PALTUDAS
Ajhun Chet Ganwar 21
TwentyFirst Discourse from the series of 21 discourses - Ajhun Chet Ganwar by Osho. These discourses were given during JUL 21 - AUG 10 1977.
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सच्चे साहिब से मिलने को
मेरा मनु लिहा बैराग है, जी।
मोह निसा में मैं सोइ गई,
चौंक परी उठि जाग है, जी।।
दोउ नैन बने गिरि के झरना,
भूषन बसन किया त्याग है, जी।
पलटू जीयत तन त्याग दिया,
उठी विरह की आगि है, जी।।13।।
साहिब के दास कहाय यारो,
जगत की आस न राखिए, जी।
समरथ स्वामी को जब पाया,
जगत से दीन न भाखिए, जी।।
साहिब के घर में कौन कमी,
किस बात को अंते आखिए, जी।
पलटू जो दुख-सुख लाख परै,
वही नाम सुधा-रस चाखिए जी।।14।।
घर-घर से चुटकी मांगिके; जी
छुधा को चारा डारि दीजै।
फूटा इक तुम्बा पास राखौ,
ओढ़न को चादर एक लीजै।।
हाट-बाट महजित में सोय रहौ,
दिन-रात सतसंग का रस पीजै।
पलटू उदास रहौ जक्त से ती,
पहिले बैराग यहि भांति की जै।।15।।
जब मैं नाहीं तब वह आया,
मैं, ना वह, यह कौन मानै।
गूंगे ने गुड़ खाई लिया,
जबान बिना क्या सिफत आनै।।
दरियाव और लहर तो दोय नाहीं,
समा और रोशनी कौन छानै।
पलटू भगवान की गति न्यारी,
भगवान की गति भगवान जानै।।16।।
लो प्यारे पलटू की अमृतवाणी का अंतिम दिन भी आ गया। ये वचन प्यारे थे। ये वचन हीरों जैसे चमकदार थे। ये वचन मात्र सुनने के लिए नहीं थे--गुनने के लिए थे। और गुनने के लिए ही नहीं, जीने के लिए थे। इन सीधी-साफ बातों में धर्म का सारा सार पलटू ने कहा है। कुछ भी बचाया नहीं। मुट्ठी बंधी नहीं रखी--मुट्ठी पूरी खोली है। खूब लुटाया! धन्यभागी हैं वे जो अपनी झोली भर लें। अभागे हैं वे जो वंचित रह जाएं।
सदगुरु देते हैं। लेने वाले ले लेते हैं। नहीं लेने वाले चूक जाते हैं। और सदगुरु से चूक जाना इस जगत में सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। क्योंकि सदगुरु से जो चूका, वह साहिब से चूका। साहिब से जोड़ने के लिए और कोई सेतु भी तो नहीं है। लेकिन आदमी का अहंकार ऐसा है--ऐसा मजबूत, ऐसा जहर से भरा, ऐसी पत्थर की दीवाल जैसा--कि जब भी कभी कोई अमृत वचन कान पर पड़े, तो अहंकार उसे झुठलाने की कोशिश करता है। अहंकार सब तर्क खोजता है उसके विपरीत। अहंकार अपने को बचाता है।
और जिसने अपने को बचाया, उसने अपने को बुरी तरह खो दिया। जन्मों-जन्मों भटकेगा। अपने को बचाने में ही हम भटक गए हैं। अपने को बचाने से ही यह सारा संसार फैलता है। अपने को मिटाने से परमात्मा से मिलन होता है।
इन वचनों को तुम तर्कजाल में मत ले जाना। ये एक सीधे-सादे आदमी के वचन हैं। इनमें पांडित्य नहीं है--प्रज्ञा के स्वर हैं। इनमें शास्त्रीय विश्लेषण, तर्कजाल, सिद्धांत, धारणाएं, उनका विस्तार नहीं है। इनमें सीधी हृदय पर चोट है। ये तीर हैं। अगर तुमने द्वार खोला तो चुभ जाएंगे सीधे हृदय में, बैठ जाएंगे तुम्हारे अंतस्तल में। बीज की तरह डूब जाएंगे तुम्हारे प्राणों में। और जल्दी ही तुम पाओगे: वसंत आता है। जल्दी ही तुम पाओगे: बीज अंकुरित होता है, बढ़ता है। हजार-हजार फूल लगते हैं और तुम्हारा जीवन सुवासित हो जाता है।
ये सिद्धांत नहीं हैं, जो पलटू ने कहे। ये बीज हैं। ये क्रांति-बीज हैं। ये तुम्हें आमूल बदल दे सकते हैं। तुम इन्हें विचार मत समझना। विचार तो मुर्दा होते हैं। विचारों से कौन कब बदला है! विचारों से थोड़ी सजावट भला हो जाए, तुम्हारे ज्ञान का दंभ थोड़ा बढ़ जाए...। विचार वस्त्रों से ज्यादा नहीं हैं। सुंदर वस्त्रों में तुम्हें सुंदर होने का भ्रम पैदा हो सकता है। विचार आभूषण हैं। ये विचार नहीं हैं; ये क्रांति हैं। ये आग हैं। इनमें तुम जलोगे। और जो हिम्मतवर हैं वे ही इनमें प्रवेश कर सकेंगे। इसलिए पलटू ने राजपूतों को ललकारा है, साहसियों को पुकारा है।
खयाल रखना, कमजोर--निर्बल के अर्थ में नहीं है। निर्बल तो कमजोर होता ही नहीं। निर्बल के बल राम। निर्बल को तो राम का बल मिल जाता है। उससे ज्यादा शक्तिशाली तो कोई भी नहीं। कमजोर मैं कह रहा हूं: भयभीत, भीरु, डरे हुए लोग। एक कदम अज्ञात में नहीं ले सकते। अंधेरे रास्ते पर जरा नहीं बढ़ सकते। ऐसे डरे हुए लोग। और परमात्मा तो अज्ञात है।
सूफियों की कहानी है: लैला-मजनू। कहानी से तुम परिचित हो। लेकिन उसमें जो सूफियाना माधुर्य भरा है, उससे तुम परिचित नहीं हो। मजनू है साधक, लैला है भगवान। वह सूफियों का प्रतीक है। क्योंकि सूफी परमात्मा को स्त्री के रूप में देखते हैं, प्रेयसी के रूप में देखते हैं। पुरुष के रूप में नहीं। लैला प्रतीक है परमात्मा की। लैला शब्द का अरबी में अर्थ होता है: रात्रि, घनी रात्रि। परमात्मा बड़ी अंधेरी रात जैसा है।
अंधेरी रात में उतरने का साहस है, तो ही तुम मजनू हो सकोगे। और मजनू हो तो ही अंधेरी रात में उतर सकोगे। मजनू ही लैला को खोज सकता है। मजनू का अर्थ होता है: दीवाना, पागल। कौन जाता है अंधेरी रात में! कौन जाता है--अपने आंगन की साफ-सुथरी दुनिया को छोड़ कर घने जंगलों में भटकने! कौन जाता है--व्यवस्था को छोड़ कर अराजकता में उतरने! कौन जाता है नक्शों की दुनिया को छोड़ कर, नक्शे-रहित अस्तित्व में प्रवेश करने! कौन छोड़ता है सुरक्षा!
जो सुरक्षा छोड़ देता है--वही संन्यासी। जो सुरक्षा को पकड़ कर जीता है, वही गृहस्थ है। घर यानी सुरक्षा का प्रतीक। अपनी जमीन है, अपना मकान है, अपनी दीवाल है, अपना द्वार, अपना दरवाजा। रात ताला मार कर सो जाते हैं। सुरक्षा है। धन जमीन में गड़ा है; पत्नी-बच्चे निकट हैं, अपने पास हैं। दूसरों का क्या भरोसा है! बाहर कौन अपना है! सब अजनबी हैं। कौन धोखा दे जाए, किसको पता है!
गृहस्थ का अर्थ इतना ही नहीं होता कि जो घर में रहता है। वह तो ऊपरी प्रतीक है। गृहस्थ का अर्थ होता है: जो सुरक्षा में रहता है; जो असुरक्षा में जरा नहीं जाता; जहां देखता है अंधेरा है, वहां से लौट आता है; जहां देखता है यहां खतरा है, वहां कदम नहीं मारता; जहां देखता है यहां जीवन दांव पर लगाना पड़ेगा, उस तरफ तो फिर कभी नहीं जाता; जहां कुछ भी दांव पर लगाना हो, जाता ही नहीं। फिर स्वभावतः अगर तुम कोल्हू के बैल की तरह जीते हो तो कुछ आश्चर्य नहीं है। उसी रास्ते पर बार-बार परिक्रमा काटते रहते हो--कोल्हू के बैल! जाना-माना रास्ता। जाने-माने ढंग। सब सुरक्षित, सब व्यवस्थित। कोई खतरा नहीं, कोई भय नहीं। घूमते रहते हो, घूमते-घूमते मर जाते हो। यह कोई जीवन नहीं है।
जीवन तो अभियान में है। जीवन तो वहां है जहां तुम रोज जाने-माने को छोड़ देते हो, जहां तुम रोज नये हो जाते हो। जीवन तो वहां है जहां तुम अपने बालक मन के आश्चर्य को खोते ही नहीं; तुम सदा युवा बने रहते हो; तुम्हारी आंखें सदा तलाशती रहती हैं, खोजती रहती हैं; तुम चुनौती की प्रतीक्षा करते हो--जीवन वहां है। सुरक्षा की नहीं--चुनौती की। कोई चुनौती आए। कोई कठिनाई उठे। क्योंकि कठिनाइयों की सीढ़ियों पर ही चढ़ कर कोई जीवन के उत्तुंग शिखर पर चढ़ता है।
चला जाता हूं हंसता खेलता मौज-ए-हवादिस से
अगर आसानियां हों, जिंदगी दुशवार हो जाए।
अगर सब आसान ही आसान हो, जिंदगी दुश्वार हो जाए, फिर जीना मुश्किल है। यह संन्यासी का भाव है।
चला जाता हूं हंसता खेलता मौज-ए-हवादिस से
ये जो तूफान उठते हैं, ये जो अंधड़ आते हैं, यह जो सागर में बड़ी हलचल हो जाती है, नाव अब डूबी तब डूबी होने लगती है, यह मौजे हवादिस, यह जो दरिया का तूफानी रूप है, यह जो दरिया का तांडव नृत्य है, इसमें अपनी छोटी सी डोंगी को लेकर--चला जाता हूं हंसता। जो हंसता हुआ चलता जाए...।
हर नया तूफान एक नया अभियान है। हर नया तूफान एक नई चुनौती है। हर नया तूफान परमात्मा की तरफ से एक आमंत्रण, कि उठ, इसके भी ऊपर ऊपर उठ।
चला जाता हूं हंसता खेलता मौज-ए-हवादिस से
अगर आसानियां हों, जिंदगी दुशवार हो जाए।
यह चित्त है संन्यासी का। असुरक्षा ही जो जीवन बना ले, अज्ञात ही जिसकी धुन हो जाए--ऐसा मजनू। अंधेरी रात जिसकी प्रेयसी हो जाए। लैला जिसकी प्रेयसी हो जाए।
तुमने अक्सर सुना है: परमात्मा प्रकाश है। तुमने बहुत ही मुश्किल से कभी सोचा होगा कि परमात्मा परम अंधकार है। क्यों आदमी बार-बार कहता है परमात्मा प्रकाश है? इसलिए नहीं कि आदमी को पता है कि परमात्मा प्रकाश है, आदमी को कुछ भी पता नहीं। आदमी को परमात्मा का पता हो तो आदमी आदमी बचता ही नहीं; आदमी आदमी रह ही नहीं जाता, परमात्मा को जानते ही परमात्मा हो जाता है। जिसने उसे जाना, वही हो गया, वैसा ही हो गया। जानने में ही आदमी विसर्जित हो जाता है।
आदमी ने परमात्मा को तो जाना नहीं, लेकिन आदमी दोहराता है बार-बार: परमात्मा प्रकाश है। अंधेरी रात को तो कोई नमस्कार नहीं करता--न हिंदू न मुसलमान, न ईसाई। सूर्योदय को लोग नमस्कार करते हैं। सुबह को लोग नमस्कार करते हैं। सूर्य-नमस्कार! क्यों? अंधेरी रात उसकी नहीं? सूरज उसका है, माना; अंधेरी रात किसकी है? रोशनी उसकी है, माना; अंधेरा किसका है? और खयाल करना, रोशनी की सीमा होती है, अंधेरे की कोई सीमा नहीं। अंधेरा ज्यादा परमात्मा का प्रतीक बन सकता है, क्योंकि अंधेरा अनंत है। रोशनी आती है, जाती है; अंधेरा रहता है। दीया जला लो, जलाना पड़ता है; बुझा दो, बुझाना पड़ता है। तुम दीया जलाओ, बुझाओ; अंधेरे को न जलाते, न बुझाते हैं--अंधेरा है। अंधेरा बस है। दीया जल जाता है तो थोड़ी देर को छिप जाता है, दिखाई नहीं पड़ता; दीया बुझा कि फिर मौजूद है। अंधेरा शाश्वत है।
और तुमने अंधेरे की शांति देखी! शांति ही अंधेरे में है। इसीलिए तो रात अंधेरे में तुम सो जाते हो, दिन में सोना मुश्किल हो जाता है। विश्राम अंधेरे में है। इसलिए तो आंख बंद कर लेते हो, दीया बुझा देते हो, पर्दे डाल देते हो, अंधेरा कर लेते हो--सो जाते हो। अंधेरे में कहीं तुम भीतर अपनी गहराइयों में डूब जाते हो।
रात निद्रा के अंधेरे में कहां जाते हो? जहां जाते हो, वहीं परमात्मा है। इसलिए पतंजलि ने कहा है: सुषुप्ति और समाधि कुछ-कुछ एक जैसे हैं। गहरी नींद और समाधि कुछ-कुछ एक जैसे हैं। जहां स्वप्न भी खो जाता है, वह समाधि जैसा ही है। क्योंकि परमात्मा में डुबकी मार दी। इसलिए सुबह जाग कर तुम कहते हो: ताजा हो गया! पुनरुज्जीवन मिला! जिस रात गहरी नींद सो गए, जिस रात ऐसी नींद सो गए कि सपनों ने भी पंख न मारे और सपनों ने भी चहल-पहल न की और सपनों की भी गतिविधि न हुई और सपनों का शोरगुल न मचा और सपनों की भीड़ न रही--जिस रात ऐसे सो गए, थोड़ी देर को ही सही, उस सुबह तुम कितने ताजे होकर लौटते हो! कितने जीवंत! कितने ज्योतिर्मय! जैसे फिर जगत नया हुआ! जैसे फिर से जन्म हुआ! और जब किसी रात ऐसा नहीं हो पाता और सपने अपनी भीड़ मचाए रखते हैं और तुम्हारे चारों तरफ उछलते-कूदते ही रहते हैं, उनकी बंदरों जैसी जमात तुम्हें रात भर नहीं छोड़ती--उस सुबह तुम थके-मांदे उठते हो--उससे भी ज्यादा थके-मांदे, जितने तुम तब थे जब तुम बिस्तर पर सोने गए थे। क्या हुआ? समाधि की वह जो थोड़ी सी घटना घटनी थी, नहीं घटी। परमात्मा से जो थोड़ा सा प्रसाद नींद में मिल जाता, वह भी न मिला।
अंधेरा, गहरा अंधेरा--विश्राम का प्रतीक है।
और भी खयाल करना: गहरे अंधेरे में ही सृजन का आविर्भाव होता है। बीज फूटता है--जमीन के अंधकार में। बीज को ऐसे जमीन के ऊपर रख दो, न फूटेगा। उसे दबाना पड़ता है जमीन के अंधकार में। जहां रात हो जाती है, अंधेरा हो जाता है--वहां बीज फूटता है, वहां जन्म होता है।
ऐसे ही बच्चे का जन्म होता है मां के गर्भ में; वहां गहन अंधकार है। वहां कोई रोशनी नहीं जाती। वहां जन्म होता है। गहरे अंधकार में जन्म, जीवन का आविर्भाव होता है।
बहुत कम लोगों ने लेकिन परमात्मा को अंधकार की तरह सोचा। लोगों ने सदा सोचा प्रकाश की तरह। क्यों? इसलिए नहीं कि परमात्मा प्रकाश ही है। परमात्मा प्रकाश भी है। लेकिन लोगों ने इसलिए सोचा कि लोग भयभीत हैं अंधेरे से। लोग ग्रस्त हैं। इसलिए लोगों ने सोचा परमात्मा प्रकाश है। इसलिए शास्त्र दोहराते हैं: परमात्मा रोशनी है, परमात्मा प्रकाश है। क्योंकि प्रकाश में तुम्हें भय कम लगता है, अंधेरे में भय ज्यादा लगता है। यही जगह, यही स्थान, अगर रोशनी है, तुम कम भयभीत; और अंधेरा हो जाए, तो तुम ज्यादा भयभीत। अकेले भी हो, दीया जलता हो तो तुम कम भयभीत; दीया बुझ जाए तो तुम बहुत भयभीत। क्यों? अंधेरे में कुछ दिखाई नहीं पड़ता--क्या क्या है? अंधेरे में कुछ दिखाई नहीं पड़ता--कौन-कौन है? अंधेरा सब सीमाओं को मेट देता है और सभी चीजों को गड्डमड्ड कर देता है। और अंधेरे में सीमाओं का जो भेद है वह विलीन हो जाता है। अंधेरे में सब चीजें असीम में लीन हो जाती हैं, सीमाएं खो जाती हैं। घबड़ाहट पैदा होती है।
अंधकार से जो दोस्ती बनाने में समर्थ है--वही संन्यासी।
इसलिए लैला का अर्थ बड़ा प्यारा है: अंधेरी रात! अंधेरी रात की तलाश! अज्ञात की तलाश!
और खयाल रखना कि सूरज भी उसका है, रोशनी भी उसकी है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि रोशनी उसकी नहीं है। सब उसका है। रोशनी भी उसकी है। लेकिन आदमी क्यों जोर देता है कि रोशनी है परमात्मा। आदमी अपने भय के कारण जोर देता है। घबड़ाहट के कारण। और जो घबड़ाता है, उसका ईश्वर से कोई संबंध नहीं हो पाता।
पलटू के ये प्यारे वचन तुमने सुने! थोड़ी हिम्मत करो। थोड़ा पलटू के साथ अज्ञात की यात्रा में उतरो।
सच्चे साहिब से मिलने को
मेरा मन लिहा बैराग है, जी।
पलटू कहते हैं: मैं संन्यस्त हो गया। सच्चे साहिब को मिलने को!
फर्क समझो।
कुछ लोग संसार इसलिए छोड़ते हैं कि संसार बुरा है; इसलिए छोड़ते हैं कि संसार पाप है; इसलिए छोड़ते हैं कि संसार में दुख ही दुख है। यह नकारात्मक संन्यास हुआ। कुछ लोग इसलिए संन्यास लेते हैं और संसार छोड़ते हैं कि संसार में सुख है, पर क्षणभंगुर। चख लिया। जितना संसार में मिल सकता था, जान लिया। उतने से मन भरता नहीं। उससे प्यास मिटती नहीं--और बढ़ती है। उससे आग में और घी पड़ता है। संसार में देख लिए, सुख के थोड़े से कण बरसते हैं, कभी-कभी कोई बूंद पड़ जाती है, संसार के रेगिस्तान में भी कभी-कभी वर्षा होती है--ज्यादा नहीं, इंच-दो-इंच, कभी-कभी बूंदाबांदी हो जाती है--लेकिन उन बूंदों से एक बात समझ में आ गई कि जल होता है और जल के सरोवर भी कहीं होंगे, जहां से ये बादल उठते हैं। और अगर एकाध बूंद गिर सकती है, तो फिर कहीं जल के अखंड स्रोत भी होंगे। उनकी तलाश में निकलता है साधक।
फर्क समझो।
एक तो साधक ऐसा होता है, जो संसार में दुख पाया। दुख पाया, इसलिए संसार छोड़ देता है, क्योंकि यहां दुख ही दुख हैं, क्या रखा है इसमें! इसका छोड़ना नकारात्मक है। इसके छोड़ने में उदासी होगी। इसके छोड़ने में बड़ी निराशा होगी। इसके छोड़ने में बड़ी हताशा होगी। यह छोड़ कर प्रसन्नचित्त नहीं होगा। दुख को छोड़ कर क्या कोई प्रसन्नचित्त होगा। और इसने संसार में कोई सुख तो जाना नहीं, इसलिए यह भरोसा भी कैसे करे! इसने एक बूंद भी तो नहीं जानी इस मरुस्थल में, यह भरोसा भी कैसे करे कि कहीं दूर हिमालय में छिपा मानसरोवर भी होगा। इसका भरोसा भी डगमगाता होगा।
यही भक्त और साधारण धार्मिक व्यक्ति में भेद है। भक्त छोड़ता है संसार को--इसलिए नहीं कि यहां दुख ही दुख है, बल्कि इसलिए कि यहां सुख तो है, पर क्षणभंगुर है। यहां सुख तो है, लेकिन बस बूंदाबांदी होती है। अब बूंदाबांदी में कब तक बैठे रहें। नहाना भी नहीं हो पाता, हृदय की प्यास भी नहीं बुझती, आत्मा निर्मल भी नहीं हो पाती। मगर बूंदों ने इतना भरोसा दे दिया कि सुख कहीं होता है, सुख का भी कोई अस्तित्व है। अब हम उसकी तलाश में चलें, जहां से ये बादल उठ कर आते हैं, जहां से यह बूंदाबांदी आती है--उस सागर की खोज में निकलें।
तो भक्त बड़ी आस्था से जाता है। ज्ञानी बड़ी निराशा से जाता है। ज्ञानी सोचता है: हो न हो, भगवान है या नहीं! संसार तो देख लिया, व्यर्थ पाया; अब देख लें, यह भी खोज करके देख लें, शायद हो, शायद न हो। ज्ञानी के भीतर एक संदेह बना ही रहता है। भक्त बड़ी आस्था से जाता है। वह कहता है: इस संसार में भी था। थोड़ा था। भगवान कभी-कभी झांका था। कहीं-कहीं खिड़की खुल गई थी। और क्षण भर को। ताजी हवा आई थी। कभी-कभी सुवास नासापुटों में भर गई थी। भगवान यहां भी था, लेकिन बड़े पर्दों में था, पर्दानशीन था, घूंघट और घूंघट, और घूंघट...। मगर कभी-कभी घूंघट उठे थे और उसकी आंख में आंख मिल गई थी। अब हम बिना घूंघट के परमात्मा को पाना चाहते हैं। उसमें आस्था है। उसमें भरोसा है। उसमें उमंग है। वह इतनी बात जान कर ही चलता है कि परमात्मा है। संसार में उसने परमात्मा की थोड़ी सी झलक पा ली, दूर से सही, बहुत दूर से सही, हजार कोस से सही, मगर थोड़ी सी झलक पाई है। जैसे कि हजारों मील से भी तुम चाहो, किसी खुले दिन में जब आकाश में बादल न हों और सूरज साफ-साफ हो, तो हिमालय के उत्तुंग शिखर दिखाई पड़ जाते हैं। उन पर जमी हुई कुंवारी बर्फ, पड़ती हुई सूरज की किरणें और बिखरती चांदी बहुत दूर से दिखाई पड़ जाती है। सपना जैसा ही है, मगर खोज शुरू होती है।
फर्क समझना।
एक आदमी फूलों की तलाश में निकला, क्योंकि संसार में कांटे ही कांटे पाए; अब सोचता है: चलो परमात्मा में खोज कर देख लें, शायद फूल वहां हों। एक आदमी फूलों की तलाश में निकला, क्योंकि संसार में कुछ फूल पाए; कांटे बहुत थे, मगर कभी-कभी कोई गुलाब भी खिला था कांटों पर। इसके लिए परमात्मा ‘शायद’ नहीं है। अब यह एक ऐसे गुलाब की तलाश में निकला है, जहां फूल ही फूल खिलते हों। और जहां कांटे न हों। ऐसे गुलाब भी होते हैं, जिनमें कांटे नहीं होते। इन दोनों की खोज में फर्क होगा। वही पलटू कह रहे हैं:
सच्चे साहिब से मिलने को
मेरा मन लिहा बैराग है, जी।
मैंने जो वैराग्य लिया, जो संन्यास लिया, उसमें संसार को छोड़ देने का उतना सवाल नहीं है, जितना परमात्मा को खोजना है। संसार के प्रति विरक्ति है, ऐसा नहीं, परमात्मा के प्रति अनुरक्ति है, ऐसा।
बड़ा फर्क है। थोड़ा सा दिखाई पड़ता है शब्दों में, फर्क जमीन-आसमान जैसा है। यह संसार भी उसका है।
ऐसा ही समझो कि तुमने किसी संगीतज्ञ का रिकॉर्ड सुना, ग्रामोफोन पर सुना। रिकॉर्ड रिकॉर्ड है। रिकॉर्ड में भरा हुआ संगीत भी बस कामचलाऊ संगीत है। लेकिन इससे खबर तो मिली कि संगीतज्ञ कहीं है। किसी की वाणी पकड़ी गई है, वह वाणी कहीं होगी। तुमने रिकार्ड सुना, अब तुम संगीतज्ञ की खोज में चले। तुम्हारे पैरों में बल होगा।
इसलिए पलटू कहते हैं: जैसे बारात चली उमंगिकै!
