PALTUDAS
Ajhun Chet Ganwar 14
Fourteenth Discourse from the series of 21 discourses - Ajhun Chet Ganwar by Osho. These discourses were given during JUL 21 - AUG 10 1977.
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पहला प्रश्न:
भगवान, क्या इस कलियुग में भी कोई प्रभु को उपलब्ध हो सकता है?
कलियुग सदा से है--वैसे ही जैसे सतयुग भी सदा से है। सतयुग में राम थे, रावण भी था। रावण को भूल मत जाना। रावण तो सतयुग में नहीं हो सकता; साथ-साथ थे दोनों। रावण कलियुग में था, राम सतयुग में थे।
सतयुग और कलियुग एक-दूसरे के पीछे पंक्ति में नहीं खड़े हैं, कि पहले सतयुग आया, फिर कलियुग आया। सतयुग और कलियुग समसामयिक हैं, कंटेम्प्रेरी हैं--ऐसे ही जैसे रात और दिन साथ-साथ हैं; अंधेरा-उजाला साथ-साथ हैं; बुराई-भलाई साथ-साथ हैं।
तुमने सदा ऐसा ही सुना है कि पहले सतयुग था, अच्छे दिन थे, अब बुरे दिन हैं। वह धारणा मौलिक रूप से गलत है। पहले भी ऐसा था; आज भी वैसा ही है। पहले भी बुरे होने की संभावना थी; आज भी बुरे होने की संभावना है। पहले भी भले होने की संभावना थी; आज भी द्वार बंद नहीं हो गए हैं।
और ध्यान रहे, अधिक लोग तो सदा ही कलियुग में रहे हैं। बुद्ध समझाते हैं लोगों को: चोरी न करो, बेईमानी न करो, ईर्ष्या न करो, मद-मत्सर न करो; हिंसा न करो। सुबह से सांझ तक समझाते हैं; चालीस साल ज्ञान की उपलब्धि के बाद यही समझाया। यही और यही। किनको समझाते हैं? सतयुग था? तो जो लोग चोरी करते ही नहीं थे, उनको बुद्ध समझाते हैं चोरी मत करो? जो लोग हिंसा करते ही नहीं थे, उनको बुद्ध समझाते हैं कि हिंसा मत करो? जो लोग ईमानदार थे ही, उनको समझाते हैं कि ईमानदार हो जाओ? तो बुद्ध पागल रहे होंगे। ईमानदारों को कोई नहीं समझाता कि ईमानदार हो जाओ। बेईमानों को समझाना होता है।
महावीर भी वही कर रहे हैं सुबह से सांझ तक। पुरानी से पुरानी किताब वेद भी वही कर रही है। तो वेद के दिन में भी चोर थे, और साधुओं से ज्यादा रहे होंगे; बेईमान थे, और ईमानदारों से ज्यादा रहे होंगे। अगर भले ही लोग होते, शैतानियत होती ही न, तो शास्त्रों की भी कोई जरूरत न थी। शास्त्र किसके लिए लिखे जाते हैं? सद्-उपदेश किसके लिए हैं?
तो मैं तुम्हारी समय की धारणा में एक नया विचार आरोपित करना चाहता हूं: सतयुग सदा है; कलियुग भी सदा है। तुम जो चाहो चुन लो। तुम अभी चाहो तो सतयुग में रह सकते हो। तुम सत् हुए तो सतयुग में प्रविष्ट हो गए। और तुम असत् हुए तो कलयुग में प्रविष्ट हो गए। तुमने अंधेरे से दोस्ती बांधी तो कलियुग में रहोगे। और तुमने रोशनी से दोस्ती बांध ली तो सतयुग में रहोगे।
सतयुग और कलियुग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो मरजी हो, उसमें जी लो। कलियुग को दोष मत दो।
आदमी बहुत होशियार है। आदमी कहता है: हम क्या करें अब, यह तो कलियुग है! तुमने समय पर टाल दी बात। तुमने यह कह दिया कि समय ही खराब है; हमारी कोई खराबी नहीं है। तुमने अपनी जिम्मेवारी हटा दी कंधों से। निश्चित ही, अब तुम कलियुग में रहोगे। क्योंकि जिसने अपनी जिम्मेवारी छोड़ दी, उसके जीवन में जागरण की किरण कभी भी न आएगी। और स्वभावतः जब वह अंधेरे ही अंधेरे में जीएगा, तो उसकी धारणा और मजबूत होती जाएगी कि कलियुग बहुत भयंकर है; इससे छुटकारा नहीं हो सकता। और कलियुग तुम्हीं पैदा कर रहे हो।
जिंदगी को बदलो! जिंदगी तुम्हारी है; और कोई जिम्मेवार नहीं। तरकीबें न खेलो। आदमी हमेशा तरकीबें करता है। दोष किसी और पर टाल देता है। दोष दूसरे पर टाल कर निश्चिंत हो जाता है कि अब मेरा तो कोई दोष है नहीं, अब मैं क्या कर सकता हूं, असहाय हूं।
लेकिन जिस दिन तुम असहाय हुए, उसी दिन नपुंसक भी हो जाते हो। जब तुमने कहा, मैं क्या कर सकता हूं, समय खराब; मैं क्या कर सकता हूं, समाज खराब; मैं क्या कर सकता हूं, चारों तरफ बेईमान ही बेईमान हैं; मुझे भी बेईमान होना ही पड़ेगा, मजबूरी है--तो तुम बेईमान हो गए और तुम बेईमान होते चले जाओगे। तुम कमजोर हो जाते हो--उसी दिन, जिस दिन तुम जिम्मेवारी किसी और पर छोड़ते हो। तुम उसी दिन गुलाम हो जाते हो।
मालिक वही है, जिसने कहा: बुरा हूं तो मैं अपने कारण हूं। स्वतंत्र वही है, जिसने कहा: चोर हूं तो मैं अपने कारण हूं। चोर हूं सही; लेकिन कारण मैं हूं। मैंने चोर होना चुना है। यह आदमी साफ-सुथरा है। इस आदमी की जिंदगी में क्रांति हो सकती है। क्योंकि इसके पास क्रांति की मूल कुंजी है। यह कहता है: बुरा हूं तो मैं अपने कारण हूं। अगर अपने कारण बुरा हूं तो जिस दिन चाहूंगा, उस दिन भला हो जाऊंगा। वह दरवाजा मैंने अपने हाथ में रखा है। वह कुंजी अपने हाथ में है।
इसलिए तो इस देश में हम संन्यासी को स्वामी कहते हैं। स्वामी का अर्थ होता है मालिक। मालकियत की घोषणा कि मैं अपना मालिक हूं--बुरा हूं तो, भला हूं तो। मैं जैसा हूं, मैं ही कारणभूत हूं।
इससे घबड़ाओ मत कि मैं कारणभूत हूं। इससे हमें घबड़ाहट लगती है कि मैं अपने अपराधों के लिए जिम्मेवार; मैं अपनी बुराइयों के लिए जिम्मेवार; मैं अपनी शैतानियत के लिए जिम्मेवार! तुम्हें बहुत घबड़ाहट होती है। लेकिन इसका दूसरा पहलू देखो। इसका दूसरा पहलू यह है कि अगर मैं ही जिम्मेवार हूं तो कुछ किया जा सकता है; तो संभावना रूपांतरण की है, शेष है।
लोग तो टालते ही चले जाते हैं। अब समय पर टाल दिया! समय को कहां पकड़ोगे? कलियुग को तुम कैसे बदलोगे? सतयुग में? तो तुम्हारे तो हाथ के बाहर ही बात हो गई। तो फिर जो है, ठीक है; इसी में गुजार लेना है--ऐसे ही रोते, ऐसे ही झींकते, ऐसे ही रिरियाते, ऐसे ही सड़कों पर सरकते कीड़े-मकोड़ों की तरह जी लेना है।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं: सदा से आदमी की संभावना रही है बुरा हो जाए, भला हो जाए। राम के समय में भी सभी लोग भले न थे। अगर सभी लोग भले होते तो राम को कोई अवतार क्यों कहता, कभी सोचा इस बात पर? राम की इतनी प्रतिष्ठा क्यों होती अगर सभी लोग भले होते? उन भले रामों में राम भी खो गए होते। कौन पूछता! दो कौड़ी की भी बात नहीं थी फिर। जहां सारे भले लोग हों, जहां संतों की जमात हो, वहां कौन राम को पूछता! राम को हम भूल नहीं सके, हजारों साल बीत गए। क्यों नहीं भूल सके? रावणों की भीड़ थी, उसमें राम खूब उभर कर प्रकट हुए। जैसे अंधेरी रात में तारा चमकता है; दिन में तो नहीं चमकता। दिन में भी तारे हैं आकाश में, लेकिन चमकते नहीं। सूरज की रोशनी में सब खो जाते हैं। अंधेरे में चमकते हैं। काले बादल में जब बिजली चमकती है तो बहुत साफ दिखाई पड़ती है।
काले ब्लैक बोर्ड पर हम सफेद खड़िया से लिखते हैं, ताकि दिखाई पड़े। राम अब तक दिखाई पड़ रहे हैं--रावणों का ब्लैक बोर्ड रहा होगा। काले बादल रहे होंगे, इसलिए राम की चमक अभी तक नहीं खोई है। कृष्ण दिखाई पड़ते हैं; महावीर, बुद्ध दिखाई पड़ते हैं। क्यों? इतना सम्मान किसलिए? यह सम्मान हमने दिया क्यों? यह सम्मान हम न्यून को देते हैं, बिरले को देते हैं, अद्वितीय को देते हैं। यह सम्मान अगर सभी लोग हों एक जैसे, तो फिर नहीं देते।
मैंने सुना है, जब पहला आदमी इलाहाबाद में मैट्रिक पास हुआ था, तो पता है तुम्हें, हाथी पर उसका जुलूस निकला था! सारा इलाहाबाद सजाया गया था। पहला आदमी मैट्रिक पास हो गया! अब मैट्रिक कितने लोग पास हो रहे हैं, कोई गधे पर भी जुलूस नहीं निकालता। अब तुम अगर किसी से कहो कि मैट्रिक पास हूं, तो वह कहता है: कौन सी खूबी है! इसमें बताने की क्या बात है? मैट्रिक पास कहते वक्त तुमको भी ऐसा छाती बैठती मालूम पड़ेगी कि यह क्या कह रहे हैं।
जमाना था, जब मिडलची कलेक्टर हो जाते थे। उन दिनों कोई मैट्रिक पास हो जाता था तो दुदुंभि पिट जाती थी कि कोई गजब का काम हो गया।
राम की दुदुंभि अभी तक पिट रही है और हमने उनको मर्यादा-पुरुषोत्तम कहा--पुरुषों में उत्तम मर्यादा वाले। लोग अमर्याद रहे होंगे। लोग बड़े हीन रहे होंगे। नहीं तो कैसे राम को तौलोगे? किस कारण विशिष्टता दोगे?
कोहिनूर की प्रतिष्ठा है; कंकड़ों की तो नहीं; कांच के टुकड़ों की तो नहीं। अगर कोहिनूर सड़कों पर पड़े हों, गली-कूचे हर जगह पड़े हों, बच्चे उनसे खेल रहे हों, राह पर ढेर लगे हों, सीमेंट में मिला कर मकान बनाए जा रहे हों--फिर कोहिनूर इंगलैंड की महारानी रखे बैठी रहे, क्या मूल्य है? मूल्य होता है बिरले का।
राम को हम भूले नहीं। अब्राहम को हम भूले नहीं। मोज़़ेज को हम भूले नहीं। क्राइस्ट को हम भूले नहीं। मोहम्मद को भूले नहीं। कारण क्या है? आखिर ये लोग टंगे क्यों रह गए हमारी स्मृति में? बड़ी अंधेरी रात थी। उस अंधेरी रात में ये चमकते हुए तारे भूलें भी कैसे!
मैंने सुना है:
दैर वीरां है, हरम है बेखरोश
बरहमन चुप है, मोअज्जन है खामोश
सोज है अशलोक में बाकी न साज
अब वो खुत्वे न हिद्दत है न जोश
हो गई बेसूद तलकीने-सवाब
अब दिलाएं भी तो क्या खोफै अजाब
अब हरीफे-शेख कोई भी नहीं
खत्म है अब हर एक मोजू-ए-खिताब
आज मधम-सी है आवाजे दरूद,
आज जलता ही नहीं मंदिर में ऊद
क्या कयामत है यकायक हो गया
महफिले जह्हाद पर तारी जमूद
रब्बेबर हक खालिके-आली जनाब
हो गए अपने मिशन में कामयाब
सिलसिला रूश्दो हिदायत का है खत्म
आसमां से अब न उतरेगी किताब
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया।
यह उस दिन की कविता है, जिस दिन शैतान मर गया। शैतान मर गया तो क्या हुआ?
मर गया ए बाय शैतां मर गया!
उस दिन यह हुआ: दैर वीरां है! मंदिर खाली पड़े हैं। शैतान ही मर गया तो मंदिर में भगवान की क्या जरूरत रही!
दैर वीरां है, हरम है बेखरोश
मस्जिद शांत है; अब कोई अजान नहीं देता। शैतान ही मर गया तो अब भगवान की अजान भी कौन दे! सभी तरफ भगवान का राज्य हो गया। संघर्ष ही समाप्त हो गया।
दैर वीरां है, हरम है बेखरोश
बरहमन चुप है मोअज्जन है खामोश
अजान देने वाले चुप हो गए हैं और ब्राह्मण अब मंत्रों का पाठ नहीं करते हैं। अब किसकी पूजा, किसका पाठ!
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया
सोज है अशलोक में बाकी न साज।
अब न तो श्लोक में बल है, न संगीत है, न उत्साह है।
अब वो खुत्वे में न हिद्दत है न जोश
अब धार्मिक भाषण में वह गरमी भी न रही।
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया
शैतान ही मर जाए...जिस दिन अंधेरा मर जाएगा, उस दिन रोशनी में क्या मजा रह जाएगा! जिस दिन बीमारी मर जाएगी उस दिन स्वास्थ्य में क्या खूबी रह जाएगी! जिस दिन कांटे होंगे ही नहीं, उस दिन फूल की प्रशंसा में गीत कौन गाएगा!
हो गयी बेसूद तकलीने-सवाब।
अब दिलाएं भी तो क्या खोफै अजाब।
जिंदगी से सब पाप मिट गए अब लोगों को डराएं भी पाप से तो कैसे डराएं!
अब हरीफे-शेख कोई भी नहीं!
अब अच्छाई का कोई दुश्मन ही नहीं है। अब ज्ञानी का कोई दुश्मन ही नहीं है।
खत्म है हर एक मोजू-ए-खिताब
अब तो लोगों को संबोधित करने का कोई विषय ही न बचा।
मर गया ए बाय शैतां मर गया!
आज मधम-सी है आवाजे-दरूद
आज पूजा-पाठ बड़ा मद्धम हो गया है। मरा-मरा! श्वास टिकी-टिकी--अब गई, तब गई!
आज मधम-सी है आवाजे दरूद
आज जलता ही नहीं है मंदिर में ऊद।
अब कोई उदबत्ती नहीं जलाता, अब कोई धूप नहीं जलाता मंदिर में। परमात्मा की प्रार्थना अब नहीं होती। अब थालियां नहीं सजतीं आरती की। अब कोई फूल लेकर मंदिर में पूजा के लिए नहीं आता। किसकी अर्चना!
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया।
क्या कयामत है यकायक हो गया
यह क्या हो गया?
महफिले जह्हाद पर तारी जमूद!
यह भले लोगों की जबान एकदम बंद क्यों हो गई? ये धार्मिक लोग एकदम चुप क्यों हो गए? ये धार्मिक लोगों की जबान पर ताले क्यों पड़ गए? यह क्या गजब हो गया!
‘रब्बेबर हक’...हे परमात्मा! ‘...खालिके-आली जनाब। हो गए अपने मिशन में कामयाब।’ भगवान अपने मिशन में सफल हो गया। ‘मर गया ऐ बाय शैतां मर गया।’ शैतान मर गया, भगवान अपने मिशन में सफल हो गए--इस कारण अब मंदिर-मस्जिद चुप पड़े हैं।
सिलसिला रूश्दो हिदायत का है खत्म
अब उपदेश की कोई जरूरत न रही।
आसमां से अब न उतरेगी किताब।
अब न वेद उतरेगी, न इंजील, न कुरान।
सिलसिला रूश्दो हिदायत का है खत्म
आसमां से अब न उतरेगी किताब
अब मर गया ए बाय शैतां मर गया।
किताबें उतरती रहीं--कुरान, वेद, बाइबिल। पैगंबर आते रहे--अब्राहम, मोज़़ेज, मोहम्मद, जीसस। तीर्थंकर उठते रहे--महावीर, बुद्ध, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ, आदिनाथ। बड़े संदेशवाहक पैदा हुए--जरथुस्त्र, लाओत्सु। संत चमके। ये किसलिए हैं? यह किस तरह है? ये सब सबूत हैं इस बात के कि कलियुग सदा से था। शैतान कभी मरा नहीं था। न शैतान कभी मरा था, न आज मर गया है, न कभी मरेगा। शैतान और परमात्मा साथ-साथ हैं, जैसे दिन और रात साथ-साथ हैं। तुम्हारी जो मर्जी, चुन लो। तुम चाहो तो दिन में सो जाओ और रात में जागो। तुम चाहो तो रात में सो जाओ और दिन में जागो। तुम्हारी मरजी जो तुम चाहो। तुम चाहो कलियुग में सो जाओ, सतयुग में जागो। और तुम चाहो सतयुग में सो जाओ कलियुग में जागो। तुम अभी चाहो राम बन जाओ, चाहो रावण बन जाओ। ये राम और रावण दो संभावनाएं हैं।
इसलिए तुम्हारे समय की धारणा को मैं बदलना चाहूंगा। मैं ऐसा नहीं कहता कि पहले सतयुग हुआ, फिर कलियुग आया। यह तो बात ही गलत है। दोनों सदा साथ रहे। दोनों समय के, गाड़ी के दो चाक हैं।
और तब एक और नई संभावना का द्वार खुलता है। तुम चाहो तो दोनों से मुक्त हो जाओ। समय से मुक्त हो जाओ। बुरे-भले दोनों से मुक्त हो जाओ। वही मोक्ष है। वही निर्वाण है। जो बुरा है, वह बुरे से बंधा है। जो भला है वह भले से बंधा है। दोनों बंधे हैं। अच्छा है कि बुराई से बंधने की बजाय भलाई से बंधो। अगर जंजीरें ही पहननी हैं तो सोने की पहनो। क्या जरूरत है लोहे की पहनो!--जंग लगी, वजनी, भारी! आभूषण ही पहनने हैं तो बहुमूल्य पहनो, हीरे-जवाहरातों के पहनो। मगर बंधे तो रहोगे।
बुराई का बंधन है बुरा, भलाई का बंधन है भला; लेकिन बंधन तो बंधन ही है। और जहर फिर चाहे कितनी ही अच्छी बोतल में हो--सोने की बोतल में हो, तो भी क्या फर्क पड़ता है, मारेगा तो ही।
धर्म की आत्यंतिक खोज समय से मुक्त हो जाना है--कालातीत। न तो सतयुग रह जाए, न कलियुग रह जाए। कलियुग में जो जीता है, वह दुर्जन। सतयुग में जो जीता है वह सज्जन। और दोनों के जो पार हो गया, उसी को हम संत कहते हैं। संत का अर्थ है, जो समय में जीता ही नहीं; जो समय के बाहर सरक गया। बुराई से ही नहीं सरका, भलाई से भी सरक गया। जिसने रात तो छोड़ी ही छोड़ी, दिन भी छोड़ा। जिसने सब छोड़ दिया। जो अपने भीतर सरक गया। जो अपने शून्य में विराजमान हो गया। गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में बिसराम!
तुम पूछते हो कि ‘क्या इस कलियुग में भी कोई प्रभु को उपलब्ध हो सकता है?’
तुम ऐसा पूछ रहे हो कि क्या इस अंधेरी रात में भी कोई दीया जला सकता है? तुमसे कहा किसने? अंधेरी रात ने दीया जलाने में बाधा कब डाली? अंधेरा दीया जलाने में बाधा डाल भी कैसे सकता है? अंधेरे का बल क्या है? दीया जलता हो तो ऐसा थोड़े है कि अंधेरा झपट्टा मार कर उसे बुझा दे; कि तुम दीया जलाओ तो अंधेरा जलने न दे। अंधेरे की सामर्थ्य क्या? दीया जला कि अंधेरा गया। रात के बहाने निकाल कर दीया जलाने से बचने की कोशिश मत करो।
जैन मानते हैं कि यह पंचमकाल है, अब कोई तीर्थंकर नहीं हो सकता। हिंदू मानते हैं यह कलियुग है, अब कोई भगवान को कैसे उपलब्ध हो! ये सब हताश बातें हैं। ये बातें आदमी को नपुंसक किए जा रही हैं। मैं तुमसे कहता हूं: ऐसा ही सदा था, ऐसा ही अब है। जो पहले हो सका, आज हो सकता है। जो आज हो सका, वही पहले भी हो सकता था। जरा भी फर्क नहीं है। दुनिया वैसी की वैसी है।
लेकिन हमें अड़चन होती है। हमें अड़चन होने के कारण हैं। होता ऐसा है कि अतीत की जब तुम स्मृति करते हो तो उसमें से भले-भले को चुन कर स्मृति करते हो। बुद्ध की तो हमें याद है, लेकिन बुद्ध जिन लोगों के बीच गुजरते थे, जिन लोगों के बीच जीते थे, उनकी हमें कोई याद नहीं, उनका कोई इतिहास नहीं बना। वे तो मिट गए। बुद्ध बचे। तो वह जो काला ब्लैकबोर्ड था, वह तो खो गया, सिर्फ चमकते हुए सफेद अक्षर हमारी याद में रह गए हैं। आज तुम्हें याद नहीं कि बुद्ध के समय का आदमी कैसा था; राम के समय का आदमी कैसा था; कृष्ण के समय का आदमी कैसा था। यह चमकते हुए तारों की याद रह गई और अंधेरी रात का हमने कोई स्मरण न रखा। इससे ठीक उलटी बात घटती है अभी। अभी ऐसा घटता है कि करोड़ आदमी में कभी एकाध कोई चमकता आदमी मिलता है। वे जो करोड़ अंधेरे से भरे हुए लोग हैं वे रोज मिलते हैं उठते, बैठते सुबह सांझ, घर में, बाहर, दुकान, बाजार में--सब जगह वही है। बुद्ध तो कभी-कभार कोई मिलेगा। और मिल भी जाए तो तुम देख न पाओगे। क्योंकि बुरे, पागलों की भीड़ में जीते-जीते जीते-जीते तुम्हारा बुद्ध को देखने का, बुद्ध को परखने की जो सूझ चाहिए वही खो गई है। आदमियों से घिसते-पिसते, आदमियों की बेईमानी, चोरी सहते-सहते तुम इतने कठोर हो जाते हो! होना ही पड़ता है।
अगर किसी आदमी को कांटे के ही रास्ते पर चलना पड़े, कांटों पर ही चलना पड़े, तो धीरे-धीरे उसका चमड़ा कठोर हो जाएगा। फिर एक दिन फूल को स्पर्श हो, तो फूल का स्पर्श उसे पता ही न चलेगा। चमड़ी मोटी हो गई। इसलिए तो पैर की चमड़ी मोटी हो जाती है। अब तुम पैर से ही अगर गुलाब को टटोलना चाहोगे तो न टटोल पाओगे; पैर की चमड़ी मोटी हो गई। होना ही पड़ा। जमीन पर चलना है, कंकड़-पत्थर पर चलना है, तो पैर की चमड़ी को मजबूत, मोटा होना ही पड़ेगा। अब अगर तुम पैर की चमड़ी से टटोलो गुलाब को, तो तुम्हें कुछ पता न चलेगा। ऐसी ही बात है।
जिंदगी में रोज तो मिलते हैं बुरे लोग, कभी संयोगवशात कोई जीवंत भगवत्ता को उपलब्ध व्यक्ति के दर्शन होते हैं--तब तक तुम्हारी आंखें क्षमता खो चुकी होती हैं। तुम इस आदमी को समझ नहीं पाते। तुम मान नहीं पाते। तुम्हारा हृदय हजार संदेहों से भर गया। क्योंकि जब भी तुमने माना, धोखा खाया। जिसको माना, उससे धोखा खाया। धोखे ही धोखे की कथा है। जिसको तुमने सोचा कि ठीक है, वही गलत सिद्ध हुआ। यह इतनी बार हुआ कि अब तुम कैसे मानो किसी को, कि कोई ठीक हो सकता है! और संत हो सकता है, यह तो बात ही नहीं मानने की।
तो तुम्हारे जीवन का अनुभव जो है, वह तुम्हें कलियुग से घेरता है, और कभी एकाध कहीं किसी व्यक्ति में सतयुग की लपट होती है। तुम उसे मानते नहीं। तुम उसे देखते नहीं। तुम उसे स्वीकार नहीं करते।
और तुम्हें मैं क्षमा करता हूं। तुम्हें मैं क्षमा करता हूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि तुम्हारी भी अड़चन है। तुम भी क्या करो! हजार बार भरोसा किया और हजार बार भरोसा टूटा, तो अब तुम भरोसा करने में असमर्थ हो गए हो। अब श्रद्धा सुगम न रही। जब पाया, कांटा पाया। और जब भी कांटा पाया, तो पहले हर कांटे ने फूल का धोखा दिया था। आज फूल को देख कर भी तुम यही सोचोगे कि पता नहीं, फिर धोखा हो! मन कहेगा: अब तो कुछ सीखो! कहां इस कलियुग में? कहां इस अंधेरी दुनिया में कोई जागता है? कहां कोई प्रभु को उपलब्ध होता है? अब भगवान कहां?
