PALTUDAS

Ajhun Chet Ganwar 01

First Discourse from the series of 21 discourses - Ajhun Chet Ganwar by Osho. These discourses were given during JUL 21 - AUG 10 1977.
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नाव मिली केवट नहीं, कैसे उतरै पार।।
कैसे उतरै पार पथिक विश्वास न आवै।
लगै नहीं वैराग यार कैसे कै पावै।।
मन में धरै न ग्यान, नहीं सतसंगति रहनी।
बात करै नहिं कान, प्रीति बिन जैसी कहनी।।
छूटि डगमगी नाहिं, संत को वचन न मानै।
मूरख तजै विवेक, चतुराई अपनी आनै।।
पलटू सतगुरु सब्द का तनिक न करै विचार।
नाव मिली केवट नहीं, कैसे उतरै पार।।1।।

साहिब वही फकीर है जो कोई पहुंचा होय।।
जो कोई पहुंचा होय, नूर का छत्र विराजै।
सबर-तखत पर बैठि, तूर अठपहरा बाजै।।
तम्बू है असमान, जमीं का फरस बिछाया।
छिमा किया छिड़काव, खुशी का मुस्क लगाया।।
नाम खजाना भरा, जिकिर का नेजा चलता।
साहिब चौकीदार, देखि इबलीसहुं डरता।।
पलटू दुनिया दीन में, उनसे बड़ा न कोय।
साहिब वही फकीर है, जो कोई पहुंचा होय।।2।।

लहना है सतनाम का, जो चाहै सो लेय।।
जो चाहै सो लेय, जायगी लूट ओराई।
तुम का लुटिहौ यार, गांव जब दहिहै लाई।।
ताकै कहा गंवार, मोठभर बांध सिताबी।
लूट में देरी करै, ताहि की होय खराबी।।
बहुरि न ऐसा दांव, नहीं फिर मानुष होना।
क्या ताकै तू ठाढ़, हाथ से जाता सोना।।
पलटू मैं ऊरिन भया, मोर दोस जिन देय।
लहना है सतनाम का, जो चाहै सो लेय।।3।।
अजहूं चेत गंवार! नासमझ! अब भी चेत! ऐसे भी बहुत देर हो गई। जितनी न होनी थी, ऐसे भी उतनी देर हो गई। फिर भी, सुबह का भूला सांझ घर आ जाए तो भूला नहीं।
अजहूं चेत गंवार! अब भी जाग! अब भी होश को सम्हाल!
ये प्यारे पद एक अपूर्व संत के हैं। डुबकी मारी तो बहुत हीरे तुम खोज पाओगे। पलटूदास के संबंध में बहुत ज्यादा ज्ञात नहीं है। संत तो पक्षियों जैसे होते हैं। आकाश पर उड़ते जरूर हैं, लेकिन पद-चिह्न नहीं छोड़ जाते। संतों के संबंध में बहुत कुछ ज्ञात नहीं है। संत का होना ही अज्ञात होना है। अनाम। संत का जीवन अंतर-जीवन है। बाहर के जीवन के तो परिणाम होते हैं इतिहास पर, इतिवृत्त बनता है। घटनाएं घटती हैं बाहर के जीवन की। भीतर के जीवन की तो कहीं कोई रेख भी नहीं पड़ती। भीतर के जीवन की तो समय की रेत पर कोई अंकन नहीं होता। भीतर का जीवन तो शाश्वत, सनातन, समयातीत जीवन है। जो भीतर जीते हैं उन्हें तो वे ही पहचान पाएंगे जो भीतर जाएंगे। इसलिए सिकंदरों, हिटलरों, चंगीज और नादिरशाह, इनका तो पूरा इतिवृत्त मिल जाएगा, इनका तो पूरा इतिहास मिल जाएगा। इनके भीतर का तो कोई जीवन होता नहीं, बाहर ही बाहर का जीवन होता है; सभी को दिखाई पड़ता है।
राजनीतिज्ञ का जीवन बाहर का जीवन होता है; धार्मिक का जीवन भीतर का जीवन होता है। उतनी गहरी आंखें तो बहुत कम लोगों के पास होती हैं कि उसे देखें; वह तो अदृश्य और सूक्ष्म है।
अगर बाहर का हम हिसाब रखें तो संतों ने कुछ भी नहीं किया। तो, तो सारा काम असंतों ने ही किया है दुनिया में। असल में कृत्य ही असंत से निकलता है। संत के पास तो कोई कृत्य नहीं होता। संत का तो कर्ता ही नहीं होता तो कृत्य कैसे होगा? संत तो परमात्मा में जीता है। संत तो अपने को मिटा कर जीता है--आपा मेट कर जीता है। संत को पता ही नहीं होता कि उसने कुछ किया, कि उससे कुछ हुआ, कि उससे कुछ हो सकता है। संत होता ही नहीं। तो न तो संत के कृत्य की कोई छाया पड़ती है और न ही संत के कर्ता का कोई भाव कहीं निशान छोड़ जाता है।
पलटूदास बिलकुल ही अज्ञात संत हैं। इनके संबंध में बड़ी थोड़ी सी बातें ज्ञात हैं--अंगुलियों पर गिनी जा सकें। एक--उनके ही वचनों से पता चलता है गुरु के नाम का। गोविंद उनके गुरु थे। गोविंद संत भीखा के शिष्य थे, एक परम संत के शिष्य थे। और गोविंद उनके गुरु थे।
संतों ने अपने बाबत चाहे कुछ भी न कहा हो, लेकिन गुरु का स्मरण किया है, जरूर किया है। अपने को तो मिटा डाला है, लेकिन गुरु में हो गए। अपने को पोंछ डाला, सब तरह से अपने को समाप्त कर लिया। उसी समाप्ति में गुरु से तो संबंध जुड़ता है। और परमात्मा की याद की है, लेकिन गुरु की याद को नहीं भूले हैं। क्योंकि परमात्मा से जिसने जुड़ाया उसे कैसे भूल जाएंगे!
...तो गोविंद उनके गुरु थे, यह बात ज्ञात है। दूसरी बात, जो उनके पदों से ज्ञात होती है, वह यह कि वे वणिक थे, वैश्य थे, बनिया थे। वह भी इसलिए ज्ञात होती है कि वैश्य की भाषा का उपयोग किया है। जैसे कबीर जुलाहे थे तो कबीर के पदों में जुलाहे की भाषा का उपयोग है। स्वाभाविक। झीनी-झीनी बीनी रे चदरिया! अब यह कोई दूसरा नहीं लिखेगा, जिसने चदरिया कभी बीनी ही न हो। यह दूसरा नहीं लिख सकता। गोरा कुम्हार लिखेगा तो वह मटके बनाने की बात लिखता है। ऐसे इनके पदों में इनके वणिक होने का प्रमाण मिलता है। बड़ी मस्ती की बात कही है। कहा है कि मैं राम का मोदी--राम का बनिया हूं; राम को बेचता हूं! छोटी-मोटी दुकान नहीं करता।
सुनो ये अदभुत वचन--
कौन करै बनियाई, अब मोरे कौन करै बनियाई।।
त्रिकुटी में है भरती मेरी, सुखमन में है गादी।
दसवें द्वारे कोठी मेरी, बैठा पुरुष अनादी।।
इंगला-पिंगला पलरा दूनौं, लागी सुरति की जोति।
सत्त सबद की डांडी पकरौं, तौलौं भर-भर मोती।।
चांद-सुरज दोउ करैं रखवारी, लगी सत्त की ढेरी।
तुरिया चढ़िके बेचन लागा, ऐसी साहिबी मेरी।।
सतगुरु साहिब किहा सिपारस, मिली राम मुदियाई।
पलटू के घर नौबत बाजत, निति उठ होति सबाई।।
‘सतगुरु साहिब किहा सिपारस,...।’
तो गुरु ने सिफारिश कर दी परमात्मा से, लिख दी चिट्ठी मेरे नाम। उनकी बिना सिफारिश के तो कुछ होता नहीं। अपने से तो मैं पहुंच नहीं सकता था। वह तो उनकी सिफारिश से पहुंच गया। नहीं तो कहां मुझे पता परमात्मा का!
सतगुरु साहिब किहा सिपारस, मिली राम मुदियाई।
खूब सिफारिश की, तब से राम का मोदी हो गया, राम का बनिया हो गया, तब से राम को ही बेचता हूं।
और ये सारे शब्द...
तुरिया चढ़िके बेचन लागा,...
चार अवस्थाएं हैं चेतना की: जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरिया। कहते हैं पलटू कि तीनों को पार कर गया।
तुरिया चढ़िके बेचन लागा, ऐसी साहिबी मेरी।
अब मैं तुरिया ही बेचता हूं, अब तो मेरे पास कुछ है भी नहीं। मेरी मस्ती देखो! मेरी साहबी देखो। मेरा धन देखो--मैं तुरिया बेचता हूं!
चांद-सुरज दोउ करैं रखवारी, लगी सत्त की ढेरी।।
सत्त सबद की डांडी पकरौं, तौलौं भर-भर मोती।।
अब और तो कुछ बचा नहीं, मोती ही लुटा रहा हूं।
मगर यह भाषा वैश्य की है।
कौन करै बनियाई, अब मोरे कौन करै बनियाई!
त्रिकुटी में है भरती मेरी, सुखमन में है गादी।
अति महासूक्ष्म में गादी जमा कर बैठ गया हूं। और त्रिकुटी में मेरा धन है अब। तीसरा नेत्र खुला है, वहां मेरी असली संपदा है।
दसवें द्वारे कोठी मेरी,...
नौ द्वार से हम परिचित हैं। ये जो नौ छेद हैं शरीर में, ये नौ द्वार कहते हैं संत--आंख, कान, नाक...ये जो नौ छेद हैं शरीर में। एक दसवां छेद भी है, उसमें सरक गए तो परमात्मा में पहुंच गए। वह दिखाई नहीं पड़ता। वह तुम्हारे अंतर्तम में है। वह परम छिद्र है। उसको दसवां द्वार कहा है।
दसवें द्वारे कोठी मेरी, बैठा पुरुष अनादी।
इंगला-पिंगला पलरा दूनौं, लागी सुरत की ज्योति।।
इंगला-पिंगला को कहते हैं दो पलड़े हैं मेरे तराजू के।
सत्त सबद की डांडी पकरौं,...
