PALTUDAS
Ajhun Chet Ganwar 18
Eighteenth Discourse from the series of 21 discourses - Ajhun Chet Ganwar by Osho. These discourses were given during JUL 21 - AUG 10 1977.
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पहला प्रश्न:
भगवान, उस परम तत्व से प्रेम या भक्ति कैसे की जाए जिसे हम जानते ही नहीं? क्या अज्ञात से भी प्रेम संभव है?
अज्ञात से ही प्रेम संभव है। ज्ञात से तो प्रेम धीरे-धीरे शून्य हो जाता है। जिसे हमने जान लिया उसमें हमारा रस ही समाप्त हो जाता है। इधर जाना उधर रस समाप्त हुआ। अनजान में ही रस होता है। अपरिचित में ही आकर्षण होता है।
जब दो प्रेमी एक-दूसरे को पूरा-पूरा जान लेते हैं, तभी प्रेम समाप्त हो जाता है। परिचित हुए, फिर कुछ शेष नहीं बचता अभियान को; खोजने को कुछ नहीं बचता।
अज्ञात से ही प्रेम संभव है।
इसलिए इस जगत में सारे प्रेम एक न एक दिन समाप्त हो जाएंगे, सिर्फ परमात्मा का प्रेम कभी समाप्त नहीं होता। क्योंकि ऐसी कोई घड़ी नहीं आती जब तुम कह सको कि परमात्मा को पूरा-पूरा जान लिया। कितना ही जानो, उतना ही जानने को शेष रहता है। जितना ही जानो उतना ही जानने को और द्वार खुलते चले जाते हैं। एक शिखर पर चढ़ते हो, तब ऐसा लगता है कि बस आ गई आखिरी मंजिल। चढ़ भी नहीं पाते कि दूसरा शिखर सामने चुनौती देने लगता है। अंतहीन सिलसिला है।
इसलिए हमने परमात्मा को अनंत कहा है। न उसका कोई प्रारंभ है, न उसका कोई अंत है। वह यात्रा अंवेषण की कभी पूरी नहीं होती। इसलिए प्रेम परमात्मा के साथ शाश्वत हो जाता है। प्रेम के मिटने का उपाय ही नहीं।
इसे जीवन में समझने की कोशिश करना। और अगर जीवन के इस साधारण तल पर भी प्रेम को बनाए रखना हो तो एक-दूसरे को जानने की भ्रांति में मत पड़ना, अन्यथा प्रेम मर जाएगा। और सच्चाई यही है कि जान तो कहां पाते हो तुम! तीस साल एक स्त्री के साथ रहे, कि पुरुष के साथ रहे, तुम सोचते हो कि जान लिया, जान कहां पाते हो? तीस साल जिस पत्नी के साथ रहे हो, उसे भी सच में जानते हो? मान लिया है कि जानते हो। आंखें धुंधली हो गई हैं। जाना क्या है? जिस बच्चे को तुमने जन्म दिया है, जो तुम्हारे खून से बड़ा हुआ है, उसे भी जानते हो? मान लिया है कि अपना बेटा है तो जानते हैं। पर जानते क्या हो?
इस जगत का रहस्य कहीं भी तो समाप्त नहीं होता। फिर से अपनी पत्नी की आंखों में झांक कर देखना, जिसके साथ तीस साल रहे हो। हालांकि धीरे-धीरे तुमने आंखों में झांकना बंद ही कर दिया है। धीरे-धीरे तुम पत्नी की तरफ देखते ही नहीं।
सब धुंधला-धुंधला हो गया है। तुम सोचते हो: जब जानते ही हैं तो देखना क्या है? देखते तो हम अनजान को हैं, अपरिचित को हैं। राह से कोई स्त्री गुजर जाती है, उसे देखते हैं। कुछ नया हो तो देखते हैं। पुराने को तो हम धीरे-धीरे देखना ही बंद कर देते हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर तुम अपनी आंख बंद करके अपनी पत्नी की मुखाकृति याद करना चाहो तो बड़े हैरान हो जाओगे। तीस साल जिसके साथ रहे, आंख बंद करके जब उसका चेहरा सोचोगे तो चेहरा बनेगा नहीं, बिखर-बिखर जाएगा, धुंधला-धुंधला हो जाएगा। जिसे तुम मानने लगे हो कि जानते हो, कब से उसका चेहरा नहीं देखा है! कब से उसकी आवाज नहीं सुनी है! कब से उसका हाथ हाथ में नहीं लिया है! हाथ लिया भी होगा, मगर संवेदना कभी की मर चुकी है। स्पर्श किया भी होगा, मगर स्पर्श जब तक बोधपूर्वक न हो तब तक कहां!
आज घर लौट कर अजनबी की तरह अपनी पत्नी को देखना, तुम चकित होओगे; या अपने पति को देखना; या अपने बेटे को; या अपने मित्र को--और तुम चकित होओगे कि मान्यता ही थी कि हम जानते हैं। और जीवन रोज-रोज यह घटना घटाता है। रोज-रोज पत्नी ऐसा व्यवहार कर देती है कि तुम्हें परेशानी होती है। तुम सोच ही नहीं सकते थे। पति ऐसा व्यवहार कर देता है कि पत्नी सोच ही नहीं सकती थी कि कभी ऐसा करेगा।
एक आदमी को तुम भला मानते थे, एक दिन धोखा दे जाता है। तुम कहते हो: यह आदमी धोखा दे गया। लेकिन सच्चाई कुल इतनी ही है कि तुमने यह मान लिया था कि यह कभी धोखा न देगा। यह तुम्हारी जानकारी थी, सिर्फ तुम्हारी जानकारी टूट गई, और कुछ नहीं हुआ है। यह आदमी तो जैसा है वैसा ही है।
एक बुरा आदमी भला हो जाता है। एक भला आदमी बुरा हो जाता है। क्षण में हो जाती है यह बात।
कोई भी आदमी की भविष्यवाणी नहीं हो सकती। हम इतना तो कभी भी किसी को नहीं जान पाते हैं कि कह सकें कि कल यह कैसा व्यवहार करेगा। हमारी जानकारियां मान्यता भर हैं। पर इन्हीं मान्यताओं के कारण हमारा जीवन धुंधला हो जाता है और जीवन से प्रेम खो जाता है।
परमात्मा को भी लोग सोचने लगते हैं कि हम जानते हैं, तो बस उनकी प्रार्थना भी मर गई। जहां जाना कि जाना, वहां परमात्मा भी मर गया, प्रार्थना भी मर गई, तुम भी मर गए। वहां सिर्फ मृत्यु का ही वास है। जहां तथाकथित ज्ञान की सघनता है वहां मृत्यु का आवास है। और जहां तुम निर्दोष बच्चे की भांति हो जिसे कुछ भी पता नहीं, वहां रहस्य है। इसलिए तो छोटे बच्चे तुम्हें इतने आह्लादित मालूम पड़ते हैं। तुम भी उनका हाथ पकड़ कर चल रहे हो, उसी बगीचे में जिसमें वे हैं, लेकिन वे इतने आह्लादित हैं! हर उड़ती तितली उनकी आंखों को पकड़ लेती है। हर फूल उन्हें ठिठका लेता है। वे खड़े हो गए हैं; तुम उन्हें खींच रहे हो कि चलो, अब क्या देखना है, ये देखे हुए फूल हैं। हर पक्षी की आवाज उन्हें रोक लेती है। यह भागा खरगोश और उनके प्राण उनके साथ हो लिए!
लेकिन तुम! तुम उसी बगीचे से गुजर रहे हो; न पक्षी तुम्हें छूते हैं; न वृक्षों की हरियाली तुम्हें छूती है; न फूलों के रंग तुम्हें पुकारते हैं; न आकाश में खिला इंद्रधनुष तुम्हें दिखाई पड़ता है। तुम्हें कुछ नहीं दिखाई पड़ता। तुम्हें तो यह खयाल है इस बगीचे में तो बहुत बार हो गए। बस इसी कारण सब अड़चन हुई जा रही है।
उपनिषद कहते हैं: जिसे यह खयाल है कि मैं परमात्मा को जानता हूं, जानना कि नहीं जानता। यह तो सबसे बड़े अज्ञान की घोषणा हो जाएगी। परमात्मा को जानने वाला तो सिर्फ रहस्य-विमुग्ध रह जाता है; मौन हो जाता है। और जिस दिन तुम परमात्मा के साथ थोड़ा सा भी संबंध जोड़ लेते हो, उस दिन परमात्मा तो ज्ञात होता ही नहीं, यह संसार भी अज्ञात हो जाता है। जिसने परमात्मा के साथ थोड़ा संबंध जोड़ लिया, उस दिन उसकी पत्नी भी अज्ञात हो गई, पति भी अज्ञात हो गया, अपना बेटा भी अज्ञात हो गया, क्योंकि इस बेटे की आंखों में भी परमात्मा ही झांकेगा। इस मित्र के हाथ में भी परमात्मा का ही स्पर्श होगा। यह पत्नी भी कोई और नहीं, उसका ही एक रूप है। यह वृक्षों में भी वही हरा है। इन पक्षियों में भी वही गीत गा रहा है। इस सूरज में वही प्रकाश है। इस अंधेरी रात में वही अंधेरी रात है।
परमात्मा को जानने से परमात्मा ही अज्ञात नहीं होता; सारा जगत पुनः अज्ञात हो जाता है। इसको दूसरी भाषा में अगर कहें तो फिर से जगत रहस्यपूर्ण हो जाता है; फिर से आश्चर्य का जन्म होता है; फिर से तुम्हें बच्चे की आंख मिलती है; पुनर्जन्म हुआ; द्विज बने। यह नया जन्म ही संन्यास है।
तुम पूछते हो: ‘उस परम तत्व से प्रेम या भक्ति कैसे की जाए जिसे हम जानते ही नहीं?’
तुम्हारे प्रश्न को मैं समझा, सार्थक है। स्वभावतः यह सवाल उठता है कि जिसे हम जानते ही नहीं उसे कैसे प्रेम करें! पहले जानेंगे, तभी तो प्रेम उपजेगा! तुम्हारा खयाल है कि प्रेम प्रेम की वस्तु के कारण उपजता है, तो भूल में पड़ गए।
क्या तुम सोचते हो प्यास इसलिए पैदा होती है कि पानी सामने है? प्यास पहले है, पानी की तलाश पीछे है।
क्या तुम सोचते हो जब बच्चा पैदा होता है तो उसे पता है कि दूध क्या है? इसलिए चिल्लाता है कि मुझे दूध चाहिए? इसलिए रोता है, चीखता-पुकारता है कि मुझे दूध चाहिए? दूध का तो उसे कुछ भी पता नहीं; न पहले कभी चखा न कभी सुना। फिर किसलिए पुकार मचा रहा है? फिर किसलिए गुहार मचा रहा है? फिर किसलिए शोरगुल कर रहा है? भूख है। भूख का पता है।
भेद समझ लेना। दूध का पता हो और तब भूख लगे तो झूठी भूख। ऐसी तुम्हें अक्सर लगती है। होटल के पास से निकले, गंध तैरती पास से गुजर गई, नासापुट गंध से भर गए और भूख लग आई। पकौड़े पकते थे और भूख लग आई। यह झूठी है। अभी क्षणभर पहले नहीं थी। अभी पकौड़ों के पकने की गंध नासापुटों में भर गई और भूख लग आई। यह भूख मानसिक है। यह थोथी है। इस भूख से सावधान। यह कृत्रिम है। और अगर इस भूख की मान कर चलोगे तो जल्दी ही रुग्ण बनोगे। यह तुम्हारे शरीर की मांग ही नहीं है। यह तुम्हारी जरूरत नहीं है। जरूरत होती तो पकौड़े की गंध की जरूरत नहीं थी। जरूरत होती तो भूख उठती। फिर तुम पकौड़े की तलाश में निकलते, वह दूसरी बात थी।
छोटा बच्चा पैदा हुआ, अभी तो इसने कभी स्वाद नहीं लिया, कभी देखा नहीं दूध, कभी मां के स्तन जाने नहीं। अभी नौ महीने तो मां के पेट में सब मिलता था चुपचाप; पता ही नहीं चलता था कैसे, कहां से! जीवन-रस इसमें चुपचाप बहता था। इसे ओंठ भी नहीं चलाने पड़ते थे। जीवन-ऊर्जा इसे मिलती थी मुफ्त। इसने कभी दूध पिया भी नहीं है। बड़ा चमत्कार है।
मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक, सभी के सामने यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि बच्चा जब पहली दफा रोता है तो किसलिए? दूध के लिए? स्तन के लिए? यह तो संभव नहीं है। फिर किसलिए? भूख है। भूख का उसे पता है। भीतर भूख कुलबुला रही है। पुकारता है, रोता है, चिल्लाता है। किसके लिए रोता है, पुकारता है, यह भी अभी पता नहीं है। यह भी कैसे पता हो सकता है! सिर्फ रोता है।
इसलिए परम भक्त तो वही है जो सिर्फ रोता है; जो यह भी नहीं कह सकता कि मैं राम को बुला रहा हूं, कि कृष्ण को बुला रहा हूं--जो सिर्फ कहता है कि मैं किसको बुला रहा हूं, यह भी मुझे पता नहीं है; लेकिन एक बुलाहट मेरे भीतर रोएं-रोएं में है; एक पुकार उठी है; एक प्यास उठी है; एक भूख जगी है। नाम कुछ भी रख लेता है। बिना नाम के भी भक्त बुलाता है। आकाश में देखता है और खोजता है। चांद-तारों में खोजता है। लोगों की आंखों में खोजता है। अपने चारों तरफ देखता है। बाहर-भीतर खोजता है। उसे एक बात का पता है कि भीतर कोई चीज उठी है बड़े जोर से; एक अंधड उठा है; एक तूफान आया है; एक भूख जगी है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चे को जैसे ही स्तन मिलता है, वह तत्काल स्तन से दूध पीना शुरू कर देता है। इसने पहले कभी अभ्यास भी नहीं किया, कोई रिहर्सल भी नहीं किया है। इसको कोई मौका ही नहीं मिला रिहर्सल का। यह कैसे एकदम से दूध पीने लगता है?
भूख पर्याप्त है। अभ्यास की जरूरत नहीं है। वह भूख ही दूध को खींचने लगती है। दूध पीछे आता है, भूख पहले। पानी पीछे आता है, प्यास पहले। प्रेम पहले आता है, परमात्मा बाद में।
तुम पूछते हो कि ‘अज्ञात परमात्मा को हम कैसे प्रेम करें?’
प्रेम तुम्हारे भीतर है ही। तुम इसे वस्तुगत मत बनाओ--आत्मगत है। प्रेम तुम्हारे भीतर है ही। असल में तुमने जब भी प्रेम किया है तो तुमने परमात्मा की ही तलाश की है। इसे मैं दोहरा दूं। तुमने जब भी किसी को प्रेम किया है तो तुमने परमात्मा की ही तलाश की है--अनजाने। बच्चा अक्सर करता है कि उसके हाथ में कुछ भी दो, जल्दी से मुंह में ले लेता है। क्यों? उसे तो भूख लगी है। वह स्तन की तलाश कर रहा है। हाथ में घुनघुना दिया, घुनघुने को मुंह में ले लता है। कुछ न मिले, अपने अंगूठे को मुंह में ले लेता है; अपने पैर के अंगूठे को मुंह में ले लेता है। जो मिलता है उसी को मुंह में ले लेता है। उसे तो भूख लगी है। सोचता है शायद यही स्तन है। स्तन का तो उसे कुछ पता नहीं।
ऐसी हमारी दशा है। तुम्हें जो दिखाई पड़ जाता है उसी के तुम प्रेम में पड़ जाते हो। मगर यह प्रेम है परमात्मा की ही तलाश। और इसलिए इस जगत का कोई भी प्रेम तृप्त नहीं कर पाता। बच्चे ने घुनघुना मुंह में ले लिया, मगर इससे कुछ भूख तो मिटेगी नहीं। घुनघुने को चूसता रहे, घुनघुने को पीता रहे, इससे तृप्ति तो होगी नहीं; जल्दी ही देर-अबेर घुनघुने को फेंक देगा। फिर तलाश शुरू हो जाएगी।
ऐसे ही हमारे इस जगत के प्रेम हैं--घुनघुने हैं। उनमें हम खोजते परमात्मा को हैं; हम फिर परमात्मा को नहीं पाते, इसलिए ऊब पैदा हो जाती है, विषाद पैदा होता है। फिर हम एक घुनघुना छोड़ते हैं, फिर दूसरा घुनघुना पकड़ लेते हैं। धन खोजा, धन में कुछ रस न पाया। पद खोजा, पद में कुछ रस न पाया। पत्नी खोजी, पति खोजे, मित्र खोजे--कुछ रस न पाया। ऐसी ही दौड़ चलती रहती है, चलती ही रहती है। क्यों रस नहीं मिलता? रस इसीलिए नहीं मिलता कि जब तक वास्तविक स्तन न मिल जाए, रस मिले कैसे? घुनघुने ने कहा कब था कि मैं तुम्हें रस दूंगा? तुमने मान लिया था।
और अज्ञात है परमात्मा, इसीलिए यह भ्रांति भी होती है। मनुष्य कुछ भी खोजता हो, परमात्मा को ही खोजता है। नरक में खोजता हो तो भी परमात्मा को ही खोजता है। शराब में खोजता हो तो भी परमात्मा को ही खोजता है। पद में खोजता हो तो भी परमात्मा को ही खोजता है। धन में खोजता हो तो भी परमात्मा को ही खोजता है। समझने की कोशिश करना।
तुम्हारी धन की इतनी आकांक्षा क्यों है? कभी तुमने इस पर विचार किया? तुम्हारे महात्मा भी इसके खिलाफ तो बोलते हैं, लेकिन इस पर कभी विचार करने का मौका नहीं देते। इस पर तुमने कभी ध्यान किया कि आदमी धन की तलाश में क्या खोजता है? आदमी धन की तलाश में यही खोज रहा है कि ऐसी स्थिति आ जाए कि मेरी सब जरूरतें पूरी हो जाएं, कि मुझे कुछ चाहिए हो तो मेरे पास धन हो; ऐसा न हो कि चाहत तो हो और धन न हो, तो तड़प हो। धन के द्वारा आदमी एक ऐसी दशा पाना चाहता है जहां कोई भी आकांक्षा अतृप्त न रह जाए। और क्या खोज है? इतना धन हो कि मेरी आकांक्षाओं से ज्यादा हो, यही तो धन की खोज है। अगर तुम इसका सार-अर्थ समझो तो इसका मतलब हुआ कि धन के द्वारा भी आदमी वासनारहित चित्त की दशा खोजता है। एक ऐसी दशा आ जाए जहां कोई आकांक्षा नहीं बची। क्योंकि आकांक्षा यानी भिखमंगापन--मांगो, गिड़गिड़ाओ, तड़पो!
तुम जो धन के पीछे इतने पड़े हो तो तुम कोई रुपये-सिक्के के पीछे थोड़े ही दीवाने हो। कौन पागल रुपये के पीछे दीवाना है! रुपये में एक आशा है, एक भरोसा है कि अगर रुपया पास होगा तो तुम्हें भिखमंगा नहीं होना पड़ेगा; जब जरूरत पड़ेगी, तुम्हारे पास संपत्ति होगी, सुविधा होगी, तुम अपनी जरूरत पूरी कर लोगे; जरूरत से तड़फोगे नहीं।
वासना से ज्यादा धन हो जाए, यह हमारी दौड़ है। यह कभी हो नहीं पाता, यह दूसरी बात है; इसलिए हम तकलीफ में पड़ते हैं। मगर हमारी आकांक्षा तो यही है।
तुम पद पर पहुंचना चाहते हो--क्यों? ताकि तुम किसी से नीचे न रह जाओ, इससे ग्लानि होती है; तुम किसी से पीछे न रह जाओ। पीछे रहने में मन को कष्ट होता है। ऐसी जगह पहुंच जाओ जिसके ऊपर और कोई जगह नहीं है: चलो राष्ट्रपति हो जाओ कि प्रधानमंत्री हो जाओ। ऐसी जगह पहुंच जाओ जिसके ऊपर और कोई जगह नहीं; वहां निश्चित होकर फिर बैठोगे। अब कहीं जाने को नहीं रहा।
पद की तलाश भी इसीलिए है कि एक ऐसी जगह आ जाए जहां विश्राम कर सको; जहां से फिर और जाने की, और धक्के खाने की जरूरत न रहे; आखिरी पड़ाव आ गया, मंजिल आ गई। मगर यह आती नहीं मंजिल। दिल्ली पहुंच जाते हो, मगर मंजिल नहीं आती। मगर तलाश परमात्मा की हो रही है।
परमात्मा को भक्तों ने परमपद कहा है। और परमात्मा को भक्तों ने परमधन कहा है। क्यों? क्योंकि परमात्मा के मिलते ही सब वासनाएं शून्य हो जाती हैं। परमात्मा के मिलते ही सब दौड़ शांत हो गई। अब कहीं और नहीं जाना है; विश्राम आ गया, अपना घर आ गया; मंजिल आ गई। अब इसमें ही डुबकी लगानी है; गोते खाने हैं; इस रस में ही डूबना-उबरना है, डूबना है। अब मौज के क्षण आ गए। अब लीला होगी। अब कोई तनाव, कोई चिंता न रही।
मनुष्य के मन का ठीक-ठीक विश्लेषण करो तो तुम्हें पता चलेगा: मनुष्य कुछ भी खोजता हो, परमात्मा को ही खोजता है। और चूंकि कहीं भी नहीं पाता, इसलिए सब जगह से विषादग्रस्त होकर, संतापग्रस्त होकर लौट आता है।
पत्नी में तुमने खोजना चाहा था एक ऐसा सौंदर्य जो कभी कलुषित न हो। तुम्हारी आकांक्षा परमात्मा की है; वही एक सौंदर्य है जो कभी कलुषित नहीं होता। तुमने पत्नी में एक ऐसा यौवन खोजना चाहा था जो कभी मुरझाएगा नहीं। लेकिन वह तो सिर्फ परमात्मा का ही है जो कभी नहीं मुरझाता। इस जगत में तो सब मुरझा जाएगा। जो जवान है, बूढ़ा होगा। जो सुंदर है, कुरूप हो जाएगा। जो आज ताजा है, कल बासा हो जाएगा। यहां तो सब सुगंधें दुर्गंधें बन जाती हैं। और यहां सब सौंदर्य ढल जाता है। यहां फूल खिलते हैं--कुम्हलाने को। तुमने एक ऐसा फूल चाहा था जो कभी न कुम्हलाए। फिर तुमने जिस फूल को चाहा, वह कुम्हलाया। फिर पीड़ा लगी, फिर चोट लगी। ऐसी ही चोटों का नाम संसार है। ऐसे ही घाव बढ़ते चले जाते हैं।
मूढ़ आदमी वही है जो फिर-फिर उन्हीं घुनघुनों को पकड़ लेता है; फिर-फिर उन्हीं खिलौनों को चूसने लगता है। समझदार वह है जो देख लेता है कि घुनघुनों से दूध नहीं बहता है।
धन से कोई भी कभी आकांक्षा से मुक्त नहीं होगा और पद से कोई कभी परमपद पर नहीं पहुंचता है। जिसको यह बात दिखाई पड़ गई, उसकी भूख खालिस रह गई; इस संसार में कोई उसकी भूख नहीं भरता। उस खालिस भूख से प्रार्थना उठती है; परमात्मा को जानने से नहीं उठती। खालिस भूख, भूख और भूख और भूख! और इस जगत में कोई चीज तृप्त करने वाली नहीं। सब देख लिया, सब परख लिया, कोई चीज तृप्त करती नहीं। फिर क्या करोगे? भूख तो है, प्यास तो है। प्रेम तो अग्नि की लपटों की तरह उठ रहा है। और अब इन लपटों को उलझाने वाले पात्र भी न रहे--न पत्नी उलझाती न पति उलझाता, न धन न पद, कोई नहीं उलझाता। सब हैं अपनी जगह, लेकिन अब तुम्हारी इस अतृप्ति के लिए तृप्त करने वाली कोई चीज नहीं है यहां। उन्हीं क्षणों में आंखें आकाश की तरफ उठती हैं, अज्ञात की तरफ उठती हैं। ज्ञात को तो छान लिया, अब अज्ञात को खोजें। जो दिखाई पड़ता है, उसको तो खूब परख लिया; अब जो नहीं दिखाई पड़ता, उसकी यात्रा में चलें। बाहर जो था उसको तो खूब तलाशा और हर बार और भी ज्यादा विषादग्रस्त होकर अपने में गिर गए; अब भीतर खोजें; अब अंतर्यात्रा पर निकलें।
‘उस परम तत्व से प्रेम या भक्ति कैसे की जाए जिसे हम जानते ही नहीं?’
जिसे तुम जानते हो, जिस दिन इससे तुम्हारा प्रेम असफल हो जाएगा--उस दिन। जिस दिन तुम जान लोगे कि यहां प्रेम के तृप्त होने का उपाय ही नहीं है, उस दिन यात्रा शुरू होगी। असली बात तुम्हारे भीतर की प्यास है। अपनी प्यास पहचानो, परमात्मा की फिकर छोड़ो।
इसलिए तो कुछ ऐसे ज्ञानी हुए जैसे बुद्ध-महावीर, जिन्होंने परमात्मा की बात ही नहीं की। उन्होंने कहा, परमात्मा को क्यों बीच में लाएं? अपनी प्यास है; अपनी प्यास को ही समझने की कोशिश करें; और अपनी प्यास में ही उतरें। वे अपनी प्यास में ही उतर गए और उन्होंने परम अवस्था पा ली। परमात्मा मिल गया--परमात्मा की बात किए बिना मिल गया। और जिन्होंने भगवान को नहीं माना, उनको हमने भगवान कहा। बुद्ध को हमने भगवान कहा। महावीर को हमने भगवान कहा। माना नहीं उन्होंने भगवान को। वे बड़े तर्कनिष्ठ लोग थे। उन्होंने कहा, भगवान को तो हम जानते नहीं, उसकी क्या बात करें? हमारे भीतर एक प्यास है, उसका ही हम विश्लेषण करेंगे। अपनी ही प्यास की हम खोज करेंगे। अपनी ही प्यास में गहरे जाएंगे। सीढ़ियां दर सीढ़ियां नीचे उतरेंगे। अपनी ही प्यास के कुएं में झांकेंगे। अंततः कहीं न कहीं जल की कोई रेखा होगी।
जिन्होंने ऐसी यात्रा की, वे ध्यानी: उन्होंने ध्यान के माध्यम से परम अवस्था पा ली। वे स्वयं परमात्मा हो गए! जरूरी नहीं कि सभी ऐसी यात्रा करें। जो सरल हृदय हैं, जिनका चित्त अभी बहुत विश्लेषण के रोग से ग्रसित नहीं हुआ है, जिनके पास थोड़ी सी भाव की संपदा शेष है, वे आंख उठा कर आकाश के अज्ञात में देखना शुरू कर दें। रोएं। गीत गा सकें गीत गाएं। कुछ न बन सके तो रोना तो बन सकता है। रोने के लिए तो कोई कुशलता और कला नहीं चाहिए। उसी रोने में प्रार्थना का जन्म हो जाएगा।
घड़ी भर रोज रो लो। पर्याप्त है। नहा जाओगे उन आंसुओें में; हलके हो जाओगे। और तुम पाओगे कि धीरे-धीरे जिसकी खोज है वह करीब आने लगा।
कौन वह पुकार गई!
अंधियारे आंगन में दिवरा सा बार गई
सूखे दो तिनकों में गुम-सुम-सा बैठा है
पांखों में ढांपे मुख जीवन से रूठा है
नीड़-विटप ठूंठा है
ऐसे मन-सुगना को चुगना-सा डार गई
कौन वह पुकार गई!
पेड़ों की फुनगी पर सिहरन अंधियारे की
टहनी पर सुगबुग है पंछी बनजारे की,
पंथी मनहारे की
सबकी मनचीती भिनसार को गुहार गई
कौन वह पुकार गई!
आंखों की शाखों पर आंसू का झूला है
ओंठों के ढोले पर प्राण बहुत झूला है,
पैगों में भूला है
सांसों की छिटकी लट प्यास से संवार गई
कौन वह पुकार गई!
बेला के गजरेले सागर भी दौड़ा था
तट की चट्टानों ने फूल-फूल तोड़ा था
गति ने मुख मोड़ा था
रेत की गलबांही दे चुप-चुप दुलार गई
कौन वह पुकार गई!
