PALTUDAS

Ajhun Chet Ganwar 13

Thirteenth Discourse from the series of 21 discourses - Ajhun Chet Ganwar by Osho. These discourses were given during JUL 21 - AUG 10 1977.
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जैसे नद्दी एक है, बहुतेरे हैं घाट।।
बहुतेरे हैं घाट, भेद भक्तन में नाना।
जो जेहि संगत परा, ताहि के हाथ बिकाना।।
चाहे जैसी करै भक्ति, सब नामहिं केरी।
जाकी जैसी बूझ, मारग सो तैसी हेरी।।
फेर खाय इक गए, एक ठौ गए सिताबी।
आखिर पहुंचे राह, दिना दस भई खराबी।।
पलटू एकै टेक ना, जेतिक भेस तै बाट।
जैसे नद्दी एक है, बहुतेरे हैं घाट।।19।।

लेहु परोसिनि झोपड़ा, नित उठि बाढ़त रार।।
नित उठि बाढ़त रार, काहिको सरबरि कीजै।
तजिए ऐसा संग, देस चलि दूसर लीजै।।
जीवन है दिन चारि, काहे को कीजै रोसा।
तजिये सब जंजाल, नाम कै करौ भरोसा।।
भीख मांग बरु खाय, खटपटी नीक न लागै।
भरी गौन गुड़ तजै, तहां से सांझै भागै।।
पलटू ऐसन बुझि के, डारि दिहा सिर भार।
लेहु परोसिनि झोंपड़ा, नित उठ बाढ़त रार।।20।।

जल पषान को छोड़िकै, पूजौ आतमदेव।।
पूजौ आतमदेव, खाय औ बोलै भाई।
छाती दैकै पांव पथर की मुरत बनाई।।
ताहि धोय अन्हवाय विजन लै भोग लगाई।
साक्षात भगवान द्वार से भूखा जाई।।
काह लिये बैराग, झूठ कै बांधै बाना।
भाव-भक्ति को मरम कोइ है बिरलै जाना।।
पलटू दोउ कर जोरिकै गुरु संतन को सेव।
जल पषान को छोड़िकै पूजौ आतमदेव।।21।।
वेद कहते हैं: सत्य एक है; लेकिन उसकी अभिव्यक्तियां अनेक। प्रभु तो एक है; लेकिन उसे प्रकट करने के लिए बनाई गई मूर्तियां अनेक।
इस वक्तव्य में बहुत अर्थ है। सत्य एक है; सिद्धांत अनेक। सत्य एक है; शास्त्र अनेक। सत्य एक है; संप्रदाय अनेक। ऐसा क्यों? ऐसा कैसे हो जाता है?
जिन्होंने जाना, उन्होंने एक को ही जाना है। लेकिन जब कहा, तो भेद हो गए। क्योंकि जानते समय तो मन शून्य हो जाता है; कहते समय मन को फिर वापस लाना होता है। जब जाना जाता है तब तो मन में कोई तरंग नहीं होती। इसलिए भेद का कोई उपाय नहीं होता। मन में तरंग ही नहीं होती। मन शून्य और शांत होता है। मन होता ही नहीं।
जाना तो जाता है समाधि में; लेकिन जैसे ही बोले, कहने गए, बताने गए, मन को वापस लाना होता है। विचार-तरंगें फिर लौटती हैं। मन में उठती तरंगों के कारण वक्तव्य भिन्न-भिन्न हो जाते हैं। फिर, हर व्यक्ति के मन में अलग-अलग ढंग की तरंगें उठती हैं।
हमारी आत्मा तो एक है, लेकिन हमारे मन एक नहीं हैं। जैसे हमारी आत्मा तो एक है, हमारी देह एक नहीं है। मेरे पास एक देह है, तुम्हारे पास एक देह है, किसी के पास और ढंग की देह है। इन देहों के कारण भेद पड़ेगा। इन मनों के कारण भेद पड़ेगा। जब मीरा देखेगी प्रभु को तो फर्क पड़ जाएगा; जब बुद्ध देखेंगे तो फर्क पड़ जाएगा। बुद्ध का एक व्यक्तित्व है; उस व्यक्तित्व में जैसे ही सत्य प्रवेश होगा, उस व्यक्तित्व का ढांचा ले लेगा, उस व्यक्तित्व का रूप-रंग ले लेगा। जैसे पानी को ढालो मटकी में तो मटकी का रूप ले लेता है; थाली में ढालो तो थाली का रूप ले लेता है; गिलास में भरो तो गिलास का रूप ले लेता है; फर्श पर बिखेर दो तो फर्श का रूप ले लेता है।
सत्य ऐसा ही है--अत्यंत तरल। उसका अपना कोई आकार, अपना कोई रूप, अपना कोई वर्ण नहीं है। तो जिस पात्र में गिरता है, उसी रूप-रंग का हो जाता है। गिरने के एक क्षण पहले तक एक ही होता है; गिरते ही भिन्न हो जाता है। आकाश से जल बरसता है--नदी में बरसता है तो नदी बन जाता है, बहने लगता है; और तलैया में गिरता है तो तलैया बन जाता है, रुक जाता है; सागर में गिरता है तो सागर हो जाता है--जहां गिरता है वैसा हो जाता है। गंदी कीचड़ में गिरता है तो गंदा हो जाता है। शुद्ध पात्र में गिरता है तो शुद्ध हो जाता है।
सत्य तो एक है, लेकिन फिर पात्रों के अनुसार भेद पड़ेंगे। इसलिए वेद ठीक कहते हैं कि जिन्होंने जाना उन्होंने तो एक को ही जाना; लेकिन जैसे ही जाना, जैसे ही यह बात यह प्रत्यभिज्ञा हुई कि मैंने जाना, जैसे ही मैं आया वैसे ही भेद हो गया। और फिर जब कहा तो और भी भेद हो गए।
हम सभी सुबह उठ कर सागर के तट पर जाएं, सूरज को उगते देखें, सागर के सौंदर्य को देखें, फिर लौट कर घर आएं और हम सभी को कहा जाए कि वक्तव्य दो जो देखा--तो हमारे वक्तव्य बड़े भिन्न हो जाएंगे। कोई चित्रकार होगा तो शायद चित्र बना कर बताएगा कि यह देखा; रंग फैला देगा कैनवस पर। कोई कवि होगा तो एक गीत गुनगुनाएगा; कहेगा, यह देखा। फर्क पड़ेगा। कोई नर्तक होगा तो नाच कर कहेगा कि इस तरह तरंगों में रोष था, कि इस तरह तांडव नृत्य था सागर में। नाच कर बताएगा। और इन्होंने एक ही सुबह और एक ही सागर की तरंगें देखी हैं। लेकिन इन सबकी अभिव्यक्तियां भिन्न हो जाएंगी।
अभिव्यक्तियां व्यक्तियों पर निर्भर होती हैं। सत्य तो अव्यक्ति है। सत्य तो विराट है। लेकिन जब व्यक्ति के छोटे से मन में उतरती है छाया, प्रतिबिंब बनता है, तो भिन्न हो जाता है। फिर जब कहने चलते हैं तो और भिन्न हो जाता है। और जो कहा गया है, उस पर संप्रदाय बन गए हैं। इसलिए संप्रदाय बहुत हैं। कोई तीन सौ धर्म हैं दुनिया में। इनको धर्म नहीं कहना चाहिए; ये संप्रदाय हैं। ये सत्य की अभिव्यक्तियों पर निर्भर धारणाएं हैं।
धर्म तो एक है। उसका कोई नाम नहीं हो सकता। उसका कोई विशेषण नहीं हो सकता। धर्म को हिंदू नहीं कह सकते, न मुसलमान कह सकते, न ईसाई कह सकते, न जैन कह सकते हैं। धर्म पर कैसे विशेषण लगाओगे? धर्म तो विशेषण-शून्य है। लेकिन संप्रदाय पर विशेषण है। हिंदुओं की अभिव्यक्ति है। उन्होंने अपने मंदिर में मूर्तियां रखीं; वह भी एक अभिव्यक्ति है। जिन्होंने परमात्मा को जाना और प्रकट करने चले, उन्होंने मूर्तियां बनाईं। उन्होंने मूर्तियों में सब तरह से कोशिश की, कि कुछ परमात्मा का समा जाए। और हिंदुओं ने बड़ी प्यारी मूर्तियां बनाईं। कृष्ण की मूर्ति--बांसुरी को बजाते हुए, मोरमुकुट बांधे हुए, सुंदर पीत वस्त्रों में--कुछ कहा! कहने का मतलब ऐसा नहीं कि परमात्मा ऐसा है। ये तो प्रतीक हैं। इन प्रतीकों से जकड़ मत जाना। कहा कि परमात्मा के ओंठों पर बांसुरी है। कहा कि परमात्मा का व्यक्तित्व संगीत से बना है। किस बात को कहने के लिए बांसुरी रखी कृष्ण के हाथों में। बांसुरी को मत पकड़ लेना। प्रतीक को पकड़ कर जड़ मत हो जाना। इशारा समझो। यह कहा कि परमात्मा परम संगीत से भरा है; कि परमात्मा नाद है--अनाहत नाद है। कि वहां सतत बांसुरी बज रही है। अनहद बाजे बांसुरी! रुकती ही नहीं; बजती ही चलती चली जाती है।
इस अस्तित्व का संगठन संगीत से हुआ है; ध्वनि से हुआ है; ओंकार से हुआ है। इस बात को कहने के लिए बांसुरी।
फिर, कृष्ण को बांधे मोरमुकुट...तो यह कहा कि यह जगत जो है, सब परमात्मा के मोरमुकुट है। यहां मोर भी नाचता है तो परमात्मा ही नाच रहा है। और यहां कोयल कुहुकती है तो भी परमात्मा ही कुहुक रहा है। ये सारे रंग उसी के हैं। यह सारा सौंदर्य उसी का है।
इसलिए संसार का निषेध मत करना। संसार के निषेध में उसी का निषेध हो जाएगा। संसार को छोड़ कर मत भागना; क्योंकि जिसे तुम छोड़ कर भाग रहे हो, उसमें परमात्मा छिपा था। संसार में गहरे झांकना, आंख गहराना--तो तुम वहीं परमात्मा को पाओगे।
सुंदर पीत वस्त्र पहनाए हैं कृष्ण को। पैरों में पायल है। आभूषण से उनको सुंदर बनाया है। वक्तव्य हैं ये--और गहरे वक्तव्य हैं। परमात्मा सुंदर है! सत्य और सौंदर्य भिन्न नहीं हैं।
रवींद्रनाथ कहते थे: सौंदर्य ही सत्य है। यह काव्य की अभिव्यक्ति है।
फिर, मुसलमानों ने अपनी मस्जिद में मूर्ति नहीं रखी। यह भी अभिव्यक्ति है। मुसलमानों ने कहा: उसे किसी भी रूप में रखेंगे तो संकोच हो जाएगा। वह विराट है। कितनी ही सुंदर मूर्ति बनाओ, वह सीमित हो जाएगी। वह असीम है। उसे बांधने के सब उपाय गलत हैं, वह बंधता नहीं वह परिभाषा में अंटता नहीं। इसलिए कोई मूर्ति मत बनाओ। अमूर्त को अमूर्त ही रहने दो।
तो मुसलमान जब जाता है मस्जिद में, तो झुकता है। किसके सामने? अमूर्त के सामने। जिसका कोई रूप नहीं, कोई रंग नहीं, वर्ण नहीं--अनिर्वचनीय के सामने। यह भी एक अभिव्यक्ति है और यह भी सही है। जरा भी गलती नहीं है।
गलती तो वहां शुरू होती है जहां हिंदू कहता है कि मंदिर में मूर्ति है तो मस्जिद में भी होनी चाहिए; तो ही मस्जिद मंदिर है। गलती तो वहां होती है जहां मुसलमान कहता है मस्जिद में मूर्ति नहीं है तो मंदिर में भी नहीं होनी चाहिए; तभी यह असली मंदिर होगा। जब मुसलमान मूर्ति तोड़ने लग जाता है या हिंदू मस्जिद में मूर्ति रखने लग जाता है--तब भूल हो जाती है। तब तुम प्रतीकों को जरूरत से ज्यादा पकड़ लिए। दोनों प्रतीक प्यारे थे। अलग-अलग ढंग के लोगों के थे।
सबको स्वतंत्रता है। सबको अपने ढंग से परमात्मा को पूजने की स्वतंत्रता है। सबको परमात्मा को अपने ढंग से, अपने हृदय के अनुकूल बना लेने की स्वतंत्रता है। सबको परमात्मा को अपनी भाषा में पुकारने की स्वतंत्रता है। सौंदर्य की भाषा भी उसे पुकारती है; निराकार की भाषा भी उसे पुकारती है। जो सौंदर्य का प्रेमी है वह उसे आकार में रखेगा; क्योंकि आकार के बिना सौंदर्य नहीं बनता। रूप चाहिए, रंग चाहिए, तो ही सौंदर्य को पकड़ा जा सकता है। निराकार में न तो सौंदर्य रह जाता है, न तो कुरूपता रह जाती है। निराकार सूना-सूना लगता है। मस्जिद सूनी-सूनी लगती है; मंदिर भरा-भरा। लेकिन सूनेपन का भी सौंदर्य है। होना तो शून्य ही है। तो कहीं ऐसा न हो कि मंदिर में तुमने जो मूर्तियां रख ली हैं, वैसे ही मूर्तियां तुम्हारे भीतर भी भर जाएं! तुम्हारे मन-मंदिर में भी मूर्तियों का वास हो जाए, तो तुम शून्य कब होओगे? तब तुम निराकार के साथ दोस्ती कब करोगे? निराकार से कब बंधोगे?