और उन दोनों के बीच में सत्य की डांडी है, सत्य का संतुलन है।
यह जो भाषा है, यह वणिक की है।
इस संबंध में एक बात खयाल रख लेना, जो तुम्हें याद दिला देनी जरूरी है--कि तुम कहीं भी हो वहीं से परमात्मा का रास्ता है। अगर बनिए हो तो वहां से भी रास्ता है: तो राम के मोदी हो जाओ। कोई ऐसा नहीं है कि ब्राह्मण का ही ब्रह्म पर दावा है। कुछ ऐसा भी नहीं है कि क्षत्रियों का ही दावा है। ब्राह्मण भी सत्य को उपलब्ध हुए हैं, क्षत्रिय भी, वणिक भी, शूद्र भी। प्रत्येक जीवन के ढंग की अपनी सुविधा है, अपनी असुविधा है।
ब्राह्मण को एक सुविधा...और ध्यान रखना, जब मैं इन शब्दों का उपयोग कर रहा हूं तो मेरा मतलब जन्मजात नहीं है। जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता और जन्म से कोई शूद्र नहीं होता। जन्म से इसका क्या संबंध! लेकिन वृत्ति से ब्राह्मण होते हैं, वृत्ति से शूद्र होते हैं, वृत्ति से क्षत्रिय होते हैं। वृत्ति की बात है। यह व्यक्तित्व की बात है। ये जो चार वर्ण हैं, ये जो चार रंग हैं...वर्ण का अर्थ होता है रंग।
थोड़ा सोचना। ये चार रंग के लोग हैं दुनिया में। चार ढंग के लोग हैं दुनिया में। और यह चार ढंग की जो व्याख्या है, पांच हजार साल हो गए, हिंदुओं ने जब तय किया था कि चार रंग के लोग हैं, चार ढंग के लोग हैं--इसे आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। अभी भी कार्ल गुस्ताव जुंग ने जो फिर से विवेचन किया मनुष्य के संबंध में तो चार ढंग फिर आ गए। नाम कुछ भी हों, लेकिन चार कोटियों में बंटे हुए लोग हैं। इससे बचा नहीं जा सकता।
कुछ लोग हैं जो बुद्धि में जीते हैं, वे ब्राह्मण हैं। कुछ लोग हैं जो भुजाओं में जीते हैं। कुछ लोग हैं जिनकी सारी खोज विचार की है, वे ब्राह्मण हैं। कुछ लोग हैं जिनकी खोज शक्ति की है, शक्ति के पूजक--वे क्षत्रिय। कुछ लोग हैं जिनकी खोज महत्वाकांक्षा, प्रतिष्ठा, धन, इस बात की है--वे लोग वैश्य। कुछ लोग हैं जिनकी कोई खोज ही नहीं है; जो ऐसे ही जीते हैं, जैसे कि एक लकड़ी का टुकड़ा नदी में बहता चला जाए--न कहीं जाना, न कहीं पहुंचना, न कोई मंजिल है, न कोई गंतव्य है। न कोई बड़ी भविष्य की महत्वाकांक्षा है--ऐसे व्यक्ति शूद्र। वे कुछ भी छोटा-मोटा करके गुजार लेते हैं। जिंदगी गुजारनी है, जिंदगी से कुछ बनाना नहीं है।
ये चार वृत्तियां हैं। प्रत्येक वृत्ति का लाभ है और प्रत्येक वृत्ति की हानि भी है। जैसे कि जो आदमी बुद्धि में जीता है, अगर उसका ठीक उपयोग कर ले तो बुद्धि ही निखरते-निखरते चैतन्य बन जाती है, होश, जागरूकता, सुरति बन जाती है। तो ब्राह्मण को एक लाभ है कि वह अपनी बुद्धि को किसी भी दूसरे वर्ण की बजाय--क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य की बजाय--ज्यादा आसानी से ध्यान में लगा सकता है। यह तो लाभ है। लेकिन खतरा भी है। खतरा यह है कि इतनी ही आसानी से वह अपनी बुद्धि को पांडित्य इकट्ठा करने में भी लगा सकता है।
प्रत्येक लाभ अपने साथ छाया की तरह अपनी हानि लाता है। तो जितनी सुविधा है ब्राह्मण को उतनी ही असुविधा भी है। सुविधा यह है, अगर ठीक मार्ग पकड़ ले--स्मृति को भरने में न लग जाए, बोध को जगाने में लग जाए--तो, तो बुद्ध हो जाए। लेकिन अगर स्मृति को भरने में लग गया, जिसकी बहुत संभावना है, क्योंकि स्मृति को भरना ऐसे है जैसे कोई ढलान की तरफ चले, उसमें मेहनत नहीं है। और बोध को जगाना ऐसे है जैसे कोई पहाड़ की यात्रा करे; उसमें बड़ा श्रम है। तो बहुत संभावनाएं हैं। निन्यानबे ब्राह्मण वृत्ति के लोग, सौ में से निन्यानबे स्मृति को भरने में लग जाएंगे, पंडित हो जाएंगे। इसलिए ब्राह्मण पंडित होकर समाप्त हो जाते हैं। कभी-कभी कोई एकाध, सौ में एकाध प्रज्ञावान होता है।
ऐसी ही क्षत्रिय की वृत्ति है। क्षत्रिय की वृत्ति के आदमी को एक लाभ है। उसके पास संकल्प का बल है; जूझ सकता है; जुझारू है; लड़ सकता है। दूसरे से लड़ना हो तो दूसरे से भी लड़ सकता है और अपने से लड़ना हो तो अपने से भी लड़ सकता है। लड़ने की उसके पास कला है। लड़ेगा तो फिर वह संकोच नहीं करता। जान लेने में भी उतना ही कुशल है, उतना ही देने की तैयारी भी रखता है। जिसको लेनी हो जान उसे देने की तैयारी भी रखनी पड़ती है।
तो अगर क्षत्रिय को ठीक राह मिल जाए तो वह तीर्थंकर हो जाएगा। जैनों के चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय हैं। हिंदुओं के सारे अवतार क्षत्रिय हैं। बुद्ध क्षत्रिय हैं। जुझारू लोग! तलवार दूसरे पर चलती रही--चलते-चलते एक दिन समझ आ गई, तो अपने पर चलने लगी। जिस दिन अपने पर चलने लगी, उस दिन अहंकार काट कर गिरा दिया। काटने की कला तो आती ही थी।
ब्राह्मण हैं--याज्ञवल्क्य और अष्टावक्र और शंकराचार्य। ठीक चले कोई तो शंकर हो जाए; चूके तो पंडित हो जाए।
ऐसी ही वैश्य की संभावनाएं हैं। धन की उसे पकड़ है। सौ में निन्यानबे मौके पर तो वह धन को ही इकट्ठा करेगा और धन को ही इकट्ठा करके मर जाएगा और लोग कहते हैं; मर कर फिर सांप हो जाएगा और धन पर कुंडली मार कर बैठ जाएगा। मर कर भी वह धन की ही रक्षा करेगा। लेकिन, अगर परम धन की याद आ जाए वैश्य को--तो धन का खोजी है, धन पर सब लगा देता है, दांव सब लगा देता है--एक दफा परम धन की उसे याद आ जाए, कि उसे यह समझ में आ जाए कि धन मेरे भीतर है, बाहर नहीं, तो फिर वैश्य जितनी सुविधा से भीतर जा सकता है उतनी सुविधा से कौन जाएगा।
ऐसी ही बात शूद्र की भी है। सौ में निन्यानबे मौके पर शूद्र तो बस ऐसे ही इधर-उधर छोटा-मोटा काम करके जिंदगी समाप्त कर लेगा। खा-पी लेगा, बस ओढ़ना-बिछौना हो जाए, घर पर छप्पर हो जाए, खाना-पीना हो जाए, फिर उसकी ज्यादा फिकर नहीं है। साधारणतः खाओ-पीओ मौज करो, न कोई जिंदगी में पाना है कुछ, न कहीं जाना है कुछ--जीवन में कोई अर्थ की तलाश नहीं है। ऐसे समाप्त हो जाएंगे सौ में निन्यानवे। लेकिन अगर ठीक दिशा लग जाए तो सौ में एक लाओत्सु बन सकता है। वह सौ में एक जो है, जो अगर इस बात को समझ ले कि जीवन में सच में ही कोई आकांक्षा नहीं है, कुछ भी पाना नहीं है, परम विश्राम में बैठ जाए--तो शूद्र जितनी आसानी से परम विश्राम में बैठ सकता है उतना कोई नहीं बैठ सकता।
क्षत्रिय के भीतर कुछ न कुछ चलता ही रहता है। ब्राह्मण के सिर में कुछ न कुछ चलता रहता है। बनिए के हृदय में सुगबुग ही लगी रहती है: धन, धन, पद-प्रतिष्ठा! यहां भी मिले, वहां भी मिले, परलोक में भी मिले! वह इंतजाम ही करता रहता है। शूद्र को एक लाभ है। उसको बहुत फिकर नहीं है--न धन की न पद की, न शक्ति की, न ज्ञान की। चूंकि यह कोई फिकर नहीं है, उसकी वासना न्यून मात्र है, अति न्यून है। गिराने में देर न लगेगी। तो शूद्र जैसे गोरा या रैदास परम ज्ञान को उपलब्ध हुए।
तुम जहां भी हो, जो भी हो, उससे कभी यह चिंता मत लेना कि तुम जहां हो वहां से परमात्मा नहीं पाया जा सकता। सब जगह से, सौ में से एक व्यक्ति परमात्मा को पाता है। तुम वह एक व्यक्ति बन जाओ। तुम जहां हो, वहीं से। निन्यानबे तो भटक जाते हैं, तुम उस निन्यानबे भटकाव से बचना।
तीसरी बात पता चलती है पलटू के वचनों से कि दो भाई थे। वह दोनों पलट गए। बाहर के धन की फिकर छोड़ दी और भीतर का धन खोजने लगे--खोजने नहीं लगे, खोज ही लिया।
बाहर तो धन खोज कर भी कहां कौन खोज पाता है! बाहर धन है ही नहीं जो खोज सको। बाहर तो धन का भुलावा है, छलावा है, छल है। मृग-मरीचिका है, दिखाई पड़ता है। दूर क्षितिज दिखाई पड़ता है मिलता जमीन से; जैसे-जैसे पास पहुंचते हो, क्षितिज दूर हटता जाता है। कभी तुम ऐसी जगह नहीं पहुंच पाओगे जहां क्षितिज वस्तुतः जमीन से मिलता हो। ऐसे ही कभी भी वासना तृप्ति से नहीं मिलती। वासना क्षितिज की भांति है।
दोनों भाई बदल गए। बदलने के कारण गुरु ने दोनों को पलटू नाम दे दिया। एक भाई को कहा पलटूप्रसाद और एक भाई को कहा पलटूदास। यह शब्द बड़ा प्यारा दिया गुरु ने: ‘पलटू!’ ईसाई जिसको कनवर्सन कहते हैं। पलट गए! जिसको वैज्ञानिक एक सौ अस्सी डिग्री का रूपांतरण कहते हैं। एकदम पलट गए। कहीं जाते थे और ठीक उलटे चल पड़े। और ऐसे पलटे कि क्षण में पलट गए। देर-दार न की। सोच-विचार न किया। कहां बाजार में गादी लगा कर बैठे थे और कहां सूक्ष्म में गादी लगा दी। कहां तौलते थे--अनाज तौलते होंगे, साग-सब्जी तौलते होंगे, कुछ तौलते होंगे--और कहां सत्त शब्द की ढेरी से तौलने लगे! और कहां साधारण चीजें बेचते रहे होंगे--और तुरिया बेचने लगे; समाधि बेचने लगे! ऐसा रूपांतरण था कि गुरु ने कहा कि तुम बिलकुल ही पलट गए! ऐसा मुश्किल से होता है। यह क्रांति थी।
‘पलटू’ नाम का अर्थ हुआ क्रांति। एक बड़ी अपूर्व क्रांति हुई। यह नाम भी बड़ा प्यारा है। असली नाम का तो कुछ पता नहीं है। असली नाम यानी मां-बाप ने जो दिया था, उस नाम का तो कुछ पता नहीं है। गुरु ने जो नाम दिया था, वह यह था। और गुरु ने खूब प्यारा नाम दिया! बड़ा सांकेतिक नाम दिया। दो-दो चार-चार पैसे के लिए दुकान करते रहे होंगे और जब पलट गए तो ऐसी क्रांति घटी!
पंडित-पुरोहित तो बहुत नाराज हुए। पंडित-पुरोहित सदा ही नाराज रहे हैं इस तरह पलट जाने वाले लोगों से। क्योंकि इस तरह पलट जाने वाले लोग उनके धंधे पर ही चोट करने लगते हैं। अब जब तुरिया बेचता हो बाजार में, समाधि बेचने लगे, वे पंडित-पुरोहित तो उससे परेशान हो जाएंगे; उनके पास तो समाधि का धन नहीं है बेचने को। वे तो कोरे, उधार, बासे शब्द बेच रहे हैं। और यहां कोई ताजा झरना लेकर आ गया है, जिसके प्राणों में नये फूल खिल रहे हैं। और ताजे भीतर खिलते कमल बेचने लगा है। तो तुम्हारे बासे कमल और सदियों से सड़े कमल कौन खरीदेगा! तो मंदिर-मस्जिद सदा नाराज हो जाते हैं संत पर।
पंडित-पुरोहित तो बहुत नाराज थे। लेकिन जिनके पास आंखें थीं, उनकी भीड़ आने लगी। दूर-दूर प्रांतों से लोग आने लगे।
कहा है पलटू ने:
लै लै भेंट अमीर, नाम का तेज विराजा।
लै लै भेंट अमीर, नाम का तेज विराजा।
सब कोई रगरे नाक, आइकै परजा राजा।।
पलटू ने कहा: यह भी खूब हुआ। मैं साधारण दुकानदार, जरा राम के नाम से क्या जुड़ गया कि असाधारण हो गया! मैं दो कौड़ी का आदमी, राम-नाम से क्या भर गया कि बहुमूल्य रत्न हो गया!