रह-रह कर गिरते हैं जाले उदासी के
दुख से धुंधवाए-से भाप की उसांसी-से
मैले-से, बासी-से
अंतस के मटियाले बासन खंगार गई
कौन वह पुकार गई!
सपनों के मड़वे पर, भावों के चौरे पर
आशा के बिरवे पर, प्यार के टकोरे पर
बोर के निहोरे पर
सरस रूप गंध के फुहारे फुहार गई
कौन वह पुकार गई!
ऐसी फुलचुगी को पाना भर जीवन है
बैठे जिस डाली पर उसमें ही कंपन है
गीतों का नंदन है
मुट्ठी में बांधो तो पारे सी पार गई
अंधियारे आंगन में दिवरा सा बार गई
कौन वह पुकार गई!
इस जगत के प्रेम भी जब आते हैं तो बड़े अज्ञात-अपरिचित आते हैं। किसी प्रेमी से पूछा इस स्त्री के प्रेम में क्यों पड़ गए? इसे जानते थे? जान कर प्रेम किया? तो प्रेमी कहेगा, जानने का सवाल ही नहीं उठा। इसे देखा और प्रेम हो गया।
प्रेम कैसे हो गया, यह प्रेमी कहता है, यह बताना मुश्किल है। मैंने किया, यह बात ही गलत--बस हो गया। अपने किए की कुछ बात ही नहीं है। एक तरंग उठी। कोई हृदय को बांध गया।...कौन वह पुकार गई!
पहचानते थोड़े ही हैं प्रेमी एक-दूसरे को। एक पुकार, एक तरंग दोनों हृदयों में एक साथ डोल जाती है। कोई अज्ञात तंतु कंप जाता है। क्यों कंप जाता है? अब तक कोई उत्तर नहीं है। कभी कोई उत्तर नहीं होगा। कारण मिल जाए प्रेम का तो समझना प्रेम ही नहीं। तुम कहोगे: इसलिए प्रेम किया कि इसके पास पैसा बहुत था, बाप की अकेली बेटी है, सब अपना हो जाएगा--तो यह प्रेम न रहा। अगर उत्तर दे सको कि इसलिए प्रेम किया, तो यह प्रेम न रहा। तुमने कहा कि इसकी नाक बड़ी सुंदर है...नाक से तो कोई प्रेम नहीं करता। और फिर कल नाक तो...नाक ही है, कल गिर पड़े, चोट खा जाए, फिर क्या होगा? तुम कहो इसकी आंख से प्रेम किया। नहीं, ये सब तो बहाने हैं। अक्सर तुम खोज लेते हो ये बहाने। मगर ये सच्चे नहीं हैं।
प्रेम पहले हो जाता है, फिर आंख सुंदर मालूम पड़ती है, नाक सुंदर मालूम पड़ती है, बाल सुंदर मालूम पड़ते हैं। असल बात उलटी है। ऐसा नहीं है कि आंख सुंदर थी, इसलिए प्रेम हो गया। प्रेम हो गया, इसलिए आंख सुंदर मालूम पड़ती है। क्योंकि यही आंख किसी दूसरे को सुंदर नहीं मालूम पड़ती; सिर्फ तुम्हीं को मालूम पड़ती है।
लैला सिर्फ मजनू को सुंदर मालूम पड़ती है। सारा गांव हंसता था, पागल समझता था। मजनू का मतलब ही पागल हो गया धीरे-धीरे, शब्द का अर्थ ही पागल हो गया कि क्या मजनू हुए जा रहे हो! दिमाग खराब हो गया है? सारा गांव हंसता था। लोग कहते थे: तू पागल है, यह लैला में कुछ भी रखा नहीं है; हमें तो कुछ दिखाई नहीं पड़ते। गांव के राजा ने भी बुलाया मजनू को। कहा: तू बिलकुल दीवानगी छोड़। तुझे सुंदर स्त्री चाहिए?
समझदार आदमी सदा ऐसी बातें करते रहे: तुझे सुंदर स्त्री चाहिए? उसने राजमहल से बारह लड़कियां खड़ी कर दीं सुंदरतम। उस पूरे देश में नहीं थीं। मजनू गया। एक-एक स्त्री को देखा, लौट कर उदास आ गया। उसने कहा: लैला इनमें कोई भी नहीं है। राजा ने कहा: तू पागल हुआ है? लैला कुछ भी नहीं है--एक काली-कलूटी सी, साधारण सी स्त्री है; ये सुंदरतम स्त्रियां हैं।
मजनू ने कहा: होंगी। लेकिन मुझे लैला के सिवाय और कोई सुंदर दिखाई नहीं पड़ती। मुझे जिससे प्रेम है उसी में सौंदर्य दिखाई पड़ता है।
राजा ने कहा: मुझे सौंदर्य नहीं दिखाई पड़ता, मैं कोई अंधा हूं?
मजनू का उत्तर बड़ा प्यारा था। उसने कहा: अगर लैला में सौंदर्य देखना हो तो मजनू की आंख चाहिए।
यह बात बड़ी महत्वपूर्ण है: मजनू की आंख।
तुम्हारा जब किसी से प्रेम हो जाता है तो दुनिया को तुम पागल मालूम पड़ोगे। प्रेमी सदा से पागल मालूम पड़े हैं। कारण साफ है क्योंकि प्रेमी उत्तर नहीं दे पाते, तर्कयुक्त उत्तर नहीं दे पाते। इसलिए प्रेम को लोग अंधा कहते हैं, क्योंकि प्रेम के पास तर्क नहीं है। प्रेम के पास बुद्धिमानीपूर्ण उत्तर नहीं है। इसलिए बहुत बुद्धिमानों ने तो प्रेम का रास्ता ही समाप्त कर दिया था। उन्होंने तो विवाह ईजाद किया। वह बुद्धिमानों की ईजाद है; समझदार, चालाकों की ईजाद है। उन्होंने विवाह ईजाद किया। विवाह का मतलब होता है कि पहले ठीक से जान लो, फिर प्रेम में पड़ो। घर-ठिकाना, ज्योतिष से पूछो। मुहूर्त दिखवाओ। कुलीन है या नहीं? परंपरा कैसी है? अब तक घर में कैसे लोग रहे? प्रतिष्ठा कैसी? धन, पद-प्रतिष्ठा, शिक्षा यह सब जांचो-परखो। पहले जान लो, फिर प्रेम करो।
तुम्हारा जो प्रश्न है वह ऐसा ही है कि पहले जानें तब तो प्रेम हो। फिर विवाह होगा, प्रेम नहीं हो पाएगा। और विवाह प्रेम नहीं है, खयाल रखना। विवाह बिलकुल प्लास्टिक, उसमें असलियत जरा भी नहीं है। व्यवस्था अच्छी है विवाह की; उसमें खतरा कम है, यह सच है। सुविधा ज्यादा है, सुरक्षा ज्यादा है। समाज विवाह के साथ ज्यादा सुरक्षित है; प्रेम के साथ खतरे हैं। ऐसी चीज का क्या भरोसा जो अनजान से उतरती है। अपने बस में नहीं है। ऐसी चीज का कोई भरोसा नहीं है। आया हवा का झोंका तो आ गया, नहीं आया तो...। और जो आया अचानक, वह अचानक जा भी सकता है। यह भी खतरा है।
विवाह तो हम चेष्टा से लाए हैं, चेष्टा से ही जा सकेगा। पहले विवाह को बड़े आयोजन से लाना पड़ता है। इसलिए तो फिर तलाक का भी उतना ही आयोजन करना पड़ता है; जब जाएगा तो उतना ही आयोजन करना पड़ता है। और भी कठिन आयोजन करना पड़ेगा। जैसे बैंड-बाजे बजे थे और एक औपचारिकता थी और पंडित-पुरोहित आए थे और समाज इकट्ठा हुआ था, ऐसी फिर अदालत की दुनिया में गुजरना पड़ेगा, मुकदमेबाजी होगी, कानून चलेगा, झंझटें होंगी। व्यवस्था बनाई थी तो व्यवस्था मिटाने में भी उतनी झंझट होगी।
प्रेम तो आता है अज्ञात झोंके की तरह। फिर उसका कुछ भरोसा भी क्या है! उसमें तो बहुत हिम्मतवर ही भरोसा कर सकते हैं। उसमें तो दुस्साहसी भरोसा कर सकते हैं। कमजोर, वणिक बुद्धि के लोग उसमें भरोसा नहीं कर सकते। उसमें तो क्षत्रिय और राजपूत...।
और यह तो मैं साधारण प्रेम की बात कर रहा हूं। परमात्मा का प्रेम तो बहुत भयंकर अंधड़ है। तुम परमात्मा को पहले जानोगे, फिर प्रेम करोगे? तुम्हें कोई पहले परमात्मा से परिचय करवाए तब तुम प्रेम करोगे? यही तो विज्ञान कहता है। विज्ञान कहता है, पहले परमात्मा प्रमाणित तो हो! प्रयोगशाला में प्रमाणित हो; टेस्टट्यूब में प्रमाणित हो। हम इसकी जांच-परख कर लें ठीक से। काट-पीट कर लें इसकी ठीक से। जब तक हम परमात्मा का रोआं-रोआं, रग-रग न जान लें, तब तक हम स्वीकार न करेंगे। प्रेम की तो बात ही दूर है; पहले स्वीकार करेंगे, फिर प्रेम हो सकता है।
...तो तो फिर तुम परमात्मा से कभी संबंध न जोड़ पाओगे।
परमात्मा अज्ञात है, और अज्ञात ही रहता है; अदृश्य है और अदृश्य ही रहता है।
परमात्मा का अर्थ है: इस विराट में जो ऊर्जा समाहित है; यह जो विराट की लीला चल रही है, इसके पीछे जो छिपा हुआ नर्तक है; यह जो नृत्य चल रहा है; यह जो उत्सव चल रहा है; इस उत्सव के पीछे जो जीवन-सूत्र है। उस जीवन-सूत्र से सीधी-सीधी पहचान नहीं होती। प्रत्यक्ष परिचय कभी नहीं होता--परोक्ष। प्रेम के द्वारा ही होता है।
इसलिए संतों ने सदगुरु की इतनी बात की है। सदगुरु का मतलब केवल इतना है कि तुम्हारा सीधा तो कोई परिचय नहीं है; किसी का परिचय हो, पहले उसके प्रेम में पड़ो। धीरे-धीरे कदम बढ़ाओ।
आदमी तैरने सीखने जाता है नदी पर तो पहले तो उथले में तैरता है। एकदम से उतर नहीं जाता सागर की गहराई में। पहले किनारे पर तैरता है। आहिस्ता-आहिस्ता अभ्यास करता है। फिर धीरे-धीरे और गहराई की तरफ बढ़ता है। ऐसे-ऐसे एक दिन इस योग्य हो जाता है कि पैसिफिक की गहराई भी हो तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता। तैरना आ गया।
पहले सत्संग करो। सत्संग का मतलब है: जहां तुम जैसे ही प्यासे लोग, संसार से ऊब गए, हार गए, थक गए लोग, संसार को जिन्होंने ठीक से देख लिया, परख लिया और जरा भी पोषण नहीं पाया संसार से, जिनके प्राणों को जरा भी तृप्ति नहीं मिली, ऐसे लोगों के संग-साथ बैठो, संगत करो। इनके साथ बैठने से तुम्हारी प्यास निखरेगी, तुम्हारी प्यास प्रकट होगी, साफ होगी। और तुम्हें हिम्मत बढ़ेगी कि तुम अकेले ही नहीं हो जिसके लिए संसार व्यर्थ गया है। अकेले में डर लगता है कि पता नहीं, अपनी कोई भ्रांति हो। जहां सारी दुनिया धन की खोज कर रही है, वहां मैं ध्यान की खोज करूं! संदेह पैदा होता है, भरोसा नहीं आता: कहीं पागल तो नहीं हो रहा हूं। यह क्या झंझट सिर ले रहा हूं! जहां सारी भीड़ जा रही है, उसी तरफ जाने में सुगमता मालूम पड़ती है, सुविधा मालूम पड़ती है।
जहां भीड़ है वहीं सच होगा, ऐसी हमारी धारणा है। जहां सभी लोग जाते हैं, इसीलिए जाते होंगे कि कुछ सच्चाई है; अकेला मैं कैसे चल पडूं पगडंडी पर।
संगत का अर्थ है: अकेला नहीं हूं, और भी लोग हैं। संगत का अर्थ है: मेरे जैसे और भी दीवाने हैं, मेरे जैसे और भी प्यासे हैं। इससे हिम्मत बढ़ती है।
तो पहला कदम: संगत। संगत का अर्थ है: नदी के किनारे, तट पर, गले-गले पानी में तैरना सीखो। फिर संगत से दूसरा कदम है: सदगुरु। अब तुम थोड़े और गहरे जाओ। अब जरा उसका हाथ पकड़ो जिसने परमात्मा में डुबकी लगाई हो। पहले उनका हाथ पकड़ो जो डुबकी लगाने के लिए आतुर हैं; फिर उसका हाथ पकड़ो जिसने डुबकी लगाई हो। और तीसरे कदम में तुम्हें पूरी स्वतंत्रता है, तुम परमात्मा में सीधे डुबकी मार जाओ।
संगत, सदगुरु और सत्य--बस ये तीन ही कदम हैं। भक्ति में ये तीन ही कदम हैं।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, तथाता और समर्पण मुझे विशेष रूप से प्रिय लगते हैं, लेकिन उनमें स्थित क्यों नहीं हो पाता? कृपापूर्वक मार्गदर्शन करें।
प्रिय लगने से ही तो कुछ हल नहीं होता। प्रिय तो कभी-कभी गलत कारणों से भी लग सकते हैं। और आदमी इतना गलत है कि गलत की ही संभावना ज्यादा है।
समझो। समर्पण की बात सुनी कि तुम्हें कुछ भी नहीं करना, सब उसी पर छोड़ देना है। यह बात प्रिय लग सकती है क्योंकि करने की झंझट से बचे। यह गलत कारण होगा प्रीतिकर लगने का। तुमने सोचा: यह तो बड़ी अच्छी रही, कुछ करना भी नहीं। मगर तुम समझे नहीं बात। कुछ न करना इस जगत में सबसे बड़ा करना है और सबसे कठिन करना है। जरा कभी आधा घड़ी कुछ न किए बैठ कर देखो, तब तुम्हें समझ में आएगा। कुछ करना तो सदा आसान है। करते तो तुम रहे ही हो, जन्मों-जन्मों से करते ही रहे हो। वह तो आसान है। कठिन से कठिन काम आदमी कर ले, लेकिन यह सरल से सरल काम कि आधा घड़ी को बिना कुछ किए बैठ जाए, यह बड़ा कठिन है, बहुत कठिन है। शरीर से रोक भी लोगे अपने को तो मन भागा-भागा रहेगा, मन करता रहेगा। मन योजनाएं बनाएगा, या कि अतीत में लौट जाएगा या कि भविष्य में दौड़ेगा, यहां-वहां छितरा-छितरा होगा। मगर तुम कुछ करोगे तो ही।
न करने का मतलब होता है शरीर भी शून्य हो गया, मन भी शून्य हो गया।
न करने का मतलब होता है जैसे तुम मर ही गए; जैसे इन कुछ घड़ियों के लिए तुम बचे ही नहीं; तुम्हारे होने का बोध ही न रहा। कोई अहंकार न रहा, कोई कर्ता न रहा, कोई कर्तृत्व न रहा।
ज्ञानियों ने कहा है: एक क्षण को भी ऐसा शून्य घट जाए तो सब घट गया।
तो जब तुम मेरी बात सुनते हो कि समर्पण में कुछ नहीं करना होता, सब छोड़ देना होता है, तो तुम्हें बात तो जंचती है लेकिन गलत कारण से जंचती है। तुम सोचते हो, यह अच्छी रही। हम तो सोचते थे कुछ करना पड़ेगा। यह झंझट मिटी करने की भी।
तुम हो आलसी। तुम्हें बात रुची: कुछ करना नहीं है। मगर तुम समझे नहीं। गलती के कारण बात जंची। भ्रांति तुम्हें हो गई। तुम समझे आलस्य, मैं कह रहा था शून्य। तुम समझे कुछ करना नहीं है, यह तो बड़ी सुगम बात हो गई है। और मैं कह रहा था अहंकार को विसर्जित करना है।
कर्ता यानी मैं। और जब तुम अकर्ता बनोगे तभी परमात्मा तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो सकता है। जब तक तुम हो तब तक बाधा है, अड़चन है।
तो तुम पूछते हो: ‘तथाता और समर्पण की बात मुझे प्रिय लगती है, लेकिन उनमें स्थित क्यों नहीं हो पाता?’
प्रिय लगती होंगी गलत कारण से। अगर ठीक कारण से प्रिय लगेंगी तो तत्क्षण स्थित हो जाओगे। तथाता की बात भी बहुत लोगों को प्रिय लगती है कि जैसा है वैसा ही स्वीकार कर लो। मगर तुम समझते हो यह आसान है कि जैसा है वैसा ही स्वीकार कर लो।
मन तो इनकार करने का आदी है, अभ्यस्त है। मन तो शिकायत करने का आदी है। मन तो हर जगह भूल-चूक निकालता है। मन तो कहता है: ऐसा होना चाहिए था, ऐसा होता तो अच्छा होता। यह क्या हो गया?
हां, जब अच्छा-अच्छा होगा तब शायद तुम स्वीकार कर लो। लेकिन वह तो कोई बात न थी; सवाल तो तब था जब अच्छा न हो तब स्वीकार करने का। मीठा-मीठा गप, कड़वा-कड़वा थू। मीठा-मीठा गप की तो बात ही नहीं थी। वह जो कड़वा-कड़वा था। जिसको तुम थूक देते हो, उसको भी उसी अहोभाव से स्वीकार कर लेना था। सुख को तो सभी स्वीकार कर लेते हैं; दुख को स्वीकार करने की बात थी।
जब मैं कहता हूं तथाता, तो उसका अर्थ होता है जो प्रभु दे! फूल दे तो फूल, कांटे दे तो कांटे। सफलता दे तो ठीक, विफलता दे तो ठीक। विफलता में भी जरा सी शिकायत न उठेगी। क्षण भर को भी ऐसा भाव न आएगा मन में कि विफलता हो गई, यह क्या हो गया? यह तूने क्या किया? अपने प्यारे को, अपने भक्त को इस बुरी दशा में डाल दिया? चोर-उचक्के सफल हुए जा रहे हैं और मैं पूजा-पाठ कर करके मरा जा रहा हूं, मैं हारता जा रहा हूं। बुरे आदमी जीत रहे हैं, महल खड़े कर रहे हैं। भले आदमी गिट्टियां तोड़ रहे हैं। यह तू क्या कर रहा है? और मैंने तो सदा यही सुना था कि तेरे संसार में न्याय है; यह तो अन्याय हो रहा है।
तुम अक्सर भले आदमियों को रोते पाओगे। मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं: यह क्या हो रहा है संसार में? हमने तो सुना था: सत्यमेव जयते! यहां तो झूठ की विजय हो रही है और सत्य तो हारा-पीटा है, सब जगह चारों खाने चित्त पड़ा है। सत्य बोले कि हारे। झूठ बोलो तो जीतो।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम शील से जीते हैं, सदाचरण से जीते हैं, भूखे मर रहे हैं। बच्चों के लिए न शिक्षा जुटा पाते, न मकान जुटा पाते, न कोई सुख-सुविधा जुटा पाते। हम भी चोर होते, हम भी लफंगे होते, तो हम भी सुख में होते।
मगर इसका मतलब क्या होता है? इसका मतलब इतना ही होता है कि ये भलेपन की जो बातें कर रहे हैं--शील, सदाचरण, इत्यादि--ये सिर्फ भय के कारण भले हैं। वह जो चोर खतरा लेता है, वह खतरा लेने की इनकी तैयारी नहीं है। चोर खतरा भी लेता है, महल ही नहीं बनाता है; कभी-कभी फिर नौ लाख के महल में भी चला जाता है। उसका खतरा भी देखते हो! वह दांव भी लगाता है। जुआरी है। या तो सब गया या सब पाता है।
अब तुम छोटी सी दुकान करते हो, जुए का दांव लगाते नहीं। तो कभी-कभी जुआरी जब जीत जाता है, तब तुम परेशान होते हो। मगर उसका खतरा देखा! उसने जोखिम उठाई थी। या तो सड़क का भिखमंगा होता। तुम कभी भिखमंगे न होओगे। किसी तरह खाते-पीते दाल रोटी जुटाते रहोगे। या तो वह भिखमंगा होने को तैयार था या महल बनाने को तैयार था। दोनों हालत में उसने खतरा लिया था, तो कभी वह जीतेगा, कभी हारेगा। उसके साहस के कारण ही यह हो रहा है।
तुम्हारी नीति अक्सर तुम्हारा आंतरिक भय होता है कि कहीं पकड़े न जाएं, कहीं कोई झंझट न हो जाए, प्रतिष्ठा न टूट जाए! यह कोई वास्तविक धर्म नहीं है: यह भीरु का धर्म है। यह कमजोर और नपुंसक का धर्म है।
इसलिए तुम्हारे मन में शिकायत भी बनी रहती है। तुम्हारे मन में ईर्ष्या तो उसी से बनी रहती है, उस बुरे आदमी से। तुम भी चाहते तो वही हो जो उसे मिल रहा है; लेकिन तुम उतनी जोखिम भी नहीं उठाना चाहते। तुम जालसाज ज्यादा हो। तुम बिना ही जोखिम के पाना चाहते हो। तुम चाहते हो कि कभी-कभी भजन कर लेते हैं, माला फेर लेते हैं, इसलिए जो महल चोर को मिल गया है वह हमें भी मिल जाए। पर भजन कर लेने से महल के मिलने का कोई संबंध नहीं। भजन करने से बादशाह होने का जरूर संबंध है, लेकिन महल के मिलने का कोई संबंध नहीं है। बादशाह तुम हो जाओगे--झोपड़े में रहोगे तो भी बादशाह हो जाओगे। और महल होने से थोड़े ही कोई बादशाह हो जाता है। महलों में कितने भिखारी रह रहे हैं! मगर तुम महल देखते हो। तुम्हें भी महल ही दिखाई पड़ता है; महल के भीतर वह जो भिखमंगा, वह जो चोर रह रहा है जो रात भर सो नहीं सकता और जिसके जीवन में कोई शांति नहीं है और सब तरफ जहर है, वह तुम्हें नहीं दिखाई पड़ता, उसका महल दिखाई पड़ता है।
तुम भी हो तो चोर ही, लेकिन तुम जरा कमजोर चोर हो। तुम पकड़े जाने का खतरा नहीं उठा सके। तुम माला फेरते हो, जैसे कि माला फेरने से महल के मिलने का कोई संबंध हो; कि तुम गीता पढ़ते हो, जैसे गीता पढ़ने से कोई धन के पैदा होने का कोई भी तो संबंध नहीं है।
वास्तविक धार्मिक आदमी की कोई शिकायत नहीं होती, सदा ही धन्यवाद होता है। वह कहता है, प्रभु की अनुकंपा हर घड़ी बरस रही है। कभी दुख में आती है, कभी सुख में आती है, लेकिन मैं उसे हमेशा पहचानता हूं। वह दुख में भी आती है तब भी उसकी कृपा को पहचानता हूं। क्योंकि दुख सदा दुख ही नहीं होता। दुख निखारता है, मांजता है। दुख कचरे को जलाता है। दुख शुद्ध को प्रकट करता है। दुख प्रक्रिया है विकास की।
अब लोहार पीटता है लोहे को, आग में डालता है, पीटता है, आग में डालता है, तब कुछ निर्मित हो पाता है। सोने को आग में डालना पड़ता है, तब कचरा जलता है और सोना कुंदन बनता है।
ऐसे ही दुख भी एक अग्नि है। और अक्सर ऐसा होता है कि परमात्मा अपने प्यारों को ज्यादा दुख की अग्नि से गुजारता है। स्वभावतः वे उसके प्यारे हैं। स्वभावतः उनकी पात्रता ऐसी है कि उन्हें ज्यादा अग्नि से गुजारा जाना चाहिए। स्वभावतः उनके भीतर ज्यादा संभावना छिपी है, उन्हें ज्यादा कूटा-पीटा जाना चाहिए, ताकि उनके भीतर दबे हुए बीज प्रकट हो जाएं।
अक्सर बुरा आदमी सुविधा से जी लेता है। बुरे आदमी में कुछ है ही नहीं। उसको कूटने-पीटने की भी कोई जरूरत नहीं। भला आदमी हजार असुविधाओं से गुजरता है। मगर अगर परमात्मा से प्रेम लग गया हो, लगन लग गई हो तो दुख दुख नहीं मालूम होता; विफलता विफलता नहीं मालूम होती; हार हार नहीं मालूम होती; हर हार एक नई जीत की सीढ़ी बन जाती है।
अब तुम पूछते हो कि ‘तथाता और समर्पण मुझे विशेष रूप से प्रिय लगते हैं।’
वे इसलिए अच्छे लगते होंगे कि तथाता का मतलब होता है एक तरह का भाग्यवाद, कि अब हम क्या करें, जो परमात्मा कर रहा है सो कर रहा है, जो करेगा सो करेगा, हमारे किए तो कुछ होगा नहीं। एक तरह की काहिलता, सुस्ती, आलस्य...। यह नकारात्मक पहलू है तथाता का, जो तुम पकड़ रहे हो।
फिर दूसरा है समर्पण: हमें कुछ करना नहीं है, सिर्फ उसके चरणों में सिर रख देना है। मगर तुम सोचते हो उसके चरणों में सिर रख देना कुछ आसान बात है? सिर उतार कर रखना होता है। ऐसे ही झुका दिया और चले आए...। तुम तो झुके ही नहीं, सिर की कवायद हो गई। ऐसे नहीं चलेगा। पलटू का कल वचन सुना? पलटू ने कहा: अपने सिर को काटे। काटे ही नहीं, फिर कटे हुए सिर के ऊपर खुद नाचे। बड़ी अपूर्व बात कही! सिर को काटे, पहले तो अहंकार को काट कर गिरा दे। और इतना ही नहीं कि गिरा कर खड़ा हो जाए कि देखो कितना त्याग किया; उदासी में खड़ा हो जाए गंभीर होकर कि अब मुझे बदला दो। नाचे--आनंद अहोभाव से, उत्सव से! उस उत्सव की घड़ी में ही परमात्मा से मिलन होता है।
तो तुम्हें कुछ बातें प्रीतिकर लगें, इससे यह मत सोचना कि तुम उसमें स्थित हो जाओगे। अगर स्थित हो जाओ तो ही समझना कि वस्तुतः तुम्हें प्रीतिकर लगीं और ठीक कारणों से प्रीतिकर लगीं। अगर स्थित न हो पाओ तो समझना कि गलत कारणों से प्रीतिकर लगी होंगी, अपने कारण को बदलो।
दुनिया में बड़े-बड़े अपूर्व सिद्धांत गलत आदमियों के हाथ में पड़ कर गलत हो गए। गलत आदमी के हाथ में ठीक सिद्धांत भी गलत हो जाता है। और ठीक आदमी के हाथ में गलत सिद्धांत भी ठीक हो जाता है। इसे स्मरण रखना। सब-कुछ आदमी पर निर्भर है।
अब यह कितना अपूर्व सिद्धांत था भाग्य का कि जो कर रहा है परमात्मा कर रहा है! लेकिन गलत आदमियों के हाथ में पड़ गया। यह अपूर्व सिद्धांत गलत आदमियों के हाथ में पड़ कर पूर्व की पूरी की पूरी परेशानी का कारण बन गया। अब हमें कुछ करना नहीं है। अब तो जो कुछ हो रहा है ठीक है। दुख है, दारिद्रय है, बीमारी है, रोग है--सब ठीक है। एक तरह की जड़ता पैदा हो गई।
भाग्यवाद ने पूरब को मार डाला--बुरी तरह मार डाला! गलत कारणों से ऐसा हुआ। असली भाग्यवाद का अर्थ यह नहीं होता कि हमें कुछ नहीं करना है। असली भाग्यवाद का अर्थ यह होता है कि हमसे परमात्मा जो करवाए वह करना। करवाने वाला वह है, करने वाले हम हैं। करने वाले अब भी हम हैं। खयाल रखना, पुरुषार्थी भी करता है; लेकिन पुरुषार्थी कहता है, मैं कर रहा हूं। और भाग्यवादी भी करता है; लेकिन भाग्यवादी कहता है, परमात्मा करवा रहा है। इतना ही फर्क है। करने में जरा फर्क नहीं पड़ता। सच तो यह है कि पुरुषार्थी जल्दी थक जाएगा। उसकी ऊर्जा कितनी! अहंकार की क्षमता कितनी! भाग्यवादी कभी नहीं थकेगा। परमात्मा की ऊर्जा से जो जी रहा है, वही करवा रहा है; उसके थकने के कारण कहां हैं।
अगर पूरब के देशों ने भाग्यवाद को ठीक कारणों से पकड़ा होता तो पश्चिम बहुत पीछे होता। पश्चिम तो अहंकार से जी रहा है। पश्चिम अहंकार से इतना संपन्न हो गया और हम परमात्मा के साथ जुड़ कर न हो पाए। जरूर कहीं कुछ भूल हो गई है, गहरी भूल हो गई है। हम जुड़े ही नहीं। हमने भाग्य को आलस्य बना लिया। समर्पण को हम समझे कि बस खत्म हो गया; मंदिर में सिर रख आए, बात खत्म हो गई।
समर्पण है पूरे जीवन की शैली का रूपांतरण। समर्पण का अर्थ होता है: अब तू है, मैं नहीं हूं। अब तू जो करवाएगा वही मैं करूंगा। यही तो गीता की पूरी की पूरी भित्ति है। अर्जुन बड़ा पाश्चात्य बुद्धि का आदमी रहा होगा। वह यही कह रहा है कि मैं काटूं, मैं मारूं, इस युद्ध में मैं हत्या करूं, हिंसा करूं, मैं ऐसे बुरे काम करूं--किसलिए? मैं जंगल चला जाऊंगा, मैं सब छोड़ दूंगा। मैं संन्यस्त हुआ जाता हूं।
और कृष्ण उसे खींच-खींच कर, समझा-समझा कर युद्ध में वापस ला रहे हैं। और कृष्ण कह रहे हैं कि तू एक भ्रांति छोड़ दे कि तू करने वाला है। करने वाला परमात्मा है। तू कौन बीच में आता है! ये जो लोग तू खड़े देख रहा है, ये मर ही चुके हैं। तू तो निमित्त मात्र है। जैसे कोई आदमी मर गया और तेरे धक्के की जरूरत है। ताकि वह गिर जाए। तू धक्का नहीं देगा तो कोई और धक्का देगा, लेकिन जो मारने वाला है वह मरेगा। तू भाग मत। तू परमात्मा की सेवा कर। तुझे थोड़ा अवसर मिला है, इससे मत चूक। परमात्मा ने तुझे निमित्त बनाया है, तू निमित्त बन जा। यह अपूर्व अवसर है, इससे भाग मत। यही संन्यास है।
अर्जुन को समझ में नहीं आती बात कि यह कैसा संन्यास है! विवाद चलता है, लंबा विवाद चलता है। कृष्ण कहते हैं यही संन्यास है कि प्रभु जो कराए वही हम करें। फिर यह भी हम न पूछेंगे कि बुरा कि भला। क्योंकि मैं कौन! जहां निमित्त बना देगा...।
यह बड़ी क्रांतिकारी धारणा है: बुरे को भी चुपचाप स्वीकार कर लेना। अपमान होगा, निंदा होगी, प्रतिष्ठा खो जाएगी--ठीक है। प्रभु की यही मर्जी होगी तो यही होगा। यही काम उसे मुझसे लेना होगा। मुझे अप्रतिष्ठित होने की दशा में डालना जरूरी होगा, इसलिए डालता है।
ऐसी सरलता से जो समर्पण कर देता है उसके जीवन में कुछ और करने को बचा नहीं रह जाता। बचने की कोई बात ही नहीं रही।
ठीक कारण पकड़ो। ठीक कारण समझो। अन्यथा अक्सर तुमने संतों के वचन का दुरुपयोग किया है। तुम कुछ अपने हिसाब से अर्थ निकाल लेते हो। तुम अपने अर्थ एक किनारे रखो। जो कहा जाए उसे ठीक वैसा ही पहले समझने की कोशिश करो। जल्दबाजी न करो। करने की जल्दी नहीं है। समझने की फिकर करो पहले।
इधर मेरा निरंतर का अनुभव यह है कि लोग करने की जल्दी में हैं; समझने की जल्दी किसी को है ही नहीं। लोग कहते हैं, समझ कर क्या करना। वे मेरे पास आ जाते हैं। वे कहते हैं, अब आप तो सब समझते ही हो, आप कह दो हम क्या करें! मगर मैं जो कहूंगा और तुम बिना समझे करोगे तो भूल होने वाली है। क्यों? फिर गलत आदमी के हाथ में, जिसके पास समझ नहीं है, गलती ही होने वाली है।
तुम्हारे पास समझ होनी चाहिए, करने की इतनी जल्दी मत करो। समझ से जो कृत्य निकलता है, वही सुंदर होता है। और समझ से कृत्य निकलते हैं।
तो पहले तो तुम तथाता और समर्पण को ठीक से समझो। अभी अभ्यास की जरूरत नहीं है कि तथाता का अभ्यास करो, समर्पण का अभ्यास करो। पहले समझ लो। समझ लिया तो तुम पाओगे अभ्यास अपने आप चला आया--छाया की तरह।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, प्रभु-प्रेम के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा क्या है?