मगर दोनों ढंग सही हैं।
फिर, जैन हैं, बौद्ध हैं; उनके पास परमात्मा की कोई धारणा ही नहीं है। वे मुसलमानों से भी आगे गए हैं। मुसलमान कहते हैं: परमात्मा निराकार है। लेकिन जब तुम कहते हो निराकार है, जैसे ही तुमने कहा ‘है’, सीमा हो गई। है कहते ही सीमा हो जाती है। है ही सीमा लाता है। इसलिए जैन और बौद्ध तो परमात्मा है, ऐसा भी नहीं कहते; वे बात ही नहीं उठाते। वे कहते हैं, है कहा कि सीमा हो जाएगी। चुप ही रह जाते हैं। यह और भी निराकार की अभिव्यक्ति है। बोलना ही नहीं।
बुद्ध ने परमात्मा के संबंध में कोई वक्तव्य न दिया, क्योंकि जो भी वक्तव्य होगा...अगर यह भी कहो कि उसके संबंध में कोई वक्तव्य नहीं हो सकता, तो भी कुछ वक्तव्य तो हो ही गया न! इतना तो कह ही दिया! कोई कहे कि ईश्वर के संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता, तो भी उसने अपने वक्तव्य का खंडन कर दिया, क्योंकि इतना तो कह दिया! यह ईश्वर के संबंध में ही कहा न कि कुछ भी नहीं कहा जा सकता! अगर यह बात सच ही है कि ईश्वर के संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता, तो चुप ही रह जाना था। फिर ईश्वर है, ऐसा भी नहीं कहना था। इतना कहना भी, सीमा आ जाती है, आकार आ जाता है।
तो बौद्धों और जैनों के पास परमात्मा की कोई धारणा ही नहीं है, क्योंकि धारणा मात्र सीमित है। यह भी एक रंग है। यह भी एक ढंग है। यह भी विराट की तरफ चलने का एक उपाय है। ऐसे अलग-अलग अभिव्यक्तियां हैं।
सभी अभिव्यक्तियां अपने तईं सुंदर हैं; उनमें कोई विरोध नहीं है! कोई अभिव्यक्ति एक-दूसरे के विरोध में नहीं है।
सत्य एक है और संप्रदाय अनेक हैं। सच तो यह है कि उतने ही संप्रदाय हैं दुनिया में जितने यहां लोग हैं। दो हिंदू भी कहां बिलकुल एक जैसे होते हैं! दो हिंदुओं में भी तो बड़े भेद हैं। कोई काली का भक्त है, कोई राम का भक्त है। फिर दो राम के भक्त भी कहां एक जैसे होते हैं! दो राम के भक्तों में भी फर्क है। अगर तुम गौर से खोज-बीन करोगे तो तुम पाओगे: हर आदमी का अपना संप्रदाय है। हर आदमी का परमात्मा को देखने का अपना ढंग है। होगा ही। अपनी आंख है। मैं अपनी आंख से देखूंगा, तुम अपनी आंख से देखोगे। न मैं तुम्हें अपनी आंख उधार दे सकता, न तुम्हारी आंख मैं उधार ले सकता। जो परमात्मा मेरी आंख में बनेगा, वह मेरी आंख के कारण बनेगा। तुम्हारा परमात्मा तुम्हारी आंख में बनेगा, तुम्हारी आंख के कारण बनेगा।
तो संप्रदाय तो उतने ही हैं जितनी चेतनाएं हैं। यह बात समझ में आ जाए तो समभाव पैदा होता है। तो फिर धर्मों की जो क्षुद्र विवाद की मनोदशा है, विलीन हो जाती है। फिर धर्मों के जो छोटे-छोटे संघर्ष हैं, कड़वी एक-दूसरे के प्रति भाव-दशाएं, वृत्तियां हैं, वे समाप्त हो जाती हैं। और जब तक ऐसा न हो जाए, तब तक तुम धार्मिक व्यक्ति नहीं हो। अगर धार्मिक व्यक्ति को मस्जिद और मंदिर और गुरुद्वारे में एक ही दिखाई न पड़ने लगे, तो अभी समझना कि वह धार्मिक व्यक्ति नहीं है। अभी धर्म के नाम पर संप्रदाय से बंधा है और संप्रदाय के नाम पर किसी गहरी राजनीति में उलझा होगा। ये राजनीतियों के नाम हैं। हिंदू, मुसलमान, ईसाई--ये राजनीतियों के नाम हैं। ये बड़ी धोखे-धड़ी से भरी राजनीतियां हैं। इनके पीछे बड़ा जाल है। इनके पीछे वास्तविक मर्म नहीं है--भक्ति का, भाव का, प्रेम का, ध्यान का।
आज के सूत्र महत्वपूर्ण हैं।
कहते हैंपलटू:
जैसे नद्दी एक है, बहुतेरे हैं घाट।
नदी तो एक, लेकिन घाट तो बहुतेरे बन जाते हैं नदी पर। जिन-जिन गांवों के पास से गुजरेगी नदी, वहां-वहां घाट बनेंगे। फिर बड़े नगरों के पास से गुजरेगी तो एक ही नगर में कई घाट बनेंगे। काशी में तो घाट ही घाट हैं न! अब गंगा कहां से चलती है--दूर गंगोत्री से गंगा सागर तक हजारों मील की यात्रा है! कितने घाट बनाती चलती है! यह प्रतीक समझने जैसा है।
जैसे नद्दी एक है, बहुतेरे हैं घाट।
ऐसे ही धर्म एक है, घाट बहुत हैं। ‘घाट’ के लिए संस्कृत शब्द है ‘तीर्थ।’ इसलिए तो तुम हिंदू पवित्र स्थानों को तीर्थ कहते हो, क्योंकि वे घाट हैं। और इसलिए तो जैनों ने अपने अवतारी पुरुषों को ‘तीर्थंकर’ कहा है। तीर्थंकर का अर्थ होता है: घाट को बनाने वाले। जहां नदी थी, कोई घाट न था, उतरना कठिन था; जहां नाव लगानी कठिन थी, क्योंकि घाट चाहिए; सीढ़ियां नहीं थीं, क्योंकि लोग उतरें, नदी तक आ जाएं नाव में बैठें, पार उतर जाएं--जिन्होंने घाट बनाए नदी पार करने को, उनको तीर्थंकर कहा है। यह शब्द बड़ा प्यारा है; तीर्थ को बनाने वाले। जब भी कोई व्यक्ति इस जगत में सत्य को उपलब्ध होगा तो तीर्थ बनेगा; उसके आस-पास तीर्थ बन जाएगा। कहो न कहो, समझो न समझो, लेकिन तीर्थ बन ही जाएगा। क्योंकि जिस घाट से वह व्यक्ति उतरा है, उस घाट से उसके पीछे और लोग उतरने लगेंगे, धीरे-धीरे सीढ़ियां बनेंगी, पत्थर लगेंगे, घाट निर्मित हो जाएगा। और घाट में कोई खराबी भी नहीं; लेकिन घाट को नदी मत समझ लेना। घाट नदी नहीं है। कहां नदी, कहां घाट! घाट पत्थरों से बनता है। नदी है जल का सरितप्रवाह। घाट रुका रहता है। घाट मुर्दा है। नदी बहती है; नदी है जीवंत। यद्यपि नदी पर घाट बनते हैं, लेकिन घाट नदी नहीं है और नदी घाट नहीं है। इतना स्मरण रहे तो घाट का उपयोग करो, मजे से उपयोग करो। जिस घाट से उतरना हो, उससे उतरो। लेकिन खयाल रखना, घाट से बहुत मोह मत बनाना, क्योंकि घाट तो छोड़ ही देना है--अगर उस पार जाना है।
अब यह तुम सोचो। जिन व्यक्तियों को धार्मिक होना है। उन्हें जैन धर्म छोड़ ही देना पड़ेगा। जिन्हें धार्मिक होना है, उन्हें हिंदू धर्म छोड़ ही देना पड़ेगा। क्योंकि हिंदू और जैन और बौद्ध और ईसाई, और सिक्ख--ये तो घाट हैं।
तुमने कभी सोचा, अगर तुम घाट को जोर से पकड़ लो तो उस पार कैसे जाओगे? उस पार जाना है तो घाट छोड़ना होगा। घाट से बंधी नाव को खोलना होगा। घाट से जंजीरों से बंधी नाव है। जब नाव को तैराना है, तो जंजीर हटा लेनी पड़ेगी; पतवार लगाने पड़ेंगे और घाट से दूर हटना पड़ेगा। जैसे-जैसे इस घाट से दूर हटोगे वैसे-वैसे उस पार पहुंचोगे।
जिसे प्रभु की तरफ जाना है, उसे संप्रदायों से दूर हटते जाना होगा--रोज, प्रतिपल। और जितने तुम दूर होते जाओ उतने तुम धन्यभागी हो। घाट का प्रयोजन ही यही था कि उसका उपयोग कर लेना, उतर जाना सीढ़ियां। नदी तक पहुंचा दे, घाट का इतना प्रयोजन था। लेकिन घाट तुम्हारा घर न बन जाए। वहीं बैठ कर मत रह जाना। वहीं कीलें ठोक कर मत रुक जाना। वहीं तंबू गाढ़ कर ठहर मत जाना। घाट कोई ठहरने की जगह नहीं है। उस पार जाना है।
घाट को पकड़ना भी मत। घाट से मोह भी मत बसाना। और मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि घाट से कुछ शत्रुता बना लेना। क्योंकि घाट बेचारे का क्या कसूर है; शत्रुता का तो कोई कारण नहीं है। घाट तो मित्र है। तुम्हें उतरने में सहयोग दे रहा है। तुम्हें नाव तक पहुंचने में साथी बन रहा है, संगी बन रहा है। तो न तो घाट से कुछ बंधने की जरूरत है और न घाट से शत्रुता की कोई जरूरत है।
दूसरी बात भी खयाल रखना। कुछ लोग घाटों से बंधे हैं और कुछ लोग अगर किसी दिन घाटों से मुक्त होते हैं तो घाटों के शत्रु हो जाते हैं। मगर मित्र रहो कि शत्रु, दोनों ही हालत में तुम घाट से बंधे रह जाते हो। घाट से मुक्त होना है। मित्रता-शत्रुता, दोनों ही बांध लेती हैं।
एक सज्जन मेरे पास आते थे। कई वर्षों से आते थे। बड़े भक्त थे काली के। मेरी बातें सुन-सुन कर, सुन-सुन कर उनको लगा कि यह सब बेकार है। कोई तीन-तीन घंटे सुबह पूजा करते थे: जयकाली! जयकाली! एक दिन उन्हें जोश चढ़ गया। मेरी बात सुन कर गए, जाकर काली को उठा कर पोटली बांध कर कुएं में फेंक आए। फिर रात भर सो न सके। घबड़ाहट भी लगी कि यह मैंने क्या कर दिया! कहीं काली नाराज न हो जाएं! आदमी का मन। चिंता पकड़ने लगी। सुबह-सुबह मेरे पास भागे आए और कहा कि आप क्या कहते हैं? मैं बड़ी विडंबना में पड़ गया हूं। यह बात तो मुझे समझ में आ गई धीरे-धीरे सुनते-सुनते कि इस पूजा-पाठ में कुछ भी नहीं, पत्थर में क्या रखा है! तो कल रात मैंने जाकर काली को कुएं में फेंक दिया। अब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं। अब निकालूं तो मोहल्ले वालों को पता चल जाएगा कि इसने काली को कुएं में फेंका। अब निकाल भी नहीं सकता। और मुझे यह भी लगता है कि कहीं काली नाराज न हो जाए। वर्षों का भक्त हूं। आप क्या कहते हैं? मुझे सांत्वना दें।
मैंने कहा: मैंने तुमसे कहा कब था कि तुम काली को कुएं में फेंक आओ। काली जहां थी भली थी। तुम अपना मोह छोड़ लेते, उतना काफी था। तुम जरा जरूरत से ज्यादा चले गए। एक अति से दूसरी अति पहुंच गए। तीन-तीन घंटे सिर पटकते थे पत्थर पर। सिर पटकने को मना किया था। काली को कुएं में पटकने को किसने कहा था?
मगर आदमी ऐसा है कि या तो तुम गीता को सिर पर रखे फिरोगे और या अगर किसी दिन बात समझ में आ गई तो फौरन आग लगा दोगे। मगर दोनों बातें मूढ़तापूर्ण हैं। तुम मूढ़ता से कब छूटोगे? गीता भली है, प्यारी है। कुरान भला है, प्यारा है। सिर पर ढोने की कोई जरूरत नहीं है। उपयोग कर लो।
घाट भले हैं। घाट मित्र हैं। उनसे पार हो जाओ। उन्हें धन्यवाद दे देना। जब पार होओ, नमस्कार कर लेना। उनसे कहना कि तुम्हारी बड़ी कृपा!
