DARIYADAS
AMI JHARAT BIGSAT KANWAL 03
Third Discourse from the series of 14 discourses - AMI JHARAT BIGSAT KANWAL by Osho. These discourses were given during MAR 11 -24 1979.
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दरिया हरि किरपा करी, बिरहा दिया पठाए।
यह बिरहा मेरे साध को, सोता लिया जगाए।।
दरिया बिरही साध का, तन पीला मन सूख।
रैन न आवै नींदड़ी, दिवस न लागै भूख।।
बिरहिन पिउ के कारने, ढूंढ़न बनखंड जाए।
निस बीती, पिउ ना मिला, दरद रही लिपटाए।।
बिरहिन का घर बिरह में, ता घट लोहु न मांस।
अपने साहब कारने, सिसकै सांसों सांस।।
दरिया बान गुरुदेव का, कोई झेलै सूर सुधीर।
लागत ही ब्यापै सही, रोम-रोम में पीर।।
साध सूर का एक अंग, मना न भावै झूठ।
साध न छांड़ै राम को, रन में फिरै न पूठ।।
दरिया सांचा सूरमा, अरिदल घालै चूर।
राज थापिया राम का, नगर बसा भरपूर।।
रसना सेती ऊतरा, हिरदे किया बास।
दरिया बरखा प्रेम की, षट ऋतु बारह मास।।
दरिया हिरदे राम से, जो कभु लागै मन।
लहरें उट्ठें प्रेम की, ज्यों सावन बरखा घन।।
जन दरिया हिरदा बिचे, हुआ ग्यान परगास।
हौद भरा जहं प्रेम का, तहं लेत हिलोरा दास।।
अमी झरत, बिगसत कंवल, उपजत अनुभव ग्यान।
जन दरिया उस देस का, भिन-भिन करत बखान।।
कंचन का गिर देख कर, लोभी भया उदास।
जन दरिया थाके बनिज, पूरी मन की आस।।
मीठे राचैं लोग सब, मीठे उपजै रोग।
निरगुन कडुवा नीम सा, दरिया दुर्लभ जोग।।
अमी झरत, बिगसत कंवल!
अमृत की वर्षा होती है और कमल खिल रहे हैं!
दरिया किस लोक की बात कर रहे हैं? यहां न तो अमृत झरता है और न कमल खिलते हैं। यहां तो जीवन जहर ही जहर है। कमल तो दूर, कांटे भी नहीं खिलते--या कि कांटे ही खिलते हैं। क्या दरिया किसी और लोक की बात कर रहे हैं?
नहीं, किसी और लोक की नहीं। बात तो यहीं की है, लेकिन किसी और आयाम की है।
दस दिशाएं तो तुमने सुनी हैं; एक और भी दिशा है--ग्यारहवीं दिशा। दस दिशाएं बाहर हैं, ग्यारहवीं दिशा भीतर है। एक आकाश तो तुमने देखा है। एक और आकाश है--अनदेखा। जो देखा, वह बाहर है। जो अभी देखने को है, भीतर है। उस ग्यारहवीं दिशा में, उस अंतर-आकाश में अमृत झर रहा है, अभी झर रहा है; कमल खिल रहे हैं, अभी खिल रहे हैं! लेकिन तुम हो कि उस तरफ पीठ किए बैठे हो। तुम्हारी आंखें दूर अटकी हैं और तुम पास के प्रति अंधे हो गए हो। बाहर जो है, वह तो आकर्षित कर रहा है; और जिसके तुम मालिक हो, जो तुम हो, जो सदा से तुम्हारा है और सदा तुम्हारा रहेगा, उसके प्रति बिलकुल उपेक्षा कर ली है।
शायद इसीलिए कि जो मिला ही है, जो अपना ही है, उसे भूल जाने की वृत्ति होती है। जो हमारे पास नहीं है, जिसका अभाव है, उसे पाने की आकांक्षा जगती है। जो है, जिसका भाव है, उसे धीरे-धीरे हम विस्मृत कर देते हैं। उसकी याद ही नहीं आती। जैसे दांत टूट जाए न तुम्हारा कोई, तो जीभ वहीं-वहीं जाती है। कल तक दांत था और जीभ कभी वहां न गई थी। मन के भी रास्ते बड़े बेबूझ हैं। जो नहीं है, उसमें मन की बड़ी उत्सुकता है। अब दांत टूट गया, जीभ वहीं-वहीं जाती है। दांत था तो कभी न गई थी। जो है, मन की उसमें उत्सुकता ही नहीं। क्यों? क्योंकि मन जी ही सकता है, अगर उसमें उत्सुकता रहे जो नहीं है। तो दौड़ होगी, तो पाने की चेष्टा होगी, वासना होगी, इच्छा होगी, कामना होगी। जो नहीं है, उसके सहारे ही मन जीता है। जो है, उसको तो देखते ही मन की मृत्यु हो जाती है।
दरिया आकाश में बसे किसी दूर स्वर्ग की बात नहीं कर रहे हैं; तुम्हारे भीतर पास से भी जो पास है, जिसे पास कहना भी उचित नहीं...क्योंकि पास कहने में भी तो थोड़ी दूरी मालूम पड़ती है; जो तुम्हारी श्वासों की श्वास है; जो तुम्हारे हृदय की धड़कन है; जो तुम्हारा जीवन है; जो तुम्हारा केंद्र है--वहां अभी इसी क्षण अमृत बरस रहा है और कमल खिल रहे हैं! और कमल ऐसे कि जो कभी मुरझाते नहीं--चैतन्य के कमल! योगियों ने जिसे सहस्रार कहा है--हजार पंखुड़ियों वाले कमल! जिनकी सुगंध का नाम स्वर्ग है। जिन पर नजर पड़ गई तो मोक्ष मिल गया। आंखों में जिनका रूप समा गया तो निर्वाण हो गया।
इस बात को सबसे पहले स्मरण रख लेना कि संत दूर की बात नहीं करते। संत तो जो निकट से भी निकट है, उसकी बात करते हैं। संत उसकी बात नहीं करते हैं जो पाना है; संत उसकी बात करते हैं जो पाया ही हुआ है। संत स्वभाव की बात करते हैं।
उड़ चला इस सांध्य-नभ में,
मन-विहग तज निज बसेरा;
क्यों चला? किस दिशि चला?
किसने उसे यों आज टेरा?
क्यों हुए सहसा स्फुरित, अति
शिथिल, संश्लथ पंख उसके?
क्या हुए हैं उदित नभ में,
चंद्रमा अकलंक उसके?
विकल आतुर सा उड़ा है
मन-विहंगम आज मेरा?
शून्य का आतुर निमंत्रण,
आज उसको मिल गया है;
क्षितिज की विस्तीर्णता का,
पवन-अंचल हिल गया है;
प्राण पंछी ने गगन में
ललक कौतूहल बिखेरा।
स्वनित उड्डीयन ध्वनित-गति--
जनित अनहद नाद से यह
दिग्दिगंताकाश वक्षस्थल,
रहा है गूंज अहरह;
ऊर्ध्व गति ने ध्यान-मग्ना--
गीत-यति को आन घेरा!
उड़ चला इस सांध्य-नभ में,
मन-विहग तज निज बसेरा।
पुकार सुनाई पड़ जाए एक बार तुम्हें उसकी जो तुम्हारे भीतर है, तो तुम उड़ चलो, तो तुम पंख फैला दो। तुम्हें एक बार कोई याद दिला दे उसकी जो तुम्हारी संपदा है, तुम्हारा साम्राज्य है, तुम्हें कोई एक झलक दिखा दे उसकी, जरा सा झरोखा खुल जाए और एक बार तुम देख लो अपने भीतर के सूरज को उगते हुए--फिर तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित हो जाएगी। फिर तुम बाहर के कूड़ा-कर्कट के पीछे दौड़ोगे नहीं। और न ही इकट्ठे करते रहोगे ठीकरे। जिसे अमृत मिल जाए, मरणधर्मा में उसकी उत्सुकता अपने आप समाप्त हो जाती है। जिसे भीतर की मालकियत मिल जाए उसे सारी दुनिया का चक्रवर्ती सम्राट होना भी फीका हो जाता है। पर पुकार सुननी है। और पुकार भी आ रही है, मगर तुम हो कि वज्रबधिर बने बैठे हो।
दरिया कहते हैं:
दरिया हरि किरपा करी, बिरहा दिया पठाए।
यह बिरहा मेरे साध को, सोता लिया जगाए।।
प्रभु ने कृपा की है, दरिया कहते हैं, कि मेरे भीतर बैठी हुई आग को उकसा दिया, कि मेरे अंगारे पर से राख झाड़ दी, कि मेरे भीतर विरह की अग्नि जगा दी, कि मेरे भीतर प्यास को उकसा दिया।
क्या तुम सोचते हो कि हरि किसी पर कृपा करता है और किसी पर नहीं करता? क्या तुम सोचते हो कि भगवत्-कृपा किसी को मिलती है और किसी को नहीं मिलती?
भगवत्-कृपा तो बेशर्त सब पर बरसती है। उस तरफ से तो कोई भेद-भाव नहीं है; लेकिन कोई उसे स्वीकार कर लेता है और कोई उसे इनकार कर देता है।
वर्षा तो होती है पहाड़ों पर भी और झीलों में भी, लेकिन झीलें भर जाती हैं और पहाड़ खाली के खाली रह जाते हैं। वर्षा तो होती है पत्थरों पर भी और जमीन पर भी, लेकिन जमीन में बीज फूट जाते हैं, हरियाली आ जाती है; पत्थर वैसे के वैसे, रूखे के रूखे रह जाते हैं। पहाड़ पर वर्षा होती है, पहाड़ चूक जाते हैं, क्योंकि पहाड़ खुद अपने से भरे हैं; उनकी बड़ी अस्मिता है, बड़ा अहंकार है। झीलें भर जाती हैं, क्योंकि झीलें खाली हैं, शून्य हैं, उनके द्वार खुले हैं। झीलों ने स्वागत करने की कला सीखी, बंदनवार बांधे--आओ! बादल तो बरसते हैं बेशर्त, लेकिन कहीं फूल खिल जाते हैं, कहीं पत्थर ही पड़े रह जाते हैं।
ऐसे ही परमात्मा की कृपा भी अलग-अलग नहीं है। मुझ पर भी उतनी ही बरसती है जितनी तुम पर। दरिया पर भी उतनी ही बरसी है जितनी किसी और पर। लेकिन दरिया ने द्वार खोले हृदय के, अंगीकार किया। दरिया ने इनकारा नहीं।
इस अंगीकार करने का नाम ही आस्था है। इस स्वागत का नाम ही श्रद्धा है। अपने भीतर द्वार पर दस्तक देते सूरज को बुला लेने का नाम ही भक्ति है। और भगवान प्रतिपल द्वार पर दस्तक दे रहा है।
दरिया हरि किरपा करी, बिरहा दिया पठाए।
भेज दी विरह की खबर, पुकार दे दी। कहना चाहिए--पुकार सुन ली! लेकिन भक्त तो ऐसा ही कहेगा--उस कहने में भी राज है--कि परमात्मा ने कृपा की। क्योंकि भक्त की यह मान्यता है--और मान्यता ही नहीं, यह जीवन का परम सत्य भी है--कि हमारे किए कुछ भी नहीं होता; जो होता है, उसके किए होता है। हम तो अगर इतना ही करने में सफल हो जाएं कि बाधा न दें, तो बस बहुत। वर्षा तो उसकी तरफ से होती है; हम अपने पात्र को उलटा न रखें, इतना ही बहुत। हम अपने पात्र को सीधा रख लें, वर्षा तो उसकी ही तरफ से होती है। पात्र के सीधे होने से वर्षा नहीं होती; वर्षा तो हो ही रही थी, लेकिन पात्र सीधा हो तो भर जाता है, तो भरपूर हो जाता है।
भक्त का अनुभव है कि मनुष्य के प्रयास से नहीं मिलता परमात्मा--प्रसाद से मिलता है; उसकी ही अनुकंपा से मिलता है। हमारे प्रयास भी तो छोटे-छोटे हैं--हमारे हाथ ही इतने छोटे हैं! हम चांद-तारों को नहीं छू पाएंगे, तो हम परमात्मा को कैसे छू पाएंगे? हमारी मुट्ठी में समाएगा क्या? विराट पर हम मुट्ठी कैसे बांधेंगे? और हमारे इस छोटे से हृदय में हम इस अनंत आकाश को कैसे आमंत्रित करेंगे? नहीं, उसकी कृपा होगी तो ही यह चमत्कार घटित होगा। उसकी कृपा होगी तो बूंद में सागर भी समा जाएगा।
दरिया हरि किरपा करी, बिरहा दिया पठाए।
कहते हैं: तुमने ही पुकारा होगा, इसलिए मैं तुम्हें खोजने निकल पड़ा।
यह भक्तों का सदियों-सदियों का अनुभव है। तुम थोड़े ही परमात्मा को खोजते हो; परमात्मा तुम्हें खोजता है। परमात्मा तुम्हें टटोल रहा है। परमात्मा अलग-अलग विधियों से तुम्हारी तरफ निमंत्रण भेज रहा है, प्रेम-पातियां लिख रहा है। लेकिन तुम न प्रेम-पातियां पढ़ते हो...तुम भाषा ही भूल गए जिससे उसकी प्रेम-पाती पढ़ी जा सके। उस प्रेम की पाती को पढ़ने की भाषा भी तो प्रेम है! तुम प्रेम ही भूल गए! वह द्वार पर दस्तक देता है, तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता, क्योंकि उसकी दस्तक शोरगुल नहीं है, शून्य है। वह तुम्हारे हृदय को छूता है, लेकिन तुम्हारी समझ में नहीं आता, क्योंकि उसका छूना स्थूल नहीं है, सूक्ष्म है। वह बवंडर की तरह नहीं आता, शोरगुल मचाता नहीं आता--कानों में फुसफुसाता है, गुफ्तगू करता है। और तुम्हारे सिर में इतना शोरगुल है कि कैसे तुम्हें उसकी गुफ्तगू सुनाई पड़े? तुम्हारे भीतर बाजार भरा है, मेला लगा है। तुम्हारा मन क्या है--कुंभ का मेला है! शोरगुल और उपद्रव है। भीड़-भाड़ है। वहां उसकी धीमी सी आवाज कहां खो जाएगी, पता भी नहीं चलेगा।
लेकिन जिस दिन भी तुम्हें समझ में आएगी बात, उस दिन तुम्हें यह भी खयाल में आएगा: वह तो सदियों से खोज रहा था, हमने ही अनसुना किया। अभागे हम। दुर्भाग्य हमारा। वह तो कब से आने को आतुर था। हमने उसे बुलाया ही नहीं। वह तो कब से द्वार पर खड़ा था, हमने द्वार ही न खोले।
फिर खराद पर मुझे चढ़ा
कुशल समय के कारीगर
जुड़ा सका हूं दुर्गुण केवल
जो भी गुण हैं, गौण बहुत
मैं न सरल सीधी रेखा सा
बाकी मुझमें कोण बहुत
मैं त्रुटियों का त्रिभुज, मुझे
सीधा-सादा आयत कर
मैं विकृत बेडौल खुरदरा
निश्चित कुछ आकार नहीं
मैं वह धातु कि जिस पर
शिल्पी का रचना संस्कार नहीं
आकृति दे अभिरूपकार
मूर्ति बने अनगढ़ पत्थर
बाहर उजले देवपीठ पर
भीतर-भीतर तहखाने
आदि पुरुष सोया है जिसमें
कुंठाएं रख सिरहाने
मन की गुह्य गुहाओं में
कोई नन्हा दीपक धर
उससे ही कहना होगा--
मन की गुह्य गुहाओं में
कोई नन्हा दीपक धर
फिर खराद पर मुझे चढ़ा
कुशल समय के कारीगर
आकृति दे अभिरूपकार
मूर्ति बने अनगढ़ पत्थर
हम तो अनगढ़ पत्थर हैं। छैनी चाहिए, हथौड़ी चाहिए, कोई कुशल कारीगर चाहिए--कि गढ़े!
और कारीगर भी है। मगर हम टूटने को राजी नहीं हैं। जरा सा हमसे छीना जाए तो हम और जोर से पकड़ लेते हैं। छैनी देख कर तो हम भाग जाते हैं। हथौड़ी से तो हम बचते हैं। हम तो चाहते हैं सांत्वनाएं, सत्य नहीं।
दरिया कहते हैं: मीठे राचैं लोग सब!
मीठा-मीठा तो सभी को रुचता है। मीठा यानी सांत्वना। अच्छी-अच्छी बातें तुम्हारे अहंकार को आभूषण दें, तुम्हें सुंदर परिधान दें, तुम्हारी कुरूपता को ढांकें, तुम्हारे घावों पर फूल रख दें।
मीठे राचैं लोग सब, मीठे उपजै रोग।
लेकिन इसी सांत्वना, इसी मिठास की खोज से तुम्हारे भीतर सारे रोग पैदा हो रहे हैं।
निरगुन कडुवा नीम सा, दरिया दुर्लभ जोग।
और जो उस निर्गुण को पाना चाहते हैं, उन्हें तो नीम पीने की तैयारी करनी होगी।
निरगुन कडुवा नीम सा, दरिया दुर्लभ जोग।
और इसीलिए तो बहुत कठिन है योग, बहुत कठिन है संयोग, क्योंकि परमात्मा जब आएगा तो पहले तो कड़वा ही मालूम पड़ेगा। लेकिन वही नीम की कड़वाहट तुम्हारे भीतर की सारी अशुद्धियों को बहा ले जाएगी, तुम्हें निर्मल करेगी, निर्दोष करेगी। सदगुरु जब मिलेगा तो खड्ग की धार की तरह मालूम होगा। उसकी तलवार तुम्हारी गर्दन पर पड़ेगी। कबीर कहते हैं--
कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।
जो घर बारै आपना, चले हमारे साथ।।
हिम्मत होनी चाहिए घर को जला देने की। कौन सा घर? वह जो तुमने मन का घर बना लिया है--वासनाओं का, आकांक्षाओं का, अभीप्साओं का। वह जो तुमने कामनाओं के बड़े गहरे सपने बना रखे हैं, सपनों के महल सजा रखे हैं। जो उन सबको जला देने को राजी हो, उसे आज और अभी और यहीं परमात्मा की आवाज सुनाई पड़ सकती है। उसके भीतर की राख झड़ सकती है और अंगारा निखर सकता है।
दरिया हरि किरपा करी, बिरहा दिया पठाए।
कि तुम्हारी बड़ी कृपा है प्रभु, कि मेरे भीतर विरह को जगा दिया। विरह के लिए बहुत कम लोग धन्यवाद देते हैं। मिलन के लिए तो कोई भी धन्यवाद दे देगा। मिलन तो मीठा-मीठा, विरह तो बहुत कड़वा। नीम सा कड़वा! नीम भी क्या होगी कड़वी इतनी। क्योंकि विरह तो आग है। वहां सांत्वना कहां! वहां तो जलन ही जलन है। लेकिन सोना आग से गुजर कर ही शुद्ध होता है। और विरह की यात्रा में निखर कर ही कोई मिलन के योग्य होता है, पात्र बनता है।
यह बिरहा मेरे साध को, सोता लिया जगाए।
दरिया कहते हैं: मुझे पता ही न था कि मेरे भीतर ऐसा परम साधु सोया हुआ है, कि मेरे भीतर ऐसे परम सत्य का आवास है, कि मेरे भीतर ऐसा निर्दोष, ऐसा कुंवारा स्वभाव है--जिस पर कोई मलिनता कभी नहीं पड़ी; जिस पर कोई कालिख नहीं है; जिस पर कोई दाग नहीं है। न पुण्य का दाग, न पाप का दाग; न शुभ का, न अशुभ का। जो सब तरफ से अस्पर्शित है! मेरे उस साधु को तुमने जगा दिया! एक जरा सी पुकार देकर! विरह को उकसा कर मेरे भीतर के परम कुंवारेपन को मुझे फिर से भेंट दे दिया! दिया ही हुआ था, मगर मैं अंधा कि कभी लौट कर न देखा; मैं बहरा कि कभी सुना नहीं; मैं मूढ़ कि कभी अपने भीतर न टटोला। संसार में टटोलता फिरा, दूर-दूर चांद-तारों में, नक्षत्रों में टटोलता फिरा, जन्मों-जन्मों में, योनियों-योनियों में, न मालूम कितनी देहों में, न मालूम कितने रूपों में तलाशा--और एक जगह भर तुझे खोजा नहीं: अपने भीतर कभी आंख को न ले गया, कभी अंतर्दृष्टि न की।
यह बिरहा मेरे साध को, सोता लिया जगाए।
तूने बड़ी कृपा की कि यह आग मुझ पर बरसा दी।
विरह आग है, ध्यान रखना। जिस पर बरसती है, उसका रोआं-रोआं रोता है। जिस पर बरसती है, उसके खून से आंसू बनने लगते हैं।
दरिया बिरही साध का, तन पीला मन सूख।
दरिया कहते हैं: तन सूख गया, मन सूख गया।
रैन न आवै नींदड़ी, दिवस न लागै भूख।
अब रात नींद नहीं आती, दिन भूख नहीं लगती। बस एक तेरी याद है कि सताए जाती है। बस एक तेरी याद है कि तीर की तरह चुभी जाती है--और गहरे, और गहरे, और गहरे!
टूट मत मेरे हृदय
मुख न हो मेरे मलिन
और थोड़े दिन
विरही को बड़ी धैर्य की कला सीखनी पड़ती है, क्योंकि आग ऐसा जलाती है कि भरोसा नहीं आता कि इस आग के पार कभी कमल भी खिलेंगे। कहीं आग में और कमल खिले हैं! तन सूखने लगता है, मन सूखने लगता है--कैसे भरोसा आए कि अमृत की वर्षा होगी! जो हाथ में है वह भी जाता मालूम होता है।
टूट मत मेरे हृदय
मुख न हो मेरे मलिन
और थोड़े दिन
रात का है प्रात निश्चित
अस्त का है उदय
एक जैसा ही किसी का
कब रहा है समय
रह न पाए दिन सरल
क्या रहेंगे ये कठिन
और थोड़े दिन
ढले कंधे, झुकी ग्रीवा
और खाली हाथ
किंतु चौखट पर दुखों की
टेकना मत माथ
आह अधरों पर न हो
मत पलक पर ला तुहिन
और थोड़े दिन
प्रण न हो मेरे पराजित
हार मत विश्वास
कुछ दिनों का और संकट
कुछ दिनों संत्रास
किश्त अंतिम स्वेद की
तू चुका कर हो उऋण
और थोड़े दिन
सृजन से थक कर न रचना
तोड़ना संकल्प
शेष तेरे अभावों की
आयु है अब अल्प
चौकड़ी मत भूलना
कल्पनाओं के हरिण
और थोड़े दिन
आग भयंकर है विरह की। थोड़े से ही हिम्मतवर लोग गुजर पाते हैं, अन्यथा लौट जाते हैं। धैर्य चाहिए, प्रतीक्षा चाहिए। प्रतीक्षा ही प्रार्थना का मूल है, उदगम है। और जो प्रतीक्षा नहीं कर सकता, वह प्रार्थना भी नहीं कर सकता।
सम्हालना होगा अपने को। और थोड़े दिन बांधना होगा अपने को कि लौट न पड़े, कि भाग न जाए, कि पीठ न दिखा दे।
बिरहिन पिउ के कारने, ढूंढ़न बनखंड जाए।
निस बीती, पिउ ना मिला, दरद रही लिपटाए।।
बड़ी बुरी दशा हो जाती है विरही की। खोजता फिरता है जंगल-जंगल।
निस बीती, पिउ ना मिला...
