PALTUDAS
Ajhun Chet Ganwar 16
Sixteenth Discourse from the series of 21 discourses - Ajhun Chet Ganwar by Osho. These discourses were given during JUL 21 - AUG 10 1977.
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पहला प्रश्न:
भगवान, आप मधुशाला में बैठ कर रोज सुबह और शाम भर-भर कर शराब के जाम पर जाम देते हैं। मैं आपकी शराब से मस्त तो होता हूं, पर होश नहीं खोता। क्या करूं?
धन्यभागी हो, कम से कम मस्त तो होते हो! और भी हैं; तुमसे भी ज्यादा अभागे लोग हैं, जो मस्त भी नहीं होते। मस्त होते हो तो कभी बेहोश भी हो जाओगे। अच्छे लक्षण हैं। मस्त होना भी कठिन है।
मस्त होने का अर्थ होता है: मन को खोना। मस्त होने का अर्थ होता है: नियंत्रण खोना। मस्त होने का अर्थ होता है: अपने अहंकार से थोड़े नीचे उतर आना, सिंहासन छोड़ना। मस्त होने का अर्थ होता है: फिर से हो गए बालक जैसे निर्दोष; फिर से भर गए जीवन के आश्चर्य से; फिर से वृक्षों की मस्ती और फूलों की सुगंध और हवाओं का नृत्य अर्थपूर्ण हो गया। खो दी मन की, गणित की क्षमता। वह जो तर्क का सतत जाल है, वह जो तर्क का सतत फैलाव है भीतर, उसे तोड़ कर क्षण भर को बाहर निकल आए; जैसे कोई कारागृह से बाहर आ जाए। बंद दीवालें और बंद दीवालों के भीतर की बंद हवा, थोड़ी देर को जैसे कोई छोड़ कर बाहर आ जाए!
शुभ लक्षण है। ठीक दिशा में हो। लेकिन प्रश्न सार्थक है। पहले तो मस्ती ही क्यों कठिन है? इसलिए कठिन है...ऐसी सभी बातें कठिन होती हैं जो तुम्हारे अहंकार से बड़ी हैं। जो तुम्हारे अहंकार से छोटा है और तुम्हारी मुट्ठी में आ जाए उस भर में भय नहीं होता; तुम उसके मालिक हो जाते हो। तुमसे बड़ा कुछ भी तुम्हें पकड़ ले--कोई अंधड़, कोई तूफान; जो तुमसे बड़ा है; जिसकी तुम मालकियत न कर सकोगे; जिसको तुम कहो बाएं जाओ तो बाएं न जाएगा; जिसको तुम कहो दाएं जाओ तो दाएं न जाएगा; जो तुम्हारी मानेगा ही नहीं; जो तुम्हारी सुनेगा ही नहीं; जिसकी तुम्हें सुननी पड़ेगी; जिसकी तुम्हें माननी पड़ेगी; जो तुम्हें जहां ले जाएगा वहां जाना पड़ेगा--ऐसा अंधड़ फिर कोई भी हो, चाहे प्रेम का हो, चाहे प्रार्थना का हो। ऐसा अंधड़ फिर कोई भी हो, उससे तुम बचोगे, उससे तुम घबड़ाओगे। यह थोड़ा ज्यादा है। और फिर पता नहीं कहां ले जाए! तुम्हारी चालाक मनोदशा चिंतित हो जाएगी: फिर पता नहीं कहां इसका अंत हो!
तुम्हें तैरना सिखाया गया है; बहना नहीं सिखाया गया। अहंकार तैरने से निर्मित होता है। और तैरने का मजा भी तभी है, जब तुम धारा के विपरीत तैरते हो। जब नदी से लड़ते हो, जब धारे के खिलाफ तैरते हो--तब अहंकार को पूरा मजा आता है।
मस्ती का तो अर्थ है: धारा के साथ बह चले; हाथ-पैर भी न हिलाए; धारा के हो रहे। धारा जहां ले जाए--डुबा दे तो वही साहिल, वही किनारा। अब डूबने की भी तैयारी है। और ले जाए दूर खाई-खड्डों में और ले जाए सागरों में, तो जाने की तैयारी है। इसलिए आदमी प्रेम से डरता है। और इसलिए आदमी भक्ति से भी डरता है। जब प्रेम से ही डर जाते हो...एक-दूसरे से भी प्रेम नहीं कर पाते हैं, क्योंकि उसमें भी घबड़ाहट लगती है कि अंधड़ है, तूफान है।
इसलिए तो लोगों ने विवाह रचाया। विवाह प्रेम से बचने की तरकीब है। विवाह व्यवस्था है। प्रेम खतरा है। इसलिए तथाकथित बुद्धिमानों ने सारी दुनिया में, इसके पहले कि प्रेम का खतरा आए, विवाह का आयोजन कर दिया है। इस देश में तो बाल-विवाह कर देते थे। वह इस देश के तथाकथित समझदारों का हिसाब था, गणित था। इसके पहले कि कोई जवान हो जाए, जवान हो जाए तो फिर तुम कैसे रोकोगे; अंधड़ आ ही जाएगा। और एक बार आ जाए, तो फिर पैर जिंदगी भर डगमगाते हैं। एक बार जिसे डगमगाने में मजा आ गया, फिर वह फिकर नहीं करता सम्हल कर चलने की, होश से चलने की। इसके पहले कि प्रेम का अंधड़ आए, विवाह की व्यवस्था जमा दो; विवाह के पत्थरों की भी दीवाल बना दो। अगर प्रेम आएगा भी अब, तो विवाह के भीतर आएगा; खतरा नहीं होगा; सीमा रेखा होगी; परिभाषा होगी। एक तो आएगा ही नहीं। ज्यादा से ज्यादा साहचर्य से एक तरह का स्नेह पैदा हो जाता है, वह हो जाएगा। दो व्यक्ति साथ-साथ रहते हैं, स्नेह पैदा हो जाता है। जैसे भाई और बहन में होता है, वैसा ही पति और पत्नी में भी हो जाएगा।
तुम जरा देखते हो: परमात्मा ने भाई-बहन, माता-पिता सब दिए हैं, सिर्फ पत्नी नहीं दी है, पति नहीं दिया है! उतनी जगह छोड़ी थी तुम्हारे लिए मुक्त होने को। भाई-बहन तो जन्म से मिल जाते हैं; चुनाव का कोई उपाय नहीं है; तुम्हें कोई सुविधा नहीं है। और जहां चुनाव की कोई सुविधा नहीं है, वहां कोई स्वतंत्रता कैसे हो सकती है? एक ही जगह खाली छोड़ी थी, एक ही द्वार छोड़ा था तुम्हारे कारागृह में, जिससे तुम शायद बाहर निकलते और शायद मस्त होते; शायद कोई खतरा मोल लेते, कोई चुनौती स्वीकार करते। वह तुम्हारे समझदारों ने बंद कर दिया। जो परमात्मा ने थोड़ा सा द्वार रखा था, उस पर भी ईंटें जड़ दीं; उस पर भी पत्थर चुन दिए।
बाल-विवाह का मतलब होता है: बड़े होते-होते तुम पाओगे कि जैसे भाई-बहन जन्म से मिले हैं, ऐसे ही पत्नी भी, पति भी जन्म से मिला है। छोटे बच्चे, दुधमुंहे बच्चे, विवाह कर दिए गए। उनको याद भी नहीं आएगी कब उनका विवाह हुआ। वे तो होश के पहले ही विवाहित हो गए। जब होश आएगा तो वे पाएंगे कि हम तो विवाहित ही हैं। वे सदा अपने को विवाहित पाएंगे। यह उपाय था प्रेम से बचाने का।
और जो व्यक्ति प्रेम से भी बच गया, उसके जीवन में भक्ति तो कभी पैदा नहीं होगी। क्यों? क्योंकि जब तुम एक व्यक्ति से भी प्रेम करने का खतरा मोल न ले सके, एक व्यक्ति के साथ भी आग की होली न खेल सके, तो फिर परमात्मा के साथ कैसे खेलोगे? वह तो महान खतरा है। वह तो विराट खतरा है। उसमें तो तुम बिलकुल ही मिट जाने वाले हो। प्रेम में तो तुम थोड़े-बहुत जलते, मिटते नहीं। प्रेम में तो थोड़े-बहुत छींटे पड़ते। अहंकार थोड़ा-बहुत खंडित होता है, धूल-धूसरित होता है; बिलकुल मिट नहीं जाता। लेकिन परमात्मा के प्रेम में तो तुम आमूल जाओगे, जड़ से जाओगे, कुछ भी नहीं बचेगा। पीछे लौट कर देखोगे तो कोई सेतु नहीं बचेगा; सब सेतु टूटते जाएंगे। और एक ऐसी घड़ी आती है, जैसे बूंद सागर में समाए, ऐसे तुम समा जाओगे।
तो पहले तो हम मस्त होने में ही डरते हैं। पहला डर का कारण, कि मस्ती तुमसे बड़ी है; तुम उसे मुट्ठी में न ले सकोगे।
ऐ दिले खुद्दार, यह अच्छा किया
वो जो एक लमहा मसर्रत का नसीबों से मिला था,
उसको भी ठुकरा दिया।
वो मसर्रत क्या जो बन सकती न हो तेरी कनीज
इश्क है रोजे अजल से हुक्मराने बहरोबर
इश्क, और लमहाते इसरत का गुलाम?
जो हवा मुट्ठी में आ सकती न हो
उस हवा में सांस लेना भी हराम।
समझो। ऐ दिले खुद्दार, यह अच्छा किया! ऐ स्वाभिमानी दिल, यह अच्छा किया। वह जो एक लमहा मसर्रत का नसीबों से मिला था, उसको भी ठुकरा दिया! वह जो एक क्षण आया था आनंद का; वह जो एक झलक आई थी पार से; वह एक जो झोंका हवा का आया था और अनंत को छितरा गया था तुम्हारी चेतना पर; वह जो थोड़ी सी सुख की किरण फूटी थी; वह जो एक लमहा मसर्रत का नसीबों से मिला था--उसको भी ठुकरा दिया। अच्छा किया। हे स्वाभिमानी दिल, अच्छा किया उसको ठुकरा दिया। क्योंकि उसमें खतरा था। उसमें भयानक खतरा था। खतरा यही था कि--वो मसर्रत क्या, जो बन सकती न हो तेरी कनीज! वह आनंद तुझसे बड़ा था और तेरी नौकरी न करता और तेरा चाकर न बनता। वह आनंद तुझसे बड़ा था। वह तुझे डुबा लेता। तू उसे अपनी तिजोड़ी में बंद न कर पाता। वह आनंद इतना बड़ा था कि मुट्ठी में बंद हो नहीं सकता था। वह खुली मुट्ठी में ही हो सकता था। मुट्ठी उसमें हो सकती थी; वह मुट्ठी में नहीं हो सकता था।
अब जिन लोगों को तिजोड़ी में ही एकमात्र जीवन दिखाई पड़ता है, वे कैसे सागर में उतरेंगे? सागर को तिजोड़ी में तो बंद नहीं किया जा सकता!
परमात्मा पर तुम मालकियत तो नहीं कर सकते! हां, चाहो तो उसे मालिक बना सकते हो; मगर मालकियत नहीं कर सकते उस पर। तो जिनका जिंदगी का ढांचा मालकियत में है; जो कहते हैं: जो अपनी मुट्ठी में है उसी पर हमारा भरोसा है; जो हमारा आज्ञाकारी है उसी पर हमारा भरोसा है; जो हमसे छोटा है उसी पर हमें भरोसा है।...
तुम जरा खयाल करो, जिंदगी में तुम हमेशा अपने से छोटे को खोजते रहते हो। तुम अपने से बड़े से इतने डरते हो जिसका हिसाब नहीं। अपने से छोटे को...। तुम अपने से बुद्धि में भी जो छोटा है, उसके साथ दोस्ती बनाते हो। क्योंकि तुमसे जो बुद्धि में बड़ा है उसके साथ दोस्ती भय लाती है। पता नहीं वह कहां ले जाए! उसकी बुद्धि तुमसे थोड़ी ज्यादा है। तुम सदा ही हर हालत में उसे खोजते हो जो तुम्हारा गुलाम हो सके; क्योंकि जो तुम्हारा गुलाम हो सके उससे ही तुम्हारा अहंकार भरता है, तुम मालिक हो जाते हो। अब परमात्मा को तुम अपना दास तो न बना सकोगे। परमात्मा को तो छोड़ो, जिन्होंने प्रेम किया है जीवन में, वे अपने प्रेमी को भी अपना दास नहीं बना सकते। प्रेम किसी का दास बनता ही नहीं।
वो मसर्रत क्या जो बन सकती न हो तेरी कनीज।
हम उसे खुशी ही नहीं मानते। हम कहते हैं: वह खुशी ही क्या, वह आनंद क्या, जो हमारी दासी न बन सके।
इश्क है रोजे अजल से हुक्मराने बहरोबर
इश्क और लमहाते इसरत का गुलाम?
हमारी तथाकथित बुद्धिमानी, हमारी अहंकार से भरी बुद्धिमानी कहती है कि मैं अपने प्रेम को किसी चीज पर निर्भर न होने दूंगा।
इश्क और लमहाते इसरत का गुलाम?
जो हवा मुट्ठी में आ सकती न हो
उस हवा में सांस लेना भी हराम।
यह हमारा अहंकार सदा हमसे कहता है कि जो हवा हमारी मुट्ठी में न आ जाए उसमें हम श्वास भी न लेंगे। उसमें श्वास लेना भी हराम! तो फिर तुम मुर्दा हवा में श्वास लोगे। तो तुम फिर एक बंद कमरे की हवा में श्वास लोगे, जो तुम्हारी मुट्ठी में हो। तुम सड़ी हवा में श्वास लोगे, तुम ऐसी हवा में श्वास लोगे, जहां मौत तो आ सकती है, जिंदगी नहीं आती। फिर तुम खुले तूफानों के साथ न खेल सकोगे। तुम फिर बड़ी चुनौतियां स्वीकार न कर सकोगे।
और जितनी बड़ी चुनौतियां होती हैं, उतने ही बड़े तुम होते हो। अनंत की चुनौती जब कोई स्वीकार करता है तो अनंत हो जाता है। जैसी चुनौती स्वीकार करते हो वैसे ही हो जाते हो।
हम डरे हैं। हमने अपना आंगन बना लिया है। हम उसी आंगन में समाए रहते हैं। हम आंगन के बाहर भी नहीं झांकते हैं।
मन तुम्हें मस्त नहीं होने देता। तो पहले तो मस्ती ही कठिन। और मन का सारा हिसाब यह है, मन कहता है: कल। अभी जल्दी क्या? अभी और भी तो काम हैं, इन्हें निबटा लो। मस्त ही होना है, कल हो लेना। अभी बेटे का विवाह करना है। अभी दुकान चलानी है। अभी मुकद्दमा लड़ना है। अभी हजार काम हैं। मस्ती का अभी वक्त आया नहीं। कल, फिर भविष्य में कभी मस्त हो लेंगे।
मैंने सुना है:
फिर गया था सिर उमर खय्याम का
जिसने कहा: आज आओ, मौज कर लें।
कल तो मरना है हमें
साथियो, इतिहास का संदेश है: बहुजन हिताय
आज मर लें, मार लें
कल मौज करना है हमें।
मन कहता है: आज तो मर लें, मार लें, कल मौज करना है हमें। तो मन तो उमर खय्याम जैसे लोगों को नासमझ कहता है।
फिर गया था सिर उमर खय्याम का
जिसने कहा: आज आओ, मौज कर लें।
कल तो मरना है हमें।
मस्ती तो अभी हो सकती है, कल नहीं। मौज तो अभी हो सकती है, कल नहीं। जिसने कल पर टाला, सदा को टाला; फिर कभी होगी ही नहीं। कल तो आता ही नहीं, जब भी आता है आज आता है। जो कल बीत गया, वह भी कल आज था। और जो कल आएगा कल, वह भी आज ही होकर आएगा। यह आज जो आ गया है, यह भी तो कल कल था।
और जिसने यह आदत सीख ली टालने की, स्थगन करने की कि कल, वह फिर कभी मस्त नहीं होता। और इन्हीं लोगों को हम बुद्धिमान कहते हैं। इनको हम दूर-दृष्टि कहते हैं। हम कहते हैं: ये हैं समझदार लोग--भविष्य की योजना करते, व्यवस्था करते। भविष्य की योजना और व्यवस्था में वर्तमान को गंवा देने वाले लोगों को हम बुद्धिमान कहते हैं, वर्तमान के लिए सारे भविष्य को गंवा देने वाले लोगों को हम नासमझ कहते हैं, पागल कहते हैं। और जो पागल है, वही मस्त हो सकता है।
इसलिए तुम पाओगे संतों और पागलों में एक बात समान होती है: मस्ती। संतों में कुछ पागलपन होता है; पागलों में कुछ संतपन होता है। एकदम तो एक जैसे नहीं होते, मगर कुछ समान बात होती है। पागल मन से नीचे गिर गया। पागल भी मन के बाहर हो गया। संत मन के ऊपर उठ गया। संत भी मन के बाहर हो गया। दोनों मन के बाहर हैं, इतनी बात तो समान होती है। और बहुत बातें असमान होती हैं। पागल परेशान है, क्योंकि मन से नीचे गिर गया। संत परम उल्लासित है, क्योंकि मन के पार उठ गया। लेकिन मन के दोनों बाहर हो गए।
इसलिए कभी-कभी तुम्हें परमहंसों में पागलपन दिखाई पड़ेगा और कभी-कभी पागलों की बातों में परमहंस-पन की भी झलक मिल जाएगी। कभी-कभी पागल ऐसी बात कह देते हैं जो बुद्धिमानों के मुंह से सुनी ही नहीं जाती। कभी-कभी पागल बड़ी दूर की ले आते हैं। कभी-कभी पागल ऐसे वचन बोल देते हैं, जो उपनिषदों में लिखे जाएं और वेदों में संकलित किए जाएं और कुरान में जिनकी आयतें ढाली जाएं। और कभी-कभी संत ऐसी बातें कहते हैं कि अगर मनोवैज्ञानिकों के हाथों में पड़ जाएं तो संतों को पागलखानों में रख दें।
तुम क्या सोचते हो, रामकृष्ण को अगर मनोवैज्ञानिकों के हाथ में दे दिया जाए तो रामकृष्ण को वे छोड़ेंगे बिना इलाज किए? वे इलाज करके रहेंगे। वे तो राम-कृष्ण की समाधि को हिस्टीरिया कहते थे। हिस्टीरिया और समाधि में कुछ तालमेल है। दोनों ही तो बेहोश हो जाते हैं। मिरगी का मरीज जैसे बेहोश होकर गिर जाता है, ऐसे ही तो समाधि की दशा में भी कभी कोई मस्त होकर गिर जाता है। ऊपर से देखने पर भेद नहीं मालूम पड़ता। भेद तो भीतर है, लेकिन भीतर कौन जाए! भेद तो भीतर है; भीतर को देखो कैसे! भेद तो बड़ा सूक्ष्म है। स्थूल तो समान है। जो बात आंकी जा सकती है, मापी जा सकती है, यंत्रों के द्वारा जांची जा सकती है, वह तो बिलकुल समान है--दोनों बेहोश पड़े हैं। लेकिन रामकृष्ण की बेहोशी उनके जीवन को इतने होश से भर गई, इसे कोई नहीं देखता और उनकी बेहोशी के बाद वे कैसे परम आनंद और कैसी परम शांति में कैसे कमल जैसे खिले हुए वापस लौटते हैं इसे कोई नहीं देखता। मिरगी का मरीज जब अपनी बेहोशी के बाद लौटता है तो थका-हारा, पिटा-पिटा, टूटा-टूटा--जिसका सब खो गया हो। रामकृष्ण जब लौटते हैं बेहोशी के बाद, तो ऐसे जैसे सब मिल गया। राम रतन धन पायो री!
मिरगी का मरीज घबड़ाता है कि अब दुबारा कहीं फिर न बेहोशी आ जाए। और रामकृष्ण होश में आते ही ऊपर आकाश की तरफ मुंह उठा कर कहते हैं: अब फिर ऐसे क्षण कब दोगे? अब फिर कब कृपा होगी, कब प्रसाद बरसेगा? अनेक बार रामकृष्ण जब होश में आते थे, तो रोते और चिल्लाते कि इतनी जल्दी वापस क्यों लौटा दिया? ऐसा अपूर्व आनंद बरस रहा था, वंचित क्यों कर दिया? थोड़ी मेरी और झोली भर जाती, तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाता? तुम तो औघड़दानी हो! तुम कंजूसी क्यों कर गए?
मगर ये बातें मनोवैज्ञानिक को सुनाई न पड़ेंगी। ऊपर से तो ऐसे लगेगा कि यह भी शायद पागलपन का ही हिस्सा है--ये जो बातें हैं। यह भी आदमी बिलकुल विकृत हो गया है, इसलिए कुछ भी अनाप-शनाप बोल रहा है।
बुद्ध को शांत बैठे देख कर तुम्हें भी खयाल उठेगा कि यह आदमी आलसी तो नहीं हो गया! क्योंकि आलसी भी ऐसे ही बैठ जाते हैं। आलसी और बुद्ध में क्या फर्क करोगे? ऊपर से तो कोई फर्क नहीं है; दोनों बैठ गए हैं सुस्त होकर। ये बुद्ध टिके बैठे हैं वृक्ष से, और एक आलसी भी बैठा हुआ है टिका अपने वृक्ष से; न आलसी हिलता है न डुलता है, न बुद्ध हिलते न डुलते। ऊपर से देखने पर तो दोनों आलसी हैं।
पश्चिम के विचारक पूरब को आलसी होने का इल्जाम लगाते हैं। और उनके इलजाम के पीछे वे यह भी स्वर उठाते हैं कि पूरब के जो मनीषी हुए, उन्होंने लोगों को आलस्य सिखाया, निष्क्रियता सिखाई। निश्चित ही अकर्म की बातें कही हैं ज्ञानियों ने। कहा है कि जब कर्म से तुम मुक्त हो जाओगे, तभी तुम जानोगे--जो है। अब अकर्म की बात का अर्थ आलस्य भी किया जा सकता है। बुद्ध भी आलसी ही तो मालूम पड़ते हैं; कुछ करते-धरते नहीं, खाली बैठे हैं। बोझ ही तो मालूम पड़ते हैं। अगर किसी कम्युनिस्ट समाज में पैदा होते तो जेलखाने में जिंदगी बीतती या सायबेरिया में होते। चीन में होते तो किसी शिविर में श्रमदान कर रहे होते।
अभी चीन में अनेक संन्यासी--लाओत्सु को मानने वाले और बुद्ध को मानने वाले--पड़े ही हैं सैनिक शिविरों में। जबरदस्ती कोड़ों की चोट पर गिट्टियां तुड़वाई जा रही हैं। चीन में आज निंदा है कि ये सब आलसी हैं। इन आलसियों में कोई बुद्ध भी हो सकता है। आखिर बुद्ध आदमियों में ही तो होते हैं! इन आलसियों में कोई लाओत्सु भी हो सकता है। इन आलसियों में कोई वह भी हो सकता है जो अकर्म की दशा को उपलब्ध हो गया। लेकिन वह तो बात भीतर की है; कैसे फर्क करोगे?