लै लै भेंट अमीर, नाम का तेज विराजा।
बड़े-बड़े धनी कीमती बहुमूल्य भेंटें लेकर मेरे द्वार पर आने लगे! नाम का तेज विराजा!
लेकिन पलटू यह नहीं कहते कि मेरी कोई खूबी है--उस प्रभु का तेज, उस प्रभु की चमक मुझ में आ गई, वह मेरी आंखों से झांक रहा है! उसकी ही खूबी है!
सब कोई रगरे नाक, आइकै परजा-राजा।
और प्रजा से भी लोग आने लगे और बड़े राजा और सम्राट भी आने लगे।
बिन लसकर बिन फौज, मुलुक में फिरी दुहाई।
न कोई फौज-फांटा है अपने पास--पलटू कहते हैं--न अपने पास कोई और उपाय है।
बिन लसकर बिन फौज, मुलुक में फिरी दुहाई।
लेकिन सारे देश में हवा गरम हो गई, सारे देश में खबरें पहुंचने लगीं। यह जो सुगंध पैदा हुई, इस सुगंध के धागे दूर-दूर तक चले गए। और जब यह सुगंध पैदा होती है तो यह सब दीवालों को पार करके निकल जाती है, सब सीमाओं को पार करके निकल जाती है। दूर-दूर अज्ञात स्थानों से लोग चल कर आने लगते हैं। कोई अज्ञात शक्ति उन्हें बुलाने लगती है, पुकारने लगती है।
जन महिमा सतनाम, आपुमें सरस बड़ाई।
तो पलटू कहते हैं: खूब रही यह बात! जन महिमा सतनाम! देखो यह सतनाम की महिमा, पलटू जैसा गरीब बनिया राम का मोदी हो गया।
सत्तनाम के लिहे से पलटू भया गंभीर।
हाथ जोरि आगे मिलें, लै लै भेंट अमीर।।
जिनके दर्शन होने मुश्किल थे, जिनके द्वार पर पलटू जाते तो द्वार न खुलते। सत्तनाम के लिहे से पलटू भया गंभीर! और ऐसी गहराई आ गई पलटू में सिर्फ सतनाम के लेने से, सिर्फ ठीक-ठीक स्मरण कर लेने से प्रभु का! पारस को छू लिया, लोहा सोना हो गया। जिनके द्वार-दरवाजे बंद थे, वे बड़ी-बड़ी भेंटें लेकर द्वार पर आने लगे।
उनके भाई पलटूप्रसाद ने पलटू के संबंध में कुछ वचन लिखे हैं:
नंगा जलालपुर जन्म भयो है, बसै अवध के खोर।
कहैं पलटूप्रसाद हो, भयो जगत में सोर।।
गरीब गांव में पैदा हुए थे, नाम ही था: नंगा जलालपुर। तुम सोच ही सकते हो: नंगा जलालपुर! गरीबों का गांव होगा, बिलकुल नंगों का गांव होगा। ‘नंगा जलालपुर जन्म भयो है’...अत्यंत गरीब घर में पैदा हुए...‘बसै अवध के खोर’...फिर जाकर अयोध्या में बस गए। यह बड़ा प्रतीकात्मक है। पैदा हुए एक गरीब से गांव में, फिर राम की नगरी अयोध्या में बस गए। गृहस्थ पैदा हुए थे, फिर संन्यस्त हो गए। धन, पद, मद में डूबे थे--फिर एक दिन राम की महिमा में उतर गए।
नंगा जलालपुर जन्म भयो है, बसै अवध के खोर।
कहैं पलटूप्रसाद हो, भयो जगत में सोर।।
चार बरन को मेटिके भक्ति चलाई मूल।
सब मिटा डाला--ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, चारों वर्ण मिटा दिए। भक्ति में सब मिट जाते हैं। संन्यासी का कोई वर्ण नहीं होता। संन्यासी रंगों के पार हो जाता है, ढंगों के पार हो जाता है। संन्यासी परमात्मा का हो जाता है। परमात्मा का तो कोई वर्ण नहीं, इसलिए संन्यासी का भी कोई वर्ण नहीं होता। गृहस्थ के वर्ण होते हैं, क्योंकि गृहस्थ के ढंग होते हैं। गृहस्थ संसार में होता है।
चार बरन को मेटिके भक्ति चलाई मूल।
गुरु गोविंद के बाग में पलटू फूले फूल।।
वह जो गोविंद का बाग था...‘गुरु गोविंद के बाग में पलटू फूले फूल।’ और यह पलटू नाम का फूल गुरु के बगीचे में खिला।
सहज जलालपुर मूंड मुंडाया, अवध तुडी कर धनियां।
सहज करैं व्योपार घटहि मैं पलटू निर्गुन बनियां।।
‘सहज जलालपुर मूंड मुंडाया,..।’ ‘सहज’ शब्द पर ध्यान देना। संतों की सारी प्रक्रिया सहज है; चेष्टा से नहीं, बोध से है, समझ से है। जिस दिन बात समझ में आ गई, उस दिन सिर मुंडा लिया, संन्यासी हो गए। ऐसे पलटे, क्षण में पलटे।
सहज जलालपुर मूंड मुंडाया,...
इसमें कोई आयोजना नहीं थी, कोई बहुत दिन सोच-विचार नहीं किया था। कुछ हिसाब-किताब नहीं बांधा था कि पुण्य-लाभ होगा, स्वर्ग जाएंगे, परलोक मिलेगा, कुछ नहीं था। बात दिखाई पड़ गई कि इस संसार में कुछ भी नहीं है। प्रतीक-रूप सिर मुंडा लिया। तो जलालपुर में ही सिर मुंडा लिया। बाजार में ही सिर मुंडाना पड़ता है।
...अवध तुडी कर धनियां।
फिर अवध पहुंच कर वह जो जनेऊ पहने हुए थे, ‘कर धनियां’, वह भी तोड़ कर गिरा दिया। जब राम के नगर पहुंच गए, वहां कैसा वर्ण! फिर कैसा व्रत! फिर कौन हिंदू कौन मुसलमान! फिर कैसा जनेऊ! फिर सारे नियम तोड़ कर गिरा दिए। नियम मात्र से मुक्त हो गए। अव्रती हो गए।
‘अवध तुडी कर धनियां...।’ और ध्यान रखना, राम की अयोध्या में उन्हीं का प्रवेश है जो न हिंदू हों न मुसलमान हों, न ब्राह्मण हों न शूद्र हों। उन्हीं का प्रवेश है जो वर्ण को छोड़ दें। उन्हीं का प्रवेश है जो सारे नियम इत्यादि, जो समाज और जीवन के लिए जरूरी हैं, उनके पार हो जाएं। अतिक्रमण करें, वे ही अयोध्या में प्रविष्ट होते हैं।
सहज करैं व्योपार घटहि मैं पलटू निर्गुन बनियां।
अब तो बाहर का कोई व्यापार रहा नहीं, अब तो भीतर का ही व्यापार बचा।
सहज करैं व्योपार घटहि मैं...
अब तो भीतर ही भीतर चल रहा है सब--लेना भी, देना भी। ग्राहक भी भीतर, दुकानदार भी भीतर।
सहज करैं व्योपार घटहि मैं पलटू निर्गुन बनियां।
थे तो बनिया, अब निर्गुण हो गए। अब निराकार हो गए।
बस इससे ज्यादा पलटूदास के संबंध में और कुछ ज्ञात नहीं है।
अंतिम बात, फिर हम उनके पदों में उतरें--
शब्द उनके, पलटू के, ठीक वैसे ही आग्नेय हैं, अग्निमय हैं जैसे कबीर के। बड़े ऊंचे घाट के शब्द हैं और बड़े चोट रखने वाले शब्द हैं। ठीक अगर कबीर के साथ किसी दूसरे को हम खड़ा कर सकें, तो पलटू। इसलिए, संतों में यह बात कही जाती रही कि पलटू दूसरे कबीर हैं। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। तुम जब उनके पदों में उतरोगे, तुम भी पाओगे। बड़ी ऊंची बात है और बड़ी सचोट है। हृदय में उतर जाए, तुम्हारे पोर-पोर में भर जाए--ऐसी बात है। रसपूर्ण भी उतनी ही जितनी सचोट। मस्ती भी उतनी ही, जैसी कबीर की। एक-एक शब्द से खूब शराब झरती है! डुबकी लेना।
नाव मिली केवट नहीं, कैसे उतरै पार।।
कैसे उतरै पार पथिक विश्वास न आवै।
लगै नहीं वैराग यार कैसे कै पावै।।
मन में धरै न ग्यान, नहीं सतसंगति रहनी।
बात करै नहिं कान, प्रीति बिन जैसी कहनी।।
छूटि डगमगि नाहिं, संत को वचन न मानै।
मूरख तजै विवेक, चतुराई अपनी आनै।।
पलटू सतगुरु सब्द का, तनिक न करै विचार।
नाव मिली केवट नहीं, कैसे उतरै पार।।
समझो! नाव तो मिल सकती है। नाव तो मुर्दा है। लेकिन जब तक माझी न मिले, नाव से काम न होगा। तुम्हें नदी पार करनी है, नाव तो मिल सकती है, क्योंकि माझी भी नाव को तो किनारे पर ही बांध कर घर चला जाता है रात। आधी रात भी मिल सकती है। मगर तुम नाव से तो नदी पार न कर सकोगे। माझी चाहिए। केवट चाहिए।
शास्त्र नाव जैसे हैं, मुर्दा। सदगुरु के बिना उनका अर्थ प्रकट नहीं होता। शास्त्र तो मिल जाते हैं, रखे हैं। सदगुरु चले जाते हैं, शास्त्र तो रह जाते हैं। जैसे नाव बंधी रह जाती है किनारे पर और माझी घर चला गया कि सो गया। तो नाव तो कभी भी मिल सकती है। नाव की तो कोई अड़चन नहीं है।
पलटू कहते हैं: नाव मिली केवट नहीं, कैसे उतरै पार।
पार उतरना कैसे होगा? कोई नक्शा पास नहीं, कोई मार्गदर्शक पास नहीं। कोई दिशा का बोध नहीं। कौन ले जाएगा? कौन साथ देगा? कौन सहारा देगा? कोई चाहिए जीवंत। शास्त्र अपने आप में किसी को भी ले जा नहीं सकता--न गीता, न कुरान, न वेद। क्योंकि वेद का तुम जो अर्थ करोगे वह भी तुम्हारा होगा। नाव कभी चलाई न हो और तुम नाव चलाओगे तो डूबने की ही ज्यादा संभावना है बजाय उबर जाने के। भीतर का अनुभव न हुआ हो तो बाहर के शब्दों से तुम किसी भी तरह भीतर की प्रतीति न कर सकोगे। शास्त्र में सब रखा है, लेकिन कौन जताएगा, कौन दिखाएगा, कौन जगाएगा, कौन चेताएगा अर्थ को?
