PALTUDAS

Ajhun Chet Ganwar 11

Eleventh Discourse from the series of 21 discourses - Ajhun Chet Ganwar by Osho. These discourses were given during JUL 21 - AUG 10 1977.
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मन मिहीन कर लीजिए, जब पिउ लागै हाथ।।
जब पिउ लागै हाथ, नीच ह्वै सब से रहना।
पच्छापच्छी त्याग उंच बानी नहिं कहना।।
मान-बड़ाई खोय खाक में जीते मिलना।
गारी कोउ दै जाय छिमा करि चुपके रहना।।
सबकी करै तारीफ, आपको छोटा जानै।
पहिले हाथ उठाय सीस पर सबकी आनै।।
पलटू सोइ सुहागनी, हीरा झलकै माथ।
मन मिहीन कर लीजिए, जब पिउ लागै हाथ।।16।।

पानी काको देइ प्यास से मुवा मुसाफिर।।
मुवा मुसाफिर प्यास, डोर ओ लुटिया पासै।
बैठ कुवां की जगत, जतन बिनु कौन निकासै।।
आगै भोजन धरा थारि में खाता नाहीं।
भूख-भूख करै सोर, कौन डारै मुखमाहीं।।
दीया-बाती तेल आगि है नाहिं जरावै।
खसम खोया है पास, खसम को खोजन जावै।।
पलटू डगरा सूध, अटकिकै परता गिर-गिर।
पानी काको देइ प्यास से मुवा मुसाफिर।।17।।

संत-चरन को छोड़िकै, पूजत भूत-बैताल।।
पूजत भूत-बैताल, मुए पर भूतइ होई।
जेकर जहवां जीव, अंत को होवै सोई।।
देव-पितर सब झूठ, सकल यह मन की भ्रमना।
यही भरम में पड़ा, लगा है जीवन-मरना।।
देई-देवा सेव परम-पद केहिने पावा।
भैरों दुर्गा सीव बांधिकै नरक पठावा।।
पलटू अंत घसीटिहैं, चोटी धरि-धरि काल।
संत-चरन को छोड़िकै, पूजत भूत-बैताल।।18।।
प्यार करना तो बहुत आसान, प्रेयसी
अंत तक उसका निभाना ही कठिन है,
है बहुत आसान ठुकराना किसी को,
है मुश्किल भूल भी जाना किसी को,
प्राण दीपक बीच सांसों की हवा में
याद की बाती जलाना ही कठिन है
प्यार करना तो बहुत आसान, प्रेयसी,
अंत तक उसका निभाना ही कठिन है।

स्वप्न बन क्षण भर किसी स्वप्निल मयन के
ध्यान मंदिर में किसी मीरा मगन के
देवता बनना नहीं मुश्किल, मगर
सब भार पूजा का उठाना ही कठिन है
प्यार करना तो बहुत आसान, प्रेयसी,
अंत तक उसका निभाना ही कठिन है।

चीख चिल्लाते सुनाते विश्व भर को
पार कर लेते सभी बीहड़ डगर को,
विष-बुझे पंथ पर कटु कंटकों की
हर चुभन पर मुस्कराना ही कठिन है
प्यार करना तो बहुत आसान, प्रेयसी,
अंत तक उसका निभाना ही कठिन है।

छोड़ नैया वायु-धारा के सहारे
हैं सभी ही सहज लग जाते किनारे
धार के विपरीत लेकिन नाव खे कर
हर लहर को तट बनाना ही कठिन है
प्यार करना तो बहुत आसान, प्रेयसी,
अंत तक उसका निभाना ही कठिन है।
प्रेम तो कौन नहीं करना चाहता है! ऐसा कौन है जो प्रेम में नहीं डूबना चाहता है! लेकिन लोग डूबते नहीं। और ऐसा भी नहीं कि प्रेम की सरिता तुम्हारे घर के पास से नहीं बहती। तुम्हारी आंख के सामने बहती है। लेकिन कुछ कारण है कि पैर तट पर गड़े रह जाते हैं; सरिता में उतरते नहीं।
प्रेम चाह कर भी प्रेम हो नहीं पाता। कोई पीछे खींचता है। प्रेम की अपार चुनौती है। प्रेम सब तरफ से बुलाता है। लेकिन हम अपने में बंद, अपने कारागृह में डूबे रह जाते हैं, अपने अंधेरे में डूबे रह जाते हैं। चुनौती नहीं सुनाई पड़ती, ऐसा भी नहीं। प्रेम के शिखरों से आती आवाज हमारे कानों तक नहीं पहुंचती, ऐसा भी नहीं है। लेकिन कुछ कठिनाई है। उस कठिनाई को समझ लेना जरूरी है।
प्रेम में जाने से हम रुक-रुक जाते हैं। क्योंकि प्रेम में जाने का अर्थ मृत्यु में जाना है। प्रेम में जाने का अर्थ है मिटना। प्रेम तो हम करना चाहते हैं; लेकिन अपने को बचा कर करना चाहते हैं। बस वहीं अड़चन हो जाती है। जो अपने को बचा कर प्रेम करना चाहेगा, वह कभी प्रेम न कर सकेगा।
अहंकार की मौजूदगी में प्रेम खिलता ही नहीं। अहंकार है तो प्रेम होता ही नहीं। और हम इसी असंभव को करने की कोशिश में जन्मों-जन्मों से लगे हैं। हम चाहते हैं यह हो जाए: किसी तरह दो-दो, चार न हों, पांच हो जाएं। हम चेष्टा में लगे हैं। हमारी चेष्टा हर बार हार जाती है। लेकिन आशा नहीं हारती। हम सोचते हैं: आज हार गए, कल सफल हो जाएंगे। अपने को बचा कर प्रेम करना है।
या तो अपने को बचा लो या प्रेम कर लो। ये दोनों बातें साथ नहीं होती। अपने को मिटाओ, तो ही प्रेम होता है। तुम्हारी कब्र पर ही खिलता है प्रेम का फूल। यही अड़चन है। यही कठिनाई है।
इसलिए चाह कर भी, खूब चाह कर भी नहीं हो पाता। तड़फते हैं बिना प्रेम के। और प्रेम चारों तरफ मौजूद है, क्योंकि परमात्मा चारों तरफ मौजूद है। रोशनी के लिए चिल्लाते हैं, शोर मचाते हैं; लेकिन आंखें बंद रखते हैं। क्योंकि आंख खुलते ही स्वयं को मिट जाना पड़ेगा। अपनी मृत्यु की तैयारी नहीं है और प्रेम की मांग है। और बिना मरे प्रेम होता नहीं। मीरा ने कहा है: सूली ऊपर सेज पिया की। सेज तो है, पिया भी है--लेकिन सूली ऊपर। सिंहासन तो है, लेकिन सूली से बिना गुजरे नहीं। परमात्मा तो मिल सकता है--जिस दिन भी तुम अपने को खोने को तैयार हो जाओगे। उतनी कीमत चुकानी पड़ेगी। उससे कम कीमत से न चलेगा। तुम और बहुत सी चीजें छोड़ने को तैयार हो जाते हो। तुम कहते हो: घर छोड़ दूंगा, पत्नी-बच्चे छोड़ दूंगा, दुकान छोड़ दूंगा, धन छोड़ दूंगा, पद-प्रतिष्ठा छोड़ दूंगा, पहाड़ पर चला जाऊंगा। सब छोड़ने को तुम तैयार हो जाते हो, लेकिन अपने को छोड़ने को तैयार नहीं होते। और जिसने अपने को नहीं छोड़ा उसने कुछ भी नहीं छोड़ा। और जिसने अपने को छोड़ा, कुछ भी न छोड़ा हो, तो भी सब छोड़ा। एक ही त्याग है--मैं का त्याग। इसे तुम गांठ बांध कर रख लो।
अक्सर तुम्हारे मन में होता है, संसार छोड़ दें। संसार छोड़ने से क्या होगा?
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं: आप अपने संन्यासी को संसार छोड़ने को क्यों नहीं कहते? मैं उनसे कहता हूं: संसार छोड़ने से होगा क्या? मैं अपने संन्यासी को मैं-भाव छोड़ने को कहता हूं। वही असली संसार है। संसार छोड़ने को तो लोग तैयार हो जाते हैं; मैं को छोड़ने को तैयार नहीं होते। वही कसौटी है। वही चुनौती है। वही परीक्षा है।
संसार तो लोग छोड़ने को तैयार अपने आप ही हो जाते हैं। संसार ही उन्हें तैयार कर देता है। कौन पत्नी को छोड़ कर भाग नहीं जाना चाहता। रुके हो, यही चमत्कार है। कौन बच्चों की झंझट से छूट नहीं जाना चाहता! किसी तरह झेल रहे हो, यही चमत्कार है। बाजार से कौन नहीं ऊब गया है! यह चौबीस घंटे के उपद्रव से कौन परेशान नहीं है, कौन पागल नहीं हुआ जा रहा है। इससे तो कोई भी छूटना चाहता है। कोई भी मिल जाए बताने वाला, तो तुम छोड़ने को तैयार हो जाओगे। और मजा है इसके छोड़ने में। मजा यह है कि तुम संसार भी छोड़ देते हो--और कुछ भी नहीं बदलता। तुम भीतर अछूते के अछूते रह जाते हो। इतना ही नहीं, तुम्हारा अहंकार और थोड़ी सजावट कर लेता है। तुम त्यागी हो जाते हो। भोगी थे, त्यागी हो गए। पहले तो अहंकार थोड़ा पिटा-पिटा था, अब तो बिलकुल ही सिर पताका लगा कर खड़ा हो गया है। अब तो झंडा ऊंचा कर लिया। अब तो भोगी तुम्हारे चरण छुएंगे। अब तो जो संसार तुम्हें दो कौड़ी का समझता था, वही संसार तुम्हारी प्रशंसा करने आएगा।
यह सौदा परमात्मा को पाने का नहीं है। यह सौदा तो तुम और गंवा बैठे। और संसार से तो ऊबे थे; यह त्याग से ऊबोगे भी नहीं, क्योंकि यह त्याग बड़ी तृप्ति देगा। तृप्ति--अहंकार को।
ध्यान रहे, लोहे की जंजीरें हाथ में पड़ी हों तो आदमी छूटना चाहता है। फिर सोने की जंजीरें पड़ जाएं, फिर कौन छूटना चाहता है! फिर सोने की जंजीरों पर हीरे-जवाहरात भी जड़े हों, फिर तो कौन छूटना चाहता है! और लोग आकर जंजीरों को जंजीर न कहते हों--कहते हों आभूषण। और कहते हों: धन्यभाग आपके, ऐसे आभूषण हमें कब मिलेंगे! तब तो कौन छूटना चाहता है! कारागृह को जब तुम महल समझने लगो, फिर कौन छूटना चाहता है।
भोग की जंजीरें लोहे की हैं--वजनी, कुरूप, जंग खाई हुईं। उन्हें ढोते-ढोते तुम थक गए हो। त्याग की जंजीरें हलकी हैं, सुंदर हैं, प्यारी हैं, रत्न-मंडित हैं। उन जंजीरों को आभूषण की तरह सम्हाल कर रखोगे तुम।
भोग से तो आदमी छूट जाता है, त्याग से नहीं छूटता। और जब तक भोग-त्याग दोनों से न छूट जाए, तब तक छूटता ही नहीं। लेकिन भोग और त्याग को छोड़ने से कोई नहीं छूटता। भोग को छोड़ोगे, त्यागी हो जाओगे। त्याग को छोड़ोगे, भोगी हो जाओगे। इस द्वंद्व को खयाल में रखना। इनमें से एक को छोड़ोगे तो दूसरा अपने आप हो जाता है। ये दोनों कब छूटेंगे? ये दोनों तब छूटते हैं, जब तुम नहीं होते। तुम रहे तो एक तो रहेगा ही। जब तुम मिट जाते हो, मैं-भाव नहीं बचता--फिर न भोगी, न त्यागी; तब प्रेमी पैदा होता है। वह प्रेमी बड़ी अलौकिक घटना है। भक्त पैदा होता है। भक्त न भोगी है, न त्यागी है। भक्त भोग में भी त्याग करता है और त्याग में भी भोग करता है। भक्त बड़ी अपूर्व घटना है।
उपनिषद कहते हैं: तेन त्यक्तेन भुंजीथाः! बड़ा अपूर्व वचन है। जिन्होंने त्यागा, उन्होंने ही भोगा। तेन त्यक्तेन भुंजीथाः! जिन्होंने त्यागा, जिन्होंने छोड़ा, उन्हीं ने भोगा। या उन्हीं ने भोगा जिन्होंने त्यागा। यह बड़ी उलटी बात है। यह किसके बाबत कही जा रही है।
तुम त्यागी को भी पा लोगे, तुम भोगी को भी पा लोगे। भोगी को तुम त्याग का मजा लेते न पाओगे और त्यागी को तुम भोग का मजा न लेते पाओगे। दोनों आधे-आधे हैं, अधूरे हैं, खंडित हैं। भक्त होता है अखंड। भक्त को न भोग की चिंता है, न त्याग की। भोग मिलता है तो भोग लेता है; त्याग मिलता है तो त्याग लेता है। परमात्मा जो देता है, उसे अंगीकार कर लेता है। क्योंकि भक्त कहता है: मैं हूं ही नहीं; कौन इनकार करे! कौन चुनाव करे! भक्त रहता है चुनाव-रहितता में। भक्त कहता है: जो तू देगा, वही ठीक। यहां तो इतना भी मैं नहीं बचा हूं कि ठीक कहूं कि यह ठीक, वह ठीक, मांग करूं, चुनाव करूं, शिकायत करूं, प्रार्थना करूं। इतना भी नहीं बचा है। यहां तो कोई है ही नहीं। यहां तो घर सूना है। गिरह हमारा सुन्न में! हमारा घर शून्य में है।
शून्य में! जब तक तुम हो, शून्य नहीं हो पाता, क्योंकि तुम खूब अपने शून्य को भरे हुए हो। तुम गए कि शून्य बनता है। और जहां शून्य बन जाता है, वहीं प्रेम है। प्रेम शून्य में उमगता है। प्रेम शून्य में खिलता है। प्रेम अहंकार के विसर्जित हो जाने पर ही तुम्हारे भीतर प्रवेश करता है।
इसलिए--
प्यार करना तो बहुत आसान, प्रेयसी,
अंत तक उसका निभाना ही कठिन है।
बड़ी कठिनाई यही है कि प्रेम को लोग निभा नहीं पाते हैं। निभाने की अड़चन है। और निभा नहीं पाते, क्योंकि इस मैं को निभाने में लगे रहते हैं। या तो मैं को निभाओ या प्रेम को निभाओ। इन दोनों नावों पर साथ-साथ सवार होओगे तो बड़ी अड़चन में पड़ोगे। और कहीं पहुंचोगे भी नहीं। ये दोनों नावें बड़ी विपरीत दिशाओं में जा रही हैं--एक पूरब, एक पश्चिम। इन पर अगर खड़े हुए तो बड़े खिंच जाओगे। तन जाओगे। बड़ा तनाव पैदा होगा। बड़ी चिंता आएगी।
और जिंदगी में दो ही विकल्प हैं: या तो मैं-भाव से जीओे या प्रेम-भाव से जीओे। जिंदगी को जीने के दो ही ढंग हैं। या तो मैं के आधार पर जीओे, मैं का गणित फैलाओ; और या मैं का गणित समेट लो। या तो मैं की दुकान फैलाओ या मैं की दुकान बंद कर दो।
मैं की दुकान फैलती है तो परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। मैं की दुकान बंद होती है तो परमात्मा दिखाई पड़ता है।
संसार और परमात्मा दो नहीं हैं। इसे मुझे दोहराने दें। क्योंकि तुम्हें सदियों से यही कहा गया है कि संसार और परमात्मा दो हैं। संसार और परमात्मा दो नहीं हैं। स्रष्टा और सृष्टि एक है; लेकिन तुम्हें दो जैसे दिखाई पड़ते हैं। अगर तुमने मैं की दुकान को खूब फैलाया, तो संसार दिखाई पड़ता है, परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। तब परमात्मा कल्पना-मात्र मालूम होती है, सिद्धांत मात्र, बातचीत, अंध-विश्वास। अगर तुमने मैं की दुकान सिकोड़ ली, बिलकुल सिकोड़ ली, मैं-भाव बिलकुल जाने दिया, तब परमात्मा दिखाई पड़ता है; तब संसार नहीं दिखाई पड़ता। तब संसार माया मालूम होती है। यह जो ज्ञानियों ने संसार को माया कहा है, इसका अर्थ समझते हो?