अकर्म में और आलस्य में कैसे फर्क करोगे? ऊपर से दोनों एक से दिखाई पड़ते हैं। फर्क भीतर है। आलसी मुर्दा होता जाता है। अकर्मण्य की दशा में जीवन की ज्योति और भी प्रगाढ़ता से जलती है। आलसी जब आंख खोलेगा तो उसकी आंख में तुम धुंध पाओगे। और जब अकर्मण्य की आंख में तुम धुंध पाओ तो गौर से देखना: तुम उसके भीतर बहुत धुआं-धुआं पाओगे, अंधेरा पाओगे। उसके जीवन में कहीं जीवन-ऊर्जा न होगी; जीवन की तरंग न होगी; लपट न होगी; ज्योति न होगी। फिर अकर्म को उपलब्ध व्यक्ति की आंख में झांक कर देखना: वहां तुम्हें विराट-विराट आकाश दिखाई पड़ेगा--जहां बादल नहीं है; जहां धुंध है ही नहीं। जहां सूरज अपने पूरे प्रकाश में चमक रहा है। और वहां तुम जीवन की बड़ी लपट पाओगे। वहां दीया बहुत प्रगाढ़ता से जल रहा है। निष्कंप है चेतना उसकी; कंपन नहीं होता। क्योंकि अब कर्म ही नहीं तो कंपन कैसा! लेकिन मुर्दा नहीं है।
मुर्दा और समाधिस्थ में कुछ फर्क समझते हो? कभी-कभी समाधिस्थ मुर्दा मालूम हो सकता है। कभी-कभी मुर्दा समाधिस्थ मालूम हो सकता है। ऊपर से देखने के उपाय नहीं हैं।
इसीलिए उमर ख्य्याम जैसा सूफी फकीर भी गलत समझा गया। उमर खय्याम के संबंध में जो भी तुम्हारी धारणा है, सब गलत है। उसने जिस शराब की बात कही है, वह शराबखानों में बिकने वाली शराब नहीं है। उसने जिस प्रेयसी की बात कही है, वह हाड़-मांस-मज्जा की प्रेयसी नहीं है। उसने ‘प्रेयसी’ परमात्मा को कहा है। और उसने शराब ‘भक्ति’ को कहा है। फिट्जराल्ड ने, जिसने उमर खय्याम का सबसे पहले अंग्रेजी में अनुवाद किया और जिसके कारण उमर खय्याम जगत-विख्यात हुआ, उमर खय्याम को समझा ही नहीं। फिट्जराल्ड तो शराब का मतलब शराब समझा। पश्चिमी आदमी था। उसने तो दो और दो चार समझे। उसने तो शराब को शराब समझा और प्रेयसी को प्रेयसी समझा। सूफियों का अपूर्व मंतव्य ऐसे एक बड़ी गलतफहमी का शिकार हो गया। फिर फिट्जराल्ड के अनुवाद के आधार पर सारी दुनिया की भाषा में अनुवाद हुए और सब जगह भूल फैलती चली गई। आज तो शराबघरों के नाम उमर खय्याम हैं। इससे ज्यादा नासमझी और कुछ नहीं हो सकती।
मंदिरों के नाम होने चाहिए उमर खय्याम; शराब-घरों के नहीं। क्योंकि जिस मधुशाला की उमर खय्याम ने बात की है, वह और ही है।
एक ऐसी भी मस्ती है, जो बेहोशी में ले जाती है; और जिसके भीतर से बड़ा गहरा होश उठता है। लेकिन इस मस्ती की पहली शर्त है कि तुम कल पर मत टालो। कल पर टालना मन की तरकीब है।
यहां मुझे सुनते हो, जिसने सोचा कि ठीक है, बात तो ठीक लगती है, सोचेंगे-विचारेंगे, कभी करेंगे--उसने न करने का इंतजाम कर लिया। मैं यहां तुमसे कुछ करने को नहीं कह रहा हूं। मैं कह रहा हूं: थोड़ी देर मेरे साथ डोल लो। यह बीन बजती ही है, तुम्हारे भीतर छिपे सांप को थोड़ा डोल लेने दो। तुम्हारे डोलने से तुम्हारे भीतर का सांप डोलेगा। जिसको हम कुंडलिनी कहते हैं, उसको हमने सर्प के रूप में ही सोचा है। किसी की बीन बजती हो तो तुम्हारे सांप को थोड़ा डोल लेने देना। टालना मत। होशियारी मत रखना। यह मत सोचना कि आस-पास बैठे लोग क्या समझेंगे। कोई क्या कहेगा कि आप और डोलते हैं! पढ़े-लिखे, समझदार, बुद्धिमान, प्रतिष्ठित--आप डोलते हैं! ऐसे डोलें नासमझ, मंदबुद्धि--चलेगा; आप बुद्धिमान हैं, आप डोलते हैं!
अहंकार रोक लेगा। और डर भी लगता है कि डोलने का अंत कहां होगा! यह तो शुरुआत है, फिर इसका अंत कहां होगा! बुद्धि सब हिसाब पहले कर लेना चाहती है। बुद्धि हर चीज को दो और दो चार हों, इसका इंतजाम कर लेना चाहती है।
काठमांडू से मेरे एक संन्यासी आए हैं: अरुण। किसी ने शिवपुरी बाबा पर किताब लिखी है, उन्होंने मेरे लिए अरुण के साथ किताब भेजी है। छोटी सी किताब है, लेकिन प्यारी है। शिवपुरी बाबा प्यारे आदमी थे। थोड़े से आदमियों में इस सदी में, जिनके भीतर परमात्मा का वास था, एक थे। वे कोई पैंतीस साल तक सारी दुनिया में यात्रा करते रहे--चुपचाप, एक अज्ञात आदमी की भांति! उन यात्राओं में वे दुनिया के बड़े-बड़े लोगों से मिले। अलबर्ट आइंस्टीन से भी मिलना उनका हुआ। अलबर्ट आइंस्टीन से उनकी जो बात हुई, उसमें शिवपुरी बाबा ने कहा: आप क्या सोचते हैं दो और दो चार होते हैं? आइंस्टीन ने कहा: निश्चित दो और दो चार होते हैं, इसमें भी क्या पूछने की बात है!
शिवपुरी बाबा ने कहा: लेकिन मेरा एक निवेदन है, दो और दो चार हो नहीं सकते। एक और एक दो नहीं हो सकते, क्योंकि यहां दो चीजें एक जैसी हैं ही नहीं; जोड़ोगे कैसे? यहां दो ‘एक’ एक जैसे हैं ही नहीं, प्रत्येक चीज इतनी अद्वितीय है! एक और एक मिल कर दो हो सकते हैं, अगर एक और एक बिलकुल एक जैसे हों। मगर यहां कोई चीज एक जैसी नहीं है।
तुम कहते हो, एक आदमी कमरे में है, एक और आदमी गया तो दो आदमी हो गए। मगर ये दो आदमी इतने भिन्न हैं, इनको दोनों को एक-एक मान कर चलोगे, एक जैसा मान कर चलोगे? गणित में धोखा हो जाएगा। इसमें एक आदमी कृष्ण जैसा हो सकता है, एक आदमी कंस जैसा हो सकता है। ये दोनों भीतर जाएं तो दो नहीं होते। कृष्ण और कंस हों तो एक-दूसरे को काट देंगे। या इनमें कोई मजनू और लैला हो सकता है; ये दो भीतर जाएं तो दो जुड़ कर एक हो जाएंगे, दो नहीं बचेंगे। निर्भर करेगा। सदा एक और एक दो नहीं होगा और सदा दो और दो चार नहीं होंगे। कभी एक और एक मिल कर डेढ़ ही होगा; कभी एक और एक मिल कर एक ही होगा; कभी एक और एक मिल कर दस भी हो सकते हैं। कठिन है कहना।
कहते हैं आइंस्टीन चुप हो गया और सोचने लगा: बात तो सच थी। जिंदगी गणित से थोड़ी ज्यादा है। जिंदगी रहस्यपूर्ण है। गणित सारे रहस्यों को समाप्त कर देता है।
मस्ती का अर्थ है: गणित के बाहर उठना; तर्क के बाहर उठना। तर्क कामचलाऊ है। बाजार में ठीक है; मंदिर में जरा भी ठीक नहीं। और जब तुम काम-धाम में लगे हो, हिसाब-किताब कर रहे हो, उपयोग कर लेना, लेकिन इस भ्रांति में मत पड़ना कि यही तुम्हारी जिंदगी हो जाए। कुछ झरोखे खुले रखना। कुछ झरोखे खुले रखना, जहां से ताजी हवा भी बहती रहे। कुछ रहस्य की संभावना खाली रखना। ऐसा न समझ लेना कि तुमने सब जान लिया।
जिसने सोचा कि सब जान लिया, उससे ज्यादा बड़ा अज्ञानी इस जगत में और कोई नहीं है। क्योंकि उसका ज्ञान ही अब उसे और जानने की यात्रा पर न जाने देगा। यहां कौन कब सबको जान पाता है! जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा: जितना ज्यादा हमने जाना, उतना जानने को शेष पाया। जितना हम जानते गए, उतना ही लगा कुछ भी तो नहीं जानते।
मस्त होने का अर्थ होता है: तुम अपने सिर में ही समाप्त नहीं हो; तुम्हारे पास हृदय भी है। खोपड़ी ही तुम्हारी आत्मा नहीं है; तुम्हारी आत्मा तुम्हारी खोपड़ी से बड़ी है। तुम्हारे भीतर ऐसे बिंदु भी हैं, जहां दो और दो पांच भी होते हैं, और दो और दो तीन भी रह जाते हैं और कभी दो और दो एक ही रह जाता है। तुम्हारे भीतर ऐसी संभावनाएं, आयाम भी हैं, जहां गणित व्यर्थ हो जाते हैं, तर्कों में कोई सार नहीं रह जाता; जहां तर्क की निष्पत्ति का कोई मूल्य नहीं होता; जहां काव्य का आविर्भाव होता है। तुम्हारे भीतर ऐसे हृदय का स्रोत भी है, जहां प्रेम जन्मता है, काव्य जन्मता है; जहां गीत लगते हैं; जहां फूल खिलते हैं; जहां से रहस्य उमगता है, समाधि पैदा होती है।
जब तुम डोलते हो, जब तुम मस्त होते हो, तो तुम सिर से नीचे उतर रहे हो। तुम्हारी ऊर्जा सिर से उतरने लगी और हृदय पर पड़ने लगी। तुम्हारा झरना हृदयोन्मुख हुआ। डोलना सिर्फ डोलना ही थोड़े है। अगर शरीर को ही हिला रहे हो तो बेकार कसरत कर रहे हो; उसका कोई मूल्य नहीं है। तुम हिला रहे हो, तब तो बिलकुल ही मूल्य नहीं है। हिल रहा है। तुम रोको भर मत, इतना काफी है। तुम रोको तो रोक सकते हो। मगर हिलाओ तो हिला नहीं सकते। इसे मैं दोहरा दूं। तुम रोको तो रोक सकते हो। सिर मालिक बन जाएगा और हृदय को कोई गुंजाइश न छोड़ेगा; जंजीरों में डाल देगा और कह देगा: तू अज्ञानी है, अंधा है। रुक! चुप! श्रद्धा को उठने न देगा। प्रेम को विह्वल न होने देगा। सिपाही की तरह संगीन लेकर खड़ा हो जाएगा।
और हृदय बहुत कोमल है--फूल की तरह कोमल है। अब फूल में तुम संगीन चुभा दोगे तो संगीन नहीं टूटेगी, फूल ही टूट जाएगा। हृदय बहुत कोमल है। बहुत कोमल तंतु हैं हृदय के!
तुम चाहो तो रोक सकते हो कंपन, लेकिन तुम पैदा नहीं कर सकते। तुम ऐसी चेष्टा करके हिलने लगो तो सर्कस हो जाएगा। तुम चेष्टा करके हिल सकते हो--अच्छी कवायद हो जाए, अच्छा व्यायाम हो जाए--लेकिन चूक जाओगे। इससे भीतर का सांप न हिलेगा। पहले तो तुमने बांसुरी ही न सुनी, बीन ही न सुनी।
तो हिलाने की चेष्टा मत करना। हां, रोकने का भाव न आए, इतना भर ध्यान रखना। जब उठने लगे कोई उमंग तो तुम छोड़ देना फिकर लोक-लाज की। तो मस्त हो पाओगे।
कब तक हवाए शौक से दिल को बचाइए,
मौसम का जो भी मशवरा हो, मान जाइए।
जब वसंत आ गया हो और जब हवाओं में रंग हो और फूलों में गंध हो और पक्षी गीत गाने लगें, और मोर अपने पंख फैला दें, तो फिर बचाना मत।
कब तक हवाए शौक से दिल को बचाइए,
मौसम का जो भी मशवरा हो, मान जाइए।
जब वसंत आए तो अपने हृदय के द्वार खुले छोड़ देना।
पी है अगर शराब तो कुछ लुत्फ उठाइए,
क्यों इतनी ऐतिहाद? जरा लड़खड़ाइए!
क्यों इतनी ऐतिहाद? इतनी सावधानी भी क्या! इतने सावधान हो-हो कर मत चलिए। यहां आ ही गए हो, अगर थोड़ी शराब पी ही ली है...पी है अगर शराब तो कुछ लुत्फ उठाइए! तो फिर थोड़ा लुत्फ, फिर थोड़ा रंग बहने दो। फिर भीतर कोई डोले तो डोलने दो। भीतर कोई गुनगुनाए तो गुनगुनाने दो। रोमांच हो आए तो होने दो। आंसू बहें तो बहने दो।
पी है अगर शराब तो कुछ लुत्फ उठाइए,
क्यों इतनी ऐतिहाद? जरा लड़खड़ाइए!
इतनी भी सावधानी क्या? इतनी भी होशियारी क्या? कभी तो ऐसा करो कि होशियारी को हटा कर रख दो। कभी तो थोड़ी देर को होशियार न रहो। कभी तो थोड़ी देर के लिए निर्दोष हो जाओ, नासमझ हो जाओ। कभी तो थोड़ी देर के लिए फिर बालवत हो जाओ।
जीसस ने कहा है: जो बच्चों की भांति हैं, वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे। ठीक ही कहा है, सौ प्रतिशत ठीक कहा है। इस देश में तो हम सदा से कहते रहे हैं: जो फिर से बालवत हो जाते हैं, वे ही संत हैं। इसलिए संतों को द्विज कहते हैं--दुबारा उनका जन्म हो गया; वे फिर बच्चे हो गए।
हर ब्राह्मण द्विज नहीं है, खयाल रखना। क्योंकि हर ब्राह्मण ब्राह्मण ही नहीं है। जिसने ब्रह्म को जाना, वह ब्राह्मण; और जो फिर से जन्मा। एक तो जन्म मां-बाप से मिलता है; वह तो सभी को मिलता है; उससे कोई द्विज नहीं होता। और जनेऊ धारण करने से कोई द्विज नहीं होता। किसको धोखा दे रहे हो? द्विज होता है कोई, दुबारा, जब मन की धूल को हटा देता है, तर्क को समेट कर रख देता है और फिर बालवत चेतना को अपने भीतर उमगने देता है।
पी है अगर शराब तो कुछ लुत्फ उठाइए
क्यों इतनी ऐतिहाद? जरा लड़खड़ाइए।
क्या सिर्फ आशिकी मय है, नासह जियाने दिल,
अपना तो इरादा था कि जां तक गंवाइए।
डरते क्यों हो? दिल की हानि का डर लगता है? लगता है कि प्रेम में कहीं दिल डूब न जाए, कहीं खो न जाए?
क्या सिर्फ आशिकी मय है, नासह जियाने दिल?
क्या तुमने यही सोचा है कि प्रेम में दिल गंवाना पड़ता है, दिल खोना पड़ता है? यह तो कुछ भी नहीं है। यह तो शुरुआत है।
अपना तो इरादा था कि जां तक गंवाइए।
प्राणों तक को गंवाना पड़े तो भी तैयारी रखनी चाहिए, क्योंकि प्राण को गंवा कर ही कोई उस परम प्राण को पाता है। अपने को खोकर ही कोई परमात्मा होता है।
क्या सिर्फ आशिकी मय है, नासह जियाने दिल,
अपना तो इरादा था कि जां तक गंवाइए।
वाइज बयाने खुल्द बहुत खूब है मगर
एक रोज उसकी बज्म में भी होकर आइए।
मुझे सुनते हो। मैं तुमसे जो कह रहा हूं, यह तो खबर है उस लोक की जो मैंने देखा। यह तो खबर है उस बज्म की, जो मैंने देखी। यह तो खबर है उस वसंत की, जो मैंने देखा। यह तो खबर है उन फूलों की, जो मैंने खिले देखे। इन्हें सुन कर तुम मस्त हो जाओ यह तो ठीक; लेकिन यह कोई अंतिम बात नहीं है--जब तक कि तुम भी उस बज्म में न हो आओ; जब तक कि तुम भी उस दर्शन को उपलब्ध न हो जाओ।
तो यहां से तो प्यास लेना। अगर मस्त ही न हुए तो प्यास ही न जागेगी। यहां से तो थोड़े प्यास को बढ़ाने का मात्र उपाय है। तुम खूब प्यासे हो जाओ। ऐसे प्यासे हो जाओ कि प्यास ही प्यास बचे, कि तुम जलने लगो प्यास से!
वाइज बयाने खुल्द बहुत खूब है मगर
मैं कितने ही अच्छे ढंग से तुम्हें कहूं, मैं कितने ही ढंग से तुम्हें समझाऊं; लेकिन जो भी मैं कहूंगा, तुम तक पहुंचते-पहुंचते शब्द रह जाएंगे। शराब तो खो जाएगी, ‘शराब’ शब्द रह जाएगा। परमात्मा तो खो जाएगा, ‘परमात्मा’ शब्द तुम्हारे कानों में सुनाई पड़ेगा। अर्थ तो मेरे ही भीतर रह जाएंगे, कोरे शब्द तुम तक पहुंचेंगे। लेकिन कभी-कभी, जब तुम बहुत-बहुत मुझसे जुड़े होते हो, तो इन शब्दों में अटका-अटका थोड़ा सा शून्य भी पहुंच जाता है।
ऐसा ही समझो कि शराब के पास रखी-रखी कोई चीज भी थोड़ा सा नशा ले ली हो; शराब के पास रखी-रखी थोड़ी सी शराबमय हो गई हो। मगर यह कुछ दूर तक जाने वाली बात नहीं है। इससे यात्रा शुरू हो जाए, प्रारंभ हो जाए--पर्याप्त। जाना तो तुम्हें ही है उसके दरबार में।
वाइज बयाने खुल्द बहुत खूब है मगर
एक रोज उसकी बज्म में भी होकर आइए।
मस्त होओ, तो तुम मुझसे जुड़े। बेहोश हो जाओ, तो तुम उसकी बज्म में हो आए। मस्त हुए, तो मेरा गीत तुम्हें छुआ। बेहोश हुए तो तुम्हारा दरवाजा खुला।
अब तुम पूछते हो कि मैं मस्त तो हो जाता हूं, पर होश नहीं खोता। आधा-आधा कर रहे हो। इससे तुम बड़ी अड़चन में पड़ोगे। इससे न संसार के रहोगे, न प्रभु के हो पाओगे। इससे तो अच्छा है मस्त भी न होओ। यह तो तुम खतरा मोल ले रहे हो। यह तो तुम भारी झंझट में पड़ जाओगे। यह तो तुम घर के रहोगे न घाट के। यह तो संसार में तुम्हारा मजा कम हो जाएगा और परमात्मा में जाने की हिम्मत न जुटा पाओगे। अटक जाओगे, त्रिशंकु हो जाओगे, बीच में रह जाओगे। यह बड़ी दुविधा की दशा हो जाएगी।
अब जब मस्त ही हो रहे हो तो तब थोड़ी और हिम्मत करो। अपन इतने दूर भी आ गए, तो अब थोड़ी और हिम्मत सही। अब थोड़े बेहोश भी होओ। और ध्यान रखना, यह बेहोशी ऐसी है, जिससे होश पैदा होता है। यह बेहोशी शराब की बेहोशी नहीं है, साधारण शराब की बेहोशी नहीं है। यह बेहोशी परमात्मा की शराब की बेहोशी है। इसमें जो आदमी जितना बेहोश होता है, उतना होश को उपलब्ध होता है। अभी तुम जिसे होश कह रहे हो, वह बेहोशी है--संसार की बेहोशी। अभी तुमने जिसको जागरण समझा है, वह सिर्फ नींद है।
श्री अरविंद ने कहा है कि जब तक समाधि न फली थी, तब तक मैंने जिसे दिन समझा था वह रात से भी बदतर रात सिद्ध हुई; और जिसको मैंने जीवन समझा था, वह मौत से भी बदतर मौत थी; और जिसको मैंने अमृत समझा था, वह जहर साबित हुआ। समाधि के बाद सारा मूल्यांकन बदल जाता है; पुनः मूल्यांकन होता है।
अभी तुम जिसको जागरण कहते हो, वह जागरण नहीं है, समाधि के बाद। वह तो सिर्फ आंख खुली नींद है। आंख भर खुली हैं और तुम सो रहे हो। नींद में ही तुम चल रहे हो। नींद में ही तुम उठ रहे हो। नींद में ही तुम बातें कर रहे हो। तुम्हारे भीतर बड़ी तंद्रा है, मूर्च्छा है, प्रमाद है।
अगर तुम थोड़े-थोड़े डूबने लगे मस्ती में और फिर बेहोश हुए, तो तुम बड़े हैरान हो जाओगे। इधर तुम बेहोश होओगे संसार के प्रति, उधर एक नये होश का प्रारंभ होगा। इधर बाहर से आंख बंद होगी और भीतर आंख खुलेगी। इधर देह भूलेगी और आत्मा का स्मरण आएगा। इधर संसार की आपा-धापी का खयाल विस्मरण में चला जाएगा, संसार के प्रति बेहोश हो जाओगे, तो तत्क्षण तुम पाओगे कि प्रभु के सन्मुख खड़े हो।
यही थी दशा रामकृष्ण की, जब वे बेहोश हो जाते थे, तो संसार को भूल जाते थे, अपनी देह को भूल जाते थे। याद आ जाती थी परम प्यारे की। प्रभु के सन्मुख हो जाते थे।
तो मैं तुमसे कहूंगा: इतना किया, अब इतना और भी करो। मस्त हुए--एक कदम उठाया; अब दूसरा भी उठाओ। और दो ही कदम की दूरी है। और दो ही कदम से मंजिल पूरी हो जाती है। पहला कदम: मस्ती; दूसरा कदम: बेहोशी। और तीसरे कदम पर तो तुम बचते नहीं, परमात्मा ही बचता है। यह दो कदम का ही फासला है।
मौसमे गुल है, हवा इत्र फसां है साकी
देख गुलजार पर जन्नत का गुमां है साकी।
मौसमे गुल है! वसंत आ गया! फूल खिले। हवा इत्र फसां है साकी! और हवा में इत्र ही इत्र बिखरा हुआ है।
मौसमे गुल है, हवा इत्र फसां है साकी
देख गुलजार पर जन्नत का गुमां है साकी।
देख, बसंत में स्वर्ग उतरा है!
