DARIYADAS
AMI JHARAT BIGSAT KANWAL 06
Sixth Discourse from the series of 14 discourses - AMI JHARAT BIGSAT KANWAL by Osho. These discourses were given during MAR 11 -24 1979.
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पहला प्रश्न:
भगवान, उपनिषद कहते हैं कि सत्य को खोजना खड्ग की धार पर चलने जैसा है। संत दरिया कहते हैं कि परमात्मा की खोज में पहले जलना ही जलना है। और आप कहते हैं कि गाते-नाचते हुए प्रभु के मंदिर की ओर जाओ। इनमें कौन सा दृष्टिकोण सम्यक है?
आनंद मैत्रेय! सत्य के बहुत पहलू हैं। और सत्य के सभी पहलू एक ही साथ सत्य होते हैं। उनमें चुनाव का सवाल नहीं है। जिसने जैसा देखा, उसने वैसा कहा।
उपनिषद की बात ठीक ही है, क्योंकि सत्य के मार्ग पर चलना जोखिम की बात है। बड़ी जोखिम! क्योंकि भीड़ असत्य में डूबी है। और तुम सत्य के मार्ग पर चलोगे तो भीड़ तुम्हारा विरोध करेगी। भीड़ तुम्हारे मार्ग में हजार तरह की बाधाएं खड़ी करेगी। भीड़ तुम पर हंसेगी, तुम्हें विक्षिप्त कहेगी। भीड़ में एक सुरक्षा है। सत्य के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति अकेला पड़ जाता है। भीड़ उससे नाते तोड़ लेती है, उससे संबंध विच्छिन्न कर लेती है। समाज उसे शत्रु मानता है। नहीं तो जीसस को लोग सूली देते? कि मंसूर की गर्दन काटते? वे तुम्हारे जैसे ही लोग थे जिन्होंने जीसस को सूली दी और जिन्होंने मंसूर की गर्दन काटी। अपने हाथों को गौर से देखोगे तो उनमें मंसूर के खून के दाग पाओगे। तुम्हारे जैसे ही लोग थे। कोई दुष्ट नहीं थे। भले ही लोग थे। मंदिर और मस्जिद जाने वाले लोग थे। पंडित-पुरोहित थे। सदाचारी, सच्चरित्र, संत थे। जिन्होंने जीसस को सूली दी, वे बड़े धार्मिक लोग थे। और जिन्होंने मंसूर को मारा उन्हें भी कोई अधार्मिक नहीं कह सकता।
लेकिन क्या कठिनाई आ गई?
जब भी आंख वाला आदमी अंधों के बीच में आता है तो अंधों को बड़ी अड़चन होती है। आंख वाले के कारण उन्हें यह भूलना मुश्किल हो जाता है कि हम अंधे हैं। अहंकार को चोट लगती है। छाती में घाव हो जाते हैं। न होता यह आंख वाला आदमी, न हम अंधे मालूम पड़ते। इसकी मौजूदगी अखरती है। यह मिट जाए तो हम फिर लीन हो जाएं अपने अंधेपन में और मानने लगें कि हम जानते हैं, हमें दिखाई पड़ता है।
जब जानने वाला कोई व्यक्ति पैदा होता है, तो जिन्होंने थोथे ज्ञान के अंबार लगा रखे हैं, उन्हें दिखाई पड़ने लगता है कि उनका ज्ञान थोथा है। उनका ज्ञान लाश है। उसमें सांसें नहीं चलतीं, हृदय नहीं धड़कता, लहू नहीं बहता। उन्हें दिखाई पड़ने लगता है कि उन्होंने फूल जो हैं, बाजार से खरीद लाए हैं, झूठे हैं, कागजी हैं, प्लास्टिक के हैं। असली गुलाब का फूल न हो तो अड़चन पैदा नहीं होती, क्योंकि तुलना पैदा नहीं होती।
बुद्धों का जन्म तुलना पैदा कर देता है।
तुम अंधेरे घर में रहते हो, तुम्हारा पड़ोसी भी अंधेरे घर में रहता है, और पड़ोसियों के पड़ोसी भी अंधेरे घर में रहते हैं। तुम निश्चिंत हो गए हो। तुम्हें अंधेरे से कोई अड़चन नहीं है। तुमने मान लिया है कि अंधेरा ही जीवन का ढंग है, शैली है। जीवन ऐसा ही है, अंधेरा ही है। ऐसी तुम्हारी मान्यता हो गई।
फिर अचानक तुम्हारे पड़ोस में किसी ने अपने घर का दीया जला लिया। अब या तो तुम भी दीया जलाओ तो राहत मिले; या उसका दीया बुझाओ तो राहत मिले। और दीया जलाना कठिन है, दीया बुझाना सरल है। और दीया जलाना कठिन इसलिए भी है कि कितने-कितने लोगों को दीये जलाने पड़ेंगे, तब राहत मिलेगी। और बुझाना सरल है, क्योंकि एक ही दीया बुझ जाए तो फिर अंधेरा स्वीकृत हो जाए।
उपनिषद ठीक कहते हैं। सत्य के एक पहलू की तरफ इशारा है कि सत्य के मार्ग पर चलना तलवार की धार पर चलने जैसा है। और संत दरिया भी ठीक कहते हैं कि परमात्मा की खोज में जलना ही जलना है। विरह की अग्नि के बिना निखरोगे भी कैसे? जब तक विरह में जलोगे नहीं, तपोगे नहीं, राख न हो जाओगे विरह में--तब तक तुम्हारे भीतर मिलन की संभावना पैदा ही नहीं होगी। विरह में जो मिट जाता है, वही मिलन के लिए हकदार होता है, पात्र होता है। मिटने में ही पात्रता है। और जलन कोई साधारण नहीं होगी; रोआं-रोआं जलेगा; कण-कण जलेगा। क्योंकि समग्र होगी जलन, तभी समग्र से मिलन होगा। यह कसौटी है, यह परीक्षा है, और यह पवित्र होने की प्रक्रिया है। यही प्रार्थना है। यही भक्ति है।
तो दरिया भी ठीक कहते हैं। यह दूसरा पहलू हुआ सत्य का। यह आंतरिक पहलू हुआ सत्य का। पहली बात थी, जो बाहर से पैदा होगी। दूसरी बात है, जो तुम्हारे भीतर पैदा होगी।
समाज तुम्हें सताएगा; उसे सहा जा सकता है। कौन चिंता करता उसकी? ज्यादा से ज्यादा देह ही छीनी जा सकती है। तो देह तो छिन ही जाएगी। अपमान किया जा सकता है। तो नाम ठहरता ही कहां है इस जगत में? पानी पर खींची गई लकीर है, मिट ही जाने वाला है। लोग पत्थर फेंकेंगे, गालियां देंगे। मगर ये सब साधारण बातें हैं। जिसके भीतर लगन लगी सत्य की, वह इन सबके लिए राजी हो जाएगा। यह कुछ भी नहीं है। यह कोई बड़ा मूल्य नहीं है।
भीतर की आग कहीं ज्यादा तड़पाएगी। धू-धू कर जलेगी। अपने ही प्राण अपने ही हाथों जैसे हवन में रख दिए! हजार बार मन होगा कि हट जाओ! अभी भी हट जाओ! अभी भी देर नहीं हो गई है। अभी भी लौटा जा सकता है। हजार बार संदेह खड़े होंगे कि क्या पागलपन कर रहे हो? क्यों अपने को जला रहे हो? सारी दुनिया मस्त है और तुम जल रहे हो! सारे लोग शांति से सोए हैं और तुम जग रहे हो और तुम्हारी आंखों में नींद नहीं और तारे गिन रहे हो!
और एक दिन हो तो चल जाए। दिन बीतेंगे, माह बीतेंगे, वर्ष बीतेंगे। और कोई भी पक्का नहीं कि मिलन होगा भी! यही पक्का नहीं है कि परमात्मा है! पक्का तो उसी को हो सकता है जिसका मिलन हो गया। मिलन जिसका नहीं हुआ है, वह तो श्रद्धा से चल रहा है। होना चाहिए, ऐसी श्रद्धा से चल रहा है। होगा, ऐसी श्रद्धा से चल रहा है। झलकें दिखाई पड़ती हैं उसकी--सुबह उगते सूरज में, रात तारों भरे आकाश में, लोगों की आंखों में--झलकें मिलती हैं उसकी। इतना विराट आयोजन है तो इसके पीछे छिपे हुए हाथ होंगे। और इतना संगीतबद्ध अस्तित्व है तो इसके पीछे कोई छिपा संगीतज्ञ होगा। ऐसी मधुर वीणा बज रही है तो अपने से नहीं बज रही होगी। यह संयोग ही नहीं हो सकता।
वैज्ञानिक कहते हैं: जगत संयोग है; पीछे कोई परमात्मा नहीं है। एक वैज्ञानिक ने इस पर विचार किया कि अगर जगत संयोग है तो इसके बनने की संभावना कैसी है, कितनी है? उसने जो हिसाब लगाया वह बहुत हैरानी का है। उसने हिसाब लगाया है, बीस अरब बंदर, बीस अरब वर्षों तक, बीस अरब टाइप राइटरों पर खटापट-खटापट करते रहें, तो संयोग है कि शेक्सपियर का एक गीत पैदा हो जाए। संयोग है। बीस अरब बंदर, बीस अरब वर्षों तक, बीस अरब टाइप राइटरों को ऐसे ही खटरपटर-खटरपटर करते रहें, तो कुछ तो होगा ही। लेकिन शेक्सपियर का एक गीत पैदा करने में इतनी बीस अरब वर्षों की प्रतीक्षा करनी होगी--शेक्सपियर का एक गीत पैदा करने में!
और यह अस्तित्व गीतों से भरा है। हजार-हजार कंठों से गीत प्रकट हो रहे हैं। हजारों शेक्सपियर पैदा हुए हैं, होते रहे हैं। और जरा तारों के इस विस्तार को, इसकी गतिमयता को, इसके छंद को तो देखो! इस अस्तित्व की सुव्यवस्था को तो देखो! इसके अनुशासन को तो देखो! जगह-जगह छाप है कि अराजकता नहीं है। कहीं गहरे में कोई संयोजन बिठाने वाला हृदय है। कहीं कोई चैतन्य सबको सम्हाले है, अन्यथा सब कभी का बिखर गया होता।
कौन जोड़े है इस अनंत को? इस विस्तार को कौन सम्हाले है?
तुम मरुस्थल में जाओ और तुम्हें एक घड़ी मिल जाए पड़ी हुई, तो क्या तुम कल्पना भी कर सकते हो कि यह संयोग से बन गई होगी? हजारों-हजारों साल में, लाखों-लाखों साल में, करोड़ों-करोड़ों साल में पदार्थ मिलता रहा, मिलता रहा, मिलता रहा, फिर एक घड़ी बन गया! और घड़ी कोई बड़ी बात है? लेकिन एक घड़ी भी अगर तुम्हें रेगिस्तान में पड़ी मिल जाए तो भी पक्का हो जाएगा कि कोई मनुष्य तुमसे पहले गुजरा है, कि तुमसे पहले कोई मनुष्य आया है। घड़ी सबूत है। घड़ी अपने आप नहीं बन सकती। घड़ी नहीं बन सकती तो यह इतना विराट अस्तित्व कैसे बन सकता है?
घड़ी नहीं बन सकती तो मनुष्य का यह सूक्ष्म मस्तिष्क कैसे बन सकता है? सिर्फ पदार्थ की उत्पत्ति, जैसा मार्क्स कहता है? मार्क्स की सुंदर कृतियां, कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो नहीं बन सकता अकारण और न दास कैपिटल लिखी जा सकती है अकारण। संयोग मात्र नहीं है। पीछे कोई सधे हाथ हैं।
मगर यह श्रद्धा है। जब तक मिलन न हो जाए; जब तक परमात्मा से हृदय का आलिंगन न हो जाए; जब तक बूंद सागर में एक न हो जाए--तब तक यह श्रद्धा है। श्रद्धा सम्यक है, सार्थक है; मगर श्रद्धा श्रद्धा है, अनुभव नहीं है।
तो मिलन के पहले विरह की अग्नि तो होगी। और चूंकि मिलन की शर्त यही है कि तुम मिटो तो परमात्मा हो जाए। जब तक तुम हो, परमात्मा नहीं है। और जब परमात्मा है, तब तुम नहीं हो।
कबीर कहते हैं: हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।
चले थे खोजने, कबीर कहते हैं, और खोजते-खोजते खुद खो गए। और जब खुद खो जाते हैं, तभी खुदा मिलता है। जब तक खुदी है, तब तक खुदा नहीं है।
तो जलन तो बड़ी है। अपने ही हाथों से अपने को चिता पर चढ़ाने जैसी है।
साधारण प्रेम की जलन तो तुमने जानी है! किसी से तुम्हारा प्रेम हो गया, तो मिलने की कैसी आतुरता होती है! चौबीस घड़ी सोते-जागते एक ही धुन सवार रहती है; एक ही स्वर भीतर बजता रहता है इकतारे की तरह--मिलना है, मिलना है! एक ही छवि आंखों में समाई रहती है। एक ही पुकार उठती रहती है। हजार कामों में उलझे रहो--बाजार में, दुकान में, घर में--मगर रह-रह कर कोई हूक उठती रहती है।
साधारण प्रेम में ऐसा होता है तो भक्ति की तो तुम थोड़ी कल्पना करो! करोड़ों-करोड़ों गुनी गहनता! और अंतर केवल मात्रा का ही नहीं है, गुण का भी है। क्योंकि यह प्रेम तो क्षणभंगुर है जो इतना सताता है। जिससे आज प्रेम है, हो सकता है कल समाप्त हो जाए। जिसकी आज याद भुलाए नहीं भूलती, कल बुलाए-बुलाए न आए, यह भी हो सकता है। आज जिसे चाहो तो नहीं भूल सकते, कल जिसे चाहो तो याद न कर पाओ, यह भी हो सकता है। यह तो क्षणभंगुर है, यह तो पानी का बबूला है। यह इतना जला देता है। यह पानी का बबूला ऐसे फफोले उठा देता है आत्मा में, तो जब शाश्वत से प्रेम जगता है तो स्वभावतः सारी आत्मा दग्ध होने लगती है।
संत दरिया ठीक कहते हैं। वह एक और पहलू हुआ सत्य का कि उसके मार्ग पर जलना ही जलना है। और चूंकि उपनिषद कहते हैं कि उसके मार्ग पर चलना खड्ग की धार पर चलना है और दरिया कहते हैं कि उसके मार्ग पर चलना अग्नि लगे जंगल से गुजरना है, इसीलिए मैं तुमसे कहता हूं: नाचते जाना, गाते जाना! नहीं तो रास्ता काट न पाओगे। जब तलवार पर ही चलना है तो मुस्कुरा कर चलना। मुस्कुराहट ढाल बन जाएगी। नाच सको तो तलवार की धार मर जाएगी। गीत गा सको तो आग भी शीतल हो जाएगी। चूंकि उपनिषद सही, चूंकि दरिया सही, इसलिए मैं सही। जाओ नाचते, गाते, गीत गुनगुनाते। यह तीसरा पहलू है।
जब उस परमात्मा से मिलने चले हैं तो उदास-उदास क्या? साधारण प्रेमी से मिलने जाते हो तो कैसे सज कर जाते हो! देखा किसी स्त्री को अपने प्रेमी से मिलने जाते वक्त? कितनी सजती है! कितनी संवरती है! कैसी अपने को आनंद-विभोर, मस्त-मगन करती है! कैसे उसके ओंठ प्रेम के वचन कहने को तड़फड़ाते हैं! कैसे उसका हृदय लबालब रस से भरा, उंडलने को आतुर! कैसे उसका रोआं-रोआं नाचता है! और तुम परमात्मा से मिलने जाओगे, और उदास-उदास?
उदास-उदास यह रास्ता तय नहीं हो सकता। रास्ता वैसे ही कठिन है; तुम्हारी उदासी और मुश्किल खड़ी कर देगी। रास्ता वैसे ही दुर्गम है। तुम उदास चले तो पहाड़ सिर पर लेकर चले। तलवार की धार पर चले और पहाड़ सिर पर लेकर चले, बचना मुश्किल हो जाएगा। जब तलवार की धार पर ही चलना है तो पैरों में घुंघरू बांधो!
मीरा ठीक कहती है: पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे!
जब तलवार पर ही चलना है तो पैर में घुंघरू तो बांध लो! मैं तुमसे कहता हूं: अगर तुम्हारे पैरों में घुंघरू हों तो तुमने तलवार को बोथला कर दिया। ओंठों पर गीत हों--मस्त, अलमस्त--जैसे आषाढ़ के पहले-पहले बादल घिरे हैं और मत्त मयूर नाचता है, ऐसे तुम नाचते चलो। तलवारें ही तब फूलों की भांति कोमल हो जाएंगी। कांटे फूल हो जाएंगे!
और तुमसे कहता हूं: उत्सव मनाते चलो। क्योंकि उत्सव ही तुम्हें चारों तरफ शीतलता से घेर लेगा। फिर कोई लपट तुम्हें जला न पाएगी। जंगल में लगी रहने दो आग, मगर तुम इतने शीतल होओगे कि आग तुम्हारे पास आकर शीतल हो जाएगी। अंगारे तुम्हारे पास आते-आते बुझ जाएंगे। लपटें तुम्हारे पास आते-आते फूलों के हार बन जाएंगी।
उपनिषद सही, दरिया सही, मैं भी सही। इनमें कुछ विरोधाभास नहीं है। परमात्मा के संबंध में हजारों वक्तव्य दिए जा सकते हैं, जो एक-दूसरे के विपरीत लगते हों। फिर भी उनमें विरोधाभास नहीं होगा। क्योंकि परमात्मा विराट है। सारे विरोधों को समाए है। सारे विरोधों को आत्मसात किए हुए है। उसमें फूल भी हैं और कांटे भी हैं। उसमें रातें भी हैं और दिन भी हैं। उसमें खुला आकाश भी है, जब सूरज चमकता है; और बदलियों से घिरा आकाश भी है, जब सूरज बिलकुल खो जाता है। परमात्मा में सब है, क्योंकि परमात्मा सब है।
उपनिषद सिर्फ एक पहलू की बात कहते हैं, दरिया दूसरे पहलू की बात कहते हैं। उपनिषद और दरिया भिन्न-भिन्न बात नहीं कह रहे हैं। और उपनिषद में और दरिया में तो तुम थोड़ा संबंध भी जोड़ लोगे कि ठीक है, खड्ग की धार पर चलना कि जलना, इन दोनों में संबंध जुड़ता है। मैं तुमसे बहुत ही उलटी बात कह रहा हूं। मैं कहता हूं: नाचते हुए, गीत गाते हुए, उत्सव मनाते हुए...। प्रभु से मिलने चले हो, श्रृंगार करो। प्रभु से मिलने चले हो, बंदनवार बांधो। उस अतिथि को बुलाया, महाअतिथि को--द्वार पर स्वागत, स्वागतम का आयोजन करो। रांगोली सजाओ। इतने महाअतिथि को निमंत्रण दिया है तो घर में दीये जलाओ। दीवाली मनाओ! कि गुलाल उड़ाओ। कि होली और दीवाली साथ ही साथ हो। कि छेड़ो वाद्य, कि गीत उठने दो, कि संगीत जगने दो। उस बड़े मेहमान को तभी तुम अपने हृदय में समा पाओगे।
वह मेहमान जरूर आता है; बस तुम्हारे तैयार होने की जरूरत है। और बिना उत्सव के तुम तैयार न हो सकोगे। उत्सवरहित हृदय में परमात्मा का आगमन न कभी हुआ है, न हो सकता है। क्योंकि परमात्मा उत्सव है। रसो वै सः! वह रसरूप है। तुम भी रसरूप हो जाओ तो रस का रस से मिलन हो। समान का समान से मिलन होता है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, वो नगमा बुलबुले रंगी-नवा इक बार हो जाए। कली की आंख खुल जाए, चमन बेदार हो जाए।।
निर्मल चैतन्य! वह गीत गाया ही जा रहा है। वह नगमा हजार-हजार कंठों से गूंज रहा है। अस्तित्व का कण-कण उसे ही दोहरा रहा है। उसका ही पाठ हो रहा है चारों दिशाओं में--अहर्निश।
और तुम कहते हो: ‘वो नगमा बुलबुले रंगी-नवा इक बार हो जाए।’
वही है! बज रहा है! सब तारों पर वही सवार है। सब द्वारों पर वही खड़ा है। तुम कहते हो: इक बार? वही बार-बार हो रहा है।
‘कली की आंख खुल जाए, चमन बेदार हो जाए।’
कलियां खिल गई हैं, चमन बेदार है; तुम बेहोश हो। दोष कलियों को मत दो और दोष चमन को भी मत देना। और यह सोच कर भी मत बैठे रहना कि वह गीत गाए तो मैं सुनने को राजी हूं। वह गीत गा ही रहा है। वह गीत है। वह बिना गाए रह ही नहीं सकता। कौन पक्षियों में गा रहा है? कौन फूलों में गा रहा है? कौन हवाओं में गा रहा है? अनंत-अनंत रूपों में उसी की अभिव्यक्ति है।
लेकिन अक्सर हम ऐसा सोचते हैं। निर्मल चैतन्य ही ऐसा सोचते हैं, ऐसा नहीं; अधिकतर लोग ऐसा ही सोचते हैं कि एक बार परमात्मा दिखाई पड़ जाए, एक बार उससे मिलन हो जाए! और रोज तुम उससे ही मिलते हो, मगर पहचानते नहीं! जिसमें भी आता है तुम्हारे द्वार, वही आता है। मगर प्रत्यभिज्ञा नहीं होती। उसके अतिरिक्त यहां कोई है ही नहीं।
तुम पूछते हो: परमात्मा कहां है?
मैं पूछता हूं: परमात्मा कहां नहीं है?
लेकिन हम बहाने खोजते हैं। हम कहते हैं: गीत बजता, जरूर हम सुनते। यह नहीं सोचते कि हम बहरे हैं। क्योंकि अगर हम कहें कि हम बहरे हैं, तो फिर कुछ करना पड़े। जिम्मेवारी अपने पर आ जाए। कहते हैं: सूरज निकलता तो हम दर्शन करते; झुक जाते सूर्य-नमस्कार में। यह नहीं कहते कि हम अंधे हैं, या कि हमने आंखें बंद कर रखी हैं। क्योंकि यह कहना कि हमने आंखें बंद कर रखी हैं, फिर दोष तो अपना ही हो जाएगा। और जब दोष अपना हो जाएगा तो बचने का उपाय कहां रह जाएगा?