शास्त्र में शब्द हैं, अर्थ तो भीतर से उमगते हैं, शास्त्र में तो केवल प्रतीक हैं, चिह्न हैं। लेकिन उन चिह्नों को कोई खोलने वाला चाहिए।
इसलिए सारे संतों ने सदगुरु पर बहुत जोर दिया है--शास्त्र से ज्यादा जोर दिया है। सदगुरु मिल गया तो शास्त्र मिल गया। नाव न भी हो तो भी अगर माझी मिल जाए तो कोई उपाय खोज लेगा--तुम्हें नदी के पार ले जाने का; शायद कंधे पर बिठा कर ले जाए। या हो सकता है तैरना सिखा दे, तो तुम खुद ही तैर जाओ। या हो सकता है, लक्कड़ को बांध कर छोटी-मोटी नाव बना ले। लेकिन कोई चाहिए जो दूसरे किनारे से परिचित हो।
सदगुरु का अर्थ होता है: इस किनारे, उस किनारे को जानने वाला मिल जाए। इस जगत में उस जगत की पहचान वाला मिल जाए। खड़ा तो हो बाजार में, लेकिन अनुभव उसे परमात्मा का हो। खड़ा तो हो तुम्हारे साथ तुम्हारे जैसा ही, लेकिन कुछ हो उसके भीतर जो तुम जैसा न हो; जिसने जीवन की सारी गहराइयां देखी हों, पहचानी हों।
कबीर ने कहा: ‘कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।’
बाजार में खड़ा हूं, लिए लुकाठी हाथ। लट्ठ लिए खड़ा हूं। हो जिसकी हिम्मत आ जाए, तो उसका सिर गिरा दूं। हो जिसकी हिम्मत तो चल पड़े साथ। घर जो बारे आपना, चले हमारे साथ! जो तुमने घर समझ रखा है, जो भी तुमने घर समझ रखा है, जहां-जहां तुमने मोह बना रखा है और जहां-जहां तुमने अपने राग जोड़ रखे हैं और चाहत के सपने बसा रखे हैं--उन सबको जलाने को जो तैयार हो वह हमारे साथ चले।
कबीर कहते हैं: बाजार में आकर खड़ा हो गया हूं। तैयारी पूरी है उस तरफ के चलने की। जिनकी हिम्मत हो वे मेरे पीछे आ जाएं।
कोई चाहिए जो ठीक संसार में खड़ा हो और संसार जिसके भीतर न हो। उसी को सदगुरु कहते हैं।
नाव मिली केवट नहीं, कैसे उतरै पार।।
कैसे उतरै पार, पथिक विश्वास न आवै।
आस्था कैसे आए शास्त्र पर? कोई समझाने वाला नहीं। शास्त्र में कितना ही टटोलो, कागज और स्याही के अतिरिक्त कुछ मिलता नहीं। कोई हृदय की धड़कन नहीं है। कैसे आवे विश्वास? शास्त्र जिसने लिखा है, उसने सच को जान कर लिखा होगा कि कल्पनाओं का जाल रचा है--कैसे आवे विश्वास?
सदगुरु को तो तुम भीतर झांक सकते हो। सदगुरु के तो पास बैठ सकते हो। सदगुरु के साथ तो अंतर का संबंध जोड़ सकते हो। सदगुरु के साथ तो धीरे-धीरे-धीरे उसका व्यवहार, उसका उठना, उसका बैठना, उसका बोलना, उसका मौन--इन सबसे तुम धीरे-धीरे अनुमान भी लगा सकते हो कि क्या घटा है। लेकिन शास्त्र में तो अनुमान को भी कोई जगह नहीं। शास्त्र तो बिलकुल मुर्दा है। यह तो ऐसा ही है शास्त्र, जैसा किसी कब्र के पास चक्कर लगाते रहो। कुछ पता न चलेगा कि कौन सोया है भंीतर--सत्पुरुष सोया, असत्पुरुष सोया; जागा हुआ सोया कि सोया हुआ ही सोया? कुछ पता न चलेगा कब्र के पास। कब्रें तो सब एक जैसी हैं।
बहुत बार ऐसा हो जाता है कि बड़े सुंदर पद रचने वाले लोगों के पास जब तुम जाओगे, तब तुम्हें पता चलेगा कि वे पद कोरे पद हैं, उनके भीतर कोई प्राण नहीं है। इसलिए कहते हैं कि साधारणतः अगर किसी कवि की कविता तुम्हें अच्छी लगे तो कवि के पास मत जाना; जाओगे तो भ्रम टूट जाएगा। क्योंकि कवि केवल कविताएं लिखते हैं, उनके जीवन में काव्य की धुन नहीं होती। तो कविता में तो हो सकता है बड़ी ऊंची उड़ान हो, आकाश खुलता हो; और जब तुम जाओ कवि को मिलने तो वह किसी शराब-घर में गाली बकते मिल जाएं। तो तुम्हें बड़ी पीड़ा होगी। शायद काव्य में तो ऐसी सुगंध हो, शब्दों की सुगंध, शब्दों की लयबद्धता एक ऐसी सुगंध का भ्रम पैदा करती हो; लेकिन जब तुम कवि को जाकर देखो तो तुम पाओगे: वह तुम से गया-बीता आदमी है। शब्द तो झूठे भी हो सकते हैं, धोखे के भी हो सकते हैं। शब्द तो केवल जाल हो सकते हैं; तर्क की व्यवस्था हो सकते हैं। शब्द में केवल भाषा का सौंदर्य हो सकता है। शब्द को कैसे परखोगे, कसौटी क्या होगी?
यह तो ऐसा ही समझो कि एक कागज पर लिखा है सोना, तुम्हारे पास माना कि सोने को कसने का पत्थर है--क्या तुम सोचते हो जिस कागज पर लिखा है सोना, इसको तुम कस लोगे सोने के पत्थर पर? क्या कसोगे? कागज तो कागज है, सोना लिखा हो कि मिट्टी बराबर है। कोई निशान न छूटेगा। सोने को कसने वाला पत्थर हाथ में रखे बैठे रहो तो भी कोई निशान नहीं छूटेगा। सोना चाहिए--सोना शब्द से नहीं होगा।
सदगुरु का अर्थ होता है: जहां उपाय है कस लेने का। इसलिए पलटू कहते हैं: कैसे उतरै पार, पथिक विश्वास न आवै। यह नाव तो बंधी है, लेकिन यह ले जाएगी कि डुबाएगी? यह नाव तो बंधी है, कोई कभी इसे उस पार ले भी गया है या नहीं, या बना कर इसी पार रखी गई है? कोई इस नाव से कभी पार भी हुआ है? नाव तो जरूर बंधी है! लेकिन इस नाव को दूसरे पार का कोई अनुभव है? इसने कभी कोई यात्रा की है? छल-छिद्र से न भरी हो। डुबा न दे। कहीं मंझधार में धोखा न दे जाए।
कैसे उतरै पार, पथिक विश्वास न आवै।
विश्वास आ ही नहीं सकता शास्त्र पर। इसलिए दुनिया में इतने विश्वासी दिखते हैं और फिर भी विश्वास नहीं है। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई जैन, कोई बौद्ध--इतने लोग हैं और सभी कुछ न कुछ विश्वास करते हैं। लेकिन तुम्हें विश्वासी आदमी मिलता है कहीं? कोई आंखें दिखती हैं जिनमें आस्था के दीये जल रहे हों? तुम्हें कहीं कोई हृदय की धड़कन सुनाई पड़ती है जिसमें श्रद्धा का स्वर हो? सब तरफ अश्रद्धा है। सब तरफ अनास्था है। सब तरफ अविश्वास है। संदेह की दुर्गंध से भरी है पृथ्वी। और इतने विश्वासी लोग! जरूर कहीं कुछ भूल-चूक हो रही है।
नाव पर विश्वास नहीं आ सकता। मोहम्मद मिल जाते तो मजा आ जाता; लेकिन कुरान मिली तुम्हें, तुम्हारा दुर्भाग्य। कृष्ण मिल जाते तो मस्ती छा जाती। कृष्ण की मौजूदगी भरोसा पैदा करवाती है। मौजूदगी के अलावा और कोई उपाय नहीं है। कृष्ण की मौजूदगी में तत्क्षण तुम भी उड़ना शुरू कर देते हो। कृष्ण जब पंख पसारते हैं, तुम्हें भी अपने छिपे हुए पंखों की याद आ जाती है। कृष्ण का एक-एक शब्द तुम्हारे हृदय में सोई हुई आत्मा को जगाने लगता है। जाग्रत शब्द ही जगा सकता है। कृष्ण मिलते तो सौभाग्य, लेकिन तुम गीता लिए बैठे हो। तुम तोतों की तरह गीता कंठस्थ कर लोगे। दोहराते रहोगे, दोहराते-दोहराते मर जाओगे। नाव बंधी रहेगी, तुम नाव की पूजा करते-करते मर जाओगे; लेकिन पूजा करने से कोई उस पार नहीं जाता, नाव में यात्रा करनी होती है।
लोग शास्त्रों की पूजा कर रहे हैं। बड़ा निर्वचन होता है शास्त्रों का, व्याख्या होती है शास्त्रों की; लेकिन जो उस पार न गया हो; उसके निर्वचन का भी कोई मूल्य नहीं है। उसकी व्याख्या का भी कोई मूल्य नहीं है।
पंडित सहयोगी नहीं हो सकता--केवल ज्ञानी ही सहयोगी हो सकता है। और बिना विश्वास के तो कुछ भी नहीं होता। यह तो यात्रा ही निस्संदिग्ध मन से हो तो ही होती है। संदेह तो ऐसा ही है जैसे नाव में छेद हों। छेद दिखाई पड़ रहा है नाव में, तुम कैसे बैठोगे? नाव में पानी भरा जा रहा है, बंधी-बंधाई नाव में पानी भरा जा रहा है--तुम कैसे बैठोगे? आस्था तो होनी चाहिए साफ कि नाव डूबेगी नहीं। जब तुम नाविक को नाव में देखते हो, उसकी मजबूत कलाइयों को देखते हो, उसके हाथ में पतवार को देखते हो, उसके हाथ में पतवार के गट्ठे देखते हो, उसके चेहरे पर हजार-हजार सूरज की धूप निकली है, नाव इस पार से उस पार होती रही है--जब तुम्हें यह सारी बात दिखाई पड़ जाती है कि कोई मल्लाह मौजूद है, कोई नाविक मौजूद है, कोई केवट मौजूद है--आस्था पैदा होती है। तब फिर नाव में अगर छेद हो तो भी फिकर नहीं; यह मल्लाह उसकी भी चिंता कर लेगा। फिर तुम्हें दूसरे किनारे का भरोसा दिलाने के लिए झूठी बातों की जरूरत नहीं है। इसकी आंख पर्याप्त है। तुम इसकी आंख में झांकोगे, तुम्हें दूसरा किनारा दिखाई पड़ जाएगा। इसके हृदय की धड़कन काफी है। तुम जरा पास बैठ कर इसकी धड़कन का गीत सुनोगे तो आस्था पैदा हो जाएगी।
इसलिए बुद्ध के पास या नानक के पास या कबीर के पास या पलटू के पास आस्था का जन्म होता है। आस्था सदा जीवंत व्यक्ति के पास ही जागती है। बुझे दीयों से तुम अपने बुझे दीये को जलाओगे भी तो कैसे जलाओगे? कोई जला दीया चाहिए। उसके पास जाओगे तो ज्योति एक झपट में तुम्हारी बुझी बाती को पकड़ लेगी।
नाव मिली केवट नहीं, कैसे उतरै पार।।
कैसे उतरै पार, पथिक विश्वास न आवै।
लगै नहीं वैराग यार कैसे कै पावै।
यह जो वैराग्य है, यह जब तक कोई प्यारा न मिल जाए, कोई यार न मिल जाए--जिसको बुद्ध ने कल्याणमित्र कहा है, उसी को पलटू यार कह रहे हैं--जब तक कोई यार न मिल जाए, जब तक तुम उसकी यारी में डुबकी न लो, जब तक कोई कल्याणमित्र न मिल जाए, जब तक कोई प्रेमी न मिल जाए...गुरु यानी प्रेमी।
परमात्मा का तो तुम्हें पता नहीं है। परमात्मा तो बहुत दूर का किनारा है। लेकिन परमात्मा में होकर कोई आया हो, ऐसा जब तक यार न मिल जाए--‘लगै नहीं वैराग यार कैसे कै पावै’--तब तक वैराग्य का रंग नहीं लगता। तब तक तुम बातें वैराग्य की करते रहो, तब तक संन्यास का रंग नहीं लगता।
जो खुद रंगा हो, वही तुम्हें रंग सकेगा। जो खुद डूबा हो, वही तुम्हें डुबा सकेगा।
शराबी के पास बैठोगे तो उसके मुंह से शराब की गंध आती है। पक्का पता हो जाता है। फिर उसकी मस्ती दिखाई पड़ती है, उसके पैर डोलते मालूम पड़ते हैं। कहीं रखता पैर और कहीं पड़ते हैं। शराब के लिए कोई प्रमाण-पत्र थोड़े ही खोजने पड़ते हैं; शराबी की चाल बता देती है कि प्रमाण-पत्र है। शराबी का रंग-ढंग बता देता है। और जब यार मिल जाता है और यारी जम जाती है--यही तो शिष्य और गुरु का मिलन है: यारी का जम जाना। जब दो हृदयों के बीच ऐसा प्रेम पकड़ जाता है कि तुम्हें लगता है कि यह दूसरे किनारे हो आया, यह भरोसा जैसे-जैसे बढ़ने लगता है, वैसे-वैसे दूसरा किनारा करीब आने लगता है।
लगै नहीं वैराग, यार कैसे कै पावै।
तो नाव तो पड़ी है, लेकिन इसमें यार तो बैठा नहीं। शास्त्र तो रखा है, लेकिन शास्ता मौजूद नहीं है।
मन में धरै न ग्यान, नहीं सतसंगति रहनी।
इसलिए कहते हैं कि तुम जब तक सत्संगति न खोजोगे, तब तक कितना ही पढ़ो, कितना ही लिखो, कितना ही स्मृति को प्रांजल करो, भरो--कुछ सार न होगा।
मन में धरै न ग्यान, नहीं सतसंगति रहनी।
लोग ऐसे हैं कि मन में धारण नहीं करते हैं, बस केवल स्मृति में भरते हैं। इस फर्क को समझो। मेरी बात तुमने सुनी, तुम उस बात के साथ दो काम कर सकते हो। मेरी बात सुनी, तत्क्षण उसे स्मृति में रख लिया, फाइल किया, कहा कि कभी जरूरत होगी तो काम में ले आएंगे; किसी को समझाना होगा तो समझा देंगे; कोई पूछेगा अर्थ तो बता देंगे। तुमने अपने काम में नहीं लाए। तुमने रख दी कि किसी और के काम आ जाएगी। अधिकतर तुम्हारा ज्ञान ऐसा ही है।
एक दूसरी बात है, एक दूसरा ढंग है--वास्तविक ढंग--कि तुमने बात को समझा और पी गए और पचा गए। वह तुम्हारे मांस-मज्जा में समा गई। तुमने स्मृति न बनाई। तुमने उसका जीवन बना लिया।
मन में धरै न ग्यान,...
