DARIYADAS

AMI JHARAT BIGSAT KANWAL 02

Second Discourse from the series of 14 discourses - AMI JHARAT BIGSAT KANWAL by Osho. These discourses were given during MAR 11 -24 1979.
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पहला प्रश्न:
भगवान, णमो णमो! फिर-फिर भूले को, चक्र में पड़े को--शब्द की गूंज से, जागृति की चोट से, ज्ञानियों की व्याख्या से; विवेक, स्मृति, सुरति, आत्म-स्मरण और जागृति की गूंज से, फिर चौंका दिया! णमो णमो!
मोहन भारती! चौंकना शुभ है, लेकिन चौंकना काफी नहीं है। चौंक कर फिर सो जा सकते हो। चौंक कर फिर करवट ले सकते हो! फिर गहरी नींद, फिर अंधेरे की लंबी स्वप्न-यात्रा शुरू हो सकती है।
चौंकना शुभ जरूर है, अगर चौंकने के पीछे जागरण आए। लेकिन सिर्फ चौंकने से राजी मत हो जाना; मत सोच लेना कि चौंक गए तो सब हो गया। ऐसा जिसने सोचा, फिर सो जाएगा। जिसने सोचा कि चौंक गया तो बस सब हो गया, अब करने को क्या बचा--उसकी नींद सुनिश्चित है।
और ध्यान रखना, जो बार-बार चौंक कर सो जाए, फिर धीरे-धीरे चौंकना भी उसके लिए व्यर्थ हो जाता है। यह उसकी आदत हो जाती है। चौंकता है, सो जाता है। चौंकता है, सो जाता है।
तुम कुछ नये नहीं हो, कोई भी नया नहीं है। न मालूम कितने बुद्धों, न मालूम कितने जिनों के पास से तुम गुजरे होओगे। और न मालूम कितनी बार तुमने कहा होगा: ‘णमो णमो! फिर-फिर भूले को, चक्र में पड़े को चौंका दिया!’ और फिर तुम सो गए और चल पड़ा वही...फिर वही स्वप्न, फिर वही आपा-धापी, फिर वही मन का विक्षिप्त व्यापार।
चौंकने का उपयोग करो। चौंकना तो केवल शुरुआत है, अंत नहीं। हां, सौभाग्य है, क्योंकि बहुत हैं जो चौंकते भी नहीं। ऐसे जड़ हैं, ऐसे बधिर हैं, उनके कान तक आवाज भी नहीं पहुंचती। और अगर पहुंच भी जाए तो वे उसकी अपने मन के अनुसार व्याख्या कर लेने में बड़े कुशल हैं। अगर ईश्वर भी उनके द्वार पर दस्तक दे, तो वे अपने को समझा लेते हैं: हवा का झोंका होगा, कि कोई राहगीर भटक गया होगा, कि कोई अनजान-अपरिचित राह पूछने के लिए द्वार खटखटाता होगा। हजार मन की व्याख्याएं हैं अपने को समझा लेने की। और जिसने व्याख्या की, उसने सुना नहीं।
सुनो, व्याख्या न करना। सुनो और चोट को पचा मत जाना। चोट का उपयोग करो। चोट सृजनात्मक है। शुभ है कि ऐसी प्रतीति हुई। पर कितनी देर टिकेगी यह प्रतीति? हवा के झोंके की तरह आती हैं प्रतीतियां और चली जाती हैं, और तुम वैसे ही धूल-धूसरित, उन्हीं गड्ढों में, उन्हीं कीचड़ों में पड़े रह जाते हो। कमल कब बनोगे? कीचड़ के चौंकने मात्र से कमल नहीं बन जाएगा। कीचड़ को गुजरना पड़ेगा एक रूपांतरण से, तो कमल जन्मेगा। चौंकी कीचड़ चौंकी कीचड़ है, लेकिन कीचड़ ही है। बेहतर उनसे, जिनके कान पर जूं भी नहीं रेंगती; लेकिन बहुत भेद नहीं है।
ऐसा बहुत मित्रों को होता है। कोई बात सुन कर एक झंकार हो जाती है। कोई बात गुन कर मन की वीणा का कोई तार छिड़ जाता है। कोई गीत जग जाता है। आया झोंका, गया झोंका। उतरी एक किरण और फिर खो गई। मुट्ठी नहीं बंधती, हाथ कुछ नहीं लगता। और बार-बार ऐसा होता रहा तो फिर चौंकना भी व्यर्थ हो जाएगा; वह भी तुम्हारी आदत हो जाएगी।
तो पहली बात तो यह, मोहन भारती, कि शुभ हुआ, स्वागत करो। स्वयं को धन्यवाद दो कि तुमने बाधा न डाली।
बरस भर पर फिर से सब ओर
घटा सावन की घिर आई!

नाचता है मयूर वन में
मुग्ध हो सतरंगे पर खोल
कूक कोकिल ने की सब ओर
मृदुल स्वर में मधुमय रस घोल
सुभग जीवन का पा संदेश धरा सुकुमारी सकुचाई!
घटा सावन की घिर आई!

पल्लवों के घूंघट से झांक
पलक-दोलों में कलियां झूल
झकोरों से मीठा अनुराग
मांगतीं घन-अलकों में भूल
झरोखों से अंबर के मूक किसी की आंखें मुसकाईं!
घटा सावन की घिर आई!