सूरज नहीं निकला, इसलिए हम करें तो क्या करें? सितार नहीं बजी उसकी, तो हम करें तो क्या करें? फूल नहीं खिले उसके, तो हम नाचें तो कैसे नाचें? बहाने मिल गए, सुंदर बहाने मिल गए। इनकी ओट में अपने को छिपाने का उपाय हो जाएगा! वह प्यारा हमारे द्वार पर दस्तक ही नहीं दिया तो हम कहें तो किसको कहें कि आओ? हम द्वार किसके लिए खोलें? दस्तक तो दे! हम ये पलक-पांवड़े किसके लिए बिछाएं? उसका कुछ पता तो चले, कम से कम पगध्वनि तो सुनाई पड़े!
ये मनुष्य की तरकीबें हैं। ये तरकीबें हैं अपने को बचा लेने की। ये तरकीबें हैं कि हम जैसे हैं ठीक हैं। गलती है अगर कुछ तो उसकी है। कली की आंख खुलती, तो चमन तो बेदार होने को राजी था। कली की आंख नहीं खुलती, चमन बेदार कैसे हो?
और मैं तुमसे कहता हूं: हजारों-हजारों कलियों की आंखें खुली हैं। चमन बेदार है! तुम सोए हो, सिर्फ तुम सोए हो! जिम्मेवारी है तो सिर्फ तुम्हारी है। यह तीर तुम्हारे हृदय में चुभ जाए--कि जिम्मेवारी है तो सिर्फ मेरी है; मैंने आंखें बंद कर रखी हैं; मैंने कान वज्र-बधिर कर रखे हैं--तो क्रांति की शुरुआत हो गई। तो पहली किरण शुरू हुई। तो पहला कदम उठा। अब कुछ किया जा सकता है। अगर आंख मैंने बंद की हैं, तो कुछ कर सकता हूं मैं; मेरे हाथ में कुछ बात हो गई। आंख खोल सकता हूं!
जब हम दूसरे पर टाल देते हैं और जब हम अनंत पर टाल देते हैं, तो हम निश्चिंत होकर सो रहते हैं। और एक करवट ले लो, कंबल को और खींच लो, और थोड़ा सो जाओ। अभी सुबह नहीं हुई है; जब सुबह होगी तब उठेंगे।
और मैं तुमसे कहता हूं: सुबह ही सुबह है। हर घड़ी सुबह है! सूरज निकला है। परमात्मा तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे रहा है। तुम सुनते नहीं। तुम सुन सको, इतने शांत नहीं। तुम्हारे भीतर बड़ा शोरगुल है। तुम्हारे भीतर बड़ा तूफान है, बड़ी आंधियां, बवंडर--विचारों के, वासनाओं के। तुम्हारी आंखें बंद हैं--पांडित्य से, शास्त्रों से, तथाकथित ज्ञान से। तुम्हारी आंखों पर इतनी किताबें हैं कि बेचारी आंखें खुलें भी तो कैसे खुलें? किसी की आंख वेद से बंद है, किसी की कुरान से, किसी की बाइबिल से। तुम इतना जानते हो, इसलिए जानने से वंचित हो। थोड़े अज्ञानी हो जाओ।
मैं तुमसे कहता हूं: थोड़े अज्ञानी हो जाओ। मैं अपने संन्यासियों को अज्ञानी होना सिखा रहा हूं। छीन रहा हूं ज्ञान उनका। क्योंकि ज्ञान ही धूल है दर्पण पर। और ज्ञान छिन जाए और दर्पण कोरा हो जाए--निर्दोष, जैसे छोटे बच्चे का मन, ऐसा निर्दोष--तो फिर देर नहीं होती, पल भर की देर नहीं होती। तत्क्षण उसकी पगध्वनि सुनाई पड़ने लगती है। तत्क्षण द्वार पर उसकी दस्तक सुनाई पड़ने लगती है। तत्क्षण सारा चमन बेदार मालूम होता है। मस्ती ही मस्ती! सब तरफ उसके गीत गूंजने लगते हैं। फिर तुम जहां भी हो, मंदिर है; और जहां भी हो, वहीं तीर्थ है।
आंख से धूल हटे...और धूल ज्ञान की है, मुश्किल यही है। क्योंकि तुम धूल को धूल मानो तो हटा दो अभी। तुम धूल को समझ रहे हो कि सोना है, हीरे-जवाहरात हैं। सम्हाल कर रखे हो!
इस जगत में सबसे ज्यादा कठिन चीज छोड़ना ज्ञान है। धन लोग छोड़ देते हैं। धन बहुतों ने छोड़ दिया है। घर-द्वार छोड़ देते हैं। वह बहुत कठिन नहीं है। घर-द्वार छोड़ना बहुत सरल है, क्योंकि कौन घर-द्वार से ऊब नहीं गया है? सच तो यह है कि घर-द्वार में रहे आना बड़ी तपश्चर्या है। जो रहते हैं, उनको तपस्वी कहना चाहिए--हठयोगी! पिट रहे हैं, मगर रह रहे हैं। तुम उनको संसारी कहते हो और भगोड़ों को संन्यासी कहते हो! जो भाग गए कायर, उनको कहते हो संन्यासी। और बेचारे ये, जो सौ-सौ जूते खाएं, तमाशा घुस कर देखें! इनको तुम कहते हो कि संसारी। जूतों पर जूते पड़ रहे हैं, मगर उनके कान पर जूं नहीं रेंगती। डटे हैं! हठयोगी कहता हूं मैं इनको! इनकी जिद तो देखो! इनका संकल्प तो देखो! इनकी दृढ़ता तो देखो! इनकी छाती तो देखो! बड़े मजबूत हैं! इनको तुम पापी कहते हो?
संसार से भागना तो बिलकुल आसान है। कौन नहीं भागना चाहता है? संसार में है क्या? तकलीफें ही तकलीफें हैं, जंजाल ही जंजाल हैं। दुखों पर दुख चले आते हैं। बदलियां घनी से घनी, काली से काली होती चली जाती हैं।
अंग्रेजी में कहावत है कि हर काले बादल में एक रजत-रेखा होती है। एवरी क्लाउड हैज ए सिल्वर लाइन। अगर तुम संसार को देखो तो हालत बिलकुल उलटी है। एवरी सिल्वर लाइन हैज ए क्लाउड। हर रजत-रेखा के पीछे चला आ रहा है एक बड़ा काला बादल, भयंकर बादल! वह रजत-रेखा तो चमक कर क्षण भर में खत्म हो जाती है। और फिर काला बादल छाती पर बैठ जाता है, जो पीछा नहीं छोड़ता। वह रजत-रेखा तो वैसे ही है जैसे कि मछुआ, मछलीमार कांटे में आटा लगा कर बंसी लटका कर बैठ जाता है तालाब के किनारे। कोई आटा खिलाने के लिए मछलियों के लिए नहीं लाया है। आटे में छिपा कांटा है। मछलियों को फांसने आया है; कोई मछलियों को भोजन कराने नहीं आया है।
एक झील पर मछली मारना मना था। बड़ा तख्ता लगा था कि मछली मारना मना है, सख्त मना है। और जो भी मछली मारेगा, उस पर अदालत में मुकदमा चलाया जाएगा। स्वभावतः उस झील में खूब मछलियां थीं। मुल्ला नसरुद्दीन मजे से मछलियां मारने बैठा था वहां। आ गया मालिक बंदूक लिए। उसने कहा: नसरुद्दीन, तख्ती पढ़ी?
नसरुद्दीन ने कहा: हां, पढ़ी।
फिर क्या कर रहे हो?
बंसी लटका कर बैठा था। कहा: कुछ नहीं, जरा मछलियों को तैरना सिखा रहा हूं।
कोई मछलियों को तैरना सिखाने की जरूरत है? कि मछलियों को आटा खिलाने के लिए कोई उत्सुक है? आटा खुद नहीं मिल रहा है। लेकिन आटे के बिना मछली कांटे को लीलेगी नहीं। प्रयोजन कांटा है।
वह जो रजत-रेखा चमकती है बादल में, वह तो आटा है। पीछे चला आ रहा है काला बादल! आशाओं की तरह रजत-रेखा है। संसार में बस आशाएं हैं, उनकी पूर्ति तो कभी होती नहीं। बस आश्वासन। बस दूर से सब अच्छा लगता है।
एक महिला ने मुझसे कहा कि मेरी बड़ी मुसीबत है; मैं दूर से सुंदर मालूम पड़ती हूं। और बात सच थी। दूर से देखो तो बहुत फोटोजनिक, चित्र उतारने की तबीयत हो जाए। लेकिन उसकी तकलीफ यह है कि पास आओ तो बड़ी भद्दी हो जाती है। कुछ लोग होते हैं जो दूर से सुंदर दिखाई पड़ते हैं, पास आओ...। तो मैं क्या करूं?
तो मैंने कहा: तू एक काम कर, जितनी प्याज-लहसुन खा सके खा।
उसने कहा: प्याज-लहसुन! इससे मैं सुंदर हो जाऊंगी?
मैंने कहा: सुंदर तू नहीं हो जाएगी, मगर कोई तेरे पास नहीं आएगा। तू सुंदर दिखाई पड़ती रहेगी।
इस जगत में सब चीजें दूर से सुंदर दिखाई पड़ती हैं। पास आओ, सब विकृत होने लगता है। जैसे-जैसे पास आओ, सब सपने उखड़ने लगते हैं, सब आशाएं टूटने लगती हैं। जैसे-जैसे पास आओ, तथ्य उभरने लगते हैं। आटा खो जाता है और कांटा हाथ लगता है। लेकिन तब तक बहुत देर हो गई होती है। तब तक उलझ गए होते हो। फिर उलझाव से निकलना मुश्किल हो जाता है। जितनी निकलने की चेष्टा करते हो, उतना उलझाव बढ़ता चला जाता है। क्योंकि निकलने की चेष्टा में नये उलझाव खड़े करने पड़ते हैं।
तुमने देखा, कभी एक झूठ बोल कर देखा? एक झूठ बोलो, फिर दस झूठ बोलने पड़ते हैं। क्योंकि उस एक झूठ को बचाना है। और दस बोले तो हजार बोलने पड़ेंगे, क्योंकि उनको बचाना है। एक झूठ बोल कर जो फंसे, तो शायद जिंदगी भर झूठ बोलने पड़ें। सत्य की यही खूबी है कि एक बोला कि उसके पीछे कोई सिलसिला नहीं। तुम ऐसा समझो कि सत्य बांझ है, उसके बाल-बच्चे नहीं होते। सत्य संतति-नियमन को मानता है। झूठ पक्का हिंदुस्तानी है! जब तक दर्जन दो दर्जन बच्चे पैदा न कर दे, तब तक झूठ का मन नहीं भरता। बस बच्चे पैदा करते चला जाता है।
सबसे बड़ा झूठ आदमी ने जो बोला है, वह यह है कि दोष किसी और का है। यह सबसे बड़ा झूठ है। यह बड़े से बड़ा झूठ है। यह आधारभूत झूठ है। फिर सारे झूठों के महल इसी पर खड़े होते हैं।
मैं क्या करूं? परमात्मा कहीं दिखाई नहीं पड़ता, अन्यथा मैं तो उसके चरणों में झुक जाने को राजी हूं। मैं क्या करूं? उसकी आवाज मुझे सुनाई नहीं पड़ती, अन्यथा मैं तो जहां पुकारे वहां जाने को राजी हूं; किसी दूर चांद-तारों पर पुकारे तो वहां जाने को राजी हूं! मैं तो सब समर्पण करने को तैयार हूं, लेकिन पुकार तो सुनाई पड़े! आवाज तो आए!
और आवाज रोज आ रही है, प्रतिपल आ रही है--और तुम कानों में अंगुलियां डाले बैठे हो। लेकिन अंगुलियां तुम जन्मों-जन्मों से डाले हो। तो शायद तुम सोचते हो कि कानों में अंगुलियों का डाला होना, यही स्वाभाविक है। और आंखों पर तुम्हारे इतनी धूल है...और धूल चूंकि ज्ञान की है, और ज्ञान की बड़ी महिमा और प्रतिष्ठा गाई गई है--कि जहां राजा का भी सम्मान नहीं होता, वहां भी विद्वान पूजे जाते हैं! सदियों-सदियों से तुम्हें समझाया गया है कि ज्ञान की बड़ी गरिमा है, बड़ी महिमा है। वेद कंठस्थ करो, उपनिषद दोहराओ। और परिणाम में तुम सिर्फ तोते हो गए हो। उपनिषद भी दोहराते हो, वेद भी दोहराते हो। ज्ञान तो कुछ हुआ नहीं, ज्ञान के नाम पर थोथे शब्दों का जाल तुम्हारी आंखों पर छा गया है। जाली छा गई है तुम्हारी आंखों पर। अब तुम्हें कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
परमात्मा सामने खड़ा है। तुम जहां मुंह करो वहीं खड़ा है। तुम उसके अतिरिक्त और किसी के संपर्क में कभी आते ही नहीं। तुम्हारी पत्नी में भी वही है, तुम्हारे पति में भी वही है। तुम्हारे घर जो बेटा पैदा हुआ है, उसमें भी वही फिर आया है--नया संस्करण उसका फिर! लेकिन आंख से जाली कटनी चाहिए।
निर्मल चैतन्य! ज्ञान छोड़ो, ध्यान पकड़ो! दरिया ठीक कहते हैं: ध्यान हो तो ज्ञान अपने से जन्मता है। वह ज्ञान तुम्हारे भीतर से आएगा, तभी ज्ञान है। जब तक बाहर से आए, तब तक अज्ञान को छिपाने की प्रक्रिया है, और कुछ भी नहीं।
सोचो बैठ कर कभी, तुम जो भी जानते हो, वह भीतर से आया है या बाहर से? और तुम बड़े चकित हो जाओगे। तुम पाओगे कि सब बाहर से आया है। तो सब बेकार है। और बेकार ही नहीं है, बाधक है, अड़चन है। उतने का ही भरोसा करो जो तुम्हारे भीतर से आया हो। जो तुम्हारे ध्यान में उमगा हो, बस उसका ही भरोसा करना। उसका ही भरोसा रहे तो तुम्हें उसके नगमे अभी सुनाई पड़ें--अभी, यहीं! उसका ही भरोसा रहे तो तुम्हें उसका सौंदर्य अभी दिखाई पड़े--अभी, यहीं! अगर तुम थोड़े ज्ञान की पकड़ को छोड़ दो, फिर से अज्ञानी हो जाओ जैसे छोटे बच्चे...अज्ञान में एक निर्दोषता है!
मैं तुमसे कहता हूं: पंडित नहीं पहुंचते, अज्ञानी पहुंचते हैं। अज्ञानी से मेरा अर्थ है--जिसने बाहर के ज्ञान को बिलकुल इनकार कर दिया और जो भीतर डुबकी मार कर बैठ गया। और जिसने कहा कि जो मेरे भीतर अनुभव होगा, वही मेरा है, शेष सब उधार है, बासा है, उच्छिष्ट!
तुम दूसरों के जूते नहीं पहनते, दूसरों के कपड़े नहीं पहनते, और दूसरों का ज्ञान उधार ले लेते हो? दूसरों का जूठा भोजन नहीं करते और हजार-हजार ओंठों से जो शब्द जूठे हो गए हैं, उनको ही छाती लगा कर बैठ गए हो? इससे अड़चन है। नहीं तो आंख बंद करो, और उसका ही जलवा है।
हम वही हैं जो हम नहीं हैं।
भाव जो कभी मूर्त न हुए
शब्द जो कभी कहे नहीं गए
जीने की व्यथा में डूबे हुए स्वर
जो ध्वनित नहीं हो पाए
राग नहीं बने
जीवन के अचीन्हे सीमांत के
चरम क्षण
होने न होने के
अपनी अनंतता में ठहरे रहे
निरंतर अपनी अतींद्रिय संपूर्णता में
जीते रहे
पर बीते नहीं, भोगे नहीं गए...
आकार-रूप-हीन आघात
जो बस सहे ही गए
अनजाने अनचाहे
आंखों की कोरों में
उमड़े हुए आंसू-से अनदीखे
अटके ही रहे, झरे नहीं
वही हैं हम
जो नहीं हैं।
तुम वही हो गए हो जो तुम नहीं हो। क्योंकि उस ज्ञान को पकड़ लिया जो तुम्हारा नहीं; उस चरित्र को पकड़ लिया जो दूसरों ने तुम्हें पकड़ा दिया; उस संस्कार से भर गए, जो बासा ही नहीं है, उधार ही नहीं है, मुर्दा भी है! तुमने अपने अंतस को अवसर ही न दिया। तुमने स्व-स्फुरणा को मौका ही न दिया। इसलिए तुम वही हो गए हो जो तुम नहीं हो। और जो तुम हो, उसका तुम्हें पता भूल गया है। तुम जो हो, वही परमात्मा का एक रूप है। उसे कहीं खोजने और नहीं जाना है। अपने भीतर डुबकी मारनी है।
खोलो निज मन के वातायन
रवि-किरणों को
मत रोको
भीतर आने दो,
उनमें श्रद्धा और ज्ञान के
अनगिन जगमग दीप जल रहे!
खोलो निज मन के वातायन,
मुक्त पवन को
मत रोको
भीतर आने दो!
उसकी लहरों में
मानव-ममता के
सुरभित स्वप्न पल रहे!
और एक बार तुम शून्य हो जाओ, शांत हो जाओ, मौन हो जाओ, तो चांद में भी वही आएगा चांदी होकर और सूरज में भी वही आएगा सोना होकर। खोलो द्वार-दरवाजे। ज्ञान के ताले मार कर बैठे हो। खोलो द्वार-दरवाजे। आने दो हवाओं को। बहने दो हवाओं को। अस्तित्व से संबंध जोड़ो। मंदिरों से, मस्जिदों से संबंध तोड़ो। वृक्षों से, फूलों से, चांद-तारों से संबंध जोड़ो। क्योंकि वे जीवंत परमात्मा हैं। तुम मुर्दा मूर्तियों की पूजा में संलग्न हो।
दीये जल ही रहे हैं। आरती उतर ही रही है। फूल चढ़े ही हैं उसके चरणों में। तुम जरा देखो! तुम जरा जागो! तुम सोए हो। तुम गहरी नींद में हो।
दरिया ठीक कहते हैं: जागे में फिर जागना।
इस जागने को जागना मत समझ लेना। इसमें अभी और जागना है।
जागे में फिर जागना।
बस यही समाधि की परिभाषा है। और जो जागे में जाग गया, वह परमात्मा में जाग जाता है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आपको सुनता हूं तो लगता है कि पहले भी कभी सुना है। देखता हूं तो लगता है कि पहले भी कभी देखा है। वैसे मैं पहली ही बार यहां आया हूं। पहली ही बार आपको सुना और देखा है। मुझे यह क्या हो रहा है?
संदीप! यहां कोई भी नया नहीं है; न तुम नये हो, न मैं नया हूं। यहां जो तुम्हारे पास बैठे हुए लोग हैं, ये भी कोई नये नहीं हैं। न मालूम कितनी बार, न मालूम कितनी-कितनी राहों में, न मालूम कितने-कितने लोकों में, न मालूम कितनी-कितनी यात्राओं में, योनियों में मिलन होता रहा है। हम अनंत यात्री हैं। बिछुड़ते रहे, मिलते रहे।
इसलिए चकित न होओ, चौंको मत। यह भी हो सकता है कि मुझसे तुम्हारा मिलना कभी न हुआ हो। लेकिन मुझ जैसे किसी व्यक्ति से मिलना हुआ हो, तो भी याद आएगी; तो भी कोई दबी हुई गहन अचेतन की पर्तों में याद सरकेगी। क्योंकि बुद्धत्व का स्वाद एक है। अगर तुमने बुद्ध को देखा था; अगर तुमने नानक को देखा था; अगर तुमने कबीर या फरीद के साथ दो घड़ियां बिताई थीं; या कौन जाने, दरिया से दोस्ती रही हो--अगर तुमने अनंत-अनंत जीवन की यात्राओं में कभी भी किसी ध्यानस्थ व्यक्ति के पास दो क्षण बिताए थे, तो याद आएगी। क्योंकि ध्यान का स्वाद अलग-अलग नहीं होता।
बुद्ध ने कहा है: जैसे सागर को कहीं से भी चखो, खारा है; ऐसे ही बुद्धों को भी कहीं से चखो, उनका स्वाद एक ही है--जागरण का स्वाद है।
मैं कोई व्यक्ति नहीं हूं। व्यक्ति तो गया। व्यक्ति तो बहा। कब का बह गया। अब तो भीतर एक शून्य है। ऐसे शून्य का अगर तुमसे कभी भी संस्पर्श हुआ हो...और यह असंभव है कि अनंत-अनंत जन्मों में कभी न हुआ हो। यह असंभव है। यह हो ही नहीं सकता। इतने बुद्ध हुए हैं! इतने समाधिस्थ लोग हुए हैं! इतने जिन हुए, इतने पैगंबर, इतने तीर्थंकर, इतने सिद्ध! यह कैसे हो सकता है कि तुम कभी भी किसी बुद्ध की छाया में न बैठे होओ? यह कैसे हो सकता है कि सत्संग का स्वाद तुमने कभी न लिया हो? असंभव है। चाहे तुम्हारे बावजूद ही सही, कभी किसी राह पर दो कदम तुम जरूर किसी बुद्ध के साथ चल लिए होओगे। चूक गए। उस बार चूक गए, इस बार मत चूकना। इसीलिए कोई याद तुम्हारे भीतर उठ रही है, उभर रही है।
हम अनंत-अनंत जीवन की स्मृतियां अपने भीतर लिए बैठे हैं। भूल गए उन्हें, मगर वे मिटती नहीं हैं। शरीर छूट जाता है, लेकिन चित्त साथ चलता है। शरीर तो एक बार जो मिला, वह मिट्टी में गिर जाता है। लेकिन उसके भीतर चित्त--अनुभवों का जो संग्रह है--वह नई छलांग ले लेता है, वह नया जन्म ले लेता है। शरीर का नया जन्म नहीं होता, मन का नया जन्म हो जाता है।
इस बात को समझना। शरीर का नया जन्म हो ही नहीं सकता, क्योंकि शरीर मिट्टी है, गिरा सो गिरा। और आत्मा का नया जन्म हो ही नहीं सकता, क्योंकि आत्मा शाश्वत है; न उसका कोई जन्म है, न मृत्यु है। फिर जन्म किसका होता है?
