PALTUDAS

Ajhun Chet Ganwar 19

Nineteenth Discourse from the series of 21 discourses - Ajhun Chet Ganwar by Osho. These discourses were given during JUL 21 - AUG 10 1977.
You can listen, download or read all of these discourses on oshoworld.com.


सील की अवध, सनेह का जनकपुर,
सत्त की जानकी, ब्याह कीता।
मनहिं दुलहा बने आप रघुनाथजी,
ज्ञान के मौर सिर बांधि लीता।।
प्रेम-बारात जब चली है उमंगिकै,
छिमा बिछाय जनबांस दीता।
भूप अहंकार के मान को मर्दिक,
थीरता-धनुष को जाय जीता।।9।।

बाम्हन तो भये जनेउ को पहिरि कै,
बाम्हनी के गले कछु नाहिं देखा।
आधी सुद्रिनि रहै घर के बीच में,
करै, तुम खाहु यह कौन लेखा।।
सेख की सुन्नति से मुसलमानी भई,
सेखानी को नाहिं तुम कहौ सेखा।
आधी हिन्दुइन रहै घरै बीच में,
पलटू अब दुहुन के मारु मेखा।।10।।

तुरुक लै मुर्दा को कब्र में गाड़ते,
हिन्दू लै आग के बीच जारै।
पूरब वै गए हैं वै पच्छूं को,
दोऊ बेकूफ ह्वै खाक टारैं।।
वै पूजैं पत्थर को, कबर वै पूजते,
भटककै मुए दैं सीस मारैं।
दास पलटू कहै, साहिब है आप में,
अपनी समझ बिनु दोउ हारैं।।11।।

संतन के बीच में टेढ़ रहें
मठ बांधि संसार रिझावते हैं।
दस बीस सिष्य परमोधि लिया,
सबसे वह गोड़ धरावते हैं।।
संतन की बानी काटिके, जी
जोरि-जोरि के आप बनावते हैं।
पलटू कोस चारि-चारि के गिर्द में, जी
सोइ चक्रवर्ती कहलावते हैं।।12।।
एक सुबह, ईसाई फकीर अगस्तीन से एक युवक ने आकर पूछा: मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूं; ग्रामीण हूं, गंवार हूं। धर्मशास्त्रों की बातें मेरी समझ में नहीं आतीं। बड़े उपदेश मेरे पल्ले नहीं पड़ते। आपने तो उस प्रभु को देखा है, आप मुझे दो शब्दों में सार की बात कह दें--ऐसी कि मैं उसे गांठ बांध लूं; ऐसी कि भुलाना भी चाहूं अपने अज्ञान में तो भी भुला न पाऊं; ऐसी कि चिनगारी बन जाए मेरे भीतर।
कहते हैं, अगस्तीन, जो कभी किसी प्रश्न के उत्तर देने में न झिझका था, क्षण भर को झिझक गया और उसने आंखें बंद कर लीं। उसके शिष्य बड़े चकित हुए। बड़े विद्वान आते हैं, बड़े पंडित आते हैं, बड़े धर्मशास्त्री आते हैं--अगस्तीन उनके प्रश्नों में आंख कभी बंद नहीं किया। उत्तर तत्क्षण होते हैं।
बड़ा मेधावी पुरुष था अगस्तीन। और आज एक छोटे से प्रश्न के उत्तर में आंखें बंद कर ली हैं। और बड़ी देर लगी, जैसे अगस्तीन भीतर बहुत खोजता रहा। फिर उसने आंखें खोलीं और उसने कहा: तो फिर एक शब्द याद रखो--प्रेम। उसमें सब आ जाता है--सब धर्म, सब धर्मशास्त्र, सब नीतियां, सब आदर्श। एक शब्द याद रखो फिर--प्रेम। और प्रेम जीवन में आ गया तो सब आ जाएगा। फिर तुम फिकर छोड़ो परमात्मा की। तुम प्रेम को सम्हाल लो, प्रेम के धागे में बंधा हुआ परमात्मा अपने आप आ जाता है।
अगस्तीन का यह उत्तर अत्यधिक मूल्यवान है। सारे धर्मों का सार प्रेम है। और प्रेम सम्हल जाए तो सब सम्हल गया। और प्रेम न सम्हल पाए तो तुम सब सम्हालते रहो, फिर सब औपचारिक है, उसका कोई मूल्य नहीं है। और यह बात भी महत्वपूर्ण है कि अगस्तीन को सोचना पड़ा।
किसी ने रूजवेल्ट को एक बार पूछा कि आप व्याख्यान देते हैं, तो आपको तैयारी करनी पड़ती होगी? कितनी तैयारी करनी पड़ती है? रूजवेल्ट ने कहा: निर्भर करता है। अगर दो घंटे बोलना हो तो तैयारी बिलकुल नहीं करनी पड़ती; फिर तो जो भी बोलना है बोले चला जाता हूं। अगर आधा घंटा बोलना हो तो तैयारी करनी पड़ती है; दिन भर लगाना पड़ता है। और अगर दस मिनट ही बोलना हो तो दो दिन भी लग जाते हैं। और अगर दो ही मिनट में बात कहनी हो तो सप्ताह बीत जाते हैं, तब कहीं मैं तैयार कर पाता हूं।
यह बात सोचने जैसी है। जितने संक्षिप्त में कहनी हो बात, उतनी देर लग जाती है। और अगर एक ही शब्द में कहनी हो, तो स्वभावतः अगस्तीन को बड़ा मंथन करना पड़ा। बहुत से शब्द उठे होंगे उसके भीतर, जब वह सोचने लगा कि क्या उत्तर दूं इस ग्रामीण को। सारे शास्त्र घूम गए होंगे उसके भीतर। शास्त्रों का ज्ञाता था; बाइबिल उसे कंठस्थ थी। उन सभी शब्दों ने सिर उठाए होंगे। लेकिन उन्होंने सबको इनकार कर दिया। सारे मंदिर, सारे मस्जिद, सारी प्रार्थनाएं, सब इनकार कर दीं। और उस सब में से चुना एक शब्द, जो शायद भीड़ में कहीं खो ही जाता। क्योंकि प्रेम ऐसा है कि अंत में खड़ा होता है। पंक्तियों के आगे खड़े होने का प्रेम का कोई आग्रह नहीं है। लेकिन अगस्तीन ने खोज लिया सूत्र, सार-सूत्र खोज लिया। भक्ति का सार-सूत्र भी प्रेम है।
आज के वचन प्रेम की दिशा का अपूर्व रूप से प्रस्थापन करते हैं। एक-एक सूत्र को खयाल से समझें।
सील की अवध, सनेह का जनकपुर,
सत्त की जानकी ब्याह कीता।
मनहिं दुलहा बने आप रघुनाथजी,
ज्ञान के मौर सिर बांधि लीता।।
प्रेम-बारात जब चली है उमंगिकै,
छिमा बिछाय जनबांस दीता।
भूप अहंकार के मान को मर्दिक,
थीरता-धनुष को जाय जीता।।
सारी राम की कथा इन थोड़े से शब्दों में आ गई। सारा रामचरितमानस। तुलसीदास को महाकाव्य लिखना पड़ा है। पूरा महाकाव्य पलटू की इन थोड़ी सी पंक्तियों में आ गया। बाकी सब प्रतीक-कथाएं हैं। बाकी सब व्याख्याएं हैं; समझाने की बातें हैं। सार की बात आ गई। सील की अवध! कहते हैं: अयोध्या, जहां राम जन्मे और जीए, जहां राम रहे और राजा बने। कौन सी अयोध्या की बात हो रही है? वह जो बाहर अयोध्या है, उसकी बात हो रही है? तो चूक जाओगे। फिर जाकर सिर पटक आना अयोध्या नगरी में, कर आना तीर्थयात्रा--और कहीं न पहुंचोगे। जेब खाली करके लौट आओगे; आत्मा भरी हुई नहीं लौटेगी। जो पास था वह भी गंवा आओगे; लाओगे कुछ भी नहीं। इतना सस्ता थोड़े ही है, कि खरीद ली टिकट चले अयोध्या। इतना सस्ता थोड़े ही है कि मरते वक्त चले गए और अयोध्या में ही रहने लगे कि वहीं राम की कृपा से तर जाएंगे।
पलटू कहते हैं: ‘सील की अवध।’ अगर सच्ची अयोध्या खोजनी हो तो शील की।
‘शील’ और ‘चरित्र’ दो शब्द समझने जैसे हैं। दोनों का भाषाकोश में एक ही अर्थ है, लेकिन जीवन के कोश में बड़े भिन्न अर्थ हैं। चरित्र कहते हैं आयोजित शील को। और शील कहते हैं स्व-स्पंदित चरित्र को। फर्क भारी है, जमीन-आसमान जितना है। भाषाकोश के धोखे में मत पड़ना। चरित्र कहते हैं: अपने पर जबरदस्ती आरोपित आचरण। तुम्हें कुछ पता नहीं है क्या ठीक है। लोगों ने कहा, यह ठीक है। भय-प्रलोभन में तुम वैसा करने लगे। तुम्हारी अनुभूति से नहीं जन्मा तुम्हारा जीवन। तुम्हारा आचरण तुम्हारी प्रतीति से नहीं उमगा। यह तुम्हारा साक्षात्कार नहीं है।
लोग कहते हैं: क्रोध बुरा है। लोगों ने समझाया है। तुम पैदा हुए थे, तब से समझा रहे हैं कि क्रोध बुरा है। किताबों में लिखा है: क्रोध बुरा है। स्कूलों में सिखाया जा रहा है: क्रोध बुरा है। मंदिरों में समझाया जा रहा है: क्रोध बुरा है। तुम्हारे चारों तरफ एक हवा संस्कार की पैदा की जा रही है कि क्रोध बुरा है। और क्रोधी असम्मानित होता है। अक्रोधी की पूजा है। तुम्हारे अहंकार को फुसलाया जा रहा है कि अगर तुम क्रोध न करोगे तो सम्मानित होओगे और अगर क्रोध करोगे तो अपमानित होओगे। यहीं नहीं, परलोक में भी। परलोक में भी परमात्मा प्रतीक्षा करेगा अगर तुमने क्रोध न किया; तुम्हारे स्वागत को वंदनवार लगा कर स्वर्ग के द्वार पर खड़ा रहेगा। और अगर क्रोध किया तो नरक में दबोचे जाओगे, आग में जलाए जाओगे, शैतान के द्वारा सताए जाओगे।
तो तुम्हें भय दिया जा रहा है, प्रलोभन दिया जा रहा है। तुम्हारे अहंकार को फुसलाया जा रहा है कि क्रोध मत करना। फिर इन सब बातों में तुम पड़ गए और तुमने एक आचरण निर्मित कर लिया। जब क्रोध आया तो दबा दिया। क्रोध आया, पी गए। कहते हैं न क्रोध पी गए! कहां पीओगे? जब कोई चीज पीते हो तो पेट में चली जाती है। जब क्रोध को पी लोगे तो क्रोध पेट में इकट्ठा होगा। जब क्रोध को पी लोगे तो तुम्हारे खून में चला जाएगा। जब क्रोध को पी लोगे तो तुम्हारे हड्डी-मांस-मज्जा में समा जाएगा। जब क्रोध को पी लोगे तो तुम्हारे अचेतन में क्रोध, क्रोध के ज्वालामुखी जलने लगेंगे। ऊपर-ऊपर शांति होगी, भीतर-भीतर आग। तुम दोहरे आदमी हो जाओगे। तुम पाखंडी हो जाओगे। तुम कहोगे कुछ, होओगे कुछ; बोलोगे कुछ, प्रयोजन कुछ और होगा। तुम दो तरह की जिंदगी जीने लगोगे। तुम्हारी जिंदगी झूठी हो जाएगी, अप्रमाणिक हो जाएगी।
जिनको तुम चरित्रवान कहते हो, उनकी जिंदगी अप्रामाणिक होती है। उनकी असली जिंदगी वे जीते ही नहीं। और जो वे जीते हैं, वह नकली होती है। अक्सर मरते वक्त आदमी पाता है: यह मैं किसकी जिंदगी जी लिया? अपनी जिंदगी तो कभी जीया ही नहीं। औरों के इशारों पर चला। औरों ने जो कहा, किया। औरों ने जैसा बताया, वैसा जीया। अपनी जिंदगी तो जीया ही नहीं। यह मैं किसकी जिंदगी जी लिया?