इसका अर्थ यह होता है: जब परमात्मा दिखाई पड़ता है तो संसार नहीं दिखाई पड़ता; संसार तत्क्षण खो जाता है। क्योंकि परमात्मा ही है चारों तरफ। ये वृक्ष, ये पक्षी, ये पशु, ये पुरुष, ये स्त्रियां, ये पत्थर, ये पहाड़, ये चांद-तारे--ये तुम्हें अभी संसार मालूम हो रहे हैं, क्योंकि तुम्हारे भीतर मैं-भाव खड़ा है। यह मैं-भाव से देखा गया परमात्मा। जब मैं-भाव से परमात्मा को देखते हो तो संसार जैसा प्रतीत होता है। यह तुम्हारी प्रतीति है। है तो यह परमात्मा ही। जिस दिन तुमने अपनी आंख का चश्मा बदला, यह मैं का चश्मा उतार कर रखा, उस दिन तुम चौंक जाओगे! यहां न तो वृक्ष हैं, न पहाड़ हैं, न पत्थर हैं, न पशु हैं, न पक्षी हैं, न मनुष्य हैं, न स्त्रियां हैं--यहां एक ही अनंत-अनंत रूपों में नाच रहा है। यह रास चल रहा है। यहां एक ही स्वर है। यहां एक ही अस्तित्व है। यहां एक ही गीत है।
लेकिन मैं हटे तो। तत्क्षण रूपांतरण होता है। तुम एक नई दृष्टि को उपलब्ध होते हो। दृष्टि बदली कि सृष्टि बदली।
सूनी-सूनी सांस की सितार पर
गीले-गीले आंसुओं के तार पर
एक गीत सुन रही है जिंदगी
एक गीत गा रही है जिंदगी
चढ़ रहा है सूर्य उधर, चांद इधर ढल रहा
झर रही है रात यहां, प्रात वहां खिल रहा
जी रही है एक सांस, एक सांस मर रही
बुझ रहा है एक दीप, एक दीप जल रहा
इसलिए मिलन-विरह के विहान में,
एक दीया जला रही है जिंदगी, एक दीया बुझा रही है जिंदगी।

रोज फूल कर रहा है धूल के लिए सिंगार
और डालती है रोज धूल फूल पर अंगार
कूल के लिए लहर-लहर विकल मचल रही
किंतु कर रहा है कूल बूंद-बूंद पर प्रहार,
इसलिए घृणा-विदग्ध प्रीति को
एक क्षण हंसा रही है जिंदगी, एक क्षण रुला रही है जिंदगी।

एक दीप के लिए पतंग कोटि मिट रहे
एक मीत के लिए असंग मीत छूट रहे,
एक बूंद के लिए गले ढले हजार मेघ
एक अश्रु से सजी सौ सपन लिपट रहे,
इसलिए सृजन विनाश संधि पर
एक घर बसा रही है जिंदगी, एक घर मिटा रही है जिंदगी।

सो रहा है आसमान, रात रो रही खड़ी
जल रही बहार कली नींद में जड़ी पड़ी
धर रही है उम्र की उमंग कामना शरीर
टूट कर बिखर रही है यह सांस की लड़ी-लड़ी
इसलिए चिंता की धूप-छांह में
एक पल सुला रही है जिंदगी, एक पल जगा रही है जिंदगी।
जिंदगी के दो पैर हैं, दो पंख हैं। जिंदगी को देखने के दो ढंग हैं। एक तरफ से देखो तो मिटता हुआ दिखता है; और दूसरी तरफ से देखो तो जन्म होता हुआ दिखता है। बीज मरता है तो वृक्ष पैदा होता है। अगर बीज जिद्द करे कि मैं रहूंगा, मैं क्यों मिटूं, मिटने से क्या सार है, मैं तो रहूंगा, मैं अपने को बचाऊंगा--अगर बीज अपने को बचाए तो मिट जाएगा, सड़ेगा। लेकिन बीज मिट जाता है और अपने को बचा लेता है। इस उलटबांसी को समझ लेना। बीज मिट जाता है तो अपने को बचा लेता है, वृक्ष पैदा हो जाता है। और वृक्ष में करोड़ों बीज लगेंगे। एक बीज अनंत हो जाता है। अगर बीज अपने को बचा ले तो कंकड़ की तरह पड़ा रह जाएगा, सड़ जाएगा।
जीसस का वचन है: जो अपने को बचाएंगे, वे नष्ट हो जाएंगे। और जो अपने को नष्ट करने को तैयार हैं, उन्हें कोई नष्ट नहीं कर सकता।
समस्त धर्मों की कथा इस छोटे से सूत्र के ऊपर ही निर्धारित है: जो मिटेगा वह बच जाएगा; जो बचाएगा अपने को, वह मिट जाएगा।
यह ‘मैं’ बचना चाहता है। जब तक यह मैं बचना चाहता है, तब तक प्रेम नहीं घट पाता। जिस दिन यह ‘मैं’ समझता है कि मेरे होने में पीड़ा है, मेरे होने में बंधन है, मेरे होने में ही नरक है--और मिटने को राजी हो जाता है स्वेच्छा से...। इसलिए मैं संन्यास को आत्मघात कहता हूं--स्वेच्छा से मरने को तैयार हो जाता है। इधर बीज मिटा, इधर अहंकार मिटा, वहां परमात्मा की रोशनी उतरने लगती है।
आज के सूत्र इसी अपूर्व क्रांति के सूत्र हैं।
मन मिहीन कर लीजिए, जब पिउ लागै हाथ।
अगर उस प्यारे को पाना हो तो मन को सूक्ष्म करो, सूक्ष्म करो--इतना सूक्ष्म करो कि मन मिट जाए।
मन मिहीन कर लीजिए,...
मन को महीन करते जाओ, मन को सूक्ष्म करते जाओ। मैं-भाव जितना क्षीण हो जाए उतना प्यारा पास दिखाई पड़ने लगेगा। यह जो मैं का पर्दा है, यह जो मन का पर्दा है, यह पर्दा जितना मखमल से मलमल का होने लगे, महीन होने लगे, उतना ही झलक परमात्मा की दिखाई पड़ने लगेगी।
मन मिहीन कर लीजिए, जब पिउ लागै हाथ।
अगर परमात्मा को पाना है, तो उसी मात्रा में परमात्मा मिलता है जिस मात्रा में, जिस अनुपात में मन सूक्ष्म होने लगता है, नहीं होने लगता है। सूक्ष्म यानी नहीं होने की यात्रा, मिटने की यात्रा। और जिस दिन मन पूरा शून्य हो जाता है, उस दिन तुम परमात्मा हो। फिर प्रेमी में और प्यारे में फर्क नहीं रह जाता। फिर भक्त और भगवान में फर्क नहीं रह जाता। फर्क ही एक झीने से पर्दे का है। मगर साधारणतः हम बड़ा मोटा पर्दा डाले हुए हैं। लोहे का पर्दा डाले हुए हैं। उस पर्दे में ही कैद हैं और चिल्लाते हैं कि ईश्वर कहां है।
लोग पूछते हैं, ईश्वर कहां है? ईश्वर का प्रमाण क्या है? और आंख खोलते नहीं। और ईश्वर का प्रमाण सब तरफ है। उसी-उसी का प्रमाण है। अगर यहां किसी चीज का कोई प्रमाण है तो सिर्फ ईश्वर का प्रमाण है; और तो किसी चीज का कोई प्रमाण नहीं है।
एक युवक ने मुझसे आकर पूछा: ईश्वर का क्या प्रमाण है? मैंने कहा: बजाय तुम ईश्वर का प्रमाण खोजने के, इस चिंता में लगो कि तुम्हारे होने का क्या प्रमाण है। खोजो कि तुम हो? जिस दिन तुम पा लोगे कि तुम नहीं हो, उसी दिन ईश्वर है और जब तक तुम्हें लगता है कि मैं हूं, तब तक ईश्वर नहीं है। ये दोनों बातें एक साथ नहीं होने वाली हैं। भक्त रहे तो भगवान नहीं। भक्त मिटे तो भगवान। जब भक्त अपने से भरा होता है, तो जगह कहां भीतर भगवान को आने के लिए! जब भक्त अपने भीतर खाली होता है तो उस महाअतिथि को आने के लिए जगह बनती है।
जगह खाली करो! सारी साधना जगह खाली करने का उपाय है। अपने भीतर स्थान खाली करो। कचरा-कूड़ा, फर्नीचर फेंको बाहर। मन यानी फर्नीचर--विचार, वासनाएं, वृत्तियां, संस्कार, स्मृतियां, कल्पनाएं, योजनाएं। इनकी इतनी भीड़ मची है भीतर। यही बाजार है।
तुम सोचते हो बाजार बाहर है? बाजार यही है, जो तुम्हारे भीतर है। यह जो कोलाहल भीतर चल रहा है, यह बाजार का कोलाहल है। इस कोलाहल को शांत करो। इस कोलाहल को जाने दो। जैसे ही यह कोलाहल शांत होने लगेगा, तुम पाओगे: मन महीन होने लगा।
पलटू कहते हैं:
मन मिहीन कर लीजिए, जब पिउ लागै हाथ।
अगर उस परम प्यारे को पाना है तो तुम धीरे-धीरे सूक्ष्म होते-होते खो जाओ।
ऐसा समझो कि बर्फ का एक ढेला है। यह बड़ा ठोस है; पत्थर जैसा है। इसलिए तो इसे पत्थर का बर्फ कहते हैं। पानी के बर्फ को पत्थर का बर्फ कहते हैं। फिर यह महीन होता है तो जल बन जाता है--पिघला; जल बना। फिर और भी पिघला तो भाप बन जाता है। फिर बड़ा सूक्ष्म हो जाता है। बर्फ था तो पत्थर जैसा था; किसी के सिर पर मार देते तो सिर टूट जाता। पानी बन गया तो फिर किसी के सिर पर मार कर सिर को नहीं तोड़ सकते थे; फिर इससे हिंसा नहीं हो सकती थी। फिर भाप बन गया, अब तो इसे देख भी नहीं सकते। अब तो यह विलुप्त होने लगा। अब तो यह विसर्जित होने लगा परम में। अब तो यह शून्य में खोने लगा।
सूक्ष्म का अर्थ होता है: धीरे-धीरे शून्य की यात्रा। शून्य की यात्रा पर जो जा रहा है, वही तीर्थयात्रा पर जा रहा है। काशी जाने से कुछ भी न होगा, और न गिरनार जाने से। मक्का और मदीना और जेरुसलेम कुछ साथ न आएंगे। असली तीर्थयात्रा--शून्य की, सूक्ष्म की, महासूक्ष्म की।
हम बड़े स्थूल हैं। हमारी स्थूलता कई तरह की है। पहली तो हमारी स्थूलता यह है कि हमारे भीतर तीनों मौजूद हैं: बर्फ, पानी, भाप। बर्फ जैसी तो हमारी देह है--स्थूल, बहुत स्थूल। पानी जैसा हमारा मन है--बड़ा तरल, बहा-बहा। इसलिए तो मन को पकड़ नहीं पाते; इतना तरल है, मुट्ठी नहीं बंधती। और हमारी आत्मा भाप जैसी है--दिखाई ही नहीं पड़ती। अब इन तीनों में तुम जिसके साथ संबंध बांधोगे, वैसे ही हो जाओगे। अगर तुमने सोचा मैं देह हूं तो तुम बहुत स्थूल हो गए। तुम्हारी मान्यता ही तो तुम्हारा व्यक्तित्व बन जाती है। तुमने सोचा मैं देह हूं, शरीर हूं, तो तुम शरीर हो गए। तुमने माना कि तुम वही हो गए। अब तुम्हारी धारणा ने तुम्हें पत्थर से जोड़ दिया। अब तुम बड़े स्थूल हो गए। अब तुम्हारा जीवन-व्यवहार ही स्थूल हो जाएगा। अब जो आदमी सोचता है मैं शरीर हूं, यह मौत से बहुत डरेगा। क्योंकि यह देखता है रोज शरीरों को मरते। यह मौत से डरेगा तो धन को खूब पकड़ेगा। बैंक में बैलेंस इकट्ठा करेगा, क्योंकि लगता है धन से शायद सुरक्षा हो। अगर यह मौत से डरेगा तो यह बड़े भय से जीने लगेगा। यह अगर भगवान की पूजा भी करेगा तो भय के कारण करेगा। और भय से कहीं पूजा हुई? भय के जहर से कहीं पूजा का अमृत निकलता है? अगर यह मंदिर भी जाएगा तो सिर्फ भय के कारण, कि मौत आ रही है, भगवान बचाए! यह नरक से डरेगा, इसलिए दान भी करेगा। लेकिन डर से किसी ने दान किया? दान कैसे होगा?