तुम्हारी अड़चन मेरी समझ में आती है। अतीत के भगवानों की याद्दाश्त रह गई; अतीत के मनुष्यों की याद्दाश्त खो गई। आज के मनुष्य दिखाई पड़ते हैं; आज का भगवान दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए बड़ी निराशा पैदा होती है।
न फलक पर कोई तारा, न जमीं पर जुगनू
जो किरन नूर की है, मात हुई जाती है,
कारगर योरिशे जुलमात हुई है कितनी
क्या हमेश के लिए रात हुई जाती है?
बहुत बार यह मन में सवाल उठता है। ‘न फलक पर कोई तारा’...एक तारा नहीं दिखाई क्षितिज पर। ‘न जमीं पर जुगनू’...छोड़ो तारों की बात, रात ऐसी अंधेरी है कि एक तारा नहीं दिखाई पड़ता फलक पर, आसमान पर एक तारे की झलक नहीं। रात ऐसी अंधेरी है कि तारों की तो बात छोड़ दो, जमीन पर कोई जुगनू भी चमकता हुआ नहीं दिखाई पड़ता।
न फलक पर कोई तारा न जमीं पर जुगनू
जो किरन नूर की है मात हुई जाती है।
इसलिए प्रकाश की किरण पर भरोसा कैसे आए? प्रकाश की किरण हारी जाती है। ऐसा लगता है कि अब हम आशा छोड़ देंगे, सत्य नहीं होगा; नहीं हो सकता; इस कलियुग में कहां सत्य! वह सतयुग में होता था, वह कथा है पुराणों में! वह भी क्या पक्का पता, होता था कि नहीं होता था। मगर पहले होता होगा, अब तो नहीं होता। और अब तो कभी नहीं होगा। वह स्वर्ण-युग जा चुका।
कारगर योरिशे जुलमात हुई है कितनी
और अंधेरे में कितने जुल्म हुए हैं! अंधेरे के द्वारा कितने जुल्म हुए हैं! अंधेरा कितना झपट-झपट कर हमें तोड़ता रहा, सब तरफ से लूटता रहा है!
कारगर योरिशे जुलमात हुई है कितनी
क्या हमेशा के लिए रात हुई जाती है?
तो यह संदेह स्वाभाविक है कि मन में विचार उठने लगे: क्या हमेशा के लिए रात हुई जाती है? क्या अब कभी सुबह न होगी?
कलियुग का अर्थ होता है कि अब कभी सुबह न होगी। कलियुग का अर्थ है कि यह आखिरी रात आ गई। वे दिन गए, जब दिन हुआ करता था। वे दिन गए, वे दिन सपने हो गए।
तुम लोगों की बातों में सुनो। वे कहते हैं: ‘वे पुराने भले दिन! वे अच्छे दिन!’ लोग पीछे की तरफ सोचते हैं कि अच्छे दिन थे। उसके पीछे भी मनोवैज्ञानिक कारण है। उसके पीछे यह अर्थ नहीं कि पीछे अच्छे दिन थे। आदमी ऐसा ही रहा है, सदा से ऐसा ही रहा है। जरा भी फर्क नहीं है आदमी में। सामान बदल गए हैं, मगर आदमी नहीं बदला। आदमी की सारी वृत्तियां वही की वही हैं।
तुम सोचते हो: आज का आदमी बुरा है। तो चंगीज खान आज तो नहीं हुआ। और नादिरशाह आज तो नहीं हुआ और तैमूरलंग आज तो नहीं हुआ। कुछ फर्क नहीं हुआ है। तुम सोचते हो कि पीछे सब ठीक था। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण है, ऐतिहासिक कारण नहीं। हर आदमी अपने पीछे बचपन छोड़ आया है, वही कारण है।
बचपन में कोई चिंता न थी, कोई जिम्मेवारी न थी, कोई फिकर-फांटा न था। दुनिया में क्या हो रहा था, कुछ पता भी न था। बचपन में सब तरफ रोशनी थी; फूल खिले थे; तितलियां उड़ रही थीं; आकाश में बादल छाए थे और परियों का राज्य था। हर बच्चा अपने पीछे छोड़ आया है सुख के दिन, फिर चिंता आई, फिर परेशानी आई, फिर बेचैनियां आईं, फिर संघर्ष आया, फिर लड़ना, जूझना, हारना, ईमानदारी-बेईमानी की दुनिया शुरू हुई, फिर बाजार पैदा हुआ।
तो हर आदमी अपने पीछे बचपन छोड़ आया है। उस बचपन के कारण एक मनोवैज्ञानिक धारणा बनी है कि पहले सब अच्छा था। और बचपन के भी पहले हर आदमी गर्भ के नौ महीने छोड़ आया है। वे नौ महीने अदभुत थे। उन नौ महीनों में तो कोई चिंता का सवाल ही न था। भोजन भी खुद नहीं करना पड़ता था, मां करती थी। खून भी खुद नहीं बनाना पड़ता था, मां बनाती थी। श्वास भी खुद नहीं लेनी पड़ती थी, मां लेती थी।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मां के गर्भ में जैसा सुख बच्चा जान लेता है, उसी के कारण जीवन भर पीछे लौट-लौट कर सोचता है कि पीछे कितना सुख था! और यह हर आदमी बचपन से गुजरा है। तो हर आदमी के मन में यह धारणा बैठी है कि पहले अच्छा था। इसी पहले अच्छे का विस्तार है सतयुग का खयाल, कि पहले सब अच्छा था और अब सब बुरा हो गया।
कुछ बदला नहीं है। सब वैसा ही है।
ये बरसता हुआ मौसम, ये-शबे तीरो-तार
किसी मद्धम से सितारे की जिया भी तो नहीं
उफ ये वीरानी-ए-माहौल-ये वीरानी-ए-दिल
आसमानों से कभी नूर भी बरसा होगा
बर्के इलहाम भी लहरा गई होगी शायद
लेकिन अब दीद-ए-हसरत से सू-ए-अर्श न देख
अब वहां एक अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं
देख इस फर्श को जो जुल्मते-शब के बावस्फ
रोशनी से अभी महरूम नहीं है शायद
इकन इक जर्रा यहां अब भी दमकता होगा
कोई जुगनू किसी गोशे में चमकता होगा
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती
किसी जांबाज के माथे पर शहादत का जलाल
किसी मजबूर के सीने में बगावत की तरंग
किसी दोशीजा के ओंठों पै तबस्सुम की लकीर
कल्बे-उश्शाक में महबूब से मिलने की उमंग
दिले जुहाद में नाकरद गुनाहों की खलिश
दिल में एक फाहशा के पहली मोहब्बत का खयाल
कहीं एहसास का शोला ही फरोजां होगा
कहीं अफकार की कंदील ही रोशन होगी
कोई जुगनू कोई जर्रा तो दमकता होगा
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती।
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती!
माना कि रात बड़ी अंधेरी है, लेकिन कहीं इस अंधेरी रात में भी कोई तारा चमकता होगा। खोजना पड़ेगा। जिन्होंने खोजा, उन्होंने ही पाया। कहीं तो कोई कंदील जलती होगी! भयानक अमावस है!
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती।
कहीं तो कोई आलोक होगा परमात्मा का।
उस आलोक को ही हम सदगुरु कहते हैं। उसी को पलटू ने कहा है: सदगुरु के चरणों में लग जाओ। खोजो! माना रात अंधेरी है, सदा से अंधेरी रही है, और सदा से कहीं न कहीं जिन्होंने खोजा है उन्हें रोशनी की कोई किरण भी मिल गई है।
ये बरसता हुआ मौसम, ये शबे-तीरो-तार
यह अंधेरी डरावनी रात, यह धुआंधार आकाश से गिरती हुई जलधार, यह अंधड़, यह तूफान, यह बादलों की गड़गड़ाहट, यह घबड़ाहट से भरी हुई रात...‘किसी मद्धम से सितारे की जिया भी तो नहीं।’ ऐसे बादल घिरे हैं, ऐसे अंधेरे घनघोर बादल घिरे हैं। ‘किसी मद्धम से सितारे की जिया भी तो नहीं।’ कोई छोटे-मोटे चमकते हुए तारे की रोशनी भी कहीं दिखाई नहीं पड़ती।
उफ ये वीरानी-ए-माहौल...
यह वातावरण का सन्नाटा। ‘उफ ये वीरानी-ए-माहौल ये वीरानी-ए दिल।’ न केवल वातावरण में सन्नाटा है, भीतर दिल भी दबा जाता है और मरा जाता है, भीतर दिल में भी सन्नाटा है। बाहर भी अंधेरी रात है, भीतर भी अंधेरी रात है।
आसमानों से कभी नूर भी बरसा होगा
आदमी सोचता है इस अंधेरे में कि कभी तो आकाश से नूर बरसा होगा। सुनते हैं कहानियां, पढ़ते हैं कहानियां: कभी तो बरसा होगा।
और तुम चकित होओगे यह जान कर कि ऐसा तुम ही नहीं सोचते कि कभी नूर बरसा होगा, पुराने से पुराने शास्त्र भी यही कहते हैं कि पहले अच्छा था, अब सब खराब हो गया। चीन में सबसे ज्यादा पुरानी किताब है। वह एक ही पन्ना है और वह पन्ना भी आदमी की खाल पर लिखा गया है। वह कोई छह हजार साल पुराना है। कहते हैं, वह वेद से भी ज्यादा पुराना है। अगर उसे पढ़ो तो बड़ी हैरानी होती है। वह ऐसा मालूम पड़ता है कि आज ही सुबह के अखबार का संपादकीय हो। उसमें कहा है कि बेटे बाप के खिलाफ हो गए हैं, पत्नियां धोखेबाज, दगाबाज हो गई हैं। वफा नहीं रही दुनिया में। शिष्यों में गुरुओं के प्रति श्रद्धा नहीं है। अच्छे दिन कहां खो गए? हे प्रभु, ये बुरे दिन क्यों आ गए हैं? इसमें तुम्हें जरा भी लगता है कि पुरानी बातें हैं? यह छह हजार साल पुरानी बात! छह हजार साल पहले भी आदमी ऐसा ही था, जैसे तुम हो। यही तकलीफें थीं, यही परेशानियां थीं, यही झगड़े थे, यही समस्याएं थीं।
मगर आदमी को कुछ सहारा भी तो चाहिए। तो सहारे के दो ढंग हैं। या तो सोचो कि पहले, बहुत पहले, प्राचीन, अति प्राचीन समय में, समय के प्रारंभ में सब ठीक था, इससे सहारा मिलता है कि चलो, कभी तो ठीक था। आज खराब हो गया, हर्ज नहीं; लेकिन कभी तो ठीक था। कभी पुरखों के दिन तो थे।
इसलिए पुरानी चीन की किताबें कहती हैं: पुरखों के दिन, उन पुराने लोगों के दिन, वे बड़े शुभ दिन थे। एक तो यह रास्ता है कि पीछे देखो, क्योंकि आज तो कुछ रोशनी दिखाई नहीं पड़ती। दूसरा एक रास्ता है कि आगे देखो, जैसा कम्युनिज्म देखता है कि भविष्य में आ रहा है स्वर्णयुग। धर्म पीछे की तरफ देखते हैं; राजनीति आगे की तरफ देखती है; मगर दोनों में कुछ भेद नहीं है। आज तो दोनों राजी हैं कि सब गड़बड़ है। धर्म कहता है: बीते कल में सब ठीक था। राजनीति कहती है: आगे कल में सब ठीक होगा। लेकिन आज...आज पर दोनों सहमत हैं। बीता कल भी जा चुका है; आया कल आया नहीं। जो जा चुका है, वह तुम्हारी धारणा में है, कभी था नहीं। और जो आने वाला है, वह भी तुम्हारी कल्पना में है, कभी आएगा नहीं। आता तो सदा जो है, वह बिलकुल आज है; जैसा आज है बस ऐसा ही दोहरता है। बस आज ही आज। यही सदा दोहरता है।
आसमानों से कभी नूर भी बरसा होगा
आदमी को राहत के लिए, सांत्वना के लिए कुछ तो चाहिए!
बर्के इलहाम भी लहरा गई होगी शायद
और कभी शायद आकाशवाणी भी हुई होगी--जैसा वेद कहते हैं, कुरान कहती है--इलहाम हुआ होगा।
बर्के इलहाम भी लहरा गयी होगी शायद
और कभी बिजली कौंधी होगी, परमात्मा की आवाज आई होगी और लोगों को सतयुग से भर गई होगी; उठा गई होगी। लोगों को पवित्र कर गई होगी। आसमानों से कभी नूर भी बरसा होगा।
बर्के-इलहाम भी लहरा गयी होगी शायद
लेकिन अब दीद-ए-हसरत से सू-ए-अर्श न देख
लेकिन अब हरसत भरी आंखों से आकाश की तरफ मत देखो।
लेकिन अब दीद-ए-हसरत से सू-ए-अर्श न देख
अब वहां एक अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं
यही है कलियुग की धारणा कि अब और मत देखो आकाश की तरफ। अब न तो बर्के-इलहाम लहराती है, न किताबें उतरती हैं, न पैगंबर आते हैं, न देवता उड़ते हैं, न परियां उतरती हैं, न पैगंबर, न तीर्थंकर। अब तो अंधेरा ही अंधेरा है।
देख इस फर्श को जो जुल्मते-शब के बावस्फ
लेकिन जहां अंधेरा है, वहां रोशनी भी होती है। जहां रात गहरी अंधेरी हो जाती है, वहीं सुबह करीब आने लगती है। जब रात बहुत अंधेरी हो जाए तो घबड़ा मत जाना; यह सुबह के करीब आने का सबूत है। और जब रात बहुत अंधेरी हो तो घबड़ाना मत; खोजना, यही मौका है, कि कहीं कोई जलती हुई किरण मिल जाए। दिन में तो खोजना बहुत मुश्किल हो जाएगा। रात को अवसर बनाओ।
देख इस फर्श को जो जुल्मते-शब के बावस्फ
रोशनी से अभी महरूम नहीं है शायद
खोजो! आकाश पर घिर गए हैं बादल और तारे नहीं दिखाई पड़ते। किन्हीं आंखों में खोजो तो शायद तारा मिल जाए--और ऐसा तारा जो कभी नहीं बुझता। किसी हृदय में झांको।
रोशनी से अभी महरूम नहीं है शायद
इक न इक जर्रा यहां अब भी दमकता होगा
कोई न कोई छोटा कण अब भी दमकता होगा।
इक न इक जर्रा यहां अब भी दमकता होगा
कोई जुगनू किसी गोशे में चमकता होगा
किसी की गोद में बैठा हुआ कोई जुगनू चमकता होगा।
और ऐसा ही सदा से था। कभी किसी बुद्ध की गोद में बैठ कर चमकता था जुगनू। कभी किसी क्राइस्ट की गोद में बैठ कर चमकता था जूगनू। अब भी चमकता है। आंख चाहिए! खोज चाहिए!
इक न इक जर्रा यहां अब भी दमकता होगा
कोई जुगनू किसी गोशे में चमकता होगा
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती
यह हताशा छोड़ो कि कलियुग है, अब क्या होगा! ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती। यह असंभव है कि रोशनी बिलकुल मिट जाए। कम हो सकती है, बहुत कम हो सकती है, बहुत-बहुत कम हो सकती है--मिट नहीं सकती। रोशनी मिट जाए तो जीवन ही मिट जाए। रोशनी मिट नहीं सकती। जब तक चेतना है, जब तक होश है, तब तक रोशनी मिट नहीं सकती।
जरा होश को सुलगाओ। जरा आंख ठीक से खोलो। जरा देखने के नये ढंग सीखो। जरा देखने की नई शैली सीखो। या तो प्रेम से भरो आंख को, या ध्यान से भरो आंख को।
किसी जांबाज के माथे पे शहादत का जलाल
किसी हिम्मतवर के माथे पर अभी भी तुम्हें वही हिम्मत मिल जाएगी, जो मंसूर में थी।
किसी जांबाज के माथे पे शहादत का जलाल
किसी साहसी की आंखों में तुम्हें वही साहस दिख जाएगा जो जीसस को सूली पर लटकते वक्त था।
और किसी मजबूर के सीने में बगावत की तरंग
और अभी भी किसी के हृदय में तुम्हें बगावत और विद्रोह की तरंग मिल जाएगी।
किसी दोशीजा के ओंठों पै तबस्सुम की लकीर
अभी भी कहीं कोई मुस्कुराता है।
कल्बे उश्शाक में महबूब से मिलने की उमंग
और अभी भी प्रेमियों के हृदय में परमात्मा से मिलने की आशा है।
कल्बे उश्शाक में महबूब से मिलने की उमंग
खोजो, कहीं कोई भक्त मिल जाएगा, जो अब भी अपनी उपासना में बड़ी आशा से संलग्न है; जिसके प्रेम ने उसके सामने रखी मूर्ति को जीवंत कर दिया है; जिसकी वाणी से मरे हुए शब्द नहीं निकलते; जिसकी वाणी में जिसका हृदय उंड़ला जाता है।
किसी दोशीजा के ओंठों पै तबस्सुम की लकीर
कल्बे उश्शाक में महबूब से मिलने की उमंग
क्या तुम सोचते हो जमीन पर एक भी भक्त नहीं? क्या तुम सोचते हो जमीन पर एक भी मीरा नहीं? क्या तुम सोचते हो जमीन पर एक भी चैतन्य नहीं? ऐसा तो कभी नहीं हुआ। ऐसा कभी हो भी नहीं सकता।
दिले जुहाद में नाकरद गुनाहों की खलिश
ऐसे भक्त भी तुम्हें मिल जाएंगे, जिन्हें ऐसे पापों के संबंध में पश्चाताप है, जो उन्होंने किए ही नहीं। आज भी! माना, ऐसे लोग भी हैं कि पाप करते हैं और पछताते नहीं; वे कलियुग में रहते हैं। और ऐसे लोग भी हैं कि ऐसे पापों के लिए पछताते हैं जो उन्होंने किए ही नहीं; वे सतयुग में रहते हैं।
दिले जुहाद में नाकरद गुनाहों की खलिश
कांटे की तरह चुभते हैं ऐसे पाप, जो उन्होंने किए ही नहीं--ऐसे सरल हृदय लोग भी अभी मिल जाएंगे--जो रो रहे हैं और कहते हैं हमें क्षमा करो। और उन्होंने कुछ ऐसा किया ही नहीं, जिसके लिए उन्हें क्षमा किया जा सके।
मगर यही तो भक्ति की आखिरी ऊंचाई है, जहां न किए पाप के लिए आदमी क्षमा मांगता है। अभक्ति की आखिरी नीचाई, जहां किए हुए पाप का भी पश्चाताप नहीं होता।
दिल में एक फाहशा के पहली मोहब्बत का खयाल
कहीं एहसास का शोला ही फरोजां होगा।
और कहीं तो अनुभूति जलती होगी, फरोजां होगी, रोशन होगी!
कहीं एहसास का शोला ही फरोजां होगा
कहीं अफकार की कंदील ही रोशन होगी।
और कहीं तो चिंतन-मनन का दीया जलता होगा!
कहीं अफकार की कंदील ही रोशन होगी
कोई जुगनू, कोई जर्रा तो दमकता होगा।
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती!
यह पृथ्वी कभी भी प्रभु के प्रकाश से खाली नहीं रही, न कभी खाली रहेगी। परमात्मा ने इस पृथ्वी को कभी भी बहिष्कृत नहीं किया है। इसलिए कलियुग की क्या बातें उठाते हो।
पूछते हो: ‘क्या इस कलियुग में भी कोई प्रभु को उपलब्ध हो सकता है?’
प्रभु शाश्वत है। समय के बाहर है। जो भी आदमी समय के बाहर उठ जाए, कभी भी परमात्मा को उपलब्ध हो सकता है। सब समय बराबर है बाहर जाने के लिए। इसलिए तो पलटूदास ने कहा कि मुहूर्त इत्यादि सब व्यर्थ हैं। छोड़ यह पागलपन। यह मुहूर्त की बात फिर ले आए। तुम फिर उठाने लगे कलियुग!