दोनों के बीच में जो मन है, उसका ही जन्म होता है। यह जो पुनर्जन्म का सिद्धांत है, मन के ही संबंध में लागू होता है, आत्मा के संबंध में लागू नहीं होता। आत्मा का क्या जन्म? न कोई मृत्यु, न कोई जन्म। और शरीर का भी क्या जन्म, क्या मृत्यु? शरीर तो मरा ही हुआ है। शरीर है मृत्यु, मरणधर्मा, मिट्टी; उसका कोई जन्म नहीं होता, न कोई मरण होता है। वह तो मरा ही हुआ है। मरे की और क्या मौत होगी? और मरे का जन्म क्या हो सकता है? और आत्मा शाश्वत जीवन है। शाश्वत जीवन का कैसा जन्म और कैसी मृत्यु?
दोनों के मध्य में एक कड़ी है मन की। वही मन यात्रा करता है। वही मन नये-नये जन्म लेता है। उसी मन में तुम्हारे सारे जन्मों-जन्मों के संस्कार हैं। उन संस्कारों में मनुष्यों के ही संस्कार नहीं हैं; जब तुम पशु थे, उसके भी संस्कार हैं; जब तुम पक्षी थे, उसके भी संस्कार हैं; जब तुम वृक्ष थे, उसके भी संस्कार हैं; जब तुम एक चट्टान थे, उसके भी संस्कार हैं। तुम्हारे भीतर अस्तित्व की सारी आत्मकथा है। तुम छोटे नहीं हो। तुम्हारी उतनी ही लंबी कथा है जितनी लंबी कथा अस्तित्व की है। तुम अस्तित्व के सब रंग, सब ढंग जान चुके हो, पहचान चुके हो। लेकिन हर जन्म के बाद विस्मरण हो जाता है। लेकिन फिर भी किसी गहरी अनुभूति के क्षण में, किसी प्रीति के क्षण में, कोई स्मृति पंख फड़फड़ाने लगती है।
ऐसा ही कुछ हुआ होगा, संदीप!
तुम कहते हो: ‘आपको सुनता हूं तो लगता है कि पहले भी कभी सुना है।’
जरूर सुना होगा। मुझे सुना हो या न सुना हो, मगर मुझ जैसे किसी व्यक्ति को जरूर सुना होगा।
तुम कहते हो: ‘देखता हूं तो लगता है कि पहले भी कभी देखा है।’
मुझे देखा हो, न देखा हो, लेकिन जरूर कोई जलता हुआ दीया तुमने देखा होगा। और जब कोई जलते दीये को देखता है तो मिट्टी के दीये पर थोड़े ही नजर जाती है, ज्योति पर नजर जाती है। मिट्टी के दीये तो अलग-अलग हो जाते हैं, लेकिन ज्योति तो एक ही है। ज्योति तो अलग-अलग नहीं होती।
तुम कहते हो: ‘वैसे मैं पहली बार ही यहां आया हूं।’
यहां पहली बार आए होओगे, लेकिन यहां जैसी जगहें सदियों-सदियों से जमीन पर सदा-सदा रही हैं। तीर्थ उठते रहे हैं। क्योंकि जब भी कहीं कोई ज्योति जली, तीर्थ बना। जब भी कभी कोई बुद्ध हुआ, वहीं मंदिर उठा। जब भी कहीं कोई फूल खिला, भंवरे आए, गीत गूंजे, नाच हुआ। जब भी कोई बांसुरी बजी है प्राणों की तो रास रचा, राधा नाची! गोपियों ने मंडल बनाए, गीत गाए। सदियों-सदियों में यह होता रहा। जरूर कोई झलक, अतीत की कोई स्मृति फिर जग गई होगी, इसलिए तुम्हें ऐसा लगा है।
पुरवा जो डोल गई,
घटा-घटा आंगन में जूड़े से खोल गई।
बूंदों का लहरा दीवारों को चूम गया,
मेरा मन सावन की गलियों में झूम गया;
श्याम-रंग-परियों से अंबर है घिरा हुआ;
घर को फिर लौट चला बरसों का फिरा हुआ;
मइया के मंदिर में,
अम्मा की मानी हुई--
डुग-डुग, डुग-डुग-डुग, बधइया फिर बोल गई।
पुरवा जो डोल गई,
घटा-घटा आंगन में जूड़े से खोल गई।
बरगद की जड़ें पकड़ चरवाहे झूल रहे,
विरहा की तानों में बिरहा सब भूल रहे;
अगली सहालक तक ब्याहों की बात टली,
बात बड़ी छोटी पर बहुतों को बहुत खली;
नीम तले चौरा पर,
मीरा की बार-बार--
गुड़िया के ब्याहवाली चर्चा रस घोल गई।
पुरवा जो डोल गई,
घटा-घटा आंगन में जूड़े से खोल गई।
खनक चूड़ियों की सुनी मेंहदी के पातों ने,
कलियों पे रंग फेरा मालिन की बातों ने;
धानों के खेतों में गीतों का पहरा है,
चिड़ियों की आंखों में ममता का सेहरा है;
नदिया से उमक-उमक,
मछली वह छमक-छमक--
पानी की चूनर को दुनिया से मोल गई।
पुरवा जो डोल गई,
घटा-घटा आंगन में जूड़े से खोल गई।
झूलों के झूमक हैं शाखों के कानों में,
शबनम की फिसलन है केले की रानों में;
ज्वार और अरहर की हरी-हरी सारी है,
नई-नई फूलों की गोटा-किनारी है,
गांवों की रौनक है,
मेहनत की बांहों में--
धोबिन भी पाटे पे हइया छू बोल गई।
पुरवा जो डोल गई,
घटा-घटा आंगन में जूड़े से खोल गई।
जैसे कोई बहुत दिनों का दूर चला गया व्यक्ति अपने गांव वापस लौटे और हर छोटी-छोटी बात याद आने लगे--
पुरवा जो डोल गई,
घटा-घटा आंगन में जूड़े से खोल गई।
छोटी-छोटी बातें याद आने लगें--यह गांव का मंदिर, यह गांव का पनघट, पनघट पर घटी हुई रसभरी बातें, यह गांव का पुराना बरगद, इस बरगद के नीचे खेले गए खेल, इस बरगद पर डाले गए झूले, झूलों पर भरी गई पेंगें, यह गांव का बाजार, बाजार के भरने के दिन, बाजार में खरीदे गए खिलौने, सब याद आने लगता है। जैसे कोई वर्षों-वर्षों बाद अपने गांव लौटा हो!
बूंदों का लहरा दीवारों को चूम गया,
मेरा मन सावन की गलियों में झूम गया;
श्याम-रंग-परियों से अंबर है घिरा हुआ;
घर को फिर लौट चला बरसों का फिरा हुआ;
मइया के मंदिर में,
अम्मा की मानी हुई--
डुग-डुग, डुग-डुग-डुग, बधइया फिर बोल गई।
पुरवा जो डोल गई,
घटा-घटा आंगन में जूड़े से खोल गई।
ऐसा ही कुछ हो रहा है तुम्हें। कहीं फिर लौट आए हो, जहां कभी आना हुआ था! यह बात स्थान की नहीं है, समय की नहीं है। यह बात आत्मा की एक दशा की है। इन स्मृतियों को दबा मत देना, तर्क-जाल में डुबा मत देना, बुद्धि के विश्लेषण में नष्ट-भ्रष्ट मत कर डालना। इन स्मृतियों को उठने दो, फैलाने दो पंख! इन स्मृतियों को छाने दो, क्योंकि ये स्मृतियां तुम्हें याद दिलाएंगी कि पहले भी चूक गए थे, अब की बार न चूक जाना!
ऐसा हुआ, महावीर के जीवन में उल्लेख है। एक राजकुमार ने महावीर से दीक्षा ली। राजकुमार, महलों में रहा, सुख-सुविधाओं में पला। फिर महावीर के साथ जिस धर्मशाला में ठहरना पड़ा, नया-नया संन्यासी था, उसे जगह मिली बिलकुल दरवाजे पर। रात भर लोगों का आना-जाना, सो ही न सका। मच्छर अलग काटें। जमीन कड़ी। बिना बिस्तर के सोना। न तकिया पास; हाथ का ही तकिया! कभी ऐसे सोया नहीं था और ऐसी बेहूदी जगह--धर्मशाला का दरवाजा, जिस पर दिन भर भी लोग, रात भर भी लोग! फिर कोई आया, फिर किसी ने द्वार खटखटाया। फिर कोई मेहमान आया। फिर द्वार खोले गए, फिर मेहमान भीतर लिया गया।
आधी रात थी। उसने सोचा: यह क्या हुआ? यह मैं किस झंझट में पड़ गया! अच्छा-भला घर था, सुख-सुविधा थी। सुबह होते ही वापस लौट जाऊंगा। सोचा था कि चुपचाप ही लौट जाए, महावीर को कुछ कहना ठीक नहीं है। पर राजकुमार था, संस्कारी था। सोचा कि यह तो उचित न होगा। दीक्षा ली है, तो कम से कम उनको नमस्कार करके, क्षमा मांग कर कि नहीं, मुझसे न सधेगी, लौट जाऊं।
जैसे ही महावीर के पास पहुंचा, झुक कर नमस्कार किया, महावीर ने कहा: तो इस बार फिर लौट चले?
बड़ा हैरान हुआ राजकुमार, उसने कहा: इस बार? मैं तो पहली ही बार आपके पास आया हूं। क्या कभी पहले भी लौट गया हूं?
महावीर ने कहा: यह तुम दूसरी बार लौट रहे हो। मेरे पास नहीं आए थे पहली बार, मुझसे पहले जो तीर्थंकर हुए पार्श्वनाथ, उनके पास आए थे। और यही अड़चन। यही धर्मशाला का दरवाजा। यही एक हाथ का तकिया बना कर सोना। यही मच्छर। जरा याद करो!
महावीर ने ऐसे उकसाया जैसे कोई सिगड़ी में अंगारे को उकसाए। जरा झाड़ दी राख। एक स्मृति भभक कर उठी। दृश्य खुल गया। एक क्षण को उसकी आंख बंद हो गई। याद आया कि हां--पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हुई--याद आया कि हां, दीक्षित हुआ था। और याद आया कि बीच से ही लौट गया था। आंख आंसुओं से भर गई। महावीर के चरणों पर सिर रखा।
महावीर ने कहा: अब क्या इरादा है? रुकते हो कि जाते हो?
उस राजकुमार ने कहा: अब जाना कैसा! धन्यभागी हूं कि आपने याद दिला दी।
धन्यभागी हो तुम कि तुम्हें याद आ रही है। बिना मेरे दिलाए तुम्हें याद आ रही है; सो और भी धन्यभागी हो। भाग गए होओगे पहले कभी। आते-आते पास दूर छिटक गए होओगे। बनते-बनते साथ छूट गया होगा। किसी नाव पर चढ़ते-चढ़ते उतर गए होओगे। कोई द्वार खुलते-खुलते बंद हो गया होगा।
हंस-हंस कर मैं भूल चुका हूं आशा और निराशा को,
रो-रो कर मैं भूल चुका हूं सुख-दुख की परिभाषा को,
भूल चुका हूं सब कुछ केवल इतना मुझको याद रहा--
बनते देखा, मिटते देखा अपनी ही अभिलाषा को!
नहीं आज तक देख सका हूं निज धुंधले अरमानों को,
नहीं आज तक सुन पाया हूं उर के अस्फुट गानों को,
अरे, देखना-सुनना उसका, जिसका हो अस्तित्व यहां;
प्रेम मिटा देता है पल में अपने ही दीवानों को!
देखें किसमें कितनी तृष्णा किसमें कितनी ज्वाला है?
निर्जीवों के इस समूह में जीवित कौन निराला है?
आज हलाहल छलक रहा है पीड़ित जग की आंखों में,
सुधा समझ कर कौन यहां पर उसको पीने वाला है?
देखें किसमें अमिट साध है, किसमें अक्षत आशा है?
मिट-मिट कर फिर बनने वाली किसमें नव-अभिलाषा है?
आज मौन-निस्पंद पड़ा है विश्व मृत्यु की तंद्रा में;
जीवन का संदेश सुनाने वाली किसकी भाषा है?
देखें किसके उर में गति है, श्वासों में उच्छवास यहां?
किसके वैभव के अंतर में है अक्षय विश्वास यहां?
आज विकृत सीमित है जग के जीवन का उन्मुक्त प्रवाह,
इस असीम में लहराता है किसका पूर्ण विकास यहां?
किस गति से प्रेरित हो अविकल बहता है सरिता का जल?
किस इच्छा से पागल होकर लहरें उठतीं मचल-मचल?
कल-कल ध्वनि में छलक रहा है किस अभिलाषा का संगीत?
‘लय होने को प्रेम ढूंढता है असीम का वक्षस्थल!’
किस तृष्णा से आकुल होकर पिहु-पिहु रटता है चातक?
किस प्रिय का आह्वान कर रही कुहु-कुहु स्वर में कुहू अथक?
कलरव के उन सप्त स्वरों में है किससे मिलने की साध?
‘ढूंढ रहा अस्तित्व पूर्णता के सपने की एक झलक!’
आंख मूंद कर बढ़ते जाना, एक नियम दीवानों का,
सिर न झुकाना, लड़ते जाना, एक नियम मरदानों का,
श्वासों में गति, उर में गति है, यहां प्रगति ही एक नियम,
गति बनना, गति में मिल जाना, एक नियम गतिवानों का!
मैं एक चुनौती हूं--एक आह्वान! झकझोरता हूं तुम्हें। पूछता हूं तुमसे।
आंख मूंद कर बढ़ते जाना, एक नियम दीवानों का,
सिर न झुकाना, लड़ते जाना, एक नियम मरदानों का,
श्वासों में गति, उर में गति है, यहां प्रगति ही एक नियम,
गति बनना, गति में मिल जाना, एक नियम गतिवानों का!
चूके हो पहले, इस बार न चूकना। डर तो लगता है। सत्संग भय तो लाता है।
अरे, देखना-सुनना उसका, जिसका हो अस्तित्व यहां;
प्रेम मिटा देता है पल में अपने ही दीवानों को!
तो प्रेम तो मिटाता है। प्रेम तो जलाता है। लेकिन जिसमें हिम्मत है, जिसमें साहस है, वह हंसते हुए जलता है, वह हंसते हुए मिटता है। और जो हंसते हुए मिट जाए, वह उसे पा लेता है जिसका फिर कभी मिटना नहीं होता है।
देखें किसमें अमिट साध है, किसमें अक्षत आशा है?
मिट-मिट कर फिर बनने वाली किसमें नव-अभिलाषा है?
देखें किसके उर में गति है, श्वासों में उच्छवास यहां?
किसके वैभव के अंतर में है अक्षय विश्वास यहां?
मैं एक अवसर हूं कि तुम्हें मिटा दूं। जैसे मैं मिट गया हूं, वैसे तुम्हें मिटा दूं। भागने का मन बहुत होगा। बचने की बहुत चेष्टा होगी। स्वाभाविक है वह मन, वह चेष्टा। लेकिन स्वभाव से ऊपर उठने में ही मनुष्य की गरिमा है। स्वभाव के अतिक्रमण में ही मनुष्य की दिव्यता है।
संदीप! चिंता मत करना।
तुम पूछते हो: ‘मुझे यह क्या हो रहा है?’
तुम सोचते होओगे: मैं कोई पगला तो नहीं रहा हूं? कोई मस्तिष्क खराब तो नहीं हो रहा है? यहां पहले कभी आया नहीं; लगता है पहले आया हूं। पहले कभी देखा नहीं; लगता है पहले देखा है। पहले कभी सुना नहीं; लगता है सुना है। कहीं मेरा मस्तिष्क डांवाडोल तो नहीं हुआ जा रहा है? कहीं मैं अपना संयम, अपना नियंत्रण तो नहीं खोए दे रहा हूं?
ऐसा विचार उठना स्वाभाविक है। लेकिन इस विचार से ही जो अटक जाते हैं, वे कभी अतिक्रमण न कर पाएंगे। वे कभी अपने ऊपर आंखें न उठा पाएंगे। वे कभी, बुद्धि के ऊपर जो है, उसका संस्पर्श न कर पाएंगे। और जो है संस्पर्श करने योग्य, वह बुद्धि के पार है।
दरिया ने कहा न: न चित्त वहां पहुंचता, न मन वहां पहुंचता, न बुद्धि वहां पहुंचती, न शब्द की वहां गति है। सब पीछे छूट जाता है, सिर्फ शुद्ध चैतन्य मात्र वहां पहुंचता है।
जब मैं कहता हूं कि मैं तुम्हें पूरा मिटाना चाहता हूं, तो उसका इतना ही अर्थ है कि सिर्फ शुद्ध चैतन्य तुम्हारे भीतर रह जाए, और सब तुमसे अलग हो जाए, और सबसे तुम्हारा तादात्म्य टूट जाए, सिर्फ एक साक्षीभाव, मात्र साक्षीभाव ही तुम्हारे भीतर गहन हो जाए। फिर तुम्हारे लिए रहस्यों के द्वार खुलेंगे। खजाने, जो कभी फिर चुकते नहीं! अमृत, जिसकी हम जन्मों-जन्मों से तलाश कर रहे हैं और खोज नहीं पाए! और मजा यह है कि जिसे हम दूर खोज रहे हैं, वह बहुत पास है, पास से भी पास है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, आप कुछ कहते हैं, लोग कुछ और ही समझते हैं। यह कैसे रुकेगा?
हरिदास! यह कभी रुकेगा नहीं। यह रुक ही नहीं सकता। यह सदा-सदा से चला आया नियम है। रघुकुल रीति सदा चलि आई!
मैं जो कहूंगा, तुम उसे वैसा ही कैसे समझ सकते हो जैसा मैं कहता हूं? तुम उसे वैसा ही कैसे समझ सकते हो? कोई उपाय नहीं है। मैं पुकारता हूं एक पहाड़ से; तुम सरक रहे हो अपनी अंधेरी घाटियों में। तुम तक पहुंचते-पहुंचते मेरी आवाज मेरी आवाज नहीं रह जाएगी। तुम ज्यादा से ज्यादा घाटियों में मेरी गूंज सुनोगे, अनुगूंज सुनोगे, प्रतिध्वनि सुनोगे। और फिर प्रतिध्वनि भी तुम अपने ढंग से सुनोगे। मैं बोलूंगा पहाड़ के शिखर की स्वर्ण-मंडित शिखर की भाषा में, प्रकाशोज्ज्वल शिखर की भाषा में; तुम समझोगे घाटियों के अंधेरे की भाषा में। तुम पहले अनुवाद करोगे, तब समझोगे।
एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने में ही बहुत कुछ खो जाता है। फिर अगर गद्य हो तो भी खो जाता है; पद्य हो, तब तो बहुत कुछ खो जाता है। लेकिन यह तो मामला उन भाषाओं का है जो एक ही सतह की हैं--घाटी की भाषाएं। एक कोने में एक भाषा बोली जाती है, घाटी के दूसरे कोने में दूसरी भाषा बोली जाती है। लेकिन दोनों गुणात्मक रूप से अंधेरे की भाषाएं हैं। जब प्रकाशोज्ज्वल शिखर से कोई पुकारता है, तो भाषाओं का अंतर बहुत बड़ा है। गुणात्मक अंतर है। आकाश को पृथ्वी पर लाना, अदृश्य को दृश्य में लाना, निःशब्द को शब्द में लाना, शून्य को भाषा के वस्त्र पहनाने...सब अस्तव्यस्त हो जाता है। फिर तुम समझोगे, तुम समझोगे न! तुम अपने ही चित्त से समझोगे। और तो तुम्हारे पास समझने का अभी कोई उपाय नहीं है। अभी तुमने ध्यान तो जाना नहीं। अगर तुम ध्यान में बैठ कर मुझे सुनो, तो तुम वही समझोगे जो मैं कह रहा हूं।
लेकिन लोग मुझसे पूछते हैं कि पहले हम आपको समझें, तब तो ध्यान करें। पहले हमें भरोसा आ जाए कि आप जो कहते हैं ठीक ही कहते हैं, तब तो हम ध्यान की झंझट में पड़ें। पहले ध्यान क्या है, यह समझ में आ जाए, तो हम ध्यान करें।
ठीक ही कहते हैं, तर्कयुक्त बात कहते हैं। होशियार आदमी हैं। बाजार में आदमी जाता है, चार पैसे का घड़ा खरीदता है तो भी ठोंक-पीट कर देखता है, बजा कर देखता है--कहीं फूटा-फाटा तो नहीं! ऐसे ही चार पैसे गंवा न दें! जो आदमी चार पैसे के घड़े को भी ठोंक-बजा कर देखता है, वह ध्यान जैसी महाक्रांति में बिना सोचे-समझे उतर जाएगा, इसकी आशा रखनी उचित नहीं है। पहले समझेगा। और समझने में ही अड़चन है। समझेगा मन से, और मन ध्यान का दुश्मन है। मन और ध्यान विपरीत हैं। मन है अंधेरा, ध्यान है ज्योतिर्मय। मन है मृत्यु, ध्यान है अमृत। मन है क्षणभंगुर, ध्यान है शाश्वत। कोई संबंध नहीं बैठता मन का और ध्यान का। बात ही नहीं बनती।
हरिदास! तुम्हारी तकलीफ मैं समझता हूं, तुम्हारी पीड़ा मैं समझता हूं। तुम उतरने लगे ध्यान में, तुम्हें कुछ-कुछ बात समझ में पड़ने लगी। तो तुम्हें बेचैनी होती है कि लोग आपकी बात को गलत क्यों समझते हैं? कुछ का कुछ क्यों समझते हैं? लेकिन नाराज मत होना। उनकी भी मजबूरी है। वे भी क्या करें? उन पर अनुकंपा रखना। समझाए जाना।
इसीलिए तो रोज मैं समझाए जाता हूं। तुम कुछ भी समझो, तुम कुछ का कुछ समझो--मैं समझाए जाऊंगा। मेरी तरफ से कृपणता न होगी। आज नहीं समझोगे, कल नहीं समझोगे, परसों नहीं समझोगे--कब तक नहीं समझोगे? एकाध दिन, शायद तुम्हारे बावजूद कोई किरण उतर जाए, कोई रंध्र मिल जाए, कोई थोड़ा सा द्वार-दरवाजा मुझे मिल जाए--और तुम तक पहुंच जाऊं और तुम्हारे प्राणों को छू लूं। एक बार तुम्हारी हृदयतंत्री बज जाए, बस फिर शुरुआत हुई। पहला पाठ हुआ। पहले पाठ तक पहुंचाने में ही वर्षों लग जाते हैं। अंतिम पाठ की तो बात ही नहीं करनी चाहिए।
गुरु पहले पाठ तक ही पहुंचा दे, बस काफी है; अंतिम पाठ तक तो फिर तुम स्वयं पहुंच जाओगे। पहला कदम उठ जाए तो अंतिम कदम बहुत दूर नहीं है। पहला कदम, पचास प्रतिशत यात्रा पूरी हो गई। क्योंकि फिर पहला कदम दूसरा उठवा लेगा, और दूसरा तीसरा उठवा लेगा...। फिर तो सिलसिला शुरू हो गया। श्रृंखला का जन्म हो गया। चल पड़े तुम, सम्यक दिशा मिल गई।
मगर साधारणतः तो लोग भीड़-भाड़, बाजार में कुछ का कुछ समझते ही रहेंगे। यहां आएंगे भी नहीं। मुझसे सीधा सुनेंगे भी नहीं। कोई उन्हें सुनाएगा। उसने भी किसी से सुना होगा।
अभी भारतीय संसद में घंटे भर उन्होंने मेरे संबंध में विवाद किया। उनमें से एक भी व्यक्ति यहां नहीं आया, जिन्होंने विवाद में भाग लिया। और सब इस तरह विवाद में भाग लिए जैसे जानकार हैं। एक ने भी साहस नहीं किया है आने का। लेकिन बोले ऐसे, जैसे सब जानते हैं; जैसे मैं जो कह रहा हूं, उसको समझते हैं। जैसे मैं जो यहां कर रहा हूं, उसकी उन्हें पहचान है! अफवाहों को लोग सुनते हैं। अफवाहों से लोग जीते हैं। और जिनको तुम समझदार कहते हो, बुद्धिमान कहते हो, वे भी अफवाहों से ही जीते और समझते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन से उसका एक मित्र बहुत परेशान हो गया था, क्योंकि मुल्ला ने उससे कुछ रुपया उधार लिया था। जब भी उससे मांगता रुपये मित्र, मुल्ला कहता: अगले महीने। और अगला महीना कभी आता ही नहीं। आखिर उसने एक दिन कहा कि तुम हर बार यही कहते हो--अगले महीने, फिर देते तो नहीं!
