PALTUDAS

Ajhun Chet Ganwar 17

Seventeenth Discourse from the series of 21 discourses - Ajhun Chet Ganwar by Osho. These discourses were given during JUL 21 - AUG 10 1977.
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राज तन में करै, भक्ति जागीर लै,
ज्ञान से लड़ै रजपूत सोई।
छमा-तलवार से जगत को बसि करै
प्रेम की जुज्झ मैदान होई।।
लोभ औ मोह हंकार दल मारिकै
काम औ क्रोध ना बचै कोई।
दास पलटू कहै तिलकधारी सोई,
उदित तिहूं लोक रजपूत सोई।।5।।

गाय-बजाय के काल को काटना,
और की सुन कछु आप कहना।
हंसना-खेलना बात मीठी कहै,
सकल संसार को बस्सि करना।।
खाइये-पीजिये मिलैं सो पहिरिए,
संग्रह औ त्याग में नाहिं परना।
बोलु हरिभजन को मगन ह्वै प्रेम से
चुप्प जब रहौ तब ध्यान धरना।।6।।

सुंदरी पिया की पिया को खोजती,
भई बेहोश तू पिया कै कै।
बहुत सी पदमिनी खोजती मरि गई,
रटत ही पिया पिया एक एकै।।
सती सब होती हैं जरत बिनु आगि से,
कठिन कठोर वह नाहिं झांकै।
दास पलटू कहै सीस उतारिकै
सीस पर नाचु जो पिया ताकै।।7।।

पूरब ठाकुरद्वारा पच्छिम मक्का बना,
हिंदु औ तुरक दुइ ओर धाया।
पूरब मूरति बनी पच्छिम में कबुर है,
हिंदू औ तुरक सिर पटकि आया।।
मूरति औ कबुर ना बोलै ना खाय कछु,
हिंदू औ तुरक तुम कहां पाया।
दास पलटू कहै पाया तिन्ह आप में
मूए बैल ने कब घास खाया।।8।।
जीवन अभी है, अभी नहीं। क्षण का खेल है। पानी केरा बुदबुदा! है तो लगता है जैसे सदा रहेगा। नहीं हो जाता है तो लगता है: ‘था भी? कभी था भी?’ पानी केरा बुदबुदा! ऐसा फूल कर पानी का बुदबुदा तैरता है; सूरज की किरणों में सतरंगा हो जाता है। जब है तो शाश्वत का भ्रम देता है और जब नहीं है तो सपना भी हुआ था उसका, इसका भी भरोसा नहीं आता।
जीवन पर तो मौत की तलवार बड़े कच्चे धागे में लटकी है; कब टूट पड़ेगी, कोई कह नहीं सकता। अब टूटे तब टूटे। इसलिए समझदार वे ही हैं, जो जीवन में उसको पा लें, जो शाश्वत है। नासमझ वे हैं, जो जीवन में उसको इकट्ठा करें, जो क्षणभंगुर है। जीवन क्षणभंगुर है स्वयं। उसे क्षणभंगुर की ही सेवा में लगा दोगे? जीवन भी जाएगा और जो इकट्ठा किया है वह भी जाएगा। कुछ कमाई हाथ न लगेगी।
यह जो छोटा सा जीवन है, इसे शाश्वत की खोज में लगा दो। जीवन तो जाएगा ही, फिर भी जाएगा। शाश्वत खोजो कि क्षणभंगुर, जीवन को जाना है। जीवन रुकने को नहीं है। लेकिन जिसने शाश्वत को खोजा, उसका जीवन तो चला जाएगा; लेकिन उसने जीवन का उपयोग कर लिया; उसने जीवन की सीढ़ी बना ली। जो खोजा वह रहेगा। समय तो गया; लेकिन समय को निचोड़ लिया संपत्ति में।
बहुत कम सौभाग्यशाली लोग हैं जो मौत के क्षण में यह कह सकें कि हमारा जीवन कृतार्थ हुआ। मृत्यु के क्षण में कसौटी है। मौत जब सामने खड़ी होती है, तब कसौटी है; तब परीक्षा का दिन है। तभी पता चलता है कि तुमने जीवन में कुछ पाया? क्यों मौत के क्षण में पता चलता है? क्योंकि मौत तय कर देती है कि जो पाया, उसे ले जा सकोगे या नहीं? अगर सच में पाया है तो तुम्हारे साथ जाएगा। अगर यूं ही क्षणभंगुर बबूलों के साथ खेल खेलते रहे तो तुम्हारे साथ कुछ भी न जा सकेगा। नंगा आदमी आता है और नंगा आदमी जाता है। खाली हाथ आता है और खाली हाथ जाता है।
जन्म से खाली हाथ हम आते हैं, यह तो ठीक है; लेकिन मरते वक्त भी खाली हाथ जाएं, तो सारे जीवन का अर्थ क्या हुआ?
समय में शाश्वत छिपा है और क्षणभंगुर में द्वार है सनातन का। मौत पर कसौटी होगी। लेकिन, अगर मौत के समय जागें, तो फिर करोगे क्या? फिर हाथ में समय तो बचता नहीं। इसलिए पलटू कहते हैं: अजहूं चेत गंवार! अब चेतो!
धरा पर लुटाया नहीं प्यार अब तक
अरी मौत अपना कदम तू हटा ले
समय की तृषित आत्मा के अधर पर,
अभी तो सुधा-बूंद बनना मुझे है,
अभी तो किसी झोपड़ी की अमा में
मधुर चांदनी-सी उतरना मुझे है,
किसी नव कली को उठा धूल में से
बनाया नहीं देव-श्रृंगार अब तक
अरी मौत अपना कदम तू हटा ले।
हुई मौन आंसू-भरा गीत गाकर
उसी आंख में अब सपन तो बसा लूं,
बिना प्यार के चल रहा जो अकेला
जरा उस पथिक की थकन तो मिटा लूं,
किसी की लुटी-सी बुझी जिंदगी में
मनाया नहीं दीप-त्यौहार अब तक,
अरी मौत अपना कदम तू हटा ले।
चलेंगे बहुत इस कंटीली डगर पर
जरा बीन कर शूल पथ साफ कर लूं
बुरा कुछ किया है, बुरा कुछ सहा है
जरा माफ हो लूं, जरा माफ कर लूं
किसी की बहकती नजर को बदल कर
दिखाया न रंगीन संसार अब तक
अरी मौत अपना कदम तू हटा ले।
अभी खेत-खलिहान चौपाल पनघट
नदी के किनारे जरा घूम लूं मैं
उमड़ती-धुमड़ती बरसती धटा में
जरा भींग लूं मैं, जरा झूम लूं मैं,
उमर घट रही है, सफर बढ़ रहा है
उठी पर हृदय से न झंकार अब तक
अरी मौत अपना कदम तू हटा ले।
लेकिन मौत कदम हटाती नहीं। मौत का बढ़ा कदम कभी पीछे नहीं हटता। फिर तुम लाख रोओ, लाख चिल्लाओ। तुम लाख कहो कि अभी तो मैं जी भी नहीं पाया; और अभी तो व्यर्थ में ही उलझा रहा; अभी तो सार्थक की तरफ आंख भी नहीं उठाई थी। फिर तुम लाख सिर पटको, मौत कदम वापस नहीं उठाती। इसलिए जिन्हें जागना है, उन्हें मौत के आने के पहले जागना है।
बिना जागे, पूरे जीवन का कोई परिणाम नहीं है। और अगर एक क्षण भी तुम मौत के पहले जाग जाओ, सिर्फ एक क्षण भी, तो झरोखा खुल जाता है परमात्मा का।
ये पलटू के वचन--‘अजहूं चेत गंवार’--यही कहने को है कि इतना तो गया, थोड़ा बचा है; यह भी चला जाएगा। इतना गया, इससे मिला क्या है? जो थोड़ा बचा है, इसे भी ऐसे ही गंवा देना है या कि कुछ कर लेना है? संसार को कितना ही जीतो, जीत नहीं होती; क्योंकि मौत आकर सब खेल ही बिगाड़ देती है। अपने को जीते ही जीत होती है। मन के जीते जीत। उसी जीत के ये आज के वचन हैं!
राज तन में करै, भक्ति जागीर लै,
ज्ञान से लड़ै रजपूत सोई।
छमा-तलवार से जगत को बसि करै
प्रेम की जुज्झ मैदान होई।।
लोभ औ मोह हंकार दल मारिकै
काम औ क्रोध ना बचै कोई।
दास पलटू कहै तिलकधारी सोई,
उदित तिहुं लोक रजपूत सोई।।
पलटू ने कहा है: उसी को कहते हम राजपूत, उसी को कहते हैं क्षत्रिय, उसी को कहते हैं योद्धा, जो कुछ ऐसा जीत ले, जो छीना नहीं जा सकता है। और योद्धाओं को तो योद्धा कहना व्यर्थ है। खिलौनों के लिए लड़ते हैं। अगर किसी से तुमने छीन भी लिया तो क्या होगा? मौत तुमसे छीन लेगी। मौत सबको बराबर कर जाती है--गरीब-अमीर को; हारे को, जीते को--सबसे छीन लेती है। वह सारी छीन-झपट व्यर्थ हो जाती है। हारे हुए तो हारते हैं; जीते हुए भी हार जाते हैं।
तो किसको हम क्षत्रिय कहें, किसको योद्धा कहें? उसको योद्धा कहें, जो मौत से कुछ छीन ले। मौत से कुछ छीनना हो, तो एक ही उपाय है कि कुछ शाश्वत की झलक मिले। क्योंकि शाश्वत पर ही मौत का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। समय के बाहर हमारी कोई संपदा हो, समयातीत द्वार खुले, समाधि मिले, तो ही मौत नहीं छीन पाती। हमारे भीतर अमृत का कोई स्वर सुनाई पड़े, तो मौत नहीं मिटा पाती।
राज तन में करै, भक्ति जागीर लै,
पलटू कहते हैं: राज ही करने का मन है--भला मन है, बुरा कुछ भी नहीं है; जरूर राज करो--लेकिन राज तन में करै।
तुम्हारी अपनी देह पर तुम्हारी मालकियत नहीं है। यह तुम्हारी देह तुम्हारी सुनती नहीं है। और दूसरी देहों को आज्ञा देने में लगे हो! सारे जगत को चलाने की आकांक्षा से भरे हो। अपनी देह को चला नहीं पाते। यह छोटी सी देह भी तुम्हारा मानती नहीं। यह छोटी सी देह भी तुम्हारा सुनती नहीं है। यह छोटी सी देह भी तुम्हारी छाया नहीं बनती। यह भी तुम्हारी मालिक है। तुम कैसे राजा बनोगे? इस देह की गुलामी भी नहीं छूट पाती है।
राज तन में करै,...