आज फितरत ने गुलिस्तां में उलट दी है नकाब
ओज पर किस्मते साहब, नजरां है साकी।
आज परमात्मा की नजर तुम पर पड़ी।
आज फितरत ने गुलिस्तां में उलट दी है नकाब।
जब भी कोई बुद्धपुरुष--बुद्ध या महावीर या मोहम्मद या कृष्ण या क्राइस्ट--तुम्हारे बीच आता है तो वसंत आता है। जैसे परमात्मा अपनी नकाब उलट देता है; अपना बुर्का उठा देता है; अपना घूंघट हटा देता है। हम घूंघट डाले हुए परमात्मा हैं। बुद्ध ने घूंघट उठा दिया।
आज फितरत ने गुलिस्तां में उलट दी है नकाब
ओज पर किस्मते साहब, नजरां है साकी।
वो घटा झूम कर उठी, वो जवानी बरसी
आज दुनिया की हर इक चीज जवां है साकी।
देख किस शान से मैखाने की जानिब है रवां
दीदनी सर खुशी ए बाद कसां है साकी।
मस्त हो जाओगे तो मैखाने की ओर जिस मस्ती से जाओगे, वह मस्ती देखते ही बनेगी। मंदिर की ओर मुर्दे की तरह जाते हो--एक कर्तव्य निभाने। मस्जिद चले जाते हो, क्योंकि जाना है। गुरुद्वारे में सिर पटक आते हो, क्योंकि क्या करें, प्रतिष्ठा का सवाल है! लेकिन मस्ती नहीं दिखाई पड़ती। और जब तक तुम लड़खड़ाते हुए मंदिर की तरफ न जाओगे, जैसे-जैसे मंदिर के पास पहुंचोगे वैसे-वैसे और न लड़खड़ाने लगोगे--तब तक बेकार है। सब जाना बेकार है; व्यर्थ मेहनत न करो। और लड़खड़ाना आ जाए तो मंदिर घर ही आ जाता है; तुम जहां हो वहीं आ जाता है।
देख किस शान से मैखाने की जानिब है रवां
दीदनी सर खुशी है बाद कशां है साकी
ऐसे मौसम में हिमाकत है तमन्नाए बहिश्त
ये जमीं गैरते गुलजारे जनां है साकी।
और जब बुद्ध इस जमीन पर होते हैं, तो फिर बहिश्त की बात करना ही बेकार है, स्वर्ग की बात ही करना बेकार है। ऐसे मौसम में हिमाकत है तमन्नाए बहिश्त। फिर तो हम नासमझ होंगे जो स्वर्ग जाने की सोचें। स्वर्ग सामने है। फिर तो पागल होंगे, जो परमात्मा की बात करें।
सदगुरु सामने है। उसमें डूबो वहीं से द्वार मिल जाएगा। बनते-बनते बन जाएगी।
बनत बनत बनि जाई,
हरि के चरण लगे रहो रे भाई।
मगर याद रखो, हिम्मत तो चाहिए ही। इसलिए पलटूदास बार-बार कहते हैं: सोई रजपूत...वही है राजपूत, जो उतर जाए युद्ध के मैदान में और तब तक न लौटे जब तक जीत ही न ले। अपने को गंवा दे। अपने को दांव पर लगा दे। लेकिन तब तक न लौटे, जब तक परम जीत न हो जाए।
और परम जीत क्या है? परम जीत वही--अपने को गंवा देना है। हमने अपने को इतना ज्यादा सजा रखा है, संवार रखा है! हमने अपने अहंकार को इतने सिंहासन पर बिठा दिया है कि परमात्मा के लिए हमने जगह खाली ही नहीं छोड़ी। तुम जरा सिंहासन खाली करो। तुम जरा बाहर आओ। तुम शून्य हो जाओ तो परमात्मा उतरे। जब तुम बेहोश होओगे, तभी तुम शून्य होओगे। और इतना मैं तुम्हें याद दिला दूं। आज तो यह बात ही की बात होगी, क्योंकि तुम उस बज्म में अभी गए नहीं। आज तो मेरे भरोसे पर तुम्हें स्वीकार कर लेना होगा; कोई और उपाय नहीं। आज तो तुम्हें यह बात सिर्फ संकेत मात्र होगी कि जिस दिन कोई आदमी ठीक से बेहोश हो जाता है परमात्मा के लिए, उसी दिन होश आता है। यह बात उलटबांसी है।
यह शराब जो मैं तुम्हें पिलाना चाहता हूं, पिला रहा हूं, अगर तुम पीने को राजी हो गए और तुमने कंठ से नीचे उतार ली--तो तुम पहली दफा जीवन में होश से भरोगे। पहली बार तुम्हारे भीतर ज्योति का ऊर्ध्वगमन शुरू होगा। पहली बार तुम्हारे सपने खो जाएंगे और संसार खो जाएगा। पहली बार तुम घर आओगे।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, पश्चिम में आज जो संवेदनशील अस्तित्ववादी चिंतक हैं वे सभी के सभी दुखवादी हैं। क्या संवेदना दुख ही लाती है? क्या संवेदना के पार भी कुछ है, जो सुख और दुख दोनों से मुक्त करता है? कृपा करके समझाइए।
मनुष्य एक वर्तुल है। निश्चित ही प्रत्येक वर्तुल का केंद्र होता है। तो मनुष्य के भीतर दोनों हैं--केंद्र और परिधि। केंद्र है तुम्हारी आत्मा। अभी कहता हूं ‘आत्मा’; जिस दिन जान लोगे, उस दिन कहूंगा ‘परमात्मा।’ एक ही चीज है। सोया रहे तुम्हारे भीतर परमात्मा तो आत्मा; जाग जाए तो परमात्मा।
तुम्हारे भीतर एक तो केंद्र है--आत्मा या परमात्मा। और तुम्हारी परिधि है--शरीर या संसार। साधारणतः आदमी दोनों की तरफ सोया हुआ है; न उसे भीतर के परमात्मा का पता है, न उसे बाहर के संसार का कुछ होश है। चला जा रहा है--नींद में चला जा रहा है।
तुमने सुनी होगी न बात, कई लोग नींद में चलते हैं। शायद तुममें से भी कोई चलता हो। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं, हर दस आदमी में एक आदमी नींद में चलने की क्षमता रखता है। इतने लोग यहां हैं, दस-पांच आदमी तो जरूर नींद में चलते ही होंगे। निद्रा में चलना जिससे होता है, वह खुद भी चौंकता है सुबह उठ कर। उससे कहो तो मानता नहीं। रात जब उसे तुम नींद में चलते देखोगे, तुम भी चौंकोगे: उसकी आंख खुली होती है और वह नींद में होता है। अगर उसे तुम जगा दो तो वह एकदम चौंक पड़ेगा और कहेगा: क्या मामला है? बहुत घबड़ा जाएगा।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं: नींद में चलते किसी आदमी को जगाना मत, अन्यथा बहुत घबड़ा जाएगा। हृदय का दौरा भी पड़ सकता है। क्योंकि वह तो सोचता है कि बिस्तर पर सोया है और अचानक तुमने उठा दिया और बैठकखाने में खड़ा है वह--तो वह घबड़ा जाएगा। नींद में चलते किसी आदमी को जगाना मत।
और नींद में आदमी बड़ी सुविधा से चल लेता है। कम से कम अपने मकान में तो बड़े मजे से चल लेता है। सब आदत है; यंत्रवत है। सब उसे मालूम है: दरवाजा कहां है, दीवाल कहां है, कुर्सी कहां रखी है। दिन में भी कभी-कभी कुर्सी से टकरा जाता है, टेबल में धक्का लग जाता है, दरवाजे से पैर लग जाता है; लेकिन रात में जब चलता है नींद में, तो कहीं धक्का नहीं लगता, आंख खुली रहती है।
कार दुर्घटनाओं के संबंध में मनोवैज्ञानिकों ने बहुत सी खोजें की हैं। पाया गया है कि रात तीन बजे से पांच बजे के बीच सर्वाधिक दुर्घटनाएं होती हैं। जो ड्राइवर रात भर चलाते हैं, वे तीन और पांच के बीच घटनाएं होती हैं। सर्वाधिक कार दुर्घटनाएं। उस पर बहुत अध्ययन करने पर पता चला है कि तीन और पांच के बीच अधिक लोगों के लिए नींद का समय है--गहरा से गहरा समय है। रात में दो घंटे आदमी सर्वाधिक सोता है। अगर वे दो घंटे उसे सोने मिल जाएं तो ताजा बना रहता है। अगर वे दो घंटे सोने न मिलें तो वह आठ घंटे भी सोया रहे तो भी ताजा नहीं होता। इन दो घंटों में मनुष्य के शरीर का तापमान नीचे गिर जाता है, दो डिग्री नीचे गिर जाता है। इसीलिए तुम्हें सुबह-सुबह पांच बजे के करीब थोड़ी सर्दी मालूम होती है; लगता है, एक कंबल और हो। सर्दी बढ़ती नहीं, तुम्हारा तापमान गिर जाता है। और जब दो डिग्री तापमान गिरता है दो घंटे के लिए, तो वही सबसे गहरी नींद का समय है। ये सबकी अलग-अलग होती हैं, यह भी खयाल रखना।
कोई आदमी दो से चार के बीच तापमान पाता है कम हो गया, तो वह दो और चार के बीच सोना उसके लिए एकदम जरूरी है। उसके स्वास्थ्य के लिए, मानसिक संतुलन के लिए, ये दो घंटे अनिवार्य हैं। ऐसा आदमी अगर चार बजे उठ आएगा, उसे कोई अड़चन न होगी। ऐसा आदमी ब्रह्ममुहूर्त में उठ सकता है और दूसरों को पापी समझेगा। और दूसरों को समझाएगा कि ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए। मुझे देखो!
लेकिन जिस आदमी को चार और छह के बीच दो घंटे तापमान गिरता है, उसकी बड़ी मुश्किल है; वह नहीं उठ सकता है चार बजे। अगर वह उठ भी आए तो दिन भर परेशान होगा, दिन भर सिर भारी होगा, नींद आती रहेगी। और यह जो चार बजे उठ आता है, यह उसको पापी बताएगा। तो अपराध-भाव भी पैदा हो गया कि मैं भी कैसा तामसी आदमी। यह सब मूढ़तापूर्ण सिद्धांत है।
लेकिन रात में दो घंटे सबका तापमान गिरता है। अलग-अलग समय पर गिरता है। पुरुषों का आमतौर से तीन और पांच बजे के बीच गिरता है। और स्त्रियों का आमतौर से पांच और सात के बीच गिरता है। इसलिए पश्चिम की व्यवस्था ज्यादा वैज्ञानिक मालूम पड़ती है कि पति उठ कर सुबह की चाय बनाए; पत्नी नहीं। उसके लिए सोने का वक्त है। पूर्वीय व्यवस्था अवैज्ञानिक मालूम पड़ती है कि पत्नी पहले उठे, घर झाडू-बुहारी लगाए, चाय इत्यादि बनाए, फिर पति को उठाए, पतिदेव उठें तो उनके लिए इंतजाम करें। यह ज्यादा अवैज्ञानिक है। कम से कम आधुनिक शोध इसकी सहमति में नहीं है।
तो पुरुष तीन और पांच के बीच जब गहरी नींद में उतर जाते हैं, वही कार दुर्घटनाओं का समय है। मनोवैज्ञानिकों ने पाया कि तीन और पांच के बीच अनेक ड्राइवर आंखें तो खुली रखते हैं और भीतर सो जाते हैं। आंखें खुली रहती हैं। देख रहे हैं। पास में बैठा हुआ आदमी यह नहीं पाएगा कि वे सो रहे हैं; आंख खुली है और वे झपकी खा गए। वह जो झपकी खा जाना है, वही दुर्घटनाओं का सबसे बड़ा कारण है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह अगर कारण मिटा दिया जाए तो पचास प्रतिशत दुर्घटनाएं कम हो जाएंगी। मगर इसको मिटाना बहुत मुश्किल मामला है। वह तीन और पांच के बीच तो झपकी आएगी ही।
मैं तुमसे यह कहना चाह रहा हूं कि आंख खुली हो, तब भी नींद हो सकती है। और जिसको हम जागरण कहते हैं, यह आंख खुली नींद है। न हमें ठीक-ठीक संसार का पता है, न ठीक-ठीक हमें अपना पता है। हमें पता कुछ भी नहीं है। हम तो चले जा रहे हैं यंत्रवत। ऐसे आदमी को न तो बड़े दुखों का पता होता है, न बड़े सुखों का पता होता है। ऐसा आदमी तो धक्के में चलता जाता है। ऐसे आदमी की खाल बड़ी मोटी होती है--संवेदनहीन, इनसेंसिटिव होता है आदमी। इसलिए साधारण आदमी को दुख पता नहीं चलता।
बुद्ध चिल्लाते हैं कि दुख है, सारा जीवन दुख है--जन्म दुख, जीवन दुख, जवानी दुख, जरा दुख, मृत्यु दुख, सब दुख ही दुख है। तुम सुन भी लेते हो, लेकिन तुम्हें समझ में नहीं आता है, कि सब दुख ही दुख है। बुद्ध बहुत संवेदनशील व्यक्ति हैं। असल में पृथ्वी पर इतने संवेदनशील व्यक्ति कम ही हुए हैं। उनकी संवेदनशीलता इतनी प्रगाढ़ है, इसलिए उन्हें सब दुख दिखाई पड़ता है। जहां तुम्हें फूल मालूम पड़ते हैं, वहां भी उन्हें कांटे मालूम पड़ते हैं। यह तो तुम्हारे ऊपर निर्भर है।
अगर तुम ठीक से अभ्यास करो रोज-रोज, सख्त बिस्तर पर सोने का और फिर अभ्यास बढ़ाते जाओ, तो एक दिन तुम कांटों के बिस्तर पर भी सो सकते हो। काशी में तुम्हें मिल जाएंगे लोग सोते हुए कांटे के बिस्तर पर। वह अभ्यास की बात है। उनकी संवेदनशीलता बिलकुल मर गई है।
तुम चकित होओगे, किसी दिन अपने बेटे को कहना, या अपनी पत्नी को, या अपने पति को, कि एक सुई लेकर तुम्हारी पीठ में कई जगह चुभाएं। तो कुछ जगह तो तुम अनुभव करोगे कि चुभन हो रही है, कुछ जगह तुम्हें पता नहीं चलेगा; पति चुभा रहा है और तुम्हें पता नहीं चल रहा। शरीर में ऐसे कई बिंदु हैं, जो बिलकुल संवेदनशून्य हैं। और कई बिंदु हैं जो बहुत संवेदनशील हैं। अगर व्यक्ति अभ्यास करे तो सारा शरीर संवेदनशून्य हो सकता है।
और जीवन में इतना दुख है, इस कारण हम सभी ने किसी-किसी तरह के अभ्यास कर लिए हैं, ताकि पता न चले। तुम रास्ते से निकलते हो, एक आदमी भीख मांग रहा है। अब अगर तुम संवेदनशील व्यक्ति हो तो तुम्हें पीड़ा होगी। क्योंकि तुम इस समाज के हिस्सेदार हो, जिस समाज ने इस आदमी को भीख मांगने पर मजबूर कर दिया। तुम्हें पीड़ा होगी। तुम्हें परेशानी होगी। तुम जा रहे थे काम करने कुछ, अब तुम्हारा चित्त इसमें उलझ गया। अब तुम्हारे काम में अड़चन होगी। तुम अगर कवि हो और एक कविता उठ रही थी और आकाश में बादल घिरे थे और बड़ा सौंदर्य का तुम्हें भाव हो रहा था--एक भिखमंगे को देख कर सब खराब हो गया। कविता खो गई; उलटा रोष पैदा हो रहा है। दुख और उदासी आ गई। तुम अदालत जा रहे थे काम करने, अब यह भिखारी तुम्हारा पीछा करेगा। इसके घाव तुम्हें याद आते रहेंगे। तुम भोजन करने जा रहे थे, अब भोजन न कर सकोगे, उबकाई आएगी। तुमने इसके जो घावों से भरा शरीर देखा है सड़क के किनारे, वह भूलेगा नहीं। तुम भोजन करोगे, इसकी दुर्गंध तुम्हारे आस-पास घिरी रहेगी।
अब करना क्या? यह समाज में बहुत दुख है। तो उपाय एक ही है: संवेदनशून्य हो जाओ। इस तरह की पर्त ओढ़ लो अपने चारों तरफ, कवच धारण कर लो कि भिखारी भीख मांगता रहे, तुम्हें पता न चले, तुम निकल जाओ; कोई किसी को मारता रहे, तुम निकल जाओ; कुछ भी होता रहे, तुम्हें चिंता न हो। तुम्हें अपनी ही चिंताएं बहुत हैं; अगर तुम बहुत संवेदनशील हो जाओ तो तुम जीओगे कैसे?
तो एक मजेदार घटना घटती है, कि आदमी चारों तरफ इतना दुख है, उसके बीच से ऐसा तैरता चला जाता है जैसे कहीं दुख है ही नहीं। मगर खयाल रखना, जब तुम्हारी संवेदना इतनी मुर्दा हो जाती है कि तुम्हें दुख का पता नहीं चलता, तो इसके साथ ही साथ तुम्हारे सुख की संवेदना भी मुर्दा हो गई; ये दोनों साथ-साथ चलती हैं, एक ही अनुपात में होती हैं। जिस आदमी को इस भिखारी के घाव नहीं दिखाई पड़ते, उसे कमल का फूल भी दिखाई नहीं पड़ेगा। एक ही अनुपात होता है। अगर कमल का फूल देखना है, तो भिखारी के घाव भी देखने पड़ेंगे। अगर फूल का सौंदर्य और फूल का मखमलीपन स्पर्श करना है तो कांटे की पीड़ा भी अनुभव करनी पड़ेगी। अगर तुमने हाथ ऐसे कर लिए कि कांटों का पता ही नहीं चलता तो फिर फूल का भी पता नहीं चलेगा।
जिसने दुख की संवेदना रोक ली, उसे सुख का भी पता नहीं चलता। और दुख काफी है; इसलिए सुख भी खो गया है। हम सब संवेदनशून्य हो गए हैं।
फिर जब कोई समाज संपन्न होता है, तो धीरे-धीरे वह जो दुख से बचने के लिए हमने संवेदना शून्य कर रखी थी, उसकी जरूरत नहीं रह जाती। इसलिए पश्चिम में यह घटना घट रही है।
तुम्हारा प्रश्न है: ‘पश्चिम में आज जो संवेदनशील अस्तित्ववादी चिंतक हैं, वे सभी दुखवादी हैं। क्यों?’
कारण है। पश्चिम में दुख कम हो गया है। यह तुम्हें बहुत हैरानी की लगेगी बात, विरोधाभासी लगेगी। तुम समझोगे कि यह मैं क्या कह रहा हूं! पश्चिम में दुख, बाहर दिखाई पड़ने वाला दुख, कम हो गया। सड़कों पर गंदगी नहीं है। लोग भीख नहीं मांग रहे हैं। गरीब नहीं बचा है। भिखमंगा नहीं है। बच्चों के पेट, भूख और गलत भोजन करने से बड़े नहीं हैं। लोग सुंदर हो गए हैं। देह स्वस्थ हुई है। लोग ज्यादा जी रहे हैं। कम से कम बाहर एक तरह की संपन्नता आ गई है। जीवन का ढांचा ऊपर उठा है। चूंकि जीवन का ढांचा ऊपर उठ गया है, पश्चिम के आदमी को सुविधा है कि वह अपने कवच को थोड़ा कम कर ले; अब बचने की कोई जरूरत नहीं है, बाहर दुख कम है। चूंकि बाहर दुख कम है, बचने की जरूरत नहीं है, इसलिए बाहर ज्यादा दुख दिखाई पड़ेगा।
पूरब में दुख इतना ज्यादा है कि तुम मर ही जाओगे, आत्महत्या कर लोगे--अगर तुमने संवेदनशीलता प्रकट की। तुम घर से बाजार तक नहीं पहुंच पाओगे; बीच में किसी झाड़ में लटका कर अपने को मर जाओगे। चारों तरफ असह्य पीड़ा है। कोई विधवा रो रही है। कोई भूखा मर रहा है। कोई भिखमंगा बच्चा तुम्हारा कपड़ा पकड़े हुए तुम्हारे पीछे ही भागता जा रहा है; तुम झिझकते जाते हो। तुम कहते हो: छोड़, भाग यहां से! कहीं और जा! जैसे तुम्हारे पास हृदय नहीं है! हृदय रख कर करोगे कैसे? हृदय रख कर चलाओगे कैसे? हृदय रख कर चले तो कुछ होने ही वाला नहीं है। पैसा लेकर गए थे सब्जी खरीदने, कोई भिखमंगा ले लेगा। बच्चे के लिए दवा खरीदने गए थे, कोई विधवा ले लेगी। जीओगे कैसे? घर कैसे लौटोगे? भिखमंगी इतनी है, दुख इतना है--अगर बांटने चले तो तुम दुखी होकर मर जाओगे। अब अपने को बचाना है, तो एक ही उपाय है: खूब मोटी चमड़ी कर लो।
इसलिए पश्चिम से लोग आते हैं--यहां बहुत मित्र पश्चिम से हैं--उन सबको एक तकलीफ खड़ी होती है। निरंतर प्रश्न पूछे जाते हैं...कोई भारतीय प्रश्न नहीं पूछता कि सड़कों पर भिखमंगे हैं, हम क्या करें? लेकिन हर रोज किसी पश्चिमी संन्यासी का प्रश्न आ जाता है कि ध्यान तो ठीक है, लेकिन चारों तरफ इतनी गरीबी और भिखमंगापन है, इसके लिए क्या किया जाए? इसके लिए क्या करना पड़ेगा? रोज ही कोई पश्चिमात्य का प्रश्न होता है कि मुझे ध्यान से आनंद भी आ रहा है, लेकिन बाहर आश्रम के जाने में बड़ी घबड़ाहट होती है। चारों तरफ भिखमंगापन है। दरवाजे के बाहर निकले कि भिखमंगे खड़े हैं। इनके लिए क्या किया जाए? इनकी चिंता मन को सताती है।
लेकिन कोई पूर्वीय नहीं पूछता। कोई भारतीय नहीं पूछता। इन पांच सालों में एक भारतीय ने प्रश्न नहीं उठाया। कारण है। भारतीय पूछे तो जीए कैसे? जीना मुश्किल हो जाएगा। भारतीय को अपनी संवेदना क्षीण कर लेनी पड़ी।
बुद्ध ने कहा था: दुख है। क्योंकि बुद्ध एक संपन्न परिवार में पैदा हुए थे और बचपन से ही उन्हें दुख से बचाया गया था और सुख की सारी सुविधाएं खोली गई थीं। सुंदरतम स्त्रियां उनके पास थीं, सुंदरतम भोजन था, सुंदर वस्त्र थे, सुंदर महल थे। हर मौसम के लिए अलग महल पिता ने बनवा दिए थे। बाहर जाने की मनाही थी। क्योंकि ज्योतिषियों ने कहा था: अगर यह बाहर गया और उसने संसार का दुख देखा तो संन्यासी हो जाएगा। इसलिए डर से बुद्ध को भीतर ही भीतर रोका था। सुंदर संगीत का आयोजन था। सुंदर नर्तकियां नाचती थीं। सब आयोजन ऐसा था कि बाहर जाने का बुद्ध को मन ही न आए। इसी से झंझट हो गई। बुद्ध कवच न पैदा कर पाए--वह जो कवच भारत में एकदम जरूरी है। वे बाहर का खोल नहीं बना पाए। खोल बना ही नहीं; जरूरत ही न थी।
ऐसा ही समझो ना कि तुम जब जूते ही पहन कर चलते हो सदा, फिर एक दिन जरा बिना जूते के रास्ते पर चल कर देखो, तब तुमको पता चलेगा कि कंकड़ बहुत ज्यादा हैं। लेकिन जो आदमी बिना जूते के चल ही रहा है जिंदगी से; उसको कंकड़ों का पता ही नहीं चलता। कंकड़ क्या, वह अंगारे पर चल जाए तो पता नहीं चलता। पैर सख्त हो गए हैं। पैरों ने सुरक्षा कर ली है। पैरों ने अपना आयोजन कर लिया है। पैर जूते बन गए हैं।
इसलिए तुम जाकर गांव के ग्रामीण आदमी का पैर देखो। उसका पैर जूते का तलवा है, आदमी का पैर नहीं है। उसको पैर कहना ठीक नहीं। शरीर ने इंतजाम कर लिया; जूता नहीं दिया तो शरीर ने खुद ही जूता बना लिया; पैर उसका जूता हो गया। अब वह मजे से चलता जाता है--कांटे में, कीचड़ में, कबाड़ में--कुछ पता नहीं चलता उसे। शहर का आदमी आ जाए तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है; एक-एक कदम चलना मुश्किल हो जाता है।
बुद्ध को अड़चन खड़ी हो गई, क्योंकि बुद्ध को कवच पैदा नहीं हुआ। बचपन से ही गए होते बाहर, देखे होते भिखमंगे, मरते हुए लोग, बूढ़े, कोढ़ी अपंग, अंधे--यह सब देखा होता तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे चोट पड़ते-पड़ते पड़ते-पड़ते उन्होंने सुरक्षा का उपाय कर लिया होता। वह सुरक्षा पैदा न हुई। फिर एक दिन अड़चन हो गई। जाना तो पड़ेगा ही एक दिन इस दुनिया में। कब तक रोक सकते हो! नगर में महोत्सव था--युवक महोत्सव--और बुद्ध उसका उद्घाटन करने जा रहे थे। स्वभावतः राजकुमार उदघाटन करेगा। जब वे रास्ते पर गए तो बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। हटा दिए गए थे रास्ते से लोग, कोई बूढ़ा निकले ना। खबर कर दी गई थी। डुंडी पीट दी गई थी। कोई बीमार रास्ते पर न निकले। लेकिन क्या करोगे, रास्ते रास्ते हैं! एक बूढ़ा आदमी घर में से बाहर निकल आया और खांसने लगा। हो सकता है, देखने निकल आया हो; हो सकता हो न रोक पाया हो अपने मन को कि देख ले राजकुमार को, दर्शन कर ले। और खांसी आ गई।
उस बूढ़े को देख कर बुद्ध ने अपने सारथी से पूछा: इसे क्या हो गया है? इस आदमी को क्या हो गया? बुद्ध ने बूढ़ा नहीं देखा था, इसलिए बुढ़ापा भी एक बड़ा प्रश्न बन कर खड़ा हो गया। इस आदमी को हो क्या गया है? ऐसा आदमी कैसे हो गया यह? कमर झुकी जाती है। हाथ-पैर सूख गए हैं और खांस रहा है। बुद्ध ने किसी को इस तरह रुग्ण भी नहीं देखा था। चमड़ी सूख गई है। आंखें धंस गई हैं। हड्डी-हड्डी निकली है। पेट पीठ से लग गया है। इस आदमी को क्या हो गया?