और रात बीत चली और प्यारा मिला नहीं। फिर कोई और उपाय न देख कर दर्द से ही लिपट कर सो जाती है।
...दरद रही लिपटाए।
विरही के पास और है भी क्या? परमात्मा पता नहीं कब मिलेगा! जगा गया एक अभीप्सा को। अब अभीप्सा ही है जिसको छाती से लगा कर भक्त जीता है। यही उसकी परीक्षा है। इस परीक्षा से जो नहीं उतरता, वह कभी उस दूसरे किनारे तक न पहुंचा है, न पहुंच सकता है।
भक्त बहुत भावों से गुजरता है। स्वभावतः कई बार लगता है--यह कैसा दुर्दिन आ गया! यह मैं किस झंझट में पड़ गया! सब ठीक-ठाक चलता था, यह किन आंसुओं से जीवन घिर गया! सब भला-चंगा था, यह किस रुदन ने पकड़ लिया कि रुकता ही नहीं! हृदय है कि उंडला ही जाता है और रोआं-रोआं है कि कंप रहा है। और पता नहीं परमात्मा है भी या नहीं! पता नहीं मैं किसी कल्पना के जाल में तो नहीं उलझ गया हूं! सारी शंकाएं उठती हैं, कुशंकाएं उठती हैं। भक्त कभी नाराज भी हो जाता है परमात्मा पर--कि यह भी दिया तो क्या दिया! मांगे थे फूल, कांटे दिए! मांगी थी सुबह, सांझ दी! मांगा था अमृत, जहर दे दिया!
तुम चाहे दानी बन जाओ, मुझे अयाचक ही रहने दो
प्रिय है मेरा मान मुझे तो
प्यासा मरा, न मांगा पानी
तन से राजकुमारी होकर
संन्यासिन बन गई जवानी
स्वाति बनो तुम चाहे, मुझको प्यासा चातक ही रहने दो
जब भी करे निवेदन तृष्णा
अधरों पर रख दो अंगारा
कत्ल करा दो स्वप्न तृप्ति के
निर्वासित कर मन बनजारा
तुम हिम बन जाओ, मुझको धुंधवाती पावक ही रहने दो
रूप-कुबेर कमी क्या तुमको
जी भर छवि के कोष लुटाओ
मेरा अलगोजा गरीब है
वीणा से फेरे न फिराओ
स्वर साम्राज्य सम्हालो, मुझको विस्मृत गायक ही रहने दो
बहुत बार मान उठ आता है, अभिमान उठ आता है। भक्त कहता है: छोड़ो भी मुझे! मुझे प्यासा ही रहने दो। नहीं चाहिए तुम्हारी स्वाति की बूंद।
तुम चाहे दानी बन जाओ, मुझे अयाचक ही रहने दो
मांगा कब था? मैंने तुम्हें पुकारा कब था? तुम्हीं ने पुकारा। तुम्हें दानी बनने का मजा है तो बन जाओ दानी, मगर मुझे तो भिखारी न बनाओ!
स्वाति बनो तुम चाहे, मुझको प्यासा चातक ही रहने दो
तुम्हें शौक चढ़ा है स्वाति बनने का, बनो! मगर मुझे क्यों सताते हो? मुझे प्यासा चातक ही रहने दो। मुझे तुम्हारी अभीप्सा नहीं है, मुझे तुम्हारी आकांक्षा नहीं है।
तुम हिम बन जाओ, मुझको धुंधवाती पावक ही रहने दो
मुझे छोड़ो भी! मेरा पीछा भी छोड़ो! मेरा आंचल पकड़े छाया की तरह दिन-रात मुझे सताओ मत!
स्वर साम्राज्य सम्हालो, मुझको विस्मृत गायक ही रहने दो
तुम स्वर सम्राट हो, भले! अपने घर तुम भले! मैं अपनी दीनता में भला।
मेरा अलगोजा गरीब है
वीणा से फेरे न फिराओ
मेरे अलगोजे को वीणा से फेरे फिराने के लिए मैंने प्रार्थना कब की थी? पुकारा तुम्हीं ने, अब जलाते क्यों हो? बहुत बार भक्त विरह की अग्नि में शंकाएं करता, कुशंकाएं करता, नाराज भी हो जाता, रूठ भी जाता, पीठ भी फेर लेता; मगर उपाय नहीं है। एक बार उसकी आवाज सुनाई पड़ी तो उससे बचने का कोई उपाय नहीं। जब तक नहीं सुनाई पड़ी है, नहीं सुनाई पड़ी है। एक बार सुनाई पड़ गई तो सारा जग फीका हो जाता है; फिर कुछ भी करो--शंका करो, मान करो, रूठो--सब व्यर्थ।
बिरहिन पिउ के कारने, ढूंढ़न बनखंड जाए।
निस बीती, पिउ ना मिला, दरद रही लिपटाए।।
और पीड़ा बड़ी सघन है भक्त की, विरही की। वृक्षों में फूल खिलते हैं--और भीतर फूलों का कोई पता नहीं, कांटे ही कांटे हैं! आकाश में बादल घिरते हैं, सावन आ जाता है--और भीतर मरुस्थल है, न वर्षा, न बादल, न सावन। बाहर सौंदर्य का इतना विस्तार--और भीतर सब रूखा-सूखा। तन भी सूख जाता, मन भी सूख जाता। भरोसा आए भी तो कैसे आए?
ये घटाएं जामुनी हैं, तुम नहीं हो
आह क्या कादंबिनी है, तुम नहीं हो
बूंद के घुंघरू बजा कर हंस रही है
ऋतु बड़ी अनुरागिनी है, तुम नहीं हो
बादलों की बाहुओं में श्लथ पड़ी है
समर्पित सौदामिनी है, तुम नहीं हो
भीग कर भी मैं सुलगता जा रहा हूं
बूंद पावक में सनी है, तुम नहीं हो
बिन तुम्हारे साध मेरी साध्वी सी
सांस हर संन्यासिनी है, तुम नहीं हो
गुदगुदी से अश्रु तक लाई मुझे यह
वेदना सतरंगिनी है, तुम नहीं हो
प्यार ही अपराध मुझ पर आजकल तो
उठ रही हर तर्जनी है, तुम नहीं हो
भीग कर भी मैं सुलगता जा रहा हूं
बूंद पावक में सनी है, तुम नहीं हो
सब सौंदर्य सारे जगत का, सारा काव्य, सारा संगीत एकदम व्यर्थ हो जाता है--उसकी पुकार सुनते ही! जैसे हीरा देख लिया हो तो अब कंकड़-पत्थरों में मन रमे तो कैसे रमे? और तुम लाख भुलाना चाहो कि हीरे को नहीं देखा है, तो भी कैसे भुलाओगे?
जीवन का एक शाश्वत नियम है: जो जान लिया, जान लिया; उसे अनजाना नहीं किया जा सकता। जो पहचान लिया, पहचान लिया; उससे फिर पहचान नहीं तोड़ी जा सकती। जिसका अनुभव हो गया, हो गया; अब तुम लाख उपाय करो तो उसे अनुभव के बाहर नहीं कर सकते।
बिरहिन का घर बिरह में, ता घट लोहु न मांस।
अपने साहब कारने, सिसकै सांसों सांस।।
दरिया कहते हैं: विरह ही घर बन जाता है, वही मंदिर बन जाता है।
बिरहिन का घर बिरह में...
उठो, बैठो, चलो, कहीं भी जाओ, विरह तुम्हें घेरे रहता है। एक अदृश्य वातावरण विरह का तुम्हें पकड़े रहता है। काम करो संसार के, मगर कहीं मन रमता नहीं। मिलो मित्रों से, प्रियजनों से, मगर उस परम प्यारे की याद पकड़े ही रहती है। कोई प्रियजन मन को अब उलझा नहीं पाता। कितना ही प्यारा संगीत सुनो, उसकी आवाज के सामने सब फीका हो गया है। और कितने ही सुंदर फूल देखो, अब तो जब तक उसका फूल न खिल जाए, तब तक कोई फूल फूल नहीं मालूम होगा।
बिरहिन का घर बिरह में, ता घट लोहु न मांस।
और ऐसी गहराइयों में विरह ले जाने लगता है, जहां न शरीर है, न शरीर की छाया पड़ती है।
अपने साहब कारने, सिसकै सांसों सांस।
बस वहां तो सिर्फ उस साहब की याद है और एक सिसकी है, जो किसी और को सुनाई भी शायद न पड़े। श्वास-श्वास में सिसकी भरी है। भक्त कहना भी चाहे तो शब्द काम नहीं पड़ते। भक्त गूंगा हो जाता है। बोलना चाहता है और नहीं बोल पाता। श्वास-श्वास में सिसकी होती है। सिसकी ही उसकी प्रार्थना है। आंखों से झरते आंसू ही उसकी अर्चना है।
महक रहा ऋतु का श्रृंगार
जैसे पहला-पहला प्यार!
जाग रही है गंध अकेली
सारा मधुवन सोता है!
किया नहीं जिसने क्या जाने
प्यार में क्या-क्या होता है!
रातें घुल जातीं आंखों में
दिन उड़ जाते पंख पसार!
बार-बार कोई पुकारता
रह-रह कर अमराई से!
अपना पता पूछता हूं मैं
अपनी ही परछाईं से!
कोई नहीं बोलता कुछ भी
मौन खड़े सारे घर-द्वार!
फूलों के रंगीन शहर में
खुशबू अब तक अनब्याही!
कोई कली किसी कांटे की
बांहों में है अनचाही!
मजबूरी ने जोड़े अनगिन
इच्छाओं के बंदनवार!
राहों-राहों आग बिछी है
झुलसी-झुलसी छायाएं!
हर चौराहा धुआं-धुआं है,
घर तक हम कैसे जाएं!
कब तक खाली जेब लिए मैं
देखूं भरा-भरा बाजार!
करूं शिकायत कहां दर्द की
हर दरबार यहां झूठा!
नये जमाने में कुछ भी हो
पर इन्सान बहुत टूटा!
बाहर-बाहर मुसकानें हैं
भीतर-भीतर हाहाकार!
मजबूरी ने जोड़े अनगिन
इच्छाओं के बंदनवार!
रातें घुल जातीं आंखों में
दिन उड़ जाते पंख पसार!
कोई नहीं बोलता कुछ भी
मौन खड़े सारे घर-द्वार!
महक रहा ऋतु का श्रृंगार
जैसे पहला-पहला प्यार!
चारों तरफ सब सुंदर है, सब प्रीतिकर है। और भीतर एक रिक्तता भर जाती है।
विरह का अर्थ क्या है? विरह का अर्थ है: भीतर मैं शून्य हूं। जहां परमात्मा होना चाहिए था वहां कोई भी नहीं है, सिंहासन खाली पड़ा है। विरह का अर्थ है: बाहर सब, भीतर कुछ भी नहीं। विरह का अर्थ है: यह भीतर का सूनापन काटता है, यह भीतर का सन्नाटा काटता है।
लेकिन इस विरह से गुजरना होता है। इस विरह से गुजरे बिना कोई भी सिंहासन के उस मालिक तक नहीं पहुंच पाता है। यह कीमत है जो चुकानी पड़ती है। शायद इसीलिए लोग, अधिक लोग ईश्वर में उत्सुक नहीं होते। इतनी कीमत कौन चुकाए? किस भरोसे चुकाए? शायद इसीलिए अधिक लोगों ने झूठे और औपचारिक धर्म खड़े कर लिए हैं। मंदिर गए, दो फूल चढ़ा आए, घंटा बजा दिया, दीया जला आए, निपट गए, बात खत्म हो गई। न भीतर का घंटा बजा, न भीतर का दीया जला, न भीतर की आरती सजी, बाहर का इंतजाम कर लिया है। तुम्हारी दुकान भी बाहर और तुम्हारा मंदिर भी बाहर। तो तुम्हारी दुकान और तुम्हारे मंदिर में बहुत फर्क नहीं हो सकता।
दुकान बाहर, मंदिर तो भीतर होना चाहिए। मंदिर तो भीतर का ही हो सकता है। लेकिन भीतर के मंदिर को चुनने में, भीतर के मंदिर को निर्मित करने में तुम्हें बुनियाद बन जाना पड़ेगा। तुम्हीं दबोगे, बुनियाद के पत्थर बनोगे, तो भीतर का मंदिर उठेगा। तुम मिटोगे तो परमात्मा की उपलब्धि हो सकती है।
विरह गलाता है, मिटाता है। विरह तुम्हें पोंछ जाता है। एक ऐसी घड़ी आती है जब तुम नहीं होते हो। और जिस घड़ी तुम नहीं हो, उसी घड़ी परमात्मा है।
मिलन घटित होता है कब? बड़ी बेबूझ शर्त है मिलन की। ऐसी बेबूझ शर्त है, ऐसी अतर्क्य शर्त है कि बहुत थोड़े से हिम्मतवर लोग पूरा कर पाते हैं। तुम भी परमात्मा से मिलना चाहोगे। लेकिन शर्त यह है कि जब तक तुम हो, तब तक मिलन न हो सकेगा। जब तक तुम हो, परमात्मा नहीं है, ऐसा गणित है। और जब तुम नहीं होओगे, तब परमात्मा है।
कौन इस शर्त को पूरा करे? कौन जुआरी इतना बड़ा दांव लगाए? किस गारंटी पर? क्या पक्का है कि मैं मिट जाऊंगा तो परमात्मा मिलेगा ही? सिवाय इसके कि दरिया जैसे मिटने वाले लोगों ने कहा है कि मिलता है। मगर कौन जाने दरिया सच कहते हों, सच न कहते हों! भ्रांति में पड़ गए हों! या कोई षड्यंत्र हो पीछे इन सारी बातों के, कोई बड़ा जाल हो लोगों को उलझाए रखने का! कैसे भरोसा आए?
एक ही उपाय है कि किसी ऐसे व्यक्ति से मिलना हो जाए जो मिट गया है--और मिट कर हो गया है, मिट कर पूर्ण हो गया है! जिसने शून्य को जाना है और शून्य में उतरते हुए पूर्ण को पहचाना है। जिसके भीतर मैं तो नहीं बचा और अब तू ही विराजमान हो गया है। जिसके भीतर भगवत्ता बोलती है, ऐसे किसी व्यक्ति से जीवंत मिलन हो जाए, उसके चरणों में बैठने का सौभाग्य मिल जाए, उसके सन्नाटे को समझने का अवसर मिल जाए, उसकी आंखों में आंखें डालने की शुभ घड़ी आ जाए, ऐसा कोई मुहूर्त बने--तो कुछ बात हो, तो भरोसा आए, तो श्रद्धा जगे।
सत्संग के बिना श्रद्धा नहीं जगती है। और सदगुरु के बिना यह भरोसा आ ही नहीं सकता कि तुम इतनी हिम्मत जुटा सको कि अपने को मिटाऊं और परमात्मा को पाऊं।
दरिया बान गुरुदेव का, कोई झेलै सूर सुधीर।
लागत ही ब्यापै सही, रोम-रोम में पीर।।
इसलिए दरिया कहते हैं: यह बात समझ में न आएगी, यह विरह की हिम्मत तुम न जुटा पाओगे। यह तो तभी जुटा पाओगे जब--
दरिया बान गुरुदेव का...
जब किसी सदगुरु का बाण तुम्हारे हृदय में लग जाएगा।
...कोई झेलै सूर सुधीर।
दो शब्द प्रयोग किए हैं--सूर और सुधीर। सूर भी हैं लोग, हिम्मतवर भी लोग हैं, बहादुर भी लोग हैं; मगर उतने से काफी नहीं है। मरने-मारने को तैयार हैं, मगर सूझ-बूझ बिलकुल नहीं है। साहसी हैं, मगर समझ नहीं है। तो भी नहीं होगा। और ऐसा भी है कि बहुत लोग हैं जो बड़े समझदार हैं, मगर साहसी नहीं हैं। तो उनकी समझ के कारण वे और भी कायर हो जाते हैं। उनकी समझदारी के कारण वे एक कदम भी अज्ञात में नहीं उठा पाते। उनकी समझदारी उनको और जकड़ देती है किनारे से। नाव ही नहीं खोल पाते हैं सागर में। इतना विराट सागर! ऐसी उत्तंग लहरें! ऐसी छोटी सी नाव! कोई समझदार खोलेगा? न नक्शा है पास; न पक्का है कि उसका उस पार कोई किनारा होगा; कि नाव कभी पहुंचेगी, इसका कोई पक्का नहीं। उत्तंग लहरों को देख कर इतना ही पक्का है कि नाव डूबेगी, सदा को डूब जाएगी।
समझदार साहसी नहीं होते। साहसी समझदार नहीं होते। अक्सर इसीलिए साहसी होते हैं कि समझदार नहीं हैं। समझदार नहीं हैं, इसलिए उतर जाते हैं कहीं भी, जूझ जाते हैं किसी भी चीज से। इसीलिए तो सैनिकों को शिक्षण देते समय उनकी समझ नष्ट करनी पड़ती है। नहीं तो वे जूझ नहीं पाएंगे युद्ध में। अगर समझदार होंगे तो जूझ नहीं पाएंगे। समझदारी हजार बाधाएं खड़ी करेगी। इसलिए सारे सैन्य-शिक्षण में एक ही खास मुद्दा ध्यान में रखा जाता है कि तुम्हारी समझ को खत्म किया जाए। बाएं घूम, दाएं घूम; बाएं घूम, दाएं घूम--सुबह से सांझ तक चलता रहता है। न बाएं घूमने में कोई मतलब है, न दाएं घूमने में कोई मतलब है। तुम यह नहीं पूछ सकते कि इसका मतलब क्या? बाएं घूमने से क्या होगा?
एक दार्शनिक भर्ती हुआ सेना में। महायुद्ध में सभी लोग भर्ती हो रहे थे, वह भी भर्ती हो गया। देश को जरूरत थी सैनिकों की। और जब उसके कप्तान ने कहा कि बाएं घूम! तो सारे लोग तो बाएं घूम गए, वह अपनी जगह खड़ा रहा। उसके कप्तान ने पूछा कि आप घूमते क्यों नहीं?
उसने कहा: पहले यह पक्का हो जाना चाहिए कि घूमना किसलिए? बाएं घूमने से क्या मिलेगा? इतने लोग बाएं घूम गए, इनको क्या मिला? और फिर ये आखिर दाएं घूमेंगे, बाएं घूमेंगे और यहीं आ जाएंगे इसी अवस्था में जिसमें मैं खड़ा ही हूं। घूम-घाम से मतलब क्या है? मैं बिना सोच-विचार के एक कदम नहीं उठा सकता।
दार्शनिक का शिक्षण यही है कि बिना सोच-विचार के कदम न उठाए। प्रसिद्ध दार्शनिक था। कोई और होता तो कप्तान ने दस-पांच गालियां सुनाई होतीं। क्योंकि भाषा ही...कप्तानों की और पुलिसवालों की भाषा में गालियां तो बिलकुल जरूरी होती हैं। दो-चार सजाएं दी होतीं। लेकिन दार्शनिक प्रसिद्ध था, सोचा कि इस...और बेचारा ऐसे तो ठीक ही कह रहा है। कप्तान को भी बात पहली दफे समझ में आई कि बाएं घूम, दाएं घूम, इसका मतलब क्या है? प्रयोजन क्या है?
इसका प्रयोजन है। अगर कोई आदमी तीन-चार घंटे रोज बाएं घूम, दाएं घूम, दौड़ो, रुको, भागो, जाओ, आओ--ऐसा करता रहे, हर आज्ञा का पालन, तो उसकी बुद्धि धीरे-धीरे क्षीण हो जाएगी। वह यंत्रवत हो जाएगा। फिर एक दिन उससे कहो कि मारो, तो वह मारेगा--उसी आसानी से जैसे दाएं घूमता था, बाएं घूमता था। फिर यह भी नहीं सोचेगा कि जिस आदमी की छाती में मैं गोली चला रहा हूं या छुरा भोंक रहा हूं, इसकी मां होगी बूढ़ी, घर राह देखती होगी; इसके बच्चे होंगे, इसकी पत्नी होगी। और इसने मेरा कुछ भी तो नहीं बिगाड़ा है। इससे मेरी कोई पहचान ही नहीं है, बिगाड़ने का सवाल ही नहीं है। इसे मैंने कभी जाना भी नहीं है--अपरिचित, अनजान। जैसे मैं युद्ध में भर्ती हो गया हूं चार रोटी के लिए, ऐसे ही यह भी युद्ध में भर्ती हो गया है। क्यों इसे मारूं?
यह दार्शनिक जो बाएं नहीं घूम रहा है, यह गोली भी नहीं चलाएगा। जब आज्ञा होगी कि चलाओ गोली, तो यह पूछेगा: क्यों? गोली चलाने से क्या सार? और इस बेचारे ने बिगाड़ा क्या है? इससे मेरा कोई झगड़ा भी नहीं है। इससे मेरी पहचान ही नहीं है, झगड़े का सवाल ही नहीं उठता।
सोच कर कप्तान ने कि आदमी तो अच्छा है, भला है, अब भर्ती हो गया है, अब इसको निकालना भी ठीक नहीं है, कोई और काम दे देना चाहिए। तो चौके में काम दे दिया। छोटा काम, जो कर सके। मटर के दाने, बड़े एक तरफ कर, छोटे एक तरफ कर।
घंटे भर बाद जब कप्तान आया तो दार्शनिक वैसा ही बैठा हुआ था। तुमने अगर रोदिन का चित्र देखा हो, मूर्ति, रोदिन की प्रसिद्ध मूर्ति है--विचारक, ऐसा ठुड्डी से हाथ लगाए हुए एक विचारक बैठा हुआ है। उसी ठीक मुद्रा में दार्शनिक बैठा हुआ था। दाने जैसे थे मटर के, वैसे के वैसे रखे थे। एक दाना भी यहां से वहां नहीं हटाया गया था। कप्तान ने पूछा कि महाराज, इतना तो कम से कम करो!