तो पहला राज तो अपने तन पर फैलाओ। पहला अनुशासन कि तुम्हारी देह तुम्हारे पीछे चले, तुम्हें देह के पीछे न चलना पड़े। स्वाद भटकाता है। संगीत लुभाता है। कामवासना पकड़ती है। और जब शरीर किसी ज्वर से भरता है, किसी वासना के ज्वर से भरता है, तो तुम बिलकुल बेहोश हो जाते हो; तुम्हारा सारा होश खो जाता है। क्रोध की लपटें उठती हैं, जब तुम ऐसे काम कर लेते हो जो तुम कभी भी होश में होते तो न करते। पीछे पछताते हो। मगर पीछे पछताते हो! पीछे पछताने से क्या होगा? अब पछताए होत का, जब चिड़िया चुग गई खेत! पीछे तो सभी पछताते हैं। पीछे तो नासमझ से नासमझ भी पछताते हैं। समझदार वही है, जो उसी क्षण में जाग जाए, जब क्रोध उठा है; उसी क्षण में होश को सम्हाल ले। उसी होश से मालकियत पैदा होती है।
मालकियत का मतलब तुम समझ लेना। मालकियत का मतलब जबरदस्ती नहीं है, शरीर को कोड़े मार कर और शरीर को भूखा रख कर, उपवास करवा कर, अगर तुम मालिक बन गए तो वह मालकियत नहीं है; वह झूठी मालकियत है। शरीर स्वस्थ चाहिए, शक्तिशाली चाहिए, ऊर्जा से भरा हुआ चाहिए--फिर भी मालकियत चाहिए।
तो दुनिया में दो तरह की मालकियत होती है। एक तो मालकियत होती है कि शरीर को इतना कमजोर कर लो कि उसमें कुछ दम ही न रह जाए, मगर वह कोई मालकियत हुई? वह तो मालकियत का धोखा हुआ। वह तो ऐसे हुआ कि घर में एक लाश रख ली और कहा कि हम इसके मालिक हैं। हम जब उठाते हैं, तब यह लाश उठती है; हम जब बिठाते हैं, तब यह लाश बैठती है; हम बाहर ले जाते हैं तो बाहर जाती है; हम भीतर लाते हैं तो भीतर आती है।
तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासियों ने शरीर को लाश बना लिया। उन्हें डर है। मालकियत नहीं है यह। मालिक को कहां डर! यह तो ऐसा ही हुआ कि तुम एक घोड़े पर सवार हो और घोड़ा तुम्हारी मानता नहीं, तो तुम घोड़े को भूखा रखने लगे, कोड़े मारने लगे, उसके शरीर पर घाव बना दिए। घोड़े को इतना कमजोर कर लिया कि अब तुम्हारी उसे माननी ही पड़ेगी, क्योंकि न मानने की शक्ति ही नहीं रही। मगर यह मालकियत हुई? यह घोड़ा तो मुर्दा हो गया। मालकियत का तो मजा तभी था जब इस घोड़े में प्राण थे और यह हवाओं से बाजी लेता था। मालकियत का तो मजा तभी था जब यह घोड़ा वीर्यवान था। इसे कमजोर करके मालिक बनने में मजा नहीं है। यह तो मालकियत का धोखा है। यह रहे पूरा शक्तिशाली और फिर मालकियत।
तो खयाल रखना, दमन के द्वारा जो मालकियत आती है, पलटू उसकी बात नहीं कर रहे हैं। आगे सूत्र में साफ हो जाएगा। पलटू कह रहे हैं: बोध से जो मालकियत आती है। अपने भीतर चैतन्य को घना कर लेने से जो मालकियत आती है। इन दोनों में क्रांतिकारी भेद है। दमन से तुम तो जागते नहीं, सिर्फ तुम्हारा शरीर कमजोर हो जाता है। जागने से तुम्हारा शरीर तो अपनी जगह होता है; शायद और भी बलशाली हो जाए, लेकिन तुम्हारे भीतर एक दीया जलने लगता है। उस दीये की रोशनी में तुम जलने लगते हो। तुम्हारे भीतर एक शांति विराजमान हो जाती है। उस शांति में संतुलन है। उस संतुलन में संयम है। उस संयम में समाधि है। फिर एक चीज दूसरे में ले जाती है। धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर एक इतनी विराट मालकियत का जन्म होता है, जिसको जैनों ने जिनत्व कहा है; तुम जिन हो जाते हो, विजेता हो जाते हो। और शरीर को मारना भी नहीं पड़ता, शरीर को काटना भी नहीं पड़ता। शरीर के साथ लड़ना ही नहीं पड़ता और जीत हो जाती है। जीत तो वही कुशल है कि लड़ना न पड़े और हो जाए।
राज तन में करै, भक्ति जागीर लै,
बड़ी मजे की बात पलटू कह रहे हैं। पलटू कह रहे हैं कि राज तन में बड़ी आसानी से हो जाएगा, भक्ति की जागीर मिल जाए। शरीर से लड़ कर राज नहीं करना है, परमात्मा से प्रेम करके राज हो जाएगा। शरीर की तरफ ध्यान ही मत देना।
दो तरह के शरीरवादी हैं दुनिया में। एक--जो शरीर को आभूषणों से सजाता रहता है; दर्पणों के सामने खड़ा हुआ सजता रहता है; जिसकी सारी चिंता शरीर को सजाने में ही लगी रहती है। यह भी शरीरवादी है। और एक दूसरा शरीरवादी है, जिसको तुम महात्मा कहते हो; वह भी चौबीस घंटे शरीर के ही ध्यान में लगा रहता है। क्या खाना, क्या पहनना, क्या पीना, क्या नहीं पीना, कब उठना कब नहीं उठना--चौबीस घंटे...। इन दोनों में फर्क नहीं है। एक दर्पण के सामने खड़ा है; वह सजा रहा है शरीर को; वह शरीर के साथ बड़े राग में है। दूसरा शरीर का दुश्मन है। वह शरीर को काट रहा है हर तरह से। मगर दोनों की दिशा, दोनों की दृष्टि शरीर पर अटकी है। दोनों में से आत्मवादी कोई भी नहीं है।
आत्मवादी तो वही है: ‘भक्ति जागीर लै।’
आत्मवादी का मतलब है: शरीर की चिंता ही नहीं रही; आंख उठीं और भीतर परमात्मा की तरफ उठ गईं। जैसे ही आंख परमात्मा की तरफ उठती है, शरीर अनुगामी हो जाता है, शरीर को अनुगामी बनाना नहीं पड़ता। जिसने परमात्मा को बुला लिया, जिसने थोड़ा सा संबंध प्रभु से जोड़ लिया, वह अचानक पाता है कि शरीर में जो उद्दाम वासनाएं थीं, वे अपने आप शांत हो गईं। क्यों? क्योंकि जिसके जीवन में परमात्मा का प्रेम बरसने लगे, वह फिर किसी और प्रेम की आकांक्षा नहीं करता। और जिसके जीवन में परमात्मा की संपत्ति आ जाए, फिर और धन की आकांक्षा नहीं करता। और जिसको परमात्मा मिल जाए, उसको कैसा क्रोध, कैसा लोभ, कैसा मोह! ये सारे उपद्रव तो उस अंधेरी रात के थे जब परमात्मा की रोशनी न थी। इसलिए सरल से शब्द हैं, पर बड़े गहरे हैं।
राज तन में करै, भक्ति जागीर लै,
परमात्मा की जागीरी मिल जाए, फिर राज अपने आप हो जाता है। तुम प्रभु को पा लो, शेष सब अपने आप हो जाता है। शरीर से लड़-लड़ कर प्रभु को नहीं पाया जाता; प्रभु को पाकर शरीर पर विजय हो जाती है।
इसलिए असली सवाल तपश्चर्या का नहीं है; असली सवाल भक्ति-भाव का है। असली सवाल प्रेम का है--प्रेम की धारा को मोड़ देने का है। तुम्हारा प्रेम ऊपर उठे। फर्क को खयाल में लो।
एक सुंदर स्त्री राह से गुजरती है, तुम्हारा मन उसमें आकर्षित हो जाता है। भक्त भी निकले वहीं से; वह भी सुंदर स्त्री को देखेगा; अंधा नहीं है। सौंदर्य की परख उसे तुमसे ज्यादा है, क्योंकि उसने परम सौंदर्य देखा है। लेकिन इस सुंदर स्त्री में उसे उसी परम सौंदर्य की झलक मिलेगी। इस सुंदर स्त्री में उसे उसी परमात्मा का थोड़ा सा आभास मिलेगा। जैसे चांद को देखा हो जल में प्रतिबिंब बनते, ऐसा इस देह में उसी परमात्मा का छोटा सा प्रतिबिंब बनता दिखाई पड़ेगा। इस स्त्री के सौंदर्य को देख कर उसे स्त्री के सौंदर्य के प्रति, स्त्री की देह के प्रति वासना पैदा नहीं होगी; इस स्त्री के सौंदर्य को देख कर उसे फिर प्रभु का स्मरण आ जाएगा। इस सौंदर्य को देख कर उसे उस परम सौंदर्य की याद आ जाएगी; वह फिर भजन में डूब जाएगा। वह फिर भीतर डोलने लगेगा। खिलते फूल को देख कर भी यही होगा। सूरज को निकलते देख कर भी यही होगा। सागर में उठती तरंगों देख कर भी यही होगा। जिसे एक बार परम सौंदर्य दिखाई पड़ गया, अब तो हर जगह जहां भी सौंदर्य होगा, वहीं उसकी झलक दिखाई पड़ेगी।
भक्त को लड़ना नहीं पड़ता। भक्त का मार्ग लड़ना है ही नहीं। भक्त का मार्ग बड़ा कलात्मक है; बिना लड़े जीत लेता है।
तुम राह से गुजरते हो, सुंदर स्त्री आकर्षित कर लेती है: शरीर में वेग उठते हैं, वासना उठती है। तुम इसके मालिक नहीं हो। फिर एक तुम्हारा तथाकथित महात्मा रास्ते से गुजरता है; वह भी सुंदर स्त्री को देखता है, वह जल्दी से आंख नीची कर लेता है। वह अपनी श्वास रोक लेता है। वह अपने भीतर राम-राम, राम-राम, राम-राम करने लगता है; एक दीवाल खड़ी करता है राम-राम की, ताकि भूल जाए। यह स्त्री दिखाई पड़ गई, यह भी भूल जाए।
झेन फकीरों की कथा है: एक बूढ़ा फकीर और एक युवक फकीर आश्रम वापस लौट रहे हैं। छोटी सी नदी पड़ती है। और एक सुंदर युवती नदी पार करने को खड़ी है, लेकिन डरती है। अनजानी नदी है, पहाड़ी नदी है, गहरी हो, खतरनाक हो, बड़ी तेज धार है। बूढ़ा संन्यासी तो नीचे आंख करके जल्दी से नदी में प्रवेश कर जाता है, क्योंकि वह समझ जाता है कि यह पार होना चाहती है, हाथ का सहारा मांगती है, लेकिन वह डर जाता है। हाथ का सहारा! इस बात में पड़ना ठीक नहीं! लेकिन युवक संन्यासी उसके पीछे ही चला आ रहा है। वह युवती से पूछता है कि क्या कारण है। सांझ हुई जा रही है, जल्दी ही सूरज डूब जाएगा और युवती अकेली छूट जाएगी। युवती कहती है: मैं बहुत डरी हुई हूं। पानी में उतरते घबड़ाती हूं। मुझे उस पार जाना है।
तो वह युवक संन्यासी उसे कंधे पर ले लेता है। बूढ़ा संन्यासी उस पार पहुंच गया, तब उसे याद आती है कि मेरे पीछे युवा संन्यासी भी आ रहा है, कहीं वह इस झंझट में न पड़ जाए! लौट कर देखता है तो उसकी तो आंखों को भरोसा ही नहीं आता है: वह कंधे पर बिठाए हुए लड़की को नदी पार कर रहा है! बूढ़ा तो आग से जल-भुन गया। युवक संन्यासी ने युवती को दूसरे किनारे उतार दिया, फिर दोनों चुपचाप चलने लगे। दो मील तक कोई बात न हुई। दो मील बाद बूढ़े को बरदाश्त के बाहर हो गया। उसने कहा: यह ठीक नहीं हुआ और मुझे गुरु को जाकर कहना ही पड़ेगा; नियम का उल्लंघन हुआ है। तुमने उस सुंदर युवती को कंधे पर क्यों बिठाया!
