DARIYADAS
AMI JHARAT BIGSAT KANWAL 04
Fourth Discourse from the series of 14 discourses - AMI JHARAT BIGSAT KANWAL by Osho. These discourses were given during MAR 11 -24 1979.
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पहला प्रश्न:
भगवान, खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ--चार्वाकों का यह प्रसिद्ध संसार-सूत्र है। नाचो, गाओ और उत्सव मनाओ--यह आपका संन्यास-सूत्र है। संसार-सूत्र और संन्यास-सूत्र के भेद को कृपा करके हमें समझाएं।
नरेंद्र! खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ--चार्वाकों के लिए यह साधन नहीं है, साध्य है। बस, इस पर ही परिसमाप्ति है; इसके पार कुछ भी नहीं है। जीवन इतने में ही पूरा हो जाता है। इसीलिए तो उनको चार्वाक नाम मिला।
यह शब्द समझने जैसा है। चार्वाक बना है चारु-वाक् से। चारु-वाक् का अर्थ होता है: प्यारे वचन, प्रीतिकर वचन। अधिकतम लोगों को यह प्रीतिकर लगा कि बस खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ; इसके पार कुछ भी नहीं है। सौ में से निन्यानबे लोग चार्वाक के अनुयायी हैं--चाहे वे मंदिर जाते हों, मस्जिद जाते हों, गिरजा जाते हों, इससे भेद नहीं पड़ता; हिंदू हों, मुसलमान हों, ईसाई हों, इससे भेद नहीं पड़ता। जिंदगी उनकी चार्वाक की ही है। खाना, पीना और मौज उड़ाना, यही उनके जीवन की परिभाषा है, कहें चाहे न कहें। जो कहते हैं, वे तो शायद ईमानदार हैं; जो नहीं कहते हैं, वे बड़े बेईमान हैं। उन नहीं कहने वालों के कारण ही जगत में पाखंड है।
मैं कल ही एक संस्मरण देख रहा था। महात्मा गांधी ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के पिता पंडित मोतीलाल नेहरू को एक पत्र लिखा। क्योंकि उन्हें खबर मिली कि मोतीलाल नेहरू सभा-समाज में, क्लब में लोगों के सामने शराब पीते हैं। तो पत्र में उन्होंने लिखा कि अगर पीनी ही हो तो कम से कम अपने घर के एकांत में तो पीएं! भीड़-भाड़ में, लोगों के सामने पीना...यह शोभा नहीं देता।
मोतीलाल नेहरू ने जो जवाब दिया, वह बहुत महत्वपूर्ण है। मोतीलाल नेहरू ने कहा: आप मुझे पाखंडी बनाने की चेष्टा न करें। जब मैं पीता ही हूं तो क्यों घर में छिप कर पीऊं? जब पीता ही हूं तो लोगों को जानना चाहिए कि मैं पीता हूं। जिस दिन नहीं पीऊंगा, उस दिन नहीं पीऊंगा। आपसे ऐसी आशा न थी कि आप ऐसी सलाह देंगे!
अब इन दोनों में महात्मा कौन है? इसमें मोतीलाल नेहरू ज्यादा ईमानदार आदमी मालूम होते हैं; इसमें महात्मा गांधी ज्यादा बेईमान मालूम होते हैं। महात्मा गांधी की मान कर ही तो सारा मुल्क बेईमान हुआ जा रहा है--बाहर कुछ, भीतर कुछ। घर में लोग शराब पी रहे हैं और बाहर शराब के विपरीत व्याख्यान दे रहे हैं! संसद में शराब के विपरीत नियम बना रहे हैं--वे ही लोग, जो घरों में छिप कर शराब पी रहे हैं! एक चेहरा छिपाने का, एक चेहरा बताने का। दिखाने के दांत कुछ और, काम में लाने के दांत कुछ और।
लोगों को गौर से देखो तो तुम न तो किसी को हिंदू पाओगे, न किसी को मुसलमान, न जैन, न बौद्ध; तुम सबको चार्वाकवादी पाओगे। फिर ये हिंदू, जैन, मुसलमान भी जिस स्वर्ग की आकांक्षा कर रहे हैं, वह आकांक्षा बड़ी चार्वाकवादी है! मुसलमानों के बहिश्त में शराब के झरने बहते हैं। बेचारा चार्वाक तो यहीं की छोटी-मोटी शराब से राजी है; कुल्हड़-कुल्हड़ पीओ, उससे राजी है। मगर बहिश्त के फरिश्ते कहीं कुल्हड़ों से राजी होते हैं! झरने बहते हैं; जी भर कर पीओ; डुबकी मारो, तैरो शराब में, तब तृप्ति होगी! बहिश्त में सुंदर स्त्रियां उपलब्ध हैं। ऐसी सुंदर स्त्रियां जैसी यहां उपलब्ध नहीं।
यहां तो सभी सौंदर्य कुम्हला जाता है। अभी खिला फूल, सांझ कुम्हला जाएगा; अभी खिला, सांझ पंखुरियां गिर जाएंगी। यहां तो सब क्षणभंगुर है। तो जो ज्यादा लोभी हैं और ज्यादा कामी हैं, उन्होंने स्वर्ग की कल्पना की है। वहां स्त्रियां सदा सुंदर होती हैं, कभी वृद्ध नहीं होतीं। तुमने कभी किसी बूढ़े देवता या बूढ़ी अप्सरा की कोई कहानी सुनी है? उर्वशी की कहानी को लिखे हो गए हजारों साल, उर्वशी अब भी जवान है! स्वर्ग में स्त्रियों की उम्र बस सोलह साल पर ठहरी सो ठहरी, उसके आगे नहीं बढ़ती, सदियां बीत जाती हैं।
ये किनकी आकांक्षाएं हैं?
चूंकि मुसलमान देशों में समलैंगिकता का खूब प्रचार रहा है, इसलिए बहिश्त में भी उसका इंतजाम है। वहां सुंदर स्त्रियां ही नहीं, सुंदर छोकरे भी उपलब्ध हैं। यह किनका स्वर्ग है? ये किस तरह के लोग हैं? इनको तुम धार्मिक कहते हो?
और हिंदुओं के स्वर्ग में कुछ भेद नहीं है; विस्तार के भेद होंगे, मगर वही आकांक्षाएं हैं, वही अभिलाषाएं हैं। हिंदुओं के स्वर्ग में कल्पवृक्ष है, जिसके नीचे बैठते ही सारी इच्छाओं की तत्क्षण तृप्ति हो जाती है--तत्क्षण! एक क्षण भी नहीं जाता! इतना भी धीरज रखने की जरूरत नहीं है वहां। यहां तो अगर धन कमाना हो, वर्षों लगेंगे, फिर भी कौन जाने कमा पाओ, न कमा पाओ। एक सुंदर स्त्री को पाना हो, एक सुंदर पुरुष को पाना हो, हजार बाधाएं पड़ेंगी। सफलता कम, असफलता ज्यादा निश्चित है। लेकिन स्वर्ग में कल्पवृक्ष के नीचे, भाव उठा कि तत्क्षण पूर्ति हो जाती है।
मैंने सुना है, एक आदमी भटकता हुआ, भूला-चूका कल्पवृक्ष के नीचे पहुंच गया। उसे पता नहीं कि कल्पवृक्ष है। थका-मांदा था तो लेटने की इच्छा थी, थोड़ा विश्राम कर ले। मन में ऐसा खयाल उठा कि काश इस समय कहीं कोई सराय होती, थोड़ा गद्दी-तकिया मिल जाता! ऐसा उसका सोचना था कि तत्क्षण सुंदर शय्या, गद्दी-तकिए अचानक प्रकट हो गए! वह इतना थका था कि उसे सोचने का भी मौका नहीं मिला, उसने यह भी नहीं सोचा कि ये कहां से आए! कैसे आए अचानक! गिर पड़ा बिस्तर पर और सो गया। जब उठा, ताजा, स्वस्थ थोड़ा हुआ, सोचा कि बड़ी भूख लगी है, कहीं से भोजन मिल जाता। ऐसा सोचना था कि भोजन के थाल आ गए। भूख इतनी जोर से लगी थी कि अभी भी उसने विचार न किया कि यह सब घटना कैसे घट रही है! भोजन जब कर चुका, तब जरा विचार उठा! नींद से सुस्ता लिया था, भोजन से तृप्त हुआ था, सोचा कि मामला क्या है? कहां से यह बिस्तर आया? मैंने तो सिर्फ सोचा था! कहां से यह सुंदर सुस्वादु भोजन आए? मैंने तो सिर्फ सोचा था! आस-पास कहीं भूत-प्रेत तो नहीं हैं? कि भूत-प्रेत चारों तरफ खड़े हो गए। घबड़ाया, कहा कि अब मारे गए! बस, उसी में मारा गया।
कल्पवृक्ष के नीचे तत्क्षण...समय का व्यवधान नहीं होता। ये किन्होंने बनाए होंगे कल्पवृक्ष? कामियों ने। ये चार्वाकवादियों की आकांक्षाएं हैं। साधारण चार्वाकवादी, साधारण नास्तिक तो इस पृथ्वी से राजी है। लेकिन असाधारण चार्वाकवादी हैं, उनको यह पृथ्वी काफी नहीं है; उन्हें स्वर्ग चाहिए, बहिश्त चाहिए, कल्पवृक्ष चाहिए। अलग-अलग धर्मों के अगर स्वर्गों की तुम कथाएं पढ़ोगे, तो तुम चकित हो जाओगे। उनके स्वर्ग में वही सब कुछ है जिसका वे धर्म यहां विरोध कर रहे हैं--वही सब, जरा भी फर्क नहीं है! यहां कैबरे-नृत्य का विरोध हो रहा है और इंद्र की सभा में कैबरे-नृत्य के सिवाय कुछ नहीं हो रहा है! और उसी इंद्रलोक में जाने की आकांक्षा है। उसके लिए लोग धूनी रमाए बैठे हैं, तपश्चर्या कर रहे हैं, सिर के बल खड़े हैं, उपवास कर रहे हैं। सोचते हैं कि चार दिन की जिंदगी है, इसे तो दांव पर लगा कर, तपश्चर्या करके एक बार पा लो स्वर्ग, तो अनंतकालीन...। तुम्हें वे नासमझ समझते हैं, क्योंकि तुम क्षणभंगुर के पीछे पड़े हो; स्वयं को समझदार समझते हैं, क्योंकि वे शाश्वत के पीछे पड़े हैं।
तुमसे वे बड़े चार्वाकवादी हैं। खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ--यही उनके जीवन का लक्ष्य भी है; यहीं नहीं, आगे भी, परलोक में भी। उनके परलोक की कथाएं तुम पढ़ो, तो वृक्ष हैं वहां जिनमें सोने और चांदी के पत्ते हैं, और फूल हीरे-जवाहरातों के हैं। ये किस तरह के लोग हैं? हीरे-जवाहरातों, सोने-चांदी को यहां गालियां दे रहे हैं; और जो उनको छोड़ कर जाता है, उसका सम्मान कर रहे हैं। और स्वर्ग में यही मिलेगा। जो यहां छोड़ोगे, वही अनंतगुना वहां मिलेगा। तो जो यहां छोड़ता है, अनंतगुना पाने को छोड़ता है। और जिसमें अनंतगुना पाने की आकांक्षा है, वह क्या खाक छोड़ता है!
यहां सौ में निन्यानबे व्यक्ति चार्वाकवादी हैं। इसलिए चार्वाकों को दिया गया शब्द बड़ा सुंदर है। धार्मिक, पंडित-पुरोहित तो उसका कुछ और अर्थ करते हैं; वह अर्थ भी ठीक है। वे तो कहते हैं कि चरने-चराने में जिनका भरोसा है--वे चार्वाक। लेकिन मूल शब्द चारु-वाक् से बना है--मधुर शब्द जिनके हैं; जिनके शब्द सबको मधुर हैं।
चार्वाकों का एक और नाम है--लोकायत। वह भी बड़ा प्रीतिकर नाम है। लोक को जो भाता है, वह लोकायत। अधिक लोगों को जो प्रीतिकर लगता है, वह लोकायत। लोक के हृदय में जो समाविष्ट हो जाता है, वह लोकायत।
यहां धार्मिक कहे जाने वाले लोग भी धार्मिक कहां हैं? तुम जरा सोचना, अगर परमात्मा प्रकट हो जाए तो तुम उससे क्या मांगोगे? जरा सोचना, क्या मांगोगे? अगर परमात्मा कहे कि मांग लो तीन वरदान। क्योंकि पुराने समय से हर कहानी में वे तीन ही वरदान! पता नहीं क्यों तीन! तो तुम कौन से तीन वरदान मांगोगे? किसी को बताने की बात नहीं, मन में ही सोचना। और तुम्हें पक्का पता चल जाएगा कि तुम भी चार्वाकवादी हो। तुम्हारे तीन वरदानों में चार्वाक की सारी बात आ जाएगी।
धर्म के नाम पर लोगों ने एक आवरण तो बना लिया है पाखंड का, और भीतर? भीतर वे वही हैं जिसकी वे निंदा कर रहे हैं।
मैं भी कहता हूं: नाचो, गाओ, उत्सव मनाओ। लेकिन नाचना, गाना और उत्सव मनाना गंतव्य नहीं है, लक्ष्य नहीं है, साधन है। साध्य परमात्मा है। ऐसे नाचो कि नाचने वाला मिट जाए। ऐसा गाओ गीत कि गीत ही बचे, गायक खो जाए। ऐसे उत्सव से भर जाओ कि लीन हो जाओ, तल्लीन हो जाओ। उसी तल्लीनता में, उसी लवलीनता में परमात्मा प्रकट होता है।
मैं तुमसे यह नहीं कहता कि खाओ भी मत, पीओ भी मत, मौज भी मत उड़ाओ। मैं कहता हूं: खाओ, पीओ, मौज करो! परमात्मा इसके विपरीत नहीं है। लेकिन इतने पर समाप्त मत हो जाना। चार्वाक सुंदर है, मगर काफी नहीं। सीढ़ी बनाओ चार्वाक की। मंदिर की सीढ़ी का पत्थर चार्वाक से बनाओ; लेकिन मंदिर में जाना है, मंदिर के देवता से मिलन करना है। और वह देवता उन्हीं को मिल सकता है जो उत्सवपूर्ण हैं, जिनके भीतर गीत की गूंज है, जिनके ओंठों पर आनंद की बांसुरी बज रही है; जिन्होंने पैरों में घूंघर बांधे हैं--भजन के, अर्चन के। जिनकी आंखें चांद-तारों पर टिकी हैं, जो रोशनी के दीवाने हैं। तमसो मा ज्योतिर्गमय! जिनकी एक ही प्रार्थना है कि हे प्रभु, ज्योति की तरफ ले चल! असतो मा सद्गमय। असत से सत की तरफ ले चल! जिनके प्राणों में बस एक ही अभीप्सा है: मृत्योर्मा अमृतं गमय! मृत्यु से अमृत की तरफ से चल! कितनी बार बनाया, कितनी बार मिटाया, यह खेल बहुत हो चुका; अब मुझे शाश्वत में लीन हो जाने दे, विलीन हो जाने दे। अब मैं थक गया हूं होने से। यह सुंदर है तेरा जगत। यह खाना-पीना, मौज उड़ाना, ये सब ठीक; मगर बचकानी हैं ये बातें; अब मुझे इनके ऊपर उठा।
बच्चों को खिलौनों से खेलने दो, लेकिन कभी बचकानेपन से ऊपर उठोगे या नहीं? और बच्चों के खिलौने भी मत तोड़ो। यह भी मैं नहीं कहता हूं कि उनके खिलौने तोड़ दो। जिस दिन वे प्रौढ़ होंगे, तब वे स्वयं ही खिलौनों को छोड़ देंगे।
तो मेरी बात में और चार्वाक की बात में बड़ा भेद है। चार्वाक कहता है: यही लक्ष्य। मैं कहता हूं: यह साधन। चार्वाक कहता है: इसके पार कुछ भी नहीं। मैं कहता हूं: इसके पार सब कुछ है। हां, एक बात में मेरी सहमति है कि मैं चार्वाक का विरोधी नहीं हूं। क्योंकि जो चार्वाक के विरोधी हैं, वे सिर्फ तुम्हें पाखंडी बनाने में सफल हो सके हैं। और मैं तुम्हें पाखंडी नहीं बनाना चाहता। मैं तुम्हारे जीवन को दो हिस्सों में नहीं बांटना चाहता--कि घर के भीतर कुछ और, और घर के बाहर कुछ और। मैं तुम्हें एक रंग देना चाहता हूं--ऐसा रंग, जो सब तरफ, सब जगह काम आए। मैं तुम्हें जीवन की एक शैली देना चाहता हूं, जिसमें पाखंड की गुंजाइश ही न हो।
तो मैं चार्वाक के पक्ष में हूं; क्योंकि चार्वाक के जो विपरीत हैं, वे पाखंड के समर्थक हो जाते हैं। लेकिन मैं चार्वाक पर समाप्त नहीं होता हूं, सिर्फ चार्वाक पर शुरू होता हूं। चार्वाक के लिए संन्यास जैसी तो कोई चीज है ही नहीं--माया है, झूठ है, असत्य है, ब्राह्मणों की जालसाजी है। चार्वाक के लिए संन्यास जैसी बात तो सिर्फ धूर्तों का जाल है। मेरे लिए संन्यास जीवन का परम सत्य है, परम गरिमा है। चार्वाक के लिए संसार सत्य है, संन्यास झूठ है। जो चार्वाक-विरोधी हैं--तथाकथित धार्मिक, आस्तिक--उनके लिए संसार माया है और संन्यास सत्य है। मेरे लिए दोनों सत्य हैं। और दोनों सत्यों में कोई विरोध नहीं है। संसार परमात्मा का ही व्यक्त रूप है, और परमात्मा संसार की ही अव्यक्त आत्मा है।
मैं तुम्हें एक अखंड दृष्टि देना चाहता हूं, जिसमें कुछ भी निषेध नहीं है। मैं तुम्हें एक विधायक धर्म देना चाहता हूं, जिसमें संसार को भी आत्मसात कर लेने की क्षमता है; जिसकी छाती बड़ी है; जो संसार को भी पी जा सकता है और फिर भी जिसका संन्यास खंडित नहीं होगा; जो बीच बाजार में संन्यस्त हो सकता है; जो घर में रह कर अगृही हो सकता है; जो संसार में होकर भी संसार का नहीं होता।
तो एक अर्थ में मैं चार्वाक से सहमत और एक अर्थ में सहमत नहीं।
इस अर्थ में सहमत हूं कि चार्वाक बुनियाद बनाता है जीवन की। लेकिन अकेली बुनियाद से क्या होगा? मंदिर बनेगा नहीं, तो बुनियाद व्यर्थ है। और तुम्हारे तथाकथित साधु-संत मंदिर तो बनाते हैं, लेकिन बुनियाद नहीं लगाते। उनके मंदिर थोथे होते हैं। कभी भी गिर जाएंगे; गिरे ही हैं; अब गिरे, तब गिरे। क्योंकि जिनकी कोई नींव नहीं है, उन मंदिरों का क्या भरोसा? उनमें जरा सम्हल कर जाना, कहीं खुद गिरें और तुम्हें भी न ले डूबें!
मैं एक ऐसा मंदिर बनाना चाहता हूं जिसमें संसार, संसार की भौतिकता नींव बनेगी और संन्यास और परमात्मा की गरिमा मंदिर बनेगी। मैं तुम्हें एक ऐसी दृष्टि देना चाहता हूं जिसमें किसी भी चीज का विरोध नहीं है, सभी चीज का अंगीकार है। और एक ऐसी कला, रूपांतरण का एक ऐसा रसायन देना चाहता हूं जिसमें हम पत्थर में भी परमात्मा की मूर्ति खोजने में सफल हो जाएं और जहर को अमृत बनाने में सफल हो जाएं।
यह हो सकता है। और जब तक यह नहीं होगा, इस पृथ्वी पर दो ही तरह के लोग होंगे। जो ईमानदार होंगे, वे चार्वाकवादी होंगे। जो बेईमान होंगे, वे आस्तिक होंगे, धार्मिक होंगे।
ये कोई अच्छे विकल्प नहीं हैं कि ईमानदार आदमी को तो चार्वाकवादी होना पड़े और धार्मिक आदमी को बेईमान होना पड़े। ये कोई अच्छे विकल्प नहीं हैं। हमने दुनिया को चुनने के लिए कोई ठीक-ठीक राह नहीं दी।
मैं तीसरी ही बात कर रहा हूं। मैं कहता हूं: बिना बेईमान हुए धार्मिक हुआ जा सकता है।
लेकिन तब चार्वाक को अंगीकार करना होगा। तब चार्वाक को इनकार नहीं किया जा सकता। खाना, पीना और मौज--जीवन की स्वाभाविकता है। जिन ऋषियों ने कहा--‘अन्नं ब्रह्म!’ उन्होंने यह समझा होगा, तभी कहा। अन्न को जो ब्रह्म कह सके, सोच कर कहा होगा, अनुभव से कहा होगा। अन्न को ब्रह्म कहने का क्या अर्थ हुआ? इसका अर्थ हुआ कि भोजन में भी उसको ही अनुभव करना। स्वाद में भी उसका ही स्वाद लेना। यही चार्वाक को बदलने की कीमिया हुई। खाओ तो उसे, पीओ तो उसे, मौज मनाओ तो उसके आस-पास। वह न भूले!
और परमात्मा को हमने कहा है रसरूप--रसो वै सः। और क्या चाहिए? वही रस है। उस रस का प्रमाण दो। तुम्हारी आंखों में उसकी रसधार बहे। तुम्हारे प्राणों में उसका रस-गीत गूंजे। तुम्हारा व्यक्तित्व उसके रस की झलक दे, प्रमाण बने।
इसलिए कहता हूं: नाचो, गाओ, उत्सव मनाओ। इसलिए कहता हूं कि परमात्मा की तरफ जब जा ही रहे हो तो रोते-रोते क्यों जाना? जब हंसते हुए जाया जा सकता है तो रोते हुए क्यों जाना? और अगर रोओ भी, तो तुम्हारे आंसू भी तुम्हारे आनंद के ही आंसू होने चाहिए। जलो भी, तो उसकी आग में जलना। और जब उसकी आग में कोई जलता है, तो आग भी बड़ी शीतल होती है। और जब उसकी आग में कोई जलता है, तो आग भी जलाती नहीं, केवल निखारती है।
चार्वाक एक पुराना दर्शन है--अति प्राचीन, शायद सर्वाधिक प्राचीन। क्योंकि आदिम मनुष्य ने सबसे पहले तो खाओ, पीओ और मौज मनाओ--इसकी ही खोज की होगी। परमात्मा की खोज तो बहुत बाद में हुई होगी। परमात्मा की खोज के लिए तो एक परिष्कार चाहिए। परमात्मा की खोज तो धीरे-धीरे जब हृदय शुद्ध हुआ होगा कुछ लोगों का, कुछ लोगों की हृदयतंत्री बजी होगी, तब हुई होगी।
चार्वाक आदिम दर्शन है, सनातन धर्म है। शेष सारी बातें बाद में आई होंगी। चार्वाक को बुनियाद बनाओ, क्योंकि जो सनातन है और जो तुम्हारे भीतर छिपा है, जो तुम्हारी बुनियाद में पड़ा है, उसको इनकार करके तुम कभी संपूर्ण न हो पाओगे। उसको इनकार करोगे तो तुम्हारा ही एक खंड टूट जाएगा, तुम अपंग हो जाओगे।
और अपंग व्यक्ति परमात्मा तक नहीं पहुंचता, खयाल रखना। सर्वांग होना होगा। तुम्हें अपनी सर्वांग सुंदरता में ही उसकी तरफ यात्रा करनी होगी।
लेकिन लोग प्रकट में चार्वाक नहीं हैं। अब मैं पार्लियामेंट के अनेक सदस्यों को जानता हूं, जो शराब-बंदी के लिए पीछे पड़े हैं--और शराब पीते हैं! मैंने उनसे पूछा भी है कि तुम जब शराब पीते हो, खुद पीते हो, तो शराब-बंदी के खिलाफ में क्यों नहीं काम करते? क्यों शराब-बंदी के लिए चेष्टा करते हो?