तो मुल्ला हंसने लगा, उसने कहा: तुम्हें यह समझ में नहीं आता कि अगर देना ही होता तो अगले महीने पर क्यों टालते? और फिर मैं हमेशा अगले महीने पर टालता हूं। मेरी संगति देखी? अपने वचन पर प्रतिबद्ध हूं। अगले महीने ही दूंगा। जो बात कह दी, कह दी। वचन का पक्का हूं। इस वचन को कभी खंडित न करूंगा।
मित्र आखिर थक गया। वर्षों गुजर गए। सैकड़ों तकाजों के बावजूद भी जब मुल्ला ने रुपया वापस करने का नाम नहीं लिया तो एक दिन मित्र ने कहा: अब तो मेरा इंसानियत पर से विश्वास ही उठ गया।
मुल्ला नसरुद्दीन ने तत्परता से कहा: भाई, इंसानियत पर से विश्वास उठ जाए तो कोई बात नहीं, मित्रता पर से विश्वास नहीं उठना चाहिए।
अपने-अपने ढंग हैं। अपनी-अपनी समझ है। शब्दों के अपने-अपने अर्थ हैं।
एक कवि का विवाह हुआ। प्रथम मिलन में ही कवि ने बड़े प्यार से अपनी बीबी से कहा: मेरी एक कविता सुनोगी?
बीबी तत्काल बोली: छोड़िए भी, कोई अच्छी बात करिए!
एक लॉज में हर रोज दो चम्मच गायब हो जाते थे। इसलिए जो लोग भोजन के लिए आते, उन पर फिर कड़ी निगरानी रखी गई। मुल्ला नसरुद्दीन हर रोज आता था, आज उस पर भी नजर रखी गई। जब उसने भोजन समाप्त कर लिया तो जल्दी से दो चम्मच उठा कर अपनी जेब में डाल लिए। फौरन उसको पकड़ भी लिया गया। नौकर उसे मालिक के पास ले गए। मालिक ने कहा: बड़े मियां! आप देखने से तो बड़े भोले-भाले मालूम पड़ते हैं। फिर आपको यह चोरी क्या शोभा देती है?
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी जेब में से एक कागज निकाल कर मालिक को दिया, जो डाक्टर का प्रिस्क्रिप्शन था; उसमें लिखा था: हर रोज भोजन के पश्चात दो चम्मच लेना।
अब करोगे क्या? लोग तो वैसा ही समझेंगे जैसा समझ सकते हैं।
तुम पूछते हो: ‘आप कुछ कहते हैं, लोग कुछ और ही समझते हैं।’
स्वाभाविक, जरा भी इसमें कुछ अघट नहीं हो रहा है। ऐसा ही सदा होता रहा है।
और तुम पूछते हो, हरिदास: ‘यह कैसे रुकेगा?’
यह रुकने वाला नहीं। कुछ के लिए रुक जाएगा। जो मेरे पास आ जाएंगे, जो मेरे निकट हो जाएंगे, जो मेरे सामीप्य में जीने लगेंगे, उनके लिए मिट जाएगा। बाकी वृहत भीड़ तो कुछ का कुछ सोचती ही रहेगी, कहती ही रहेगी। यही बुद्ध के साथ हुआ, यही महावीर के, यही मोहम्मद के, यही जीसस के। यही सदा हुआ है। यही आज भी होगा। यही कल भी होता रहेगा। भीड़ बहुत क्षुद्र बातों को ही समझ सकती है। बाजारू बातों को समझ सकती है। उसने आकाश की तरफ आंख उठा कर कभी देखा भी नहीं, फुर्सत भी नहीं, आकांक्षा भी नहीं। उससे तुम चांद-तारों की बातें करोगे, तो भीड़ कहेगी कि तुम झूठे हो।
तुमने कहानी सुनी है न! सागर का एक मेंढक एक बार एक कुएं में चला आया। कुएं के मेढक ने पूछा कि मित्र, कहां से आते हो?
उसने कहा: सागर से आता हूं।
कुएं के मेढक ने तो सागर शब्द सुना ही नहीं था। उसने कहा: सागर! यह किस कुएं का नाम है?
सागर से आया मेढक हंसने लगा, उसने कहा: यह कुएं का नाम नहीं है।
तो सागर क्या है?
बड़ी मुश्किल हुई सागर के मेढक को, वह कैसे समझाए सागर क्या है! कुएं का मेढक कभी कुएं के बाहर गया नहीं था। सागर तो दूर, उसने ताल-तालाब भी नहीं देखे थे। कुएं में ही बड़ा हुआ, कुएं में ही जीया, कुआं ही उसका संसार था। वही उसका समस्त विश्व था। कुएं के मेंढक ने एक तिहाई कुएं में छलांग लगाई और कहा: इतना बड़ा है तुम्हारा सागर?
सागर के मेढक ने कहा: मित्र, तुम मुझे बड़ी अड़चन में डाले दे रहे हो। सागर बहुत बड़ा है!
तो उसने दो तिहाई कुएं में छलांग लगाई, उसने कहा: इतना बड़ा है तुम्हारा सागर?
सागर के मेढक ने कहा कि मैं तुम्हें कैसे समझाऊं? तुम्हें कैसे बताऊं? सागर बहुत बड़ा है।
तो उसने पूरे कुएं में एक कोने से दूसरे कोने तक छलांग लगाई, उसने कहा: इतना बड़ा है तुम्हारा सागर? और जब सागर के मेढक ने कहा: यह तो कुछ भी नहीं है, अनंत-अनंत गुना बड़ा है। तो कुएं के मेढक ने कहा: तेरे जैसा झूठ बोलने वाला मेढक मैंने कभी देखा नहीं। बाहर निकल! किसी और को धोखा देना। तूने मुझे समझा क्या है? मैं कोई बुद्धू नहीं हूं कि तेरी बातों में आ जाऊं! मगर इसी वक्त बाहर निकल! इस तरह के झूठ बोलने वालों को इस कुएं में कोई जगह नहीं!
यह कहानी बड़ी अर्थपूर्ण है। यह आदमी की कहानी है। सुकरात को जब जहर दिया गया तो एथेंस के जजों ने यह निर्णय लिया कि या तो तुम मरने को राजी हो जाओ और या फिर तुम जो बातें कहते हो, वे बातें कहना बंद कर दो। दो में से कुछ भी चुन लो। तुम जो बातें कहते हो, वे बंद कर दो, तो तुम जी सकते हो। और अगर तुम उन बातों को जारी रखोगे तो सिवाय मृत्यु के और कोई उपाय नहीं है। फिर मृत्यु के लिए राजी हो जाओ।
सुकरात बातें क्या कह रहा था? सागर की बातें कर रहा था--कुएं के लोगों से! और कुएं के भीतर रहने वाले लोग सागर की बात सुन कर नाराज हो जाते हैं। सुकरात लगता है उन्हें खतरनाक। सुकरात का अपराध था यही, उसका यही अपराध अदालत ने तय किया था कि तुम लोगों को बिगाड़ते हो। सुकरात लोगों को बिगाड़ता है! सत्य की ऐसी शुद्ध अभिव्यक्ति बहुत कम लोगों में हुई है जैसी सुकरात में। सुकरात लोगों को बिगाड़ता है, यह अदालत का फैसला था। अदालत एथेंस के सबसे ज्यादा बुद्धिमान लोगों से बनी थी। एथेंस में जो सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली लोग थे, वे ही उस अदालत के न्यायाधीश थे। उन्होंने एक मत से निर्णय दिया था कि तुम चूंकि लोगों को बिगाड़ते हो, खासकर युवकों को...क्योंकि बूढ़े तो तुम्हारी बातों में आने से रहे, युवक तुम्हारी बातों में आ जाते हैं। क्योंकि बूढ़े तो इतने अनुभवी हैं कि तुम उनको धोखा नहीं दे सकते।
बूढ़े, मतलब जो कुएं में इतना रह चुके हैं कि अब मान ही नहीं सकते कि कुएं से भिन्न कुछ और हो सकता है। जवान वह, जो अभी कुएं में नया-नया आया है और जो सोचता है कि हो सकता है कि कुएं से भी बड़ी चीज हो। कौन जाने! जवान में जिज्ञासा होती है, खोज होती है, साहस भी होता है; नये को सीखने की तमन्ना भी होती है। बूढ़ा तो सीखना बंद कर देता है। जैसे-जैसे आदमी बूढ़ा होता जाता है वैसे-वैसे उसका सीखना क्षीण होता जाता है। और जो आदमी अपने बुढ़ापे तक सीखने को राजी है, वह बूढ़ा है ही नहीं। उसका शरीर ही बूढ़ा हुआ, उसकी आत्मा जरा भी बूढ़ी नहीं है। उसके भीतर अभी उतनी ही ताजगी है जितनी किसी छोटे बच्चे के भीतर हो। जो अंत तक सीखने को राजी है, उसके भीतर सदा ही युवावस्था बनी रहती है। और युवावस्था की ताजगी, और युवावस्था का बहाव, और युवावस्था की प्रतिभा बनी रहती है।
लेकिन लोग तो जल्दी बूढ़े हो जाते हैं। तुम सोचते हो कि सत्तर साल में बूढ़े होते हैं, तो तुम गलत सोचते हो। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अधिकतर लोग बारह वर्ष की उम्र के बाद रुक जाते हैं, फिर सीखते ही नहीं। बारह वर्ष--यह औसत मानसिक उम्र है दुनिया की! बारह वर्ष भी कोई उम्र हुई! सात वर्ष की उम्र में बच्चा पचास प्रतिशत बातें सीख लेता है, अब बस पचास प्रतिशत और सीखेगा। और अभी जिंदगी पड़ी है पूरी। और बारह वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते, या बहुत हुआ तो चौदह वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते सब ठहर जाता है। फिर सीखने का उपक्रम बंद हो जाता है। फिर तुम अपने ही कुएं के गोल घेरे में घूमने लगते हो। फिर तुम सागर की तरफ दौड़ती हुई सरिता नहीं रह जाते, रेल की पटरी पर दौड़ती हुई मालगाड़ी हो जाते हो--मालगाड़ी, पैसेंजर गाड़ी भी नहीं, क्योंकि भीतर तुम्हारे सिर्फ कूड़ा-कचरा भरा होता है! तुम्हारे भीतर जीवन भी नहीं होता। और रेल की पटरी पर दौड़ते रहते हो फिर। फिर तुम्हारे जीवन में और कोई स्वतंत्रता नहीं रह जाती। उसी पटरी पर दौड़ते-दौड़ते एक दिन मर जाते हो। कहीं पहुंचना नहीं हो पाता।
अधिक लोग तो मेरी बात नहीं समझेंगे। समझेंगे तो गलत समझेंगे। समझेंगे तो कुछ का कुछ समझेंगे। मैं इससे अन्यथा की आशा भी नहीं रखता। इसलिए मुझे इससे कुछ अड़चन नहीं होती। मुझे इससे कुछ विषाद नहीं होता। इससे मुझे कोई चिंता नहीं होती। यह होना ही चाहिए। अगर लोग मेरी बात बिलकुल वैसी ही समझ लें जैसी मैं कह रहा हूं तो चमत्कार होगा। ऐसा चमत्कार न तो कभी हुआ है, न हो सकता है। अभी मनुष्य से इतनी आशा करनी असंभव है।
निकली है सुबह, नहा के आंख मल के देखिए!
बैठे हुए हैं आप, जरा चल के देखिए!
है खा रही जमीन सितारों के फासले,
कितनी हसीन आग है, ये जल के देखिए!
तन कर खड़ी हैं चोटियां जो टूट जाएंगी,
बेहतर है इस हवा में आप ढल के देखिए!
गल-गल के बहे जा रहे हैं धूप में पहाड़,
गलना भी एक जिंदगी है, गल के देखिए!
फूलों से रंगी गंध है, गंधों से रंगी धूप,
साये हैं उड़ रहे किसी आंचल के देखिए!
कल तक तो फूल भी न खिल सके थे बाग के,
तिनके भी आज हैं खड़े खिल-खिल के देखिए!
मगर यह अनुभव की बात! आओ पास! चखो मुझे! पीओ मुझे!
निकली है सुबह, नहा के आंख मल के देखिए!
बैठे हुए हैं आप, जरा चल के देखिए!
लोग चलने को राजी नहीं, देखने को राजी नहीं, आंख खोलने को राजी नहीं। फिर कैसे उन्हें समझाओ? समझाए जाऊंगा। सौ को समझाऊंगा, दस सुनेंगे; नब्बे तो सुनेंगे ही नहीं। दस सुनेंगे, शायद एकाध समझे। पर उतना भी काफी पुरस्कार है, उतना भी काफी तृप्तिदायी है। अगर थोड़े से फूल भी खिल जाएं, अगर थोड़े से लोग भी बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाएं, तो इस पृथ्वी का हम रंग बदल देंगे। थोड़े से दीये जल जाएं तो बहुत अंधेरा टूट जाएगा। और फिर एक दीया जल जाए तो उससे और बुझे दीयों को जलाया जा सकता है।
बुद्धों की एक श्रृंखला पैदा करने का आयोजन है। संन्यास उसी दिशा में उठाया गया पहला कदम है। संन्यास का अर्थ है: आओ मेरे करीब। संन्यास का अर्थ है: घोषणा करो अपनी तरफ से कि तुम सामीप्य के आकांक्षी हो।
है खा रही जमीन सितारों के फासले,
कितनी हसीन आग है, ये जल के देखिए!
तन कर खड़ी हैं चोटियां जो टूट जाएंगी,
बेहतर है इस हवा में आप ढल के देखिए!
आओ, ढलो, पीओ, गलो!
गल-गल के बहे जा रहे हैं धूप में पहाड़,
गलना भी एक जिंदगी है, गल के देखिए!
वे थोड़े से लोग ही समझ पाएंगे, जो गलेंगे मेरे साथ; जो इस आग से नाचते हुए गुजरेंगे मेरे साथ। बाकी तो कुछ का कुछ समझेंगे। उन्हें समझने दो। उनकी चिंता भी न लो। उनकी उपेक्षा करो। दया रखना उन पर। क्रोध मत लाना। क्योंकि उनका कोई कसूर नहीं है। ऐसी ही उनकी मन की दशा है। इतनी ही उनकी पात्रता है। इतनी ही उनकी क्षमता है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, आपका मूल संदेश क्या है?
वही जो सदा से सभी बुद्धों का रहा है: अप्प दीपो भव! अपने दीये खुद बनो! अपने मांझी स्वयं बनो! किसी और के कंधे का सहारा न लेना। खुद खाओगे तो तुम्हारी भूख मिटेगी। खुद पीओगे तो तुम्हारी प्यास मिटेगी। सत्य को स्वयं जानोगे, तो ही, केवल तो ही संतोष की वीणा तुम्हारे भीतर बजेगी। मेरा जाना हुआ सत्य तुम्हारे किसी काम का नहीं।
मैं तुम्हें सत्य नहीं दे सकता। मैं तो सिर्फ तुम्हारे भीतर सत्य को पाने की अभीप्सा को प्रज्वलित कर सकता हूं। मैं तुम्हें सत्य नहीं दे सकता, लेकिन सत्य की ऐसी आग तुम्हारे भीतर पैदा कर सकता हूं कि तुम पतिंगे बन जाओ, कि तुम सत्य की ज्योति में जल मिटने को तत्पर हो जाओ।
कौन कहता है
कि मेरी नाव पर मांझी नहीं है,
आज मांझी मैं स्वयं इस नाव का हूं!
मैं नहीं स्वीकार करता
जलधि की छलनामयी
मनुहारमय रंगीन लहरों का निमंत्रण
आज तो स्वीकार मैंने की जलधि की
अनगिनत विकराल इन उद्दाम लहरों की चुनौती!
आज मेरे सधे हाथों में थमी पतवार।
लहरें नाव को आकाश तक फेंकें भले ही,
जाएं ले पाताल तक वे साथ अपने,
किंतु पाएंगी न इसको लील!
उनकी हार निश्चित
नाथ लेगी नाग-सी विकराल लहरों को
हृदय की आस्था की डोर!
लहरें शीश पर ढोकर स्वयं ले जाएंगी
यह नाव मेरे लक्ष्य तक!
क्योंकि अपनी नाव का मांझी स्वयं मैं,
और मेरे सधे हाथों में थमी पतवार!
यही मेरा संदेश है: मांझी बनो! पतवार उठाओ! थोड़ी पतवार चलाओ, हाथ सध जाएंगे। परमात्मा ने तुम्हारे हाथ इस योग्य बनाए हैं कि सध सकते हैं। सधना उनकी क्षमता है। बैसाखियों पर न चलो, अपने पैरों पर चलो! अपने मांझी बनो!
और घबड़ाओ मत। सागर की जो उद्दाम लहरें तुम्हें पुकार रही हैं, वे ही तुम्हें परमात्मा के किनारे तक ले जाएंगी। चुनौतियां ही अवसर हैं। चूको मत। हर चुनौती को अवसर बना लो।
राह पर पड़े पत्थर ही सीढ़ियां बन जाएंगे--तुम जरा सम्हलो, तुम जरा जागो! तुम्हें पता नहीं कि तुम्हारे भीतर कौन बैठा है! वही, जिसे तुम खोज रहे हो, तुम्हारे भीतर बैठा है। खोजने वाला और जिसे हम खोज रहे हैं, दो नहीं हैं। तुम्हारी अनंत क्षमता है। अमृतस्य पुत्रः! तुम अमृत के पुत्र हो!
प्रिय! तुम्हारे किस सजीले स्वप्न का आकार हूं मैं!
जो तुम्हारे नेत्र में नत है, वही श्रृंगार हूं मैं।
एक ही थी दृष्टि जिसमें
सृष्टि मेरी मुस्कुराई,
थी वही मुसकान जिसमें
हंसी जाकर लौट आई,
थी तुम्हारी गति कि जो
दुख में सदा सुख बन समाई
भाग्य-रेखा क्षितिज-रेखा
बन प्रभा से जगमगाई,
टूट कर भी नित्य बजता हूं, तुम्हारा तार हूं मैं।
प्रिय! तुम्हारे किस सजीले स्वप्न का आकार हूं मैं।
कौन सा वह क्षण दिया
जो प्राण में अनुराग बांधे,
कौन सा वह बल दिया
अनुराग में भी आग बांधे,
कौन सा साहस दिया जो
भूमि के भी भाग बांधे,
भूमि-भागों के मुकुट पर
मुस्कुराता त्याग बांधे,
सूख कर भी जो हृदय पर खिल रहा है, हार हूं मैं।
प्रिय! तुम्हारे किस सजीले स्वप्न का आकार हूं मैं!
चंद्र निष्प्रभ हो चला अब
रात ढलती जा रही है,
कौन सा संकेत है जो
सांस चलती जा रही है,
अवधि जितनी कम बची
उतनी मचलती जा रही है,
दीप्ति बुझने की नहीं
वह और जलती जा रही है,
मृत्यु को जीवन बनाने का अमिट अधिकार हूं मैं।
प्रिय! तुम्हारे किस सजीले स्वप्न का आकार हूं मैं!
तुम उस परमात्मा के स्वप्न हो। तुममें वही आकार लिया है, रूपायित हुआ है। तुम्हारी वीणा में उसी का संगीत छिपा है, छेड़ो!
जो बुद्धों का संदेश है--सब बुद्धों का, समस्त बुद्धों का--वही मेरा संदेश है: अप्प दीपो भव! अपने दीये बनो! अपने मांझी बनो!