उस युवक ने जो कहा, वह याद रखना। युवक ने कहा: आप बहुत थक गए होंगे। मैं तो उस युवती को नदी के तट पर ही उतार आया; आप अभी कंधे पर बिठाए हुए हैं! आप बहुत थक गए होंगे! बात आई और गई भी हो गई, अभी तक आप भूले नहीं!
जिसको तुम महात्मा कहते हो, वह आंख तो झुका लेगा; लेकिन आंख झुकाने से कहीं वासनाएं समाप्त होती हैं! आंख फोड़ भी लो तो भी वासनाएं समाप्त नहीं होती। आंखों पर पट्टियां बांध लो, तो भी वासनाएं समाप्त नहीं होती। वासनाओं का आंखों से क्या संबंध है? क्या तुम सोचते हो, अंधे को वासना नहीं होती? अंधे को इतनी ही वासना होती है, जितनी तुमको; शायद थोड़ी ज्यादा ही होती है। क्योंकि उसके पास, बेचारे के पास, उपाय भी नहीं; असहाय है, वह तड़फता है। उसके भीतर भी प्रबल आकांक्षा है, प्रबल वेग है। तो आंख बंद कर लेने से, आंख झुका लेने से क्या होगा? किसको धोखा दे रहे हो?
तो एक तो साधारण आदमी है, जिसके शरीर में ज्वर उठता है वासना का, सौंदर्य को देख कर। और एक तुम्हारा तथाकथित महात्मा है; उसके भीतर भी ज्वर उठता है, लेकिन वह आंख झुका लेता है। दोनों के भीतर शरीर भागना चाहता है। एक भागने देता है, दूसरा शरीर को जबरदस्ती रोक लेता है। शायद लौट कर वह दो दिन उपवास करेगा पश्चाताप में, या शरीर पर कोड़े मारेगा।
सूफी फकीर, ईसाई फकीर, झेन फकीर, सारी दुनिया में हजारों किस्म के फकीर हुए, जिनमें न मालूम कितने-कितने ढंग के रोग व्याप्त हो गए। कोड़े मारने वालों की जमात रही है। उपवास करने वालों की जमात रही है रात-रात भर जागने वालों की जमात रही है। कमर में कीले चुभाने वाले, बेल्ट बांध लेने वालों की जमात रही है। जूतों में कीले अंदर की तरफ निकाल कर घाव पैरों में बना कर चलने वालों की जमात रही है। आंखें फोड़ लेने वाले, जननेंद्रियां काट देने वालों की जमात रही है। मगर ये रुग्ण जमातें हैं। पलटू इसके समर्थन में नहीं हैं।
पलटू कहते हैं: एक और रास्ता है। लड़ो मत वासना से। लड़ कर कहां जाओगे? घाव बन जाएंगे। कुछ और बड़ी वासना को जगा लो--परमात्मा की वासना। किसी और बड़े प्रेम से थोड़े भर जाओ। थोड़ी आंख ऊपर उठाओ। इस सौंदर्य में भी इसीलिए रस है कि इस सौंदर्य में क्षण भर को परमात्मा के सौंदर्य की थोड़ी सी छाया पड़ी है। तुम छाया से ग्रसित हो जाते हो, क्योंकि मूल को नहीं देखा है। तुम तस्वीर से जकड़ जाते हो, क्योंकि जिसकी तसवीर है उसको तुमने नहीं देखा है। उसको देख लो: मिल गई जागीर। फिर लड़ना नहीं पड़ता। फिर जबरदस्ती नहीं करनी पड़ती। फिर एक मालकियत आती है, जो बड़ी सहज है।
राज तन में करै, भक्ति जागीर लै,
ज्ञान से लड़ै रजपूत सोई।
बोध को जगाना है। ज्ञान को उठाना है। वही असली राजपूत है। वही क्षत्रिय है।
ज्ञान से लड़ै...
एक ही उपाय है: जागरण; अवेयरनेस; बोध; सुरति; होश को सम्हाले। इधर होश सम्हालता जाता है, उधर शरीर पर मालकियत आती जाती है। और जिस दिन अपने शरीर पर मालकियत आ जाती है, जिस दिन होश पूरा हो जाता है, उस दिन जीवन में बड़े सौभाग्य का मंगल क्षण आता है। उस दिन जीवन में बड़े मंगल वाद्य बजते हैं।
छमा-तलवार से जगत को बसि करै
और ऐसा व्यक्ति, जिसने बोध के द्वारा अपने शरीर पर कब्जा कर लिया है, उसके जीवन में बड़ी और घटनाएं चुपचाप घट जाती हैं। जिसके भीतर बोध जगा है, उसके लिए सारे जगत के प्रति करुणा और क्षमा का भाव पैदा होता है। होता ही है। यह उसका अनुषंग है। जिसके भीतर वासना है, कामना है, उसका अनुषंग है: क्रोध। कामी क्रोधी होगा ही। यह असंभव है कि कोई कामी हो और क्रोधी न हो। काम के साथ क्रोध आता है। क्रोध काम की म्यान है। काम अगर तलवार है तो क्रोध उसकी म्यान है। काम की छाया है क्रोध।
तुमने भी देखा, तुम क्रोध से कब भरते हो? तुम क्रोध से तभी भरते हो जब तुम्हारे काम में कोई बाधा डाल देता है। तुम एक स्त्री के पीछे दीवाने हो और कोई दूसरा आदमी दखलंदाजी कर देता है। तुम एक जमीन खरीदना चाहते थे, कोई दूसरा आदमी ज्यादा दाम लगा देता है। तुम चुनाव लड़ने निकले थे, कोई दूसरा आदमी खड़ा हो जाता है और तुम्हारे वोटों को खींचने लगता है, तो क्रोध उठता है। जहां तुम्हारी कामना में कोई अड़ंगा डालता है, वहां क्रोध उठता है। और कामना में अड़ंगा तो डाला ही जाएगा, क्योंकि इतने कामी हैं। सारा जगत कामियों से भरा हुआ है! तुम अकेले थोड़े ही कामी हो। तो काम में तो संघर्ष होगा ही, द्वंद्व होगा, स्पर्धा होगी। काम में तो एक-दूसरे का गलाघोंट प्रतियोगिता होगी। तो काम होगा, क्रोध होगा।
ठीक इससे उलटी दशा बनती है: जैसे ही भीतर काम गया, प्रार्थना आई। भक्ति की जागीर आई, वैसे ही भक्ति की जागीर के साथ क्षमा आती है। क्षमा यानी क्रोध के विपरीत दशा। जब तुम्हारी कोई कामना ही बाहर के जगत में न रही, तुम्हें यहां कुछ ऐसा नहीं है जिसको पाना ही है--फिर क्या झगड़ा! फिर किस पर क्रोध! फिर क्षमा सहज हो जाती है।
ध्यान रखना, पलटू यह नहीं कह रहे हैं कि तुम क्षमा का आचरण बना लो। पलटू यह नहीं कह रहे हैं कि तुम क्षमा करो। क्षमा की अगर तुमने, तो क्षमा रही नहीं। करनी पड़ी तो क्रोध तो आ ही गया।
जैन शास्त्रों में लिखा है: महावीर महाक्षमावान थे। मैंने एक जैन मुनि को पूछा कि इसका क्या अर्थ होता है? उन्होंने कहा: इसमें क्या अड़चन की बात है? यह तो सीधी सी बात है कि महाक्षमावान थे; सबको क्षमा कर देते थे।
तो मैंने कहा: एक बात पूछने जैसी है, कि क्षमा तो तभी हो सकती है जब क्रोध पहले आ जाता हो। क्रोध के बिना क्षमा कैसे होगी?
वे जरा बेचैन हुए। बात तो सीधी है। अगर महावीर को महाक्षमावान कहते हो, तो उसका मतलब यह हुआ कि महावीर को क्रोध आ जाता है फिर क्षमा कर देते हैं। मगर क्षमा के लिए क्रोध तो जरूरी हो जाएगा। वे कहने लगे कि सोचना पड़ेगा मुझे। बिना क्रोध के कैसे क्षमा होगी! आप शायद ठीक कहते हैं।
फिर दुबारा मैं उनको मिला। कोई आठ महीने बाद फिर मिलना हुआ। मैंने कहा: सोचा? उन्होंने कहा: मैं बहुत सोचा, मगर कुछ समझ में नहीं आता। तो मैंने कहा: आपको कुछ क्षमा का थोड़ा-बहुत अनुभव हुआ है कभी? सोचने की जरूरत ही न होती, अगर क्षमा का थोड़ा भी अनुभव हुआ होता।
क्षमा का अर्थ महावीर के लिए, महावीर के संदर्भ में यह नहीं होता कि उनको क्रोध हुआ और उन्होंने क्षमा की। अगर मुझसे पूछो तो मैं उनको क्षमावान भी न कहूंगा; मैं उनको अक्रोधी कहूंगा। क्रोध नहीं हुआ। महावीर को क्रोध नहीं हुआ, इसलिए दूसरों ने जिन्होंने बाहर से देखा, उनको लगा महाक्षमावान। क्योंकि उनको क्रोध नहीं हुआ। किसी ने गाली दी और वे शांत खड़े रहे। किसी ने उनके कान में खीले ठोक दिए, वे चुप खड़े रहे। किसी ने उन्हें धक्के देकर गांव के बाहर निकाल दिया, वे चुप ही रहे। कोई मार गया तो, कोई अपमान कर गया तो, कोई पत्थर फेंक गया तो--वे चुप ही रहे। इसलिए लोकोक्ति हो गई कि महा-क्षमावान हैं; गाली देने वाले पर भी नाराज नहीं होते, क्षमा कर देते हैं।
यह हमारी बाहर से दृष्टि हुई। भीतर क्या हो रहा है? महावीर के भीतर क्रोध नहीं उठ रहा है; क्षमा का सवाल नहीं उठता। यही मतलब पलटू का है।
ज्ञान से लड़ै रजपूत सोई।
राज तन में करै, भक्ति जागीर लै,
छमा-तलवार से जगत को बसि करै
फिर तो क्षमा की तलवार से जगत वश में होने लगता है।
प्रेम की जुज्झ मैदान होई।
यह बड़ा अपूर्व वचन है:
प्रेम की जुज्झ मैदान होई।
इस पर जितना तुम ध्यान करोगे, उतने ही नये-नये अर्थ प्रकट होंगे।
पलटू कह रहे हैं: इस जगत में एक ही युद्ध है, वह प्रेम का युद्ध है। पहले तो किससे प्रेम? धन से प्रेम? पद से प्रेम? पत्नी से प्रेम? पति से प्रेम? मित्र से प्रेम? परिवार से प्रेम? परमात्मा से प्रेम? किससे प्रेम? ये युद्ध है सारा संसार का। प्रेम का ही युद्ध है। प्रेम की ही ‘जुज्झ’ चल रही है। कहां प्रेम को टिकाऊं? किस मंदिर में प्रेम की आरती चढ़ाऊं? किसको बनाऊं मेरा आराध्य? कौन बने मेरी प्रतिमा? किसको पूजूं? किसके द्वार पर भजन गाऊं? किसके चरण में सिर झुकाऊं? यही तो सारा युद्ध है सारे संसार का। कोई धन के द्वार पर सिर झुका रहा है। कोई नगद कलदार के सामने सिर झुकाए बैठा है। कोई सोने-चांदी की पूजा कर रहा है।
तुम देखते हो न, दीवाली आती है तो इस देश में लक्ष्मी की पूजा होती है! और ऐसे हम कहते हैं: यह देश बड़ा धार्मिक हैं! लक्ष्मी की पूजा करने वाले दुनिया में कहीं भी नहीं हैं; सिर्फ इसी देश में है। धन की पूजा! और तुम सोचते हो, तुम्हारा देश धार्मिक है! मुझे तो कई बार शक भी होता है कि तुम नारायण की भी पूजा इसीलिए करते हो कि लक्ष्मीनारायण हैं वे। लक्ष्मी जुड़ी है तो नारायण की भी करनी पड़ती है। मगर दिल तुम्हारा लक्ष्मी की पूजा का ही है।
धन की पूजा! तुमने कभी सोचा? दीवाली पर दीये जलाते हो, फुलझड़ी जलाते हो, फटाके तोड़ते हो--और करते लक्ष्मी की पूजा! लोग नगद रुपयों के ढेर लगा लेते हैं। फिर उनकी पूजा करते हैं। अब नगद रुपये तो रहे भी नहीं हैं, तो लोग सिर्फ पूजा के लिए कुछ रुपये बचाए रखते हैं।
मगर धन की पूजा! यह तो परम लोलुपता हो गई। धन का उपयोग करो, यह भी ठीक है, मगर कम से कम पूजा तो न करो। और फिर भी कहे चले जाते हो कि तुम धार्मिक देश हो; धार्मिक वृत्ति है तुम्हारी।
सोचना। अपनी पूजा का ठीक-ठीक खयाल करना, तुम किसकी पूजा कर रहे हो! कुछ लोग पद की पूजा कर रहे हैं; वे कुर्सी के सामने ही नमस्कार करते हैं। जहां पद दिखाई पड़ा, वहां एकदम उनके सिर झुक जाते हैं। वही आदमी कल पद पर नहीं रह जाएगा, तो कोई सिर झुकाने नहीं मिलेगा। गधे को भी बिठाल दो पद पर, तो तुम एकदम गुणगान करने लगोगे। और भगवान को भी पद से नीचे उतार दो, तो कोई नमस्कार करने वाला नहीं मिलेगा। पद की ऐसी पूजा। पद से ऐसा लोलुप प्रेम!