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बहुत लोग मरते वक्त यह अनुभव करते हैं कि जैसे मैं किसी और की जिंदगी जी लिया। जैसे जिंदगी में प्रवेश करते वक्त तुम्हारे हाथ में किसी और का पार्ट लग गया। जो किसी और अभिनेता को करना था, वह भूल से तुम्हारे हाथ पड़ गया और तुमने जिंदगी भर उसी के अनुसार आचरण कर लिया। पछताओगे। बहुत पछताओगे। पछतावे के सिवा हाथ कुछ भी न लगेगा। जिंदगी यूं ही चली जाएगी। जिंदगी में रस नहीं पैदा होगा। जिंदगी में उत्सव नहीं होगा। तुम परमात्मा को धन्यवाद कैसे दे सकोगे? तुम्हारे मन में शिकायत होगी। शिकायत ही शिकायत होगी। तुम्हारे मन में परमात्मा के प्रति क्रोध होगा कि यह कैसी जिंदगी मुझे दी--आया भी और चला भी, और हाथ कुछ भी न लगा! एक फूल न खिला। एक गीत न फूटा। एक बार नाचा नहीं मन भर कर। कहीं कोई सुख, कहीं कोई संगीत न पाया।
कैसे पाओगे? तुम कुछ और बनने की कोशिश में लगे रहे। बनने कुछ आए थे, बनने की कुछ और कोशिश करते रहे।
चरित्र इस जगत में सबसे बड़ा खतरनाक शब्द है। और ध्यान रखना, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि चरित्रहीन हो जाओ।
‘शील’ दूसरा शब्द, समझने जैसा है। शील का अर्थ है: अपने साक्षात्कार से, अपने अनुभव से, अपने बोध से, अपने ध्यान से--अपने जीवन को निर्णीत होने दो। उधार जीवन मत जीओ; अपना जीवन जीओ। क्रोध बुरा है, निश्चित बुरा है। मेरे कहने से तुमने अगर माना तो चरित्र पैदा होगा और तुमने अपने अनुभव से अगर माना तो शील पैदा होगा। और ऊपर से दोनों बातें एक जैसी लगेंगी। शीलवान व्यक्ति और चरित्रवान व्यक्ति एक जैसा लगेगा। और भीतर शीलवान के अपूर्व शांति होगी और चरित्रवान के सिर्फ क्रोध होगा। भीतर एक के आग होगी और एक के भीतर कमल खिलते होंगे। अपूर्व भेद है, जमीन आसमान का भेद है, एक के भीतर नरक और एक के भीतर स्वर्ग होगा, इतना भेद है। और ऊपर से दोनों एक जैसे लगेंगे।
कई बार तो ऐसा हो जाएगा कि चरित्रवान आदमी ज्यादा मूल्यवान मालूम पड़ेगा--शीलवान से भी। क्योंकि चरित्रवान आदमी तो सिर्फ पाखंड कर रहा है। वह पाखंड करने में कुशल हो जाएगा, बहुत कुशल हो जाएगा। अभ्यास, अभ्यास, अभ्यास--आदमी कुशल हो जाता है। शीलवान आदमी तो कोई अभ्यास नहीं कर रहा है। वह तो प्रतिपल जीएगा उससे कभी भूल-चूक भी हो सकती है। चरित्रवान से भूल-चूक होती ही नहीं। भूल-चूक का कोई कारण ही नहीं है। उसके पास तो मुर्दा एक आचरण है, जिसको दोहराए चले जाना है।
तुमने कभी मशीनों को भूल करते देखा? मशीनें भूल नहीं कर सकतीं। मशीन मशीन है; भूल का उपाय कहां! भूल तो आदमी की गरिमा है, आदमी का गौरव है; सिर्फ आदमी कर सकता है, मशीन नहीं कर सकती भूल।
तो जिस आदमी ने चरित्र को यांत्रिक बना लिया है, उससे तो भूल होती ही नहीं। शीलवान से शायद कभी भूल हो जाए, क्योंकि शीलवान को प्रतिपल तय करना होता है: क्या करूं? पल खड़ा हो जाता है, तब शीलवान को उसकी चुनौती स्वीकार करके उत्तर देना होता है। चरित्रवान तो पहले से उत्तर तैयार रखता है। उसे उत्तर बनाना नहीं पड़ता। उसे उत्तर खोजना नहीं पड़ता। उसका उत्तर तो रेडीमेड है। प्रश्न के पहले ही उत्तर है। तुमने प्रश्न पूछा ही नहीं, उसका उत्तर तो तैयार ही है। तुम न भी पूछते, तो भी तैयार था। तुमने पूछा, वह तत्क्षण दे देगा जवाब। उसके पास तो बंधी लकीरें हैं।
चरित्रवान तो ऐसे है जैसे कि मालगाड़ी के डिब्बे पटरियों पर दौड़ते रहते हैं--उन्हीं पटरियों पर बार-बार। शीलवान ऐसे है जैसे सागर की तरफ बहती हुई सरिता। कुछ पक्का नहीं है, कौन सी दिशा में बहेगी, कौन सा मार्ग चुनेगी, कब मार्ग बदल लेगी--कुछ पक्का नहीं है। लोहे की पटरियां नहीं बिछी हैं नदी के लिए और आगे कोई झंडा लेकर नहीं चल रहा है कि मेरे पीछे-पीछे आओ। नदी अपनी मौज से बहती है। नदी अपनी गति निर्धारित करती है। नदी प्रतिपल तय करती है; जहां सर्वाधिक सुगमता होती है, वहां से बहती है। नदी का कोई पूर्व निर्धारित पथ नहीं है। नदी पथ-हीन है। फिर भी सागर तो पहुंचती है, इसलिए कोई पथ तो है। लेकिन पथ प्रतिपल निर्धारित होता है।
शील नदी जैसा है; चरित्र रेल की पटरियों जैसा। चरित्रवान व्यक्ति जड़ होता है, मुर्दा होता है, यंत्रवत होता है। उससे भूल नहीं होती, लेकिन वह मनुष्य ही नहीं है। शीलवान से शायद कभी भूल हो, लेकिन शीलवान की भूल भी गौरवशाली है। भूल एक दफा होगी तो उससे और नया अनुभव होगा। चरित्रवान से या तो भूल बिलकुल नहीं होती; या अगर भूल होती है तो बार-बार वही-वही होती है, क्योंकि चरित्रवान के पास कोई बोध तो नहीं है। अगर उसने एक बार दो और दो पांच जोड़ लिए, तो वह जिंदगी भर दो और दो पांच जोड़ता जाएगा। शीलवान से भूल होती है; लेकिन एक भूल एक ही बार होती है। उससे दुबारा वही भूल नहीं होती। अनुभव से सीखता है शीलवान। चरित्रवान तो अनुभव से सीखता ही नहीं। सीखने से तो चरित्रवान डरता है। डरता है कि कहीं सीखने में कोई ऐसी बात न आ जाए कि चरित्र के खिलाफ चली जाए। फिर क्या करोगे? फिर किसकी मानोगे? अपनी मानोगे कि गुरुजनों की? वह तो अपने से डरता है। वह अपने को काटता रहता है; गुरुजन जो कहते हैं मानता चला जाता है। ऐसे एक मुर्दा जीवन पैदा होता है।
सील की अवध,...
पलटू कहते हैं: शील पैदा हो; चरित्र नहीं। बोध से जन्मे तुम्हारा जीवन। तुम प्रतिपल जागे हुए जीओ। तुम जीवन में जो भी करो, वह प्रतिक्रिया न हो; वह क्रिया हो। क्रिया अर्थात उसी क्षण जीवन को देख कर निकले। उत्तर जीवंत हो; बंधा-बंधाया, पिटा-पिटाया न हो, तैयार न हो। तुम दर्पण जैसे रहो; जो सामने आए उसकी तस्वीर बने।
चरित्रवान आदमी तस्वीर जैसा है; कोई भी सामने आ जाए, कुछ फर्क नहीं पड़ता, उसकी तस्वीर तो बनी ही हुई है। शीलवान आदमी दर्पण जैसा है; जो सामने आता है उसकी तस्वीर बनती है; जैसा सामने आता है, वैसी ही तस्वीर बनती है। शीलवान खाली होता है, शून्य होता है।
शून्य से जन्मता है शील। बोध से जन्मता है शील। और शील जीवन को स्वतंत्रता देता है।
सील की अवध,...
अगर अयोध्या ही जाना हो--पलटू कहते हैं, तो शील की अयोध्या जाना।
...सनेह का जनकपुर,
और अगर जनकपुर जाना हो, जहां सीता जन्मी--तो स्नेह का, तो प्रेम का।
स्नेह और प्रेम में भी थोड़ा सा फर्क है। उसे भी खयाल में ले लेना--स्नेह और प्रेम। प्रेम में थोड़ी सी वासना मालूम पड़ती है। स्नेह में कोई वासना नहीं रह जाती। प्रेम में थोड़ा सा दंश रहता है--वासना का, मोह का, भोग का। स्नेह शुद्ध प्रेम है। प्रेम में थोड़ी सी छाया पड़ती है देह की। स्नेह में जरा सी भी छाया नहीं पड़ती। जब प्रेम परिपूर्ण रूप से पवित्र होता है, तब हम उसे स्नेह कहते हैं।
हमारी भाषा समृद्ध है। दुनिया की किसी भाषा में प्रेम के लिए इतने शब्द नहीं हैं, और इतने बारीक भेदों को बताने वाले शब्द नहीं हैं। अंग्रेजी में तो एक ही शब्द है: लव। तो किसी भी चीज से प्रेम हो, तो उसी एक शब्द का उपयोग करना पड़ेगा। तो लोग कहते हैं: हमें आइस्क्रीम से बहुत प्रेम है; कि हमें हॉकी से बहुत प्रेम है; कि हमें शराब से बहुत प्रेम है; कि हमें परमात्मा से बहुत प्रेम है। अब आइस्क्रीम और परमात्मा दोनों के लिए एक ही शब्द उपयोग करना पड़े, यह भाषा जरा दरिद्र हो गई। हमारी भाषा समृद्ध है। हमारे पास बहुत शब्द हैं। उनमें ये दो शब्द महत्वपूर्ण हैं।
प्रेम का अर्थ होता है: दूसरे से कुछ पाने की आकांक्षा छिपी है; प्रकट हो अप्रकट, मगर दूसरे से कुछ पाना है। स्नेह का अर्थ होता है: दूसरे को सिर्फ देना है, पाने की कोई आकांक्षा नहीं है। पाने की रत्ती भर आकांक्षा नहीं है। सिर्फ दान है। जब प्रेम सिर्फ दान बन जाता है, तो तुम्हारे जीवन में अपूर्व ज्योति जलेगी। तुम्हारे जीवन में अपूर्व सुगंध का आविर्भाव होगा। तुम एक नये छंद से भर जाओगे। अभी तो जीवन में एक ही दौड़ है: कैसे पा लूं, कैसे लूट लूं? एक तो जीवन का ढंग है कि कैसे सबसे छीन लूं। यह संसारी का ढंग है। एक और दूसरा ढंग है जीवन का--ठीक विपरीत--जिसको मैं संन्यासी का ढंग कहता हूं: कैसे दे दूं! कैसे बांट दूं, जो भी मेरे पास है!
