सुपना लेवा-देवा।।
कहना सुनना हार औ जीत। पछा-पछी सुपनो विपरीत।।
चार बरन औ आश्रम चार। सुपना अंतर सब ब्यौहार।।
षट दरसन आदि भेद-भाव। सुपना अंतर सब दरसाव।।
राजा-रानी तप बलवंता। सुपना माहिं सब बरतंता।।
पीर औलिया सबै सयाना। ख्वाब माहिं बरतै विध नाना।।
काजी सैयद औ सुलताना। ख्वाब माहिं सब करत पयाना।।
सांख जोग औ नौधा भकती। सुपना में इनकी इक बिरती।।
काया कसनी दया औ धर्म। सुपने सुर्ग औ बंधन कर्म।।
काम क्रोध हत्या परनास। सुपना माहिं नर्क निवास।।
आदि भवानी संकर देवा। यह सब सुपना लेवा-देवा।।
ब्रह्मा बिष्नु दस औतार। सुपना अंतर सब ब्यौहार।।
उद्भिज सेदज जेरज अंडा। सुपनरूप बरतै ब्रह्मंडा।।
उपजै बरतै अरु बिनसावै। सुपने अंतर सब दरसावै।।
त्याग ग्रहन सुपना ब्यौहारा। जो जागे सो सबसे न्यारा।।
जो कोई साध जागिया चावै। सो सतगुरु के सरनै आवै।।
कृतकृत बिरला जोग सभागी। गुरमुख चेत सब्दमुख जागी।।
संसय मोह-भरम निस नास। आतमराम सहज परकास।।
राम सम्हाल सहज धर ध्यान। पाछे सहज प्रकासै ग्यान।।
जन दरियाव सोई बड़भागी। जाकी सुरत ब्रह्म संग जागी।।
ज्वार उठा जब-जब तूफानों में,
तट मेरा मझधार हो गया।
स्नेह-छांव छुट गई हाथ से,
छाया-पथ अंगार हो गया।
बेसुध सी रो पड़ी जिंदगी, स्वप्न पले के पले रह गए।
नयन ज्योति हो गई परायी, दीप जले के जले रह गए।
एक स्वप्न झूठा-झूठा सा,
जीने का विश्वास दे गया।
पांवों में बेड़ियां बांध कर,
चलने का आभास दे गया।
नयनों में चुभ गए अश्रुकण,
आशाओं का दर्पण फूटा।
कदम बढ़ाते ही आगे को,
फिसले पांव गीत-घट फूटा।
ठहर गए अधरों पर आंसू,
बिखर गया उल्लास धूल में।
चाह लुटी सोई अंगड़ाई,
उलझ गया मधुमास शूल में।
गीत बन गई मौन वेदना, भाव छले के छले रह गए।
दर्पण ने सब कुछ कह डाला, अधर सिले के सिले रह गए।
अंतर में पतझार छिपाए,
उपवन में आंधी बौराई।
हरसिंगार झर गया अजाने,
झुलस गई लतिका तरुणाई।
बिखर गया मनभावन सौरभ,
रही देखती साध कुंआरी,
धूल-धूसरित सूना अंबर,
खोई सी रजनी उजियारी।
टूट गई डाली से डाली,
उखड़ गई सांसों से धड़कन।
ठूंठ बनी रह गई कामना,
उजड़ गई कसमों की कसकन।
यौवन के फूटे अंकुर के पात हिले के हिले रह गए।
उपवन की लुट गईं बहारें, फूल खिले के खिले रह गए।
अनजाना सा एक सपेरा,
मंत्रों की डोली चढ़ आया।
नागिन डसी बीन की धुन में,
अपना ही हो गया पराया।
सिसक उठी सिंदूरी बिंदिया,
बिखर गया नैनों का काजल।
बांझ हो गई मिलन प्रतीक्षा,
बंधन बनी परायी पायल।
फूट गए अवशेष घरौंदे,
स्वप्न रहा सोया का सोया।
सब कुछ ही रह गया देखता,
बेसुध आंगन खोया-खोया।
छूट गए हाथों के बंधन, नयन मिले के मिले रह गए,
डोली पर चढ़ चली बावरी, द्वार खुले के खुले रह गए।
यह जीवन इतना क्षणभंगुर है, फिर भी हम भरोसा कर लेते हैं। हमारे भरोसे की क्षमता अपार है। हमारा भरोसा चमत्कार है। पानी का बबूला है यह जीवन--अब फूटा, तब फूटा। फिर भी हम कितने सपने संजो लेते हैं। सपने में भी हम कितनी आस्था कर लेते हैं। कि सपना भी सच मालूम होने लगता है। आस्था हो तो सपना भी सच हो जाता है। सच मालूम होता है कम से कम। और न मालूम कितने स्वप्न हैं! जितने लोग हैं, उतने स्वप्न हैं। जितने मन हैं, उतने स्वप्न हैं। संसार के स्वप्न हैं, त्याग के स्वप्न हैं। नरक के स्वप्न हैं, स्वर्ग के स्वप्न हैं।
जो जानते हैं, उनका कहना है: स्वप्न देखने वाले को छोड़ कर और सब स्वप्न है। सिर्फ द्रष्टा सत्य है। सब दृश्य झूठे हैं।
और यही क्रांति है--दृश्य से द्रष्टा पर आ जाना। यही छलांग है। स्वप्न तो झूठ हैं ही, स्वप्नों को देखने वाला भर झूठ नहीं है।
मगर हम बड़े उलटे हैं। स्वप्नों को देखने वाले को तो देखते ही नहीं, स्वप्नों में ही उलझे रह जाते हैं। और एक स्वप्न टूटा तो दूसरा बना लेते हैं। ऐसा भी हो जाता है कि धन का स्वप्न टूटा, तो त्याग का स्वप्न निर्मित कर लेते हैं। घर-गृहस्थी का स्वप्न टूटा, तो त्याग-विरक्ति का स्वप्न निर्मित कर लेते हैं। इस लोक का स्वप्न टूटा, तो परलोक के स्वप्न निर्मित कर लेते हैं।
यह क्रांति नहीं है। यह धर्म नहीं है। यह रूपांतरण नहीं है। रूपांतरण तो बस एक है--दृश्य से द्रष्टा पर सरक जाना। वह जो दिखाई पड़ रहा है, फिर चाहे सुख हो, चाहे दुख हो, सब बराबर है। हार हो कि जीत हो, बराबर है। देखने वाला भर सच है। देखने वाले को कब देखोगे? जिस दिन देखने वाले को देखोगे, उस दिन जाग गए।
जागरण का कोई और अर्थ नहीं है। जागरण का इतना ही अर्थ है कि द्रष्टा स्वयं के बोध से भर गया। यही ध्यान, यही समाधि! और फिर देर नहीं लगती--अमी झरत, बिगसत कंवल! झरने लगता है अमृत, कमल खिलने लगते हैं। तुम जागो भर।
स्वप्न तुम्हें सुलाए हैं। स्वप्नों ने तुम्हें मादकता दे दी है, तुम्हारी आंखों को बोझिलता दे दी है। तुम्हारी पलकों को स्वप्नों ने बंद कर दिया है। और तुम जानते भी हो। ऐसा भी नहीं कि नहीं जानते। ऐसा भी नहीं कि दरिया कहें तब तुम जानोगे। रोज कोई अरथी उठती है। मगर मन में एक भ्रांति बनी रहती है कि अरथी सदा दूसरे की उठती है। और बात एक अर्थ में ठीक भी मालूम पड़ती है। तुमने सदा दूसरे की अरथी ही उठते देखी है--कभी अ की, कभी ब की, कभी स की; अपनी अरथी तो उठते देखी नहीं। अपनी अरथी तो तुम उठते कभी देखोगे भी नहीं। दूसरे देखेंगे। इसलिए ऐसा लगता है कि मौत सदा दूसरे की होती है, मैं तो कभी नहीं मरता। तो भ्रांति को संजोए रखते हैं हम। हर आदमी ऐसे जीता है जैसे यह जीवन समाप्त न होगा; ऐसे लड़ता है जैसे सदा यहां रहना है; ऐसा जूझता है कि रत्ती भर उससे छिन न जाए; जब कि सब छिन जाएगा।
छूट गए हाथों के बंधन, नयन मिले के मिले रह गए,
डोली पर चढ़ चली बावरी, द्वार खुले के खुले रह गए।
यौवन के फूटे अंकुर के पात हिले के हिले रह गए,
उपवन की लुट गईं बहारें, फूल खिले के खिले रह गए।
गीत बन गई मौन वेदना, भाव छले के छले रह गए।
दर्पण ने सब कुछ कह डाला, अधर सिले के सिले रह गए।
बेसुध सी रो पड़ी जिंदगी, स्वप्न पले के पले रह गए,
नयन ज्योति हो गई परायी, दीप जले के जले रह गए।
सब पड़ा रह जाएगा। दीये जलते रहेंगे, तुम बुझ जाओगे। फूल खिलते रहेंगे, तुम झड़ जाओगे। संसार ऐसे ही चलता रहेगा। शहनाइयां ऐसे ही बजती रहेंगी, तुम न होओगे। वसंत भी आएंगे, फूल भी खिलेंगे। आकाश तारों से भी भरेगा। सुबह भी होगी। सांझ भी होगी। सब ऐसा ही होता रहेगा। एक तुम न होओगे।
यह एक कौन है, जो कभी अचानक प्रकट होता है जन्म में और फिर अचानक मृत्यु में विलीन हो जाता है? इस एक को पहचान लो। इस एक को जान लो। इस एक की स्मृति जगा लो। जिसने इस एक को जान लिया, उसका जीवन सार्थक है। अमी झरत, बिगसत कंवल! और सब तो सोए हुए हैं।
दरिया कहते हैं: सब जग सोता सुध नहिं पावै।
अपनी सुध नहीं है। सपनों की भलीभांति सुध है।
तुमने पुरानी कहानी सुनी न! दस आदमियों ने बाढ़ में आई हुई नदी पार की। गांव के गंवार थे। नदी-पार जाकर एक ने कहा कि गिनती तो कर लो; जितने चले थे, उतने पार कर पाए या नहीं? बाढ़ भयंकर है। कोई बाढ़ में बह न गया हो।
गिनती भी की। और दसों बैठ कर वृक्ष के नीचे रोने लगे उसके लिए जो बाढ़ में बह गया। क्योंकि गिनती नौ ही होती थी, चले दस थे। और गिनती नौ इसलिए नहीं होती थी कि कोई बह गया था; गिनती नौ इसलिए होती थी कि प्रत्येक अपने को छोड़ कर गिनता था। गिनता था शेष को, गिनने वाला छूट जाता था, गिनने वाला नहीं गिना जाता था। एक ने गिना, दूसरे ने गिना, तीसरे ने गिना...दसों ने गिना। तब तो बात बिलकुल पक्की हो गई। भूल होती एक से होती, दो से होती, दसों से तो भूल न होगी। और सबका निष्कर्ष आया नौ। तो जरूर एक साथी खो गया। दसों बैठ कर रोने लगे।
एक फकीर राह से गुजरता था। भले-चंगे दस आदमियों को रोते देखा, पूछा: हुआ क्या? किसलिए रोते हो?