खुले कुंतल से काले नाग
बादलों के छितराए आज
तड़ित चपला की उज्ज्वल रेख
तिमिर-घन-मुख का हीरक ताज
उड़े भावों के मृदुल चकोर बरस भर पर बदली आई!
घटा सावन की घिर आई!
लेकिन घटा बीत न जाए, हवा उसे उड़ा न ले जाए। बरसे! घटा के आ जाने भर से सावन नहीं आता। घटा के बिना आए भी सावन नहीं आता। लेकिन घटा के आ जाने भर से सावन नहीं आता। बरसे! जी भर कर बरसे! नहा जाओ तुम। सब धूल बह जाए तुम्हारे चित्त के दर्पण की।
प्रीतिकर लगती हैं बातें विवेक की, स्मृति की, सुरति की, आत्म-स्मरण की, जागृति की। लेकिन बातों से क्या होगा? बातें तो फिर बातें ही हैं। कितनी ही प्रीतिकर हों। नहीं, उनसे पेट न भरेगा, मांस-मज्जा न बनेगी। सुंदर-सुंदर शब्द तुम्हें ज्ञानी बना देंगे, ध्यानी न बनाएंगे। और जो ध्यानी नहीं है, उसका ज्ञान दो कौड़ी का है। उसका ज्ञान बासा है, उधार है।
ऐसे तो शास्त्रों में ज्ञान भरा पड़ा है, पढ़ लो, संगृहीत कर लो, जितना चाहो उतना कर लो। वेद कंठस्थ कर लो। तो भी तुम तुम ही रहोगे। वेद कंठ में ही अटका रह जाएगा, तुम्हारे हृदय तक उसकी जलधार न पहुंचेगी। सिर्फ ध्यान पहुंचता है हृदय तक, ज्ञान नहीं पहुंचता। ज्ञान तो मस्तिष्क में ही बोझ बन कर रह जाता है। ज्ञान पांडित्य को तो जन्म देता है, प्रज्ञा को नहीं। और प्रज्ञा है, जो मुक्ति लाती है।
मुझे सुन कर भी ऐसी भूल मत कर लेना। मेरे शब्द तुम्हें प्यारे लगें तो तुम उन्हें संगृहीत करोगे; प्यारे लगें तो सम्हाल कर रखोगे, संजो कर रखोगे मस्तिष्क की मंजूषा में। बहुमूल्य हैं, ताले डाल कर रखोगे। इससे कुछ भी न होगा। एक नये तरह का पांडित्य पैदा हो जाएगा। तुम जैसे थे वैसे के वैसे रह जाओगे। घटा आई, सावन न आया। घटा आई और हवाएं उड़ा ले गईं बदली को; तुम रूखे थे, रूखे रह गए।
अमृत बरसना चाहिए। और अमृत उन्हीं पर बरसता है जिनके हृदय ध्यान की पात्रता को पैदा कर लेते हैं।
शब्दों से मत तृप्त होना। ‘ईश्वर’ शब्द ईश्वर नहीं है और न ‘ध्यान’ शब्द ध्यान है, न ‘प्रेम’ शब्द प्रेम है। मगर शब्द बड़ी भ्रांति पैदा करवा देते हैं। हम शब्दों में जीते हैं।
मनुष्यता की सबसे बड़ी खोज शब्द है, भाषा है। और चूंकि मनुष्य की सबसे बड़ी खोज भाषा है, इसलिए मनुष्य भाषा में जीता है। प्रेम की बात करते-करते भूल ही जाती है यह बात कि प्रेम हुआ नहीं अभी। बात करते-करते भरोसा आने लगता है, बहुत बार दोहरा लेने से आत्म-सम्मोहन हो जाता है।
लेकिन प्रेम कुछ बात और है। स्वाद उसका कुछ और है। पीयोगे तो जानोगे। प्रेम शराब है। मदमस्त होओगे तो जानोगे। और ध्यान दूसरा पहलू है प्रेम का। एक ही सिक्का है--एक तरफ ध्यान, एक तरफ प्रेम। और दो ही तरह के लोग हैं इस दुनिया में। या तो ध्यान से जाना जाएगा सत्य। तब जागो। तब ये शब्द जो तुमने सुने और तुम्हें प्रीतिकर लगे--विवेक, स्मृति, सुरति, आत्म-स्मरण, जागृति--इन सारे शब्दों में एक ही बात है: जागो! जो भी करो, जागरूकता से करो! उठो, बैठो, चलो--लेकिन स्मरण न खोए, बोध न खोए। यंत्रवत मत चलो, मत उठो, मत बैठो।
महावीर ने कहा है: विवेक से चले, विवेक से उठे, विवेक से बैठे।
एक-एक कृत्य जागृति के रस से भर जाए। तो धीरे-धीरे शब्द तो खो जाएंगे, लेकिन शब्द के भीतर जो छिपा हुआ अनुभव है वह तुम्हारा हो जाएगा। एक तो रास्ता है ऐसा और एक रास्ता है कि डूबो प्रेम में, मस्ती में, प्रार्थना में, पूजा में, अर्चना में।
उलटी दिखाई पड़ती हैं बातें। एक में जागना है, दूसरे में डूबना है। लेकिन दोनों एक ही जगह ले आती हैं, क्योंकि दोनों में एक ही घटना मूलतः घटती है।
जैसे ही तुम पूरी तरह जागते हो, अहंकार नहीं पाया जाता। जाग्रत चैतन्य में अहंकार की कहीं छाया भी नहीं मिलती, कहीं पदचिह्न भी नहीं मिलते। अहंकार तो अंधेरे में जीता है, रोशनी होते ही खो जाता है। अहंकार अंधेरे का अंग है। अंधकार ही अहंकार है। जैसे ही तुमने जागरण का दीया जलाया, ज्योति उमगी--पाओगे कि भीतर कोई अहंकार नहीं है। तुम तो हो, लेकिन कोई मैं-भाव नहीं है। अस्तित्व है, लेकिन अस्मिता नहीं है।
और अगर प्रेम में डूबे, भक्ति में डूबे, भाव में डूबे, प्रार्थना में डूबे--तो भी अहंकार गया। डूबने से गया। जिसने जाकर चढ़ा दिया परमात्मा के चरणों में अपने को, चढ़ाते ही वह नहीं बचा।
यद्यपि विपरीत दिखाई पड़ती हैं दोनों बातें--ध्यान और प्रेम। और आज तक मनुष्य-जाति के इतिहास में कोई चेष्टा नहीं हुई कि ध्यान और प्रेम को एक साथ जोड़ा जा सके। बुद्ध ध्यान की बात करते हैं, मीरा प्रेम की बात करती है। महावीर ध्यान की बात करते हैं, चैतन्य प्रेम की बात करते हैं। दोनों के बीच कोई तालमेल नहीं बैठ सका, कोई सेतु नहीं बन सका। बनना चाहिए सेतु, क्योंकि दोनों में कुछ विरोध नहीं है; दोनों का परिणाम एक है। यात्रा-पथ भिन्न हों भला, मंजिल एक है, गंतव्य एक है। कोई अपने को डुबा कर खो देता है, कोई अपने को जगा कर खो देता है। दोनों हालत में अहंकार खो जाता है। और अहंकार खो जाए तो परमात्मा ही शेष रह जाता है।
यद्यपि ध्यानियों और प्रेमियों की भाषा भी अलग-अलग होगी। स्वभावतः जिसने ध्यान से सत्य को पाया है, वह परमात्मा की बात ही नहीं करेगा। क्योंकि जिसने ध्यान से सत्य को पाया है, वह आत्मा की बात करेगा। वह कहेगा: अप्पा सो परमप्पा! वह कहेगा: आत्मा ही परमात्मा है। इसलिए महावीर और बुद्ध ईश्वर को स्वीकार नहीं करते। इसलिए नहीं कि नहीं जानते, मगर उनके लिए ईश्वर ध्यान के मार्ग से उपलब्ध हुआ है। ध्यान के मार्ग पर ईश्वर का नाम आत्मा है, स्वरूप है। और जिसने भक्ति से जाना है--मीरा ने या चैतन्य ने, जिन्होंने प्रेम के मार्ग से जाना है--उनके मार्ग पर अनुभूति तो वही है निर-अहंकारिता की, लेकिन अनुभूति को अभिव्यक्ति देने का शब्द अलग है। वे परमात्मा की बात करेंगे।
इन शब्दों से बड़ा विवाद पैदा हुआ है। मैं अपने संन्यासियों को चाहता हूं कि इस विवाद में मत पड़ना। सब विवाद अधार्मिक हैं। विवाद में शक्ति मत गंवाना। तुम्हें जो रुचिकर लगे--अगर ध्यान रुचिकर लगे, ध्यान; अगर भक्ति रुचिकर लगे, भक्ति। मुझे दोनों अंगीकार हैं। और कुछ लोग ऐसे भी होंगे जिन्हें दोनों एक साथ रुचिकर लगेंगे; वे भी घबड़ाएं न। बहुत से प्रश्न मेरे पास आते हैं कि हमें प्रार्थना भी अच्छी लगती है, ध्यान भी अच्छा लगता है! क्या चुनें?
दोनों अच्छे लगते हों तो फिर तो कहना ही क्या! सोने में सुगंध! फिर तो तुम्हारे ऊपर ऐसा रस बरसेगा जैसा अकेले ध्यानी पर भी नहीं बरसता और अकेले भक्त पर भी नहीं बरसता। तुम्हारे भीतर तो दोनों फूल एक साथ खिलेंगे। तुम्हारे भीतर तो दोनों दीये एक साथ जलेंगे। तुम्हारी अनुभूति तो परम अनुभूति होगी। मेरी चेष्टा यही है कि प्रेम और ध्यान संयुक्त हो जाएं और धीरे-धीरे अधिकतम लोग दोनों पंखों को फैलाएं और आकाश में उड़ें। जब एक पंख को फैला कर लोग पहुंच गए सूरज तक, तो जिसके पास दोनों पंख होंगे उसका तो कहना ही क्या!
मगर बात नहीं, मोहन भारती! अपनी पीठ थपथपा कर प्रसन्न मत हो लेना कि मेरी बातों से चोट पड़ी। चोट खो न जाए, चोट पड़ती ही रहे, और गहन होती जाए। चोट को झेलते ही जाना। लगते-लगते ही तीर लग पाएगा। होते-होते ही बात हो पाएगी। बहुत बार चूकोगे, स्वाभाविक है; उससे पश्चात्ताप भी मत करना। जन्मों-जन्मों से चूके हो, चूकना तुम्हारी आदत का हिस्सा हो गया है।
घबड़ाना भी मत; क्योंकि जो पहुंचे हैं, वे भी बहुत चूक-चूक कर पहुंचे हैं। कोई महावीर तुमसे कम नहीं चूके थे। कोई दरिया तुमसे कम नहीं चूके थे। अनंत-अनंत काल तक चूकते रहे। पर फिर एक दिन पहुंचना हुआ। तुम भी अनंतकाल से चूकते रहे हो, एक दिन पहुंचना हो सकता है। और चूकने वाले पहुंच गए, तुम भी पहुंच सकते हो। मगर जीवन बदलता है अनुभव से, अनुभूति से।
एक मित्र ने पूछा है कि आपने कहा कि जड़वत गायत्री का पाठ करते रहने से कुछ सार नहीं। तो उन्होंने कहा है कि मैं तो यहां आपके आश्रम में भी लोगों को जड़वत ध्यान करते देख रहा हूं, इससे क्या सार है?
भाई मेरे, तुमने ध्यान किया? तुम कैसे देखोगे दूसरों को कि वे जड़वत ध्यान कर रहे हैं या आत्मवत? न तो तुमने गायत्री पढ़ी है, और पढ़ी होगी तो जड़वत ही पढ़ी होगी, अन्यथा यहां क्यों आते? अगर गायत्री का फूल तुम्हारे भीतर खिल गया होता तो यहां क्यों आते? बात खत्म हो गई! इलाज हो गया, फिर चिकित्सक की तलाश नहीं होती। यहां आए हो तो गायत्री अगर पढ़ी होगी तो जड़वत पढ़ी होगी। और यहां तुम दूसरों को देखते हो ध्यान करते!
दूसरों को देखने से कुछ भी न होगा। कैसे तुम जानोगे? अगर दो प्रेमी एक-दूसरे को गले लगा रहे हों तो कैसे तुम जानोगे कि वस्तुतः गले लगाने का अभिनय कर रहे हैं या सच में ही हृदय में उमंग उठी है, प्रीति जगी है, गीत बहा है? कैसे जानोगे बाहर से? बाहर से जानने का कोई उपाय नहीं है। यह भी हो सकता है कि अभिनय ही कर रहे हों; औपचारिक हो, क्रियाकांड हो। यह भी हो सकता है कि वस्तुतः भीतर आनंद जगा हो। मगर बाहर से जानने का कोई उपाय नहीं है।