जिस दिन तुम्हारे भीतर बांटने वाले का जन्म होता है उस दिन तुम्हारे भीतर स्नेह का जन्म होता है। गुरु का शिष्य के प्रति जो प्रेम होता है, उसको हम स्नेह कहते हैं। मां का बेटे के प्रति जो प्रेम होता है, उसको हम स्नेह कहते हैं। दान ही है वहां। धन्यभाग है कि दूसरा स्वीकार कर लेता है। लेने की कोई आकांक्षा नहीं है। जहां लेना आया वहां विकृति आई। जहां लेना आया, वहां अग्नि की लपट शुद्ध न रही, धुएं से भर गई।
खयाल तुमने किया, जब हम लकड़ी जलाते हैं, आग पैदा होती है, तो धुआं पैदा होता है! लेकिन तुम यह जानते हो कि लकड़ी से धुआं पैदा नहीं होता; लकड़ी में छिपे हुए पानी से पैदा होता है। लकड़ी सूखी हो, बिलकुल सूखी हो तो फिर धुआं पैदा नहीं होता। जितनी गीली हो उतनी ही धुंध आती है। ऐसे ही प्रेम से कभी जीवन में धुआं पैदा नहीं होता। प्रेम के साथ जो वासना लगी है, वासना की जो आर्द्रता है, गीलापन है, उसी से धुआं पैदा होता है। जब वासना की सारी आर्द्रता सूख जाती है, जब लकड़ी बिलकुल सूखी होती है, तब जरा भी धुआं पैदा नहीं होता। प्रेम से बड़ा धुआं पैदा होता है। इसलिए प्रेमियों को तुम अक्सर लड़ते पाओगे, झगड़ते पाओगे, एक-दूसरे पर कब्जा करते पाओगे, ईर्ष्या से भरे पाओगे। जलन, द्वेष, घृणा सब पैदा होता है, क्रोध। प्रेम के साथ हजार तरह की बीमारियां चलती हैं। स्नेह के साथ कोई बीमारी नहीं।
तो तुम ऐसा समझ लो: बीमार स्नेह का नाम प्रेम है। अस्पताल में पड़े स्नेह का नाम प्रेम। स्वस्थ हो गए प्रेम का नाम स्नेह। घर लौट आए प्रेम का नाम स्नेह। कोई रोग न रहा; निरोग जब हो गए। अब सिर्फ देने में मजा है। और देने में अपूर्व मजा है। मांगने में भिखमंगापन है; मजा हो कैसे सकता है? कौन आनंद को उपलब्ध हो सकता है भिखारी होकर? जब भी तुमने मांगा है, तभी तुमने भीतर पाया होगा कि तुम दीन हो गए। जब भी हाथ फैलाए, तभी दीनता आ गई है। और दीनता में कोई कैसे खुश हो सकता है? चाहे कोई हीरा मिल जाए तुम्हें, दीनता के द्वारा मांग कर, हीरे की उतनी खुशी नहीं होगी, जितनी तुम भीतर पाओगे कि दीनता का दुख फैल गया है। छोटा होना पड़ा, भिक्षापात्र लेना पड़ा, हाथ फैलाने पड़े। हाथ फैलाने में सुख नहीं हो सकता। मौज तो तब घटती है, जब तुम दे पाते हो। और जब तुम ऐसे दे पाते हो कि धन्यवाद भी नहीं मांगते। और मांगना तो दूर, तुम रुकते भी नहीं इस बात के लिए भी कि दूसरा धन्यवाद भी दे। इतना ही नहीं, उलटे तुम धन्यवाद देते हो।
देखते हैं, हिंदुस्तान में एक रिवाज है! अगर बौद्ध भिक्षु को भोजन के लिए बुलाया जाता था या ब्राह्मण को अगर भोजन के लिए बुलाया जाता था, तो पहले उसे भोजन खिलाते, उसे कुछ दान देते, और दान के बाद दक्षिणा देते। दान का मतलब हुआ: जो हमारे पास है, देने में हमें मजा आ रहा है। और दक्षिणा का अर्थ होता है कि आपने स्वीकार किया है, इनकार नहीं किया, उसका धन्यवाद दक्षिणा से देते हैं। पहले दान, फिर दक्षिणा। दक्षिणा का मतलब होता है: आपकी बड़ी कृपा कि आपने स्वीकार कर लिया। अगर आप इनकार कर देते तो...? आप कह देते कि नहीं--तो?...तो दान में तो दिया और दक्षिणा में तुमने लिया, इसका धन्यवाद है। यह बड़ी अपूर्व बात है। जिसने लिया है, उससे धन्यवाद की अपेक्षा नहीं है। जिसने दिया है, वही धन्यवाद दे रहा है। स्नेह का यही अर्थ होता है।
सील की अवध, सनेह का जनकुपर,
अयोध्या चाहिए तो शील को जन्माओ। और जनकपुर बनना है, जिसमें सीता का जन्म हो सके, तो स्नेह को जन्माओ। राम का जन्म होगा अगर शील हो। सीता का जन्म होगा अगर स्नेह हो।
राम और सीता की कथा में तुमने एक बात देखी? राम अपने शील के लिए सब खोने को तैयार हैं; सीता को भी खोने के लिए तैयार हैं। और सीता अपने स्नेह के कारण सब देने को तैयार है; अपने को भी देने को तैयार है। जरा भी ना-नुच नहीं है। सीता के मन में जरा भी शिकायत नहीं है कि राम ने उसे जंगल में फेंक दिया है। जंगल में भी बैठ कर राम का ही स्मरण करती है। जंगल में बैठे भी राम के ही स्मरण में डूबी है। सीता है स्नेह; राम है शील। इसलिए राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा है। जो पुरुष के भीतर उत्तम से उत्तम पैदा हो सकता है, वह राम के भीतर पैदा हुआ है, इसलिए पुरुषोत्तम कहा।
लेकिन सीता पर उतना विचार नहीं हुआ है, जितना राम पर विचार हुआ। पलटू ने ठीक किया, दोनों को एक ही वचन में याद किया। और ध्यान रखना, शील का बहुत मूल्य है, लेकिन स्नेह से ज्यादा नहीं। स्नेह का मूल्य ज्यादा है क्योंकि शील फिर भी एक व्यवस्था है। स्नेह एक बड़ी आंतरिक क्रांति है। पुरुष के लिए आसान है शील में डूब जाना। स्त्री के लिए आसान है स्नेह में डूब जाना। स्त्रियों ने जितना स्नेह जगत को दिया है उतना पुरुषों ने कभी नहीं दिया है पुरुष नहीं दे पाए; वह उनकी क्षमता नहीं है। पुरुषों ने शील दिया है जगत को; वैसा स्त्रियां नहीं दे पाईं। वह उनकी क्षमता नहीं है। और जिस व्यक्ति में शील और स्नेह दोनों का मिलन हो जाए, वहां सोने में सुगंध आ जाती है; वहां राम और सीता दोनों आ गए।
तुमने खयाल किया, हमने सदा ही जब भी याद किया अपने सत्पुरुषों को, तो हमने स्त्रियों को पहले रखा! हम कहते हैं: सीता-राम। हम कहते हैं: राधा-कृष्ण। स्त्री को पहले रखा। क्योंकि स्त्रैण हृदय का जो मूल्य है, स्नेह का जो मूल्य है, वह शील से ज्यादा है। शील में तो कुछ न कुछ सोच-विचार चलता है; स्नेह में कोई सोच-विचार नहीं। शील में तो मस्तिष्क कुछ काम करता है। स्नेह में सिर्फ हृदय ही धड़कता है। स्नेह हार्दिक है।
सील की अवध, सनेह का जनकपुर,
सत्त की जानकी, ब्याह कीता।
और अगर ब्याह करने की ही उत्सुकता हो, अगर इस जगत में कहीं भांवर ही डालनी हो, तो फिर सत्य के साथ भांवर डालना। और सब भांवरे काम नहीं पड़तीं। और सब भांवरें कारागृह में ले जाती हैं। और सब भांवरें तुम्हें कैदी बनाती हैं, गुलाम बनाती हैं। केवल सत्य ही मुक्त करता है।
जीसस का प्रसिद्ध वचन है: सत्य मुक्त करता है। ट्रूथ लिबरेट्‌स। और कुछ भी मुक्त नहीं करता। अगर बंधना ही हो तो उससे बंधना जो मुक्त करे। यह हुआ इस सूत्र का अर्थ। उससे मत बंध जाना, जो और बांध ले। वैसे ही तुम बंधे हो, ऐसी चीज से मत बंध जाना जो तुम्हें और बांध ले। वैसे ही काफी बंधे थे; अब और बंधन की जरूरत नहीं है। अब तो कुछ ऐसी चीज का साथ पकड़ना, जो तुम्हें मुक्त करे।
इसलिए गुरु को हम सदगुरु कहते हैं। सदगुरु का अर्थ होता है: सतगुरु। जिसके भीतर सत्य विराजमान हुआ है। और उसके माध्यम से तुम मुक्त हो सकोगे।
सत्त की जानकी, ब्याह कीता।
मनहिं दुलहा बने आप रघुनाथजी,
और अगर दूल्हा ही बनना हो तो भीतर जो छिपा हुआ ‘आप’ है, वह जो आत्मा है, उसको ही बना लेना। सत्य की जानकी से विवाह कर लेना, दूल्हा अपनी आत्मा को बना लेना।
मनहिं दुलहा बने आप रघुनाथजी,
ज्ञान के मौर सिर बांधि लीता।
ज्ञान का मोरमुकुट बांध लेना। दूल्हे के सिर पर मोर बांधते हैं--वह ज्ञान का हो; वह ध्यान का हो; वह बोध का हो, जागृति का हो।
प्रेम-बारात जब चली है उमंगिकै,
और जब यह अपूर्व अभियान शुरू हो, यह प्रेम की बरात निकले, तो उमंग से निकले। यह उदास-उदास न हो। बरात और उदास-उदास! लेकिन तुम अपने तथाकथित साधु-संन्यासियों को देखो; वे ऐसे लगते हैं जैसे किसी के मरने में सम्मिलित हुए हों। मातमी! जैसे किसी को मरघट भेजने जा रहे हों। बराती तो नहीं लगते। और प्रभु के साथ अगर जुड़ना हो तो बराती जैसी उमंग चाहिए। नाचते, गाते, आनंद अहोभाव से! रोते-रोते नहीं। अगर रोओ भी तो तुम्हारे आंसू आनंद के हों, उदासी के नहीं। तुम्हारे पैरों में नृत्य हो। तुम्हारे जीवन में उमंग हो, उत्साह हो, ऊर्जा हो। ऐसी बरात बनाना।
प्रेम-बारात जब चली है उमंगिकै,
छिमा बिछाय जनबांस दीता।
और अगर कहीं ठहराना हो इस प्रेम की बरात को--तो क्षमा में। इसका कहीं जनवास तो करना ही पड़ेगा--तो क्षमा में।
उदासी न हो, उदासीनता न हो, उपेक्षा न हो--यह भक्ति का सार-सूत्र है। उदास आदमी परमात्मा से टूट जाता है। उदासी से कैसे जुड़ोगे? तुमने देखा, जब कोई आदमी उदास होता है तो उससे संवाद करना तक मुश्किल हो जाता है! अगर उदास आदमी के पास तुम जाओ तो तुम पाओगे उसके चारों तरफ एक दीवाल है, जिसके भीतर प्रवेश करना कठिन है। उदास आदमी अपने में बंद हो जाता है। उदास संकोच लाता है। प्रफुल्लित आदमी खुल जाता है; जैसे कली खिल गई; जैसे बीज फूट पड़ा, अंकुर निकल आया। प्रसन्न आदमी से संबंध बनाना बड़ा सरल होता है, बड़ा सरल होता है! जो आदमी मुस्कुरा रहा है, उससे दोस्ती बनानी बड़ी आसान होती है, उससे संवाद करना बहुत आसान होता है। लंबे चेहरे, उदास चेहरे, गंभीर चेहरे--उनके साथ संबंध बनाना कठिन हो जाता है; उनसे सेतु नहीं बनता। जब यह साधारण हालत है, तो तुम उस हालत को तो सोचो, जब तुम परमात्मा से मिलने चले। उदास चेहरे लेकर जाओगे, मिलन नहीं हो सकेगा। तुम्हारा उदास चेहरा ही बाधा बन जाएगा। नाचते हुए जाओ। जो भी गया है, नाचता हुआ गया है। कभी-कभी नाच प्रकट होता है, कभी-कभी अप्रकट होता है--यह बात दूसरी है। बुद्ध भी नाचते हुए ही गए हैं। हां, यह बात सच है कि वे मीरा जैसे प्रकट नहीं नाच रहे हैं; उनका नृत्य बहुत आंतरिक है। शरीर थिर है; भीतर ध्यान नाच रहा है। आंतरिक है नृत्य। मीरा अंतर-बाहर दोनों में नाच रही है। और अंतर-बाहर दोनों में नाच सको तो फिर कंजूसी क्या करनी; दोनों में ही नाचना। अगर अड़चन ही हो बाहर नाचने की, तो अंदर तो नाचना ही। लेकिन तुम्हारे केंद्र पर तो नृत्य की घटना घटनी चाहिए।
प्रेम बारात जब चली है उमंगिकै,
छिमा बिछाय जनबांस दीता।
तुम्हारे भीतर प्रेम का आनंद उमगता रहे और तुम्हारे चारों तरफ क्षमा की बरसा होती रहे। तुम्हारे भीतर से कभी भी क्रोध न उठे। वे जो तुम्हारे नुकसान करने वाले हैं, जो तुम्हारे शत्रु हैं, उनके प्रति भी प्रेम का भाव ही उठे--तो क्षमा।
भूप अहंकार के मान को मर्दिक।
और एक अहंकार है, जिसके मान का मर्दन कर देना है। एक अहंकार है, जो तुम्हारे और परमात्मा के बीच पर्दा बना हुआ है। हर प्रेम में अहंकार का पर्दा ही रुकावट डालता है।
भूप अहंकार के मान को मर्दिक,
थीरता-धनुष को जाय जीता।
थीरता! थिरता अकंप चैतन्य की दशा! जिसको कृष्ण ने स्थिति-प्रज्ञ कहा है। जब चैतन्य बिलकुल थिर हो जाता है, कोई कंपन नहीं उठते। कंपन का अर्थ होता है: मांग, वासना, इच्छा। कंपन का अर्थ होता है: दौड़। कंपन का अर्थ होता है: असंतोष। जैसा हूं वैसा काफी नहीं; कुछ और चाहिए--धन चाहिए, पद चाहिए, प्रतिष्ठा चाहिए। कंपन का अर्थ होता है: कोई भी मुझे डुला जाता है। कोई आदमी स्तुति कर गया और तुम एकदम फूल कर कुप्पा हो गए।
मैंने सुना है, एक राजनेता जंगल में भटक गया। मनुष्यों को खा जाने वाले आदमखोरों ने उसे पकड़ लिया। वे उसे पकड़ कर अपने प्रधान के पास ले गए। प्रधान ने तत्क्षण लोगों से कहा: उसकी जंजीरें छोड़ो, उसे बड़े अच्छे आसन पर बिठाया और उसकी बड़ी प्रशंसा की। उसके अनुयायी तो बड़े हैरान हुए। अन्य आदमखोरों ने कहा: आप यह क्या कर रहे हैं? हम भूखे हैं और कई दिन से आदमी खाने को नहीं मिला और बिठा कर इसकी प्रशंसा कर रहे हैं। जल्दी इसका खातमा किया जाए और भोजन तैयार किया जाए।
उसने कहा: नहीं! जरा ठहरो। मैं राजनेताओं को जानता हूं। एक बार गणतंत्र उत्सव में भाग लेने मैं दिल्ली भी गया था। मैं राजनेताओं को जानता हूं। तुम जरा ठहरो।
उन्होंने कहा: हम समझे नहीं, बात क्या है?