पलटूदास कहते हैं: समय महूरत व्यर्थ सब! असली बात की फिकर करो। कैसे समय के बाहर आ जाओ, इसकी फिकर करो। और समय के बाहर जब भी किसी को आना पड़ा है तो यही अड़चनें थीं; जो आज हैं वे ही कल थीं। तुम क्या सोचते हो, आज से पांच हजार साल पहले, जब कोई आदमी ध्यान करने बैठता था तो उसके मन में चिंतन नहीं उठता था, विचार नहीं उठते थे? विचार और चीजों के उठते थे। कार का नहीं उठता था विचार, यह पक्का है, क्योंकि कार नहीं थी, लेकिन बैलगाड़ी का उठता था: एक छकड़ा खरीद लूं! माना कि राष्ट्रपति होने का खयाल नहीं उठता था, लेकिन राजा होने का खयाल उठता था। फर्क क्या है? भेद क्या पड़ता है? राजनीति इतनी ही थी, कुछ इससे कम न थी। आदमी के मन में महत्वाकांक्षाएं इतनी थीं, कुछ इससे कम न थीं।
अक्सर तुम इस भूल में पड़ जाते हो, क्योंकि तुम्हें खयाल लगता है कि मैं जब बैठता हूं तो खयाल आता है कि एक कार कब खरीद पाऊंगा; कितने भले लोग रहे होंगे पांच हजार साल पहले, कि लोग जब बैठते होंगे, कार इत्यादि की चिंता ही नहीं उठती थी, अब यह चिंता उठती है, कलियुग आ गया! पर कार और बैलगाड़ी की चिंता में कोई फर्क है? कार और बैलगाड़ी में फर्क होगा, लेकिन कार और बैलगाड़ी की चिंता में तो कोई फर्क नहीं। तब भी आदमी तड़फता था कि मेरे पास एक शानदार घोड़ा नहीं है। तुम रोते हो कि अब फियेट नहीं है। वह आदमी रोता था कि घोड़ा नहीं है। फर्क कुछ नहीं है। इसलिए तो फियेट को भी हम कहते हैं कि कितने हॉर्स पॉवर की है। वही घोड़े का ही मामला है। अभी भी भाषा वही है: कितने घोड़े की ताकत है इसमें? उन दिनों भी जिसके पास अरबी घोड़ा था, उसकी शान और थी। इंपोर्टेड घोड़े होते थे, इंपोर्टेड गाड़ियां होती हैं; कुछ फर्क नहीं होता।
आदमी की चिंताएं वही की वही हैं। उस दिन भी आदमी को इतना जद्दोजहद करना पड़ता था मन के बाहर आने के लिए। क्या तुम सोचते हो कि तुम जब बैठते हो, फिल्म अभिनेत्रियों के खयाल आते हैं, तो उस दिन सुंदर स्त्रियां न थीं? उस दिन भी सुंदर स्त्रियां थीं। उस दिन भी उनके संबंध में वैसी ही वासना उठती थी जैसी आज उठती है। सब ऐसा ही था। जो बदलाहटें हुई हैं, वे बाहर हुई हैं। आदमी के मन में कोई फर्क नहीं पड़ता।
हां, अगर बुद्ध को आज फिर वापस आना पड़े तो वे कई चीजें न पहचान पाएंगे। अगर तुम उन्हें एक हेलिकाप्टर दिखाओगे तो वे नहीं पहचान पाएंगे। वे चौंक कर खड़े हो जाएंगे कि यह क्या है। स्वाभाविक। लेकिन अगर तुम उन्हें आदमी का मन दिखलाओगे तो तुम समझते हो, वे चौंकेंगे? वे चौंकेंगे जरूर--इस बात से चौंकेंगे कि अरे, पच्चीस सौ साल हो गए, आदमी का मन वैसा का वैसा, जरा भी बदला नहीं है! वही दौड़, वही महत्वाकांक्षा, वही ईर्ष्या, वही क्रोध, वही मोह, वही लोभ! क्या फर्क है?
उस दिन प्रभु को उपलब्ध हो सकते थे लोग; आज भी उपलब्ध हो सकते हैं।
मैं फिर दोहरा दूं: तुम बचने की कोशिश न करो। तुम बहाने न खोजो। अगर प्रभु को उपलब्ध नहीं होना चाहते, तो भी यही स्वीकार करो मन में कि मैं नहीं उपलब्ध होना चाहता, इसलिए नहीं हो रहा हूं। मालिक तो रहो। मालकियत तो न खो दो। फिर किसी दिन यह मालकियत काम पड़ जाएगी; जिस दिन होना चाहोगे उपलब्ध उस दिन हो सकोगे। यह कलियुग इत्यादि की आड़ें मत लो, ये आड़ें खतरनाक हैं।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, कल आपने बताया कि कैसे मो़जे़ज के खंडन व आलोचना से गड़रिए की ग्रामीण और सरल प्रार्थना को हानि पहुंची। और कि परमात्मा ने मोज़़ेज को सावधान किया कि वह लोगों की वैयक्तिक आस्था को खंडित न करे। इसी संदर्भ में याद आता है कि आपने प्रथम पंद्रह वर्षों में सारे देश में घूम कर लोगों की पूजा, उपासना, आस्था व परंपरा का कठोर खंडन व आलोचना की थी। कृपया समझाएं कि इसके पीछे आपका क्या अभिप्राय था?
जरूर परमात्मा ने मो़जे़ज को डांटा-फटकारा कि तूने ठीक नहीं किया, कि उस सरल हृदय की प्रार्थना खंडित कर दी। लेकिन मुझे परमात्मा ने जरा भी डांटा-फटकारा नहीं है। क्योंकि मैंने जिनकी प्रार्थना खंडित करने की कोशिश की, वे सरल-हृदय लोग नहीं थे। वे गड़रिए जैसे नहीं थे। वे झूठे पाखंडी लोग हैं। परमात्मा ने तो कई बार मुझसे कहा कि ठीक किया, शाबाश!
फर्क खयाल में ले लेना। किसी सरल हृदय की प्रार्थना मत खंडित करना। मगर झूठी पाखंडियों की प्रार्थना तो खंडित करनी ही होगी; नहीं तो वे कभी सरल हृदय न हो सकेंगे। सरल-हृदय की मैंने कभी खंडित नहीं की। जब भी मैंने कोई सरल हृदय आदमी देखा, तो मैंने उससे कहा: तुम जैसा कर रहे हो, वैसा ही करते रहो; तुम्हें जरा भी बदलने की जरूरत नहीं है। इसलिए कभी-कभी मेरे पास अड़चन भी हो जाती है लोगों को। एक आदमी पूछता है एक बात और उससे मैं कह देता हूं कि ठीक है, तुम ऐसा ही करो। दूसरा कहता है वही बात और उससे मैं कहता हूं, ऐसा भूल कर मत करना। और बड़ी अड़चन खड़ी होती है। वे सोचते हैं कि मैं विरोधाभासी वक्तव्य देता हूं।
जिसकी सच्ची है प्रार्थना, हार्दिक है प्रार्थना, उसको मैं छूता नहीं। मैं कहता हूं: ठीक, इसमें पूरे डूब जाओ। और किस तरह साथ दूं तुम्हें कि तुम डूब जाओ। और जिसकी प्रार्थना झूठी है उसे तो मुझे तोड़ना ही पड़ता है। मोज़ेज़ ने सरल-हृदय आदमी की प्रार्थना तोड़ी थी। मैं उन लोगों की प्रार्थना तोड़ रहा हूं जिनको मोज़ेज़ जैसे लोग प्रार्थना सिखा गए; जिनकी प्रार्थना झूठी हो गई है।
तुम ऐसा समझो। कहानी में इतना और जोड़ दो। कहानी ही है, जोड़ने में डर भी क्या! कि जब मो़जे़ज चला गया तो मैं गया उस गड़रिए के पास और मैंने उससे कहा: फेंक यह बकवास जो मो़जे़ज ने तुझे सिखाई है। इसमें कुछ सार नहीं है। तू अपने सरल-हृदय पर वापस लौट जा। तो मैं भी खंडन कर रहा हूं और मो़जे़ज ने भी खंडन किया। मोज़ेज़ ने खंडन किया एक आदमी की सीधी-सरल आस्था का, निर्दोष आस्था का। मैं खंडन कर रहा हूं मोज़ेज़ के द्वारा दिया गया पांडित्य। मैं खंडित कर रहा हूं एक झूठी प्रार्थना। मैं भी खंडित कर रहा हूं, मो़जे़ज भी खंडित कर रहे हैं। तो अगर खंडन ही देखोगे तो चिंता पैदा होगी। लेकिन मैं खंडन का खंडन कर रहा हूं।
तर्क में एक नियम होता है: निगेशन ऑफ निगेशन। निषेध का निषेध। निषेध को निषेध से काट देने पर जो शेष रह जाता है, वही परम विधेय है।
तुमसे किसी ने कह दिया परमात्मा नहीं है। तुम मानते थे परमात्मा है। किसी ने कह दिया परमात्मा नहीं है। उसने खंडन कर दिया। तुम मेरे पास आए। अब तुम मानते हो कि परमात्मा नहीं है। मैंने इसका खंडन कर दिया। मैंने कहा कि नहीं, यह तुम्हारी धारणा गलत है। मैंने भी खंडन किया। लेकिन निषेध का निषेध। तुम वापस अपनी सरल-चित्तता पर पहुंच गए।
जिन लोगों की श्रद्धा को मैंने खंडित किया, उनमें श्रद्धा थी ही नहीं। जब भी मैंने कभी पाया, और वह तो कभी मिलता है वैसा आदमी...। मो़जे़ज को भी बार-बार नहीं मिलता फिर; एक ही दफा मिलता है पूरे मो़जे़ज की जिंदगी में वह गड़रिया। और परमात्मा को एक ही दफा डांटना पड़ता है मो़जे़ज को, फिर नहीं डांटते वे। क्यों? क्योंकि वैसा सरल-हृदय कभी-कभार...। अड़चन होती है।
मैं एक शिविर में था। मैं बोला। माथेरान में शिविर था। सुबह मैं बोला और मैंने कहा: न किसी की पूजा, न किसी का चरण-वंदन, न कोई प्रार्थना, न कोई आस्था। सब छोड़ दो। सबसे मुक्त हो जाओ। यह बोल कर मैं निकला बाहर। इसी सिलसिले में सारा वक्तव्य था। और जैसे ही मैं बाहर आया, सोहन वहां खड़ी थी, उसने झुक कर मेरे पैर छुए। हिंदी और मराठी के जाने-माने लेखक ऋषभदास रांका मेरे पास खड़े थे। उन्होंने कहा: आप रोकते क्यों नहीं? अभी आपने समझाया। आप रोकते क्यों नहीं? मैंने कहा: इसको मैं न रोकूंगा। उसकी आंख से आंसू बहे जा रहे हैं। वह मेरे पैर छू रही है और मैं पैर छूने के खिलाफ बोला हूं। अभी बोल कर ही आ रहा हूं और वही सुन कर ही वह मेरे पैर छू रही है। वह इतनी प्रभावित हो गई है सुन कर! वह इतने भाव से भर गई है कि वह पैर छू रही है!’
ऋषभदास की बात ठीक है, तर्कयुक्त है। मैं किसकी मानूं? और ऋषभदास का मामला बिलकुल साफ है। अदालत में ऋषभदास जीतेंगे, क्योंकि मैं अभी बोल कर आ रहा हूं। अभी देर भी नहीं हुई है; अभी शब्द गूंज ही रहे हैं। अभी लोग निकल ही रहे हैं और सामने ही यह सोहन खड़ी है और यह आंख आंसू से भरे हुए, पैर छू रही है। पर मैंने उनसे कहा: इसे मैं नहीं रोकूंगा। अगर आप मेरे पैर छुएं, मैं रोकूंगा।
वे जो उस दिन से नाराज मुझसे हुए, फिर कभी आए नहीं। उनको तो लगा कि यह आदमी विरोधाभासी है। वे तो भाग ही गए। फिर दुबारा मुझे उनके दर्शन नहीं हुए। जब मैंने उनसे यह कहा कि आप अगर मेरे पैर छुएं, मैं बिलकुल रोक दूंगा; क्योंकि वह झूठा होगा, वह पाखंड होगा। उसमें कुछ मतलब होगा। उसमें कुछ हेतु होगा। आप अगर पैर छुओगे तो मतलब से छुओगे, कुछ स्वार्थ होगा। ये जो पैर छुए जा रहे हैं, इसमें कुछ हेतु नहीं है; यह सिर्फ भाव की बात है। यह छू रही है पैर, ऐसा भी नहीं है। यह पैर छुए जा रहे हैं। इसमें कोई भीतर कर्ता भी नहीं है। यह बुद्धि से नहीं उतर रही है बात। बुद्धि से तो उतरती ही कैसे, क्योंकि अभी तो मैं समझा कर आ रहा हूं; बुद्धिमानों को समझा कर आ रहा हूं। यह हृदय से आ रही है। हृदय का मैंने कभी खंडन नहीं किया है।
इसलिए मैं तुमसे कहना चाहता हूं: भगवान सदा मुझसे कहता रहा है कि ठीक किया, ठीक किया।
एक तो प्रेम होता है और एक कर्तव्य। जब तुम कर्तव्य से प्रार्थना करते हो, झूठी हो जाती है; जब तुम प्रेम से करते हो, सच्ची हो जाती है। प्रार्थना वही, चाहे शब्द वही हो, ढंग वही हो, औपचारिक ढांचा वही हो। इसलिए आंख देखना भक्त की, भाव देखना भक्त का। कृत्य मत देखना। कृत्य से तो गड़बड़ हो जाएगी। कृत्य में तो कोई फर्क न लगेगा; पुजारी और भक्त दोनों एक से लगेंगे। पुजारी को तुम सौ रुपये महीने दे देते हो, वह आता है। और कैसा गद्गद् भाव दिखलाता है प्रार्थना करते वक्त। अगर तुमने कहा हो कि आंसू भी बहने चाहिए, तो आंसू भी बहाता है। फिर चाहे आंसू बहाने के लिए आंख में कुछ लगाना पड़ता हो, कोई हर्जा नहीं। आखिर अभिनेता भी करते हैं न: जब रोना पड़ता है और कुछ नहीं उपाय होता तो आंख में कुछ लगाते हैं, तो आंसू बहने लगते हैं। पुजारी गदगद होकर नाचता है; मगर वह सब गदगद होना बाहर-बाहर है। और अगर गदगद भी हो रहा है तो इसलिए हो रहा है कि चलो, नौकरी मिल गई। गदगद हो रहा है कि अब सौ रुपये मिलने ही वाले हैं।
भक्त भी नाचता है। भक्त भी गदगद होता है। मगर इसके गदगद होने में बात और है। इसमें कुछ हेतु नहीं है। यह जो सुख इसमें प्रकट हो रहा है, यह और ही सुख है। और दोनों बाहर से एक जैसे मालूम हो सकते हैं। इसलिए बाहर से मत देखना। भक्त की जात मत पूछना। भक्त का ढंग मत पूछना। पूछ लीजिए भाव! उसका भाव ही पूछना।
है अदूह मुसर्रत का शेख हो गया बरहम
हाथ में अगर खाली जाम भी लिया मैंने।
वह जो पंडित है, वह जो मौलवी है--शेख--वह नाराज हो गया, रुष्ट हो गया।
है अदूह मुसर्रत का...
वह किसी भी तरह के सुख के भाव का दुश्मन है।
...शेख हो गया बरहम।
हाथ में अगर खाली जाम भी लिया मैंने।
अगर खाली जाम भी उसने हाथ में देखा तो वह नाराज हो गया। वह यह तो देखता ही नहीं कि जाम भरा है कि खाली है।
अब किसी को क्या बतलाऊं दिल पे अपने क्या गुजरी
जिंदगी फरीजा थी और जी लिया मैंने।
और अब मैं किसको क्या बतलाऊं कि दिल पर अपने क्या गुजरी...कि कैसी कठिनाइयों में दिल बीता। ‘जिंदगी फरीजा थी’...एक कर्तव्य मात्र थी...‘और जी लिया मैंने।’
कर्तव्य भाव की तरह जो जी रहा है जिंदगी को, उसकी जिंदगी बड़ी कष्टपूर्ण है। क्योंकि कर्तव्य में रस तो होता नहीं। यही तो तुम्हारी गति है। यही तो तुम्हारी दुर्गति है। दुकान पर बैठे हो, काम कर रहे हो, कोई पूछे तो कोई रस नहीं है। कहते हो: क्या करें, अब शादी कर ली, अब बच्चे हैं, पत्नी है, करना पड़ता है। कर्त्तव्य भाव से कर रहे हैं। तो सब रस चला गया। अगर यही तुम प्रेम-भाव से कर रहे होते, तो बड़ा रस होता।
जीवन में रस बहता है, जहां प्रेम होता है। और जहां कर्तव्य होता है, वहां रस सूख जाता है। तुम्हारी जिंदगी जो मरुस्थल जैसी हो गई है, इसीलिए कि तुम जो भी कर रहे हो, सब कर्तव्य है। पिता है तो इनकी सेवा करनी है। मां है, तो इनकी सेवा करनी है। पत्नी है, तो अब क्या करो, बांध लिया चक्कर तो अब इसका कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा! बच्चे हो गए, तो अब इन्हें स्कूल तो पढ़ाना ही पड़ेगा, इनकी शादी भी करनी पड़ेगी। सब करना पड़ेगा! मगर अब रस तुम्हें किसी बात में नहीं है। तुम्हारा जीवन अगर मरुस्थल हो जाए तो आश्चर्य क्या! यह प्रेमी का ढंग नहीं है। प्रेमी का ढंग और है।
महाराष्ट्र में कथा है विठोबा के मंदिर की, कि भक्त अपनी मां के पैर दाब रहा है और रोज पुकारता है कृष्ण को। और उस रात कृष्ण को मौज आ गई और वे आ गए। और उन्होंने दरवाजा खटखटाया। दरवाजा बंद नहीं था, अटका ही था। भक्त ने कहा: भीतर आ जाओ, कौन है? लेकिन जब कृष्ण आए तो भक्त की पीठ थी उनकी तरफ, वह अपनी मां के पैर दबा रहा था। कृष्ण ने कहा: मैं कृष्ण हूं, तू रोज-रोज पुकारता है, आ गया। भक्त ने कहा: अभी बेवक्त आए। अभी मैं मां के पैर दाब रहा हूं। फिर कभी आना। यह अपूर्व श्रद्धा, यह मां के पैर दाबने में भाव--मोह लिया कृष्ण को! कृष्ण ने कहा: तो मैं रुका जाता हूं, तू पहले अपनी मां की सेवा कर ले। तो उसने पास में रखी एक ईंट सरका दी और कहा कि इस पर बैठ जाओ, तो कृष्ण उस ईंट पर खड़े रहे, खड़े रहे, खड़े रहे। इसलिए विठोबा के मंदिर में जो मूर्ति है, वह अब भी ईंट पर खड़ी है।
यह कर्तव्य तो नहीं था। इसमें ऐसा प्रेम था कि फिर मां के चरणों में जो प्रेम है, उस प्रेम में और परमात्मा के प्रेम में कोई विरोध थोड़े ही रह जाता है। वे एक ही हो गए। जहां प्रेम है, वहां समस्त प्रेम एक ही हो जाते हैं। वे एक ही सरिता की तरंगें हैं।
तो प्रार्थना जो कर्तव्य से करते हैं--कहते हैं हिंदू हैं, इसलिए जाना पड़ता है मंदिर; कहते हैं मुसलमान हैं, इसलिए रमजान रखना पड़ता है, रोजा रखना पड़ता है; कहते हैं जैन हैं, इसलिए पर्यूषण का व्रत पालना पड़ता है, करना पड़ता है--उनका मैंने खंडन किया पंद्रह वर्षों तक। उनका खंडन करना जरूरी था। उनके खंडन से ही मैंने वे लोग खोजे, जो झूठ को छोड़ने को तैयार हैं और सच की तरफ जाने के लिए जिनमें साहस है। इसलिए अब जाना मैंने बंद कर दिया कहीं भी। जिन-जिन के द्वार खटकाने थे, खटका आया। खबर दे आया कि यह कंदील जल गई है, कभी अंधेरे से परेशानी हो तो आ जाना। अब उनकी मरजी। अब उनकी मौज।
लेकिन मैंने जिन प्रार्थनाओं का खंडन किया था, वे प्रार्थनाएं नहीं थीं, इसे याद रखना। और जिन क्रियाकांडों का मैंने विरोध किया है, वे क्रियाकांड ही थे, इसलिए विरोध किया है। अन्यथा मेरे मन में किसी चीज का कोई विरोध नहीं है। हो कैसे सकता है! जहां सत्य की झलक है, मेरा उसे समर्थन है।
वो जिन्हें दावा-ए-अनलहक था
खून से अपने खेल कर होली
कौल पर अपने जान हार गए
सर से कर्जे-अता उतार गए
मुद्दई याने-सरकशी अब भी
गीतदारो-रसन के गाते हैं
नश्शा-ए-मैं में जब बहकते हैं
सू-ए-मक्तल कदम बढ़ाते हैं
लेकिन अक्सर ये लोग मक्तल से
बसलामत ही लौट आते हैं
कब नजस खून से कोई, अपनी
तेग को दागदार करता है।
जिन्हें दावा-ए अनलहक था!...
मंसूर अलहिल्लास--ऐसे लोग जिन्होंने कहा अनलहक; जिन्होंने कहा मैं सत्य हूं; जिन्होंने कहा अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं; जिन्होंने सत्य का ऐसा दावा किया था; जो सत्य के ऐसे दावेदार थे।
वो जिन्हें दावा-ए-अनलहक था
खून से अपने खेल कर होली
कौल पर अपने जान हार गए
सर से कर्जे-अता उतार गए
उन्होंने सारा कर्ज उतार दिया संसार का। वे अपने खून से होली खेल गए। उन्होंने सत्य के लिए अपनी जान दे दी। सत्य के लिए कुछ भी दिया जा सकता है। सत्य के लिए सब-कुछ दिया जा सकता।
मुद्दई याने-सरकशी अब भी।
लेकिन लोग हैं अभी भी जो कहते हैं कि हम भी सिर कटा सकते हैं; जो कहते हैं हम भी दावेदार हैं शहादत के।
मुद्दई याने-सरकशी अब भी
गीतदारो-रसन के गाते हैं
वे अब भी कहते हैं कि हम भी उसी दशा में हैं, जहां मंसूर थे। ‘नशा-ए-मैं में जब बहकते हैं।’ और जब कभी शराब पी लेते हैं तो बड़ी ऊंची बातें करते हैं। मंसूर ने भी एक शराब पी थी। वह शराब आकाश से उतरती है। या वह शराब आत्मा की गहनता में ढाली जाती है। और ये जाकर मयखाने में शराब पी आते हैं।
गीतोदारो-रसन के गाते हैं
नशा-ए-मैं में जब बहकते हैं
सू-ए मक्तल कदम बढ़ाते हैं
और जब शराब के नशे में थोड़े बहक जाते हैं, भूल जाते हैं, होश खो देते हैं--तो कहते हैं: हम जाते हैं शहादत को। लेकिन अक्सर ये लोग मकतल से बसलामत ही लौट आते हैं। लेकिन शहादत-बहादत इनकी कभी होती नहीं। इधर-उधर नाली में गिर-गिरा कर सुबह अपने घर वापस आ जाते हैं।
कब नजस खून से कोई, अपनी
तेग को दागदार करता है!