महावीर की मृत्यु के समय ऐसी घटना घटी: उनका सबसे प्रधान शिष्य, गौतम दूसरे गांव प्रवचन के लिए गया था और महावीर का शरीर छूट गया। जब वह गांव की तरफ वापस लौट रहा था तो राहगीरों ने खबर दी: गौतम तू भी कैसा अभागा है! आज के दिन तू गया और भगवान ने देह छोड़ दी! तो वह रोने लगा। जीवन भर छाया की तरह उनके साथ चलता रहा और आज आखिरी घड़ी में साथ न जोड़ पाया। और रोने का और भी कारण था। वह छाती पीटने लगा। और उसने कहा कि मेरा क्या होगा? उनके रहते-रहते भी मैं अभी मुक्त नहीं हुआ। मेरा कल्मष अभी पूरा नहीं धुला। मेरा अंधेरा अभी रोशन नहीं हुआ। अभी मेरी जंजीरें कायम थीं। और उनके रहते-रहते भी न हो पाया तो अब मेरा क्या होगा? उनके बिना मेरा क्या होगा?
फिर उसने अपने आंसू पोंछे और उसने पूछा कि मेरे लिए कोई संदेश छोड़ गए हैं? तो उन्होंने कहा: हां, आखिरी संदेश तुम्हारे लिए ही छोड़ गए हैं। अंत में उन्होंने आंख खोली और कहा: गौतम को यह शब्द कह देना, यह मैं उसके लिए कहे जा रहा हूं। आज गौतम यहां नहीं है, ये शब्द उसके लिए छोड़े जाता हूं।
क्या कहा उन्होंने, गौतम पूछने लगा।
उन्होंने कहा: हम कुछ समझे नहीं। जो कहा, वे शब्द हम दोहरा देते हैं। लेकिन हम समझे नहीं कि मतलब क्या है? उन्होंने इतना ही कहा कि गौतम, तूने सब छोड़ दिया, अब मुझे क्यों पकड़े है? ये बड़े अदभुत शब्द हैं: तूने सब छोड़ दिया, अब मुझे क्यों पकड़े है? मुझे भी छोड़ और मुक्त हो जा।
और कहते हैं, उसी क्षण गौतम को ज्ञान हुआ। उसी क्षण ये शब्द सुन कर ज्ञान हुआ। उसे समझ में आ गई बात कि उसकी झंझट कहां रह गई थी। सब तो छोड़ दिया था उसने, लेकिन महावीर को पकड़ लिया था। संसार छोड़ दिया था, घाट पकड़ लिया था, तीर्थंकर को पकड़ लिया था।
सदगुरु वही है, जो पहले तुमसे सारा संसार छुड़ा दे और फिर स्वयं से भी तुमको छुड़ा दे। महावीर निश्चित सदगुरु थे, ऐसा वचन साधारण गुरु से नहीं निकल सकता। साधारण गुरु तो फिकर करते हैं: कहीं चले मत जाना, किसी और के पास मत पहुंच जाना, मुझे छोड़ मत देना। साधारण गुरु तो सब तरह से जकड़ते हैं। साधारण गुरु तो घबड़ाया रहता है कि शिष्य कहीं छोड़ न दे।
सदगुरु पूरी चेष्टा करता है कि पहले सब छोड़ दो, फिर अंततः मुझे भी छोड़ देना। ऐसे जैसे दीया जलता है, तुमने देखा? तो पहले तो ज्योति तेल को जलाती है; सारा तेल चुक जाता है। फिर ज्योति बाती को जलाती है; फिर बाती चुक जाती है। फिर ज्योति बुझ जाती है। फिर ज्योति स्वयं को जला लेती है। पहले तेल जला देती है, फिर बाती जला देती है, फिर स्वयं को जला लेती है। फिर परम शून्य हो जाता है। ऐसा सदगुरु। पहले संसार से छुड़ाता है। संसार से छुड़ाने के लिए नये-नये सिद्धांत देता है; ध्यान देता है; विचार देता है। फिर जब संसार छूट जाता है, तो इन सिद्धांतों और विचारों को छीनने लगता है; फिर विधि-विधान छीनने लगता है। जब विधि-विधान भी छूट जाता है--तेल भी जल गया, बाती भी जल गई--तो आखिरी संदेश वही है जो महावीर का, कि अब मुझे भी छोड़ दे। अब ज्योति अपने को जला लेती है और महाशून्य में लीन हो जाती है।
घाट तो छोड़ने ही पड़ेंगे। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि घाट बुरे हैं। तुम्हारे मन में यह सवाल उठता है कि घाट छोड़ने पड़ेंगे तो उनमें कुछ खराबी है। घाट में कोई खराबी नहीं; तुम्हारे पकड़ने में खराबी है।
बुद्ध कहते थे: कुछ लोग नदी पार किए। मूढ़ थे। यह तो मूढ़ कहो या पंडित कहो--दोनों का मतलब एक ही होता है। बुद्ध ने तो कहा है: मूढ़ पंडित थे, बकवासी थे, विवादी थे, शास्त्रार्थ करने में बड़े कुशल थे। जब पांचों ने नदी पार की तो उन्होंने सोचा कि इस नाव ने हम पर बड़ी कृपा की, अगर उस पार हम रह जाते और नाव न मिली होती तो जंगली जानवर हमें खा जाते। इस नाव का हम पर बड़ा उपकार है। इस नाव को हम ऐसे ही नहीं छोड़ सकते।
तो उन्होंने नाव को सिर पर उठा लिया और बाजार में पहुंचे। जब लोगों ने देखा इन आदमियों को सिर पर नाव को लिए, तो भीड़ इकट्ठी हो गई। उन्होंने पूछा कि भाई माजरा क्या है, मामला क्या है? नाव में तो बैठे लोग बहुत देखे, लेकिन नाव लोगों पर बैठी पहले दफे देखी। बात क्या है?
यह समाचार हो गया होगा। सारा गांव इकट्ठा हो गया। बर्नार्ड शॉ ने यही तो परिभाषा की है समाचार की। किसी ने पूछा कि समाचार क्या है? समाचार का क्या अर्थ होता है? तो बर्नार्ड शॉ ने कहा कि अगर कुत्ता आदमी को काटे तो यह कोई समाचार नहीं; आदमी कुत्ते को काटे तो यह समाचार है।
तो नाव पर तो लोग देखे थे बहुत, पहली दफा नाव लोगों पर देखी--तो समाचार ही हो गया। सारा गांव इकट्ठा हो गया। लोग पूछने लगे: बात क्या है? उन पांच मूढ़ पंडितों ने कहा: बात क्या है! इस नाव की हम पर बड़ी कृपा है। धन्यवाद-स्वरूप अब हम इसे सदा अपने सिर पर रखेंगे। जंगली जानवर थे दूसरी तरफ, अगर यह नाव हमें न मिलती तो हम खत्म हो गए होते। हमारा जीवन इसी के कारण बचा है। अब तो जीवन इसी की सेवा में लगा देंगे।
यह बात तो बड़ी ऊंची मालूम पड़ती है, मगर मूढ़तापूर्ण है। बुद्ध अपने शिष्यों को कहते थे: मुझे नाव समझो। मुझसे पार हो जाओ। लेकिन मुझे सिर पर ढोने की कोई जरूरत नहीं है।
घाट का अर्थ होता है: जो हमें नदी से जोड़ दे। साधारणतः नदी और हमारे बीच फासला होता है। हो सकता है, कोई पहाड़ बीच में खड़ा हो, उत्तुंग कगारें हों, उनसे उतरना मुश्किल हो, नदी तक पहुंचना मुश्किल हो--घाट सुविधा बना देता है। पत्थर का पटा हुआ घाट, सीढ़ियां व्यवस्थित, तुम्हें नदी तक पहुंचा देता है। लेकिन घाट नदी नहीं है।
संप्रदाय धर्म तक पहुंचा देते हैं। लेकिन संप्रदाय धर्म नहीं हैं। फिर जिसे नदी में यात्रा करनी है, जिसे धर्म में जाना है, वह धीरे-धीरे संप्रदाय से मुक्त होने लगता है। और भूल कर भी खयाल मत करना कि वह दुश्मन हो जाता है। अनुग्रह तो बना ही रहता है। जिस घाट ने उतारा, उसका अनुग्रह तो रहेगा ही। उस घाट के बिना तो नदी से मिल न सकते थे। मगर अनुग्रह का यह अर्थ नहीं कि नाव को सिर पर ढोओ। और अनुग्रह का यह भी अर्थ नहीं कि अब उस घाट को छाती से पकड़ कर रुक जाओ। जाना तो पार है।
लक्ष्य को मत भूलो। साध्य को मत भूलो। साधन को साध्य मत बना लो। धर्म है साध्य, संप्रदाय उस साध्य तक पहुंचाने के लिए छोटा सा मार्ग है। संप्रदाय का अर्थ होता है मार्ग, पगडंडी--जो प्रभु से जोड़ देती है। लेकिन जो जोड़ती है वही तोड़ भी सकती है--अगर तुम उसे जोर से पकड़ लो।
गुरु पहुंचाता है, गुरु अटका भी सकता है--अगर तुम गुरु को जोर से पकड़ लो। ऐसा ही समझो कि सीढ़ी पर चढ़ते हो, चढ़ते हो तो ऊपर पहुंच जाओगे; लेकिन अगर सीढ़ी पर ही बैठ कर रह जाओ और कहो कि इस सीढ़ी को मैं कैसे छोड़ सकता हूं--तो तुम कैसे ऊपर पहुंचोगे? चढ़े न चढ़े, बराबर हो गया। घाट पर ही बैठ रहे तो घाट पर पहुंचे न पहुंचे बराबर हो गया। घाट पर पहुंचने की सार्थकता तो तभी थी, जब घाट छूट जाता, नाव छूट जाती; उस पार की यात्रा पर निकल जाते।
जैसे नद्दी एक है, बहुतेरे हैं घाट।
इसमें कई बातें छिपी हैं। एक--कि घाट बहुत हो सकते हैं; नदी एक है। दो--घाट मुर्दा हैं। अपनी जगह पड़े रहते हैं। नदी बही चली जाती है। नदी सागर की तरफ जा रही है। नदी विराट की तरफ जा रही है। नदी प्रतिपल विराट में डूबती जा रही है। नदी गत्यात्मक है। घाट पत्थर के हैं; जड़; उनमें कोई गति नहीं है।
धर्म में बहाव है। धर्म शाश्वत प्रवाह है। और संप्रदाय जड़ होते हैं। रुक जाते हैं। जहां के तहां रह जाते हैं। महावीर जहां छोड़ गए थे अपने तीर्थ को, वह वहीं है। वह इंच भर नहीं सरका। और कहीं कोई उसे सरका न दे थोड़ा यहां-वहां, जैनियों ने व्यवस्था कर रखी है कि अब कोई पच्चीसवां तीर्थंकर नहीं हो सकता। कोई और घाट न बना दे। घाट का इतना मोह है कि पच्चीसवें तीर्थंकर को रोको; कहीं पच्चीसवां तीर्थंकर हो जाए तो फिर घाट का क्या होगा!
सिक्ख दस गुरुओं पर रुक गए, ग्यारहवें से डरे हुए हैं कि अगर ग्यारहवां आ जाए और कुछ हेर-फेर कर दे...।
ईसाई कहते हैं जीसस अकेले ही बेटे हैं परमात्मा के; और कोई परमात्मा का बेटा नहीं है--ताकि कोई सुधार न कर सके, कोई तरमीन न हो सके, कोई संशोधन न हो जाए। घाट में कोई फर्क न कर दे, इधर-उधर सीढ़ियां न लगा दे, नई व्यवस्था न कर दे, घाट को बड़ा न कर दे, यहां से उखाड़ कर नई जगह न ले जाएं--कहे कि नई जगह ज्यादा सुविधा है, जल थोड़ा है, उतरना ज्यादा आसान है; यहां तो नाव लगती है, वहां तो नाव की भी जरूरत नहीं होगी; लोग पैदल भी उतर जा सकते हैं; घुटने-घुटने पानी है; जो तैरना नहीं जान सकते वे भी उतर सकते हैं--कोई घाट को बदल न दे!