अधिक लोग ऐसे हैं कि मन में ज्ञान को इस तरह पचाते नहीं; बस पंडित रह जाते हैं। पंडित--अपच। पंडित का अर्थ होता है: जिसने खाया तो, लेकिन पचाया नहीं; जिसने भोजन तो कर लिया लेकिन मांस-मज्जा न बनी। इससे बीमारी पैदा होगी। इससे वमन होगा। इससे दस्त आएंगे। इससे शरीर स्वस्थ नहीं होगा। इससे शरीर को नुकसान पहुंचने वाला है।
और जैसे शरीर का भोजन है, ऐसे ही आत्मा का भोजन है ज्ञान। पचाओ
मन में धरै न ग्यान, नहीं सत्संगति रहनी।
और जब तक तुम सत्संगति में न जाओगे तब तक तुम समझ ही न पाओगे कि ये दो चीजें हैं--मन में धरना, पचाना, या स्मृति में रखना।
शास्त्र केवल स्मृति में रखा जा सकता है। सदगुरु ही केवल मन में धारा जा सकता है। शास्त्र तो केवल तुम्हारी जानकारी बनेगी। तुम्हें पता हो जाता है: वेद क्या कहते हैं ईश्वर के संबंध में। मगर ईश्वर क्या है?...उपनिषद क्या कहते हैं ईश्वर के संबंध में। लेकिन संबंध में जान लेना ईश्वर को जान लेना तो नहीं। ईश्वर को जानना तो बात और है।
बिना प्रेम किए तुम प्रेम के संबंध में बहुत कुछ जान ले सकते हो। पुस्तकालयों में किताबें प्रेम पर लिखी रखी हैं, तुम जाकर सब अध्ययन कर लो। तुमने कभी प्रेम नहीं किया, प्रेम के संबंध में तो जान लोगे; लेकिन इससे क्या तुम्हें प्रेम का जरा सा भी रस आएगा? प्रेम के अमृत की एक बूंद भी तुम्हारी जीभ पर पड़ेगी? स्वाद आएगा? नहीं, तुम पंडित हो जाओगे। चाहो तो थीसिस लिखो, कोई युनिवर्सिटी तुम्हें डॉक्टरेट दे देगी। युनिवर्सिटी यही काम करती है। तुम बड़े ज्ञानी हो जाओगे। शास्त्र लिख सकते हो। यह तुम्हारा शास्त्र वमन होगा। पहले तुम शास्त्र को पी गए, पचा नहीं; अब उसका वमन कर दिया; दूसरों की खोपड़ी पर डाल दिया।
लेकिन सदगुरु के बिना दूसरी घटना नहीं घटती। दूसरी घटना का अर्थ है, जब तुम किसी के साथ अपने जीवन का धागा जोड़ देते हो; जब तुम किसी के साथ अपनी गांठ बांध लेते हो। जैसे विवाह! जैसे किसी के साथ फेरे पड़ गए। इसलिए तो ‘यार’ कहते हैं पलटू। यह प्रेम का विवाह है। शिष्य विवाहित हो गया गुरु से। अब दोनों एक हो गए, रच-पच गए। तभी पाचन शुरू होता है।
मन में धरै न ग्यान, नहीं सतसंगति रहनी।
सत्संगति के बिना नहीं हो पाएगा, मन में ज्ञान नहीं प्रविष्ट होगा।
बात करै नहिं कान, प्रीति बिन जैसी कहनी।
और तुम तो ऐसे हो कि सुनते भी हो, तो भी कहां सुनते हो! पढ़ते भी हो तो कहां पढ़ते हो! पहले तो शास्त्र मुर्दा, मुर्दे को तो पढ़ रहे हो और फिर भी कहां पढ़ते हो! पढ़ना भी ऐसा ही है। मन हजार काम और करता है। एक तो पंडित को सुनने जाते और उसको भी कहां सुनते हो! तो पहले तो पंडित सुनते, तो भी तो शायद ही कोई लाभ होना था; फिर उसको भी कहां सुनते हो! पंडित बोले जाता है, तुम कुछ-कुछ सोचे जाते हो। यह तो तभी हो पाएगा, यह सुनना तो तभी हो पाएगा, जब मन का राग बैठ जाए; जब मन एक प्रेम में पड़ जाए।
प्रेम के अतिरिक्त कोई श्रवण नहीं है।
तो यारी पहले बननी चाहिए। प्रेम पहले बनना चाहिए, तब ज्ञान। प्रेम के पीछे आता है ज्ञान। और जिसने सोचा कि ज्ञान के पीछे प्रेम आएगा, वह भूल में पड़ा। उसने बैल पीछे बांध दिए गाड़ी के। यह गाड़ी अब कहीं जाएगी नहीं। प्रेम पहले आता है। भाव पहले आता है। हृदय पहले आता है--तब सिर। जिसने सोचा कि पहले सिर, फिर हृदय को ले आएंगे, वह कभी भी नहीं ला पाएगा। क्योंकि सिर तो हृदय के खिलाफ है और हृदय को कभी उमगने न देगा। सिर तो संदेह है। और हृदय है आस्था, श्रद्धा। तो सिर तो हजार उपाय करेगा संदेह खड़े करने के। सिर में तो संदेह ही लगता है। सिर से कभी श्रद्धा नहीं होती। श्रद्धा हृदय से होती है। सरलचित्तता चाहिए। विनम्रता चाहिए। अकड़ का अभाव चाहिए। प्रेम में पड़ने की हिम्मत चाहिए।
बात करै नहिं कान, प्रीति बिन जैसी कहनी।
बिना प्रेम के सब कहना व्यर्थ है; सब सुनना व्यर्थ है।
लगै नहीं वैराग यार कैसे कै पावै।
छूटि डगमगी नाहिं, संत को वचन न मानै।
डगमगी लगी रहती है सिर में तो, सिर तो दुविधा से भरा रहता है। सिर तो कहता है पता नहीं हो ठीक, न हो ठीक, ऐसा हो वैसा हो--सिर तो हजार बातें उठाता है। सिर का तो काम ही यही है, कि वह संदेह खड़ा करता है। जैसे वृक्षों में पत्तें लगते हैं, ऐसे सिर में संदेह लगते हैं।
छूटि डगमगी नाहिं,...
डगमग होता रहता है सब सिर के भीतर तो। सिर कभी अकंप नहीं होता। सिर तो कंपता ही रहता है। वहां भूकंप चलता ही रहता है। वहां भूकंप कभी बंद नहीं होता। हृदय में कभी कंप नहीं होता। हृदय निष्कंप है। वहां भूकंप जाता ही नहीं। जो हृदय में पहुंच गया, वह कंपन के पार हो जाता है। वहां संदेह पैदा नहीं होते। वहां श्रद्धा के कुसुम लगते हैं। वहां आस्था के कमल खिलते हैं। और सारा जीवन रूपांतरित हो जाता है।
छूटि डगमगी नाहिं, संत को वचन न मानै।
और डगमगी न छूटे तो संत का वचन कैसे मानोगे? संत के पास भी पहुंच गए भूल-चूक से, संयोगवशात, तो मान न सकोगे; सिर बीच में आड़े आ जाएगा, पत्थर की तरह खड़ा हो जाएगा, अड़चन बन जाएगा। संत का झरना भी बहता होगा तो तुम्हारे हृदय तक नहीं पहुंच पाएगा। सिर को उतार कर रखना होता है।
कबीर ने कहा है: अगर आना हो मेरे पास तो सिर को उतार कर जमीन पर रख दे। सिर को रखै उतार!
छूटि डगमगी नाहिं संत को वचन न मानै।
मूरख तजै विवेक, चतुराई अपनी आनै।।
और मूर्ख की बड़ी मूर्खता यह है कि वह सोचता है कि मैं बड़ा चतुर। मूर्ख की मूर्खता को बचाने का यही उपाय है कि वह सोचता है मैं बड़ा चतुर। वह कहता है, ऐसे हम किसी की बातों में आने वाले, कि ऐसे हम किसी पर श्रद्धा लाने वाले, कि ऐसे हम सम्मोहित होने वाले नहीं हैं, हम तो सोच-विचार करेंगे। हम तो सब तरह का हिसाब-किताब लगाएंगे! ऐसे प्रेम में पड़ जाएं? हम ऐसे नासमझ नहीं हैं, हम बड़े चतुर हैं!