तुम भी थोड़ा नाचो, गाओ, गुनगुनाओ। इतने दूर आ ही गए हो तो ऐसे थोथे प्रश्न पूछ कर वापस मत लौट जाना। ये प्रश्न तो तुम वहीं पूछ सकते थे। यहां आ गए हो तो थोड़ी यहां की शराब पीओ, चखो। और फिर इससे क्या फर्क पड़ता है कि और दूसरे जड़वत कर रहे हैं? तुमने कोई ठेका नहीं लिया किसी के मोक्ष का। तुम अपना मोक्ष सम्हाल लो, इतना काफी है। अगर तुम्हारे भीतर ध्यान जग जाए तो सारी दुनिया जड़वत करती हो ध्यान तो करने दो, चिंता न लो। तुम्हारे भीतर जग जाए ध्यान, तुम पा लोगे। इतना ही तुम्हारा दायित्व है। इतनी ही परमात्मा की तुमसे अपेक्षा है कि तुम खिल जाओ, कि तुम्हारी सुगंध बिखर जाए हवाओं में, कि तुम ऐसे बीज की तरह बंद ही बंद न मर जाना।
देखा होगा लोगों को नाचते, ध्यान करते। सोचा होगा: यह भी सब जड़वत हो रहा है। कैसे पहचानोगे? बुद्ध भी ऐसे ही चलते हैं जैसे कोई और आदमी चलता है। ऐसे ही तो पैर उठाएंगे, ऐसे ही तो हाथ हिलाएंगे, ऐसे ही तो उठेंगे, ऐसे ही तो बैठेंगे। मगर भीतर एक भेद है। और भेद इतना बारीक, इतना नाजुक, कि जो भेद को अनुभव करेगा वही जानेगा। भेद बहुत नाजुक है, बहुत सूक्ष्म है। तुम भी उठते हो, बुद्ध भी उठते हैं; पर फर्क है। क्या फर्क है? बुद्ध होशपूर्वक उठते हैं; तुम उठ जाते हो मशीन की तरह। बुद्ध होशपूर्वक सोते हैं; नींद में भी होश की एक धारा बहती रहती है।
कृष्ण ने कहा है: जो सबके लिए गहन रात्रि है, तब भी योगी जागा हुआ है। या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी!
लेकिन तुम योगी को सोया हुआ देखोगे तो भेद न कर पाओगे योगी में और भोगी में, कि कर पाओगे भेद? दोनों एक से मालूम पड़ेंगे, दोनों सोए हैं। भेद भीतर है, बहुत भीतर है। भेद इतना आंतरिक और निजी है कि कोई दूसरा वहां निमंत्रित नहीं किया जा सकता। उस अंतर्तम में तो तुम अपने ही भीतर डुबकी मारोगे तो उतर पाओगे।
आनंद ने बुद्ध से पूछा है कि मैं आपको सोते देखता हूं।...वर्षों आनंद बुद्ध के साथ रहा, तब उसे यह धीरे-धीरे अनुभव हुआ कि कुछ भेद है। चालीस साल बुद्ध के साथ रहा। चालीस साल बुद्ध की सेवा में रत रहा, सुबह से लेकर रात तक। जब तक बुद्ध सो न जाएं, तब तक बिस्तर पर न जाए। जिस कक्ष में बुद्ध सोएं वहीं सोता था--रात कब जरूरत पड़ जाए! कभी नींद न आती होगी। कभी नींद देर से आती होगी। तो बुद्ध को सोया हुआ देखता रहता था। वर्षों बाद यह खयाल आया कि थोड़ा सा कुछ भेद मालूम पड़ता है। मगर वह भी धुंधला-धुंधला। बुद्ध से पूछा उसने: मेरे सोने में और आपके सोने में भी क्या कुछ भेद है? खैर जागने में तो मेरे और आपके भेद है। मुझे कोई गाली दे तो दुख होता है, क्रोध होता है; आपको कोई गाली दे तो क्रोध नहीं होता, दुख नहीं होता।
एक बार एक आदमी ने आपके ऊपर आकर थूक दिया था तो मैं आगबबूला हो गया था। थूका आप पर था, लेकिन मैं भभक उठा था। मेरा पुराना क्षत्रिय जाग उठा था। अगर मेरे हाथ में तलवार होती तो मैंने उसकी गर्दन काट दी होती। लेकिन गर्दन काटने का विचार तो मेरे भीतर तलवार की तरह कौंध गया था। वह तो आपकी तरफ देख कर चुप रहा। किस तरह अपने को चुप रख सका, यह भी आज कहना कठिन है। एक क्षण को तो आप भी भूल गए थे। मगर फिर खयाल आया था, संकोच आया था कि आपसे आज्ञा ले लूं, फिर इसे जवाब दूं। लेकिन आपने सिर्फ चादर से थूक को पोंछ लिया था और उस आदमी से कहा था: भाई, कुछ और कहना है? तब तो मैं बहुत चौंका था। तब मुझे भेद दिखाई पड़ा था। मैं तो आग से जल उठा। मैं तो भूल ही गया संन्यास। मैं तो भूल ही गया ध्यान। मैं तो भूल ही गया सब ज्ञान। एक क्षण में वर्ष-वर्ष पुंछ गए। मैं वही का वही था। और आपसे पूछा था कि क्या इस आदमी को सजा दूं? यह आदमी सजा का हकदार है। इसको दंड मिलना ही चाहिए।
तो आप हंसे थे और आपने कहा था: उसके थूकने से मैं इतना परेशान नहीं, जितना तेरे दुखी और परेशान होने से परेशान हूं। यह तो अज्ञानी है, क्षम्य है; मगर तू तो कितने दिन से ध्यान की चेष्टा में लगा है! अभी तेरा ध्यान इतना भी नहीं पका? यह मनुष्य कुछ कहना चाहता है। तू थूकने को देख रहा है। यह कुछ ऐसी बात कहना चाहता है जो शब्दों से नहीं कही जा सकती।
ऐसा अक्सर प्रेम में और घृणा में हो जाता है--इतने गहरे भाव कि शब्द में नहीं आते। किसी से प्रेम होता है तो तुम गले लगा लेते हो। क्यों? क्योंकि भाषा में कहने से काम नहीं चलेगा। भाषा छोटी पड़ जाती है। गले लगा कर तुम यही तो कहते हो कि भाषा असमर्थ है। कुछ कृत्य करते हो। ऐसे ही यह आदमी क्रोध से जल रहा है। मेरी मौजूदगी से इसे पीड़ा है। मेरे शब्दों से इसे चोट लगी है। मेरे वक्तव्य ने इसकी धारणाओं को खंडित किया है। यह प्रज्वलित है। यह इतना प्रज्वलित है कि कोई गाली काम नहीं करेगी। इसलिए इस बेचारे को थूकना पड़ा है। इस पर दया करो। इसलिए मैं इससे पूछता हूं कि भाई, कुछ और कहना है? यह तो मैं समझ गया, अब और भी कुछ कहना है या बस इतना ही कहना है? यह वक्तव्य है इसका। थूकने को मत देखो।
तो आनंद ने कहा: मैंने वह दिन तो देखा। ऐसे बहुत दिन देखे। जागने में तो भेद है, पर यह मैंने न सोचा था कि सोने में भी भेद होगा। लेकिन कल रात देर तक नींद न आई, बैठ कर मैं आपको देखता रहा। पूरा चांद आकाश में था, वृक्ष के नीचे आप सोए थे। उस चांद की रोशनी में आप अदभुत सुंदर मालूम होते थे। तब अचानक बिजली जैसे कौंध गई, ऐसा मुझे खयाल आया: कितने वर्ष हो गए आपको सोते देख कर, यह बात मुझे कभी पहले क्यों न याद आई कि आप जिस आसन में सोते हैं, रात भर उसी आसन में सोए रहते हैं, बदलते नहीं! जहां रखते हैं पैर सोते समय, वहीं रहता है रात भर पैर। जहां रखते हैं हाथ, वहीं रहता है रात भर हाथ। करवट भी नहीं बदलते। सुबह उसी आसन में उठते हैं। तो सोते हैं कि रात भर अपने को सम्हाले रखते हैं? क्योंकि जो आदमी सोएगा, करवट भी बदलेगा।
बुद्ध ने कहा: शरीर सोता है, मैं तो जाग गया हूं। मैं जागा ही हुआ हूं।
मगर इस जागने को तुम कैसे जानोगे? आनंद ने सुन लिया; श्रद्धा थी तो मान भी लिया। लेकिन जानोगे कैसे? पता नहीं बुद्ध झूठ कहते हों! पता नहीं सिर्फ अभ्यास कर लिया हो एक ही करवट सोने का! आखिर सर्कस में लोग क्या-क्या अभ्यास नहीं कर लेते! तुम भी कर सकते हो एक ही करवट सोने का अभ्यास। बड़ी आसानी से कर सकते हो।
मैं यही बात एक मित्र से कह रहा था। वे कहने लगे: कैसे अभ्यास हो जाएगा एक ही करवट सोने का?
मैंने उनसे कहा कि पीठ में एक पत्थर बांध कर सो जाओ। जब भी करवट बदलोगे तभी तकलीफ होगी। तकलीफ से बचने में अपने आप अभ्यास हो जाएगा।
जिद्दी थे, अभ्यास किया। कोई चालीस दिन बाद मुझे आकर कहा कि आप ठीक कहते हैं। अब एक ही करवट सोता हूं; क्योंकि वह पत्थर जो बंधा है पीठ से, जब भी करवट बदलो, तब तकलीफ होती है और नींद टूट जाती है। अब तो धीरे-धीरे नींद में भी उस पत्थर की मौजूदगी जरूर अचेतन में छाया डालने लगी होगी।
तो कौन जाने बुद्ध ने अभ्यास ही किया हो! बाहर से कैसे जानोगे?
उतरो, ध्यान का थोड़ा स्वाद लो।
यहां जो भी हो रहा है, जड़वत नहीं हो रहा है। जड़वत ही करना हो तो दुनिया में बहुत स्थान हैं करने को; यहां आने की जरूरत नहीं है। जो जड़वत प्रक्रियाओं से ऊब गए हैं, परेशान हो गए हैं, कर-कर थक गए हैं और कुछ भी नहीं पाया है, सिर्फ विषाद हाथ लगा है--वे ही यहां आए हैं। नहीं तो मेरे साथ जुड़ने की बदनामी कौन ले! मेरे साथ जुड़ने का उपद्रव कौन सहे! उतनी कीमत वही चुकाता है जो बहुत-बहुत द्वार खटखटा चुका है और जिसे अपना मंदिर अभी नहीं मिला है। लेकिन खड़े होकर दूर से मत देखते रहना। नहीं तो तुम यही खयाल लेकर जाओगे: कहीं गायत्री हो रही है, यहां ध्यान हो रहा है; मगर सब जड़वत।
कैसे तुमने यह निर्णय ले लिया कि यह जड़वत हो रहा है? जरा लोगों की आंखों में देखो। जरा लोगों के आनंद में झांको। उनकी मस्ती को थोड़ा पहचानो।
मगर वह पहचान भी तभी होगी जब भीतर तुम्हारे भी थोड़ी नई हवाएं बहें, सूरज की नई किरणें उतरें, तुम्हारा मन-मयूर नाचे--तब।
मोहन भारती! चौंक गए, शुभ है। घटा घिर आई, शुभ है। मंगल-गान करो। पर घटा बरसे! बहुत हो चुकी देर ऐसे भी, अब घटा बिना बरसे न जाए। यह अमी-रस बरसे। तुम इसमें भीगो। और भीगने लगोगे तो पाओगे: अंत नहीं है। जितने भीगोगे उतने ही पाओगे: और भी भीगने को शेष है। जैसे-जैसे सावन आएगा, लगेगा: और भी सावन आने को शेष है।
एक फूल क्या खिला तो वसंत थोड़े ही आ गया। वसंत एक फूल के खिलने से नहीं। एक फूल तो खबर देता है कि आ रहा वसंत, आ रहा वसंत। हजार-हजार फूल खिलेंगे, लाख-लाख फूल खिलेंगे। एक-एक व्यक्ति के भीतर इतनी क्षमता है कि सारे वेद, सारे कुरान, सारी गीताएं, सारे धम्मपद एक-एक व्यक्ति के भीतर खिल सकते हैं।