और कई दफा ऐसा हो जाता है कि नदी तो रास्ता बदल लेती है और घाट अपनी जगह पड़े रह जाते हैं। घाट तो रास्ता नहीं बदल सकते हैं। नदियां अक्सर रास्ता बदल लेती हैं। कभी वहां से नदी बहती थी, जहां घाट है। अब वहां से नदी नहीं बहती, तो भी जो घाट को पकड़े बैठे हैं, वे वहीं बैठे हैं। वे यह भी नहीं देखते कि नदी कब की जा चुकी; नदी यहां है ही नहीं। जब महावीर ने जैन धर्म का घाट बनाया, तब नदी वहां से बहती थी, अब नहीं बहती। पच्चीस सौ साल में नदी बहुत सरक गई। जहां कृष्ण घाट बना गए थे, नदी अब वहां से नहीं बहती। नदी अब वहां से बहती है जहां मैं तुमसे कह रहा हूं। पच्चीस सौ साल बाद वहां भी नहीं बहेगी। क्योंकि नदी का क्या भरोसा! नदी रूपांतरित होती रहती है।
यह जगत रूपांतरण है। यहां परिवर्तन के सिवाय और कोई चीज स्थिर नहीं है। सिर्फ परिवर्तन ही परिवर्तित नहीं होता, और सब चीजें बदल जाती हैं। यहां अगर कोई एक तत्व शाश्वत है, तो वह है परिवर्तन। सतत परिवर्तन! यहां कोई चीज ठहरी नहीं रहती। सब बहाव है। जहां जीसस छोड़ गए थे नदी को वहां नदी नहीं है।
अभी जीसस भी लौट कर अगर आएं और कहें कि अब मैं दूसरा घाट बनाता हूं, तो ईसाई राजी न होंगे। वे कहेंगे: यह हम कैसे मान सकते हैं? हम तो जो बन गया घाट, उसी को पूजेंगे। लोग घाट की पूजा में इतने तल्लीन हो जाते हैं कि पीछे लौट कर भी नहीं देखते कि नदी वहां बहती है या नहीं। सांप निकल जाता है, उसकी केंचुली पड़ी रह गई, उसी को लोग पूजते चले जाते हैं।
इस्लाम कहता है: ‘आखिरी किताब आ गई कुरान में, अब इसके बाद कोई किताब नहीं आएगी।’ क्यों? डर! अगर इसके बाद की जगह रखो कि कोई किताब आ सकती है, तो फिर कोई दावेदार किताब ले आएगा, तो अड़चन खड़ी होगी। हो सकता है, वह किताब कुरान के विपरीत जाए, कुरान से भिन्न हो! होगी ही। विपरीत न भी जाए, तो भी भिन्न तो होगी ही, क्योंकि चौदह सौ साल में दुनिया बदल गई, सब हवा बदल गई, लोगों के मन बदल गए, लोगों के ढंग बदल गए, जीवन ने नये रूप ले लिए। लेकिन मुसलमान वहीं अटका है, जहां कुरान रुक गई थी। हिंदू वहां अटके हैं जहां वेद रुक गए थे। बौद्ध वहां अटके हैं जहां बुद्ध रुक गए थे। और इस बीच दुनिया बदलती चली जाती है।
घाट का मोह खतरनाक है। नदी के लिए घाट है; घाट के लिए नदी नहीं है। और ध्यान रखना, फिर दोहरा दूं: घाट जड़ है। घाट जा नहीं सकता, नदी के पीछे भाग नहीं सकता, कि जहां नदी जाए, वहीं घाट चला जाए। और नदी जीवंत है; कहीं भी जा सकती है। घाट तो खूंटी जैसा है। खूंटी से गाय बंधी है। लेकिन गाय जीवंत है; सरक भी जा सकती है।
मैंने सुना, एक आदमी शराब पीए हुए रात एक मिठाई के दुकानदार से कुछ मिठाई खरीदा। उसे भूख लगी थी। उसने एक रुपया दिया, आठ आने की मिठाई ली, मिठाई खाई। दुकानदार ने कहा कि भाई फुटकर पैसे नहीं हैं, तुम कल सुबह ले लेना। शराबी ने सोचा कि यह बड़ी झंझट की बात हुई। अब यह कल सुबह अगर बदल जाए या मैं ही भूल जाऊं कि कौन, किस दुकान से...। तो कुछ ऐसा उपाय कर लेना चाहिए कि जिसका इसको तो पता ही न हो, नहीं तो यह उपाय बदल दे। तो उसने चारों तरफ गौर से देखा, देखा एक सांड दुकान के सामने बैठा है, तो उसने कहा कि बिलकुल ठीक है, जिस दुकान के सामने सांड बैठा है, वही दुकान से मुझे आठ आने कल सुबह लेने हैं। ऐसा खड़े होकर उसने कई दफे दोहरा लिया, मंत्र-पाठ कर लिया, ताकि याद रह जाए। सांड को भी गौर से देख लिया, कि ठीक है, किस तरह का सांड है, काला-चिट्टा इसकी पीठ पर है, इस तरह का सांड--कि चारों तरफ घूम कर देख लिया।
दूसरे दिन सुबह जब वह पहुंचा तो सांड एक नाईवाड़े के सामने बैठा था। उसने जाकर एकदम नाई को गरदन से पकड़ लिया। उसने कहा: हद हो गई! आठ आने के पीछे, धंधा बदल दिया! दुकान बदल दी! पेशा बदल दिया! जाति बदल दी! अरे शरम खाओ, आठ आने रखने थे रख लेते।
वह नाई तो कुछ समझा नहीं कि मामला क्या है। यह तो बहुत मुश्किल से समझ में आया कि मामला क्या है।
अब सांड का कोई भरोसा थोड़े ही है! यह सांड कोई शंकर जी के सामने बैठे पत्थर के नंदी थोड़े ही हैं कि वहीं के वहीं बैठे हैं; शंकर जी भी चले जाएं तो भी वहीं बैठे रहेंगे। जीवंत!
नदी और घाट में फर्क समझ लेना। नदी तो जीवंत प्रवाह है--अस्तित्व का। यह रोज नये रूप लेती है, नई तरंगें उठती हैं, नये ढंग उठते हैं। घाट जड़ है।
कभी काम के होते हैं, कभी बेकाम हो जाते हैं। कभी अर्थ के होते हैं, कभी अनर्थ के हो जाते हैं।
जैसे नद्दी एक है, बहुतेरे हैं घाट।।
बहुतेरे हैं घाट, भेद भक्तन में नाना।
और भक्तों में बड़े भेद हैं। कोई ऐसे पूजता, कोई वैसे पूजता। पलटू कहते हैं: कोई भगवान को देखता है पति के रूप में; जैसे मीरा ने देखा कृष्ण के रूप में, कि भगवान पति है, तो पुकारती है, कि सेज बिछाई है, फूल बिछाए हैं, तुम आओ मेरी सेज खाली है। कोई भगवान को देखता है बेटे के रूप में, छोटे बच्चे के रूप में, वात्सल्य-भाव से; जैसा सूरदास देखते हैं। वह पैरों में घूंघर बांधे हुए, पैंजनियां बांधे हुए, कृष्ण का रूप--वह भी ठीक है।
सूफी उलटा ही कर लिए हैं। सूफी स्वयं को मानते हैं पति और परमात्मा को मानते हैं प्रेयसी। इसलिए उर्दू में जैसा प्रेम का काव्य पैदा हुआ, किसी भाषा में पैदा नहीं हो सका; क्योंकि जब परमात्मा को प्रेयसी मान लिया तो बड़ी सुविधा हो गई काव्य के पैदा होने की; तो सारा शृंगार सहजता से चला आया। सूफी परमात्मा को कहते हैं प्रेयसी; स्वयं को मानते हैं प्रेमी। यह भी ठीक है। किस भांति प्रेम सधे, बात उतनी है। असली बात प्रेम है--किस घाट से तुम उतरते हों; पति की तरह, पत्नी की तरह...।
फिर रामकृष्ण हैं, वह भगवान को मां की तरह मानते हैं। सूरदास स्वयं तो मां की जगह हैं या पिता की जगह हैं; कृष्ण उनके छोटे से पैंजनियां बांधे नाचते फिरते हैं। सूरदास के कृष्ण कभी बड़े नहीं होते; वे छोटे रहते हैं। ठीक उन्हें उससे ही समाधि लग गई। रामकृष्ण के परमात्मा मां के रूप में प्रकट हुए हैं। उन्हें उससे समाधि लग गई।
सूफी फकीरों ने परमात्मा में प्रेयसी को देखा। मजनू और लैला की कहानी सूफी कहानी है। वह प्रतीक है। मंजनू यानी परमात्मा का खोजी। लैला यानी वह छिपा हुआ परमात्मा, जो मिलता नहीं, मिलता नहीं; मिलता नहीं; खोजो और खोजो, और अनंत यात्रा करनी पड़ती है, तब कहीं मिलता है। बड़ी मुश्किल से मिलता है। बड़ी विरह की यात्रा है। बड़े विरह के आंसू रोने पड़ते हैं।
बहुतेरे हैं घाट, भेद भत्तन में नाना।
जो जेहि संगत परा, ताहि के हाथ बिकाना।।
बड़ा प्यारा वचन है। यह इस पर निर्भर करता है कि तुम किसकी संगत पड़ गए। महावीर से मिलना हो गया तो महावीर का घाट तुम्हें जंच जाएगा और बुद्ध से मिलना हो गया तो बुद्ध का घाट तुम्हें जंच जाएगा। और कृष्ण से मिलना हो गया तो कृष्ण का घाट तुम्हें जंच जाएगा। किसी ऐसे व्यक्ति से मिलना हो गया है, जिसने पा लिया है, तो उसकी मौजूदगी, वह जो भी कहता है, उसकी सच्चाई का प्रमाण बन जाएगी।
जो जेहि संगत परा, ताहि के हाथ बिकाना।
शिष्य का यही अर्थ होता है: किसी के हाथ बिक गए; किसी के हाथ में समर्पित हो गए। किसी को कह दिया कि तुम पकड़ो यह हाथ अब मेरा। अपनी तरफ से बहुत कर चुका। अपनी तरफ से जो भी किया गलत हुआ। अपनी तरफ से जहां गया, गलत जगह पहुंचा। अपनी तरफ से कुछ हल होता नहीं। अब तो मेरा हाथ पकड़ो। अपनी बुद्धि को तुम्हारे चरणों में रखता हूं और तुम्हारी बुद्धि से चलूंगा।
शिष्य का अर्थ होता है: अब गुरु की छाया बनूंगा, अब गुरु को अपने अंतर्तम में उतारूंगा।
और मजा यह है कि अगर तुम बुद्ध के पास होते तो बुद्ध की बात जंच जाती और कृष्ण के पास होते कृष्ण की बात जंच जाती। क्योंकि दोनों की बात ही सच है। क्योंकि बात के पीछे खड़ी हुई जो ज्योति है, सच्चाई का प्रमाण उसमें है। बात में कुछ नहीं रखा है।
अगर तुम सूफियों की संगत में पड़ गए तो परमात्मा प्रेयसी की तरह दिखाई पड़ने लगेगा। और अगर तुम भक्तों की संगत में पड़ गए तो तुम प्रेयसी हो जाओगे और परमात्मा पति-रूप हो जाएगा। ये तो भाषा के भेद हैं। ये तो भक्तों के भेद हैं। और सब भेदों में एक ही अभेद है, छिपा हुआ है।
जो जेहि संगत परा, ताहि के हाथ बिकाना।
चाहे जैसी करै भक्ति, सब नामहिं केरी।
फिर भक्ति तुम कैसी ही करो, है तो उसी एक की--उस एक नाम की। उस एक की ही भक्ति है। इसलिए सवाल यह नहीं है तुम कैसे करते। तुम्हारी विधि क्या है, यह सवाल नहीं है। तुम्हारा हृदय विधि में होना चाहिए, बस। तुम परमात्मा को इस तरह पुकारो कि वह मेरा पति है--लेकिन पुकार सच्ची हो। पति कह कर पुकारते हो कि परमात्मा को पत्नी कह कर पुकारते हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क इस बात से पड़ता है कि पुकारते हो या ऐसे ही ऊपर-ऊपर आवाज लगा रहे हो और भीतर-भीतर बचना चाहते हो? पुकार उठी है, हार्दिक है? तुम्हारे हृदय की धड़कन तुम्हारी पुकार में है? तुम्हारी पुकार तुम्हारी प्यास है? कुतूहल तो नहीं है? मात्र जिज्ञासा तो नहीं है? मुमुक्षा है? तुम दांव पर लगाना चाहते हो सब-कुछ? अगर परमात्मा कहे कि मैं तैयार हूं, मिलने को, लेकिन एक शर्त है मेरी कि तू अपने को खोने को तैयार है, तो तुम खोने को तैयार होओगे? या तुम बहाने करोगे? तुम कहोगे कि बात तो ठीक है, मैं आऊंगा कल, जरा सोच लूं, पत्नी-बच्चों को भी पूछ लूं। फिर और भी पच्चीस धंधे हैं, उनको निबटा आऊं।
जीसस से किसी ने पूछा कि आप परमात्मा के राज्य की सदा बात करते हैं, यह क्या है परमात्मा का राज्य? यह कैसा है परमात्मा का राज्य?