दान तो प्रेम से होता है। दान तो आनंद से होता है। भय की गंदगी से दान नहीं निकलता है। दान की गंगाएं भय की गंदी नालियों से नहीं निकलतीं; गंगोत्री चाहिए। सहज, सरल आनंद का भाव चाहिए। प्रार्थना भी तभी पैदा होती है, जब प्रेम आंदोलित होता है; जब हृदय तरंगित होता है प्रेम से। भय से डरे जा रहे हैं, तो भगवान भी झूठा होगा। भय से निर्धारित भगवान, भय का ही विस्तार है।
यह जो आदमी है, जो इतना भयभीत है मौत से, यह जिंदगी में कभी भी कोई उत्सव न मना सकेगा। उत्सव कहां जहां मौत चारों तरफ घिरी हो! जहां आज मरे कल मरे, उत्सव कहां! और जो उत्सव न मना सकेगा, वह धन्यवाद किस बात के लिए दे? भगवान को धन्यवाद भी करना चाहे तो किस बात के लिए धन्यवाद दे? धन्यवाद जैसा कुछ जाना नहीं। न कोई रंग था, न कोई गंध थी जीवन में, न कोई संगीत था, न कोई नृत्य था। पैरों में कभी घूंघर ही न बंधे। कभी मुक्त हृदय से जीवन का अनुभव भी न हुआ। धन्यवाद किस बात का? स्वाद ही न मिला, तो धन्यवाद किस बात का। यह भयभीत आदमी उत्सव तो मना न सकेगा, यह तो सिकुड़ा जा रहा है भय के कारण। यह तो सड़ा जा रहा है भय के कारण। और देह तो रोज जवान है तो बूढ़ी हो रही है; बूढ़ी हो तो मौत की तरफ सरक रही है। शरीर तो रोज मर रहा है। जिस दिन से शरीर पैदा हुआ है, उस दिन से मरना शुरू हो गया है। पहले दिन का बच्चा भी एक दिन मर चुका। जिनको तुम जन्म-दिन कहते हो उनको मृत्यु-दिन कहना चाहिए, जन्म-दिन नहीं। पचास साल हो गए। तुम कहते हो पचासवां जन्म-दिन आ गया। मौत पचास साल करीब आ गई। अगर सत्तर साल में मरना है तो बीस ही साल और बचे। इसको जन्म-दिन कहते हो, जो मौत को करीब ला रहा है?
समय की धारा मौत को करीब ला रही है। इसलिए तो हमने इस देश में समय को और मृत्यु को एक ही नाम दिया--काल। समय को भी कहते हैं काल और मृत्यु को भी कहते हैं काल। समय ही मृत्यु है। यह जो भयभीत आदमी है, इसका कारण क्या है? यह शरीर से बहुत अपने को एक समझ लिया है।
इस स्थूलता के कारण परमात्मा तो दूर हो गए, इसे चारों तरफ यमदूत दिखाई पड़ते हैं। फिर इससे थोड़ा सूक्ष्म आदमी है जो शरीर से अपने को एक नहीं करता, मन से अपने को एक समझता है--वह थोड़ा सूक्ष्म है। उसके जीवन में धन की बजाय काव्य को जगह होगी। सुरक्षा की बजाय संगीत में उसे रस होगा। बैंक में धन ज्यादा इकट्ठा हो या न हो, यह उसकी बहुत चिंता न होगी। मित्र हो, संगीत हो, काव्य हो, उसकी रुचि थोड़ी परिष्कृत होगी। वह थोड़ा अभिजात्य, थोड़ा एरिस्टोक्रेटिक होगा। वह कुछ ऐसी चीजों में रस लेगा जिनमें शरीरवादी को कोई रस नहीं समझ में आता। शरीरवादी कहता है: क्या फिजूल की बातें कर रहे हो? कविता में क्या रखा है? शरीरवादी कहता है: इससे तो बेहतर थोड़ी शराब पी लो। इससे तो बेहतर भोजन कर लो। कविता में क्या रखा है? यह कविता सुनने में क्या है? संगीत में क्या सार है?
शरीरवादी की अपनी भाषा है--बड़ी स्थूल। उसे एक ही संगीत समझ में आता है, जब नगद रुपयों को कोई खनखनाता है; बस वह एक ही संगीत जानता है। उससे तुम कहो वीणा बजती है सुंदर, वह कहेगा: क्या रखा है?
मैंने सुना है, दो आदमी एक रास्ते से गुजर रहे थे। बड़ा बाजार था, बड़ी भीड़-भाड़ थी। लोग शोरगुल कर रहे थे। दुकानें चल रही थीं। ग्राहक खरीद रहे थे। शायद बंबई का शेयर मार्केट हो। ‘फली’ बैठे हैं, उनसे पूछ सकते हैं। बड़ा शोरगुल मचा था। तभी एक पास के मंदिर में घंटियां बजने लगीं। उस बाजार की भीड़ में किसको मंदिर की घंटियां सुनाई पड़तीं! लेकिन उन चलते दो आदमियों में से एक ने कहा कि सुनते हो, कितनी प्यारी घंटियां बज रही हैं! उस आदमी ने कहा: जरा जोर से कहो, क्या कह रहे हो? तो उसने जोर से कहा: सुनते हो, मंदिर की घंटियां कितनी प्यारी लग रही हैं! पर उस दूसरे आदमी ने कहा: आश्चर्य, तुम्हें यहां मंदिर की घंटियां सुनाई पड़ती हैं--इस उपद्रव में, इस कोलाहल में! यह संभव कैसे हुआ कि तुम्हें मंदिर की घंटियां सुनाई पड़ गईं! यहां ट्रैफिक का शोरगुल मचा है, इतना उपद्रव चल रहा है। यहां कहां मंदिर की घंटियां! तुमने सुना कैसे?
उस आदमी ने क्या किया, पता है? उसने अपने खीसे से एक रुपया निकाला। पुराने दिन की बात है जब चांदी के सिक्के हुआ करते थे। और उसने जोर से सड़क के किनारे पत्थर पर उस रुपये को पटका। खनाखन की आवाज हुई। कोई पच्चीस आदमी, जो इधर-उधर दुकान पर काम कर रहे थे, कोई अपना बात कर रहा था, कोई खरीद-फरोख्त कर रहा था, कोई बेच रहा था--वे एकदम भाग कर आ गए। उन्होंने कहा: किसी का रुपया गिरा? उस आदमी ने कहा: देखते हो! मंदिर की घंटियां किसी को सुनाई नहीं पड़ रही हैं! रुपये की आवाज...!
हम वही सुनते हैं, जिसकी हमें चाहत हो। हम हर कुछ थोड़े ही सुनते हैं। हम एक ही रास्ते से गुजरते हैं; अलग-अलग चीजें देखते हैं। जिसकी हमें चाहत होती है वही हम देखते हैं। जिसको हम देखने निकले हैं, वही हमें दिखाई पड़ता है। और वही हमें सुनाई पड़ता है जिसको हम सुनने निकले हैं। अब जो रुपये के पीछे दीवाना है, वह रुपये की आवाज सुन लेगा नींद में भी।
मैं कुछ वर्षों तक सागर में था। वहां एक मिठाई वाला है। वैसी गुजिया बनाने वाला पूरे मुल्क में कहीं भी नहीं है। उसकी गुजिया बड़ी प्रसिद्ध हैं। बहुत लोगों ने कोशिश की है वैसी गुजिया बनाने की, कोई बना नहीं सका। उसकी कला अनूठी है। उसके संबंध में कहा जाता है कि अगर रात दो बजे भी तुम्हें गुजिया चाहिए हो, तो दरवाजा खटखटाने की जरूरत नहीं, सिर्फ उसके दरवाजे पर रुपया खनखना दो, सोया हो कितनी ही गहरी नींद में, एकदम खोल कर आ जाता है कि भाई, क्या चाहिए! दरवाजा खटखटाओ तो सुनाई नहीं पड़ता उसको। चिल्लाओ तो सुनाई नहीं पड़ता। लेकिन रुपये की आवाज वह नींद में भी सुन लेता है। गहरी से गहरी प्रसुप्ति में भी। जहां स्वप्न भी न हों, वहां भी रुपये की आवाज पहुंच जाती है।
हम वही सुन पाते हैं, जो हम खोज रहे हैं। जो परमात्मा को खोज रहा है वह परमात्मा को देख पाता है। यही है अस्तित्व। यहां तुम्हें वही दिख जाता है जो तुम खोज रहे हो। तो जिसको रुपये में संगीत मालूम पड़ता है, उसे रविशंकर के सितार में रस नहीं आएगा। वह कहेगा: क्या फिजूल समय खराब कर रहे हो! शास्त्रीय संगीत में ले जाओगे तो वह कहेगा कि यह क्या आऽऽआऽऽ...आऽऽ...लगा रखी है!
मुल्ला नसरुद्दीन गया था एक बार। और जब संगीतज्ञ काफी देर तक आऽऽ...आऽऽ...करता रहा, तो उसकी आंख से आंसू गिरने लगे, मुल्ला की। उसके पड़ोसी ने पूछा कि नसरुद्दीन रो रहे हो! मैंने कभी सोचा नहीं था कि तुम्हें शास्त्रीय संगीत से इतना रस है।
उसने कहा: शास्त्रीय संगीत! कहां का शास्त्रीय संगीत! मैं रो रहा हूं, क्योंकि यही हालत मेरे बकरे की हो गई थी, जब वह मरा। यह आदमी मरेगा। यह कहां का शास्त्रीय संगीत हो रहा है! जल्दी से किसी डॉक्टर को या वैद्य को बुलाओ। यही मेरे बकरे की हालत हो गई थी। मुझे उसकी याद आ गई है--बकरे की--कि जब वह मरा तो करीब घंटे भर तक आऽऽ...आऽऽ...आऽऽ...करता रहा। मैं कुछ समझा नहीं। तब मुझे पता नहीं था। मैं तब यही समझा कि शास्त्रीय संगीत कर रहा है। तो पीछे पता चला जब मर गया। यह आदमी मरेगा।
अपनी-अपनी पकड़ है। अपनी-अपनी तौल है।
जिसने अपने को शरीर से बांध रखा है, वह बड़ा स्थूल हो जाता है। उसकी सारी पकड़ स्थूल हो जाती है। उसे जीवन में कहीं काव्य दिखाई नहीं पड़ता। वृक्षों से गुजरते हुए हवा के झोंकों में उसे संगीत सुनाई नहीं पड़ता। पक्षियों के कंठ से निकलने वाले परमात्मा के स्वर में उसे कोई...कोई अर्थ नहीं है--निरर्थक, व्यर्थ का शोरगुल है।
जो शरीर से बंध कर जीता है, उससे मन के साथ जीने वाला थोड़ा बेहतर है। मन के साथ जीने वाला थोड़ा तो आंख ऊपर उठाता है; थोड़ा तरल होता है। अधिक से अधिक लोग संसार में मन तक पहुंच पाते हैं। जो शरीर में रहते हैं, उनके जीवन में न तो कोई संस्कृति होती है, न कोई सभ्यता होती है, न कोई अभिजात्य होता है, न कोई संगीत, न कोई गीत, न कोई नृत्य। उनके जीवन में दर्शन की कोई झलक नहीं पड़ती। छाया नहीं पड़ती। खाने-पीने पर उनका जीवन समाप्त हो जाता है।
लेकिन मन के साथ संबंध जोड़ने वाला थोड़ा सा सूक्ष्म होता है। पर वहीं रुक जाना उचित नहीं है, क्योंकि और भी सूक्ष्म होने का उपाय है। जो अपने को आत्मा से जोड़ लेता है, उसका काव्य काव्य ही नहीं रह जाता, भजन हो जाता है। उसका नृत्य नर्तकी का नृत्य नहीं रह जाता, मीरा का नृत्य हो जाता है। दोनों में बड़ा फर्क है। नर्तकी नाचती है--या तो देह से बंध कर नाचती होगी तो, तो बहुत कामुक होगा नृत्य; तब तुम्हारे भीतर वासना को जगाएगा। क्योंकि स्थूल की चोट स्थूल पर पड़ती है।
इसलिए पश्चिम में बहुत से नृत्य पैदा हुए हैं--आधुनिक नृत्य--वे सिर्फ वासना को जगाते हैं; वे तुम्हारे भीतर पड़ी वासना को प्रज्वलित करते हैं; वासना में घी का काम करते हैं। कैबरे इत्यादि। होटलों में लोग नग्न स्त्रियों को नचा रहे हैं। उनकी वासना क्षीण हो गई है; टूटी-फूटी हो गई है। उसमें किसी तरह घी डाल कर उसको फिर से उभारने की कोशिश चल रही है। नर्तकी नाचती है तो या तो उसका शरीर से संबंध होगा; तो तुम्हारे भीतर वह वासना को जगाएगी। अगर शरीर से संबंध न हो उसका, अगर मन से संबंध हो, तो तुम्हारे भीतर संगीत को जगाएगी, काव्य को जगाएगी; तुम्हारे भीतर मन को आंदोलित करेगी। तुम थोड़ी देर के लिए शरीर की स्थूलता से मुक्त हो जाओगे और मन के आकाश में उड़ोगे। और अगर नर्तकी मीरा हो या चैतन्य, तो तुम थोड़ी देर के लिए परम आकाश में, महाकाश में प्रविष्ट हो जाओगे समाधि बरसेगी।
मीरा के नृत्य में आत्मा के साथ उसका संबंध है। तो थोड़ी देर को उसका नृत्य देखते-देखते तुम्हारा भी संबंध जुड़ जाएगा।
हम सत्संग से बड़े आंदोलित होते हैं। अपने मित्र बहुत सोच-समझ कर चुनना। क्योंकि तुम्हारे मित्र अंततः तुम्हारे जीवन के निर्णायक हो जाते हैं। अगर नाच ही देखना हो तो मीरा को खोजना। अगर गीत ही सुनना हो तो किसी पलटू, दरिया, कबीर का सुनना। जब ऊंचा मिल सकता हो तो क्यों नीचे को पकड़ते हो? जब गंगाजल मिल सकता हो तो तुम क्यों किसी गंदी नाली का जल पीते हो?