उसने कहा कि पहले सब बात साफ हो जानी चाहिए। तुमने कहा कि बड़े एक तरफ करो, छोटे एक तरफ करो। मझोल कहां जाएं? और मैं कदम नहीं उठाता जब तक कि सब साफ न हो, स्पष्ट न हो।
इतनी समझदारी होगी तो तुम अनंत सागर में अपनी नाव न छोड़ सकोगे। इसलिए सैनिकों की बुद्धि नष्ट कर देनी होती है। फिर वे यंत्रवत जूझ जाते हैं, कट जाते हैं, काट देते हैं। अब जिस आदमी ने हिरोशिमा पर एटम बम गिराया, एक लाख आदमी पांच मिनट में जल कर राख हो जाएंगे, अगर जरा भी सोचता तो क्या गिरा पाता? तो ज्यादा से ज्यादा यही हो सकता था कि जाकर कह देता कि मैं नहीं गिरा सकता हूं, चाहो तो मुझे गोली मार दो। यह ज्यादा उचित होता। कि एक आदमी, मर जाऊंगा, क्या हर्जा है! लेकिन एक लाख आदमियों को पांच मिनट में अकारण मार डालूं, जिनका कोई भी कसूर नहीं है! छोटे बच्चे हैं, स्कूल जाने की तैयारी कर रहे हैं, अपने बस्ते सजा रहे हैं। पत्नियां घर में भोजन बना रही हैं। लोग दफ्तर काम के लिए जा रहे हैं। इन निहत्थे लोगों पर, जो सैनिक भी नहीं हैं, नागरिक हैं, जिनका कोई हाथ युद्ध में नहीं है--इन पर एटम बम गिराऊं?
लेकिन नहीं, यह सवाल ही नहीं उठा। वह जो बाएं घूम, दाएं घूम का शिक्षण है, वह सवालों को नष्ट कर देता है। वह एक अंधापन पैदा कर देता है। उसने तो बम गिरा दिया। और जब दूसरे दिन सुबह पत्रकारों ने उससे पूछा कि तुम रात सो सके? तो उसने कहा: मैं बहुत अच्छी नींद सोया। क्योंकि जो काम मुझे दिया गया था, वह पूरा कर दिया। फिर अच्छी नींद के सिवाय और क्या था? जो मेरा कर्तव्य था, वह पूरा कर आया, बहुत गहरी नींद सोया।
एक लाख आदमी जल कर राख होते रहे और उनके ऊपर बम गिराने वाला आदमी रात गहरी नींद सो सका! जरूर बुद्धि बिलकुल पोंछ दी गई होगी। जरा भी बुद्धि का नाम-निशान न रहा होगा।
तो एक तरफ बुद्धिमान लोग हैं, उनमें साहस नहीं है। और एक तरफ साहसी लोग हैं, उनमें बुद्धि नहीं है। इनमें से दोनों में से कोई भी परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता। इसलिए दरिया ने बड़ी ठीक बात कही: कोई सूर सुधीर! साहसी और अति बुद्धिमान, सुधीर। सुधि जिसके भीतर हो, धी जिसके भीतर हो, प्रज्ञा जिसके भीतर हो, कोई प्रज्ञावान साहसी! ऐसा अमृत संयोग जब मिलता है, ऐसा जब सोने में सुगंध होती है, तब परमात्मा को पाया जाता है।
दरिया बान गुरुदेव का, कोई झेलै सूर सुधीर।
यहां मेरे पास दोनों तरह के लोग आ जाते हैं। कोई हैं जो बहुत पंडित हैं, बहुत सोच-विचार में हैं, वे भी बाण को नहीं झेल पाते। उनके बीच इतने शास्त्र हैं कि बाण शास्त्रों में ही छिद जाता है, उनके हृदय तक नहीं पहुंच पाता। उनकी समझदारी अतिशय है कि उनके भीतर साहस तो रह ही नहीं गया है। साहसी आ जाते हैं तो भी मेरी बात गलत समझते हैं, क्योंकि साहसी मेरी बात सुन कर ही--मैं स्वतंत्रता की बात करता हूं, वह स्वच्छंदता की बात समझ लेता है। उसके पास बुद्धि नहीं है। मैं प्रेम की बात करता हूं, वह काम की बात समझ लेता है। उसके पास बुद्धि नहीं है। मैं कुछ कहता हूं, वह कुछ का कुछ कर लेता है।
सदगुरु का बाण तो केवल वे ही झेल सकते हैं जिनमें दोनों बातें हों--साहस हो, सुबुद्धि हो।
लागत ही ब्यापै सही...
फिर तो लग भर जाए, जरा सा भी लग जाए गुरु का बाण, फिर तो व्याप जाता है।
...रोम-रोम में पीर।
रोएं-रोएं में विरह की पीड़ा पैदा हो जाती है। परमात्मा की पुकार उठने लगती है। प्रार्थना जगने लगती है।
साध सूर का एक अंग, मना न भावै झूठ।
साध न छांड़ै राम को, रन में फिरै न पूठ।।
कहते हैं कि साधु और सूर में एक बात की समानता है कि दोनों के मन को झूठ नहीं भाता।
साध न छांड़ै राम को, रन में फिरै न पूठ।
जैसे शूरवीर युद्ध के मैदान से पीठ नहीं फेरता। चाहे कुछ भी हो जाए, बचे कि जाए जीवन, भागता नहीं, लौट नहीं पड़ता, पीठ नहीं दिखाता। वैसे ही राम की खोज में जो चला है, चाहे विरह कितना ही जलाए, अंगारों पर चलना पड़े, तो भी लौटता नहीं है। लौट ही नहीं सकता। लौटना असंभव है, क्योंकि वे अंगारे जलाते भी हैं और शीतल भी करते हैं। बड़े विरोधाभासी हैं। वे कांटे चुभते भी हैं और भीतर एक बड़ी मिठास भी भर जाते हैं। नीम कड़वी भी है और शुद्ध भी करती है।
दरिया सांचा सूरमा, अरिदल घालै चूर।
राज थापिया राम का, नगर बसा भरपूर।।
दरिया सांचा सूरमा...
वही है सच्चा योद्धा जो अपने भीतर के शत्रुओं को समाप्त कर दे।
बाहर के शत्रुओं को तो कौन कब समाप्त कर पाया है! और बाहर के शत्रुओं को समाप्त करो तो नये शत्रु पैदा हो जाते हैं। और बाहर के शत्रुओं पर विजय भी पा लो तो भी विजय कोई ठहरने वाली नहीं है। जो आज जीता है, कल हार जाएगा। जो आज हारा है, कल जीत जाएगा। बाहर तो जिंदगी प्रतिपल बदलती रहती है। वहां तो कुछ भी शाश्वत नहीं है, ठहरा हुआ नहीं है--जलधार है।
लेकिन भीतर एक युद्ध है--और भीतर के योद्धा बनना है! वहां शत्रु हैं, असली शत्रु वहां हैं--क्रोध है, काम है, लोभ है, मोह है...हजार शत्रु हैं। इन सबको जो जीत लेता है, इन सबका जो मालिक हो जाता है, वही उस बड़े मालिक से मिलने का हकदार है।
मालिक बनो छोटे, तो बड़े मालिक से मिल सकोगे। उतनी पात्रता अर्जित करनी चाहिए। मालिक से मिलने के लिए कुछ तो मालिक जैसे हो जाओ। साहब से मिलने के लिए कुछ तो साहब जैसे हो जाओ। कुछ तो प्रभुता तुम्हारे भीतर हो, तो प्रभु के द्वार पर तुम्हारा स्वागत हो सके।
राज थापिया राम का, नगर बसा भरपूर।
अपने भीतर तो राम का राज स्थापित करो। अभी तो काम का राज है तुम्हारे भीतर। राम का राज स्थापित करो। अभी तो तुम्हारे भीतर कामनाएं ही कामनाएं हैं, और खींचे लिए जाती हैं, और तुम बंधे कैदी की तरह घसिटते हो। काम से घिरा हुआ चित्त सारा गौरव खो देता है, सारी गरिमा खो देता है।
लेकिन ध्यान रहे कि काम हो कि क्रोध हो कि लोभ हो कि मोह हो, इन्हें मार नहीं डालना है, इन्हें रूपांतरित करना है। मार डालोगे तो तुमने अपनी ही ऊर्जा के स्रोतों को नष्ट कर दिया। क्योंकि क्रोध ही जब ध्यान से जुड़ जाता है तो करुणा बनता है। क्रोध को काट नहीं डालना है, ध्यान से जोड़ देना है। होशियार तो वही है जो जहर को भी औषधि बना ले। सच्चा सुधी तो वही है जो पत्थरों को भी सीढ़ियां बना ले, मार्ग की बाधाओं को भी जो उपयोग कर ले, उनका सहयोग ले ले।
जो बुद्धू हैं वे भीतर के शत्रुओं को मारने में लग जाते हैं। और सदियों से धर्म के नाम पर ऐसे ही बुद्धुओं का राज्य रहा है। भीतर के शत्रुओं को मार सकते हो, मगर मार कर तुम पाओगे कि तुमने अपने ही अंग काट दिए। बाइबिल कहती है कि जो हाथ तुम्हारा चोरी करे, उस हाथ को काट दो। यह तो ठीक। लेकिन यही हाथ दान दे सकता था; अब दान कैसे दोगे? और जो आंख बुरा देखे, वह आंख फोड़ दो। ठीक; लेकिन यही आंख तो इस जगत में परमात्मा को देखती है; अब परमात्मा को कैसे देखोगे? और आंख तो तटस्थ है। आंख न तो कहती है बुरा देखो, न कहती है भला देखो। आंख तो सिर्फ देखने की सुविधा है। तुम जो देखना चाहते हो वही देखो। अगर परमात्मा देखना चाहते हो तो आंख परमात्मा को देखने का साधन बन जाती है।
इसलिए मैं इस तरह की कहानियों को सहमति नहीं देता। कहानी है कि सूरदास ने अपनी आंखें फोड़ लीं। सूरदास के वचन मुझे काफी भरोसा दिलाते हैं कि इस तरह का काम सूरदास कर नहीं सकते। और किया हो तो उनका सारा जीवन व्यर्थ हो जाता है। सूरदास ने कृष्ण के सौंदर्य के ऐसे प्यारे गीत गाए हैं; यह असंभव है कि सूरदास ने अपनी आंखें फोड़ ली हों--इसलिए, क्योंकि आंखें वासना में ले जाती हैं। आंखें वासना में ले भी नहीं जातीं किसी को। सूरदास जैसे व्यक्ति को तो बात समझ में आ ही गई होगी। आंखें कहीं वासना में ले जाती हैं? वासना भीतर होती है तो आंखें वासना का साधन बन जाती हैं। और प्रार्थना भीतर हो तो आंखें प्रार्थना का साधन बन जाती हैं। तुम्हारे हाथ में तलवार है, इससे तुम चाहे किसी की जान ले लो और चाहे किसी की जान ली जा रही हो तो बचा लो। तलवार तटस्थ है।
सारी इंद्रियां तटस्थ हैं। इन्हीं कानों से उपनिषद सुने जाते हैं, इन्हीं आंखों से सुबह उगता सूरज देखा जाता है। इन्हीं आंखों से चोर खजाने खोजता है दूसरों के। इन्हीं आंखों से लोगों ने अपने भीतर के खजाने खोज लिए हैं। सब तुम पर निर्भर है।
तो भीतर के शत्रुओं को जीतना तो जरूर है, मारना नहीं है। मार ही दिया तो फिर जीत क्या? मारे हुए पर जीत का कोई अर्थ होता है?
एक चाय-घर में लोग गपशप में लगे हैं। एक सैनिक युद्ध से लौटा है, वह बड़ी बहादुरी हांक रहा है। वह कह रहा है कि मैंने एक दिन में पचास सिर काटे, ढेर लगा दिया सिरों का।
मुल्ला नसरुद्दीन बहुत देर से सुन रहा है। उसने कहा: यह कुछ भी नहीं। मैं भी युद्ध में गया था अपनी जवानी में। एक दिन में मैंने हजार आदमियों के पैर काट दिए थे।
सैनिक ने कहा: पैर? कभी सुना नहीं! यह भी कोई बात है? सिर काटे जाते हैं, पैर नहीं।
मुल्ला ने कहा: मैं क्या करता, सिर तो कोई पहले ही काट चुका था!
मरों के अगर तुम पैर काट भी लाए तो कोई विजेता नहीं हो। अगर तुमने मार ही डाला अपने भीतर तो तुम कुछ बुद्धिमान नहीं हो। और तुम अपने भीतर जिनको शत्रु समझ कर मार डाले हो, उनको मारने के बाद पाओगे: तुम्हारे जीवन की सारी ऊर्जा के स्रोत सूख गए।
इसलिए तुम्हारे संतों के जीवन में न उल्लास है, न उत्सव है, न आनंद है। एक गहन उदासी है। तुम्हारे संतों के जीवन में कोई सृजनात्मकता भी नहीं है। उनसे कोई गीत भी नहीं फूटते। उनसे कोई नृत्य भी नहीं जगता। क्योंकि जो ऊर्जा गीत बन सकती थी और नृत्य बन सकती थी, उस ऊर्जा को तो वे नष्ट करके बैठ गए। उनके जीवन में कोई करुणा भी नहीं दिखाई पड़ती। क्योंकि क्रोध को मार दिया, करुणा पैदा कहां से हो?
और मैं तुमसे कहता हूं: जिसने कामवासना को जला डाला अपने भीतर, वह ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं होता; वह सिर्फ नपुंसक हो जाता है। और नपुंसक होने में और ब्रह्मचारी होने में बहुत फर्क है, जमीन-आसमान का फर्क है। उससे ज्यादा कोई फर्क और क्या होगा?
रूस में ईसाइयों का एक संप्रदाय था जो अपनी जननेंद्रियां काट डालता था। क्या तुम उनको ब्रह्मचारी कहोगे? जननेंद्रियां काटने से क्या कामवासना चली जाएगी? आंखें फोड़ने से क्या तुम सोचते हो रूप की आकांक्षा चली जाएगी? कान फोड़ने से क्या तुम सोचते हो भीतर ध्वनि का आकर्षण समाप्त हो जाएगा? काश, इतना आसान होता, तब तो धार्मिक हो जाना बड़ी सरल बात होती। चले गए अस्पताल, करवा आए कुछ आपरेशन, हो गए धार्मिक। बस सर्जनों की जरूरत होती, सदगुरुओं की नहीं।
सदगुरु काटता नहीं, सदगुरु रूपांतरित करता है। अनगढ़ पत्थर को मिटा नहीं देना है; उसको गढ़ना है, उसमें से मूर्ति प्रकट करनी है। मूर्ति छिपी है उसमें। तुम्हारे क्रोध में करुणा की मूर्ति छिपी है; थोड़ी छानने की, छनावट की जरूरत है। और तुम्हारे काम की ऊर्जा ही तुम्हारी राम की ऊर्जा है। ये तुम्हारी संपदाएं हैं। ये शत्रु हैं अभी, क्योंकि तुम जानते नहीं कि कैसे इनका उपयोग करें। जिस दिन तुम जान लोगे कि कैसे इनका उपयोग करें, यही तुम्हारे सेवक हो जाएंगे।
आज से हजारों साल पहले, वेद के जमाने में, आकाश में बिजली ऐसी ही कौंधती थी--ऐसी ही जैसी अब कौंधती है। लेकिन तब आदमी कंपता था, थरथराता था, सोचता था कि इंद्र महाराज नाराज हो रहे हैं, कि इंद्र महाराज धमकी दे रहे हैं। स्वभावतः, समझ में आती है बात। पांच हजार साल पहले बिजली के संबंध में हमें कुछ पता नहीं था। और जब बिजली आकाश में कड़कती होगी तो जरूर छाती धड़कती होगी, घबड़ाहट होती होगी। कोई व्याख्या चाहिए। तो एक ही व्याख्या मालूम होती थी कि इंद्रधनुष...जैसे कि इंद्र ने अपने धनुष पर बाण चढ़ाया हो। नाराज है इंद्र। कुछ भूल हो गई हमसे। लोग घुटनों पर गिर पड़ते होंगे और प्रार्थना करते होंगे।
अब कोई बिजली की प्रार्थना नहीं करता। अब भी बिजली चमकती है, मगर तुम घुटनों पर गिर कर प्रार्थना नहीं करते। अब तुम भलीभांति जानते हो कि बिजली क्या है। अब तो बिजली तुम्हारे घर में सेवा कर रही है; बटन दबाओ और बिजली हाजिर और कहती है: जी हुजूर, आज्ञा! बटन दबाओ, और पंखा चले। बटन दबाओ, और बिजली जले। बटन दबाओ, रेडियो चले। बटन दबाओ, टेलीविजन शुरू हो जाए। अब तो बिजली तुम्हारे घर की दासी है। अब आकाश की बिजली को तुम इंद्रधनुष का या इंद्र का क्रोध और कोप नहीं मानते। अब तो बात खतम हो गई। अब तो ये कहानियां बच्चों को पढ़ाने योग्य हो गई हैं। अब तो बच्चे भी इन पर भरोसा न करेंगे।
जैसे ही हम किसी बात को पूरा-पूरा जान लेते हैं, हम उसके मालिक हो जाते हैं। बाहर की बिजली तो वश में आ गई है, भीतर की बिजली अभी वश में नहीं आई है। भीतर की बिजली का नाम कामवासना है। वह जीवंत विद्युत है। अब तक के धार्मिक लोग उससे डरे रहे, घबड़ाए रहे, कंपते रहे। उनके कंपन से कुछ फायदा नहीं हुआ है। और उनकी घबड़ाहट से बहुत नुकसान हुआ है। जो जानते हैं, वे तो कहेंगे: इस भीतर की विद्युत को भी बदला जा सकता है। यह भी तुम्हारी सेविका हो सकती है।
जब कामवासना तुम्हारी सेवा में रत हो जाती है तो ब्रह्मचर्य। जब तक तुम कामवासना की सेवा करते हो तो अब्रह्मचर्य। भेद इतना ही है--कौन मालिक? इससे सब निर्भर होता है। कामवासना को काट डालो, काटना बहुत आसान है। बहुत आसान है! तुम अजित सरस्वती के पास जा सकते हो। बड़ा आसान है कामवासना को काट डालना। तुम्हारी जननेंद्रियां काटी जा सकती हैं, तुम्हारे शरीर के भीतर हारमोन, जिनसे कि कोई पुरुष होता है, कोई स्त्री होता है, वे हारमोन निकाले जा सकते हैं, नये हारमोन डाले जा सकते हैं। तुम्हें बिलकुल कामवासना से रिक्त किया जा सकता है।
मगर तुम यह मत सोचना कि इससे तुम महावीर हो जाओगे, कि इससे तुम बुद्ध हो जाओगे, कि इससे तुम्हारे भीतर दरिया की तरह आनंद की लहरें उठने लगेंगी, कि मीरा की तरह तुम नाच उठोगे। कुछ भी नहीं, इससे तुम एक कोने में बिलकुल सुस्त होकर बैठ जाओगे। तुम्हारा जीवन एक महा उदासी से घिर जाएगा। तुम्हारी जिंदगी अमावस की रात होगी, पूर्णिमा का चांद नहीं। तुम सिर्फ उदास और सुस्त हो जाओगे। तुम मुर्दा हो जाओगे।
और तुम इस बात को भलीभांति जानते हो। न जानते होओ तो गांव के किसान से पूछ लेना। आखिर सांड़ में और बैल में फर्क क्या है? क्या बैल को तुम ब्रह्मचारी समझते हो? सांड़ की रौनक! सांड़ का रंग! सांड़ की शान! और कहां दीन-दरिद्र बैल। मगर किसानों ने हजारों साल से यह तरकीब निकाल ली कि अगर सांड़ को बधिया कर दो तो ही बैलगाड़ी में जोत सकते हो, गुलाम बना सकते हो। कमजोर हो जाता है, दीन-हीन हो जाता है। सांड़ को जरा जोत कर देखो बैलगाड़ी में! न तुम बचोगे, न बैलगाड़ी बचेगी। किसी गड्ढे में पड़े, हड्डियां तुम्हारी टूट चुकी होंगी, बैलगाड़ी के अस्थिपंजर बिखर चुके होंगे--और सांड़ जाकर शंकर जी के किसी मंदिर में विश्राम कर रहा होगा! लेकिन सांड़ को बधिया कर दो, और दीन हो जाता है, दया-योग्य हो जाता है। अब बैलों की तरह उसे जोतो तुम बैलगाड़ी में, चाहे हल-बक्खर में, जो चाहो करो।
मनुष्य दीन हो जाता है अगर कामवासना को काट दिया जाए, क्रोध को अगर काट दिया जाए, लोभ को अगर काट दिया जाए, तो बहुत दीन हो जाता है। उस दीनता की तुमने बहुत पूजा की है। मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं: बंद करो अब यह पूजा! दीन मनुष्य के दिन गए। अब महिमाशाली मनुष्य के दिन आने दो! अब उस मनुष्य के दिन आने दो जो ऊर्जाओं का रूपांतरण करेगा, दमन नहीं; जो हर ऊर्जा का उपयोग करेगा।
और मैं तुमसे कहता हूं: परमात्मा ने तुम्हें जो भी दिया है, निश्चित ही व्यर्थ नहीं दिया है। परमात्मा पागल नहीं है। अगर उसने कामवासना दी है तो जरूर उसमें छिपा कोई खजाना होगा। जरा खोदो, जरा खोजो। अगर क्रोध दिया है तो जरूर क्रोध में छिपी हुई कोई ऊर्जा होगी, उसे मुक्त करो। शत्रुता तभी तक मालूम होती है जब तक तुम गुलाम हो इनके। जिस दिन मालिक हो जाते हो, उसी दिन ये सब मित्र हो जाते हैं।
दरिया सांचा सूरमा...
वही है सच्चा सूर।
...अरिदल घालै चूर।
राज थापिया राम का, नगर बसा भरपूर।।
शत्रुओं को पछाड़ देता है। उनकी छाती पर बैठ जाता है। उन्हें चारों खाने चित्त कर देता है। राम के राज्य को अपने भीतर स्थापित कर लेता है।
लेकिन ध्यान रखना--नगर बसा भरपूर!
यह कोई रिक्त जगह नहीं है राम का राज्य--नगर भरपूर बसा है! उत्सव पैदा होता है। दिवाली है, होली है, रंग का त्यौहार उठता है। दीये जलते हैं।
राज थापिया राम का, नगर बसा भरपूर।
और जब तक तुम्हें किसी के भीतर राम का राज्य बसा हुआ दिखाई न पड़े, भरपूर, गुलाल न उड़ती हो, रंग न उड़ते हों, दीये न जलते हों, मृदंग पर थाप न पड़ती हो, बांसुरी न बजती हो--तब तक समझना कि साधु नहीं है; सिर्फ किसी तरह अपने को दबाए, किसी तरह अपने को सम्हाले बैठा हुआ मुर्दा है, जीवंत नहीं है।
रसना सेती ऊतरा, हिरदे किया बास।
दरिया बरखा प्रेम की, षट ऋतु बारह मास।।
सुनते हो, प्यारा वचन: रसना सेती ऊतरा!