जीसस ने कहा: ऐसा...ऐसा है परमात्मा का राज्य, जैसे एक धनी आदमी ने, अपनी बेटी की शादी के उत्सव में, एक भोज दिया। उसने नगर के जो भी प्रतिष्ठित लोग थे, सभी को निमंत्रित किया। उसने भोज की बड़ी तैयारियां कीं। बड़े सुस्वादु भोजन बनाए। उसकी एक ही बेटी थी। और वह सच में ही उस भोज को एक महोत्सव बनाना चाहता था--ऐसा कि याददाश्त रह जाए गांव में। लेकिन जब संदेशवाहक वापस लौटा और उसने पूछा कि अतिथि अब तक आए नहीं, बात क्या है? तो संदेशवाहक ने कहा: मैं दुखी हूं, क्षमा करें। गांव का जो सबसे धनी आदमी है, उसने कहा कि असंभव है मेरा आना, क्योंकि आज ही मेरे घर मेहमान आ गए हैं और मैं उनकी सेवा में उलझा हूं।
दूसरे अतिथि को, जिसको आपने बुलवाया था, उसने कहा कि मुझे क्षमा करें, कल अदालत में मेरा मुकदमा है और मैं उसकी तैयारी में लगा हूं। और मुकदमा भारी है। जीत-हार पर मेरी जिंदगी निर्भर है। अभी मैं उत्सव मनाने की भाव-दशा में नहीं हूं। मेरा आना ठीक नहीं होगा। मेरा चित्त आ भी जाऊंगा तो वहां नहीं होगा।
तीसरे ने कहा कि मैं अपने खेत में उलझा हूं, फसल काटने का समय है और अभी एक दिन की भी देरी हो जाएगी तो फसल सड़ जाएगी। मैं नहीं आ सकता हूं। रात-दिन काम चल रहा है। और मैं यहां से दो-चार घंटे को भी जाऊं तो मजदूर रुक जाते हैं; काम बंद हो जाता है। अभी कहां सोना, अभी कहां खाना, अभी कैसा उत्सव!
ऐसे ही सभी अतिथियों ने अनेक-अनेक कारण बताए हैं और आने से क्षमा मांगी है। वह धनी आदमी तो बहुत दुखी हुआ। उसने कहा: फिर क्या होगा? भोज तैयार हो गया है, टेबल पर थालियां लगा दी गई हैं। क्या मैं बिना अतिथियों के इस उत्सव को मनाऊं? तब तुम जाओ, राह पर जो भी तुम्हें मिल जाएं, उन्हीं को पकड़ लाओ। जो मिल जाए, उन्हें पकड़ लाओ। अब इसकी फिकर मत करो कि वे खास व्यक्ति हों। राहगीर हों, अजनबी हों, भिखमंगे हों--जो मिल जाएं उन्हें ले आओ।
जीसस ने कहा: कोई भी लोग पकड़ कर बुला लिए गए, भोज तो हुआ। जीसस ने कहा कि ऐसा ही है परमात्मा का राज्य। परमात्मा तुम्हें संदेश भेजता है; लेकिन तुम बहाने कर जाते हो। कभी तुम कहते हो, आज यह उलझन है; कभी तुम कहते हो, कल वह उलझन है। परमात्मा के संदेश तुम सुनते नहीं। और अक्सर ऐसा हो जाता है कि जिन्हें बुलाया जाता है वे नहीं पहुंचते, और जिन्हें नहीं बुलाया गया था, वे पहुंच जाते हैं। अक्सर ऐसा हो जाता है।
तो जीसस कहते थे: इस बार मत चूकना। मैं फिर आया हूं, उसी परमात्मा की तरफ से संदेश लेकर, कि भोज तैयार है, उत्सव होने को है। मैं तुम्हें बुलाने आया हूं, मैं भोज का निमंत्रण देने आया हूं; तुम बहाने मत करना। भोज तो होकर रहेगा। कोई न कोई सम्मिलित होगा। तुम्हारे न आने से भोज नहीं रुकेगा, याद रखना। लेकिन तुम अगर बहाने किए तो तुम वंचित रह जाओगे।
चाहे जैसी करै भक्ति, सब नामहिं केरी।
फर्क तो नाम के ही हैं। कोई राम पुकारता है, कोई अल्लाह पुकारता है। मगर जिसको हम पुकारते हैं राम और अल्लाह से, वह एक ही है। इसलिए भक्त उसको ‘नाम-स्मरण’ कहते हैं।
तुमने इस पर कभी खयाल किया? ‘नाम-स्मरण!’ क्यों भक्त कहते हैं नाम-स्मरण? नहीं कहते हैं कि राम-स्मरण। नहीं कहते अल्लाह-स्मरण। कहते हैं नाम-स्मरण। क्योंकि नाम में सब नाम आ गए।
हिंदुओं के शास्त्र विष्णु-सहस्त्र नाम में एक हजार नाम हैं। वे सब आ गए। मुसलमानों में सैकड़ों नाम हैं परमात्मा के, वे सब आ गए--ईसाइयों के, यहूदियों के।
दुनिया में कितने नामों से परमात्मा को नहीं पुकारा गया है! भक्त कहते हैं नाम-स्मरण। यह बड़ी खूबी की बात है। अगर कहे राम-स्मरण, तो सीमित हो गई बात; तो फिर उन्होंने एक नाम चुन लिया। फिर और नाम इनकार कर दिए। भक्त कहते हैं नाम-स्मरण; सब नाम उसके हैं। किसी नाम से पुकारो, किसी भांति पुकारो। पुकार सच्ची होनी चाहिए। इसलिए तो कहते हैं वाल्मीकि भूल गए और राम-राम न जप कर मरा-मरा जपते रहे और मरा-मरा जप कर ही उस परम गति को पा गए। क्या जपते हो, इससे फर्क नहीं पड़ता--कैसे जपते हो, गुण क्या है तुम्हारे जपने का? तुम्हारा जप, तुम्हारे प्राणों के अंतर्तम से प्रकट होता है? प्लास्टिक का फूल तो नहीं है--ऊपर से चिपका दिया? असली गुलाब का फूल है--जड़ों से आता है? रस लेता है पृथ्वी से? ऐसे तुम्हारा जब नाम-स्मरण हृदय से रस लेकर आता है, असली होता है, तुम में खिलता है, उधार नहीं होता। राम-नाम की चदरिया ओढ़ने की बात नहीं है। जब तक राम तुम्हारी आत्मा से न उठे...।
चाहे जैसी करै भक्ति,...
इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता, जैसी मरजी हो करना। अपना ढंग खोज लेना। भक्ति का कोई स्टैंडर्ड ढंग नहीं है, कोई सरकारी ढंग नहीं है कि इसी ढंग से करोगे, तो ही भक्ति पूरी होगी। तुम्हारी जैसी मौज हो। इसलिए तो कोई पत्थर के किनारे बैठ कर, राह के किनारे, रखे पत्थर के पास बैठ कर भक्ति कर लेता है। यह पत्थर ही है--औरों के लिए; लेकिन जिसने भक्ति-भाव से उस पर दो फूल चढ़ा दिए, उसके लिए भगवान है।
हिंदू इसमें बड़े कुशल हैं। कोई भी पत्थर को, अनगढ़ पत्थर को, पोत देते हैं सिंदूर से--वे हनुमान जी हो गए। पश्चिम के लोग चकित होते हैं कि बड़ी हैरानी की बात है! अभी यह पत्थर था, इन्होंने इसको लाल रंग से पोत दिया, दो फूल चढ़ा दिए, न आंख-कान का कुछ पता, न हाथ का कुछ पता--भगवान हो गए?
मगर समझो हिंदुओं की बात। वे कहते हैं: भगवान आंख, कान, हाथ में थोड़े ही है। कोई बड़ा मूर्तिकार इस पत्थर को बताएगा, तब यह भगवान बनेंगे, तुम समझते हो? नहीं, भगवान बनते हैं भाव से। मूर्तिकार मूर्ति बना देगा, भगवान थोड़े ही बना सकता है। अगर मूर्तिकार का भाव ही न हो...।
एक गांव में मैं ठहरा। उस गांव में एक मंदिर बन रहा था। अक्सर जैसा होता है, संगमरमर के कारीगर अक्सर मुसलमान होते हैं, तो मुसलमान उस मंदिर को बना रहे थे। मंदिर में मूर्ति खोदी जा रही थी, वह भी मुसलमान कारीगर खोद रहे थे। मंदिर को बनाने वाले के घर में मेहमान था। वह मुझे लेकर दिखाने गया कि जरा आप देख लें। मैंने उससे पूछा कि तुम एक बात समझते हो? जो लोग इस मंदिर की मूर्ति बना रहे हैं, उनका कोई भाव तो है नहीं। ये मुसलमान हैं। इन्हें मौका मिले तो यही तोड़ जाएंगे आकर इस मूर्ति को। इनका कोई भाव तो है नहीं। तुमने इनसे कभी पूछा? ये मूर्ति तो बना देंगे, यह सच है; मगर भाव कहां से डालोगे?
वह थोड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा: बात तो आप ठीक कहते हैं। यह तो हमने सोचा ही नहीं। लाखों रुपये लगा दिए इस मंदिर पर। यह तो पूरा ही मंदिर मुसलमानों ने बनाया है। ये, सभी कारीगर यहां मुसलमान हैं। इसमें तो पत्थर-पत्थर इन्होंने लगाया है। यह तो बड़ी भूल-चूक हो गई। आपने बड़ी देर से कहा।
हिंदुओं का ढंग ज्यादा सरल-सुगम है। वे कहते हैं: भाव से पत्थर भगवान हो जाता है। और भाव न हो तो भगवान पुनः पत्थर हो जाता है। कैसे तुम करते हो भक्ति, तुम्हारे विधि-विधान में कुछ अर्थ नहीं है। तुम जिसमें भी परिपूर्ण रस से डूब जाओ, वही भक्ति है।
मो़जे़ज एक जंगल से गुजरते हैं और एक आदमी को प्रार्थना करते देखते हैं। एक गड़रिया गरीब आदमी, फटे चीथड़े पहने हुए भगवान से प्रार्थना कर रहा है। महीनों से नहाया नहीं होगा, ऐसी दुर्गंध आ रही है। अब भेड़ों के पास रहना हो तो नहा-धोकर रह भी नहीं सकते। दुर्गंध का अभ्यास करना होता है। बड़ी दुर्गंध आ रही हैं। उस आदमी से--भेड़ की दुर्गंध आ रही है। चारों तरफ भेड़ें मिमिया रही हैं। और वह बैठा वहीं प्रार्थना कर रहा है। वह क्या कह रहा है, वह भी बड़े मजे की बात है। मो़जेज़ ने खड़े होकर सुना। वह बहुत हैरान हुए। उन्होंने बहुत प्रार्थना करने वाले देखे थे, ऐसा आदमी नहीं देखा। वह भगवान से कह रहा है कि हे भगवान, तू एक दफे मुझे बुला ले। ऐसी तेरी सेवा करूंगा कि तू भी खुश हो जाएगा। पांव दबाने में मेरा कोई सानी नहीं। पैर तो मैं ऐसे दबाता हूं तेरा भी दिल बाग-बाग हो जाए। और तुझे घिस-घिस कर नहलाऊंगा और तेरे सिर में जुएं पड़ गए होंगे तो उनकी भी सफाई कर दूंगा।
अब उसके बेचारे के सिर में पड़े होंगे, तो स्वभावतः आदमी अपनी ही धारणा तो भगवान से सोचेगा।
तेरे जुएं पड़ गए होंगे, वे भी बीन दूंगा। पिस्सू इत्यादि तेरे शरीर पर चढ़ जाते होंगे, पता नहीं कोई फिकर तेरी करता है कि नहीं करता...।
मो़जे़ज के लिए तो बरदाश्त के बाहर हो गया कि यह आदमी क्या कह रहा है! और कहा कि मैं रोटी भी अच्छी बनाता हूं, शाक-सब्जी भी अच्छी बनाता हूं। रोज भोजन भी बना दूंगा। थका-मांदा आएगा, पैर भी दाब दूंगा, नहला भी दूंगा। तू एक दफा मुझे मौका तो दे।
मो़जे़ज के बरदाश्त के बाहर हो गया, जब उसने कहा कि जुएं तेरे बीन दूंगा और तेरे शरीर पर गंदगी जम गई होगी, घिस-घिस कर साफ कर दूंगा और पिस्सू इत्यादि पड़ ही जाते हैं, पता नहीं कोई तेरी वहां फिकर करता है कि नहीं...। मो़जे़ज ने कहा: चुप! चुप शैतान! तू क्या बातें कर रहा है? तू किससे बातें कर रहा है? भगवान से?
और उस आदमी की आंख से आंसू बह गए। वह आदमी तो डर गया। उससे कहा कि मुझे क्षमा करें। कोई गलती बात कही?
मो़जे़ज ने कहा: गलती बात! और क्या गलती हो सकती है--भगवान को जुएं पड़ गए, पिस्सू हो गए! उसका कोई पैर दबाने वाला नहीं! उसका कोई भोजन बनाने वाला नहीं! तू भोजन बनाएगा? और तू उसे घिस-घिस कर धोएगा? तूने बात क्या समझी है? भगवान कोई गड़रिया है?