सारथी ने कहा: मैं आपको क्या कहूं! ऐसा सभी आदमियों को हो जाता है अंततः। यह बुढ़ापा है। यह कोई बीमारी नहीं है। यह जिंदगी का सहज क्रम है।
बुद्ध ने तत्क्षण पूछा: क्या यही दशा मेरी भी हो जाएगी? आज तक यह प्रश्न उठा ही न था।
सारथी ने कहा कि मुझे क्षमा करें, झूठ नहीं बोल सकता आप से और सच कहने में भी डरता हूं। हो तो जाएगा। यह सभी को होता रहा; कोई भी अपवाद नहीं।
तो बुद्ध ने कहा: वापस लौटा लो रथ। अब युवक महोत्सव का उदघाटन करने की कोई जरूरत नहीं रही। मैं बूढ़ा हो ही गया। अब क्या युवक! तुम वापस चलो।
वापस लौटते वक्त देखा कि एक आदमी मर गया, उसकी अरथी निकल रही है। इस आदमी को क्या हो गया? और सारथी ने कहा: यह उस आदमी के आगे की दशा है। वह जो अभी रास्ते में देखा था खांसते-खंखारते, यह उसके बाद की अवस्था है। यह आदमी मर गया।
बुद्ध ने कहा: क्या मैं भी मर जाऊंगा? सारथी ने कहा: सभी मरते हैं; कोई भी अपवाद नहीं। और महल के द्वार पर बुद्ध की आंखें अंधेरे से भरी हैं; हाथ-पैर डगमगा रहे हैं। जब वे महल के द्वार पर उतरते हैं, तब उन्होंने संन्यासी देखा--एक गैरिक वस्त्रधारी संन्यासी। उन्होंने पूछा: इस आदमी को क्या हुआ? यह गैरिक वस्त्र क्यों पहने हुए है?
सारथी ने कहा: यह आदमी उन दोनों को जो हो गया, उसको देख कर बचने का उपाय खोज रहा है। वह जो बूढ़ा हो गया, वह जो मर गया--इस आदमी को दिखाई पड़ गया कि जीवन में दुख है, दुख के पार कैसे जाएं, इसकी यह चेष्टा में लगा है। यह कोशिश में लगा है। यह संन्यासी है। यह महाजीवन को खोजने चला है--ऐसा जीवन, जहां दुख न हो। ऐसा सोच कर इसने जीवन का त्याग कर दिया है। यह अमृत की तलाश में है। यह अमृत का यात्री है।
उसी रात बुद्ध भाग गए। उसी रात गैरिक वस्त्र प्रीतिकर हो गए। उसी रात गैरिक वस्त्रों में रंग गए। उसी रात संन्यास का जन्म हो गया। यह ज्योतिषियों की बड़ी कृपा थी कि उन्होंने बुद्ध के पिता को समझाया कि इसे बाहर मत जाने देना। नहीं तो कितने राजकुमार होते हैं, ऐसे ही बुद्ध भी खो गए होते!
मैं तुम्हें यह समझाने के लिए कह रहा हूं कि पश्चिम में आज वैसी हालत हो गई है जैसे कभी-कभी पूरब में किन्हीं-किन्हीं राजपुत्रों को उपलब्ध थी। आज पश्चिम में साधारण आदमी को वह उपलब्ध है, जो राजाओें को कल उपलब्ध नहीं था। साधारण आदमी इन सुविधाओं को उपलब्ध कर लिया है, जो राजपुत्र तरसते हैं। अगर आज अकबर आए या चंगीज खान या नादिरशाह या नेपोलियन, तो एक साधारण आदमी जिस सुखद जिंदगी को जी रहा है बाहर, उसे देख कर ईर्ष्या से भर जाएंगे।
इसका परिणाम यह हुआ कि पश्चिम के पास जो कवच है, वह धीरे-धीरे टूटने लगा। जो बुद्ध को हुआ था, एक आदमी को, वह पश्चिम में आज बहुत विचारकों को हो रहा है कि जीवन में दुख है, दुख ही दुख है। अस्तित्ववाद बड़ी महत्वपूर्ण घटना है।
तुमने कभी सोचा, जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के बेटे हैं, क्यों? तुमने कभी सोचा, बुद्ध राजा के बेटे हैं, क्यों? तुमने कभी सोचा हिंदुओं के सब अवतार राजाओं के बेटे हैं, क्यों? कारण है। वही कारण काम कर रहा है। संपन्नता हो और चारों तरफ सुख हो, तो आदमी दुख से बचाने का कवच नहीं बनाता। और फिर अगर दुख के सामने आ जाए तो दुख चुभ जाता है, छाती में तीर की तरह लग जाता है। इसलिए अस्तित्ववाद का जन्म हुआ।
और अस्तित्ववाद का जन्म हुआ, एक संयोग में--दूसरे महायुद्ध में। क्योंकि दूसरे महायुद्ध के पहले तक एक संपन्नता की धारा रही और पश्चिम सोच रहा था पहुंच रहे हैं शिखर पर और फिर एकदम से धड़ाम से गिरा और सब तरफ दुख की धारा बह गई। खून ही खून छितर गया। सब तरफ मृत्यु नंगा नाच करने लगी। मृत्यु का तांडव-नृत्य हुआ, उसे देख कर, उस स्थिति को अनुवाद करके अस्तित्ववाद का जन्म हुआ।
पश्चिम के विचारक बाहर के प्रति जागरूक हो गए हैं, इसलिए दुख है। जल्दी ही अस्तित्ववाद दूसरा कदम लेगा। अगर लेगा तो पश्चिम धार्मिक हो जाएगा; जिसकी संभावना रोज बढ़ती जाती है। पश्चिम के धार्मिक होने की संभावना है। पूरब में तो सूरज डूब गया। सूरज अब पश्चिम में उगेगा। पूरब में तो कम्युनिज्म की संभावना है; धर्म की कोई संभावना नहीं। पूरब में तो नारा समाजवाद का है। धर्म इत्यादि की बकवास कौन करता है!
मुझसे लोग आकर पूछते हैं कि आपके पास सारी दुनिया से लोग चले आ रहे हैं, लेकिन भारतीय इतने उत्सुक नहीं मालूम होते हैं! भारतीय कैसे उत्सुक हों? भारतीयों की उत्सुकता दूसरी है। वे पश्चिम की तरफ जा रहे हैं--किसी को वैज्ञानिक बनना है; किसी को इंजीनियर बनना है, किसी को फिजीसिस्ट बनना है; कोई एटामिक एनर्जी का अध्ययन करने जा रहा है। भारत की प्रतिभा पश्चिम जा रही है कि कैसे हम ज्यादा संपन्न हो जाएं, कैसे समाजवाद आए, कैसे वैज्ञानिक टेक्नालॉजी आए। और पश्चिम से जो बुद्धिमान है, वह भागा पूरब की तरफ आ रहा है कि हम खोज लें जो बुद्ध पुरुषों ने कहा है। इसके पहले कि पश्चिम इस दुख के बोझ से दब कर मर जाए, हम किसी तरह खोज लें अपने भीतर सुख की कोई किरण। बाहर तो दुख ही दुख है; हम भीतर मुड़ जाएं और भीतर सुख को खोज लें।
अस्तित्ववाद क्रांति की शुरुआत है। अस्तित्ववाद ने पहली घोषणा कर दी: जगत दुख है। अगर जगत दुख है, तो अब दूसरी घोषणा की जरूरत है: तो फिर हम कहां सुख खोजें? बाहर सुख नहीं है, तब एक ही उपाय बचता है कि हम भीतर और खोज कर देख लें। तो एक तो परिधि के प्रति पश्चिम जाग गया है, अब उसे आत्मा के प्रति जागना है, केंद्र के प्रति जागना है। अब उसे, उसे देखना है जो भीतर है। बाहर दुख है, भीतर को देखना है। और जिन्होंने भी भीतर देखा उन्होंने शाश्वत सुख पाया, स्वर्ग पाया।
अस्तित्ववाद पश्चिम में आने वाले धर्म के लिए प्रभात की बेला है। सूरज जल्दी ही उगेगा। भोर हो गई है। अभी भोर कच्ची है; जल्दी पकेगी। यह जरूरी नहीं है कि जो अस्तित्ववादी हैं वे ही धार्मिक बनेंगे; लेकिन अस्तित्ववाद भोर बन गया है। इसके बाद की जो पीढ़ी है, वह धार्मिक बनेगी। वह बन रही है।
दूसरे महायुद्ध में अस्तित्ववाद पैदा हुआ और दूसरे महायुद्ध के बाद जो बच्चे पश्चिम में पैदा हुए हैं, उनकी रुचि धर्म में अपूर्व रूप से है। युवा। आज जो मेरे पास युवा हैं, वे सब दूसरे महायुद्ध के बाद पैदा हुए बच्चे हैं; उन्नीस सौ पैंतालीस साल के बाद उनकी जन्म-तिथि है।
अस्तित्ववाद ने पहली भूमिका तैयार कर दी, बुनियाद रख दी; अब मंदिर बन रहा है। और यह बिलकुल नैसर्गिक प्रक्रिया से हो रहा है। जब कोई संपन्न होता है, तभी धार्मिक हो सकता है। धर्म संपन्नता की आखिरी ऊंचाई है। विपन्न आदमी धन खोजता है; ध्यान नहीं। बीमार आदमी औषधि खोजता है; आत्मा नहीं। स्वस्थ आदमी आत्मा खोजता है। संपन्न आदमी ध्यान खोजता है।
इसलिए मैं कहता हूं कि धर्म इस जगत की अंतिम, अंतिम ऊंचाई है। जिसने सब पा लिया है, वही धर्म को खोजने चलता है। जब तक कुछ पाने को बचा है संसार में, तब तक धर्म की खोज शुरू नहीं होती।
इसलिए यह भी तुम खयाल रख लेना, मुझसे अनेक लोग पूछते हैं कि संपन्न व्यक्ति ही क्यों आपके पास आते हैं? संपन्न ही खोज सकता है धर्म। विपन्न अभी और चीजें खोजने में लगा है। भूखे भजन न होईं गोपाला! वह जो भूख से भरा है, वह अभी भोजन खोज रहा है, भजन
कैसे खोजे! और अगर कभी भजन भी करता पाओ उसे, तो भोजन की तलाश में ही भजन कर रहा है, खयाल रखना। वह सत्य साईंबाबा के पास जा सकता है, क्योंकि वहां लगता है उसे कि शायद चमत्कार हो और भोजन मिल जाए; टांग टूटी है, टांग ठीक हो जाए; बीमारी है, बीमारी दूर हो जाए; नौकरी नहीं लगती, नौकरी लग जाए। जब आदमी शून्य से राख पैदा कर रहा है और शून्य में से ताबीज निकलते हैं, तो फिर कुछ भी हो सकता है। इसलिए गलत ढंग के लोग सत्य साईंबाबा के पास इकट्ठे होंगे--वे ही लोग, जो धार्मिक नहीं हैं। संसार से कुछ चाहते थे, संसार में नहीं मिला; चलो सत्यसाईं बाबा से शायद मिल जाए। एक संभावना बची है, वहां चले जाएं। बीमारी है, ठीक नहीं होती; नौकरी लगती नहीं; विवाह होता नहीं; लड़की बड़ी हो गई, अब किसी के आशीर्वाद से हो जाए।
मगर यह खोज धर्म की खोज है? तो फिर संसार क्या है? इसलिए संसारी आदमी को चमत्कारी लोग खूब प्रभावित करते हैं। संसारी आदमी धर्म से प्रभावित नहीं होता, चमत्कार से प्रभावित होता है। मुकद्दमा चल रहा है कोई, चुनाव में लड़ना है--वह जाता है। वह सत्य साईंबाबा के पास पहुंच जाता है कि चलो अब चुनाव में खड़े हुए हैं, बाबा आशीर्वाद दे दो। लेकिन धर्म का उससे क्या लेना-देना है!
खयाल रखना, जब शरीर की जरूरतें पूरी हो जाती हैं, तो मन की जरूरतें पैदा होती हैं। जब मन की जरूरतें पूरी हो जाती हैं, तब आत्मा की जरूरतें पैदा होती हैं। जो आदमी भूखा है, उसके सामने तुम पिकासो के चित्र रखो और वानगॉग के चित्र रखो, वह सिर ठोक लेगा। वह कहेगा: यह काहे के लिए रख रहे हो, मुझे भूख लगी है! ये पिकासो, वानगॉग, यह बिथोवन का संगीत, यह मोझर्ट, यह कालिदास--हटाओ इनको यहां से, जलाओ इनको! वह होली में डाल देगा तुम्हारे सब कालिदास और तुम्हारे सब शेक्सपीयर। उसे क्या प्रयोजन है इनसे? उसे क्या मतलब काव्य की गहराइयों से? उसे छंदशास्त्र में उतरने की कहां सुविधा! वह संगीत के सरगम में कैसे डूबे!
और मैं कुछ यह नहीं कहता कि वह गलत करता है। यह स्वाभाविक है। इसलिए जब भी देश गरीब होता है, उसकी संस्कृति बहुत ओछी हो जाती है, क्षुद्र हो जाती है, दो कौड़ी की हो जाती है। श्रेष्ठ का कोई स्वीकार नहीं रह जाता। अभिजात्य का विरोध हो जाता है। यह कुछ आश्चर्यजनक थोड़े ही है कि तुम्हारे कालिदास भवभूति सब राजाओं के दरबार में पले हैं। यह कुछ आश्चर्यजनक थोड़े ही है। यह कोई ट्रेड-यूनियन थोड़े ही इनको पाल सकता है। ट्रेड-यूनियन कालिदास को पाले, यह बात ही फिजूल है। ट्रेड-यूनियन कहेगा कि महाराज कालिदास, आप पुराना काम शुरू करो, लकड़ियां काटो; कविता इत्यादि से कुछ चाहिए नहीं। होगा क्या कविता से! हम मरे जा रहे हैं। कम्युनिज्म चाहिए, कविता नहीं। आप फिर वही लकड़ी काटने लगो, जैसे आप पहले काटते थे; उलटे बैठ कर अब, तो भी चलेगा। यह कहां की बुद्धिमत्ता आप बघार रहे हो?
यह संस्कृत भाषा का सौंदर्य, यह लालित्य! पर इसे जानने के लिए एक अभिजात्य चाहिए, एक ऐरिस्टोक्रेसी चाहिए। और मैं तुमसे कहना चाहता हूं: धर्म सबसे बड़ा अभिजात्य है, सबसे बड़ी ऐरिस्टोक्रेसी है। आज यह बात कहना भी कठिन है, क्योंकि यह बात ही खतरनाक मालूम पड़ती है। आज तो ऐरिस्टोक्रेसी के पक्ष में कोई एक शब्द बोलने को तैयार नहीं। जो ऐरिस्टोक्रेट हैं, वे भी नहीं बोल सकते; कौन अपनी फांसी लगवानी है। जो ऐरिस्टोक्रेट हैं, वे भी कहते हैं: समाजवाद जिंदाबाद!
समाजवाद बहुत नीचे तल की बात है। जरूरी है, होनी चाहिए। लोगों के पेट भरने चाहिए। लेकिन जीसस ठीक हैं: मैन कैन नॉट लिव बाय ब्रेड अलोन। लेकिन आदमी अकेली रोटी से थोड़े ही जी सकता है। कुछ और भी चाहिए--रोटी से कुछ बड़ा चाहिए। हां, जब तक रोटी नहीं मिली, तब तक रोटी ही सब-कुछ मालूम होती है; जिस दिन रोटी मिल गई, उसी दिन रोटी बेकार हो जाती है। जो मिल गया वही बेकार हो जाता है। तुम जानते हो। रोटी मिल गई, फिर उसमें कोई अर्थ नहीं रह जाता। मकान मिल गया है, उसमें कोई अर्थ नहीं। कार मिल गई, उसमें कोई अर्थ नहीं। जो मिल गया, वह अर्थहीन। जब तक नहीं मिला, तब तक मन में चुभता है--शूल की तरह चुभता है: एक कार चाहिए, एक मकान चाहिए, रोटी चाहिए, दुकान चाहिए, काम धंधा चाहिए, बैंक में थोड़ा रुपया चाहिए! लेकिन जैसे ही सब हो गया, फिर? फिर अचानक तुम ठिठक कर खड़े हो जाते हो--पूछते हो: अब? अब कहां? अब किधर? अब क्या करना है? तब तुम्हारे मन की जरूरतें उठनी शुरू होती हैं। मन कहता है: संगीत खोजो, साहित्य खोजो, चित्र, नृत्य...। अब तुम इस सूक्ष्म में उतरना शुरू होते हो।
फिर एक दिन मन भी भर जाता है। खोज लिया संगीत, सुन लिए बीथोवन और मोझर्ट और वेजनर; सुन लिए काव्य--कालिदास, मिल्टन, टेनिसन; देखे नृत्य--अब? अब क्या? अब महासूक्ष्म में उतरना होता है। अब प्रश्न उठता है कि मैं कौन हूं! यह सब तो हो गया। अब यहां बाहर कुछ भी नहीं बचा, जो पाने योग्य हो। जो पाया जा सकता था, पा लिया। और पाकर पाया कि यहां पाने योग्य कुछ भी नहीं है। पाकर ही पाया जाता है कि पाने योग्य कुछ भी नहीं है। बिना पाए नहीं पाया जाता। कैसे पाओगे बिना पाए? कैसे जानोगे कि व्यर्थ है? अनुभव होगा तो व्यर्थ होगा। तब एक सवाल उठता है कि मैं कौन हूं, अब इसे जान लूं। और सब तो जान लिया। संसार देख लिया--देख कर पाया: असार है। अब एक ही बात बची है कि यह मैं कौन हूं। तब प्रश्न उठता है: मैं कौन हूं? तभी धर्म का जन्म शुरू होता है।
तो पश्चिम ने देख लिया बाहर का सब। तन और मन दोनों पश्चिम के, भर रहे हैं और आत्मा की खोज शुरू हो रही है। यह भारत भी तभी धार्मिक था, जब संपन्न था। जैसे-जैसे विपन्न हुआ, वैसे-वैसे धर्म विकृत हुआ। फिर धर्म चमत्कारी बाबाओं तक सीमित रह गया। फिर मदारीगिरी का नाम धर्म हो गया। मदारियों से बहुत क्षुद्र वृत्ति के लोग प्रभावित होते हैं। मदारी तो है ही ओछा, उससे जो प्रभावित होते हैं वे उससे भी ओछी हालत में हैं।
तुम बुद्ध से थोड़े ही प्रभावित होओगे! अगर तुम सत्य साईंबाबा से प्रभावित होते हो तो बुद्ध को तो तुम ऐसे ही निकल जाओगे कि क्या रखा है, कुछ चमत्कार दिखाओ! बुद्ध ने कोई चमत्कार कभी नहीं दिखाया। बुद्ध इस जगत में धर्म के आभिजात्य के परम प्रतीक हैं। कोई चमत्कार का सवाल नहीं है। यही चमत्कार है कि कोई व्यक्ति शांत हुआ, आनंदित हुआ, परम विश्राम को उपलब्ध हुआ। यही चमत्कार है कि किसी व्यक्ति के भीतर से दुख समाप्त हुआ।
तो पहले तो दुख तो दिखाई पड़ता है बाहर; जब दुख बाहर दिखाई पड़ता है तो आदमी भीतर जाता है। और जब भीतर जाता है तो सुख दिखाई पड़ता है। और जब भीतर का सुख दिखाई पड़ता है, तब आंखों पर एक नई ज्योति उतरती है। फिर इस सारे जगत में सब कहीं, सब रूपों में तुम्हारे भीतर जो है, उसकी ही झलक दिखाई पड़ती है। एक को जान लो अपने भीतर, तो तुमने अनेक के भीतर छिपे हुए को जान लिया, क्योंकि वह भी यही है। जो तुम हो वही तुम्हारे बाहर भी है। वही वृक्ष में, वही चट्टान में, वही पत्थर में, वही नदी में, वही पहाड़ों में, वही चांद-तारों में। एक को जान लिया, सबको जान लिया।
तो ये तीन स्थितियां। एक: न तो बाहर का पता न भीतर का, मुर्दे की तरह जीए जा रहे हैं। ऐसे अधिक लोग हैं, निन्यानबे प्रतिशत लोग। दूसरी स्थिति: बाहर का पता चलना शुरू हुआ, भीतर का अभी कुछ पता नहीं है। यह अस्तित्ववाद की दशा है। दुख का बोध होगा। विषाद घिर जाएगा। संताप और चिंता पकड़ेगी। इसलिए अस्तित्ववाद के जो शब्द हैं विचार करने के, तुम अगर अस्तित्ववाद की कोई किताब देखोगे तो बड़े हैरान होओगे। जिनको हम सामान्य तौर से सोचते हैं दर्शनशास्त्र के विषय, उनकी कोई चर्चा ही नहीं है। अगर तुम सूची देखोगे विषय-सूची अस्तित्ववाद की किसी पुस्तक की, तो न तो आत्मा पाओगे उसमें, न परमात्मा, न ध्यान, कुछ भी नहीं पाओगे--पाओगे: विषाद, संताप, अर्थहीनता। ये विषय हैं। यह दूसरी स्थिति: बाहर का दर्शन हो रहा है भीतर सब अंधेरा है।
तीसरी स्थिति: भीतर भी रोशनी, बाहर भी रोशनी। बाहर का भी अनुभव हो रहा है कि बाहर दुख है और भीतर का अनुभव हो रहा है कि भीतर सुख है। यह तीसरी स्थिति। यह तीसरी स्थिति ध्यानी की स्थिति है। और इस तीसरी स्थिति के बाद एक चौथी स्थिति है, जिसका वर्णन नहीं हो सकता; जिसको हमने तुरीय कहा है। तुरीय का मतलब यह होता है: चौथी; दि फोर्थ। उसको कोई नाम नहीं दिया, क्योंकि उसको नाम दिया नहीं जा सकता। उसको सिर्फ चौथी कहा है--तुरीय। वह अवस्था है: न भीतर रहा कुछ, न बाहर रहा कुछ। अतिक्रमण हो गया। बाहर-भीतर दोनों के प्रति जाग कर पाया कि मैं दोनों के पार हूं; न तो मैं भीतर हूं, न मैं बाहर हूं। मैं अन्य हूं, मैं भिन्न हूं। मैं दोनों का साक्षी हूं। यह जो साक्षी की दशा है, यह परमात्म-दशा है। यह आखिरी आभिजात्य है। यह आखिरी लग़्जरी, जो इस जगत में इस अस्तित्व में मनुष्य को उपलब्ध हो सकती है। यह आखिरी विलास है। यह आखिरी भोग है। यह परम भोग है।
मैं संन्यासी को त्यागी नहीं कहता--परम भोग की यात्रा पर निकला खोजी कहता हूं। संसारी साधारण भोग में पड़े हैं। उनका भोग कुछ भोग जैसा नहीं है। संन्यासी असली भोगी है; उसका भोग असली भोग है, परमभोग।
संसारी क्या सुख पाता है? सोचता है: मिलेगा, मिलेगा, मिलेगा! मिलता कभी भी नहीं। एक मृग-मरीचिका--दौड़ता चला जाता है। संन्यासी पाता है--और ऐसा पाता है कि जो फिर कभी छूटता नहीं। पाया सो पाया। ऐसा पाता है जो स्वभाव है, स्वरूप है। फिर अहर्निश उस आनंद की वर्षा होती रहती है।
अनहद बाजत बांसुरी!