जब तक तुम्हारी जीभ पर ही राम का नाम रहेगा, तब तक कुछ न होगा। हृदय में उतर जाए।
रसना सेती ऊतरा, हिरदे किया बास।
जब तुम्हारे हृदय में उतर जाए राम। विरह की आग ऐसी जले, ऐसी जले कि जल जाए सब कुछ मन का--विचार, कल्पनाएं, स्मृतियां, शोरगुल, भीड़-भाड़--और तुम्हारे भीतर शांति हो जाए। और शब्द राम का सवाल नहीं है, भाव का सवाल है। राम शब्द तो जीभ पर ही रहेगा। राम शब्द को तुम हृदय में नहीं ले जा सकते; हृदय में शब्द जाने का कोई उपाय ही नहीं है। वहां तो केवल भाव होते हैं। लेकिन तुम समझते हो। भाव को तुम पहचानते हो। कोई भी शब्द शब्द बनने के पहले भाव होता है। भाव शब्द की आत्मा है; शब्द भाव का शरीर है। शब्द की खोल तो जाने दो, भाव में डोलो, भाव की मस्ती में उतरो।
रसना सेती ऊतरा, हिरदे किया बास।
और जब भी तुम्हारे हृदय में भाव की तरंग उठने लगेगी, वह चमत्कार घटेगा।
दरिया बरखा प्रेम की...
प्रेम की वर्षा हो जाएगी तुम्हारे ऊपर। होती ही रहेगी। फिर बंद नहीं होने वाली है।
...षट ऋतु बारह मास।
छहों ऋतुओं में, बारह महीने वर्षा होती ही रहेगी। फिर ऐसा नहीं कि वर्षाकाल आया और गया, कि आषाढ़ में बादल घिरे और फिर खो गए। फिर आषाढ़ ही आषाढ़ है। फिर यह प्रेम की वर्षा होती ही रहती है।
लेकिन क्या तुम्हें तुम्हारे संतों में प्रेम की ऐसी वर्षा होती हुई मालूम पड़ती है? क्या तुम्हारे मंदिरों में तुम्हें प्रेम भरपूर बहता हुआ मालूम पड़ता है? प्रेम से रिक्त तुम्हारे मंदिर हैं। प्रेम से शून्य तुम्हारे चर्च, तुम्हारे गिरजे, तुम्हारी मस्जिदें, तुम्हारे गुरुद्वारे हैं। प्रेम से रिक्त तुम्हारे साधु-संत हैं। हां, उदासी जरूर है। एक हताशा है। एक अंधेरा जरूर उनकी आत्मा पर छाया है, मगर रोशनी नहीं मालूम होती। और यही धर्म का रूप समझा जाने लगा है। सदियों-सदियों से चूंकि यही चलता रहा है, अब धीरे-धीरे हम सोचने लगे कि यही धर्म है।
यह धर्म नहीं है; यह अधर्म से भी बदतर है। यह आस्तिकता नहीं है; यह नास्तिकता से भी गिरी हुई अवस्था है। नास्तिक तो कभी आस्तिक हो भी जाए; ये तुम्हारे तथाकथित धार्मिक लोग कभी आस्तिक न हो पाएंगे। इन्होंने तो जीवन को बिलकुल गलत दृष्टि से ही पकड़ लिया है। इनका परमात्मा जीवन के विरोध में है। परमात्मा कहीं जीवन के विरोध में हो सकता है? परमात्मा तो जीवन का रचनाकार है। यह तो उसी का गीत है, उसी की कविता है। यह तो उसी ने रंगा है चित्र। चित्रकार कहीं अपने चित्र के विरोध में हो सकता है? मूर्तिकार कहीं अपनी मूर्ति के विरोध में हो सकता है? नर्तक अपने नृत्य के विरोध में, तो फिर नाचे ही क्यों?
दरिया बरखा प्रेम की, षट ऋतु बारह मास।
फिर तो प्रेम की वर्षा होगी, उत्सव होगा, सावन घिरेगा और जाएगा नहीं।
झर-झर-झर बरसे करुणा-घन;
सर-सर-सर सिहरे तृण-तरु-तन;
झर-झर-झर बरसे करुणा-घन!
नाद-निरत, अति ध्वनित गगन मन;
अवनि मृदंग-घोर सुन उन्मन;
हरित भरित नित चिन्मय चेतन;
सिहर-सिहर हरषे मृण्मय कण;
झर-झर-झर बरसे करुणा-घन;
सर-सर-सर सिहरे तृण-तरु-तन।
सन-सन-सनन समीरण-रिंगण,
झींगुर-झंकृति किंकिणि-सिंजन,
करवन-उपवन-राजि प्रमंथन,
हहरा हर-हर-हहर-प्रभंजन
झर-झर-झर बरसे करुणा-घन;
सर-सर-सर सिहरे तृण-तरु-तन।
तरणि-ज्वालमय धरणि-काल-क्षण
शांत, तृप्त पाकर घन-तर्पण;
ले अंबर का अर्घ्य समर्पण--
थर-थर-थर वसुधा-हिल आंगण
कंपित भू-प्रांगण;
झर-झर-झर बरसे करुणा-घन;
सर-सर-सर सिहरे तृण-तरु-तन।
बरसने दो! खोलो हृदय को! प्रेम के मेघ को बरसने दो! तो ही तुम जानोगे कि परमात्मा है। नाचो, गाओ, गुनगुनाओ, डोलो! मस्ती के पाठ सीखो। मस्ताने ही, दीवाने ही केवल उसको जान पाते हैं। बाकी उसकी बातें करते रहें भला, लेकिन उनकी बातें तोतारटंत हैं। उनकी बातों का कोई भी मूल्य नहीं है। उनकी बातों में कोई अर्थ नहीं है।
दरिया हिरदे राम से, जो कभु लागै मन।
लहरें उट्ठें प्रेम की, ज्यों सावन बरखा घन।।
अगर एक बार मन जुड़ जाए, एक बार तुम्हारा हृदय और राम से जुड़ जाए।
लहरें उट्ठें प्रेम की...
तो तुमसे प्रेम बहेगा।
...ज्यों सावन बरखा घन।
जैसे सावन में वर्षा होती है ऐसे।
लेकिन धर्म के नाम पर एक से एक झूठ चल रहे हैं। धर्म के नाम पर प्रेम का विरोध चलता है। धर्म के नाम पर जीवन में कुछ भी हरा न रह जाए, इसकी चेष्टा चलती है, सब सूख-साख जाए! धर्म के नाम पर बगियों की प्रशंसा नहीं है, मरुस्थलों के गीत गाए जा रहे हैं।
जन दरिया हिरदा बिचे, हुआ ग्यान परगास।
जैसे ही उसका तीर तुम्हारे हृदय के बीच पहुंच जाता है, उसका भाव तुम्हारे हृदय में आ जाता है।
...हुआ ग्यान परगास।
वैसे ही ज्ञान का प्रकाश हो उठता है।
हौद भरा जहं प्रेम का...
और जहां प्रेम का सरोवर भरा है--
...तहं लेत हिलोरा दास।
फिर तो हिलोर ही हिलोर है। फिर तो मस्ती ही मस्ती है।
परमात्मा जब आता है तो तुम्हें शराबी की तरह मदमस्त कर जाता है। अमी झरत, बिगसत कंवल! उस परम दशा में, उस अंतर्दशा में अमृत झरता है और कमल खिलते हैं।
अमी झरत, बिगसत कंवल, उपजत अनुभव ग्यान।
और तभी तुम जानना कि ज्ञान का जन्म हुआ, जब तुम्हारा कमल खिले और जब तुम्हारे भीतर अमृत की वर्षा का अनुभव हो। जब तक ऐसा न हो, तब तक शास्त्रीय शब्दों को अपना ज्ञान मत समझ लेना। पांडित्य को प्रज्ञा मत समझ लेना।
जन दरिया उस देस का, भिन-भिन करत बखान।
यद्यपि उस परम देश की बात अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग ढंग से कही है; मगर वह देश एक ही है। बुद्ध अपने ढंग से कहते हैं, और जरथुस्त्र अपने ढंग से कहते हैं, और चैतन्य अपने ढंग से कहते हैं। मैं उसे अपने ढंग से कह रहा हूं। और तुम्हें जिस दिन अनुभव होगा तुम उसे अपने ढंग से कहोगे। ये ढंगों के भेद हैं। मगर वह अनुभव एक है। अभिव्यक्तियां अनेक हैं।
तुम्हें निमंत्रण देता हूं--छोड़ो उदासी, छोड़ो दमन, छोड़ो जीवन-विरोध। आओ सावन को बुलाएं।
प्रथम आषाढ़ी झड़ी है, चलो भीगें
पालकी ऋतु की खड़ी है, चलो भीगें
ग्रह मुहूरत चौघड़ी देखे बिना ही
यह मिलन की शुभ घड़ी है, चलो भीगें
पी पुकारे प्राण-पपीहा और तुमको
घरू कामों की पड़ी है, चलो भीगें
प्यारवाले इन क्षणों की उम्र अपनी
कुल उमर से भी बड़ी है, चलो भीगें
लाज की चलती मगर संकोच की यह
तोड़ दो जो हथकड़ी है, चलो भीगें
यदि हमीं समझें न ये संकेत गीले
स्वयं से धोखाधड़ी है, चलो भीगें
युगल अधरों प्यार की गीली रुबाई
आज पावस ने पढ़ी है, चलो भीगें
यह तुम्हारा रूप पावस में नहाया
आग पर शबनम मढ़ी है, चलो भीगें
भीगने का निमंत्रण--यही संन्यास का निमंत्रण है। संन्यास का द्वार केवल उनके लिए खुला है जो भीगने को राजी हैं। लेकिन लोग छोटी-छोटी चीजों को बचा रहे हैं। लोग साधारण वर्षा में भी कभी भीगते नहीं--कहीं कपड़े गीले न हो जाएं! कभी साधारण वर्षा में भी भीग कर देखो, उसका आनंद बहुत है। कपड़े तो सूख जाएंगे। तुम कुछ ऐसी कच्ची मिट्टी के पुतले थोड़े ही हो कि बह जाओगे, कि गल जाओगे। लेकिन साधारण वर्षा में भी लोग छाता लेकर चलते हैं। कुछ लोग तो छाता सदा ही लिए रहते हैं--पता नहीं कब वर्षा हो जाए।
मुल्ला नसरुद्दीन छाता लेकर बाजार से गुजर रहा था। वर्षा होने लगी, मगर उसने छाता न खोला। दो-चार लोगों ने देखा, उन्होंने कहा कि नसरुद्दीन, छाता क्यों नहीं खोलते?
नसरुद्दीन ने कहा कि छाते में छेद ही छेद हैं।
तो लोगों ने पूछा: फिर छाता लेकर चले ही क्यों?
तो उसने कहा कि मैंने सोचा कि कौन जाने रास्ते में वर्षा हो जाए! कौन जाने कहीं वर्षा हो जाए!
जहां तक अंतर-आकाश का संबंध है, तुम सब छाते लेकर चल रहे हो, तुम सुरक्षा का इंतजाम कर के चल रहे हो। यहां मेरे पास भी लोग आ जाते हैं, तो मैं देखता हूं कि छाता लगाए बैठे हैं और सुन रहे हैं। हालांकि सौभाग्य से उनके छातों में कभी-कभी कुछ छेद होते हैं और थोड़ी बूंदाबांदी उन पर हो जाती है--उनके बावजूद हो जाती है! मगर छाता लगाए रहते हैं।
भीतर के छाते छोड़ने होंगे। हिंदू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, जैन, ये सब छाते हैं। ये सब सुरक्षाएं हैं, शब्दों की आड़ में छिपाने के उपाय हैं। इन सबकी होली जला दो। ये सब छाते इकट्ठे करके होली जला दो। इस बार जब होली जले तो छाते जला आना। एकबारगी खाली आदमी हो जाओ, जैसा परमात्मा ने तुम्हें बनाया। परमात्मा ने तुम्हें जैन नहीं बनाया और न बौद्ध बनाया और न हिंदू और न मुसलमान। परमात्मा ने तो तुम्हें बस खालिस आदमी बनाया है। एक बार वैसे ही हो जाओ जैसा परमात्मा ने बनाया, तो उससे संबंध जुड़ना आसान हो जाए। और तभी तुम यह निमंत्रण स्वीकार कर सकोगे।
प्रथम आषाढ़ी झड़ी है, चलो भीगें
पालकी ऋतु की खड़ी है, चलो भीगें
और तुम मत पूछो कि मुहूर्त! कोई मुहूर्त की नहीं पड़ी है। सारी घड़ियां उसकी हैं। हर घड़ी मुहूर्त है।
ग्रह मुहूरत चौघड़ी देखे बिना ही
यह मिलन की शुभ घड़ी है, चलो भीगें
तुम जाकर ज्योतिषियों को अपनी जन्म-पत्री मत दिखलाओ।
मेरे पास लोग आ जाते हैं, वे कहते हैं कि ज्योतिषी महाराज को जन्म-पत्री दिखलाई थी, उन्होंने कहा कि इस जन्म में समाधि का मुहूर्त नहीं है। तो मैं संन्यास लूं कि नहीं?
ज्योतिषियों से पूछ रहे हैं समाधि का मुहूर्त! तुमने समाधि को कोई रेसकोर्स का घोड़ा समझा है! कि लाटरी की कोई टिकट समझी है!
खूब होशियार हैं लोग! बचने के कैसे-कैसे उपयोग खोजते हैं! मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं: संन्यास तो लेना है, लेकिन शुभ घड़ी में लेंगे।
कौन सी शुभ घड़ी? परमात्मा अभी है, तो यह घड़ी शुभ नहीं है? सारे दिन प्यारे हैं, सारे क्षण प्यारे हैं, क्योंकि सारे दिन उसमें पगे हैं, सारे दिन उसमें हैं। हर घड़ी वही तो है, और तो कोई भी नहीं है।
ग्रह मुहूरत चौघड़ी देखे बिना ही
यह मिलन की शुभ घड़ी है चलो भीगें
प्यारवाले इन क्षणों की उम्र अपनी
कुल उमर से भी बड़ी है चलो भीगें
एक क्षण भी उसके प्रेम में भीगने का तुम्हें अवसर आ जाए, तो तुम्हारी सारी हजारों-हजारों जिंदगियों की लंबाई व्यर्थ हो गई; उसके प्रेम का एक क्षण भी शाश्वत है। वर्षों जीने का कोई अर्थ नहीं है; एक क्षण उसके प्रेम में जी लेना पर्याप्त है। सारे जीवन-जीवन की, अनंत-अनंत जीवन की तृप्ति हो जाती है।
लाज की चलती मगर संकोच की यह
तोड़ दो जो हथकड़ी है चलो भीगें
मगर बड़ा लाज, बड़ा संकोच--दुनिया क्या कहेगी!
मैं विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था तो नियमित मेरा क्रम था कि जब भी वर्षा हो तो एक सुनसान रास्ते पर विश्वविद्यालय के, मैं वर्षा में भीगने के लिए जाता था। फिर धीरे-धीरे एक और पागल आदमी मेरे साथ राजी हो गया। उस रास्ते पर जो आखिरी बंगला था, वह विश्वविद्यालय के फिजिक्स के प्रोफेसर का बंगला था। वहीं जाकर रास्ता समाप्त हो जाता था। तो उसी रास्ते के समाप्ति पर बड़े वृक्ष के नीचे बैठ कर हम दोनों भीगते थे। प्रोफेसर की पत्नी और बच्चे बड़ी दया खाते होंगे और जब भी वर्षा होती थी तो वे जरूर रास्ता देखते होंगे, क्योंकि जब भी हम पहुंचते तो वे खिड़कियों पर, द्वार पर खड़े हुए दिखाई पड़ते।
फिर संयोग की बात, फिजिक्स के प्रोफेसर से किसी ने मेरी मुलाकात करवा दी। और वे मेरी बातों में धीरे-धीरे इतने उत्सुक हो गए कि एक दिन मुझे घर भोजन पर निमंत्रण किया। तो मैंने उनसे कहा कि मेरे एक मित्र भी हैं, वे सदा आपके घर तक मेरे साथ घूमने आते हैं, उनको भी ले आऊं? तो उन्होंने कहा: उनको भी जरूर ले आएं। उन्होंने घर जाकर अपनी पत्नी को बहुत प्रशंसा की होगी कि दो बहुत अदभुत व्यक्तियों को लेकर आ रहा हूं। घर में लोग बड़े उत्सुक थे, बड़ी तैयारियां की गईं। और जब हम दोनों को देखा तो सारे बच्चे, पत्नी, बहू, सब वहां से भाग गए अंदर के कमरे में और इतने जोर से हंसने लगे अंदर के कमरे में जाकर कि प्रोफेसर को बड़ा सदमा पहुंचा, कि यह तो बड़ा...
मैंने उनसे कहा: आप संकोच न करें। हमारा परिचय पुराना है। वे कोई हमारे अपमान में नहीं हंस रहे हैं; वे सिर्फ यह देख कर हंस रहे हैं कि आप बड़ी प्रशंसा करके लाए हैं और वे हमें जानते हैं कि ये दोनों पागल हैं।
बाहर ही भीगने से लोग डर गए हैं, तो भीतर तो भीगने की बात ही कहां उठती है! थोड़ा लाज-संकोच छोड़ो। मीरा ने कहा है: लोकलाज छोड़ी! पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे! सब लोकलाज छोड़ कर नाची! ऐसे ही लोकलाज छोड़ोगे तो नाच पाओगे, तो भीग पाओगे।
यदि हमीं समझें न ये संकेत गीले
स्वयं से धोखाधड़ी है चलो भीगें
युगल अधरों प्यार की गीली रुबाई
आज पावस ने पढ़ी है चलो भीगें
और कभी तुम्हें ऐसा संयोग मिल जाए कि कोई भीगा हुआ आदमी मिल जाए और निमंत्रण दे तो लोकलाज छोड़ देना, और बुलाए अपने अंतरगृह में तो जरा झांक कर देख लेना।
सदगुरु का इतना ही अर्थ है कि तुम्हें एक बार याद दिला दे--उस सबकी जो तुम्हारे भीतर भी पड़ा है, लेकिन अपरिचित, अनजाना।
कंचन का गिर देख कर, लोभी भया उदास!
बड़ी अदभुत बात दरिया ने कही है। दरिया कहते हैं: तुम लोभ इत्यादि की फिकर मत करो। मैं तुम्हें भीतर उस जगह ले चलता हूं--कंचन का गिर देख कर--जहां तुम सोने के हिमालय देखोगे। वहां तुम्हारा लोभी उदास हो जाएगा अपने आप--यह देख कर कि जितना मैं मांगता था, उससे बहुत ज्यादा मुझे मिला ही हुआ है! सारी वासना गिर जाएगी।
यह सूत्र बड़ा अर्थपूर्ण है। लोग तुमसे कहते हैं: लोभ छोड़ो, तब वहां पहुंच सकोगे। दरिया कहते हैं: वहां आ जाओ और लोभ इत्यादि सब छूट जाएगा। लोभ इसीलिए तो है, भिखमंगे तुम इसीलिए तो बने हो कि कुछ तुम्हारे पास नहीं है। एक बार दिखाई पड़ जाए कि भीतर अनंत संपदा मेरी है, फिर कैसा लोभ! लोभ खुद उदास होकर बैठ जाएगा।
कंचन का गिर देख कर, लोभी भया उदास।
जन दरिया थाके बनिज, पूरी मन की आस।।
फिर वहां कहां का व्यापार! फिर वहां सारा लोभ, सारी आसक्ति, सारे चित्त के व्यापार अपने आप गिर जाते हैं।
...पूरी मन की आस।
तुमने जो मांगा था, उससे हजार गुना मिल गया, करोड़ गुना मिल गया। तुमने जो सोचा भी नहीं था, वह भी मिला। तुम जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे, सपने भी नहीं देख सकते थे, वह भी मिला। तुम मालिक हो बड़े साम्राज्य के। तुम सम्राट हो। परमात्मा तुम्हारे भीतर विराजमान है।
मीठे राचैं लोग सब, मीठे उपजै रोग।
दरिया कहते हैं: हो सकता है मेरी बातें तुम्हें कड़वी लगें, क्योंकि तुम्हें मीठी-मीठी बातें सुनने की आदत हो गई है। तुम सिर्फ सांत्वना सुनने के लिए उत्सुक हो गए हो। तुम साधुओं के पास जाते हो कि वे किसी तरह मलहम-पट्टी कर दें।
मीठे राचैं लोग सब, मीठे उपजै रोग।
लेकिन ध्यान रखना, सांत्वना सबको अच्छी लगती है, मीठी लगती है; मगर सांत्वना के कारण ही तुम्हारे रोग बच रहे हैं, तुम्हारे रोग नहीं मिट पा रहे हैं।
निरगुन कडुवा नीम सा, दरिया दुर्लभ जोग।
तैयारी करो--विरह की पीड़ा को झेलने की!
निरगुन कडुवा नीम सा...
बहुत कड़वी दवा है, मगर यही तुम्हें तुम्हारी बीमारियों से मुक्त करेगी। ध्यान से कड़वी दवा और कुछ भी नहीं है। विरह से ज्यादा बड़ी और कोई पीड़ा नहीं है। मगर ध्यान की कड़वी दवा ही तुम्हें अमृत के सरोवर तक पहुंचा देती है। और विरह की गहन पीड़ा और विरह की अग्नि ही तुम्हारे स्वर्ण को निखार देती है। तुम्हें पात्रता देती है। तुम्हें इस योग्य बनाती है कि परमात्मा तुम्हारा आलिंगन करे।
लेकिन यह दुर्लभ जोग है। अगर तुममें साहस हो और समझ हो तो ही यह क्रांतिकारी घटना घट सकती है। और ऐसा नहीं है कि तुममें साहस और समझ नहीं है--सिर्फ अवसर दो साहस और समझ को मिलने का। सम्हालो साहस और समझ को साथ-साथ। और तुम्हारे जीवन में भी वह परम सौभाग्य का क्षण आ सकता है जब तुम भी कह सको--
अमी झरत, बिगसत कंवल, उपजत अनुभव ग्यान।
जन दरिया उस देस का, भिन-भिन करत बखान।।
फिर सारे कुरान, सारी बाइबिलें, सारे वेद, सारी गीताएं तुम्हें ठीक मालूम पड़ेंगी, क्योंकि तुम जान लोगे अनुभव से कि अलग-अलग भाषाओं में एक ही बात कही गई है।
अमी झरत, बिगसत कंवल!