वह गड़रिया रोने लगा। उसने मो़जे़ज के पैर पकड़ लिए। उसने कहा: मुझे क्षमा करो! मुझे क्या पता, मैं तो बेपढ़ा-लिखा गंवार हूं। शास्त्र का कोई ज्ञान नहीं है, अक्षर सीखा नहीं कभी, यहीं पहाड़ पर इसी जंगल में भेड़ों के साथ ही रहा हूं, भेड़िया हूं, मुझे क्षमा कर दो! अब कभी ऐसी भूल न करूंगा। मगर मुझे ठीक-ठीक प्रार्थना समझा दो।
तो मो़जे़ज ने उसे ठीक-ठीक प्रार्थना समझाई। वह आदमी कहने लगा: यह तो बहुत कठिन है। यह तो मैं भूल ही जाउंगा। यह तो मैं याद ही न रख सकूंगा। फिर से दोहरा दो।
फिर से मो़जे़ज ने दोहरा दी। वे बड़े प्रसन्न हो रहे थे मन में कि एक आदमी को राह पर ले आए--भटके हुए को। वह आदमी फिर बोला कि एक दफा और दोहरा दो। वह भी दोहरा दी। और फिर जब मो़जे़ज जंगल की तरफ अपने रास्ते पर जाने लगे, बड़े प्रसन्न भाव से, तो उन्होंने बड़े जोर की आवाज में गर्जना सुनी आकाश में और भगवान की आवाज आई कि मो़जे़ज, मैंने तुझे दुनिया में भेजा था कि तू मुझे लोगों से जोड़ना, तूने तो तोड़ना शुरू कर दिया!
अभी गड़रिए की घबड़ाने की बात थी, अब मो़जे़ज घबड़ा कर बैठ गया, हाथ-पैर कांपने लगे। उन्होंने कहा: क्या कह रहे हैं आप, मैंने तोड़ दिया! मैंने उसे ठीक-ठीक प्रार्थना समझाई।
परमात्मा ने कहा: ठीक-ठीक प्रार्थना का क्या अर्थ होता है? ठीक शब्द? ठीक उच्चारण? ठीक भाषा? ठीक प्रार्थना का अर्थ होता है: हार्दिक। वह आदमी अब कभी ठीक प्रार्थना न कर पाएगा। तूने उसके लिए सदा के लिए तोड़ दिया उसकी प्रार्थना से मैं बड़ा खुश था। वह आदमी बड़ा सच्चा था। वह आदमी बड़े हृदय से ये बातें कहता था, रोज कहता था। मैं उसकी प्रतीक्षा करता था रोज कि कब गड़रिया प्रार्थना करेगा। ऐसे तो तेरे जैसे बहुत लोग प्रार्थना करते हैं। उनकी प्रार्थना की मैं प्रतीक्षा नहीं करता। वे तो बंधी-बंधाई, पिटी-पिटाई बातें हैं। वे रोज वही-वही कहते रहते हैं। यह आदमी हृदय से कहता था। यह आदमी ऐसे कहता था जैसा प्रेमी कहता है। और फिर बेचारा गड़रिया है, तो गड़रिए की भाषा बोलता है। तू वापस जा, उससे क्षमा मांग। उसके पैर छू, और उसे राजी कर कि वह जैसा करता था वैसा ही करे। तेरी प्रार्थना वापस ले।
यह यहूदी कथा बड़ी प्यारी है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे शब्द क्या हैं। इससे ही फर्क पड़ता है कि तुम क्या हो। तुम्हारे आंसू सम्मिलित होने चाहिए तुम्हारे शब्दों में। जब तुम्हारे शब्द तुम्हारे आंसुओं से गीले होते हैं, तब उनमें हजार-हजार फूल खिल जाते हैं।
चाहे जैसी करै भक्ति, सब नामहिं केरी।
जाकी जैसी बूझ, मारग से तैसी हेरी।।
और जिसकी जैसी समझ, वह वैसा मार्ग खोज लेता है। अपने-अपने देखने के ढंग हैं।
इश्क फानी न हुस्न फानी है
इनका हर लम्हा जाविदानी है
देख रिन्दों पर इतना तअन न कर
देख रुत किस कदर सुहानी है।
न तो प्रेम क्षणभंगुर है और न सौंदर्य क्षणभंगुर है।
इश्क फानी न हुस्न फानी है
इनका हर लम्हा जाविदानी है।
प्रेम का और सौंदर्य का हर क्षण शाश्वत है, सनातन है, अमर है। यह एक देखने का ढंग है। एक देखने का ढंग है कि सौंदर्य क्षणभंगुर और एक देखने का ढंग यह भी है कि सौंदर्य शाश्वत। एक देखने का ढंग है कि प्रेम में क्या रखा है--राग! और एक देखने का ढंग है कि प्रेम में प्रार्थना छुपी है; परमात्मा छिपा है। यह सब ढंग की बात है। अलग-अलग बूझ।
देख रिन्दों पर इतना तअन न कर
और शराबियों को इतना बुरा मत कह, क्योंकि शराबें भी बहुत तरह की हैं--तरह-तरह की हैं। रिन्द भी तरह-तरह के हैं। कोई परमात्मा को पी कर रिन्द हो जाता है, शराबी हो जाता है। कोई प्रार्थना में डूब कर शराब में डूब जाता है।
देख रिन्दों पर इतना तअन न कर
रिन्दों का इतना विरोध मत कर, इतनी निंदा मत कर, इतना व्यंग्य मत कर।
देख रुत किस कदर सुहानी है!
उसके भीतक झांक। किस कदर वसंत उसके भीतर आया है! देखने की बात है। सदा स्मरण रखना, यह जो मो़जे़ज ने इस गड़रिए को रोक दिया, वे गड़रिए के जूतों में पैर डाल कर खड़े न हो सके, वे गड़रिए के हृदय में प्रविष्ट होकर न देख सके। उन्होंने अपनी बूझ का उपयोग किया; उस आदमी की आंख के पीछे जाकर न देखा; उस आदमी में न झांका।
दूसरे की न तो निंदा करना, न दूसरे का खंडन करना। कौन जाने...मो़जे़ज से भूल हो सकती है। मो़जे़ज जैसे आदमी से भूल हो सकती है, तो साधारण आदमी की तो बात ही क्या? राह पर डोलते शराबी की भी निंदा मत करना; कौन जाने उसने अंगूरों से ढलने वाली शराब न पी हो, उसने आत्मा से बहने वाली शराब पी ली हो! सूफी भी उसी मस्ती में चलते हैं जैसे शराबी चलता है। और कोई अगर किसी स्त्री का सौंदर्य देख कर ठिठक कर खड़ा हो जाए, तो ऐसा ही मत समझ लेना कि पापी है। क्योंकि ऐसे लोग भी हुए हैं, जिन्होंने हर सौंदर्य में परमात्मा का सौंदर्य देखा है; जिन्होंने हर रूप में उसी का रूप देखा; जिसने हर मुस्कुराहट में उसी की मुस्कुराहट देखी है। तो तुम दूसरे का निर्णय मत करना।
जाकी जैसी बूझ, मारग सो तैसी हेरी।
फिर जिसकी जैसी बूझ हो, जैसी समझ हो, वैसा अपना मार्ग खोज लेता है। फर्क क्या पड़ सकता है? बहुत से बहुत इतना ही फर्क पड़ सकता है:
फेर खाय इक गए, एक ठौ गए सिताबी।
कोई जल्दी पहुंच गया, कोई थोड़ा चक्कर के रास्ते से गया, इतना ही फर्क पड़ सकता है। यह प्यारा वचन सुनते हो! पलटू कहते हैं: भेद ही क्या पड़ने वाला है! कोई जरा जल्दी चला जाएगा, बहुत से बहुत इतना ही हो सकता है; कोई जरा देर से गया।
मेरे एक मित्र हैं; वह कभी हवाई जहाज से नहीं चलते हैं। बहुत पैसे वाले हैं, लेकिन हवाई जहाज से नहीं चलते हैं। हवाई जहाज की तो बात दूसरी, वह मेल और एक्सप्रेस ट्रेन से भी नहीं चलते। वह बिलकुल बैलगाड़ी सी चलने वाली ढंग की पैसेंजर गाड़ी खोजते हैं। एक दफा मेरे साथ दिल्ली तक यात्रा की तो तीन दिन लग गए पहुंचने में। वह कहने लगे: एक दफा मेरे ढंग से भी तो चलो!
और मुझे उनका ढंग भी समझ में आया। बात तो मेरी समझ में आई कि बात ठीक कहते हैं। वह कहते हैं: हवाई जहाज पर उड़े, नागपुर से सीधे दिल्ली पहुंच गए, तो बीच की यात्रा का मजा ही नहीं मिला। बीच में कितने वृक्ष आए, कितनी नदियां आईं, कितने पहाड़ आए, कितने लोग गुजरे, कितनी स्टेशनें गुजरीं--उनका सब मजा चुक गया।
वह कहते हैं: एक्सप्रेस गाड़ी भी अपने को नहीं जमती। ऐसी क्या आपा-धापी! हम कोई गरीब थोड़े ही हैं, उन्होंने मुझसे कहा। यह बात मुझे जंची। वह कहने लगे: हम कोई गरीब थोड़े ही हैं। समय की कोई इतनी गरीबी कि बस एक दिन में ही पहुंच जाएं। सुविधा से चलेंगे। आप मेरे साथ एक दफा मेरे ढंग से चलो।
मैं उनके साथ गया। और वह यात्रा अनूठी थी। हर स्टेशन पर उनकी पहचान थी, क्योंकि वह उसी पैसेंजर से चलते हैं। किसी स्टॉल, किसी दुकान से भजिए खरीद लाते, कहीं से दूध खरीद लाए। उन्हें पता था कि किस स्टेशन पर सबसे अच्छा दूध, किस स्टेशन पर सबसे अच्छे भजिए, किस स्टेशन पर अच्छा केला...कहां क्या मिलता है, उनको सब पता था। वह उनका जैसे घर ही था। वहां से पूरी यात्रा और गाड़ी खड़ी है घंटों और वह बात कर रहे हैं और चाय पी रहे हैं। मुझे लगा कि उनकी बात में भी सच्चाई है। वह भी एक ढंग है।
मंजिल पर पहुंचने में कुछ लोग उत्सुक होते हैं, कुछ लोग यात्रा में भी उत्सुक होते हैं। कहते हैं न कि मिलने में तो मजा है, इंतजार में भी है।
पलटू कहते हैं: ‘फेर खाय इक गए,...।’ ज्यादा से ज्यादा फर्क क्या पड़ेगा, थोड़ी देर से कोई जाएगा! कान इधर से पकड़ा कि उधर से पकड़ा। तुम किसी की छेड़खानी मत करो। तुम किसी का खंडन मत करो। तुम किसी को जबरदस्ती अपने घाट पर लाने की चेष्टा मत करो। चलो उसके घाट से पाट थोड़ा बड़ा है नदी का, थोड़ी देर से जाएगी नाव; लेकिन अगर उसे यही मौज है तो जाने दो, शाश्वत है समय पड़ा, कोई जल्दी नहीं है, कोई हड़बड़ाहट नहीं है।
फेर खाय इक गये, एक ठौ गए सिताबी।
कोई जल्दी पहुंच गया, कोई जरा देर से पहुंचा। पहुंच गए। असली बात पहुंचना है।
आखिर पहुंचे राह, दिना दस भई खराबी।
पलटू कहते हैं कि बहुत से बहुत यही होगी कि दस दिन, किसी को ज्यादा संसार में रहना पड़ा और कोई दस दिन पहले पहुंच गया। दस दिन किसी को ज्यादा चक्कर काटना पड़ा, कोई दस दिन जल्दी पहुंच गया।
पलटू एकै टेक ना, जेतिक भेष तै बाट।
इसलिए पलटू कहते हैं: अपने संप्रदाय की जिद्द मत करना, आग्रह मत करना। पलटू एकै टेक ना! इसलिए सांप्रदायिक वृत्ति मत रखना। जेतिक भेष तै बाट! जितने लोग हैं, जितने वेष हैं, उतने घाट हैं। जैसे नद्दी एक है, बहुतेरे हैं घाट।
लेहु परोसिनि झोपड़ा, नित उठ बाढ़त रार।
तो पहले तो कहा सांप्रदायिक वृत्ति मत रखना; अपने ही ढंग से सारी दुनिया को चलाने की चेष्टा में मत पड़ना। वह भी अहंकार है। और अहंकार से उपद्रव पैदा होते हैं। अहंकार छूटे तो बहुत उपद्रव छूटने शुरू हो जाते हैं।
अब दूसरा सूत्र। वह कहते हैं: और उपद्रव भी छोड़ो। संप्रदाय की अस्मिता छोड़ी, अहंकार छोड़ा; और उपद्रव भी छोड़ो।
लेहु परोसिनि झोपड़ा, नित उठ बाढ़त रार।
इस वचन का अर्थ जीसस के वचन में है--इसका अर्थ, इसकी व्याख्या। जीसस कहते हैं: कोई अगर तुम्हारा कोट छीने तो उसे कमीज भी दे दो। खूब मजे की बात जीसस ने कही है। और कोई तुमसे कहे एक मील मेरा बोझ ढोओ, तो दो मील उसके साथ चले जाना। और कोई तुम्हारे बायें गाल पर चांटा मारे तो दायां भी उसके सामने कर देना। झगड़ा खड़ा मत करो। उसको मजा आ रहा है चांटा मारने में, एक गाल पर मार लिया, दूसरा भी कर देना कि भई तू दूसरे पर भी मार ले। कोट तो तूने ले लिया, कहीं संकोचवश कमीज न मांगता हो, यह कमीज भी ले ले। मगर झगड़ा खड़ा मत करना।
लेहु परोसिनि झोपड़ा,...