उसने कहा कि बात यह है कि पहले इसकी स्तुति करने दो, यह फूल कर कुप्पा हो जाएगा। जब यह कुप्पा हो जाएगा तो ज्यादा लोगों के पेट भरेंगे। पहले इसे फुलाने दो। तुम जानते नहीं राजनेता को। अभी खाओगे तो यह दुबला-पतला, सूखा-साखा, किसी मतलब का नहीं। जरा पहले फूल जाने दो। पहले इसमें खूब हवा भरने दो। फिर इसके बाद खाना। तो सबका पेट भरेगा। भूखे हो सब, मुझे मालूम है।
कोई तुम्हारी स्तुति कर जाता है, तुम फूलने लगते हो। और कोई तुम्हारी निंदा कर जाता है--और पंक्चर कर गया और एकदम हवा निकल जाती है। ऐसी छोटी-छोटी बातें अगर तुम्हें आंदोलित करती हैं तो तुम कभी परमात्मा को उपलब्ध न हो सकोगे। उसे पाने के लिए तो तुम्हारे भीतर एक ऐसी परम शांति चाहिए, जिसको कोई चीज खंडित न करती हो--न स्तुति, न निंदा; न सफलता, न असफलता; न जीवन, न मृत्यु। कुछ मिल जाए तो ठीक; कुछ खो जाए तो ठीक। जिसके भीतर का ठीकपन कभी नष्ट ही न होता हो। जिसके भीतर का ठीकपन बना ही रहता हो। इसको जैनों ने सम्यकत्व कहा है। ठीक शब्द उपयोग किया है। सम्यकत्व का अर्थ होता है: ठीकपन। ठीक-ठीक जो बना ही रहता है भीतर। जिसके भीतर के ठीकपन में जरा भी भेद नहीं पड़ता। जो धीर है, थिर है, अकंप है।
थीरता-धनुष को जाय जीता।
यह पूरी रामकथा आ गई। और बड़े प्यारे ढंग से आ गई। यह सार आ गया। शेष रामकथा तो इसी सार के आधार पर बनी हुई कहानी है। यह निचोड़ है। यह इत्र है हजारों फूलों का। राम की कथा तो बड़ा बगीचा है; उसमें बहुत फूल हैं। पलटूदास ने तो सबको निचोड़ लिया। और थोड़ा सा इत्र की एक बोतल में बंद कर दिया। ये बहुमूल्य हैं बातें।
इन सबका सार हुआ, दो बात खयाल रखना: तुम्हारे भीतर शील की अयोध्या हो तो राम का जन्म होगा। राम को कितने लोग खोजते हैं और नहीं खोज पाते। क्यों नहीं खोज पाते? अयोध्या तो तुम बनाते ही नहीं--और राम को खोजने निकल पड़े! अयोध्या हो, तो ही राम आते हैं। अयोध्या में ही जनमते हैं। तो अयोध्या निर्मित करो। ऐसे राम-राम चिल्लाने से कुछ भी न होगा। ऐसे राम-राम की रट लगाने से कुछ भी न होगा। योग्यता तो अर्जित करो। पात्र तो निर्मित करो। अमृत बरसेगा, निश्चित बरसेगा। जब भी कोई पात्र निर्मित हो गया है, अमृत बरसा ही है, निरपवाद रूप से बरसा है। लेकिन पात्रता तो निर्मित करो। अयोध्या तो बनो; राम तो तैयार है जन्म लेने को तुम्हारे भीतर। आतुर खड़े हैं, कि कब तुम राजी हो जाओ और कब वे प्रवेश कर जाएं।
तुम भी खूब शोरगुल मचा रहे हो राम-राम का, लेकिन पात्रता बनाते ही नहीं। मेहमान को बुलाते हो, ठहराने की जगह ही नहीं है। खुद रास्ते पर बैठे हो। मेहमान को बुला रहे हो। और छोटे-मोटे मेहमान को भी नहीं बुलाते, राम को बुलाते हो। पहले कुछ पात्रता तो बनाओ। बुलाने के पहले तैयारी तो कर लो। अतिथि तो आएगा--आतिथेय तो बन जाओ। मेहमान आए, उसके पहले मेजबान को तो तैयार कर लो। घर मेहमान आ जाए, दरी भी बिछाने को नहीं पाओगे। तब बड़ी भद्द होगी, बड़ी फजीहत होगी। तुम्हें फजीहत से बचाने के लिए राम तुम्हारी सुन कर आते नहीं।
अयोध्या बनो। राम का जन्म होगा। राम का ही जन्म हो, तो यह अधूरी बात है। सीता का भी जन्म साथ-साथ होना चाहिए। अगर राम का ही जन्म हो, तो तुम आधे ही मनुष्य होओगे--पुरुष मात्र। और तुम्हारे भीतर, वह सब जो स्त्रैण है--और जो स्त्रैण है, बहुमूल्य है--उसका अभाव रहेगा। जो परम पुरुष है, वह स्त्री में भी जो श्रेष्ठ है, अपने में समाहित कर लेता है; और पुरुष में जो श्रेष्ठ है, उसे समाहित कर लेता है। जो परम स्त्री है, उसमें भी दोनों समाहित हो जाते हैं। परम तो समन्वय है। परम तो आखिरी समन्वय है। वहां सभी स्वर एक संगीत बन जाते हैं। जो आखिरी दशा है समाधिस्थ की, वहां न तो कोई पुरुष होता है न स्त्री होता। वहां न कोई राम होता, न वहां कोई सीता होता। वहां तो सीता-राम, वहां तो दोनों का सम्मिश्रण हो जाता है, मेल हो जाता है। वहां तो गंगा-यमुना का मिलन हो जाता है। और यह बड़े मजे की बात है। वहां अगर दो का ही मिलन होता तो भी ठीक था, वहां तीन नदियों का मिलन होता है; वहां संगम बनता है।
यह बात सोचने जैसी है। हमारी कथाएं कहती हैं कि प्रयाग है तीर्थराज; वह तीर्थों का तीर्थ है। वहां तीन नदियां मिलती हैं--गंगा, यमुना, सरस्वती। दो दिखाई पड़ती हैं, एक दिखाई नहीं पड़ती। एक अदृश्य है; दो दृश्य हैं। यह पौराणिक कथा नहीं है; यह तुम्हारे भीतर की आखिरी घटना की सूचना है। तुम्हारे भीतर दो तो दृश्य नदियां हैं--पुरुष और स्त्री। ये दोनों जिस दिन मिलेंगी, उस दिन तीसरी परमात्मा की अदृश्य नदी। वह दिखाई नहीं पड़ती; वह भी तत्क्षण सम्मिलित हो जाती है। जिस दिन तुम्हारे भीतर सीता-राम का जन्म हो गया, उस दिन परमात्मा की नदी, उस ब्रह्म का भी अदृश्य रूप तुममें प्रवेश कर जाता है, प्रवाहित हो जाता है।
इसे ऐसा ही समझो: न तो पुरुष बच्चे को जन्म दे सकता है और न स्त्री। जब पुरुष और स्त्री का संभोग होता है, तब किसी क्षण में जीवन प्रवेश करता है, वह अदृश्य धारा है। साधारण जगत में भी रोज वही घटता है, मगर तुम देखते नहीं। तुम तो आंख होते अंधे हो; कान होते बहरे हो। कोई पुरुष बच्चे को जन्म नहीं दे सकता। कोई स्त्री बच्चे को जन्म नहीं दे सकती। स्त्री-पुरुष के मिलन पर कहीं अज्ञात लोक से जीवन प्रवेश करता है। वह जीवन दिखाई नहीं पड़ता कहां से आता है, कैसे आता है; मगर ये दो मिलते हैं और तीसरा मिल जाता है।
जैसा शरीर के जीवन में घटता है, वैसा ही अंतिम आत्मा के जीवन में भी घटता है। तुम्हारे भीतर राम और सीता का मिलन होता है और ब्रह्म की धारा उसमें प्रवाहित हो जाती है। वह परम जीवन है। वही घटना रोज घट रही है जब एक बच्चे का जन्म होता है। अगर तुम जीवन को आंखें खोल कर देखने लगो तो किन्हीं शास्त्रों में जाने की कोई भी जरूरत नहीं है। यहां सारी बात लिखी ही पड़ी है। वेद में नहीं है, कुरान में नहीं है, बाइबिल में नहीं है। यहां सारी बात चारों तरफ लिखी ही पड़ी है। जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं में शास्त्रों का शास्त्र छिपा है।
हर बच्चा त्रिवेणी है और हर समाधिस्थ परमहंस भी त्रिवेणी है। और इसलिए हम यह भी कहते हैं कि जब कोई परमहंस दशा को उपलब्ध हो जाता है तो उसका दुबारा जन्म हुआ; वह द्विज हुआ; वह फिर से बालवत हो गया। उसने अपने को जन्म दे दिया।
यह राम और सीता की बात थोड़ी और भी समझ लेनी जरूरी है। पश्चिम में शरीरशास्त्र के संबंध में बहुत खोजें हो रही हैं। तो वे कहते हैं: मनुष्य के मन के दो हिस्से हैं। आधा हिस्सा पुरुष का, आधा हिस्सा स्त्री का। प्रत्येक के भीतर। प्रत्येक के भीतर एक मन नहीं है; प्रत्येक के भीतर दो मन हैं। एक स्त्रैण मन है, एक पुरुष मन है। वह जो पुरुष मन है, तर्क करता है, विचार करता है, गणित करता है, विज्ञान की खोज करता है, विवाद करता है--आक्रामक है। वह जो स्त्रैण मन है, प्रेम करता है, अनुभव करता है; गीत उसमें पैदा होते हैं, तर्क नहीं; भाव की उमंगें उठती हैं, विचार नहीं; नाच उससे आता है, गणित नहीं; काव्य उससे पैदा होता है, विज्ञान नहीं। और जब इन दोनों मनों का मेल हो जाता है, जब ये दोनों मन एक-दूसरे में युग-नद्ध हो जाते हैं, जब ये दोनों मन एक-दूसरे में घुलमिल जाते हैं, एक हो जाते हैं--तब जो पैदा होता है वही धर्म है।