दूसरा प्रश्न:
भगवान, मानव-जीवन की संतों ने इतनी महिमा क्यों गाई है?
चैतन्य प्रेम! पहली बात, जीवन ही महिमावान है। जीवन परमात्मा की अपूर्व भेंट है। जीवन प्रसाद है। तुमने कमाया नहीं। तुम गंवा भले रहे होओ, मगर कमाया तुमने नहीं। उतरा है, तुम पर किसी अज्ञात लोक से बरसा है। तुमसे किसी ने पूछा तो न था कि होना चाहते हो या नहीं? पूछता भी कैसे? जब तुम थे ही नहीं तो तुमसे पूछता कोई कैसे?
जीवन अपने आप में महिमावान है। जीवन से फिर सारे द्वार खुलते हैं--फिर ध्यान के और प्रेम के और मोक्ष के और निर्वाण के सारे द्वार जीवन से खुलते हैं। जीवन अवसर है, महत अवसर है! चाहे बना लो, चाहे तो मिटा दो। चाहे गा लो गीत, चाहे तोड़ दो बांसुरी। जीवन महान अवसर है।
तो पहली तो बात, जीवन ही अपने आप में अपूर्व है। फिर मनुष्य-जीवन तो और भी अपूर्व है। क्योंकि वृक्ष यद्यपि जीवित हैं, पर बड़े संकीर्ण अर्थों में। और पक्षी भी जीवित हैं, थोड़े वृक्ष से ज्यादा; लेकिन फिर भी बड़ी सीमा है। पशु भी जीवित हैं, पक्षियों से शायद थोड़े ज्यादा; लेकिन फिर भी बड़ी सीमा है। मनुष्य इस पृथ्वी पर सबसे ज्यादा संभावनाओं को लेकर पैदा होता है। मनुष्य इस जगत में सबसे बड़े फूलों के बीज लेकर पैदा होता है। इसलिए मनुष्य-जीवन की महिमा गाई है।
चौराहा है मनुष्य का जीवन। वहां से रास्ते चुने जा सकते हैं। वहां से नरक का रास्ता भी चुना जा सकता है और स्वर्ग का भी। और रास्ते पास-पास हैं।
एक झेन फकीर के पास जापान का सम्राट मिलने गया था। सम्राट, सम्राट की अकड़! झुका भी तो भी झुका नहीं। औपचारिक था झुकना। फकीर से कहा: मिलने आया हूं, सिर्फ एक ही प्रश्न पूछना चाहता हूं। वही प्रश्न मुझे मथे डालता है। बहुतों से पूछा है; उत्तर संतुष्ट करे कोई, ऐसा मिला नहीं। आपकी बड़ी खबर सुनी है कि आपके भीतर का दीया जल गया है। आप, निश्चित ही, आशा लेकर आया हूं कि मुझे तृप्त कर देंगे।
फकीर ने कहा: व्यर्थ की बातें छोड़ो, प्रश्न को सीधा रखो। दरबारी औपचारिकता छोड़ो, सीधी-सीधी बात करो, नगद!
सम्राट थोड़ा चौंका। ऐसा तो कोई उससे कभी बोला नहीं था। थोड़ा अपमानित भी हुआ। लेकिन बात तो सच थी। फकीर ठीक ही कह रहा था कि व्यर्थ की लंबाई में क्यों जाते हो? कान को इतना उलटा क्यों पकड़ना? बात करो सीधी, क्या है प्रश्न तुम्हारा?
सम्राट ने कहा: प्रश्न मेरा यह है कि स्वर्ग क्या है और नरक क्या है? मैं बूढ़ा हो रहा हूं और यह प्रश्न मेरे ऊपर छाया रहता है कि मृत्यु के बाद क्या होगा--स्वर्ग या नरक?
फकीर के पास उसके शिष्य बैठे थे, उनसे उसने कहा: सुनो, इस बुद्धू की बातें सुनो!
बुद्धू--सम्राट को!...और सम्राट से कहा कि कभी आईने में अपनी शक्ल देखी? यह शक्ल लेकर और ऐसे प्रश्न पूछे जाते हैं? और तुम अपने को सम्राट समझते हो? तुम्हारी हैसियत भिखमंगा होने की भी नहीं है!
यह भी कोई उत्तर था! सम्राट तो एकदम आगबबूला हो गया। म्यान से उसने तलवार निकाल ली। नंगी तलवार, एक क्षण और कि फकीर की गर्दन धड़ से अलग हो जाएगी।
फकीर हंसने लगा और उसने कहा: यह खुला नरक का द्वार!
एक गहरी चोट, एक अस्तित्वगत उत्तर--यह खुला नरक का द्वार! समझा सम्राट। तत्क्षण तलवार म्यान में भीतर चली गई। फकीर के चरणों पर सिर रख दिया। उत्तर तो बहुतों ने दिए थे--शास्त्रीय उत्तर--मगर अस्तित्वगत उत्तर, ऐसा उत्तर कि प्राणों में चुभ जाए तीर की तरह, ऐसा स्पष्ट कर दे कोई कि कुछ और पूछने को शेष न रह जाए--यह खुला नरक का द्वार! झुक गया फकीर के चरणों में। अब इस झुकने में औपचारिकता न थी, दरबारीपन न था। अब यह झुकना हार्दिक था।
फकीर ने कहा: और यह खुला स्वर्ग का द्वार! पूछना है कुछ और? और ध्यान रखो, स्वर्ग और नरक मरने के बाद नहीं हैं; स्वर्ग और नरक जीने के ढंग हैं, शैलियां हैं। कोई चाहे यहीं स्वर्ग में रहे, कोई चाहे यहीं नरक में रहे। कोई चाहे सुबह स्वर्ग में रहे, सांझ नरक में रहे; कोई चाहे क्षण भर पहले स्वर्ग और क्षण भर बाद नरक।
और ऐसा ही तुम्हारी जिंदगी में रोज घट रहा है।
मनुष्य-जीवन की महिमा है। इस सम्राट में क्या खूबी थी? बोध! यह बात किसी पशु और पक्षी को नहीं समझाई जा सकती थी। और जिन मनुष्यों को न समझाई जा सके, जानना कि वे केवल नाममात्र को मनुष्य हैं; होंगे पशु-पक्षी ही। यह सम्राट निश्चित मनुष्य रहा होगा।
मनुष्य शब्द देखते हो! मनन से बना है। जिसमें मनन की क्षमता है। अंग्रेजी का शब्द मैन भी मनन से ही बना है। उर्दू का शब्द आदमी बहुत साधारण है; वह अदम से बना है। अदम का अर्थ होता है मिट्टी; मिट्टी का पुतला। वह आदमी की असलियत नहीं है। आदमी शब्द में आदमी की असलियत नहीं है; केवल खोल है। मिट्टी का पुतला है, यह तो सच है; लेकिन मिट्टी के पुतले के भीतर कौन छिपा है? मृण्मय में चिन्मय छिपा है! मिट्टी का दीया है, माना; लेकिन जो ज्योति जल रही है वह मिट्टी नहीं है। आदमी शब्द में खोल की चर्चा है; मनुष्य शब्द में उस खोल के भीतर छिपे हुए गूदे की चर्चा है, आत्मा की चर्चा है। मनुष्य वह है जो मनन कर सके; जिसके सामने विकल्प खड़े हों तो मननपूर्वक चुन सके! यंत्रवत नहीं--मननपूर्वक चुन सके! ध्यानपूर्वक चुन सके! जागरूकता से एक विकल्प को चुने। ऐसे जाग-जाग कर जो कदम रखता है वही मनुष्य है; शेष सबको तो हमें आदमी कहना चाहिए, मनुष्य नहीं। आदमी सभी हैं, मनुष्य बहुत कम हैं।
मनुष्य-जीवन की महिमा है, क्योंकि मनन की क्षमता है। दृष्टि है मनुष्य के पास एक--जो दृश्य को ही नहीं, अदृश्य को भी देखने में समर्थ है। यह उसकी महिमा है। पशु भी देखते हैं, मगर दृश्य ही देखते हैं; अदृश्य की उनके पास कोई प्रतीति नहीं होती। मनुष्य के कान ध्वनि को तो सुनते ही हैं, शून्य को भी सुन लेते हैं। और मनुष्य के हाथ पार्थिव को तो पकड़ ही लेते हैं, अपार्थिव को भी पकड़ लेते हैं।
मनुष्य अपूर्व है, अद्वितीय है। इसे तुम अपने अहंकार की घोषणा मत बना लेना। यह तुम्हारे अहंकार की घोषणा नहीं है। सच पूछो तो यह जो मैं मनुष्य की परिभाषा कर रहा हूं, यह परिभाषा तभी तुम्हारे जीवन का अनुभव बनेगी जब अहंकार छूटेगा। ऐसा मत सोच लेना कि अहा, मैं मनुष्य हूं, तो मेरी बड़ी महिमा है! यह तुम्हारी महिमा नहीं कह रहा हूं मैं--यह मनुष्यत्व की महिमा कह रहा हूं। यह तुम्हारे भीतर जो संभावना छिपी है, उसकी महिमा का गीत गा रहा हूं--तुम जो हो सकते हो; जो तुम्हें होना ही चाहिए; जो तुममें जरा बोध हो तो तुम जरूर हो ही जाओगे; जो अपरिहार्य है, अगर तुममें जरा सोच हो, जरा समझ हो।
पूछते हो तुम कि मानव-जीवन की संतों ने इतनी महिमा क्यों गाई है?
एक तो जीवन महिमावान, फिर वह भी मानव का जीवन। और संत ही गा सकते हैं महिमा, क्योंकि उन्होंने ही मनुष्य को उसकी परिपूर्णता में देखा है।
वैज्ञानिक मनुष्य को उसकी परिपूर्णता में नहीं देखता; उसके लिए तो मांस-मज्जा-हड्डी, यहीं मनुष्य समाप्त हो जाता है। मनुष्य उसके लिए देह से ज्यादा नहीं है। उसे कोई आत्मा मनुष्य में नहीं मिलती। मनुष्य एक बहुत जटिल यंत्र है, बस इतना; इससे ज्यादा नहीं। क्योंकि चीर-फाड़ करके वैज्ञानिक देखता है, कहीं आत्मा पकड़ में आती नहीं। और जो पकड़ में न आए, विज्ञान उसे इनकार कर देता है। इसलिए विज्ञान मनुष्य की बहुत महिमा नहीं गा सकता। अगर विज्ञान का प्रभाव बढ़ता चला गया तो मनुष्य की महिमा कम होती जाएगी--कम होती गई है।
प्राचीन समय में जानने वाले कहते थे: मनुष्य देवताओं से जरा नीचे है। और वैज्ञानिक से पूछो तो वह कहता है: मनुष्य बंदर से जरा ऊपर। बहुत फर्क हो गया--देवताओं से जरा नीचे, और बंदर से जरा ऊपर! यह भी शायद वैज्ञानिक बिना बंदरों से पूछे कह रहा है। नहीं तो बंदर कहेंगे कि मनुष्य और हमसे जरा ऊपर? कहां हम वृक्षों पर और कहां तुम जमीन पर! हमसे भी नीचे।
यह तो डार्विन का मनुष्य है, जो कह रहा है कि मनुष्य बंदरों से विकसित हुआ है। बंदर कुछ और कहते हैं। वे मानते हैं: मनुष्य बंदरों का पतन है। है भी पतन। जरा किसी बंदर से टक्कर लेकर देखो, तो पता चल जाएगा। न उतनी शक्ति है, न उस तरह की छलांग भर सकते हो, न एक वृक्ष से दूसरे वृक्षों पर कूद सकते हो, न वृक्षों पर रह सकते हो। क्या पा लिया है? बंदर से बहुत कमजोर हो गए हो। बंदरों से पूछा जाए तो वे कुछ और कहेंगे। वे हंसेंगे, खिलखिलाएंगे।
मैंने एक कहानी सुनी है। एक टोपियों को बेचने वाला सौदागर लौट रहा था मेले से टोपियां बेच कर। चुनाव करीब आते थे और गांधी टोपियां खूब बिक रही थीं। सौदागर खूब कमाई कर रहा था। दिन भर गांधी टोपियां बिकी थीं। थका था, राह में एक वृक्ष के नीचे, बरगद के एक वृक्ष के नीचे थोड़ी देर विश्राम को रुका। थकान ऐसी थी, ठंडी हवा, वृक्ष की छाया, झपकी लग गई। जब आंख खुली तो जिस पिटारी में टोपियां कुछ और बच गई थीं, वह खुली पड़ी थी, टोपियां सब नदारद थीं। घबड़ाया, चारों तरफ देखा। ऊपर देखा तो वृक्ष पर बंदर बैठे हैं। होंगे कोई सौ-पचास बंदर। सब गांधीवादी टोपियां लगाए हैं! वे ले गए पिटारे से निकाल कर टोपियां। बड़े जंच रहे हैं। बिलकुल भारतीय संसद के सदस्य मालूम होते हैं। घबड़ाया सौदागर कि अब इनसे टोपियां कैसे वापस लेनी? तब उसे याद आई कभी सुनी बात कि बंदर नकलची होते हैं। तो उसके अपने सिर पर एक ही टोपी बची थी, वह उसने निकाल कर फेंक दी। उसका फेंकना टोपी का, कि सारे बंदरों ने टोपियां निकाल कर फेंक दीं। टोपियां बटोर कर बड़ा प्रसन्न सौदागर घर लौट आया। अपने बेटे से कहा कि देख, याद रखना, कभी ऐसी हालत आ जाए तो अपनी टोपी निकाल कर फेंक देना।
फिर ऐसी हालत आई। समय बीता। सौदागर बहुत बूढ़ा हो गया, फिर बेटा उसकी जगह गांधी टोपी बेचने लगा। लौटता था एक दिन। वही वृक्ष, थका-मांदा, विश्राम को लेटा, झपकी खा गया। और वही हुआ जो होना था। आंख खुली, टोकरी खाली पड़ी थी। याद आया, ऊपर देखा। बंदर बड़े मस्ती से टोपी लगाए बैठे थे। याद आई बाप की सलाह, अपनी टोपी निकाल कर फेंक दी। लेकिन जो हुआ वह नहीं सोचा था। एक बंदर को टोपी नहीं मिली थी, वह नीचे उतरा और यह टोपी भी ले गया।
आखिर बंदर भी अपने बेटों को समझा गए होंगे कि दुबारा धोखा न खाना। एक दफा हम खा गए हैं धोखा, अब तुम जरा सावधान रहना। यह सौदागर का बेटा कभी न कभी इस झाड़ के नीचे विश्राम करेगा और टोपी फेंकेगा, तब तुम जल्दी से उस टोपी को भी उठा लेना। जो गलती हमने की है, वह मत करना।
वैज्ञानिक से पूछो तो ज्यादा से ज्यादा कहेगा कि बंदर से थोड़ा सा विकसित। जो देवताओं से थोड़ा नीचे हुआ करता था, वह बंदरों से थोड़ा ऊपर होकर रह गया है। मनुष्य की गरिमा, महिमा बुरी तरह खंडित हुई है। वैज्ञानिक करे भी तो क्या करे? उसकी जो विधि है, उस विधि के कारण ही आत्मा से उसका कोई संस्पर्श नहीं हो सकता; मनुष्य के भीतर छिपे हुए जीवन से उसका कोई नाता नहीं बन सकता। तो जीवन के बिना, आत्मा के बिना, आदमी सिर्फ एक मशीन रह जाता है। कुशल मशीन, पर मशीन! और इसीलिए फिर आदमियों को काटना हो तो कोई अड़चन नहीं होती।
जोसेफ स्टैलिन ने रूस में लाखों लोग काट डाले, जरा भी अड़चन नहीं हुई। अड़चन का कोई कारण न रहा। क्योंकि कम्युनिज्म मानता है कि आदमी में कोई आत्मा है ही नहीं। अगर आत्मा नहीं है तो मारने में हर्ज क्या है? कोई अपनी कुर्सी तोड़ डाले तो इसमें कोई पाप थोड़े ही हो जाएगा। कोई अपना बिजली का पंखा तोड़ दे, इसमें कोई पाप थोड़े ही हो जाएगा। कोई कितनी ही बहुमूल्य मशीन को नष्ट-भ्रष्ट कर दे, कितनी ही बारीक और नाजुक घड़ी हो, कोई पत्थर पर पटक दे, तो भी तुम यह नहीं कह सकते कि तुमने पाप किया।
जोसेफ स्टैलिन बड़ी सरलता से लाखों लोगों को मार सका, काट सका। कारण? कारण था कम्युनिज्म का सिद्धांत, कि आदमी में कोई आत्मा नहीं है। जब आत्मा नहीं है तो बात खत्म हो गई। मिट्टी के पुतलों को गिराने में क्या अड़चन है? काटो! जो हमारे साथ राजी न हो उसे मिटाओ।
और अगर मनुष्य में आत्मा नहीं है तो स्वतंत्रता की क्या आवश्यकता है? स्वतंत्रता किसकी? स्व ही नहीं है तो स्वतंत्रता किसकी? अगर आदमी मशीनें हैं तो उनको भोजन दो, कपड़े दो, छप्पर दो और काम लो। इससे ज्यादा की न उन्हें जरूरत है, न इससे ज्यादा की चिंता करने का कोई कारण है।
जीसस ने कहा है: मनुष्य केवल रोटी के सहारे नहीं जी सकता।
लेकिन कम्युनिज्म यही कहता है कि रोटी के अतिरिक्त आदमी को और चाहिए भी क्या? और बाकी सब बुर्जुआ बकवास है। रोटी मिले, छप्पर मिले, कपड़ा मिले--बात खत्म हो गई। लोकतंत्र, स्वतंत्रता...यह सब बातचीत है, व्यर्थ की बातचीत है।
नहीं; संत ही मनुष्य की महिमा का गीत गा सकते हैं, वैज्ञानिक नहीं गा सकता। क्योंकि संत को ही अनुभव होता है अपने भीतर छिपे हुए परमात्मा का, अपने भीतर छिपे हुए खजानों का--प्रभु के राज्य का! और जिसने अपने भीतर उस परम ज्योति को जगमगाते देखा है, वह कैसे न गीत गाए मनुष्य की महिमा के? क्योंकि वह जानता है कि तुम्हारे भीतर भी वैसी ही ज्योति जगमगा रही है। चाहे तुम पीठ किए खड़े हो, नहीं देखते, कोई हर्जा नहीं; मगर ज्योति तो जगमगा रही है।
जिसने अपने भीतर का संगीत सुना है, अनाहत नाद सुना है, ओंकार सुना है, वह कैसे मनुष्य की महिमा के गीत न गाए? जिसने अपने भीतर मिट्टी ही नहीं, कमल पाया है, अपूर्व सुगंध उड़ती पाई है, वह कैसे मनुष्य की महिमा के गीत न गाए? जिसने अपने भीतर मृत्यु पाई ही नहीं, अमृत पाया है, वह कैसे मनुष्य की महिमा के गीत न गाए?
तुम पूछते हो चैतन्य प्रेम: ‘मानव-जीवन की संतों ने इतनी महिमा क्यों गाई है?’
तुम्हारे अहंकार को सजाने के लिए नहीं। तुम्हारे अहंकार को और बलिष्ठ, और पुष्ट करने के लिए नहीं। सत्य है यह कि मनुष्य के भीतर एक विराट आकाश छिपा है। जो अपने भीतर उतर जाए, वह जगत के रहस्यों के रहस्य के द्वार पर खड़ा हो जाता है। उसके लिए मंदिर के द्वार खुल जाते हैं। जो अपने भीतर की सीढ़ियां उतरने लगता है, वह जीवन के मंदिर की सीढ़ियां उतरने लगता है। जो अपने भीतर जितना गहरा जाता है, उतना ही परमात्मा का अपूर्व अद्वितीय रूप, सौंदर्य, सुगंध, संगीत, सब बरस उठता है।
कितना है जीवन अनमोल!