तुम्हीं हो सबसे बड़ी बाधा। और कोई बाधा नहीं है। मैं-भाव सबसे बड़ी बाधा है। भक्त ही बाधा है भगवान के मार्ग में। भक्त को मिटना होता है, गलना होता है, खो जाना होता है।
साधारण जीवन में भी प्रेम में जो बाधा है, वह अहंकार है। साधारण जीवन में भी। चलो छोड़ो परमात्मा को। परमात्मा का तुम्हें कोई अनुभव नहीं है, इसलिए बात बेबूझ हो जाएगी। साधारण जीवन में भी जो प्रेम में बाधा है वह क्या है? यही अहंकार। पत्नी पति पर कब्जा करने की कोशिश में लगी है, दिखाने की कोशिश में कि मैं मालिक हूं। पति कोशिश कर रहा है दिखाने की कि मैं मालिक हूं। झगड़ा चल रहा है।
समस्त तरह के प्रेमियों में एक ही कलह चलती रहती है कि कौन मालिक है, किसकी मानी जाती है?
मुल्ला नसरुद्दीन चायखाने में बैठ कर लोगों से कह रहा था कि मेरे घर कभी कोई झगड़ा नहीं होता। लोगों ने माना नहीं। उन्होंने कहा, यह हम मान नहीं सकते, यह कभी हुआ ही नहीं है कि घर में, और झगड़ा न होता हो। घर ही क्या अगर झगड़ा न होता हो? और अगर ऐसा है तो तुम अपना राज बताओ कि यह कैसे संभव हुआ? यह तो असंभव घटना है कि झगड़ा न होता हो।
मुल्ला ने कहा: हमने जिस दिन शादी की उसी दिन एक निर्णय कर लिया कि बड़े-बड़े मसले मैं तय करूंगा, छोटे-छोटे मसले पत्नी तय करेगी। फिर तबसे कोई झगड़ा नहीं हुआ।
किसी को भरोसा न आया इस बात पर। उन्होंने कहा कि तुम और जरा विस्तार में कहो। खुलासा करो। कौन से मसले बड़े और कौन से मसले छोटे?
तो मुल्ला ने कहा: छोटे-छोटे मसले--जैसे कौन सा घर खरीदा जाए, कौन सी कार खरीदी जाए, कौन सा धंधा किया जाए; लड़के को किस स्कूल में भेजा जाए; कौन से कपड़े पहने जाएं। ये छोटे-छोटे काम तो पत्नी निपटा लेती है। और बड़े मसले क्या हैं? जैसे कि स्वर्ग है या नहीं, नरक है या नहीं, ऐसे बड़े-बड़े मसले मैं निपटाता हूं। झगड़ा कुछ होता ही नहीं। झगड़ा होगा भी क्यों?
आदमी की सतत चेष्टा होती है बहुत गहरे में। अब मुल्ला यह कह कर कि बड़े-बड़े मसले मैं निपटाता हूं, उस बड़े-बड़े में भी अपने अहंकार को बचाने की कोशिश कर रहा है। छोटे-छोटे पत्नी निपटाती है। और पत्नी ज्यादा पार्थिव होती है। स्त्रियां ज्यादा पार्थिव होती हैं, ज्यादा समझदार। वे जानती हैं कि छोटे मसले ही बड़े मसले हैं। बड़े मसलों में क्या रखा है? होता है नरक कि नहीं होता, तुम जानो। ये सिद्धांत की बातें तुम तय करते रहो। कोई स्त्री इन बातों की फिकर नहीं करती बहुत। असली मतलब की बातें उसने अपने हाथ में ले रखी हैं। दोनों तृप्त हैं। पत्नी जानती है असली क्या है और मुल्ला सोचता है कि बड़े मसले क्या हैं।
अहंकार की सतत चेष्टा चलती है कि किसी भी बहाने मैं बड़ा हो जाऊं।
प्रेम में भी बस अहंकार ही उपद्रव है। प्रेम में जो कलह चलती है, वह प्रेम की नहीं, अहंकार की कलह है।
मेरी जां गो तुझे दिल से भुलाया जा नहीं सकता
मगर ये बात मैं अपनी जुबां पर ला नहीं सकता।
तुझे अपना बनाना मोजिबे राहत समझ कर भी
तुझे अपना बना लूं, ये तसव्वर ला नहीं सकता।
हुआ है बारहा एहसास मुझको इस हकीकत का
तेरे नजदीक रह कर भी मैं तुझको पा नहीं सकता।
मेरे दस्ते-हवस की दस्तरस है जिस्म तक तेरे
समझता हूं कि दिल पै कब्जा पा नहीं सकता।
तेरे दिल की तमन्ना भी करूं तो किस भरोसे पर
मैं खुद दरगाह में तेरी यह तोहफा ला नहीं सकता।
मेरी मजबूरियों को भी बहुत कुछ दखल है इसमें
तुझी को मोरिदे-इलजाम मैं ठहरा नहीं सकता।
मैं तुझसे बढ़ कर अपनी आबरू को प्यार करता हूं
मैं अपनी इज्जतो-नामूस को ठुकरा नहीं सकता।
तेरे माहौल की पस्ती का ताना दूं तुझे क्यूंकर
मैं खुद माहौल से अपनी रिहाई पा नहीं सकता।
एक ही कठिनाई है: मैं तुझसे बढ़ कर अपनी आबरू को प्यार करता हूं। मैं अपनी इज्जतो-नामूस को ठुकरा नहीं सकता। मैं अपने मान-सम्मान को ठुकरा नहीं सकता।
प्रेमी कह रहा है कि मैं आकर तेरे द्वार में निवेदन भी नहीं कर सकता कि मैं तेरा प्रेमी हूं। मैं, और निवेदन करूं! मैं अपनी मान-मर्यादा छोड़ नहीं सकता। जल लूंगा। जानता हूं कि तेरा साथ मिल जाए तो सुख होगा, लेकिन मेरा अहंकार मेरे पैरों को रोकता है। मैं निवेदन भी नहीं कर सकता। यह बात मैं अपनी जबान से कह भी नहीं सकता कि तेरे साथ मेरे जीवन में सुख होने वाला है। तेरे कारण सुख होगा, यह भी नहीं कह सकता हूं।
तुमने कभी निवेदन किया है? सच में किसी से कहा है कि तुम्हारे कारण मेरे जीवन में सुख है, सुख हो रहा है? मन रोक लेता है: यह बात कहने की नहीं है। स्त्रियां तो इतने अहंकार से भर गई हैं सदियों में कि स्त्रियां तो कभी प्रेम का निवेदन करती ही नहीं। कोई स्त्री कभी प्रेम का निवेदन नहीं करती। प्रेम भी हो तो प्रतीक्षा करती है कि पुरुष ही निवेदन करे।
निवेदन भी प्रेम का करने में इतनी अड़चन है! यह कहने में ही मन को बड़ी चोट लगती है कि मैं किसी से भीख मांगने चला, भिक्षा मांगने चला; मैंने किसी के सामने यह स्वीकार किया कि मेरी खुशी तेरी खुशी पर निर्भर है। वही अड़चन हो जाती है।
तो परमात्मा के सामने भी यही बाधा है। वहां तो तुम्हें परिपूर्ण रूप से निवेदन करना पड़ेगा कि मैं बाधा हूं, तू मुझे मिटा! तू मुझे समाप्त कर! तू मुझे साथ दे कि मैं किसी तरह अपने से पार हो जाऊं!
तुम पूछ रहे हो: ‘प्रभु-प्रेम के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा क्या है?’
मैं तुझसे बढ़ कर अपनी आबरू को प्यार करता हूं
मैं अपनी इज्जतो-नामूस को ठुकरा नहीं सकता।
सुना है न मीरा को! सब लोक-लाज खोई। और भी मीराएं हो सकती थीं दुनिया में, लेकिन लोक-लाज खोने को कोई तैयार नहीं। प्रतिष्ठा गंवाई।
इस समाज में तो भक्त की कोई प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। भगवान की ही कोई प्रतिष्ठा नहीं तो भक्त की कैसे होगी? भगवान ही अप्रतिष्ठित हो गया है, तो भगवान की तरफ जाने वाला भक्त तो कैसे प्रतिष्ठित होगा?
ये बड़े मजे की बातें हैं। तुम मंदिर जाकर फूल तो चढ़ा आते हो दो, लेकिन तुम्हारा बेटा अगर सच में भक्त हो जाए तो तुम परेशान हो जाओगे। कोई संन्यासी गांव में आता है तो तुम उसके पैर छू कर नमस्कार कर आते हो, लेकिन तुम्हारा बेटा संन्यासी हो जाए तो तुम परेशान हो जाओगे। यह बड़ी हैरानी की बात है। तुम्हारे मन में संन्यास की सच में प्रतिष्ठा है? अगर तुम्हारे मन में संन्यास की प्रतिष्ठा है तो तुम चाहोगे कि तुम्हारा बेटा भी संन्यासी हो जाए। मगर वह तो तुम नहीं चाहते। हां, गांव में कोई संन्यासी आता है तो तुम्हारा क्या लगता है! तुम जा कर पैर छू आते हो। यह मुफ्त की श्रद्धा तुम दिखा आते हो--दो कौड़ी की। चाहते तो तुम हो कि बेटा किसी तरह दिल्ली पहुंच जाए। चाहते तुम हो कि बेटा राजनेता हो जाए। चाहते तो तुम हो कि बेटा बहुत धनी हो जाए। हां, किसी दूसरे का बेटा अगर संन्यासी हो जाए तो तुम भी उसकी शोभायात्रा में सम्मिलित हो जाते हो। तुम्हारा क्या लगता है! दोनों हाथ से लूट ली--अपने बेटे से संसार लूट रहे हैं और दूसरे के संन्यासी के चरणों में जाकर सिर झुका कर दूसरा संसार भी सम्हाल रहे हैं।
तुम मीरा का भजन तो बड़ी मस्ती से सुन लेते हो, लेकिन तुमने सोचा है कभी कि तुम्हारी पत्नी अगर मीरा हो जाए और गांव-गांव द्वार-द्वार घूमने लगे और नाचने लगे रास्तों पर और कृष्ण के गीत गाने लगे, तो तुम भी जहर का प्याला भेजोगे। तुम भी! हालांकि तुमने कहानी में जब भी पढ़ा था कि राणा ने जहर का प्याला भेजा, तभी तुम्हें लगा था कि राणा भी कैसा आदमी था, मीरा जैसी प्यारी स्त्री, ऐसी भक्त, और उसको जहर का प्याला भेजा! तुम क्या करोगे? तुम भी जहर का प्याला भेजोगे। तुम भी राणा से भिन्न व्यवहार नहीं करोगे। तुम्हारा भी व्यवहार वही होगा।
लाखों लोग जीसस को पूजते हैं। लेकिन जीसस ने जो किया, अगर तुम्हारा बेटा करे और तुम्हारे बेटे को सूली पर चढ़ने की नौबत आ जाए, तो तुम क्या करोगे? जीसस के मां-बाप ने भी, कहा जाता है, इनकार कर दिया था; कह दिया था, हमारा इससे कुछ संबंध नहीं है। स्वभावतः आज लाखों-करोड़ों लोग जीसस की पूजा करते हैं--क्रॉस पर चढ़े जीसस की! तुमने कभी सोचा तुम्हारा बेटा क्रॉस पर चढ़े? यह बिलकुल आसान है अपने गले में एक क्रॉस का प्रतीक लटका लेना, क्योंकि उसमें कुछ हर्जा नहीं है।
धर्म सदा से खतरनाक रहा है, क्योंकि परमात्मा की तरफ जाने का अर्थ होता है: इस जगत में तुम्हारे पैर डगमगा जाएंगे। यहां तुम जहां खड़े हो वहां से हट जाओगे। यहां जो मूल्यवान है, परमात्मा की तलाश में सब मूल्यहीन हो जाता है। फिर न कोई पति है न कोई पत्नी है; न कोई बेटा है न मां है; फिर न कोई भाई है न कोई मित्र है। फिर न कोई इस जगत के मूल्य अर्थ रखते हैं। फिर एक नया मूल्य तुम्हारे जीवन में पैदा हुआ। उस नये मूल्य की तरफ जाने के लिए पागल होने की हिम्मत तो चाहिए ही--चाहिए ही चाहिए। वही अड़चन आ रही है।
तुम पूछते हो: ‘प्रभु-प्रेम के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा क्या है?’
तुम अपनी इज्जत-आबरू नहीं खो सकते। तुम इज्जत-आबरू बचा कर परमात्मा को पाना चाहते हो। तुम बड़े होशियार हो, चालाक हो। जो मीरा नहीं कर सकी वह तुम करना चाहते हो। जो बुद्ध नहीं कर सके वह तुम करना चाहते हो। तुम चाहते हो संसार भी बच जाए और किसी तरह परमात्मा को भी पा लें; अपने को भी बचा लें और उसे भी पा लें। तुम परमात्मा को ऐसे पाना चाहते हो जैसे तुम धन पाना चाहते हो--अपनी मुट्ठी में। तुम अपने को गंवा कर परमात्मा को पाने की तैयारी नहीं रखते। और जो अपने को गंवाने को राजी नहीं उसने कभी पाया नहीं। मिटे बिना कोई चारा ही नहीं है, कोई उपाय नहीं है।
तुम्हीं हो बाधा।
लेकिन झूठ चलता है। झूठ धर्म चलता है। सब तरह के झूठ चलते हैं यहां। ढोंग चलता है। सस्ता धर्म: मंदिर में जाकर पूजा कर आए; पत्थर की मूर्ति के सामने सिर झुका आए; कभी घर में सत्यनारायण की कथा करा ली; कभी किसी फकीर के वचन सुन आए। इस कान से सुने उस कान से निकाल दिए; या सुने ही नहीं। अधिकतर लोग तो सोए ही रहते हैं, सुनने का सवाल ही नहीं उठता।
एक आदमी अपने घर लौटा। पड़ोस के बच्चे और उसके बच्चे सब मिल कर खेल खेल रहे थे। उसने पूछा: क्या खेल खेल रहे हो, क्योंकि वे बड़ी अजीब सी हालत में थे। सब बिलकुल चुपचाप बैठे थे। उसने पूछा: कौन सा खेल हो रहा है? उन्होंने कहा: हम चर्च खेल रहे हैं।
चर्च! तो उसने कहा: ऐसे चुपचाप क्यों बैठे हो?
तो उन्होंने कहा: चर्च में लिखा रहता है न, शांत रहो! तो हम लोग चर्च में बैठे हैं।
उसने ऐसे ही पूछा कि तुम मतलब समझते हो कि चर्च में यह क्यों लिखा रहता है कि शांत रहो? उसके बेटे ने कहा: मालूम है हमें, जिससे कि लोगों की नींद न टूटे। सब लोग सोए रहते हैं।
कान से भी कौन सुनता है! सुनने की झंझट में भी कौन पड़ता है! क्योंकि सुनो, फिर भुलाओ, फिर सफाई करो। सुनते ही नहीं लोग।
यह सस्ता धर्म है, झूठा धर्म है। और इस झूठे धर्म में बड़ी सुगमता मालूम पड़ती है। इससे प्रतिष्ठा मिलती है, जाती नहीं, तुम धार्मिक समझे जाते हो। लोग कहते हैं: आहा! आदमी हो तो ऐसा--रमजान आता है तो देखो किस तरह रोजे रखता है! आदमी हो तो ऐसा--पर्यूषण आते हैं तो कैसे उपवास करता है! आदमी हो तो ऐसा कि हर अमावस, पूर्णिमा उपवास करता है, कि हर साल गंगा-स्नान करने जाता है! आदमी हो तो ऐसा, सब धाम हो आया है! इससे प्रतिष्ठा बढ़ती है, घटती नहीं।
असली धर्म से तो इस जगत में तुम एकदम उखड़ जाते हो। नकली धर्म से इस जगत में बड़ी प्रतिष्ठा मिलती है।
यहां औपचारिक धर्म का चलन है--झूठा सिक्का।
मैंने सुना है, दिल्ली के एक अजायबघर में एक बड़ा भालू था--सफेद भालू। सायबेरिया का भालू। वह अचानक मर गया। वह बच्चों को बड़ा प्यारा था। और उसके बिना बच्चे बड़े परेशान होने लगे। दूर-दूर से देखने बच्चे उस भालू को आते थे। भालू का कटघरा खाली पड़ा रहा। कुछ दिन मैनेजर भी परेशान हुआ। भालू को लाना इतनी जल्दी आसान भी नहीं। कहां से भालू खोजा जाए! तभी एक दिन राह पर एक राजनेता से मिलना हो गया। राजनेता अभी-अभी चुनाव हारे थे, नौकरी की तलाश में थे। उसे सूझ आई--अजायबघर के मैनेजर को। उसने कहा, आप ऐसा करो, एक काम मेरे पास है। तीन सौ रुपये महीने मैं आपको दूंगा। भालू मर गया है, उसकी हमने खाल निकाल ली है। वह ओढ़ कर आप बस बैठ जाओ, बच्चों के लिए काफी है। उछलते-कूदते रहे थोड़ा। बच्चे बड़े उदास हैं। उसी भालू के लिए आते थे। अजायबघर की शान चली गई।
तीन सौ रुपया, उसने सोचा कुछ खास झंझट भी नहीं है। और उछलना-कूदना तो उसे वैसे ही आता है, पार्लियामेंट में वही तो करता था! तो उसने कहा, यह जमेगा। वह दूसरे दिन से भालू की खोल ओढ़ ली उसने और उछलता-कूदता और बड़ा आनंद आता। बच्चे भी बड़े प्रसन्न हुए। ऐसा आठ दिन तो बड़े मजे से गुजरे, नौवें दिन ऐसा हुआ कि उसने देखा कि द्वार खुला है भर दोपहरी में। रोज रात को उसे छुट्टी हो जाती थी। अपने घर जाकर सोता था, सुबह फिर आकर भोर में भालू का वेश ओढ़ लेता था। भर दोपहर में दरवाजा खुला; दरवाजा ही नहीं खुला, एक सिंह भीतर घुसा। उसके तो छक्के छूट गए। वह तो चिल्लाया: मारे गए, मारे गए, बचाओ! वह तो भूल ही गया कि मैं भालू हूं और आदमी की भाषा बोलना अभी ठीक नहीं। असलियत, जब मुसीबत आ जाए तो आदमी की असलियत प्रकट होती है। वह चिल्लाया: बचाओ, बचाओ, मारे गए!
लेकिन तब और एक चमत्कार हुआ। वह सिंह उसके पास आया। उसने कहा: उल्लू के पट्ठे, चुप रह! क्या तू सोचता है तू ही अकेला चुनाव हारा है? ऐसे चिल्लाएगा, तेरी भी नौकरी जाएगी, मेरी भी जाएगी।
यहां ऐसा ही धोखा चल रहा है। यहां कोई भालू बना है, कोई सिंह बना है। यहां लोग ऐसे बने हैं जैसे नहीं हैं; जो नहीं हैं।
धार्मिक आदमी बड़ा खतरा मोल लेता है, क्योंकि इस झूठे समाज में वह सच्चे होने की हिम्मत करता है। इस झूठों की भीड़ में वह अपने नकाब उतार देता है, वह अपने मुखौटे उतार देता है। वह कहता है: जो हूं मैं, जैसा हूं, यह हूं। बुरा तो बुरा, भला तो भला। स्वीकार कर लो तो ठीक। स्वीकार न करो तो ठीक। लेकिन मैं अब कोई मुखौटे नहीं ओढूंगा।
धार्मिक आदमी अपने लिए भी खतरा उठाता है और दूसरों के लिए भी नाराजगी का कारण हो जाता है। क्योंकि कोई आदमी जब अपने मुखौटे उतार देता है तो तुम्हें भी अपने मुखौटों की याद आने लगती है। इसलिए हम धार्मिक आदमी को कभी बरदाश्त नहीं कर सके। झूठों की भीड़ में अगर कोई आदमी सच बोले तो सब झूठे मिल कर उसको मार डालेंगे। क्योंकि यह आदमी एक उपद्रव का कारण हो गया। सब चल रहा था, सब ठीक चल रहा था: इन सज्जन को सच बोलने की झंझट खड़ी कर दी इन्होंने।
एक सच बोलने वाला आदमी झूठों की भीड़ में सबका दुश्मन हो जाएगा। सब उसे दुश्मन की तरह देखेंगे। क्योंकि हर आदमी को खटकेगा। इसका सच हर आदमी के झूठ को दिखलाता है। यह जो बिजली कौंधती है इसके सच से, इससे हर आदमी के रोग दिखाई पड़ते हैं। इसलिए हमने जीसस को सूली पर लटका दिया, सुकरात को जहर पिला दिया, मंसूर को मार डाला। हम बरदाश्त नहीं कर सके। हां, मर जाए मंसूर, फिर हम पूजा करते हैं। जीसस मर जाएं, फिर हम चर्च बनाते हैं। सुकरात की हम हजारों साल तक याद रखते हैं, पूजा के फूल चढ़ाते हैं। लेकिन जिंदा धार्मिक आदमी से हमें बड़ा कष्ट होता है। क्योंकि जिंदा धार्मिक आदमी खालिस, प्रामाणिक, जैसा है वैसा; और न उसे मान की फिकर है न उसे मर्यादा की।
इस जगत में सारा उपाय, सारी व्यवस्था अहंकार के इर्द-गिर्द है। हम छोटे-छोटे बच्चों को भी कहते हैं कि देखो खयाल रखना, किस कुल के हो, किस घर से आए, किसके बेटे हो! हम छोटे-छोटे बच्चों को कहते हैं, स्कूल में प्रथम आना, प्रतिष्ठा रखना, हमारे घर में कभी भी कोई द्वितीय नहीं आया। हम अहंकार सिखाते हैं, पहले दिन से ही अहंकार सिखाते हैं। हम लोगों को कहते हैं, ऐसा व्यवहार करो जिससे इज्जत मिले। हम तो ऐसी बातें लोगों को सिखाते हैं कि विनम्र रहो, निर-अहंकारी बनो, तो ही प्रतिष्ठा मिलेगी।
अब यह भी बड़े मजे की बात है कि जिसको प्रतिष्ठा चाहिए वह निर-अहंकारी कैसे बन सकता है! निर-अहंकार का धोखा कर सकता है। विनीत बनो, ताकि लोग तुम्हें आदर दें। आदर पाने के लिए लोग विनीत बने हुए हैं। विनीत कैसे बनेंगे? विनीत का मतलब होता है, जिसे आदर की कोई चाह नहीं, जिसे अनादर से कोई इनकार नहीं। कोई स्तुति करे कि निंदा, सब बराबर है, ऐसी समतुलता का नाम विनीतता है।
मगर हम खूब अजीब बातें सिखाते हैं। हम कहते हैं, ईमानदारी कुशल नीति है। नीति! आनेस्टी इज़ दि बेस्ट पॉलिसी। पर खयाल रखना, जो आदमी इस नीति को मानता है, ईमानदार नहीं हो सकता। यह तो बेईमानी की शुरुआत हो गई। ईमानदारी--नीति! तरकीब! पॉलिसी! तो राजनीति हो गई। पॉलिसी आई तो पॉलिटिक्स हो गई। यह आदमी इसीलिए ईमानदार है क्योंकि ईमानदारी में लाभ है। लेकिन अगर कल बेईमानी में लाभ होगा तो यह आदमी ईमानदार रहेगा? लाभ के कारण ईमानदार था। लाभ होता था तो ईमानदार था। लाभ इसका लक्ष्य था।आज बेईमानी में लाभ होता है तो यह बेईमान हो जाएगा। इसने कभी ईमानदारी की थोड़े ही पूजा की थी; लाभ की पूजा की थी।
हमारी सारी ईमानदारी, सारे सच, सब तरकीबें हैं; लेकिन सबके पीछे एक ही आकांक्षा है: किसी तरह हमारे अहंकार को प्रतिष्ठा मिले। यह सारा संसार अहंकार की कील पर घूमता है। और परमात्मा को पाने में अहंकार बाधा है।
परमात्मा को पाने के लिए आदमी को एक ही महत्वपूर्ण काम करना पड़ता है, एक ही महत्वपूर्ण कदम उठाना पड़ता है--वह है आत्मघात; वह अपने अहंकार को बिलकुल काट देना; वह कह देना कि मैं कुछ भी नहीं हूं, मैं शून्यवत हूं। और ऐसा कह ही नहीं देना--ऐसे जीना। कोई गाली दे जाए तो शून्य को क्या अड़चन! और कोई स्तुति कर जाए तो शून्य को क्या प्रशंसा और क्या प्रसन्नता! शून्य तो शून्य ही रहेगा। एक सूने घर में जाकर स्तुति कर आओ कि गाली दे आओ, दोनों गूंजेंगी, दोनों विलीन हो जाएंगी। सूना घर सूना रहेगा। ऐसा व्यक्ति ही परमात्मा को पाने में समर्थ हो पाता है।
तुम पूछते हो: ‘प्रभु-प्रेम के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा क्या है?’