पलटू कहते हैं: पड़ोसी अगर झंझट करते हों तो उनसे कहना कि यह मेरा झोंपड़ा भी तुम्हीं सम्हाल लो।
लेहु परोसिनि झोपड़ा, नित उठ बाढ़त रार।
ऐसे घर में क्या रहना, जहां सुबह रोज-रोज उठ कर झगड़ा खड़ा होता हो। यह घर तुम्हीं सम्हाल लो। यह पड़ोसियों को ही दे देना।
नित उठि बाढ़त रार, काहिको सरबरि कीजै।
यह रोज की झंझट कौन ले! यह रोज का झगड़ा कौन ले! प्रतिस्पर्धा हम न करेंगे।
...काहे को सरबरि कीजै।
हम क्यों किसी की बराबरी करें! हम क्यों स्पर्धा करें, क्यों तुलना करें, क्यों संघर्ष लें! इस संसार में सभी छिन जाना है, तो पकड़ने का इतना आग्रह क्यों करें! और जिसका पकड़ने का आग्रह चला गया, उसके सारे झगड़े चले गए।
झगड़ा ही क्या है? जर, जोरु, जमीन। झगड़ा क्या है? पकड़ने में! मेरा! जहां मेरा आया वहां झगड़ा आया। जहां मेरा आया, वहां संसार आया।
पलटू कहते हैं: इसमें कुछ सार नहीं है; यहां तो सब छिन ही जाएगा। मौत आज नहीं कल आएगी, सब छीन लेगी।
नित उठि बाढ़त रार, काहि को सरबरि कीजै।
तजिए ऐसा संग, देस चलि दूसर लीजै।।
ऐसा संग-साथ छोड़ दो, दूसरा देश खोज लो। दूसरे जीवन का ढंग खोज लो। दूसरे आयाम पर जीओ। वह जो दूसरा देश है, वही संन्यास है। एक संसारी का ढंग है: लड़ो, जूझो, स्पर्धा करो। एक संन्यासी का ढंग है: लड़ना नहीं, जूझना नहीं, स्पर्धा नहीं। संघर्ष के जो बाहर हो गया, जो कहता है मेरा कोई द्वंद्व नहीं, निर्द्वंद्व जो हो गया--वही है दूसरा देश।
ए अहलेकरम नहीं मैं साइल,
रस्ते पर यूं ही खड़ा हुआ हूं
अब शिकवा-ए-संगो खिश्त कैसा
जब तेरी गली में आ गया हूं।
ए अहलेकरम नहीं मैं साइल!
संन्यासी को लोग भिखमंगा समझ लेते हैं। सोचते हैं, इसके पास कुछ भी नहीं है। बात उलटी है। संसारी भिखमंगा है; उसके पास कुछ भी नहीं है। और जो भी है, वह भी छिन जाएगा। आज नहीं कल, आज नहीं कल, छिन ही जाने वाला है। थोड़ी देर की मालकियत है। किसी की अमानत है, वह वापस ले लेगा, तुम नाहक ही गरूर में इतरा रहे हो।
संन्यासी भिखमंगा नहीं है। यह पंक्ति अच्छी है:
ए अहलेकरम, नहीं मैं साइल!
हे दयालु पुरुषों, मैं कोई भिखारी नहीं हूं। रस्ते पर यूं ही खड़ा हुआ हूं। रास्ते पर यूं ही खड़ा हुआ हूं, आप नाहक मुझ पर दया करने की कोशिश न करें।
अब शिकवा-ए-संगो खिश्त कैसा
जब तेरी गली में आ गया हूं।
और संन्यासी कहता है: अब किससे मांगना है, कैसा शिकवा, कैसी शिकायत जब परमात्मा की गली में आकर खड़ा हो गया हूं, तो अब छोटी-मोटी बातों का मांगने का कोई सवाल ही नहीं है। ईंट-पत्थर की कौन शिकायत करता है अब! अब उसका आसमान ऊपर, उसकी जमीन नीचे। अब तो जहां हूं, उसी की गली है। प्यारे की गली में आ गया हूं।
तजिए ऐसा संग, देश चलि दूसर लीजै।
खयाल रखना, देश से मतलब यह नहीं है कि तुम यहां से भाग कर किसी दूसरे देश चले जाओ। उससे तो कुछ फर्क न पड़ेगा।
मैंने सुना है, एक कौवा भागा जा रहा था और एक कोयल ने पूछा कि चाचा, कहां जा रहे हो? उस कौवे ने कहा: दूसरे देश जाते हैं, क्योंकि इस देश में हमारे गीत को कोई पसंद नहीं करता। कोयल ने कहा: दूसरे देश में भी यही हालत होगी। तुम्हारा गीत ऐसा है, दूसरे देश में भी कोई पसंद नहीं करेगा। गीत बदलो अपना, देश बदलने से क्या होगा?
तो ध्यान रखना पलटू यह नहीं कह रहे हैं कि दूसरे देश चले जाओ, पलटू यह कह रहे हैं कि दूसरे अंतर-प्रदेश में प्रवेश कर जाओ; भीतर देश बदल लो; भीतर आकाश बदल लो। यह जो संसारी का छोटा सा क्षुद्र झोपड़ा बना रखा है, इसको छोड़ो। यह जो भीतर संसारी का मोह बना रखा है, इसको तोड़ो। खुला आकाश भीतर आने दो।
जीवन है दिन चारि, काहे को कीजै रोसा।
यह चार दिन की जिंदगी है, इसमें झगड़ा-फसाद, अदालत-मुकद्दमा, सिर फोड़ा-फाड़ी, इतना रोष, इतना क्रोध! जीवन है दिन चारि। ऐसे ही बीत जाते हैं दिन। ये चार दिन ज्यादा देर लगते नहीं। दो आरजू में बीत गए, दो इंतजारी में। दो मांगने में बीत जाते हैं, दो प्रतीक्षा में बीत जाते हैं। चार ही दिन हैं। इन चार दिन के लिए कितना रोष हम कर लेते हैं!
तजिए सब जंजाल, नाम कै करो भरोसा।
जंजाल छोड़ो, झगड़े छोड़ो, स्पर्धा छोड़ो। उस एक के नाम का भरोसा करो। हमारा भरोसा बहुत चीजों पर है--मकान पर, दुकान पर, धन पर, पद-प्रतिष्ठा पर। हजारों चीजों पर हमारा भरोसा है। चूंकि हमारा भरोसा हजारों चीजों पर है, हमारी आत्मा हजार खंडों में टूट गई है। एक पर भरोसा हो तो आत्मा अखंड हो जाती है। तुम्हारा जितनी चीजों पर भरोसा होगा, उतने ही तुम्हारे जीवन में खंड होंगे, तुम टुकड़े-टुकड़े हो जाओगे, तुम बिखर जाओगे।
तजिए सब जंजाल, नाम कै करो भरोसा।
साधारणतः आदमी भीड़ है। तुम्हारे भीतर एक आत्मा भी कहां है!
मशरफ के बगैर जल रहा हूं
मैं सूने मकान का दीया हूं।
मंजिल न कोई जादा, फिर भी
आशोबे सफर में मुब्तिला हूं।
मशरफ के बगैर जल रहा हूं! कोई कारण नहीं है तुम्हारी जिंदगी का, कोई उद्देश्य नहीं है, कोई दिशा नहीं है, कोई औचित्य नहीं है कि क्यों जी रहे हो। मशरफ के बगैर जल रहा हूं। बिना किसी औचित्य के जल रहा हूं।
मैं सूने मकान का दीया हूं।
साधारण आदमी सूने मकान का दीया है। जल रहा है। कोई अर्थ नहीं है जलने में। जल-जल कर मिट रहा है। जल्दी बुझेगा।
जिंदगी हमारी, जल-जल कर बुझ जाती है मौत में। क्या परिणाम है? क्या हाथ आता है?
मशरफ के बगैर जल रहा हूं
मैं सूने मकान का दीया हूं
मंजिल न कोई जादा, फिर भी...
न कोई लक्ष्य है कहीं और न कोई मार्ग है।
आशोबे सफर में मुब्तिला हूं।
लेकिन रास्ते की हजारों झंझटों में उलझा हुआ हूं। न तो कुछ मंजिल है, न कोई ठीक पता है कि जिस रास्ते पर चल रहा हूं, इससे कहां पहुंचूंगा। लेकिन रास्ते पर बड़ा झगड़ा मचा रहे हैं। बड़ी झंझट कर रहे हैं। और न मालूम कितनी हजार चिंताओं में उलझे हुए जंजाल हैं! ऐसी साधारण स्थिति है, विक्षिप्त स्थिति है।
इस देश को बदलो। दूसरा देश अपने भीतर बनाओ।
भीख मांगी बरु खाए, खटपटी नीक न लागै।
पलटू कहते हैं: भीख मांग कर खा ले, वह अच्छा, लेकिन झगड़े और जंजाल की जिंदगी में कोई रस नहीं।
भीख मांगी बरु खाए,...
चाहे भीख मांग कर खा ले, लेकिन ये झगड़े संसार के अर्थहीन हैं।
...खटपटी नीक न लागै।
भरी गौन गुड़ तजै, तहां से सांझै भागै।।
अगर इस संसार में कितना ही सुख मिल रहा हो, तो भी पता जिस दिन चल जाएगा तुम्हें कि यह सब सुख धोखा है, और यहां सिर्फ जंजाल ही जंजाल है उस दिन तुम सांझ होते ही भाग जाओगे। उस दिन ‘भरी गौन गुड़ तजै’...उस दिन तो अगर बोरी भरा हुआ गुड़ भी रखा हो, बोरी भरा हुआ स्वादिष्ट माधुर्य भी रखा हो तो भी तुम छोड़ कर चले जाओगे। तुम कहोगे: यह सब उलझाने के लिए है। यह गुड़ जो है मक्खियों को बुलाने के लिए है, फंसाने के लिए है। तब तो तुम सांझ होते ही निकल भागोगे। तुम रात भी न ठहरोगे इस जगह, तुम यह भी न कहोगे कि अभी रात है, अभी कहां जाऊं, सुबह तो हो जाने दो! तुम इतनी देर भी न रुकोगे।
इस संसार में गुड़ बहुत है। गुड़ यानी तुम्हें फंसा लेने के बहुत से उपाय, बहुत सी आशाएं। लेकिन बुद्धू ही फंसता है। बुद्धिमान सजग हो जाता है। क्योंकि बार-बार फंस कर पाता है कि कुछ मिलता नहीं--सिवाय दुख के। धन भी दुख देता, पद भी दुख देता, कांटे ही कांटे बढ़ते चले जाते हैं। कल पर आशा टंगी रहती है कि कल शायद सब ठीक हो जाएगा, लेकिन ठीक कभी कुछ नहीं होता। ठीक तो कभी कुछ नहीं होता, एक दिन मौत आती है और सब बिखर जाता है। तुम्हारे जीवन भर का बनाया हुआ आयोजन, ताश के पत्तों के घर जैसा गिर जाता है। इसके पहले कि मौत आए, भागो! इसके पहले कि मौत आए, बहाने मत करो।
पलटू ऐसन बूझि के, डारि दिहा सिर भार।
पलटू कहते हैं कि मैं भी ऐसी जंजाल में पड़ा था, लेकिन समझ कर, देख कर सिर का सारा बोझ नीचे गिरा दिया।
पलटू ऐसन बूझि के, डार दिया सिर भार।
लेहु परोसिनि झोपड़ा, नित उठि बाढ़त रार।।
जिनसे झगड़ा-झंझट होता था, उनसे कहा कि भाई यह सम्हालो, मैं चला। यह झगड़ा तुम ले लो। तुम्हें इसमें रस है, तुम सम्हाल लो। यह गांठ उपद्रव की तुम सम्हाल लो, मैं चला। यह बोझ मैं छोड़ने को तैयार हूं।
इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम सब भागो और संन्यासी हो जाओ। इसका कुल इतना ही अर्थ है कि जंजाल से जागो। रहो, जहां हो। भीतर का देश बदल लो। भीतर का स्वर बदलो। यहां झगड़ने योग्य मूल्यवान कोई भी चीज नहीं है। इस जगत में इतनी मूल्यवान कोई भी चीज नहीं है कि तुम उसके लिए झगड़ो, रोष करो, हिंसा करो। कौड़ियों के लिए लड़ो मत। कौड़ियों के लिए लड़ कर आत्मा के बहूमूल्य हीरे न गंवाओ।
जीसस ने कहा है: तुमने सारी दुनिया भी जीत ली और अपने को गंवा दिया, तो क्या पाया? और तुमने अपने को पा लिया और सारी दुनिया भी गंवा दी, तो निश्चित पाया। बस अपने को पा लेने वाला ही पा लेने वाला है।
जल पषान को छोड़िकै, पूजो आतमदेव।
पहले कहा: संसार के जंजाल को छोड़ दो। लेकिन संसार का जंजाल कुछ लोग छोड़ भी देते हैं, तो धर्म के नाम पर चलते हुए जंजाल में फंस जाते हैं। जंजाल का ऐसा रस है कि इधर से छूटे उधर फंसे। मन शांत रहना ही नहीं चाहता। तो किसी तरह दुकानदारी से छूटे, किसी तरह खाते-बही से छूटे, तो फिर एक और जाल है, वह राह देख रहा है तुम्हारी, प्रतीक्षा कर रहा है कि चलो, यहां फंस जाओ।
जल पषान को छोड़िकै, पूजो आतमदेव।
अगर पूजा ही करनी है, तो आत्मा की करो। फिर क्षुद्र बातों में मत उलझो। फिर क्षुद्र विधि-विधानों में मत उलझो। कोई चला गंगा की यात्रा को...जल पषान को छोड़ कर...कोई कहता है हम गंगा-जल में नहा लेंगे, पवित्र हो जाएंगे। पागल हुए हो! इतना सस्ता है पवित्र हो जाना! गंगा तुम्हारे शरीर को शुद्ध कर देगी, ठीक है। सो कोई भी नदी कर सकती है। लेकिन तुम्हारी आत्मा को गंगा का जल छुएगा? आत्मा को जल छूता ही नहीं। इसलिए जल में स्नान करने से पवित्र न हो जाओगे। चैतन्य में स्नान करो। आत्मदेव की पूजा करो। पत्थर की पूजा करो, लेकिन असली पूजा नहीं है पत्थर की पूजा। असली पूजा चैतन्य की पूजा है। जहां इतना चैतन्य विराजमान है, वहां तुम जड़ की पूजा करने क्यों जाते हो? जगह-जगह परमात्मा खड़ा है। हर तरफ से परमात्मा पुकार रहा है। तुम कहते हो: मैं मंदिर जा रहा हूं। तुम पागल हो गए हो? यह सारा मंदिर उसका है। तुम भागे कहां जा रहे हो! इतना समय तुम जो मंदिर लगाने में लगा रहे हो, यह भी पूजा में लग जाता है। ये वृक्ष भी उसी के हैं। ये पक्षियों के गीत भी उसी के हैं। ये सूरज की किरणें भी उसी की हैं। यह सारा मंदिर उसी का है।
राह पर तुम गुजरते हो, पास से एक आदमी गुजर रहा है, इसके भीतर चैतन्यदेव विराजमान है। उसकी तरफ तो झुकते नहीं हो; भागे चले जा रहे हो मंदिर के पत्थर की तरफ! तुम्हारी आंखें पथरीली हो गई हैं?