आज इतना ही।
भगवान, उपनिषद कहते हैं कि सत्य को खोजना खड्ग की धार पर चलने जैसा है। संत दरिया कहते हैं कि परमात्मा की खोज में पहले जलना ही जलना है। और आप कहते हैं कि गाते-नाचते हुए प्रभु के मंदिर की ओर जाओ। इनमें कौन सा दृष्टिकोण सम्यक है?
आनंद मैत्रेय! सत्य के बहुत पहलू हैं। और सत्य के सभी पहलू एक ही साथ सत्य होते हैं। उनमें चुनाव का सवाल नहीं है। जिसने जैसा देखा, उसने वैसा कहा।
उपनिषद की बात ठीक ही है, क्योंकि सत्य के मार्ग पर चलना जोखिम की बात है। बड़ी जोखिम! क्योंकि भीड़ असत्य में डूबी है। और तुम सत्य के मार्ग पर चलोगे तो भीड़ तुम्हारा विरोध करेगी। भीड़ तुम्हारे मार्ग में हजार तरह की बाधाएं खड़ी करेगी। भीड़ तुम पर हंसेगी, तुम्हें विक्षिप्त कहेगी। भीड़ में एक सुरक्षा है। सत्य के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति अकेला पड़ जाता है। भीड़ उससे नाते तोड़ लेती है, उससे संबंध विच्छिन्न कर लेती है। समाज उसे शत्रु मानता है। नहीं तो जीसस को लोग सूली देते? कि मंसूर की गर्दन काटते? वे तुम्हारे जैसे ही लोग थे जिन्होंने जीसस को सूली दी और जिन्होंने मंसूर की गर्दन काटी। अपने हाथों को गौर से देखोगे तो उनमें मंसूर के खून के दाग पाओगे। तुम्हारे जैसे ही लोग थे। कोई दुष्ट नहीं थे। भले ही लोग थे। मंदिर और मस्जिद जाने वाले लोग थे। पंडित-पुरोहित थे। सदाचारी, सच्चरित्र, संत थे। जिन्होंने जीसस को सूली दी, वे बड़े धार्मिक लोग थे। और जिन्होंने मंसूर को मारा उन्हें भी कोई अधार्मिक नहीं कह सकता।
लेकिन क्या कठिनाई आ गई?
जब भी आंख वाला आदमी अंधों के बीच में आता है तो अंधों को बड़ी अड़चन होती है। आंख वाले के कारण उन्हें यह भूलना मुश्किल हो जाता है कि हम अंधे हैं। अहंकार को चोट लगती है। छाती में घाव हो जाते हैं। न होता यह आंख वाला आदमी, न हम अंधे मालूम पड़ते। इसकी मौजूदगी अखरती है। यह मिट जाए तो हम फिर लीन हो जाएं अपने अंधेपन में और मानने लगें कि हम जानते हैं, हमें दिखाई पड़ता है।
जब जानने वाला कोई व्यक्ति पैदा होता है, तो जिन्होंने थोथे ज्ञान के अंबार लगा रखे हैं, उन्हें दिखाई पड़ने लगता है कि उनका ज्ञान थोथा है। उनका ज्ञान लाश है। उसमें सांसें नहीं चलतीं, हृदय नहीं धड़कता, लहू नहीं बहता। उन्हें दिखाई पड़ने लगता है कि उन्होंने फूल जो हैं, बाजार से खरीद लाए हैं, झूठे हैं, कागजी हैं, प्लास्टिक के हैं। असली गुलाब का फूल न हो तो अड़चन पैदा नहीं होती, क्योंकि तुलना पैदा नहीं होती।
बुद्धों का जन्म तुलना पैदा कर देता है।
तुम अंधेरे घर में रहते हो, तुम्हारा पड़ोसी भी अंधेरे घर में रहता है, और पड़ोसियों के पड़ोसी भी अंधेरे घर में रहते हैं। तुम निश्चिंत हो गए हो। तुम्हें अंधेरे से कोई अड़चन नहीं है। तुमने मान लिया है कि अंधेरा ही जीवन का ढंग है, शैली है। जीवन ऐसा ही है, अंधेरा ही है। ऐसी तुम्हारी मान्यता हो गई।
फिर अचानक तुम्हारे पड़ोस में किसी ने अपने घर का दीया जला लिया। अब या तो तुम भी दीया जलाओ तो राहत मिले; या उसका दीया बुझाओ तो राहत मिले। और दीया जलाना कठिन है, दीया बुझाना सरल है। और दीया जलाना कठिन इसलिए भी है कि कितने-कितने लोगों को दीये जलाने पड़ेंगे, तब राहत मिलेगी। और बुझाना सरल है, क्योंकि एक ही दीया बुझ जाए तो फिर अंधेरा स्वीकृत हो जाए।
उपनिषद ठीक कहते हैं। सत्य के एक पहलू की तरफ इशारा है कि सत्य के मार्ग पर चलना तलवार की धार पर चलने जैसा है। और संत दरिया भी ठीक कहते हैं कि परमात्मा की खोज में जलना ही जलना है। विरह की अग्नि के बिना निखरोगे भी कैसे? जब तक विरह में जलोगे नहीं, तपोगे नहीं, राख न हो जाओगे विरह में--तब तक तुम्हारे भीतर मिलन की संभावना पैदा ही नहीं होगी। विरह में जो मिट जाता है, वही मिलन के लिए हकदार होता है, पात्र होता है। मिटने में ही पात्रता है। और जलन कोई साधारण नहीं होगी; रोआं-रोआं जलेगा; कण-कण जलेगा। क्योंकि समग्र होगी जलन, तभी समग्र से मिलन होगा। यह कसौटी है, यह परीक्षा है, और यह पवित्र होने की प्रक्रिया है। यही प्रार्थना है। यही भक्ति है।
तो दरिया भी ठीक कहते हैं। यह दूसरा पहलू हुआ सत्य का। यह आंतरिक पहलू हुआ सत्य का। पहली बात थी, जो बाहर से पैदा होगी। दूसरी बात है, जो तुम्हारे भीतर पैदा होगी।
समाज तुम्हें सताएगा; उसे सहा जा सकता है। कौन चिंता करता उसकी? ज्यादा से ज्यादा देह ही छीनी जा सकती है। तो देह तो छिन ही जाएगी। अपमान किया जा सकता है। तो नाम ठहरता ही कहां है इस जगत में? पानी पर खींची गई लकीर है, मिट ही जाने वाला है। लोग पत्थर फेंकेंगे, गालियां देंगे। मगर ये सब साधारण बातें हैं। जिसके भीतर लगन लगी सत्य की, वह इन सबके लिए राजी हो जाएगा। यह कुछ भी नहीं है। यह कोई बड़ा मूल्य नहीं है।
भीतर की आग कहीं ज्यादा तड़पाएगी। धू-धू कर जलेगी। अपने ही प्राण अपने ही हाथों जैसे हवन में रख दिए! हजार बार मन होगा कि हट जाओ! अभी भी हट जाओ! अभी भी देर नहीं हो गई है। अभी भी लौटा जा सकता है। हजार बार संदेह खड़े होंगे कि क्या पागलपन कर रहे हो? क्यों अपने को जला रहे हो? सारी दुनिया मस्त है और तुम जल रहे हो! सारे लोग शांति से सोए हैं और तुम जग रहे हो और तुम्हारी आंखों में नींद नहीं और तारे गिन रहे हो!
और एक दिन हो तो चल जाए। दिन बीतेंगे, माह बीतेंगे, वर्ष बीतेंगे। और कोई भी पक्का नहीं कि मिलन होगा भी! यही पक्का नहीं है कि परमात्मा है! पक्का तो उसी को हो सकता है जिसका मिलन हो गया। मिलन जिसका नहीं हुआ है, वह तो श्रद्धा से चल रहा है। होना चाहिए, ऐसी श्रद्धा से चल रहा है। होगा, ऐसी श्रद्धा से चल रहा है। झलकें दिखाई पड़ती हैं उसकी--सुबह उगते सूरज में, रात तारों भरे आकाश में, लोगों की आंखों में--झलकें मिलती हैं उसकी। इतना विराट आयोजन है तो इसके पीछे छिपे हुए हाथ होंगे। और इतना संगीतबद्ध अस्तित्व है तो इसके पीछे कोई छिपा संगीतज्ञ होगा। ऐसी मधुर वीणा बज रही है तो अपने से नहीं बज रही होगी। यह संयोग ही नहीं हो सकता।
वैज्ञानिक कहते हैं: जगत संयोग है; पीछे कोई परमात्मा नहीं है। एक वैज्ञानिक ने इस पर विचार किया कि अगर जगत संयोग है तो इसके बनने की संभावना कैसी है, कितनी है? उसने जो हिसाब लगाया वह बहुत हैरानी का है। उसने हिसाब लगाया है, बीस अरब बंदर, बीस अरब वर्षों तक, बीस अरब टाइप राइटरों पर खटापट-खटापट करते रहें, तो संयोग है कि शेक्सपियर का एक गीत पैदा हो जाए। संयोग है। बीस अरब बंदर, बीस अरब वर्षों तक, बीस अरब टाइप राइटरों को ऐसे ही खटरपटर-खटरपटर करते रहें, तो कुछ तो होगा ही। लेकिन शेक्सपियर का एक गीत पैदा करने में इतनी बीस अरब वर्षों की प्रतीक्षा करनी होगी--शेक्सपियर का एक गीत पैदा करने में!
और यह अस्तित्व गीतों से भरा है। हजार-हजार कंठों से गीत प्रकट हो रहे हैं। हजारों शेक्सपियर पैदा हुए हैं, होते रहे हैं। और जरा तारों के इस विस्तार को, इसकी गतिमयता को, इसके छंद को तो देखो! इस अस्तित्व की सुव्यवस्था को तो देखो! इसके अनुशासन को तो देखो! जगह-जगह छाप है कि अराजकता नहीं है। कहीं गहरे में कोई संयोजन बिठाने वाला हृदय है। कहीं कोई चैतन्य सबको सम्हाले है, अन्यथा सब कभी का बिखर गया होता।
कौन जोड़े है इस अनंत को? इस विस्तार को कौन सम्हाले है?
तुम मरुस्थल में जाओ और तुम्हें एक घड़ी मिल जाए पड़ी हुई, तो क्या तुम कल्पना भी कर सकते हो कि यह संयोग से बन गई होगी? हजारों-हजारों साल में, लाखों-लाखों साल में, करोड़ों-करोड़ों साल में पदार्थ मिलता रहा, मिलता रहा, मिलता रहा, फिर एक घड़ी बन गया! और घड़ी कोई बड़ी बात है? लेकिन एक घड़ी भी अगर तुम्हें रेगिस्तान में पड़ी मिल जाए तो भी पक्का हो जाएगा कि कोई मनुष्य तुमसे पहले गुजरा है, कि तुमसे पहले कोई मनुष्य आया है। घड़ी सबूत है। घड़ी अपने आप नहीं बन सकती। घड़ी नहीं बन सकती तो यह इतना विराट अस्तित्व कैसे बन सकता है?
घड़ी नहीं बन सकती तो मनुष्य का यह सूक्ष्म मस्तिष्क कैसे बन सकता है? सिर्फ पदार्थ की उत्पत्ति, जैसा मार्क्स कहता है? मार्क्स की सुंदर कृतियां, कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो नहीं बन सकता अकारण और न दास कैपिटल लिखी जा सकती है अकारण। संयोग मात्र नहीं है। पीछे कोई सधे हाथ हैं।
मगर यह श्रद्धा है। जब तक मिलन न हो जाए; जब तक परमात्मा से हृदय का आलिंगन न हो जाए; जब तक बूंद सागर में एक न हो जाए--तब तक यह श्रद्धा है। श्रद्धा सम्यक है, सार्थक है; मगर श्रद्धा श्रद्धा है, अनुभव नहीं है।
तो मिलन के पहले विरह की अग्नि तो होगी। और चूंकि मिलन की शर्त यही है कि तुम मिटो तो परमात्मा हो जाए। जब तक तुम हो, परमात्मा नहीं है। और जब परमात्मा है, तब तुम नहीं हो।
कबीर कहते हैं: हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।
चले थे खोजने, कबीर कहते हैं, और खोजते-खोजते खुद खो गए। और जब खुद खो जाते हैं, तभी खुदा मिलता है। जब तक खुदी है, तब तक खुदा नहीं है।
तो जलन तो बड़ी है। अपने ही हाथों से अपने को चिता पर चढ़ाने जैसी है।
साधारण प्रेम की जलन तो तुमने जानी है! किसी से तुम्हारा प्रेम हो गया, तो मिलने की कैसी आतुरता होती है! चौबीस घड़ी सोते-जागते एक ही धुन सवार रहती है; एक ही स्वर भीतर बजता रहता है इकतारे की तरह--मिलना है, मिलना है! एक ही छवि आंखों में समाई रहती है। एक ही पुकार उठती रहती है। हजार कामों में उलझे रहो--बाजार में, दुकान में, घर में--मगर रह-रह कर कोई हूक उठती रहती है।
साधारण प्रेम में ऐसा होता है तो भक्ति की तो तुम थोड़ी कल्पना करो! करोड़ों-करोड़ों गुनी गहनता! और अंतर केवल मात्रा का ही नहीं है, गुण का भी है। क्योंकि यह प्रेम तो क्षणभंगुर है जो इतना सताता है। जिससे आज प्रेम है, हो सकता है कल समाप्त हो जाए। जिसकी आज याद भुलाए नहीं भूलती, कल बुलाए-बुलाए न आए, यह भी हो सकता है। आज जिसे चाहो तो नहीं भूल सकते, कल जिसे चाहो तो याद न कर पाओ, यह भी हो सकता है। यह तो क्षणभंगुर है, यह तो पानी का बबूला है। यह इतना जला देता है। यह पानी का बबूला ऐसे फफोले उठा देता है आत्मा में, तो जब शाश्वत से प्रेम जगता है तो स्वभावतः सारी आत्मा दग्ध होने लगती है।
संत दरिया ठीक कहते हैं। वह एक और पहलू हुआ सत्य का कि उसके मार्ग पर जलना ही जलना है। और चूंकि उपनिषद कहते हैं कि उसके मार्ग पर चलना खड्ग की धार पर चलना है और दरिया कहते हैं कि उसके मार्ग पर चलना अग्नि लगे जंगल से गुजरना है, इसीलिए मैं तुमसे कहता हूं: नाचते जाना, गाते जाना! नहीं तो रास्ता काट न पाओगे। जब तलवार पर ही चलना है तो मुस्कुरा कर चलना। मुस्कुराहट ढाल बन जाएगी। नाच सको तो तलवार की धार मर जाएगी। गीत गा सको तो आग भी शीतल हो जाएगी। चूंकि उपनिषद सही, चूंकि दरिया सही, इसलिए मैं सही। जाओ नाचते, गाते, गीत गुनगुनाते। यह तीसरा पहलू है।
जब उस परमात्मा से मिलने चले हैं तो उदास-उदास क्या? साधारण प्रेमी से मिलने जाते हो तो कैसे सज कर जाते हो! देखा किसी स्त्री को अपने प्रेमी से मिलने जाते वक्त? कितनी सजती है! कितनी संवरती है! कैसी अपने को आनंद-विभोर, मस्त-मगन करती है! कैसे उसके ओंठ प्रेम के वचन कहने को तड़फड़ाते हैं! कैसे उसका हृदय लबालब रस से भरा, उंडलने को आतुर! कैसे उसका रोआं-रोआं नाचता है! और तुम परमात्मा से मिलने जाओगे, और उदास-उदास?
उदास-उदास यह रास्ता तय नहीं हो सकता। रास्ता वैसे ही कठिन है; तुम्हारी उदासी और मुश्किल खड़ी कर देगी। रास्ता वैसे ही दुर्गम है। तुम उदास चले तो पहाड़ सिर पर लेकर चले। तलवार की धार पर चले और पहाड़ सिर पर लेकर चले, बचना मुश्किल हो जाएगा। जब तलवार की धार पर ही चलना है तो पैरों में घुंघरू बांधो!
मीरा ठीक कहती है: पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे!
जब तलवार पर ही चलना है तो पैर में घुंघरू तो बांध लो! मैं तुमसे कहता हूं: अगर तुम्हारे पैरों में घुंघरू हों तो तुमने तलवार को बोथला कर दिया। ओंठों पर गीत हों--मस्त, अलमस्त--जैसे आषाढ़ के पहले-पहले बादल घिरे हैं और मत्त मयूर नाचता है, ऐसे तुम नाचते चलो। तलवारें ही तब फूलों की भांति कोमल हो जाएंगी। कांटे फूल हो जाएंगे!
और तुमसे कहता हूं: उत्सव मनाते चलो। क्योंकि उत्सव ही तुम्हें चारों तरफ शीतलता से घेर लेगा। फिर कोई लपट तुम्हें जला न पाएगी। जंगल में लगी रहने दो आग, मगर तुम इतने शीतल होओगे कि आग तुम्हारे पास आकर शीतल हो जाएगी। अंगारे तुम्हारे पास आते-आते बुझ जाएंगे। लपटें तुम्हारे पास आते-आते फूलों के हार बन जाएंगी।
उपनिषद सही, दरिया सही, मैं भी सही। इनमें कुछ विरोधाभास नहीं है। परमात्मा के संबंध में हजारों वक्तव्य दिए जा सकते हैं, जो एक-दूसरे के विपरीत लगते हों। फिर भी उनमें विरोधाभास नहीं होगा। क्योंकि परमात्मा विराट है। सारे विरोधों को समाए है। सारे विरोधों को आत्मसात किए हुए है। उसमें फूल भी हैं और कांटे भी हैं। उसमें रातें भी हैं और दिन भी हैं। उसमें खुला आकाश भी है, जब सूरज चमकता है; और बदलियों से घिरा आकाश भी है, जब सूरज बिलकुल खो जाता है। परमात्मा में सब है, क्योंकि परमात्मा सब है।
उपनिषद सिर्फ एक पहलू की बात कहते हैं, दरिया दूसरे पहलू की बात कहते हैं। उपनिषद और दरिया भिन्न-भिन्न बात नहीं कह रहे हैं। और उपनिषद में और दरिया में तो तुम थोड़ा संबंध भी जोड़ लोगे कि ठीक है, खड्ग की धार पर चलना कि जलना, इन दोनों में संबंध जुड़ता है। मैं तुमसे बहुत ही उलटी बात कह रहा हूं। मैं कहता हूं: नाचते हुए, गीत गाते हुए, उत्सव मनाते हुए...। प्रभु से मिलने चले हो, श्रृंगार करो। प्रभु से मिलने चले हो, बंदनवार बांधो। उस अतिथि को बुलाया, महाअतिथि को--द्वार पर स्वागत, स्वागतम का आयोजन करो। रांगोली सजाओ। इतने महाअतिथि को निमंत्रण दिया है तो घर में दीये जलाओ। दीवाली मनाओ! कि गुलाल उड़ाओ। कि होली और दीवाली साथ ही साथ हो। कि छेड़ो वाद्य, कि गीत उठने दो, कि संगीत जगने दो। उस बड़े मेहमान को तभी तुम अपने हृदय में समा पाओगे।
वह मेहमान जरूर आता है; बस तुम्हारे तैयार होने की जरूरत है। और बिना उत्सव के तुम तैयार न हो सकोगे। उत्सवरहित हृदय में परमात्मा का आगमन न कभी हुआ है, न हो सकता है। क्योंकि परमात्मा उत्सव है। रसो वै सः! वह रसरूप है। तुम भी रसरूप हो जाओ तो रस का रस से मिलन हो। समान का समान से मिलन होता है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, वो नगमा बुलबुले रंगी-नवा इक बार हो जाए। कली की आंख खुल जाए, चमन बेदार हो जाए।।
निर्मल चैतन्य! वह गीत गाया ही जा रहा है। वह नगमा हजार-हजार कंठों से गूंज रहा है। अस्तित्व का कण-कण उसे ही दोहरा रहा है। उसका ही पाठ हो रहा है चारों दिशाओं में--अहर्निश।
और तुम कहते हो: ‘वो नगमा बुलबुले रंगी-नवा इक बार हो जाए।’
वही है! बज रहा है! सब तारों पर वही सवार है। सब द्वारों पर वही खड़ा है। तुम कहते हो: इक बार? वही बार-बार हो रहा है।
‘कली की आंख खुल जाए, चमन बेदार हो जाए।’
कलियां खिल गई हैं, चमन बेदार है; तुम बेहोश हो। दोष कलियों को मत दो और दोष चमन को भी मत देना। और यह सोच कर भी मत बैठे रहना कि वह गीत गाए तो मैं सुनने को राजी हूं। वह गीत गा ही रहा है। वह गीत है। वह बिना गाए रह ही नहीं सकता। कौन पक्षियों में गा रहा है? कौन फूलों में गा रहा है? कौन हवाओं में गा रहा है? अनंत-अनंत रूपों में उसी की अभिव्यक्ति है।
लेकिन अक्सर हम ऐसा सोचते हैं। निर्मल चैतन्य ही ऐसा सोचते हैं, ऐसा नहीं; अधिकतर लोग ऐसा ही सोचते हैं कि एक बार परमात्मा दिखाई पड़ जाए, एक बार उससे मिलन हो जाए! और रोज तुम उससे ही मिलते हो, मगर पहचानते नहीं! जिसमें भी आता है तुम्हारे द्वार, वही आता है। मगर प्रत्यभिज्ञा नहीं होती। उसके अतिरिक्त यहां कोई है ही नहीं।
तुम पूछते हो: परमात्मा कहां है?
मैं पूछता हूं: परमात्मा कहां नहीं है?
लेकिन हम बहाने खोजते हैं। हम कहते हैं: गीत बजता, जरूर हम सुनते। यह नहीं सोचते कि हम बहरे हैं। क्योंकि अगर हम कहें कि हम बहरे हैं, तो फिर कुछ करना पड़े। जिम्मेवारी अपने पर आ जाए। कहते हैं: सूरज निकलता तो हम दर्शन करते; झुक जाते सूर्य-नमस्कार में। यह नहीं कहते कि हम अंधे हैं, या कि हमने आंखें बंद कर रखी हैं। क्योंकि यह कहना कि हमने आंखें बंद कर रखी हैं, फिर दोष तो अपना ही हो जाएगा। और जब दोष अपना हो जाएगा तो बचने का उपाय कहां रह जाएगा?