तुम। तुम्हारे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। तुम हटो, प्रभु को राह दो। परमात्मा आने को आतुर है, तुम जरा द्वार-दरवाजे खोलो। लेकिन तुम अड़े खड़े हो द्वार-दरवाजों पर। तुम चाहते हो परमात्मा भी मिल जाए और उसके मिलने से भी प्रतिष्ठा बढ़ जाए। धन तो पा ही लिया, पद तो पा ही लिया, अब परमात्मा भी मिल जाए। ऐसी कोई चीज छूट न जाए कहने को कि मैंने नहीं पाई; यह परमात्मा हाथ के बाहर न रह जाए। यह भी दुनिया को दिखा दूं कि यह भी पाकर रहा। सब पाकर दिखा दिया।
तुम परमात्मा पर भी विजय पाना चाहते हो! परमात्मा के भी विजेता होना चाहते हो! फिर तुम परमात्मा को नहीं अनुभव कर पाओगे। और प्रेम का तो जन्म ही न होगा; प्रेम का झरना ही नहीं फूटेगा।
अपने को हारा हुआ जानो। हारे को हरिनाम! अपने को पराजित जानो। हारो और मिट जाओ। सर्वहारा हो जाओ। तुमने अपना करके बहुत देख लिया, कुछ भी नहीं मिला; अब थोड़ी देर को अपने कर्ता को जाने दो। कर्ता के जाते ही द्वार खुलता है; पत्थर हटता है, झरना फूटता है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, प्रभु-प्रेम दीवाना क्यों बना देता है?
और क्या करे? प्रेम यानी दीवानगी। प्रेम यानी पागलपन। प्रेम यानी तर्क के बाहर हो जाना। प्रेम यानी बुद्धि की झंझटों से छूट जाना; बुद्धि की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाना। प्रेम यानी एक तरह की शराब, एक तरह की मस्ती, जो तुम अपने भीतर ही निर्मित कर लेते हो।
तुमने प्रेमी की आंख देखी! सदा पीए-पीए मालूम पड़ता है। तुमने प्रेमी के पैर देखे! कहीं रखता कहीं पड़ते हैं! सदा डोला-डोला रहता है।
प्रेम की कीमिया यही है कि तुम अपने ही भीतर शराब को पैदा करते हो; तुम्हारे भीतर ही शराब पैदा होने लगती है, फिर किसी मधुशाला में जाना नहीं पड़ता। तुम स्वयं ही अपना मधु निःसृत करने लगते हो।
तो दीवाना तो प्रेमी हो ही जाएगा। साधारण प्रेम दीवाना बना देता है, तो परमात्मा के प्रेम की तो बात ही क्या कहनी! किसी मनुष्य के प्रेम में पड़ जाओ और दीवाने हो जाते हो। वृक्षों के प्रेम में पड़ जाओ और इनके सौंदर्य के प्रेम में पड़ जाओ और तुम्हारे भीतर दीवानगी आ जाती है। कवियों को देखा! फूल, तारों, बादलों के प्रेम में पड़ कर कैसी मस्ती में डूब जाते हैं!
जहां भी प्रेम है वहां मस्ती है। फिर परमात्मा का प्रेम तो परम प्रेम है, तो परम मस्ती है।
कल मैं एक गीत पढ़ रहा था। एक प्रेमी परमात्मा से कह रहा है। कह रहा है कि मैंने जो इस स्त्री को प्रेम किया है, इसमें मेरा कसूर नहीं है, वह स्त्री ही ऐसी थी। ऐसा सौंदर्य प्रभु, कि अगर तुम भी देखते तो तुम भी चकित हो जाते, तुम भी अवाक रह जाते।
जुर्म अगर हुस्ने-नजर है तो गुनहगार हूं मैं।
दावरा इसके सिवा मेरी खता कुछ भी नहीं
थी नजर में मेरी, शादाबी-ए-जन्नत लेकिन
कितनी शादाब थी वो राहगुजर क्या कहिए!
दावरा तेरी मशीअत के तकाजों की कसम
वाकई दिल पै बड़ा जब्र किया था मैंने
मुझको मालूम था आवारा निगाही का मआल
लेकिन उस शोख का अफसूने नजर क्या कहिए!
दावरा! मेरी नजर में थी तेरी शाने जलाल
लेकिन ऐ काश दिखा दूं तुझे उसका भी जमाल
दावरा! कितने दिल आवेज थे उसके खतोहाल
और फिर उस पै मेरा हुस्ने-नजर क्या कहिए!
जुर्म अगर हुस्ने-नजर है तो गुनहगार हूं मैं!
प्रेमी कह रहा है कि अगर सौंदर्य को देखने वाली आंख में कोई जुर्म है तो मैं गुनहगार हूं, मैं अपराधी हूं।
जुर्म अगर हुस्ने-नजर है तो गुनहगार हूं मैं।
दावरा! हे प्रभु! हे न्यायकर्ता! हे ईश्वर! दावरा इसके सिवा मेरी खता कुछ भी नहीं। मेरा और कोई कसूर नहीं है। सौंदर्य था और मेरे पास आंख है सौंदर्य को परखने की, तो मैं क्या करता?
जुर्म अगर हुस्ने-नजर है तो गुनहगार हूं मैं
दावरा इसके सिवा मेरी खता कुछ भी नहीं
थी नजर में मेरी शादाबी-ए-जन्नत लेकिन
प्रेमी कहता है कि मुझे पता है कि तेरा स्वर्ग बड़ा प्यारा है और मुझे यह भी पता है कि स्वर्ग में बड़ी खुशियां हैं, और बड़ा सौंदर्य है। मगर फिर भी क्या कहूं?
थी नजर में मेरी शादाबी-ए-जन्नत लेकिन
स्वर्ग की प्रफुल्लता का मुझे पता है और मेरे खयाल में थी बात। ऐसा भी नहीं था कि भूल गया था। तुझे भूल गया था, ऐसी भी बात न थी।
थी नजर में मेरी शादाबी-ए-जन्नत लेकिन
कितनी शादाब थी वो राहगुजर क्या कहिए!
लेकिन उसकी गली भी बड़ी प्यारी थी। मैं तुझसे क्या कहूं? तेरा स्वर्ग प्यारा है वह मुझे मालूम है। और भूल भी नहीं गया था। लेकिन फिर भी उसकी गली बड़ी प्यारी थी।
दावरा तेरी मशीअत के तकाजों की कसम
वाकई दिल पै बड़ा जब्र किया था मैंने।
और मैं तुझसे कहना चाहता हूं: मुझे क्षमा कर। लेकिन मैं सच्ची बात भी तुझसे कह दूं कि ऐसा नहीं है कि मैंने अपने पर बहुत नियंत्रण न रखा था। मैंने बहुत संयम रखने की कोशिश की थी।
दावरा तेरी मशीअत के तकाजों की कसम
मैं तेरी कसम खाकर कहता हूं; हे प्रभु!
वाकई दिल पै बड़ा जब्र किया था मैंने।
मैंने बहुत तरह से अपने दिल को रोक लेना चाहा था, नियंत्रण रखना चाहा था। मगर सब नियंत्रण टूट गया। वह सौंदर्य कुछ ऐसा था।
जुर्म अगर हुस्ने-नजर है तो गुनहगार हूं मैं
दावरा इसके सिवा मेरी खता कुछ भी नहीं
मुझको मालूम था आवारा-निगाही का मआल
और मुझे यह भी पता था कि आंखों को ऐसे भटकाऊंगा, आवारा, तो इसका परिणाम क्या होगा? ऐसा भी नहीं है कि मुझे इसके परिणाम का कुछ पता नहीं था। इसका परिणाम बुरा होगा। मैं भटकूंगा। मैं राह से उतर जाऊंगा। यह संसार का चक्र शुरू होगा। यह मुझे पता था।
मुझको मालूम था आवारा-निगाही का मआल
लेकिन उस शोख का अफसूने नजर क्या कहिए!
पर उसकी आंख! उस सौंदर्य का कहना क्या!
यह भगवान से कह रहा है प्रेमी।
दावरा! मेरी नजर में थी तेरी शाने जलाल
और मुझे पता है--तेरा तेज पता है! तेरी भव्यता पता है। कुछ ऐसा नहीं कि मैं तुझे नहीं जानता। तेरी भव्यता का मुझे स्मरण है।
दावरा! मेरी नजर में थी तेरी शाने जलाल
लेकिन ऐ काश दिखा दूं तुझे उसका भी जमाल!
लेकिन काश, अगर मैं उसका सौंदर्य तुझे दिखा सकता तो तू समझता मेरी मुसीबत। मैं पागल हो गया।
दावरा! कितने दिल आवेज थे उसके खतोहाल
और कितने लोग दीवाने थे! कोई मैं अकेला दीवाना था! उसके नाक-नक्श को देख कर कितने लोग दीवाने थे!
दावरा! कितने दिल आवेज थे उसके खतोहाल
और फिर उस पै मेरा हुस्ने नजर क्या कहिए!
और फिर तूने जो मुझे आंख दी है सौंदर्य की परख की, मैं क्या करता, पागल हो गया।
यह तो साधारण प्रेम की बात है। साधारण प्रेम आदमी को इतना पागल बना देता है, तो परमात्मा के प्रेम का तो फिर कोई हिसाब लगाना संभव नहीं। और दोनों में जो फर्क है वह परिणाम का ही होता तो भी ठीक था, वह गुण का फर्क है। मात्रा का ही भेद नहीं है। ऐसा नहीं है कि यहां छोटा सा प्रेम है और इसी का बड़ा रूप परमात्मा का प्रेम है। मात्रा का ही फर्क नहीं है, गुण का फर्क है। वह प्रेम किसी और ही आयाम में है। वह प्रेम परिपूर्ण प्रेम है। वह प्रेम शाश्वत प्रेम है। वह एक दफा घटता है तो घटता है, फिर मिटता नहीं। यहां तो प्रेम बनते हैं, मिटते हैं, पानी के बुलबुले हैं। पानी केरा बुदबुदा! क्षणभंगुर है। सुबह खिले फूल, सांझ मुरझा जाते हैं। वह तो ऐसा कमल है जो कभी मुरझाता नहीं--स्वर्ण-कमल है। और उसकी आंख में आंख मिल जाए, उस दिल के साथ दिल जुड़ जाए, उसके हाथ में हाथ आ जाए, उसके नाच में नाच हो जाए, उसके साथ रास रच जाए तो पागल न होओगे तो क्या होगा? होश सम्हाल कर रखोगे कैसे? होश सम्हाल कर रखोगे कहां? होश सम्हाल कर करोगे भी क्या? इसलिए वहां होशियार नहीं पहुंच पाते, वहां दीवाने पहुंचते हैं! वहां गति दीवानों की है। होशियार तो बाहर ही रह जाते हैं मंदिर के। जहां तुम जूते उतार आते हो होशियार वहीं रह जाते हैं। जो होशियारी वहीं रख आता है, वही मंदिर में भीतर प्रवेश करता है। वहां दीवानों की गति है।
भगवान पागलों को चाहता है, क्योंकि पागल ही उसे चाह सकते हैं। सब चाहत पागलपन लाती है।
आज अजाने फिर मेरे इस हृदय-गगन के आंगन में
यह सतरंगी याद तुम्हारी झूला डाल गई।
उसकी याद आते ही एक नया झूला पड़ जाता है तुम्हारे प्राणों के आंगन में।
आज अजाने फिर मेरे इस हृदय-गगन के आंगन में
यह सतरंगी याद तुम्हारी झूला डाल गई
मंद-मंद मुसकाया मेरे भावों का यह ताजमहल
नयनों के सूने पनघट पर फिर हो आई चहल-पहल
आशाओं ने मेंहदी घोली, मांग सजाई चाहों ने
प्राणों के निर्झर में किसने आज मचा दी फिर हलचल
भीगा आंगन, भीगा आंचल, भीग गया तन-मन मेरा
नयनों के तट, बौराई घट, कंचन ढाल गई।
आज अजाने फिर मेरे इस हृदय-गगन के आंगन में
यह सतरंगी याद तुम्हारी झूला डाल गई।
उसकी याद आते ही तुम किसी दूसरे लोक में रूपांतरित हो जाते हो। बहती है एक रसधार।
भीगा आंगन, भीगा आंचल, भीग गया तन-मन मेरा
नयनों के तट, बौराई घट, कंचन ढाल गई।
आज अजाने फिर मेरे इस हृदय-गगन के आंगन में
यह सतरंगी याद तुम्हारी झूला डाल गई।
पागल तो हो ही जाता है आदमी। मगर धन्यभागी हैं वे जो पागल होने का साहस जुटा लेते हैं।
धीरे-धीरे चलो। धीरे-धीरे हिम्मत बढ़ाओ। एक-एक कदम, एक-एक इंच। मगर अपनी होशियारी को थोड़ा-थोड़ा छोड़ो। इस होशियारी में चूक जाओगे। इस होशियारी में जन्मों-जन्मों तक चूके हो। यह होशियारी ही तुम्हारी फांसी का फंदा बन गई है। इस होशियारी के कारण ही बाजार में बस ठीकरे इकट्ठे कर रहे हो।
विराट को चाहना हो तो यह होशियारी बड़ी छोटी है, इसमें विराट नहीं समाता। हृदय तुम्हारा परमात्मा को ले सकता है, सिर तुम्हारा नहीं ले पाता। सिर बहुत छोटा है, हृदय बहुत बड़ा है।
मुझसे लोग पूछते हैं, हृदय कहां है? एक दिन एक युवक ने पूछा कि हृदय कहां है, किस जगह है ठीक-ठीक शरीर में? उससे मैंने कहा, सिर तुम्हारे भीतर है, तुम हृदय के भीतर हो। हृदय तुम्हारे भीतर नहीं है। ये जो फेफड़े फड़कते हैं, इनको हृदय मत समझ लेना। यह तो केवल वायु को शुद्ध करने का यंत्र मात्र है। हृदय के भीतर तुम हो। हृदय तुम से बड़ा है। सिर तुम से छोटा है। यह जो सिर के भीतर विचारों का जाल फैलता है, यह तुम्हारा है; यह तुम्हारी निजी दुनिया है। यह सत्य की दुनिया नहीं है; यह झूठ की दुनिया है; यह सपनों की दुनिया है।
जैसे ही तुम्हारी ऊर्जा इस सिर के फंदे के बाहर निकल जाती है, जैसे ही सिर के बाहर तुम आए वैसे ही आंगन मिलता है विराट का--तुम्हारा हृदय का आंगन। वह इतना ही बड़ा है जैसा आकाश। तुम्हारे अन्तर में इतना ही बड़ा आकाश छिपा है जितना बाहर। उस आकाश में उतरोगे तो फिर बुद्धि की छोटी-छोटी बातें जो कल तक बड़ी महत्वपूर्ण मालूम पड़ती थीं, महत्वपूर्ण नहीं मालूम पड़ेंगी। और जिनको अभी भी महत्वपूर्ण मालूम पड़ रही हैं, उन्हें तुम पागल मालूम पड़ो तो कुछ आश्चर्य तो नहीं।
ऐसा ही समझो कि कुछ बच्चे कंकड़-पत्थरों से खेल रहे हैं, समुद्र के किनारे शंख-सीप बीन रहे हैं, हरे-नीले-लाल पत्थर बीन कर इकट्ठे कर रहे हैं। और तभी किसी बच्चे को हीरा हाथ लग जाए, तो वह बच्चा अपने सब कंकड़-पत्थर, मोती-सीप छोड़-छाड़ कर हीरे को गांठ बांधे और घर भाग जाए, बाकी सारे बच्चे उसे पागल समझेंगे। वे कहेंगे, यह भी पागल है, दिन भर इन्हीं सीपियों को, शंखों को बीनने में बिताया और अब सांझ सब छोड़-छाड़ कर भाग गया, पागल है। उन्हें पता नहीं, उसे हीरा हाथ लग गया है। कंकड़-पत्थर अब करना क्या है!
कबीर ने कहा है: ‘हीरा पायो गांठ गठियायो।’ जैसे ही हीरा मिला कि आदमी फिर गांठ में रख लेता है। फिर कहां! और कल तक जो चीजें मूल्यवान मालूम होती थीं, वे एकदम निर्मूल्य हो जाती हैं।
एक छोटी सी सूफी कथा है। एक फकीर एक वृक्ष के नीचे बैठता और रोज देखता एक लकड़हारा लकड़ियां काटने आता। वह उसके पास ही जंगल में लकड़ियां काट कर लौट जाता। उसे एक दिन दया आई, उसने उस आदमी को कहा कि तू पागल है, जरा और आगे क्यों नहीं जाता?
उसने कहा: और आगे क्या होगा?
तू जरा आगे जा। मेरी मान।
फकीर कभी कुछ बोला भी नहीं था, फकीर सदा शांत बैठा रहता था। इस लकड़हारे को इस पर बड़ी श्रद्धा भी धीरे-धीरे उत्पन्न हुई थी। न तो यह कुछ कहा था कभी, न इसे कुछ करते देखा था, यह तो वहीं वृक्ष के नीचे शांत बैठा रहता था। लेकिन इसकी शांत प्रतिमा कभी-कभी लकड़हारे को बड़े आनंद से भर देती थी। कभी-कभी वह दो रोटी भी घर से इसके लिए ले आता था। कभी दो फूल भी चढ़ा जाता था।
फकीर ने कहा तो उसने कहा, कुछ होगा मतलब, वह दूसरे दिन जरा भीतर जंगल में गहरा गया। वह चकित हुआ, वहां चंदन के वृक्ष थे। लकड़ियां महीने भर में काट कर जितना कमाता था वह, उतना तो एक दिन की कमाई हो गई, एक दिन में कमा लिया। वह तो बड़ा खुश हुआ। फकीर के चरणों में खूब मिठाइयां लाया।
कुछ महीनों बाद फकीर ने कहा: पागल, वहीं अटक गया? थोड़ा और आगे जा।
उसने कहा: अब और आगे क्या होगा? अब बहुत हो रहा है, मजा ही मजा है। एक दिन काट लेता हूं, महीने दो महीने के लिए फुर्सत। और किसी को इसका पता भी नहीं है। कोई दूसरा काटने वाला भी नहीं है; सारा जंगल पड़ा है चंदन का। आपने पहले क्यों न कहा? पहले ही कह देते महाराज, आप इतने दिन तक चुप क्यों बैठे रहे?
उस फकीर ने कहा: जब समय आता है और जब ठीक घड़ी होती है तभी कहा जाता है। पहले मैं कहता तो तू मानता नहीं। जब धीरे-धीरे मैंने देखा कि तेरे मन में मेरे प्रति प्रेम और भरोसा आ गया तब मैंने कहा। मुझे तो पता था। मुझे तो और भी पता है। इसलिए तुझसे कहता हूं कि थोड़ा और आगे जा।
लकड़हारे को लगा कि जाने में कुछ सार तो क्या है, बहुत तो मिल रहा है! अब और इससे ज्यादा हो भी क्या सकता है? लकड़हारा ज्यादा से ज्यादा चंदन की बात सोच सकता है, समझना। लकड़ी काटने वाला बहुत से बहुत सोचेगा तो चंदन की लकड़ी, इसके पार तो कोई लकड़ी होती नहीं। इससे आगे हो भी क्या सकता है! दो-चार दिन तो वह सोचता रहा, फिर एक दिन उसने सोचा, एक दिन जाकर देख लेने में हर्ज भी क्या है। फकीर कहता है तो देख ही लो। बार-बार कहता है, रोज-रोज कहता है; जब भी आता हूं तभी याद दिलाता है कि आगे क्यों नहीं जाता?
जंचती तो उसको बात नहीं थी। बुद्धि कहती थी, अब और आगे हो क्या सकता है? लकड़ी की भाषा चंदन तक जा सकती थी। समाप्त हो गई। गया एक दिन आगे। कुछ बड़ी आशा से नहीं गया था। कोई बहुत भरोसे से भी नहीं गया था, लेकिन अब फकीर कहता है तो शायद ठीक ही कहता हो; एक दफा करके देख लेने जैसा है। गया तो बड़ा हैरान हुआ। वहां तो चांदी की एक खदान मिली। मगर यह तो उसकी कल्पना में भी नहीं आ सकता था। चंदन से चांदी, कोई जोड़ नहीं था।
तर्क की तो एक व्यवस्था होती है। तर्क में एक सीमा होती है। अब चंदन से चांदी छलांग है। इसमें कुछ संबंध नहीं है। चंदन से तर्क किसी भी तरह चांदी पर नहीं पहुंचता। मगर जिंदगी तर्क थोड़े ही है। जिंदगी में बड़ी छलांगें हैं। यहां चांदी चंदन से पहुंची जा सकती है।
वह तो मस्त हो गया। उसने कहा कि हद हो गई, मैं भी इस फकीर की सुना नहीं, मैं भी कैसा नासमझ हूं! उसने चांदी भरी। अब तो सालों के लिए एक दफे में काम हो जाता है। साल दो साल ऐसे ही बीत गए। फकीर ने एक दिन उसे कहा कि तुझे अपने से कभी अक्ल आएगी कि नहीं, कि मुझे ही कहना पड़ेगा बार-बार? आगे क्यों नहीं जाता मूढ़?
उसने कहा: अब और आगे क्या हो सकता है?
गरीब आदमी! गरीब आदमी की चित्त-दशा चांदी के आगे नहीं जाती। चांदी के आभूषण, बस समाप्त हो गई बात। सोना तो राजमहलों में होता था उन दिनों। पुरानी कहानी। सोना तो गरीब आदमी को पहनने का हक भी नहीं था। अब भी गरीब आदमी की स्त्री पैर में सोना पहनने में डरती है। वह सिर्फ रानियों के लिए था। अब भी नहीं पहनती, गांवों में अब भी नहीं पहनती। गांव में अभी कोई स्त्री हिम्मत नहीं कर सकती कि सोना पहन ले। राजा नहीं रहे, रानियां नहीं रहीं; मगर सोना पैर में! वह सिर्फ राजाओं के लिए था, रानियों के लिए था। चांदी आखिरी बात थी आभूषण में।
उसने कहा: अब और आगे क्या हो सकता है? चांदी मिल गई महाराज, अब आगे और हो भी क्या सकता है?
उसने कहा: तू फिर भी कोशिश कर।
अब थोड़ा भरोसा उसे आने लगा था कि यह आदमी चंदन से चांदी पर ले गया, पता नहीं कुछ हो। सोना तो उसके सपने में भी नहीं आ सकता था। आगे गया तो सोने की खान मिली। तब तो वह निश्चिंत हो गया कि आखिरी पड़ाव आ गया। वर्षों बीत गए। फकीर भी बूढ़ा हो गया था। फकीर ने उसे एक दिन कहा कि देख, अब मेरा आखिरी समय आ गया है, अब मैं जा रहा हूं। तुझे आखिरी बात कहे जाता हूं, तुझमें अपने से भी कहीं कुछ किसी दिन अक्ल, अपने से भी कभी तेरे भीतर कभी अन्वेषण, खोज की वृत्ति पैदा होगी कि नहीं होगी, कि तू मुझसे ही बंधा रहेगा? आगे क्यों नहीं जाता?
उसने कहा: महाराज, अब आप चुप रहो। काफी आगे जा चुका हूं। अब आगे कुछ है भी नहीं, हो भी नहीं सकता। अब मुझे आपकी बात पर बिलकुल भरोसा नहीं आता। सोना मिल गया, अब और क्या होगा?
फकीर ने कहा: यह मैं मर रहा हूं, मरते हुए आदमी की बात मान ले, एक दफा आगे हो आ। इसके पहले कि मैं मरूं, मैं तुझे और आगे गया हुआ देख लेना चाहता हूं।
वह फकीर की बात थी, फकीर मर रहा है तो वह गया। गया तो वहां एक हीरों की खदान मिली। सोचा, बस अब आ गया आखिरी पड़ाव, फकीर को बहुत धन्यवाद दिया। फकीर ने कहा: इसको आखिरी पड़ाव मत समझ लेना, उसके और थोड़े आगे।
उसने कहा: अब मैं बिलकुल नहीं मानता। अब आप मजाक कर रहे हैं। अब आप नाहक मुझे उलझा रहे हैं। उसके आगे अब कुछ भी नहीं हो सकता।
फकीर ने कहा: उसके आगे मैं हूं। उसके आगे ध्यान है। धन के आगे ध्यान है। धन से ध्यान! फिर एक छलांग लगती है। जैसे चंदन से चांदी। जैसे सोने से हीरे। ऐसा धन से ध्यान। और ध्यान से परमात्मा।
फकीर ने कहा: जब तक परमात्मा न मिल जाए तब तक आगे चलते ही जाना, चलते ही जाना, चलते ही जाना, रुकना ही मत। उसके पहले जो रुका, वह भूला और भटका।
मगर और लकड़हारे हैं जो अभी वहीं लकड़ियां काट रहे हैं, वे इसको पागल कहते हैं। वे कहते हैं, तू जाता कहां है? लकड़ियां यहां हैं, तू जाता कहां है? कई दिन-दिन तक दिखाई नहीं पड़ता, तू करता क्या है? आलसी हो गया है? तेरी कुछ खोज-खबर नहीं मिलती।
वह हंसता है, वह मुस्कुराता है।
‘हीरा पायो गांठ गठियायो, बाको अब बार-बार क्यों खोले।’ अब वह इनसे कहे भी क्या! और वह जानता भी है भलीभांति कि ये मानेंगे नहीं। मैंने कहां मानी थी। और मनाने वाला बड़ा फकीर था, मैं तो कुछ भी नहीं हूं। मेरी ये नहीं मानेंगे। ये कोई मेरी नहीं मान सकते।
ये उसे पागल समझते हैं। ये कहते हैं, इसका दिमाग खराब हो गया है।
तो जिस दिन तुम बाजार से मंदिर की तरफ जाओगे, बाजार के लोग तुम्हें पागल समझेंगे। लकड़हारे हैं। उन्हें चंदन की लकड़ी का पता नहीं है। फिर एक दिन जब तुम और आगे बढ़ोगे, और आगे बढ़ोगे तो धीरे-धीरे जो लोग पीछे छूटते जाएंगे वे निर्णय लेते जाएंगे, तुम्हारा दिमाग खराब हो गया। और जिस दिन तुम ध्यान की अंतिम गहराई में, समाधि में पहुंचोगे और परमात्मा का दर्शन करोगे, उस दिन इस जगत में सब कूड़ा-करकट है। उस दिन तुम सब इस जगत में पाओगे निर्मूल्य है। तो जो इस जगत में मूल्य देखते हैं, अगर वे तुम्हें पागल कहें तो कुछ आश्चर्य नहीं। उनका कहना भी ठीक है।
और यह पागलपन सौभाग्य है; सौभाग्य से किसी को मिलता है। मेरी मानो और आगे चलो।
आज इतना ही।
भगवान, उस परम तत्व से प्रेम या भक्ति कैसे की जाए जिसे हम जानते ही नहीं? क्या अज्ञात से भी प्रेम संभव है?