तीन शास्त्र हैं जगत में--विज्ञान, कला और धर्म; साइंस, आर्ट, रिलीजन। विज्ञान पुरुष की खोज है। काव्य स्त्री की खोज है। धर्म दोनों के मिलन से घटित होता है। मगर जब दो मिलते हैं, तो तीसरा भी आ मिलता है; वह अदृश्य है। वह चुपचाप आ जाता है। वह कब आ जाता है दो के मिलन पर, पता भी नहीं चलता। इधर दो मिले कि तुम अचानक तीसरे को मौजूद पाते हो। जहां दो हैं, वहां तीसरा भी है। इजिप्त की एक बहुत पुरानी किताब है, जो कहती है: जहां दो हैं वहां तीसरा भी है। और दो गौण हो जाते हैं, जहां तीसरा है; क्योंकि तीसरा परम है; वह आत्यंतिक है।
तुम्हारे भीतर मस्तिष्क और हृदय का मेल होना चाहिए। मस्तिष्क--पुरुष; हृदय--स्त्री। तुम्हारे भीतर अनुभूति और विचार का मेल होना चाहिए। तर्क और भाव का मेल होना चाहिए। तुम्हारे भीतर इनका विवाद चलता रहे तो तनाव होगा। तुम दो खंडों में बंटे रहोगे। और जब तक तुम दो खंडों में बंटे रहोगे, तब तक तुम्हारे भीतर एक तरह की कलह चलती रहेगी, चैन नहीं होगी।
लोग इतने बेचैन क्यों हैं? उनके भीतर दो तरफ यात्रा चल रही है--आधे पश्चिम जा रहे हैं; आधे पूरब जा रहे हैं; एक हिस्सा इधर जा रहा है, दूसरा हिस्सा उधर जा रहा है। तुम रोज अनुभव करते हो कि कुछ भी निर्णय करने जाओ, आधा मन कहता है कर लो, आधा कहता है मत करो। छोटा निर्णय हो कि बड़ा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कौन सी फिल्म देखने जाएं आज? आधा मन कहता है इस टॉकीज चले जाओ, आधा मन कहता है उस टॉकीज चले जाओ। क्षुद्र सी बातों में...कौन सी साड़ी पहन कर आज निकलना है। स्त्रियों को इतनी देर क्यों लग जाती है साड़ी के भंडार के सामने खड़े हुए? पतिदेव हॉर्न बजा रहे हैं और स्त्री अपनी साड़ियां निहार रही है। समझ ही नहीं पड़ता कौन सी पहने! एक निकालती है, दूसरी निकालती है; वह भी नहीं जंचती। एक आधी पहन कर उतार डालती है।
मन सदा द्वंद्व में है--यह करूं, वह करूं! यह-वह का द्वंद्व है: क्योंकि तुम्हारे भीतर दो हैं और दोनों बोल रहे हैं और कहते हैं मेरी सुनो। और तुम किसी की भी सुनो, दुख होगा। क्योंकि दूसरा पछताएगा और दूसरा कहेगा: मैंने पहले कहा था। आधे ही खुश होओगे; तुम कभी पूरे खुश नहीं हो पाते। धन मिल जाए तो आधे खुश होते हो, पूरे नहीं। क्योंकि आधा हिस्सा जो धन मिलने के कारण अतृप्त रह गया, वह कहता है: क्या मिला? क्या रखा है? वह आधा हिस्सा कहता था: प्रेम खोजो, धन में क्या रखा है? अगर प्रेम मिल जाए तो वह जो आधा हिस्सा कहता था धन खोजो, वह कहता है: अब क्या रखा है? तो मिल गई यह स्त्री, अब? अब क्या करोगे? खाओगे-पीओगे क्या? मकान कहां है? इससे तो अच्छा था धन कमा लेते, तो मजा-मौज से रहते।
तुम जो भी करोगे पछताओगे; क्योंकि तुम्हारा आधा हिस्सा ही उसे करवाएगा और आधा उसके विरोध में खड़ा है। इसलिए तुम्हारा दुख तो निश्चित ही है। यह करो, वह करो--दुख तो निश्चित ही है।
कैसे सुख होगा? सुख होगा: तुम्हारे भीतर एक समरसता आए। तुम्हारे ये दो विपरीत लड़ने वाले खंड, तुम्हारे भीतर ये कौरव और पांडव लड़ें ना। इनकी भीतर दोस्ती बन जाए। ये साथ-साथ हो जाएं। यह महाभारत बंद हो।
समस्त ध्यान की प्रक्रियाएं, समस्त भक्ति की प्रक्रियाएं अंततः तुम्हारे भीतर इस स्थिति को पैदा करवाती हैं--एक समस्वरता, एक लयबद्धता--जहां विपरीत खो जाते हैं; जहां विरोध विलीन हो जाता है; जहां तुम एक ही हो जाते हो, दो नहीं रहते। यही तो सारी अद्वैत की शिक्षा है: जहां तुम एक ही हो जाते हो, दो नहीं रहते। जब तक दो हो, तब तक अड़चन है। इसलिए भक्त की जो आत्यंतिक परिणति है, वह भगवान से एक हो जाना है या भगवान को अपने में एक कर लेना है--या तो भगवान में डूब जाना है या भगवान को अपने में डुबा लेना है। मगर एक ही बचे। ‘प्रेमगली अति सांकरी, तामें दो न समाय।’
मैंने सुना है, महाराष्ट्र में एक बड़े संत हुए, ज्ञानदेव। वे गुरु गोरखनाथ की परंपरा के संत थे। संतों की परंपरा चलती है। परंपरा से ही असली बात चलती है। जो बात लिख दी जाती है, उसका असली अर्थ खो जाता है। परंपरा का अर्थ होता है: कान से कान तक, कान कान से चलती है। परंपरा का अर्थ होता है: जिसने जाना उसने उसको जनाया जिसे अभी ज्ञात नहीं था। जब उसने जान लिया; उसने फिर किसी और को जनाया। सूफी इसी को सिलसिला कहते हैं। दुनिया में सिलसिले चलते हैं, परंपराएं चलती हैं। एक गुरु से किसी शिष्य को उपलब्ध होता है। फिर वही शिष्य उस गुरु की संपदा का मालिक हो गया। बुद्ध को मिला, तो महाकाश्यप को दिया। फिर महाकाश्यप से तैरते-तैरते, उतरते-उतरते बोधिधर्म को मिला। फिर बोधिधर्म चीन चला गया और चीन में एक नई परंपरा शुरू हो गई, एक नया सिलसिला शुरू हो गया। मोहम्मद को मिला, फिर मोहम्मद से और फकीरों को मिला--मिलते-मिलते एक सिलसिला शुरू हुआ।
किसी एक को, प्रथम जो होता है, परमात्मा से मिलता है। वह भी सिलसिला है। कोई एक अपने को ऐसा समर्पित कर देता है कि उसके भीतर परमात्मा को सीधा ही बोलना पड़ता है, मध्यस्थ की जरूरत नहीं होती। जिस व्यक्ति के भीतर परमात्मा सीधा बोलता है, उसी व्यक्ति से धर्म की शुरुआत होती है, सिलसिला होता है। जिनको हम पैगंबर कहते हैं, तीर्थंकर कहते हैं, अवतार कहते हैं, वे ऐसे ही पुरुष हैं--जिन्होंने किसी मनुष्य से नहीं सीखा; जिनके भीतर परमात्मा सीधा बोला; जिनका गुरु परमात्मा ही था। बुद्ध से परमात्मा सीधा बोला। महावीर से परमात्मा सीधा बोला। मोहम्मद से परमात्मा सीधा बोला या क्राइस्ट से परमात्मा सीधा बोला, या नानक से, कबीर से--सीधा बोला। फिर एक सिलसिला शुरू हुआ। फिर जो परमात्मा से सीधा संबंध नहीं जोड़ पाते, वे कबीर से जोड़ सकते हैं, नानक से जोड़ सकते हैं। इनके भीतर भी वही बात आ जाएगी। एक दफा जुड़ गया संबंध, तो ये भी परमात्मा से जुड़ गए। लेकिन इन्हें जरूरत पड़ी एक मध्यस्थ की।
दुनिया में बहुत थोड़े से लोग हैं जो बिना मध्यस्थ के परमात्मा को जान पाएंगे। क्योंकि उसके लिए इतना समर्पण चाहिए, जितना समर्पण साधारण आदमी से जुटाने की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
ज्ञानदेव गुरु गोरखनाथ की परंपरा के अंग थे। वे अपने कुछ भक्तों को लेकर, थोड़े से भक्तों को लेकर--उन्हीं को लेकर जो पहुंच गए थे, जो सिद्ध हो गए थे--भारत की यात्रा पर निकले। महाराष्ट्र में दूसरे प्रसिद्ध संत हुए, नामदेव। नामदेव तब तक संत नहीं थे। उन्होंने भी ज्ञानदेव से प्रार्थना की: मुझे भी ले चलें। ज्ञानदेव ने कहा कि तू अभी कच्चा है। यह बात नामदेव को बहुत अखरी--कच्चा! भक्तिभाव उनका बड़ा था। बिठोबा के मंदिर में दिन-रात लगे रहते थे: बिठोबा! बिठोबा! बिठोबा! चौबीस घंटे स्मरण चलाते थे, और ज्ञानदेव ने कह दिया: कच्चा! उन्होंने कहा: क्या कच्चापन है? ज्ञानदेव ने कहा: यही कि तू अभी भी यह बिठोबा बिठोबा बिठोबा लगाए रखता है। अभी दो हैं, इसलिए कच्चा। जब एक रह जाएगा, तब पक्का। अभी तेरा घड़ा आग में पड़ा नहीं, अभी पका नहीं। यह क्या मचा रखा है बिठोबा-बिठोबा!
