PALTUDAS

Ajhun Chet Ganwar 15

Fifteenth Discourse from the series of 21 discourses - Ajhun Chet Ganwar by Osho. These discourses were given during JUL 21 - AUG 10 1977.
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बोलु हरिनाम तू छोड़ि दे काम सब
सहज में मुक्ति होइ जाए तेरी।
दाम लागै नहीं, काम यह बड़ा है,
सदा सतसंग में लाउ फेरी।।
बिलम न लाइकैं डारि सिर भार को,
छोड़ि दे आस संसार केरी।
दास पलटू कहै यही संग जाएगा।
बोलु मुख राम यह अरज मेरी।।1।।

पूरब में राम है, पच्छिम खुदाय है,
उत्तर और दक्खिन कहो कौन रहता?
साहिब वह कहां है, कहां फिर नहीं है,
हिंदू और तुरक तोफान करता।।
हिंदू और तुरक मिलि परे हैं खैंचि में
आपनी बर्ग दोउ दीन बहता।
दास पलटू कहै, साहिब सब में रहै,
जुदा न तनिक, मैं सांच कहता।।2।।

जाहि तन लगि है, सोइ तन जानिहै
जानिहै वही सतसंग-वासी।
कोटि औषधि करैं, विरह ना जाएगा,
जाहि के लगी है विरहगांसी।।
नैन झरना बन्यौ, भूख ना नींद है
परी है गले बिच प्रेम-फांसी।
दास पलटू कहै, लगी ना छूटिहै,
सकल संसार मिलि करै हांसी।।3।।

होय रजपूत सो चढ़ै मैदान पर,
खेत पर पांच-पच्चीस मारै
काम औ क्रोध दुई दुष्ट ये बड़े हैं,
ज्ञान के धनुष से इन्हें टारै।।
कूद परि जायकै कोट काया मंहै,
आगि लगाय के मोह जारै।।
दास पलटू कहैं सोई रजपूत है,
लेहि मन जीति तब आपु हारै।।4।।
आदमी आनंद की तलाश करता है--ऐसा कहते हैं। आदमी को देख कर भरोसा नहीं आता। ऐसा सुना है कि आदमी आनंद का खोजी है। आदमी को देख कर बात उलटी ही मालूम पड़ती है। लगता है, आदमी दुख का खोजी है। दुख को छोड़ता नहीं। दुख को पकड़ता है। दुख को बचाता है। दुख को संवारता है; तिजोड़ी में सम्हाल कर रखता है। दुख का बीज हाथ पड़ जाए, हीरे की तरह सम्हालता है। जन्मों-जन्मों तक सम्हालता है। लाख दुख पाए, पर फेंकने की तैयारी नहीं दिखाता।
जो लोग कहते हैं आदमी आनंद का खोजी है, लगता है आदमी की तरफ देखते ही नहीं। आदमी दुखवादी है, अन्यथा संसार इतना दुख में क्यों हो! अगर सभी लोग आनंद खोज रहे हैं, तो संसार में आनंद की थोड़ी झलक होती। कुछ को तो मिलता! और कुछ को मिल जाता तो वे बांटते औरों को भी; तो कुछ झलक उनकी आंखों और उनके प्राणों में भी आती।
अगर सभी आनंद की तलाश कर रहे हैं, तो लोग एक-दूसरे को इतना दुख क्यों दे रहे हैं। और ऐसा नहीं कि पराए ही दुख देते हों, अपने भी दुख देते हैं। अपने ही दुख देते हैं! शत्रु तो दुख देते ही हैं; हिसाब रखा है, मित्र कितना दुख देते हैं? जिन्हें तुमसे घृणा है, वे तो दुख देंगे, स्वाभाविक; लेकिन जो कहते हैं तुमसे प्रेम है, उन्होंने कितना दुख दिया, उसका हिसाब रखा है? और अगर हर आदमी दुख दे रहा है, तो एक ही बात का सबूत है कि हर आदमी दुख से भरा है। हम वही तो देते हैं, जिससे हम भरे हैं। वही तो हमसे बहता है जो हमारे भीतर लगा है। नीम के पत्ते अगर कड़वे होते हैं, तो इसी कारण कि जहर भीतर बह रहा है; और आम अगर मीठा है तो इसी कारण कि अमीरस भीतर बह रहा है।
हमारे व्यवहार से दूसरों को दुख मिलता है, क्योंकि भीतर हमारे कड़वाहट है। हम लाख कहें हम प्रेम करते हैं, लेकिन प्रेम के नाम पर भी हम दूसरों के जीवन में नरक निर्मित करते हैं। पति-पत्नियों को देखो, मां-बाप को देखो, बेटे-बच्चों को देखो--सब एक-दूसरे की फांसी लगाए हुए हैं। अच्छे-अच्छे नाम हैं; लेकिन अच्छे नामों के पीछे जो चलता है, वह सब नारकीय व्यवहार है। ऐसा है। क्यों? और सभी कहते हैं कि हम सुख को खोजते हैं।
मेरे पास रोज लोग आते हैं, जो कहते हैं: हम सुख चाहते हैं। अगर तुम सुख चाहते हो तो कोई भी तो बाधा नहीं है; सुख तो लुट रहा है। सुख तो चारों तरफ मौजूद है। ऐसे ही हो तुम, जैसे सामने गंगा बहती हो और किनारे पर खड़े तुम छाती पीटते हो, चिल्लाते हो: मैं प्यासा हूं, मैं जल चाहता हूं! झुको और पीओ! गंगा सामने बहती है। गंगा सदा सामने बहती है। और गंगा के लिए तो चाहे दो कदम भी उठाना पड़ें, सुख तो उससे भी करीब है। सुख तो तुम्हारा स्वभाव है। डूबो इस स्वभाव में।
जिन्होंने भी कभी आनंद पाया है, उन्होंने एक बात निरंतर दोहराई है कि आनंद तुम्हारा जन्म-सिद्ध अधिकार है। यह तुम्हारे रोएं-रोएं में समाया हुआ है। तुम जिस दिन तय कर लोगे कि आनंदित होना है, उसी क्षण आनंदित हो जाओगे। फिर एक पल की भी देरी नहीं है। देरी का कोई कारण नहीं है।
इसे ऐसा समझो। आनंद यदि स्वभाव है तो दुख हमें पैदा करना पड़ता है। आनंद यदि स्वभाव है तो उसका अर्थ है: अगर तुम कुछ भी न करो तो भी आनंद होगा। श्वास चलती जैसे, ऐसे तुम्हारे प्राणों में आनंद चलता है। तुम कुछ भी न करो; तुम्हारे करने पर आनंद निर्भर ही नहीं है। तुम सच्चिदानंद हो। करना पड़ता है दुख के लिए कुछ। दुख अर्जित है। दुख में बड़ी मेहनत करनी पड़ती है, बड़ा श्रम उठाना पड़ता है, बड़ी तपश्चर्या। बड़ी मुश्किल-मुश्किल से तुम दुखी हो पाते हो। और फिर भी तुम कहते हो: हम सुख के खोजी हैं! और सुख के जितने सूत्र हैं, उनमें से एक सूत्र को भी तुम मानने को तैयार नहीं। और दुख के जितने सूत्र हैं उनको छाती से लगाए बैठे हो।
क्रोध ने दुख दिया, हजार बार दुख दिया। अब छोड़ते क्यों नहीं? सुख के खोजी हो! बड़ी अजीब खोज है! मांगते हो पानी, जाते हो आग की तरफ! प्यास-प्यास चिल्लाते हो, अंगारे तलाशते हो! अंगारों से कहीं प्यास बुझी है! जानते हो: वासना ने सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं दिया; जितनी इच्छाएं कीं, उतनी पीड़ा पाई। इच्छाएं बढ़ीं, पीड़ा बढ़ी। हर इच्छा एक सीढ़ी बनी और तुम पीड़ा के शिखरों पर चढ़े। कहते हो: सुख की तलाश कर रहे हैं! हर इच्छा तुम्हें तड़पा गई। हर वासना तुम्हें गड्ढे में डाल गई, गर्त में गिरा गई। जब भी तुमने कुछ चाहा, तभी एक घाव बना; फिर घाव बढ़ता है, भरता भी नहीं। फिर भी तुम्हारी चाहत का अंत नहीं है। फिर भी तुम चाहे चले जाते हो। और उन्हीं चीजों को चाहे चले जाते हो, जिनसे तुम्हारे प्राणों में घाव बने हैं। कितनी बार अनुभव करोगे, तब जागोगे? अजहूं चेत गंवार!
दर्द इक ना-ख्वांदा मेहमां था
अगर रुखसत हुआ,
यास का इसमें कोई पहलू न था
लेकिन ऐ दिल,
ऐ अजूबाकार दिल!
तू तो यूं हिरमाजदा है
छुट गया हो जैसे कोई यारेगार
ये जो इक झोंका मसर्रत का दर आया है
मुझे मालूम है,
है तेरी उम्रे-रियाजत का सिला
लेकिन ऐ दिल, ऐ अजूबाकार दिल!
अब तुझे होने लगा उफताद का इस पर गुमां,
आह ऐ दिल,
ऐ अजूबाकार दिल!
बस के कोहना मरीज
अपने जख्मों से मोहब्बत है तुझे।
हां, ऐसा ही है। ‘अपने जख्मों से मोहब्बत है तुझे।’ ‘दर्द इक ना-ख्वांदा मेहमां था।’दर्द तो एक बिना बुलाया मेहमान था। तुमने कभी बुलाया नहीं। ऐसा तुम कहते तो हो कि दर्द हम चाहते नहीं। तुम्हारा बुलाया हुआ मेहमान न था। ‘दर्द इक ना-ख्वांदा मेहमां था।’ एक बिना बुलाया अतिथि। ‘अगर रुखसत हुआ’--अगर चला गया--‘यास का इसमें कोई पहलू न था।’ तो इतने निराश क्यों बैठे हो? इसमें निराश होने की क्या बात थी अगर दुख चला गया?