अज्ञात से ही प्रेम संभव है। ज्ञात से तो प्रेम धीरे-धीरे शून्य हो जाता है। जिसे हमने जान लिया उसमें हमारा रस ही समाप्त हो जाता है। इधर जाना उधर रस समाप्त हुआ। अनजान में ही रस होता है। अपरिचित में ही आकर्षण होता है।
जब दो प्रेमी एक-दूसरे को पूरा-पूरा जान लेते हैं, तभी प्रेम समाप्त हो जाता है। परिचित हुए, फिर कुछ शेष नहीं बचता अभियान को; खोजने को कुछ नहीं बचता।
अज्ञात से ही प्रेम संभव है।
इसलिए इस जगत में सारे प्रेम एक न एक दिन समाप्त हो जाएंगे, सिर्फ परमात्मा का प्रेम कभी समाप्त नहीं होता। क्योंकि ऐसी कोई घड़ी नहीं आती जब तुम कह सको कि परमात्मा को पूरा-पूरा जान लिया। कितना ही जानो, उतना ही जानने को शेष रहता है। जितना ही जानो उतना ही जानने को और द्वार खुलते चले जाते हैं। एक शिखर पर चढ़ते हो, तब ऐसा लगता है कि बस आ गई आखिरी मंजिल। चढ़ भी नहीं पाते कि दूसरा शिखर सामने चुनौती देने लगता है। अंतहीन सिलसिला है।
इसलिए हमने परमात्मा को अनंत कहा है। न उसका कोई प्रारंभ है, न उसका कोई अंत है। वह यात्रा अंवेषण की कभी पूरी नहीं होती। इसलिए प्रेम परमात्मा के साथ शाश्वत हो जाता है। प्रेम के मिटने का उपाय ही नहीं।
इसे जीवन में समझने की कोशिश करना। और अगर जीवन के इस साधारण तल पर भी प्रेम को बनाए रखना हो तो एक-दूसरे को जानने की भ्रांति में मत पड़ना, अन्यथा प्रेम मर जाएगा। और सच्चाई यही है कि जान तो कहां पाते हो तुम! तीस साल एक स्त्री के साथ रहे, कि पुरुष के साथ रहे, तुम सोचते हो कि जान लिया, जान कहां पाते हो? तीस साल जिस पत्नी के साथ रहे हो, उसे भी सच में जानते हो? मान लिया है कि जानते हो। आंखें धुंधली हो गई हैं। जाना क्या है? जिस बच्चे को तुमने जन्म दिया है, जो तुम्हारे खून से बड़ा हुआ है, उसे भी जानते हो? मान लिया है कि अपना बेटा है तो जानते हैं। पर जानते क्या हो?
इस जगत का रहस्य कहीं भी तो समाप्त नहीं होता। फिर से अपनी पत्नी की आंखों में झांक कर देखना, जिसके साथ तीस साल रहे हो। हालांकि धीरे-धीरे तुमने आंखों में झांकना बंद ही कर दिया है। धीरे-धीरे तुम पत्नी की तरफ देखते ही नहीं।
सब धुंधला-धुंधला हो गया है। तुम सोचते हो: जब जानते ही हैं तो देखना क्या है? देखते तो हम अनजान को हैं, अपरिचित को हैं। राह से कोई स्त्री गुजर जाती है, उसे देखते हैं। कुछ नया हो तो देखते हैं। पुराने को तो हम धीरे-धीरे देखना ही बंद कर देते हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर तुम अपनी आंख बंद करके अपनी पत्नी की मुखाकृति याद करना चाहो तो बड़े हैरान हो जाओगे। तीस साल जिसके साथ रहे, आंख बंद करके जब उसका चेहरा सोचोगे तो चेहरा बनेगा नहीं, बिखर-बिखर जाएगा, धुंधला-धुंधला हो जाएगा। जिसे तुम मानने लगे हो कि जानते हो, कब से उसका चेहरा नहीं देखा है! कब से उसकी आवाज नहीं सुनी है! कब से उसका हाथ हाथ में नहीं लिया है! हाथ लिया भी होगा, मगर संवेदना कभी की मर चुकी है। स्पर्श किया भी होगा, मगर स्पर्श जब तक बोधपूर्वक न हो तब तक कहां!
आज घर लौट कर अजनबी की तरह अपनी पत्नी को देखना, तुम चकित होओगे; या अपने पति को देखना; या अपने बेटे को; या अपने मित्र को--और तुम चकित होओगे कि मान्यता ही थी कि हम जानते हैं। और जीवन रोज-रोज यह घटना घटाता है। रोज-रोज पत्नी ऐसा व्यवहार कर देती है कि तुम्हें परेशानी होती है। तुम सोच ही नहीं सकते थे। पति ऐसा व्यवहार कर देता है कि पत्नी सोच ही नहीं सकती थी कि कभी ऐसा करेगा।
एक आदमी को तुम भला मानते थे, एक दिन धोखा दे जाता है। तुम कहते हो: यह आदमी धोखा दे गया। लेकिन सच्चाई कुल इतनी ही है कि तुमने यह मान लिया था कि यह कभी धोखा न देगा। यह तुम्हारी जानकारी थी, सिर्फ तुम्हारी जानकारी टूट गई, और कुछ नहीं हुआ है। यह आदमी तो जैसा है वैसा ही है।
एक बुरा आदमी भला हो जाता है। एक भला आदमी बुरा हो जाता है। क्षण में हो जाती है यह बात।
कोई भी आदमी की भविष्यवाणी नहीं हो सकती। हम इतना तो कभी भी किसी को नहीं जान पाते हैं कि कह सकें कि कल यह कैसा व्यवहार करेगा। हमारी जानकारियां मान्यता भर हैं। पर इन्हीं मान्यताओं के कारण हमारा जीवन धुंधला हो जाता है और जीवन से प्रेम खो जाता है।
परमात्मा को भी लोग सोचने लगते हैं कि हम जानते हैं, तो बस उनकी प्रार्थना भी मर गई। जहां जाना कि जाना, वहां परमात्मा भी मर गया, प्रार्थना भी मर गई, तुम भी मर गए। वहां सिर्फ मृत्यु का ही वास है। जहां तथाकथित ज्ञान की सघनता है वहां मृत्यु का आवास है। और जहां तुम निर्दोष बच्चे की भांति हो जिसे कुछ भी पता नहीं, वहां रहस्य है। इसलिए तो छोटे बच्चे तुम्हें इतने आह्लादित मालूम पड़ते हैं। तुम भी उनका हाथ पकड़ कर चल रहे हो, उसी बगीचे में जिसमें वे हैं, लेकिन वे इतने आह्लादित हैं! हर उड़ती तितली उनकी आंखों को पकड़ लेती है। हर फूल उन्हें ठिठका लेता है। वे खड़े हो गए हैं; तुम उन्हें खींच रहे हो कि चलो, अब क्या देखना है, ये देखे हुए फूल हैं। हर पक्षी की आवाज उन्हें रोक लेती है। यह भागा खरगोश और उनके प्राण उनके साथ हो लिए!
लेकिन तुम! तुम उसी बगीचे से गुजर रहे हो; न पक्षी तुम्हें छूते हैं; न वृक्षों की हरियाली तुम्हें छूती है; न फूलों के रंग तुम्हें पुकारते हैं; न आकाश में खिला इंद्रधनुष तुम्हें दिखाई पड़ता है। तुम्हें कुछ नहीं दिखाई पड़ता। तुम्हें तो यह खयाल है इस बगीचे में तो बहुत बार हो गए। बस इसी कारण सब अड़चन हुई जा रही है।
उपनिषद कहते हैं: जिसे यह खयाल है कि मैं परमात्मा को जानता हूं, जानना कि नहीं जानता। यह तो सबसे बड़े अज्ञान की घोषणा हो जाएगी। परमात्मा को जानने वाला तो सिर्फ रहस्य-विमुग्ध रह जाता है; मौन हो जाता है। और जिस दिन तुम परमात्मा के साथ थोड़ा सा भी संबंध जोड़ लेते हो, उस दिन परमात्मा तो ज्ञात होता ही नहीं, यह संसार भी अज्ञात हो जाता है। जिसने परमात्मा के साथ थोड़ा संबंध जोड़ लिया, उस दिन उसकी पत्नी भी अज्ञात हो गई, पति भी अज्ञात हो गया, अपना बेटा भी अज्ञात हो गया, क्योंकि इस बेटे की आंखों में भी परमात्मा ही झांकेगा। इस मित्र के हाथ में भी परमात्मा का ही स्पर्श होगा। यह पत्नी भी कोई और नहीं, उसका ही एक रूप है। यह वृक्षों में भी वही हरा है। इन पक्षियों में भी वही गीत गा रहा है। इस सूरज में वही प्रकाश है। इस अंधेरी रात में वही अंधेरी रात है।
परमात्मा को जानने से परमात्मा ही अज्ञात नहीं होता; सारा जगत पुनः अज्ञात हो जाता है। इसको दूसरी भाषा में अगर कहें तो फिर से जगत रहस्यपूर्ण हो जाता है; फिर से आश्चर्य का जन्म होता है; फिर से तुम्हें बच्चे की आंख मिलती है; पुनर्जन्म हुआ; द्विज बने। यह नया जन्म ही संन्यास है।
तुम पूछते हो: ‘उस परम तत्व से प्रेम या भक्ति कैसे की जाए जिसे हम जानते ही नहीं?’
तुम्हारे प्रश्न को मैं समझा, सार्थक है। स्वभावतः यह सवाल उठता है कि जिसे हम जानते ही नहीं उसे कैसे प्रेम करें! पहले जानेंगे, तभी तो प्रेम उपजेगा! तुम्हारा खयाल है कि प्रेम प्रेम की वस्तु के कारण उपजता है, तो भूल में पड़ गए।
क्या तुम सोचते हो प्यास इसलिए पैदा होती है कि पानी सामने है? प्यास पहले है, पानी की तलाश पीछे है।
क्या तुम सोचते हो जब बच्चा पैदा होता है तो उसे पता है कि दूध क्या है? इसलिए चिल्लाता है कि मुझे दूध चाहिए? इसलिए रोता है, चीखता-पुकारता है कि मुझे दूध चाहिए? दूध का तो उसे कुछ भी पता नहीं; न पहले कभी चखा न कभी सुना। फिर किसलिए पुकार मचा रहा है? फिर किसलिए गुहार मचा रहा है? फिर किसलिए शोरगुल कर रहा है? भूख है। भूख का पता है।
भेद समझ लेना। दूध का पता हो और तब भूख लगे तो झूठी भूख। ऐसी तुम्हें अक्सर लगती है। होटल के पास से निकले, गंध तैरती पास से गुजर गई, नासापुट गंध से भर गए और भूख लग आई। पकौड़े पकते थे और भूख लग आई। यह झूठी है। अभी क्षणभर पहले नहीं थी। अभी पकौड़ों के पकने की गंध नासापुटों में भर गई और भूख लग आई। यह भूख मानसिक है। यह थोथी है। इस भूख से सावधान। यह कृत्रिम है। और अगर इस भूख की मान कर चलोगे तो जल्दी ही रुग्ण बनोगे। यह तुम्हारे शरीर की मांग ही नहीं है। यह तुम्हारी जरूरत नहीं है। जरूरत होती तो पकौड़े की गंध की जरूरत नहीं थी। जरूरत होती तो भूख उठती। फिर तुम पकौड़े की तलाश में निकलते, वह दूसरी बात थी।
छोटा बच्चा पैदा हुआ, अभी तो इसने कभी स्वाद नहीं लिया, कभी देखा नहीं दूध, कभी मां के स्तन जाने नहीं। अभी नौ महीने तो मां के पेट में सब मिलता था चुपचाप; पता ही नहीं चलता था कैसे, कहां से! जीवन-रस इसमें चुपचाप बहता था। इसे ओंठ भी नहीं चलाने पड़ते थे। जीवन-ऊर्जा इसे मिलती थी मुफ्त। इसने कभी दूध पिया भी नहीं है। बड़ा चमत्कार है।
मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक, सभी के सामने यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि बच्चा जब पहली दफा रोता है तो किसलिए? दूध के लिए? स्तन के लिए? यह तो संभव नहीं है। फिर किसलिए? भूख है। भूख का उसे पता है। भीतर भूख कुलबुला रही है। पुकारता है, रोता है, चिल्लाता है। किसके लिए रोता है, पुकारता है, यह भी अभी पता नहीं है। यह भी कैसे पता हो सकता है! सिर्फ रोता है।
इसलिए परम भक्त तो वही है जो सिर्फ रोता है; जो यह भी नहीं कह सकता कि मैं राम को बुला रहा हूं, कि कृष्ण को बुला रहा हूं--जो सिर्फ कहता है कि मैं किसको बुला रहा हूं, यह भी मुझे पता नहीं है; लेकिन एक बुलाहट मेरे भीतर रोएं-रोएं में है; एक पुकार उठी है; एक प्यास उठी है; एक भूख जगी है। नाम कुछ भी रख लेता है। बिना नाम के भी भक्त बुलाता है। आकाश में देखता है और खोजता है। चांद-तारों में खोजता है। लोगों की आंखों में खोजता है। अपने चारों तरफ देखता है। बाहर-भीतर खोजता है। उसे एक बात का पता है कि भीतर कोई चीज उठी है बड़े जोर से; एक अंधड उठा है; एक तूफान आया है; एक भूख जगी है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चे को जैसे ही स्तन मिलता है, वह तत्काल स्तन से दूध पीना शुरू कर देता है। इसने पहले कभी अभ्यास भी नहीं किया, कोई रिहर्सल भी नहीं किया है। इसको कोई मौका ही नहीं मिला रिहर्सल का। यह कैसे एकदम से दूध पीने लगता है?
भूख पर्याप्त है। अभ्यास की जरूरत नहीं है। वह भूख ही दूध को खींचने लगती है। दूध पीछे आता है, भूख पहले। पानी पीछे आता है, प्यास पहले। प्रेम पहले आता है, परमात्मा बाद में।
तुम पूछते हो कि ‘अज्ञात परमात्मा को हम कैसे प्रेम करें?’
प्रेम तुम्हारे भीतर है ही। तुम इसे वस्तुगत मत बनाओ--आत्मगत है। प्रेम तुम्हारे भीतर है ही। असल में तुमने जब भी प्रेम किया है तो तुमने परमात्मा की ही तलाश की है। इसे मैं दोहरा दूं। तुमने जब भी किसी को प्रेम किया है तो तुमने परमात्मा की ही तलाश की है--अनजाने। बच्चा अक्सर करता है कि उसके हाथ में कुछ भी दो, जल्दी से मुंह में ले लेता है। क्यों? उसे तो भूख लगी है। वह स्तन की तलाश कर रहा है। हाथ में घुनघुना दिया, घुनघुने को मुंह में ले लता है। कुछ न मिले, अपने अंगूठे को मुंह में ले लेता है; अपने पैर के अंगूठे को मुंह में ले लेता है। जो मिलता है उसी को मुंह में ले लेता है। उसे तो भूख लगी है। सोचता है शायद यही स्तन है। स्तन का तो उसे कुछ पता नहीं।
ऐसी हमारी दशा है। तुम्हें जो दिखाई पड़ जाता है उसी के तुम प्रेम में पड़ जाते हो। मगर यह प्रेम है परमात्मा की ही तलाश। और इसलिए इस जगत का कोई भी प्रेम तृप्त नहीं कर पाता। बच्चे ने घुनघुना मुंह में ले लिया, मगर इससे कुछ भूख तो मिटेगी नहीं। घुनघुने को चूसता रहे, घुनघुने को पीता रहे, इससे तृप्ति तो होगी नहीं; जल्दी ही देर-अबेर घुनघुने को फेंक देगा। फिर तलाश शुरू हो जाएगी।
ऐसे ही हमारे इस जगत के प्रेम हैं--घुनघुने हैं। उनमें हम खोजते परमात्मा को हैं; हम फिर परमात्मा को नहीं पाते, इसलिए ऊब पैदा हो जाती है, विषाद पैदा होता है। फिर हम एक घुनघुना छोड़ते हैं, फिर दूसरा घुनघुना पकड़ लेते हैं। धन खोजा, धन में कुछ रस न पाया। पद खोजा, पद में कुछ रस न पाया। पत्नी खोजी, पति खोजे, मित्र खोजे--कुछ रस न पाया। ऐसी ही दौड़ चलती रहती है, चलती ही रहती है। क्यों रस नहीं मिलता? रस इसीलिए नहीं मिलता कि जब तक वास्तविक स्तन न मिल जाए, रस मिले कैसे? घुनघुने ने कहा कब था कि मैं तुम्हें रस दूंगा? तुमने मान लिया था।
और अज्ञात है परमात्मा, इसीलिए यह भ्रांति भी होती है। मनुष्य कुछ भी खोजता हो, परमात्मा को ही खोजता है। नरक में खोजता हो तो भी परमात्मा को ही खोजता है। शराब में खोजता हो तो भी परमात्मा को ही खोजता है। पद में खोजता हो तो भी परमात्मा को ही खोजता है। धन में खोजता हो तो भी परमात्मा को ही खोजता है। समझने की कोशिश करना।
तुम्हारी धन की इतनी आकांक्षा क्यों है? कभी तुमने इस पर विचार किया? तुम्हारे महात्मा भी इसके खिलाफ तो बोलते हैं, लेकिन इस पर कभी विचार करने का मौका नहीं देते। इस पर तुमने कभी ध्यान किया कि आदमी धन की तलाश में क्या खोजता है? आदमी धन की तलाश में यही खोज रहा है कि ऐसी स्थिति आ जाए कि मेरी सब जरूरतें पूरी हो जाएं, कि मुझे कुछ चाहिए हो तो मेरे पास धन हो; ऐसा न हो कि चाहत तो हो और धन न हो, तो तड़प हो। धन के द्वारा आदमी एक ऐसी दशा पाना चाहता है जहां कोई भी आकांक्षा अतृप्त न रह जाए। और क्या खोज है? इतना धन हो कि मेरी आकांक्षाओं से ज्यादा हो, यही तो धन की खोज है। अगर तुम इसका सार-अर्थ समझो तो इसका मतलब हुआ कि धन के द्वारा भी आदमी वासनारहित चित्त की दशा खोजता है। एक ऐसी दशा आ जाए जहां कोई आकांक्षा नहीं बची। क्योंकि आकांक्षा यानी भिखमंगापन--मांगो, गिड़गिड़ाओ, तड़पो!
तुम जो धन के पीछे इतने पड़े हो तो तुम कोई रुपये-सिक्के के पीछे थोड़े ही दीवाने हो। कौन पागल रुपये के पीछे दीवाना है! रुपये में एक आशा है, एक भरोसा है कि अगर रुपया पास होगा तो तुम्हें भिखमंगा नहीं होना पड़ेगा; जब जरूरत पड़ेगी, तुम्हारे पास संपत्ति होगी, सुविधा होगी, तुम अपनी जरूरत पूरी कर लोगे; जरूरत से तड़फोगे नहीं।
वासना से ज्यादा धन हो जाए, यह हमारी दौड़ है। यह कभी हो नहीं पाता, यह दूसरी बात है; इसलिए हम तकलीफ में पड़ते हैं। मगर हमारी आकांक्षा तो यही है।
तुम पद पर पहुंचना चाहते हो--क्यों? ताकि तुम किसी से नीचे न रह जाओ, इससे ग्लानि होती है; तुम किसी से पीछे न रह जाओ। पीछे रहने में मन को कष्ट होता है। ऐसी जगह पहुंच जाओ जिसके ऊपर और कोई जगह नहीं है: चलो राष्ट्रपति हो जाओ कि प्रधानमंत्री हो जाओ। ऐसी जगह पहुंच जाओ जिसके ऊपर और कोई जगह नहीं; वहां निश्चित होकर फिर बैठोगे। अब कहीं जाने को नहीं रहा।
पद की तलाश भी इसीलिए है कि एक ऐसी जगह आ जाए जहां विश्राम कर सको; जहां से फिर और जाने की, और धक्के खाने की जरूरत न रहे; आखिरी पड़ाव आ गया, मंजिल आ गई। मगर यह आती नहीं मंजिल। दिल्ली पहुंच जाते हो, मगर मंजिल नहीं आती। मगर तलाश परमात्मा की हो रही है।
परमात्मा को भक्तों ने परमपद कहा है। और परमात्मा को भक्तों ने परमधन कहा है। क्यों? क्योंकि परमात्मा के मिलते ही सब वासनाएं शून्य हो जाती हैं। परमात्मा के मिलते ही सब दौड़ शांत हो गई। अब कहीं और नहीं जाना है; विश्राम आ गया, अपना घर आ गया; मंजिल आ गई। अब इसमें ही डुबकी लगानी है; गोते खाने हैं; इस रस में ही डूबना-उबरना है, डूबना है। अब मौज के क्षण आ गए। अब लीला होगी। अब कोई तनाव, कोई चिंता न रही।
मनुष्य के मन का ठीक-ठीक विश्लेषण करो तो तुम्हें पता चलेगा: मनुष्य कुछ भी खोजता हो, परमात्मा को ही खोजता है। और चूंकि कहीं भी नहीं पाता, इसलिए सब जगह से विषादग्रस्त होकर, संतापग्रस्त होकर लौट आता है।
पत्नी में तुमने खोजना चाहा था एक ऐसा सौंदर्य जो कभी कलुषित न हो। तुम्हारी आकांक्षा परमात्मा की है; वही एक सौंदर्य है जो कभी कलुषित नहीं होता। तुमने पत्नी में एक ऐसा यौवन खोजना चाहा था जो कभी मुरझाएगा नहीं। लेकिन वह तो सिर्फ परमात्मा का ही है जो कभी नहीं मुरझाता। इस जगत में तो सब मुरझा जाएगा। जो जवान है, बूढ़ा होगा। जो सुंदर है, कुरूप हो जाएगा। जो आज ताजा है, कल बासा हो जाएगा। यहां तो सब सुगंधें दुर्गंधें बन जाती हैं। और यहां सब सौंदर्य ढल जाता है। यहां फूल खिलते हैं--कुम्हलाने को। तुमने एक ऐसा फूल चाहा था जो कभी न कुम्हलाए। फिर तुमने जिस फूल को चाहा, वह कुम्हलाया। फिर पीड़ा लगी, फिर चोट लगी। ऐसी ही चोटों का नाम संसार है। ऐसे ही घाव बढ़ते चले जाते हैं।
मूढ़ आदमी वही है जो फिर-फिर उन्हीं घुनघुनों को पकड़ लेता है; फिर-फिर उन्हीं खिलौनों को चूसने लगता है। समझदार वह है जो देख लेता है कि घुनघुनों से दूध नहीं बहता है।
धन से कोई भी कभी आकांक्षा से मुक्त नहीं होगा और पद से कोई कभी परमपद पर नहीं पहुंचता है। जिसको यह बात दिखाई पड़ गई, उसकी भूख खालिस रह गई; इस संसार में कोई उसकी भूख नहीं भरता। उस खालिस भूख से प्रार्थना उठती है; परमात्मा को जानने से नहीं उठती। खालिस भूख, भूख और भूख और भूख! और इस जगत में कोई चीज तृप्त करने वाली नहीं। सब देख लिया, सब परख लिया, कोई चीज तृप्त करती नहीं। फिर क्या करोगे? भूख तो है, प्यास तो है। प्रेम तो अग्नि की लपटों की तरह उठ रहा है। और अब इन लपटों को उलझाने वाले पात्र भी न रहे--न पत्नी उलझाती न पति उलझाता, न धन न पद, कोई नहीं उलझाता। सब हैं अपनी जगह, लेकिन अब तुम्हारी इस अतृप्ति के लिए तृप्त करने वाली कोई चीज नहीं है यहां। उन्हीं क्षणों में आंखें आकाश की तरफ उठती हैं, अज्ञात की तरफ उठती हैं। ज्ञात को तो छान लिया, अब अज्ञात को खोजें। जो दिखाई पड़ता है, उसको तो खूब परख लिया; अब जो नहीं दिखाई पड़ता, उसकी यात्रा में चलें। बाहर जो था उसको तो खूब तलाशा और हर बार और भी ज्यादा विषादग्रस्त होकर अपने में गिर गए; अब भीतर खोजें; अब अंतर्यात्रा पर निकलें।
‘उस परम तत्व से प्रेम या भक्ति कैसे की जाए जिसे हम जानते ही नहीं?’
जिसे तुम जानते हो, जिस दिन इससे तुम्हारा प्रेम असफल हो जाएगा--उस दिन। जिस दिन तुम जान लोगे कि यहां प्रेम के तृप्त होने का उपाय ही नहीं है, उस दिन यात्रा शुरू होगी। असली बात तुम्हारे भीतर की प्यास है। अपनी प्यास पहचानो, परमात्मा की फिकर छोड़ो।
इसलिए तो कुछ ऐसे ज्ञानी हुए जैसे बुद्ध-महावीर, जिन्होंने परमात्मा की बात ही नहीं की। उन्होंने कहा, परमात्मा को क्यों बीच में लाएं? अपनी प्यास है; अपनी प्यास को ही समझने की कोशिश करें; और अपनी प्यास में ही उतरें। वे अपनी प्यास में ही उतर गए और उन्होंने परम अवस्था पा ली। परमात्मा मिल गया--परमात्मा की बात किए बिना मिल गया। और जिन्होंने भगवान को नहीं माना, उनको हमने भगवान कहा। बुद्ध को हमने भगवान कहा। महावीर को हमने भगवान कहा। माना नहीं उन्होंने भगवान को। वे बड़े तर्कनिष्ठ लोग थे। उन्होंने कहा, भगवान को तो हम जानते नहीं, उसकी क्या बात करें? हमारे भीतर एक प्यास है, उसका ही हम विश्लेषण करेंगे। अपनी ही प्यास की हम खोज करेंगे। अपनी ही प्यास में गहरे जाएंगे। सीढ़ियां दर सीढ़ियां नीचे उतरेंगे। अपनी ही प्यास के कुएं में झांकेंगे। अंततः कहीं न कहीं जल की कोई रेखा होगी।
जिन्होंने ऐसी यात्रा की, वे ध्यानी: उन्होंने ध्यान के माध्यम से परम अवस्था पा ली। वे स्वयं परमात्मा हो गए! जरूरी नहीं कि सभी ऐसी यात्रा करें। जो सरल हृदय हैं, जिनका चित्त अभी बहुत विश्लेषण के रोग से ग्रसित नहीं हुआ है, जिनके पास थोड़ी सी भाव की संपदा शेष है, वे आंख उठा कर आकाश के अज्ञात में देखना शुरू कर दें। रोएं। गीत गा सकें गीत गाएं। कुछ न बन सके तो रोना तो बन सकता है। रोने के लिए तो कोई कुशलता और कला नहीं चाहिए। उसी रोने में प्रार्थना का जन्म हो जाएगा।
घड़ी भर रोज रो लो। पर्याप्त है। नहा जाओगे उन आंसुओें में; हलके हो जाओगे। और तुम पाओगे कि धीरे-धीरे जिसकी खोज है वह करीब आने लगा।
कौन वह पुकार गई!
अंधियारे आंगन में दिवरा सा बार गई
सूखे दो तिनकों में गुम-सुम-सा बैठा है
पांखों में ढांपे मुख जीवन से रूठा है
नीड़-विटप ठूंठा है
ऐसे मन-सुगना को चुगना-सा डार गई
कौन वह पुकार गई!
पेड़ों की फुनगी पर सिहरन अंधियारे की
टहनी पर सुगबुग है पंछी बनजारे की,
पंथी मनहारे की
सबकी मनचीती भिनसार को गुहार गई
कौन वह पुकार गई!
आंखों की शाखों पर आंसू का झूला है
ओंठों के ढोले पर प्राण बहुत झूला है,
पैगों में भूला है
सांसों की छिटकी लट प्यास से संवार गई
कौन वह पुकार गई!
बेला के गजरेले सागर भी दौड़ा था
तट की चट्टानों ने फूल-फूल तोड़ा था
गति ने मुख मोड़ा था
रेत की गलबांही दे चुप-चुप दुलार गई
कौन वह पुकार गई!