रजत रश्मियों सी मुस्कान,
सौरभमय कलियों सा गान,
मधु स्मृतियों की दीप-शिखा सा
घटता-बढ़ता प्रतिदिन डोल!

अकथित आहों का विश्वास,
अनुरंजित भावों का श्वास,
तुहिन-बिंदु सा निर्निमेष इस
ढलता दुख-सुख दृग में खोल!

शिथिल पवन का मर्मर गीत,
भ्रमर-कुसुम का मधुमय प्रीत,
मृदुस्मित बन बहलाती है
सुरभि मलय में प्रतिदिन घोल!

मृदु आकांक्षाओं का व्यापार,
इच्छाओं का पल-पल भार,
रोम-रोम कंपित कर जाता
स्वर संगम को भ्रम वश तोल!

कितना है जीवन अनमोल!
थोड़ा देखो अपने जीवन को। यह मुफ्त मिला है, इसलिए ऐसा मत समझ लेना कि मुफ्त है। इसकी कीमत तो कोई भी नहीं, इसलिए यह मत समझ लेना कि इसका मूल्य कुछ नहीं है। कीमत और मूल्य बड़े अलग-अलग शब्द हैं। भाषाकोश में तो उनका एक ही अर्थ होता है--कीमत और मूल्य। लेकिन जीवन के कोश में एक ही अर्थ नहीं होता। कीमत होती है चीजों की जो बाजार में बिकती हैं, बिक सकती हैं, खरीदी जा सकती हैं। लेकिन कुछ ऐसी चीजें हैं, जो बाजार में न बिकती हैं, न बेची जा सकती हैं; उनको मूल्यवान कहते हैं। मूल्यवान वे चीजें हैं जो कीमत से नहीं मिलतीं। तुम लाख कीमत चुकाओ तो भी नहीं मिलतीं।
एक सम्राट ने महावीर को जाकर कहा कि मैंने सब जीत लिया, बड़े से बड़े हीरे-जवाहरात मेरे खजाने में हैं। ऐसा कुछ इस संसार में नहीं है जो मैंने न पा लिया हो। इधर कुछ दिन से लोग आ-आ कर खबर देते हैं कि असली मूल्य की चीज तो ध्यान है।
जैनों का शब्द है ‘सामायिक’--ध्यान के लिए। ठीक शब्द है, प्यारा शब्द है। उसके अपने मूल्य हैं। सम हो जाना, समता को उपलब्ध हो जाना, समभाव को उपलब्ध हो जाना, सम्यकत्व को उपलब्ध हो जाना।
तो उस सम्राट ने कहा: यह सामायिक क्या बला है? अनेक लोग मुझसे आकर कहते हैं, मैं कुछ जवाब ही नहीं दे पाता। यह किस हीरे का नाम है? यह कहां खरीदूं? कहां मिलेगा?
महावीर हंसे होंगे। सामायिक कहीं खरीदी जा सकती है! ध्यान कहीं खरीदा जा सकता है! कि ध्यान कहीं बाजार में बिक सकता है! महावीर को हंसते देख कर उसने कहा: आप हंसें मत, मैं कोई भी कीमत चुकाने को राजी हूं। मैं जिद्दी आदमी हूं। मैं पूरा राज्य भी देने को राजी हूं। मगर यह मामला क्या है? यह है क्या चीज? इसे मैं खरीद कर रहूंगा। यह मुझे बड़ा कष्ट दे रही है बात कि मेरे पास एक चीज नहीं है--यह सामायिक।
महावीर ने कहा: ऐसा कर, मैं तो सब छोड़ चुका हूं, इसलिए तेरे राज्य में मेरी कोई उत्सुकता नहीं है। मेरा राज्य था, वह भी छोड़ चुका हूं। तेरे हीरे-जवाहरात भी मेरे लिए कंकड़-पत्थर हैं। मेरे अपने ही बहुत बोझिल हो गए थे, बांट आया हूं। तेरे गांव में एक गरीब आदमी रहता है, तेरी राजधानी में, मैं उसका नाम तुझे दे देता हूं, पता तुझे दे देता हूं। बहुत गरीब है। एक जून रोटी भी जुड़ नहीं पाती। उसको सामायिक उपलब्ध हो गई है। वह अगर बेचे तो शायद बेच दे।
यह मजाक ही थी। और जब महावीर जैसा व्यक्ति मजाक करता है तो उसके बड़े मूल्य होते हैं। सम्राट तत्क्षण रथ मुड़वा लिया। उस गरीब आदमी के घर के झोपड़े के सामने जाकर रथ रुका। आंखों पर भरोसा ही नहीं आया उस मोहल्ले के लोगों को। गरीबों का मोहल्ला। झोपड़े थे टूटे-फूटे। वह गरीब आदमी तो एकदम आकर सम्राट के चरणों में सिर झुकाया और उसने कहा कि आज्ञा हो महाराज! आपको यहां तक आने की क्या जरूरत थी? खबर भेज दी होती, मैं महल हाजिर हो जाता।
सम्राट ने कहा कि मैं आया हूं सामायिक खरीदने। महावीर ने कहा है कि तुझे सामायिक उपलब्ध हो गई है। बेच दे! और जो भी तू मूल्य मांगे, मुंह-मांगा मूल्य देने को राजी हूं।
जैसे महावीर हंसे थे, वैसे ही वह गरीब आदमी भी हंसा। उसने कहा: महावीर ने आपसे खूब मजाक किया। कुछ चीजें हैं जो कीमत से मिलती हैं; कुछ चीजें हैं जिनका कीमत से कोई संबंध नहीं। सामायिक कुछ वस्तु थोड़े ही है कि मैं तुम्हें दे दूं। अनुभव है। जैसे प्रेम अनुभव है, कैसे दे सकते हो? यह तो आंतरिकतम अनुभव है; इसे बाहर लाया ही नहीं जा सकता। मेरी गर्दन चाहिए तो ले लें। मुझे खरीदना हो तो खरीद लें। मैं चल पड़ता हूं, आपका सेवक, पैर दबाता रहूंगा। लेकिन ध्यान नहीं बेचा जा सकता। नहीं कि मैं बेचना नहीं चाहता हूं, बल्कि स्वभावतः ध्यान हस्तांतरित नहीं हो सकता।
मूल्यवान वे चीजें हैं जो बेची नहीं जा सकतीं। प्रेम, ध्यान, प्रार्थना, भक्ति, श्रद्धा--ये बेचने वाली, बिकने वाली चीजें नहीं हैं। ये चीजें ही नहीं हैं। ये अनुभूतियां हैं। और केवल मनुष्य ही इन अमोलक अनुभूतियों को पाने में समर्थ है।
संतों ने मनुष्य की महिमा गाई है ताकि तुम्हें याद दिलाया जा सके कि तुम कितनी बड़ी संपदा के मालिक हो सकते हो और हुए नहीं अब तक। अब और कितनी देर करनी है?
है किसका यह मौन निमंत्रण?

दीर्घ श्वास की पीड़ाओं का
है साम्राज्य छिपा अंतर में,
मूक मिलन की मूक पिपासा
का खग नित उड़ता अंबर में,
भरो व्यथा में आज प्रलोभन,
है किसका यह मौन निमंत्रण?

उस अतीत की कथा कहानी
ही सुधियों का नीड़ बन गई,
अर्थहीन शैशव की बातें
मेरे उर की पीर बन गईं,
सुधि-सपनों पर करो नियंत्रण,
है किसका यह मौन निमंत्रण?