ये कभी तलवार को अपने खून से गंदा नहीं होने देते। ये बड़े होशियार लोग हैं। ये बात ही बात करते हैं। इनके जीवन में कभी कुछ घटता नहीं--सिवाय दिमागी कसरत के। इनके जीवन में कभी कोई क्रांति नहीं उतरती। शहादत की बातें करते हैं और शहादत की बातें करने में कुशल हो जाते हैं। जब कभी नशे में बहक जाते हैं, तो यह भी कहते हैं कि अब हम जाते हैं; अब हम चले सूली पर। और सुबह वापस घर लौट आते हैं। ये कभी सूली इत्यादि पर कहीं जाते नहीं।
फर्क को देखना। शराब के नशे में तुम कितनी ही ऊंची बातें बोलो, उनका कोई मूल्य नहीं है। नशे में बोली गई बातों का क्या मूल्य हो सकता है! तुम जब परमात्मा की प्रार्थना कर रहे हो, होश में हो? क्या कर रहे हो? यह पुकार तुम्हारे अंतर्तम से उठी है या यूं ही दिखावा कर रहे हो? जान गंवा देने की तैयारी है या यूं ही बातचीत का मजा ले रहे हो?
जरूर मैंने उन लोगों का खंडन किया, जो व्यर्थ की बातों में पड़ गए हैं; जिन्हें कुछ भी पता नहीं है; जो शास्त्रीय ज्ञान बघार रहे हैं; जिन्हें एक कण भी सत्य का स्वाद नहीं मिला है; जिनके पास सिवाय शास्त्रीय स्मृति के और कुछ भी नहीं है। उनका मैंने निश्चित विरोध किया।
जब मैंने काशी के पंडितों का विरोध किया या जगतगुरु पुरी के शंकराचार्य का विरोध किया--तो आदि शंकराचार्य का विरोध नहीं किया है। तो मैंने उपनिषद के ऋषियों का विरोध नहीं किया है। सच तो यह है कि उपनिषद के ऋषियों के पक्ष में इन पाखंडियों का विरोध किया है। आदि शंकराचार्य के पक्ष में पुरी के जगतगुरु का विरोध किया है। खंडन किया है पाखंड का। पाखंड टूट जाए तो सदधर्म प्रकट होता है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, ज्ञानी तो परिवार-समाज से भागता है; लेकिन भक्त न तो परिवार-समाज से भागता है, न कहीं आता है, न कहीं जाता है, वहीं का वहीं बना रहता है, फिर भी उपलब्ध हो जाता है। भक्त के पास ऐसा क्या बल है?
भक्त के पास भगवान का बल है। ज्ञानी अपने सहारे चलता है। भक्त भगवान के सहारे चलता है। ज्ञानी अकेला है। भक्त अकेला नहीं है। ज्ञानी ऐसे हैं जैसे कोई पतवार से नाव चलाता है। भक्त ऐसे हैं जैसे उसने मस्तूल बांध दिए और हवाएं उसकी नाव को चलाती हैं। इस फर्क को खयाल में ले लेना।
जब तुम पतवार से नाव चलाते हो, तो तुम्हारी ही भुजाओं पर निर्भर रहना पड़ेगा। थकोगे, परेशान होओगे, पसीने से लथपथ होओगे। कभी डांड रख भी देने पड़ेंगे। कभी विश्राम भी करना होगा। कभी हारोगे भी। कभी दूसरा किनारा छूटता भी लगने लगेगा। कभी मिलता है, कभी छूटता है। संघर्ष होगा, श्रम होगा।
भक्त पतवार नहीं चलाता, चप्पू हाथ में नहीं लेता। भक्त तो पाल बांध देता है; भगवान की हवाएं उसे ले चलाती हैं।
रामकृष्ण ने कहा है कि तू क्यों पतवार चलाता है? जब उसकी हवाएं उस तरफ ले जाने को तैयार हैं तो पाल क्यों नहीं खोलता?
यह फर्क है।
ज्ञानी अपने भरोसे चलता है। ज्ञानी यानी पुरुषार्थ।
वह कहता है: मैं पाकर रहूंगा। मैं कोशिश करूंगा। मैं लड़ूंगा। मैं तैरूंगा। भक्त कहता है: मेरे से क्या होगा! मैं कौन हूं! मेरे किए कब क्या हुआ! मुझसे कुछ नहीं होने वाला! मुझसे तो इतना ही हो सकता है कि तेरे चरण पकड़ लेता हूं, अब तू कर।
इसलिए भक्त के पास एक बल है, जो ज्ञानी के पास नहीं है। भक्त के पास भगवान का बल है। भक्त अकेला नहीं है। कोई सदा उसके साथ है। विराट उसके साथ है। अपने को खोकर उसने विराट से दोस्ती बना ली है।
ज्ञानी अपने को पाकर विराट से दोस्ती बनाता है। फर्क समझ लेना। भक्त अपने को खोकर विराट से दोस्ती बनाता है। ज्ञानी अपने को पाकर विराट से दोस्ती बनाता है।
इसलिए ज्ञानी कहते हैं: स्वयं को जानो। नो दाई सेल्फ। भक्त कहता है: स्वयं को डुबाओ। फॉरगेट दाई सेल्फ। विस्मरण करो। भूलो।
ये उनके बुनियादी भेद हैं। खयाल रखना, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम भक्त बन जाओ। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि तुम ज्ञानी बन जाओ। मैं यही कह रहा हूं कि भेद को ठीक से समझ लो; फिर तुम्हें जो रुचिकर लगे। असली बात तो उस पार जाना है। तुम्हें अगर पतवार चलाने में मजा आता हो, तो कोई हर्जा नहीं है। एकदम जरूर चलाओ। खूब चलाओ। जितने लंबे रास्ते से जाना हो, लंबे रास्ते से जाओ। जितना पसीना बहाना हो उतना बहाओ। अपनी-अपनी मौज। तुम अपनी रुचि को पहचानो। लेकिन, अगर यह तुम्हारी रुचि न हो तो कुछ घबड़ाने की जरूरत नहीं, हताश होने की जरूरत नहीं है। और भी उपाय है। पाल खोलो। हवा के प्रति समर्पित हो जाओ। हवा को कहो: ले चल। छोड़ो, समर्पण करो।
ज्ञानी यानी संकल्प। भक्त यानी समर्पण।
तो भक्त के पास तो बड़ा बल है। इसलिए भक्त को जंगल नहीं जाना पड़ता। वह कहता है: जंगल अब कहां जाऊं? यहीं बाजार में कोई कम जंगल है? आदमियों की भीड़ में कुछ कम जंगल है? वृक्षों की भीड़ से क्या फर्क पड़ जाएगा? पत्थर-पहाड़ों में बैठने से क्या; यहां कोई कम पत्थर पहाड़ हैं? पत्थर ही पत्थर तो चल रहे हैं चारों तरफ। जानवरों में भागने की क्या जरूरत है? यहां आदमी कोई जानवर से कम हैं? सब तरफ पशुता का राज्य है। भाग कर कहां जाना है! यहीं रहेंगे। लेकिन प्रभु को साथ ले लेंगे। प्रभु के साथ हो लेंगे। उसके हाथ में हाथ दे देंगे।
फिर बाजार में भी शांति हो जाती है। फिर भीड़ में भी एकांत हो जाता है। फिर बाजार के कोलाहल में भी प्रार्थना का स्वर उठने लगता है। फिर तुम जहां हो, वहीं से मार्ग बनने लगता है।
प्रश्न सार्थक है। ज्ञानी को बड़ी चेष्टा करनी पड़ती है। भक्त तो सिर्फ प्रसाद की आकांक्षा करता है। भक्त तो छोटे बच्चों की तरह है। वह रोना जानता है। उसे एक बात पक्का है कि जब वह रोता है, तो मां चली आती है, लाख काम में उलझी हो, कहीं भी हो, चली आती है, खोज लेती है। भक्त तो छोटा बालक है।
ज्ञानी मां को खोजने निकलता है। अपने पैरों पर भरोसा रखता है। ज्ञानी भी पहुंच जाते हैं। ज्ञानी भगवान तक पहुंचते हैं। भक्त तक भगवान पहुंचता है। पुकार चाहिए।
चौथा प्रश्न:
भगवान, मेरे गांव में एक साधु है जो रोज सुबह और शाम नदी जाते-आते जोर-जोर से चिल्लाता है: राम-राम भज ले रे माटी के धोंदा। ‘माटी के धोंदा’ से उसका आशय क्या है? और वह चिल्लाता ही क्यों निकलता है? कृपा करके समझाइए।
बात तो सीधी-साफ है, समझाने की कुछ है नहीं। चिल्लाता है, क्योंकि तुम बहरे हो। चिल्ला-चिल्ला कर भी कहां तुम सुनते हो!
जीसस ने अपने शिष्यों से कहा है: चढ़ जाओ मकानों की मुंडेरों पर और चिल्लाओ। लोग इतने बहरे हैं, तब भी सुन लें तो चमत्कार। जीसस रोज-रोज कहते हैं कि अगर आंखें हों तो देख लो। आंख वालों से कहते हैं कि आंखें हों तो देख लो। कान वालों से कहते हैं कि कान हों तो सुन लो। क्योंकि जो तुम देखने के लिए तड़फते थे जन्मों से, वह मौजूद है। और जो तुम सुनने के लिए रोते थे जन्मों से, बोला जा रहा है। मगर कान हों तो सुन लो, आंख हो तो देख लो।
संत सदा से चिल्लाते रहे हैं। फिर भी तुमने कहां सुना है! तुम्हारी नींद गहरी है। तुम उलटे नाराज होते हो जब कोई संत चिल्लाता है। तुम करवट लेकर कंबल ओढ़ कर और गहरे सो जाते हो। तुम कहते हो: भाई, मत जगाओ, परेशान न करो। अभी आधी रात मत उठाओ, अभी मैं सुंदर सपने देख रहा हूं। यह कौन आदमी बुलाने लगा बेवक्त! अभी सोने दो।
तुम्हारा बहरापन! इसलिए साधु चिल्लाता होगा। और आदमी है ही क्या! मिट्टी का! मिट्टी का पुतला ही तो!
‘राम-राम भज ले रे माटी के धोंदा।’
ठीक कहता है साधु। मिट्टी के पुतले हैं हम। मिट्टी में ही गिर जाएंगे। लेकिन हममें कुछ है जो मिट्टी का भी नहीं है। हममें कुछ है, जो मिट्टी का नहीं है। हममें कुछ है, जो पार से आता है।
‘राम-राम भज ले रे...।’
हमारे भीतर भजन है जो मिट्टी का नहीं है। हमारे भीतर सुरति है जो मिट्टी की नहीं है। हमारे भीतर स्मरण है, बोध है, होश है, याद है--जो मिट्टी की नहीं है। मिट्टी तो मिट्टी में गिर जाएगी। अगर बिना परमात्मा को याद किए मर गए तो मिट्टी ही रहे और मिट्टी में ही गिर गए।
तुम्हारे भीतर कुछ समाया है--आकाश भी। तुम पृथ्वी के ही नहीं बने हो, तुम्हारे भीतर थोड़ा सा आकाश भी समाया है। तुम्हारी इन मिट्टी की दीवालों में आकाश भी है। तुम्हारे आंगन में मिट्टी की दीवाल भी है और आकाश भी है।
राम-स्मरण का अर्थ होता है: मिट्टी पर से ध्यान हटाओ, आकाश का स्मरण करो।
आंगन ठीक प्रतीक है। देखते हैं, छोटा सा आंगन, चारों तरफ दीवालें उठा रखी हैं! लेकिन आंगन दीवालों के बीच, वह जो आकाश है, वह तो वही आकाश है, जो बाहर फैला हुआ है। उसमें और भीतर के आंगन के आकाश में कोई फर्क नहीं है।
छोटे से घड़े में भी जो आकाश बंद होता है, उसमें भी और बाहर के विराट आकाश में कोई फर्क नहीं। घड़ा टूटा कि आकाश आकाश से मिल जाता है।
अब तुम्हारी दृष्टि की बात है। या तो मिट्टी पर दृष्टि बांध लो। अपने को देह मानो--देह और देह और देह। और यही तुम्हारी एकमात्र धारणा रह जाए, तो तुमने भीतर जो आकाश था वह तो देखा ही नहीं; मिट्टी की दीवाल को ही पकड़ कर रुक गए, मिट्टी ही रह गए।
तो वह ठीक ही कहता है: फिर माटी के धोंदा ही रह जाओगे। फिर तुम गोबर-गणेश रह गए; तुम असली को न पहचान पाए। और असली मौजूद था। तुम नकली को पकड़ लिए।
नकली भी है। असली भी है। सिर्फ ध्यान को बदलो। धीरे-धीरे देह से ध्यान को हटाओ और तुम्हारे भीतर जो चैतन्य है, उस पर ध्यान को लगाओ। उसी चैतन्य से जुड़ जाओ। उसी चैतन्य को अहर्निश भावो। उसी चैतन्य का भजन हो। यही अर्थ है: राम-राम भज ले रे माटी के धोंदा।
लेकिन मिट्टी के साथ हमने बहुत कुछ अहंकार जोड़ रखा है। मिट्टी के साथ हमने बड़े निहित स्वार्थ जोड़ रखे हैं। हम तो यही सोचते हैं कि यह मिट्टी होना ही सब-कुछ है। तुम अपनी देह की कितनी चिंता करते हो! इतनी तुमने कभी अपनी चिंता की? दर्पण के सामने घंटों खड़े रहते हो सुबह-सांझ! कभी अपने सामने भी खड़े हुए? एकाध क्षण को भी? दर्पण ही देखते रहोगे? असली दर्पण कब देखोगे? दर्पण देखने से तो सिर्फ देह ही दिखाई पड़ेगी; यह मिट्टी का लोंदा ही झलकेगा, कुछ और नहीं होगा। वह जो दर्पण देख रहा है, उसे कब देखोगे? द्रष्टा को कब देखोगे? दर्शन की जो क्षमता तुम्हारे भीतर छिपी है, उस पर कब लौटोगे? उसे कब पकड़ोगे? उसे कब हाथ में लोगे? उसे हाथ में ले लिया तो परमात्मा को हाथ में ले लिया। उसे हाथ में न लिया, तो यह सब घड़ी भर की बात है। यह चार दिन की जिंदगी, फिर अंधेरी रात है। यह घड़ी भर की बात है। अकड़ लो, इतरा लो। यह सब मिट्टी मिट्टी में गिर जाएगी।
हकीरो-नातुवां तिन्का
हवा के दोश पर पर्रां,
समझता था कि बहरो-बर पर उसकी हुक्मरानी है
मगर झोंका हवा का एक अलबेला
तलव्वुत केश बेपरवाह
जब उसके जी में आए रुख पलट जाए
हवा आखिर हवा है, कब किसी का साथ देती है
हवा तो बेवफा है, कब किसी का साथ देती है!
हवा पलटी बुलंदी का फुसूं टूटा,
हकीरो-नातुवां तिन्का,
पड़ा है खाके-पस्ती पर
खुदा जाने कोई राहगीरे-बेपरवाह
जब अपने पांव से उसको मसलता है
तो अपना ख्वाबे-अजमत याद करके उसके दिल पर क्या गुजरती है।
समझो--
हकीरो-नातुवां तिन्का
तुच्छ और निर्बल एक छोटा सा तिनका कभी हवा पर चढ़ जाता है। कभी हवा उठा कर ले जाती है एक तुच्छ तिनके को। आकाश में मंडराने लगता है तिनका।
हम भी हवा पर चढ़ गए हैं। यह जो श्वास है, हवा है। इस श्वास पर हम चढ़ गए हैं। छोटा सा तिनका है, यह मिट्टी का थोड़ा सा लोंदा है। यह हवा पर चढ़ गया है। यह हवा से फूल गया है।
‘हकीरो-नातुवां तिन्का।’ तुच्छ निर्बल तिनका! ‘हवा के दोश पर पर्रां।’ हवा के कंधों पर सोचता है, मुझे पर लगे हैं। सोचता है, मेरे पास पंख हैं। सोचता है, मैं उड़ सकता हूं; देखो, मैं उड़ सकता हूं। उड़ रहा है तो सोचता है, उड़ सकता हूं। हवा के पंखों पर चढ़ कर सोचता है, मेरे पास पंख हैं। मैं पंख वाला हूं। मैं पक्षी हूं।
हकीरो-नातुवां तिन्का, हवा के दोश पर पर्रां,
समझता था कि बहरो-बर उसकी हुक्मरानी है
और सोचता था थोड़ी देर को कि हवाओं पर, तूफानों पर, आंधियों पर, चांद-तारों पर, आकाश पर, उसकी मालकियत है, हुक्मरानी है।
मगर झोंका हवा का एक अलबेला तलव्वुत केश
हवा के झोंकों का क्या भरोसा! कब रुख बदल लें, कब रुख बदल दें! अलबेले झोंके, अभी चलें, अभी बंद हो जाएं, आए न आए!
मगर हवा का एक झोंका अलबेला तलव्वुत केश बेपरवाह
और हवा को क्या परवाह है इस तिनके की। न तो परवाह है और न हवा को कोई इसे उड़ाने में मजा है। जब उसके जी में आए, रुख पलट जाए।
हवा आखिर हवा है, कब किसी का साथ देती है
यह जो हवा तुम्हारे भीतर आ-जा रही है, यह भी सदा साथ देने वाली नहीं है; यह कब पलट जाए पता नहीं। अभी है, अभी न हो। अभी आई भीतर, अभी गई बाहर; और फिर न लौटे, तो कुछ भी न कर सकोगे। एक श्वास भी ज्यादा न ले सकोगे। गई तो गई।
मगर झोंका हवा का एक अलबेला
तलव्वुत केश
बेपरवाह
जब उसके जी में आए रुख पलट जाए।
हवा आखिर हवा है, कब किसी का साथ देती है
हवा तो बेवफा है, कब किसी का साथ देती है।
इस धोखेबाज हवा के चक्कर में बहुत मत पड़ जाना। इन श्वासों का बहुत भरोसा मत कर लेना।
‘राम-राम भज ले रे!’
हवा पलटी, बुलंदी का फुसूं टूटा।
और जैसे ही हवा पलटती है, वैसे ही आसमान से तिनका जमीन पर गिर जाता है। वह जो बुलंदी का फुसूं था, वह जो खयाल था कि मैं ऊंचा हो गया हूं, मैं बड़ा हो गया हूं, मैं महान हो गया हूं--वे सब एक क्षण में गिर जाते हैं।
ऐसा ही तो होता है। आज तुम्हारे पास धन है; आकाश में चलते हो, जमीन पर पैर नहीं छूते। कल धन चला गया। आज तुम्हारे पास पद है; कल पद चला गया। यह सब हवा के ही झोंके हैं। तुम इंदिरा से पूछो। हवा का झोंका चला गया। मोरार जी को चेता देना कि हवा किसी की भी नहीं।
हवा तो बेवफा है, कब किसी का साथ देती है।
हवा पलटी, बुलंदी का फुसूं टूटा
हकीरो-नातुवां तिन्का!
टूट गया सपना। तुच्छ तिनका आखिर तुच्छ ही था; गिर गया वापस।
हकीरो-नातुवां तिन्का
पड़ा है खाके-पस्ती पर
अब पड़ा है जमीन पर, हारा हुआ, चारों खाने चित्त। ‘खुदा जाने कोई रहगीरे-बेपरवाह।’ और राहगीरों को क्या फिकर है कि यहां कोई बड़ा ऊंचा तिनका पड़ा है, जो कभी आकाश में उड़ा करता था! वे तो जूतों से दबाते इसको निकल जाएंगे। वे तो पैरों से रौंदते इसे निकल जाएंगे। तुम्हें पता है, आज नहीं कल तुम्हारी यह देह मिट्टी में पड़ी होगी, कितने जूतों से रौंदी जाएगी! नाहक दर्पण के सामने खड़े-खड़े समय खराब मत कर लो! भज ले रे राम! राम-राम भज ले रे!
पड़ा है खाके-पस्ती पर
खुदा जाने कोई राहगीरे-बेपरवाह
जब अपने पांव से उसको मसलता है
तो अपना ख्वाबे-अजमत याद करके उसके दिल पर क्या गुजरती है!
तो जरा सोचो तो, उसे भी याद आते होंगे वे सपने अपने उत्थान के। वे स्मृतियां लौट-लौट आती होंगी कि कभी आकाश में उड़ता था, कभी मैं भी था, कभी मैं भी कुछ था, कभी मेरी भी बुलंदी थी, कभी मैं भी सिकंदर था।
खुदा जाने कोई राहगीरे-बेपरवाह
जब अपने पांव से उसको मसलता है
तो अपना ख्वाबे-अजमत याद करके इसके दिल पर क्या गुजरती है!
मगर मिट्टी है, मिट्टी में गिरेगी।
साधु ठीक ही कहता है: ‘राम-राम भज ले रे माटी के धोंदा।’
मिट्टी के ही हम हैं, मिट्टी में ही हम गिर जाएंगे। डस्ट अनटु डस्ट! लेकिन हम अगर मिट्टी ही मिट्टी होते, तो भी कुछ अड़चन न थी। हमारी मिट्टी में कुछ किरण हैं--जो मिट्टी के पार की हैं। हमारे भीतर अमृत की एक बूंद भी है। मिट्टी की इस कीचड़ में अमृत की एक बूंद भी पड़ी है। मिट्टी की इस खान में एक हीरा भी पड़ा है। धन्यभागी हैं वे जो उस हीरे को पहचान लेते हैं--इसके पहले कि श्वास उड़ जाए, हवा का रुख पलट जाए।
हवा तो बस हवा है, कब किसका साथ देती है!
हवा तो बेवफा है, कब किसका साथ देती है!
धन्यभागी हैं वे जो हवा के रुख बदलने के पहले, अपना रुख बदल लेते हैं; जो हवा के पंखों से गिरने के पहले अपने पंख खोज लेते हैं; जो हवा की झूठी बुलंदी के सपनों में ज्यादा देर नहीं उलझते; जो अपनी असली बुलंदी खोज लेते हैं; जो अपना असली घर खोज लेते हैं; जो यहां के घरों को धर्मशाला जानते हैं। यहां सराएं हैं; रुको रात भर, सुबह जाना है। और अपने घर को भूल मत जाना।
गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में बिसराम।
वह जो शून्य है, परम शून्य है, उसे कहो--परमात्मा, आत्मा, ध्यान, समाधि, जो नाम देना हो--निर्वाण, मोक्ष, कैवल्य--जो रुचिकर लगे--वहीं हमारा असली घर है। और वहीं पहुंच कर विश्राम है। उसके पहले धोखों में मत पड़ना। यहां धोखे बहुत हैं। यहां प्रवंचनाएं बहुत हैं।
साधु ठीक ही कहता है। अजहूं चेत गंवार!