उन्होंने कहा: हमारा एक साथी खो गया है। घर से दस चले थे। अब हम नौ हैं।
फकीर ने एक नजर डाली। दस ही थे। पूछा: जरा गिनती करो। देखी उनकी गिनती। समझ गया कि जो भूल पूरा संसार कर रहा है, वही भूल ये भी कर रहे हैं। भूल कुछ नई नहीं है, बड़ी पुरानी है, बड़ी प्राचीन है। जो इस भूल को करता है, वही गंवार है। जो इस भूल को करता है, वही अज्ञानी है। जो इस भूल से बच जाता है, उसी के जीवन में ज्ञान का सूर्य प्रकट होता है। अमी झरत, बिगसत कंवल!
फकीर हंसने लगा, खिलखिला कर हंसने लगा। तो फकीर ने कहा: तुम भी वही भूल कर रहे हो जो पहले मैं करता था। तुम वही भूल कर रहे हो जो सारा संसार करता है। तुम बड़े प्रतिनिधि हो। तुम बड़े प्रतीकरूप हो। तुम साधारणजन नहीं हो, तुम सारे संसार का निचोड़ हो। अब मैं तुम्हारी गिनती करता हूं। अब मेरे ढंग से गिनती समझो। मैं एक-एक चांटा मारूंगा तुम्हें। जिसको चांटा मारूं पहले, वह बोले एक। जब दूसरे को मारूं तो दो चांटे मारूंगा, तो वह बोले दो। तीसरे को मारूं तो तीन मारूंगा, वह बोले तीन। ऐसे गिनती चलेगी।
मस्त-तड़ंग फकीर था। करारे चांटे मारे उसने। एक-एक को छठी का दूध याद दिला दिया! और जब पड़ा चांटा तो गिनती उठी एक। पड़े दो चांटे, गिनती उठी दो। और ऐसे गिनती बढ़ती गई। और जब दस चांटे पड़े और गिनती उठी दस, तो उन दसों ने फकीर के पैर पकड़ लिए। उन्होंने कहा: मारा सो ठीक, पर तुम्हारा बड़ा धन्यवाद कि खोए को मिला दिया, कि डूबे को बचा लिया, कि जिसे हम समझते थे चूक ही चुके हैं, उसे लौटा दिया।
सदगुरु सिर्फ चांटे मार रहे हैं। करारे मारते हैं। छठी का दूध याद आ जाए, ऐसे मारते हैं। लेकिन नींद गहरी है, कोई और उपाय नहीं है। खूब झकझोरे जाओ तो ही शायद जागो। और एक बार अपनी गिनती कर लो तो बस, शेष करने को कुछ भी नहीं रह जाता।
सब जग सोता सुध नहिं पावै। बोलै सो सोता बरड़ावै।
और इस जगत में जो लोग बोल रहे हैं, सो रहे हैं और बोल भी रहे हैं। आखिर वार्ता तो चल ही रही है। वे सब नींद में बड़बड़ा रहे हैं।
तुम्हें यह भी कभी प्रतीति होती है कि तुम जो लोगों से बातें करते हो, होश में कर रहे हो? करनी थी, इसलिए कर रहे हो? करने में सार है, इसलिए कर रहे हो? करने से किसी का लाभ है, इसलिए कर रहे हो? कोई मंगल होगा? कोई कल्याण होगा? तुम किसलिए बातें कर रहे हो? बातों के लिए बातें चल रही हैं। बातों में से बातें चल रही हैं। बातों में से बतंगड़ बन जाते हैं। तुम एक कहते हो, दूसरा दूसरी कहता है। खाली नहीं रह सकते। लोग दिन-रात वार्ता में लगे हैं। हाथ कुछ लगता नहीं।
दरिया ठीक कहते हैं: नींद में बड़बड़ा रहे हो। तुम्हारे वचनों का कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारे शब्दों का कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारे शब्द निरर्थक। तुम्हारे वचन कूड़ा-कचरा। क्योंकि तुम्हीं जागे नहीं हो। सिर्फ जागों के वचन में अर्थ होता है। क्योंकि अर्थ ही जागरण से जन्मता है। बुद्धों के वचनों में जीवन होता है, आत्मा होती है। तुम्हारे वचन तो सड़ी हुई लाश हैं, जिनके भीतर कोई प्राण नहीं हैं। तुम्हें ही पता नहीं है और तुम दूसरों को जना रहे हो!
इस जगत में हर आदमी सलाह दे रहा है। कहते हैं: दुनिया में सबसे ज्यादा जो चीज दी जाती है वह सलाह है और सबसे कम जो चीज ली जाती है वह भी सलाह है। सब सलाह दे रहे हैं, कोई सलाह ले नहीं रहा है। तुम्हें मौका मिल जाए तो तुम चूकते नहीं, तुम चुप नहीं रहते। तुम्हें जिन बातों का पता नहीं, उनके भी तुम उत्तर देते हो। तुमसे कोई पूछे: ईश्वर है? तो तुम में इतनी भी ईमानदारी नहीं है कि कह सको कि मुझे मालूम नहीं। तुम्हारे तथाकथित धार्मिक लोगों से ज्यादा बड़े बेईमान खोजने कठिन हैं! तुम तो छोटी-मोटी बेईमानियां करते हो कि दो और दो जोड़े और पांच कर लिए। तुम्हारी बेईमानियां तो बहुत छोटी-छोटी हैं। लेकिन तुम्हारे धार्मिक व्यक्तियों की, तुम्हारे पंडित-पुरोहितों की, तुम्हारे मुल्ला-मौलवियों की बेईमानियां तो बहुत बड़ी हैं। ईश्वर का कोई पता नहीं और कहते हैं: हां, ईश्वर है! जोर से कहते हैं, छाती ठोंक कर कहते हैं कि ईश्वर है।
ईश्वर को जाना है? बिना जाने कैसे कह रहे हो? और यह बेईमानी तो बड़ी से बड़ी हो गई। इससे बड़ी तो कोई बेईमानी नहीं हो सकती। और फिर ऐसे ही दूसरी तरफ दूसरे बेईमान हैं, जिन्होंने जाना नहीं और कहते हैं: ईश्वर नहीं है।
पश्चिम में एक विचारक हुआ--टी.एच.हक्सले। उसने एक नये विचार, एक नई जीवन-दृष्टि को जन्म दिया। एक नया शब्द गढ़ा--एग्नास्टिक। नास्टिक का अर्थ अंग्रेजी में होता है: जो मानता है कि मुझे ज्ञात है। नास्टिक का अर्थ होता है: ज्ञानी, पंडित। हक्सले ने नया शब्द गढ़ा--एग्नास्टिक। हक्सले बड़ा ईमानदार आदमी था। उसने कहा: मुझे मालूम नहीं है कि ईश्वर है। और मुझे यह भी मालूम नहीं है कि ईश्वर नहीं है। और लोग मुझसे पूछते हैं कि तुम कौन हो, आस्तिक हो कि नास्तिक? मानते हो कि नहीं मानते? ईश्वरवादी कि अनीश्वरवादी? मैं क्या कहूं? बड़ा ईमानदार आदमी रहा होगा। बड़ा खरा आदमी था। उसने कहा: मुझे कोई नया शब्द गढ़ना पड़ेगा। क्योंकि लोग पूछते हैं, कुछ न कहो तो अभद्रता मालूम होती है। और लोगों ने तो सीधी कोटियां बांध रखी हैं--या तो कहो नास्तिक या कहो आस्तिक। मगर दोनों हालत में झूठ हो जाता है।
तो हक्सले ने सिर्फ सौ साल पहले एक नया शब्द गढ़ा--एग्नास्टिक। एग्नास्टिक का अर्थ होता है: मुझे पता नहीं। मुझे अभी कुछ भी पता नहीं। खोज रहा हूं, तलाश रहा हूं, टटोल रहा हूं।
मैं कहूंगा: हक्सले कहीं ज्यादा धार्मिक व्यक्ति है, बजाय तुम्हारे शंकराचार्यों के, कि वेटिकन के पोप के। ज्यादा धार्मिक आदमी है। क्योंकि धर्म यानी ईमान। और ईमान की शुरुआत यहीं से होनी चाहिए। न तो रूस के नास्तिकों में ईमानदारी है, क्योंकि उन्हें कोई पता नहीं है; न खोजा है, न ध्यान किया, न धारणा की, न समाधि में उतरे। और कहते हैं: ईश्वर नहीं है! छोटे-छोटे बच्चों को रूस में सिखाया जा रहा है कि ईश्वर नहीं है। स्कूल में पाठ हैं कि ईश्वर नहीं है। छोटे-छोटे बच्चे दोहराते हैं कि ईश्वर नहीं है। दोहराते-दोहराते बड़े हो जाते हैं, बड़े में भी दोहराते रहते हैं।
तुम सोचते हो, तुम्हारा ईश्वर रूस की नास्तिकता से कुछ भिन्न है? बचपन से सुना है कि है, तो दोहराते हो। घर में, बाहर, सब तरफ दोहराया जा रहा है, तो तुम भी दोहरा रहे हो। तुम ग्रामोफोन रिकार्ड हो। तुम अपनी कब कहोगे? और जब तक अपनी न कहोगे, तब तक ईमान नहीं है।
खोजो! तलाश करो! और तलाश जैसे ही तुम शुरू करोगे, यह सवाल सबसे बड़ा महत्वपूर्ण हो जाएगा कि तलाश कहां करें--बाहर कि भीतर?
स्वभावतः, पहले भीतर। पहले अपने को तो पहचानो! पहले खोजी को तो खोजो! और मजा यह है कि जिसने खोजी को खोजा, उसे सब मिल जाता है। स्वयं को जानते ही सत्य के द्वार खुल जाते हैं। आत्मा को पहचानते ही परमात्मा पहचान लिया जाता है। आत्मा तुम्हारे भीतर झरोखा है परमात्मा का। आत्मा तुम्हारे भीतर लहर है उसके सागर की। आत्मा उसका अणु है, बूंद है। और बूंद में सब सागरों का राज छिपा है। एक बूंद को ठीक से समझ लो तो तुमने सारे सागरों का राज समझ लिया। जल का सूत्र समझ में आ जाएगा। जल का स्वभाव समझ में आ जाएगा।
सब जग सोता सुध नहिं पावै। बोलै सो सोता बरड़ावै।।
और यहां पंडित हैं, पुरोहित हैं और प्रवचन दिए जा रहे हैं और धर्मशास्त्र समझाए जा रहे हैं, रामायण पढ़ी जा रही है, गीता पढ़ी जा रही है, कुरान समझाए जा रहे हैं। किससे तुम समझ रहे हो? समझाने वाला छाती पर हाथ रख कर कह सकता है कि उसने जाना है? जरा उसकी आंखों में झांको। उसकी आंखें उतनी ही अंधी हैं जितनी तुम्हारी; शायद थोड़ी ज्यादा हों, कम तो नहीं। क्योंकि उसकी आंखों पर शब्दों का और शास्त्रों का बोझ तुमसे ज्यादा है। जरा उसके जीवन में तलाशो। और न तो तुम्हें सुगंध मिलेगी सत्य की और न तुम्हें आलोक मिलेगा आत्मा का। जरा उसके पास बैठो। न तो आनंद का झरना फूटता हुआ मालूम पड़ेगा, न शांति की हवाएं बहती हुई मालूम होंगी। हां, रामायण शायद तुम्हें वह ठीक से समझाए और गीता के शब्द-शब्द का विश्लेषण करे। मगर यह सब बाल की खाल निकालना है। इसका कोई भी मूल्य नहीं है।
कब आएगा नवल सवेरा,
कब जागेगा सूरज मेरा,
देख अंधेरे की तरुणाई,
मन की चाह मिटी जाती है।
इंतजार करते-करते ही
सारी उम्र कटी जाती है।
जिधर देखता नयन उठा कर,
सघन बबूलों के कानन हैं।
पुष्प जले कुंजों में खिल कर,
मरुथल हरे-भरे मधुवन हैं।
देख तपन सारी धरती की,
मन की प्यास लुटी जाती है।
यही आस लेकर जीता था,
चाह स्वयं वरदान बनेगी।
तृष्णा की अनवरत साधना
सावन का प्रतिमान बनेगी।
देख पतझरों में सावन को,
घिरी घटा सिमटी जाती है।
सूरज बन कर उग आने का,
प्रण था जगते संकल्पों का।
किंतु प्रकंपित नक्षत्रों सा,
मन अंकुवाए वैकल्पों का।
संशयवश चिंतन करते ही,
जीती गोट पिटी जाती है।
नित्य भोर की किरण चूम कर,
सोए स्वप्न जगा जाती है।
किंतु सांझ के सूनेपन में,
मौन वेदना छा जाती है।
अंगुली पोर-पोर गिनते ही,
थक कर स्वयं हटी जाती है।
इतनी दूर आ गया चल कर,
फिर भी लक्ष्य न दिख पाता है।
मेरे दो नयनों का दर्शन,
द्विविधा बन कर भटकाता है।
इंतजार करते-करते ही,
सारी उम्र कटी जाती है।
इंतजार ही इंतजार में उम्र को बिता दोगे? आशा ही आशा में उम्र को गंवा दोगे, या कि कुछ पाना है? पाना है तो कल पर मत छोड़ो। पाना है तो आज और अभी झांको। पाना है तो टालो मत। क्योंकि टालना सोने की एक प्रक्रिया है। टालना नींद का एक ढंग है। टालना नींद की दवा है। टालो मत। यह मत कहो कल। आज, अभी!