पलटू कहते हैं:
मूरख तजै विवेक, चतुराई अपनी आनै।
इसी अपनी चतुराई में विवेक का अवसर खो देता है।
और विवेक और चतुराई में बड़ा फर्क है। चतुराई सिर्फ मूढ़ता है। विवेक तुम्हारी आत्मा का जागरण है। लेकिन जागे हुए से जुड़ो तो जागोगे। और यह चतुराई तुम्हें जागे हुए से जुड़ने नहीं देती। बुझा हुआ दीया चतुराई से भरा है, डगमग हो रहा है कि जाऊं पास न जाऊं, पता नहीं ठीक हो कि गलत हो, ऐसा हो वैसा हो! ज्योति भी दिखाई पड़ती है तो भी साहस नहीं जुटा पाता। पास न जाएगा तो चूक जाएगा। साहस चाहिए।
तो अक्सर ऐसा हो जाता है कि कभी-कभी साहसी लोग सत्य की संगति में उतर जाते हैं और कमजोर और तथाकथित समझदार लोग दूर ही खड़े रह जाते हैं। वे अपनी समझदारी में ही मर जाते हैं।
समझदारी से सावधान! क्योंकि समझदारी तुम्हारी मूढ़ता को छिपाने का उपाय है। एक बात सदा सोचना, एक बात सदा याद रखना: अगर तुम चतुर हो तो तुम्हारी जिंदगी में सबूत होना चाहिए। कहां है आनंद? कहां है रस? क्या पाया? कौन सी ज्योति है तुम्हारे भीतर? कौन सी सुगंध उठी? कौन सा संगीत बना? कौन सा नृत्य हुआ? उत्सव कहां है? चांदनी कहां है? अंधेरा ही अंधेरा भरा है, फिर भी तुम अपने को चतुर कहे चले जाते हो! और सब तरह की वासनाओं के सांप-बिच्छू भीतर सरक रहे हैं, फिर भी तुम अपने को चतुर कहे जाते हो! थोड़ा तो सोचो! थोड़ा तो विचारो! अगर चतुर ही होते तो तुम्हारी जिंदगी में परमात्मा का वास होता; तुम्हारी जिंदगी में आनंद होता; तुम्हारी जिंदगी में एक पुलक होती।
तुम्हारी जिंदगी में यह उदासी क्यों है? तुम्हारी जिंदगी में यह इतना ज्यादा रुग्ण भाव क्यों है? तुम हो कहां? धक्के खाते रहते भीड़ में--यहां से वहां, इस जन्म से उस जन्म में, इस यात्रा से उस यात्रा में। पहुंचे कहां हो? मंजिल कहां है? पास भी आती नहीं मालूम होती और कहते हो चतुर हो।
अगर चतुर हो तो जीवन में प्रमाण चाहिए। और अगर जीवन में प्रमाण न हों तो कृपा करके इस चतुराई को उतार कर रख दो। यह चतुराई नहीं है; यह वस्तुतः विवेक से बचने का उपाय है। यह मूढ़ता की तरकीब है। यह तुम्हारा अज्ञान तुम्हें चतुराई का धोखा देकर अपने को बचा रहा है। मूरख तजै विवेक, चतुराई अपनी आनै।
पलटू सतगुरु सब्द का, तनिक न करै विचार।
वह अपनी-अपनी मारता रहता है, अपनी-अपनी लगाता रहता है।
पलटू सतगुरु सब्द का, तनिक न करै विचार।
नाव मिली केवट नहीं, कैसे उतरै पार।।
और जब तक तुम सदगुरु के वचन का विचार न करोगे, जब तुम अपनी अकड़ हटा कर, अपने उपद्रव को शांत करके, अपने को दूर करके, अपने को बीच से हटा कर--कहोगे कि अब मैं सीधा विचार करना चाहता हूं। मेरी जिंदगी तो बेकार गई तो एक बात सच है कि मेरे पास कोई विवेक नहीं है। मैं तो भटका ही भटका। घाव ही घाव इकट्ठे किए हैं। यह मेरी जिंदगी रही है। अब बहुत भटक चुका। अब मैं कहता हूं कि अब अपनी समझ से क्या चलना। अपनी समझ से चल कर खूब देख लिया, कहां पहुंचा?
मनोवैज्ञानिक कहते हैं--मनस्विद कहना चाहिए--पूरब के मनस्विद कहते हैं कि छोटा बच्चा अगर अपनी चतुराई की बात हांके, क्षमायोग्य है, क्योंकि उसे अभी जीवन का कोई अनुभव नहीं है। लेकिन उम्र पाकर भी अगर तुम अभी अपनी चतुराई की हांको तो तुम बड़े अज्ञानी हो; तुम क्षमा भी नहीं किए जा सकते। उम्र पाकर तो दिखाई पड़ जाना चाहिए कि मेरी चतुराई का परिणाम क्या है। और वह परिणाम दिखाई पड़ जाए तो एक घटना घटती है: तुम्हें अपनी बुद्धि पर संदेह आ जाता है, बस। तुम्हारे जीवन में परमात्मा के आगमन का पहला कदम पड़ा--अपनी बुद्धि पर संदेह। जब अपनी बुद्धि पर संदेह आता है तो सदगुरु पर आस्था आती है। जब तक तुम सोचते हो अपने से ही तर जाएंगे, तब तक तुम क्यों किसी का हाथ पकड़ोगे! तब तक तुम यारी में न पड़ोगे।
नाव मिली केवट नहीं, कैसे उतरै पार।
फिर तुम्हारी चतुराई तुम्हें ज्यादा से ज्यादा शास्त्र तक ले जा सकती है, नाव तक पहुंचा सकती है। लेकिन केवट? केवट तो यारी से मिलता है। तुम्हारी चतुराई तुम्हें किताब तक ले जा सकती है। तो लोग किताब बड़े मजे से पढ़ते हैं। ऐसे बहुत लोग हैं, लाखों लोग हैं जो मेरी किताबें पढ़ते हैं। यहां नहीं आते। मुझे पत्र भी लिखते हैं कि हम आपकी किताबें पढ़ते हैं और बड़ा आनंद आता है; लेकिन आने में संकोच है, आने में डर है, कि आने की अभी हिम्मत नहीं है; आना चाहते हैं मगर अभी हिम्मत नहीं।
क्या डर होगा आने में?
यारी बनाने में डर है।
प्रेम खतरनाक बात है। प्रेम बन जाएगा तो तुम्हारी जिंदगी फिर वैसी ही न रह जाएगी। किताब के साथ कोई खतरा नहीं है; किताब तुम पढ़ लेते हो और ताक पर रख देते हो। किताब तुम्हारी हो गई। मेरी क्या है? तुमने खरीद ली तुम्हारी हो गई। तुम जहां चाहो वहां लकीरें लगाओगे; जहां चाहो काट दोगे, जहां चाहो लाल निशान लगा दोगे; तुम जो चाहो अर्थ कर लोगे। किताब तुम्हारी हो गई। मेरा उसमें क्या रहा? मेरा तो मेरे पास आओगे तो ही पता चलेगा।
साहिब वही फकीर है जो कोई पहुंचा होय।
जो दूसरा पार हो आया है, वही फकीर है।
अब फकीर का अर्थ समझो। लोग समझते हैं फकीर का अर्थ है, जिसने संसार छोड़ दिया। यह नहीं है फकीर का अर्थ। जो पहुंचा होय! संसार छोड़ देने से क्या होता है? ऐसे तो बहुत फकीर हैं। जिनके पास कुछ नहीं था वे भी छोड़-छाड़ कर फकीर हो गए हैं। कुछ था ही नहीं, छोड़ने की कोई झंझट भी नहीं थी। और फकीर होने का मजा ले रहे हैं।
सौ में निन्यानबे तुम्हारे फकीर और साधु और संन्यासी और महात्मा नकारात्मक फकीर हैं। संसार छोड़ दिया है, लेकिन परमात्मा पाया या नहीं? संसार छोड़ना थोड़े ही पर्याप्त परिभाषा है। शायद संसार छोड़ना इतना ही हो सकता है, जैसे एक आदमी बगीचा लगाना चाहे, जमीन साफ करे, कांस उखाड़ कर फेंक दे, घास-पात को काट दे, जला दे, जड़ें घास-पात की निकाल कर जमीन को शुद्ध कर ले, पानी छिड़क दे और बैठ जाए और कहे कि बगीचा तैयार हो गया। यह कोई बगीचा हुआ? ठीक है जमीन तैयार हो गई, मगर अभी बगीचा तो तैयार होना है। जमीन तैयार हो गई, अच्छा हुआ। मगर इसको ही बगीचा मत मान लो। नहीं तो इस खाली जमीन में गुलाब के फूल न खिलेंगे। इस खाली जमीन में देर-अबेर फिर संसार का कांस उग आएगा।
एक मजे की बात खयाल रखना, गुलाब का फूल अपने आप नहीं उगता, घास-पात अपने आप उगता है। घास-पात को लाना नहीं पड़ता कि तुम जाओ, बीच बाजार से खरीद कर लाओ, तब उगेगा। तुम बैठे भर रहो जमीन साफ करके, वह अपने से उग जाएगा। जमीन साफ कर ली तो और ढंग से उगेगा, क्योंकि पत्थर इत्यादि सब अलग हो गए, अब बड़े मजे से उगेगा। तुम जल्दी ही पाओगे जमीन हरी हो गई। गुलाब अपने से नहीं उगेगा। गुलाब को तो लगाना पड़ता है।
फकीर की ठीक परिभाषा पलटू कर रहे हैं: साहिब वही फकीर है जो कोई पहुंचा होय! जिसके जीवन में गुलाब के फूल खिले हों, परमात्मा खिला हो, वह फकीर है। संसार छोड़ देना पर्याप्त नहीं है। परमात्मा पाना जरूरी है। यह विधायक परिभाषा हुई। नकार से परिभाषा नहीं करनी चाहिए।
ऐसा समझो कि एक आदमी है, कोई पूछे कि यह आदमी आंख वाला है, इसकी क्या परिभाषा? तुम कह सकते हो: क्योंकि यह अंधा नहीं है। यह तो ठीक बात हो गई कि जो अंधा नहीं है वह आंख वाला होना चाहिए। लेकिन जो अंधा नहीं है वह भी आंख बंद किए बैठा हो सकता है। आंख पर पट्टी बांधी हो सकती है। जो अंधा नहीं है वह भी सोया हो सकता है। तो भी आंख वाला नहीं है। आंख वाला तो वही है जिसे दिखाई पड़ता है। और कोई परिभाषा से काम न चलेगा। अंधा नहीं है, इतनी नकारात्मक परिभाषा काफी नहीं है। अंधा नहीं है, यह तो ठीक है, कामचलाऊ परिभाषा हो गई।
फकीर वह जिसने संसार छोड़ा, यह ऐसे ही है जैसे आंख वाला वह जो अंधा नहीं है। आंख वाला वह, जिसे दिखाई पड़ता है, जिसे दर्शन होता है। अंधा नहीं होने से क्या होता है? आंख रहते भी आदमी आंख बंद किए बैठे रहते हैं, तो भी दिखाई नहीं पड़ेगा। संसार छोड़ दिया, यह तो ठीक है; लेकिन परमात्मा दिखाई पड़ा या नहीं, असली बात तो वहां तय हो गई।
साहिब वही फकीर है जो कोई पहुंचा होय।।
जो कोई पहुंचा होय, नूर का छत्र विराजै।
जिसके चारों तरफ परमात्मा की रोशनी हो; जिसकी रोशनी दूसरों को भी अनुभव हो; जिसके आस-पास रोशनी का छत्र हो, आभामंडल हो; जो ज्योति से जगमग हो; जिसके छोटे से दीये में सूरज उतरा हो।
जो कोई पहुंचा होय, नूर का छत्र विराजै।
सबर-तखत पर बैठि, तूर अठपहरा बाजै।।
और जो संतोष के सिंहासन पर विराजमान हो। सबर...सब्र...संतोष।
सबर-तखत पर बैठि,...