उमंग से भरी बरात चली। हम दुल्हा बने और दुल्हनिया की खोज में निकले।
कबीर ने कहा है: राम मेरी दुल्हनिया! बड़ी उमंग से बरात चल रही है। पक्का भरोसा है: दुल्हन है। दूर से देखी थी झलक, या कि तस्वीर देखी थी, या कि दर्पण में देखी थी, मगर दुल्हन है। उसके होने में कोई रत्ती भर संदेह नहीं है। उसका होना सुनिश्चित है। उसका होना इतना सुनिश्चित है कि भक्त अपने को गंवाने को तैयार है--उसे पाने को। उसका होना अपने होने से ज्यादा सुनिश्चित है। यह जीवन को देखने की विधायक दृष्टि।
एक नकारात्मक दृष्टि है--निगेटिव। दुख है। संसार में दुख ही दुख है। छोड़ दो। संसार को छोड़ोगे तो परमात्मा मिलेगा। ऐसा आश्वासन समझो। संदेह तो रहेगा। जब यहां सुख नहीं है, उसके बनाए हुए संसार में सुख नहीं है, तो उसमें भी पता नहीं हो या न हो। और जब उसने ऐसा दुख-भरा संसार बनाया है, तो वह सुख-भरा कैसे होगा! ये सब सवाल उठेंगे ही: सुखी आदमी इतना दुखी संसार बनाता है? जिसके भीतर आनंद बरस रहा हो, वह ऐसी कहानी लिखेगा, दुख भरी? ऐसा नाटक रचेगा दुख भरा? संदेह तो यही होता है कि कोई परमात्मा नहीं है, यह सिर्फ दुर्घटना है। दुर्घटना ही इतनी दुख भरी हो सकती है। इसके पीछे कोई चलाने वाला नहीं है; कोई हाथ नहीं है इस विराट उपद्रव के पीछे। दुख है, उपद्रव है। इसके पीछे कोई संयोजक नहीं है। या कभी रहा होगा तो अब मर चुका है।
जैसा नीत्शे ने कहा कि ईश्वर मर गया है, कभी रहा होगा। चलो मान लेते हैं, कभी रहा होगा; क्योंकि यह सब है तो किसी ने बनाया होगा। लेकिन बनाने वाला मर चुका है। यह सब इतनी अव्यवस्था, इतना दुख, इतनी पीड़ा! यहां पीड़ा पर पीड़ा उठती आती है, दुख पर दुख लगता जाता है। यहां कभी सुख की एक किरण दिखाई नहीं पड़ती। तब भी कोई आदमी वैराग्य लेता है। उसका वैराग्य नकारात्मक होगा। उसके वैराग्य में परमात्मा का अनुराग नहीं है। उसके वैराग्य में सिर्फ संसार की उपेक्षा, संसार का निषेध है। उसके वैराग्य में सिर्फ संसार का विरोध है। संसार के प्रति द्वेष है उसके वैराग्य में; परमात्मा के प्रति प्रेम नहीं।
परमात्मा के प्रति प्रेम तो तभी संभव है जब संसार को भी तुमने सहज भाव से स्वीकार किया हो, अंगीकार किया हो; इसमें भी कुछ फूल मिले हों। नहीं चलो फूल तो फूल की पंखुरी ही, कुछ मिला हो--तो भरोसा आए। दूर की ध्वनि सुनाई पड़ी हो, छाया दिखाई पड़ी हो जल में, मगर कुछ दिखाई पड़ा हो, कुछ अनुभव हुआ हो। और अनुभव यहां हो सकता है, क्योंकि कृत्य में कर्ता मौजूद होता है। नृत्य में नर्तक मौजूद होता है।
सच्चे साहिब से मिलने को
मेरा मनु लिहा बैराग है, जी।
मोह निसा में सोइ गई,
चौंक परी उठि जाग है, जी।।
मोह निसा में मैं सोइ गई! इस संसार में मैं सो गया था, खो गया था, मूर्च्छित हो गया था, प्रमाद से भर गया था, झपकी लग गई थी। मेरा संन्यास सिर्फ आंख का खुल जाना है। अब मैं जाग पड़ा हूं। अब मैं ऐसा आंख बंद किए-किए नींद-नींद में न चलूंगा; अब मेरी आंखें खुल गई हैं। बस इतना ही फर्क है।
संसारी में और संन्यासी में इतना ही फर्क है कि एक आंख बंद किए चल रहा है और एक आंख खोल कर चल रहा है। जगह तो यही है। यही मकान, यही बाजार, यह मंदिर-मस्जिद, यही लोग, यही पत्नी, पति, बच्चे, परिवार--सब यही है। फर्क इतना है कि संन्यासी आंख खोल कर चल रहा है। और आंख खोलना इतना बड़ा फर्क है कि और फर्क क्या मांग सकते हो! और ज्यादा फर्क होता ही नहीं। बस पलक खुलने और बंद होने का फर्क है। जरा सा फर्क है।
मोह निसा में सोइ गई,
चौंक परी उठि जाग है, जी।
तो पलटू कहते हैं: कुछ और खास नहीं हो गया, एक नींद लग गई थी, एक सपना देखा था। एक मोह की तंद्रा पकड़ गई थी। मेरे-तेरे का भाव पकड़ गया था। मैं हूं, मेरा है--ऐसे संसार का जन्म हो गया था। ‘मोह-निसा’ में स्मरण न रहा था कि क्या वस्तुतः है। अपनी कल्पना को ही सच मानने लगा था।
तुम रोज तो करते हो यही। रात सपना देखते हो, सपने में भूल जाते हो कि यह सपना है। सपने में याद ही नहीं आती कि यह सपना है। सपने में लगता है कि यही सच है--सब सचों का सच। सुबह जाग कर फिर हंसते हो, अपने पर हंसते हो। हैरानी होती है, भरोसा नहीं आता कि मैं भी कैसा मूढ़, रात सपना देखा और मान लिया कि सच है! अब कभी ऐसा न करूंगा। अब ऐसी भूल न करूंगा।
और ऐसा कितनी बार नहीं हो चुका! हजारों बार हो चुका। हजारों बार सुबह जाग कर हंसे हो, अपनी मूढ़ता को पाया है, तय किया है कि अब दुबारा ऐसी भूल न होगी--और फिर रात सोओगे, और फिर सपना सच हो जाएगा। नींद में सपने सच मालूम होने लगते हैं।
जब आदमी सोया हो तो फर्क कैसे करे कि क्या झूठ और क्या सच? जागरण में कसौटी है। जागरण में, सार-असार का स्पष्ट भेद हो जाता है। कुछ करना नहीं पड़ता; जागे हुए आदमी को सीधा दिखाई पड़ने लगता है कि क्या है और क्या नहीं है। जो नहीं है, वह अपने आप तिरोहित हो जाता है; और जो है, वही शेष रह जाता है।
सोया हुआ आदमी प्रक्षेपण करता है। जो उसके मन की कामनाएं हैं, वासनाएं हैं, दमित इच्छाएं हैं, अधूरी अपूरित तृष्णाएं हैं--वे फैल जाती हैं। वही तो सपना बनती हैं। तुमने दिन में उपवास किया, रात भोजन करने लगे सपने में। दिन भर दबाया था भूख को, रात भूख उबली। भूख इतनी जोर से उठी कि भूख ने अपना भोजन निर्मित कर लिया। भूख ने एक सपना बना लिया कि राजमहल में तुम्हारा निमंत्रण हुआ है और सुस्वादु भोजन का ढेर लगा है और तुम दिल खोल कर खा रहे हो।
यह सपना पैदा कैसे हो रहा है? पहली तो नींद जरूरी है। दूसरी कोई दमित वासना जरूरी है। कोई टूटी-फूटी वासना जरूरी है, जो भर न पाई हो जागने में। बस ये दो बातें मिल जाएं तो सपना पैदा हो जाएगा। यह सपने का यंत्र है: दबी हुई वासना, अधूरी वासना, अपूरित वासना और तंद्रा, बेहोशी।
इसलिए जो आदमी शराब पी लेता है, उसे कुछ का कुछ दिखाई पड़ने लगता है।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को लेकर शराब घर में बैठा था। फिर अचानक बोला कि बस अब रुक जाओ, अब ज्यादा मत पीओ। तुम्हें मैं यह पाठ सिखाता हूं। यह पीने वालों का अनिवार्य पाठ है। देखो उस किनारे पर दो लोग बैठे हैं। उस लड़के ने पीछे लौट कर देखा। वहां कोई नहीं, एक आदमी बैठा है। मुल्ला कह रहा है कि देखो वहां पीछे दो लोग बैठे हैं, जब ये चार दिखाई पड़ने लगें, तब पीना बंद कर देना।
उसके बेटे ने कहा: पिताजी, वहां एक ही है। आप पहले ही काफी पी चुके हैं, अब बंद करने का कोई मतलब नहीं है।
जब चार दिखाई पड़ने लगें--मुल्ला कह रहा है--तब पीना बंद कर देना, यह सूत्र है घर लौटने का, नहीं तो फिर घर नहीं लौट पाओगे। जैसे ही चार दिखाई पड़ें, जल्दी से बंद करके अपने घर चले जाना, ताकि घर पहुंच जाओ सुरक्षित, बिस्तर में लेट जाओ, नहीं तो किसी नाली में पड़े रहोगे।
मगर वह पहले ही पी चुका है काफी। जहां एक है, वहां दो तो दिखाई पड़ ही रहे हैं। अब थोड़ी और पीएगा तो चार भी दिखाई पड़ेंगे। थोड़ी और पी लेगा तो आठ भी दिखाई पड़ने लगेंगे। और आदमी की जगह सिंह और भालू दिखाई पड़ सकते हैं, हाथी और घोड़े दिखाई पड़ सकते हैं।
एक दिन मुल्ला अपने सिर पर एक टोकरी लिए घर की तरफ आ रहा है और किसी ने पूछा: इसमें क्या है? तो उसने कहा: इसमें एक नेवला लाया हूं पकड़ कर। ‘नेवला!’ उस आदमी ने पूछा: नेवला किसलिए पकड़ कर लाए हो? उसने कहा कि जब मैं शराब पी लेता हूं ज्यादा तो मुझे सांप दिखाई पड़ते हैं। तो नेवले को कमरे में रखूंगा। यह निपट लेगा सांपों से। कहते हैं न कि नेवला तो सांप को टुकड़े-टुकड़े कर देता है! इसलिए ला रहा हूं।
वह आदमी हंसा। वह बोला: लेकिन शराब पीकर जो सांप दिखते हैं, वे सच थोड़े ही होते हैं, वे झूठ होते हैं। मुल्ला हंसा और बोला: तुम क्या समझते हो, इसमें नेवला सच है? खाली टोकरी, सिर्फ खयाल।
आदमी मूर्च्छा में ‘जो नहीं है’ वैसा देखने लगता है। इसे उलटा करके समझो। इसको कसौटी समझो मूर्च्छित होने की: अगर तुम्हें जो नहीं है, वैसा दिखाई पड़ता हो तो समझो कि तुम मूर्च्छित हो। रात तुम्हें सपना दिखाई पड़ता है, यह सबूत है कि तुम मूर्च्छित हो। बुद्धपुरुषों को सपना नहीं दिखाई पड़ता। और जिसको रात सपना दिखाई पड़ता है, दिन में वह कोई दूसरा थोड़े ही हो जाएगा। है तो वही का वही। भीतर तो सपने बहते ही रहेंगे। दिन में भी तुम्हें कुछ का कुछ दिखाई पड़ता है।
एक राह से तुम गुजरते हो, एक मकान तुम्हें दिखाई पड़ता है बहुत सुंदर, मन होता है खरीद लें, अपना हो। मगर यह मकान इतना सुंदर है, या कि तुम्हारी तृष्णा के कारण दिखाई पड़ रहा है? जिस दिन तुम्हारे भीतर तृष्णा न रहेगी उस दिन यह मकान इतना सुंदर दिखाई पड़ेगा? इसी मकान के पास से बुद्ध गुजरेंगे, उनकी नजर जाएगी इस मकान पर? यह मकान में सौंदर्य है, या तुम्हारी तृष्णा इस मकान को सुंदर बना रही है?
एक स्त्री तुम्हें सुंदर दिखाई पड़ती है। इस स्त्री में सौंदर्य है, या तुम्हारी वासना तुम्हें सौंदर्य दिखा रही है? बुद्ध गुजरेंगे तो उन्हें तो सौंदर्य दिखाई नहीं पड़ेगा।
तुम्हें जब किसी आदमी में कुरूपता दिखाई पड़ती है, तो कुरूपता वहां है, या यह भी तुम्हारा प्रक्षेपण है? एक आदमी बैठा है राह के किनारे, कोढ़ी, शरीर गला हुआ, बदबू निकल रही है। तुम नाक बंद करके दूसरी तरफ मुंह फेर कर एकदम तेजी से निकल जाते हो--इतना कुरूप आदमी! लेकिन यह आदमी कुरूप है, या यह भी तुम्हारा प्रक्षेपण है? यह तुम्हारा भय है। तुम डरते हो कि कहीं किसी दिन ऐसी मेरी हालत न हो जाए। उसी भय के कारण तुम भाग रहे हो।
जो तुम चाहते हो मुझे मिले, वह सुंदर दिखाई पड़ता है। और जो तुम चाहते हो कभी मुझे न मिले, कभी ऐसा न हो मुझे, वह तुम्हें कुरूप दिखाई पड़ने लगता है। कुरूप और सौंदर्य वस्तुओं में नहीं होते--तुम्हारी तृष्णाओं में, तुम्हारी धारणाओं में, तुम्हारे भयों में, तुम्हारी कामनाओं में छिपे होते हैं।
जिस दिन किसी व्यक्ति की मूर्च्छा टूट जाती है: न कुछ सुंदर है न कुछ असुंदर है। बस वैसा ही है जैसा है। कुछ कहने का अर्थ ही नहीं होता। ये वृक्ष वृक्ष हैं। आदमी आदमी हैं। स्त्रियां स्त्रियां हैं। पत्थर पत्थर हैं। नदियां नदियां हैं। जो जैसा है वैसा है। तुम्हारी कोई धारणा नहीं बनती।
जागा हुआ आदमी गुजर जाता है, उसकी कोई धारणा नहीं होती। उसे सब जैसा होना चाहिए वैसा है। चूंकि उसके भीतर कोई आकांक्षा नहीं है कि यह मुझे मिले और ऐसी भी कोई आकांक्षा नहीं है कि मिल जाए तो मेरा दुर्भाग्य होगा, इसलिए कोई धारणा सिर नहीं उठाती। उसके भीतर कोई सपना नहीं पैदा होता। जिस दिन जो है वैसा ही तुम्हें दिखाई पड़ने लगे, उस दिन जानना कि जागरण हुआ है।
मोह निसा में सोइ गई,
चौंक परी उठि जाग है, जी।
पलटू कहते हैं: कुछ और नहीं हुआ, वह जो मोह-निशा थी, टूट गई है, मैं जाग गया। यही मेरा संन्यास। यही मेरा वैराग्य। जागरण--वैराग्य।
सुनते हो! त्याग नहीं--जागरण। छोड़ना नहीं--जागरण। छोड़ने में तो नींद बनी ही हुई है। जब कोई आदमी कहता है मैं छोड़ता हूं, तो उसका मतलब यह होता है कि अभी भी पकड़ने का मन था, नहीं तो छोड़ने की भी इतनी क्या चिंता! जब कोई आदमी कहता है: मैंने छोड़ा, तो उसका मतलब होता है कि अभी भी पकड़े हुए हैं, नहीं तो छोड़ता भी क्यों! छूट जाता। जागरण!
दोउ नैन बने गिरि के झरना,
भूषन बसन किया त्याग है, जी।
पलटू कहते हैं आंखें तो झरने हो गई हैं। आंसू ऐसे बह रहे हैं, जैसे झरना हो, जैसे कभी न रुकेगा।
दोउ नैन बने गिरि के झरना,
क्योंकि जो छोटी सी झलक इस संसार में दिखाई पड़ गई है, अब वह तड़फाती है। अब उस प्राणप्यारे की खोज के लिए बड़ी आकांक्षा पैदा हुई है। विरह उठा है। स्वाद लग गया है।
कहते हैं एक आदमी ने एक सिंह पाला था। बचपन से पाला था और उसे शाकाहारी बना लिया था। शाकाहारी बनना पड़ा था सिंह को; बचपन से उसे मांस मिला नहीं, उसने मांस का स्वाद नहीं जाना। शाक-सब्जी, फल इत्यादि खाकर ही जीता था, जानता था यही भोजन है। उस आदमी के पैर में एक दिन चोट लग गई और सिंह उसके पास ही बैठा था, जैसा वह सदा बैठता था। पैर में से खून बह रहा था। और उस सिंह ने अपनी जीभ से वह खून चाट लिया। बस फिर मुश्किल हो गई। स्वाद लगा कि जैसे सोया हुआ सिंह, जिसे पता ही नहीं था कि मैं सिंह हूं, एकदम उठ कर खड़ा हो गया। हुंकार निकल गई, जो उसके मुंह से कभी नहीं निकलती थी। शाकाहारी सिंह कहीं हुंकार देते हैं! एकदम हुंकार निकल गई। वह आदमी भी घबड़ा गया। उस आदमी ने भी अपनी बंदूक उठा ली। अब यह सिंह खतरनाक था। अब इसको घर में रखना खतरे से खाली नहीं था। उसे जंगल में छोड़ देना पड़ा। स्वाद लग गया!