जागना है तो अभी, सोना है तो कल। जो सोया सो खोया। क्योंकि आज टालेगा कल पर, कल फिर टालेगा कल पर। टालना आदत हो जाएगी। इंतजार कहीं तुम्हारी आदत न हो जाए। जिसे पाया जा सकता है, उसका इंतजार क्यों? जो तुम्हारे भीतर मौजूद है, उसका स्थगन क्यों? अभी क्यों नहीं? उससे ज्यादा मूल्यवान और कुछ भी नहीं है।
सब टालो, आत्मबोध मत टालना। सब टालो, जागने की आकांक्षा मत टालना। सब टालो, जागने पर सारी ऊर्जा को उंडेल दो। क्योंकि एक क्षण भर को भी तुम जाग जाओ और सपने बिखर जाएं, तो तुम्हारे जीवन में क्रांति उपस्थित हो जाएगी। फिर तुम वही न हो सकोगे जो तुम थे। फिर तुम नये हो जाओगे। फिर तुम्हारा संबंध शाश्वत से जुड़ जाएगा। अमी झरत, बिगसत कंवल!
संसय मोह भरम की रैन।
बड़ी अंधेरी रात है। और अंधेरी रात बनी है संशय से, मोह से, भ्रम से। मन जीता ही संशय के भोजन से है। मन कहता है: यह करो, वह करो। मन हमेशा यह या वह, इसमें डोलता रहता है। मन कभी तय ही नहीं कर पाता। मन का तय करना स्वभाव नहीं है। मन जीता ही अनिश्चय में है।
कभी तय भी तुम्हें करना पड़ता है तो तुम मजबूरी में तय करते हो। जब कोई विकल्प ही नहीं रह जाता, तब तय करते हो। मगर तब बहुत देर हो गई होती है।
दो तरह के लोग हैं यहां इस संसार में। भीड़ तो उनकी है जो बिना तय किए ही जीते हैं। जैसे पानी के झकोरों में डोलता हुआ लकड़ी का टुकड़ा--कभी इधर, कभी उधर, पानी की लहरें जहां ले जाएं। न कोई किनारे का पता है, न कोई मंजिल का होश है, न कुछ अपना बोध है। लहरों के भरोसे, लहरों के बंधन में बंधा, हवाओं के झोंकों में बंधा। न कोई दिशा है, न कोई गंतव्य है। गति भी विक्षिप्त है। ऐसे ही अधिक लोग हैं।
तुम कैसे जी रहे हो, जरा गौर करना। तुम्हारा जीना करीब-करीब ऐसा ही है। राह पर जाते थे, किसी ने कहा: अरे, फलां फिल्म देखी कि नहीं? बड़ी सुंदर है! तुमने सोचा, चलो देख ही आएं। फिल्म देखने चल दिए। एक हवा का झोंका आया। एक धक्का लगा। फिल्म देख आए। फिल्म में पास कोई स्त्री बैठी थी। पहचान हो गई। यह सोचा ही नहीं था कि फिल्म में यह मामला इतना बढ़ जाएगा। विवाह कर बैठे। बाल-बच्चे हो गए। यह सब हुआ चला जा रहा है।
एक यहूदी विचारक ने अपनी आत्मकथा लिखी है। उसमें उसने लिखा है कि मेरा होना बिलकुल संयोगवशात है। उसने लिखा है कि मैं शुरू से ही शुरू करता हूं, कि मेरे पिता एक ट्रेन में सफर कर रहे थे। स्टेशन पर उतरे। ट्रेन छह घंटे देर से पहुंची थी। आधी रात हो गई थी। बर्फ पड़ रही थी। रूस की कहानी है। टैक्सियां भी उपलब्ध न थीं। इतनी रात तक कोई टैक्सी ड्राइवर प्रतीक्षा करने रुका भी नहीं था। कोई और उपाय न देख कर, जो होटल के दरवाजे बंद हो रहे थे, भीतर गए और कहा: कम से कम एक कप कॉफी तो मुझे पीने मिल जाए, इसके बाद बंद करना।
जो महिला होटल बंद कर रही थी, उसने एक कप कॉफी दी। उसने खुद भी एक कप कॉफी पी। रात सर्द थी। फिर दोनों ने बातचीत की। यात्री ने कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं। छह मील दूर जाना है, कोई टैक्सी नहीं।
उस महिला ने कहा: ऐसा करो कि मुझे भी घर जाना है, मेरी गाड़ी में ही आ जाओ।
गाड़ी में बैठ गए। सर्दी थी तो पास-पास सरक कर बैठे। होटल बंद थी। मैनेजर कभी का घर जा चुका था। ठहरने को कोई जगह न मिलती थी। तो उस महिला ने कहा: तुम मेरे ही घर रात गुजार दो। अब दो-चार घंटे तो रात और बची है। फिर सुबह उठ कर होटल चले जाना।
ऐसे बात बढ़ती गई, बढ़ती गई, बढ़ती गई और फिर बिगड़ कर रही! उस विचारक ने लिखा है: काश, उस रात ट्रेन लेट न होती तो मैं कभी पैदा ही न होता; या कि होटल खुली मिल गई होती तो मैं पैदा न होता; या कि एकाध टैक्सी ड्राइवर भूला-भटका बैठा ही रह गया होता तो मैं पैदा न होता; या कि स्त्री जो होटल बंद कर रही थी, एक क्षण पहले होटल बंद करके जा चुकी होती तो मैं कभी पैदा ही न होता। बिलकुल संयोगवशात मालूम होता है सब।
तुम जरा अपनी जिंदगी गौर से देखो, और तुम ऐसे ही संयोग पाओगे। ऐसे ही संयोगों का सिलसिला! इसको जिंदगी कहते हो? संयोगों के सिलसिले का नाम जीवन नहीं है। संयोगों का सिलसिला तो एक धोखा है। संयोगों के सिलसिले से तो ज्यादा से ज्यादा एक स्वप्न पैदा हो सकता है, सत्य निर्मित नहीं होता। लेकिन मन का ढंग यही है। मन ऐसे ही जीता है। मन ऐसे ही अनिश्चय में डांवाडोल होता रहता है। अंधा जैसे टटोलता-टटोलता कुछ पकड़ लेता है, पा लेता है--ऐसी हमारी जिंदगी है। और जो हम पा लेते हैं, वह भी मौत हमसे छीन लेती है।
संसय मोह भरम की रैन।
हमारे मोह क्या हैं? हमारी आसक्तियां क्या हैं?
बस ऐसे ही, संयोगवशात, नदी-नाव-संयोग! और कितने भ्रम हम पाल लेते हैं! हमने एक-दूसरे से कितनी आशाएं कर रखी हैं, कितनी अपेक्षाएं कर रखी हैं! यह भी नहीं सोचते कि दूसरा इन अपेक्षाओं को कभी पूरा कर पाएगा? इन आशाओं को पूरा कर पाएगा? और जब दूसरा पूरा नहीं कर पाता है तो हम सोचते हैं कि बड़ा धोखा खाया, बड़ा धोखा दिया गया।
कोई धोखा नहीं दे रहा है। तुम्हारी अपेक्षाएं ही ऐसी हैं जो कोई पूरी नहीं कर सकता। दूसरा भी तुम्हारे साथ इसीलिए है कि उसकी भी अपेक्षाएं हैं, तुम भी पूरी नहीं कर रहे हो। मोह हैं और मोह-भ्रांतियां टूटती हैं रोज! मगर नये मोह हम बना लेते हैं। ऐसे भ्रम, मोह, संशय, अनिश्चय की यह अंधेरी रात है। इस अंधेरी रात में हम खोज में लगे हैं। किसको खोज रहे हैं, यह भी पक्का नहीं है।
पश्चिम में दर्शनशास्त्र की परिभाषा ऐसी की जाती है--कि दार्शनिक ऐसा अंधा है, जो अंधेरी रात में, एक घनघोर अंधेरे कमरे में, एक काली बिल्ली को खोज रहा है, जो वहां है ही नहीं। एक तो अंधे, अमावस की रात, बंद कमरा, काली बिल्ली--और वह भी वहां है नहीं, खोज रहे हैं!
यह दर्शनशास्त्र की ही परिभाषा नहीं है, यह तुम्हारे जीवन की भी परिभाषा है।
अंधधुंध होए सोते ऐन।
ऐसे नींद में और अंधापन बढ़ता है, और अंधेरा बढ़ता है।
रोज-रोज अंधेरा बढ़ रहा है, और रोज-रोज अंधापन बढ़ रहा है। बच्चों के पास तो थोड़ी आंख होती है, बूढ़ों के पास वह भी नहीं रह जाती। बच्चों के पास तो थोड़ा ताजा बोध होता है, बूढ़ों के पास वह भी धूमिल हो जाता है। खूब धुआं जम जाता है। धूल बैठ जाती है। बच्चों के पास तो थोड़ा निर्दोष चित्त भी होता है, बूढ़ों के पास कहां निर्दोष चित्त!