पलटू कहते हैं:
मन मिहीन कर लीजिए, जब पिउ लागै हाथ।
ऐसे धीरे-धीरे महीन होते जाओ। शरीर से छूटो, मन से छूटो--आत्मा से भी छूटो एक दिन! तब परमात्मा से जुड़ते हो। इन तीनों सीढ़ियों को जो पार कर जाता है और चौथे में प्रवेश कर जाता है--शरीर से छूटा, मन से छूटा, आत्मा से भी छूटा। आत्मा से छूटा मतलब मैं-भाव पूरी तरह समाप्त हो गया। आत्मा शब्द का अर्थ होता है: मैं, मैं-भाव।
इसलिए बुद्ध ने कहा है: जो परमदशा है वह ‘अनात्मा’ की है। वहां आत्मा भी नहीं बचती। वहां ‘मैं हूं’, यह भाव ही नहीं बचता। अनत्ता। अत्ता चली जाती है। मैं-भाव चला जाता है। शून्य रह जाता है। उसी शून्य में परमात्म-भाव या भागवत-भाव पैदा होता है।
जब पिउ लागै हाथ, नीच ह्वै सब से रहना।
पच्छापच्छी त्याग उंच बानी नहिं कहना।।
और जब प्रिय को हाथ पाने की सच में ही आकांक्षा पैदा हो गई हो तो नीच ह्वै सबसे रहना। सबसे नीचे होकर रहना, सबसे पीछे होकर रहना। आगे की भाग-दौड़ में मत पड़ना। दूसरों से आगे हो जाऊं, यह चेष्ठा, यह महत्वाकांक्षा ही संसार की जन्मदात्री है।
इसलिए जीसस ने कहा है: जो सबसे पीछे हैं इस जगत में, वे परमात्मा के जगत में सबसे पहले होंगे। और जो यहां सबसे आगे हैं, वे वहां सबसे पीछे हो जाएंगे। आगे की दौड़ राजनीति। सबसे आगे हो जाऊं! पंक्ति में सबसे आगे खड़ा हो जाऊं!
आगे खड़े होने की आकांक्षा अहंकार की आकांक्षा है। मैं और पीछे कैसे हो सकता हूं! मुझे तो प्रथम होना चहिए। यह प्रथम होने का जो रोग है, यह सारी राजनीति को जन्माता है।
हम छोटे-छोटे बच्चों का मन भी जहर से भर देते हैं। छोटा सा बच्चा स्कूल जा रहा है, पांच-छह साल का बच्चा है, बस्ता इत्यादि लटकाए स्कूल जा रहा है, उसको हम जहर पिलाना शुरू कर देते हैं, कि प्रथम आना, कक्षा में प्रथम आना! तीस बच्चों को पछाड़ कर आगे निकल जाना! तो ही तुम्हारी कुछ कीमत है। फिर अगर यही बच्चे जिंदगी भर आगे होने में लगे रहते हैं, कोई धन में आगे होने में लगा है, कोई पद में आगे होने में लगा है, कोई किसी तरह, कोई किसी तरह, येन-केन-प्रकारेण, फिर कुछ भी हो, कुछ भी साधन अखत्यार करना पड़े--लेकिन किसी तरह आगे होना है! क्योंकि आगे हुए बिना कोई कीमत नहीं, कोई मूल्य नहीं। मूल्य है एक बात का कि तुम कहां हो, कितने लोग तुम्हारे पीछे हैं। जितने लोगों को तुम पीछे कर दो, उतने मूल्यवान हो।
लेकिन ध्यान रखना, जब तुम एक आदमी को पीछे करते हो, तुम उतने कठोर हो गए। दो को किया, और ज्यादा कठोर हो गए। तीन को किया, और ज्यादा कठोर हो गए।
महत्वाकांक्षी पत्थर हो जाएगा, बड़ा स्थूल हो जाएगा। इसलिए राजनीतिज्ञ से ज्यादा स्थूल व्यक्ति संसार में दूसरा नहीं होता। राजनीतिज्ञ से ज्यादा धर्म के विपरीत दूसरा आदमी नहीं होता। यहां वेश्याएं भी धार्मिक हो सकती हैं। यहां पापी भी धार्मिक हो सकते हैं। लेकिन राजनीतिज्ञ का धार्मिक होना बहुत कठिन हो जाता है। कारण? उसकी दौड़ ही धर्म के बिलकुल विपरीत है। जीसस कहते हैं: जो यहां प्रथम है, वह अंतिम हो जाता है मेरे राज्य में; और जो अंतिम है वह प्रथम हो जाता है। तो यहां तो प्रथम राजनीतिज्ञ हैं। यह जो प्रथम होने की दौड़ है, यह अहंकार की ही उदघोषणा है। और अहंकार परमात्मा से तोड़ता है।
जब पिउ लागै हाथ, नीच ह्वै सब से रहना।
तो बिलकुल पीछे हो जाना, नीचे हो जाना। गड्ढे जैसे हो जाना, पहाड़ के शिखर जैसे नहीं।
देखते हो, जब वर्षा होती है, पहाड़ पर भी होती है; लेकिन पहाड़ पर कुछ बचता नहीं, सब बह जाता है, सब गड्ढों में पहुंच जाता है! झीलें भर जाती हैं। झीलें--जो खाली थीं--भर जाती हैं! और पहाड़--जो भरे थे--खाली रह जाते हैं!
यहां जो भरा है वह खाली रह जाएगा। जो खाली है, भर जाएगा। इस सूत्र को जिसने समझ लिया, उसे समझने को कुछ और बचता नहीं।
जब पिउ लागै हाथ, नीच ह्वै सब से रहना।
पच्छापच्छी त्याग उंच बानी नहिं कहना।।
और पक्ष-विपक्ष वाद-विवाद छोड़ देना। ‘पच्छापच्छी त्याग...’ क्योंकि वह सब विवाद भी अहंकार के ही विवाद हैं। हिंदू कहता है: मेरा धर्म ठीक। वह यह थोड़े ही कह रहा है मेरा धर्म ठीक--वह यह कह रहा है मैं ठीक। अगर उसकी बात को ठीक से सुनो, धर्म से उसको क्या लेना-देना है! और धर्म हिंदू का और मुसलमान का अलग कैसे हो सकता है? आग को चाहे हिंदुस्तान में जलाओ और चाहे अरब में--जलाती है। आग का धर्म एक है, चाहे हिंदू घर में जले और चाहे मुसलमान घर में जले। पानी को गरम करो, सौ डिग्री पर भाप बन जाता है, चाहे हिंदुस्तान में, चाहे तिब्बत में, चाहे चीन में। नियम में तो कोई फर्क नहीं पड़ता। टी.बी. हो जाए--हिंदू को, मुसलमान को, जैन को--तो एक ही इलाज काम करता है। जैन यह नहीं कह सकता कि मैं जैन हूं, यह टी.बी. जैन है; यह मुसलमानों को चलने वाला इलाज इस पर नहीं चलेगा। यह टी.बी. शाकाहारी है; यह मांसाहारियों पर चलने वाला इलाज काम नहीं आएगा।
लेकिन वही दवा काम करती है।
अगर विज्ञान एक है तो धर्म दो कैसे हो सकते हैं? विज्ञान है स्थूल का धर्म। और धर्म है सूक्ष्म का विज्ञान। विज्ञान सार्वभौम होता है, युनिवर्सल होता है। कोई अपवाद नहीं होते। वैसा ही धर्म तो परम विज्ञान है। वहां कैसे अपवाद हो सकते हैं! कोई अपवाद नहीं होते।
इसलिए ‘पच्छापच्छी त्याग’--पक्ष-विपक्ष में मत पड़ना। यह कहना ही मत कि मैं हिंदू, कि मैं मुसलमान, कि मैं ईसाई, कि मैं बौद्ध, कि मैं सिक्ख। ये तो पक्ष हैं; ये धर्म नहीं हैं। ये संप्रदाय हैं। धार्मिक व्यक्ति का तो कोई पक्ष नहीं होता। धार्मिक व्यक्ति का तो कोई सिद्धांत भी नहीं होता, कोई शास्त्र भी नहीं होता। धार्मिक व्यक्ति का तो कोई मन ही नहीं बचता, तो कहां सिद्धांत, कहां शास्त्र! कोई विचार ही उसका नहीं होता। निर्विचार स्थिति धर्म की स्थिति है। तो ये तो सब विचार की बातें हैं। तुम कहते हो: कुरान मेरा शास्त्र, कि बाइबिल कि गीता। कुरान, बाइबिल और गीता तो मन तक ही जा सकते हैं; मन के पार तो नहीं जा सकते। और मन तक तो धर्म आता ही नहीं। मन जहां समाप्त होता है, वहां धर्म शुरू होता है। अ-मन, नो-माइंड जहां से शुरू होता है--जिसको कबीर ने उनमनी दशा कहा है--मन-रहित दशा--वहां से धर्म शुरू होता है।
यह तो आत्यंतिक रूप से समझ लेने जैसी बात है कि जो अभी कुरान और गीता में पड़ा है, वह अभी धर्म में नहीं पहुंचा है। जो धर्म में पहुंच गया है वह कुरान, गीता से मुक्त हो गया है। और मजा यह है कि जो धर्म में पहुंच गया है, वही समझेगा कि कुरान में क्या है और गीता में क्या है। और जो अभी धर्म में नहीं पहुंचा है, वह लाख सिर पटके, कुरान और गीता को लेकर, वह कुछ भी नहीं समझेगा। समझ तो भीतर की ऊंचाई से आती है; भीतर के अनुभव से आती है; भीतर की गहराई से आती है; भीतर की प्रतीति और साक्षात्कार से आती है।
तो ठीक कहते हैं पलटू:
पच्छापच्छी त्याग उंच बानी नहिं कहना।
एक तो पक्ष-विपक्ष छोड़ देना, विवाद छोड़ देना, शास्त्रार्थ में मत पड़ना। क्योंकि सब शास्त्रार्थ गहरे में अहंकार को ही सिद्ध करने की चेष्टा है। तुम्हें कुछ मतलब थोड़े ही होता है सत्य से। सत्य का तुम्हें पता ही नहीं, सत्य से मतलब क्या खाक होगा? जब तुम कहते हो कि जो मैं कह रहा हूं यह ठीक है, तो तुम यह थोड़े ही कहते हो कि जो मैं कह रहा हूं यह ठीक है--तुम यह कहते हो कि मैं कह रहा हूं, इसलिए कैसे गलत हो सकता है?