ऐसी ही दशा हो जाती है भक्त की। संसार में परमात्मा का थोड़ा सा स्वाद मिल गया। थोड़ा सा! बस जरा सा! जीभ पर लगा ही लगा। मगर बस बात बदल गई। अब संसार में कोई रस न रहा। अब तो इस परम प्यारे को खोजना है।
दोउ नैन बने गिरि के झरना,
भूषन बसन किया त्याग है, जी।
समझना, यह बड़ी प्यारी बात है। पलटू कहते हैं: अब कहां याद कपड़े-लत्तों की, भूषण-आभूषण की! यह उन दिनों की बात है जब हिंदुस्तान में पुरुष भी आभूषण पहनते थे। तो तुम थोड़ा चौंकोगे कि पुरुष और आभूषण की बात कर रहे हैं पलटूदास! यह पहनते थे पुरुष उन दिनों।
सच तो यह है कि आभूषण सबसे पहले पुरुषों ने ही पहनने शुरू किए, बाद में धीरे-धीरे स्त्रियां सीखीं। और यह ज्यादा प्राकृतिक लगता है कि पुरुष आभूषण पहने। स्त्रियां वैसे ही सुंदर हैं। तो यह तकलीफ पुरुष को उठी होगी कि वह स्त्रियों जैसा सुंदर नहीं है। तो उसने आभूषण बनाए होंगे। ये आभूषण दीनता से उठे होंगे, हीनता से उठे होगे।
तुम प्रकृति में भी देखोगे तो यही पाओगे। मुर्गे को देखते हो, सिर पर कलगी का आभूषण! मुर्गी को कुछ नहीं। मोर को देखते हो! पुरुष को तो कितना सुंदर आभूषण है--पंख! मोरनी को कुछ भी नहीं। सिंह को देखते हो! तुम चारों तरफ देख डालो प्रकृति में--पुरुष को तुम पाओगे आभूषणों से लदा हुआ। स्त्री के तो स्त्री के होने में ही इतना माधुर्य है कि अब और किसी बात की जरूरत नहीं है। इसलिए प्रकृति ने स्त्रियों को सुंदर आभूषण नहीं दिए हैं। पुरुष ने खोजे हैं। और इसकी कभी वैज्ञानिक खोज होगी तो यह पाया जाएगा कि यह जो कलगी है मुर्गे के ऊपर, यह भी प्रकृति ने नहीं दी है, मुर्गे ने पैदा की होगी, खोजी होगी। आदमी को चिंता लगी रहती है। उसे स्त्री से ज्यादा सुंदर होना चाहिए। उसे कुछ न कुछ परिपूरक करना पड़ता है। कुछ खोजना पड़ता है।
वैज्ञानिक तो कहते हैं कि आदमी ने जो इतने आविष्कार किए हैं, इतने चित्र बनाता, मूर्ति बनाता, संगीत का निर्माण करता, विज्ञान की खोज करता, चांद-तारों पर जाता--इन सबके पीछे एक ही दंश है कि वह बच्चे पैदा नहीं कर सकता। स्त्री से हारा हुआ है। स्त्री जन्म दे पाती है जीवित बच्चे को। और यह पुरुष को काटता है। वह भी कुछ जन्म देने की कोशिश करता है, तो सब्स्टीट्यूट, परिपूरक खोजता है। वह कहता है: देखो, मैंने एक चित्र बनाया! आदमी तो बना नहीं सकता, चित्र बनाया। कविता लिखी, संगीत रचा। हिमालय पर चढ़ गया। देखते हो, चांद पर पहुंच गया। यह पुरुष के भीतर कुछ थोड़ी सी एक बेचैनी है। बेचैनी इस बात की है कि एक काम स्त्री कर लेती है, जो वह नहीं कर पाता: जीवन को जन्म दे लेती है।
और इसका ही दूसरा अंग है: इसलिए स्त्रियां कविता इत्यादि नहीं लिखतीं, मूर्ति भी नहीं बनाती, संगीत की भी चिंता नहीं करतीं। चांद-तारों पर जाने में उनको हंसी आती है कि किसलिए, क्या फायदा, क्या फायदा, क्या सार! हिमालय पर किसलिए चढ़ रहे हो? स्त्री की समझ में ही नहीं आता। वह तृप्त है।
स्त्री को गौर से देखो तो उसमें एक तृप्ति मालूम पड़ती है। और जब कोई स्त्री मां बन जाती है, तो बड़ी तृप्त हो जाती है। उसमें एक गोलाई है। पुरुष में थोड़े से कोने निकले हैं, जिनको वह घिसता रहता है कि किसी तरह गोलाई आ जाए। सृष्टा बनने की, सुंदर होने की--एक स्पर्धा है।
तो पुरुष ने ही सबसे पहले आभूषण खोजे हैं। फिर धीरे-धीरे रोग स्त्रियों को लगा। खोजता पुरुष है, फिर रोग लग जाता है स्त्रियों को। फिर जब स्त्रियां उन आभूषणों का उपयोग करने लगीं, तो पुरुष ने छोड़ दिया। वह भी उसके अहंकार को नहीं सोहता, वह भी उसके अहंकार को नहीं जंचता कि अब स्त्रियों ने पहन लिए आभूषण, अब मैं पहनूं, तो स्त्रैण जंचता हूं! तो उसने छोड़ दिए। अब स्त्रियां भी छोड़ रही हैं। इस बात की बहुत संभावना है कि आने वाली सदी में पुरुष फिर आभूषण पहनने लगें। अगर स्त्रियां छोड़ दें तो पुरुष फिर पहन लेगा। स्त्रियां छोड़ रही हैं आभूषण। पश्चिम में तो स्त्रियां छोड़ रही हैं। पूरब में भी कम होता जाता है। अभद्र मालूम होने लगा है आभूषणों से लदा होना, फूहड़ मालूम होने लगा है। कोई आवश्यकता नहीं है।
तो पलटू उस समय की बात कर रहे हैं, जब पुरुष भी आभूषण पहनते थे।
दोउ नैन बने गिरि के झरना,
भूषन बसन किया त्याग है, जी।
यह त्याग हो गया। आंखें रो रही हैं विरह में, झरने बह रहे हैं आंखों के। आंसू ही आंसू हैं। अब किसको फिकर रही आभूषण पहनने की! अब कौन सजावट करे! यह सजावट तो स्त्रियों को लुभाने के लिए थी; अब तो परम प्यारे को लुभाने चले, अब वहां आभूषण काम न आएंगे। वहां तो कुछ आत्मिक आभूषण चाहिए--सरलता चाहिए, सादगी चाहिए, ईमान चाहिए, श्रद्धा चाहिए, प्रेम चाहिए, अनन्य भक्ति चाहिए, प्रार्थना चाहिए, पूजा चाहिए, अर्चना चाहिए। वहां तो कुछ दूसरे आभूषण चाहिए। ये सोने-चांदी की बातें परमात्मा को न लुभा सकेंगी। ये तो बातें बाहर की हैं; अब भीतर के आभूषण चाहिए। अब बाहर के वस्त्र मैले-कुचैले भी रहे तो चल जाएगा; अब तो अंतरात्मा स्वच्छ होनी चाहिए। अब तो सफाई वहां करनी है। अब तो स्नान वहां करना है। और जब आंख झरने बन जाती हैं, तो आत्मा शुद्ध होने लगती है।
उम्र कैसे कटेगी सैफ यहां
रात कटती नजर नहीं आती।
एक-एक पल भक्त का मुश्किल में कटने लगता है। एक तरफ भक्त बड़ा आह्लादित है कि प्रभु की तरफ चल पड़ा और दूसरी तरफ बड़ी पीड़ा है कि मिलन कब होगा!
उम्र कैसे कटेगी सैफ यहां
रात कटती नजर नहीं आती।
और सब लुटा देता है। सब लुटा देता है! भूषन-बसन, जो कुछ भी है, सब धीरे-धीरे लुट जाता है।
बहारें लुटा दीं, जवानी लुटा दी
तुम्हारे लिए जिंदगानी लुटा दी।
वह कुछ भी रोक नहीं रखता। रोक रख सकता ही नहीं। जो भी दे सकता है, दे ही देता है। रोकने का पाप कर ही नहीं सकता। क्योंकि वह उसी को काटेगा। वही अपराध बन जाएगा उसका। अगर उसने सब उसके लिए नहीं छोड़ दिया है तो वह खुद ही सोचेगा: मैं खुद ही कुछ पकड़े बैठा हूं अभी, और अगर प्यारा न आए तो शिकायत क्या! सब छोड़ कर न आए तो शिकायत हो सकती है। तो हम गुहार मचा सकते हैं। तो हम चीख-पुकार मचा सकते हैं कि तेरे लिए सब लुटा दिया।
बहारें लुटा दीं, जवानी लुटा दी
तुम्हारे लिए जिंदगानी लुटा दी।
अब तो आओ! अब क्या कमी बची है? अब तो सुधि लो।
पलटू जीयत तन त्याग दिया,
उठी विरह की आगि है, जी।
पलटू कहते हैं: ये जो गैरिक वस्त्र पहन लिए मैंने, यह जो संन्यस्त हो गया, यह जो विराग ले लिया--इसे कुछ ऐसा ही मत समझना...। आग लगी है! आग उठी है! विरह की आग जन्मी है!
ये गैरिक वस्त्र तो अग्नि के प्रतीक हैं।
पलटू जीयत तन त्याग दिया,
पलटू कहता है: मैंने तो छोड़ ही दिया अपनी तरफ से तन। उस प्यारे को पाना है तो अब क्या पकडूं तन को! यह जीवन तो मेरी तरफ से गया; मेरे हाथ में अब इस जीवन की कोई पकड़ नहीं है। अब तो सारी ऊर्जा उसी की तरफ जा रही है। और एक लपट उठी है विरह की। अब उसके बिना एक पल नहीं कटता।
दोउ नैन बने गिरि के झरना,
उठी विरह की आगि है, जी।
साहिब के दास कहाय यारो,
जगत की आस न राखिए, जी।
कहते हैं कि मित्रो, साहिब के दास कहाय! कहते तो हो कि प्रभु के चरणों की आशा लगाए हैं; और फिर भी संसार में भी तुम्हारी आशा उलझी हुई है! कहते हो प्रभु को पाना है; और संसार को भी पाने में लगे रहते हो! कहते हो प्रभु की तरफ ही सारा जीवन बह रहा है; फिर भी संसार पर पकड़ बनी रहती है, पकड़ नहीं छूटती!
साहिब के दास कहाय यारो,
जगत की आस न राखिए, जी।
अब तो आशा जगत से छोड़ो। सारी आशा उसी पर आरोपित करो। जब सारी इच्छाएं और सारी आशाएं और सारी तृष्णाएं और सारी चाहत एक प्रबल धार बन जाती है वेगवान और परमात्मा की तरफ बहने लगती है, तभी मिलन है। ऐसे खंड-खंड रहोगे, एक हाथ यहां जा रहा है, एक हाथ वहां जा रहा है, एक धार यहां बह रही है, एक धार पूरब, एक पश्चिम; एक उत्तर, एक दक्षिण--तो तुम पहुंच न पाओगे सागर तक। सागर तक जाना हो तो एकजुट हो जाओ, एकाग्र हो जाओ। सारी आशाओं को उसी पर टिका दो। सारी आशाएं, जैसे किरणों को इकट्ठा एक जगह डाल दो तो आग पैदा हो जाती है, ऐसे ही जब सारी आशाएं समग्रीभूत रूप से परमात्मा पर आरोपित हो जाती हैं तो अग्नि पैदा होती है। अग्नि--जिसमें तुम जल जाओगे।
तुम, जो कि झूठे हो।
तुम, जो कि मिथ्या हो।
तुम, जो कि माया हो।
और फिर जो तुम्हारी राख में पड़ा हुआ जो शेष रह जाएगा--वही परम धन है, वही परमात्मा है, या कहो कि वही तुम्हारा असली रूप है। वही तुम असली हो।
एक नकली मैं है तुम्हारा और एक असली मैं। नकली मैं संसार में आशा रखता है; असली मैं परमात्मा में आशा रखता है।
साहिब के दास कहाय यारो,
जगत की आस न राखिए, जी।
समरथ स्वामी को जब पाया,
जगत से दीन न भाखिए, जी।।
जब प्रभु की तरफ चल पड़े, जब सम्राटों का सम्राट तुम्हारी आंखों में आ गया, तो अब तुम संसार के सामने भीख मांगते हो! अभी भी संसार से आशा रखते हो कि कुछ मिल जाए! अभी भी कौड़ियां बटोरने का मन है! अभी भी सपने देख रहे हो!
समरथ स्वामी को जब पाया,
जगत से दीन न भाखिए, जी।
अब छोड़ो यह दीनता। अब यह भिखमंगापन छोड़ो। यहां मांग तो लिया जन्मों-जन्मों तक, क्या पाया? भिक्षापात्र खाली का खाली है; जरा भी भरा नहीं। जितना मांगा, उतनी ही मांग बढ़ती गई। जितना चाहा, उतनी ही चाह प्रगाढ़ होती गई। यहां कोई भी चीज तो कभी तृप्त नहीं हुई। कभी कोई संतुष्ट नहीं हुआ।
साहिब के घर में कौन कमी,
किस बात को अंते आखिए, जी।
क्या तुम सोचते हो कि साहिब के घर में कुछ कमी है, कि तुम्हें इधर-उधर भी मांगना पड़ेगा? संसार के सामने भी भिक्षापात्र फैलाना पड़ेगा? तो तुम्हारा भरोसा ही नहीं है। तो तुम्हारे भीतर अभी श्रद्धा की परम घटना नहीं घटी। जब श्रद्धा की परम घटना घटती है तो साहब काफी है। वह देने वाला--आखिरी देने वाला--मिल गया। जिसने जीवन दिया, वही मिल गया। जिसने तुम्हें प्राण दिए, वही मिल गया उसके घर में सब है।
साहिब के घर में कौन कमी,
किस बात को अंते आखिए, जी।
पलटू जो दुख सुख लाख परै,
वही नाम सुधा-रस चाखिए, जी।।
और अगर सुख आएं, दुख आएं, तो डांवाडोल मत होना। तुम तो उसके नाम-रस को ही चखते जाना। तुम तो उसके नाम-रस में ही डुबकी मारते जाना। तुम तो पीए जाना प्याले पर प्याले उसके ही नाम-रस के। सुख आए तो भी रुकना मत। यह मत कहना कि अभी सुख आया, थोड़ा सुख भोग लूं, फिर राम को याद कर लूंगा। और दुख आए तो भी रुकना मत, कि जरा इस दुख से लड़ लूं, फिर राम को याद कर लूंगा। सुख आएं, आने दो; दुख आएं, आने दो। आने दो, जाने दो। तुम डूबे रहो--अपने रस में विमुग्ध।
पलटू जो दुख-सुख लाख परै,
वही नाम सुधा-रस चाखिए, जी।
वे सुख-दुख भी सब परीक्षाएं हैं। उनसे गुजर-गुजर कर आदमी निखरता है। उनसे गुजर-गुजर कर आदमी सुघड़ता है। उनसे गुजर-गुजर कर आदमी के भीतर जो सही है, जो सच है, बचता है; और जो झूठ है, वह गिरता है।
सुख और दुख परीक्षाएं हैं। तुमने यह तो सुना होगा कि दुख परीक्षा है; तुमने यह नहीं सुना होगा कि सुख भी परीक्षा है। मैं तुमसे वह भी कह देता हूं। सुख भी परीक्षा है। लोग दुख को तो कहते हैं परीक्षा; और सुख को कहते हैं--फल, पुरस्कार। यह झूठी बात है। दुख को परीक्षा कहना अपने को समझाना है; सांत्वना देना है कि भगवान परीक्षा ले रहा है; गुजार दो, थोड़ी देर की बात है; अभी सुबह हुई जाती है; देखो ज्यादा देर नहीं है, थोड़ा और। दुख परीक्षा है, लोग कहते हैं, ताकि दुख की व्याख्या, परीक्षा हो जाए, तो झेलना आसान हो जाए। लेकिन सुख को नहीं कहते कि परीक्षा है। सुख को क्यों कहो परीक्षा? सुख को तो वे कहते हैं: पुण्यों का फल है; जो पीछे पुण्य किए थे, राम-नाम जपा था इतने दिन, उसका फल मिल रहा है, पुरस्कार मिल रहा है। सुख को तो पकड़ो जोर से।
लेकिन पलटू ठीक बात कहते हैं। वे कहते हैं: ‘पलटू जो दुख-सुख लाख परै!’
दुख आए कि सुख, दोनों को परीक्षा जानना। सुख भी परीक्षा है--और मेरे हिसाब से दुख से बड़ी परीक्षा है। क्योंकि दुख को तो कोई पकड़ना नहीं चाहता; सुख को लोग पकड़ना चाहते हैं। इसलिए सुख परीक्षा है। और जब तुम सुख को भी पकड़ते नहीं, तुम परमात्मा की धुन में लीन ही रहते हो, तुम सुख से कहते हो तू अपनी राह पर आ और जा, ऐसे सुख आते-जाते रहते हैं, मुझे अब रस नहीं है...। जब कोई गाली दे, तब शांत रह जाना इतना कठिन नहीं है--जितना तब कठिन है जब कोई प्रशंसा कर जाए। गाली देते वक्त शांत रहने का तो अभ्यास करवाया गया है; कहा गया है कि गाली कोई दे, शांत रहना, अपने पर संयम रखना, यह सज्जन का लक्षण है। लेकिन जब कोई प्रशंसा कर जाए, फूलमाला पहना जाए, तब? तब तो किसी ने नहीं कहा है कि शांत रहना। क्योंकि शांत रहने की बात तो इसीलिए कही गई है कि गाली के कारण कोई झंझट खड़ी न हो, तुम गाली न दे दो, कोई झगड़ा-फसाद न हो जाए--तो सामाजिक व्यवस्था बिगड़ती है; इसलिए गाली कोई दे तो शांत रहना। यह सामाजिक शिक्षण है।
धार्मिक शिक्षण है: कोई गाली दे कि कोई प्रशंसा करे, तुम्हारे भीतर तरंग पैदा न हो। कोई प्रतिक्रिया पैदा न हो। तुम निस्तरंग ही रहना। फूल कोई चढ़ा गया तो ठीक; कांटे कोई पहना गया तो ठीक। तुम दोनों हालत में वैसे के वैसे रहना जैसे इस घटना के पहले थे--फूल चढ़ाने के पहले, कांटे चढ़ाने के पहले; गाली के पहले, स्तुति के पहले। तुम जैसे थे उसमें कुछ भेद न आए। तुम संतुलित रहना। तुम थिर रहना।
पलटू जो दुख-सुख लाख परै,
वही नाम सुधा-रस चाखिए, जी।
तुम तो एक ही बात करना--उस प्रभु के रस में ही लीन रहना। धीरे-धीरे न दुख आएंगे, न सुख आएंगे। एक दिन तुम पाओगे: अब कोई भी नहीं आता; सिर्फ परमात्मा आता है। अब तुम्हारे दरवाजे और कोई आता ही नहीं; सिर्फ परमात्मा ही आता है। प्रतिपल नित नये रूप में आता है। मगर परमात्मा ही आता है।
घर-घर से चुटकी मांगिके, जी
छुधा को चारा डारि दीजै।
पलटू कहते हैं: शरीर को दो रोटी चाहिए, मांग लेना।
घर-घर से चुटकी मांगिके, जी
क्षुधा को चारा डारि दीजै।
फूटा इक तुम्बा पास राखौ,
ओढ़न को चादर एक लीजै।।
पलटू कहते हैं: इतना काफी है--एक चादर हो ओढ़ने को, एक फूटा तुंबा हो पास। दो रोटी की जब भूख लगे तो किसी से भी मांग लेना, कोई भी दे देगा।
हाट-बाट महजित में सोए रहौ,
फिर बाजार हो, मंदिर हो कि मस्जिद, फिर कहीं भी सोए रहो।
हाट-बाट महजित में सोए रहौ,
दिन-रात सतसंग का रस पीजै।
पर एक बात खयाल रखना कि सत्संग का रस चलता रहे। ये तो गौण बातें हैं। दो रोटी किसी से भी मांग लेना और डाल देना पेट में, भूख मिटा देना। चादर ओढ़ लेना कोई भी, शरीर की सुरक्षा हो जाएगी। सोने को पूछते हो तो कहीं मस्जिद में ही सो जाना, कि हाट-बाजार में सो जाना। इन छोटे से कामों के लिए सारे जीवन को संलग्न करने की जरूरत नहीं है। यह काम इतने महत्वपूर्ण नहीं।
लोग क्या करते हैं? लोग सारा जीवन एक ही बात में लगाते हैं कि कैसे मकान बनाएं, कैसे दुकान लगाएं। और आखिर में करते क्या हो? आखिर में एक चादर ओढ़ कर रात सो रहते हो। दो रोटी पेट में डाल कर क्षुधा मिट जाती है। फिर चाहे तुम सोने के पात्र में पानी पिओ या एक फूटे तुंबे में, न तो तुंबे से पानी और प्यास का कोई संबंध है, न सोने का पानी और प्यास से कोई संबंध है। प्यास का संबंध तो पानी से है। अब पानी तुंबे में है कि सोने के पात्र में, क्या फर्क पड़ता है! लेकिन लोग पानी की कम फिकर करते हैं, सोने के पात्र की ज्यादा फिकर। जीवन लगा देते हैं। प्यासे, भूखे दौड़ते रहते हैं कि सोने का पात्र चाहिए। सोने का पात्र मिलेगा, तब उनकी प्यास बुझेगी। अब, सोने के पात्र से प्यास के बुझने का संबंध क्या है? प्यास पानी से बुझती है। एक फूटा तुंबा काफी है।
पलटू यह कह रहे हैं कि जीवन में जो जरूरी है, उसे पूरा कर लेना। मगर जरूरत के पीछे दीवाने होकर सदा मत दौड़ते रहना। कहीं ऐसा न हो कि परमात्मा को बिसार ही दो। तुंबे को सोने का पात्र बनाना है। छप्पर पर चांदी की छड़ें लगाना है। वस्त्रों में हीरे-जवाहरात टांकने हैं।...तो तुम मतलब की बात ही भूल गए। तुम असली बात ही भूल गए कि वस्त्र तन को ढांकने को हैं; छप्पर वर्षा धूप से बचा लेने को है।
तुम अपने जीवन में झांकना। तुम्हारे जीवन में अक्सर यही होता है कि असार के लिए तुम ज्यादा शक्ति लगाए रखते हो। सार पर कोई शक्ति लगती ही नहीं। फिर अगर जीवन में विषाद आता है तो कौन जिम्मेवार है!
ओढ़न को चादर एक लीजै।
छुधा को चारा डारि दीजै।
ये तो बातें गौण हैं। असली बात है: ‘दिन-रात सतसंग का रस पीजै।’
उसकी तलाश करो। वही है सोना। सत्संग है सोना। उसकी तलाश करो। जहां कोई जाग गया हो, उसकी खोज करो। जहां वाणी प्रभु की बरसती हो, उन चरणों को गहो। जहां उस प्यारे का नाम चलता हो, जहां उस प्यारे की कथा होती हो, जहां चार दीवाने बैठ कर गुनगुनाते हों, जहां चार मस्त नाचते हों प्रभु के रस में डूब कर--वहां खोजो। वहां जाओ। क्योंकि अंततः उसी से असली क्षुधा मिटेगी, असली प्यास बुझेगी। और उसी से असली चादर मिलेगी, जिसको तान कर तुम सदा के लिए विश्राम में डूब जाओगे। गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में बिसराम!
पलटू उदास रहौ जक्त से ती,
पहिले बैराग यहि भांति कीजै।
पलटू कहते हैं: वैराग्य का पहला कदम है कि संसार में अब आशा नहीं रही। देख लिया; जो मिलता था मिल गया, जान लिया, पहचान लिया। अब आशा संसार की तरफ नहीं बहती है। एक बात साफ हो गई कि यहां कुछ-कुछ मिल सकता है, लेकिन कुछ-कुछ से मन नहीं भरता। यहां क्षणभंगुर मिल सकता है, लेकिन क्षणभंगुर से तृप्ति नहीं होती। यहां सपने मिलते हैं, छायाएं बिकती हैं, प्रतिबिंब बिकते हैं; लेकिन असली का पता नहीं चलता।
संसार ऐसे है जैसे चांद झील में प्रतिबिंब बनाता है। सुंदर लगता है। अगर झील के किनारे बैठ कर देखते रहो तो बड़ा सुंदर लगता है चांद। फिर अगर उतर जाओ झील में और डुबकी मारो चांद को पकड़ने को तो मुश्किल में पड़ोगे। और ऐसा भी नहीं है कि वह जो झील में चांद दिखाई पड़ता है, उसका असली चांद से कोई संबंध नहीं है--असली चांद से संबंध है। असली चांद के बिना वह प्रतिबिंब बन ही नहीं सकता।
जब किसी स्त्री के चेहरे पर तुम्हें कोई चमक दिखाई पड़ी है तो वह झील में पड़ी चांद की चमक है। और जब किसी पुरुष की आंखों में तुम्हें ओज दिखाई पड़ा है तो वह असली चांद की झील में पड़ी हुई चमक है। जब किसी की वाणी में तुम्हें सत्य का स्वर मालूम पड़ा है तो वह चांद की पानी में पड़ी झलक है। झलक को समझ कर चांद की खोज में निकलो। डुबकी लगा कर झील में डूबने से चांद न मिलेगा। चांद मिलना तो दूर, वह जो चांद का प्रतिबिंब बन रहा था, वह भी खो जाएगा। डुबकी मारोगे तो पानी हिल जाएगा, सब गड़बड़ हो जाएगा।
इसलिए संसार में जो जितने भागते हैं उतने ही दूर निकलते जाते हैं--झील में डुबकी मार रहे हैं। बड़ा अभ्यास करते हैं डुबकी मारने का। नीचे जाकर कुछ नहीं पाते हैं; रेत हाथ लगती है। चांद तो मिलता ही नहीं; लोग डुबकी मार-मार कर श्वास रोके हुए झीलों में चले जा रहे हैं। प्राण संकट में पड़े हैं। मगर सोचते हैं कि शायद थोड़ा और खोज लें, कहीं चांद पड़ा हो। वह चांद जो चमकता हुआ दिखाई पड़ा था किनारे से, वह चांद कहीं है। लेकिन वह चांद झील में नहीं है।
परमात्मा कहीं है। और परमात्मा की झलक संसार में पड़ती है। संसार झील है।
तो पलटू कहते हैं: पलटू उदास रहौ जक्त सेती। यह जगत के प्रति अब आशा छोड़ दो--यह पहला पाठ वैराग्य का। पहले बैराग यही भांति कीजै!