आज इतना ही।
भगवान, क्या इस कलियुग में भी कोई प्रभु को उपलब्ध हो सकता है?
कलियुग सदा से है--वैसे ही जैसे सतयुग भी सदा से है। सतयुग में राम थे, रावण भी था। रावण को भूल मत जाना। रावण तो सतयुग में नहीं हो सकता; साथ-साथ थे दोनों। रावण कलियुग में था, राम सतयुग में थे।
सतयुग और कलियुग एक-दूसरे के पीछे पंक्ति में नहीं खड़े हैं, कि पहले सतयुग आया, फिर कलियुग आया। सतयुग और कलियुग समसामयिक हैं, कंटेम्प्रेरी हैं--ऐसे ही जैसे रात और दिन साथ-साथ हैं; अंधेरा-उजाला साथ-साथ हैं; बुराई-भलाई साथ-साथ हैं।
तुमने सदा ऐसा ही सुना है कि पहले सतयुग था, अच्छे दिन थे, अब बुरे दिन हैं। वह धारणा मौलिक रूप से गलत है। पहले भी ऐसा था; आज भी वैसा ही है। पहले भी बुरे होने की संभावना थी; आज भी बुरे होने की संभावना है। पहले भी भले होने की संभावना थी; आज भी द्वार बंद नहीं हो गए हैं।
और ध्यान रहे, अधिक लोग तो सदा ही कलियुग में रहे हैं। बुद्ध समझाते हैं लोगों को: चोरी न करो, बेईमानी न करो, ईर्ष्या न करो, मद-मत्सर न करो; हिंसा न करो। सुबह से सांझ तक समझाते हैं; चालीस साल ज्ञान की उपलब्धि के बाद यही समझाया। यही और यही। किनको समझाते हैं? सतयुग था? तो जो लोग चोरी करते ही नहीं थे, उनको बुद्ध समझाते हैं चोरी मत करो? जो लोग हिंसा करते ही नहीं थे, उनको बुद्ध समझाते हैं कि हिंसा मत करो? जो लोग ईमानदार थे ही, उनको समझाते हैं कि ईमानदार हो जाओ? तो बुद्ध पागल रहे होंगे। ईमानदारों को कोई नहीं समझाता कि ईमानदार हो जाओ। बेईमानों को समझाना होता है।
महावीर भी वही कर रहे हैं सुबह से सांझ तक। पुरानी से पुरानी किताब वेद भी वही कर रही है। तो वेद के दिन में भी चोर थे, और साधुओं से ज्यादा रहे होंगे; बेईमान थे, और ईमानदारों से ज्यादा रहे होंगे। अगर भले ही लोग होते, शैतानियत होती ही न, तो शास्त्रों की भी कोई जरूरत न थी। शास्त्र किसके लिए लिखे जाते हैं? सद्-उपदेश किसके लिए हैं?
तो मैं तुम्हारी समय की धारणा में एक नया विचार आरोपित करना चाहता हूं: सतयुग सदा है; कलियुग भी सदा है। तुम जो चाहो चुन लो। तुम अभी चाहो तो सतयुग में रह सकते हो। तुम सत् हुए तो सतयुग में प्रविष्ट हो गए। और तुम असत् हुए तो कलयुग में प्रविष्ट हो गए। तुमने अंधेरे से दोस्ती बांधी तो कलियुग में रहोगे। और तुमने रोशनी से दोस्ती बांध ली तो सतयुग में रहोगे।
सतयुग और कलियुग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो मरजी हो, उसमें जी लो। कलियुग को दोष मत दो।
आदमी बहुत होशियार है। आदमी कहता है: हम क्या करें अब, यह तो कलियुग है! तुमने समय पर टाल दी बात। तुमने यह कह दिया कि समय ही खराब है; हमारी कोई खराबी नहीं है। तुमने अपनी जिम्मेवारी हटा दी कंधों से। निश्चित ही, अब तुम कलियुग में रहोगे। क्योंकि जिसने अपनी जिम्मेवारी छोड़ दी, उसके जीवन में जागरण की किरण कभी भी न आएगी। और स्वभावतः जब वह अंधेरे ही अंधेरे में जीएगा, तो उसकी धारणा और मजबूत होती जाएगी कि कलियुग बहुत भयंकर है; इससे छुटकारा नहीं हो सकता। और कलियुग तुम्हीं पैदा कर रहे हो।
जिंदगी को बदलो! जिंदगी तुम्हारी है; और कोई जिम्मेवार नहीं। तरकीबें न खेलो। आदमी हमेशा तरकीबें करता है। दोष किसी और पर टाल देता है। दोष दूसरे पर टाल कर निश्चिंत हो जाता है कि अब मेरा तो कोई दोष है नहीं, अब मैं क्या कर सकता हूं, असहाय हूं।
लेकिन जिस दिन तुम असहाय हुए, उसी दिन नपुंसक भी हो जाते हो। जब तुमने कहा, मैं क्या कर सकता हूं, समय खराब; मैं क्या कर सकता हूं, समाज खराब; मैं क्या कर सकता हूं, चारों तरफ बेईमान ही बेईमान हैं; मुझे भी बेईमान होना ही पड़ेगा, मजबूरी है--तो तुम बेईमान हो गए और तुम बेईमान होते चले जाओगे। तुम कमजोर हो जाते हो--उसी दिन, जिस दिन तुम जिम्मेवारी किसी और पर छोड़ते हो। तुम उसी दिन गुलाम हो जाते हो।
मालिक वही है, जिसने कहा: बुरा हूं तो मैं अपने कारण हूं। स्वतंत्र वही है, जिसने कहा: चोर हूं तो मैं अपने कारण हूं। चोर हूं सही; लेकिन कारण मैं हूं। मैंने चोर होना चुना है। यह आदमी साफ-सुथरा है। इस आदमी की जिंदगी में क्रांति हो सकती है। क्योंकि इसके पास क्रांति की मूल कुंजी है। यह कहता है: बुरा हूं तो मैं अपने कारण हूं। अगर अपने कारण बुरा हूं तो जिस दिन चाहूंगा, उस दिन भला हो जाऊंगा। वह दरवाजा मैंने अपने हाथ में रखा है। वह कुंजी अपने हाथ में है।
इसलिए तो इस देश में हम संन्यासी को स्वामी कहते हैं। स्वामी का अर्थ होता है मालिक। मालकियत की घोषणा कि मैं अपना मालिक हूं--बुरा हूं तो, भला हूं तो। मैं जैसा हूं, मैं ही कारणभूत हूं।
इससे घबड़ाओ मत कि मैं कारणभूत हूं। इससे हमें घबड़ाहट लगती है कि मैं अपने अपराधों के लिए जिम्मेवार; मैं अपनी बुराइयों के लिए जिम्मेवार; मैं अपनी शैतानियत के लिए जिम्मेवार! तुम्हें बहुत घबड़ाहट होती है। लेकिन इसका दूसरा पहलू देखो। इसका दूसरा पहलू यह है कि अगर मैं ही जिम्मेवार हूं तो कुछ किया जा सकता है; तो संभावना रूपांतरण की है, शेष है।
लोग तो टालते ही चले जाते हैं। अब समय पर टाल दिया! समय को कहां पकड़ोगे? कलियुग को तुम कैसे बदलोगे? सतयुग में? तो तुम्हारे तो हाथ के बाहर ही बात हो गई। तो फिर जो है, ठीक है; इसी में गुजार लेना है--ऐसे ही रोते, ऐसे ही झींकते, ऐसे ही रिरियाते, ऐसे ही सड़कों पर सरकते कीड़े-मकोड़ों की तरह जी लेना है।
मैं तुमसे कहना चाहता हूं: सदा से आदमी की संभावना रही है बुरा हो जाए, भला हो जाए। राम के समय में भी सभी लोग भले न थे। अगर सभी लोग भले होते तो राम को कोई अवतार क्यों कहता, कभी सोचा इस बात पर? राम की इतनी प्रतिष्ठा क्यों होती अगर सभी लोग भले होते? उन भले रामों में राम भी खो गए होते। कौन पूछता! दो कौड़ी की भी बात नहीं थी फिर। जहां सारे भले लोग हों, जहां संतों की जमात हो, वहां कौन राम को पूछता! राम को हम भूल नहीं सके, हजारों साल बीत गए। क्यों नहीं भूल सके? रावणों की भीड़ थी, उसमें राम खूब उभर कर प्रकट हुए। जैसे अंधेरी रात में तारा चमकता है; दिन में तो नहीं चमकता। दिन में भी तारे हैं आकाश में, लेकिन चमकते नहीं। सूरज की रोशनी में सब खो जाते हैं। अंधेरे में चमकते हैं। काले बादल में जब बिजली चमकती है तो बहुत साफ दिखाई पड़ती है।
काले ब्लैक बोर्ड पर हम सफेद खड़िया से लिखते हैं, ताकि दिखाई पड़े। राम अब तक दिखाई पड़ रहे हैं--रावणों का ब्लैक बोर्ड रहा होगा। काले बादल रहे होंगे, इसलिए राम की चमक अभी तक नहीं खोई है। कृष्ण दिखाई पड़ते हैं; महावीर, बुद्ध दिखाई पड़ते हैं। क्यों? इतना सम्मान किसलिए? यह सम्मान हमने दिया क्यों? यह सम्मान हम न्यून को देते हैं, बिरले को देते हैं, अद्वितीय को देते हैं। यह सम्मान अगर सभी लोग हों एक जैसे, तो फिर नहीं देते।
मैंने सुना है, जब पहला आदमी इलाहाबाद में मैट्रिक पास हुआ था, तो पता है तुम्हें, हाथी पर उसका जुलूस निकला था! सारा इलाहाबाद सजाया गया था। पहला आदमी मैट्रिक पास हो गया! अब मैट्रिक कितने लोग पास हो रहे हैं, कोई गधे पर भी जुलूस नहीं निकालता। अब तुम अगर किसी से कहो कि मैट्रिक पास हूं, तो वह कहता है: कौन सी खूबी है! इसमें बताने की क्या बात है? मैट्रिक पास कहते वक्त तुमको भी ऐसा छाती बैठती मालूम पड़ेगी कि यह क्या कह रहे हैं।
जमाना था, जब मिडलची कलेक्टर हो जाते थे। उन दिनों कोई मैट्रिक पास हो जाता था तो दुदुंभि पिट जाती थी कि कोई गजब का काम हो गया।
राम की दुदुंभि अभी तक पिट रही है और हमने उनको मर्यादा-पुरुषोत्तम कहा--पुरुषों में उत्तम मर्यादा वाले। लोग अमर्याद रहे होंगे। लोग बड़े हीन रहे होंगे। नहीं तो कैसे राम को तौलोगे? किस कारण विशिष्टता दोगे?
कोहिनूर की प्रतिष्ठा है; कंकड़ों की तो नहीं; कांच के टुकड़ों की तो नहीं। अगर कोहिनूर सड़कों पर पड़े हों, गली-कूचे हर जगह पड़े हों, बच्चे उनसे खेल रहे हों, राह पर ढेर लगे हों, सीमेंट में मिला कर मकान बनाए जा रहे हों--फिर कोहिनूर इंगलैंड की महारानी रखे बैठी रहे, क्या मूल्य है? मूल्य होता है बिरले का।
राम को हम भूले नहीं। अब्राहम को हम भूले नहीं। मोज़़ेज को हम भूले नहीं। क्राइस्ट को हम भूले नहीं। मोहम्मद को भूले नहीं। कारण क्या है? आखिर ये लोग टंगे क्यों रह गए हमारी स्मृति में? बड़ी अंधेरी रात थी। उस अंधेरी रात में ये चमकते हुए तारे भूलें भी कैसे!
मैंने सुना है:
दैर वीरां है, हरम है बेखरोश
बरहमन चुप है, मोअज्जन है खामोश
सोज है अशलोक में बाकी न साज
अब वो खुत्वे न हिद्दत है न जोश
हो गई बेसूद तलकीने-सवाब
अब दिलाएं भी तो क्या खोफै अजाब
अब हरीफे-शेख कोई भी नहीं
खत्म है अब हर एक मोजू-ए-खिताब
आज मधम-सी है आवाजे दरूद,
आज जलता ही नहीं मंदिर में ऊद
क्या कयामत है यकायक हो गया
महफिले जह्हाद पर तारी जमूद
रब्बेबर हक खालिके-आली जनाब
हो गए अपने मिशन में कामयाब
सिलसिला रूश्दो हिदायत का है खत्म
आसमां से अब न उतरेगी किताब
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया।
यह उस दिन की कविता है, जिस दिन शैतान मर गया। शैतान मर गया तो क्या हुआ?
मर गया ए बाय शैतां मर गया!
उस दिन यह हुआ: दैर वीरां है! मंदिर खाली पड़े हैं। शैतान ही मर गया तो मंदिर में भगवान की क्या जरूरत रही!
दैर वीरां है, हरम है बेखरोश
मस्जिद शांत है; अब कोई अजान नहीं देता। शैतान ही मर गया तो अब भगवान की अजान भी कौन दे! सभी तरफ भगवान का राज्य हो गया। संघर्ष ही समाप्त हो गया।
दैर वीरां है, हरम है बेखरोश
बरहमन चुप है मोअज्जन है खामोश
अजान देने वाले चुप हो गए हैं और ब्राह्मण अब मंत्रों का पाठ नहीं करते हैं। अब किसकी पूजा, किसका पाठ!
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया
सोज है अशलोक में बाकी न साज।
अब न तो श्लोक में बल है, न संगीत है, न उत्साह है।
अब वो खुत्वे में न हिद्दत है न जोश
अब धार्मिक भाषण में वह गरमी भी न रही।
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया
शैतान ही मर जाए...जिस दिन अंधेरा मर जाएगा, उस दिन रोशनी में क्या मजा रह जाएगा! जिस दिन बीमारी मर जाएगी उस दिन स्वास्थ्य में क्या खूबी रह जाएगी! जिस दिन कांटे होंगे ही नहीं, उस दिन फूल की प्रशंसा में गीत कौन गाएगा!
हो गयी बेसूद तकलीने-सवाब।
अब दिलाएं भी तो क्या खोफै अजाब।
जिंदगी से सब पाप मिट गए अब लोगों को डराएं भी पाप से तो कैसे डराएं!
अब हरीफे-शेख कोई भी नहीं!
अब अच्छाई का कोई दुश्मन ही नहीं है। अब ज्ञानी का कोई दुश्मन ही नहीं है।
खत्म है हर एक मोजू-ए-खिताब
अब तो लोगों को संबोधित करने का कोई विषय ही न बचा।
मर गया ए बाय शैतां मर गया!
आज मधम-सी है आवाजे-दरूद
आज पूजा-पाठ बड़ा मद्धम हो गया है। मरा-मरा! श्वास टिकी-टिकी--अब गई, तब गई!
आज मधम-सी है आवाजे दरूद
आज जलता ही नहीं है मंदिर में ऊद।
अब कोई उदबत्ती नहीं जलाता, अब कोई धूप नहीं जलाता मंदिर में। परमात्मा की प्रार्थना अब नहीं होती। अब थालियां नहीं सजतीं आरती की। अब कोई फूल लेकर मंदिर में पूजा के लिए नहीं आता। किसकी अर्चना!
मर गया ऐ बाय शैतां मर गया।
क्या कयामत है यकायक हो गया
यह क्या हो गया?
महफिले जह्हाद पर तारी जमूद!
यह भले लोगों की जबान एकदम बंद क्यों हो गई? ये धार्मिक लोग एकदम चुप क्यों हो गए? ये धार्मिक लोगों की जबान पर ताले क्यों पड़ गए? यह क्या गजब हो गया!
‘रब्बेबर हक’...हे परमात्मा! ‘...खालिके-आली जनाब। हो गए अपने मिशन में कामयाब।’ भगवान अपने मिशन में सफल हो गया। ‘मर गया ऐ बाय शैतां मर गया।’ शैतान मर गया, भगवान अपने मिशन में सफल हो गए--इस कारण अब मंदिर-मस्जिद चुप पड़े हैं।
सिलसिला रूश्दो हिदायत का है खत्म
अब उपदेश की कोई जरूरत न रही।
आसमां से अब न उतरेगी किताब।
अब न वेद उतरेगी, न इंजील, न कुरान।
सिलसिला रूश्दो हिदायत का है खत्म
आसमां से अब न उतरेगी किताब
अब मर गया ए बाय शैतां मर गया।
किताबें उतरती रहीं--कुरान, वेद, बाइबिल। पैगंबर आते रहे--अब्राहम, मोज़़ेज, मोहम्मद, जीसस। तीर्थंकर उठते रहे--महावीर, बुद्ध, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ, आदिनाथ। बड़े संदेशवाहक पैदा हुए--जरथुस्त्र, लाओत्सु। संत चमके। ये किसलिए हैं? यह किस तरह है? ये सब सबूत हैं इस बात के कि कलियुग सदा से था। शैतान कभी मरा नहीं था। न शैतान कभी मरा था, न आज मर गया है, न कभी मरेगा। शैतान और परमात्मा साथ-साथ हैं, जैसे दिन और रात साथ-साथ हैं। तुम्हारी जो मर्जी, चुन लो। तुम चाहो तो दिन में सो जाओ और रात में जागो। तुम चाहो तो रात में सो जाओ और दिन में जागो। तुम्हारी मरजी जो तुम चाहो। तुम चाहो कलियुग में सो जाओ, सतयुग में जागो। और तुम चाहो सतयुग में सो जाओ कलियुग में जागो। तुम अभी चाहो राम बन जाओ, चाहो रावण बन जाओ। ये राम और रावण दो संभावनाएं हैं।
इसलिए तुम्हारे समय की धारणा को मैं बदलना चाहूंगा। मैं ऐसा नहीं कहता कि पहले सतयुग हुआ, फिर कलियुग आया। यह तो बात ही गलत है। दोनों सदा साथ रहे। दोनों समय के, गाड़ी के दो चाक हैं।
और तब एक और नई संभावना का द्वार खुलता है। तुम चाहो तो दोनों से मुक्त हो जाओ। समय से मुक्त हो जाओ। बुरे-भले दोनों से मुक्त हो जाओ। वही मोक्ष है। वही निर्वाण है। जो बुरा है, वह बुरे से बंधा है। जो भला है वह भले से बंधा है। दोनों बंधे हैं। अच्छा है कि बुराई से बंधने की बजाय भलाई से बंधो। अगर जंजीरें ही पहननी हैं तो सोने की पहनो। क्या जरूरत है लोहे की पहनो!--जंग लगी, वजनी, भारी! आभूषण ही पहनने हैं तो बहुमूल्य पहनो, हीरे-जवाहरातों के पहनो। मगर बंधे तो रहोगे।
बुराई का बंधन है बुरा, भलाई का बंधन है भला; लेकिन बंधन तो बंधन ही है। और जहर फिर चाहे कितनी ही अच्छी बोतल में हो--सोने की बोतल में हो, तो भी क्या फर्क पड़ता है, मारेगा तो ही।
धर्म की आत्यंतिक खोज समय से मुक्त हो जाना है--कालातीत। न तो सतयुग रह जाए, न कलियुग रह जाए। कलियुग में जो जीता है, वह दुर्जन। सतयुग में जो जीता है वह सज्जन। और दोनों के जो पार हो गया, उसी को हम संत कहते हैं। संत का अर्थ है, जो समय में जीता ही नहीं; जो समय के बाहर सरक गया। बुराई से ही नहीं सरका, भलाई से भी सरक गया। जिसने रात तो छोड़ी ही छोड़ी, दिन भी छोड़ा। जिसने सब छोड़ दिया। जो अपने भीतर सरक गया। जो अपने शून्य में विराजमान हो गया। गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में बिसराम!
तुम पूछते हो कि ‘क्या इस कलियुग में भी कोई प्रभु को उपलब्ध हो सकता है?’
तुम ऐसा पूछ रहे हो कि क्या इस अंधेरी रात में भी कोई दीया जला सकता है? तुमसे कहा किसने? अंधेरी रात ने दीया जलाने में बाधा कब डाली? अंधेरा दीया जलाने में बाधा डाल भी कैसे सकता है? अंधेरे का बल क्या है? दीया जलता हो तो ऐसा थोड़े है कि अंधेरा झपट्टा मार कर उसे बुझा दे; कि तुम दीया जलाओ तो अंधेरा जलने न दे। अंधेरे की सामर्थ्य क्या? दीया जला कि अंधेरा गया। रात के बहाने निकाल कर दीया जलाने से बचने की कोशिश मत करो।
जैन मानते हैं कि यह पंचमकाल है, अब कोई तीर्थंकर नहीं हो सकता। हिंदू मानते हैं यह कलियुग है, अब कोई भगवान को कैसे उपलब्ध हो! ये सब हताश बातें हैं। ये बातें आदमी को नपुंसक किए जा रही हैं। मैं तुमसे कहता हूं: ऐसा ही सदा था, ऐसा ही अब है। जो पहले हो सका, आज हो सकता है। जो आज हो सका, वही पहले भी हो सकता था। जरा भी फर्क नहीं है। दुनिया वैसी की वैसी है।
लेकिन हमें अड़चन होती है। हमें अड़चन होने के कारण हैं। होता ऐसा है कि अतीत की जब तुम स्मृति करते हो तो उसमें से भले-भले को चुन कर स्मृति करते हो। बुद्ध की तो हमें याद है, लेकिन बुद्ध जिन लोगों के बीच गुजरते थे, जिन लोगों के बीच जीते थे, उनकी हमें कोई याद नहीं, उनका कोई इतिहास नहीं बना। वे तो मिट गए। बुद्ध बचे। तो वह जो काला ब्लैकबोर्ड था, वह तो खो गया, सिर्फ चमकते हुए सफेद अक्षर हमारी याद में रह गए हैं। आज तुम्हें याद नहीं कि बुद्ध के समय का आदमी कैसा था; राम के समय का आदमी कैसा था; कृष्ण के समय का आदमी कैसा था। यह चमकते हुए तारों की याद रह गई और अंधेरी रात का हमने कोई स्मरण न रखा। इससे ठीक उलटी बात घटती है अभी। अभी ऐसा घटता है कि करोड़ आदमी में कभी एकाध कोई चमकता आदमी मिलता है। वे जो करोड़ अंधेरे से भरे हुए लोग हैं वे रोज मिलते हैं उठते, बैठते सुबह सांझ, घर में, बाहर, दुकान, बाजार में--सब जगह वही है। बुद्ध तो कभी-कभार कोई मिलेगा। और मिल भी जाए तो तुम देख न पाओगे। क्योंकि बुरे, पागलों की भीड़ में जीते-जीते जीते-जीते तुम्हारा बुद्ध को देखने का, बुद्ध को परखने की जो सूझ चाहिए वही खो गई है। आदमियों से घिसते-पिसते, आदमियों की बेईमानी, चोरी सहते-सहते तुम इतने कठोर हो जाते हो! होना ही पड़ता है।
अगर किसी आदमी को कांटे के ही रास्ते पर चलना पड़े, कांटों पर ही चलना पड़े, तो धीरे-धीरे उसका चमड़ा कठोर हो जाएगा। फिर एक दिन फूल को स्पर्श हो, तो फूल का स्पर्श उसे पता ही न चलेगा। चमड़ी मोटी हो गई। इसलिए तो पैर की चमड़ी मोटी हो जाती है। अब तुम पैर से ही अगर गुलाब को टटोलना चाहोगे तो न टटोल पाओगे; पैर की चमड़ी मोटी हो गई। होना ही पड़ा। जमीन पर चलना है, कंकड़-पत्थर पर चलना है, तो पैर की चमड़ी को मजबूत, मोटा होना ही पड़ेगा। अब अगर तुम पैर की चमड़ी से टटोलो गुलाब को, तो तुम्हें कुछ पता न चलेगा। ऐसी ही बात है।
जिंदगी में रोज तो मिलते हैं बुरे लोग, कभी संयोगवशात कोई जीवंत भगवत्ता को उपलब्ध व्यक्ति के दर्शन होते हैं--तब तक तुम्हारी आंखें क्षमता खो चुकी होती हैं। तुम इस आदमी को समझ नहीं पाते। तुम मान नहीं पाते। तुम्हारा हृदय हजार संदेहों से भर गया। क्योंकि जब भी तुमने माना, धोखा खाया। जिसको माना, उससे धोखा खाया। धोखे ही धोखे की कथा है। जिसको तुमने सोचा कि ठीक है, वही गलत सिद्ध हुआ। यह इतनी बार हुआ कि अब तुम कैसे मानो किसी को, कि कोई ठीक हो सकता है! और संत हो सकता है, यह तो बात ही नहीं मानने की।
तो तुम्हारे जीवन का अनुभव जो है, वह तुम्हें कलियुग से घेरता है, और कभी एकाध कहीं किसी व्यक्ति में सतयुग की लपट होती है। तुम उसे मानते नहीं। तुम उसे देखते नहीं। तुम उसे स्वीकार नहीं करते।
और तुम्हें मैं क्षमा करता हूं। तुम्हें मैं क्षमा करता हूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि तुम्हारी भी अड़चन है। तुम भी क्या करो! हजार बार भरोसा किया और हजार बार भरोसा टूटा, तो अब तुम भरोसा करने में असमर्थ हो गए हो। अब श्रद्धा सुगम न रही। जब पाया, कांटा पाया। और जब भी कांटा पाया, तो पहले हर कांटे ने फूल का धोखा दिया था। आज फूल को देख कर भी तुम यही सोचोगे कि पता नहीं, फिर धोखा हो! मन कहेगा: अब तो कुछ सीखो! कहां इस कलियुग में? कहां इस अंधेरी दुनिया में कोई जागता है? कहां कोई प्रभु को उपलब्ध होता है? अब भगवान कहां?