गौर से जांचना: क्यों तुम इतने उद्विग्न हो जाते हो, जब कोई तुम्हारी बात को गलत कहता है? क्या इसलिए कि तुम्हें बात में बड़ा रस है? बात से तुम्हें क्या लेना-देना है? तुम उद्विग्न हो जाते हो क्योंकि तुम्हारी बात को गलत कह रहा है; तुमको गलत कह रहा है।
धन की तो बात ही छोड़ दो, व्यर्थ की बातों में भी आदमी आग्रहपूर्वक होता है। ऐसी बातों में भी आग्रहपूर्वक होता है जिनमें कुछ सार नहीं है। अगर उनमें भी कोई तुम्हारी बात को गलत कहता है तो तुम अच्छा नहीं मानते; तुम्हें सुख नहीं होता। तुम्हें परेशानी हो जाती है। तुम्हारी भूल भी कोई बताए तो तुम नाराज होते हो। तुम भूल बताने वाले को क्षमा नहीं कर पाते हो। हालांकि उसने भूल ही बताई है, लेकिन तुम्हारे अहंकार को चोट लगती है, क्योंकि तुम यह मान ही नहीं सकते कि तुम से और भूल हो सकती है! और किसी ने भूल बता दी। तो जिसने भूल बता दी, तुम अगर मान भी लो कि यह भूल है तो भी तुम इस आदमी को क्षमा न कर पाओगे। किसी न किसी दिन तलाश में रहोगे कि मैं भी इसकी भूल बता दूं, तब बराबरी हो जाए।
तो सत्य के बाबत हम जो दावे करते हैं कि मेरी किताब सही, मेरा देश सही, मेरी जाति सही, मेरा धर्म, मेरा मंदिर--इन सब में आकांक्षा मैं...इन सबके पीछे ‘मैं’ का खेल चल रहा है।
पच्छापच्छी त्याग...
और भी कारण हैं। पक्ष-विपक्ष छोड़ोगे तभी मन के पार जा सकोगे। मन में पक्ष-विपक्ष होते हैं। जहां तक मन होता है, वहां तक विकल्प होते हैं: ऐसा मानूं, वैसा मानूं। जहां तक मन है, वहां तक द्वंद्व है। वहां हर चीज दो तरह से आती है: ईश्वर है या ईश्वर नहीं है? नास्तिक या आस्तिक?
जहां तक मन है वहां तक चुनाव है। तुम अगर कहो कि मैं आस्तिक हूं, तो भी तुम मन के भीतर हो। जो आदमी मन के पार चला गया, वह कहेगा कि कैसे कहूं कि आस्तिक, कैसे कहूं कि नास्तिक, क्योंकि परमात्मा हां और ना के पार है। इसलिए बुद्ध चुप रह गए। जब कोई उनसे पूछता है, ईश्वर है? तो वे चुप रह जाते हैं। वे कहते: मैं कुछ भी कहूंगा तो गलत होगा। क्योंकि जो भी कहा जाएगा, वह द्वंद्व की भाषा में कहा जाएगा। अगर मैं कहूं परमात्मा प्रकाश है, तो फिर अंधेरे का क्या होगा? अंधेरा भी वही है। अगर मैं कहूं कि परमात्मा अंधेरा है, तो प्रकाश का क्या होगा? क्योंकि प्रकाश भी वही है। और अगर मैं कहूं परमात्मा दोनों है, तो कुछ कहा नहीं कहा, बराबर हो गया, क्योंकि उससे कुछ हल न हुआ। जीवन भी वही, मृत्यु भी वही। तुम चाहते थे, कुछ निर्णय हो जाए। तो निर्णय तो हुआ नहीं; बात वहीं के वहीं रही। तुम चाहते थे कि पक्का हो जाए कि परमात्मा कैसा है।
बुद्ध कहते हैं: जो भी कहा जाएगा, गलत होगा। लाओत्सु ने भी वही कहा है। सत्य कहा नहीं कि गलत हुआ नहीं। इधर कहा उधर गलत हुआ। चुप रह जाना। परम मौन में ही सत्य के संबंध में कुछ कहे जाने की संभावना है।
सत्य के संबंध में आज तक कुछ भी नहीं कहा जा सका है। जो भी कहा गया है, वह सत्य तक कैसे पहुंचो, इस संबंध में कहा गया है। कैसे सूक्ष्म हो जाओ, कैसे सूक्ष्म होते-होते, होते-होते, होते-होते खो जाओ, विलीन हो जाओ। फिर जो बच रहता है, उसके बाबत कौन क्या कह सका है! वाणी चुप है। शब्द मौन हैं। मन ही गया। बोलने वाला ही न बचा। जो बोलने में कुशल था, उसका कोई अब उसकी कोई गति नहीं रही। उसका अब कुछ चलता नहीं। उसका बस नहीं है। कुछ इतना बड़ा घटा है, जो शब्दों में नहीं समाता है।
पच्छापच्छी त्याग उंच बानी नहिं कहना।
और ऐसा तो कहना ही मत भूल कर कि मैं सही हूं। और ऐसा भी मत कहना कि तू गलत है। जब तुम किसी को कहते हो तू गलत है, तो भी वही खेल चल रहा है। वह मैं सही और तू गलत का खेल चल रहा है। यह भी मत कहना।
महावीर ने कहा है: मैं उपदेश देता हूं, आदेश नहीं। किसी ने पूछा कि आदेश नहीं कहने का क्या अर्थ है? तो उन्होंने कहा कि मैं किसी से यह नहीं कहता कि तुम ऐसा करो! मैं कौन हूं? मैं कौन कहने वाला कि तुम ऐसा करो! मैं इतना ही कहता हूं मैंने ऐसा किया और ऐसा पाया। सुन लो। तुम्हारी मर्जी। ठीक लग जाए, करना; न ठीक लगे, न करना। करोगे तो तुमने अपने ही निर्णय से किया; नहीं करोगे तो अपने निर्णय से किया। तुम करो तो मैं प्रसन्न हूं; तुम न करो तो मैं प्रसन्न हूं। मैं आदेश नहीं देता। मैं सिर्फ उपदेश देता हूं।
उपदेश और आदेश का यही फर्क है। उपदेश का अर्थ होता है अपनी कहे देता हूं। तुम इसे मानो, ऐसा कोई आग्रह नहीं है। तुम सिर्फ सुन लो तो अनुग्रह तुम्हारा, धन्यवाद। बस उस पर बात समाप्त हो गई। फिर ऐसा नहीं है कि कल मैंने जो तुमसे कहा था, अगर उसके अनुसार तुम न चले तो मैं नाराज होऊंगा; और अगर उसके अनुसार चले, तो मैं प्रसन्न होऊंगा।
आदेश का मतलब होता है: ऊंची वाणी। मैं जानता हूं, तुम नहीं जानते। मैं जो कहता हूं, उसे मान कर करो। मैं ज्ञानी, तुम अज्ञानी। यह ऊंची वाणी।
पलटू कहते हैं: न तो पक्ष-विपक्ष रखना, न ऊंची बात कहना।
मान-बड़ाई खोय खाक में जीते मिलना।
गारी कोउ दै जाय छिमा करि चुपके रहना।।
मान-बड़ाई खोय खाक में जीते मिलना।
सारी मान-बड़ाई का भाव छोड़ दो, सारी महत्वाकांक्षा छोड़ दो। मैं को खूब सजाया, खूब दुख भोग लिया; अब मैं को और न सजाओ। अब मैं से सब आभूषण छीन लो। अब मैं को और भोजन मत दो। अब इस मैं को मर जाने दो।
मान-बड़ाई खोय खाक में जीते मिलना।
और जीते जी मौत घट जाए, तो ही समझो, परमात्मा से मिलन हो पाएगा। शरीर जीए, मैं न जीए। जीते जी मौत घट जाए। अभी तो क्या होता है--शरीर मरता है जब मौत घटती है; मैं फिर भी जीता है। तो एक शरीर से छलांग ली और दूसरी देह में प्रवेश कर जाता है। इधर एक शरीर से छूटा भी नहीं, क्षण भी नहीं लगते, पल भी नहीं लगते, इधर तुम मरे और उधर तुमने गर्भ धारण किया। मैं तो जारी रहता है, शरीर बदलते रहते हो। मैं भीतर बना रहता है।
यह साधारण मृत्यु की घटना है; इसमें शरीर मरता है, मैं नहीं मरता। और जिसको हम महामृत्यु कहते हैं, समाधि कहते हैं, उसमें मैं मर जाता है, शरीर बना रहता है। मैं मर जाए शरीर के रहते, तो फिर दुबारा जन्म नहीं होता। क्योंकि फिर किसका जन्म? वह मैं ही है जो यात्रा करवाता था; जो चाहता था मैं रहूं, मैं रहूं, और-और रूपों में रहूं, और-और ढंग में रहूं। अभी तो बहुत कुछ बाकी रह गया है भोगने को, उसे भोगना है। हर जिंदगी के बाद बाकी रह जाता है।
उपनिषदों में कथा है ययाति की। वह सौ साल का हुआ, उसकी मौत आई। वह बड़ा सम्राट था। मौत ने आकर उसे कहा: अब आप चलें। वह तो बहुत चौंका। उसने कहा: यह भी कोई बात हुई? अभी तो मैं कुछ भोग ही नहीं पाया। थोड़े दिन और मुझे दे दो। कई बातें अधूरी रह गई हैं।
मौत हंसी। उसने कहा: वे कभी पूरी नहीं होंगी। लेकिन ययाति ने कहा: एक मौका दो, मैं जल्दी पूरी कर लूंगा। सौ साल मुझे और दे दो।
तो मौत ने कहा: मुझे किसी को ले जाना तो पड़ेगा। तेरे सौ बेटे हैं, इनमें से किसी एक को जाने के लिए तैयार कर ले, तो मैं तुझे छोड़ जाऊं।
ययाति ने अपने बेटों को बुलाया। उसमें कोई अस्सी साल का था, कोई पचहत्तर साल का, कोई सत्तर साल का। वे भी कई बूढ़े हो गए थे। वे तो सब चुपके बैठे रह गए। वे एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। सबसे छोटा बेटा उठ कर खड़ा हुआ। उसकी उम्र तो कोई बीस साल से ज्यादा न थी। मौत ने उसके बेटे को कहा नासमझ, ये तेरे बड़े भाई कोई जाने को राजी नहीं हैं, तू क्यों फंस रहा है?
उस बेटे ने कहा: बड़े भाइयों की बड़े भाई जानें। उनसे पूछ लें आप।
बड़े भाइयों ने कहा: हम क्यों जाएं? जब पिता का सौ साल में जीवन का रस पूरा नहीं हुआ, तो हम तो अभी सत्तर साल ही जीए हैं, कोई साठ ही साल जीआ, हमारा रस कैसे पूरा हो जाए? और जब पिता जाने को तैयार नहीं हैं, तो हम क्यों जाने को तैयार हों? अगर जीवन से उनका मोह है तो हमारा भी है। हमारा तो और भी अधूरा रह गया अभी। यह तो हम से कम से कम तीस साल, बीस साल ज्यादा जी लिए हैं। हम क्यों छोड़ें? हम भी पूरा भोगना चाहते हैं।
उस छोटे बेटे ने कहा: यह देख कर कि पिता सौ साल में नहीं भोग पाए, मैं सोचता हूं: रहने से भी क्या सार है! अस्सी साल और धक्के खाने से क्या प्रयोजन है! जाना तो पड़ेगा। तुम सौ साल बाद आओगे। और पिता सौ साल में भी नहीं भोग पाए और रोते हैं, आंसू बह रहे हैं, तो हंसते हुए मैं क्यों न चला जाऊं? मुझे ले चलो। यह बात खत्म हो गई।
अब एक ही घटना थी, लेकिन दो दृष्टियां हो गईं। यही धार्मिक-अधार्मिक आदमी का फर्क है। वे बड़े भाइयों ने कहा कि हम क्यों जाएं, जब यह बूढ़ा जाने को तैयार नहीं है? जब बाप मरने को तैयार नहीं तो बेटा क्यों मरे?
और उनकी बात में तर्क है; संसार का सीधा गणित है। लेकिन दूसरे बेटे की भी बात में बड़ा गणित है; वह परमात्मा का गणित है। वह यह कहता है कि जब सौ साल में इनका काम पूरा नहीं हुआ, तो अब मैं ही और अस्सी साल धक्के क्यों खाऊं? यह काम तो पूरा होने वाला नहीं है, मेरी समझ में आ गया, मुझे ले चलो, बात खत्म हो गई।
कहते हैं, बेटे को मौत लेकर चली गई। सौ साल बाद जब आई, जब तक ययाति फिर भूल चुका था। सौ साल लंबा वक्त था कि मौत फिर आएगी। जब मौत आई तो वह फिर कंपने लगा, फिर उसकी आंख से आंसू बहने लगे। मौत ने कहा: अब बहुत हो गया, अब चलो। उसने कहा: लेकिन अभी कुछ भी पूरा नहीं हुआ!