जीसस ने कहा है: जो फिर से बच्चों की भांति हो जाएंगे, वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। तुम्हें सीखनी होगी कला फिर से बच्चों की भांति होने की। छोड़ना होगा तथाकथित ज्ञान। छोड़ना होगा उधार पांडित्य, ताकि फिर तुम निर्दोष हो सको; ताकि फिर तुम खुली आंखों से जगत को, अस्तित्व को देख सको। छोड़ने होंगे स्वप्न, क्योंकि स्वप्नों में तुम जितने उलझ जाते हो, उतनी ही अपने पर दृष्टि जानी बंद हो जाती है।
गागर तो बूंद-बूंद रिसती ही जाती है,
जीवन की आस किंतु वैसी की वैसी है।
हर डग पर हर पग पर जाने अनजाने ही,
एक बूंद गिरती है और बिखर जाती है।
फूटी सी गागर की छलना का रूप देख,
अधरों की प्यास तनिक और सिहर जाती है।
रूप की दुपहरी तो ढलती ही जाती है,
तरुणाई प्यास किंतु वैसी की वैसी है।
गागर तो बूंद-बूंद रिसती ही जाती है,
जीवन की आस किंतु वैसी की वैसी है।
चाहों का मरुथल जब पीता अंगारों को,
नयनों का रत्नाकर और उमड़ पड़ता है।
ढलती हैं संध्या की घड़ियां तब चुपके से,
आशा का सूरज जब और तेज चढ़ता है।
संध्या तो रोज-रोज आकर छल जाती है,
अनबोली सांस किंतु वैसी की वैसी है।
गागर तो बूंद-बूंद रिसती ही जाती है।
जीवन की आस किंतु वैसी की वैसी है।
वासंती मौसम में शाख-शाख जागे जब,
फूल सी उमंग और रह-रह कर बढ़ती है।
अभिशापों की करवट लेकर तब अंगड़ाई,
पतझर का हाथ पकड़ धीमे से चढ़ती है।
पंखुरियां टूट-टूट बिखरी ही जाती हैं,
धूल की सुवास किंतु वैसी की वैसी है।
गागर तो बूंद-बूंद रिसती ही जाती है,
जीवन की आस किंतु वैसी की वैसी है।
और जीवन रोज चुका जा रहा है। जीवन रोज बहा जा रहा है। जागो! समय रहते जागो! पीछे बहुत पछतावा होगा। लेकिन फिर पछतावे में भी कुछ सार नहीं। जब तक शक्ति है, जागो!
और कल का क्या पता? अगले क्षण का भी पता नहीं है। श्वास जो बाहर गई, भीतर आएगी भी, इसका भी पक्का नहीं है। इसलिए जागो! क्षण भर भी मत टालो। इसी क्षण जागो!
जप तप संयम औ आचार। यह सब सुपने के ब्यौहार।।
बड़े क्रांतिकारी वचन हैं। सीधे-सादे, मगर आग के अंगारों जैसे हैं। तुम्हारा जप, तुम्हारा तप, तुम्हारा संयम, तुम्हारा आचार, सब सपने का व्यवहार है। क्योंकि जागते तो तुम हो ही नहीं। जैसे सोए-सोए दुकान करते हो, वैसे ही सोए-सोए मंदिर भी जाते हो। दुकान भी सपना, तुम्हारा मंदिर भी सपना। चलो ऐसा कर लो कि दुकान अधार्मिक सपना और मंदिर धार्मिक सपना। भोजन भी करते हो सोए-सोए। उपवास भी करते हो सोए-सोए। नींद तो टूटती ही नहीं। ध्यान तो उठता ही नहीं। आत्मबोध तो जगता ही नहीं। तो तुम्हारा जप भी व्यर्थ है।
देख लो तुम जप करने वालों को, माला जपते रहते हैं, माला फेरते रहते हैं। माला भी फेरते रहते हैं, नजर भी रखते हैं कि दुकान पर कोई ग्राहक धोखा न दे जाए, नौकर कुछ पैसा न मार दे। माला भी जपते रहते हैं; कुत्ता घुस जाता है, उसको भी भगा देते हैं। माला भी जपते रहते हैं, आंखों से इशारा भी करते रहते हैं--कि देखो, कौन आया, कौन गया!
तुम्हारी नींद कैसी है! तुम राम-राम भी जपते रहते हो और भीतर हजार-हजार सपने और हजार-हजार विचार भी चलते रहते हैं। और राम-राम ऊपर और भीतर सारा उपद्रव!
जप तप संयम औ आचार।
तुम चाहे घर छोड़ कर भाग जाओ, शरीर को सुखा लो, सिर के बल खड़े रहो, जंगल की गुफाओं में रहो, भूखे-प्यासे रहो--कुछ फर्क न पड़ेगा। तुम चाहे दुर्जन से सज्जन हो जाओ, चोरी न करो, बेईमानी न करो--तो भी कुछ फर्क न पड़ेगा।
दरिया कहते हैं: फर्क तो सिर्फ एक बात से पड़ता है, वह है--ध्यान की लपट तुम्हारे भीतर पैदा हो। यह दरिया का जोर समझना किस बात पर है। दरिया यह नहीं कह रहे हैं कि चोरी करो, खयाल रखना। वे यह नहीं कह रहे हैं कि संयम मत साधना। तुम्हारी मौज। तुम्हें जो सपना देखना हो देखना। कुछ लोग पापी होने का सपना देखते हैं, कुछ लोग पुण्यात्मा होने का; तुम्हारी जो मौज। दरिया तो यह कह रहे हैं कि हमारी तरफ से दोनों सपने हैं।
रात एक आदमी सोता है और चोरी का सपना देखता है--कि पहुंच गया, खोल लिया खजाना, अरबों-खरबों का रुपया सरका दिया। और एक आदमी रात सपना देखता है कि सब त्याग कर दिया, नग्न दिगंबर होकर जंगल में साधना को चल पड़ा। तुम सोचते हो उन दोनों के सपने में सुबह कुछ फर्क होगा? जब दोनों जागेंगे, अपनी-अपनी खाट पर पड़ा हुआ पाएंगे। न तो खजाने वाले के हाथ में खजाना है और न जंगल जो गया था वह जंगल पहुंचा है। दोनों सपने देख रहे थे। क्या तुम यह कहोगे कि जिसने संन्यास लेने का सपना देखा उसने अच्छा सपना देखा और जिसने चोरी का सपना देखा उसने बुरा सपना देखा? क्या सपने भी अच्छे और बुरे हो सकते हैं?
सपने तो झूठे होते हैं, अच्छे-बुरे नहीं होते। इसलिए प्रश्न अच्छे-बुरे के बीच चुनने का नहीं है; प्रश्न तो सपने और सत्य के बीच चुनने का है।
इस मौलिक बात को याद रखो। सवाल यह नहीं है कि क्या करो--अच्छा करो कि बुरा करो। सवाल यह है कि करने वाला कौन है? जाग कर करो! फिर तुम जो भी करो, ठीक है। जाग कर जो भी हो, पुण्य है। और सोए-सोए जो भी हो, पाप। फिर पाप में चाहे तुम मंदिर बनवाओ, धर्मशालाएं बनवाओ, त्याग-तपश्चर्या करो--कुछ भेद न पड़ेगा। जब मरोगे तब तुम पाओगे--जैसे धन छूट गया दूसरों के हाथ से, वैसे ही तुम्हारे हाथ से संयम छूट गया। जब मरोगे, नींद टूटेगी। मौत सुबह है; जिंदगी की नींद टूटती है। सिर्फ मौत उनको नहीं डरा सकती, जिन्होंने खुद अपनी नींद जीते-जी तोड़ दी है। उनके लिए मौत नहीं आती। नहीं कि उनकी देह नहीं जाती; देह तो जाएगी ही; मगर वे जागे हुए मौत में प्रवेश करते हैं।
तीर्थ-दान जग प्रतिमा-सेवा। यह सब सुपना लेवा-देवा।।
इससे समझो कि जाओ तीर्थ, कि दान करो, कि प्रतिमाएं पूजो, कि जगत की सेवा करो, कि अस्पताल खोलो, कि स्कूल बनवाओ...
यह सब सुपना लेवा-देवा।
यह सब सपने का लेन-देन है।
कहना सुनना हार औ जीत।
यहां बिना जागे कुछ भी कहो और कुछ भी सुनो, हारो कि जीतो।
पछा-पछी सुपनो विपरीत।
पक्ष में रहो कि विपक्ष में रहो, हिंदू कि मुसलमान, आस्तिक कि नास्तिक--कुछ फर्क नहीं पड़ता; सब स्वप्न का लोक है।
चार बरन औ आश्रम चार।
फिर चाहे ब्राह्मण समझो अपने को, चाहे शूद्र; फिर चाहे जवान समझो अपने को, चाहे वृद्ध; चाहे गृहस्थ, चाहे वानप्रस्थ, चाहे संन्यासी--कुछ फर्क न पड़ेगा।
सुपना अंतर सब ब्यौहार।
षट दरसन आदि भेद-भाव। सुपना अंतर सब दरसाव।।
फिर तुम चाहे दर्शनशास्त्रों में कोई चुन लो--वेदांती हो जाओ, कि जैन हो जाओ, कि बौद्ध हो जाओ, कि सांख्य को मानो, कि योग को, कि वैशेषिक को--कि तुम्हारी जो मर्जी हो, कोई भी दर्शनशास्त्र चुन लो; मगर यह सब सपने का खेल है।
हर उत्तर के बाद प्रश्न के चिह्न लगाता रहा निरंतर,
इसीलिए मेरे अंतर का अंतर प्रश्नाकार हो गया।
तर्क रेख जितनी बढ़ती है, उतनी दूरी बढ़ती जाती,
सहज प्राप्य निष्कर्षों पर भी घनी पर्त सी चढ़ती जाती।
मुख में नयन, नयन में ज्योति, ज्योति में ही विश्व समाया,
कैसे कह दूं सत्य जगत है, कैसे कह दूं केवल माया।
जभी खोल देता पलकों को, सारा विश्व लीन हो जाता,
जभी मूंद लेता नयनों को, सारा जग विलीन हो जाता।
अगणित उत्तर हो सकते हैं, लेकिन प्रश्न एक होता है,
जैसे हर असत्य की तह में सोया एक सत्य होता है।
हर असत्य के बाद सत्य को भूल समझता रहा निरंतर,
इसीलिए कृत्रिम जीवन ही इस जग में व्यवहार हो गया।
भ्रम के वशीभूत हो मैंने जितनी बार प्रश्न को जांचा,
उतनी बार बदलता रहता मेरे अनुमानों का सांचा।
ठीक-गलत के जभी तराजू में रख कर प्रश्नों को तोला,
कभी झुका इस ओर संयमन, कभी उधर को रह-रह डोला।
उत्तर तो कितने आए पर मन को ही विश्वास न आया,
उत्तर तो पा लिया किंतु उन प्रश्नों का अभ्यास न आया।
जब भी नट सा चला रज्जु पर, विश्वासों के पांव हिल गए,
कंपते से संतुलन हृदय में भय की काली रेख बन गए।
क्यों, कैसे, कब, क्या होता है, यही सोचता रहा निरंतर,
इसीलिए संशय का पलड़ा भय का पारावार हो गया।
चाह रही सब कुछ पाने की, लेकिन पाकर पा न सका मैं,
हर झूठा विश्वास दिलाया, लेकिन मन बहला न सका मैं।
जब आशा थी पा जाने की, अंतर को विश्वास नहीं था,
जब खो जाने की घड़ियां थीं, खोने का आभास नहीं था।
पाकर खोया, खोकर पाया, लेकिन फिर भी पा न सका मैं,
सब कुछ था अपने ही वश में पर मन को समझा न सका मैं।
जब पाया, खोने का भय था, खोने पर पाने की आशा,
यही सदा भटकाती मुझको मेरी अनबुझ मौन पिपासा।
सूखे अधर लिए सागर के तट पर बैठा रहा निरंतर,
इसीलिए प्यासे रहना ही जीवन का व्यापार हो गया।
कभी भयातुर हो संशय से हर तिनके से नीड़ संजोता,
कभी त्याग कर सारा वैभव अपने ही ऊपर हंस देता।