खिल सकता है कमल। अमृत भी झर सकता है। सच तो यह है कि कमल खिला ही हुआ है, अमृत झर ही रहा है--अपनी तरफ लौटो। आंख भीतर की तरफ उलटाओ। भीतर सुनो, भीतर गुनो।
आज इतना ही।
यह बिरहा मेरे साध को, सोता लिया जगाए।।
दरिया बिरही साध का, तन पीला मन सूख।
रैन न आवै नींदड़ी, दिवस न लागै भूख।।
बिरहिन पिउ के कारने, ढूंढ़न बनखंड जाए।
निस बीती, पिउ ना मिला, दरद रही लिपटाए।।
बिरहिन का घर बिरह में, ता घट लोहु न मांस।
अपने साहब कारने, सिसकै सांसों सांस।।
दरिया बान गुरुदेव का, कोई झेलै सूर सुधीर।
लागत ही ब्यापै सही, रोम-रोम में पीर।।
साध सूर का एक अंग, मना न भावै झूठ।
साध न छांड़ै राम को, रन में फिरै न पूठ।।
दरिया सांचा सूरमा, अरिदल घालै चूर।
राज थापिया राम का, नगर बसा भरपूर।।
रसना सेती ऊतरा, हिरदे किया बास।
दरिया बरखा प्रेम की, षट ऋतु बारह मास।।
दरिया हिरदे राम से, जो कभु लागै मन।
लहरें उट्ठें प्रेम की, ज्यों सावन बरखा घन।।
जन दरिया हिरदा बिचे, हुआ ग्यान परगास।
हौद भरा जहं प्रेम का, तहं लेत हिलोरा दास।।
अमी झरत, बिगसत कंवल, उपजत अनुभव ग्यान।
जन दरिया उस देस का, भिन-भिन करत बखान।।
कंचन का गिर देख कर, लोभी भया उदास।
जन दरिया थाके बनिज, पूरी मन की आस।।
मीठे राचैं लोग सब, मीठे उपजै रोग।
निरगुन कडुवा नीम सा, दरिया दुर्लभ जोग।।
अमी झरत, बिगसत कंवल!
अमृत की वर्षा होती है और कमल खिल रहे हैं!
दरिया किस लोक की बात कर रहे हैं? यहां न तो अमृत झरता है और न कमल खिलते हैं। यहां तो जीवन जहर ही जहर है। कमल तो दूर, कांटे भी नहीं खिलते--या कि कांटे ही खिलते हैं। क्या दरिया किसी और लोक की बात कर रहे हैं?
नहीं, किसी और लोक की नहीं। बात तो यहीं की है, लेकिन किसी और आयाम की है।
दस दिशाएं तो तुमने सुनी हैं; एक और भी दिशा है--ग्यारहवीं दिशा। दस दिशाएं बाहर हैं, ग्यारहवीं दिशा भीतर है। एक आकाश तो तुमने देखा है। एक और आकाश है--अनदेखा। जो देखा, वह बाहर है। जो अभी देखने को है, भीतर है। उस ग्यारहवीं दिशा में, उस अंतर-आकाश में अमृत झर रहा है, अभी झर रहा है; कमल खिल रहे हैं, अभी खिल रहे हैं! लेकिन तुम हो कि उस तरफ पीठ किए बैठे हो। तुम्हारी आंखें दूर अटकी हैं और तुम पास के प्रति अंधे हो गए हो। बाहर जो है, वह तो आकर्षित कर रहा है; और जिसके तुम मालिक हो, जो तुम हो, जो सदा से तुम्हारा है और सदा तुम्हारा रहेगा, उसके प्रति बिलकुल उपेक्षा कर ली है।
शायद इसीलिए कि जो मिला ही है, जो अपना ही है, उसे भूल जाने की वृत्ति होती है। जो हमारे पास नहीं है, जिसका अभाव है, उसे पाने की आकांक्षा जगती है। जो है, जिसका भाव है, उसे धीरे-धीरे हम विस्मृत कर देते हैं। उसकी याद ही नहीं आती। जैसे दांत टूट जाए न तुम्हारा कोई, तो जीभ वहीं-वहीं जाती है। कल तक दांत था और जीभ कभी वहां न गई थी। मन के भी रास्ते बड़े बेबूझ हैं। जो नहीं है, उसमें मन की बड़ी उत्सुकता है। अब दांत टूट गया, जीभ वहीं-वहीं जाती है। दांत था तो कभी न गई थी। जो है, मन की उसमें उत्सुकता ही नहीं। क्यों? क्योंकि मन जी ही सकता है, अगर उसमें उत्सुकता रहे जो नहीं है। तो दौड़ होगी, तो पाने की चेष्टा होगी, वासना होगी, इच्छा होगी, कामना होगी। जो नहीं है, उसके सहारे ही मन जीता है। जो है, उसको तो देखते ही मन की मृत्यु हो जाती है।
दरिया आकाश में बसे किसी दूर स्वर्ग की बात नहीं कर रहे हैं; तुम्हारे भीतर पास से भी जो पास है, जिसे पास कहना भी उचित नहीं...क्योंकि पास कहने में भी तो थोड़ी दूरी मालूम पड़ती है; जो तुम्हारी श्वासों की श्वास है; जो तुम्हारे हृदय की धड़कन है; जो तुम्हारा जीवन है; जो तुम्हारा केंद्र है--वहां अभी इसी क्षण अमृत बरस रहा है और कमल खिल रहे हैं! और कमल ऐसे कि जो कभी मुरझाते नहीं--चैतन्य के कमल! योगियों ने जिसे सहस्रार कहा है--हजार पंखुड़ियों वाले कमल! जिनकी सुगंध का नाम स्वर्ग है। जिन पर नजर पड़ गई तो मोक्ष मिल गया। आंखों में जिनका रूप समा गया तो निर्वाण हो गया।
इस बात को सबसे पहले स्मरण रख लेना कि संत दूर की बात नहीं करते। संत तो जो निकट से भी निकट है, उसकी बात करते हैं। संत उसकी बात नहीं करते हैं जो पाना है; संत उसकी बात करते हैं जो पाया ही हुआ है। संत स्वभाव की बात करते हैं।
उड़ चला इस सांध्य-नभ में,
मन-विहग तज निज बसेरा;
क्यों चला? किस दिशि चला?
किसने उसे यों आज टेरा?
क्यों हुए सहसा स्फुरित, अति
शिथिल, संश्लथ पंख उसके?
क्या हुए हैं उदित नभ में,
चंद्रमा अकलंक उसके?
विकल आतुर सा उड़ा है
मन-विहंगम आज मेरा?
शून्य का आतुर निमंत्रण,
आज उसको मिल गया है;
क्षितिज की विस्तीर्णता का,
पवन-अंचल हिल गया है;
प्राण पंछी ने गगन में
ललक कौतूहल बिखेरा।
स्वनित उड्डीयन ध्वनित-गति--
जनित अनहद नाद से यह
दिग्दिगंताकाश वक्षस्थल,
रहा है गूंज अहरह;
ऊर्ध्व गति ने ध्यान-मग्ना--
गीत-यति को आन घेरा!
उड़ चला इस सांध्य-नभ में,
मन-विहग तज निज बसेरा।
पुकार सुनाई पड़ जाए एक बार तुम्हें उसकी जो तुम्हारे भीतर है, तो तुम उड़ चलो, तो तुम पंख फैला दो। तुम्हें एक बार कोई याद दिला दे उसकी जो तुम्हारी संपदा है, तुम्हारा साम्राज्य है, तुम्हें कोई एक झलक दिखा दे उसकी, जरा सा झरोखा खुल जाए और एक बार तुम देख लो अपने भीतर के सूरज को उगते हुए--फिर तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित हो जाएगी। फिर तुम बाहर के कूड़ा-कर्कट के पीछे दौड़ोगे नहीं। और न ही इकट्ठे करते रहोगे ठीकरे। जिसे अमृत मिल जाए, मरणधर्मा में उसकी उत्सुकता अपने आप समाप्त हो जाती है। जिसे भीतर की मालकियत मिल जाए उसे सारी दुनिया का चक्रवर्ती सम्राट होना भी फीका हो जाता है। पर पुकार सुननी है। और पुकार भी आ रही है, मगर तुम हो कि वज्रबधिर बने बैठे हो।
दरिया कहते हैं:
दरिया हरि किरपा करी, बिरहा दिया पठाए।
यह बिरहा मेरे साध को, सोता लिया जगाए।।
प्रभु ने कृपा की है, दरिया कहते हैं, कि मेरे भीतर बैठी हुई आग को उकसा दिया, कि मेरे अंगारे पर से राख झाड़ दी, कि मेरे भीतर विरह की अग्नि जगा दी, कि मेरे भीतर प्यास को उकसा दिया।
क्या तुम सोचते हो कि हरि किसी पर कृपा करता है और किसी पर नहीं करता? क्या तुम सोचते हो कि भगवत्-कृपा किसी को मिलती है और किसी को नहीं मिलती?
भगवत्-कृपा तो बेशर्त सब पर बरसती है। उस तरफ से तो कोई भेद-भाव नहीं है; लेकिन कोई उसे स्वीकार कर लेता है और कोई उसे इनकार कर देता है।
वर्षा तो होती है पहाड़ों पर भी और झीलों में भी, लेकिन झीलें भर जाती हैं और पहाड़ खाली के खाली रह जाते हैं। वर्षा तो होती है पत्थरों पर भी और जमीन पर भी, लेकिन जमीन में बीज फूट जाते हैं, हरियाली आ जाती है; पत्थर वैसे के वैसे, रूखे के रूखे रह जाते हैं। पहाड़ पर वर्षा होती है, पहाड़ चूक जाते हैं, क्योंकि पहाड़ खुद अपने से भरे हैं; उनकी बड़ी अस्मिता है, बड़ा अहंकार है। झीलें भर जाती हैं, क्योंकि झीलें खाली हैं, शून्य हैं, उनके द्वार खुले हैं। झीलों ने स्वागत करने की कला सीखी, बंदनवार बांधे--आओ! बादल तो बरसते हैं बेशर्त, लेकिन कहीं फूल खिल जाते हैं, कहीं पत्थर ही पड़े रह जाते हैं।
ऐसे ही परमात्मा की कृपा भी अलग-अलग नहीं है। मुझ पर भी उतनी ही बरसती है जितनी तुम पर। दरिया पर भी उतनी ही बरसी है जितनी किसी और पर। लेकिन दरिया ने द्वार खोले हृदय के, अंगीकार किया। दरिया ने इनकारा नहीं।
इस अंगीकार करने का नाम ही आस्था है। इस स्वागत का नाम ही श्रद्धा है। अपने भीतर द्वार पर दस्तक देते सूरज को बुला लेने का नाम ही भक्ति है। और भगवान प्रतिपल द्वार पर दस्तक दे रहा है।
दरिया हरि किरपा करी, बिरहा दिया पठाए।
भेज दी विरह की खबर, पुकार दे दी। कहना चाहिए--पुकार सुन ली! लेकिन भक्त तो ऐसा ही कहेगा--उस कहने में भी राज है--कि परमात्मा ने कृपा की। क्योंकि भक्त की यह मान्यता है--और मान्यता ही नहीं, यह जीवन का परम सत्य भी है--कि हमारे किए कुछ भी नहीं होता; जो होता है, उसके किए होता है। हम तो अगर इतना ही करने में सफल हो जाएं कि बाधा न दें, तो बस बहुत। वर्षा तो उसकी तरफ से होती है; हम अपने पात्र को उलटा न रखें, इतना ही बहुत। हम अपने पात्र को सीधा रख लें, वर्षा तो उसकी ही तरफ से होती है। पात्र के सीधे होने से वर्षा नहीं होती; वर्षा तो हो ही रही थी, लेकिन पात्र सीधा हो तो भर जाता है, तो भरपूर हो जाता है।
भक्त का अनुभव है कि मनुष्य के प्रयास से नहीं मिलता परमात्मा--प्रसाद से मिलता है; उसकी ही अनुकंपा से मिलता है। हमारे प्रयास भी तो छोटे-छोटे हैं--हमारे हाथ ही इतने छोटे हैं! हम चांद-तारों को नहीं छू पाएंगे, तो हम परमात्मा को कैसे छू पाएंगे? हमारी मुट्ठी में समाएगा क्या? विराट पर हम मुट्ठी कैसे बांधेंगे? और हमारे इस छोटे से हृदय में हम इस अनंत आकाश को कैसे आमंत्रित करेंगे? नहीं, उसकी कृपा होगी तो ही यह चमत्कार घटित होगा। उसकी कृपा होगी तो बूंद में सागर भी समा जाएगा।
दरिया हरि किरपा करी, बिरहा दिया पठाए।
कहते हैं: तुमने ही पुकारा होगा, इसलिए मैं तुम्हें खोजने निकल पड़ा।
यह भक्तों का सदियों-सदियों का अनुभव है। तुम थोड़े ही परमात्मा को खोजते हो; परमात्मा तुम्हें खोजता है। परमात्मा तुम्हें टटोल रहा है। परमात्मा अलग-अलग विधियों से तुम्हारी तरफ निमंत्रण भेज रहा है, प्रेम-पातियां लिख रहा है। लेकिन तुम न प्रेम-पातियां पढ़ते हो...तुम भाषा ही भूल गए जिससे उसकी प्रेम-पाती पढ़ी जा सके। उस प्रेम की पाती को पढ़ने की भाषा भी तो प्रेम है! तुम प्रेम ही भूल गए! वह द्वार पर दस्तक देता है, तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता, क्योंकि उसकी दस्तक शोरगुल नहीं है, शून्य है। वह तुम्हारे हृदय को छूता है, लेकिन तुम्हारी समझ में नहीं आता, क्योंकि उसका छूना स्थूल नहीं है, सूक्ष्म है। वह बवंडर की तरह नहीं आता, शोरगुल मचाता नहीं आता--कानों में फुसफुसाता है, गुफ्तगू करता है। और तुम्हारे सिर में इतना शोरगुल है कि कैसे तुम्हें उसकी गुफ्तगू सुनाई पड़े? तुम्हारे भीतर बाजार भरा है, मेला लगा है। तुम्हारा मन क्या है--कुंभ का मेला है! शोरगुल और उपद्रव है। भीड़-भाड़ है। वहां उसकी धीमी सी आवाज कहां खो जाएगी, पता भी नहीं चलेगा।
लेकिन जिस दिन भी तुम्हें समझ में आएगी बात, उस दिन तुम्हें यह भी खयाल में आएगा: वह तो सदियों से खोज रहा था, हमने ही अनसुना किया। अभागे हम। दुर्भाग्य हमारा। वह तो कब से आने को आतुर था। हमने उसे बुलाया ही नहीं। वह तो कब से द्वार पर खड़ा था, हमने द्वार ही न खोले।
फिर खराद पर मुझे चढ़ा
कुशल समय के कारीगर
जुड़ा सका हूं दुर्गुण केवल
जो भी गुण हैं, गौण बहुत
मैं न सरल सीधी रेखा सा
बाकी मुझमें कोण बहुत
मैं त्रुटियों का त्रिभुज, मुझे
सीधा-सादा आयत कर
मैं विकृत बेडौल खुरदरा
निश्चित कुछ आकार नहीं
मैं वह धातु कि जिस पर
शिल्पी का रचना संस्कार नहीं
आकृति दे अभिरूपकार
मूर्ति बने अनगढ़ पत्थर
बाहर उजले देवपीठ पर
भीतर-भीतर तहखाने
आदि पुरुष सोया है जिसमें
कुंठाएं रख सिरहाने
मन की गुह्य गुहाओं में
कोई नन्हा दीपक धर
उससे ही कहना होगा--
मन की गुह्य गुहाओं में
कोई नन्हा दीपक धर
फिर खराद पर मुझे चढ़ा
कुशल समय के कारीगर
आकृति दे अभिरूपकार
मूर्ति बने अनगढ़ पत्थर
हम तो अनगढ़ पत्थर हैं। छैनी चाहिए, हथौड़ी चाहिए, कोई कुशल कारीगर चाहिए--कि गढ़े!
और कारीगर भी है। मगर हम टूटने को राजी नहीं हैं। जरा सा हमसे छीना जाए तो हम और जोर से पकड़ लेते हैं। छैनी देख कर तो हम भाग जाते हैं। हथौड़ी से तो हम बचते हैं। हम तो चाहते हैं सांत्वनाएं, सत्य नहीं।
दरिया कहते हैं: मीठे राचैं लोग सब!
मीठा-मीठा तो सभी को रुचता है। मीठा यानी सांत्वना। अच्छी-अच्छी बातें तुम्हारे अहंकार को आभूषण दें, तुम्हें सुंदर परिधान दें, तुम्हारी कुरूपता को ढांकें, तुम्हारे घावों पर फूल रख दें।
मीठे राचैं लोग सब, मीठे उपजै रोग।
लेकिन इसी सांत्वना, इसी मिठास की खोज से तुम्हारे भीतर सारे रोग पैदा हो रहे हैं।
निरगुन कडुवा नीम सा, दरिया दुर्लभ जोग।
और जो उस निर्गुण को पाना चाहते हैं, उन्हें तो नीम पीने की तैयारी करनी होगी।
निरगुन कडुवा नीम सा, दरिया दुर्लभ जोग।
और इसीलिए तो बहुत कठिन है योग, बहुत कठिन है संयोग, क्योंकि परमात्मा जब आएगा तो पहले तो कड़वा ही मालूम पड़ेगा। लेकिन वही नीम की कड़वाहट तुम्हारे भीतर की सारी अशुद्धियों को बहा ले जाएगी, तुम्हें निर्मल करेगी, निर्दोष करेगी। सदगुरु जब मिलेगा तो खड्ग की धार की तरह मालूम होगा। उसकी तलवार तुम्हारी गर्दन पर पड़ेगी। कबीर कहते हैं--
कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।
जो घर बारै आपना, चले हमारे साथ।।
हिम्मत होनी चाहिए घर को जला देने की। कौन सा घर? वह जो तुमने मन का घर बना लिया है--वासनाओं का, आकांक्षाओं का, अभीप्साओं का। वह जो तुमने कामनाओं के बड़े गहरे सपने बना रखे हैं, सपनों के महल सजा रखे हैं। जो उन सबको जला देने को राजी हो, उसे आज और अभी और यहीं परमात्मा की आवाज सुनाई पड़ सकती है। उसके भीतर की राख झड़ सकती है और अंगारा निखर सकता है।
दरिया हरि किरपा करी, बिरहा दिया पठाए।
कि तुम्हारी बड़ी कृपा है प्रभु, कि मेरे भीतर विरह को जगा दिया। विरह के लिए बहुत कम लोग धन्यवाद देते हैं। मिलन के लिए तो कोई भी धन्यवाद दे देगा। मिलन तो मीठा-मीठा, विरह तो बहुत कड़वा। नीम सा कड़वा! नीम भी क्या होगी कड़वी इतनी। क्योंकि विरह तो आग है। वहां सांत्वना कहां! वहां तो जलन ही जलन है। लेकिन सोना आग से गुजर कर ही शुद्ध होता है। और विरह की यात्रा में निखर कर ही कोई मिलन के योग्य होता है, पात्र बनता है।
यह बिरहा मेरे साध को, सोता लिया जगाए।
दरिया कहते हैं: मुझे पता ही न था कि मेरे भीतर ऐसा परम साधु सोया हुआ है, कि मेरे भीतर ऐसे परम सत्य का आवास है, कि मेरे भीतर ऐसा निर्दोष, ऐसा कुंवारा स्वभाव है--जिस पर कोई मलिनता कभी नहीं पड़ी; जिस पर कोई कालिख नहीं है; जिस पर कोई दाग नहीं है। न पुण्य का दाग, न पाप का दाग; न शुभ का, न अशुभ का। जो सब तरफ से अस्पर्शित है! मेरे उस साधु को तुमने जगा दिया! एक जरा सी पुकार देकर! विरह को उकसा कर मेरे भीतर के परम कुंवारेपन को मुझे फिर से भेंट दे दिया! दिया ही हुआ था, मगर मैं अंधा कि कभी लौट कर न देखा; मैं बहरा कि कभी सुना नहीं; मैं मूढ़ कि कभी अपने भीतर न टटोला। संसार में टटोलता फिरा, दूर-दूर चांद-तारों में, नक्षत्रों में टटोलता फिरा, जन्मों-जन्मों में, योनियों-योनियों में, न मालूम कितनी देहों में, न मालूम कितने रूपों में तलाशा--और एक जगह भर तुझे खोजा नहीं: अपने भीतर कभी आंख को न ले गया, कभी अंतर्दृष्टि न की।
यह बिरहा मेरे साध को, सोता लिया जगाए।
तूने बड़ी कृपा की कि यह आग मुझ पर बरसा दी।
विरह आग है, ध्यान रखना। जिस पर बरसती है, उसका रोआं-रोआं रोता है। जिस पर बरसती है, उसके खून से आंसू बनने लगते हैं।
दरिया बिरही साध का, तन पीला मन सूख।
दरिया कहते हैं: तन सूख गया, मन सूख गया।
रैन न आवै नींदड़ी, दिवस न लागै भूख।
अब रात नींद नहीं आती, दिन भूख नहीं लगती। बस एक तेरी याद है कि सताए जाती है। बस एक तेरी याद है कि तीर की तरह चुभी जाती है--और गहरे, और गहरे, और गहरे!
टूट मत मेरे हृदय
मुख न हो मेरे मलिन
और थोड़े दिन
विरही को बड़ी धैर्य की कला सीखनी पड़ती है, क्योंकि आग ऐसा जलाती है कि भरोसा नहीं आता कि इस आग के पार कभी कमल भी खिलेंगे। कहीं आग में और कमल खिले हैं! तन सूखने लगता है, मन सूखने लगता है--कैसे भरोसा आए कि अमृत की वर्षा होगी! जो हाथ में है वह भी जाता मालूम होता है।
टूट मत मेरे हृदय
मुख न हो मेरे मलिन
और थोड़े दिन
रात का है प्रात निश्चित
अस्त का है उदय
एक जैसा ही किसी का
कब रहा है समय
रह न पाए दिन सरल
क्या रहेंगे ये कठिन
और थोड़े दिन
ढले कंधे, झुकी ग्रीवा
और खाली हाथ
किंतु चौखट पर दुखों की
टेकना मत माथ
आह अधरों पर न हो
मत पलक पर ला तुहिन
और थोड़े दिन
प्रण न हो मेरे पराजित
हार मत विश्वास
कुछ दिनों का और संकट
कुछ दिनों संत्रास
किश्त अंतिम स्वेद की
तू चुका कर हो उऋण
और थोड़े दिन
सृजन से थक कर न रचना
तोड़ना संकल्प
शेष तेरे अभावों की
आयु है अब अल्प
चौकड़ी मत भूलना
कल्पनाओं के हरिण
और थोड़े दिन
आग भयंकर है विरह की। थोड़े से ही हिम्मतवर लोग गुजर पाते हैं, अन्यथा लौट जाते हैं। धैर्य चाहिए, प्रतीक्षा चाहिए। प्रतीक्षा ही प्रार्थना का मूल है, उदगम है। और जो प्रतीक्षा नहीं कर सकता, वह प्रार्थना भी नहीं कर सकता।
सम्हालना होगा अपने को। और थोड़े दिन बांधना होगा अपने को कि लौट न पड़े, कि भाग न जाए, कि पीठ न दिखा दे।
बिरहिन पिउ के कारने, ढूंढ़न बनखंड जाए।
निस बीती, पिउ ना मिला, दरद रही लिपटाए।।
बड़ी बुरी दशा हो जाती है विरही की। खोजता फिरता है जंगल-जंगल।
निस बीती, पिउ ना मिला...