रह-रह कर गिरते हैं जाले उदासी के
दुख से धुंधवाए-से भाप की उसांसी-से
मैले-से, बासी-से
अंतस के मटियाले बासन खंगार गई
कौन वह पुकार गई!
सपनों के मड़वे पर, भावों के चौरे पर
आशा के बिरवे पर, प्यार के टकोरे पर
बोर के निहोरे पर
सरस रूप गंध के फुहारे फुहार गई
कौन वह पुकार गई!
ऐसी फुलचुगी को पाना भर जीवन है
बैठे जिस डाली पर उसमें ही कंपन है
गीतों का नंदन है
मुट्ठी में बांधो तो पारे सी पार गई
अंधियारे आंगन में दिवरा सा बार गई
कौन वह पुकार गई!
इस जगत के प्रेम भी जब आते हैं तो बड़े अज्ञात-अपरिचित आते हैं। किसी प्रेमी से पूछा इस स्त्री के प्रेम में क्यों पड़ गए? इसे जानते थे? जान कर प्रेम किया? तो प्रेमी कहेगा, जानने का सवाल ही नहीं उठा। इसे देखा और प्रेम हो गया।
प्रेम कैसे हो गया, यह प्रेमी कहता है, यह बताना मुश्किल है। मैंने किया, यह बात ही गलत--बस हो गया। अपने किए की कुछ बात ही नहीं है। एक तरंग उठी। कोई हृदय को बांध गया।...कौन वह पुकार गई!
पहचानते थोड़े ही हैं प्रेमी एक-दूसरे को। एक पुकार, एक तरंग दोनों हृदयों में एक साथ डोल जाती है। कोई अज्ञात तंतु कंप जाता है। क्यों कंप जाता है? अब तक कोई उत्तर नहीं है। कभी कोई उत्तर नहीं होगा। कारण मिल जाए प्रेम का तो समझना प्रेम ही नहीं। तुम कहोगे: इसलिए प्रेम किया कि इसके पास पैसा बहुत था, बाप की अकेली बेटी है, सब अपना हो जाएगा--तो यह प्रेम न रहा। अगर उत्तर दे सको कि इसलिए प्रेम किया, तो यह प्रेम न रहा। तुमने कहा कि इसकी नाक बड़ी सुंदर है...नाक से तो कोई प्रेम नहीं करता। और फिर कल नाक तो...नाक ही है, कल गिर पड़े, चोट खा जाए, फिर क्या होगा? तुम कहो इसकी आंख से प्रेम किया। नहीं, ये सब तो बहाने हैं। अक्सर तुम खोज लेते हो ये बहाने। मगर ये सच्चे नहीं हैं।
प्रेम पहले हो जाता है, फिर आंख सुंदर मालूम पड़ती है, नाक सुंदर मालूम पड़ती है, बाल सुंदर मालूम पड़ते हैं। असल बात उलटी है। ऐसा नहीं है कि आंख सुंदर थी, इसलिए प्रेम हो गया। प्रेम हो गया, इसलिए आंख सुंदर मालूम पड़ती है। क्योंकि यही आंख किसी दूसरे को सुंदर नहीं मालूम पड़ती; सिर्फ तुम्हीं को मालूम पड़ती है।
लैला सिर्फ मजनू को सुंदर मालूम पड़ती है। सारा गांव हंसता था, पागल समझता था। मजनू का मतलब ही पागल हो गया धीरे-धीरे, शब्द का अर्थ ही पागल हो गया कि क्या मजनू हुए जा रहे हो! दिमाग खराब हो गया है? सारा गांव हंसता था। लोग कहते थे: तू पागल है, यह लैला में कुछ भी रखा नहीं है; हमें तो कुछ दिखाई नहीं पड़ते। गांव के राजा ने भी बुलाया मजनू को। कहा: तू बिलकुल दीवानगी छोड़। तुझे सुंदर स्त्री चाहिए?
समझदार आदमी सदा ऐसी बातें करते रहे: तुझे सुंदर स्त्री चाहिए? उसने राजमहल से बारह लड़कियां खड़ी कर दीं सुंदरतम। उस पूरे देश में नहीं थीं। मजनू गया। एक-एक स्त्री को देखा, लौट कर उदास आ गया। उसने कहा: लैला इनमें कोई भी नहीं है। राजा ने कहा: तू पागल हुआ है? लैला कुछ भी नहीं है--एक काली-कलूटी सी, साधारण सी स्त्री है; ये सुंदरतम स्त्रियां हैं।
मजनू ने कहा: होंगी। लेकिन मुझे लैला के सिवाय और कोई सुंदर दिखाई नहीं पड़ती। मुझे जिससे प्रेम है उसी में सौंदर्य दिखाई पड़ता है।
राजा ने कहा: मुझे सौंदर्य नहीं दिखाई पड़ता, मैं कोई अंधा हूं?
मजनू का उत्तर बड़ा प्यारा था। उसने कहा: अगर लैला में सौंदर्य देखना हो तो मजनू की आंख चाहिए।
यह बात बड़ी महत्वपूर्ण है: मजनू की आंख।
तुम्हारा जब किसी से प्रेम हो जाता है तो दुनिया को तुम पागल मालूम पड़ोगे। प्रेमी सदा से पागल मालूम पड़े हैं। कारण साफ है क्योंकि प्रेमी उत्तर नहीं दे पाते, तर्कयुक्त उत्तर नहीं दे पाते। इसलिए प्रेम को लोग अंधा कहते हैं, क्योंकि प्रेम के पास तर्क नहीं है। प्रेम के पास बुद्धिमानीपूर्ण उत्तर नहीं है। इसलिए बहुत बुद्धिमानों ने तो प्रेम का रास्ता ही समाप्त कर दिया था। उन्होंने तो विवाह ईजाद किया। वह बुद्धिमानों की ईजाद है; समझदार, चालाकों की ईजाद है। उन्होंने विवाह ईजाद किया। विवाह का मतलब होता है कि पहले ठीक से जान लो, फिर प्रेम में पड़ो। घर-ठिकाना, ज्योतिष से पूछो। मुहूर्त दिखवाओ। कुलीन है या नहीं? परंपरा कैसी है? अब तक घर में कैसे लोग रहे? प्रतिष्ठा कैसी? धन, पद-प्रतिष्ठा, शिक्षा यह सब जांचो-परखो। पहले जान लो, फिर प्रेम करो।
तुम्हारा जो प्रश्न है वह ऐसा ही है कि पहले जानें तब तो प्रेम हो। फिर विवाह होगा, प्रेम नहीं हो पाएगा। और विवाह प्रेम नहीं है, खयाल रखना। विवाह बिलकुल प्लास्टिक, उसमें असलियत जरा भी नहीं है। व्यवस्था अच्छी है विवाह की; उसमें खतरा कम है, यह सच है। सुविधा ज्यादा है, सुरक्षा ज्यादा है। समाज विवाह के साथ ज्यादा सुरक्षित है; प्रेम के साथ खतरे हैं। ऐसी चीज का क्या भरोसा जो अनजान से उतरती है। अपने बस में नहीं है। ऐसी चीज का कोई भरोसा नहीं है। आया हवा का झोंका तो आ गया, नहीं आया तो...। और जो आया अचानक, वह अचानक जा भी सकता है। यह भी खतरा है।
विवाह तो हम चेष्टा से लाए हैं, चेष्टा से ही जा सकेगा। पहले विवाह को बड़े आयोजन से लाना पड़ता है। इसलिए तो फिर तलाक का भी उतना ही आयोजन करना पड़ता है; जब जाएगा तो उतना ही आयोजन करना पड़ता है। और भी कठिन आयोजन करना पड़ेगा। जैसे बैंड-बाजे बजे थे और एक औपचारिकता थी और पंडित-पुरोहित आए थे और समाज इकट्ठा हुआ था, ऐसी फिर अदालत की दुनिया में गुजरना पड़ेगा, मुकदमेबाजी होगी, कानून चलेगा, झंझटें होंगी। व्यवस्था बनाई थी तो व्यवस्था मिटाने में भी उतनी झंझट होगी।
प्रेम तो आता है अज्ञात झोंके की तरह। फिर उसका कुछ भरोसा भी क्या है! उसमें तो बहुत हिम्मतवर ही भरोसा कर सकते हैं। उसमें तो दुस्साहसी भरोसा कर सकते हैं। कमजोर, वणिक बुद्धि के लोग उसमें भरोसा नहीं कर सकते। उसमें तो क्षत्रिय और राजपूत...।
और यह तो मैं साधारण प्रेम की बात कर रहा हूं। परमात्मा का प्रेम तो बहुत भयंकर अंधड़ है। तुम परमात्मा को पहले जानोगे, फिर प्रेम करोगे? तुम्हें कोई पहले परमात्मा से परिचय करवाए तब तुम प्रेम करोगे? यही तो विज्ञान कहता है। विज्ञान कहता है, पहले परमात्मा प्रमाणित तो हो! प्रयोगशाला में प्रमाणित हो; टेस्टट्यूब में प्रमाणित हो। हम इसकी जांच-परख कर लें ठीक से। काट-पीट कर लें इसकी ठीक से। जब तक हम परमात्मा का रोआं-रोआं, रग-रग न जान लें, तब तक हम स्वीकार न करेंगे। प्रेम की तो बात ही दूर है; पहले स्वीकार करेंगे, फिर प्रेम हो सकता है।
...तो तो फिर तुम परमात्मा से कभी संबंध न जोड़ पाओगे।
परमात्मा अज्ञात है, और अज्ञात ही रहता है; अदृश्य है और अदृश्य ही रहता है।
परमात्मा का अर्थ है: इस विराट में जो ऊर्जा समाहित है; यह जो विराट की लीला चल रही है, इसके पीछे जो छिपा हुआ नर्तक है; यह जो नृत्य चल रहा है; यह जो उत्सव चल रहा है; इस उत्सव के पीछे जो जीवन-सूत्र है। उस जीवन-सूत्र से सीधी-सीधी पहचान नहीं होती। प्रत्यक्ष परिचय कभी नहीं होता--परोक्ष। प्रेम के द्वारा ही होता है।
इसलिए संतों ने सदगुरु की इतनी बात की है। सदगुरु का मतलब केवल इतना है कि तुम्हारा सीधा तो कोई परिचय नहीं है; किसी का परिचय हो, पहले उसके प्रेम में पड़ो। धीरे-धीरे कदम बढ़ाओ।
आदमी तैरने सीखने जाता है नदी पर तो पहले तो उथले में तैरता है। एकदम से उतर नहीं जाता सागर की गहराई में। पहले किनारे पर तैरता है। आहिस्ता-आहिस्ता अभ्यास करता है। फिर धीरे-धीरे और गहराई की तरफ बढ़ता है। ऐसे-ऐसे एक दिन इस योग्य हो जाता है कि पैसिफिक की गहराई भी हो तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता। तैरना आ गया।
पहले सत्संग करो। सत्संग का मतलब है: जहां तुम जैसे ही प्यासे लोग, संसार से ऊब गए, हार गए, थक गए लोग, संसार को जिन्होंने ठीक से देख लिया, परख लिया और जरा भी पोषण नहीं पाया संसार से, जिनके प्राणों को जरा भी तृप्ति नहीं मिली, ऐसे लोगों के संग-साथ बैठो, संगत करो। इनके साथ बैठने से तुम्हारी प्यास निखरेगी, तुम्हारी प्यास प्रकट होगी, साफ होगी। और तुम्हें हिम्मत बढ़ेगी कि तुम अकेले ही नहीं हो जिसके लिए संसार व्यर्थ गया है। अकेले में डर लगता है कि पता नहीं, अपनी कोई भ्रांति हो। जहां सारी दुनिया धन की खोज कर रही है, वहां मैं ध्यान की खोज करूं! संदेह पैदा होता है, भरोसा नहीं आता: कहीं पागल तो नहीं हो रहा हूं। यह क्या झंझट सिर ले रहा हूं! जहां सारी भीड़ जा रही है, उसी तरफ जाने में सुगमता मालूम पड़ती है, सुविधा मालूम पड़ती है।
जहां भीड़ है वहीं सच होगा, ऐसी हमारी धारणा है। जहां सभी लोग जाते हैं, इसीलिए जाते होंगे कि कुछ सच्चाई है; अकेला मैं कैसे चल पडूं पगडंडी पर।
संगत का अर्थ है: अकेला नहीं हूं, और भी लोग हैं। संगत का अर्थ है: मेरे जैसे और भी दीवाने हैं, मेरे जैसे और भी प्यासे हैं। इससे हिम्मत बढ़ती है।
तो पहला कदम: संगत। संगत का अर्थ है: नदी के किनारे, तट पर, गले-गले पानी में तैरना सीखो। फिर संगत से दूसरा कदम है: सदगुरु। अब तुम थोड़े और गहरे जाओ। अब जरा उसका हाथ पकड़ो जिसने परमात्मा में डुबकी लगाई हो। पहले उनका हाथ पकड़ो जो डुबकी लगाने के लिए आतुर हैं; फिर उसका हाथ पकड़ो जिसने डुबकी लगाई हो। और तीसरे कदम में तुम्हें पूरी स्वतंत्रता है, तुम परमात्मा में सीधे डुबकी मार जाओ।
संगत, सदगुरु और सत्य--बस ये तीन ही कदम हैं। भक्ति में ये तीन ही कदम हैं।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, तथाता और समर्पण मुझे विशेष रूप से प्रिय लगते हैं, लेकिन उनमें स्थित क्यों नहीं हो पाता? कृपापूर्वक मार्गदर्शन करें।
प्रिय लगने से ही तो कुछ हल नहीं होता। प्रिय तो कभी-कभी गलत कारणों से भी लग सकते हैं। और आदमी इतना गलत है कि गलत की ही संभावना ज्यादा है।
समझो। समर्पण की बात सुनी कि तुम्हें कुछ भी नहीं करना, सब उसी पर छोड़ देना है। यह बात प्रिय लग सकती है क्योंकि करने की झंझट से बचे। यह गलत कारण होगा प्रीतिकर लगने का। तुमने सोचा: यह तो बड़ी अच्छी रही, कुछ करना भी नहीं। मगर तुम समझे नहीं बात। कुछ न करना इस जगत में सबसे बड़ा करना है और सबसे कठिन करना है। जरा कभी आधा घड़ी कुछ न किए बैठ कर देखो, तब तुम्हें समझ में आएगा। कुछ करना तो सदा आसान है। करते तो तुम रहे ही हो, जन्मों-जन्मों से करते ही रहे हो। वह तो आसान है। कठिन से कठिन काम आदमी कर ले, लेकिन यह सरल से सरल काम कि आधा घड़ी को बिना कुछ किए बैठ जाए, यह बड़ा कठिन है, बहुत कठिन है। शरीर से रोक भी लोगे अपने को तो मन भागा-भागा रहेगा, मन करता रहेगा। मन योजनाएं बनाएगा, या कि अतीत में लौट जाएगा या कि भविष्य में दौड़ेगा, यहां-वहां छितरा-छितरा होगा। मगर तुम कुछ करोगे तो ही।
न करने का मतलब होता है शरीर भी शून्य हो गया, मन भी शून्य हो गया।
न करने का मतलब होता है जैसे तुम मर ही गए; जैसे इन कुछ घड़ियों के लिए तुम बचे ही नहीं; तुम्हारे होने का बोध ही न रहा। कोई अहंकार न रहा, कोई कर्ता न रहा, कोई कर्तृत्व न रहा।
ज्ञानियों ने कहा है: एक क्षण को भी ऐसा शून्य घट जाए तो सब घट गया।
तो जब तुम मेरी बात सुनते हो कि समर्पण में कुछ नहीं करना होता, सब छोड़ देना होता है, तो तुम्हें बात तो जंचती है लेकिन गलत कारण से जंचती है। तुम सोचते हो, यह अच्छी रही। हम तो सोचते थे कुछ करना पड़ेगा। यह झंझट मिटी करने की भी।
तुम हो आलसी। तुम्हें बात रुची: कुछ करना नहीं है। मगर तुम समझे नहीं। गलती के कारण बात जंची। भ्रांति तुम्हें हो गई। तुम समझे आलस्य, मैं कह रहा था शून्य। तुम समझे कुछ करना नहीं है, यह तो बड़ी सुगम बात हो गई है। और मैं कह रहा था अहंकार को विसर्जित करना है।
कर्ता यानी मैं। और जब तुम अकर्ता बनोगे तभी परमात्मा तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो सकता है। जब तक तुम हो तब तक बाधा है, अड़चन है।
तो तुम पूछते हो: ‘तथाता और समर्पण की बात मुझे प्रिय लगती है, लेकिन उनमें स्थित क्यों नहीं हो पाता?’
प्रिय लगती होंगी गलत कारण से। अगर ठीक कारण से प्रिय लगेंगी तो तत्क्षण स्थित हो जाओगे। तथाता की बात भी बहुत लोगों को प्रिय लगती है कि जैसा है वैसा ही स्वीकार कर लो। मगर तुम समझते हो यह आसान है कि जैसा है वैसा ही स्वीकार कर लो।
मन तो इनकार करने का आदी है, अभ्यस्त है। मन तो शिकायत करने का आदी है। मन तो हर जगह भूल-चूक निकालता है। मन तो कहता है: ऐसा होना चाहिए था, ऐसा होता तो अच्छा होता। यह क्या हो गया?
हां, जब अच्छा-अच्छा होगा तब शायद तुम स्वीकार कर लो। लेकिन वह तो कोई बात न थी; सवाल तो तब था जब अच्छा न हो तब स्वीकार करने का। मीठा-मीठा गप, कड़वा-कड़वा थू। मीठा-मीठा गप की तो बात ही नहीं थी। वह जो कड़वा-कड़वा था। जिसको तुम थूक देते हो, उसको भी उसी अहोभाव से स्वीकार कर लेना था। सुख को तो सभी स्वीकार कर लेते हैं; दुख को स्वीकार करने की बात थी।
जब मैं कहता हूं तथाता, तो उसका अर्थ होता है जो प्रभु दे! फूल दे तो फूल, कांटे दे तो कांटे। सफलता दे तो ठीक, विफलता दे तो ठीक। विफलता में भी जरा सी शिकायत न उठेगी। क्षण भर को भी ऐसा भाव न आएगा मन में कि विफलता हो गई, यह क्या हो गया? यह तूने क्या किया? अपने प्यारे को, अपने भक्त को इस बुरी दशा में डाल दिया? चोर-उचक्के सफल हुए जा रहे हैं और मैं पूजा-पाठ कर करके मरा जा रहा हूं, मैं हारता जा रहा हूं। बुरे आदमी जीत रहे हैं, महल खड़े कर रहे हैं। भले आदमी गिट्टियां तोड़ रहे हैं। यह तू क्या कर रहा है? और मैंने तो सदा यही सुना था कि तेरे संसार में न्याय है; यह तो अन्याय हो रहा है।
तुम अक्सर भले आदमियों को रोते पाओगे। मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं: यह क्या हो रहा है संसार में? हमने तो सुना था: सत्यमेव जयते! यहां तो झूठ की विजय हो रही है और सत्य तो हारा-पीटा है, सब जगह चारों खाने चित्त पड़ा है। सत्य बोले कि हारे। झूठ बोलो तो जीतो।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हम शील से जीते हैं, सदाचरण से जीते हैं, भूखे मर रहे हैं। बच्चों के लिए न शिक्षा जुटा पाते, न मकान जुटा पाते, न कोई सुख-सुविधा जुटा पाते। हम भी चोर होते, हम भी लफंगे होते, तो हम भी सुख में होते।
मगर इसका मतलब क्या होता है? इसका मतलब इतना ही होता है कि ये भलेपन की जो बातें कर रहे हैं--शील, सदाचरण, इत्यादि--ये सिर्फ भय के कारण भले हैं। वह जो चोर खतरा लेता है, वह खतरा लेने की इनकी तैयारी नहीं है। चोर खतरा भी लेता है, महल ही नहीं बनाता है; कभी-कभी फिर नौ लाख के महल में भी चला जाता है। उसका खतरा भी देखते हो! वह दांव भी लगाता है। जुआरी है। या तो सब गया या सब पाता है।
अब तुम छोटी सी दुकान करते हो, जुए का दांव लगाते नहीं। तो कभी-कभी जुआरी जब जीत जाता है, तब तुम परेशान होते हो। मगर उसका खतरा देखा! उसने जोखिम उठाई थी। या तो सड़क का भिखमंगा होता। तुम कभी भिखमंगे न होओगे। किसी तरह खाते-पीते दाल रोटी जुटाते रहोगे। या तो वह भिखमंगा होने को तैयार था या महल बनाने को तैयार था। दोनों हालत में उसने खतरा लिया था, तो कभी वह जीतेगा, कभी हारेगा। उसके साहस के कारण ही यह हो रहा है।
तुम्हारी नीति अक्सर तुम्हारा आंतरिक भय होता है कि कहीं पकड़े न जाएं, कहीं कोई झंझट न हो जाए, प्रतिष्ठा न टूट जाए! यह कोई वास्तविक धर्म नहीं है: यह भीरु का धर्म है। यह कमजोर और नपुंसक का धर्म है।
इसलिए तुम्हारे मन में शिकायत भी बनी रहती है। तुम्हारे मन में ईर्ष्या तो उसी से बनी रहती है, उस बुरे आदमी से। तुम भी चाहते तो वही हो जो उसे मिल रहा है; लेकिन तुम उतनी जोखिम भी नहीं उठाना चाहते। तुम जालसाज ज्यादा हो। तुम बिना ही जोखिम के पाना चाहते हो। तुम चाहते हो कि कभी-कभी भजन कर लेते हैं, माला फेर लेते हैं, इसलिए जो महल चोर को मिल गया है वह हमें भी मिल जाए। पर भजन कर लेने से महल के मिलने का कोई संबंध नहीं। भजन करने से बादशाह होने का जरूर संबंध है, लेकिन महल के मिलने का कोई संबंध नहीं है। बादशाह तुम हो जाओगे--झोपड़े में रहोगे तो भी बादशाह हो जाओगे। और महल होने से थोड़े ही कोई बादशाह हो जाता है। महलों में कितने भिखारी रह रहे हैं! मगर तुम महल देखते हो। तुम्हें भी महल ही दिखाई पड़ता है; महल के भीतर वह जो भिखमंगा, वह जो चोर रह रहा है जो रात भर सो नहीं सकता और जिसके जीवन में कोई शांति नहीं है और सब तरफ जहर है, वह तुम्हें नहीं दिखाई पड़ता, उसका महल दिखाई पड़ता है।
तुम भी हो तो चोर ही, लेकिन तुम जरा कमजोर चोर हो। तुम पकड़े जाने का खतरा नहीं उठा सके। तुम माला फेरते हो, जैसे कि माला फेरने से महल के मिलने का कोई संबंध हो; कि तुम गीता पढ़ते हो, जैसे गीता पढ़ने से कोई धन के पैदा होने का कोई भी तो संबंध नहीं है।
वास्तविक धार्मिक आदमी की कोई शिकायत नहीं होती, सदा ही धन्यवाद होता है। वह कहता है, प्रभु की अनुकंपा हर घड़ी बरस रही है। कभी दुख में आती है, कभी सुख में आती है, लेकिन मैं उसे हमेशा पहचानता हूं। वह दुख में भी आती है तब भी उसकी कृपा को पहचानता हूं। क्योंकि दुख सदा दुख ही नहीं होता। दुख निखारता है, मांजता है। दुख कचरे को जलाता है। दुख शुद्ध को प्रकट करता है। दुख प्रक्रिया है विकास की।
अब लोहार पीटता है लोहे को, आग में डालता है, पीटता है, आग में डालता है, तब कुछ निर्मित हो पाता है। सोने को आग में डालना पड़ता है, तब कचरा जलता है और सोना कुंदन बनता है।
ऐसे ही दुख भी एक अग्नि है। और अक्सर ऐसा होता है कि परमात्मा अपने प्यारों को ज्यादा दुख की अग्नि से गुजारता है। स्वभावतः वे उसके प्यारे हैं। स्वभावतः उनकी पात्रता ऐसी है कि उन्हें ज्यादा अग्नि से गुजारा जाना चाहिए। स्वभावतः उनके भीतर ज्यादा संभावना छिपी है, उन्हें ज्यादा कूटा-पीटा जाना चाहिए, ताकि उनके भीतर दबे हुए बीज प्रकट हो जाएं।
अक्सर बुरा आदमी सुविधा से जी लेता है। बुरे आदमी में कुछ है ही नहीं। उसको कूटने-पीटने की भी कोई जरूरत नहीं। भला आदमी हजार असुविधाओं से गुजरता है। मगर अगर परमात्मा से प्रेम लग गया हो, लगन लग गई हो तो दुख दुख नहीं मालूम होता; विफलता विफलता नहीं मालूम होती; हार हार नहीं मालूम होती; हर हार एक नई जीत की सीढ़ी बन जाती है।
अब तुम पूछते हो कि ‘तथाता और समर्पण मुझे विशेष रूप से प्रिय लगते हैं।’
वे इसलिए अच्छे लगते होंगे कि तथाता का मतलब होता है एक तरह का भाग्यवाद, कि अब हम क्या करें, जो परमात्मा कर रहा है सो कर रहा है, जो करेगा सो करेगा, हमारे किए तो कुछ होगा नहीं। एक तरह की काहिलता, सुस्ती, आलस्य...। यह नकारात्मक पहलू है तथाता का, जो तुम पकड़ रहे हो।
फिर दूसरा है समर्पण: हमें कुछ करना नहीं है, सिर्फ उसके चरणों में सिर रख देना है। मगर तुम सोचते हो उसके चरणों में सिर रख देना कुछ आसान बात है? सिर उतार कर रखना होता है। ऐसे ही झुका दिया और चले आए...। तुम तो झुके ही नहीं, सिर की कवायद हो गई। ऐसे नहीं चलेगा। पलटू का कल वचन सुना? पलटू ने कहा: अपने सिर को काटे। काटे ही नहीं, फिर कटे हुए सिर के ऊपर खुद नाचे। बड़ी अपूर्व बात कही! सिर को काटे, पहले तो अहंकार को काट कर गिरा दे। और इतना ही नहीं कि गिरा कर खड़ा हो जाए कि देखो कितना त्याग किया; उदासी में खड़ा हो जाए गंभीर होकर कि अब मुझे बदला दो। नाचे--आनंद अहोभाव से, उत्सव से! उस उत्सव की घड़ी में ही परमात्मा से मिलन होता है।
तो तुम्हें कुछ बातें प्रीतिकर लगें, इससे यह मत सोचना कि तुम उसमें स्थित हो जाओगे। अगर स्थित हो जाओ तो ही समझना कि वस्तुतः तुम्हें प्रीतिकर लगीं और ठीक कारणों से प्रीतिकर लगीं। अगर स्थित न हो पाओ तो समझना कि गलत कारणों से प्रीतिकर लगी होंगी, अपने कारण को बदलो।
दुनिया में बड़े-बड़े अपूर्व सिद्धांत गलत आदमियों के हाथ में पड़ कर गलत हो गए। गलत आदमी के हाथ में ठीक सिद्धांत भी गलत हो जाता है। और ठीक आदमी के हाथ में गलत सिद्धांत भी ठीक हो जाता है। इसे स्मरण रखना। सब-कुछ आदमी पर निर्भर है।
अब यह कितना अपूर्व सिद्धांत था भाग्य का कि जो कर रहा है परमात्मा कर रहा है! लेकिन गलत आदमियों के हाथ में पड़ गया। यह अपूर्व सिद्धांत गलत आदमियों के हाथ में पड़ कर पूर्व की पूरी की पूरी परेशानी का कारण बन गया। अब हमें कुछ करना नहीं है। अब तो जो कुछ हो रहा है ठीक है। दुख है, दारिद्रय है, बीमारी है, रोग है--सब ठीक है। एक तरह की जड़ता पैदा हो गई।
भाग्यवाद ने पूरब को मार डाला--बुरी तरह मार डाला! गलत कारणों से ऐसा हुआ। असली भाग्यवाद का अर्थ यह नहीं होता कि हमें कुछ नहीं करना है। असली भाग्यवाद का अर्थ यह होता है कि हमसे परमात्मा जो करवाए वह करना। करवाने वाला वह है, करने वाले हम हैं। करने वाले अब भी हम हैं। खयाल रखना, पुरुषार्थी भी करता है; लेकिन पुरुषार्थी कहता है, मैं कर रहा हूं। और भाग्यवादी भी करता है; लेकिन भाग्यवादी कहता है, परमात्मा करवा रहा है। इतना ही फर्क है। करने में जरा फर्क नहीं पड़ता। सच तो यह है कि पुरुषार्थी जल्दी थक जाएगा। उसकी ऊर्जा कितनी! अहंकार की क्षमता कितनी! भाग्यवादी कभी नहीं थकेगा। परमात्मा की ऊर्जा से जो जी रहा है, वही करवा रहा है; उसके थकने के कारण कहां हैं।
अगर पूरब के देशों ने भाग्यवाद को ठीक कारणों से पकड़ा होता तो पश्चिम बहुत पीछे होता। पश्चिम तो अहंकार से जी रहा है। पश्चिम अहंकार से इतना संपन्न हो गया और हम परमात्मा के साथ जुड़ कर न हो पाए। जरूर कहीं कुछ भूल हो गई है, गहरी भूल हो गई है। हम जुड़े ही नहीं। हमने भाग्य को आलस्य बना लिया। समर्पण को हम समझे कि बस खत्म हो गया; मंदिर में सिर रख आए, बात खत्म हो गई।
समर्पण है पूरे जीवन की शैली का रूपांतरण। समर्पण का अर्थ होता है: अब तू है, मैं नहीं हूं। अब तू जो करवाएगा वही मैं करूंगा। यही तो गीता की पूरी की पूरी भित्ति है। अर्जुन बड़ा पाश्चात्य बुद्धि का आदमी रहा होगा। वह यही कह रहा है कि मैं काटूं, मैं मारूं, इस युद्ध में मैं हत्या करूं, हिंसा करूं, मैं ऐसे बुरे काम करूं--किसलिए? मैं जंगल चला जाऊंगा, मैं सब छोड़ दूंगा। मैं संन्यस्त हुआ जाता हूं।
और कृष्ण उसे खींच-खींच कर, समझा-समझा कर युद्ध में वापस ला रहे हैं। और कृष्ण कह रहे हैं कि तू एक भ्रांति छोड़ दे कि तू करने वाला है। करने वाला परमात्मा है। तू कौन बीच में आता है! ये जो लोग तू खड़े देख रहा है, ये मर ही चुके हैं। तू तो निमित्त मात्र है। जैसे कोई आदमी मर गया और तेरे धक्के की जरूरत है। ताकि वह गिर जाए। तू धक्का नहीं देगा तो कोई और धक्का देगा, लेकिन जो मारने वाला है वह मरेगा। तू भाग मत। तू परमात्मा की सेवा कर। तुझे थोड़ा अवसर मिला है, इससे मत चूक। परमात्मा ने तुझे निमित्त बनाया है, तू निमित्त बन जा। यह अपूर्व अवसर है, इससे भाग मत। यही संन्यास है।
अर्जुन को समझ में नहीं आती बात कि यह कैसा संन्यास है! विवाद चलता है, लंबा विवाद चलता है। कृष्ण कहते हैं यही संन्यास है कि प्रभु जो कराए वही हम करें। फिर यह भी हम न पूछेंगे कि बुरा कि भला। क्योंकि मैं कौन! जहां निमित्त बना देगा...।
यह बड़ी क्रांतिकारी धारणा है: बुरे को भी चुपचाप स्वीकार कर लेना। अपमान होगा, निंदा होगी, प्रतिष्ठा खो जाएगी--ठीक है। प्रभु की यही मर्जी होगी तो यही होगा। यही काम उसे मुझसे लेना होगा। मुझे अप्रतिष्ठित होने की दशा में डालना जरूरी होगा, इसलिए डालता है।
ऐसी सरलता से जो समर्पण कर देता है उसके जीवन में कुछ और करने को बचा नहीं रह जाता। बचने की कोई बात ही नहीं रही।
ठीक कारण पकड़ो। ठीक कारण समझो। अन्यथा अक्सर तुमने संतों के वचन का दुरुपयोग किया है। तुम कुछ अपने हिसाब से अर्थ निकाल लेते हो। तुम अपने अर्थ एक किनारे रखो। जो कहा जाए उसे ठीक वैसा ही पहले समझने की कोशिश करो। जल्दबाजी न करो। करने की जल्दी नहीं है। समझने की फिकर करो पहले।
इधर मेरा निरंतर का अनुभव यह है कि लोग करने की जल्दी में हैं; समझने की जल्दी किसी को है ही नहीं। लोग कहते हैं, समझ कर क्या करना। वे मेरे पास आ जाते हैं। वे कहते हैं, अब आप तो सब समझते ही हो, आप कह दो हम क्या करें! मगर मैं जो कहूंगा और तुम बिना समझे करोगे तो भूल होने वाली है। क्यों? फिर गलत आदमी के हाथ में, जिसके पास समझ नहीं है, गलती ही होने वाली है।
तुम्हारे पास समझ होनी चाहिए, करने की इतनी जल्दी मत करो। समझ से जो कृत्य निकलता है, वही सुंदर होता है। और समझ से कृत्य निकलते हैं।
तो पहले तो तुम तथाता और समर्पण को ठीक से समझो। अभी अभ्यास की जरूरत नहीं है कि तथाता का अभ्यास करो, समर्पण का अभ्यास करो। पहले समझ लो। समझ लिया तो तुम पाओगे अभ्यास अपने आप चला आया--छाया की तरह।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, प्रभु-प्रेम के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा क्या है?