तो वे कहते हैं: आखिर जनता से वोट लेने हैं या नहीं? जनता के सामने तो एक चेहरा, एक मुखौटा लगा कर रखना पड़ेगा। रही पीने की बात, सो वह हम घर में कर सकते हैं, मित्रों में कर सकते हैं। सभी पीते हैं! बाहर हम एक चेहरा बना कर रख सकते हैं।
मैं ऐसे नेताओं को भी जानता हूं जो शराब पीकर ही शराब-बंदी के पक्ष में व्याख्यान करने जाते हैं!
मैं एक विश्वविद्यालय में जब विद्यार्थी था, तो उसके जो वाइस चांसलर थे--महाशराबी थे। और शराब-बंदी के खिलाफ व्याख्यान दिया उन्होंने! और जब व्याख्यान दिया तो वे इतना पीए हुए थे कि उनकी गांधीवादी टोपी दो बार गिरी। पहली बार गिरी तो उन्होंने टटोल कर अपने सिर पर रख ली। जब दूसरी बार गिरी, वे इतने नशे में थे कि उन्होंने बगल के आदमी की टोपी उतार कर अपने सिर पर रख ली!
जब विश्वविद्यालय का दीक्षांत समारोह होता था, तो दो प्रोफेसर उनके घर छोड़ने पड़ते थे चौबीस घंटे पहले कि उनको पीने न दें। क्योंकि दीक्षांत समारोह में वे बड़ी गड़बड़ कर देते थे। जिनको बी ए की डिग्री देनी है, उनको एम ए की डिग्री दे देते। जिनको पीएच डी की डिग्री मिलनी है, उनको बी ए की डिग्री मिल पाती! ऐसा जब एक बार हो चुका...और फिर वहां बीच में उनको टोकना भी संभव नहीं था; वही सबसे बड़े अधिकारी थे।
मैंने उनसे पूछा कि कम से कम जिस दिन शराब-बंदी के पक्ष में आपको बोलना था, उस दिन तो न पीते!
उन्होंने कहा: मैं पीऊं न तो मैं बोल ही नहीं सकता। जब पी लेता हूं, तभी तो इस तरह की व्यर्थ की बातें बोल सकता हूं, नहीं तो बोल ही नहीं सकता। इस तरह की फिजूल की बकवास बिना पीए नहीं हो सकती।
मोरारजी भाई देसाई के मंत्रिमंडल में जितने लोग हैं, उनमें से कम से कम पचहत्तर प्रतिशत शराब पीते हैं; इससे ज्यादा भला पीते हों। जिन लोगों ने ठीक हिसाब लगाया है, वे तो कहते हैं नब्बे प्रतिशत। लेकिन मैं कहता हूं थोड़ा कम करके, ताकि अगर अदालत में भी मुझे प्रमाण देना पड़े तो मैं दे सकूं! पचहत्तर प्रतिशत तो निश्चित पीते हैं।
लेकिन एक पाखंड है जो धार्मिक आदमी में पाया जाता है--कहता कुछ, करता कुछ; दिखाता कुछ, होता कुछ।
हमने दो ही विकल्प छोड़े हैं आदमी के लिए: या तो वह शुद्ध भौतिकवादी हो; वह भी अच्छा नहीं है, क्योंकि उससे जीवन बड़ा सीमित हो जाता है। आकाश से संबंध टूट जाता है। पृथ्वी पर सरकना ही हमारे जीवन की नियति हो जाती है। फिर हम आकाश में उड़ नहीं सकते हैं। फिर सूर्य की ओर उड़ान नहीं भर सकते हैं। और या फिर पाखंड हमारे हाथ में लगता है। या तो हम झूठे हो जाते हैं--ऐसे झूठे कि हमें याद भी नहीं पड़ता कि हम झूठे हो गए हैं। अगर कोई झूठ ही झूठ बोलता रहे जीवन भर, तो झूठ भी सच जैसा मालूम होने लगता है।
एक कवि महोदय, कविता पाठ करने के पहले हूटरों को सचेत करते हुए बोले: देखिए, यदि आपने मुझे हूट किया तो मैं आत्महत्या कर लूंगा।
यह कथन सुन कर हा-हा, ही-ही कर रहे सारे हूटर गंभीर हो गए। थोड़ी देर बाद उनमें से एक हूटर ने प्रश्न किया कि क्या आप सचमुच ही आत्महत्या कर लेंगे?
कवि महाराज ने कहा: बिलकुल, बिलकुल निश्चित है यह बात। यह तो मेरी पुरानी आदत है। मैं तो सदा ऐसा करता रहा हूं।
झूठ बोलते-बोलते एक ऐसी सीमा आ जाती है कि तुम्हें पहचान में ही न आएगा स्वयं कि तुम झूठ बोल रहे हो। निरंतर दोहराए गए झूठ सच जैसे मालूम होने लगते हैं। पाखंड धर्म बन गया है!
मैं नहीं चाहता कि तुम चार्वाक को अस्वीकार करो। मैं चाहता हूं कि तुम चार्वाक को स्वीकार करो। चार्वाक की स्वीकृति बिलकुल स्वाभाविक है, प्राकृतिक है। सुस्वादु भोजन में पाप क्या है? खाने-पीने में और मौज उड़ाने में मनुष्य की गरिमा है, महत्ता है।
तुम जरा देखो, पशु भी खाते-पीते हैं; पशुओं के खाने-पीने में और आदमी के खाने-पीने में फर्क क्या है? एक ही फर्क है कि कोई पशु खाने-पीने में उत्सव नहीं मनाता। अगर एक कुत्ते को रोटी मिल गई तो वह चार और कुत्तों को निमंत्रित नहीं करता कि आओ भाई! रोटी कुत्ते को मिल गई तो वह भागता है एक कोने में; एकांत खोजता है। किसी को निमंत्रण नहीं देता। कहीं कोई आ न जाए, इस डर से पीठ कर लेता है दूसरों की तरफ।
मनुष्य चाहता है कि मित्रों को बुलाए, प्रियजनों के बीच बैठे; भोजन को उत्सव बना लेता है। वहां मनुष्य की संस्कृति है, सभ्यता है।
मैंने जिन वाइस चांसलर का उल्लेख किया, वे आदमी प्यारे थे। शराब उन्होंने कभी अकेले नहीं पी। कभी अगर मित्र उनके घर इकट्ठे न हो पाएं तो वे बिना पीए सो जाते थे। मैंने पूछा: ऐसा क्यों?
उन्होंने कहा: अकेले पीने में क्या अर्थ? पीने का मजा तो चार के साथ है।
तुम चकित होओगे यह जान कर कि शराब पीने वाले लोग, अक्सर शराब नहीं पीने वाले लोगों से ज्यादा मिलनसार होते हैं, ज्यादा मैत्रीपूर्ण होते हैं, ज्यादा उदार होते हैं। और कारण? क्योंकि शराब पीने का मजा ही चार के साथ है।
अब जो स्व-मूत्र पीते हैं, वे तो कोई चार के साथ नहीं पीएंगे! वे तो हो जाएंगे इकंडे। वे तो छिप कर ही पीएंगे। उनको तो छिप कर पीना ही पड़ेगा। उनमें किसी तरह की मनुष्यता नहीं हो सकती।
मोरारजी देसाई जब जवान थे तो एक लड़की से शादी करना चाहते थे। पिता पक्ष में नहीं थे। बात इतनी बिगड़ गई कि पिता ने कुएं में कूद कर आत्महत्या कर ली! मोरार जी को बहुत लोगों ने समझाया कि शादी तो अब तुम कर ही लेना जिससे करनी है, लेकिन कम से कम अभी कुछ दिन तो रुक जाओ! मगर वे नहीं रुके। पिता मर गए, लेकिन तारीख जो उन्होंने तय कर ली थी, ठीक तीन दिन बाद, पिता की आत्महत्या के तीन दिन बाद शादी हुई। शादी वे करके ही रहे। अब तो कोई विरोध करने वाला भी नहीं था। अब तो अगर महीने, पंद्रह दिन रुक जाते तो कुछ हर्ज न था। लेकिन एक तरह की अमानवीयता...।
मोरार जी देसाई की लड़की ने भी आत्महत्या की; उन्हीं के कारण। पिता ने भी उन्हीं के कारण की। और डर यह है कि यह पूरा मुल्क कहीं उनके कारण न करे।
उनकी लड़की देखने-दाखने में सुंदर नहीं थी; वैसी ही रही होगी जैसे वे हैं! तो देर तक लड़का नहीं मिल सका। सत्ताईस वर्ष की उम्र में बामुश्किल उसने एक लड़का खोजा। वह लड़का भी उसमें उत्सुक नहीं था; वह मोरारजी तब चीफ मिनिस्टर थे बंबई के, उनमें उत्सुक था, कि उनके सहारे सीढ़ियां चढ़ लेगा। मोरारजी को यह
पसंद नहीं था। जानते हुए भलीभांति कि उनकी लड़की को लड़का मिलना मुश्किल है। उनका ही ढंग-ढर्रा लड़की में था। अब यह बामुश्किल मिल गया है, किसी बहाने सही। मगर चूंकि उन्होंने विरोध किया, लड़की ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसे भविष्य में कोई आशा ही नहीं थी कि कोई दूसरा लड़का मिल सकेगा।
जब अस्पताल में जली हुई लड़की को देखने वे गए, मरी हुई लड़की को देखने गए, तो एक शब्द नहीं बोले। डाक्टर चकित, अस्पताल की नर्सें चकित! न उनके चेहरे पर कोई भाव आया; न एक शब्द बोले। एक मिनट वहां खड़े रहे, लौट पड़े। कमरे के बाहर आकर डाक्टरों से कहा कि जैसे ही औपचारिकता पूरी हो जाए, लाश को मेरे घर के लोगों को दे दिया जाए ताकि अंत्येष्टि क्रिया की जा सके; और चले गए।
ऐसी कठोरता! ऐसी अमानवीयता!
नहीं, शराबियों में नहीं मिलेगी। शराबी में थोड़ी सी भलमनसाहत होती है।
वह जो चार मित्रों को बुला कर भोजन करता है, उसमें थोड़ी भलमनसाहत होती है, थोड़ी मिलनसारिता होती है। उसमें मैत्री का भाव होता है।
ऐसे तो पशु-पक्षी भी भोजन करते हैं; मनुष्य में और उनमें इतना ही भेद है कि मनुष्य भोजन को भी एक सुसंस्कार देता है। टेबल है, कुर्सी है, चम्मच है; बैठने का ढंग है; धूप बाली गई है; फूल सजाए गए हैं; रोशनी की गई है, दीये जलाए गए हैं। इस सबके बिना भी भोजन हो सकता है। यह सब भोजन का अंग नहीं है। लेकिन यह सब भोजन को एक संस्कार देता है, एक सभ्यता देता है।
अकेले में एक कोने में बैठ कर शराब पी जा सकती है। लेकिन जब तुम पांच मित्रों को बुला कर, गपशप करके, गीत गाकर पीते हो, तो पीने का मजा और है।
चार्वाक को इनकार करने के लिए मैं राजी नहीं हूं। चार्वाक मुझे पूरा स्वीकार है। लेकिन चार्वाक पर रुकने को भी मैं राजी नहीं हूं। इतना ही काफी नहीं है। मिलनसार होना अच्छा; खाने-पीने को संस्कार देना अच्छा; मैत्री अच्छी; मगर इतना ही पर्याप्त नहीं है; परमात्मा की तलाश भी करनी है।
और चार्वाक में और परमात्मा की तलाश करने में मुझे कोई विरोध नहीं दिखाई पड़ता। सच तो यह है, मुझे दोनों में एक संगति दिखाई पड़ती है, एक सेतु दिखाई पड़ता है।
मैं तुमसे नहीं कहता कि पाखंडी बनो। मैं तुमसे कहता हूं: सच्चे रहो। जैसे हो वैसे अपने को स्वीकार करो। और इस सरलता और सहजता से ही धीरे-धीरे परमात्मा की तरफ बढ़ो।
परमात्मा की तरफ जाने को अकारण असहज मत बनाओ। परमात्मा तक जाने की यात्रा जितनी सहजता से हो सके उतनी सुंदर है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, बंबई के गुजराती भाषा के पत्रकार और लेखक श्री कांति भट्ट ने कृष्णमूर्ति के प्रवचन में आए हुए बंबई के लोगों को बुद्धिमत्ता का अर्क कहा है। श्री कांति भट्ट आपसे भी बंबई में मिल चुके हैं और यहां आश्रम में भी आए थे। लेकिन उन्होंने आपके पास आने वाले लोगों को कभी बुद्धिमान नहीं कहा। आप इस बाबत कुछ कहने की कृपा करेंगे?
कैलाश गोस्वामी! श्री कांति भट्ट ठीक ही कहते हैं। कृष्णमूर्ति के पास जो लोग इकट्ठे होते हैं, वे तथाकथित बुद्धिमान लोग ही हैं। क्योंकि कृष्णमूर्ति की बात बस गणित और तर्क की बात है। उसमें हृदय नहीं है, उसमें भाव नहीं है, भक्ति नहीं है, उसमें जीवन का गीत नहीं है--केवल जीवन का शुष्क विश्लेषण है। उसमें जीवन का नृत्य नहीं है--सिर्फ नृत्य का गणित है।
और दोनों बातों में भेद है। एक तो वीणा कोई बजाए और एक कोई वीणा के संगीत को...कागज पर लिपिबद्ध किया जा सकता है, संगीत की लिपि होती है, कागज पर लिपिबद्ध किया जा सकता है...उस कागज पर लिपिबद्ध संगीत का विश्लेषण करे। दोनों में बड़ा भेद है। कुछ लोग जो विश्लेषणप्रिय हैं, जो चीजों को खंड-खंड करके, टुकड़े-टुकड़े करके उनकी व्याख्या करने में रस लेते हैं, कृष्णमूर्ति में उन्हें बहुत आकर्षण मालूम होगा।
मेरी उत्सुकता तर्क में नहीं है, मेरी उत्सुकता प्रेम में है। मेरी उत्सुकता गणित में नहीं है, मेरी उत्सुकता गीत में है। मेरी उत्सुकता लिपिबद्ध संगीत में नहीं है, वीणा को बजाने में है। पांडित्य मेरे लिए असार है, पागलपन में मेरी बड़ी श्रद्धा है।
तो मेरे पास तो श्री कांति भट्ट को कैसे यह लग सकता है कि यहां बुद्धिमत्ता का अर्क? यहां तो लगता होगा कि दीवाने इकट्ठे हुए हैं, पागल इकट्ठे हुए हैं, मस्ताने इकट्ठे हुए हैं! यह तो है ही मधुशाला।
कृष्णमूर्ति के पास जो लोग जा रहे हैं, वह जमात अहंकारियों की है। अगर तुम्हें अहंकारियों की कोई शुद्ध जमात कहीं देखनी हो तो कृष्णमूर्ति के पास मिलेगी। और कृष्णमूर्ति भी थक गए हैं उस जमात से, ऊब गए हैं। मगर उनके कहने का ढंग, उनके बोलने का ढंग, उनकी प्रस्तावना ऐसी है कि सिवाय उन अहंकारियों के कोई दूसरा उनके पास कभी इकट्ठा नहीं हो सकता।
कृष्णमूर्ति स्वयं तो ज्ञान को उपलब्ध हैं, लेकिन उनकी अभिव्यक्ति शुष्क है। उनकी अभिव्यक्ति से, परमात्मा रस-रूप है, इसका कोई पता नहीं चलता। उनकी अभिव्यक्ति से, तल्लीनता से भी मिल सकता है सत्य, इसकी कोई संभावना नहीं खुलती। उनका स्वर एक है; वह ध्यान का स्वर है--जागरूक होना है, चित्त को जाग कर देखते रहना है, सजग होकर।
यह एक मार्ग है--बस एक मार्ग! एक दूसरा मार्ग भी है, ठीक इसके विपरीत; वह प्रेम का मार्ग है--डूब जाना है, लीन हो जाना है। जागरूक, दूर-दूर नहीं खड़े रहना है; तल्लीन हो जाना है।
मैं दोनों ही मार्गों की बात कर रहा हूं। क्योंकि जगत में दोनों तरह के लोग हैं। कुछ हैं जो ध्यान से उपलब्ध होंगे। उनके लिए मैं विश्लेषण भी करता हूं। उनके लिए मैं तर्क की बात भी बोलता हूं। और कुछ हैं जो प्रेम से उपलब्ध होंगे। उनके लिए मैं मादक गीत भी गाता हूं। चूंकि मैं दोनों विपरीत बातें एक साथ बोलता हूं, चूंकि दोनों विरोधाभासों को एक साथ एक संगति में लाता हूं, जो लोग सिर्फ सोच-विचार से जीते हैं, उन्हें मेरी बातों में विरोधाभास दिखाई पड़ेंगे, असंगति दिखाई पड़ेगी। स्वाभाविक, क्योंकि कभी जब मैं महावीर पर बोलता हूं तो शुद्ध तर्क होता हूं और जब मीरा पर बोलता हूं तो शुद्ध अतर्क होता हूं। जो मुझे सुनेंगे, उन्हें धीरे-धीरे यह लगेगा कि इस बात में तो विरोधाभास है, असंगति है। इसलिए तर्क से जीने वाला व्यक्ति मेरी बातों में असंगति पाएगा।
कृष्णमूर्ति की बातें बड़ी संगत हैं, क्योंकि वे एक ही स्वर दोहरा रहे हैं पचास वर्षों से। उस स्वर में उन्होंने कभी भी हेर-फेर नहीं किया। उस स्वर में उन्होंने कभी भी कोई असंगति नहीं की। दो और दो चार, दो और दो चार, दो और दो चार--ऐसा पचास वर्ष से दोहरा रहे हैं।
जो मुझे सुनता है, मैं कभी कहता हूं: दो और दो चार। और कभी कहता हूं: दो और दो पांच। और कभी कहता हूं: दो और दो तीन। और कभी कहता हूं: दो और दो जुड़ते ही नहीं! और कभी कहता हूं कि दो और दो तो सदा से एक ही हैं, जोड़ोगे कैसे? तो मेरे पास एक और ही तरह का व्यक्ति इकट्ठा हो रहा है--एक और ही अन्यथा प्रकार का!
कृष्णमूर्ति के पास केवल वे ही लोग इकट्ठे होते हैं जिन्हें यह भ्रांति है कि वे बुद्धिमान हैं। पाया क्या? इकट्ठे होते रहे, सुनते भी रहे, संग्रह भी बढ़ गया सूचनाओं का। मिला क्या? तीस-तीस साल, चालीस-चालीस साल कृष्णमूर्ति को सुनने वाले लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि सब समझ में तो आ गया, मगर मिला कुछ भी नहीं! ऐसी समझ किस काम की?
मैं तुम्हें समझ नहीं देता, मैं तुम्हें अनुभव देता हूं। मैं तुम्हें यह नहीं कहता कि इतना जान लो, इतना जान लो। मैं कहता हूं: इतने डूबो, इतने डूबो! मैं तुम्हें धक्का देता हूं सागर में।
जो इस धक्के को झेलने को राजी हैं, स्वभावतः श्री कांति भट्ट को वे कोई बुद्धिमान लोग मालूम न पड़े होंगे। और कांति भट्ट स्वयं पत्रकार हैं, लेखक हैं, तो स्वयं भी गणित और तर्क से ही सोचते होंगे। गणित और तर्क के पार भी एक विराट आकाश है, इसकी उन्हें कोई खबर नहीं।
जो मुझे समझेंगे, वे मेरी बातों में कृष्णमूर्ति को भी पा सकते हैं। जो कृष्णमूर्ति को समझेंगे, वे कृष्णमूर्ति की बातों में मुझे नहीं पा सकते। कृष्णमूर्ति का तो छोटा सा आंगन है साफ-सुथरा; कृष्णमूर्ति की तो छोटी सी बगिया है साफ-सुथरी। बगिया भी विक्टोरिया के जमाने की, इंग्लैंड की बगिया! कटी-छंटी, साफ-सुथरी, सिमिट्रीकल। एक झाड़ इस तरफ, तो दूसरा झाड़ ठीक उसके ही अनुपात का, माप का दूसरी तरफ। लान कटा हुआ।
कृष्णमूर्ति में बहुत कुछ है जो विक्टोरियन है। वे असल में बड़े हुए इस तरह के लोगों के साथ--एनीबीसेंट, लीडबीटर, इन लोगों के साथ बड़े हुए। इन्होंने उन्हें पाला-पोसा। इन्होंने उन्हें शिक्षा दी। इंग्लैंड में बड़े हुए। वह छाप उन पर रह गई है।
तुम मेरे बगीचे को देखो, जंगल है! जैसा मेरा बगीचा है, वैसा ही मैं हूं। कहीं कोई सिमिट्री नहीं, कोई तालमेल नहीं। एक झाड़ ऊंचा, एक झाड़ छोटा। रास्ते इरछे-तिरछे। मुक्ता है मेरी मालिन। मुक्ता ग्रीक है। ग्रीक तर्क! बहुत चेष्टा की उसने शुरू में कि इस तरफ भी ठीक वैसा ही झाड़ होना चाहिए जैसा उस तरफ है, दोनों में समतुलता होनी चाहिए। बहुत चेष्टा की उसने कि किसी तरह झाड़ों को काट-छांट कर आकार दिया जा सके। लेकिन धीरे-धीरे समझ गई कि मेरे साथ यह न चलेगा। चुरा कर, चोरी से, मेरे अनजाने, पीठ के पीछे छिपा कर, कैंची लेकर वह झाड़ों को रास्ते पर लगाती थी। धीरे-धीरे उसे समझ में आ गया कि यह मेरा बगीचा जंगल ही रहेगा।
जंगल में मुझे सौंदर्य मालूम होता है; बगिया में मौत। आदमी का कटा-छंटा हुआ बगीचा सुंदर नहीं हो सकता। कटे-छंटे होने के कारण ही उसकी नैसर्गिकता नष्ट हो जाती है। मैं नैसर्गिक का प्रेमी हूं। और निसर्ग बड़ा है। निसर्ग बहुत बड़ा है।
एक झेन फकीर ने एक सम्राट को बागवानी की शिक्षा दी। और जब शिक्षा पूरी हो गई तो वह परीक्षा लेने उसके बगीचे में आया। सम्राट ने एक हजार माली लगा रखे थे। और परीक्षा के दिन के लिए तीन वर्ष तैयारी की थी। और सोचता था कि गुरु आकर प्रसन्न हो जाएगा। कोई भूल-चूक न छोड़ी थी। यही भूल-चूक थी! यह तो बहुत बाद में पता चला। बिलकुल समग्ररूपेण बगिया पूर्ण थी। यही अपूर्णता थी। क्योंकि पूर्ण चीजों में मृत्यु आ जाती है। जहां पूर्णता है वहां मृत्यु छा जाती है। जब गुरु आया तो सम्राट सोचता था, अपेक्षा करता था--बहुत प्रसन्न होगा, आह्लादित होगा; लेकिन गुरु बड़ा उदास होता चला गया; जैसे-जैसे बगिया में भीतर गया, और उदास होता चला गया। सम्राट ने कहा: आप उदास! मैंने बहुत मेहनत की है। एक-एक नियम का परिपूर्णता से पालन किया है।
गुरु ने कहा: वही चूक हो गई। तुमने नियमों का इतनी परिपूर्णता से पालन किया है कि सारा निसर्ग नष्ट हो गया। यह बगीचा झूठा मालूम पड़ता है, सच्चा नहीं। और मुझे सूखे पत्ते नहीं दिखाई पड़ते! सूखे पत्ते कहां हैं? जहां इतने वृक्ष हैं, वहां एक सूखा पत्ता रास्तों पर नहीं है!