कोई अहंकार की पूजा कर रहा है। अपने ही सामने खड़ा हो गया है दर्पण के और अपने ही गले में मालाएं पहना रहा है। ठीक कहते हैं पलटू: इस जगत में एक ही युद्ध चल रहा है--‘प्रेम की जुज्झ मैदान होई।’ यहां एक ही मैदान है, एक ही युद्ध है, वह प्रेम का है। किसके प्रति प्रेम है तुम्हारा? और एक बात सोचना: जिसके प्रति प्रेम है, तुम उसी जैसे हो जाओगे। यह बहुत मूल्य की बात है। इसे गांठ बांध लेना। अगर पत्थर से प्रेम किया, पथरीले हो जाओगे। प्रेम बड़ा निर्णायक है। प्रेम की रसायन यही है: जिससे प्रेम करोगे वैसे ही हो जाओगे। इसलिए अगर लोग पत्थर की मूर्तियों को पूजते-पूजते पत्थर हो गए हैं, तो कुछ आश्चर्य नहीं है। उनका आराध्य पत्थर हो गया। जब आराध्य पत्थर हो गया, तो उन्होंने अपने हृदय भी पथरीले कर लिए। आदमी अपने आराध्य जैसा ही होना चाहता है।
ऐसे लोग हैं जो मशीनों को प्रेम करते हैं। कुछ लोग दीवाने हैं मशीनों के। वे घर में मशीनें ही बढ़ाते चले जाते हैं। अमरीका में बड़ा मशीनों का प्रेम है। मशीनें ही मशीनें लोग इकट्ठी कर लेते हैं। लेकिन मशीन ही मशीन के बीच जीने वाला आदमी धीरे-धीरे मशीन हो जाता है, यंत्र हो जाता है। उसके भीतर से मनुष्यता खो जाती है। उसका व्यवहार यंत्रवत हो जाता है। अब ऐसे लोग हैं, जो अपनी कार को प्रेम करते हैं। वे अपने बच्चे का सिर न थपथपाएंगे और पत्नी का आलिंगन न करेंगे; मगर उनका कार का प्रेम अदभुत है। सफाई कर रहे हैं कार की, पोंछ रहे हैं कार को, चारों तरफ घूम कर देख रहे हैं। ऐसे लोगों को मैं जानता हूं जो अपनी कार को अपने पोर्च के बाहर नहीं निकालते--कहीं धक्का लग जाए, कहीं खरोंच आ जाए! कार देवता है! तब स्वभावतः अगर तुम भी धीरे-धीरे यंत्रवत हो जाओ, तो कुछ आश्चर्य नहीं।
और जो आदमी अपने ही अहंकार की पूजा में लग गया हो, इसके जीवन में तो कोई विकास संभव नहीं रहा। आराध्य कुछ तो ऊंचा हो! क्योंकि जब आराध्य ऊंचा होता है तो तुम उसके चरण छूने के लिए थोड़े ऊपर बढ़ते हो। तुम्हीं आराध्य हो अपने, तो तुम पागल हो जाओगे। अपने ही पैर छूने के लिए झुकोगे तो और नीचे झुक जाओगे। कोई पैर तलाशो, जो तुम से जरा ऊपर हों। एकाध सीढ़ी ही सही ऊपर हों, तो कम से कम उतने तो तुम ऊपर सरकोगे! उतने तो ऊपर चढ़ोगे! उतना तो ऊर्ध्वगमन होगा!
पलटू कहते हैं: प्रेम ही करना हो, तो विराट से करो, ताकि तुम विराट हो जाओ। भक्ति जागीर लै। प्रेम करना हो तो परमात्मा से करो। परमात्मा से प्रेम करते-करते-करते एक दिन भक्त भगवान हो जाता है। उस प्रेम की रसायन यही है कि तुम जिससे करते हो, उसी जैसे हो जाते हो। इसलिए प्रेमपात्र बहुत सोच कर चुनना।
तुमने यह अक्सर देखा होगा और शायद तुम सोच में भी पड़े होओगे: पति-पत्नी साथ रहते-रहते जीवन के आखिर-आखिर में करीब-करीब एक जैसे हो जाते हैं। उनका व्यवहार एक जैसा हो जाता है। उनका बोलचाल एक जैसा हो जाता है। उनके ढंग एक जैसे हो जाते हैं। उनकी मुख-मुद्राएं एक जैसी हो जाती हैं। एक-दूसरे के साथ रहते, एक-दूसरे को प्रेम करते-करते-करते, एक-दूसरे की अनुकृति करते-करते, एक-दूसरे का अनुसरण होते-होते--दोनों बिलकुल एक जैसे हो जाते हैं। पति-पत्नी जीवन के अंत तक करीब-करीब भाई-बहन जैसे हो जाते हैं। उनके चेहरे एक-दूसरे से मिलने लगते हैं। उनकी आंखें एक-दूसरे से मिलने लगती हैं। उनका ढंग-व्यवहार मिलने लगता है। ऐसा क्यों हो जाता है? यह प्रेम का रसायन है।
सोच कर प्रेम करना। बहुत सोच कर प्रेम करना। बहुत मंथन से प्रेम करना। बहुत मननपूर्वक करना। बहुत ध्यान देना इस बात पर। क्योंकि तुम्हारा प्रेमपात्र अंततः तुम्हारे जीवन का निर्णायक हो जाएगा; तुम्हारी नियति बन जाएगा।
राज तन में करै, भक्ति जागीर लै,
ज्ञान से लड़ै रजपूत सोई।
छमा-तलवार से जगत को बसि करै
प्रेम की जुज्झ मैदान होई।।
इस सारे जगत में एक ही युद्ध चल रहा है: छोटे प्रेम का बड़े प्रेम से। फिर उस बड़े प्रेम का और बड़े प्रेम से। फिर उस और बड़े प्रेम का और बड़े प्रेम से। अंततः संसार और परमात्मा का युद्ध है। अंततः राम और रावण के बीच चुनाव है। यह महाभारत है।
धन से प्रेम करते हो? पागल न बनो! प्रेम ही करना हो तो ध्यान से करो। धन यानी रावण। ध्यान यानी राम। पदार्थ से प्रेम करते हो? प्रेम ही करना है तो चैतन्य से करो। पदार्थ यानी रावण। चैतन्य यानी राम। जो दिखाई पड़ता है, उससे प्रेम करते हो? तो संसार के पार कैसे जाओगे? जो नहीं दिखाई पड़ता, उससे प्रेम करो। अदृश्य के साथ थोड़े संबंध बांधो। दृश्य यानी रावण। अदृश्य यानी राम। धीरे-धीरे दृश्य से अदृश्य की तरफ हटो; ज्ञात से अज्ञात की तरफ; क्षुद्र से विराट की तरफ। धीरे-धीरे तुम पाओगे, तुम्हारे जीवन में अपूर्व शांति का राज्य उतरने लगा। जितना बड़ा प्रेमी खोज लोगे, उतने ही बड़े तुम हो जाओगे।
सुख के साथी मिले हजारों ही, लेकिन
दुख में साथ निभाने वाला नहीं मिला
जब तक रही बाहर उमर की बगिया में
जो भी आया द्वार चांद लेकर आया
पर जिस दिन झर गई गुलाबों की पंखुरी
मेरा आंसू मुझ तक आते शरमाया
जिसने चाहा, मेरे फूलों को चाहा
नहीं किसी ने लेकिन शूलों को चाहा
मेला साथ दिखाने वाले मिले बहुत
सूनापन बहलाने वाला नहीं मिला।
सुख के साथी मिले हजारों ही, लेकिन
दुख में साथ निभाने वाला नहीं मिला।
कोई रंग-बिरंगे कपड़ों पर रीझा
मोहा कोई मुखड़े की गोराई से
लुभा किसी को गई कंठ की कोयलिया
उलझा कोई केशों की घुंघराई से
जिसने देखी, बस मेरी डोली देखी
नहीं किसी ने पर दुल्हन भोली देखी
तन के तीर तैरने वाले मिले सभी |
मन के घाट नहाने वाला नहीं मिला।
सुख के साथी मिले हजारों ही, लेकिन
लेकिन दुख में साथ निभाने वाला नहीं मिला।
मैं जिस दिन सोकर जागा, मैंने देखा
मेरे चारों ओर ठगों का जमघट है
एक इधर से एक उधर से लूट रहा
छिन-छिन रीत रहा मेरा जीवन-घट है
सबकी आंख लगी थी गठरी पर मेरी
और मची थी आपस में मेरा-तेरी
जितने मिले, सभी बस धन के चोर मिले
लेकिन हृदय चुराने वाला नहीं मिला।
सुख के साथी मिले हजारों ही, लेकिन
दुख में साथ निभाने वाला नहीं मिला।
रूठी सुबह डिठौना मेरा छुड़ा गई,
गई ले गई, तरुणायी सब दोपहरी
हंसी खुशी सूरज चंदा के बांट पड़ी,
मेरे हाथ रही केवल रजनी गहरी,
आकर जो लौटा कुछ लेकर ही लौटा
छोटा और हो गया यह जीवन छोटा,
चीर घटाने वाले ही सब मिले यहां,
घटता चीर बढ़ाने वाला नहीं मिला
सुख के साथी मिले हजारों ही लेकिन
दुख में साथ निभाने वाला नहीं मिला।
उस दिन जुगनू एक अंधेरी बस्ती में
भटक रहा था इधर-उधर भरमाया सा
आस-पास था अंतहीन बस अंधियारा
केवल था सिर पर निज लौ का साया सा,
मैंने पूछा: तेरी नींद कहां खोई?