टूट नयन का निर्मम दर्पण
चिर बिछोह की आघातों से,
पूछ रहा पथ प्रेम-गांव का
तारक-दल की हर पांतों से,
स्निग्ध-प्राण भी कर दो अर्पण,
है किसका यह मौन निमंत्रण?
तुम्हें निमंत्रण दिया है संतों ने मनुष्य की महिमा गाकर!
टूट नयन का निर्मम दर्पण
चिर बिछोह की आघातों से,
पूछ रहा पथ प्रेम-गांव का
तारक-दल की हर पांतों से,
स्निग्ध-प्राण भी कर दो अर्पण,
है किसका यह मौन निमंत्रण?
सदियों-सदियों में संतों ने मनुष्य के गौरव और गरिमा के गीत गाए हैं--इसलिए कि तुम्हें चेताया जा सके कि तुम क्या हो सकते हो; तुम्हारे भीतर छिपी पड़ी संभावनाओं को पुकारा जा सके; तुम्हें झकझोर कर जगाया जा सके। जैसे बीज भूल गया हो कि उसे फूल होना है, ऐसी तुम्हारी दशा है; कि नदी भूल गई हो कि उसे सागर तक पहुंचना है, ऐसी तुम्हारी दशा है; कि नदी किसी घाट पर ही अटक गई हो और सागर तक जाने का स्मरण न रहा हो, ऐसी तुम्हारी दशा है। सागर होना है तुम्हें। सागर होना तुम्हारा स्वरूपसिद्ध अधिकार है। परमात्मा होना है तुम्हें। परमात्मा से कम हुए बिना राजी मत होना।
इसलिए तुम्हारी महिमा के गीत संतों ने गाए हैं--तुम्हारे अहंकार को श्रृंगार करने के लिए नहीं।

तीसरा प्रश्न:
भगवान, जीवन सत्य है या असत्य?
कृष्णतीर्थ! जीवन अपने में न तो सत्य है और न असत्य। जीवन अपने में तो सिर्फ एक अवसर है, कोरा अवसर; सत्य भी बन सकता है, असत्य भी बन सकता है।
जीवन तो एक कोरा कैनवास है; उस पर तुम कैसे रंग डालोगे, उस पर तुम अपनी तूलिका लेकर क्या उभारोगे, तुम पर निर्भर है। तुम मालिक हो। जीवन अपने आप में बनी-बनाई कोई चीज नहीं है, कोई रेडीमेड जन्म के साथ तुम्हारे हाथ में जीवन नहीं दे दिया गया है। जन्म जीवन नहीं है, जन्म तो केवल सिर्फ तुम्हें एक अवसर है। अब तुम जीवन को बनाओ।
जीवन एक सृजन है। जीवन न तो सत्य है और न असत्य।
बुद्ध ने भी एक जीवन बनाया--कबीर ने, नानक ने, मोहम्मद ने, दरिया ने। एक जीवन तैमूरलंग ने भी बनाया--नादिरशाह ने, हिटलर ने। एक जीवन है जिसमें सिर्फ धूल ही धूल; और एक जीवन है जहां फूल ही फूल। एक जीवन है जहां गालियां ही गालियां; और एक जीवन है जहां गीत ही गीत। और यह एक ही जीवन है। यह सब तुम पर निर्भर है। उसी वर्णमाला से गालियां बनती हैं, उसी वर्णमाला से भगवद्गीता का जन्म हो जाता है; जरा शब्दों को जमाने की बात है। वे ही शब्द गंदे हो जाते हैं, वे ही शब्द पुण्य की गंध ले आते हैं। तुम पर निर्भर है।
अक्सर लोग ऐसे प्रश्न पूछते हैं, जैसे कि जीवन अपने आप में कोई सुनिश्चित चीज है!
पूछते तुम: ‘जीवन सत्य है या असत्य?’
अगर धन के पीछे ही दौड़ते रहे और पद के पीछे ही दौड़ते रहे, तो जीवन असत्य है, यह सिद्ध हो जाएगा। मौत जब आएगी तब सिद्ध हो जाएगा कि जीवन असत्य था, क्योंकि मौत सब छीन लेगी जो तुमने कमाया। और अगर जरा ध्यान में जगे, जरा भक्ति को उकसाया, तो मौत आएगी और आरती उतारेगी तुम्हारी, क्योंकि जीवन को तुमने सत्य कर लिया।
तो मैं सीधा वक्तव्य नहीं दे सकता कि जीवन क्या है। इतना ही कह सकता हूं: जीवन वही हो जाएगा जैसा तुम करना चाहते हो। तुम स्रष्टा हो। यह महिमा है तुम्हारी। इतनी महिमा किसी पशु की नहीं है। एक कुत्ता कुत्ते की तरह पैदा होगा, कुत्ते की तरह मरेगा। लेकिन बहुत से मनुष्यों को भी हम कहते हैं कि कुत्ते की तरह मरते हैं। पैदा हुए थे मनुष्य की तरह, मरते कुत्ते की तरह हैं।
यह तो बड़ी अजीब बात हो गई! कुत्ता तो क्षम्य है; कुत्ते की तरह पैदा हुआ था, कुत्ते की तरह मरा। भाषा में कहावत है न--कुत्ते की मौत! वह कुत्ते के संबंध में नहीं है, क्योंकि कुत्ते का क्या कसूर? कुत्ता था और कुत्ते की तरह मरा! वह आदमी के संबंध में है कहावत--कुत्ते की मौत! कुत्ता पूरा का पूरा पैदा होता है। अवसर नहीं है कुत्ते के जीवन में--न तो बुद्ध हो सकता है, न चंगीजखान हो सकता है। न स्वर्ग, न नरक। कुत्ता पूरा का पूरा पैदा होता है। इसलिए तुम किसी कुत्ते से यह नहीं कह सकते कि तुम थोड़े कम कुत्ते हो, या कि कह सकते हो?
हां, आदमी से कह सकते हो कि तुम जरा थोड़े कम आदमी मालूम होते हो। किसी से कह सकते हो कि तुम आदमी कब होओगे? कि तुम्हें आदमी होना है या नहीं होना है? आदमी के संबंध में यह सार्थक वचन है कि तुम जरा कम आदमी हो, अपूर्ण आदमी हो, आदमी हो जाओ। मगर जानवरों के संबंध में ये शब्द सत्य नहीं हो सकते। सिंह सिंह है, कुत्ता कुत्ता है। पीपल पीपल है, बरगद बरगद है। जो जो है वैसा है। रूपांतरण का कोई उपाय नहीं है, क्रांति की कोई संभावना नहीं है।
मनुष्य क्रांति की संभावना है। मनुष्य मनुष्य की तरह पैदा नहीं होता--सिर्फ एक कोरे कागज की भांति पैदा होता है; फिर तुम जो उस पर लिखोगे वही तुम्हारी दास्तान हो जाएगी। एक-एक कदम होश से चलो, तो जीवन सत्य हो जाएगा। और ऐसे ही धक्के खाते रहे बेहोशी के, ऐसे ही चलते रहे जैसे कोई शराबी रास्ते पर चलता रहता है, तो जीवन असत्य हो जाएगा।
एक शराबी रास्ते पर चल रहा है। एक पैर तो उसने सड़क पर रखा हुआ है और एक सड़क के किनारे की पटरी पर। अब बड़ी मुश्किल में है, चलना बड़ा मुश्किल है। एक तो शराब पीए है; एक पैर ऊपर, एक पैर नीचे, बड़ी अड़चन हो रही है, बड़ा कष्ट पा रहा है। एक आदमी ने पूछा कि भाई, तुम बड़े कष्ट में मालूम पड़ते हो।
उसने कहा: कष्ट में मालूम न पडूं तो क्या पडूं? कोई भूकंप हो गया या क्या हुआ? क्योंकि यह रास्ता आधा ऊंचा और आधा नीचा कैसे हो गया है?
रास्ता वही है, लेकिन अभी होश नहीं है।
एक और शराबी है, वह बाएं तरफ से दाएं तरफ जाता है, दाएं तरफ से बाएं तरफ आता है। घर पहुंचने का तो सवाल ही नहीं रहा अब। रास्ते के एक किनारे से दूसरे किनारे, इस किनारे से उस किनारे। फिर किसी ने पूछा कि तुम कर क्या रहे हो?
तो उसने कहा कि मुझे उस तरफ जाना है। उस तरफ जाता हूं और लोगों से पूछता हूं कि मुझे उस तरफ जाना है, तो वे इस तरफ भेज देते हैं। इस तरफ आता हूं और लोगों से पूछता हूं कि मुझे उस तरफ जाना है, वे दूसरी तरफ भेज देते हैं। मगर मैं उस तरफ पहुंच ही नहीं पाता। जहां पहुंचता हूं वह हमेशा इस तरफ। और मुझे जाना है उस तरफ।
एक और शराबी है, सांझ घर पहुंचा है। चाबी ताले में डालने की कोशिश करता है, मगर हाथ कंप रहे हैं, चाबी है कि ताले में नहीं जाती। एक पुलिसवाला रास्ते पर खड़ा देख रहा है, दया खा गया। दया--और पुलिसवाले में! अक्सर होती नहीं। कुछ अपवाद रहा होगा। पास आया और कहा कि भाई, लाओ मैं तुम्हारा ताला खोल दूं, तुमसे न खुलेगा।
उसने कहा: नहीं, ताला तो मैं खोल लूंगा। तुम जरा मेरे मकान को पकड़ लो कि हिले न।
धन की और पद की दौड़ में अगर तुम मूर्च्छित रहे, अगर व्यर्थ को संगृहीत करने में ही सारा जीवन गंवाया, अगर अंधे की भांति जीए और अंधे की भांति मरे--और ध्यान नहीं है तो समझना कि अंधे हो, आंख रहते अंधे हो। अगर कूड़ा-कर्कट को ही बीनते रहे, बीनते रहे। मौत आएगी और तुम पाओगे कि जीवन असत्य था।
लेकिन यह अपरिहार्य नहीं था। यह तुमने चुना। इसकी जिम्मेवारी तुम्हारी है।
थोड़ा अंतर्मुखी होओ। घड़ी दो घड़ी अपने लिए निकाल लो। घड़ी दो घड़ी भूल जाओ संसार को। घड़ी दो घड़ी आंख बंद कर लो, अपने में डूब जाओ। तो यह घड़ी दो घड़ी में जो तुम्हें रस मिलेगा, जो स्वाद अनुभव होगा, वह तुम्हारे जीवन को सत्य कर जाएगा।
ध्यान है तो जीवन सत्य है। ध्यान नहीं है तो जीवन असत्य है।
यदि सत्य नहीं जीवन में कुछ,
तो सपना भी कैसे कह दूं!

पल में होती है जीत यहां,
पल में होती है हार यहां!
असफलता और सफलता का
मिलता रहता उपहार यहां!
जीवन की मनुहारों को अब,
विधि की छलना कैसे कह दूं!
यदि सत्य नहीं जीवन में कुछ,
तो सपना भी कैसे कह दूं!