सम्राट ने कहा: आज ही सारे सूखे पत्ते इकट्ठे करवा कर मैंने बाहर फिंकवा दिए, कि आप आते हैं तो सब शुद्ध रहे।
टोकरी उठा कर बूढ़ा गुरु बाहर गया, रास्ते पर फेंक दिए गए सूखे पत्तों को ले आया टोकरी में भर कर, फेंक दिए रास्तों पर! आईं हवाएं, सूखे पत्ते खड़खड़ की आवाज करके उड़ने लगे। और गुरु प्रसन्न हुआ। उसने कहा: अब देखते हो, थोड़ा प्राण आया। यह आवाज देखते हो, यह संगीत सुनते हो! ये सूखे पत्तों की खड़खड़, इसके बिना मुर्दा था तुम्हारा बगीचा। मैं फिर आऊंगा, साल भर फिर तुम फिकर करो। अब की बार फिकर करना कि इतनी पूर्णता ठीक नहीं, कि इतना नियमबद्ध होना ठीक नहीं, कि थोड़ी अपूर्णता शुभ है, कि थोड़ा नियम का उल्लंघन शुभ है, क्योंकि निसर्ग को मौका मिले। तुमने बिलकुल अनुशासनबद्ध कर दिए सारे वृक्ष, जैसे सिपाही हों। तुमने वृक्षों की मौलिकता छीन ली, उनकी अद्वितीयता छीन ली। कोई वृक्ष किसी दूसरे वृक्ष जैसा नहीं है, प्रत्येक वृक्ष बस अपने जैसा है।
मैं प्रत्येक व्यक्ति की निजता को स्वीकार करता हूं, सम्मान करता हूं। मैं तुम्हें काट-छांट कर एक जैसे नहीं बना देना चाहता। जब मैं देखता हूं कि तुम्हारे भीतर प्रेम का गुलाब खिलेगा, तो मैं तुमसे ध्यान की बात नहीं करता। और जब मैं देखता हूं कि तुम्हारे भीतर ध्यान की जुही खिलेगी, तो मैं तुमसे गुलाब की बात नहीं करता। और चूंकि मैं किसी से गुलाब की बात करता हूं, किसी से जुही की, किसी से चंपा की और किसी से केवड़े की, मेरी बातों में असंगति हो जानी स्वाभाविक है।
मेरे पास तो वही आ सकता है जो मेरी हजार-हजार असंगतियों को झेलने की छाती रखता हो। बड़ी छाती चाहिए! कृष्णमूर्ति को सुनने के लिए बहुत छोटी सी खोपड़ी काफी है। बहुत छोटी खोपड़ी चाहिए--थोड़ा सा तर्क आता हो, थोड़ा सा गणित आता हो, थोड़े कालेज-स्कूल की पढ़ाई-लिखाई हो, कृष्णमूर्ति समझ में आ जाएंगे।
मेरे साथ इतने सस्ते में नहीं चलेगा। मेरे साथ तो पियक्कड़ों की दोस्ती बनती है। मुझसे तो नाता ही दीवानों का जुड़ता है, प्रेमियों का जुड़ता है--जो संगति की मांग नहीं करते; जो असंगति में भी संगति देखने का हृदय रखते हैं और जो विरोधाभासों में भी सेतु बना लेने की क्षमता रखते हैं। यह एक और ही तरह का जगत है।
कृष्णमूर्ति की शिक्षाएं बस शिक्षाएं हैं। कृष्णमूर्ति एक शिक्षक होकर समाप्त हो गए, सदगुरु नहीं हो पाए। और सुनने वाले शिष्य ही नहीं बन पाए, सिर्फ विद्यार्थी रह गए।
यहां विद्यार्थियों की जगह ही नहीं है। मैं कोई शिक्षक नहीं हूं और मेरे पास कोई शिक्षा का शास्त्र नहीं है। मैं खुद एक दीवाना हूं, खुद जिसने जी भर कर पी है! मुझसे दोस्ती बनाओगे तो मेरे साथ लड़खड़ा कर चलना सीखना होगा! इसके बिना कोई उपाय नहीं है।
इसलिए कैलाश गोस्वामी, कांति भट्ट ठीक ही कहते हैं कि कृष्णमूर्ति के पास बुद्धिमत्ता का अर्क इकट्ठा होता है। मगर बुद्धिमत्ता का अर्क जरा भी मूल्य का नहीं है, दो कौड़ी उसका मूल्य नहीं है।
कोई पंद्रह वर्षों तक मेरे पास भी उसी तरह के लोग इकट्ठे होते थे। फिर मुझे उनके साथ छुटकारा करने में बड़ी मेहनत करनी पड़ी। वही बुद्धिमत्ता का अर्क मेरे पास इकट्ठा होता था। जो लोग कृष्णमूर्ति को सुनने जाते हैं, वे ही मुझे भी सुनने आते थे। करीब-करीब वे ही लोग! मुझे उनसे छुटकारा पाने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ी, बामुश्किल उनसे छुटकारा कर पाया। क्योंकि उन्होंने कृष्णमूर्ति का जीवन खराब किया। उन्होंने कृष्णमूर्ति के जीवन से जो लाभ हो सकता था, वह नहीं होने दिया। सारी बातें बस बुद्धि की होकर रह गईं। और मैं नहीं चाहता था कि मेरे पास भी बस वही बातें चलती रहें।
और एक कठिनाई होती है। अगर तुम्हारे पास एक ही तरह की जमात इकट्ठी हो जाए तो मुश्किल हो जाती है। वह जो भाषा समझती है, उसी भाषा में तुम्हें बोलना पड़ता है। मैं चाहता था कि मेरे पास सब रंगों, सब ढंगों के लोग हों। मैं चाहता था कि मेरे पास इंद्रधनुष हो, सातों रंग के लोग हों। मैं चाहता था कि मेरे पास इकतारा न हो, मेरे पास सब तरह के वाद्य हों कि मैं एक आर्केस्ट्रा बनाऊं जिसमें सारे वाद्य सम्मिलित हो सकें।
वे लोग जो मेरे पास इकतारा लेकर इकट्ठे हो गए थे, उनसे छुटकारा पाने में मुझे बड़ी मुश्किल हुई। उनसे छुटकारा पाना जरूरी था, क्योंकि उनकी जमात जो भाषा समझती थी, वही भाषा मुझे बोलनी पड़ती थी।
अब मेरे पास एक जमात है कि मैं जो भाषा बोलता हूं, उसी भाषा को समझने के लिए वह राजी है, क्योंकि वह मेरे हृदय को पहचानती है। अब मेरे शब्दों पर मेरे संन्यासियों को बहुत चिंता नहीं करनी पड़ती। वे मेरे शब्दों में मेरे भाव को पढ़ते हैं। वे मेरे शब्दों में मेरे अर्थ को सुनते हैं। अब मेरा शून्य मेरे संन्यासियों को सुनाई पड़ने लगा है।
मैं प्रसन्न हूं, क्योंकि अब मुझे भीड़-भाड़ से, आमजन से नहीं बोलना पड़ रहा है। अब मैंने, जो मुझे समझ सकते हैं, सुन सकते हैं, जो मुझे आत्मसात कर ले सकते हैं, उनको धीरे-धीरे जुटा लिया है। उन्हें निमंत्रण दे-दे कर मैंने अपने पास बुला लिया है। अब मेरे पास ऐसे लोग हैं कि उनकी कोई अपेक्षा नहीं है मुझसे कि मैं यही बोलूं, कि ऐसा ही बोलूं। अब उनकी कोई अपेक्षा ही नहीं है। वे मुझे पीने को राजी हैं। जैसा मैं हूं वैसा पीने को राजी हैं। आज जो पिलाऊंगा वही पीने को राजी हैं। वे यह नहीं कहेंगे कि कल तो आप कुछ और ही पिलाते थे, आज कुछ और पिलाने लगे! कल कल था, आज आज है। और कल आने वाला कल होगा। अब उनकी चिंता नहीं है संगति बिठाने की।
यह जरा कठिन मामला है--सातों रंग के लोगों को सम्हालना, सब शैली के लोगों को साथ-साथ लेकर चलना! इसका मजा भी बहुत है, इसकी झंझट भी बहुत है।
कृष्णमूर्ति झंझट से तो बच गए, लेकिन फिर जीवन में वे जो करना चाहते थे, नहीं कर पाए। कृष्णमूर्ति अत्यंत विषादग्रस्त हैं--अपने लिए नहीं; अपने लिए तो दीया जल गया, बात पूरी हो गई। उनका विषाद यह है कि वे किसी और का दीया नहीं जला पाए। इसलिए नाराज हो जाते हैं, चिल्लाते हैं, अपना माथा ठोंक लेते हैं, क्योंकि लोग समझते ही नहीं। लेकिन इसमें कसूर सिर्फ लोगों का नहीं है। कृष्णमूर्ति ने जिस तरह की बातें कहीं, उस तरह के लोग इकट्ठे हो गए हैं। ये वे लोग हैं जो बदलने की आकांक्षा ही नहीं रखते। ये तो सिर्फ सुनने आते हैं, ये तो सिर्फ कुछ और थोड़ी बातें संगृहीत हो जाएं, थोड़ा पांडित्य और बढ़ जाए, इसलिए आते हैं। इनकी विश्लेषण की क्षमता थोड़ी और प्रखर हो जाए, इसलिए आते हैं।
यह अहंकारियों की जमात है। क्योंकि कृष्णमूर्ति कहते हैं कि किसी को गुरु बनाने की आवश्यकता नहीं है, कहीं समर्पण करने की कोई आवश्यकता नहीं है। तो उन लोगों की जमात कृष्णमूर्ति के पास इकट्ठी हो जाती है जो समर्पण करने में असमर्थ हैं और जिनका अहंकार इतना मजबूत है कि जो किसी के सामने झुक नहीं सकते। उनके लिए कृष्णमूर्ति की बात बड़ा आवरण बन जाती है--बड़ा सुंदर आवरण! वे कहते हैं: झुकने की जरूरत ही नहीं है, इसलिए हम नहीं झुकते हैं। बात कुछ और है। झुक नहीं सकते हैं, इसलिए नहीं झुकते हैं। लेकिन अब एक तर्क हाथ आ गया कि झुकने की कोई जरूरत ही नहीं है। समर्पण आवश्यक ही नहीं है, इसलिए हम समर्पण नहीं करते हैं। सचाई कुछ और है। समर्पण करना हर किसी के बस की बात नहीं है, बड़ा साहस चाहिए। अपने को मिटाने का साहस चाहिए!
मैं जो प्रयोग कर रहा हूं वह पृथ्वी पर अनूठा है, इसलिए श्री कांति भट्ट जैसे लोग उसे नहीं समझ पाएंगे। मैं जो प्रयोग कर रहा हूं उसे समझने में सदियां लग जाएंगी। अब तक दुनिया में बहुत प्रयोग हुए हैं। बुद्ध ने एक भाषा बोली--संगत भाषा; एक तरह के लोग इकट्ठे हो गए। महावीर ने दूसरी भाषा बोली--संगत भाषा; दूसरी तरह के लोग इकट्ठे हो गए। चैतन्य ने तीसरी भाषा बोली--संगत भाषा; तीसरी तरह के लोग इकट्ठे हो गए। चैतन्य के पास जो लोग इकट्ठे हुए, वे झांझ-मजीरा, ढोलक-मृदंग लेकर इकट्ठे हुए, नाचे, गाए। बुद्ध के पास जो लोग इकट्ठे हुए, उन्होंने विपस्सना की, आंख बंद की, शांत होकर बैठे। महावीर के पास जो लोग इकट्ठे हुए, उन्होंने उपवास किया, शरीर की शुद्धि की। अलग-अलग लोग, उनकी अलग-अलग विधि, उनके अनुकूल लोग इकट्ठे होते रहे।
मैं जो प्रयोग कर रहा हूं वह अनूठा है, कभी किया नहीं गया। कभी किसी ने इतनी झंझट मोल लेना चाही भी नहीं। यहां विपस्सना भी चल रहा है। जो लोग शांत बैठना चाहते हैं, मौन होना चाहते हैं, उनके लिए भी द्वार है। जो लोग नाचना चाहते हैं मृदंग की थाप पर, उनके लिए भी द्वार है। जो अकेले में, एकांत में बांसुरी बजाना चाहते हैं, उनके लिए भी द्वार है। और जो बहुतों के साथ संगीत में लीन होना चाहते हैं, उनके लिए भी द्वार है।
मैं एक मंदिर बना रहा हूं, जिस मंदिर में सभी द्वार होंगे--मस्जिद का भी द्वार होगा, और गिरजे का भी, और गुरुद्वारे का भी, मंदिर का भी, सिनागॉग का भी--जिसमें सारे द्वार होंगे। तुम कहीं से आओ, जिस द्वार से तुम्हारी रुचि हो, आओ। भीतर एक ही परमात्मा विराजमान है।
यह झंझट की बात है। इतने भिन्न-भिन्न लोगों को साथ सम्हाल कर चलना कठिन काम है। लेकिन बात लगता है कि बनी जा रही है। बनते-बनते बन रही है; लेकिन बनी जा रही है।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी आदत के अनुसार जैसे ही संगीत-सम्मेलन में आलाप भरा, एक श्रोता खड़ा हो गया और विनम्र स्वर में बोला: बड़े मियां, आप गाने की स्टाइल बदलिए। कल मैं आप ही की तरह गा रहा था तो पिटते-पिटते बचा।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी ही स्टाइल में गीत प्रारंभ किया और बोले: महाशय, मेरा खयाल है कि आपका गाने का ढंग घटिया रहा होगा। यदि हूबहू मेरी स्टाइल में गाते तो जरूर पिटते।
मेरे पास जो घटित हो रहा है, वह अघटित होने जैसी बात है। उसे समझने में सदियां लगेंगी। उसे समझने में सिर्फ बुद्धि पर्याप्त नहीं होगी--हृदय की गहराई चाहिए होगी। उसे समझने में सिर्फ तर्क काम नहीं देगा, क्योंकि मेरे पास जो लोग इकट्ठे हो रहे हैं, वे बुद्धिमत्ता का अर्क नहीं हैं--समग्रता का अर्क हैं। उसमें उनका तन भी जुड़ा है, उसमें उनका मस्तिष्क भी जुड़ा है, उसमें उनका हृदय भी जुड़ा है, उसमें उनकी आत्मा भी जुड़ी है। कृष्णमूर्ति के पास जो लोग इकट्ठे हो रहे हैं, वे बुद्धिमत्ता के अर्क हैं। मेरे पास जो लोग इकट्ठे हो रहे हैं, वे समग्रता के अर्क हैं। यह बात और है। यह बड़ा आकाश है। यह कोई छोटा आंगन नहीं है।
छोटे आंगन को साफ-सुथरा रखा जा सकता है, लीपा-पोता जा सकता है। इस बड़े आकाश को कैसे लीपो-पोतो? कैसे साफ-सुथरा रखो? यह तो जैसा है वैसा ही अंगीकार करना होगा।
मैं निसर्ग का भक्त हूं। मेरे लिए निसर्ग ही परमात्मा है। और परमात्मा ने जितने रूप लिए हैं, वे सब मुझे स्वीकार हैं। परमात्मा ने जितने ढंगों में अपनी अभिव्यक्ति की है, सबका मेरे मन में सम्मान है।
कृष्णमूर्ति के पास भक्त जाएगा तो कृष्णमूर्ति कहेंगे: गलत! भक्ति में क्या रखा है? यह मंदिर की पत्थर की मूर्ति के सामने सिर पटकने से क्या होगा? भजन-कीर्तन सब आत्म-सम्मोहन है। संगीत, संकीर्तन, ये सब अपने को भुलावे के ढंग हैं।
मेरे पास भक्त आएगा, तो मैं कहूंगा कि पत्थर में भी भगवान है, क्योंकि भगवान ही है! तो पत्थर में भी वही होगा! लेकिन पत्थर में तुम्हें तब दिखाई पड़ेगा जब तुम्हें अपने में दिखाई पड़ने लगेगा। अन्यथा पूजा झूठी रहेगी। तुम्हें अपने में नहीं दिखाई पड़ता, अपनी पत्नी में नहीं दिखाई पड़ता, अपने बच्चे में नहीं दिखाई पड़ता, तुम्हें मंदिर की मूर्ति में कैसे दिखाई पड़ेगा?
हां, पत्थर में भी जरूर भगवान है, क्योंकि भगवान अस्तित्व का ही दूसरा नाम है। और पत्थर भी है--उतना ही जितना मैं हूं, जितने तुम हो! तो पत्थर के होने में ही तो भगवत्ता है उसकी। मगर पत्थर में देखने के लिए जरा गहरी आंख चाहिए पड़ेगी। अभी तो तुम्हारे पास इतनी थोथी आंखें हैं कि जीवंत मनुष्यों में भी नहीं दिखाई पड़ता, पशु-पक्षियों में नहीं दिखाई पड़ता, वृक्षों में नहीं दिखाई पड़ता--और पत्थर में दिखाई पड़ जाएगा!
फिर सभी पत्थरों में भी नहीं दिखाई पड़ता। छैनी से किसी ने पत्थर पर थोड़े से हाथ मार दिए हैं, हथौड़ी चला दी है, उसमें दिखाई पड़ता है; या किसी ने किसी पत्थर पर आकर सिंदूर पोत दिया है, उसमें दिखाई पड़ने लगता है। सिर्फ सिंदूर पोतने से!
तुम्हें पता है, जब पहली दफा अंग्रेजों ने भारत में रास्ते बनाए और मील के पत्थर लगाए तो बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। क्योंकि मील के पत्थर लगाए, लाल रंग से रंगा। गांव से रास्ते गुजरें और जिस पत्थर पर भी लाल रंग पुता है, उसी पर फूल चढ़ा कर लोग हनुमान जी समझते हैं! अंग्रेज बड़ी मुश्किल में पड़ गए कि करना क्या! लोग नारियल फोड़ें, हनुमान जी की जय बोलें। और अंग्रेज उस पर तो लिखें, मील का पत्थर, तो मील; कितने मील, आने वाला नगर कितनी दूर। लेकिन गांव के लोग हर महीने दो महीने में उस पर सिंदूर पोत दें, क्योंकि हनुमान जी को सिंदूर चढ़ाना ही पड़ता है। पर्त पर पर्त!
जरा सिंदूर पोत दिया तो पत्थर एकदम हनुमान जी हो जाते हैं। और ऐसे तुम्हें हनुमान जी मिल जाएं कहीं रास्ते में तो तुम ऐसे भागोगे...
तुम्हारा तो क्या, विवेकानंद ने अपने संस्मरण में लिखा है कि हिमालय में यात्रा करते वक्त एक भयंकर बंदर उनके पीछे पड़ गया। बंदर, कुत्ते, इस तरह के प्राणियों को यूनिफार्म से बड़ी दुश्मनी है, पता नहीं क्यों! पुलिसवाला निकल जाए कि कुत्ते एकदम भौंकने लगते हैं; पोस्टमैन, कि संन्यासी, एक यूनिफार्म भर...यूनिफार्म के दुश्मन! देखा होगा विवेकानंद को गैरिक वस्त्रों में चले जाते, बंदर एकदम नाराज हो गया। एकदम दौड़ा विवेकानंद के पीछे। विवेकानंद शक्तिशाली आदमी थे, हिम्मतवर आदमी थे, लेकिन एकदम हनुमान जी पीछे आ जाएं...विवेकानंद भी भागे! अपनी जान बचानी पड़ती है ऐसे मौकों पर। ऐसे पत्थर पर सिंदूर पोतना एक बात है। लेकिन जितने ही विवेकानंद भागे, बंदर और मजा लिया। जब कोई भाग रहा हो तो भागते के पीछे तो कोई भी भागने लगता है। भगाने वाले कोई भी मिल जाएंगे फिर। बंदर और मजा लेने लगा।
फिर विवेकानंद को लगा कि अगर मैं और भागा, तो यह हमला करेगा। कोई और रास्ता न देख कर...पहाड़ी सन्नाटा, कोई रास्ता नहीं भागने का, बचने का, कोई आदमी दिखाई पड़ता नहीं, सोचा कि अब एक ही उपाय है कि डट कर खड़ा हो जाऊं, अब जो कुछ करेंगे हनुमान जी सो करेंगे। लौट कर खड़े हो गए। लौट कर खुद खड़े हुए तो बंदर भी लौट कर खड़ा हो गया। बंदर ही तो ठहरा आखिर।
हनुमान जी तुम्हें रास्ते में मिल जाएं तो तुम भी भागोगे। तुम एकदम गिड़गिड़ाने लगोगे कि हनुमान जी कोई नाराज हो गए हैं, क्या बात है? ऐसे जाकर पत्थर के सामने प्रार्थना करते थे कि हे हनुमान जी, कभी प्रकट होओ!
पत्थर की पूजा करोगे और अभी तुम्हें मनुष्य में भी परमात्मा दिखाई पड़ा नहीं! मनुष्य की तो छोड़ दो, अपने भीतर नहीं दिखाई पड़ा--निकटतम जो है तुम्हारे, तुम्हारे प्राणों में बैठा प्राणों की भांति, वहां नहीं दिखाई पड़ा!
तो मैं भक्त से कहूंगा कि जरूर पत्थर में भी भगवान है, क्योंकि भगवान ही है! पर पहले अपने में खोजो। और अगर अपने में खोज पाओ तो मंदिर की मूर्ति में भी है। मंदिर की मूर्ति में ही क्यों, रास्ते के किनारे पड़े अनगढ़ पत्थर में भी है। फिर चारों तरफ तुम्हें वही दिखाई पड़ेगा।
मेरे पास तुम जो लेकर आओगे, मैं उसी का उपाय करूंगा कि तुम्हारे लिए सीढ़ी बन जाए। चेष्टा करूंगा कि तुम्हारे राह के
बीच पड़ा हुआ जो पत्थर है, जिसकी वजह से तुम अटक गए हो, वह सीढ़ी बन जाए।
कृष्णमूर्ति की एक धुन है। उस धुन से इंच भर यहां-वहां वे तुम्हें स्वीकार नहीं करते। उन्होंने कपड़े पहले से तैयार करके रखे हैं। अगर गड़बड़ी है तो तुममें गड़बड़ी है। कपड़े पहना कर वे जांच कर लेंगे। अगर तुम्हें नहीं कपड़े ठीक बैठ रहे हैं तो काट-छांट तुम्हारी की जाएगी, कपड़ों की नहीं।
यूनान में एक पुरानी कथा है कि एक सम्राट था, वह झक्की था। उसकी झक्क यही थी कि उसके पास एक सोने का पलंग था, बड़ा बहुमूल्य पलंग था। उसके घर में कोई भी मेहमान होता तो वह उसी पलंग पर सुलाता। मगर एक उसकी झंझट थी। उसके घर कोई मेहमान नहीं होता था। जब लोगों को पता चलने लगा, धीरे-धीरे कुछ मेहमान गए और फिर लौटे ही नहीं, तो मेहमानों ने आना बंद कर दिया। मगर कभी-कभी कोई भूल-चूक से फंस जाता था, तो वह उस बिस्तर पर लिटाता। अगर उसके पैर बिस्तर से लंबे होते तो पैर काटता; अगर पैर उसके छोटे होते बिस्तर से, वह छोटा होता, तो दो पहलवान दोनों तरफ से उसको खींचते। लेकिन उसको बिलकुल बिस्तर के बराबर करके ही सोने देते थे। मगर तब सोना होता ही कहां, वह तो आदमी खत्म ही हो जाता। और ठीक बिस्तर के माप का आदमी कहां मिले! कभी लाख, दो लाख में संयोग से कोई मिल जाए ठीक माप का तो बात अलग, नहीं तो ठीक माप का आदमी कहां मिले! कोई इंच छोटा, कोई इंच बड़ा; कोई ऐसा, कोई वैसा।
इस जगत में कोई व्यक्ति किसी एक तर्कसरणी के अनुसार न तो पैदा हुआ है, न उसकी नियति है कि किसी तर्कसरणी के अनुसार जीए। कृष्णमूर्ति के पास एक बंधा हुआ जीवन-ढांचा है। वे कहते हैं कि बस इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं।
मेरे पास कोई तैयार कपड़े नहीं हैं। तुम्हारे प्रति मेरा सम्मान इतना है कि मैं पलंग की फिकर नहीं करता। अगर जरूरत पड़े तो पलंग को छोटा-बड़ा किया जा सकता है; तुम्हें छोटा-बड़ा नहीं किया जा सकता। तुम अगर भक्त हो तो मैं तुम्हारी भक्ति में और चार चांद जोडूंगा। और तुम अगर ध्यानी हो तो तुम्हारे ध्यान में और चार चांद जोडूंगा। तुम जो हो, उसमें कुछ जोडूंगा। तुम्हारे भीतर अगर कुछ कूड़ा-कर्कट है, तो जरूर कहूंगा कि इसे फेंको, हटाओ। मगर तुम्हारी जीवन-शैली की जो अंतरंगता है, निजता है, उस पर कोई आघात मेरी तरफ से नहीं होगा।
इसलिए स्वभावतः मेरी बातें असंगत होंगी। और तथाकथित बुद्धिमानों की सबसे बड़ी अड़चन यह है कि संगत बात चाहिए उन्हें। लेकिन मैं क्या कर सकता हूं? लोग ही इतने भिन्न हैं। भिन्नता इस जगत का स्वभाव है। मैं क्या कर सकता हूं? यह मेरे हाथ की बात नहीं है। पलंग काटा जा सकता है, तुम नहीं काटे जा सकते। और पलंग का काटना कभी-कभी खूब काम कर जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन बहुत परेशान था। उसको एक ही चिंता, रात में दस-पांच दफा उठ कर वह अपने बिस्तर के नीचे जब तक झांक कर न देख ले कि कोई चोर, कोई डाकू, कोई लुच्चा छिपा तो नहीं है? और ठीक भी है; क्योंकि डाकू, चोर, लुच्चे इस समय इतने प्रभावी हैं, जगह-जगह छाए हुए हैं कि आदमी को सचेत रहना ही चाहिए। उसकी पत्नी भी परेशान कि तुम न सोते, न सोने देते। रात में दस दफा उठ-उठ कर दीया जला कर देखोगे--कोई बिस्तर के नीचे तो है नहीं! पत्नी उसे मनोचिकित्सकों के पास ले गई, उन्होंने बहुत समझाया, मनोविश्लेषण किया, उसकी अचेतन बातें उसको समझाईं, उसके सपनों का विश्लेषण किया, यह किया, वह किया, कोई काम न आया। उसकी बीमारी जारी रही।
फिर एक दिन मेरे पास आया, बड़ा प्रसन्न था और कहने लगा: मेरी सास आई और उसने मामला मिनट में रफा-दफा कर दिया।
तो मैंने कहा: तुम्हारी सास मालूम होता है कोई बड़ी मनोवैज्ञानिक है।
उसने कहा: कुछ भी नहीं। बुद्धि उसमें नाममात्र को नहीं है। मगर उसने मिनट में रफा-दफा कर दिया।
मैंने कहा: किया क्या उसने?