छुधा को चारा डारि दीजै।
ओढ़न को चादर एक लीजै।
दिन-रात सतसंग का रस पीजै।
पहिले बैराग यहि भांति कीजै।।
शुरू-शुरू इतना भी हो जाए तो बहुत।
दिल दिल से मिल सके, ये बड़ी बात है मगर
फिलहाल यह दुआ है नजर से नजर मिले।
एकदम दिल से दिल मिलाने की बातें मत करो।
दिल से दिल मिल सके, ये बड़ी बात है मगर
फिलहाल यह दुआ है नजर से नजर मिले।
अभी तो आंख से आंख मिल जाए तो बहुत। अभी तो क्षण भर को आंख से आंख मिल जाए तो बहुत। फिर आंख से आंख मिल गई तो दिल से दिल भी मिलेगा। ज्यादा दूर नहीं है। दिल आंख के बहुत पास है। दिल आंख से जुड़ा है।
इसलिए तो हम साधारणतः अजनबियों से आंख नहीं मिलाते। अजनबी से हम दिल ही नहीं मिलाना चाहते तो आंख क्यों मिलाएंगे! आंख से आंख तो हम उसी से मिलाते हैं जिससे गहरा प्रेम हो--उसी की आंख में झांकते हैं। क्योंकि आंख के ठीक पीछे हृदय है। अगर दो आंखें शांत भाव से मिल जाएं तो दोनों हृदयों के द्वार खुल जाते हैं। वह अगला कदम है।
दिन-रात सतसंग का रस पीजै।
क्या है सत्संग का रस? सत्संग का रस है: जहां बैठ कर उस परम प्यारे की याद आए, सहज आए। जहां और दूसरी बात ही न चलती हो। जहां की हवा में उसी का गुणगान हो। जहां उसी की विरह की बातें होती हों। जहां दीवाने रोते हों। जहां लोग उसी की मस्ती में डोलते हों।
सत्संग का अर्थ है: विरह की रात्रि। अकेले में तुम भूल जाओ, भूल जाने की संभावना है। जन्मों-जन्मों से सोए रहे हो, अकेले में शायद सो जाओ। संग साथ में सो न पाओगे। तुम सोओगे तो कोई दूसरा जागेगा। कोई दूसरा जागेगा तो तुम्हें जगाए रखेगा। वह दूसरा सोने लगेगा तो तुम जागोगे, तुम उसे जगाए रखोगे। ऐसे जागते-जागते यह विरह की रात गुजर जाए। फिर जिस दिन परमात्मा से मिलन होता है, उस दिन पता चलता है कि वे विरह की रातें भी बड़ी अदभुत थीं, बड़ी प्यारी थीं। लौट कर देखने पर पता चलता है, क्योंकि उनकी विरह की रातों में यद्यपि परमात्मा नहीं था, लेकिन परमात्मा की याद तो थी! परमात्मा दूर रहा हो, लेकिन हृदय तो उसी के लिए पुकारता था। जैसे चातक पुकारता, स्वाती की बूंद के लिए प्रतीक्षा करता। जैसे पपीहा चिल्लाता--पी कहां, पी कहां, पी कहां!
तेरे फिराक की रातें कभी न भूलेंगी
मजे मिले इन्हीं रातों में उम्र भर के मुझे।
मगर यह लौट कर ही पता चलता है जब फिराक की रात होती है, जब विरह की रात होती है, तब तो आंसू ही बहते हैं। यह तो लौट कर पता चलता है कि तेरी याद में भी जो दिन गुजरे, वे भी बड़े प्यारे थे। तेरी याद में गुजरे, तो प्यारे ही थे! तुझे जिन दिनों याद न किया, वे ही दिन बेकार गए। जब तुझे भूले रहे, वे ही दिन बेकार गए। कभी धन में भूले, कभी पद में भूले, कभी कुछ और में भूले--जो दिन तेरी याद में न गुजरे वे बेकार गए। जो तेरे रोने में बीते, जब तेरे लिए आंसू गिरे और जब हृदय तेरे लिए ़जार-़जार हुआ...।
तेरे फिराक की रातें कभी न भूलेंगी
मजे मिले इन्हीं रातों में उम्र भर के मुझे।
जब मैं नाही तब वह आया,
मैं, ना वह, यह कौन मानै।
गूंगे ने गुड़ खाइ लिया,
जबान बिना क्या सिकत आनै।।
दरियाव और लहर तो दोय नाहीं।
समा और रोशनी कौन छानै।
पलटू भगवान की गति न्यारी,
भगवान की गति भगवान जानै।।
इस अंतिम वचन पर हम पूरा करते हैं। यह अपूर्व वचन है।
समझो: जब मैं नाहीं तब वह आया! जब मैं-भाव जाता है तभी वह आता है। असल में यह कहना ठीक नहीं कि वह आता है। मैं-भाव के कारण छिपा पड़ा रहता है; मैं-भाव गया कि प्रकट हो जाता है। मैं-भाव ऐसे ही है, जैसे बीज पर चढ़ी खोल। खोल टूटती है तो बीज उमगने लगता है। मैं-भाव के जाने पर वह आता है, यह तो कहना पड़ता है भाषा में। यह भाषा की मजबूरी है। कहां उसका आना, कहां उसका जाना! कहां आएगा, कहां से आएगा, कहां जाएगा? सब जगह वही है। बस वही है; और तो कुछ भी नहीं है। तुम्हारे भीतर भी वही बैठा है--इस क्षण भी वही बैठा है। मगर तुम्हारा मैं-भाव आंखों में चढ़ा है। तुम मैं के मद में डूबे हो। तुम कहते हो: मैं, मैं, मैं! इस मैं की गुहार के कारण जो तुम्हारे भीतर पड़ा है, दिखाई नहीं पड़ता। इस मैं की धुंध में खो गया है। सूरज तो निकला है, लेकिन मैं के बादलों में खो गया है। मिट नहीं गया। और जब मैं के बादल चले जाएंगे तो कहीं से आएगा भी नहीं, था ही।
परमात्मा का अर्थ ही वही होता है जो सदा है; शाश्वत है; नित्य है; न आता, न जाता; न आ सकता, न जा सकता। उसके अतिरिक्त कोई स्थान भी नहीं जहां चला जाए। लेकिन हमारी आंखें धुंध से भरी हो सकती हैं, हम भीतर देखें ही न।
मैं-भाव बाहर देखता है। मैं-भाव बहिर्गामी है। क्योंकि मैं की तृप्ति बाहर है। मैं की आकांक्षा बाहर है। मैं कहता है: धन चाहिए, ज्यादा धन चाहिए! जितना ज्यादा धन होगा, उतना ही मैं मजबूत हो सकेगा। गरीब का मैं कैसे मजबूत हो?
पास क्या है उसके? अमीर का मैं ज्यादा मजबूत हो जाता है।
मैं कहता है: बड़ा पद चाहिए। यह क्या--चपरासी बने रहे! राष्ट्रपति होना है!
मैं-भाव कहता है: कुछ खोजो। कहीं चलो।
मैं-भाव में महत्वाकांक्षा छिपी है। महत्वाकांक्षा तो बाहर ही पूरी होगी। और बाहर भी कहां पूरी होती है; बस पूरी होती लगती है, पूरी कभी नहीं होती। एक जगह पहुंचे, आगे दिखाई पड़ने लगता है कि वहां चलें, शायद वहां हो। ऐसे दौड़ता आदमी मृग-मरीचिका में। महत्वाकांक्षा यानी मृग-मरीचिका। और जिसकी तलाश चल रही है, वह भीतर मौजूद है। कस्तूरी कुंडल बसै! वह जो भाग रहा है हरिण, पागल होकर भाग रहा है कस्तूरा, उसके नाभि में कस्तूरी पड़ी है। इसीलिए तो उसका नाम कस्तूरा है। उसकी नाभि में कस्तूरी पड़ी है। उसी की नाभि से उठती है कस्तूरी की गंध। उसी की नाक से उठती है कस्तूरी की गंध। उसी की श्वास से उठती है कस्तूरी की गंध। चारों तरफ फैलती है वह दीवाना हो जाता है। वह खोजता है--कहां से आ रही है, कहां से आ रही है! भागता है।
ऐसी ही दशा आदमी की है। जिसकी तुम तलाश कर रहे हो, वह तुम्हारे घर में बैठा है। जिसे तुम खोजने निकले हो, उसे खोजने जाने की जरूरत ही नहीं है। जिसे तुम खोजने निकले हो, वह खोजने वाले में छिपा है। तो जब तक यह खोजने वाला रहेगा और खोज रहेगी, तब तक तुम उसे न पा सकोगे। जब तक यह मैं रहेगा, तब तक तुम चूकते चले जाओगे। यह मैं चुकाता है।
पलटू कहते हैं: मेरी कौन मानेगा!
पलटू कहते हैं:
जब मैं नाही तब वह आया,
मैं, ना वह, यह कौन मानै।
कौन मेरी मानेगा कि जब तक मैं था, तब तक वह नहीं था; और अब वह है मैं नहीं हूं।
हमारा मन कहेगा: यह तो फिर कुछ बड़ा मिलन न हुआ, यह तो बड़ा अजीब सा मिलन हुआ। यह तो बड़ी विचित्र स्थिति हुई। हम तो खोजने निकले थे। अगर हम खो ही गए तो फायदा भी क्या!
बुद्ध से लोग आकर बार-बार पूछते थे कि आप कहते हैं उस परम दशा में सब शून्य हो जाएगा, मैं भी शून्य हो जाऊंगा? बुद्ध कहते: निश्चिय ही वहां सब शून्य हो जाएगा, तुम भी नहीं रहोगे, वहां सन्नाटा होगा। तो लोग कहते: फिर ऐसे सन्नाटे को खोजने की जरूरत क्या! यह भी आप अजीब सी बात बताते हैं। इसको ही खोजने में जीवन लगाना है? अपने को गंवाने के लिए? इससे तो यहां क्या बुरे हैं? कुछ तो हैं! बुरे भले जैसे हैं, हैं तो!
आदमी की जीवेषणा बड़ी गहरी है। आदमी कहता है: नरक में भी रह लेंगे, मगर होना चाहिए। कम से कम बचूं। स्वर्ग की भी आकांक्षा नहीं है, अगर मिट कर मिलता हो। और अड़चन यही है, गणित यही है जीवन का: यहां जो भी मिलता है, मिट कर मिलता है। जब तुम खो जाते हो।
मगर समझना, खो जाने का मतलब यह नहीं होता कि तुम न ही हो गए, नकार हो गए। नहीं; खो जाने का इतना ही अर्थ होता है: शोरगुल न रहा। खो जाने का इतना ही अर्थ होता है: अस्तित्व तो रहा, मैं-भाव न रहा। खो जाने का इतना ही अर्थ होता है जैसे नदी सागर में उतर जाती है, तो खो थोड़ी गई है। है तो अब भी। अब विराट हो गई। अब सागर के साथ एक हो गई।
खो जाने में विराट हो जाना छिपा है। छोटापन खो गया। सरितापन खो गया, सागरपन आ गया। अहंकार खो जाता है, ब्रह्मभाव आ जाता है।
वही तो मंसूर ने कहा: अनलहक! मैं परमात्मा हूं। वही उपनिषदों ने कहा: अहं-ब्रह्मास्मि! मैं ब्रह्म हूं!
लेकिन खयाल रखना, इस मैं का अर्थ तुम्हारे मैं जैसा नहीं है। यह केवल भाषा में कहने की बात है। ब्रह्म हूं मैं, ऐसा कहने वाला ऋषि केवल इतना ही कह रहा है: अब मैं नहीं हूं, ब्रह्म है। वही ‘अनलहक’ कह रहा है। वही अनलहक में कहा गया है। सत्य है, हक है, परमात्मा है--मैं नहीं हूं।
मंसूर की बात लोग समझ न पाए। सूली पर चढ़ा दिया। मंसूर हंसता हुआ मरा। मंसूर था ही नहीं, नहीं तो चिंता पैदा होती। मंसूर को जब सूली लगी तो मंसूर ने यही कहा कि तुम जिसे मार रहे हो, वह तो बहुत पहले मर चुका है। तुम किसे मार रहे हो? और जो अब है उसे तो मारा नहीं जा सकता। वह तो अमृतधर्मा है। मगर कौन सुने! लोग बहरे हैं। और लोग अंधे हैं। और लोग बहरे और अंधे ही होते तो भी ठीक था--लोग हृदयहीन हैं।
जब मैं नाहीं तब वह आया,
मैं, ना वह, यह कौन मानै।
गूंगे ने गुड़ खाई लिया,
जबान बिना क्या सिकत आनै।।
और पलटू कहते हैं: मेरी भी बड़ी मुश्किल है। लोग मुझसे पूछते हैं कि कुछ कहो, कुछ समझाओ, हमारी समझ में नहीं आता: अब मैं कैसे समझाऊं! गूंगे ने गुड़ खा लिया। गुड़ तो मैंने खा लिया, स्वाद भी मैंने जान लिया। लेकिन जबान कहां है जो उस स्वाद को कह दे! शब्द कहां हैं जो उस निःशब्द को बांध ले! भाषा कहां है जो उस अनिर्वचनीय को प्रकट करे! जबान नहीं है।
परमात्मा को जान कर सभी गूंगे हो जाते हैं। और ऐसा नहीं कि वे नहीं बोलते--बोलते हैं। लेकिन जो भी बोलते हैं, वह बस करीब-करीब आता है, लेकिन पूरा-पूरा सत्य नहीं होता। हो नहीं सकता। थोड़ी-थोड़ी उसमें झलक हो सकती है। इशारे!
ज्यादा से ज्यादा क्या है संतों का कहना? संत ने गुड़ खा लिया। वह मस्त हो रहा है। वह उस मधु-रस में डूब रहा है। वह नाच रहा है। तुम उससे पूछते हो कि कुछ कहो। वह कुछ कहता भी है। करुणा है तो कहता है। तुम्हें समझाने की कोशिश करता है। लेकिन वह जानता है कि तुम समझ न पाओगे। क्योंकि वह जानता है कि अगर किसी और ने भी उसे जानने के पहले जनाया होता, तो वह भी नहीं मानता। क्योंकि वह जानता है कि दूसरों ने यही बातें पहले उससे भी कही थीं और उसकी भी समझ में न पड़ी थीं। वह भलीभांति जानता है कि वह भी संदेह से भरा रहा था।
जब तक स्वाद न आए, संदेह जाता ही नहीं। इसलिए एक बात तो साफ है कि लोग मानेंगे नहीं। या तो लोग समझेंगे पागल हो गया या लोग समझेंगे धूर्त है, धोखा दे रहा है।
संतों के बाबत लोगों की दो ही धारणाएं होती हैं--या तो धूर्त, कि धोखा दे रहा है; या पागल, दीवाना हो गया, होश खो दिया। कुछ भी बक रहा है--अनर्गल, असंगत। अब इसमें कुछ अर्थ नहीं है। और लोग भी मजबूर हैं। ऐसा कहना उन्हें पड़ता है। क्योंकि जो संत कहता है, वह भाषा में नहीं आता। फिर भी भाषा में कहने की कोशिश करता है। समाता नहीं, अटता नहीं, शब्द छोटे पड़ जाते हैं, ओछे पड़ जाते हैं। जैसे कोई छोटी सी मुट्ठी में सारे आकाश को रखने चला हो। अब मुट्ठी छोटी पड़ जाए तो आश्चर्य क्या! आकाश इतना विराट, शब्द तो मुट्ठी से भी छोटे हैं।
गूंगे ने गुड़ खाई लिया,
जबान बिना क्या सिकत आनै।।
और जबान खो गई। गुड़ क्या खाया, उसी में जबान खो गई। जब तक तुम जानते नहीं, तब तक बोलना बहुत आसान है। जिस दिन जानोगे, उस दिन बड़ी मुश्किल हो जाती है। जिस दिन जानोगे उस दिन पाओगे कि अरे, जब तक पता नहीं था, तब तक कितनी सुविधा से बोल लेते थे! एक संगति थी बोलने में, एक तर्क, एक व्यवस्था थी, बल था, जरा भी झिझक न थी। जानने के बाद एक-एक शब्द पर झिझकने लगते हो। जानने के बाद एक-एक शब्द को तौलते हो--यह शब्द काम देगा कि नहीं देगा! और हर शब्द का उपयोग करके पाते हो; चूक गए। फिर चूक गए। फिर-फिर कहने की कोशिश होती है।
संत अगर इतना दोहराते हैं तो उसका कारण तुम समझ लेना। उसका कारण केवल इतना ही है: एक बार चूक जाते हैं, फिर से कहते हैं; फिर भी चूक जाते हैं, फिर से कहते हैं। कहना तो वही है, और चूकते ही चले जाते हैं। संतों को वही समझ पाते हैं जो अपनी जबान खोने को तैयार हैं--जो खुद भी गूंगे होने को तैयार हैं; जो खुद भी चुप होने को तैयार हैं; जो कहते हैं, हम भी शून्य हो जाएंगे, हम शून्य से ही शून्य को जोड़ेंगे। लेकिन जिनकी जिद्द है कि जब तक भाषा के द्वारा हमें समझाया न जाएगा और जब तक भाषा के द्वारा सिद्ध न किया जाएगा, जब तक भाषा के और तर्क के प्रमाण न दिए जाएंगे, तब तक हम इंच भर न सरकेंगे--उन पर वर्षा होती रहती है संतों की, वे उलटे घड़े की तरह पड़े रहते हैं। वे कभी नहीं भरते हैं।
गूंगे ने गुड़ खाई लिया,
जबान बिना क्या सिफत आनै।।
दरियाव और लहर तो दोय नाहीं,
सागर और सागर की लहर दो तो नहीं हैं। ऐसे पलटू कहते हैं: अब मैं और वह परमात्मा दो नहीं हैं। मैं तो गया। मैं तो पिघल गया। मैं तो खो गया। मैं तो अब नहीं हूं--सागर ही है।
दरियाव और लहर तो दोय नाहीं,
समा और रोशनी कौन छानै।
और अब छानो भी कैसे कि शमा कौन और रोशनी कौन! कहां रोशनी समाप्त होती है, कहां शमा शुरू होती है! कहां शमा समाप्त होती है, कहां रोशनी शुरू होती है! दोनों जुड़े हैं, संयुक्त हैं, इकट्ठे हैं। इतने इकट्ठे हैं कि अलग-अलग होते ही नहीं।
इसलिए पलटू कहते हैं: अब मैं क्या कहूं! मैं कौन और परमात्मा कौन! अब भक्त और भगवान दो न रहे।
अगर ज्ञान के मार्ग से चलते हो तो ज्ञानी बचा। क्योंकि भगवान ज्ञानी में डूब गया, भगवान ध्यानी में लीन हो गया। अगर भक्ति के मार्ग से चलते हो तो भगवान बचा, भक्त भगवान में डूब गया। मगर क्या फर्क पड़ता है, बात एक ही है।
कबीर ने कहा है:
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।
बुंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाई।।
बूंद सागर में खो गई, अब उसे वापस कैसे निकालें! और कबीर ने दूसरा वचन भी कहा है कि-हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई। समुंद समाना बुंद में, सो कत हेरी जाई।।
और समुद्र बूंद में समा गया, अब उसको कैसे निकालें! ये दोनों वचन भक्ति और ज्ञान के प्रतीक-वचन हैं। भक्ति का अर्थ होता है: बूंद सागर में समा गई।
भक्त खो गया, भगवान बचा। ज्ञान का अर्थ होता है: सागर बूंद में समा गया। भगवान खो गया, ध्यानी बचा।
इसलिए महावीर और बुद्ध ने भगवान की बात नहीं की। वे ध्यानी हैं। मीरा, चैतन्य, पलटू, कबीर, नानक, भगवान की बात कहे। वे भक्त हैं। मगर दोनों की बात में जरा भी फर्क नहीं। जरा भी फर्क नहीं है! क्या फर्क पड़ता है! एक बूंद सागर में गिरा दो, फिर तुम जो चाहो कहो--तुम कहो कि बूंद सागर में समा गई या चाहो तो कहो कि सागर बूंद में समा गया। ये तो कहने के ही फर्क हुए।
अंतिम स्थिति में ध्यान और प्रेम एक ही जगह ले आते हैं। मगर चूंकि जीवन भर एक खास ढंग की भाषा का अभ्यास किया, यह अंतिम अनुभव भी अलग-अलग ढंग से कहा जाता है। महावीर कहते हैं: आत्मा ही बची, कोई परमात्मा नहीं। यह आत्मा की परम दशा ही परमात्मा है; कोई और परमात्मा नहीं।
पलटू कहते हैं: तू ही बचा, अब मैं नहीं।
दरियाव और लहर तो दोय नाहीं,
समा और रोशनी कौन छानै।
पलटू भगवान की गति न्यारी,
फिर पलटू कहते हैं कि फिर मैं सीधा-सादा आदमी। पलटू निरगुन बनिया! मैं राम का मोदी। मेरी कोई ज्यादा पकड़ भी शब्दों पर नहीं है; भाषा का कोई बहुत बड़ा ज्ञाता भी नहीं हूं। सीधा-सादा सामान्य सा आदमी हूं। यह परमात्मा की परमगति मैं कैसे कहूं!
पलटू भगवान की गति न्यारी,
और यह वचन इतना प्यारा है:
भगवान की गति भगवान जानै।
पलटू कहते हैं: उन्हीं से पूछ लेना। उन्हीं से मिल लेना। और ज्यादा जानकारी चाहिए हो तो मालिक से, साहिब से ही मिल लेना। मुझ चौकीदार को ज्यादा मत सताओ। मैं तो दरवाजे पर पहरा दे रहा हूं। जितना जानता था कह दिया।
मैंने सुना एक घर में नई-नई एक नौकरानी रखी गई। बुहारी लगाती थी कि तभी फोन आया। फोन आया तो उसने फोन उठाया और कहा: हल्लो। दूसरी तरफ से पूछा गया: कौन है? डॉक्टर साहब घर में हैं, नहीं हैं? मैं फलां-फलां बोल रहा हूं। लेकिन सन्नाटा रहा। उसने पूछा: भाई बोलते क्यों नहीं? बात क्या है? चुप क्यों हो गए?