जिस डाली पर नीड़ बनाया वही टूट मिल गई धूल में,
जिसे अप्राप्य समझ कर छोड़ा वही फूल खिल गया शूल में।
यह जग केवल एक समस्या, हर विवाद संयम का कंपन,
चिंतन हीन भुलावा सुंदर, मादक मोह पाश का बंधन।
सत्य प्रश्न का प्रश्न अगर तो मौन मात्र इसका उत्तर है,
निज अनुभूति एक शाश्वत हल व्यर्थ अन्यथा प्रत्युत्तर है।
इस जग के ठगने को वाणी दूषित करता रहा निरंतर,
इसीलिए मन के चंदन घर सांपों का अधिकार हो गया।
करो अनुमान! तुम्हारे सारे दर्शनशास्त्र अनुमान हैं, अनुभव नहीं। अनुभव का कोई शास्त्र नहीं होता। अनुभव का कोई दर्शन नहीं होता। जहां दर्शन है, वहां दर्शनशास्त्र नहीं होता। अनुभूति तो बंधती ही नहीं शब्दों में, सिद्धांतों में।
दरिया ठीक कहते हैं: षट दरसन आदि भेद-भाव।
ये जो छह दर्शन हैं, ये सिर्फ भेद-भाव हैं।
सुपना अंतर सब दरसाव।
राजा-रानी तप बलवंता।
खयाल रखना, तुमसे ऐसा तो कहा गया है बार-बार कि क्या होगा सम्राट होने से? क्या होगा साम्राज्य होने से? धन का संग्रह कर लिया तो क्या फायदा? लेकिन दरिया और गहरी बात कहते हैं।
दरिया कहते हैं: राजा-रानी तप बलवंता।
राजा-रानी होने से तो कुछ होता ही नहीं; बड़े तपस्वी भी हो जाओ, महातपस्वी भी हो जाओ, तो भी कुछ नहीं होता।
सुपना माहिं सब बरतंता।
यह सब व्यवहार स्वप्न में चल रहा है।
पीर औलिया सबै सयाना। ख्वाब माहिं बरतै विध नाना।।
काजी सैयद औ सुलताना। ख्वाब माहिं सब करत पयाना।।
सांख जोग औ नौधा भकती। सुपना में इनकी इक बिरती।।
कहते हैं कि सांख्य का अपूर्व शास्त्र, योग की तपश्चर्या, नौ प्रकार की भक्तियां, ये सब सपने की ही वृत्तियां हैं। ऐसे क्रांतिकारी वचन बहुत मुश्किल से, खोजे-खोजे नहीं मिलते हैं। क्यों इन सबको स्वप्न की वृत्ति कहते हैं दरिया? अनुभव मात्र स्वप्न है। क्योंकि अनुभव तुमसे अलग है। अनुभोक्ता सत्य है।
समझो। ध्यान में बैठे। भीतर प्रकाश ही प्रकाश हो गया। तो तुम्हारे भीतर दो हैं अब। एक वह जो जानता है कि प्रकाश हो रहा है; और एक वह जो तुम्हारे भीतर प्रकाश की भांति प्रकट हुआ है। प्रकाश तुम नहीं हो। तुम तो प्रकाश को जानने वाले हो। इसलिए भूल मत जाना, नहीं तो नया आध्यात्मिक सपना शुरू हो गया। अब इसी मजे में मत डोल जाना। और रस बहुत है। भीतर प्रकाश हो गया, खूब रसपूर्ण है! खूब आनंद मालूम होगा। लेकिन यह नये सपने की शुरुआत है। मन अंत तक पीछा करेगा। मन अंत तक डोरे डालेगा। मन अंत तक खींचेगा। कहेगा: अहा, देखो कैसे धन्यभागी हो! प्रकाश हो गया! यही प्रकाश, जिसकी संत सदा चर्चा करते रहे हैं!
लेकिन जो सचमुच जागे हुए संत हैं, उन्होंने प्रकाश इत्यादि को स्वप्न कहा है। उन्होंने भीतर होते हुए अनुभवों को, आंतरिक अनुभवों को भी स्वप्न कहा है। उन्होंने तो सिर्फ एक को ही सत्य माना है--बस एक को--द्रष्टा को, साक्षी को। जब भीतर प्रकाश हो जाए तो इस नये भ्रम में मत पड़ जाना। जानते रहना कि मैं तो जानने वाला हूं, मैं प्रकाश नहीं। यह प्रकाश तो मेरे सामने है, दृश्य है; मैं द्रष्टा हूं। यह प्रकाश तो अनुभव है; मैं अनुभोक्ता हूं। अपने को निरंतर साक्षी, साक्षी, साक्षी, ऐसी याद दिलाते रहना। तब कभी वह सौभाग्य की घड़ी आती है, जब सब अनुभव खो जाते हैं। निराकार छा जाता है। चारों तरफ शून्य व्याप्त हो जाता है। और अनुभव की कहीं कोई रेख नहीं रह जाती। सिर्फ साक्षी का दीया जलता है। उस परम घड़ी में ही--अमी झरत, बिगसत कंवल!
काया कसनी दया औ धर्म। सुपने सुर्ग औ बंधन कर्म।।
सुनते हो! दरिया हिम्मत के आदमी रहे होंगे। जरा चिंता नहीं की। सब पर पानी फेर दिया--तुम्हारे ज्ञान पर, तुम्हारे दर्शनशास्त्रों पर, तुम्हारी भक्ति पर।
काया कसनी दया औ धर्म।
कितनी ही कसो काया को, कितना ही सताओ, हो जाओ महामुनि--कुछ भी न होगा। कितना ही धर्म करो, कुछ भी न होगा।
सुपने सुर्ग औ बंधन कर्म।
बड़ा अदभुत वचन है! तुम्हारे स्वर्ग भी स्वप्न हैं, तुम्हारे नरक भी स्वप्न हैं। और तुम जिन बंधनों को सोचते हो कि कर्म का बंधन है, वे भी तुम्हारे स्वप्न हैं; क्योंकि तुम कर्ता नहीं हो, द्रष्टा हो। कर्म का बंधन तुम पर हो ही नहीं सकता। यह क्रांति का बड़ा आग्नेय-सूत्र है। तुम्हें पंडित-पुरोहित यही समझाते रहे हैं कि कर्म का बंधन है। अगर तुम दुख पा रहे हो तो पिछले जन्मों के किए गए कर्मों का फल भोग रहे हो। अगर कोई सुख पा रहा है तो पिछले जन्मों में किए कर्मों के आधार से सुख पा रहा है। अच्छे कर्म करो, अगले जन्म में अच्छे-अच्छे फल मिलेंगे। बुरे कर्म करोगे, अगले जन्म में दुख पाओगे।
दरिया कहते हैं: कर्ता ही नहीं हूं मैं, तो कर्म का बंधन क्या होगा मुझ पर? मैं तो सिर्फ साक्षी हूं।
साक्षी स्वतंत्रता है, परम स्वतंत्रता है। उस पर कोई बंधन नहीं है। न कभी कोई बंधन हुआ है उस पर। बंधन माना हुआ है। मान लो तो हो जाता है। स्वीकार कर लो तो हो जाता है। तुम्हारी मान्यता में ही तुम्हारे ऊपर बंधन है। इसलिए मुझसे कभी-कभी लोग आकर पूछते हैं कि आप कहते हैं कि क्षण में समाधि फल सकती है। तो हमारे अतीत जन्मों में किए कर्मों का क्या होगा? पहले तो उनसे निपटना होगा न! पहले तो उनको काटना होगा न! पहले तो उनका फल भोगना होगा न! और आप कहते हो, क्षण में!
मैं कहता हूं: क्षण में! क्योंकि अतीत के कर्म छोड़ने नहीं हैं। तुमने कभी किए नहीं हैं। तुमने सिर्फ माना है। तुम अगर अभी जाग जाओ और साक्षी में थिर हो जाओ, सारे कर्म गए। कर्ता ही गया तो कर्म कहां बचेंगे? सारे बंधन गए। सारा अतीत गया, सारा भविष्य गया; सिर्फ वर्तमान बचा--शुद्ध वर्तमान! और वही शुद्ध वर्तमान परमात्मा का द्वार है, निर्वाण का द्वार है।
हम संसार में भी सपने सजाते हैं। हम परलोक के भी सपने सजाते हैं। हमने सपने ही सपने बसा लिए हैं!
तुम न अगर मिलते तो मेरे
गीत कुंआरे ही रह जाते।
कौन स्वप्न की माला मेरी हृदय लगा हंस कर अपनाता,
कौन गीत में चुपके छिप कर अपने रसमय अधर मिलाता।
कौन अर्चना के फूलों को अपने आंचल में रख लेता,
कौन उन्हें श्रृंगार बना कर अपना जीवन धन कह देता।
तेरा मधुर समर्पण ही तो मेरे याचक मन की थाती,
नेह तुम्हारा पीकर जीती मेरे मन मंदिर की बाती।
प्राणों का जलना ही जीवन जलता जीवन एक कहानी,
जिसका है हर पृष्ठ वेद सा पावन ज्यों गंगा का पानी।
जब रिसता है प्यारा तुम्हारा,
बह उठती गीतों की धारा।
तुम न अगर बनते पीड़ा तो,
आंसू ही खारे रह जाते।
किसके पनघट पर जाकर मैं जीवन की आशा कह पाता,
दर-दर प्यास लिए फिरता मैं हर देहरी पर ठोकर खाता।
कौन मुझे चंदन सा छूकर मादक मस्ती से भर देता,
सम्मोहन में मुझे डुबा कर अपनी बांहों में भर लेता।
मादक गंध तुम्हारी पीकर पतझर भी मधुमास बन गया,
सांसें महक उठीं चूनर सी मंडप नीलाकाश बन गया।
हरित वृक्ष बन गए बराती कोकिल की कूजी शहनाई,
कलित कल्पना की गीतों से अनदेखी हो गई सगाई।
कितना मादक मिलन तुम्हारा,
कितना अभिनव सृजन तुम्हारा।
तुम न अगर बनते वसंत तो,
मनसिज अंगारे रह जाते।
किसके कुंतल मेघ सांवरे देख नाच उठता मयूर मन,
पीला दर्द हरा रखने को कब आता ले जलधर सावन।
मेरे प्यासे अधर बावरे भैरव राग नित्य दुहराते,
झूले पड़ते नहीं डाल पर सूखे स्वर मल्हार न गाते।
तुम आए तो थिरक उठा मन छाए रसमय काले बादल,
कजरारे केशों का सौरभ घुल कर बना नयन में काजल।
तन भी बहका मन भी बहका, बहक उठी चंचल पुरवाई,
मधु रसाल बन जागीं सुधियां नेह हुआ मादक अमराई।
तुम बरसे तो सुधियां सरसीं,
तुम हरषे तो बूंदें बरसीं।
तुम न अगर बनते सावन तो,
अंकुर अनियारे रह जाते।
तुम न अगर मिलते तो मेरे
गीत कुंआरे ही रह जाते।
यह बात दोनों जगत पर लागू है। इस जगत में भी प्रेमी और प्रेयसी इसी तरह के सपने सजा रहे हैं। और उस जगत में भी भक्त, भक्त और भगवान, इसी तरह के सपने सजा रहा है। जैसे प्रेमी और प्रेयसी इस जगत के सपने सजाते हैं, ऐसे ही भक्त भगवान के साथ उस जगत के सपने सजाता है।
दरिया तो उठा कर तलवार तुम्हारे सब सपने तोड़ देते हैं। नवधा भक्ति! तुम्हारे भक्ति के मीठे-मीठे रंग-रूप, सब व्यर्थ हैं। तुम्हारे विचार ही स्वप्न नहीं हैं, तुम्हारे भाव भी स्वप्न हैं। तुम्हारा मस्तिष्क ही व्यर्थ नहीं है, तुम्हारा हृदय भी व्यर्थ है। मस्तिष्क सबसे ऊपर है। उसके नीचे भाव, हृदय है। और उससे भी नीचे छिपा हुआ साक्षी है।
दरिया तो कहते हैं: बस साक्षी के अतिरिक्त और कहीं शरण नहीं है।
बुद्धं शरणं गच्छामि! बुद्ध की शरण जाता हूं मैं।
किसी ने बुद्ध से पूछा: आप तो कहते हैं कि किसी की शरण जाने की जरूरत नहीं। और लोग आपके ही चरणों में आकर सिर रखते हैं और कहते हैं: बुद्धं शरणं गच्छामि! आप रोकते क्यों नहीं?