लेकिन दुख जाता है तो लोग निराश होते हैं। ऐसा मेरा भी निरीक्षण है। सुख आता है तो लोग स्वीकार नहीं कर पाते और दुख जाता है तो लोग निराश होते हैं। दुख से दोस्ती बन गई है। जन्मों-जन्मों का संबंध जुड़ गया है। दुख संगी मालूम पड़ता है, परिचित है। उसका रग-रग, रेशा-रेशा परिचित है। कितनी रातें उसके साथ तड़पे हो। कितने दिन उसके साथ पीड़ा भोगी! कितने जन्मों तक हाथ में हाथ डाल कर, गलबंहियां डाल कर चले हो! जब अचानक दुख छूटता है तो तुम खाली लगोगे। तुम्हें लगेगा, जैसे कुछ खो गया।
यहां रोज यह घटना घटती है। अगर किसी को ध्यान में थोड़ा सुख मिलता है, सुख की किरण फूटती है, तो वह घबड़ा कर आकर मुझसे पूछता है कि यह क्या हो रहा है? मुझे बड़ा सुख मालूम होता है, मैं ठीक तो हूं? कुछ गलती तो नहीं हो रही? मैं पागल तो नहीं हुआ जा रहा हूं? दुख पर इतना भरोसा आ गया है कि जब सुख आता है तो उस पर भरोसा नहीं आता है; लगता है कि कहीं पागल तो नहीं हुआ जा रहा हूं! दुख का गणित ऐसा बैठ गया है प्राणों में कि सुख हो सकता है, इस पर श्रद्धा ही नहीं जमती। और जब सुख फूटता है तो ऐसा लगता है कि कहीं कोई भूल-चूक तो नहीं हो रही, कहीं मैं पागल तो नहीं हुआ जा रहा हूं! दुख से भरी इस पृथ्वी पर सुखी होते समय पागलपन जैसा लगता है। लगता है कि कुछ, जो नहीं होना था, हो रहा है; कुछ जो किसी को नहीं हो रहा, मुझे हो रहा है; जहां भीड़ नहीं जा रही, वहां मैं अकेला चला।
भीड़ राजपथ पर है--दुख के राजपथ। और सुख की पगडंडियां हैं; उन पर अकेला चलना होता है। और जैसे ही तुम अकेले होते हो, वैसे ही घबड़ाने लगते हो। भीड़ रहती है तो भरोसा बना रहता है। संगी-साथी साथ हैं। रोने के ही संगी-साथी हैं। लेकिन साथ तो है! कोई साथ तो है! अपने ही जैसे दुखी लोग हैं, लेकिन फिर भी भीड़ तो है! अकेले तो नहीं हो।
तुम स्वर्ग में भी अकेले न रहना चाहोगे; नरक में भी रहना पड़े तो भीड़ में रहना पसंद करोगे। सोचना। खोजना अपने भीतर। ये मैं कोई सिद्धांत की बातें नहीं कह रहा हूं। यह तुम्हारे मनोविज्ञान की बात है। और इसे जब तक न समझोगे, आगे गति हो नहीं सकती।
दर्द इक ना-ख्वांदा मेहमां था,
अगर रुखसत हुआ,
यास का इसमें कोई पहलू तो न था।
इसमें इतने उदास होने की क्या बात है कि दुख चला गया! लेकिन लोग उदास होते हैं, जब दुख जाता है। जब दुख एकदम छाती से हट जाता है तो भीतर कुछ खाली हो जाता है। दुख ही तो भरे हुए है तुम्हें। दुख ही तो तुम्हारी संपदा है। दुख के कारण ही तो भीतर थोड़ी चहल-पहल है। जहां दुख गया, फिर तो सन्नाटा है; फिर तो शून्य है। और शून्य से तुम डरोगे, घबड़ाओगे।
आनंद शून्य की तरह है। दुख का बड़ा भराव है। कूड़ा-करकट सही, लेकिन आदमी अपनी झोली में कूड़ा-करकट भी डाले रहता है, तो झोली भरी हुई तो मालूम पड़ती है।
सुख शून्य है; दुख संसार है। दुख में तुम्हारी मुट्ठी में कुछ मालूम होता है; सुख में मुट्ठी खुल जाती है। सुख में तुम शून्य हो जाते हो। या इसे ऐसा समझो: दुख में तुम होते हो; सुख में तुम मिट जाते हो। इसलिए सुख में घबड़ाहट लगती है। जितना बड़ा सुख होगा उतना ही तुम्हें मिटा जाता है। जब आनंद की झलक आती है तो तुम खो जाते हो। और जब परम आनंद उतरता है तो तुम कहीं पाए ही नहीं जाते।
भूल कर भी मत सोचना कि मैं आनंदित हो सकता हूं। मैं तो कभी आनंदित हुआ ही नहीं है! जब तक मैं रहा तब तक दुख रहा। जब मैं गया, तब आनंद हुआ। और मैं दुख पर ही जीता है। दुख मैं का भोजन है। अगर तुम्हारे भीतर अहंकार की दौड़ है तो भूल कर भी यह मत सोचना कि तुम आनंद खोज रहे हो; तुम दुख ही खोजोगे। कहो कुछ भी, कहने से क्या होता है! कहो पश्चिम जाते हैं, लेकिन तुम्हें देखता हूं, कि तुम पूरब जा रहे हो। अहंकार का भोजन है दुख। दुख के कीड़ों को खाकर ही अहंकार जीता है। दुख के घावों से उठी हुई मवाद को पी कर ही अहंकार जीता है। आनंद में तो सब घाव भर जाते हैं। आनंद में तो सब कीड़े विदा हो जाते हैं। अहंकार को खाने के लिए कुछ भोजन नहीं मिलता। उपवासा अहंकार मर जाता है। पहले दुख मरता है, फिर अहंकार मर जाता है। और आनंद की खोज वही कर सकता है, जो अहंकार को खो देने को तैयार हो।
तुम इसे अपने भीतर परीक्षण करना, निरीक्षण करना, इस पर ध्यान करना: तुम दुख को खोने को तैयार हो?
लेकिन ऐ दिल, ऐ अजूबाकार दिल!
यह दिल बड़ा विचित्र है!
लेकिन ऐ दिल, ऐ अजूबाकार दिल!
ऐ विचित्र दिल!
तू तो यूं हिरमाजदा है! तू तो ऐसा निराश मालूम होता है दुख के चले जाने से--छुट गया हो जैसे कोई यारेगार...जैसे कोई प्यारा छूट गया हो, कोई प्रीतम छूट गया हो, कोई यार छूट गया हो, कोई मित्र छूट गया हो!
तू तो यूं हिरमाजदा है
छुट गया हो जैसे कोई यारेगार
ये जो इक झोंका मसर्रत का दर आया है
और यह जो हलकी सी झलक सुख की आई है, झोंका ही है। जरा सी हवा सुख की आ गई है तेरी तरफ।
ये जो इक झोंका मसर्रत का दर आया है
मुझे मालूम है, है तेरी उम्रे-रियाजत का सिला।
यह तूने जीवन भर मांगा था। इसी के लिए प्रार्थनाएं की थीं। इसलिए कि मंदिर-मस्जिदों में सिर पटका था। इसके लिए तपश्चर्याएं की थीं। यह ऐसे ही नहीं आया है; बहुत मांगे-मांगे, बहुत बुलाए-बुलाए आया है। बड़ी प्रार्थनाओं का फल है।
ये जो इक झोंका मसर्रत का दर आया है
मुझे मालूम है, है तेरी उम्रे-रियाजत का सिला।
तेरे जीवन भर की तपश्चर्याओं का फल...मगर तू प्रसन्न नहीं है। तू उदास है--उसके लिए, जो चला गया। तू अगवानी नहीं कर रहा है उस मेहमान की, जिसे तूने बुलाया था और निमंत्रण भेजे थे और वर्षों तूने प्रार्थना की थी कि आओ! आग्रह किए थे। अतिथि आया है बुलाया हुआ, तो तू उसकी अगवानी नहीं कर रहा है; तूने द्वार पर मंगल-दीप नहीं जलाए हैं, मंगल-घट नहीं रखे हैं। तूने वंदनवार नहीं बांधा है। तूने स्वागतम की कोई आयोजना नहीं की है। तू रो रहा है उस दुख के लिए जो चला गया। और दर्द इक ना-ख्वांदा मेहमां था। और वह बिना बुलाया मेहमान था। उसे कभी तूने बुलाया न था और सदा तू यही कहता रहा था कि चला जाए, चला जाए, कब इससे छूटूं, कब इससे छुटकारा हो!
लेकिन पीछे कारण हैं। दुख छूटता है...अगर दुख ही छूटता होता और तुम न मिटते होते, तो तुम प्रसन्नता से छोड़ देते। लेकिन दुख छूटता है तो तुम्हारे मकान की ईंटें गिरने लगती हैं। दुख की ईंटों से ही तुम बने हो। यह जो अहंकार का भवन है दुख की ईंटों से निर्मित है। एक-एक दुख हटेगा, तो यह भवन गिरेगा। फिर तो खाली आकाश रह जाता है। उसी खाली आकाश में आनंद का नृत्य होता है।
खाली होने की तैयारी हो, तो ही आनंदित हो सकते हो। मिटने की तैयारी हो तो ही आनंदित हो सकते हो। किसकी तैयारी है मिटने की!
इसलिए मैं कहता हूं: लोग आनंद को कहां खोज रहे हैं! लोग दुख को खोज रहे हैं। लोग बड़े दुख को खोज रहे हैं। छोटे दुख से दिल नहीं भरता। अगर किसी के पास झोपड़े वाला दुख है तो उससे दिल नहीं भरता; वह महल वाला दुख खोज रहा है। लोग बड़े दुख खोज रहे हैं। अगर पूना का दुख है तो उससे दिल नहीं भरता; लोग दिल्ली के दुख खोज रहे हैं। लोगों को बड़ा दुख चाहिए। अगर गांव का दुख है तो नहीं रुचता; महानगरी का दुख चाहिए। गरीब का दुख नहीं रुचता; अमीर का दुख चाहिए।
अमीर भी दुखी हैं; गरीब भी दुखी हैं। जो प्रसिद्ध नहीं हैं, वे भी दुखी हैं। जो प्रसिद्ध हैं, वे भी दुखी हैं। लेकिन प्रसिद्धि में आदमी दुख को झेल लेता है। क्यों? प्रसिद्धि की हजार चिंताएं झेल लेता है। अप्रसिद्धि की निश्चिंतता भी सुख नहीं देती। तुम्हें कोई न जाने और तुम सुखी हो, यह तुम पसंद करोगे, कि तुम दुखी होओ, सारी दुनिया तुम्हें जाने, यह तुम पसंद करोगे? ठीक से सोचना। और तुम बड़े हैरान होओगे। तुम यही पसंद करोगे कि दुनिया जाने, चाहे मैं भीतर कितना ही दुखी रहूं। प्रधानमंत्री हो जाऊं, कि राष्ट्रपति हो जाऊं, चाहे रात सो न सकूं। सुबह सुबह न होगी फिर। रात रात न होगी। चांद-तारे न होंगे, सूरज न निकलेगा, फूल न खिलेंगे, राजनीति की गंदगी होगी चारों तरफ; दुर्गंध ही दुर्गंध होगी! लेकिन फिर भी तुम चाहोगे कि यह हो। क्यों? क्योंकि उस दुर्गंध पर तुम्हारा मैं मजबूत होगा। उस दुर्गंध के लिए तुम जीवन भर तड़पे हो। वह दुख तुम झेल लोगे। और अगर कोई कहता हो, एक एकांत कोने में बैठ कर तुम सुखी हो सकते हो, तुम्हें कोई जानेगा नहीं, किसी को पता ही नहीं चलेगा। सच तो यह है, अगर तुम सच में ही सुखी हो जाओ तो तुम ऐसे शून्यवत हो जाते हो कि शायद लोग पास से गुजर जाएंगे, तुम्हारी तरफ आंख भी उठा कर न देखेंगे। क्या तुम पसंद करोगे यह? अगर नहीं पसंद करोगे तो एक बात साफ समझ लो, फिर झूठी बातें मत कहो कि हम सुख को खोजते हैं। कम से कम इतनी ईमानदारी तो बरतो कि कहो कि हम दुख को खोजते हैं।
लेकिन ऐ दिल, ऐ अजूबाकार दिल!
तू तो यूं हिरमाजदा है,
छूट गया हो जैसे कोई यारेगार
ये जो एक मसर्रत का झोंका दर आया है
मुझे मालूम है,
है तेरी उम्रे-रियाजत का सिला
लेकिन ऐ दिल, ऐ अजूबाकार दिल!
अब तुझे होने लगा उफताद का इस पर गुमां!
यह जो सुख की झलक आई है, इस पर भरोसा नहीं आता; लगता है कि यह कोई दैवी प्रकोप है, कोई पागलपन है, कोई विक्षिप्तता है। यह जो सुख का झरोखा आया है, यह कोई सपना है। मेरी कोई कल्पना है। यह जो सुख का झोंका आया है, इसे इनकार करने का मन होता है, क्योंकि यह सुख का झोंका तुम्हें पोंछ जाएगा। इसके पहले कि तुम्हें पोंछ दे, तुम उसे इनकार करना शुरू कर देते हो।
अब तुझे होने लगा उफताद का इस पर गुमां
तुझे शक हो रहा है कि यह तो कोई दैवी प्रकोप मालूम होता है। यह कहां की झंझट! यह कैसी बला मेरे ऊपर आ गई!
आह ऐ दिल, ऐ अजूबाकार दिल!