उस नौकरानी ने कहा कि जितना मैं जानती थी उतना बोल चुकी--हल्लो! इससे ज्यादा मुझे कुछ पता नहीं है। नई-नई हूं। इस भाषा से भी परिचित नहीं हूं, फोन भी पहली दफे पकड़ा है। इस घर के बाबत भी मेरी कोई ज्यादा जानकारी नहीं।
उसने कहा: जितना मैं जानती थी बोल ही चुकी--हल्लो! बस उतना ही जानती थी।
ऐसा पलटू कहते हैं कि अब मुझे मत पूछो। साहिब से ही मिल लो। स्वाद ही ले लो। यह मालिक का दरवाजा खोल दिया; मैं तो चौकीदार हूं, यह दरवाजा खोल कर खड़ा हूं, निमंत्रण दे दिया कि आ जाओ। ज्यादा पूछताछ में समय मत गंवाओ। मालिक भीतर है।
पलटू भगवान की गति न्यारी,
भगवान की गति भगवान जानै।।
आज इतना ही।
मेरा मनु लिहा बैराग है, जी।
मोह निसा में मैं सोइ गई,
चौंक परी उठि जाग है, जी।।
दोउ नैन बने गिरि के झरना,
भूषन बसन किया त्याग है, जी।
पलटू जीयत तन त्याग दिया,
उठी विरह की आगि है, जी।।13।।
साहिब के दास कहाय यारो,
जगत की आस न राखिए, जी।
समरथ स्वामी को जब पाया,
जगत से दीन न भाखिए, जी।।
साहिब के घर में कौन कमी,
किस बात को अंते आखिए, जी।
पलटू जो दुख-सुख लाख परै,
वही नाम सुधा-रस चाखिए जी।।14।।
घर-घर से चुटकी मांगिके; जी
छुधा को चारा डारि दीजै।
फूटा इक तुम्बा पास राखौ,
ओढ़न को चादर एक लीजै।।
हाट-बाट महजित में सोय रहौ,
दिन-रात सतसंग का रस पीजै।
पलटू उदास रहौ जक्त से ती,
पहिले बैराग यहि भांति की जै।।15।।
जब मैं नाहीं तब वह आया,
मैं, ना वह, यह कौन मानै।
गूंगे ने गुड़ खाई लिया,
जबान बिना क्या सिफत आनै।।
दरियाव और लहर तो दोय नाहीं,
समा और रोशनी कौन छानै।
पलटू भगवान की गति न्यारी,
भगवान की गति भगवान जानै।।16।।
लो प्यारे पलटू की अमृतवाणी का अंतिम दिन भी आ गया। ये वचन प्यारे थे। ये वचन हीरों जैसे चमकदार थे। ये वचन मात्र सुनने के लिए नहीं थे--गुनने के लिए थे। और गुनने के लिए ही नहीं, जीने के लिए थे। इन सीधी-साफ बातों में धर्म का सारा सार पलटू ने कहा है। कुछ भी बचाया नहीं। मुट्ठी बंधी नहीं रखी--मुट्ठी पूरी खोली है। खूब लुटाया! धन्यभागी हैं वे जो अपनी झोली भर लें। अभागे हैं वे जो वंचित रह जाएं।
सदगुरु देते हैं। लेने वाले ले लेते हैं। नहीं लेने वाले चूक जाते हैं। और सदगुरु से चूक जाना इस जगत में सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। क्योंकि सदगुरु से जो चूका, वह साहिब से चूका। साहिब से जोड़ने के लिए और कोई सेतु भी तो नहीं है। लेकिन आदमी का अहंकार ऐसा है--ऐसा मजबूत, ऐसा जहर से भरा, ऐसी पत्थर की दीवाल जैसा--कि जब भी कभी कोई अमृत वचन कान पर पड़े, तो अहंकार उसे झुठलाने की कोशिश करता है। अहंकार सब तर्क खोजता है उसके विपरीत। अहंकार अपने को बचाता है।
और जिसने अपने को बचाया, उसने अपने को बुरी तरह खो दिया। जन्मों-जन्मों भटकेगा। अपने को बचाने में ही हम भटक गए हैं। अपने को बचाने से ही यह सारा संसार फैलता है। अपने को मिटाने से परमात्मा से मिलन होता है।
इन वचनों को तुम तर्कजाल में मत ले जाना। ये एक सीधे-सादे आदमी के वचन हैं। इनमें पांडित्य नहीं है--प्रज्ञा के स्वर हैं। इनमें शास्त्रीय विश्लेषण, तर्कजाल, सिद्धांत, धारणाएं, उनका विस्तार नहीं है। इनमें सीधी हृदय पर चोट है। ये तीर हैं। अगर तुमने द्वार खोला तो चुभ जाएंगे सीधे हृदय में, बैठ जाएंगे तुम्हारे अंतस्तल में। बीज की तरह डूब जाएंगे तुम्हारे प्राणों में। और जल्दी ही तुम पाओगे: वसंत आता है। जल्दी ही तुम पाओगे: बीज अंकुरित होता है, बढ़ता है। हजार-हजार फूल लगते हैं और तुम्हारा जीवन सुवासित हो जाता है।
ये सिद्धांत नहीं हैं, जो पलटू ने कहे। ये बीज हैं। ये क्रांति-बीज हैं। ये तुम्हें आमूल बदल दे सकते हैं। तुम इन्हें विचार मत समझना। विचार तो मुर्दा होते हैं। विचारों से कौन कब बदला है! विचारों से थोड़ी सजावट भला हो जाए, तुम्हारे ज्ञान का दंभ थोड़ा बढ़ जाए...। विचार वस्त्रों से ज्यादा नहीं हैं। सुंदर वस्त्रों में तुम्हें सुंदर होने का भ्रम पैदा हो सकता है। विचार आभूषण हैं। ये विचार नहीं हैं; ये क्रांति हैं। ये आग हैं। इनमें तुम जलोगे। और जो हिम्मतवर हैं वे ही इनमें प्रवेश कर सकेंगे। इसलिए पलटू ने राजपूतों को ललकारा है, साहसियों को पुकारा है।
खयाल रखना, कमजोर--निर्बल के अर्थ में नहीं है। निर्बल तो कमजोर होता ही नहीं। निर्बल के बल राम। निर्बल को तो राम का बल मिल जाता है। उससे ज्यादा शक्तिशाली तो कोई भी नहीं। कमजोर मैं कह रहा हूं: भयभीत, भीरु, डरे हुए लोग। एक कदम अज्ञात में नहीं ले सकते। अंधेरे रास्ते पर जरा नहीं बढ़ सकते। ऐसे डरे हुए लोग। और परमात्मा तो अज्ञात है।
सूफियों की कहानी है: लैला-मजनू। कहानी से तुम परिचित हो। लेकिन उसमें जो सूफियाना माधुर्य भरा है, उससे तुम परिचित नहीं हो। मजनू है साधक, लैला है भगवान। वह सूफियों का प्रतीक है। क्योंकि सूफी परमात्मा को स्त्री के रूप में देखते हैं, प्रेयसी के रूप में देखते हैं। पुरुष के रूप में नहीं। लैला प्रतीक है परमात्मा की। लैला शब्द का अरबी में अर्थ होता है: रात्रि, घनी रात्रि। परमात्मा बड़ी अंधेरी रात जैसा है।
अंधेरी रात में उतरने का साहस है, तो ही तुम मजनू हो सकोगे। और मजनू हो तो ही अंधेरी रात में उतर सकोगे। मजनू ही लैला को खोज सकता है। मजनू का अर्थ होता है: दीवाना, पागल। कौन जाता है अंधेरी रात में! कौन जाता है--अपने आंगन की साफ-सुथरी दुनिया को छोड़ कर घने जंगलों में भटकने! कौन जाता है--व्यवस्था को छोड़ कर अराजकता में उतरने! कौन जाता है नक्शों की दुनिया को छोड़ कर, नक्शे-रहित अस्तित्व में प्रवेश करने! कौन छोड़ता है सुरक्षा!
जो सुरक्षा छोड़ देता है--वही संन्यासी। जो सुरक्षा को पकड़ कर जीता है, वही गृहस्थ है। घर यानी सुरक्षा का प्रतीक। अपनी जमीन है, अपना मकान है, अपनी दीवाल है, अपना द्वार, अपना दरवाजा। रात ताला मार कर सो जाते हैं। सुरक्षा है। धन जमीन में गड़ा है; पत्नी-बच्चे निकट हैं, अपने पास हैं। दूसरों का क्या भरोसा है! बाहर कौन अपना है! सब अजनबी हैं। कौन धोखा दे जाए, किसको पता है!
गृहस्थ का अर्थ इतना ही नहीं होता कि जो घर में रहता है। वह तो ऊपरी प्रतीक है। गृहस्थ का अर्थ होता है: जो सुरक्षा में रहता है; जो असुरक्षा में जरा नहीं जाता; जहां देखता है अंधेरा है, वहां से लौट आता है; जहां देखता है यहां खतरा है, वहां कदम नहीं मारता; जहां देखता है यहां जीवन दांव पर लगाना पड़ेगा, उस तरफ तो फिर कभी नहीं जाता; जहां कुछ भी दांव पर लगाना हो, जाता ही नहीं। फिर स्वभावतः अगर तुम कोल्हू के बैल की तरह जीते हो तो कुछ आश्चर्य नहीं है। उसी रास्ते पर बार-बार परिक्रमा काटते रहते हो--कोल्हू के बैल! जाना-माना रास्ता। जाने-माने ढंग। सब सुरक्षित, सब व्यवस्थित। कोई खतरा नहीं, कोई भय नहीं। घूमते रहते हो, घूमते-घूमते मर जाते हो। यह कोई जीवन नहीं है।
जीवन तो अभियान में है। जीवन तो वहां है जहां तुम रोज जाने-माने को छोड़ देते हो, जहां तुम रोज नये हो जाते हो। जीवन तो वहां है जहां तुम अपने बालक मन के आश्चर्य को खोते ही नहीं; तुम सदा युवा बने रहते हो; तुम्हारी आंखें सदा तलाशती रहती हैं, खोजती रहती हैं; तुम चुनौती की प्रतीक्षा करते हो--जीवन वहां है। सुरक्षा की नहीं--चुनौती की। कोई चुनौती आए। कोई कठिनाई उठे। क्योंकि कठिनाइयों की सीढ़ियों पर ही चढ़ कर कोई जीवन के उत्तुंग शिखर पर चढ़ता है।
चला जाता हूं हंसता खेलता मौज-ए-हवादिस से
अगर आसानियां हों, जिंदगी दुशवार हो जाए।
अगर सब आसान ही आसान हो, जिंदगी दुश्वार हो जाए, फिर जीना मुश्किल है। यह संन्यासी का भाव है।
चला जाता हूं हंसता खेलता मौज-ए-हवादिस से
ये जो तूफान उठते हैं, ये जो अंधड़ आते हैं, यह जो सागर में बड़ी हलचल हो जाती है, नाव अब डूबी तब डूबी होने लगती है, यह मौजे हवादिस, यह जो दरिया का तूफानी रूप है, यह जो दरिया का तांडव नृत्य है, इसमें अपनी छोटी सी डोंगी को लेकर--चला जाता हूं हंसता। जो हंसता हुआ चलता जाए...।
हर नया तूफान एक नया अभियान है। हर नया तूफान एक नई चुनौती है। हर नया तूफान परमात्मा की तरफ से एक आमंत्रण, कि उठ, इसके भी ऊपर ऊपर उठ।
चला जाता हूं हंसता खेलता मौज-ए-हवादिस से
अगर आसानियां हों, जिंदगी दुशवार हो जाए।
यह चित्त है संन्यासी का। असुरक्षा ही जो जीवन बना ले, अज्ञात ही जिसकी धुन हो जाए--ऐसा मजनू। अंधेरी रात जिसकी प्रेयसी हो जाए। लैला जिसकी प्रेयसी हो जाए।
तुमने अक्सर सुना है: परमात्मा प्रकाश है। तुमने बहुत ही मुश्किल से कभी सोचा होगा कि परमात्मा परम अंधकार है। क्यों आदमी बार-बार कहता है परमात्मा प्रकाश है? इसलिए नहीं कि आदमी को पता है कि परमात्मा प्रकाश है, आदमी को कुछ भी पता नहीं। आदमी को परमात्मा का पता हो तो आदमी आदमी बचता ही नहीं; आदमी आदमी रह ही नहीं जाता, परमात्मा को जानते ही परमात्मा हो जाता है। जिसने उसे जाना, वही हो गया, वैसा ही हो गया। जानने में ही आदमी विसर्जित हो जाता है।
आदमी ने परमात्मा को तो जाना नहीं, लेकिन आदमी दोहराता है बार-बार: परमात्मा प्रकाश है। अंधेरी रात को तो कोई नमस्कार नहीं करता--न हिंदू न मुसलमान, न ईसाई। सूर्योदय को लोग नमस्कार करते हैं। सुबह को लोग नमस्कार करते हैं। सूर्य-नमस्कार! क्यों? अंधेरी रात उसकी नहीं? सूरज उसका है, माना; अंधेरी रात किसकी है? रोशनी उसकी है, माना; अंधेरा किसका है? और खयाल करना, रोशनी की सीमा होती है, अंधेरे की कोई सीमा नहीं। अंधेरा ज्यादा परमात्मा का प्रतीक बन सकता है, क्योंकि अंधेरा अनंत है। रोशनी आती है, जाती है; अंधेरा रहता है। दीया जला लो, जलाना पड़ता है; बुझा दो, बुझाना पड़ता है। तुम दीया जलाओ, बुझाओ; अंधेरे को न जलाते, न बुझाते हैं--अंधेरा है। अंधेरा बस है। दीया जल जाता है तो थोड़ी देर को छिप जाता है, दिखाई नहीं पड़ता; दीया बुझा कि फिर मौजूद है। अंधेरा शाश्वत है।
और तुमने अंधेरे की शांति देखी! शांति ही अंधेरे में है। इसीलिए तो रात अंधेरे में तुम सो जाते हो, दिन में सोना मुश्किल हो जाता है। विश्राम अंधेरे में है। इसलिए तो आंख बंद कर लेते हो, दीया बुझा देते हो, पर्दे डाल देते हो, अंधेरा कर लेते हो--सो जाते हो। अंधेरे में कहीं तुम भीतर अपनी गहराइयों में डूब जाते हो।
रात निद्रा के अंधेरे में कहां जाते हो? जहां जाते हो, वहीं परमात्मा है। इसलिए पतंजलि ने कहा है: सुषुप्ति और समाधि कुछ-कुछ एक जैसे हैं। गहरी नींद और समाधि कुछ-कुछ एक जैसे हैं। जहां स्वप्न भी खो जाता है, वह समाधि जैसा ही है। क्योंकि परमात्मा में डुबकी मार दी। इसलिए सुबह जाग कर तुम कहते हो: ताजा हो गया! पुनरुज्जीवन मिला! जिस रात गहरी नींद सो गए, जिस रात ऐसी नींद सो गए कि सपनों ने भी पंख न मारे और सपनों ने भी चहल-पहल न की और सपनों की भी गतिविधि न हुई और सपनों का शोरगुल न मचा और सपनों की भीड़ न रही--जिस रात ऐसे सो गए, थोड़ी देर को ही सही, उस सुबह तुम कितने ताजे होकर लौटते हो! कितने जीवंत! कितने ज्योतिर्मय! जैसे फिर जगत नया हुआ! जैसे फिर से जन्म हुआ! और जब किसी रात ऐसा नहीं हो पाता और सपने अपनी भीड़ मचाए रखते हैं और तुम्हारे चारों तरफ उछलते-कूदते ही रहते हैं, उनकी बंदरों जैसी जमात तुम्हें रात भर नहीं छोड़ती--उस सुबह तुम थके-मांदे उठते हो--उससे भी ज्यादा थके-मांदे, जितने तुम तब थे जब तुम बिस्तर पर सोने गए थे। क्या हुआ? समाधि की वह जो थोड़ी सी घटना घटनी थी, नहीं घटी। परमात्मा से जो थोड़ा सा प्रसाद नींद में मिल जाता, वह भी न मिला।
अंधेरा, गहरा अंधेरा--विश्राम का प्रतीक है।
और भी खयाल करना: गहरे अंधेरे में ही सृजन का आविर्भाव होता है। बीज फूटता है--जमीन के अंधकार में। बीज को ऐसे जमीन के ऊपर रख दो, न फूटेगा। उसे दबाना पड़ता है जमीन के अंधकार में। जहां रात हो जाती है, अंधेरा हो जाता है--वहां बीज फूटता है, वहां जन्म होता है।
ऐसे ही बच्चे का जन्म होता है मां के गर्भ में; वहां गहन अंधकार है। वहां कोई रोशनी नहीं जाती। वहां जन्म होता है। गहरे अंधकार में जन्म, जीवन का आविर्भाव होता है।
बहुत कम लोगों ने लेकिन परमात्मा को अंधकार की तरह सोचा। लोगों ने सदा सोचा प्रकाश की तरह। क्यों? इसलिए नहीं कि परमात्मा प्रकाश ही है। परमात्मा प्रकाश भी है। लेकिन लोगों ने इसलिए सोचा कि लोग भयभीत हैं अंधेरे से। लोग ग्रस्त हैं। इसलिए लोगों ने सोचा परमात्मा प्रकाश है। इसलिए शास्त्र दोहराते हैं: परमात्मा रोशनी है, परमात्मा प्रकाश है। क्योंकि प्रकाश में तुम्हें भय कम लगता है, अंधेरे में भय ज्यादा लगता है। यही जगह, यही स्थान, अगर रोशनी है, तुम कम भयभीत; और अंधेरा हो जाए, तो तुम ज्यादा भयभीत। अकेले भी हो, दीया जलता हो तो तुम कम भयभीत; दीया बुझ जाए तो तुम बहुत भयभीत। क्यों? अंधेरे में कुछ दिखाई नहीं पड़ता--क्या क्या है? अंधेरे में कुछ दिखाई नहीं पड़ता--कौन-कौन है? अंधेरा सब सीमाओं को मेट देता है और सभी चीजों को गड्डमड्ड कर देता है। और अंधेरे में सीमाओं का जो भेद है वह विलीन हो जाता है। अंधेरे में सब चीजें असीम में लीन हो जाती हैं, सीमाएं खो जाती हैं। घबड़ाहट पैदा होती है।
अंधकार से जो दोस्ती बनाने में समर्थ है--वही संन्यासी।
इसलिए लैला का अर्थ बड़ा प्यारा है: अंधेरी रात! अंधेरी रात की तलाश! अज्ञात की तलाश!
और खयाल रखना कि सूरज भी उसका है, रोशनी भी उसकी है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि रोशनी उसकी नहीं है। सब उसका है। रोशनी भी उसकी है। लेकिन आदमी क्यों जोर देता है कि रोशनी है परमात्मा। आदमी अपने भय के कारण जोर देता है। घबड़ाहट के कारण। और जो घबड़ाता है, उसका ईश्वर से कोई संबंध नहीं हो पाता।
पलटू के ये प्यारे वचन तुमने सुने! थोड़ी हिम्मत करो। थोड़ा पलटू के साथ अज्ञात की यात्रा में उतरो।
सच्चे साहिब से मिलने को
मेरा मन लिहा बैराग है, जी।
पलटू कहते हैं: मैं संन्यस्त हो गया। सच्चे साहिब को मिलने को!
फर्क समझो।
कुछ लोग संसार इसलिए छोड़ते हैं कि संसार बुरा है; इसलिए छोड़ते हैं कि संसार पाप है; इसलिए छोड़ते हैं कि संसार में दुख ही दुख है। यह नकारात्मक संन्यास हुआ। कुछ लोग इसलिए संन्यास लेते हैं और संसार छोड़ते हैं कि संसार में सुख है, पर क्षणभंगुर। चख लिया। जितना संसार में मिल सकता था, जान लिया। उतने से मन भरता नहीं। उससे प्यास मिटती नहीं--और बढ़ती है। उससे आग में और घी पड़ता है। संसार में देख लिए, सुख के थोड़े से कण बरसते हैं, कभी-कभी कोई बूंद पड़ जाती है, संसार के रेगिस्तान में भी कभी-कभी वर्षा होती है--ज्यादा नहीं, इंच-दो-इंच, कभी-कभी बूंदाबांदी हो जाती है--लेकिन उन बूंदों से एक बात समझ में आ गई कि जल होता है और जल के सरोवर भी कहीं होंगे, जहां से ये बादल उठते हैं। और अगर एकाध बूंद गिर सकती है, तो फिर कहीं जल के अखंड स्रोत भी होंगे। उनकी तलाश में निकलता है साधक।
फर्क समझो।
एक तो साधक ऐसा होता है, जो संसार में दुख पाया। दुख पाया, इसलिए संसार छोड़ देता है, क्योंकि यहां दुख ही दुख हैं, क्या रखा है इसमें! इसका छोड़ना नकारात्मक है। इसके छोड़ने में उदासी होगी। इसके छोड़ने में बड़ी निराशा होगी। इसके छोड़ने में बड़ी हताशा होगी। यह छोड़ कर प्रसन्नचित्त नहीं होगा। दुख को छोड़ कर क्या कोई प्रसन्नचित्त होगा। और इसने संसार में कोई सुख तो जाना नहीं, इसलिए यह भरोसा भी कैसे करे! इसने एक बूंद भी तो नहीं जानी इस मरुस्थल में, यह भरोसा भी कैसे करे कि कहीं दूर हिमालय में छिपा मानसरोवर भी होगा। इसका भरोसा भी डगमगाता होगा।
यही भक्त और साधारण धार्मिक व्यक्ति में भेद है। भक्त छोड़ता है संसार को--इसलिए नहीं कि यहां दुख ही दुख है, बल्कि इसलिए कि यहां सुख तो है, पर क्षणभंगुर है। यहां सुख तो है, लेकिन बस बूंदाबांदी होती है। अब बूंदाबांदी में कब तक बैठे रहें। नहाना भी नहीं हो पाता, हृदय की प्यास भी नहीं बुझती, आत्मा निर्मल भी नहीं हो पाती। मगर बूंदों ने इतना भरोसा दे दिया कि सुख कहीं होता है, सुख का भी कोई अस्तित्व है। अब हम उसकी तलाश में चलें, जहां से ये बादल उठ कर आते हैं, जहां से यह बूंदाबांदी आती है--उस सागर की खोज में निकलें।
तो भक्त बड़ी आस्था से जाता है। ज्ञानी बड़ी निराशा से जाता है। ज्ञानी सोचता है: हो न हो, भगवान है या नहीं! संसार तो देख लिया, व्यर्थ पाया; अब देख लें, यह भी खोज करके देख लें, शायद हो, शायद न हो। ज्ञानी के भीतर एक संदेह बना ही रहता है। भक्त बड़ी आस्था से जाता है। वह कहता है: इस संसार में भी था। थोड़ा था। भगवान कभी-कभी झांका था। कहीं-कहीं खिड़की खुल गई थी। और क्षण भर को। ताजी हवा आई थी। कभी-कभी सुवास नासापुटों में भर गई थी। भगवान यहां भी था, लेकिन बड़े पर्दों में था, पर्दानशीन था, घूंघट और घूंघट, और घूंघट...। मगर कभी-कभी घूंघट उठे थे और उसकी आंख में आंख मिल गई थी। अब हम बिना घूंघट के परमात्मा को पाना चाहते हैं। उसमें आस्था है। उसमें भरोसा है। उसमें उमंग है। वह इतनी बात जान कर ही चलता है कि परमात्मा है। संसार में उसने परमात्मा की थोड़ी सी झलक पा ली, दूर से सही, बहुत दूर से सही, हजार कोस से सही, मगर थोड़ी सी झलक पाई है। जैसे कि हजारों मील से भी तुम चाहो, किसी खुले दिन में जब आकाश में बादल न हों और सूरज साफ-साफ हो, तो हिमालय के उत्तुंग शिखर दिखाई पड़ जाते हैं। उन पर जमी हुई कुंवारी बर्फ, पड़ती हुई सूरज की किरणें और बिखरती चांदी बहुत दूर से दिखाई पड़ जाती है। सपना जैसा ही है, मगर खोज शुरू होती है।
फर्क समझना।
एक आदमी फूलों की तलाश में निकला, क्योंकि संसार में कांटे ही कांटे पाए; अब सोचता है: चलो परमात्मा में खोज कर देख लें, शायद फूल वहां हों। एक आदमी फूलों की तलाश में निकला, क्योंकि संसार में कुछ फूल पाए; कांटे बहुत थे, मगर कभी-कभी कोई गुलाब भी खिला था कांटों पर। इसके लिए परमात्मा ‘शायद’ नहीं है। अब यह एक ऐसे गुलाब की तलाश में निकला है, जहां फूल ही फूल खिलते हों। और जहां कांटे न हों। ऐसे गुलाब भी होते हैं, जिनमें कांटे नहीं होते। इन दोनों की खोज में फर्क होगा। वही पलटू कह रहे हैं:
सच्चे साहिब से मिलने को
मेरा मन लिहा बैराग है, जी।
मैंने जो वैराग्य लिया, जो संन्यास लिया, उसमें संसार को छोड़ देने का उतना सवाल नहीं है, जितना परमात्मा को खोजना है। संसार के प्रति विरक्ति है, ऐसा नहीं, परमात्मा के प्रति अनुरक्ति है, ऐसा।
बड़ा फर्क है। थोड़ा सा दिखाई पड़ता है शब्दों में, फर्क जमीन-आसमान जैसा है। यह संसार भी उसका है।
ऐसा ही समझो कि तुमने किसी संगीतज्ञ का रिकॉर्ड सुना, ग्रामोफोन पर सुना। रिकॉर्ड रिकॉर्ड है। रिकॉर्ड में भरा हुआ संगीत भी बस कामचलाऊ संगीत है। लेकिन इससे खबर तो मिली कि संगीतज्ञ कहीं है। किसी की वाणी पकड़ी गई है, वह वाणी कहीं होगी। तुमने रिकार्ड सुना, अब तुम संगीतज्ञ की खोज में चले। तुम्हारे पैरों में बल होगा।
इसलिए पलटू कहते हैं: जैसे बारात चली उमंगिकै!