उसने कहा: उसने किया यह कि उठा कर आरा और मेरे बिस्तर की चारों टांगें काट दीं। अब मेरा बिस्तर जमीन पर रखा है, अब उसके नीचे कोई छिप ही नहीं सकता। बड़े-बड़े मनोवैज्ञानिक हार गए। अब मैं उठना भी चाहूं तो बेकार। पुरानी आदत से नींद भी खुल जाती है तो मैं सोचता हूं कि क्या सार! नीचे कोई छिप ही नहीं सकता, उसने पैर ही उड़ा दिए। बिस्तर ही जमीन पर लगा दिया।
बिस्तर के पैर काटने हों, काट लो। बिस्तर को छोटा करना हो, छोटा कर लो; बड़ा करना हो, बड़ा कर लो। आदमी को साबित छोड़ो! आदमी के प्रति सम्मान रखो और आदमी की भावना का सम्मान रखो। और इसलिए स्वभावतः मेरी बातें बहुत असंगत हैं, क्योंकि मैं भिन्न-भिन्न लोगों के लिए भिन्न-भिन्न गीत गाता हूं। और उन सबको तुम मिलाओगे, और उन सबके बीच तुम सोचना चाहोगे कि कोई एक विचार की व्यवस्था खड़ी हो जाए तो नहीं हो सकेगी।
जो यहां तर्क से सुनने आएगा वह बड़ी झंझट में पड़ जाएगा।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन बड़े आक्रोश से अपनी खूब तेज-तर्रार रचनाएं, अपनी कविताएं, अपनी शायरी बड़ी देर तक सुनाता रहा। जनता चिल्लाती भी रही कि बंद करो! मगर जनता जितनी चिल्लाए कि बंद करो, उतनी ही जोर आवाज से वह अपनी कविता सुनाए, वह उतने और आक्रोश में आता गया। लोग ताली बजाएं, इसलिए कि भाई बंद करो। मगर वह समझे कि प्रशंसा की जा रही है। आखिर एक आदमी खड़ा हुआ और उसने कहा कि बड़े मियां, आप काव्य-पाठ बंद करते हैं या नहीं? अगर आपने काव्य-पाठ बंद न किया तो मैं पागल हो जाऊंगा।
मुल्ला नसरुद्दीन ने चौंक कर, भौचक रह कर उस आदमी से कहा: भाई साहब! कविता पढ़ना बंद किए तो मुझे एक घंटा हो चुका है।
जो लोग मुझे तर्क से सुनने आएंगे, जो गणित बिठाएंगे, वे विक्षिप्त हो जाएंगे। जो मुझे भाव से सुनेंगे...यह सत्संग है, यहां कोई शिक्षण नहीं दिया जा रहा है। यहां मैं अपने को बांट रहा हूं, कोई शिक्षाएं नहीं बांट रहा हूं। यहां अपने को लुटा रहा हूं, कोई सिद्धांत नहीं दे रहा हूं। सत्य का हस्तांतरण होता भी नहीं, सत्य तो संक्रामक है। यहां तो मैं तुम्हें अपने पास बुला रहा हूं कि मेरे पास आओ कि सत्य तुम्हें भी पकड़ ले, संक्रामक हो जाए। यह तो दीवानों की बस्ती है और दीवानों के लिए निमंत्रण है। यहां अहंकारी आएंगे, अपने आप लौट जाएंगे, क्योंकि समर्पण यहां सूत्र है। यहां अहंकारी आएंगे और उन्हें मेरी बात सुनाई भी नहीं पड़ेगी, क्योंकि यहां शिष्यत्व के बिना कोई बात सुनाई पड़ ही नहीं सकती। यहां तर्कवादी आएंगे और कुछ का कुछ सुनेंगे, क्योंकि यहां जो बात की जा रही है, वह प्रेम की है, वह तर्क की नहीं है। यहां कुछ बात कही जा रही है जो कही ही नहीं जा सकती है। यहां अकथ्य को कथ्य बनाने की चेष्टा चल रही है।
फिर लोग अपना-अपना हिसाब लेकर आते हैं। श्री कांति भट्ट आए होंगे अपना हिसाब लेकर, अपने हिसाब से सुना होगा, अपने हिसाब से समझा होगा। शायद कृष्णमूर्ति उनके हृदय में बहुत ज्यादा भरे हों, तो अड़चन हो गई होगी, तो तौलते रहे होंगे। और जिसने तौला, वह चूका। फिर मैं कुछ कहूंगा, वे कुछ समझेंगे।
जनसमूह कवि-सम्मेलन सुनने के लिए उमड़ आया था। मुल्ला नसरुद्दीन जैसे ही काव्य-पाठ के लिए खड़े हुए किसी श्रोता ने भीड़ में से प्रश्न उछाल दिया: बड़े मियां! काव्य-पाठ के पहले कृपया यह बताएं कि गधे के सिर पर कितने बाल होते हैं?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कुछ देर जिधर से आवाज आई थी उधर देखते हुए कहा: क्षमा करें, भारी भीड़ में मुझे आपका सिर दिखाई नहीं दे रहा है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, संतों की वाणी में इतना रस किस स्रोत से आता है? और संतों की वाणी से इतनी तृप्ति और आश्वासन क्यों मिलता है?
रस का तो एक ही स्रोत है--रसो वै सः! रस का तो कोई और स्रोत नहीं है, परमात्मा ही रस का स्रोत है। रस उसका ही दूसरा नाम है।
संत अपनी तो कुछ कहते नहीं, उसकी ही गुनगुनाते हैं। संत तो वही है जिसके पास अपना कुछ कहने को बचा ही नहीं है। अपना जैसा ही कुछ नहीं बचा है। संत तो बांस की पोली पोंगरी है, चढ़ा दी गई परमात्मा के हाथों में; अब उसे जो गीत गाना हो, गा ले; न गाना हो, न गाए; ऐसा बजाए कि वैसा बजाए। बांस की पोंगरी तो बस बांस की पोंगरी है। वह गाता है तो बांसुरी हो जाती है, वह नहीं गाता है तो बांस की पोंगरी बांस की पोंगरी रह जाती है! गीत उसके हैं, बांसुरी के नहीं हैं। स्वर उसके हैं।
संत तो केवल एक माध्यम है। संत तो केवल उपकरण है। परमात्मा के हाथ में छोड़ देता अपने को, जैसे कठपुतली!
तुमने कठपुतलियों का नाच देखा? छिपे हुए धागे और पीछे छिपा रहता है उनको नचाने वाला। फिर कठपुतलियों को नचाता, जैसा नचाता वैसी कठपुतलियां नाचती हैं। लड़ाता तो लड़ती हैं, मिलाता तो मिलती हैं, बातचीत करवाता, हजार काम लेता।
संत तो बस ऐसा है जिसने एक बात जान ली है कि मैं नहीं हूं, परमात्मा है। अब जो कराए। इसलिए रस है उनकी वाणी में, अमृत है उनकी वाणी में। अमृत बरसता है, क्योंकि वे अमृत के स्रोत से जुड़ गए हैं। कमल खिलते हैं, क्योंकि कमल जहां से रस पाते हैं, उस स्रोत से जुड़ गए हैं।
पतझड़ के बाद यह
आया है नव-वसंत
वाणी में मेरी!
वाणी की डालों पर
भावों के फूल खिले,
बहती मादक बयार
वहन करती गंध भार,
सरसों के फूलों का
सागर लहराया
वाणी में मेरी!
वाणी की लहरों में
दहक-दहक उठते हैं,
टेसू के फूलों के
जीवित दाहक अंगार!
वाणी के कंपन में
जीवन का दर्द नया
लहराया छाया!
वाणी में मेरी
नव-वसंत आया!
महक उठा आम्र बौर
मस्ती में झूम झूम
जीवन का गीत नया
मादक यह राग नया
कोकिल ने गाया
वाणी में मेरी!
जीवन-अनुराग-सिक्त
उड़ता अरुणिम गुलाल!
भावों ने वेदना के
अनुभव ने व्यथा के
मीड़ दिए हैं कपोल!
अरुणिम आभा का यह
नव-प्रकाश छाया
वाणी में मेरी!
आस्था के फूल सजा
श्रद्धा के दीप जला
अक्षत-विश्वास और
ममता की रोली ले
नवयुग के अर्चन का
थाल यह सजाया
वाणी में मेरी!
पतझड़ के बाद यह
आया है नव-वसंत
वाणी में मेरी!
पहले झड़ जाओ पतझड़ से, पत्ते-पत्ते गिर जाएं! तुम्हारा कुछ भी न बचे--नग्न, जैसा पतझड़ के बाद खड़ा हुआ वृक्ष! फिर नये अंकुर फूटते हैं, नये फूल लगते हैं। वे फूल तुम्हारे नहीं हैं, वे फूल परमात्मा के हैं। वे अंकुर तुम्हारे नहीं हैं, वे अंकुर परमात्मा के हैं! मिटने की कला सीखो। जिस दिन तुम मिट जाओगे पूरे-पूरे, उस दिन परमात्मा तुमसे बहेगा--अहर्निश बहेगा, बाढ़ की तरह बहेगा। और तब न केवल तुम तृप्त होओगे, तुम्हारे पास जो आ जाएगा, उसकी भी जन्मों-जन्मों की प्यास तृप्त हो जाएगी।
पूछते हो तुम वेदमूर्ति: ‘संतों की वाणी में इतना रस किस स्रोत से आता है? और संतों की वाणी से इतनी तृप्ति और आश्वासन क्यों मिलता है?’
इसीलिए आश्वासन है, क्योंकि संत प्रमाण हैं परमात्मा के। और कोई प्रमाण नहीं है--न वेद प्रमाण हैं, न उपनिषद प्रमाण हैं, न कुरान प्रमाण है। प्रमाण तो होता है कभी कोई जीवंत संत। मोहम्मद प्रमाण हो सकते हैं, याज्ञवल्क्य प्रमाण हो सकते हैं, बुद्ध प्रमाण हो सकते हैं, दरिया प्रमाण हो सकते हैं। प्रमाण तो होता है सदा कोई जीवंत व्यक्तित्व, जिसके चारों तरफ एक आभा होती है--जिस आभा को तुम छू सकते हो, जिस आभा को तुम स्पर्श कर सकते हो, जिस आभा का तुम स्वाद ले सकते हो; जिसके आस-पास एक मधुरिमा होती है, एक माधुर्य होता है; जिसके आस-पास तुममें अगर खोज हो तो तुम भौंरे बन जाओ कि रस पीओ!
और प्यास किसमें नहीं है? दबाए बैठे हैं लोग प्यास को। भुलाए बैठे हैं लोग प्यास को। प्यास तो सभी में है। जन्मों-जन्मों से किसकी तलाश कर रहे हो? जब किसी संत में उस अनंत का आविर्भाव होता है, तो आश्वासन मिलता है कि मैं व्यर्थ ही नहीं दौड़ रहा, कि मेरी कल्पनाओं में, मेरे स्वप्नों में जो छाया उतरी थी, वह छाया ही नहीं है, माया ही नहीं है, सत्य भी हो सकता है। जो मैंने मांगा है, वह किसी को मिल गया है, तो मुझे भी मिल सकता है। जो मैंने चाहा है, किसी में पूरा हुआ है, तो मुझमें भी हो सकता है। मुझ जैसे ही हड्डी-मांस-मज्जा के व्यक्ति में जब ऐसी अनंत शांति और आनंद का आविर्भाव हुआ है, तो मुझमें भी होगा। इसलिए आश्वासन मिलता है।
संतों के पास बैठ कर आस्था उमगती है, श्रद्धा जगती है। विश्वास नहीं करना होता फिर। विश्वास तो जबरदस्ती करना होता है। श्रद्धा अपने से पैदा होती है। ऐसे चरण, जहां सिर अपने से झुक जाए, झुकाना न पड़े!
ऐसा हुआ कि बुद्ध को जब तक ज्ञान उपलब्ध न हुआ था, वे महातपश्चर्या करते थे। बड़ी तपश्चर्या, बड़ी दुर्धर्ष! अपने शरीर को गलाते थे, सताते थे, उपवास करते थे। धूप में खड़े होते, शीत में खड़े होते। सूख गए थे। बड़ी सुंदर उनकी देह थी जिस दिन राजमहल छोड़ा था। फूल सी सुकुमार उनकी देह थी! सूख गए थे, काले हो गए थे, हड्डियां कोई गिन ले...। कहानियां कहती हैं कि पेट पीठ से लग गया था। बस हड्डी-हड्डी रह गए थे। पांच उनके शिष्य हो गए थे उनकी तपश्चर्या देख कर कि यह कोई महातपस्वी है। फिर एक दिन बुद्ध को यह बोध हुआ कि यह मैं क्या कर रहा हूं? यह तो आत्मघात है जो मैं कर रहा हूं! यह कोई परमात्मा को या सत्य को पाने का उपाय तो नहीं। यह तो मैं सिर्फ अपने को नष्ट कर रहा हूं, पा क्या रहा हूं? छह साल की निरंतर तपश्चर्या के बाद एक दिन यह समझ में आया कि ये छह साल मैंने यूं ही गंवाए--अपने को सताने में, परेशान करने में। यह तो हिंसा है, आत्महिंसा। उसी क्षण उन्होंने उस आत्महिंसा का त्याग कर दिया।
स्वभावतः, जो पांच शिष्य उसी आत्महिंसा से प्रभावित होकर उनके साथ थे, उन्होंने कहा: यह गौतम भ्रष्ट हो गया। अब इसके साथ क्या रहना! अब यह हमारा गुरु न रहा। अब हम कोई और गुरु खोजेंगे। इसने तपश्चर्या छोड़ दी।
और क्या कोई पाप किया था?
इतनी सी बात थी जिससे पांचों शिष्य छोड़ कर चले गए--कि बुद्ध ने उस दिन एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठे हुए...किसी स्त्री ने गांव की मनौती मनाई होगी कि मैं अगर मां बन जाऊंगी तो पीपल के देवता को थाली भर कर खीर चढ़ाऊंगी। वह गर्भिणी हो गई थी। वह सुजाता नाम की स्त्री सुस्वादु खीर बना कर पीपल के वृक्ष को चढ़ाने आई थी।
पूरे चांद की रात, पीपल का वृक्ष, उसके नीचे बुद्ध विराजमान, उसने तो यही समझा कि पीपल के देवता स्वयं प्रकट होकर मेरी खीर स्वीकार कर रहे हैं। और कोई दिन होता तो बुद्ध ने इनकार कर दिया होता। क्योंकि एक तो रात थी, रात्रि-भोजन वर्जित; फिर वे केवल उन दिनों एक ही बार भोजन करते थे दोपहर में, सो दुबारा भोजन का सवाल ही न उठता था। मगर उसी सांझ उन्होंने सारी तपश्चर्या को आत्महिंसा समझ कर त्याग कर दिया था। तो उस स्त्री ने जब भेंट की उनको खीर, तो उन्होंने स्वीकार कर ली। खीर को स्वीकार करते देख कर पांचों शिष्य उठ कर चले गए। गौतम भ्रष्ट हो गया! रात्रि-भोजन! अनजान, अपरिचित स्त्री के हाथ से बनी हुई खीर! पता नहीं ब्राह्मण है, शूद्र है, कौन है, क्या है! रात्रि का समय! एक बार भोजन का नियम तोड़ दिया। छोड़ कर चले गए।
फिर बुद्ध को उसी रात ज्ञान भी हुआ। उसी रात की पूर्णता पर सुबह होते जब रात का अंतिम तारा डूबता था और सूरज ऊगने-ऊगने को था, तभी भीतर बुद्ध के भी सूरज ऊगा। रात का आखिरी तारा डूबा, अंधेरा गया, रोशनी हुई। फिर उन्हें याद आया कि वे मेरे पांचों शिष्य तो मुझे छोड़ कर चले गए, लेकिन मैंने जो जाना है अब, मेरा कर्तव्य है कि सबसे पहले उन पांचों को जाकर कहूं, बांटूं। बहुत वर्षों तक मेरे पीछे रहे। अभागे! जब घटना घटने को थी, तब छोड़ कर चले गए!
तो बुद्ध उनकी तलाश में निकले। उनको बामुश्किल पकड़ पाए। वे काफी दूर निकल गए थे। वे नये गुरु की तलाश में आगे बढ़ते चले गए। जिस गांव बुद्ध पहुंचते, पता चलता कि कल ही उन्होंने गांव छोड़ दिया। बस ऐसे बुद्ध उनको खोजते-खोजते सारनाथ में पकड़े। इसलिए सारनाथ में बुद्ध का पहला प्रवचन हुआ, पहला धर्मचक्र-प्रवर्तन हुआ।
जब उन्होंने बुद्ध को आते देखा तो वे पांचों एक वृक्ष की छाया में विश्राम कर रहे थे। उन पांचों ने देखा कि यह भ्रष्ट गौतम आ रहा है। हम इसकी तरफ पीठ कर लें। यह सम्मान के योग्य नहीं है। यह जब आएगा तो हम उठ कर खड़े नहीं होंगे, नमस्कार भी नहीं करेंगे। इसको खुद बैठना हो तो बैठ जाए, हम यह भी न कहेंगे कि बैठिए, विराजिए। हम इसे भलीभांति यह बात प्रदर्शित कर देंगे कि अब हम तुम्हारे शिष्य नहीं हैं, तुम भ्रष्ट हो चुके हो, हम तुम्हारा परित्याग कर चुके हैं।
लेकिन जैसे-जैसे बुद्ध पास आए, एक बड़ी अपूर्व घटना घटी। वे पांचों जो पीठ करके बैठे थे, कब किस अपूर्व क्षण में, किस अनजाने कारण से मुड़ गए और बुद्ध की तरफ देखने लगे! पांचों! और जब बुद्ध पास आए तो उठ कर खड़े हो गए। और जब बुद्ध और पास आए तो झुक कर उनके चरणों में प्रणाम किया। और कहा: विराजिए।
बुद्ध हंसे और बुद्ध ने कहा: लेकिन तुमने तय किया था कि पीठ मेरी तरफ रखोगे। और तुमने तय किया था कि नमस्कार न करोगे, पैर छूने की तो बात ही दूर थी। और तुमने तय किया था कि यह भ्रष्ट गौतम आ रहा है तो हम बैठने को भी न कहेंगे। और तुम अब शय्या बिछाते हो, बैठने का आसन लगाते हो! बात क्या है?
तो उन पांचों ने कहा: विवश! इसके पहले हम जब तुम्हारे साथ थे तो हम तुममें विश्वास करते थे, आज श्रद्धा का जन्म हुआ है। वह विश्वास था। विश्वास टूट भी सकता है, क्योंकि ऊपरी होता है। आज श्रद्धा का अपने आप आविर्भाव हुआ है। हमने कुछ किया नहीं, अपने आप हम मुड़ गए तुम्हारी तरफ। जैसे कोई चुंबक की तरफ खिंच जाए। अपने आप हम उठ कर खड़े हो गए, अपने आप हम झुक गए, अपने आप तुम्हारे चरणों से सिर लग गया।
संत प्रमाण हैं। जब तुम्हें कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाए जिसके पास अपने आप सिर झुक जाए, तो फिर समझ लेना कि वह मंदिर आ गया, वह द्वार आ गया, वह देहली आ गई--जहां से अब सिर उठाने की जरूरत नहीं है। जब किसी व्यक्ति को देख कर तुम्हें भरोसा आ जाए कि परमात्मा होना ही चाहिए, तो जानना कि सदगुरु से मिलन हो गया। फिर छोड़ना मत संग-साथ, फिर छाया बन जाना उसकी, क्योंकि इसी तरह लोग पहुंचे हैं। और किसी तरह न कोई कभी पहुंचा है, और न कभी कोई पहुंच सकता है।
वेदमूर्ति! तृप्ति है, आश्वासन है, क्योंकि संतों में प्रमाण है।
रहो निश्चिंत जब तक मैं खड़ा हूं तिमिर के तट पर
कभी भी रोशनी को खुदकुशी करने नहीं दूंगा।
खड़ा पुरुषार्थ पहरे पर
किरण स्वच्छंद डोलेगी
जहां भी ज्योति बंदी है
वहां के द्वार खोलेगी
उजालों को अंधेरे से
खरीदा जा नहीं सकता
प्रभा के पक्ष में रजनी
सुबह के साथ बोलेगी
मनुज स्थापित करो अब मंदिरों में शुभ मुहूरत है
कभी तूफान को मैं आरती वरने नहीं दूंगा
पसीने और लोहू से
मिला कर जो बनाई है
नये इतिहासकारों की
अमिट यह रोशनाई है
लिखा प्रारब्ध जाना है
हमारा ही स्वयं हमसे
सदी के सत्य को लिखने
कलम हमने उठाई है
सजग हूं सभ्यता के शत्रु से, विध्वंस को झूठा
कभी इतिहास पर आरोप मैं धरने नहीं दूंगा
नया इन्सान लिखता है
सृजन के श्लोक सुरभीले
मशीनी संस्कृतियों के
नहीं होंगे नयन गीले
ग्रहों पर शीघ्र बसने का
इरादा आदमी का है
सही अर्थों मगर जीवन
धरा पर हम प्रथम जी लें
तुम्हें आश्वस्त करता हूं पदार्थों के छली युग को
कभी भी आस्था का शील मैं हरने नहीं दूंगा
रहो निश्चिंत जब तक मैं खड़ा हूं तिमिर के तट पर
कभी भी रोशनी को खुदकुशी करने नहीं दूंगा
संत की उपस्थिति पर्याप्त है। जिनके पास देखने को आंखें हैं, और सुनने को कान हैं, और अनुभव करने को हृदय है--उनके लिए संत की उपस्थिति पर्याप्त है कि परमात्मा है।
इसलिए आश्वासन है, इसलिए महातृप्ति है, इसलिए रस है। क्योंकि संत सिर्फ केवल प्रतिनिधि है, संदेशवाहक है परमात्मा का, उस परम सत्य का--जिसके बिना हम व्यर्थ हैं, और जिसे पाकर ही सब कुछ पा लिया जाता है!