ऐसी कहानी चलती है। ऐसा दस बार होता है। और हर बार ययाति का कोई बेटा मौत ले जाती है। और जब हजार साल पूरे हो गए, दस बार यह घटना घटी और मौत आई और ययाति फिर रोने लगा, तो मौत ने कहा: अब तो समझो! तुम जिन वासनाओं को पूरा करना चाहते हो, वे स्वभाव से दुष्पूर हैं। तुम्हारी समझ में कब आएगा? तुम बूढ़े होकर भी बचकाने ही बने हुए हो! जिसे तुम पूरा करने चले हो, वह पूरा होता ही नहीं; अधूरा होना उसका स्वभाव है; अधूरा रहना उसका स्वभाव है।
तुमने कोई चीज जीवन में पूरी की? सब अधूरा रहता है; अटका रहता है। कितना ही पूरा करो, अटका रहता है। धन इकट्ठा करो, कितना ही इकट्ठा करो, वासना बनी ही रहती है कि और थोड़ा हो जाता। कितना ही उपाय करो, कुछ कम रहता ही है, भरता नहीं। यह पात्र भरने वाला नहीं है।
तो जो यह जीवन के सत्य को देख कर मौत के आने के पहले मर जाने को तैयार है...साधारणतः तो मौत के आने पर भी लोग ययाति का व्यवहार करते हैं; मरने को तैयार नहीं होते। मौत तो सीख गई बहुत कुछ। यह कहानी जब घटी तो मौत भोलीभाली रही होगी; राजी हो गई। उसने कहा कि चलो ठीक है, और सौ साल जी लो, और सौ साल सही, और सौ साल सही। एक हजार साल तक मौत आती रही और जाती रही। यह उस जमाने की बात होगी, जब मौत बड़ी भोली रही होगी। तो मौत तो बहुत सीख गई: अब तुम लाख सिर पटको, वह जाती नहीं। वह कहती है: छोड़ो बकवास, यह हम बहुत देख चुके। लेकिन आदमी कुछ नहीं सीखा। ययाति की घटना से मौत तो कुछ सीख गई है। अब मानती नहीं किसी का; किसी के बेटे-वेटे को ले जाने को राजी नहीं होती। लेकिन आदमी कुछ भी नहीं सीखा। आदमी वहीं के वहीं हैं।
कल मैं स्टिफिन जुंग का एक वक्तव्य पढ़ रहा था। वक्तव्य महत्वपूर्ण है। वक्तव्य उसका यह कि ऐसा मालूम होता है, मनुष्य की चेतना में कोई विकास नहीं होता। अगर हम बुरे आदमियों को देखें तो भी कोई विकास नहीं हुआ है। चंगीज खां और एडोल्फ हिटलर में कौन सा विकास हुआ है? चंगीज खां इतना ही बुरा आदमी था जितना एडोल्फ हिटलर। यह दो हजार साल का फासला कुछ फर्क नहीं लाता। अगर हम भले आदमियों में देखें, तो भी कोई फर्क नहीं हुआ है। बुद्ध में और रामकृष्ण में, महावीर में और रमण में...। कुछ ऐसा थोड़े है कि रमण महावीर से आगे चले गए; या रामकृष्ण बुद्ध से आगे चले गए, क्योंकि दो हजार साल का, ढाई हजार साल का फासला है। बुरे आदमी भी वहीं के वहीं हैं; भले आदमी भी वहीं के वहीं हैं।
स्टिफिन जुंग का यह वक्तव्य महत्वपूर्ण है कि ऐसा लगता है जीवन में कोई विकास नहीं होता। विकास की धारणा गलत है। चीजों में फर्क हुआ है। अगर हम दस हजार साल पीछे लौटें और किसी को मारना हो तो पत्थर उठा कर उसके सिर पर पटकना पड़ता था। वह फर्क हो गया। अब हम आधा मील आकाश में से बम गिरा सकते हैं। लेकिन यह गिराने वाला आदमी और यह मारने वाला आदमी और यह मरने वाला आदमी, इनमें कोई फर्क नहीं हुआ है। बम गिराओ कि पत्थर गिराओ, छूरा भोंक दो कि तीर चलाओ, कि गोली चलाओ, इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। कि मृत्यु की किरण बना लो और सिर्फ किरण भेज दो हजारों मील के फासले से और आदमी मर जाए। मगर यह मारने वाला मन वहीं के वहीं है। तो न तो बुरा आदमी कुछ ज्यादा बुरा हो गया है और न भला आदमी कुछ ज्यादा भला हो गया है। विकास कुछ हुआ नहीं। सब चीजें वहीं के वहीं हैं।
मौत सीख गई होगी; आदमी ने कुछ नहीं सीखा। आदमी के सीखने का सबूत तब मिलता है जब आदमी जीवन के ढर्रे को देख कर मौत के आने के पहले मर जाए; मौत के बिना मर जाए; मौत को कष्ट ही न दे कि तू काहे को आती है, हम खुद ही मरे जाते हैं।
यह जो ‘मैं’ का मर जाना है...। मौत तो फिर भी आएगी, देह को तो ले जाने उसे आना ही पड़ेगा। लेकिन फिर तुम्हें लेने नहीं आना पड़ेगा; तुम तो पहले ही उड़ गए। हंसा जाई अकेला! उसे मौत को नहीं ले जाना पड़ता; वह अकेला ही चला जाता है। वह खुद ही उड़ जाता है। क्या मौत के सहारे जाना! क्या घसीटा जाना पसंद करेगा कोई जिसमें थोड़ी भी समझ है? मौत खींच रही है और तुम पकड़ रहे हो ययाति की तरह किनारे को और तुम कहते हो: अभी नहीं, जरा और, थोड़ा और समय दे दो! एक ही दिन सही! कई काम अधूरे रह गए हैं। बेटी की शादी होनी थी। बेटी को बच्चा होने वाला था। दुकान पर कल ग्राहक आने वाले थे। एक जमीन खरीदी थी; उसका दाम चुकाना है। एक मकान बेचा है; उसके दाम लेने हैं। कुछ तो पूरा कर लेने दो। ऐसा बीच में तो मत ले जाओ।
लेकिन आदमी हमेशा बीच में ही जाता है। हमेशा बीच में जाता है। तुमने कभी किसी ऐसे आदमी की खबर सुनी, जो मरने के पहले सब हिसाब-किताब पूरा कर दिया हो और फिर बैठ गया हो; उसने कहा कि अब ठीक है, अब कुछ करने को नहीं रहा, अब आ जाओ। ऐसी तुमने कोई खबर सुनी? ऐसी कोई कहानी भी सुनी? ऐसा हुआ ही नहीं; नहीं तो कहानी भी नहीं बन सकती। कहानियां झूठ बनती हैं, लेकिन इतनी झूठ भी नहीं बन सकतीं, क्योंकि ऐसा हुआ ही नहीं।
मान-बड़ाई खोय खाक में जीते मिलना।
गारी कोउ दै जाय छिमा करि चुपके रहना।।
जो मौत को स्वीकार कर लेता है, फिर उसको किसी चीज से पीड़ा नहीं होती, फिर कोई गाली दे जाए तो क्या मिटा जाता है? जिसने अहंकार गिरा दिया, उसे गाली लगती नहीं। क्योंकि गाली तो लगती अहंकार में है। गाली के कारण थोड़े ही दुख होता है। एक आदमी जा रहा है रास्ते से, उसने तुम्हें गाली दे दी; उसकी गाली से थोड़े ही दुख होता है, दुख तुम्हें तुम्हारे अहंकार से होता है। तुम आशा कर रहे थे, फूलमाला पहनाएगा और ये सज्जन आ गए और इन्होंने गाली दे दी। तुम कम से कम इतनी तो आशा करते थे कि नमस्कार करेगा; चलो नहीं करेगा नमस्कार तो गाली नहीं देगा, इतनी तो अपेक्षा थी ही! वह जो अहंकार भीतर बैठा है, प्रतीक्षा कर रहा था सम्मान की, और मिला अपमान। आशा करते थे पहाड़ पर बैठेंगे, गिर गए खड्ढे में। पहाड़ पर बैठने की आकांक्षा के कारण गड्ढा अखरता है। अगर तुम पहाड़ पर बैठने की आकांक्षा ही न करते तो गड्ढे में गिरने की भी कोई पीड़ा, कोई तनाव, कुछ चिंता नहीं पैदा होती। तुम कहते: ठीक, इस आदमी को गाली देनी थी, यह गाली दे गया। और इस आदमी को फूलमाला पहनानी थी, यह फूलमाला पहना गया। न हम फूलमाला पहनने को बैठे थे, न हम गाली लेने को बैठे थे। अब इनकी मरजी।
गाली देने वाला तुम्हें कुछ भी नहीं दे रहा है; सिर्फ अपने भीतर के पागलपन को प्रकट कर रहा है। तुमसे उसका क्या लेना-देना? तुम अछूते खड़े रह जाओगे। तुम अस्पर्शित रह जाओगे। मगर मैं मर जाए तो। अगर मैं न मरे तो कठिनाई हो जाती है। तो जितना बड़ा मैं होगा, उतनी ही गाली चोट करेगी--उसी मात्रा में। तो जिसका जितना बड़ा मैं, उतना अपमान चोट करता है। जितने मान की आकांक्षा, उतना अपमान चोट करता है। जितनी मान की आकांक्षा कम, उतना अपमान चोट नहीं करता। जिस दिन मान की आकांक्षा बिलकुल तिरोहित हो जाती है, अपमान का कोई अर्थ ही नहीं होता।
बुद्ध को किन्हीं ने गालियां दी हैं और बुद्ध खड़े सुनते रहे हैं। और जब वे गाली दे चुके तो बुद्ध ने कहा: अब मैं जाऊं? मुझे दूसरे गांव जाना है और दूसरे गांव में लोग मेरी प्रतीक्षा करते हैं। तुम्हारी बात पूरी हो गई हो तो मैं जाऊं?
उन्होंने कहा: यह बात! यह बात नहीं है--गालियां हैं। तुम्हें गालियां समझ में आती हैं कि नहीं?
बुद्ध ने कहा कि समझ में तो आती हैं, लेकिन तुम जरा देर करके आए। अगर तुम इनका उत्तर चाहते थे तो दस साल पहले आना था। तब मेरा अहंकार जीता-जागता था। अब तुम एक मरे हुए आदमी को गालियां दे रहे हो। एक मुर्दा को गाली दोगे, उत्तर की तो आशा नहीं रख सकते। तो मैं जाऊं, अगर तुम्हारी बात पूरी हो गई हो? अगर फिर भी कुछ बचा हो तो मैं जब लौटूंगा दुबारा इसी राह से, तब तुम पूरी कर लेना।
मगर बुद्ध कहते हैं: दस साल पहले आना था, अगर उत्तर चाहते थे। अब तो उत्तर देने वाला जा चुका। अब तो मुझे तुम पर दया आती है।
किसी ने पूछा: दया! आपको हम पर दया आती है? उन्होंने कहा: हां, दया आती है; क्योंकि पिछले गांव में ऐसा हुआ, कि कुछ लोग लाए थे मिठाइयां थालियां भर कर। और मैंने कहा कि मेरा तो पेट भरा है और मैं इन मिठाइयों को कहां ढोता फिरूंगा! तुम ले जाओ वापस। तो वे वापस ले गए। मैं तुमसे पूछता हूं: उन्होंने क्या किया होगा?
तो किसी ने भीड़ में से कहा: क्या किया होगा! गांव में बांट दी होंगी।
बुद्ध ने कहा: इसलिए मुझे दया आती है। अब तुम क्या करोगे? तुम गालियों का थाल सजा कर आए; मैं कहता हूं, मैं तो लेता नहीं। तो तुम पर मुझे दया आती है। गांव में बांटोगे? घर ले जाओगे? क्या करोगे? तुम बड़ी झंझट में पड़ गए। तुम जानो। तुम्हें जो करना हो करो। तुम देते हो सही, मगर मैं लेता नहीं। और जब तक मैं न लूं, तब तक गाली लग कैसे सकती है? गाली कोई एकतरफा थोड़े ही है। देने वाले पर ही तो निर्भर नहीं है। लेने वाले को भी लेने की तैयारी चाहिए।
तुम जरा खयाल करना। जब कोई गाली देता है, तुम कितनी तत्परता से ले लेते हो--हाथ फैला कर, झोली फैला कर कि लाओ महाराज, राह देखते थे! इतनी क्या उत्सुकता है? इतनी क्या जल्दबाजी है?
कई दफे तो ऐसा होता है, दूसरा गाली देता भी नहीं और तुम सोचते हो कि उसने दी। कई दफे कोई किसी और बात पर हंसता है, तुम सोचते हो मेरे लिए ही हंस रहा है। राह के किनारे दो आदमी खड़े हों, खुस-पुस करते हों, तुम सोचते हो: अरे, मेरे ही संबंध में बात कर रहे हैं, कि जरूर मेरे ही खिलाफ बात कर रहे होंगे। नहीं तो खुस-पुस क्यों कर रहे हैं? जोर से क्यों नहीं बोलते? दी नहीं है गाली, मगर तुमने ले ली। ऐसे लोग हैं जो दी गई गाली नहीं लेते। और ऐसे लोग हैं, जो नहीं दी गाली ले लेते हैं। सब तुम पर निर्भर है। सब तुम्हारा खेल है।
गारी कोउ दै जाय छिमा करि चुपके रहना।
पर यह बात बड़ी महत्वपूर्ण है। पलटू यह कहते हैं कि क्षमा तो कर ही देना, मगर क्षमा को भी कहते मत फिरना, कि देखो क्षमा कर दिया; कि देखो फलां आदमी गाली दे गया था, बिलकुल क्षमा कर दिया, जरा नहीं लिया। यह कहते मत फिरना, नहीं तो सब खराब कर लिया; बनी-बनाई बिगाड़ ली। क्योंकि क्षमा कहने की बात नहीं, नहीं तो फिर अहंकार आ गया--क्षमा के पीछे से आ गया। अगर क्षमा कहने लगे कि मैंने क्षमा कर दिया, तो कुछ बहुत फर्क न हुआ। पहले अहंकार गाली से विक्षुब्ध हो जाता था, अब अहंकार ने नई तरकीब खोज ली अपने को सजाने की--अब अहंकार कहता है: देखो मुझे, मुझे देखो! लोग गाली दे जाते हैं और मैं क्षमा कर देता हूं। चुपके रहना। बात खत्म हो गई। तुम्हारा क्या लेना-देना? चुपके रहना। कोई दे गया, वह जाने; ले गया, वह जाने। न तुमने लिया, न तुमने दिया। तुम चुप ही रहना।
सबकी करै तारीफ, आपको छोटा जानै।
और पलटू कहते हैं: जिसे परमात्मा को पाना हो, वह यह चारों तरफ परमात्मा को देखेगा; वह सबमें परमात्मा को देखेगा। वह चोर में भी परमात्मा को देखेगा और पापी में भी परमात्मा को देखेगा। है तो पापी में भी परमात्मा; चलो थोड़ा उलटा खड़ा है। है तो चोर में भी परमात्मा; चलो थोड़ा राह से उतर गया है। जब कोई गाड़ी राह से उतर जाती है, तब क्या तुम उसे गाड़ी नहीं कहते? तब भी गाड़ी तो गाड़ी है। राह से उतर गई तो राह पर चढ़ा लेंगे। इससे गाड़ी होने के गाड़ीपन में तो फर्क नहीं पड़ता।
कोई आदमी पापी हो गया, इससे क्या फर्क पड़ता है? थोड़ा परमात्मा का विस्मरण हो गया है, उसे याद दिला देंगे। यह याद कभी न कभी आ जाएगी।
परमात्मा को हम भूल ही सकते हैं; खो नहीं सकते हैं।
सबकी करै तारीफ, आपको छोटा जानै।
पहिले हाथ उठाय सीस पर सबकी आनै।।
और सदा हाथ उठा कर नमस्कार करता रहे। इसके पहले कि कोई नमस्कार करे, हाथ उठा ले और नमस्कार करे।
पहिले हाथ उठाय सीस पर सबकी आनै।
और सबके लिए सिर झुकाए, क्योंकि सबमें बैठा तो एक ही है।
पलटू सोइ सुहागनी,...