बस के कोहना मरीज
पुराने बीमार हो तुम। दुख के आदी हो गए हो। अपने जख्मों से मोहब्बत है तुझे। तुम्हें अपने जख्मों से प्रेम हो गया है।
मनोवैज्ञानिकों से पूछो, मैं जो कह रहा हूं, इसकी वे गवाही देंगे, हजार-हजार जबानों से गवाही देंगे। लोग दुख को खूब जकड़ते हैं। इसलिए तुम देखो, लोग दुख की चर्चा करते हैं, बहुत चर्चा करते हैं। सुख की कहीं चर्चा होती है! लोग दुख की चर्चा करते हैं। लोग बीमारियों की चर्चा करते हैं। लोग अपनी परेशानियों की चर्चा करते हैं। जरा लोगों को सुनो। तुम चकित होओगे कि लोग इतने दुख की चर्चा क्यों करते हैं! क्या जीवन में कभी भी सुख के झोंके नहीं आते? आते हैं, मगर उनकी चर्चा नहीं होती। अखबार उनकी खबर नहीं छापते। अखबार दुख की खबरें छापते हैं। खबर ही उसको मानी जाती है। कोई हत्या करे, कोई चोरी करे, कोई बेईमानी करे, धोखा डाले, कोई किसी की स्त्री ले भागे--तो अखबार भी छापता है; अखबार को भी उसमें रस है। कोई किसी गिरते को उठा ले, कहीं किसी के बगीचे में कोई गुलाब का फूल खिले--इसमें किसको रस है! ऐसे अखबार को कौन पढ़ेगा, जो फूलों की खबर छापे। अखबार लोग पढ़ते हैं--कांटों की खबर के लिए। अपने भी कांटे चुभा रहे हैं; औरों के कांटे भी इकट्ठा कर लेते हैं। अपने ही दुख काफी नहीं हैं; दूसरों के दुख भी इकट्ठा कर लेते हैं। सारी दुनिया में कहां-कहां दुख हो रहा है, सबको इकट्ठा कर लेते हैं। अपने दुख से भी मन नहीं भरता; औरों के दुख भी चाहिए।
तुम जरा घूम-फिर कर लोगों की बातें सुनो। अपनी ही बातें सुनना और तुम पाओगे कि तुम दुख में सदा संलग्न होकर बात कर रहे हो। और जब तुम दुख की बात करते हो, तब तुम बड़े प्रसन्न मालूम होते हो। यह भी बड़ी चकित होने वाली बात है।
मेरे पास लोग आते हैं। जब वे अपने दुख की कथा रोने लगते हैं, तो बड़े प्रसन्न मालूम होते हैं। उलटा बड़े प्रसन्न! उनकी आंखों में चमक मालूम होती है। जैसे कोई बड़ा गीत गा रहे हों! अपने घाव खोलते हैं, लेकिन लगता है जैसे कमल के फूल ले आए हैं। सुख की तो कोई बात ही नहीं करता।
और ऐसा नहीं है कि सुख नहीं है; हम सुख पर ध्यान नहीं देते हैं। हम दुख-दुख चुन लेते हैं; हम सुख की उपेक्षा कर देते हैं। फिर जिसकी उपेक्षा कर देते हैं, स्वभावतः धीरे-धीरे धीरे-धीरे वह दूर होता चला जाता है। और जिसमें हम रस लेते हैं, वह पास होता चला जाता है।
पहली बात खयाल लो आज के सूत्रों में कि संतों की बात तुम्हें तभी जमेगी, रुचेगी, भली लगेगी, प्रीतिकर मालूम होगी--जब तुम दुख को पकड़ना छोड़ दोगे; जब तुम जागोगे और सुख की सचेष्ट खोज शुरू करोगे। तब उनके एक-एक सूत्र बहुमूल्य हैं; अन्यथा सुन लोगे और नहीं सुन पाओगे। तुम्हारे भीतर अगर अभी भी दुख को पकड़ने का आयोजन चल रहा है, तो संतों के वचन तुम्हारे कानों में गूंजेंगे और खो जाएंगे। तुम्हारे हृदय तक नहीं पहुंचेंगे। क्योंकि संतों के वचनों में बड़ा सुख भरा है। इन वचनों में अमृत भरा है। तुम सुखोन्मुख हो जाओ, तुम आनंद की खोज में लग जाओ--तो ये एक-एक शब्द ऐसे जाएंगे तुम्हारे भीतर जैसे तीर चले जाएं। और ये एक-एक शब्द तुम्हारे भीतर ऐसे-ऐसे हजार-हजार फूल खिला देंगे, जैसे कभी न खिले थे। तुम्हारे भीतर दीये पर दीये जलते चले जाएंगे--पंक्तिबद्ध दीये जल जाएंगे। तुम्हारे भीतर बड़ी रोशनी होगी।
ये छोटे-छोटे शब्द हैं। ये कोई बहुत बड़े-बड़े शब्द नहीं हैं। मगर ये बड़े सार्थक शब्द हैं। सुनो।
बोलु हरिनाम तू छोड़ि दे काम सब
सहज में मुक्ति होइ जाए तेरी।
बोलु हरिनाम तू छोड़ दे काम सब।
काम यानी कामना। काम यानी वासना। काम यानी इच्छा, तृष्णा। यह मिले, वह मिले--कुछ मिले! जब तक हम मिलने की दौड़ में होते हैं, हम भिखमंगे होते हैं। और जब तक हम भिखमंगे होते हैं, तब तक परमात्मा नहीं मिलता। परमात्मा भिखमंगों को मिलता ही नहीं। परमात्मा सम्राटों को मिलता है। परमात्मा उनको मिलता है जो अपने मालिक हैं। परमात्मा उनको मिलता है जो कुछ मांगते ही नहीं। असल में वे ही परमात्मा को मांगने में कुछ सफल हो पाते हैं, जो और कुछ नहीं मांगते। जिन्होंने कुछ और मांगा, वे परमात्मा को कैसे मांगेंगे। वह जबान फिर परमात्मा को मांगने के योग्य न रह गई। वह जबान अपवित्र हो गई। उसी जबान से परमात्मा को मांगोगे, जिस जबान से बेटा मांगा, बेटी मांगी, धन मांगा, पद मांगा, प्रतिष्ठा मांगी--उसी जबान से परमात्मा को मांगोगे? इस जहर भरे पात्र में अमृत को रखोगे? यह जबान जब तक मांगती है, तब तक संसार है। जिस दिन यह जबान मांगती नहीं, उस दिन परमात्मा की यात्रा शुरू हुई। उस दिन बिन मांगे मिलता है। ऐसे तो मांगे-मांगे भी नहीं मिलता। बिन मांगे मोती मिलें, मांगे मिले न चून।
परमात्मा तुम्हारे मांगने से नहीं मिलता--तुम्हारी मांग जब बंद हो जाती है। ध्यान करना इस स्थिति पर। जब तुम्हारे भीतर कोई मांगने का स्वर नहीं होता, तब तुम कहां होते हो? जब मांगने का कोई स्वर नहीं होता, सब शांत मौन, चुप, कोई दौड़ नहीं, कोई आपा-धापी नहीं; जब कुछ मांगना ही नहीं तो कैसी दौड़, कोई लक्ष्य नहीं; तुम कहीं नहीं जा रहे; तुम अपने घर में भीतर बैठे होते हो, विश्राम में होते हो--इसी विश्राम की दशा का नाम ध्यान है। इसी विश्राम की घड़ी में परमात्मा तुम्हारे भीतर प्रवेश करता है। परमात्मा तो रोज प्रवेश करता है, लेकिन तुम भागे हुए हो; तुम कहीं-कहीं गए हुए हो। तुम घर में कभी मिलते नहीं। तुम पते पर कभी मिलते ही नहीं। परमात्मा कभी आता है, तुम बाजार में; बैठे घर पर होते हो। अब यह जरा परमात्मा की भी अड़चन समझो। अगर बाजार में खोजे तो तुम वहां मिलोगे नहीं, क्योंकि तुम घर बैठे हो। अगर घर तुम्हें खोजे, जहां तुम बैठे हो, तो वहां तुम हो नहीं; तुम्हारा मन बाजार में है। तुम वहां तो होते ही नहीं, जहां होते हो; मांग तुम्हें कहीं और ले जाती है। बैठे पूना में हो, हो कलकत्ता में; अब परमात्मा कलकत्ते में खोजे तो तुम मिलोगे नहीं, क्योंकि वहां तुम मिलोगे कैसे, वहां तुम हो नहीं; और पूना में खोजे तो तुम मिल नहीं सकते, क्योंकि तुम कलकत्ते गए हो।
मैंने सुना, मुल्ला नसरुद्दीन अपने मित्र से बातें कर रहा था। मुल्ला ने कहा: रात बड़े गजब का सपना देखा। सपना देखा कि पेरिस गया हूं और वहां के सबसे बड़े जूए के अड्डे में खूब डट कर शराब पी है और जूआ खेल रहा हूं, लाखों रुपये जीत रहा हूं।
मित्र ने कहा: मुल्ला, यह कुछ भी नहीं। मैंने भी रात सपना देखा कि हेमामालिनी को लेकर एक एकांत निर्जन द्वीप पर चला गया हूं। वहां कोई भी नहीं। हम काफी गुलछर्रे उड़ा रहे हैं।
मुल्ला ने कहा: अरे, तुम मुझे क्यों नहीं ले चले साथ?
मित्र ने कहा: मैं तो तुम्हारे घर फोन किया था, लेकिन तुम्हारी पत्नी ने कहा कि तुम पेरिस गए हो।
यह सपने में चल रहा है सब। कोई कहीं गया नहीं है।
तुम्हारी जब तक मांग है, तब तक तुम कहीं और हो। तुम कभी अपने घर नहीं पाए जाते; परमात्मा रोज आता है, प्रतिपल आता है--आता ही रहता है। आने की बात ही कहनी ठीक नहीं--मौजूद ही रहता है तुम्हारे चारों तरफ। मगर तुम मौजूद नहीं। मिलन हो तो कैसे हो! तुम यहां मौजूद मिल जाओ तो अभी मिलन हो जाए, इसी क्षण मिलन हो जाए। तुम दूर गए हो, परमात्मा पास है।
लोग पूछते हैं: परमात्मा को कहां खोजें? जैसे कि परमात्मा दूर हो और तुम्हें खोजने जाना पड़े! परमात्मा तुम्हें खोजता हुआ खड़ा है; कृपा करके घर लौट आओ। वापस आ जाओ। जहां देह है, वहीं मौजूद हो जाओ। ये मन की तरंगें तुम्हें दूर ले जाती हैं। ये भटका देती हैं। मन की इन तरंगों में जीना ही संसार है। इसलिए पतंजलि ने कहा: चित्त-वृत्ति निरोधः योगः! जब चित्त की सारी वृत्तियां निरुद्ध हो जाती हैं, तब योग। जब चित्त में कोई वृत्ति नहीं उठती, कोई वेग नहीं उठता, जब चित्त में कोई लहर-तरंग नहीं उठती--तब योग। योग का मतलब होता है: मिलन। तब परमात्मा से मिलन। तब समाधि।
बोलु हरिनाम तू छोड़ि दे काम सब।
सारी वासना छोड़ दे। सारी कामना छोड़ दे। क्योंकि कितने दिन तक दौड़ा, पाया क्या? हाथ में क्या है? सब खाली का खाली है। कब जागेगा? यह दौड़ बहुत हो चुकी। समय आ गया कि दौड़ छोड़ दे। और इस दौड़ के छोड़ते ही संभावना उठती है हरिनाम की।
जहां काम गया, वहां राम आया। काम में दौड़ती ऊर्जा ही, जब काम में नहीं दौड़ती तो राम बन जाती है। राम काम ही की ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन है। राम काम की ही ऊर्जा है। काम में नीचे की तरफ जाती है, बाहर की तरफ जाती है, दूर जाती है; जब काम की ही ऊर्जा कहीं नहीं जाती, नीचे नहीं, बाहर नहीं, दूर नहीं--तो राम बन जाती है। फिर अपने घर में विश्राम हो जाता है। अनहद में बिसराम!