आज इतना ही।
भगवान, खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ--चार्वाकों का यह प्रसिद्ध संसार-सूत्र है। नाचो, गाओ और उत्सव मनाओ--यह आपका संन्यास-सूत्र है। संसार-सूत्र और संन्यास-सूत्र के भेद को कृपा करके हमें समझाएं।
नरेंद्र! खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ--चार्वाकों के लिए यह साधन नहीं है, साध्य है। बस, इस पर ही परिसमाप्ति है; इसके पार कुछ भी नहीं है। जीवन इतने में ही पूरा हो जाता है। इसीलिए तो उनको चार्वाक नाम मिला।
यह शब्द समझने जैसा है। चार्वाक बना है चारु-वाक् से। चारु-वाक् का अर्थ होता है: प्यारे वचन, प्रीतिकर वचन। अधिकतम लोगों को यह प्रीतिकर लगा कि बस खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ; इसके पार कुछ भी नहीं है। सौ में से निन्यानबे लोग चार्वाक के अनुयायी हैं--चाहे वे मंदिर जाते हों, मस्जिद जाते हों, गिरजा जाते हों, इससे भेद नहीं पड़ता; हिंदू हों, मुसलमान हों, ईसाई हों, इससे भेद नहीं पड़ता। जिंदगी उनकी चार्वाक की ही है। खाना, पीना और मौज उड़ाना, यही उनके जीवन की परिभाषा है, कहें चाहे न कहें। जो कहते हैं, वे तो शायद ईमानदार हैं; जो नहीं कहते हैं, वे बड़े बेईमान हैं। उन नहीं कहने वालों के कारण ही जगत में पाखंड है।
मैं कल ही एक संस्मरण देख रहा था। महात्मा गांधी ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के पिता पंडित मोतीलाल नेहरू को एक पत्र लिखा। क्योंकि उन्हें खबर मिली कि मोतीलाल नेहरू सभा-समाज में, क्लब में लोगों के सामने शराब पीते हैं। तो पत्र में उन्होंने लिखा कि अगर पीनी ही हो तो कम से कम अपने घर के एकांत में तो पीएं! भीड़-भाड़ में, लोगों के सामने पीना...यह शोभा नहीं देता।
मोतीलाल नेहरू ने जो जवाब दिया, वह बहुत महत्वपूर्ण है। मोतीलाल नेहरू ने कहा: आप मुझे पाखंडी बनाने की चेष्टा न करें। जब मैं पीता ही हूं तो क्यों घर में छिप कर पीऊं? जब पीता ही हूं तो लोगों को जानना चाहिए कि मैं पीता हूं। जिस दिन नहीं पीऊंगा, उस दिन नहीं पीऊंगा। आपसे ऐसी आशा न थी कि आप ऐसी सलाह देंगे!
अब इन दोनों में महात्मा कौन है? इसमें मोतीलाल नेहरू ज्यादा ईमानदार आदमी मालूम होते हैं; इसमें महात्मा गांधी ज्यादा बेईमान मालूम होते हैं। महात्मा गांधी की मान कर ही तो सारा मुल्क बेईमान हुआ जा रहा है--बाहर कुछ, भीतर कुछ। घर में लोग शराब पी रहे हैं और बाहर शराब के विपरीत व्याख्यान दे रहे हैं! संसद में शराब के विपरीत नियम बना रहे हैं--वे ही लोग, जो घरों में छिप कर शराब पी रहे हैं! एक चेहरा छिपाने का, एक चेहरा बताने का। दिखाने के दांत कुछ और, काम में लाने के दांत कुछ और।
लोगों को गौर से देखो तो तुम न तो किसी को हिंदू पाओगे, न किसी को मुसलमान, न जैन, न बौद्ध; तुम सबको चार्वाकवादी पाओगे। फिर ये हिंदू, जैन, मुसलमान भी जिस स्वर्ग की आकांक्षा कर रहे हैं, वह आकांक्षा बड़ी चार्वाकवादी है! मुसलमानों के बहिश्त में शराब के झरने बहते हैं। बेचारा चार्वाक तो यहीं की छोटी-मोटी शराब से राजी है; कुल्हड़-कुल्हड़ पीओ, उससे राजी है। मगर बहिश्त के फरिश्ते कहीं कुल्हड़ों से राजी होते हैं! झरने बहते हैं; जी भर कर पीओ; डुबकी मारो, तैरो शराब में, तब तृप्ति होगी! बहिश्त में सुंदर स्त्रियां उपलब्ध हैं। ऐसी सुंदर स्त्रियां जैसी यहां उपलब्ध नहीं।
यहां तो सभी सौंदर्य कुम्हला जाता है। अभी खिला फूल, सांझ कुम्हला जाएगा; अभी खिला, सांझ पंखुरियां गिर जाएंगी। यहां तो सब क्षणभंगुर है। तो जो ज्यादा लोभी हैं और ज्यादा कामी हैं, उन्होंने स्वर्ग की कल्पना की है। वहां स्त्रियां सदा सुंदर होती हैं, कभी वृद्ध नहीं होतीं। तुमने कभी किसी बूढ़े देवता या बूढ़ी अप्सरा की कोई कहानी सुनी है? उर्वशी की कहानी को लिखे हो गए हजारों साल, उर्वशी अब भी जवान है! स्वर्ग में स्त्रियों की उम्र बस सोलह साल पर ठहरी सो ठहरी, उसके आगे नहीं बढ़ती, सदियां बीत जाती हैं।
ये किनकी आकांक्षाएं हैं?
चूंकि मुसलमान देशों में समलैंगिकता का खूब प्रचार रहा है, इसलिए बहिश्त में भी उसका इंतजाम है। वहां सुंदर स्त्रियां ही नहीं, सुंदर छोकरे भी उपलब्ध हैं। यह किनका स्वर्ग है? ये किस तरह के लोग हैं? इनको तुम धार्मिक कहते हो?
और हिंदुओं के स्वर्ग में कुछ भेद नहीं है; विस्तार के भेद होंगे, मगर वही आकांक्षाएं हैं, वही अभिलाषाएं हैं। हिंदुओं के स्वर्ग में कल्पवृक्ष है, जिसके नीचे बैठते ही सारी इच्छाओं की तत्क्षण तृप्ति हो जाती है--तत्क्षण! एक क्षण भी नहीं जाता! इतना भी धीरज रखने की जरूरत नहीं है वहां। यहां तो अगर धन कमाना हो, वर्षों लगेंगे, फिर भी कौन जाने कमा पाओ, न कमा पाओ। एक सुंदर स्त्री को पाना हो, एक सुंदर पुरुष को पाना हो, हजार बाधाएं पड़ेंगी। सफलता कम, असफलता ज्यादा निश्चित है। लेकिन स्वर्ग में कल्पवृक्ष के नीचे, भाव उठा कि तत्क्षण पूर्ति हो जाती है।
मैंने सुना है, एक आदमी भटकता हुआ, भूला-चूका कल्पवृक्ष के नीचे पहुंच गया। उसे पता नहीं कि कल्पवृक्ष है। थका-मांदा था तो लेटने की इच्छा थी, थोड़ा विश्राम कर ले। मन में ऐसा खयाल उठा कि काश इस समय कहीं कोई सराय होती, थोड़ा गद्दी-तकिया मिल जाता! ऐसा उसका सोचना था कि तत्क्षण सुंदर शय्या, गद्दी-तकिए अचानक प्रकट हो गए! वह इतना थका था कि उसे सोचने का भी मौका नहीं मिला, उसने यह भी नहीं सोचा कि ये कहां से आए! कैसे आए अचानक! गिर पड़ा बिस्तर पर और सो गया। जब उठा, ताजा, स्वस्थ थोड़ा हुआ, सोचा कि बड़ी भूख लगी है, कहीं से भोजन मिल जाता। ऐसा सोचना था कि भोजन के थाल आ गए। भूख इतनी जोर से लगी थी कि अभी भी उसने विचार न किया कि यह सब घटना कैसे घट रही है! भोजन जब कर चुका, तब जरा विचार उठा! नींद से सुस्ता लिया था, भोजन से तृप्त हुआ था, सोचा कि मामला क्या है? कहां से यह बिस्तर आया? मैंने तो सिर्फ सोचा था! कहां से यह सुंदर सुस्वादु भोजन आए? मैंने तो सिर्फ सोचा था! आस-पास कहीं भूत-प्रेत तो नहीं हैं? कि भूत-प्रेत चारों तरफ खड़े हो गए। घबड़ाया, कहा कि अब मारे गए! बस, उसी में मारा गया।
कल्पवृक्ष के नीचे तत्क्षण...समय का व्यवधान नहीं होता। ये किन्होंने बनाए होंगे कल्पवृक्ष? कामियों ने। ये चार्वाकवादियों की आकांक्षाएं हैं। साधारण चार्वाकवादी, साधारण नास्तिक तो इस पृथ्वी से राजी है। लेकिन असाधारण चार्वाकवादी हैं, उनको यह पृथ्वी काफी नहीं है; उन्हें स्वर्ग चाहिए, बहिश्त चाहिए, कल्पवृक्ष चाहिए। अलग-अलग धर्मों के अगर स्वर्गों की तुम कथाएं पढ़ोगे, तो तुम चकित हो जाओगे। उनके स्वर्ग में वही सब कुछ है जिसका वे धर्म यहां विरोध कर रहे हैं--वही सब, जरा भी फर्क नहीं है! यहां कैबरे-नृत्य का विरोध हो रहा है और इंद्र की सभा में कैबरे-नृत्य के सिवाय कुछ नहीं हो रहा है! और उसी इंद्रलोक में जाने की आकांक्षा है। उसके लिए लोग धूनी रमाए बैठे हैं, तपश्चर्या कर रहे हैं, सिर के बल खड़े हैं, उपवास कर रहे हैं। सोचते हैं कि चार दिन की जिंदगी है, इसे तो दांव पर लगा कर, तपश्चर्या करके एक बार पा लो स्वर्ग, तो अनंतकालीन...। तुम्हें वे नासमझ समझते हैं, क्योंकि तुम क्षणभंगुर के पीछे पड़े हो; स्वयं को समझदार समझते हैं, क्योंकि वे शाश्वत के पीछे पड़े हैं।
तुमसे वे बड़े चार्वाकवादी हैं। खाओ, पीओ और मौज उड़ाओ--यही उनके जीवन का लक्ष्य भी है; यहीं नहीं, आगे भी, परलोक में भी। उनके परलोक की कथाएं तुम पढ़ो, तो वृक्ष हैं वहां जिनमें सोने और चांदी के पत्ते हैं, और फूल हीरे-जवाहरातों के हैं। ये किस तरह के लोग हैं? हीरे-जवाहरातों, सोने-चांदी को यहां गालियां दे रहे हैं; और जो उनको छोड़ कर जाता है, उसका सम्मान कर रहे हैं। और स्वर्ग में यही मिलेगा। जो यहां छोड़ोगे, वही अनंतगुना वहां मिलेगा। तो जो यहां छोड़ता है, अनंतगुना पाने को छोड़ता है। और जिसमें अनंतगुना पाने की आकांक्षा है, वह क्या खाक छोड़ता है!
यहां सौ में निन्यानबे व्यक्ति चार्वाकवादी हैं। इसलिए चार्वाकों को दिया गया शब्द बड़ा सुंदर है। धार्मिक, पंडित-पुरोहित तो उसका कुछ और अर्थ करते हैं; वह अर्थ भी ठीक है। वे तो कहते हैं कि चरने-चराने में जिनका भरोसा है--वे चार्वाक। लेकिन मूल शब्द चारु-वाक् से बना है--मधुर शब्द जिनके हैं; जिनके शब्द सबको मधुर हैं।
चार्वाकों का एक और नाम है--लोकायत। वह भी बड़ा प्रीतिकर नाम है। लोक को जो भाता है, वह लोकायत। अधिक लोगों को जो प्रीतिकर लगता है, वह लोकायत। लोक के हृदय में जो समाविष्ट हो जाता है, वह लोकायत।
यहां धार्मिक कहे जाने वाले लोग भी धार्मिक कहां हैं? तुम जरा सोचना, अगर परमात्मा प्रकट हो जाए तो तुम उससे क्या मांगोगे? जरा सोचना, क्या मांगोगे? अगर परमात्मा कहे कि मांग लो तीन वरदान। क्योंकि पुराने समय से हर कहानी में वे तीन ही वरदान! पता नहीं क्यों तीन! तो तुम कौन से तीन वरदान मांगोगे? किसी को बताने की बात नहीं, मन में ही सोचना। और तुम्हें पक्का पता चल जाएगा कि तुम भी चार्वाकवादी हो। तुम्हारे तीन वरदानों में चार्वाक की सारी बात आ जाएगी।
धर्म के नाम पर लोगों ने एक आवरण तो बना लिया है पाखंड का, और भीतर? भीतर वे वही हैं जिसकी वे निंदा कर रहे हैं।
मैं भी कहता हूं: नाचो, गाओ, उत्सव मनाओ। लेकिन नाचना, गाना और उत्सव मनाना गंतव्य नहीं है, लक्ष्य नहीं है, साधन है। साध्य परमात्मा है। ऐसे नाचो कि नाचने वाला मिट जाए। ऐसा गाओ गीत कि गीत ही बचे, गायक खो जाए। ऐसे उत्सव से भर जाओ कि लीन हो जाओ, तल्लीन हो जाओ। उसी तल्लीनता में, उसी लवलीनता में परमात्मा प्रकट होता है।
मैं तुमसे यह नहीं कहता कि खाओ भी मत, पीओ भी मत, मौज भी मत उड़ाओ। मैं कहता हूं: खाओ, पीओ, मौज करो! परमात्मा इसके विपरीत नहीं है। लेकिन इतने पर समाप्त मत हो जाना। चार्वाक सुंदर है, मगर काफी नहीं। सीढ़ी बनाओ चार्वाक की। मंदिर की सीढ़ी का पत्थर चार्वाक से बनाओ; लेकिन मंदिर में जाना है, मंदिर के देवता से मिलन करना है। और वह देवता उन्हीं को मिल सकता है जो उत्सवपूर्ण हैं, जिनके भीतर गीत की गूंज है, जिनके ओंठों पर आनंद की बांसुरी बज रही है; जिन्होंने पैरों में घूंघर बांधे हैं--भजन के, अर्चन के। जिनकी आंखें चांद-तारों पर टिकी हैं, जो रोशनी के दीवाने हैं। तमसो मा ज्योतिर्गमय! जिनकी एक ही प्रार्थना है कि हे प्रभु, ज्योति की तरफ ले चल! असतो मा सद्गमय। असत से सत की तरफ ले चल! जिनके प्राणों में बस एक ही अभीप्सा है: मृत्योर्मा अमृतं गमय! मृत्यु से अमृत की तरफ से चल! कितनी बार बनाया, कितनी बार मिटाया, यह खेल बहुत हो चुका; अब मुझे शाश्वत में लीन हो जाने दे, विलीन हो जाने दे। अब मैं थक गया हूं होने से। यह सुंदर है तेरा जगत। यह खाना-पीना, मौज उड़ाना, ये सब ठीक; मगर बचकानी हैं ये बातें; अब मुझे इनके ऊपर उठा।
बच्चों को खिलौनों से खेलने दो, लेकिन कभी बचकानेपन से ऊपर उठोगे या नहीं? और बच्चों के खिलौने भी मत तोड़ो। यह भी मैं नहीं कहता हूं कि उनके खिलौने तोड़ दो। जिस दिन वे प्रौढ़ होंगे, तब वे स्वयं ही खिलौनों को छोड़ देंगे।
तो मेरी बात में और चार्वाक की बात में बड़ा भेद है। चार्वाक कहता है: यही लक्ष्य। मैं कहता हूं: यह साधन। चार्वाक कहता है: इसके पार कुछ भी नहीं। मैं कहता हूं: इसके पार सब कुछ है। हां, एक बात में मेरी सहमति है कि मैं चार्वाक का विरोधी नहीं हूं। क्योंकि जो चार्वाक के विरोधी हैं, वे सिर्फ तुम्हें पाखंडी बनाने में सफल हो सके हैं। और मैं तुम्हें पाखंडी नहीं बनाना चाहता। मैं तुम्हारे जीवन को दो हिस्सों में नहीं बांटना चाहता--कि घर के भीतर कुछ और, और घर के बाहर कुछ और। मैं तुम्हें एक रंग देना चाहता हूं--ऐसा रंग, जो सब तरफ, सब जगह काम आए। मैं तुम्हें जीवन की एक शैली देना चाहता हूं, जिसमें पाखंड की गुंजाइश ही न हो।
तो मैं चार्वाक के पक्ष में हूं; क्योंकि चार्वाक के जो विपरीत हैं, वे पाखंड के समर्थक हो जाते हैं। लेकिन मैं चार्वाक पर समाप्त नहीं होता हूं, सिर्फ चार्वाक पर शुरू होता हूं। चार्वाक के लिए संन्यास जैसी तो कोई चीज है ही नहीं--माया है, झूठ है, असत्य है, ब्राह्मणों की जालसाजी है। चार्वाक के लिए संन्यास जैसी बात तो सिर्फ धूर्तों का जाल है। मेरे लिए संन्यास जीवन का परम सत्य है, परम गरिमा है। चार्वाक के लिए संसार सत्य है, संन्यास झूठ है। जो चार्वाक-विरोधी हैं--तथाकथित धार्मिक, आस्तिक--उनके लिए संसार माया है और संन्यास सत्य है। मेरे लिए दोनों सत्य हैं। और दोनों सत्यों में कोई विरोध नहीं है। संसार परमात्मा का ही व्यक्त रूप है, और परमात्मा संसार की ही अव्यक्त आत्मा है।
मैं तुम्हें एक अखंड दृष्टि देना चाहता हूं, जिसमें कुछ भी निषेध नहीं है। मैं तुम्हें एक विधायक धर्म देना चाहता हूं, जिसमें संसार को भी आत्मसात कर लेने की क्षमता है; जिसकी छाती बड़ी है; जो संसार को भी पी जा सकता है और फिर भी जिसका संन्यास खंडित नहीं होगा; जो बीच बाजार में संन्यस्त हो सकता है; जो घर में रह कर अगृही हो सकता है; जो संसार में होकर भी संसार का नहीं होता।
तो एक अर्थ में मैं चार्वाक से सहमत और एक अर्थ में सहमत नहीं।
इस अर्थ में सहमत हूं कि चार्वाक बुनियाद बनाता है जीवन की। लेकिन अकेली बुनियाद से क्या होगा? मंदिर बनेगा नहीं, तो बुनियाद व्यर्थ है। और तुम्हारे तथाकथित साधु-संत मंदिर तो बनाते हैं, लेकिन बुनियाद नहीं लगाते। उनके मंदिर थोथे होते हैं। कभी भी गिर जाएंगे; गिरे ही हैं; अब गिरे, तब गिरे। क्योंकि जिनकी कोई नींव नहीं है, उन मंदिरों का क्या भरोसा? उनमें जरा सम्हल कर जाना, कहीं खुद गिरें और तुम्हें भी न ले डूबें!
मैं एक ऐसा मंदिर बनाना चाहता हूं जिसमें संसार, संसार की भौतिकता नींव बनेगी और संन्यास और परमात्मा की गरिमा मंदिर बनेगी। मैं तुम्हें एक ऐसी दृष्टि देना चाहता हूं जिसमें किसी भी चीज का विरोध नहीं है, सभी चीज का अंगीकार है। और एक ऐसी कला, रूपांतरण का एक ऐसा रसायन देना चाहता हूं जिसमें हम पत्थर में भी परमात्मा की मूर्ति खोजने में सफल हो जाएं और जहर को अमृत बनाने में सफल हो जाएं।
यह हो सकता है। और जब तक यह नहीं होगा, इस पृथ्वी पर दो ही तरह के लोग होंगे। जो ईमानदार होंगे, वे चार्वाकवादी होंगे। जो बेईमान होंगे, वे आस्तिक होंगे, धार्मिक होंगे।
ये कोई अच्छे विकल्प नहीं हैं कि ईमानदार आदमी को तो चार्वाकवादी होना पड़े और धार्मिक आदमी को बेईमान होना पड़े। ये कोई अच्छे विकल्प नहीं हैं। हमने दुनिया को चुनने के लिए कोई ठीक-ठीक राह नहीं दी।
मैं तीसरी ही बात कर रहा हूं। मैं कहता हूं: बिना बेईमान हुए धार्मिक हुआ जा सकता है।
लेकिन तब चार्वाक को अंगीकार करना होगा। तब चार्वाक को इनकार नहीं किया जा सकता। खाना, पीना और मौज--जीवन की स्वाभाविकता है। जिन ऋषियों ने कहा--‘अन्नं ब्रह्म!’ उन्होंने यह समझा होगा, तभी कहा। अन्न को जो ब्रह्म कह सके, सोच कर कहा होगा, अनुभव से कहा होगा। अन्न को ब्रह्म कहने का क्या अर्थ हुआ? इसका अर्थ हुआ कि भोजन में भी उसको ही अनुभव करना। स्वाद में भी उसका ही स्वाद लेना। यही चार्वाक को बदलने की कीमिया हुई। खाओ तो उसे, पीओ तो उसे, मौज मनाओ तो उसके आस-पास। वह न भूले!
और परमात्मा को हमने कहा है रसरूप--रसो वै सः। और क्या चाहिए? वही रस है। उस रस का प्रमाण दो। तुम्हारी आंखों में उसकी रसधार बहे। तुम्हारे प्राणों में उसका रस-गीत गूंजे। तुम्हारा व्यक्तित्व उसके रस की झलक दे, प्रमाण बने।
इसलिए कहता हूं: नाचो, गाओ, उत्सव मनाओ। इसलिए कहता हूं कि परमात्मा की तरफ जब जा ही रहे हो तो रोते-रोते क्यों जाना? जब हंसते हुए जाया जा सकता है तो रोते हुए क्यों जाना? और अगर रोओ भी, तो तुम्हारे आंसू भी तुम्हारे आनंद के ही आंसू होने चाहिए। जलो भी, तो उसकी आग में जलना। और जब उसकी आग में कोई जलता है, तो आग भी बड़ी शीतल होती है। और जब उसकी आग में कोई जलता है, तो आग भी जलाती नहीं, केवल निखारती है।
चार्वाक एक पुराना दर्शन है--अति प्राचीन, शायद सर्वाधिक प्राचीन। क्योंकि आदिम मनुष्य ने सबसे पहले तो खाओ, पीओ और मौज मनाओ--इसकी ही खोज की होगी। परमात्मा की खोज तो बहुत बाद में हुई होगी। परमात्मा की खोज के लिए तो एक परिष्कार चाहिए। परमात्मा की खोज तो धीरे-धीरे जब हृदय शुद्ध हुआ होगा कुछ लोगों का, कुछ लोगों की हृदयतंत्री बजी होगी, तब हुई होगी।
चार्वाक आदिम दर्शन है, सनातन धर्म है। शेष सारी बातें बाद में आई होंगी। चार्वाक को बुनियाद बनाओ, क्योंकि जो सनातन है और जो तुम्हारे भीतर छिपा है, जो तुम्हारी बुनियाद में पड़ा है, उसको इनकार करके तुम कभी संपूर्ण न हो पाओगे। उसको इनकार करोगे तो तुम्हारा ही एक खंड टूट जाएगा, तुम अपंग हो जाओगे।
और अपंग व्यक्ति परमात्मा तक नहीं पहुंचता, खयाल रखना। सर्वांग होना होगा। तुम्हें अपनी सर्वांग सुंदरता में ही उसकी तरफ यात्रा करनी होगी।
लेकिन लोग प्रकट में चार्वाक नहीं हैं। अब मैं पार्लियामेंट के अनेक सदस्यों को जानता हूं, जो शराब-बंदी के लिए पीछे पड़े हैं--और शराब पीते हैं! मैंने उनसे पूछा भी है कि तुम जब शराब पीते हो, खुद पीते हो, तो शराब-बंदी के खिलाफ में क्यों नहीं काम करते? क्यों शराब-बंदी के लिए चेष्टा करते हो?