उमंग से भरी बरात चली। हम दुल्हा बने और दुल्हनिया की खोज में निकले।
कबीर ने कहा है: राम मेरी दुल्हनिया! बड़ी उमंग से बरात चल रही है। पक्का भरोसा है: दुल्हन है। दूर से देखी थी झलक, या कि तस्वीर देखी थी, या कि दर्पण में देखी थी, मगर दुल्हन है। उसके होने में कोई रत्ती भर संदेह नहीं है। उसका होना सुनिश्चित है। उसका होना इतना सुनिश्चित है कि भक्त अपने को गंवाने को तैयार है--उसे पाने को। उसका होना अपने होने से ज्यादा सुनिश्चित है। यह जीवन को देखने की विधायक दृष्टि।
एक नकारात्मक दृष्टि है--निगेटिव। दुख है। संसार में दुख ही दुख है। छोड़ दो। संसार को छोड़ोगे तो परमात्मा मिलेगा। ऐसा आश्वासन समझो। संदेह तो रहेगा। जब यहां सुख नहीं है, उसके बनाए हुए संसार में सुख नहीं है, तो उसमें भी पता नहीं हो या न हो। और जब उसने ऐसा दुख-भरा संसार बनाया है, तो वह सुख-भरा कैसे होगा! ये सब सवाल उठेंगे ही: सुखी आदमी इतना दुखी संसार बनाता है? जिसके भीतर आनंद बरस रहा हो, वह ऐसी कहानी लिखेगा, दुख भरी? ऐसा नाटक रचेगा दुख भरा? संदेह तो यही होता है कि कोई परमात्मा नहीं है, यह सिर्फ दुर्घटना है। दुर्घटना ही इतनी दुख भरी हो सकती है। इसके पीछे कोई चलाने वाला नहीं है; कोई हाथ नहीं है इस विराट उपद्रव के पीछे। दुख है, उपद्रव है। इसके पीछे कोई संयोजक नहीं है। या कभी रहा होगा तो अब मर चुका है।
जैसा नीत्शे ने कहा कि ईश्वर मर गया है, कभी रहा होगा। चलो मान लेते हैं, कभी रहा होगा; क्योंकि यह सब है तो किसी ने बनाया होगा। लेकिन बनाने वाला मर चुका है। यह सब इतनी अव्यवस्था, इतना दुख, इतनी पीड़ा! यहां पीड़ा पर पीड़ा उठती आती है, दुख पर दुख लगता जाता है। यहां कभी सुख की एक किरण दिखाई नहीं पड़ती। तब भी कोई आदमी वैराग्य लेता है। उसका वैराग्य नकारात्मक होगा। उसके वैराग्य में परमात्मा का अनुराग नहीं है। उसके वैराग्य में सिर्फ संसार की उपेक्षा, संसार का निषेध है। उसके वैराग्य में सिर्फ संसार का विरोध है। संसार के प्रति द्वेष है उसके वैराग्य में; परमात्मा के प्रति प्रेम नहीं।
परमात्मा के प्रति प्रेम तो तभी संभव है जब संसार को भी तुमने सहज भाव से स्वीकार किया हो, अंगीकार किया हो; इसमें भी कुछ फूल मिले हों। नहीं चलो फूल तो फूल की पंखुरी ही, कुछ मिला हो--तो भरोसा आए। दूर की ध्वनि सुनाई पड़ी हो, छाया दिखाई पड़ी हो जल में, मगर कुछ दिखाई पड़ा हो, कुछ अनुभव हुआ हो। और अनुभव यहां हो सकता है, क्योंकि कृत्य में कर्ता मौजूद होता है। नृत्य में नर्तक मौजूद होता है।
सच्चे साहिब से मिलने को
मेरा मनु लिहा बैराग है, जी।
मोह निसा में सोइ गई,
चौंक परी उठि जाग है, जी।।
मोह निसा में मैं सोइ गई! इस संसार में मैं सो गया था, खो गया था, मूर्च्छित हो गया था, प्रमाद से भर गया था, झपकी लग गई थी। मेरा संन्यास सिर्फ आंख का खुल जाना है। अब मैं जाग पड़ा हूं। अब मैं ऐसा आंख बंद किए-किए नींद-नींद में न चलूंगा; अब मेरी आंखें खुल गई हैं। बस इतना ही फर्क है।
संसारी में और संन्यासी में इतना ही फर्क है कि एक आंख बंद किए चल रहा है और एक आंख खोल कर चल रहा है। जगह तो यही है। यही मकान, यही बाजार, यह मंदिर-मस्जिद, यही लोग, यही पत्नी, पति, बच्चे, परिवार--सब यही है। फर्क इतना है कि संन्यासी आंख खोल कर चल रहा है। और आंख खोलना इतना बड़ा फर्क है कि और फर्क क्या मांग सकते हो! और ज्यादा फर्क होता ही नहीं। बस पलक खुलने और बंद होने का फर्क है। जरा सा फर्क है।
मोह निसा में सोइ गई,
चौंक परी उठि जाग है, जी।
तो पलटू कहते हैं: कुछ और खास नहीं हो गया, एक नींद लग गई थी, एक सपना देखा था। एक मोह की तंद्रा पकड़ गई थी। मेरे-तेरे का भाव पकड़ गया था। मैं हूं, मेरा है--ऐसे संसार का जन्म हो गया था। ‘मोह-निसा’ में स्मरण न रहा था कि क्या वस्तुतः है। अपनी कल्पना को ही सच मानने लगा था।
तुम रोज तो करते हो यही। रात सपना देखते हो, सपने में भूल जाते हो कि यह सपना है। सपने में याद ही नहीं आती कि यह सपना है। सपने में लगता है कि यही सच है--सब सचों का सच। सुबह जाग कर फिर हंसते हो, अपने पर हंसते हो। हैरानी होती है, भरोसा नहीं आता कि मैं भी कैसा मूढ़, रात सपना देखा और मान लिया कि सच है! अब कभी ऐसा न करूंगा। अब ऐसी भूल न करूंगा।
और ऐसा कितनी बार नहीं हो चुका! हजारों बार हो चुका। हजारों बार सुबह जाग कर हंसे हो, अपनी मूढ़ता को पाया है, तय किया है कि अब दुबारा ऐसी भूल न होगी--और फिर रात सोओगे, और फिर सपना सच हो जाएगा। नींद में सपने सच मालूम होने लगते हैं।
जब आदमी सोया हो तो फर्क कैसे करे कि क्या झूठ और क्या सच? जागरण में कसौटी है। जागरण में, सार-असार का स्पष्ट भेद हो जाता है। कुछ करना नहीं पड़ता; जागे हुए आदमी को सीधा दिखाई पड़ने लगता है कि क्या है और क्या नहीं है। जो नहीं है, वह अपने आप तिरोहित हो जाता है; और जो है, वही शेष रह जाता है।
सोया हुआ आदमी प्रक्षेपण करता है। जो उसके मन की कामनाएं हैं, वासनाएं हैं, दमित इच्छाएं हैं, अधूरी अपूरित तृष्णाएं हैं--वे फैल जाती हैं। वही तो सपना बनती हैं। तुमने दिन में उपवास किया, रात भोजन करने लगे सपने में। दिन भर दबाया था भूख को, रात भूख उबली। भूख इतनी जोर से उठी कि भूख ने अपना भोजन निर्मित कर लिया। भूख ने एक सपना बना लिया कि राजमहल में तुम्हारा निमंत्रण हुआ है और सुस्वादु भोजन का ढेर लगा है और तुम दिल खोल कर खा रहे हो।
यह सपना पैदा कैसे हो रहा है? पहली तो नींद जरूरी है। दूसरी कोई दमित वासना जरूरी है। कोई टूटी-फूटी वासना जरूरी है, जो भर न पाई हो जागने में। बस ये दो बातें मिल जाएं तो सपना पैदा हो जाएगा। यह सपने का यंत्र है: दबी हुई वासना, अधूरी वासना, अपूरित वासना और तंद्रा, बेहोशी।
इसलिए जो आदमी शराब पी लेता है, उसे कुछ का कुछ दिखाई पड़ने लगता है।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को लेकर शराब घर में बैठा था। फिर अचानक बोला कि बस अब रुक जाओ, अब ज्यादा मत पीओ। तुम्हें मैं यह पाठ सिखाता हूं। यह पीने वालों का अनिवार्य पाठ है। देखो उस किनारे पर दो लोग बैठे हैं। उस लड़के ने पीछे लौट कर देखा। वहां कोई नहीं, एक आदमी बैठा है। मुल्ला कह रहा है कि देखो वहां पीछे दो लोग बैठे हैं, जब ये चार दिखाई पड़ने लगें, तब पीना बंद कर देना।
उसके बेटे ने कहा: पिताजी, वहां एक ही है। आप पहले ही काफी पी चुके हैं, अब बंद करने का कोई मतलब नहीं है।
जब चार दिखाई पड़ने लगें--मुल्ला कह रहा है--तब पीना बंद कर देना, यह सूत्र है घर लौटने का, नहीं तो फिर घर नहीं लौट पाओगे। जैसे ही चार दिखाई पड़ें, जल्दी से बंद करके अपने घर चले जाना, ताकि घर पहुंच जाओ सुरक्षित, बिस्तर में लेट जाओ, नहीं तो किसी नाली में पड़े रहोगे।
मगर वह पहले ही पी चुका है काफी। जहां एक है, वहां दो तो दिखाई पड़ ही रहे हैं। अब थोड़ी और पीएगा तो चार भी दिखाई पड़ेंगे। थोड़ी और पी लेगा तो आठ भी दिखाई पड़ने लगेंगे। और आदमी की जगह सिंह और भालू दिखाई पड़ सकते हैं, हाथी और घोड़े दिखाई पड़ सकते हैं।
एक दिन मुल्ला अपने सिर पर एक टोकरी लिए घर की तरफ आ रहा है और किसी ने पूछा: इसमें क्या है? तो उसने कहा: इसमें एक नेवला लाया हूं पकड़ कर। ‘नेवला!’ उस आदमी ने पूछा: नेवला किसलिए पकड़ कर लाए हो? उसने कहा कि जब मैं शराब पी लेता हूं ज्यादा तो मुझे सांप दिखाई पड़ते हैं। तो नेवले को कमरे में रखूंगा। यह निपट लेगा सांपों से। कहते हैं न कि नेवला तो सांप को टुकड़े-टुकड़े कर देता है! इसलिए ला रहा हूं।
वह आदमी हंसा। वह बोला: लेकिन शराब पीकर जो सांप दिखते हैं, वे सच थोड़े ही होते हैं, वे झूठ होते हैं। मुल्ला हंसा और बोला: तुम क्या समझते हो, इसमें नेवला सच है? खाली टोकरी, सिर्फ खयाल।
आदमी मूर्च्छा में ‘जो नहीं है’ वैसा देखने लगता है। इसे उलटा करके समझो। इसको कसौटी समझो मूर्च्छित होने की: अगर तुम्हें जो नहीं है, वैसा दिखाई पड़ता हो तो समझो कि तुम मूर्च्छित हो। रात तुम्हें सपना दिखाई पड़ता है, यह सबूत है कि तुम मूर्च्छित हो। बुद्धपुरुषों को सपना नहीं दिखाई पड़ता। और जिसको रात सपना दिखाई पड़ता है, दिन में वह कोई दूसरा थोड़े ही हो जाएगा। है तो वही का वही। भीतर तो सपने बहते ही रहेंगे। दिन में भी तुम्हें कुछ का कुछ दिखाई पड़ता है।
एक राह से तुम गुजरते हो, एक मकान तुम्हें दिखाई पड़ता है बहुत सुंदर, मन होता है खरीद लें, अपना हो। मगर यह मकान इतना सुंदर है, या कि तुम्हारी तृष्णा के कारण दिखाई पड़ रहा है? जिस दिन तुम्हारे भीतर तृष्णा न रहेगी उस दिन यह मकान इतना सुंदर दिखाई पड़ेगा? इसी मकान के पास से बुद्ध गुजरेंगे, उनकी नजर जाएगी इस मकान पर? यह मकान में सौंदर्य है, या तुम्हारी तृष्णा इस मकान को सुंदर बना रही है?
एक स्त्री तुम्हें सुंदर दिखाई पड़ती है। इस स्त्री में सौंदर्य है, या तुम्हारी वासना तुम्हें सौंदर्य दिखा रही है? बुद्ध गुजरेंगे तो उन्हें तो सौंदर्य दिखाई नहीं पड़ेगा।
तुम्हें जब किसी आदमी में कुरूपता दिखाई पड़ती है, तो कुरूपता वहां है, या यह भी तुम्हारा प्रक्षेपण है? एक आदमी बैठा है राह के किनारे, कोढ़ी, शरीर गला हुआ, बदबू निकल रही है। तुम नाक बंद करके दूसरी तरफ मुंह फेर कर एकदम तेजी से निकल जाते हो--इतना कुरूप आदमी! लेकिन यह आदमी कुरूप है, या यह भी तुम्हारा प्रक्षेपण है? यह तुम्हारा भय है। तुम डरते हो कि कहीं किसी दिन ऐसी मेरी हालत न हो जाए। उसी भय के कारण तुम भाग रहे हो।
जो तुम चाहते हो मुझे मिले, वह सुंदर दिखाई पड़ता है। और जो तुम चाहते हो कभी मुझे न मिले, कभी ऐसा न हो मुझे, वह तुम्हें कुरूप दिखाई पड़ने लगता है। कुरूप और सौंदर्य वस्तुओं में नहीं होते--तुम्हारी तृष्णाओं में, तुम्हारी धारणाओं में, तुम्हारे भयों में, तुम्हारी कामनाओं में छिपे होते हैं।
जिस दिन किसी व्यक्ति की मूर्च्छा टूट जाती है: न कुछ सुंदर है न कुछ असुंदर है। बस वैसा ही है जैसा है। कुछ कहने का अर्थ ही नहीं होता। ये वृक्ष वृक्ष हैं। आदमी आदमी हैं। स्त्रियां स्त्रियां हैं। पत्थर पत्थर हैं। नदियां नदियां हैं। जो जैसा है वैसा है। तुम्हारी कोई धारणा नहीं बनती।
जागा हुआ आदमी गुजर जाता है, उसकी कोई धारणा नहीं होती। उसे सब जैसा होना चाहिए वैसा है। चूंकि उसके भीतर कोई आकांक्षा नहीं है कि यह मुझे मिले और ऐसी भी कोई आकांक्षा नहीं है कि मिल जाए तो मेरा दुर्भाग्य होगा, इसलिए कोई धारणा सिर नहीं उठाती। उसके भीतर कोई सपना नहीं पैदा होता। जिस दिन जो है वैसा ही तुम्हें दिखाई पड़ने लगे, उस दिन जानना कि जागरण हुआ है।
मोह निसा में सोइ गई,
चौंक परी उठि जाग है, जी।
पलटू कहते हैं: कुछ और नहीं हुआ, वह जो मोह-निशा थी, टूट गई है, मैं जाग गया। यही मेरा संन्यास। यही मेरा वैराग्य। जागरण--वैराग्य।
सुनते हो! त्याग नहीं--जागरण। छोड़ना नहीं--जागरण। छोड़ने में तो नींद बनी ही हुई है। जब कोई आदमी कहता है मैं छोड़ता हूं, तो उसका मतलब यह होता है कि अभी भी पकड़ने का मन था, नहीं तो छोड़ने की भी इतनी क्या चिंता! जब कोई आदमी कहता है: मैंने छोड़ा, तो उसका मतलब होता है कि अभी भी पकड़े हुए हैं, नहीं तो छोड़ता भी क्यों! छूट जाता। जागरण!
दोउ नैन बने गिरि के झरना,
भूषन बसन किया त्याग है, जी।
पलटू कहते हैं आंखें तो झरने हो गई हैं। आंसू ऐसे बह रहे हैं, जैसे झरना हो, जैसे कभी न रुकेगा।
दोउ नैन बने गिरि के झरना,
क्योंकि जो छोटी सी झलक इस संसार में दिखाई पड़ गई है, अब वह तड़फाती है। अब उस प्राणप्यारे की खोज के लिए बड़ी आकांक्षा पैदा हुई है। विरह उठा है। स्वाद लग गया है।
कहते हैं एक आदमी ने एक सिंह पाला था। बचपन से पाला था और उसे शाकाहारी बना लिया था। शाकाहारी बनना पड़ा था सिंह को; बचपन से उसे मांस मिला नहीं, उसने मांस का स्वाद नहीं जाना। शाक-सब्जी, फल इत्यादि खाकर ही जीता था, जानता था यही भोजन है। उस आदमी के पैर में एक दिन चोट लग गई और सिंह उसके पास ही बैठा था, जैसा वह सदा बैठता था। पैर में से खून बह रहा था। और उस सिंह ने अपनी जीभ से वह खून चाट लिया। बस फिर मुश्किल हो गई। स्वाद लगा कि जैसे सोया हुआ सिंह, जिसे पता ही नहीं था कि मैं सिंह हूं, एकदम उठ कर खड़ा हो गया। हुंकार निकल गई, जो उसके मुंह से कभी नहीं निकलती थी। शाकाहारी सिंह कहीं हुंकार देते हैं! एकदम हुंकार निकल गई। वह आदमी भी घबड़ा गया। उस आदमी ने भी अपनी बंदूक उठा ली। अब यह सिंह खतरनाक था। अब इसको घर में रखना खतरे से खाली नहीं था। उसे जंगल में छोड़ देना पड़ा। स्वाद लग गया!