तुम्हारी अड़चन मेरी समझ में आती है। अतीत के भगवानों की याद्दाश्त रह गई; अतीत के मनुष्यों की याद्दाश्त खो गई। आज के मनुष्य दिखाई पड़ते हैं; आज का भगवान दिखाई नहीं पड़ता। इसलिए बड़ी निराशा पैदा होती है।
न फलक पर कोई तारा, न जमीं पर जुगनू
जो किरन नूर की है, मात हुई जाती है,
कारगर योरिशे जुलमात हुई है कितनी
क्या हमेश के लिए रात हुई जाती है?
बहुत बार यह मन में सवाल उठता है। ‘न फलक पर कोई तारा’...एक तारा नहीं दिखाई क्षितिज पर। ‘न जमीं पर जुगनू’...छोड़ो तारों की बात, रात ऐसी अंधेरी है कि एक तारा नहीं दिखाई पड़ता फलक पर, आसमान पर एक तारे की झलक नहीं। रात ऐसी अंधेरी है कि तारों की तो बात छोड़ दो, जमीन पर कोई जुगनू भी चमकता हुआ नहीं दिखाई पड़ता।
न फलक पर कोई तारा न जमीं पर जुगनू
जो किरन नूर की है मात हुई जाती है।
इसलिए प्रकाश की किरण पर भरोसा कैसे आए? प्रकाश की किरण हारी जाती है। ऐसा लगता है कि अब हम आशा छोड़ देंगे, सत्य नहीं होगा; नहीं हो सकता; इस कलियुग में कहां सत्य! वह सतयुग में होता था, वह कथा है पुराणों में! वह भी क्या पक्का पता, होता था कि नहीं होता था। मगर पहले होता होगा, अब तो नहीं होता। और अब तो कभी नहीं होगा। वह स्वर्ण-युग जा चुका।
कारगर योरिशे जुलमात हुई है कितनी
और अंधेरे में कितने जुल्म हुए हैं! अंधेरे के द्वारा कितने जुल्म हुए हैं! अंधेरा कितना झपट-झपट कर हमें तोड़ता रहा, सब तरफ से लूटता रहा है!
कारगर योरिशे जुलमात हुई है कितनी
क्या हमेशा के लिए रात हुई जाती है?
तो यह संदेह स्वाभाविक है कि मन में विचार उठने लगे: क्या हमेशा के लिए रात हुई जाती है? क्या अब कभी सुबह न होगी?
कलियुग का अर्थ होता है कि अब कभी सुबह न होगी। कलियुग का अर्थ है कि यह आखिरी रात आ गई। वे दिन गए, जब दिन हुआ करता था। वे दिन गए, वे दिन सपने हो गए।
तुम लोगों की बातों में सुनो। वे कहते हैं: ‘वे पुराने भले दिन! वे अच्छे दिन!’ लोग पीछे की तरफ सोचते हैं कि अच्छे दिन थे। उसके पीछे भी मनोवैज्ञानिक कारण है। उसके पीछे यह अर्थ नहीं कि पीछे अच्छे दिन थे। आदमी ऐसा ही रहा है, सदा से ऐसा ही रहा है। जरा भी फर्क नहीं है आदमी में। सामान बदल गए हैं, मगर आदमी नहीं बदला। आदमी की सारी वृत्तियां वही की वही हैं।
तुम सोचते हो: आज का आदमी बुरा है। तो चंगीज खान आज तो नहीं हुआ। और नादिरशाह आज तो नहीं हुआ और तैमूरलंग आज तो नहीं हुआ। कुछ फर्क नहीं हुआ है। तुम सोचते हो कि पीछे सब ठीक था। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण है, ऐतिहासिक कारण नहीं। हर आदमी अपने पीछे बचपन छोड़ आया है, वही कारण है।
बचपन में कोई चिंता न थी, कोई जिम्मेवारी न थी, कोई फिकर-फांटा न था। दुनिया में क्या हो रहा था, कुछ पता भी न था। बचपन में सब तरफ रोशनी थी; फूल खिले थे; तितलियां उड़ रही थीं; आकाश में बादल छाए थे और परियों का राज्य था। हर बच्चा अपने पीछे छोड़ आया है सुख के दिन, फिर चिंता आई, फिर परेशानी आई, फिर बेचैनियां आईं, फिर संघर्ष आया, फिर लड़ना, जूझना, हारना, ईमानदारी-बेईमानी की दुनिया शुरू हुई, फिर बाजार पैदा हुआ।
तो हर आदमी अपने पीछे बचपन छोड़ आया है। उस बचपन के कारण एक मनोवैज्ञानिक धारणा बनी है कि पहले सब अच्छा था। और बचपन के भी पहले हर आदमी गर्भ के नौ महीने छोड़ आया है। वे नौ महीने अदभुत थे। उन नौ महीनों में तो कोई चिंता का सवाल ही न था। भोजन भी खुद नहीं करना पड़ता था, मां करती थी। खून भी खुद नहीं बनाना पड़ता था, मां बनाती थी। श्वास भी खुद नहीं लेनी पड़ती थी, मां लेती थी।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मां के गर्भ में जैसा सुख बच्चा जान लेता है, उसी के कारण जीवन भर पीछे लौट-लौट कर सोचता है कि पीछे कितना सुख था! और यह हर आदमी बचपन से गुजरा है। तो हर आदमी के मन में यह धारणा बैठी है कि पहले अच्छा था। इसी पहले अच्छे का विस्तार है सतयुग का खयाल, कि पहले सब अच्छा था और अब सब बुरा हो गया।
कुछ बदला नहीं है। सब वैसा ही है।
ये बरसता हुआ मौसम, ये-शबे तीरो-तार
किसी मद्धम से सितारे की जिया भी तो नहीं
उफ ये वीरानी-ए-माहौल-ये वीरानी-ए-दिल
आसमानों से कभी नूर भी बरसा होगा
बर्के इलहाम भी लहरा गई होगी शायद
लेकिन अब दीद-ए-हसरत से सू-ए-अर्श न देख
अब वहां एक अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं
देख इस फर्श को जो जुल्मते-शब के बावस्फ
रोशनी से अभी महरूम नहीं है शायद
इकन इक जर्रा यहां अब भी दमकता होगा
कोई जुगनू किसी गोशे में चमकता होगा
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती
किसी जांबाज के माथे पर शहादत का जलाल
किसी मजबूर के सीने में बगावत की तरंग
किसी दोशीजा के ओंठों पै तबस्सुम की लकीर
कल्बे-उश्शाक में महबूब से मिलने की उमंग
दिले जुहाद में नाकरद गुनाहों की खलिश
दिल में एक फाहशा के पहली मोहब्बत का खयाल
कहीं एहसास का शोला ही फरोजां होगा
कहीं अफकार की कंदील ही रोशन होगी
कोई जुगनू कोई जर्रा तो दमकता होगा
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती।
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती!
माना कि रात बड़ी अंधेरी है, लेकिन कहीं इस अंधेरी रात में भी कोई तारा चमकता होगा। खोजना पड़ेगा। जिन्होंने खोजा, उन्होंने ही पाया। कहीं तो कोई कंदील जलती होगी! भयानक अमावस है!
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती।
कहीं तो कोई आलोक होगा परमात्मा का।
उस आलोक को ही हम सदगुरु कहते हैं। उसी को पलटू ने कहा है: सदगुरु के चरणों में लग जाओ। खोजो! माना रात अंधेरी है, सदा से अंधेरी रही है, और सदा से कहीं न कहीं जिन्होंने खोजा है उन्हें रोशनी की कोई किरण भी मिल गई है।
ये बरसता हुआ मौसम, ये शबे-तीरो-तार
यह अंधेरी डरावनी रात, यह धुआंधार आकाश से गिरती हुई जलधार, यह अंधड़, यह तूफान, यह बादलों की गड़गड़ाहट, यह घबड़ाहट से भरी हुई रात...‘किसी मद्धम से सितारे की जिया भी तो नहीं।’ ऐसे बादल घिरे हैं, ऐसे अंधेरे घनघोर बादल घिरे हैं। ‘किसी मद्धम से सितारे की जिया भी तो नहीं।’ कोई छोटे-मोटे चमकते हुए तारे की रोशनी भी कहीं दिखाई नहीं पड़ती।
उफ ये वीरानी-ए-माहौल...
यह वातावरण का सन्नाटा। ‘उफ ये वीरानी-ए-माहौल ये वीरानी-ए दिल।’ न केवल वातावरण में सन्नाटा है, भीतर दिल भी दबा जाता है और मरा जाता है, भीतर दिल में भी सन्नाटा है। बाहर भी अंधेरी रात है, भीतर भी अंधेरी रात है।
आसमानों से कभी नूर भी बरसा होगा
आदमी सोचता है इस अंधेरे में कि कभी तो आकाश से नूर बरसा होगा। सुनते हैं कहानियां, पढ़ते हैं कहानियां: कभी तो बरसा होगा।
और तुम चकित होओगे यह जान कर कि ऐसा तुम ही नहीं सोचते कि कभी नूर बरसा होगा, पुराने से पुराने शास्त्र भी यही कहते हैं कि पहले अच्छा था, अब सब खराब हो गया। चीन में सबसे ज्यादा पुरानी किताब है। वह एक ही पन्ना है और वह पन्ना भी आदमी की खाल पर लिखा गया है। वह कोई छह हजार साल पुराना है। कहते हैं, वह वेद से भी ज्यादा पुराना है। अगर उसे पढ़ो तो बड़ी हैरानी होती है। वह ऐसा मालूम पड़ता है कि आज ही सुबह के अखबार का संपादकीय हो। उसमें कहा है कि बेटे बाप के खिलाफ हो गए हैं, पत्नियां धोखेबाज, दगाबाज हो गई हैं। वफा नहीं रही दुनिया में। शिष्यों में गुरुओं के प्रति श्रद्धा नहीं है। अच्छे दिन कहां खो गए? हे प्रभु, ये बुरे दिन क्यों आ गए हैं? इसमें तुम्हें जरा भी लगता है कि पुरानी बातें हैं? यह छह हजार साल पुरानी बात! छह हजार साल पहले भी आदमी ऐसा ही था, जैसे तुम हो। यही तकलीफें थीं, यही परेशानियां थीं, यही झगड़े थे, यही समस्याएं थीं।
मगर आदमी को कुछ सहारा भी तो चाहिए। तो सहारे के दो ढंग हैं। या तो सोचो कि पहले, बहुत पहले, प्राचीन, अति प्राचीन समय में, समय के प्रारंभ में सब ठीक था, इससे सहारा मिलता है कि चलो, कभी तो ठीक था। आज खराब हो गया, हर्ज नहीं; लेकिन कभी तो ठीक था। कभी पुरखों के दिन तो थे।
इसलिए पुरानी चीन की किताबें कहती हैं: पुरखों के दिन, उन पुराने लोगों के दिन, वे बड़े शुभ दिन थे। एक तो यह रास्ता है कि पीछे देखो, क्योंकि आज तो कुछ रोशनी दिखाई नहीं पड़ती। दूसरा एक रास्ता है कि आगे देखो, जैसा कम्युनिज्म देखता है कि भविष्य में आ रहा है स्वर्णयुग। धर्म पीछे की तरफ देखते हैं; राजनीति आगे की तरफ देखती है; मगर दोनों में कुछ भेद नहीं है। आज तो दोनों राजी हैं कि सब गड़बड़ है। धर्म कहता है: बीते कल में सब ठीक था। राजनीति कहती है: आगे कल में सब ठीक होगा। लेकिन आज...आज पर दोनों सहमत हैं। बीता कल भी जा चुका है; आया कल आया नहीं। जो जा चुका है, वह तुम्हारी धारणा में है, कभी था नहीं। और जो आने वाला है, वह भी तुम्हारी कल्पना में है, कभी आएगा नहीं। आता तो सदा जो है, वह बिलकुल आज है; जैसा आज है बस ऐसा ही दोहरता है। बस आज ही आज। यही सदा दोहरता है।
आसमानों से कभी नूर भी बरसा होगा
आदमी को राहत के लिए, सांत्वना के लिए कुछ तो चाहिए!
बर्के इलहाम भी लहरा गई होगी शायद
और कभी शायद आकाशवाणी भी हुई होगी--जैसा वेद कहते हैं, कुरान कहती है--इलहाम हुआ होगा।
बर्के इलहाम भी लहरा गयी होगी शायद
और कभी बिजली कौंधी होगी, परमात्मा की आवाज आई होगी और लोगों को सतयुग से भर गई होगी; उठा गई होगी। लोगों को पवित्र कर गई होगी। आसमानों से कभी नूर भी बरसा होगा।
बर्के-इलहाम भी लहरा गयी होगी शायद
लेकिन अब दीद-ए-हसरत से सू-ए-अर्श न देख
लेकिन अब हरसत भरी आंखों से आकाश की तरफ मत देखो।
लेकिन अब दीद-ए-हसरत से सू-ए-अर्श न देख
अब वहां एक अंधेरे के सिवा कुछ भी नहीं
यही है कलियुग की धारणा कि अब और मत देखो आकाश की तरफ। अब न तो बर्के-इलहाम लहराती है, न किताबें उतरती हैं, न पैगंबर आते हैं, न देवता उड़ते हैं, न परियां उतरती हैं, न पैगंबर, न तीर्थंकर। अब तो अंधेरा ही अंधेरा है।
देख इस फर्श को जो जुल्मते-शब के बावस्फ
लेकिन जहां अंधेरा है, वहां रोशनी भी होती है। जहां रात गहरी अंधेरी हो जाती है, वहीं सुबह करीब आने लगती है। जब रात बहुत अंधेरी हो जाए तो घबड़ा मत जाना; यह सुबह के करीब आने का सबूत है। और जब रात बहुत अंधेरी हो तो घबड़ाना मत; खोजना, यही मौका है, कि कहीं कोई जलती हुई किरण मिल जाए। दिन में तो खोजना बहुत मुश्किल हो जाएगा। रात को अवसर बनाओ।
देख इस फर्श को जो जुल्मते-शब के बावस्फ
रोशनी से अभी महरूम नहीं है शायद
खोजो! आकाश पर घिर गए हैं बादल और तारे नहीं दिखाई पड़ते। किन्हीं आंखों में खोजो तो शायद तारा मिल जाए--और ऐसा तारा जो कभी नहीं बुझता। किसी हृदय में झांको।
रोशनी से अभी महरूम नहीं है शायद
इक न इक जर्रा यहां अब भी दमकता होगा
कोई न कोई छोटा कण अब भी दमकता होगा।
इक न इक जर्रा यहां अब भी दमकता होगा
कोई जुगनू किसी गोशे में चमकता होगा
किसी की गोद में बैठा हुआ कोई जुगनू चमकता होगा।
और ऐसा ही सदा से था। कभी किसी बुद्ध की गोद में बैठ कर चमकता था जुगनू। कभी किसी क्राइस्ट की गोद में बैठ कर चमकता था जूगनू। अब भी चमकता है। आंख चाहिए! खोज चाहिए!
इक न इक जर्रा यहां अब भी दमकता होगा
कोई जुगनू किसी गोशे में चमकता होगा
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती
यह हताशा छोड़ो कि कलियुग है, अब क्या होगा! ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती। यह असंभव है कि रोशनी बिलकुल मिट जाए। कम हो सकती है, बहुत कम हो सकती है, बहुत-बहुत कम हो सकती है--मिट नहीं सकती। रोशनी मिट जाए तो जीवन ही मिट जाए। रोशनी मिट नहीं सकती। जब तक चेतना है, जब तक होश है, तब तक रोशनी मिट नहीं सकती।
जरा होश को सुलगाओ। जरा आंख ठीक से खोलो। जरा देखने के नये ढंग सीखो। जरा देखने की नई शैली सीखो। या तो प्रेम से भरो आंख को, या ध्यान से भरो आंख को।
किसी जांबाज के माथे पे शहादत का जलाल
किसी हिम्मतवर के माथे पर अभी भी तुम्हें वही हिम्मत मिल जाएगी, जो मंसूर में थी।
किसी जांबाज के माथे पे शहादत का जलाल
किसी साहसी की आंखों में तुम्हें वही साहस दिख जाएगा जो जीसस को सूली पर लटकते वक्त था।
और किसी मजबूर के सीने में बगावत की तरंग
और अभी भी किसी के हृदय में तुम्हें बगावत और विद्रोह की तरंग मिल जाएगी।
किसी दोशीजा के ओंठों पै तबस्सुम की लकीर
अभी भी कहीं कोई मुस्कुराता है।
कल्बे उश्शाक में महबूब से मिलने की उमंग
और अभी भी प्रेमियों के हृदय में परमात्मा से मिलने की आशा है।
कल्बे उश्शाक में महबूब से मिलने की उमंग
खोजो, कहीं कोई भक्त मिल जाएगा, जो अब भी अपनी उपासना में बड़ी आशा से संलग्न है; जिसके प्रेम ने उसके सामने रखी मूर्ति को जीवंत कर दिया है; जिसकी वाणी से मरे हुए शब्द नहीं निकलते; जिसकी वाणी में जिसका हृदय उंड़ला जाता है।
किसी दोशीजा के ओंठों पै तबस्सुम की लकीर
कल्बे उश्शाक में महबूब से मिलने की उमंग
क्या तुम सोचते हो जमीन पर एक भी भक्त नहीं? क्या तुम सोचते हो जमीन पर एक भी मीरा नहीं? क्या तुम सोचते हो जमीन पर एक भी चैतन्य नहीं? ऐसा तो कभी नहीं हुआ। ऐसा कभी हो भी नहीं सकता।
दिले जुहाद में नाकरद गुनाहों की खलिश
ऐसे भक्त भी तुम्हें मिल जाएंगे, जिन्हें ऐसे पापों के संबंध में पश्चाताप है, जो उन्होंने किए ही नहीं। आज भी! माना, ऐसे लोग भी हैं कि पाप करते हैं और पछताते नहीं; वे कलियुग में रहते हैं। और ऐसे लोग भी हैं कि ऐसे पापों के लिए पछताते हैं जो उन्होंने किए ही नहीं; वे सतयुग में रहते हैं।
दिले जुहाद में नाकरद गुनाहों की खलिश
कांटे की तरह चुभते हैं ऐसे पाप, जो उन्होंने किए ही नहीं--ऐसे सरल हृदय लोग भी अभी मिल जाएंगे--जो रो रहे हैं और कहते हैं हमें क्षमा करो। और उन्होंने कुछ ऐसा किया ही नहीं, जिसके लिए उन्हें क्षमा किया जा सके।
मगर यही तो भक्ति की आखिरी ऊंचाई है, जहां न किए पाप के लिए आदमी क्षमा मांगता है। अभक्ति की आखिरी नीचाई, जहां किए हुए पाप का भी पश्चाताप नहीं होता।
दिल में एक फाहशा के पहली मोहब्बत का खयाल
कहीं एहसास का शोला ही फरोजां होगा।
और कहीं तो अनुभूति जलती होगी, फरोजां होगी, रोशन होगी!
कहीं एहसास का शोला ही फरोजां होगा
कहीं अफकार की कंदील ही रोशन होगी।
और कहीं तो चिंतन-मनन का दीया जलता होगा!
कहीं अफकार की कंदील ही रोशन होगी
कोई जुगनू, कोई जर्रा तो दमकता होगा।
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती
ये जमीं नूर से महरूम नहीं हो सकती!
यह पृथ्वी कभी भी प्रभु के प्रकाश से खाली नहीं रही, न कभी खाली रहेगी। परमात्मा ने इस पृथ्वी को कभी भी बहिष्कृत नहीं किया है। इसलिए कलियुग की क्या बातें उठाते हो।
पूछते हो: ‘क्या इस कलियुग में भी कोई प्रभु को उपलब्ध हो सकता है?’
प्रभु शाश्वत है। समय के बाहर है। जो भी आदमी समय के बाहर उठ जाए, कभी भी परमात्मा को उपलब्ध हो सकता है। सब समय बराबर है बाहर जाने के लिए। इसलिए तो पलटूदास ने कहा कि मुहूर्त इत्यादि सब व्यर्थ हैं। छोड़ यह पागलपन। यह मुहूर्त की बात फिर ले आए। तुम फिर उठाने लगे कलियुग!