वह चुप रहा, मगर उसकी ज्वाला रोई
नींद चुराने वाले ही तो मिले यहां
कोई गोद सुलाने वाला नहीं मिला।
सुख के साथी मिले हजारों ही, लेकिन
दुख में साथ निभाने वाला नहीं मिला।
इस जगत में तुमने बहुत प्रेम किए; बहुत मैत्रियां बांधीं। अब उनका थोड़ा अवलोकन करो, निरीक्षण करो। अब थोड़ा उन पर पुनर्विचार करो। अब कुछ निष्पत्तियां निकालो। सबने तुम्हारे सुख में साथ बंटाने की चेष्टा की, लेकिन तुम्हारे दुख में कौन साथ बंटाने आया! सबने तुम्हारे जीवन में दोस्ती बांधी; तुम मरे तो कौन तुम्हारे साथ मरा।
यह प्रेम, जिसे हम ‘प्रेम’ की तरह जानते हैं, एक-दूसरे का शोषण है। केवल परमात्मा ही सदा साथ हो सकता है; और कोई सदा साथ हो नहीं सकता। और जिसका सदा साथ मिल सके, वही साथ करने योग्य है। वही जागीर है, जिसे मौत भी न छीन सकेगी। मौत के क्षण में भी जो तुम्हारे साथ होगा, उस परम दुख के क्षण में भी जो तुम्हारे साथ होगा, वही जागीर है।
लोभ औ मोह हंकार दम मारिकै
काम और क्रोध ना बचै कोई।
दास पलटू कहै तिलकधारी सोई,
उदित तिहूं लोक रजपूत सोई।।
जैसे ही यह भक्ति की जागीर किसी को मिल जाती है...और सबको मिल सकती है। यह सबका स्वरूप-सिद्ध अधिकार है। न पाओ तो इतना ही अर्थ हुआ कि तुमने मांगी नहीं। न पाओ तो इतना ही अर्थ हुआ कि तुमने चाही नहीं। मिल सकती थी। हाथ बढ़ाने की बात थी, तुमने हाथ भी न बढ़ाया। यह जागीर मिल जाए तो तन पर राज आ जाता है; ज्ञान की अपरंपार ज्योति जलने लगती है; जीवन में क्षमा का चारों ओर उजियारा फैल जाता है और प्रेम के युद्ध में जीत हो गई। यह जागीर मिली तो प्रेम के युद्ध में जीत हो गई। इस जीत के साथ ही लोभ चले जाते हैं; मोह चला जाता है; अहंकार चला जाता है।
लोभ, मोह, अहंकार सब अंधेरी दुनिया के हिस्से हैं; जैसे ही रोशनी प्रेम की हुई, ये सब मिट जाते हैं।
काम औ क्रोध ना बचै कोई।
दास पलटू कहै तिलकधारी सोई,
खूब प्यारा मजाक किया है पलटू ने! पलटू कहते हैं: तुम तिलक लगाते फिरते हो; घिस-घिस कर चंदन-तिलक लगाते हो। इसको तिलक धारण करना नहीं कहेंगे। जिसके भीतर तन पर मालकियत आ जाए, मन पर मालकियत आ जाए, वही तिलकधारी। और तिलकधारी प्रतीक भी बड़ा प्यारा है। क्योंकि वस्तुतः जैसे ही तुम्हारे भीतर जागरण जगता है, तुम्हारा तीसरा नेत्र खुलता है। तुम्हारी दो आंखों के मध्य में एक ज्योति सतत जलने लगती है, वही तिलक है। भीतर है तिलक। ऐसे बाहर से चंदन का टीका लगाने से तिलक नहीं होता।
आदमी नकलची है। हमने तिलकधारी देखे हैं--कोई कबीर, कोई पलटू, कोई दादू। हमने उनकी तीसरी आंख को जलते देखा। हमने उनकी तीसरी आंख को रोशन होते देखा; हीरे की तरह चमकते देखा। हमको लगा: हम भी कुछ करें। हमने एक तिलक लगा लिया उसी जगह पर; जैसे कि तिलक लगाने से बात हल हो जाएगी।
चंदन का तिलक भी बहुत सोच कर चुना गया। चंदन शीतल है और जिसके भीतर का तीसरा नेत्र जग जाता है, उसके जीवन में परम शीतलता हो जाती है। चंदन अपूर्व सुगंध से भरा है; वैसी सुगंध और किसी चीज की नहीं। चंदन की सुगंध ऐसी है कि सांप भी अपने विष को भूल जाता है। और चंदन की सुगंध ऐसी है कि सांप लिपटे रहते हैं, भुजंग लिपटे रहते हैं चंदन पर, तो भी उनके जहर से चंदन विकृत नहीं होता। चंदन की सुगंध से वे ही सज्जन हो जाते हैं।
तो जिसके भीतर चंदन जैसी सुगंध आई और जिसके भीतर चंदन जैसी शीतलता आई और जिसके भीतर...‘भीतर’ चंदन का तिलक लगा, उसको ही तिलकधारी कहते हैं। अब ऊपर से तुम कितने ही तिलक लगाते रहो, आड़े, तिरछे, जैसे तुम्हें बनाने हों--यह सब पाखंड है; यह सब धोखा है। भीतर का तिलक खोजो।
दास पलटू कहै तिलकधारी सोई,
जिसे राम की जागीर मिली...और जागीर मिलती है तीसरे नेत्र से। इसलिए उसको आज्ञा-केंद्र कहा है, आज्ञा-चक्र कहा है। क्योंकि तीसरे नेत्र पर जो आ गया, उसकी आज्ञा चलने लगती है अपने तन-मन पर। इसलिए उसे आज्ञा-चक्र कहा है। उस बिंदु से आदमी मालिक हो जाता है। फिर थोड़ी ही दूरी रही परमात्मा होने में। बस एक कदम और। यह छठवां चक्र है। सातवां चक्र है सहस्रार। आज्ञा चलने लगी शरीर पर, मन पर--मालकियत आ गई; स्वामी हो गया व्यक्ति। यह संन्यासी की दशा है। इसलिए हम संन्यासी को स्वामी कहते हैं। ऐसी दशा भीतर आ जाए, ऐसा तिलक भीतर लग जाए, तो ठीक-ठीक संन्यासी हुए। फिर एक ही कदम और बचा, आखिरी कदम और बचा। अभी भक्त रहेगा। अभी भक्त बड़ा मालिक हो जाएगा, बड़ा मस्त हो जाएगा; मगर भक्त रहेगा। अब आखिरी कदम आता है और आदमी छठवें केंद्र से सातवें केंद्र में प्रवेश करता है। वहां तो खो जाता है; जैसे नदी सागर में खो जाती है। वहां भक्त नहीं बचता; भगवान ही बचता है।
इसलिए दो तरह की गणनाएं हैं इस देश में। कुछ ने सात चक्र गिने हैं; सहस्रार को भी एक चक्र गिना है। कुछ ने छह ही चक्र गिने हैं; उन्होंने सहस्रार को आदमी में नहीं गिना; उसको आदमी के बाहर गिना है। इसलिए उसको आदमी में क्या गिनना! छठवें तक आदमी रहता है, सातवें में तो आदमी रह नहीं जाता। इसलिए तुम्हें अनेक किताबों में छह चक्रों का वर्णन मिलेगा, तो हैरान मत होना। उन्होंने सातवें को इस कारण छोड़ दिया कि सातवें में तुम तो बचोगे ही नहीं। वह तुम्हारा चक्र कैसा! तुम तो छठवें तक रहोगे। छठवें के पार जैसे ही तुम सप्तम में गए--गए! तुम न रहे, परमात्मा रहा। इसको पलटू कहते हैं: तिलकधारी।
दास पलटू कहै तिलकधारी सोई,
और तिलकधारी का एक अर्थ राजा भी होता है--जिसका तिलक हो गया; राज-सिंहासन पर जो बैठ गया; जो राजा हो गया।
स्वामी रामतीर्थ अपने को बादशाह कहते थे--इसी अर्थ में कहते थे--तिलकधारी। पास कुछ भी नहीं। सम्राट हो गए।
बुद्ध का जन्म हुआ। बड़े-बड़े ज्योतिषी इकट्ठे हुए। सभी ज्योतिषियों ने--जब बुद्ध के पिता ने पूछा, कि इसके संबंध में कोई विशेष बात, इस बेटे के संबंध में कोई विशेष बात? तो सबने दो-दो अंगुलियां उठाईं। बुद्ध के पिता ने पूछा: मैं समझा नहीं, इशारा क्यों करते हो? बोलते क्यों नहीं? तो उन्होंने कहा: हम थोड़े शंकित होते हैं, इसलिए नहीं बोलते। दो संभावनाएं हैं। पक्का कुछ कहा नहीं जा सकता। या तो यह चक्रवर्ती सम्राट होगा, या परम संन्यासी होगा। या तो यह सब छोड़ कर परम संन्यासी हो जाएगा और या यह सारे जगत में राज्य करेगा। छहों महाद्वीप पर राजा बनेगा; चक्रवर्ती होगा। इसलिए हम दो अंगुली उठाते हैं।
लेकिन एक युवक ज्योतिषी बिना हाथ उठाए बैठा रहा। वह अकेला था। बुद्ध के पिता ने पूछा: आपने कुछ इशारा नहीं किया? उसने एक ही अंगुली उठाई। बुद्ध के पिता ने पूछा: आपका भिन्न मत है इन सबसे? उसने कहा कि नहीं, मेरा भिन्न मत नहीं है; क्योंकि जब कोई परम संन्यासी होता है, तभी चक्रवर्ती होता है। यह बड़ी प्यारी बात उसने कही। उसने कहा: मैं एक ही अंगुली उठाता हूं। यह परम चक्रवर्ती भी होगा और परम संन्यासी भी--दोनों। मगर यह एक ही साथ घटती है बात। सारे जगत का राजा वही है, महाराजा वही है--जिसकी कोई चाह न रही। चाह रही तो भिखमंगा।
वह युवा ज्योतिषी जरूर सिर्फ ज्योतिषी ही नहीं था--बड़ी आत्मिक अनुभूति उसे हुई होगी, रही होगी। उसने बड़ी ठीक-ठीक बात कही, कि यह बेटा तुम्हारा महासंन्यासी तो होगा ही और महासंन्यासी होकर ही चक्रवर्ती होगा। ये दो बातें नहीं हैं; या का कोई सवाल ही नहीं। क्योंकि दुनिया में तभी कोई चक्रवर्ती होता है, जब कोई सब छोड़ देता है; जब जिसकी कोई पकड़ नहीं रह जाती।
तो इस अर्थ में भी हम दास पलटू की बात समझें: दास पलटू कहै तिलकधारी सोई! चक्रवर्ती सम्राट हो गया।