तुम्हीं हो सबसे बड़ी बाधा। और कोई बाधा नहीं है। मैं-भाव सबसे बड़ी बाधा है। भक्त ही बाधा है भगवान के मार्ग में। भक्त को मिटना होता है, गलना होता है, खो जाना होता है।
साधारण जीवन में भी प्रेम में जो बाधा है, वह अहंकार है। साधारण जीवन में भी। चलो छोड़ो परमात्मा को। परमात्मा का तुम्हें कोई अनुभव नहीं है, इसलिए बात बेबूझ हो जाएगी। साधारण जीवन में भी जो प्रेम में बाधा है वह क्या है? यही अहंकार। पत्नी पति पर कब्जा करने की कोशिश में लगी है, दिखाने की कोशिश में कि मैं मालिक हूं। पति कोशिश कर रहा है दिखाने की कि मैं मालिक हूं। झगड़ा चल रहा है।
समस्त तरह के प्रेमियों में एक ही कलह चलती रहती है कि कौन मालिक है, किसकी मानी जाती है?
मुल्ला नसरुद्दीन चायखाने में बैठ कर लोगों से कह रहा था कि मेरे घर कभी कोई झगड़ा नहीं होता। लोगों ने माना नहीं। उन्होंने कहा, यह हम मान नहीं सकते, यह कभी हुआ ही नहीं है कि घर में, और झगड़ा न होता हो। घर ही क्या अगर झगड़ा न होता हो? और अगर ऐसा है तो तुम अपना राज बताओ कि यह कैसे संभव हुआ? यह तो असंभव घटना है कि झगड़ा न होता हो।
मुल्ला ने कहा: हमने जिस दिन शादी की उसी दिन एक निर्णय कर लिया कि बड़े-बड़े मसले मैं तय करूंगा, छोटे-छोटे मसले पत्नी तय करेगी। फिर तबसे कोई झगड़ा नहीं हुआ।
किसी को भरोसा न आया इस बात पर। उन्होंने कहा कि तुम और जरा विस्तार में कहो। खुलासा करो। कौन से मसले बड़े और कौन से मसले छोटे?
तो मुल्ला ने कहा: छोटे-छोटे मसले--जैसे कौन सा घर खरीदा जाए, कौन सी कार खरीदी जाए, कौन सा धंधा किया जाए; लड़के को किस स्कूल में भेजा जाए; कौन से कपड़े पहने जाएं। ये छोटे-छोटे काम तो पत्नी निपटा लेती है। और बड़े मसले क्या हैं? जैसे कि स्वर्ग है या नहीं, नरक है या नहीं, ऐसे बड़े-बड़े मसले मैं निपटाता हूं। झगड़ा कुछ होता ही नहीं। झगड़ा होगा भी क्यों?
आदमी की सतत चेष्टा होती है बहुत गहरे में। अब मुल्ला यह कह कर कि बड़े-बड़े मसले मैं निपटाता हूं, उस बड़े-बड़े में भी अपने अहंकार को बचाने की कोशिश कर रहा है। छोटे-छोटे पत्नी निपटाती है। और पत्नी ज्यादा पार्थिव होती है। स्त्रियां ज्यादा पार्थिव होती हैं, ज्यादा समझदार। वे जानती हैं कि छोटे मसले ही बड़े मसले हैं। बड़े मसलों में क्या रखा है? होता है नरक कि नहीं होता, तुम जानो। ये सिद्धांत की बातें तुम तय करते रहो। कोई स्त्री इन बातों की फिकर नहीं करती बहुत। असली मतलब की बातें उसने अपने हाथ में ले रखी हैं। दोनों तृप्त हैं। पत्नी जानती है असली क्या है और मुल्ला सोचता है कि बड़े मसले क्या हैं।
अहंकार की सतत चेष्टा चलती है कि किसी भी बहाने मैं बड़ा हो जाऊं।
प्रेम में भी बस अहंकार ही उपद्रव है। प्रेम में जो कलह चलती है, वह प्रेम की नहीं, अहंकार की कलह है।
मेरी जां गो तुझे दिल से भुलाया जा नहीं सकता
मगर ये बात मैं अपनी जुबां पर ला नहीं सकता।
तुझे अपना बनाना मोजिबे राहत समझ कर भी
तुझे अपना बना लूं, ये तसव्वर ला नहीं सकता।
हुआ है बारहा एहसास मुझको इस हकीकत का
तेरे नजदीक रह कर भी मैं तुझको पा नहीं सकता।
मेरे दस्ते-हवस की दस्तरस है जिस्म तक तेरे
समझता हूं कि दिल पै कब्जा पा नहीं सकता।
तेरे दिल की तमन्ना भी करूं तो किस भरोसे पर
मैं खुद दरगाह में तेरी यह तोहफा ला नहीं सकता।
मेरी मजबूरियों को भी बहुत कुछ दखल है इसमें
तुझी को मोरिदे-इलजाम मैं ठहरा नहीं सकता।
मैं तुझसे बढ़ कर अपनी आबरू को प्यार करता हूं
मैं अपनी इज्जतो-नामूस को ठुकरा नहीं सकता।
तेरे माहौल की पस्ती का ताना दूं तुझे क्यूंकर
मैं खुद माहौल से अपनी रिहाई पा नहीं सकता।
एक ही कठिनाई है: मैं तुझसे बढ़ कर अपनी आबरू को प्यार करता हूं। मैं अपनी इज्जतो-नामूस को ठुकरा नहीं सकता। मैं अपने मान-सम्मान को ठुकरा नहीं सकता।
प्रेमी कह रहा है कि मैं आकर तेरे द्वार में निवेदन भी नहीं कर सकता कि मैं तेरा प्रेमी हूं। मैं, और निवेदन करूं! मैं अपनी मान-मर्यादा छोड़ नहीं सकता। जल लूंगा। जानता हूं कि तेरा साथ मिल जाए तो सुख होगा, लेकिन मेरा अहंकार मेरे पैरों को रोकता है। मैं निवेदन भी नहीं कर सकता। यह बात मैं अपनी जबान से कह भी नहीं सकता कि तेरे साथ मेरे जीवन में सुख होने वाला है। तेरे कारण सुख होगा, यह भी नहीं कह सकता हूं।
तुमने कभी निवेदन किया है? सच में किसी से कहा है कि तुम्हारे कारण मेरे जीवन में सुख है, सुख हो रहा है? मन रोक लेता है: यह बात कहने की नहीं है। स्त्रियां तो इतने अहंकार से भर गई हैं सदियों में कि स्त्रियां तो कभी प्रेम का निवेदन करती ही नहीं। कोई स्त्री कभी प्रेम का निवेदन नहीं करती। प्रेम भी हो तो प्रतीक्षा करती है कि पुरुष ही निवेदन करे।
निवेदन भी प्रेम का करने में इतनी अड़चन है! यह कहने में ही मन को बड़ी चोट लगती है कि मैं किसी से भीख मांगने चला, भिक्षा मांगने चला; मैंने किसी के सामने यह स्वीकार किया कि मेरी खुशी तेरी खुशी पर निर्भर है। वही अड़चन हो जाती है।
तो परमात्मा के सामने भी यही बाधा है। वहां तो तुम्हें परिपूर्ण रूप से निवेदन करना पड़ेगा कि मैं बाधा हूं, तू मुझे मिटा! तू मुझे समाप्त कर! तू मुझे साथ दे कि मैं किसी तरह अपने से पार हो जाऊं!
तुम पूछ रहे हो: ‘प्रभु-प्रेम के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा क्या है?’
मैं तुझसे बढ़ कर अपनी आबरू को प्यार करता हूं
मैं अपनी इज्जतो-नामूस को ठुकरा नहीं सकता।
सुना है न मीरा को! सब लोक-लाज खोई। और भी मीराएं हो सकती थीं दुनिया में, लेकिन लोक-लाज खोने को कोई तैयार नहीं। प्रतिष्ठा गंवाई।
इस समाज में तो भक्त की कोई प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। भगवान की ही कोई प्रतिष्ठा नहीं तो भक्त की कैसे होगी? भगवान ही अप्रतिष्ठित हो गया है, तो भगवान की तरफ जाने वाला भक्त तो कैसे प्रतिष्ठित होगा?
ये बड़े मजे की बातें हैं। तुम मंदिर जाकर फूल तो चढ़ा आते हो दो, लेकिन तुम्हारा बेटा अगर सच में भक्त हो जाए तो तुम परेशान हो जाओगे। कोई संन्यासी गांव में आता है तो तुम उसके पैर छू कर नमस्कार कर आते हो, लेकिन तुम्हारा बेटा संन्यासी हो जाए तो तुम परेशान हो जाओगे। यह बड़ी हैरानी की बात है। तुम्हारे मन में संन्यास की सच में प्रतिष्ठा है? अगर तुम्हारे मन में संन्यास की प्रतिष्ठा है तो तुम चाहोगे कि तुम्हारा बेटा भी संन्यासी हो जाए। मगर वह तो तुम नहीं चाहते। हां, गांव में कोई संन्यासी आता है तो तुम्हारा क्या लगता है! तुम जा कर पैर छू आते हो। यह मुफ्त की श्रद्धा तुम दिखा आते हो--दो कौड़ी की। चाहते तो तुम हो कि बेटा किसी तरह दिल्ली पहुंच जाए। चाहते तुम हो कि बेटा राजनेता हो जाए। चाहते तो तुम हो कि बेटा बहुत धनी हो जाए। हां, किसी दूसरे का बेटा अगर संन्यासी हो जाए तो तुम भी उसकी शोभायात्रा में सम्मिलित हो जाते हो। तुम्हारा क्या लगता है! दोनों हाथ से लूट ली--अपने बेटे से संसार लूट रहे हैं और दूसरे के संन्यासी के चरणों में जाकर सिर झुका कर दूसरा संसार भी सम्हाल रहे हैं।
तुम मीरा का भजन तो बड़ी मस्ती से सुन लेते हो, लेकिन तुमने सोचा है कभी कि तुम्हारी पत्नी अगर मीरा हो जाए और गांव-गांव द्वार-द्वार घूमने लगे और नाचने लगे रास्तों पर और कृष्ण के गीत गाने लगे, तो तुम भी जहर का प्याला भेजोगे। तुम भी! हालांकि तुमने कहानी में जब भी पढ़ा था कि राणा ने जहर का प्याला भेजा, तभी तुम्हें लगा था कि राणा भी कैसा आदमी था, मीरा जैसी प्यारी स्त्री, ऐसी भक्त, और उसको जहर का प्याला भेजा! तुम क्या करोगे? तुम भी जहर का प्याला भेजोगे। तुम भी राणा से भिन्न व्यवहार नहीं करोगे। तुम्हारा भी व्यवहार वही होगा।
लाखों लोग जीसस को पूजते हैं। लेकिन जीसस ने जो किया, अगर तुम्हारा बेटा करे और तुम्हारे बेटे को सूली पर चढ़ने की नौबत आ जाए, तो तुम क्या करोगे? जीसस के मां-बाप ने भी, कहा जाता है, इनकार कर दिया था; कह दिया था, हमारा इससे कुछ संबंध नहीं है। स्वभावतः आज लाखों-करोड़ों लोग जीसस की पूजा करते हैं--क्रॉस पर चढ़े जीसस की! तुमने कभी सोचा तुम्हारा बेटा क्रॉस पर चढ़े? यह बिलकुल आसान है अपने गले में एक क्रॉस का प्रतीक लटका लेना, क्योंकि उसमें कुछ हर्जा नहीं है।
धर्म सदा से खतरनाक रहा है, क्योंकि परमात्मा की तरफ जाने का अर्थ होता है: इस जगत में तुम्हारे पैर डगमगा जाएंगे। यहां तुम जहां खड़े हो वहां से हट जाओगे। यहां जो मूल्यवान है, परमात्मा की तलाश में सब मूल्यहीन हो जाता है। फिर न कोई पति है न कोई पत्नी है; न कोई बेटा है न मां है; फिर न कोई भाई है न कोई मित्र है। फिर न कोई इस जगत के मूल्य अर्थ रखते हैं। फिर एक नया मूल्य तुम्हारे जीवन में पैदा हुआ। उस नये मूल्य की तरफ जाने के लिए पागल होने की हिम्मत तो चाहिए ही--चाहिए ही चाहिए। वही अड़चन आ रही है।
तुम पूछते हो: ‘प्रभु-प्रेम के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा क्या है?’
तुम अपनी इज्जत-आबरू नहीं खो सकते। तुम इज्जत-आबरू बचा कर परमात्मा को पाना चाहते हो। तुम बड़े होशियार हो, चालाक हो। जो मीरा नहीं कर सकी वह तुम करना चाहते हो। जो बुद्ध नहीं कर सके वह तुम करना चाहते हो। तुम चाहते हो संसार भी बच जाए और किसी तरह परमात्मा को भी पा लें; अपने को भी बचा लें और उसे भी पा लें। तुम परमात्मा को ऐसे पाना चाहते हो जैसे तुम धन पाना चाहते हो--अपनी मुट्ठी में। तुम अपने को गंवा कर परमात्मा को पाने की तैयारी नहीं रखते। और जो अपने को गंवाने को राजी नहीं उसने कभी पाया नहीं। मिटे बिना कोई चारा ही नहीं है, कोई उपाय नहीं है।
तुम्हीं हो बाधा।
लेकिन झूठ चलता है। झूठ धर्म चलता है। सब तरह के झूठ चलते हैं यहां। ढोंग चलता है। सस्ता धर्म: मंदिर में जाकर पूजा कर आए; पत्थर की मूर्ति के सामने सिर झुका आए; कभी घर में सत्यनारायण की कथा करा ली; कभी किसी फकीर के वचन सुन आए। इस कान से सुने उस कान से निकाल दिए; या सुने ही नहीं। अधिकतर लोग तो सोए ही रहते हैं, सुनने का सवाल ही नहीं उठता।
एक आदमी अपने घर लौटा। पड़ोस के बच्चे और उसके बच्चे सब मिल कर खेल खेल रहे थे। उसने पूछा: क्या खेल खेल रहे हो, क्योंकि वे बड़ी अजीब सी हालत में थे। सब बिलकुल चुपचाप बैठे थे। उसने पूछा: कौन सा खेल हो रहा है? उन्होंने कहा: हम चर्च खेल रहे हैं।
चर्च! तो उसने कहा: ऐसे चुपचाप क्यों बैठे हो?
तो उन्होंने कहा: चर्च में लिखा रहता है न, शांत रहो! तो हम लोग चर्च में बैठे हैं।
उसने ऐसे ही पूछा कि तुम मतलब समझते हो कि चर्च में यह क्यों लिखा रहता है कि शांत रहो? उसके बेटे ने कहा: मालूम है हमें, जिससे कि लोगों की नींद न टूटे। सब लोग सोए रहते हैं।
कान से भी कौन सुनता है! सुनने की झंझट में भी कौन पड़ता है! क्योंकि सुनो, फिर भुलाओ, फिर सफाई करो। सुनते ही नहीं लोग।
यह सस्ता धर्म है, झूठा धर्म है। और इस झूठे धर्म में बड़ी सुगमता मालूम पड़ती है। इससे प्रतिष्ठा मिलती है, जाती नहीं, तुम धार्मिक समझे जाते हो। लोग कहते हैं: आहा! आदमी हो तो ऐसा--रमजान आता है तो देखो किस तरह रोजे रखता है! आदमी हो तो ऐसा--पर्यूषण आते हैं तो कैसे उपवास करता है! आदमी हो तो ऐसा कि हर अमावस, पूर्णिमा उपवास करता है, कि हर साल गंगा-स्नान करने जाता है! आदमी हो तो ऐसा, सब धाम हो आया है! इससे प्रतिष्ठा बढ़ती है, घटती नहीं।
असली धर्म से तो इस जगत में तुम एकदम उखड़ जाते हो। नकली धर्म से इस जगत में बड़ी प्रतिष्ठा मिलती है।
यहां औपचारिक धर्म का चलन है--झूठा सिक्का।
मैंने सुना है, दिल्ली के एक अजायबघर में एक बड़ा भालू था--सफेद भालू। सायबेरिया का भालू। वह अचानक मर गया। वह बच्चों को बड़ा प्यारा था। और उसके बिना बच्चे बड़े परेशान होने लगे। दूर-दूर से देखने बच्चे उस भालू को आते थे। भालू का कटघरा खाली पड़ा रहा। कुछ दिन मैनेजर भी परेशान हुआ। भालू को लाना इतनी जल्दी आसान भी नहीं। कहां से भालू खोजा जाए! तभी एक दिन राह पर एक राजनेता से मिलना हो गया। राजनेता अभी-अभी चुनाव हारे थे, नौकरी की तलाश में थे। उसे सूझ आई--अजायबघर के मैनेजर को। उसने कहा, आप ऐसा करो, एक काम मेरे पास है। तीन सौ रुपये महीने मैं आपको दूंगा। भालू मर गया है, उसकी हमने खाल निकाल ली है। वह ओढ़ कर आप बस बैठ जाओ, बच्चों के लिए काफी है। उछलते-कूदते रहे थोड़ा। बच्चे बड़े उदास हैं। उसी भालू के लिए आते थे। अजायबघर की शान चली गई।
तीन सौ रुपया, उसने सोचा कुछ खास झंझट भी नहीं है। और उछलना-कूदना तो उसे वैसे ही आता है, पार्लियामेंट में वही तो करता था! तो उसने कहा, यह जमेगा। वह दूसरे दिन से भालू की खोल ओढ़ ली उसने और उछलता-कूदता और बड़ा आनंद आता। बच्चे भी बड़े प्रसन्न हुए। ऐसा आठ दिन तो बड़े मजे से गुजरे, नौवें दिन ऐसा हुआ कि उसने देखा कि द्वार खुला है भर दोपहरी में। रोज रात को उसे छुट्टी हो जाती थी। अपने घर जाकर सोता था, सुबह फिर आकर भोर में भालू का वेश ओढ़ लेता था। भर दोपहर में दरवाजा खुला; दरवाजा ही नहीं खुला, एक सिंह भीतर घुसा। उसके तो छक्के छूट गए। वह तो चिल्लाया: मारे गए, मारे गए, बचाओ! वह तो भूल ही गया कि मैं भालू हूं और आदमी की भाषा बोलना अभी ठीक नहीं। असलियत, जब मुसीबत आ जाए तो आदमी की असलियत प्रकट होती है। वह चिल्लाया: बचाओ, बचाओ, मारे गए!
लेकिन तब और एक चमत्कार हुआ। वह सिंह उसके पास आया। उसने कहा: उल्लू के पट्ठे, चुप रह! क्या तू सोचता है तू ही अकेला चुनाव हारा है? ऐसे चिल्लाएगा, तेरी भी नौकरी जाएगी, मेरी भी जाएगी।
यहां ऐसा ही धोखा चल रहा है। यहां कोई भालू बना है, कोई सिंह बना है। यहां लोग ऐसे बने हैं जैसे नहीं हैं; जो नहीं हैं।
धार्मिक आदमी बड़ा खतरा मोल लेता है, क्योंकि इस झूठे समाज में वह सच्चे होने की हिम्मत करता है। इस झूठों की भीड़ में वह अपने नकाब उतार देता है, वह अपने मुखौटे उतार देता है। वह कहता है: जो हूं मैं, जैसा हूं, यह हूं। बुरा तो बुरा, भला तो भला। स्वीकार कर लो तो ठीक। स्वीकार न करो तो ठीक। लेकिन मैं अब कोई मुखौटे नहीं ओढूंगा।
धार्मिक आदमी अपने लिए भी खतरा उठाता है और दूसरों के लिए भी नाराजगी का कारण हो जाता है। क्योंकि कोई आदमी जब अपने मुखौटे उतार देता है तो तुम्हें भी अपने मुखौटों की याद आने लगती है। इसलिए हम धार्मिक आदमी को कभी बरदाश्त नहीं कर सके। झूठों की भीड़ में अगर कोई आदमी सच बोले तो सब झूठे मिल कर उसको मार डालेंगे। क्योंकि यह आदमी एक उपद्रव का कारण हो गया। सब चल रहा था, सब ठीक चल रहा था: इन सज्जन को सच बोलने की झंझट खड़ी कर दी इन्होंने।
एक सच बोलने वाला आदमी झूठों की भीड़ में सबका दुश्मन हो जाएगा। सब उसे दुश्मन की तरह देखेंगे। क्योंकि हर आदमी को खटकेगा। इसका सच हर आदमी के झूठ को दिखलाता है। यह जो बिजली कौंधती है इसके सच से, इससे हर आदमी के रोग दिखाई पड़ते हैं। इसलिए हमने जीसस को सूली पर लटका दिया, सुकरात को जहर पिला दिया, मंसूर को मार डाला। हम बरदाश्त नहीं कर सके। हां, मर जाए मंसूर, फिर हम पूजा करते हैं। जीसस मर जाएं, फिर हम चर्च बनाते हैं। सुकरात की हम हजारों साल तक याद रखते हैं, पूजा के फूल चढ़ाते हैं। लेकिन जिंदा धार्मिक आदमी से हमें बड़ा कष्ट होता है। क्योंकि जिंदा धार्मिक आदमी खालिस, प्रामाणिक, जैसा है वैसा; और न उसे मान की फिकर है न उसे मर्यादा की।
इस जगत में सारा उपाय, सारी व्यवस्था अहंकार के इर्द-गिर्द है। हम छोटे-छोटे बच्चों को भी कहते हैं कि देखो खयाल रखना, किस कुल के हो, किस घर से आए, किसके बेटे हो! हम छोटे-छोटे बच्चों को कहते हैं, स्कूल में प्रथम आना, प्रतिष्ठा रखना, हमारे घर में कभी भी कोई द्वितीय नहीं आया। हम अहंकार सिखाते हैं, पहले दिन से ही अहंकार सिखाते हैं। हम लोगों को कहते हैं, ऐसा व्यवहार करो जिससे इज्जत मिले। हम तो ऐसी बातें लोगों को सिखाते हैं कि विनम्र रहो, निर-अहंकारी बनो, तो ही प्रतिष्ठा मिलेगी।
अब यह भी बड़े मजे की बात है कि जिसको प्रतिष्ठा चाहिए वह निर-अहंकारी कैसे बन सकता है! निर-अहंकार का धोखा कर सकता है। विनीत बनो, ताकि लोग तुम्हें आदर दें। आदर पाने के लिए लोग विनीत बने हुए हैं। विनीत कैसे बनेंगे? विनीत का मतलब होता है, जिसे आदर की कोई चाह नहीं, जिसे अनादर से कोई इनकार नहीं। कोई स्तुति करे कि निंदा, सब बराबर है, ऐसी समतुलता का नाम विनीतता है।
मगर हम खूब अजीब बातें सिखाते हैं। हम कहते हैं, ईमानदारी कुशल नीति है। नीति! आनेस्टी इज़ दि बेस्ट पॉलिसी। पर खयाल रखना, जो आदमी इस नीति को मानता है, ईमानदार नहीं हो सकता। यह तो बेईमानी की शुरुआत हो गई। ईमानदारी--नीति! तरकीब! पॉलिसी! तो राजनीति हो गई। पॉलिसी आई तो पॉलिटिक्स हो गई। यह आदमी इसीलिए ईमानदार है क्योंकि ईमानदारी में लाभ है। लेकिन अगर कल बेईमानी में लाभ होगा तो यह आदमी ईमानदार रहेगा? लाभ के कारण ईमानदार था। लाभ होता था तो ईमानदार था। लाभ इसका लक्ष्य था।आज बेईमानी में लाभ होता है तो यह बेईमान हो जाएगा। इसने कभी ईमानदारी की थोड़े ही पूजा की थी; लाभ की पूजा की थी।
हमारी सारी ईमानदारी, सारे सच, सब तरकीबें हैं; लेकिन सबके पीछे एक ही आकांक्षा है: किसी तरह हमारे अहंकार को प्रतिष्ठा मिले। यह सारा संसार अहंकार की कील पर घूमता है। और परमात्मा को पाने में अहंकार बाधा है।
परमात्मा को पाने के लिए आदमी को एक ही महत्वपूर्ण काम करना पड़ता है, एक ही महत्वपूर्ण कदम उठाना पड़ता है--वह है आत्मघात; वह अपने अहंकार को बिलकुल काट देना; वह कह देना कि मैं कुछ भी नहीं हूं, मैं शून्यवत हूं। और ऐसा कह ही नहीं देना--ऐसे जीना। कोई गाली दे जाए तो शून्य को क्या अड़चन! और कोई स्तुति कर जाए तो शून्य को क्या प्रशंसा और क्या प्रसन्नता! शून्य तो शून्य ही रहेगा। एक सूने घर में जाकर स्तुति कर आओ कि गाली दे आओ, दोनों गूंजेंगी, दोनों विलीन हो जाएंगी। सूना घर सूना रहेगा। ऐसा व्यक्ति ही परमात्मा को पाने में समर्थ हो पाता है।
तुम पूछते हो: ‘प्रभु-प्रेम के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा क्या है?’