पलटूदास कहते हैं: समय महूरत व्यर्थ सब! असली बात की फिकर करो। कैसे समय के बाहर आ जाओ, इसकी फिकर करो। और समय के बाहर जब भी किसी को आना पड़ा है तो यही अड़चनें थीं; जो आज हैं वे ही कल थीं। तुम क्या सोचते हो, आज से पांच हजार साल पहले, जब कोई आदमी ध्यान करने बैठता था तो उसके मन में चिंतन नहीं उठता था, विचार नहीं उठते थे? विचार और चीजों के उठते थे। कार का नहीं उठता था विचार, यह पक्का है, क्योंकि कार नहीं थी, लेकिन बैलगाड़ी का उठता था: एक छकड़ा खरीद लूं! माना कि राष्ट्रपति होने का खयाल नहीं उठता था, लेकिन राजा होने का खयाल उठता था। फर्क क्या है? भेद क्या पड़ता है? राजनीति इतनी ही थी, कुछ इससे कम न थी। आदमी के मन में महत्वाकांक्षाएं इतनी थीं, कुछ इससे कम न थीं।
अक्सर तुम इस भूल में पड़ जाते हो, क्योंकि तुम्हें खयाल लगता है कि मैं जब बैठता हूं तो खयाल आता है कि एक कार कब खरीद पाऊंगा; कितने भले लोग रहे होंगे पांच हजार साल पहले, कि लोग जब बैठते होंगे, कार इत्यादि की चिंता ही नहीं उठती थी, अब यह चिंता उठती है, कलियुग आ गया! पर कार और बैलगाड़ी की चिंता में कोई फर्क है? कार और बैलगाड़ी में फर्क होगा, लेकिन कार और बैलगाड़ी की चिंता में तो कोई फर्क नहीं। तब भी आदमी तड़फता था कि मेरे पास एक शानदार घोड़ा नहीं है। तुम रोते हो कि अब फियेट नहीं है। वह आदमी रोता था कि घोड़ा नहीं है। फर्क कुछ नहीं है। इसलिए तो फियेट को भी हम कहते हैं कि कितने हॉर्स पॉवर की है। वही घोड़े का ही मामला है। अभी भी भाषा वही है: कितने घोड़े की ताकत है इसमें? उन दिनों भी जिसके पास अरबी घोड़ा था, उसकी शान और थी। इंपोर्टेड घोड़े होते थे, इंपोर्टेड गाड़ियां होती हैं; कुछ फर्क नहीं होता।
आदमी की चिंताएं वही की वही हैं। उस दिन भी आदमी को इतना जद्दोजहद करना पड़ता था मन के बाहर आने के लिए। क्या तुम सोचते हो कि तुम जब बैठते हो, फिल्म अभिनेत्रियों के खयाल आते हैं, तो उस दिन सुंदर स्त्रियां न थीं? उस दिन भी सुंदर स्त्रियां थीं। उस दिन भी उनके संबंध में वैसी ही वासना उठती थी जैसी आज उठती है। सब ऐसा ही था। जो बदलाहटें हुई हैं, वे बाहर हुई हैं। आदमी के मन में कोई फर्क नहीं पड़ता।
हां, अगर बुद्ध को आज फिर वापस आना पड़े तो वे कई चीजें न पहचान पाएंगे। अगर तुम उन्हें एक हेलिकाप्टर दिखाओगे तो वे नहीं पहचान पाएंगे। वे चौंक कर खड़े हो जाएंगे कि यह क्या है। स्वाभाविक। लेकिन अगर तुम उन्हें आदमी का मन दिखलाओगे तो तुम समझते हो, वे चौंकेंगे? वे चौंकेंगे जरूर--इस बात से चौंकेंगे कि अरे, पच्चीस सौ साल हो गए, आदमी का मन वैसा का वैसा, जरा भी बदला नहीं है! वही दौड़, वही महत्वाकांक्षा, वही ईर्ष्या, वही क्रोध, वही मोह, वही लोभ! क्या फर्क है?
उस दिन प्रभु को उपलब्ध हो सकते थे लोग; आज भी उपलब्ध हो सकते हैं।
मैं फिर दोहरा दूं: तुम बचने की कोशिश न करो। तुम बहाने न खोजो। अगर प्रभु को उपलब्ध नहीं होना चाहते, तो भी यही स्वीकार करो मन में कि मैं नहीं उपलब्ध होना चाहता, इसलिए नहीं हो रहा हूं। मालिक तो रहो। मालकियत तो न खो दो। फिर किसी दिन यह मालकियत काम पड़ जाएगी; जिस दिन होना चाहोगे उपलब्ध उस दिन हो सकोगे। यह कलियुग इत्यादि की आड़ें मत लो, ये आड़ें खतरनाक हैं।
दूसरा प्रश्न:
भगवान, कल आपने बताया कि कैसे मो़जे़ज के खंडन व आलोचना से गड़रिए की ग्रामीण और सरल प्रार्थना को हानि पहुंची। और कि परमात्मा ने मोज़़ेज को सावधान किया कि वह लोगों की वैयक्तिक आस्था को खंडित न करे। इसी संदर्भ में याद आता है कि आपने प्रथम पंद्रह वर्षों में सारे देश में घूम कर लोगों की पूजा, उपासना, आस्था व परंपरा का कठोर खंडन व आलोचना की थी। कृपया समझाएं कि इसके पीछे आपका क्या अभिप्राय था?
जरूर परमात्मा ने मो़जे़ज को डांटा-फटकारा कि तूने ठीक नहीं किया, कि उस सरल हृदय की प्रार्थना खंडित कर दी। लेकिन मुझे परमात्मा ने जरा भी डांटा-फटकारा नहीं है। क्योंकि मैंने जिनकी प्रार्थना खंडित करने की कोशिश की, वे सरल-हृदय लोग नहीं थे। वे गड़रिए जैसे नहीं थे। वे झूठे पाखंडी लोग हैं। परमात्मा ने तो कई बार मुझसे कहा कि ठीक किया, शाबाश!
फर्क खयाल में ले लेना। किसी सरल हृदय की प्रार्थना मत खंडित करना। मगर झूठी पाखंडियों की प्रार्थना तो खंडित करनी ही होगी; नहीं तो वे कभी सरल हृदय न हो सकेंगे। सरल-हृदय की मैंने कभी खंडित नहीं की। जब भी मैंने कोई सरल हृदय आदमी देखा, तो मैंने उससे कहा: तुम जैसा कर रहे हो, वैसा ही करते रहो; तुम्हें जरा भी बदलने की जरूरत नहीं है। इसलिए कभी-कभी मेरे पास अड़चन भी हो जाती है लोगों को। एक आदमी पूछता है एक बात और उससे मैं कह देता हूं कि ठीक है, तुम ऐसा ही करो। दूसरा कहता है वही बात और उससे मैं कहता हूं, ऐसा भूल कर मत करना। और बड़ी अड़चन खड़ी होती है। वे सोचते हैं कि मैं विरोधाभासी वक्तव्य देता हूं।
जिसकी सच्ची है प्रार्थना, हार्दिक है प्रार्थना, उसको मैं छूता नहीं। मैं कहता हूं: ठीक, इसमें पूरे डूब जाओ। और किस तरह साथ दूं तुम्हें कि तुम डूब जाओ। और जिसकी प्रार्थना झूठी है उसे तो मुझे तोड़ना ही पड़ता है। मोज़ेज़ ने सरल-हृदय आदमी की प्रार्थना तोड़ी थी। मैं उन लोगों की प्रार्थना तोड़ रहा हूं जिनको मोज़ेज़ जैसे लोग प्रार्थना सिखा गए; जिनकी प्रार्थना झूठी हो गई है।
तुम ऐसा समझो। कहानी में इतना और जोड़ दो। कहानी ही है, जोड़ने में डर भी क्या! कि जब मो़जे़ज चला गया तो मैं गया उस गड़रिए के पास और मैंने उससे कहा: फेंक यह बकवास जो मो़जे़ज ने तुझे सिखाई है। इसमें कुछ सार नहीं है। तू अपने सरल-हृदय पर वापस लौट जा। तो मैं भी खंडन कर रहा हूं और मो़जे़ज ने भी खंडन किया। मोज़ेज़ ने खंडन किया एक आदमी की सीधी-सरल आस्था का, निर्दोष आस्था का। मैं खंडन कर रहा हूं मोज़ेज़ के द्वारा दिया गया पांडित्य। मैं खंडित कर रहा हूं एक झूठी प्रार्थना। मैं भी खंडित कर रहा हूं, मो़जे़ज भी खंडित कर रहे हैं। तो अगर खंडन ही देखोगे तो चिंता पैदा होगी। लेकिन मैं खंडन का खंडन कर रहा हूं।
तर्क में एक नियम होता है: निगेशन ऑफ निगेशन। निषेध का निषेध। निषेध को निषेध से काट देने पर जो शेष रह जाता है, वही परम विधेय है।
तुमसे किसी ने कह दिया परमात्मा नहीं है। तुम मानते थे परमात्मा है। किसी ने कह दिया परमात्मा नहीं है। उसने खंडन कर दिया। तुम मेरे पास आए। अब तुम मानते हो कि परमात्मा नहीं है। मैंने इसका खंडन कर दिया। मैंने कहा कि नहीं, यह तुम्हारी धारणा गलत है। मैंने भी खंडन किया। लेकिन निषेध का निषेध। तुम वापस अपनी सरल-चित्तता पर पहुंच गए।
जिन लोगों की श्रद्धा को मैंने खंडित किया, उनमें श्रद्धा थी ही नहीं। जब भी मैंने कभी पाया, और वह तो कभी मिलता है वैसा आदमी...। मो़जे़ज को भी बार-बार नहीं मिलता फिर; एक ही दफा मिलता है पूरे मो़जे़ज की जिंदगी में वह गड़रिया। और परमात्मा को एक ही दफा डांटना पड़ता है मो़जे़ज को, फिर नहीं डांटते वे। क्यों? क्योंकि वैसा सरल-हृदय कभी-कभार...। अड़चन होती है।
मैं एक शिविर में था। मैं बोला। माथेरान में शिविर था। सुबह मैं बोला और मैंने कहा: न किसी की पूजा, न किसी का चरण-वंदन, न कोई प्रार्थना, न कोई आस्था। सब छोड़ दो। सबसे मुक्त हो जाओ। यह बोल कर मैं निकला बाहर। इसी सिलसिले में सारा वक्तव्य था। और जैसे ही मैं बाहर आया, सोहन वहां खड़ी थी, उसने झुक कर मेरे पैर छुए। हिंदी और मराठी के जाने-माने लेखक ऋषभदास रांका मेरे पास खड़े थे। उन्होंने कहा: आप रोकते क्यों नहीं? अभी आपने समझाया। आप रोकते क्यों नहीं? मैंने कहा: इसको मैं न रोकूंगा। उसकी आंख से आंसू बहे जा रहे हैं। वह मेरे पैर छू रही है और मैं पैर छूने के खिलाफ बोला हूं। अभी बोल कर ही आ रहा हूं और वही सुन कर ही वह मेरे पैर छू रही है। वह इतनी प्रभावित हो गई है सुन कर! वह इतने भाव से भर गई है कि वह पैर छू रही है!’
ऋषभदास की बात ठीक है, तर्कयुक्त है। मैं किसकी मानूं? और ऋषभदास का मामला बिलकुल साफ है। अदालत में ऋषभदास जीतेंगे, क्योंकि मैं अभी बोल कर आ रहा हूं। अभी देर भी नहीं हुई है; अभी शब्द गूंज ही रहे हैं। अभी लोग निकल ही रहे हैं और सामने ही यह सोहन खड़ी है और यह आंख आंसू से भरे हुए, पैर छू रही है। पर मैंने उनसे कहा: इसे मैं नहीं रोकूंगा। अगर आप मेरे पैर छुएं, मैं रोकूंगा।
वे जो उस दिन से नाराज मुझसे हुए, फिर कभी आए नहीं। उनको तो लगा कि यह आदमी विरोधाभासी है। वे तो भाग ही गए। फिर दुबारा मुझे उनके दर्शन नहीं हुए। जब मैंने उनसे यह कहा कि आप अगर मेरे पैर छुएं, मैं बिलकुल रोक दूंगा; क्योंकि वह झूठा होगा, वह पाखंड होगा। उसमें कुछ मतलब होगा। उसमें कुछ हेतु होगा। आप अगर पैर छुओगे तो मतलब से छुओगे, कुछ स्वार्थ होगा। ये जो पैर छुए जा रहे हैं, इसमें कुछ हेतु नहीं है; यह सिर्फ भाव की बात है। यह छू रही है पैर, ऐसा भी नहीं है। यह पैर छुए जा रहे हैं। इसमें कोई भीतर कर्ता भी नहीं है। यह बुद्धि से नहीं उतर रही है बात। बुद्धि से तो उतरती ही कैसे, क्योंकि अभी तो मैं समझा कर आ रहा हूं; बुद्धिमानों को समझा कर आ रहा हूं। यह हृदय से आ रही है। हृदय का मैंने कभी खंडन नहीं किया है।
इसलिए मैं तुमसे कहना चाहता हूं: भगवान सदा मुझसे कहता रहा है कि ठीक किया, ठीक किया।
एक तो प्रेम होता है और एक कर्तव्य। जब तुम कर्तव्य से प्रार्थना करते हो, झूठी हो जाती है; जब तुम प्रेम से करते हो, सच्ची हो जाती है। प्रार्थना वही, चाहे शब्द वही हो, ढंग वही हो, औपचारिक ढांचा वही हो। इसलिए आंख देखना भक्त की, भाव देखना भक्त का। कृत्य मत देखना। कृत्य से तो गड़बड़ हो जाएगी। कृत्य में तो कोई फर्क न लगेगा; पुजारी और भक्त दोनों एक से लगेंगे। पुजारी को तुम सौ रुपये महीने दे देते हो, वह आता है। और कैसा गद्गद् भाव दिखलाता है प्रार्थना करते वक्त। अगर तुमने कहा हो कि आंसू भी बहने चाहिए, तो आंसू भी बहाता है। फिर चाहे आंसू बहाने के लिए आंख में कुछ लगाना पड़ता हो, कोई हर्जा नहीं। आखिर अभिनेता भी करते हैं न: जब रोना पड़ता है और कुछ नहीं उपाय होता तो आंख में कुछ लगाते हैं, तो आंसू बहने लगते हैं। पुजारी गदगद होकर नाचता है; मगर वह सब गदगद होना बाहर-बाहर है। और अगर गदगद भी हो रहा है तो इसलिए हो रहा है कि चलो, नौकरी मिल गई। गदगद हो रहा है कि अब सौ रुपये मिलने ही वाले हैं।
भक्त भी नाचता है। भक्त भी गदगद होता है। मगर इसके गदगद होने में बात और है। इसमें कुछ हेतु नहीं है। यह जो सुख इसमें प्रकट हो रहा है, यह और ही सुख है। और दोनों बाहर से एक जैसे मालूम हो सकते हैं। इसलिए बाहर से मत देखना। भक्त की जात मत पूछना। भक्त का ढंग मत पूछना। पूछ लीजिए भाव! उसका भाव ही पूछना।
है अदूह मुसर्रत का शेख हो गया बरहम
हाथ में अगर खाली जाम भी लिया मैंने।
वह जो पंडित है, वह जो मौलवी है--शेख--वह नाराज हो गया, रुष्ट हो गया।
है अदूह मुसर्रत का...
वह किसी भी तरह के सुख के भाव का दुश्मन है।
...शेख हो गया बरहम।
हाथ में अगर खाली जाम भी लिया मैंने।
अगर खाली जाम भी उसने हाथ में देखा तो वह नाराज हो गया। वह यह तो देखता ही नहीं कि जाम भरा है कि खाली है।
अब किसी को क्या बतलाऊं दिल पे अपने क्या गुजरी
जिंदगी फरीजा थी और जी लिया मैंने।
और अब मैं किसको क्या बतलाऊं कि दिल पर अपने क्या गुजरी...कि कैसी कठिनाइयों में दिल बीता। ‘जिंदगी फरीजा थी’...एक कर्तव्य मात्र थी...‘और जी लिया मैंने।’
कर्तव्य भाव की तरह जो जी रहा है जिंदगी को, उसकी जिंदगी बड़ी कष्टपूर्ण है। क्योंकि कर्तव्य में रस तो होता नहीं। यही तो तुम्हारी गति है। यही तो तुम्हारी दुर्गति है। दुकान पर बैठे हो, काम कर रहे हो, कोई पूछे तो कोई रस नहीं है। कहते हो: क्या करें, अब शादी कर ली, अब बच्चे हैं, पत्नी है, करना पड़ता है। कर्त्तव्य भाव से कर रहे हैं। तो सब रस चला गया। अगर यही तुम प्रेम-भाव से कर रहे होते, तो बड़ा रस होता।
जीवन में रस बहता है, जहां प्रेम होता है। और जहां कर्तव्य होता है, वहां रस सूख जाता है। तुम्हारी जिंदगी जो मरुस्थल जैसी हो गई है, इसीलिए कि तुम जो भी कर रहे हो, सब कर्तव्य है। पिता है तो इनकी सेवा करनी है। मां है, तो इनकी सेवा करनी है। पत्नी है, तो अब क्या करो, बांध लिया चक्कर तो अब इसका कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा! बच्चे हो गए, तो अब इन्हें स्कूल तो पढ़ाना ही पड़ेगा, इनकी शादी भी करनी पड़ेगी। सब करना पड़ेगा! मगर अब रस तुम्हें किसी बात में नहीं है। तुम्हारा जीवन अगर मरुस्थल हो जाए तो आश्चर्य क्या! यह प्रेमी का ढंग नहीं है। प्रेमी का ढंग और है।
महाराष्ट्र में कथा है विठोबा के मंदिर की, कि भक्त अपनी मां के पैर दाब रहा है और रोज पुकारता है कृष्ण को। और उस रात कृष्ण को मौज आ गई और वे आ गए। और उन्होंने दरवाजा खटखटाया। दरवाजा बंद नहीं था, अटका ही था। भक्त ने कहा: भीतर आ जाओ, कौन है? लेकिन जब कृष्ण आए तो भक्त की पीठ थी उनकी तरफ, वह अपनी मां के पैर दबा रहा था। कृष्ण ने कहा: मैं कृष्ण हूं, तू रोज-रोज पुकारता है, आ गया। भक्त ने कहा: अभी बेवक्त आए। अभी मैं मां के पैर दाब रहा हूं। फिर कभी आना। यह अपूर्व श्रद्धा, यह मां के पैर दाबने में भाव--मोह लिया कृष्ण को! कृष्ण ने कहा: तो मैं रुका जाता हूं, तू पहले अपनी मां की सेवा कर ले। तो उसने पास में रखी एक ईंट सरका दी और कहा कि इस पर बैठ जाओ, तो कृष्ण उस ईंट पर खड़े रहे, खड़े रहे, खड़े रहे। इसलिए विठोबा के मंदिर में जो मूर्ति है, वह अब भी ईंट पर खड़ी है।
यह कर्तव्य तो नहीं था। इसमें ऐसा प्रेम था कि फिर मां के चरणों में जो प्रेम है, उस प्रेम में और परमात्मा के प्रेम में कोई विरोध थोड़े ही रह जाता है। वे एक ही हो गए। जहां प्रेम है, वहां समस्त प्रेम एक ही हो जाते हैं। वे एक ही सरिता की तरंगें हैं।
तो प्रार्थना जो कर्तव्य से करते हैं--कहते हैं हिंदू हैं, इसलिए जाना पड़ता है मंदिर; कहते हैं मुसलमान हैं, इसलिए रमजान रखना पड़ता है, रोजा रखना पड़ता है; कहते हैं जैन हैं, इसलिए पर्यूषण का व्रत पालना पड़ता है, करना पड़ता है--उनका मैंने खंडन किया पंद्रह वर्षों तक। उनका खंडन करना जरूरी था। उनके खंडन से ही मैंने वे लोग खोजे, जो झूठ को छोड़ने को तैयार हैं और सच की तरफ जाने के लिए जिनमें साहस है। इसलिए अब जाना मैंने बंद कर दिया कहीं भी। जिन-जिन के द्वार खटकाने थे, खटका आया। खबर दे आया कि यह कंदील जल गई है, कभी अंधेरे से परेशानी हो तो आ जाना। अब उनकी मरजी। अब उनकी मौज।
लेकिन मैंने जिन प्रार्थनाओं का खंडन किया था, वे प्रार्थनाएं नहीं थीं, इसे याद रखना। और जिन क्रियाकांडों का मैंने विरोध किया है, वे क्रियाकांड ही थे, इसलिए विरोध किया है। अन्यथा मेरे मन में किसी चीज का कोई विरोध नहीं है। हो कैसे सकता है! जहां सत्य की झलक है, मेरा उसे समर्थन है।
वो जिन्हें दावा-ए-अनलहक था
खून से अपने खेल कर होली
कौल पर अपने जान हार गए
सर से कर्जे-अता उतार गए
मुद्दई याने-सरकशी अब भी
गीतदारो-रसन के गाते हैं
नश्शा-ए-मैं में जब बहकते हैं
सू-ए-मक्तल कदम बढ़ाते हैं
लेकिन अक्सर ये लोग मक्तल से
बसलामत ही लौट आते हैं
कब नजस खून से कोई, अपनी
तेग को दागदार करता है।
जिन्हें दावा-ए अनलहक था!...
मंसूर अलहिल्लास--ऐसे लोग जिन्होंने कहा अनलहक; जिन्होंने कहा मैं सत्य हूं; जिन्होंने कहा अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं; जिन्होंने सत्य का ऐसा दावा किया था; जो सत्य के ऐसे दावेदार थे।
वो जिन्हें दावा-ए-अनलहक था
खून से अपने खेल कर होली
कौल पर अपने जान हार गए
सर से कर्जे-अता उतार गए
उन्होंने सारा कर्ज उतार दिया संसार का। वे अपने खून से होली खेल गए। उन्होंने सत्य के लिए अपनी जान दे दी। सत्य के लिए कुछ भी दिया जा सकता है। सत्य के लिए सब-कुछ दिया जा सकता।
मुद्दई याने-सरकशी अब भी।
लेकिन लोग हैं अभी भी जो कहते हैं कि हम भी सिर कटा सकते हैं; जो कहते हैं हम भी दावेदार हैं शहादत के।
मुद्दई याने-सरकशी अब भी
गीतदारो-रसन के गाते हैं
वे अब भी कहते हैं कि हम भी उसी दशा में हैं, जहां मंसूर थे। ‘नशा-ए-मैं में जब बहकते हैं।’ और जब कभी शराब पी लेते हैं तो बड़ी ऊंची बातें करते हैं। मंसूर ने भी एक शराब पी थी। वह शराब आकाश से उतरती है। या वह शराब आत्मा की गहनता में ढाली जाती है। और ये जाकर मयखाने में शराब पी आते हैं।
गीतोदारो-रसन के गाते हैं
नशा-ए-मैं में जब बहकते हैं
सू-ए मक्तल कदम बढ़ाते हैं
और जब शराब के नशे में थोड़े बहक जाते हैं, भूल जाते हैं, होश खो देते हैं--तो कहते हैं: हम जाते हैं शहादत को। लेकिन अक्सर ये लोग मकतल से बसलामत ही लौट आते हैं। लेकिन शहादत-बहादत इनकी कभी होती नहीं। इधर-उधर नाली में गिर-गिरा कर सुबह अपने घर वापस आ जाते हैं।
कब नजस खून से कोई, अपनी
तेग को दागदार करता है!