सूरज नहीं निकला, इसलिए हम करें तो क्या करें? सितार नहीं बजी उसकी, तो हम करें तो क्या करें? फूल नहीं खिले उसके, तो हम नाचें तो कैसे नाचें? बहाने मिल गए, सुंदर बहाने मिल गए। इनकी ओट में अपने को छिपाने का उपाय हो जाएगा! वह प्यारा हमारे द्वार पर दस्तक ही नहीं दिया तो हम कहें तो किसको कहें कि आओ? हम द्वार किसके लिए खोलें? दस्तक तो दे! हम ये पलक-पांवड़े किसके लिए बिछाएं? उसका कुछ पता तो चले, कम से कम पगध्वनि तो सुनाई पड़े!
ये मनुष्य की तरकीबें हैं। ये तरकीबें हैं अपने को बचा लेने की। ये तरकीबें हैं कि हम जैसे हैं ठीक हैं। गलती है अगर कुछ तो उसकी है। कली की आंख खुलती, तो चमन तो बेदार होने को राजी था। कली की आंख नहीं खुलती, चमन बेदार कैसे हो?
और मैं तुमसे कहता हूं: हजारों-हजारों कलियों की आंखें खुली हैं। चमन बेदार है! तुम सोए हो, सिर्फ तुम सोए हो! जिम्मेवारी है तो सिर्फ तुम्हारी है। यह तीर तुम्हारे हृदय में चुभ जाए--कि जिम्मेवारी है तो सिर्फ मेरी है; मैंने आंखें बंद कर रखी हैं; मैंने कान वज्र-बधिर कर रखे हैं--तो क्रांति की शुरुआत हो गई। तो पहली किरण शुरू हुई। तो पहला कदम उठा। अब कुछ किया जा सकता है। अगर आंख मैंने बंद की हैं, तो कुछ कर सकता हूं मैं; मेरे हाथ में कुछ बात हो गई। आंख खोल सकता हूं!
जब हम दूसरे पर टाल देते हैं और जब हम अनंत पर टाल देते हैं, तो हम निश्चिंत होकर सो रहते हैं। और एक करवट ले लो, कंबल को और खींच लो, और थोड़ा सो जाओ। अभी सुबह नहीं हुई है; जब सुबह होगी तब उठेंगे।
और मैं तुमसे कहता हूं: सुबह ही सुबह है। हर घड़ी सुबह है! सूरज निकला है। परमात्मा तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे रहा है। तुम सुनते नहीं। तुम सुन सको, इतने शांत नहीं। तुम्हारे भीतर बड़ा शोरगुल है। तुम्हारे भीतर बड़ा तूफान है, बड़ी आंधियां, बवंडर--विचारों के, वासनाओं के। तुम्हारी आंखें बंद हैं--पांडित्य से, शास्त्रों से, तथाकथित ज्ञान से। तुम्हारी आंखों पर इतनी किताबें हैं कि बेचारी आंखें खुलें भी तो कैसे खुलें? किसी की आंख वेद से बंद है, किसी की कुरान से, किसी की बाइबिल से। तुम इतना जानते हो, इसलिए जानने से वंचित हो। थोड़े अज्ञानी हो जाओ।
मैं तुमसे कहता हूं: थोड़े अज्ञानी हो जाओ। मैं अपने संन्यासियों को अज्ञानी होना सिखा रहा हूं। छीन रहा हूं ज्ञान उनका। क्योंकि ज्ञान ही धूल है दर्पण पर। और ज्ञान छिन जाए और दर्पण कोरा हो जाए--निर्दोष, जैसे छोटे बच्चे का मन, ऐसा निर्दोष--तो फिर देर नहीं होती, पल भर की देर नहीं होती। तत्क्षण उसकी पगध्वनि सुनाई पड़ने लगती है। तत्क्षण द्वार पर उसकी दस्तक सुनाई पड़ने लगती है। तत्क्षण सारा चमन बेदार मालूम होता है। मस्ती ही मस्ती! सब तरफ उसके गीत गूंजने लगते हैं। फिर तुम जहां भी हो, मंदिर है; और जहां भी हो, वहीं तीर्थ है।
आंख से धूल हटे...और धूल ज्ञान की है, मुश्किल यही है। क्योंकि तुम धूल को धूल मानो तो हटा दो अभी। तुम धूल को समझ रहे हो कि सोना है, हीरे-जवाहरात हैं। सम्हाल कर रखे हो!
इस जगत में सबसे ज्यादा कठिन चीज छोड़ना ज्ञान है। धन लोग छोड़ देते हैं। धन बहुतों ने छोड़ दिया है। घर-द्वार छोड़ देते हैं। वह बहुत कठिन नहीं है। घर-द्वार छोड़ना बहुत सरल है, क्योंकि कौन घर-द्वार से ऊब नहीं गया है? सच तो यह है कि घर-द्वार में रहे आना बड़ी तपश्चर्या है। जो रहते हैं, उनको तपस्वी कहना चाहिए--हठयोगी! पिट रहे हैं, मगर रह रहे हैं। तुम उनको संसारी कहते हो और भगोड़ों को संन्यासी कहते हो! जो भाग गए कायर, उनको कहते हो संन्यासी। और बेचारे ये, जो सौ-सौ जूते खाएं, तमाशा घुस कर देखें! इनको तुम कहते हो कि संसारी। जूतों पर जूते पड़ रहे हैं, मगर उनके कान पर जूं नहीं रेंगती। डटे हैं! हठयोगी कहता हूं मैं इनको! इनकी जिद तो देखो! इनका संकल्प तो देखो! इनकी दृढ़ता तो देखो! इनकी छाती तो देखो! बड़े मजबूत हैं! इनको तुम पापी कहते हो?
संसार से भागना तो बिलकुल आसान है। कौन नहीं भागना चाहता है? संसार में है क्या? तकलीफें ही तकलीफें हैं, जंजाल ही जंजाल हैं। दुखों पर दुख चले आते हैं। बदलियां घनी से घनी, काली से काली होती चली जाती हैं।
अंग्रेजी में कहावत है कि हर काले बादल में एक रजत-रेखा होती है। एवरी क्लाउड हैज ए सिल्वर लाइन। अगर तुम संसार को देखो तो हालत बिलकुल उलटी है। एवरी सिल्वर लाइन हैज ए क्लाउड। हर रजत-रेखा के पीछे चला आ रहा है एक बड़ा काला बादल, भयंकर बादल! वह रजत-रेखा तो चमक कर क्षण भर में खत्म हो जाती है। और फिर काला बादल छाती पर बैठ जाता है, जो पीछा नहीं छोड़ता। वह रजत-रेखा तो वैसे ही है जैसे कि मछुआ, मछलीमार कांटे में आटा लगा कर बंसी लटका कर बैठ जाता है तालाब के किनारे। कोई आटा खिलाने के लिए मछलियों के लिए नहीं लाया है। आटे में छिपा कांटा है। मछलियों को फांसने आया है; कोई मछलियों को भोजन कराने नहीं आया है।
एक झील पर मछली मारना मना था। बड़ा तख्ता लगा था कि मछली मारना मना है, सख्त मना है। और जो भी मछली मारेगा, उस पर अदालत में मुकदमा चलाया जाएगा। स्वभावतः उस झील में खूब मछलियां थीं। मुल्ला नसरुद्दीन मजे से मछलियां मारने बैठा था वहां। आ गया मालिक बंदूक लिए। उसने कहा: नसरुद्दीन, तख्ती पढ़ी?
नसरुद्दीन ने कहा: हां, पढ़ी।
फिर क्या कर रहे हो?
बंसी लटका कर बैठा था। कहा: कुछ नहीं, जरा मछलियों को तैरना सिखा रहा हूं।
कोई मछलियों को तैरना सिखाने की जरूरत है? कि मछलियों को आटा खिलाने के लिए कोई उत्सुक है? आटा खुद नहीं मिल रहा है। लेकिन आटे के बिना मछली कांटे को लीलेगी नहीं। प्रयोजन कांटा है।
वह जो रजत-रेखा चमकती है बादल में, वह तो आटा है। पीछे चला आ रहा है काला बादल! आशाओं की तरह रजत-रेखा है। संसार में बस आशाएं हैं, उनकी पूर्ति तो कभी होती नहीं। बस आश्वासन। बस दूर से सब अच्छा लगता है।
एक महिला ने मुझसे कहा कि मेरी बड़ी मुसीबत है; मैं दूर से सुंदर मालूम पड़ती हूं। और बात सच थी। दूर से देखो तो बहुत फोटोजनिक, चित्र उतारने की तबीयत हो जाए। लेकिन उसकी तकलीफ यह है कि पास आओ तो बड़ी भद्दी हो जाती है। कुछ लोग होते हैं जो दूर से सुंदर दिखाई पड़ते हैं, पास आओ...। तो मैं क्या करूं?
तो मैंने कहा: तू एक काम कर, जितनी प्याज-लहसुन खा सके खा।
उसने कहा: प्याज-लहसुन! इससे मैं सुंदर हो जाऊंगी?
मैंने कहा: सुंदर तू नहीं हो जाएगी, मगर कोई तेरे पास नहीं आएगा। तू सुंदर दिखाई पड़ती रहेगी।
इस जगत में सब चीजें दूर से सुंदर दिखाई पड़ती हैं। पास आओ, सब विकृत होने लगता है। जैसे-जैसे पास आओ, सब सपने उखड़ने लगते हैं, सब आशाएं टूटने लगती हैं। जैसे-जैसे पास आओ, तथ्य उभरने लगते हैं। आटा खो जाता है और कांटा हाथ लगता है। लेकिन तब तक बहुत देर हो गई होती है। तब तक उलझ गए होते हो। फिर उलझाव से निकलना मुश्किल हो जाता है। जितनी निकलने की चेष्टा करते हो, उतना उलझाव बढ़ता चला जाता है। क्योंकि निकलने की चेष्टा में नये उलझाव खड़े करने पड़ते हैं।
तुमने देखा, कभी एक झूठ बोल कर देखा? एक झूठ बोलो, फिर दस झूठ बोलने पड़ते हैं। क्योंकि उस एक झूठ को बचाना है। और दस बोले तो हजार बोलने पड़ेंगे, क्योंकि उनको बचाना है। एक झूठ बोल कर जो फंसे, तो शायद जिंदगी भर झूठ बोलने पड़ें। सत्य की यही खूबी है कि एक बोला कि उसके पीछे कोई सिलसिला नहीं। तुम ऐसा समझो कि सत्य बांझ है, उसके बाल-बच्चे नहीं होते। सत्य संतति-नियमन को मानता है। झूठ पक्का हिंदुस्तानी है! जब तक दर्जन दो दर्जन बच्चे पैदा न कर दे, तब तक झूठ का मन नहीं भरता। बस बच्चे पैदा करते चला जाता है।
सबसे बड़ा झूठ आदमी ने जो बोला है, वह यह है कि दोष किसी और का है। यह सबसे बड़ा झूठ है। यह बड़े से बड़ा झूठ है। यह आधारभूत झूठ है। फिर सारे झूठों के महल इसी पर खड़े होते हैं।
मैं क्या करूं? परमात्मा कहीं दिखाई नहीं पड़ता, अन्यथा मैं तो उसके चरणों में झुक जाने को राजी हूं। मैं क्या करूं? उसकी आवाज मुझे सुनाई नहीं पड़ती, अन्यथा मैं तो जहां पुकारे वहां जाने को राजी हूं; किसी दूर चांद-तारों पर पुकारे तो वहां जाने को राजी हूं! मैं तो सब समर्पण करने को तैयार हूं, लेकिन पुकार तो सुनाई पड़े! आवाज तो आए!
और आवाज रोज आ रही है, प्रतिपल आ रही है--और तुम कानों में अंगुलियां डाले बैठे हो। लेकिन अंगुलियां तुम जन्मों-जन्मों से डाले हो। तो शायद तुम सोचते हो कि कानों में अंगुलियों का डाला होना, यही स्वाभाविक है। और आंखों पर तुम्हारे इतनी धूल है...और धूल चूंकि ज्ञान की है, और ज्ञान की बड़ी महिमा और प्रतिष्ठा गाई गई है--कि जहां राजा का भी सम्मान नहीं होता, वहां भी विद्वान पूजे जाते हैं! सदियों-सदियों से तुम्हें समझाया गया है कि ज्ञान की बड़ी गरिमा है, बड़ी महिमा है। वेद कंठस्थ करो, उपनिषद दोहराओ। और परिणाम में तुम सिर्फ तोते हो गए हो। उपनिषद भी दोहराते हो, वेद भी दोहराते हो। ज्ञान तो कुछ हुआ नहीं, ज्ञान के नाम पर थोथे शब्दों का जाल तुम्हारी आंखों पर छा गया है। जाली छा गई है तुम्हारी आंखों पर। अब तुम्हें कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
परमात्मा सामने खड़ा है। तुम जहां मुंह करो वहीं खड़ा है। तुम उसके अतिरिक्त और किसी के संपर्क में कभी आते ही नहीं। तुम्हारी पत्नी में भी वही है, तुम्हारे पति में भी वही है। तुम्हारे घर जो बेटा पैदा हुआ है, उसमें भी वही फिर आया है--नया संस्करण उसका फिर! लेकिन आंख से जाली कटनी चाहिए।
निर्मल चैतन्य! ज्ञान छोड़ो, ध्यान पकड़ो! दरिया ठीक कहते हैं: ध्यान हो तो ज्ञान अपने से जन्मता है। वह ज्ञान तुम्हारे भीतर से आएगा, तभी ज्ञान है। जब तक बाहर से आए, तब तक अज्ञान को छिपाने की प्रक्रिया है, और कुछ भी नहीं।
सोचो बैठ कर कभी, तुम जो भी जानते हो, वह भीतर से आया है या बाहर से? और तुम बड़े चकित हो जाओगे। तुम पाओगे कि सब बाहर से आया है। तो सब बेकार है। और बेकार ही नहीं है, बाधक है, अड़चन है। उतने का ही भरोसा करो जो तुम्हारे भीतर से आया हो। जो तुम्हारे ध्यान में उमगा हो, बस उसका ही भरोसा करना। उसका ही भरोसा रहे तो तुम्हें उसके नगमे अभी सुनाई पड़ें--अभी, यहीं! उसका ही भरोसा रहे तो तुम्हें उसका सौंदर्य अभी दिखाई पड़े--अभी, यहीं! अगर तुम थोड़े ज्ञान की पकड़ को छोड़ दो, फिर से अज्ञानी हो जाओ जैसे छोटे बच्चे...अज्ञान में एक निर्दोषता है!
मैं तुमसे कहता हूं: पंडित नहीं पहुंचते, अज्ञानी पहुंचते हैं। अज्ञानी से मेरा अर्थ है--जिसने बाहर के ज्ञान को बिलकुल इनकार कर दिया और जो भीतर डुबकी मार कर बैठ गया। और जिसने कहा कि जो मेरे भीतर अनुभव होगा, वही मेरा है, शेष सब उधार है, बासा है, उच्छिष्ट!
तुम दूसरों के जूते नहीं पहनते, दूसरों के कपड़े नहीं पहनते, और दूसरों का ज्ञान उधार ले लेते हो? दूसरों का जूठा भोजन नहीं करते और हजार-हजार ओंठों से जो शब्द जूठे हो गए हैं, उनको ही छाती लगा कर बैठ गए हो? इससे अड़चन है। नहीं तो आंख बंद करो, और उसका ही जलवा है।
हम वही हैं जो हम नहीं हैं।
भाव जो कभी मूर्त न हुए
शब्द जो कभी कहे नहीं गए
जीने की व्यथा में डूबे हुए स्वर
जो ध्वनित नहीं हो पाए
राग नहीं बने
जीवन के अचीन्हे सीमांत के
चरम क्षण
होने न होने के
अपनी अनंतता में ठहरे रहे
निरंतर अपनी अतींद्रिय संपूर्णता में
जीते रहे
पर बीते नहीं, भोगे नहीं गए...
आकार-रूप-हीन आघात
जो बस सहे ही गए
अनजाने अनचाहे
आंखों की कोरों में
उमड़े हुए आंसू-से अनदीखे
अटके ही रहे, झरे नहीं
वही हैं हम
जो नहीं हैं।
तुम वही हो गए हो जो तुम नहीं हो। क्योंकि उस ज्ञान को पकड़ लिया जो तुम्हारा नहीं; उस चरित्र को पकड़ लिया जो दूसरों ने तुम्हें पकड़ा दिया; उस संस्कार से भर गए, जो बासा ही नहीं है, उधार ही नहीं है, मुर्दा भी है! तुमने अपने अंतस को अवसर ही न दिया। तुमने स्व-स्फुरणा को मौका ही न दिया। इसलिए तुम वही हो गए हो जो तुम नहीं हो। और जो तुम हो, उसका तुम्हें पता भूल गया है। तुम जो हो, वही परमात्मा का एक रूप है। उसे कहीं खोजने और नहीं जाना है। अपने भीतर डुबकी मारनी है।
खोलो निज मन के वातायन
रवि-किरणों को
मत रोको
भीतर आने दो,
उनमें श्रद्धा और ज्ञान के
अनगिन जगमग दीप जल रहे!
खोलो निज मन के वातायन,
मुक्त पवन को
मत रोको
भीतर आने दो!
उसकी लहरों में
मानव-ममता के
सुरभित स्वप्न पल रहे!
और एक बार तुम शून्य हो जाओ, शांत हो जाओ, मौन हो जाओ, तो चांद में भी वही आएगा चांदी होकर और सूरज में भी वही आएगा सोना होकर। खोलो द्वार-दरवाजे। ज्ञान के ताले मार कर बैठे हो। खोलो द्वार-दरवाजे। आने दो हवाओं को। बहने दो हवाओं को। अस्तित्व से संबंध जोड़ो। मंदिरों से, मस्जिदों से संबंध तोड़ो। वृक्षों से, फूलों से, चांद-तारों से संबंध जोड़ो। क्योंकि वे जीवंत परमात्मा हैं। तुम मुर्दा मूर्तियों की पूजा में संलग्न हो।
दीये जल ही रहे हैं। आरती उतर ही रही है। फूल चढ़े ही हैं उसके चरणों में। तुम जरा देखो! तुम जरा जागो! तुम सोए हो। तुम गहरी नींद में हो।
दरिया ठीक कहते हैं: जागे में फिर जागना।
इस जागने को जागना मत समझ लेना। इसमें अभी और जागना है।
जागे में फिर जागना।
बस यही समाधि की परिभाषा है। और जो जागे में जाग गया, वह परमात्मा में जाग जाता है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, आपको सुनता हूं तो लगता है कि पहले भी कभी सुना है। देखता हूं तो लगता है कि पहले भी कभी देखा है। वैसे मैं पहली ही बार यहां आया हूं। पहली ही बार आपको सुना और देखा है। मुझे यह क्या हो रहा है?
संदीप! यहां कोई भी नया नहीं है; न तुम नये हो, न मैं नया हूं। यहां जो तुम्हारे पास बैठे हुए लोग हैं, ये भी कोई नये नहीं हैं। न मालूम कितनी बार, न मालूम कितनी-कितनी राहों में, न मालूम कितने-कितने लोकों में, न मालूम कितनी-कितनी यात्राओं में, योनियों में मिलन होता रहा है। हम अनंत यात्री हैं। बिछुड़ते रहे, मिलते रहे।
इसलिए चकित न होओ, चौंको मत। यह भी हो सकता है कि मुझसे तुम्हारा मिलना कभी न हुआ हो। लेकिन मुझ जैसे किसी व्यक्ति से मिलना हुआ हो, तो भी याद आएगी; तो भी कोई दबी हुई गहन अचेतन की पर्तों में याद सरकेगी। क्योंकि बुद्धत्व का स्वाद एक है। अगर तुमने बुद्ध को देखा था; अगर तुमने नानक को देखा था; अगर तुमने कबीर या फरीद के साथ दो घड़ियां बिताई थीं; या कौन जाने, दरिया से दोस्ती रही हो--अगर तुमने अनंत-अनंत जीवन की यात्राओं में कभी भी किसी ध्यानस्थ व्यक्ति के पास दो क्षण बिताए थे, तो याद आएगी। क्योंकि ध्यान का स्वाद अलग-अलग नहीं होता।
बुद्ध ने कहा है: जैसे सागर को कहीं से भी चखो, खारा है; ऐसे ही बुद्धों को भी कहीं से चखो, उनका स्वाद एक ही है--जागरण का स्वाद है।
मैं कोई व्यक्ति नहीं हूं। व्यक्ति तो गया। व्यक्ति तो बहा। कब का बह गया। अब तो भीतर एक शून्य है। ऐसे शून्य का अगर तुमसे कभी भी संस्पर्श हुआ हो...और यह असंभव है कि अनंत-अनंत जन्मों में कभी न हुआ हो। यह असंभव है। यह हो ही नहीं सकता। इतने बुद्ध हुए हैं! इतने समाधिस्थ लोग हुए हैं! इतने जिन हुए, इतने पैगंबर, इतने तीर्थंकर, इतने सिद्ध! यह कैसे हो सकता है कि तुम कभी भी किसी बुद्ध की छाया में न बैठे होओ? यह कैसे हो सकता है कि सत्संग का स्वाद तुमने कभी न लिया हो? असंभव है। चाहे तुम्हारे बावजूद ही सही, कभी किसी राह पर दो कदम तुम जरूर किसी बुद्ध के साथ चल लिए होओगे। चूक गए। उस बार चूक गए, इस बार मत चूकना। इसीलिए कोई याद तुम्हारे भीतर उठ रही है, उभर रही है।
हम अनंत-अनंत जीवन की स्मृतियां अपने भीतर लिए बैठे हैं। भूल गए उन्हें, मगर वे मिटती नहीं हैं। शरीर छूट जाता है, लेकिन चित्त साथ चलता है। शरीर तो एक बार जो मिला, वह मिट्टी में गिर जाता है। लेकिन उसके भीतर चित्त--अनुभवों का जो संग्रह है--वह नई छलांग ले लेता है, वह नया जन्म ले लेता है। शरीर का नया जन्म नहीं होता, मन का नया जन्म हो जाता है।
इस बात को समझना। शरीर का नया जन्म हो ही नहीं सकता, क्योंकि शरीर मिट्टी है, गिरा सो गिरा। और आत्मा का नया जन्म हो ही नहीं सकता, क्योंकि आत्मा शाश्वत है; न उसका कोई जन्म है, न मृत्यु है। फिर जन्म किसका होता है?