जिसे तुम पाओ कि जो संतोष के तख्त पर बैठा है, परितुष्ट है; जिसे अब न कहीं जाना न कहीं कुछ पाना--पा लिया जो पाना था। परमात्मा पाने के बाद और क्या पाने को बचता है? तो जिसने परमात्मा पा लिया उसको कुछ पाने को नहीं बचता। पाने की दौड़ गई, आपा-धापी समाप्त हुई।
सबर-तखत पर बैठि, तूर अठपहरा बाजै।
और जिसके पास आठों पहर संगीत का नाद हो रहा हो, निनाद बज रहा हो, उत्सव चल रहा हो, रस बह रहा हो--तूर अठपहरा बाजै! जिसके पास अगर तुम चुप होकर बैठ जाओ तो तुम अपूर्व संगीत में डूबने लगो। जिसके पास अगर तुम शांत होकर बैठ जाओ तो डोलने लगो, जैसे सांप डोलता है तुरही को सुन कर।
तूर अठपहरा बाजै, सबर-तखत पर बैठि।
यह परिभाषा कर रहे हैं वे।
कौन है केवट? किसको सदगुरु चुनोगे? देखना संतोष। जांचना संतोष से।
बड़ी अदभुत बात कह रहे हैं और बड़ी गहरी बात कह रहे हैं। कुछ और बात से तय नहीं होता। अगर तुम एक महात्मा के पास जाओ और तुम पाओ कि वह अभी भी खोज रहा है परमात्मा को, अभी भी साधना में लगा है, अभी भी योग-प्राणायाम साध रहा है, अभी भी शीर्षासन, सर्वांग-आसन कर रहा है, अभी भी ध्यान, पूजा, पाठ कर रहा है--तो समझना अभी सबर-तखत पर बैठा नहीं, अभी सब्र नहीं हुआ, अभी संतोष नहीं हुआ, अभी मिलना नहीं हुआ।
परमात्मा से मिलने के बाद फिर शीर्षासन करोगे? परमात्मा की मजाक उड़ानी है? उसके सामने सिर के बल खड़े होओगे? कि परमात्मा से मिलने के बाद पूजा-पाठ करोगे! अब क्या पूजा-पाठ? कि परमात्मा से मिलने के बाद मंदिर-मस्जिद जाओगे! अब कैसा मंदिर, कैसी मस्जिद? अब तो सभी उसका हो गया।
फकीर बायजीद के संबंध में कहा है कि वह रोज मस्जिद जाता था। वर्षों से जाता था। बीमार हो तो भी जाता था। कभी चूकता ही नहीं था। पांचों नमाज मस्जिद में करता था। लोग तो यह भूल ही गए थे कि बायजीद के बिना और मस्जिद हो सकती है। गांव नहीं छोड़ता था, क्योंकि दूसरे गांव जाए, मस्जिद न हो, रास्ते में रुकना पड़े, मस्जिद न हो, तो वह गांव नहीं छोड़ता था। तो एक दिन मस्जिद नहीं आया। सुबह जो लोग मस्जिद पहुंचे नमाज पढ़ने, वे चौंके। उन्होंने कहा: सिवाय इसके कि वह मर गया हो, और तो कोई बात है नहीं। जल्दी-जल्दी नमाज पूरी करके भागे हुए बायजीद के घर पहुंचे। वह अपने बैठे हैं एक झाड़ के नीचे, एकतारा बजा रहे थे। उन्होंने पूछा: बायजीद क्या अब बुढ़ापे में दिमाग खराब हुआ? जिंदगी भर नमाज की, अब छोड़ते हो? बायजीद ने कहा: जब तक की, जब तक पाया नहीं, अब क्या खाक करें? अब क्या कहां जाएं? अब एकतारा बजाते हैं।
वह एकतारा प्रतीक है।
तूर अठपहरा बाजै,...
ध्यान अगर अभी भी करते हो, तो फिर अभी पहुंचे नहीं। जो पहुंच गया वह ध्यान हो गया, अब कैसे ध्यान करें। जो पहुंच गया वह पूजा हो गया, उसका जीवन अर्चना हो गई। इसलिए कबीर कहते हैं: ‘उठूं-बैठूं सो परिक्रमा।’ अब मैं कैसे मंदिर की परिक्रमा करने जाऊं? अब तो उठना-बैठना वही परिक्रमा है, क्योंकि जब भी उठता हूं उसी के पास उठता हूं; जब भी चलता हूं उसी के पास चलता हूं। खाऊं-पीऊं सो सेवा! अब कैसे मंदिर में जाकर भोग लगाऊं भगवान को? मैं खाता हूं, उसी की सेवा हो जाती है, क्योंकि वही खा रहा है।
सुनते हो--‘खाऊं-पीऊं सो सेवा।’
सबर-तखत पर बैठि, तूर अठपहरा बाजै।
तम्बू है असमान, जमीं का फरस बिछाया।
अब कहां छोटे-मोटे मंदिर-मस्जिद की जरूरत रही!
तम्बू है असमान, जमीं का फरस बिछाया।
छिमा किया छिड़काव,...
जैसे कि कोई तैयारी करता है, कोई मेहमान आ रहा है, कोई बड़ा मेहमान आ रहा है--तो तुम छिड़काव करते हो जल का बगीचे में, जमीन पर धूल बैठ जाए, तंबू तानते। पलटू कहते हैं: अब आकाश का तंबू ही एकमात्र तंबू है और पूरी जमीन अपना फर्श है। और अब पानी से क्या सींचना, अब तो क्षमा से सींचते हैं। क्षमा प्रेम की एक अभिव्यक्ति है। अब तो प्रेम से सींचते हैं। अब तो क्षमा से सींचते हैं।
छिमा किया छिड़काव, खुशी का मुस्क लगाया।
और अब कौन सी इत्र लगाएं, अब कौन सा मुश्क लगाएं, अब कौन सी सुगंध? खुशी का मुस्क लगाया! अब तो चौबीस पहर, सोते-जागते, आनंद का भाव उठ रहा है, आनंद की लहरें चल रही हैं, आनंद की तरंगें चल रही हैं। यही सुगंध है।
नाम खजाना भरा, जिकिर का नेजा चलता।
साहिब चौकीदार, देखि इबलीसहुं डरता।।
अब तो बड़ी गजब की बात हो रही है। वे कहते हैं, फकीर कौन? साहिब वही फकीर है जो कोई पहुंचा होय! और जब कोई पहुंच जाता है तो खुद पहरा नहीं देना पड़ता अपने जीवन पर। खुद साहिब, खुद भगवान पहरा देता है। फिर तुम्हें अपनी फिकर नहीं रखनी पड़ती कि यह करूं, यह करूं, न करूं; यह करना ठीक है कि गलत कि सही--फिर ये सब बातें गईं, अच्छा-बुरा गया।
साहिब चौकीदार देखि इबलीसहुं डरता।
अब तो शैतान खुद ही डरता है क्योंकि वह साहिब चौकीदार हो गए हैं। अब तो परमात्मा फिकर करता है।
तुमने वह प्यारी कहानी सुनी न, कि तुलसीदास सोते हैं और धनुर्धारी राम द्वार पर खड़े होकर पहरा देते हैं! वह प्रतीकात्मक है। जिसने सब परमात्मा पर छोड़ दिया उसकी चौकीदारी परमात्मा करता है। तुम जब तक अपनी चौकीदारी खुद करते हो, खतरे में हो। तब तक शैतान तुम्हें सताएगा और शैतान तुमसे जीतेगा। तुम शैतान से क्या बचोगे? उसके रास्ते बड़े सूक्ष्म हैं।
नाम खजाना भरा,...
और अब तो एक ही खजाने में बात रह गई है: उसका नाम, उसकी स्मृति, उसका स्मरण। बस इतना ही धन है अब। यह ध्यान ही धन है।
नाम खजाना भरा, जिकिर का नेजा चलता।
और अब तो चौबीस घंटे उसके स्मरण का भाला ही चलता रहता है। अब तो चौबीस घंटे श्वास-श्वास में जिकिर है, नामस्मरण है, प्रार्थना है। यह करनी नहीं पड़ती, यह अपने से हो रही है।
संत वही जिसमें प्रार्थना अपने से हो रही हो--जिसके होने में प्रार्थना हो; जिसके उठने-बैठने में प्रार्थना हो; जिसकी आंखें झपकें तो पूजा हो जाए; जिसके पास तुम जाओ तो तुम्हें परमात्मा पहरा देता हुआ मालूम पड़े।
पलटू दुनिया दीन में, उनसे बड़ा न कोय।
पलटू कहते हैं: फकीर से बड़ा कोई भी नहीं है--न इस दुनिया में, न उस दुनिया में।
पलटू दुनिया दीन में, उनसे बड़ा न कोय।
साहिब वही फकीर है, जो कोई पहुचा होय।।
ऐसे किसी फकीर का हाथ पकड़ो, यारी करो, तो केवट मिले, तो माझी मिले, तो उस पार उतर पाओ। अपने से न पहुँच पाओगे। अपने से पहुंचने की धुन में इसी किनारे अटके रह गए हो जन्मों-जन्मों से। अबहूं चेत गंवार! अब चेतो!
लहना है सतनाम का, जो चाहै सो लेय।
और लाभ तो एक ही है दुनिया में, धन तो एक ही है दुनिया में।
लहना है सतनाम का, जो चाहै सो लेय।
प्रभु के स्मरण के अतिरिक्त और कोई धन नहीं है, और कोई लाभ नहीं है! फिर जिसको लेना हो ले ले। रुकावट जरा भी नहीं है। कोई रोक नहीं रहा है; तुम अपने ही हाथ से नहीं ले रहे हो। इसे खयाल में रखना।
जीसस ने कहा है: नॉक एंड दि डोर शैल बी ओपन्ड अनटु यू। आस्क एंड इट शैल बी गिवेन। मांगो और मिलेगा। खटखटाओ और द्वार खुल जाएंगे।
राबिया ने तो कहा है: द्वार बंद ही नहीं हैं, खटखटाओ भी मत, आंख खोलो। द्वार खुले हैं।
सूफी फकीर हसन रोज कहा करता था: प्रभु, द्वार खोल! प्रभु, द्वार खोल! बहुत देर हो गई, द्वार खोल। मैं तड़प रहा हूं। रोता, छाती पीटता।
एक दफा वह राबिया के घर ठहरा। वह वही जो करता था रोज सुबह से, उसने किया। प्रार्थना की, फिर रोने लगा, छाती पीटने लगा, भावविह्वल--कि हे प्रभु, द्वार खोल। राबिया ने एक दिन सुना, दो दिन सुना, तीन दिन सुना। तीसरे दिन वह आई। उसने कहा कि बंद कर यह बकवास! द्वार खुले हैं। आंख खोल!
और कहते हैं हसन जागा। जिंदगी भर से वह यह ही मचाए हुए था कि प्रभु द्वार खोल। राबिया की यह चोट कि नासमझ, क्या बकवास लगा रखी है, आंख खोल! द्वार तो खुले ही हैं।
कहते हैं पलटू:
लहना है सतनाम का, जो चाहै सो लेय।
जिसने चाहा उसे मिला। किसी क्षण मिला, जिस क्षण चाहा। एक क्षण की भी देर नहीं होती। मगर तुम चाहते ही नहीं। तुम कुछ कूड़ा-कचरा चाहते हो। कोई धन के लिए दौड़ रहा है, कोई पद के लिए दौड़ रहा है। परमात्मा के लिए कौन दौड़ता है! कभी-कभी तुम परमात्मा की याद भी करते हो तो पद के लिए; चुनाव में खड़े हो गए तो जाकर हनुमान जी को समझाते हो कि महाराज, जरा खयाल रखना। नारियल चढ़ाऊंगा! जब चुनाव में खड़े हो गए तो हनुमान-चालीसा पढ़ने लगते हो, मस्जिद-मंदिर, पूजा-पाठ करने लगते हो। साधु-संतों के पास जाने लगते हो।
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं कि महाराज, चुनाव में खड़े हैं, आशीर्वाद चाहिए!