जल पषान को छोड़िकै, पूजो आतमदेव।
पूजो आतमदेव खाय, औ बोलै भाई।
खूब प्यारी बात कही है! उसको पूजो--जो खाता है, पीता है, बोलता है...जहां चैतन्य है, जहां जीवन है!
पूजो आतमदेव, खाय औ बोलै भाई।
छाती देकै पांव पथर की मुरत बनाई।।
कितनी मेहनत करते हो ‘छाती देकर’, कितना श्रम उठा कर पत्थर की मूर्ति बनाते हो, तोड़-तोड़, छैनी से चला-चला कितनी मेहनत करके पत्थर की मूर्ति बनाते हो! और यहां जीवित मूर्तियां चल रही हैं। खाय और बोलै भाई! यहां सभी मूर्तियां परमात्मा की हैं। तुम्हारे हृदय में पूजा हो तो किन्हीं भी चरणों में चढ़ा दो, सभी चरण उसके हैं। शून्य में चढ़ा दो, तो भी उसी के चरणों में पहुंच जाएगी। यहां जो भी अर्चना है, उसी के चरणों में पहुंच जाती है। और तो किसी के चरण नहीं हैं। यहां जितने रूप हैं, उसी के हैं। तुम कहां भागे जाते हो?
छाती दैकै पांव पथर की मुरत बनाई।
ताहि धोय अन्हवाय विजन लै भोग लगाई।
फिर उस पत्थर की मूर्ति को धोते हो, नहलाते हो, खूब भोजन-व्यंजन बनाते हो, फिर भोग लगाते हो! तुम्हें होश है तुम क्या कर रहे हो? जो खाता है, उसको तो तुम देते नहीं! जो खा नहीं सकता, उस पर भोग लगाते हो। पागल हो? कुछ होश सम्हालो!
साक्षात भगवान द्वार से भूखा जाई।।
ताहि धोय अन्हवाय विजन लै भोग लगाई।
छाती दैकै पांव पथर की मुरत बनाई।।
साक्षात भगवान द्वार से भूखा जाई।
और तुम्हारे द्वार पर एक भिखारी आ जाए साक्षात भगवान, तो भूखा जाता है। तुम कहते हो: आगे बढ़ो! चलो आगे चलो! अभी मैं पूजा कर रहा हूं। या अभी मेरे पूजा का वक्त है, अभी न आओ।
मैंने सुना है, एक भिखमंगा एक द्वार पर भीख मांग रहा है। सेठ ने झांक कर देखा और उसने कहा कि भाई, घर में कोई है नहीं, आगे बढ़ो। भिखमंगा भी एक ही था। उसने कहा: मैं किसी को मांगने थोड़े ही आया हूं। घर में कोई हो या न हो, मुझे दो रोटी चाहिए। मैं कोई आपके आदमी थोड़े ही मांगता हूं कि पत्नी दे दो, बच्चा दे दो। न सही कोई, दो रोटी चाहिए।
उस सेठ ने कहा: रोटी-वोटी भी नहीं है। यहां कुछ भी नहीं है देने को। रास्ते पर आगे बढ़ो।
मगर वह फकीर भी एक ही था। उसने कहा: फिर तुम यहां बैठे-बैठे क्या कर रहे हो जब कुछ भी नहीं है? तुम भी आ जाओ। साथ ही मांग लेंगे; जो मिलेगा आधा-आधा कर लेंगे। मर जाओगे भूखे बैठे-बैठे भीतर।
नहीं, जीवन के प्रति हमारी श्रद्धा नहीं है। हम मरे को पूजते हैं।
पलटू कहते हैं:
साक्षात भगवान द्वार से भूखा जाई।
यह धोखा है धर्म का। यह तरकीब है बचने की। यह पाखंड है।
आओ कुछ जश्ने शहादती में शिर्कत हो जाए
अपनी खिड़की ही से मकतल का नजारा देखें
कौन मंझधार में जाए सरे-साहिल बैठ
दूर से डूबने वालों का तमाशा देखें।
लोग ऐसे बेईमान हैं, मंझधार में जाकर डूब कर कौन देखे, किनारे पर बैठ कर दूसरे डूबते हों, तो हम यहीं से तमाशा देखेंगे।
धर्म में तो डूबना पड़ता है। यह तो जीवन को आग में डालना है। उसमें कौन झंझट में पड़े! एक पत्थर की मूर्ति खरीद लाए, उसको रख ली, पूजा-पाठ कर लिया, प्रसन्न हो गए, झंझट मिटी।
यह जो है:
आओ कुछ जश्ने शहादत में शिर्कत हो जाए
अपनी खिड़की ही से मकतल का नजारा देखें
कौन मंझधार में जाए सरे-साहिल बैठ
दूर से डूबने वालों का तमाशा देखें।
ये किनारे पर बैठ कर तमाशा देखने की वृत्तियां हैं। लेकिन जब तक तुम न डूबोगे, तब तक कुछ भी न होगा। तमाशबीनी से कुछ भी न होगा। तमाशबीनी तो कर चुके जन्मों-जन्मों। डुबकी कब लोगे? मिटोगे कब? यह पत्थर को पूजने से कुछ हर्जा ही नहीं है; इसमें कुछ बनता-मिटता ही नहीं है। पत्थर को पूज कर सरका दिया, तुम जैसे थे वैसे के वैसे रहे। लेकिन अगर चैतन्य को पूजोगे, तो तुम्हारे जीवन में रूपांतरण होगा। तब तुम इतनी आसानी से शोषण न कर पाओगे; इतनी आसानी से झूठ न बोल पाओगे; इतने कठोर न रह पाओगे। दया उमगेगी। प्रेम बहेगा। प्रार्थना अगर चैतन्य की होगी, तो कैसे तुम बचोगे? तुम बदलोगे ही। बदलना ही पड़ेगा। उस बदलाहट से बचने के लिए हमने कई उपाय कर लिए हैं। उनको हम धर्म कहते हैं।
काह लिए बैराग, झूंठ कै बांधै बाना।
भाव-भक्ति को मरम कोई है बिरलै जाना।।
और यहां तक लोग कर लेते हैं कि विरागी हो गए, संन्यास ले लिया, संसार छोड़ दिया, फिर भी यह सिर्फ वेश की बात होती है, हृदय की नहीं।
काह लिए बैराग, झूंठ कै बांधै बाना।
ये भी झूठे मोहरे, ये भी झूठे चेहरे, मुखौटे! ये भी सिर्फ उपर-उपर की बात।
काह लिए बैराग, झूंठ कै बांधै बाना।
भाव-भक्ति को मरम कोई है बिरलै जाना।।
कोई विरला ही भाव और भक्ति का मरम जान पाता है। कौन? वही जो डूबने की तैयारी रखता है। जो मिटने के लिए तत्पर है। जो पतंगे की तरह ज्योति पर जाकर मिट जाता है। शहीद होने की जिसकी संभावना है--वही। वही, जो अपने को चढ़ा देता है। कोई मरद--पलटू कहते हैं--कोई हिम्मतवर!
अपने को बिना मिटाए परमात्मा नहीं मिलता है। उतनी कीमत चुकानी ही पड़ती है। और कोई कीमत बड़ी नहीं है। हम अपने को देकर परमात्मा को पाते हैं, इसमें हम कीमत ही क्या चुकाते हैं। हमारा मूल्य ही क्या है! हमारा कोई मूल्य नहीं है। दो कौड़ी के बदले हम कोहनूर पाते हैं।
पलटू दोउ कर जोरिकै गुरु संतन को सेव।
जल पषान को छोड़िकै पूजौ आतमदेव।।
पलटू कहते हैं कि व्यर्थ की झूठी बातों में अपने को न उलझाओ, और तरकीबें निकाल कर असली से न बचो। नकली में उलझा कर असली से बचने की आयोजना न करो।
खुदा या नाखुदा, अब जिसको चाहो, बख्श दो इज्जत
हकीकत में तो कश्ती इत्तफाकन बच गई अपनी।
ऐसा ही होता रहता है। तुम मुकदमा जीत गए, क्योंकि तुम पूजा करके गए थे पत्थर की मूर्ति की। तुम कहते हो: वाह! मूर्ति ने बचा लिया। दुकान खूब चल गई। तुम कहते हो कि ठीक, वह जो हनुमान-चालीसा पढ़ते हैं उसी की वजह से चल रही है। जैसे जहां हनुमान-चालीसा कोई नहीं प़ढ़ता, वहां दुकानें नहीं चल रही हैं! अमरीका में भी खूब चल रही हैं, हनुमान-चालीसा नहीं चलता। रूस में भी चल रही हैं और वहां तो कोई चालीसा नहीं चलता। हनुमान का भी नहीं चलता, किसी का नहीं चलता।
खुदा या नाखुदा, अब जिसको चाहो, बख्श दो इज्जत
हकीकत में तो कश्ती इत्तफाकन बच गई अपनी।
ये सिर्फ जीवन की साधारण घटनाएं हैं। न कोई मूर्ति बचा रही है, न कोई मंत्र बचा रहा है। मगर तुम चाहो तो जिस पर ठोक दो। और फिर उससे तुम और उलझे। और ऐसे पाखंड का विस्तार होता चला जाता है।
पलटू दोउ कर जोरिकै गुरु संतन को सेव।
अगर सेवा ही करनी हो, तो किसी संत की, किसी सदगुरु की! वहां दोनों हाथ जोड़ कर, वहां समग्रीभूत...।
ये दो हाथ जोड़ कर जो नमस्कार भारत में किया जाता है, यह प्रतीक है कि इसमें हृदय और मन दोनों जुड़ गए। इसमें तन-मन दोनों जुड़ गए। इसमें सक्रिय-निष्क्रिय दोनों जुड़ गए। इसमें तुम्हारे भीतर की स्त्री और तुम्हारे भीतर का पुरुष, दोनों जुड़ गए। यह जो दोनों हाथ को जोड़ कर सेवा करने का अर्थ है, इसका अर्थ है: द्वंद्व जुड़ गया, द्वैत जुड़ गए, अद्वैत हुआ। यह भारतीय नमस्कार का ढंग बड़ा अर्थपूर्ण है। तुम एक हो गए; दो न रहे। ऐसे एक होकर, एक भाव से, एक निष्ठा से, एक श्रद्धा से--किसी गुरु की, किसी संत की सेवा करो।
जल पषान को छोड़िकै पूजो आतमदेव।
अगर पूजा ही करनी है तो जीवंत की, चैतन्य की; क्योंकि परमात्मा चैतन्य-रूप है।
इन सूत्रों पर ध्यान करना। इन सूत्रों को भाव बनाना। सीधे-सादे शब्द हैं। कोई पांडित्य नहीं है इन शब्दों में। मगर सत्य की झंकार है। और वही असली बात है।

आज इतना ही।

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