तो राम-राम जपने को नहीं कह रहे हैं पलटूदास। यह मत सोच लेना कि वे कह रहे हैं कि बैठो और राम-राम जपो। वे कह रहे हैं, काम को रूपांतरित करो, तब राम-जप अपने से होगा। फिर तुम्हें करना न होगा। किए हुए का कोई मूल्य नहीं। तुम करोगे तो वह तो फिर वासना ही रहेगी। लोग करते भी हैं, राम-राम राम-राम जप रहे हैं; मगर यहां राम-राम जप रहे हैं, भीतर वे सोच रहे हैं: कुछ मिलेगा इससे कि नहीं मिलेगा? कितना तो जप चुके, मिलता तो कुछ है नहीं! कितना तो भगवान को कहे जा रहे हैं, पता नहीं भगवान है भी या नहीं!
और मांग क्या रहे हो तुम? कुछ क्षुद्र मांग रहे होओगे। जो क्षुद्र तुम अपनी वासना से नहीं पा सके, वही तुम प्रार्थना से पाने की कोशिश कर रहे हो। तो तुमने प्रार्थना को भी कलुषित कर दिया। प्रार्थना तो तभी है जब मांग से मुक्त हो।
अब देखो, प्रार्थना इतनी कलुषित हो गई है कि प्रार्थना शब्द का मतलब ही मांगना लगता है। तो मांगने वाले को हम प्रार्थी कहते हैं। प्रार्थना ऐसी खराब कर दी हमने, कि जब भी कोई कहे कि हम प्रार्थना कर रहे हैं, तो स्वाभाविक उठता है मन में प्रश्न--किसलिए? क्या मांगने के लिए? किस बात की प्रार्थना?
प्रार्थना किसी बात की नहीं होती; मांगने के लिए नहीं होती। प्रार्थना तो एक ऐसी चित्त की दशा है, जहां मांगना मिट गया है। एक मस्ती की दशा है। एक अहोभाव! एक धन्यवाद! मांगते हो, उसमें शिकायत ही है। मांगने का मतलब ही शिकायत है कि जो होना चाहिए, वह नहीं है, वह करो; ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए।
प्रार्थना का अर्थ है: धन्यवाद। जैसा है सुंदर है। जैसा है, इससे सुंदर और क्या हो सकता है! जैसा है, पर्याप्त है। पर्याप्त से ज्यादा है। मैं इससे परितुष्ट हूं।
प्रार्थना का अर्थ है: परितोष का भाव। मुझे खूब दिया है, इसके लिए धन्यवाद देता हूं। मुझे बनाया, यही काफी है। और क्या चाहिए! मुझे यह चेतना दी, यह साक्षी दिया--और क्या चाहिए! मुझे यह आत्मा दी, यह शाश्वत आत्मा दी--और क्या चाहिए! यह बोध की क्षमता दी--और क्या चाहिए! यह बोध की क्षमता ही बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाती है। यह बोध ही एक दिन बुद्ध बन जाता है।
बोलु हरिनाम तू छोड़ि दे काम सब
सहज में मुक्ति होइ जाए तेरी।
पलटू कहते हैं: सहज में ही हो जाएगी मुक्ति, तू मांग मत। आकांक्षा मत कर परमात्मा ऐसे ही देने को है, तू मांग कर बात को खराब मत कर। मांग कर अपनी प्रतिष्ठा मत गिरा। मुक्ति तो ऐसी ही हुई-हुई है; सहज में ही, बिना कुछ किए हो जाएगी। तू शांत बैठ जा, मौन बैठ जा, विश्राम में उतर जा। कामना की दौड़-धूप न रह जाए, मुक्ति हो जाएगी।
बोलु हरिनाम तू छोड़ि दे काम सब
सहज में मुक्ति होइ जाए तेरी।
दाम लागै नहीं काम यह बड़ा है,
सुनना ठीक से। पलटू कहते हैं: दाम लागै नहीं काम यह बड़ा है,
यह बड़े से बड़ा काम है मुक्ति। इससे बड़ा कोई काम नहीं है इस जगत में। यह बड़े से बड़ा कृत्य है। यह बड़े से बड़ी अनुभूति है। यह शिखर है आखिरी। इसके ऊपर न कोई आनंद है, न इसके ऊपर कोई कल्याण है, न इसके ऊपर कोई और श्रेयस है।
दाम लागै नहीं काम यह बड़ा है,
काम यह बड़े से बड़ा है। यही तो मनुष्य-जीवन की कृतार्थता है और दाम लागै नहीं! कुछ भी लगता नहीं। यह ऐसे ही घट जाता है। जरा सी अपनी मांगों को हटा देना है; भिखमंगेपन को गिरा देना है। मालिक से मालिक का मिलना होता है। साहिब का साहिब से मिलना होता है। जब तक तुम स्वामी नहीं हो, तब तक तुम परमात्मा से न मिल सकोगे।
दाम लागै नहीं काम यह बड़ा है,
सदा सतसंग में लाउ फेरी।।
स्वभावतः प्रश्न उठता है: यह घटना कैसे घटे? बात समझ में भी आ जाए, तो भी यह घटना कैसे घटे?
हम तो जीवन में दौड़-दौड़ कर कुछ न पा सके, यह सहज कैसे मिलेगा? बिना किए कैसे मिलेगा? यह बात तो बेबूझ लगती है, उलटबांसी मालूम होती है। लगता है, ये फकीर तो इस तरह की उलटी बातें बोलते ही रहे हैं, कि सहज में हो जाएगी बात, कुछ करना न पड़ेगा राम-नाम का विस्फोट हो जाएगा! यह होगा कैसे? इसकी शुरुआत कहां से करें? समझ भी लें, मान भी लें कि ऐसा ही ठीक होगा; लेकिन कैसे छोड़ें वासनाएं और कैसे यह राम की घटना घटे?
और हमने कैसे पूछा कि अड़चन आई। क्योंकि कैसे का मतलब है: हमने एक नई वासना बनाई। अब हमने कहा कि राम-नाम घटना चाहिए, मुक्ति होनी चाहिए। यह हमारी वासना हो गई। काम गया नहीं, काम पीछे के दरवाजे से वापस आ गया। काम ने कहा: चलो, धन मत मांगो, मुक्ति मांगो। और अगर बिन मांगे मिलती है तो चलो मांगो ही मत; क्योंकि बिन मांगे मिलती है, इसलिए मांगो मत। मगर यह तो तरकीब मांगने की हुई; चूंकि बिन मांगे मिलती है, इसलिए नहीं मांगेंगे। मगर भीतर तो मांगने का भाव बना ही हुआ है। और किनारे से, आंख के कोने से तुम देखते रहोगे: अभी मिली कि नहीं मिली? अब तक नहीं मिली, पता नहीं बात सच थी कि झूठ थी!
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान नहीं लगता है। बड़ी चेष्टा कर रहे हैं। मैं उनसे कहता हूं: तुम कुछ ध्यान में आकांक्षा तो नहीं रखे हो? वे कहते हैं: आकांक्षा तो है--चित्त में शांति हो जाए, स्वास्थ्य ठीक हो जाए, ऐसा हो जाए, वैसा हो जाए।
मैं कहता हूं: जब तक तुम आकांक्षा रखोगे, यह होगा नहीं। तो वे कहते हैं: अच्छी बात है, आप कहते हैं तो आकांक्षा छोड़ कर कर देंगे। लेकिन फिर होगा?
वह जो ‘फिर होगा’ कहते हैं, उसमें आकांक्षा वापस लौट आई। आदमी ऐसे गहन जाल में है कि एक तरफ से छूटता है तो दूसरी तरफ से पकड़ जाता है। तो पलटू का सुझाव क्या है? पलटू का सुझाव है:
दाम लागै नहीं काम यह बड़ा है,
सदा सतसंग में लाउ फेरी।।
इसलिए अब इसकी कहां से शुरुआत करें?
तुम पूछोगे: कैसे? कैसे पूछा कि भूल हो गई। पलटू कहते हैं: कैसे मत पूछो। पूछो कहां से? सत्संग से: जहां कुछ लोग इस शून्य में विराजमान हों; एकाध भी सही, तो भी चलेगा। जहां एकाध भी इस विश्राम में विराजमान हो गया हो, वहां के चक्कर काटो, सत्संग करो, वहां की फेरी लगाओ। वह जगह परिक्रमा के योग्य है। वहां जाओ; जितना समय बिता सको, बिताओ। बैठो उसके पास जिसको हो गया है। उसके पास बैठते-बैठते, पारस के पास बैठते-बैठते लोहा भी सोना हो जाता है।
सत्संग बड़ा बहुमूल्य है। भक्ति के मार्ग में सत्संग का वही मूल्य है जो योग के साधने में समस्त प्रक्रियाओं का है। अष्टांग। यम, नियम, आसन, व्यायाम--सब जोड़ कर जो सारी विधियां पतंजलि ने गिनाई हैं, यम से लेकर समाधि तक, आठ अंग; या बुद्ध ने भी अष्टांगिक मार्ग कहा है--सम्यक दृष्टि, सम्यक व्यवहार, सम्यक श्रम, इत्यादि। हजारों विधियां हैं। योग में, तंत्र में विधियां ही विधियां हैं। भक्ति की क्या विधि है? भक्ति की एक ही विधि है: सत्संग। सारी विधियों का जोड़, कि जिसको हो गया हो, उसके पास बैठ जाओ। उसकी मौजूदगी कैटेलिटिक एजेंट का काम करती है। उसकी मौजूदगी में कुछ घटने लगता है।
रोज तुम देखते हो घटनाएं घटती हैं मौजूदगी में, मगर तुम खयाल नहीं लेते। सुबह हुई, अभी सूरज नहीं निकला, कलियां बंद हैं, पक्षी सोए हैं; फिर भोर होने लगी, प्राची में लाली हुईं, कलियां खिलने लगीं। अब सूरज कोई एक-एक कली को आकर खोलता थोड़े ही है--सिर्फ उसकी मौजूदगी; सिर्फ रोशनी की मौजूदगी। अब सूरज आकर एक-एक पक्षी के सिर पर दस्तक थोड़े ही देता है कि अब जागो भाई, भोर भई! लेकिन जैसे ही सूरज की रोशनी फैलनी शुरू होती है, सारी पृथ्वी जाग आती है। वृक्ष जागते हैं, पशु जागते हैं, पक्षी जागते हैं। सब जागरण फैल जाता है। सहज ही हो जाता है। सूरज की मौजूदगी जगा देती है। सांझ हुई, सूरज गया, प्रकृति सो जाती है। उसकी गैर-मौजूदगी में निद्रा सघन हो जाती है।
ऐसे ही जो जाग गया हो, उसके पास अगर रहोगे, तो उसकी किरणें, उसका प्रकाश, उसकी रोशनी तुम पर पड़ेगी। तुम अंधे हो तो भी पड़ेगी। अंधा भी जब दीये जले कमरे में आता है तो उस पर भी रोशनी पड़ती है। रोशनी कुछ यह थोड़े ही कहती है कि अंधे पर नहीं पडूंगी। तुम सोए हो तो भी पड़ेगी। तुम मूर्च्छित हो तो भी पड़ेगी। वे किरणें धीरे-धीरे धीरे-धीरे तुम्हारे अंग-अंग में व्याप्त हो जाएगीं। वह सुवास धीरे-धीरे तुम्हारे हृदय में घर बना लेंगी। सत्संग भक्तों का एकमात्र मार्ग है।
दाम लागै नहीं काम यह बड़ा है,
सदा सतसंग में लाउ फेरी।।
इससे यह मत समझ लेना कि सत्संग में जो हो जाएगा तो सब हो गया। सत्संग में शुरुआत होती है; अंतिम परिणाम तो तुम्हारे भीतर होंगे। सत्संग में तो पहली किरण फूटती है। पूरा सूरज तो तुम्हारे भीतर उगेगा। इसलिए गुरु से बंध नहीं जाना है। गुरु के संग-साथ तो होना है, लेकिन बंध नहीं जाना है। गुरु के चरणों में तो झुकना है, लेकिन वहीं रुक नहीं जाना है। वहां से यात्रा का प्रारंभ है। फिर तो जाना है भीतर। उसके पास बैठ-बैठ कर सहज दशा का थोड़ा सा अनुभव होगा। एक बूंद कंठ में उतर जाएगी। स्वाद आ जाए, तो फिर चीजें बड़ी सरल हो जाती हैं।
ये जो इक नूर की हलकी-सी किरन फूटी है
कौन कहता है इसे सुब्हे-दरख्शां ऐ दोस्त
मुझको एहसास है, बाकी है शबे-तार अभी
लेकिन ऐ दोस्त मुझे रक्स तो कर लेने दे
कम से कम नूर ने उलटा तो है इक बार नकाब
एक लम्हे को तो टूटा है तिलस्मे-शबे-तार
इससे साबित तो हुआ, सुबह भी हो सकती है
परदा-ए-जुलमते शब चाक भी हो सकता है
सुब्हे काजिब भी तो है असल में दिबाचः सुबह
सुब्हे काजिब भी तो है सुब्हे-दरख्शां की नवेद
एक ऐलान कि हंगामे-विदा-ए-शब है
काफिला नूरे-सहर का है बहुत ही नजदीक
जल्द होने को है खुरशीदे-दरख्शां की नुमूद
‘ये जो इक नूर की हलकी सी किरन फूटी है।’ देखते हैं: सुबह होने के पहले भोर होती है! सूरज नहीं उगा होता, रात चली गई होती है; लेकिन सूरज नहीं उगा होता है--दोनों का मध्यकाल, उसको ही संध्या कहते हैं। एक संधि का काल। छोटी सी संधि। रात गई, दिन अभी नहीं हुआ है। उस भोर की घड़ी को सुबह भी नहीं कह सकते अभी, रात भी नहीं कह सकते अब। ऐसी ही घटना घटती है गुरु के पास। अभी तुम मुक्त भी नहीं हो गए। और अब तुम बंधन में हो, ऐसा भी नहीं कह सकते। संधिकाल आ गया। बंधन गिरने-गिरने को, रात जाने-जाने को, और दिन आने-आने को। दोनों के मध्य में है।
ये जो इक नूर की हलकी-सी किरन फूटी है
कौन कहता है इसे सुब्हे-दरख्शां ऐ दोस्त
इसे कौन कहता है कि यह असली सुबह है! कौन कहता है कि सूरज हो गया! कौन कहता है कि दिन निकल आया?