ये कभी तलवार को अपने खून से गंदा नहीं होने देते। ये बड़े होशियार लोग हैं। ये बात ही बात करते हैं। इनके जीवन में कभी कुछ घटता नहीं--सिवाय दिमागी कसरत के। इनके जीवन में कभी कोई क्रांति नहीं उतरती। शहादत की बातें करते हैं और शहादत की बातें करने में कुशल हो जाते हैं। जब कभी नशे में बहक जाते हैं, तो यह भी कहते हैं कि अब हम जाते हैं; अब हम चले सूली पर। और सुबह वापस घर लौट आते हैं। ये कभी सूली इत्यादि पर कहीं जाते नहीं।
फर्क को देखना। शराब के नशे में तुम कितनी ही ऊंची बातें बोलो, उनका कोई मूल्य नहीं है। नशे में बोली गई बातों का क्या मूल्य हो सकता है! तुम जब परमात्मा की प्रार्थना कर रहे हो, होश में हो? क्या कर रहे हो? यह पुकार तुम्हारे अंतर्तम से उठी है या यूं ही दिखावा कर रहे हो? जान गंवा देने की तैयारी है या यूं ही बातचीत का मजा ले रहे हो?
जरूर मैंने उन लोगों का खंडन किया, जो व्यर्थ की बातों में पड़ गए हैं; जिन्हें कुछ भी पता नहीं है; जो शास्त्रीय ज्ञान बघार रहे हैं; जिन्हें एक कण भी सत्य का स्वाद नहीं मिला है; जिनके पास सिवाय शास्त्रीय स्मृति के और कुछ भी नहीं है। उनका मैंने निश्चित विरोध किया।
जब मैंने काशी के पंडितों का विरोध किया या जगतगुरु पुरी के शंकराचार्य का विरोध किया--तो आदि शंकराचार्य का विरोध नहीं किया है। तो मैंने उपनिषद के ऋषियों का विरोध नहीं किया है। सच तो यह है कि उपनिषद के ऋषियों के पक्ष में इन पाखंडियों का विरोध किया है। आदि शंकराचार्य के पक्ष में पुरी के जगतगुरु का विरोध किया है। खंडन किया है पाखंड का। पाखंड टूट जाए तो सदधर्म प्रकट होता है।
तीसरा प्रश्न:
भगवान, ज्ञानी तो परिवार-समाज से भागता है; लेकिन भक्त न तो परिवार-समाज से भागता है, न कहीं आता है, न कहीं जाता है, वहीं का वहीं बना रहता है, फिर भी उपलब्ध हो जाता है। भक्त के पास ऐसा क्या बल है?
भक्त के पास भगवान का बल है। ज्ञानी अपने सहारे चलता है। भक्त भगवान के सहारे चलता है। ज्ञानी अकेला है। भक्त अकेला नहीं है। ज्ञानी ऐसे हैं जैसे कोई पतवार से नाव चलाता है। भक्त ऐसे हैं जैसे उसने मस्तूल बांध दिए और हवाएं उसकी नाव को चलाती हैं। इस फर्क को खयाल में ले लेना।
जब तुम पतवार से नाव चलाते हो, तो तुम्हारी ही भुजाओं पर निर्भर रहना पड़ेगा। थकोगे, परेशान होओगे, पसीने से लथपथ होओगे। कभी डांड रख भी देने पड़ेंगे। कभी विश्राम भी करना होगा। कभी हारोगे भी। कभी दूसरा किनारा छूटता भी लगने लगेगा। कभी मिलता है, कभी छूटता है। संघर्ष होगा, श्रम होगा।
भक्त पतवार नहीं चलाता, चप्पू हाथ में नहीं लेता। भक्त तो पाल बांध देता है; भगवान की हवाएं उसे ले चलाती हैं।
रामकृष्ण ने कहा है कि तू क्यों पतवार चलाता है? जब उसकी हवाएं उस तरफ ले जाने को तैयार हैं तो पाल क्यों नहीं खोलता?
यह फर्क है।
ज्ञानी अपने भरोसे चलता है। ज्ञानी यानी पुरुषार्थ।
वह कहता है: मैं पाकर रहूंगा। मैं कोशिश करूंगा। मैं लड़ूंगा। मैं तैरूंगा। भक्त कहता है: मेरे से क्या होगा! मैं कौन हूं! मेरे किए कब क्या हुआ! मुझसे कुछ नहीं होने वाला! मुझसे तो इतना ही हो सकता है कि तेरे चरण पकड़ लेता हूं, अब तू कर।
इसलिए भक्त के पास एक बल है, जो ज्ञानी के पास नहीं है। भक्त के पास भगवान का बल है। भक्त अकेला नहीं है। कोई सदा उसके साथ है। विराट उसके साथ है। अपने को खोकर उसने विराट से दोस्ती बना ली है।
ज्ञानी अपने को पाकर विराट से दोस्ती बनाता है। फर्क समझ लेना। भक्त अपने को खोकर विराट से दोस्ती बनाता है। ज्ञानी अपने को पाकर विराट से दोस्ती बनाता है।
इसलिए ज्ञानी कहते हैं: स्वयं को जानो। नो दाई सेल्फ। भक्त कहता है: स्वयं को डुबाओ। फॉरगेट दाई सेल्फ। विस्मरण करो। भूलो।
ये उनके बुनियादी भेद हैं। खयाल रखना, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम भक्त बन जाओ। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि तुम ज्ञानी बन जाओ। मैं यही कह रहा हूं कि भेद को ठीक से समझ लो; फिर तुम्हें जो रुचिकर लगे। असली बात तो उस पार जाना है। तुम्हें अगर पतवार चलाने में मजा आता हो, तो कोई हर्जा नहीं है। एकदम जरूर चलाओ। खूब चलाओ। जितने लंबे रास्ते से जाना हो, लंबे रास्ते से जाओ। जितना पसीना बहाना हो उतना बहाओ। अपनी-अपनी मौज। तुम अपनी रुचि को पहचानो। लेकिन, अगर यह तुम्हारी रुचि न हो तो कुछ घबड़ाने की जरूरत नहीं, हताश होने की जरूरत नहीं है। और भी उपाय है। पाल खोलो। हवा के प्रति समर्पित हो जाओ। हवा को कहो: ले चल। छोड़ो, समर्पण करो।
ज्ञानी यानी संकल्प। भक्त यानी समर्पण।
तो भक्त के पास तो बड़ा बल है। इसलिए भक्त को जंगल नहीं जाना पड़ता। वह कहता है: जंगल अब कहां जाऊं? यहीं बाजार में कोई कम जंगल है? आदमियों की भीड़ में कुछ कम जंगल है? वृक्षों की भीड़ से क्या फर्क पड़ जाएगा? पत्थर-पहाड़ों में बैठने से क्या; यहां कोई कम पत्थर पहाड़ हैं? पत्थर ही पत्थर तो चल रहे हैं चारों तरफ। जानवरों में भागने की क्या जरूरत है? यहां आदमी कोई जानवर से कम हैं? सब तरफ पशुता का राज्य है। भाग कर कहां जाना है! यहीं रहेंगे। लेकिन प्रभु को साथ ले लेंगे। प्रभु के साथ हो लेंगे। उसके हाथ में हाथ दे देंगे।
फिर बाजार में भी शांति हो जाती है। फिर भीड़ में भी एकांत हो जाता है। फिर बाजार के कोलाहल में भी प्रार्थना का स्वर उठने लगता है। फिर तुम जहां हो, वहीं से मार्ग बनने लगता है।
प्रश्न सार्थक है। ज्ञानी को बड़ी चेष्टा करनी पड़ती है। भक्त तो सिर्फ प्रसाद की आकांक्षा करता है। भक्त तो छोटे बच्चों की तरह है। वह रोना जानता है। उसे एक बात पक्का है कि जब वह रोता है, तो मां चली आती है, लाख काम में उलझी हो, कहीं भी हो, चली आती है, खोज लेती है। भक्त तो छोटा बालक है।
ज्ञानी मां को खोजने निकलता है। अपने पैरों पर भरोसा रखता है। ज्ञानी भी पहुंच जाते हैं। ज्ञानी भगवान तक पहुंचते हैं। भक्त तक भगवान पहुंचता है। पुकार चाहिए।
चौथा प्रश्न:
भगवान, मेरे गांव में एक साधु है जो रोज सुबह और शाम नदी जाते-आते जोर-जोर से चिल्लाता है: राम-राम भज ले रे माटी के धोंदा। ‘माटी के धोंदा’ से उसका आशय क्या है? और वह चिल्लाता ही क्यों निकलता है? कृपा करके समझाइए।
बात तो सीधी-साफ है, समझाने की कुछ है नहीं। चिल्लाता है, क्योंकि तुम बहरे हो। चिल्ला-चिल्ला कर भी कहां तुम सुनते हो!
जीसस ने अपने शिष्यों से कहा है: चढ़ जाओ मकानों की मुंडेरों पर और चिल्लाओ। लोग इतने बहरे हैं, तब भी सुन लें तो चमत्कार। जीसस रोज-रोज कहते हैं कि अगर आंखें हों तो देख लो। आंख वालों से कहते हैं कि आंखें हों तो देख लो। कान वालों से कहते हैं कि कान हों तो सुन लो। क्योंकि जो तुम देखने के लिए तड़फते थे जन्मों से, वह मौजूद है। और जो तुम सुनने के लिए रोते थे जन्मों से, बोला जा रहा है। मगर कान हों तो सुन लो, आंख हो तो देख लो।
संत सदा से चिल्लाते रहे हैं। फिर भी तुमने कहां सुना है! तुम्हारी नींद गहरी है। तुम उलटे नाराज होते हो जब कोई संत चिल्लाता है। तुम करवट लेकर कंबल ओढ़ कर और गहरे सो जाते हो। तुम कहते हो: भाई, मत जगाओ, परेशान न करो। अभी आधी रात मत उठाओ, अभी मैं सुंदर सपने देख रहा हूं। यह कौन आदमी बुलाने लगा बेवक्त! अभी सोने दो।
तुम्हारा बहरापन! इसलिए साधु चिल्लाता होगा। और आदमी है ही क्या! मिट्टी का! मिट्टी का पुतला ही तो!
‘राम-राम भज ले रे माटी के धोंदा।’
ठीक कहता है साधु। मिट्टी के पुतले हैं हम। मिट्टी में ही गिर जाएंगे। लेकिन हममें कुछ है जो मिट्टी का भी नहीं है। हममें कुछ है, जो मिट्टी का नहीं है। हममें कुछ है, जो पार से आता है।
‘राम-राम भज ले रे...।’
हमारे भीतर भजन है जो मिट्टी का नहीं है। हमारे भीतर सुरति है जो मिट्टी की नहीं है। हमारे भीतर स्मरण है, बोध है, होश है, याद है--जो मिट्टी की नहीं है। मिट्टी तो मिट्टी में गिर जाएगी। अगर बिना परमात्मा को याद किए मर गए तो मिट्टी ही रहे और मिट्टी में ही गिर गए।
तुम्हारे भीतर कुछ समाया है--आकाश भी। तुम पृथ्वी के ही नहीं बने हो, तुम्हारे भीतर थोड़ा सा आकाश भी समाया है। तुम्हारी इन मिट्टी की दीवालों में आकाश भी है। तुम्हारे आंगन में मिट्टी की दीवाल भी है और आकाश भी है।
राम-स्मरण का अर्थ होता है: मिट्टी पर से ध्यान हटाओ, आकाश का स्मरण करो।
आंगन ठीक प्रतीक है। देखते हैं, छोटा सा आंगन, चारों तरफ दीवालें उठा रखी हैं! लेकिन आंगन दीवालों के बीच, वह जो आकाश है, वह तो वही आकाश है, जो बाहर फैला हुआ है। उसमें और भीतर के आंगन के आकाश में कोई फर्क नहीं है।
छोटे से घड़े में भी जो आकाश बंद होता है, उसमें भी और बाहर के विराट आकाश में कोई फर्क नहीं। घड़ा टूटा कि आकाश आकाश से मिल जाता है।
अब तुम्हारी दृष्टि की बात है। या तो मिट्टी पर दृष्टि बांध लो। अपने को देह मानो--देह और देह और देह। और यही तुम्हारी एकमात्र धारणा रह जाए, तो तुमने भीतर जो आकाश था वह तो देखा ही नहीं; मिट्टी की दीवाल को ही पकड़ कर रुक गए, मिट्टी ही रह गए।
तो वह ठीक ही कहता है: फिर माटी के धोंदा ही रह जाओगे। फिर तुम गोबर-गणेश रह गए; तुम असली को न पहचान पाए। और असली मौजूद था। तुम नकली को पकड़ लिए।
नकली भी है। असली भी है। सिर्फ ध्यान को बदलो। धीरे-धीरे देह से ध्यान को हटाओ और तुम्हारे भीतर जो चैतन्य है, उस पर ध्यान को लगाओ। उसी चैतन्य से जुड़ जाओ। उसी चैतन्य को अहर्निश भावो। उसी चैतन्य का भजन हो। यही अर्थ है: राम-राम भज ले रे माटी के धोंदा।
लेकिन मिट्टी के साथ हमने बहुत कुछ अहंकार जोड़ रखा है। मिट्टी के साथ हमने बड़े निहित स्वार्थ जोड़ रखे हैं। हम तो यही सोचते हैं कि यह मिट्टी होना ही सब-कुछ है। तुम अपनी देह की कितनी चिंता करते हो! इतनी तुमने कभी अपनी चिंता की? दर्पण के सामने घंटों खड़े रहते हो सुबह-सांझ! कभी अपने सामने भी खड़े हुए? एकाध क्षण को भी? दर्पण ही देखते रहोगे? असली दर्पण कब देखोगे? दर्पण देखने से तो सिर्फ देह ही दिखाई पड़ेगी; यह मिट्टी का लोंदा ही झलकेगा, कुछ और नहीं होगा। वह जो दर्पण देख रहा है, उसे कब देखोगे? द्रष्टा को कब देखोगे? दर्शन की जो क्षमता तुम्हारे भीतर छिपी है, उस पर कब लौटोगे? उसे कब पकड़ोगे? उसे कब हाथ में लोगे? उसे हाथ में ले लिया तो परमात्मा को हाथ में ले लिया। उसे हाथ में न लिया, तो यह सब घड़ी भर की बात है। यह चार दिन की जिंदगी, फिर अंधेरी रात है। यह घड़ी भर की बात है। अकड़ लो, इतरा लो। यह सब मिट्टी मिट्टी में गिर जाएगी।
हकीरो-नातुवां तिन्का
हवा के दोश पर पर्रां,
समझता था कि बहरो-बर पर उसकी हुक्मरानी है
मगर झोंका हवा का एक अलबेला
तलव्वुत केश बेपरवाह
जब उसके जी में आए रुख पलट जाए
हवा आखिर हवा है, कब किसी का साथ देती है
हवा तो बेवफा है, कब किसी का साथ देती है!
हवा पलटी बुलंदी का फुसूं टूटा,
हकीरो-नातुवां तिन्का,
पड़ा है खाके-पस्ती पर
खुदा जाने कोई राहगीरे-बेपरवाह
जब अपने पांव से उसको मसलता है
तो अपना ख्वाबे-अजमत याद करके उसके दिल पर क्या गुजरती है।
समझो--
हकीरो-नातुवां तिन्का
तुच्छ और निर्बल एक छोटा सा तिनका कभी हवा पर चढ़ जाता है। कभी हवा उठा कर ले जाती है एक तुच्छ तिनके को। आकाश में मंडराने लगता है तिनका।
हम भी हवा पर चढ़ गए हैं। यह जो श्वास है, हवा है। इस श्वास पर हम चढ़ गए हैं। छोटा सा तिनका है, यह मिट्टी का थोड़ा सा लोंदा है। यह हवा पर चढ़ गया है। यह हवा से फूल गया है।
‘हकीरो-नातुवां तिन्का।’ तुच्छ निर्बल तिनका! ‘हवा के दोश पर पर्रां।’ हवा के कंधों पर सोचता है, मुझे पर लगे हैं। सोचता है, मेरे पास पंख हैं। सोचता है, मैं उड़ सकता हूं; देखो, मैं उड़ सकता हूं। उड़ रहा है तो सोचता है, उड़ सकता हूं। हवा के पंखों पर चढ़ कर सोचता है, मेरे पास पंख हैं। मैं पंख वाला हूं। मैं पक्षी हूं।
हकीरो-नातुवां तिन्का, हवा के दोश पर पर्रां,
समझता था कि बहरो-बर उसकी हुक्मरानी है
और सोचता था थोड़ी देर को कि हवाओं पर, तूफानों पर, आंधियों पर, चांद-तारों पर, आकाश पर, उसकी मालकियत है, हुक्मरानी है।
मगर झोंका हवा का एक अलबेला तलव्वुत केश
हवा के झोंकों का क्या भरोसा! कब रुख बदल लें, कब रुख बदल दें! अलबेले झोंके, अभी चलें, अभी बंद हो जाएं, आए न आए!
मगर हवा का एक झोंका अलबेला तलव्वुत केश बेपरवाह
और हवा को क्या परवाह है इस तिनके की। न तो परवाह है और न हवा को कोई इसे उड़ाने में मजा है। जब उसके जी में आए, रुख पलट जाए।
हवा आखिर हवा है, कब किसी का साथ देती है
यह जो हवा तुम्हारे भीतर आ-जा रही है, यह भी सदा साथ देने वाली नहीं है; यह कब पलट जाए पता नहीं। अभी है, अभी न हो। अभी आई भीतर, अभी गई बाहर; और फिर न लौटे, तो कुछ भी न कर सकोगे। एक श्वास भी ज्यादा न ले सकोगे। गई तो गई।
मगर झोंका हवा का एक अलबेला
तलव्वुत केश
बेपरवाह
जब उसके जी में आए रुख पलट जाए।
हवा आखिर हवा है, कब किसी का साथ देती है
हवा तो बेवफा है, कब किसी का साथ देती है।
इस धोखेबाज हवा के चक्कर में बहुत मत पड़ जाना। इन श्वासों का बहुत भरोसा मत कर लेना।
‘राम-राम भज ले रे!’
हवा पलटी, बुलंदी का फुसूं टूटा।
और जैसे ही हवा पलटती है, वैसे ही आसमान से तिनका जमीन पर गिर जाता है। वह जो बुलंदी का फुसूं था, वह जो खयाल था कि मैं ऊंचा हो गया हूं, मैं बड़ा हो गया हूं, मैं महान हो गया हूं--वे सब एक क्षण में गिर जाते हैं।
ऐसा ही तो होता है। आज तुम्हारे पास धन है; आकाश में चलते हो, जमीन पर पैर नहीं छूते। कल धन चला गया। आज तुम्हारे पास पद है; कल पद चला गया। यह सब हवा के ही झोंके हैं। तुम इंदिरा से पूछो। हवा का झोंका चला गया। मोरार जी को चेता देना कि हवा किसी की भी नहीं।
हवा तो बेवफा है, कब किसी का साथ देती है।
हवा पलटी, बुलंदी का फुसूं टूटा
हकीरो-नातुवां तिन्का!
टूट गया सपना। तुच्छ तिनका आखिर तुच्छ ही था; गिर गया वापस।
हकीरो-नातुवां तिन्का
पड़ा है खाके-पस्ती पर
अब पड़ा है जमीन पर, हारा हुआ, चारों खाने चित्त। ‘खुदा जाने कोई रहगीरे-बेपरवाह।’ और राहगीरों को क्या फिकर है कि यहां कोई बड़ा ऊंचा तिनका पड़ा है, जो कभी आकाश में उड़ा करता था! वे तो जूतों से दबाते इसको निकल जाएंगे। वे तो पैरों से रौंदते इसे निकल जाएंगे। तुम्हें पता है, आज नहीं कल तुम्हारी यह देह मिट्टी में पड़ी होगी, कितने जूतों से रौंदी जाएगी! नाहक दर्पण के सामने खड़े-खड़े समय खराब मत कर लो! भज ले रे राम! राम-राम भज ले रे!
पड़ा है खाके-पस्ती पर
खुदा जाने कोई राहगीरे-बेपरवाह
जब अपने पांव से उसको मसलता है
तो अपना ख्वाबे-अजमत याद करके उसके दिल पर क्या गुजरती है!
तो जरा सोचो तो, उसे भी याद आते होंगे वे सपने अपने उत्थान के। वे स्मृतियां लौट-लौट आती होंगी कि कभी आकाश में उड़ता था, कभी मैं भी था, कभी मैं भी कुछ था, कभी मेरी भी बुलंदी थी, कभी मैं भी सिकंदर था।
खुदा जाने कोई राहगीरे-बेपरवाह
जब अपने पांव से उसको मसलता है
तो अपना ख्वाबे-अजमत याद करके इसके दिल पर क्या गुजरती है!
मगर मिट्टी है, मिट्टी में गिरेगी।
साधु ठीक ही कहता है: ‘राम-राम भज ले रे माटी के धोंदा।’
मिट्टी के ही हम हैं, मिट्टी में ही हम गिर जाएंगे। डस्ट अनटु डस्ट! लेकिन हम अगर मिट्टी ही मिट्टी होते, तो भी कुछ अड़चन न थी। हमारी मिट्टी में कुछ किरण हैं--जो मिट्टी के पार की हैं। हमारे भीतर अमृत की एक बूंद भी है। मिट्टी की इस कीचड़ में अमृत की एक बूंद भी पड़ी है। मिट्टी की इस खान में एक हीरा भी पड़ा है। धन्यभागी हैं वे जो उस हीरे को पहचान लेते हैं--इसके पहले कि श्वास उड़ जाए, हवा का रुख पलट जाए।
हवा तो बस हवा है, कब किसका साथ देती है!
हवा तो बेवफा है, कब किसका साथ देती है!
धन्यभागी हैं वे जो हवा के रुख बदलने के पहले, अपना रुख बदल लेते हैं; जो हवा के पंखों से गिरने के पहले अपने पंख खोज लेते हैं; जो हवा की झूठी बुलंदी के सपनों में ज्यादा देर नहीं उलझते; जो अपनी असली बुलंदी खोज लेते हैं; जो अपना असली घर खोज लेते हैं; जो यहां के घरों को धर्मशाला जानते हैं। यहां सराएं हैं; रुको रात भर, सुबह जाना है। और अपने घर को भूल मत जाना।
गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में बिसराम।
वह जो शून्य है, परम शून्य है, उसे कहो--परमात्मा, आत्मा, ध्यान, समाधि, जो नाम देना हो--निर्वाण, मोक्ष, कैवल्य--जो रुचिकर लगे--वहीं हमारा असली घर है। और वहीं पहुंच कर विश्राम है। उसके पहले धोखों में मत पड़ना। यहां धोखे बहुत हैं। यहां प्रवंचनाएं बहुत हैं।
साधु ठीक ही कहता है। अजहूं चेत गंवार!
आज इतना ही।