उदित तिहुं लोक रजपूत सोई,
और ऐसे व्यक्ति का तीनों लोकों में प्रकाश हो जाता है। ऐसे व्यक्ति का सर्वलोकों में प्रकाश हो जाता है। यहां पृथ्वी पर ही प्रकाश नहीं होता; नरक के गहनतम अंधेरे में भी इस आदमी की रोशनी पहुंचती है और स्वर्ग की ऊंचाइयों पर भी इसकी रोशनी पहुंचती है। जगत में ऐसा कोई भी कोना नहीं जहां इसकी रोशनी नहीं पहुंचती। जहां भी आंख है, जहां भी कोई देखने में सक्षम है, वहां इसकी रोशनी पहुंचती है। और जहां भी कोई सुनने में सक्षम है, वहां इसकी वाणी पहुंच जाती है। तीनों लोकों से व्यक्ति इसकी तरफ खिंचने शुरू हो जाते हैं।
हमारे पास अनूठी कहानियां हैं। अब तो कहानियां ही रह गई हैं, क्योंकि आज के आदमी को उन पर भरोसा आना कठिन हो गया है। जब महावीर को ज्ञान हुआ, तो तत्क्षण देवता इकट्ठे हो गए। सारा स्वर्ग उतर आया सुनने के लिए। बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तब भी ऐसा ही हुआ। महावीर की जो देशनाएं हैं, उनकी देशना की जो कथाएं हैं--वह बड़ी अपूर्व हैं। उनमें कहा जाता है: पशु-पक्षी मौजूद थे; भूत-प्रेत मौजूद थे; देवी-देवता मौजूद थे; मनुष्य मौजूद थे; सब मौजूद थे; तीनों लोकों से चेतनाएं आ गई थीं। और महावीर चुप रहे। महावीर बोले नहीं। क्योंकि अब बोलें किसकी भाषा में? पशु एक भाषा समझते हैं; आदमी दूसरी भाषा समझते हैं; भूत-प्रेत तीसरी भाषा समझते हैं; देवता कोई और भाषा समझते हैं। अब किस भाषा में बोलें? महावीर चुप रहे। क्योंकि मौन ही एकमात्र भाषा है, जो सब समझते हैं।
इसलिए एक अपूर्व कथा है महावीर के संबंध में, कि महावीर बोले नहीं। फिर जो महावीर के वचन हैं, वे कैसे आए? वे व्याख्याएं हैं। वह तो जिन्होंने महावीर के मौन को समझा, उन्होंने उनको समझाया जो महावीर का मौन नहीं समझ सकते थे। इसलिए महावीर के गणधर बोले। महावीर तो चुप रहे। महावीर चुप रहे। जिन्होंने महावीर को समझा, जैसे गौतम गणधर, महावीर का शिष्य, वह महावीर के मौन को समझा। उसने फिर लोगों को समझाया। वह महावीर के मौन को पकड़ लिया; फिर उसने उस मौन को लोगों की भाषा में उतारा।
इसलिए तुम चकित होओगे जान कर, कि जैनों के दो पंथ हैं: दिगंबर और श्वेतांबर। दिगंबर के पास महावीर के कोई सूत्र नहीं हैं। क्योंकि वे कहते हैं: महावीर बोले नहीं, चुप रहे। इसलिए उनका कोई शास्त्र नहीं है। श्वेतांबरों के पास उनके सूत्र हैं; क्योंकि उन्होंने, जो गणधरों ने कहा, जो महावीर के व्याख्याकारों ने कहा, उसे संगृहीत किया।
दोनों बातें सच हैं। गणधर लाख उपाय करें, बात वही की वही तो नहीं रह जाएगी जो महावीर ने कही थी। मैं यहां तुमसे कुछ कहता हूं, तुम जाकर अपने घर अपने बच्चों को समझाओगे--फर्क हो जाएगा। हो ही जाने वाला है। कुछ तुम उसमें मिल ही जाओगे।
इसलिए दिगंबर बड़े शुद्धिवादी हैं। वे कहते हैं: हम ये वचन न इकट्ठे करेंगे। अगर हमें महावीर को सुनना है तो हम मौन ही होना सीखेंगे और मौन होकर ही समझेंगे; और दूसरा बीच में हम उपाय न लेंगे; किसी मध्यस्थ को स्वीकार न करेंगे। यह बात भी महत्वपूर्ण है। लेकिन आदमी कमजोर है। सभी तो मौन नहीं हो सकते। यह भी हम मान लें कि गणधरों ने जो कहा, उसमें कुछ उनके भाव भी मिश्रित हो गए होंगे, तो भी गणधर हमसे तो पार ही हैं; कुछ तो ऊंचे हैं। हमें कुछ तो पार ले जाएंगे। कम से कम महावीर का मौन तो समझ सके; हम तो नहीं समझ सकते हैं महावीर का मौन। चलो जितने दूर गणधर ले जा सकते हैं, इनके साथ चल लेंगे; फिर जितने आगे अपने जाना है, खुद चले जाएंगे। जितनी यात्रा भी संग-साथ हो सके, उतनी भी ठीक।
श्वेतांबरों ने थोड़ा समझौता किया है आदमी की कमजोरी से। दिगंबरों ने समझौता नहीं किया आदमी की कमजोरी से। इसलिए श्वेतांबरों ने सफेद वस्त्र भी पहनने शुरू कर दिए--आदमी की कमजोरी! नग्न संन्यासी समाज के लिए जरा कठिन है। लेकिन दिगंबरों ने समझौता नहीं किया। संन्यासी उनके कम होते गए, होते गए; आज उनके केवल बाइस मुनि हैं पूरे देश में। अब बाइस कोई संख्या है? और जब एक मुनि मर जाता है, तो बस एक संख्या कम हो गई; फिर उसको भरने के लिए दूसरा मुनि नहीं हो पाता। नग्न रहना! किसी तरह की वस्तु का कोई परिग्रह नहीं! सोने के लिए बिछौना भी नहीं--घास या फर्श! फिर सर्दी भी है, गरमी भी है। कंबल भी ओढ़ नहीं सकते। आग भी नहीं जला सकते। हिंदू संन्यासी को तो सुविधा है; वह आग जला कर बैठ जाता है। नंगा भी रहा तो कोई चिंता नहीं; आग तो जला लेता है। जैन मुनि आग भी नहीं जला सकता, क्योंकि आग के जलाने में हिंसा होती है। कठिन होता गया।
दिगंबरों ने कोई समझौता नहीं किया। वह बात भी महत्वपूर्ण है। समझौते की बात में भी अर्थ है। लेकिन जिस व्यक्ति को ज्ञान उत्पन्न होता है, उसकी वाणी तीनों लोक तक पहुंच जाती है; बिना पहुंचाए पहुंच जाती है। जो भी, जहां भी, जिस योनि में भी, उसे सुनने के लिए उत्सुक हो जाता है, वही खिंचा चला आता है। एक अदम्य आकर्षण, जैसे एक चुंबक का जन्म होता है! और जो भी प्यासे हैं, वे खिंचे चले आते हैं। कौन खींच रहा है? क्यों खींच रहा है? क्यों चल पड़े हैं, यह भी ठीक-ठीक पता नहीं होता।
उदित तिहुं लोक रजपूत सोई,

गाय-बजाय के काल को काटना,
और की सुनै कछु आप कहना।
हंसना-खेलना बात मीठी कहै,
सकल संसार को बस्सि करना।।
खाइये-पीजिये मिलैं सो पहिरिए,
संग्रह औ त्याग में नाहिं परना।
बोलु हरिभजन को मगन ह्वै प्रेम से
चुप्प जब रहौ, तब ध्यान धरना।।
एक-एक शब्द बहुमूल्य है। हीरों में तौला जाए, ऐसा है।
गाय-बजाय के काल को काटना,
यह जो समय थोड़ा सा मिला है, इसे ऐसे उदास बैठे-बैठे मत बिताओ। गाय-बजाय के...। नाचो, गुनगुनाओ, मस्त होओ। इस जीवन को ऐसे रोते-रोते उदास लंबे चेहरों से मत बिताओ।
संतों का धर्म नृत्य करता हुआ धर्म है। तुम्हारे तथाकथित महात्माओं का धर्म उदास और रुग्ण और बीमार धर्म है।
गाय-बजाय के काल को काटना,
और की सुनै कछु आप कहना।
और विवाद में नहीं पड़ना। दूसरे की भी सुनना; कुछ कहने योग्य लगे तो कहना। संवाद करना, मगर विवाद में मत पड़ना। असल में जो आदमी जीवन को गा-बजा कर बिताना चाहता है, वह विवाद में पड़ेगा भी क्यों! शास्त्रार्थ का कोई सवाल नहीं है। जहां दो प्रेमी मिल बैठें, कुछ उनकी सुन लेना, कुछ अपनी कह देना, कुछ प्रभु-चर्चा कर लेना। लेकिन विवाद में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है।
गाय-बजाय के काल को काटना,
और की सुनै कछु आप कहना।
अगर तुम्हारे भीतर कुछ उमगे, कोई फूल खिले, तो बांट लेना सुगंध। और कोई दूसरा बांटने आए, उसके भीतर उठे हुए रस की थोड़ी धार तुम्हारे तरफ बह आए, तो स्वीकार कर लेना। संवाद करना।
भक्तों का आधारभूत नियम है: सत्संग। जहां दो भक्त मिल बैठें, चार दीवाने मिलें, वहां थोड़ी बात हो प्रभु की। और गाय-बजाय के हो। ऐसी कोरी-कोरी तार्किक न हो; सैद्धांतिक न हो, शास्त्रीय न हो। रसधार बहे। मस्ती की हो। नाचती, गीत गाती हुई हो। वसंत की धुन हो उसमें। पतझड़ की, विवाद की, तर्क की--दुर्गंध न हो।
गाय-बजाय के काल को काटना,
और की सुनै कछु आप कहना।
हंसना-खेलना बात मीठी कहै,
सकल संसार को बस्सि करना।।
और ऐसे अपने आप ही संसार वश में हो जाता है--‘हंसना-खेलना बात मीठी कहै।’ समझते हो हंसना-खेलना? धर्म को लोगों ने बड़ा गंभीर बना रखा है। वे समझते हैं धर्म बड़ी गंभीर बात है। धर्म को हंसना-खेलना बनाओ। नाच-गान बनाओ। उत्सव बनाओ। धर्म को रुग्ण मत बनाओ। धर्म का उदासी से कोई संबंध नहीं है। धर्म कोई अस्पताल नहीं है। हंसना-खेलना!