बंधन जीवन का भार कभी,
बंधन से होता प्यार कभी!
बनता भी और बिगड़ता भी
आशा का लघु संसार कभी!
अपनापन आज न अपना है,
किसको कैसे अपना कह दूं!
यदि सत्य नहीं जीवन में कुछ,
तो सपना भी कैसे कह दूं!
न तो जीवन को सत्य कहा जा सकता है और न सपना कहा जा सकता है। सब तुम पर निर्भर है। ज्ञानियों ने कहा है: संसार असत्य है, जीवन असत्य है। वह तुम्हारी वजह से कहा है। तुम्हारी ही भीड़ है, निन्यानबे प्रतिशत तो तुम हो। भीड़ तो अंधों की है; आंख वाला कभी कोई एकाध होता है। आंख वाले की बात तो अपवाद है। और अपवाद से केवल नियम सिद्ध होता है।
बुद्धों ने अगर कहा है कि जीवन असत्य है, तो तुम्हें देख कर कहा है, खयाल रखना। यह तुम्हारे जीवन के संबंध में कहा है। बुद्ध का जीवन तो असत्य नहीं है। अगर बुद्ध का जीवन असत्य है तो फिर सत्य होगा ही क्या? बुद्ध का जीवन तो परम सत्य है। लेकिन बुद्ध ने जब कहा है, तो खयाल रखना, तुम्हारे जीवन के संबंध में यह वक्तव्य है। तुम्हारा जीवन असत्य है, क्योंकि तुम्हारा जीवन व्यर्थ की तलाश में लगा है। तुम मृग-मरीचिकाओं के पीछे भाग रहे हो। तुम इंद्रधनुषों को पकड़ने की कोशिश में लगे हो। दूर से बड़े सुंदर...दूर के ढोल सुहावने। जब इंद्रधनुषों पर हाथ बांध लोगे मुट्ठी, तो कुछ भी न मिलेगा, भाप भी न मिलेगी; शायद पानी की कुछ दो-चार बूंदें हाथ में छूट जाएं तो छूट जाएं। न कोई रंग होगा, न कोई सौंदर्य होगा। इंद्रधनुषों के पीछे दौड़ोगे तो एक दिन बुरी तरह गिरोगे। उस गिरते क्षण में तुम पाओगे कि ठीक ही कहते थे बुद्धपुरुष कि जीवन असत्य है।
मगर मैं तुम्हें याद दिला दूं: यह तुम्हारे कारण ही जीवन असत्य हुआ है। बुद्धों का जीवन असत्य नहीं है। मगर बुद्ध अपने जीवन के संबंध में क्या कहें? कहें तो कौन समझेगा? कहें तो शायद कहीं भूल न हो जाए; कहीं दूसरे लोग गलत न समझ लें!
बुद्धों को सबसे बड़ी चिंता एक होती है कि वे जो भी कहते हैं वह गलत समझा जा सकता है, क्योंकि समझने वाला कहीं और है। बुद्ध जीते हैं शिखरों पर, गौरीशंकर पर--हिमाच्छादित, जहां सूर्य का सोना बरसता है, वहां! और तुम रहते हो अंधेरी घाटियों में, तलघरों में। वे अपने स्वर्ण-शिखरों से जो बोलते हैं, तुम्हारी अंधेरी गलियों तक आते-आते उसके अर्थ बदल जाते हैं। वे कुछ कहते हैं, तुम कुछ और सुनते हो। इसलिए बुद्धों को बहुत सावधानी से बोलना पड़ता है। एक-एक शब्द तौलना पड़ता है। वे जानते हैं भलीभांति कि जीवन सत्य है! लेकिन उनका जीवन सत्य है। उन जैसे लोग कितने हैं? और उन जैसे जो लोग हैं, उनसे कहने की कोई जरूरत नहीं है; उन्हें तो पता ही है।
बुद्ध महावीर से कहें कि जीवन सत्य है तो महावीर समझेंगे। लेकिन महावीर को तो खुद ही पता है, कहना क्या है? तुम्हें मालूम है, दोनों एक ही साथ एक ही समय में हुए। एक ही प्रदेश में--बिहार में--दोनों परिभ्रमण करते रहे। दोनों के परिभ्रमण के कारण ही तो उस प्रदेश का नाम बिहार पड़ा। बिहार का अर्थ है: परिभ्रमण, विचरण। चूंकि दो बुद्धपुरुष--महावीर और गौतम बुद्ध--सतत विचरण करते रहे; वह प्रदेश ही उनके विहार के कारण बिहार कहलाने लगा। कभी-कभी एक ही गांव में ठहरे, मगर मिलना नहीं हुआ। और एक बार तो ऐसा भी हुआ कि एक ही धर्मशाला में ठहरे, फिर भी वार्ता न हुई। क्यों? सदियों से यह प्रश्न पूछा जाता रहा है--क्यों?
जैनों से पूछोगे तो वे कहेंगे: अगर बुद्ध को मिलना था तो आना था महावीर के पास, क्योंकि महावीर तो भगवान हैं; बुद्ध केवल महात्मा, अभी पूरे-पूरे सिद्ध नहीं हैं। और अगर बौद्धों से पूछो तो वे कहेंगे: आना था महावीर को। बुद्ध तो भगवान हैं। महावीर संत पुरुष। अभी पूरे-पूरे नहीं; अभी बहुत कुछ अधूरा है।
मैं न तो बौद्ध हूं, न जैन, न हिंदू, न मुसलमान, न ईसाई। इसलिए मैं थोड़ी निष्पक्ष नजरों से देख सकता हूं। दोनों परिपूर्ण सिद्धपुरुष हैं। और न मिलने का कारण कोई अहंकार नहीं है। अहंकार वहां कहां? न मिलने का कारण सीधा-साफ है। मगर अंधों को नहीं दिखाई पड़ता, वे अंधे जैन हों कि बौद्ध। कारण सीधा-साफ है--मिल कर करेंगे क्या? कहेंगे क्या? दोनों की एक ही चित्तदशा है और दोनों का एक ही चैतन्य आकाश है। दोनों एक ही शिखर पर विराजमान हैं। हमें दो दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि दो देहों में हैं। मगर उन दोनों की अनुभूति ऐसी है कि अब वे एक ही अवस्था में हैं। देह होंगी दो, लेकिन अब आत्मा दो नहीं हैं। मिलना किससे? मिलना क्यों?
दुनिया में तीन तरह की संभावनाएं हैं। दो अज्ञानियों के बीच चर्चा खूब होती है, डट कर होती है, चौबीस घंटे होती है। दो ज्ञानियों के बीच चर्चा कभी नहीं होती, कभी नहीं हुई, कभी नहीं होगी। कुछ कहने को ही नहीं बचता। यह बड़े मजे की बात है। ज्ञानियों के पास कुछ कहने को नहीं है। दो ज्ञानी मिलें तो चुप रह जाएंगे। एक तो मिलेंगे नहीं। और अगर कभी मिल भी गए--जैसे कबीर और फरीद मिले, तो दोनों चुप बैठे रहे। दो दिन साथ रहे और चुप बैठे रहे। सन्नाटा छाया रहा। कहना क्या! बोलना क्या! किससे बोलना! दो ज्ञानियों के बीच चर्चा हो नहीं सकती। दो शून्य कैसे संवाद करें? और दो अज्ञानियों के बीच खूब चर्चा होती है, क्योंकि दो विक्षिप्त, कोई किसी की सुनता नहीं, मगर चर्चा खूब होती है। अपनी-अपनी कहते हैं। और तीसरी संभावना है: एक ज्ञानी और अज्ञानी के बीच चर्चा। वही सत्संग है--जहां कोई जानने वाला, जागा हुआ, सोए हुए को, न जानने वाले को जगाता है।
दो ज्ञानियों में चर्चा हो ही नहीं सकती। दो अज्ञानियों में खूब होती है, मगर किसी मतलब की नहीं। ज्ञानी और अज्ञानी के बीच जो चर्चा होती है, कठिन तो बहुत है, बहुत कठिन है; मगर उसमें ही से कुछ विकास, उसमें ही से कुछ जन्म होता है।
जीवन न तो सपना है, न सत्य। सपना रह जाएगा, अगर सपनों के पीछे दौड़ते रहे; सत्य हो जाएगा, अगर सत्य को खोजा। और सत्य तुम्हारे भीतर है, सपने तुम्हारे बाहर हैं।
तुम उखड़ती
सांस की अनुगूंज,
जीवन का अडिग विश्वास वाला
गीत मैं हूं!

यह नहीं, संघर्ष में
झेली व्यथा तुमने,
रहा मैं झूलता
रंगीन झूलों में!
व्यथा का भाग
पाया हम सभी ने!
किंतु विष बन
छा गया है
वह तुम्हारी चेतना पर,
जब कि मैंने झेल उसको
प्राण में पाया नया उन्मेष
जीवन की प्रभा का!
इसलिए ही
तुम उखड़ती
सांस की अनुगूंज
जीवन का अडिग विश्वास वाला
गीत मैं हूं!
जीवन में क्रोध है, घृणा है, वैमनस्य है, ईर्ष्या है; ये जहर हैं। अगर इन्हीं जहरों को पीते रहे तो तुम्हारा जीवन जहरीला हो जाएगा, विषाक्त हो जाएगा। लेकिन ये जहर रूपांतरित भी हो सकते हैं। ये जहर अमृत भी बन सकते हैं। उसी कला का नाम धर्म है जो तुम्हारे भीतर के जहर को अमृत बना दे। मिट्टी को छू दे और सोना हो जाए--उसी कला का नाम धर्म है। क्रोध को करुणा बनाया जा सकता है। काम को राम बनाया जा सकता है। संभोग को समाधि बनाया जा सकता है।
देखते नहीं, बाजार से खाद खरीद कर लाते हो, दुर्गंध ही दुर्गंध फैल जाती है घर में! अब इस खाद को अगर अपने बैठकखाने में ढेर लगा कर रख लो तो एक ही काम होगा कि कोई अतिथि नहीं आएगा तुम्हारे घर, इतना ही फायदा होगा। और पड़ोस में सन्नाटा हो जाएगा, धीरे-धीरे पड़ोसी भी छोड़ देंगे मोहल्ला, दूसरे मोहल्लों में चले जाएंगे। शायद पत्नी भी छोड़ कर अपने मायके की राह ले। और बच्चे भी कहें कि नमस्कार पिताजी! अब रहो आप और आपकी खाद! दुर्गंध ही दुर्गंध फैल जाएगी। लेकिन यही खाद किसी कुशल माली के हाथ में बड़ी सुगंध बन जाती है। वह इसे घर में नहीं रखता, इसे बगीचे में, जमीन पर छितराता है। यही गुलाब बन कर हंसती है, यही चमेली बन कर चमकती है। कितने रंग और कितनी गंधें इस दुर्गंध से निकल आती हैं!
दुर्गंध सुगंध हो सकती है। इसी रसायन का नाम धर्म है।
तो मैं तुमसे कहूंगा: तुम्हारे हाथ में है सारी बात। सपना चाहो तो जीवन सपना है; सत्य चाहो तो इन्हीं सपनों को निचोड़ा जा सकता है। और इन्हीं सपनों को निचोड़ कर सत्य बनाया जा सकता है। लेकिन बस दिशा का खयाल रखना। सपने होते हैं बहिर्मुखी, सत्य होता है अंतर्मुखी। सपने होते हैं सदा वहां और सत्य होता है सदा यहां। सपने ले जाते हैं दूर-दूर की यात्रा पर और सत्य है तुम्हारे भीतर मौजूद। बैठो कि पा लो। दौड़े कि खोया; बैठे कि पाया।
मेरे जीवन की बगिया में
पतझड़ यह भेजा है तुमने ही
स्वागत है!
और क्या मांगूं तुमसे!

वृक्षों की डालों से
जीर्ण पीत पत्र जो
झर-झर-झर झर रहे
गंधहीन कांटे ये
उलझे जो लताओं में
अर्पित हैं तुमको ही
इनको स्वीकार करो
और क्या मांगूं तुमसे!