भगवान की याद जब तक करनी पड़ती है, तब तक दूरी है। जब तक भगवान दिखाई पड़ता है अलग, तब तक बात अभी घटी नहीं। जिस दिन भगवान भीतर ही विराजमान हो जाता है, जिस दिन भक्त और भगवान में कोई भेद नहीं रह जाता, जिस दिन भक्त ही भगवान हो जाता है--उस दिन पक्का।
ज्ञानदेव ने कहा: मैं ‘पक्कों’ को ले जा रहा हूं, कच्चे को मैं नहीं ले जा सकता। मगर नामदेव बहुत पीछे पड़ गए, पैर पकड़ लिए कि नहीं, कच्चे ही सही, दया करो। साथ ही लगा रहूंगा। लगते-लगते शायद मैं भी पक जाऊं।
बहुत रोए-धोए तो ज्ञानदेव ने उन्हें साथ ले लिया। मगर चोरी-छिपे जब कोई नहीं होता तो वे बैठ कर अपना बिठोबा-बिठोबा कर लेते थे, क्योंकि उनको यह भी डर लगा रहता था कि पता नहीं, ऐसे में भगवान छूट न जाए, ये लोग अजीब से हैं! बस बैठ जाते हैं, बैठे रहते हैं। न कोई नाम-जप, न कोई नाम-स्मरण--ये करते क्या हैं? ऊपर-ऊपर से वह भी दिखलाते थे कि अब मैं भी कुछ ऐसा नहीं। मगर छोटी सी एक मूर्ति भी अपने भी पास छिपा कर रखे हुए थे। अपने कपड़ों में गठरी में रखी होगी। जब सब सो जाते, रात में निकाल कर बिठोबा को कहते कि माफ करना, अब यह जरा सत्संग ऐसे लोगों का मिल गया है, ये सब हैं निर्गुण उपासक, ये सगुण को समझते नहीं हैं। घर चल कर तुम्हारी खूब पूजा करूंगा। अभी तो व्यवस्था से कर भी नहीं पाता, क्योंकि यह बात यहां जंचेगी नहीं, यहां यह भाषा ही नहीं चलती इन लोगों के साथ। तो ऐसा छुपा-छुपा कर।
फिर एक गांव में जिसके घर में ठहरे वह एक कुम्हार था। सुबह बैठे थे धूप में, सब बैठे थे, कुम्हार भी बैठा था। वह कुम्हार भी बड़ा पहुंचा हुआ सिद्ध था, इसलिए उसके घर में ठहरे थे ज्ञानदेव। वह भी गुरु गोरखनाथ की परंपरा का अंग था। अज्ञात था। उसके नाम का कुछ पता नहीं। लेकिन बात जाहिर करवाने को ज्ञानदेव ने कहा कि भाई सुन, तू कुम्हार है, तुझे कच्चे-पक्के घड़ों की परख है? उसने कहाः जिंदगी हो गई, और तो मैं कोई काम करता नहीं, कच्चे-पक्के घड़े ही...। रात के अंधेरे में बता सकता हूं कि कौन कच्चा घड़ा है, कौन पक्का घड़ा है।
तो उन्होंने कहा कि ये हमारे घड़े बैठे हैं, इनमें कौन कच्चा है, कौन पक्का है? वह आदमी अपने घड़े पीटने के पिटने को उठा लाया, जिससे घड़े पीटे जाते हैं। और सब तो बैठे रहे, नामदेव बहुत डरे कि यह अजीब मामला है, क्या यह मारेगा, यह क्या करेगा! उसने लोगों की खोपड़ी बजानी शुरू कर दी। सब तो बैठे रहे; वे पक्के ही घड़े थे। वह खोपड़ी बजाता रहा, वे बैठे रहे। जब वह नामदेव की खोपड़ी बजाने लगा तो वे खड़े हो गए। उन्होंने कहा: यह क्या पागलपन है? वह तो क्रुद्ध हो गए, नाराज हो गए, झगड़ने को तैयार हो गए। उस कुम्हार ने कहा: और सब तो पके घड़े हैं। ज्ञानदेव महाराज, यह कच्चा है। ज्ञानदेव ने नामदेव को कहा कि देख, एक कुम्हार भी पहचान लेता है कि कौन कच्चा है। निकाल, तेरा कच्चापन कहां छिपाया हुआ है! इसकी गठरी खोलो। गठरी में बिठोबा निकले। यह कच्चापन था। दो का भाव। परमात्मा दूजा है? उसको पुकारना है? उसकी मूर्ति सजानी है? उसको आभूषण लगाने हैं, थाल सजाने हैं, प्रसाद लगाना है, भोग लगाना है? ये सब बचकानी बातें हैं। बुरी न भी हों तो भी बचकानी तो हैं ही। भली हों, तो भी बचकानी तो हैं ही। जैसे बच्चे खिलौनों से खेलते हैं, ऐसी ही है।
सार-सूत्र याद रखो: एक हो जाना है। तो पहले अपने भीतर के द्वंद्व को एक छंद बनाओ। फिर एक छंद के बनते ही प्रसाद मिलता है और तुम त्रिवेणी बन जाते हो। तुम तो मिले थे दो--गंगा-यमुना--सरस्वती आ मिलती है।
सरस्वती को ज्ञान की नदी कहा है। सरस्वती को ज्ञान की देवी कहा है। वह भी ठीक है। जैसे ही स्त्री और पुरुष का तुम्हारे भीतर मिलन हुआ, वैसे ही तुम्हारे भीतर ज्ञान का आविर्भाव होता है; बोधि फलती है; बुद्धत्व उत्पन्न होता है।
बाम्हन तो भये जनेउ को पहिरी कै,
बाम्हनी के गले कछु नाहिं देखा।
पलटू कहते हैं,...अब वे जरा मजाक उड़ाते हैं उन सबकी जो द्वंद्व में पड़े हैं, द्वैत में पड़े हैं; जिनको प्रेम का सार-सूत्र समझ में नहीं आया।
बाम्हन तो भये जनेउ को पहिरि कै,
वे कहते हैं कि ब्राह्मण हो गए जनेऊ पहनने से, चलो ठीक। हालांकि कोई जनेऊ पहनने से ब्राह्मण हो नहीं सकता। ब्राह्मण तो वह जो ब्रह्म को जाने। जनेऊ पहनने से क्या होगा? प्रतीकों में पड़ जाते हैं लोग। तुमने देखा, जनेऊ में तीन धागे होते हैं, वे त्रिवेणी के प्रतीक हैं। सिर्फ प्रतीक हैं। वे जो तीन धागे हैं जनेऊ के, वे प्रतीक हैं कि दो मिल जाएं तो तीसरा भी आ मिलेगा। ऐसी त्रिवेणी बन जाएगी तो तुम ब्राह्मण हो जाओगे। मगर प्रतीक को ही रखे बैठे हैं।
यह तो ऐसे ही हुआ कि जैसे किसी ने कहा कि पानी का प्रतीक एच टू ओ, कि दो परमाणु उदजन के और एक परमाणु आक्सीजन का, इनके मिलने से पानी बन जाता है; इन तीन के मिलने से पानी बन जाता है। अब तुम्हें लगी है प्यास, तुम कागज पर रखे बैठे हुए हो एच टू ओ, या बैठे-बैठे भजन कर रहे हो--एच टू ओ, एच टू ओ, एच टू ओ! इससे प्यास नहीं बुझेगी। और यह सूत्र गलत नहीं है। सूत्र की तरह ठीक है और बड़ा अर्थपूर्ण है। मगर इसको जपने से प्यास नहीं बुझेगी। प्यास तो पानी से बुझेगी। ब्रह्म को पाने से बुझेगी।
बाम्हन तो भए जनेऊ को पहिरि कै,
पलटू कहते हैं कि चलो ठीक, तुम तो जनेऊ को पहन कर ब्राह्मण हो गए, मगर ब्राह्मणी के बाबत क्या खयाल है? वे मजाक उड़ाते हैं।
बाम्हनी के गले कछु नाहिं देखा।
ब्राह्मणी तो नहीं पहनती जनेऊ। स्त्रियां तो पहन नहीं सकतीं। आदमी ने इतनी ज्यादती की है! पुरुष ने इतना अहंकार किया है सदियों से! और जिनको हम धार्मिक लोग कहते हैं, उन्होंने भी, वस्तुतः उन्होंने ही...स्त्री को मोक्ष नहीं; स्त्री को वेद पढ़ने का हक नहीं। स्त्री की गणना शूद्रों में है। एक तो शूद्रों की ही गणना गलत; फिर स्त्रियों को भी शूद्रों में डाल दिया! और स्त्री तुम्हारा आधा अंग है। जिस दिन तुमने स्त्री को मुक्ति का उपाय नहीं छोड़ा, उस दिन तुम भी मुक्त होने का उपाय समाप्त कर लिए; क्योंकि तुम्हारे भीतर की स्त्री का क्या होगा? तुम जिससे पैदा हुए अकेले पुरुष से तो पैदा नहीं हुए; आधा हिस्सा तुम्हारे पिता से आया, आधा तुम्हारी मां से आया। तुम्हारे आधे अणु पिता के हैं, आधे तुम्हारी मां के हैं। तुम्हारे भीतर पचास प्रतिशत स्त्री मौजूद है। कहां जाओगे? उससे कहां भागोगे? किसी न किसी तरह तुम्हें अपने स्त्री और पुरुष दोनों को मुक्त करना होगा।
मनुष्य-जाति के गर्त में गिरने के बड़े से बड़े कारणों में से एक है कि आधी मनुष्य-जाति को तो धर्म का कोई अधिकार ही नहीं रहा। यहूदियों में स्त्रियां सिनागॉग में नहीं जा सकतीं; या जाएं भी तो उनके लिए दूर ऊपर अलग छज्जा होता है, जिस पर पर्दा पड़ा होता है, वहां बैठना पड़ता है।
मैंने सुना है, जब गोल्डा मेयर इजरायल में प्रधानमंत्री थी, और इंदिरा गांधी भारत में, इंदिरा इजरायल गई। इंदिरा ने देखना चाहा सिनागॉग, यहूदियों का मंदिर। तो इजरायल के सबसे बड़े मंदिर में उन्हें ले जाया गया। और सब तो नीचे थे मंदिर में, ये दोनों स्त्रियां--प्रधानमंत्री भी हों तो क्या होता है: स्त्रियां यानी स्त्रियां; इनको तो सीधा मंदिर में भीतर तो ले जाया नहीं जा सकता--तो ऊपर एक छज्जे पर पर्दा डाल कर। इंदिरा जब लौटी, दिल्ली में किसी ने पूछा कि संस्मरण...इजरायल में क्या-क्या देखा? उन्होंने कहा: तो और तो सब ठीक देखा, एक बात अजीब देखी कि इजरायल में आम जनता तो मंदिर में सीधे प्रार्थना करती है, प्रधानमंत्री ऊपर छज्जे पर प्रार्थना करते हैं! उनको पता नहीं कि यह स्त्री की वजह से छज्जे पर बिठाया गया है, प्रधानमंत्री की वजह से नहीं।
जैन कहते हैं: स्त्रियों का कोई मोक्ष नहीं स्त्री-पर्याय से। मर कर स्त्रियों को पहले पुरुष होना पड़ेगा, फिर मोक्ष हो सकता है। मोक्ष सिर्फ पुरुष का हो सकता है।
यह बात बड़ी अपराधपूर्ण है। इसलिए पलटू मजाक उड़ाते हैं।
बाम्हन तो भये जनेउ को पहिरि कै,
बाम्हनी के गले कछु नाहिं देखा।
आधी सुद्रिनि रहै घर के बीच में।
तब तो इसका मतलब हुआ कि स्त्री तो शूद्र हो गई, क्योंकि वह शूद्र ही नहीं पहन सकते हैं जनेऊ और स्त्री भी नहीं पहन सकती।
आधी सुद्रिनि रहै घर के बीच में,
करै, तुम खाहु यह कौन लेखा।
और वह भोजन बनाती है और तुम भोजन करते हो, यह कैसा, कौन सा हिसाब चल रहा है? शूद्र का किया हुआ भोजन कर रहे हो और ब्राह्मण बने बैठे हो, कुछ तो शर्म खाओ!