ऐसी ही दशा हो जाती है भक्त की। संसार में परमात्मा का थोड़ा सा स्वाद मिल गया। थोड़ा सा! बस जरा सा! जीभ पर लगा ही लगा। मगर बस बात बदल गई। अब संसार में कोई रस न रहा। अब तो इस परम प्यारे को खोजना है।
दोउ नैन बने गिरि के झरना,
भूषन बसन किया त्याग है, जी।
समझना, यह बड़ी प्यारी बात है। पलटू कहते हैं: अब कहां याद कपड़े-लत्तों की, भूषण-आभूषण की! यह उन दिनों की बात है जब हिंदुस्तान में पुरुष भी आभूषण पहनते थे। तो तुम थोड़ा चौंकोगे कि पुरुष और आभूषण की बात कर रहे हैं पलटूदास! यह पहनते थे पुरुष उन दिनों।
सच तो यह है कि आभूषण सबसे पहले पुरुषों ने ही पहनने शुरू किए, बाद में धीरे-धीरे स्त्रियां सीखीं। और यह ज्यादा प्राकृतिक लगता है कि पुरुष आभूषण पहने। स्त्रियां वैसे ही सुंदर हैं। तो यह तकलीफ पुरुष को उठी होगी कि वह स्त्रियों जैसा सुंदर नहीं है। तो उसने आभूषण बनाए होंगे। ये आभूषण दीनता से उठे होंगे, हीनता से उठे होगे।
तुम प्रकृति में भी देखोगे तो यही पाओगे। मुर्गे को देखते हो, सिर पर कलगी का आभूषण! मुर्गी को कुछ नहीं। मोर को देखते हो! पुरुष को तो कितना सुंदर आभूषण है--पंख! मोरनी को कुछ भी नहीं। सिंह को देखते हो! तुम चारों तरफ देख डालो प्रकृति में--पुरुष को तुम पाओगे आभूषणों से लदा हुआ। स्त्री के तो स्त्री के होने में ही इतना माधुर्य है कि अब और किसी बात की जरूरत नहीं है। इसलिए प्रकृति ने स्त्रियों को सुंदर आभूषण नहीं दिए हैं। पुरुष ने खोजे हैं। और इसकी कभी वैज्ञानिक खोज होगी तो यह पाया जाएगा कि यह जो कलगी है मुर्गे के ऊपर, यह भी प्रकृति ने नहीं दी है, मुर्गे ने पैदा की होगी, खोजी होगी। आदमी को चिंता लगी रहती है। उसे स्त्री से ज्यादा सुंदर होना चाहिए। उसे कुछ न कुछ परिपूरक करना पड़ता है। कुछ खोजना पड़ता है।
वैज्ञानिक तो कहते हैं कि आदमी ने जो इतने आविष्कार किए हैं, इतने चित्र बनाता, मूर्ति बनाता, संगीत का निर्माण करता, विज्ञान की खोज करता, चांद-तारों पर जाता--इन सबके पीछे एक ही दंश है कि वह बच्चे पैदा नहीं कर सकता। स्त्री से हारा हुआ है। स्त्री जन्म दे पाती है जीवित बच्चे को। और यह पुरुष को काटता है। वह भी कुछ जन्म देने की कोशिश करता है, तो सब्स्टीट्यूट, परिपूरक खोजता है। वह कहता है: देखो, मैंने एक चित्र बनाया! आदमी तो बना नहीं सकता, चित्र बनाया। कविता लिखी, संगीत रचा। हिमालय पर चढ़ गया। देखते हो, चांद पर पहुंच गया। यह पुरुष के भीतर कुछ थोड़ी सी एक बेचैनी है। बेचैनी इस बात की है कि एक काम स्त्री कर लेती है, जो वह नहीं कर पाता: जीवन को जन्म दे लेती है।
और इसका ही दूसरा अंग है: इसलिए स्त्रियां कविता इत्यादि नहीं लिखतीं, मूर्ति भी नहीं बनाती, संगीत की भी चिंता नहीं करतीं। चांद-तारों पर जाने में उनको हंसी आती है कि किसलिए, क्या फायदा, क्या फायदा, क्या सार! हिमालय पर किसलिए चढ़ रहे हो? स्त्री की समझ में ही नहीं आता। वह तृप्त है।
स्त्री को गौर से देखो तो उसमें एक तृप्ति मालूम पड़ती है। और जब कोई स्त्री मां बन जाती है, तो बड़ी तृप्त हो जाती है। उसमें एक गोलाई है। पुरुष में थोड़े से कोने निकले हैं, जिनको वह घिसता रहता है कि किसी तरह गोलाई आ जाए। सृष्टा बनने की, सुंदर होने की--एक स्पर्धा है।
तो पुरुष ने ही सबसे पहले आभूषण खोजे हैं। फिर धीरे-धीरे रोग स्त्रियों को लगा। खोजता पुरुष है, फिर रोग लग जाता है स्त्रियों को। फिर जब स्त्रियां उन आभूषणों का उपयोग करने लगीं, तो पुरुष ने छोड़ दिया। वह भी उसके अहंकार को नहीं सोहता, वह भी उसके अहंकार को नहीं जंचता कि अब स्त्रियों ने पहन लिए आभूषण, अब मैं पहनूं, तो स्त्रैण जंचता हूं! तो उसने छोड़ दिए। अब स्त्रियां भी छोड़ रही हैं। इस बात की बहुत संभावना है कि आने वाली सदी में पुरुष फिर आभूषण पहनने लगें। अगर स्त्रियां छोड़ दें तो पुरुष फिर पहन लेगा। स्त्रियां छोड़ रही हैं आभूषण। पश्चिम में तो स्त्रियां छोड़ रही हैं। पूरब में भी कम होता जाता है। अभद्र मालूम होने लगा है आभूषणों से लदा होना, फूहड़ मालूम होने लगा है। कोई आवश्यकता नहीं है।
तो पलटू उस समय की बात कर रहे हैं, जब पुरुष भी आभूषण पहनते थे।
दोउ नैन बने गिरि के झरना,
भूषन बसन किया त्याग है, जी।
यह त्याग हो गया। आंखें रो रही हैं विरह में, झरने बह रहे हैं आंखों के। आंसू ही आंसू हैं। अब किसको फिकर रही आभूषण पहनने की! अब कौन सजावट करे! यह सजावट तो स्त्रियों को लुभाने के लिए थी; अब तो परम प्यारे को लुभाने चले, अब वहां आभूषण काम न आएंगे। वहां तो कुछ आत्मिक आभूषण चाहिए--सरलता चाहिए, सादगी चाहिए, ईमान चाहिए, श्रद्धा चाहिए, प्रेम चाहिए, अनन्य भक्ति चाहिए, प्रार्थना चाहिए, पूजा चाहिए, अर्चना चाहिए। वहां तो कुछ दूसरे आभूषण चाहिए। ये सोने-चांदी की बातें परमात्मा को न लुभा सकेंगी। ये तो बातें बाहर की हैं; अब भीतर के आभूषण चाहिए। अब बाहर के वस्त्र मैले-कुचैले भी रहे तो चल जाएगा; अब तो अंतरात्मा स्वच्छ होनी चाहिए। अब तो सफाई वहां करनी है। अब तो स्नान वहां करना है। और जब आंख झरने बन जाती हैं, तो आत्मा शुद्ध होने लगती है।
उम्र कैसे कटेगी सैफ यहां
रात कटती नजर नहीं आती।
एक-एक पल भक्त का मुश्किल में कटने लगता है। एक तरफ भक्त बड़ा आह्लादित है कि प्रभु की तरफ चल पड़ा और दूसरी तरफ बड़ी पीड़ा है कि मिलन कब होगा!
उम्र कैसे कटेगी सैफ यहां
रात कटती नजर नहीं आती।
और सब लुटा देता है। सब लुटा देता है! भूषन-बसन, जो कुछ भी है, सब धीरे-धीरे लुट जाता है।
बहारें लुटा दीं, जवानी लुटा दी
तुम्हारे लिए जिंदगानी लुटा दी।
वह कुछ भी रोक नहीं रखता। रोक रख सकता ही नहीं। जो भी दे सकता है, दे ही देता है। रोकने का पाप कर ही नहीं सकता। क्योंकि वह उसी को काटेगा। वही अपराध बन जाएगा उसका। अगर उसने सब उसके लिए नहीं छोड़ दिया है तो वह खुद ही सोचेगा: मैं खुद ही कुछ पकड़े बैठा हूं अभी, और अगर प्यारा न आए तो शिकायत क्या! सब छोड़ कर न आए तो शिकायत हो सकती है। तो हम गुहार मचा सकते हैं। तो हम चीख-पुकार मचा सकते हैं कि तेरे लिए सब लुटा दिया।
बहारें लुटा दीं, जवानी लुटा दी
तुम्हारे लिए जिंदगानी लुटा दी।
अब तो आओ! अब क्या कमी बची है? अब तो सुधि लो।
पलटू जीयत तन त्याग दिया,
उठी विरह की आगि है, जी।
पलटू कहते हैं: ये जो गैरिक वस्त्र पहन लिए मैंने, यह जो संन्यस्त हो गया, यह जो विराग ले लिया--इसे कुछ ऐसा ही मत समझना...। आग लगी है! आग उठी है! विरह की आग जन्मी है!
ये गैरिक वस्त्र तो अग्नि के प्रतीक हैं।
पलटू जीयत तन त्याग दिया,
पलटू कहता है: मैंने तो छोड़ ही दिया अपनी तरफ से तन। उस प्यारे को पाना है तो अब क्या पकडूं तन को! यह जीवन तो मेरी तरफ से गया; मेरे हाथ में अब इस जीवन की कोई पकड़ नहीं है। अब तो सारी ऊर्जा उसी की तरफ जा रही है। और एक लपट उठी है विरह की। अब उसके बिना एक पल नहीं कटता।
दोउ नैन बने गिरि के झरना,
उठी विरह की आगि है, जी।
साहिब के दास कहाय यारो,
जगत की आस न राखिए, जी।
कहते हैं कि मित्रो, साहिब के दास कहाय! कहते तो हो कि प्रभु के चरणों की आशा लगाए हैं; और फिर भी संसार में भी तुम्हारी आशा उलझी हुई है! कहते हो प्रभु को पाना है; और संसार को भी पाने में लगे रहते हो! कहते हो प्रभु की तरफ ही सारा जीवन बह रहा है; फिर भी संसार पर पकड़ बनी रहती है, पकड़ नहीं छूटती!
साहिब के दास कहाय यारो,
जगत की आस न राखिए, जी।
अब तो आशा जगत से छोड़ो। सारी आशा उसी पर आरोपित करो। जब सारी इच्छाएं और सारी आशाएं और सारी तृष्णाएं और सारी चाहत एक प्रबल धार बन जाती है वेगवान और परमात्मा की तरफ बहने लगती है, तभी मिलन है। ऐसे खंड-खंड रहोगे, एक हाथ यहां जा रहा है, एक हाथ वहां जा रहा है, एक धार यहां बह रही है, एक धार पूरब, एक पश्चिम; एक उत्तर, एक दक्षिण--तो तुम पहुंच न पाओगे सागर तक। सागर तक जाना हो तो एकजुट हो जाओ, एकाग्र हो जाओ। सारी आशाओं को उसी पर टिका दो। सारी आशाएं, जैसे किरणों को इकट्ठा एक जगह डाल दो तो आग पैदा हो जाती है, ऐसे ही जब सारी आशाएं समग्रीभूत रूप से परमात्मा पर आरोपित हो जाती हैं तो अग्नि पैदा होती है। अग्नि--जिसमें तुम जल जाओगे।
तुम, जो कि झूठे हो।
तुम, जो कि मिथ्या हो।
तुम, जो कि माया हो।
और फिर जो तुम्हारी राख में पड़ा हुआ जो शेष रह जाएगा--वही परम धन है, वही परमात्मा है, या कहो कि वही तुम्हारा असली रूप है। वही तुम असली हो।
एक नकली मैं है तुम्हारा और एक असली मैं। नकली मैं संसार में आशा रखता है; असली मैं परमात्मा में आशा रखता है।
साहिब के दास कहाय यारो,
जगत की आस न राखिए, जी।
समरथ स्वामी को जब पाया,
जगत से दीन न भाखिए, जी।।
जब प्रभु की तरफ चल पड़े, जब सम्राटों का सम्राट तुम्हारी आंखों में आ गया, तो अब तुम संसार के सामने भीख मांगते हो! अभी भी संसार से आशा रखते हो कि कुछ मिल जाए! अभी भी कौड़ियां बटोरने का मन है! अभी भी सपने देख रहे हो!
समरथ स्वामी को जब पाया,
जगत से दीन न भाखिए, जी।
अब छोड़ो यह दीनता। अब यह भिखमंगापन छोड़ो। यहां मांग तो लिया जन्मों-जन्मों तक, क्या पाया? भिक्षापात्र खाली का खाली है; जरा भी भरा नहीं। जितना मांगा, उतनी ही मांग बढ़ती गई। जितना चाहा, उतनी ही चाह प्रगाढ़ होती गई। यहां कोई भी चीज तो कभी तृप्त नहीं हुई। कभी कोई संतुष्ट नहीं हुआ।
साहिब के घर में कौन कमी,
किस बात को अंते आखिए, जी।
क्या तुम सोचते हो कि साहिब के घर में कुछ कमी है, कि तुम्हें इधर-उधर भी मांगना पड़ेगा? संसार के सामने भी भिक्षापात्र फैलाना पड़ेगा? तो तुम्हारा भरोसा ही नहीं है। तो तुम्हारे भीतर अभी श्रद्धा की परम घटना नहीं घटी। जब श्रद्धा की परम घटना घटती है तो साहब काफी है। वह देने वाला--आखिरी देने वाला--मिल गया। जिसने जीवन दिया, वही मिल गया। जिसने तुम्हें प्राण दिए, वही मिल गया उसके घर में सब है।
साहिब के घर में कौन कमी,
किस बात को अंते आखिए, जी।
पलटू जो दुख सुख लाख परै,
वही नाम सुधा-रस चाखिए, जी।।
और अगर सुख आएं, दुख आएं, तो डांवाडोल मत होना। तुम तो उसके नाम-रस को ही चखते जाना। तुम तो उसके नाम-रस में ही डुबकी मारते जाना। तुम तो पीए जाना प्याले पर प्याले उसके ही नाम-रस के। सुख आए तो भी रुकना मत। यह मत कहना कि अभी सुख आया, थोड़ा सुख भोग लूं, फिर राम को याद कर लूंगा। और दुख आए तो भी रुकना मत, कि जरा इस दुख से लड़ लूं, फिर राम को याद कर लूंगा। सुख आएं, आने दो; दुख आएं, आने दो। आने दो, जाने दो। तुम डूबे रहो--अपने रस में विमुग्ध।
पलटू जो दुख-सुख लाख परै,
वही नाम सुधा-रस चाखिए, जी।
वे सुख-दुख भी सब परीक्षाएं हैं। उनसे गुजर-गुजर कर आदमी निखरता है। उनसे गुजर-गुजर कर आदमी सुघड़ता है। उनसे गुजर-गुजर कर आदमी के भीतर जो सही है, जो सच है, बचता है; और जो झूठ है, वह गिरता है।
सुख और दुख परीक्षाएं हैं। तुमने यह तो सुना होगा कि दुख परीक्षा है; तुमने यह नहीं सुना होगा कि सुख भी परीक्षा है। मैं तुमसे वह भी कह देता हूं। सुख भी परीक्षा है। लोग दुख को तो कहते हैं परीक्षा; और सुख को कहते हैं--फल, पुरस्कार। यह झूठी बात है। दुख को परीक्षा कहना अपने को समझाना है; सांत्वना देना है कि भगवान परीक्षा ले रहा है; गुजार दो, थोड़ी देर की बात है; अभी सुबह हुई जाती है; देखो ज्यादा देर नहीं है, थोड़ा और। दुख परीक्षा है, लोग कहते हैं, ताकि दुख की व्याख्या, परीक्षा हो जाए, तो झेलना आसान हो जाए। लेकिन सुख को नहीं कहते कि परीक्षा है। सुख को क्यों कहो परीक्षा? सुख को तो वे कहते हैं: पुण्यों का फल है; जो पीछे पुण्य किए थे, राम-नाम जपा था इतने दिन, उसका फल मिल रहा है, पुरस्कार मिल रहा है। सुख को तो पकड़ो जोर से।
लेकिन पलटू ठीक बात कहते हैं। वे कहते हैं: ‘पलटू जो दुख-सुख लाख परै!’
दुख आए कि सुख, दोनों को परीक्षा जानना। सुख भी परीक्षा है--और मेरे हिसाब से दुख से बड़ी परीक्षा है। क्योंकि दुख को तो कोई पकड़ना नहीं चाहता; सुख को लोग पकड़ना चाहते हैं। इसलिए सुख परीक्षा है। और जब तुम सुख को भी पकड़ते नहीं, तुम परमात्मा की धुन में लीन ही रहते हो, तुम सुख से कहते हो तू अपनी राह पर आ और जा, ऐसे सुख आते-जाते रहते हैं, मुझे अब रस नहीं है...। जब कोई गाली दे, तब शांत रह जाना इतना कठिन नहीं है--जितना तब कठिन है जब कोई प्रशंसा कर जाए। गाली देते वक्त शांत रहने का तो अभ्यास करवाया गया है; कहा गया है कि गाली कोई दे, शांत रहना, अपने पर संयम रखना, यह सज्जन का लक्षण है। लेकिन जब कोई प्रशंसा कर जाए, फूलमाला पहना जाए, तब? तब तो किसी ने नहीं कहा है कि शांत रहना। क्योंकि शांत रहने की बात तो इसीलिए कही गई है कि गाली के कारण कोई झंझट खड़ी न हो, तुम गाली न दे दो, कोई झगड़ा-फसाद न हो जाए--तो सामाजिक व्यवस्था बिगड़ती है; इसलिए गाली कोई दे तो शांत रहना। यह सामाजिक शिक्षण है।
धार्मिक शिक्षण है: कोई गाली दे कि कोई प्रशंसा करे, तुम्हारे भीतर तरंग पैदा न हो। कोई प्रतिक्रिया पैदा न हो। तुम निस्तरंग ही रहना। फूल कोई चढ़ा गया तो ठीक; कांटे कोई पहना गया तो ठीक। तुम दोनों हालत में वैसे के वैसे रहना जैसे इस घटना के पहले थे--फूल चढ़ाने के पहले, कांटे चढ़ाने के पहले; गाली के पहले, स्तुति के पहले। तुम जैसे थे उसमें कुछ भेद न आए। तुम संतुलित रहना। तुम थिर रहना।
पलटू जो दुख-सुख लाख परै,
वही नाम सुधा-रस चाखिए, जी।
तुम तो एक ही बात करना--उस प्रभु के रस में ही लीन रहना। धीरे-धीरे न दुख आएंगे, न सुख आएंगे। एक दिन तुम पाओगे: अब कोई भी नहीं आता; सिर्फ परमात्मा आता है। अब तुम्हारे दरवाजे और कोई आता ही नहीं; सिर्फ परमात्मा ही आता है। प्रतिपल नित नये रूप में आता है। मगर परमात्मा ही आता है।
घर-घर से चुटकी मांगिके, जी
छुधा को चारा डारि दीजै।
पलटू कहते हैं: शरीर को दो रोटी चाहिए, मांग लेना।
घर-घर से चुटकी मांगिके, जी
क्षुधा को चारा डारि दीजै।
फूटा इक तुम्बा पास राखौ,
ओढ़न को चादर एक लीजै।।
पलटू कहते हैं: इतना काफी है--एक चादर हो ओढ़ने को, एक फूटा तुंबा हो पास। दो रोटी की जब भूख लगे तो किसी से भी मांग लेना, कोई भी दे देगा।
हाट-बाट महजित में सोए रहौ,
फिर बाजार हो, मंदिर हो कि मस्जिद, फिर कहीं भी सोए रहो।
हाट-बाट महजित में सोए रहौ,
दिन-रात सतसंग का रस पीजै।
पर एक बात खयाल रखना कि सत्संग का रस चलता रहे। ये तो गौण बातें हैं। दो रोटी किसी से भी मांग लेना और डाल देना पेट में, भूख मिटा देना। चादर ओढ़ लेना कोई भी, शरीर की सुरक्षा हो जाएगी। सोने को पूछते हो तो कहीं मस्जिद में ही सो जाना, कि हाट-बाजार में सो जाना। इन छोटे से कामों के लिए सारे जीवन को संलग्न करने की जरूरत नहीं है। यह काम इतने महत्वपूर्ण नहीं।
लोग क्या करते हैं? लोग सारा जीवन एक ही बात में लगाते हैं कि कैसे मकान बनाएं, कैसे दुकान लगाएं। और आखिर में करते क्या हो? आखिर में एक चादर ओढ़ कर रात सो रहते हो। दो रोटी पेट में डाल कर क्षुधा मिट जाती है। फिर चाहे तुम सोने के पात्र में पानी पिओ या एक फूटे तुंबे में, न तो तुंबे से पानी और प्यास का कोई संबंध है, न सोने का पानी और प्यास से कोई संबंध है। प्यास का संबंध तो पानी से है। अब पानी तुंबे में है कि सोने के पात्र में, क्या फर्क पड़ता है! लेकिन लोग पानी की कम फिकर करते हैं, सोने के पात्र की ज्यादा फिकर। जीवन लगा देते हैं। प्यासे, भूखे दौड़ते रहते हैं कि सोने का पात्र चाहिए। सोने का पात्र मिलेगा, तब उनकी प्यास बुझेगी। अब, सोने के पात्र से प्यास के बुझने का संबंध क्या है? प्यास पानी से बुझती है। एक फूटा तुंबा काफी है।
पलटू यह कह रहे हैं कि जीवन में जो जरूरी है, उसे पूरा कर लेना। मगर जरूरत के पीछे दीवाने होकर सदा मत दौड़ते रहना। कहीं ऐसा न हो कि परमात्मा को बिसार ही दो। तुंबे को सोने का पात्र बनाना है। छप्पर पर चांदी की छड़ें लगाना है। वस्त्रों में हीरे-जवाहरात टांकने हैं।...तो तुम मतलब की बात ही भूल गए। तुम असली बात ही भूल गए कि वस्त्र तन को ढांकने को हैं; छप्पर वर्षा धूप से बचा लेने को है।
तुम अपने जीवन में झांकना। तुम्हारे जीवन में अक्सर यही होता है कि असार के लिए तुम ज्यादा शक्ति लगाए रखते हो। सार पर कोई शक्ति लगती ही नहीं। फिर अगर जीवन में विषाद आता है तो कौन जिम्मेवार है!
ओढ़न को चादर एक लीजै।
छुधा को चारा डारि दीजै।
ये तो बातें गौण हैं। असली बात है: ‘दिन-रात सतसंग का रस पीजै।’
उसकी तलाश करो। वही है सोना। सत्संग है सोना। उसकी तलाश करो। जहां कोई जाग गया हो, उसकी खोज करो। जहां वाणी प्रभु की बरसती हो, उन चरणों को गहो। जहां उस प्यारे का नाम चलता हो, जहां उस प्यारे की कथा होती हो, जहां चार दीवाने बैठ कर गुनगुनाते हों, जहां चार मस्त नाचते हों प्रभु के रस में डूब कर--वहां खोजो। वहां जाओ। क्योंकि अंततः उसी से असली क्षुधा मिटेगी, असली प्यास बुझेगी। और उसी से असली चादर मिलेगी, जिसको तान कर तुम सदा के लिए विश्राम में डूब जाओगे। गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में बिसराम!
पलटू उदास रहौ जक्त से ती,
पहिले बैराग यहि भांति कीजै।
पलटू कहते हैं: वैराग्य का पहला कदम है कि संसार में अब आशा नहीं रही। देख लिया; जो मिलता था मिल गया, जान लिया, पहचान लिया। अब आशा संसार की तरफ नहीं बहती है। एक बात साफ हो गई कि यहां कुछ-कुछ मिल सकता है, लेकिन कुछ-कुछ से मन नहीं भरता। यहां क्षणभंगुर मिल सकता है, लेकिन क्षणभंगुर से तृप्ति नहीं होती। यहां सपने मिलते हैं, छायाएं बिकती हैं, प्रतिबिंब बिकते हैं; लेकिन असली का पता नहीं चलता।
संसार ऐसे है जैसे चांद झील में प्रतिबिंब बनाता है। सुंदर लगता है। अगर झील के किनारे बैठ कर देखते रहो तो बड़ा सुंदर लगता है चांद। फिर अगर उतर जाओ झील में और डुबकी मारो चांद को पकड़ने को तो मुश्किल में पड़ोगे। और ऐसा भी नहीं है कि वह जो झील में चांद दिखाई पड़ता है, उसका असली चांद से कोई संबंध नहीं है--असली चांद से संबंध है। असली चांद के बिना वह प्रतिबिंब बन ही नहीं सकता।
जब किसी स्त्री के चेहरे पर तुम्हें कोई चमक दिखाई पड़ी है तो वह झील में पड़ी चांद की चमक है। और जब किसी पुरुष की आंखों में तुम्हें ओज दिखाई पड़ा है तो वह असली चांद की झील में पड़ी हुई चमक है। जब किसी की वाणी में तुम्हें सत्य का स्वर मालूम पड़ा है तो वह चांद की पानी में पड़ी झलक है। झलक को समझ कर चांद की खोज में निकलो। डुबकी लगा कर झील में डूबने से चांद न मिलेगा। चांद मिलना तो दूर, वह जो चांद का प्रतिबिंब बन रहा था, वह भी खो जाएगा। डुबकी मारोगे तो पानी हिल जाएगा, सब गड़बड़ हो जाएगा।
इसलिए संसार में जो जितने भागते हैं उतने ही दूर निकलते जाते हैं--झील में डुबकी मार रहे हैं। बड़ा अभ्यास करते हैं डुबकी मारने का। नीचे जाकर कुछ नहीं पाते हैं; रेत हाथ लगती है। चांद तो मिलता ही नहीं; लोग डुबकी मार-मार कर श्वास रोके हुए झीलों में चले जा रहे हैं। प्राण संकट में पड़े हैं। मगर सोचते हैं कि शायद थोड़ा और खोज लें, कहीं चांद पड़ा हो। वह चांद जो चमकता हुआ दिखाई पड़ा था किनारे से, वह चांद कहीं है। लेकिन वह चांद झील में नहीं है।
परमात्मा कहीं है। और परमात्मा की झलक संसार में पड़ती है। संसार झील है।
तो पलटू कहते हैं: पलटू उदास रहौ जक्त सेती। यह जगत के प्रति अब आशा छोड़ दो--यह पहला पाठ वैराग्य का। पहले बैराग यही भांति कीजै!