आज इतना ही।
भगवान, आप मधुशाला में बैठ कर रोज सुबह और शाम भर-भर कर शराब के जाम पर जाम देते हैं। मैं आपकी शराब से मस्त तो होता हूं, पर होश नहीं खोता। क्या करूं?
धन्यभागी हो, कम से कम मस्त तो होते हो! और भी हैं; तुमसे भी ज्यादा अभागे लोग हैं, जो मस्त भी नहीं होते। मस्त होते हो तो कभी बेहोश भी हो जाओगे। अच्छे लक्षण हैं। मस्त होना भी कठिन है।
मस्त होने का अर्थ होता है: मन को खोना। मस्त होने का अर्थ होता है: नियंत्रण खोना। मस्त होने का अर्थ होता है: अपने अहंकार से थोड़े नीचे उतर आना, सिंहासन छोड़ना। मस्त होने का अर्थ होता है: फिर से हो गए बालक जैसे निर्दोष; फिर से भर गए जीवन के आश्चर्य से; फिर से वृक्षों की मस्ती और फूलों की सुगंध और हवाओं का नृत्य अर्थपूर्ण हो गया। खो दी मन की, गणित की क्षमता। वह जो तर्क का सतत जाल है, वह जो तर्क का सतत फैलाव है भीतर, उसे तोड़ कर क्षण भर को बाहर निकल आए; जैसे कोई कारागृह से बाहर आ जाए। बंद दीवालें और बंद दीवालों के भीतर की बंद हवा, थोड़ी देर को जैसे कोई छोड़ कर बाहर आ जाए!
शुभ लक्षण है। ठीक दिशा में हो। लेकिन प्रश्न सार्थक है। पहले तो मस्ती ही क्यों कठिन है? इसलिए कठिन है...ऐसी सभी बातें कठिन होती हैं जो तुम्हारे अहंकार से बड़ी हैं। जो तुम्हारे अहंकार से छोटा है और तुम्हारी मुट्ठी में आ जाए उस भर में भय नहीं होता; तुम उसके मालिक हो जाते हो। तुमसे बड़ा कुछ भी तुम्हें पकड़ ले--कोई अंधड़, कोई तूफान; जो तुमसे बड़ा है; जिसकी तुम मालकियत न कर सकोगे; जिसको तुम कहो बाएं जाओ तो बाएं न जाएगा; जिसको तुम कहो दाएं जाओ तो दाएं न जाएगा; जो तुम्हारी मानेगा ही नहीं; जो तुम्हारी सुनेगा ही नहीं; जिसकी तुम्हें सुननी पड़ेगी; जिसकी तुम्हें माननी पड़ेगी; जो तुम्हें जहां ले जाएगा वहां जाना पड़ेगा--ऐसा अंधड़ फिर कोई भी हो, चाहे प्रेम का हो, चाहे प्रार्थना का हो। ऐसा अंधड़ फिर कोई भी हो, उससे तुम बचोगे, उससे तुम घबड़ाओगे। यह थोड़ा ज्यादा है। और फिर पता नहीं कहां ले जाए! तुम्हारी चालाक मनोदशा चिंतित हो जाएगी: फिर पता नहीं कहां इसका अंत हो!
तुम्हें तैरना सिखाया गया है; बहना नहीं सिखाया गया। अहंकार तैरने से निर्मित होता है। और तैरने का मजा भी तभी है, जब तुम धारा के विपरीत तैरते हो। जब नदी से लड़ते हो, जब धारे के खिलाफ तैरते हो--तब अहंकार को पूरा मजा आता है।
मस्ती का तो अर्थ है: धारा के साथ बह चले; हाथ-पैर भी न हिलाए; धारा के हो रहे। धारा जहां ले जाए--डुबा दे तो वही साहिल, वही किनारा। अब डूबने की भी तैयारी है। और ले जाए दूर खाई-खड्डों में और ले जाए सागरों में, तो जाने की तैयारी है। इसलिए आदमी प्रेम से डरता है। और इसलिए आदमी भक्ति से भी डरता है। जब प्रेम से ही डर जाते हो...एक-दूसरे से भी प्रेम नहीं कर पाते हैं, क्योंकि उसमें भी घबड़ाहट लगती है कि अंधड़ है, तूफान है।
इसलिए तो लोगों ने विवाह रचाया। विवाह प्रेम से बचने की तरकीब है। विवाह व्यवस्था है। प्रेम खतरा है। इसलिए तथाकथित बुद्धिमानों ने सारी दुनिया में, इसके पहले कि प्रेम का खतरा आए, विवाह का आयोजन कर दिया है। इस देश में तो बाल-विवाह कर देते थे। वह इस देश के तथाकथित समझदारों का हिसाब था, गणित था। इसके पहले कि कोई जवान हो जाए, जवान हो जाए तो फिर तुम कैसे रोकोगे; अंधड़ आ ही जाएगा। और एक बार आ जाए, तो फिर पैर जिंदगी भर डगमगाते हैं। एक बार जिसे डगमगाने में मजा आ गया, फिर वह फिकर नहीं करता सम्हल कर चलने की, होश से चलने की। इसके पहले कि प्रेम का अंधड़ आए, विवाह की व्यवस्था जमा दो; विवाह के पत्थरों की भी दीवाल बना दो। अगर प्रेम आएगा भी अब, तो विवाह के भीतर आएगा; खतरा नहीं होगा; सीमा रेखा होगी; परिभाषा होगी। एक तो आएगा ही नहीं। ज्यादा से ज्यादा साहचर्य से एक तरह का स्नेह पैदा हो जाता है, वह हो जाएगा। दो व्यक्ति साथ-साथ रहते हैं, स्नेह पैदा हो जाता है। जैसे भाई और बहन में होता है, वैसा ही पति और पत्नी में भी हो जाएगा।
तुम जरा देखते हो: परमात्मा ने भाई-बहन, माता-पिता सब दिए हैं, सिर्फ पत्नी नहीं दी है, पति नहीं दिया है! उतनी जगह छोड़ी थी तुम्हारे लिए मुक्त होने को। भाई-बहन तो जन्म से मिल जाते हैं; चुनाव का कोई उपाय नहीं है; तुम्हें कोई सुविधा नहीं है। और जहां चुनाव की कोई सुविधा नहीं है, वहां कोई स्वतंत्रता कैसे हो सकती है? एक ही जगह खाली छोड़ी थी, एक ही द्वार छोड़ा था तुम्हारे कारागृह में, जिससे तुम शायद बाहर निकलते और शायद मस्त होते; शायद कोई खतरा मोल लेते, कोई चुनौती स्वीकार करते। वह तुम्हारे समझदारों ने बंद कर दिया। जो परमात्मा ने थोड़ा सा द्वार रखा था, उस पर भी ईंटें जड़ दीं; उस पर भी पत्थर चुन दिए।
बाल-विवाह का मतलब होता है: बड़े होते-होते तुम पाओगे कि जैसे भाई-बहन जन्म से मिले हैं, ऐसे ही पत्नी भी, पति भी जन्म से मिला है। छोटे बच्चे, दुधमुंहे बच्चे, विवाह कर दिए गए। उनको याद भी नहीं आएगी कब उनका विवाह हुआ। वे तो होश के पहले ही विवाहित हो गए। जब होश आएगा तो वे पाएंगे कि हम तो विवाहित ही हैं। वे सदा अपने को विवाहित पाएंगे। यह उपाय था प्रेम से बचाने का।
और जो व्यक्ति प्रेम से भी बच गया, उसके जीवन में भक्ति तो कभी पैदा नहीं होगी। क्यों? क्योंकि जब तुम एक व्यक्ति से भी प्रेम करने का खतरा मोल न ले सके, एक व्यक्ति के साथ भी आग की होली न खेल सके, तो फिर परमात्मा के साथ कैसे खेलोगे? वह तो महान खतरा है। वह तो विराट खतरा है। उसमें तो तुम बिलकुल ही मिट जाने वाले हो। प्रेम में तो तुम थोड़े-बहुत जलते, मिटते नहीं। प्रेम में तो थोड़े-बहुत छींटे पड़ते। अहंकार थोड़ा-बहुत खंडित होता है, धूल-धूसरित होता है; बिलकुल मिट नहीं जाता। लेकिन परमात्मा के प्रेम में तो तुम आमूल जाओगे, जड़ से जाओगे, कुछ भी नहीं बचेगा। पीछे लौट कर देखोगे तो कोई सेतु नहीं बचेगा; सब सेतु टूटते जाएंगे। और एक ऐसी घड़ी आती है, जैसे बूंद सागर में समाए, ऐसे तुम समा जाओगे।
तो पहले तो हम मस्त होने में ही डरते हैं। पहला डर का कारण, कि मस्ती तुमसे बड़ी है; तुम उसे मुट्ठी में न ले सकोगे।
ऐ दिले खुद्दार, यह अच्छा किया
वो जो एक लमहा मसर्रत का नसीबों से मिला था,
उसको भी ठुकरा दिया।
वो मसर्रत क्या जो बन सकती न हो तेरी कनीज
इश्क है रोजे अजल से हुक्मराने बहरोबर
इश्क, और लमहाते इसरत का गुलाम?
जो हवा मुट्ठी में आ सकती न हो
उस हवा में सांस लेना भी हराम।
समझो। ऐ दिले खुद्दार, यह अच्छा किया! ऐ स्वाभिमानी दिल, यह अच्छा किया। वह जो एक लमहा मसर्रत का नसीबों से मिला था, उसको भी ठुकरा दिया! वह जो एक क्षण आया था आनंद का; वह जो एक झलक आई थी पार से; वह एक जो झोंका हवा का आया था और अनंत को छितरा गया था तुम्हारी चेतना पर; वह जो थोड़ी सी सुख की किरण फूटी थी; वह जो एक लमहा मसर्रत का नसीबों से मिला था--उसको भी ठुकरा दिया। अच्छा किया। हे स्वाभिमानी दिल, अच्छा किया उसको ठुकरा दिया। क्योंकि उसमें खतरा था। उसमें भयानक खतरा था। खतरा यही था कि--वो मसर्रत क्या, जो बन सकती न हो तेरी कनीज! वह आनंद तुझसे बड़ा था और तेरी नौकरी न करता और तेरा चाकर न बनता। वह आनंद तुझसे बड़ा था। वह तुझे डुबा लेता। तू उसे अपनी तिजोड़ी में बंद न कर पाता। वह आनंद इतना बड़ा था कि मुट्ठी में बंद हो नहीं सकता था। वह खुली मुट्ठी में ही हो सकता था। मुट्ठी उसमें हो सकती थी; वह मुट्ठी में नहीं हो सकता था।
अब जिन लोगों को तिजोड़ी में ही एकमात्र जीवन दिखाई पड़ता है, वे कैसे सागर में उतरेंगे? सागर को तिजोड़ी में तो बंद नहीं किया जा सकता!
परमात्मा पर तुम मालकियत तो नहीं कर सकते! हां, चाहो तो उसे मालिक बना सकते हो; मगर मालकियत नहीं कर सकते उस पर। तो जिनका जिंदगी का ढांचा मालकियत में है; जो कहते हैं: जो अपनी मुट्ठी में है उसी पर हमारा भरोसा है; जो हमारा आज्ञाकारी है उसी पर हमारा भरोसा है; जो हमसे छोटा है उसी पर हमें भरोसा है।...
तुम जरा खयाल करो, जिंदगी में तुम हमेशा अपने से छोटे को खोजते रहते हो। तुम अपने से बड़े से इतने डरते हो जिसका हिसाब नहीं। अपने से छोटे को...। तुम अपने से बुद्धि में भी जो छोटा है, उसके साथ दोस्ती बनाते हो। क्योंकि तुमसे जो बुद्धि में बड़ा है उसके साथ दोस्ती भय लाती है। पता नहीं वह कहां ले जाए! उसकी बुद्धि तुमसे थोड़ी ज्यादा है। तुम सदा ही हर हालत में उसे खोजते हो जो तुम्हारा गुलाम हो सके; क्योंकि जो तुम्हारा गुलाम हो सके उससे ही तुम्हारा अहंकार भरता है, तुम मालिक हो जाते हो। अब परमात्मा को तुम अपना दास तो न बना सकोगे। परमात्मा को तो छोड़ो, जिन्होंने प्रेम किया है जीवन में, वे अपने प्रेमी को भी अपना दास नहीं बना सकते। प्रेम किसी का दास बनता ही नहीं।
वो मसर्रत क्या जो बन सकती न हो तेरी कनीज।
हम उसे खुशी ही नहीं मानते। हम कहते हैं: वह खुशी ही क्या, वह आनंद क्या, जो हमारी दासी न बन सके।
इश्क है रोजे अजल से हुक्मराने बहरोबर
इश्क और लमहाते इसरत का गुलाम?
हमारी तथाकथित बुद्धिमानी, हमारी अहंकार से भरी बुद्धिमानी कहती है कि मैं अपने प्रेम को किसी चीज पर निर्भर न होने दूंगा।
इश्क और लमहाते इसरत का गुलाम?
जो हवा मुट्ठी में आ सकती न हो
उस हवा में सांस लेना भी हराम।
यह हमारा अहंकार सदा हमसे कहता है कि जो हवा हमारी मुट्ठी में न आ जाए उसमें हम श्वास भी न लेंगे। उसमें श्वास लेना भी हराम! तो फिर तुम मुर्दा हवा में श्वास लोगे। तो तुम फिर एक बंद कमरे की हवा में श्वास लोगे, जो तुम्हारी मुट्ठी में हो। तुम सड़ी हवा में श्वास लोगे, तुम ऐसी हवा में श्वास लोगे, जहां मौत तो आ सकती है, जिंदगी नहीं आती। फिर तुम खुले तूफानों के साथ न खेल सकोगे। तुम फिर बड़ी चुनौतियां स्वीकार न कर सकोगे।
और जितनी बड़ी चुनौतियां होती हैं, उतने ही बड़े तुम होते हो। अनंत की चुनौती जब कोई स्वीकार करता है तो अनंत हो जाता है। जैसी चुनौती स्वीकार करते हो वैसे ही हो जाते हो।
हम डरे हैं। हमने अपना आंगन बना लिया है। हम उसी आंगन में समाए रहते हैं। हम आंगन के बाहर भी नहीं झांकते हैं।
मन तुम्हें मस्त नहीं होने देता। तो पहले तो मस्ती ही कठिन। और मन का सारा हिसाब यह है, मन कहता है: कल। अभी जल्दी क्या? अभी और भी तो काम हैं, इन्हें निबटा लो। मस्त ही होना है, कल हो लेना। अभी बेटे का विवाह करना है। अभी दुकान चलानी है। अभी मुकद्दमा लड़ना है। अभी हजार काम हैं। मस्ती का अभी वक्त आया नहीं। कल, फिर भविष्य में कभी मस्त हो लेंगे।
मैंने सुना है:
फिर गया था सिर उमर खय्याम का
जिसने कहा: आज आओ, मौज कर लें।
कल तो मरना है हमें
साथियो, इतिहास का संदेश है: बहुजन हिताय
आज मर लें, मार लें
कल मौज करना है हमें।
मन कहता है: आज तो मर लें, मार लें, कल मौज करना है हमें। तो मन तो उमर खय्याम जैसे लोगों को नासमझ कहता है।
फिर गया था सिर उमर खय्याम का
जिसने कहा: आज आओ, मौज कर लें।
कल तो मरना है हमें।
मस्ती तो अभी हो सकती है, कल नहीं। मौज तो अभी हो सकती है, कल नहीं। जिसने कल पर टाला, सदा को टाला; फिर कभी होगी ही नहीं। कल तो आता ही नहीं, जब भी आता है आज आता है। जो कल बीत गया, वह भी कल आज था। और जो कल आएगा कल, वह भी आज ही होकर आएगा। यह आज जो आ गया है, यह भी तो कल कल था।
और जिसने यह आदत सीख ली टालने की, स्थगन करने की कि कल, वह फिर कभी मस्त नहीं होता। और इन्हीं लोगों को हम बुद्धिमान कहते हैं। इनको हम दूर-दृष्टि कहते हैं। हम कहते हैं: ये हैं समझदार लोग--भविष्य की योजना करते, व्यवस्था करते। भविष्य की योजना और व्यवस्था में वर्तमान को गंवा देने वाले लोगों को हम बुद्धिमान कहते हैं, वर्तमान के लिए सारे भविष्य को गंवा देने वाले लोगों को हम नासमझ कहते हैं, पागल कहते हैं। और जो पागल है, वही मस्त हो सकता है।
इसलिए तुम पाओगे संतों और पागलों में एक बात समान होती है: मस्ती। संतों में कुछ पागलपन होता है; पागलों में कुछ संतपन होता है। एकदम तो एक जैसे नहीं होते, मगर कुछ समान बात होती है। पागल मन से नीचे गिर गया। पागल भी मन के बाहर हो गया। संत मन के ऊपर उठ गया। संत भी मन के बाहर हो गया। दोनों मन के बाहर हैं, इतनी बात तो समान होती है। और बहुत बातें असमान होती हैं। पागल परेशान है, क्योंकि मन से नीचे गिर गया। संत परम उल्लासित है, क्योंकि मन के पार उठ गया। लेकिन मन के दोनों बाहर हो गए।
इसलिए कभी-कभी तुम्हें परमहंसों में पागलपन दिखाई पड़ेगा और कभी-कभी पागलों की बातों में परमहंस-पन की भी झलक मिल जाएगी। कभी-कभी पागल ऐसी बात कह देते हैं जो बुद्धिमानों के मुंह से सुनी ही नहीं जाती। कभी-कभी पागल बड़ी दूर की ले आते हैं। कभी-कभी पागल ऐसे वचन बोल देते हैं, जो उपनिषदों में लिखे जाएं और वेदों में संकलित किए जाएं और कुरान में जिनकी आयतें ढाली जाएं। और कभी-कभी संत ऐसी बातें कहते हैं कि अगर मनोवैज्ञानिकों के हाथों में पड़ जाएं तो संतों को पागलखानों में रख दें।
तुम क्या सोचते हो, रामकृष्ण को अगर मनोवैज्ञानिकों के हाथ में दे दिया जाए तो रामकृष्ण को वे छोड़ेंगे बिना इलाज किए? वे इलाज करके रहेंगे। वे तो राम-कृष्ण की समाधि को हिस्टीरिया कहते थे। हिस्टीरिया और समाधि में कुछ तालमेल है। दोनों ही तो बेहोश हो जाते हैं। मिरगी का मरीज जैसे बेहोश होकर गिर जाता है, ऐसे ही तो समाधि की दशा में भी कभी कोई मस्त होकर गिर जाता है। ऊपर से देखने पर भेद नहीं मालूम पड़ता। भेद तो भीतर है, लेकिन भीतर कौन जाए! भेद तो भीतर है; भीतर को देखो कैसे! भेद तो बड़ा सूक्ष्म है। स्थूल तो समान है। जो बात आंकी जा सकती है, मापी जा सकती है, यंत्रों के द्वारा जांची जा सकती है, वह तो बिलकुल समान है--दोनों बेहोश पड़े हैं। लेकिन रामकृष्ण की बेहोशी उनके जीवन को इतने होश से भर गई, इसे कोई नहीं देखता और उनकी बेहोशी के बाद वे कैसे परम आनंद और कैसी परम शांति में कैसे कमल जैसे खिले हुए वापस लौटते हैं इसे कोई नहीं देखता। मिरगी का मरीज जब अपनी बेहोशी के बाद लौटता है तो थका-हारा, पिटा-पिटा, टूटा-टूटा--जिसका सब खो गया हो। रामकृष्ण जब लौटते हैं बेहोशी के बाद, तो ऐसे जैसे सब मिल गया। राम रतन धन पायो री!
मिरगी का मरीज घबड़ाता है कि अब दुबारा कहीं फिर न बेहोशी आ जाए। और रामकृष्ण होश में आते ही ऊपर आकाश की तरफ मुंह उठा कर कहते हैं: अब फिर ऐसे क्षण कब दोगे? अब फिर कब कृपा होगी, कब प्रसाद बरसेगा? अनेक बार रामकृष्ण जब होश में आते थे, तो रोते और चिल्लाते कि इतनी जल्दी वापस क्यों लौटा दिया? ऐसा अपूर्व आनंद बरस रहा था, वंचित क्यों कर दिया? थोड़ी मेरी और झोली भर जाती, तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाता? तुम तो औघड़दानी हो! तुम कंजूसी क्यों कर गए?
मगर ये बातें मनोवैज्ञानिक को सुनाई न पड़ेंगी। ऊपर से तो ऐसे लगेगा कि यह भी शायद पागलपन का ही हिस्सा है--ये जो बातें हैं। यह भी आदमी बिलकुल विकृत हो गया है, इसलिए कुछ भी अनाप-शनाप बोल रहा है।
बुद्ध को शांत बैठे देख कर तुम्हें भी खयाल उठेगा कि यह आदमी आलसी तो नहीं हो गया! क्योंकि आलसी भी ऐसे ही बैठ जाते हैं। आलसी और बुद्ध में क्या फर्क करोगे? ऊपर से तो कोई फर्क नहीं है; दोनों बैठ गए हैं सुस्त होकर। ये बुद्ध टिके बैठे हैं वृक्ष से, और एक आलसी भी बैठा हुआ है टिका अपने वृक्ष से; न आलसी हिलता है न डुलता है, न बुद्ध हिलते न डुलते। ऊपर से देखने पर तो दोनों आलसी हैं।
पश्चिम के विचारक पूरब को आलसी होने का इल्जाम लगाते हैं। और उनके इलजाम के पीछे वे यह भी स्वर उठाते हैं कि पूरब के जो मनीषी हुए, उन्होंने लोगों को आलस्य सिखाया, निष्क्रियता सिखाई। निश्चित ही अकर्म की बातें कही हैं ज्ञानियों ने। कहा है कि जब कर्म से तुम मुक्त हो जाओगे, तभी तुम जानोगे--जो है। अब अकर्म की बात का अर्थ आलस्य भी किया जा सकता है। बुद्ध भी आलसी ही तो मालूम पड़ते हैं; कुछ करते-धरते नहीं, खाली बैठे हैं। बोझ ही तो मालूम पड़ते हैं। अगर किसी कम्युनिस्ट समाज में पैदा होते तो जेलखाने में जिंदगी बीतती या सायबेरिया में होते। चीन में होते तो किसी शिविर में श्रमदान कर रहे होते।
अभी चीन में अनेक संन्यासी--लाओत्सु को मानने वाले और बुद्ध को मानने वाले--पड़े ही हैं सैनिक शिविरों में। जबरदस्ती कोड़ों की चोट पर गिट्टियां तुड़वाई जा रही हैं। चीन में आज निंदा है कि ये सब आलसी हैं। इन आलसियों में कोई बुद्ध भी हो सकता है। आखिर बुद्ध आदमियों में ही तो होते हैं! इन आलसियों में कोई लाओत्सु भी हो सकता है। इन आलसियों में कोई वह भी हो सकता है जो अकर्म की दशा को उपलब्ध हो गया। लेकिन वह तो बात भीतर की है; कैसे फर्क करोगे?