मुझको एहसास है, बाकी है शबे-तार अभी
मुझे पक्का पता है कि अभी रात और काटने को है; अभी थोड़ी और देर है। लेकिन ऐ दोस्त, मुझे रक्स तो कर लेने दे। लेकिन मुझे नाच तो लेने दे। मुझे खुश तो हो लेने दे। यह जो हलकी सी नूर की किरण फूटी है, इसका स्वागत तो कर लेने दे।
सत्संग में आनंदमग्न हो जाते हैं भक्त। अभी उनकी सुबह नहीं आई, लेकिन किसी में तो आ गई है! किसी की सुबह देखी। अभी परमात्मा को उन्होंने सीधा नहीं देखा, लेकिन किसी की आंखों से देखा। अभी परमात्मा का हाथ उन्होंने खुद नहीं छुआ, लेकिन ऐसे आदमी का हाथ छुआ है जिसने परमात्मा का हाथ छुआ है। यह भी कुछ कम नहीं। यह भी बड़ी क्रांति की घटना है। भोर हो गई।
लेकिन ऐ दोस्त, मुझे रक्स तो कर लेने दे
इसलिए भक्त सत्संग में आनंदित हो उठता है, मस्त हो उठता है, रक्स में आ जाता है, नाच पैदा हो जाता है उसके भीतर। एक शराब की मस्ती उसमें छा जाती है। डोलने लगता है।
मुझको एहसास है, बाकी है शबे-तार अभी
लेकिन ऐ दोस्त, मुझे रक्स तो कर लेने दे
कम से कम नूर ने उलटा तो है इक बार नकाब
चलो इतना ही क्या कम कि एक बार तो रोशनी ने झलक दी। एक बार तो पर्दा उठा, घूंघट उठा। एक बार तो खिड़की खुली। झरोखे से देखा है सूरज अभी; झरोखा अपना नहीं है, यह भी सच है। यह सच है।
मुझको एहसास है, बाकी है शबे-तार अभी
और यह जो इक नूर की हलकी सी किरण टूटी है,...
कौन कहता है इसे सुब्हे-दरख्शां ऐ दोस्त
मैं इसे कहता भी नहीं कि मेरी सुबह हो गई, लेकिन किसी और की सुबह में थोड़ी देर के लिए मेहमान हुआ हूं; किसी और के आनंदपूर्ण जगत में थोड़ी देर के लिए शामिल हुआ हूं; किसी और के नृत्य में भागीदार हुआ हूं। पर मुझे आनंद कर लेने दो।
मेरे पास कई बार मित्र पूछते हैं। ‘अजित सरस्वती’ बार-बार प्रश्न पूछते हैं कि अभी मुझे हुआ नहीं है, लेकिन होने-होने को है। और मुझे जो होने-होने को है, उसे भी मैं दूसरों को बांटना चाहता हूं। तो मैं बांटूं या न बांटूं? मैं दूसरों को कहूं या न कहूं? मैं चुप रहूं या यह खबर फैलाऊं?
वे यही पूछ रहे हैं। वे यही पूछ रहे हैं--‘लेकिन ऐ दोस्त, मुझे रक्स तो कर लेने दे।’
बांटना ही होगा। भोर ही सही अभी, अभी सूरज नहीं निकला, सूर्योदय नहीं हुआ, भोर ही सही; मगर सूरज करीब तो आ गया! अब ज्यादा देर नहीं होने में। बांटो! रक्स करो! आनंद मनाओ! उत्सव में आओ।
भक्त को आनंद में देख कर अनेक लोगों को हैरानी होती है। लोग पूछते हैं: तुम्हें हो गया? यहां मेरे पास जो आकर मस्त हो जाते हैं, उनको लोग पूछते हैं: तुम्हें हो गया, तुम इतने मस्त हो रहे हो! और स्वभावतः झिझक होती है कि कैसे कह दें कि हमें हो गया!
मुझको एहसास है, बाकी है शबे-तार अभी
अभी रात बाकी है। तो यह कह भी नहीं सकते कि मुझे हो गया। लेकिन किसी को हो गया है, कहीं हो गया है; हम वहीं से आ रहे हैं। हमने थोड़ी देर किसी और की आंखों में आंखें डाल कर देखा है। हम किसी के हाथ को पकड़ कर नाचे हैं और उस हाथ का स्पर्श हमें भरोसा दिला गया है कि होता है। सुबह भी होती है। रात ही रात नहीं है, सुबह भी होती है।
कम से कम नूर ने उलटा तो है एक बार नकाब
चलो किसी और के चेहरे पर सही, हमने परमात्मा की छाप देखी है। मगर, अगर एक आदमी के चेहरे पर परमात्मा की छाप हो सकती है, तो हमारे चेहरे पर भी हो सकती है, यह भरोसा आ गया। और यह भरोसा आ गया तो सब आ गया। यह भरोसा ही बुनियाद है। इसी को श्रद्धा कहा है।
श्रद्धा विश्वास का नाम नहीं। भूल कर भी मत सोचना कि विश्वास का नाम श्रद्धा है। विश्वास का अर्थ है: दूसरों ने समझा दिया है। उनको भी नहीं हुआ है। और उन्होंने तुम्हें समझा दिया है। तुम्हारे मां-बाप ने समझा दिया है। उनको भी नहीं हुआ है। तुम्हारे पंडित-पुरोहित ने समझा दिया है; उसको भी नहीं हुआ है। और तुम विश्वास ले आए।
विश्वास का अर्थ है: अंधों ने अंधों को समझा दिया है।
श्रद्धा का अर्थ है: किसी आंख वाले की आंख में आंख डाल कर देखा है। तुम्हारी अभी आंख नहीं खुली है। तुम्हारा अपना झरोखा अभी बंद है। लेकिन किसी और के मेहमान होकर देखा है। लेकिन जिसके मेहमान होकर देखा है, उसको हुआ है--तो श्रद्धा।
श्रद्धा और विश्वास में यही फर्क है। श्रद्धा का अर्थ है: कहीं हमने वह चमत्कार देखा।
कम से कम नूर ने उलटा तो है इक बार नकाब
एक लमहे को तो टूटा है तिलस्मे शबे-तार।
एक क्षण को, एक पल को सही, जरा सी झलक के लिए--लेकिन रात का जो जादू था, टूटा। एक लमहे को सही, मगर रात का जादू टूट गया है। वह रात के जादू ने हमें ऐसा ग्रसा है, रात के जादू ने हम पर ऐसी फांसी कसी है, कि भरोसा ही नहीं होता कि सुबह होगी, कि सुबह कभी भी हूई थी, कि सुबह हो सकती है।
गुरु का अर्थ है--ऐसा व्यक्ति, जिसमें लमहे भर को रात का जादू तुम्हारे लिए टूट जाता है। उसके लिए तो टूट गया है, लेकिन उसके पास, उसकी सन्निद्धि में, उसके संग-साथ उठते-बैठते, उठते-बैठते--पलटू कहते हैं: चक्कर काटते रहना। पलटू कहते हैं: सदा सतसंग में लाउ फेरी! जितना बने, जाते रहना सत्संग में। जल्दी मत करना, अधैर्य मत करना।
एक लम्हे को तो टूटा है तिलस्मे-शबे तार
इससे साबित तो हुआ, सुबह भी हो सकती है।
यह श्रद्धा।
परदा-ए-जुलमते शब चाक भी हो सकता है
और रात का यह गहन पर्दा कट भी सकता है। इससे यह साबित तो हुआ।
सुब्हे काजिब भी हो तो है असल में दिबाचः सुबह
और भोर भी हो, कच्ची सुबह...सुबह काजिब भी हो...कच्ची सुबह, कच्चा समय, अभी पका नहीं है, अभी सूरज निकला नहीं है; लेकिन वह भी तो होने वाली सुबह का प्रमाण है, आने की खबर है।
सुब्हे काजिब भी हो तो है असल में दिबाचः सुबह
|सुब्हे काजिब भी तो है सुब्हे-दरख्शां की नवेद
वह सूचक है कि आता है दिन, आता है, अब आया, अब आया। संदेशवाहक है। एक ऐलान कि हंगामे-विदा-ए-शब है...कि रात्रि के समय का अंत आ गया।
यही मैं अजित सरस्वती को कहता हूं: अभी हुआ तो नहीं, लेकिन रात्रि के विदा का समय आ गया। एक ऐलान! स्वभावतः जब तुम्हें ऐलान सुनाई पड़ेगा तो तुम्हें भी ऐलान करना ही होगा। क्या करोगे? जब तुम्हें श्रद्धा पैदा होगी, तुम्हें बांटनी ही पड़ेगी; किसी को कहना ही पड़ेगा। अन्यथा बोझिल हो जाएगी, भारी हो जाएगी। बांटना ही पड़ता है। जब मेघ भर जाता है जल से, तो बरसता ही है। और जब फूल में गंध आ जाती है तो बिखरती ही है। यह होगा ही।
एक एलान कि हंगामे-विदा-ए-शब है
काफिला नूरे-सहर का है बहुत ही नजदीक
काफिला अब ज्यादा दूर नहीं है सुबह का। करीब ही है। पगध्वनियां सुनाई पड़ने लगीं काफिले की। आवाजें पास आने लगीं।
काफिला नूरे सहर का है बहुत ही नजदीक।
जल्द होने को है खुरशीदे दरख्शां की नुमूद
वह महासूर्य जल्दी ही प्रकट होने के करीब है। सत्संग का अर्थ है: जहां प्रकट हो गया हो, जिसमें प्रकट हो गया हो, जहां तुम्हें श्रद्धा जम जाए--फिर तुम फिकर मत करना दुनिया की। और खयाल रखो कि तुम किसी को सिद्ध भी न कर पाओगे। यह बात हार्दिक है। लग गई, लग गई। तुम दूसरे को सिद्ध न कर पाओगे। तुम दूसरे को प्रमाण न दे पाओगे। तुम दूसरे को तर्क से न समझा पाओगे। कब कौन समझा पाया है!