दोनों के बीच में जो मन है, उसका ही जन्म होता है। यह जो पुनर्जन्म का सिद्धांत है, मन के ही संबंध में लागू होता है, आत्मा के संबंध में लागू नहीं होता। आत्मा का क्या जन्म? न कोई मृत्यु, न कोई जन्म। और शरीर का भी क्या जन्म, क्या मृत्यु? शरीर तो मरा ही हुआ है। शरीर है मृत्यु, मरणधर्मा, मिट्टी; उसका कोई जन्म नहीं होता, न कोई मरण होता है। वह तो मरा ही हुआ है। मरे की और क्या मौत होगी? और मरे का जन्म क्या हो सकता है? और आत्मा शाश्वत जीवन है। शाश्वत जीवन का कैसा जन्म और कैसी मृत्यु?
दोनों के मध्य में एक कड़ी है मन की। वही मन यात्रा करता है। वही मन नये-नये जन्म लेता है। उसी मन में तुम्हारे सारे जन्मों-जन्मों के संस्कार हैं। उन संस्कारों में मनुष्यों के ही संस्कार नहीं हैं; जब तुम पशु थे, उसके भी संस्कार हैं; जब तुम पक्षी थे, उसके भी संस्कार हैं; जब तुम वृक्ष थे, उसके भी संस्कार हैं; जब तुम एक चट्टान थे, उसके भी संस्कार हैं। तुम्हारे भीतर अस्तित्व की सारी आत्मकथा है। तुम छोटे नहीं हो। तुम्हारी उतनी ही लंबी कथा है जितनी लंबी कथा अस्तित्व की है। तुम अस्तित्व के सब रंग, सब ढंग जान चुके हो, पहचान चुके हो। लेकिन हर जन्म के बाद विस्मरण हो जाता है। लेकिन फिर भी किसी गहरी अनुभूति के क्षण में, किसी प्रीति के क्षण में, कोई स्मृति पंख फड़फड़ाने लगती है।
ऐसा ही कुछ हुआ होगा, संदीप!
तुम कहते हो: ‘आपको सुनता हूं तो लगता है कि पहले भी कभी सुना है।’
जरूर सुना होगा। मुझे सुना हो या न सुना हो, मगर मुझ जैसे किसी व्यक्ति को जरूर सुना होगा।
तुम कहते हो: ‘देखता हूं तो लगता है कि पहले भी कभी देखा है।’
मुझे देखा हो, न देखा हो, लेकिन जरूर कोई जलता हुआ दीया तुमने देखा होगा। और जब कोई जलते दीये को देखता है तो मिट्टी के दीये पर थोड़े ही नजर जाती है, ज्योति पर नजर जाती है। मिट्टी के दीये तो अलग-अलग हो जाते हैं, लेकिन ज्योति तो एक ही है। ज्योति तो अलग-अलग नहीं होती।
तुम कहते हो: ‘वैसे मैं पहली बार ही यहां आया हूं।’
यहां पहली बार आए होओगे, लेकिन यहां जैसी जगहें सदियों-सदियों से जमीन पर सदा-सदा रही हैं। तीर्थ उठते रहे हैं। क्योंकि जब भी कहीं कोई ज्योति जली, तीर्थ बना। जब भी कभी कोई बुद्ध हुआ, वहीं मंदिर उठा। जब भी कहीं कोई फूल खिला, भंवरे आए, गीत गूंजे, नाच हुआ। जब भी कोई बांसुरी बजी है प्राणों की तो रास रचा, राधा नाची! गोपियों ने मंडल बनाए, गीत गाए। सदियों-सदियों में यह होता रहा। जरूर कोई झलक, अतीत की कोई स्मृति फिर जग गई होगी, इसलिए तुम्हें ऐसा लगा है।
पुरवा जो डोल गई,
घटा-घटा आंगन में जूड़े से खोल गई।
बूंदों का लहरा दीवारों को चूम गया,
मेरा मन सावन की गलियों में झूम गया;
श्याम-रंग-परियों से अंबर है घिरा हुआ;
घर को फिर लौट चला बरसों का फिरा हुआ;
मइया के मंदिर में,
अम्मा की मानी हुई--
डुग-डुग, डुग-डुग-डुग, बधइया फिर बोल गई।
पुरवा जो डोल गई,
घटा-घटा आंगन में जूड़े से खोल गई।
बरगद की जड़ें पकड़ चरवाहे झूल रहे,
विरहा की तानों में बिरहा सब भूल रहे;
अगली सहालक तक ब्याहों की बात टली,
बात बड़ी छोटी पर बहुतों को बहुत खली;
नीम तले चौरा पर,
मीरा की बार-बार--
गुड़िया के ब्याहवाली चर्चा रस घोल गई।
पुरवा जो डोल गई,
घटा-घटा आंगन में जूड़े से खोल गई।
खनक चूड़ियों की सुनी मेंहदी के पातों ने,
कलियों पे रंग फेरा मालिन की बातों ने;
धानों के खेतों में गीतों का पहरा है,
चिड़ियों की आंखों में ममता का सेहरा है;
नदिया से उमक-उमक,
मछली वह छमक-छमक--
पानी की चूनर को दुनिया से मोल गई।
पुरवा जो डोल गई,
घटा-घटा आंगन में जूड़े से खोल गई।
झूलों के झूमक हैं शाखों के कानों में,
शबनम की फिसलन है केले की रानों में;
ज्वार और अरहर की हरी-हरी सारी है,
नई-नई फूलों की गोटा-किनारी है,
गांवों की रौनक है,
मेहनत की बांहों में--
धोबिन भी पाटे पे हइया छू बोल गई।
पुरवा जो डोल गई,
घटा-घटा आंगन में जूड़े से खोल गई।
जैसे कोई बहुत दिनों का दूर चला गया व्यक्ति अपने गांव वापस लौटे और हर छोटी-छोटी बात याद आने लगे--
पुरवा जो डोल गई,
घटा-घटा आंगन में जूड़े से खोल गई।
छोटी-छोटी बातें याद आने लगें--यह गांव का मंदिर, यह गांव का पनघट, पनघट पर घटी हुई रसभरी बातें, यह गांव का पुराना बरगद, इस बरगद के नीचे खेले गए खेल, इस बरगद पर डाले गए झूले, झूलों पर भरी गई पेंगें, यह गांव का बाजार, बाजार के भरने के दिन, बाजार में खरीदे गए खिलौने, सब याद आने लगता है। जैसे कोई वर्षों-वर्षों बाद अपने गांव लौटा हो!
बूंदों का लहरा दीवारों को चूम गया,
मेरा मन सावन की गलियों में झूम गया;
श्याम-रंग-परियों से अंबर है घिरा हुआ;
घर को फिर लौट चला बरसों का फिरा हुआ;
मइया के मंदिर में,
अम्मा की मानी हुई--
डुग-डुग, डुग-डुग-डुग, बधइया फिर बोल गई।
पुरवा जो डोल गई,
घटा-घटा आंगन में जूड़े से खोल गई।
ऐसा ही कुछ हो रहा है तुम्हें। कहीं फिर लौट आए हो, जहां कभी आना हुआ था! यह बात स्थान की नहीं है, समय की नहीं है। यह बात आत्मा की एक दशा की है। इन स्मृतियों को दबा मत देना, तर्क-जाल में डुबा मत देना, बुद्धि के विश्लेषण में नष्ट-भ्रष्ट मत कर डालना। इन स्मृतियों को उठने दो, फैलाने दो पंख! इन स्मृतियों को छाने दो, क्योंकि ये स्मृतियां तुम्हें याद दिलाएंगी कि पहले भी चूक गए थे, अब की बार न चूक जाना!
ऐसा हुआ, महावीर के जीवन में उल्लेख है। एक राजकुमार ने महावीर से दीक्षा ली। राजकुमार, महलों में रहा, सुख-सुविधाओं में पला। फिर महावीर के साथ जिस धर्मशाला में ठहरना पड़ा, नया-नया संन्यासी था, उसे जगह मिली बिलकुल दरवाजे पर। रात भर लोगों का आना-जाना, सो ही न सका। मच्छर अलग काटें। जमीन कड़ी। बिना बिस्तर के सोना। न तकिया पास; हाथ का ही तकिया! कभी ऐसे सोया नहीं था और ऐसी बेहूदी जगह--धर्मशाला का दरवाजा, जिस पर दिन भर भी लोग, रात भर भी लोग! फिर कोई आया, फिर किसी ने द्वार खटखटाया। फिर कोई मेहमान आया। फिर द्वार खोले गए, फिर मेहमान भीतर लिया गया।
आधी रात थी। उसने सोचा: यह क्या हुआ? यह मैं किस झंझट में पड़ गया! अच्छा-भला घर था, सुख-सुविधा थी। सुबह होते ही वापस लौट जाऊंगा। सोचा था कि चुपचाप ही लौट जाए, महावीर को कुछ कहना ठीक नहीं है। पर राजकुमार था, संस्कारी था। सोचा कि यह तो उचित न होगा। दीक्षा ली है, तो कम से कम उनको नमस्कार करके, क्षमा मांग कर कि नहीं, मुझसे न सधेगी, लौट जाऊं।
जैसे ही महावीर के पास पहुंचा, झुक कर नमस्कार किया, महावीर ने कहा: तो इस बार फिर लौट चले?
बड़ा हैरान हुआ राजकुमार, उसने कहा: इस बार? मैं तो पहली ही बार आपके पास आया हूं। क्या कभी पहले भी लौट गया हूं?
महावीर ने कहा: यह तुम दूसरी बार लौट रहे हो। मेरे पास नहीं आए थे पहली बार, मुझसे पहले जो तीर्थंकर हुए पार्श्वनाथ, उनके पास आए थे। और यही अड़चन। यही धर्मशाला का दरवाजा। यही एक हाथ का तकिया बना कर सोना। यही मच्छर। जरा याद करो!
महावीर ने ऐसे उकसाया जैसे कोई सिगड़ी में अंगारे को उकसाए। जरा झाड़ दी राख। एक स्मृति भभक कर उठी। दृश्य खुल गया। एक क्षण को उसकी आंख बंद हो गई। याद आया कि हां--पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हुई--याद आया कि हां, दीक्षित हुआ था। और याद आया कि बीच से ही लौट गया था। आंख आंसुओं से भर गई। महावीर के चरणों पर सिर रखा।
महावीर ने कहा: अब क्या इरादा है? रुकते हो कि जाते हो?
उस राजकुमार ने कहा: अब जाना कैसा! धन्यभागी हूं कि आपने याद दिला दी।
धन्यभागी हो तुम कि तुम्हें याद आ रही है। बिना मेरे दिलाए तुम्हें याद आ रही है; सो और भी धन्यभागी हो। भाग गए होओगे पहले कभी। आते-आते पास दूर छिटक गए होओगे। बनते-बनते साथ छूट गया होगा। किसी नाव पर चढ़ते-चढ़ते उतर गए होओगे। कोई द्वार खुलते-खुलते बंद हो गया होगा।
हंस-हंस कर मैं भूल चुका हूं आशा और निराशा को,
रो-रो कर मैं भूल चुका हूं सुख-दुख की परिभाषा को,
भूल चुका हूं सब कुछ केवल इतना मुझको याद रहा--
बनते देखा, मिटते देखा अपनी ही अभिलाषा को!
नहीं आज तक देख सका हूं निज धुंधले अरमानों को,
नहीं आज तक सुन पाया हूं उर के अस्फुट गानों को,
अरे, देखना-सुनना उसका, जिसका हो अस्तित्व यहां;
प्रेम मिटा देता है पल में अपने ही दीवानों को!
देखें किसमें कितनी तृष्णा किसमें कितनी ज्वाला है?
निर्जीवों के इस समूह में जीवित कौन निराला है?
आज हलाहल छलक रहा है पीड़ित जग की आंखों में,
सुधा समझ कर कौन यहां पर उसको पीने वाला है?
देखें किसमें अमिट साध है, किसमें अक्षत आशा है?
मिट-मिट कर फिर बनने वाली किसमें नव-अभिलाषा है?
आज मौन-निस्पंद पड़ा है विश्व मृत्यु की तंद्रा में;
जीवन का संदेश सुनाने वाली किसकी भाषा है?
देखें किसके उर में गति है, श्वासों में उच्छवास यहां?
किसके वैभव के अंतर में है अक्षय विश्वास यहां?
आज विकृत सीमित है जग के जीवन का उन्मुक्त प्रवाह,
इस असीम में लहराता है किसका पूर्ण विकास यहां?
किस गति से प्रेरित हो अविकल बहता है सरिता का जल?
किस इच्छा से पागल होकर लहरें उठतीं मचल-मचल?
कल-कल ध्वनि में छलक रहा है किस अभिलाषा का संगीत?
‘लय होने को प्रेम ढूंढता है असीम का वक्षस्थल!’
किस तृष्णा से आकुल होकर पिहु-पिहु रटता है चातक?
किस प्रिय का आह्वान कर रही कुहु-कुहु स्वर में कुहू अथक?
कलरव के उन सप्त स्वरों में है किससे मिलने की साध?
‘ढूंढ रहा अस्तित्व पूर्णता के सपने की एक झलक!’
आंख मूंद कर बढ़ते जाना, एक नियम दीवानों का,
सिर न झुकाना, लड़ते जाना, एक नियम मरदानों का,
श्वासों में गति, उर में गति है, यहां प्रगति ही एक नियम,
गति बनना, गति में मिल जाना, एक नियम गतिवानों का!
मैं एक चुनौती हूं--एक आह्वान! झकझोरता हूं तुम्हें। पूछता हूं तुमसे।
आंख मूंद कर बढ़ते जाना, एक नियम दीवानों का,
सिर न झुकाना, लड़ते जाना, एक नियम मरदानों का,
श्वासों में गति, उर में गति है, यहां प्रगति ही एक नियम,
गति बनना, गति में मिल जाना, एक नियम गतिवानों का!
चूके हो पहले, इस बार न चूकना। डर तो लगता है। सत्संग भय तो लाता है।
अरे, देखना-सुनना उसका, जिसका हो अस्तित्व यहां;
प्रेम मिटा देता है पल में अपने ही दीवानों को!
तो प्रेम तो मिटाता है। प्रेम तो जलाता है। लेकिन जिसमें हिम्मत है, जिसमें साहस है, वह हंसते हुए जलता है, वह हंसते हुए मिटता है। और जो हंसते हुए मिट जाए, वह उसे पा लेता है जिसका फिर कभी मिटना नहीं होता है।
देखें किसमें अमिट साध है, किसमें अक्षत आशा है?
मिट-मिट कर फिर बनने वाली किसमें नव-अभिलाषा है?
देखें किसके उर में गति है, श्वासों में उच्छवास यहां?
किसके वैभव के अंतर में है अक्षय विश्वास यहां?
मैं एक अवसर हूं कि तुम्हें मिटा दूं। जैसे मैं मिट गया हूं, वैसे तुम्हें मिटा दूं। भागने का मन बहुत होगा। बचने की बहुत चेष्टा होगी। स्वाभाविक है वह मन, वह चेष्टा। लेकिन स्वभाव से ऊपर उठने में ही मनुष्य की गरिमा है। स्वभाव के अतिक्रमण में ही मनुष्य की दिव्यता है।
संदीप! चिंता मत करना।
तुम पूछते हो: ‘मुझे यह क्या हो रहा है?’
तुम सोचते होओगे: मैं कोई पगला तो नहीं रहा हूं? कोई मस्तिष्क खराब तो नहीं हो रहा है? यहां पहले कभी आया नहीं; लगता है पहले आया हूं। पहले कभी देखा नहीं; लगता है पहले देखा है। पहले कभी सुना नहीं; लगता है सुना है। कहीं मेरा मस्तिष्क डांवाडोल तो नहीं हुआ जा रहा है? कहीं मैं अपना संयम, अपना नियंत्रण तो नहीं खोए दे रहा हूं?
ऐसा विचार उठना स्वाभाविक है। लेकिन इस विचार से ही जो अटक जाते हैं, वे कभी अतिक्रमण न कर पाएंगे। वे कभी अपने ऊपर आंखें न उठा पाएंगे। वे कभी, बुद्धि के ऊपर जो है, उसका संस्पर्श न कर पाएंगे। और जो है संस्पर्श करने योग्य, वह बुद्धि के पार है।
दरिया ने कहा न: न चित्त वहां पहुंचता, न मन वहां पहुंचता, न बुद्धि वहां पहुंचती, न शब्द की वहां गति है। सब पीछे छूट जाता है, सिर्फ शुद्ध चैतन्य मात्र वहां पहुंचता है।
जब मैं कहता हूं कि मैं तुम्हें पूरा मिटाना चाहता हूं, तो उसका इतना ही अर्थ है कि सिर्फ शुद्ध चैतन्य तुम्हारे भीतर रह जाए, और सब तुमसे अलग हो जाए, और सबसे तुम्हारा तादात्म्य टूट जाए, सिर्फ एक साक्षीभाव, मात्र साक्षीभाव ही तुम्हारे भीतर गहन हो जाए। फिर तुम्हारे लिए रहस्यों के द्वार खुलेंगे। खजाने, जो कभी फिर चुकते नहीं! अमृत, जिसकी हम जन्मों-जन्मों से तलाश कर रहे हैं और खोज नहीं पाए! और मजा यह है कि जिसे हम दूर खोज रहे हैं, वह बहुत पास है, पास से भी पास है।
चौथा प्रश्न:
भगवान, आप कुछ कहते हैं, लोग कुछ और ही समझते हैं। यह कैसे रुकेगा?
हरिदास! यह कभी रुकेगा नहीं। यह रुक ही नहीं सकता। यह सदा-सदा से चला आया नियम है। रघुकुल रीति सदा चलि आई!
मैं जो कहूंगा, तुम उसे वैसा ही कैसे समझ सकते हो जैसा मैं कहता हूं? तुम उसे वैसा ही कैसे समझ सकते हो? कोई उपाय नहीं है। मैं पुकारता हूं एक पहाड़ से; तुम सरक रहे हो अपनी अंधेरी घाटियों में। तुम तक पहुंचते-पहुंचते मेरी आवाज मेरी आवाज नहीं रह जाएगी। तुम ज्यादा से ज्यादा घाटियों में मेरी गूंज सुनोगे, अनुगूंज सुनोगे, प्रतिध्वनि सुनोगे। और फिर प्रतिध्वनि भी तुम अपने ढंग से सुनोगे। मैं बोलूंगा पहाड़ के शिखर की स्वर्ण-मंडित शिखर की भाषा में, प्रकाशोज्ज्वल शिखर की भाषा में; तुम समझोगे घाटियों के अंधेरे की भाषा में। तुम पहले अनुवाद करोगे, तब समझोगे।
एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने में ही बहुत कुछ खो जाता है। फिर अगर गद्य हो तो भी खो जाता है; पद्य हो, तब तो बहुत कुछ खो जाता है। लेकिन यह तो मामला उन भाषाओं का है जो एक ही सतह की हैं--घाटी की भाषाएं। एक कोने में एक भाषा बोली जाती है, घाटी के दूसरे कोने में दूसरी भाषा बोली जाती है। लेकिन दोनों गुणात्मक रूप से अंधेरे की भाषाएं हैं। जब प्रकाशोज्ज्वल शिखर से कोई पुकारता है, तो भाषाओं का अंतर बहुत बड़ा है। गुणात्मक अंतर है। आकाश को पृथ्वी पर लाना, अदृश्य को दृश्य में लाना, निःशब्द को शब्द में लाना, शून्य को भाषा के वस्त्र पहनाने...सब अस्तव्यस्त हो जाता है। फिर तुम समझोगे, तुम समझोगे न! तुम अपने ही चित्त से समझोगे। और तो तुम्हारे पास समझने का अभी कोई उपाय नहीं है। अभी तुमने ध्यान तो जाना नहीं। अगर तुम ध्यान में बैठ कर मुझे सुनो, तो तुम वही समझोगे जो मैं कह रहा हूं।
लेकिन लोग मुझसे पूछते हैं कि पहले हम आपको समझें, तब तो ध्यान करें। पहले हमें भरोसा आ जाए कि आप जो कहते हैं ठीक ही कहते हैं, तब तो हम ध्यान की झंझट में पड़ें। पहले ध्यान क्या है, यह समझ में आ जाए, तो हम ध्यान करें।
ठीक ही कहते हैं, तर्कयुक्त बात कहते हैं। होशियार आदमी हैं। बाजार में आदमी जाता है, चार पैसे का घड़ा खरीदता है तो भी ठोंक-पीट कर देखता है, बजा कर देखता है--कहीं फूटा-फाटा तो नहीं! ऐसे ही चार पैसे गंवा न दें! जो आदमी चार पैसे के घड़े को भी ठोंक-बजा कर देखता है, वह ध्यान जैसी महाक्रांति में बिना सोचे-समझे उतर जाएगा, इसकी आशा रखनी उचित नहीं है। पहले समझेगा। और समझने में ही अड़चन है। समझेगा मन से, और मन ध्यान का दुश्मन है। मन और ध्यान विपरीत हैं। मन है अंधेरा, ध्यान है ज्योतिर्मय। मन है मृत्यु, ध्यान है अमृत। मन है क्षणभंगुर, ध्यान है शाश्वत। कोई संबंध नहीं बैठता मन का और ध्यान का। बात ही नहीं बनती।
हरिदास! तुम्हारी तकलीफ मैं समझता हूं, तुम्हारी पीड़ा मैं समझता हूं। तुम उतरने लगे ध्यान में, तुम्हें कुछ-कुछ बात समझ में पड़ने लगी। तो तुम्हें बेचैनी होती है कि लोग आपकी बात को गलत क्यों समझते हैं? कुछ का कुछ क्यों समझते हैं? लेकिन नाराज मत होना। उनकी भी मजबूरी है। वे भी क्या करें? उन पर अनुकंपा रखना। समझाए जाना।
इसीलिए तो रोज मैं समझाए जाता हूं। तुम कुछ भी समझो, तुम कुछ का कुछ समझो--मैं समझाए जाऊंगा। मेरी तरफ से कृपणता न होगी। आज नहीं समझोगे, कल नहीं समझोगे, परसों नहीं समझोगे--कब तक नहीं समझोगे? एकाध दिन, शायद तुम्हारे बावजूद कोई किरण उतर जाए, कोई रंध्र मिल जाए, कोई थोड़ा सा द्वार-दरवाजा मुझे मिल जाए--और तुम तक पहुंच जाऊं और तुम्हारे प्राणों को छू लूं। एक बार तुम्हारी हृदयतंत्री बज जाए, बस फिर शुरुआत हुई। पहला पाठ हुआ। पहले पाठ तक पहुंचाने में ही वर्षों लग जाते हैं। अंतिम पाठ की तो बात ही नहीं करनी चाहिए।
गुरु पहले पाठ तक ही पहुंचा दे, बस काफी है; अंतिम पाठ तक तो फिर तुम स्वयं पहुंच जाओगे। पहला कदम उठ जाए तो अंतिम कदम बहुत दूर नहीं है। पहला कदम, पचास प्रतिशत यात्रा पूरी हो गई। क्योंकि फिर पहला कदम दूसरा उठवा लेगा, और दूसरा तीसरा उठवा लेगा...। फिर तो सिलसिला शुरू हो गया। श्रृंखला का जन्म हो गया। चल पड़े तुम, सम्यक दिशा मिल गई।
मगर साधारणतः तो लोग भीड़-भाड़, बाजार में कुछ का कुछ समझते ही रहेंगे। यहां आएंगे भी नहीं। मुझसे सीधा सुनेंगे भी नहीं। कोई उन्हें सुनाएगा। उसने भी किसी से सुना होगा।
अभी भारतीय संसद में घंटे भर उन्होंने मेरे संबंध में विवाद किया। उनमें से एक भी व्यक्ति यहां नहीं आया, जिन्होंने विवाद में भाग लिया। और सब इस तरह विवाद में भाग लिए जैसे जानकार हैं। एक ने भी साहस नहीं किया है आने का। लेकिन बोले ऐसे, जैसे सब जानते हैं; जैसे मैं जो कह रहा हूं, उसको समझते हैं। जैसे मैं जो यहां कर रहा हूं, उसकी उन्हें पहचान है! अफवाहों को लोग सुनते हैं। अफवाहों से लोग जीते हैं। और जिनको तुम समझदार कहते हो, बुद्धिमान कहते हो, वे भी अफवाहों से ही जीते और समझते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन से उसका एक मित्र बहुत परेशान हो गया था, क्योंकि मुल्ला ने उससे कुछ रुपया उधार लिया था। जब भी उससे मांगता रुपये मित्र, मुल्ला कहता: अगले महीने। और अगला महीना कभी आता ही नहीं। आखिर उसने एक दिन कहा कि तुम हर बार यही कहते हो--अगले महीने, फिर देते तो नहीं!