अकर्म में और आलस्य में कैसे फर्क करोगे? ऊपर से दोनों एक से दिखाई पड़ते हैं। फर्क भीतर है। आलसी मुर्दा होता जाता है। अकर्मण्य की दशा में जीवन की ज्योति और भी प्रगाढ़ता से जलती है। आलसी जब आंख खोलेगा तो उसकी आंख में तुम धुंध पाओगे। और जब अकर्मण्य की आंख में तुम धुंध पाओ तो गौर से देखना: तुम उसके भीतर बहुत धुआं-धुआं पाओगे, अंधेरा पाओगे। उसके जीवन में कहीं जीवन-ऊर्जा न होगी; जीवन की तरंग न होगी; लपट न होगी; ज्योति न होगी। फिर अकर्म को उपलब्ध व्यक्ति की आंख में झांक कर देखना: वहां तुम्हें विराट-विराट आकाश दिखाई पड़ेगा--जहां बादल नहीं है; जहां धुंध है ही नहीं। जहां सूरज अपने पूरे प्रकाश में चमक रहा है। और वहां तुम जीवन की बड़ी लपट पाओगे। वहां दीया बहुत प्रगाढ़ता से जल रहा है। निष्कंप है चेतना उसकी; कंपन नहीं होता। क्योंकि अब कर्म ही नहीं तो कंपन कैसा! लेकिन मुर्दा नहीं है।
मुर्दा और समाधिस्थ में कुछ फर्क समझते हो? कभी-कभी समाधिस्थ मुर्दा मालूम हो सकता है। कभी-कभी मुर्दा समाधिस्थ मालूम हो सकता है। ऊपर से देखने के उपाय नहीं हैं।
इसीलिए उमर ख्य्याम जैसा सूफी फकीर भी गलत समझा गया। उमर खय्याम के संबंध में जो भी तुम्हारी धारणा है, सब गलत है। उसने जिस शराब की बात कही है, वह शराबखानों में बिकने वाली शराब नहीं है। उसने जिस प्रेयसी की बात कही है, वह हाड़-मांस-मज्जा की प्रेयसी नहीं है। उसने ‘प्रेयसी’ परमात्मा को कहा है। और उसने शराब ‘भक्ति’ को कहा है। फिट्जराल्ड ने, जिसने उमर खय्याम का सबसे पहले अंग्रेजी में अनुवाद किया और जिसके कारण उमर खय्याम जगत-विख्यात हुआ, उमर खय्याम को समझा ही नहीं। फिट्जराल्ड तो शराब का मतलब शराब समझा। पश्चिमी आदमी था। उसने तो दो और दो चार समझे। उसने तो शराब को शराब समझा और प्रेयसी को प्रेयसी समझा। सूफियों का अपूर्व मंतव्य ऐसे एक बड़ी गलतफहमी का शिकार हो गया। फिर फिट्जराल्ड के अनुवाद के आधार पर सारी दुनिया की भाषा में अनुवाद हुए और सब जगह भूल फैलती चली गई। आज तो शराबघरों के नाम उमर खय्याम हैं। इससे ज्यादा नासमझी और कुछ नहीं हो सकती।
मंदिरों के नाम होने चाहिए उमर खय्याम; शराब-घरों के नहीं। क्योंकि जिस मधुशाला की उमर खय्याम ने बात की है, वह और ही है।
एक ऐसी भी मस्ती है, जो बेहोशी में ले जाती है; और जिसके भीतर से बड़ा गहरा होश उठता है। लेकिन इस मस्ती की पहली शर्त है कि तुम कल पर मत टालो। कल पर टालना मन की तरकीब है।
यहां मुझे सुनते हो, जिसने सोचा कि ठीक है, बात तो ठीक लगती है, सोचेंगे-विचारेंगे, कभी करेंगे--उसने न करने का इंतजाम कर लिया। मैं यहां तुमसे कुछ करने को नहीं कह रहा हूं। मैं कह रहा हूं: थोड़ी देर मेरे साथ डोल लो। यह बीन बजती ही है, तुम्हारे भीतर छिपे सांप को थोड़ा डोल लेने दो। तुम्हारे डोलने से तुम्हारे भीतर का सांप डोलेगा। जिसको हम कुंडलिनी कहते हैं, उसको हमने सर्प के रूप में ही सोचा है। किसी की बीन बजती हो तो तुम्हारे सांप को थोड़ा डोल लेने देना। टालना मत। होशियारी मत रखना। यह मत सोचना कि आस-पास बैठे लोग क्या समझेंगे। कोई क्या कहेगा कि आप और डोलते हैं! पढ़े-लिखे, समझदार, बुद्धिमान, प्रतिष्ठित--आप डोलते हैं! ऐसे डोलें नासमझ, मंदबुद्धि--चलेगा; आप बुद्धिमान हैं, आप डोलते हैं!
अहंकार रोक लेगा। और डर भी लगता है कि डोलने का अंत कहां होगा! यह तो शुरुआत है, फिर इसका अंत कहां होगा! बुद्धि सब हिसाब पहले कर लेना चाहती है। बुद्धि हर चीज को दो और दो चार हों, इसका इंतजाम कर लेना चाहती है।
काठमांडू से मेरे एक संन्यासी आए हैं: अरुण। किसी ने शिवपुरी बाबा पर किताब लिखी है, उन्होंने मेरे लिए अरुण के साथ किताब भेजी है। छोटी सी किताब है, लेकिन प्यारी है। शिवपुरी बाबा प्यारे आदमी थे। थोड़े से आदमियों में इस सदी में, जिनके भीतर परमात्मा का वास था, एक थे। वे कोई पैंतीस साल तक सारी दुनिया में यात्रा करते रहे--चुपचाप, एक अज्ञात आदमी की भांति! उन यात्राओं में वे दुनिया के बड़े-बड़े लोगों से मिले। अलबर्ट आइंस्टीन से भी मिलना उनका हुआ। अलबर्ट आइंस्टीन से उनकी जो बात हुई, उसमें शिवपुरी बाबा ने कहा: आप क्या सोचते हैं दो और दो चार होते हैं? आइंस्टीन ने कहा: निश्चित दो और दो चार होते हैं, इसमें भी क्या पूछने की बात है!
शिवपुरी बाबा ने कहा: लेकिन मेरा एक निवेदन है, दो और दो चार हो नहीं सकते। एक और एक दो नहीं हो सकते, क्योंकि यहां दो चीजें एक जैसी हैं ही नहीं; जोड़ोगे कैसे? यहां दो ‘एक’ एक जैसे हैं ही नहीं, प्रत्येक चीज इतनी अद्वितीय है! एक और एक मिल कर दो हो सकते हैं, अगर एक और एक बिलकुल एक जैसे हों। मगर यहां कोई चीज एक जैसी नहीं है।
तुम कहते हो, एक आदमी कमरे में है, एक और आदमी गया तो दो आदमी हो गए। मगर ये दो आदमी इतने भिन्न हैं, इनको दोनों को एक-एक मान कर चलोगे, एक जैसा मान कर चलोगे? गणित में धोखा हो जाएगा। इसमें एक आदमी कृष्ण जैसा हो सकता है, एक आदमी कंस जैसा हो सकता है। ये दोनों भीतर जाएं तो दो नहीं होते। कृष्ण और कंस हों तो एक-दूसरे को काट देंगे। या इनमें कोई मजनू और लैला हो सकता है; ये दो भीतर जाएं तो दो जुड़ कर एक हो जाएंगे, दो नहीं बचेंगे। निर्भर करेगा। सदा एक और एक दो नहीं होगा और सदा दो और दो चार नहीं होंगे। कभी एक और एक मिल कर डेढ़ ही होगा; कभी एक और एक मिल कर एक ही होगा; कभी एक और एक मिल कर दस भी हो सकते हैं। कठिन है कहना।
कहते हैं आइंस्टीन चुप हो गया और सोचने लगा: बात तो सच थी। जिंदगी गणित से थोड़ी ज्यादा है। जिंदगी रहस्यपूर्ण है। गणित सारे रहस्यों को समाप्त कर देता है।
मस्ती का अर्थ है: गणित के बाहर उठना; तर्क के बाहर उठना। तर्क कामचलाऊ है। बाजार में ठीक है; मंदिर में जरा भी ठीक नहीं। और जब तुम काम-धाम में लगे हो, हिसाब-किताब कर रहे हो, उपयोग कर लेना, लेकिन इस भ्रांति में मत पड़ना कि यही तुम्हारी जिंदगी हो जाए। कुछ झरोखे खुले रखना। कुछ झरोखे खुले रखना, जहां से ताजी हवा भी बहती रहे। कुछ रहस्य की संभावना खाली रखना। ऐसा न समझ लेना कि तुमने सब जान लिया।
जिसने सोचा कि सब जान लिया, उससे ज्यादा बड़ा अज्ञानी इस जगत में और कोई नहीं है। क्योंकि उसका ज्ञान ही अब उसे और जानने की यात्रा पर न जाने देगा। यहां कौन कब सबको जान पाता है! जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा: जितना ज्यादा हमने जाना, उतना जानने को शेष पाया। जितना हम जानते गए, उतना ही लगा कुछ भी तो नहीं जानते।
मस्त होने का अर्थ होता है: तुम अपने सिर में ही समाप्त नहीं हो; तुम्हारे पास हृदय भी है। खोपड़ी ही तुम्हारी आत्मा नहीं है; तुम्हारी आत्मा तुम्हारी खोपड़ी से बड़ी है। तुम्हारे भीतर ऐसे बिंदु भी हैं, जहां दो और दो पांच भी होते हैं, और दो और दो तीन भी रह जाते हैं और कभी दो और दो एक ही रह जाता है। तुम्हारे भीतर ऐसी संभावनाएं, आयाम भी हैं, जहां गणित व्यर्थ हो जाते हैं, तर्कों में कोई सार नहीं रह जाता; जहां तर्क की निष्पत्ति का कोई मूल्य नहीं होता; जहां काव्य का आविर्भाव होता है। तुम्हारे भीतर ऐसे हृदय का स्रोत भी है, जहां प्रेम जन्मता है, काव्य जन्मता है; जहां गीत लगते हैं; जहां फूल खिलते हैं; जहां से रहस्य उमगता है, समाधि पैदा होती है।
जब तुम डोलते हो, जब तुम मस्त होते हो, तो तुम सिर से नीचे उतर रहे हो। तुम्हारी ऊर्जा सिर से उतरने लगी और हृदय पर पड़ने लगी। तुम्हारा झरना हृदयोन्मुख हुआ। डोलना सिर्फ डोलना ही थोड़े है। अगर शरीर को ही हिला रहे हो तो बेकार कसरत कर रहे हो; उसका कोई मूल्य नहीं है। तुम हिला रहे हो, तब तो बिलकुल ही मूल्य नहीं है। हिल रहा है। तुम रोको भर मत, इतना काफी है। तुम रोको तो रोक सकते हो। मगर हिलाओ तो हिला नहीं सकते। इसे मैं दोहरा दूं। तुम रोको तो रोक सकते हो। सिर मालिक बन जाएगा और हृदय को कोई गुंजाइश न छोड़ेगा; जंजीरों में डाल देगा और कह देगा: तू अज्ञानी है, अंधा है। रुक! चुप! श्रद्धा को उठने न देगा। प्रेम को विह्वल न होने देगा। सिपाही की तरह संगीन लेकर खड़ा हो जाएगा।
और हृदय बहुत कोमल है--फूल की तरह कोमल है। अब फूल में तुम संगीन चुभा दोगे तो संगीन नहीं टूटेगी, फूल ही टूट जाएगा। हृदय बहुत कोमल है। बहुत कोमल तंतु हैं हृदय के!
तुम चाहो तो रोक सकते हो कंपन, लेकिन तुम पैदा नहीं कर सकते। तुम ऐसी चेष्टा करके हिलने लगो तो सर्कस हो जाएगा। तुम चेष्टा करके हिल सकते हो--अच्छी कवायद हो जाए, अच्छा व्यायाम हो जाए--लेकिन चूक जाओगे। इससे भीतर का सांप न हिलेगा। पहले तो तुमने बांसुरी ही न सुनी, बीन ही न सुनी।
तो हिलाने की चेष्टा मत करना। हां, रोकने का भाव न आए, इतना भर ध्यान रखना। जब उठने लगे कोई उमंग तो तुम छोड़ देना फिकर लोक-लाज की। तो मस्त हो पाओगे।
कब तक हवाए शौक से दिल को बचाइए,
मौसम का जो भी मशवरा हो, मान जाइए।
जब वसंत आ गया हो और जब हवाओं में रंग हो और फूलों में गंध हो और पक्षी गीत गाने लगें, और मोर अपने पंख फैला दें, तो फिर बचाना मत।
कब तक हवाए शौक से दिल को बचाइए,
मौसम का जो भी मशवरा हो, मान जाइए।
जब वसंत आए तो अपने हृदय के द्वार खुले छोड़ देना।
पी है अगर शराब तो कुछ लुत्फ उठाइए,
क्यों इतनी ऐतिहाद? जरा लड़खड़ाइए!
क्यों इतनी ऐतिहाद? इतनी सावधानी भी क्या! इतने सावधान हो-हो कर मत चलिए। यहां आ ही गए हो, अगर थोड़ी शराब पी ही ली है...पी है अगर शराब तो कुछ लुत्फ उठाइए! तो फिर थोड़ा लुत्फ, फिर थोड़ा रंग बहने दो। फिर भीतर कोई डोले तो डोलने दो। भीतर कोई गुनगुनाए तो गुनगुनाने दो। रोमांच हो आए तो होने दो। आंसू बहें तो बहने दो।
पी है अगर शराब तो कुछ लुत्फ उठाइए,
क्यों इतनी ऐतिहाद? जरा लड़खड़ाइए!
इतनी भी सावधानी क्या? इतनी भी होशियारी क्या? कभी तो ऐसा करो कि होशियारी को हटा कर रख दो। कभी तो थोड़ी देर को होशियार न रहो। कभी तो थोड़ी देर के लिए निर्दोष हो जाओ, नासमझ हो जाओ। कभी तो थोड़ी देर के लिए फिर बालवत हो जाओ।
जीसस ने कहा है: जो बच्चों की भांति हैं, वे ही मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर सकेंगे। ठीक ही कहा है, सौ प्रतिशत ठीक कहा है। इस देश में तो हम सदा से कहते रहे हैं: जो फिर से बालवत हो जाते हैं, वे ही संत हैं। इसलिए संतों को द्विज कहते हैं--दुबारा उनका जन्म हो गया; वे फिर बच्चे हो गए।
हर ब्राह्मण द्विज नहीं है, खयाल रखना। क्योंकि हर ब्राह्मण ब्राह्मण ही नहीं है। जिसने ब्रह्म को जाना, वह ब्राह्मण; और जो फिर से जन्मा। एक तो जन्म मां-बाप से मिलता है; वह तो सभी को मिलता है; उससे कोई द्विज नहीं होता। और जनेऊ धारण करने से कोई द्विज नहीं होता। किसको धोखा दे रहे हो? द्विज होता है कोई, दुबारा, जब मन की धूल को हटा देता है, तर्क को समेट कर रख देता है और फिर बालवत चेतना को अपने भीतर उमगने देता है।
पी है अगर शराब तो कुछ लुत्फ उठाइए
क्यों इतनी ऐतिहाद? जरा लड़खड़ाइए।
क्या सिर्फ आशिकी मय है, नासह जियाने दिल,
अपना तो इरादा था कि जां तक गंवाइए।
डरते क्यों हो? दिल की हानि का डर लगता है? लगता है कि प्रेम में कहीं दिल डूब न जाए, कहीं खो न जाए?
क्या सिर्फ आशिकी मय है, नासह जियाने दिल?
क्या तुमने यही सोचा है कि प्रेम में दिल गंवाना पड़ता है, दिल खोना पड़ता है? यह तो कुछ भी नहीं है। यह तो शुरुआत है।
अपना तो इरादा था कि जां तक गंवाइए।
प्राणों तक को गंवाना पड़े तो भी तैयारी रखनी चाहिए, क्योंकि प्राण को गंवा कर ही कोई उस परम प्राण को पाता है। अपने को खोकर ही कोई परमात्मा होता है।
क्या सिर्फ आशिकी मय है, नासह जियाने दिल,
अपना तो इरादा था कि जां तक गंवाइए।
वाइज बयाने खुल्द बहुत खूब है मगर
एक रोज उसकी बज्म में भी होकर आइए।
मुझे सुनते हो। मैं तुमसे जो कह रहा हूं, यह तो खबर है उस लोक की जो मैंने देखा। यह तो खबर है उस बज्म की, जो मैंने देखी। यह तो खबर है उस वसंत की, जो मैंने देखा। यह तो खबर है उन फूलों की, जो मैंने खिले देखे। इन्हें सुन कर तुम मस्त हो जाओ यह तो ठीक; लेकिन यह कोई अंतिम बात नहीं है--जब तक कि तुम भी उस बज्म में न हो आओ; जब तक कि तुम भी उस दर्शन को उपलब्ध न हो जाओ।
तो यहां से तो प्यास लेना। अगर मस्त ही न हुए तो प्यास ही न जागेगी। यहां से तो थोड़े प्यास को बढ़ाने का मात्र उपाय है। तुम खूब प्यासे हो जाओ। ऐसे प्यासे हो जाओ कि प्यास ही प्यास बचे, कि तुम जलने लगो प्यास से!
वाइज बयाने खुल्द बहुत खूब है मगर
मैं कितने ही अच्छे ढंग से तुम्हें कहूं, मैं कितने ही ढंग से तुम्हें समझाऊं; लेकिन जो भी मैं कहूंगा, तुम तक पहुंचते-पहुंचते शब्द रह जाएंगे। शराब तो खो जाएगी, ‘शराब’ शब्द रह जाएगा। परमात्मा तो खो जाएगा, ‘परमात्मा’ शब्द तुम्हारे कानों में सुनाई पड़ेगा। अर्थ तो मेरे ही भीतर रह जाएंगे, कोरे शब्द तुम तक पहुंचेंगे। लेकिन कभी-कभी, जब तुम बहुत-बहुत मुझसे जुड़े होते हो, तो इन शब्दों में अटका-अटका थोड़ा सा शून्य भी पहुंच जाता है।
ऐसा ही समझो कि शराब के पास रखी-रखी कोई चीज भी थोड़ा सा नशा ले ली हो; शराब के पास रखी-रखी थोड़ी सी शराबमय हो गई हो। मगर यह कुछ दूर तक जाने वाली बात नहीं है। इससे यात्रा शुरू हो जाए, प्रारंभ हो जाए--पर्याप्त। जाना तो तुम्हें ही है उसके दरबार में।
वाइज बयाने खुल्द बहुत खूब है मगर
एक रोज उसकी बज्म में भी होकर आइए।
मस्त होओ, तो तुम मुझसे जुड़े। बेहोश हो जाओ, तो तुम उसकी बज्म में हो आए। मस्त हुए, तो मेरा गीत तुम्हें छुआ। बेहोश हुए तो तुम्हारा दरवाजा खुला।
अब तुम पूछते हो कि मैं मस्त तो हो जाता हूं, पर होश नहीं खोता। आधा-आधा कर रहे हो। इससे तुम बड़ी अड़चन में पड़ोगे। इससे न संसार के रहोगे, न प्रभु के हो पाओगे। इससे तो अच्छा है मस्त भी न होओ। यह तो तुम खतरा मोल ले रहे हो। यह तो तुम भारी झंझट में पड़ जाओगे। यह तो तुम घर के रहोगे न घाट के। यह तो संसार में तुम्हारा मजा कम हो जाएगा और परमात्मा में जाने की हिम्मत न जुटा पाओगे। अटक जाओगे, त्रिशंकु हो जाओगे, बीच में रह जाओगे। यह बड़ी दुविधा की दशा हो जाएगी।
अब जब मस्त ही हो रहे हो तो तब थोड़ी और हिम्मत करो। अपन इतने दूर भी आ गए, तो अब थोड़ी और हिम्मत सही। अब थोड़े बेहोश भी होओ। और ध्यान रखना, यह बेहोशी ऐसी है, जिससे होश पैदा होता है। यह बेहोशी शराब की बेहोशी नहीं है, साधारण शराब की बेहोशी नहीं है। यह बेहोशी परमात्मा की शराब की बेहोशी है। इसमें जो आदमी जितना बेहोश होता है, उतना होश को उपलब्ध होता है। अभी तुम जिसे होश कह रहे हो, वह बेहोशी है--संसार की बेहोशी। अभी तुमने जिसको जागरण समझा है, वह सिर्फ नींद है।
श्री अरविंद ने कहा है कि जब तक समाधि न फली थी, तब तक मैंने जिसे दिन समझा था वह रात से भी बदतर रात सिद्ध हुई; और जिसको मैंने जीवन समझा था, वह मौत से भी बदतर मौत थी; और जिसको मैंने अमृत समझा था, वह जहर साबित हुआ। समाधि के बाद सारा मूल्यांकन बदल जाता है; पुनः मूल्यांकन होता है।
अभी तुम जिसको जागरण कहते हो, वह जागरण नहीं है, समाधि के बाद। वह तो सिर्फ आंख खुली नींद है। आंख भर खुली हैं और तुम सो रहे हो। नींद में ही तुम चल रहे हो। नींद में ही तुम उठ रहे हो। नींद में ही तुम बातें कर रहे हो। तुम्हारे भीतर बड़ी तंद्रा है, मूर्च्छा है, प्रमाद है।
अगर तुम थोड़े-थोड़े डूबने लगे मस्ती में और फिर बेहोश हुए, तो तुम बड़े हैरान हो जाओगे। इधर तुम बेहोश होओगे संसार के प्रति, उधर एक नये होश का प्रारंभ होगा। इधर बाहर से आंख बंद होगी और भीतर आंख खुलेगी। इधर देह भूलेगी और आत्मा का स्मरण आएगा। इधर संसार की आपा-धापी का खयाल विस्मरण में चला जाएगा, संसार के प्रति बेहोश हो जाओगे, तो तत्क्षण तुम पाओगे कि प्रभु के सन्मुख खड़े हो।
यही थी दशा रामकृष्ण की, जब वे बेहोश हो जाते थे, तो संसार को भूल जाते थे, अपनी देह को भूल जाते थे। याद आ जाती थी परम प्यारे की। प्रभु के सन्मुख हो जाते थे।
तो मैं तुमसे कहूंगा: इतना किया, अब इतना और भी करो। मस्त हुए--एक कदम उठाया; अब दूसरा भी उठाओ। और दो ही कदम की दूरी है। और दो ही कदम से मंजिल पूरी हो जाती है। पहला कदम: मस्ती; दूसरा कदम: बेहोशी। और तीसरे कदम पर तो तुम बचते नहीं, परमात्मा ही बचता है। यह दो कदम का ही फासला है।
मौसमे गुल है, हवा इत्र फसां है साकी
देख गुलजार पर जन्नत का गुमां है साकी।
मौसमे गुल है! वसंत आ गया! फूल खिले। हवा इत्र फसां है साकी! और हवा में इत्र ही इत्र बिखरा हुआ है।
मौसमे गुल है, हवा इत्र फसां है साकी
देख गुलजार पर जन्नत का गुमां है साकी।
देख, बसंत में स्वर्ग उतरा है!