यह ऐसा ही है कि तुम किसी एक स्त्री के प्रेम में पड़ गए या किसी पुरुष के प्रेम में पड़ गए। अब तुम लाख उपाय करो कि वह सुंदर है, कैसे समझाओगे? तुम्हें सुंदर है, निश्चित ही; अन्यथा तुम प्रेम में क्यों पड़ते! लेकिन तुम क्या समझा सकोगे किसी और को? क्या उपाय होगा? कोई उपाय नहीं। लोग हंसेंगे। ठीक ऐसा ही है गुरु के प्रेम में भी पड़ जाना। सत्संग भी ऐसा ही है।
बिलम न लाइकैं डारि सिर भार को,
छोड़ि दे आस संसार केरी।
पलटू कहते हैं: फिर देर मत करना, जब गुरु मिल जाए। बिलम न लाइकैं डारि सिर भार को! फिर तो अपने सारे सिर-भार को उसके चरणों में डाल देना। छोड़ि दे आस संसार केरी! फिर आशा के लिए नई यात्रा शुरू होती है। फिर संसार की आशा छोड़ देना। फिर यह मत सोचना कि अब इस संसार में कुछ और मिल सकता है। जब गुरु मिल जाए तो संसार में जो मिल सकता था मिल गया; अब कुछ और मिलने को नहीं है इस संसार में। इस संसार में गुरु मिल जाए तो सब मिल गया। धन्यभाग उनके जिन्हें बुद्ध मिल गए। धन्यभाग उनके जिन्हें मोहम्मद मिल गए। धन्यभाग उनके जिन्हें नानक मिल गए। अब और इस संसार में मिलने को क्या है! इस संसार में और कुछ भी नहीं मिल सकता। मिलने योग्य एक ही चीज है कि गुरु मिल जाए।
यह भी थोड़ा समझ लेने का है कि क्यों? गुरु का क्या अर्थ है? गुरु का अर्थ है संसार के बाहर जाने का द्वार मिल जाए। संसार में इतना ही मिल जाए तो बस बहुत है--संसार के बाहर जाने का द्वार मिल जाए।
सिक्ख ठीक ही अपने मंदिर को गुरुद्वारा कहते हैं। वह सिर्फ द्वार है। गुरु का द्वार! इस संसार में जन्मों-जन्मों तक भटक कर, वासना में हजार तरह के कष्ट पाकर, निराश होने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता। जिस दिन गुरु मिल जाए उस दिन संसार से और सब आशा छोड़ देना। यहां की बात खत्म हो गई, यह यात्रा पूरी हो गई। तुम द्वार के करीब आ गए, जहां से परमात्मा शुरू होता है।
छोड़ि दे आस संसार केरी।
बिलम न लाइकैं डारि सिर भार को,
अब कुछ आशा रखने की जरूरत नहीं संसार से; जो हो सकता था संसार में, हो गया। अंतिम हो गया।
दास पलटू कहै यही संग जाएगा।
यही संग--सत्संग!
दास पलटू कहै यही संग जाएगा।
बोलु मुख राम यह अरज मेरी।।
सत्संग साध लो। सत्संग ही साथ जाएगा। और सब पड़ा रह जाएगा। गुरु से थोड़ा गहरा संबंध बांध लो। उस संबंध में जो झलकेगा, जो दिखाई पड़ेगा, वही साथ जाएगा। शेष सब पड़ा रह जाएगा।
पलटू कहते हैं: मेरी अर्जी है, मेरी प्रार्थना है तुमसे। बोलु मुख राम यह अरज मेरी। छोड़ काम सब बोलु हरिनाम। सहज में मुक्ति होइ जाए तेरी।
पूरब में राम है पच्छिम खुदाय है,
तब कहते हैं कि जिस राम की मैं बात कर रहा हूं, वह वह राम नहीं है जिसकी मंदिर-मस्जिदों में बात चलती है। भूल मत कर लेना।
पूरब में राम है पच्छिम खुदाय है,
उत्तर और दक्खिन कहो कौन रहता?
पलटू कहते हैं: ये भी क्या पागलपन की बातें हैं कि कोई कहता है कि पश्चिम में खुदा है, पूरब में राम है! तो उत्तर और दक्खिन में कौन रहता? सभी दिशाएं उसकी हैं। सभी दिशाओं में वह व्याप्त है। इसलिए मंदिर-मस्जिदों के चक्कर में मत पड़ना। यह सारा अस्तित्व उसका मंदिर है। यहां प्रत्येक इंच-इंच भूमि पवित्र है। तुम जहां भी चल रहे हो, मंदिर में ही चल रहे हो। इसलिए हर जगह होश रखना और हर जगह राम का स्मरण रखना। यह मत सोचना कि जब मंदिर गए तो स्नान करके और अच्छा भाव करके पहुंच गए और मंदिर के बाहर आए तो संसार को चलाने लगे। यह सारी जगह उसी की है। इस सब में वही व्याप्त है।
साहिब वह कहां है, कहां फिर नहीं है।
यह तो पूछो ही मत कि भगवान कहां है। असली सवाल तो यह है कि कहां वह नहीं है। सभी जगह है। उसका होना ही एकमात्र होना है। सब होने में वही छिपा है।
हिंदू और तुरक तोफान करता।
झगड़े में पड़े हैं हिंदू और मुसलमान, ईसाई और जैन, बौद्ध और पारसी, सब झगड़े में पड़े हैं। वे इसकी फिकर में लगे हैं कि भगवान कहां है। पलटू कहते हैं: असली सवाल यह है साहिब वह कहां है, कहां फिर नहीं है! उसके रूप की भी कोई फिकर मत करो। सब रूप उसी के हैं। और उसके नाम की भी बहुत चिंता मत करो; सभी नाम उसी के हैं।
हिंदू और तुरक मिलि परे हैं खैंचि में
आपनी बर्ग दोउ दीन बहता।
खींच-तान में लगे हैं! लोगों को खींच रहे हैं कि यहां आओ, धर्म यहां है। बड़ी खींच-तान मची है। इस खींच-तान में मत पड़ना। किसी सदगुरु की शरण उतर जाना। रख देना सारा सिर-भार। छोड़ देना संसार की आशा; फिर मिल गया जो मिलने को था यहां। परम निधी मिल गई हाथ; फिर उसमें डुबकी लगा जाना।
दास पलटू कहै, साहिब सब में रहै,
जुदा ना तनिक मैं सांच कहता।।
सब में है परमात्मा। तुम में भी है। इसलिए किसी मंदिर-मस्जिद की खींचा-तानी में पड़ने की कोई जरूरत नहीं। सब खींचा-तानी राजनीति है। सब संख्या बढ़ाने का उपाय है। खींचा-तानी की फिकर में मत पड़ना। हिंदू-मुसलमान होने से कुछ सार नहीं होता। किसी जीवंत गुरु का हाथ पकड़ो। वहां न कोई हिंदू होता है, न वहां कोई मुसलमान होता है। यह बड़े मजे की बात है। क्राइस्ट जब जिंदा थे तो कोई क्रिश्चियन नहीं था। और बुद्ध जब जिंदा थे तो कोई बौद्ध नहीं था। और कृष्ण जब जिंदा थे तो कौन हिंदू था! हिंदू शब्द भी नहीं था। जब कोई जीवित गुरु मौजूद होता है, तब वहां धर्म विशेषण-रहित होता है। जब गुरु विदा हो जाता है, तो धीरे-धीरे पंडित-पुरोहित इकट्ठे होते हैं; फिर विशेषण महत्वपूर्ण होने लगता है। जहां विशेषण बहुत महत्वपूर्ण हो जाए, वहां से निकल भागना। अब वहां कुछ भी नहीं है--राख है। अंगारा बुझ चुका।
दास पलटू कहै, साहिब सब में रहै,
जुदा न तनिक, मैं सांच कहता।।

जाहि तन लगी है, सोई तन जानिहै
जानिहै वही सतसंग-वासी।
पलटू कहते हैं: लेकिन ये बातें जो मैं कह रहा हूं, यह सुन कर तुम न समझ पाओगे। जान पाओगे, तभी।
जानिहै वही सतसंग-वासी।
जो सत्संग में पड़ेगा, जो किसी सदगुरु के प्रेम में पड़ेगा--वही जान पाएगा।
जाहि तन लगी है, सोइ तन जानिहै
यह हवा जिसको लग जाएगी, यह रोग परमात्मा का जिसको पकड़ लेगा, यह शराब जिसके कंठ उतर जाएगी--वही जानेगा।
जाहि तन लगी है सोई तन जानिहै
जानिहै वही सतसंग-वासी।
कोटि औषधि करैं, विरह ना जाएगा,
जाहि के लगी है विरहगांसी।।
और जिसके हृदय में परमात्मा के विरह की छुरी चुभ गई, अब किसी औषधि से यह बात हल होने वाली नहीं है। अब यह कोई इलाज से हल नहीं होगी।
पश्चिम में हजारों तरह की बीमारियों का इलाज खोजा जाता है। लेकिन अभी पश्चिम में इस बीमारी के संबंध में कुछ खयाल नहीं है पश्चिम के चिकित्साशास्त्र को, कि एक ऐसी भी बीमारी होती है--भक्त की बीमारी, प्रेमी की बीमारी--जिसका कोई इलाज इस संसार में नहीं है।