तो बुद्ध ने कहा: वे मेरी शरण नहीं जाते। बुद्धं शरणं गच्छामि! बुद्धं का अर्थ होता है: जागरण, साक्षी, बोध। मैं तो प्रतीकमात्र हूं। मैं तो बहाना हूं। वे बुद्धत्व की शरण जाते हैं।
दरिया भी कहते हैं: बस एक ही शरण पकड़ो--साक्षी की। साक्षी को पकड़ते ही तुम भी बुद्ध हो जाओगे। उससे कम पर राजी नहीं हैं। कोई समझौता करने को दरिया राजी नहीं हैं। समग्र क्रांति के पक्षपाती हैं।
काम क्रोध हत्या परनास।
तुम थोड़ा चौंकोगे भी! वे कहते हैं: काम क्रोध हत्या परनास। सुपना माहिं नर्क निवास।।
ये भी सब स्वप्न हैं--कि तुमने काम किया, कि क्रोध किया, कि हत्या की। वह भी स्वप्न है।
सुपना माहिं नर्क निवास।
आदि भवानी संकर देवा। यह सब सुपना लेवा-देवा।।
कि चले अंबाजी के मंदिर! कि चले शंकर जी की सेवा कर आएं! कि चलो शंकर जी से कुछ मांग लें, क्योंकि सुना है कि वे बड़े औघड़दानी हैं, जरूर देंगे! कि चलो हनुमान जी की खुशामद करें, क्योंकि वे राम जी की खुशामद करते हैं। कुछ ऐसा रास्ता बन जाए। सीधे राम जी तक पहुंचना शायद मुश्किल हो, तो कोई चमचा जी को पकड़ो। उनके द्वारा चलो। तो लोग हनुमान-चालीसा पढ़ रहे हैं, कि हनुमान जी राजी हो गए, फिर तो हाथ में सब मामला है। कि जब हनुमान जी राजी हो गए तो फिर रामचंद्र जी को तो मानना ही पड़ेगा। ये सब तुम्हारे मन के ही जाल हैं। राम बाहर नहीं हैं। राम तुम्हारा अंतर्तम का ही नाम है।
ब्रह्मा बिष्नु दस औतार। सुपना अंतर सब ब्यौहार।।
सब सपने का व्यवहार है--यह दस अवतार। क्योंकि अवतरण तो परमात्मा का कण-कण में हुआ है। दस की गिनती क्यों? और जिन्होंने दस की गिनती की, तुम देखते हो, उनका व्यवहार देखते हो? कछुए को तो उन्होंने मान लिया कि भगवान का अवतार है, लेकिन मछुए को नहीं मान सकते। कछुए को मान सकते हैं कि भगवान का अवतार है, लेकिन शूद्र को नहीं मान सकते। यह भी खूब है! पशुओं को मान सकते हैं भगवान का अवतार, मनुष्यों को नहीं मान सकते। कछुए को भगवान का अवतार मानने वाले लोग महावीर को, मोहम्मद को, क्राइस्ट को अवतार नहीं मान सकते, औरों की तो बात छोड़ दो।
सब मान्यता के जाल हैं, अनुमान हैं, कल्पना के फैलाव हैं। और कल्पना को जितना उड़ाओ उड़ा सकते हो। परमात्मा तो उतरा है सबमें--मुझमें, तुममें, वृक्षों में, नदी-पहाड़ों में। परमात्मा का अवतरण तो समस्त अस्तित्व में हुआ है। यह सारा अस्तित्व परमात्मरूप है। इसमें तुम दस की गिनती क्या करते हो? यहां गिनती करने का सवाल ही नहीं है। यहां तो अनगिनत रूप से परमात्मा मौजूद है, क्योंकि सभी उसकी अभिव्यक्तियां हैं। सभी गीत उसके हैं। सभी कंठ उसके हैं।
ब्रह्मा बिष्नु दस औतार। सुपना अंतर सब ब्यौहार।।
उद्भिज सेदज जेरज अंडा। सुपनरूप बरतै ब्रह्मंडा।।
स्वेदज हों, पिंडज हों, अंडज हों, कैसे भी कोई पैदा हुआ हो, यह सारा ब्रह्मांड एक स्वप्न से ज्यादा नहीं है। इस ब्रह्मांड को स्वप्न समझो, ताकि तुम अपने साक्षी की तरफ चल सको। इस ब्रह्मांड को जिस दिन तुम पूरा-पूरा स्वप्न समझ लोगे, तुम्हारी पकड़ छूट जाएगी। और पकड़ के छूटते ही साक्षी में थिर हो जाओगे।
उपजै बरतै अरु बिनसावै।
यह सारा जगत स्वप्न है, ऐसा कहने का कारण क्या? इसके बाद इस बात को कहने के लिए प्रमाण क्या?
ज्ञानियों ने सत्य और स्वप्न में थोड़ा सा ही फर्क किया है। थोड़ा, लेकिन बहुत बड़ा भी। स्वप्न की परिभाषा जानने वालों ने की है: वह जो पैदा हो, रहे और मिट जाए। और सत्य की परिभाषा की है: जो पैदा न हो, बस रहे और मिटे कभी नहीं। सत्य का अर्थ है: शाश्वत। और स्वप्न का अर्थ है: क्षणभंगुर।
उपजै बरतै अरु बिनसावै।
पैदा होता है, थोड़ी देर रहता है और गया। पानी का बबूला बना, थोड़ी देर तैरा और फूटा। इंद्रधनुष उगा, अभी था, अभी खो गया।
उपजै बरतै अरु बिनसावै। सुपने अंतर सब दरसावै।।
ऐसी सारी बातों को स्वप्न समझना, जो पैदा होती हैं, क्षण भर ठहरती हैं और विनष्ट हो जाती हैं। जो न कभी पैदा होता, न कभी विनष्ट होता, उसे खोज लो। वही असली संपदा है। वही साम्राज्य है। साक्षी कभी पैदा नहीं होता और साक्षी कभी मरता नहीं। साक्षी का समय से कोई संबंध ही नहीं है। साक्षी कालातीत है। और ध्यान में इसी साक्षी की झलक आनी शुरू होती है। ध्यान का अर्थ है: स्वप्न-रहित हो जाना, विचार-रहित हो जाना, ताकि साक्षी की झलक अनिवार्यरूपेण फलित होने लगे।
त्याग ग्रहन सुपना ब्यौहारा। जो जागे सो सबसे न्यारा।।
अनूठी बात कहते हैं दरिया। यही मैं तुमसे कह रहा हूं रोज।
कहते हैं: त्याग ग्रहन सुपना ब्यौहारा।
भोगी भी सपने में है, योगी भी सपने में है। क्योंकि त्याग और ग्रहण, दोनों ही स्वप्न का व्यवहार हैं। कोई कहता है कि मेरे पास लाखों हैं और कोई कहता है कि मैंने लाखों त्याग दिए। दोनों में तुम फर्क मानते हो? इंच भर भी फर्क नहीं है। रत्ती भर भी फर्क नहीं है। एक कहता है: लाखों मेरे हैं। मैं मालिक! दूसरा भी यही कह रहा है कि मैं मालिक, मैंने लाखों छोड़ दिए! मेरे थे तभी तो छोड़ दिए!
दो अफीमची एक झाड़ के नीचे बैठे हैं। जब जरा अफीम चढ़ गई...। रात है सुंदर। आकाश में पूर्णिमा का चांद है। चांदनी बरसती है, चारों तरफ चांदी ही चांदी है! एक अफीमची ने कहा: दिल होता है कि रात को, इस चांद को, इस चांदनी को, सबको खरीद लूं।
दूसरे ने थोड़ी देर सोचा और उसने कहा कि नहीं, यह नहीं हो सकता।
पहले ने कहा: क्यों नहीं हो सकता?
उसने कहा: मुझे बेचना ही नहीं। मैं बेचूं, तब तो तुम खरीदो न! कि ऐसे ही खरीद लोगे?
रात, चांद, चांदनी...अफीमची खरीद और बेच रहे हैं!
तुम्हारा यहां क्या है? तो जो पकड़ कर बैठा है, वह भी पागल है। और जो छोड़ कर भाग गया है, वह और बड़ा पागल है। जहां हो, बिना पकड़े मजे से रहो। सब सपना है। साक्षी के बोध को, जहां रहो, वहीं जगाए रहो। दुकान पर बैठ कर साक्षी सधे, मंदिर में बैठ कर भी सधे, बाजार में भी। साक्षी की स्मृति सघन होती जाए। धीरे-धीरे सब पकड़ना-छोड़ना छूट जाए। पकड़ना भी छूट जाए, छोड़ना भी छूट जाए, तब तुम जानना कि तुम संन्यासी हुए।
मेरे संन्यास की यही परिभाषा है: पकड़ना भी न रह जाए, छोड़ना भी न रह जाए। क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों एक ही भ्रांति के हिस्से हैं। भोगी और त्यागी में फर्क नहीं है। एक-दूसरे की तरफ पीठ किए खड़े हैं, माना; मगर फर्क नहीं है। दोनों की दृष्टि एक है। दोनों मानते हैं कि मेरा है। एक मुट्ठी बांधे है, दूसरे ने फेंक दिया। मगर दोनों की भ्रांति वही है कि मेरा है। वर्षों बीत जाते हैं और त्यागी बात करता रहता है कि मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी!
एक संन्यासी से मैं मिलता था। वे जब भी मिलते तो याद दिलाते कि मैंने लाखों पर लात मार दी!
मैंने उनसे एक दिन पूछा...जब ऊब गया सुन-सुन कर बहुत बार कि लाखों पर उन्होंने लात मार दी...मैंने उनसे पूछा: यह लात मारी कब थी?
उन्होंने कहा: कोई तीस साल हो गए।
तो फिर मैंने कहा: एक बात मैं आपसे कहूं कि लात लगी नहीं।
उन्होंने कहा: मतलब?