और रात बीत चली और प्यारा मिला नहीं। फिर कोई और उपाय न देख कर दर्द से ही लिपट कर सो जाती है।
...दरद रही लिपटाए।
विरही के पास और है भी क्या? परमात्मा पता नहीं कब मिलेगा! जगा गया एक अभीप्सा को। अब अभीप्सा ही है जिसको छाती से लगा कर भक्त जीता है। यही उसकी परीक्षा है। इस परीक्षा से जो नहीं उतरता, वह कभी उस दूसरे किनारे तक न पहुंचा है, न पहुंच सकता है।
भक्त बहुत भावों से गुजरता है। स्वभावतः कई बार लगता है--यह कैसा दुर्दिन आ गया! यह मैं किस झंझट में पड़ गया! सब ठीक-ठाक चलता था, यह किन आंसुओं से जीवन घिर गया! सब भला-चंगा था, यह किस रुदन ने पकड़ लिया कि रुकता ही नहीं! हृदय है कि उंडला ही जाता है और रोआं-रोआं है कि कंप रहा है। और पता नहीं परमात्मा है भी या नहीं! पता नहीं मैं किसी कल्पना के जाल में तो नहीं उलझ गया हूं! सारी शंकाएं उठती हैं, कुशंकाएं उठती हैं। भक्त कभी नाराज भी हो जाता है परमात्मा पर--कि यह भी दिया तो क्या दिया! मांगे थे फूल, कांटे दिए! मांगी थी सुबह, सांझ दी! मांगा था अमृत, जहर दे दिया!
तुम चाहे दानी बन जाओ, मुझे अयाचक ही रहने दो
प्रिय है मेरा मान मुझे तो
प्यासा मरा, न मांगा पानी
तन से राजकुमारी होकर
संन्यासिन बन गई जवानी
स्वाति बनो तुम चाहे, मुझको प्यासा चातक ही रहने दो
जब भी करे निवेदन तृष्णा
अधरों पर रख दो अंगारा
कत्ल करा दो स्वप्न तृप्ति के
निर्वासित कर मन बनजारा
तुम हिम बन जाओ, मुझको धुंधवाती पावक ही रहने दो
रूप-कुबेर कमी क्या तुमको
जी भर छवि के कोष लुटाओ
मेरा अलगोजा गरीब है
वीणा से फेरे न फिराओ
स्वर साम्राज्य सम्हालो, मुझको विस्मृत गायक ही रहने दो
बहुत बार मान उठ आता है, अभिमान उठ आता है। भक्त कहता है: छोड़ो भी मुझे! मुझे प्यासा ही रहने दो। नहीं चाहिए तुम्हारी स्वाति की बूंद।
तुम चाहे दानी बन जाओ, मुझे अयाचक ही रहने दो
मांगा कब था? मैंने तुम्हें पुकारा कब था? तुम्हीं ने पुकारा। तुम्हें दानी बनने का मजा है तो बन जाओ दानी, मगर मुझे तो भिखारी न बनाओ!
स्वाति बनो तुम चाहे, मुझको प्यासा चातक ही रहने दो
तुम्हें शौक चढ़ा है स्वाति बनने का, बनो! मगर मुझे क्यों सताते हो? मुझे प्यासा चातक ही रहने दो। मुझे तुम्हारी अभीप्सा नहीं है, मुझे तुम्हारी आकांक्षा नहीं है।
तुम हिम बन जाओ, मुझको धुंधवाती पावक ही रहने दो
मुझे छोड़ो भी! मेरा पीछा भी छोड़ो! मेरा आंचल पकड़े छाया की तरह दिन-रात मुझे सताओ मत!
स्वर साम्राज्य सम्हालो, मुझको विस्मृत गायक ही रहने दो
तुम स्वर सम्राट हो, भले! अपने घर तुम भले! मैं अपनी दीनता में भला।
मेरा अलगोजा गरीब है
वीणा से फेरे न फिराओ
मेरे अलगोजे को वीणा से फेरे फिराने के लिए मैंने प्रार्थना कब की थी? पुकारा तुम्हीं ने, अब जलाते क्यों हो? बहुत बार भक्त विरह की अग्नि में शंकाएं करता, कुशंकाएं करता, नाराज भी हो जाता, रूठ भी जाता, पीठ भी फेर लेता; मगर उपाय नहीं है। एक बार उसकी आवाज सुनाई पड़ी तो उससे बचने का कोई उपाय नहीं। जब तक नहीं सुनाई पड़ी है, नहीं सुनाई पड़ी है। एक बार सुनाई पड़ गई तो सारा जग फीका हो जाता है; फिर कुछ भी करो--शंका करो, मान करो, रूठो--सब व्यर्थ।
बिरहिन पिउ के कारने, ढूंढ़न बनखंड जाए।
निस बीती, पिउ ना मिला, दरद रही लिपटाए।।
और पीड़ा बड़ी सघन है भक्त की, विरही की। वृक्षों में फूल खिलते हैं--और भीतर फूलों का कोई पता नहीं, कांटे ही कांटे हैं! आकाश में बादल घिरते हैं, सावन आ जाता है--और भीतर मरुस्थल है, न वर्षा, न बादल, न सावन। बाहर सौंदर्य का इतना विस्तार--और भीतर सब रूखा-सूखा। तन भी सूख जाता, मन भी सूख जाता। भरोसा आए भी तो कैसे आए?
ये घटाएं जामुनी हैं, तुम नहीं हो
आह क्या कादंबिनी है, तुम नहीं हो
बूंद के घुंघरू बजा कर हंस रही है
ऋतु बड़ी अनुरागिनी है, तुम नहीं हो
बादलों की बाहुओं में श्लथ पड़ी है
समर्पित सौदामिनी है, तुम नहीं हो
भीग कर भी मैं सुलगता जा रहा हूं
बूंद पावक में सनी है, तुम नहीं हो
बिन तुम्हारे साध मेरी साध्वी सी
सांस हर संन्यासिनी है, तुम नहीं हो
गुदगुदी से अश्रु तक लाई मुझे यह
वेदना सतरंगिनी है, तुम नहीं हो
प्यार ही अपराध मुझ पर आजकल तो
उठ रही हर तर्जनी है, तुम नहीं हो
भीग कर भी मैं सुलगता जा रहा हूं
बूंद पावक में सनी है, तुम नहीं हो
सब सौंदर्य सारे जगत का, सारा काव्य, सारा संगीत एकदम व्यर्थ हो जाता है--उसकी पुकार सुनते ही! जैसे हीरा देख लिया हो तो अब कंकड़-पत्थरों में मन रमे तो कैसे रमे? और तुम लाख भुलाना चाहो कि हीरे को नहीं देखा है, तो भी कैसे भुलाओगे?
जीवन का एक शाश्वत नियम है: जो जान लिया, जान लिया; उसे अनजाना नहीं किया जा सकता। जो पहचान लिया, पहचान लिया; उससे फिर पहचान नहीं तोड़ी जा सकती। जिसका अनुभव हो गया, हो गया; अब तुम लाख उपाय करो तो उसे अनुभव के बाहर नहीं कर सकते।
बिरहिन का घर बिरह में, ता घट लोहु न मांस।
अपने साहब कारने, सिसकै सांसों सांस।।
दरिया कहते हैं: विरह ही घर बन जाता है, वही मंदिर बन जाता है।
बिरहिन का घर बिरह में...
उठो, बैठो, चलो, कहीं भी जाओ, विरह तुम्हें घेरे रहता है। एक अदृश्य वातावरण विरह का तुम्हें पकड़े रहता है। काम करो संसार के, मगर कहीं मन रमता नहीं। मिलो मित्रों से, प्रियजनों से, मगर उस परम प्यारे की याद पकड़े ही रहती है। कोई प्रियजन मन को अब उलझा नहीं पाता। कितना ही प्यारा संगीत सुनो, उसकी आवाज के सामने सब फीका हो गया है। और कितने ही सुंदर फूल देखो, अब तो जब तक उसका फूल न खिल जाए, तब तक कोई फूल फूल नहीं मालूम होगा।
बिरहिन का घर बिरह में, ता घट लोहु न मांस।
और ऐसी गहराइयों में विरह ले जाने लगता है, जहां न शरीर है, न शरीर की छाया पड़ती है।
अपने साहब कारने, सिसकै सांसों सांस।
बस वहां तो सिर्फ उस साहब की याद है और एक सिसकी है, जो किसी और को सुनाई भी शायद न पड़े। श्वास-श्वास में सिसकी भरी है। भक्त कहना भी चाहे तो शब्द काम नहीं पड़ते। भक्त गूंगा हो जाता है। बोलना चाहता है और नहीं बोल पाता। श्वास-श्वास में सिसकी होती है। सिसकी ही उसकी प्रार्थना है। आंखों से झरते आंसू ही उसकी अर्चना है।
महक रहा ऋतु का श्रृंगार
जैसे पहला-पहला प्यार!
जाग रही है गंध अकेली
सारा मधुवन सोता है!
किया नहीं जिसने क्या जाने
प्यार में क्या-क्या होता है!
रातें घुल जातीं आंखों में
दिन उड़ जाते पंख पसार!
बार-बार कोई पुकारता
रह-रह कर अमराई से!
अपना पता पूछता हूं मैं
अपनी ही परछाईं से!
कोई नहीं बोलता कुछ भी
मौन खड़े सारे घर-द्वार!
फूलों के रंगीन शहर में
खुशबू अब तक अनब्याही!
कोई कली किसी कांटे की
बांहों में है अनचाही!
मजबूरी ने जोड़े अनगिन
इच्छाओं के बंदनवार!
राहों-राहों आग बिछी है
झुलसी-झुलसी छायाएं!
हर चौराहा धुआं-धुआं है,
घर तक हम कैसे जाएं!
कब तक खाली जेब लिए मैं
देखूं भरा-भरा बाजार!
करूं शिकायत कहां दर्द की
हर दरबार यहां झूठा!
नये जमाने में कुछ भी हो
पर इन्सान बहुत टूटा!
बाहर-बाहर मुसकानें हैं
भीतर-भीतर हाहाकार!
मजबूरी ने जोड़े अनगिन
इच्छाओं के बंदनवार!
रातें घुल जातीं आंखों में
दिन उड़ जाते पंख पसार!
कोई नहीं बोलता कुछ भी
मौन खड़े सारे घर-द्वार!
महक रहा ऋतु का श्रृंगार
जैसे पहला-पहला प्यार!
चारों तरफ सब सुंदर है, सब प्रीतिकर है। और भीतर एक रिक्तता भर जाती है।
विरह का अर्थ क्या है? विरह का अर्थ है: भीतर मैं शून्य हूं। जहां परमात्मा होना चाहिए था वहां कोई भी नहीं है, सिंहासन खाली पड़ा है। विरह का अर्थ है: बाहर सब, भीतर कुछ भी नहीं। विरह का अर्थ है: यह भीतर का सूनापन काटता है, यह भीतर का सन्नाटा काटता है।
लेकिन इस विरह से गुजरना होता है। इस विरह से गुजरे बिना कोई भी सिंहासन के उस मालिक तक नहीं पहुंच पाता है। यह कीमत है जो चुकानी पड़ती है। शायद इसीलिए लोग, अधिक लोग ईश्वर में उत्सुक नहीं होते। इतनी कीमत कौन चुकाए? किस भरोसे चुकाए? शायद इसीलिए अधिक लोगों ने झूठे और औपचारिक धर्म खड़े कर लिए हैं। मंदिर गए, दो फूल चढ़ा आए, घंटा बजा दिया, दीया जला आए, निपट गए, बात खत्म हो गई। न भीतर का घंटा बजा, न भीतर का दीया जला, न भीतर की आरती सजी, बाहर का इंतजाम कर लिया है। तुम्हारी दुकान भी बाहर और तुम्हारा मंदिर भी बाहर। तो तुम्हारी दुकान और तुम्हारे मंदिर में बहुत फर्क नहीं हो सकता।
दुकान बाहर, मंदिर तो भीतर होना चाहिए। मंदिर तो भीतर का ही हो सकता है। लेकिन भीतर के मंदिर को चुनने में, भीतर के मंदिर को निर्मित करने में तुम्हें बुनियाद बन जाना पड़ेगा। तुम्हीं दबोगे, बुनियाद के पत्थर बनोगे, तो भीतर का मंदिर उठेगा। तुम मिटोगे तो परमात्मा की उपलब्धि हो सकती है।
विरह गलाता है, मिटाता है। विरह तुम्हें पोंछ जाता है। एक ऐसी घड़ी आती है जब तुम नहीं होते हो। और जिस घड़ी तुम नहीं हो, उसी घड़ी परमात्मा है।
मिलन घटित होता है कब? बड़ी बेबूझ शर्त है मिलन की। ऐसी बेबूझ शर्त है, ऐसी अतर्क्य शर्त है कि बहुत थोड़े से हिम्मतवर लोग पूरा कर पाते हैं। तुम भी परमात्मा से मिलना चाहोगे। लेकिन शर्त यह है कि जब तक तुम हो, तब तक मिलन न हो सकेगा। जब तक तुम हो, परमात्मा नहीं है, ऐसा गणित है। और जब तुम नहीं होओगे, तब परमात्मा है।
कौन इस शर्त को पूरा करे? कौन जुआरी इतना बड़ा दांव लगाए? किस गारंटी पर? क्या पक्का है कि मैं मिट जाऊंगा तो परमात्मा मिलेगा ही? सिवाय इसके कि दरिया जैसे मिटने वाले लोगों ने कहा है कि मिलता है। मगर कौन जाने दरिया सच कहते हों, सच न कहते हों! भ्रांति में पड़ गए हों! या कोई षड्यंत्र हो पीछे इन सारी बातों के, कोई बड़ा जाल हो लोगों को उलझाए रखने का! कैसे भरोसा आए?
एक ही उपाय है कि किसी ऐसे व्यक्ति से मिलना हो जाए जो मिट गया है--और मिट कर हो गया है, मिट कर पूर्ण हो गया है! जिसने शून्य को जाना है और शून्य में उतरते हुए पूर्ण को पहचाना है। जिसके भीतर मैं तो नहीं बचा और अब तू ही विराजमान हो गया है। जिसके भीतर भगवत्ता बोलती है, ऐसे किसी व्यक्ति से जीवंत मिलन हो जाए, उसके चरणों में बैठने का सौभाग्य मिल जाए, उसके सन्नाटे को समझने का अवसर मिल जाए, उसकी आंखों में आंखें डालने की शुभ घड़ी आ जाए, ऐसा कोई मुहूर्त बने--तो कुछ बात हो, तो भरोसा आए, तो श्रद्धा जगे।
सत्संग के बिना श्रद्धा नहीं जगती है। और सदगुरु के बिना यह भरोसा आ ही नहीं सकता कि तुम इतनी हिम्मत जुटा सको कि अपने को मिटाऊं और परमात्मा को पाऊं।
दरिया बान गुरुदेव का, कोई झेलै सूर सुधीर।
लागत ही ब्यापै सही, रोम-रोम में पीर।।
इसलिए दरिया कहते हैं: यह बात समझ में न आएगी, यह विरह की हिम्मत तुम न जुटा पाओगे। यह तो तभी जुटा पाओगे जब--
दरिया बान गुरुदेव का...
जब किसी सदगुरु का बाण तुम्हारे हृदय में लग जाएगा।
...कोई झेलै सूर सुधीर।
दो शब्द प्रयोग किए हैं--सूर और सुधीर। सूर भी हैं लोग, हिम्मतवर भी लोग हैं, बहादुर भी लोग हैं; मगर उतने से काफी नहीं है। मरने-मारने को तैयार हैं, मगर सूझ-बूझ बिलकुल नहीं है। साहसी हैं, मगर समझ नहीं है। तो भी नहीं होगा। और ऐसा भी है कि बहुत लोग हैं जो बड़े समझदार हैं, मगर साहसी नहीं हैं। तो उनकी समझ के कारण वे और भी कायर हो जाते हैं। उनकी समझदारी के कारण वे एक कदम भी अज्ञात में नहीं उठा पाते। उनकी समझदारी उनको और जकड़ देती है किनारे से। नाव ही नहीं खोल पाते हैं सागर में। इतना विराट सागर! ऐसी उत्तंग लहरें! ऐसी छोटी सी नाव! कोई समझदार खोलेगा? न नक्शा है पास; न पक्का है कि उसका उस पार कोई किनारा होगा; कि नाव कभी पहुंचेगी, इसका कोई पक्का नहीं। उत्तंग लहरों को देख कर इतना ही पक्का है कि नाव डूबेगी, सदा को डूब जाएगी।
समझदार साहसी नहीं होते। साहसी समझदार नहीं होते। अक्सर इसीलिए साहसी होते हैं कि समझदार नहीं हैं। समझदार नहीं हैं, इसलिए उतर जाते हैं कहीं भी, जूझ जाते हैं किसी भी चीज से। इसीलिए तो सैनिकों को शिक्षण देते समय उनकी समझ नष्ट करनी पड़ती है। नहीं तो वे जूझ नहीं पाएंगे युद्ध में। अगर समझदार होंगे तो जूझ नहीं पाएंगे। समझदारी हजार बाधाएं खड़ी करेगी। इसलिए सारे सैन्य-शिक्षण में एक ही खास मुद्दा ध्यान में रखा जाता है कि तुम्हारी समझ को खत्म किया जाए। बाएं घूम, दाएं घूम; बाएं घूम, दाएं घूम--सुबह से सांझ तक चलता रहता है। न बाएं घूमने में कोई मतलब है, न दाएं घूमने में कोई मतलब है। तुम यह नहीं पूछ सकते कि इसका मतलब क्या? बाएं घूमने से क्या होगा?
एक दार्शनिक भर्ती हुआ सेना में। महायुद्ध में सभी लोग भर्ती हो रहे थे, वह भी भर्ती हो गया। देश को जरूरत थी सैनिकों की। और जब उसके कप्तान ने कहा कि बाएं घूम! तो सारे लोग तो बाएं घूम गए, वह अपनी जगह खड़ा रहा। उसके कप्तान ने पूछा कि आप घूमते क्यों नहीं?
उसने कहा: पहले यह पक्का हो जाना चाहिए कि घूमना किसलिए? बाएं घूमने से क्या मिलेगा? इतने लोग बाएं घूम गए, इनको क्या मिला? और फिर ये आखिर दाएं घूमेंगे, बाएं घूमेंगे और यहीं आ जाएंगे इसी अवस्था में जिसमें मैं खड़ा ही हूं। घूम-घाम से मतलब क्या है? मैं बिना सोच-विचार के एक कदम नहीं उठा सकता।
दार्शनिक का शिक्षण यही है कि बिना सोच-विचार के कदम न उठाए। प्रसिद्ध दार्शनिक था। कोई और होता तो कप्तान ने दस-पांच गालियां सुनाई होतीं। क्योंकि भाषा ही...कप्तानों की और पुलिसवालों की भाषा में गालियां तो बिलकुल जरूरी होती हैं। दो-चार सजाएं दी होतीं। लेकिन दार्शनिक प्रसिद्ध था, सोचा कि इस...और बेचारा ऐसे तो ठीक ही कह रहा है। कप्तान को भी बात पहली दफे समझ में आई कि बाएं घूम, दाएं घूम, इसका मतलब क्या है? प्रयोजन क्या है?
इसका प्रयोजन है। अगर कोई आदमी तीन-चार घंटे रोज बाएं घूम, दाएं घूम, दौड़ो, रुको, भागो, जाओ, आओ--ऐसा करता रहे, हर आज्ञा का पालन, तो उसकी बुद्धि धीरे-धीरे क्षीण हो जाएगी। वह यंत्रवत हो जाएगा। फिर एक दिन उससे कहो कि मारो, तो वह मारेगा--उसी आसानी से जैसे दाएं घूमता था, बाएं घूमता था। फिर यह भी नहीं सोचेगा कि जिस आदमी की छाती में मैं गोली चला रहा हूं या छुरा भोंक रहा हूं, इसकी मां होगी बूढ़ी, घर राह देखती होगी; इसके बच्चे होंगे, इसकी पत्नी होगी। और इसने मेरा कुछ भी तो नहीं बिगाड़ा है। इससे मेरी कोई पहचान ही नहीं है, बिगाड़ने का सवाल ही नहीं है। इसे मैंने कभी जाना भी नहीं है--अपरिचित, अनजान। जैसे मैं युद्ध में भर्ती हो गया हूं चार रोटी के लिए, ऐसे ही यह भी युद्ध में भर्ती हो गया है। क्यों इसे मारूं?
यह दार्शनिक जो बाएं नहीं घूम रहा है, यह गोली भी नहीं चलाएगा। जब आज्ञा होगी कि चलाओ गोली, तो यह पूछेगा: क्यों? गोली चलाने से क्या सार? और इस बेचारे ने बिगाड़ा क्या है? इससे मेरा कोई झगड़ा भी नहीं है। इससे मेरी पहचान ही नहीं है, झगड़े का सवाल ही नहीं उठता।
सोच कर कप्तान ने कि आदमी तो अच्छा है, भला है, अब भर्ती हो गया है, अब इसको निकालना भी ठीक नहीं है, कोई और काम दे देना चाहिए। तो चौके में काम दे दिया। छोटा काम, जो कर सके। मटर के दाने, बड़े एक तरफ कर, छोटे एक तरफ कर।
घंटे भर बाद जब कप्तान आया तो दार्शनिक वैसा ही बैठा हुआ था। तुमने अगर रोदिन का चित्र देखा हो, मूर्ति, रोदिन की प्रसिद्ध मूर्ति है--विचारक, ऐसा ठुड्डी से हाथ लगाए हुए एक विचारक बैठा हुआ है। उसी ठीक मुद्रा में दार्शनिक बैठा हुआ था। दाने जैसे थे मटर के, वैसे के वैसे रखे थे। एक दाना भी यहां से वहां नहीं हटाया गया था। कप्तान ने पूछा कि महाराज, इतना तो कम से कम करो!