परमात्मा सब तरफ छाया है। भीतर भी वही है, बाहर भी वही है। जहां देखो, वही-वही है। सब तरफ उसका नूर है, उसकी रोशनी है। यहां कैसी उदासी है? यहां कैसे गंभीर बने बैठे हो? थिरकने दो पैरों को, पड़ने दो थाप तबलों पर! मृदंग बजने दो। नाचो, गाओ, गुनगुनाओ।
खाइए-पीजिए मिलैं सो पहरिए,
यह सूत्र मैं अपने संन्यासियों को कहता हूं: खूब गांठ बांध लेना।
खाइए-पीजिए मिलै सो पहिरिए,
जो मिल जाए, पहन लेना। जो खाने को मिल जाए, खा लेना। जो पीने को मिल जाए, पी लेना। परम धन्यवाद से! आनंदभाव से! अहोभाव से!
संग्रह औ त्याग में नाहिं परना।
यह है क्रांति का सूत्र: संग्रह और त्याग में नहीं परना! तुम्हारे तथाकथित महात्मा कहते हैं: संग्रह तो छोड़ो, त्याग करो। असली ज्ञानी कहते हैं: न संग्रह में पड़ना और न त्याग में पड़ना। दोनों बातें मूढ़तापूर्ण हैं। कुछ रुपये इकट्ठे करने में पड़े हैं, कुछ रुपये छोड़ने में पड़े हैं; मगर दोनों की नजर रुपये पर लगी है। मिल जाए रुपया, उपयोग कर लेना, मजा कर लेना। हंस लेना, गा लेना। न मिले भजन गा कर सो जाना। लेकिन संग्रह में और त्याग में मत पड़ना। पकड़ और छोड़ क्या! दे प्रभु तो ठीक, न दे तो ठीक। न दे तो उसकी मर्जी, दे तो उसकी मर्जी।
यह भक्त की परम दशा है। परमात्मा जो देता है, वह स्वीकार करता है। वह कहता है: राजा बनाते हो, तो राजा बने जाते हैं। वह कहता है: भिखारी बनाते हो, तो भिखारी बने जाते हैं। न अपनी जिद्द है राजा बनने की, न अपनी जिद्द है भिखारी बनने की। अपनी कुछ बनने की जिद्द ही नहीं है। जो तुम्हारी मर्जी हो!
ऐसा ही समझो कि तुम एक नाटक में भाग लेने गए, अब तुम यह थोड़े ही कहते हो कि हम रामचंद्र जी ही बनेंगे। नाटक का मैनेजर कहता कि आप बड़े सुंदर लगते हो, रावण बिलकुल जंचोगे। यह आपकी देह, यह ढंग--यह बिलकुल रावण के मौजू पड़ेगा। तो आप यह थोड़े ही कहते हो कि मैं, और रावण बनूंगा! रावण किसी और को बनाना, मैं तो राम बनने की जिद्द किए हूं। मैं भला आदमी, झूठ नहीं बोलता, चोरी नहीं करता, मैं बेईमानी नही करता--मैं रावण बनूंगा! तुमने समझा क्या है? अदालत में ले जाऊंगा, मान-हानि का दावा करूंगा। तुमने यह बात ही क्यों कही है?
नहीं; तुम तैयार हो जाते हो। तुम रावण का पार्ट करने को भी तैयार हो जाते हो; बड़े मजे से पार्ट करते हो। क्यों? क्योंकि तुम जानते हो कि यह तो खेल है। इसमें क्या पकड़ना, क्या छोड़ना! इसमें गरीब बनना पड़े तो गरीब बन जाते हो, इसमें अमीर बनना पड़े तो अमीर बन जाते हो। न तो अमीर बनने से अमीर बनते हो, न गरीब बनने से गरीब बनते हो; क्योंकि यह तो खेल है।
गाय-बजाय के काल को काटना,
और की सुनै कछु आप कहना।
हंसना-खेलना बात मीठी कहै,
सकल संसार को बस्सि करना।।
खाइए-पीजिए मिलैं सो पहिरिए
संग्रह औ त्याग में नाहिं परना।
बोलु हरिभजन को मगन ह्वै प्रेम से
चुप्प जब रहौ तब ध्यान धरना।।
और दो बातें कहते हैं कि जब चुप रहने का मन हो तो ध्यान धर लेना और जब कुछ कहने का मन हो तो हरिभजन कर लेना। बोलना तो हरिभजन। कहना ही हो तो प्रभु की चर्चा करना। जब बोलो ही, शब्द का ही रस आता हो, तो शब्द को परमात्मा के चरणों में चढ़ा देना। भक्ति-भाव, भजन! और जब चुप रहने का मजा आता हो, तो फिर चुप्पी साध जाना, फिर चुप रह जाना, ध्यान धर लेना। ध्यान--जब अकेले रहो। और भक्ति--जब दो प्यारे मिल बैठें। ध्यान अपने लिए; प्रेम सारे जगत के लिए।
सुंदरी पिया की पिया को खोजती,
भई बेहोश तू पिया कै कै।
बहुत-सी पदमिनी खोजती मरि गई,
रटत ही पिया पिया एक एकै।।
सती सब होति हैं जरत बिनु आगि से,
कठिन कठोर वह नाहिं झांकै।
दास पलटू कहै सीस उतारि कै
सीस पर नाचुं जो पिया ताकै।।
बड़ा प्यारा वचन!
सुंदरी पिया की पिया को खोजती,
भई बेहोश तू पिया कै कै।
पिया कह-कह कर, ‘पिया-पिया’ को पुकार-पुकार कर, जैसे पपीहा पुकारता रहता है पिया-पिया, ऐसे पिया-पिया को पुकार-पुकार कर भक्त डूब जाता है मस्ती में। इसी पुकार में एक तरह की मदिरा पैदा होती है।
यह प्रयोग करने जैसा है। कभी मस्ती से डूब कर पुकारो। और तुम थोड़ी देर में पाओगे: आंखों में नशा छाने लगा। तुमने पुकारा ही नहीं, इसलिए तुम्हें पता नहीं कि यह भी एक शराब ढाल लेने का ढंग है--और बड़ी प्यारी शराब! चढ़ जाए तो धन्यभागी! और चढ़े एक बार तो फिर उतरती नहीं। और जिसने पी ली, फिर दुनिया की और कोई चीज उसे जंचती नहीं। आखिरी चीज मिल गई, कोहिनूर मिल गया, अब कंकड़-पत्थर थोड़े ही जंचेंगे।
सुंदरी पिया की पिया को खोजती,
भई बेहोश तू पिया कै कै।
बार-बार दोहराते-दोहराते-दोहराते आदमी बेहोश हो गया। यह सीधी सी विधि है कि अगर तुम बैठो, डोलो और राम-राम या अल्लाह-अल्लाह तुम दोहराओ, तुम थोड़ी देर में समझोगे, थोड़ी देर में तुम्हें समझ में आने लगेगा: जैसे कोई भीतर शराब प्रविष्ट होने लगी! किसी अज्ञात लोक से कुछ मदमाती चीज उतरने लगी, कुछ मस्ती आने लगी। आंखें सुर्ख होने लगीं। हाथ-पैरों में एक नई ऊर्जा छाने लगी। घबड़ा मत जाना, क्योंकि लगेगा पहले तो ऐसा ही कि जैसे पागल होने लगे। अगर कहते ही चले गए, तो कहीं पैंतालीस मिनट के बाद तुम पाओगे कि मस्ती पूरी छा गई, अब तुम डूबे जा रहे हो। घबड़ाना मत। बहुत से बहुत बेहोश होकर गिरोगे, तो घड़ी दो घड़ी के बाद अपने आप होश में आ जाओगे। और यह बेहोशी ऐसी नहीं है कि तुम कुछ खोते हो। यह बेहोशी ऐसी है कि तुम अपने अंतर्तम में प्रविष्ट हो जाते हो।
सुंदरी पिया की पिया को खोजती,
भई बेहोश तू पिया कै-कै।
बहुत सी पदमिनी खोजती मरि गई,
रटत ही पिया पिया एक एकै।।
बहुत से प्यारे ऐसे ही रटते-रटते, रटते-रटते, खो ही नहीं गए, मर भी गए। लेकिन उसी मरने में तो परम जीवन की शुरुआत है। जहां भक्त मरता है, वहीं भगवान का जन्म है।
सती सब होति हैं जरत बिनु आगि से।
यह जो भक्तों का सती होना है, यह बड़ा अपूर्व है; इसमें बाहर से आग नहीं लगानी पड़ती, यहां भीतर से आग लग जाती है। यह जो जपन है, यह जो रटन है, यह जो पिया-पिया की पुकार है, यह जो अहर्निश भजन है...
सती सब होति हैं जरत बिनु आगि से।,
ये जो भक्त हैं, ये सब मर जाते हैं, सती हो जाते हैं उसी प्यारे के लिए। उसी के साथ दग्ध हो जाते हैं, एक हो जाते हैं; लीन हो जाते हैं--जैसे पतंगा आकर दीये की ज्योति पर मर जाता है। लेकिन बाहर की आग की जरूरत नहीं है; यह भीतर की विरह की अग्नि पर्याप्त है।
सती सब होति हैं जरत बिनु आगि से,
कठिन कठोर वह नाहिं झांकै।
यह भी सूत्र खयाल में रखने का है। परमात्मा इस बात की चिंता नहीं करता कि तुमने कितनी कठोर तपश्चर्या की है, कि तुमने कितनी कठिन तपश्चर्या की है। वे तो सब अहंकार के ही ढंग हैं। कोई कहता है: मैंने इतने उपवास किए। कोई कहता है कि मैं इतनी रात जागा। कोई कहता है: यह किया, वह किया। ये सब...परमात्मा इनकी तरफ झांकता भी नहीं। क्योंकि वे तो अभी अहंकार की ही घोषणाएं कर रहे हैं कि मैंने इतना किया, इतना धन त्यागा। ये तो बता रहे हैं कि मैंने कितनी कठोरता बरती अपने साथ; मैंने कितनी ज्यादतियां कीं, कितना तप किया।
सती सब होति हैं जरत बिनु आगि से,
कठिन कठोर वह नाहिं झांकै।
परमात्मा इनकी तरफ देखता भी नहीं, जो यह कठिन कठोर की बकवास लगाए हुए हैं।
दास पलटू कहै सीस उतारिकै
सीस पर नाचु जो पिया ताकै।
वह तो एक की ही तरफ देखता है, जो अपने प्रेम में इतना भर जाता है कि अपने अहंकार को काट देता है। यह तो कठिन-कठोर की बातें तो अहंकार की ही बाते हैं। मैंने कितना त्यागा, इसमें तो मैं यही बता रहा हूं कि मैं कितना बड़ा हूं। जो इस मैं को काट देता है, सीस को उतार कर रख देता है...। और रख ही नहीं देता सीस को उतार कर, क्योंकि तुम गंभीरता से भी रख सकते हो--तुम कहते हो कि चलो ठीक है, इससे ही होता हो तो उतार कर रख देते हैं। उदासी से भी नहीं।
दास पलटू कहै सीस उतारिकै
सीस पर नाचु जो पिया ताकै।
अपने ही सीस को नीचे उतार कर, अपने ही अहंकार को धूल में गिरा कर जो उस पर नाचता है--परमात्मा उसकी तरफ देखता है। और वह एक नजर काफी है। बस एक नजर काफी है। वह एक दृष्टि काफी है।
पूरब ठाकुरद्वारा पच्छिम मक्का बना,
हिंदू और तुरक दुइ ओर धाया।
और हिंदू और मुसलमान भाग रहे हैं--कोई पूरब, कोई पश्चिम। अरे उस नजर की तरफ भागो, जो एक नजर काफी है। और उस नजर के लिए कहीं भागने की जरूरत नहीं, सिर्फ सीस को काट कर जमीन पर रख दो। अहंकार को नीचे रख दो। धन का अहंकार न करो, न त्याग का अहंकार करो। और जिस क्षण तुम अहंकार को त्याग कर रख देते हो, प्रभु तुम्हारी तरफ ताकता है; प्रभु तुम्हें खोजना शुरू कर देता है।
पूरब ठाकुरद्वारा पच्छिम मक्का बना,
हिंदू और तुरक दुइ ओर धाया।
पूरब मूरति बनी पच्छिम में कबुर है,
हिंदू और तुरक सिर पटकि आया।।
सिर पटकने से कब्रों पर या मूर्तियों पर कुछ भी न होगा। सिर उतारने से कुछ होगा। और उतारने का मतलब यह भौतिक सिर नहीं; वह भीतर जो अहंकार अकड़ कर खड़ा है--असली सिर!