मैंने कहा: जब तीस साल हो गए और अभी तक याद बनी है, तो लात लगी नहीं होगी। तीस साल से यही याद किए बैठे हो कि लाखों पर लात मार दी, लाखों पर लात मार दी! तुम्हारे थे? तुम्हारे बाप के थे? किसके थे? तुमने लात मारी कैसे? लात मारने का तुम्हें अधिकार क्या? लेकर आए थे? न लेकर जाते। यह लात मारने का अहंकार वही का वही अहंकार है। तुम जरूर, जब तुम्हारे पास लाखों रहे होंगे, तो सड़क पर चलते होओगे इस अकड़ से कि लाखों मेरे पास हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन और उसका बेटा, दोनों एक नाले को पार कर रहे थे। बरसाती नाला। मुल्ला ने छलांग मारी। अस्सी साल का बूढ़ा, मगर मार गया छलांग। उस पार पहुंच गया। अब लड़के को भी चुनौती मिली, उसने कहा कि जब बाप बूढ़ा अस्सी साल का मार गया छलांग और मैं चल कर जाऊं नाले में से, बेइज्जती होगी, लोग क्या कहेंगे! नाले के इस तरफ उस तरफ लोग काम भी कर रहे हैं, आ-जा भी रहे हैं। तो उसने भी मारी छलांग। बीच नाले में गिरा। और भद्द हुई। रास्ते में जब दोनों फिर चलने लगे, उसने अपने बाप से पूछा कि इतना तो बताएं, आप अस्सी साल के हो गए और छलांग मार गए। और मैं तो अभी जवान हूं और बीच नाले में गिर गया, इसका राज क्या है?
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपना खीसा बजाया--खनाखन! खनाखन! पुरानी कहानी है, रुपये बजे!
बेटे ने कहा: मैं कुछ समझा नहीं।
उसने कहा कि जेब गरम हो तो आत्मा में बल होता है। तेरी जेब में क्या है? खाली जेब! खोखी आत्मा! गिरा बीच में। बीच तक पहुंच गया, यही चमत्कार है! मैं भी पूछना चाहता हूं कि बीच तक तू पहुंचा कैसे? मैं तो सौ नगद कलदार जब तक खीसे में न रखूं, घर से नहीं निकलता। गरमी रहती है, शान रहती है, अकड़ रहती है, बल रहता है, जवानी रहती है।
लोगों के पास धन होता है तो उनकी चाल और होती है। तुमने भी गौर किया? जब खीसे में रुपये होते हैं, तुम्हारी चाल और होती है; जब खीसे में रुपये नहीं होते, तुम्हारी चाल और होती है। अभी तक न खयाल किया हो तो अब करना। जब आदमी पद पर होता है तब उसकी चाल देखो।
इस संबंध में बड़ी खोज-बीन की गई है और यह पाया गया है कि जब तक लोग पद पर होते हैं, तब तक ज्यादा जीते हैं; और पद से हटते ही जल्दी मर जाते हैं। पश्चिम में इस पर काफी शोध काम हुआ है। और शोध के ये नतीजे हैं कि जब लोग अवकाश प्राप्त करते हैं तो उनकी उम्र दस साल कम हो जाती है। हैरानी की बात है!
कोई कलेक्टर था, कोई कमिश्नर था, कोई चीफ मिनिस्टर था, कोई प्राइम मिनिस्टर था, कोई राष्ट्रपति था, फिर अवकाश लिया। जब तक कलेक्टर था, एक गरमी थी। मुल्ला नसरुद्दीन की कहानी ऐसे ही नहीं है। चलता था, लोग नमस्कार करते थे, झुक-झुक जाते थे। रोब था। मैं कुछ हूं, यह बल था। जीने के लिए कुछ आधार था। फिर यही कलेक्टर रिटायर हो गया। अब इसको कोई नहीं पूछता। रास्ते से गुजर जाता है, लोग नमस्कार भी नहीं करते। घर में भी लोग नहीं पूछते। क्योंकि जब तक यह कलेक्टर था, पत्नी भी आदर देती थी। अब पत्नी भी डांटती है कि नाहक खांसते-खंखारते बैठे रहते हो, कुछ करो! बच्चे भी नाराज होते हैं कि ब़ूढे से कब छुटकारा हो, कि हर चीज में अड़ंगेबाजी करता है!
अड़ंगेबाजी करेगा; उसकी जिंदगी भर की आदत है। कलेक्टर था। हर काम में अड़ंगेबाजी करता रहा। वही उसकी कुशलता थी। सरकारी अफसरों की कुशलता ही एक है कि जो काम तीन दिन में हो सके, वह तीन साल में न होने दें। उसमें ऐसे अड़ंगे निकालें, ऐसी तरकीबें निकालें, फाइलें इस तरह घुमाएं कि भंवर खाती रहें। जिंदगी भर की उसकी कला वही थी। अब भी वह मौका देख कर थोड़े पुराने हाथ चलाता है, पुराने दांव मारता है। उतना ही जानता है। और कुछ कर भी नहीं सकता। जहां उसकी जरूरत नहीं, वहां बीच में आकर खड़ा हो जाता है। हर चीज में सलाह देता है। जमाना गया उसका। जमाना बदल गया। अब उसकी सलाह किसी काम की भी नहीं है। उसकी सलाह जो मानेगा, पिद्दी की तरह पिटेगा जगह-जगह। अब उसके बेटे उससे कहते हैं: तुम शांत भी रहो। माला ले लो। पूजा करो। घर में पूजागृह बनवा दिया है, वहां बैठा करें। मगर वह घर भर में नजर रखता है। वह सोचता है कि उसके पास भारी ज्ञान है, जीवन भर का अनुभव है।
कोई उसके पक्ष में नहीं है। मोहल्ले-पड़ोस के लोग उसके पक्ष में नहीं हैं। जिससे भी बात करता है, वह बचना चाहता है। क्योंकि अब काम क्या है इससे बात करने का! यही लोग एक दिन इसकी तलाश करते थे। आज इससे कोई बात करने को भी राजी नहीं है। पत्नी भी इसको मानती थी पहले। इसको थोड़े ही मानती थी, वह जो हर महीने तनख्वाह आती थी, उसको मानती थी। अब तनख्वाह भी नहीं आती। अब नई साड़ियां भी नहीं आतीं। अब नये गहने भी नहीं आते। अब इसको मानने से मतलब क्या है? अब तो एक ही आशा है कि ये किसी तरह विदा हो जाएं, तो वह जो बीमा करवाया है...
मुल्ला नसरुद्दीन, उसकी पत्नी और उसका बेटा झील पर गए थे--पिकनिक के लिए गए थे। मुल्ला नसरुद्दीन झील में तैरता दूर निकल गया। बेटा भी उतरना चाहता था झील में। मां ने कहा: तू रुक।
बेटे ने कहा: क्यों? और पिताजी गए!
उसने कहा: पिताजी को जाने दे। उनका बीमा है, तेरा बीमा नहीं है।
कल मैं एक कहानी पढ़ रहा था, कि एक से एक चालबाज आदमी होते हैं। एक आदमी ऐसा चालबाज था कि मरने के पहले, जब पक्का हो गया कि मरना ही है, उसने अपना बीमा कैंसिल करवा दिया। क्योंकि जब मर जाएगा तो पत्नी को लाखों डालर मिलने वाले थे। मरने के पहले उसने अपना बीमा ही कैंसिल करवा दिया! जब पक्का हो गया और डाक्टरों ने कह दिया कि अब बस दो-चार दिन के ही मेहमान हो। तो उसने पहला काम यह किया कि अपना बीमा कैंसिल करवा दिया। मगर पत्नी भी एक ही घाघ थी! पति को दफनाया नहीं--अमरीका में तो पति को दफनाते हैं--जलवाया। और आग का जो बीमा होता है, उससे पैसे वसूल किए। जल कर मरा!
पत्नी भी पूछती नहीं अब, बेटे भी पूछते नहीं अब, परिवार भी पूछता नहीं अब। पास-पड़ोस के लोग भी पूछते नहीं अब। मनोवैज्ञानिक कहते हैं: दस साल उम्र कम हो जाती है। शायद इसीलिए जो राजनेता गद्दी पर बैठ जाता है, फिर ऐसी पकड़ता है कि छोड़ता ही नहीं। कितना ही खींचो टांग, कितना ही खींचो हाथ, कुर्सी को ऐसा पकड़ता है कि छोड़ता ही नहीं। कुछ भी करो, फिर उससे कुर्सी छुड़ाना बहुत मुश्किल है। कारण है। कुर्सी छूटी कि जिंदगी छूटी। कुर्सी ही जिंदगी है। जब तक कुर्सी पर है, तब तक सब कुछ है। जैसे ही कुर्सी गई, कुछ भी नहीं।
अभी देखा नहीं, दो-चार दिन पहले अखबारों में खबरें थीं कि भूतपूर्व राष्ट्रपति वी.वी.गिरि की टिकट का पास तक वापस ले लिया। भूतपूर्व राष्ट्रपति की यह हालत हो जाती है! कितना फर्क पड़ता है? कोई गिरि इस उम्र में रोज-रोज यात्रा करते भी नहीं हैं। और करें भी तो कितना फर्क पड़ता है? साल में अगर हजार, पांच सौ रुपये की टिकट के पास का उपयोग कर लेते तो क्या बन-बिगड़ जाता? मगर जो सत्ता से गया, वह सब तरफ से चला जाता है। यह भी न सोचा इनकार करते वक्त कि यही गति तुम्हारी हो जाएगी कल। सत्ता के बाहर हुए कि दो कौड़ी कीमत हो जाती है। इसलिए जो राजनेता पहुंच जाता है सत्ता में, वह सत्ता में ही बना रहना चाहता है।
मध्यप्रदेश के एक मुख्यमंत्री थे रविशंकर शुक्ल। उन्होंने कस्द कर लिया था कि मरूंगा तो कुर्सी पर ही मरूंगा, नहीं तो मरूंगा ही नहीं। कुर्सी पर ही मरे! क्योंकि मरो कुर्सी पर तो उसका भी मजा और है। राजकीय सम्मान मिलता है, बैंड-बाजे बजते हैं। फौजी टैंक पर सवार होकर लाश जाती है। भारी शोरगुल मचता है। मरने का मजा ही और है। ऐसे ही मर गए, न बैंड बजे, न बाजे बजे; न मिलिट्री आई, न झंडे फहराए गए, न झंडे झुकाए गए--यह भी कोई मरना है! कुत्ते की मौत!
मरने-मरने में भी लोगों ने फर्क कर रखा है। मर गए तो भी!