यह वचन याद रखना। यह वचन हीरे जैसा है।
पलटू सोइ सुहागनी, हीरा झलकै माथ।
मन मिहीन कर लीजिए, जब पिउ लागै हाथ।।
पलटू कहते हैं: उसी को मिला प्यारा, वही है सुहागिनी, उसी का सुहाग भरा है...। स्त्रियां, देखते हैं न, माथे पर बिंदी लगाती हैं। वह प्रतीक है। वह जो बिंदी का स्थान है वह तीसरी आंख का स्थान; तृतीय नेत्र का स्थान है। मगर यह बिंदी तो ऊपर से लगाई गई है, इससे क्या होने वाला है!
जो व्यक्ति, पलटू कहते हैं, मन को सूक्ष्म करते-करते, अति सूक्ष्म करते-करते शून्य हो जाता है...‘पलटू सोइ सुहागनी, हीरा झलकै माथ।’ उसकी तीसरी आंख पर हीरा झलकने लगता है; लगाना नहीं पड़ता, ऊपर से कोई बिंदी इत्यादि नहीं लगानी पड़ती।...उसकी तीसरी आंख से ज्योति झलकने लगती है। उसकी तीसरी आंख हीरे की तरह झलकने लगती है। जिनके भी पास देखने की आंख हैं, उन्हें उस आदमी की तीसरी आंख दिखाई पड़ने लगती है।
पलटू सोई सुहागनी,...
ऐसे टीके इत्यादि लगाने से सुहाग भर लिया, ऐसा मत समझ लेना। देखते हैं न कि जिस स्त्री का विवाह हो जाता है, वह टीका लगाती है। सुहाग का प्रतीक है। पलटू कहते हैं: यह भी क्या? सब ऊपर-ऊपर का है। असली सुहाग तो तभी जब परमात्मा मिले--असली प्यारा मिले। और तब ऊपर के टीके नहीं लगाने पड़ते--भीतर से टीका प्रकट होता है; हीरे की तरह प्रकट होता है।
पलटू सोई सुहागनी, हीरा झलकै माथ।
मन मिहीन कर लीजिए, जब पिउ लागै हाथ।।
और यह प्यारा दूर नहीं। दूर होता तो तुम क्षम्य थे।
पानी काको देइ प्यास से मुवा मुसाफिर।
अब मरे हुए यात्री को पानी देने से क्या होगा? तुम देखते हो न, जब लोग मरते हैं तो उनको गंगाजल पिलाते हैं। उसकी याद दिला रहे हैं हम। वे यह कह रहे हैं कि मर गया, उसकी जीभ लटक गई, उसको पानी डाल रहे हैं उसके मुंह में। वह पानी भी भीतर नहीं ले जा सकता; पानी भी बह रहा है उसका मुंह से। जब मर गए, तब गंगाजल डाल रहे हो! अरे गंगा को बुलाना था तो जीते जी बुलाते! मर गया, उसके कान में हरिनाम बोल रहे हैं। देखते हैं न जब मुर्दे को ले जाते हैं, राम-राम बोलते हैं, हरि-हरि बोलते हैं--हरि बोल, हरि बोल; राम-नाम सत्य है! हद कर रहे हो! मुर्दे से कह रहे हो: राम-नाम सत्य है! और तुम भी नहीं सुन रहे। अभी तुम जिंदा हो, मगर तुम सुन नहीं रहे। वे जो ले जा रहे हैं कंधा देकर मुर्दे को, कह रहे हैं राम-नाम सत्य है, वे भी नहीं सुन रहे हैं कि क्या कह रहे हैं। यह तो जिंदगी में जानने की बात है कि राम का नाम सत्य है; और कुछ भी सत्य नहीं है। और तो सब व्यर्थ है। और तो सब असार है। बस एक राम का नाम सार है।
पानी काको देइ प्यास से मुवा मुसाफिर।
यह यात्री मर गया, अब इसको पानी दे रहे हो!
मुवा मुसाफिर प्यास, डोर ओ लुटिया पासै।
और यह क्षमायोग्य भी नहीं है, क्योंकि यह मुसाफिर देखो, इसके आस-पास डोर भी है, इसके पास लुटिया भी है। यह पानी भर कर पी सकता था।
समझना।
मुवा मुसाफिर प्यास, डोर ओ लुटिया पासै।
पास में डोर भी थी, लोटा भी था।
बैठ कुवां की जगत,...
और यह कुएं की जगत पर बैठा है।
...जतन बिनु कौन निकासै।
लेकिन जरा सा भी, इतना सा यत्न न कर सका कि डोर को लुटिया में बांध लेता, लुटिया से बांध लेता, कुएं में लटका देता, पानी खींच लेता, पी लेता। इतना सा जतन करना था। जरा सा जतन करना था।
मुवा मुसाफिर प्यास, डोर ओ लुटिया पासै।
इस पागल की देखो तो हालत! मर गया प्यास से--जब कुएं पर बैठा था, कुएं के पाट पर बैठा था। पास में लुटिया थी, डोर भी थी, कुएं में पानी भरा था। जरा सा जतन करना था। सब मौजूद था, कुछ चूक नहीं रहा था। मगर इतना सा भी जतन न हो सका!
आगै भोजन धरा थारि में खाता नाहीं।
परमात्मा ऐसे है जैसे थाली सामने लगी हो और तुम नहीं परमात्मा को पी रहे और तुम नहीं परमात्मा को भोजन कर रहे और तुम नहीं परमात्मा को पचा रहे।
भूख-भूख करै सोर, कौन डारै मुखमांही।
सामने थाली सजी है, शोर बहुत मचाता है कि भूख लगी है, भूख लगी है। यह क्या चाहता है? कोई दूसरा इसके मुंह में डाले?
और ध्यान रखो, भोजन तो कोई दूसरा तुम्हारे मुंह में डाल दे, परमात्मा कोई तुम्हारे मुंह में नहीं डाल सकता। परमात्मा उधार मिलता ही नहीं। स्वयं से ही खोजना पड़ता है। उतना तो जतन तो करना ही पड़ता है। थोड़ा सा ही जतन है, कुछ बड़ी बात नहीं। प्रभु के स्मरण में कोई बहुत बड़ी बात है? ऐसे भी खोपड़ी चौबीस घंटे चलती ही रहती है। कुछ चलने की कमी भी नहीं है। इसी चलती हुई यात्रा में थोड़ा प्रभु का स्मरण भी समा जाए। दौड़-धूप तो चल ही रही है। दौड़ते तो वैसे ही हो, थोड़े मंदिर की तरफ दौड़ कर लो। हाथ-पैर चलते तो हैं ही, थोड़ी ठीक दिशा में जोड़ देने की बात है।
दीया बाती तेल आगि है नाहिं जरावै।
दीया रखा, बाती लगी, तेल भरा--जरा सी माचिस को जलाने की बात है, और दीये में ज्योति आ जाएगी। सब तुम्हारे पास है। जो तुम्हें चाहिए, तुम्हारे पास है; सिर्फ संयोग बिठाने की बात है।
मैंने सुना है, एक सूफी फकीर ने एक सम्राट को संदेश भेजा। सम्राट ने पूछवाया था, पत्र लिखा था कि परमात्मा को कैसे खोजूं? जानते हैं, संदेश क्या भेजा! एक पोटली में थोड़ा सा आटा, घी, नमक, पोटली के साथ जल--यह सब भेज दिया उसने। सम्राट भी बड़ा हैरान हुआ कि यह पागल तो नहीं है! यह किसलिए भेजा है? यह पोटली में आटा, यह नमक, यह घी, यह जल! मैंने परमात्मा के बाबत पूछा था।
फिर खबर भेजी तो उसने कहा: मैंने वही खबर भेजी है, संदेश भेजा है कि सब तुम्हारे पास है। जैसे कि आदमी के पास आटा रखा हो, घी रखा हो, नमक रखा हो, पानी रखा हो--अब जरा सा हाथ चलाओ, आटे में पानी को मिलाओ, नमक डालो, घी डालो, रोटी पका लो।
परमात्मा मौजूद है। ऐसे मौजूद है जैसे तुम्हारे घर में वीणा रखी हो और तुमने कभी उसके तार नहीं छुए। थोड़ा अभ्यास करो, वीणा के तार पर हाथ फेरो। थोड़ा सरगम सीखो। महा संगीत पैदा हो जाएगा।
भूख-भूख करै सोर, कौन डारै मुखमाहीं।
आगै भोजन धरा थारि में खाता नाहीं।
दीया-बाती तेल आगि है नाहिं जरावै।
खसम खोया है पास, खसम को खोजन जावै।
और वह प्यारा पास ही खोया है--और तू उसको दूर खोजने चला जाता है। कोई चले हिमालय, कोई चले मक्का-मदीना, कोई चले कैलास। खसम खोया है पास। वह तेरे बिलकुल पास बैठा है; जरा आंख मोड़ने की बात है। वह तेरे हाथ में हाथ दिए बैठा है; जरा हाथ को जीवंत करने की बात है।
...खसम को खोजन जावै।
ईश्वर को खोजने की जरा भी जरूरत नहीं है; अपने को खोने की जरूरत है। और ईश्वर मिल जाता है। मगर हम उलटे हैं, हम ईश्वर को खोजने जाते हैं।
पलटू डगरा सूध, अटकिकै परता गिर-गिर।
पलटू कहते हैं: मैं बड़ा हैरान हो रहा हूं, रास्ता इतना साफ सीधा है। ‘पलटू डगरा सूध।’ डगर इतनी सीधी, इतनी साफ। ‘अटकिकै परता गिर-गिर।’ और तू गिर-गिर पड़ता है--ऐसे साफ रास्ते पर जहां कुछ उपद्रव दिखाई नहीं पड़ता।
पलटू डगरा सूध, अटकिकै परता गिर-गिर।
पानी काको देइ प्यास से मुवा मुसाफिर।।
प्यास से मरे जा रहे हो, पानी-पानी चिल्लाते हो। भूख का शोर मचाते हो। भोजन की थाली सामने रखी है। परमात्मा को खोजने दूर जाते हो, परमात्मा तुम्हारे अंतर्तम में बैठा है। लेकिन यह दिखाई नहीं पड़ता परमात्मा। सुन भी लेते हैं हम कि...
खसम खोया है पास, खसम को खोजन जावै।
दीया-बाती तेल आगि है नहिं जरावै।।
...सुन लेते हैं, समझ भी लेते हैं कि परमात्मा पास है; लेकिन बात सुन भी लेते हैं, समझ में नहीं आती; कहां है? चारों तरफ देख भी लेते हैं, दिखाई भी नहीं पड़ता।...तो उसका सूत्र देते हैं:
संत-चरन को छोड़ि कै पूजत भूत-बैताल।
अगर परमात्मा पास है, ऐसा जानना हो, तो किसी संत-चरण में खोजना। किसी जीवंत संत के सान्निध्य में खोजना। भूत-प्रेत की पूजा से नहीं होगा। मुर्दों की पूजा से नहीं होगा। अतीत की पूजा से नहीं होगा। वर्तमान में जीवित किसी संत के चरण से मन का लगाव लग जाए।
परमात्मा तो तुम्हें दूर मालूम होता है...दूर क्या; है भी, यह भी संदिग्ध है; है भी कहीं, दूर भी है, यह भी तय नहीं मालूम होता। कहीं कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाए, जिसमें तुम्हें परमात्मा की एक छोटी सी किरण भी दिखाई पड़ती हो। सूरज का तो हमें पता नहीं, छोड़ो सूरज की बात, उसकी बात भी क्या करनी। कहीं कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाए, जिसमें सूरज की एक किरण का भी अस्तित्व मालूम पड़ता हो--तो उस एक किरण का सहारा पकड़ लेना।
संत का अर्थ होता है--जिसने जाना है; जिसने जीआ है; जिसने भोजन किया है; जिसने अपने दीये की बाती जला ली है; जिसने खसम को पा लिया है; जिसने उस प्यारे को उपलब्ध कर लिया है। तुम अगर उसके पास बैठोगे, अगर तुम थोड़े उसके सान्निध्य में रहोगे तो कैसे बच सकते हो? चोर के पास बैठते हो, चोर हो जाते हो। बीमार के पास बैठते हो, बीमार हो जाते हो। जिसने प्यारे को पा लिया, उसके पास बैठोगे तो थोड़ी न बहुत मस्ती तुम में छाने लगेगी। शराबी के पास बैठते हो तो शराबी हो जाते हो। सत्संगी के पास बैठोगे तो सत्संगी हो जाओगे।
संत के सान्निध्य का इतना ही अर्थ है: जो पीए बैठा है, जरा उसकी दोस्ती बांधो। शायद उसकी दोस्ती से रास्ता साफ होने लगे।
संत-चरन को छोड़िकै, पूजत भूत-बैताल।
और तुम पूजते फिरते हो। कोई भूत को पूज रहा है, कोई किसी की मजार को पूज रहा है, कोई किसी पत्थर की मूर्ति को पूज रहा है।
पूजत भूत-बैताल, मुए पर भूतइ होई।
पलटू कहते हैं: फिर समझ लेना, अगर ऐसे भूत-वूत पूजते रहोगे तो मर कर भूत ही होओगे। क्योंकि जो पूजोगे, वही हो जाओगे। बात तो काम की कह रहे हैं। हम जो पूजते हैं वही हो जाते हैं। अगर दुनिया में पत्थर की मूर्तियां पूजने वाले लोगों के दिल पथरीले हो गए हैं, तो कुछ आश्चर्य नहीं। पत्थर पूजोगे, पत्थर हो जाओगे। मंदिर-मस्जिदों को पूजने वाले लोगों ने जितना खून बहाया है, उतना किसी ने भी नहीं बहाया। पत्थर को पूजेंगे, पत्थर हो जाएंगे। जिसको पूजोगे वही हो जाओगे। पूजने में जरा सावधानी बरतना। जरा पूजना हो तो कुछ ऐसे को पूजना कि उस जैसे हो जाओ तो पछताना न पड़े। जरा देख कर चुनना। मरे-मराए महात्माओं को मत चुन लेना। भूत-प्रेत ही समझो उनको। वे जिंदा हैं ही नहीं। उदास बैठे हैं। तुम उनको पूजोगे, तुम उदास हो जाओगे। ऐसे ही जिंदगी में बहुत दुख था, और महात्मा मिल गए। दुबले और दो आषाढ़! और मुसीबत हो गई। एक ही आषाढ़ झेलना मुश्किल था, ऐसे ही मरे जा रहे थे बीमारियों से, और आषाढ़ दो हो गए।
कहीं जागते, जीवंत, नृत्य करते परमात्मा की कोई छवि मिलती हो, तो फिर चूकना मत। फिर हजार बहाने खोज कर और तर्क खोज कर बचने की कोशिश मत कर लेना। क्योंकि बचने को तुम्हारे पास कुछ है नहीं, बचाने को तुम्हारे पास कुछ है नहीं। है क्या जिसे तुम खो दोगे?