तुम। तुम्हारे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। तुम हटो, प्रभु को राह दो। परमात्मा आने को आतुर है, तुम जरा द्वार-दरवाजे खोलो। लेकिन तुम अड़े खड़े हो द्वार-दरवाजों पर। तुम चाहते हो परमात्मा भी मिल जाए और उसके मिलने से भी प्रतिष्ठा बढ़ जाए। धन तो पा ही लिया, पद तो पा ही लिया, अब परमात्मा भी मिल जाए। ऐसी कोई चीज छूट न जाए कहने को कि मैंने नहीं पाई; यह परमात्मा हाथ के बाहर न रह जाए। यह भी दुनिया को दिखा दूं कि यह भी पाकर रहा। सब पाकर दिखा दिया।
तुम परमात्मा पर भी विजय पाना चाहते हो! परमात्मा के भी विजेता होना चाहते हो! फिर तुम परमात्मा को नहीं अनुभव कर पाओगे। और प्रेम का तो जन्म ही न होगा; प्रेम का झरना ही नहीं फूटेगा।
अपने को हारा हुआ जानो। हारे को हरिनाम! अपने को पराजित जानो। हारो और मिट जाओ। सर्वहारा हो जाओ। तुमने अपना करके बहुत देख लिया, कुछ भी नहीं मिला; अब थोड़ी देर को अपने कर्ता को जाने दो। कर्ता के जाते ही द्वार खुलता है; पत्थर हटता है, झरना फूटता है।
आखिरी प्रश्न:
भगवान, प्रभु-प्रेम दीवाना क्यों बना देता है?
और क्या करे? प्रेम यानी दीवानगी। प्रेम यानी पागलपन। प्रेम यानी तर्क के बाहर हो जाना। प्रेम यानी बुद्धि की झंझटों से छूट जाना; बुद्धि की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाना। प्रेम यानी एक तरह की शराब, एक तरह की मस्ती, जो तुम अपने भीतर ही निर्मित कर लेते हो।
तुमने प्रेमी की आंख देखी! सदा पीए-पीए मालूम पड़ता है। तुमने प्रेमी के पैर देखे! कहीं रखता कहीं पड़ते हैं! सदा डोला-डोला रहता है।
प्रेम की कीमिया यही है कि तुम अपने ही भीतर शराब को पैदा करते हो; तुम्हारे भीतर ही शराब पैदा होने लगती है, फिर किसी मधुशाला में जाना नहीं पड़ता। तुम स्वयं ही अपना मधु निःसृत करने लगते हो।
तो दीवाना तो प्रेमी हो ही जाएगा। साधारण प्रेम दीवाना बना देता है, तो परमात्मा के प्रेम की तो बात ही क्या कहनी! किसी मनुष्य के प्रेम में पड़ जाओ और दीवाने हो जाते हो। वृक्षों के प्रेम में पड़ जाओ और इनके सौंदर्य के प्रेम में पड़ जाओ और तुम्हारे भीतर दीवानगी आ जाती है। कवियों को देखा! फूल, तारों, बादलों के प्रेम में पड़ कर कैसी मस्ती में डूब जाते हैं!
जहां भी प्रेम है वहां मस्ती है। फिर परमात्मा का प्रेम तो परम प्रेम है, तो परम मस्ती है।
कल मैं एक गीत पढ़ रहा था। एक प्रेमी परमात्मा से कह रहा है। कह रहा है कि मैंने जो इस स्त्री को प्रेम किया है, इसमें मेरा कसूर नहीं है, वह स्त्री ही ऐसी थी। ऐसा सौंदर्य प्रभु, कि अगर तुम भी देखते तो तुम भी चकित हो जाते, तुम भी अवाक रह जाते।
जुर्म अगर हुस्ने-नजर है तो गुनहगार हूं मैं।
दावरा इसके सिवा मेरी खता कुछ भी नहीं
थी नजर में मेरी, शादाबी-ए-जन्नत लेकिन
कितनी शादाब थी वो राहगुजर क्या कहिए!
दावरा तेरी मशीअत के तकाजों की कसम
वाकई दिल पै बड़ा जब्र किया था मैंने
मुझको मालूम था आवारा निगाही का मआल
लेकिन उस शोख का अफसूने नजर क्या कहिए!
दावरा! मेरी नजर में थी तेरी शाने जलाल
लेकिन ऐ काश दिखा दूं तुझे उसका भी जमाल
दावरा! कितने दिल आवेज थे उसके खतोहाल
और फिर उस पै मेरा हुस्ने-नजर क्या कहिए!
जुर्म अगर हुस्ने-नजर है तो गुनहगार हूं मैं!
प्रेमी कह रहा है कि अगर सौंदर्य को देखने वाली आंख में कोई जुर्म है तो मैं गुनहगार हूं, मैं अपराधी हूं।
जुर्म अगर हुस्ने-नजर है तो गुनहगार हूं मैं।
दावरा! हे प्रभु! हे न्यायकर्ता! हे ईश्वर! दावरा इसके सिवा मेरी खता कुछ भी नहीं। मेरा और कोई कसूर नहीं है। सौंदर्य था और मेरे पास आंख है सौंदर्य को परखने की, तो मैं क्या करता?
जुर्म अगर हुस्ने-नजर है तो गुनहगार हूं मैं
दावरा इसके सिवा मेरी खता कुछ भी नहीं
थी नजर में मेरी शादाबी-ए-जन्नत लेकिन
प्रेमी कहता है कि मुझे पता है कि तेरा स्वर्ग बड़ा प्यारा है और मुझे यह भी पता है कि स्वर्ग में बड़ी खुशियां हैं, और बड़ा सौंदर्य है। मगर फिर भी क्या कहूं?
थी नजर में मेरी शादाबी-ए-जन्नत लेकिन
स्वर्ग की प्रफुल्लता का मुझे पता है और मेरे खयाल में थी बात। ऐसा भी नहीं था कि भूल गया था। तुझे भूल गया था, ऐसी भी बात न थी।
थी नजर में मेरी शादाबी-ए-जन्नत लेकिन
कितनी शादाब थी वो राहगुजर क्या कहिए!
लेकिन उसकी गली भी बड़ी प्यारी थी। मैं तुझसे क्या कहूं? तेरा स्वर्ग प्यारा है वह मुझे मालूम है। और भूल भी नहीं गया था। लेकिन फिर भी उसकी गली बड़ी प्यारी थी।
दावरा तेरी मशीअत के तकाजों की कसम
वाकई दिल पै बड़ा जब्र किया था मैंने।
और मैं तुझसे कहना चाहता हूं: मुझे क्षमा कर। लेकिन मैं सच्ची बात भी तुझसे कह दूं कि ऐसा नहीं है कि मैंने अपने पर बहुत नियंत्रण न रखा था। मैंने बहुत संयम रखने की कोशिश की थी।
दावरा तेरी मशीअत के तकाजों की कसम
मैं तेरी कसम खाकर कहता हूं; हे प्रभु!
वाकई दिल पै बड़ा जब्र किया था मैंने।
मैंने बहुत तरह से अपने दिल को रोक लेना चाहा था, नियंत्रण रखना चाहा था। मगर सब नियंत्रण टूट गया। वह सौंदर्य कुछ ऐसा था।
जुर्म अगर हुस्ने-नजर है तो गुनहगार हूं मैं
दावरा इसके सिवा मेरी खता कुछ भी नहीं
मुझको मालूम था आवारा-निगाही का मआल
और मुझे यह भी पता था कि आंखों को ऐसे भटकाऊंगा, आवारा, तो इसका परिणाम क्या होगा? ऐसा भी नहीं है कि मुझे इसके परिणाम का कुछ पता नहीं था। इसका परिणाम बुरा होगा। मैं भटकूंगा। मैं राह से उतर जाऊंगा। यह संसार का चक्र शुरू होगा। यह मुझे पता था।
मुझको मालूम था आवारा-निगाही का मआल
लेकिन उस शोख का अफसूने नजर क्या कहिए!
पर उसकी आंख! उस सौंदर्य का कहना क्या!
यह भगवान से कह रहा है प्रेमी।
दावरा! मेरी नजर में थी तेरी शाने जलाल
और मुझे पता है--तेरा तेज पता है! तेरी भव्यता पता है। कुछ ऐसा नहीं कि मैं तुझे नहीं जानता। तेरी भव्यता का मुझे स्मरण है।
दावरा! मेरी नजर में थी तेरी शाने जलाल
लेकिन ऐ काश दिखा दूं तुझे उसका भी जमाल!
लेकिन काश, अगर मैं उसका सौंदर्य तुझे दिखा सकता तो तू समझता मेरी मुसीबत। मैं पागल हो गया।
दावरा! कितने दिल आवेज थे उसके खतोहाल
और कितने लोग दीवाने थे! कोई मैं अकेला दीवाना था! उसके नाक-नक्श को देख कर कितने लोग दीवाने थे!
दावरा! कितने दिल आवेज थे उसके खतोहाल
और फिर उस पै मेरा हुस्ने नजर क्या कहिए!
और फिर तूने जो मुझे आंख दी है सौंदर्य की परख की, मैं क्या करता, पागल हो गया।
यह तो साधारण प्रेम की बात है। साधारण प्रेम आदमी को इतना पागल बना देता है, तो परमात्मा के प्रेम का तो फिर कोई हिसाब लगाना संभव नहीं। और दोनों में जो फर्क है वह परिणाम का ही होता तो भी ठीक था, वह गुण का फर्क है। मात्रा का ही भेद नहीं है। ऐसा नहीं है कि यहां छोटा सा प्रेम है और इसी का बड़ा रूप परमात्मा का प्रेम है। मात्रा का ही फर्क नहीं है, गुण का फर्क है। वह प्रेम किसी और ही आयाम में है। वह प्रेम परिपूर्ण प्रेम है। वह प्रेम शाश्वत प्रेम है। वह एक दफा घटता है तो घटता है, फिर मिटता नहीं। यहां तो प्रेम बनते हैं, मिटते हैं, पानी के बुलबुले हैं। पानी केरा बुदबुदा! क्षणभंगुर है। सुबह खिले फूल, सांझ मुरझा जाते हैं। वह तो ऐसा कमल है जो कभी मुरझाता नहीं--स्वर्ण-कमल है। और उसकी आंख में आंख मिल जाए, उस दिल के साथ दिल जुड़ जाए, उसके हाथ में हाथ आ जाए, उसके नाच में नाच हो जाए, उसके साथ रास रच जाए तो पागल न होओगे तो क्या होगा? होश सम्हाल कर रखोगे कैसे? होश सम्हाल कर रखोगे कहां? होश सम्हाल कर करोगे भी क्या? इसलिए वहां होशियार नहीं पहुंच पाते, वहां दीवाने पहुंचते हैं! वहां गति दीवानों की है। होशियार तो बाहर ही रह जाते हैं मंदिर के। जहां तुम जूते उतार आते हो होशियार वहीं रह जाते हैं। जो होशियारी वहीं रख आता है, वही मंदिर में भीतर प्रवेश करता है। वहां दीवानों की गति है।
भगवान पागलों को चाहता है, क्योंकि पागल ही उसे चाह सकते हैं। सब चाहत पागलपन लाती है।
आज अजाने फिर मेरे इस हृदय-गगन के आंगन में
यह सतरंगी याद तुम्हारी झूला डाल गई।
उसकी याद आते ही एक नया झूला पड़ जाता है तुम्हारे प्राणों के आंगन में।
आज अजाने फिर मेरे इस हृदय-गगन के आंगन में
यह सतरंगी याद तुम्हारी झूला डाल गई
मंद-मंद मुसकाया मेरे भावों का यह ताजमहल
नयनों के सूने पनघट पर फिर हो आई चहल-पहल
आशाओं ने मेंहदी घोली, मांग सजाई चाहों ने
प्राणों के निर्झर में किसने आज मचा दी फिर हलचल
भीगा आंगन, भीगा आंचल, भीग गया तन-मन मेरा
नयनों के तट, बौराई घट, कंचन ढाल गई।
आज अजाने फिर मेरे इस हृदय-गगन के आंगन में
यह सतरंगी याद तुम्हारी झूला डाल गई।
उसकी याद आते ही तुम किसी दूसरे लोक में रूपांतरित हो जाते हो। बहती है एक रसधार।
भीगा आंगन, भीगा आंचल, भीग गया तन-मन मेरा
नयनों के तट, बौराई घट, कंचन ढाल गई।
आज अजाने फिर मेरे इस हृदय-गगन के आंगन में
यह सतरंगी याद तुम्हारी झूला डाल गई।
पागल तो हो ही जाता है आदमी। मगर धन्यभागी हैं वे जो पागल होने का साहस जुटा लेते हैं।
धीरे-धीरे चलो। धीरे-धीरे हिम्मत बढ़ाओ। एक-एक कदम, एक-एक इंच। मगर अपनी होशियारी को थोड़ा-थोड़ा छोड़ो। इस होशियारी में चूक जाओगे। इस होशियारी में जन्मों-जन्मों तक चूके हो। यह होशियारी ही तुम्हारी फांसी का फंदा बन गई है। इस होशियारी के कारण ही बाजार में बस ठीकरे इकट्ठे कर रहे हो।
विराट को चाहना हो तो यह होशियारी बड़ी छोटी है, इसमें विराट नहीं समाता। हृदय तुम्हारा परमात्मा को ले सकता है, सिर तुम्हारा नहीं ले पाता। सिर बहुत छोटा है, हृदय बहुत बड़ा है।
मुझसे लोग पूछते हैं, हृदय कहां है? एक दिन एक युवक ने पूछा कि हृदय कहां है, किस जगह है ठीक-ठीक शरीर में? उससे मैंने कहा, सिर तुम्हारे भीतर है, तुम हृदय के भीतर हो। हृदय तुम्हारे भीतर नहीं है। ये जो फेफड़े फड़कते हैं, इनको हृदय मत समझ लेना। यह तो केवल वायु को शुद्ध करने का यंत्र मात्र है। हृदय के भीतर तुम हो। हृदय तुम से बड़ा है। सिर तुम से छोटा है। यह जो सिर के भीतर विचारों का जाल फैलता है, यह तुम्हारा है; यह तुम्हारी निजी दुनिया है। यह सत्य की दुनिया नहीं है; यह झूठ की दुनिया है; यह सपनों की दुनिया है।
जैसे ही तुम्हारी ऊर्जा इस सिर के फंदे के बाहर निकल जाती है, जैसे ही सिर के बाहर तुम आए वैसे ही आंगन मिलता है विराट का--तुम्हारा हृदय का आंगन। वह इतना ही बड़ा है जैसा आकाश। तुम्हारे अन्तर में इतना ही बड़ा आकाश छिपा है जितना बाहर। उस आकाश में उतरोगे तो फिर बुद्धि की छोटी-छोटी बातें जो कल तक बड़ी महत्वपूर्ण मालूम पड़ती थीं, महत्वपूर्ण नहीं मालूम पड़ेंगी। और जिनको अभी भी महत्वपूर्ण मालूम पड़ रही हैं, उन्हें तुम पागल मालूम पड़ो तो कुछ आश्चर्य तो नहीं।
ऐसा ही समझो कि कुछ बच्चे कंकड़-पत्थरों से खेल रहे हैं, समुद्र के किनारे शंख-सीप बीन रहे हैं, हरे-नीले-लाल पत्थर बीन कर इकट्ठे कर रहे हैं। और तभी किसी बच्चे को हीरा हाथ लग जाए, तो वह बच्चा अपने सब कंकड़-पत्थर, मोती-सीप छोड़-छाड़ कर हीरे को गांठ बांधे और घर भाग जाए, बाकी सारे बच्चे उसे पागल समझेंगे। वे कहेंगे, यह भी पागल है, दिन भर इन्हीं सीपियों को, शंखों को बीनने में बिताया और अब सांझ सब छोड़-छाड़ कर भाग गया, पागल है। उन्हें पता नहीं, उसे हीरा हाथ लग गया है। कंकड़-पत्थर अब करना क्या है!
कबीर ने कहा है: ‘हीरा पायो गांठ गठियायो।’ जैसे ही हीरा मिला कि आदमी फिर गांठ में रख लेता है। फिर कहां! और कल तक जो चीजें मूल्यवान मालूम होती थीं, वे एकदम निर्मूल्य हो जाती हैं।
एक छोटी सी सूफी कथा है। एक फकीर एक वृक्ष के नीचे बैठता और रोज देखता एक लकड़हारा लकड़ियां काटने आता। वह उसके पास ही जंगल में लकड़ियां काट कर लौट जाता। उसे एक दिन दया आई, उसने उस आदमी को कहा कि तू पागल है, जरा और आगे क्यों नहीं जाता?
उसने कहा: और आगे क्या होगा?
तू जरा आगे जा। मेरी मान।
फकीर कभी कुछ बोला भी नहीं था, फकीर सदा शांत बैठा रहता था। इस लकड़हारे को इस पर बड़ी श्रद्धा भी धीरे-धीरे उत्पन्न हुई थी। न तो यह कुछ कहा था कभी, न इसे कुछ करते देखा था, यह तो वहीं वृक्ष के नीचे शांत बैठा रहता था। लेकिन इसकी शांत प्रतिमा कभी-कभी लकड़हारे को बड़े आनंद से भर देती थी। कभी-कभी वह दो रोटी भी घर से इसके लिए ले आता था। कभी दो फूल भी चढ़ा जाता था।
फकीर ने कहा तो उसने कहा, कुछ होगा मतलब, वह दूसरे दिन जरा भीतर जंगल में गहरा गया। वह चकित हुआ, वहां चंदन के वृक्ष थे। लकड़ियां महीने भर में काट कर जितना कमाता था वह, उतना तो एक दिन की कमाई हो गई, एक दिन में कमा लिया। वह तो बड़ा खुश हुआ। फकीर के चरणों में खूब मिठाइयां लाया।
कुछ महीनों बाद फकीर ने कहा: पागल, वहीं अटक गया? थोड़ा और आगे जा।
उसने कहा: अब और आगे क्या होगा? अब बहुत हो रहा है, मजा ही मजा है। एक दिन काट लेता हूं, महीने दो महीने के लिए फुर्सत। और किसी को इसका पता भी नहीं है। कोई दूसरा काटने वाला भी नहीं है; सारा जंगल पड़ा है चंदन का। आपने पहले क्यों न कहा? पहले ही कह देते महाराज, आप इतने दिन तक चुप क्यों बैठे रहे?
उस फकीर ने कहा: जब समय आता है और जब ठीक घड़ी होती है तभी कहा जाता है। पहले मैं कहता तो तू मानता नहीं। जब धीरे-धीरे मैंने देखा कि तेरे मन में मेरे प्रति प्रेम और भरोसा आ गया तब मैंने कहा। मुझे तो पता था। मुझे तो और भी पता है। इसलिए तुझसे कहता हूं कि थोड़ा और आगे जा।
लकड़हारे को लगा कि जाने में कुछ सार तो क्या है, बहुत तो मिल रहा है! अब और इससे ज्यादा हो भी क्या सकता है? लकड़हारा ज्यादा से ज्यादा चंदन की बात सोच सकता है, समझना। लकड़ी काटने वाला बहुत से बहुत सोचेगा तो चंदन की लकड़ी, इसके पार तो कोई लकड़ी होती नहीं। इससे आगे हो भी क्या सकता है! दो-चार दिन तो वह सोचता रहा, फिर एक दिन उसने सोचा, एक दिन जाकर देख लेने में हर्ज भी क्या है। फकीर कहता है तो देख ही लो। बार-बार कहता है, रोज-रोज कहता है; जब भी आता हूं तभी याद दिलाता है कि आगे क्यों नहीं जाता?
जंचती तो उसको बात नहीं थी। बुद्धि कहती थी, अब और आगे हो क्या सकता है? लकड़ी की भाषा चंदन तक जा सकती थी। समाप्त हो गई। गया एक दिन आगे। कुछ बड़ी आशा से नहीं गया था। कोई बहुत भरोसे से भी नहीं गया था, लेकिन अब फकीर कहता है तो शायद ठीक ही कहता हो; एक दफा करके देख लेने जैसा है। गया तो बड़ा हैरान हुआ। वहां तो चांदी की एक खदान मिली। मगर यह तो उसकी कल्पना में भी नहीं आ सकता था। चंदन से चांदी, कोई जोड़ नहीं था।
तर्क की तो एक व्यवस्था होती है। तर्क में एक सीमा होती है। अब चंदन से चांदी छलांग है। इसमें कुछ संबंध नहीं है। चंदन से तर्क किसी भी तरह चांदी पर नहीं पहुंचता। मगर जिंदगी तर्क थोड़े ही है। जिंदगी में बड़ी छलांगें हैं। यहां चांदी चंदन से पहुंची जा सकती है।
वह तो मस्त हो गया। उसने कहा कि हद हो गई, मैं भी इस फकीर की सुना नहीं, मैं भी कैसा नासमझ हूं! उसने चांदी भरी। अब तो सालों के लिए एक दफे में काम हो जाता है। साल दो साल ऐसे ही बीत गए। फकीर ने एक दिन उसे कहा कि तुझे अपने से कभी अक्ल आएगी कि नहीं, कि मुझे ही कहना पड़ेगा बार-बार? आगे क्यों नहीं जाता मूढ़?
उसने कहा: अब और आगे क्या हो सकता है?
गरीब आदमी! गरीब आदमी की चित्त-दशा चांदी के आगे नहीं जाती। चांदी के आभूषण, बस समाप्त हो गई बात। सोना तो राजमहलों में होता था उन दिनों। पुरानी कहानी। सोना तो गरीब आदमी को पहनने का हक भी नहीं था। अब भी गरीब आदमी की स्त्री पैर में सोना पहनने में डरती है। वह सिर्फ रानियों के लिए था। अब भी नहीं पहनती, गांवों में अब भी नहीं पहनती। गांव में अभी कोई स्त्री हिम्मत नहीं कर सकती कि सोना पहन ले। राजा नहीं रहे, रानियां नहीं रहीं; मगर सोना पैर में! वह सिर्फ राजाओं के लिए था, रानियों के लिए था। चांदी आखिरी बात थी आभूषण में।
उसने कहा: अब और आगे क्या हो सकता है? चांदी मिल गई महाराज, अब आगे और हो भी क्या सकता है?
उसने कहा: तू फिर भी कोशिश कर।
अब थोड़ा भरोसा उसे आने लगा था कि यह आदमी चंदन से चांदी पर ले गया, पता नहीं कुछ हो। सोना तो उसके सपने में भी नहीं आ सकता था। आगे गया तो सोने की खान मिली। तब तो वह निश्चिंत हो गया कि आखिरी पड़ाव आ गया। वर्षों बीत गए। फकीर भी बूढ़ा हो गया था। फकीर ने उसे एक दिन कहा कि देख, अब मेरा आखिरी समय आ गया है, अब मैं जा रहा हूं। तुझे आखिरी बात कहे जाता हूं, तुझमें अपने से भी कहीं कुछ किसी दिन अक्ल, अपने से भी कभी तेरे भीतर कभी अन्वेषण, खोज की वृत्ति पैदा होगी कि नहीं होगी, कि तू मुझसे ही बंधा रहेगा? आगे क्यों नहीं जाता?
उसने कहा: महाराज, अब आप चुप रहो। काफी आगे जा चुका हूं। अब आगे कुछ है भी नहीं, हो भी नहीं सकता। अब मुझे आपकी बात पर बिलकुल भरोसा नहीं आता। सोना मिल गया, अब और क्या होगा?
फकीर ने कहा: यह मैं मर रहा हूं, मरते हुए आदमी की बात मान ले, एक दफा आगे हो आ। इसके पहले कि मैं मरूं, मैं तुझे और आगे गया हुआ देख लेना चाहता हूं।
वह फकीर की बात थी, फकीर मर रहा है तो वह गया। गया तो वहां एक हीरों की खदान मिली। सोचा, बस अब आ गया आखिरी पड़ाव, फकीर को बहुत धन्यवाद दिया। फकीर ने कहा: इसको आखिरी पड़ाव मत समझ लेना, उसके और थोड़े आगे।
उसने कहा: अब मैं बिलकुल नहीं मानता। अब आप मजाक कर रहे हैं। अब आप नाहक मुझे उलझा रहे हैं। उसके आगे अब कुछ भी नहीं हो सकता।
फकीर ने कहा: उसके आगे मैं हूं। उसके आगे ध्यान है। धन के आगे ध्यान है। धन से ध्यान! फिर एक छलांग लगती है। जैसे चंदन से चांदी। जैसे सोने से हीरे। ऐसा धन से ध्यान। और ध्यान से परमात्मा।
फकीर ने कहा: जब तक परमात्मा न मिल जाए तब तक आगे चलते ही जाना, चलते ही जाना, चलते ही जाना, रुकना ही मत। उसके पहले जो रुका, वह भूला और भटका।
मगर और लकड़हारे हैं जो अभी वहीं लकड़ियां काट रहे हैं, वे इसको पागल कहते हैं। वे कहते हैं, तू जाता कहां है? लकड़ियां यहां हैं, तू जाता कहां है? कई दिन-दिन तक दिखाई नहीं पड़ता, तू करता क्या है? आलसी हो गया है? तेरी कुछ खोज-खबर नहीं मिलती।
वह हंसता है, वह मुस्कुराता है।
‘हीरा पायो गांठ गठियायो, बाको अब बार-बार क्यों खोले।’ अब वह इनसे कहे भी क्या! और वह जानता भी है भलीभांति कि ये मानेंगे नहीं। मैंने कहां मानी थी। और मनाने वाला बड़ा फकीर था, मैं तो कुछ भी नहीं हूं। मेरी ये नहीं मानेंगे। ये कोई मेरी नहीं मान सकते।
ये उसे पागल समझते हैं। ये कहते हैं, इसका दिमाग खराब हो गया है।
तो जिस दिन तुम बाजार से मंदिर की तरफ जाओगे, बाजार के लोग तुम्हें पागल समझेंगे। लकड़हारे हैं। उन्हें चंदन की लकड़ी का पता नहीं है। फिर एक दिन जब तुम और आगे बढ़ोगे, और आगे बढ़ोगे तो धीरे-धीरे जो लोग पीछे छूटते जाएंगे वे निर्णय लेते जाएंगे, तुम्हारा दिमाग खराब हो गया। और जिस दिन तुम ध्यान की अंतिम गहराई में, समाधि में पहुंचोगे और परमात्मा का दर्शन करोगे, उस दिन इस जगत में सब कूड़ा-करकट है। उस दिन तुम सब इस जगत में पाओगे निर्मूल्य है। तो जो इस जगत में मूल्य देखते हैं, अगर वे तुम्हें पागल कहें तो कुछ आश्चर्य नहीं। उनका कहना भी ठीक है।
और यह पागलपन सौभाग्य है; सौभाग्य से किसी को मिलता है। मेरी मानो और आगे चलो।
आज इतना ही।