मैंने सुना है, एक राजनेता मरा। बड़ी भीड़ इकट्ठी हुई उसको भेजने को। वह भी, अब तो आत्मा मात्र रह गई थी, भूत मात्र, वह भी गया था देखने मरघट पर अपनी आखिरी अवस्था में--लोग कैसे-कैसे व्याख्यान देते हैं? कौन क्या कहता है? अपने वाले धोखा तो नहीं दे जाते? दुश्मन क्या कहते हैं? जब वहां उसने प्रशंसा के प्रशस्ति-गान सुने, कि दुश्मनों ने भी प्रशंसा की उसकी कि कैसा अदभुत प्रतिभाशाली व्यक्ति था! कि दीया बुझ गया! कि अब देश में अंधेरा ही अंधेरा रहेगा! कि अब कभी उसके स्थान की पूर्ति नहीं हो सकती, अपूरणीय क्षति हुई है! तो पास में खड़े एक दूसरे भूत से उसने कहा कि अगर ऐसा मुझे पता होता तो मैं पहले ही मर जाता। अगर इतना सम्मान मरने से मिल सकता है, अगर इतनी भीड़ आने वाली थी मुझे पहुंचाने, तो मैं कभी का मर गया होता। मैं नाहक अटक रहा। इतनी प्रशंसा तो जिंदगी में कभी न मिली थी।
नियम है कि मरे आदमी की हम प्रशंसा करते हैं। जिंदगी में तो बहुत मुश्किल है प्रशंसा मिलना, कम से कम मरे को सांत्वना तो दे दो। जाती-जाती आत्मा को इतनी तो सांत्वना दे दो कि चलो, जिंदगी में नहीं मिला, मर कर मिला, मरे आदमी के खिलाफ कोई कुछ नहीं कहता।
एक गांव में एक आदमी मरा। वह इतना दुष्ट था, इतना दुष्ट कि जब उसको दफनाने गए, तो नियम था कि पक्ष में कुछ बोला जाए, मगर उसके पक्ष में कोई बात ही नहीं थी जो बोली जा सके। गांव के पंच एक-दूसरे की तरफ देखें कि भई, तुम बोलो। मगर बोलें तो क्या खाक बोलें! उसने सबको सताया था। उसकी दुष्टता ऐसी थी कि पूरा घर, पूरा परिवार, पूरा गांव, आस-पास के गांव भी प्रसन्न थे कि मर गया तो झंझट कटी! लोग प्रशंसा करने नहीं आए थे, लोग आनंद मनाने आए थे। मगर यह नियम था कि जब तक प्रशंसा में कुछ बोला न जाए, तब तक दफनाया नहीं जा सकता। आखिर गांव के लोगों ने प्रार्थना की गांव के पुरोहित से कि भैया, तुम्हीं कुछ बोलो। तुम तो बड़े बक्कार हो, कि तुम तो शब्दों की खाल निकालने में बड़े कुशल हो। इस आदमी में कुछ खोजो! कुछ भी इसकी प्रशंसा करो।
पुरोहित भी खड़ा हुआ; वह भी कुछ समझ नहीं पाया कि बोलें क्या इस आदमी के पक्ष में! इस आदमी की जिंदगी में कुछ था ही नहीं। फिर उसने कहा कि एक बात है, इस आदमी की प्रशंसा करनी ही होगी, क्योंकि अभी इसके सात भाई और जिंदा हैं; उनके मुकाबले यह देवता था।
मरे हुए आदमी की प्रशंसा करनी ही होती है। पद पर रहते हैं लोग तो लंबा जाती है उनकी जिंदगी। पद से हटते ही घट जाती है उनकी जिंदगी। धन की बड़ी अकड़ है। पद की बड़ी अकड़ है। होता है तो आदमी अकड़े रहते हैं और छोड़ देते हैं तो अकड़े रहते हैं। तुम जैन शास्त्र पढ़ो, बौद्धों के शास्त्र पढ़ो, तो खूब लंबी-लंबी बढ़ा कर झूठी बातें लिखी हैं--कि महावीर ने इतने घोड़े छोड़े, इतने हाथी छोड़े, इतने रथ, इतना धन--ऐसी बड़ी-बड़ी संख्याएं जो कि संभव नहीं हैं। संभव इसलिए नहीं हैं कि महावीर एक बहुत छोटे से राज्य के राजकुमार थे। महावीर के जमाने में भारत में दो हजार रियासतें थीं। ज्यादा से ज्यादा एक तहसील के बराबर उनका राज्य था। अब तहसील के बराबर राज्य! जितने हाथी-घोड़े जैन शास्त्रों में लिखे हैं, अगर उनको खड़ा भी करो तो खड़ा करने की जगह भी न मिले। आखिर कहीं खड़े भी तो होने चाहिए! इतना धन लाओगे कहां से? मगर नहीं, लिखा है।
उसके पीछे कारण है, मनोवैज्ञानिक कारण है। क्योंकि जितना धन, जितने घोड़े, जितने हाथी, जितने रथ, जितने हीरे-जवाहरात तुम बढ़ा कर बता सको, उतना ही बड़ा त्याग मालूम पड़ेगा। त्याग को भी नापने का एक ही उपाय है--कि कितना छोड़ा? यह बड़े मजे की बात है। है तो भी रुपये से ही नापा जाता है और छोड़ा तो भी रुपये से ही नापा जाता है। दोनों का मापदंड रुपया है। दोनों का तराजू एक है।
तो फिर बौद्ध भी पीछे नहीं रह सकते थे। उन्होंने और बढ़ा दिए। जब अपने ही हाथ में है संख्याएं लिखना तो रखते जाओ शून्य आगे, बढ़ाते जाओ शून्य पर शून्य। कोई किसी से पीछे नहीं है।
महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में हुआ। अठारह अक्षौहिणी सेना! कुरुक्षेत्र छोटा सा मैदान है। उतनी बड़ी सेना वहां खड़ी नहीं हो सकती। और खड़ी हो जाए तो लड़ना तो दूर, प्रेम करना भी आसान नहीं! आखिर तलवार वगैरह चलाने को थोड़ी जगह भी तो चाहिए। नहीं तो खुद ही की तलवार खुद ही को लग जाए, कि अपने वालों की ही गर्दन कट जाए। आखिर घोड़े-रथ दौड़ाने इत्यादि के लिए कुछ स्थान तो चाहिए। कुरुक्षेत्र के मैदान में अठारह अक्षौहिणी सेना! पागल हो गए हो? लेकिन उसको बड़ा युद्ध बताना है--महाभारत! उसको बड़ा युद्ध बताना है, छोटा-मोटा युद्ध नहीं।
युद्ध भी बड़े बताने हैं तो संख्या बढ़ाओ। त्याग भी बड़ा बताना है तो संख्या बढ़ाओ। भोग भी बड़ा बताना है तो संख्या बढ़ाओ। तुम्हारा भरोसा गणित पर बहुत ज्यादा है।
मैंने उन मित्र से कहा कि तुम्हारा पैर लगा नहीं, नहीं तो भूल गए होते। तीस साल हो गए, कौन याद रखता है! बात खत्म हो गई होती। मगर छूटता नहीं है। तुम्हारा मोह अब भी लगा है। अभी भी तुम मजा ले रहे हो। अब भी चुस्कियां ले रहे हो!
त्याग ग्रहन सुपना ब्यौहारा। जो जागे सो सबसे न्यारा।।
जो जागता है, न तो वह त्यागी होता है, न भोगी होता है। वह सबसे न्यारा होता है। इसलिए उसको पहचानना मुश्किल होता है। क्योंकि वह भोगियों जैसा भी दिखाई पड़ता है, त्यागियों जैसा भी दिखाई पड़ता है। वह दोनों नहीं होता और दोनों भी होता है।
जो जागे सो सबसे न्यारा।
त्यागी को पहचानना आसान है, भोगी को पहचानना आसान है। ज्ञानी को पहचानना बहुत कठिन है। तुम सिकंदर को भी पहचान लोगे, तुम महावीर को भी पहचान लोगे। मगर जनक को पहचानना बहुत कठिन हो जाएगा, क्योंकि जनक रहते तो सिकंदर की दुनिया में हैं और रहते महावीर की तरह हैं। जनक को पहचानने के लिए जरा गहरी आंख चाहिए, बड़ी गहरी आंख चाहिए। जनक का जीवन न तो त्याग है, न भोग है, वरन साक्षीभाव है।
इसलिए मैंने जनक-अष्टावक्र का जो संवाद हुआ, उसको महागीता कहा है। कृष्ण और अर्जुन के संवाद को मैं सिर्फ गीता कहता हूं। लेकिन अष्टावक्र और जनक के संवाद को महागीता कहता हूं। क्योंकि उसमें एक ही स्वर है--साक्षी, साक्षी, साक्षी। न छोड़ना, न पकड़ना, बस देखने वाले हो जाना। छूटे तो छूट जाए; पकड़ में आ जाए तो पकड़ में आ जाए। लेकिन भीतर न पकड़ने की आकांक्षा है, न छोड़ने की आकांक्षा है। भीतर कोई आकांक्षा ही नहीं है। वह आकांक्षामुक्त जीवन परम जीवन है।
जो जागे सो सबसे न्यारा!
जो कोई साध जागिया चावै।
और जिसको भी जागना हो!
सो सतगुरु के सरनै आवै!
किसी जागे हुए से संबंध जोड़े। क्योंकि बिना जागे हुए से संबंध जोड़े पहचान न आएगी। यह बात जरा जटिल है। यह बात जरा सूक्ष्म है। भोग और त्याग बड़े आसान हैं, स्थूल हैं। ऊपर-ऊपर से दिखाई पड़ते हैं। इसमें कुछ अड़चन नहीं होती।
जैन मुनि को तुम जानते हो कि त्यागी। और तुम जानते हो कि जो बाजार में बैठा है, भोगी। जो वेश्यागृह में जाकर नाच देख रहा है, भोगी। और जो जंगल भाग गया है, त्यागी। जनक को क्या करोगे? जनक बैठे हैं राजमहल में, वेश्याओं का नृत्य चल रहा है। और भीतर जंगल है। भीतर सन्नाटा है। भीतर अंतर-गुफा है। भीतर साक्षी है। यह सब बाहर खेल चल रहा है। वेश्याएं नाच रही हैं और शराब के प्याले पर प्याले ढाले जा रहे हैं। और जनक वहां हैं और नहीं भी हैं। इस न्यारे आदमी को कैसे पहचानोगे? न्यारे से संबंध जोड़ोगे, तो ही पहचान आएगी।
कृतकृत बिरला जोग सभागी। गुरमुख चेत सब्दमुख जागी।।
वह भाग्यवान है जो किसी ऐसे अनूठे व्यक्ति के साथ जुड़ जाए, क्योंकि उसका शब्द भी जगा देता है।
संसय मोह-भरम निस नास।
उसका सान्निध्य संशय को मिटा देता है, मोह को मिटा देता है। भ्रम की निशा नष्ट हो जाती है, श्रद्धा की सुबह होती है।
आतमराम सहज परकास।
उसके सान्निध्य में स्वयं के भीतर डुबकी लगने लगती है। आत्मा का सहज प्रकाश उपलब्ध होने लगता है।
राम सम्हाल सहज धर ध्यान।
उसके पास सीखने को मिलता है--संसार को न तो पकड़ना है, न छोड़ना है। पकड़ना-छोड़ना अगर किसी को है तो राम को। बाहर की बात ही छोड़ो, भीतर पकड़ो। अभी भीतर छोड़े बैठे हो।
राम सम्हाल...
बस एक बात सम्हाल लो--भीतर राम को सम्हाल लो। भीतर साक्षीभाव को सम्हाल लो।
...सहज धर ध्यान!
नैसर्गिक है भीतर तुम्हारे जो बह रहा है। तुम्हें जन्म से मिला है। तुम्हारा स्वभाव है। उसे कहीं से लाना नहीं है, सहज है। उस सहज ध्यान को साध लो।
पाछे सहज प्रकासै ग्यान।
उसके पीछे अपने आप ज्ञान चला आता है। ध्यान के पीछे कतार बंधी है--वेदों की, उपनिषदों की, कुरानों, बाइबिलों की। वे अपने आप चली आती हैं। मगर पहले ध्यान, पहले जागरण।
जन दरियाव सोई बड़भागी। जाकी सुरत ब्रह्म संग जागी।
और सब छोड़ो, भीतर बैठे ब्रह्म की स्मृति को जगाओ। तब जरूर होगी अमृत की वर्षा। तब खिलेगा जरूर कमल। अमी झरत, बिगसत कंवल!
आज इतना ही।