मूरति और कबुर ना बोलै ना खाय कछु,
हिंदू और तुरक तुम कहा पाया।
तुम्हें मिला क्या? हो आए मक्का, हो आए मदीना। चले हज को, हाजी हो गए! कोई चले काशी--चले कोई सब धामों की यात्रा को! और परमधाम तुम्हारे भीतर है।
मूरति और कबुर ना बोलै ना खाय कछु।
जा-जाकर भोग लगा रहे हो मूर्तियों को। न वे खाती हैं। इससे तो किसी भूखे को दे दिया होता, तो भी परमात्मा तक पहुंच जाता। कब्र तो कुछ बोलती भी नहीं है। इससे तो किसी जीवंत से दो बातें कर ली होतीं प्रेम की, तो परमात्मा तक स्वर पहुंच जाता, खबर पहुंच जाती।
मूरति और कबुर ना बोलै ना खाय कछु,
हिंदू और तुरक तुम कहा पाया।
तुम्हें मिला क्या?
दास पलटू कहै पाया तिन्ह आप में।
जिन्होंने भी कभी पाया है, अपने भीतर पाया है। न काशी में, न कैलाश में, न काबा में। जिन्होंने कभी पाया है--पाया तिन्ह आप में--उन्हें अपने भीतर मिला है।
मूए बैल ने कब घास खाया।
पलटू कहते हैं: मरा हुआ बैल कहीं घास खा सकता है!
मूए बैल ने कब घास खाया।
तुम मूर्तियों को घास खिला रहे हो! तुम कब्रों को घास खिला रहे हो। मरा हुआ बैल भी घास नहीं खाता; तुम पत्थरों को खिला रहे हो। और जिंदा परमात्मा चारों तरफ मौजूद है। और जिंदा परमात्मा बहुत भूखा है। बहूत अर्थों में भूखा है। कहीं भोजन के लिए भूखा है, कहीं वस्त्रों के लिए भूखा है, कहीं प्रेम के लिए भूखा है। चारों तरफ परमात्मा भूखा है। जो तुम कर सको, वह इस परमात्मा के लिए करो।
और, असली बात और आखिरी बात तो तुम्हें भीतर करनी है, कि तुम अपनी गर्दन उतार दो। सीस को काट कर भूमि पर रख दो। और इतने से ही नहीं होगा; फिर उस पर नाचो भी।
हंसना-खेलना गाय-बजाय के काल को काटना।
सीस पर नाचु जो पिया ताकै।
तुम जरा नाचो तो अपने अहंकार को छोड़ कर! तत्क्षण प्यारे की आंख तुम्हारी तरफ पड़ने लगती है। प्यारे की आंख तो पड़ ही रही थी; मगर तुम अंधे थे अहंकार से, इसलिए दिखाई न पड़ती थी। प्यारा तो तुम्हें देख ही रहा था, हजार-हजार आंखों से तुम्हें खोज ही रहा था; मगर तुम अंधे थे, क्योंकि तुम्हारा अहंकार तुम्हारी आंखों को बंद किए हुए था। जरा अहंकार उतार कर नाचो।
मगर खयाल रखना दो बातों का। एक तो अहंकार न बने--संग्रह का अहंकार, त्याग का अहंकार; संसार का अहंकार, संन्यास का अहंकार। अहंकार न बने--एक। दूसरा--सिर्फ अहंकार न बने, इतना आधा हुआ; अब नृत्य भी उठे, गान भी उठे, उत्सव भी उठे।
देखते नहीं परमात्मा चारों तरफ कितने उत्सव में है--चांद-तारों में, वृक्षों में, पक्षियों में! आदमी को छोड़ कर तुम्हें कहीं उदासी दिखाई पड़ती है? आदमी को छोड़ कर तुम्हें कहीं भी पाप दिखाई पड़ता है। आदमी को छोड़ कर कहीं तुम्हें चिंता दिखाई पड़ती है? सब तरफ उत्सव चल रहा है अहर्निश। सब तरफ नृत्य है, गान है। इस विराट आनंद के महोत्सव में तुम अलग-थलग खड़े, दूर-दूर अपने अहंकार में अकड़े और जकड़े हो।
उतारो इस अहंकार को, सम्मिलित हो जाओ इस नाच में! नाचो चांद-तारों के साथ! उसी नृत्य में तुम पाओगे कि परमात्मा की आंख तुम पर पड़ने लगी।
प्रभु से मिलने का निकटतम मार्ग है: नृत्य। निकटतम मार्ग है: आनंद।
लोग सोचते हैं: प्रभु को मिलने से आनंद मिलेगा, ठीक सोचते हैं। मगर दूसरी बात भी इतना ही सच है: आनंद से प्रभु मिलता है। ये दोनों बातें जुड़ी हैं। आनंद से प्रभु मिलता है; प्रभु से और आनंद मिलता है। और जब और आनंद मिलता है तो और प्रभु मिलता है। और, और प्रभु मिलता है तो और आनंद मिलता है। ये दोनों एक-दूसरे से जुड़े हैं।
जब तुम उसे पुकारो तो उदास, दुखी और चिंतित और परेशान मत पुकारना। नहीं तो तुमने हजार तो बाधाएं खड़ी कर दीं; वह सुन कैसे पाएगा? उसे आती है भाषा उत्सव की; उदासी की नहीं। पलटू उत्सव के पक्षपाती हैं। जिन्होंने जाना है, वे सभी उत्सव के पक्षपाती हैं। परमात्मा परमभोग है।
इन वचनों को फिर से दोहरा दूं:
राज तन में करै, भक्ति जागीर लै,
ज्ञान से लड़ै रजपूत सोई।
छमा-तलवार से जगत को बसि करै,
प्रेम की जुज्झ मैदान होई।।
लोभ और मोह हंकार दल मारिकै,
काम और क्रोध ना बचै कोई।
दास पलटू कहै तिलकधारी सोई,
उदित तिहुं लोक रजपूत सोई।।

गाय-बजाय के काल को काटना,
और की सुनै कछु आप कहना।
हंसना-खेलना बात मीठी कहै,
सकल संसार को बस्सि करना।।
खाइये-पीजिये मिलैं सौ पहिरिए,
संग्रह और त्याग में नाहिं परना।
बोलु हरिभजन को मगन ह्वै प्रेम से,
चुप्प जब रहौ, तब ध्यान धरना।।

सुंदरी पिया की पिया को खोजती,
भई बेहोश तू पिया कै-कै।
बहुत सी पदमिनी खोजती मरि गई,
रटत ही पिया पिया एक एकै।
सती सब होती हैं जरत बिनु आगि से,
कठिन कठोर वह नाहिं झांकै।
दास पलटू कहै सीस उतारिकै,
सीस पर नाचु जो पिया ताकै।।

पूरब ठाकुरद्वारा पच्छिम मक्का बना,
हिंदू और तुरक दुई ओर धाया।
पूरब मूरति बनी पच्छिम में कबुर है,
हिंदू और तुरक सिर पटकि आया।।
मूरति और कबुर ना बोलै ना खाय कछु,
हिंदू और तुरक तुम कहां पाया।
दास पलटू कहै पाया तिन्ह आप में,
मूए बैल ने कब घास खाया।।
बुलाओ प्रभु को। आनंद के आंसुओं से बुलाओ। पैरों में घूंघर बांधो। नृत्य, गीत-गान से बुलाओ। हृदय की वीणा को बजाओ। गीत को फूटने दो। उत्सव की बांसुरी बजाओ, रास रचाओ।
प्रभु आता है--निश्चित आता है। जो भी निर-अहंकार दशा में, आनंद के उद्घोष से बुलाते हैं, उनके पास निश्चित आता है। आने को तड़फता है। तुम बुलाते नहीं। कभी बुलाते हो तो गलत ढंग से बुलाते हो। प्रभु तुमसे मिलने को आतुर है। तुम जितने आतुर हो, उससे ज्यादा आतुर है। जिस दिन तुम प्रभु को पाओगे, उस दिन तुम्हें यह बात समझ में आएगी कि उसका हाथ तुम्हारे पास ही था; कितने दिनों से तुम्हारी प्रतीक्षा करता था कि तुम भी हाथ बढ़ाओ तो मिलन हो जाए। वह जरा भी दूर नहीं; तुम्हारे पास ही पास डोलता है, कि तुम पुकारो और कहीं ऐसा न हो कि वह दूर हो और तुम पुकारो और पुकार खाली चली जाए! हर घड़ी तुम्हें चारों तरफ से घेरे हुए है। और अनंत उसकी प्रतीक्षा है।
या तो तुम पुकारते ही नहीं; क्योंकि जो धन को पुकार रहा है वह प्रभु को कैसे पुकारे! जो पद को पुकार रहा है, वह प्रभु को कैसे पुकारे, जो अभी संसार को पुकार रहा है, वह अभी निर्वाण को कैसे पुकारे! या तो तुम पुकारते नहीं; तुम्हारी पुकार कहीं और संलग्न है तुम पातियां अभी संसार को भेज रहे हो; परमात्मा को कैसे भेजो! या फिर अगर कभी तुम पुकारते भी हो तो गलत ढंग से पुकारते हो--त्यागी बन कर पुकारते हो; उदासी बन कर पुकारते हो। फिर भी अहंकार का दंभ लेकर पुकारते हो। तुम ऐसे पुकारते हो, जैसे कोई दावेदार पुकारता है--कि देखो, मैंने इतना किया, अब आओ! अब आना ही पड़ेगा! तुम ऐसे पुकारते हो जैसे कोई अदालत में जाकर पुकारता है। तब भी तुम चूक जाते हो।
उसे पुकारना हो, तो पुकारना तो जरूरी है, लेकिन ठीक ढंग से पुकारना जरूरी है। और वह ठीक ढंग है: नाचो, गाओ! उसे आनंद से बुलाओ। दावेदार मत बनो। दावा कैसा! प्रेम कभी दावेदार बनता है? प्रेम तो कहता है: जब भी आओगे, तभी मेरा सौभाग्य। जब भी आए, तभी जल्दी है। और मैं प्रतीक्षा को तैयार हूं। और प्रतीक्षा में भी उदास न होऊंगा, हारूंगा नहीं, थकूंगा नहीं। नाचूंगा, गाऊंगा। इंतजार को भी आनंद ही बनाऊंगा!

आज इतना ही।

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