सेख की सुन्नति से मुसलमानी भई,
खतना होता है मुसलमानों में, तो शेख की तो सुन्नति हो जाती है; खतना हो गया, इसलिए मुसलमान हो गए।
सेख की सुन्नति से मुसलमानी भई,
सेखानी को नाहिं तुम कहौ सेखा।
वे पूछते हैं: लेकिन शेखानी के बाबत क्या खयाल है? इसका खतना तो हुआ नहीं, यह तो मुसलमान है नहीं। खतने के बिना तो कोई मुसलमान हो नहीं सकता। खतना तो बिलकुल जरूरी है।
आधी हिन्दुइन रहै घरै बीच में,
और यह जो शेखानी है, यह तो हिंदू हो गई, क्योंकि इसका खतना कभी हुआ नहीं।
आधी हिन्दुइन रहै घरै बीच में,
पलटू अब दुहुन के मारु मेखा।।
पलटू कहते कि पलटू समझदार की बात तो यह है कि दोनों को समाप्त करके ऊपर उठो। स्त्री-पुरुष के भेद-भाव को मिटा कर ऊपर उठो। तुम्हारे भीतर दोनों को समाप्त करके।
पलटू अब दुहुन के मारु मेखा।
दोनों को खत्म कर दो अपने भीतर। न स्त्री रह जाओ, न पुरुष रह जाओ। जब तुम्हारे भीतर न स्त्री बचे न पुरुष बचे, जब दोनों मिल जाएं, तब तीसरे का जन्म होता है।
तुरुक लै मुर्दा को कब्र में गाड़ते,
हिन्दू लै आग के बीच जारै।
पूरब वै गए हैं वै पच्छूं को,
दोऊ बेकूफ ह्वै खाक टारैं।।
पलटू कहते हैं कि तुर्क मुर्दा को कब्र में गाड़ते हैं। मरे-मराए को गाड़ो कि जलाओ, क्या फर्क पड़ता है? मुर्दे को गाड़ा तो खाक हो जाएगा; जलाओ तो खाक हो जाएगा: इन बातों से बड़ी झंझटें खड़ी कर रहे हो। इन बातों से सोच रहे हो, बड़ा धर्म का भेद हो रहा है।
तुरुक लै मुर्दा को कब्र में गाड़ते,
हिन्दू लै आग के बीच जारै।
पूरब वै गए हैं वै पच्छूं को,
एक पूर्व की तरफ हाथ जोड़ कर नमस्कार करता है--सूर्य-नमस्कार; और एक पश्चिम की तरफ--काबा की तरफ।
दोऊ बेकूफ ह्वै खाक टारैं।
कहते हैं पलटू कि दोनों तरफ बेवकूफ हैं। दोनों बुद्धिहीन हैं। व्यर्थ ही खाक टार रहे हैं! व्यर्थ ही धूल के साथ उलझे हैं, प्रपंच में पड़े हैं।
वै पूजैं पत्थर को, कबर वै पूजते,
भटककै मुए दैं सीस मारैं।
ये मूर्ति को पूजते हैं--पत्थर को; और मुसलमान मूर्ति के खिलाफ हैं, लेकिन कब्र को पूजता है। और कब्र भी पत्थर से बनी है। फर्क क्या है?
वै पूजैं पत्थर को, कबर वै पूजते,
भटककै मुए दैं सीस मारैं।
दोनों ही मरे-मराओं के सामने सिर पटकते हैं।
जीवंत को पूजो। जीवंत चारों तरफ मौजूद है। परमात्मा प्रतिपल चारों तरफ जीवंत के रूप से मौजूद है। मुर्दों की पूजा करोगे, मुर्दे हो जाओगे। जैसी पूजा करोगे, वैसे ही हो जाओगे। जिसकी पूजा करोगे, वही हो जाओगे। अगर दुनिया में इतने मुर्दे चलते-फिरते दिखाई पड़ते हैं, तो उसका कारण यही है कि मुर्दों की पूजा करते-करते--जीवंत के साथ संबंध जोड़ो।
दास पलटू कहै, साहिब है आप में,
वह परमात्मा तुम्हारे भीतर बैठा है।
अपनी समझ बिनु दोउ हारैं।
मुसलमान और हिंदू अपनी खुद की समझ न होने के कारण हार गए हैं। अपनी समझ चाहिए। न तो कुरान तुम्हारी समझ बन सकता है, न वेद तुम्हारी समझ बन सकते हैं। तुम्हें अपनी समझ ही चाहिए। तुम अपनी समझ को निखारो। तुम जीवन के अनुभव से अपनी समझ को जगाओ। जीवन को खुली आंख से देखो। पर्दे हटाओ संस्कारों के। द्वार खोलो। अपनी समझ को जगाओ। अपनी समझ ही काम आएगी।
दास पलटू कहै, साहिब है आप में,
अपनी समझ बिनु दोउ हारैं।।
संतन के बीच में टेढ़ रहें
मठ बांधि संसार रिझावते हैं।
और पंडित-पुरोहित हैं, मुल्ला-मौलवी हैं, संतों के पास जाने से डरते हैं। संतों का नाम उन्हें घबड़ाता है। संतों के पास भी ले जाओ तो वहां अकड़ कर खड़े हो जाते हैं। यही पत्थर की मूर्ति के सामने सिर झुका देंगे, कबर के सामने साष्टांग दंडवत कर लेंगे; लेकिन जिंदा संत के सामने अकड़ कर खड़े हो जाएंगे।
संतन के बीच में टेढ़ रहें
वहां तो बिलकुल खड़े हो जाएंगे--अडिग! वहां झुक न सकेंगे।
मठ बांधि संसार रिझावते हैं।
मठ-मंदिर बनाएंगे और संसार को झूठे प्रलोभन देंगे। स्वर्ग के प्रलोभन या नरक के भय। लोगों को फसाएंगे।
दस-बीस सिष्य परमोधि लिया,
और यह दुनिया कुछ ऐसी है कि यहां मूढ़ से मूढ़ आदमी भी दस-बीस शिष्य पा सकता है। इसमें कुछ अड़चन नहीं है। यहां इतने एक से एक पहुंचे हुए मूढ़ पड़े हैं कि अगर तुमने तय कर लिया तो तुम्हें भी दस-बीस शिष्य मिल जाएंगे, इसमें कोई अड़चन नहीं है। इसमें अड़चन ही क्या है!
दस-बीस सिष्य परमोधि लिया,
दस-बीस शिष्य के कान फूंक दिए। सबसे वह गोड़ धरावते हैं! फिर वे दस-बीस उनके पैर दाबने लगे।
फिर दूसरों में भी सनक चढ़ती है। ये बीमारियां छूत की होती हैं; लगने लगती हैं दूसरों में भी, कि जब दस-बीस पैर दाब रहे हैं तो कुछ होगा। आदमी इतना बंदर जैसा है!
बंबई में मैं मृदुला के घर में मेहमान था। दो सज्जन मुझे मिलने आए थे--जो मुझे वर्षों से जानते हैं और हमेशा आते थे; कुछ नये नहीं थे; कम से कम दस साल से निरंतर मुझे मिलने आते, जब भी मैं बंबई होता। कभी उन्होंने एक पैसा मेरे चरणों में नहीं रखा था। कोई बात भी नहीं थी, कोई जरूरत भी नहीं थी। उस दिन संयोगवशात एक नये सज्जन मुझे मिलने लाए। ये दोनों बैठे थे। उन नये सज्जन ने जल्दी से आकर चरण छुए और सौ रुपये का एक नोट निकाल कर मेरे पैर में रखा। मैं तो चकित हुआ। वे जो दो बैठे थे, जो दस साल से आते थे, उन्होंने भी जल्दी से सौ-सौ के नोट निकाल कर...! मैंने कहा कि भाई तुम्हें क्या हो गया? इन्होंने रखा, ये नये हैं। इनको मैं लौटाने ही जा रहा था, मगर यह तुम्हें क्या हो गया?
छूत की बीमारियां लगती हैं। एक आदमी खांसने लगे यहां, अनेक की खांसी चलने लगेगी। एक आदमी चला बाथरूम की तरफ, तुम्हें भी अचानक खयाल आता है कि अरे...लघुशंका एकदम पकड़ती है।
आदमी नकलची है। तुम एकाध शिष्य बना लो; वह एकाध दस-बीस को ले आएगा।
पलटू कहते हैं:
दस-बीस शिष्य परमोधि लिया,
सबसे वह गोड धरावते हैं।
संतन की बानी काटिके, जी
जोरि-जोरि के आप बनावते हैं।
कुछ अपना अनुभव नहीं है, कुछ अपना साक्षात्कार नहीं है। दूसरों की उधार बाते हैं। उन्हीं को दोहराते हैं। अपनी आंख नहीं है; वेद का उद्धरण दे सकते हैं और कुरान की आयत दोहरा सकते हैं। लेकिन न वेद का कोई मूल्य है न कुरान का कोई मूल्य है। जब तक तुम्हारे भीतर वेद का जन्म न हो, जब तक तुम्हारी आंख न खुले--तब तक कोई बात काम की नहीं है। तब तक तुम ग्रामोफोन के रिकॉर्ड हो। तब तक तुम दोहरा सकते हो। कितनी ही शुद्ध भाषा में दोहराओ, तुम्हारे दोहराए का मूल्य दो कौड़ी भी नहीं है। अगर तुम्हें अपना अनुभव हो और संस्कृत भी न आती हो और अरबी भी न आती हो और तुम्हें भाषा का भी कोई ठीक पता न हो, व्याकरण भी न आती हो--तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर तुम्हें अनुभव हुआ तो तुम्हारी टूटी-फूटी भाषा में, तुम्हारे तुतलाने में भी परमात्मा की झलक होगी। पांडित्य से कोई संबंध धर्म का नहीं है--अनुभव से है।
पलटू कोस चारि-चारि के गिर्द में, जी
सोइ चक्रवर्ती कहलावते हैं।।
और पलटू कहते हैं: बड़ा मजा चल रहा है। दो-चार कोस में दस-बीस भक्त मिल गए हैं, वे चक्रवर्ती हो गए! सारे संसार में जैसे उनका राज्य स्थापित हो गया! पलटू यह कह रहे हैं कि इन छोटी-छोटी बातों में मत उलझ जाना और इन छोटे-छोटे दुकानदारों में मत उलझ जाना। अगर हिम्मत हो तो किसी से विवाह रचाना, जिसको सत्य मिला हो। अगर हिम्मत हो तो किसी आंख वाले के साथ आंखें मिलाना। अगर हिम्मत हो तो किसी हिम्मतवर से दोस्ती गांठना। उस दोस्ती का कोई परिणाम हो सकता है। उससे क्रांति आ सकती है। बुझे दीयों के पास मत बैठे रहना--जले दीये के पास जाना। पास जाते-जाते किसी क्षण जले दीये से लपट तुम में भी छलांग लगा लेगी; तुम्हारा बुझा दीया भी जल जाएगा। जले दीये का तो कुछ भी न खोएगा। जले दीये का क्या खोता है? तुम एक जलते दीये से हजार दीये जला लो, जलते दीये का कुछ नहीं खोता। ऐसा थोड़ा ही है कि हजार दीये जला लिए तो जला हुआ दीया अब गरीब हो गया, क्योंकि हजार दीये जल गए। लेकिन हजार दीयों को कितना मिल गया, यह तो सोचो, यह मजा तो देखो! जलते का कुछ भी नहीं खोता, बुझे को कितना मिल जाता है!
जलता हुआ दीया कौन?