तो वे कहते हैं: आखिर जनता से वोट लेने हैं या नहीं? जनता के सामने तो एक चेहरा, एक मुखौटा लगा कर रखना पड़ेगा। रही पीने की बात, सो वह हम घर में कर सकते हैं, मित्रों में कर सकते हैं। सभी पीते हैं! बाहर हम एक चेहरा बना कर रख सकते हैं।
मैं ऐसे नेताओं को भी जानता हूं जो शराब पीकर ही शराब-बंदी के पक्ष में व्याख्यान करने जाते हैं!
मैं एक विश्वविद्यालय में जब विद्यार्थी था, तो उसके जो वाइस चांसलर थे--महाशराबी थे। और शराब-बंदी के खिलाफ व्याख्यान दिया उन्होंने! और जब व्याख्यान दिया तो वे इतना पीए हुए थे कि उनकी गांधीवादी टोपी दो बार गिरी। पहली बार गिरी तो उन्होंने टटोल कर अपने सिर पर रख ली। जब दूसरी बार गिरी, वे इतने नशे में थे कि उन्होंने बगल के आदमी की टोपी उतार कर अपने सिर पर रख ली!
जब विश्वविद्यालय का दीक्षांत समारोह होता था, तो दो प्रोफेसर उनके घर छोड़ने पड़ते थे चौबीस घंटे पहले कि उनको पीने न दें। क्योंकि दीक्षांत समारोह में वे बड़ी गड़बड़ कर देते थे। जिनको बी ए की डिग्री देनी है, उनको एम ए की डिग्री दे देते। जिनको पीएच डी की डिग्री मिलनी है, उनको बी ए की डिग्री मिल पाती! ऐसा जब एक बार हो चुका...और फिर वहां बीच में उनको टोकना भी संभव नहीं था; वही सबसे बड़े अधिकारी थे।
मैंने उनसे पूछा कि कम से कम जिस दिन शराब-बंदी के पक्ष में आपको बोलना था, उस दिन तो न पीते!
उन्होंने कहा: मैं पीऊं न तो मैं बोल ही नहीं सकता। जब पी लेता हूं, तभी तो इस तरह की व्यर्थ की बातें बोल सकता हूं, नहीं तो बोल ही नहीं सकता। इस तरह की फिजूल की बकवास बिना पीए नहीं हो सकती।
मोरारजी भाई देसाई के मंत्रिमंडल में जितने लोग हैं, उनमें से कम से कम पचहत्तर प्रतिशत शराब पीते हैं; इससे ज्यादा भला पीते हों। जिन लोगों ने ठीक हिसाब लगाया है, वे तो कहते हैं नब्बे प्रतिशत। लेकिन मैं कहता हूं थोड़ा कम करके, ताकि अगर अदालत में भी मुझे प्रमाण देना पड़े तो मैं दे सकूं! पचहत्तर प्रतिशत तो निश्चित पीते हैं।
लेकिन एक पाखंड है जो धार्मिक आदमी में पाया जाता है--कहता कुछ, करता कुछ; दिखाता कुछ, होता कुछ।
हमने दो ही विकल्प छोड़े हैं आदमी के लिए: या तो वह शुद्ध भौतिकवादी हो; वह भी अच्छा नहीं है, क्योंकि उससे जीवन बड़ा सीमित हो जाता है। आकाश से संबंध टूट जाता है। पृथ्वी पर सरकना ही हमारे जीवन की नियति हो जाती है। फिर हम आकाश में उड़ नहीं सकते हैं। फिर सूर्य की ओर उड़ान नहीं भर सकते हैं। और या फिर पाखंड हमारे हाथ में लगता है। या तो हम झूठे हो जाते हैं--ऐसे झूठे कि हमें याद भी नहीं पड़ता कि हम झूठे हो गए हैं। अगर कोई झूठ ही झूठ बोलता रहे जीवन भर, तो झूठ भी सच जैसा मालूम होने लगता है।
एक कवि महोदय, कविता पाठ करने के पहले हूटरों को सचेत करते हुए बोले: देखिए, यदि आपने मुझे हूट किया तो मैं आत्महत्या कर लूंगा।
यह कथन सुन कर हा-हा, ही-ही कर रहे सारे हूटर गंभीर हो गए। थोड़ी देर बाद उनमें से एक हूटर ने प्रश्न किया कि क्या आप सचमुच ही आत्महत्या कर लेंगे?
कवि महाराज ने कहा: बिलकुल, बिलकुल निश्चित है यह बात। यह तो मेरी पुरानी आदत है। मैं तो सदा ऐसा करता रहा हूं।
झूठ बोलते-बोलते एक ऐसी सीमा आ जाती है कि तुम्हें पहचान में ही न आएगा स्वयं कि तुम झूठ बोल रहे हो। निरंतर दोहराए गए झूठ सच जैसे मालूम होने लगते हैं। पाखंड धर्म बन गया है!
मैं नहीं चाहता कि तुम चार्वाक को अस्वीकार करो। मैं चाहता हूं कि तुम चार्वाक को स्वीकार करो। चार्वाक की स्वीकृति बिलकुल स्वाभाविक है, प्राकृतिक है। सुस्वादु भोजन में पाप क्या है? खाने-पीने में और मौज उड़ाने में मनुष्य की गरिमा है, महत्ता है।
तुम जरा देखो, पशु भी खाते-पीते हैं; पशुओं के खाने-पीने में और आदमी के खाने-पीने में फर्क क्या है? एक ही फर्क है कि कोई पशु खाने-पीने में उत्सव नहीं मनाता। अगर एक कुत्ते को रोटी मिल गई तो वह चार और कुत्तों को निमंत्रित नहीं करता कि आओ भाई! रोटी कुत्ते को मिल गई तो वह भागता है एक कोने में; एकांत खोजता है। किसी को निमंत्रण नहीं देता। कहीं कोई आ न जाए, इस डर से पीठ कर लेता है दूसरों की तरफ।
मनुष्य चाहता है कि मित्रों को बुलाए, प्रियजनों के बीच बैठे; भोजन को उत्सव बना लेता है। वहां मनुष्य की संस्कृति है, सभ्यता है।
मैंने जिन वाइस चांसलर का उल्लेख किया, वे आदमी प्यारे थे। शराब उन्होंने कभी अकेले नहीं पी। कभी अगर मित्र उनके घर इकट्ठे न हो पाएं तो वे बिना पीए सो जाते थे। मैंने पूछा: ऐसा क्यों?
उन्होंने कहा: अकेले पीने में क्या अर्थ? पीने का मजा तो चार के साथ है।
तुम चकित होओगे यह जान कर कि शराब पीने वाले लोग, अक्सर शराब नहीं पीने वाले लोगों से ज्यादा मिलनसार होते हैं, ज्यादा मैत्रीपूर्ण होते हैं, ज्यादा उदार होते हैं। और कारण? क्योंकि शराब पीने का मजा ही चार के साथ है।
अब जो स्व-मूत्र पीते हैं, वे तो कोई चार के साथ नहीं पीएंगे! वे तो हो जाएंगे इकंडे। वे तो छिप कर ही पीएंगे। उनको तो छिप कर पीना ही पड़ेगा। उनमें किसी तरह की मनुष्यता नहीं हो सकती।
मोरारजी देसाई जब जवान थे तो एक लड़की से शादी करना चाहते थे। पिता पक्ष में नहीं थे। बात इतनी बिगड़ गई कि पिता ने कुएं में कूद कर आत्महत्या कर ली! मोरार जी को बहुत लोगों ने समझाया कि शादी तो अब तुम कर ही लेना जिससे करनी है, लेकिन कम से कम अभी कुछ दिन तो रुक जाओ! मगर वे नहीं रुके। पिता मर गए, लेकिन तारीख जो उन्होंने तय कर ली थी, ठीक तीन दिन बाद, पिता की आत्महत्या के तीन दिन बाद शादी हुई। शादी वे करके ही रहे। अब तो कोई विरोध करने वाला भी नहीं था। अब तो अगर महीने, पंद्रह दिन रुक जाते तो कुछ हर्ज न था। लेकिन एक तरह की अमानवीयता...।
मोरार जी देसाई की लड़की ने भी आत्महत्या की; उन्हीं के कारण। पिता ने भी उन्हीं के कारण की। और डर यह है कि यह पूरा मुल्क कहीं उनके कारण न करे।
उनकी लड़की देखने-दाखने में सुंदर नहीं थी; वैसी ही रही होगी जैसे वे हैं! तो देर तक लड़का नहीं मिल सका। सत्ताईस वर्ष की उम्र में बामुश्किल उसने एक लड़का खोजा। वह लड़का भी उसमें उत्सुक नहीं था; वह मोरारजी तब चीफ मिनिस्टर थे बंबई के, उनमें उत्सुक था, कि उनके सहारे सीढ़ियां चढ़ लेगा। मोरारजी को यह
पसंद नहीं था। जानते हुए भलीभांति कि उनकी लड़की को लड़का मिलना मुश्किल है। उनका ही ढंग-ढर्रा लड़की में था। अब यह बामुश्किल मिल गया है, किसी बहाने सही। मगर चूंकि उन्होंने विरोध किया, लड़की ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसे भविष्य में कोई आशा ही नहीं थी कि कोई दूसरा लड़का मिल सकेगा।
जब अस्पताल में जली हुई लड़की को देखने वे गए, मरी हुई लड़की को देखने गए, तो एक शब्द नहीं बोले। डाक्टर चकित, अस्पताल की नर्सें चकित! न उनके चेहरे पर कोई भाव आया; न एक शब्द बोले। एक मिनट वहां खड़े रहे, लौट पड़े। कमरे के बाहर आकर डाक्टरों से कहा कि जैसे ही औपचारिकता पूरी हो जाए, लाश को मेरे घर के लोगों को दे दिया जाए ताकि अंत्येष्टि क्रिया की जा सके; और चले गए।
ऐसी कठोरता! ऐसी अमानवीयता!
नहीं, शराबियों में नहीं मिलेगी। शराबी में थोड़ी सी भलमनसाहत होती है।
वह जो चार मित्रों को बुला कर भोजन करता है, उसमें थोड़ी भलमनसाहत होती है, थोड़ी मिलनसारिता होती है। उसमें मैत्री का भाव होता है।
ऐसे तो पशु-पक्षी भी भोजन करते हैं; मनुष्य में और उनमें इतना ही भेद है कि मनुष्य भोजन को भी एक सुसंस्कार देता है। टेबल है, कुर्सी है, चम्मच है; बैठने का ढंग है; धूप बाली गई है; फूल सजाए गए हैं; रोशनी की गई है, दीये जलाए गए हैं। इस सबके बिना भी भोजन हो सकता है। यह सब भोजन का अंग नहीं है। लेकिन यह सब भोजन को एक संस्कार देता है, एक सभ्यता देता है।
अकेले में एक कोने में बैठ कर शराब पी जा सकती है। लेकिन जब तुम पांच मित्रों को बुला कर, गपशप करके, गीत गाकर पीते हो, तो पीने का मजा और है।
चार्वाक को इनकार करने के लिए मैं राजी नहीं हूं। चार्वाक मुझे पूरा स्वीकार है। लेकिन चार्वाक पर रुकने को भी मैं राजी नहीं हूं। इतना ही काफी नहीं है। मिलनसार होना अच्छा; खाने-पीने को संस्कार देना अच्छा; मैत्री अच्छी; मगर इतना ही पर्याप्त नहीं है; परमात्मा की तलाश भी करनी है।
और चार्वाक में और परमात्मा की तलाश करने में मुझे कोई विरोध नहीं दिखाई पड़ता। सच तो यह है, मुझे दोनों में एक संगति दिखाई पड़ती है, एक सेतु दिखाई पड़ता है।
मैं तुमसे नहीं कहता कि पाखंडी बनो। मैं तुमसे कहता हूं: सच्चे रहो। जैसे हो वैसे अपने को स्वीकार करो। और इस सरलता और सहजता से ही धीरे-धीरे परमात्मा की तरफ बढ़ो।
परमात्मा की तरफ जाने को अकारण असहज मत बनाओ। परमात्मा तक जाने की यात्रा जितनी सहजता से हो सके उतनी सुंदर है।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, बंबई के गुजराती भाषा के पत्रकार और लेखक श्री कांति भट्ट ने कृष्णमूर्ति के प्रवचन में आए हुए बंबई के लोगों को बुद्धिमत्ता का अर्क कहा है। श्री कांति भट्ट आपसे भी बंबई में मिल चुके हैं और यहां आश्रम में भी आए थे। लेकिन उन्होंने आपके पास आने वाले लोगों को कभी बुद्धिमान नहीं कहा। आप इस बाबत कुछ कहने की कृपा करेंगे?
कैलाश गोस्वामी! श्री कांति भट्ट ठीक ही कहते हैं। कृष्णमूर्ति के पास जो लोग इकट्ठे होते हैं, वे तथाकथित बुद्धिमान लोग ही हैं। क्योंकि कृष्णमूर्ति की बात बस गणित और तर्क की बात है। उसमें हृदय नहीं है, उसमें भाव नहीं है, भक्ति नहीं है, उसमें जीवन का गीत नहीं है--केवल जीवन का शुष्क विश्लेषण है। उसमें जीवन का नृत्य नहीं है--सिर्फ नृत्य का गणित है।
और दोनों बातों में भेद है। एक तो वीणा कोई बजाए और एक कोई वीणा के संगीत को...कागज पर लिपिबद्ध किया जा सकता है, संगीत की लिपि होती है, कागज पर लिपिबद्ध किया जा सकता है...उस कागज पर लिपिबद्ध संगीत का विश्लेषण करे। दोनों में बड़ा भेद है। कुछ लोग जो विश्लेषणप्रिय हैं, जो चीजों को खंड-खंड करके, टुकड़े-टुकड़े करके उनकी व्याख्या करने में रस लेते हैं, कृष्णमूर्ति में उन्हें बहुत आकर्षण मालूम होगा।
मेरी उत्सुकता तर्क में नहीं है, मेरी उत्सुकता प्रेम में है। मेरी उत्सुकता गणित में नहीं है, मेरी उत्सुकता गीत में है। मेरी उत्सुकता लिपिबद्ध संगीत में नहीं है, वीणा को बजाने में है। पांडित्य मेरे लिए असार है, पागलपन में मेरी बड़ी श्रद्धा है।
तो मेरे पास तो श्री कांति भट्ट को कैसे यह लग सकता है कि यहां बुद्धिमत्ता का अर्क? यहां तो लगता होगा कि दीवाने इकट्ठे हुए हैं, पागल इकट्ठे हुए हैं, मस्ताने इकट्ठे हुए हैं! यह तो है ही मधुशाला।
कृष्णमूर्ति के पास जो लोग जा रहे हैं, वह जमात अहंकारियों की है। अगर तुम्हें अहंकारियों की कोई शुद्ध जमात कहीं देखनी हो तो कृष्णमूर्ति के पास मिलेगी। और कृष्णमूर्ति भी थक गए हैं उस जमात से, ऊब गए हैं। मगर उनके कहने का ढंग, उनके बोलने का ढंग, उनकी प्रस्तावना ऐसी है कि सिवाय उन अहंकारियों के कोई दूसरा उनके पास कभी इकट्ठा नहीं हो सकता।
कृष्णमूर्ति स्वयं तो ज्ञान को उपलब्ध हैं, लेकिन उनकी अभिव्यक्ति शुष्क है। उनकी अभिव्यक्ति से, परमात्मा रस-रूप है, इसका कोई पता नहीं चलता। उनकी अभिव्यक्ति से, तल्लीनता से भी मिल सकता है सत्य, इसकी कोई संभावना नहीं खुलती। उनका स्वर एक है; वह ध्यान का स्वर है--जागरूक होना है, चित्त को जाग कर देखते रहना है, सजग होकर।
यह एक मार्ग है--बस एक मार्ग! एक दूसरा मार्ग भी है, ठीक इसके विपरीत; वह प्रेम का मार्ग है--डूब जाना है, लीन हो जाना है। जागरूक, दूर-दूर नहीं खड़े रहना है; तल्लीन हो जाना है।
मैं दोनों ही मार्गों की बात कर रहा हूं। क्योंकि जगत में दोनों तरह के लोग हैं। कुछ हैं जो ध्यान से उपलब्ध होंगे। उनके लिए मैं विश्लेषण भी करता हूं। उनके लिए मैं तर्क की बात भी बोलता हूं। और कुछ हैं जो प्रेम से उपलब्ध होंगे। उनके लिए मैं मादक गीत भी गाता हूं। चूंकि मैं दोनों विपरीत बातें एक साथ बोलता हूं, चूंकि दोनों विरोधाभासों को एक साथ एक संगति में लाता हूं, जो लोग सिर्फ सोच-विचार से जीते हैं, उन्हें मेरी बातों में विरोधाभास दिखाई पड़ेंगे, असंगति दिखाई पड़ेगी। स्वाभाविक, क्योंकि कभी जब मैं महावीर पर बोलता हूं तो शुद्ध तर्क होता हूं और जब मीरा पर बोलता हूं तो शुद्ध अतर्क होता हूं। जो मुझे सुनेंगे, उन्हें धीरे-धीरे यह लगेगा कि इस बात में तो विरोधाभास है, असंगति है। इसलिए तर्क से जीने वाला व्यक्ति मेरी बातों में असंगति पाएगा।
कृष्णमूर्ति की बातें बड़ी संगत हैं, क्योंकि वे एक ही स्वर दोहरा रहे हैं पचास वर्षों से। उस स्वर में उन्होंने कभी भी हेर-फेर नहीं किया। उस स्वर में उन्होंने कभी भी कोई असंगति नहीं की। दो और दो चार, दो और दो चार, दो और दो चार--ऐसा पचास वर्ष से दोहरा रहे हैं।
जो मुझे सुनता है, मैं कभी कहता हूं: दो और दो चार। और कभी कहता हूं: दो और दो पांच। और कभी कहता हूं: दो और दो तीन। और कभी कहता हूं: दो और दो जुड़ते ही नहीं! और कभी कहता हूं कि दो और दो तो सदा से एक ही हैं, जोड़ोगे कैसे? तो मेरे पास एक और ही तरह का व्यक्ति इकट्ठा हो रहा है--एक और ही अन्यथा प्रकार का!
कृष्णमूर्ति के पास केवल वे ही लोग इकट्ठे होते हैं जिन्हें यह भ्रांति है कि वे बुद्धिमान हैं। पाया क्या? इकट्ठे होते रहे, सुनते भी रहे, संग्रह भी बढ़ गया सूचनाओं का। मिला क्या? तीस-तीस साल, चालीस-चालीस साल कृष्णमूर्ति को सुनने वाले लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि सब समझ में तो आ गया, मगर मिला कुछ भी नहीं! ऐसी समझ किस काम की?
मैं तुम्हें समझ नहीं देता, मैं तुम्हें अनुभव देता हूं। मैं तुम्हें यह नहीं कहता कि इतना जान लो, इतना जान लो। मैं कहता हूं: इतने डूबो, इतने डूबो! मैं तुम्हें धक्का देता हूं सागर में।
जो इस धक्के को झेलने को राजी हैं, स्वभावतः श्री कांति भट्ट को वे कोई बुद्धिमान लोग मालूम न पड़े होंगे। और कांति भट्ट स्वयं पत्रकार हैं, लेखक हैं, तो स्वयं भी गणित और तर्क से ही सोचते होंगे। गणित और तर्क के पार भी एक विराट आकाश है, इसकी उन्हें कोई खबर नहीं।
जो मुझे समझेंगे, वे मेरी बातों में कृष्णमूर्ति को भी पा सकते हैं। जो कृष्णमूर्ति को समझेंगे, वे कृष्णमूर्ति की बातों में मुझे नहीं पा सकते। कृष्णमूर्ति का तो छोटा सा आंगन है साफ-सुथरा; कृष्णमूर्ति की तो छोटी सी बगिया है साफ-सुथरी। बगिया भी विक्टोरिया के जमाने की, इंग्लैंड की बगिया! कटी-छंटी, साफ-सुथरी, सिमिट्रीकल। एक झाड़ इस तरफ, तो दूसरा झाड़ ठीक उसके ही अनुपात का, माप का दूसरी तरफ। लान कटा हुआ।
कृष्णमूर्ति में बहुत कुछ है जो विक्टोरियन है। वे असल में बड़े हुए इस तरह के लोगों के साथ--एनीबीसेंट, लीडबीटर, इन लोगों के साथ बड़े हुए। इन्होंने उन्हें पाला-पोसा। इन्होंने उन्हें शिक्षा दी। इंग्लैंड में बड़े हुए। वह छाप उन पर रह गई है।
तुम मेरे बगीचे को देखो, जंगल है! जैसा मेरा बगीचा है, वैसा ही मैं हूं। कहीं कोई सिमिट्री नहीं, कोई तालमेल नहीं। एक झाड़ ऊंचा, एक झाड़ छोटा। रास्ते इरछे-तिरछे। मुक्ता है मेरी मालिन। मुक्ता ग्रीक है। ग्रीक तर्क! बहुत चेष्टा की उसने शुरू में कि इस तरफ भी ठीक वैसा ही झाड़ होना चाहिए जैसा उस तरफ है, दोनों में समतुलता होनी चाहिए। बहुत चेष्टा की उसने कि किसी तरह झाड़ों को काट-छांट कर आकार दिया जा सके। लेकिन धीरे-धीरे समझ गई कि मेरे साथ यह न चलेगा। चुरा कर, चोरी से, मेरे अनजाने, पीठ के पीछे छिपा कर, कैंची लेकर वह झाड़ों को रास्ते पर लगाती थी। धीरे-धीरे उसे समझ में आ गया कि यह मेरा बगीचा जंगल ही रहेगा।
जंगल में मुझे सौंदर्य मालूम होता है; बगिया में मौत। आदमी का कटा-छंटा हुआ बगीचा सुंदर नहीं हो सकता। कटे-छंटे होने के कारण ही उसकी नैसर्गिकता नष्ट हो जाती है। मैं नैसर्गिक का प्रेमी हूं। और निसर्ग बड़ा है। निसर्ग बहुत बड़ा है।
एक झेन फकीर ने एक सम्राट को बागवानी की शिक्षा दी। और जब शिक्षा पूरी हो गई तो वह परीक्षा लेने उसके बगीचे में आया। सम्राट ने एक हजार माली लगा रखे थे। और परीक्षा के दिन के लिए तीन वर्ष तैयारी की थी। और सोचता था कि गुरु आकर प्रसन्न हो जाएगा। कोई भूल-चूक न छोड़ी थी। यही भूल-चूक थी! यह तो बहुत बाद में पता चला। बिलकुल समग्ररूपेण बगिया पूर्ण थी। यही अपूर्णता थी। क्योंकि पूर्ण चीजों में मृत्यु आ जाती है। जहां पूर्णता है वहां मृत्यु छा जाती है। जब गुरु आया तो सम्राट सोचता था, अपेक्षा करता था--बहुत प्रसन्न होगा, आह्लादित होगा; लेकिन गुरु बड़ा उदास होता चला गया; जैसे-जैसे बगिया में भीतर गया, और उदास होता चला गया। सम्राट ने कहा: आप उदास! मैंने बहुत मेहनत की है। एक-एक नियम का परिपूर्णता से पालन किया है।
गुरु ने कहा: वही चूक हो गई। तुमने नियमों का इतनी परिपूर्णता से पालन किया है कि सारा निसर्ग नष्ट हो गया। यह बगीचा झूठा मालूम पड़ता है, सच्चा नहीं। और मुझे सूखे पत्ते नहीं दिखाई पड़ते! सूखे पत्ते कहां हैं? जहां इतने वृक्ष हैं, वहां एक सूखा पत्ता रास्तों पर नहीं है!