उसने कहा कि पहले सब बात साफ हो जानी चाहिए। तुमने कहा कि बड़े एक तरफ करो, छोटे एक तरफ करो। मझोल कहां जाएं? और मैं कदम नहीं उठाता जब तक कि सब साफ न हो, स्पष्ट न हो।
इतनी समझदारी होगी तो तुम अनंत सागर में अपनी नाव न छोड़ सकोगे। इसलिए सैनिकों की बुद्धि नष्ट कर देनी होती है। फिर वे यंत्रवत जूझ जाते हैं, कट जाते हैं, काट देते हैं। अब जिस आदमी ने हिरोशिमा पर एटम बम गिराया, एक लाख आदमी पांच मिनट में जल कर राख हो जाएंगे, अगर जरा भी सोचता तो क्या गिरा पाता? तो ज्यादा से ज्यादा यही हो सकता था कि जाकर कह देता कि मैं नहीं गिरा सकता हूं, चाहो तो मुझे गोली मार दो। यह ज्यादा उचित होता। कि एक आदमी, मर जाऊंगा, क्या हर्जा है! लेकिन एक लाख आदमियों को पांच मिनट में अकारण मार डालूं, जिनका कोई भी कसूर नहीं है! छोटे बच्चे हैं, स्कूल जाने की तैयारी कर रहे हैं, अपने बस्ते सजा रहे हैं। पत्नियां घर में भोजन बना रही हैं। लोग दफ्तर काम के लिए जा रहे हैं। इन निहत्थे लोगों पर, जो सैनिक भी नहीं हैं, नागरिक हैं, जिनका कोई हाथ युद्ध में नहीं है--इन पर एटम बम गिराऊं?
लेकिन नहीं, यह सवाल ही नहीं उठा। वह जो बाएं घूम, दाएं घूम का शिक्षण है, वह सवालों को नष्ट कर देता है। वह एक अंधापन पैदा कर देता है। उसने तो बम गिरा दिया। और जब दूसरे दिन सुबह पत्रकारों ने उससे पूछा कि तुम रात सो सके? तो उसने कहा: मैं बहुत अच्छी नींद सोया। क्योंकि जो काम मुझे दिया गया था, वह पूरा कर दिया। फिर अच्छी नींद के सिवाय और क्या था? जो मेरा कर्तव्य था, वह पूरा कर आया, बहुत गहरी नींद सोया।
एक लाख आदमी जल कर राख होते रहे और उनके ऊपर बम गिराने वाला आदमी रात गहरी नींद सो सका! जरूर बुद्धि बिलकुल पोंछ दी गई होगी। जरा भी बुद्धि का नाम-निशान न रहा होगा।
तो एक तरफ बुद्धिमान लोग हैं, उनमें साहस नहीं है। और एक तरफ साहसी लोग हैं, उनमें बुद्धि नहीं है। इनमें से दोनों में से कोई भी परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता। इसलिए दरिया ने बड़ी ठीक बात कही: कोई सूर सुधीर! साहसी और अति बुद्धिमान, सुधीर। सुधि जिसके भीतर हो, धी जिसके भीतर हो, प्रज्ञा जिसके भीतर हो, कोई प्रज्ञावान साहसी! ऐसा अमृत संयोग जब मिलता है, ऐसा जब सोने में सुगंध होती है, तब परमात्मा को पाया जाता है।
दरिया बान गुरुदेव का, कोई झेलै सूर सुधीर।
यहां मेरे पास दोनों तरह के लोग आ जाते हैं। कोई हैं जो बहुत पंडित हैं, बहुत सोच-विचार में हैं, वे भी बाण को नहीं झेल पाते। उनके बीच इतने शास्त्र हैं कि बाण शास्त्रों में ही छिद जाता है, उनके हृदय तक नहीं पहुंच पाता। उनकी समझदारी अतिशय है कि उनके भीतर साहस तो रह ही नहीं गया है। साहसी आ जाते हैं तो भी मेरी बात गलत समझते हैं, क्योंकि साहसी मेरी बात सुन कर ही--मैं स्वतंत्रता की बात करता हूं, वह स्वच्छंदता की बात समझ लेता है। उसके पास बुद्धि नहीं है। मैं प्रेम की बात करता हूं, वह काम की बात समझ लेता है। उसके पास बुद्धि नहीं है। मैं कुछ कहता हूं, वह कुछ का कुछ कर लेता है।
सदगुरु का बाण तो केवल वे ही झेल सकते हैं जिनमें दोनों बातें हों--साहस हो, सुबुद्धि हो।
लागत ही ब्यापै सही...
फिर तो लग भर जाए, जरा सा भी लग जाए गुरु का बाण, फिर तो व्याप जाता है।
...रोम-रोम में पीर।
रोएं-रोएं में विरह की पीड़ा पैदा हो जाती है। परमात्मा की पुकार उठने लगती है। प्रार्थना जगने लगती है।
साध सूर का एक अंग, मना न भावै झूठ।
साध न छांड़ै राम को, रन में फिरै न पूठ।।
कहते हैं कि साधु और सूर में एक बात की समानता है कि दोनों के मन को झूठ नहीं भाता।
साध न छांड़ै राम को, रन में फिरै न पूठ।
जैसे शूरवीर युद्ध के मैदान से पीठ नहीं फेरता। चाहे कुछ भी हो जाए, बचे कि जाए जीवन, भागता नहीं, लौट नहीं पड़ता, पीठ नहीं दिखाता। वैसे ही राम की खोज में जो चला है, चाहे विरह कितना ही जलाए, अंगारों पर चलना पड़े, तो भी लौटता नहीं है। लौट ही नहीं सकता। लौटना असंभव है, क्योंकि वे अंगारे जलाते भी हैं और शीतल भी करते हैं। बड़े विरोधाभासी हैं। वे कांटे चुभते भी हैं और भीतर एक बड़ी मिठास भी भर जाते हैं। नीम कड़वी भी है और शुद्ध भी करती है।
दरिया सांचा सूरमा, अरिदल घालै चूर।
राज थापिया राम का, नगर बसा भरपूर।।
दरिया सांचा सूरमा...
वही है सच्चा योद्धा जो अपने भीतर के शत्रुओं को समाप्त कर दे।
बाहर के शत्रुओं को तो कौन कब समाप्त कर पाया है! और बाहर के शत्रुओं को समाप्त करो तो नये शत्रु पैदा हो जाते हैं। और बाहर के शत्रुओं पर विजय भी पा लो तो भी विजय कोई ठहरने वाली नहीं है। जो आज जीता है, कल हार जाएगा। जो आज हारा है, कल जीत जाएगा। बाहर तो जिंदगी प्रतिपल बदलती रहती है। वहां तो कुछ भी शाश्वत नहीं है, ठहरा हुआ नहीं है--जलधार है।
लेकिन भीतर एक युद्ध है--और भीतर के योद्धा बनना है! वहां शत्रु हैं, असली शत्रु वहां हैं--क्रोध है, काम है, लोभ है, मोह है...हजार शत्रु हैं। इन सबको जो जीत लेता है, इन सबका जो मालिक हो जाता है, वही उस बड़े मालिक से मिलने का हकदार है।
मालिक बनो छोटे, तो बड़े मालिक से मिल सकोगे। उतनी पात्रता अर्जित करनी चाहिए। मालिक से मिलने के लिए कुछ तो मालिक जैसे हो जाओ। साहब से मिलने के लिए कुछ तो साहब जैसे हो जाओ। कुछ तो प्रभुता तुम्हारे भीतर हो, तो प्रभु के द्वार पर तुम्हारा स्वागत हो सके।
राज थापिया राम का, नगर बसा भरपूर।
अपने भीतर तो राम का राज स्थापित करो। अभी तो काम का राज है तुम्हारे भीतर। राम का राज स्थापित करो। अभी तो तुम्हारे भीतर कामनाएं ही कामनाएं हैं, और खींचे लिए जाती हैं, और तुम बंधे कैदी की तरह घसिटते हो। काम से घिरा हुआ चित्त सारा गौरव खो देता है, सारी गरिमा खो देता है।
लेकिन ध्यान रहे कि काम हो कि क्रोध हो कि लोभ हो कि मोह हो, इन्हें मार नहीं डालना है, इन्हें रूपांतरित करना है। मार डालोगे तो तुमने अपनी ही ऊर्जा के स्रोतों को नष्ट कर दिया। क्योंकि क्रोध ही जब ध्यान से जुड़ जाता है तो करुणा बनता है। क्रोध को काट नहीं डालना है, ध्यान से जोड़ देना है। होशियार तो वही है जो जहर को भी औषधि बना ले। सच्चा सुधी तो वही है जो पत्थरों को भी सीढ़ियां बना ले, मार्ग की बाधाओं को भी जो उपयोग कर ले, उनका सहयोग ले ले।
जो बुद्धू हैं वे भीतर के शत्रुओं को मारने में लग जाते हैं। और सदियों से धर्म के नाम पर ऐसे ही बुद्धुओं का राज्य रहा है। भीतर के शत्रुओं को मार सकते हो, मगर मार कर तुम पाओगे कि तुमने अपने ही अंग काट दिए। बाइबिल कहती है कि जो हाथ तुम्हारा चोरी करे, उस हाथ को काट दो। यह तो ठीक। लेकिन यही हाथ दान दे सकता था; अब दान कैसे दोगे? और जो आंख बुरा देखे, वह आंख फोड़ दो। ठीक; लेकिन यही आंख तो इस जगत में परमात्मा को देखती है; अब परमात्मा को कैसे देखोगे? और आंख तो तटस्थ है। आंख न तो कहती है बुरा देखो, न कहती है भला देखो। आंख तो सिर्फ देखने की सुविधा है। तुम जो देखना चाहते हो वही देखो। अगर परमात्मा देखना चाहते हो तो आंख परमात्मा को देखने का साधन बन जाती है।
इसलिए मैं इस तरह की कहानियों को सहमति नहीं देता। कहानी है कि सूरदास ने अपनी आंखें फोड़ लीं। सूरदास के वचन मुझे काफी भरोसा दिलाते हैं कि इस तरह का काम सूरदास कर नहीं सकते। और किया हो तो उनका सारा जीवन व्यर्थ हो जाता है। सूरदास ने कृष्ण के सौंदर्य के ऐसे प्यारे गीत गाए हैं; यह असंभव है कि सूरदास ने अपनी आंखें फोड़ ली हों--इसलिए, क्योंकि आंखें वासना में ले जाती हैं। आंखें वासना में ले भी नहीं जातीं किसी को। सूरदास जैसे व्यक्ति को तो बात समझ में आ ही गई होगी। आंखें कहीं वासना में ले जाती हैं? वासना भीतर होती है तो आंखें वासना का साधन बन जाती हैं। और प्रार्थना भीतर हो तो आंखें प्रार्थना का साधन बन जाती हैं। तुम्हारे हाथ में तलवार है, इससे तुम चाहे किसी की जान ले लो और चाहे किसी की जान ली जा रही हो तो बचा लो। तलवार तटस्थ है।
सारी इंद्रियां तटस्थ हैं। इन्हीं कानों से उपनिषद सुने जाते हैं, इन्हीं आंखों से सुबह उगता सूरज देखा जाता है। इन्हीं आंखों से चोर खजाने खोजता है दूसरों के। इन्हीं आंखों से लोगों ने अपने भीतर के खजाने खोज लिए हैं। सब तुम पर निर्भर है।
तो भीतर के शत्रुओं को जीतना तो जरूर है, मारना नहीं है। मार ही दिया तो फिर जीत क्या? मारे हुए पर जीत का कोई अर्थ होता है?
एक चाय-घर में लोग गपशप में लगे हैं। एक सैनिक युद्ध से लौटा है, वह बड़ी बहादुरी हांक रहा है। वह कह रहा है कि मैंने एक दिन में पचास सिर काटे, ढेर लगा दिया सिरों का।
मुल्ला नसरुद्दीन बहुत देर से सुन रहा है। उसने कहा: यह कुछ भी नहीं। मैं भी युद्ध में गया था अपनी जवानी में। एक दिन में मैंने हजार आदमियों के पैर काट दिए थे।
सैनिक ने कहा: पैर? कभी सुना नहीं! यह भी कोई बात है? सिर काटे जाते हैं, पैर नहीं।
मुल्ला ने कहा: मैं क्या करता, सिर तो कोई पहले ही काट चुका था!
मरों के अगर तुम पैर काट भी लाए तो कोई विजेता नहीं हो। अगर तुमने मार ही डाला अपने भीतर तो तुम कुछ बुद्धिमान नहीं हो। और तुम अपने भीतर जिनको शत्रु समझ कर मार डाले हो, उनको मारने के बाद पाओगे: तुम्हारे जीवन की सारी ऊर्जा के स्रोत सूख गए।
इसलिए तुम्हारे संतों के जीवन में न उल्लास है, न उत्सव है, न आनंद है। एक गहन उदासी है। तुम्हारे संतों के जीवन में कोई सृजनात्मकता भी नहीं है। उनसे कोई गीत भी नहीं फूटते। उनसे कोई नृत्य भी नहीं जगता। क्योंकि जो ऊर्जा गीत बन सकती थी और नृत्य बन सकती थी, उस ऊर्जा को तो वे नष्ट करके बैठ गए। उनके जीवन में कोई करुणा भी नहीं दिखाई पड़ती। क्योंकि क्रोध को मार दिया, करुणा पैदा कहां से हो?
और मैं तुमसे कहता हूं: जिसने कामवासना को जला डाला अपने भीतर, वह ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं होता; वह सिर्फ नपुंसक हो जाता है। और नपुंसक होने में और ब्रह्मचारी होने में बहुत फर्क है, जमीन-आसमान का फर्क है। उससे ज्यादा कोई फर्क और क्या होगा?
रूस में ईसाइयों का एक संप्रदाय था जो अपनी जननेंद्रियां काट डालता था। क्या तुम उनको ब्रह्मचारी कहोगे? जननेंद्रियां काटने से क्या कामवासना चली जाएगी? आंखें फोड़ने से क्या तुम सोचते हो रूप की आकांक्षा चली जाएगी? कान फोड़ने से क्या तुम सोचते हो भीतर ध्वनि का आकर्षण समाप्त हो जाएगा? काश, इतना आसान होता, तब तो धार्मिक हो जाना बड़ी सरल बात होती। चले गए अस्पताल, करवा आए कुछ आपरेशन, हो गए धार्मिक। बस सर्जनों की जरूरत होती, सदगुरुओं की नहीं।
सदगुरु काटता नहीं, सदगुरु रूपांतरित करता है। अनगढ़ पत्थर को मिटा नहीं देना है; उसको गढ़ना है, उसमें से मूर्ति प्रकट करनी है। मूर्ति छिपी है उसमें। तुम्हारे क्रोध में करुणा की मूर्ति छिपी है; थोड़ी छानने की, छनावट की जरूरत है। और तुम्हारे काम की ऊर्जा ही तुम्हारी राम की ऊर्जा है। ये तुम्हारी संपदाएं हैं। ये शत्रु हैं अभी, क्योंकि तुम जानते नहीं कि कैसे इनका उपयोग करें। जिस दिन तुम जान लोगे कि कैसे इनका उपयोग करें, यही तुम्हारे सेवक हो जाएंगे।
आज से हजारों साल पहले, वेद के जमाने में, आकाश में बिजली ऐसी ही कौंधती थी--ऐसी ही जैसी अब कौंधती है। लेकिन तब आदमी कंपता था, थरथराता था, सोचता था कि इंद्र महाराज नाराज हो रहे हैं, कि इंद्र महाराज धमकी दे रहे हैं। स्वभावतः, समझ में आती है बात। पांच हजार साल पहले बिजली के संबंध में हमें कुछ पता नहीं था। और जब बिजली आकाश में कड़कती होगी तो जरूर छाती धड़कती होगी, घबड़ाहट होती होगी। कोई व्याख्या चाहिए। तो एक ही व्याख्या मालूम होती थी कि इंद्रधनुष...जैसे कि इंद्र ने अपने धनुष पर बाण चढ़ाया हो। नाराज है इंद्र। कुछ भूल हो गई हमसे। लोग घुटनों पर गिर पड़ते होंगे और प्रार्थना करते होंगे।
अब कोई बिजली की प्रार्थना नहीं करता। अब भी बिजली चमकती है, मगर तुम घुटनों पर गिर कर प्रार्थना नहीं करते। अब तुम भलीभांति जानते हो कि बिजली क्या है। अब तो बिजली तुम्हारे घर में सेवा कर रही है; बटन दबाओ और बिजली हाजिर और कहती है: जी हुजूर, आज्ञा! बटन दबाओ, और पंखा चले। बटन दबाओ, और बिजली जले। बटन दबाओ, रेडियो चले। बटन दबाओ, टेलीविजन शुरू हो जाए। अब तो बिजली तुम्हारे घर की दासी है। अब आकाश की बिजली को तुम इंद्रधनुष का या इंद्र का क्रोध और कोप नहीं मानते। अब तो बात खतम हो गई। अब तो ये कहानियां बच्चों को पढ़ाने योग्य हो गई हैं। अब तो बच्चे भी इन पर भरोसा न करेंगे।
जैसे ही हम किसी बात को पूरा-पूरा जान लेते हैं, हम उसके मालिक हो जाते हैं। बाहर की बिजली तो वश में आ गई है, भीतर की बिजली अभी वश में नहीं आई है। भीतर की बिजली का नाम कामवासना है। वह जीवंत विद्युत है। अब तक के धार्मिक लोग उससे डरे रहे, घबड़ाए रहे, कंपते रहे। उनके कंपन से कुछ फायदा नहीं हुआ है। और उनकी घबड़ाहट से बहुत नुकसान हुआ है। जो जानते हैं, वे तो कहेंगे: इस भीतर की विद्युत को भी बदला जा सकता है। यह भी तुम्हारी सेविका हो सकती है।
जब कामवासना तुम्हारी सेवा में रत हो जाती है तो ब्रह्मचर्य। जब तक तुम कामवासना की सेवा करते हो तो अब्रह्मचर्य। भेद इतना ही है--कौन मालिक? इससे सब निर्भर होता है। कामवासना को काट डालो, काटना बहुत आसान है। बहुत आसान है! तुम अजित सरस्वती के पास जा सकते हो। बड़ा आसान है कामवासना को काट डालना। तुम्हारी जननेंद्रियां काटी जा सकती हैं, तुम्हारे शरीर के भीतर हारमोन, जिनसे कि कोई पुरुष होता है, कोई स्त्री होता है, वे हारमोन निकाले जा सकते हैं, नये हारमोन डाले जा सकते हैं। तुम्हें बिलकुल कामवासना से रिक्त किया जा सकता है।
मगर तुम यह मत सोचना कि इससे तुम महावीर हो जाओगे, कि इससे तुम बुद्ध हो जाओगे, कि इससे तुम्हारे भीतर दरिया की तरह आनंद की लहरें उठने लगेंगी, कि मीरा की तरह तुम नाच उठोगे। कुछ भी नहीं, इससे तुम एक कोने में बिलकुल सुस्त होकर बैठ जाओगे। तुम्हारा जीवन एक महा उदासी से घिर जाएगा। तुम्हारी जिंदगी अमावस की रात होगी, पूर्णिमा का चांद नहीं। तुम सिर्फ उदास और सुस्त हो जाओगे। तुम मुर्दा हो जाओगे।
और तुम इस बात को भलीभांति जानते हो। न जानते होओ तो गांव के किसान से पूछ लेना। आखिर सांड़ में और बैल में फर्क क्या है? क्या बैल को तुम ब्रह्मचारी समझते हो? सांड़ की रौनक! सांड़ का रंग! सांड़ की शान! और कहां दीन-दरिद्र बैल। मगर किसानों ने हजारों साल से यह तरकीब निकाल ली कि अगर सांड़ को बधिया कर दो तो ही बैलगाड़ी में जोत सकते हो, गुलाम बना सकते हो। कमजोर हो जाता है, दीन-हीन हो जाता है। सांड़ को जरा जोत कर देखो बैलगाड़ी में! न तुम बचोगे, न बैलगाड़ी बचेगी। किसी गड्ढे में पड़े, हड्डियां तुम्हारी टूट चुकी होंगी, बैलगाड़ी के अस्थिपंजर बिखर चुके होंगे--और सांड़ जाकर शंकर जी के किसी मंदिर में विश्राम कर रहा होगा! लेकिन सांड़ को बधिया कर दो, और दीन हो जाता है, दया-योग्य हो जाता है। अब बैलों की तरह उसे जोतो तुम बैलगाड़ी में, चाहे हल-बक्खर में, जो चाहो करो।
मनुष्य दीन हो जाता है अगर कामवासना को काट दिया जाए, क्रोध को अगर काट दिया जाए, लोभ को अगर काट दिया जाए, तो बहुत दीन हो जाता है। उस दीनता की तुमने बहुत पूजा की है। मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं: बंद करो अब यह पूजा! दीन मनुष्य के दिन गए। अब महिमाशाली मनुष्य के दिन आने दो! अब उस मनुष्य के दिन आने दो जो ऊर्जाओं का रूपांतरण करेगा, दमन नहीं; जो हर ऊर्जा का उपयोग करेगा।
और मैं तुमसे कहता हूं: परमात्मा ने तुम्हें जो भी दिया है, निश्चित ही व्यर्थ नहीं दिया है। परमात्मा पागल नहीं है। अगर उसने कामवासना दी है तो जरूर उसमें छिपा कोई खजाना होगा। जरा खोदो, जरा खोजो। अगर क्रोध दिया है तो जरूर क्रोध में छिपी हुई कोई ऊर्जा होगी, उसे मुक्त करो। शत्रुता तभी तक मालूम होती है जब तक तुम गुलाम हो इनके। जिस दिन मालिक हो जाते हो, उसी दिन ये सब मित्र हो जाते हैं।
दरिया सांचा सूरमा...
वही है सच्चा सूर।
...अरिदल घालै चूर।
राज थापिया राम का, नगर बसा भरपूर।।
शत्रुओं को पछाड़ देता है। उनकी छाती पर बैठ जाता है। उन्हें चारों खाने चित्त कर देता है। राम के राज्य को अपने भीतर स्थापित कर लेता है।
लेकिन ध्यान रखना--नगर बसा भरपूर!
यह कोई रिक्त जगह नहीं है राम का राज्य--नगर भरपूर बसा है! उत्सव पैदा होता है। दिवाली है, होली है, रंग का त्यौहार उठता है। दीये जलते हैं।
राज थापिया राम का, नगर बसा भरपूर।
और जब तक तुम्हें किसी के भीतर राम का राज्य बसा हुआ दिखाई न पड़े, भरपूर, गुलाल न उड़ती हो, रंग न उड़ते हों, दीये न जलते हों, मृदंग पर थाप न पड़ती हो, बांसुरी न बजती हो--तब तक समझना कि साधु नहीं है; सिर्फ किसी तरह अपने को दबाए, किसी तरह अपने को सम्हाले बैठा हुआ मुर्दा है, जीवंत नहीं है।
रसना सेती ऊतरा, हिरदे किया बास।
दरिया बरखा प्रेम की, षट ऋतु बारह मास।।
सुनते हो, प्यारा वचन: रसना सेती ऊतरा!