कई दफे बड़ी हैरानी होती है। लोग बड़े डर-डर कर चलते हैं, जैसे उनके पास कुछ खोने को है। कुछ है नहीं पास खोने को। पास नहीं है कुछ खोने को, यही तो दुख है। पास कुछ खोने को होता...कुछ होता पास तो जीवन में सुख होता, शांति होती, आनंद होता, अहोभाव होता। कुछ भी तो नहीं है।
कल ‘प्रीति’ रात मुझसे बात कर रही थी। डरती है। यहां आने से भी डरती है। मेरी संन्यासिनी है और यहां आने से डरती है। ध्यान करने से भी डरती है। एनकाउंटर और दूसरे तरह की प्रक्रियाओं में जाने को मैंने कहा, उससे भी घबड़ाती है। मैंने उससे पूछा: तेरे पास खोने को क्या है? घबड़ाती किस बात से है?
खोने को तो कुछ भी नहीं है। इतना तो समझो कि खोने को कुछ भी नहीं है हमारे पास। हम वैसे ही लुटे हुए खड़े हैं, अब और क्या लुटेंगे! लुटेरे भी तुम्हें देख कर दया खाएंगे। है क्या तुम्हारे पास?
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन के घर में चोर घुसा, तो चोर तो बड़ा सम्हल कर अंदर गया था। मुल्ला जल्दी से उठा और लालटेन जला कर उसके पास खड़ा हो गया और कहा कि मैं भी साथ दूंगा। तो चोर बहुत घबड़ाया कि यह किस तरह का आदमी है! और भी...जिंदगी हो गई चोरी करते, कभी यह...लालटेन लेकर साथ!
उसने कहा: आपका मतलब?
उसने कहा: मतलब बिलकुल साफ है कि तीस साल से इस मकान में रह रहा हूं, मुझे कुछ नहीं मिला; अब हो सकता है तुम्हारे संग-साथ में शायद कुछ मिल जाए, तो आधा-आधा कर लेंगे।
तुम्हारे पास है क्या? यह घर खाली पड़ा है।
एक बार और ऐसी घटना घटी, मुल्ला के घर चोर घुसा। वह पड़ोस से कुछ सामान चुरा लाया था। वह पोटली रख गया। अंदर मुल्ला के पूरे मकान में खोज लिया, कुछ मिला नहीं। जब वह पोटली लेकर चलने लगा तो मुल्ला भी अपना कंबल, जिस पर वह लेटा हुआ था, उठा कर उसके साथ हो लिया। दस-पांच कदम रास्ते पर चलने के बाद उस चोर ने पूछा कि महानुभाव, आप मेरे साथ क्यों आ रहे हैं? तो मुल्ला ने कहा: अब और कहां जाएं? अरे भाई, सामान तुम ले ही चले, घर बदलने की हम सोच ही रहे थे, अब कंबल और हम ही रहे, हम भी चलते हैं।
वह आदमी बोला कि कुछ तो शरम खाओ! यह सामान मैं दूसरे के घर से लाया हूं। इस पर तुम अपना कब्जा जता रहे हो! और अगर ऐसा ही है तो यह सामान भी तुम ले लो, मुझे क्षमा करो। तुमको और घर कौन ले जाए! तुम यह सामान रख लो। मुझ पर कृपा करो और अपने घर जाओ।
तुम्हारे पास है क्या? कुछ भी नहीं है, मगर डर बड़ा है कि कहीं कुछ खो न जाए। जिनके पास है वे डरते नहीं। क्योंकि जिनके पास है, उन्हें पता चल जाता है कि जो है, वह खो नहीं सकता। यह कुछ धन ऐसा है कि खोता नहीं। और जिनके पास नहीं है, वे बहुत डरते हैं। जिनके पास नहीं है, वे डरते हैं कि कहीं खो न जाए; और जिनके पास है वे डरते नहीं, क्योंकि यह खोता ही नहीं। यह तो जितना बांटो, उतना बढ़ने वाला धन है। जब होता है तो बांटने से बढ़ता है; और जब नहीं होता है तो खोने का डर लगता है। ऐसी उलटी स्थिति है।
संत-चरन को छोड़िकै, पूजत भूत-बैताल।
पूजत भूत-बैताल, मुए पर भूतइ होई।
जो पूजोगे, वही हो जाओगे। इसलिए जिन चरणों को पकड़ो, बहुत-बहुत बोध-से--जहां कुछ जीवंत किरण हो, जहां प्रेम का कोई फूल खिला हो, जहां समाधि की कुछ सुंगध हो!
जेकर जहवां जीव, अंत को होवै सोई।
जिसके पास रहोगे, अंत में वैसे ही हो जाओगे।
देव-पितर सब झूठ, सकल यह मन की भ्रमना।
और यह देव-पितर और पितर की पूजा और चल रहा है पितर-पक्ष और पुरषोत्तम मास और पर्युषण पर्व और रमजान और जमाने भर के उपद्रव--इनसे कुछ भी सार नहीं है।
देव-पितर सब झूठ, सकल यह मन की भ्रमना।
यही भ्रम में पड़ा, लगा है जीवन-मरना।।
और ऐसे ही तो जीते रहे, मरते रहे, मरते रहे, जीते रहे--कुछ पाया नहीं, कुछ हाथ लगा नहीं, बस एक भ्रम में डोलते रहे।
देई-देवा सेव परम-पद केहिने पावा।
भैरों दुर्गा सीव बांधिकै नरक पठावा।।
बड़ी हिम्मत का वचन है, बड़ी क्रांति का वचन है। कहते हैं कि ‘देई-देवा सेव परम-पद केहिने पावा।’--किसने कब पाया है देवी-देवताओं की पूजा करने से परम-पद? किसने कब पाया है?
भैरों दुर्गा सीव बांधिकै नरक पठावा।
तुम्हारे भैरव, दुर्गा, शिव, सब तुम्हें नरक ले जाएंगे। क्यों? परमात्मा का भरोसा तो किसी जीवंत से ही आ सकता है। मंदिर की मूर्तियों से नहीं; जहां चिन्मय-रूप उतरा हो, वहां। मुर्दों से नहीं; जहां परमात्मा अभी श्वास ले रहा हो, वहां।
लेकिन हमारी अजीब हालत है! जब बुद्ध मौजूद होते हैं, तब हम उनसे बचते हैं। जब बुद्ध जा चुके होते हैं, जब उजड़ चुका, जब उजड़ चुकी बहार, जब वसंत जा चुका, जब फूल विदा हो गए और सिर्फ सूखे पत्ते पड़े रह जाते हैं, पतझड़ आ गया, तब हम पूजा शुरू करते हैं। उन सूखे पत्तों में अब कुछ भी नहीं है। हां, कभी वे पत्ते हरे थे और कभी उन पत्तों पर हवाओं ने नाच नाचा था, सूरज की किरणों ने गीत रचे थे और कभी पक्षी आए थे और उन्होंने आनंद मनाया था। मगर अब वे पत्ते सिर्फ सूखे हैं; अब तो तुम्हें फिर कहीं और वसंत खोजना पड़ेगा।
बुद्धपुरुष सदा होते हैं; जैसे वसंत सदा आता है। लेकिन पतझड़ की पूजा बंद करो। जो गया, गया। अब शिव मौजूद नहीं हैं, अब बुद्ध मौजूद नहीं हैं, अब मोहम्मद मौजूद नहीं हैं। वे गए। उनमें जो मौजूद हुआ था, वह अब भी कहीं मौजूद होगा। तुम रूप से मत जकड़े जाओ। तुम दीयों को मत पकड़ो, रोशनी का खयाल करो।
नहीं तो होता क्या है? बुद्ध का दीया, उसके नीचे कई लोगों को रोशनी मिली। फिर ज्योति तो उड़ गई, फिर मुर्दा दीया पड़ा रह गया। अब उसकी पूजा चल रही है। अब तुम कहते हो: इस दीये से कई को ज्ञान मिला था, तो हम तो इसी की पूजा करेंगे, हम कैसे छोड़ दें? हजारों को इससे ज्ञान मिला था, हम कैसे छोड़ दें?
तुम ठीक कहते हो। तुम गलत भी नहीं कहते। मगर जरा गौर से तो देखो, ज्योति उड़ गई। अब ज्योति किसी और दीये पर उतरी है। अब ज्योति किसी मोहम्मद पर उतर गई है, कि ज्योति किसी जीसस पर उतर गई है, कि ज्योति किसी कृष्णमूर्ति पर उतर गई है, कि किसी रमण पर, रामकृष्ण पर उतर गई है। ज्योति अब कहीं और उतर गई है। तुम ज्योति की फिकर करो। ज्योति से ज्ञान मिला था; दीये से थोड़े ही मिला था! दीये को पकड़े बैठे रहोगे, उससे क्या होगा? बुद्ध के वचन को पकड़ कर बैठे रहोगे, क्या होगा? बुद्ध के वचनों में जो शून्य बोला था, वह तो अब वहां नहीं है। अब तो शास्त्र रह गया।
सदा जीवित गुरु को खोजो।
पलटू अंत घसीटिहैं, चोटी धरि-धरि काल।
संत चरन को छोड़िकै, पूजै भूत-बैताल।।
और समय रहते जीवन का ठीक उपयोग कर लो। कोई संत-चरण गह लो। परमात्मा का तो तुम्हें पता नहीं है। लेकिन कोई परमात्मा जैसा, थोड़ा मात्रा में भी परमात्मा जैसा तुम्हें लग जाए, तो निस्संकोच भाव से उसका साथ गह लो। एक बार तुम्हारे जीवन में थोड़ी-थोड़ी अनुभूति की झलक आने लगे, थोड़ा स्वाद लग जाए, तो फिर परमात्मा दूर नहीं है। परमात्मा बहुत पास है। ऐसा न हो कि समय बीत जाए।
पलटू कहते हैं: चाला जात बसंत, कंत न घर में आए।
यह वसंत बीता चला जाता है और प्रभु तुम्हारे घर में अभी तक नहीं आ पाए। प्यारा तुम्हारे घर में अभी तक नहीं उतरा। तो फिर जिसके जीवन में अभी वसंत हो, उससे दोस्ती बांध लो। सीधे तो परमात्मा से तुम अभी संबंधित नहीं हो सकते, तो जिसका संबंध हो, कम से कम उसका हाथ तो पकड़ लो! उसका सेतु बना लो।
सदगुरु का इतना ही अर्थ होता है: तुम्हारे और अज्ञात के बीच सेतु। सदगुरु का एक हाथ परमात्मा के हाथ में है, एक हाथ तुम्हारे हाथ में। सदगुरु से दोस्ती बन सकती है, क्योंकि सदगुरु कुछ-कुछ तुम जैसा और कुछ-कुछ तुम जैसा नहीं। कुछ-कुछ परमात्मा जैसा और कुछ-कुछ तुम जैसा। सदगुरु आदमी है और आदमी के साथ-साथ कुछ, आदमी के पार है। दीया और ज्योति।
सदगुरु का चरण गह लो, तो ज्यादा देर न लगेगी। यह बात समझने में, कि परमात्मा निकट है। दूर तभी तक है जब तक दिखाई नहीं पड़ा। जैसे ही दिखाई पड़ा, निकट है। निकट से भी निकट है। निकट कहना भी ठीक नहीं। परमात्मा तुम्हारे भीतर विराजमान है। तुम परमात्मा हो!

आज इतना ही।

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