जापान में झेन की हजारों साल की परंपरा के बाद ऐसा अनुभव जापान के डाक्टरों को होना शुरू हुआ कि कुछ लोग एक अजीब तरह की बीमारी से ग्रसित हो जाते हैं, जिसका कोई संबंध पागलपन से नहीं है; लेकिन पागलपन जैसी लगती है। तो जापान अकेला मुल्क है सारी दुनिया में, जहां का चिकित्साशास्त्र एक खास तरह की बीमारी को झेन की बीमारी कहता है। यह बड़ी ऊंची बात है। और जब भी कोई चिकित्सक देखता है कि यह आदमी झेन से बीमार है, ध्यान से बीमार है, इसकी बीमारी ध्यान है, परमात्मा है--तो फिर उसका इलाज नहीं करता। उसको भेज देता है किसी सदगुरु के पास--किसी आश्रम में, कि तू वहां चला जा। यहां हमारे पास इलाज नहीं हो सकेगा। यह तेरी कोई शरीर की बीमारी नहीं है, न तेरे मन की बीमारी है। यह आत्मिक है।
आदमी तीन तल पर जीता है--शरीर, मन, आत्मा। पहले तो पश्चिम के चिकित्सक मानते थे: सब बीमारियां शरीर की होती हैं। फिर बामुश्किल, बड़ी मुश्किल से उन्होंने स्वीकार करना शुरू किया कि कुछ बीमारियां मन की होती हैं। फ्रायड के बाद पचास साल के निरंतर संघर्ष से यह बात स्वीकार हुई कि कुछ बीमारियां मन की होती हैं। तो अब मानसिक बीमारी के लिए अलग स्थान हो गया। लेकिन अभी तीसरी बीमारी स्वीकृत नहीं हो पाई है कि कुछ बीमारियां आत्मा की होती हैं और उनका कोई इलाज नहीं किया जा सकता। उनका इलाज नहीं किया जा सकता, यह सौभाग्य है। वे तो अनुभव से ही जाती हैं। वह विरह की बीमारी है; वह तो परमात्मा के मिलन से ही जाती है।
पश्चिम में एक बहुत बड़ा विचारक है: आर. डी. लैंग। उसने बहुत से पागलों का अध्ययन किया है। मनोवैज्ञानिक है। और उसने इस संबंध में बड़ी मेहनत की है कि बहुत से पागल पश्चिम के पागलखानों में बंद हैं, जो पागल नहीं हैं; किसी और सदी में होते तो भक्त समझे जाते। अगर पूरब में होते तो ध्यानी समझे जाते। और पागलखानों में बंद हैं, उनका इलाज किया जा रहा है, इंजेक्शन दिए जा रहे हैं, बिजली के शॉक दिए जा रहे हैं। उनको सताया जा रहा है। क्योंकि उनके पास कोई मानसिक बीमारी के पार और भी एक तीसरी बीमारी हो सकती है, उसकी कोई धारणा नहीं है। यह जो पलटू कहते हैं--
जाहि तन लगी है सोइ तन जानिहै
जानिहै वही सतसंग-वासी।
जैसे एक विक्षिप्तता पकड़ ले, परमात्मा ऐसे ही पकड़ता है। जैसा प्रेमी पागल हो जाता है, ऐसा भक्त पागल हो जाता है। और प्रेमी का पागलपन तो कुछ भी नहीं--छोटा-मोटा झरना! भक्त का पागलपन तो ऐसे जैसे पूरा सागर। मजनू पागल होता है लैला के लिए, लेकिन स्वभावतः मजनू का पागलपन लैला के लिए छोटा-मोटा पागलपन होगा। लेकिन जब मीरा पागल होती है कृष्ण के लिए, तो यह पागलपन तो विराट होगा, आकाश जैसा बड़ा होगा।
कोटि औषधि करैं, विरह ना जाएगा
जाहि के लगी है विरहगांसी।।
जिसके हृदय में परमात्मा के विरह की छुरी चुभ गई! और सत्संग में यही होता है।
गुरु की मौजूदगी, गुरु का अनुभव, गुरु के भीतर फूटी प्रकाश की झलक--भक्त की छाती में छुरे की तरह गड़ने लगती है: ऐसा मुझे कब होगा! मेरे कब होंगे धन्यभाग कि ऐसा मुझे हो! रोता है भक्त, चीखता है भक्त, चिल्लाता है भक्त। छाती पीटता है; नाचता है, गाता है, पुकारता है। इसको जो ठीक शब्द दिया पलटू ने: विरहगांसी! बड़ी छुरी चुभ जाती है। मगर यह धन्यभाग है। ऐसा जो बीमार हो जाए, धन्यभागी है।
नैन झरना बन्यौ, भूख ना नींद है
परी है गले बिच प्रेम-फांसी।
सत्संग में यह होगा तो पलटू कह देते हैं: सावधान पहले ही कर देना उचित है।
नैन झरना बन्यौ,...
आंख से ऐसे ही बहते हैं आंसू जैसे झरना।
और ध्यान रहे, ये आंख के आंसू, जब भक्त की आंख से बहते हैं तो दुख के नहीं होते हैं; ये सुख के होते हैं। यह विरह भी बड़ा सुखद है। परमात्मा का विरह, आदमियों से मिलन से जो सुख होता है, उससे कहीं ज्यादा सुख परमात्मा के विरह में है। आदमियों से मिल कर तो जो सुख होता है, वह आज नहीं कल दुख बन जाता है। और परमात्मा का विरह का जो दुख है, वह आज नहीं कल सुख बन जाता है। इसलिए भक्त रोता है। उसके आंसू परम आनंद के आंसू हैं। वह अहोभाव से रोता है।
नैन झरना बन्यौ, भूख ना नींद है,
परी है गले बिच प्रेम-फांसी।
अब तो उसकी गर्दन में एक फांसी लग गई है। जब तक प्रभु-मिलन न हो जाए, तब तक चैन नहीं। जब तक उसमें लीनता न हो जाए, तब तक अब कैसी भूख, कैसी प्यास!
दास पलटू कहै, लगी ना छूटिहै,
सकल संसार मिलि करै हांसी।।
और यह पागलपन ऐसा है, एक बार लग जाए तो सारा संसार हंसे, उपहास करे, तो भी छूटता नहीं।
दास पलटू कहै लगी ना छूटिहै।
लग भर जाए यह रंग, फिर छूटता नहीं। यह कोई कच्चा रंग नहीं है।
सकल संसार मिलि करै हांसी।
होय रजपूत सो चढ़ै मैदान पर,
इसलिए कहते हैं: ध्यान रखना, होय रजपूत सो चढ़ै मैदान पर!
जिसमें हिम्मत हो, साहस हो, वही इस रास्ते पर आए। यह कमजोरों का रास्ता नहीं। यह भयभीतों-भीरुओं का रास्ता नहीं।
होय रजपूत सो चढ़ै मैदान पर,
खेत पर पांच-पच्चीस मारै
यह जो पांच-पच्चीस है--ये तुम्हारी पांच इंद्रियां और इन पांच इंद्रियों के पच्चीस प्रतिफलन जो जीवन में बनते हैं। एक-एक इंद्रिय पांच-पांच इंद्रिय हो जाती है। एक-एक इंद्रिय पांच-पांच दिशाओं में दौड़ने लगती है।
होय रजपूत सो चढ़ै मैदान पर,
खेत पर पांच-पच्चीस मारै
इंद्रियों को जो जीत ले, वही विजेता है। इसलिए हमने महावीर को जिन कहा है। जिन का अर्थ होता है: जिसने जीत लिया। जैनों को जैन कहलाने का कोई हक नहीं है। वह तो सिर्फ महावीर को हक है। इंद्रियां जीती हों, तो जिन; अन्यथा कैसे जिन, कैसे जैन? इंद्रियों की मालकियत आई हो, इंद्रियां अपनी हों...। अभी तुम्हारी इंद्रियां अपनी कहां हैं! तुम राह पर चले जा रहे हो, एक सुंदर स्त्री निकलती है--आंख मोहित हो जाती है। तुम इधर-उधर आंख खींचते हो, मगर आंख वहीं जाना चाहती है। अभी तुम्हारी आंख भी तुम्हारा कहां मानती है! और तुम जबरदस्ती खींच-तान कर आंख को रोक भी लो, तो रात सपना देखोगे उसी स्त्री का। आंख देखना ही चाहती थी तो देखेगी। सपना देखेगी, अगर असली में नहीं देख सकी।
राह से गुजरते हो, किसी रेस्तरां से गंध आती है सुस्वादु भोजन की, नासापुट प्रफुल्लित हो जाते हैं। तुम रोकते हो अपने को।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन ने कसम खा ली कि अब शराब न पीऊंगा। पर मुसीबत यह थी कि दूसरे दिन निकलना पड़ता था उसी रास्ते से, जहां शराब-घर था। बड़ी हिम्मत की। बड़ा परमात्मा का स्मरण करता हुआ निकला। जैसे-जैसे शराब-घर करीब आने लगा और हवा में शराब की थोड़ी खुशबु आने लगी और शराबी निकलने लगे शराब-घर से लड़खड़ाते हुए, बस कमजोर होने लगा। मगर फिर भी बड़ा हिम्मत का आदमी है, किसी तरह अपनी छाती को मजबूत कर के सौ कदम आगे तक चला गया। फिर सौ कदम पर रुक कर अपनी पीठ ठोकी और कहा कि नसरुद्दीन, शाबास! अब आ, तेरे को दिल भर कर पिलाता हूं! इस खुशी में पिलाता हूं कि आज तूने...। पहुंच गया वापस। नई तरकीब निकाल ली: इस खुशी में पिलाता हूं, कि आज तू सौ कदम आगे तक निकल आया और शराब-घर तुझे नहीं खींच सका। शाबाश!