जिसके पास अपनी रोशनी हो। और हमारी अड़चन यही है कि रोशन आदमी को हम नहीं पहचान पाते। क्योंकि रोशन आदमी अपनी भाषा बोलता है और हम संप्रदाय की भाषा पहचानते हैं। संप्रदाय की भाषा का मतलब होता है: अगर तुम हिंदू हो तो मेरे साथ तुम्हारा संबंध न जुड़ सकेगा; अगर तुम मुसलमान हो तो मेरे साथ संबंध न जुड़ सकेगा। अगर तुम हिम्मतवर मुसलमान हो, तो ही मुझसे संबंध जुड़ सकेगा; हिम्मतवर हिंदू हो तो ही मुझसे संबंध जुड़ सकेगा। अगर तुमने यह सोचा कि मैं यहां वेद को दोहरा रहा होऊंगा और अंधे की तरह वेद में जो कुछ कहा है सबको ठीक कहूंगा, तो तो फिर मुझसे संबंध न जुड़ सकेगा।
मैं हिंदू नहीं हूं। मुझे वेद के साथ कुछ लेना-देना नहीं है। अगर कभी मैं वेद की किसी बात को सच भी कहता हूं, तो इसीलिए कि वह मैंने अनुभव की है। बात तो मैं अपनी ही सच कहता हूं। वेद में भी लिखी है, इसलिए वेद का भी उद्धरण दे देता हूं। लेकिन वेद में लिखे होने के कारण वह सच नहीं है; मेरे अनुभव में आई है, इसलिए सच है। और जो मेरे अनुभव में आया है और वेद में उसके विपरीत लिखा है, वह गलत है। मुझे वेद से कुछ लेना-देना नहीं है। अगर वेद सही होगा तो मेरी कसौटी पर सही होगा और गलत होगा तो मेरी कसौटी पर गलत होगा।
वह जो पंडित है, वह जो सांप्रदायिक वृत्ति का आदमी है: वेद सही ही है, और कोई कसौटी नहीं है। वेद में है, इसलिए सही है।
बुद्ध ने कहा है अपने शिष्यों को कि तुम तब तक मेरी बात मत मान लेना, जब तक कि तुम्हारे अनुभव में न आ जाए। मैं लाख कहूं, सुन लेना, समझ लेना; मगर मानना मत। मानना तो तभी, जब तुम्हारे अनुभव में आ जाए। और जब तुम्हारे अनुभव में आ जाएगी, तभी सच होगी; नहीं तो झूठ रह जाएगी।
मेरा सत्य मेरा सत्य है। तुम उसे दोहराओगे, झूठ हो जाएगा। जब तुम भी उसे अनुभव में ले आओगे, तभी सच होगा। तुम्हारे अनुभव में आने के कारण सच होगा। उधार अगर सत्य भी ले लिया तो झूठ हो जाता है।
लेकिन हमारी हिम्मत नहीं होती। हमारे संस्कार हैं बंधे हुए। अगर कोई मुसलमान मेरे पास आता है तो वह भीतर से अनजाने, अचेतन मन से, झांकता रहता है कि जो मैं कह रहा हूं वह कुरान से मेल खाता है या नहीं। अगर खाता है तो ठीक; अगर मेल नहीं खाता है तो गलत। कुरान तो गलत हो ही नहीं सकता। यही अड़चन है। कुरान चौदह सौ साल पुरानी किताब है, चौदह सौ साल पुरानी भाषा है। फिर मोहम्मद एक ढंग के आदमी थे, मैं दूसरे ढंग का आदमी हूं। मेरी अभिव्यक्ति मेरी है, उनकी अभिव्यक्ति उनकी है। अगर तुम मुझे मोहम्मद से जांचने चले तो तुम्हारा मुझसे कोई संबंध न बन पाएगा। अगर तुम मोहम्मद के भी पास गए होते तो मुझसे तुमने मोहम्मद को जांचा होता, तो मोहम्मद से भी कोई संबंध नहीं बन सकता था।
इसलिए मैं तुम्हें यह भी आगाह कर दूं कि मेरे चले जाने के बाद तुम मेरे आधार से किसी को मत जांचना, क्योंकि फिर तुम्हारा संबंध न बन पाएगा। तुम जब भी किसी को जांचने जाओ तो खुले मन से जांचना; कोई आधार लेकर मत जाना; कोई पक्षपात लेकर मत जाना। सब पक्षपात हटा कर शांत मौन भाव से सुनना। और जो भी तुम सुनो, जल्दी विश्वास कर लेने की कोई भी जरूरत नहीं है, न अविश्वास करने की कोई जरूरत है। दोनों एक जैसे हैं। कुछ लोग सुनते ही से विश्वास कर लेते हैं और कुछ लोग सुनते ही से अविश्वास कर लेते हैं। ये दोनों ही बातें जल्दबाजी की हैं। न विश्वास की जल्दी करो, न अविश्वास की। अनुभव की चिंता लो। सारी ऊर्जा अनुभव में लगाओ।
तुमने मेरे से कोई बात सुनी, अब तुम परखना इसको अपने अनुभव में। अगर अनुभव कह दे कि ठीक, तो ठीक। अनुभव कह दे गलत, तो किसी ने भी कही हो, किसी बुद्धपुरुष ने कही हो, कोई मूल्य नहीं रखती। अंततः तुम्हारा अनुभव ही निर्णायक है। अंततः तुम ही निर्णायक हो।
यह जो प्रेम का शास्त्र है भक्ति, यह पाखंड के खिलाफ बोले, यह जरूरी है, क्योंकि पाखंड के कारण ही प्रेम खो गया है! तुम्हारी पूजा मंदिरों में भटक गई है और मस्जिदों में भटक गई है। और तुम्हारा बोध शास्त्रों में उलझ गया है। इसलिए मजबूरी है पलटूदास जैसे संतों को कि उन्हें शास्त्र के खिलाफ बोलना पड़ता है, पंडित के खिलाफ बोलना पड़ता है, मौलवी के खिलाफ बोलना पड़ता है, ब्राह्मण और शेख के खिलाफ बोलना पड़ता है। उन्हें खिलाफ बोलने में कोई रस नहीं है--बोलना पड़ता है इसलिए कि ये जगह हैं, जहां तुम उलझ गए हो। तुम इनसे मुक्त हो सको, इसलिए ऐसा बोलना पड़ता है। अन्यथा, प्रेम के शास्त्र को कोई खिलाफत नहीं है, कोई किसी चीज के खंडन में रस नहीं है। प्रेम का शास्त्र तो शुद्ध आनंद का शास्त्र है, उमंग का शास्त्र है।
आज मौसम में वो एजाजे-मसीहाई है
दिल ने बीमारी-ए-हिजरा से सिफा पाई है
दिल की धड़कन से हम आहंग हैं यूं मौजे नसीम
जैसे उस शोख का पैगामे वफा लाई है।
जिस पर हसरत कदा-ए-यास का होता था गुमां
अब वो दिल मरकजे सद जलवाए रानाई है।
आई है मुजदाए अनवारे मर्सरत लेकर
ये जो गर्दूं पे स्यह मस्त घटा छाई है
रक्स करते हैं तस्सवर में नजारे क्या क्या
दिल को क्या क्या हब से अंजुमन आराई है।
भक्त तो कहता है: वसंत छाया है! उसे कहां विवाद है! भक्त तो कहता है: वसंत छाया है। वियोग का रोग मिट गया। आज मौसम में वो एजाजे मसीहाई है। आज तो वातावरण के कण-कण में जैसे पैगंबर मौजूद हुआ है, परमात्मा का संदेश आया है।
दिल ने बीमारी-ए-हिजरा से सिफा पाई है।
वियोग का रोग समाप्त हो गया, मिलन का स्वास्थ्य घटा है।
दिल की धड़कन से हम आहंग हैं यूं मौजे नसीम
और दिल धड़क रहा है आनंद से। हवाओं में बड़ी उत्फुल्लता है।
जैसे उस शोख का पैगामे वफा लाई है।
उस प्यारे की खबर लेकर हर हवा की लहर आ रही है।
जिस पै हसरत कदा-ए-यास का होता था गुमां
अब वो दिल मरकजे सद जलवाए रानाई है।
जहां सोचते थे कि कभी फूल न खिलेंगे, उस मरुस्थल में आज फूल खिले हैं। जहां संदेह होने लगा था कि रात कभी न टूटेगी, वहां सुबह हुई है। जहां सोचते थे उदासी ही उदासी रहेगी, वहां आज आनंद उत्सव है।
आई है मुजदाए अनवारे मर्सरत लेकर
यह जो गर्दूं पे स्यह मस्त घटा छायी है।
और हम तो सोचते थे यह अंधेरी काली घटा है, आज यह बात नहीं है। आज यह मस्त घटा है। और उल्लास और प्रकाश के पुंज की शुभ्र सूचना लेकर आई है। इस अंधेरी घटा के पार भी सूरज झांक रहा है।
आई है मुजदाए अनवारे मर्सरत लेकर।
यह खबर लेकर आई है--उल्लास की, प्रकाश के पुंज की--कि सूरज पीछे है, आता ही है।
यह जो गर्दूं पे स्यह मस्त घटा छायी है
रक्स करते हैं तस्सवर में नजारे क्या-क्या!
कहां फुर्सत है प्रेमी को कि विवाद में पड़े!
रक्स करते हैं तस्सवर में नजारे क्या-क्या
दिल को क्या-क्या हब्से अंजुमन आराई है
यहां तो दिल में नृत्य हो रहा है। यहां तो शराब के चश्मे बह रहे हैं। यहां तो गीतों की झड़ी लगी है।
दिल को क्या क्या हब्से अंजुमन आराई है।
रक्स करते हैं तस्सवर में नजारे क्या क्या!
यहां तो कैसे प्यारे सपनों का जन्म हुआ है, यहां किसको फुर्सत है! लेकिन फिर भी भक्तों को भी कुछ कठोर बातें कहनी पड़ी हैं--तुम्हारे कारण। क्योंकि तुम ऐसी जगह उलझ गए हो कि अगर तुम्हें वहां से न तोड़ा जाए तो तुम ठीक जगह पहुंच ही न सकोगे।
दिल है वज्द में सर-सार बेखुदी में रक्सां है
टीस इश्क की जब से जख्माए रंगे जां है,
आज जाम में साकी आग जाए मैं भर दे,
दिल गुदाजे पिनहा कि लज्जतों का ख्वाहां है
जो टूट जाता है हर खिजां की योरिश का,
देख फिर गुलिस्तां में जोर से बहारां है
आज उलट गया शायद शोलाए नकाब उनका
आज जो भी जर्रा है रक्से मेहरे ताबां है,
मौजे नहकते गुल में जोरों गम का है आलम
आज सहने गुलशन में कौन यह खरामां है
बेसबब नहीं जाहिद चश्मे दिल की मदहोशी
हर अदा सितमगर की कैफियत बदामां है
आशिकी की दुनिया में दैर क्या, हरम कैसा
यहां फकत मोहब्बत है, कुफ्र है न ईमां है
दाद दे मुझे वाइज तुझको बातों बातों में
जिस जगह पे ले आया कूए मै फरोसां है।
‘आशिकी की दुनिया में दैर क्या, हरम कैसा!’ प्रेम की दुनिया में कहां कोई मंदिर है, कहां कोई मस्जिद है!
आशिकी की दुनिया में दैर क्या, हरम कैसा
यहां फकत मोहब्बत है, कुफ्र है न ईमां है।
न यहां कोई काफिर है और न यहां कोई मुसलमान; यहां तो सिर्फ मोहब्बत है।
यहां फकत मोहब्बत है, कुफ्र है न ईमां है
आशिकी की दुनिया में दैर क्या, हरम कैसा!
दाद दे मुझे वाइज तुझको बातों बातों में
जिस जगह पे ले आया कूए मै फरोसां है
धन्यवाद दो मुझे कि बात ही बात में तुम्हें ऐसी जगह ले आया, जहां मधुशाला है।
दाद दे मुझे वाइज तुझको बातों बातों में
जिस जगह पे ले आया कूए मै फरोसां है।
संतों ने अगर कभी खंडन किया तो सिर्फ इसलिए कि तुम्हें तोड़ लें उन जगहों से, जो गलत हैं। खंडन किया तो मंडन के लिए। अगर किसी बात को गलत कहा तो सिर्फ इसलिए कि ताकि सही तुम्हें दिखाई पड़ सके। गलत को गलत की तरह देख लेने पर सही को देखने की सुविधा बनती है। अन्यथा भक्तों को कोई विवाद नहीं है, कोई शास्त्रार्थ नहीं है। उन्हें कोई रस नहीं है। न मंदिर में कोई झगड़ा है; न मस्जिद से कोई। न उन्हें फिकर है कि तुम काफिर हो, हिंदू हो कि मुसलमान हो, ईमानदार हो--उन्हें तो सिर्फ एक ही फिकर है और एक ही उनका लगाव है और एक ही उनका संदेह है: मोहब्बत। तुम्हारे जीवन में प्रेम है तो बस ठीक है। मस्जिद में रहो तो ठीक, मंदिर में रहो तो ठीक। इतना ही खयाल रहे कि प्रेम में रहो। और तुम्हारे जीवन में आनंद है, परमात्मा के प्रेम की मदहोशी है, तो बस ठीक। फिर तुम काबा जाओ कि कैलाश, कुछ अंतर नहीं पड़ता। फिर तुम कहीं भी रहो, कैसे भी रहो, किसी वेश में, किसी देश में, किसी रंग-ढंग में--सब चलेगा। मगर दो बातें खयाल कर लेना: परमात्मा के लिए प्रेम हो और परमात्मा के लिए आनंद हो। नाचता हुआ प्रेम हो। उत्फुल्ल प्रेम हो। कमल की तरह खिला हुआ प्रेम हो। फिर सब अपने आप हो जाता है।
प्रेम के इन वचनों को अगर तुम समझते रहे, समझते रहे, तो धीरे-धीरे मधुशाला के करीब निश्चित ही आ जाओगे।
आशिकी की दुनिया में दैर क्या, हरम कैसा!
यहां फकत मोहब्बत है, कुप्र है न ईमां है
दाद दे मुझे वाइज तुझको बातों बातों में
जिस जगह पे ले आया कूए मै फरोसां है।
आज इतना ही।

Spread the love