आज फितरत ने गुलिस्तां में उलट दी है नकाब
ओज पर किस्मते साहब, नजरां है साकी।
आज परमात्मा की नजर तुम पर पड़ी।
आज फितरत ने गुलिस्तां में उलट दी है नकाब।
जब भी कोई बुद्धपुरुष--बुद्ध या महावीर या मोहम्मद या कृष्ण या क्राइस्ट--तुम्हारे बीच आता है तो वसंत आता है। जैसे परमात्मा अपनी नकाब उलट देता है; अपना बुर्का उठा देता है; अपना घूंघट हटा देता है। हम घूंघट डाले हुए परमात्मा हैं। बुद्ध ने घूंघट उठा दिया।
आज फितरत ने गुलिस्तां में उलट दी है नकाब
ओज पर किस्मते साहब, नजरां है साकी।
वो घटा झूम कर उठी, वो जवानी बरसी
आज दुनिया की हर इक चीज जवां है साकी।
देख किस शान से मैखाने की जानिब है रवां
दीदनी सर खुशी ए बाद कसां है साकी।
मस्त हो जाओगे तो मैखाने की ओर जिस मस्ती से जाओगे, वह मस्ती देखते ही बनेगी। मंदिर की ओर मुर्दे की तरह जाते हो--एक कर्तव्य निभाने। मस्जिद चले जाते हो, क्योंकि जाना है। गुरुद्वारे में सिर पटक आते हो, क्योंकि क्या करें, प्रतिष्ठा का सवाल है! लेकिन मस्ती नहीं दिखाई पड़ती। और जब तक तुम लड़खड़ाते हुए मंदिर की तरफ न जाओगे, जैसे-जैसे मंदिर के पास पहुंचोगे वैसे-वैसे और न लड़खड़ाने लगोगे--तब तक बेकार है। सब जाना बेकार है; व्यर्थ मेहनत न करो। और लड़खड़ाना आ जाए तो मंदिर घर ही आ जाता है; तुम जहां हो वहीं आ जाता है।
देख किस शान से मैखाने की जानिब है रवां
दीदनी सर खुशी है बाद कशां है साकी
ऐसे मौसम में हिमाकत है तमन्नाए बहिश्त
ये जमीं गैरते गुलजारे जनां है साकी।
और जब बुद्ध इस जमीन पर होते हैं, तो फिर बहिश्त की बात करना ही बेकार है, स्वर्ग की बात ही करना बेकार है। ऐसे मौसम में हिमाकत है तमन्नाए बहिश्त। फिर तो हम नासमझ होंगे जो स्वर्ग जाने की सोचें। स्वर्ग सामने है। फिर तो पागल होंगे, जो परमात्मा की बात करें।
सदगुरु सामने है। उसमें डूबो वहीं से द्वार मिल जाएगा। बनते-बनते बन जाएगी।
बनत बनत बनि जाई,
हरि के चरण लगे रहो रे भाई।
मगर याद रखो, हिम्मत तो चाहिए ही। इसलिए पलटूदास बार-बार कहते हैं: सोई रजपूत...वही है राजपूत, जो उतर जाए युद्ध के मैदान में और तब तक न लौटे जब तक जीत ही न ले। अपने को गंवा दे। अपने को दांव पर लगा दे। लेकिन तब तक न लौटे, जब तक परम जीत न हो जाए।
और परम जीत क्या है? परम जीत वही--अपने को गंवा देना है। हमने अपने को इतना ज्यादा सजा रखा है, संवार रखा है! हमने अपने अहंकार को इतने सिंहासन पर बिठा दिया है कि परमात्मा के लिए हमने जगह खाली ही नहीं छोड़ी। तुम जरा सिंहासन खाली करो। तुम जरा बाहर आओ। तुम शून्य हो जाओ तो परमात्मा उतरे। जब तुम बेहोश होओगे, तभी तुम शून्य होओगे। और इतना मैं तुम्हें याद दिला दूं। आज तो यह बात ही की बात होगी, क्योंकि तुम उस बज्म में अभी गए नहीं। आज तो मेरे भरोसे पर तुम्हें स्वीकार कर लेना होगा; कोई और उपाय नहीं। आज तो तुम्हें यह बात सिर्फ संकेत मात्र होगी कि जिस दिन कोई आदमी ठीक से बेहोश हो जाता है परमात्मा के लिए, उसी दिन होश आता है। यह बात उलटबांसी है।
यह शराब जो मैं तुम्हें पिलाना चाहता हूं, पिला रहा हूं, अगर तुम पीने को राजी हो गए और तुमने कंठ से नीचे उतार ली--तो तुम पहली दफा जीवन में होश से भरोगे। पहली बार तुम्हारे भीतर ज्योति का ऊर्ध्वगमन शुरू होगा। पहली बार तुम्हारे सपने खो जाएंगे और संसार खो जाएगा। पहली बार तुम घर आओगे।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, पश्चिम में आज जो संवेदनशील अस्तित्ववादी चिंतक हैं वे सभी के सभी दुखवादी हैं। क्या संवेदना दुख ही लाती है? क्या संवेदना के पार भी कुछ है, जो सुख और दुख दोनों से मुक्त करता है? कृपा करके समझाइए।
मनुष्य एक वर्तुल है। निश्चित ही प्रत्येक वर्तुल का केंद्र होता है। तो मनुष्य के भीतर दोनों हैं--केंद्र और परिधि। केंद्र है तुम्हारी आत्मा। अभी कहता हूं ‘आत्मा’; जिस दिन जान लोगे, उस दिन कहूंगा ‘परमात्मा।’ एक ही चीज है। सोया रहे तुम्हारे भीतर परमात्मा तो आत्मा; जाग जाए तो परमात्मा।
तुम्हारे भीतर एक तो केंद्र है--आत्मा या परमात्मा। और तुम्हारी परिधि है--शरीर या संसार। साधारणतः आदमी दोनों की तरफ सोया हुआ है; न उसे भीतर के परमात्मा का पता है, न उसे बाहर के संसार का कुछ होश है। चला जा रहा है--नींद में चला जा रहा है।
तुमने सुनी होगी न बात, कई लोग नींद में चलते हैं। शायद तुममें से भी कोई चलता हो। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं, हर दस आदमी में एक आदमी नींद में चलने की क्षमता रखता है। इतने लोग यहां हैं, दस-पांच आदमी तो जरूर नींद में चलते ही होंगे। निद्रा में चलना जिससे होता है, वह खुद भी चौंकता है सुबह उठ कर। उससे कहो तो मानता नहीं। रात जब उसे तुम नींद में चलते देखोगे, तुम भी चौंकोगे: उसकी आंख खुली होती है और वह नींद में होता है। अगर उसे तुम जगा दो तो वह एकदम चौंक पड़ेगा और कहेगा: क्या मामला है? बहुत घबड़ा जाएगा।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं: नींद में चलते किसी आदमी को जगाना मत, अन्यथा बहुत घबड़ा जाएगा। हृदय का दौरा भी पड़ सकता है। क्योंकि वह तो सोचता है कि बिस्तर पर सोया है और अचानक तुमने उठा दिया और बैठकखाने में खड़ा है वह--तो वह घबड़ा जाएगा। नींद में चलते किसी आदमी को जगाना मत।
और नींद में आदमी बड़ी सुविधा से चल लेता है। कम से कम अपने मकान में तो बड़े मजे से चल लेता है। सब आदत है; यंत्रवत है। सब उसे मालूम है: दरवाजा कहां है, दीवाल कहां है, कुर्सी कहां रखी है। दिन में भी कभी-कभी कुर्सी से टकरा जाता है, टेबल में धक्का लग जाता है, दरवाजे से पैर लग जाता है; लेकिन रात में जब चलता है नींद में, तो कहीं धक्का नहीं लगता, आंख खुली रहती है।
कार दुर्घटनाओं के संबंध में मनोवैज्ञानिकों ने बहुत सी खोजें की हैं। पाया गया है कि रात तीन बजे से पांच बजे के बीच सर्वाधिक दुर्घटनाएं होती हैं। जो ड्राइवर रात भर चलाते हैं, वे तीन और पांच के बीच घटनाएं होती हैं। सर्वाधिक कार दुर्घटनाएं। उस पर बहुत अध्ययन करने पर पता चला है कि तीन और पांच के बीच अधिक लोगों के लिए नींद का समय है--गहरा से गहरा समय है। रात में दो घंटे आदमी सर्वाधिक सोता है। अगर वे दो घंटे उसे सोने मिल जाएं तो ताजा बना रहता है। अगर वे दो घंटे सोने न मिलें तो वह आठ घंटे भी सोया रहे तो भी ताजा नहीं होता। इन दो घंटों में मनुष्य के शरीर का तापमान नीचे गिर जाता है, दो डिग्री नीचे गिर जाता है। इसीलिए तुम्हें सुबह-सुबह पांच बजे के करीब थोड़ी सर्दी मालूम होती है; लगता है, एक कंबल और हो। सर्दी बढ़ती नहीं, तुम्हारा तापमान गिर जाता है। और जब दो डिग्री तापमान गिरता है दो घंटे के लिए, तो वही सबसे गहरी नींद का समय है। ये सबकी अलग-अलग होती हैं, यह भी खयाल रखना।
कोई आदमी दो से चार के बीच तापमान पाता है कम हो गया, तो वह दो और चार के बीच सोना उसके लिए एकदम जरूरी है। उसके स्वास्थ्य के लिए, मानसिक संतुलन के लिए, ये दो घंटे अनिवार्य हैं। ऐसा आदमी अगर चार बजे उठ आएगा, उसे कोई अड़चन न होगी। ऐसा आदमी ब्रह्ममुहूर्त में उठ सकता है और दूसरों को पापी समझेगा। और दूसरों को समझाएगा कि ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए। मुझे देखो!
लेकिन जिस आदमी को चार और छह के बीच दो घंटे तापमान गिरता है, उसकी बड़ी मुश्किल है; वह नहीं उठ सकता है चार बजे। अगर वह उठ भी आए तो दिन भर परेशान होगा, दिन भर सिर भारी होगा, नींद आती रहेगी। और यह जो चार बजे उठ आता है, यह उसको पापी बताएगा। तो अपराध-भाव भी पैदा हो गया कि मैं भी कैसा तामसी आदमी। यह सब मूढ़तापूर्ण सिद्धांत है।
लेकिन रात में दो घंटे सबका तापमान गिरता है। अलग-अलग समय पर गिरता है। पुरुषों का आमतौर से तीन और पांच बजे के बीच गिरता है। और स्त्रियों का आमतौर से पांच और सात के बीच गिरता है। इसलिए पश्चिम की व्यवस्था ज्यादा वैज्ञानिक मालूम पड़ती है कि पति उठ कर सुबह की चाय बनाए; पत्नी नहीं। उसके लिए सोने का वक्त है। पूर्वीय व्यवस्था अवैज्ञानिक मालूम पड़ती है कि पत्नी पहले उठे, घर झाडू-बुहारी लगाए, चाय इत्यादि बनाए, फिर पति को उठाए, पतिदेव उठें तो उनके लिए इंतजाम करें। यह ज्यादा अवैज्ञानिक है। कम से कम आधुनिक शोध इसकी सहमति में नहीं है।
तो पुरुष तीन और पांच के बीच जब गहरी नींद में उतर जाते हैं, वही कार दुर्घटनाओं का समय है। मनोवैज्ञानिकों ने पाया कि तीन और पांच के बीच अनेक ड्राइवर आंखें तो खुली रखते हैं और भीतर सो जाते हैं। आंखें खुली रहती हैं। देख रहे हैं। पास में बैठा हुआ आदमी यह नहीं पाएगा कि वे सो रहे हैं; आंख खुली है और वे झपकी खा गए। वह जो झपकी खा जाना है, वही दुर्घटनाओं का सबसे बड़ा कारण है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह अगर कारण मिटा दिया जाए तो पचास प्रतिशत दुर्घटनाएं कम हो जाएंगी। मगर इसको मिटाना बहुत मुश्किल मामला है। वह तीन और पांच के बीच तो झपकी आएगी ही।
मैं तुमसे यह कहना चाह रहा हूं कि आंख खुली हो, तब भी नींद हो सकती है। और जिसको हम जागरण कहते हैं, यह आंख खुली नींद है। न हमें ठीक-ठीक संसार का पता है, न ठीक-ठीक हमें अपना पता है। हमें पता कुछ भी नहीं है। हम तो चले जा रहे हैं यंत्रवत। ऐसे आदमी को न तो बड़े दुखों का पता होता है, न बड़े सुखों का पता होता है। ऐसा आदमी तो धक्के में चलता जाता है। ऐसे आदमी की खाल बड़ी मोटी होती है--संवेदनहीन, इनसेंसिटिव होता है आदमी। इसलिए साधारण आदमी को दुख पता नहीं चलता।
बुद्ध चिल्लाते हैं कि दुख है, सारा जीवन दुख है--जन्म दुख, जीवन दुख, जवानी दुख, जरा दुख, मृत्यु दुख, सब दुख ही दुख है। तुम सुन भी लेते हो, लेकिन तुम्हें समझ में नहीं आता है, कि सब दुख ही दुख है। बुद्ध बहुत संवेदनशील व्यक्ति हैं। असल में पृथ्वी पर इतने संवेदनशील व्यक्ति कम ही हुए हैं। उनकी संवेदनशीलता इतनी प्रगाढ़ है, इसलिए उन्हें सब दुख दिखाई पड़ता है। जहां तुम्हें फूल मालूम पड़ते हैं, वहां भी उन्हें कांटे मालूम पड़ते हैं। यह तो तुम्हारे ऊपर निर्भर है।
अगर तुम ठीक से अभ्यास करो रोज-रोज, सख्त बिस्तर पर सोने का और फिर अभ्यास बढ़ाते जाओ, तो एक दिन तुम कांटों के बिस्तर पर भी सो सकते हो। काशी में तुम्हें मिल जाएंगे लोग सोते हुए कांटे के बिस्तर पर। वह अभ्यास की बात है। उनकी संवेदनशीलता बिलकुल मर गई है।
तुम चकित होओगे, किसी दिन अपने बेटे को कहना, या अपनी पत्नी को, या अपने पति को, कि एक सुई लेकर तुम्हारी पीठ में कई जगह चुभाएं। तो कुछ जगह तो तुम अनुभव करोगे कि चुभन हो रही है, कुछ जगह तुम्हें पता नहीं चलेगा; पति चुभा रहा है और तुम्हें पता नहीं चल रहा। शरीर में ऐसे कई बिंदु हैं, जो बिलकुल संवेदनशून्य हैं। और कई बिंदु हैं जो बहुत संवेदनशील हैं। अगर व्यक्ति अभ्यास करे तो सारा शरीर संवेदनशून्य हो सकता है।
और जीवन में इतना दुख है, इस कारण हम सभी ने किसी-किसी तरह के अभ्यास कर लिए हैं, ताकि पता न चले। तुम रास्ते से निकलते हो, एक आदमी भीख मांग रहा है। अब अगर तुम संवेदनशील व्यक्ति हो तो तुम्हें पीड़ा होगी। क्योंकि तुम इस समाज के हिस्सेदार हो, जिस समाज ने इस आदमी को भीख मांगने पर मजबूर कर दिया। तुम्हें पीड़ा होगी। तुम्हें परेशानी होगी। तुम जा रहे थे काम करने कुछ, अब तुम्हारा चित्त इसमें उलझ गया। अब तुम्हारे काम में अड़चन होगी। तुम अगर कवि हो और एक कविता उठ रही थी और आकाश में बादल घिरे थे और बड़ा सौंदर्य का तुम्हें भाव हो रहा था--एक भिखमंगे को देख कर सब खराब हो गया। कविता खो गई; उलटा रोष पैदा हो रहा है। दुख और उदासी आ गई। तुम अदालत जा रहे थे काम करने, अब यह भिखारी तुम्हारा पीछा करेगा। इसके घाव तुम्हें याद आते रहेंगे। तुम भोजन करने जा रहे थे, अब भोजन न कर सकोगे, उबकाई आएगी। तुमने इसके जो घावों से भरा शरीर देखा है सड़क के किनारे, वह भूलेगा नहीं। तुम भोजन करोगे, इसकी दुर्गंध तुम्हारे आस-पास घिरी रहेगी।
अब करना क्या? यह समाज में बहुत दुख है। तो उपाय एक ही है: संवेदनशून्य हो जाओ। इस तरह की पर्त ओढ़ लो अपने चारों तरफ, कवच धारण कर लो कि भिखारी भीख मांगता रहे, तुम्हें पता न चले, तुम निकल जाओ; कोई किसी को मारता रहे, तुम निकल जाओ; कुछ भी होता रहे, तुम्हें चिंता न हो। तुम्हें अपनी ही चिंताएं बहुत हैं; अगर तुम बहुत संवेदनशील हो जाओ तो तुम जीओगे कैसे?
तो एक मजेदार घटना घटती है, कि आदमी चारों तरफ इतना दुख है, उसके बीच से ऐसा तैरता चला जाता है जैसे कहीं दुख है ही नहीं। मगर खयाल रखना, जब तुम्हारी संवेदना इतनी मुर्दा हो जाती है कि तुम्हें दुख का पता नहीं चलता, तो इसके साथ ही साथ तुम्हारे सुख की संवेदना भी मुर्दा हो गई; ये दोनों साथ-साथ चलती हैं, एक ही अनुपात में होती हैं। जिस आदमी को इस भिखारी के घाव नहीं दिखाई पड़ते, उसे कमल का फूल भी दिखाई नहीं पड़ेगा। एक ही अनुपात होता है। अगर कमल का फूल देखना है, तो भिखारी के घाव भी देखने पड़ेंगे। अगर फूल का सौंदर्य और फूल का मखमलीपन स्पर्श करना है तो कांटे की पीड़ा भी अनुभव करनी पड़ेगी। अगर तुमने हाथ ऐसे कर लिए कि कांटों का पता ही नहीं चलता तो फिर फूल का भी पता नहीं चलेगा।
जिसने दुख की संवेदना रोक ली, उसे सुख का भी पता नहीं चलता। और दुख काफी है; इसलिए सुख भी खो गया है। हम सब संवेदनशून्य हो गए हैं।
फिर जब कोई समाज संपन्न होता है, तो धीरे-धीरे वह जो दुख से बचने के लिए हमने संवेदना शून्य कर रखी थी, उसकी जरूरत नहीं रह जाती। इसलिए पश्चिम में यह घटना घट रही है।
तुम्हारा प्रश्न है: ‘पश्चिम में आज जो संवेदनशील अस्तित्ववादी चिंतक हैं, वे सभी दुखवादी हैं। क्यों?’
कारण है। पश्चिम में दुख कम हो गया है। यह तुम्हें बहुत हैरानी की लगेगी बात, विरोधाभासी लगेगी। तुम समझोगे कि यह मैं क्या कह रहा हूं! पश्चिम में दुख, बाहर दिखाई पड़ने वाला दुख, कम हो गया। सड़कों पर गंदगी नहीं है। लोग भीख नहीं मांग रहे हैं। गरीब नहीं बचा है। भिखमंगा नहीं है। बच्चों के पेट, भूख और गलत भोजन करने से बड़े नहीं हैं। लोग सुंदर हो गए हैं। देह स्वस्थ हुई है। लोग ज्यादा जी रहे हैं। कम से कम बाहर एक तरह की संपन्नता आ गई है। जीवन का ढांचा ऊपर उठा है। चूंकि जीवन का ढांचा ऊपर उठ गया है, पश्चिम के आदमी को सुविधा है कि वह अपने कवच को थोड़ा कम कर ले; अब बचने की कोई जरूरत नहीं है, बाहर दुख कम है। चूंकि बाहर दुख कम है, बचने की जरूरत नहीं है, इसलिए बाहर ज्यादा दुख दिखाई पड़ेगा।
पूरब में दुख इतना ज्यादा है कि तुम मर ही जाओगे, आत्महत्या कर लोगे--अगर तुमने संवेदनशीलता प्रकट की। तुम घर से बाजार तक नहीं पहुंच पाओगे; बीच में किसी झाड़ में लटका कर अपने को मर जाओगे। चारों तरफ असह्य पीड़ा है। कोई विधवा रो रही है। कोई भूखा मर रहा है। कोई भिखमंगा बच्चा तुम्हारा कपड़ा पकड़े हुए तुम्हारे पीछे ही भागता जा रहा है; तुम झिझकते जाते हो। तुम कहते हो: छोड़, भाग यहां से! कहीं और जा! जैसे तुम्हारे पास हृदय नहीं है! हृदय रख कर करोगे कैसे? हृदय रख कर चलाओगे कैसे? हृदय रख कर चले तो कुछ होने ही वाला नहीं है। पैसा लेकर गए थे सब्जी खरीदने, कोई भिखमंगा ले लेगा। बच्चे के लिए दवा खरीदने गए थे, कोई विधवा ले लेगी। जीओगे कैसे? घर कैसे लौटोगे? भिखमंगी इतनी है, दुख इतना है--अगर बांटने चले तो तुम दुखी होकर मर जाओगे। अब अपने को बचाना है, तो एक ही उपाय है: खूब मोटी चमड़ी कर लो।
इसलिए पश्चिम से लोग आते हैं--यहां बहुत मित्र पश्चिम से हैं--उन सबको एक तकलीफ खड़ी होती है। निरंतर प्रश्न पूछे जाते हैं...कोई भारतीय प्रश्न नहीं पूछता कि सड़कों पर भिखमंगे हैं, हम क्या करें? लेकिन हर रोज किसी पश्चिमी संन्यासी का प्रश्न आ जाता है कि ध्यान तो ठीक है, लेकिन चारों तरफ इतनी गरीबी और भिखमंगापन है, इसके लिए क्या किया जाए? इसके लिए क्या करना पड़ेगा? रोज ही कोई पश्चिमात्य का प्रश्न होता है कि मुझे ध्यान से आनंद भी आ रहा है, लेकिन बाहर आश्रम के जाने में बड़ी घबड़ाहट होती है। चारों तरफ भिखमंगापन है। दरवाजे के बाहर निकले कि भिखमंगे खड़े हैं। इनके लिए क्या किया जाए? इनकी चिंता मन को सताती है।
लेकिन कोई पूर्वीय नहीं पूछता। कोई भारतीय नहीं पूछता। इन पांच सालों में एक भारतीय ने प्रश्न नहीं उठाया। कारण है। भारतीय पूछे तो जीए कैसे? जीना मुश्किल हो जाएगा। भारतीय को अपनी संवेदना क्षीण कर लेनी पड़ी।
बुद्ध ने कहा था: दुख है। क्योंकि बुद्ध एक संपन्न परिवार में पैदा हुए थे और बचपन से ही उन्हें दुख से बचाया गया था और सुख की सारी सुविधाएं खोली गई थीं। सुंदरतम स्त्रियां उनके पास थीं, सुंदरतम भोजन था, सुंदर वस्त्र थे, सुंदर महल थे। हर मौसम के लिए अलग महल पिता ने बनवा दिए थे। बाहर जाने की मनाही थी। क्योंकि ज्योतिषियों ने कहा था: अगर यह बाहर गया और उसने संसार का दुख देखा तो संन्यासी हो जाएगा। इसलिए डर से बुद्ध को भीतर ही भीतर रोका था। सुंदर संगीत का आयोजन था। सुंदर नर्तकियां नाचती थीं। सब आयोजन ऐसा था कि बाहर जाने का बुद्ध को मन ही न आए। इसी से झंझट हो गई। बुद्ध कवच न पैदा कर पाए--वह जो कवच भारत में एकदम जरूरी है। वे बाहर का खोल नहीं बना पाए। खोल बना ही नहीं; जरूरत ही न थी।
ऐसा ही समझो ना कि तुम जब जूते ही पहन कर चलते हो सदा, फिर एक दिन जरा बिना जूते के रास्ते पर चल कर देखो, तब तुमको पता चलेगा कि कंकड़ बहुत ज्यादा हैं। लेकिन जो आदमी बिना जूते के चल ही रहा है जिंदगी से; उसको कंकड़ों का पता ही नहीं चलता। कंकड़ क्या, वह अंगारे पर चल जाए तो पता नहीं चलता। पैर सख्त हो गए हैं। पैरों ने सुरक्षा कर ली है। पैरों ने अपना आयोजन कर लिया है। पैर जूते बन गए हैं।
इसलिए तुम जाकर गांव के ग्रामीण आदमी का पैर देखो। उसका पैर जूते का तलवा है, आदमी का पैर नहीं है। उसको पैर कहना ठीक नहीं। शरीर ने इंतजाम कर लिया; जूता नहीं दिया तो शरीर ने खुद ही जूता बना लिया; पैर उसका जूता हो गया। अब वह मजे से चलता जाता है--कांटे में, कीचड़ में, कबाड़ में--कुछ पता नहीं चलता उसे। शहर का आदमी आ जाए तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है; एक-एक कदम चलना मुश्किल हो जाता है।
बुद्ध को अड़चन खड़ी हो गई, क्योंकि बुद्ध को कवच पैदा नहीं हुआ। बचपन से ही गए होते बाहर, देखे होते भिखमंगे, मरते हुए लोग, बूढ़े, कोढ़ी अपंग, अंधे--यह सब देखा होता तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे चोट पड़ते-पड़ते पड़ते-पड़ते उन्होंने सुरक्षा का उपाय कर लिया होता। वह सुरक्षा पैदा न हुई। फिर एक दिन अड़चन हो गई। जाना तो पड़ेगा ही एक दिन इस दुनिया में। कब तक रोक सकते हो! नगर में महोत्सव था--युवक महोत्सव--और बुद्ध उसका उद्घाटन करने जा रहे थे। स्वभावतः राजकुमार उदघाटन करेगा। जब वे रास्ते पर गए तो बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। हटा दिए गए थे रास्ते से लोग, कोई बूढ़ा निकले ना। खबर कर दी गई थी। डुंडी पीट दी गई थी। कोई बीमार रास्ते पर न निकले। लेकिन क्या करोगे, रास्ते रास्ते हैं! एक बूढ़ा आदमी घर में से बाहर निकल आया और खांसने लगा। हो सकता है, देखने निकल आया हो; हो सकता हो न रोक पाया हो अपने मन को कि देख ले राजकुमार को, दर्शन कर ले। और खांसी आ गई।
उस बूढ़े को देख कर बुद्ध ने अपने सारथी से पूछा: इसे क्या हो गया है? इस आदमी को क्या हो गया? बुद्ध ने बूढ़ा नहीं देखा था, इसलिए बुढ़ापा भी एक बड़ा प्रश्न बन कर खड़ा हो गया। इस आदमी को हो क्या गया है? ऐसा आदमी कैसे हो गया यह? कमर झुकी जाती है। हाथ-पैर सूख गए हैं और खांस रहा है। बुद्ध ने किसी को इस तरह रुग्ण भी नहीं देखा था। चमड़ी सूख गई है। आंखें धंस गई हैं। हड्डी-हड्डी निकली है। पेट पीठ से लग गया है। इस आदमी को क्या हो गया?