तो मुल्ला हंसने लगा, उसने कहा: तुम्हें यह समझ में नहीं आता कि अगर देना ही होता तो अगले महीने पर क्यों टालते? और फिर मैं हमेशा अगले महीने पर टालता हूं। मेरी संगति देखी? अपने वचन पर प्रतिबद्ध हूं। अगले महीने ही दूंगा। जो बात कह दी, कह दी। वचन का पक्का हूं। इस वचन को कभी खंडित न करूंगा।
मित्र आखिर थक गया। वर्षों गुजर गए। सैकड़ों तकाजों के बावजूद भी जब मुल्ला ने रुपया वापस करने का नाम नहीं लिया तो एक दिन मित्र ने कहा: अब तो मेरा इंसानियत पर से विश्वास ही उठ गया।
मुल्ला नसरुद्दीन ने तत्परता से कहा: भाई, इंसानियत पर से विश्वास उठ जाए तो कोई बात नहीं, मित्रता पर से विश्वास नहीं उठना चाहिए।
अपने-अपने ढंग हैं। अपनी-अपनी समझ है। शब्दों के अपने-अपने अर्थ हैं।
एक कवि का विवाह हुआ। प्रथम मिलन में ही कवि ने बड़े प्यार से अपनी बीबी से कहा: मेरी एक कविता सुनोगी?
बीबी तत्काल बोली: छोड़िए भी, कोई अच्छी बात करिए!
एक लॉज में हर रोज दो चम्मच गायब हो जाते थे। इसलिए जो लोग भोजन के लिए आते, उन पर फिर कड़ी निगरानी रखी गई। मुल्ला नसरुद्दीन हर रोज आता था, आज उस पर भी नजर रखी गई। जब उसने भोजन समाप्त कर लिया तो जल्दी से दो चम्मच उठा कर अपनी जेब में डाल लिए। फौरन उसको पकड़ भी लिया गया। नौकर उसे मालिक के पास ले गए। मालिक ने कहा: बड़े मियां! आप देखने से तो बड़े भोले-भाले मालूम पड़ते हैं। फिर आपको यह चोरी क्या शोभा देती है?
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी जेब में से एक कागज निकाल कर मालिक को दिया, जो डाक्टर का प्रिस्क्रिप्शन था; उसमें लिखा था: हर रोज भोजन के पश्चात दो चम्मच लेना।
अब करोगे क्या? लोग तो वैसा ही समझेंगे जैसा समझ सकते हैं।
तुम पूछते हो: ‘आप कुछ कहते हैं, लोग कुछ और ही समझते हैं।’
स्वाभाविक, जरा भी इसमें कुछ अघट नहीं हो रहा है। ऐसा ही सदा होता रहा है।
और तुम पूछते हो, हरिदास: ‘यह कैसे रुकेगा?’
यह रुकने वाला नहीं। कुछ के लिए रुक जाएगा। जो मेरे पास आ जाएंगे, जो मेरे निकट हो जाएंगे, जो मेरे सामीप्य में जीने लगेंगे, उनके लिए मिट जाएगा। बाकी वृहत भीड़ तो कुछ का कुछ सोचती ही रहेगी, कहती ही रहेगी। यही बुद्ध के साथ हुआ, यही महावीर के, यही मोहम्मद के, यही जीसस के। यही सदा हुआ है। यही आज भी होगा। यही कल भी होता रहेगा। भीड़ बहुत क्षुद्र बातों को ही समझ सकती है। बाजारू बातों को समझ सकती है। उसने आकाश की तरफ आंख उठा कर कभी देखा भी नहीं, फुर्सत भी नहीं, आकांक्षा भी नहीं। उससे तुम चांद-तारों की बातें करोगे, तो भीड़ कहेगी कि तुम झूठे हो।
तुमने कहानी सुनी है न! सागर का एक मेंढक एक बार एक कुएं में चला आया। कुएं के मेढक ने पूछा कि मित्र, कहां से आते हो?
उसने कहा: सागर से आता हूं।
कुएं के मेढक ने तो सागर शब्द सुना ही नहीं था। उसने कहा: सागर! यह किस कुएं का नाम है?
सागर से आया मेढक हंसने लगा, उसने कहा: यह कुएं का नाम नहीं है।
तो सागर क्या है?
बड़ी मुश्किल हुई सागर के मेढक को, वह कैसे समझाए सागर क्या है! कुएं का मेढक कभी कुएं के बाहर गया नहीं था। सागर तो दूर, उसने ताल-तालाब भी नहीं देखे थे। कुएं में ही बड़ा हुआ, कुएं में ही जीया, कुआं ही उसका संसार था। वही उसका समस्त विश्व था। कुएं के मेंढक ने एक तिहाई कुएं में छलांग लगाई और कहा: इतना बड़ा है तुम्हारा सागर?
सागर के मेढक ने कहा: मित्र, तुम मुझे बड़ी अड़चन में डाले दे रहे हो। सागर बहुत बड़ा है!
तो उसने दो तिहाई कुएं में छलांग लगाई, उसने कहा: इतना बड़ा है तुम्हारा सागर?
सागर के मेढक ने कहा कि मैं तुम्हें कैसे समझाऊं? तुम्हें कैसे बताऊं? सागर बहुत बड़ा है।
तो उसने पूरे कुएं में एक कोने से दूसरे कोने तक छलांग लगाई, उसने कहा: इतना बड़ा है तुम्हारा सागर? और जब सागर के मेढक ने कहा: यह तो कुछ भी नहीं है, अनंत-अनंत गुना बड़ा है। तो कुएं के मेढक ने कहा: तेरे जैसा झूठ बोलने वाला मेढक मैंने कभी देखा नहीं। बाहर निकल! किसी और को धोखा देना। तूने मुझे समझा क्या है? मैं कोई बुद्धू नहीं हूं कि तेरी बातों में आ जाऊं! मगर इसी वक्त बाहर निकल! इस तरह के झूठ बोलने वालों को इस कुएं में कोई जगह नहीं!
यह कहानी बड़ी अर्थपूर्ण है। यह आदमी की कहानी है। सुकरात को जब जहर दिया गया तो एथेंस के जजों ने यह निर्णय लिया कि या तो तुम मरने को राजी हो जाओ और या फिर तुम जो बातें कहते हो, वे बातें कहना बंद कर दो। दो में से कुछ भी चुन लो। तुम जो बातें कहते हो, वे बंद कर दो, तो तुम जी सकते हो। और अगर तुम उन बातों को जारी रखोगे तो सिवाय मृत्यु के और कोई उपाय नहीं है। फिर मृत्यु के लिए राजी हो जाओ।
सुकरात बातें क्या कह रहा था? सागर की बातें कर रहा था--कुएं के लोगों से! और कुएं के भीतर रहने वाले लोग सागर की बात सुन कर नाराज हो जाते हैं। सुकरात लगता है उन्हें खतरनाक। सुकरात का अपराध था यही, उसका यही अपराध अदालत ने तय किया था कि तुम लोगों को बिगाड़ते हो। सुकरात लोगों को बिगाड़ता है! सत्य की ऐसी शुद्ध अभिव्यक्ति बहुत कम लोगों में हुई है जैसी सुकरात में। सुकरात लोगों को बिगाड़ता है, यह अदालत का फैसला था। अदालत एथेंस के सबसे ज्यादा बुद्धिमान लोगों से बनी थी। एथेंस में जो सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली लोग थे, वे ही उस अदालत के न्यायाधीश थे। उन्होंने एक मत से निर्णय दिया था कि तुम चूंकि लोगों को बिगाड़ते हो, खासकर युवकों को...क्योंकि बूढ़े तो तुम्हारी बातों में आने से रहे, युवक तुम्हारी बातों में आ जाते हैं। क्योंकि बूढ़े तो इतने अनुभवी हैं कि तुम उनको धोखा नहीं दे सकते।
बूढ़े, मतलब जो कुएं में इतना रह चुके हैं कि अब मान ही नहीं सकते कि कुएं से भिन्न कुछ और हो सकता है। जवान वह, जो अभी कुएं में नया-नया आया है और जो सोचता है कि हो सकता है कि कुएं से भी बड़ी चीज हो। कौन जाने! जवान में जिज्ञासा होती है, खोज होती है, साहस भी होता है; नये को सीखने की तमन्ना भी होती है। बूढ़ा तो सीखना बंद कर देता है। जैसे-जैसे आदमी बूढ़ा होता जाता है वैसे-वैसे उसका सीखना क्षीण होता जाता है। और जो आदमी अपने बुढ़ापे तक सीखने को राजी है, वह बूढ़ा है ही नहीं। उसका शरीर ही बूढ़ा हुआ, उसकी आत्मा जरा भी बूढ़ी नहीं है। उसके भीतर अभी उतनी ही ताजगी है जितनी किसी छोटे बच्चे के भीतर हो। जो अंत तक सीखने को राजी है, उसके भीतर सदा ही युवावस्था बनी रहती है। और युवावस्था की ताजगी, और युवावस्था का बहाव, और युवावस्था की प्रतिभा बनी रहती है।
लेकिन लोग तो जल्दी बूढ़े हो जाते हैं। तुम सोचते हो कि सत्तर साल में बूढ़े होते हैं, तो तुम गलत सोचते हो। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अधिकतर लोग बारह वर्ष की उम्र के बाद रुक जाते हैं, फिर सीखते ही नहीं। बारह वर्ष--यह औसत मानसिक उम्र है दुनिया की! बारह वर्ष भी कोई उम्र हुई! सात वर्ष की उम्र में बच्चा पचास प्रतिशत बातें सीख लेता है, अब बस पचास प्रतिशत और सीखेगा। और अभी जिंदगी पड़ी है पूरी। और बारह वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते, या बहुत हुआ तो चौदह वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते सब ठहर जाता है। फिर सीखने का उपक्रम बंद हो जाता है। फिर तुम अपने ही कुएं के गोल घेरे में घूमने लगते हो। फिर तुम सागर की तरफ दौड़ती हुई सरिता नहीं रह जाते, रेल की पटरी पर दौड़ती हुई मालगाड़ी हो जाते हो--मालगाड़ी, पैसेंजर गाड़ी भी नहीं, क्योंकि भीतर तुम्हारे सिर्फ कूड़ा-कचरा भरा होता है! तुम्हारे भीतर जीवन भी नहीं होता। और रेल की पटरी पर दौड़ते रहते हो फिर। फिर तुम्हारे जीवन में और कोई स्वतंत्रता नहीं रह जाती। उसी पटरी पर दौड़ते-दौड़ते एक दिन मर जाते हो। कहीं पहुंचना नहीं हो पाता।
अधिक लोग तो मेरी बात नहीं समझेंगे। समझेंगे तो गलत समझेंगे। समझेंगे तो कुछ का कुछ समझेंगे। मैं इससे अन्यथा की आशा भी नहीं रखता। इसलिए मुझे इससे कुछ अड़चन नहीं होती। मुझे इससे कुछ विषाद नहीं होता। इससे मुझे कोई चिंता नहीं होती। यह होना ही चाहिए। अगर लोग मेरी बात बिलकुल वैसी ही समझ लें जैसी मैं कह रहा हूं तो चमत्कार होगा। ऐसा चमत्कार न तो कभी हुआ है, न हो सकता है। अभी मनुष्य से इतनी आशा करनी असंभव है।
निकली है सुबह, नहा के आंख मल के देखिए!
बैठे हुए हैं आप, जरा चल के देखिए!
है खा रही जमीन सितारों के फासले,
कितनी हसीन आग है, ये जल के देखिए!
तन कर खड़ी हैं चोटियां जो टूट जाएंगी,
बेहतर है इस हवा में आप ढल के देखिए!
गल-गल के बहे जा रहे हैं धूप में पहाड़,
गलना भी एक जिंदगी है, गल के देखिए!
फूलों से रंगी गंध है, गंधों से रंगी धूप,
साये हैं उड़ रहे किसी आंचल के देखिए!
कल तक तो फूल भी न खिल सके थे बाग के,
तिनके भी आज हैं खड़े खिल-खिल के देखिए!
मगर यह अनुभव की बात! आओ पास! चखो मुझे! पीओ मुझे!
निकली है सुबह, नहा के आंख मल के देखिए!
बैठे हुए हैं आप, जरा चल के देखिए!
लोग चलने को राजी नहीं, देखने को राजी नहीं, आंख खोलने को राजी नहीं। फिर कैसे उन्हें समझाओ? समझाए जाऊंगा। सौ को समझाऊंगा, दस सुनेंगे; नब्बे तो सुनेंगे ही नहीं। दस सुनेंगे, शायद एकाध समझे। पर उतना भी काफी पुरस्कार है, उतना भी काफी तृप्तिदायी है। अगर थोड़े से फूल भी खिल जाएं, अगर थोड़े से लोग भी बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाएं, तो इस पृथ्वी का हम रंग बदल देंगे। थोड़े से दीये जल जाएं तो बहुत अंधेरा टूट जाएगा। और फिर एक दीया जल जाए तो उससे और बुझे दीयों को जलाया जा सकता है।
बुद्धों की एक श्रृंखला पैदा करने का आयोजन है। संन्यास उसी दिशा में उठाया गया पहला कदम है। संन्यास का अर्थ है: आओ मेरे करीब। संन्यास का अर्थ है: घोषणा करो अपनी तरफ से कि तुम सामीप्य के आकांक्षी हो।
है खा रही जमीन सितारों के फासले,
कितनी हसीन आग है, ये जल के देखिए!
तन कर खड़ी हैं चोटियां जो टूट जाएंगी,
बेहतर है इस हवा में आप ढल के देखिए!
आओ, ढलो, पीओ, गलो!
गल-गल के बहे जा रहे हैं धूप में पहाड़,
गलना भी एक जिंदगी है, गल के देखिए!
वे थोड़े से लोग ही समझ पाएंगे, जो गलेंगे मेरे साथ; जो इस आग से नाचते हुए गुजरेंगे मेरे साथ। बाकी तो कुछ का कुछ समझेंगे। उन्हें समझने दो। उनकी चिंता भी न लो। उनकी उपेक्षा करो। दया रखना उन पर। क्रोध मत लाना। क्योंकि उनका कोई कसूर नहीं है। ऐसी ही उनकी मन की दशा है। इतनी ही उनकी पात्रता है। इतनी ही उनकी क्षमता है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, आपका मूल संदेश क्या है?
वही जो सदा से सभी बुद्धों का रहा है: अप्प दीपो भव! अपने दीये खुद बनो! अपने मांझी स्वयं बनो! किसी और के कंधे का सहारा न लेना। खुद खाओगे तो तुम्हारी भूख मिटेगी। खुद पीओगे तो तुम्हारी प्यास मिटेगी। सत्य को स्वयं जानोगे, तो ही, केवल तो ही संतोष की वीणा तुम्हारे भीतर बजेगी। मेरा जाना हुआ सत्य तुम्हारे किसी काम का नहीं।
मैं तुम्हें सत्य नहीं दे सकता। मैं तो सिर्फ तुम्हारे भीतर सत्य को पाने की अभीप्सा को प्रज्वलित कर सकता हूं। मैं तुम्हें सत्य नहीं दे सकता, लेकिन सत्य की ऐसी आग तुम्हारे भीतर पैदा कर सकता हूं कि तुम पतिंगे बन जाओ, कि तुम सत्य की ज्योति में जल मिटने को तत्पर हो जाओ।
कौन कहता है
कि मेरी नाव पर मांझी नहीं है,
आज मांझी मैं स्वयं इस नाव का हूं!
मैं नहीं स्वीकार करता
जलधि की छलनामयी
मनुहारमय रंगीन लहरों का निमंत्रण
आज तो स्वीकार मैंने की जलधि की
अनगिनत विकराल इन उद्दाम लहरों की चुनौती!
आज मेरे सधे हाथों में थमी पतवार।
लहरें नाव को आकाश तक फेंकें भले ही,
जाएं ले पाताल तक वे साथ अपने,
किंतु पाएंगी न इसको लील!
उनकी हार निश्चित
नाथ लेगी नाग-सी विकराल लहरों को
हृदय की आस्था की डोर!
लहरें शीश पर ढोकर स्वयं ले जाएंगी
यह नाव मेरे लक्ष्य तक!
क्योंकि अपनी नाव का मांझी स्वयं मैं,
और मेरे सधे हाथों में थमी पतवार!
यही मेरा संदेश है: मांझी बनो! पतवार उठाओ! थोड़ी पतवार चलाओ, हाथ सध जाएंगे। परमात्मा ने तुम्हारे हाथ इस योग्य बनाए हैं कि सध सकते हैं। सधना उनकी क्षमता है। बैसाखियों पर न चलो, अपने पैरों पर चलो! अपने मांझी बनो!
और घबड़ाओ मत। सागर की जो उद्दाम लहरें तुम्हें पुकार रही हैं, वे ही तुम्हें परमात्मा के किनारे तक ले जाएंगी। चुनौतियां ही अवसर हैं। चूको मत। हर चुनौती को अवसर बना लो।
राह पर पड़े पत्थर ही सीढ़ियां बन जाएंगे--तुम जरा सम्हलो, तुम जरा जागो! तुम्हें पता नहीं कि तुम्हारे भीतर कौन बैठा है! वही, जिसे तुम खोज रहे हो, तुम्हारे भीतर बैठा है। खोजने वाला और जिसे हम खोज रहे हैं, दो नहीं हैं। तुम्हारी अनंत क्षमता है। अमृतस्य पुत्रः! तुम अमृत के पुत्र हो!
प्रिय! तुम्हारे किस सजीले स्वप्न का आकार हूं मैं!
जो तुम्हारे नेत्र में नत है, वही श्रृंगार हूं मैं।
एक ही थी दृष्टि जिसमें
सृष्टि मेरी मुस्कुराई,
थी वही मुसकान जिसमें
हंसी जाकर लौट आई,
थी तुम्हारी गति कि जो
दुख में सदा सुख बन समाई
भाग्य-रेखा क्षितिज-रेखा
बन प्रभा से जगमगाई,
टूट कर भी नित्य बजता हूं, तुम्हारा तार हूं मैं।
प्रिय! तुम्हारे किस सजीले स्वप्न का आकार हूं मैं।
कौन सा वह क्षण दिया
जो प्राण में अनुराग बांधे,
कौन सा वह बल दिया
अनुराग में भी आग बांधे,
कौन सा साहस दिया जो
भूमि के भी भाग बांधे,
भूमि-भागों के मुकुट पर
मुस्कुराता त्याग बांधे,
सूख कर भी जो हृदय पर खिल रहा है, हार हूं मैं।
प्रिय! तुम्हारे किस सजीले स्वप्न का आकार हूं मैं!
चंद्र निष्प्रभ हो चला अब
रात ढलती जा रही है,
कौन सा संकेत है जो
सांस चलती जा रही है,
अवधि जितनी कम बची
उतनी मचलती जा रही है,
दीप्ति बुझने की नहीं
वह और जलती जा रही है,
मृत्यु को जीवन बनाने का अमिट अधिकार हूं मैं।
प्रिय! तुम्हारे किस सजीले स्वप्न का आकार हूं मैं!
तुम उस परमात्मा के स्वप्न हो। तुममें वही आकार लिया है, रूपायित हुआ है। तुम्हारी वीणा में उसी का संगीत छिपा है, छेड़ो!
जो बुद्धों का संदेश है--सब बुद्धों का, समस्त बुद्धों का--वही मेरा संदेश है: अप्प दीपो भव! अपने दीये बनो! अपने मांझी बनो!
आज इतना ही।