तुम जरा अपनी इंद्रियों को देखना। पच्चीसों दिशाओं में तुम्हें खींचती हैं। और तुम्हारे जबरदस्ती रोके ये रुकेंगी भी नहीं। जबरदस्ती रोकने से यह रुकती भी नहीं। जब तक तुम्हारे भीतर परम का स्वाद न आने लगे, तब तक तुम्हारे स्वाद की इंद्रिय के तुम मालिक न हो सकोगे। और जब तक तुम्हें परम का रूप न दिखाई पड़ने लगे तब तक तुम्हारी आंखें रूप को कहीं न कहीं खोजती रहेंगी। और जब तक तुम्हें अनाहत नाद न सुनाई पड़े, तब तक कान संगीत के पागल रहेंगे। और जब तक तुम्हें असली शराब न मिल जाए--परमात्मा के प्रेम की शराब--तब तक तुम किसी न किसी तरह के नशे की तलाश करोगे ही।
होय रजपूत सो चढ़ै मैदान पर,
खेत पर पांच-पच्चीस मारै
काम औ क्रोध दुई दुष्ट ये बड़े हैं,
ज्ञान के धनुष से इन्हैं टारै।।
समझना इस सूत्र को। काम औ क्रोध दुई दुष्ट ये बड़े हैं,
दो ही उपद्रव हैं इस जगत में। एक तो है काम का उपद्रव। काम का अर्थ है: मैं जीऊं। खूब जीऊं। जीवेष्णा। और क्रोध का अर्थ है: दूसरे को न जीने दूं। इसलिए जब तुम्हें किसी पर क्रोध चढ़ता है, तो मन में उठता है: मार ही डालूं। समाप्त ही कर दूं इसको। अपने को बचाने के लिए तुम दूसरे को मारना चाहते हो।
काम और क्रोध साथ-साथ चलते हैं। जो कामी है, वह क्रोधी होगा ही। इसलिए होगा क्रोधी, कि जब भी तुम कामवासना में दौड़ोगे, तो तुम पाओगे अनेकों से प्रतिस्पर्धा हो रही है। हीरा पड़ा है रास्ते पर, तुम भी भागे, और भी भाग रहे हैं। तुम अकेले तो नहीं हो इस जगत में। और अकेले होते तो हीरा उठाने का मजा भी क्या था? समझ लो, अकेले ही रह गए--तीसरा महायुद्ध हो गया--तुम अकेले ही रह गए, अब तुम्हारा दिल हो तो उठा लाओ कोहिनूर और जो भी हीरे तुम्हें इकट्ठे करने हों, कर लो। थोड़ी देर में तुम थक जाओगे कि इनका करना क्या! हीरा लगा कर भी बैठ जाओगे मोरमुकुट में बांध कर, तो कोई देखने भी नहीं आएगा। कोई मतलब ही नहीं है। जब भीड़ नहीं रही तो कोई मतलब ही नहीं है।
मजा समझो। हीरे का मूल्य है, क्योंकि प्रतिस्पर्धी हैं। हीरे का कोई मूल्य नहीं है, अगर प्रतिस्पर्धी न हों। और चूंकि प्रतिस्पर्धी हैं, इसलिए तुम अकेले नहीं हो संघर्ष में। हर कामना युद्ध बन जाती है। और भी लोग दौड़ रहे हैं। उनसे संघर्ष होगा। उनकी छाती पर पैर रख कर जाना पड़ेगा। उनके सिर की सीढ़ी बनानी पड़ेगी। उनकी हत्या करनी होगी तो करनी पड़ेगी।
इसलिए तो राजनीति में कोई नीति नहीं होती। कैसे लोग इसको राजनीति कहते हैं, यही आश्चर्य है। इसको नीति तो कहना ही नहीं चाहिए। यह तो नीति शब्द का बड़ा अपमान है। राजनीति में कहां नीति? वहां तो येन-केन-प्रकारेण, जैसे भी हो, जिस तरह भी हो, अच्छे हो तो अच्छे, बुरे हो तो बुरे, सीधे हाथ हो तो ठीक, उलटे हाथ हो तो उलटे--जैसे भी हो, पद पाना है, प्रतिष्ठा पानी है। वहां तो दौड़ कर सिंहासन पर बैठना है। और स्वभावतः बहुत लोग दौड़ रहे हैं। अब हिंदुस्तान में कोई साठ करोड़ लोग हैं और सभी दौड़ रहे हैं। साठ करोड़ दुश्मन हैं तुम्हारे, जब तुम पद के आकांक्षा के जहर से भरोगे। साठ करोड़ दुश्मन हैं तुम्हारे! स्वभावतः अनीति होगी।
राजनीति यानी अनीति। और हमारा सारा जीवन कामना का है, तो राजनीति का है। धन की दौड़, तो वहां भी वही उपद्रव है।
तो जहां-जहां तुम दौड़ोगे कामवासना से, जो भी तुम्हारे बीच में आएगा, उस पर क्रोध आएगा। अगर हिंदुस्तान के सारे राजनीतिज्ञ इंदिरा गांधी के विरोधी हो गए तो उसका कारण था। उन सबकी दौड़ उस तरफ थी और इंदिरा सब के बीच में खड़ी थी। ये सारे राजनीतिज्ञ जो इकट्ठे हो सके इंदिरा के खिलाफ, इनका कुछ आपस में प्रेम नहीं है। यह भूल कर मत समझना। इनका आपस में कुछ लेना-देना नहीं है। अब ये आपस में लड़ेंगे। अब ये एक-दूसरे के ऊपर चढ़ाई करेंगे। अगर इनको कोई चीज जोड़े रख सकती है दुनिया में तो वह इंदिरा का डर है; और कोई चीज नहीं जोड़े रख सकती। जिस दिन इनको पक्का हो जाएगा कि इंदिरा खत्म हो गई, अब इसका कोई डर नहीं, उस दिन ये टूट जाएंगे। ये बिखर जाएंगे। फिर इनमें संघर्ष शुरू हो जाएगा। ये सारे के सारे राजनीतिज्ञ इतने खिलाफ क्यों हो गए? बाधा थी। क्रोध पैदा हुआ। एक व्यक्ति कब्जा जमा कर बैठ गया और अब किसी को भी नहीं पहुंचने देता। तो जितने लोग पहुंचने के लिए आतुर थे, वे सब इकट्ठे हो गए।
निरंतर यही होगा। तुम्हारे दुश्मन का दुश्मन तुम्हारा दोस्त हो जाएगा। तुम्हारा दुश्मन का दोस्त तुम्हारा दुश्मन हो जाएगा।
राजनीति का सूत्र है: जो अपने साथ नहीं, वह दुश्मन है। और जो अपने साथ है, वह भी तभी तक दोस्त है जब तक तुम पद पर नहीं पहुच गए; जैसे ही तुम पद पर पहुंचे कि तुम्हें सबसे बड़ी सावधानी इससे बरतनी पड़ेगी, जो तुम्हारे साथ है, क्योंकि यह तुम्हारे बहुत करीब है। सबसे बड़ा खतरा तुम्हें इसी से रहेगा। आज नहीं कल, यह तुम्हारी टांग खींच दे सकता है। यह करीब है।
मैक्यावली ने राजनीतिज्ञों के लिए जो सूत्र लिखे हैं, उसमें एक सूत्र है: अपने दोस्त का भी विश्वास मत करना, क्योंकि राजनीति में कोई दोस्त नहीं होता। अपने दोस्त से भी वह बात मत कहना जो तुम अपने दुश्मन से छिपाना चाहो; क्योंकि जो आज दोस्त है, कल दुश्मन हो सकता है। और अपने दुश्मन के खिलाफ भी ऐसी बात मत कहना, जो तुम अपने दोस्त के खिलाफ न कहना चाहो; क्योंकि जो आज दुश्मन है, कल दोस्त हो सकता है।
यह बड़ी कीमत की बात मैक्यावली ने लिखी है। मैक्यावली ने जब यह किताब लिखी--दि प्रिंस--तो मैक्यावली सोचता था कि उसे निश्चित ही कोई बड़ा सम्राट बुला कर अपना वजीर बना लेगा। बहुत से सम्राटों ने उसकी किताब से लाभ उठाया, लेकिन किसी सम्राट ने उसे अपने दरबार में नहीं घुसने दिया। क्योंकि सब चिंतित हो गए कि यह आदमी इतना जानता है, इसको वजीर बनाने का मतलब है यह आज नहीं कल बादशाह हो जाएगा। उसको कोई चपरासी रखने को भी कोई तैयार नहीं था। हालांकि सबने उसकी किताब से लाभ उठाया। सबने उसकी किताब से सीखा। जैसे धार्मिक आदमी को कुछ सीखना हो तो गीता, कुरान, बाइबिल--ऐसे राजनीतिज्ञ को कुछ सीखना हो तो मैक्यावली की: दि प्रिंस। मगर उसको कोई जगह नहीं मिली; वह भूखा रहा, परेशान रहा। आखिर में उसको समझ में आया कि यह किताब लिख कर उसने अपना नुकसान कर लिया। वह किताब न लिखता तो शायद कहीं न कहीं तरकीब लगा कर घुस जाता। किताब ही बाधा बन गई। इतने होशियार आदमी को कोई पास नहीं लेता।
इसलिए राजनीतिज्ञों के पास बुद्धुओं का जमाव हो जाता है। उसका कारण है, क्योंकि कोई राजनीतिज्ञ बहुत बुद्धिमान आदमियों को बरदाश्त नहीं करता। यह कुछ ऐसा नहीं है कि इसके पीछे कोई नियम नहीं है। इसके पीछे नियम है। जब भी कोई राजनीतिज्ञ सफल हो जाएगा, वह बुद्धिमान आदमियों को हटाने लगेगा और बुद्धुओं को इकट्ठा करने लगेगा। क्योंकि बुद्धुओं से कोई डर नहीं है--सुरक्षा है। उनमें इतनी अक्ल भी नहीं है कि वे इतनी झंझट खड़ी कर सकें। बुद्धिमान को कोई बरदाश्त नहीं करता।
जहां कामना है, वहां सतत हिंसा और क्रोध है। जो तुम्हारे मार्ग में आ जाएगा, जो आड़ बनेगा, उसको ही तुम खत्म कर देना चाहोगे।
पलटू कहते हैं:
काम और क्रोध दुई दुष्ट ये बड़े हैं,
ज्ञान के धनुष से इन्हें टारै।।
बोध को जगाए। जब काम उठे तो परिपूर्ण ध्यान को उठाए। जागरूक हो। होश की लहर से भर जाए। देखे क्रोध को। क्रोध का संग-साथ न दे। क्रोध के चक्कर में न आए। क्रोध के साथ तादात्म्य न करे। और जब काम उठे तो उसके साथ भी तादात्म्य न करे। दूर खड़े होकर साक्षीभाव से देखें। यह है अर्थ: ज्ञान के धनुष से इन्हें टारै।
कूद परि जायकै कोट काया मंहै,
आगि लगाय के मोह जारै।
और अगर कोई चीज जलाने योग्य है--इसके पहले कि तुम्हारी देह जले चिता पर, अगर किसी चीज की चिता बना देने योग्य है--तो वह है: मोह; मेरा-तेरा; ममत्व। क्योंकि जब तक मेरा है तब तक मैं बचा रहेगा। मेरा मैं का ही फैलाव है। तो मेरे को काटे। मेरा मकान, मेरी दुकान, मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, मेरा धर्म, मेरा शास्त्र--जहां-जहां मेरा है--मेरा देश, मेरी जाति, मेरा वर्ण--जहां-जहां मेरा है, मेरे को काटता जाए। जिस दिन सारा मेरा कट जाता है, उस दिन जो मैं है, तत्क्षण गिर जाता है। उसको कोई सहारा नहीं रह जाता। मैं का तंबू मेरे की खूंटियों पर लगा है। सब खूंटियां कट जाती हैं, मैं का तंबू गिर जाता है। और जहां मैं का तंबू गिरता है, वहीं परमात्मा उतरता है।
कूद परि जायकै कोट काया मंहै,
आगि लगाय के मोह जारै।
दास पलटू कहैं सोई रजपूत है,
लेहि मन जीति तब आपु हारै।।
मन को जीतने के पहले हार मत जाना। मन को जीत लो, फिर विश्राम करो। फिर कोई चिंता न रही। मन को जीते बिना जो न हारे, जो लड़ता ही रहे मन को जीतने के लिए, जो जिन बने बिना रुके नहीं--सोई रजपूत है। दास पलटू कहैं लेहि मन जीत तब आपु हारै!
रुकना तभी, विराम तभी, विश्राम तभी--जब एक बात सुनिश्चित हो जाए कि तुम मन के विजेता हो गए। सोई रजपूत है पलटू कहैं! वही है क्षत्रिय, वही है वीरपुरुष--जो काम को, क्रोध को, मोह को राख कर दे; जो ज्ञान की अग्नि में अज्ञान को भस्म कर दे। जो अपने साक्षी के भाव में मैं देह हूं, यह भी भूल जाए; मैं मन हूं, यह भी भूल जाए; मैं हूं, अंततः यह भी भूल जाए। जब समस्त मैं विलीन हो जाता है, तो जो शेष रह जाता है--वही है ओंकार। वही है नाद। वही है:
बोलु हरिनाम तू छोड़ि दे काम सब
सहज में मुक्ति होइ जाए तेरी।
दाम लागै नहीं, काम यह बड़ा है,
सदा सतसंग में लाउ फेरी।।
बिलम न लाइकैं डारि सिर भार को,
छोड़ि दे आस संसार केरी।
दास पलटू कहै यही संग जाएगा।
बोलु मुख राम यह अरज मेरी।।

पूरब में राम है, पच्छिम खुदाय है,
उत्तर और दक्खिन कहो कौन रहता?
साहिब वह कहां है, कहां फिर नहीं है,
हिंदू और तुरक तोफान करता।।
हिंदू और तुरक मिलि परे हैं खैंचि में
आपनी बर्ग दोउ दीन बहता।
दास पलटू कहै साहिब सब में रहै,
जुदा न तनिक, मैं सांच कहता।।

जाहि तन लगी है, सोई तन जानिहै
जानिहै वही सतसंग-वासी।
कोटि औषधि करैं, विरह ना जाएगा,
जाहि के लगी है विरहगांसी।।
नैन झरना बन्यौ भूख ना नींद है
परी है गले बिच प्रेम-फांसी।
दास पलटू कहै, लगी ना छूटिहै,
सकल संसार मिलि करैं हांसी।।

होय रजपूत सो चढ़ै मैदान पर,
खेत पर पांच-पच्चीस मारै
काम औ क्रोध दुई दुष्ट ये बड़े हैं,
ज्ञान के धनुष से इन्हें टारै।।
कूद परि जायकै कोटि काया मंहै,
आगि लगाय कै मोह जारै।
दास पलटू कहैं सोई रजपूत है,
लेहि मन जीति तब आपु हारै।।
आज इतना ही।

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