भेजोगे जब वसंत
जीवन की बगिया में
वहन करेगी वायु
मादक नव गंध भार
सुरभित कोमल पराग
गुन-गुन की मृदु गुंजार
कलरव का मधुर राग
अर्पित करूंगा देव
सब वह भी तुमको ही
और क्या मांगूं तुमसे!
अपने सारे जहरों को भी परमात्मा के चरणों में चढ़ा दो--और तुम चकित हो जाओगे कि वे जहर अमृत हो जाते हैं। सब चढ़ा दो बेशर्त, सब समर्पित कर दो। तुम शून्य हो जाओ। सब समर्पण करके शून्य हो ही जाओगे। उसी शून्य में उतरता है परमात्मा। उसी में बजती है उसकी बीन। उसी में मृदंग पर थाप पड़ती है। तुम पहली दफा अलौकिक का अनुभव करते हो। उस अलौकिक का अनुभव सत्य है। जीवन एक अवसर है; चाहो तो व्यर्थ सपने देखते रहो और चाहो तो सत्य को जगा लो और सत्य को जी लो। व्यर्थ की सूली पर चाहो तो टंग जाओ और चाहो तो सत्य का सिंहासन तुम्हारा है।

आखिरी प्रश्न:
भगवान, बलिहारी प्रभु आपकी अंतर-ध्यान दिलाए!
मंजू! आ जाए अंतर-ध्यान तो सब आ गया, तो सब पा लिया। और लगता है तेरी आंखों में देख कर कि सुबह ज्यादा दूर नहीं है, कि सुबह करीब है, कि प्राची लाल होने लगी, कि आकाश सूरज के निकलने की तैयारी करने लगा है, कि पक्षी अपने घोसलों में पर फड़फड़ाने लगे हैं, कि वृक्ष प्रतीक्षा कर रहे हैं, कि कलियां खुलने को आतुर हैं, कि बस सुबह अब हुई, अब हुई!
आ रही है तुझे अंतर-ध्यान की स्मृति, शुभ है, सौभाग्य है! इस जगत में वे ही धन्यभागी हैं जिन्हें अंतर-ध्यान की याद आने लगे। जिन्हें एक बात बार-बार याद आने लगे, दिन के चौबीस घंटों में बार-बार याद आने लगे--भीतर जाना है। और जो, जब मौका मिल जाए, तब भीतर सरक जाएं।
एक झेन फकीर को निमंत्रित किया था कुछ मित्रों ने भोजन के लिए। सात मंजिल मकान। जापान की कहानी है। अचानक भूकंप आ गया। जापान में भूकंप बहुत आते भी हैं। भागे लोग, गृहपति भी भागा। सातवीं मंजिल पर कौन रुकेगा जब भूकंप आया हो? सीढ़ियों पर भीड़ हो गई। बहुत मेहमान इकट्ठे थे, कोई पच्चीस मेहमान थे। गृहपति द्वार पर ही अटका है। तभी उसे खयाल आया कि प्रमुख मेहमान का क्या हुआ? उस झेन फकीर का क्या हुआ?
लौट कर देखा, वह फकीर तो अपनी कुर्सी पर पालथी मार कर बैठ गया है! आंखें बंद। जैसे बुद्ध की प्रतिमा हो, संगमरमर की प्रतिमा हो--ऐसा शांत! ऐसा निश्चल! उसका रूप, उसकी शांति, उसका आनंद--सम्मोहित कर लिया गृहपति को! खिंचा चला आया, जैसे कोई चुंबक से खिंचा चला आता है। बैठ गया फकीर के पास।
भूकंप आया और गया। फकीर ने आंख खोली। जहां से बात टूट गई थी भूकंप के कारण, वहीं से उसने बात शुरू कर दी।
गृहपति ने कहा: मुझे अब कुछ भी याद नहीं कि हम क्या बात कर रहे थे। यह बीच में इतना बड़ा भूकंप हो गया है। सारे नगर में हाहाकार है। इतना शोरगुल मचा है। इतना बड़ा धक्का लगा है। मुझे कुछ भी याद नहीं--हम कहां, क्या बात कर रहे थे। अब उस बात को आप शुरू न करें। अब तो मुझे कुछ और पूछना है। मुझे यह पूछना है कि हम सब भागे, आप क्यों नहीं भागे?
फकीर ने कहा: भागा तो मैं भी। मैं भीतर की तरफ भागा, तुम बाहर की तरफ भागे। जहां जिसकी मंजिल है, जहां जो सोचता है कि सुरक्षा है, उस तरफ भागा। और मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हारा भागना व्यर्थ, क्योंकि भूकंप यहां भी है, भूकंप छठवीं मंजिल पर भी है, भूकंप पांचवीं मंजिल पर भी है, भूकंप चौथी मंजिल पर भी है। भूकंप सब मंजिलों पर है, भाग कहां रहे हो? जो पांचवीं मंजिल पर हैं, वे भी भाग रहे हैं। जो तीसरी मंजिल पर हैं, वे भी भाग रहे हैं। भूकंप सड़कों पर भी है। जो सड़कों पर हैं, वे भी घरों की तरफ भाग रहे हैं। हरेक भाग रहा है। लेकिन तुम भूकंप से भूकंप में ही भाग रहे हो। मैं भी भागा; मैं भीतर की तरफ भागा। और मैं एक ऐसी जगह जानता हूं अपने भीतर, एक ऐसा स्थान, जहां कोई भूकंप कभी नहीं पहुंच सकता! जहां कोई कंप ही नहीं पहुंचता, भूकंप की बात छोड़ दो। जहां बाहर का कोई प्रभाव कभी नहीं पहुंचता, मैं उस अछूते, कुंवारे लोक की तरफ भागा। मैं भी भागा। यह न कहूंगा कि नहीं भागा। तुम्हारी समझ में न आया हो, क्योंकि तुम एक ही तरह के भागने को पहचानते हो। मैं हाथ-पैर से नहीं भागा, मैंने शरीर का उपयोग नहीं किया, क्योंकि इसका उपयोग तो बाहर की तरफ भागना हो तब करना होता है। शरीर तो मैंने शिथिल छोड़ दिया, विश्राम में छोड़ दिया--और सरक गया अपने भीतर! वहां बड़ी सुरक्षा है, क्योंकि वहां अमृत है! वहां कोई मृत्यु नहीं है। चिंता थी मुझे तो सिर्फ एक कि कहीं ऐसा न हो कि भीतर पहुंचने के पहले मर जाऊं! बस जब भीतर पहुंच गया, फिर निश्चिंत हो गया। अब कैसी मौत? अब किसकी मौत? बस चिंता थी तो एक कि ध्यान में मरूं। भूकंप आ गया। मौत तो कभी न कभी आनी ही है, आती ही है। एक ही खयाल था कि ध्यान में मरूं।
ध्यान में जीओ! ध्यान में मरो!
मंजू! याद आने लगी है; इस याद को गहराओ, सींचो, सम्हालो।
अनजाने चुपचाप अधखुले वातायन से
आती हुई जुन्हाई सा ही
तेरी छवि का सुधि-सम्मोहन
आज बिखर कर सिमिट चला है मेरे मन में।
छलक उठा है उर का सागर
किसी एक अज्ञात ज्वार से
किन सपनों के मदिर भार से
किन किरनों के परस-प्यार से
पल भर में यों आज अचानक।
यह किस रूप-परी विरहिन के उर की पीड़ा
मेरे जी में भी चुपके से तिर आई है
यों अनजाने?
गूंज उठा है अंतर-जीवन
किस फेनिल अरुणाभ राग से?
किन फूलों के मधु पराग से
पुलकित हो आया है
आकुल मधु-समीर?
जी के इस कानन में भी फूली है सरसों,
इस वन का भी कोना-कोना
है भर उठा अकथ छलकन से,
प्राणों के कन-कन से।
एक वातायन खुल रहा है, एक पर्दा सरक रहा है। सहयोग करो! साथ दो! जल्दी ही बहुत कुछ होने को है।
किसने मेरे खयाल में दीपक जला दिया।
ठहरे हुए तालाब का पानी हिला दिया।
तनहाइयों के बजरे किनारे पे लग गए,
ऐसा यकीन हमको किसी ने दिला दिया।
यह क्या मजाक है कि बहारों के नाम से,
पूरा चमन मिटा के नया गुल खिला दिया।
मुद्दत गुजर गई थी हमें यूं ही चुप हुए,
कल से बहक उठे हैं हमें क्या पिला दिया।
मंजू! पीओ! यह तो मधुशाला है। मैं तुम्हें कोई सिद्धांत नहीं सिखा रहा हूं--शुद्ध शराब पिला रहा हूं। अंगूरों से निचोड़ी हुई नहीं, आत्मा से निचोड़ी हुई। पीओ! जी भर के पीओ! नाचो! गाओ! गुनगुनाओ! और जितने क्षण मिल जाएं, जब मिल जाएं, तब चल पड़ो भीतर की तरफ।
भूकंपों की प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि भूकंपों में भीतर वही पहुंच पाएगा, जो भीतर जाता ही रहा है, जाता ही रहा है; जो रोज आता-जाता रहा है। वह झेन फकीर अपने भीतर पहुंच सका, क्योंकि रास्ता परिचित था, बहुत बार आया-गया था। यह मत सोचना कि मौत जब आएगी तब अचानक ध्यान कर लेंगे। यह नहीं होगा। मौत अचानक आएगी, जीवन भर धन की चिंता की थी, मरते वक्त भी धन की ही चिंता तुम्हारे सिर पर सवार रहेगी। अगर पद की आकांक्षा की थी तो मरते वक्त भी पद की ही नसेनी चढ़ते रहोगे कल्पना में।
मृत्यु के क्षण में तुम्हारा सारा जीवन संगृहीत होकर तुम्हारे सामने खड़ा हो जाता है। तुमने यह बात तो सुनी होगी न कि जब कोई आदमी नदी में डूब कर मरता है तो एक क्षण में सारा जीवन उसके सामने दोहर जाता है! यह बात सभी के संबंध में सच है, नदी में डूब कर मरने वालों के संबंध में ही नहीं। मरती घड़ी में तुम्हारा सारा जीवन सिकुड़ कर, जैसे हजारों-हजारों फूलों से एक बूंद इत्र निचोड़ते हैं, ऐसे तुम्हारे सारे जीवन के अनुभव से एक बूंद निचुड़ आती है। लेकिन अगर तुम्हारा सारा जीवन दुर्गंध का ही था तो बूंद दुर्गंध की होगी। अगर सारा जीवन सपना ही सपना था तो यह बूंद भी सपना होगी। और अगर जीवन में तुमने कुछ सत्य भी कमाया था, कुछ ध्यान भी कमाया था, कुछ प्रेम भी जगाया था, कुछ बांटा भी था, कुछ लुटाया भी था, छीना-झपटा ही न था, कुछ करुणा भी की थी--तो तुम्हारी अंतिम क्षण की जो प्रतीति होगी, सारा जीवन निचुड़ कर एक इत्र की बूंद बन जाएगा, उसी इत्र की बूंद पर सवार होकर तुम परमात्मा की यात्रा पर निकलोगे।
मंजू! शुभ हुआ है। अब इस घड़ी को, इस बलिहारी की घड़ी को छिटक मत जाने देना, जोर से पकड़ रखना। अब पकड़ने योग्य कुछ तुम्हारे पास है। और ध्यान रखना, जिनके पास कुछ नहीं है, उनके पास गंवाने को भी कुछ नहीं होता। और जिनके पास कुछ है, उनके पास गंवाने को भी कुछ होता है। नंगा नहाए तो निचोड़े क्या? जिनको हम साधारण जन कहते हैं, सांसारिक जन, उनको क्या फिकर, उनके पास गंवाने को कुछ है ही नहीं।
हमारे पास एक शब्द है--योग-भ्रष्ट। उसकी तौल का दूसरा शब्द नहीं है--भोग-भ्रष्ट। तुमने कभी ऐसा शब्द सुना--भोग-भ्रष्ट? भोग-भ्रष्ट होता ही नहीं। समतल जमीन पर चलोगे तो कहीं गिरोगे? लेकिन पहाड़ों की ऊंचाइयों पर चढ़ोगे तो गिर सकते हो। योग-भ्रष्ट होता है।
मंजू! एक घड़ी करीब आ रही है सरकती हुई, जो बड़ी कीमत की होगी। अंतर-ध्यान की याद आनी शुरू हुई है, जल्दी ही अंतर-ध्यान लगेगा, तब चूक मत जाना। क्योंकि बाहर की जन्मों-जन्मों की वासनाएं खींचेंगी, बाहर की जन्मों-जन्मों की आदतें खींचेंगी। हजार बाधाएं खड़ी होंगी। मन अंतिम उपाय करेगा अपने को बचा लेने का, क्योंकि ध्यान मन की मृत्यु है। और कौन मरना चाहता है! मन भी मरना नहीं चाहता है।
लेकिन सजग होकर, खूब सजग होकर, दो-चार कदम और--और फिर मैं तुमसे कहता हूं कि सुबह करीब है! आखिरी तारे ढलने लगे। सूरज उगा, अब उगा, तब उगा! जरा प्रतीक्षा, जरा धैर्य--और वह महत्वपूर्ण घटना घट सकती है जिसकी तलाश में सारे लोग जाने-अनजाने भटक रहे हैं। उसे कहो आनंद की खोज, सत्य की खोज, परमात्मा की खोज, मोक्ष की खोज--या जो भी नाम तुम्हें देना पसंद हो।

आज इतना ही।

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