जब तक तुम्हारी जीभ पर ही राम का नाम रहेगा, तब तक कुछ न होगा। हृदय में उतर जाए।
रसना सेती ऊतरा, हिरदे किया बास।
जब तुम्हारे हृदय में उतर जाए राम। विरह की आग ऐसी जले, ऐसी जले कि जल जाए सब कुछ मन का--विचार, कल्पनाएं, स्मृतियां, शोरगुल, भीड़-भाड़--और तुम्हारे भीतर शांति हो जाए। और शब्द राम का सवाल नहीं है, भाव का सवाल है। राम शब्द तो जीभ पर ही रहेगा। राम शब्द को तुम हृदय में नहीं ले जा सकते; हृदय में शब्द जाने का कोई उपाय ही नहीं है। वहां तो केवल भाव होते हैं। लेकिन तुम समझते हो। भाव को तुम पहचानते हो। कोई भी शब्द शब्द बनने के पहले भाव होता है। भाव शब्द की आत्मा है; शब्द भाव का शरीर है। शब्द की खोल तो जाने दो, भाव में डोलो, भाव की मस्ती में उतरो।
रसना सेती ऊतरा, हिरदे किया बास।
और जब भी तुम्हारे हृदय में भाव की तरंग उठने लगेगी, वह चमत्कार घटेगा।
दरिया बरखा प्रेम की...
प्रेम की वर्षा हो जाएगी तुम्हारे ऊपर। होती ही रहेगी। फिर बंद नहीं होने वाली है।
...षट ऋतु बारह मास।
छहों ऋतुओं में, बारह महीने वर्षा होती ही रहेगी। फिर ऐसा नहीं कि वर्षाकाल आया और गया, कि आषाढ़ में बादल घिरे और फिर खो गए। फिर आषाढ़ ही आषाढ़ है। फिर यह प्रेम की वर्षा होती ही रहती है।
लेकिन क्या तुम्हें तुम्हारे संतों में प्रेम की ऐसी वर्षा होती हुई मालूम पड़ती है? क्या तुम्हारे मंदिरों में तुम्हें प्रेम भरपूर बहता हुआ मालूम पड़ता है? प्रेम से रिक्त तुम्हारे मंदिर हैं। प्रेम से शून्य तुम्हारे चर्च, तुम्हारे गिरजे, तुम्हारी मस्जिदें, तुम्हारे गुरुद्वारे हैं। प्रेम से रिक्त तुम्हारे साधु-संत हैं। हां, उदासी जरूर है। एक हताशा है। एक अंधेरा जरूर उनकी आत्मा पर छाया है, मगर रोशनी नहीं मालूम होती। और यही धर्म का रूप समझा जाने लगा है। सदियों-सदियों से चूंकि यही चलता रहा है, अब धीरे-धीरे हम सोचने लगे कि यही धर्म है।
यह धर्म नहीं है; यह अधर्म से भी बदतर है। यह आस्तिकता नहीं है; यह नास्तिकता से भी गिरी हुई अवस्था है। नास्तिक तो कभी आस्तिक हो भी जाए; ये तुम्हारे तथाकथित धार्मिक लोग कभी आस्तिक न हो पाएंगे। इन्होंने तो जीवन को बिलकुल गलत दृष्टि से ही पकड़ लिया है। इनका परमात्मा जीवन के विरोध में है। परमात्मा कहीं जीवन के विरोध में हो सकता है? परमात्मा तो जीवन का रचनाकार है। यह तो उसी का गीत है, उसी की कविता है। यह तो उसी ने रंगा है चित्र। चित्रकार कहीं अपने चित्र के विरोध में हो सकता है? मूर्तिकार कहीं अपनी मूर्ति के विरोध में हो सकता है? नर्तक अपने नृत्य के विरोध में, तो फिर नाचे ही क्यों?
दरिया बरखा प्रेम की, षट ऋतु बारह मास।
फिर तो प्रेम की वर्षा होगी, उत्सव होगा, सावन घिरेगा और जाएगा नहीं।
झर-झर-झर बरसे करुणा-घन;
सर-सर-सर सिहरे तृण-तरु-तन;
झर-झर-झर बरसे करुणा-घन!
नाद-निरत, अति ध्वनित गगन मन;
अवनि मृदंग-घोर सुन उन्मन;
हरित भरित नित चिन्मय चेतन;
सिहर-सिहर हरषे मृण्मय कण;
झर-झर-झर बरसे करुणा-घन;
सर-सर-सर सिहरे तृण-तरु-तन।
सन-सन-सनन समीरण-रिंगण,
झींगुर-झंकृति किंकिणि-सिंजन,
करवन-उपवन-राजि प्रमंथन,
हहरा हर-हर-हहर-प्रभंजन
झर-झर-झर बरसे करुणा-घन;
सर-सर-सर सिहरे तृण-तरु-तन।
तरणि-ज्वालमय धरणि-काल-क्षण
शांत, तृप्त पाकर घन-तर्पण;
ले अंबर का अर्घ्य समर्पण--
थर-थर-थर वसुधा-हिल आंगण
कंपित भू-प्रांगण;
झर-झर-झर बरसे करुणा-घन;
सर-सर-सर सिहरे तृण-तरु-तन।
बरसने दो! खोलो हृदय को! प्रेम के मेघ को बरसने दो! तो ही तुम जानोगे कि परमात्मा है। नाचो, गाओ, गुनगुनाओ, डोलो! मस्ती के पाठ सीखो। मस्ताने ही, दीवाने ही केवल उसको जान पाते हैं। बाकी उसकी बातें करते रहें भला, लेकिन उनकी बातें तोतारटंत हैं। उनकी बातों का कोई भी मूल्य नहीं है। उनकी बातों में कोई अर्थ नहीं है।
दरिया हिरदे राम से, जो कभु लागै मन।
लहरें उट्ठें प्रेम की, ज्यों सावन बरखा घन।।
अगर एक बार मन जुड़ जाए, एक बार तुम्हारा हृदय और राम से जुड़ जाए।
लहरें उट्ठें प्रेम की...
तो तुमसे प्रेम बहेगा।
...ज्यों सावन बरखा घन।
जैसे सावन में वर्षा होती है ऐसे।
लेकिन धर्म के नाम पर एक से एक झूठ चल रहे हैं। धर्म के नाम पर प्रेम का विरोध चलता है। धर्म के नाम पर जीवन में कुछ भी हरा न रह जाए, इसकी चेष्टा चलती है, सब सूख-साख जाए! धर्म के नाम पर बगियों की प्रशंसा नहीं है, मरुस्थलों के गीत गाए जा रहे हैं।
जन दरिया हिरदा बिचे, हुआ ग्यान परगास।
जैसे ही उसका तीर तुम्हारे हृदय के बीच पहुंच जाता है, उसका भाव तुम्हारे हृदय में आ जाता है।
...हुआ ग्यान परगास।
वैसे ही ज्ञान का प्रकाश हो उठता है।
हौद भरा जहं प्रेम का...
और जहां प्रेम का सरोवर भरा है--
...तहं लेत हिलोरा दास।
फिर तो हिलोर ही हिलोर है। फिर तो मस्ती ही मस्ती है।
परमात्मा जब आता है तो तुम्हें शराबी की तरह मदमस्त कर जाता है। अमी झरत, बिगसत कंवल! उस परम दशा में, उस अंतर्दशा में अमृत झरता है और कमल खिलते हैं।
अमी झरत, बिगसत कंवल, उपजत अनुभव ग्यान।
और तभी तुम जानना कि ज्ञान का जन्म हुआ, जब तुम्हारा कमल खिले और जब तुम्हारे भीतर अमृत की वर्षा का अनुभव हो। जब तक ऐसा न हो, तब तक शास्त्रीय शब्दों को अपना ज्ञान मत समझ लेना। पांडित्य को प्रज्ञा मत समझ लेना।
जन दरिया उस देस का, भिन-भिन करत बखान।
यद्यपि उस परम देश की बात अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग ढंग से कही है; मगर वह देश एक ही है। बुद्ध अपने ढंग से कहते हैं, और जरथुस्त्र अपने ढंग से कहते हैं, और चैतन्य अपने ढंग से कहते हैं। मैं उसे अपने ढंग से कह रहा हूं। और तुम्हें जिस दिन अनुभव होगा तुम उसे अपने ढंग से कहोगे। ये ढंगों के भेद हैं। मगर वह अनुभव एक है। अभिव्यक्तियां अनेक हैं।
तुम्हें निमंत्रण देता हूं--छोड़ो उदासी, छोड़ो दमन, छोड़ो जीवन-विरोध। आओ सावन को बुलाएं।
प्रथम आषाढ़ी झड़ी है, चलो भीगें
पालकी ऋतु की खड़ी है, चलो भीगें
ग्रह मुहूरत चौघड़ी देखे बिना ही
यह मिलन की शुभ घड़ी है, चलो भीगें
पी पुकारे प्राण-पपीहा और तुमको
घरू कामों की पड़ी है, चलो भीगें
प्यारवाले इन क्षणों की उम्र अपनी
कुल उमर से भी बड़ी है, चलो भीगें
लाज की चलती मगर संकोच की यह
तोड़ दो जो हथकड़ी है, चलो भीगें
यदि हमीं समझें न ये संकेत गीले
स्वयं से धोखाधड़ी है, चलो भीगें
युगल अधरों प्यार की गीली रुबाई
आज पावस ने पढ़ी है, चलो भीगें
यह तुम्हारा रूप पावस में नहाया
आग पर शबनम मढ़ी है, चलो भीगें
भीगने का निमंत्रण--यही संन्यास का निमंत्रण है। संन्यास का द्वार केवल उनके लिए खुला है जो भीगने को राजी हैं। लेकिन लोग छोटी-छोटी चीजों को बचा रहे हैं। लोग साधारण वर्षा में भी कभी भीगते नहीं--कहीं कपड़े गीले न हो जाएं! कभी साधारण वर्षा में भी भीग कर देखो, उसका आनंद बहुत है। कपड़े तो सूख जाएंगे। तुम कुछ ऐसी कच्ची मिट्टी के पुतले थोड़े ही हो कि बह जाओगे, कि गल जाओगे। लेकिन साधारण वर्षा में भी लोग छाता लेकर चलते हैं। कुछ लोग तो छाता सदा ही लिए रहते हैं--पता नहीं कब वर्षा हो जाए।
मुल्ला नसरुद्दीन छाता लेकर बाजार से गुजर रहा था। वर्षा होने लगी, मगर उसने छाता न खोला। दो-चार लोगों ने देखा, उन्होंने कहा कि नसरुद्दीन, छाता क्यों नहीं खोलते?
नसरुद्दीन ने कहा कि छाते में छेद ही छेद हैं।
तो लोगों ने पूछा: फिर छाता लेकर चले ही क्यों?
तो उसने कहा कि मैंने सोचा कि कौन जाने रास्ते में वर्षा हो जाए! कौन जाने कहीं वर्षा हो जाए!
जहां तक अंतर-आकाश का संबंध है, तुम सब छाते लेकर चल रहे हो, तुम सुरक्षा का इंतजाम कर के चल रहे हो। यहां मेरे पास भी लोग आ जाते हैं, तो मैं देखता हूं कि छाता लगाए बैठे हैं और सुन रहे हैं। हालांकि सौभाग्य से उनके छातों में कभी-कभी कुछ छेद होते हैं और थोड़ी बूंदाबांदी उन पर हो जाती है--उनके बावजूद हो जाती है! मगर छाता लगाए रहते हैं।
भीतर के छाते छोड़ने होंगे। हिंदू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, जैन, ये सब छाते हैं। ये सब सुरक्षाएं हैं, शब्दों की आड़ में छिपाने के उपाय हैं। इन सबकी होली जला दो। ये सब छाते इकट्ठे करके होली जला दो। इस बार जब होली जले तो छाते जला आना। एकबारगी खाली आदमी हो जाओ, जैसा परमात्मा ने तुम्हें बनाया। परमात्मा ने तुम्हें जैन नहीं बनाया और न बौद्ध बनाया और न हिंदू और न मुसलमान। परमात्मा ने तो तुम्हें बस खालिस आदमी बनाया है। एक बार वैसे ही हो जाओ जैसा परमात्मा ने बनाया, तो उससे संबंध जुड़ना आसान हो जाए। और तभी तुम यह निमंत्रण स्वीकार कर सकोगे।
प्रथम आषाढ़ी झड़ी है, चलो भीगें
पालकी ऋतु की खड़ी है, चलो भीगें
और तुम मत पूछो कि मुहूर्त! कोई मुहूर्त की नहीं पड़ी है। सारी घड़ियां उसकी हैं। हर घड़ी मुहूर्त है।
ग्रह मुहूरत चौघड़ी देखे बिना ही
यह मिलन की शुभ घड़ी है, चलो भीगें
तुम जाकर ज्योतिषियों को अपनी जन्म-पत्री मत दिखलाओ।
मेरे पास लोग आ जाते हैं, वे कहते हैं कि ज्योतिषी महाराज को जन्म-पत्री दिखलाई थी, उन्होंने कहा कि इस जन्म में समाधि का मुहूर्त नहीं है। तो मैं संन्यास लूं कि नहीं?
ज्योतिषियों से पूछ रहे हैं समाधि का मुहूर्त! तुमने समाधि को कोई रेसकोर्स का घोड़ा समझा है! कि लाटरी की कोई टिकट समझी है!
खूब होशियार हैं लोग! बचने के कैसे-कैसे उपयोग खोजते हैं! मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं: संन्यास तो लेना है, लेकिन शुभ घड़ी में लेंगे।
कौन सी शुभ घड़ी? परमात्मा अभी है, तो यह घड़ी शुभ नहीं है? सारे दिन प्यारे हैं, सारे क्षण प्यारे हैं, क्योंकि सारे दिन उसमें पगे हैं, सारे दिन उसमें हैं। हर घड़ी वही तो है, और तो कोई भी नहीं है।
ग्रह मुहूरत चौघड़ी देखे बिना ही
यह मिलन की शुभ घड़ी है चलो भीगें
प्यारवाले इन क्षणों की उम्र अपनी
कुल उमर से भी बड़ी है चलो भीगें
एक क्षण भी उसके प्रेम में भीगने का तुम्हें अवसर आ जाए, तो तुम्हारी सारी हजारों-हजारों जिंदगियों की लंबाई व्यर्थ हो गई; उसके प्रेम का एक क्षण भी शाश्वत है। वर्षों जीने का कोई अर्थ नहीं है; एक क्षण उसके प्रेम में जी लेना पर्याप्त है। सारे जीवन-जीवन की, अनंत-अनंत जीवन की तृप्ति हो जाती है।
लाज की चलती मगर संकोच की यह
तोड़ दो जो हथकड़ी है चलो भीगें
मगर बड़ा लाज, बड़ा संकोच--दुनिया क्या कहेगी!
मैं विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था तो नियमित मेरा क्रम था कि जब भी वर्षा हो तो एक सुनसान रास्ते पर विश्वविद्यालय के, मैं वर्षा में भीगने के लिए जाता था। फिर धीरे-धीरे एक और पागल आदमी मेरे साथ राजी हो गया। उस रास्ते पर जो आखिरी बंगला था, वह विश्वविद्यालय के फिजिक्स के प्रोफेसर का बंगला था। वहीं जाकर रास्ता समाप्त हो जाता था। तो उसी रास्ते के समाप्ति पर बड़े वृक्ष के नीचे बैठ कर हम दोनों भीगते थे। प्रोफेसर की पत्नी और बच्चे बड़ी दया खाते होंगे और जब भी वर्षा होती थी तो वे जरूर रास्ता देखते होंगे, क्योंकि जब भी हम पहुंचते तो वे खिड़कियों पर, द्वार पर खड़े हुए दिखाई पड़ते।
फिर संयोग की बात, फिजिक्स के प्रोफेसर से किसी ने मेरी मुलाकात करवा दी। और वे मेरी बातों में धीरे-धीरे इतने उत्सुक हो गए कि एक दिन मुझे घर भोजन पर निमंत्रण किया। तो मैंने उनसे कहा कि मेरे एक मित्र भी हैं, वे सदा आपके घर तक मेरे साथ घूमने आते हैं, उनको भी ले आऊं? तो उन्होंने कहा: उनको भी जरूर ले आएं। उन्होंने घर जाकर अपनी पत्नी को बहुत प्रशंसा की होगी कि दो बहुत अदभुत व्यक्तियों को लेकर आ रहा हूं। घर में लोग बड़े उत्सुक थे, बड़ी तैयारियां की गईं। और जब हम दोनों को देखा तो सारे बच्चे, पत्नी, बहू, सब वहां से भाग गए अंदर के कमरे में और इतने जोर से हंसने लगे अंदर के कमरे में जाकर कि प्रोफेसर को बड़ा सदमा पहुंचा, कि यह तो बड़ा...
मैंने उनसे कहा: आप संकोच न करें। हमारा परिचय पुराना है। वे कोई हमारे अपमान में नहीं हंस रहे हैं; वे सिर्फ यह देख कर हंस रहे हैं कि आप बड़ी प्रशंसा करके लाए हैं और वे हमें जानते हैं कि ये दोनों पागल हैं।
बाहर ही भीगने से लोग डर गए हैं, तो भीतर तो भीगने की बात ही कहां उठती है! थोड़ा लाज-संकोच छोड़ो। मीरा ने कहा है: लोकलाज छोड़ी! पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे! सब लोकलाज छोड़ कर नाची! ऐसे ही लोकलाज छोड़ोगे तो नाच पाओगे, तो भीग पाओगे।
यदि हमीं समझें न ये संकेत गीले
स्वयं से धोखाधड़ी है चलो भीगें
युगल अधरों प्यार की गीली रुबाई
आज पावस ने पढ़ी है चलो भीगें
और कभी तुम्हें ऐसा संयोग मिल जाए कि कोई भीगा हुआ आदमी मिल जाए और निमंत्रण दे तो लोकलाज छोड़ देना, और बुलाए अपने अंतरगृह में तो जरा झांक कर देख लेना।
सदगुरु का इतना ही अर्थ है कि तुम्हें एक बार याद दिला दे--उस सबकी जो तुम्हारे भीतर भी पड़ा है, लेकिन अपरिचित, अनजाना।
कंचन का गिर देख कर, लोभी भया उदास!
बड़ी अदभुत बात दरिया ने कही है। दरिया कहते हैं: तुम लोभ इत्यादि की फिकर मत करो। मैं तुम्हें भीतर उस जगह ले चलता हूं--कंचन का गिर देख कर--जहां तुम सोने के हिमालय देखोगे। वहां तुम्हारा लोभी उदास हो जाएगा अपने आप--यह देख कर कि जितना मैं मांगता था, उससे बहुत ज्यादा मुझे मिला ही हुआ है! सारी वासना गिर जाएगी।
यह सूत्र बड़ा अर्थपूर्ण है। लोग तुमसे कहते हैं: लोभ छोड़ो, तब वहां पहुंच सकोगे। दरिया कहते हैं: वहां आ जाओ और लोभ इत्यादि सब छूट जाएगा। लोभ इसीलिए तो है, भिखमंगे तुम इसीलिए तो बने हो कि कुछ तुम्हारे पास नहीं है। एक बार दिखाई पड़ जाए कि भीतर अनंत संपदा मेरी है, फिर कैसा लोभ! लोभ खुद उदास होकर बैठ जाएगा।
कंचन का गिर देख कर, लोभी भया उदास।
जन दरिया थाके बनिज, पूरी मन की आस।।
फिर वहां कहां का व्यापार! फिर वहां सारा लोभ, सारी आसक्ति, सारे चित्त के व्यापार अपने आप गिर जाते हैं।
...पूरी मन की आस।
तुमने जो मांगा था, उससे हजार गुना मिल गया, करोड़ गुना मिल गया। तुमने जो सोचा भी नहीं था, वह भी मिला। तुम जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे, सपने भी नहीं देख सकते थे, वह भी मिला। तुम मालिक हो बड़े साम्राज्य के। तुम सम्राट हो। परमात्मा तुम्हारे भीतर विराजमान है।
मीठे राचैं लोग सब, मीठे उपजै रोग।
दरिया कहते हैं: हो सकता है मेरी बातें तुम्हें कड़वी लगें, क्योंकि तुम्हें मीठी-मीठी बातें सुनने की आदत हो गई है। तुम सिर्फ सांत्वना सुनने के लिए उत्सुक हो गए हो। तुम साधुओं के पास जाते हो कि वे किसी तरह मलहम-पट्टी कर दें।
मीठे राचैं लोग सब, मीठे उपजै रोग।
लेकिन ध्यान रखना, सांत्वना सबको अच्छी लगती है, मीठी लगती है; मगर सांत्वना के कारण ही तुम्हारे रोग बच रहे हैं, तुम्हारे रोग नहीं मिट पा रहे हैं।
निरगुन कडुवा नीम सा, दरिया दुर्लभ जोग।
तैयारी करो--विरह की पीड़ा को झेलने की!
निरगुन कडुवा नीम सा...
बहुत कड़वी दवा है, मगर यही तुम्हें तुम्हारी बीमारियों से मुक्त करेगी। ध्यान से कड़वी दवा और कुछ भी नहीं है। विरह से ज्यादा बड़ी और कोई पीड़ा नहीं है। मगर ध्यान की कड़वी दवा ही तुम्हें अमृत के सरोवर तक पहुंचा देती है। और विरह की गहन पीड़ा और विरह की अग्नि ही तुम्हारे स्वर्ण को निखार देती है। तुम्हें पात्रता देती है। तुम्हें इस योग्य बनाती है कि परमात्मा तुम्हारा आलिंगन करे।
लेकिन यह दुर्लभ जोग है। अगर तुममें साहस हो और समझ हो तो ही यह क्रांतिकारी घटना घट सकती है। और ऐसा नहीं है कि तुममें साहस और समझ नहीं है--सिर्फ अवसर दो साहस और समझ को मिलने का। सम्हालो साहस और समझ को साथ-साथ। और तुम्हारे जीवन में भी वह परम सौभाग्य का क्षण आ सकता है जब तुम भी कह सको--
अमी झरत, बिगसत कंवल, उपजत अनुभव ग्यान।
जन दरिया उस देस का, भिन-भिन करत बखान।।
फिर सारे कुरान, सारी बाइबिलें, सारे वेद, सारी गीताएं तुम्हें ठीक मालूम पड़ेंगी, क्योंकि तुम जान लोगे अनुभव से कि अलग-अलग भाषाओं में एक ही बात कही गई है।
अमी झरत, बिगसत कंवल!
खिल सकता है कमल। अमृत भी झर सकता है। सच तो यह है कि कमल खिला ही हुआ है, अमृत झर ही रहा है--अपनी तरफ लौटो। आंख भीतर की तरफ उलटाओ। भीतर सुनो, भीतर गुनो।
आज इतना ही।