मुझे क्यों झंझट में डालते हो? तुम पाप करो, मुझको भी फंसाओगे? जिस दिन चुनाव छोड़ना हो, उस दिन आ जाना, मैं आशीर्वाद दे दूंगा। मगर यह चुनाव के लिए तो आशीर्वाद मत लो। क्योंकि फिर तुम जो करोगे, उसका भी जिम्मा मेरा हो जाएगा। मेरा कोई हाथ नहीं है इसमें।
वे बड़े हैरान होते हैं, क्योंकि और साधु-संतों के पास जाते हैं, वे तो जल्दी से आशीर्वाद देने को तैयार हैं। आशीर्वाद देने में लगता ही क्या है किसी को! मिलने वाले को मिल गई आशा और देने वाले का कुछ जाता नहीं।
तुम कभी परमात्मा की याद भी करते हो तो गलत कारणों से करते हो। उसकी याद तो बस उसी के लिए की जानी चाहिए; कोई और हेतु नहीं होना चाहिए।
लहना है सतनाम का, जो चाहै सो लेय।
जो चाहै सो लेय, जाएगी लूट ओराई।
और बहुत देर मत करो, कहीं ऐसा न हो कि दूसरे लूट लें; सब लुट ही जाए और तुम ऐसे ही बैठे रह जाओ!
जो चाहै सो लेय, जायगी लूट ओराई।
तुम का लुटिहौ यार, गांव जब दहिहै लाई।
और क्या तुम बैठे-बैठे तब की राह देख रहे हो जब सब पूरा गांव लूट लेगा, तब? तुमने कोई ऐसी जिद्द बांध रखी है कि जब सब लोग लूट चुकेंगे, तब आखिरी में हम।
तुम का लुटिहौ यार, गांव जब दहिहै लाई।
ताकै कहा गंवार, मोठभर बांध सिताबी।
इसलिए पलटू कहते हैं कि गंवार, इसलिए तुझको गंवार कहना पड़ रहा है कि तू काहे के लिए रुका है, पूरा गांव लूट लेगा तब तू लूटेगा?
ताकै कहा गंवार,...
इसलिए मजबूरी है, तुझे गंवार कहना पड़ रहा है कि देर मत कर, जल्दी से खोल अपनी गठरी, और बांध लें, और जितना बांध सके बांध ले।
ताकै कहा गंवार, मोठभर बांध सिताबी।
जल्दी कर और जल्दी से अपनी गठरी बांध ले, अपने हृदय को भर ले परमात्मा से। किस प्रतीक्षा में रुका है?
लूट में देरी करै, ताहि की होय खराबी।
जो देर करेगा वह व्यर्थ ही दुख पाता है। क्योंकि जब तक तुमने नहीं लूटा परमात्मा को तब तक तुम दुख में रहोगे, नरक में रहोगे।
लोग सोचते हैं नरक कहीं और हैं। तुम जहां हो, यह नरक है। जब तक परमात्मा नहीं लूटा, तब तक तुम नरक में हो। यह भी खूब मजेदार तरकीब पंडितों ने खोजी है कि नरक कहीं दूर, जमीन के पाताल में! तुम कभी जाओगे नरक में, यह भी खूब मजेदार तरकीब है। इससे तुम निश्चिंत हो गए हो। तुम कहते हो, हम थोड़े ही हैं नरक में!
नरक में तुम हो।
मैंने सुना है, एक आदमी मरा, जब वह नरक पहुंचा तो बड़ा हैरान हुआ, वहां तो हालतें बड़ी अच्छी थीं। तो उसने पूछताछ की, शैतान के पास गया कि हमने तो बड़ी बदनामी सुनी है नरक की, यहां की हालतें तो बड़ी अच्छी हैं। पृथ्वी पर हालतें इससे ज्यादा खराब हैं।
शैतान ने कहा कि वह पंडितों की तरकीब है, अन्यथा असलियत यही है कि नरक वहीं है।
तुम जरा देखो तो अपने चारों तरफ, अपने भीतर, अपने बाहर। और क्या नरक होगा? और क्या बुरा हो सकता है? इससे ज्यादा और क्या पीड़ा हो सकती है, जिसमें तुम गुजर रहे हो? जब तक परमात्मा नहीं है, तब तक नरक है। इसलिए कहते हैं पलटू:
लूट में देरी करै, ताहि की होय खराबी।
ताकै कहा गंवार, मोठभर बांध सिताबी।।
जल्दी कर, बांध ले अपनी गठरी।
बहुरि न ऐसा दांव, नहीं फिर मानुष होना।
क्योंकि हजारों-हजारों जन्मों के बाद आदमी मनुष्य होता है। चौरासी कोटियों के बाद आदमी मनुष्य होता है। चौरासी करोड़ योनियों के बाद एक बार आदमी उस वर्तुल में आता है, उस जगह आता है जहां मनुष्य होता है। जैसे चाक घूमता है न! जब पूरा चाक घूम जाता है, तब फिर आरा ऊपर आता है; फिर गया नीचे, तो फिर पूरा चाक घूमेगा तब ऊपर आएगा।
पूरब के मनीषियों ने संसार को गाड़ी के चाक की तरह देखा है। वह जो भारत के ध्वज पर चाक का निशान है, वह जिन्होंने चुन कर रखा है, उनको शायद अंदाज भी न हो कि वह किसलिए चाक का निशान है। वह बौद्ध चक्र है। वह अशोक ने अपने पत्थरों पर खुदवाया था। प्रतीक है वह संसार का कि यहां सब चीज घूम जाती है। पूरा घूमना पड़ता है। फिर एक दफे चूके ऊपर आकर, तो फिर पूरा चक्कर है। फिर पूरा चाक जब होगा, तब फिर दोबारा लौटोगे। न मालूम कब दुबारा आदमी होओगे। बहुरि न ऐसा दांव! फिर दुबारा दांव मिले न मिले, अवसर आए न आए, या कब आए!
बहुरि न ऐसा दांव, नहीं फिर मानुष होना।
क्या ताकै तू ठाढ़, हाथ से जाता सोना।।
और तू खड़ा-खड़ा क्या कर रहा है? क्या ताक रहा है? दिखाईगीर क्यों बना है? तमाशबीन क्यों बना है? लूट ले! अजहूं चेत गंवार!
बहुरि न ऐसा दांव, नहीं फिर मानुष होना।
क्या ताकै तू ठाढ़, हाथ से जाता सोना।।
पलटू मैं ऊरिन भया, मोर दोस जिन देय।
लहना है सतनाम का जो चाहै सो लेय।।
पलटू कहते हैं: और खयाल रखना, मुझे जो कहना था मैंने कह दिया, मैं उऋण हुआ। मुझे मिल गया। इतना और ऋण बचा था।
जिस व्यक्ति को भी मिलता है, उस पर इतना ऋण बचता है कि वह दूसरों को भी कह दे। पलटू कहते हैं: मैंने अपनी गठरी भर ली, खूब दिल भर कर भर ली, कुछ कमी नहीं छोड़ी, संतोष के तखत पर विराजमान हो गया हूं। तूर अठपहरा बाजै! इतना ऋण और बचा था कि तुमसे कह दूं कि कैसे मैंने लूटा, कैसे मैंने पाया और कैसे पाकर मैं धन्यभागी हुआ।
पलटू मैं ऊरिन भया,...
अब मेरी झंझट मिटी। मुझसे मत कहना पीछे। मैंने ऋण चुका दिया।
...मोर दोस जिन देय।
इसलिए मुझे कोई भूल कर भी दोष न दे पीछे, फिर मुझसे मत कहना कि पलटू, तुम्हें मिल गया और हमको खबर न दी। हम तुम्हारे पास ही थे, हमें बता तो देते कि खजाना इतने करीब है। तुमने खोद भी लिया, गठरी भी भर ली, बैठ भी गए सिंहासन पर, आनंद में मगन भी हो गए--और हम भटकते ही रहे और अंधेरे में टटोलते ही रहे। हमें खबर तो दे देते, पुकार तो दे देते। जरा हमें चेता तो देते। फिर मुझसे मत कहना, मुझे दोष मत देना।
पलटू बड़ी प्यारी बात कह रहे हैं।
पलटू मैं ऊरिन भया, मोर दोस जिन देय।
लहना है सतनाम का, जो चाहै सो लेय।।
न, अब मैंने सब दरवाजा खोल दिया है, सीधी-सीधी बात कह दी है कि यह पड़ा है सतनाम का लहना, यह प्रभु-स्मरण का धन है, जिसको लेना हो ले ले। फिर पीछे मुझसे मत कहना कि हमको खूब भटकाया; बता देते तो न भटकते।
पलटू के इन वचनों पर ध्यान करो। तुम्हारा जीवन नरक है। खड़े-खड़े क्या देख रहे हो? कब तक देखते रहोगे? पत्थर की मूरत हो गए हो। थोड़े हिलो-चलो। थोड़े उठो। थोड़े जीवन को गति दो। प्रभु सामने खड़ा है। प्रभु चारों तरफ विराजमान है। इसकी स्मृति को जगाओ। इस आह्लाद को अपने भीतर उतरने दो। यह किरण तुम्हारे भीतर जाना चाहती है। यह किरण तुम्हारे अंधेरे को तोड़ना चाहती है। यह सूरज तुम्हारे भीतर प्रभात बनना चाहता है। आंख खोलो।
और ऐसे भी बहुत देर हो चुकी है। कितने जन्मों से तुम भटक रहे हो! कितनी लंबी यात्रा तुमने की है! और सिर्फ धूल-धवांस के अतिरिक्त तुम्हारे हाथ कुछ भी न लगा। धन लगा ही नहीं। धन लगता ही नहीं हाथ, जब तक ध्यान न लगे।
ध्यान कुंजी है धन की--असली धन की। असली धन यानी जो मिल जाए तो फिर कभी खोता नहीं। यह धन तो मिल-मिल कर खो जाता है। यह धन तो मिला भी तो न मिला, बराबर है। धनी होकर भी, तुम देखते नहीं, लोग कितने गरीब हैं! सब है उनके पास और भीतर कुछ भी नहीं है। भीतर कोरा सन्नाटा और अंधेरा है; रुदन और आंसू भरे हैं। बाहर तिजोरी भरती चली गई है और भीतर आत्मा खाली होती चली गई है। जितनी तिजोरी भर ली है उतनी ही आत्मा बेच डाली है।
जीसस ने कहा है: अपनी आत्मा को बेच कर अगर तूने सारे संसार को भी पा लिया तो क्या? तूने बड़ा गलत सौदा कर लिया।
जागो! थोड़ा होश सम्हालो! थोड़े से कदम ठीक--और मंजिल दूर नहीं! थोड़ा होश अडिग--और मंजिल दूर नहीं है! थोड़ी श्रद्धा की स्फुरणा--और मंजिल दूर नहीं है! और नाव की पूजा में मत लगे रहना, माझी को खोजो।
लहना है सतनाम का, जो चाहै सो लेय।
न कोई रोक रहा है, न कोई पहरा है। न कोई कीमत मांग रहा है। मुफ्त मिल रहा है सब, मुफ्त लूटा जा रहा है परमात्मा।
लहना है सतनाम का, जो चाहै सो लेय।।
जो चाहे सो लेय, जाएगी लूट ओराई।
तुम का लुटिहौ यार, गांव जब दहिहै लाई।
ताकै कहा गंवार, मोठभर बांध सिताबी।
लूट में देरी करै, ताहि की होय खराबी।
बहुरि न ऐसा दांव, नहीं फिर मानुष होना।
क्या ताकै तू ठाढ़, हाथ से जाता सोना।।
पलटू मैं ऊरिन भया, मोर दोस जिन देय।
लहना है सतनाम का, जो चाहे सो लेय।।
आज इतना ही।

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