सम्राट ने कहा: आज ही सारे सूखे पत्ते इकट्ठे करवा कर मैंने बाहर फिंकवा दिए, कि आप आते हैं तो सब शुद्ध रहे।
टोकरी उठा कर बूढ़ा गुरु बाहर गया, रास्ते पर फेंक दिए गए सूखे पत्तों को ले आया टोकरी में भर कर, फेंक दिए रास्तों पर! आईं हवाएं, सूखे पत्ते खड़खड़ की आवाज करके उड़ने लगे। और गुरु प्रसन्न हुआ। उसने कहा: अब देखते हो, थोड़ा प्राण आया। यह आवाज देखते हो, यह संगीत सुनते हो! ये सूखे पत्तों की खड़खड़, इसके बिना मुर्दा था तुम्हारा बगीचा। मैं फिर आऊंगा, साल भर फिर तुम फिकर करो। अब की बार फिकर करना कि इतनी पूर्णता ठीक नहीं, कि इतना नियमबद्ध होना ठीक नहीं, कि थोड़ी अपूर्णता शुभ है, कि थोड़ा नियम का उल्लंघन शुभ है, क्योंकि निसर्ग को मौका मिले। तुमने बिलकुल अनुशासनबद्ध कर दिए सारे वृक्ष, जैसे सिपाही हों। तुमने वृक्षों की मौलिकता छीन ली, उनकी अद्वितीयता छीन ली। कोई वृक्ष किसी दूसरे वृक्ष जैसा नहीं है, प्रत्येक वृक्ष बस अपने जैसा है।
मैं प्रत्येक व्यक्ति की निजता को स्वीकार करता हूं, सम्मान करता हूं। मैं तुम्हें काट-छांट कर एक जैसे नहीं बना देना चाहता। जब मैं देखता हूं कि तुम्हारे भीतर प्रेम का गुलाब खिलेगा, तो मैं तुमसे ध्यान की बात नहीं करता। और जब मैं देखता हूं कि तुम्हारे भीतर ध्यान की जुही खिलेगी, तो मैं तुमसे गुलाब की बात नहीं करता। और चूंकि मैं किसी से गुलाब की बात करता हूं, किसी से जुही की, किसी से चंपा की और किसी से केवड़े की, मेरी बातों में असंगति हो जानी स्वाभाविक है।
मेरे पास तो वही आ सकता है जो मेरी हजार-हजार असंगतियों को झेलने की छाती रखता हो। बड़ी छाती चाहिए! कृष्णमूर्ति को सुनने के लिए बहुत छोटी सी खोपड़ी काफी है। बहुत छोटी खोपड़ी चाहिए--थोड़ा सा तर्क आता हो, थोड़ा सा गणित आता हो, थोड़े कालेज-स्कूल की पढ़ाई-लिखाई हो, कृष्णमूर्ति समझ में आ जाएंगे।
मेरे साथ इतने सस्ते में नहीं चलेगा। मेरे साथ तो पियक्कड़ों की दोस्ती बनती है। मुझसे तो नाता ही दीवानों का जुड़ता है, प्रेमियों का जुड़ता है--जो संगति की मांग नहीं करते; जो असंगति में भी संगति देखने का हृदय रखते हैं और जो विरोधाभासों में भी सेतु बना लेने की क्षमता रखते हैं। यह एक और ही तरह का जगत है।
कृष्णमूर्ति की शिक्षाएं बस शिक्षाएं हैं। कृष्णमूर्ति एक शिक्षक होकर समाप्त हो गए, सदगुरु नहीं हो पाए। और सुनने वाले शिष्य ही नहीं बन पाए, सिर्फ विद्यार्थी रह गए।
यहां विद्यार्थियों की जगह ही नहीं है। मैं कोई शिक्षक नहीं हूं और मेरे पास कोई शिक्षा का शास्त्र नहीं है। मैं खुद एक दीवाना हूं, खुद जिसने जी भर कर पी है! मुझसे दोस्ती बनाओगे तो मेरे साथ लड़खड़ा कर चलना सीखना होगा! इसके बिना कोई उपाय नहीं है।
इसलिए कैलाश गोस्वामी, कांति भट्ट ठीक ही कहते हैं कि कृष्णमूर्ति के पास बुद्धिमत्ता का अर्क इकट्ठा होता है। मगर बुद्धिमत्ता का अर्क जरा भी मूल्य का नहीं है, दो कौड़ी उसका मूल्य नहीं है।
कोई पंद्रह वर्षों तक मेरे पास भी उसी तरह के लोग इकट्ठे होते थे। फिर मुझे उनके साथ छुटकारा करने में बड़ी मेहनत करनी पड़ी। वही बुद्धिमत्ता का अर्क मेरे पास इकट्ठा होता था। जो लोग कृष्णमूर्ति को सुनने जाते हैं, वे ही मुझे भी सुनने आते थे। करीब-करीब वे ही लोग! मुझे उनसे छुटकारा पाने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ी, बामुश्किल उनसे छुटकारा कर पाया। क्योंकि उन्होंने कृष्णमूर्ति का जीवन खराब किया। उन्होंने कृष्णमूर्ति के जीवन से जो लाभ हो सकता था, वह नहीं होने दिया। सारी बातें बस बुद्धि की होकर रह गईं। और मैं नहीं चाहता था कि मेरे पास भी बस वही बातें चलती रहें।
और एक कठिनाई होती है। अगर तुम्हारे पास एक ही तरह की जमात इकट्ठी हो जाए तो मुश्किल हो जाती है। वह जो भाषा समझती है, उसी भाषा में तुम्हें बोलना पड़ता है। मैं चाहता था कि मेरे पास सब रंगों, सब ढंगों के लोग हों। मैं चाहता था कि मेरे पास इंद्रधनुष हो, सातों रंग के लोग हों। मैं चाहता था कि मेरे पास इकतारा न हो, मेरे पास सब तरह के वाद्य हों कि मैं एक आर्केस्ट्रा बनाऊं जिसमें सारे वाद्य सम्मिलित हो सकें।
वे लोग जो मेरे पास इकतारा लेकर इकट्ठे हो गए थे, उनसे छुटकारा पाने में मुझे बड़ी मुश्किल हुई। उनसे छुटकारा पाना जरूरी था, क्योंकि उनकी जमात जो भाषा समझती थी, वही भाषा मुझे बोलनी पड़ती थी।
अब मेरे पास एक जमात है कि मैं जो भाषा बोलता हूं, उसी भाषा को समझने के लिए वह राजी है, क्योंकि वह मेरे हृदय को पहचानती है। अब मेरे शब्दों पर मेरे संन्यासियों को बहुत चिंता नहीं करनी पड़ती। वे मेरे शब्दों में मेरे भाव को पढ़ते हैं। वे मेरे शब्दों में मेरे अर्थ को सुनते हैं। अब मेरा शून्य मेरे संन्यासियों को सुनाई पड़ने लगा है।
मैं प्रसन्न हूं, क्योंकि अब मुझे भीड़-भाड़ से, आमजन से नहीं बोलना पड़ रहा है। अब मैंने, जो मुझे समझ सकते हैं, सुन सकते हैं, जो मुझे आत्मसात कर ले सकते हैं, उनको धीरे-धीरे जुटा लिया है। उन्हें निमंत्रण दे-दे कर मैंने अपने पास बुला लिया है। अब मेरे पास ऐसे लोग हैं कि उनकी कोई अपेक्षा नहीं है मुझसे कि मैं यही बोलूं, कि ऐसा ही बोलूं। अब उनकी कोई अपेक्षा ही नहीं है। वे मुझे पीने को राजी हैं। जैसा मैं हूं वैसा पीने को राजी हैं। आज जो पिलाऊंगा वही पीने को राजी हैं। वे यह नहीं कहेंगे कि कल तो आप कुछ और ही पिलाते थे, आज कुछ और पिलाने लगे! कल कल था, आज आज है। और कल आने वाला कल होगा। अब उनकी चिंता नहीं है संगति बिठाने की।
यह जरा कठिन मामला है--सातों रंग के लोगों को सम्हालना, सब शैली के लोगों को साथ-साथ लेकर चलना! इसका मजा भी बहुत है, इसकी झंझट भी बहुत है।
कृष्णमूर्ति झंझट से तो बच गए, लेकिन फिर जीवन में वे जो करना चाहते थे, नहीं कर पाए। कृष्णमूर्ति अत्यंत विषादग्रस्त हैं--अपने लिए नहीं; अपने लिए तो दीया जल गया, बात पूरी हो गई। उनका विषाद यह है कि वे किसी और का दीया नहीं जला पाए। इसलिए नाराज हो जाते हैं, चिल्लाते हैं, अपना माथा ठोंक लेते हैं, क्योंकि लोग समझते ही नहीं। लेकिन इसमें कसूर सिर्फ लोगों का नहीं है। कृष्णमूर्ति ने जिस तरह की बातें कहीं, उस तरह के लोग इकट्ठे हो गए हैं। ये वे लोग हैं जो बदलने की आकांक्षा ही नहीं रखते। ये तो सिर्फ सुनने आते हैं, ये तो सिर्फ कुछ और थोड़ी बातें संगृहीत हो जाएं, थोड़ा पांडित्य और बढ़ जाए, इसलिए आते हैं। इनकी विश्लेषण की क्षमता थोड़ी और प्रखर हो जाए, इसलिए आते हैं।
यह अहंकारियों की जमात है। क्योंकि कृष्णमूर्ति कहते हैं कि किसी को गुरु बनाने की आवश्यकता नहीं है, कहीं समर्पण करने की कोई आवश्यकता नहीं है। तो उन लोगों की जमात कृष्णमूर्ति के पास इकट्ठी हो जाती है जो समर्पण करने में असमर्थ हैं और जिनका अहंकार इतना मजबूत है कि जो किसी के सामने झुक नहीं सकते। उनके लिए कृष्णमूर्ति की बात बड़ा आवरण बन जाती है--बड़ा सुंदर आवरण! वे कहते हैं: झुकने की जरूरत ही नहीं है, इसलिए हम नहीं झुकते हैं। बात कुछ और है। झुक नहीं सकते हैं, इसलिए नहीं झुकते हैं। लेकिन अब एक तर्क हाथ आ गया कि झुकने की कोई जरूरत ही नहीं है। समर्पण आवश्यक ही नहीं है, इसलिए हम समर्पण नहीं करते हैं। सचाई कुछ और है। समर्पण करना हर किसी के बस की बात नहीं है, बड़ा साहस चाहिए। अपने को मिटाने का साहस चाहिए!
मैं जो प्रयोग कर रहा हूं वह पृथ्वी पर अनूठा है, इसलिए श्री कांति भट्ट जैसे लोग उसे नहीं समझ पाएंगे। मैं जो प्रयोग कर रहा हूं उसे समझने में सदियां लग जाएंगी। अब तक दुनिया में बहुत प्रयोग हुए हैं। बुद्ध ने एक भाषा बोली--संगत भाषा; एक तरह के लोग इकट्ठे हो गए। महावीर ने दूसरी भाषा बोली--संगत भाषा; दूसरी तरह के लोग इकट्ठे हो गए। चैतन्य ने तीसरी भाषा बोली--संगत भाषा; तीसरी तरह के लोग इकट्ठे हो गए। चैतन्य के पास जो लोग इकट्ठे हुए, वे झांझ-मजीरा, ढोलक-मृदंग लेकर इकट्ठे हुए, नाचे, गाए। बुद्ध के पास जो लोग इकट्ठे हुए, उन्होंने विपस्सना की, आंख बंद की, शांत होकर बैठे। महावीर के पास जो लोग इकट्ठे हुए, उन्होंने उपवास किया, शरीर की शुद्धि की। अलग-अलग लोग, उनकी अलग-अलग विधि, उनके अनुकूल लोग इकट्ठे होते रहे।
मैं जो प्रयोग कर रहा हूं वह अनूठा है, कभी किया नहीं गया। कभी किसी ने इतनी झंझट मोल लेना चाही भी नहीं। यहां विपस्सना भी चल रहा है। जो लोग शांत बैठना चाहते हैं, मौन होना चाहते हैं, उनके लिए भी द्वार है। जो लोग नाचना चाहते हैं मृदंग की थाप पर, उनके लिए भी द्वार है। जो अकेले में, एकांत में बांसुरी बजाना चाहते हैं, उनके लिए भी द्वार है। और जो बहुतों के साथ संगीत में लीन होना चाहते हैं, उनके लिए भी द्वार है।
मैं एक मंदिर बना रहा हूं, जिस मंदिर में सभी द्वार होंगे--मस्जिद का भी द्वार होगा, और गिरजे का भी, और गुरुद्वारे का भी, मंदिर का भी, सिनागॉग का भी--जिसमें सारे द्वार होंगे। तुम कहीं से आओ, जिस द्वार से तुम्हारी रुचि हो, आओ। भीतर एक ही परमात्मा विराजमान है।
यह झंझट की बात है। इतने भिन्न-भिन्न लोगों को साथ सम्हाल कर चलना कठिन काम है। लेकिन बात लगता है कि बनी जा रही है। बनते-बनते बन रही है; लेकिन बनी जा रही है।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी आदत के अनुसार जैसे ही संगीत-सम्मेलन में आलाप भरा, एक श्रोता खड़ा हो गया और विनम्र स्वर में बोला: बड़े मियां, आप गाने की स्टाइल बदलिए। कल मैं आप ही की तरह गा रहा था तो पिटते-पिटते बचा।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपनी ही स्टाइल में गीत प्रारंभ किया और बोले: महाशय, मेरा खयाल है कि आपका गाने का ढंग घटिया रहा होगा। यदि हूबहू मेरी स्टाइल में गाते तो जरूर पिटते।
मेरे पास जो घटित हो रहा है, वह अघटित होने जैसी बात है। उसे समझने में सदियां लगेंगी। उसे समझने में सिर्फ बुद्धि पर्याप्त नहीं होगी--हृदय की गहराई चाहिए होगी। उसे समझने में सिर्फ तर्क काम नहीं देगा, क्योंकि मेरे पास जो लोग इकट्ठे हो रहे हैं, वे बुद्धिमत्ता का अर्क नहीं हैं--समग्रता का अर्क हैं। उसमें उनका तन भी जुड़ा है, उसमें उनका मस्तिष्क भी जुड़ा है, उसमें उनका हृदय भी जुड़ा है, उसमें उनकी आत्मा भी जुड़ी है। कृष्णमूर्ति के पास जो लोग इकट्ठे हो रहे हैं, वे बुद्धिमत्ता के अर्क हैं। मेरे पास जो लोग इकट्ठे हो रहे हैं, वे समग्रता के अर्क हैं। यह बात और है। यह बड़ा आकाश है। यह कोई छोटा आंगन नहीं है।
छोटे आंगन को साफ-सुथरा रखा जा सकता है, लीपा-पोता जा सकता है। इस बड़े आकाश को कैसे लीपो-पोतो? कैसे साफ-सुथरा रखो? यह तो जैसा है वैसा ही अंगीकार करना होगा।
मैं निसर्ग का भक्त हूं। मेरे लिए निसर्ग ही परमात्मा है। और परमात्मा ने जितने रूप लिए हैं, वे सब मुझे स्वीकार हैं। परमात्मा ने जितने ढंगों में अपनी अभिव्यक्ति की है, सबका मेरे मन में सम्मान है।
कृष्णमूर्ति के पास भक्त जाएगा तो कृष्णमूर्ति कहेंगे: गलत! भक्ति में क्या रखा है? यह मंदिर की पत्थर की मूर्ति के सामने सिर पटकने से क्या होगा? भजन-कीर्तन सब आत्म-सम्मोहन है। संगीत, संकीर्तन, ये सब अपने को भुलावे के ढंग हैं।
मेरे पास भक्त आएगा, तो मैं कहूंगा कि पत्थर में भी भगवान है, क्योंकि भगवान ही है! तो पत्थर में भी वही होगा! लेकिन पत्थर में तुम्हें तब दिखाई पड़ेगा जब तुम्हें अपने में दिखाई पड़ने लगेगा। अन्यथा पूजा झूठी रहेगी। तुम्हें अपने में नहीं दिखाई पड़ता, अपनी पत्नी में नहीं दिखाई पड़ता, अपने बच्चे में नहीं दिखाई पड़ता, तुम्हें मंदिर की मूर्ति में कैसे दिखाई पड़ेगा?
हां, पत्थर में भी जरूर भगवान है, क्योंकि भगवान अस्तित्व का ही दूसरा नाम है। और पत्थर भी है--उतना ही जितना मैं हूं, जितने तुम हो! तो पत्थर के होने में ही तो भगवत्ता है उसकी। मगर पत्थर में देखने के लिए जरा गहरी आंख चाहिए पड़ेगी। अभी तो तुम्हारे पास इतनी थोथी आंखें हैं कि जीवंत मनुष्यों में भी नहीं दिखाई पड़ता, पशु-पक्षियों में नहीं दिखाई पड़ता, वृक्षों में नहीं दिखाई पड़ता--और पत्थर में दिखाई पड़ जाएगा!
फिर सभी पत्थरों में भी नहीं दिखाई पड़ता। छैनी से किसी ने पत्थर पर थोड़े से हाथ मार दिए हैं, हथौड़ी चला दी है, उसमें दिखाई पड़ता है; या किसी ने किसी पत्थर पर आकर सिंदूर पोत दिया है, उसमें दिखाई पड़ने लगता है। सिर्फ सिंदूर पोतने से!
तुम्हें पता है, जब पहली दफा अंग्रेजों ने भारत में रास्ते बनाए और मील के पत्थर लगाए तो बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। क्योंकि मील के पत्थर लगाए, लाल रंग से रंगा। गांव से रास्ते गुजरें और जिस पत्थर पर भी लाल रंग पुता है, उसी पर फूल चढ़ा कर लोग हनुमान जी समझते हैं! अंग्रेज बड़ी मुश्किल में पड़ गए कि करना क्या! लोग नारियल फोड़ें, हनुमान जी की जय बोलें। और अंग्रेज उस पर तो लिखें, मील का पत्थर, तो मील; कितने मील, आने वाला नगर कितनी दूर। लेकिन गांव के लोग हर महीने दो महीने में उस पर सिंदूर पोत दें, क्योंकि हनुमान जी को सिंदूर चढ़ाना ही पड़ता है। पर्त पर पर्त!
जरा सिंदूर पोत दिया तो पत्थर एकदम हनुमान जी हो जाते हैं। और ऐसे तुम्हें हनुमान जी मिल जाएं कहीं रास्ते में तो तुम ऐसे भागोगे...
तुम्हारा तो क्या, विवेकानंद ने अपने संस्मरण में लिखा है कि हिमालय में यात्रा करते वक्त एक भयंकर बंदर उनके पीछे पड़ गया। बंदर, कुत्ते, इस तरह के प्राणियों को यूनिफार्म से बड़ी दुश्मनी है, पता नहीं क्यों! पुलिसवाला निकल जाए कि कुत्ते एकदम भौंकने लगते हैं; पोस्टमैन, कि संन्यासी, एक यूनिफार्म भर...यूनिफार्म के दुश्मन! देखा होगा विवेकानंद को गैरिक वस्त्रों में चले जाते, बंदर एकदम नाराज हो गया। एकदम दौड़ा विवेकानंद के पीछे। विवेकानंद शक्तिशाली आदमी थे, हिम्मतवर आदमी थे, लेकिन एकदम हनुमान जी पीछे आ जाएं...विवेकानंद भी भागे! अपनी जान बचानी पड़ती है ऐसे मौकों पर। ऐसे पत्थर पर सिंदूर पोतना एक बात है। लेकिन जितने ही विवेकानंद भागे, बंदर और मजा लिया। जब कोई भाग रहा हो तो भागते के पीछे तो कोई भी भागने लगता है। भगाने वाले कोई भी मिल जाएंगे फिर। बंदर और मजा लेने लगा।
फिर विवेकानंद को लगा कि अगर मैं और भागा, तो यह हमला करेगा। कोई और रास्ता न देख कर...पहाड़ी सन्नाटा, कोई रास्ता नहीं भागने का, बचने का, कोई आदमी दिखाई पड़ता नहीं, सोचा कि अब एक ही उपाय है कि डट कर खड़ा हो जाऊं, अब जो कुछ करेंगे हनुमान जी सो करेंगे। लौट कर खड़े हो गए। लौट कर खुद खड़े हुए तो बंदर भी लौट कर खड़ा हो गया। बंदर ही तो ठहरा आखिर।
हनुमान जी तुम्हें रास्ते में मिल जाएं तो तुम भी भागोगे। तुम एकदम गिड़गिड़ाने लगोगे कि हनुमान जी कोई नाराज हो गए हैं, क्या बात है? ऐसे जाकर पत्थर के सामने प्रार्थना करते थे कि हे हनुमान जी, कभी प्रकट होओ!
पत्थर की पूजा करोगे और अभी तुम्हें मनुष्य में भी परमात्मा दिखाई पड़ा नहीं! मनुष्य की तो छोड़ दो, अपने भीतर नहीं दिखाई पड़ा--निकटतम जो है तुम्हारे, तुम्हारे प्राणों में बैठा प्राणों की भांति, वहां नहीं दिखाई पड़ा!
तो मैं भक्त से कहूंगा कि जरूर पत्थर में भी भगवान है, क्योंकि भगवान ही है! पर पहले अपने में खोजो। और अगर अपने में खोज पाओ तो मंदिर की मूर्ति में भी है। मंदिर की मूर्ति में ही क्यों, रास्ते के किनारे पड़े अनगढ़ पत्थर में भी है। फिर चारों तरफ तुम्हें वही दिखाई पड़ेगा।
मेरे पास तुम जो लेकर आओगे, मैं उसी का उपाय करूंगा कि तुम्हारे लिए सीढ़ी बन जाए। चेष्टा करूंगा कि तुम्हारे राह के
बीच पड़ा हुआ जो पत्थर है, जिसकी वजह से तुम अटक गए हो, वह सीढ़ी बन जाए।
कृष्णमूर्ति की एक धुन है। उस धुन से इंच भर यहां-वहां वे तुम्हें स्वीकार नहीं करते। उन्होंने कपड़े पहले से तैयार करके रखे हैं। अगर गड़बड़ी है तो तुममें गड़बड़ी है। कपड़े पहना कर वे जांच कर लेंगे। अगर तुम्हें नहीं कपड़े ठीक बैठ रहे हैं तो काट-छांट तुम्हारी की जाएगी, कपड़ों की नहीं।
यूनान में एक पुरानी कथा है कि एक सम्राट था, वह झक्की था। उसकी झक्क यही थी कि उसके पास एक सोने का पलंग था, बड़ा बहुमूल्य पलंग था। उसके घर में कोई भी मेहमान होता तो वह उसी पलंग पर सुलाता। मगर एक उसकी झंझट थी। उसके घर कोई मेहमान नहीं होता था। जब लोगों को पता चलने लगा, धीरे-धीरे कुछ मेहमान गए और फिर लौटे ही नहीं, तो मेहमानों ने आना बंद कर दिया। मगर कभी-कभी कोई भूल-चूक से फंस जाता था, तो वह उस बिस्तर पर लिटाता। अगर उसके पैर बिस्तर से लंबे होते तो पैर काटता; अगर पैर उसके छोटे होते बिस्तर से, वह छोटा होता, तो दो पहलवान दोनों तरफ से उसको खींचते। लेकिन उसको बिलकुल बिस्तर के बराबर करके ही सोने देते थे। मगर तब सोना होता ही कहां, वह तो आदमी खत्म ही हो जाता। और ठीक बिस्तर के माप का आदमी कहां मिले! कभी लाख, दो लाख में संयोग से कोई मिल जाए ठीक माप का तो बात अलग, नहीं तो ठीक माप का आदमी कहां मिले! कोई इंच छोटा, कोई इंच बड़ा; कोई ऐसा, कोई वैसा।
इस जगत में कोई व्यक्ति किसी एक तर्कसरणी के अनुसार न तो पैदा हुआ है, न उसकी नियति है कि किसी तर्कसरणी के अनुसार जीए। कृष्णमूर्ति के पास एक बंधा हुआ जीवन-ढांचा है। वे कहते हैं कि बस इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं।
मेरे पास कोई तैयार कपड़े नहीं हैं। तुम्हारे प्रति मेरा सम्मान इतना है कि मैं पलंग की फिकर नहीं करता। अगर जरूरत पड़े तो पलंग को छोटा-बड़ा किया जा सकता है; तुम्हें छोटा-बड़ा नहीं किया जा सकता। तुम अगर भक्त हो तो मैं तुम्हारी भक्ति में और चार चांद जोडूंगा। और तुम अगर ध्यानी हो तो तुम्हारे ध्यान में और चार चांद जोडूंगा। तुम जो हो, उसमें कुछ जोडूंगा। तुम्हारे भीतर अगर कुछ कूड़ा-कर्कट है, तो जरूर कहूंगा कि इसे फेंको, हटाओ। मगर तुम्हारी जीवन-शैली की जो अंतरंगता है, निजता है, उस पर कोई आघात मेरी तरफ से नहीं होगा।
इसलिए स्वभावतः मेरी बातें असंगत होंगी। और तथाकथित बुद्धिमानों की सबसे बड़ी अड़चन यह है कि संगत बात चाहिए उन्हें। लेकिन मैं क्या कर सकता हूं? लोग ही इतने भिन्न हैं। भिन्नता इस जगत का स्वभाव है। मैं क्या कर सकता हूं? यह मेरे हाथ की बात नहीं है। पलंग काटा जा सकता है, तुम नहीं काटे जा सकते। और पलंग का काटना कभी-कभी खूब काम कर जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन बहुत परेशान था। उसको एक ही चिंता, रात में दस-पांच दफा उठ कर वह अपने बिस्तर के नीचे जब तक झांक कर न देख ले कि कोई चोर, कोई डाकू, कोई लुच्चा छिपा तो नहीं है? और ठीक भी है; क्योंकि डाकू, चोर, लुच्चे इस समय इतने प्रभावी हैं, जगह-जगह छाए हुए हैं कि आदमी को सचेत रहना ही चाहिए। उसकी पत्नी भी परेशान कि तुम न सोते, न सोने देते। रात में दस दफा उठ-उठ कर दीया जला कर देखोगे--कोई बिस्तर के नीचे तो है नहीं! पत्नी उसे मनोचिकित्सकों के पास ले गई, उन्होंने बहुत समझाया, मनोविश्लेषण किया, उसकी अचेतन बातें उसको समझाईं, उसके सपनों का विश्लेषण किया, यह किया, वह किया, कोई काम न आया। उसकी बीमारी जारी रही।
फिर एक दिन मेरे पास आया, बड़ा प्रसन्न था और कहने लगा: मेरी सास आई और उसने मामला मिनट में रफा-दफा कर दिया।
तो मैंने कहा: तुम्हारी सास मालूम होता है कोई बड़ी मनोवैज्ञानिक है।
उसने कहा: कुछ भी नहीं। बुद्धि उसमें नाममात्र को नहीं है। मगर उसने मिनट में रफा-दफा कर दिया।
मैंने कहा: किया क्या उसने?