सारथी ने कहा: मैं आपको क्या कहूं! ऐसा सभी आदमियों को हो जाता है अंततः। यह बुढ़ापा है। यह कोई बीमारी नहीं है। यह जिंदगी का सहज क्रम है।
बुद्ध ने तत्क्षण पूछा: क्या यही दशा मेरी भी हो जाएगी? आज तक यह प्रश्न उठा ही न था।
सारथी ने कहा कि मुझे क्षमा करें, झूठ नहीं बोल सकता आप से और सच कहने में भी डरता हूं। हो तो जाएगा। यह सभी को होता रहा; कोई भी अपवाद नहीं।
तो बुद्ध ने कहा: वापस लौटा लो रथ। अब युवक महोत्सव का उदघाटन करने की कोई जरूरत नहीं रही। मैं बूढ़ा हो ही गया। अब क्या युवक! तुम वापस चलो।
वापस लौटते वक्त देखा कि एक आदमी मर गया, उसकी अरथी निकल रही है। इस आदमी को क्या हो गया? और सारथी ने कहा: यह उस आदमी के आगे की दशा है। वह जो अभी रास्ते में देखा था खांसते-खंखारते, यह उसके बाद की अवस्था है। यह आदमी मर गया।
बुद्ध ने कहा: क्या मैं भी मर जाऊंगा? सारथी ने कहा: सभी मरते हैं; कोई भी अपवाद नहीं। और महल के द्वार पर बुद्ध की आंखें अंधेरे से भरी हैं; हाथ-पैर डगमगा रहे हैं। जब वे महल के द्वार पर उतरते हैं, तब उन्होंने संन्यासी देखा--एक गैरिक वस्त्रधारी संन्यासी। उन्होंने पूछा: इस आदमी को क्या हुआ? यह गैरिक वस्त्र क्यों पहने हुए है?
सारथी ने कहा: यह आदमी उन दोनों को जो हो गया, उसको देख कर बचने का उपाय खोज रहा है। वह जो बूढ़ा हो गया, वह जो मर गया--इस आदमी को दिखाई पड़ गया कि जीवन में दुख है, दुख के पार कैसे जाएं, इसकी यह चेष्टा में लगा है। यह कोशिश में लगा है। यह संन्यासी है। यह महाजीवन को खोजने चला है--ऐसा जीवन, जहां दुख न हो। ऐसा सोच कर इसने जीवन का त्याग कर दिया है। यह अमृत की तलाश में है। यह अमृत का यात्री है।
उसी रात बुद्ध भाग गए। उसी रात गैरिक वस्त्र प्रीतिकर हो गए। उसी रात गैरिक वस्त्रों में रंग गए। उसी रात संन्यास का जन्म हो गया। यह ज्योतिषियों की बड़ी कृपा थी कि उन्होंने बुद्ध के पिता को समझाया कि इसे बाहर मत जाने देना। नहीं तो कितने राजकुमार होते हैं, ऐसे ही बुद्ध भी खो गए होते!
मैं तुम्हें यह समझाने के लिए कह रहा हूं कि पश्चिम में आज वैसी हालत हो गई है जैसे कभी-कभी पूरब में किन्हीं-किन्हीं राजपुत्रों को उपलब्ध थी। आज पश्चिम में साधारण आदमी को वह उपलब्ध है, जो राजाओें को कल उपलब्ध नहीं था। साधारण आदमी इन सुविधाओं को उपलब्ध कर लिया है, जो राजपुत्र तरसते हैं। अगर आज अकबर आए या चंगीज खान या नादिरशाह या नेपोलियन, तो एक साधारण आदमी जिस सुखद जिंदगी को जी रहा है बाहर, उसे देख कर ईर्ष्या से भर जाएंगे।
इसका परिणाम यह हुआ कि पश्चिम के पास जो कवच है, वह धीरे-धीरे टूटने लगा। जो बुद्ध को हुआ था, एक आदमी को, वह पश्चिम में आज बहुत विचारकों को हो रहा है कि जीवन में दुख है, दुख ही दुख है। अस्तित्ववाद बड़ी महत्वपूर्ण घटना है।
तुमने कभी सोचा, जैनों के चौबीस तीर्थंकर राजाओं के बेटे हैं, क्यों? तुमने कभी सोचा, बुद्ध राजा के बेटे हैं, क्यों? तुमने कभी सोचा हिंदुओं के सब अवतार राजाओं के बेटे हैं, क्यों? कारण है। वही कारण काम कर रहा है। संपन्नता हो और चारों तरफ सुख हो, तो आदमी दुख से बचाने का कवच नहीं बनाता। और फिर अगर दुख के सामने आ जाए तो दुख चुभ जाता है, छाती में तीर की तरह लग जाता है। इसलिए अस्तित्ववाद का जन्म हुआ।
और अस्तित्ववाद का जन्म हुआ, एक संयोग में--दूसरे महायुद्ध में। क्योंकि दूसरे महायुद्ध के पहले तक एक संपन्नता की धारा रही और पश्चिम सोच रहा था पहुंच रहे हैं शिखर पर और फिर एकदम से धड़ाम से गिरा और सब तरफ दुख की धारा बह गई। खून ही खून छितर गया। सब तरफ मृत्यु नंगा नाच करने लगी। मृत्यु का तांडव-नृत्य हुआ, उसे देख कर, उस स्थिति को अनुवाद करके अस्तित्ववाद का जन्म हुआ।
पश्चिम के विचारक बाहर के प्रति जागरूक हो गए हैं, इसलिए दुख है। जल्दी ही अस्तित्ववाद दूसरा कदम लेगा। अगर लेगा तो पश्चिम धार्मिक हो जाएगा; जिसकी संभावना रोज बढ़ती जाती है। पश्चिम के धार्मिक होने की संभावना है। पूरब में तो सूरज डूब गया। सूरज अब पश्चिम में उगेगा। पूरब में तो कम्युनिज्म की संभावना है; धर्म की कोई संभावना नहीं। पूरब में तो नारा समाजवाद का है। धर्म इत्यादि की बकवास कौन करता है!
मुझसे लोग आकर पूछते हैं कि आपके पास सारी दुनिया से लोग चले आ रहे हैं, लेकिन भारतीय इतने उत्सुक नहीं मालूम होते हैं! भारतीय कैसे उत्सुक हों? भारतीयों की उत्सुकता दूसरी है। वे पश्चिम की तरफ जा रहे हैं--किसी को वैज्ञानिक बनना है; किसी को इंजीनियर बनना है, किसी को फिजीसिस्ट बनना है; कोई एटामिक एनर्जी का अध्ययन करने जा रहा है। भारत की प्रतिभा पश्चिम जा रही है कि कैसे हम ज्यादा संपन्न हो जाएं, कैसे समाजवाद आए, कैसे वैज्ञानिक टेक्नालॉजी आए। और पश्चिम से जो बुद्धिमान है, वह भागा पूरब की तरफ आ रहा है कि हम खोज लें जो बुद्ध पुरुषों ने कहा है। इसके पहले कि पश्चिम इस दुख के बोझ से दब कर मर जाए, हम किसी तरह खोज लें अपने भीतर सुख की कोई किरण। बाहर तो दुख ही दुख है; हम भीतर मुड़ जाएं और भीतर सुख को खोज लें।
अस्तित्ववाद क्रांति की शुरुआत है। अस्तित्ववाद ने पहली घोषणा कर दी: जगत दुख है। अगर जगत दुख है, तो अब दूसरी घोषणा की जरूरत है: तो फिर हम कहां सुख खोजें? बाहर सुख नहीं है, तब एक ही उपाय बचता है कि हम भीतर और खोज कर देख लें। तो एक तो परिधि के प्रति पश्चिम जाग गया है, अब उसे आत्मा के प्रति जागना है, केंद्र के प्रति जागना है। अब उसे, उसे देखना है जो भीतर है। बाहर दुख है, भीतर को देखना है। और जिन्होंने भी भीतर देखा उन्होंने शाश्वत सुख पाया, स्वर्ग पाया।
अस्तित्ववाद पश्चिम में आने वाले धर्म के लिए प्रभात की बेला है। सूरज जल्दी ही उगेगा। भोर हो गई है। अभी भोर कच्ची है; जल्दी पकेगी। यह जरूरी नहीं है कि जो अस्तित्ववादी हैं वे ही धार्मिक बनेंगे; लेकिन अस्तित्ववाद भोर बन गया है। इसके बाद की जो पीढ़ी है, वह धार्मिक बनेगी। वह बन रही है।
दूसरे महायुद्ध में अस्तित्ववाद पैदा हुआ और दूसरे महायुद्ध के बाद जो बच्चे पश्चिम में पैदा हुए हैं, उनकी रुचि धर्म में अपूर्व रूप से है। युवा। आज जो मेरे पास युवा हैं, वे सब दूसरे महायुद्ध के बाद पैदा हुए बच्चे हैं; उन्नीस सौ पैंतालीस साल के बाद उनकी जन्म-तिथि है।
अस्तित्ववाद ने पहली भूमिका तैयार कर दी, बुनियाद रख दी; अब मंदिर बन रहा है। और यह बिलकुल नैसर्गिक प्रक्रिया से हो रहा है। जब कोई संपन्न होता है, तभी धार्मिक हो सकता है। धर्म संपन्नता की आखिरी ऊंचाई है। विपन्न आदमी धन खोजता है; ध्यान नहीं। बीमार आदमी औषधि खोजता है; आत्मा नहीं। स्वस्थ आदमी आत्मा खोजता है। संपन्न आदमी ध्यान खोजता है।
इसलिए मैं कहता हूं कि धर्म इस जगत की अंतिम, अंतिम ऊंचाई है। जिसने सब पा लिया है, वही धर्म को खोजने चलता है। जब तक कुछ पाने को बचा है संसार में, तब तक धर्म की खोज शुरू नहीं होती।
इसलिए यह भी तुम खयाल रख लेना, मुझसे अनेक लोग पूछते हैं कि संपन्न व्यक्ति ही क्यों आपके पास आते हैं? संपन्न ही खोज सकता है धर्म। विपन्न अभी और चीजें खोजने में लगा है। भूखे भजन न होईं गोपाला! वह जो भूख से भरा है, वह अभी भोजन खोज रहा है, भजन
कैसे खोजे! और अगर कभी भजन भी करता पाओ उसे, तो भोजन की तलाश में ही भजन कर रहा है, खयाल रखना। वह सत्य साईंबाबा के पास जा सकता है, क्योंकि वहां लगता है उसे कि शायद चमत्कार हो और भोजन मिल जाए; टांग टूटी है, टांग ठीक हो जाए; बीमारी है, बीमारी दूर हो जाए; नौकरी नहीं लगती, नौकरी लग जाए। जब आदमी शून्य से राख पैदा कर रहा है और शून्य में से ताबीज निकलते हैं, तो फिर कुछ भी हो सकता है। इसलिए गलत ढंग के लोग सत्य साईंबाबा के पास इकट्ठे होंगे--वे ही लोग, जो धार्मिक नहीं हैं। संसार से कुछ चाहते थे, संसार में नहीं मिला; चलो सत्यसाईं बाबा से शायद मिल जाए। एक संभावना बची है, वहां चले जाएं। बीमारी है, ठीक नहीं होती; नौकरी लगती नहीं; विवाह होता नहीं; लड़की बड़ी हो गई, अब किसी के आशीर्वाद से हो जाए।
मगर यह खोज धर्म की खोज है? तो फिर संसार क्या है? इसलिए संसारी आदमी को चमत्कारी लोग खूब प्रभावित करते हैं। संसारी आदमी धर्म से प्रभावित नहीं होता, चमत्कार से प्रभावित होता है। मुकद्दमा चल रहा है कोई, चुनाव में लड़ना है--वह जाता है। वह सत्य साईंबाबा के पास पहुंच जाता है कि चलो अब चुनाव में खड़े हुए हैं, बाबा आशीर्वाद दे दो। लेकिन धर्म का उससे क्या लेना-देना है!
खयाल रखना, जब शरीर की जरूरतें पूरी हो जाती हैं, तो मन की जरूरतें पैदा होती हैं। जब मन की जरूरतें पूरी हो जाती हैं, तब आत्मा की जरूरतें पैदा होती हैं। जो आदमी भूखा है, उसके सामने तुम पिकासो के चित्र रखो और वानगॉग के चित्र रखो, वह सिर ठोक लेगा। वह कहेगा: यह काहे के लिए रख रहे हो, मुझे भूख लगी है! ये पिकासो, वानगॉग, यह बिथोवन का संगीत, यह मोझर्ट, यह कालिदास--हटाओ इनको यहां से, जलाओ इनको! वह होली में डाल देगा तुम्हारे सब कालिदास और तुम्हारे सब शेक्सपीयर। उसे क्या प्रयोजन है इनसे? उसे क्या मतलब काव्य की गहराइयों से? उसे छंदशास्त्र में उतरने की कहां सुविधा! वह संगीत के सरगम में कैसे डूबे!
और मैं कुछ यह नहीं कहता कि वह गलत करता है। यह स्वाभाविक है। इसलिए जब भी देश गरीब होता है, उसकी संस्कृति बहुत ओछी हो जाती है, क्षुद्र हो जाती है, दो कौड़ी की हो जाती है। श्रेष्ठ का कोई स्वीकार नहीं रह जाता। अभिजात्य का विरोध हो जाता है। यह कुछ आश्चर्यजनक थोड़े ही है कि तुम्हारे कालिदास भवभूति सब राजाओं के दरबार में पले हैं। यह कुछ आश्चर्यजनक थोड़े ही है। यह कोई ट्रेड-यूनियन थोड़े ही इनको पाल सकता है। ट्रेड-यूनियन कालिदास को पाले, यह बात ही फिजूल है। ट्रेड-यूनियन कहेगा कि महाराज कालिदास, आप पुराना काम शुरू करो, लकड़ियां काटो; कविता इत्यादि से कुछ चाहिए नहीं। होगा क्या कविता से! हम मरे जा रहे हैं। कम्युनिज्म चाहिए, कविता नहीं। आप फिर वही लकड़ी काटने लगो, जैसे आप पहले काटते थे; उलटे बैठ कर अब, तो भी चलेगा। यह कहां की बुद्धिमत्ता आप बघार रहे हो?
यह संस्कृत भाषा का सौंदर्य, यह लालित्य! पर इसे जानने के लिए एक अभिजात्य चाहिए, एक ऐरिस्टोक्रेसी चाहिए। और मैं तुमसे कहना चाहता हूं: धर्म सबसे बड़ा अभिजात्य है, सबसे बड़ी ऐरिस्टोक्रेसी है। आज यह बात कहना भी कठिन है, क्योंकि यह बात ही खतरनाक मालूम पड़ती है। आज तो ऐरिस्टोक्रेसी के पक्ष में कोई एक शब्द बोलने को तैयार नहीं। जो ऐरिस्टोक्रेट हैं, वे भी नहीं बोल सकते; कौन अपनी फांसी लगवानी है। जो ऐरिस्टोक्रेट हैं, वे भी कहते हैं: समाजवाद जिंदाबाद!
समाजवाद बहुत नीचे तल की बात है। जरूरी है, होनी चाहिए। लोगों के पेट भरने चाहिए। लेकिन जीसस ठीक हैं: मैन कैन नॉट लिव बाय ब्रेड अलोन। लेकिन आदमी अकेली रोटी से थोड़े ही जी सकता है। कुछ और भी चाहिए--रोटी से कुछ बड़ा चाहिए। हां, जब तक रोटी नहीं मिली, तब तक रोटी ही सब-कुछ मालूम होती है; जिस दिन रोटी मिल गई, उसी दिन रोटी बेकार हो जाती है। जो मिल गया वही बेकार हो जाता है। तुम जानते हो। रोटी मिल गई, फिर उसमें कोई अर्थ नहीं रह जाता। मकान मिल गया है, उसमें कोई अर्थ नहीं। कार मिल गई, उसमें कोई अर्थ नहीं। जो मिल गया, वह अर्थहीन। जब तक नहीं मिला, तब तक मन में चुभता है--शूल की तरह चुभता है: एक कार चाहिए, एक मकान चाहिए, रोटी चाहिए, दुकान चाहिए, काम धंधा चाहिए, बैंक में थोड़ा रुपया चाहिए! लेकिन जैसे ही सब हो गया, फिर? फिर अचानक तुम ठिठक कर खड़े हो जाते हो--पूछते हो: अब? अब कहां? अब किधर? अब क्या करना है? तब तुम्हारे मन की जरूरतें उठनी शुरू होती हैं। मन कहता है: संगीत खोजो, साहित्य खोजो, चित्र, नृत्य...। अब तुम इस सूक्ष्म में उतरना शुरू होते हो।
फिर एक दिन मन भी भर जाता है। खोज लिया संगीत, सुन लिए बीथोवन और मोझर्ट और वेजनर; सुन लिए काव्य--कालिदास, मिल्टन, टेनिसन; देखे नृत्य--अब? अब क्या? अब महासूक्ष्म में उतरना होता है। अब प्रश्न उठता है कि मैं कौन हूं! यह सब तो हो गया। अब यहां बाहर कुछ भी नहीं बचा, जो पाने योग्य हो। जो पाया जा सकता था, पा लिया। और पाकर पाया कि यहां पाने योग्य कुछ भी नहीं है। पाकर ही पाया जाता है कि पाने योग्य कुछ भी नहीं है। बिना पाए नहीं पाया जाता। कैसे पाओगे बिना पाए? कैसे जानोगे कि व्यर्थ है? अनुभव होगा तो व्यर्थ होगा। तब एक सवाल उठता है कि मैं कौन हूं, अब इसे जान लूं। और सब तो जान लिया। संसार देख लिया--देख कर पाया: असार है। अब एक ही बात बची है कि यह मैं कौन हूं। तब प्रश्न उठता है: मैं कौन हूं? तभी धर्म का जन्म शुरू होता है।
तो पश्चिम ने देख लिया बाहर का सब। तन और मन दोनों पश्चिम के, भर रहे हैं और आत्मा की खोज शुरू हो रही है। यह भारत भी तभी धार्मिक था, जब संपन्न था। जैसे-जैसे विपन्न हुआ, वैसे-वैसे धर्म विकृत हुआ। फिर धर्म चमत्कारी बाबाओं तक सीमित रह गया। फिर मदारीगिरी का नाम धर्म हो गया। मदारियों से बहुत क्षुद्र वृत्ति के लोग प्रभावित होते हैं। मदारी तो है ही ओछा, उससे जो प्रभावित होते हैं वे उससे भी ओछी हालत में हैं।
तुम बुद्ध से थोड़े ही प्रभावित होओगे! अगर तुम सत्य साईंबाबा से प्रभावित होते हो तो बुद्ध को तो तुम ऐसे ही निकल जाओगे कि क्या रखा है, कुछ चमत्कार दिखाओ! बुद्ध ने कोई चमत्कार कभी नहीं दिखाया। बुद्ध इस जगत में धर्म के आभिजात्य के परम प्रतीक हैं। कोई चमत्कार का सवाल नहीं है। यही चमत्कार है कि कोई व्यक्ति शांत हुआ, आनंदित हुआ, परम विश्राम को उपलब्ध हुआ। यही चमत्कार है कि किसी व्यक्ति के भीतर से दुख समाप्त हुआ।
तो पहले तो दुख तो दिखाई पड़ता है बाहर; जब दुख बाहर दिखाई पड़ता है तो आदमी भीतर जाता है। और जब भीतर जाता है तो सुख दिखाई पड़ता है। और जब भीतर का सुख दिखाई पड़ता है, तब आंखों पर एक नई ज्योति उतरती है। फिर इस सारे जगत में सब कहीं, सब रूपों में तुम्हारे भीतर जो है, उसकी ही झलक दिखाई पड़ती है। एक को जान लो अपने भीतर, तो तुमने अनेक के भीतर छिपे हुए को जान लिया, क्योंकि वह भी यही है। जो तुम हो वही तुम्हारे बाहर भी है। वही वृक्ष में, वही चट्टान में, वही पत्थर में, वही नदी में, वही पहाड़ों में, वही चांद-तारों में। एक को जान लिया, सबको जान लिया।
तो ये तीन स्थितियां। एक: न तो बाहर का पता न भीतर का, मुर्दे की तरह जीए जा रहे हैं। ऐसे अधिक लोग हैं, निन्यानबे प्रतिशत लोग। दूसरी स्थिति: बाहर का पता चलना शुरू हुआ, भीतर का अभी कुछ पता नहीं है। यह अस्तित्ववाद की दशा है। दुख का बोध होगा। विषाद घिर जाएगा। संताप और चिंता पकड़ेगी। इसलिए अस्तित्ववाद के जो शब्द हैं विचार करने के, तुम अगर अस्तित्ववाद की कोई किताब देखोगे तो बड़े हैरान होओगे। जिनको हम सामान्य तौर से सोचते हैं दर्शनशास्त्र के विषय, उनकी कोई चर्चा ही नहीं है। अगर तुम सूची देखोगे विषय-सूची अस्तित्ववाद की किसी पुस्तक की, तो न तो आत्मा पाओगे उसमें, न परमात्मा, न ध्यान, कुछ भी नहीं पाओगे--पाओगे: विषाद, संताप, अर्थहीनता। ये विषय हैं। यह दूसरी स्थिति: बाहर का दर्शन हो रहा है भीतर सब अंधेरा है।
तीसरी स्थिति: भीतर भी रोशनी, बाहर भी रोशनी। बाहर का भी अनुभव हो रहा है कि बाहर दुख है और भीतर का अनुभव हो रहा है कि भीतर सुख है। यह तीसरी स्थिति। यह तीसरी स्थिति ध्यानी की स्थिति है। और इस तीसरी स्थिति के बाद एक चौथी स्थिति है, जिसका वर्णन नहीं हो सकता; जिसको हमने तुरीय कहा है। तुरीय का मतलब यह होता है: चौथी; दि फोर्थ। उसको कोई नाम नहीं दिया, क्योंकि उसको नाम दिया नहीं जा सकता। उसको सिर्फ चौथी कहा है--तुरीय। वह अवस्था है: न भीतर रहा कुछ, न बाहर रहा कुछ। अतिक्रमण हो गया। बाहर-भीतर दोनों के प्रति जाग कर पाया कि मैं दोनों के पार हूं; न तो मैं भीतर हूं, न मैं बाहर हूं। मैं अन्य हूं, मैं भिन्न हूं। मैं दोनों का साक्षी हूं। यह जो साक्षी की दशा है, यह परमात्म-दशा है। यह आखिरी आभिजात्य है। यह आखिरी लग़्जरी, जो इस जगत में इस अस्तित्व में मनुष्य को उपलब्ध हो सकती है। यह आखिरी विलास है। यह आखिरी भोग है। यह परम भोग है।
मैं संन्यासी को त्यागी नहीं कहता--परम भोग की यात्रा पर निकला खोजी कहता हूं। संसारी साधारण भोग में पड़े हैं। उनका भोग कुछ भोग जैसा नहीं है। संन्यासी असली भोगी है; उसका भोग असली भोग है, परमभोग।
संसारी क्या सुख पाता है? सोचता है: मिलेगा, मिलेगा, मिलेगा! मिलता कभी भी नहीं। एक मृग-मरीचिका--दौड़ता चला जाता है। संन्यासी पाता है--और ऐसा पाता है कि जो फिर कभी छूटता नहीं। पाया सो पाया। ऐसा पाता है जो स्वभाव है, स्वरूप है। फिर अहर्निश उस आनंद की वर्षा होती रहती है।
अनहद बाजत बांसुरी!
आज इतना ही।