छुधा को चारा डारि दीजै।
ओढ़न को चादर एक लीजै।
दिन-रात सतसंग का रस पीजै।
पहिले बैराग यहि भांति कीजै।।
शुरू-शुरू इतना भी हो जाए तो बहुत।
दिल दिल से मिल सके, ये बड़ी बात है मगर
फिलहाल यह दुआ है नजर से नजर मिले।
एकदम दिल से दिल मिलाने की बातें मत करो।
दिल से दिल मिल सके, ये बड़ी बात है मगर
फिलहाल यह दुआ है नजर से नजर मिले।
अभी तो आंख से आंख मिल जाए तो बहुत। अभी तो क्षण भर को आंख से आंख मिल जाए तो बहुत। फिर आंख से आंख मिल गई तो दिल से दिल भी मिलेगा। ज्यादा दूर नहीं है। दिल आंख के बहुत पास है। दिल आंख से जुड़ा है।
इसलिए तो हम साधारणतः अजनबियों से आंख नहीं मिलाते। अजनबी से हम दिल ही नहीं मिलाना चाहते तो आंख क्यों मिलाएंगे! आंख से आंख तो हम उसी से मिलाते हैं जिससे गहरा प्रेम हो--उसी की आंख में झांकते हैं। क्योंकि आंख के ठीक पीछे हृदय है। अगर दो आंखें शांत भाव से मिल जाएं तो दोनों हृदयों के द्वार खुल जाते हैं। वह अगला कदम है।
दिन-रात सतसंग का रस पीजै।
क्या है सत्संग का रस? सत्संग का रस है: जहां बैठ कर उस परम प्यारे की याद आए, सहज आए। जहां और दूसरी बात ही न चलती हो। जहां की हवा में उसी का गुणगान हो। जहां उसी की विरह की बातें होती हों। जहां दीवाने रोते हों। जहां लोग उसी की मस्ती में डोलते हों।
सत्संग का अर्थ है: विरह की रात्रि। अकेले में तुम भूल जाओ, भूल जाने की संभावना है। जन्मों-जन्मों से सोए रहे हो, अकेले में शायद सो जाओ। संग साथ में सो न पाओगे। तुम सोओगे तो कोई दूसरा जागेगा। कोई दूसरा जागेगा तो तुम्हें जगाए रखेगा। वह दूसरा सोने लगेगा तो तुम जागोगे, तुम उसे जगाए रखोगे। ऐसे जागते-जागते यह विरह की रात गुजर जाए। फिर जिस दिन परमात्मा से मिलन होता है, उस दिन पता चलता है कि वे विरह की रातें भी बड़ी अदभुत थीं, बड़ी प्यारी थीं। लौट कर देखने पर पता चलता है, क्योंकि उनकी विरह की रातों में यद्यपि परमात्मा नहीं था, लेकिन परमात्मा की याद तो थी! परमात्मा दूर रहा हो, लेकिन हृदय तो उसी के लिए पुकारता था। जैसे चातक पुकारता, स्वाती की बूंद के लिए प्रतीक्षा करता। जैसे पपीहा चिल्लाता--पी कहां, पी कहां, पी कहां!
तेरे फिराक की रातें कभी न भूलेंगी
मजे मिले इन्हीं रातों में उम्र भर के मुझे।
मगर यह लौट कर ही पता चलता है जब फिराक की रात होती है, जब विरह की रात होती है, तब तो आंसू ही बहते हैं। यह तो लौट कर पता चलता है कि तेरी याद में भी जो दिन गुजरे, वे भी बड़े प्यारे थे। तेरी याद में गुजरे, तो प्यारे ही थे! तुझे जिन दिनों याद न किया, वे ही दिन बेकार गए। जब तुझे भूले रहे, वे ही दिन बेकार गए। कभी धन में भूले, कभी पद में भूले, कभी कुछ और में भूले--जो दिन तेरी याद में न गुजरे वे बेकार गए। जो तेरे रोने में बीते, जब तेरे लिए आंसू गिरे और जब हृदय तेरे लिए ़जार-़जार हुआ...।
तेरे फिराक की रातें कभी न भूलेंगी
मजे मिले इन्हीं रातों में उम्र भर के मुझे।
जब मैं नाही तब वह आया,
मैं, ना वह, यह कौन मानै।
गूंगे ने गुड़ खाइ लिया,
जबान बिना क्या सिकत आनै।।
दरियाव और लहर तो दोय नाहीं।
समा और रोशनी कौन छानै।
पलटू भगवान की गति न्यारी,
भगवान की गति भगवान जानै।।
इस अंतिम वचन पर हम पूरा करते हैं। यह अपूर्व वचन है।
समझो: जब मैं नाहीं तब वह आया! जब मैं-भाव जाता है तभी वह आता है। असल में यह कहना ठीक नहीं कि वह आता है। मैं-भाव के कारण छिपा पड़ा रहता है; मैं-भाव गया कि प्रकट हो जाता है। मैं-भाव ऐसे ही है, जैसे बीज पर चढ़ी खोल। खोल टूटती है तो बीज उमगने लगता है। मैं-भाव के जाने पर वह आता है, यह तो कहना पड़ता है भाषा में। यह भाषा की मजबूरी है। कहां उसका आना, कहां उसका जाना! कहां आएगा, कहां से आएगा, कहां जाएगा? सब जगह वही है। बस वही है; और तो कुछ भी नहीं है। तुम्हारे भीतर भी वही बैठा है--इस क्षण भी वही बैठा है। मगर तुम्हारा मैं-भाव आंखों में चढ़ा है। तुम मैं के मद में डूबे हो। तुम कहते हो: मैं, मैं, मैं! इस मैं की गुहार के कारण जो तुम्हारे भीतर पड़ा है, दिखाई नहीं पड़ता। इस मैं की धुंध में खो गया है। सूरज तो निकला है, लेकिन मैं के बादलों में खो गया है। मिट नहीं गया। और जब मैं के बादल चले जाएंगे तो कहीं से आएगा भी नहीं, था ही।
परमात्मा का अर्थ ही वही होता है जो सदा है; शाश्वत है; नित्य है; न आता, न जाता; न आ सकता, न जा सकता। उसके अतिरिक्त कोई स्थान भी नहीं जहां चला जाए। लेकिन हमारी आंखें धुंध से भरी हो सकती हैं, हम भीतर देखें ही न।
मैं-भाव बाहर देखता है। मैं-भाव बहिर्गामी है। क्योंकि मैं की तृप्ति बाहर है। मैं की आकांक्षा बाहर है। मैं कहता है: धन चाहिए, ज्यादा धन चाहिए! जितना ज्यादा धन होगा, उतना ही मैं मजबूत हो सकेगा। गरीब का मैं कैसे मजबूत हो?
पास क्या है उसके? अमीर का मैं ज्यादा मजबूत हो जाता है।
मैं कहता है: बड़ा पद चाहिए। यह क्या--चपरासी बने रहे! राष्ट्रपति होना है!
मैं-भाव कहता है: कुछ खोजो। कहीं चलो।
मैं-भाव में महत्वाकांक्षा छिपी है। महत्वाकांक्षा तो बाहर ही पूरी होगी। और बाहर भी कहां पूरी होती है; बस पूरी होती लगती है, पूरी कभी नहीं होती। एक जगह पहुंचे, आगे दिखाई पड़ने लगता है कि वहां चलें, शायद वहां हो। ऐसे दौड़ता आदमी मृग-मरीचिका में। महत्वाकांक्षा यानी मृग-मरीचिका। और जिसकी तलाश चल रही है, वह भीतर मौजूद है। कस्तूरी कुंडल बसै! वह जो भाग रहा है हरिण, पागल होकर भाग रहा है कस्तूरा, उसके नाभि में कस्तूरी पड़ी है। इसीलिए तो उसका नाम कस्तूरा है। उसकी नाभि में कस्तूरी पड़ी है। उसी की नाभि से उठती है कस्तूरी की गंध। उसी की नाक से उठती है कस्तूरी की गंध। उसी की श्वास से उठती है कस्तूरी की गंध। चारों तरफ फैलती है वह दीवाना हो जाता है। वह खोजता है--कहां से आ रही है, कहां से आ रही है! भागता है।
ऐसी ही दशा आदमी की है। जिसकी तुम तलाश कर रहे हो, वह तुम्हारे घर में बैठा है। जिसे तुम खोजने निकले हो, उसे खोजने जाने की जरूरत ही नहीं है। जिसे तुम खोजने निकले हो, वह खोजने वाले में छिपा है। तो जब तक यह खोजने वाला रहेगा और खोज रहेगी, तब तक तुम उसे न पा सकोगे। जब तक यह मैं रहेगा, तब तक तुम चूकते चले जाओगे। यह मैं चुकाता है।
पलटू कहते हैं: मेरी कौन मानेगा!
पलटू कहते हैं:
जब मैं नाही तब वह आया,
मैं, ना वह, यह कौन मानै।
कौन मेरी मानेगा कि जब तक मैं था, तब तक वह नहीं था; और अब वह है मैं नहीं हूं।
हमारा मन कहेगा: यह तो फिर कुछ बड़ा मिलन न हुआ, यह तो बड़ा अजीब सा मिलन हुआ। यह तो बड़ी विचित्र स्थिति हुई। हम तो खोजने निकले थे। अगर हम खो ही गए तो फायदा भी क्या!
बुद्ध से लोग आकर बार-बार पूछते थे कि आप कहते हैं उस परम दशा में सब शून्य हो जाएगा, मैं भी शून्य हो जाऊंगा? बुद्ध कहते: निश्चिय ही वहां सब शून्य हो जाएगा, तुम भी नहीं रहोगे, वहां सन्नाटा होगा। तो लोग कहते: फिर ऐसे सन्नाटे को खोजने की जरूरत क्या! यह भी आप अजीब सी बात बताते हैं। इसको ही खोजने में जीवन लगाना है? अपने को गंवाने के लिए? इससे तो यहां क्या बुरे हैं? कुछ तो हैं! बुरे भले जैसे हैं, हैं तो!
आदमी की जीवेषणा बड़ी गहरी है। आदमी कहता है: नरक में भी रह लेंगे, मगर होना चाहिए। कम से कम बचूं। स्वर्ग की भी आकांक्षा नहीं है, अगर मिट कर मिलता हो। और अड़चन यही है, गणित यही है जीवन का: यहां जो भी मिलता है, मिट कर मिलता है। जब तुम खो जाते हो।
मगर समझना, खो जाने का मतलब यह नहीं होता कि तुम न ही हो गए, नकार हो गए। नहीं; खो जाने का इतना ही अर्थ होता है: शोरगुल न रहा। खो जाने का इतना ही अर्थ होता है: अस्तित्व तो रहा, मैं-भाव न रहा। खो जाने का इतना ही अर्थ होता है जैसे नदी सागर में उतर जाती है, तो खो थोड़ी गई है। है तो अब भी। अब विराट हो गई। अब सागर के साथ एक हो गई।
खो जाने में विराट हो जाना छिपा है। छोटापन खो गया। सरितापन खो गया, सागरपन आ गया। अहंकार खो जाता है, ब्रह्मभाव आ जाता है।
वही तो मंसूर ने कहा: अनलहक! मैं परमात्मा हूं। वही उपनिषदों ने कहा: अहं-ब्रह्मास्मि! मैं ब्रह्म हूं!
लेकिन खयाल रखना, इस मैं का अर्थ तुम्हारे मैं जैसा नहीं है। यह केवल भाषा में कहने की बात है। ब्रह्म हूं मैं, ऐसा कहने वाला ऋषि केवल इतना ही कह रहा है: अब मैं नहीं हूं, ब्रह्म है। वही ‘अनलहक’ कह रहा है। वही अनलहक में कहा गया है। सत्य है, हक है, परमात्मा है--मैं नहीं हूं।
मंसूर की बात लोग समझ न पाए। सूली पर चढ़ा दिया। मंसूर हंसता हुआ मरा। मंसूर था ही नहीं, नहीं तो चिंता पैदा होती। मंसूर को जब सूली लगी तो मंसूर ने यही कहा कि तुम जिसे मार रहे हो, वह तो बहुत पहले मर चुका है। तुम किसे मार रहे हो? और जो अब है उसे तो मारा नहीं जा सकता। वह तो अमृतधर्मा है। मगर कौन सुने! लोग बहरे हैं। और लोग अंधे हैं। और लोग बहरे और अंधे ही होते तो भी ठीक था--लोग हृदयहीन हैं।
जब मैं नाहीं तब वह आया,
मैं, ना वह, यह कौन मानै।
गूंगे ने गुड़ खाई लिया,
जबान बिना क्या सिकत आनै।।
और पलटू कहते हैं: मेरी भी बड़ी मुश्किल है। लोग मुझसे पूछते हैं कि कुछ कहो, कुछ समझाओ, हमारी समझ में नहीं आता: अब मैं कैसे समझाऊं! गूंगे ने गुड़ खा लिया। गुड़ तो मैंने खा लिया, स्वाद भी मैंने जान लिया। लेकिन जबान कहां है जो उस स्वाद को कह दे! शब्द कहां हैं जो उस निःशब्द को बांध ले! भाषा कहां है जो उस अनिर्वचनीय को प्रकट करे! जबान नहीं है।
परमात्मा को जान कर सभी गूंगे हो जाते हैं। और ऐसा नहीं कि वे नहीं बोलते--बोलते हैं। लेकिन जो भी बोलते हैं, वह बस करीब-करीब आता है, लेकिन पूरा-पूरा सत्य नहीं होता। हो नहीं सकता। थोड़ी-थोड़ी उसमें झलक हो सकती है। इशारे!
ज्यादा से ज्यादा क्या है संतों का कहना? संत ने गुड़ खा लिया। वह मस्त हो रहा है। वह उस मधु-रस में डूब रहा है। वह नाच रहा है। तुम उससे पूछते हो कि कुछ कहो। वह कुछ कहता भी है। करुणा है तो कहता है। तुम्हें समझाने की कोशिश करता है। लेकिन वह जानता है कि तुम समझ न पाओगे। क्योंकि वह जानता है कि अगर किसी और ने भी उसे जानने के पहले जनाया होता, तो वह भी नहीं मानता। क्योंकि वह जानता है कि दूसरों ने यही बातें पहले उससे भी कही थीं और उसकी भी समझ में न पड़ी थीं। वह भलीभांति जानता है कि वह भी संदेह से भरा रहा था।
जब तक स्वाद न आए, संदेह जाता ही नहीं। इसलिए एक बात तो साफ है कि लोग मानेंगे नहीं। या तो लोग समझेंगे पागल हो गया या लोग समझेंगे धूर्त है, धोखा दे रहा है।
संतों के बाबत लोगों की दो ही धारणाएं होती हैं--या तो धूर्त, कि धोखा दे रहा है; या पागल, दीवाना हो गया, होश खो दिया। कुछ भी बक रहा है--अनर्गल, असंगत। अब इसमें कुछ अर्थ नहीं है। और लोग भी मजबूर हैं। ऐसा कहना उन्हें पड़ता है। क्योंकि जो संत कहता है, वह भाषा में नहीं आता। फिर भी भाषा में कहने की कोशिश करता है। समाता नहीं, अटता नहीं, शब्द छोटे पड़ जाते हैं, ओछे पड़ जाते हैं। जैसे कोई छोटी सी मुट्ठी में सारे आकाश को रखने चला हो। अब मुट्ठी छोटी पड़ जाए तो आश्चर्य क्या! आकाश इतना विराट, शब्द तो मुट्ठी से भी छोटे हैं।
गूंगे ने गुड़ खाई लिया,
जबान बिना क्या सिकत आनै।।
और जबान खो गई। गुड़ क्या खाया, उसी में जबान खो गई। जब तक तुम जानते नहीं, तब तक बोलना बहुत आसान है। जिस दिन जानोगे, उस दिन बड़ी मुश्किल हो जाती है। जिस दिन जानोगे उस दिन पाओगे कि अरे, जब तक पता नहीं था, तब तक कितनी सुविधा से बोल लेते थे! एक संगति थी बोलने में, एक तर्क, एक व्यवस्था थी, बल था, जरा भी झिझक न थी। जानने के बाद एक-एक शब्द पर झिझकने लगते हो। जानने के बाद एक-एक शब्द को तौलते हो--यह शब्द काम देगा कि नहीं देगा! और हर शब्द का उपयोग करके पाते हो; चूक गए। फिर चूक गए। फिर-फिर कहने की कोशिश होती है।
संत अगर इतना दोहराते हैं तो उसका कारण तुम समझ लेना। उसका कारण केवल इतना ही है: एक बार चूक जाते हैं, फिर से कहते हैं; फिर भी चूक जाते हैं, फिर से कहते हैं। कहना तो वही है, और चूकते ही चले जाते हैं। संतों को वही समझ पाते हैं जो अपनी जबान खोने को तैयार हैं--जो खुद भी गूंगे होने को तैयार हैं; जो खुद भी चुप होने को तैयार हैं; जो कहते हैं, हम भी शून्य हो जाएंगे, हम शून्य से ही शून्य को जोड़ेंगे। लेकिन जिनकी जिद्द है कि जब तक भाषा के द्वारा हमें समझाया न जाएगा और जब तक भाषा के द्वारा सिद्ध न किया जाएगा, जब तक भाषा के और तर्क के प्रमाण न दिए जाएंगे, तब तक हम इंच भर न सरकेंगे--उन पर वर्षा होती रहती है संतों की, वे उलटे घड़े की तरह पड़े रहते हैं। वे कभी नहीं भरते हैं।
गूंगे ने गुड़ खाई लिया,
जबान बिना क्या सिफत आनै।।
दरियाव और लहर तो दोय नाहीं,
सागर और सागर की लहर दो तो नहीं हैं। ऐसे पलटू कहते हैं: अब मैं और वह परमात्मा दो नहीं हैं। मैं तो गया। मैं तो पिघल गया। मैं तो खो गया। मैं तो अब नहीं हूं--सागर ही है।
दरियाव और लहर तो दोय नाहीं,
समा और रोशनी कौन छानै।
और अब छानो भी कैसे कि शमा कौन और रोशनी कौन! कहां रोशनी समाप्त होती है, कहां शमा शुरू होती है! कहां शमा समाप्त होती है, कहां रोशनी शुरू होती है! दोनों जुड़े हैं, संयुक्त हैं, इकट्ठे हैं। इतने इकट्ठे हैं कि अलग-अलग होते ही नहीं।
इसलिए पलटू कहते हैं: अब मैं क्या कहूं! मैं कौन और परमात्मा कौन! अब भक्त और भगवान दो न रहे।
अगर ज्ञान के मार्ग से चलते हो तो ज्ञानी बचा। क्योंकि भगवान ज्ञानी में डूब गया, भगवान ध्यानी में लीन हो गया। अगर भक्ति के मार्ग से चलते हो तो भगवान बचा, भक्त भगवान में डूब गया। मगर क्या फर्क पड़ता है, बात एक ही है।
कबीर ने कहा है:
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।
बुंद समानी समुंद में, सो कत हेरी जाई।।
बूंद सागर में खो गई, अब उसे वापस कैसे निकालें! और कबीर ने दूसरा वचन भी कहा है कि-हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई। समुंद समाना बुंद में, सो कत हेरी जाई।।
और समुद्र बूंद में समा गया, अब उसको कैसे निकालें! ये दोनों वचन भक्ति और ज्ञान के प्रतीक-वचन हैं। भक्ति का अर्थ होता है: बूंद सागर में समा गई।
भक्त खो गया, भगवान बचा। ज्ञान का अर्थ होता है: सागर बूंद में समा गया। भगवान खो गया, ध्यानी बचा।
इसलिए महावीर और बुद्ध ने भगवान की बात नहीं की। वे ध्यानी हैं। मीरा, चैतन्य, पलटू, कबीर, नानक, भगवान की बात कहे। वे भक्त हैं। मगर दोनों की बात में जरा भी फर्क नहीं। जरा भी फर्क नहीं है! क्या फर्क पड़ता है! एक बूंद सागर में गिरा दो, फिर तुम जो चाहो कहो--तुम कहो कि बूंद सागर में समा गई या चाहो तो कहो कि सागर बूंद में समा गया। ये तो कहने के ही फर्क हुए।
अंतिम स्थिति में ध्यान और प्रेम एक ही जगह ले आते हैं। मगर चूंकि जीवन भर एक खास ढंग की भाषा का अभ्यास किया, यह अंतिम अनुभव भी अलग-अलग ढंग से कहा जाता है। महावीर कहते हैं: आत्मा ही बची, कोई परमात्मा नहीं। यह आत्मा की परम दशा ही परमात्मा है; कोई और परमात्मा नहीं।
पलटू कहते हैं: तू ही बचा, अब मैं नहीं।
दरियाव और लहर तो दोय नाहीं,
समा और रोशनी कौन छानै।
पलटू भगवान की गति न्यारी,
फिर पलटू कहते हैं कि फिर मैं सीधा-सादा आदमी। पलटू निरगुन बनिया! मैं राम का मोदी। मेरी कोई ज्यादा पकड़ भी शब्दों पर नहीं है; भाषा का कोई बहुत बड़ा ज्ञाता भी नहीं हूं। सीधा-सादा सामान्य सा आदमी हूं। यह परमात्मा की परमगति मैं कैसे कहूं!
पलटू भगवान की गति न्यारी,
और यह वचन इतना प्यारा है:
भगवान की गति भगवान जानै।
पलटू कहते हैं: उन्हीं से पूछ लेना। उन्हीं से मिल लेना। और ज्यादा जानकारी चाहिए हो तो मालिक से, साहिब से ही मिल लेना। मुझ चौकीदार को ज्यादा मत सताओ। मैं तो दरवाजे पर पहरा दे रहा हूं। जितना जानता था कह दिया।
मैंने सुना एक घर में नई-नई एक नौकरानी रखी गई। बुहारी लगाती थी कि तभी फोन आया। फोन आया तो उसने फोन उठाया और कहा: हल्लो। दूसरी तरफ से पूछा गया: कौन है? डॉक्टर साहब घर में हैं, नहीं हैं? मैं फलां-फलां बोल रहा हूं। लेकिन सन्नाटा रहा। उसने पूछा: भाई बोलते क्यों नहीं? बात क्या है? चुप क्यों हो गए?
उस नौकरानी ने कहा कि जितना मैं जानती थी उतना बोल चुकी--हल्लो! इससे ज्यादा मुझे कुछ पता नहीं है। नई-नई हूं। इस भाषा से भी परिचित नहीं हूं, फोन भी पहली दफे पकड़ा है। इस घर के बाबत भी मेरी कोई ज्यादा जानकारी नहीं।
उसने कहा: जितना मैं जानती थी बोल ही चुकी--हल्लो! बस उतना ही जानती थी।
ऐसा पलटू कहते हैं कि अब मुझे मत पूछो। साहिब से ही मिल लो। स्वाद ही ले लो। यह मालिक का दरवाजा खोल दिया; मैं तो चौकीदार हूं, यह दरवाजा खोल कर खड़ा हूं, निमंत्रण दे दिया कि आ जाओ। ज्यादा पूछताछ में समय मत गंवाओ। मालिक भीतर है।
पलटू भगवान की गति न्यारी,
भगवान की गति भगवान जानै।।
आज इतना ही।