उसने कहा: उसने किया यह कि उठा कर आरा और मेरे बिस्तर की चारों टांगें काट दीं। अब मेरा बिस्तर जमीन पर रखा है, अब उसके नीचे कोई छिप ही नहीं सकता। बड़े-बड़े मनोवैज्ञानिक हार गए। अब मैं उठना भी चाहूं तो बेकार। पुरानी आदत से नींद भी खुल जाती है तो मैं सोचता हूं कि क्या सार! नीचे कोई छिप ही नहीं सकता, उसने पैर ही उड़ा दिए। बिस्तर ही जमीन पर लगा दिया।
बिस्तर के पैर काटने हों, काट लो। बिस्तर को छोटा करना हो, छोटा कर लो; बड़ा करना हो, बड़ा कर लो। आदमी को साबित छोड़ो! आदमी के प्रति सम्मान रखो और आदमी की भावना का सम्मान रखो। और इसलिए स्वभावतः मेरी बातें बहुत असंगत हैं, क्योंकि मैं भिन्न-भिन्न लोगों के लिए भिन्न-भिन्न गीत गाता हूं। और उन सबको तुम मिलाओगे, और उन सबके बीच तुम सोचना चाहोगे कि कोई एक विचार की व्यवस्था खड़ी हो जाए तो नहीं हो सकेगी।
जो यहां तर्क से सुनने आएगा वह बड़ी झंझट में पड़ जाएगा।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन बड़े आक्रोश से अपनी खूब तेज-तर्रार रचनाएं, अपनी कविताएं, अपनी शायरी बड़ी देर तक सुनाता रहा। जनता चिल्लाती भी रही कि बंद करो! मगर जनता जितनी चिल्लाए कि बंद करो, उतनी ही जोर आवाज से वह अपनी कविता सुनाए, वह उतने और आक्रोश में आता गया। लोग ताली बजाएं, इसलिए कि भाई बंद करो। मगर वह समझे कि प्रशंसा की जा रही है। आखिर एक आदमी खड़ा हुआ और उसने कहा कि बड़े मियां, आप काव्य-पाठ बंद करते हैं या नहीं? अगर आपने काव्य-पाठ बंद न किया तो मैं पागल हो जाऊंगा।
मुल्ला नसरुद्दीन ने चौंक कर, भौचक रह कर उस आदमी से कहा: भाई साहब! कविता पढ़ना बंद किए तो मुझे एक घंटा हो चुका है।
जो लोग मुझे तर्क से सुनने आएंगे, जो गणित बिठाएंगे, वे विक्षिप्त हो जाएंगे। जो मुझे भाव से सुनेंगे...यह सत्संग है, यहां कोई शिक्षण नहीं दिया जा रहा है। यहां मैं अपने को बांट रहा हूं, कोई शिक्षाएं नहीं बांट रहा हूं। यहां अपने को लुटा रहा हूं, कोई सिद्धांत नहीं दे रहा हूं। सत्य का हस्तांतरण होता भी नहीं, सत्य तो संक्रामक है। यहां तो मैं तुम्हें अपने पास बुला रहा हूं कि मेरे पास आओ कि सत्य तुम्हें भी पकड़ ले, संक्रामक हो जाए। यह तो दीवानों की बस्ती है और दीवानों के लिए निमंत्रण है। यहां अहंकारी आएंगे, अपने आप लौट जाएंगे, क्योंकि समर्पण यहां सूत्र है। यहां अहंकारी आएंगे और उन्हें मेरी बात सुनाई भी नहीं पड़ेगी, क्योंकि यहां शिष्यत्व के बिना कोई बात सुनाई पड़ ही नहीं सकती। यहां तर्कवादी आएंगे और कुछ का कुछ सुनेंगे, क्योंकि यहां जो बात की जा रही है, वह प्रेम की है, वह तर्क की नहीं है। यहां कुछ बात कही जा रही है जो कही ही नहीं जा सकती है। यहां अकथ्य को कथ्य बनाने की चेष्टा चल रही है।
फिर लोग अपना-अपना हिसाब लेकर आते हैं। श्री कांति भट्ट आए होंगे अपना हिसाब लेकर, अपने हिसाब से सुना होगा, अपने हिसाब से समझा होगा। शायद कृष्णमूर्ति उनके हृदय में बहुत ज्यादा भरे हों, तो अड़चन हो गई होगी, तो तौलते रहे होंगे। और जिसने तौला, वह चूका। फिर मैं कुछ कहूंगा, वे कुछ समझेंगे।
जनसमूह कवि-सम्मेलन सुनने के लिए उमड़ आया था। मुल्ला नसरुद्दीन जैसे ही काव्य-पाठ के लिए खड़े हुए किसी श्रोता ने भीड़ में से प्रश्न उछाल दिया: बड़े मियां! काव्य-पाठ के पहले कृपया यह बताएं कि गधे के सिर पर कितने बाल होते हैं?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कुछ देर जिधर से आवाज आई थी उधर देखते हुए कहा: क्षमा करें, भारी भीड़ में मुझे आपका सिर दिखाई नहीं दे रहा है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, संतों की वाणी में इतना रस किस स्रोत से आता है? और संतों की वाणी से इतनी तृप्ति और आश्वासन क्यों मिलता है?
रस का तो एक ही स्रोत है--रसो वै सः! रस का तो कोई और स्रोत नहीं है, परमात्मा ही रस का स्रोत है। रस उसका ही दूसरा नाम है।
संत अपनी तो कुछ कहते नहीं, उसकी ही गुनगुनाते हैं। संत तो वही है जिसके पास अपना कुछ कहने को बचा ही नहीं है। अपना जैसा ही कुछ नहीं बचा है। संत तो बांस की पोली पोंगरी है, चढ़ा दी गई परमात्मा के हाथों में; अब उसे जो गीत गाना हो, गा ले; न गाना हो, न गाए; ऐसा बजाए कि वैसा बजाए। बांस की पोंगरी तो बस बांस की पोंगरी है। वह गाता है तो बांसुरी हो जाती है, वह नहीं गाता है तो बांस की पोंगरी बांस की पोंगरी रह जाती है! गीत उसके हैं, बांसुरी के नहीं हैं। स्वर उसके हैं।
संत तो केवल एक माध्यम है। संत तो केवल उपकरण है। परमात्मा के हाथ में छोड़ देता अपने को, जैसे कठपुतली!
तुमने कठपुतलियों का नाच देखा? छिपे हुए धागे और पीछे छिपा रहता है उनको नचाने वाला। फिर कठपुतलियों को नचाता, जैसा नचाता वैसी कठपुतलियां नाचती हैं। लड़ाता तो लड़ती हैं, मिलाता तो मिलती हैं, बातचीत करवाता, हजार काम लेता।
संत तो बस ऐसा है जिसने एक बात जान ली है कि मैं नहीं हूं, परमात्मा है। अब जो कराए। इसलिए रस है उनकी वाणी में, अमृत है उनकी वाणी में। अमृत बरसता है, क्योंकि वे अमृत के स्रोत से जुड़ गए हैं। कमल खिलते हैं, क्योंकि कमल जहां से रस पाते हैं, उस स्रोत से जुड़ गए हैं।
पतझड़ के बाद यह
आया है नव-वसंत
वाणी में मेरी!
वाणी की डालों पर
भावों के फूल खिले,
बहती मादक बयार
वहन करती गंध भार,
सरसों के फूलों का
सागर लहराया
वाणी में मेरी!
वाणी की लहरों में
दहक-दहक उठते हैं,
टेसू के फूलों के
जीवित दाहक अंगार!
वाणी के कंपन में
जीवन का दर्द नया
लहराया छाया!
वाणी में मेरी
नव-वसंत आया!
महक उठा आम्र बौर
मस्ती में झूम झूम
जीवन का गीत नया
मादक यह राग नया
कोकिल ने गाया
वाणी में मेरी!
जीवन-अनुराग-सिक्त
उड़ता अरुणिम गुलाल!
भावों ने वेदना के
अनुभव ने व्यथा के
मीड़ दिए हैं कपोल!
अरुणिम आभा का यह
नव-प्रकाश छाया
वाणी में मेरी!
आस्था के फूल सजा
श्रद्धा के दीप जला
अक्षत-विश्वास और
ममता की रोली ले
नवयुग के अर्चन का
थाल यह सजाया
वाणी में मेरी!
पतझड़ के बाद यह
आया है नव-वसंत
वाणी में मेरी!
पहले झड़ जाओ पतझड़ से, पत्ते-पत्ते गिर जाएं! तुम्हारा कुछ भी न बचे--नग्न, जैसा पतझड़ के बाद खड़ा हुआ वृक्ष! फिर नये अंकुर फूटते हैं, नये फूल लगते हैं। वे फूल तुम्हारे नहीं हैं, वे फूल परमात्मा के हैं। वे अंकुर तुम्हारे नहीं हैं, वे अंकुर परमात्मा के हैं! मिटने की कला सीखो। जिस दिन तुम मिट जाओगे पूरे-पूरे, उस दिन परमात्मा तुमसे बहेगा--अहर्निश बहेगा, बाढ़ की तरह बहेगा। और तब न केवल तुम तृप्त होओगे, तुम्हारे पास जो आ जाएगा, उसकी भी जन्मों-जन्मों की प्यास तृप्त हो जाएगी।
पूछते हो तुम वेदमूर्ति: ‘संतों की वाणी में इतना रस किस स्रोत से आता है? और संतों की वाणी से इतनी तृप्ति और आश्वासन क्यों मिलता है?’
इसीलिए आश्वासन है, क्योंकि संत प्रमाण हैं परमात्मा के। और कोई प्रमाण नहीं है--न वेद प्रमाण हैं, न उपनिषद प्रमाण हैं, न कुरान प्रमाण है। प्रमाण तो होता है कभी कोई जीवंत संत। मोहम्मद प्रमाण हो सकते हैं, याज्ञवल्क्य प्रमाण हो सकते हैं, बुद्ध प्रमाण हो सकते हैं, दरिया प्रमाण हो सकते हैं। प्रमाण तो होता है सदा कोई जीवंत व्यक्तित्व, जिसके चारों तरफ एक आभा होती है--जिस आभा को तुम छू सकते हो, जिस आभा को तुम स्पर्श कर सकते हो, जिस आभा का तुम स्वाद ले सकते हो; जिसके आस-पास एक मधुरिमा होती है, एक माधुर्य होता है; जिसके आस-पास तुममें अगर खोज हो तो तुम भौंरे बन जाओ कि रस पीओ!
और प्यास किसमें नहीं है? दबाए बैठे हैं लोग प्यास को। भुलाए बैठे हैं लोग प्यास को। प्यास तो सभी में है। जन्मों-जन्मों से किसकी तलाश कर रहे हो? जब किसी संत में उस अनंत का आविर्भाव होता है, तो आश्वासन मिलता है कि मैं व्यर्थ ही नहीं दौड़ रहा, कि मेरी कल्पनाओं में, मेरे स्वप्नों में जो छाया उतरी थी, वह छाया ही नहीं है, माया ही नहीं है, सत्य भी हो सकता है। जो मैंने मांगा है, वह किसी को मिल गया है, तो मुझे भी मिल सकता है। जो मैंने चाहा है, किसी में पूरा हुआ है, तो मुझमें भी हो सकता है। मुझ जैसे ही हड्डी-मांस-मज्जा के व्यक्ति में जब ऐसी अनंत शांति और आनंद का आविर्भाव हुआ है, तो मुझमें भी होगा। इसलिए आश्वासन मिलता है।
संतों के पास बैठ कर आस्था उमगती है, श्रद्धा जगती है। विश्वास नहीं करना होता फिर। विश्वास तो जबरदस्ती करना होता है। श्रद्धा अपने से पैदा होती है। ऐसे चरण, जहां सिर अपने से झुक जाए, झुकाना न पड़े!
ऐसा हुआ कि बुद्ध को जब तक ज्ञान उपलब्ध न हुआ था, वे महातपश्चर्या करते थे। बड़ी तपश्चर्या, बड़ी दुर्धर्ष! अपने शरीर को गलाते थे, सताते थे, उपवास करते थे। धूप में खड़े होते, शीत में खड़े होते। सूख गए थे। बड़ी सुंदर उनकी देह थी जिस दिन राजमहल छोड़ा था। फूल सी सुकुमार उनकी देह थी! सूख गए थे, काले हो गए थे, हड्डियां कोई गिन ले...। कहानियां कहती हैं कि पेट पीठ से लग गया था। बस हड्डी-हड्डी रह गए थे। पांच उनके शिष्य हो गए थे उनकी तपश्चर्या देख कर कि यह कोई महातपस्वी है। फिर एक दिन बुद्ध को यह बोध हुआ कि यह मैं क्या कर रहा हूं? यह तो आत्मघात है जो मैं कर रहा हूं! यह कोई परमात्मा को या सत्य को पाने का उपाय तो नहीं। यह तो मैं सिर्फ अपने को नष्ट कर रहा हूं, पा क्या रहा हूं? छह साल की निरंतर तपश्चर्या के बाद एक दिन यह समझ में आया कि ये छह साल मैंने यूं ही गंवाए--अपने को सताने में, परेशान करने में। यह तो हिंसा है, आत्महिंसा। उसी क्षण उन्होंने उस आत्महिंसा का त्याग कर दिया।
स्वभावतः, जो पांच शिष्य उसी आत्महिंसा से प्रभावित होकर उनके साथ थे, उन्होंने कहा: यह गौतम भ्रष्ट हो गया। अब इसके साथ क्या रहना! अब यह हमारा गुरु न रहा। अब हम कोई और गुरु खोजेंगे। इसने तपश्चर्या छोड़ दी।
और क्या कोई पाप किया था?
इतनी सी बात थी जिससे पांचों शिष्य छोड़ कर चले गए--कि बुद्ध ने उस दिन एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठे हुए...किसी स्त्री ने गांव की मनौती मनाई होगी कि मैं अगर मां बन जाऊंगी तो पीपल के देवता को थाली भर कर खीर चढ़ाऊंगी। वह गर्भिणी हो गई थी। वह सुजाता नाम की स्त्री सुस्वादु खीर बना कर पीपल के वृक्ष को चढ़ाने आई थी।
पूरे चांद की रात, पीपल का वृक्ष, उसके नीचे बुद्ध विराजमान, उसने तो यही समझा कि पीपल के देवता स्वयं प्रकट होकर मेरी खीर स्वीकार कर रहे हैं। और कोई दिन होता तो बुद्ध ने इनकार कर दिया होता। क्योंकि एक तो रात थी, रात्रि-भोजन वर्जित; फिर वे केवल उन दिनों एक ही बार भोजन करते थे दोपहर में, सो दुबारा भोजन का सवाल ही न उठता था। मगर उसी सांझ उन्होंने सारी तपश्चर्या को आत्महिंसा समझ कर त्याग कर दिया था। तो उस स्त्री ने जब भेंट की उनको खीर, तो उन्होंने स्वीकार कर ली। खीर को स्वीकार करते देख कर पांचों शिष्य उठ कर चले गए। गौतम भ्रष्ट हो गया! रात्रि-भोजन! अनजान, अपरिचित स्त्री के हाथ से बनी हुई खीर! पता नहीं ब्राह्मण है, शूद्र है, कौन है, क्या है! रात्रि का समय! एक बार भोजन का नियम तोड़ दिया। छोड़ कर चले गए।
फिर बुद्ध को उसी रात ज्ञान भी हुआ। उसी रात की पूर्णता पर सुबह होते जब रात का अंतिम तारा डूबता था और सूरज ऊगने-ऊगने को था, तभी भीतर बुद्ध के भी सूरज ऊगा। रात का आखिरी तारा डूबा, अंधेरा गया, रोशनी हुई। फिर उन्हें याद आया कि वे मेरे पांचों शिष्य तो मुझे छोड़ कर चले गए, लेकिन मैंने जो जाना है अब, मेरा कर्तव्य है कि सबसे पहले उन पांचों को जाकर कहूं, बांटूं। बहुत वर्षों तक मेरे पीछे रहे। अभागे! जब घटना घटने को थी, तब छोड़ कर चले गए!
तो बुद्ध उनकी तलाश में निकले। उनको बामुश्किल पकड़ पाए। वे काफी दूर निकल गए थे। वे नये गुरु की तलाश में आगे बढ़ते चले गए। जिस गांव बुद्ध पहुंचते, पता चलता कि कल ही उन्होंने गांव छोड़ दिया। बस ऐसे बुद्ध उनको खोजते-खोजते सारनाथ में पकड़े। इसलिए सारनाथ में बुद्ध का पहला प्रवचन हुआ, पहला धर्मचक्र-प्रवर्तन हुआ।
जब उन्होंने बुद्ध को आते देखा तो वे पांचों एक वृक्ष की छाया में विश्राम कर रहे थे। उन पांचों ने देखा कि यह भ्रष्ट गौतम आ रहा है। हम इसकी तरफ पीठ कर लें। यह सम्मान के योग्य नहीं है। यह जब आएगा तो हम उठ कर खड़े नहीं होंगे, नमस्कार भी नहीं करेंगे। इसको खुद बैठना हो तो बैठ जाए, हम यह भी न कहेंगे कि बैठिए, विराजिए। हम इसे भलीभांति यह बात प्रदर्शित कर देंगे कि अब हम तुम्हारे शिष्य नहीं हैं, तुम भ्रष्ट हो चुके हो, हम तुम्हारा परित्याग कर चुके हैं।
लेकिन जैसे-जैसे बुद्ध पास आए, एक बड़ी अपूर्व घटना घटी। वे पांचों जो पीठ करके बैठे थे, कब किस अपूर्व क्षण में, किस अनजाने कारण से मुड़ गए और बुद्ध की तरफ देखने लगे! पांचों! और जब बुद्ध पास आए तो उठ कर खड़े हो गए। और जब बुद्ध और पास आए तो झुक कर उनके चरणों में प्रणाम किया। और कहा: विराजिए।
बुद्ध हंसे और बुद्ध ने कहा: लेकिन तुमने तय किया था कि पीठ मेरी तरफ रखोगे। और तुमने तय किया था कि नमस्कार न करोगे, पैर छूने की तो बात ही दूर थी। और तुमने तय किया था कि यह भ्रष्ट गौतम आ रहा है तो हम बैठने को भी न कहेंगे। और तुम अब शय्या बिछाते हो, बैठने का आसन लगाते हो! बात क्या है?
तो उन पांचों ने कहा: विवश! इसके पहले हम जब तुम्हारे साथ थे तो हम तुममें विश्वास करते थे, आज श्रद्धा का जन्म हुआ है। वह विश्वास था। विश्वास टूट भी सकता है, क्योंकि ऊपरी होता है। आज श्रद्धा का अपने आप आविर्भाव हुआ है। हमने कुछ किया नहीं, अपने आप हम मुड़ गए तुम्हारी तरफ। जैसे कोई चुंबक की तरफ खिंच जाए। अपने आप हम उठ कर खड़े हो गए, अपने आप हम झुक गए, अपने आप तुम्हारे चरणों से सिर लग गया।
संत प्रमाण हैं। जब तुम्हें कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाए जिसके पास अपने आप सिर झुक जाए, तो फिर समझ लेना कि वह मंदिर आ गया, वह द्वार आ गया, वह देहली आ गई--जहां से अब सिर उठाने की जरूरत नहीं है। जब किसी व्यक्ति को देख कर तुम्हें भरोसा आ जाए कि परमात्मा होना ही चाहिए, तो जानना कि सदगुरु से मिलन हो गया। फिर छोड़ना मत संग-साथ, फिर छाया बन जाना उसकी, क्योंकि इसी तरह लोग पहुंचे हैं। और किसी तरह न कोई कभी पहुंचा है, और न कभी कोई पहुंच सकता है।
वेदमूर्ति! तृप्ति है, आश्वासन है, क्योंकि संतों में प्रमाण है।
रहो निश्चिंत जब तक मैं खड़ा हूं तिमिर के तट पर
कभी भी रोशनी को खुदकुशी करने नहीं दूंगा।
खड़ा पुरुषार्थ पहरे पर
किरण स्वच्छंद डोलेगी
जहां भी ज्योति बंदी है
वहां के द्वार खोलेगी
उजालों को अंधेरे से
खरीदा जा नहीं सकता
प्रभा के पक्ष में रजनी
सुबह के साथ बोलेगी
मनुज स्थापित करो अब मंदिरों में शुभ मुहूरत है
कभी तूफान को मैं आरती वरने नहीं दूंगा
पसीने और लोहू से
मिला कर जो बनाई है
नये इतिहासकारों की
अमिट यह रोशनाई है
लिखा प्रारब्ध जाना है
हमारा ही स्वयं हमसे
सदी के सत्य को लिखने
कलम हमने उठाई है
सजग हूं सभ्यता के शत्रु से, विध्वंस को झूठा
कभी इतिहास पर आरोप मैं धरने नहीं दूंगा
नया इन्सान लिखता है
सृजन के श्लोक सुरभीले
मशीनी संस्कृतियों के
नहीं होंगे नयन गीले
ग्रहों पर शीघ्र बसने का
इरादा आदमी का है
सही अर्थों मगर जीवन
धरा पर हम प्रथम जी लें
तुम्हें आश्वस्त करता हूं पदार्थों के छली युग को
कभी भी आस्था का शील मैं हरने नहीं दूंगा
रहो निश्चिंत जब तक मैं खड़ा हूं तिमिर के तट पर
कभी भी रोशनी को खुदकुशी करने नहीं दूंगा
संत की उपस्थिति पर्याप्त है। जिनके पास देखने को आंखें हैं, और सुनने को कान हैं, और अनुभव करने को हृदय है--उनके लिए संत की उपस्थिति पर्याप्त है कि परमात्मा है।
इसलिए आश्वासन है, इसलिए महातृप्ति है, इसलिए रस है। क्योंकि संत सिर्फ केवल प्रतिनिधि है, संदेशवाहक है परमात्मा का, उस परम सत्य का--जिसके बिना हम व्यर्थ हैं, और जिसे पाकर ही सब कुछ पा लिया जाता है!
आज इतना ही।